हैदराबाद में बलात्कार और हत्या की अमानवीय घटना ने देश भर की संवेदना को झकझोर दिया है। हमारा समाज आगे जा रहा है या पीछे यह समझ नहीं आ रहा है। मुझे नीलिमा चौहान की किताब ‘ऑफ़िशियली पतनशील‘ का यह अंश ध्यान आया। आपने न पढ़ा हो तो पढ़िएगा- मॉडरेटर
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रेप तो होना ही था
उसकी मुट्ठियाँ भिचीं और ओंठ कटे फटे सूजे थे । मुझे पता नहीं कि क्यूँ मैंने उसकी अँगुलियों को एक- एक कर खोला होगा और क्यों उसकी हथेलियों के पसीने को अपनी कुर्ती के कोने से पोंछकर उन्हें दोबारा बंद कर दिया होगा । हाथ में मेरे अखबार है । अखबार में रेप की खबर है । खबर में हमेशा की तरह कोई बदकिस्मत लड़की है । लड़की के पास हमेशा की तरह एक चेहरा है । नाम है । सपने हैं । अपने हैं । पराये हैं । भीड़ है ।
है नहीं थी कहो भीड़ की आवाज़ है । थी क्यों मैं अभी भी हूँ | मैं अभी भी रहना चाहती हूँ । क्या सुना आपने भी ? अभी यह लड़की बुदबुदाई थी । नहीं जी ढहा दी गई लड़की नहीं बोलती । वो होती ही नहीं क्योंकि । खबर बन जाती है । ये कान बस बात बना रहे हैं । नहीं पर मैंने अभी खुद उस लड़की के पसीने और लहू को पोंछा है । मैंने उसकी उघड़ी देह को छूकर जाना है कि मरी नहीं अभी ज़िंदा है । नहीं साहेबान ! ये तबतक मर सकती नहीं जबतक यह मरना नहीं चाहेगी ।
उफ ये कैसी जानी पहचानी भीड़ है । हर बलात्कृत लड़की को घेरकर खड़ी हो जाने वाली भीड़ । इस भीड़ को आँख नहीं । कान नहीं । कलेजा नहीं । हाथ नहीं । बस ज़बान है । अच्छा हुआ आपने इसके चेहरे को ढाप दिया और लड़की अभी देख नहीं सकती । बस सुन सकती है | देख सकती तो आपके चेहरे मोहरे में बलात्कारी का चेहरा पहचान जाती । यह आपके लिए भी अच्छा हुआ वरना आप भी बर्दाश्त कर नहीं पाते इसका चेहरा । अजी गुस्साइए मत मैं तो बस यह कह रही थी कि हमारे यहाँ हर लड़की का चेहरा काफी कुछ एक- सा होता है । हर हँसती हुई का नहीं भी मिले पर रुलाई गई , तड़पाई गई , नोची- खसोटी गई हर लड़की एक- सी दिखाई देती है । कौन माई का लाल ऐसी सड़क पड़ी खूनमखून लड़की में अपने घर की बच्चियों औरतों का चेहरा देखकर सुन्न होना बर्दाश्त कर सकेगा । आप सबको पुख्ता यकीन है न कि ये तकलीफज़दा बलात्कृता लड़की आपके घर खानदान की नहीं ?हाँ आपकी जानी- पहचानी ‘शुक्र है’ वाली फुसफुसाहट सुनाई दे रही है । लड़की को अपनी बदकिस्मती और दुस्साहस के साथ- साथ अँधेरे और निर्जनता की भी सज़ा मिल रही है । हमने नहीं दी और यह हमने नहीं किया । हमने कुछ भी नहीं किया । और हमारे घर की लड़कियाँ हमारी चौकसी के घेरे में महफूज़ हैं और हम आप भी शरीफज़ादे और दीन- धर्म , बाल- बच्चों वाले आदमी हैं जी ।
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वो जो रेपगति को प्राप्त हुई
हर बस में चढ़कर कंडक्टर का , डाइवर का , मुसाफिरों का चेहरा गौर से देखती थी वह । नहीं , नहीं बिटिया की चूड़ियाँ और माता की चुनरी स्टीयरिंग से बाँधने वाला ड्राइवर बलात्कारी नहीं हो सकता । कंडक्टर के चेहरे- मोहरे पर मनहूसितय, कमज़ोरी , अभाव पसरा पड़ा है । न यह कतई ऎसे कुकर्म का भागीदार नहीं हो सकता । यह मुसाफिर खुद अपनी ज़नानी के साथ है यह बलात्कार क्यों करेगा । यह वाला मुसाफिर ज़माने का सताया और उनींदा , अनमना सताया है । यह भी बलात्कारी नहीं सकता । और यह सफेद- पीले तिलक वाला इबादती आदमी । नहीं इसको खुदा का खौफ । यह ऐसा संगीन ज़ुर्म क्यों करेगा । हाँ माँ मैं बस में चढ़ गई हूँ । मैंने एतियातें बरत ली है मुआयना कर लिया है यकीन बना लिया है । इस बस में कोई मेरा रेप नहीं करेगा । लड़की बच गई थी सड़क पर चलती आजू- बाजू , ऊपर – नीचे देखती चलती थी । कपड़े सँभालती पर बीच- बीच में उसका मन कर जाता थोड़ा
उघाड़कर
इठलाकर
बलखाकर
इतराकर
लहलहाकर चलती
पर नहीं अंधेरे में वीराने में नहीं । सब देखभाल कर , सूँघ – वूँघ कर जाँच -वाँच कर । अभी के लिए ठीक नहीं । अभी भावहीन , कामनाहीन , रंगथीन , लचकहीन , कहकहाहीन , सपनाहीन , दमकहीन होकर बचूँगी । ओह वीरानगी ! काश इस वीराने से गुज़रती हुई मैं अदृश्य हो जाऊँ या काश घरती के नीचे नीचे कोई सुरंग होती जो घर तक ले जाती होती । लड़की के सिर पर चील कौव्वे गिद्धों का मँडराना महसूस करती है पर चलती जाती है ।
चूक़ि भीड़ भी एक लिंग है
हम बलात्कारी नहीं बलात्कार के बाद पुलिस के आने तक ज़ख्मी लड़की को घेरकर अफसोस जताने वाली भीड़ हैं । बस हम तो यह जानना चाहते हैं कि लड़की किस जात की थी किस जात के लोगों ने कांड किया । क्या पहनकर निकली थी घर से । कहाँ और किस वक्त थी । नहीं हम यह नहीं कह रहे कि शरीफ नहीं थी | पर शराफत थी तो तो अक्लमंदी क्यों नहीं थी। अक्लमंद रही होगी पर हादसे के वक्त उसकी मत और किस्मत खराब क्यों थी वरना यही लड़की क्यों । ए भाइयों चेहरा मत उघाड़ो रे | बेकार में याद रह जाएगा और घर जाकर निवाला भी हलक से उतारना मुमकिन न हो पाएगा । अभी हमने ही तो अपनी उतारी कमीज़ से इसका निचला हिस्सा ढापा है |
क्या करें इसकी देह से लटकती हुई आँतों को समेटकर ठूँस दें इसके भीतर वापस ? बहादुर थी तभी इसका यह हाल हुआ । इसको हाथ पैर मारने की क्या पड़ी थी की । दरिंदों के आगे हाथ जोड़कर भैया मैं आपकी बहन की तरह हूँ जैसी बातें कहकर गिड़गिड़ाना था । हम खुद आदमी हैं तो समझते हैं कि चालबाज़ी , बराबरी करती औरत गुस्से और जोर को भड़का बैठती है। ये नहीं कि जिस्म बनकर बिछी रहें कुछ मिनट चुपचाप । नीचे की नसों में खून और दिमाग की नसों में जब आवेश बहता है तो उस वक्त आदमी में जानवर उतर आता है । कोई फर्क नहीं पड़ता कि औरत अपने आदमी के रुआब नीचे है या बलात्कारी के नीचे खौफ के नीचे फर्क बस इतना है कि घरवाले को अगली दफा फिर उसी जिस्म को खँखोड़ना है पर बलात्कारी के लिए तो वह आज और अभी का माल है । शिकार की होशियारी ज़ोराज़्माइश किस शिकारी को रास आएगी भला । यही दुष्कर्म आराम से होता तो आज रात को उतनी जल्दी नींद आती घर की जनानियों को थोड़ा कम चेताने से भी काम चल जाता ।
पता नहीं तिरंगे का डंडा डाला है या पहिया बदलने का सरिया । कैसे मुमकिन है । है न मुमकिन । जब कई- कई लोग कई- कई बार एक ही रास्ते में घुसकर राहत पाएँगे तो फिसलन से लबालब रास्ता सुरंग में तब्दील हुआ होगा । वरना कैसे अबतक लड़की की साँसे चल रही हैं । अब तक अपनी आँख से इस कदर दो फाँक लड़की नहीं देखी । देखें फटी हुई लड़की कितनी देर तक ज़िंदा रह सकती है । साहेबान लड़की अपनी अम्मा को यह बताने को ज़िंदा है अबतक कि गलती उसकी नहीं थी । कि उसने इज़्ज़्त को जान से ज़्यादा हिफाज़त की चीज़ समझा । कि वह कभी तो नहीं चूकती थी बस आज पता नहीं कैसे । कि माई बापू मुझे माफ कर दो ।
रेप हो के रहम
वो आए और ले गए देह और उसके बाहर झाँकते सामान को । रेप किट पर लिखे निर्देशों पर रौशनी डालकर ज़रूरियात के सबूत इकट्ठा करने । वरना लड़की इंसाफ किस मुँह से माँगेगी । होंठ , छातियों , नितम्बों , योनि पर लगी लिसलिसाहट अस्पताल वालों के ज़िम्मे । पुलिस के ज़िम्मे नुचे बालों के गुच्छे , टूटे नाखूनों के टुकड़े , चिथड़ी ब्रेज़ियर , लोहे के छड़ । सब दिख रहा । लड़की के तार – तार दिल – ज़िगर – आत्मा के छिटके लोथड़े नंगी आँखों से नहीं दिखते । नहीं रेप किट के हिसाब से ये सबूत मायने रखते नहीं । अगर ये कहीं हों भी तो इनको मौका ए वारदात पर लावारिस छोड़ना बेहतर । अब अस्पताल को और अस्पताल से अगर घर को गई लड़की तो बस देह होकर रहे अच्छा । वैसे भी खंडहर जिस्म में जज़बात , अरमान, सपने रहेंगे नहीं । आत्मा – जिगर- दिमाग रहा तो भी लड़की की बची ज़िंदगी पर उलटा असर करेगा इनका वजूद ।दबोची हुई यह अगर पड़ी रही होती तो आज इसकी आँतें कम – से – कम इसके अंदर ही होतीं ।
भीड़ के एक हिस्से में गुस्सा है पर सवाल नहीं । होश है पर हरकत नहीं । खफगी भी है पर आग नहीं । अभी भीड़ एकमत है कि लड़कियों को ही सिखाना होगा कि बलात्कार होने देने के सिवाय कोई चारा बचे ही न तब किस मैनूअल का पालन करें । कल पुलिस , कानून , राज्य , सरकार मिलकर जारी करेंगे हिदायतावलि । चिकित्सक, मनोचिकित्सक महिला और स्वास्थ्य विभाग , महिला आयोग मिलकर करेंगे तय कि हिंसक रेप कम कैसे हों , लड़कियाँ रेपिस्ट को पहचाने कैसे , रेप के वक्त क्या करें | कल हर रिसाले में हर सड़क पर समाज – कल्याण विभाग के लगाए होर्डिंगों पर लड़कियों को ” अपनी महफूज़ शेल में और महफूज़ कैसे रहें ” सबंधी अधिसूचना चिपकी होंगी । गली- गली से चुनकर बलात्कारी इकट्ठे कर सकते हो ? सज्जन का दुर्जन में तब्दील होना रोक सकती हो ? हर गली कोने के अँधेरे को बल्ब और व्यवस्था की रौशनी से लैस कर सकते हो ? मर्दों और उनकी नलियों की हलचल को काबू कर सकते हो ? नहीं न ? तो लड़कियों को अपनी योनि की पवित्रता का महत्व तो समझा सकते हो । उनके पंख कतर तो सकते हो । उनकी योनि पर पहरा तो दे सकते हो । तो हर लड़की देह में जी पी एस तो फिट कर सकते हो ।
जवाब दो ! जबाव चाहिए !
प्यार उर्फ हिफाज़त वल्द तहज़ीब हाज़िर हो !
हुज़ूर अफसानेबाज़ी नहीं कर रही अपनी बीमारी से लाचार हूँ बस । अखबार की सुर्खियों का आवरण हटाकर बलात्कृताओं की ज़ख्मी देह और आत्मा के नज़दीक कुछ देर बैठकर न जाने किस बात का सोग मना आने की बीमारी । उफ आपको इस तरह घेरकर खड़े होने की कैसी लत है । जनाब जब लड़की का बलात्कार हुआ तो वो अकेली कहाँ थी ।हर बलात्कारी जानता है कि जब वो शिकार पर हमला करेगा तो उसके आसपास दायरा बनाकर एक अदृश्य भीड़ खड़ी ज़रूर होगी । बलात्कार एक सामूहिक स्वीकृति का कर्म है चाहे कितने ही वीराने में क्यों न किया गया हो उसकी जायज़गी को समर्थन देने वाली पूरी सांस्कृतिक चेतना अट्टहास करती शिकार को दहलाती मौजूद हुआ ही करती है । क्या कहा आपने बलात्कार भी हिंसा का एक और तरीका भर है उसमें औरतों को इतनी हाय तौबा मचाकर एक्स्ट्रा सहानुभूति बटोरने की आदत पड़ी हुई है । जनाब आपने औरत की योनि की पाकीज़गी का मिथ गढ़ा और फिर औरत ज़ात की तमाम ताकत को अपनी उस अस्मत की हिफाज़त में झोंक दिया । कमाल ! कमाल ! कमाल! देने वाले भी आप और लेने वाले भी आप । यूँ आधी कुव्व्त और पूरे खौफ के साथ ज़िंदा रहने को औरतों के लिए मशक्कत भरा काम बनाकर आप निश्चिंत हैं । आप जानते नहीं कि हम जानती हैं कि हम आपके लिए जिस्म हैं पर गलती से हमारे पास एक दिमाग भी है । जिसकी मौजूदगी खतरा है आपकी हुकूमत के लिए । एक बहुत बड़ी नाइंसाफी और यह कि आप महज़ बुद्धि हैं पर संयोग से आपके पास एक जिस्म है । आपकी यह बुद्धि आपके जिस्म के ज़रिये आपको हुकूमती होने के लिए उकसाती होती है । आपके लिंग के आतंक के भरोसे आप राज करते रंगे हाथ धरे गए हैं ।
ओह आप अंधेरों और वीरानों के मालिक अपनी औरतों को रौशनी तक दहलीज तक सीमित रखने को प्यार कहते । ध्यान कहते | कद्र कहते । रखवाली कहते । इतना प्यार , ,रखवाली , कद्र , ध्यान कि हम अंतर्ध्यान होने लगें । अंधेरे में कई मर्दों के बीच अकेली हम बेवकूफ , लावारिस , लाचार ,बेकद्र और बदकिस्मत कहलाएँ । आखिरकार शिकार हो जाएँ ।
सुनो लोगों !
मर गईं वो चक्रव्यूह में उलझाया जिनको तुमने
नहीं बचीं वो आठवें चक्र का तोड़ छिपाया जिनसे तुमने
पर देखो !
नज़दीक आ रहा रेला खदेड़ी हुई औरतों का
डर के बँटी हुई नहीं डर का लबादा उतार डटी हुई औरतों का
खोलों को खुरचती बढ़ती चली आती हुई औरतों का
अँधरी खोहों से , गटरों से , तहखानों से , पाताल से
वजूद उनका उफनता चला आ रहा
वे मुड़ – मुड़कर जगह ले रही काफिलों में
भिड़ने को वे आ रही लौट- लौट
प्यार उर्फ हिफाज़त उर्फ महफूज़गी वल्द तहज़ीब के लोम्बड़ से
भिड़ने को वे आ रही लौट- लौट
लेट देयर बी फाइट
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(Dr.) Neelima Chauhan
Associate Professor
Zakir Husain Delhi College (E)
University Of Delhi
Patansheel patniyon Ke Notes
http://patansheel.com
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