राजकमल स्थापना दिवस पर आयोजित ‘भविष्य के स्वर’ आयोजन में पहली बार जिज्ञासा लाबरू को सुना। हम हिंदी वाले बाहर की दुनिया के बारे में कितना कम जानते हैं। अगर उस दिन जिज्ञासा को नहीं देखा, सुना होता तो यह कहाँ पता चलता कि जिज्ञासा बहुत कम उम्र से बच्चों के भविष्य को दिशा देने का काम कर रही हैं। Slam Out Loud नामक संस्था की स्थापना करके वंचित समुदाय के बच्चों की रचनात्मकता को मुखर करने के काम में लगी हैं। जितना मौलिक उनका काम है उनका वक्तव्य भी उतना ही मौलिक लगा- मॉडरेटर
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जब मैं एक सरकारी स्कूल में दो साल के लिए शिक्षिका थी, मैंने महसूस किया कि मेरी कक्षा में बच्चे जिस पृष्ठभूमि से आए हैं, उसने मेरे सामने विशेषाधिकार और शोषण के सवाल खड़े कर दिए थे।
वही समय था जब मैं सूरज और सुप्रिया से मिली। ये दोनों बच्चे कम आय वाले परिवारों से आते हैं, वे बिहारी प्रवासी श्रमिकों के बच्चे हैं और ऐसे अधिकांश बच्चों के लिए उनके भविष्य का फैसला उनके जन्म से हो जाता है। लेकिन चन्दा और ज्योति की कहानी निराशा और अधिकारहीनता की नहीं, बल्कि विश्वास और अदम्य साहस की है।
चन्दा और ज्योति दोनों ही अपनी कविताओं के माध्यम से अपने विचारों, सवालों, कहानियों और फैसलों को हजारों श्रोताओं तक पहुँचा चुके हैं। अपनी कला और रचनात्मक अभिव्यक्ति का उपयोग वे न केवल मंच पर करते हैं बल्कि घर और स्कूलों में समस्याएँ सुलझाने में भी करते हैं।
कला ही है जिसमें मानव में संवेदनाएँ उभारने, प्रवृत्तियों को ढालने तथा चिन्तन को मोड़ने, अभिरुचि को दिशा देने की अद्भुत क्षमता है। परन्तु हमारे देश के अधिकतर बच्चे कला के विशाल क्षितिज का अनुभव करने से भी वंचित रह जाते हैं। उदाहरण के लिए दिल्ली के सरकारी स्कूलों में हर 1400 बच्चों के लिए एक कला शिक्षक है। जिस देश ने ऐसी कला और संस्कृति को जन्म दिया हो, जिसकी मिसाल पूरी दुनिया देती है, वहाँ वही बच्चे, जिन्हें शायद कला और अभिव्यक्ति की सबसे ज्यादा आवश्यकता है, वही पीछे छूट जाएँ, यह बेहद दुखद और शर्मनाक है। शायद इसलिए SLAM OUT LOUD मेरी कक्षा में शुरू हुई एक परियोजना से आज एक संस्था बन गई है, और हमने कला को उन बच्चों तक लाने का निर्णय लिया जिन्हें इसकी अत्यधिक आवश्यकता है।
हमारी संस्था कहानी, रंगमंच, वाचिक शब्द और दृश्य कला जैसे विभिन्न कलात्मक माध्यमों द्वारा वंचित बच्चों में कलात्मक कौशल और आत्मविश्वास को बढ़ावा देने में सक्रिय है। हम भारत के चार राज्यों में 50 हजार बच्चों के साथ काम कर रहे हैं। ये बच्चे हर रोज अपनी अभिव्यक्तियों को दुनिया के साथ साझा करने के नए माध्यम जान रहे हैं।
आज पूरी दुनिया में नफ़रत और हिंसा बढ़ रही है। तकनीकी सुविधाएँ इनसानी रिश्तों के समय और सुख को छीन रही हैं। सभी टीवी, वीडियो गेम, मोबाइल एप्प और सोशल नेटवर्किंग में उलझे हुए हैं। ऐसे में कला ही ऐसा माध्यम है जो हमें अपने अंतःकरण की प्रस्तुति करने में समर्थ बनाता है।
जब मैंने वंचित बच्चों के साथ काम करना शुरू किया, मेरे सबसे पहले अनुभवों में था हमारे इन बच्चों के लिए देखे गए सपनों का बेहद छोटा होना। पाश के शब्द, “सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना।” साक्षात रूप में मेरे सामने खड़े हुए थे। हमारे सपने मानो नौकरी और परीक्षा में अच्छे अंकों की चादर तक सिमटकर रह गए थे, परन्तु अपनी पहचान, अपनी आवाज़ की खोज करने पर हम सबका बराबर का अधिकार है।
हमारे बच्चे, चाहे वे जहाँ से भी आते हों, नोबल पुरस्कार विजेता, अद्भुत कलाकार, दूरदर्शी नेता बन सकते हैं, और बनेंगे।
कला इस सफर में उनका अधिकार है और आशा करती हूँ हम सब बच्चों की आवाजों को बुलन्द करने में अपना पूरा सहयोग देंगे।
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