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राजकिशोर का लेख ‘मरने की उम्र’

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जबसे होश संभाला राजकिशोर जी को पढता रहा. सबसे पहले उस जमाने की सबसे ‘टेस्टी’ पत्रिका ‘रविवार’ में और जैसे जैसे उम्र बढती गई उनको हर कहीं पढता रहा. मुजफ्फरपुर से दिल्ली तक मैंने एक से एक लिक्खाड़ लेखकों को करीब से जाना लेकिन राजकिशोर जी जैसा पुख्ता वैचारिक लिक्खाड़ दूसरा नहीं देखा. वे अपने अखबारी लेखों में भी दिलचस्प रचनात्मक प्रयोग करते थे और उसकी प्रशंसा करने पर  कवियों की तरहआह्लादित हो जाते थे. भाषा का वैसा सुघड़ कौशल मैंने बहुत कम लेखकों में देखा. उनसे बहुत कुछ सीखा. सबसे अधिक लेखक की शान के साथ जीना सीखा. जानकी पुल परिवार की तरफ से उनको सादर नमन. उनका एक लेख ध्यान आया- ‘मरने की उम्र’. मैं जब आखिरी बार अस्पताल में उनको देखकर आया था तो उनकी जिजीविषा को लेकर इतना आश्वस्त था कि मुझे लगा दो-तीन दिन में अवश्य ठीक हो जायेंगे. मुझे क्या पता था कि बड़े से बड़ा अनुशासित लेखक भी एक दिन सारे अनुशासन तोड़ देता है- मॉडरेटर

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क्या मरने की भी कोई उम्र हो सकती है? यह तो हजारों साल से पता है कि कोई भी आदमी अमर नहीं है। जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु भी होगी। अमर वही है जो अजन्मा है। क्या निखिल ब्रह्मांड में कुछ ऐसा है जिसका जन्म नहीं हुआ था? क्या स्वयं ब्रह्मांड के बारे में यह प्रश्न किया जा सकता है? सदियों से वैज्ञानिक बिरादरी इस प्रश्न से जूझ रही है। कोई भी दो उत्तर एक-दूसरे से मेल नहीं खाते। हो सकता है, कभी वह एक उत्तर मिल जाए जो सब की जिज्ञासाओं को शांत कर दे। ज्यादा संभावना इसकी है कि रहस्य रहस्य ही रह जाए। कोई चींटी पहाड़ पर किताब कैसे लिख सकती है?

इतना तो खैर हमने पता लगा ही लिया है कि किस जीव की कुल उम्र कितनी होती है। मसलन चूहा कितने दिन जीवित रहेगा, शेर जन्म होने के कितने दिन बाद मरेगा, मादा हाथी अधिक दिन तक जिएगी या नर हाथी…। चूँकि आदमी भी जीव-जंतुओं के इस संयुक्त परिवार का सदस्य है, इसलिए उसके भी जिंदा रहने की अवधि आँक ली गई है। जहाँ एकदम सही संख्या का पता नहीं लगाया जा सकता, वहाँ औसत से काम चलाया जाता है। दिलचस्प बात यह है कि वन्य, सामुद्रिक या गगन विहारी प्राणियों पर यह औसत खरा उतरता है, क्योंकि एक जैसी परिस्थितियों में जीनेवाले ऐसे दो प्राणियों की जीवन प्रत्याशा में दस-पंद्रह प्रतिशत से ज्यादा फर्क नहीं हो सकता। इसका कारण, मेरे खयाल से, यह है कि उनकी दुनिया में सरकार, रिजर्व बैंक, शेअर बाजार, कारखाने और अस्पताल नहीं हैं। जहाँ ये संस्थाएँ हैं, वहाँ हर आदमी के मरने की उम्र अलग-अलग हो जाती है और उनमें टीले से ले कर पहाड़ तक का अंतर हो सकता है – खासकर तीसरी दुनिया में, जिसका सदस्य होने से हमारे शासक आजकल शोर मचाने की हद तक इनकार करते हैं। कोई कौवा अपने को कौवा न माने, तो क्या वह कौवा नहीं रह जाएगा?

पिछले साल भारतीय स्त्रियों की जीवन प्रत्याशा 67.7 वर्ष और भारतीय पुरुषों की जीवन प्रत्याशा 64.6 वर्ष थी। लेकिन ये संख्याएँ वास्तविक नहीं, औसत हैं। स्पष्टतः झारखंड या छत्तीसगढ़ के किसी आदिवासी के मरने की औसत उम्र वह नहीं हो सकती, जो मंत्रियों, अफसरों और उद्योगपतियों की होती है। बेशक सभी भारतीयों की जीवन प्रत्याशा हर साल बढ़ रही है, फिर भी घोड़े और गधे की औसत प्रति किलोमीटर रफ्तार में जो बुनियादी अंतर है, वह सिमट नहीं रहा है। इसका कारण वही है, जिसकी ओर इशारा किया जा चुका है – भारत में सरकार, रिजर्व बैंक, शेअर बाजार, कारखाने, अस्पताल, यूपीएससी, सौ रुपए से ज्यादा मूल्य के नोटों की बेशुमार संख्या का होना। अगर इन संस्थाओं को खत्म कर दिया जाए, तो सभी भारतीयों के मरने की उम्र लगभग बराबर हो जाएगी, हालाँकि वह आज की तुलना में बहुत कम होगी।

मेरी समस्या कुछ और है। यह समस्या पशुओं की मौत के बारे में सोचने से पैदा हुई है। मेरा अनुमान यह है कि उनकी मौत बहुत दर्दनाक होती होगी। हृदय आघात से तो वे मरते नहीं होंगे कि कुछ क्षणों में ही किस्सा खत्म। उन्हें मरने में काफी समय लगता होगा। अत्यंत कमजोर हो जाने के बाद वे निढाल हो जाते होंगे, उसके बाद न कुछ खाने को मिलता होगा न पीने को। सिर्फ ऑक्सीजन के बल पर कितने दिन बचा जा सकता है? गनीमत यह है कि उन्हें यह पता नहीं होगा कि उनके साथ हो क्या रहा है। आदमी जानता है कि मौत का मतलब क्या है। इसलिए वह हर हाल में इससे दूर रहना चाहता है, चाहे उसका जीना कितना भी कष्टपूर्ण और निरर्थक हो जाए। जीने का एक क्षण भी सौ मृत्युओं पर भारी पड़ता है।

आदमियों का बुढ़ापा न पशुओं के बुढ़ापे की तरह कातर होता है न उसकी मृत्यु। यह जरूर है कि कोई भी आदमी मृत्यु की तैयारी नहीं करता। सभी मृत्यु को प्राप्त होते हैं, कोई मृत्यु को प्राप्त नहीं करता। स्वयं कर्ता बन कर इस परंपरा को क्या हम तोड़ सकते हैं? हम कब मरेंगे, इसका फैसला प्रकृति से छीन कर क्या हम अपनी मुट्ठी में रख सकते हैं? तब मरने की उम्र वह होगी जब हमें लगे कि अब जीने का कोई मतलब नहीं रह गया है। यह एहसास डिप्रेशन में भी हो सकती है। इसका इलाज होना चाहिए। लेकिन कोई आदमी होशो-हवास में तय कर सकता है कि अब जीना निरर्थक है। जैसा विनोबा भावे ने किया था। जब उन्हें अपना शरीर भार लगने लगा, तो उन्होंने मृत्यु का वरण कर लिया। बहुत पहले सार्त्र का यह वाक्य पढ़ा था कि मनुष्य और पशु में फर्क यही है कि मनुष्य आत्महत्या कर सकता है, पशु नहीं कर सकता।

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