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एक इतिहासकार की दास्तानगोई

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हाल में ही युवा इतिहासकार, लेखक सदन झा की पुस्तक आई है ‘देवनागरी जगत की दृश्य संस्कृति’। पुस्तक का प्रकाशन रज़ा पुस्तकमाला के तहत राजकमल प्रकाशन से हुआ है। पुस्तक की समीक्षा पढ़िए। लेखक हैं राकेश मिश्र जो गुजरात सेंट्रल यूनिवर्सिटी में शोध छात्र हैं- मॉडरेटर

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हिंदी जगत में आये दिन ये शोकगीत सुनने को मिलता है कि हमारे यहाँ पर पर्याप्त मात्रा में बौद्धिक लेखन नहीं हो रहा | इस शोकगीत को थोड़ा और विस्तार दिया जाए तो ये भी सुनने को मिलता है कि हिंदी में होने वाले शोधपरक लेखन का स्तर लगातार गिर रहा है | ये दोनों तरह का मातम कुछ हद तक ठीक भी है, पर हिंदी के महत्वपूर्ण इतिहासकार और कहानीकार सदन झा की किताब देवनागरी जगत की दृश्य संस्कृति (रज़ा पुस्तकमाला के तहत राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, 2018) को पढ़ते हुए लगता है,  तमाम अंधकार के बावजूद कुछ लेखक एक खास चुप्पी और तैयारी के साथ काम कर रहे हैं | सदन जी उन्हीं थोड़े से लेखकों में से हैं | इस समीक्षा का उद्देश्य लेखक को स्थापित करना नहीं है बल्कि हमारे समय के इस ज़रूरी इतिहासकार को सुनने की कोशिश है | एक ऐसा इतिहासकार जो अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए अपनी झोली में कई दास्तान ले के खड़ा है | डॉ. सदन झा शुरू से ही इतिहास के विद्यार्थी रहे हैं | वो इतिहास, साहित्य, कला के तमाम रूपों और समकालीन मुद्दों पर गजब की तैयारी और आत्मविश्वास के साथ बोलते हैं | पिछले दो दशक में सदन जी ने हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में पर्याप्त मात्रा में लेखन किया है |  हाल ही में, उनकी छोटी कहनियों का संग्रह हाफ सेट चाय  ने हिंदी के पाठकों के बीच में अच्छा-खासा हलचल मचाया था | 2016 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित उनकी किताब रेवरेन्स, रेसिस्टेंस एंड पॉलिटिक्स ऑफ सीइंग इंडियन नेशनल फ्लैग ने राष्ट्रीय झंडा, चरखा और भारत के इतिहास के संदर्भ में होने वाले शोध के लिए कई नए रास्ते खोल दिए हैं | पर फिलहाल, इस लेखक के कद पर बात करने के बजाए मैं प्रस्तुत किताब पर पाठकों का ध्यान केन्द्रित करना चाहता हूँ |

भूमिका के अलावा ये किताब 9 लेखों का संग्रह है, जो लेखक ने पिछले 10-15 सालों में लिखा है | इन लेखों  से गुज़रते हुए एक दिलचस्प बात सामने आती है की कैसे एक इतिहासकार अपने समय को विभिन्न धरातल पर देख रहा है ? पिछले दो दशक में इतिहास, कला, दृश्य-जगत, साहित्य, सिनेमा, राजनीति और समकालीन मुद्दों पर जो कुछ भी लिखा गया है, वो इन लेखों  से गुज़रते हुए इस तरह के तमाम लेखन का पुनर्पाठ करने का मौक़ा मिलता है | एकदम शुरू में ही लेखक ने इस किताब की भूमिका में दृश्य-संस्कृति के अध्ययन की चुनौतियों पर खुलकर बात किया है | लेखक ने जोड़ देते हुए कहा है की सिर्फ देखना ही काफी नहीं है | ये ज्यादा महत्वपूर्ण है कि कुछ देखते हुए जो अनुभव हमे होता है, उस अनुभव को हम कैसे देख रहे हैं ? इस देखने की संस्कृति में किस तरह से “चित्र ने लिखित शब्द की तुलना में अपने को बेहतर पायदान का हकदार बना लिया” | एक मुश्किल जिम्मेदारी लेते हुए लेखक ने इस किताब की भूमिका में अनुभव और ज्ञान के फर्क को समझाने की कोशिश की है|

इस किताब की यात्रा संतोष रेडियो से शुरू होती है | बिहार के दरभंगा में जॉन नज़ारथ का प्रवेश | फिर 1980 के दशक में संतोष रेडियो का आना, जिसने घर-परिवार के माहौल को बिल्कुल बदल दिया | 1980 के ही दशक में बिहार से होने वाला पलायन, दहेज की यादगार कहानियाँ, शादियों में रेडियो और घड़ी के लिए वो मत्वपूर्ण स्थान, संतोष रेडियो कि कहानी पढ़ते हुए ये सबकुछ किसी दृश्य की तरह आँखों के सामने से गुज़रता है | संतोष रेडियो के बारे में पढ़ते हुए लगता है कि लेखक ने फिक्शन और नॉन-फिक्शन के अंतर को खत्म कर दिया है |

किताब के दूसरे अध्याय, “मामूली राम की दिल्ली : आर्काइव का शहर और शहर का आर्काइव” में लेखक ने दिल्ली शहर के आर्काइव और आर्काइव में बदल चुके इस शहर को पढ़ने की कोशिश की है | किताब के इस हिस्से को पढ़ते हुए ये देखना और जानना बहुत दिलचस्प है की अखबार की कतरनें भी किसी शहर को पढ़ने में मदद कर सकती हैं | द हिन्दुस्तान टाइम्स (1940) और दिनमान (1966) के कुछ कतरनों को हमारे सामने रखते हुए लेखक ने एक ज़रूरी सवाल उठाया है की किसे ‘खबर’ माना जाए और किसी नहीं माना जाए? आज के समय में जब फेसबुक, व्हाट्सअप और ट्विटर जैसे अनेक सोशल मीडिया के माध्यम हमारे सामने उपलब्ध हैं, तब ये सवाल हमारे लिए कुछ ज्यादा ही महत्वपूर्ण हो गया है | ख़बरों के इस बाढ़ में कैसे कल तक जो ‘ख़बर’ थी, वो आज के मीडिया विमर्श में अचानक से गायब हो जाता है |

बहुत दिनों बाद किसी लेखक ने भीड़ को अलग तरीके से ‘देखने’ और ‘दिखाने’ की कोशिश की है | लेखक ने ये काम अपने तीसरे अध्याय, “भीड़, जन समुदाय और राजनीती” में किया है | ये किताब जिस कारण से पढ़ी जानी चाहिए वो है लेखक के पैने और स्पष्ट सवाल | जैसे की भीड़ के बारे में सोचते हुए हर बार हमारे दिमाग में एक नकारात्मक छवी बनती है | इस लेख को पाठकों के सामने रखते हुए लेखक की मूल चिंता यहीं है की भीड़ को कैसे देखा जाए ? इस लेख  के लगभग आखिर में लेखक ने जनलोकपाल बिल के लिए अन्ना हज़ारे द्वारा किये गए आन्दोलन पर बात किया है | यहाँ लेखक ने जोड़ देते हुए कहा है की, किसी जन-समुदाय का आंकलन हम किन रूपों में करें, ये हमें जार्ज रुदे, एडमंड बुर्के और इलिया कोर्नेती जैसे इतिहासकारों के बारे में सोचने को मज़बूर कर देता है, जिन्होंने भीड़ से जुड़े सवालों पर लम्बे समय तक अलग-अलग तरीकों से सोचा है|

किसी भी लेख  में लेखक ने पाठकों को सवालों में उलझाने की कोशिश नहीं की है बल्कि यहाँ पर भीड़ के बारे में सोचते हुए लेखक ने साफ-साफ रेखांकित किया है कि भीड़ हमेशा किसी बाह्य कारकों या उद्देश्यों के प्रभाव में आकर क्रांति में भाग लेती है |

किताब के चौथे और पांचवे लेख  को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए | इस चौथे लेख को लेखक ने प्रभाष  रंजन के साथ मिलकर लिखा है | किताब का ये अध्याय किसी परम्परागत अकादमिक बनावट के बजाए एक रोचक लेख के रूप में हमारे सामने आता है | इस लेख की शुरुआत बहुत छोटे से अवलोकन के साथ होती है | दिल्ली के डी.टी.सी बस में सफर करते लेखक की नज़र पड़ती है उस कोशिश पर जो इस तरह की बसों में ‘महिलावों’ को ‘हिलावों’ में बदल देता है | उपरी तौर पर ‘महिलाओं’ का ‘हिलाओं’ में बदल जाना कहीं ना कहीं पुरुष और महिला सत्ता के बीच के संघर्ष को दिखाता है | पर थोड़ा ठहरकर सोचे तो ये एक त्रिकोणीय लड़ाई है, जो महिला बनाम पुरुष, जन स्थान और पुरुषवादी राज्य के बीच में चल रहा है | पर लेख का सबसे ज़रूरी हिस्सा है रक्स मिडिया समूह के इन्स्टालेशन को देखना | जिस इन्स्टालेशन में बच्चों द्वारा बनाई गई मोहक तस्वीर है और साथ ही भारी-भरकम कानून के शब्द भी | किताब के पांचवें अध्याय को पढ़ते हुए लगता है की जैसे आप दिल्ली के पुरानी गलियों में किसी उत्साही गाइड के साथ भटक रहे हैं | पर ये लेख दिल्ली शहर के बजाए उन सड़कों और मोहल्लों के बारे में है, जिन तक बहुत कम लोग पहुँचते हैं | दिल्ली के हर सड़क और गली के पास अथाह कहानियाँ हैं | यहाँ लेखक ने इन्हीं में से कुछ कहानियों को सुनने और सुनाने की कोशिश की है, ‘सड़क की कहानी’ लिखते हुए |

इस किताब का सबसे मजबूत पक्ष ये है कि ये किताब बार-बार ‘देखने’ पर जोड़ देती है | देखना एक क्रिया है | पर ये क्रिया आसान नहीं | इस देखने के हज़ारों आयाम हो सकते हैं | चाहे वो दिल्ली शहर को देखना हो, राष्ट्रीय ध्वज को देखना हो या 19 वीं सदी की पत्रिका श्री कमला  में छपे किसी चित्र को देखना हो | इस किताब में लेखक देखने के ही नए-नए रास्ते खोज रहा है |

खासतौर से किताब के छठवां और सातवां अध्याय को पढ़ते हुए प्रसिद्ध कला चिंतक और लेखक जॉन बरजर की किताब वेज़ ऑफ़ सीइंग  की याद आती है | छठवां अध्याय इस मामले में भी महत्वपूर्ण लगता है की यहाँ पर लेखक सिर्फ भारतीय झंडा से जुड़े आस्था पर ही नहीं बात कर रहा बल्कि यहाँ पर लेखक ने राष्ट्र और उसके प्रतिक के अंतर को साफ-साफ रखने की कोशिश की है | साथ ही, इस दिशा में भी कुछ नया जोड़ने की कोशिश की है की क्या राष्ट्र या राष्ट्रवाद से बाहर आकर झंडे के बारे में बात नहीं की जा सकती ? इस अध्याय के आधार में वो प्रसंग है जिसमें उद्योगपति और सांसद नवीन जिंदल के छह-साला मुकदमे के बाद केंद्र सरकार ने अप्रैल 2001 में आख़िरकार झंडे के फहराने और प्रदर्शन के बारे में उदार निर्णय लिया | इस निर्णय के पीछे कई अनकही कहानियाँ हैं जो लेखक ने यहाँ कहने की कोशिश की है | किताब के इस हिस्से को पढ़ने के बाद कम से कम ये बात साफ हो जाता है की पिछले दो दशक में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय ध्वज को लेकर जो भी निर्णय लिए हैं वो कहीं ना कहीं राष्ट्रीय ध्वज के उदार उपयोग और उसकी पवित्रता की रक्षा के बीच एक किस्म का संतुलन बनाए रखने की कोशिश है | जबकी किताब का सातवाँ अध्याय 1850 से लेकर 1920 तक देवनागरी में साहित्य,संस्कृति,प्रिंट,विज्ञापन आदी के क्षेत्र में हुए तेज बदलाव के छानबीन की कोशिश है | खास तौर से 1860 के दशक में ना सिर्फ प्रिंट और प्रकाशन की दुनिया में लगातार बदलाव हो रहा था बल्कि फोटोग्राफी एक पेशे के तौर पर भी अपना पैर पसार रही थी | ये वहीँ समय था जब ये तय किया जा रहा था की क्या देखने के लायक है और क्या देखने के लायक नहीं है ?

1850 से लेकर 1920 तक के समय पर बात करते हुए लेखक ने फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना के बाद पैदा हुए हिंदी, उर्दू और हिन्दुस्तानी के नाम पर पैदा हुए विवाद को भी छूने की कोशिश की है | इस किताब के आख़री अध्याय में लेखक ने विभाजन के सिनेमाई दुनिया की पड़ताल की है | विभाजन की त्रासदी पर आपनी बात रखते हुए लेखक ने सबसे पहले भीष्म साहनी के उपन्यास पर आधारित गोविन्द निहलानी द्वारा निर्देशित तमस  (1988) पर बात की है |

तमस  को देखते हुए लेखक ने ना सिर्फ साम्प्रदायिक तत्व को रेखांकित किया है बल्कि उस अपराधबोध की ओर भी इशारा किया है, जो विभाजन के बाद असंख्य लोगों के भीतर पैदा हुआ | तमस  का नत्थू एक अच्छा उदहारण है उस अपराधबोध को समझने के लिए | किताब का ये लेख कुछ-कुछ अधुरा सा लगता है, पर इस एहसास के बावजूद लेखक ने किताब के इस आख़री हिस्से में मनमोहन देसाई निर्देशित छलिया  (1960) का एक गहरा विश्लेषण हमारे सामने रखा है | विभाजन के दौरान अपहरण की गई, लापता और बेसहारा औरतें बहुत लम्बे समय तक विभाजन के इस विमर्श से बाहर थीं | यहाँ लेखक ने इस विमर्श में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया है, लाहौर  और अमर रहे यह प्यार  जैसी फिल्मों पर चर्चा करते हुए | इस लेख को पढ़ते हुए गदर (2001) और अर्थ:1947 (1999) जैसी फिल्मों को देखने के लिए एकदम नई दृष्टि मिलती है | गदर  सिर्फ अपने सफलता के कारण ही रोचक नहीं है बल्कि इस फ़िल्म ने कई पीढ़ियों के बीच विभाजन के अतीत को लेकर संवाद भी स्थापित किया | वहीँ नंदिता दास द्वारा निर्देशित अर्थ:1947 ने उस अपराधबोध को पुरुष देह के बदले नारी देह के माध्यम से देखने की कोशिश की है |

संक्षेप में कहें तो ये किताब ‘देखने’ का एक निरंतर अभ्यास है | इस देखने में ‘इतिहास’ और ‘कहानी’ का फर्क लगातार धुंधला पड़ता गया है | कुछ जगहों पर लेखक का भटकाव थोड़ा खटकता है पर ये मुझ जैसे पाठक की सीमा भी हो सकती है | हिंदी में इस तरह ही किताबों का लगातार स्वागत होना चाहिए | हिंदी की दरिद्रता पर रोने से ज्यादा बेहतर है की इस तरह कि किताबें लिखी और पढ़ी जायें |

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किताब का विवरण : देवनागरी जगत की दृश्य संस्कृति (विमर्श) : सदन झा ; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली;

2018; 250 /-

संपर्क :

Rakesh Kumar Mishra, CUG Boys Hostel, 16/6, Sector-24, Near Chandra Studio, Gandhinagar, Gujarat-382024.

 

फ़ोन :

08758127940

ईमेल:

rakeshansh90@gmail.com

 

 

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