Quantcast
Channel: जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1471

रोज़मर्रा जीवन की सूक्ष्मदर्शी निगाह में कुलबुलाती कहानियाँ हैं ‘आख़िरी गेंद’ 

$
0
0
रामनगीना मौर्य के कहानी संग्रह ‘आखिरी गेंद’ की समीक्षा. लिखी है अबीर आनंद ने. किताब का प्रकाशन रश्मि प्रकाशन से हुआ है- मॉडरेटर
===================
ऐसा लगता है जैसे भाषा की रेलगाड़ी कहीं कानपुर के आस-पास से चली हो और अल्हड़ हिचकोले लेते हुए कलकत्ता के किसी स्टेशन पर जाकर रुकी हो। एक ही किताब में भाषा के इतने वैरिएंट्स देखने को मिलते हैं कि हिंदी की समृद्धता का अनुमान और उसका आकर्षण बढ़ता ही चला जाता है। इसमें अवधी का तहज़ीबदार ज़ायका है, हिन्दुस्तानी की देर तक पकाई हुई सुगंध है, भोजपुरी का जम के लगाया हुआ तड़का है और अगर कहीं कोई कमी रह गई हो तो बिहार के पार बंगाल के आस-पास में बोली जाने वाली हिन्दी का, जहाँ ख़ास कर जोर देकर ‘लव लैटर’ को ‘लभ लैटर’ बोलते हैं; फ्यूज़न भी है। ‘आलोडन-बिलोडन’ और ‘अजबकपने-अहमकपने’ ‘आफत का परकाला’ जैसे कुछ ऐसे शब्द विन्यास हैं जो अपने उच्चारण मात्र से अपना अर्थ बता देते हैं। ऐसे में लेखक यदि एक बेहद जानकार, साहित्य का कीड़ा टाइप व्यक्ति हो तो जिज्ञासा और भी बढ़ जाती है। पर यह पाठक को पता नहीं कि लेखक की शैली क्या है, उनके अपने पठन-पाठन का विस्तार क्या है; क्योंकि यह उनकी पहली किताब है। इसलिए पाठक के तौर पर परिश्रम दोगुना लगता है। इसके विपरीत, लाभ यह है कि अपेक्षाओं का बोझ नहीं होता। निराश होने का प्रश्न ही नहीं उठता।
राम नगीना मौर्या उस पीढ़ी के लेखक हैं जिनका बचपन गाँव-देहात की शैली में बीता और अब अपने परिश्रम के चलते आधुनिक शहरी जीवन में रम गए हैं। इस नई जीवन शैली में ग्रामीण, अभावग्रस्त जीवन की यादों का प्रवेश इतना तीव्र होता है कि कलम चलाने के लिए बहुत ज्यादा परिश्रम नहीं करना पड़ता।
किताब मिलने से पहले ही मैंने ‘चुभन’ पढ़ ली थी। सच कहूँ तो ‘आख़िरी गेंद’ के लिए आकर्षण सहेजने में ‘चुभन’ की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। ओ हेनरी की कहानियों की तरह एक छोटी सी गुदगुदाती हुई कहानी है ‘चुभन’। दुर्भाग्यवश, ऐसी कहानियों के लिए हिंदी में ज्यादा जगह नहीं है पर मुझे यह संग्रह की सबसे अच्छी कहानी लगी। खाका ऐसा खिंचा कि ‘आख़िरी गेंद’ हिन्दी कहानी की आम धारा से कुछ हटकर है। बहुत ज्यादा संजीदा नहीं है और चुलबुलाने का काम भी कर सकती है। हालांकि इस चुलबुलाहट की खोज में जब आगे बढ़ा तो मुझे निराशा ही हुई पर इसकी कीमत पर बहुत कुछ मिला। कहानियाँ एकदम से स्वरुप बदलकर आत्मकथात्मक हो जाती हैं और फिर उसी राह पर चलने लगती हैं। रोज़मर्रा की बोरियत में आनंद और संतोष की जो प्राणवायु मौर्य जी ने घोली है, वह एक पाठक के लिए इस संग्रह का हासिल है। भावना, शिक्षा और गहन पठनीयता की पृष्ठभूमि में ठहर कर विश्लेषण करने का कौशल तकरीबन हर कहानी में उभर कर आता है। न तो विषय इतने संजीदा हैं और न ही विचार इतने दार्शनिक कि पाठक खुद को कहानियों से जोड़ने में घुटन महसूस करे। दफ्तर जाने वाले सरकारी कर्मचारी की आत्मीय भाषा और एक स्थापित वैल्यू सिस्टम में आस-पास के वातावरण से कहानियाँ चुनना तभी संभव हो सकता है जब लेखक की सूक्ष्मदर्शी निगाह महीन से महीन परिवर्तन में दिलचस्पी रखती हो। भाषा का व्याकरण इतना आत्मीय और प्रासंगिक है मानो हम अपने ही घर का किस्सा पढ़ रहे हों। जीव विज्ञान के विद्यार्थी जिस केंचुए को अपने सूक्ष्मदर्शी तले खींचने में सकपकाते हैं, ‘रेस्क्यू ऑपरेशन’ में लेखक ने बड़ी सहजता से उसका ‘मनोवैज्ञानिक ऑपरेशन’ किया जो प्रभावित करता है।
‘खाली बेंच’ में संघर्ष के उन दिनों का खाका खींचा गया है जब डिग्री धारी इंजीनियर या तो नौकरी के लिए आवेदन करते अपना समय बिताते हैं या फिर नई नौकरी से एडजस्ट करने के खटराग में। अभावों के जीवन की अपील एक फ्लैशबैक के ज़रिये मार्मिकता से पिरोई गई है।
‘जाड़े की धूप’ कामकाजी वर्ग की छुटटी की दिनचर्या है। पत्नी के उलाहने सुनने के बाद भी इस धूप का आकर्षण ऐसा है कि बिजली का बिल और बिटिया की कोचिंग क्लास कुछ भी याद नहीं रहता। मैं इस स्वप्न को उन पंखों से जोड़कर देखता हूँ जब पिताजी डांट-डपट कर जाड़े के दिनों में स्कूल भेज दिया करते थे। जब मन होता था कि धूप में खड़े-खड़े दिन गुजर जाए। तब जी नहीं सके पर अब भी जबकि, छुटटी है और न पढ़ाई, इम्तिहान का डर पर ज़िन्दगी देखिये, अगर किस्मत में धूप नहीं है तो फिर नहीं ही है। लेखक ने मुहावरों, लोकोक्तियों, क्षणिकाओं और कविताओं का सुन्दर प्रयोग किया है जो विषय को और भी व्यापक बनाने का कार्य करता है।
‘मिश्रित अनुभव’ बड़े शहरों में छोटे एकल परिवारों में अभावों से जूझने की ज़द्दोज़हद को संवेदनशीलता से उकेरता है। पति की कम कमाई की वजह से पत्नी ‘क्रेच’ चलाती है पर फिर भी उनकी चादर छोटी रह जाती है। यहाँ पर जरूर लगा कि इस कहानी को थोडा और विकसित किया जाना चाहिए था। बहुत ज्यादा नहीं पर बच्चोँ के माँ-बाप, उनकी मजबूरियों में ऐसा बहुत कुछ लिखने लायक होता जो इसे बेहतर आकार दे सकता था। उनका संघर्ष दूसरों के संघर्ष से अलग नहीं जान पड़ता।
‘मीठा कुछ ढंग का’, ‘गुनाह बेलज्ज़त’ और ‘श्रीमान परामर्शदाता’  एक मध्यमवर्गीय परिवार में पति-पत्नी के बीच की केमिस्ट्री पर एक प्रैक्टिकल कथन है। अनुकरणीय किन्तु संभव बनायी जा सकने वाली केमिस्ट्री, जिसमें रोज़मर्रा के खिंचाव के बाहर कुछ भी देखने की ज़रुरत नहीं है। आश्चर्यजनक रूप से यह कई समस्याओं का हल है। बाबा और तांत्रिकों के इस दौर में पति-पत्नी की समझदारी भरी नोंक-झोंक जिसमें कि एक का पलड़ा भारी होना लाजिमी है, कई मनोरोगों की अचूक दवा है। इन तीनों कहानियों में लेखन की ईमानदारी और आत्मीयता खुलकर सामने आती है। उस संघर्ष वाले दौर के सफल प्रतिभागियों के हाथ में जब क्रमशः मोबाइल फोन और फिर स्मार्टफोन आए तो जैसे उनकी दुनिया का एक अलग ही अध्याय आरम्भ हो गया हो। कहानियों में स्वादानुसार और तापमान अनुसार बदलती रिंग टोन भी इन कहानियों में हँसी-ठिठोली का मीठा संचार करती है। ‘झिंगा लाला हो..’ से शुरू होकर ‘दूर है किनारा..’ कदम कदम पर बदलती चरित्रों की मनोदशा को समझाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। एक कॉमेडी कह सकूं तो ‘श्रीमान परामर्शदाता’ में नब्बे के दशक के दूरदर्शन धारावाहिक वाले उस निरीह पति की आकर्षक रूप-रेखा खीँची गई है जिसे उसकी पत्नी के सिवा सब मूल्यवान समझते थे। एक अलग और उच्च स्तर की नोंक-झोंक है। यकीनन, सफल हुई है कहानी।
‘दुनिया जिसे कहते हैं’ भी आत्मकथात्मक शैली की अच्छी कहानी है। ‘आख़िरी गेंद’ पूरी तरह से नए-पुराने संबंधों का, स्थानों का, व्यवस्थाओं का आत्मीय विश्लेषण है। एक लेखक के तौर पर निश्चित ही यह पुस्तक सकारात्मक, सोच-परक, महीन विश्लेषात्मक साहित्य का हिस्सा है। एक कुलबुलाते मस्तिष्क में बहुत कुछ चल रहा है और वह सब कुछ अपनी विशिष्ट शक्ल-ओ-सूरत में बाहर आने पर आमादा है। इन सब के बीच वह पारिवारिक जीवन-मूल्यों वाली धरोहर केमिस्ट्री का हिस्सा भी है। इन दोनों का सामंजस्य मुश्किल जरूर है पर संभव है।
कहानी संग्रह: आख़िरी गेंद
लेखक: राम नगीना मौर्य
प्रकाशक: रश्मि प्रकाशन

Viewing all articles
Browse latest Browse all 1471

Trending Articles