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भगवानदास मोरवाल के उपन्यास ‘सुर बंजारन’का एक अंश

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एक समय में इस देश में लगने वाले मेलों की ठाठ नौटंकी के बिना अधूरी रहती थी. नौटंकी को गरीबों का सिनेमा कहा जाता था, जिस में गीत-संगीत के साथ कहानी दिखाई जाती थी. नौटंकी विधा को आधार बनाकर भगवानदास मोरवाल ने ‘सुर बंजारन’ नामक उपन्यास लिखा जो वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. उसी का एक अंश- मॉडरेटर

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जिन दिनों हमारा देश अपने पड़ोसी मुल्क चीन के साथ हुई जंग में मिली शिकस्त के रंज-ओ-ग़म में डूबा हुआ था l उसी चीन के साथ हुई जंग में, जिसमें उसकी लाल सेना असम के तेज़पुर तक आ पहुंची थी, और हमारा सबसे बड़ा फौजी कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल असम से भागकर दिल्ली आकर छिप गया था। उस जंग में जिसमें हथियारों से कम, हिमालय की गगन चुंबी चोटियों पर लहू जमा देने वाली ठण्ड से कहीं ज़्यादा हमारे जवान शहीद थे, और इसमें मिली इस शिकस्त ने आज़ाद हिन्दुस्तान के पहले वज़ीर-ए-आज़म के माथे पर हिंदी चीनी,भाई-भाई  जैसे नारे को हमेशा के लिए एक कलंक की तरह चस्पाँ कर दिया था l उन्हीं दिनों डायरेक्टर सूरज प्रसाद शर्मा एक दिन यूँ ही, घूमते-फिरते इस छोटे-से शहर की अलसायी-सी गलियों में निकल गये l उन्हीं उदास और अलसायी गलियों में, जिनके अधखुले दरवाज़े-खिड़कियों के पीछे पसरे अनंत मटमैले उजास में गाहे-ब-गाहे कोई अदृश्य उदासी भी खंखारती, तो लगता जैसे किसी शीशा पिघलाने वाली सुर्ख़ भट्टी से, ताज़ा-ताज़ा बाहर आयी कोई बदनसीब ठण्डी चूड़ी खनक रही है l अभी वे इसकी एक उनींदी-सी गली, रहट गली में दाख़िल हुए ही थे, कि एक अधखुली खिड़की से एकाएक उनके कानों में कुछ कमसिन-से सुर पड़े l हिन्दुस्तान थिएटर के डायरेक्टर के आगे बढ़ते क़दम वहीं ठिठक गये l वे धीरे-से दबे पाँव खिड़की के पास आये और अन्दर से आ रही आवाज़ को ध्यान से सुनने लगे –

                                      घायल हिरनिया मैं बन-बन डोलूँ          

                                      किसका लगा बाण मुख से न बोलूँ

इतने सधे बोलों को सुन सूरज प्रसाद शर्मा जैसे इनके पाश में बँधते चले गये l काश, यह आवाज़ हिन्दुस्तान थिएटर में शामिल हो जाए l नहीं रुका गया उनसे l वे दरवाज़े पर आये और उनका हाथ दरवाज़े को खटखटाने के लिए बढ़ गया l

          दरवाज़ा खुला l इसे पहले कि वे कुछ कह पाते, अन्दर से एक बेजान-सी काँपती जनानी आवाज़ आयी,”माला कौन है ?”

          “पता नहीं जिया कौन है !” सामने खड़े एक अजनबी को देख लड़की ने जवाब दिया l

          इसी बीच पुरानी धोती लपेटे एक बारह-तेरह वर्षीय साँवले रंग की किशोरी भी आकर खड़ी  हो गयी l

“बेटी, मैं अन्दर आ जाऊँ ?” दरवाज़े के बीचों-बीच खड़े हिन्दुस्तान थिएटर के डायरेक्टर ने माला से पूछा l

न चाहते हुए माला दरवाज़े से एक तरफ़ हट गयी l इस बीच जिया भी अन्दर से आ गयी l जिया ने सवालिया निगाहों से इस अजनबी की तरफ़ देखा l अजनबी समझ गया जिया का इस तरह देखने का मतलब l

“मेरा नाम सूरज प्रसाद शर्मा है l आपके शहर में जो हिन्दुस्तान थिएटर आया हुआ है, उसका डायरेक्टर हूँ l इधर से गुज़र रहा था तो भीतर से किसी की आवाज़ सुन रुक गया l” सूरज प्रसाद शर्मा ने अपने आने की वजह बतायी l

“अरे भाई साब, यह होगी l पता नहीं मरी क्या-क्या गाती रहती है l” जिया ने पास में खड़ी,  पुरानी धोती में लिपटी उसी बारह-तेरह वर्षीय किशोरी की तरफ़ देखकर कहा l

“जो भी है, पर गाती बहुत अच्छा है l गला और सुर दोनों बड़े सधे हुए हैं l” इतना कह सूरज प्रसाद शर्मा चुप हो गये l फिर थोड़ा रुक कर बोले,”बहन जी, आपसे एक गुज़ारिश है…यानी मेरा आपके लिये एक ऑफ़र है !”

जिया अपलक सामने खड़े अजनबी को देखती रही l कुछ नहीं समझी कि सामने वाला क्या कह रहा है l थोड़ी हिम्मत बटोरी और झिझकते हुए बोलो,”मैं कुछ समझी नहीं ?”

“बहन जी, मेरा कहने का मतलब यह है कि मैं आपकी इस लड़की को अपने थिएटर में लेना चाहता हूँ l”

“ क्याSSS?” जिया ने अकबकाते हुए अपने क़दम पीछे खींचे l

”नहीं-नहीं, ऐसी कोई ज़ल्दी नहीं है l घर में आराम से सलाह-मशविरा कर लीजिए l अभी इस इलाक़े में हमारा थिएटर ढाई-तीन महीने और रहेगा l आगरा, हाथरस, फ़िरोज़ाबाद, सिरसागंज और जसराना में कई शो करने हैं l” सूरज प्रसाद शर्मा ने किसी भी तरह की ज़ल्दबाजी न दिखाते हुए आगे कहा,“वो क्या है बहन जी कि हमारे पास जितने भी कलाकार हैं, उनके पास अदाकारी तो पर गला नहीं है l अगर हमारे पासSSS आपकी यह लड़की…”

“भाई साब, आSSSप यह क्या कह रहे हैं ?” जिया के शब्द उखड़ने लगे l

“आराम से सोच लो l मुझे कोई ज़ल्दी नहीं है l वैसे मैं बीच-बीच में आपसे मिलता रहूँगा l” बीच-बीच में आने की बात कह कर हिन्दुस्तान थिएटर के डायरेक्टर सूरज प्रसाद शर्मा जैसे आये थे, वैसे ही चले गये l

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कविता की कहानी ‘लौटना किसी क्रिया का नाम नहीं’

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आजादी के दिन कुछ अच्छी रचनाएँ भी पढनी चाहिए. जैसे कविता की यह कहानी. संयोग से आज उनका जन्मदिन भी है. बधाई के साथ- मॉडरेटर

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1

 

उस दिन अपनी आखिरी कोशिश के बाद मैं और भहराई थी, टूटते किनारों के दहाने जैसे अपने आप खुल गए, मुझे बहा ले जाने के लिए अपनी जद में …

 

मैं डर  गई थी उस आगत से …जो शायद इस दुख से तनिक भी जियादा नहीं होता …

 

मैं जानती थी लौटना फिर नहीं हो सकता था …

 

और मैं लौटना चाहती थी, बल्कि बहना नहीं चाहती थी उस सैलाब में ……

 

जनवरी का ठिठुरता महीना था,रात के दो बज रहे थे; मैं छत  पर आ गई थी …और इस तरह फूट –फूटकर रोई जितना ज़िंदगी मे कभी नहीं रोई हूंगी …

हिचकियाँ पर हिचकियाँ …कितनी तकलीफ ,कितना दर्द ,सब जैसे आंसुओं में निकल बहने को आतुर ..

 

.शायद मुझे अब भी इंतजार था, वह आएगा और समेट ले जाएगा मुझे अपनी साए तले;

 

एक आखिरी इंतजार …

 

पर ऐसा न होना था, न हुआ।

 

बहते हुए आँसू भी सोचने लगे थे कि उन्हें इस तरह जाया करने से क्या फायदा?

 

सिसकियाँ डूबने लगी थी, पलकें सूखने …

 

काँधें सहमने लगे थे…

 

उस एक आखिरी वक़्त  मैंने याद किया उन सबको । जिन सबने मुझे बेपनाह प्यार दिया था,जिनके प्यार में कोई शर्त नहीं थी, न कोई उम्मीद; हासिल करने या मुझे बदलने की कोई चाहना  भी नहीं ।

 

वे सब जोकि अब इस दुनिया में नहीं थे । परिवार के …या बाहर के भी…

 

मैंने दिल –ही-दिल में पुकारा था ,कहाँ हैं आप सब…? कोई देख रहा है मुझे…?

 

आप सुन पा रहे हैं कि  नहीं मुझे …

 

देखते हैं न, किस मोड़ आन खड़ी हुई हूँ ?

 

कितनी अकेली हो गईं हूँ कि कोई रास्ता नहीं है मेरे आगे …

 

है कोई  तो रास्ता दिखाये मुझे,  सुझाए मुझे कोई राह ,

 

बताये कि सुन रहें हैं ,समझ  रहे हैं  मुझे …हैं मेरे साथ?

 

फिर हंस दी थी खुद ही जोर से, एक सूखी – निरर्थक, उदास सी हंसी…

 

…कि सकते में रह जाती हूँ …

 

 

 

इतनी रात गए …चील जैसी एक बड़ी चिड़िया अचानक कहीं से उड़ती हुई आई थी, अपने रुदन जैसे  तेज – तीखे धारदार  आवाज में शोर करती हुई,  मेरे सिर के चारों तरफ दो तीन गोल चक्कर लगाकर न जाने कहाँ दूर गुम हो गई थी ….

 

देखते –ही –देखते न जाने कहाँ ओझल …

 

मैंने सोच चाहा था कोई पक्षी होगा ,जो अपनी राह भूल गया होगा … या फिर अपना घर …

और उसी की तलाश में …

 

फिर भी इतनी रात गए ..अचानक …?

 

शायद मुझे खुश होना चाहिए था ….या फिर आश्वस्त…

 

किसी ने तो मेरी पुकार सुनी थी…

 

पर मैं डर गई थी बेइंतहां …

 

क्यों यह सोचकर भी नहीं समझ पा रही थी …

 

और लौट आई थी फिर से  उसी चहारदीवारी के भीतर जहां मेरी साँसे घुटती  थी…

 

छूटना, याकि मोह का टूटना लगभग वहीं से शुरू हुआ था…

 

हालांकि एकबारगी नहीं टूटता कुछ भी, छूटता भी नहीं…इस टूटने और छूटने के बीच में समय का एक लंबा वक्फ़ा अटका याकि फंसा पड़ा होता है, अपनी मुक्ति के लिए तड़फड़ाता…

 

कोई तो एक बिन्दु होता है वह …

 

और मेरे लिए यह वही बिन्दु था

 

उस दिन जब झंझोल के मुझे मेरी औकात बताते हुए मेरे तथाकथित दुष्कर्मों के लिए जब वह रोज की तरह मुझे बरामदे के बिछावन पर धकेल गया था, जहाँ मेरा सिर मेरी अधछूटी थाली के खाने में औंधा पड़ा था…चश्मा आँखों से छूटकर कहीं दूर जाकर टूटा-फूटा पड़ा था, मैंने चीखकर कहा था -तुम कोई नहीं होते मुझे किसी तरह कि कोई सजा देनेवाले…

 

पहले खुद के भीतर झांककर देखो…अपनी शक्ल देखो आईने के सामने खड़े होकर , फिर मुझे कोई सजा देना…

 

तुम यही चाहते हो न मैं चली जाऊं ..तो मैं चली जाऊंगी..

 

पर आइन्दा मुझ पर अब कभी हाथ नहीं उठाना …

मेरे कहने से वह सन्नाटे में आया था एक पल को …

 

‘चली जाऊंगी क्या, अभी चली जाओ..इसी वक़्त…

 

मैं गाड़ी बुलाता हूँ अभी…कहते हुए वह मुझे कंधे से घसीटते और खींचते हुए घर का दरवाजा खोल सीढ़ियों तक खींच ले आया था…

मैं किसी तरह उसकी  पकड़ से छूटती हूँ और पूरे दम से चीखकर कहती हूँ -नहीं  अभी और ऐसे तो बिलकुल नहीं ….अपनी बेटी को साथ लेकर जाऊँगी …

 

मैंने अपने कमरे में आकर दरवाजा फिर से बंदकर लिया है, और सोई हुई बेटी से चिपककर फूट फूटकर रो पड़ी हूँ …

 

बात तत्काल के लिए किसी तरह ख़त्म हुई थी…

 

पर झूठ न कहूं तो मुझे उस वक्त यह कहकर एक अजीब सी शान्ति मिली थी. सुकून का एक बलबला फ़ैल गया  था जैसे भीतर…

 

अब वह सारी यातना ख़त्म होने वाली हो जैसे…

 

रोज रोज के वे तमाम नए झमेले और पुराने पचड़े भी…

 

हर पल सहमते हुए जीना…किसी भी पल के शान्ति से गुजर जाने  के ठीक बाद पल भर को राहत की सांस लेना, जैसे ख़त्म हुआ हो इस पल…

 

उस शान्ति के बाद एक हहराता हुआ एक सन्नाटा निस्तब्ध कर गया था मुझे….आखिर मैंने वही किया न, जो वो चाहता था, जिसके लिए वो हर तरह से, हर तर्ज पर कहता रहा था मुझे, वर्षों से…?

 

और मैं थी कि हर हाल में बिटिया को पिता के साए में भी देखना चाहती थी, और माँ का साथ भी देना…

 

अपनी जिदें और संवेदना भी कभी कभी हमें किस हाल ला खडा करती हैं…इसके जिम्मेदार भी खुद हम होते हैं, और दूसरा कोई नहीं …

 

बच्चे का अकेलापन और एकांत ही सबसे ज्यादा समझ आ रहा था मुझे  उन दिनों. .बच्ची को पिता बिना कर देना पिता के होते भी मुझसे मुमकिन नहीं था..

 

यह  एक पितृहीन बच्ची की जिद थी शायद …

 

रोज एक एक दिन किसी तरह कट रहा था…

 

कभी बच्ची बीमार होने के नाम पर मुझे रोकने की जिद करती…तो  कभी त्यौहार और कभी आगामी परीक्षा के नाम पर…

 

रूकने के नाम पर उसका चेहरा सुजा हुआ देखती मैं- मैं जानता हूँ यह सब नाटक है…रोज रोज कोई नया बहाना ..

 

मेरा बनाया खाना तक उसने कब का खाना छोड़ दिया, खाना पड़ा रहता है और वह दफ्तर से आकर अपने लिए फिर से बनाता…

 

और बचे खाने को मैं रोज ब रोज बाहर कुत्तों को डालकर आती…

 

जब इस सबसे भी मैं नहीं निकली थी तो उसने वह राह निकली, जिसके बाद मेरा रूकना संभव नहीं था बिलकुल …

 

अंततः वह चला गया था..

 

.मैं लौटूं तो तुम यहाँ मत दीखना…बेटी को मैं साथ लेता आऊँगा..क्योंकि उसका साल बर्बाद नहीं करना है…मार्च के बाद  सोचेंगे उसके बारे में….

 

वह चाहता था की मैं निशू को उसके पास छोड़ दूँ। पर ठीक –ठीक यह भी नहीं जानती कि चाहता था या सिर्फ कह रहा  था… एक जिद में भार के …

 

कह  देना भर कितना आसान होता है,चाहने,न चाहने के द्वंद को भीतर कहीं दबाकर – सिर्फ कह देना?

 

कहते हुए उसे क्या एक बार भी यह ख़याल नहीं आया होगा कि निशू के लिए ढेर सारा वक़्त वह कहाँ से लायेगा?

 

अपने व्यक्तिगत और रुचिगत कामों में निशू के लिए कैसे वक़्त तलाशेगा वह?

 

वही वक़्त आखिरकार कहाँ से बरस पड़ेगा जिसकी कमी का गान वह ज़िंदगी भर  गाता रहा है?

 

अगर वक़्त ही होता उसके पास हमारे लिए तो …

 

उसने जान-बूझकर ओढ़ ली थी व्यस्तता कि चादर, उसे लपेट लिया था अपने गिर्द  इस तरह कि कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी कि हमारी कोई घुसपैठ भी हो उस दुनिया में…

 

मैं उसके कहे पर विश्वास कर भी लूं तो शायद आजाद हो जाती थोड़ी और चिंतामुक्त भी …

 

पर ऐसा नहीं कर सकटी थी एक तो अपने स्वभाव दूसरे निशू के लिए अपने अगाध लगाव से मजबूर होकर  ..

 

.एक खटका कहीं मन मे हमेशा लगा रहता है,कैसे विश्वास कर सकती हूं…

 

जो मेरे लिए बदल सकता है पूरी तरह , वह  निशू के लिए क्यूँ नहीं …

 

सिर्फ इसलिए की निशू उसकी बेटी है ?

 

कब सोच पायी थी कि एक दिन होते हुए भी न होने कि तरह हो जाऊँगी एक दिन

… उसकी ज़िंदगी से इस तरह बेदखल हो जाऊँगी कभी ?

 

मेरी आवाज,  मेरी हँसी ,मेरे आँसू, मेरा दर्द-रुदन कुछ भी मायने नहीं रखता होगा क्योंकि मेरा वजूद ही मायने नहीं रखता होगा कहीं उसके लिए …

 

वह कहता बहुत शोरगुल होता है इस घर में, इतने कोलाहल मे मुझसे कुछ भी नहीं होता,न ही रहा जाता है …

 

और मुझे चुभता रहता इसका मुर्दनी भरा सन्नाटा.

 

जिसे तोड़ने के खातिर ही कुछ कहने जाती उससे  और उसकी दुत्कार सुनकर वापस लौट आती.

 

यह बर्बरता के सिवा और क्या है …आप किसी को जलती हुई आग में धकेल दें,या फिर बिना तैरना जानने वाले को अतल समुद्र में …और जब वह छटपटाए,चीखे-चिल्लाये, अपने हाथ-पाँव मारे  तो आप कहें कि वह कितना असभ्य है, कितन जाहिल…

 

अब मैं इस वहम से ऊपर उठ चुकी थी कि बोलने-बातें करने से मसले हल होते हैं .

 

मैंने देख लिया था बोलने – कहने से बिगड़ता ही है वह सब कुछ जो चुप रहने से सही और सँवरे रहने का भ्रम तो देता ही था …थोड़ा सा ही सही इत्मिनान  भी…

 

सो कहना मैंने छोड़ दिया था…और सुनना उसने … न जाने कब से …

 

सहना बचा रह गया था ज़िंदगी में, वह भी इसलिए कि निशू थी. वह हम दोनों को चाहिए थी, एक साथ.

 

सो अलग –अलग होकर भी हम साथ थे और मेरी तरफ से इसलिए कि अब भी मुझे इंतजार था, अब भी मैं उसे प्यार करती थी

 

रोज हजारों सवाल मुंह उठाये खड़े होते थे मेरे सामने…कहाँ जाऊंगी? क्या करूंगी?

 

बेटी का क्या होना है….? सबसे ज्यादा परेशान मुझे यही सवाल करता था…

 

तकलीफों के हर हद को सह सकती थी पर सवाल था कि मुझे चैन ही  लेने ही नहीं देता था …

 

सोचना चाहती कई कई बार ,जब प्यार नहीं है उसके दिल में मेरे लिए, तो फिर क्यों हठ ठाने बैठी हूँ मैं…

 

निर्णय लेना आसान नहीं था,पर निर्णय ले ही लिया था उस दिन आखिरककार…

 

और उस दिन और उस  पल लगा था, इससे बेहतर और कुछ भी नहीं होता मेरे लिए …

 

लेकिन  मन था कि रह रहके हिलता–डुलता रहता,करवटें बदलता रहता…

 

कभी कभी सोचती और सोचती रहती …दूर चले जाना ही शायद हमारे रिश्ते को बचाने की आखिरी तरकीब हो?

 

दूरियां कई बार हमें सोचने, समझने और गौर करने की सहूलियत देती हैं…

 

मैं भी तो देखूं यह जो मैं प्यार प्यार दुहराती रहती हूँ हर कठिन घडी में, किसी जीवन मन्त्र की तरह. यह प्यार जैसा भी कुछ ठहरा..या फिर अपनी अकर्मण्यता, परजीविता और एकाएक से अपने उपर अपना दायित्व आ जाने के भय से पैदा होने वाला डर भर ठहरा ?

 

मैं मुक्त होकर उस प्यार की गहराई और जड़ों की सीमान्तता थाहना चाहती थी…

 

चाहे जिंदगी जैसी भी हो आदत तो हो ही जाती है उसकी…और अजाने भविष्य की तीरगी डराती भी है….

 

फिर भी कदम थे कि चल ही तो दिये थे …

 

2

…और अब मैं यहाँ हूँ पर नहीं हूँ ,मेरे अवचेतन में कोई घर है दो कमरों वाला …उसकी  नन्ही सी बाल्कनी है।

 

दरअसल कहीं होना या रहना एक मनःस्थिति है ;चुन लेने की मनःस्थिति। यह स्वेच्छा है या फिर विवशता भी …

 

हम जहां होते हैं दरअसल वहाँ नहीं होते, और जहां नहीं होते वहीं कहीं खूँटे से गड़े -अड़े अंठियाए से पड़े होते हैं. लाख निकल लें, निकाल दिये जाये, मोह है कि छूटता ही नहीं .

 

खासकर वैसी जगहों से तो और भी नहीं जिसे रज-रजकर रचते रहे हों।  गढते रहे हों जिसमें वर्षों तक अपना स्वर्ग।

 

जिसका तिनका –तिनका जोड़ा हो उम्मीद से,पसंद से। रोशनी के धागों से सिली हो जिसकी हर गिरह.

 

…और सपने में भी जिसके लिए यह सोचना गंवारा न हों कि यह मेरा नहीं है,या हो सकता है …

 

हाँ वह जगह और वैसी जगहें भी छूट जाती हैं।

 

वैसे रिश्ते भी जो कभी अपनी साँसो कि तरह जरूरी लगते हैं, जीवन के लिए …

 

छोड़ देना और छोड़ दिये जाने को मजबूर किया जाना दोनों में फर्क है, सोचती हूँ मैं…

 

मन प्रश्न करता है ऐसा भी क्या फर्क है, छूटना आखिर छूटना होता है, चाहे जैसे भी छूटे …

 

फिर भी  नहीं छूटती  जो जगहें याकि रिश्ते उंनका क्या करिए…

की तस्वीरें ठीक उन्हीं –उन्हीं जगहों पर.  वही-वही हरेक चीज.

 

उसी नियत स्थान पर …

 

तर्क …निशु आएगी तो…उसे ऐसे ही रहने की आदत है?

 

आदतें तो बहुत कुछ की नहीं होती पर बनानी होती है समय के साथ।

 

मैं कहाँ दे पाऊँगी उसे वह सब, जो उसे पिता से मिलता है …

 

फिर भी कोशिश करती हूँ,वह सब कुछ बटोर सकूं जो उसे चाहिए, या फिर जितने की जरुरत उसे है …

 

बीमार पड़ती हूँ और नौकरी भी विदा लेती है.

 

अब खाली हाथ, कैसे आएगी निशू, मुझ तक न आने देने का उसे एक और तर्क, एक और कारण मिल जायेगा…

 

‘उसके लिए अभी मैं जिंदा हूँ…पहले खुद के लायक होने की सोचो उसके  लिए फिर सोचना …’

 

मैं कब हूँगी इस लायक ..कब वह मेरे पास होगी ..मैं फूट फूटकर बिलखती हूँ, बीमार पड़ती हूँ…

 

बीमार पड़ती हूँ बिलखती हूँ.

 

यह एक अनवरत चलने वाला क्रम हो जैसे …

और मैं एकदम निस्सहाय …

 

किसके बल पर कहूं कुछ ?

और किससे  कहूं…कौन सुनेगा, कौन देगा मेरी बात पर कान …

 

मैं अंतहीन तूफानों से  बस बेटी की तस्वीर कलेजे से लगाये लड़ती हूँ.

 

वह तस्वीर जो न मुझे डूबने  देती है, और न बचने ठीक से …

 

आवाज सुन लेती हूँ उसकी तो ढाढस मिलती है जैसे, डूबती साँसों को थोड़ी सा  ऑक्सीजन.

फिर चुपके से उसकी आवाज में या फिर उसके इर्द गिर्द तलाशती रहती हूँ कोई आवाज …

 

वह आसपास है क्या बिटिया के ?

वह कुछ कह रहा है क्या, या फिर टी.वी चला रखा है बिटिया ने कि उसे अकेला होना न खले …

 

इधर उसने टीवी ऑन रखने की आदत बना ली है. ..मना करती हूँ आँख दुखेगा तुम्हारा…तो कहती है ऐसे रहने की आदत नहीं न…डर लगता है…मैं निरुत्तर हो जाती हूँ.

 

कई बार उससे  पूछती भी हूँ –पापा थे क्या आसपास, वे कुछ कह रहे थे क्या कहने को? वो कभी हाँ कहती, कभी  नहीं…

 

कभी एकदम चुप रहती है तो कभी बात की दिशा ही मोड़ देती है …

 

मैं  भूल ही नहीं पाती थी पिछला कुछ भी, जबकि भूल जाना चाहिए था कब का ।

 

मेरी आँखों से गुजरते ही नहीं वे बीते दिन,जबकि उन्हें बीत जाना चाहिए था कब का।

 

जब उसके साथ थी तब भी कब उसके  साथ थी,उन बीते दिनों के साथ थी जो बीत चुके थे कब के …

 

जो  बचा था वह आभासी था और यह आभासी दुनिया मेरा असली सच।

 

इसीलिए दुख, चोट, बातें असर करती तो थी पर उतना नहीं…

 

या फिर उतना ही ,जितना कि मैं असर लेना चाहती थी उनका;या कि  जितनी देर तक ….

 

मैं अपने कल्पना पुरुष के साथ ज़िंदगी व्यतीत कर रही ही…

बल्कि कहें तो अतीत पुरूष के साथ…

 

उस अतीत पुरुष के साथ जिसके लिए मेरे सुख-दुख, हंसी-मुस्कान, छोटे-छोटे लम्हे, छोटी-छोटी बातें भी बहुत मायने रखती थी . …वह अतीत पुरुष,जो मेरे लिए जीता था …और मैं उसके लिये ..

 

हाँ दुख तब भी थे, गलतफहमियाँ भी थी ;पर हम उनके होने को अनहुआ कर देते थे मिलकर …

 

हर मुश्किल हर कठिनाई का हल मिल ही जाता था फिर…

 

नहीं भी मिलता तो हमारे कांधे एक–दूसरे को सहारा देने के लिये पर्याप्त थे…दुख शायद इसीलिए छोटे जान पड़ते थे तब…

 

लेकिन अब सामनेवला व्यक्ति वह व्यक्ति ही नहीं था…यह अलग बात है कि मेरी स्मृतियों में ,मेरे साथ हमेशा वही चेहरा चलता रहता ।

वह कुछ भी करता-कहता  बहुत बुरा सा,मैं चाहती कि मैं नफरत करूँ उससे पर उसी वक़्त मुझे कोई पुरानी अच्छी सी बात याद आ जाती। दुख होकर भी नहीं थे शायद इसलिए …

 

कि मैं अच्छी यादों के जिरह –बख्तर में लपेटे रहती खुद को,कछुए की मानिंद।

 

इसीलिए हर आसन्न –संकट टल गई जान पड़ती मुझे…

 

पर यह जिरह –बख्तर  भी जीर्ण-शीर्ण होने लगा था धीरे -धीरे …

 

मेरे टालने भर से कहाँ टलता रहा था  कुछ भी…

 

आखिरी वक्त कोई कुछ भी कहे हम मतलब वही निकालते हैं जोकि निकालना चाहते हैं.

 

मुझे ऊंची आवाज में भी बोलते हुए अबतक किसी ने नहीं सुना होगा ।पर जब भी कुछ कहने – बोलने जाओ –‘वह कहता चिल्ल-पों, चिल्ल-पो,जब मन टूटता है ऐसे ही सारी शिकायतें ऐब बनकर उँगलियों पर आ जाती है गिनाने की खातिर , फिर कमियाँ –ही -कमियाँ नजर आने लगती हैं सामने वाले में…

और जब कोई आवाज सुनने को भी तैयार नहीं हो तो सामनेवाला कहेगा ही न किसी तरह ,प्यार से,खीजकर,गुस्से से या फिर चीखकर ?

यह त्रासदी के सिवा और क्या था कि   मेरे एक – एक शब्द को तरसते शख्स को आज मेरी आवाज कर्ण-कटु लगने लगी थी। मन का भर जाने शायद यही होता है …

 

या फिर और कहीं जुड़ जाना …

 

हर जुड़ाव पिछले रिश्ते को खा जाता है,निगल लेता है पूरा-का पूरा…

 

मैं जब उसकी ज़िंदगी में आई थी,क्या माँ – बाबूजी को ऐसा ही लगा होगा? रिंकी को भी…मैं तब इतराती मन-ही-मन ,थोड़ा और खिल उठती , फूली न समाती  जब वह कहता जन्म दिया है उन लोगों ने,पाला-पोसा. मेरी हर ख़्वाहिश पूरी की,एक पल को उनके बगैर जीने कि सोच सकता हूँ, तुम्हारे बगैर नहीं।

 

बगैर यह सोचे-पूछे कि  मैं उनसे भी महत कैसे हो गई, जिनके बगैर तुम होते ही कहाँ?

 

उस एकलौती बहन से भी जिसके लाड़ में वह ग्रुप –पिकनिक, पिक्चर और दोस्तों के साथ के सारे प्रोग्राम दरकिनार करता रहता, छुट्टी का एक दिन वह भी बाहर रहूँगा तो उसे बुरा लगेगा. मुझसे करीब होते –होते यह बन्दिशें टूटने लगी थी,उसकी परवाह भी पीछे छूटने लगी थी। उसकी जिदें असहनीय जान पड़ने लगी थी …

 

दरअसल हमारे भीतर एक ही जगह होती है ,विशिष्ट सी। और वहाँ कोई एक ही हो सकता है …जब कोई और आने लगे भीतर तो पहले को अपनी जगह खाली करनी होती है, उसे खुद निकलना होता है…या फिर निकाले जाने को तैयार होना होता है …

 

और प्रेम भी एक ही होता है एक ही तरह का…

केवल एक देह की बात परे रख दें तो…

तो मुझे भी वह जगह खाली करनी थी,जो दरअसल पहले ही खाली हो चुकी थी; बस तैयार होना था उस बेदखली को…

 

 

बारिश आई है शायद, निशू बालकनी से उठाकर सारे कपड़े बिछावन पर रख गई है …

नजरें जैसे कह रही हों – तुमको तो माँ कुछ भी खयाल नहीं रहता।

 

मैं चली जाऊंगी जब तो कैसे संभालोगी सब अकेले?

 

मैं  सकते में  हूँ … हाँ उसके जाने का दिन करीब आने लगा है.

सोचती हूँ और बार बार मन ही मन और बार बार किसी भूल जाने वाले बुद्धू बच्चे  की तरह दुहराती हूँ मन ही मन –लौटना किसी क्रिया का नाम नहीं…

 

निशु जिस रात आई थी पहली बार मेरे पास, बातें करते करते अचानक एकदम से उदास और चुप्प हो गई थी …

 

मैंने पूछा था क्या हुआ बेटा?

पापा की याद आ रही है?

 

उसने हौले से कहाँ आआआआ-हां…

 

और बहुत देर तक चुप रहने के बाद बेहद उदास स्वर में कहा था-चाहे कहीं रहूँ, मुझे एक को तो मिस करना ही है…

 

उसके सो जाने के बाद देर तक कानों में मेरे गूंजती रही थी उसकी यह बात -किसी एक को तो मुझे मिस करना ही है…

 

मेरा ग्लानिबोध मुझे उस रात सोने नहीं दे रहा था पूरी रात, बेटी के महीनों बाद ठीक मेरी बगल  में सोये होने, उसे कहानियाँ, लोरियां सुना सकने और नीद में उसे, उसकी बालों को  छू सकने, सहा सकने के उन तमाम दिवा स्वप्नों  के साकार होने के बाबजूद, जिसे मैं रोज बस कल्पना ही कर सकती थी…

निशु उलझा- बिखरा घर समेट रही है…

 

निशू बहुत जल्दी बड़ी हो रही है ,इतनी जल्दी कि मैं भी चकित हूँ …

पर वह जिस अनुपात में बड़ी हो रही है मैं उसी अनुपात में मइन दिनों नासमझ और बच्ची होती जा रही हूँ…

 

निशू सब कपड़े बटोरकर रैक में रखने जाती है, तभी चादर के कोने से सरककर गिरते हैं कुछ  पुराने एल्बम …वह कहती नहीं कुछ बस अजीब निगाहों से देखती है मुझे …और उठाकर ले जाती है उसे भी अपने साथ …

 

…वह पूछती है –‘माँ कुछ खाया था ?’अभी ट्यूशन के बच्चे भी आते होंगे, फिर वक़्त नहीं मिलेगा आपको …

 

जबकि मुझे कहना था-भूख लगी  होगी,कुछ खा ले …या फिर कुछ खाएगी?

 

निशू नाश्ता ले आई  है,डब्बे से निकालकर नमकीन और मीठे बिस्किट.

 

मैं ने चौंककर देखा है,  फिर पूछा है उससे –‘तुमने अपने सारे काम निबटा लिए, होलीडे होमवर्क खत्म हुआ तुम्हारा   …

 

वह हँसकर कहती है हाँ माँ…कई दिन पहले…

 

अरे आपने तो इतनी देर में ये सारे कपड़े तहा लिए…मैं चौंकर देखती हूँ- कब?

 

आदतन ही कर जाते हैं हम बहुत कुछ वह,जो करते नहीं होते मन से …ज़िंदगी एक अभ्यास है और उसे जिए जाना भी…

 

हम औरतें यूं भी  सब उलझा-बिखरा पल में समेट लेती हैं ,बस नहीं सहेज पाती उसी सरलता से तो अपना उलझा -बिखरा मन.

 

…हम तहाकर रख देती हैं सब फैला-फूला. बस नहीं तहाकर रख पाती उसी सहजता से तो अपनी स्मृतियाँ और विगत.

 

यह जानते बूझते भी कि सब मुश्किलों का हल कहीं इसी तहाने में है  …

 

एक बेमालूम हंसी हमदोनों के चेहरे पर तैर आई है। हम पोहा खा रहे हैं, मैं ही नहीं निशू भी सोच रही है शायद कुछ …उसके होठों पर एक बेनाम सी मुस्कुराहट है …और उस मुस्कुराहट के नीचे दबी एक अंतहीन उदासी .

..

.’.क्या सोच रही हो बेटा? कुछ याद आया क्या?

 

हाँ ,पहले आप पोहा देती थी टिफिन में तो मैं धीरे से डस्टबिन में डाल आती थी …या फिर वहीं कहीं स्कूल में ही छिपाकर फेंक आती कि आप देखती तो खूब नाराज होंगी,

 

लेकिन पापा नहीं डांटते कभी …

 

मैंने तो तुम्हें उनकी हाथों से कई बार पोहा खाते भी देखा है…

 

हाँ पापा के हाथों से न? उनके हाथों से तो मैं कुछ भी खा लेती हूँ. मुझे पता ही नहीं लगता मैं क्या खा रही हूँ ,कुछ भी बेस्वाद नहीं लगता …

 

वह मुसकुराती है कहकर और उस मुस्कुराहट पर उदासी कि भूरी तहदार परतें फिर चढ़ने लगी हैं ,रंगत दिखाने लगी हैं अपनी…

 

 

सबसे ज्यादा अफसोस हमेशा निशू के लिए हुआ …शादी के कितने साल बाद तो हुई थी यह जानती कि कल को यही होना है तो  …

 

मुझे कूछ भी तो नहीं भूलता,निशू के आने कि खुशी, उनका प्यार,उनका सहयोग, निशू की देखभाल के लिए हमेशा उनका आगे रहना…

 

इतने सारे रूप ,इतने सारे चेहरे? प्यार किया तो बेहद और नफरत भी वैसे ही टूटकर…

 

बीता वक़्त चाहे जैसा भी रहा हो, पर हमारी यादें उसे धो-पोंछकर चमकीला और रंगों भरा बना देती हैं । सब कुछ जैसे सहज –सुंदर और मनभावन हो उठता है। क्या समय वह चलनी है,जिससे निथरकर स्मृतियाँ खूबसूरत हो उठती हैं?…या खो जाने या खो देने के भय में छिपा होता है वह अकथ सौंदर्य ?

 

ख़यालों पर ब्रेक लगा हो जैसे … ट्यूशन के बच्चे आ गए हैं,मैं उन्हें बैठने को कहती हूँ …

टेबल उनके सामने खींचकर रख देती हूँ।

 

यह तो भला हो स्कूल का कि नौकरी छूट जाने पर भी ये ट्यूशन  बचे रहे हाथ में.

 

भले ही बहुत पैसे न मिल रहे हों  पर जो कुछ  बचा हुआ है,वह भी है तो बस इसी माध्यम से …

 

वहां की रोज की खिटपिट, चिखचिख ….

 

उस दिन  बहस हो गई थी वाइस प्रिंसिपल सर से.

 

कई टीचर पुराने होने के नाम पर रौब भी दिखाते फिरते थे, और धौंस जमाना अलग से…

 

स्कूल छोड़ना नहीं चाहती थी  कभी …पर झुककर, पाँव में गिरकर, जी हुजूरी करके रहना होता तो अपने घर ही टिक गई होती…

 

आगे फिर वही अँधेरे हैं जो घर से निकलते वक्त सामने थे-अब? अब क्या ?

 

..मैं खुद से भी पूछती रहती हूँ लगातार –अब? अब क्या?

 

फिर समझाती हूँ खुद को स्कूल में होती तो क्या टिक के बैठ पाती निशु के पास इस तरह …उसके लिए इतना वक्त होता मेरे पास ? वहां भी दिन भर अकेले रहने वाली बच्ची यहाँ भी अकेली ही होती..और वह तो फिर भी उसकी अपनी जगह ठहरी ..पली बढ़ी है वहां ..उसका स्कूल है वही..और संगी साथी भी…यहाँ वह अकेली करती भी तो क्या आखिर दिन भर?

 

निशू न जाने क्या सोचकर कहती है –मम्मा मैं इन्हें पढ़ा देती हूँ …

मुझे चुप देखकर फिर फिर कहती है -आपकी तबीयत ठीक नहीं लग रही मुझे…

पर…?

 

पर क्या माँ  अपनी पढ़ाई मैं फिर पूरा कर लूँगी…आराम कर लें आप थोड़ा …

 

आराम किसलिए ,किया क्या जो अभी ही थक गई?

 

पर सच तो यह है कि न पढाने लायक मनःस्थिति है ,न  मन.

 

थकान जैसे तारी हुआ जा रहा है दिलों –दिमाग पर…

 

यह तो अच्छा है यह छोटे बच्चों का ग्रुप है,बड़े बच्चे  होते तो निशू से संभलते क्या…और सौ –हजार सवाल मुझसे भी किया होता.

 

वे चुप भी रह जाते तो माँ बाप ये कहने पहुँच आते-आपसे पढ़ने को भेजते हैं हम, न कि…

 

 

 

3

 

 

यह एक शांत –सौम्य सी दोपहर है ,जो न जाने कितने मनुहारों के बाद आई है, मैंने भी उसकी स्वागत में जाने कितने एहतमाम कर रखें हैं…

 

जानती हूँ कल बिटिया को नहीं होना है, बस होना है उस सर्वव्यापी एकांत को, जिसकी चाहकर भी कभी आदी  नहीं हो पाती… …लाख मन बनाऊँ,समझाती रहूँ खुद को…

 

उसकी आवाजों,स्मृतियों को चुन-चुन कर बटोरती फिरूंगी कल से…उनकी झालर बना टांग कर रखूंगी नजरों के सामने…

 

पर इससे भी क्या, वे जीती जागती बच्ची का रूप तो नहीं ही धर सकेंगी… न ही मेरा एकांत बाँट सकेंगी उस तरह से …

 

ये बचे हुए कुछ आखिरी लम्हे हैं समवेत  मेरे और उसके हिस्से के…

 

दरी,तकिया, किताबों,और नाश्ते के डब्बे लेकर मैं मय बिटिया उस नन्हे से बालकनी में  उस दुपहरिया को जीने आ विराजी हूँ ।

 

जाड़े के दिनों वाली सर्द दुपहरिया…हवा  भी मेरे बगल में आ लेटी है, ठीक बिटिया की तरह ही कभी मेरे कलेजे पर अपना सर रखती ,कभी पत्रिकाओं के पन्ने उलटती – पलटती हुई।

 

धूप के एक टुकड़े ने छाती पर बिलकुल बिटिया के सर के बगल में अपना सर डाल दिया है…

 

जैसे वह भी मेरी कांपती धड़कनों को समझता हुआ धीरज दे रहा हो मुझे….

 

मुझमें तलाश सकती हो कल भी उसे…महसूस सकती हो उसका होना …

 

होना एक एहसास के सिवा और क्या होता है…

 

बीत जाना भी तो इक भाव ही ठहरा..बस महसूसने भर की बात भर…

 

हम सब सखी भाव से भरे हुई दिन के ढलने को महसूस कर रहे हैं…

 

संवादों के लिए यहाँ कोई जगह नहीं…

 

आकंठ भरी हुई उसकी आँखें आज  कुछ भी नहीं कहती …

 

बस लिपटी हुई हैं मुझसे..इसी धूप,हवा,नमी की तरह …

 

अगर कह भी दिया उसने तो मेरे पास कहने को, समझाने को कुछ भी न हो, जानती हैं ये आँखें …

 

मैंने सिर को उठाया है, किताब से ढांक क लूँ जरा चेहरा ,कि पूरे बदन को सेंकती धूप अब आँखों को, मन को बेधने लगी है, ठीक इन्हीं निगाहों की तरह…

 

मैं सामना नहीं करना चाहती, भाग जाना चाहती हूँ बहुत दूर, इस दृश्य से…

 

अपनी आँखें वहां से दूर ले जाना चाहती हूँ, कहीं बहुत बहुत दूर …

 

कि चौंक गई हूँ यह देखकर– सूरज धुनिये ने रोशनी और धूप कि उजली-धुली रुई को आकाश में धुन-धानकर बराबर से बिखेर दिया है.

 

ताकि इस नर्म-गर्माहट को एक लिहाफ की शक्ल दे सके और दिसंबरी सर्द रातों में ठिठुरते हुए चाँद को उस लिहाफ को सौंपकर यह कह सके –यह लो तुम्हारे हिस्से मेरे मन की यह गर्माहट …

 

इस खयाल से जुड़ा आया  है कहीं एक और खयाल ….मैं भी इन लम्हों की रुई को धुनकर बिखरा लेना चाहती हूँ अपने मन के आकाश में ,ताकि…

 

बेटी की बाहें मेरे इर्द गिर्द कसी हुई हैं…ठीक इस तरह जैसे वे कभी जुदा ही नहीं थी मुझसे …

 

जैसे हम ऐसे ही रहे हों हमेशा एक दूसरे के इर्द गिर्द, एक दूसरे के आसपास.

 

एक दूसरे की जरूरतों और चाहतों और ख्वाहिशों में…

 

बाकी जो था  वो सब वहम मेरा  ..सब झूठ ..

 

.सच बस ये और ये ही पल…

 

जब भी अकेलेपन का सितार अपनी धुन तेज करेगा …सन्नाटों के बादल जब कड़क और कौंध तेज करेंगे अपनी.

 

मैं यादों के इस सुनहरे किमखाब वाले कम्बल को लपेट लूंगी अपने इर्द गिर्द-की कोई दुःख,कोई दर्द इसके भीतर पनाह लेने न आ सके …

 

मैं चाहती हूँ मैं उसकी आँखों में झांककर देखूं, जानूं कि वह क्या सोच रही ठीक इस वक्त…

 

सामने से देखने की हिम्मत न करते हुए बस चोर निगाहों से तकती हूँ उसकी तरफ …

 

वहां भी बस एक नीला इत्मीनान पसरा  है, सन्नाटा नहीं कह सकती इसे…

 

सुकून भी नहीं, बस कोई चीज है, इन दोनों के बीच वाला …

 

पल भर को सोचती हूँ कहीं अपने भाव ही तो आरोपित नहीं कर रही उन आँखों में?

 

अक्सरहां हम वही कुछ देखना चाहते हैं दूसरों में , जोकि हम दरअसल देखना चाहते हैं…

 

अपनी कल्पना अपनी सोच का कोई दृश्य, कोई बिम्ब …

 

मेरे मन में इन पलों  के लिए एहतराम उतार आया है  बहुत–बहुत.

 

वो पल  जो थके हारे वक़्त और टूटती साँसों में नई जान देने के लिए कुछ न कुछ रचते और कहते और समझाईश देते रहते हैं…बिना चाहे, बिना मांगे,बिला शर्त …

 

हम देखें की न देखें ..हम चाहे अनसुनी कर दें …

 

 

हम दोनों चुपचाप हैं अब भी …

 

दिन है कि बीता जा रहा है, भरोसा देने वाला वह दृश्य भी…

 

बचे हुए इन कुछ पलों और दिन के इस आखिरी हिस्से में हम कुछ भी नहीं कहते एक दूसरे से…

 

कोई वादा भी नहीं देते लेते…

 

कि यह कुछ न कहना ही सब कह देना हो जैसे…

 

 

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कविता

एन. एच.3 , सी /76

विन्ध्यनगर , सिंगरौली

मध्य प्रदेश  (486885)

संपर्क – 9599017977.

 

 

 

 

 

 

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गांधी के वैष्णव को यहाँ से समझिए

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जानेमाने पत्रकार और लेखक मयंक छाया शिकागो में रहते हैं और मूलतः अंग्रेजी में लिखते हैं। दलाई लामा की आधिकारिक जीवनी उन्होंने ही लिखी है जिसका तर्जुमा चौबीस भाषाओं में हो चुका है.  उन्होंने 2015 में गान्धीज सौंग नामक फिल्म बनाई, जो हिंसा के दौर में गांधी के विचारों की प्रासंगिकता को दर्शाती है फिल्म पर एक सारगर्भित टिप्पणी अमेरिका स्थित लेखिका, हिंदी पेशेवर संगीता ने लिखी है- जानकी पुल.जाने-माने पत्रकार और लेखक मयंक छाया ने हालाँकि गांधीज सॉन्ग नामक फ़िल्म 2015 में ही बनाई थी। इसे एक बार फिर से देखे जाने की ज़रूरत है। हम सब जानते हैं कि “वैष्णव जन तो तेेने कहिए…” गांधीजी का प्रिय भजन था लेकिन हमलोग इस भजन के रचयिता नरसिंह मेहता के बारे में बहुत कम जानते हैं जिन्हें नरसी मेहता या नरसी भगत के लोकप्रिय नाम से भी जाना जाता है। यह भजन सुनने के दौरान हम आसानी से समझ सकते हैं कि गांधी के गांधी होने में इस गीत या भजन का कितना ज्यादा योगदान है। हम सब अपनी पसंदों, अपने मूल्यों, अपने दर्शन के अनुसार ही अपना मार्गदर्शक चुनते हैं और गांधी ने नरसी भगत के इस भजन को न केवल चुना बल्कि उसे जीवन में रचा-बसा लिया और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अपनी दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा बना लिया।

पंद्रहवीं सदी के संत कवि नरसिंह मेहता पर मयंक छाया द्वारा बनाया गया करीब पिचहत्तर मिनट का यह वृत्त चित्र अनूठा है। जिस साल यह फिल्म बनाई जा रही थी, उस साल नरसिंह मेहता के जन्म के छह सौ साल हो गए थे। छह सौ साल बाद भी गुजराती भाषा में लिखा गया यह गीत पूरे भारत में कई रूपों में गाया जाता है — स्कूल के एसेंबलियों में, प्रार्थना सभाओं में। नरसी के इस गीत को लोग आज भी इसे गांधी का भजन के रूप में जानते हैं। शायद यही कारण है कि इस फिल्म का शीर्षक गांधीज सॉन्ग रखा गया है।

इस फिल्म में जाने-माने गांधीवादी चिंतक त्रिदिप सुहृद, गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी, नरसिंह मेहता पर महत्वपूर्ण शोध करने जवाहर बख्शी सहित कई लोगों के साथ छोटी-छोटी बात-चीत भी शामिल की गई है। मंयक छाया के द्वारा बनाई गई यह फिल्म वाकई एक दस्तावेज है। करोड़ों लोगों द्वारा बार-बार सुबह-शाम दोहराया जाने वाला यह प्रार्थनानुमा गीत असल में एक जनगीत है जिसमें भारतीयता की बुनियाद छिपी है। इस फिल्म को देखते हुए आप नरसी के गीत को एक बार फिर सुनिए-गुनिए और पड़ताल कीजिए कि हम क्यों नरसी के वैष्णव जन न बन पाए…, हम आज क्यों जाति-धर्म-संप्रदाय के आधार पर बँटे स्वार्थ, अहंकार, घृणा, परनिंदा, वहशीपन, वासना, लोभ, क्रोध, इर्ष्या तथा दरिंदगी से भरे नरभक्षी समाज बनाने को आतुर है। आपको लगेगा कि हम सबके नरसी आज भी गुनगुना रहे हैं, आपसे कुछ कह रहे हैं, अनुरोध कर रहे हैं। गांधीज सॉन्ग नामक इस फिल्म में नरसी हैं, उनके कृष्ण हैं, राधा हैं, रासलीला है, सुंदर समाज का ताना-बाना लिए उनके गीतों को गाते उनके लोग हैं।

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संगीत में राजनीति और राजनीति में संगीत: मृणाल पाण्डे

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विदुषी लेखिका मृणाल पांडे ने हाल के वर्षों में भारतीय संगीत परम्परा पर इतना अच्छा लिखा है कि सहेजने लायक है. अभी हाल में ही उन्होंने नेमिचंद जैन स्मृति व्याख्यान में रागदारी संगीत और राजनीति के रिश्तों पर बहुत अच्छा लेख लिखा और उसका पाठ भी किया. पूरा लेख यहाँ प्रस्तुत है- मॉडरेटर

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किसी खास समय के कला बोध या कला रूपों को समझने का सही तरीका क्या हो सकता है? समसामयिक ग्रंथ जो उस वक्त लिखे गये ? नहीं | बेशुमार धर्म-जाति भिन्नताओं, नाना भाषाओं,बोलियों, लिपियों और साक्षरता स्तरों वाले, वाचिक परंपरा पर लगभग पूरी तरह निर्भर रहे हमारे समाज के संगीत को समझने में लिखित साहित्य की सीमायें गिनाना बेकार है | फिर दूसरी बात यह, कि कलायें जीवंत होती हैं | उन पर समय के साथ विचार, दर्शन, और नये आश्रयदाताओं, दर्शकों-श्रोताओं की रुझान के गहरे दबाव भी पडते रहते हैं | लिहाज़ा सभी कलाएं लगातार खुद को लगातार दोबारा परभाषित करती, बदलती आई हैं | इसलिये कलारूपों को किसी थिराई हुई महान् परंपरा की फोटू मान कर उस पर माला वाला चढाने की बजाय उस घाट घाट की मिट्टी गिट्टी के कण लिये मौसमी बदलाव के साथ नये नये किनारे काटनेवाली एक उन्मुक्त और नित्य पुनर्नवा धारा की तरह देखना अधिक सही होगा |

आम मान्यता है कि कला रचना के लिये शांति स्थिरता और लौकिक चिंताओं से मुक्ति ज़रूरी है | लेकिन आज उत्तर भारत में जो रागदारी की ध्रुपद, खयाल तथा अर्ध शास्त्रीय गायन प्रकार प्रचलित हैं, उनका यह स्वरूप भीषण ऐतिहासिक बदलावों के दौर में बना है | जब कलाकार अक्सर दरबदर हो कर यहाँ वहाँ घूमते रहते थे | 18वीं सदी तक अंतिम बडे मुगल शाहंशाह औरंगज़ेब की मौत के बाद शाही खानदान की भितरघात, मराठाओं के छापामार दस्तों, और ईस्ट इंडिया कं के बढते दबाव तले दिल्ली बादशाहत दरकने लगी थी, और अवध के सूबेदार नवाब भी खुद को बादशाह कहने लगे थे | यूं दिल्ली की भव्य बादशाहत का विचार भले ही एक रहस्यमय तौर से कायम रखा जा रहा था, पर पबलिक देख रही थी कि असली राजनैतिक ताकत न दिल्ली में बची थी, न अवध में | वह नस्लवादी भेदभाव से भरपूर उन अंग्रेज़ों के हाथों में लगातार केंद्रित और बनती जा रही थी, जो कभी व्यापारी बन कर आये थे, और प्लासी की लडाई के बाद धीमे धीमे मालिकी में घुसपैठ कर गये | 1857 तक भारतीय समाज अपना ‘स्व’ खो कर अपने बादशाहों की ही तरह पतनशील, सामाजिक तौर से अंतर्मुखी और आर्थिक स्तर पर असुरक्षित बनता जा रहा था | और गदर उस घायल पशु की अंतिम कराह थी |

गजब यह कि उधर जब दिल्ली टुकडों में गिर रही थी, तो बोलियाँ उठने लगीं | वे बोलियाँ जो कि हरम और छावनियों में वैसे भी पैठ बना चुकी थीं | और चूंकि सत्ता से दूर कर दिये गये बादशाहों सामंतों के पास बहुत काम नहीं था, वे कलाओं की तरफ मुडे | अब संगीत, कविता और चित्रकला कला की मार्फत अब संगीत, कविता और चित्रकला कला की मार्फत कभी स्त्रैण और बाज़ारू मानी जानेवाली इन भाषाओं ने साधिकार दरबार में कदम रखे और राज काज की भाषा फारसी और संस्कृत की बदहाली के बीच राजकीय सराहना पाकर आत्मविश्वास से भर उठीं | फारसी संस्कृत और जाति धर्म की दीवारें टूटने लगीं, तो दरबार में शास्त्रीय और लोककलाओँ के रूप पास आगये | देखते देखते तो फारसी के गले में बाँहें डाल कर ब्रजभाखा, अवधी और पुरबिया बोलियों ने सारे हिंदी इलाके में ऐसी आमफहम भाषा को परवान चढाया जो बडी सहजता से बादशाही हरम से छावनियों और जामा मस्जिद की सीढियों तक बोली समझी और गाई जाती थी | यह भाषा सीधे फोर्ट विलियम में बिठाये गये अंग्रेज़ों के चार भाखा मुंशियों तक जा पहुँची | जिनको शुद्ध राजनैतिक विभेदकारी वजहों से नागरी लिपि को हिंडूज़ व उर्डू पर्शियन को मुस्लिम्स की भाषाओं के रूप में मानते हुए पाठ्यपुस्तकों, कचहरियों और सरकारी घोषणापत्रों के लिये दफ्तरी मानकीकरण करने का गूढ काम दे दिया गया था |

उस समय के ग्रंथों में जिनमें संगीत की बंदिशें और बिहारी,घनानंद, देव आदि की गेय रचनायें भी थीं, लिपि की बतौर नागरी बहुत कम, रेख्ता या फारसी ही अधिक आम थी | पर वाचिक परंपरा, खासकर गुरु शिष्य परंपरा की तहत सीना ब सीना बैट कर सीखे सिखाये जा रहे संगीत में इससे क्या फर्क होना था ? फोर्ट विलियम की राजनीति के परे भी उत्तर भारत का जो बडा देसी समुदाय था, वहाँ उच्च जातियों की पावर लैंगुएजेज़, संस्कृत, फारसी के बरक्स समाज के निचले वर्गों और आम जनता की बोली ठोली खासकर उर्दू, ब्रज, पंजाबी और अवधी को दरबारों और सामंतों के ढिंग हाथ पैर फैलाने की नई जगह ही मिल चुकी थी | जब बादशाह सलामत खुद भी फारसी की बजाय उर्दू के सुखन और ब्रज या अवधी में दोहे बरवै छप्पय सरीखे देसी छंदों में लिखने लगे तो तो गुरुगंभीर ध्रुपद के कसे हुए तंबूरे के कान भी पहली बार जनता द्वारा उमेठे जाने ही थे | संस्कृत के ध्रुपद फारसी काव्य सरकारी बहियों व मंदिरों में भले कायम रहे, दरबारी महफिलों में खयाल गायकी उन पर बीस पडने लगी और जब लोकभाषा की बंदिशों ने लोकसंगीत के रूपों से भी इस गायकी की गाँठ जोडी तो उस नई सुरसरिता ने पुराने रसिकजनों के साथ जामा मस्जिद, चौक और नक्खास के ठलुआ संगीत प्रेमियों का एक नई तरह के कल्पनाशील संगीत की दुनिया से साक्षात्कार कराया | अब महफिलें खयाल गायकी के विलंबित द्रुत रूपों से होती हुई ठुमरी कजरी और चैती के साथ विसर्जित होने लगीं | और उनको गुनगुनाते घर जाते देख महफिलों के पुराने अड्डेबाज़ भारतेंदु ने चट लिखा, कि ‘नृपगण लाज छोडि मुँह लगाई लई ठुमरी’ |

लोकभाषा और लोकमानस मुसलिम राज के छ: सौ सालों में अब जाकर एक समन्वित संस्कृति बनी जो जनभाषा और लोक सुरों की पुकार को शास्त्रीय जडों से जोड सकती थी | यह मेल इस इस कदर फला फूला, कि नादिरशाह लूटपाट के बीच भी बुला बुला कर खयालियों और बडी गवनहारियों को सुनता विभोर होता रहा |

अंतिम मुगल शासकों में से कुल दो काफी समय तक गद्दीनशीन रहे, एक मुहम्मद शाह ‘रंगीले’ (1719-1748), दूसरे ‘शाह आलम’ (1759 से 1806) | दोनो ही  राजकाज के सर्वेसर्वा बन बैठे अंग्रेज़ों के वर्चस्व को स्वीकार कर युगांतरकारी राजनैतिक हलचलों के बीच शुतुर्मुर्ग बने इतिहास से फिरंट होने को मजबूर थे | सक्रिय राजकाज और आडंबरी प्रशासनिक फारसी का जुआ शाही गरदन से उतरा तो पंजाब से मिथिला तक और काश्मीर से सतारा तक सामंती कुलीन समाज का दिल बेझिझक बन कर जनभाषा के छंदों : दोहा, घनाक्षरी, कवित्त, सवैया और लोकगीतों के कसे हुए सहज पकेपन का स्वाद लेने लगा | उनकी उदार सरपरस्ती का फायदा ले कर ब्रज अवधी और उर्दू से लैस कलावंत और कवि लोक संगीत को मार्गी संगीत और कविता को लोक लय से पुष्ट साहित्य की तरफ तेज़ी से ले चले | फारसी संस्कृत की अभिजात जकडबंदी से मुक्त बोलियाँ कोने कोने में हाथ पैर फेंकने और तमाम लोक मुहावरे कहावतें और रूपाकार बटर कर कलाकारों की प्रयोगशालाओं को देने लगीं | बरास्ते छावनी बाज़ार और ज़नानखाना, हरम की औरतों और उनके बीच रहनेवाले रुहेलखंड, अवध, बनारस, पटना दरभंगा आदि के सामंती सरदारों, रसिकजनों का यूं भी इस बोली से, जिसे कोई भाखा तो कोई हिंदवी या उर्दू कहता, गहरी आत्मीयता और समझ का नाता बना हुआ था | घनानंद, सदारंग अदारंग की ब्रजभाषा के कसक मसक भरे और छंद रागदारी बंदिशें देखिये | वे एकदम ठेठ हैं, न संस्कृत की कर्ज़दार, न फारसी की | रीतिकाल की रचनाओं में वे एक नया बौद्धिक श्रृंगार रस सामने लाईं जो यौन शुचिता के प्रतिगामी आग्रहों से मुक्त था. अफसोस कि बाद को विक्टोरियाई मध्यवर्ग की मानसिकता से वे मुफ्त हुईं बदनाम और अचर्चित | हमारे बेतरह बातून पर आलसी संगीतशास्त्रियों तथा भाषा विद्वानों द्वारा उनका नस्तलीख से नागरी हरुफों में भाषायी परिमार्जन- संपादन और टटका मूल्यांकन किया जाना बाकी है |

खैर |

दिल्ली के पतनशील बादशाहों में मुहम्मद ‘रंगीले’ शाह फितरतन रंगीन मिजाज़ दिल रखते रहे | संगीत कल्पद्रुम में ‘मम्मद शा’ पिया सदा रंगीले’ के फिकरेवाली राग कल्याण की किरानावालों की मशहूर ‘बाजो रे बाजो मन्दलरा’ जैसी कई बंदिशें मिलती हैं | यह भी कहा जाता है कि ऐसी संयुक्तनाम वाली बंदिशें जो कालांतर में आश्रयदाता की भी ब्रैंडिंग बतौर कलाकार कर सकें, रच कर ही वाग्गेयकार सदारंग से ले कर रहीम तक रूठे बादशाहों की गुड बुक्स में दोबारा शामिल हुए | खैर | बडे लोगों की बडी बात | यह संयोग नहीं था कि पूरब के साकिनों से विरक्त खुद को उजडे दयार का रहनेवाला बतानेवाले ‘मीर’ के समकालीन कवि घनानंद रंगीले के मुंहलगे कविगुरु सदारंग के भी काफी करीबी होने से दरबार का वरदहस्त पा गये थे | बेचारे बाद को एक नर्तकी के प्रेम में गिरफ्तार हो यह गुलफाम साहिब दरबार से बरखास्त हुए और वृंदावन चले गये और भाषाई गलतफहमी की वजह से नादिरशाह के सैनिकों के हाथों मारे गये |

‘रंगीले’ को अंत तक कवियों की सोहबत उतनी ही प्यारी थी रही, जितनी मुगलकला के चितेरों और लोकसंगीतकारों की | खुद उनने कुछ बंदिशें भी रचीं :’ ‘मम्मद शा सब मिल मिल खेलें, मुख पर मलो अबीर री !’ जैसी होरी उनकी ही मानी जाती है | उनके बाद भी बादशाहों के लोकगीत लिखने (या दरबारी घोस्ट राइटर्स से लिखवाने ) का निपट भारतीय क्रम जारी रहा | जितने कमज़ोर सुल्तान, उतनी ही बडी रस रंग की उडान | कुछ ही दिनों के बादशाह बने  अज़ीज़ अल दीन आलमगीर तक खुद अपनी बादशाही पर ब्रज में बंदिश बना या बनवा गये :

‘हिंद में आनंद भयो कोटि दुरजन गये

बैठे तखत वली आलमगीर सा’ |

दिल्ली तख्त पर 1759 में  आये ‘शाह आलम’ | तब तक Battle of Patpadgunj में उनके मराठा दौलतराव सिंधिया और लुईस बरकैन के सैनिक जनरल ले की अंग्रेज़ कंपनी सेना से हार चुके थे और मुगलिया बादशाहत ‘अथ दिल्ली तौं पालम’ बच रही थी, सो राजकाज की सांसारिक भौबाधाओं को मैटकाफ साहिब और डेविड अख्तरलूनी साहिब को सौंप कर, शाहआलम कला में और गहरे उतर गये | प्रचलित लोकछंदों के अलावा उन्होने महिलाओं के लिये कुछ मांगलिक गीत भी रचे जैसे बर्ज्य द्विअर्थी सीठने यानी गारी, और होरा | फारसी, उर्दू और ब्रज भाखा तीनों में वे क्रमश: ‘आफताब’ और ‘शाह आलम’ नाम से लिखा किये | नवाब दरगाहकुली खां ने उन्नीसवीं सदी के उन्हीं दिनों में सदारंग की दो पट्ट शिष्याओं धन्नाबाई और पन्नाबाई की भी चर्चा अपनी किताब में की है | धन्नाबाई न सिर्फ उत्तम गायिका थी, वह एक श्रेष्ठ शास्त्रज्ञ और वाग्गेयकार भी थी और उसने खुद भी कई नये राग रचे थे | यह राग कौन से थे ? वे बंदिशें कैसी थीं ? औरतों के मामले में प्रशंसा कृपण हमारे राज समाज ने इन सब ब्योरों को करीने से बचा कर उस तरह क्यों नहीं नहीं रखा, जिस तरह उसके गुरु सदारंग की रचनाओं को ? यह सवाल आज तक अनुत्तरित ही हैं | बीसवीं सदी में बंदिशें बटोरने निकले भातखंडे जी ने भी पुरुष गायकों की ही तरफ रुख किया | महिलाओं की तरफ नहीं | किया होता तो शायद संगीत ग्रंथावली में कुछ नये अध्याय, कुछ नये चर्चे जुडते |

अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ‘ज़फर’ भी तबीयतन कवि थे और ‘ज़फर’ तखल्लुस से शायरी करते थे | मूलत: फारसी में लिखनेवाले पर अब नफासत कसावट भरी उर्दू को गालिब और ज़ौक जैसे शायरों की कलम मिलने से उर्दू अब नये नये पैमाने रच रही थी | उधर लखनऊ में भी तख्त पर निहायत रंगीन तबीयत वाजिद अली शाह थे | कदर पिया(कादिरबख्श), सनद पिया (तवाक्कुल हुसैन), प्यारा साहिब उनके चंद प्रिय गायक थे | चूंकि वाज़िद अली शाह की नासमझी और अंग्रेज़ों की समझदारी से गाँवों में डकैतों और शहरों की कुटनियों के बीच सडकों पर गुंडागर्दी का आलम बन चला था, लिहाज़ा अवध की शाही महफिलें रहस सरीखे लोकप्रकारों में भी रुचि ले रही थी जो बाद को नौटंकी के रूप में पक कर तैयार हुईं | वाजिद अली शाह उर्फ अख्तर पिया दिनरात खुद महल में अपनी प्यारी हरमवासिनियों के साथ तरह तरह का नाच गाना करते रहते थे | उनको कृष्ण का किरदार इतना भाया कि अमानत अली खान ने उनकी ज़िद पर भाखा का पहला औपेरा इंदरसभा लिख दिया | रचना में सुर भरने को उस्तादों का होना ज़रूरी था | लिहाज़ा शक्कर खाँ, उनके बेटे मुहम्मद खाँ, हद्दू हस्सू की जोडी, सरोदिये सादत खान नन्हे खान, पखावजिये कुदऊ महाराज सरीखे नाज़ुक दिल गायक वादक आन जुटे | पर 1856 में जब इस कलासंरक्षक बादशाह को अंग्रेज़ों ने बेरहमी से दरबदर किया, तो कुछ तो उनके साथ मटिया बुर्ज़ जा कर बंगाल की शोभा बढाने लगे | शेष में से कोई सिंधियाओं के ग्वालियर दरबार जा पहुँचे |  अब्दुल कलाम साहिब मीरज चले आये | गवालियर वाडोदरा के समृद्ध राजघराने भी खयाल गायकी के नये घर बने | बादशाहत का असर था या मौसम का,

अंग्रेज़ों पर तब तक फारसी उर्दू और प्राच्य परंपरा का नशा चढने लगा था | 1846 में सर सैयद ने मैटकाफ साहिब के कहे से दिल्ली की पुरातन इमारतों पर ‘असर उल सनादीद’ लिखी और Royal Asiatic Society के मानद सदस्य बने |

उधर बादशाहत की आखिरी घडियों में गरीबी की पृष्ठभूमि से इस पेशे की मार्फत असुरक्षित माहौल के बीच गायक वादक फिर बिछडे बछडे बन गये | किसी तरह गुण के बूते दरबारों में आये तब के यह कई गायक वादक प्राय: निरक्षर या अर्ध साक्षर थे | रईसों की उदारता से वे अपने प्रतिभावान् चेले चेलियों को आमने सामने बैठा कर संगीत की धरोहर उनके हाथों सुरक्षित तो बना सकते थे, अलबत्ता उसे विस्तार से परवर्ती पीढियों को समझा पाने के लिये उस ज्ञान के मूल दर्शन और स्वरों के (श्रुत्यानुसार) बने जटिल रूपों की जानकारी उनको कम ही थी | पूर्ववर्ती ग्रंथों : आनंदवर्धन के ध्वन्यालोक, या दत्तिलम् या भरत मुनि के नाट्यशास्त्र को तर्क सम्मत बना कर अपने युग के संगीत से जोडो का प्रयास शायद इसी वजह से हमको नहीं दिखाई देता | अक्सर सहज सवाल का तर्कसंगत जवाब देने की बजाय गुरु शिष्य पर हाथ उठा कर या यह कह कर कि हमारे घराने में ऐसा ही होता है, उसे चुप कर देते थे | पेशेवर गायिकाओं को वे काफी मोटी फीस देकर ही सिखाते थे और अवहेलना के साथ, बिना महफिलों में अपने होनहार छात्रों के साथ उनका नाम जोडे, लिहाज़ा गायिकाओं के सवाल पूछने की बात अकल्पनीय ही थी | वे यही मान कर धन्य हो रहती थीं, कि उनको किसी बडे घराने की तालीम हासिल हो रही है, और बडे बादशाही घराने के लोगों, शायरों कवियों की रचनायें बंदिश की बतौर उनको मिल रही हैंगी |

19वीं सदी के अंत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भारतीय समाज से गुज़रता हुआ बीसवीं सदी की शुरुआत तक संगीत पर भी असर डालने लगा था | 1784 में On the Musical Modes of Hindooz के लेखक सर विलियम जोंस जैसे अंग्रेज़ इतिहासकारों प्राच्यविदों की समीक्षा से प्रभावित, और संस्कृत प्राकृत तथा बोलियों के साहित्य से अलग थलग हो गया पढा लिखा मध्यवर्ग और व्यवसायी वर्ग 19वीं सदी में नये सिरे से भारतीय शास्त्रीय गायन पद्धतियों और प्रकारों को अंग्रेज़ प्राच्यविदों की दृष्टि से देखने गुनने लगा | घरानेदार संगीत, डेरेदार तवायफें और उनके साज़िंदे अभी भी उनके सामने कायम थे और तालीम अभी भी सीना ब सीना ही थी, पर अंग्रेज़ों साथ लगातार उठने बैठनेवाले मध्य वर्ग के फैलने के साथ समाज बदलने लगा था | पारसी इस बदलाव के बडे पक्षधर थे | 1870 में मुंबई के पारसी व्यवसायी के एन काबरा ने ही पहली संगीतप्रेमियों की सोसायटी में बनाई | नगरी अब वणिज व्यापार का केंद्र और मध्यवर्गीय पेशेवरों की नगरी बन चली थी | पुणे में सर जेम्स फर्गुसन साहिब की सरकार की प्रेरणा से दूसरी मंडली बनी, और मराठी ब्राह्मणमूलक गायन समाज को भी युवराज प्रिंस अॅफ वेल्स और ड्यूक आफ एडिनबरो के वरदहस्त मिला | यह तमाम गुट सर जोंस के उस  प्राच्यवाद से कमोबेश सहमत थे, जिसकी तहत भारतीय क्लासिकी संगीत हिंदुओं की ही निर्मिति था, और उसका इकलौता उत्स वेदों में था | पुराने संस्कृत ग्रंथों में दी गई रागदारी से वे सब कितने अपरिचित रहे आये | चूंकि जोंस सरीखे प्राच्यविदों ने बिना सीधे गायक समाज से रिश्ता बनाये पुराने संगीत दर्पण, संगीत पारिजात सरीखे ग्रंथों के संदर्भ से ही सारे हिंदुस्तानी गायन को आँका उन्होने उसे नये रईसों के लिये लगातार हिंदू संगीत बना कर धरा, और भूरे साहब तथा भारत का शिक्षा जगत पर हावी नवजागृत ब्राह्मण समुदाय उसी थीसिस को सर पर धरे फिरने लगा |

पूरब में 1871 में पथुरिया घाट के बडे ज़मींदार व कोयले के व्यापारी सौरींद्र मोहन टैगोर ने बंगाल अकादमी ऑफ म्यूज़िक खोली | वायसरॉय डफरिन साहिब और उनकी मेमसाहिबा इसके अध्यक्षीय संरक्षक (हाई प्रोटेक्टर) घोषित हुए | और वडोदरा जैसे नगरों में बडे घरानों में औरतों की शिक्षा दीक्षा और संचरणशीलता बढीं जिनको संगीत से सहज लगाव भी था | पर पेशेवर घरानेदार संगीतकारों का समाज में बराबरी का दर्जा तब भी नहीं बन सका था |

गुजरात में भी हलचल बढने लगी जब 1899 में वडोदरा दरबार ने संगीतकारों के लिये एक अलग विभाग और नियामक तथा नियमावली(कलावंत खात्याचे नियम) गढे | इनकी तहत एक संगीतविद् पहलवान घिस्से खान ने संगीतकारों को श्रेणियों में बाँट कर उनके लिये दरबारी महफिली गायन वादन के अलग अलग रेट तय किये | यह भी प्रावधान सवर्ण प्रधान नौकरशाही ने बनाया कि हर गायक वादक नियमित रूप से नियामकों को सलाम बजाये और काम माँगे | इस तरह कलावंतों के लिये सीधे दरबार में जाने की बजाय घिस्सेखान तथा सरदारों की शरण में जाना और पूर्व मंज़ूरी लेना अनिवार्य बनता गया |

पर आज के उच्चशिक्षा शोध संस्थानों की तरह ऐतिहासिक साक्ष्य सहित लिखे गये शास्त्रों और बडे उस्तादी शिक्षकों की कमी महसूस होने लगी | उधर समाज में क्षेत्र जाति, कुलीनता के आग्रह कम तो हुए थे पर बहुत नहीं, लडकियों युवतियों पर सामाजिक जकडबंदी बनी रही जिसके कारण लडकियों के लिये अलग गुरुकुलों की बाध्यता भी थी |

उधर राजनैतिक तौर से अंग्रेज़ी शासन तले राजनैतिक आग्रहों की तहत तमाम स्तरों पर हिंदू- मुस्लिम समाज ‘बाँटो और राज करो’ की योजनाबद्ध  बढत का शिकार बनता जा रहा था | अच्छी बात यह थी कि कला के इलाके में तब भी हिंदू मुसलमान का विभेद नहीं बन पाया, और धरानेदार संगीत में तो बिलकुल नहीं | लखनऊ, पटना, बनारस या ग्वालियर और बडोदा के साथ ही नये औद्योगिक विकास से जुडे कलकत्ता तथा मुंबई भी अब एक साथ नव हिंदू सुधारवाद और शास्त्रीय प्रयोगधर्मिता के एक साथ बडे केंद्र बने संगीतज्ञों को खींचने लगे थे | लेकिन शुरुआती दौर में अंग्रेज़ों की बनाई इन महानगरियों में जब नेटिव बाबुओं को ही जिमखाना या क्रिकेट क्लब की सदस्यता मिलनी दूभर थी, पुरानी शैली के बडे बडे देसी कलावंतों के लिये भी कोई इज़्ज़तदार रिहायशी स्पेस या प्रदर्शन के मंच सहज उपलब्ध नहीं बन सके | तिस पर विक्टोरियाई मानसिकता तले नॉच गर्ल्स के सार्वजनिक कलाप्रदर्शन पर गोरे माथों पर सलवटें पड जाती थीं, भारतीय उच्चमध्यवर्ग भी उस मानसिकता को अपना रहा था | मारकेस अॅफ हेस्टिंगस साहिबा भारत भ्रमण पर आईं और भारतीय संगीत खासकर पेशेवर तवायफों की संगीत महफिलों में शिरकत के खिलाफ लिख गईं | कुल मिला कर 18वीं और 19वीं सदी तक मोटी तौर से अंग्रेज़ शासकवर्ग और उसके नेटिव सदस्यों के बीच शास्त्रीय संगीत की समझ या आग्रह बहुत सतही और नस्लवादी दिखते हैं |

फिर भी धीमे धीमे संगीत की सरिता महानगरों में अपने लिये नये किनारे काटती रही | प्राच्यविदों के बीच घरानेदार संगीत में मुसलमान उस्तादों के महती योगदान की अवहेलना के बावजूद आगरे के शेर खाँ साहिब, और नत्थन साहिब से लेकर अल्लादिया खाँ और अब्दुल करीम खाँ साहिब तक कई नामी गिरामी उस्तादों को तारा बाई शिरोदेकर, केसर बाई, मेनका बाई या मोघूबाई जैसी बडी पेशेवर गायिकाओं और कुछ बडे सेठिया घरों में महिलाओं को तालीम देने की एवज में ठीक ठाक कमाई होने लगी | धीमे धीमे उनके अन्य रिश्तेदार तथा साज़िंदे भी इन शहरों में सपरिवार आन बसे | रागदारी के जीनियस अल्लादिया खान, फैयाज़ खाँ या अब्दुल करीम खाँ साहिब सरीखे कुछ बडे नामी उस्तादों की बडे वकीलो, कंपनी मालिकों, उद्योगपतियों के घर में निजी महफिलें भी बुलाई जाने लगीं | इन महफिलों तथा पैसा देनेवालों की रुचियों के अनुसार गायकी के रात रात चलनेवाले पुराने तरीके, संगीत के दंगल और गायन की समय सीमायें भी नये संरक्षकों की आदतों और इच्छानुसार बदली जाने लगी |

घरानेदार संगीत और उसके शिरमौरों का नाम फैला तो छोटी बडी रियासतों : पटियाला, जामखेड, इचलकरंजी, कोल्हापुर आदि से भी महफिलों के न्योते आने लगे | शास्त्रीय उपशास्त्रीय संगीत में जागती रुचि के चलते और आज़ादी की सुगबुगाहट के बीच संगीत के प्रसार प्रचार से नया प्रोफेशनल मध्यवर्ग उत्साह से जुडने लगा | नये म्यूज़िक क्लब व मंडलियाँ बनने लगीं, तालीमी स्कूल खुले | 1880 में सयाजीराव गायकवाड ने लडकियों के लिये संगीत शाला खोली | और कुछ शुरुआती हिचकियों के बावजूद दो महान गुरुओं, महाराष्ट्र के पं विष्णु दिगंबर पलुस्कर और पं भातखंडे ने सही तरह ग्रंथ रच कर और शिक्षाविधियां कोडिफाय करते हुए  स्थिति में गहरे नये बदलाव की शुरुआत की |

भातखंडे जी, जैसा उनके टैगोर परिवार के अपने भरोसेमंद गुणी मित्र गौडहरि को लिखे पत्रों सेज़ाहिर है, मूलत: राजनीति और संगीत को अलग रखने के पक्षधर थे | वे पश्चिमी संगीत के अलावा पुराने संस्कृत ग्रंथों के अध्येता और गहरे जानकार भी | वे जल्द ही समझ गये कि जोंस महोदय की थीसिस संस्कृत के चंद गिने चुने ग्रंथों और वाराणसी के संगीत के ना जानकार पंडितों से चर्चा पर आधारित ती, समसामयिक गायक वादकों से बातचीत विमर्श पर नहीं | इसलिये वह व्यावहारिक तो कतई न थी, साथ ही संगीत के ईरानी, अफगानी तथा लोकसंगीत प्रकारों से 600 बरसों से लगातार होते आये संकरण और संविलयन से भी कतई फिरंट थी | जनस्तर पर भातखंडे हिंदू इतर पारसी संगीत रसिकों के( गायन उत्तेजक मंडली जैसे) मर्मी संगीत पारखियों से भी जुडे थे जहाँ 1890 से 1905 तक कई विचारोत्तेजक व्याख्यान उन्होने दिये | उन्होने ही कई मतभेदों को नकारते हुए सीमाओं के बावजूद संगीत की बंदिशों का अंग्रेज़ी स्टाफ नोटेशन पद्धति से संकलन और राष्ट्रीय संगीत सम्मेलनों का भी विचारोत्तेजक तरतीबवार सिलसिला 1916 से शुरू किया |

घरानेदार संगीत का एक बडा अवगुण था, अपनी बंदिशों तथा रागदारी को गोपनीय रखना | भातखंडे जी ने देश में घूम घूम कर हर घराने के उस्तादों- गुरुओं के सामने बैठ कर बहुत धीरजभरे वैज्ञानिक तरीके से (साम दाम दंड भेद का इस्तेमाल कर) शास्त्रीय गायन की बिखरी संपदा को उनके छुपे तलघरों से उबारा और फिर लिखित नोटेशन का रूप दे कर 1915 में गीत मालिका व छ: खंडों की क्रमिक पुस्तक मालिका छपवाई और गुप्त माल को सर्वसुलभ बनाया | फिर भी बडी संगीतकार स्टाफ पद्धति तथा पेटी बाजे को जो टेंपर्ड स्केल से बने थे और श्रुतिसम्मत नहीं थे, से अनमना रहा | आज तो बिला उसके कंठ खुलते नहीं और अब तो इलेक्ट्रोनिच तानपूरे भी आ चुके हैं | करतार भली करे |

भातखंडे जी के समकालीन पं विष्णु दत्तात्रेय पलुस्कर जी तीन मूल लक्ष्य ले कर चले | एक, संगीत को सर्वसुलभ बनाना | दो, भक्ति संगीत का पुनरुद्धार कर उसे भारतीय समाज की व्यापक धार्मिक चेतना और स्वराज्य आंदोलन की राजनीति के बीच पुल बनाना, और तीन, यत्न से संगीत शिक्षा के लिये अच्चे शिक्षाकेंद्रों की देशव्यापी चेन बनाना | संगीत को पहले भक्ति काव्य और फिर राष्ट्रीय आंदोलन से जोड कर उन्होने संगीत को कोठेवालियों या महफिलबाज़ पुरुषों से परे लेजाकर उसे मध्यवर्ग की भद्र महिलाओं के लिये भी स्वीकार्य और सुलभ बना दिया | वे खुद अभावों की आँच में तपे संगीतकार और बापू के मुरीद थे (1921 में अहमदाबाद और1923 में काकिनाडा के कांग्रेस महासम्मेलनों में उनकी सक्षम भागीदारी रही)| दरअसल भारतीय राज समाज के जाति वर्ग प्रधान नियमों के प्रति उन्होने भातखंडे की तरह विद्रोह करने की बजाय सुलहवादी नज़रिया अपनाना बेहतर समझा | इसके बिना उस युग में कोई भी बडे आधार वाला काम करना असंभव था | इन दोनो के ही हम आज के भारतीय ॠणी हैं |

आज कम लोग जानते हैं कि गांधी जी में संगीत की गहरी समझ न रखने के बावजूद पारंपरिक संगीत की संप्रेषण की ताकत की एक विलक्षण परख और उसकी राजनैतिक मंच पर लोगों को इकट्ठा करने की क्षमता की समझ थी | बापू ने  सहजता से यह सचाई समझी कि भक्तिसंगीत से घिरे वृहत्तर भारतीय समाज से प्रार्थना सभाओं तक किसी भी विशाल जनसमूह को संगीत की ध्वनियों के आलोक में खडा कर ही राष्ट्रीय आंदोलन को अखिल भारतीय एकसूत्रता में पिरोया जा सकेगा | बापू से संगीत के जुडाव का इतिहास आज हमको अक्सर दंतकथाओं की तरह टुकडा टुकडा रूप में ही मिलता है | पर 1926 में ही बापू ने इस आशय की बात कही थी, कि संगीत बिना स्वराज असंभव है | जहाँ स्वरों का सामंजस्य नहीं, वहाँ संगीत नहीं | अर्थात् सांगीतिक सामंजस्य ही असली स्वराज्य है | कैसा अद्भुत विचार है यह ! कि मस्ती से रघुपति राघव राजाराम गाती स्वराजियों की मंडली ही दाँडी जैसी यात्रा करे और अंग्रेज़ों की राजकीय दमनकारिता को निहत्थी चुनौती दे ! 1925 में चरखा कातते समय बापू के लिये कुछ संगीतकारों ने सितार बजाने का प्रस्ताव रखा था | बापू का वह मौन दिवस था पर अपनी डायरी में उन्होने लिखा कि उस दिन उनका सूत बेहतर काता गया | और वे स्वीकार करते हैं कि स्त्रियों की जिस भौतिक मानसिक रचनात्मकता की ताकत उन्होने अपने बचपन में घर की महिलाओं के बीच देखी थी, वह कहीं उनकी माता के गाये भजनों के स्वरों से भी आत्मसात हुई थी | इस तरह संगीत की एक बडी थाती उन्होने एक विलक्षण तरीके से स्वराज आंदोलन से जोडी, जिसमें टैगोर से लेकर भगतसिंह और आज जावेद अख्तर सरीखे कवियों ने पनी तरफ से नया नया जोडा है | इस दृष्टि से

यह अनायास नहीं था कि पारंपरिक गायिकाओं ने भी काशी मे 1921 में तवायफ संघ बना कर आज़ादी आंदोलन से निकले असहयोग आंदोलन से अपनी जमात को भी जोडा |

संगीत को सम्मान दिलाने का काम उस समय एक तरह से धार के विपरीत जाने जैसा था क्योंकि विक्टोरियाई ब्रिटेन के असर से 1893 के आसपास भारत में भी पारंपरिक देवदासियों तवायफों और नर्तकियों को नीची नज़र से देखनेवाले कुछ कट्टर शुद्धतावादी आग्रह सर उठा रहे थे | पर 1920 के आसपास समाज की कई उपेक्षिता लेकिन अपने हुनर की कमाई से आत्मसंभव बनी  महिलायें भारत की आज़ादी के आंदोलन और गाँधी के आदर्शवाद के प्रति गहरी रुझान दिखाने लगीं | गाँधी जी की दृष्टि में यह गवनहारियाँ भी भारत की जनता का ही एक आत्मीय अंग थीं | लिहाज़ा 1920 में जब गाँधी जी कोलकाता में स्वराज फंड के लिये चंदा जुटा रहे थे, उन्होने गौहरजान को बुलवा भेजा और अपने हुनर की मदद से आंदोलन के लिये चंदा जुटाने में मदद माँगी | पर एक तरह का जातिवाद व गैरमहिलावाद गाँधी की मौजूदगी के बाद कायम रहा | उदाहरण के लिये1012 तक (केसरी के अनुसार 200 कुलीन पुरुषों के साथ खोले गये) मुंबई गांधर्व महावि. में 1304 में से 1074 पुरुष व 231 महिलायें थीं | जिनमें पारसी महिलायें सबसे अधिक थीं | मुस्लिम या अवर्ण कोई नहीं था | पर याद रखना होगा कि शायद इसी लिये कि इन महाविद्यालयों को आर्यसमाज और सनातन समाज जैसी संस्थाओं की मदद मिल सकी जो वृहत्तर समाज को इस संदिग्ध रही कलाधारा तक खींचने में कामयाब रही |

इसी बीच रिकॉर्डिंग उद्योग ने संगीतज्ञों के लिये नये क्षितिज खोले | गौहरजान जिन पर पहले बनारस और फिर कलकत्ता के रसिकगण न्योछावर हुए और जिनकी क्षमता को बापू ने भी स्वीकार किया, अपने जीवन के उत्तरार्ध में रिकॉर्ड उद्योग की वकत पहचान कर उससे तुरत जुडीं | इस वजह से इस अनन्य गायिका के अनेक रिकॉर्ड हमको आज भी उपलब्ध हैं | बनारस की ही ज़द्दनबाई ( नरगिस की माँ) , मेनकाबाई ( शोभा गुर्टू की माँ ) तथा सिद्धेश्वरी देवी (सविता देवी की माँ) ने भी महफिली गायन के अलावा रिकॉर्डों से खुद अपने वक्त में बडा नाम कमाया और उनके बाद उनकी प्रतिभाशालिनी बेटियों ने |

उधर बडोदा रियासत के सयाजीराव गायकवाड, जनहित में तमाम तरह की नई शुरुआतें कर रहे थे | बडोदा बैंक, रेलगाडी यह सब वे ही लाये | संगीत का भी युवा बडोदा महाराजा को शौक था, पर विलायती तालीम के कारण वे पश्चिमी संगीत को पसंद करते थे | एक अजीब बात ये भी बताते चलें कि अंग्रेज़ी रंग में रचते गये भारतीय रजवाडों की रुझान को भारतीय संगीत की तरफ मोडने में अंग्रेज़ी बैंडमास्टर और सेना के कमांडरों का भी काफी हाथ रहा | बाँदा के नवाब की सेना के कप्तान अॅगस्टस विलार्ड ने 1793 में A Treatise on The Music of India नामक पर्चा लिखा | वडोदरा महाराजा सयाजीराव के अंग्रेज़ मित्र फ्रेडलिस साहेब का भी उनकी रुचि भारतीय शास्त्रीय संगीत में गहराने और संगीतकारों को दरबार से जोडने में बडा हाथ रहा | वे रियासत में तैनात अंग्रेज़ छावनी के मुख्य बैंडमास्टर थे जिनके बडोदा अंग्रेज़ी बैंड ने, कहते हैं बडे लाट एलगिन के बडोदा आने पर भारतीय राग बजा कर स्वागत किया था | उनके निरंतर सान्निध्य में राजा साहिब को पारंपरिक भारतीय गायन के संदर्भ में अंग्रेज़ी संगीत लेखन की अनेक नई बारीकियां तथा संभावनायें पास से देखने परखने और उनको विलायती स्टाफ नोटेशन शैली में लिखवाने का विचार भी मिला | फ्रेडलिस साहेब की ही राय पर चलते हुए सयाजीराव ने अपनी रियासत में भी किसी योग्य गुरु की अगवाई में लडकियों को भातखंडे पंडित की चलाई नई नोटेशन पद्धति की तहत बाकायदा शास्त्रीय विद्या और तालीम के साथ संगीत शिक्षा दिलाने के लिये एक स्कूल शुरू  भी शुरू किया |

बीसवीं सदी के तीसरे दशक तक कुछेक अन्य ऐतिहासिक घटनाओं ने रागदारी संगीत को आम मध्यवर्गीय महिलाओं तक पहुँचाने में बहुत मदद की | पहला था बडे समाज सुधारकों का अवतरण | इनमे गाँधी जी पहले नंबर पर थे जिन्होने पहली बार महिलाओं से देश की आज़ादी के लिये घरों की चहारदीवारी से बाहर आकर उनके साथ जुडने का आह्वान किया | महाराष्ट्र ,और पंजाब के समसामयिक प्रार्थनासमाज, ब्राह्मोसमाज और आर्यसमाज जैसे सुधारवादी आंदोलनों ने भी स्त्री जागरण और शिक्षा को बढावा देने की मुखर पक्षधरता की | उधर भातखंडे व पलुस्कर जी की कृपा से स्वराज आंदोलन के गान और पारंपरिक भक्ति रस की बंदिशें घर की महिलाओं के लिये खास सस्ती संगीत पुस्तिकायें भी छपीं जो संगीत को कट्टरपंथी घरों के भीतर ले जाने में मददगार साबित हुईं | पूर्व में सुधारवादी ब्राह्म समाज के काम में जोडासाँको का टैगोर परिवार अग्रणी रहा | देवेंद्रनाथ टैगोर की बेटी स्वर्णकुमारी की बेटी सरलाकुमारी इसी धारा की एक वाग्गेयकार थीं जिन्होंने कहते हैं वंदे मातरम् के पहले दो पदों से इतर पदों की रचना रवींद्रनाथ के निर्देशन में तैयार की |

कुल मिला कर असाधारण प्रतिभा, मेहनत, खुद्दारी और प्रशंसा के साथ राज समाज के दोमुँहे बर्ताव से उपजी खिन्नता और कडवाहट को मिलाकर ही हमारी आज की द्विमुखी मानसिकता बनी है | (हीराबाई इसका उदाहरण हैं |)और इधर तो हमारा राज-और हिंदी पट्टी का मध्यवर्गीय हिंदी-बोली विमुख समाज, लगातार दोबारा शुद्धिपक्षी बनाया जारहा है | संगीत के प्रति उसके आग्रहों में सघन ज्ञान कम, हिंदुत्व का भावुक उफान अधिक दिख रहा है | धर्मांधता और धर्मनिरपेक्षता के बीच धर्म की जो ‘अनुभूति’ थी, उसे छोड दिया गया है और राजनीतिक तनाव सतह पर इतना हावी है कि समन्वयवादी संगीत की सिर्फ हिंदू जडों पर बल देते हुए संगीतकार, वाग्गेयकार या अद्भुत रूप से उदार शिक्षक के रूप में पेशेवर गायिकाओं तथा मुस्लिम संगीतकारों का योगदान आज भी दरी तले सरकाया जा रहा है | जातीय दृष्टि से भी क्षेत्र बहुत करके आज की लगभग सारी बडी महिला गायिकायें माणिक भिडे वीणा सहस्त्रबुद्धे, पद्मावती जी, अश्विनी भिडे आदि सवर्ण मध्यवर्गीय ताई हैं, बाई नहीं |

नई तकनीकी से उम्मीद बन रही थी कि अब कम से कम हमारे शहरी मध्यवर्गीय युवा या ग्रामीण नव समृद्ध अपनी सही सांगीतिक परंपरा से रू बरू होंगे | पर आज वे किसी भी तरह का संगीत यू ट्यूब की जटायें निचोड कर अपने कानों में भले प्रवाहित करते हों, उनके डी जे बालीवुड के बारह मसाले डाल कर नायाब गायकी के प्रकारों का fusion कर आमलेट बना सकते हैं | पर अधिकतर युवाओं को  अंग्रेज़ी माध्यम की तालीम ने लोकजीवन से विकसित भाषा, छंद और सुर लय की सहज देसी समझ से कतई काट दिया है | दुर्भाग्य है कि जब वे अपनी जडों को यूट्यूब और नेट से उतार कर समझने की बुद्धिमान कोशिश करते भी हैं, तो राजनीति चारों तरफ से भारतीय परंपरा के बाहरी खतरों से घिरने के जुमलों के द्वारा वोट बैंक राजनीति की आग का एक घेरा कलाओं कलाकारों के गिर्द रच रही है | रसिकों के भी दो अलग थलग धर्मनिरपेक्ष बनाम धर्म सापेक्ष खित्ते बन गये हैं | पहले में देसी भाषाओं का गहरा अज्ञान है और शोध-बोध में सिर्फ अंग्रेज़ी को ही सर्जनात्मक कुलीनता हासिल है, और दूसरा संगीत से तमाम बोलियों और उर्दू फारसी का विरेचन कर एक तरह की नव ब्रह्मणवादी संस्कृतनिष्ठ हिंदी को ही देश की इकलौती स्वीकार्य राष्ट्रभाषा बनाने में इतना व्यस्त है कि सुर लय ताल छंद सब डूब रहे हैं | ठीक है संगीतकार घरानावादी जटिलता- बिखराव से हट कर कुछ व्यवस्थित हुए हैं, गैर सामंती जनता से उनकी विमुखता कम हुई है और सामंतवादी की बरक्स कुछ लोकतांत्रिक बने हैं, लेकिन अपने अनेकमुखी इतिहास के काले गोरे पन्नों का हम कितनी निडरता और विनयशीलता से सामना कर वह काम कर रहे हैं जो भातखंडे , पलुस्कर, ठाकुर जयदेव, आचार्य बृहस्पति, एम और गौतम या भाई जी मुद्गल बिना संसाधनों के भी कर गये ?

हमारे संकरणमूलक संगीत को तमाम संगीत संस्थानों पर काबिज़ आज की महाठस्स, कला की दृष्टि से अंधी नहीं तो कानी बन गई व्यवस्था से उन सरीखा विद्वान् निकलेगा, यह उम्मीद तो अब मूर्खों ने भी तज दी है | बाबुओं की निगरानी में भाँय भाँय करती बाँझ इमारतों में सडती अकादमियाँ और सरकारी प्रतिष्ठान मृतप्राय हैं और उनके राजनैतिक रिश्तों की तहत नियुक्त बडे बाबूलोग अपारदर्शी चलताऊ तरीके से संरक्षण की रेवडियाँ अपने विश्वस्त दरबारियों को ही बाँटने की घिस्से मौलाबख्श की परंपरा को बढा रहे हैं | सरकार की ‘हम बनाम वे’ की धडाबंदी के बाद निजी क्षेत्र में भी झाँकें तो वहाँ भी नज़ारा खास उत्साह नहीं जगाता | हर बरस संगीत सम्मेलन हो रहे हैं, पुरस्कार भी घोषित किये जा रहे हैं, पर सच कहें तो हिंदुस्तानी संगीत के इलाके में टूरिस्ट तो हमको बहुत नज़र आते हैं, पर मर्मी रसिक, शोधकर्ता या साधक लगभग नहीं | इस बिंदु पर आकर यह पूछना अभद्रता ही होगी, कि हमारा आज का यह जो हिंदुस्तानी संगीत है, वह सचमुच कितना सार्थक, सामर्थ्यवान और गंभीर शोध का विषय बन सकता है ?

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स्टोरीटेल के ऐप पर ‘कसप’सुनते हुए

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जब मैं करीब 12-13 साल का था तब मेरे दादाजी बहुत बीमार हो गए थे. उन दिनों वे मुझसे किताबें पढ़वाकर सुनते थे. दिनकर जी की ‘रश्मिरथी’, रामवृक्ष बेनीपुरी जी का नाटक ‘अम्बपाली’, आचार्य चतुरसेन का उपन्यास ‘वैशाली की नगरवधू’ जैसी कुछ किताबों के नाम याद आ रहे हैं जो मैंने उनको पढ़कर बार-बार सुनाये. दादाजी सुनते सुनते सो जाते थे. उन्हीं दिनों न केवल साहित्य में दिलचस्पी जगी बल्कि साहित्य किस तरह रूहानी सुकून देता है इसका अहसास भी हुआ. यह सब फिर याद आया, बार-बार याद आया जब storytel.in के ऐप पर मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास ‘कसप’ को सुनना शुरू किया. स्टोरीटेल एक ऐप है जिसके ऊपर एक तरफ हिंदी का क्लासिक बड़ी तादाद में ऑडियो फोर्मेट में उपलब्ध है. उसके अलावा उन्होंने कुछ समकालीन पुस्तकें विशेष रूप से ऑडियो बुक्स के लिए तैयार करवाई हैं.

खैर, मैं ‘कसप’ सुनने के अनुभव की बात कर रहा था. मनोहर श्याम जोशी का यह उपन्यास प्रेम के हर्ष और विषाद का एक क्लासिक उपन्यास है. कॉलेज के दिनों से इसको कई बार पढ़ा लेकिन सुनने का अनुभव तो सबसे अलग रहा. आमतौर पर मैं कैब में या मेट्रो में सफ़र करता हूँ, अधिकांश लोगों की तरह मेरे पास भी अत्याधुनिक स्मार्ट फोन है. अधिकांश लोगों की तरह मेरे पास भी म्यूजिक के कई सारे ऐप हैं. अधिकांश लोगों की तरह मैं भी ऐप पर संगीत सुनता था. लेकिन सच बताऊँ तो दौड़ते भागते ऐसा संगीत सुनना असंभव है जो आपको रूहानी सुकून दे. टाइम पास की बात और है. फ़र्ज़ कीजिये कि आप भागते-भागते, मेट्रो स्टेशन पर चढ़ते-उतरते बेगम अख्तर की आवाज में ठुमरी सुन रहे हों या बीटल्स या क्लिफ रिचर्ड्स के टाइमलेस गीत. संगीत की एकरसता काफी समय से मेरे अन्दर ऊब पैदा कर रही थी. उस ऊब से उबरने के लिए मैंने ऐप पर किताब पढने शुरू किये. लेकिन यह अनुभव भी ठहराऊ अनुभव नहीं रहा. तभी स्टोरीटेल के ऐप पर मेरी नजर पड़ी. उसको मैंने उस जमाने में सबस्क्राइब किया जब सब्सक्रिप्शन 499 रुपये प्रति माह का था. अब तो 13 अगस्त से यह सब्सक्रिप्शन 299 रुपये का हो गया है. मतलब 299 रुपये में अपनी भाषा के असंख्य किताबों को पढना नहीं सुनना. पहले 14 दिनों के लिए मुफ्त सुनने की सुविधा भी दी गई है.

अच्छा लगा. ‘कसप’ को सुनते हुए उसी तरह गला भर आया, चश्मा उतारकर बार-बार आँखें पोछ्नी पड़ी. लेकिन करीब 15 घंटे के इस उपन्यास को त्रिलोक पटेल की आवाज में अपने स्मार्ट फोन पर आगे पीछे करके पूरा सुन ही गया. सच बताऊँ तो सुनने का अनुभव पढने के अनुभव से बहुत अलग होता है. अगर सुनाने वाला अच्छा हो तो वह अनुभव यादगार बन जाता है. फिर अपने दादाजी की बात करता हूँ. वे जब किस्से सुनाते थे तो कई बार रात बीत जाती थी और हम बच्चे पलक तक नहीं झपकाते थे. त्रिलोक पटेल के साथ ‘कसप’ सुनना नैनीताल से शुरू करके गंगौली हाट तक की कुमाऊँ की यात्रा करने सरीखा था. डीडी और बेबी के निजी जीवन को बहुत करीब से जानने जैसा था. ऐसा लग रहा था जैसे हम उनके जीवन यात्रा के सहयात्री बन गए हों.

अब सोच रहा हूँ कि अगली किताब कौन सी पढूं?

प्रभात रंजन

वेबसाईट का लिंक https://www.storytel.in/

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सुरेन्द्र मोहन पाठक की संस्मरण-कथा ‘सत् बचन महाराज’

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आज छुट्टी के दिन पढ़िए हरदिल अजीज लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक की संस्मरण कथा. क्राइम फिक्शन के बेताज बादशाह लेखक पाठक जी की यह कहानी ज्योतिष विद्या पर बड़े व्यंग्यात्मक लहजे में चोट करती है. हमेशा की तरह पाठक जी का एक पठनीय गद्य, उनके गद्य का एक अलग ही रंग- मॉडरेटर

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नौजवानी की बात है, एक सुबह मैं घर से निकल कर भटकता सा स्कूल वाले चौक के दहाने पर पहुंचा तो वहां मुझे अपने तीन चार स्कूलमेट दिखाई दिये जो कि एक युवक को घेरे खड़े थे। कुर्ता-पाजामाधारी उस युवक में मुझे कुछ गैरमामूली दिखाई दिया तो वो ये था कि उसके माथे पर भवों के बीच और दोनों कानों की लौ पर चन्दन का टीका था और दायें हाथ में एक आतिशी शीशा (मैग्नीफाइंग ग्लास ) था।

मैंने इशारे से एक दोस्त से सवाल किया कि क्या माजरा था।

“ज्योतिषी हैं।” – जवाब मिला – “हाथ देख रहे हैं। अच्छे मौके पर आया। तू भी दिखा ले।”

मैंने ऐसा कोई उपक्रम न किया।

ज्योतिष में, राशिफल में, भविष्यवाणी में मुझे कोई विश्वास नहीं था।

“पंडित जी, इसका भी हाथ देखो।”

मैं एक कदम पीछे हट गया।

“अबे, दिखा न! हाथ पढने का नतीजा तेरे हलक में तो नहीं धकेला जाने वाला। न मन माने तो न मानना।”

हिचकिचाते हुए मैंने हाथ आगे बढ़ाया।

“हस्तरेखाओं का अध्ययन विज्ञान है।” – युवक बोला – “विज्ञान में अनास्था नादानी है।”

मैं खामोश रहा।

उसने मेरा हाथ थामा और आतिशी शीशे में से उस पर निगाह गड़ाई।

“विकट रेखायें हैं।” – वो बुदबुदाया – “असाधारण जान पड़ती हैं। इसलिये जो तुरंत परिणाम है, वो भी असाधारण है। सुनोगे?”

मैंने ऊपर नीचे सिर हिला कर हामी भरी।

“न कभी घर में इज्जत होगी, न घर से बाहर होगी।”

मैंने यूं चिहुंक कर हाथ वापिस खींचा जैसे सूरज की किरणें आतिशी शीशे के जरिये फोकस हो कर मेरी हथेली जलाने लगी हों।

उस के बाद मैं वहां ठहरा ही नहीं। उस एक भविष्यवाणी ने मुझे हिला दिया था।

कितना ही अरसा गाहे-बगाहे वो एक फिकरा मेरे कानों में बजता रहा।

न कभी घर में इज्जत होगी, न कभी घर से बाहर होगी!

बाद में जैसी जिंदगी मेरे सामने आती-आती रही, आज भी आ रही है – उसमें उस फिकरे का कड़वा सच बार-बार, बार बार मेरे वजूद से एक टकराया, बार-बार उसने अपनी हकीकी हाजिरी लगाई और मुझे हैरान किया। कई बार मायूसी से मैंने सोचा कि मैं उस युवा हस्तरेखा विशारद की और सुनता, कई बार इस अरमान ने मन में दस्तक दी कि वह मुझे फिर मिल जाए और मैं उससे अपनी बाबत और सवाल करूं।

कैसे मिल जाता!

क्या पता कौन था, कहां से आया था, कहां चला गया!

लेकिन इसका मतलब क्या हुआ? मेरा खयाल हिल गया? मुझे ऐसी बातों पर यकीन आने लगा?

हरगिज नहीं।

कितनी पत्र-पत्रिकायें थीं जिन में दैनिक, साप्ताहिक, मासिक – बल्कि वार्षिक – 12 राशियों पर आधारित भविष्य-दर्शन के कॉलम छपते थे! वार्षिक भविष्य का विवेचन करने वाले मोटे मोटे ग्रंथ छपते थे और यूं कितने ही भविष्यवक्ता महानुभावों की हैसियत फिल्मस्टार जैसी हो गई थी। उन पर विश्वास करने वाले उन्हें भगवान के समकक्ष रखते थे। लेकिन मुझे वह सब पाखंड जान पड़ता था, खुद को भरमाने का – बल्कि धोखा देने का – जरिया जान पड़ता था।

कैसे दुनिया के करोड़ों-अरबों लोगों का भविष्य सिर्फ 12 किस्म का हो सकता था! कभी किसी भविष्यवक्ता ने कहा कि फलां कुंभ राशि फलां दिन बस के नीचे आकर मर जाएगा या टेररिस्ट अटैक का शिकार होगा? तरक्की और खुशहाली के लिए जो नायाब टोटका औरों को बताया, कभी खुद पर या अपने घर वालों पर आजमाया? क्यों पंडित जी को नहीं मालूम होता कि उनको दिल का दौरा पड़ने वाला था या किडनी फेल होने वाली थी या लिवर जवाब दे जाने वाला था?

यही सवाल उनसे किया जाए तो फैंसी जवाब मिलेगा:

– स्विच बिजली नहीं बनाता, रास्ता बनाता है जिसके जरिये बिजली उपकरण तक पहुंचती है और उसे चालू करती है; बल्ब तक पहुंचती है, उसे जलाती है। हम स्विच हैं, तुम बल्ब हो, ईश्वरीय अनुकंपा या प्रकोप बिजली है।

– बारिश को नहीं रोका जा सकता लेकिन छतरी दे कर प्राणी को भीगने से बचाया जा सकता है। बारिश ईश्वरीय विपत्ति है, तुम उस विपत्ति से ग्रस्त हो सकते हो, हमारा ज्ञान छतरी है जो विपत्ति से तुम्हारी रक्षा करेगा।

– नेविगेटर जहाज नहीं चलाता, दिशाज्ञान देता है। तुम्हारा दर्जा जहाज का है और हमारा नेविगेटर का। हमारा काम तुम्हें बताना है, खबरदार करना है कि तुम्हारे रास्ते में तूफान किधर है।

लेकिन फिर उपाय भी बताते हैं बराबर। पहले उस विपत्ति का हौवा खड़ा करते हैं जो आइंदा आने वाली है फिर निवारण के लिए खर्चीला यज्ञ या जाप बताते हैं जो जजमान के लिए वो करेंगे क्योंकि:

– जजमान के पास टाइम नहीं।

– वह पद्धति से अवगत नहीं।

– नातजुर्बेकारी में वह गलती कर सकता है जिस से विपत्ति दोबाला हो सकती है।

जजमान सब कुछ करता है।

विपत्ति फिर भी आती है – इसलिये आती है कि ऊंचनीच हर मानव जीवन में होती है, न कि इसलिए क्योंकि पंडित जी ने, आचार्य जी ने, श्री श्री जी ने ऐसी भविष्यवाणी की थी – जजमान डरते झिझकते शिकायत करता है तो बिना झिझके पंडित जी निवारण के लिए नया उपाय करने की राय देते हैं और नयी – पहले से बड़ी – रकम की मांग करते हैं।

जो जजमान सहर्ष देता है।

अंजाम से खौफ खाया शख्स ऐसा ही होता है।

आइंदा विपत्ति नहीं आती तो इसलिये क्योंकि कोरम काल हो गई है, विपत्तियों का, आपदाओं का आप का कोटा पूरा हो गया है लेकिन यश पंडित जी पाते हैं।

कोई जजमान आकर कहे – ‘पंडित जी मुसीबत में हूं, संकट में हूं, दुखी हूं’ तो क्या पंडित जी उसे बोलते हैं कि सब नॉर्मल है, स्वाभाविक है क्योंकि दो सुखों के बीच का वक्फा दुख कहलाता है और दो दुखों के बीच का वक्फा सुख होता है। कहते हैं कि अगर तुम दुख में हो तो समझो कि सुख मोड़ पर खड़ा है, बस आने ही वाला है, अगर तुम सुख में हो तो समझो कि अब दुख की विजिट ड्यू है, उसका बहादुरी से मुकाबला करने के लिये कमर कस लो? याद रखो, सब दिन जात न एक समान!

ऐसी राय देने वाले पंडित को मोटी दक्षिणा तो क्या, कोई झुनझुना भी नहीं देगा। कम्बख्त जजमान को राय नहीं चाहिए, उसे करतब चाहिए जो वह उम्मीद करता है कि पंडित जी करके दिखाएंगे, कोई करिश्मा चाहिए जिसके इंतजार में वह आचार्य जी, श्री श्री जी के आगे नतमस्तक है।

इस कारोबार का असली विशेषज्ञ वही पंडित होता है जो कि जजमान के मन में भविष्य की ऐसी टैरर खड़ी कर सकता है कि जजमान को पंडित जी में ही पनाह दिखाई देती है। जो यह कहते हैं कि पैसे का क्या है, बच्चा, वो तो हाथ का मैल है। अब मैल को तिलांजलि देने में भी कहीं कोई गुरेज करता है!

मेरी समझ से बाहर है कि कैसे अपने भविष्यवक्ता की राय पर अमल कर के कोई अपने नाम की स्पेलिंग बदल ले – ‘ई’ की जगह कोई दो ‘ई’ लगाना शुरु कर दे या नाम में से ‘यू’ गायब कर दे या स्पेलिंग ऐसी बना ले कि किसी के बाप की समझ में न आए कि उस का उच्चारण क्या होगा – तो उज्जवल भविष्य के सारे द्वार एक ही बार में उसके सामने खुल जाएंगे।

– फलां मंदिर तक घर से नंगे पांव जाने से भाग जाग जाएंगे।

कोई भविष्यवक्ता के हुक्म पर ऐसा करने की जगह श्रद्धावश ऐसा करे तो जागने की जगह भाग जरूर छुट्टी पर चले जाएंगे।

पादरी ने बच्चे से कहा – “वह जगह बता जहां गॉड है, मैं तुझे एक डॉलर दूंगा।”

जवाब में बच्चे ने कहा – “फादर, आप वह जगह बताओ जहां गॉड नहीं है, मैं आपको दस डॉलर दूंगा।”

– कोई औरत भोर भये सर्वदा नग्न होकर चौराहे पर झाड़ू दे तो शर्तिया लड़का होगा।

– सिर मुंडा कर भगवान के दर्शन करने से सर्वोत्तम फल मिलता है।

मूंड मुंडाए हरि मिले, सब कोई लेहि मुंडाय,

बार-बार के मूंडने, भेड़ बैकुण्ठ न जाय।

मेरे एक प्रकाशक में वृद्धावस्था में खड़े पैर भक्ति भाव जागा और वो न सिर्फ रोज जाकर सत्संग में बैठने लगा, सत्संग को ओढ़ने बिछाने लगा। फोन पर ‘हल्लो’ की जगह ‘हरिओम’ बोलने लगा, गुरु जी की वाणी वाकिफ लोगों को जबरन फोन करके सुनाने लगा, अपने ऑफिस में अपनी पीठ पीछे से चंदन का हार चढ़ी अपने स्वर्गवासी पिता की तस्वीर हटाकर गुरु जी की तस्वीर लगा ली लेकिन अपनी इस नामाकूल मान्यता को त्याग देने का कभी खयाल न किया कि बेईमानी बिना धंधा नहीं हो सकता तथा बीच-बीच में कभी कभार गंगा स्नान कर आने पर पिछली सारी बैलेंस शीट एडजस्ट हो जाती है और व्यापारिक कर्मों की लेजर का नया, कोरा पन्ना खुल जाता है जिस पर आइंदा बेईमानियों को रुपए आने पाइयों की तरह दर्ज किया जाता है।

बाबा नानक कहते हैं:

अठ सठ तीरथ नहाइये, उतरे न मन का मैल।

कबीर जी कहते हैं:

नहाये धोये क्या भया, जो मन मैल न जाये,

मीन सदा जल में रहे, धोये बास ना जाये।

और गंगा स्नानी, सत्संगी सज्जन कहते हैं:

नानक हू? कबीर कौन?

हमारे एक प्रधानमंत्री इतने एस्ट्रालोजी डिपेंडेंट थे कि जब तक एक नहीं, दो नहीं, आधे दर्जन नजूमियों से मशवरा नहीं कर लेते थे, कदम नहीं उठाते थे। इतने खबरदार प्रधानमंत्री 5 साल की टर्म में 6 महीने भी कुर्सीनशीन न रह सके, 170 दिन में उनकी सरकार गिर गई।

मेरी नौकरी के दौर में मेरे चीफ मैनेजर के जवान लड़के को जब कैंसर डिटेक्ट हुई तो वह थर्ड स्टेज पर थी। टॉप के स्पेशलिस्ट्स ने कह दिया था कि बचने की कोई सूरत नहीं थी। किसी श्री श्री ने राय दी कि अगर 11 पंडित बैठ कर एक लाख एक बार गायत्री मंत्र का जाप करते तो लड़का बच सकता था।

पिता मजबूर, जिसकी आंखों के सामने उसका जवान बेटा जा रहा था।

जमा डूबते को तिनके का सहारा।

एक मोटी फीस भर कर उसने उस आयोजन का इंतजाम किया।

जिस शाम उस आयोजन का समापन हुआ, उसी रात लड़के का स्वर्गवास हो गया।

एक फिल्म पत्रिका के प्रकाशक महोदय मेरे परिचित हैं जिन्हें किसी पहुंचे हुए श्री श्री ने खास हाथ की खास उंगली में खास नग पहनने की राय दी।

उन्होंने राय पर अमल किया।

तीसरे दिन उन्हें उन्हें भीषण दिल का दौरा पड़ा।

बकौल खुद उन के, जब नर्सिंग होम में उन्हें होश आया तो सब से पहले उन्होंने वो भागजगाऊ अंगूठी ही उतार कर फेंकी।

साठ के दशक के उत्तरार्ध में मेरा एक प्रकाशक था जो कि खुद ब्राह्मण था। उसका पॉकेट बुक्स का कारोबार कदरन नया था लेकिन मन में तरक्की करने के अरमान बहुत थे। उसने मेरे अभी सात-आठ उपन्यास छापे थे जो कि उसके पास अच्छे चले थे, लिहाजा बतौर लेखक उसे मेरे में अपने प्रास्पेक्ट्स दिखाई दे रहे थे। एक बार वो मेरे घर में आया और मेरी जन्मपत्री मांग कर ले गया। मेरी मां ने कहा कि हमारी तरह ब्राह्मण था, शायद मेरा कहीं रिश्ता कराना चाहता था। दो दिन बाद अपने मुलाजिम के हाथ मुझे जन्मपत्री वापस भिजवा दी। मेरे को बहुत उत्सुकता थी जानने की कि आखिर वो जन्मपत्री क्यों ले गया था।

आखिर मुझे इस बाबत उससे सवाल करना पड़ा।

जवाब मिला कि उसने अपनी और मेरी पत्री यह जानने के लिए पंडित जी से मिलवाई थी कि क्या बतौर लेखक-प्रकाशक वह जुगलबंदी कामयाब हो सकती थी!

पंडित जी से जवाब मिला था कि नहीं हो सकती थी।

तभी वो बतौर लेखक मेरे से विरक्त हो गया था।

आज पॉकेट बुक्स के धंधे में उसका मुकाम कहीं नहीं है, मिलता है तो मेरे से सवाल करता है मैंने इतनी फिनॉमिनल तरक्की कैसे कर ली!

जो जवाब मैं उसे कभी न दे सका, वह यही था कि मैंने कभी किसी प्रकाशित की पत्री अपनी पत्री से मिला कर उस के लिये उपन्यास नहीं लिखा था।

भारत के एक बहुत ही बड़े भविष्यवक्ता थे जिनसे 80-90 के दशकों में बड़े, बड़े नेता, अभिनेता मशवरा करते थे। उन दिनों इंडिया की क्रिकेट टीम विदेश दौरे पर जाने लगी तो एक नैशनल डेली में उन की भविष्यवाणी छपी कि टीम बड़ी शान से पांच मैचों की टैस्ट सीरीज जीतकर लौटेगी।

टीम सारे मैच हार कर, पांच-जीरो का स्कोर बना कर लौटी।

क्या महान ज्योतिषी जी ने उस वजह से कोई परेशानी महसूस की?

बिल्कुल भी नहीं।

उलटे बाजरिया मीडिया बयान जारी किया कि उनकी भविष्यवाणी की गणना का, उसके आकलन का आधार वह समय था जिस पर भारतीय विमान ने विदेश के लिए टेक ऑफ करना था, उन्हें बाद में – टीम के हार की शर्म से मुंह लटकाये लौट आने के भी बाद – पता चला था कि हवाई जहाज उस वक्त पर नहीं उड़ा था, वह लेट हो गया था, आधा घंटा लेट उड़ा था और वस्तुत: उन की भविष्यवाणी गलत हो जाने की वजह फ्लाइट का लेट हो जाना थी। जहाज टाइम पर उड़ा होता तो टीम यकीनन जीत  कर आती।

आपको कैसी लगी ये लॉजिक?

एक बाबा थे जो मचान पर रहते थे और मचान से नीचे टांग लटका कर भक्तों के सिर पर पांव रख कर आशीर्वाद देते थे। कांग्रेस शासन के दौरान एक केंद्रीय मंत्री की उन पर बड़ी आस्था थी। जब जनरल इलेक्शन का दौर था तो मंत्री जी ने तद्कालीन कांग्रेसी प्रधानमंत्री जी को मचान वाले बाबा के बारे में बताया और मनुहार की कि अगर वह भी बाबा का आशीर्वाद पायें तो निश्चय ही कांग्रेस भारी मेजोरिटी से जीतेगी। काफी ना नुक्कर के बाद पीएम साहब मचान वाले बाबा का आशीर्वाद पाने को तैयार हो गए। बाबा का पांव उन के सिर पर वाली तस्वीरें सारे नेशनल डेलीज़ में छपीं।

उस बार के इलेक्शन में कांग्रेस की तब तक की सबसे बुरी हार हुई।

मेरे एक साढू साहब की इन बातों में भरपूर आस्था थी। ऊपर से एक समधी ऐसा मिल गया जो कर्मकांडी ब्राह्मण था और ज्योतिष विद्या में प्रवीण बताया जाता था। एक बार उनके घर में कोई फंक्शन था जिसमें शामिल होने के लिए मैं सपरिवार चंडीगढ़ गया था जहाँ कि वो रहते थे। स्वाभाविक तौर पर वहां घर में और भी मेहमान जमा थे जिनमें उनके ज्योतिष प्रवीण समधी साहब भी थे। एक दोपहर को जब कि मैं उनकी बालकनी में धूप में खड़ा था, मेरे साढू साहब आए और मुझे हुक्म दनदनाया – “चलो।”

“कहां ?” – मैं सकपकाया।

“मेरे समधी के पास।”

“क्यों?”

“चल के हाथ दिखाओ उन्हें अपना।”

“लेकिन मुझे इन बातों में विश्वास नहीं है।”

“फिर भी दिखाओ। ये एडवांस बेल कराने जैसा काम होता है। चलो।”

मैं नहीं गया।

वह बहुत नाराज हुए। जाकर मेरी बीवी को – अपनी साली को – बोले कि मैंने उनके समधी की – जो कि भीतर कमरे में बैठा वार्तालाप सुन रहा था – तौहीन कर दी थी।

क्या तौहीन कर दी थी?

भविष्य जानने का अभिलाषी बन कर मैं उनके हुजूर में पेश नहीं हुआ था।

यानी भविष्य जानना है तो जानना पड़ेगा, आप को डंडे से जनवाया जाएगा, आप कौन होते हैं कहने वाले आप भविष्य नहीं जानना चाहते, अपने अनकिये गुनाहों की अग्रिम जमानत नहीं करवाना चाहते!

बतौर फैन एक महिला ने मुझे 8 पेज की चिट्ठी लिखी जिसका अहम मकसद इस बात को दाखिलदफ्तर करना नहीं था कि वह मेरे नॉवेल पढ़ती थीं और उन्हें खूब पसंद करती थीं बल्कि यह था कि कितनी विद्वान थीं, ज्योतिष विशारद थीं, भविष् द्रष्टा थीं, वगैरह-वगैरह थीं। अपनी 8 पेज की चिट्ठी में उन्होंने मेरे भूत और भविष्य के बारे में विस्तार से कुछ ऐसी बातें लिखीं जो कि इत्तफाक से – रिपीट इत्तफाक से, क्योंकि उन से मेरी ज्योतिष में आस्था तो बन नहीं गई थी या बन जाने वाली नहीं थी – जिनमें से एक बात यह भी शामिल थी कि मेरी 52 साल की अवस्था में, जिसमें अभी 8 साल बाकी थे, मेरे ऊपर एक गंभीर स्वास्थ्य संबंधी विपत्ति आएगी।

वो बात सच साबित हुई थी फिर भी उसकी बातों ने मेरे पर कोई स्थायी प्रभाव न छोड़ा, बीवी को बहुत प्रभावित किया, उसने मुझे प्रेरित किया कि मैं उसे चिट्ठी का जवाब दूं और और बातें पूछूं।

जवाब तो मैंने अपनी रूटीन के तौर पर दिया लेकिन ‘और बातें’ न पूछीं।

फिर ऐसा इत्तफाक हुआ कि उनसे मेरी मुलाकात हो गई। मालूम पड़ा कि पति नहीं था लेकिन दो जवान बेटे थे जो कि कॉलेज में पढ़ते थे।

और मालूम पड़ा कि घूंट की रसिया थीं।

वह एक कॉमन बांड था जिसने वाकफियत को किसी हद तक दोस्ती में तब्दील किया। तब उन्होंने कई चमत्कारी बातें अपनी बाबत मुझे बताई जिनमें से ज्यादातर पर तो मैं ऐतबार ही न कर सका, लेकिन दो का जिक्र मैं यहां पर फिर भी करना चाहता हूं:

बकौल उनके, शादी के बारे में उन्होंने अपने माता पिता को चेताया था कि वह उसकी कहीं भी शादी करें, कितनी भी ठोक बजा कर शादी करें, 5 साल के भीतर उसका विधवा हो जाना उसकी हथेली की लकीरों में लिखा था।

उन्हें अपनी खुद की मौत की तारीख और वक्त मालूम था जो कि उन्होंने अपनी डायरी में ‘मेरी मौत’ के अंतर्गत लिख कर रखा हुआ था।

अब मेरा उनसे कोई लिंक बाकी नहीं है। जब था तब मालूम पड़ा था कि बच्चे अमेरिका में सैटल हो गए थे, लिहाजा कोई बड़ी बात नहीं थी कि वह भी अमेरिका जाकर रहने लगी हों।

‘मौत की तारीख’ अभी आनी है या आ चुकी है, मुझे कोई खबर नहीं।

एक दो बार वो हमारे घर भी आयीं तो मेरी बीवी ने उनसे हमारी बेटी के बारे में सवाल किये। जवाब में उन्होंने बताया कि बेटी थोड़ी सी मंगलिक थी इसलिये शादी की नौबत आने से पहले ही इस सिलसिले में कोई उपाय करना जरूरी था।

उपाय के खाते में उन्होंने वही स्टैंडर्ड तरीका पेश किया जो जजमान को छीलने के लिए व्यापक तौर पर इस्तेमाल होता था।

अनुष्ठान करना होगा जो कि वह करेंगी और केवल काम आने वाली सामग्री के लिए 3000 रुपये (सस्ते जमाने में) चार्ज करेंगी। मैं बिल्कुल हक में नहीं था लेकिन बीवी की जिद पर 3000 रुपये अदा किये। अनुष्ठान हुआ या नहीं हुआ, कभी मालूम न पड़ा। उन की बात पर ही यकीन लाना पड़ा कि हुआ और अब बेटी की शादी के रास्ते में कोई रुकावट नहीं थी।

हमने लड़का तलाश किया, बीवी ने फिर से राय मांगी । उसने 2 दिन में क्लीन चिट दी कि रिश्ता सर्वदा उपयुक्त था, लड़की सदा सुख पायेगी।

शादी 2 महीने न चली।

बीवी ने गुस्से में मैडम को शिकायत की तो मैडम ने बड़ा गुस्ताख जवाब दिया:

“आपने मुझे वो दिशा नहीं बताई थी जिस में लड़की ने जाना था। वैसे मेरे लेखेजोखे के मुताबिक सब कुछ ठीक था लेकिन वह दिशा उचित और उपयुक्त नहीं थी जिसमें आखिर लड़की गई थी।”

“अगर ये बात इतनी अहम थी तो आप ने क्यों न पूछी?”

“हमारे ध्यान में न आयी। हमारा शेड्यूल इतना बिजी होता है, मंत्रियों की गाड़ियां हमें लिवाने के लिये आती हैं, इतनी मुश्किल से आपके लिए टाइम निकाला था, दिशा के बारे में पूछने का ध्यान न आया। पर आपको खुद तो बताना चाहिये था कि नहीं बताना चाहिए था!”

बताया होता तो कह देतीं कि ससुराल में लड़के के बैडरूम की खिड़की का रुख चढ़ते सूरज की तरफ नहीं था इसलिए शादी में विघ्न आया, लड़की के पिता ने अपने कोट की जेब में लाल रुमाल नहीं रखा था, इसलिए गड़बड़ हुई, लड़की ने विदाई के वक्त बायां पांव पहले उठा दिया जबकि दायां उठाना था, वगैरह।

महाज्ञानी अंतर्यामी भविष्यदृष्टा जजमान को कुछ भी कह सकते हैं, कैसे भी कह सकते हैं, जजमान से यही अपेक्षित होता है कि वह आंखें मूंद कर सादर सिर को ऊपर से नीचे हिला कर, वांछित दान दक्षिणा की फौरन अदायगी कर के अपनी आस्था का प्रमाण दे। सवाल करना तो दूर खयाल तक न करे जब श्री श्री कहें:

“बच्चा, तेरे चौथे घर में शाहरुख बैठा हुआ है, छठे पर सलमान की कुदृष्टि है और दोनों पर रितिक की छाया है । निवारण अक्षय कुमार के आवाहन से हो सकता है जिस के लिये अनुष्ठान करना पड़ेगा । यह सकल सामग्री की सूची है…..”

मथुरा से एक आचार्य जी की चिट्ठी आई जिन्होंने बताया कि वो मेरे प्रेमी पाठक थे, निस्वार्थ मेरे लिये कुछ करना चाहते थे इसलिये मैं उन्हें अपनी जन्मपत्री की फोटोकॉपी प्रेषित करूं ।

बीवी की मनुहार पर मैंने ऐसा किया।

जवाब में मेरे भविष्य का विस्तृत विवरण आया और सलाह आयी कि मेरे को फला मंत्र के नियमित जाप की जरूरत थी जिस का इंतजाम मेरे लिए वो कर सकते थे । साथ में कोई चार पृष्ठों में फैली 80-85 आइटमों की लिस्ट थी जिनकी  इस्तेमाल में आने वाली मिकदार और उसकी कीमत लिस्ट में दर्ज थी। करिश्मा उन आइटमों की कीमत के ग्रैंड टोटल में था जो न कम न ज्यादा, पूरा एक हजार रुपया था ।

साथ में हजार रुपये की उन को अदायगी के लिए पहले से भरा हुआ डाकखाने का फार्म था।

कितना खयाल किया था आचार्य जी ने अपने प्रिय लेखक का!

उसने मनीआर्डर फॉर्म भरने की ज़हमत भी नहीं करनी थी, बस हजार रुपये फार्म के साथ में नत्थी करने थे और फार्म डाकखाने भिजवा देना था।

अब सोचिये वो हवन सामग्री हजार रुपए कीमत की ही क्यों थी?

क्योंकि तब बाजरिया मनीआर्डर डाकखाने से रकम भेजने की लिमिट हजार रुपये होती थी। आज की तरह लिमिट दो हजार होती तो यकीनन लिस्ट की आइटमों की कीमत दो हजार होती और भरे हुए मनी आर्डर फार्म में भी दो हजार रुपये दर्ज होते।

ऐसे करते हैं प्रेमी पाठक अपने प्रिय लेखक की निस्वार्थ, निशुल्क सेवा।

मेरे रीडर से बने एक दोस्त का अपना सगा साला हस्तरेखा विशारद तो था ही, तांत्रिक विद्याओं का भी विशेषज्ञ होने का उसका दावा था। एक शाम दोस्त साले को साथ लेकर घर में आया और मुझे मजबूर किया कि मैं साले को अपना हाथ दिखाऊं। ‘अतिथि देवो भवः’ की जिम्मेदारी के तहत मैंने हाथ दिखाया। आखिर वो मेरा भविष्य बांच सकता था, उसे खातिर में लाने के लिए मुझे मजबूर नहीं कर सकता था।

साले ने सबसे पहले टेलकम पाउडर की मांग की।

मैंने पाउडर का डिब्बा उसके हवाले किया तो उसने पाउडर मेरी हथेली पर छिड़क कर मसला। तब मैंने महसूस किया कि यूं बारीक लकीरें भी बेहतर देखी जा सकती थीं। उसने काफी देर लकीरों का अध्ययन किया और फिर गंभीरता से फैसला सुनाया – “भविष्य में समस्याएं तो हैं लेकिन ऐसी कोई नहीं जिसका निवारण न हो सकता हो, बल्कि ये कहना होगा कि आसान निवारण न हो सकता हो।”

जो आसान निवारण उसने प्रस्तावित किया वो ये था कि मैं अपने घर के बैकयार्ड के एक कोने में एक खड्डा खोदूं, विस्की की एक बोतल मुहैया करूं और हर रोज सुबह एक महीने तक एक ढक्कन विस्की उस खड्डे में डालूं।

“एक महीने बाद क्या होगा ?” – मैंने पूछा।

“भविष्य की समस्याओं का निवारण होगा।”

“समस्याओं पर, उन की किस्म पर कोई प्रकाश डालिये।”

“वो वक्त आने पर समस्याएं खुद डालेंगी।”

मेरा दिल चाहा कि मैं विस्की के ब्रांड के बारे में भी पूछूं क्योंकि कि शायद बेहतर ब्रांड से बेहतर फल मिलता हो, स्कॉच डालने से शायद खड्डा बलिहार ही हो जाता हो।

मैंने मेहमान की इज्जत रखी, ऐसा कोई सवाल नहीं किया।

अलबत्ता खड्डे में विस्की डालने से मुझे कोई गुरेज न हुआ।

उस खड्डे में नहीं जो मेहमान ने सुझाया था।

उस खड्डे में जो नाक के नीचे होता है।

बहरहाल मुद्दा ये था कि आप के खादिम की इज्जत न घर में न घर से बाहर।

सत् बचन महाराज।

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‘कश्मीरनामा’के बहाने कश्मीर पर बात

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अशोक कुमार पाण्डेय की किताब ‘कश्मीरनामा’ कश्मीर पर एक सुशोधित पुस्तक है. राजपाल एन संज प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक पर जब नॉर्वे प्रवासी डॉक्टर प्रवीण झा की यह टिप्पणी पुस्तक की समीक्षा नहीं है बल्कि इस पुस्तक के बहाने कश्मीर पर एक अच्छी टिप्पणी है- मॉडरेटर

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शायद डेढ़ वर्ष पहले मैंने मित्रों से यह प्रश्न किया कि कश्मीर विषय पर हिंदी में ग्राउंड रिपोर्ट या तथ्यपूर्ण लेख कौन लिख रहे हैं? अंग्रेज़ी में तो एम.जे. अकबर से राहुल पंडिता तक अलगअलग विचार पढ़ने को मिलते रहे हैं। लेकिन हिंदीऊर्दू में कश्मीर पर अगर नहीं लिखा जा रहा, तो यह भाषाई तौर पर ही कश्मीर को मुख्य भारत से अलग कर देता है। ख़ास कर जब कश्मीर के लोग अच्छी हिंदी बोल लेते हैं। शायद कोई विस्थापित कश्मीरी पंडित हों, जिन्होंने लिखा हो? आसानी से कोई कश्मीर के बाशिंदे हिंदी कथेतर लेखक नहीं मिले। फिर खबर हुई कि एक अशोक पांडे जी हैं, जो कश्मीर पर नियमित कॉलम लिख रहे हैं। यह बात अवश्य है कि अशोक पांडे जी हिंदी साहित्य मंडली के लिए परिचित नाम हैं, लेकिन मुझ जैसे दूर बैठे साहित्य से इतर व्यक्ति के लिए अशोक जी अजनबी ही थे। उस वक्त मैं गोपाल शास्त्री जी लिखित कल्हण राजतरंगिणी अनुवाद भी पलट रहा था, तो अशोक जी के लेख पढ़ने लगा। इस साल की शुरूआत में उनकी पुस्तककश्मीरनामाभी आ गयी, जो मैंने भारत से मंगवा ली। यह किताब पुष्यमित्र केचंपारण 1917’ के साथ नत्थी होकर आई, और वह पतली रोचक पुस्तक थी तो यूँ ही चायनाश्ते के साथ एक झटके में निपट गयी।कश्मीरनामाइसके उलट दिमागी वर्जिश कर पढ़ने वाली किताब है। यह परीकथा नहीं, गंभीर इतिहास है जिसके लिए माहौल बनाना होगा। पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर कश्मीर को मेरी तरह देखना होगा, जिसने न कभी कश्मीर के स्वर्गसदृश धरती पर कदम रखा, न कभी कश्मीर पर अपरिपक्व विचार मन में पाले। एक नवजात शिशु की तरह कश्मीर को हाथ में थाम पहली नजर कश्मीर से मिलानी होगी। 

और यहीं शुरू होती है अशोक जी की किताब जब कश्मीर वाकई एक स्वर्ग था। मेरी शिकायत भी अशोक जी से यहीं शुरू होती है कि शिशु अभी हाथ में आया ही था कि न सिर्फ घुटनों पर चलने लगा, यह तो दौड़ने लगा। मैं कहाँ राजतरंगिणी के महाभारत काल से तरंगों में डूबना चाह रहा था, कि महज पचास पृष्ठों में ढाई हज़ार वर्ष का इतिहास निकल गया। राजा गोनंद से ज़ैनउलआब्दीन तक आने में तो युग बीते होंगे। आखिर कल्हण और जोनराज ने दो राजतरंगिणी लिख दी, और इन्होंने धड़ाधड़ निपटा दी। लेकिन अशोक जी अगर गाड़ी तेज न भगाते तो यह किताब कभी खत्म न होती, और पाठक भी किताब से तौबा कर लेते। राजतरंगिणी जिसे पढ़नी है, आठ तरंग पढ़ ले। वो तो कल्हण लिख ही गए। आगे का इतिहास लिखना ही तो आधुनिक इतिहासकारों की जिम्मेदारी है। 

और आगे के इतिहास में ही वर्तमान कश्मीर का मर्म छुपा है। इस अकेले प्रदेश ने क्याक्या न देखा? हज़ारों वर्ष के भिन्नभिन्न हिंदू राजाओं के बाद एक बौद्ध जो इस्लाम धारण कर गए, उनकी पीढ़ीयाँ गयी तो मुग़ल आए। मुग़ल गए तो अफगान, सिख और फिर डोगरा। इस मध्य इस स्वर्ग का जो दोहन हुआ, वह तो भिन्न व्यथा है। लेकिन संस्कृतियों का जो अद्भुत् समावेश हुआ, उनसे ही आखिर बना होगा कश्मीर। इस इतिहास से गुजरते नवरस आनंद है। कहीं शृंगार है, तो कहीं करूणा है। कहीं वीभत्स तो कहीं शांत। शैव, वैष्णव, बौद्ध परंपराओं से गुजरते तसव्वुफ़ (सूफ़ी) से कट्टर इस्लाम तक, कश्मीर ने सब देखा।

पाठकीय रुचि चरम पर होती है जब शेख़ अब्दुल्लाह और आजादी का समय आता है। यहीं से तमाम भ्रांतियों का निवारण भी होता है। और यहीं लेखकीय परीक्षा भी है कि निष्पक्ष रहें तो रहें कैसे? नेहरू, शेख़ अब्दुल्ला, पाकिस्तानी सियासत, पटेल, राष्ट्रवाद, जगमोहन और कश्मीरियत में कब किनका पक्ष लें? अशोक जी ने इस पुस्तक के अधिकतर पन्नों में तटस्थ रहते हुए सभी तथ्य सामने रख दिए हैं। अब गेंद हमारे पल्ले में है कि हम कश्मीर के इतिहास को या कश्मीर को कैसे देखें? कुछेक हिस्सों में जहाँ अस्पष्टता थी, उन्होंने अपने मत भी दिए हैं। दरअसल यह एक पाठक की मनोविश्लेषक क्षमता और समाज की मूलभूत समझ पर निर्भर है कि वे इस इतिहास को कैसे देखते हैं। मुझे तो यह आजादी से अब तक की पूरी कड़ी झकझोर गयी। मैं चहलकदमी करने लगा, चिंतन में डूब गया। हर घटना पर सोचता कि यह यूँ न होता, तो शायद बेहतर था। लेकिन अगर यूँ न होता, तो कुछ और होता। यह किताब शतरंज की बिसात की तरह अजीबोगरीब उलझन में डाल देती है। आज जब लोग कश्मीर समस्या पर दो टूक कहते हैं, उन्हें शायद इस पृष्ठभूमि की सतही समझ है। और इसलिए यह (और ऐसी अन्य) किताबें जरूरी हो जाती हैं।

अशोक जी ने किताब का अंत कश्मीरी पंडितों के पलायन से किया है, पर वहाँ जाकर कलम रूक गयी है कि वह अगले भाग में आएगी। मुझे यह भी खबर है कि तथ्य इकट्ठे हो रहे हैं, साक्षात्कार लिए जा रहे हैं। कश्मीर पर किताब यूँ ही नहीं लिखी जा सकती। कश्मीर पर बात भी यूँ ही नहीं की जा सकती। यह उत्तरदायित्व कलम के भगीरथ ही उठाएँ, जिनकी छाप अशोक जी में नजर तो आती ही है।

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परिवार, प्रेम और सोशल मीडिया की व्यथा-कथा

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सुपरिचित लेखक विमलेश त्रिपाठी के उपन्यास ‘हमन हैं इश्क मस्ताना’ की आजकल बहुत चर्चा है. हिन्द युग्म से प्रकाशित इस उपन्यास की समीक्षा लिखी है पीयूष द्विवेदी ने- मॉडरेटर

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विमलेश त्रिपाठी का उपन्यास ‘हमन हैं इश्क मस्ताना’ पारिवारिक जीवन के तनावपूर्ण यथार्थ की तरफ से आँखें मूंदे सोशल मीडिया पर अपने कल्पना लोकों की खोज में भटकते एक लेखक की कहानी है।  इस कहानी का मूल विषय तो परिवार और प्रेम है, परन्तु सोशल मीडिया भी इसके एक आवश्यक हिस्से के रूप में मौजूद है। याहू मैसेंजर से लेकर फेसबुक तक यह उपन्यास न केवल सोशल मीडिया की विकास-यात्रा की कथा कहता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि धीरे-धीरे सोशल मीडिया हमारे जीवन को किस कदर प्रभावित करने लगा है। सोशल मीडिया के इस पूरे चरित्र को अभिव्यक्ति देने में लेखक कामयाब रहे हैं, जिसकी तस्दीक किताब का ये एक अंश ही कर देता है, रात के बारह बजे जब पत्नी सो गयी थी, बच्चा उछलकूद मचाकर बिस्तर पर जा चुका थामैं कंप्यूटर पर था। पहले की बात होती तो मेरे हाथ में कोई अच्छीसी किताब होतीनिर्मल वर्मा या विनोद कुमार शुक्ल या कृष्णा सोबती। लेकिन यह आदत छूट गयी थी। ऐसा लगभग दस साल पहले हुआ था। और अब जब से फेसबुक प्रोफाइल बनाई थी, तब से खाली समय यहीं बीतने लगा था।इस कथांश में जिस स्थिति का वर्णन किया गया है, वो आज सोशल मीडिया पर सक्रिय होने वाले ज्यादातर लोगों के जीवन की कथा है। हम अक्सर सोशल मीडिया पर ही बहुतेरे लोगों को यह जाहिर करते हुए देखते हैं कि सोशल मीडिया पर सक्रिय होने के बाद से वे अध्ययन को समय नहीं दे पा रहे हैं।

अब उपन्यास की कहानी पर आएं तो इसका मुख्य पात्र अमरेश विश्वाल बचपन में लेखकों के विषय में यह सुनकर कि उनके अनेक प्रेम-प्रसंग होते हैं और उनकी रचनाओं से लड़कियां प्रभावित हो जाती हैं, लेखक बनने की ठान लेता है। कॉलेज में पहुँचने पर जब वह मन ही मन खुद को कवि मानने लगा होता है, तब अनुजा उसके जीवन में आती है जो उसकी रचनाओं की खूब तारीफ़ करती है। परिवार के विरोध के बावजूद वो अनुजा से इस उम्मीद में विवाह करता है कि वो उसके हुनर की सच्ची कद्रदान है, लेकिन विवाह के थोड़े ही समय बाद स्थिति पूरी तरह से बदल जाती है, जिसकी बानगी उपन्यास के इस अंश में देख सकते हैं, उन दिनों मेरी कविताओं का वह (अनुजा) बेसब्री से इन्तजार करती थी….लेकिन बाद के दिनों में वह सब खत्मसा हो गया था।..अब वह प्रेम नहीं रहा था। वह खूब गुस्से में कईकई बार मेरी कविताओं को शाप दे चुकी थी।   

अनुजा से तिरस्कृत अमरेश विश्वाल सोशल मीडिया पर अपनी कविताओं के प्रशंसकों की खोज में भटकने लगता है, जहां और कुछ तो नहीं होता लेकिन लेखनी के बहाने कई लड़कियों के साथ उसके संवाद और मुलाकात से होते हुए देह तक के सम्बन्ध जरूर बन जाते हैं। इसके समानांतर ही होता यह भी है कि आभासी दुनिया के संबंधों में मग्न अमरेश अपने वास्तविक जीवन के सम्बन्ध को समस्या मानकर उससे दिन-प्रतिदिन दूर होता चला जाता है। मोटे तौर पर तो इस उपन्यास की कहानी इतनी ही है, लेकिन इसकी बुनावट के क्रम में ऐसा बहुत कुछ रचा गया है, जिसको जानने-समझने के लिए किताब पढ़ना जरूरी है।

विचार करें तो उपन्यास का मुख्य पात्र अमरेश विश्वाल कोई एक व्यक्ति नहीं है, वो मौजूदा दौर के एक वर्ग-विशेष का प्रतिनिधित्व करता है। वो वर्ग जो अपने वास्तविक जीवन की तरफ से आँख मूंदकर अपनी महत्वाकांक्षी कल्पनाओं को संतुष्ट करने की चाह लिए सोशल मीडिया के मायाजाल में आकंठ डूबा हुआ है। इस वर्ग की हालत ऐसी है कि इससे घर का आपसी झगड़ा भले न सुलझता हो, लेकिन सोशल मीडिया पर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान सुझाकर विद्वान् बनने में जरा भी देरी नहीं करता। अमरेश विश्वाल इसी किस्म का एक चरित्र है, जो फेसबुक पर मिली लड़कियों से सम्बन्ध बनाने में जितना यत्न करता है, उसकी तुलना में अपनी पत्नी से अपने सम्बन्ध को बचाने के लिए उसमे कोई ठोस समर्पण, कोई यत्न नहीं दिखाई देता। और इस तरह आखिरकार एक दिन ऐसा भी आता है, जब उसके पास न आभासी जीवन के सम्बन्ध शेष रह जाते हैं और न ही वास्तविक जीवन के। इसी बिंदु पर उसे यह भी अनुभव होता है कि वास्तविक जीवन की समस्याओं से भागकर वो जिस सोशल मीडिया की शरण में गया था, वो ही उसके लिए सबसे बड़ी समस्या बन चुका है।

ये उपन्यास कथानक के स्तर पर इस मामले में कामयाब है कि इसमें जिन विषयों को उठाया गया है, उनकी प्रस्तुति लगभग-लगभग यथार्थ के निकट और नाटकीयता से दूर रही है। इसलिए पाठक को कहानी से जुड़ने में बहुत मुश्किल नहीं होती। सोशल मीडिया पर सक्रिय साहित्यिक बिरादरी से सम्बंधित कुछेक हिस्से पाठकों का ध्यान विशेष रूप से खींच सकते हैं। लेकिन यथार्थ की निकटता के निर्वाह में कई जगहों पर कहानी आवश्यकता से अधिक धीमी हो गयी है, जो कि इसका एक कमजोर पक्ष है। मुख्य पात्र का ऑफिस से लौटते हुए जहां-तहां बैठकर सोच में मग्न हो जाना, इसी तरह घर से बाहर बैठकर सोच में डूब जाना जैसे दृश्यों और एक जैसी बातों का दुहराव इस उपन्यास को पठनीयता के स्तर पर उबाऊ बनाता है। हो सकता है कि लेखक की दृष्टि में ये दुहरावपूर्ण लेखन, शैली के स्तर पर कोई कलात्मक प्रयोग रहा हो, परन्तु इस प्रयोग से उपन्यास में कोई सकारात्मक प्रभाव उत्पन्न होता नहीं दिखाई देता। दूसरी कमजोरी इसकी कहानी के अंत से सम्बंधित है। सोशल मीडिया के अतिरिक्त उपन्यास के किसी अन्य विषय को लेकर इसका अंत कोई ठोस निष्कर्ष प्रस्तुत नहीं करता बल्कि एक अस्पष्ट-सा संकेत करके सबकुछ पाठक के विवेक पर छोड़ देता है। पाठक के विवेक पर आश्रित ऐसे अंत हिंदी साहित्य में बहुतेरे मिलेंगे, लेकिन एक गंभीर कथानक के लिए ऐसे अंत को बहुत प्रभावी नहीं कहा जा सकता।

उपन्यास की भाषा उन हिस्सों में विशेष रूप प्रभावित करती है, जहां बंगाली शब्दों और लहजे का प्रयोग हुआ है जैसे यह उदाहरण देखिये, ‘…घर में दीवार होता है वह भस जाता है। भालोबासा मरता है पहलेआत्मीयताजिसको तुम प्रेम बोलता है, वह मरता है। फिर जो बाग़ में तुम फूल लगाया रहता है, वह पुड़ (जल) जाता है। इसमें सराहनीय यह है कि बंगाली शब्दों और लहजे के बावजूद लेखक ने इसकी प्रस्तुति ऐसे की है कि किसी भी हिंदी भाषा-भाषी के लिए इसे समझना कठिन नहीं है।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इस उपन्यास का कथानक प्रेम, परिवार और सोशल मीडिया इन तीनों विषयों की व्यथा-कथा को स्वर तो देता है, लेकिन कोई निष्कर्ष प्रस्तुत नहीं कर पाता। अगर लेखक इसका अंत किसी ठोस निष्कर्ष के साथ करते तो ये इस सीमा तक प्रभावी बन सकता था कि एक लम्बे समय तक याद और प्रासंगिक रहने वाले उपन्यासों में शुमार हो जाता।

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अनुकृति उपाध्याय की कहानी ‘इंसेक्टा’ 

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अनुकृति उपाध्याय ने अनेक कहानियां अछूते विषयों पर लिखी हैं. जैसे यह कहानी ‘इन्सेक्टा’, कीड़ों को लेकर इतनी रोमांचक कहानी भी लिखी जा सकती है यह इसे पढ़कर जाना. ‘हंस’ के नए अंक में प्रकाशित इस कहानी को पढ़कर आश्वस्ति हुई कि बेस्टसेलर के हल्ले के बाहर भी हिंदी लेखन में प्रयोग हो रहे हैं और गंभीर प्रयोग हो रहे हैं. पढ़कर राय दीजियेगा- मॉडरेटर

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एक गहरे गुंजार जैसे स्वर से “म” जाग पड़ा. चेतना के साथ पहला ख्याल आया – अब वे दिन में भी घुस आए. उसने मुश्किल से भारी पलकें खोलीं. खिड़की पर के परदे पर धूप जरी- गोट की तरह झिलमिला रही थी. उसने चौंधियाईं आँखें फिर से कस कर बंद कर लीं. “शिट”… इतनी धूप चढ़ आई. आज तो कमाल हुआ, किसी ने जगाया नहीं वरना रोज़ सुबह सात बजे से दरवाजा तोड़ने लगते हैं दोनो… उठो, उठो, कुम्भकर्ण की तरह सोते हो, पढ़ने वाले बच्चों को  ऐसे सोना चाहिए? वगैरह, वगैरह. आज क्या हुआ? गुंजार अब बंद हो गया था और कमरे में फिर घनी शांति छा गई थी. नींद की ढलान पर फिसलते हुए वह सहसा चौंक उठा. अरे… आज ही तो… ‘टुडे इज़ द डे’. वह एकबारगी ही उठ बैठा. चादर उसने उतार फेंकी. सर भन्ना रहा था और पैर बर्फ की तरह सर्द, आँखें रोज की तरह भारी. इतनी रातों की उखड़ी, अधूरी नींद एक दिन देर तक सो लेने से थोड़े ही पूरी होगी…

जब से रात वाले हमले शुरू हुए हैं, एक भी रात वह पूरी नींद नहीं सो पाया है. रात भर खिड़की की सन्धों, दीवार की दरारों, फर्श की छेदों से दाख़िल होने वाले असंख्य हमलावरों से जूझता रहता है, यह जानते हुए भी कि यह लड़ाई वह शुरू से ही हारा हुआ है. एक अकेले की जत्थों-के-जत्थों घुस आये आतताईयों के सामने क्या बिसात? वे आनन -फानन में कमरे पर काबिज हो जाते है और वह चारों ओर से घिरा, पलँग पर खड़ा अख़बारों के मुट्ठे बना जैसे-तैसे उन्हें ऊपर चढ़ आने से रोकता है. ‘ब्लडी’ अभिमन्यु भी एक बार लड़कर मर गया था, यहाँ तो रोज़ – रोज़ … उसने दांत किचकिचाए. अभिमन्यु के बाप ने कम से कम उसे लड़ना तो सिखाया था… या शायद उसकी माँ ने सिखाया था? ‘एनी वे’, अभिमन्यु को जिसने भी सिखाया हो, मुझे इन दोनों ने कुछ नहीं सिखाया, न बचना, न अटैक करना… सिखाना क्या, उन्हें मुझपर विश्वास ही नहीं. “कुछ हो तो कभी तो किसी और को भी दिखे, सिर्फ तुम्हें ही को क्यों  दिखता है ये सब? हमें तो कुछ नहीं दिखता दिखते? बेकार की बेवकूफी…”

क्या जवाब दूँ इस बात का? कहूँ कि रात को जब दोनों बैडरूम का दरवाजा बंद कर मस्ती कर रहे होते हैं, तब आते हैं वे? कभी अपनी आराम में खलल डाल कर मेरे कमरे में रहें रात -भर तो पता चले…सुबह जब वे वापस गार्डन में लौट जाते हैं तब कैसे दिखेंगे? “गार्डन से अच्छी दुश्मनी है तुम्हारी। लोग ऐसे गार्डन के लिए करोड़ों रुपए ख़र्च करने तैयार हैं इस शहर में और तुम हो कि सारा वक़्त बस ये शिक़ायत कि वो शिक़ायत…” ‘दैट ब्लडी गार्डन’… उससे बहुत प्यार है दोनों को, अपने इकलौते बेटे से भी ज्यादा… मैं मरुँ, जिऊँ, कोई परवाह नहीं…एक भी रात अगर दरवाजा खुला छोड़ दूँ अपने कमरे का तो? जब उनके ‘टीक’ और ‘महोगनी’ के महँगे

फर्नीचर और सिल्क -मढ़े सोफों पर अपनी दुर्गन्धित राल छोड़ते वे घिनौने जीव उनके बैडरूम तक पहुँच जाएंगे तब उन्हें पता चलेगा. डर से काँपता बच्चा नहीं हैं वो कि गलियारे में कुछ देर खड़े रहने के बाद चुपचाप लौट जाए.. लेकिन मैं अब और इन्तजार नहीं कर सकता… इस तरह रात रात भर जागकर इतने ‘स्ट्रैस’ में मैं ज्यादा दिन नहीं बच पाउँगा…मेरी ‘हार्ट बीट्स’ हर वक़्त मेरे कानों में धमाकों की तरह गूँजती है, वक्त-बेवक्त ‘नौसिया’, ठंडा पसीना…हर आवाज़ चौंका देती है, रोशनी में आँखें जलती हैं…’आई कांट होल्ड आउट मच लॉन्गर’, उसने हांफते हुए सोचा.

कीड़ों के आक्रमण ‘म’ के लिए नए नहीं हैं. पुराने बग़ीचे के बीच बना यह फैला- पसरा बँगला भले ही देखने वालों को मोहक लगता हो, असल में तरह तरह के कीड़े-मकोड़ों से भरा नरक है. घर की दीवारों में पुरानी सीलन जज़्ब है. ऊपर से उसके कमरे की बड़ी खिड़की भी घने, नम, अंधेरे बग़ीचे में खुलती है. खिड़की की चौखट को नमी ने आड़ा-टेढ़ा कर दिया है और चौखट और दीवार के बीच की जगह में से तरह – तरह के कीड़ों के झुंड उसके कमरे में अक़्सर धावा बोलते हैं. उनकी गिलगिली या करारे कवचों वाली देहों की दुर्गन्ध उसके कमरे में सदा भरी रहती है. “बस थोड़ी सी सीलन है और कोई बात  नहीं. पुराना घर है, थोड़ी बहुत तो रहेगी ही. वॉटर प्रूफ़िंग तो करवा दी है, अब और क्या करें? घर तुड़वा दें या बाग़ कटवा दें?” हाँ, तुड़वा दो, “डेस्ट्रॉए इट”… कुछ तो शांति मिले, ‘म’ ने दाँत भींच लिए. जैसे उन्हें पता ही नहीं कि ‘वॉटर प्रूफ़िंग’ की तीसरी ही रात दीमकों की क़तारें उसके कमरे में घुस आई थीं… दोनो भूल गए कि उस रात दीमकों ने उसकी ‘फ़िज़िक्स’ उस कॉपी- क़िताबें नष्ट कर दी थी,‘टर्मिनल इग्ज़ाम’ से दो दिन पहले? मैं दीमकों से घिरा पूरी रात चिल्लाता रहा लेकिन इस मनहूस मकान के दूसरे छोर पर बंद दरवाज़ों के पीछे सोते उन दोनों को कुछ सुनाई नहीं दिया… ‘फ़किंग क्रीचर्स’ मेरे इतनी मेहनत से बनाए सारे ‘नोट्स’, ‘प्रैक्टिकल शीट्स’ सब चबा गए…पूरी ‘टर्म’ की मेहनत चिन्दियाँ कर गए…लेकिन टुकड़े टुकड़े हुई क़िताबों को देखकर भी उन्होंने नहीं माना, नहीं माना… “इग्ज़ाम्स’ से ठीक पहले सब क़िताब-कॉपी फाड़ डालो और फिर ख़ुद ही बिसूरो. अच्छा बहाना है. मालूम है पढ़ाई लिखाई की नहीं, सो ख़राब ‘नम्बर्स’ के लिए ‘इक्स्क्यूज़’ पहले से तैयार. इतना दिमाग़ पढ़ाई में लगाओ तो…नाक कटवा रहे हो हमारी…” एक एक शब्द उसके दिमाग़ में दग़ा हुआ है. सिर्फ़ नम्बर, रैंक, इग्ज़ाम…इन्हीं की परवाह…साला मैं मरता हूँ तो मर जाऊँ, रात भर इन गंदे, घिनौने कीड़ों के बीच …

हमेशा से ‘म’ को कीड़ों से घिन या परेशानी रही हो, ऐसा नहीं है. पहले तो दिलचस्पी थी उसे कीट- पतंगो में. वह उत्सुकता से उनके जीवन चक्र देखता, क्या खाते हैं, कहाँ रहते हैं, कीड़ों से जुड़ा सब कुछ उसे चमत्कृत करता. वह उन्हें बाक़ायदा डिब्बों, ग़त्ते के बक्सों और बोतलों में बंद करके रखता. तरह- तरह के भृंग, गुबरैले, बीर-बहूटियाँ, इल्लियाँ, यहाँ तक कि गोज़र, कनखजूरे और ततैये तक, बाग़ और अड़ोस – पड़ोस से इकट्ठा कर लाता. किस प्रजाति का कीड़ा कौन सा पत्ता या फूल – फल खाता है, डिब्बे – बोतलों में क़रीने से जमाई मिट्टी या सूखे पत्ते या घास कब बदलनी चाहिए, सब उसे ज़ुबानी याद रहता. कीट – पतंगों के बारे में तरह – तरह की जानकारी का अंबार था उसके पास, ‘इंसेक्टा’ श्रेणी के सब ‘ऑर्डर’ ‘फ़ैमिली’ ‘जींस’ और ‘स्पिसीज’ उसके रट डाले थे. मम्मी – डैडी, सबको को उसके शौक़ के बारे में गर्व से बताते थे कि कैसे उसने एक बार अपनी दादी को एक शानदार रत्न की तरह चमकता, हरा- सुनहरा गुबरैला देने की कोशिश की थी, कैसे किसी उत्सव में शामिल होने आए मेहमानों की भीड़ में जेब में से एक बड़ा कत्थई कनखजूरा या धुआँसे रंग का कोई भृंग निकाला था, औरत, बच्चों में कैसी चीख़ -पुकार मच गई थी, वे हंस – हंस कर गर्दन हिलाते हुए कहते. कितनी पुरानी बात है ये, तब की जब वह उनका बेटा राजा बेटा था, इम्तिहान, खेलकूद, प्रतियोगिताओं सब में पहले नम्बर पर आता था. ‘आय वाज देयर गोल्डन बॉय देन’…लेकिन तीन साल पहले नए स्कूल में जाने पर सब बदल गया… ‘उन्हीं की ज़िद थी कि शहर के सबसे मशहूर और पुराने स्कूल में जाए. उसके पिता, दादा, चाचा यहाँ तक कि डैडी के चचेरे – ममेरे भाई भी उसी स्कूल में गए थे. सातवीं कक्षा तक जिस छोटे स्कूल में पढ़ा था, जहाँ उसके दोस्त और पसंदीदा टीचर्स थे, वहाँ से निकालकर आख़िरकार उसे उस बड़े स्कूल में डाल दिया था. “ ‘आवर थर्ड जेनेरेशन’! तीसरी पीढ़ी है इस स्कूल में. बेटा परम्परा चला रहा है!” डैडी ने कितने अभिमान से कहा था. सब को बताते फिरते थे “ ‘जस्ट लाइक मी’, हमारा होनहार बेटा…” मेरी ज़िंदगी तो ‘जस्ट लाइक मी’ और ‘हमारी नाक कटा दी’  के बीच झूलती रही है… ‘आय एम नॉट ए पर्सन’, उनके लिए तो मैं कुछ हूँ ही नहीं, कीड़ों से भी गया गुज़रा, यहाँ से उठा कर वहाँ डाल दो…डेढ़ सौ साल के इतिहास वाला स्कूल और ‘थर्ड जेनेरेशन’ का बोझ, सब मेरे ऊपर… किसी को जानता नहीं था वहाँ. सारे ‘कूल’ लड़कों के पहले से ही ‘दोस्त थे. ऊपर से पुराने स्कूल की तरह ‘ओन्ली बॉइज़’ नहीं, ‘को-एड’ …मधुमक्खियों की तरह भिनभिनाती और डंक मारती लड़कियाँ… सब हँसते थे मुझ पर, मेरे पुराने स्कूल पर, मेरे ‘इंसेक्ट कलेक्शन’ पर, यहाँ तक कि मेरे बालों पर भी …एक बार ज़रा लम्बे हो गए तो ‘हेडमिस्ट्रेस मैम’ ने सिर पर टोपी रखकर सारे स्कूल के सामने कटवा दिए थे … दो दिन स्कूल नहीं गया था, पेट दर्द का बहाना करके, लेकिन उन दोनों ने कुछ नहीं कहा न बालों के बारे में पूछा, सिर्फ़ दवा दे दी थी… स्कूल के लिए एक शब्द नहीं सुन सकते , सारा दोष हमेशा मेरा ही. उस बार ‘स्टैग बीटल’ का जोड़ा ले गया था स्कूल, ‘नैचरल सायंस’ के ‘प्रोजेक्ट’ के लिए. कितनी मुश्किल से मिला था ‘पेयर’. धरती के नीचे छिपे रहते हैं, सिर्फ़ ‘मेटिंग सीज़न’ में कुछ हफ़्ते बाहर निकलते हैं. रोशनी और नई जगह से घबराकर वे बक्से के एक कोने में दुबक गये थे, एक पर एक चढ़कर. “ ‘दिस सीम्स टू बी देयर मेटिंग सीज़न’!” टीचर ने फबती कसी थी और जाहिलों से भरी वो क्लास खिलखिला पड़ी थी. सब उसे तबसे ‘मेटिंग सीज़न’ कहने लगे थे, ख़ासकर आँखें नचाने वाली लड़कियाँ. “ईयू…’मेटिंग सीज़न’!” जहाँ-तहाँउसे देखकर चिल्ला पड़ती थीं, क्लास में, गलियारे में, खेल के मैदान में… मुझे ‘बुली’ करते हैं सब, मम्मी- डैडी को बताया था लेकिन उन्हें क्या? “ ‘बी स्ट्रॉंग’…स्कूल में नया होने पर थोड़ा बहुत होता ही है. ‘एंड वाई टेक सच क्रीचर्ज़ टू स्कूल’? ले ही क्यों जाओ ये भद्दे कीड़े हर जगह? तुम्हारी ‘एडवाइज़र’ कह रही थी तुम ‘मेंटिस’ और टिड्डे इकट्ठे कर लाते हो मैदान से. अपने ‘क्लासमेट्स’ के बारे में भी सोचो. सबको कीड़े मकोड़े पसंद नहीं होते.” सब मुझे ही सीखना चाहिए, सब मेरी ही ग़लती है…’म’ ने अपना सिर दोनों हाथों से दबा लिया. मेरा क्या? मेरी तरफ़ से कुछ सोचना ज़रूरी नहीं?

भनभनाहट फिर शुरू हो गई. ‘मोबाइल फ़ोन’ की घंटी है. दो दिन पहले ही यह सस्ता वाला ख़रीदा था. ‘आइ फ़ोन’ तो डेढ़ा की भेंट चढ़ चुका है पिछले ही हफ़्ते. शायद डेढ़ा का ही फ़ोन हो शाम के बारे में. ‘टुडे इज़ द डे’…’म’ ने फ़ोन उठाया. डेढ़ा नहीं मयूर था. “ ‘व्हाट द फ़क मैन’. डेढ़ा आधे घंटे से फ़ोन कर रहा हूँ. तू है कहाँ? फ़ोन क्यों नहीं उठा रहा?” मयूर उसका एक मात्र दोस्त है नए स्कूल में. मम्मी – डैडी को बिल्कुल पसंद नहीं. “ ‘ही इज़ रॉंग काइंड ऑफ़ इन्फ़्लूयन्स’. ग़लत क़िस्म का लड़का है. ड्रग्स -वग्स के झमेले में मत पड़ जाना उसके साथ.” उन्हें कोई परवाह नहीं कि मयूर ही सिर्फ़ उसकी ‘सैनिटी’ बचाए हुए है, वरना पागल हो गया होता वह अबतक. “ ‘मदर फ़कर’ कुछ बोल… ख़ुद मरेगा, मुझे भी मरवाएगा…” ‘म’ ने फ़ोन काट दिया और काँपते हाथों से डेढ़ा का नम्बर मिलाया. “साले, मादर…” फ़ोन उठाते ही डेढ़ा धड़ल्ले से गालियाँ देने लगा. “डे…डेढ़ा भाई…” ‘म’ हकला उठा, “डेढ़ा भाई…सब तैयारी है, कोई दिक़्क़त नहीं होगी, डेढ़ा भाई… जैसा आपने कहा सब वैसा ही तैयार रखूँगा, डेढ़ा भाई …” एक क्षण की ख़ामोशी के बाद फ़ोन कट गया. ‘म’ ने कलाई पर दृष्टि डाली. घड़ी तो फ़ोन के साथ ही डेढ़ा को दे दी थी. दिन बहुत चढ़ गया है, नहाना चाहिए और कुछ खाना…जल्दी करनी होगी, आज सब ठीक हो जाएगा, सब. वह बाथरूम में घुस गया.

जब नए स्कूल का पहला रिज़ल्ट आया था और वह प्रथम नहीं आया था तो मम्मी- डैडी हतप्रभ हो गये थे. कैसे? उनका होनहार बेटा पाँचवे नम्बर पर? उसने बताना चाहा था – डैडी, मम्मी, कुछ भी ठीक  नहीं  है… मेरे कमरे में ‘गार्डन’ से कीड़े घुस आते हैं, झुंड के झुंड…आँधी – जैसी तितलियाँ, कान- फाड़ू शोर करने वाले झींगुर और ‘सिकाडा’…कमरा उनसे भर जाता है, साँस तक लेना मुश्किल हो जाता है…पढ़ा – लिखा नहीं जाता… इम्तिहान के दिनों में रोज़ ‘एमरल्ड मॉथ्स्’ का झुण्ड हरे बादल की तरह मेरे कमरे में घुमड़ आता था, बिजली की बत्ती को ढाँक लेता था … ‘मॉथ्स्’ मेरे कान, नाक में घुस जाते थे, मुँह पर पट्टी की तरह चिपक जाते थे … मैं चिल्ला भी नहीं पाता…मैं सो नहीं पाता मम्मी, मेरे कान में हमेशा खसखसाहट सी होती रहती है, डैडी… फ़र्श पर गिलगिले घोंघे और स्लग्स छा जाते हैं… हर रात ये होता है…यह घर बेच दीजिए डैडी, कहीं और चलिए. समुद्र के पास जहाँ खारी हवा में कीड़े नहीं पनपेंगे…वह कितने दिनों तक गिड़गिड़ाया था. लेकिन उन्होंने सुना? उसकी हालत पर थोड़ी भी दया आई उन्हें? “पढ़ने लिखने में मन नहीं लगता , वाहियात दोस्त बना लिए और कम नम्बर आने पर पागलों जैसी बातें करते हो. कीड़े – मकोड़े!…कहाँ हैं कीड़े? सिर्फ़ तुम्हारे सर में भरे हैं. ‘यू शुड बी अशेम्ड’…’ जैसे वे दोनों अशेम्ड रहने लगे हैं मेरे कारण…दोस्तों, परिवार वालों से झूठ बोलते रहते हैं – “फिर फ़र्स्ट आया है, ऑनर रोल में है…” और जब कभी झूठ पकड़ा जाता है तो उससे नए सिरे से नाराज़ हो जाते हैं. “किसी अच्छी ‘यूनिवर्सिटी’ से ‘ऐक्सेप्टन्स’ नहीं आई अब तक. लाखों ख़र्च  किए तुम्हारी ‘ट्यूशन’ और ‘काउन्सलिंग’ पर और नतीजा ‘ज़ीरो’. नालायक…” ‘म’ ने शावर बंद कर दोनों हाथों से कान भींच लिए. बस, आज सब ठीक हो जाएगा. डेढ़ा और डेढ़ा का घोड़ा, सब ठीक कर देंगे…

जब मयूर ने पहली बार डेढ़ा से मिलवाया था तो ‘म’ को थोड़ी निराशा हुई थी. पतला-दुबला छोटे से क़द का आदमी. सड़क पर जा रहा हो तो कोई दोबारा न देखे. ‘शर्ट’ के खुले बटनों से झाँकती हड़ीली गर्दन और पसलियाँ, लगे जैसे किसी दुकान में कपड़ा बेचता होगा या किसी दफ़्तर में क्लर्क होगा. ग़ौर से देखने पर ही उसकी आँखों की तेज़ी और चौड़े मज़बूत हाथों पर ध्यान जाता था.

“डेढ़ा भाई तेरी सारी ‘प्रोब्लम’ ही ‘सॉल्व’ कर देंगे ‘ब्रो’! देखने में बकरी, काम में शेर हैं अपने डेढ़ा भाई. नाम की तरह डेढ़ आदमी की ताक़त है इनमें.” मयूर ने आजिज़ी  से दाँत दिखाए थे.

“काम बोल.” .डेढ़ा ने पलक भी नहीं हिलाई थी.

“मेरे मम्मी- डैडी को… मम्.. मम्मी- डैडी…” ‘म’ बुरी तरह हकला उठा था.

“ऐ, तू अकेला नहीं जिसको मम्मी – डैडी है. सबको होते हैं. उनका ‘गेम’ बजाना है? ‘म’ के मुँह से आवाज़ नहीं निकली थी. “ ‘फुल’ काम करना है उनका? मैं यही करता है. तू पहला नहीं मम्मी- डैडी वाला! साफ़ बोल.”

“मैं… मतलब उन्हें मारना नहीं…बस कुछ दिन के लिए अस्पताल में रहने जैसा…मतलब तब तक मैं यह घर बेच दूँगा…फिर सब ठीक हो जाएगा. यहाँ इतने कीड़े हैं…’टरमाइट्स’ और…और कनखजूरे.. रहना मुश्किल है…”

“ये येड़ा है क्या?” डेढ़ा ने मयूर की ओर देखा था. “देख हाफ़ काम, शैतान का काम. हर क़िस्म का ‘रिस्क’ उसमें. और तेरे भेजे में भूसा है अगर तुझे लगता है कि मम्मी- डैडी के ‘ऑफ़’ हुए बिना तू इस घर का ईंट भी छू सकता है.” “डेढ़ा भाई क्या सॉलिड बात कही है”. मयूर चापलूसी में झूम रहा था. “देख, जब तू डॉक्टर के पास जाता है, तो उसे इलाज़ करना सिखाता है? डेढ़ा भाई भी तेरी बीमारी का डॉक्टर है, बस डॉक्टर डेढ़ा पर छोड़ दे सब और जो ये कहे वह कर.”

“तू चमड़गिरी बंद कर” डेढ़ा ने शांत स्वर में मयूर को कहा था, “और सुन बे पप्पू, काम करवाना है तो हाँ बोल, ‘टाइम’ खोटी मत कर.”

‘म’ के कंठ से आवाज़ नहीं निकली थी लेकिन बात पक्की हो गई थी. “फुल पेमेंट’ करना होगा, ‘अड्वैन्स’. वरना बाद में तेरा काम ‘फ़्री’ में करना पड़ेगा.” इस बार डेढ़ा महीन मुस्कुराया था.

“पैसे तो नहीं हैं…मतलब अभी नहीं है…”

“डेढ़ा भाई, मा – बाप इसके बहुत पैसे वाले हैं. बड़ी नौकरी, यह बंगला.” मयूर के कहने पर डेढ़ा को घर दिखाने ले आया था उस दोपहर जब मम्मी -डैडी दफ़्तर में थे और काम वाली कहीं ऊँघ रही थी. “अभी जो कुछ दे सकता है, ले लो. आपसे बचकर वैसे भी कहाँ जाएगा.” मयूर ने पैरवी की थी.

आख़िर में ‘म’ ने अपना ‘आइ-फ़ोन, आइ -पैड, घड़ी, जेबख़र्च के पैसे, सब दे दिए थे. “काम वाले दिन ‘गार्डन’ वाले गेट से आऊँगा. घर का दरवाजा खुल्ला रखने का जिससे बस ‘इन’ और ‘आउट’.” डेढ़ा ने चुटकी बजाई थी. ‘म’ ने रट लिया था – ‘गार्डन’ वाला गेट, घर का दरवाज़ा, भीतर घुस कर…बस ‘इन’ और ‘आउट’…शनिवार को दोपहर एक से दो के बीच. शनिवार यानि आज…

‘म’ नहा कर कमरे से निकला तो घर में फैली शांति से आश्चर्य में पड़ गया. इस समय तो मम्मी- डैडी ‘लिविंग रूम’ में बातें कर रहे होते हैं, घर में पुराने गाने बज रहे होते हैं, किचन से मटन- मसाले की ख़ुशबू आ रही होती है. आज सब शांत… ’लिविंग रूम’ की दूसरी ओर लम्बे गलियारे के अंत में ‘मास्टर बेडरूम’ का दरवाज़ा खुला था. उसने झाँक कर देखा – सब कुछ तरतीब से लगा, सिर्फ़ एक साड़ी पलंग पर पड़ी थी. वह लौट कर खाने के कमरे में आया. किचन के दरवाज़े पर काम वाली खड़ी थी.

“साब – मेमसाब’ क्लब गए हैं, बाबा, घोड़ा -रेस के लिए. लंच के बाद लौटेंगे”.

‘म’ सन्न रह गया. ‘ब्लडी रेस सैटर्डे’…कैसे भूल गया वह? हर महीने का तीसरा शनिवार, चाहे आँधी, बारिश हो, या उसको टायफ़ाइड, ‘रेस सेटरडे’ नहीं छोड़ा जा सकता. डेढ़ा को बताना होगा. वह अपने कमरे की ओर दौड़ा.

“डेढ़ा भाई थोड़ा चेंज है… वह  ‘हॉर्स रेसिंग’ है आज…वे दोनों लंच तक बाहर हैं…मतलब आप चार से पाँच के बीच में आओ…”

“देख बे, तू मुझे जमूरा  समझता है? वे घोड़ा दौड़ा रहे हों या कबूतर उड़ा रहे हों, अपनी ‘सेटिंग’ हुई थी….” म’ कुछ देर तक डेढ़ा की गालियों के परनाले के उस ओर नाक दबाए खड़ा रहा. “डेढ़ा भाई, चार बजे से पहले आ जाएँगे दोनों. सब जैसा आपने कहा था वैसा ही रहेगा, दरवाज़ा खुला रखूँगा…”

“तूने फिर फ़फड़गिरी की तो तेरी…”

काम वाली अब भी रसोई और खाने के कमरे के बीच मँडरा रही थी.

“बाबा दाल – चावल तैयार है.”

“दाल -चावल तुम खा लो और जाओ रात को मत आना अब.”

“मगर मेमसाब कह कर गया कि…”

“हमने बात किया मेमसाब से. तुम जाओ, आज रात तक छुट्टी.” काम वाली की आँखों में संशय बना रहा लेकिन वह चली गई.

‘म’ ने डोमिनोज से दो बड़े ‘पिज़्ज़ा’ मँगवाए और ‘कोल्ड ड्रिंक’ की बड़ी बोतल’. दिमाग़ पर कुछ काई के जैसा जमा लग रहा था, कान में रात वाले सिकाडा की सीटियाँ अब भी गूँज रही थीं. उसने मयूर को फ़ोन किया. “अभी आजा. प्रोग्राम में थोड़ा चेंज है…”

“चेंज के बच्चे, साले तेरी वजह से डेढ़ा की गालियाँ खा रहा हूँ…साले…”

“अब पिज़्ज़ा खा. दस मिनट में पहुँच जा ठंडा हो जाएगा वरना.”

मयूर पिज़्ज़ा डिलीवरी वाले लड़के के पीछे पीछे ही घर में घुस. “यार फ़ट गई आज तो, क्या करता है तू? डेढ़ा के साथ संभल कर काम करना चाहिए. साँप-बिच्छु है एकदम.

‘म’ ने पिज़्ज़ा का डब्बा खोला. “मुझे ध्यान नहीं रहा आज रेस है…”

“कुछ का कुछ हो जाता तेरी लापरवाही से”, मयूर मुँह का ग्रास निगल कर बोला. “तुझे ध्यान रखना था.”

“मुझसे कोई बात ही नहीं करते आज कल…बस इसके इतने नम्बर आए, वह ‘सेट’ में इतना ‘स्कोर’ लाया…मैं तो कुछ हूँ ही नहीं अगर नम्बर नहीं लाता…”

“चिंता मत कर, ‘ब्रो’, अब सब सही हो जाएगा.”  मयूर ने ‘ज्वाईंट’ सुलगा कर उसकी ओर बढ़ाया.

तीन बजे के कुछ बाद दोनों लौटे. ‘म’ ने अपने कमरे की खिड़की से गाड़ी देख ली थी. नहीं भी देखता तो उनकी बातों और हँसी की आवाज़ से पता चल जाता. मयूर को गए कुछ देर हो चुकी थी और उसने सब खिड़कियाँ खोल दी थीं फिर भी मम्मी ने घर में घुसते ही नाक सिकोड़ी. “स्ट्रेंज स्मेल …” वह पढ़ने का बहाना करते हुए कमरे के खुले दरवाज़े से उनपर आँख रख रहा था. वे दोनों कपड़े बदलकर ‘लिविंग रूम’ में अख़बार और ‘मैग्जीनस’ पढ़ने लगे. चार से कुछ पहले वह अपने कमरे से निकला और ‘डाइनिंग’ रूम के रास्ते घर के दरवाज़े की ओर बढ़ा. ‘लैच’ खोल देगा कि डेढ़ा के धकेलने से खुल जाए. दरवाज़े के पास पहुँचा ही था कि घंटी बजी. ‘म’ चिहुंक उठा. एक क्षण लगा डेढ़ा समय से पहले आ गया शायद …दरवाज़ा खोलते ही उसी पर गोली…फिर थोड़ा संयत हुआ, डेढ़ा घंटी थोड़े ही ना बजाएगा. दरवाज़ा खोलने पर बग़ल वाले पुराने पड़ोसी खड़े थे. गली में बच रहे दो तीन बँगलों में एक बँगला उनका भी था।

 “कैसे हो बेटा? देखो कौन आए हैं!” आंटी ने अपने पीछे छुपे दो छोटे-छोटे बच्चों को आगे किया. “ये दोनों कल ही आए. आरती और आदित्य लंदन गये हैं, पंद्रह दिनों के लिए.” वे सब लिविंग रूम में आ गये.

“अरे वाह! नानू- नानी के घर आए हैं? कितने दिनों बाद देख रहे हैं इन्हें.” मम्मी ने बच्चों को बाहों में भर लिया.

“ भाई बड़े हो गए तुम दोनों तो.” पापा मुस्कुराए, “याद ही नहीं जब हमारा बेटा इतना छोटा था.”

‘म’ के हाथ पैर ठंडे हो गये थे. कान फिर सरसरा रहे थे. ये लोग कैसे आ गये? अब क्या करे? डेढ़ा को फ़ोन…

आंटी ने उसका हाथ पकड़ कर पास खींचा. “तुम कैसे हो बेटा? कितने दुबले लग रहे हो…”

“रात-रात भर पढ़ता है” मम्मी बोलीं, “यूनिवर्सिटी ऐडमिशन की तैयारी है”.

“इसे तो “आइ वी लीग” कॉलेज में जगह मिलेगी, इतना होशियार है.” अंकल ने संतरे की फाँक छिलकर नाती – नाती को खिलाई. “हमें तो याद है कैसे कीड़े- पतंगे इकट्ठे करता रहता था छोटा था तब!”

“हाँ! रात में भी मुँह में टॉर्च दबाए हाथ में जाली थामे.” आंटी हँसी. “बच्चे बड़े हो जाते हैं, बचपन भूल जाते हैं…” ‘म’ ने धीरे से अपना हाथ आंटी के हाथ से छुड़ाया. कान में गूँजती सीटियों के बावजूद उसे गार्डन के दरवाज़े की हल्की घिसट सुनाई पड़ गई. डेढ़ा…बंगले में आ गया है वह…कुछ करना है…

“हमारा तो एक ही बेटा है, ‘ऑल आवर ऐसपीरेशंस’…” पापा ने महीनों में उसकी तरफ़ पहली बार प्यार से देखा. आंटी – अंकल के आने के बाद दरवाज़ा बंद करना तो भूल गया…अब? डेढ़ा दरवाज़ा खुला देख कर सोचेगा कि…अपने दिल की घड़घड़ाहट के ऊपर उसे डेढ़ा के पैरों की चाप आ रही है… बाग़ के सूखे पत्तों की चरमराहट, सीधी पर जूतों की आहट…सब कमरे में घुस जाओ, उसने चिल्लाना चाहा, दरवाज़ा बंद करो, इन बच्चों को बचाओ…इन्हें बचाओ…पर उसके सूखे गले से आवाज़ ही नहीं निकल रही है …वह बेतहाशा दरवाज़े की ओर भागा. दरवाज़ा बंद करना होगा…उसे घर में घुसने से रोकना होगा किसी भी तरह… ‘म’ ने दोनों हाथों से अधखुले दरवाज़े के पल्ले को अपनी ओर खींचा, पर देर हो चुकी थी. दरवाज़ों की खुली फाँक से कीड़ों की बाढ़ उमड़ी आ रही थी – लाल – काले, भृंग, बीर-बहूटियाँ, गुबरैले, गोज़र, हर परिचित कीट जो उसने कभी मनोयोग से इकट्ठा किया था अब एक विराट जुगुप्सामय लहर में घर में घुस रहा था… वह डूब रहा था…घर डूब रहा था…

The post अनुकृति उपाध्याय की कहानी ‘इंसेक्टा’   appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

विश्व हिन्दी सम्मेलन में भाजपाई प्रतिनिधिमंडल

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वरिष्ठ पत्रकार-लेखक रंजन कुमार सिंह ने हाल में मॉरिशस में संपन्न हुए विश्व हिंदी सम्मलेन की निष्पक्ष रपट लिखी है. यह रपट muktakantha.org से साभार प्रस्तुत है- मॉडरेटर

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 उद्घोषणा होती है – अब थोड़ी देर में आपको नाश्ता परोसा जाएगा।

अपना एअर इंडिया होता तो घोषाणा होती – अब थोड़ी देर में जलपान दिया जाएगा।

मैं एअर इंडिया की बजाय एअर मॉरिशस से सफर कर रहा हूं, जोकि मॉरिशस में आयोजित 11वें विश्व हिन्दी सम्मेलन के प्रायोजकों में एक है। भारत की हिन्दी में जहां आभिजात्य संस्कार दिखाई देता है, वहीं मॉरिशस की हिन्दी गवँई गमक से सराबोर है।

इसी विमान से पश्चिम बंगाल के राज्यपाल श्री केशरीनाथ त्रिपाठी, लोक भाषा एवं संस्कृति के क्षेत्र में कार्यरत हिन्दी कथाकार डा0 विद्याबिन्दु सिंह, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष डा0 स्मिता चतुर्वेदी और उनके पति श्री आनन्द चतुर्वेदी, विभिन्न मंत्रालयों की राजभाषा समितियों से जुड़े श्री वीरेन्द्र यादव, आधुनिक साहित्य के संपादक श्री आशीष कंधवे, हिन्दी बुक सेन्टर के श्री अनिल वर्मा, नार्वे में हिन्दी का परचम थामनेवाले श्री सुरेश चन्द्र शुक्ल आदि अनेक जाने-पहचाने व्यक्ति मॉरिशस की यात्रा कर रहे हैं। हम सब का मकसद एक ही है, विश्व हिन्दी सम्मेलन में भाग लेना।

चूंकि यह विमान दिल्ली से उड़ान भरकर सीधा मॉरिशस उतरेगा, इसलिए इसपर हम ही लोग अधिक हैं। एअर मॉरिशस ने सम्मेलन के प्रतिभागियों के लिए किराये में 20 फीसदी की छूट भी दी है। हालांकि इस छूट के बावजूद ट्रैवल एजेण्ट से टिकट कटाना सस्ता पड़ा है और इसलिए हममे से कईयो ने एअऱ मॉरिशस से टिकट न लेकर ट्रैवल एजेण्ट से ही टिकट ले रखा है। इससे पहले 8वें विश्व हिन्दी सम्मेलन में मैं सरकारी प्रतिनिधिमंडल में शामिल रहा था, पर इस बार मेरे आने-जाने की व्यवस्था तक्षशिला एडुकेशन सोसाइटी ने की है, जिसका मैं फिलहाल मानद अध्यक्ष हूं। मेरी पत्नी रचना अलग विमान से यात्रा कर रही हैं। चूंकि उनका कार्यक्रम देर से तय हुआ, इसलिए उन्हें दिल्ली से मॉरिशस की सीधी उड़ान में जगह नहीं मिल सकी। इसी तरह कई मित्रों को मुंबई होकर जाना पड़ा है तो कई को चेन्नै होकर। कुछ को तो दो-दो जगहों पर रुककर मॉरिशस पहुंचना पड़ रहा है, बरास्ता दुबई, नैरोबी या सेशल्स।

बहरहाल, एअर मॉरिशस ने एक पूरा विमान ही सरकारी प्रतिनिधियों के लिए रख छोड़ा है। इसमें किसी को टिकट कटाने की जरूरत नहीं पड़ी है। यह 17 अगस्त 2018 की रात एक बजे दिल्ली से चलकर सुबह-सबह सात बजे मॉरिशस पहुंच रहा है। सरकारी प्रतिनिधिमंडल में कितने लोग शामिल हैं, इसकी सूचना आधिकारिक तौर पर नहीं दी गई है। यहां तक कि सरकारी प्रतिनिधिमंडल में शामिल व्यक्तियों की सूची भी नहीं जारी की गई है। दिल्ली से रवाना होने के पहले मैंने विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज के हिन्दी सम्मेलन संबंधी ट्वीटर संवाद पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए मांग की थी कि अब तो सम्मेलन शुरु होने को है, तब तो यह सूची जारी कर दी जाए। परन्तु सोशल मीडिया और खास तौर पर ट्वीटर पर बेहद सक्रिय रहकर अपनी संवेदना और सहानुभूति का परिचय देनेवाली सुषमाजी ने भी इसपर कोई ध्यान नहीं दिया और विश्व हिन्दी सम्मेलन के वेबसाईट पर सरकारी प्रतिनिधिमंडल के पन्ने पर आज भी यही लिखा है – शीघ्र अपलोड किया जा रहा है!

अब कब? सम्मेलन तो 20 अगस्त 2018 को सम्पन्न भी हो चुका! इससे यही लगता है कि इस सरकारी प्रतिनिधिमंडल के बारे में बताने के लिए जितना रहा होगा, उससे कहीं अधिक छिपाने के लिए रहा। मॉरिशस में जब इस प्रतिनिधिमंडल के सदस्य मिले भी तो उनकी पहचान उनके गले में लगी पहचान-पट्टी से ही हो सकी, उनके चहरों  या व्यक्तित्व से नहीं। जाहिर है कि हिन्दी के अनेक जाने-माने विद्वान-आलोचक सम्मेलन में कहीं नजर नहीं आए, उनकी जगह नए लोगों ने ले ली। सरकारी प्रतिनिधिमंडल के चयन का कोई तार्किक आधार नहीं दीख पड़ा। एक सवाल जो मुझ जैसे अनेक लोगों को परेशान करता रहा, वह यह कि हिन्दीसेवी की परिभाषा क्या हो? हिन्दी के प्रति उनकी निष्ठा उनके हिन्दीसेवी होने का प्रमाण माना जाए या सरकार के प्रति उनकी निष्ठा को आधार बनाया जाए? पूर्व काल में तो कम से कम गाँधीवादियों के साथ-साथ प्रगतिशील या मार्क्सवादी चिन्तक-आलोचक नजर आते थे, अब तो सिर्फ और सिर्फ एक ही विचारधारा के लोग शामिल थे – भले ही हिन्दी जगत में उनकी पहचान हो या ना हो।

चूंकि एक पूरा विमान ही सरकारी प्रतिनिधियों के लिए सुरक्षित था, इससे यह तो समझा ही जा सकता है कि उनकी संख्या तीन सौ के आसपास तो रही ही होगी। इतने सारे प्रतिनिधियों की वहां आवश्यकता क्या थी, पता नहीं। वहां बोलनेवाले तो गिनती के ही थे। बल्कि श्री वीरेन्द्र यादव, डा0 विद्याबिन्दु सिंह, श्रीमती करुणा पाण्डेय, आदि जिन लोगों का पर्चा सम्मेलन में प्रस्तुति के लिए शामिल किया गया था, वे भी उस प्रतिनिधिमंडल में शामिल नहीं रहे थे। दूसरी तरफ श्रीमती चित्रा मुद्गल जैसे कुछ नामी-गिरामी हिन्दी साहित्यकार सरकारी प्रतिनिधिमंडल की शोभा बना दिए गए, पर मंच पर उनके लिए कहीं कोई जगह नहीं थी। हां, श्री नरेन्द्र कोहली भाग्यवान थे कि किसी सत्र में उनकी झलक दीख पड़ी। दूसरी ओर एक ख्यातिप्राप्त हिन्दीसेवी तो ऐसे भी थे, जो अपने पूरे कुनबे के साथ सरकारी प्रतिनिधिमडल में शामिल थे। मजा यह कि इससे पहले के सम्मेलनों में भी वे उसी तरह पूरे कुनबे के साथ सरकार के खर्चे पर सफर करते रहे हैं। एक ही नहीं, अनेक सत्रों में उनका दबदबा कायम रहा, जबकि मॉरिशस के हिन्दीसेवी सर्वश्री रामदेव धुरंघर, राज हीरामन, रेशमी रामथोनी, धनराज शंभु, आदि अपनी बारी की प्रतीक्षा ही करते रहे।

वैसे सरकारी प्रतिनिधिमंडल की पोल-पट्टी तो सम्मेलन के पहले दिन ही खुल गई, जब भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्रद्धेय अटल बिहारी वायपेयी के निधनोपरान्त सभी मनोरंजन कार्यक्रम रद्द कर दिए गए और पूर्व निर्धारित भोपाल से मॉरिशस कार्यक्रम के स्थान पर अटलजी की स्मृति में शोकसभा का आयोजन किया गया। निश्चय ही यह एक अच्छी सोच थी, जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा होनी चाहिए, पर इसका क्रियांवयन जिस ढंग से हुआ, उसने कार्यक्रम की गरिमा को बढ़ाने की बजाय घटाया ही। अव्वल तो अटलजी के जिन नौ चित्रों का चयन बेक ड्रॉप के तौर पर किया गया, उसमें भाजपा के झंडे के साथ उनका चित्र तो था, पर तिरंगे के साथ कोई चित्र नहीं था। इस तरह विदेश मंत्रालय ने अटलजी जैसे उदात्त एवं हरदिल अजीज भारतीय प्रधानमंत्री को देश के बाहर एक सांस्कृतिक मंच पर फकत भाजपाई नेता बनाकर धर दिया। दूसरे, इस अवसर पर बोलनेवालों के तेवर और विषयवस्तु से उनका राजनैतिक संबंध बखूबी झलकता रहा और समझ में आता रहा कि सरकारी प्रतिनिधिमंडल में नरेन्द्र कोहली तथा चित्रा मुद्गल की आड़ में कौन लोग भरे पड़े हैं।

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हेमिंग्वे की स्मृति को समर्पित कहानी- हिडेन फैक्ट

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मेरे पहले कहानी संग्रह ‘जानकी पुल’ में एक कहानी है ‘हिडेन फैक्ट’, जो महान लेखक हेमिंग्वे की स्मृति को समर्पित है. हेमिंग्वे के बारे में आलोचकों का कहना था कि उनकी कहानियों में ‘हिडेन फैक्ट’ की तकनीक है यानी बहुत लाउड होकर नहीं बल्कि संकेतों, इंगितों के माध्यम से अपनी बात कहना- प्रभात रंजन

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हिडेन फैक्ट

अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने लिखा है कि लेखन के आरंभिक दौर में उन्हें यह सूझा कि कहानी लिखते हुए मुख्य घटना का वर्णन छोड़ देना चाहिए। उसे लिखना नहीं चाहिए। बाद में आलोचकों ने उनकी इस तकनीक हिडेन फैक्ट के नाम से जाना।

नटराज ने पढ़ा, एक आलोचक ने लिखा था हेमिंग्वे की सर्वश्रेष्ठ कहानियां वे हैं जिनमें मानीखेज चुप्पियां हैं।

इस वाक्य का कोई मतलब उसको समझ में नहीं आया।

जब पुराने किताबों की गंध, धूल के अदृश्य अंबार के बीच वह थक जाता तो किताबें उलटने-पलटने लगता। इस तरह वह अपने काम की एकरसता से भी मुक्त हो जाता।

इस बार काम जरा अलग तरह का था। पत्र-पत्रिकाओं में लेखन, प्रकाशनों गृहों के लिए प्रूफ पढ़ना, गौर-सरकारी संगठनों के लिए अनुवाद-रपट लेखन, फिल्म-टीवी के पटकथाकारों के लिए घोस्ट राइटिंग- तरह-तरह के काम वह करता रहता था।

लेकिन इस बार काम जरा अलग तरह का था…

बरसों पहले जब वह अपने शहर मुजफ्फरपुर में इंटर का विद्यार्थी था तो राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक प्रो. रघुवर झा ने उसे एक दिन मृतसंजीवनी सुरा के सुरूर में यह बताया था कि कैसे उनको एक बार भारत के गृहमंत्री का भाषण लिखने का मौका मिल गया था। किस्सा यों हुआ कि एक बार प्रोफेसर साहब दिल्ली अपने स्थानीय सजातीय सांसद से मिलने गए। सांसद महोदय का सत्ता के गलियारों में बड़ा रसूख था। तत्कालीन गृहमंत्री के वे खासमखास समझे जाते थे। सांसद महोदय विदेश में पढ़कर आए थे और अक्सर गृहमंत्री का भाषण वे स्वयं लिखा करते थे।

लेकिन उस दिन गृहमंत्री के यहां से यह फरमान आया कि उत्तर-पूर्व के राजनीतिक हालात पर 2-3 घंटे में भाषण तौयार कर दें। मंत्री महोदय को अचानक रात की फ्लाइट से गुवाहाटी जाना है। वहां किसी सेमिनार का उद्घाटन करना है। पहले प्रधानमंत्री को करना था। लेकिन अंतिम समय में यही तय पाया गया कि गृहमंत्री का जाना ही ठीक रहेगा। सांसद महोदय ने बिना समय गंवाए भाषण लिखने का जिम्मा प्रोफेसर साहब को सौंप दिया।

घ्जानते हो, एक घंटे में मैंने बिना कोई रेफरेंस देखे ही भाषण तौयार कर दिया। मजाल कि कोई कामा-फुलस्टॉप भी काट दे। उस सस्ती के जमाने में भाषण लिखने के 500 रुपए मिले थेङ, प्रोफेसर झा बताते-बताते उत्तेजित हो जाते थे। उनके जीवन का यह ऐसा अविस्मरणीय संस्मरण था जो अक्सर वे सुनाते रहते थे।

नटराज ने जब प्रोफेसर झा के मुंह से पहली बार यह कहानी सुनी तो उसके मन में भी यह अरमान जगा- एक दिन मैं भी बड़े-बड़े मंत्रियों के भाषण लिखूंगा।

नटराज आनंद की उम्र 40 को छूने को थी। मगर उसकी यह ख्वाहिश अधूरी ही थी…लगता है इस जन्म में यह ख्वाहिश अधूरी ही रह जाएगी-जब भी वह शराब पीता यही गम उसे सालने लगता…

इस बार काम जरा अलग तरह का था। एक जाने-माने पेंटर ने उसे अपने निजी पुस्तकालय के साज-संभार का काम सौंप दिया था। नहीं! नहीं! उस पेंटर महोदय के पुस्तकालय का वह पुस्तकालयाध्यक्ष नहीं बन गया था।

पेंटर महोदय ने उससे यह कहा, हजारों पुस्तकें जमा हो गई हैं। आप जरा विषयवार इनकी सूची बना दें। फिर उसी तरह क्रम से लगा दें, तो बड़ी मेहरबानी होगी…कोई जल्दी नहीं है…आप महीने-दो महीने चाहे जितना समय लिजिए…

फिर पेंटर महोदय ने कुछ रुककर पूछा- पैसा कितना लेंगे आप?

इस तरह के काम तो मैंने किया नहीं है। न ही लगता है कि आगे कभी मिले। इसलिए इस तरह के कामों के लिए मित्रता-खाता ही ठीक रहता है- नटराज ने जवाब दिया।

मित्रता खाता? पेंटर महोदय को जौसे कुछ समझ में नहीं आया।

मित्रता-खाता यानी जो आपको उचित लगे- नटराज ने अपनी बात स्पष्ट की।

पेंटर महोदय फालतू बातें जरा कम ही करते थे। सारा समय वे या तो पेंटिंग बनाने में लगे रहते थे या उसे बेचने में। वे कहते भी थे- मैं अपना समय फालतू बरबाद नहीं करता। सीधे मेन प्वाइंट पर आते हुए बोले- मैंने सारी किताबों को अच्छी तरह से पैक करवाकर फरीदाबाद रोड के अपने नए बंगले में भिजवा दिया। आप एक बार उसकी कैटलॉगिंग कर दें, तो सोचता हूं कुछ घंटे वहां बैठकर पढ़ने का प्रोग्राम बनाऊं। मेरे उस्ताद कहा करते थे, साहित्य के अध्ययन से पेंटिंग की नई-नई प्रेरणाएं मिलती हैं। इसलिए सोचा आपसे अनुरोध करूं। यह काम भी ऐसा है कि किसी भी आदमी से नहीं कहा जा सकता है। आपके जैसा पढ़ा-लिखा काबिल आदमी ही यह काम कर सकता है। आप इन पुस्तकों के प्रति मेरे प्यार को समझ सकते हैं…राइटर आदमी हैं। ये पुस्तकें नहीं, समझ लिजिए, मेरी बरसों की संचित पूंजी है…पेंटर साहब थोड़ा भावुक हो चले थे।

आपके उस नए बंगले का पता..? नटराज ने सवालिया निगाहों से पूछा।

पता ही नहीं चाभी भी ले जाइए। इत्मीनान से जब वक्त मिले कीजिएगा। जब काम पूरा हो जाए तो वापस कर जाइएगा।

नटराज नमस्कार करके वहां से चल पड़ा।

पेंटर से उसका पुराना संबंध था। पहली बार दस साल पहले उसने दैनिक पर्वत शिखर के लिए पेंटर महोदय का इंटरव्यू लिया था। इस दौरान वह उनके ऊपर अखबारों में बड़े-बड़े फीचर करता रहता था। पेंटर महोदय समय-समय पर उसे कुछ दे-दिलाया करते थे। कभी कहीं की यात्रा करवा दी। अपने जीवन में वह केवल एक बार विदेश गया है। वह भी पेंटर महोदय के कारण। उन्होंने जुगाड़ से सरकारी दल का हिस्सा बनवाकर सात दिन उसके फ्रांस भ्रमण का इंतजाम करवाया था। इस काम के भी अच्छे पैसे मिल जाएंगे- वह जानता था।

फरीदाबाद रोड के उस नए-नए आबाद हुए इलाके तक पहुंचने में उसे शुरू शुरू में कुछ मुश्किल भी हुई और झुंझलाहट भी। फिर धीरे-धीरे उसे इस काम में आनंद आने लगा। उस विशाल बंगले के एकांत में थक जाने पर वह बीच-बीच में पुस्तकों को पढ़ने बैठ जाता।

पढ़ते-पढ़ते उसकी नजर हेमिंग्वे की इन पंक्तियों पर पड़ी।

न तो कभी उसने पुस्तकालय में काम करने के बारे में सोचा था, न ही उसने उसकी आवश्यक अर्हता ही अर्जित की थी। लेकिन उसे लगने लगा कि यह काम वह बड़ी अच्छी तरह कर सकता है। पुस्तकों की कैटलागिंग का काम। वह यह अपनी विधि से कर रहा था। जौसा उसने पुस्तकालयों में देखा था। अकारादि क्रम से पुस्तकों को क्रम देना। शुरू में उसे यह परेशानी हुई कि वह लेखको के नाम के अकारादि क्रम से पुस्तकों को तरतीब दे या पुस्तकों के नाम के अकारादि क्रम से लेखकों को तरतीब दे। उसने फैसला लेखकों के पक्ष में लिया।

दर्शन, सिनेमा, कला संबंधी पुस्तकों की वहां कोई कमी नहीं थी। पेंटिंग के वहां बहुत सारे कैटलॉग्स थे। लेकिन पेंटर महोदय के संग्रह में सबसे अधिक उपन्यास थे। अंग्रेजी में प्रकाशित नए-पुराने उपन्यास।

पुस्तकों के अंबार को उलटते-पलटते वह इस नतीजे पर पहुंचा कि हो सकता है अर्नेस्ट हेमिंग्वे पेंटर महोदय का प्रिय लेखक हो। हेमिंग्वे के सारे उपन्यास- ओल्ड मैन एंड सी, द सन ऑल्सो राइजेज, जेलसी, आदि-आदि वहां मौजूद थे। सिर्फ मौजूद ही नहीं थे, जगह-जगह उन पर पेंसिल से निशान भी लगे हुए थे। हेमिंग्वे की लिखी गई विभिन्न जीवनियां,आलोचनात्मक पुस्तकें वहां मौजूद थीं। जिनको देखकर कोई भी कह सकता था कि संग्रहकर्ता हेमिंग्वे का बहुत बड़ा प्रशंसक है।

उसने एक साथ इतने उपन्यास किसी पुस्तकालय में भी नहीं देखे थे…

काम करते-करते 20 दिन गुजर गए कि जौसे उसके एकरस जीवन में भूचाल ही आ गया। हुआ यह कि हेमिंग्वे की पुस्तकों के ढेर के बीच में ही नटराज को उन्हीं किताबों के आकार-प्रकार की एक डायरी मिली। वहां हजारों किताबें थीं। लेकिन डायरी…इतने दिनों में उसे पुस्तकों से अलग पहली चीज मिली थी।

कौतूहलवश वह उसे उलटने-पलटने लगा। उसेक कोरे पन्नों को पलटते हुए उसे आभास हुआ जैसे कहीं किसी पन्ने पर कुछ लिखा हुआ है। पहले उसने सोचा कि हो सकता हो पेंटर महोदय लिखने में भी हाथ आजमाते हों। कुछ दिन पहले टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि वे अपनी आत्मकथा जरूर लिखना चाहते हैं। क्या इसीलिए इस बंगले को यह नया रूप दे रहे हैं पेंटर महोदय।

मगर मजमून कुछ और ही था। उस डायरी के सारे पन्ने खाली थे। बस दो पन्नों पर कुछ पंक्तियां दर्ज थीं। एक जगह लिखा था-

तुम्हारा यह रूप देखने को मिलेगा मैंने सोचा भी नहीं था। मैंने कला के साधक से विवाह करने के लिए घर-बार छोड़ा था। लेकिन अब तुम पूरी तरह व्यापारी हो चुके हो। ऊपर से रेहाना। ठीक है, उसके कारण कला के बाजार में तुमको लाखों रुपए मिलने लगे हैं। मैं घर में चुपचाप बैठकर तमाशा नहीं देखने वाली। लेकिन क्या करूं, बच्चे बड़े हो रहे हैं…

दूसरे स्थान पर लिखा था- अब तुम पूरी तरह आजाद हो चुके हो। जमकर रेहाना के साथ पार्टियों में घूमो, अखबारों में तस्वीरें छपवाओ। चाहो तो उसे अफने साथ रख लो। बच्चे तो पहले ही बोर्डिंग स्कूल में पढ़ रहे हैं। एक मैं ही कांटे की तरह खटक रही थी। तो आपको बता दूं साहब, मेरा इंग्लैंड के मैनचेस्टर विश्वविद्यालय में पीएच.डी. कार्यक्रम में दाखिला हो गया है। मशहूर कला-विशेषज्ञ प्रो. बॉन के साथ काम करने का मौका भी मिल गया है। तुम्हारी कमाई में भी कोई खलल नहीं पड़नेवाला। दो साल का वजीफा भी मिल गया है…गुड बाई एंड टेक केयर…

क्या पता वापस लौटूं या नहीं।

जैसे जैसे इन पंक्तियों को नटराज पढ़ता जा रहा था, उसके दिल की धुकधुकी बढ़ रही थी। वहां कोई भी नहीं था, फिर भी वह उन पंक्तियों को पढ़ने के क्रम में इधर-उधर देखता भी जाता था कि कहीं कोई उसे देख तो नहीं रहा।

यह डायरी किसकी थी? कहीं ऐसा तो नहीं कि पुस्तकों के सप्लायर के यहां से गलती से पुस्तकों के साथ डायरी भी आ गई हो। लेकिन इसमें संदर्भ तो पेंटर महोदय का ही था।

दस सालों से वह पेंटर महोदय को जानता था। उनके दर्जनों इंटरव्यू ले चुका था। उन्होंने नटराज से यह वादा किया था कि जल्दी ही वे उसे अपनी जीवनी लिखने का मौका देंगे। लेकिन सचाई यह थी कि वह उनके निजी जीवन के बारे में कुछ खास नहीं जानता था। वह वास्तव में उतना ही जानता था जितना कि पेंटर महोदय उसे बताते थे…

तभी उसे ध्यान आया बरसों पहले एक इंटरव्यू में पेंटर महोदय ने उसेक एक सवाल के जवाब में कहा था कि वे अकेले रहते हैं।

उसके सामने सब कुछ साफ होने लगा। इन बीस दिनों में वह हजार से अधिक किताबों से गुजरा था। इनमें केवल हेमिंग्वे की किताबों में पढ़ने के निशान लगे थे और उन्हीं पुस्तकों के साथ उसे वह काली डायरी भी मिली। इसका मतलब यह हुआ, उसने सोचा, पुस्तकों का यह बंडल पेंटर महोदय की पत्नी का हो और गलती से उनकी यह डायरी भी उसी में रह गई हो।

पेंटर महोदय के जीवन का एक ऐसा अध्याय उसके लिए खुल चुका था। वह इतना बेचैन हो उठा कि कमरे में ही इधर से उधर टहलने लगा।

अंदर ही अंदर वह इस उधेड़बुन में था कि अगर यह डायरी वह अभी छिपाकर रख ले और बाद में किसी संग्रहकर्ता को बेच दे या किसी नीलामी करने वाली संस्था को बेच दे तो पैसों का उसके घर अंबार लग जाएगा। वह चाहे तो अपनी पहचान गुप्त भी रख सकता था। उसने पढ़ा था कि मरने के बाद किस तरह एक-एक पेंटर के हस्ताक्षर भी लाखों में बिक जाते हैं। जुराबें और रुमाल भी नीलामी में अच्छे पैसे दे जाते हैं। क्या यह उसके लिए खजाना साबित होने वाला है।

वह जो पिछले कुछ दिनों से समाचारपत्रों में छपने वाले राशिफल के कॉलम में अपनी राशि में भाग्योदय के संकेत बार-बार पढ़ रहा है, क्या इसी भाग्योदय का संकेत मेरी राशिफल में था…

कुछ वर्ष पहले उसने एक दिवंगत पेंटर से बातचीत का टेप कुछ हजार में ही सही, लेकिन एक बायर हाउस को बेचा भी था।

लेकिन इस खयाल पर यह खयाल हावी हो गया कि पेंटर महोदय ने उसे कितने अच्छे-अच्छे असाइनमेंट दिलवाए…कितनी हवाई यात्राएं करवाई, देश-विदेश की सैर करवाई…अभी आगे भी मौके मिलने ही वाले थे…और यह काम भी तो उन्हीं का है, जिसके लिए वह मोटी रकम देने वाले हैं।

यह सोचते ही उसे कुछ अपराधबोध सा होने लगा। उसने यह तय किया कि जाकर कल ही यह डायरी वह पेंटर महोदय को वापस कर देगा।

लेकिन इस सोच के भी खतरे हैं। डायरी न लौटाने पर तो हो सकता है कि उनको इस प्रसंग के बारे में कुछ भी पता न चल पाए। लेकिन डायरी लौटाने पर तो तो उनको यह भी पता चल जाता कि मैंने उसका मजमून पढ़ लिया है। पेंटर महोदय बड़े प्राइवेट किस्म के आदमी थे। उनके जीवन का इतना बड़ा राज किसी व्यक्ति पर खुल जाए इससे वे असहज हो सकते थे। हो सकता है कि उसके बाद पेंटर महोदय उससे दूरी बरतने लगें।

वह तय नहीं कर पा रहा था कि आखिर उस डायरी के कारण अपने जीवन में आए तूफान से कैसे मुक्ति पाई जाए।

इसके लिए पहला आवश्यक काम यह था कि जल्दी से जल्दी इस काम को निपटाया जाए। इस बंगले से निकला जाए।

उसके काम करने के रफ्तार में परिवर्तन आ गया। पहले वह किताबें अधिक पढ़ता, कैटलॉगिंग कम करता। अब वह कुतुब एंक्लेव के उस बंगले में दिन-रात कैटलॉगिंग के काम में जुट गया। लेकिन एक कुलबुलाहट-सी उसके अंदर बनी रहने लगी। अक्सर उसे काम करते-करते घबड़ाहट महसूस होने लगती। एक ऐसा राज था उसके पास जिसे वह किसी को बता भी नहीं सकता था।

उसे उस हजाम की कहानी याद आई जिसने बाल काटते वक्त राजा के सिर में सींग देख लिया था। उसकी ऐसी ही हालत हो गई थी, बल्कि और भी बुरी…ऐसी कि किसी को न बताता तो उसकी जान ही चली जाती…वौसे बताने पर भी जान का जाना पक्का था। आखिरकार,उसने एक पेड़ को यह कहानी सुनाकर इस कुलबुलाहट से मुक्ति पाई थी।

दिन-रात वह कैटलॉगिंग के काम में जुट गया। पांच हजार किताबें थी। कितना भी जल्दी करने पर समय तो लगना ही था।

उसने तय कर लिया था कि जिस तरह पेंटर महोदय की पत्नी गलती से डायरी वहां रखकर भूल गई थी, उसी तरह जाते समय वह भी इस डायरी को अपने घर में रख लेगा और भूल जाएगा। पेंटर महोदय के गुजर जाने के बाद वह इसे फिक्स्ड डिपॉजिट की तरह भुनवाएगा। न सही जवानी, बुढ़ापा तो अच्छी तरह कट जाएगा। वह भी अपने बुढ़ापे में ऐसा ही एक बंगला खरीदकर उसमें रहेगा। एक पुस्तकालय बनवाएगा, और घर में अलग से एक स्टडी भी। जहां बैठकर वह सुबह कम से कम पांच अखबार पढ़ेगा…तीन हिंदी के दो अंग्रेजी के। फिर दिन भर वह वहीं बैठकर दुनिया भर की किताबें पढ़ा करेगा…तब कमाने की चिंता से वह मुक्त हो जाएगा। उसे अपनी दादी की बात याद आई-पढ़ना-लिखना तो रईसों के शौक होते हैं।

आखिरी दिन महज 20 किताबें रह गई थीं। इसने दोपहर तक अपना काम पूरा कर लिया। अब उसे फिर से डायरी का ध्यान आया। आज डायरी ले जाने का दिन था। वह डायरी उठाने लगा कि उसे लगा कि हो न हो पेंटर महोदय को इस डायरी का पता हो, उन्होंने जान-बूझकर इसे उन किताबों के बीच रखवाया हो शायद… उसकी परीक्षा लेना चाहते हों।

उसमे एक बार बंगले का अच्छी तरह चक्कर लगाया। एक-एक कमरे को अच्छी तरह लॉक कर दिया। बाहर हॉल में आकर थोड़ी देर सोफे पर बैठ गया। फिर उठकर उसने एसी बंद कर दिया। उसने एक बार फिर उस हॉल, उन किताबों को देखा और बाहर निकल आया…बाहर दरवाजे को बंद करके वह गेट से बाहर निकल आया और फिर उसने गेट में ताला बंद कर दिया…

उसने गिनकर याद किया, पिछले एक महीने का अतीत वह ताले में बंद कर आया था। उसने टैक्सी रोकी और उसमें बैठकर पेंटर महोदय के यहां पहुंच गया। उनको उसने रजिस्टर देते हुए कहा,

इसमें हर पुस्तक के नाम के आगे उसका नंबर लिखा है। आपको जो भी पुस्तक मंगवानी हो,नंबर लिखकर किसी को भेज देंगे, शर्तिया वही पुस्तक लेकर आएगा।

उसे याद आया कि उस डायरी को उसने कोई नंबर नहीं दिया था। उसे वह वहीं हेमिंग्वे की किताबों के बीच छोड़ आया था। उस पूरी उम्मीद थी कि वहां उस पर किसी की नजर नहीं पड़ने वाली थी। उसने सोचा बाद में कभी इस प्रसंग के पुराने पड़ जाने के बाद वह पेंटर महोदय से चाबी मांगकर उस बंगले में जाएगा। जाएगा तो किताब लेने, मगर डायरी लेकर आ जाएगा…

पेंटर महोदय ने रजिस्टर को उलटते-पलटते हुए कहा- थैंक यू, वेरी मच और अंदर चले गए।

वह समझ गया कि चेक लाने गए होंगे। वह सचमुच चेक लेकर लौटे और उसने भी बिना देखे उसे अपने पेंटर की जेब में रख लिया।

एक बार देख तो लिजिए- पेंटर महोदय ने कहा।

कोई आवश्यकता नहीं- नटराज ने कहा।

उनसे विदा लेकर वह सीढि़यां उतर ही रहा था कि पीछे से पेंटर महोदय की आवाज आई- सुनिए, नटराज जी, आपकी डायरी छूट गई है।

डायरी- नटराज के चेहरे पर पसीना छलक आया था।

लौटकर देखा, उसी की डायरी थी, जो मेज पर रह गई थी।

धन्यवाद- कहकर वह तेजी से सीढि़यां उतरने लगा।

वह हेमिंग्वे और हिडेन फैक्ट के बारे में सोच रहा था।

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स्टोरीटेल पर शरत का श्रीकांत सुनते हुए

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स्टोरीटेल ऐप पर किताबों के सुनने के अनुभव पर युवा पढ़ाकू विनोद ने लिखा है- मॉडरेटर
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साउंड क्लाउड इंटरनेट पर ऑडियो का पुराना शग़ल रह गया।
श्रीकांत का बर्मा जाना प्रूस्त के ओपनिंग सीन से अधिक तीव्र नहीं भी है तो कमतर भी नहीं है दोनों भिन्न परिदृश्य …व्यक्तिगत तौर पर माँ के समीप अधजगे अधसोये दृश्य की सापेक्षता उतनी ही है। यह अनुमान के हवाले से।
कल्पनाओं का अपना आकाश है। बीते दिनों पुस्तकालय में मार्गरेट ड्यूरा के नोट्स और साक्षात्कार पढ़ते हुए जिसे स्टोरीटेल पर श्रीकांत या अन्य पुस्तकें सुनते हुए महसूस किया जा सकता है वो यूँ कि – ” हमारी निजी कल्पनाओं से हमारे मन पर छपी छापें इस कदर हमें मुग्ध रखती हैं कि जब तक उन कल्पनाओं के शिखर से तनिक ऊपर के दृश्यों की अनुभूति न हो तब तलक पढ़कर झने गए अपने ज़ाती दृश्यों के सौंदर्य से नहीं उबरते ।”
आप समझ रहे हैं न !
विश्व पुस्तक मेले से लौट आने के पश्चात वहां दिखा स्टोरीटेल का एक खोमचा लुभावना होने कारण याद रह गया और app तो अंततः इनस्टॉल होना ही था । शिड्नी शेल्डन की the sky is falling पढ़ी, बाद जिसके किन्हीं कारणों से कोई अन्य पुस्तक न सुन सका । एप भी भूल गया , टैब भी क्रैश कर गया। किंतु संतुष्टि थी कि नया कुछ पढाई में जुड़ा। पढाई नहीं दरअसल , ‘सुनाई’…हाँ यह उचित शब्द है।
दूसरी बार का अनुभव हाल का है और पिछली बार से कम संतोषजनक रहता किंतु श्रीकांत ने बचा लिया। इस दफा निर्मल वर्मा की ‘एक चिथड़ा सुख’ , ‘राग दरबारी’, ‘कसप’ और अब तक की आखिरी ‘श्रीकांत’ सुनी ।
श्रीकांत का अनुभव अत्यंत सुखदायी।
हिंदी की ऑडियो बुक्स पर वह काम थोड़ा सा चूकता है जहां हम ‘अन्यतम’ कह सकें किंतु वह डिजिटल प्रारूपों में  उपलब्ध हो रही हैं  इस तरह की आप गाड़ी चलाते हुए भी सुन लें खाना बनाते हुए भी सुन लें, यह भला कोई कम बात थोड़े न है!
साउंड क्लाउड का जिक्र उर हुआ है तो यह थोड़ा जानना बनता है कि साउंड क्लाउड नित नियमित अपने ऑडियो के पैटर्न में बदलाव लाते रहा है जैसे पहले साउंड क्लाउड में अपलोड हुई सीरीजों पर  बैकग्राउंड स्कोर काफी भद्दा होता था और भी कई बातें जो कि समय के साथ साथ सुधरती बदलती रहती हैं ही हर माध्यम पर।
स्टोरीटेल और साउंड क्लाउड के बीच चुनाव के भंवर पर मैं स्टोरीटेल की ओर पथ प्रशस्त करने का ही सुझाव दूँगा वजह है विशाल संग्रह खासकर किताबों में (जो कि साहित्यनुरागियों के हित में अधिक मायने रखता है) और साथ ही तमाम टीवी सीरिज, कॉमिक शोज वगरैह भी।
हिदायत यह कि पूर्व पठित पुस्तकें सुनने जैसी हरकत कदाचित न की जाए निराशा हाथ लगेगी और कुछ नया भी अर्जित न होगा। जहाँ तक मुझे श्रीकांत मोहित कर ले गया (यद्यपि वह पूर्व पठित ही था सुनी अन्य हिंदी किताबों की भांति) वह इस हिस्से का पाठ था :–
एके पदपंकज विभूषित , कंटक जर्जर भेल
तुया दर्शन आशे कछ नाहिं जान लूँ, चिर  दुख अब दूर भेल
तोहारी नुरली जब श्रवणे प्रवेशल
छोडनु गृहसुख आस
ओअन्तःक दुख तृणहू करि न गणनु
कह तंह गोविन्ददास

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अरुण प्रकाश की कहानी ‘भैया एक्सप्रेस’

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आज सुबह सुबह फेसबुक पर सत्यानंद निरूपम जी ने अरुण प्रकाश की कहानी ‘भैया एक्सप्रेस’ कहानी का जिक्र फेसबुक पर किया आर मुझे वह दौर याद आ गया जब उत्तर बिहार के गांवों से खेतिहर मजदूर ट्रेनों में बैठ-बैठकर पंजाब जाते थे, अधिक धन कमाने की आस में। ‘गंगा’ पत्रिका में इस कहानी का प्रकाशन हुआ था और बरसों इस कहानी के ऊपर बहस होती रही थी। यह कहानी अपने आप में विस्थापन का रूपक है, जितनी स्थानीयता है उतनी ही सार्वभौमता। इस कहानी को पढ़ते हुए अरुण प्रकाश जी को याद करते हैं जिन्होने कथानक नहीं दिये बल्कि हिन्दी कहानी को एक बड़ा मेटाफर दिया। यह कहानी राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित अरुण प्रकाश की ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’ में संकलित है- प्रभात रंजन

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इज ही ये भैया?

ट्रेन की रफ्तार तेज होती जा रही थी। दरवाजे से लटके रामदेव के लिए धूल भरी तेज हवा में आँख खुली रखना मुश्किल था। कब तक लटका रहेगा बन्द दरवाजे पर? रामदेव ने दरवाजे पर जोर से थाप मारी। उसके कन्धे से लटकता झोला गिरते-गिरते बचा।

कुछ देर बाद दरवाजा खुला। वह सँभलता अन्दर घुसा और दरवाजा भिड़ाकर डिब्बे के गलियारे में गमछे से मूँगफली के छिलके और सिगरेट के टोंटों को हटाने लगा। दरवाजा खोलनेवाले फौजी ने घृणा से मुँह बिचकाया ‘‘भैणचो…मरने चले आते हैं! ये रिजरवेशन का डिब्बा है। तेरा रिजरवेशन है?’’

रामदेव चुप! अठारह साल के साँवले, पतले रामदेव के लिए यह पहली लम्बी यात्रा थी। अब तक उसने तिलरथ के अगले स्टेशन बरौनी तक ही रेल यात्रा की थी। रिजरवेशन से उसका पाला ही नहीं पड़ा था। पहली दफा वह बिहार तो क्या अपने जिले से भी बाहर निकला था। अपने भाई विशुनदेव से उसने जरूर सुन रहा था कि पंजाब जाने में क्या-क्या परेशानी होती है। दिल्ली होकर पंजाब जाने में सुविधा होती है। और, आसाम मेल दिल्ली जाती है। बरौनी स्टेशन पर डिब्बे में लोग बोरे में सूखे मिर्च की तरह ठूँसे जाते थे। आखिर ट्रेन खुल गई तो जो डिब्बा सामने आया, उसी में दौड़कर लटक गया था।

‘‘टिकट है!’’ रामदेव ने बमुश्किल कहा।

‘‘टिकट होने से क्या होता है? यह रिजरवेशन का है, समझे?’’

अब रामदेव क्या करे, चुप, डरी आँखों से फौजी को देखता रहा। पुरानी बेडौल पैंट और हैंडलूम की बेरंग शर्ट पहनकर रामदेव अपने मुहल्ले में ही आधुनिक होने का स्वाँग कर सकता था। इस नई दुनिया में सारी चीजें अचम्भे से भरी थीं।

कुरते और शलवार में लिपटी, सामने के बर्थ पर लेटी औरत ने अंग्रेजी उपन्यास को आँखों के सामने से हटाया और उस फौजी से पूछा, ‘‘सिविल कम्पार्टमेंट इज लाइक धर्मशाला…इज ही ए भैया?’’

‘‘हाँ! लगता तो है!’’ फौजी भुनभुनाकर रामदेव की ओर मुखातिब हो गया, ‘‘तुमको कहाँ जाना है?’’

‘‘पंजाब।’’

रामदेव को लगा कि वह यहाँ बैठा रहा तो इन बड़े लोगों की नजर में चढ़ा रहेगा। वह उठा और बाथरूम के सामनेवाले गलियारे में अंगोछा बिछाकर झोले का तकिया बनाकर लेट गया। ट्रेन में घुसने से लेकर पिछले एक सप्ताह तक के दृश्य उसकी आँखों के सामने घूम गए।

दसवीं का इम्तिहान खत्म होते ही माई पंजाब जाने-आने के लिए पैसे का इन्तजाम करने लगी थी। गाँव का कोई आदमी मार-काट की वजह से पंजाब जाकर उसके भैया विशुनदेव को ढूँढ़ने को तैयार नहीं था। कई लोगों से मिन्नत करने के बाद, माई रामदेव को ही पंजाब भेजने पर तैयार हो गई। पैसों की समस्या साँप की तरह फन काढ़े फुँफकार रही थी। पुश्तैनी पेशा- अनाज भूनने में क्या रखा है? कनसार में अनाज भुनवाने लोग आते नहीं। मकई की रोटी अशराफ लोग खाते नहीं। दाल इतनी महँगी है कि लोग चने की दाल बनवाएँगे कि कनसार में चना भुनवाकर सत्तू बनवाएँगे? उस पर इतनी मेहनत गाँव के बगीचों, बँसवाड़ियों में सूखे पत्ते बटोरकर जमा करो, उसे जलाकर अनाज भूनकर पेट की आग ठंडा करो। किसी तरह एक शाम का भोजन जुट पाता। आखिर माई उपले थापकर, गुल बनाकर बेचने लगी थी। तब किसी तरह भोजन चलने लगा। लेकिन कोई काम आ पड़ता तो कर्ज लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता था। इस बार भी पंडितजी ने ही पैसों की मदद की। भैया की शादी में कर्ज बढ़ा तो मुश्किल हो गई। मूल तो मूल, सूद सुरसा की भाँति बढ़ने लगा। आखिर भैया को थाली-लोटा, कम्बल, वंशी लेकर कमाने पंजाब जाना पड़ा। वहाँ से वह पैसा भेजता तो माई सीधा पंडितजी को जाकर देती। कर्ज चुकने को ही था कि अचानक सबकुछ बन्द।

पंजाब में खून-खराबे की खबर मिलती तो माई के साथ-साथ रामदेव का भी दिल डूबता। माई को पड़ोसी ताने मारते। इतना ही दुःख था तो खून-खराबे में बेटे को कमाने पंजाब काहे भेजा? अगर विशुनदेव पंजाब नहीं जाता तो वे सब बेघर हो जाते। जनार्दन उनके घर की जमीन खरीदने की ताक में था। पंडितजी का तगादा तेज हो रहा था। घर ही बचाने-बसाने विशुनदेव को पंजाब जाना पड़ा था। बहू आती तो कहाँ रहती, क्या खाती? नई जिन्दगी के कोंपल को माई कैसे मसलने देती? भरे मन से माई ने विशुनदेव को पंजाब जाने दिया था। सब ठीक-ठाक होता जा रहा था कि अचानक सबकुछ बन्द।

लेटे-लेटे रामदेव ने कमीज की चोर जेबी में हाथ डाला। जेबी में रेलवे टिकट, भाई का पतावाला पोस्टकार्ड और पैसों को छूकर उसे इत्मीनान हो आया। झोले का तकिया ठीक से जमाकर उसने आँख बन्द कर सोने की कोशिश की। ट्रेन की खटर-पटर, गलियारे में फैली बदबू थी ही। डर भी था और इतना था कि नींद में भी पंजाब-सी उथल-पुथल थी।

विशनदेव! ऐ विशनदेव!

भैया पंजाब से पिछली दफा लौटा तो वहाँ के किस्से खूब सुनाता था। माई भी रोज रात उससे पंजाब के बारे में पूछती थी।

‘‘रोटी खाने? भात नई मिलै छौ?’’

‘‘माई, ऊ लोग सब खाना के रोटी कहै छै! इ बड़का गिलास में चाह! ओह चाह हिया कहाँ?’’

‘‘मर सरधुआ! चाह त हियैं बनबे करेइ छै!’’

‘‘नइगे माई, ऊ सब बनिहारवाला चाह में हफीम के पानी मिलाय दै छै, वैइसे थकनी हेंठ भे जाइछै! अ बनिहार लोग खूब काम कइलक।’’

‘‘कत्ते देर काम करै छहि?’’

‘‘सात बजे भोर सै छः बजे साँझ तक! बीच में रोटी खाइके छुट्टी- एक घंटा।’’

‘‘सब ताश खेललक, हम्में अपनी बंसुरी- बंजइलौं। हमर मलकिनी ठीक छौ। हाँक पारतौ- ए विशनदेव! ए विशनदेव! मलकिनी कै हमर बांसुरी बजेनाई खूब नीक लगैइछै! विद्यापति, चैतावर सुने लेल पागल। पढ़लो छै गे माई

बी.ए. पास!’’

‘‘खूब सुखितगर मालिक छौ?’’

‘‘खूब कि फटफटिया, ट्रैक्टर, जीप, महल सन घर। दूगो बेटा। दिल्ली में नौकरी में लागल, टीभी से हो छै!’’

‘‘उ कथी?’’

‘‘जेना रेडियो में खाली गाने बोलई छै ने, टी.भी. में गाना के साथ-साथ सिनेमा एहन फोटूओ देखेवई छै!’’

‘‘मालिक मारै-पीटे त नईं न छौ!’’

‘‘कखनो-कखनो, गाली हरदम भेनचो…भैनचो बकै छै।’’

‘‘की करभी, पैसा कमेनाइ खेल नई छै। मन त नई लागै होतौ?’’

‘‘गरीब नईं रहने माई, पंजाब कहियो नईं जैति अइ रे इ पैसा…’’

विशुनदेव का गौना सामने था। खर्चा जुटाने उसे दूसरी बार भी पंजाब जाना पड़ा। अपने इलाके में न सालों-भर मजदूरी का उपाय, और मजदूरी भी पंजाब से आधा। विशुनदेव पंजाब से थोड़ा भविष्य लाने गया था।

रात में कोई गाड़ी पंजाब नहीं जाती

नियॉनलाइट से जगमगाती नई दिल्ली स्टेशन के प्लेटफार्म पर उतरते ही उसे लगा कि इतने लोगों के समुद्र में वह खो जाएगा। भीड़, धक्कम-मुक्का, अजनबी लोग और इतनी रोशनी! उसने अपने सीने को कसकर दबा लिया ताकि टिकट, पैसा और पता वाला पोस्टकार्ड कोई मार न ले। वह ठिठक गया, पता नहीं गेट किधर है। आखिर भीड़ में वह घुस गया। ओवर ब्रिज पारकर स्टेशन के बाहर आ गया।

बाहर टैक्सी, कार और थ्री व्हीलर की कतारें। रात का समय। सबकुछ स्वप्न-लोक-सा था जैसा उसने हिन्दी फिल्मों में देखा था। आसाम मेल रास्ते में ही पाँच घंटे लेट हो गई थी। उसे मालूम था कि दिल्ली से ट्रेन या बस से उसे अमृतसर जाना पड़ेगा। वह मुसाफिरखाने की ओर बढ़ा। पंजाब जानेवाली गाड़ी के बारे में किससे पूछे, सब तो अफसर की तरह लग रहे थे। मुसाफिरखाने के एक कोने में कुछ साधारण मैले-कुचैले कपड़ों में थकी-बुझी आँखोंवाले लोग टिन की बदरंग पेटियों के पास बैठे थे। उन्हीं की तरफ बढ़ा।

‘‘ऊ सामनेवाली खिड़की पर जाकर पूछो!’’

खिड़की पर कई लोग जमे थे। जब लोग हटे तो उसने बाबू से पूछा।

‘‘बाबू, अमृतसरवाली चली गई?’’

‘‘हाँ!’’

‘‘अब दूसरी गाड़ी कब जाएगी।’’

‘‘अब तो भैया, कल जाएगी!’’

‘‘इ तो बड़ा स्टेशन है?’’

‘‘आजकल रात में कोई गाड़ी पंजाब नहीं जाती।’’

वह मुड़ा, तो बाबू भी अपने दोस्त से बात करने लगा।

‘‘सारे हिन्दुस्तान को पता है, रात में कोई ट्रेन पंजाब नहीं जाती फिर भी पूछ रहा था!’’ बाबू के दोस्त के स्वर में उपहास था।

‘‘बिहारी भैया था!’’ बाबू फिस्स से हँस पड़ा।

‘‘जलंधर, लुधियाने, सारे पंजाब में ये लोग भरे हैं।’’

‘‘अरे बिहार से आनेवाली गाड़ी को पंजाब में भैया एक्सप्रेस कहते हैं! उस तरफ हर गाड़ी में ये लोग ठुसे रहेंगे।’’

‘‘वहाँ इन्हें काम नहीं मिलता?’’

‘‘काम मिलता तो पंजाब थोड़े ही मरने जाते! भूख थोड़े ही रुकती है, इसलिए भैया एक्सप्रेस चलती रहेगी…सरकार की पटरी, सरकार की गाड़ी सब है ही!’’

घर पंजाब हो गया है

‘आजकल’ रामदेव के लिए बड़ा शब्द है।

पिछले चार महीने सोते-जागते पहाड़ की तरह गुजरे। भैया कैसा होगा? पंजाब में बहा खून का हर कतरा, वहाँ चली हर गोली माई को लगती। रेडियो विशुनदेव का हाल-चाल थोड़े ही बोलेगा। माई फिर भी पंडितजी के यहाँ रेडियो सुन आती। वह भी चाय की दुकान पर अखबार पढ़ आता। रजिस्ट्री चिट्ठी लौट आई तो माई रात-भर रोती रही। बेगूसराय जाकर उसी पते पर तार भिजवाया लेकिन कुछ नहीं पता चला। माई मन्नतें माँगती, पंडितजी के पंचांग से शगुन निकलवाती, रो-धोकर उपले-गुल बेचने फर्टिलाइजर टाउनशिप निकल जाती। इतनी मेहनत पर मौसी टोकती तो माई का एक ही जवाब होता, ‘‘एगो बेटा पंजाब में, इ रमूआ पढ़ लिय जे एकरा पंजाब नईं जाए पड़ैय।’’

भौजी के यहाँ से अक्सर पुछवाया जाता- कोई खबर मिली? माई को लगता- शादी टूट जाएगी। कोई कब तक जवान बेटी को घर बिठाए रखेगा। माई को लगता, बेटे का पता नहीं, पतोहू छूट रही है। कोशिश करती कि किसी तरह बिखरते घर को आँचल में समेटे रहे।

‘‘रमुआ से पुतोहू के बियाह के देबैई,’’ माई से यह सुनते ही रामदेव शर्म से काठ हो गया था। भौजी की साँवली, निर्दोष, बड़ी-बड़ी आँखोंवाला चेहरा उसके सामने घूम गया था। अशराफ के घर में ऐसा होगा? शादी के बाद भैया पंजाब से लौट आया तो? माई पागल है!

लेकिन माई ने हारना नहीं सीखा था। जो कुछ बचा था, उसे छाती से चिपकाए रहना चाहती थी। एक चक्कर डाक बाबू के यहाँ लगा लेती। ‘‘लोभ में बेटे को पंजाब भेज दिया, अब काहे को रोज चिट्ठी के लिए पूछती हो?’’ पोस्टमैन उसे झिड़क देता।

माई का सूखता शरीर, पंडितजी का सूद, जनार्दन का मंसूबा, भौजी की उदासी, भाई के जीवन का संशय, रोज की किचकिच, माई का रुदन…रामदेव को लगता- घर पंजाब हो गया है। रात-रातभर सो नहीं पाता। पढ़ता-लिखता क्या खाक! बस एक चीज काबिज थी- पंजाब!

खून की तरह जमा शहर

अमृतसर आते-आते बस में यात्रियों की बातचीत सुनते-सुनते मन में ऐसा डर बैठ गया कि वह बस से भी डरने लगा।

बस से उतरते-उतरते फैसला ले लिया- जो भी हो, जैसे-जैसे रात अमृतसर के बस अड्डे पर काट लेगा लेकिन बस से अटारी नहीं जाएगा। साढ़े छह बजे शाम से ही बस अड्डे पर हड़बोंग मची थी। सबको ऐसी जल्दी थी कि जैसे बाढ़ में बाँध टूट गया हो और सब जान बचाने के लिए भाग रहे हों। दुकानें फटाफट बन्द हो रही थीं। ठेलेवाले अपनी दुकानें बढ़ा रहे थे। खाली बसों के ड्राइवर-खलासी पास के ढाबों में जल्दी-जल्दी खाना खा रहे थे। ढाबे के मालिकों को भी जल्दी थी। इसीलिए उनके नौकर भी रेस के घोड़ों की तरह हाँफ रहे थे। सबको एक ही डर था…सात बजे कर्फ्यू लगनेवाला था।

रामदेव ने मूँगफलीवाले का अक्षरशः अनुसरण किया। अपना सत्तू घोलकर पी गया और उसी के साथ लेट गया। मूँगफलीवाला राँची का ईसाई आदिवासी था। तीन साल पहले घर से भागकर यहाँ आया था। चेहरे पर बढ़ी दाढ़ी और सिर पर गमछे का मुरैठा से उसके सरदार होने का भ्रम होता था। हँसता तो चमकीले दाँत मोतियों की तरह जगजगा उठते। निष्पाप आँखें छलछला आतीं। जेम्स ‘अपने देस’ के रामदेव जैसे आदमी से मिलकर खुश हो गया था। दोनों गठरी की तरह कोने में दुबके थे। और भी बहुत गठरियाँ थीं। गुमसुम!

कर्फ्यू लग चुका था।

चादर की ओट से रामदेव ने झाँककर देखा। बाहर सब कुछ थमा था। ईंजन की तरह दहाड़ता बस अड्डा लाश की तरह खामोश था। न पंछी, न हवा, न कोई पत्ता हरकत कर रहा था। चीख भी निकलती तो डर से बर्फ हो जाती। चलती गोली हवा में थम जाती। पृथ्वी का घूमना जैसे बन्द हो गया था। साँसें बेआवाज चल रही थीं। मच्छर थे कि गलीज में बेफिक्री से भिनभिना रहे थे।

सन्नाटे में ही वर्दीवालों से भरी एक जीप गुजर गई। रामदेव को लगा कि गरदन पर से कोई धारदार चाकू गुजर गया। ‘‘इधर में ऐसा ही होता है।’’ जेम्स फुसफुसाया, ‘‘चुप सो जाओ, पेशाब करने भी मत जाना।’’ रामदेव सोने की कोशिश करने लगा। दिन-भर की थकान के बावजूद उसे नींद नहीं आ रही थी।

रात के कोई ग्यारह बजे बस अड्डे पर जैसे कहर टूट पड़ा। वर्दीवाले सबों को बूट की ठोकरों से जगा रहे थे। पचास सवाल। कहाँ से आए हो? क्या मतलब है? डर से कोई हकलाया तो लात, घूँसे, बन्दूक के कुंदे से ठुकाई। तीन नौजवान सरदारों को घसीटते हुए ले गए। बिहार का नाम सुनकर वे आगे बढ़ गए थे। रामदेव फिर भी थर-थर काँपता रहा। जेम्स फिर सो गया जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। लेकिन रामदेव के कानों में उन तीन नौजवानों की चीख जिद्दी मधुमक्खी की तरह भनभनाती रही। रफ्ता-रफ्ता सब चीजों की आदत हो जाती है। सो धीरे-धीरे शहर भी खून की तरह जम गया।

अग्गे पाकिस्तान है!

स्टेशन पर टिकट लेकर बैठा तो उसे कुछ इत्मीनान आया। उसने अपनी जेब से मुड़ा-तुड़ा, बदरंग पोस्टकार्ड निकाला और पता पढ़ने लगा- विशुनदेव, इन्दर सिंह का फारम, गाँव रानीके, भाया अटारी, जिला अमृतसर (पंजाब)। पढ़कर उसने सामने बैठे बुजुर्ग सरदार की ओर बढ़ा दिया ताकि वह रानीके जाने का रास्ता बता दे।

सरदारजी ने अफसोस में सर हिलाया और कहने लगे, ‘‘मैं हिन्दी पढ़ना नहीं जानता। सारी उमर उर्दू पढ़ी है। बस हिन्दी समझ लेता हूँ। बता क्या है?’’

‘‘मुझे रानीके अटारी गाँव जाना है। अनजान आदमी हूँ। बिहार से आया हूँ।’’ रामदेव का संकोच सरदारजी की आत्मीयता से घुल गया और उसने पूरा पता पढ़ लिया।

‘सन्तोख सिंहवाला रानीके? अग्गे अटारी स्टेशन आऊँगा, तू उत्थे उतर जाणा। बाहर टाँगेवाले नूँ पुच्छ लईं। तू तो मुंडा-खुंडा है, पजदा-पजदा दो मील चला जाएगा। अच्छा सुण, अंबरसर दे बाहर बुर्जावालियाँ दी बस जांदा, तू सीधा रानीके उतर जाणा सी। गां दे बाहर ही सन्तोख सिंह दा दो मंजिली कोठी नजर आऊँगा। उत्थे पुच्छ लेणा। सामने इन्दर सिंह दा फारम है।’’

रामदेव इतना ही समझ पाया कि अटारी स्टेशन से दो मील पर रानीके गाँव है। गाँव के बाहर सन्तोख सिंह की दो मंजिली कोठी है। उसके सामने इन्दर सिंह का फारम है।

‘‘एन्नी दुरो कल्ला किंदा आ गया? बिहार के हो कि यू.पी. के?’’

‘‘बिहार। रानीके गाँव भाई को खोजने जा रहा हूँ।’’

‘‘तेरी तो मूँछें भी नहीं फूटी हैं? पुत्तर हिम्मत ही इंसान दा नाम है।’’

गाड़ी रुकते ही ‘अच्छा’ कहकर बुजुर्ग उतर गए। रामदेव उन्हें जाते, खिड़की से, देखता रहा। गाड़ी खिसकी तो टिकट-चेकर सामने था।

‘‘टिकट?’’ चेकर ने यान्त्रिक लहजे में पूछा।

‘‘अटारी कितने स्टेशन है?’’ रामदेव टिकट थमाते हुए पूछ बैठा।

‘‘पहली बरां आया तू? अगला स्टेशन है। उत्थे उतर जाणा, अग्गे पाकिस्तान है!’’ चेकर टिकट पंच कर आगे बढ़ गया।

रामदेव सन्न! कहाँ आ गया? पाकिस्तान!

स्वेरे देखेंगे

क्रीच…क्री…च। गाड़ी रुक गई। उतरकर स्टेशन के गेट की तरफ बढ़ा। बाहर निकलते ही ताँगेवाले ने उससे पूछा, ‘‘पाकिस्तानी गाड़ी है जी? टेम तो उसी का है।’’ उसने भी पलटकर पूछ लिया, ‘‘रानीके गाँव कौन-सी सड़क जाती है?’’

‘‘सीधी सड़क जाती है…आगे भी पूच्छ लेणा।’’

सूरज सर पर चढ़ गया था। तेज चलने की वजह से वह पसीने-पसीने हो रहा था। पर मंजिल पर पहुँचने की खुशी ने उसे बेफिक्र कर दिया था। सड़क के किनारे गेहूँ के कटे, नंगे खेत थे। उसके गाँव की तरह ही थोड़ा तिरछा, औंधा, साफ आसमान था। हवा सोई हुई थी, गर्म बगूले सीधा उड़ते और सूखे पत्तों, धूल को ले उड़ते। सुनसान सड़क पर दूर-दूर तक कोई राही नहीं था। चारों तरफ तापमान का राज था। रामदेव का ध्यान भाई विशुनदेव की तरफ था। रोज-रोज के कर्फ्यू में चिट्ठी कैसे पहुँची। भैया भी चिट्ठी का इन्तजार करता होगा। भैया उसे देखते ही लिपट जाएगा। वह भी आँसू नहीं रोक सकेगा। भैया तिल का लड्डू देखते ही खिल जाएगा। लेकिन भैया…उससे पहले खाने-पीने को पूछेगा। भैया घुमा-फिराकर भौजी के बारे में भी पूछेगा। भाई से जनार्दन से बदला लेने के लिए जरूर कहेगा…

उसे सामने सड़क के किनारे दो मंजिला मकान दिख गया। एक सरदारजी आगे-आगे जा रहे थे। उसने अपनी चाल तेज कर दी।

‘‘भाई-साहब, इन्दर सिंह का फारम किधर है?’’ उसने पास पहुँचकर पूछा।

‘‘किसनू मिलना? तू आया कित्थों?’’ सरदारजी ने खुलासा ही पूछ लिया। पर रामदेव की समझ में ठीक से न आ पाया।

‘‘विशुनदेव, बिहारी।’’ रामदेव अटपटाकर बोला।

‘‘बात तो पल्ले पैदी नई, चल सरपंच सरूप को चल, उत्थे जाके गल करी,’’ सरदारजी ने उसे पीछे-पीछे आने का इशारा किया।

परेशान रामदेव उसके पीछे-पीछे बढ़ता गया। कुछ दूर जाकर, पुरानी ईंटोंवाले महलनुमा घर के सामने जाकर दोनों रुक गए। रास्ते में सरदारजी ने उसका नाम पूछ लिया, अपना नाम भी बता दिया- किरपालसिंह। किरपालसिंह ने आवाज दी।

‘‘सरपंजी, सरपंचजी, थल्ले आओ? एक परदेशी बन्दा आया!’’ कुरता-पजामा पहने एक लम्बा-तगड़ा गोरा-चिट्टा आदमी बाहर आया। उसके चेहरे पर हल्की नुकीली-काली मूँछें सज रही थीं। किरपालसिंह को देखकर मुस्कुराया और उसका हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचने लगा।

‘‘किरपाल्या, ऐ बन्दा कोनी? इनु कित्थो फड़के ले आया?’’

‘‘सरपंचजी, मैं कित्थों ले आऊँगा? ए बन्दा केहदी खोजथ आया। बोल्दा हिन्दी, तुसी समझ लो! गल-बात कर लो!’’

सरपंच सरूप रामदेव की ओर मुड़ा, उसे गहरी नजरों से देखा।

‘‘काका, क्या बात है?’’

‘‘मेरा भाई विशुनदेव इन्दर सिंह के फारम पर काम करता है। बहुत दूर बिहार से आया हूँ। ये चिट्ठी है।’’ रामदेव ने कार्ड सरपंच सरूप के हाथ में थमा दिया। सरपंच सरूप ने पोस्टकार्ड उलट-पुलटकर पढ़ा और रामदेव को वापस थमाते बोला, ‘‘पता तो ठीक है।’’

‘‘किरपाल्या, देख पाई दी खिंच एन्नी दू ले आई…अरे याद आया। एक बिहारी मुंडा इंदर दे फारम ते देख्या सी…चल तुझे इंदरसिंह के पास ले चलता हूँ।’’ सरपंच सरूप आगे बढ़ा।

रामदेव उसके पीछे चला। किरपाल सिंह ‘अच्छा’ कहकर अपनी राह

चला गया।

तेज धूप में चलते दोनों पास ही इंदरसिंह के फार्म पर पहुँचे।

‘‘स-सिरी अकालजी!’’ महिला ने शालीनता से कहा।

सरपंच ने सिर हिलाया।

‘‘स-सिरी अकाल! इंदरसिंह कहाँ गया?’’

‘‘वो तो कल सवेरे आएँगे जी। अंबरसर में कुछ काम था।’’

‘‘ये मुंडा अपने भाई से मिलने आया है। इसका भाई तेरे फारमदा काम करता है…क्या नाम बताया?’’

‘‘विशुनदेव,’’ रामदेव ने साफ-साफ लहजे में कहा। उसके चेहरे से उत्सुकता का लावा जैसे फूट पड़ना चाहता था। महिला ने उसे गौर से देखा।

‘‘विशुनदेव! इस नाम का एक भैया तो था जी, तीन महीने कपूरथले लौट गया। पिछले साल उसे हम अपने मामाजी के पास से लाए थे।…इस साल भी बिहार से आया, पर बोलता था- दिल नई लगता, तीन महीने पहले कपूरथले लौट गया।’’

सरपंच सरूप ने रामदेव की ओर देखा। उसे लगा कि अब रामदेव रो देगा।

‘‘देखो मनजीत कौर!’’ सरपंच सरूप ने आजिजी से कहा, ‘‘लड़का बिहार से आया है, परेशान है…इसके पास तेरा ही पता है।’’

‘‘सरदारजी के आने से बात कर लेणा जी, ज्यादा वही बतलाएँगे!’’ कहकर मनजीत कौर मुड़ गई।

‘‘चल मुंडा! मेरे यहाँ ही रोटी-पानी कर लेना। स्वेरे देखेंगे!’’

बाँसुरी क्या बोलती है?

रात धमक आई थी। दालान पर किरपालसिंह और सरपंच सरूप बातें कर रहे थे। घूम-फिरकर बात पंजाब के हालात पर ही चलती। अखबार, रेडियो के हवाले अफवाहों का विश्लेषण चल रहा था।

दालान के किनारेवाली तख्त पर लेटा, चादर से मुँह ढँके रामदेव के सामने विशुनदेव का चेहरा बार-बार कौंध रहा था। उसे रह-रहकर रुलाई आ रही थी। सरदारनी पहले तो अच्छे से बोली पर विशुनदेव का जिक्र आते ही साफ मुकर गई- सरदारजी से बात कर लेना। अगर विशुनदेव तीन महीने पहले कपूरथले चला गया तो वहाँ से चिट्ठी जरूर लिखता। जेल में भी होता तो वहीं से लिखता। दो सौ रुपए में वह अपने भाई को कहाँ-कहाँ खोज पाएगा? कहीं भैया…आखिर रुलाई फूट पड़ी। हिचकियाँ, नाक से बहता पानी और खाँसी ने भेद खोल दिया।

किरपालसिंह लपका और रामदेव को झकझोरकर पूछने लगा, ‘‘ए मुंडा, ए मुंडा…सरपंचजी देखो!’’

सरपंच सरूप भाँप गया। वह उठकर रामदेव के पास आया और दिलासा देने लगा, ‘‘देखो भाई, कल इन्दरसिंह से साफ-साफ तेरे भाई का पता पूछ लेंगे। रुपए-पैसे की जरूरत हुई तो दे देंगे! तू कपूरथले जाकर भाई से मिल लेना। क्यों किरपालसिंह?’’

‘‘हंजी, मुंडे नू मदद जरूर करनी चाहिए। से ग्रीब लोग हैं…’’

कब रात गुजर गई, सोचते-सोचते रामदेव को पता ही नहीं चला।

सरपंच सरूप को देखते ही इन्दरसिंह चिल्लाया, ‘‘आओ महाराज! मनजीत कौर कह रही थी उस बिहारी मुंडे के बारे में। मैं अंबरसर चला गया था। दोनों पुत्तरों पर दिल लगा रहता है। रात जाकर टेलीफोन से बात हुई। जी को चैन आया। स्वेरे वहाँ से चला। बस समझो अभी आ ही रहा हूँ…मैं भी मूरख! चलो, अन्दर बैठते हैं।…कुछ चाय-साय भिजवाना,’’ कहकर इन्दरसिंह शुरू हो गया, ‘‘हंजी, लड़का बड़ा भला था। पिछले साल भी मेरे पास था। इस साल आया तो उखड़ा-उखड़ा रहता। दिल नहीं लगता था। टिक नहीं पाया। चल दिया। कपूरथले मनजीत के मामा के यहाँ गया होगा। ऐसा ही बोल रहा था। दो महीने हो गए…अब आप कहो तो इस मुंडे को खर्चा- पानी दे दूँ।’’

इन्दरसिंह की वाचालता से सरपंच सरूप शक में पड़ गया। कल मनजीत कौर कह रही थी, लड़के को गए तीन महीने हुए। यह कहता है दो महीने हुए। और यह वह खर्चा-पानी क्यों देना चाहता है?

‘‘इन्दरसिंह, लड़का जिन्दा है या नहीं?’’ सरपंच ने सधी आवाज में पूछा।

‘‘इन्दरसिंह के चेहरे पर जैसे स्याही पुत गई। रामदेव का जी धक्क! इन्दरसिंह जबरन अपने चेहरे पर काइयाँ मुस्कुराहट लाता बोला, ‘‘मरने की बात कहाँ से आ गई?…लड़का जरूर जिन्दा होगा जी। कपूरथले होगा या और कहीं चला गया होगा! भैया लोगों का क्या ठिकाना? आज यहाँ काम किया, कल वहाँ…’’

सरपंच सरूप के पीछे खड़ा रामदेव सिसकियाँ लेने लगा। मनजीत कौर चाय की ट्रे लेकर कमरे में घुसी। रामदेव को रोता देखकर, पल-भर के लिए ठिठक गई। मनजीत कौर ने गहरी नजरों से पति को देखा और उसके होंठ भिंच गए। यन्त्रवत ट्रे को सेन्टर टेबुल पर रख, तेजी से मुड़कर अन्दर चली गई।

सरपंच को साफ लगा कि इन्दरसिंह झूठ बोल रहा है। मनजीत कौर भी छिपा रही थी। ऐसा झूठ बोलने की जरूरत क्या है? विशुनदेव जिन्दा नहीं है। सरपंच की आत्मा पर ठक से हथौड़े जैसी चोट लगी, वह गुस्से से तिलमिला उठा।

‘‘साफ बता इन्दरसिंह, विशुनदेव जिन्दा है या नहीं। जिन्दा है तो उसका पता दे!’’

‘‘कह तो दिया, वह यहाँ से चला गया। जिन्दा ही होगा।’’

‘‘इस लड़के पर रहम कर। इतनी दूर से आया है। झूठ बोलने से क्या फायदा?’’

‘‘ओय सरूपे, तू मुझे झूठा कहेगा?’’ इन्दरसिंह भड़क उठा, ‘‘सरपंच से हार गया तब भी अकड़ नहीं गई। तू होता कौन है जो मुझसे पूछने चला आया? मैं तुझे कुछ नहीं बताऊँगा! बड़ा आया है लड़के की तरफदारी करनेवाला!’’

सरूप अवाक! रामदेव फुक्का मारकर रो पड़ा। अचानक रामदेव उटा और इन्दरसिंह के पाँव पर गिर पड़ा!

‘‘मालिक!’’ रोता रामदेव चीखने लगा, ‘‘बता दीजिए मालिक मेरा भैया कहाँ है?…बहुत उपकार होगा मालिक! बता दीजिए मालिक…मालिक…’’

‘‘तू पत्थर है…इन्दरसिंह!’’ सरपंच सरूप घृणा से उफन उठा, ‘‘लम्बा-चौड़ा फारम, इतना पैसा, पर इन्सानियत जरा भी नहीं…परदेशी की मदद तू नहीं कर सकता…खैर…चल मुंडे!’’

सरपंच सरूप उठ खड़ा हुआ। आगे बढ़कर रामदेव को झकझोरकर उठाया।

‘‘भाई साहब रुकना!’’

अन्दर से मनजीत कौर की तेज आवाज आई। दरवाजे से ही मनजीत कौर ने एक झोला सरपच के पाँव के पास फेंका! उफनती मनजीत कौर पर जैसे दौड़ा पड़ गया हो!

‘‘ये विशनदेव का सामान है!…वह दुनियाँ में नहीं है!’’ कहते-कहते मनजीत कौर फूट-फूटकर रोने लगी। हिचकियों के बीच उसने कहा, ‘‘मुझसे बोलकर गया कि अंबरसर से घरवालों के लिए कपड़े लेने जा रहा हूँ, देस जाना है। अंबरसर से लौटकर आता तो यहाँ से पैसे लेकर जाता…तीन बजे दिन में गया। बस बिगड़ने से शाम हो गई। छेड़हट्टा के पास रोककर मार-काट हुई…उसी में…’’

गूँगे रामदेव की आँखों से आँसू लुढ़क रहे थे। सरपंच सरूप मनजीत कौर की बात सुनकर स्तब्ध था और अपराधी की तरह इन्दरसिंह की आँखें फर्श में गड़ी हुई थीं।

‘‘मैं तीन दिनों तक रोती रही…मेरे भी बेटे हैं…ये फँस जाने के डर से बात छिपा रहे थे। कल रात-भर हम दोनों झगड़ते रहे- छिपाना क्या, वह भी किसी का बेटा है, भाई है…कल मैं भी झूठ बोली…हमें माफ करो सरपंचजी!’’ मनजीत कौर के अन्दर बैठी माँ ने उफान मारा। उसने आगे बढ़कर रामदेव को छाती से लगा लिया। अपनी ओढ़नी से उसके आँसू पोंछने लगी।

बीच में पड़े विशुनदेव के झोले से उसकी बाँसुरी झाँक रही थी। सब चुप थे। आँसू की तरह बाँसुरी भी जैसे कुछ बोल रही थी। बाँसुरी क्या बोल रही थी, कोई समझ नहीं पाया…

तू यहाँ कब तक भुगतता रहेगा?

देर तक उस दिन नहर के किनारे बैठा रहा। नहर का कलकल पानी, आजाद हवा…सब बेकार! सरपंच के घर की तरफ चल पड़ा। कल उसे रुपए मिल जाएँगे- दो हजार। सरपंच साहब उसे अमृतसर में दिल्लीवाले बस में बिठा देंगे। अमृतसर के लिए आज उनको याद दिला देनी चाहिए। वह सोचता आगे बढ़ा जा रहा था कि फौज की तीन जीपें गुजरीं। लाउडस्पीकर से पंजाबी में कुछ घोषणा की जा रही थी। थोड़ी दूर और गया कि और तीन जीपें गुजरीं। रामदेव घबरा गया। जल्दी-जल्दी सरपंच के घर की ओर बढ़ने लगा।

सरपंच के घर के पास पहुँचकर वह हाँफ रहा था।

‘‘सरपंच साहब, पाकिस्तानी फौज घुस आई क्या?’’

‘‘नहीं, काका,’’ सरपंच सरूप ने लम्बी साँस ली, ‘‘अपनी फौज है…यह बहुत बुरा हुआ!’’

‘‘क्यों?’’ रामदेव ने हौले से पूछा।

‘‘तुम क्या समझो। हम बार्डर के लोग समझते हैं! फौज आती है, जाती है…पर जो ख्शलिश छोड़ जाती है, उसका कोई इलाज नहीं!…चल इन्दरसिंह के पास चलते हैं!’’

फँसे रामदेव के लिए कोई उपाय नहीं था। टी.वी. पर जालंधर, लाहौर की खबरें सुनते-देखते रहो। कुछ मालूम नहीं, कहाँ क्या हो रहा है। पूरे पंजाब को जैसे सुनबहरी हो गया हो। बाघा, अटारी जैसे फौजी छावनी बनी थी। घरों में चीख डर से दुबकी पड़ी थी। हवा की भी तलाशी चल रही थी। घृणा के अंधड़ में मौन ही पत्तियों की भाषा थी। परिन्दे की तरह अफवाहें उड़तीं। मौत की खबर चीख भी नहीं बन सकती थी। लोग कबूतरों की तरह दुबके रहते। रात भी जगी रहती। हरी वर्दी में लोग सन्नाटे को कुचलते रहते।

तलाशियों ने मालकिन को तोड़ दिया था। इन्दरसिंह टी.वी. के पास

बैठे रहते। बीच-बीच में रेडियो पर भी खबरें सुनते। रामदेव मालकिन की मदद रसोई में जाकर कर देता। रोना एक सिलसिला बन गया था। सरपंच जी ढाढ़स देने आए।

‘‘किरपाल का भाई अंबरसर में सेवादार था…किरपाल सब्र कर सकता है! दिल्ली में सब ठीक-ठाक है, आखिर राजधानी है। तू नाहक परेशान है मनजीत कौर! हिम्मत रख!’’

‘‘कैसे चुप हो जाऊँ! एक फूल टूटता है तो हर पत्ता रोएगा…उस पार के गोले दगते थे तो हमारे में जोश होता था। अब तो इधर से ही…कोई इस बार उन्हें बेटों की तरह कलेजे में क्यों नहीं लगाता?…जिनकी देख हिम्मत होती थी, वही हमें डराते हैं। बस अब तो वाहे गुरु का आसरा है!’’ रामदेव को रोती-कलपती मनजीत कौर माई की तरह लगी। दिल्ली में बसे उनके दोनों बेटों का क्या हुआ होगा?

तूफान की तरह गुजरे वे दिन। बारह दिन बाद कर्फ्यू खुला तो आशंका की तेज बयार थी। किसका, कौन मरा, कहाँ चला गया? आखिर इन्दरसिंह ने कहा, ‘‘अंबरसर जाना है, तू यहाँ कब तक भुगतता रहेगा?’’

सफर तमाम नहीं

मलवे के शहर अमृतसर में आतंक का तना हुआ छाता था। आँखों के दिए बुझे-बुझे थे। मरघट-सा सन्नाटा। बस की आरामदेह सीट पर बैठा रामदेव खिड़की से चेहरा सटाए बाहर देख रहा था। इन्दरसिंह और सरचंप सरूप नीचे खड़े थे। हचके के साथ बस आगे बढ़ी। रामदेव ने झट हाथ जोड़ दिए।

उनके ओझल होते ही उसने लम्बी साँस ली। आँखें बन्द करते ही जैसे माई सामने खड़ी हो गई। वह झूठ बोलना चाहता है- भैया का पता नहीं चला। पर दो हजार रुपए का क्या करेगा! गोद में पड़ा विशुनदेव का झोला भारी लगने लगा। बाँसुरी झोले से बाहर झाँक रही थी। विशुनदेव का चेहरा उसके सामने घूम गया। अचानक उसका माथा घूमने लगा- आँसुओं से तब मनजीत कौर का चेहरा, किरपाल सिंह, इन्दरसिंह का झुर्रियों की तरह लटकता चेहरा सामने आता और ओझल हो जाता।…फिर दहाड़ मारकर रोती माई…बिस्तर पर मुँह देकर रोती भौजी…

उसे जोर से कँपकँपी आई। रोम-रोम खरखरा उठे। नहीं!’ वह धीरे से बुदबुदाया। आगे की सीट का हैंडिल उसने मजबूती से पकड़ लिया। गुर्राती बस आगे बढ़ती गई। आगे बढ़ना ही था, भैया एक्सप्रेस का सफर तमाम नहीं हुआ था।

(1985)

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सत्यानन्द निरुपम से नीता गुप्ता की बातचीत

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चित्र:मदन गहलोत

हिन्दी प्रकाशन के क्षेत्र में हाल के वर्षों में जिन कुछ लोगों ने संपादक की संस्था को मजबूत बनाया है उनमें सत्यानंद निरुपम का नाम प्रमुख है। हाल में ही हिन्दी के सबसे बड़े प्रकाशन ब्रांड राजकमल प्रकाशन समूह में संपादकीय निदेशक के रूप में काम करते उनको पाँच साल पूरे हो गए। इस अवसर पर उनकी यह बातचीत प्रस्तुत है। बातचीत नीता गुप्ता ने की है। नीता गुप्ता यात्रा बुक्स की प्रकाशक हैं। आप भारतीय अनुवाद परिषद में जॉइंट सेक्रेटरी हैं और वहां से प्रकाशित होने वाली त्रैमासिक पत्रिका ‘अनुवाद’ की संपादक भी। आप जयपुर बुक मार्क की सह-निर्देशक भी हैं।उनसे निजी तौर पर मैंने और मेरे जैसे अनेक अनुवादकों, लेखकों ने उनसे बहुत कुछ सीखा है। इसलिए इस बातचीत को पढ़कर मुझे कुछ ईर्ष्या भी हुई और गर्व भी हुआ। इस बातचीत के कुछ अंश ब्लूम्सबरी प्रेस से शीघ्र प्रकाशित होने वाली मेघना पंत द्वारा संपादित पुस्तक में भारतीय भाषा प्रकाशन पर नीताजी के एक लेख में उद्धृत है। पूरी बातचीत यहाँ प्रस्तुत है, नीता जी की टिप्पणी के साथ- मॉडरेटर

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सत्यानंद निरुपम से दिसंबर 2008 में नमिता गोखले जी ने पहली बार मिलवाया था। 2009 में निरुपम यात्रा बुक्स से जुड़े और कुछ ही महीनों बाद हमारी सह प्रकाशन योजना के अंतर्गत, पेंगुइन बुक्स इंडिया के एडिटोरियल बोर्ड में शामिल हुए। इसी अगस्त में निरुपम राजकमल में अपने कार्यकाल के पांच साल पूरे कर चुके हैं, और मुझे उतनी ही ख़ुशी हो रही है जितनी कि किसी माँ को होती है। कितनी बातें ऐसी हैं जो मुझे लगता है मैंने उन्हें सिखाई हैं, और कितना कुछ मुझे भी उनसे सीखने को मिला है। उनकी प्रकाशन योजनाओं को लेकर हाल ही में मैंने एक इंटरव्यू लिया था, जिसका मुख्य बिंदु नए लेखकों को उनके द्वारा मौका देने के विषय में था।  उसी साक्षात्कार से कुछ अंश आपके लिए प्रस्तुत हैं:- नीता गुप्ता। 
1. आप नयी आवाज़ों को कैसे ढूँढ़ते हैं ?
हमारे पास ढेरों नए लेखक अपने प्रस्ताव भेजते हैं. उनमें से जो हमें अपने अनुकूल लगते हैं, उन्हें चुन लेते हैं. यह परम्परागत तरीका अभी भी चलन में है, क्योंकि हिंदी में बहुत लोग अभी भी सोशल मीडिया से दूर ख़ामोशी से अपना लेखन कर रहे हैं और वे चिट्ठियों या फोन के जरिये ही हमसे सम्पर्क कर पाते हैं. इसके बावजूद हम  नए पाठकों की जरूरत को समझते हुए, नए तरह के कंटेंट के लिए सोशल मीडिया पर लिख रहे नए लोगों के पोस्ट्स, उन पर आई टिप्पणियों को ठीकठाक समय तक स्कैन करते हैं. अख़बारों और पत्रिकाओं पर भी हमारी नजर रहती है. जैसा कंटेंट हमें चाहिए, उसके हिसाब से लेखक चुन लेते हैं. कई बार ऐसा होता है कि लेखक के पास अपने विषय होते हैं, कई बार हम अपने विषय की तरफ उन्हें मोड़ते हैं. कई बार पहले हम विषय तय करते हैं, फिर उसके लिए कोई सही लेखक ढूंढते हैं. ऐसे मौकों पर नए लेखक ज्यादा ठीक चयन साबित होते हैं. 
 
2. क्या अंग्रेजी की तरह हिंदी साहित्य जगत में भी लिटरेरी एजेंट की गुंजाईश है?
हिंदी में इनफॉर्मल लिटरेरी एजेंट लम्बे समय से हैं. सामने में वे नहीं दिखेंगे, किसी-किसी और पहचान में दिखेंगे, लेकिन हैं. और अगर बारीकी से इस पूरे छुपे तंत्र की गतिविधियों का अध्ययन हो, इनके कंट्रीब्यूशन को आंका जाए तो हैरान कर देने वाली सचाइयां सामने आएंगी. हिंदी पब्लिशिंग इंडस्ट्री की बड़ी कमजोरियों में से एक यह है. इससे बेहतर और स्वास्थ्यप्रद बात यह होती कि हिंदी में अनौपचारिक ढंग से काम करने वाले इन हिडेन एजेंट के बदले औपचारिक तौर पर काम करने वाले लिटरेरी एजेंट सक्रिय हुए होते. लेकिन वह दूर की कौड़ी है. उनके सक्रिय होने से पहले हिंदी प्रकाशन उद्योग में सम्पादक नाम की मजबूत संस्था की जरूरत है. 
 
3. और बुक स्काउट्स की क्या भूमिका है?
हिंदी में कुछ बुक स्काउट्स बहुत अच्छे रहे हैं, अभी भी हैं. लेकिन इनकी पहचान इनफॉर्मल है. हिंदी के सबसे बड़े प्रकाशन समूह होने के नाते हमें इनकी खास जरूरत रहती है. हम इन्हें फॉर्मल पहचान देना चाहते हैं. इस दिशा में जल्द कुछ ठोस निर्णय लेंगे.
 
4. आप जाने-माने प्रकाशक हैं, तो आपके पास औसतन कितने मैनुस्क्रिप्ट रोज़ पहुँचते हैं?
रोज औसतन 15 प्रकाशन प्रस्ताव हमें मिलते हैं. 
 
5. एक  साल में आप कितनी किताबें छाप लेते हैं? इनमे कितने नए लेखकों को जगह मिलती है?
औसतन कम से कम 150 नई किताबें हम हर साल प्रकाशित करते हैं. पुराने और नए लेखकों का अनुपात औसतन 80-20 का होता है. अब हम नए लेखकों का औसत बढ़ाने की दिशा में काम कर रहे हैं. इस साल शायद ऐसे लेखक हमारे यहाँ 30% से ज्यादा हों जिनकी पहली किताब हमारे यहाँ से छप रही है. 
 
6. स्थापित बनाम नए लेखकों की पुस्तकों के प्रिंट रन किस हिसाब से नियमित किये जाते हैं?
स्थापित और एकदम नए लेखक- दोनों की नई किताबों के प्रिंट रन बराबर ही होते हैं. हाँ, दोनों तरह के लेखकों की नई पोटेंशियल किताबों का प्रिंट रन रेगुलर से अलग, ज्यादा हुआ करता है. 
 
7. विक्रय सम्बन्धी आंकड़ों पर आपकी राय?
किसी नई किताब की अच्छी बिक्री का मतलब हमारे लिए यह है कि एक साल के अंदर कम से कम उसकी दो हजार प्रतियाँ बिक जाएं. ठीकठाक मतलब हजार प्रतियाँ. लेकिन साहित्य में धीमे और नियमित बिकने वाली किताबें ज्यादा होती हैं और वैसी किताबें हमारे पास बहुत हैं. हम अच्छे साहित्य को तरजीह देते रहे हैं, भले वह कम बिके. 
 
8. अप्प किसी किताब को बेस्टसेलर कब घोषित करते हैं ?
10 से 12 हफ्ते में जिस किताब की कम से कम 10,000 प्रतियाँ बिक जाएं, उसे बेस्टसेलर कह लेते हैं. साल भर में 5000 प्रतियाँ बिकने वाली नई किताबें भी हमारे यहाँ से कई हैं, लेकिन हमने उन्हें बेस्टसेलर नहीं कहा. बहुत सारी पुरानी किताबें हैं, जिनकी अब साल भर में 20,000 से ज्यादा प्रतियाँ बिकती हैं, उन्हें भी बेस्टसेलर नहीं कह कर, पाठकप्रिय किताबें कहते हैं.
 
9.  आपके कार्यकाल में क्या नए लेखक भी बेस्टसेलर बने हैं?
ऐसा कम होता है. ‘इश्क में शहर होना’ की सफलता हिंदी की रेयर सफलता थी. 20 दिनों में 3000 प्रतियों की अमेज़न से प्री बुकिंग. 3 माह में 10000 प्रतियों की बिक्री. यह वाकई अलग अनुभव रहा. लेकिन उसके पीछे पीछे ऐसी कई किताबें अब आ चुकी हैं जिनकी साल भर में मजे मजे में 5000 प्रतियाँ या उससे अधिक बिक गईं हैं. 
 
10. क्या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी आप अपने लेखकों को रिप्रेजेंट करते हैं ?
हाँ, हम रिप्रेजेंट करते तो हैं. और बेहतर ढंग से करने की जरूरत महसूस हो रही है. करेंगे.
 
11. क्या आपके लेखकों को फिल्म और डिजिटल मीडिया में प्रवेश मिल पाया है?
हमारे यहाँ से कई किताबों पर फिल्में बन चुकी हैं. कुछ सफल भी रही हैं. आजकल और ज्यादा दिलचस्पी बढ़ी है लोगों की. हमलोग उनके साथ सकारात्मक ढंग से बातचीत आगे बढ़ा रहे हैं.
 
 
12. मार्केटिंग के लिए आपका प्रकाशन समूह सोशल मीडिया पर कितना विश्वास रखता है ? 
यह हमारे प्रकाशन समूह का सबसे कारगर माध्यम साबित हुआ है. इससे रेवेन्यू पर सीधे असर पड़ा है. हमारे पास अब पूरी टीम है इसके लिए और हर दिन, हर महीने की योजना के साथ काम हो रहा है. 
 
नए लेखकों के लिए कोई ख़ास सुझाव ?
अपनी भाषा के क्लासिक और पॉपुलर-दोनों तरह के लेखकों की बहुचर्चित किताबें पढ़ें. धैर्य और तैयारी से लेखन में उतरें. नए अनुभव क्षेत्र को अपने लेखन का विषय बनाएं.
नीता गुप्ता जी

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क़िस्सों-कहानियों का सामयिक और दिलचस्प पिटारा है स्टोरीटेल इंडिया

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स्टोरीटेल के ऐप पर दो तरह के कंटैंट हैं- एक तो हिन्दी के बड़े प्रकाशकों जैसे राजकमल, वाणी प्रकाशन जैसे प्रकाशनों से प्रकाशित प्रमुख किताबें औडियो बुक के रूप में उपलब्ध हैं। दूसरे, स्टोरीटेल पर धारावाहिक कथा सीरीज भी हैं जो लेखक उनके लिए लिखते हैं। अँग्रेजी, हिन्दी और मराठी भाषाओं के सुनने वालों के बीच यह अच्छी पैठ बना रहा है। आज स्टोरीटेल के कंटेन्ट के ऊपर लिखा है शिल्पा शर्मा ने जो उसके लिए लिखती भी हैं, पुस्तकों का सम्पादन भी करती हैं। आइये उनके अनुभव जानते हैं- मॉडरेटर

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जब भी दादी घर पर हों तो सोते समय उनसे कहानी सुने बिना मुझे नींद जैसे आती ही नहीं थी. अब सोचती हूं तो पाती हूं कि न जाने कितनी पौराणिक कहानियां, कितनी किंवदंतियां, कितनी कहावतें और उनके पीछे की कहानियां, उन्होंने बड़ी आसानी कहानी के रूप में हमारे दिलो-दिमाग़ में उतार दी थीं. जब तक हम बड़े हुए, एकल परिवारों का चलन बढ़ गया, लेकिन फिर भी मैंने अपने बेटे को रात को सोते समय कहानियां सुनाने का क्रम जारी रखा. न जाने कब उसके लिए यह ज़िम्मा मुझसे मेरे पति ने ले लिया और उसे भारत के इतिहास की कहानियां सुनाने लगे. अब आलम ये है उसे देश-विदेश के इतिहास को जानने का चस्का लग चुका है.

पर आज के वर्किंग पैरेंट्स अपने छोटे बच्चों को कहानी सुनाने का वक़्त कहां निकाल पाते हैं? और बात केवल छोटे बच्चों की ही नहीं, बड़ों की भी है. मोबाइल ऐप्स पर ई-बुक्स उपलब्ध होने के बावजूद हम बड़े लोग भी तो साहित्य और पठन-पाठन से दूर होते जा रहे हैं. इसके लिए हम भले ही हम अपनी तमाम व्यस्तताओं को दोष दें, पर इस बात को नकार नहीं सकते कि पठन-पाठन से दूर होने का अर्थ है आत्मिक समृद्धि से दूर होना. ये दोनों बातें जब-तब मेरे दिमाग़ में आती रहती थीं… और इसी बीच एक दिन मेरी लेखिका, चित्रकार और फ़िल्म निर्देशक मित्र इरा टाक ने मुझे फ़ोन किया और पूछा, ‘‘क्या आप एक सप्ताह के भीतर एक कहानी लिखकर दे सकती हैं?’’ जब मैंने पूछा किसके लिए? तो उन्होंने मुझे स्टोरीटेल इंडिया (https://www.storytel.in/) के बारे में बताया, जो स्वीडिश ऑडियोबुक स्ट्रीमिंग कंपनी स्टोरीटेल की भारत में दस्तक थी. उनकी उपस्थिति से अनजान मैं उनके कंसेप्ट को सुनकर अचरज और ख़ुशी से भर गई. स्टोरीटेल अपने ऐप के ज़रिए अपने सब्स्क्राइबर्स को ऑडियो बुक्स और ई-बुक्स उपलब्ध कराता है. यह अंग्रेज़ी और हिंदी के अलावा कई अन्य भारतीय भाषाओं में भी उपलब्ध है. यहां ढेर सारे विषयों की बेस्ट सेलर बुक्स, ऑडियो और ई-बुक के रूप में मौजूद हैं, जैसे-आत्मकथाएं, बच्चों की कहानियां, क्लासिक किताबें, क्राइम, इरोटिका और इकोनॉमी व बिज़नेस… यानी हर एक के लिए अपनी रुचि की एक किताब मौजूद है. आप इसे सफ़र के दौरान, दिन में फ़ुरसत में होने पर या रात को सोते समय सुन सकते हैं. मुझे इस बात ने बहुत सुकून दिया कि अब लोग क़िस्सागोई का आनंद कभी-भी, कहीं-भी और आसानी से ले सकेंगे और ख़ुद को समृद्ध कर सकेंगे. एकल परिवार में रहने वाले बच्चों को अब भले ही दादी-नानी न सही, पर स्टोरीटेल इंडिया तो दिलचस्प, रोचक, रुचिकर और सीख देती हुई कहानियां सुनाकर उनके बचपन को और जीवंत बना देगा.

स्टोरीटेल से मेरा परिचय वर्ष 2017 के आख़िरी सप्ताह और 2018 की शुरुआत के बीच कहीं हुआ था, जब मैंने उनके लिए पहली ऑडियो बुक ‘चलती रहे ज़िंदगी’ लिखी, जो एक फ़ैमिल ड्रामा था. इसी दौरान स्टोरीटेल इंडिया की सौम्य मुस्कान और मधुर स्वभाव वाली चीफ़ एडिटर प्रियंवदा रस्तोगी के ज़रिए मेरी मुलाक़ात स्टोरीटेल इंडिया के संस्थापक योगेश दशरथ और उनके सहकर्मियों से हुई. ऊर्जा से लबरेज़ उनकी टीम जिस तरह ऑडियो बुक्स के ज़रिए क़िस्सागोई को अपने सब्स्क्राइबर्स के जीवन का हिस्सा बना रही है, वो तारीफ़ के क़ाबिल है.

शिल्पा शर्मा

सबसे पहले मैंने स्टोरीटेल ऐप पर मुंशी प्रेमचंद की किताब ‘गोदान’ को सुना. वॉइस ओवर आर्टिस्ट्स की आवाज़ ने तो कहानी में जैसे जान ही फूंक दी थी. यूं लगा जैसे होरी और धनिया मेरे सामने खड़े अपनी दिनचर्या की बातचीत कर रहे हों. उन क़िरदारों से जुड़ाव और भी गहरा हो गया. इसके बाद मैंने इरा टाक की लिखी ऑडियो बुक ‘पटरी पर इश्क़’ सुनी. सुंदर कहानी और प्रभावी वॉइस ओवर… दोनों ने मिलकर कहानी को मानस पटल पर साकार कर दिया. फिर मैंने बच्चों के सेक्शन की ऑडियो बुक ‘फंस गई किन्नू’ सुनी. चुलबुली और प्यारी छोटी बच्ची किन्नू कब मेरे दिल में उतर गई पता ही नहीं चला. मैं उसके साथ जैसे अपना बचपन जीने लगी.

इसके बाद जब मैंने अपनी लिखी कहानी को ऑडियो बुक के फ़ॉर्म में सुना तो यह बात पूरी तरह महसूस कर सकी कि कहानी को कहने का अंदाज़ अच्छा हो तो उसमें मौजूद संवेदनशीलता दिलो-दिमाग़ में कहीं गहरे रच-बस जाती है. इस सिलसिले में एक बात का उल्लेख बहुत ज़रूरी है और वो है, वॉइसओवर आर्टिस्ट्स और कहानी में उनके जान फूंक देने की. मुझे बताया गया कि सुनीता शर्मा, जिन्होंने मेरी कहानी को आवाज़ दी थी, कहानी के एक क़िरदार को आवाज़ देते समय कहानी की भावुकता में इतनी बह गईं कि उनका गला भर आया और उन्होंने उस हिस्से की रिकॉर्डिंग पांच मिनट के ब्रेक के बाद दोबारा शुरू की… तो सोचिए, कितने गहरे उतरकर ये आर्टिस्ट इन कहानियों और कथानकों में सजीवता डाल देते हैं.

कुछ समय बाद प्रियंवदा ने मुझे अपने एडिटर्स के पैनल में शामिल किया और मैं अब तक इस ऐप के लिए तीन ऑडियो बुक्स एडिट कर चुकी हूं. इन बुक्स को एडिट करने के दौरान मैंने पाया कि स्टोरीटेल इंडिया की टीम अपने कॉन्टेंट को बनाने के लिए छोटी-छोटी से लेकर बड़ी-बड़ी बातों तक बहुत संजीदगी से काम करती है. किसी विषय को चुनने से लेकर उसे अंजाम तक पहुंचाने के दौरान हर बात का बारीक़ी से ध्यान रखा जाता है, तभी तो अंतिम प्रोडक्ट ऐसा आता है, जिसे ई-बुक्स के रूप में पढ़कर आपकी आंखों के सामने जैसे उसके चित्र खिंचते जाते हैं और ऑडियो बुक्स के रूप में सुनकर यूं लगता है कि जैसे आपके ज़हन में उसके क़िरदार साकार रूप में मौजूद हैं.

मुझे पता है, जल्द ही स्टोरीटेल इंडिया अपने ऐप स्टोरीटेल के ज़रिए देश के हर घर में और हर सदस्य के दिल में भी जगह बना लेगा. क्योंकि इनका कॉन्टेंट सामयिक, रुचिकर और विविधता लिए हुए है, जो हर उम्र के पाठक और लिसनर की पसंद का ख़्याल रखता है. स्टोरीटेल के होते यदि कुछ ही दिनों में लोग एक-दूसरे से ये पूछने लगें कि ‘इन दिनों कौन-सी बुक सुन रहे हो?’ तो मुझे बिल्कुल अचरज नहीं होगा.

संपर्क- +919967974469

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अमृता प्रीतम, गुलज़ार और ‘पिंजर’का किस्सा

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आज अमृता प्रीतम के जन्मदिवस पर हिंदुस्तान टाइम्स में गुलज़ार साहब का यह संस्मरण छपा है जो पंजाबी लेखिका निरुपमा दत्त से बातचीत पर आधारित है। मैंने झटपट अनुवाद किया है। पढ़िएगा। दिलचस्प है-  प्रभात रंजन

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मैंने पहली बार अमृता प्रीतम की प्रसिद्ध कविता ‘अज्ज अक्खा वारिस शाह नू’ की कविता पहली बार तब सुनी थी जब मुंबई में पंजाबी साहित्य सभा की बैठक में जाने माने लेखक-अभिनेता बलराज साहनी ने उसका पाठ किया था। 1950 के दशक के उत्तरार्ध और 1960 के दशक के पूर्वार्ध में तब अमृता प्रीतम की पंजाबी कविता से मेरा पहली बार परिचय हुआ था जो तब और आज भी बहुत लोकप्रिय कविता है और इसको सुनकर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं; खासकर उन लोगों के जो नए देश पाकिस्तान के पंजाब से विस्थापित होकर आए थे। विस्थापितों के लिए वह दौर उदासी और भटकाव भरा था, बहुत से नौजवान बेरोजगार थे और नौकरी की तलाश में भटक रहे थे।

इस प्रसिद्ध लेखिका से मेरी मुलाक़ात बहुत बाद में हुई जब बसु भट्टाचार्य अमृता और उनके संगी इमरोज के ऊपर वृत्तचित्र का निर्माण कर रहे थे। बासु दा ने मेरा परिचय उनसे करवाया तो उन्होने मुझसे पूछा, ‘आप क्या करते हैं?’ मैंने उनसे बताया कि मैं निर्देशन में सहायक था और कवितायें भी लिखता था।

उन्होने मुझसे कविता पढ़ने के लिए कहा और मैंने ‘दस्तक’ नामक कविता का पाठ किया, जो सरहद पार से आने वाले दोस्त के बारे में है, जो हमारे घर आता है और आँगन में चटाई बिछाई जाती है, खाना पकाया जाता है, लेकिन अफसोस कि यह सपना ही साबित होता है। लांच के समय उन्होने मुझे फिर से वह कविता सुनाने के लिए कहा और शूटिंग के पैक अप हो जाने के बाद उन्होने बासु दा के साथ मुझे भी रुक जाने के लिए कहा।

इसी के साथ उस प्रसिद्ध कवयित्री के साथ मेरा साहित्यिक परिचय हुआ और मेरे लेखन तथा मेरे गीतों में उन्होने भी दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी। उन्होने उस पत्रिका में मेरी बहुत सी कवितायें प्रकाशित भी की जो वह इमरोज के साथ निकालती थीं।

कुछ साल के संघर्ष के बाद मैं निर्देशक बन गया और मैंने मुंबई के पाली हिल में कोज़ी होम्स में एक कमरे का दफ्तर बनाया। एक दिन वहाँ अमृता और इमरोज मुझसे मिलने के लिए आए। मैंने उनका स्वागत किया और एक वरिष्ठ कवयित्री के सम्मान में मैंने उनको बैठने के लिए अपनी कुर्सी दी, जबकि मैं और इमरोज दूसरी तरफ की कुर्सी पर बैठ गए जो आगंतुकों के लिए थी। उन्होने मुझसे आग्रह किया कि मैं ‘पिंजर’ के ऊपर फिल्म बनाऊँ। वह अपने साथ उस   फिल्म की स्क्रिप्ट लेकर आई थीं और मैंने उनसे कहा कि वे उसे मेरे पास छोड़ जाएँ। मैंने स्क्रिप्ट पढ़ी और उर्दू में उस उपन्यास की प्रति मँगवाई और रात में उसको पढ़ा: अगले दिन वे मुझसे फिर मिलने वाले थे। अगले दिन मुलाक़ात के दौरान मैंने उनसे कहा कि मैं इस उपन्यास के पहले तीन अध्यायों पर ही फिल्म बनाना चाहता हूँ, जिसमें पारो की कहानी थी, लेकिन इसके लिए पटकथा मैं लिखूंगा। अमृता इस बात के ऊपर ज़ोर देती रहीं कि फिल्म उनकी लिखी पटकथा पर ही बनाई जाये। जब मैंने यह कहते हुए मना कर दिया कि ऐसा कर पाना संभव नहीं था तो जाते वक्त उनके चेहरे पर मुझे खिन्नता का भाव दिखाई दिया।

हालांकि, इस घटना के कारण हमारे रिश्ते में किसी तरह की कड़वाहट नहीं आई। मैं जब भी दिल्ली गया तो मैं उनसे मिलने गया।अंतिम बार मैं उनसे मिलने साहित्य अकादेमी के तत्कालीन अध्यक्ष गोपीचन्द नारंग के साथ गया, साहित्य अकादेमी का प्रतिष्ठित लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड देने।

दुख की बात यह रही कि न तो उन्होने किसी को पहचाना न ही कुछ कहा।

इमरोज ने कहा, ‘इस तरह के पुरस्कार किसी को तब दिये जाने चाहिए जब वह उसका महत्व समझ सके।‘ नारंग का जवाब था कि वह चाहते थे कि यह सम्मान उनको जीते जी मिले।

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अनुकृति उपाध्याय की कविता ‘अंधे’

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कविता अपनी लक्षणा-व्यंजना के कारण महत्वपूर्ण बन जाती है, प्रासंगिक बन जाती है। हिन्दी अँग्रेजी दोनों भाषाओं में समान रूप से लेखन करने वाली अनुकृति उपाध्याय की यह कविता अच्छा उदाहरण है। किताबों के बहाने समकालीन राजनीति पर बहुत कुछ कह जाती है। अनुकृति की एक कहानी अभी ‘हंस’ में आई है ‘इन्सेक्टा’। एक अंतरराष्ट्रीय वित्त संस्था में काम करने वाली अनुकृति की  एक उपन्यासिका अँग्रेजी में हार्पर कॉलिन्स से आ रही है। फिलहाल यह कविता पढ़िये- मॉडरेटर

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अंधे

कल शाम
मेरे घर आए चार अंधे
पहला किताबों की आलमारी से जा टकराया
और चिल्लाया –
ये क्या? ये क्या?
इतनी किताबें?
तुम ज़रूर इनसे किलाबंदी कर रहे हो
हम पर वार करना चाहते हो

दूसरा बौखलाया –
वार? वार?
हम पर वार?
षड़्यंत्र
तुम हमारे ख़िलाफ़ षड़्यंत्र रच रहे हो

तीसरा कुरलाया –
षड़्यंत्र! षड़्यंत्र!
हमारी हत्या का षड़्यंत्र
तुम बर्बर ख़ूनी हत्यारे
तुम हमारे विरोधी हो

चौथा डकराया –
विरोधी हो! विरोधी हो!
तुम राष्ट्र-विरोधी हो
बच कर नहीं जा सकते
गौ माता की जय!

मैं हतप्रभ रह गया
सभी जानते हैं कि मेरी किताबों में
बस वही सब है जो हो रहा है
या हो चुका है
या जो होना चाहिए था मगर नहीं हुआ
या जिसके होने की आशंका भी नहीं थी
लेकिन हो गया

मैंने कहा –
ये बम या बन्दूक़ या ख़ूनी नारे नहीं
ये काग़ज़ और रोशनाई की बेटियाँ हैं
देखो, देखो ये किताबें हैं…

अभी मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी
कि एक पाँचवां घुस आया –
सब सुनो, सब सुनो
वह गुर्राया
यह हमारे अंधेपन का मज़ाक बना रहा है
हमें, जिन्हें अपने अंधेपन पर गर्व है
हमें कह रहा है – देखो
कल कहेगा – समझो
परसों – सोचो!
इसे मार दो और यहीं गाड़ दो
इसकी साँसों में संक्रमण है
और इसके शब्द विष-वमन हैं

मैं घबराया –
भाई ये क्या कह रहे हो?
मेरी साँसें देश की हवा हैं
और मेरे शब्द तुमसे साझे हैं…

लेकिन पाँचवा मेरे स्वर के ऊपर गरजाया –
तुम इसकी बातों पर मत जाओ
इसके सूती कपड़ों और सादा सूरत पर मत जाओ
अगर इसे आज नहीं दफ़नाया
तो यह अकेला तुम्हें,
तुम्हारी संतानों,
और उनके वंशजों को आक्रांत कर डालेगा!

चारों अंधे मेरे चौगिर्द घिर आए
उनके बीसियों सर पचासों बाज़ू उग आए
अनझिप अंधी आँखों में
आग धुंधुआने लगी
मैं हकलाया –
सूती कपड़े, सादा सूरत…?
लेकिन, लेकिन
तुम तो देख नहीं पाते
अपने अंधेपन के गौरव में चूर हो
फिर, फिर कैसे…

पाँचवे के चेहरे पर
तलवार-धार सी मुस्कान
चिर गई
इसकी बातों पर मत जाओ
इसकी बातों पर मत जाओ
उसने दोहराया
यह हमारा द्रोही है
यानी राष्ट्र का द्रोही है
हम पर देखने का आरोप लगा रहा है
हम, जो कुछ नहीं देखते हैं
कभी नहीं देखते हैं
और उसने
अपनी आँखें उतारीं
और जेब में धर लीं…

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त्रिलोकनाथ पांडेय के उपन्यास ‘प्रेम लहरी’का एक अंश

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आज प्रेम के देवता का प्रकट-दिवस है। मुझे त्रिलोकनाथ पांडेय के उपन्यास ‘प्रेम लहरी’ का स्मरण हो आया, जो राजकमल प्रकाशन से शीघ्र प्रकाशित होने जा रहा है। इस ऐतिहासिक उपन्यास में कई लहरें हैं प्रेम की। आज एक लहर जो इसकी मूल कथा से कुछ इतर है लेकिन इतिहास का जाना-माना अध्याय है- मॉडरेटर

 

हमसफर  

शाहजहाँ अपनी प्रियतमा मुमताज को हर सुख-दुख में अपने दिल से चिपकाये रखता था। बगावत के दिनों की कठिनाइयों, लड़ाई के मैदानों, शिकारगाहों और यात्राओं में मुमताज सदैव शाहजहाँ के साथ रहती।

ताप्ती नदी के बायें तट पर बसा खूबसूरत शहर बुराहनपुर खानदेश सूबे की राजधानी थी। हिन्दुस्तान के बीचो-बीच बसे इस शहर को दक्खन का द्वार भी कहा जाता था। इस शहर का मुगलों के लिए विशेष सामरिक महत्व था। शाहजहाँ शाहजदा खुर्रम के रूप में करीब पाँच वर्षों तक खानदेश का सूबेदार रहा और निवास किया बुराहनपुर के शाही किले के बुलारा महल में। साथ में रही उसकी महबूबा बेगम मुमताज।

अपनी प्राणप्रिया के साथ जलक्रीड़ा के लिए शाहजादे ने वैसा ही बनवाया था एक खूबसूरत हम्माम जैसा आगरे में था। फर्क सिर्फ इतना था इस हम्माम की गुम्बदाकार छत और दीवारें खूबसूरत चित्रकारी और काँच के रंगीन टुकड़ों से सजी थीं। जरा-सी भी रोशनी में ये काँच के टुकड़े जगमगा उठते थे। इनकी जगमगाहट भरी रोशनी जब मुमताज के दुग्ध-धवल सुवासित जल से भींगी संगमरमरी सुन्दर नग्न बदन पर पड़ती थी तो मुमताज जन्नत की हूर-सी लगती थी। शाहजादा इस नफीस नज़ारे पर मर मिटता था। दोनों घण्टों हम्माम में क्रीड़ा करते रहते थे।

शाहजहाँ के शासन के तीसरे वर्ष की बात है। उसे अपने पिता जहाँगीर के अत्यन्त विश्वस्त अमीर खानजहाँ लोदी के विद्रोह को कुचलने के लिए सैनिक अभियान पर दक्षिण की ओर कूच करना पड़ा। उसने बुरहानपुर को अपने सैनिक अभियान का मुख्यालय बनाने का निश्चय किया और शाही दरबार को आगरा से बुरहानपुर कूच करने का हुक्म दिया।

उस समय मुमताज की उम्र लगभग चालीस हो चली थी। अपने उन्नीस वर्षों के वैवाहिक जीवन में वह चौदहवीं बार माँ बनने वाली थी। लगभग हर साल बच्चा पैदा कर-कर वह बहुत कमजोर हो चली थी और इतनी दूर की यात्रा करना उसके लिए खतरनाक था। लेकिन यह बात आशिक बादशाह की समझ में न आयी। वह महबूबा को पीछे आगरा में छोड़ना सोच भी नहीं सकता था।

शाहजहाँ ने तुरन्त एक शानदार और आरामदेह पालकी तैयार करवायी जिसको बारी-बारी से ढोने के लिए आठ-आठ बलिष्ठ कहार नियुक्त किये गये। कहारों को विशेष प्रशिक्षण दिया गया कि कैसे ऊँची-नीची जगहों से गुजरते हुए पालकी ऐसे ढोयी जाय कि बेगम साहिबा को तकलीफ न पहुँचे।

बादशाह एक विशाल तख्त पर बनाये गये छोटे-से सुन्दर कलाकृतिपूर्ण भवन में यात्रा कर रहे थे जिसे कई कहार उठाकर चलते थे। यह भवन मुलम्मा किये हुए खम्भों से बना था जिसमें काँच की खिड़कियाँ थीं और जिन्हें आँधी-पानी के समय बन्द कर दिया जाता था। खुले में चलने के शौकीन बादशाह कन्धों पर उठाये गए इस भवन के बजाय घुड़सवारी करके चलना ज्यादा पसंद करते थे। बादशाह की सवारी के पीछे मनसबदारों, अमीरों और हुक्मरानों का झुण्ड घोड़ों पर सवार होकर चल रहा था।

बेगम साहिबा के साथ उनके बच्चे भी थे। सत्रह बरस की सबसे बड़ी बेटी जहाँआरा और चौदह साल की रोशनआरा अलग-अलग हाथियों के हौदों पर बने मेघाडम्बर में यात्रा कर रही थीं। चारो बेटे अपने-अपने ढंग से घोड़े या हाथियों पर चल रहे थे। सोलह वर्षीय दाराशिकोह ज्यादातर अपने हाथी फतेहजंग पर चलता था, जबकि तेरह वर्षीय औरंगजेब घोड़े पर यात्रा कर रहा था। पन्द्रह वर्षीय शाहशुजा हाथी की सवारी करना पसन्द करता था, जबकि सबसे छोटा सात वर्षीय मुराद सेविकाओं की देखरेख में पालकी में यात्रा कर रहा था।

दलबादल नामक विशाल शाही तम्बू को कई हाथियों और ऊटों पर लादकर पहले से ही पड़ाव वाले जगहों पर पहुँचा दिया जाता था। शाही काफिले को पहुँचने पर वहाँ तम्बुओं का एक छोटा-मोटा शहर बस जाता था। सारे शाही ताम-झाम वहाँ उपलब्ध होते थे। मनोरंजन के लिए संगीतकार, मसखरे और नाटकमण्डली साथ चल रही थी।

पड़ाव वाली जगहों पर बादशाह का दरबार जुट जाता था जहाँ वह राज-काज निबटाते थे। बेगम साहिबा अपनी बेटियों के साथ तम्बू में ही रहती थीं। दाराशिकोह अपने आध्यात्मिक अध्ययन में लगा रहता था, जबकि औरंगजेब कुरान का पाठ करने में व्यस्त। शाहशुजा मौज करने और शराब पीने में मस्त था। छोटू मुराद खेल-कूद में मग्न होकर फुदकता रहता था – कभी बादशाह के पास तो कभी बेगम के पास और कभी-कभी अपने भाईयों के साथ।

राज-काज निबटाने के साथ-साथ बादशाह पड़ाव वाली जगहों पर अपने साज-समाज के साथ शिकार पर भी निकलते थे। कभी रास्ते में पड़ने वाले लोगों की फरियाद सुनते थे, उनके मामले निबटाते थे और गरीबों को खैरात बाँटते थे।

शाही काफिला आगरा से धौलपुर, ग्वालियर, डोंगरी होते हुए करीब पाँच महीनों में बुरहानपुर पहुँचा। बुरहानपुर पहुँचकर बादशाह सपरिवार अपने प्रिय बुलारा महल में ठहरे। उन्होंने पहले ही शाही किले में दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास बनवा रखा था जहाँ उनका दरबार पूरे शान-शौकत के साथ शुरू हुआ। शाही सेना खानजहाँ लोदी को शिकस्त देने और उसके सहयोगी अहमदनगर राज्य को तहस-नहस करने में लग गयी।

मुहब्बत जिन्दाबाद

बादशाह अपनी महबूबा मुमताज के साथ अपने खास शाही हम्माम में पहले की तरह रंगरेलियाँ मनाना चाहते थे। लेकिन, बारम्बार प्रसव से बेगम बहुत कमजोर थीं और लम्बी यात्रा से बीमार हो गयीं थीं। ऊपर से चैदहवीं प्रसव का समय एकदम नजदीक था। मन मसोस कर बादशाह ने बेगम को प्रशिक्षित दाइयों और सेविकाओं के हवाले किया और शाही हकीम की देख-रेख में बढ़िया-से-बढ़िया इलाज का इन्तजाम किया।

बुधवार के दिन गर्मी अपने उरूज पर थी। सुबह से ही बेगम की तबियत नासाज थी। उनका मन अजीब-अजीब आशंकाओं से भरा हुआ था। उनकी बेटी जहाँआरा लगातार उनके पास बैठी हुई थी। हकीम की दवाओं का कुछ खास असर न हो रहा था। घबड़ा कर जहाँआरा ने दुआओं का सहारा लिया। बदहवास-सी वह कीमती सामान और जवाहारात गरीबों में बँटवाने लगी ताकि उनकी दुआ उसकी अम्मी के काम आ सके। साथ ही, वह अल्लाह से लगातार प्रार्थना करती जा रही थी। लेकिन, इन सबका कुछ खास असर होता न दिख रहा था। बेगम मुमताज मारे दर्द के छटपटा रही थीं।

शाम होते-होते शाही हकीम के इशारे पर दाइयों और सेविकाओं ने सुरक्षित प्रसव के लिए प्रबन्ध करना शुरू किया। बेगम साहिबा का कराहना बढ़ता जा रहा था। बादशाह मरदाने में बैठे हुए लगातार बेगम का हाल पूछ रहे थे। दो घड़ी रात जाते-जाते बेगम बेदम होनी लगीं। उन्होंने जहाँआरा को भेजा बादशाह को बुला लाने के लिए।

बदहवास-से बादशाह जब तक पहुँचते तब तक बेगम ने एक नन्हीं-सी बेटी को जन्म दे दिया था। लेकिन उनके जननांग से लगातार रक्त-स्त्राव हो रहा था। बादशाह को बड़ी कातर निगाहों से देखते हुए बेगम ने उनका हाथ धीरे-से पकड़ लिया और बोला “अब मेरे जाने का वक्त आ गया है। ’’

थोड़ी देर सुस्ता कर बेगम ने फिर बोला, “आप वादा करो कि दूसरी शादी न करोगे और अब आगे से यही जहाँआरा आपका ख्याल रखेगी। ’’ यह कहते हुए बेगम ने बादशाह का हाथ जहाँआरा के हाथ में थमा दिया। बाप-बेटी इसका मकसद न समझ भौंचक्के-से रह गये।

इस बीच, फिर से थोड़ी ताकत जुटा कर बेगम ने बोलना शुरू किया “मेरी यह बेटी जो अभी पैदा हुई है इसकी मर्जी का हर तरह से ख्याल रखना और देखना कि कोई इसे अपशकुनी और मेरी मौत का जिम्मेदार न ठहराये। इसकी हर ख़ुशी का ख्याल रखना। ’’

बादशाह ने बेगम के हाथ को जोर से पकड़ लिया और सिसकने लगे, “बेगम हम तुम्हें जाने न देंगे। ’’

बेगम ने हल्के से सिर हिलाते हुए बोला, “मुहब्बत जिन्दाबाद!’’

बादशाह के मुँह से अपने आप निकल गया “मुहब्बत जिन्दाबाद!’’

ठीक उसी वक्त मुमताज ने अंतिम सांस ली।

 

अगले दिन, जुमेरात को, बेगम साहिबा का शव ताप्ती नदी के उस पार जैनाबाद, जो कभी मुगलों का आहूखाना (शिकारगाह) हुआ करता था, में दफनाया गया।

चारो तरफ रोने-पीटने की आवाजें उठ रही थीं। लेकिन, बादशाह आश्चर्यजनक रूप से शान्त थे। वह अपने होश में नहीं लग रहे थे। लगता था उनका मन-मस्तिष्क दूर कहीं खोया हुआ है। वह लगातार कुछ बुदबुदा रहे थे। गौर करने पर पता चला कि वह ‘मुहब्बत जिन्दाबाद’ ‘मुहब्बत जिन्दाबाद’ की रट लगा रहे हैं।

बेगम को दफन होने के बाद बादशाह ने अपने को एक कमरे में बन्द कर लिया। बाहर से लोगों ने सुना जैसे वह किसी से जोर-जोर से बातें कर रहे हों और बीच-बीच में ‘मुहब्बत जिन्दाबाद’, ‘मुहब्बत जिन्दाबाद’ के नारे लगा रहे थे। कभी-कभी भीतर से कोई आवाज न आती थी – शायद बादशाह सो जाते थे या गहन समाधि – प्रेम-समाधि – की अवस्था में चले जाते थे।

यह स्थिति आठ दिनों तक चली। इतने दिनों बादशाह न कुछ खाये, न पीये, न कमरे से बाहर आये, न किसी से बात की। आठवें दिन वह बाहर निकले। लेकिन, इन आठ दिनों में ही बादशाह बिल्कुल बूढ़े-से हो गये। उनकी उम्र अभी मुश्किल से बयालिस या तिरालिस साल थी, लेकिन इन आठ दिनों में ही उनके काले घने सुन्दर बाल बिल्कुल सफेद हो गये।

कमरे से निकलकर बादशाह ने किसी से बात न की। वह सीधे शाही हम्माम गये जहाँ वह दीवार पर बने एक चित्र को एकटक देखते रहे। यह एक इमारत की तस्वीर थी। फिर वहाँ से निकल कर वह जैनाबाद की ओर चले। लोगों का हुजूम उनके पीछे चला। ताप्ती नदी पार कर वे बेगम की कब्र पर पहुँचे। कब्र पर हाथ रखकर उन्होंने जोर से बोला ‘मुहब्बत जिन्दाबाद’।

लोगों का हुजूम कुछ दूर रूका हुआ था और बादशाह कब्र पर हाथ रखे बड़बड़ा रहे थे, “बेगम, मैं समझ गया मुहब्बत कैसे जिन्दाबाद रहेगी। मैं मुहब्बत को जिन्दाबाद रखूँगा, जिन्दाबाद रखूँगा। ”

अगले चालीस दिन बादशाह बेगम की कब्र पर जाते रहे। चालीस दिन कब्र पर हर शाम दीये जलाये जाते रहे और प्रार्थना की जाती रही। चालीस दिनों तक बादशाह ने राज-काज पर बिल्कुल ध्यान न दिया।

इस बीच, शाही सेना ने सैनिक अभियान में फतह हासिल कर लिया, खानजहाँ लोदी को मार डाला गया और अहमदनगर राज्य पर कब्जा हो गया। लेकिन, जीत की ख़ुशी कहीं नहीं थी। पूरे मुगल साम्राज्य में शोक की घोषणा कर दी गयी; हर प्रकार के राग-रंग को रोक दिया गया; नये चटकदार वस्त्राभूषण पहनने पर रोक लगा दिया गया और उल्लंघन करने वालों के लिए कड़ी सजा का प्रावधान किया गया।

इकतालिसवें दिन बादशाह ने प्रसिद्ध वास्तुकार उस्ताद अहमद लाहौरी को तलब किया और राजदाराने अन्दाज में बताया कि वह लगभग रोज एक ख्वाब देखते हैं कि अर्श-आशियानी बेगम मुमताज महल सफेद कपड़ों में लिपटी एक बेहद खूबसूरत सफेद इमारत में घूम रही हैं। ज्योंही उनकी ओर गौर करते हैं वह सफेद इमारत की सफेदी में सफेद धुआँ-सी समा जाती हैं और फिर नींद खुल जाती है।

बादशाह अहमद लाहौरी को शाही हम्माम में ले गये और दीवार पर बने इमारत की तस्वीर को दिखाते हुए बताया कि ख्वाबों वाली इमारत कुछ-कुछ ऐसी ही है, लेकिन शान और खूबसूरती में इससे हजारों गुना आगे।

अहमद लाहौरी सोच में पड़ गये जब बादशाह ने इच्छा जाहिर की कि ख्वाबों वाले महल जैसा ही सफेद मकबरा मरहूम बेगम की कब्र पर बनवाना है। काफी देर तक चुप रहने के बाद अहमद लाहौरी ने अर्ज किया कि खुद बादशाह हुजूर ने उस सफेद इमारत को ख्वाबों में देखा है और बेहतर यही होगा कि उस इमारत का खाका खुद बादशाह ही अपने इलहाम की रौशनी में बनायें।

बस फिर क्या था, बादशाह जुट गये खाका तैयार करने में। कागज पर आड़ी-तिरछी लकीरें खींचते कई दिन बीत गये, लेकिन सपनों के महल का नक्शा न बन पाया। बादशाह बहुत दुखी और क्षुब्ध हो गये। मारे दुख के कागज-कलम एक तरफ रख दिया।

दुख के दरिया में डूबे बादशाह को एक दिन लगा कि उनकी बेगम ने पीछे से उनके कन्धे पर हाथ रख दिया हो। पलटकर देखा तो वह ख्वाबों वाले महल का दृश्य सामने था। मरहूम बेगम उसमें मुस्कराते हुए खड़ी हैं। बादशाह को महसूस हुआ कि उनके जेहन में सफेद रोशनी का एक गुबार उठ रहा है। उस रोशनी में ही उन्होंने कागज पर रोशनाई से लकीरें खींचनी शुरू की और जब तक जेहन की रोशनी धुंधली पड़ती एक इमारत का नक्शा कागज पर तैयार हो चुका था।

अहमद लाहौरी ने जब उस नक्शे को देखा तो हैरत में पड़ गये और उनके मुँह से बेसाख्ता निकल पड़ा, “यह तो इन्सानी ईजाद न है। यह तो एकदम फिरदौसी है। ’’ अहमद लाहौरी ने हामिद खाँ, गयारत खाँ और मकरामत खाँ जैसे मशहूर वास्तुविदों को बुलवाकर सलाह-मशाविरा किया और जैनाबाद में जहाँ बेगम की कब्र थी वहाँ की जमीन का मुआयना किया। सबने एक मत से महसूस किया कि नक्शे के हिसाब से भव्य इमारत बनाने के लिए ताप्ती नदी के किनारे की दलदली जमीन ठीक नहीं है।

बादशाह ने जब वास्तुकारों की राय सुनी तो चिढ़ते हुए अपने हुक्म को दुहराया कि मकबरा उतना ही शानदार बनना चाहिए जितना उन्होंने ख्वाबों में देखा है। चाहे इसे आगरे में ही क्यों न बनाना पड़े। बस फिर क्या था, तुरन्त ऐलान हुआ कि मकबरा आगरा में यमुना के किनारे बनेगा और बेगम की कब्र वहीँ ले जायी जायेगी। इस ऐलान के साथ बादशाह ने आगरे की ओर कूच कर दिया।

बाद में, मरहूम बेगम के जनाजे को एक विशाल जुलूस के साथ, शाहजादा शाहशुजा के नेतृत्व में आगरा लाया गया। आगरे में यमुना के तट पर स्थित राजा मानसिंह के पोते राजा जयसिंह की जमीन में दोबारा दफन किया गया।

इस कब्र के ऊपर बनना शुरू हुआ ख्वाबों का महल जिसे लगभग बीस हजार मजदूरों, राजगीरों, जौहरियों और वास्तुविदों ने मिलकर बाइस वर्षों में तैयार किया। नाम दिया गया – ताजमहल। यह था बेगम मुमताज महल का अन्तिम विश्रामस्थल। सफेद संगमरमर की यह बेमिशाल इमारत बादशाह के ख्वाबों की हकीकत बयां करने के साथ-साथ पूरी दुनिया को जाहिर करती थी कि अपनी महबूबा के लिए कोई जो कुछ कर सकता है उसका यह ओज-ए-कमाल है।

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जाना गुलज़ार अंजाना गुलज़ार

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गुलज़ार साहब के गीतों की एक दिलचस्प रीडिंग की है सैयद एस. तौहीद ने- मॉडरेटर
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आप गुलज़ार के दीवाने पता नहीं इसे कैसे लेंगे।लेकिन मेरी माने गुलज़ार साहेब को खुद को रिपीट करने से परहेज़ नहीं करते। लेकिन यह दक्ष काम गुलज़ार  समान लेखक ही कर सकते हैं। वो कमाल के रूमानी व ओरिजिनल अंदाज़ में यह काम करते हैं। जितनी शराब पुरानी होती है,  नशा उसका  उतना ही होता  है। गुलज़ार साहेब का लेखन कुछ ऐसा रहा है। जितनी पुरानी उतनी असरदार।
धूप /छांव
इस  रूपक को बेहद खूबसूरती से सिनेमाई अंदाज़ में लाने का  काम गुलज़ार ने किया। अब फ़िल्म ‘माचिस’ की इन पंक्तियों को ही देखें… जहां तेरी ऐड़ी से धूप उड़ा करती थी… सुना है उस चौखट पे अब शाम रहा करती है।
फिर ‘पिंजर’ के शब्दों को भी देखें…मार मार के एड़ियां धूप उडावेंगे ..चल पीपल की छांव में गिद्दा डालेंगे।
मणि रत्नम की ‘दिल से’ में गुलज़ार के लिखे कुछ सबसे बेहतरीन गाने संग्रहित हैं। दिलकश गीत ‘ छइयाँ छइयाँ’ में एक लाईन आती है…मैं उसके रूप का सौदाई वो धूप छांव सा हरजाई। बहुत पहले ‘काबुलीवाला’ में भी गुलज़ार ने कुछ ऐसा ही लिखा…गंगा आए कहां से गंगा जाए कहां रे…लहराए पानी में जैसे धूप छांव रे।
फ़िल्म ‘ रॉकफोर्ड ‘ में आपकी लिखी पंक्तियों पर ज़रा गौर करें… मेरे पांव के तले की यह ज़मीन चल रही है… कहीं धूप ठंडी ठंडी कहीं छांव जल  रही है। इसी के आसपास ‘ फ़िज़ा’ में गुलज़ार खुद को दोहराते से नज़र आए… आ धूप मलूं मैं तेरी आंखों में। फिर ‘साथिया’ में कुछ यूं ही …पीली धूप पहन के तुम बागो में मत जाना। इसी से मिलता-जुलता ‘आंधी’ में… जादू की नर्म धूप और आंगन में लेटकर।
दिन /रात
ख़ालीपन को बयां करने का अंदाज़ गुलज़ार साहेब का निराला रहा है। मसलन इन कुछ उदाहरणों को ही देखें…  एक अकेला इस शहर में (घरौंदा) इसी गीत में आगे…दिन खाली खाली बरतन है और रात है अंधा कुंआ।
फिर फ़िल्म ‘सितारा’ में आप लिखते हैं.. रात कट जाएगी तो कहां दिन बिताएंगे ..बाजरे के खेत में कौवे उड़ाएंगे..
‘लेकिन’ की इन ज़बरदस्त पंक्तियों को मुड़कर देखें…रात दिन के दोनों पहिये कुछ धूल उड़ाकर चले गए ।
काफी पहले ‘परिचय’ में भी गुलज़ार इस रूपक का खूबसूरत प्रयोग किया..दिन ने हाथ थामकर इधर बुला लिया,रात ने इशारे से उधर बुला लिया। अब ‘ओंकारा’ की पंक्तियों को देखें… ओ साथी रे दिन डूबे ना.. आ चल दिन को रोकें, धूप के पीछे दौड़ें.. छांव छू लें… बहुत पहले’आंधी’ के लिए आपने ..दिन डूबा नहीं रात डूबी नहीं, जाने कैसा है सफ़र।
कुछ और उदाहरण ….’साथिया’ में …दिन भी न डूबे रात न आए शाम कभी न ढले। पहेली में गुलज़ार साहेब ने लिखा …’डूबता है दिन तो शाम के साए उड़ते हैं। काफी पहले ‘खुशबू’ में आपने लिखा …’डूबी डूबी आंखों में सपनों के साए, रात भर अपने ही दिन में पराए।
घर/वतन
गुलज़ार ने बंटवारे को त्रासदी की तरह लिया था। दीना पाकिस्तान में जन्मे गुलज़ार साहेब का घर व जीवन इस परिघटना से टूट गया था। विभाजन ने उनसे  घर ले लिया। परिवार दोस्त रिश्तेदार ले लिया। आपने अपनी तकलीफ़ को लोंगो के साथ जोड़कर एहसास को बयां किया।
गुलज़ार के लेखन ने इस याद हमेशा संजोए रखा…इसलिए ‘माचिस’ में लिखते हैं…’ पानी पानी इन पहाड़ों की ढलानों से गुजर जाना, धुंआ धुंआ  कुछ वादियां भी आएंगी गुजर जाना एक गांव आएगा मेरा घर आएगा.. जा मेरे घर जा’ फिर उनकी खूबसूरत फ़िल्म ‘लेकिन ‘ सावन आयो घर ले जईओ’ । मिट्टी की भींनी भींनी खुशबू को ‘सितारा’ के लिए उनके गीत से महसूस करें… मेरे घर के आंगन में छोटा सा झूला है.. सोंधी सोंधी मिट्टी होगी लेपा हुआ चूल्हा है।
श्याम बेनेगल ने कॅरियर में एक से बढ़कर फिल्में बनाई।नब्बे के दशक की ‘मम्मो’ एक ऐसी ही उम्दा फ़िल्म थी। फ़िल्म  के गीत…’यह  फ़ासले तेरी गलियों के हमसे तय ना हुए हज़ार बार रुके हम हज़ार बार चले’ को गुलज़ार ने ही लिखा था। उर्दू, वतन और बंटवारा का संगम पर खड़ी ‘मम्मो’ ने गुलज़ार  को लेखन का बहुत अच्छा स्पेस दिया। ऐसे में भला वो  क्यों नहीं लिखते… यह कैसी सरहदें उलझी हुई है पैरों में, हम अपने घर की तरफ़ उठ के बार -बार चले।
नैना/
गुलज़ार साहेब  ने ‘आंख’  नज़र  व नैन से ज़्यादा तवज्जो और मुहब्बत  ‘नैना ‘ को दी है। उदाहरण के लिए ‘मासूम’ के एक गीत में प्रयोग हुए लफ़्ज़ों को देखें… दो नैना एक कहानी थोड़ा सा बादल थोड़ा सा पानी और एक कहानी। इसी तरह ‘ओंकारा’  में …’जग जा री गुड़िया.. मिसरी की पुड़िया  मीठे लगे1 दो नैना व नैनों की मत सुनियो रे नयना ठग लेंगे।
फिर गीत ‘दो नयनों में आंसू भरे हैं, निंदिया कैसे समाए। गुलज़ार ने ‘अशोका’ में भी लिखा… रोशनी से भरे नैना तेरे, सपनों से भरे नैना तेरे
चांद/
यह गुलज़ार साहेब का सबसे पसंदीदा विषय माना जाता है। ग़ज़ल, शायरी या गाना हो आपने ‘चांद’ को हमेशा याद रखा। लेखन में बराबर जगह दी। इस विषय पर ‘रात चांद और मैं’ पर किताब भी निकाली। पहले गीत.. ‘मोरा गोरा रंग’ से शुरू हुई मुहब्बत ‘ओंकारा’ व ‘गुरु’ तक बरकरार रही।
बंदिनी के गीत में पंक्तियां ..बदली हटाके चंदा छुप के झांके चंदा। फिर ‘गुरु’ का गीत ‘बोल गुरु.. लोड सेंडिंग में चांद जलाए। आपने ही में ‘ओंकारा’ के लिए लिखा… मैं चांद निगल गई। इसी सिलसिले में ‘सत्या’ की लाइनें याद की जा सकती हैं… डोरियों से बांध बांध कर रात भर चांद तोड़ना।
यशराज की ‘बंटी बबली ‘ के  गीत में कुछ यूं लिखा.. चांद से होकर सड़क जाती है।
पसंदीदा फिल्म ‘लेकिन’ की यह लफ्ज़ गुलज़ार साहेब की मुहब्बत को बखूबी बयां करते हैं…
मैं एक सदी से बैठी हूं इस राह से कोई गुज़रा नहीं… कुछ चांद के रथ तो गुज़रे थे पर चांद से कोई उतरा नहीं।
आखिर में वो गीत जिसने आपको नेशनल अवार्ड दिलवाया… एक सौ सोलह चांद की रातें एक तुम्हारे कांधे का तिल…मेरा कुछ सामान (इजाज़त)
लम्हा/वक्त
वक्त से गुलज़ार को काफी हमदर्दी रही है। वक्त ने एक तरफ़ बहुत कड़वे अनुभव दिए तो यादगार लम्हे भी नवाज़े। आपने हमेशा इस विषय पर क़रीबी नज़र रखी। एक बार नहीं बार बार मुड़कर देखना सिखाया। आपकी एक गज़ल ‘हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं तोड़ा करते (पिंजर) कुछ कुछ ..आने वाला पल जाने वाला (गोलमाल) की पंक्तियां ..’एक बार वक्त से लम्हा गिरा कहीं, वहां दास्तां मिली.. लम्हा कहीं नहीं।
बड़ा लेखक न केवल नया लिखता है ।  लिखने के लिए मुड़कर देखने की भी क्षमता रखता है। गुलज़ार बड़े लेखक हैं। रचनात्मक आचरण के धनी हैं। अपनी चीजों को विलक्षण अंदाज़ में दोहराने की जबरदस्त काबलियत  रखते हैं। इन दोहरावों ने रचनात्मकता का आखिर भला ही किया है।

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हैबरमास देशभक्त हैं, लेकिन अंध-राष्ट्रवादी नहीं

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प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक युर्गन हेबरमास की जीवनी के बहाने उनकी चिंतन दृष्टि पर आज सुबह रामचंद्र गुहा का एक अच्छा लेख ‘दैनिक हिंदुस्तान’ में पढ़ा। हिन्दी अखबारों में इस तरह के बौद्धिक लेख कम ही आते हैं। पढ़ते ही साझा कर रहा हूँ- मॉडरेटर

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एडवर्ड सईद हमारी पीढ़ी के भारतीय बुद्धिजीवियों के नायक रहे हैं। एक युवा वामपंथी के नाते पूर्व पर लिखने वाले पश्चिमी विद्वानों पर उनके हमले हमें ऊर्जा देते थे। तीसरी दुनिया के देशों का समर्थक होने के नाते इजरायली अपराधों की निंदा और फलस्तीनियों के प्रति एकजुटता का उनका पक्ष हमें प्रभावित करता था। मेरे कुछ दोस्त सईद के प्रति आजीवन समर्पित रहे, हालांकि मेरा मोहभंग होने लगा था। सईद से दूर जाने के पीछे वेरियर एलविन की बायोग्राफी की भी बड़ी भूमिका रही। वही एल्विन, जो एक औपनिवेशिक बिशप के बेटे थे, जो बाद में महात्मा गांधी के अनुयायी और नेहरू के दोस्त बने। वह आदिवासियों के बीच उन्हीं का होकर रह गए।

मेरे दोस्तों की नजर में सईद ‘सच्चाई को सत्ता’ मानने वाले एक ऐसे सार्वजनिक बुद्धिजीवी थे, जिनका अुनकरण होना चाहिए। वैसे, मैं न तो इतिहास की उनकी समझ से सहमत था, न उनके राजनीतिक लेखन से। मुझे वह आत्ममुग्ध ज्यादा लगे। मुझे खुद को ‘सईदवादी’ घोषित करने की होड़ भी अच्छी नहीं लगती थी। लगता था कि कहीं राजनेता भी यही करने लगे, फिर तो लोकतंत्र ही खतरे में पड़ जाएगा। यदि बुद्धिजीवियों को चाटुकारिता और नायक पूजा का रोग लग गया, फिर तो विवेकशील दुनिया ही खतरे में पड़ जाएगी।

एक दशक पहले इस महान इंसान की मौत के कुछ ही दिनों बाद मैंने सईद और सईदवादियों पर लिखा था। आज आधुनिक पश्चिमी बौद्धिक इतिहास के अप्रतिम नाम और जर्मन दार्शनिक-समाजशास्त्री युर्गन हैबरमास की नई जीवनी पढ़ते हुए सईद फिर याद आ रहे हैं। किताब हैबरमास को कुछ इस तरह उद्धृत करती है- ‘बौद्धिकों के पास इतनी सामर्थ्य होनी चाहिए कि अपनी बात कह सकें, लेकिन प्रतिक्रिया की सीमाओं का अतिक्रमण न करने का धैर्य भी होना चाहिए।’ यह सच है कि एक अन्यायपूर्ण और भेदभाव वाली दुनिया में किसी बौद्धिक को ऐसी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन उन्हें प्राथमिकताएं याद रहनी चाहिए।

 हैबरमास की यह बायोग्राफी कभी उनके छात्र रहे और अब ओडनबर्ग यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के प्रोफेसर स्टीफन मुलर-डूम ने लिखी है। खासे शोध के बाद लिखी गई यह बायोग्राफी श्रमसाध्य तो है ही, बौद्धिक अवदान पर पूरी तरह फोकस होने के बावजूद उनके निजी पक्ष की अनदेखी नहीं करती। 1929 में जन्मे हैबरमास द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के वक्त महज 16 साल के थे। नाजी सेना में जबरन शामिल करने के लिए यह उम्र छोटी रही हो, लेकिन हिटलर की भयावहता के लिए वह पर्याप्त बडे़ हो चुके थे।

मिलर ने हैबरमास की प्रमुख किताबों के साथ उनके महत्वपूर्ण भाषणों और अखबारी लेखन पर भी बारीकी से काम किया है। वह उनके निजी जीवन व दार्शनिक झुकाव के कई दिलचस्प तार भी जोड़ते हैं। मसलन, शुरुआत में ही तालू का विकार दूर करने के लिए हुए कई ऑपरेशनों से इंसानी रिश्तों की बारीकी, या बचपन के अनुभवों से और भी बहुत कुछ सीखना।

हैबरमास देशभक्त हैं, लेकिन अंध-राष्ट्रवादी नहीं। विश्व युद्ध बाद के पश्चिम जर्मनी के लोकतांत्रिक मूल्यों व योजनाओं के प्रति समर्पित हैं, मगर जरूरत पड़ने पर नीतियों और नेताओं की आलोचना करने से नहीं चूकते। मध्यमार्गी वामपंथी होने के कारण चरमपंथियों का निशाने बने। सत्तर के दशक में तो वामपंथी जर्मनों पर देशविरोधी होने का आरोप लगाकर हमलों का ही दौर-दौरा चल पड़ा था। कंजरवेटिव आलोचक तो माओवादी क्रांतिकारियों और हैबरमास सरीखे सोशल डेमोक्रेट्स में घालमेल करने से बाज नहीं आते थे। हैबरमास ने इस पर लिखा-‘यदि बाएं बाजू के बुद्धिजीवियों को इस वक्त आंतरिक दुश्मन घोषित किया गया है, और उन्हें सार्वजनिक मानहानि के जरिए नैतिक तौर पर अलग-थलग किया जाता है, तो क्या यह हमारे बौद्धिकों के उस समूह को कमजोर करना नहीं होगा, जो वक्त जरूरत हमारी राजनीति के उस अतिवाद की आलोचना करते हैं, जो लोकतंत्र के लिए खतरा बनने लगता है’। ये शब्द भारत के वर्तमान के आस-पास दिखते हैं।

1995 में एक इतालवी  साप्ताहिक ल’एक्सप्रेसो ने हैबरमास का साक्षात्कार छापा था। उनसे पूछा गया- ‘आज आपके लिए जर्मन होने का क्या मतलब है?’ हैबरमास का जवाब था- ‘याद रखिए, सौभाग्यशाली तारीख 1989 (जब सोवियत साम्राज्य का पतन हुआ) हमें 1945 की उस तारीख की याद दिलाती है, (जब नाजीवाद अंतत: परास्त हुआ था)।’ आज भारतीय लोकतंत्र के लिए शायद 1977 और 1980 प्रासंगिक हो गए हैं। वह तारीख याद रखनी चाहिए, जब एक लोकतांत्रिक गठबंधन ने इंदिरा गांधी की सत्ता को धराशाई किया, लेकिन उस तारीख को भी नहीं भूलना चाहिए, जब 1980 में वही गठबंधन भरभराकर गिरा और इंदिरा गांधी की वापसी का रास्ता फिर खुला।

किताब पढ़ते हुए ऐसी ही एक जीवनी अमत्र्य सेन की भी देखने की इच्छा हो रही है। इन दोनों में अद्भुत समानताएं हैं। हैबरमास अपने तालुओं के विकार से लेकर नाजीवाद का पतन तक देखते हैं, तो सेन के पास कैंसर को हराने से लेकर विभाजन की त्रासदी के अनुभव हैं। दोनों की अपने देश में ही नहीं, विदेश में भी समान प्रतिष्ठा है। दोनों अपने-अपने देश में अतिवादी हमले भी झेलते हैं और प्रशंसकों की बड़ी फौज भी है।

कुछ अंतर भी हैं। हैबरमास एक दार्शनिक से समाजशास्त्री बने, तो सेन एक अर्थशास्त्री से दार्शनिक बन गए। यहां सामाजिक भेद भी हैं। हैबरमास ने हमेशा जर्मनी में काम किया, सेन ने अधिकांश वयस्क जीवन मातृभूमि से बाहर बिताया। हैबरमास के पास नोबेल पुरस्कार भी नहीं है, हालांकि अन्य बडे़ पुरस्कार  हैं।

स्टीफन मुलर-डूम की जीवनी में कोई कमी है, तो वह है इसका भक्ति भाव। शायद हैबरमास का छात्र और एक ही देश का होना इसका कारण हो। मैं भी अमत्र्य सेन को लंबे समय तक बौद्धिक योगदान देते देखना चाहता हूं। उनके लिए एक अत्यंत योग्य ऐसा जीवनीकार भी ढूंढ़ना चाहूंगा, जो दर्शनशास्त्र से परिचय के साथ अर्थशास्त्री तो हो, मगर सेन का छात्र और बंगाली न हो।

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