Quantcast
Channel: जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1471

पटना पुस्तक मेला 2017: नया माहौल नया जोश

$
0
0

पटना पुस्तक मेला 2017 का समापन हो गया. एक नए माहौल में पटना पुस्तक मेला का आयोजन इस बार कुछ अलग रहा. युवा लेखक सुशील कुमार भारद्वाज की रपट- मॉडरेटर

================================

पटना पुस्तक मेला 2017 कई कारणों से इस बार चर्चा में रहा. यह मेला न सिर्फ ऐतिहासिक रूप से पहली बार ज्ञान भवन में आयोजित हुआ बल्कि इसकी सजावट की वजह से इसका कुछ लोगों ने तंज कसते हुए “पटना पुस्तक मॉल” तक का नया नामकरण कर दिया. इसे साहित्य के शिफ्टिंग के रूप में भी देखा गया. कहा गया कि जैसे साहित्य आम जनों से कटकर कुछ खास लोगों तक सिमट गया है ठीक उसी तरीके से मेला को भी शिफ्ट करके हाइजैक किया जा रहा है. यह वातानुकूलित माहौल वालों के लिए ही रह जाएगा. दिल्ली के प्रगति मैदान में लगने वाला मेला से तुलना करते हुए कहा गया कि वहां का भी मेला कुछ इसी तरीके का होता है लेकिन है तो वह मैदान ही न? जहां थोड़ा खुलापन भी है. आम जन तो कंक्रीट के इस भव्य भवन को देखकर ही अंदर आने से पहले कई बार सोचेंगें कि जाया जाय या नहीं? लेकिन पटनावासियों ने इन सभी गलत धारणाओं को ध्वस्त करते हुए मेले का तहेदिल से स्वागत किया और मेले में अपनी उपस्थिति से मेले का रौनक बढ़ाया.

 सच बात तो ये है कि इस बार का मेला आयोजकों के लिए भी किसी चुनौती से कम नहीं था. यह आयोजकों के द्वारा तय किया गया जगह नहीं था बल्कि राज्य के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार के आग्रह का सम्मान मात्र था. पटना पुस्तक मेला अपने 32 वर्षों के सफर में गाँधी मैदान से अलग सिर्फ पाटलिपुत्रा के मैदान में ही लगा था जहां का अनुभव भी बहुत ही रोमांचकारी नहीं रहा था. सीआरडी के अध्यक्ष श्री रत्नेश्वर सिंह हमेशा कहते रहे- “हमलोगों के लिए भी यह पहला अनुभव है. हमलोग भी फीडबैक ले रहे हैं और मुख्यमंत्री जी को इससे अवगत कराएंगे. उसके बाद देखा जाएगा कि अगली बार मेले का आयोजन गाँधी मैदान में होगा या कहीं और?”.

लेकिन 24वें पटना पुस्तक मेला 2017 में भी पहले की परम्परा को बरकरार रखते हुए न सिर्फ विभिन्न कला क्षेत्रों में युवाओं को प्रोत्साहित करने के लिए पुरस्कारों की घोषणा की गई बल्कि कविता कार्यशाला का भी आयोजन प्रसिद्ध शायर संजय कुंदन और कवि आलोक धन्वा के नेतृत्व में करवाया गया. एक तरफ ज्वलंत मुद्दों पर नुक्कड़ नाटक से जागरूकता फ़ैलाने की कोशिश की गई तो हर दिन विभिन्न समसामयिक एवं जरूरी मुद्दों पर चर्चा-परिचर्चा का भी आयोजन किया गया. जिसमें बिहार के स्थानीय साहित्यकारों, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं विचारकों के अलावे देश के विभिन्न राज्यों से आए लब्धप्रतिष्ठित एवं ख्यातिप्राप्त विद्वतजन भी शरीक हुए. अल्पना मिश्र, प्रेम भारद्वाज, अनंत विजय, उर्मिलेश, केदारनाथ सिंह, लीलाधर मंडलोई, सुधीश पचौरी, शिवमूर्ति, आदि समेत विभिन्न लोग इस मेला के साक्षी बने तो बिहार के पद्मश्री उषाकिरण खान, अरुण कमल, वरिष्ठ आलोचक खगेन्द्र ठाकुर, हृषिकेश सुलभ, कर्मेन्दु शिशिर, अवधेश प्रीत, सत्यनारायण जी, आशा प्रभात, संतोष दीक्षित, शिवदयाल, प्रेमकुमार मणि, संजीव चन्दन, भावना शेखर, निवेदिता शकील, अनीस अंकुर, पुष्यमित्र, समेत कई गणमान्य लोग लगभग हर दिन मेला की शोभा बने. आयोजकों ने अपनी परम्परा को बरक़रार रखते हुए मनीषा कुलश्रेष्ठ को पहली बार पटना बुलाया. जो कि इस बार के मेला थीम- “लड़की को सामर्थ्य दो, लड़की दुनियां बदल देगी” के भी अनुकूल रहा.

पटना पुस्तक मेला 2017 में यदि लोगों को स्टालों के बीच खाने-पीने की चीजों के लिए तरसना पड़ा. खिली धूप में हरी घास पर बैठकर ठहाके लगाने और मस्ती करने से महरूम रहना पड़ा तो चकमक करती फर्श पर उन्हें कहीं भी धूलकण नहीं मिला. ठंडी–गर्मी के मौसमी एहसास से दूर रहे और सबसे बड़ी बात की शौचालय आदि की आधुनिकता का एहसास कराती सारी सुविधाएं मौजूद थीं. मेला परिसर को साफ़-सुथरा रखने के उद्देश्य से चाट-समोसा आदि का ठेला लगाने वालों को ज्ञान भवन और बापू सभागार के बीच वाले इलाके में जगह दिया गया जिस पर लोगों की निगाह मेले से बाहर निकलते वक्त पड़ती थी. फिर भी काफी लोग गाँधी मैदान के खुलेपन को याद कर रहे थे तो इसे भदेस गंवई और आधुनिकता की सांस्कृतिक लड़ाई मानी जा सकती है. कुछ लोगों का कहना था कि अचानक से आया बदलाव तुरंत रास नहीं आता है. एक-दो साल यहां आयोजन हो जाएगा तो लोग गाँधी मैदान की बात लोग भूल जाएंगें. जबकि कुछ लोगों का स्पष्ट विचार था कि दोनों का अनुभव अपनी –अपनी जगह पर सही है किसी को खराब या बेहतर नहीं कहा जा सकता है.

कुछ प्रकाशकों की शिकायत थी कि किराया जिस हिसाब से आयोजकों ने लिया है उस हिसाब से रैक आदि की सुविधा नहीं दी गई है. जबकि कुछ का कहना था कि प्रवेश शुल्क हटा लिया जाना चाहिए. राजकमल प्रकाशन के अलिंद महेश्वरी कहते हैं- “इन्हें बाहर में भी प्रकाशकों का बोर्ड –बैनर लगाने की सुविधा देनी चाहिए या आयोजक अपने स्तर से ही लगाएं ताकि लोग जान सकें कि कौन-कौन आएं हैं और किस स्टाल पर हैं?” अन्तराष्ट्रीय मेला के आयोजन के संबंध में अलिंद कहते हैं- “इन्हें इंफ्रास्ट्रक्चर में थोड़ी सुधर करने की जरूरत है. शैक्षणिक संस्थान आदि जैसे स्टालों को यदि अलग फ्लोर पर कर दिया जाए तो कुछ संभव है.” वहीं वाणी प्रकाशन की अदिति महेश्वरी का मानना है कि- “अन्तराष्ट्रीय मेला का आयोजन यहां करवा पाना थोड़ी जल्दबाजी कही जा सकती है. ये हिन्दी बेल्ट है. अंग्रजी के प्रकाशक आने के लिए शायद तैयार आसानी से न हों. एक प्रकाशक की बात अलग कर दी जाए तो अंग्रेजी के कितने प्रकाशक और कितनी किताबें हैं? फिर दूतावास से संपर्क आदि प्रक्रिया बिना सरकारी सहयोग के कितना संभव है?” कुछ प्रकाशक उल्टे सवाल पूछ रहे थे कि- “मेला में बिहार सरकार की सहभागिता का क्या मतलब है जब किराया इतना वसूला ही जा रहा है?”

जबकि दूसरी ओर मेले में प्रवेश शुल्क भी पहले ही की तरह दस रूपया रखा गया जिससे कि लोगों को कोई कठिनाई नहीं हुई. हां, इस बार के मेले में गाँधी मैदान में यूं ही मंडराने वाले लोग कम ही दिखे. अधिकांश साहित्यप्रेमी, लेखक या जरूरतमंद ही थे जबकि कुछ युवा यूं ही सेल्फी का मजा ले रहे थे जिनको आयोजक प्रोत्साहित भी कर रहे थे ताकि वे सोशल मीडिया पर चर्चा में बने रहें. यहां तक की मेले के अंत में बेस्ट सेल्फी वालें को पुरस्कृत करने की भी बातें हो रही थी.

 कुछ लोगों की शिकायत थी कि ज्ञानपीठ, सामयिक आदि जैसे प्रकाशक नहीं आ पाए हैं जहां से सस्ती और जरूरी किताबें मिल जाती थी. लेकिन गौरतलब है कि प्रतिश्रुति जैसे कई प्रकाशक भी पटना पुस्तक मेला में पहली बार आएं हैं. हां, इस बार मिथिला, राजस्थान, गोंड, बंगाल, आदि से आने वाले हस्तशिल्प कला आदि के स्टालों का पूर्ण अभाव था लेकिन आध्यात्म, ज्योतिष कला से संबंधित किताबों, पत्थरों आदि के स्टाल जरूर नज़र आए. हिन्दी की ही तरह उर्दू भाषा की कुछ आध्यात्मिक-गैर-आध्यात्मिक स्टाल भी नज़र आए तो अकादमिक एवं बच्चों के लिए भी किताबों और स्टेशनरी की भी स्टालें जमी हुईं थीं. सरकार की ओर से आपातकालीन स्थिति से निपटने और मद्यपान निषेध जागरूकता के लिए भी स्टाल लगाए गए थे तो शैक्षणिक संस्थानों के भी.

इस बार भी गत वर्षों की तरह मेले में पाखी परिचर्चा का आयोजन हुआ हुआ जहां आशा प्रभात और अमीश त्रिपाठी की अनुपस्थिति में उनकी किताबों के बहाने राम और सीता के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर जम कर चर्चा हुई. जहां अमीश की किताब को ख़ारिज करते और आशा प्रभात की किताब का समर्थन करते ही अधिकांश वक्ता नज़र आए. आयाम, जनशब्द आदि के बैनर तले कविता पाठ हुए तो शेरो-शायरी का भी दौर चला. साथ-ही-साथ नए-नए युवा कवि-कवित्रियों ने भी अपने जलवे दिखलाए. मेला में सिर्फ स्त्री-पुरूष को ही मंच नहीं मिला बल्कि किन्नरों ने भी कस्तूरबा मंच पर निवेदिता शकील से बात करते हुए अपनी भावनाएँ व्यक्त की अपने हक की बात की.

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मेला के उद्घाटन सत्र में सरयू राय की समय की लेख और रत्नेश्वर सिंह की रेखना मेरी जान के लोकार्पण समारोह में अपने सात-निश्चय और दहेजबंदी और शराबबंदी आदि जैसे  सामाजिक जागरूकता के बहाने राजनीति करने की शुरुआत की तो पूर्व सांसद अली अनवर की किताब का लोकार्पण करते समय रशीदन बीबी मंच से ही शिवानंद तिवारी और पूर्व मुख्यमंत्री एवं केन्द्रीय मंत्री लालू प्रसाद यादव ने भी नीतीश कुमार और भाजपा को अपने निशाने पर लिया. लालूजी के भाषण से पहले उनके एक प्रशंसक ने उसी मंच से “भाजपा भगाओं देश बचाओं” के तान पर एक गीत भी सुनाया.

हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी मेले में लगभग हर दिन औसतन चार किताब का लोकार्पण किया गया. गीताश्री का पहला उपन्यास  हसीनाबाद, निवेदिता शकील की कविता संग्रह प्रेम में डर, सुजीत वर्मा का पहला अंग्रेजी उपन्यास ‘वाकिंग ओन द ग्रीन ग्रास, भावना शेखर की कविता संग्रह मौन का महाशंख, कथाकार कमलेश का पहला कहानी संग्रह दक्खिन टोला, प्रत्युष चंद्र मिश्र का कविता संग्रह पुनपुन और  अन्य कविताएं, बाढ़ और सरकार, रानी पद्मावती आदि प्रमुख रहीं. जबकि राजकमल प्रकाशन की ओर से रविवार के दिन एक साथ तीन-तीन किताब का लोकार्पण कस्तूरबा मंच पर लीलाधर मंडलोई, और अरुण कमल आदि की उपस्थिति में किया गया. जिसमें अवधेश प्रीत की बहुप्रतीक्षित छात्र-युवा राजनीति पर केंद्रित पहला उपन्यास ‘अशोक राजपथ’ थी. तो पुष्यमित्र की चम्पारण सत्याग्रह पर केंद्रित चम्पारण 1917और विकास कुमार झा की किताब गया-बोधगया पर केंद्रित ‘गयासुर संधान’ रही. जहां सभी वक्ताओं ने सभी लेखकों को शुभाशीष देते हुए उनकी रचनाओं की चर्चा की वहीं प्रभात खबर में ही चम्पारण पर लेख लिखने वाले एक वक्ता ने पुष्यमित्र की रचना की मंच से ही टांग खिंचाई करनी शुरू कर दी.

 इस तरीके से सामरिक रूप में देखा जाय तो सम्राट अशोक कन्वेंशन केंद्र में आयोजित पटना पुस्तक मेला2017 सबों के लिए एक सफल अनुभव रहा. मेला के कन्वेनर अमित झा के शब्दों में- “इस बार के मेला से मैं बहुत खुश हूँ.” हिन्दी के ख्याति प्राप्त कवि अरुण कमल कहते हैं- “मेला यहाँ हुआ इसलिए मैं लगभग हर दिन यहां आ पा रहा हूँ और इतने लोकार्पण और चर्चाओं को सुन पा रहा हूँ वर्ना गाँधी मैदान के धूल में यह कहां संभव था?” दोनों शनिवार और रविवार को मेले में पैर रखने की भी जगह नहीं थी लेकिन यह भीड़ ग्राहक भी बनी इसकी सही जानकारी तो सिर्फ और सिर्फ प्रकाशक ही दे सकते हैं. 

सम्पर्क :- sushilkumarbhardwaj8@gmail.com


Viewing all articles
Browse latest Browse all 1471

Trending Articles