फरहत एहसास उर्दू के संजीदा शायरों में प्रमुख नाम हैं. अनेक लोगों का यह कहना है कि सबसे प्रमुख नाम है. उनकी चुनिन्दा ग़ज़लें जिनका चयन किया है युवा शायर इरशाद खान सिकंदर ने-मॉडरेटर
1
ख़ुशी हुई जो मिला ग़म कि ग़म ही चाहते थे
हम अपनी ख़ाके-मुहब्बत को नम ही चाहते थे
कमी में कोई कमी हो तो कम नहीं लगती
इसी ख़याल से हम उसको कम ही चाहते थे
चला मैं क़ब्र में अपनी तुम अपनी क़ब्र में जाओ
कि ज़िन्दा होना क़दम दो क़दम ही चाहते थे
खुला कि एक हमीं रह गये हैं अपने साथ
कि अपने आपको शायद कि हम ही चाहते थे
कजी दिखा न हमारे मकाने-दुनिया की
हम इस मकाँ को इसी तर्ह ख़म ही चाहते थे
हज़ार शुक्र कि पहलू-ए-ज़म नज़र आया
हम अपने शेर में पहलू-ए-ज़म ही चाहते थे
हमारे सज्दों से बुतख़ाना हो गयी मस्जिद
हमारे बुत भी बिलआख़िर हरम ही चाहते थे
वो शीशा टूट गया हमसे जल्दबाज़ी में
कि उम्रभर का विसाल एकदम ही चाहते थे
बहुत से आये पर एहसास सबको जाने दिया
ग़ज़ाले-जिस्म तो आख़िर को रम ही चाहते थे
2
आप अपने लफ़्ज़ों में रौशनी नहीं करते
शेर जोड़ लेते हैं शाइरी नहीं करते
जानते हैं जीने में मौत की मिलावट है
आप फिर भी जीने में कुछ कमी नहीं करते
ख़ूब बातें करते हैं मुझसे सब मिरे माशूक़
एक बात भी लेकिन काम की नहीं करते
हम चराग़ हैं लेकिन आप अपनी मर्ज़ी के
जब भी जी नहीं करता रौशनी नहीं करते
ज़िन्दगी का हर लम्हा देके जाता है इक काम
जो अभी नहीं करते वो कभी नहीं करते
काम सारे करते हैं बात सिर्फ़ ज़िद की है
हम से जो कहा जाए बस वही नहीं करते
जान देते हैं तुझपर सज्दा क्यों करें तेरा
तुझसे प्यार करते हैं बन्दगी नहीं करते
3
राह की कुछ तो रुकावट यार कम कर दीजिये
आप अपने घर की इक दीवार कम कर दीजिये
आप का आशिक़ बहुत कमज़ोर दिल का है हुज़ूर
देखिये ये शिद्दते-इनकार कम कर दीजिये
मैं भी होंटों से कहूँगा कम करें जलने का शौक़
आप अगर सरगर्मी-ए-रुख़्सार कम कर दीजिये
एक तो शर्म आपकी और इस पे तकिया दरमियाँ
दोनों दीवारों में इक दीवार कम कर दीजिये
आप तो बस खोलिए लब बोसा देने के लिए
बोसा देने पर जो है तकरार कम कर दीजिये
रात के पहलू में फैला दीजिये ज़ुल्फ़े-दराज़
यूँ ही कुछ तूले-शबे-बीमार कम कर दीजिये
या इधर कुछ तेज़ कर दीजे घरों की रौशनी
या उधर कुछ रौनक़े-बाज़ार कम कर दीजिये
वो जो पीछे रह गये हैं तेज़ रफ़्तारी करें
आप आगे हैं तो कुछ रफ़्तार कम कर दीजिये
हाथ में है आपके तलवार कीजे क़त्ले-आम
हाँ मगर तलवार की कुछ धार कम कर दीजिये
बस मुहब्बत बस मुहब्बत बस मुहब्बत जानेमन
बाक़ी सब जज़्बात का इज़हार कम कर दीजिये
शाइरी तन्हाई की रौनक़ है महफ़िल की नहीं
फ़रहत एहसास अपना ये दरबार कम कर दीजिये
4
बहुत सी आँखें लगीं हैं और एक ख़्वाब तय्यार हो रहा है
हक़ीक़तों से मुक़ाबले का निसाब तय्यार हो रहा है
तमाम दुनिया के ज़ख़्म अपने बयाँ क़लम-बंद कर रहे हैं
मिरी सवानेह-हयात का एक बाब तय्यार हो रहा है
बहुत से चाँद और बहुत से फूल एक तजरबे में लगे हैं कब से
सुना है तुम ने कहीं तुम्हारा जवाब तय्यार हो रहा है
चमन के फूलों में ख़ून देने की एक तहरीक चल रही है
और इस लहू से ख़िज़ाँ की ख़ातिर ख़िज़ाब तय्यार हो रहा है
पुरानी बस्ती की खिड़कियों से मैं देखता हूँ तो सोचता हूँ
नया जो वो शहर है बहुत ही ख़राब तय्यार हो रहा है
खुले हुए हैं फ़ना के दफ़्तर में सब अनासिर के गोश्वारे
कि आसमानों में अब ज़मीं का हिसाब तय्यार हो रहा है
मैं जब कभी उस से पूछता हूँ कि यार मरहम कहाँ है मेरा
तो वक़्त कहता है मुस्कुरा कर जनाब तय्यार हो रहा है
बदन को जाना है पहली बार आज रूह की महफ़िल-ए-तरब में
तो ऐसा लगता है जैसे कोई नवाब तय्यार हो रहा है
इस इम्तिहाँ के सवाल आते नहीं निसाबों से मकतबों के
अजीब आशिक़ है ये जो पढ़ कर किताब तय्यार हो रहा है
जुनूँ ने बरपा किया है सहरा में शहर की ताज़ियत का जल्सा
तो ‘फ़रहत-एहसास’ भी ब-चश्मे-पुर-आब तय्यार हो रहा है
5
हमें जब अपना तआरुफ़ कराना पड़ता है
न जाने कितने दुखों को दबाना पड़ता है
अब आ रहा हो कोई जिस्म इस तसव्वुफ़ से
तो हम को हल्का-ए-बैअ’त बढ़ाना पड़ता है
किसी को नींद न आती हो रौशनी में अगर
तो ख़ुद चराग़े-मोहब्बत बुझाना पड़ता है
बहुत ज़ियादा हैं ख़तरे बदन की महफ़िल में
पर अपनी एक ही महफ़िल है जाना पड़ता है
ख़ुदा है क़ादिरे-मुतलक़ ये बात खुलती है तब
जब उस से काम कोई काफ़िराना पड़ता है
बहुत ज़ियादा ख़ुशी से वफ़ात पा गया हो
तो ऐसे दिल को दुखा कर जिलाना पड़ता है
हमारे पास यही शाइ’री का सिक्का है
उलट-पलट के इसी को चलाना पड़ता है
सुना है तुम मिरे दिल की तरफ़ से गुज़रे थे
इसी तरफ़ तो मिरा कारख़ाना पड़ता है
अजीब तर्ज़े-तग़ज़्ज़ुल है ये मियाँ ‘एहसास’
कि जिस्मो-रूह को इक सुर में गाना पड़ता है
6
हुई इक ख़्वाब से शादी मिरी तन्हाई की
पहली बेटी है उदासी मिरी तन्हाई की
अभी मा’लूम नहीं कितने हैं ज़ाती अस्बाब
कितनी वजहें हैं समाजी मिरी तन्हाई की
जा के देखा तो खुला रौनक़-ए-बाज़ार का राज़
एक इक चीज़ बनी थी मिरी तन्हाई की
शहर-दर-शहर जो ये अंजुमनें हैं आबाद
तर्बियत-गाहें हैं सारी मिरी तन्हाई की
सिर्फ़ आईना-ए-आग़ोश-ए-मोहब्बत में मिली
एक तन्हाई जवाबी मिरी तन्हाई की
साफ़ है चेहरा-ए-क़ातिल मिरी आँखों में मगर
मो’तबर कब है गवाही मिरी तन्हाई की
हासिल-ए-वस्ल सिफ़र हिज्र का हासिल भी सिफ़र
जाने कैसी है रियाज़ी मिरी तन्हाई की
किसी हालत में भी तन्हा नहीं होने देती
है यही एक ख़राबी मिरी तन्हाई की
मैं जो यूँ फिरता हूँ मय-ख़ानों में बुतख़ानों में
है यही रोज़ा नमाज़ी मिरी तन्हाई की
‘फ़रहत-एहसास’ वो हम-ज़ाद है मेरा जिस ने
शहर में धूम मचा दी मिरी तन्हाई की
7
किस सलीक़े से वो मुझ में रात-भर रह कर गया
शाम को बिस्तर सा खोला सुब्ह को तह कर गया
वक़्त-ए-रुख़्सत था हमारे बाहर अंदर इतना शोर
कुछ कहा था उस ने लेकिन जाने क्या कह कर गया
क़त्ल होते सब ने देखा था भरे बाज़ार में
ये न देखा ख़ूँ मिरा किस की तरफ़ बह कर गया
डूबना ही था सो डूबा चाँद उस के वस्ल का
रात को लेकिन हमेशा की शब मुहय्या कर गया
सिर्फ़ मिट्टी हो के रहने में तहफ़्फ़ुज़ है यहाँ
जिस ने कोशिश की मकाँ होने की बस ढह कर गया
चाल जब भी मिल नहीं पाई ज़मीं की चाल से
कैसा कैसा सर-बुलंद आया था और ढह कर गया
दुख का आईना उलट देता है हर ‘एहसास’ को
ख़ुश गया इतना ही कोई जितने दुख सह कर गया
8
मिरे शे’रों में फ़नकारी नहीं है
कि मुझ में इतनी हुश्यारी नहीं है
दवा-ए-मौत क्यूँ लेते हो इतनी
अगर जीने की बीमारी नहीं है
बदन फिर से उगा लेगी ये मिट्टी
कि मैं ने जाँ अभी हारी नहीं है
मोहब्बत है ही इतनी साफ़-ओ-सादा
ये मेरी सहल-अँगारी नहीं है
इसे बच्चों के हाथों से उठाओ
ये दुनिया इस क़दर भारी नहीं है
मैं उस पत्थर से टकराता हूँ बे-कार
ज़रा भी उस में चिंगारी नहीं है
न क्यूँ सज्दा करे अपने बुतों का
ये सर मस्जिद का दरबारी नहीं है
गया ये कह के मुझ से इश्क़ का रोग
कि तुझ को शौक़-ए-बीमारी नहीं है
हमारा इश्क़ करना जिस्म के साथ
इबादत है गुनहगारी नहीं है
ब-राह-ए-जिस्म है सारा तसव्वुफ़
बदन सूफ़ी है ब्रह्मचारी नहीं है
ये कोई और होगा ‘फ़रहत-एहसास’
नहीं ये भी मिरी बारी नहीं है
9
रात बहुत शराब पी रात बहुत पढ़ी नमाज़
एक वुज़ू में हो गई मुझ से कई कई नमाज़
तुम तो अज़ान दे के यार जाने कहाँ चले गए
मस्जिद-ए-जिस्म क्या बताए कैसे पढ़ी गई नमाज़
मेरे बग़ैर हो न पाई कोई नमाज़-ए-ज़िंदगी
होगी मगर मिरे बग़ैर मेरी वो आख़िरी नमाज़
मैं भी बहुत नशे में था नशे में था इमाम भी
उस ने पढ़ाई जाने क्या मैं ने भी क्या पढ़ी नमाज़
बुत-कदा था कि मय-कदा साक़ी था बुत कि था ख़ुदा
सुब्ह रहा न कुछ भी याद रात बहुत पढ़ी नमाज़
कौन सुनाएगा मुझे मेरी अज़ान की अज़ान
कौन पढ़ाएगा मुझे मेरी नमाज़ की नमाज़
ये भी कोई मरज़ है क्या चल दिए फिर नमाज़ को
पढ़ के तो आए थे हुज़ूर आप अभी अभी नमाज़
जैसे कि एक ही ग़ज़ल होती है सारी उम्र में
वैसे ही सारी उम्र में होती है एक ही नमाज़
10
रक़्स-ए-इल्हाम कर रहा हूँ
मैं जिस्म-ए-कलाम कर रहा हूँ
मेरी है जो ख़ास अपनी मिट्टी
उस ख़ास को आम कर रहा हूँ
इक मुश्किल सख़्त आ पड़ी है
इक सुब्ह को शाम कर रहा हूँ
दुनिया से कहो ज़रा सा ठहरे
इस वक़्त आराम कर रहा हूँ
चुप चाप पड़ा हुआ हूँ घर में
और शहर में नाम कर रहा हूँ
मिट्टी को पलट रहा हूँ अपनी
पुख़्ता को ख़ाम कर रहा हूँ
क्या काम है जानना है मुझ को
इक सिर्फ़ ये काम कर रहा हूँ
बे-रब्ती-ए-जिस्म-ओ-जाँ फ़ुज़ूँ-तर
तौहीन-ए-निज़ाम कर रहा हूँ
ख़ुश्बू-ए-ख़ुदा लगा के ख़ुद पर
मज़हब को हराम कर रहा हूँ
ईमान ने कुछ सुनी न मेरी
सो कुफ़्र पे काम कर रहा हूँ
अल्लाह-मियाँ के मशवरे से
तर्क-ए-इस्लाम कर रहा हूँ
ऐ ज़िंदाबाद फ़रहत-एहसास
मैं तुझ को सलाम कर रहा हूँ