पंकज कौरव अनेक माध्यमों में काम करते रहे हैं, अच्छे लेखक भी हैं। उन्होने हाल में आए निखिल सचान के उपन्यास ‘यूपी 65’ को पढ़ते हुए हाल में आई हिन्दी में नई तरह की किताबों पर बहसतालब टिप्पणी की है- मॉडरेटर
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निखिल सचान का पहला उपन्यास यूपी-65 पढ़कर भीतर तक महसूस हुआ कि इस पर समीक्षा या टिप्पणी से इतर कुछ और होना चाहिए. यूपी-65 के बहाने बहुत सी बातें हैं, जो कही-सुनी जाने लायक हैं और अगर कोई सारगर्भित बहस शुरू हो पायी तो बेशक गुनी जाने के काबिल बातें भी मिल जाएंगी. खैर जिसके बहाने बात शुरू हुई, सबसे पहले वही बात-
कितना कुछ लिखे जाने के बावजूद ‘बनारस’ हर बार कुछ बचा रह जाता है. अब बनारस है ही इतना विराट. सत्य व्यास की ‘बनारस टॉकीज़’ पढ़कर भी निखिल सचान ने अगर उस पर दोबारा लिखने की हिम्मत दिखायी, तो यह कोई मामूली जोखिम नहीं था. इस साहस के निखिल सचान को पूरे नंबर मिलने चाहिए. गर बात की जाये कि कैसा लिखा है? तब भी जवाब में निखिल अपनी लेखनी से निराश नहीं करते. भाषा और शिल्प के मामले में उन्होंने लोकप्रिय उपन्यास लेखन को निश्चित तौर पर एक नया स्तर दे दिया है. केदारनाथ सिंह की कविताएं उनके उपन्यास के परिदृश्य में बार बार गूंजती हैं. कविताएं सुनाने वाला ‘कबाड़ी’ तो और भी जबर है. इस उपन्यास का सबसे दिलचस्प किरदार वही है. ठेठ बनारसी. बतकही का बादशाह. जैसे-जैसे उपन्यास अंत की ओर पहुंच रहा था, बेहद जस्टिफाइड क्लाइमेक्स वाली कहानी गहरा संतोष देती गई. एक मुकम्मल लोकप्रिय उपन्यास पढ़ने का सुख यूपी-65 ने बखूबी दिया है. साथ ही यह उपन्यास पढ़कर दिल एक गहरे दुख से भरता भी गया. एक अजब सा रश्क था. हताशा इस बात की, कि यह उपन्यास और पहले आना चाहिए था. पहले आता तो शायद यूपी-65 के साथ ज्यादा न्याय होता.
पहला बहाना
क्या निखिल सचान के साथ हुए इस अन्याय की कभी भरपाई नहीं होगी? क्या कभी लिखित में इसपर कोई बात नहीं होगी? दबी जुबान में बेशक कहा जाए कि ‘यूपी-65’ पिछले कुछ सालों में बनारस पर आये लोकप्रिय उपन्यासों के बीच सबसे बेहतर है. मंशा सत्य व्यास, और दिव्यप्रकाश दुबे जैसे नई पीढ़ी के लोकप्रिय लेखकों के काम को कमतर बताने की कतई नहीं है. नई हिन्दी को नये पाठकों तक पहुंचाने में उन्होंने बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
दूसरा बहाना
दरअसल बात गौरतलब इसलिए हो गई है, कि सुरेन्द्र मोहन पाठक जैसे घनघोर लोकप्रिय लेखन और हिन्दी के साहित्यिक लेखन के बीच एक बड़ी गुंजाइश है. बनारस टाकीज की लोकप्रियता से उस निर्वात में कुछ हलचल जरूर पैदा हुई थी. लेकिन नई हिन्दी के लेखन में होती आ रही एक चूक यदि नोटिस हो जाये तब शायद कुछ सोचने और आत्मचिंतन का मौका दे सकती है.
तीसरा बहाना
साहित्य समाज का दर्पण कहा जाता है, लेकिन हिन्दी का नवलेखन लगता है फिल्मों का दर्पण बनता जा रहा है. उसपर फिल्म थ्री इडियट की तो मानो कोई अमिट छाप पड़ गई है. प्रचण्ड प्रवीर के अल्पाहारी गृहत्यागी को अगर छोड़ दें( छोड़ भी दिया जाना चाहिए क्योंकि वह उपन्यास थ्री इडियट की रिलीज़ के छह महीने बाद जून 2010 में प्रकाशित हुआ था. अब न ही प्रचण्ड प्रवीर ने उसे छह महीने में तो लिख नहीं लिया होगा? अगर लिख भी लें तो यह बात साल का सबसे बड़ा जोक हो जाएगी कि हिन्दी का कोई बड़ा प्रकाशक किसी उपन्यास का मूल्यांकन कर उसे छह महीने के भीतर छाप भी सकता है.) तो लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचने वाले ज्यादातर हिन्दी उपन्यास कैंपस, आईएएस की तैयारी जैसी विषयों के इर्द गिर्द ही रहे हैं. फिर भले वह पंकज दुबे का अंग्रेज़ी से हिन्दी में आया उपन्यास ‘लूज़र कहीं का’ हो या फिर बनारस टॉकीज़ या फिर ‘डार्क-हॉर्स.’ ‘नॉन रेसिडेंट बिहारी’ हो या फिर ‘गंदी बात’ सबमें यह कॉमन बात है कि वे कॉलेज कैंपस, स्टूडेंट लाईफ जैसी बातों की बुनियाद पर टिके हैं.
चौथा बहाना
लेकिन लोकप्रिय लेखन अब भी तलवार की धार है. जहां प्रियदर्शन जैसे स्थापित और प्रतिबद्ध लेखक के ‘जिन्दगी लाइव’ पर ‘जासूसी किस्म का उपन्यास’ होने के तोहमत लग जाते हों, वहां किसी नए लेखक की बिसात ही क्या? नये लेखक के लिए लोकप्रिय शैली में लिखना सीधे अर्थों में हाशिये पर रहने का चुनाव रह गया है. कट्टरता के इस दौर में कुछ नयी कट्टरताएं पैदा हुई हैं. सबके पास अपनी वैचारिकी की पैनी कटार है. वह कटार बगैर मूल्यांकन सब कुछ चीर कर रखने के लिए तैयार है. ऐसे में हिन्दी के प्रतिष्ठित लेखकों से प्रियदर्शन जैसे साहस की दरकार है. क्योंकि बेशक पिछले कुछ सालों में आए लोकप्रिय उपन्यासों में ‘ज़िन्दगी लाइव’ ने गंभीर लेखन और लोकप्रिय लेखन के बीच पुल बनाने का काम किया है. यह जारी रहना चाहिए.
एक और आखिरी बहाना
ऐसे समय में अब लोकप्रिय हिन्दी का लेखन उस मोड़ पर खड़ा है, जहां उसका अपना आलोचनात्मक विमर्ष होना चाहिए. उस बहस की गैरहाजिरी ‘यूपी-65’ के संदर्भ में शिद्दत से महसूस हो रही है. मुश्किल यह है, कि वह बीड़ा कोई नहीं उठाना चाहता. नई हिन्दी लुगदी हिन्दी से प्रभात रंजन उसकी शुरूआत जरूर करते हैं, लेकिन अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता. कोशिशें और भी होती रहनी चाहिए…