
जाने-माने शिल्पकार-चित्रकार सीरज सक्सेना हिंदी के अच्छे, संवेदनशील लेखक भी हैं. उनके लेखों का संग्रह ‘आकाश एक ताल है’ वाग्देवी प्रकाशन से प्रकाशित हो रहा है. इसकी भूमिका प्रसिद्ध पत्रकार, लेखक ओम थानवी ने लिखी है. प्रस्तुत है ओमजी की भूमिका- मॉडरेटर
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कलाकार का मन कवि-मन होता है। कैनवस पर रेखाओं और रंगों के बीच कलाकार वह जगह रचता है, जो — टीएस एलियट के अनुसार — कवि शब्दों के बीच गढ़ता है। ज़रूरी नहीं कि हर कलाकार शब्दों की दुनिया में भी जा उतरता हो। मगर फिर भी बहुत-से कलाकारों ने, अपने कलाकर्म के समांतर, शब्दों के संसार में अपनी अभिव्यक्ति को टटोला है। कविता, कथा से लेकर पत्र-लेखन तक में वे अभिव्यक्तियाँ चर्चित हुई हैं, सराही गई हैं। उन कलाकार लेखकों की पाँत में सीरज सक्सेना को बैठा देखकर मुझे निजी स्तर पर भी बहुत ख़ुशी होती है।
निजी स्तर पर इसलिए कि जब जनसत्ता का सम्पादन करता था, सीरज के अनेक लेख, टिप्पणियाँ और संस्मरण और यात्रा-वृतांत प्रकाशित करने का सौभाग्य मिला। ज़्यादातर उन्हीं आलेखों का संकलन यह पुस्तक है और शायद इसी हवाले से लेखक ने मुझे इनकी भूमिका लिखने का ज़िम्मा सौंपा। कहना न होगा, यह भी मेरे लिए उस सौभाग्य का ही हिस्सा है।
सीरज मूलतः चित्रकार हैं या शिल्पकार, मैं ठीक से तय नहीं कर पाता हूँ। शायद वे अपने आप को पहले चित्रकार मानते हों। मैंने उनके चित्र देखे हैं और उन्हें तल्लीनता में मिट्टी और अन्य सामग्री में आकार गढ़ते हुए भी देखा है। मिट्टी में मानो वे सम्वाद करते हैं। गांधी स्मारक निधि में उकेरे गए उनके शिल्प ने बहुत ख्याति अर्जित की है। अनेक वे शिल्प विदेशों में भी स्थापित कर आए हैं। चित्रकला से लेकर मृत्तिका-शिल्प और वस्त्रों में रूपाकर के हाल के झुकाव को देखते हुए एक बात साफ़ अनुभव की जा सकती है कि उनके कलाकर्म में एक गांधीमार्गी सादगी है। वे अमूर्त के चितेरे हैं, लेकिन उनके रूपाकर हवाई नहीं हैं, निपट ज़मीनी हैं। रंग भी, मिट्टी भी यानी साधन और कल्पना भी।
शायद ज़मीन से जुड़ाव ही उन्हें अभिव्यक्ति के और रास्ते खोजने को प्रेरित करता है। उनके लेख और संस्मरण समसामयिक विसंगतियों के गिर्द घूमते नज़र आते हैं। वे सोचने वाले कलाकार हैं। अथक यायावर भी हैं। गली-मुहल्लों से लेकर दूर-देस की ख़ाक छानना उनका अनूठा शग़ल है। मन जैसे किसी आदिवासी का मन है। पेड़, जंगल और चिड़िया की तरह पवित्र और अकेला। शहर में अपने आपको अजनबी पाते हैं। इसलिए दिल्ली जैसे महानगर में भी अपने पास एक साइकिल रखते हैं। दूसरी साइकिल बड़े होते बेटे को दिला दी है। और दोनों, राजधानी की सड़कों को पाटते हुए, ग़ाज़ियाबाद की अपनी बस्ती से राजघाट का तक रास्ता अक्सर दो पहियों पर नाप आते हैं।
इस पुस्तक के आलेख मुख्यतः जगहों पर केंद्रित हैं या लोगों पर। कई दफ़ा आप अनुभव करेंगे कि कैसे जगहें चेहरों में तब्दील हो जाती हैं। वे खजुराहो जाते हैं और वहाँ की मूर्तियों के सामने अपने रेखांकन करते हैं, “रहस्य की तरह, चेहराविहीन”। और हमारे सामने खजुराहो का रहस्यलोक खुलता चला जाता है। इसी तरह केवलादेव का घना (अभयारण्य), पेरियार के जंगल, कंदरिया महादेव, भेड़ाघाट, रायगढ़, धर्मजयगढ़, कोलकाता, ताइवान, मयोर्का (स्पेन), ब्रोसवाव (पोलैंड), दुनब (सर्बिया) आदि की यायावरी हमें एक कलाकार की आँख से जगहों को देखने ही नहीं, छूने का अहसास देती है।
ख़ास बात यह कि दूर-दिसावर अपनी अंतरंगता में भटकते हुए उनसे अपनी ज़मीन कहीं नहीं छूटती। स्पेन में जुआन मीरो की रेखाएँ देखते वक़्त बरबस भीमबेटका की याद उमड़ आती है। आदिवासी परिवेश की छटा में उन्हें अमूर्त कलाकार अंबादास की रंगत मिल जाती है। काठमांडो के देवालय में शिवत्व और मृत्यु के दर्शन के बीच अनुभव करते हैं कि “अवसाद (कैसे) आत्मविश्वास भी देता है”। मंदिरों की ही नहीं, नदियों की दुर्दशा उन्हें मथती है: “गंगा उलटी बह रही है और नर्मदा भी। … नदी को कभी इतना उदास नहीं देखा था।” नदियों के साथ झील, जंगल, बाघ, अभयारण्य, हवा, पानी — अपने पर्यावरण के व्यापक सरोकार उनमें मौजूद हैं।
अनेक कलाकारों के काम पर सीरज की टिप्पणियाँ कला के बारे में उनकी समझ और नज़रिए को साफ़ करती हैं। वे हुसेन, रामकुमार, रज़ा या सूज़ा जैसे महान कलाकारों पर ही नहीं ठहरते, जनगण सिंह श्याम से लेकर हमक़दम युवा कलाकारों की भी बात करते हैं। मौजूदा दौर में कला जगत की मुश्किलें बताते हैं। कला से सरोकार रखने वाला कोई भी इस बात से चिंतित होगा कि कलाकारों की संख्या तो हमारे यहाँ बढ़ी है, पर कला-रसिकों की बहुत घट गई है। बड़े कलाकारों की नक़ली कृतियाँ धड़ल्ले से बन और बिक रही हैं। कुछ स्थापित कलाकार नए कलाकारों से अपने कैनवस रंगवाते हैं, ख़ुद उन चित्रों में अंतिम-स्पर्श भर का काम करते हैं।
कलाकारों का अपनी दुनिया की हलचल पर मौन दर्शक-सा बने रहना उन्हें हैरान करता करता है और हमें भी। मक़बूल फ़िदा हुसेन को जिस तरह अपने ही देश में सांप्रदायिक लोगों द्वारा अपमानित और आहत किया गया, तथाकथित प्रगतिशील सरकार की बेरुख़ी के चलते उन्हें निर्वासन भोगना पड़ा वह यक़ीनन स्वाधीन तंत्र का काला अध्याय है। कलाकारों का चुप रहकर अपने में सिमट बैठना ऐसे हादसों को बढ़ावा देता है और कला जगत पर मँडराते ख़तरों में इज़ाफ़ा करता है।
इन लेखों का दायरा जब-तब आपको कला से काफ़ी दूर भी निकलता दीखेगा। सुखद आश्चर्य होता है जब कलाकार में हाट-बाज़ार की फ़िक्र नज़र आए, वह अचार के स्वाद की चर्चा करे, चिट्ठियों के संसार में आता-जाता रहे, बात-बात उसे मुक्तिबोध, अज्ञेय, त्रिलोचन, हरिशंकर परसाई, जितेंद्र कुमार, अशोक वाजपेयी आदि की रचनाएँ ख़याल आएँ। और तो और, पतंगों पर एक निराला लेख है जिसमें चरखी, माँझे और पतंग की उड़ान के साथ “हवा के पुरुषार्थ और आकाश की विराटता” का बोध ले आते हैं।
कहना न होगा, सीरज कलाकार न होते तो लेखक होते। लेकिन इस किताब के साथ लेखक वे हो गए। कलाकार तो हैं ही।
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