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भविष्य का समाज: सहजीविता के आयाम: जसिंता केरकेट्टा

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जसिंता केरकेट्टा कवयित्री हैं, आदिवासी समाज की मुखर आवाज़ हैं। राजकमल स्थापना दिवस के आयोजन में 28 फ़रवरी को ‘भविष्य के स्वर’ के अंतर्गत उनका वक्तव्य सहजीविता के आयामों को लेकर था- मॉडरेटर

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भारत की मूल संस्कृति सहजीविता की संस्कृति है। क्योंकि यहां गण राज्य होते थे। इतिहास जिन्होंने लिखा उन्होंने यहां के मूलवासियों के नज़रिए से इतिहास नहीं लिखा,अपने तरीके से इतिहास लिखा। लेकिन इस देश में आज भी लोगों ने देश की मूल संस्कृति को बचाकर रखा है। वे लगातार उन संस्कृतियों के छीने जाने या मिटाए जाने के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं। जो लिखा नहीं गया उसे लोगों ने अपने जन जीवन में बचाकर रखा है। तो देश में दो तरह के इतिहास हैं। एक जो लिखा गया है और एक जो जीवित इतिहास है। वह जीवित इतिहास आदिवासियों के पास है। एक संस्कृति जो कई वर्षों से लगातार तथाकथित मुख्यधारा की संस्कृति के खिलाफ लड़ रही है।

सत्यशोधक समाज के संस्थापक जोतिबा फुले ने अपनी पुस्तक ” गुलांगीरी” में संभवतः पहली बार लोक को इतिहास का स्रोत बनाने का प्रयास किया।

देश भर में लोक जीवन में, आदिवासी जीवन में गण और तंत्र अर्थात गणतंत्र की संकल्पना दिखाई पड़ती है। इस देश के जंगलों, पहाड़ों में बसने वाले लोगों ने सबसे पहले गणतंत्र की संकल्पना को विकसित किया। गण मतलब सामूहिक नेतृत्व। सामूहिक नेतृत्व का ही रूप है जो आदिवासियों ने मानकी व्यवस्था, पड़हा राजा व्यवस्था, ग्राम व्यवस्था में बचा कर रखा है। यह ग्रामसभा व्यवस्था इस देश की अत्यंत प्राचीन गण व्यवस्था का ही रूप है। जिसमें नेतृत्व एक व्यक्ति नहीं करता लेकिन 50 प्रतिशत से भी अधिक लोग नेतृत्व में आपसी सहमति से शामिल होते हैं और उस सहमति में स्त्रियों की सहमति का होना भी अनिवार्य है।

इस देश का मानस शास्त्र से नहीं, प्रकृति से जुड़कर चलने वाला मानस रहा है। प्रकृति और मानव के साथ सहअस्तित्व भाव से जीने की यहां की संस्कृति, यहां के जीवन दर्शन आज भी अलग अलग अंचलों में फैली हुई है और वह दिखाई पड़ती है। ढाई हजार साल पहले महावीर जियो और जीने दो  का जो आदर्श दे रहे थे, वह आदर्श देश के आदिवासी जीवन शैली में दिखाई पड़ता है। महात्मा बुद्ध जिस शील और सदाचार की शिक्षा लोगों को देते हैं। वह शील और सदाचार, आदिवासियों के जीवन शैली में दिखाई पड़ता है।

भारतीय मानस हमेशा जन और गण की चिंता करता है। इसलिए जब सत्ता बनाने की बात भी आई तो उसने इसी जनतंत्र और गणतंत्र को शामिल किया। देश के मानस में हमेशा जन प्रमुख रहा, व्यवस्था प्रमुख नहीं रही। और यही वजह है जब जब इस देश का जन संकट में होता है। उसका पहला काम उसी जन की रक्षा करना, उसका हित देखना होता है।

इस देश में आर्य, शक, हुन, युची सभी आए, उन्होंने शास्त्र गढ़े, लोगों को खुद से जोड़ लिया तब भी यहां की मूल संस्कृति जो प्रकृति के साथ चलती थी, आज भी जीवित है, उसकी चारित्रिक व्यवस्था आज तक जीवित है। इसके मूल में जो लोकतांत्रिक व्यवस्था है, यही कारण है कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने अपनी किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया में लिखा है “मिस्र और मेसोपोटामिया या पश्चिम एशिया में हमें हम्माम , सुविधायुक्त स्नानगार नहीं मिले हैं लेकिन वह सबसे पहले मोहनजोदड़ो में मिले। उन मुल्कों में देवताओं के शानदार मंदिर और राजाओं के महलों और मकबरों पर ध्यान दिया गया और धन भी खर्च किए गए और साधारण लोग मिट्टी के घरों से संतोष करते थे लेकिन सिंधु घाटी सभ्यता में उससे उल्टी तस्वीर देखने को मिलती है। यहां अच्छी इमारतें नागरिकों के मिलते हैं।”

सवाल यह उठता है कि क्यों एक ही काल खंड में मनुष्यों की जीवन शैली में इतना फ़र्क मिलता है? इतना बड़ा फर्क बेवजह मौजूद नहीं है। मिश्र और मेसोपोटामिया में राजा को देवता की तरह माना गया इसलिए वहां उनकी मृत्यु के बाद भी पिरामिड बनाने में जनता का धन और श्रम खर्च किया गया। राजा और पुरोहित वर्ग ने मिलकर जनता को दिन हीन बनाए रखा लेकिन भारत में आर्यों के आने से पहले राजा और ईश्वर जैसी संकल्पनाएं नहीं थी। भारत की उसी संस्कृति को, थातियों को, अनीश्वरवाद को, उसी गणतंत्र को वैदिक विचारधारा से हर युग में संघर्ष करना पड़ा और आज भी यह संघर्ष जारी है। आज राजा, ईश्वर, पुरोहितवाद भारत में हावी है हमें देखना चाहिए वह देश की जनता के खिलाफ क्यों है? जन तंत्र और गणतंत्र के खिलाफ क्यों है? यह संस्कृति, यह मानस इस देश का मानस नहीं है।

अब अगर हम सहजीविता के भविष्य की बात करें तो हमें वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था और शास्त्रों से बाहर निकलना होगा और देश की मूल संस्कृति को समझना होगा, प्रकृति को बचाने के लिए यहां के मूल लोगों के संघर्ष को समझना होगा। समझना होगा कि इस देश की व्यवस्था इतनी भ्रष्ट क्यों और कैसे हो गई कि उससे निकलना कठिन लगता है। बेईमानी, भ्रष्टाचार से मुक्त एक समाज की कल्पना करना क्यों मुश्किल लगता है और क्यों यह सिर्फ आदर्शवाद लगता है। इन बातों पर मंथन फिर से शुरू करना होगा।

आदिवासी जो इतिहास, वर्तमान और सहजीविता के भविष्य को जी रहे हैं। उनके जीवन शैली और आज तक उस शैली के बचे रहने के कारणों की पड़ताल करनी होगी। वह संस्कृति और जीवन मूल्य आदिवासियों की नहीं है, वह भारत की मूल संस्कृति है। प्रकृति जो जिसके जीवन से सीख कर महावीर और बुद्ध पैदा हुए और जियो और जीने दो का सिद्धांत दिया, वह इस देश की मूल संस्कृति से निकल कर आता है। यहां के लोग जिस तरह कृषि करते हुए खुद पर निर्भर रहते हैं, वही से अपना दीया लेकर खुद चलने का विचार बुद्ध लोगों को दे जाते हैं। यह सबकुछ इस देश की मूल संस्कृति में है जिसे हर काल में धीरे धीरे नष्ट करने, ध्वस्त करने का प्रयास हो रहा है लेकिन लोग लगातार इसके खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं।

आज इन सारी बातों को समझते हुए हम सहजीविता का नया भविष्य रच सकते हैं। एक नया समाज, नया देश गढ़ सकते हैं जिसके मूल में किसी एक वर्ण, एक समुदाय की श्रेष्ठता, कट्टरता की जगह आपसी सहयोग , संवेदनशीलता और रचनात्मकता शामिल हो। इस दुनिया में आपसी सहयोग से ही मनुष्य हजारों साल तक जीवित रह सका है। इसलिए जीवित रहने के लिए हमें दूसरे लोगों का साथ चाहिए ही। तभी परिवार के बाद समाज का निर्माण मनुष्यों ने किया है। इन सारी बातों को महसूस करते हुए ही हम सहजीविता का बेहतर भविष्य बना सकते हैं।

बस इन्हीं शब्दों के साथ फिर से आप सभी को धन्यवाद। जोहार।

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