Quantcast
Channel: जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1471

शहनाज़ रहमत की ग़ज़लें

$
0
0

आज पेश है शहनाज़ रहमत की ग़ज़लें – त्रिपुरारि
======================================================

ग़ज़ल-1

दर्दे दिल हूँ मैं किसी का या कोई सूनी नज़र
कुछ पता मुझको नहीं है कौन हूँ मैं क्या ख़बर

गर्दिशें मुझको जलातीं अपनी भट्टी में अगर,
ख़ूब सोने सी निखरती और जाती मैं सँवर

मुझ से मेरा रास्ता मत पूछ ऐ ठंडी हवा,
खो चुकी हूँ उलझनों में आज अपनी रहगुज़र

तेरी उल्फ़त ने किया है हाल क्या मेरा कि अब,
बाँट टुकड़ों में बिखरती जा रही हूँ दर ब दर

पाँव के छालों से कह दो फूट कर दें हौसला,
थक के बैठे राहगीरों की ज़रा अब लें ख़बर

मील के पत्थर नहीं पर हम गड़े हैं राह में,
आते- जाते आह भरते हैं मुसाफ़िर देख कर

जाने कैसी दुश्मनी है हर तरफ़ फ़ैली हुई,
आदमी को आदमी आता नहीं अब तो नज़र

जुस्तजू किसकी है तुझको ऐ हवा क्यों बे सबब,
दौड़ती फ़िरती है तनहा बेतहाशा उम्र भर

आधा हिस्सा खो चुका जो मेरे ही अन्दर कहीं,
कोई तो शहनाज़ दे देता मुझे वो ढूँढ कर

ग़ज़ल-2

राज़ तू मुझ से क्यों छुपाता है
तेरा चेहरा तो सब बताता है

बे नियाज़ी में भी ख़बर है मुझे,
कौन आता है कौन जाता है

शह’र में आज उफ़ ये ख़ामोशी,
सोग जैसे कोई मनाता है

जिस जगह जाऊँ जिस तरफ़ देखूँ,
रू ब रू मेरे तू ही आता है

एक अँधा कुआँ है दिल मेरा,
सोचती हूँ तो हौल जाता है

ज़िन्दगी के भँवर में ख़ुद इंसान,
अपनी मर्ज़ी से डूब जाता है

आह रखता है मेरे होटों पर,
और फिर ख़ुद ही मुस्कुराता है

मेरा ही इम्तिहाँ ख़ुदा कब तक,
क्यों मुझे रोज़ आज़माता है

गुँचे खिलने लगे हैं गुलशन में,
रंग मेरा निखरता जाता है

नाम लेता है कोई जब उसका,
मेरे दिल में उबाल आता है

मुझसे मिलता है क्यों वो हँस हँस कर,
लगता है बात फिर बनाता है

हैं मेरे सुब्हो शाम ठहरे हुए,
वक़्त ये खेल क्या दिखता है

है वही कारोबार दुनिया का,
सबको अपना ही ग़म सताता है

सब दिखाते हैं ख़ूब अपनापन,
कोई अपना किसे बनाता है

हर क़दम अब सँभाल कर रखना,
अपना गिरना यही सिखाता है

क्यों क़दम बढ़ते हैं उसी जानिब,
वो भला कब मुझे बुलाता है

अब तो शहनाज़ मान भी जाओ,
ख़्वाब से सच का कैसा नाता है

ग़ज़ल-3

सच्चाइयों से जब उसे रग़बत नहीं रही,
मुझको भी ऐतबार की आदत नहीं रही

इक वक़्त था कि मिल के गले करते थे कलाम,
अब हाथ भी मिलाने की फ़ुर्सत नहीं रही

सामान हो ही जाता है दिल के सुकून का,
इस दर्द से मुझे कभी दिक़्क़त नहीं रही

मौसम की मार से हुआ बेहाल हर बशर,
पहली सी क्या ख़ुदा की इनायत नहीं रही

ख़ंजर से जान ली है कि तलवार ओ तेग़ से,
क़ातिल से अपने हमको शिकायत नहीं रही

जिस क़ौम की जहाँ में कभी धूम थी बहुत,
उस क़ौम को बचाने की नीयत नहीं रही

शहनाज़ अपने हाल में है मस्त इन दिनों,
अब उसको माल ओ ज़र की ज़रुरत नहीं रही


Viewing all articles
Browse latest Browse all 1471

Trending Articles