योगेश प्रताप शेखर दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं और हिंदी के कुछ संभावनाशील युवा आलोचकों में हैं। रचना के समय और रचनाकार के समय में अंतर को समझने में यह लेख बहुत सहायक है-
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कहते हैं कि साहित्य समय की अभिव्यक्ति है। समय की व्यापकता और उसके अनंत होने का बोध संस्कृत शब्द ‘काल’ से होता है। साहित्य की एक ख़ूबसूरत विचित्रता यह है कि यह समयबद्ध भी है और समय से मुक्त भी। ठीक कमल के फूल की स्थिति लगती है। जैसे कमल का फूल पानी में प्रत्यक्ष रूप से नहीं शामिल है पर वह जल से पूरी तरह बाहर भी नहीं है। उदाहरण के लिए प्रेमचंद का प्रसिद्ध उपन्यास ‘गोदान’ 1936 ई. की रचना है, पर वह 1936 ई. में ही क़ैद हो कर नहीं रह गया है। यह 1936 ई. से बँधा भी है और उस से मुक्त भी है।
साहित्य और समय के रिश्ते पर विचार करने के क्रम में यह लगता है कि चार प्रकार का समय हो सकता है। जैसे यदि प्रेमचंद या ‘गोदान’ के प्रसंग में विचार करें तो पहला समय है ‘रचनाकार का समय’। यानी 1880-1936 ई. के बीच का समय। एक रचनाकार के रूप में प्रेमचंद ने इसी बीच तमाम तरह की अनुभूतियाँ की होंगी। उनके सारे अनुभव इसी दौरान घटित हुए होंगे। दूसरा समय है ‘गोदान’ के प्रकाशित होने का समय। ‘गोदान’ 1936 ई. में छपा था। इसे ‘रचना का समय’ कहा जा सकता है। ‘गोदान’ को आज भी पढ़ा जा रहा है। यानी 2020 ई. में भी। इस समय को हम ‘पाठक का समय’ कह सकते हैं। एक समय रचना के भीतर भी होता है। इसे एक दूसरे उदाहरण से समझा जा सकता है। जैसे ‘स्कंदगुप्त’ नाटक जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखा गया है, ऊपर के विवेचन के अनुसार ‘रचनाकार का समय’ हुआ 1889-1937। ‘रचना का समय’ कहा जाएगा 1928 ई. क्योंकि इसी साल यह प्रकाशित हुआ। ‘पाठक का समय’ हुआ 2020 ई.। पर ‘स्कंदगुप्त’ में गुप्त काल की बात है, इसलिए ‘रचना में समय’ हुआ गुप्त काल का।
ऊपर के विवेचन से स्पष्ट है कि ‘रचनाकार का समय’, ‘रचना का समय’, ‘पाठक का समय’ और ‘रचना में समय’ के संबंध के आधार पर ही मूल्यांकन हो सकता है। प्रसिद्ध लेखक इतालो काल्विनो ने संभवतः इसी लिए ‘क्लसिक्स’ रचनाओं को पढ़ते समय सावधानी बरतने की बात कही है। उन का कहना है कि ‘क्लासिक्स’ को पढ़ते समय हमें ध्यान रखना होता है कि इसे हम ‘कहाँ से’ पढ़ रहे हैं? इस संबंध में दूसरी सावधानी यह रखनी होगी कि उदाहरण के लिए अगर हम 2020 ई. में ‘गोदान’ पढ़ रहे हैं तो 1936 ई. से ले कर 2020 ई. तक का जो फ़र्क है वह प्रेमचंद के ध्यान में नहीं होगा क्योंकि यह उन के बाद की स्थिति है । लेकिन यह अंतर हमारे सामने भी है और हमारे अनुभव का हिस्सा भी। साथ ही यह भी अपरिहार्य है कि हम यह अंतर चाह कर भी मिटा नहीं सकते। इस को ध्यान में न रखने के कारण या तो किसी कृति या रचनाकार का मूल्यांकन हम उस के समय में बाँध कर करने लगते हैं या फिर हम अपने समय की कसौटियों पर उन का मूल्यांकन करने की भूल करते हैं। इन के बीच ध्यान रखने की बात यह है कि हम यह देखें कि रचना से कौन-सी रोशनी फूट रही है और उस के आधार पर उस की रश्मियों को पकड़ कर आगे बढ़ें न कि अपने युग का ‘टॉर्च’ उस पर डाल कर मनचाही चीज़ें खोज लें।
ऊपर साहित्य के समयबद्ध होने और समय से मुक्त होने की बात कही गई है। उदाहरण के लिए कालिदास का साहित्य हमें आज भी क्यों आकर्षित करता है? निश्चय ही उस में गुप्तकालीन सामंती वातावरण का अंकन है पर वह गुप्तकालीन समाज आज सीधे-सीधे तो नहीं है। यह बात भी समझी जा सकती है कि उस सामंती वातावरण के अवशेष हमारे समाज में अभी भी व्याप्त हैं। लेकिन यह कहना भी कालिदास के साहित्य के साथ अत्याचार होगा कि केवल इसी कारण वह हमें भाता है। तब सहज सवाल यह है कि ऐसा क्या है उस में जो अपने आधारभूत परिवेश यानी गुप्तकालीन सामंती वातावरण के आज प्रत्यक्ष न होने के बावजूद हमें अपनी ओर खींचता है? एक सहज उत्तर तो यही दिया जा सकता है कि उस साहित्य में मनुष्य मात्र की कथा है। मनुष्य का प्रकृति से प्रेम, मनुष्य का स्त्री-पुरुष के रूप में परस्पर प्रेम एवं काम संबंध वहाँ अपनी उदात्तता के साथ चित्रित हैं। ‘मेघदूतम्’ में उसी प्रकृति की उपस्थिति को देख कर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उस पर यह टिप्पणी की थी कि “मेघदूत न कल्पना की क्रीड़ा है न कला की विचित्रता। वह है प्राचीन भारत के सबसे भावुक हृदय की अपनी प्यारी भूमि की रूपमाधुरी पर सीधी सादी प्रेमदृष्टि।” शायद इसीलिए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कालिदास को ‘राष्ट्रीय कवि’ ( ध्यान रहे कि वे ‘राष्ट्र कवि’ नहीं कह रहे हैं ।) कहते हैं। इस विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि कालिदास के साहित्य में मानवीय गुणों, प्रवृत्तियों और परिस्थितियों का वर्णन है इसलिए आज भी हम इंसानों (मिर्ज़ा ग़ालिब का वह प्रसिद्ध शेर याद कीजिए कि “बस कि दुश्वार है, हर काम का आसाँ होना, आदमी को भी मुयस्सर नहीं इन्साँ होना।”) को वह विचार के लिए बाध्य करता है। गुप्त काल से ले कर आज तक मनुष्य मात्र की संवेदना ने जो बदलाव महसूस किया है उस का भी अनुभव हमें कालिदास का साहित्य पढ़ने से होता है। यानी कुल मिलाकर यह कि लगातार मनुष्यता की विकसित होती अवस्था में भी एक सामान्य मनुष्यत्व की जो स्थिति हो सकती है वही हमें उन प्राचीन रचनाओं में रमाती है। अत: यह कहा जा सकता है कि मानवीय संवेदना का प्रवाह और उस की अनुभूति ही साहित्य को समय की सीमा से मुक्त करने में सहायक होती है।
अगर इंसानी संवेदना का प्रवाह और उस की अनुभूति साहित्य को समय की सीमा से मुक्त करने में सहायक सिद्ध होती है तब यह भी ध्यातव्य है कि वह मानवीय संवेदना आसमान से तो अचानक प्रकट होगी नहीं। मनुष्य की संवेदना का निर्माण ठोस सामाजिक-मनोवैज्ञानिक परिवेश में होता है। इस पर अपेक्षित ध्यान न देने के कारण ही अंग्रेजी आलोचना के ‘न्यू क्रिटिसिज्म’ के दौर में ‘पोएम ऑन द पेज’ की बात की गई जिस से साहित्य की अपनी ऐतिहासिकता को क्षति हुई। संस्कृत काव्यशास्त्र में रस के विवेचन के संदर्भ में ‘स्थायी भाव’ की बात की गई है। वहाँ स्थायी भाव उन्हीं भावनाओं को माना गया है जो मनुष्य होने के कारण एक तरह से मूल प्रवृत्तियाँ हैं। रति, करुणा, क्रोध आदि ऐसी चीज़ें हैं जो हमेशा से मनुष्य में रही हैं और जब तक मनुष्य रहेगा ये उस के भीतर रहेंगी ही। पर साहित्य के मामले में इतने से ही बात नहीं बनती क्योंकि कालिदास के ज़माने में स्त्री-पुरुष के प्रेम के स्थिति, उस में अनेक प्रकार के अनुभव और इस प्रेम की अभिव्यक्ति जिस तरह से हुई है ठीक वैसे ही दूसरे युग में नहीं होता। इसे दूसरे उदाहरण से भी समझा जा सकता है। पुराने ज़माने में प्रायः नहाने के लिए लोग कुएँ, नदी या सरोवर के पास जाते थे। हिंदी के ही आदिकाल से ले कर रीतिकाल तक के साहित्य में ऐसे प्रसंग भरे पड़े हैं। पर आज मध्यवर्गीय जीवन या उच्चवर्गीय जीवन में नहाना ‘बाथरूम’ में संपन्न होता है। नहाना मनुष्य से जुड़ा है और जब तक पानी की उपलब्धता रहेगी, जुड़ा रहेगा। पर नहाने की परिस्थितियों में लगातार बदलाव होता आया है और होता जाएगा। इस के कारण नहाने से जुड़ी संवेदना भी लगातार बदलती जाएगी। फिर ऐसी स्थिति में जो साहित्य रचा जाएगा वह भी अलग ही होगा। उदाहरण के लिए विद्यापति अपने प्रसिद्ध पद में यह कहते हैं कि “जाइत पेखलि नहाएलि गोरी।” और वे जिस प्रकार उस सद्यःस्नाता के दैहिक सौंदर्य (?) का वर्णन करते हैं वह, एवं हमारे दौर की कवयित्री अनामिका अपनी कविता ‘स्नान’ में जब लिखती हैं कि “धीरे-धीरे/ मेरे कंधे से/ उतर रहा है मेरा घर,/ धीरे-धीरे मेरी उतर रही है चमड़ी!/ मेरे ये कपड़े/ मेरे ही सामने/ घुटनों के बल बैठे —/ कह रहे हैं कि अब बहुत हुआ —/ आओ, सब भूलकर नहाओ,/ धुल जाएगी सारी मिट्टी,/ फिर जो बचेगा—/ उसको—/ न घर की जरूरत होगी,/ न ही चमड़ी की।/ तो यह, केवल नहाने की क्रिया मात्र का वर्णन नहीं है। इन दोनों कविताओं में बहुत-बहुत अंतर है। अनामिका जो महसूस कर रही हैं वह विद्यापति के यहाँ संभव ही नहीं है। ठीक इसी तरह विद्यापति का ध्यान जिन बातों पर है उन पर अनामिका का ध्यान ठीक उसी तरह नहीं जा सकता। इन दोनों कविताओं में अभिव्यक्त संवेदना का निर्माण ठोस सामाजिक-मनोवैज्ञानिक परिवेश में हुआ है इसलिए ये कविताएँ ऐसी हैं। अतः यह समझा जा सकता है कि आधारभूत प्रवृत्तियाँ भले न बदलें परंतु उन की परिस्थितियाँ लगातार बदलती जाएँगी जिन के कारण साहित्य में भी बदलाव होता चला जाएगा। इसलिए साहित्य अपने समय के साथ भी नाभिनाल संबद्ध है।
इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि ऊपर जिन चार समय की चर्चा की गई है उन का ध्यान हमें साहित्य पढ़ने के दौरान रखना ही होगा। हम अगर ‘गोदान’ आज पढ़ रहे हैं तो न तो हम सीधे 1936 ई. में चले जा सकते हैं और न ही केवल 2020 ई. में रह सकते हैं। हम इन दोनों समय के संबंध को भी नहीं भूल सकते और न ही इन के अंतर को नज़रअंदाज़ कर सकते हैं। अतः साहित्य का हर पाठ एक यात्रा में तब्दील हो जाता है। अपने समय से उस रचना के समय तक और अपने समय से उस रचना से जुड़े समय के अंतर के एहसास तक। यह आना-जाना अत्यंत सुकुमार, रहस्यमय एवं रोचक है। आख़िरकार दुनिया भी तो आना-जाना ही है न!
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