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आजादी के दिन कुछ अच्छी रचनाएँ भी पढनी चाहिए. जैसे कविता की यह कहानी. संयोग से आज उनका जन्मदिन भी है. बधाई के साथ- मॉडरेटर
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1
उस दिन अपनी आखिरी कोशिश के बाद मैं और भहराई थी, टूटते किनारों के दहाने जैसे अपने आप खुल गए, मुझे बहा ले जाने के लिए अपनी जद में …
मैं डर गई थी उस आगत से …जो शायद इस दुख से तनिक भी जियादा नहीं होता …
मैं जानती थी लौटना फिर नहीं हो सकता था …
और मैं लौटना चाहती थी, बल्कि बहना नहीं चाहती थी उस सैलाब में ……
जनवरी का ठिठुरता महीना था,रात के दो बज रहे थे; मैं छत पर आ गई थी …और इस तरह फूट –फूटकर रोई जितना ज़िंदगी मे कभी नहीं रोई हूंगी …
हिचकियाँ पर हिचकियाँ …कितनी तकलीफ ,कितना दर्द ,सब जैसे आंसुओं में निकल बहने को आतुर ..
.शायद मुझे अब भी इंतजार था, वह आएगा और समेट ले जाएगा मुझे अपनी साए तले;
एक आखिरी इंतजार …
पर ऐसा न होना था, न हुआ।
बहते हुए आँसू भी सोचने लगे थे कि उन्हें इस तरह जाया करने से क्या फायदा?
सिसकियाँ डूबने लगी थी, पलकें सूखने …
काँधें सहमने लगे थे…
उस एक आखिरी वक़्त मैंने याद किया उन सबको । जिन सबने मुझे बेपनाह प्यार दिया था,जिनके प्यार में कोई शर्त नहीं थी, न कोई उम्मीद; हासिल करने या मुझे बदलने की कोई चाहना भी नहीं ।
वे सब जोकि अब इस दुनिया में नहीं थे । परिवार के …या बाहर के भी…
मैंने दिल –ही-दिल में पुकारा था ,कहाँ हैं आप सब…? कोई देख रहा है मुझे…?
आप सुन पा रहे हैं कि नहीं मुझे …
देखते हैं न, किस मोड़ आन खड़ी हुई हूँ ?
कितनी अकेली हो गईं हूँ कि कोई रास्ता नहीं है मेरे आगे …
है कोई तो रास्ता दिखाये मुझे, सुझाए मुझे कोई राह ,
बताये कि सुन रहें हैं ,समझ रहे हैं मुझे …हैं मेरे साथ?
फिर हंस दी थी खुद ही जोर से, एक सूखी – निरर्थक, उदास सी हंसी…
…कि सकते में रह जाती हूँ …
इतनी रात गए …चील जैसी एक बड़ी चिड़िया अचानक कहीं से उड़ती हुई आई थी, अपने रुदन जैसे तेज – तीखे धारदार आवाज में शोर करती हुई, मेरे सिर के चारों तरफ दो तीन गोल चक्कर लगाकर न जाने कहाँ दूर गुम हो गई थी ….
देखते –ही –देखते न जाने कहाँ ओझल …
मैंने सोच चाहा था कोई पक्षी होगा ,जो अपनी राह भूल गया होगा … या फिर अपना घर …
और उसी की तलाश में …
फिर भी इतनी रात गए ..अचानक …?
शायद मुझे खुश होना चाहिए था ….या फिर आश्वस्त…
किसी ने तो मेरी पुकार सुनी थी…
पर मैं डर गई थी बेइंतहां …
क्यों यह सोचकर भी नहीं समझ पा रही थी …
और लौट आई थी फिर से उसी चहारदीवारी के भीतर जहां मेरी साँसे घुटती थी…
छूटना, याकि मोह का टूटना लगभग वहीं से शुरू हुआ था…
हालांकि एकबारगी नहीं टूटता कुछ भी, छूटता भी नहीं…इस टूटने और छूटने के बीच में समय का एक लंबा वक्फ़ा अटका याकि फंसा पड़ा होता है, अपनी मुक्ति के लिए तड़फड़ाता…
कोई तो एक बिन्दु होता है वह …
और मेरे लिए यह वही बिन्दु था
उस दिन जब झंझोल के मुझे मेरी औकात बताते हुए मेरे तथाकथित दुष्कर्मों के लिए जब वह रोज की तरह मुझे बरामदे के बिछावन पर धकेल गया था, जहाँ मेरा सिर मेरी अधछूटी थाली के खाने में औंधा पड़ा था…चश्मा आँखों से छूटकर कहीं दूर जाकर टूटा-फूटा पड़ा था, मैंने चीखकर कहा था -तुम कोई नहीं होते मुझे किसी तरह कि कोई सजा देनेवाले…
पहले खुद के भीतर झांककर देखो…अपनी शक्ल देखो आईने के सामने खड़े होकर , फिर मुझे कोई सजा देना…
तुम यही चाहते हो न मैं चली जाऊं ..तो मैं चली जाऊंगी..
पर आइन्दा मुझ पर अब कभी हाथ नहीं उठाना …
मेरे कहने से वह सन्नाटे में आया था एक पल को …
‘चली जाऊंगी क्या, अभी चली जाओ..इसी वक़्त…
मैं गाड़ी बुलाता हूँ अभी…कहते हुए वह मुझे कंधे से घसीटते और खींचते हुए घर का दरवाजा खोल सीढ़ियों तक खींच ले आया था…
मैं किसी तरह उसकी पकड़ से छूटती हूँ और पूरे दम से चीखकर कहती हूँ -नहीं अभी और ऐसे तो बिलकुल नहीं ….अपनी बेटी को साथ लेकर जाऊँगी …
मैंने अपने कमरे में आकर दरवाजा फिर से बंदकर लिया है, और सोई हुई बेटी से चिपककर फूट फूटकर रो पड़ी हूँ …
बात तत्काल के लिए किसी तरह ख़त्म हुई थी…
पर झूठ न कहूं तो मुझे उस वक्त यह कहकर एक अजीब सी शान्ति मिली थी. सुकून का एक बलबला फ़ैल गया था जैसे भीतर…
अब वह सारी यातना ख़त्म होने वाली हो जैसे…
रोज रोज के वे तमाम नए झमेले और पुराने पचड़े भी…
हर पल सहमते हुए जीना…किसी भी पल के शान्ति से गुजर जाने के ठीक बाद पल भर को राहत की सांस लेना, जैसे ख़त्म हुआ हो इस पल…
उस शान्ति के बाद एक हहराता हुआ एक सन्नाटा निस्तब्ध कर गया था मुझे….आखिर मैंने वही किया न, जो वो चाहता था, जिसके लिए वो हर तरह से, हर तर्ज पर कहता रहा था मुझे, वर्षों से…?
और मैं थी कि हर हाल में बिटिया को पिता के साए में भी देखना चाहती थी, और माँ का साथ भी देना…
अपनी जिदें और संवेदना भी कभी कभी हमें किस हाल ला खडा करती हैं…इसके जिम्मेदार भी खुद हम होते हैं, और दूसरा कोई नहीं …
बच्चे का अकेलापन और एकांत ही सबसे ज्यादा समझ आ रहा था मुझे उन दिनों. .बच्ची को पिता बिना कर देना पिता के होते भी मुझसे मुमकिन नहीं था..
यह एक पितृहीन बच्ची की जिद थी शायद …
रोज एक एक दिन किसी तरह कट रहा था…
कभी बच्ची बीमार होने के नाम पर मुझे रोकने की जिद करती…तो कभी त्यौहार और कभी आगामी परीक्षा के नाम पर…
रूकने के नाम पर उसका चेहरा सुजा हुआ देखती मैं- मैं जानता हूँ यह सब नाटक है…रोज रोज कोई नया बहाना ..
मेरा बनाया खाना तक उसने कब का खाना छोड़ दिया, खाना पड़ा रहता है और वह दफ्तर से आकर अपने लिए फिर से बनाता…
और बचे खाने को मैं रोज ब रोज बाहर कुत्तों को डालकर आती…
जब इस सबसे भी मैं नहीं निकली थी तो उसने वह राह निकली, जिसके बाद मेरा रूकना संभव नहीं था बिलकुल …
अंततः वह चला गया था..
.मैं लौटूं तो तुम यहाँ मत दीखना…बेटी को मैं साथ लेता आऊँगा..क्योंकि उसका साल बर्बाद नहीं करना है…मार्च के बाद सोचेंगे उसके बारे में….
वह चाहता था की मैं निशू को उसके पास छोड़ दूँ। पर ठीक –ठीक यह भी नहीं जानती कि चाहता था या सिर्फ कह रहा था… एक जिद में भार के …
कह देना भर कितना आसान होता है,चाहने,न चाहने के द्वंद को भीतर कहीं दबाकर – सिर्फ कह देना?
कहते हुए उसे क्या एक बार भी यह ख़याल नहीं आया होगा कि निशू के लिए ढेर सारा वक़्त वह कहाँ से लायेगा?
अपने व्यक्तिगत और रुचिगत कामों में निशू के लिए कैसे वक़्त तलाशेगा वह?
वही वक़्त आखिरकार कहाँ से बरस पड़ेगा जिसकी कमी का गान वह ज़िंदगी भर गाता रहा है?
अगर वक़्त ही होता उसके पास हमारे लिए तो …
उसने जान-बूझकर ओढ़ ली थी व्यस्तता कि चादर, उसे लपेट लिया था अपने गिर्द इस तरह कि कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी कि हमारी कोई घुसपैठ भी हो उस दुनिया में…
मैं उसके कहे पर विश्वास कर भी लूं तो शायद आजाद हो जाती थोड़ी और चिंतामुक्त भी …
पर ऐसा नहीं कर सकटी थी एक तो अपने स्वभाव दूसरे निशू के लिए अपने अगाध लगाव से मजबूर होकर ..
.एक खटका कहीं मन मे हमेशा लगा रहता है,कैसे विश्वास कर सकती हूं…
जो मेरे लिए बदल सकता है पूरी तरह , वह निशू के लिए क्यूँ नहीं …
सिर्फ इसलिए की निशू उसकी बेटी है ?
कब सोच पायी थी कि एक दिन होते हुए भी न होने कि तरह हो जाऊँगी एक दिन
… उसकी ज़िंदगी से इस तरह बेदखल हो जाऊँगी कभी ?
मेरी आवाज, मेरी हँसी ,मेरे आँसू, मेरा दर्द-रुदन कुछ भी मायने नहीं रखता होगा क्योंकि मेरा वजूद ही मायने नहीं रखता होगा कहीं उसके लिए …
वह कहता बहुत शोरगुल होता है इस घर में, इतने कोलाहल मे मुझसे कुछ भी नहीं होता,न ही रहा जाता है …
और मुझे चुभता रहता इसका मुर्दनी भरा सन्नाटा.
जिसे तोड़ने के खातिर ही कुछ कहने जाती उससे और उसकी दुत्कार सुनकर वापस लौट आती.
यह बर्बरता के सिवा और क्या है …आप किसी को जलती हुई आग में धकेल दें,या फिर बिना तैरना जानने वाले को अतल समुद्र में …और जब वह छटपटाए,चीखे-चिल्लाये, अपने हाथ-पाँव मारे तो आप कहें कि वह कितना असभ्य है, कितन जाहिल…
अब मैं इस वहम से ऊपर उठ चुकी थी कि बोलने-बातें करने से मसले हल होते हैं .
मैंने देख लिया था बोलने – कहने से बिगड़ता ही है वह सब कुछ जो चुप रहने से सही और सँवरे रहने का भ्रम तो देता ही था …थोड़ा सा ही सही इत्मिनान भी…
सो कहना मैंने छोड़ दिया था…और सुनना उसने … न जाने कब से …
सहना बचा रह गया था ज़िंदगी में, वह भी इसलिए कि निशू थी. वह हम दोनों को चाहिए थी, एक साथ.
सो अलग –अलग होकर भी हम साथ थे और मेरी तरफ से इसलिए कि अब भी मुझे इंतजार था, अब भी मैं उसे प्यार करती थी
रोज हजारों सवाल मुंह उठाये खड़े होते थे मेरे सामने…कहाँ जाऊंगी? क्या करूंगी?
बेटी का क्या होना है….? सबसे ज्यादा परेशान मुझे यही सवाल करता था…
तकलीफों के हर हद को सह सकती थी पर सवाल था कि मुझे चैन ही लेने ही नहीं देता था …
सोचना चाहती कई कई बार ,जब प्यार नहीं है उसके दिल में मेरे लिए, तो फिर क्यों हठ ठाने बैठी हूँ मैं…
निर्णय लेना आसान नहीं था,पर निर्णय ले ही लिया था उस दिन आखिरककार…
और उस दिन और उस पल लगा था, इससे बेहतर और कुछ भी नहीं होता मेरे लिए …
लेकिन मन था कि रह रहके हिलता–डुलता रहता,करवटें बदलता रहता…
कभी कभी सोचती और सोचती रहती …दूर चले जाना ही शायद हमारे रिश्ते को बचाने की आखिरी तरकीब हो?
दूरियां कई बार हमें सोचने, समझने और गौर करने की सहूलियत देती हैं…
मैं भी तो देखूं यह जो मैं प्यार प्यार दुहराती रहती हूँ हर कठिन घडी में, किसी जीवन मन्त्र की तरह. यह प्यार जैसा भी कुछ ठहरा..या फिर अपनी अकर्मण्यता, परजीविता और एकाएक से अपने उपर अपना दायित्व आ जाने के भय से पैदा होने वाला डर भर ठहरा ?
मैं मुक्त होकर उस प्यार की गहराई और जड़ों की सीमान्तता थाहना चाहती थी…
चाहे जिंदगी जैसी भी हो आदत तो हो ही जाती है उसकी…और अजाने भविष्य की तीरगी डराती भी है….
फिर भी कदम थे कि चल ही तो दिये थे …
2
…और अब मैं यहाँ हूँ पर नहीं हूँ ,मेरे अवचेतन में कोई घर है दो कमरों वाला …उसकी नन्ही सी बाल्कनी है।
दरअसल कहीं होना या रहना एक मनःस्थिति है ;चुन लेने की मनःस्थिति। यह स्वेच्छा है या फिर विवशता भी …
हम जहां होते हैं दरअसल वहाँ नहीं होते, और जहां नहीं होते वहीं कहीं खूँटे से गड़े -अड़े अंठियाए से पड़े होते हैं. लाख निकल लें, निकाल दिये जाये, मोह है कि छूटता ही नहीं .
खासकर वैसी जगहों से तो और भी नहीं जिसे रज-रजकर रचते रहे हों। गढते रहे हों जिसमें वर्षों तक अपना स्वर्ग।
जिसका तिनका –तिनका जोड़ा हो उम्मीद से,पसंद से। रोशनी के धागों से सिली हो जिसकी हर गिरह.
…और सपने में भी जिसके लिए यह सोचना गंवारा न हों कि यह मेरा नहीं है,या हो सकता है …
हाँ वह जगह और वैसी जगहें भी छूट जाती हैं।
वैसे रिश्ते भी जो कभी अपनी साँसो कि तरह जरूरी लगते हैं, जीवन के लिए …
छोड़ देना और छोड़ दिये जाने को मजबूर किया जाना दोनों में फर्क है, सोचती हूँ मैं…
मन प्रश्न करता है ऐसा भी क्या फर्क है, छूटना आखिर छूटना होता है, चाहे जैसे भी छूटे …
फिर भी नहीं छूटती जो जगहें याकि रिश्ते उंनका क्या करिए…
की तस्वीरें ठीक उन्हीं –उन्हीं जगहों पर. वही-वही हरेक चीज.
उसी नियत स्थान पर …
तर्क …निशु आएगी तो…उसे ऐसे ही रहने की आदत है?
आदतें तो बहुत कुछ की नहीं होती पर बनानी होती है समय के साथ।
मैं कहाँ दे पाऊँगी उसे वह सब, जो उसे पिता से मिलता है …
फिर भी कोशिश करती हूँ,वह सब कुछ बटोर सकूं जो उसे चाहिए, या फिर जितने की जरुरत उसे है …
बीमार पड़ती हूँ और नौकरी भी विदा लेती है.
अब खाली हाथ, कैसे आएगी निशू, मुझ तक न आने देने का उसे एक और तर्क, एक और कारण मिल जायेगा…
‘उसके लिए अभी मैं जिंदा हूँ…पहले खुद के लायक होने की सोचो उसके लिए फिर सोचना …’
मैं कब हूँगी इस लायक ..कब वह मेरे पास होगी ..मैं फूट फूटकर बिलखती हूँ, बीमार पड़ती हूँ…
बीमार पड़ती हूँ बिलखती हूँ.
यह एक अनवरत चलने वाला क्रम हो जैसे …
और मैं एकदम निस्सहाय …
किसके बल पर कहूं कुछ ?
और किससे कहूं…कौन सुनेगा, कौन देगा मेरी बात पर कान …
मैं अंतहीन तूफानों से बस बेटी की तस्वीर कलेजे से लगाये लड़ती हूँ.
वह तस्वीर जो न मुझे डूबने देती है, और न बचने ठीक से …
आवाज सुन लेती हूँ उसकी तो ढाढस मिलती है जैसे, डूबती साँसों को थोड़ी सा ऑक्सीजन.
फिर चुपके से उसकी आवाज में या फिर उसके इर्द गिर्द तलाशती रहती हूँ कोई आवाज …
वह आसपास है क्या बिटिया के ?
वह कुछ कह रहा है क्या, या फिर टी.वी चला रखा है बिटिया ने कि उसे अकेला होना न खले …
इधर उसने टीवी ऑन रखने की आदत बना ली है. ..मना करती हूँ आँख दुखेगा तुम्हारा…तो कहती है ऐसे रहने की आदत नहीं न…डर लगता है…मैं निरुत्तर हो जाती हूँ.
कई बार उससे पूछती भी हूँ –पापा थे क्या आसपास, वे कुछ कह रहे थे क्या कहने को? वो कभी हाँ कहती, कभी नहीं…
कभी एकदम चुप रहती है तो कभी बात की दिशा ही मोड़ देती है …
मैं भूल ही नहीं पाती थी पिछला कुछ भी, जबकि भूल जाना चाहिए था कब का ।
मेरी आँखों से गुजरते ही नहीं वे बीते दिन,जबकि उन्हें बीत जाना चाहिए था कब का।
जब उसके साथ थी तब भी कब उसके साथ थी,उन बीते दिनों के साथ थी जो बीत चुके थे कब के …
जो बचा था वह आभासी था और यह आभासी दुनिया मेरा असली सच।
इसीलिए दुख, चोट, बातें असर करती तो थी पर उतना नहीं…
या फिर उतना ही ,जितना कि मैं असर लेना चाहती थी उनका;या कि जितनी देर तक ….
मैं अपने कल्पना पुरुष के साथ ज़िंदगी व्यतीत कर रही ही…
बल्कि कहें तो अतीत पुरूष के साथ…
उस अतीत पुरुष के साथ जिसके लिए मेरे सुख-दुख, हंसी-मुस्कान, छोटे-छोटे लम्हे, छोटी-छोटी बातें भी बहुत मायने रखती थी . …वह अतीत पुरुष,जो मेरे लिए जीता था …और मैं उसके लिये ..
हाँ दुख तब भी थे, गलतफहमियाँ भी थी ;पर हम उनके होने को अनहुआ कर देते थे मिलकर …
हर मुश्किल हर कठिनाई का हल मिल ही जाता था फिर…
नहीं भी मिलता तो हमारे कांधे एक–दूसरे को सहारा देने के लिये पर्याप्त थे…दुख शायद इसीलिए छोटे जान पड़ते थे तब…
लेकिन अब सामनेवला व्यक्ति वह व्यक्ति ही नहीं था…यह अलग बात है कि मेरी स्मृतियों में ,मेरे साथ हमेशा वही चेहरा चलता रहता ।
वह कुछ भी करता-कहता बहुत बुरा सा,मैं चाहती कि मैं नफरत करूँ उससे पर उसी वक़्त मुझे कोई पुरानी अच्छी सी बात याद आ जाती। दुख होकर भी नहीं थे शायद इसलिए …
कि मैं अच्छी यादों के जिरह –बख्तर में लपेटे रहती खुद को,कछुए की मानिंद।
इसीलिए हर आसन्न –संकट टल गई जान पड़ती मुझे…
पर यह जिरह –बख्तर भी जीर्ण-शीर्ण होने लगा था धीरे -धीरे …
मेरे टालने भर से कहाँ टलता रहा था कुछ भी…
आखिरी वक्त कोई कुछ भी कहे हम मतलब वही निकालते हैं जोकि निकालना चाहते हैं.
मुझे ऊंची आवाज में भी बोलते हुए अबतक किसी ने नहीं सुना होगा ।पर जब भी कुछ कहने – बोलने जाओ –‘वह कहता चिल्ल-पों, चिल्ल-पो,जब मन टूटता है ऐसे ही सारी शिकायतें ऐब बनकर उँगलियों पर आ जाती है गिनाने की खातिर , फिर कमियाँ –ही -कमियाँ नजर आने लगती हैं सामने वाले में…
और जब कोई आवाज सुनने को भी तैयार नहीं हो तो सामनेवाला कहेगा ही न किसी तरह ,प्यार से,खीजकर,गुस्से से या फिर चीखकर ?
यह त्रासदी के सिवा और क्या था कि मेरे एक – एक शब्द को तरसते शख्स को आज मेरी आवाज कर्ण-कटु लगने लगी थी। मन का भर जाने शायद यही होता है …
या फिर और कहीं जुड़ जाना …
हर जुड़ाव पिछले रिश्ते को खा जाता है,निगल लेता है पूरा-का पूरा…
मैं जब उसकी ज़िंदगी में आई थी,क्या माँ – बाबूजी को ऐसा ही लगा होगा? रिंकी को भी…मैं तब इतराती मन-ही-मन ,थोड़ा और खिल उठती , फूली न समाती जब वह कहता जन्म दिया है उन लोगों ने,पाला-पोसा. मेरी हर ख़्वाहिश पूरी की,एक पल को उनके बगैर जीने कि सोच सकता हूँ, तुम्हारे बगैर नहीं।
बगैर यह सोचे-पूछे कि मैं उनसे भी महत कैसे हो गई, जिनके बगैर तुम होते ही कहाँ?
उस एकलौती बहन से भी जिसके लाड़ में वह ग्रुप –पिकनिक, पिक्चर और दोस्तों के साथ के सारे प्रोग्राम दरकिनार करता रहता, छुट्टी का एक दिन वह भी बाहर रहूँगा तो उसे बुरा लगेगा. मुझसे करीब होते –होते यह बन्दिशें टूटने लगी थी,उसकी परवाह भी पीछे छूटने लगी थी। उसकी जिदें असहनीय जान पड़ने लगी थी …
दरअसल हमारे भीतर एक ही जगह होती है ,विशिष्ट सी। और वहाँ कोई एक ही हो सकता है …जब कोई और आने लगे भीतर तो पहले को अपनी जगह खाली करनी होती है, उसे खुद निकलना होता है…या फिर निकाले जाने को तैयार होना होता है …
और प्रेम भी एक ही होता है एक ही तरह का…
केवल एक देह की बात परे रख दें तो…
तो मुझे भी वह जगह खाली करनी थी,जो दरअसल पहले ही खाली हो चुकी थी; बस तैयार होना था उस बेदखली को…
बारिश आई है शायद, निशू बालकनी से उठाकर सारे कपड़े बिछावन पर रख गई है …
नजरें जैसे कह रही हों – तुमको तो माँ कुछ भी खयाल नहीं रहता।
मैं चली जाऊंगी जब तो कैसे संभालोगी सब अकेले?
मैं सकते में हूँ … हाँ उसके जाने का दिन करीब आने लगा है.
सोचती हूँ और बार बार मन ही मन और बार बार किसी भूल जाने वाले बुद्धू बच्चे की तरह दुहराती हूँ मन ही मन –लौटना किसी क्रिया का नाम नहीं…
निशु जिस रात आई थी पहली बार मेरे पास, बातें करते करते अचानक एकदम से उदास और चुप्प हो गई थी …
मैंने पूछा था क्या हुआ बेटा?
पापा की याद आ रही है?
उसने हौले से कहाँ आआआआ-हां…
और बहुत देर तक चुप रहने के बाद बेहद उदास स्वर में कहा था-चाहे कहीं रहूँ, मुझे एक को तो मिस करना ही है…
उसके सो जाने के बाद देर तक कानों में मेरे गूंजती रही थी उसकी यह बात -किसी एक को तो मुझे मिस करना ही है…
मेरा ग्लानिबोध मुझे उस रात सोने नहीं दे रहा था पूरी रात, बेटी के महीनों बाद ठीक मेरी बगल में सोये होने, उसे कहानियाँ, लोरियां सुना सकने और नीद में उसे, उसकी बालों को छू सकने, सहा सकने के उन तमाम दिवा स्वप्नों के साकार होने के बाबजूद, जिसे मैं रोज बस कल्पना ही कर सकती थी…
निशु उलझा- बिखरा घर समेट रही है…
निशू बहुत जल्दी बड़ी हो रही है ,इतनी जल्दी कि मैं भी चकित हूँ …
पर वह जिस अनुपात में बड़ी हो रही है मैं उसी अनुपात में मइन दिनों नासमझ और बच्ची होती जा रही हूँ…
निशू सब कपड़े बटोरकर रैक में रखने जाती है, तभी चादर के कोने से सरककर गिरते हैं कुछ पुराने एल्बम …वह कहती नहीं कुछ बस अजीब निगाहों से देखती है मुझे …और उठाकर ले जाती है उसे भी अपने साथ …
…वह पूछती है –‘माँ कुछ खाया था ?’अभी ट्यूशन के बच्चे भी आते होंगे, फिर वक़्त नहीं मिलेगा आपको …
जबकि मुझे कहना था-भूख लगी होगी,कुछ खा ले …या फिर कुछ खाएगी?
निशू नाश्ता ले आई है,डब्बे से निकालकर नमकीन और मीठे बिस्किट.
मैं ने चौंककर देखा है, फिर पूछा है उससे –‘तुमने अपने सारे काम निबटा लिए, होलीडे होमवर्क खत्म हुआ तुम्हारा …
वह हँसकर कहती है हाँ माँ…कई दिन पहले…
अरे आपने तो इतनी देर में ये सारे कपड़े तहा लिए…मैं चौंकर देखती हूँ- कब?
आदतन ही कर जाते हैं हम बहुत कुछ वह,जो करते नहीं होते मन से …ज़िंदगी एक अभ्यास है और उसे जिए जाना भी…
हम औरतें यूं भी सब उलझा-बिखरा पल में समेट लेती हैं ,बस नहीं सहेज पाती उसी सरलता से तो अपना उलझा -बिखरा मन.
…हम तहाकर रख देती हैं सब फैला-फूला. बस नहीं तहाकर रख पाती उसी सहजता से तो अपनी स्मृतियाँ और विगत.
यह जानते बूझते भी कि सब मुश्किलों का हल कहीं इसी तहाने में है …
एक बेमालूम हंसी हमदोनों के चेहरे पर तैर आई है। हम पोहा खा रहे हैं, मैं ही नहीं निशू भी सोच रही है शायद कुछ …उसके होठों पर एक बेनाम सी मुस्कुराहट है …और उस मुस्कुराहट के नीचे दबी एक अंतहीन उदासी .
..
.’.क्या सोच रही हो बेटा? कुछ याद आया क्या?
हाँ ,पहले आप पोहा देती थी टिफिन में तो मैं धीरे से डस्टबिन में डाल आती थी …या फिर वहीं कहीं स्कूल में ही छिपाकर फेंक आती कि आप देखती तो खूब नाराज होंगी,
लेकिन पापा नहीं डांटते कभी …
मैंने तो तुम्हें उनकी हाथों से कई बार पोहा खाते भी देखा है…
हाँ पापा के हाथों से न? उनके हाथों से तो मैं कुछ भी खा लेती हूँ. मुझे पता ही नहीं लगता मैं क्या खा रही हूँ ,कुछ भी बेस्वाद नहीं लगता …
वह मुसकुराती है कहकर और उस मुस्कुराहट पर उदासी कि भूरी तहदार परतें फिर चढ़ने लगी हैं ,रंगत दिखाने लगी हैं अपनी…
सबसे ज्यादा अफसोस हमेशा निशू के लिए हुआ …शादी के कितने साल बाद तो हुई थी यह जानती कि कल को यही होना है तो …
मुझे कूछ भी तो नहीं भूलता,निशू के आने कि खुशी, उनका प्यार,उनका सहयोग, निशू की देखभाल के लिए हमेशा उनका आगे रहना…
इतने सारे रूप ,इतने सारे चेहरे? प्यार किया तो बेहद और नफरत भी वैसे ही टूटकर…
बीता वक़्त चाहे जैसा भी रहा हो, पर हमारी यादें उसे धो-पोंछकर चमकीला और रंगों भरा बना देती हैं । सब कुछ जैसे सहज –सुंदर और मनभावन हो उठता है। क्या समय वह चलनी है,जिससे निथरकर स्मृतियाँ खूबसूरत हो उठती हैं?…या खो जाने या खो देने के भय में छिपा होता है वह अकथ सौंदर्य ?
ख़यालों पर ब्रेक लगा हो जैसे … ट्यूशन के बच्चे आ गए हैं,मैं उन्हें बैठने को कहती हूँ …
टेबल उनके सामने खींचकर रख देती हूँ।
यह तो भला हो स्कूल का कि नौकरी छूट जाने पर भी ये ट्यूशन बचे रहे हाथ में.
भले ही बहुत पैसे न मिल रहे हों पर जो कुछ बचा हुआ है,वह भी है तो बस इसी माध्यम से …
वहां की रोज की खिटपिट, चिखचिख ….
उस दिन बहस हो गई थी वाइस प्रिंसिपल सर से.
कई टीचर पुराने होने के नाम पर रौब भी दिखाते फिरते थे, और धौंस जमाना अलग से…
स्कूल छोड़ना नहीं चाहती थी कभी …पर झुककर, पाँव में गिरकर, जी हुजूरी करके रहना होता तो अपने घर ही टिक गई होती…
आगे फिर वही अँधेरे हैं जो घर से निकलते वक्त सामने थे-अब? अब क्या ?
..मैं खुद से भी पूछती रहती हूँ लगातार –अब? अब क्या?
फिर समझाती हूँ खुद को स्कूल में होती तो क्या टिक के बैठ पाती निशु के पास इस तरह …उसके लिए इतना वक्त होता मेरे पास ? वहां भी दिन भर अकेले रहने वाली बच्ची यहाँ भी अकेली ही होती..और वह तो फिर भी उसकी अपनी जगह ठहरी ..पली बढ़ी है वहां ..उसका स्कूल है वही..और संगी साथी भी…यहाँ वह अकेली करती भी तो क्या आखिर दिन भर?
निशू न जाने क्या सोचकर कहती है –मम्मा मैं इन्हें पढ़ा देती हूँ …
मुझे चुप देखकर फिर फिर कहती है -आपकी तबीयत ठीक नहीं लग रही मुझे…
पर…?
पर क्या माँ अपनी पढ़ाई मैं फिर पूरा कर लूँगी…आराम कर लें आप थोड़ा …
आराम किसलिए ,किया क्या जो अभी ही थक गई?
पर सच तो यह है कि न पढाने लायक मनःस्थिति है ,न मन.
थकान जैसे तारी हुआ जा रहा है दिलों –दिमाग पर…
यह तो अच्छा है यह छोटे बच्चों का ग्रुप है,बड़े बच्चे होते तो निशू से संभलते क्या…और सौ –हजार सवाल मुझसे भी किया होता.
वे चुप भी रह जाते तो माँ बाप ये कहने पहुँच आते-आपसे पढ़ने को भेजते हैं हम, न कि…
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यह एक शांत –सौम्य सी दोपहर है ,जो न जाने कितने मनुहारों के बाद आई है, मैंने भी उसकी स्वागत में जाने कितने एहतमाम कर रखें हैं…
जानती हूँ कल बिटिया को नहीं होना है, बस होना है उस सर्वव्यापी एकांत को, जिसकी चाहकर भी कभी आदी नहीं हो पाती… …लाख मन बनाऊँ,समझाती रहूँ खुद को…
उसकी आवाजों,स्मृतियों को चुन-चुन कर बटोरती फिरूंगी कल से…उनकी झालर बना टांग कर रखूंगी नजरों के सामने…
पर इससे भी क्या, वे जीती जागती बच्ची का रूप तो नहीं ही धर सकेंगी… न ही मेरा एकांत बाँट सकेंगी उस तरह से …
ये बचे हुए कुछ आखिरी लम्हे हैं समवेत मेरे और उसके हिस्से के…
दरी,तकिया, किताबों,और नाश्ते के डब्बे लेकर मैं मय बिटिया उस नन्हे से बालकनी में उस दुपहरिया को जीने आ विराजी हूँ ।
जाड़े के दिनों वाली सर्द दुपहरिया…हवा भी मेरे बगल में आ लेटी है, ठीक बिटिया की तरह ही कभी मेरे कलेजे पर अपना सर रखती ,कभी पत्रिकाओं के पन्ने उलटती – पलटती हुई।
धूप के एक टुकड़े ने छाती पर बिलकुल बिटिया के सर के बगल में अपना सर डाल दिया है…
जैसे वह भी मेरी कांपती धड़कनों को समझता हुआ धीरज दे रहा हो मुझे….
मुझमें तलाश सकती हो कल भी उसे…महसूस सकती हो उसका होना …
होना एक एहसास के सिवा और क्या होता है…
बीत जाना भी तो इक भाव ही ठहरा..बस महसूसने भर की बात भर…
हम सब सखी भाव से भरे हुई दिन के ढलने को महसूस कर रहे हैं…
संवादों के लिए यहाँ कोई जगह नहीं…
आकंठ भरी हुई उसकी आँखें आज कुछ भी नहीं कहती …
बस लिपटी हुई हैं मुझसे..इसी धूप,हवा,नमी की तरह …
अगर कह भी दिया उसने तो मेरे पास कहने को, समझाने को कुछ भी न हो, जानती हैं ये आँखें …
मैंने सिर को उठाया है, किताब से ढांक क लूँ जरा चेहरा ,कि पूरे बदन को सेंकती धूप अब आँखों को, मन को बेधने लगी है, ठीक इन्हीं निगाहों की तरह…
मैं सामना नहीं करना चाहती, भाग जाना चाहती हूँ बहुत दूर, इस दृश्य से…
अपनी आँखें वहां से दूर ले जाना चाहती हूँ, कहीं बहुत बहुत दूर …
कि चौंक गई हूँ यह देखकर– सूरज धुनिये ने रोशनी और धूप कि उजली-धुली रुई को आकाश में धुन-धानकर बराबर से बिखेर दिया है.
ताकि इस नर्म-गर्माहट को एक लिहाफ की शक्ल दे सके और दिसंबरी सर्द रातों में ठिठुरते हुए चाँद को उस लिहाफ को सौंपकर यह कह सके –यह लो तुम्हारे हिस्से मेरे मन की यह गर्माहट …
इस खयाल से जुड़ा आया है कहीं एक और खयाल ….मैं भी इन लम्हों की रुई को धुनकर बिखरा लेना चाहती हूँ अपने मन के आकाश में ,ताकि…
बेटी की बाहें मेरे इर्द गिर्द कसी हुई हैं…ठीक इस तरह जैसे वे कभी जुदा ही नहीं थी मुझसे …
जैसे हम ऐसे ही रहे हों हमेशा एक दूसरे के इर्द गिर्द, एक दूसरे के आसपास.
एक दूसरे की जरूरतों और चाहतों और ख्वाहिशों में…
बाकी जो था वो सब वहम मेरा ..सब झूठ ..
.सच बस ये और ये ही पल…
जब भी अकेलेपन का सितार अपनी धुन तेज करेगा …सन्नाटों के बादल जब कड़क और कौंध तेज करेंगे अपनी.
मैं यादों के इस सुनहरे किमखाब वाले कम्बल को लपेट लूंगी अपने इर्द गिर्द-की कोई दुःख,कोई दर्द इसके भीतर पनाह लेने न आ सके …
मैं चाहती हूँ मैं उसकी आँखों में झांककर देखूं, जानूं कि वह क्या सोच रही ठीक इस वक्त…
सामने से देखने की हिम्मत न करते हुए बस चोर निगाहों से तकती हूँ उसकी तरफ …
वहां भी बस एक नीला इत्मीनान पसरा है, सन्नाटा नहीं कह सकती इसे…
सुकून भी नहीं, बस कोई चीज है, इन दोनों के बीच वाला …
पल भर को सोचती हूँ कहीं अपने भाव ही तो आरोपित नहीं कर रही उन आँखों में?
अक्सरहां हम वही कुछ देखना चाहते हैं दूसरों में , जोकि हम दरअसल देखना चाहते हैं…
अपनी कल्पना अपनी सोच का कोई दृश्य, कोई बिम्ब …
मेरे मन में इन पलों के लिए एहतराम उतार आया है बहुत–बहुत.
वो पल जो थके हारे वक़्त और टूटती साँसों में नई जान देने के लिए कुछ न कुछ रचते और कहते और समझाईश देते रहते हैं…बिना चाहे, बिना मांगे,बिला शर्त …
हम देखें की न देखें ..हम चाहे अनसुनी कर दें …
हम दोनों चुपचाप हैं अब भी …
दिन है कि बीता जा रहा है, भरोसा देने वाला वह दृश्य भी…
बचे हुए इन कुछ पलों और दिन के इस आखिरी हिस्से में हम कुछ भी नहीं कहते एक दूसरे से…
कोई वादा भी नहीं देते लेते…
कि यह कुछ न कहना ही सब कह देना हो जैसे…
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कविता
एन. एच.3 , सी /76
विन्ध्यनगर , सिंगरौली
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