युवा लेखक दुष्यंत समकालीन जीवन सन्दर्भों को अपने कहानियों में लिखते रहे हैं. ‘वाया गुड़गाँव’ उनका पहला उपन्यास है, जो जगरनॉट के ऐप पर आया है. इसी उपन्यास को लेकर ‘जानकी पुल’ की उनसे बातचीत- मॉडरेटर
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‘वाया गुड़गांव’ ही क्यों? एक लाइन में बताइये !
हमारे जीवन में सब कुछ वाया होता है, भारतीय दार्शनिक परंपरा में इसे निमित्त कारण कहा गया है।
महेंद्र और सुमन की यह कहानी प्रेम कहानी है या नफरत की?
दोनों में से एक चुनना डिप्लोमेटिक सवाल है। हमारे जटिल समय में सब इतना सीधा सीधा कहां बचा है प्रभात जी! मेरी नजर में यह कहानी मानव मन की जटिलताओं के बीच प्रेम की तलाश और उसे हासिल करने की जद्दोजहद की कहानी है। बाकी, उजाले का रास्ता अंधेरों से होकर गुजरता है तो यह कैसे कहें कि रास्ता अंधेरे का है!
आजकल अर्बन कहानियों का दौर है। आपको क्या लगता है रीडर इसके साथ कनेक्ट कर पाएंगे।
पहली बात, गांव से निकले पाठक भी अपनी कहानियां पढना चाहते हैं, यह कहानी गांव से शुरू होती है, पर फिर स्थान गौण हो जाता है, कहानी रहती है, कहानी ट्रेवल करती है, गांव, शहर, हमारे भीतर- बाहर। मुझे जब कोई कहानी कहनी होती है, उसका मील्यू और लोकेल चुनता हूं, पाठक को बिना विभाजित किए हुए। और यह यह जिस डिजिटल प्लेटफॉर्म के लिए है, उसके लिए कहूंगा कि यह सोचना होगा कि मोबाइल शहरी हाथों में ज्यादा है या ग्रामीण, गांव और कस्बों का पढा-लिखा तबका शहरी रीडर्स से बड़ा वर्ग है, किताब तक पहुचना उसके लिए मुश्किल है, बुक शॉप दूर है, अमेजोन या फ्लिपकार्ट की डिलीवरी गांव तक नहीं है, तो उस तक अगर हम यानी लेखक, प्रकाशक पहुंच गए तो वह हमारा, आपका यानी हिंदी का बड़ा पाठक वर्ग है, जिसकी बहुत संभावना इस डिजिटल प्लेटफॉर्म से मुझे दिख रही है, और मेरा यह उपन्यास उसी पाठक वर्ग का कंटेट है। शहरी पढा- लिखा युवा तबका तो तेजी से अंग्रेजी की तरफ शिफ्ट कर रहा है, लगभग कर ही चुका है। फर्स्ट जेनरेशन शहरी तबका भले ही मान लीजिए कि अभी हिंदी उसके कंसर्न और सोच की जुबान बची हुई है।
दूसरी बात, दुनिया का फिक्शन कभी गांव और शहर के फिक्शन में बंटा रहा है क्या? मुझे लगता है कि कहानी की रूरल या अर्बन बैकड्रॉप की डिटेलिंग से ज्यादा मायने रखती है किस्सागोई।
क्या सगोत्र विवाह आज भी एक बड़ी समस्या है।
सगोत्रीय विवाह मेरे उपन्यास का विषय नहीं है, अरेंज मैरिजेज आज भी भारतीय समाजों के सजातीय ढांचे में चार गोत्रों को टालकर की जाती हैं।
आपका यह उपन्यास ऐप पर आया है। आपको क्या लगता है ऐप के माध्यम से पढ़ने वाले पाठकों की दुनिया कैसी है? कुछ अनुभव है इसका आपको?
नया प्लेटफॉर्म है, आशंकाओं और संभावनाओं से भरा हुआ है, एक लेखक के रूप में नए प्लेटफॉर्म को एक्सप्लोर करने में कभी गुरेज नहीं किया है। सोशल साइट्स पर हिंदी पाठक जुड़ते हैं, पेंगुइन से जब मेरा कहानी संग्रह आया तो मैंने पाया था कि उसको इस नए और गैरपरंपरागत पाठक वर्ग ने भी हाथों- हाथ लिया, देखते- देखते कई संस्करण आ गए, उसका जब ई-बुक संस्करण आया तो प्रतिक्रियाएं और भी सुखद थीं, प्रिंट से ज्यादा लोगों ने ई-बुक की शक्ल में पढा होगा, दरहकीकत, ई-बुक से मुझे ज्यादा रॉयल्टी मिली है। वही पाठकवर्ग ‘वाया गुड़गांव’ का भी होना है।
यह आपका पहला उपन्यास है। पहले उपन्यास के लिए ऐसे विषय को क्यों उठाया है आपने?
यह पहला रिलीज्ड उपन्यास है, एक उपन्यास 2010 से लिख के रखा हुआ है, उससे खुद ही खुश नहीं था तो प्रकाशक को नहीं दिया, वरना एक बड़े इंटनरेशनल पब्लिशर 2013 में ही छापने को तैयार थे। ‘वाया गुड़गांव’ का विषय तो वही है जिस पर कहानियां लिखता रहा हूं, रिश्तों की कहानी, स्त्री- पुरूष संबंधों की कहानी। हां, लोकेल और मील्यू सायास चुने हैं, कमिशनिंग एडिटर रेणु अगाल जिन्होने पेंगुइन में मेरी किताब कमिशन की थी, यह उपन्यास भी उनके ही अपार स्नेह और अनंत विश्वास का सुफल है, मील्यू और लोकेल चुनने में उनकी भूमिका रही है, और मेरे लिए सहज इसलिए था कि मैं इसी बैकग्राउंड का हूं, किसान परिवार में जन्मा हूं, उत्तरी राजस्थान के गांवों में बचपन बीता है, हरियाणा में ननिहाल है, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के सीमांत में सारी रिश्तेदारियां फैली हुई हैं। तो लिखते हुए इस उपन्यास का पूरा कहन बहुत ऑर्गेनिक रहा है, मेरी नजर में यही इसकी ताकत है, खूबी है। और, इस उपन्यास का भी यह दूसरा ड्राफ्ट है, पहला ड्राफ्ट बिल्कुल सिरे से नष्ट करने के बाद, इसे नई वर्ड फाइल में लिखा गया, इस वजह से थोड़ी देरी हुई तो रेणु अगाल की डांट भी सुनी, पर वे बहुत समझदार कमिशनिंग एडिटर हैं, उन्हें लिटरेरी राइटिंग के रास्ते के पेचोखम और दुश्वारियां पता हैं।
आपके प्रिय लेखक कौन हैं?
नेम ड्रॉपिंग का अवसर देने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया! हा-हा-हा!
भारत में टैगोर, बंकिम, महाश्वेता, सुनील गंगोपाध्याय, बिज्जी, निर्मल वर्मा, मनोहर श्याम जोशी, उदयप्रकाश, गुरदयाल सिंह, मंटो, इंतजार हुसैन, शम्सुर रहमान फारूकी, अमिताव घोष पसंद हैं तो विश्व साहित्य में मोपांसा, ओ हेनरी, मो यान, यासुनारी कावाबाता, मारखेज, इतालो कैल्विनो, टालस्टॉय, चिनुआ अचीबी, सार्त्र, अल्बेयर काम्यू, सीमोन द बोउवा जैसी लंबी सूची बना सकता हूं जिनका लिखा ढूंढ ढूंढ कर पढता रहा हूं।
आप वैसे तो फिल्मों में गीत लिखते हैं लेकिन कविता की जगह उपन्यास लिखते हैं। विधाओं की इस आवाजाही के बारे में कुछ बताइये।
कविताएं लगातार लिख रहा हूं, इसी साल 2017 के जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में कवि के तौर ही बुलाया गया था। मेरी लेखकीय यात्रा में पहले कविता की ही तीन किताबें आई हैं, दो मौलिक- दोनों को प्रतिष्ठित इनाम मिले, एक कविता अनुवाद की किताब आई, एक दौर में मैं हिंदी साहित्य की पहली कतार की पत्रिकाओं में केवल कवि के तौर पर ही छपा, सारे बड़े संपादकों ने कवि के रूप में पसंद किया, स्नेह दिया, फिर मैंने खुद को कवि के दायरे से बाहर निकालने की कोशिश की, बाजार की भाषा में कहूं तो खुद की रीब्रांडिंग की, जो है, आपके सामने है, खुशकिस्मत हूं कि मेरा अपना एक पाठकवर्ग है, जिसमें लगातार इजाफा हो रहा है, और जो मुझे किसी विधा में बंधा हुआ नहीं देखता, उसके लिए मैं लेखक ही हूं, विभिन्न विधाओं में लिखने वाला लेखक। और, फिल्मों में भी कहानी, पटकथाएं, गीत तीनों तरह का लेखन कर रहा हूं, जो धीरे-धीरे रिलीज पर है, बाहर आ रहा है। नॉन फिक्शन भी लिखता रहा हूं, लिखूंगा भी, उसके लिए ज्यादा समय, मेहनत, फोकस की जरूरत होती है।
महेंद्र में दुष्यन्त कितना है?
महेंद्र की कहानी महेंद्र की है, उसके व्यक्तित्व में दुष्यंत का हिस्सा उतना ही है जितना उस जाटलैंड के हर लड़के का होता है, मासूम भी और अक्खड़ भी, लवली भी और इगोइस्ट भी, और जाटलैंड की हर लड़की के भीतर एक क्यूट, कॉन्फीडेंट, जमीन से जुड़ी मॉडर्न सुमन रहती है। और कमोबेश इस पूरे इलाके में ये सारे करेक्टरस्टिक्स बिना जेंडर स्पेसिफिकनेस के साथ मिलते हैं। इसलिए उपन्यास पढते हुए आपको मेरे ये दो करेक्टर महेंद्र और सुमन दैवीय नजर नहीं आएंगे, कमियों के साथ पूरे मानवीय मिलेंगे और उनसे आपको प्यार हो जाएगा, आप जाटलैंड के लड़के- लड़कियों को ( इररेस्पेक्टिव ऑफ देअर कास्ट्स) नई नजर और प्यार से देखने लगेंगे।
साहित्य के बारे में आपके विचार क्या हैं।
क्या कहूं, पहली बात तो ये कि इतिहास और दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी रहा, इतिहास में पीएचडी की, लिखना पसंद था, तो इधर आ गया, घुसपैठिया कह लीजिए साहब! साहित्य की प्रॉपर पढाई करने वाले बहुत से लोग तो मुझे साहित्य में और मेरे लिखे को साहित्य भी नहीं मानते, हालांकि बहुत से साहित्यपाठी मुझे खूब सारा प्यार भी करते हैं, शायद इसलिए कि लिटरेचर में सेल्फ टॉट हूं, तो बेशक मेरी सीमाएं हैं, पर कुछ अलग सोचता, लिखता हूं।
बहरहाल, जिंदगी को रोशन करे, हमें बेहतर इनसान बनाए, दुनिया को उत्तरोत्तर खूबसूरत बनाए, ऐसा लेखन ही मेरी नजर में साहित्य है, वहीं गुणवत्ता भी है, वही कसौटी भी, मैं कोशिश करता हूं, ऐसा कुछ लिखता रहूं, बाकी मेरा साहित्य के अध्यापकों की नजर में और साहित्य के इतिहास में महान होने का लोभ या एजेंडा नहीं है, सिलेबस में लगने को तड़प नहीं है, कुछ साहित्य अध्यापक मित्रवत् स्नेह, प्यार करते हैं, यह अलग बात है।
यह भी कहता चलूं कि साहित्य का कोई पुरस्कार भी एजेंडे में नहीं है, आज तक किसी पुरस्कार के लिए आवेदन- निवेदन नहीं किया, विद ऑल ड्यू रेस्पेक्ट कहना चाहूंगा, ज्ञानपीठ के नवलेखन के लिए भी नहीं किया, और कायनात मुझे इतना हौसला, शक्ति देती रहे कि किसी इनाम के लिए आवेदन, निवेदन करना भी नहीं है। स्नेह से दें, काबिल समझ के दें, तो झुककर लूंगा, लिया है।
और हां, ‘वाया गुड़गांव’ के बहाने बात कहने का मौका दिया, दिली शुक्रिया जानकीपुल का।