भारत सरकार के गुप्तचर ब्यूरो में बहुत वरिष्ठ पद से सेवानिवृत्त त्रिलोक नाथ पाण्डेय अब साहित्य-साधना में लग गए हैं. राजकमल प्रकाशन से अभी हाल में आये इनके उपन्यास ‘प्रेमलहरी’ ने काफी ख्याति अर्जित की है. चाणक्य के जासूसी कारनामों पर आधारित उनका शोधपरक ऐतिहासिक उपन्यास शीघ्र ही आने वाला है. इस बीच, जासूसी के विविध आयामों को उजागर करने वाली कहानियों के एक संकलन पर श्री पाण्डेय काम कर रहे हैं. उन्हीं में से एक कहानी है – ‘आस्था’, जो यहाँ प्रस्तुत है.
गुप्त वंश के निकम्मे और निर्वीर्य शासक रामगुप्त, जो प्रतापी सम्राट समुद्रगुप्त का बेटा और विख्यात सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय का बड़ा भाई था, के शासन-काल की जासूसी गतिविधियों पर आधारित इस कहानी में आप जासूसी के एक अनोखे आयाम से परिचित होंगे. स्मरण रहे यह वही रामगुप्त था जिसने शकों से हारने के बाद सन्धि के लिए शक राजा को अपनी बीवी ध्रुवदेवी को सौंपने को तैयार हो गया था.
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प्रातः सेनापति अभिरथ अपने शयनकक्ष में मृत पाए गए. सारे सुरक्षा प्रहरी अचेत मिले. भवन से कुछ चोरी न हुआ था. गायब थी सिर्फ उनकी सोलह-वर्षीया, मातृविहीना कन्या कमलिनी.
पूरे पाटलिपुत्र में हड़कंप मचा हुआ था. यह पहली बार था कि प्रबल प्रतापी गुप्त साम्राज्य के सेनापति की हत्या उनके आवास पर ही हो गयी. प्रजाजन में विभिन्न प्रकार का प्रवाद (अफवाह) फैल रहा था. ज्यादातर लोग सम्राट राजाधिराज रामगुप्त को कोस रहे थे. सबको दिवंगत सम्राट समुद्रगुप्त याद आ रहे थे जिनके शौर्य की दुन्दुभी पूरे जम्बूद्वीप में बजती थी. कई तो उनके बड़े बेटे कदर्य (कायर) रामगुप्त को सम्राट होने लायक ही नहीं मानते थे, बल्कि उसकी जगह छोटे भाई चन्द्रगुप्त को ज्यादा योग्य समझते थे.
लोग कमलिनी के गायब होने पर भी तरह-तरह का अनुमान लगा रहे थे. कोई कहता कमलिनी अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध निम्न वर्ण के पुरुष से प्रेम करती थी और वही पिता की हत्या कर भाग गयी होगी. कई इसका प्रतिवाद कर रहे थे और तर्क दे रहे थे कि सेनापति अभिरथ ने अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरी शादी न की और अपनी बेटी को खुद बड़े लाड़-प्यार से पाले थे.
महामात्य चंद्रमौलि की पत्नी शुभा विशेष रूप से दुखी और चिंतित थी. कमलिनी उनकी छोटी बहन विभा की बेटी थी. “पहले बहन विभा रहस्यमय परिस्थितियों में मरी थी; फिर बहनोई अभिरथ की हत्या हो गयी और फिर कमलिनी गायब हो गयी. अब कमलिनी पर पता नहीं क्या बीत रही होगी!” कहते हुए शुभा विलाप कर रही थी. शुभा का दुःख जल्दी ही रोष में बदल गया और वह अपने पति चंद्रमौलि को धिक्कारने लगी कि जब ऐसे अतिविशिष्ट जन का यह हाल है तो साधारण प्रजाजन का क्या होता होगा! कैसा निर्वीर्य सम्राट है!! प्रतापी गुप्त साम्राज्य को किसकी नजर लग गयी!!!
सम्राट रामगुप्त बुरी तरह डरे हुए थे. उन्होंने तुरंत अपने अमात्यों की एक आकस्मिक बैठक बुलाई और नाराजगी जताते हुए सबको झिड़का कि यह सब सारा प्रपंच उस षड्यन्त्र का अंग है जिसके अंतर्गत स्वयं उन्हें अपदस्थ करने और हत्या कर देने की योजना थी. उन्होंने महामात्य पर अप्रसन्नता व्यक्त की कि सारा अधिकार और पूरी गुप्तचर व्यवस्था उनके अधीन होते हुए भी वे अपने शक्तिशाली श्यालीवोढ (साढू) को बचा न सके. जो सिंह की भांति रण में गर्जन करता था वह निरीह बकरे की तरह खुद अपने घर में मारा गया इससे बड़ा कलंक महान गुप्त वंश के लिए और क्या हो सकता है! महाराजाधिराज स्वर्गीय सम्राट समुद्रगुप्त की आत्मा मुझे कोस रही होगी. जब अपना भाई ही अपने विरुद्ध हो जाय तो औरों को क्या कहना! कहते हुए सम्राट रोने लगे. उपस्थित सभी विशिष्ट जन आश्चर्य में पड़ गए कि इस आपातस्थिति में साम्राज्य की बागडोर सख्ती से सम्हालने की बजाय सम्राट बच्चों जैसा रो रहे हैं और कायरों जैसा अपने वीर भाई पर षड्यन्त्र का आरोप मढ़ रहे हैं. महामात्य चंद्रमौलि ने उन्हें आश्वासन देते हुए चुप कराया कि दोषियों को जल्द ही पकड़ कर दण्डित किया जायेगा और कमलिनी को शीघ्र खोज निकाला जायेगा. अन्वेषण (इन्वेस्टीगेशन) और आसूचना (इंटेलिजेंस) दोनों शाखाओं के अधिकारी गण इस कार्य में पूरी तरह लग जायेंगे.
सम्राट रामगुप्त ने सलाहकार सभा को विसर्जित कर दिया. रोक लिया सिर्फ राजपुरोहित को. राजपुरोहित अभ्यर्थन से वह देर तक फुसफुसा कर विमर्श करते रहे, जिसका सार यह था कि राजपुरोहित महाकापालिक त्रयम्बकनाथ से सम्राट की सुरक्षा और सकुशलता के लिए विशेष तांत्रिक साधना का आयोजन कराएं. इसके लिए राजपुरोहित ने विशेष व्यय की बात बतायी, जिसे शीघ्रता से राजकोष से प्रदान किया गया.
चन्द्रगुप्त ऐसी बैठकों में नहीं बुलाया जाता था, किन्तु षड्यन्त्र के आरोप की बात उस तक पहुँच चुकी थी. सेनापति अभिरथ को वह सर्वदा वीर सैनिक का सम्मान देता था. उनकी इस तरह हत्या से उसे गहरा आघात लगा था. उनकी पुत्री कमलिनी को उसने एक सैनिक कार्यक्रम के दौरान देखा था. अद्भुत अलौकिक आभा थी उस किशोरी के मुखमंडल पर. चन्द्रगुप्त अनुरक्त तो नहीं, पर प्रभावित बहुत हुआ था उस दिव्य देवीरूपा कन्या पर.
भागवत (वैष्णव) धर्म गुप्त वंश का राजकीय धर्म था. अधिकांश गुप्त नरेशों ने परम भागवत की उपाधि धारण की थी, किन्तु रामगुप्त चुपके से निजी तौर पर शैवों के कापालिक धर्म का अनुयायी हो गया था. कहने वाले तो यहाँ तक कहते थे कि भीमकाय कापालिक त्रयम्बकनाथ से रामगुप्त का समलैंगिक सम्बन्ध था. लिच्छवि राजकुमारी ध्रुवदेवी, जो रामगुप्त की पट्टमहिषी (पटरानी) थी, सम्राट के इस आचरण से बहुत दुखी रहती थी. चूँकि क्लीव, निर्वीर्य, भसद्य (गांडू, भोंसड़ी वाला) व्यक्ति सम्राट ही नहीं, बल्कि उसका पति भी था, अतः ध्रुवदेवी राजकीय गरिमा के कारण मौन रहती थी. दबी जुबान लोगों में बातें चलती थी कि ध्रुवदेवी मजबूरन अपने देवर चन्द्रगुप्त से चुपके से जुड़ी हुई थी.
महामात्य चंद्रमौलि ने सेनापति अभिरथ की हत्या का प्रकरण अन्वेषण हेतु नगर दण्डाधिकारी विभाकर और कमलिनी को खोज निकालने का प्रभार क्षेत्रीय आसूचना अधिकारी अरिंदम को सौप कर उन्हें निर्देश दिया कि प्रतिदिन प्रगति प्रतिवेदन (प्रोग्रेस रिपोर्ट) से उन्हें अवगत कराया कराया जाय. यह कार्य सौंप कर वह तुरंत दूसरे कार्यों में लग गए, जैसे – मृत अभिरथ की पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंत्येष्टि, विभिन्न राजाओं और क्षत्रपों के श्वेतवस्त्रधारी दूतों द्वारा लाये गये शोक-सन्देश स्वीकार करना, और कुछ प्रतिद्वंद्वी राजाओं के दूतों का स्पष्टीकरण सुनना कि इस निर्मम हत्या में उनका कोई हाथ नहीं है और अभिरथ की वीरता का वे सदैव सम्मान करते थे.
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सप्ताह भर गहरी छानबीन के पश्चात नगर दण्डाधिकारी विभाकर ने अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करते हुए चंद्रमौलि को सूचित किया कि घटना वाली रात कोई अभिरथ से मिलने आया था. आगंतुक कोई उच्चाधिकारी लग रहा था और उसके रोबीले और अधिकारपूर्ण बोलने के ढंग से सभी सुरक्षा प्रहरी आतंकित थे, यद्यपि आगन्तुक ने प्रसाद के रूप में सबको मोदक खिलाया था. यह भी पता लगा कि उस रात उस आगंतुक और अभिरथ के मध्य काफी देर तक बकझक होता रहा. फिर, न जाने कब अभिरथ की हत्या हो गयी; कब कमलिनी भाग गयी सुरक्षा प्रहरियों को पता न चल सका क्योंकि वे सबके सब मोदक खाकर अचेत थे. वे तो यह भी न पहचान सके कि आगंतुक वास्तव में कौन था.
इसी बीच, चंद्रमौलि के चरों (गुप्तचरों) ने सूचित किया कि कोई कमलिनी को देवी का रूप बता कर अभिरथ से मांग रहा था किसी अनुष्ठान में अभ्यर्थना (पूजा) के लिए. वह कौन था, इसका पता तो नहीं लगा चरों को, लेकिन इतना अवश्य था कि वह साम्राज्य का कोई बहुत शक्तिशाली और प्रभावशाली व्यक्ति था क्योंकि अभिरथ के आनाकानी करने पर उसने परिणाम भुगतने को धमकाया भी था. वह व्यक्ति कौन था गुप्तचर गण अभी पता न लगा पाए थे.
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चन्द्रगुप्त राजभवन से गायब पाया गया. उसे किसी ने गायब न किया था, बल्कि वह स्वयं चुपके से एक निजी और विश्वस्त सहायक संग अदृश्य हो गया था. राजभवन से दूर जब वह प्रकट हुआ तो कोई उसे पहचान न पाया – मुंडित सिर, चन्दन से भरा हुआ ललाट और शरीर पर काषाय वस्त्र. उसका सहायक भी सन्यासी रूप में ही साथ था. षड्यन्त्र सम्बन्धी सम्राट के आरोपों का खंडन करने के लिए, सेनापति अभिरथ के हत्यारों को धर दबोचने के लिए और कमलिनी को खोज निकालने के लिए चन्द्रगुप्त स्वयं अपने तईं गुप्तचर अभियान शुरू किया था.
सर्वप्रथम दोनों सन्यासी अभिरथ के आवास पर शान्तिपाठ करते हुए पहुंचे. प्रकटतः वे दिवंगत सेनापति की आत्मा की शान्ति की कामना कर रहे थे, किन्तु अवसर का लाभ उठा कर सुरक्षा प्रहरियों से बात करने लगे और जानने की कोशिश करने लगे कि हत्या वाली रात जो आगंतुक आया था वह कैसा दिखता था. प्रहरियों ने बताया कि आगन्तुक जिसने प्रसाद के लड्डू खिलाये वह अत्यंत सामान्य कद-काठी का सामान्य व्यक्ति था. जब एक सन्यासी ने टोका कि सुना गया है कि वह बहुत रोबीला व्यक्ति था, प्रहरियों ने चुप्पी साध लिया और यह कहते हुए कि वे सब के सब बेहोश हो गये थे कुछ भी बताने से इंकार कर दिया. बाद में एक प्रहरी चुपके से सन्यासियों के पास आया और फुसफुसा कर कहा कि उस रात उसको उदरशूल था अतः उसने मोदक न खाया था, किन्तु जब सभी प्रहरी बेहोश हो गए थे तो वह भी बेहोश पड़े रहने का नाटक कर उनके साथ ही लेट गया था. उसने देखा कि सबको बेहोश पड़ा देख कर एक विशालकाय शरीर वाला आगंतुक आया जिसने अपना सिर और मुंह कपड़े से ढंका हुआ था. उसके आने के बाद ही सेनापति की चीख सुनाई पड़ी थी. फिर, वह भीमकाय व्यक्ति और उसके पीछे-पीछे एक अवगुंठनवती (घूंघट वाली) स्त्री चुपके से निकल गए.
चन्द्रगुप्त को अनुमान लग गया कि वह कौन व्यक्ति हो सकता था. उसे अब आगे बढ़ने का संभावित संकेत मिल गया. उसने अपने सहायक के माध्यम से सम्राट रामगुप्त के सबसे विश्वस्त और निजी सेवक को अपना सूत्र (एजेंट) बनाया और उसके द्वारा सम्राट रामगुप्त की अन्तरंग गतिविधियों पर दृष्टि रखना प्रारंभ किया. सूत्र प्रचुर धन बार-बार पाकर गुप्त सूचनाएं निरन्तर देने लगा.
सूत्र की सूचनाओं से ज्ञात हुआ कि सम्राट रामगुप्त और कापालिक त्रयम्बकनाथ के समलैंगिक सम्भोग की आवृत्ति अचानक बहुत बढ़ गयी थी. उत्तेजना की सीत्कारों के दौरान भी बीच-बीच में वे फुसफुसा कर कुछ बातें करते रहते थे, जिसे सूत्र ठीक से सुन न पाता था. फिर भी, उन फुसफुसाहटों में से ‘चक्र-साधना’ जैसा एक शब्द-युग्म सुन पाने का उसने अनुमान लगाया था.
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काष्ठ-प्राचीर-परिवेष्टित (काठ की चाहरदिवारी से घिरे) पाटलिपुत्र नगर से थोड़ी दूर गंगा नदी और शोण नद के संगम क्षेत्र में फैले सघन वन में दो कापालिक बड़ी शीघ्रता से चले जा रहे थे. अँधेरा होने से पूर्व वे महाकापालिक त्रयम्बकनाथ के मठ में पहुँच जाना चाहते थे. कठिनाई उन्हें यह थी कि उन्हें न मार्ग पता था, न कोई मार्गदर्शक था. अपने विश्वस्त गुप्त सूत्रों द्वारा दी गयी आसूचना ही उनका एकमात्र संबल था.
मठ से कोई आध कोस पहले एक विशाल वटवृक्ष के नीचे वे थोड़े विश्राम के लिए ज्यों ही रुके उनके सामने एक विकट कापालिक वटवृक्ष से टपक पड़ा, या कहिये कूद पड़ा. धरती पर आते ही वह कापालिक दोनों आगंतुक कापालिकों से जांच-पड़ताल करने लगा.
“कौन हो?”
“वही, जो आप हो.”
“स्पष्ट उत्तर दो.”
“धिक्कार है! अपने सहधर्मी को भी नहीं पहचानते!!”
“कहाँ से आ रहे हो?”
“काशी से”
“कहाँ जा रहे हो?”
“कामाख्या, कामरूप”
“इधर क्यों आये?”
“आश्रय खोजते.”
विकट कापालिक ने आगंतुक कापालिकों को वहीं रुक कर प्रतीक्षा करने के लिए कह कर भागता हुआ मठ में गया; महाकापालिक त्रयम्बकनाथ के पट्टशिष्य कापालिक कल्पनाथ से अनुमति लेकर उन्हें मठ में ले गया.
मठ एक जीर्ण-शीर्ण पुरानी इमारत थी, बहुत रहस्यमय और भयावह दिखती थी. आगंतुक कापालिकों में से एक ने, जिसने अपना नाम कापालिक रतिनाथ और अपने साथी का नाम कापालिक भवनाथ बताया था, बहुत प्रयास किया महाकापालिक त्रयम्बकनाथ के दर्शन करने का या कम से कम उनके प्रतिबंधित साधना क्षेत्र में प्रवेश करने का, लेकिन असमर्थ रहा. कापालिक कल्पनाथ भी उसकी सहायता न कर सका. हां, इतना जरूर हुआ कि उसने उससे गहरी दोस्ती गाँठ ली.
कापालिक रतिनाथ को कापालिक कल्पनाथ की दोस्ती का एक लाभ यह अवश्य मिला कि उसे महाकापालिक के बारे में बहुत सारी बातें पता चल गयीं. उसी से उसे पता लगा कि महाकापालिक की ‘कापालिक चक्र साधना’ एक त्रिपुरसुन्दरी भैरवी के अभाव में रुकी हुई थी. “आप तो जानते ही हैं कि त्रिपुरसुन्दरी भैरवी कितना कठिन कार्य है, किन्तु हमारे गुरु जी ने ऐसी भैरवी का प्रबंध आखिर कर ही लिया. आगामी अमावस्या को उनकी चक्र-साधना है. उसके बाद तो गुरु जी किसी भी प्रकार सृष्टि या विनाश की शक्ति से युक्त हो जायेंगे.” कापालिक कल्पनाथ ने कापालिक रतिनाथ को फुसफुसा कर ये बातें अपना जान कर बतायीं. दोनों में दोस्ती बड़ी गहरी हो गयी थी.
अमावस्या की रात – ‘कापालिक चक्र-साधना’ की रात – शाम से ही मठ में मरघट-सा सन्नाटा छा गया. महाकापालिक के आवास के प्रतिबंधित क्षेत्र की ओर जाना तो दूर उधर देखने की भी पाबंदी थी. इस महान अवसर की महत्ता को महसूस करते हुए कापालिक रतिनाथ ने काशी से लायी हुई, किन्तु छुपा कर रखी गयी, वारुणी का सेवन सभी साथी कापालिकों को कराया. परिणामस्वरूप, कापालिक रतिनाथ और कापालिक भवनाथ के अतिरिक्त अन्य सभी कापालिक आनन्द के गहरे गर्त में डूब गए.
आधी रात के लगभग दोनों कापालिकों ने चुपके से प्रतिबंधित क्षेत्र में प्रवेश किया. वे बहुत धीरे-धीरे और सम्हाल कर चल रहे थे ताकि उस क्षेत्र में उनकी उपस्थिति पकड़ी न जाय. जब तक वे मुख्य पूजा-स्थल के निकट पहुंचे तब तक पञ्च मकारों में से मद्य, मांस, मत्स्य और मुद्रा का आयोजन सम्पन्न हो चुका था. वातावरण में एक विचित्र, तीक्षण गंध फैली हुई थी. पञ्च मकार के आखिरी चरण ‘मैथुन’ में दोनों – त्रयम्बकनाथ और कमलिनी – रत थे. रतिनाथ को यह देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि कमलिनी बड़े उत्साह से चक्रीय मैथुन में लगी हुई थी. कापालिकों की मान्यता के अनुरूप भैरव व भैरवी – साधक व साधिका – के एक साथ स्खलित होते ही मारे आनन्द के उन दोनों का ब्रह्मरंध्र खुल जाता है और दोनों को दिव्य तत्व की प्राप्ति एक साथ हो जाती है. इस साधना के लिए जिस आत्म-नियन्त्रण और संतुलन की आवश्यकता होती है उसे साधते हुए दोनों चरमोत्कर्ष पर पहुँचने ही वाले थे कि पीछे से बड़े चुपके और चपलता से पहुँच कर रतिनाथ ने त्रयम्बकनाथ की पीठ पर कस कर एक लात मारा.
अप्रत्याशित प्रहार से त्रयम्बकनाथ एकदम अचकचा गया. साधना भंग हो गयी. साधक ने सचमुच विकराल भैरव का रूप धारण कर लिया. साधक और आक्रामक दोनों में भयंकर द्वंद्वयुद्ध प्रारंभ हो गया. भारी-भरकम शरीर वाला त्रयम्बकनाथ फुर्तीले, युवा रतिनाथ पर पहले तो भारी पड़ा, किन्तु जल्दी ही वह हांफने लगा. फिर भी, अपनी पूरी शक्ति लगा कर जब वह रतिनाथ पर प्रहार करता तो रतिनाथ भूलुंठित हो जाता. एक बार तो लगा कि त्रयम्बकनाथ रतिनाथ को मार डालेगा. किन्तु, रतिनाथ ने अपनी मानव कपाल में छुपा कर रखी हुई छोटी-सी छुरी को एक झटके से उठा लिया और त्रयम्बकनाथ के सीने में ताबड़तोड़ प्रहार करने लगा. छोटी छुरी के प्रहार का विशाल और बलवान त्रयम्बकनाथ की भयंकरता पर ज्यादा प्रभाव न पड़ा. लेकिन, रतिनाथ जिस तीव्रता से सधे हाथों लगातार प्रहार कर रहा था, त्रयम्बकनाथ की छाती से खून झरने की तरह निकलने लगा. थोड़ी ही देर में पस्त हो कर वह जमीन पर गिर पड़ा.
साधना भंग होते ही भैरवी बनी कमलिनी का सम्मोहन टूट चुका था. सचेत होते ही वह रतिनाथ के असली रूप को पहचान गयी. वह चीखने ही वाली थी कि रतिनाथ के साथी भवनाथ ने दौड़कर उसका मुंह बंद कर दिया और उसे जकड़ कर पकड़े रहा.
कमलिनी का मुंह और हाथ कपड़े से बाँध कर रतिनाथ ने उसे अपने कन्धे पर लाद लिया और भवनाथ के साथ तेजी से वहां से भागा. वह समझ रहा था कि ज्यों ही अन्य कापालिक होश में आयेंगे, तो उनकी खोज में दौड़ पड़ेंगे. फिर तो भगोड़ों के जान की खैर नहीं.
भागते-भागते सब एक नाले के निकट पहुँच गए, जहाँ रतिनाथ और भवनाथ ने अपने-अपने मानव-कपाल फेंक कर सामान्य मनुष्य का रूप धारण कर लिया. कमलिनी भी अपने रक्षकों के प्रति अनुगृहीत होती हुई उनके साथ सहयोग करती भागने लगी.
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रतिनाथ कोई और नहीं चन्द्रगुप्त ही था. जब उसने अपने बड़े भाई सम्राट रामगुप्त को सारा विवरण बताया तो वह बहुत क्रुद्ध हुआ. उसे ये सूचनाएं भी शांत न कर पा रही थीं कि त्रयम्बकनाथ ने ही सेनापति अभिरथ की हत्या की थी, क्योंकि वह कमलिनी को उसे सौंपने को राजी न था. उसी ने पहले कमलिनी की माँ विभा की भी हत्या की थी. चक्र-साधना के लिए उसने उसे बहुत उपयुक्त पाया था, किन्तु विभा ने उसके प्रस्ताव को घिनौना कह कर अस्वीकार कर दिया था. बाद में, एक आदर्श भैरवी बनने के सभी गुण उसने कमलिनी में पाए और कमलिनी को फुसला कर अपनी भैरवी बनने के लिए उसने पटा भी लिया था, किन्तु उसका पिता अभिरथ उसमें बाधक हो रहा था.
बड़ी मेहनत और जोखिम उठा कर अपने गुप्त सूत्रों द्वारा जुटाई गई सूचनाएं सौंप कर चन्द्रगुप्त अपने ऊपर लगे षड्यन्त्र के आरोपों की सफाई देना चाह रहा था, लेकिन उसके उलट सम्राट उसके ऊपर बहुत नाराज था. उसे महाकापालिक त्रयम्बकनाथ द्वारा चक्र-साधना से अर्जित शक्ति पर बड़ी आस्था थी. अपने शत्रुओं को परास्त करने में उसे महाकापालिक की दैवीय शक्ति का बड़ा भरोसा था. उसे बड़ा दुःख था कि उसकी कामक्रीड़ा का साथी उससे छिन गया.
सबसे बड़ी मुश्किल कमलिनी के लिए खड़ी हो गयी. त्र्यम्बकनाथ ने उसके देवी-रूप की बड़ाई कर-कर के उसको बहकाया था और चक्र-साधना सम्पन्न होने पर उसे सचमुच की देवी होने का विश्वास दिलाया था. चन्द्रगुप्त के हाथों महाकापालिक का दुर्दांत होते ही कमलिनी की आँखें खुल गयीं. अब उसका मोहभंग हो चुका था. लेकिन, अब वह अनाथ थी. उसके मौसा-मौसी – चंद्रमौलि और शुभा – भी सम्राट के कोप के कारण उसे अपने यहाँ आश्रय देने से पीछे हट गए.
ऐसे में, चन्द्रगुप्त आगे आया और अपने खड्ग तले कमलिनी को छाँव देने को तैयार हो गया. उसे सम्राट के क्रोध की परवाह न थी. कमलिनी भी उसकी वीरता और साहस पर रीझ गयी थी.
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कुछ ही दिनों बाद शक आक्रान्ताओं से हारकर जब सम्राट रामगुप्त ने शक नरेश को अपनी पट्टमहिषी ध्रुवदेवी को सौंप कर सन्धि करनी चाही, तो अपमान से क्षुब्ध चन्द्रगुप्त ने उसी खड्ग से शक नरेश की हत्या कर ध्रुवदेवी का उद्धार किया. फिर उसी खड्ग से कायर सम्राट की हत्या कर पाटलिपुत्र का राजसिंहासन हासिल कर लिया.
ध्रुवदेवी अब ध्रुवस्वामिनी थी. कमलिनी को नया नाम मिला भुवनस्वामिनी. दोनों सम्राट चन्द्रगुप्त के खड्ग के छाँव तले बड़ी खुश थीं. दोनों अब उसकी रानियाँ थीं.
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