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‘फैन कल्चर’ का दौर : भविष्य का आलोचक:मृत्युंजय

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मृत्युंजय कवि हैं और कविता के हर रूप में सिद्धहस्त हैं। सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों तरह की आलोचना में समान महारत रखते हैं। बस कम लिखते हैं लेकिन ठोस लिखते हैं। जैसे राजकमल प्रकाशन स्थापना दिवस पर आयोजित ‘भविष्य के स्वर’ में पढ़ा गया उनका यह पर्चा समकालीन लेखन के बड़े हिस्से को फ़ेसबुकिया कहकर टालता नहीं है बल्कि उसके आलोक में हिंदी आलोचना के समकाल और भविष्य की बात करता है- मॉडरेटर

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[यह पर्चा उस द्विधा का शिकार होगा ही, जिससे यह संबोधित है। पारम्परिक आलोचना पद्धति में दीक्षित एक आलोचक नयी परिघटना को अपने ही दृष्टिकोण से देखता है। हालाँकि मैंने अपनी इस अवस्थिति को चुनौती देने की यथा सम्भव कोशिश की है, पर सम्भव है कि आपको इस पर्चे में तरफ़दारी की गंध मिले। दूसरे इस पर्चे के मूल विचार के लिए मैं प्रख्यात कला-समीक्षक और दार्शनिक वाल्टर बेंजामिन के लेख मशीनी पुनरुत्पादन के दौर में कलाका ऋणी हूँ।]

आमतौर पर ‘हम एक मुश्किल दौर में रह रहे हैं’ से लेख की शुरुआत करना पहले ही आलोचक की मंशा को बहुत स्पष्ट कर देता है और ठीक उसी के साथ ऐतिहासिकता के बोध को धुँधला भी देता है। इस तरह हम उस ज़हमत से बच जाते हैं जो पिछले दौर की कठिनाई और इस दौर की कठिनाई के बीच अंतर खोजने से पैदा होती है। इसलिए अपने दौर की आलोचना के सामने खड़ी कठिनाइयों का खास हुलिया बयान करने के लिए पिछले दौर की आलोचना की कठिनाइयों का अध्ययन भी हमें करना होगा। हमें अपने दौर के बदलावों का इतिहास तलाश करना होगा। आधुनिक साहित्यिक संस्कृति और आलोचना के इतिहास में कम से कम दो ऐसी घटनाएँ हमने देखी हैं, जिनका असर बहुत ही व्यापक हुआ। पहली परिघटना छापेखाने का आविष्कार थी और दूसरी परिघटना ई-प्रकाशन है। ई-प्रकाशन से यहाँ मेरा तात्पर्य एकदम शब्दश: इंटरनेट की दुनिया में छप-सुन व दिख रहे साहित्यिक संसार से है।

छापाखाने और उपनिवेशवाद विरोध की संस्कृति से जो आलोचक निकला था, उसका काम महत्वपूर्ण मूल्यों की स्थापना था जिन्हें वह रचनाकारों या रचना को व्याख्यायित करके हासिल करता था। पुरानी श्रुति, काव्यशास्त्र व टीका परम्परा से अलग वह एक समेकित आख्यान गढ़ता था।  इस समेकित आख्यान के केंद्र में देश था जिसे मूल्यों के जरिये हासिल किया जाना था। वह उत्कृष्ट रचनाओं या रचनाकारों की सूची तैयार करता था, जिन्हें किताबों, अख़बारों, पत्रिकाओं, पुरस्कारों और पाठ्यक्रमों जैसे संस्थानों के जरिये पाठक समुदाय तक ले जाता था। उसका ज़िम्मा मूल्य आधारित एक संस्कृति के निर्माण का था।

 देश बनाने की यह परियोजना आज़ादी के बाद क्रमशः धूमिल पड़ती चली गयी और 90 के बाद इसने एकदम अलग आयाम ग्रहण कर लिए। यह एक नया भारत था जिसमें साहित्यिक उत्पादन के साधनों में आमूल-चूल बदलाव हो रहा था। इंटरनेट की दुनिया के आगमन के दौर में ई-प्रकाशनों ने एक बार फिर वैसी ही मुश्किल छापाखाने के सामने पेश कर दी जैसी मुश्किल कभी छापाखाने ने श्रुति परम्परा के सामने पेश की थी।

नब्बे के बाद यह आलोचना संस्कृति बदल गयी। ई-प्रकाशन की दुनिया ने कृतियों की उपलब्धता को उससे कहीं ज़्यादा व्यापक बना दिया, जैसा कि छापाखाने ने किया था। यह सच है कि अभी भी एक अच्छा ख़ासा समुदाय ऐसा है जिसकी इन संशाधनों तक पहुँच नहीं है, जो डिजिटल दिवाइड का शिकार है पर ऐसा ‘बहिष्कृत’ समुदाय प्रिंट ने भी निर्मित किया था।  सस्ते डेटा और प्रकाशन के ख़र्चों से बहुत कम ख़र्च पर ई दुनिया में छपना एक तरह का लोकतांत्रीकरण साबित हुआ। जाति और जेंडर के आधार पर क़ायम वरीयताक्रमों को इस माध्यम ने अपेक्षाकृत ज़्यादा धक्का पहुँचाया। पहली बार पाठकों के रूप में हाशिए के समुदायों से लोग आए, दलित आए, महिलाएँ आयीं, कामकाजी गृहस्थिनें आयीं। वे अब कहीं भी लिख सकते थे और अपने विचार व्यक्त कर सकते थे। ई-मंच इस लिहाज़ से बेहद कारगर सिद्ध हुए। आलोचना के पुराने वाहक पत्रिकाएँ और अख़बार इन सामान्य जनों से अब तक एकतरफ़ा व्यवहार करते चले आ रहे थे। इन माध्यमों में उसकी आवाज़ नहीं सुनी जा रही थी। ज़्यादा से ज़्यादा वह ख़त लिख सकता था पर वे भी सम्पादक नाम की छन्नी से छन कर ही प्रकाशित हो पाते थे। सम्पादक-आलोचक नाम की संस्थाओं की जुगुल-जोड़ी पर सवालिया निशान उठाने शुरू हुए।

हमारे इलाक़े में ब्लॉग पुरानी और नयी आलोचना का मिलन बिंदु था। हालाँकि अंग्रेजी में ब्लॉग की परिकल्पना निजी के उद्घाटन के लिए असीमित असंपादित जगह मुहैया कराने की थी पर हमारी दुनिया में आकर वह सिर्फ़ यही नहीं रह गया। ब्लॉग पत्रिकाओं की तरह चलने लगे जहाँ सम्पादक की सत्ता सर्वाधिक शक्तिशाली होती थी। कम श्रम और पूँजी के साथ सम्पादित होने वाले इन ब्लॉगों ने पत्रिकाओं का स्थानापन्न बनाने की कोशिश की। हालाँकि वे पत्रिकाओं से तुलनात्मक रूप से इसलिए भिन्न थे कि यहाँ अनवरत सम्पादन की सुविधा मिली हुई थी। दूसरे पाठकों को टिप्पणी करने का सुभीता था। पर चूँकि ये ब्लॉग आलोचक/सम्पादक की पुरानी व्यवस्था से ही परिचालित थे, जो मूल्य स्थापित करती है, इसलिए वे आलोचना का अधिकार अपने हाथ में रखते थे। पाठकों की टिप्पणियों को प्रकाशित करने का अधिकार भी उन्हीं के हाथ में था। ऐसे में ई-दुनिया द्वारा लोकतांत्रीकरण का वादा पूरा नहीं हुआ और सोशल मीडिया के अन्य मंचों ने ब्लॉग को पीछे धकेल दिया।

ब्लॉग का चलन से बाहर होना ‘सम्पादक की मौत’ पर आखिरी मुहर था। छापाखाने के बाद की रचना के जरिये मूल्य स्थापना की पारम्परिक प्रविधियों को यह आखिरी झटका था। अब आलोचक के हाथ के सारे हथियार, जिनके जरिये वह समाज में मूल्य-स्थापना करता था, अपनी प्रभावशीलता खो चुके थे। बड़ी से बड़ी साहित्यिक पत्रिकाओं की न सिर्फ़ प्रसार संख्या घट गयी, बल्कि उनमें लिखे शब्दों का महत्त्व कम होता चला गया। पाठकों ने आलोचक को ‘नासेह’ समझ लिया।

ई-प्रकाशन की दुनिया में आने से पहले पाठक, आलोचना में एक अमूर्त क़िस्म की अवधारणा के रूप में दिखता था। पाठकों की पसंद-नापसंद, समझ और यहाँ तक की उनकी संख्या के भी तरह-तरह के अंदाज़े थे। पाठकों से आलोचक की अंत:क्रिया का न तो कोई मंच था और न ही आलोचना में उसकी कोई ज़रूरत महसूस की जाती थी। इन्हीं पाठकों को ई-प्रकाशन ने शक्ति दी और उन्होंने आलोचक की श्रेष्ठता के दावों को ख़ारिज कर दिया। अब वे ख़ुद आलोचक थे। उन्होंने पुराने मूल्यबोध पर आधारित आलोचना के आख्यान को तोड़ दिया। वे ऐसी किसी भी संस्था की महानता को प्रश्नांकित कर रहे थे जो उनके बारे में उनससे बात किए बग़ैर बोलती हो।

इन नए पाठक आलोचकों ने रचना को ‘अनुभूति’ के धरातल पर समझा और उसे अभिव्यक्त किया। वह रचना की तारीफ़ या ख़राबी अपने पाठकीय अनुभवों के आधार पर निकालने लगा जबकि पेशेवर आलोचक अभी भी पुराने मूल्यबोध को स्थापित करने में लगे हुए थे। नए पाठक आलोचकों ने अख़बारों या पत्रिकाओं या पाठ्यक्रमों या पुरस्कारों को उस सत्ता की तरह देखा जो अभी तक उन्हें दबा रही थी, उनके पाठकीय अनुभव को दरकिनार कर रही थी, इसलिए उसको नकारा जाना ज़रूरी है। इन नए पाठक आलोचकों ने रचना के पुराने प्रभामंडल को ध्वस्त कर दिया।

इन नए पाठक आलोचकों की इस ‘अनुभूति’ के पीछे पूँजी द्वारा दी गयी बराबरी की सत्ता काम कर रही थी। बराबरी की इस सत्ता को नए क़िस्म का व्यक्तिवाद कहा जा सकता है। पुराने व्यक्तिवाद की रूमानियत और विद्रोह इस नए व्यक्तिवाद में नहीं थे। यह व्यक्तिवाद पूँजी द्वारा दिए गए मालिकाने से उपजा और अधिकार इसके केन्द्र में स्थापित हुआ।

इसी व्यक्तिवाद की उपज फैन-कल्चर है। अधिकार और अपनी राय को सर्वश्रेष्ठ मानने  समझने की ताक़त रचना के इर्द-गिर्द नए क़िस्म का प्रभामंडल बना रही है। इसका सम्बंध नए क़िस्म के पूँजी द्वारा विकसित नए क़िस्म के मूल्यबोध से है। रचना पर अपनी राय रखते हुए इस पाठक-आलोचक को भले ही लगता हो कि यह उसकी अपनी निजी राय है, पर यह निजी हिसाब-किताब के बर्फ़ीले पानी में डूबा हुआ है। उसे अभिव्यक्ति की आज़ादी तो हासिल हुई लेकिन इस अभिव्यक्ति को ठीक इसी समय सत्ता ने वर्चस्व के जरिये राजनीतिक इस्तेमाल में भी लगा दिया। नए दौर की पूँजी ने नए दौर का आलोचकीय व्यक्तिवाद विकसित किया जो पुराने मूल्य आख्यान से लड़ता है पर नए मूल्य आख्यान बनाने के लिए आवश्यक संघर्ष नहीं करता है। वह पूँजी के आख्यान को एकमात्र आख्यान मानता है।

रचना या रचनाकार के इर्द-गिर्द बनता हुआ नए क़िस्म का प्रभामंडल ही फैन-कल्चर है। पुराना प्रशंसक रचना को प्रगतिशीलता या नए बेहतर समाज के स्वप्न जैसे मूल्यों के आधार पर पसंद करता था। नया फैन रचना की सामाजिक मूल्यवत्ता की बजाय निजी आस्वाद की मूल्यवत्ता के आधार पर संगठित होता है। पुराने प्रशंसक और नए फैन में अंतर यह है कि पुराना प्रशंसक पुराने मूल्य बोध की श्रेष्ठता को स्वीकार करता था, वह आलोचकों द्वारा बनाए गए मूल्यबोध को मानने के बाद ही किसी रचना का प्रशंसक होता था। उदाहरण के लिए ‘गुनाहों के देवता’ के प्रशंसकों को लीजिए। वे इस बात को मानने के बाद ही ‘गुनाहों के देवता’ के प्रशंसक थे कि आलोचकों द्वारा मान्य स्थापित मूल्यों के आधार पर ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ या ‘अंधा युग’ ज़्यादा महत्वपूर्ण रचना है। फैन कल्चर इस आलोचकीय दबाव से मुक्त परिघटना है।

इसका एक दूसरा पहलू भी है। रचनाकार की व्यक्तिवत्ता भी इस फैन-कल्चर के निर्माण में बड़ी भूमिका निभाती है। सोशल मीडिया ने पुराने दौर की तुलना में रचनाकारों को पाठकों के लिए ज़्यादा उपलब्ध बना दिया है। अब लेखक सिर्फ़ रचना नहीं, रचना के इर्द-गिर्द अपनी आभाषी व्यक्तिवत्ता से एक अलग प्रभामंडल बना रहे हैं जिस पर परम्परागत आलोचना ने कोई बात नहीं की है। यह प्रभामंडल लेखक को पाठक आलोचक के नजदीक कर देता है। वह देख पाता है कि उसका लेखक उसी की तरह का मनुष्य है, जो उसी की तरह रोज़मर्रा के जीवन में मुब्तिला है। वह उसके लिए दूर की संस्था नहीं रहा। ‘लेखक की मौत’ के बाद यह लेखक का पुनर्जीवन है पर यह पुनर्जीवित हुआ यह लेखक भूतिया है। लेखक बहुत सचेत ढंग से अपनी ऐसी छवि पाठक आलोचक के सामने रखता है जो उसके लिए आदर्श सी हो।

हिंदी साहित्य के इलाक़े में बड़ी पूँजी के आगमन की आहटों के बीच पीआर एजेंसियाँ और प्रकाशक रचना या रचनाकार के प्रभामंडल के निर्माण के लिए नयी रणनीतियों का सहारा ले रही हैं। किताबों की बिक्री की संख्या या ‘बेस्टसेलर’ इसी तरह की रणनीतियाँ हैं। पुरानी मूल्य आधारित आलोचना के प्रभामंडल से रचना को निकालकर ये संस्थाएँ उसे व्यक्तिवादी आस्वाद के इलाक़े में ले जाना चाहती हैं। इस तरह पाठक तक पहुँचने वाली इस सीधी अपील में पुरानी आलोचकीय सत्ता का नकार है पर साथ ही यह रणनीतियाँ रचना से पूछे जाने वाले सवालों को भोथरा कर देती हैं। मसलन कोई बेस्टसेलर पाठकों की संख्या के मूल्य की ज़मीन पर खड़ा होकर इस सवाल से आराम से बच सकता है कि वह समाज को आगे ले जाता है या नहीं।

इन संस्थानों की रणनीतियों का असर रचना की स्वायत्ता पर भी पड़ा। पहले रचना अपने कथ्य के सहारे डगमगाती हुई पाठक जगत में प्रवेश करती थी और आलोचक उसे रास्ता दिखाता था। आलोचक पर यह दबाव होता था कि वह पाठकों के लिए ज़िम्मेदार है इसलिए वह समाज के प्रगतिशील मूल्यबोध के आधार पर रचना को सहारा दे। रचना की स्वायत्ता पर यह आलोचकीय दबाव नए दौर में बदल गया। प्रकाशक, पीआर एजेंसी या विज्ञापन पर इस तरह का कोई मूल्य आधारित दबाव नहीं दिखता है। नए पाठक आलोचक द्वारा पुरानी आलोचना को दी जाती चुनौती के माहौल में इन संस्थाओं ने खेल के नियम बदलने की कोशिश की।

यह नया पाठक आलोचक अपने अधिकारों और व्यक्तिवत्ता की ज़मीन पर खड़ा तो है पर बाज़ार के नियमों से उसके सम्बंध पर बात नहीं करता। विभिन्न प्रकाशन गृहों और प्रचार संस्थाओं के जरिये बनायी गयी छवि को वह अपने ख़ुद द्वारा बनायी गयी छवि मानता है। मैरियल स्ट्रीप अभिनीत एक फिल्म का संदर्भ यहाँ मौजूँ होगा। ‘डेविल वीयर्स प्राडा’ नाम की फ़िल्म में एक ताक़तवर फ़ैशन डिज़ाइनर है, जिसके काम पर एक सामान्य नौजवान महिला कर्मचारी हँसती-मुस्कराती है। उसके हिसाब से उसने तो अपने मन से अपने कपड़े का रंग चुना है। फ़ैशन डिज़ाइनर  उसे बताती है कि यह जो उसने नीले रंग का स्वेटर पहन रखा है, कैसे और किस प्रक्रिया में उसके मन की पसंद में शामिल कराया गया। आज का पाठक आलोचक भी यह महसूस करता है कि उसने रचना को उसके पुराने प्रभामंडल से, ऐतिहासिकता से बाहर निकाल लिया है और निजी आस्वाद के इलाक़े में ले आया है जहाँ उसकी पसंद आखिरी सत्य है। पर उसकी पसंद बनने की भी एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के सूत्र उपभोक्तावाद में छुपे हैं।

रचना के इर्द-गिर्द बना पारम्परिक मूल्य बोध का प्रभामंडल टूट गया पर नया प्रभामंडल बनाने की मशक़्क़त आलोचकों ने नहीं की। इस तरह आलोचक, जिसे ‘पाठकों के बीच से बेहतर पाठक’ होना था, ने अपनी नैतिक शक्ति खो दी। पाठकों के बीच रचना की बनी हुई छवियों को समझते-बूझते, उससे लड़ते-भिड़ते मूल्य-स्थापना की जो राह जाती थी, आलोचना ने उस राह पर चलना बंद कर दिया और अपनी सर्वशक्तिमान छवि की जगह से पाठकों को समझाना शुरू किया।

आज के पेशेवर आलोचक के सामने चुनौती यह है कि वह रचना के प्रभामंडल का पुनर्निर्माण करे लेकिन यह काम पुराने तरीके से होना असम्भव है। पाठक आलोचक ने पुराने गढ़ों को तोड़ दिया है। बिना उससे बहस-मुबाहिसा किए, बिना उसकी आलोचना की आलोचना किए रचना की आलोचना अब शायद ही सम्भव हो। अगर पेशेवर आलोचकों ने यह नहीं किया तो वे अपनी अलग जगह से रचना के उस प्रभामंडल के बारे में बात करते रहेंगे जो अब सिर्फ़ उन्हीं को दिखता है, जिसे वे अब किसी को दिखा नहीं पाते हैं। पाठकों के बीच में से एक होना इस नए पाठक आलोचक समुदाय से बात करने का पहला चरण है। उनकी पसंद का विश्लेषण इस प्रक्रिया का दूसरा चरण होगा। उनसे बहस-मुबाहिसा करते हुए, उनकी व्यक्तिवत्ता का सम्मान करते हुए आलोचक के स्वयंभू उत्कृष्ट सिंहासन से उतर आना होगा। तभी जाकर आलोचक, इस पाठक-आलोचक समुदाय के मूल्यबोध को किसी बड़े आख्यान में बदल पाएगा।

आज के पेशेवर आलोचक के समक्ष तीसरे कार्यभार की ओर संकेत करके अपनी बात ख़त्म करूँगा। मौजूदा निज़ाम राजनीति में फैन-कल्चर लेकर आया है। प्रधानमंत्री इस संस्कृति के शीर्ष पुरुष हैं। जैसा कि हम ऊपर देख आए, यह संस्कृति अधिकार सम्पन्न तो करती है पर मूल्यों के स्तर पर सत्ता के मूल्यों को ही आखिरी और एकमात्र मूल्य की तरह फैला देती है। इसका नमूना हम उन रचनाकार-आलोचक-टिप्पणीकारों में आए दिन देखते हैं जो ‘एजेंडाहीनता’ की राजनीति करते हैं और इस तरह ‘सौंदर्यशास्त्र का राजनीतिकरण’ करते हैं। वे इस-उस एजेंडे की निंदा करते हैं और ख़ुद सत्ता के एजेंडे से संचालित होते हैं। वे सांप्रदायिक फ़ासीवाद के विरोध में बोलने वालों को ‘राजनीति करने वाला’ कह कर चुप कराते हैं और अपने लिखे को सौंदर्य के आधार पर स्व-प्रमाणित मानते हैं। फ़ासीवाद का इतिहास गवाह है कि फ़ासीवाद ‘सौंदर्यशास्त्र की इस राजनीति’ से फ़ायदा उठाता रहा है। आमतौर पर ऐसे मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के अधिकार-बोध को चुनौती देते हुए, उनके द्वारा दिए गए तर्कों से दूरगामी बहस करते हुए ही हम आज के आलोचक या ‘जनपक्षधर बुद्धिजीवी’ का दायित्व निभा सकते हैं।

 

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