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अंकिता जैन की कहानी ‘अपनी मोहब्बत’

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अंकिता जैन ‘ऐसी वैसी औरत’ किताब की लेखिका हैं. समकालीन परिदृश्य पर बेहद सक्रिय हैं और निरंतर कुछ नया करने में लगी रहती हैं. यह उनकी नई कहानी है- मॉडरेटर
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खिड़की में बैठी एक लड़की। नज़रों से सौ कदम की दूरी पर खड़ा एक पेड़। उसके पीछे से झाँकता एक मकान जिस पर लिखा है, “अपना घर”। खिड़की से पेड़ के बीच है उसके गार्डन में लगे कुछ गुलाब। लाल, पीले, सफेद और गुलाबी। फिर है सीशम का पेड़। फिर एक सफेद दीवार जो इतनी ऊँची है कि बैठे रहो तो उसके पार से दूसरी तरफ चलती सड़क की आवाज़ें गार्डन में कूदते-फांदते गुज़रती हैं, और यदि खड़े रहो तो उसी सड़क पर चलते लोगों के सर और गाड़ियों की छतें एक दूसरे में विलीन होती दिखती हैं। वो अक्सर घर के काम निपटा इस खिड़की में आकर बैठ जाती है। इन आवाज़ों, गाड़ियों की छतों और गुज़रते हुए लोगों के सरों को देखते हुए निशाना साधती है उस मकान पर जिसमें जाने के हिम्मत वो कई महीनों से जुटा रही है। उसे वहां जाना है, लेकिन क्यों? क्या कहेगी? ये सवाल उसके वहां जाने के मंसूबों पर पानी फेर देते हैं। उसे यह अपराधबोध है कि उसने ख़ुद ही उस घर के रास्ते अपने लिए बंद किए थे। ख़ुद ही छोड़ा था उस घर को। अपने घर को। जब वह घर बन रहा था और “सुख” ने पूछा था, बताओ क्या नाम रखें इसका। तो मकान की मुंडेर पर कारीगरों द्वारा काटी जा रही पलस्तर से बनती चौखानों वाली डिज़ाइन को देखते हुए उसने बिना समय गंवाए बोला था, “अपना घर”। इसका कोई नाम मत दो ना। कोई नाम देकर इसे “किसी का घर” मत बनाओ। इसे “अपना घर” ही रहने दो। सुख ने भी उतनी ही फुर्ती से बिना समय गंवाए कारीगर को बोल दिया था, लिखा जाएगा “अपना घर”।
दो अलग-अलग मकानों में पैदा हुए, पले-बढ़े “सुख” और “संतुष्टि” कहाँ जानते थे कि बचपन से उनके बीच पनपा ये गहरा प्रेम बड़े होते-होते पड़ोसन “लालसा” की काली नज़र की भेंट चढ़ जाएगा। “लालसा” को सुख बहुत पसंद था। वो उससे विवाह करना चाहती थी। गर्मियों की शाम में जब अक्सर सुख अपने घर की छत पर खड़ा होकर संतुष्टि की मुंडेर को फांद उसके घर में कूदने के मंसूबे बना रहा होता तो मौका परस्त लालसा झट से एक कंकड़ उठा सुख को मारती। फिर उसकी बनियान में से झाँकती बाजुओं पर मोहित हो, उससे कहती,
“कहाँ गर्मी में पसीना बहाते हो सुख, घर आ जाया करो, नया स्मार्ट कूलर आया है घर में। तुम्हें ऐसी पसंद नहीं ना, इसलिए मैंने पापा से कहकर यह स्मार्ट कूलर मंगवाया है, और मनोरंजन के लिए कुछ नई फिल्मों की सीडी भी लाई हूँ।”
सुख बड़ी ही बुरी नज़र से उसे घूरता जैसे गली के किसी कुत्ते को डपट रहा हो, लेकिन लालसा के रोज़ के एडवांस लालचों ने एक दिन सुख को फांस ही लिया। सुख चाहता था कि वो हमेशा युहीं फलता फूलता रहे, उसके बाजू उतने ही मजबूत रहें जितने अभी हैं। उनमें हमेशा वैसी ही मछलियाँ बनी रहें। वो इसके लिए मेहनत भी करना चाहता था। करता भी था। लेकिन जब उसके संगी-साथी “आकर्षण”, “लोभ”, “चाहत”, और “नए दौर” को उसने कुछ ही महीनों में पतली हड्डी से गबरू पहलवान होते देखा तो उसके मन में भी इच्छा हुई कि आख़िर यह चमत्कार हो कैसे रहा है। जो शरीर उसने बचपन से मेहनत कर-करके पसीना बहा-बहा कर बनाया वो इन लोगों को कुछ ही महीनों में मिल गया। ये सब भी सुख अनदेखा कर लेता, लेकिन जब उसने देखा कि ये सब मिलकर अपनी नई छवि का जादू मोहल्ले की अप्सरा मानी जाने वाली “संतुष्टि” पर चलाने की कोशिश कर रहे हैं तो उससे रहा न गया। संतुष्टि को खोने के डर से उसने “लालसा” से एक दिन छत पर इसका राज़ पूछा। लालसा ने एडवांस हुई सारी जानकारी उसे बता दी, और यह भी कि उसे जिम-विम जाने की ज़रूरत नहीं, उसके घर पर ही सारी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। सुख का परिवार आर्थिक रूप से उतना मजबूत नहीं था कि महंगे जिम की फीस भर पाता इसलिए उसने लालसा का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
बस… फिर क्या था। संतुष्टि को पाने की चाहत में सुख बाबू लालसा के जाल में ऐसे उलझे-ऐसे उलझे कि उन्हें पता ही नहीं चला कब लालसा ने उन्हें अपने फेर में फांस लिया। नई-नई तकनीकि, बॉडी बिल्डिंग के नए-नए तरीके, इंटरनेट का जाल, यह सब जब सुख ने देखा तो उसे अपने पिता का रोज़ सुबह अख़बार से मजग मारी करना, रात खाना खाते वक़्त माँ की समझाइशों का देना, भाई “समझदार” का जीवन ज्ञान देना और बहिन “तपस्या” का सफलता के नए-नए सूत्र बताना बहुत उबाऊ लगने लगा। उसे अब घर में बैठकर सबके साथ समय बिताने से ज़्यादा लालसा के साथ इंटरनेट पर समय बिताना ज़्यादा रोमांचक लगने लगा। बाक़ी सब तो ठीक उसे अब संतुष्टि के लिए घंटो छत पर खड़े हो उसका इंतज़ार करना भी बोरिंग लगने लगा। लालसा ने उसे समझाया कि “संतुष्टि उससे प्यार करती होती तो अब तक उसे इतना ना सताती। सुख आख़िर मांगता ही क्या है? संतुष्टि के साथ कुछ मोहब्बत भरे लम्हे। अब बचपन की मोहब्बत में इतना तो मांगा ही जा सकता है। लेकिन संतुष्टि पुराने खयालात की थी। सुख से मोहब्बत करती थी मगर कभी इज़हार नहीं किया, हाथ पकड़ने से ज़्यादा गले लगाने तक कि इज़ाज़त सुख को नहीं दे पाई। वो चाहती थी कि सुख कुछ बन जाए फिर फॉर्मल तरीके से उसके पिता से उसका हाथ मांगने आए।
मगर लालसा ने संतुष्टि की इस बात को नमक-मिर्च लगाकर सुख के सामने पेश किया, कि “इतना भी क्या भाव खाना, भई सुख तो मोहल्ले के सबसे हैंडसम लड़का है। कितनी सुंदर जोड़ी बनती सुख और संतुष्टि की, लेकिन संतुष्टि के तो भाव ही नहीं उतरते। उसे सुख को परेशान करना पसंद है। बस इसलिए वो सुख को इतना इंतज़ार कराती है”
पहले पहल तो सुख को लालसा की इन सब बातों पर यकीन नहीं हुआ। फिर जब लालसा ने दिखाया कि देखो कैसे संतुष्टि, “लोभ”, “चाहत” और “नए दौर” की प्रोफइल पिक्स पर लाइक्स फेंकती है तो सुख को बड़ा दर्द हुआ। उसे लगा कि एक वो है जो संतुष्टि के पीछे पागल है और एक संतुष्टि है जो उसे भाव तक नहीं देती। सुख भूल गया था कि संतुष्टि तो इंटरनेट इस्तेमाल ही नहीं करती। उसे यह सब पसंद ही नहीं। लालसा ने ही फ़र्ज़ी प्रोफाइल उसके नाम से बनाई थी सुख को जलाने और अपने कब्जे में करने के लिए। और अफसोस की लालसा उसमें कामयाब भी हो गई। जब बुरा वक़्त आता है तो सुख को अपनी साजिशों की चपेट में ले ही लेता है।
सुख और संतुष्टि की प्रेम कहानी में लालसा के आने के बाद वहां कोई उम्मीद नहीं बची जब सुख की शादी का कार्ड एक दिन लालसा के नाम के साथ संतुष्टि के घर पहुँचा। बहुत रोई वो। लेकिन अब इन आँसुओं का क्या फायदा था। उसे तकलीफ़ हो रही थी कि क्यों वो सुख को समझाने नहीं गई। क्यों उसने सुख से बात करने की कोशिश नहीं की। क्या करती वो, उसे कभी यह सिखाया ही नहीं गया था कि उसे सुख के पास भी जाना पड़ सकता है, उसे तो हमेशा यह सिखाया गया था कि सुख ही उसके पास आएगा।
सुख चला गया। संतुष्टि भी कुछ ही दिन अकेली रही, फिर उसके माता-पिता ने उसके लिए एक अच्छा सा वर ढूंढकर उसकी भी शादी करदी। “समझ” यूँ तो संतुष्टि को बहुत ख़ुश रखता है, लेकिन वो सुख नहीं है इसका मलाल ही अक्सर संतुष्टि को उसके घर की उस खिड़की तक ले आता है जहाँ से सुख का वो घर दिखता है, जिस पर लिखा है “अपना घर”। अब दोनों आमने-सामने ही रहते हैं, लेकिन मिलते ही नज़रें चुरा लिया करते हैं।

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