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कविता शुक्रवार 5: अरुण देव की नई कविताएँ

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‘कविता शुक्रवार’ में इस बार अरुण देव की कविताएं और युवा चित्रकार भारती दीक्षित के रेखांकन हैं।
अरुण देव का जन्म सन बहत्तर के फरवरी माह की सोलह तारीख़ को कुशीनगर में हुआ, जो बुद्ध का महापरिनिर्वाण स्थल और अज्ञेय की जन्मभूमि है। पितामह रंगून के पढ़े लिखे थे। वे एक स्टेट में मुलाज़िम थे और अंग्रेजी, फ़ारसी, अरबी, उर्दू के गहरे जानकार और शिकार और शिकारी साहित्य के शौकीन, आनंद मार्गी थे। आनंद मार्गियों के बांग्ला प्रभाव में नाम पड़ा अरुण देव। घर में लकड़ी के बड़े-बड़े बक्सों में किताबें ही दिखती थीं। गंभीर और लोकप्रिय दोनों। मैन ईटर ऑफ़ कुमाऊ वहीं से मिली। कल्याण के प्रारम्भिक अंक और इब्ने शफ़ी के जादुई उपन्यास भी। वात्स्यायन का भाष्य बचपने में पढ़ लिया था। अरुण देव की पढने की लत असीम थी। चंपक, नन्दन, पराग, सुमन सौरभ. सभी तरह के कामिक्स, राजन इकबाल की पूरी सीरिज के बाद कर्नल रंजीत, वेद प्रकाश शर्मा,ओम प्रकाश शर्मा, जेम्स हेडली चेइज, सुरेन्द्र मोहन पाठक आदि आदि। उस कस्बे में उपलब्ध लगभग सभी तरह का साहित्य दसवीं तक उन्होंने पढ़ लिया था। स्पीड इतनी कि एक दिन में दो उपन्यास। पहला साहित्यिक उपन्यास उन्होंने शिवानी का ‘श्मशान चम्पा’ पढ़ा था। वे विज्ञान के विद्यार्थी रहे। कुछ दिलफरेब कारणों से कला में आ गए और फिर हिंदी के हुए। जेएनयू से उच्च शिक्षा प्राप्त की। कविताओं की एक डायरी वर्ष ९४ में तैयार हो गयी थी। पहली कविता ‘वागर्थ’ में प्रभाकर श्रोत्रिय ने छापी। फिर २००४ में ज्ञानपीठ से पहला कविता संग्रह- ‘क्या तो समय’ प्रकाशित हुआ। कवि केदारनाथ सिंह उनकी कविताओं में रुचि लेते थे। इसका फ्लैप भी उन्होंने ही लिखा था।
दूसरा संग्रह दस साल बाद राजकमल से आया- ‘कोई तो जगह हो’। जिसे ‘राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त राष्ट्रीय सम्मान’ प्राप्त हुआ। २०२० में तीसरा संग्रह ‘उत्तर पैगम्बर’ राजकमल से ही प्रकाशित हुआ है। उनकी कविताओं के अनुवाद असमी, कन्नड़, तमिल, मराठी, नेपाली, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में हुए हैं। आई. आई. टी. (कानपुर), भारत भवन (भोपाल), साहित्य अकादेमी, पोएट्री फेस्टिवल बैंगलोर, और आजकल के साहित्य उत्सव आदि में जाने का अवसर मिला है।
इसके साथ ही हिंदी की वेब पत्रिका ‘समालोचन’ का पिछले एक दशक से संपादन कर रहे हैं। जो आज हिंदी की महत्वपूर्ण पत्रिका बन गई है। इसकी चर्चा ‘द हिन्दू’, ‘इंडियन एक्सप्रेस’ से लेकर ‘एनडीटीवी’ के ‘प्राइम टाईम’ तक में हुई है। इस पत्रिका में कविता, कहानी, आलोचना, फ़िल्म, कला और विचार आदि से सम्बन्धित सोलह सौ अंक, लगभग बीस हजार पत्रों, पेंटिंग और चित्रों के साथ मौजूद हैं।
यह सब पश्चिमी उत्तर प्रदेश की छोटे सी जगह नजीबाबाद से हो रहा है। जहाँ वे एक कॉलेज में प्रोफेसर हैं।
आइए, पढ़ते हैं उनकी कुछ नई कविताएं- राकेश श्रीमाल 
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अंतिम कविता
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गुलेल से फेंकी गयीं कठोरताएं
क्रूरताओं की बारिश में लौट रहीं हैं
 
कामनाओं के पहाड़ हैं पीठ पर लदे
यात्रा की थकान से टूट गए हैं कंधे
निरर्थकताओं से भर गयी है जिह्वा
कहीं भी कोई हरा पत्ता नहीं
कोई कीट नहीं परागण के लिये
 
संशय नहीं
निश्चितताओं की ईंटों से चुनी चहारदीवारी की तयशुदा जिंदगी का
अब यह आख़िरी पहर
 
ओ! नाव
जर्जर ही सही रेत में धंसी
सभ्यता के किसी और अर्थ की ओर ले चलो
 
तुमसे ही शुरू हुई थी यह यात्रा
अनिश्चित और उम्मीद से भरी
 
प्रलय की आग में झुलस गया है वृत्त
 
पृथ्वी से बाहर
उसके आकर्षण से परे
आकाश गंगा में
 
ले चलो कहीं.
 
 
 
इस बियाबान में
_______________________
 
नफ़रत में ताकत है
किसी तेज़ धार तलवार से भी अधिक
गोली की तरह धंस जाती है हिंसा
 
बहने लगती है जलती हुई हवा
झुलस जाते हैं फूल
नन्हें तलवों से टपकता है रक्त
 
आंगन में काट कर फेंक दिया गया है एक झटके में
वर्षों से तैयार हुआ आदमक़द
धुएँ में गुम हो गई हैं सब पतंगें
 
कि एक पीठ ढाल बनकर बिछ जाती है नफ़रतों से घिरे रहीम पर
कि एक राम को बचाकर सलामत पहुँचा देता है मुहम्मद उसके घर
 
तनकर एक वृद्ध खड़ा हो जाता है इस अंधेरे के ख़िलाफ़
एक स्त्री प्रसव करा रही है भविष्य का
लौटता है एक बच्चा गुम हुए पतंग की डोर पकड़े
 
घृणा करने के चाहे हज़ार कारण हों
प्रेम करने के फिर भी बचे रहेंगे.
 
 
 
 
वर्षा- रति
__________
मेघ बरस रहा है
कोई भी जगह न छोड़ी उसने
न कंचुकी उतारी
न खोली नीवी बंध
 
वह हर उस जगह है
जहाँ पहुंच सकते हैं अधर.
 
 
 
 
 
 
दर्दनाशक की मदद
_________________
यार ये अच्छी बात है कि तुम्हें पता रहता है कि देह में दर्द कहाँ है
घुलकर हर लेते हो
समंदर में लाल-पीली कश्ती राहत की
पर मन की पीड़ा का इलाज़ तुमसे नहीं होगा
कुंठा का भी कहीं कुछ होता उपचार
 
यह दूसरी अच्छी बात है
कि दूसरों की पीड़ा समझने के रास्ते तुम बंद नहीं करते
 
नाख़ून का दर्द
पुतलियों को पता है
वे तबतक बेचैन रहती हैं
यह दुनिया क्या इस तरह नहीं हो सकती थी
 
चोट पर चुम्बन की तरह ?
 
 
 
 
 
 
 
ततैया का घर
_____________________
 
घरों में कहीं किसी जगह वह अपना घर बनाती हैं
छत्ते जहाँ उनके अंडे पलते हैं
उनके पीताभ की कोई आभा नहीं
 
वे बेवजह डंक नहीं मारतीं
आदमी आदमी के विष का इतना अभ्यस्त है कि
डर में रहता है
स्त्रियों के भय को समझा जा सकता है
उनके ऊपर तो वैसे ही चुभे हुए डंक हैं
 
छत्ते जो दीवार में कहीं लटके रहते हैं
गिरा दिये जाते हैं
छिडक कर मिट्टी का तेल जला दिया जाता है
उनके नवजात मर जाते हैं
 
घर में कोई और घर कैसे ?
 
वे इधर उधर उड़ती हैं
जगह खोजती हैं
फिर बनाती हैं अपना घर अब और आड़ में
 
विष तो है
कहाँ है वह ?
 
 
 
 
 
आओ आत्महत्या करें.
____________________
 
 
१)
 
इतिहास में उन्होंने कभी मुझे मारा था
सताया था
जबरन थोपे थे अपने क़ायदे
 
आज मुझे भी यही सब करना है
आओ हम सब मिलकर लौटते हैं अतीत में.
 
 
२)
अतीत की धूल में मुझे नहीं दीखते चेहरे
मुझे साफ साफ कुछ सुनाई भी नहीं पड़ता
 
चलो मेरे साथ नरमेध पर
जो चेहरा सामने दिखे वही है वह.
 
 
३)
मुझे नापसंद है तुम्हारे क़ायदे
सख्त नफ़रत करता हूँ तुम्हारी नफ़रतों से
 
मैं तुम्हारी तरह बन गया हूँ धीरे-धीरे.
 
 
 
४)
दरअसल मैं तुम्हें सबक सिखाना चाहता हूँ
डर
भय
कातरता
 
देखो ब्लडप्रेशर से कंपकंपाते मेरे ज़िस्म को
मैं सामूहिक ह्रदयघात हूँ.
 
 
५)
यह जो उजली सी आज़ादी हमें मिली
और उस पर जो यह स्याह धब्बा था
 
अब फैलकर महाद्वीप बन गया है
ज़हर से भरा है इसका जल
 
६)
तुम्हें ख़ुशहाली नहीं
 
तुम्हें प्रतिशोध चाहिए.
 
 
७)
जब घृणा का अंकुरण होता है
सूखते हैं पहले रसीले फल
गिर जाती हैं हरी पत्तियां
 
जब घर जलाने को बढ़ाते हो हाथ
तब तक राख हो चुका होता है मन का आंगन
 
हत्या के लिए जो छुरी तुमने उठायी है
उस पर तुम्हारी मासूमियत का लहू है
 
तुम फिर कभी वैसे नहीं लौटोगे
 
तुम्हारे बच्चे
नृशंस हो चुके होंगे.
 
 
८)
आग में जो सबसे कोमल है
पहले वह झुलसता है
जैसे बच्चे
 
जो सुंदर हैं जलते हैं फिर
जैसे स्त्रियाँ
घिर जाते है
वृद्ध आसक्त
 
धुआँ उठता है कविता की किताब से
 
तुम्हारे अंदर जो सुलग रहा है
वह फिर पलटकर तुम्हें डसेगा.
 
 
९)
तुम लज्जित करने के कोई भी अवसर नहीं चूकते
तुम हत्या के लिए तलाशते हो बहाने
 
तुम जीने का सलीका भूल गए हो.
 
 
१० )
यह धरती फिर भी रहेगी
तुम्हारे रोते, बिलखते, कुपोषित बच्चों से आबाद.
 
 
 
 
 
 
बाएं बाजू का टूटना
 
दाएं हाथ में बायाँ अदृश्य रहता था
दायाँ ही जैसे हाथ हो
 
वही लिखता था वही दरवाज़ा खोलता था वही हाथ मिलाता था
विदा के लिए वही हिलता था
हमेशा वही उठता था
 
भाई दोनों जुड़वा थे पर बाएं ने कभी शिकायत नहीं की
यहाँ तक कि अपने लिए गिलास का पानी तक नहीं उठाया
न तोड़ा कभी टुकड़ा रोटी का
सुख के स्पर्श और अतिरेक में भी चुप ही रहता
शोक मैं मौन
 
सब दाएं का, बाएं का क्या ?
 
बायाँ टूटा और कुछ दिन लटका रहा गले से बेबस
तब दाएं को पता चला कि बायाँ भी था
 
सबका एक बायाँ होता जरुर है.
 
 
 
 
 
 
दांत का टूटना
______________________
 
 
जहाँ से टूटा था दांत
जीभ बार बार वहीं जाती सहलाती
बछड़े को जैसे माँ चाटती है
 
वह जगह ख़ाली रही
होंठ बंद रहते
नहीं तो उजाड़ सा लगता वहाँ कुछ
 
गर्म ज्यादा गर्म यही हाल ठंडे का भी रहा
स्वाद जीभ पर बे स्वाद फिरता
कौर कौन गूंथे ?
 
जहाँ से टूटा था दांत वहाँ एहसास के धागे अभी बचे थे
मशीन से उन्हें कुचलकर तोड़ दिया गया
 
दांत लग तो गये हैं पर
जीभ अभी भी वहीं जाती है
क्या पता स्पर्श से यह जी उठे
 
दांतों के बीच उन्हीं जैसा एक दांत है पर सुन्न
जैसे कोई कोई होते हैं आदमियों के बीच.
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दृश्य को सुनते-सुनाते हुए चित्र
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भारती दीक्षित
          चित्र बनाना इस लड़की के लिए बचपन से कुछ इस तरह रहा, जैसे अपने अबोध और अपरिचित मन की साफ-सफाई कर रही हो। वह आड़ी-टेढ़ी लकीरें खींचने और रंगों को पहचानने के क्रम में जैसे बिना आवाज के संगीत सुना करती। यह संगीत बचपन की आँखों और जल्दी भूल जाने वाली उम्र में लंबे समय तक ‘दृश्य-स्मृति’ की तरह बना रहा। वह इस स्मृति का स्पर्श कर उसे दोहराती रहती। यही कारण है कि परिजन उसे शुरू से अलग मिजाज-मूड की और एकाकी देखते रहे। लेकिन वह अपने ही असीमित अंनत में बिना भाव-प्रदर्शन के खुश रहती और चित्र बनाने के मौके ऐसे ढूंढती रहती, जैसे उस उम्र के बच्चें खेलने की बाट जोहते हैं। उसका बचपन रंगों के बनाए अपने शहर में रेखाओं के साथ बेफिक्र हो भ्रमण करते हुए लगभग भटकने की तरह रहा।
            इस दुनिया में, जब उसने बहुत कुछ नहीं देखा था, तब से चित्र रचना उस लड़की के लिए ‘दृश्य’ भी रहा और ‘श्रव्य’ भी। लेकिन वह दृश्य को देखती कम, उसे सुनती अधिक रही। दृश्य के प्रति यह श्रुति रस वह अपने रोम-रोम में अनुभव करती। ऐसे में वह ऐसी भाषा और उसके व्याकरण से परिचित होने लगी, जिसे केवल दृष्टि-अनुभव से ही पढ़ा जा सकता है। जिसके शब्द हर जगह बिखरे हुए हैं, कहीं अलग अस्तित्व के साथ, कहीं एक-दूसरे में लथ-पथ हुए, तो कहीं किसी अन्य शब्द के पीछे दुबके हुए। उस लड़की का शब्द-कोष बढ़ता गया। वह इतना अधिक हो गया कि खुद भी अपने को ऐसे ही किसी शब्द की तरह देखने लगी और धीरे-धीरे दिखने के संसार में अपने को भी विलीन कर लिया।
             वह लड़की सोचती कि मैं अगर चित्र नहीं बनाती, तो नृत्य करती या गाती। तब भी वह शब्दों के दूसरे रूपाकारों को देखने या सुनने में ही अभिव्यक्त हो पाती। चित्र में ये दोनों, एक साथ ही सहजता से मिलने लगे और वह चित्रों में ही रमने लगी। चित्र सोचते हुए भी, चित्र बनाते हुए भी और दुनियावी कार्य-कलापों में व्यस्त रहते हुए चित्र-संसार से अनुपस्थित रहते हुए भी।
           ऐसा अक्सर होता कि वह चित्रों के असीम में खो जाती। तब उसे लगता कि वह किसी भूल-भुलैया में आन खड़ी हैं। वह यहाँ से बाहर निकलने के लिए रास्ता तलाशने का थोड़ा भी प्रयास नहीं करती। वह केवल रेखाएँ खींचती और चित्र बनाती। इस तरह से वह यह जानने की कोशिश करती कि इस भूल-भुलैया में वह आखिर कहाँ खड़ी है।
               उसे उड़तें पक्षी, बादल और उनकी लुका-छिपी, बरसती बूंदों का गिरना और क्षण में गुम हो जाना किसी जादू जैसा लगता। वह नदी के सहज बहाव को देखती, जो अपने आप मे लय और गति का सामंजस्य रचती हुई अनुभव होती। वह अपने चित्रों के रूपाकारों के अमूर्तन में रंग और रेखाओं के जरिए ऐसे घर की कल्पना करती, जिसमें आसमान तो हो, लेकिन जमीन और दीवार नहीं हो। वह असीम का घर रचने का प्रयास करती। जो जाहिर है, चित्रों की अपेक्षा मन के गलियारों में अधिक धमाचौकड़ी मचा कर चुपके से चित्र में आ जाता। वह दृश्य को देखने में ही दृश्य का स्पर्श करने लगी। यह उसे रोमांचक लगता।
          वह लड़की चित्र तो कम बनाती, लेकिन अपने नहीं बने चित्रों के साथ यात्रा करने में दिलचस्पी रखती। वह इस यात्रा में दृश्य को ऐसी गति से देखने की आदी हो गई, जिसके बिना वह अपने ही अस्तित्व को महसूस नहीं कर पाती। यहीं से चित्रों से उसका नितांत गोपनीय और निज रिश्ता बनना शुरू हुआ, जो उम्र के इस पड़ाव पर अधिक परिचित, अधिक अपना-सा और प्रगाढ़ व परिपक्व होता गया। भारती दीक्षित जीवन के उस छूट गए पार्श्व से ही अभी भी बहुत कुछ लेती रहती हैं और अपने वर्तमान के देखने-सुनने में जोड़ती रहती हैं।
                यही कारण है कि मिट्टी और धागों से उन्होंने कई चित्र और शिल्प सरंचनाओं को अपने देखे-सुने से अनगढ़ तरीके से बुनते हुए अपनी अलग चित्र-प्रकृति रची है। पानी की ठहरी हुई बूंदें और किसी सूख चुके पत्ते के बचे हुए अवयव के रूप में जाल (नेट) उनके अमूर्त चित्रों में उपस्थित हैं। उनके रंगीन चित्र शाम के धुंधलके और भोर की गुलाबी-सुनहरी आभा का सम्मिश्रण लगते हैं। वे अमूर्त आकारों में प्रकृति-समय को परस्पर इस तरह से पिरोती हैं, जैसे समय को किसी परिधि में बांधने की अबोध और मासूम बाल-चेष्टा की जा रही हो। यही उनके चित्रों की सादगी है और वैभव भी।
              उनके आकृतिमूलक रेखांकनों में समय की स्मृतियाँ हैं। वे गुजरे दिनों और बचपन में देखे हुए की परछाइयों जैसे लगते हैं। वे जीवन से गुम हो चुके बहुत कुछ की रेखांकन-स्थापना हैं। चारकोल का काला उन्हें बचपन में ले जाता है। वे अपने रेखांकनों के जरिए अपने ही बचपन में छिप जाना चाहती हैं। जहाँ किसी खूँटी पर कपड़े टँगे हैं, दीवार में एक बड़ी घड़ी लटकी है, लोहे की सन्दूक में घर के जरूरी कागजात और कपड़े-लत्ते रखे हैं और घर के किवाड़ पर लोहे की सांकल लगी है। लेकिन अपने रचे इस परिवेश में अब कोई आवाज लगाकर उन्हें पुकारने वाला नहीं है। वे इन्हीं दृश्यों में अब अपने नाम की आवाज को सुन पाती हैं।
              उनके एक्रिलिक रंगों से बने चित्रों में छोटी-छोटी पगडंडियां और संकीर्ण रास्ते भी हैं, तो खूब खुली और चौड़ी सड़कें भी। यह उनके अपने जीवन के ही रास्ते हैं, जिन पर वे खूब चली हैं, दौड़ी हैं और कुछ देर सुस्ताने के लिए बैठी भी हैं।
              निश्चित ही उनका श्रेष्ठ आना अभी शेष है। पर इस कला-यात्रा में नियोजन की अपेक्षा भटकते हुए कुछ खोजना उनकी आदत है। इस यात्रा में वे अचानक ही कहीं पहुँच जाती हैं और वह देखने लगती हैं, जो देखना पहले सम्भव नहीं था। वे चित्रों से तालमेल बनाने में यकीन नहीं करतीं। वे अपने अनुभवों को रचना-प्रक्रिया में चित्र-अनुभव से सहभागिता कर रचते हुए स्वतंत्र चित्र सत्ता प्रदान करती हैं। अलबत्ता चित्रों की उस सत्ता में वे अपने ही अतीत को देखती हैं और अनायास ही पुराने दिनों, भूली-बिसरी बरसातों और जीवन के बारे में सोचने वाली काली-गहराती रातों में टहलने लगती हैं। वे हर पल बदलती समय-देह को जानती-समझती हैं, लेकिन इन्हीं में से अपने लिए चुपके से कुछ ‘स्टिल फोटोग्राफ’ सहेज लेती हैं। बीते समय की मूर्त-अमूर्त छवियाँ उनके चित्रों में इसी से जन्म लेती हैं।
           भारती दीक्षित के चित्र अपने पहचाने जाने के लिए हड़बड़ी में नहीं रहते। उनका जीवन और चित्र-संसार, दोनों ही धैर्य में रहते हैं और अपनी उपस्थिति को नामालूम सा बनाते हुए प्रकृति का ही कोई अपरिचित हिस्सा लगते हैं। यही उनके जीवन का रस है और निश्चित ही उनकी कला का सुख भी– राकेश श्रीमाल
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राकेश श्रीमाल (सम्पादक, कविता शुक्रवार)
कवि और कला समीक्षक। कई कला-पत्रिकाओं का सम्पादन, जिनमें ‘कलावार्ता’, ‘क’ और ‘ताना-बाना’ प्रमुख हैं। पुस्तक समीक्षा की पत्रिका ‘पुस्तक-वार्ता’ के संस्थापक सम्पादक।
 
 
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