गीताश्री के उपन्यास ‘हसीनाबाद’ की यह समीक्षा युवा कवयित्री-लेखिका स्मिता सिन्हा ने लिखी है. उपन्यास वाणी प्रकाशन से प्रकाशित है- मॉडरेटर
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गीताश्री
‘हसीनाबाद ‘ एक स्त्री की कहानी , उसके सपनों की कहानी , सपनों को बुनने की ज़िद और उसे पूरा करने की तमाम जद्दोज़हद की कहानी । कहानी देखे गये स्वप्न को आदर्श और यथार्थ के संतुलन के साथ किरदारों को मंज़िल तक पहुंचाने की । कहानी राजनीति सामंती वयवस्था के बीच जिंदा रहने के लिये संघर्षरत लोक कला की ।
लेखिका , पत्रकार और संस्कृति कर्मी गीता श्री का उपन्यास ‘ हसीनाबाद ‘ अपने सशक्त स्त्री किरदारों को लेकर चर्चा में बना हुआ है । उपन्यास का धारदार और सहज प्रवाह लेखिका के व्यक्तित्व की स्वतः पुष्टि करता नज़र आता है । गीता श्री की लगभग सभी कहानियों में नारी चरित्र बड़ा ही मुखरित हो उठता है । बेहद प्रतिबद्द , बेबाक और सक्षम होती हैं स्त्रियाँ इनकी कहानियों में । फिर चाहे बात ब्लाइंड डेट की हो या डाउनलोड होते हैं सपने और प्रार्थना के बाहर की । औरत की आज़ादी और अस्मिता की लड़ाई में एक सशक्त हस्ताक्षऱ हैं गीता श्री ।
वाणी प्रकाशन से आया उपन्यास ‘हसीनाबाद ‘इन्हीं मानकों को फिर से सुदृढ़ करता नज़र आता है ।” हसीनाबाद के नाम से ये भ्रम हो सकता है कि यह उपन्यास स्त्रियों की दशा -दुर्दशा पर केंद्रित है लेकिन नहीं , हसीनाबाद खालिस राजनीतिक उपन्यास है जिसमें लेखिका औसत को केंद्र में लाने के उपक्रम में विशिष्ट को व्यापक से सम्बद्ध करती चलती हैं । “
गोलमी , जो सपने देखती नहीं बल्कि बुनती है। जिसे बहुत बड़ी लोक नर्तकी बनना है । और सुंदरी , जो अपनी राह से अलग गोलमी के लिये नयी राह चुनती है । जो नहीं चाहती कि उसकी बेटी भी उसकी तरह नचनिया बने । जो गोलमी को पढ़ा लिखा कर शिक्षित करना चाहती है । एक दुसरे की ज़िंदगी में इस कदर शामिल होने के बावजुद अपने अपने सपनों को एक दुसरे से बेदख़ल रखने की कोशिश में लगी माँ और बेटी ।
‘हसीनाबाद’ की बड़ी ठसक वाली हसीनाओं में नाम था सुंदरी का । ठाकुर सजावल सिंह की पोषित रखैल और गोलमी की माँ । “हसीनाओं से आबाद इस नगर की हसीनायें अपने बेहिसाब दर्द में बर्बाद थीं । हसीनायें वहां पर बस कुछ समय के लिये ही हसीन रहती थीं , फ़िर खंडहर और मलबों में बदल जाती थीं । उस बस्ती में , उसकी धूल , मिट्टी और हवाओं में सिर्फ़ देह गंध ही भरी थी । जैसे सारी औरतें देह की गठरियाँ हों , जमीन पर लुढ़कती हुई गठरियाँ , प्राणहीन गठरियाँ , जिनमें उभरी हुई अरमानों की कब्रें साफ नज़र आती थीं । “
एक माँ के रूप में जीवन की यह सच्चाई उसके सीने में टीस बनकर उभरती है । वो अपनी बेटी के लिये किसी भी कीमत पर यह जीवन नहीं चाहती थी । वो विकल्पहीन थी और बेबस भी । बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं था उसके पास । ऐसे ही पेशोपेश में वह एक दिन बाहर से आये कीर्तन मंडली के सगुन महतो के साथ गोलमी को लेकर हसीनाबाद से निकल जाती है और बस जाती है दूर वैशाली जिले के असोई गांव में ।
असल में ‘ हसीनाबाद ‘ दस्तावेज़ है सपनों के बेदख़ल होने का , सपनों को बेदख़ल करने का । दस्तावेज़ है उन औरतों की कहानियों का जहां पुरुष ही उनकी खुशियाँ निर्धारित करते हैं । बनाते हैं और और बिगाड़ते हैं उनका वजूद । यहाँ गोलमी उन तमाम औरतों का प्रतिनिधत्व करती नज़र आती है जो लगातार खुद को परिभाषित करने की लड़ाई में बनी हुई हैं । जो अपनी पहचान बनाना चाहती हैं । बताना चाहती हैं दुनिया को अपने होने की वजह । जो जीती हैं अपनी ज़िंदगी अपनी शर्तों पर ।
उसके इस सफ़र में जो किरदार तमाम असहमतियों और निजी महत्वाकांक्षाओं के बावजुद उसके समानांतर बने रहे , वे थे रज्जो , खेंचरु और अढ़ाई सौ । जिनके साथ गोलमी ने झुमर और सोहर सीखे । ढोलक की थाप पर घुँघरुओं की रुनझुन के साथ थिरकना सीखा । एक लोक नर्तकी के सभी सोलह गुर सीखे । जिनके बीच वो कभी अम्बपाली बन जाती तो कभी अरुणध्वज की प्रेमिका आम्रपाली और कभी अढ़ाई सौ की छोटी सी सोन चिरैया । जिनके साथ वह लोक को विस्मृति की गुफा से निकालना चाहती थी । लोक गाथाओं पर गर्व करना सिखाना चाहती थी ।
गोलमी की गतिविधियाँ सुंदरी को भ्रमित भी करती और आशंकित भी । अपनी बेटी को समझाने के लिये एक माँ के पास ठोस वजहें थीं , तो उन्हीं वज़हों को ख़ारिज करने के लिये बेटी के पास थीं ठोस दलीलें । अपनी लयबद्ध गति से बढ़ती हुई कहानी वहां तक पहुंचती है जब एक साधारण से ऑरकेस्ट्रा की नर्तकी देश की नामी व स्थापित लोक नर्तकी बन चुकी है । जब वह वैशाली महोत्सव जैसे प्रतिष्ठित आयोजनों और जलसों में शिरकत करती है और तब उसकी मुलाकात रामबालक सिंह से होती है । अंततः कस्बे की राजनीति और समाज की जाति संरचना की विसंगतियों से उलझती सुलझती गोलमी वैशाली से चुनाव जीतकर दिल्ली पहुंच जाती है । एक स्त्री की सफलता की इस कहानी में जाने कितनी विडम्बनाएं हैं , जाने कितने ही मर्यादाओं का विखंडन । राजनीतिक समीकरण के इस बनते बिगड़ते खेल में गोलमी तो बस एक मोहरा भर थी , जिसे रामबालक सिंह ने अपने वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया ।
तमाम तरह के छल प्रपंचों से गुजरते हुए अंत में गोलमी को अपने लोक की वापसी में ही अपनी मुक्ति दिखी । अपने देह और मन की मुक्ति दिखी । अपने सपनों की मुक्ति दिखी ।
एक लोकजीवन की दयनीय महानता की दास्तां को बयान करता हुआ ‘ हसीनाबाद ‘ अपने कथन और गठन से आपको अचम्भित भी करता है और चमत्कृत भी । लेखिका ने बड़ी सूक्ष्मता से राजनीति और सामंती वयवस्था की पोल खोली । ठेठ बज्जिका में कहे गये लोक गीत और गाथायें पाठकों को रीझाती हैं । जोड़ती चलती हैं उन सारे परिदृश्यों से सहज ही । ‘हसीनाबाद ‘जहां बड़ी व्यापकता से गढ़ा जाता है एक ऐसा रूपक जहां स्त्री देह न होकर एक विचार होती है, एक अभिव्यक्ति होती है , एक आश्वस्ति होती है ।
स्मिता सिन्हा