Quantcast
Channel: जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1471

नीचता के नक्कारखाने में भाषा ज्ञान की तूती- मृणाल पाण्डे

$
0
0

प्रसिद्ध लेखिका मृणाल पाण्डे का यह लेख नीच शब्द को लेकर हुए विवाद से शुरू होकर भाषा और उनके प्रयोगों की यात्रा, शब्दों के आदान-प्रदान का विद्वतापूर्ण और दिलचस्प आकलन प्रस्तुत करता है। मौका मिले तो पढ़िएगा- मॉडरेटर

इस लेखिका का दृढ विचार है कि हिंदी के पाठकों, श्रोताओं के बीच अपनी भाषा के शब्दों, और उनकी जडों की बाबत जानकारी जितनी बढेगी उतना ही वे जीवन और कला से रस खींच सकेंगे| लेकिन कुछ अपनी दूकानचलाई और कुछ आम भारतीय की भाषाई विवशताओं के प्रताप से अनर्गल बोलते एंकर, लिट फेस्ट की शोभा बढाते बॉलीवुड सितारे और पारसी थियेटर के अंदाज़ में डायलॉग बोलनेवाले राजनेता सभी हिंदी का बहुमूल्य धान ढाई पसेरी बेचने की अपनी क्षमता को लेकर शर्मिंदा होने की बजाय सुर्खरू हो रहे हैं | इस माहौल में विख्यात बातून मणिशंकर का भी मीडिया में कूदना तय था | मन ही मन अंग्रेज़ी का उल्था कर बोल रहे अय्यर ने देश के शीर्ष नेता को ‘नीच’ कह डाला जो उनके अनुसार अंग्रेज़ी के ‘लो’ का समानार्थक है | पर चुनावी माहौल में बाल की खाल निकालना आम शगल है | सो उनके लक्षित नेता, हमारे मीडिया तथा सोशल मीडिया (खासकर हिंदी पट्टी के) तुरत हरकत में आये | किसी भाषाज्ञानी ने नीच शब्द को खुद वक्ता की नीचता का प्रमाण माना, तो किसी शरलक होम्स ने इसमें मणिशंकर की पार्टी कांग्रेस और उसके शीर्ष नेता की मिलीभगत की गंध पाई | खुद लक्षित जननेता ने गहन क्षोभ से तर्जनी लहरा लहरा कर इसे अपनी जाति पर एक सवर्ण का जातिवादी तंज़ बताया | और इसी के साथ टी वी पर नीच शब्द हैश टैगित हो कर ब्रेकिंग न्यूज़ बन चला | विकास के अविकसित रह जाने, किसानों की बदहाली या महिलाओं दलितों अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसक हमलों की बढत की जगह सारी बहस जातिवाद की दिशा में मुड गई| यानी शायर के शब्दों में ‘जितने मूं उतनी ही बातें हैं, बढे क्यूं न जुनूं, सबने दीवाना बना रक्खा है दीवाने को|’

राजनीति के नक्कारखाने में जब इतने नगाडे ड्रम और पखावज कोहराम मचाये हों तो भाषा जगत की सरल सचाई लोग भूल जाते हैं कि मनुष्यों की ही तरह हर शब्द का भी अपना एक खास जन्मस्थान और इतिहास होता है| और यह मुआ नीच शब्द भी इसका अपवाद नहीं जो किसी देसी गली से नहीं उपजा बल्कि सीधे देवभाषा संस्कृत से उपजा एक विशेषण है| अब विशेषण की दिक्कत यह है कि वह अपना अलग मतलब रखने की बजाय किसी संज्ञा से जुड कर ही अर्थ पाता आया है| मसलन नीच काम या नीच विचार या नीच योग (ज्योतिष में)| पंडित कहते हैं कि ज्योतिष की तहत नीच ग्रह का मतलब किसी भले ग्रहविशेष का दोष नहीं, बल्कि सौरमंडल में समय विशेष पर अच्छे भले तेजस्वी (लालू जी इसे द्विअर्थी न मानें) ग्रह का भी विधिवश नीच स्थिति में आने पर गडबड बन जाना दिखाता है | उधर कविगुरु रहीम बाबा नीचता को सीधे कुसंगत से उपजी गलतफहमी मानते हैं | उनके अनुसार शराब बेचनेवाली कलालिन दूध की मटकी भी लिये हो, तो थानेदार उसे शराब की मटकी ही मानेंगे :

रहिमन नीचन संग बसि लगि कलंक न काहि,

दूध कलारी कर गहे, मद समुझत सब ताहि’||

बहरहाल इस परमाणविक बने नीच शब्द की चोट ने अब मणिशंकर जी को दल से निलंबित करा ही दिया| चलें हम राजनीति के कर्कश नक्कारखाने से शब्दों की रसमय दुनिया को वापिस लौटें|

जब से वे गढी गईं सभी भाषायें इंसानों के साथ देश विदेश की यात्रा करती आई हैं| बाहरिया शब्द जब नये परिवेश में घुसते हैं तो झिझक के साथ| फिर यात्रियों की ही तरह उनका भी व्यक्तित्व बोली बानी सब कुछ बदलने लगता है| असली हिंदुस्तान को आर्यावर्त तक और हिंदी शब्दों की जडों को सिर्फ संस्कृत तक सीमित मानने वाले किताब, कुर्सी, मेज़, चाय, चीनी, हलुआ सरीखे शब्दों का इतिहास नहीं देख पाते हैं जो चीन, अफगानिस्तान, फारस, यूरोप और भी न जाने कहाँ कहाँ से कभी परदेसी यात्रियों के साथ विदेशी जहाज़ों से या रेशमी मार्ग से आये, कभी विदेशी हमलावरों के, तो कभी गाती बजाती फकीरों, सूफी- संतों की घुमंतू मंडलियों के मुख से निकल कर सीधे जनता के कानों और फिर दिलों में उतर बाज़ार दर बाज़ार आगे तक चलते चले गये| अरबों कारोबारियों के कारवां के साथ किसी सुदूर सराय में सुनी सुनाई लोक कथाओं की वे पोटलियाँ भी आईं जो दादी नानियों की धरोहर बन अमर भईं | भाषा के पारखी और साहित्य साधक वैयाकरणाचार्य और लेखक यह सब समझते रहे हैं | शाकटायन के अनुसार सर्वाणि नामानि आख्यातजानि, यानि हर शब्द के भीतर उसके जन्म की कहानी छिपी होती है | सुदूर योरोप में फ्रांसीसी की प्रसिद्ध लेखिका कोलेट ने भी कहा है कि शब्द का मर्म और इतिहास खोजना हो तो उसका क्रिया रूप पकडो| क्रियापद साफ बता देगा शब्द महाशय कितने घाटों का पानी पी चुके हैं और उनका मौजूदा व्यक्तित्व कितने तरह के अनुभवों और रसीली कहानियों का आईना है|

अब ऐसे में यह हिंदी वालों के आलसीपन और उनके नेताओं की सीमित भाषाई समझ का प्रमाण नहीं तो क्या कहा जाये कि अपने यहाँ ‘हाय हिंदी’ का सालाना सियापा करने और विदेश जा कर हर मंच पर हिन्दी बोलने के बावजूद जो हिंदी शब्दों के सरस इतिहास और भूगोल को सामान्य पाठक को सहजता से पहुँचा सकें ऐसी किताबें बहुत ज़्यादा नहीं लिखी लिखवाई गई हैं| बहुत पहले मध्यकालीन हिंदी की जडों और कालक्रम में सांस्कृतिक और राजनैतिक कारणों से हिंदी में आये बदलावों पर हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने बहुमूल्य लेखन किया था | उसके कई साल बाद स्व. विद्यानिवास मिश्र की एक पुस्तक ‘हिंदी की शब्द संपदा’ जो इसी शीर्षक से दिनमान में किस्तवार छपे उनके दो दशक पुराने भाषा संबंधी लेखों का संकलन था| उसका कलेवर कमोबेश उत्तर पूर्व में प्रचलित हिंदी शब्दों के आंचलिक मूल के खुलासे तक ही सीमित था पर उस पुस्तक की कृपा से लेखिका का जाने कितने मनोमुग्धकारी आंचलिक शब्दों से परिचय हुआ| मसलन हवा के ही अलग अलग प्रकारों के आंचलिक नाम सुन लें : सुबह की हवा कहलाती है, भोरहरिया, तेज़ आँधी के साथ उमडी चक्रवात को देहात में बुढिया आँधी भी कहते हैं, रेतीली आँधी कहलाती है भभूका, और हर दिलअज़ीज़ पूर्व दिशा से बहने वाली पुरवैया हवा जब सूखी चले तो राँड और मेह लाये तो सुहागिन कहलाती है | पश्चिम से आने वाली गरम पछुआ जब अधपकी फसल को सुखाती है तो झोला कहाती है और वही जब जाडों में धीमे धीमे चले तो कहा जाता है कि रमकती है|

इन सभी विद्वानों की राय है कि धर्म, इतिहास, समाज तमाम तरह के फिल्टरों से गुज़र चुकने के बाद ही शब्दार्थ हमारे सामने कई तरह के रूपों में आते हैं| संस्कृत का अंगुष्ठ शब्द लीजिये जिससे हिंदी में अँगूठा बना और फारसी में अंगुश्तरी| फारस-रिटर्न बन कर यह शब्द जब फिर हमारे अंगने में आया तो उससे बन गया एक नया हिंदी का शब्द, अंगूठी| स्थानीय माहौल और जीवन शैली से जुड कर लगातार बदला अन्य शब्द छत्र लीजिये जिससे छाते से लेकर बिछौना तक शब्द बने हैं | उधर बुद्ध शब्द को, (शायद सनातन धर्मियों ने बौद्धों से अपनी पुरानी कुढन के चलते) विरुद्धार्थ रूप में बुद्धू बना कर भोंदूपने का समानार्थक बना डाला | संस्कृत का परिचूर्णन शब्द हिंदी में परचून बन बैठा, तो पक्व (पके हुए)+ अन्न से पकवान शब्द ने जन्म लिया| साथ साथ पकौडी भी चली आई| मिठाइयों की महिषी जलेबी रानी अरब से जलाबिया के रूप में भारतीय पकवान परंपरा में आईं और चटोरों द्वारा जलेबी के देसी नाम से नवाज़ी गईं| चपटी, चपत और चपाती जैसे शब्द संस्कृत के चर्पटी ( हाथों से थपका कर आकार पाने वाली ) शब्द से निकले, और फारस पहुँच कर यह चपात यानी थप्पड का समानार्थक  बना|

ठस्सदिमाग बन बैठे नीच शब्द पर टीन की तलवारें भाँज रहे भारतीयों को अब तनिक चपतिया कर याद दिलाया जाना चाहिये कि विचार शब्द का तो मूल ही चर् धातु में है, जिसका मतलब है लगातार चलना| और इसी विचरण से सामाजिक आचरण बनता है| भाषा विचार से जुडती है| और अगर किसी के शब्द ज़िद, अकड और उत्कट घृणा में जकड गये तो विचार भी देरसबेर ठहर जाते हैं| चरति चरतो भग: यूँ ही नहीं कहा गया|

लेखिका संपर्क- mrinal.pande@gmail.com


Viewing all articles
Browse latest Browse all 1471

Trending Articles