मृणाल पांडे का उपन्यास ‘सहेला रे’ एक दौर की कला की दास्तानगोई है. महफ़िल गायकी की छवि को दर्ज करने की एक नायाब कोशिश. इस उपन्यास पर नॉर्वेवासी अपने लेखक डॉक्टर प्रवीण झा ने लिखा है. उपन्यास राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित है. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर
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कुछ किताबों के शीर्षक बुलाते हैं, या जिन्हें कुछ ख़ास लत है, उन्हें भरमाते हैं। ‘सहेला रे’ बंदिश जिसने सुनी, वह इस पाश को समझता है कि यह कितना ‘हॉन्टिंग’ है। ठीक से याद नहीं, लेकिन अरुंधति रॉय जी को एक दफ़े लंदन में किसी साक्षात्कार में सुना था कि यह बंदिश गाड़ी में सुनती हैं तो सम्मोहित हो जाती हैं। साहित्य से जुड़े लोग इसमें छुपे टीस मारते अवसाद को शायद ‘मैंने मांडू नहीं देखा’ से जोड़ पाएँ। जो भी हो, इस भँवर से मैं न बच पाया और हकबकाया इस शीर्षक से जुड़ी किताब ढूँढने लगा। एक गुणी मित्र से पूछा कि किस संदर्भ में किताब है, आप तो खूब पढ़ते हैं? उन्होंने भी प्रश्न का त्वरित उत्तर दिया कि पुस्तक किशोरी अमोनकर जी पर है। यह उसी तरह के हितैषी मित्र हैं जिन्होंने कभी कहा था कि गिरमिटियों पर सबसे सुंदर किताब गिरिराज किशोर जी की ‘पहला गिरमिटिया’ है। और यही लोग महावीर जयंती पर हनुमान जी को लड्डू भी चढ़ाते हैं। खैर, मैं पहले ही स्पष्ट कर दूँ कि ‘सहेला रे’ पुस्तक किशोरी अमोनकर जी पर नहीं, ‘पहला गिरमिटिया’ गिरमिटियों पर नहीं, और महावीर जयंती का हनुमान जी से संबंध नहीं।
इस पुस्तक को अगर किसी श्रेणी में रखना होना, तो मैं ‘माइक्रोहिस्टोरिकल फ़िक्शन’ कहूँगा। आप एक विशाल इतिहास का एक बहुत ही छोटा हिस्सा उठाते हैं, और उसे किसी शल्य-चिकित्सक की तरह इस कदर बारीकी से उधेड़ डालते हैं कि सब कुछ जीवंत हो उठता है। बिल्कुल इटली के इतिहासकार कार्लो गिन्ज़बर्ग की तरह कथा की मुख्य पात्र इतिहास की एक छोटी खिड़की खोलती है और उसके अंदर एक बड़ा संसार बुन डालती है। कि आप एक इवेंट के अंदर न जाने कितने समानांतर इवेंट देखते जा रहे हैं। यह एक अद्भुत् प्रयोग है क्योंकि लेखिका के अनुसार यह गल्प है, सत्य नहीं। लेकिन संदर्भ जिस बारीक स्थान, काल-खंड, और व्यक्तियों की सत्यपरकता से लिखे गए हैं कि यूँ लगता है कि सब हू-ब-हू घट चुका है। बल्कि मैं तो इसके नोट्स निकाल कर रिफ़रेंस की तरह प्रयोग भी करने वाला था। कुछ पात्रों के तो नाम और उनके विवरण भी इतिहास से ही रखे गए हैं, जो कुछ-कुछ वी. एस. नैपॉल के याद दिलाती है।
हर छोटे-छोटे पात्र की पूरी छवि गजब की ‘डिटेलिंग’ के साथ उकेरी गयी है। यह नॉस्टैलजिक इसलिए भी कि शैली शिवानी जी की कथाओं की याद दिलाती है। अब यह पढ़िए-
‘पीतांबर दत्त जी दुर्बल काया और लम्बी काठी के जीव हैं। पक्का रंग, तीखी गरुड़ की चंचु की तरह तनिक झुकी तीखी नाक के अगल-बगल कोटरग्रस्त लेकिन चमकदार आँखें, धँसे हुए गाल और खरखराती अधिकारसंपन्न आवाज़ जो जाने कितने छात्रों को तराश-तराश कर ज्ञानी बना चुकी हो। ‘आने कि’ उनका तकिया कलाम है। रिटायर हुए दसेक साल बीत चुके पर अभी भी ‘फॉर हैल्थ रीजंस’ हर सुबह ठीक साढ़े सात मील घूमने जाते हैं। पैंट-कोट पहनते हैं और कभी-कभार सर पर तनिक तिरछी फ्रेंच कैप। घड़ी के बेहद पाबन्द और वर्तमान शिक्षा प्रणाली के घनघोर निंदक हैं।’
इस तरह के माइक्रो-हिस्ट्री का शोधी फ़िक्शन अपने-आप में एक प्रयोग ही है।
दूसरा प्रयोग तो यह है कि पूरी कथा चिट्ठियों के आदान-प्रदान में लिखी गयी है। वह भी कोई अनौपचारिक ई-मेल बातचीत नहीं, बाकायदा जैसे अंतर्देशीय चिट्ठी लिखी जा रही हो, और जवाब डाकिया लेकर पहुँचा रहा हो। सभी मुख्य नैरेटर चिट्ठियों से ही बात कर रहे हैं। जो उन चिट्ठियों के दौर के पाठक हैं, वह तो इसी नॉस्टैल्जिया में खो जाएँ जब यूँ चिट्ठियाँ लिखी जाती थी। तो इस पुस्तक का मेरा दूसरा वर्गीकरण है- ‘एपिस्टोलरी नॉवेल’। इसका हिन्दी समकक्ष फिलहाल स्मरण नहीं आता।
मुझे यह भी अंदेशा था कि जिन्हें संगीत और इतिहास के कॉकटेल में रुचि है, वही इस पुस्तक को बूझ पाएँगे। शास्त्रीय संगीत तो यूँ भी युवा-वर्ग के लिए अग्राह्य होता जा रहा है, तो वह ऐसे पुस्तक छूने से घबड़ाते हैं। ‘सहेला रे’, ‘जलसाघर’, ‘राग मारवा’ सरीखे शीर्षकों के साथ यह समस्या है कि लगता है कि कुछ अलग ‘क्लास’ के लोग पढ़ेंगे। मैंने भी इस कॉकटेल में रुचि के कारण ही पुस्तक उठाई, लेकिन पढ़ते-पढ़ते यूँ लगा कि यह तो जनमानस के करीब है। इसमें संगीत को धुरी भी न कह कर एक मजबूत नेपथ्य कहूँगा। सत्यजीत रे की ‘जलसाघर’ के कथ्य और उपन्यास ‘सहेला रे’ के कथ्य में अंतर है। भले ही आपके मन में छवि कुछ उसी काल-खंड और माहौल की बनती जाती है। पूरी कथा ही इतनी ‘विज़ुअल’ है कि मन में सबा दीवान की एक वृत्तचित्र ‘द अदर सॉन्ग’ से गुजरते टीकमगढ़ की असगरी बाई तक सामने आ जाती है। जबकि कथ्य उनसे भी भिन्न है।
हर चिट्ठी में खुलती कड़ियाँ, हीराबाई-अंजलीबाई और लाट साहब की दुनिया, और संगीत की भूली-बिसरी कहानियाँ एक ऐसा नॉस्टैल्जिया बुनती है जो हमारे सामने कभी घटा ही नहीं। ‘सहेला रे’ को इस मद्दे-नजर एक तीसरे वर्गीकरण ‘लिटररी रियलिज़्म’ के आईने से भी देखना चाहिए कि इस गल्प में जो भी वर्णित है, वह यथार्थ है।
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