मैंने अपनी पीढ़ी के सबसे मौलिक कथाकार शशिभूषण द्विवेदी के कहानी संग्रह ‘कहीं कुछ नहीं’ की समीक्षा ‘हंस’ पत्रिका में की है। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस संग्रह की समीक्षा हंस के नए अंक में प्रकाशित हुई है। जिन्होंने न पढ़ी हो उनके लिए- प्रभात रंजन
सन 2000 के बाद के शुरुआती सालों बात है, मिलेनियम शब्द बहुत चर्चा में था। हिंदी में भी नई तरह के लेखन, लेखकों का शोर शुरू हो गया था। कुछ नए मुहावरों के साथ नई रचनाशीलता पहचान बनाने लगी थी। मुझे अच्छी तरह याद है उन्हीं दिनों मैंने ‘काला गुलाब’ नामक एक कहानी पढ़ी थी। कहीं छपी नहीं थी मेरे पास पढ़ने के लिए आई थी। बहुत अलग कहानी थी। उन दिनों हिंदी कहानी में भूमंडलीकरण का विरोध, सांप्रदायिकता, स्त्री विमर्श, दलित विमर्श हिंदी कहानियों के कुछ मुखर साँचे थे जिनमें मेरे जैसे न जाने कितने लेखक ख़ुद को फ़िट करने में लगे रहते थे। उन साँचों में फ़िट करके हम हिट कहानियाँ लिख रहे थे। कहानियों में सबसे असधिक कंटेंट के ऊपर बल दिया जा रहा था।
आलोचक-सम्पादक ऐसी कहानियों को स्वीकृत कर रहे थे, उनको पुरस्कार मिल रहे थे। सच बताऊँ तब हमें यही बताया गया था कि इन प्रचलित साँचों से अलग हटकर लिखने वाले हिंदी के लेखक ही नहीं। ऐसे में शशिभूषण द्विवेदी नामक एक लेखक की डाक से आई हस्तलिखित कहानी को पढ़कर मैं यही सोचता रहा कि यह कैसी कहानी है जो बहुत कुछ कहना चाहती है लेकिन कहती कुछ नहीं है। अव्यक्त की एक गहरी टीस थी उस कहानी में जिसमें उस समय की कहानी का एक प्रचलित फ़ॉर्म्युला बेरोज़गारी का तो था लेकिन प्रेम की पीड़ा, विरसे में मिली बेघरी और एक घर का सपना। मैं कुछ कह नहीं पाया था। जब आप बने बनाए फ़ोर्मूले से अलग हटकर कुछ पढ़ते हैं तो आप एकबारगी कुछ कह नहीं पाते। यह शशिभूषण द्विवेदी की कहानी के साथ मेरा पहला परिचय था, जिसकी याद उनके दूसरे कहानी संग्रह ‘कहीं कुछ नहीं’ में संकलित इस कहानी को देखकर याद आ गई।
वास्तव में शशिभूषण द्विवेदी की कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि उनकी कहानियों में वह सब है जो उस समय के लेखक विषय के रूप में उठा रहे थे लेकिन वे अपने अन्य समलीक़ालीन लेखकों की तरह लाउड हो जाने की हद तक पोलिटिकली करेक्ट होते नहीं दिखते हैं। सब कुछ के बावजूद वे अपने समय के सभी लेखकों से बहुत अलग हैं। यह अपने आप में बहुत अलग बात है कि उनमें लेखक के रूप में सफल हो जाने की आकांक्षा कहीं नहीं दिखती है। वे अपनी कहानियों में मुक्त भाव से जीवन के किसी प्रसंग को उठाकर उसके इर्द गिर्द जीवन का तमाम अव्यक्त जाल जंजाल बुन देते हैं। जैसे ‘काला गुलाब’ कहानी में पिता की मृत्यु के समय कथा नायक का अस्पताल में अटका जीवन है, जहाँ उसको प्रिया नामक नर्स मिलती है जो उसकी स्मृतियों में सदा के लिए अटकी रह जाती है। घर का सपना सपना ही रह जाता है। बेघरी, निरंतर बेरोज़गारी, टूटते सपने उनकी कहानियों में अंतर्निहित धारा की तरह है जो कभी प्रकट रूप में मुखर नहीं होता लेकिन जिसकी अनुगूँज बराबर बनी रहती है।
इस संग्रह में एक कहानी है ‘न भूतो ना भविष्यति’, प्रकट तौर पर यह कहानी रामभक्तों की तेज़ होती राजनीति और उनके छल प्रपंचों की है लेकिन याहन कहानी भूतों की है। ऐसे समय में जब देश में भूतकाल की चर्चा तेज़ी हो गई हो, इतिहास के प्रसंगों को अपनी-अपनी तरह से लिखा जा रहा हो कहानी के भूत पालने वाले नाना बड़े प्रासंगिक लगते हैं। वे गांधी से इतने प्रभावित हुए कि सुल्तानपुर से पैदल ही गांधी से मिलने के लिए दिल्ली निकल लिए। वे चाहते थे कि अगर गांधी जी चाहें तो वे अपने भूतों को भी आज़ादी की लड़ाई में लगा देना चाहते थे। गांधी जी ने तब तो यह कहते हुए मना कर दिया था कि वे भूतों में यक़ीन नहीं करते। लेकिन आज जिस तरह गांधी के हत्यारे को महिमामंडित करने का अभियान चल रहा है, ऐसा लगता है कि नाना के भूत फिर से निकल आए हैं। इस कहानी में भी सपने हैं और उनके टूटने पर भूत बनते किरदार। यह बात रेखांकित की जानी चाहिए कि जिस दौर में यथार्थवाद को हिंदी साहित्य का निकस माना जाता था शशिभूषण की कहानियाँ बार बार उस चौखते को तोड़कर बाहर निकल जाना चाहती हैं, उस चौखटे से जिसमें इंसानी सपनों का कोई मोल नहीं।
ख़ुद इंसान का ही कोई मोल नहीं रह गया है। कथा संग्रह की शीर्षक कहानी ‘कहीं कुछ नहीं’ में कथा नायक कुमार साहब अपने जीवन की कथा लिखवा रहे हैं। वे एक दिन स्वप्न में हज़ार साल आगे की दुनिया में चले जाते हैं जहाँ और कुछ नहीं सिर्फ़ तकनीक ही तकनीक है।जहाँ अब मनुष्य नहीं रहते, मुर्दे रहते हैं। यह वह डिस्टोपिया है जिसमें आज तकनीक केंद्रित समाज जी रहा है- आने वाले समय के उन्नत तकनीक के भयावह दौर की कल्पना में। ऐसी दुनिया में जिसमें वह कुछ नहीं रह जाएगा जिसे आज होने की पहचान के रूप में देखा जाता है। कहीं कुछ नहीं रह जाएगा। कुमार साहब राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा अन्य नेताओं को चिट्ठियाँ लिखते हैं जिसमें अपने नाम के साथ लिखते हैं ‘अध्यापक, दार्शनिक और चिंतक’। लेकिन कभी कहीं से कोई जवाब नहीं आता। लेखक की टिप्पणी है कि अब ऐसे लोगों की कोई ज़रूरत ही नहीं है इसलिए कोई जवाब नहीं आता। कुमार साहब अपने जीवन की कथा लिखवाकर वह सब बचा लेना चाहते हैं जिसे वे जीवन में बचा नहीं पाए।
शशिभूषण द्विवेदी की कहानियाँ एकरैखीय नहीं है। इन कहानियों में कथा के सूत्र ढूँढना बेमानी है। ये गीत की अधूरी पंक्तियों की तरह हैं, कविता की पंक्तियों की तरह, डायरी के टीपों की तरह, चित्र की तरह, ओझल होते जाते दृश्य की तरह हैं। ऊपर मैंने अव्यक्त को व्यक्त करने की उनकी विशेषता के बारे में लिखा। वे ऐसे लेखक हैं जिनके लिए कहानियाँ कुछ और लिखने का माध्यम नहीं हैं बल्कि अपने आप में कुछ हैं। रिचर्ड बाक के उपन्यास जोनथन लिविंगस्टोन सीगल की उस चिड़िया की तरह जिसके लिए उड़ान कहीं पहुँचने के लिए नहीं है बल्कि उड़ान अपने आप में एक सुख की तरह है। इन कहानियों में पाने का नहीं खोने का सुख है। चाहे वह उदास वायलिन के धुन की तरह बजने वाली कहानी ‘अभिशप्त’ हो या ‘शालिग्राम’ कहानी, जिसके रिटायर पिता जो पहले शालिग्राम की तरह थे यानी जिनको केवल भोग लगाने के समय याद किया जाता था। इसके अलावा घर में उनकी कोई उपस्थिति नहीं थी। लेकिन रिटायरमेंट के बाद वे अपने जीवन में वह सब करने लगते हैं जो जीवन भर नहीं किया था।
संग्रह में दो कहानियाँ ऐसी हैं। जो शशिभूषण के लेखन मिज़ाज और इस संग्रह के टोन से भिन्न हैं। एक कहानी है ‘छुट्टी का दिन’। बहुत सामान्य से जीवन की कहानी है। एक कामकाजी आदमी की कहानी है जो सप्ताह भर काम करके छुट्टी के दिन का इंतज़ार करता रहता है। जब छुट्टी आती है तो रोज़मर्रा के ज़रूरी काम आ जाते हैं। काम निपटाकर शाम में पत्नी के साथ घूमने निकलता है और एक मॉल में चला जाता है। मध्यवर्गीय जीवन की एक सामान्य सी कहानी है। जिसे पढ़ते हुए लगता है जैसे उनकी कहानियों के बेघर नायकों को जैसे घर मिल गया हो। इसी तरह की एक कहानी है ‘मोना डार्लिंग और जॉर्ज बुश’। रात में दिल्ली जाने वाले बस के इंतज़ार में खड़े नायक की कहानी है। कुल मिलाकर ये दोनों ऐसी कहानियाँ नहीं हैं इस संग्रह में नहीं होती तो शायद किताब कुछ और अच्छी बन सकती थी। अंत में, लेखक का एक लम्बा आत्मकथ्य भी दिया गया है जिसमें शशिभूषण जी ने अपने संघर्षों की कथा लिखी है। लेकिन सच बताऊँ तो मैं पढ़ते हुए ये सोच रहा था कि क्या आज का हिंदी लेखक अपने अभावों की चर्चा करके अपने लेखन को ‘ग्लोरिफ़ाई’ करने की कोशिश करेगा। मुझे लगता है कि आज हिंदी के लेखकों की दुनिया में वैसा संघर्ष नहीं रह गया है। आज का लेखक सोशल मीडिया के माध्यम से इतना अधिक प्रकट रहता है कि उसके पास अलग से बताने-लिखने के लिए कुछ रह नहीं जाता।
बहरहाल, यह शशिभूषण द्विवेदी का दूसरा कहानी संग्रह है। ‘ब्रह्महत्या तथा अन्य कहानियाँ’ उनका पहला कहानी संग्रह था और उसके प्रकाशन के लम्बे अंतराल के बाद उनका यह संग्रह प्रकाशित हुआ है। उस लिहाज़ से जिस तरह का विकास उनकी कहानियों का होना चाहिए था वह इन कहानियों में नहीं है। अच्छी भाषा है, सहज विट है, विराट रूपक गढ़ने की क्षमता है, काव्यात्मकता है, परंपरा से मुठभेड़ है, शास्त्र और लोक से अंतरपाठीयता है लेकिन फिर भी कोई ऐसा बड़ा मुहावरा उनकी कहानियों का नहीं बन जाता है। बड़ी सम्भावनाएँ जगाकर रह जाती हैं, बड़ा रच नहीं पाती। लेकिन सब कुछ के बावजूद शशिभूषण की कहानियों का अपना ख़ास आकर्षण, कुछ मौलिक रचने की जो आकांक्षा है वह प्रभावित करती है। भाषा की एक ख़ास तरह की आवारग़ी है जो आपको अपने साथ लिए उद्दाम यात्रा पर निकल जाता है।
============================
समीक्षित पुस्तक: कहीं कुछ नहीं
लेखक: शशिभूषण द्विवेदी
राजकमल प्रकाशन, मूल्य-295 रुपए
The post मार तमाम के दौर में ‘कहीं कुछ नहीं’ appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..