Quantcast
Channel: जानकी पुल – A Bridge of World Literature
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1575

संजीव पालीवाल के उपन्यास ‘नैना’के बनने की कहानी

$
0
0

संजीव पालीवाल के उपन्यास ‘नैना’ की चर्चा लगातार बढ़ती जा रही है। वेस्टलैंड से प्रकाशित इस उपन्यास के बनने की कहानी पढ़िए-

============

इस उपन्यास का आपके हाथ में होना मेरे लिये एक सपने के पूरा होने के बराबर है। ये मेरी पिछले 25 साल की ख्वाहिश थी। ना जाने कितनी बार लिखा औऱ छोड़ दिया। 5 उपन्यास इस वक्त मेरे पास अधूरे रखे हैं। सोचा है कि इन्हें पूरा करूंगा। लेकिन ये कब होगा नहीं जानता। मैने खुद से भी उम्मीद नहीं की थी इसके पूरा होने की।

इस बार ये पूरा हुआ है क्यूंकि मेरे सिर पर एक भूत सवार था। उस भूत का नाम है जय प्रकाश पांडे। गलती से एक दिन इन्होंने मुझे कुछ लिखते हुए देख लिया। मुझसे पूछा कि क्या मैं उपन्यास लिख रहा हूँ। मैने कहा कि हां। तो बोले कि भेजिये। मैने इन्हें 1200 शब्दों का पहला चैप्टर भेज दिया। इन्हें पहला चैप्टर भा गया। अगले दिन ये फिर मेरी डेस्क पर आकर खड़े हो गये। बोले कि आगे का भेजिये। मैंने बाकी के जो 5000 शब्द लिखे थे वो भी भेज दिये। जय प्रकाश जी फिर अगले दिन  गये। कहने लगे कि भेजिये। मैन कहा कि और नही है बस इतना ही लिखा है। कहने लगे कि अब आनंद आ रहा है। और दीजिये, अब चस्का लग गया है। उनके आनंद को देखते हुए मुझमें भी हौसला आया। मैने हर रोज़ रात को लिखना शुरू कर दिया। ये हर रोज़ मेरे पास आकर अगली किस्त की फरमाईश करने लगे। तकरीबन 1000 शब्द मैं रोज़ लिखने लगा। कभी छूट जाता तो पांडे जी उलाहना देने लगते। खैर, मैने 2 महीने में पांडे जी के दबाव में उपन्यास पूरा कर दिया। इस अपन्यास का सारा श्रेय जय प्रकाश पांडे को जाता है।

एक और दोस्त हैं अनंत विजय। ये मेरे पीछे 10 साल से तो लगे ही हैँ। दुनिया ने साथ छोड़ा पर अनंत ने नहीं। इनका भरोसा फाईनली रंग लाया। उपन्यास पूरा हुआ। शुक्रिया अनंत। छपवाने और प्रेज़ेंट करने का श्रेय भी इन्ही को है। अनंत ने दैनिक जागरण अखबार में एक लेख लिखा था कि हिन्दी में क्राईम फिक्शन क्यों नहीं लिखा जा रहा है। इनके लेख को पढ़कर अपने पर गुस्सा आया था कि मैं आखिर क्यूं नहीं लिख रहा हूँ। अब ऐसा लगता है कि इनका लिखना सार्थक हुआ। कम से कम एक लेखक तो इनके लेख ने पैदा किया।

इकबाल रिज़वी और तस्लीम खान। इनके बगैर मैं अपनी यात्रा की कल्पना नहीं कर सकता। इस उपन्यास को लिखने के दौरना जब मैं फंस जाता तो तस्लीम को कहता कि यार कुछ लिख दे। समझ नहीं आ रहा कि क्या करूं। फिर तस्लीम साहब लिख देते तो मेरी गाड़ी आगे बढ़ती। जब भी लिखने से बोर होता तो इकबाल को फोन लगा दिया। इकबाल के साथ बातचीत के बाद आप तरोताजा महसूस करते हैँ। इकबाल का सेंस ऑफ ह्यूमर गज़ब का है।

सरदार साजिद इमाम औऱ पंकज भार्गव। ये दोनो मेरे छोटे भाई हैं। इनका साथ होने से मुझमें हौसला आता है। मेरी सड़क यात्राओं के साथी हैं ये।

सुप्रिय प्रसाद, आशुतोष, अजीत अंजुम। मेरे टीवी करियर के साथी। ये अजीब इत्तेफाक है कि मेरे टीवी करियर में इनमें से एक ना एक तकरीबन हमेशा मेरे साथ रहा है।

राहुल वर्मा उर्फ चुचुन औऱ मनीषा तनेजा। इन दोनो लोगों ने अंग्रेज़ी क्राईम फिक्शन को पढ़ने और पढ़ाने में मेरी बहुत मदद की है। अंग्रेज़ी पढ़ने का चस्का इन दोनो लोगों ने ही मुझे लगाया।

आजतक की क्राईम टीम के सदस्य और जानी मानी शख्सियत शम्स ताहिर खान, तंसीम हैदर और हिमांशू मिश्रा का भी धन्यवाद। मेरी तमाम उलझनो को इन्होंने ही सुलझाया।

इस उपन्यास को लिखने के बारे में पहली बार मैने सन 2000 में सोचा था। तब आजतक का दफ्तर झंडेवालान में वीडियोकॉन टॉवर में होता था। उस वक्त 2-4 पेज लिखे भी थे। जो बाद में खो गये। फिर ये धुन दोबारा सवार हुई 2008 में। तब भी लिखना शुरू किया। फिर छूट गया। ये लगातर होता रहा। उपन्यास कभी पूरा नहीं हुआ। जाने क्या बात थी कि कभी ये हौसला भी नहीं आया कि इसे पूरा करूं।

अचानक एक दिन बैठे बैठे खयाल आया कि क्यूं ना न्यूज़ चैनल की दुनिया को आधार बनाकार एक उपन्यास लिखा जाये। न्यूज़ टीवी के एंकर्स आज की तारीख में स्टार्स हैं। करोड़ों उनके चाहने वाले हैं। इस पर कुछ लिखा भी नही जा रहा। जिस दुनिया में आप काम करते हैं उस पर लिखना आसान नहीं होता। लेकिन किस्मत में पांडे जी का आना लिखा था। पांडे जी ने ही कहा था एक दिन कि हर किताब की अपनी किस्मत होती है। इस उपन्यास का ही भाग्य है जो ये पूरा हो गया है।

बचपन से ही क्राईम को लेकर मेरे दिमाग में कीड़ा रहा है। मनोहर कहानियां, सत्य कथा पढने की वजह कई बार मां के हाथों पिटा भी था। हमारे पड़ोस के एक अंकल ये दोनो पत्रिकायें लाते थे। उनके घर से निकलता देख मां समझ जाती थी कि मैं वहां यही दोनो पत्रिकायें पढ़ने गया हूंगा। इसके अलावा तमाम लेखक ओम प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश काम्बोज, कुशावाहा कांत, इब्ने सफी, बचपन में रायज़ादा और एस सी बेदी को काफी पढ़ा। लेकिन सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ सुरेंद्र मोहन पाठक से। इतना ज्यादा कि पत्रकार बन गया। पाठक जी को पढ़ने के लिये मैने एक किताब की दुकान वोले से दोस्ती कर ली। इतने पैसे नहीं थे कि हर किताब खरीद सकूं। किताब की दुकान पर बैठने का फायदा ये था कि वहा बहुत कुछ पढ़ने को मिल जाता था। दिन में 2-3 घंटे मैं रोज़ाना उसकी दुकान पर बैठ जाता था। बदले में कभी कभार मुझे अपनी साईकिल से उसके लिये किताबे ढोकर लानी होती थीं। ये बात रही होगी 1985-86 के आसपास की। किताब की दुकान वाले का नाम क्या था ये तो याद नही पर सब लोग उसे अच्चू के नाम से बुलाते थे। आज बरेली के 47 सिविल लाईंस में शैडोज़ बार के पीछे बने मार्केट में वो किताब की दुकान तो नहीं है। अब उस दुकान में अच्चू चाय बनाकर बेचता है। कभी कभी अच्चू से मुलाकात हो जाती है।

इस उपन्यास के पीछे की यही कहानी है। उम्मीद है कि आप सबको ये उपन्यास पसंद आयेगा। पसंद आये तो लिखियेगा। ना भी पसंद आये तो डांट दीजियेगा ताकि अगले उपन्यास को और सुधार सकूं। मेरा ईमेल है paliwal.sanjeev@gmail.com

आभार और धन्यवाद

संजीव पालीवाल

============================

दुर्लभ किताबों के PDF के लिए जानकी पुल को telegram पर सब्सक्राइब करें

https://t.me/jankipul

The post संजीव पालीवाल के उपन्यास ‘नैना’ के बनने की कहानी appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..


Viewing all articles
Browse latest Browse all 1575

Trending Articles