कबीर सिंह फ़िल्म जब से आई है तबसे चर्चा और विवादों में है। इस फ़िल्म पर एक टिप्पणी लेखक, कोच। पॉलिसी विशेषज्ञ पांडेय राकेश ने लिखी है- मॉडरेटर
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कबीर सिंह एक व्यक्तित्व विकार से पीडि़त पात्र की कहानी है, साथ- ही मर्दवादी समाज में मिसोजिनि यानि स्त्री द्वेष के सूत्रों की सफल- असफलत अभिव्यक्ति भी है। प्रोटैगोनिस्ट कबीर दुनिया के तमाम स्त्रीयों से मूलत: घृणा करता है, या ऑब्जेक्ट के रूप में ही देख पाता है। पर, भीतर के हार्मोनों के प्रवाह के वशीभूत जिस एक को प्यार करने के लिए ‘पिक’ करता है, उसके पीछे पागल हो जाता है। यह निर्विरोध ‘पिक’ होना पसंद करने वाली और उस तथाकथित सुरक्षा में अपना कल्याण व प्यार खोजने वाली प्रीति की भी अफसोसजनक कहानी है। यह स्त्री को ‘पिक’ करने करने की सहूलियत देने वाले और ‘पागल’ प्यार को महिमामंडित करने वाले समाज की भी कहानी है। समाज क्यों न महिमामंडित करे, ‘पागलपन’ का लाइसेंस मिल जाना ‘कंट्रोल करने’ का लाइसेंस मिल जाना है।
फिल्मकार ने कबीर सिंह (और प्रीति के भी) के ऑब्सेसन को ‘प्रेम कहानी’ बनाया है। देखा जाए, तो प्रेम में कमोबेश ऑब्सेसन होता है। पर, ऑब्सेसन ही प्रेम नहीं होता। फिल्मकार ने ऑब्सेसन के चित्रण और दर्शक द्वारा इसका ‘मजे लेने’ पर जितना जोर दिया है, उतना जोर प्रेम के ऑब्सेसन से ठहराव की ओर यात्रा पर नहीं दिया है। कबीर ने प्रीति के व्यक्तित्व में कोई स्वायत्ता नहीं छोड़ी है, उसे अपनी चेरी बना लेता है। वही प्रीति जब अपने पिता के आगे बेबस हो जाती है, तो कबीर उसे अपने प्रेम के लिए लड़ने की शिक्षा देता है, प्रेम के मार्ग में जो जाति और हैसियत आती है, उसे कोसता है। कबीर की समस्या ही यही है कि उसकी सामाजिक चेतना बड़ी सेलेक्टिव है, और बस अपने स्वार्थ के काम आती है।
सनक की मनोसामाजिक प्रक्रिया देखनी है, तो फिल्म महत्वपूर्ण है । पर, सनक को ग्लोरिफाई करके फिल्मकार ने धंधा किया है, इस लिहाज से फिल्म बेईमान ठहरती है। कबीर सिंह इंसान सच्चा तो है, पर बस अपने लिए। जैसा- कि अपने कॉलेज में अपने डीन से बहस करते वक्त कहता है, कि ‘आई एम रिवेल फॉर नो रीजन’। एक डिस्पोजिशनल यानि व्यक्तित्व में जड़ीभूत एक सच्चाई है, रिवेल वह इसलिए भी है। लेकिन, यह रिवेल किसी लक्ष्य से नहीं जुड़ता। समाज ने इस रिवेल को दिशा तो नहीं दिया, पर इस रिवेल से अपने लिए लार्जर दैन लाइफसाइज ‘मर्द’ बना लेता है। वह एक व्यक्तित्व विकार का शिकार है, जिसे ठीक करने के लिए परिवार और समाज ने कभी इंटरवेंशन तो नहीं किया, पर समाज अपनी मर्दवादी और स्त्री द्वेषी मूल्यों को उसमें इंजेक्ट करके अपना एक नायक जरूर तैयार करता है। समाज ने उस व्यक्तित्व प्रकार की मौलिक सच्चाई का लाभ तो न लिया, उसकी सनक को दुरूस्त करने की जवाबदेही तो न ली, पर अपना सारा जहर उसमें इंजेक्ट जरूर करता है।
पर, मैंने कबीर सिंह को खारिज नहीं किया है। देखिए, पर आलोचनात्मक विवेक साथ रखकर देखिए।
फिल्म ने जीवन के एक स्याह पक्ष को विषय बनाया है। फिल्म मात्र इसलिए स्याह नहीं हो जाती।
सनक हमारे जीवन के आसपास खूब पसरा सच है। हम सबके भीतर कुछ न कुछ प्रतिशत सनक है। एक कला- माध्यम सनक को क्यों न विषय बनाए।
फिल्मकार ने प्रोटागोनिस्ट को सनकी ही कहा है। फिल्मकार ने कोई यह प्रस्तावना नहीं की है कि वही समाज का नॉर्मल है, और पूरे समाज को ऐसा ही हो जाना चाहिए। दरअसल, फिल्मकार ने वह समाज भी दिखाया है, जो इस सनक में आनंद प्राप्त करता है। यहां तक कि जी- जान से चाहने वाला दोस्त भी वह है जिसे कबीर सिंह के सेक्सुअल भटकावों में अपना विकारियस सटिस्फैक्शन यानि सेकेंड हैंड दबी- छुपी संतुष्टि मिलती है। उसके दरवाजे के भीतर सभी झांकना चाहते हैं। कबीर सिंह की नज़र से स्त्री या तो मां बहन के रूप में सोना- चांदी में लदी- फदी और पूजा- पाठ और सभा- सोसायटी में रत देवी है, प्रेमिका के रूप में संपत्ति है, और बाकी सब- के- सब मादा हैं।
सिनेमा के कैनवस पर हर स्त्री बस मादा के रूप में नज़र आती है। यह सिनेमा का स्याह विषय है। कबीर सिंह समाज का एक प्रतीक चिह्न है, एक सोशल पोजिशन है, जहां पर खड़े होकर हर स्त्री एक मादा है। सिनेमा को देखते हुए अपने- अपने मनोविज्ञानों के अनुसार या तो हम उस सैडिज्म में आनंद प्राप्त करते हैं, या एक डिस्गस्ट एक बेचैनी महसूस करते हैं। अगर बेचैनी उस आनंद से ज्यादा होती तो फिल्म को सार्थक कहा जा सकता था।
सिनेमा से शिकायत तो है। शिकायत यह नहीं है कि उसने ‘सनक’ को विषय कैसे बनाया। ऐसा करके तो फिल्मकार ने एक जरूरी काम किया। फिल्मकार ने यह गलती भी नहीं की कि उसने सनक में प्रेम को नकली प्रेम क्यों नहीं कहा। दरअसल, फिल्म में फिल्मकार ने एक सनकी के माध्यम से प्रेम- संबंध में पैशन के महत्व, जितना भी वह है, को रेखांकित किया है। वह पैशन अगर सनक से मिलता है, जिसमें कुछ महीनों में चार सौ से अधिक बार सेक्स हो सकता है, तो सनक को दरकिनार कर भी वह पैशन तो खोजने और पाने लायक है ही।
सिनेमा से शिकायत यह है कि उसने सनक के चित्रण पर जितना जोर दिया, उतना सनक से हीलिंग पर नहीं। ऐसा लगता है कि सनक को ‘न्यू नॉर्मल’ मानने को तैयार बैठे युवा और समाज के साथ फिल्मकार ने जरूरत से ज्यादा फ्लर्ट किया है। विकारियस यानि दूसरों की संतुष्टि से संतुष्ट होने वाले और सैडिस्टिक संतुष्टि ढूंढने वाले दर्शक- वर्ग को वह यह संतुष्टि तो खूब दिलाता है, पर सनक के पतन को दर्शाने में वह सफल नहीं हो सका है, या शायद जानबूझकर इसपर जोर नहीं देता है।
सिनेमा में हीलिंग व ग्रीफ हीलिंग भी एक विषय है। दुख से उबरने के मनोविज्ञान का सार- तत्व यह है कि दुख को स्वीकार कर और उसको जीकर और क्रमश: दुख के निरपेक्ष स्वीकार की एक स्थिति तक पहुंचकर दुख से बाहर निकलते हैं। दुख में कबीर सिंह गुस्सा करता है, नशा करता है, पर कभी रोता नहीं है। उसका व्यक्तित्व- विकार और मर्दवाद का सामाजिक प्रशिक्षण उसे रोने से रोकता है। शायद, फिल्मकार यह दिखलाना चाहता है कि कबीर सिंह की दादी यह समझती है। कबीर सिंह के पिता ने एक बिंदु पर यह समझा और उसे घर से निकाल दिया कि अब अपनी अनैतिक और कमजोर हरकतों की जवाबदेही वह खुद ले। भाई ने नैतिक साथ कभी न छोड़ा। ग्रीफ हीलिंग के मनोविज्ञान के आधार पर कहें तो, नशा से लड़ने में नशा से परेशान होने की जगह नशा को जीते हुए भी जितनी जल्दी हो सके नशा पर निर्भरता से बाहर आकर, अपने पापों की सब सजा भु्गतकर, अपने भीतर बैठे चालाक समाज जो हमारी बुराईयों से अपनी बुराई को इनक्लाइन करता है को बाहर फेंककर, प्रेमी/ प्रेमिकाओं के प्रति की गई ज्यादतियों के लिए प्रायश्चित कर, अपने ईगो और समाज के मानकों का अतिक्रमण कर प्रेमी/ प्रेमिका को स्वीकारने की मानसिक- नैतिक तैयारी और पाने की जद्दोजहद- यह सब हीलिंग की प्रक्रियाएं हैं।
मुझे फिल्म से शिकायत यह है कि उसने सनक, नशा, सेक्सुअल डेविएशन आदि को एन्जॉय तो बहुत किया, पर हीलिंग की प्रक्रियाएं खानापूर्ति हैं। नायक के दर्द से उबरने और नायिका को पाने की पूरी प्रक्रिया के चित्रण में व्यवसायिक चालाकी है, कि सिनेमा में पूरे समय दर्शक जिस सैडिस्टिक आनंद में डूबता- उरराता रहा, उस आस्वाद में खलल लेकर हॉल से बाहर न आए। नायक के उबरने और बदलने की पूरी प्रक्रिया बहुत ब्रीफ है, नाटकीय प्रभावों के बिना है, और कंविंस नहीं करती। बात तो तब होती, जब कबीर सिंह प्रेमिका प्रीति को तब भी स्वीकार करने को तैयार होता जब प्रीति के पेट में उसके पति का बच्चा होता। फिल्मकार ने कबीर सिंह को सिद्धांत रूप में तो इसके लिए तैयार दिखाया है, पर पता अंत में यही चलता है कि वह बच्चा तो कबीर सिंह का ही है। यानि, फिल्मकार ने दर्शक वर्ग की उस हद तक शॉक- थेरेपी करने की हिम्मत नहीं दिखाई, व्यक्तित्व विकार और समाज के मर्दवाद से निर्मित सनक को उबरने के लिए जिस हद के शॉक की जरूरत होती है।
सिनेमा से शिकायत यह नहीं है कि उसने स्याह को विषय बनाया। सिनेमा से शिकायत यह है कि उसने स्याह में डूबते- उतराते रहना ही ज्यादा पसंद किया है।
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