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चंद्रेश्वर के संग्रह ‘सामने से मेरे’की कुछ कविताएँ

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इस साल लखनऊ से रश्मि प्रकाशन की शुरुआत हुई. इससे वरिष्ठ कवि श्री चंद्रेश्वर का कविता संग्रह “सामने से मेरे” प्रकाशित हुआ है अौर पाठकों-समीक्षकों तक पहुँचने लगा है। चंद्रेश्वर का जन्म बिहार के बक्सर जनपद के आशा पड़री नामक गाँव में 30 मार्च 1960 को हुआ। उनका पहला कविता संग्रह ‘अब भी’ सन् 2010 में प्रकाशित हुआ अौर काफी चर्चा में रहा। सन् 1994 में उनकी ‘भारत में जन नाट्य आंदोलन’ पुस्तक प्रकाशित हुई थी जिसकी पूरे देश भर में व्यापक सराहना हुई थी। सन् 1998 में ‘कथ्य रूप’ पत्रिका ने ‘इप्टा आंदोलन: कुछ साक्षात्कार’ नामक पुस्तिका प्रकाशित की थी। चंद्रेश्वर कवि के साथ सजग आलोचक भी हैं। कम लिखते हैं, मगर जो लिखते हैं, वह देर तक ठहरता है, उसकी अनुगूंज समूचे भारतीय साहित्य में व्याप्त होती है। चंद्रेश्वर का लेखन देश की सभी बड़ी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहा है अौर साहित्य व कला की दुनिया में वे सुपरिचित हैं। उनके रचनाकर्म की पहचान सहजता अौर सरलता है। संकलन से उनकी कुछ कविताएं

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#सामने से मेरे

मेरे सामने पार करते दिखा

चौराहा

एक घायल सांड

उसका दाहिना पैर जंघे के पास था

लहूलुहान बुरी तरह से

उसने बमुश्किल पार.किया चौराहा

कुछ देर के लिए रूके रहे वाहन

हर तरफ़ से

कुछ देर बाद वहाँ से गुजरी एक गाय

आटा भरा पॉलिथीन मुँह में लटकाए

सरकारी अध्यादेश की उड़ाते हुए धज्जियाँ

उसके पीछे कुत्ते लगे हुए थे

एक नन्हे अंतराल के बाद दिखा जाता

एक झूंड सूअरों का

थूथन उठाए गुस्से में

एक-दो भिखारी टाइप दिखे बूढ़े भी

जिनमें शेष थी उम्मीद अभी जीवन की

ठेले पर केले थे बिकने को तैयार

सड़क धोयी जा रही थी

नगर पालिका की पानी वाली गाड़ी से

पहला दिन था चैत्र नवरात्र का

आख़िर में निकला जुलूस

माँ के भक्तों का

होकर चौराहे से

गाता भजन

लगाता नारे

पट्टियाँ बाँधे माथे पर

जय माता की!

[] [] []

 

#मैंने कभी इज़हार ही नहीं किया

 

मैंने कई बार चाहा कि लिखूँ

एक प्रेम कविता

लिखने बैठ भी गया

कागज़- क़लम लेकर

(ख़ैर! अब तो कंप्यूटर का की बोर्ड है

जिसपर नचानी हैं हांथों की उँगलियाँ )

पर यक़ीन मानिये आप सब

कि देर तलक सोचता ही रह गया

एक -एक कर आये

पिछले जीवन के जाने  कितने प्रसंग

मीठे -तीते

उनमें ही लीन होता गया

 

शब्द धोखा देकर भाग गए कि

खेलते रहे लुका -छिपी का खेल

मेरे साथ

 

कह पाना मुश्किल

कुछ भी

 

मैंने तुम्हारे साथ

कभी ऊबड़ -खाबड़ तो

कभी समतल चिकने रास्ते पर

चलते हुए साथ -साथ

अनगिन काँटों को किनारे किया

तो फूल भी रखे चुन -चुनकर

अपनी थैलियों में

 

हम कई बार प्यासे हिरन और

हिरनी की तरह

दौड़े साथ -साथ

भागे किसी मृग मरीचिका के पीछे

कभी मीठे पानी का स्रोत भी मिला

अचक्के में

उस सुख में सराबोर होना ही चाहे कि

पीछे से जोरदार धक्का मारकर

गिरा दिया दुःख ने

 

रोज़ सुबह सोकर उठते ही

चूम लेना चाहता हूँ

तुम्हारे होंठ

पर चूम नहीं पाता

 

उस रोज़ गुड़हल के

लाल -लाल खिले फूल

तोड़ते हुए

सूखी पत्तियाँ आकर

गिर गईं तुम्हारे

माथे पर

चाहकर भी हटा नहीं पाया उन्हें

 

सच तो ये है कि मैंने कभी इज़हार ही नहीं किया

अपने प्रेम का

संकोच आया आड़े हमेशा ही

 

अब तो साथ -साथ चलते हुए

मैं -तुम एकमेक होकर

बन गए हैं हम

 

एक ही नींद है हमारी

हमारा एक ही जागरण

हमारी एक ही कल्पना है और

एक ही स्वप्न

 

हम जब लड़ते हैं

आपस में तो

जैसे ख़ुद से लड़ते हैं

हम जब मिलते हैं

एक -दूसरे से तो

जैसे ख़ुद से मिलते हैं

 

जैसे नदी के लिए पानी

जैसे देह के लिए प्राण

वैसे ही हम!

(इस कविता की आख़िरी पंक्तियाँ साभार बाबा तुलसीदास से)

[] [] []

 

#हासिल प्यार

 

किसी कोशिश में ही

दिखती है

ज़िन्दगी

 

प्यार बना रहता है

प्यार

जब तक उसे पाने

या हासिल करने की

दिखती है

कोशिश

 

किसी चीज़ के साथ भी

होता है

यही कि उसे

पाने की कोशिश और

इन्तज़ार में ही

छुपा होता है

आनंद

 

पाना या हासिल कर लेना

एक क़िस्म का विराम

कि ठहराव ही है

 

ठहराव या विराम

एक तरह से क़रीब हैं

मृत्यु के!

[] [] []

 

#प्यार

 

प्यार  हमारे जीवन में दिखा नहीं वैसे

जैसे पानी की सतह पर

तैरता दिखता है तीसी का  तेल

 

प्यार  हमने वैसे भी नहीं किया

जैसे हिन्दी की बंबइया फ़िल्मों में

करते हैं हीरो-हीरोइन

 

प्यार की गरमाहट से

भरे रहते थे हम हर वक़्त हर मोड़ पर

ज़िन्दगी को बनाते हुए

कुछ और ख़ूबसूरत

बिना किसी शोर-शराबे के

 

प्यार हमारे लिए गुलामी नहीं थी

आज़ादी भी नहीं थी ज़रूरत से ज़यादा

प्यार करते हुए ही बनाए हमने

तिनका-तिनका जोड़कर घोंसला

दाने ले आए दूर देश से

उसके अंदर

हर मौसम का किया मुक़ाबला

साथ-साथ लड़े

हँसे-रोए साथ-साथ

हर मोरचे पर

 

कई बार सोचा हमने

अलग होने के बारे में

पर हमेशा लगा कि मुमक़िन नहीं

पानी से मछली का होना

अलग!

 

[] [] []

 

#न हो सामना घटाव से

 

मैंने प्यार किया है तो घृणा कौन झेलेगा

चुने ख़ूबसूरत फूल मैंने तो उलझेगा गमछा किसका

काँटों से

बनाये अगर मित्र मैंने तो शत्रु कहाँ जायेँगे

सुख ने सींचा है मुझे तो तोडा है

बार-बार दुःख ने

मेरे जीवन में शामिल है सोहर तो मर्सिया भी

ऐसे कैसे होगा कि जोड़ता चला जाऊँ

न हो सामना घटाव से

लिया है जन्म तो कैसा डर मृत्यु से!


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