राजकमल स्थापना दिवस पर आयोजित ‘भविष्य के स्वर’ में एक वक्तव्य प्रसिद्ध दास्तानगो हिमांशु बाजपेयी का भी था। हिंदुस्तानी की वाचिक परम्परा के वे चुनिंदा मिसालों में एक हैं। उनको सुनते हुए लुप्त होती लखनवी ज़ुबान की बारीकी को समझा जा सकता है। एक बार उनके दास्तान को सुनकर मनोहर श्याम जोशी की पत्नी भगवती जोशी ने मुझे फ़ोन करके बताया कि लड़का बहुत प्यारी लखनवी ज़ुबान बोल रहा था। कंटेंट और फ़ॉर्म दोनों रूपों में उनको सुनना यादगार था। आप उनके व्याख्यान को यहाँ पढ़ सकते हैं- मॉडरेटर
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मैं अपने अज़ीज़ अंकित चड्ढा के एक पसंदीदा क़ौल से अपनी बात शुरू करूंगा: एक न एक कहानी सबके पास होती है और हमें ये कहानी ज़रूर सुनानी चाहिए, अगर हम इसे नहीं सुनाएंगे तो हम अपने वजूद का कोई हिस्सा खो देंगे। कहानियां सुनाना हम पर फ़र्ज़ है क्योंकि दरअस्ल कहानियां लिखे जाने और पढ़े जाने की चीज़ नहीं हैं, सुनाए जाने और सुने जाने की ही चीज़ हैं। इंसान सारा ज्ञान भूल जाता है, सारे तथ्य भूल जाता है, उसे याद रहती हैं तो सिर्फ कहानी। ये कहानियां ही हैं जो हमें दूसरों से अलग होते हुए भी दूसरों से जोड़े रखती हैं।
हमने जब भी दास्तान-ए-शौक़ छेड़ी दोस्तों
हर किसी को ये लगा जैसे उसी की बात है !
कहानी मेरी रुदादे जहां मालूम होती है
जो भी सुनता है उसी की दास्तां मालूम होती है
पिछले कुछ वक्त से किस्सागोई या यूं कहे कि कहानी सुनने का दौर लौट सा आया है। इसलिए अब ज़बानी रिवायत और किस्सागोई पर नए सिरे से बात करना ज़रूरी है। किस्सागोई सिर्फ़ लुत्फ़ का सामान नहीं है बल्कि इंसानी तहज़ीब ओ तमद्दुन की शिनाख़्त का भी ज़रिया है। सुनाई जाने वाली कहानी लिखी जाने वाली कहानी से ज़्यादा निजी और आत्मीय होती है इसलिए इसकी तासीर अलग होती है और इसलिए लखनऊ के बुज़ुर्ग नए लिखने वालों से कहते थे कि ऐसा लिखो के गोया तहरीर में लुत्फ़ ए तक़रीर हो। यानी लिखे हुए में बोले हुए की लज़्ज़त मिले।
लखनऊ में एक बुज़ुर्ग मिर्ज़ा साहब थे जिन्होंने वाजिद अली शाह का ज़माना अपनी नौजवानी में देखा था। जब नौ उम्र लड़के उनसे जाने आलम के दौर का किस्सा सुनाने को कहते तो वो बड़ी मुश्किल से तैयार होते। क्योंकि जब वो उस दौर का हाल बयान करते तो उनपर एक अजीब कैफ़ियत तारी हो जाती। सुनाते सुनाते उनका गला रुंध जाता, वो हिचकियाँ लेकर रोते, सीनाज़नी करते और हाय जाने आलम कहकर बेहोश हो जाते। कहते हैं कि उनकी जान भी जाने आलम का हाल बयान करते हुए निकली। सुनाने की ये शिद्दत किसी किताब में कलमबंद नही हो सकती। न किताब से पढ़कर महसूस की जा सकती है। यहीं से नए दौर की किस्सागोई के लिए एक ज़रूरी बात निकलती है। अंग्रेजों के मीडिया और किताबों में वाजिद अली शाह को कितना भी अय्याश, निकम्मा, अ-लोक प्रिय और ज़ालिम बताया गया हो मगर वो आज तक जान ए आलम हैं, लखनऊ के तसव्वर में एक ज़िंदा किरदार हैं क्योंकि अवाम की ज़बान से उनके किस्से सुनाए जाटव रहे। जिन किस्सों में वो किसी नायक की तरह क़ायम रहे, दायम रहे। आज के और भविष्य के दौर में किस्सागोई की ये उपयोगिता सबसे महत्त्वपूर्ण है। जब मीडिया और बाज़ार मिलकर लोगों को एक ख़ास तरह की जानकारी दे रहे हों, हर शहर से उसका मूल किरदार छीन कर सबको अपने मुताबिक बना रहे हों तब किस्सागोई इसके ख़िलाफ़ एक मजबूत एहतेजाज है। क्योंकि किस्सागोई लोगों को उनकी मौलिकता, विशिष्टता और परंपरा का एहसास करवाती है। उन कहानियों को लोगों तक ले जाती है, बाज़ार, मीडिया या राजनीति जिन कहानियों को लोगों तक पहुचने से रोकते हैं। इसीलिए मैं ज़ोर देकर कहता हूँ कि कारोबारी मीडिया, जो सूदो ज़ियाँ से चलता है, वो कितना ही हिन्दू बनाम मुस्लिम का माहौल बना ले, चाहें कितनी ही बार गंगा जमुनी तहजीब को फ्रॉड बता ले मगर जब तक आसिफुद्दौला और झाऊलाल का, बेगम हजरत महल और राजा जयलाल का, मुंशी नवल किशोर और ग़ुलाम हुसैन का, अशफ़ाक़ और बिस्मिल का किस्सा सुनाने वाले, पंडिताइन की मस्जिद और दौलतगिरी के मंदिर का वाकया सुनाने वाले रहेंगे, नफ़रत का ज़हर असर नहीं करेगा। इसीलिए नए दौर में हमको ज़्यादा से ज़्यादा किस्सागोयों की ज़रूरत है। जिस दौर में दिन रात नफरत के शोले भड़क रहे हों, उस दौर पर मोहब्बत का अब्र ए करम बरसाना एक पोलटिकल एक्ट है। इसीलिए नए दौर में किस्सागोई एक पोलिटिकल एक्ट भी है, इसे सिर्फ मनोरंजन तक महदूद न किया जाए। जिस दौर में भाषा की अपनी राजनीति हो, उसमें अपनी मादरी ज़बान में अपने किस्से सुनाना भी एक पोलिटिकल एक्ट है।
ये हदीसे दिल हमारी बज़ुबाने दीगरां क्या
जो हमीं तुम्हे सुनाते तो कुछ और बात होती
अपनी ज़बान में अपने किस्से। नए दौर की सबसे सुखद बात यही है कि लोग अपनी ज़बान में अपने किस्से सुुुना रहे हैंं, और लोग सुन रहे हैं। इंटरनेट इसमें बहुत बड़ा सहारा बना है। मैंने किस्सा किस्सा लखनवा में अवाम के किस्से सुनाए। आम लोगों के। नवाबी वैभव से अलग किस्से। इसी तरह अलग अलग सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि के लोग अपने अलग अलग लेकिन मख़सूस किस्से सुना रहे हैं। क्योंकि इस दौर में पहली बार उन्हें यकीन हुआ है कि ये किस्से भी सुनाए जा सकते हैं और इन्हें भी सुनने वाले मौजूद हैं। लखनऊ में एक पान वाले ने मुझे सिर्फ और सिर्फ़ पान के किस्से सुनाए। बहुत जल्द वो अपना यूट्यूब चैनल शुरू करने वाला है। हैदराबाद में बुनकरों के साथ काम करने वाले एक दोस्त ने मुझे बुनकरों के बेपनाह ख़ूबसूरत किस्से उपलब्ध करवाए, जो बुनकरों ने ही सुनाए थे। ये अब किताब की शक्ल में भी हैं। इन तरह ये किस्से हमको उस दुनिया मे भी ले जाते हैं, वहां बराबरी का नागरिक बना देते हैं, वहां की संवेदनाओं, सुख दुख और सपनों से जोड़ देते हैं जो हमारी दुनिया से अलग है, जहां हम हक़ीक़त में कभी नहीं गए, या जाना नहीं चाहते, या जा नहीं पाते या जा नहीं सकते।
वो जो आबे ज़र से रक़म हुई थी वो दास्तान भी मुस्तनद
वो जो ख़ून ए दिल से लिखा गया था वो हाशिया भी तो देखते।
इस दौर में हाशिये के किस्से मिल रहे हैं ये बहुत ख़ास है। एक आख़िरी बात जो किस्सागोई के नए दौर के बारे में बहुत अहम है। किस्सागोई अब एक फुलटाइम प्रोफेशन है। पुराने दौर के लोग इस बात को माने या न माने। और चूंकि ये फुलटाइम प्रोफेशन है इसलिए इसका मुस्तक़बिल सुरक्षित है। दास्तानगोई पर ज़वाल तभी आया जब एक प्रोफेशन के तौर पर ये कमज़ोर हुआ। इसी दिल्ली में आख़िरी पेशेवर दास्तानगो मीर बाक़र अली पान बेचते हुए मरे। नए दौर में अंकित चड्ढा ने ये सबसे पहले साबित किया कि किस्सागोई के फुल टाइम प्रोफेशनल होकर ज़िन्दगी पूरी कलंदराना शान, और जाहो जलाल के साथ गुज़ारी जा सकती है। आज बहुत से नए लोग हैं जो फूल टाइम किस्सागोई करटे हैं। माध्यम और फॉर्म चाहें जो हो। बहुत से नए लोग इसमें आना चाहते। मुझे अपने तक़रीबन हर शो में ऐसे लोग मिलते हैं। पिछले 4-5 सालों में डिजिटल मीडिया पर हिंदी में किस्सागोई के 500 से ज़्यादा ठिकाने हैं। ऐसा ही दीगर ज़बानों में भी है। स्पोकेन वर्ड और ओपन माइक स्टोरीटेलिंग की धूम है। दास्तानगोई की अपनी बहुत बड़ी ऑडियंस है जो शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी साहब, महमूद फ़ारूक़ी साहब और उनके बाद अंकित चड्ढा की काविशों से तैयार हुई है। किस्सागोई के बेशुमार इवेंट्स बल्कि बड़े बड़े फेस्टिवल हो रहे हैं। स्कूल कहानी सुनाने वालों को अलग से नौकरी दे रहे हैं। कुल मिलाकर इस चमन में बहार का का समा है और ज़बानी रिवायत या वाचिक परंपरा का जादू अपने शबाब पर है। हो भी क्यों न… क्योंकि
मज़ा तो जब है कि मेरे मुंह से सुनते दास्तान मेरी
कहाँ से लाएगा क़ासिद, दहन मेरा, ज़बाँ मेरी
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