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गौतम राजऋषि की कहानी ‘तीन ख्वाब, दो फोन-कॉल्स और एक रुकी हुई घड़ी’

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गौतम राजऋषि सदाबहार लेखक हैं, शायर हैं. आज उनकी एक दिलचस्प कहानी पढ़िए- मॉडरेटर

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 सर्दी की ठिठुरती हुई ये रात बेचैन थी| गुमशुदा धूप के लिए व्याकुल धुंध में लिपटे दिन की अकुलाहट को सहेजते-सहेजते रात की ठिठुरन अपने चरम पर थी|

…और रात की इसी बेचैनी में एक बेलिबास-सा ख़्वाब सिहरता रहा था नींद में,नींद भर। जलसा-सा कुछ था उस ख़्वाब के पर्दे पर| बड़ा-सा घर एक पॉश-कॉलोनी के लंबे-लंबे टावरों में किसी एक टावर के सातवें माले पर,एक खूबसूरत-सी लिफ्ट और घर की एक खूबसूरत बालकोनी| कॉलोनी के मध्य प्रांगण की ओर झाँकती वो बालकोनी खास थी सबसे| ख़्वाब का सबसे खास हिस्सा उस बालकोनी से नीचे देखना था| ख़्वाबों का हिसाब रखना यूँ तो आदत में शुमार नहीं, फिर भी ये याद रखना कोई बड़ी बात नहीं थी कि जिंदगी का ये बस दूसरा ही ख़्वाब तो था| इतनी फैली-सी, लंबी-सी जिंदगी और ख़्वाब बस दो…? अपने इस ख़्वाब में उस सातवें माले वाले घर की उस खूबसूरत बालकोनी और कॉलोनी के मध्य- प्रांगण में हो रहे जलसे के अलावा सकुचाया-सा चाँद खुद भी था और थी एक चमकती-सी धूप| चाँद लिफ्ट से होकर तनिक सहमते हुये आया था सातवें माले पर…धूप के दरवाजे को तलाशते हुये| धूप खुद को रोकते-रोकते भी खिलखिला कर हँस उठी थी दरवाजा खोलते ही, देखा जब उसने सहमे हुये चाँद का सकुचाना| जलसा ठिठक गया था पल भर को धूप की खिलखिलाहट पर और चाँद…? चाँद तो खुद ही जलसा बन गया था उस खिलखिलाती धूप को देखकर| धूप ने आगे बढ़ कर चाँद के दोनों गालों को पकड़ हिला दिया| बहती हवा नज़्म बन कर फैल गयी जलसे में और नींद भर चला ख़्वाब हड़बड़ाकर जग उठा| बगल में पड़ा हुआ मोबाइल एक अनजाने से नंबर को फ्लैश करता हुआ बजे जा रहा था| मिचमिचायी-निंदियायी आँखों के सामने न कोई दरवाजा था, न ही वो चमकीली धूप| दोनों गालों पर जरूर एक जलन सी थी, जहाँ ख़्वाब में धूप ने पकड़ा था अपने हाथों से…और हाँ नज़्म बनी हुई हवा भी तैर रही थी कमरे में मोबाइल के रिंग-टोन के साथ| टेबल पर लुढ़की हुई कलाई-घड़ी पर नजर पड़ी तो वो तीन बजा रही थी| कौन कर सकता है सुबह के तीन बजे यूँ फोन… और अचानक से याद आया कि घड़ी तो जाने कब से रुकी पड़ी हुई है यूँ ही तीन बजाते हुये| बीती सदी में कभी देखे गए उस पहले ख़्वाब में आई हुई गर्मी की एक दोपहर से बंद पड़ी थी घड़ी यूँ ही…अब तक|

      मोबाइल बदस्तूर बजे जा रहा था और नज़्म बनी हुई धूप की खिलखिलाहट कमरे के दीवारों पर पर अभी भी टंगी थी…अभी भी बिस्तर पर उसके संग ही रज़ाई में लिपटी पड़ी थी| वो अनजाना सा नंबर स्क्रीन पर अपनी पूरी ज़िद के साथ चमक रहा था| एक बड़ी ही दिलकश और अनजानी सी आवाज थी मोबाइल के उस तरफ…अनजानी सी, मगर पहचान की एक थोड़ी-सी कशिश लपेटे हुये|  नींद से भरी और ख़्वाब में नहायी अपनी आवाज को भरसक सामान्य बनाता हुआ उठाया उसने मोबाइल…

“हैलो…!”

“हैलो, आपको डिस्टर्ब तो नहीं किया?”

“नहीं, आप कौन बोल रही रही हैं ?”

“यूँ ही हूँ कोई | नाम क्या कीजियेगा जानकर|”

“………”

“अभी अभी आपकी कहानी…वो…वो ‘धूप, चाँद और दो ख़्वाब’ वाली…पढ़ कर उठी हूँ| आपने ही लिखी है ना?”

“जी, मैंने ही लिखी है…लेकिन वो तो बहुत पुरानी कहानी है| साल हो गए उसे छपे तो|”

“जी, डेढ़ साल| आपका मोबाइल नंबर लिखा हुआ था परिचय के साथ, तो सोचा कि कॉल करूँ| अन्याय किया है आपने अपने पाठकों के साथ|”

“???????”

“कहानी अधूरी छोड़कर…”

“लेकिन कहानी तो मुकम्मल है|”

“मुझे सच-सच बता दीजिये प्लीज?”

“क्या बताऊँ…????”

“यही कि चाँद सचमुच गया था क्या धूप की बालकोनी में या बस वो एक ख़्वाब ही था?”

“मै’म, वो कहानी पूरी तरह काल्पनिक है|”

“बताइये ना प्लीज, वो ख़्वाब था बस या कुछ और?”

“हा! हा!! मैं इसे अपनी लेखकीय सफलता मानता हूँ कि आपको ये सच जैसा कुछ लगा|”

“सब बड़बोलापन है ये आप लेखकों का|”

“ओह, कम ऑन मै’म! वो सब एक कहानी है बस|”

“ओके बाय…!”

“अरे, अपना नाम तो बता दीजिये!!!”

      …कॉल कट चुका था| मोबाइल सुबह का आठ बजा दिखा रहा था| खिड़की के बाहर दिन को धुंध ने अभी भी लपेट रखा था अपने आगोश में| नींद की खुमारी अब भी आँखों में विराजमान थी| कमरे में तैरती और रज़ाई में लिपटी हुई धूप की खिलखिलाहट लिए नज़्म अब भी अपनी उपस्थिति का अहसास दिला रही थी और वो विकल हो रहा था ख़्वाब के उस सातवें माले पर वापस जाने के लिये अपने जलते गालों को सहलाता हुआ| टेबल पर लुढकी हुई कलाई-घड़ी की सुईयाँ दुरूस्त नब्बे डिग्री का कोण बनाती हुईं पहले ख़्वाब की कहानी सुना रही थीं… जाने कब से| वो पहला ख़्वाब था| ज़िंदगी का…अब तक की ज़िंदगी का पहला ही तो ख़्वाब था वो| तब से रुकी पड़ी घड़ी, जहाँ एक ख़्वाब के ज़िंदा रहने की तासीर थी, वहीं ऊपर वाले परमपिता परमेश्वर का उसके साथ किए गए एक मज़ाक का सबूत भी| पहला ख़्वाब…गर्मी की चिलचिलाती दोपहर थी वो…सदियों पहले की गर्मी की दोपहर, जब चाँद पहली बार उतरा था धूप की बालकोनी में|पहली बार आ रहा था वो धूप से मिलने| सूरज कहीं बाहर गया था धूप को अकेली छोड़ कर अपनी ड्यूटी बजाने और चाँदनी भी मशरूफ़ थी कहीं दूर, बहुत दूर| धूप के डरे-डरे से आमंत्रण पे चाँद का झिझकता-सहमता आगमन था| उस डरे-डरे आमंत्रण पर वो झिझकता-सहमता आगमन बाइबल में वर्णित किसी वर्जित फल के विस्तार जैसा ही था कुछ| …और उसी लिफ्ट से होते हुये सातवें माले पर उतरने से चंद लम्हे पहले होंठों में दबी सिगरेट का आखिरी कश लेकर परमपिता परमेश्वर से गुज़ारिश की थी चाँद ने दोनों हाथ जोड़कर वक्त को आज थोड़ी देर रोक लेने के लिये| दोपहर बीत जाने के बाद…धुंधलायी शाम के आने का बकायदा एलान हो चुकने के बाद, जब धूप और चाँद दोनों साथ खड़े उस खूबसूरत बालकोनी में आसमान के बनाए रस्मों पर बहस कर रहे थे, उसी बहस के बीच धूप ने इशारा किया था कि चाँद की घड़ी अब भी दोपहर के तीन ही बजा रही है| परमेश्वर के उस मजाक पर चाँद सदियों बाद तक मुस्कुराता रहा| उस ख़्वाब को याद करते हुये फिर से नज़र पड़ी टेबल पर लुढ़की कलाई-घड़ी की तरफ| एकदम दुरूस्त नब्बे डिग्री का कोण बनाते हुये कलाई-घड़ी बदस्तुर तीन बजाये जा रही थी| एक सदी ही तो गुज़र गई है जैसे| अब तो किसी घड़ीसाज से दिखलवा लेना चाहिए ही इस रुकी घड़ी को| ईश्वर का वो मज़ाक ही तो था कि उसके वक्त को रोक लेने की गुज़ारिश उसकी घड़ी को थाम कर पूरी की गई थी | …और यदि उसने कुछ और माँग लिया होता उस दिन ईश्वर से? यदि उसने धूप को ही माँग लिया होता ? क्या होता फिर ईश्वर के तमाम आसमानी रस्मों का ? सवाल अधूरे ही रह गये कि मोबाइल फिर से बज उठा था| वही नंबर फिर से फ्लैश कर रहा था…फिर से उसी अजीब-सी ज़िद के साथ…

“हैलोssss…!!!”

“वो बस एक ख़्वाब था क्या सच में ?”

“मै’म, वो बस एक कहानी है…यकीन मानें !”

“आप सिगरेट पीते हैं ?”

“हाँ, पीता हूँ |”

“जानती थी मैं | अच्छी तरह से जानती थी कि आप सिगरेट पीते होंगे |”

“कैसे जानती हैं आप ?”

“आपकी कहानी का हीरो…वो चाँद जो पीता रहता है घड़ी-घड़ी |”

“आप अपने बारे में तो कुछ बताइये |”

“पहले ये बताइये कि धूप और चाँद की फिर मुलाक़ात हुई कि नहीं ?”

“मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा मै’म कि आप क्या पूछ रही हैं ?”

“हद है, कैसे लेखक हैं आप ? अपनी कहानी तक याद नहीं आपको ?”

“अच्छा, आपको कहानी कैसी लगी ?”

“एकदम सच्ची…हा ! हा !! हा !!!” मोबाइल के उस पार की वो हँसी…उफ़्फ़, कितनी पहचानी-सी| ख़्वाब-सी, मगर कितनी जानी-सी | कमरे के दीवार पर टंगी वो नज़्म फिर से जीवंत हो कर जैसे हिली थी पल भर को |

“अब क्या बोलूँ मैं इस बात पर ?”

“आप अपनी इस कहानी का सिक्वेल भी लिखेंगे ना ?”

“नहीं मै’म, कहानी तो मुकम्मल थी वो |”

“ऐसे कैसे मुकम्मल थी ? आजकल तो सिक्वेल का जमाना है…लिखिये ना प्लीज़ !”

“आप अपना नाम तो बता दीजिये कम-से-कम|”

“पहले आप, सिक्वेल लिखने का वादा कीजिये!”

“हद है ये तो…क्या लिखूंगा मैं सिक्वेल में ?”

“कमाल है, लेखक आप हैं कि मैं ? कहानी को आगे बढ़ाइये | चाँद और धूप ने आसमान के बनाए कायदे की ख़ातिर आपस में नहीं मिलने का जो निर्णय लेते हैं आपकी कहानी में…उसके बाद की बात पर कुछ लिखें आप |”

“वो कहानी वहीं खत्म हो जाती है, मै’म…ठीक उस निर्णय के बा द| उसके बाद कुछ बचता ही नहीं है |”

“अरे बाबा, कैसे कुछ नहीं बचता | दोनों मिल नहीं सकते, लेकिन चिट्ठी-पत्री तो हो सकती है,कॉल किया जा सकता है…तीसरा ख़्वाब देखा जा सकता है |”

“तीसरा ख़्वाब ?आप कौन बोल रही हैं ??”

“जितने बड़े लेखक हैं आप, उतने ही बड़े डम्बो भी !”

“आप…आप कौन हो ? प्लीज बता दो !”

“सिगरेट कम पीया कीजिये आप !”

“आप…आप…!!!”

“एकदम डम्बो हो आप | वो कलाई घड़ी आपकी अभी तक तीन ही बजा रही है या फिर ठीक करा लिया ?”

“धूप ?…तुम धूप हो ना ?”

“हा ! हा !! ब’बाय…!!!”

“हैलो…हैलो…हैलो…”

      …कॉल फिर कट चुका था | नींद अब पूरी तरह उड़ चुकी थी | बाहर दिन के खुलने का आज भी कोई आसार नज़र नहीं आ रहा था और नज़्म बनी हुई हवा अब भी टंगी हुई थी कमरे में,अब भी लिपटी हुई थी रज़ाई में | कानों में गूँजती हुई मोबाइल के उस पार की वो खनकती-सी खिलखिलाहट कमरे में टंगी हुई नज़्म के साथ जैसे अपनी धुन मिला रही थी और गालों पर की जलन जैसे थोड़ी बढ़ गई थी | सिगरेट की एकदम से उभर आई जबरदस्त तलब को दबाते हुये चाँद ने अपने गालों को सहलाया और मोबाइल के रिसिव-कॉल की फ़ेहरिश्त में सबसे ऊपर वाले उस अनजाने से नंबर को कांपती ऊंगालियों से डायल किया | मोबाइल के उस पार से आती “दिस नंबर डज नॉट एग्जिस्ट… आपने जो नंबर डाल किया है वो उपलब्ध नहीं है, कृपया नंबर जाँच कर दुबारा डायल करें” की लगातार बजती हुई मशीनी उद्घोषणा किसी तीसरे ख़्वाब के तामीर होने का ऐलान कर रही थी ।

~ गौतम राजऋषि

9759479500

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