उषाकिरण खान हिंदी की वरिष्ठ लेखिका हैं और उनके लेखन में बहुत विविधता रही है। उनकी ताजा कहानी पढ़िए। यह कहानी उन्होंने ख़ुद टाइप करके भेजी है- मॉडरेटर
================================
कहाँ फँस गये
कमालुद्दीन मियाँ कमाल ही कहे जाते हैं। वे क़ुतुब मियाँ के इकलौते चश्मेचिराग थे। चार खूबसूरत बेटियों के बाद कमाल के लेरपा वाली दुलहिन ने जना था। बडा दुलारा था कमाल। उसे बहनें दुलार से कमलू कहतीं। सारा गाँव कमलू कहता। कमलू सीधा संकोची ज़हीन बच्चा था। क़ुतुब मियाँ खुद निरक्षर था ।उसको पढ़ाना लिखाना चाहता था। गाँव से बाहर पाँच कोस पर मदरसा था जहाँ पहुँचा देने बड़े भइया ने कहा। बड़े भइया के चार बेटे दो बेटियाँ थीं । एक बेटी मदरसों वाले गाँव में ब्याही थीं। तजवीज़ हुई कि उसी बहन के यहाँ रहकर कमाल पढ़ेगा । लेरपा वाली रोने लगी कि कलेजे के टुकड़े को अलग कैसे करेगी?
” रे बहिनी, करेजा में सटा के रखेगी तब मुरुखे न रहेगा हमलोग जैसा? समझाओ दुलहिन को।” बड़े भाई ने कहा
” देखो मलकीनी, बेटा पढलिख लेगा त कुल बदल जायगा”- समझाया क़ुतुब मियाँ ने
” की बदल जायगा, हमलोग कुजरा से शेख़ हो जायेंगे?”-लोहछ के दुलहिन ने जवाब दिया भरे गले से।
” ई अमरुक जनेना –” बोलकर कपार ठोकता क़ुतुब रूठकर भौजाई के पास बैठ गया।
” की हुआ?”- भौजाई ने पूछा, वह मुँह फुलाये बैठा रहा।
” त भौजइया के गोझनौटा में मुँह छुपा के बैठने से होगा कि दुलहिन को इल्म से समझाओगे?”- भइया ने हंसकर कहा। भौजी सारा मामला समझ गई , कहा-” चुप रहिये आपलोग एकदम्मे हम सब ठीक कर देंगे।” दोनो भाई सहमति में सिर हिलाने लगे।
मदरसे वाले गाँव में जो बेटी थी उसे बडका बेटा को भेज लिवा लाई। उसे सारी बात बताकर काकी को समझाने कहा। बेटी बहुत खुश हुयी कि चचेरा प्यारा भाई उसके साथ रहेगा। उसने काकी को समझाया और भाई को बड़े प्यार से नाव पर बैठाकर ले गई। कमाल के लिये सफ़ेद कुर्ता पाजामा और माथे पर गोल टोपी ख़रीदी गई। टोपी पहनना बेहद अटपटा लगता। एकबार सुन्नत के बाद गाँव क घर घर बिलौकी माँगने वक्त पहना था बस। इन दिनों नमाज़ के समय वो भी रमज़ान में कुछ पल के लिये पहनता। अब हरदम पहनना नागवार गुज़रता। मौलवीसाहब की ज़ुबान ही समझ में न आती इसे। उन्हे चम्पी करनी भी न आये। दिदिया के घर पढुआ बच्चे का खूब मान होता।
एक दिन कमाल बीमार पड़ गया। बुखार से तप रहा था। अम्मा अम्मा करने लगा। घर के लोगों का मन पसीज गया। दवा वगैरह ले दिया पर दिदिया अंकवार में भर कर काकी को सौंप गई। महीने भर में कमाल ने उर्दू का एक हरुफ सीख न पाया। अब जाने के मूड में बिलकुल नहीं था।
” कुतुब्बा, बाबू को अपने गाँव के सरकारी असंतुलन में काहे नहीं पढ़ाते हो?”– भइया ने समझाया।
हँ काहे नहीं, बिदिया त बिदिया है की हिंदी इंग्लिश की उर्दू फ़ारसी “- कहा क़ुतुब ने और दूसरे ही दिन गाँव के मिडिल स्कूल में नाम लिखा गया। कमाल को अपने दोस्तों के साथ पढ़ने में मन लग गया। अब भोरे उठ कर भैंसी की पीठ पर चढ़कर पहसर भी चराता, इसकूल भी जाता और शाम को आलू की क्यारी पर मिट्टी भी चढ़ाता । खानगी मास्टर से भी पढ़ता कमाल। वह बड़ी आसानी से सेकेंड डिवीज़न मिडिल पास कर गया। हाइ स्कूल में दू कोस दूर नाम लिखा तो लिया पर गया नहीं। १४-१५ साल की उमर हुई तब सिमरी गाँव में शादी हो गई दो साल बाद गौने पर आ गई सिमरी वाली। कमाल अपने बाप के साथ मिलकर सब्ज़ियों का बडा किसान हो गया। क़ुतुब कलम कागज लेकर बेटा को हिसाब जोड़ते देखता तो गद्गद रहता। कमाल के तीन बेटे और एक बेटी है। तीनों बेटों ने फोकानिया की परीक्षायें पास कीं। दो बेटे मदरसा में पढ़ाने लगे हैं। कमाल एक संतुष्ट पिता है। बिटिया की शादी बुआ के गाँव में हुई। दामाद सब्ज़ी का आढ़तियों है। बहुत सुखी सम्पन्न है।
” अब्बा, तुम ज़ाहिल क्यों रह गये? सुना तुमको पढ़ने भेजा गया था भागकर चले आये?”- छोटे मुँहलगे बेटे ने पूछा। कमाल मुँह बाये उसे देखता रहा।
” बोलो अब्बू– बेटे ने कोंचा
“कलम कागज रातदिनमेरे हाथ में रहता है, तुम जाहिल कहते हो, क्या जवाब है इसका?” ोचिढकर बोला कमाल
” एको हरुफ उर्दू जानते हो? कुरानशरीफ देखा है?”- कमाल आसमान से गिरा। सच ही तो है, इसने नहीं पढा है क़ुरान । बेटों के पास है पर पढ नहीं सकता। दिनरात सोचता रहा। सिमरी वाली ने टोका ।
” सिमरी वाली, हम जाहिल हैं, क़ुरान तो पढे नहीं।”- कमाल ने अपना दर्द बाँटा ।
“त की सब कुराने पढा होता है ? देखा भी नही होगा। हमरे घर मे तो है।” बीबी गर्व से बोली।
यही न साल रहा है कि रहते हुए हम नहीं पढ सकते हैं।”
काहे? आप तो पढे लिखे हैं”
” हम उर्दू पढ़ना नहीं जानते”
बीबी को लिपि भाषा के बारे कुछ न पता था सो उलझ। में पड़ गई। कमाल साइकिल उठाकर तीन कोस दूर खादी भंडार आये और मैनेजर साहब को शंका कह सुनाया।- मैनेजर साहब ने हँसकर कुर्सी पर बैठने कहा और किताबों की आलमारी से गहरे नीले जिल्द की किताब निकाली और बाज़ू की कुर्सी पर बैठ गये।
दोनों हाथ लाइये कमाल” कमाल ने हाथ बढ़ाया । किताब कमाल के हाथ पर रख दी। बड़े सुनहरे अक्षरों में अंकित था– कुरआनशरीफ । कमाल के शरीर में झुरझुरी पसर गई। उसने सीने से लगा लिया।
” यह हिंदी में है देवनागरी में जो आप पढ सकते हैं”
ले जाऊँ ?”
हाँ पढ लीजिये, शहर जाकर आपके लिये नई ला दुंगा।”- उन्होंने एक झोला दिया किताब रखने के लिये।
कमालुद्दीन मियाँ अब रोज़ क़ुरान शरीफ़ पढ़ते हैं। जाहिल न कहलायेंगे अपनी ही औलाद के सामने।
The post कहाँ फँस गए कमालुद्दीन मियाँ? appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..