Quantcast
Channel: जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1483

चुन-चुन खाइयो मांस: आमिस  

$
0
0

असमिया भाषा की फ़िल्म ‘आमिस’ पर यह टिप्पणी युवा लेखक-पत्रकार अरविंद दास ने लिखी है- मॉडरेटर

==============

एक बार मैं एक दोस्त के साथ खाना खा रहा था. अचानक से दाल की कटोरी से उसने झपटा मार के कुछ उठाया और मुँह में डाल लिया. जब तक मैं कुछ समझता, हँसते हुए उसने कहा- चिंता मत कीजिए मैं आपको नहीं खिलाऊँगी. दाल में गलती से एक टुकड़ा मछली का आ गया था.

भाष्कर हजारिका की असमिया फिल्म ‘आमिस’ देखते हुए यह प्रसंग मेरे मन में आता रहा. प्रसंगवश, मैं वेजिटेरियन हूँ और मेरी दोस्त उत्तर-पूर्व से थी,  जहाँ पर खान-पान की संस्कृति उत्तर भारतीयों से भिन्न है.

इस फिल्म का मुख्य पात्र सुमन एक शोधार्थी है जो एंथ्रापलॉजी विभाग में उत्तर-पूर्व में मांस खाने की संस्कृतियों के ऊपर शोध (पीएचडी) कर रहा है. निर्मली जो पेशे से डॉक्टर है और स्कूल जाते बच्चे की माँ है अपने वैवाहिक जीवन से नाखुश है. उसका डॉक्टर पति अपने सामाजिक काम से ज्यादातर शहर से बाहर रहता है और निर्मली के जीवन में निरसता है. उसके जीवन में सुमन का प्रवेश होता है और दोनों के बीच तरह तरह के मांस खान को लेकर मुलाकातें होती है, प्रेम (?) पनपता है- शास्त्रीय शब्दों में जिसे परकीया प्रेम कहा गया है. लेकिन फिल्म में दोनों के बीच साहचर्य का अवसर कम है और सहसा विकसित प्रेम के इस रूप से खुद को जोड़ना मुश्किल होता है. सिनेमा देश-काल को स्थापित करने में असफल है.  क्या हम इसे खाने के पैशन से विकसित ऑब्सेशन कहें?

खान-पान को लेकर विकसित संबंध को हमने ‘लंच बाक्स’ फिल्म में भी देखा था, पर आमिस फिल्म के साथ किसी भी तरह की तुलना यहीं खत्म हो जाती है.

इस फिल्म में मांस एक रूपक है जो समकालीन भारतीय राजनीति और सामाजिक परिस्थितियों को अभिव्यक्ति करने में सफल है. पर यह मानवीय प्रेम के आधे-अधूरे जीवन को ही व्यक्त कर पाता है. क्या संपूर्णता की तलाश व्यर्थ है?  क्या दोनों के बीच प्रेम का कोई भविष्य नहीं?

फिल्म में अदाकारी, सिनेमैटोग्राफी, संपादन और बैकग्राउंड संगीत उत्कृष्ट है. सिनेमा गुवाहाटी में अवस्थित (locale) है, जिसे सिनेमा में खूबसूरती के साथ चित्रित किया गया है. सिनेमा चूँकि श्रव्य-दृश्य माध्यम है इस वजह से महज कहानी में घटा कर हम इसे नहीं पढ़ सकते. जाहिर है आमिस के कई पाठ संभव हैं, पर यह फिल्म अपने ‘अकल्पनीय कथानक’ की वजह से चर्चा में है. जहाँ अंग्रेजी मीडिया में आमिस को लेकर प्रशंसा के स्वर हैं, वहीं असमिया फिल्मों के करीब 85 वर्ष के इतिहास में इस फिल्म को लेकर दर्शकों के बीच तीखी बहस जारी है.

परकीया प्रेम को लेकर पहले भी फिल्में बनती रही हैं, साहित्य लिखा जाता रहा है. फिल्म खान-पान की संस्कृति को लेकर किसी नैतिक दुविधा या समकालीन राजनैतिक शुचिता पर चोट करने से आगे जाकर लोक में व्याप्त तांत्रिक आल-जाल में उलझती जाती है. मिथिला की बात करुँ तो कुछ जातियों में शादी से पहले वर-वधू की अंगुली से थोड़ा सा नाम मात्र का खून (नहछू?) निकाला जाता है, जिसे खाने में मिला कर एक-दूसरे को खिलाया जाता है. यह परंपरा के रूप में आज भी व्याप्त है. मिथिला की तरह असम में भी तंत्र-मंत्र का प्रभाव रहा है और ख़ास तौर पर कामरूप प्रसिद्ध रहा है. फिल्म में मांस के बिंब को प्रेमी-प्रेमिका के (स्व) मांस भक्षण के माध्यम से स्त्री-पुरुष के संयोग की व्याप्ति तक ले जाना, दूर की कौड़ी लाना है. कला में तोड़-फोड़ अभिव्यक्ति के स्तर पर जायज है, पर कल्पना के तीर को इतना दूर खींचना कि तीतर और बटेर की जगह मानव के मांस के टुकड़े हाथ आए तो इसे हम क्या कहेंगे? इसे हम अभिनव प्रयोग तो नहीं ही कह सकते.

प्रेम के स्याह पक्ष को चित्रित करते हुए यह फिल्म आखिर में एबसर्ड की तरफ मुड़ जाती है.

प्रेम में कागा से ‘चुन-चुन खाइयो मांस’ की बात करते हुए दो अँखियन को छोड़ने की बात भी की गई है जिसे पिया मिलन की आस है. यहाँ तो प्रेम उन आँखों को ही निगलना चाहता है. आँखें ही नहीं बचेंगी तो फिर दर्शक (प्रेमी) देखेगा क्या?

The post चुन-चुन खाइयो मांस: आमिस   appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..


Viewing all articles
Browse latest Browse all 1483

Trending Articles