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‘ऐसी वैसी औरत’में यथार्थ और कल्पना

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सोशल मीडिया के माध्यम से इधर कुछ लेखक-लेखिकाओं ने अपनी अच्छी पहचान बनाई है। इनमें एक नाम अंकिता जैन का भी है। उनके कहानी संग्रह ‘ऐसी वैसी औरत’ की एक अच्छी समीक्षा लिखी है युवा लेखक पीयूष द्विवेदी भारत ने- मॉडरेटर

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अंकिता जैन के कहानी संग्रह ‘ऐसी वैसी औरत’ की कहानियाँ स्त्री-जीवन से जुड़ी उन व्यथा-कथाओं को स्वर प्रदान करती हैं, जिनके आधार पर समाज उन्हें पतित घोषित कर देता है। संग्रह में कुल दस कहानियाँ हैं और इनमें से सभी कहानियों की मुख्य पात्र समाज की दृष्टि में पतित हो चुकी एक स्त्री है। अच्छी बात यह है कि ज्यादातर कहानियों में लेखिका ने केन्द्रीय पात्रों के प्रति किसी प्रकार की सहानुभूति जताने या समाज की नजर में खटकते उनके आचरण को सही सिद्ध करने का कोई विशेष प्रयास नहीं किया है, बल्कि वे एक सीमा तक निरपेक्ष भाव से उनकी व्यथा-कथा को शब्द देते हुए शेष सब पाठक पर छोड़ती चली हैं।

इस संग्रह की पहली कहानी ‘मालिन भौजी’ एक ऐसी विधवा स्त्री की कहानी है, जो पति की मृत्यु के पश्चात् ससुराल व मायके द्वारा त्याग दिए जाने के बाद कानूनी लड़ाई के जरिये ससुराल से अपने हिस्से की जमीन-जायदाद प्राप्त कर अकेले रह रही है। कानूनी लड़ाई के दौरान परिचित हुए एक वकील साहब का उसके यहाँ आना-जाना है, जिस कारण समाज उसके चरित्र के प्रति एक संदिग्ध दृष्टि रखता है। मालिन भौजी का चरित्र एक जुझारू और जिजीविषा से भरी स्त्री का है, परन्तु समाज में उसके संघर्ष की नहीं, चारित्रिक संदिग्धता की ही चर्चा चलती है। बगावती स्त्री चरित्र पर केन्द्रित हिंदी की बहुधा कहानियों में मालिन भौजी के मिजाज से मिलते-जुलते पात्र मिल जाएंगे, लेकिन इस कहानी के अंत में मालिन भौजी के चरित्र को जो आयाम दिया गया है, वो इसे आगे की चीज बनाता है। कहानी का अंत न केवल कुछ हद तक चकित करता है, बल्कि दिमाग को सोचने के लिए भरपूर खुराक भी दे जाता है।

पति द्वारा छोड़ दी गयी स्त्री के जीवन पर आधारित कहानी ‘छोड़ी हुई औरत’ के आखिरी हिस्से में इसकी मुख्य पात्र रज्जो मन्नू भण्डारी की कहानी ‘अकेली’ की सोमा बुआ की बरबस याद दिलाती है। ‘रूम नंबर फिफ्टी’ लड़कियों के समलैंगिक संबंधों का विषय उठाती है। समलैंगिकता के प्रति समाज की संकीर्ण दृष्टि का पक्ष तो कहानी की सामान्य बात है, लेकिन इसका उल्लेखनीय पक्ष लड़कियों में प्रचलित इस धारणा कि प्रेम संबंधों में सिर्फ लड़के ही स्वार्थी, छली और निर्दयी होते हैं, पर चोट करना है। समलैंगिक शैली को उसकी साथिन निधि द्वारा प्रताड़ित कर छोड़ देना यह दिखाता है कि ‘प्यार में जो दूसरी तरफ होता है, वो सख्त ही होता है, फिर चाहें वो लड़का-लड़की के बीच का प्यार हो या दो लड़कियों के’। हालांकि समलैंगिकता की समस्या केवल स्त्रियों तक सीमित नहीं है, समलैंगिक पुरुषों के समक्ष भी समान दिक्कतें आती हैं। इस तथ्य का जिक्र कहानी में होना चाहिए था। इसके अलावा समलैंगिकता के नकारात्मक पक्षों जिसकी पुष्टि विज्ञान भी करता है, की चर्चा न होना भी कहानी के प्रभाव को कम ही करता है।

‘एक रात की बात’ और ‘गुनाहगार कौन’ जैसी कहानियों के द्वारा लेखिका ने स्त्री की दैहिक इच्छाओं के प्रति समाज की बेपरवाही और संकुचित दृष्टि को बेपर्दा करने की कोशिश की है। ‘गुनाहगार कौन’ कहानी की मुख्य पात्र सना जो नपुंसक पति होने के कारण शारीरिक सुख नहीं मिल पाता, विवाहेतर सम्बन्ध में पड़कर घर से भागती है और जिस्मफरोशी के धंधे में पड़ जाती है। सना की शारीरिक सुख की आकांक्षा गलत नहीं है, परन्तु अंततः अन्य पात्रों की अपेक्षा उसे हम कहानी का एक कमजोर पात्र ही पाते हैं। वो पहले नपुंसकता के कारण जिस पति को छोड़कर भाग जाती है, जिस्मफरोशी के दलदल में धंसने के बाद जब वही पति मिलता है और फिर शादी करने की बात कहता है, तो उसकी नपुंसकता को भूलकर दुबारा उसके साथ घर बसाने का इरादा कर लेती है। इस कहानी के पुरुष पात्र जैसे कि सना का भाई और पति भी समाज से भयभीत और परिस्थितियों के उतने ही शिकार हैं जितनी कि स्त्री पात्र के रूप में सना है, लेकिन पुरुष जहां चुनौतियों का मजबूती से सामना किए हैं, वहीं सना एक पलायनवादी और विरोधाभासों से भरा चरित्र ही साबित होती है। संभव है कि लेखिका ने कहानी में इससे अलग कुछ कहना चाहा हो, लेकिन संप्रेषित यही हुआ है।

इन कहानियों को पढ़ते हुए यह स्पष्ट होता है कि अंकिता की कलम में पात्र-निर्माण की सामर्थ्य है। हालांकि इस संग्रह में उन्होंने स्त्री-चरित्रों को केंद्र में रखकर कहानियाँ लिखी हैं, इसलिए यह कहना कठिन है कि उनकी इस सामर्थ्य की सीमा स्त्री पात्रों से बाहर कितनी प्रभावी है, परन्तु स्त्री पात्रों को गढ़ने में वे निस्संदेह सफल रही हैं। उनकी कहानियों के स्त्री पात्र अपने आचार-विचार में कई बार नाटकीय होते हुए भी बनावटी नहीं लगते।

लगभग सभी कहानियों की प्रस्तुति का ढंग कमोबेश एक ही जैसा है, मगर रोचकता से भरपूर है। हर कहानी बेहद शांत ढंग से शुरू होने के बाद कहानी की बजाय किसीकी व्यथाओं की अभिव्यक्ति लगने लगती है, लेकिन तभी अचानक उसका अंत आता है और अंत में कुछ ऐसा नाटकीय-सा घटित होता है कि पाठक को उस कहानी में कहानीपन का अनुभव हो उठता है। कह सकते हैं कि अंकिता के पास कहानियाँ भी हैं और उनको कहने का कौशल भी।

ज्यादातर कहानियों में वर्णन के लिए पूर्वदीप्ति (फ्लैशबैक) शैली का प्रयोग हुआ है। लेखिका ने अनावश्यक प्रयोगों में उलझने की बजाय कथा-वस्तु की कसावट पर ध्यान लगाया है, जिसमें वो सफल भी रही हैं। सीधे शब्दों में कहें तो यथार्थ और कल्पना के समुचित मिश्रण से तैयार ये कहानियाँ अपने कथ्य की गंभीरता के बावजूद रोचक प्रस्तुति के दम पर पाठक को अंत तक बाँधे रखने में कामयाब नजर आती हैं।

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केदारनाथ सिंह के नए संग्रह से कुछ कविताएं

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कवि केदारनाथ सिंह के मरणोपरांत है ‘मतदान केंद्र पर झपकी’।  इसका विमोचन होने वाला है। विमोचन से पहले पढ़िये संग्रह की कुछ कविताएं- मॉडरेटर
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1
कालजयी
कहना चाहता था
बहुत पहले
पर अब जबकि कलम मेरे हाथ में है
कह दूँ-
जो लिखकर फाड़ दी जाती हैं
कालजयी होती हैं
वही कवितायें
2
खुरपी
मैंने देखा
खेत के बीचोबीच हराई में निहत्थी
पड़ी है एक खुरपी
 
मुझे लगा
आज रात
आदमी ने एक खुरपी पर डाल दिया है
दुनिया की रक्षा का
सारा दायित्व
 
3
सज्जनता
यह जीवन
खोई हुई चीजों का
एक अथाह संग्रहालय है
जिसका दरवाजा खोलते
मुझे डर लगता है
 
मुझे साँप से
डर नहीं लगता
अंधेरे से डर नहीं लगता
काँटों से
बुझती लालटेन से
डर नहीं लगता
पर सज्जनो,
मुझे क्षमा करना
मुझे सज्जनता से
डर लगता है!
संग्रह राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है। 

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चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’की कहानी ‘उसने कहा था’पर एक नजर

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आज चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की पुण्यतिथि है। ‘उसने कहा था’ कहानी के इस लेखक से हिन्दी के हर दौर के लेखक-पाठक जुडते रहे है। युवा लेखक पीयूष द्विवेदी भारत ने आज उनको याद करते हुए यह लेख लिखा है- मॉडरेटर

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प्रेमचंद ने तकरीबन 300 कहानियाँ और लगभग दर्जन भर लोकप्रिय उपन्यास लिखे और हिंदी के कथा-सम्राट कहलाए; प्रसाद ने उपन्यास, कहानी, नाटक से लेकर महाकाव्य तक गद्य-पद्य दोनों में जमकर कलम चलाई और हमारे लिए स्मरणीय हुए; पन्त और निराला ने पारंपरिक काव्य-विधानों को धता बताते हुए कविता के नव-विधान गढ़े और युगांतरकारी कवियों में शुमार हुए तो राष्ट्रकवि दिनकर ने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ जैसे श्रमसाध्य शोध-ग्रंथ से लेकर महाकाव्य ‘उर्वशी’ तक की रचना कर हिंदी साहित्य के क्षेत्र में अमिट स्थान बनाया – ये श्रृंखला और बहुत लम्बी हो सकती है। अपनी सुविधा के अनुसार जितने चाहें नाम इसमें जोड़े जा सकते हैं। मगर मजमून केवल इतना है कि हमारे ये सभी महान रचनाकारों ने खूब लिखा और कई-कई श्रेष्ठ व चर्चित ग्रंथ रचकर हिंदी के साहित्याकाश में अटल नक्षत्र की तरह दीप्तिमान हुए। लेकिन इन सबसे अलग एक लेखक ऐसा भी हुआ, जिसने लिखने को तो फुटकर रूप में निबंध, शोधपत्र, लेख, कहानी, कविता आदि बहुत कुछ लिखा लेकिन इनमें प्रसिद्धि सिर्फ एक कहानी को मिली, बाकी रचनाओं का तो नाम भी कम ही लोगों को मालूम होगा। लेकिन उस एक कहानी को ही ऐसी प्रसिद्धि मिली कि उसका असर आज शताब्दी गुजर जाने के बाद भी कम नहीं हुआ है। वो महान कहानी है ‘उसने कहा था’ और उसके अमर लेखक हैं पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी जिनकी आज पुण्यतिथि है।

‘उसने कहा था’ की रचना से पूर्व हिंदी में कहानी के नाम पर जादू-तिलिस्म की प्रतिपाद्यविहीन कपोल-कथाएँ ही रची जा रही थीं। बीसवीं सदी का दूसरा दशक अधिया चुका था। तब प्रेमचंद भी लिख जरूर रहे थे, लेकिन हिंदी में नहीं, उर्दू में। कुल मिलाकर हिंदी कहानी के लिए ये नाउम्मीदी का ही दौर था। ऐसे वक्त में युगांतकारी पत्रिका सरस्वती में ‘उसने कहा था’ का प्रकाशन हुआ। प्रथम विश्वयुद्ध, जो अभी शुरू ही हुआ था, की यथार्थवादी पृष्ठभूमि पर प्रेम, शौर्य और बलिदान की भावना से पुष्ट एक आदर्शवादी नायक की इस गाथा ने प्रसिद्धि तो पाई ही, तत्कालीन दौर में दिशाहीन हिंदी कहानी को मार्ग दिखाने का भी काम किया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने तब इस कहानी में यथार्थवाद की पहचान करते हुए लिखा था, “इसमें पक्के यथार्थवाद के बीच, सुरुचि की चरम मर्यादा के भीतर, भावुकता का चरम उत्कर्ष अत्यंत निपुणता के साथ संपुटित है।” कालांतर में इसे कथा-तत्वों के आधार पर हिंदी की पहली मौलिक कहानी माना गया। हालांकि इस विषय में कुछ मतभेद भी हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल किशोरीलाल गोस्वामी की इंदुमती को हिंदी की प्रथम मौलिक कहानी मानते थे, लेकिन राजेन्द्र यादव ने ‘इंदुमती’ में शेक्सपीयर के नाटक ‘टेम्पेस्ट’ का प्रभाव बताते हुए ‘उसने कहा था’ को हिंदी की पहली मौलिक कहानी कहा। खैर हिंदी की प्रथम मौलिक कहानी को लेकर और भी कई दावे हैं, सो इसपर पक्के ढंग से कुछ कहना कठिन है, मगर कथा-तत्वों के आधार पर ‘उसने कहा था’ को हिंदी की पहली पूर्ण कहानी कहने में कोई संशय नहीं होना चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें तो इस कहानी के द्वारा गुलेरी जी ने हिंदी को ‘कहानी’ नामक विधा की ताकत का बताने का काम किया था।

आज ‘उसने कहा था’ 103 साल की हो चुकी है और इस दौरान हिंदी कहानी ने परिवर्तन के अनेक पड़ावों को पार किया है। आदर्शवाद से यथार्थवाद, फिर बीच में जादुई यथार्थवाद और अब अति-यथार्थवाद तक हिंदी कहानी के इस यात्रा-क्रम में अनेक महान कथाकारों और कृतियों से हिंदी का दामन भरता गया है। मगर अति-यथार्थवाद के इस दौर में भी ‘उसने कहा था’ का आदर्शवाद हमें तार्किक ढंग से आकर्षित करता है।

देखा जाए तो इस रचना ने सिर्फ हिंदी कहानी को ही दिशा नहीं दी, बल्कि कहीं न कहीं इसका प्रभाव हमारी सिनेमा पर भी पड़ा। बिमल रॉय ने सुनील दत्त और नंदा को लेकर इसपर आधारित इसी नाम से फिल्म भी बनाई। इसकी प्रस्तुति के तौर-तरीकों को सिनेमा में विशेष स्थान मिला। आपने अनेक ऐसी फ़िल्में देखी होंगी जिनमें शुरुआत में एक कोई घटना दिखा दी जाती और उसके बाद अचानक पूरा दृश्य ऐसे बदल जाता है कि दर्शक अंत तक शुरुआत के दृश्य का भेद जानने के लिए बैठा रहता है। सिनेमा के प्रस्तुति की ये पद्धति अनाधिकारिक रूप से गुलेरी जी की ही देन है, सो साहित्य तो उनका शुक्रगुजार है ही, सिनेमा को भी होना चाहिए।

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राहुल तोमर की नई कविताएँ

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हिन्दी में कविता ऐसी विधा है जिसमें सबसे अधिक लिखा जाता है लेकिन यह भी सच्चाई है कि इसी विधा में सबसे अधिक प्रयोग होते हैं, अभिव्यक्ति की नवीनता के दर्शन होते हैं। राहुल तोमर की कविताओं में भी ताजगी है, कहने का अंदाज़ नया है। जैसे इन कविताओं में- मॉडरेटर
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बाथरूम के नलके से टपक रहा है पानी बूँद बूँद
प्लास्टिक की बाल्टी से उठती टकटक की ध्वनि
कुछ ही देर में हो जाएगी टपटप में परिवर्तित
तुम सुनोगे और सोचोगे कि कौन सा संगीत
था ज़्यादा बेहतर फिर इस प्रश्न की निरर्थकता
पर हंसोगे और करोगे अन्य कई निरर्थक
प्रश्नों को सुलझाने का प्रयास
यह जानते हुए कि वहाँ भी हल की जगह आएगी
केवल हँसी
 
तुम्हारे पास प्रश्न बहुत हैं 
इतने कि उत्तर के लिए आरक्षित जगह पर भी
उग आए हैं प्रश्न चिन्ह
 
तुम कामू का द्वार खटखटाते हो और उसके घर के भीतर
कुछ समय गुज़ारकर प्रश्नों को बस एब्सर्ड भर कहना सीख
पाते हो।
 
दर्शन के चूल्हे पर जीवन को चढ़ाते हो और
जीवन के पकने के इंतज़ार करते तुम पाते हो
जली हांडी में चिपका अंधकार
नीचे होम हो चुका सारा दर्शन और
हवा में गुल जीवन की सारी
परिभाषाएं।
उदासी
————————-
उदासी जानती है कि
कैसे लिया जाता है जीवन में प्रवेश
उसे नहीं पड़ती आवश्यकता किसी
किवाड़ को खटखटाने की
न ही वह बाहर से लगाती है आवाज़
दोस्तों और जानने वालों की तरह
उदासी धूल सी है
जो बना लेती है अपनी जगह अपने आप
बिना दिए कोई संकेत
और तब तक रहती है
जब तक कोई बुहारे नहीं
जीवन के कोनों में जमे दुख को
प्रेम की झाड़ू से
झुंड
———————–
हमने खो दी है अपनी आवाज़
हमने खो दिए हैं अपने चेहरे
हम भूल चुके हैं अपना व्यक्तिव
हमें बस याद है अपने समूह का झंडा
हमें कंठस्थ हैं अपने समूह के नारे
हम यह मान चुके हैं कि
शर्मसार करने वाला
काम होता है एक इंसान होना
और भेड़ होने से ज़्यादा गर्वीला
कुछ भी नहीं।
सामान्यीकरण
—————————
संकेतों को समझना कभी आसाँ नहीं रहा
तभी तो हम कभी ठीक से समझ नहीं पाए आँसूओं को
न ही जान पाए कि हँसना
हर बार ख़ुशी का इज़हार नहीं होताहमनें व्यक्ति को जीवित माना नब्ज़ और धड़कन के
शरीर में होने से
और यह उम्मीद रखी कि हमारा माना हुआ जीवित आदमी
करेगा जीवित व्यक्तियों सा बर्ताव
हम चौंके इस बात पर कि एक जीवित व्यक्ति भी हो सकता है
मुर्दे से ज़्यादा मृत
हम गुस्साए, खिसियाए
फिर, फिर हो गए सामान्य…न जाने कितनी लंबी फ़ेहरिस्त है उन चीज़ों की
जो अब इतनी सामान्य हो चलीं हैं कि उनका ज़िक्र करना तक
उबाऊ लगता है।
बारिश
—————————-
बारिश में तन गीला हो या न हो 
मन अवश्य ही भींजता है
 
मिट्टी की सौंधी गंध नथुनों में
पड़ते ही खुल जाती है
अतीत के कमरे की कोई खिड़की
जहाँ से दिखते हैं कीच में सने 
मेरे नन्हे पैर
और हँसते हुए मेरे चेहरे पर
झरती बारिश की निर्मल बूंदें
 
जवानी में हो रही इस बारिश का स्पर्श पा
भीगने लगता है मेरे बचपन का कोई कमरा
 
और औचक ही सूखी आँखों में उतर
आती है नमी
एकमात्र विकल्प
———————
प्रार्थना में उठे हाथ कराहते कराहते
सुन्न पड़ गए हैं
प्रतिक्षा में सूख चुकी है उनकी
आँखों की नमी
पीठ की अकड़न
गर्दन से होते हुए पहुँच चुकि है
ज़ुबान तक।
अब वे जिस भाषा में रिरिया रहे हैं
उसे सुन
उन्हें पागल कह देना ही एकमात्र
विकल्प है
दुख
——
दुख वह विशाल सागर है
जो सब कुछ लील लेता है
सुख रूपी नदियाँ भी
हमें दुख नहीं चाहिए
पर जीवन हमारी चाहत के विपरीत
इसी सागर में फलता फूलता है
हम बादलों से गिरतीं ख़ुशी की फुहारों
या किनारों पर मिलती हँसी की सीपियों
या सागर में मिलने से पूर्व खिलखिलाती नदी रूपी
प्रसन्नताओं से कुछ देर को मिल सकते हैं
पर सागर के इस दायरे के बाहर
चाह कर भी जी नहीं सकते
दुख की सीमा के बाहर बस मृत्यु है।

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वरिष्ठ कवि ऋतुराज की चीन डायरी

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आज हिन्दी दिवस है। सुबह से सोच रहा था कि क्या लगाऊँ। अंत में मुझे लगा कि आज किसी वरिष्ठ लेखक का लिखा पढ़ा-पढ़ाया जाये। ऋतुराज जी की चीन डायरी कल रात ही ‘बनास जन’ में पढ़ी थी। सोचा आप लोगों से भी साझा किया जाये- मॉडरेटर

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15 अप्रैल, 1993

आज मैंने तय किया कि मैं बदलते हुए चीन का साक्षी बनूँगा।

पेकिंग विश्वविद्यालय की झील के किनारे एक बूढ़ा आइसक्रीम बेच रहा है। यहाँ भी सेलिक्स बेबीलोनिया (विलो) के वृक्ष पानी को छूने की कोशिश करते हुए झालरों की शक्ल में लटके हैं। हाएतियान जाती गली बिलकुल साफ है। सब जगह मानवीय ऊष्मा और गतिशीलता का स्पन्दन है। फुटपाथी बाजार खचाखच भरा हुआ है। मुझे चाँदनी चैक की याद दिलाता। यहाँ माइक्रोफोन पर मिनी बस के ड्राइवर सवारियों के लिये चिल्ला रहे हैं, तो छोटे-मोटे फेरीवाले भी शोर मचाने में कम नहीं हैं। लड़कियों के हाॅस्टल में लड़कों का बेरोकटोक आना जाना है। यहाँ तक कि साथ-साथ भी रह रहे हैं। बहुत बड़े डिपार्टमेंट स्टोर हंै यहाँ तक कि साथ-साथ भी रह रहे हैं। बहुत बड़े डिपार्टमेंट स्टोर हैं। जहाँ सब कुछ मिलता है। माँस की वही तीखी गंध सर्वत्रा है, व्यंजनों की अपरिचित विविधता…कुत्ते-बिल्ली पके-पकाए…। एक दुमंजिला इमारत में हाएतियान का बुक-सिटी अवस्थित है। चीन के सब प्रकार के प्रकाशकों के लिये एक शाँत पवित्रा व्यवस्थित बाजार। अधिकाँश पुस्तकें चीनी भाषा में हैं। मेरा बेटा भी, काश, यहाँ पढ़ता होता अपनी मनपसंद साथिन के साथ। इस तरह ट्यूलिपों और चेरी-ब्लासमों के बीच हाथ में हाथ पकड़े।…बंसी डाले घँटों बैठा रहता झील के किनारे चट्टान परा। तब शायद में उससे कहता, प्रेम में तेरना मगर डूबना नहीं, जैसे ये चीनी युवा-युवतियाँ प्रेम को जीवन का सबसे स्वस्थ अंग मानकर चलते हैं।

19 अप्रैल

चीनी मित्रों का व्यवहार सदैव एक समान नहीं होता। श्री छन चुंग रूंग कई देशों का दौरा करके लौटे हैं। भारतीय दूतावास में अत्यन्त आत्मीयता से मिला करते थे। लेकिन आज बोले भी नहीं। न मेरा हालचाल पूछा। अपने चीनी सहयोगियों से बात करते रहे।

विभाग का हर कोई कर्मचारी, भले ही निदेशक नेता के पद पर हो, सुबह दफ्तर पहुँचते ही पोंछा लेकर सफाई करता नजर आयेगा। यहाँ कोई छोटा बड़ा नहीं है। मेरी मेज, कुर्सी श्रीमती सुन ईन साफ करती हैं। श्री वाँग चिन फंग माॅप से फर्श साफ करते दिखायी देंगे। न कोई चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी है, न घँटी, अपनी पानी की बोतल खुद लाओ, अपनी जरूरतें खुद पूरी करो और काम में लग जाओ।

न जानो क्यों पोलिश विशेषज्ञ चीन के साथ-साथ भारत का भी मजाक उड़ाती हैं। कहती हैं, भारत चीन की माँ है, यानी बौद्ध धर्म की जननी के रूप में, लेकिन क्या माँ होना ही काफी है? गरीब और विक्षिप्त-सी माँ से कौन प्यार करेगा?

20 अप्रैल

प्रो. सुन पाओ काँग भारी मच्छीमार निकले। उनका घर नदी यूछहरूह के पास है। उनके पास कोई एक दर्जन फिशिँग राॅड होगी।

आजकल चीन के वेतनभोगी वर्ग की एक मात्रा चिंता है कि किस तरह दिनभर सरकारी नौकरी करके अतिरिक्त समय में अपनी आय बढ़ाए। इसके लिए व्यापार करते हैं तो समय चाहिए।

प्रो. सुन पाओ पूछते हैं, क्या ऐसा करने से कार्यक्षमता पर असर नहीं पड़ेगा? वे साठ वर्ष से ऊपर के होगे तब उन्हें अपने ‘श्वेनशँग शोध संस्थान’ का काम संभालना है। साथ ही, हिन्दी-चीनी शिक्षण की एक पुस्तक भी तैयार करनी है।

आज श्रीमती सुनईंग ने मेरे स्वास्थ्य के प्रति गहरी चिंता व्यक्त की। एक बड़ी बहन जैसे कि अपने लापरवाह भाई के प्रति चिंतित रहती है।

प्रो. सुन पाओ काँग ‘कुंजीभूत’ शब्द न जाने कितने सालों से इस्तेमाल करते आ रहे हैं। कोश टटोला तो हार मान ली।

श्री वाँग चिन फंग को मैंने ‘फ्रेंड, फिलाॅसफर और गाइड’ कहा तो वे बहुत खुश हुए। बोले, ‘मैं हमेशा आपके प्रति वफादार रहूँगा।’

…कल्पना जी, तुम्हारी रसोई से अब मेरी रसोई कहीं ज्यादा अच्छी है।

21 अप्रैल

‘बाल बिखेरे एक माँकृतू फू ने उसके बेटे की याद में एक कविता लिखी थी। आज अनुवाद किया…मस्त टटटू जैसा उछलता, कूदता, किलकारी भरता एक बेटा। बरबस बाशा की याद आ गयी, आँखें डबडबाने लगीं। क्या केवल वर्तमान में ही जीना इतना आसान होता है।

…लोगों का व्यवहार बदलता रहता है। मिसाल के तौर पर नेपाल के प्रो. डहाल। आज बस में मेरे पास ही सीट खाली होते हुए भी मुझसे दूर बैठे। उनमें यूरोपियनों को प्रभावित करने की चतुराई है। विकासशील और पिछड़े देशों के लोगों की यह हीनता-ग्रंथि यदाकदा प्रकट होती रहती है। पीकिंग विश्वविद्यालय की पानी की टंकी जैसा ओक का विशाल वृक्ष गोलाकार छत्रा वाला दूर से ही दिखायी देता है। सब तरफ चिनार ही चिनार पीपल जैसे ऊँचे हरे…चारों तरफ समृद्ध, उदारमना, आच्छादित करती प्रकृति…तुमने मुझे हमारे परिवार की आवाजों का कोई कैसेट भर कर नहीं दिया…जवा, पारमिता का पूरिया, सोहनी या यमन…यहाँ चिरपरिचित स्वरों को सुनने के लिये तरसता हँू।

एक दिन सुन पाओ के साथ नदी किनारे मछलियाँ पकड़ने जाऊंगा। खाना-पीना होगा, वे मछलियाँ पकड़ेंगे और मैं कविता करूँगा…।

अरे मेरे देश, तेरे नापित बंधु कितने सस्ते हैं जो केवल सात रुपयों में काट-छाँट, उस्तरेबाजी, मालिश, कंघी, मूंछ कटाई इत्यादि को अंजाम देते हैं। आज चीन में पहली हजाम हुई मात्रा दस युएन में। न मैं नाई बाई की बात समझा और न वह मेरी बात। कुछ देर बाद मैंने खुद को उसके हवाले छोड़ दिया। भारतीय और चीनी केश-सज्जा की शैलियों में जमीन-आसमान का अंतर है। चीनी शैली में सबसे पहले शेम्पू, फिर एक हाथ की अँगुलियों में बाल फंसा कर कटाई, गुद्दी पर मशीन, कैंची का मोटा-मोटा प्रयोग, कलम पर उस्तरे की बजाय छोटे रेजर का इस्तेमाल, फिर कैंची से तिरछी कटाई। इस प्रकार की चीनी हजामत में भारत की तरह अधिक समय नहीं लगता। ब्लोजर और कंधे की मदद से बालों को लहरदार बनाया जाता है। नाई-बाई की दुकान पर न जाने यहाँ किसी सुपर बाजार की तरह कितने प्रकार के प्रसाधन थे। कपड़ों पर बाल बिलकुल नहीं गिरे और ब्लोजर के बाद नहाने की जरूरत ही नहीं रही। ऐ मेरे देश के नापित सखा, तुम में सेवा-भाव भरपूर है पर कलाकारी तुम्हारे चीनी मित्रा से कम।

23 अप्रैल

चीन में काम आदमी को ढूँढ़ता है, आदमी काम को नहीं। महिलाएं पुरुषों को सहजता से तलाक दे सकती हैं। विवाह पर कोई दहेज नहीं लेना-देना है। हाँ, लड़के वाले को ही कभी-कभी अधिक खर्च उठाना पड़ सकता है। चीन की विकास दर बारह प्रतिशत हो गयी है, जबकि भारत की मौजूदा दर है ढाई प्रतिशत। आजकल जनसंख्या दर को नियंत्राण में रखने में कुछ कठिनाई हो रही है। शायद इसीलिये विवाह की न्यूनतम आयु बारह वर्ष तय की गयी है।

आज जेरिचा (यूगोस्लाव विशेषज्ञ) ने कहा, ‘राजनीतिज्ञ मूर्ख होते हैं। मैं उनसे नफरत करती हूँ। येल्तसिन महामूर्ख है क्योंकि वह हर किसी को चूमना चाहता है। क्लिंटन भी कम मूर्ख नहीं है। वह हर किसी को देखकर मुस्कुराता रहता है।’ प्रो. डहाल का कहना था कि ‘अगर राजनीतिज्ञ इस दुनिया में नहीं होते तो चीन का अंतरराष्ट्रीय रेडियो विभाग भी नहीं होता और न कोई सरकारी तंत्रा होता व्यवस्था बनाये रखने में। राजनीतिज्ञ एक अपिहार्य बुराई है।

…पेइचिंग में जेब कटते देर नहीं लगती। जेरिचा की तीन बार जेब कट चुकी है। तीनों ही बार वह उसके वेतन का दिन था। पर यह बात केवल विदेशी लोग ही कहते हैं। चीनी बंधु इस पर कतई यकीन नहीं करते।

24 अप्रैल

मक्खी से शुरू करता हूँ…यहाँ यह जीव कहीं नजर नहीं आया। हाँ, मच्छर जरूर हंै इक्का-दुक्का। वे भारतीय मच्छरों की तरह गाना नहीं सुनाते हैं। एक सुन्दर-सी शीशी में बाल्सम का तेल मिलता है, दावा है कि इसकी खुशबू से मच्छर नहीं काटेंगे।

यहाँ सिटी बस एक नहीं होती, बल्कि दो बसें जुड़ी रहती हैं। दो महिला कन्डक्टर अलग-अलग दरवाजों के पास पेटी के पीछे होती हैं जिनके पास दरवाजे खोलने, बंद करने का स्विच होता है। माइक्रोफोन से जुड़े टेप से सूचना दी जाती है कि कौन-सा बस-स्टाॅप है। यह महिला कन्डक्टर भारतीय कन्डक्टरों की तरह अपनी सीट से उठकर बस में चक्कर नहीं लगाती हैं। टिकट के लिए दरवाजे पर ही आॅटोमैटिक मशीन लगी होती है। कुछ बसें ट्रामों की तरह बिजली से चलती हैं। महिला बस ड्राइवर बड़ी मुस्तैदी से दो बसों की एक सिटी बस को चलाती है। किराया बहुत कम हैकृएक माओ में पन्द्रह-बीस कि.मी.। दस माओ का एक युएन होता है। निजी मिनी बसों के ड्राइवर-कन्डक्टरों के पास भी माइक्रोफोन होता है। ड्राइवर, जिनके साथ कन्डक्टर नहीं होता, कभी-कभी एक हाथ से बस चलाते हुए माइक्रोफोन पर सवारी बुलाते नजर आते हैं। लेकिन आमतौर पर कन्डक्टर लड़की हर मिनी बस में बड़ी फुर्ती से सवारियों की सेवा को तत्पर रहती है और हर स्टाप पर सवारियों के लिये आवाज लगाती है।

24 अप्रैल

चाहे वह उत्तर साइबेरिया से ठंडी तीखी हवाएं चलना शुरू हो जाती हैं और तापमान दो डिग्री से भी कम हो जाता है। वसंत तो है, अभी-अभी आया है, पर मदमत्त जंगली हाथी पर सवार होकर। गुलदाउदी, सालविया, पाॅपी, चीनी गुलाब…सब अपने उरूज पर हैं। इनके ऊपर अभी तो कोई खास असर नहीं हैं। धूप सुहानी नरम है, लेकिन मौसम बदलते देर नहीं लगती। कमरे से निकलने से पहले फोन पर मौसम के बारे में पूछना पड़ता है। अलूचे के फूल खिल चुके हैं। गुलाबों से सराबोर हो जायेंगी सड़कें। गमलों में फूल सजने शुरू हो गये हैं। कल तक जहाँ क्यारियाँ खाली पड़ी थीं, उनमें गमले रख दिये गये हैं।

यहाँ एक आवश्यक प्रथा है: किसी चीनी परिवार के यहाँ जाते समय कुछ न कुछ अवश्य ले जाना है। खाली हाथ नहीं जाना है। एक और प्रथा है, यात्रा के बाद लौटने पर अपने साथियों के लिये उपहार-स्वरूप कुछ न कुछ खाने-पीने की चीजें वितरित की जाती हैं। आज चू इंग (चीनी खबरों की नन्ही सम्पादिका) जब शाँघाए से लौट कर आयी तो उसने रेडियो विभाग के सभी साथियों में टाफियाँ, स्नैक्स आदि बाँटे।

…श्रीमती ल्यू हवे मेरी पहली यात्रा के लिये गाइड बनेंगी। वे बेहद विनम्र और संवेदनशील महिला हैं। जसदेव सिंह के साथ एशियाॅड में गाइड रही है। जसदेव सिंह उनके अत्यन्त आत्मीय प्रशंसक हैं।

25 अप्रैल

आज पेइचिंग के सब-वे मेट्रो की सैर की। सीतान के विशाल बाजार तक ट्रेन से यात्रा…सब-वे के स्टेशन बेहद साफ-सुधरे और ग्रेनाइट की टाइलों से चमचमाते हुए थे। बहुत आरामदायक सफर रहा। केवल गाँवों से आये लोग ही दरवाजा खुलने पर धक्का-मुक्की करते हुए ट्रेन में चढ़ते हैं, वरना सब कुछ पूरी तरह अनुशासित और शांत है। माइक्रोफोन से हर डिब्बे में गंतव्य आने की सूचना दी जाती है। आज पता चला कि पेइचिंग की सड़कों पर इतनी भीड़ क्यों नहीं रहती।

आज उस दक्षिण भारतीय शोध-छात्रा ने चीनी भाषा के उच्चारणों के बारे में बड़ी दिलचस्प बात की…शायद पूरा मुँह खोलकर उच्चारण करना इस अत्यन्त ठंडी जलवायु में चीनियों के लिये कठिन होता है। इसीलिये उन्होंने परस्पर संवाद के लिये ध्वनियाँ ईजाद की होंगी। क्या जलवायु का भाषा के उच्चारण से संबंध है? चीनी भाषा की चार काष्ठाओं (पिच) के पीछे सर्दी का कितना असर है?

जिन्हें थोड़ा-सा प्रेम चोरी-छिपे छीनने पर मिला हो या फिर वैवाहिक सहचर्य की रोती-झींकती निकटता से जिसमें मंदी आँच बची रही हो, वे क्या जाने इन चीनी युगलों का उन्मुक्त सड़क-छप प्रेम? सबसे बेखबर खजुराहों की मिथुन आकृतियाँ बनाते ये युवा लोग…शायद ये वही युवा हैं जिन्होंने लोकतांत्रिक आजादी के लिये संघर्ष किया था। अब प्रेम प्रदर्शन में उन्होंने ऐसी आजादी की चरितार्थ किया है। पाश्चात्य समाज को चुनौती देता उनका यह रोमांस वयोवृद्ध चीनियों को अच्छा तो नहीं लगता, पर वे इसकी अनदेखी करते हैं। जानते हैं कि टोका-टोकी करने से युवा पीढ़ी विद्रोही हो जाती है। और इस समय तो ठेठ राजनीतिक प्रत्ययों को भूलकर भौतिक आनन्द और ‘सम्पन्न होने की शान’ का युग प्रारम्भ हुआ है।

27 अप्रैल

आज खूब रोया। आधी रात को सपने में आयी बिटिया कहने लगी, ‘पापा, क्या मेरी शादी नहीं करोगे? भाग कर चले गये सारी जिम्मेदारियों से पिंड छुड़ा कर।’ बहुत देर तक रोता रहा।

जब कभी बाजार में टाफियाँ, फल, खाने-पीने का सामान खरीदता हँू तो बाशा की याद आ जाती है। कपड़े देखता हँू तो बाशा का नाप सोचने लग जाता हँू। नये जूते लिये तो सोचा, यह मेरा पाँव नहीं है बाशा का पाँव है। कितने अच्छे लगेंगे ये जूते उसके पाँवों में।

28 अप्रैल

आज ल्यू हवे साहिबा के साथ ल्यूशिंगशांग की सुरम्य झील और पर्वत शृंखला की सैर की। अवलोकितेश्वर का मन्दिर था, लम्बी सुरंगे, विशाल मैत्रोय (हँसते हुए बुद्ध) की प्रतिमा…सब कुछ अनिवर्चनीय। श्रीमती ल्यू हवे का आज जन्मदिन था। वे मेरे फोटुओं से पूरी एक रील भरना चाहती थीं। आधी से ज्यादा रील तो खींच भी ली थी। बाद में मैंने उन्हें मना कर दिया। चीनी कहावत है कि अगर पहाड़ों पर हो तो पहाड़ों से, अगर पानी के पास हो तो पानी से अपने जीवनयापन का स्रोत खोजना चाहिए। रास्ते में जगह-जगह लिखा थाकृ‘जंगल को आग से बचाना हम सबकी जिम्मेदारी है।’ हरा-भरा फल-फूलों से गदराया ग्रामीण परिवेश था, साफ-सुथरे ईटों के घर, घरों के चारों तरफ अहाते। ग्रामीण महिलाएं दालें, बीज, फल लिये रास्ते पर बैठी थीं। घुड़सवारी के लिये बहुत सारे घोड़े वाले थे। गेहूं के गझिन खेत थे और मक्का की बुआई के लिये किसान पलाव कर रहे थे। इमारतों की पारस्परिक कलात्मक छतों के कंगूरों पर शुभंकर पशु-पक्षी और ड्रेगन…एक शांत, शालीन और नैसर्गिक आत्मतुष्ट वातावरण…पहाड़ों में जैसे कुछ खोया है…सीढ़ियों-दर-सीढ़ियों के बाद एक अकल्पनीय नजारा दिखाई दिया। कभी सोचा भी न था कि बाँध के पीछे झील की इतनी लम्बी, गहरी भूलभुलैया होगी। हरा, स्फटिक जैसा हिलोरे लेता पानी और मोटरे-बोटों की माकूल व्यवस्था। इस पर्यटक-स्थल की देखभाल सैनिक करते हैं। नौ सौ वर्ष प्राचीन इस बौद्ध मन्दिर में अनेक बौद्ध कथाओं का चित्राण हुआ है। अत्यन्त प्राचीन पाषाण-प्रतिमाएं हैं और असंख्य भुजाओं, शिरों के अवलोकितेश्वर, यानी बुद्ध का स्त्राी-अवतार। मैंने बौद्ध बनकर प्रार्थना की कि मेरा परिवार और श्रीमती ल्यू हवे, जिनका आज जन्मदिन है, दीर्घायु हों।

29 अप्रैल

रेलवे एक्रोबेटिक्स ग्रुप का अविस्मरणीय प्रदर्शन। संगीतात्मक का व्यात्मक प्रस्तुति। अत्यन्त प्रभावकारी कोरियोग्राफी। तालियाँ बजाते-बजाते दर्शकगण थक गये। ध्वनि, प्रकाश और करतब का अद्भुत तालमेल था, साथ ही नट-विद्या और आधुनिक सर्कस का मिलाजुला स्वरूप भी। शरीर संतुलन ही नहीं बल्कि उसकी शुद्ध काव्यात्मक शिल्प संरचनाएं…सबसे ऊपर लड़कियों का आत्मविश्वास भरा मनमोहक सौंदर्य…।

1 मई

आज मई दिवस पर हुआनमिंग हुआन के खण्डहर हुए महल और उद्यान देखने लगा। ये कभी छिंग राजवंश के शाही निवास और बागीचा हुआ करते थे। इन्हें 1860 में इंग्लैंड और फ्रांस की सेनाओं ने नष्ट कर दिया। इस मनोरम बागीचे और सरेगाह को बनाने में एक सौ पचास वर्ष लगे थे। फुहई (सुख का समुर्द्र) झील अनुपम दृश्य उपस्थित करती है जिसके चारों तरफ ध्वंसावशेष तथा कथित सभ्य देशों की बर्बरता के साक्ष्य के रूप में यथावत रहने दिये गये हैं। एक प्रतिमा सबका ध्यान आकृष्ट करती है, ‘स्वर्ग से उतरा देवदूत’, अपने सिर पर सोम से भरा बड़ा थाल लिये खड़ा है। यहाँ लोक कलाकार पर्यटकों को पालकियों में बैठाकर गीत गाते हुए चलते हैं, बिलकुल राजवंश काल के उस स्वर्णिम समय का आभास देते हुए…।

मई दिवस साम्यवाद का पुनस्र्मरण है और चीन में एक विजय दिवस। दूसरे देशों में विशाल रैलियाँ निकलीं, रूस में हिंसक झड़पें हुईं, लेकिन चीन बिलकुल शांत और बिना किसी भव्य उत्सव, शोर-शराबे के चलता रहा। बस, अवकाश रहा, लोगों का बाग-बगीचों में मेला भरा। कुछ कर्मठ, योग्य श्रमिकों को सम्मानित किया गया। पता चला कि माओ त्जेतुंग (माओ चूशी)का हरा, बंद गले का कोट पहनना यहाँ अब अच्छा नहीं माना जाता। पूर्वी यूरोप से आये विशेषज्ञ फिर भी माओ का बैज लगाये हुए थे। किन्तु चीनी इस तरह के डेªस-कोड से बचते हंै। वे कहीं भी किसी तरह से सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर हुए गलत कामों की याद नहीं दिलाना चाहते। माओ के समय के लोग, बूढ़े-वयोवृद्ध जरूर अभी तक भी बंद गले के कोट पहनना पसंद करते हैं। लेकिन ऐसे लोगों ने चुपचाप पीछे खिसकना स्वीकार कर लिया है। वे शनैः-शनैः नौजवान पीढ़ी को सब कुछ सौंपते जा रहे हैं।

2 मई

अरे, मैं जिन्हें भिखारी समझता था…फटेहाल, रूखे, बेतरतीब बाल और निपट देहाती मेले-कुचैले कपड़े…वे तो ज्योतिषी जी महाराज निकले। कागज-पत्तरे लिये सड़क पर बैठे ये चीनी भाषा में भविष्य-फल लिखते…

आज एक तिब्बती कविता पढ़ी…

‘बिना तल्ले के बढ़िया जूते की तरह है

मेरे लिये वह राजकुमारी

वो क्यों भला करेगी मुझे प्यार

उसका होना, नहीं होना व्यर्थ है।’

दूसरी तिब्बती कविता भी कम रोचक नहीं थी…

‘जाते हो तो जाओ बहुत दूर

पर छोड़ जाओ यह कमीज

जिसमें बसी है तुम्हारी देह की बास

जब भी देखूंगी, संूघूगी इसे

तुम होगे मेरे बिलकुल पास।’

शायद हाल की ‘गाथा सप्तशती’ को इसके समकक्ष रखा जा सकता है। सूरदास की नायिका चोली नहीं धोती है। अब तो विज्ञान ने पुरुष हाॅरमोन की सैक्स-अपील के प्रशासन उपलब्ध करवा दिये हैं। पर कमीज में जो गंध है और उसे पहनने में जो एकात्म भाव व्यक्त होता है, उसको क्या कहें?

4 मई

पूरा विश्व लगती है हमारी बस। कोई अड़तीस देशों के भाषा विशेषज्ञ एक ही बस से सुबह काम पर रेडियो स्टेशन के लिये निकलते हैं और शाम लौटते हैं। हम लोगों में अधिकांश अपने-अपने देश के प्रमुख पत्राकार, दूरदर्शन, रेडियो के लिये काम करने वाले और भाषाविद् हैं। एक सुबह बस में हम सबने अपनी-अपनी भाषा में ‘बसन्त’ के लिये क्या लफ्ज आता है बताना शुरू किया तो रेडियो स्टेशन पहुँचकर ही दम लिया। रोज अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर खुलकर बहस होती है। सारी दुनिया इस एक बस में भर गयी हैµअमेरिका, रूस, सीरिया, तुर्की, जापान, बर्मा, पाकिस्तान, भारत, नेपाल, कम्बोडिया, यूगोस्लाविया, कोरिया, स्पेन, पीरू, जाम्बिया, बुलगारिया…सभी एक-दूसरे के मित्रा हैं और आते-जाते एक घंटा अहम मसलों पर बहस करते रहते हैं।

5 मई

श्रीमती ल्यू हवे काफी रहस्यपूर्ण हैं। उन्होंने मेरे प्रति स्नेह के कारण फोटुओं पर बहुत खर्चा कर डाला। कुछ फोटो उन्होंने रख लिये जिनमें वे खुद थीं। उनकी बातों से लगा कि विभाग में दूसरे साथियों से उनकी कम पटती है। वे अपनी पदोन्नति के लिये प्रयत्नशील हैं।

श्री वाँग चिग फंग घर का भी सारा काम करते हैं। मसलन, कपड़े धोना, प्रेस करना, पोंछा लगाना, सप्ताह में दो दिन (यानी जब दोनों का अवकाश होता है) खाना पकाना (बाकी दिनों तो पति-पत्नी दफ्तर के डाइनिंग हाल में ही भोजन करते हैं) बर्तन माजना आदि। घर की सजावट भी उनकी ही जिम्मेदारी है। चीनी परिवारों में कार्यरत महिलाओं को पुरुष बराबर सहयोग करते हैं, बल्कि ज्यादा ही। फिर भी महिलाओं द्वारा तलाक के नोटिस आम बात है। ज्यादातर मामलों में चीन की जन-अदालतें पुरुष के बजाय महिला का पक्ष लेती हैं।

7 मई

फूल तो बहुत सुंदर हैं पर गमले सुंदर नहीं हैं…काले, मुँह पर से फैले हुए…शायद चीनियों को इत्मीनान है कि सुंदर रंगीन फूलों को देखते वक्त आपकी नजर इन गमलों पर नहीं जायेगी। पहले से ही बने बड़े सीमेंट-चिप्स के गमलों में ये छोटे गमले रख दिये जाते हैं। तब ये दिखायी नहीं देते, लेकिन बरामदों, रास्तों पर रखी इनकी कतारें इनकी बदसूरती का पर्दाफाश करती हैं।

8 मई

अनुशासित चीनी समाज में सम्पन्न होने की होड़ बढ़ गयी है। तंग स्याओ फिंग का सूत्रा ‘हमें सम्पन्न होना है, सम्पन्नता शान की बात है’ चरितार्थ करते हुए हर कोई अधिक से अधिक धन कमाना चाहता है। विदेशी कम्पनियाँ अच्छा वेतन देती हैं, लेकिन इससे अंग्रेजी जानने वालों का रौब बढ़ रहा है। विदेशी प्रकाशन प्रेस में अंग्रेजी शिक्षण की अनेक पुस्तकें और कोश उपलब्ध है जिनके प्रति चीनियों में अपार आकर्षण है। यह खतरा बढ़ता जा रहा है कि विदेशी पूंजी से खड़ी की गयी कम्पनियाँ अधिक प्रतिभावान चीनियों को रख लेंगी तो सरकारी प्रतिष्ठानों में दोयम दर्जे के साधारण बुद्धि के कर्मचारी रह जायेंगे। लेकिन जो परिपक्व सोच के लोग हैं उन्हें अपनी सरकार की बुद्धिमत्ता पर पूरा भरोसा है। वे सोचते हैं कि पूँजीवादी गैर बराबरी और एकाधिकार यहाँ पतन नहीं पायेंगे। अन्ततोगत्वा, देश का नेतृत्व स्थिति संभाल लेगा। गरीबों का जीवन स्तर उठेगा, दैनिक उपभोग की वस्तुएं और अधिक सस्ती सुलभ होंगी। शायद भविष्य में, यानी एक दशक बाद, कोई दूसरा नेतृत्व का जाये और सरकार के प्रति अधिक कारगर आलोचनात्मक दृष्टि का विकास हो…।

अक्सर कोई न कोई दिन यहाँ जनता द्वारा किये श्रमदान का दिन होता है जिसमें मोहल्ले के लोग जनसेवा करते हैं। लोगों को निजी परामर्श देना, समस्याओं का निराकरण करना, यातायात में मदद करना आदि कार्यों में गली-मुहल्ले के लोग एकजुट होकर हिस्सा लेते हैं। यह सब अपने मुख्य कार्यभार के समय के अतिरिक्त समय में होता है। हरेक मोहल्ले के निवासियों का अपना संगठन संघ होता

है…मीटिंगंे होती हैं, गर्मागरम बहसें होती हैं और प्रत्येक सदस्य सक्रियता से अपने नेता के निर्देशन में जन-सेवा करता है।

गाँवों से आये श्रमिक प्रतिदिन बीस-तीस युएन कमा लेते हैं। वे बहुत मेहनती और मजबूत होते हैं। शहर में चल रहे निर्माण-कार्यों में ऐसे ही श्रमिक लगे हैं। देखने पर एक गरीब और एक श्रमिक में कोई विशेष अंतर नहीं प्रतीत होता। लेकिन शहर के दफ्तरों में कार्यरत कर्मचारी भी इन श्रमिकों की आय देखकर इनसे रश्क करते हैं।

9 मई

आज सुबह-सुबह गिनती करने बैठा कि अभी तक ऐसा क्या है जो मैंने यहाँ नहीं देखा:

  1. कहीं भी पेइचिंग में पालतू या आवारा पशु नहीं देते। हाँ, पकाने के लिये सुपरमार्केट में जीवित मछलियाँ, साँप, मुर्गे वगैरह जरूर देखे हैं।
  2. बहुत कम उर्म के लड़के-लड़कियों को कहीं भी काम करते नहीं देखा। होटलों, दुकानों पर युवा लड़के-लड़कियाँ ही काम करते हैं। टैक्सियों, बसों, मिनी बसों में आमतौर पर लड़कियाँ ही कन्डक्टर होती हैं। चीन की लड़कियाँ महान हैं, पूजनीय हैं। उन्होंने प्रकृति-प्रदत्त लिंगभेद को बहुत हद तक समाप्त कर दिया है। वे भारी से भारी मशीनें चलाती दिखायी देंगी।
  3. मैंने अभी तक शहर में कोई पेट्रोल-पंप नहीं देखा। शायद वह शहर से बाहर काफी दूर हैं।
  4. किसी भी गाड़ी/वाहन के साइलेंसर से धुआँ निकलते नहीं देखा।
  5. सड़कों के दोनों बाजू अनेक प्रकार के फूल खिले हैं पर किसी को भी फूल तोड़ते नहीं देखा।
  6. चीन में सभी कार्यालयों का समय आठ बजे सुबह से पाँच बजे तक है। साढ़े सात बजे अपार जन-समूह साइकिलों पर निकल पड़ता है। सड़क दुर्घटनाएं होती तो होंगी पर मैंने केवल एक सड़क दुर्घटना देखी है। शायद इसका कारण यह है कि साइकिल की सड़कें अलग हंै और पेइचिंग में मोटर-बाइक चलाने की अनुमति नहीं है।
  7. चीन में भिखारी नाम मात्रा के हैं, केवल वे हंै जो अपंग हैं। मैंने अभी तक केवल दो भिखारी फ्लाईओवर के रास्ते में बैठे देखे हंै।
  8. किसी को शराब पीकर उधम मचाते नहीं देखा।
  9. यहाँ अपराध बहुत कम हैं। केवल कुछ विदेशियों की जेबें साफ होने का सुनने में आया। हाथापाई करने पर अगर किसी को चोट लगती है या उसके शरीर को स्थायी क्षति पहुँचती है तो चोट पहुँचाने वाले को बहुत कठोर दंड मिलता है। उसे मिली सारी सुविधाएं छीन ली जाती हैं। अखबारों को सख्त निर्देश है कि वे राष्ट्रीय विकास से सम्बंधित खबरें अधिक दें, न कि हिंसा, अपराध की स्टोरी बनायें।

इस तरह ‘कन्फ्यूशियस की आदर्श शिक्षाओं’ का ही प्रचार-प्रसार किया जाता है। स्त्रिायों को पूरे अधिकार और मुक्ति मिल जाने से उनके प्रति अपराध बहुत कम हैं।

जैसा कि में पहले कह चुका हूँ कि अखबारों में तलाक के नोटिस ज्यादातर स्त्रिायों के द्वारा दिये गये हैं। किसी से परस्पर मन नहीं मिले तो तलाक आम बात है। जन-अदालतें फैसला करने में देर नहीं करती हंै। अगर दूसरा पक्ष नोटिस छपने के एक माह में अपना पक्ष प्रस्तुत नहीं करे तो फैसला प्रार्थी के पक्ष में कर दिया जाता है।

10 मई

आज मैंने खाँस-बागीचा (बैंबू पार्क) और चिडियाघर देखे। बागीचे की झील में नौका-विहार के टिकट-घर के पास अचानक भारतीय फिल्मी गीत सुनायी दिया। हमारी फिल्मों के गीत चीन में लोकप्रिय हंै। राष्ट्रीय पुस्तकालय के बिलकुल निकट शहर की मुख्य सड़क पर पड़ता है। यह पार्क। विस्तार बहुत है और विविध आमोद-प्रमोद के साधनों से भरपूर है यह पार्क। चिडियाघर में जगत-प्रसिद्ध लैसर पेंडा देखा। ये वन्य-जीव सिंचुआन के वनों में बहुतायत से हैं। पेंडा यहाँ का राष्ट्रीय पशु है, इसीलिये इसे विशेष सुरक्षा और आरम्भ में रखा जाता है। किन्तु दूसरे जानवरों के कटघरे बहुत छोटे हैं, जबकि पेंडा के लिये बहुत विशाल वनाच्छादित क्षेत्रा है। हाथियों की दशा अच्छी नहीं है। बाघ भी बिलकुल सूखी, तपती धरती पर लेटा था। काले रीछ (स्लाथ बियर) गर्मी से परेशान थे। चिड़ियाघर में साँपों की प्रजातियों का बड़ा संग्रह था। चीन में साँप और बिल्ली के मिश्रित माँस से बना व्यंजन बहुत पसंद किया जाता है। रविवार था सो चिड़ियाघर में काफी भीड़ थी और एक जगह लाॅन में टेबल डाले तीन डाक्टरों का एक समूह आते-जाते लोगों के खून की जाँच, रोग का निदान आदि करने में व्यस्त था। यह यहाँ आम बात है। चीनी स्वास्थ्य विभाग की ओर से यह अत्यन्त व्यावहारिक और सुविधाजनक कर्तव्य माना जाता है। चिडियाघर के अधिकाँश कटघरों में एसी लगे थे जिनको देखने के लिये विशेष टिकट-व्यवस्था थी। यानी उनका खर्चा, रख-रखाव, टिकट-बिक्री से ही पूरा हो जाता है। फोटोग्राफी के लिये अलग से चार्ज देना होता है। चीन में फोटोग्राफी राष्ट्रीय शौक है, सर्वाधिक लोकप्रिय और जरूरी। जब कोई फोटो ले रहा होता है तो उसके रास्ते में कोई नहीं आता। सारा आवागमन रूक जाता है जब तक कि वह अपना काम पूरा नहीं कर लेता।

11 मई

चीन में राशन व्यवस्था समाप्त कर दी गयी है। आज खबर है कि महँगाई बारह से चालीस प्रतिशत तक बढ़ सकती है जिसके लिये चीनी वेतन-भोगियों को प्रति माह दस युएन अधिक मिलेंगे। क्या चीन पूँजीवादी बाजार व्यवस्था के दुष्परिणामों की तरफ अग्रसर है। खाद्य पदार्थ महँगे हो जायेंगे और निश्चित तौर पर इसका बोझ मध्यवर्ग के उपभोक्ताओं पर पड़ेगा। क्या विदेशियों का भी वेतन इस अनुपात में बढ़ेगा?

चीन में कई जगहों पर विदेशियों से पाँच गुनी कीमत ली जाती है। यह दोहरी नीति चीन के ओलम्पिक्स की मेजबानी करने में बाधक सिद्ध हो रही है। देखना यह है कि खुली बाजार अर्थव्यवस्था में निजी स्पर्धा के कारण कीमतें कितनी घटती-बढ़ती हैं। एक तरफ निजीकरण की छूट है तो दूसरी तरफ आदेश निकला है कि पार्टी या सरकार का कोई भी नुमाइंदा किसी से उपहार या सिक्योरिटीज नहीं ले सकता। उसे ऐसी भेंटों को सरकारी कोष में जमा करना होगा। ऐसा नहीं करने पर उसके विरुद्ध कठोर दंडनात्मक कार्यवाही की जायेगी। नयी अर्थव्यवस्था का यह समय ही बतलायेगा कि पार्टी देश में अपना नियंत्राण किस सीमा तक रखती है। अगर वह असफल होती है तो उसके शक्तिशाली होने पर लोग संदेह करेंगे।

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में नौकरी पाने की लालसा पनप रही है। अंग्रेजी के प्रति रूझान और मोह बढ़ रहा है। अधिक प्रतिभावान और महत्वाकाँक्षी युवा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की तरफ भाग रहे हैं। साथ ही, शेयर खरीदकर बिना श्रम किये मालामाल होने की लालसा बढ़ी है, इससे बैंकों की जमा-पूँजी कम हुई है। आज पींकिग विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बता रहे थे कि आम चीनी नागरिक मजदूर, कर्मचारी और नेता…इन तीन वर्ग भेदों को मानता है और इनसे व्यवहार में अंतर बरतता है। इनमें परस्पर दोस्ताना संबंध अच्छा नहीं समझा जाता। प्रोफेसर की कही बात में कितना सच है, मैं खुद देखकर पता लगाऊंगा।

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अंबर पाण्डेय की कुछ नई प्रयोग-कविताएं

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इस समय हिन्दी में सबसे प्रयोगशील कवि अंबर पांडे हैं। जब उनकी कविताओं का मुहावरा समझ में आने लगता है कि वे उसको बदल देते हैं। भाषा-लहजा सब कुछ बदलने वाला यह कवि हर बार कुछ चमत्कार कर जाता है। नई कविताएं पढ़िये- मॉडरेटर

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तमाशा-ए-नसीब

तमामी तहमद हो कि झोंतरे की लँगोटी।
गाँठ में टैयाँ बंधी हो कि चवन्नी खोटी।
सूखे रोट का टुकड़ा कि टैनी की बोटी।
मुझ ठाले के ठाठ अनोखे बहती टोटी।।

अगले ज़माने हम भी हुक्मचंद होते थे।
रोज़ रात खीर में शीरमाल भिंजोते थे।
उसकी छातियों लग छपरखट पे सोते थे।
दूधों कुल्ला, दूध से हाथपाँव धोते थे।

तभू आया नसीब का ढलवाँ दौर लोगों।
पहले दिया, छीने क्या मुँह का कौर लोगों।
जो दौलत जाती हो, छोड़, न रोकना कभू।
ख़र्चा, दिया या ख़ुद गई और ठौर लोगों।

किस्मत ढट कभू ढींगर, लगे ढलाँव- खिचाँव।
भंडपीर की ढमढमी, सभू बज रही ठांव।।

*तमामी- एक प्रकार का रेशम।
*तहमद- लुंगी।
*झोंतरे- चिथड़े।
*टैयाँ- छोटी कौड़ी।
*टैनी- दोगला मुर्ग़ा या मुर्ग़ी।
*ठाले- ख़ाली बैठे रहनेवाला।
*हुक्मचंद- इंदौर के मशहूर सेठ, अपने ज़माने में दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति।
*ढलवाँ- ढलान वाला।
*तभू- तभी
*ढट- मजबूत, तगड़ी।
*ढींगर- कमज़ोर, बूढ़ी।
*ढमढमी- ढफली।
*सभू- सभी।

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हमारी औक़ात हमीं लगा दें
तो भलमन हूजे

टाट का घाघरा मूँज का इज़ारबंद था।
निहारी में नोन खाने का भी घमंड था।
क़ोतबाल, मुंसिफ़, जज की बीवियों से राग,
जिसपे फ़रेफ़्ता थे उसी से दंद फंद था।

गुलबांग मची थी निहारमुँह हम भी पहुँचे,
घूरे पे पड़ा किसू का दिल दर्दमंद था।
रोज़ का है मसला उसके कूचे चपक़लिश,
हज़ार कवियों में हाय य’ पीर भी भंड था।।

*घाघरा- फ़क़ीर भी अक्सर अपने जामे को घाघरा
पुकारते है।
*निहारी- नाश्ता
*नोन- नमक
*फ़रेफ़्ता- बहुधा आशिक़ होने पर प्रयुक्त।
*दंद फंद- लगाई झगड़ा। झोड़।
*गुलबांग- शोरगुल।
*चपक़लिश- जगह की तंगी और भीड़ की वजह से होनेवाले झगड़े।

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रानीपुरेवाली रसूलन को पीलिया होना

झलवाने जाती थी किसू पीर-भुचड़ी से।
पुचारा फेरता टका झटक बहन बड़ी से।
बावड़ी से घड़ा भरवाता उस पिदड़ी से।
पीलिया तो ना उतरा चढ़ा घड़ी घड़ी से।।

झमकड़ा झुँक गया जर्दगी थी झाड़बाकी।
चाँद में हँस ज्यूँ छाँह से पकड़ी जाए थी।
‘खिज़र के घाट किसू रात मिलो’ बोली काकी।
झाँवली से कहे थी, बाँह न भर पाए थी।।

रानीपुरे की रसूलन को, हाय, लाए झलंगा लाद।
‘झाँसे, झाँयझाँय सब होंगे, हम न होंगे, आप नाशाद।।’

*किसू- किसी।
*पीर-भुचड़ी- हिजड़ों के पीर, पीलिया, कालाझार वग़ैरह उतारते है।
*पुचारा फेरना- धोखा देना, बुरूश जैसा कुछ फेरना।
*पिदड़ी- बहुत दुबली और बहुत कमज़ोर।
*झमकड़ा- हुस्न।
*झुँक/झोंक- बर्बाद होना।
*जर्दगी- पीलापन।
*झाड़बाकी- बचा-कुचा, रहा-सहा।
*खिज़र के घाट- पानी के हज़रत खिज़र का घाट अर्थात किसी नदी या तालाब या बावड़ी का घाट।
*झाँवली- आँखों के इशारे, सैन।
*झलंगा- टूटी, ढीली खाट, बहुत बुड्डों या जो मरनेवाले हो उनके काम लाई जाती है।
*नाशाद- दुखी।

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त्योहारों के बाज़ार

कूज़पुश्त* दौड़ दौड़कर माँगते है भीख।
कूचों कूजागर* ज़ोर ज़ोर से रहे चीख़।
जुलाहिनें कूकती कोकला सी आती है।
पंडे माँगे नगद दे ‘माया तज’ की सीख।।

ग्वालिनों के खरगोशों सरीखी छातियाँ।
सिर चढ़े माखन के घड़े चश्म मदमातियाँ।
देखने को उनकी हथिनियों सी खमर* चाल,
डाकिये भूल बैठे टपाल* और पातियाँ।।

ख़र्च को चवन्नी मगर बुड्ढ़ें भी कम नहीं।
बीच रह ख़रख़शे* खड़े करने का दम नहीं।
डोकरियाँ बोहनी बिगाड़ने को आ गई,
बजाजों से कह रही पोलके चमचम नहीं।।

चपकलिश, चमींगोइयाँ, चरकटापन, दुलार,
बोहरी टोपियों से मारोठिया बाज़ार,
ठस है मोटीताज़ी जसोदाओं से गैल।
नैनचिलगोज़े* चखते है मर्द होशियार ।।

झेंप झोले में डाल टहलती है नार।
चिकनी पिंडलियाँ और मलमल की सलवार।
ऊँची एड़ी की चप्पलें बातें झोलदार।
टल्लेनवीस* भंडपीर को कौन करे यार।।

#भंडपीर_इंदोरी_३३

* कूज़पुश्त- कूबड़े।
* कूजागर-कुम्हार।
* खमर- शराब।
* टपाल- डाक।
* ख़रख़शे- झगड़े।
* चपकलिश- बहस।
* चमींगोइयाँ-कानाफूसी।
* नैनचिलगोज़े- eyecandy।
* टल्लेनवीस- बेरोज़गार।

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आमवाली की टेर

ले लो ले लो रसीला मेरा ये आम है
कहीं हरा कहीं पीला मेरा ये आम है
इस आम को खाकर बूढ़े जवान हो गए
बेचकर इसे मँगते भी धनवान हो गए

हाटों में जब ये रहे हाट सराफा लगे
फल के टोकरे पर सजा हरा साफ़ा लगे
रस चूता खाओ तो होंटों के कोरों से
इसके रसिक है राजा, सेठ तक चोरों से

इसमें दाँत धँसाओ सुखबदन याद आवें
सेज पर तश्तरी में सजाके आप खावें
खाते देख देवताओं का जी ललचावें
चुपके चूसो गरमी में जो मन घबरावें

देख आम की फाँक
उसके नयन सुध आए
दिल मेरा दो चाक
अबके चौंसा न आया

____________

कलालकूईंवाली के लिए

अक्सर दुचार हुआ उससे
कूचा-ए-कलालकूईं के सबसे तारीक और संकरे मोड़ पर
जो नब्ज़शाही की तरह फड़क
उठता उस वक़्त

उस नमकसार के खुले केस और
उनमें लगी हुई रंगीन
प्लास्टिक की क्लिपें ऐसी लगती
जैसे सायब ने नाज़ुकख़यालों को
किसी बहर में बाँध दिया है

फिर भी सुनने पर ख़याल
बहर से बाहर, इस कनपटी से
दूसरी तक ख़ून की तरह दौड़ पड़ते

बरसरे बाज़ार उसके लिए बदनाम होकर
मैं वली की तरह मशहूर हो गया
मैं शैतान की तरह मशहूर हो गया

अब शायरी करके क्या होगा
उसका पीछा करते जो मार पड़ी मुहल्लेवालों की
वो मुझे आख़िरी रोज़ तक कलालकूईं में
मशहूर रखने को काफ़ी है।

#भंडपीर_इंदोरी_ २

–भंडपीर इंदोरी की एक नज़्म

*कलालकूईं– इंदौर का एक मुहल्ला जो शराबियों के लिए मशहूर है।
*दुचार- आमना-सामना होना।
*तारीक- अँधेरा
*नब्ज़शाही- शरीर की प्रमुख नब्ज़।
*नमकसार- नमक की खान।
*सायब- फ़ारसी का शायर।
*बहर- छंद
*बरसरे बाज़ार- बीच बाज़ार।
*वली- दकन का मशहूर शायर।

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अधूरेपन की पूरी कहानी

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इस साल के चर्चित उपन्यासों में एक उपन्यास भगवंत अनमोल का उपन्यास ‘जिंदगी 50-50’ भी रहा है। उसकी एक समीक्षा आज पीयूष द्विवेदी भारत के शब्दों में- मॉडरेटर

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भगवंत अनमोल के उपन्यास ‘ज़िन्दगी 50 50’ के विषय में प्रचलित यह है कि इसका कथानक किन्नर समाज की त्रासदियों पर आधारित है, लेकिन इस बात में पूरी सच्चाई नहीं है। ये ठीक है कि उपन्यास का केन्द्रीय कथानक किन्नर जीवन की जद्दोजहद के इर्द-गिर्द ही घूमता है, लेकिन समग्रतः यह उन सभी व्यक्तियों की व्यथा-कथा है, जो अलग-अलग प्रकार के कथित शारीरिक अधूरेपन के कारण सामाजिक तिरस्कार और उपेक्षा सहते हुए हीनताबोध से ग्रस्त जीवन जीने को मजबूर होते हैं।

यह तो नहीं कहेंगे कि इस उपन्यास का विषय हिंदी कथा-साहित्य के लिए एकदम ही नया और अनूठा है, लेकिन इतना जरूर है कि इसपर अभी बहुत ज्यादा लेखन नहीं हुआ है। किन्नर समाज की त्रासदी को केंद्र में रखकर लिखे गए कथा-साहित्य में किन्नर कथा, यमदीप, गुलाम मंडी आदि कुछ पुस्तकों की ही चर्चा सुनाई देती है। इनके अलावा भी कुछ पुस्तकें हो सकती हैं, लेकिन उनकी संख्या बहुत अधिक नहीं होगी। उल्लिखित सब पुस्तकें लगभग एक दशक के अंदर ही आई हैं। जाहिर है, इस विषय पर हिंदी में काफी कम लिखा गया है और  कम लिखे जाने के कारण ही अभी इस विषय का प्रभाव क्षीण नहीं हुआ है जिस कारण इसमें रचनात्मकता की भरपूर संभावना शेष है। इस तथ्य के आलोक में जब ‘ज़िन्दगी 50-50’ हमारे सामने आती है, तो स्वाभाविक रूप से मन में एक प्रभावी कथानक की उम्मीद जाग उठती है।

उपन्यास की कहानी शुरू से ही तीन धाराओं में चलती है। इनमें दो धाराएं मुख्य पात्र अनमोल के अतीत और एक धारा वर्तमान से सम्बद्ध है।  कहानी की शुरुआत अनमोल के वर्तमान से होती है, जब वो पिता बनता है और उसे पता चलता है कि उसका पुत्र किन्नर है। यहाँ से कहानी अतीत में जाती है, जहां अनमोल अपने किन्नर भाई हर्षा के प्रति सामाजिक-पारिवारिक उपेक्षा व अत्याचारों को याद करता है। यहीं वो तय करता है कि उसके पिता ने उसके भाई के प्रति जो अन्याय किया, वो वह अपने पुत्र के साथ नहीं करेगा, वरन समाज से लड़कर अपने पुत्र को एक सार्थक जीवन देगा।

हर्षा का चरित्र नीरजा माधव के ऊपर वर्णित उपन्यास ‘यमदीप’ की नायिका नाजबीबी से बहुत हद तक प्रभावित प्रतीत होता है। पैदा होते ही परिवार की आँख का काँटा बन जाना, सामाजिक तिरस्कार झेलना, कम उम्र में ही पढ़ाई छुड़वा दिया जाना, आखिर मुख्यधारा के समाज की उपेक्षाओं से तंग आकर किन्नरों के पास जाकर पूरी तरह से किन्नर बन जाना – ये सब बातें ‘ज़िन्दगी 50 50’ की हर्षा को यमदीप की नाजबीबी के निकट ले जाती हैं। भगवंत अनमोल ने यमदीप पढ़ी है या नहीं, ये तो नहीं कह सकते, लेकिन दोनों ही स्थितियों में यह तथ्य है कि उनके उपन्यास की किन्नर-कथा का केन्द्रीय चरित्र हर्षा, यमदीप की नाजबीबी के चरित्र से प्रारंभिक समानता तो रखता है, लेकिन उसके प्रकर्ष-बिंदु के आसपास भी नहीं पहुँच पाता। नाजबीबी का चरित्र किन्नरों की पीड़ा ही नहीं दिखाता, उनके लिए संघर्ष से सफलता की उम्मीद भी जगाता है तथा राजनीति के रूप में एक संभावनाशील विकल्प भी देता है, जबकि हर्षा के चरित्र की परिणिति किन्नरों के लिए करुणा का भाव रचने तक ही सीमित रह जाती है। हालांकि इस उपन्यास के मुख्य पात्र अनमोल द्वारा अपने किन्नर पुत्र को सामाजिक लांछनों की परवाह किए बगैर पालना किन्नरों के लिए एक धुंधली-सी उम्मीद जरूर देता है।

किन्नर कथा के समानांतर ही इस उपन्यास में अनमोल और अनाया की प्रेमकथा का अतीत भी चलता रहता है। अनाया, जिसके गाल पर एक धब्बा है, लोगों के उपहास और उपेक्षा के कारण आत्मविश्वास की कमी से जूझ रही है। परिस्थितियां ऐसी बनती हैं कि अनमोल उसे ख़ुशी देने का निश्चय करता है। दोनों में प्रेम हो जाता है। लेकिन आखिर अनमोल अपने निश्चय को पूरा कर पाने में सफल नहीं हो पाता। अनाया एक प्रतिनिधि चरित्र है, जो समाज के उन सभी लोगों की व्यथाओं को स्वर प्रदान करती है जो किसी न किसी प्रकार के शारीरिक अधूरेपन के कारण सामाजिक अपमान और उपेक्षा के शिकार होते रहते हैं। अनाया के चरित्र को यथार्थ के यथासंभव निकट रखने में लेखक सफल रहे हैं।

इस पुस्तक की अगर सबसे अधिक खलने वाली कोई चीज है, तो वो है इसका अंत। अनमोल के पुत्र का साक्षात्कार के लिए जाना, वहाँ उसकी प्रतिस्पर्धा में एक ही लड़के का रह जाना, परिस्थितिवास अनमोल का उस लड़के के घर जाना और वहाँ उसकी माँ के रूप में अनाया को देखना, फिर दोनों के बीच भावनात्माक प्रलाप होना आदि घटनाक्रम हमें बुरी तरह से चकित करता है। प्रारंभ से यथार्थवादी धारा में चली आ रही कहानी का ये अति-नाटकीय अंत कुछ-कुछ मनमोहन देसाई की फिल्मों की याद दिलाता है जिनमें शुरू में बिछड़े सब पात्र अंत में विचित्र ढंग से मिल जाते थे। प्रतीत होता है कि लेखक ने कहानी के अतीत और वर्तमान की धाराओं को अंत में एक साथ मिला देने की जिद और जल्दबादी का शिकार होकर ऐसा अंत रच दिया है। यह ठीक है कि कथाओं में ऐसे अति-नाटकीय अंत होते हैं, लेकिन एक यथार्थवादी विषय पर आधारित गंभीर उपन्यास के लिए ऐसा अंत प्रभावी नहीं कहा जा सकता। लेखक को यदि अंत में अतीत-वर्तमान का एकीकरण ही करना था, तो वो बिना नाटकीय हुए, यथार्थ का सूत्र पकड़े रहकर भी किया जा सकता था। इस संबंध में लेखक को और समय लेकर कोशिश करनी चाहिए थी।

अंत की इस बड़ी कमजोरी के बावजूद भगवंत अनमोल का यह उपन्यास संतोषजनक रूप से प्रभावी है। सबसे बड़ी चीज कि इसका चर्चित होना यह उम्मीद जगाता है कि हिंदी साहित्य के इस कमछुए विषय पर और भी लेखकों की कलम उठेगी तथा किन्नर विमर्श के क्षेत्र में कुछ नया जोड़ने वाली कोई और कृति हमारे सामने आएगी।

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वीरेन डंगवाल की सम्पूर्ण कवितायें पर अरविंद दास की टिप्पणी

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अभी हाल में ही नवारुण प्रकाशन से जनकवि वीरेन डंगवाल की सम्पूर्ण कविताओं की किताब प्रकाशित हुई है। उसके ऊपर एक सारगर्भित टिप्पणी युवा लेखक-पत्रकार अरविंद दास की- मॉडरेटर

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समकालीन हिंदी कविता की बनावट और बुनावट दोनों पर लोक की छाप स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है. लोक की यह परंपरा निराला-मुक्तिबोध-नागार्जुन-केदारनाथ सिंह से होकर अरुण कमल-मंगलेश डबराल-आलोकधन्वा-वीरेन डंगवाल तक जाती है. हालांकि समाज के अनुरूप और समय के दबाव के फलस्वरूप लोक चेतना के स्वर और स्वरूप में अंतर स्पष्ट है.

नवारुण प्रकाशन से हाल ही में प्रकाशित वीरेन डंगवाल (1947-2015) की संपूर्ण कविताओं की किताब-कविता वीरेन, को पढ़ते हुए यह बोध हमेशा बना रहता है. उनकी कविता का स्वर और सौंदर्य समकालीन कवियों से साफ अलग है. मंगलेश डबराल ने इस किताब की लंबी भूमिका में ठीक ही नोट किया है: “…रामसिंह, पीटी ऊषा, मेरा बच्चा, गाय, भूगोल-रहित, दुख, समय और इतने भले नहीं बन जाना साथी जैसी कविताओँ ने वीरेन को मार्क्सवाद की ज्ञानात्मक संवेदना से अनुप्रेरित ऐसे प्रतिबद्ध और जन-पक्षधर कवि की पहचान दे दी थी, जिसकी आवाज अपने समकालीनों से कुछ अलहदा और अनोखी थी और अपने पूर्ववर्ती कवियों से गहरा संवाद करती थी.” उनकी कविताओं में जो चीजें ‘सबाल्टर्न’ चेतना से लैस है, साधारण दिखती है वह गहरे स्तर पर जाकर हमारे मन के अनेक भावों को एक साथ उद्वेलित करने की क्षमता रखती है. अधिकांश कविताएँ 1980 के बाद की हैं. अपने समय और समाज से साक्षात्कार करती ये कविताएँ आत्मीय और सहज है. यह सहजता कवि के सायास कोशिश से ही संभव है. उन्हीं के शब्दों में:  एक कवि और कर ही क्या सकता है/सही बने रहने की कोशिश के सिवा.

वीरेन की कई कविताएँ जन आंदोलनों के लिए गीत बन चुकी हैं, ऐसे ही जैसे गोरख पांडेय की कविताएँ. उनकी मात्र तीन कविता संग्रह प्रकाशित हुई थी.  इस समग्र में तीनों संग्रहों के लिए लिखी गई भूमिका को भी शामिल किया गया है. ‘दुष्चक्र में स्रष्टा’, जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, में शामिल इन पंक्तियों में- किसने आखिर ऐसा समाज रच डाला है/ जिसमें बस वही दमकता है, जो काला है?’क्षोभ और हताशा है. पर कवि ‘उजले दिन जरूर आएँगे’को लेकर आश्वस्त भी है. ‘मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूँ/हर सपने के पीछे सच्चाई होती है/हर दौर कभी तो खत्म हुआ ही करता है/ हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है’, ये आशा और संघर्ष उनकी कविता का मूल स्वर भी है.

परमानंद श्रीवास्तव ने 1990 में ‘समकालीन हिंदी कविता’नाम से एक किताब लिखी थी जिसे साहित्य अकादमी ने छापा था. सभी प्रमुख समकालीन कवि और उनकी कविताएँ इसमें शामिल हैं. कॉलेज के दिनों में जब मैं हिंदी साहित्य का छात्र नहीं था तब मेरे लिए यह एक रेफरेंस बुक की तरह था और इस किताब में शामिल समकालीन कवियों की कविताएँ ढूंढ़ कर पढ़ता था. आश्चर्य है कि इस किताब में वीरेन नहीं हैं. मेरी मुलाकात वीरेन की कविताओं से विश्वविद्यालय में जाकर ही हुई.

‘कविता वीरेन’ इस कमी को पूरा करता है. इस खूबसूरत संग्रह में उनकी असंकलित और कुछ नयी कविताओं के साथ नाजिम हिकमत की कविताओँ के अनुवाद भी शामिल है. इस किताब के सुरुचिपूर्ण प्रकाशन के लिए नवारुण प्रकाशन के कर्ता-धर्ता संजय जोशी के लिए बधाई के पात्र हैं.

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उभरेंगे रंग सभी: ‘मनमर्जियां’ में इश्‍क का मनोवैज्ञानिक शेड

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हाल में रीलीज़ हुई फिल्म ‘मनमर्जियां’ पर पाण्डेय राकेश की टिप्पणी- मॉडरेटर

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‘प्रेम के मनोविज्ञान की यही सबसे खास बात है कि व्‍यक्ति अपने संभावित प्रेमी/ प्रेमिका में स्‍वयं के ‘कैरेक्‍टर से बाहर’ आने की संभावना देखता है।’

 

 

 

 

‘मनमर्जियां’ में अनुराग कश्‍यप अपनी विशिष्‍ट सिनेमाई भाषा में बात करते हैं। वह प्रेम की व्‍याख्‍या करने के किसी सायास बौद्धिक प्रयास के मारे नहीं हैं। पर, मनमर्जियां का फिल्‍मकार आम दर्शक के दिल और दिमाग में इस कदर घुसता है जिससे हर दर्शक खुद अपने प्रेम संबंधों के बारे में एक ‘कैथारसिस’ से गुजरने लगता है। एक दर्शक के रूप में हम अपने प्रेम संबंधों के अलग- अलग रंगों के बारे में कुछ जरूरी अहसास और इनसाइट लेकर निकलते हैं।

सिनेमा में जो ‘प्रेम का मनोविज्ञान’ है, प्रेम के बारे में उस सैद्धांतिक समझ को फिल्‍म के सिनेमाई अहसास से अलगाया नहीं जा सकता। ‘प्रेम का मनोविज्ञान’ सिनेमा की कहानी और इसके कलात्‍मक कलेवर मे रचा- बसा है। फिल्‍म की समीक्षा कलात्‍मक धरातल पर ही हो सकती है। पर, एक साधारण चर्चा के रूप में फिल्‍म की कहानी में प्रेम का जो मनोवैज्ञानिक पक्ष है, उसपर अलग से बात की जा सकती है।

‘काला ना सफेद है/

इश्‍क दा रंग यारा/

ग्रे वाला शेड है’।

इस गाने से शुरूआत होती है, और एक टोन सेटिंग हो जाता है। रूम्‍मी (तापसी पन्‍नू) और विकी (विकी कौशल) के संबंध में पैशन है। सेक्‍स की उफान मारती उर्जा है। फिल्‍म की रूचि पैशन को ‘ब्‍लैक’ या ‘व्‍हाइट’ में न देखकर इश्‍क के अनेक रंगों में एक रंग के रूप में देखने में है। रूम्‍मी और विक्‍की के संबंध में घनघोर आकर्षण और अटैचमेंट है, पर इस संबंध में अनेक विरोधाभास हैं। पैशन हर विरोधाभास का समाधान नहीं है, यानि यह प्रेम का अकेला रंग नहीं है। रूम्‍मी और विकी को समाज की कोई बासी चिंता नहीं है, तो ऐसा भी नहीं है कि वह संबंध समाज के प्रति कोई सोचा- समझा विद्रोह हो। यह वह प्रेम है जो ‘हो जाता है’। रूम्‍मी और विकी के व्‍यक्तित्‍व में समस्‍याएं हैं (व्‍यक्तित्‍व और उसमें समस्‍याओं का होना असामान्‍य नहीं बल्कि इंसानी है, व्‍यक्तित्‍व है तो समस्‍याएं हैं)। दोनों के लिए प्रेम और सेक्‍स व्‍यक्तित्‍व की जड़ समस्‍याओं के तनाव से फौरी राहत का एक माध्‍यम भी है। उनका प्रेम सेक्‍स के साथ जड़ है। उनका प्रेम उनकी आदत है। उनका प्रेम जीवन के बड़े फलसफे और बड़े निर्णयों पर पहुंचने में बार- बार असमर्थ होता है।

रूम्‍मी और विक्‍की दोनों के व्‍यक्तित्‍व में समस्‍याएं हैं। रूम्‍मी क्रोध में निर्णय लेती है, ‘नाटक’ खड़ा कर परिस्थितियों को मैनुपुलेट कर अपनी फौरी समझ के आधार पर निर्णय लेना और उस निर्णय को दूसरों पर थोप देना जानती है। मां- बाप के न होने से उसका अवचेतन व्‍यथित है और चेतन के स्‍तर पर वह इस बात का भी पूरा फायदा उठाती रहती है (जैसा कि वह बार- बार कहती है)। उसने अपनी वेदनाओं को अपनी प्रतिक्रिया और अपनी प्रतिक्रियाओं को इस असुविधाजनक समाज में अपना डिफेंस बनाया हुआ है। अपने इम्‍पल्सिव स्‍वभाव के कारण अपने परिवार के बिजनेस में योगदान देने में मिसफिट है, अपने प्रिय खेल हॉकी से दूर हो गई है। इसी तरह, विक्‍की गैर- जवाबदेह है। लाड़- प्‍यार में पला और बचपन से ही हर उस खिलौना जिसपर मन मचले उसे जिद करके पा लेने वाला बंदा है जो पा लेने के बाद अपनी रूचि को सस्‍टेन नहीं करता है। वह पाना जानता है, पर निभाना नहीं जानता है। अपने व्‍यक्तित्‍व की नामुनासिबत (inadequacies) को वह आड़े- तिरछे फैशन में छिपाता है। अपने पॉप- म्‍यूजिक प्रोफेशन में वह ज्‍यादा कुछ क्रिएट नहीं कर रहा, पर वह जगह अपनी नामुनासिबत के साथ जीने के लिए मुफीद है। पुन: यह कमजोरियां मानवीय हैं, ‘ब्‍लैक’ या ‘व्‍हाइट’ नहीं।

अपने- अपने व्‍यक्तित्‍व की उलझनों को लेकर रूम्‍मी और विक्‍की परस्‍पर ‘इंडल्‍ज’ रहना चाहते हैं। दुनिया का सामना करने में बनने वाला तनाव और एंक्‍जायटि उस जवां- उम्र में सेक्‍सुअल- एंक्‍जायटि बन जाता है, और सेक्‍स की उर्जा के साथ ड्रेन होता रहता है। यह भी प्रेम का एक रंग है। पर, किसी भी एक रंग की तरह यह अपने- आप में संपूर्ण प्रेम नहीं है। वह दोनों अपने संबंध को ‘फैसला’ के एक बिंदु पर ठहराव देने में असमर्थ हैं।

कमाल की बात यह कि उनके व्‍यक्तित्‍व की यह कमजोरियां सिक्‍का का एक पहलू है। उसी सिक्‍का का दूसरा पहलू यह है कि उनका व्‍यक्तित्‍व बहुत पैशनेट, बहुत फोर्सफुल और समाज की छोटी- मोटी जड़ताओं में बंधने से पहले ही उसे तोड़ देने में सक्षम व्‍यक्तित्‍व है। समाज से डिफेंस में ही सही, दुनिया को ठेंगा दिखाने की काबिलियत उनके सेक्‍स को दुनियावी चिंताओं से मुक्‍त बनाती है, कम से कम चेतन के स्‍तर पर, और इसलिए सेक्‍स गतिशील है।

सिनेमा की कहानी में हर जरूरी पड़ाव पर दो बिलकुल एक- सी दिखने वाली लड़कियां उभरती हैं, रूम्‍मी को तेज नजरों से सहानुभूति से घूरती रहती हैं, नाचती और गाती हैं। वह दोनों प्रतीक हैं रूम्‍मी के व्‍यक्तित्‍व के द्वंद की। वह इन दो सीमाओं के बीच झूलती है, उसका स्‍वयं के बारे में इनसाइट और नियंत्रण अभी कमजोर है। रूम्‍मी ने अभी अपने व्‍यक्तित्‍व के दो छोरों का समान अधिकार से उपयोग करना नहीं सीखा है। वह विद्रोहिनी सी दिखती है, पर अभी उसका विद्रोह अन- गाइडेड मिसाइल है। वह अभी अपने ही व्‍यक्तित्‍व के दो छोरों के बीच अपनी ही स्‍वतंत्र इच्‍छा से आवाजाही करने वाली बनी नहीं है। इम्‍पल्‍स अभी उसका ड्राइविंग फोर्स है। पर, प्रेम एक यात्रा है जिससे गुजरकर वह अपने जीवन पर अपने नियंत्रण की संभावनाओं को एक्‍सप्‍लोर कर रही है। वह इस आग में जल जाने या इससे तप कर बाहर निकलने की दो संभावनाओं के बीच झूल रही है।

विक्‍की के गैर- जवाबदेह व्‍यवहार से कोफ्त होकर क्रोध और इम्‍पल्‍स में जब वह इस बात के लिए राजी होती है कि वह ‘कहीं भी’ शादी कर लेगी तब उसके जीवन में रॉबी (अभिषेक बच्‍चन) आता है। रॉबी ऊपर से पूरा ‘मैरिज मैटेरियल’ है। रूम्‍मी मजाक में उसे राम जी कहती है। पर, उसके व्‍यक्तित्‍व के भी शेड्स हैं। वह अपनी ही ‘शराफत’ में कैद है, रूम्‍मी मजाक में कहती है तुम क्‍या अपने ‘कैरेक्‍टेर से बाहर’ नहीं आते। पर, सच्‍चाई यह है अपनी तथाकथित ‘शराफत’ से बाहर निकलना रॉबी के अवचेतन की मुख्‍य चाह है। रूम्‍मी में उसे एक ऐसी लड़की दिखती है जो उसे उसके उदास जीवन से बाहर ले जाएगी और जीवन में जरूरी उत्‍तेजनाएं भर देगी। वह अपने इस ड्राइव के कारण रूम्‍मी की ओर आकर्षित होता है। और आक‍र्षित होने के बाद उसका प्रेम अवसरवादी भी बनता है, जब वह पशोपेश में पड़ी हुई रूम्‍मी के साथ शादी कर लेने में देर नहीं करता। उसके इस प्रेम में उसका अवसरवाद भी क्षुद्र होकर नहीं उभरा है। फिल्‍मकार ने कहना चाहा है कि ‘प्रेम (और युद्ध) में सब जायज’ भी प्रेम का एक रंग है। पर, रॉबी मूलत: स्‍व– केंद्रित नहीं है। रॉबी में एक ठहराव है, वह अपने प्रेम को समानता, सहानुभूति, होश और जवाबदेही के साथ जीना जानता है। रॉबी अपने एक पुराने प्रेम की टीस से और अपने द्वारा अपने सबसे प्‍यारे दोस्‍त को दुर्घटनाग्रस्‍त कर अपाहिज कर देने के कारण उदासी को अपना स्‍वभाव बनाए बैठा है और जिंदादिल रूम्‍मी के सहारे अपने इस ‘कैरेक्‍टर से बाहर’ निकलना चाहता है। रॉबी के व्‍यक्तित्‍व में उदासियों के बावजूद जो मूल्‍य– गर्भित ठहराव है वह रूम्‍मी के लिए आईना है जिसमें वह अपने बेचैनियों को देखती चली जाती है और रॉबी के साथ एक जुड़ाव में जुड़ती चली जाती है। प्रेम के मनोविज्ञान की यही सबसे खास बात है कि व्‍यक्ति अपने संभावित प्रेमी/ प्रेमिका में स्‍वयं के ‘कैरेक्‍टर से बाहर’ आने की संभावना देखता है।

पुराने संबंध की आदत से निकलना रूम्‍मी और विक्‍की के लिए आसान न था। रूम्‍मी के अनिश्‍चय के साथ कोप करना रॉबी के लिए आसान न था। प्रेम के अनेक रंगों में आदत और ऑब्‍सेशन तथा ईर्ष्‍या और असुरक्षा भी कुछ अवश्‍यंभावी रंग हैं।

न तो पैशन पर टिका संबंध और न ही विवाह अपने- आप में प्रेम में ठहराव की गारंटी है। एक स्‍थायीत्‍व के लिए प्रेम बराबरी, सच्‍चाई, फैसला, निष्‍ठा और जवाबदेही की मांग करता है। नाटकीय तनावों के क्रम में रूम्‍मी विक्‍की की आदत से बाहर निकलती है और रॉबी उस शादी को तोड़ देता है जिसके भीतर ‘सच’ बचा नहीं रह पा रहा था। तीनों पात्र फिर एक समान धरातल पर खड़े होते हैं, एक दूसरे से पर्याप्‍त डिटैच। अब रूम्‍मी के सामने नए इनसाइट हैं। अब रूम्‍मी का अपने निर्णयों पर अधिक कंट्रोल है। रूम्‍मी अपने विरोधाभासों से बाहर निकलती है और अपने जीवन के बारे में साफ निर्णय लेने लगती है। जवाबदेह बनने के दबाव से गुजरते हुए विक्‍की भी अपने संबंध के नशे से बाहर निकलता है और फिलवक्‍त अपने जवाबदेह बनने की राह को अधिक जरूरी समझकर मात्र उसी पर चलने को तैयार हो जाता है। वह संबंध जो था जैसा था खूबसूरत था और दोनों पात्रों के लिए वह किसी ‘गिल्‍ट’ का आधार न होगा। रूम्‍मी के सामने रॉबी के साथ अपनी संभावना फिर- से देखने का विकल्‍प खुला रहता है। रूम्‍मी को अपने बचपन, अपने स्‍वभाव, अपने माता- पिता, अपनी हॉकी सबकी स्‍मृति फिर- से ताजी होने लगती है।

वह अनुराग कश्‍यप जिसपर ‘गंदा’ होने का आरोप लगता है वह अक्‍सर अपनी फिल्‍मों में एक साफ आईना के तरह हमारे सामने होता है और  हमें घुमा- घुमाकर अपना चेहरा देखने का अवसर देता है। मनमर्जियां में भी ऐसा ही हुआ है।

 

पांडेय राकेश

लेखक पब्लिक- पॉलिसी- ट्रेनिंग और लाइफ- कोचिंग क्षेत्रों से संबंध रखते हैं। स्‍वतंत्र लेखन भी करते हैं।   

 

 

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विष्णु खरे की एक असंकलित कविता

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चित्र सौजन्य: khabar.ndtv.com
विष्णु खरे की एक असंकलित कविता कवि-संपादक पीयूष दईया ने उपलब्ध करवाई है।  विष्णु खरे की स्मृति को प्रणाम के साथ- मॉडरेटर
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वसन्त 
वे दौड़ कर दीवार तक पहुँच जाते हैं
दरारों में झाँक
वापस मेरी ओर गर्दन मोड़ कर मेरी पीठ से पूछते हैं
क्या तुम गंधस्नाता वासन्ती बयार नहीं पहिचानते?
क्या तुम वृक्षों का वासन्ती गान गुन नहीं पाते?
क्या तुम वासन्ती दूब में बिखरा इन्द्रधनुष नहीं देखते?
मैं वसन्त चीन्हता था, मैं वसन्त सुनता था, मैं वसन्त देखता था
किन्तु अब दीवार की हिड़कन का आश्रित नहीं होना चाहता
जिसकी एक ईंट तुमने और एक ईंट मैंने रखी है
सन्धियों से वसन्त देखना आसान है
मैं समूची दीवार गिराने के बाद मलबे पर बेलचा रख
खारी आँखों वसन्त देखूँगा
(संज्ञा पत्रिका के मार्च १९६८ के अंक में प्रकाशित)

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स्टोरीटेल: ऑंखें बंद करके कहानी में घुल जाना

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स्टोरीटेल ऐप पर कहानी सुनने के अनुभव को हमसे साझा कर रही हैं सुपरिचित लेखिका इरा टाक। स्टोरीटेल के लिए उन्होने आडियो सीरीज भी लिखा है- मॉडरेटर

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थोडा होश सँभालते ही हम कहानियों की गिरफ्त में आ जाते हैं.. बचपन में दादी, नानी, फिर माँ के किस्से, कहानी को लेकर हमारी समझ विकसित करते हैं. स्कूल में कोर्स की किताबों में कहानियां पढने से पहले ही कई पात्र हमारे जीवन में शामिल हो चुके होते हैं. कहानियों ने लम्बा सफर तय किया है मुंह जुबानी, किताबें, डिजिटल और ऑडियो जोकि मुंह जुबानी का ही विकसित टेक्निकल रूप है.

ऑडियो कहानी के लिए लिखना एक अलग अनुभव है, संवाद कसे हुए और रोचक होने चाहिए. Storytel के लिए मैंने एक घंटे की कहानी “पटरी पर इश्क” लिखी थी, जो बड़े दिन यानि 25 दिसम्बर 2018 को लांच हुई थी. उसको सुनने के लिए मैंने पहली बार Storytel का एप्प डाउनलोड किया था. पुष्कर विजय की खूबसूरत ठहरी हुई आवाज़ ने कहानी को एक अलग ही रंग में रंग दिया है.

स्टोरीटेल से जुड़ने की मेरी कहानी भी कुछ अलग अंदाज़ की है. पब्लिशर प्रियम्वदा रस्तोगी से मेरी मुलाकात मुंबई में प्रसिद्ध रंगकर्मी विभा रानी जी के घर हुई थी. वहां बातों ही बातों में उन्होंने बताया कि उनको बच्चों के लिए ऑडियो कहानी लिखने के लिए लेखकों की तलाश है. मैंने बोला मैंने कभी बच्चों के लिए लिखा तो नहीं पर मैं कोशिश ज़रूर कर सकती हूँ. बस यहीं से शुरू हुआ मेरा और स्टोरीटेल का सुरीला सफ़र.

बच्चों की कहानी पर तो बात नहीं बनी पर बड़ो की मतलब एडल्ट नॉवेल “गुस्ताख़ इश्क़” के लिए मेरा उनसे करार हुआ. गुस्ताख़ इश्क मेरा पहला ऑडियो नावेल है जो जल्द ही रिलीज़ होने वाला है. इसको लिखने में लगभग छह महीने लगे. उसके पहले न्यू ईयर स्पेशल एक घंटे की कहानी “पटरी पर इश्क़” लिखी.

कहानियों को सुनना एक अलग तरह का अनुभव होता है, जैसे कहानी आपके अन्दर घुलती जा रही हो. जब आप ऑंखें बंद कर कहानियों के लोक में पहुँच जाते हैं. दृश्यों की कल्पना करते हैं, पात्रों को ऑंखें बंद कर के देखते हैं, पात्र आपके सामने चहलकदमी कर रहे हों और आप हाथ बढ़ा कर उन्हें छू सकें !

कुछ समय के लिए इस दुनिया से अलग एक नयी दुनिया में जाना एक तरह का मैडिटेशन ही होता है.

storytel पर मैंने कई कहानियां सुनी, जिनमें अगाथा क्रिस्टी का Evil Under the Sun रोमांचित कर देने वाला अनुभव रहा. प्रभात रंजन की कोठागोई की किस्सागोई अच्छी लगी. दोस्त शिल्पा की कहानी चलती रहे ज़िन्दगी, बच्चों की कहानियों में “गोलगट्टम” और “छोटी दुर्गा” मजेदार लगीं.

Audio story कहानियों की दुनिया में एक नया रंग जोड़ती है. उनको सुनने, समझने और महसूस करने की ज़रूरत है. पाठक से श्रोता बनने की ज़रूरत है. तो मोबाइल में डाउनलोड कीजिये storytel का app और किस्से कहानियों को अपनी हथेली में रखिये.

इरा टाक

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‘दुर्वासा क्रोध’वाला मानवीय व्यक्तित्व

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विष्णु खरे के निधन के बाद जो श्रद्धांजलियाँ पढ़ीं उनमें मुझे सबसे अच्छी वरिष्ठ लेखक विनोद भारद्वाज की लगी। इंडिया टुडे में प्रकाशित इस श्रद्धांजलि को साभार प्रस्तुत कर रहा हूँ- प्रभात रंजन

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कभी-कभी मौत एक बहुत गलत और अजीब समय पर आकर दरवाजे पर चुपचाप खड़ी हो जाती है. हिंदी के अद्वितीय कवि और विलक्षण आलोचक, चिंतक, अनुवादक विष्णु खरे के साथ यही हुआ. अचानक उन्हें मुंबई से दिल्ली की हिंदी अकादेमी के उपाध्यक्ष पद के लिए बुलाया गया और वे अभी एक लंबी पारी खेलने की शुरुआत ही कर रहे थे कि ब्रेन हेमरेज ने उन्हें दिल्ली के पंत अस्पताल में अचेत हालत में पहुंचा दिया.

वे हिंदी साहित्य के एक जबरदस्त योद्धा थे—आसानी से हार मान लेना उनके जीवन का सिद्धांत नहीं था. हम सब उनके दोस्त उम्मीद कर रहे थे कि वे अचानक उठ खड़े होंगे और हैरानी तथा गुस्से में पूछेंगे—अरे भई, मुझे वेंटीलेटर पर क्यों रखा हुआ है?

दुर्भाग्यवश ऐसा हुआ नहीं. वे एक हफ्ता अस्पताल में रहने के बाद 19 सितंबर की दोपहर कई बड़े अधूरे काम छोड़कर चले गए. वे पिछले कई महीने से रजा फाउंडेशन के लिए मुक्तिबोध की कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद के काम में लगे थे. काफी काम हो चुका था पर अभी वह पूरा नहीं हो पाया था. हिंदी अकादेमी की पत्रिका के लिए वे कुंवर नारायण और केदारनाथ सिंह की स्मृति में एक विशेषांक की तैयारी कर रहे थे.

जिस दिन वे अस्पताल ले जाए गए, उस शाम उन्हें इसी विशेषांक के सिलसिले में कुंवर नारायण के सुपुत्र अपूर्व नारायण से मिलना था. यह भी विडंबना है कि खरे का निधन कुंवर नारायण (उनके प्रिय कवि) के जन्मदिन पर हुआ. कुछ तारीखें इतिहास में अजीब तरह से दर्ज हो जाती हैं.

और हिंदी साहित्य की हालत देखिए कि विष्णु खरे अभी बिस्तर पर ‘कोमा’ से लड़ रहे थे कि फेसबुक पर कुछ युवा कवियों ने उन पर आरोप लगाने शुरू कर दिए कि हिंदी अकादेमी बूढ़े और मृत्यु की ओर बढ़ रहे कवियों को प्रोत्साहित कर रही है.

असद जैदी, मंगलेश डबराल और देवीप्रसाद मिश्र का काव्य पाठ या देवताले की स्मृति में एक आयोजन इतिहास में इस तरह से दर्ज किया जाएगा? अकादेमी की पूर्व अध्यक्ष मैत्रेयी पुष्पा ने इस पर जो टिप्पणी की वह भी गौर करने लायक है. हिंदी अकादेमी का खून बूढ़े साहित्यकारों के मुंह लगा हुआ है जिसका चस्का वे छोड़ नहीं पाते.”

मैं विष्णु खरे को करीब पचास वर्षों से जानता हूं. वे हिंदी की अनोखी और अद्वितीय प्रतिभा थे. युवा लेखकों में उनकी लोकप्रियता, उनका सम्मान बेमिसाल है. वे खोज-खोजकर युवा कवियों को पढ़ते थे. हिंदी अकादेमी में तो अभी वे कुछ कर ही नहीं पाए थे पर उनके बारे में घटिया किस्म के फैसले दनादन सुना दिए गए.

विष्णु खरे जीनियस थे—वे कविता, साहित्य, मिथकशास्त्र, महाभारत, फाउस्ट, बर्गमैन, तारकोवस्की कारायान पर अधिकार के साथ बोल सकते थे. ग्योठे के फाउस्ट का उन्होंने हिंदी अनुवाद भी किया है—ग्युंटर ग्रास की किताब जीभ निकालना का भी. भारतविद् जर्मन विद्वानों से उनकी गहरी मित्रता थी—उनसे उनका जबरदस्त बौद्धिक संवाद था.

वे इस लायक थे कि उन्हें साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष पद पर बैठाकर कुछ बेहतरीन काम कराए जा सकते थे. लेकिन हिंदीवालों ने अपने सबसे काबिल विद्वान को इस पद के लिए चुना. हिंदी के कई औसत लेखक, कवि साहित्य अकादेमी पुरस्कार पा चुके हैं. पर जिस कवि को कई नामी लोग रघुवीर सहाय के बाद का सबसे महत्वपूर्ण हिंदी कवि मानते हैं वह अपने जीवन में साहित्य अकादेमी पुरस्कार से वंचित रहा.

कई कड़वे तथ्य याद आ रहे हैं. नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक विद्या निवास मिश्र जब अपने जयपुर, लखनऊ आदि संस्करणों के स्थानीय संपादक विष्णु खरे से नाराज थे, तो दिलीप पाडगांवकर उन्हें टाइम्स ऑफ इंडिया का साहित्य संपादक बनाने के लिए तैयार थे. पर मिश्र ने मालिकों को साफ कह दिया कि इस व्यक्ति का ट्रांसफर भी नहीं होने दूंगा. इसे संस्थान से निकालिए.

खरे विवादास्पद थे, कई बार पसंद-नापसंद में ज्यादतियां भी करते थे पर उनकी विद्वता और प्रतिभा अनोखी थी. उनके अनेक साहित्यिक दुश्मन भी भीतर से उनके इस लड़ाकूपन का सम्मान करते थे.

पिछले साल मैं उनके हृदय के ऑपरेशन के बाद इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में मिला, तो मुझे उनके देखने के ढंग से थोड़ी चिंता हुई. लग रहा था जैसे मौत से वे कोई गुप्त लड़ाई लड़ रहे हैं. मैंने उन्हें छोटे-से मेल में इसका जिक्र किया. उनका जवाब था, ”मुझे कल भी समझ में नहीं आया था और अभी भी नहीं कि तुम मेरे किस देखने के ढंग की बात कर रहे हो. मैं क्या उस ‘ढंग’ से तुम्हारे समेत आस-पास की दुनिया को देख रहा था?

क्या वह वैसा है जैसा उस आदमी के चेहरे पर होता है जो जाने-अनजाने अपनी आसन्न मृत्यु को देख रहा हो? अपनी वह सेंसुअल मृत्यु…डोंबिवली में 5 फरवरी, 2017 को…मैं अनुभव कर चुका था. यह वह ‘हैगार्ड मेडिकल लुक’ है जो चार महीनों में तीन ऑपरेशनों से गुजरे हुए 77 वर्ष के शख्स के चेहरे पर होता होगा? ऐसा भी होता है कि कई बार हम परिजनों या मित्रों या उनके भारी अहित की विशफुल कल्पना भी करते हैं. वैसा चेहरा तो तुम्हें नहीं लगा?” (16 जुलाई, 2017)

यही कह सकता हूं कि खरे जैसा योग्य और मानवीय व्यक्ति मैंने नहीं देखा. उनके ‘दुर्वासा क्रोध’ की लोग चर्चा करते हैं, पर उनकी गहरी मानवीयता को वे आसानी से पहचान नहीं पाते.

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सुशील दोषी की यादों में जसदेव सिंह

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मशहूर क्रिकेट कमेंटेटर जसदेव सिंह की स्मृति में यह लेख दूसरे लिजेंडरी कमेंटेटर सुशील दोषी ने लिखा है। टीवी-पूर्व दौर इन दोनों कमेंटेटरों का क्या आकर्षण था पुराने लोगों को याद होगा। जसदेव सिंह को श्रद्धांजलि स्वरूप ‘दैनिक हिंदुस्तान’ से साभार- मॉडरेटर

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जसदेव सिंह का जाना सचमुच अखर गया। बतौर कमेंटेटर मेरी प्रतिभा निखारने में उनका काफी हाथ रहा। सन 1968 में मैंने अपनी हिंदी कमेंट्री की शुरुआत की थी। तब तक मैंने किसी हिंदी कमेंटेटर को सुना नहीं था। सुनता भी कैसे? तब अखिल भारतीय स्तर पर हिंदी कमेंट्री होती ही नहीं थी। मैं तो इंजीनियरिंग कॉलेज का विद्यार्थी था। पर चूंकि जसदेव सिंह दिल्ली में आकाशवाणी में अफसर थे, तो उनकी निगाहों से इस विधा की प्रतिभा का छिपना असंभव था। टेलीविजन तो अखिल भारतीय स्तर पर सन 1982 के एशियाई खेलों के वक्त आया। उसके पहले रेडियो ही हम भारतीयों के मनोरंजन का प्रमुख साधन था। पूरा देश रेडियो सुनता था और रेडियो का ऊंचा कलाकार तुरंत सितारा-पुरुष बन जाता। अमीन सयानी और जसदेव सिंह जैसे नामों को सितारा-हैसियत प्राप्त थी। पर जसदेव सिंह जमीन से जुडे़ अद्भुत व्यक्ति थे। वह कहते, ‘जीना तो एक बार ही है, कोई खास काम करके जाना है।’ खास काम उन्होंने किया भी। पहले से प्रचलित इंग्लिश भाषा की खेल कमेंट्री के मुकाबले हिंदी कमेंट्री की शुरुआत कराने और उसे स्थापित कराने का विशिष्ट कार्य।
दो क्षेत्र जसदेव सिंह के सदैव ऋणी रहेंगे। पहला क्षेत्र है खेलों का। देश की भाषा हिंदी में खेलों की हृदयस्पर्शी कमेंट्री करके उन्होंने खेलों को पग्गड़धारी किसानों से लेकर चौके-चूल्हे के पास काम करती गृहणियों तक पहुंचा दिया। हॉकी और क्रिकेट जैसे खेलों को लोकप्रिय बनाने में भी उनका बड़ा हाथ रहा। पान वाले की दुकान पर रेडियो के सामने सैकड़ों की भीड़ कमेंट्री सुनने के लिए जमा हो जाती थी। जसदेव सिंह सभी के पसंदीदा कमेंटेटर हुआ करते। हिंदी-उर्दू के मिश्रण से बनी उनकी बोली दिल से निकलती और सीधे दिल में असर करती थी।
हिंदी भाषा को उसका उचित स्थान दिलाने में जसदेव सिंह की कोशिशें भी काफी कारगर साबित हुईं। उनकी भाषा, शैली व कला के कारण हिंदी वहां पहुंची, जहां पहुंचने की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। जैसे मुंबई के धनाढ्य मालाबार हिल में रहने वाले अंग्रेजीदां लोगों में जसदेव सिंह का नाम आदर से लिया जाता था। सरकार ने उनकी सेवाओं को दृष्टिगत रखते हुए उन्हें पद्मश्री और पद्म भूषण से सम्मानित किया। खेलों की कमेंट्री हो या राजपथ से 26 जनवरी की परेड का वर्णन, जसदेव सिंह बेमिसाल रहे। उन्होंने स्कंद गुप्त, मनीष देब, रवि चतुर्वेदी, मुरलीमनोहर मंजुल और जोगा राव जैसे अनेक हिंदी कमेंटेटरों को तैयार किया। मुझे भी उन्होंने लगातार प्रोत्साहित किया और हिंदी का काम आगे बढ़ाने का वह हौसला देते रहे।
कुछ वर्षों पहले उन्हें एक कार्यक्रम में इंदौर बुलाया था। मेरा गृह नगर इंदौर ही है। मैंने देखा, 4,000 दर्शक उनके नाम से ही जमा हो गए। सभा स्थल के हॉल के बाहर तक लोग खड़े थे। उनकी लोकप्रियता देखकर मैं दंग रह गया था। उस कार्यक्रम में उन्होंने अपने अनेक संस्मरण भी सुनाए कि कैसे उन्हें ‘ओलंपिक ऑर्डर’ सम्मान मिला, कैसे पद्मश्री व पद्म भूषण प्राप्त हुआ और वह कैसे अपने प्रशंसकों का शुक्रिया अदा कर सकेंगे? इन्हीं ऊहापोहों में वह लगे रहते थे। उनसे मुंबई में भी अक्सर मुलाकात हो जाया करती थी। धर्मयुग  के संपादक डॉ. धर्मवीर भारती का जसदेव सिंह और मुझ पर हमेशा आशीर्वाद रहा। केवल इसलिए कि हम लोग हिंदी को स्थापित करने के काम को आगे बढ़ा रहे थे। जसदेव ने धर्मयुग  में कई बरसों तक कॉलम भी लिखा, जो काफी लोकप्रिय था।
मैं उन्हें हमेशा कहता था कि हिंदी कमेंटेटर के रूप में आपने जो सम्मान कमाया और अपना स्थान बनाया है, वह अमिट है। आखिरी दम तक उनकी आवाज में वही खनक थी। मुझे चूंकि वह अनुज ही मानते थे, अत: घुड़की लगाते रहते थे। दिल्ली में आकाशवाणी या दूरदर्शन पर कमेंट्री करने के लिए मैं आता रहता हूं। कोशिश करके उनसे मिलता जरूर था। 87 वर्ष की उम्र यूं तो कम नहीं होती, पर प्रियजन के जाने का सदमा तो बर्दाश्त करना ही पड़ता है। जब-जब भारत में मातृभाषा हिंदी व हिंदी कमेंट्री की बात होगी, तब-तब जसदेव सिंह का नाम लिया जाएगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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सत्य व्यास के बहुप्रतीक्षित उपन्यास ‘चौरासी’का एक अंश

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सत्य व्यास के लेखन ने निस्संदेह हिन्दी के युवा लेखकों-पाठकों में नए उत्साह का संचार किया है। उपन्यास की प्री बुकिंग करवाकर मैं भी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा हूँ। फिलहाल उपन्यास के एक पठनीय अंश का आनंद लेते हैं- प्रभात रंजन

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कहानियों को गंभीर और अलग बनाने के बहुत सारे तरीक़े हो सकते हैं। एक तरीक़ा तो यह है कि कहानी कहीं बीच के अध्याय से शुरू कर दी जाए। आप आठवें-नवें पन्ने पर जाएँ तो आपको कहानी का सूत्र मिले। आप विशद पाठक हुए तो आगे बढ़े वर्ना चौथे-पाँचवें पन्ने पर ही कहानी दूर और किताब दराज़ में चली जाए।

मैं ऐसा नहीं करूँगा। इसके चार कारण हैं। पहला तो यह कि मैं चाहता हूँ कि आप यह कहानी पढ़ें, दराज़ में न सजाएँ।

दूसरा यह कि मैं क़िस्सागो नहीं हूँ। सो, वैसी लफ्फ़ाज़ियाँ मुझे नहीं आतीं। मैं एक शहर हूँ जो उसी ज़बान और उसी शैली में कहानी सुना पाएगा जो ज़बान उसके लोगों ने उसे सिखाई है।

तीसरा यह कि प्रेम स्वयं ही पेंचीदा विषय है। तिस पर प्रेम कहानी डेढ़ पेंचीदा। प्रेम की गूढ़ और कूट बातें ऐसी कि यदि एक भी सिरा छूट जाए या समझ न आए तो मानी ही बदल जाए।

और आख़िरी कारण यह कि इस कहानी के किरदार ख़ुद ही ऐसा चाहते हैं कि उन्हें सादा दिली से पढ़ा जाए। इसलिए यह ज़रूरी हो जाता है कि इसे सादा ज़बान लिखा भी जाए।

किरदार के नाम पर भी कहानी में कुल जमा चार लोग ही हैं। यहाँ यह बताना भी ज़रूरी समझता हूँ कि कहानी जितनी ही सरल है, किरदार उतने ही जटिल। अब मुख्य किरदार ऋषि को ही लें। ऋषि जो कि पहला किरदार है। 23 साल का लड़का है। बचपन में ही माँ साँप काटने से मर गई और दो साल पहले पिता बोकारो स्टील प्लांट में तार काटने में जाया हो गए। अपने पीछे ऋषि के लिए एक मोटरसाइकिल और एलआईसी के कुछ काग़ज़ छोड़ गए। ऋषि ने काग़ज़ फेंक दिया और मोटरसाइकिल रख ली। पिछले दो सालों से बिला नागा बोकारो स्टील प्लांट के प्रशासनिक भवन के बाहर पिता की जगह अनुकंपा पर नौकरी के लिए धरने पर बैठता है। मेधावी है तो बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर ख़र्च निकाल लेता है। मुहल्ले के सारे काम में अग्रणी है। आप कोशिश करके भी किसी काम से थक गए हैं तो ऋषि ही उसका इलाज है। मोटर, बिजली बिल, चालान, जलावन की लकड़ी, कोयला, मिट्टी-तेल, बिजली-मिस्त्री, राजमिस्त्री इत्यादि सबका पता सबका समाधान ऋषि के पास है।

आप सोच रहे होंगे कि इतना अच्छा तो लड़का है। सरल, सीधा, मेधावी और कामकाजी। फिर मैंने इसे पेंचीदा क्यों कहा? क्योंकि उसका यह चेहरा बस मोहल्ले के मोड़ तक ही है। मोड़ से निकलते ही ऋषि उच्छृंखल है। उन्मुक्त है। निर्बाध है। उद्दंड है। प्रशासनिक भवन पर धरने के वक़्त बाहर निकलते अधिकारियों को जब घेर लेता है तब रोबीली आवाज़ का यह मालिक उन्हें मिमियाने पर मजबूर कर देता है। धरने-प्रदर्शन के कारण ही स्थानीय नेता से निकटता भी हासिल है जिसका ज़ोम न चाहते हुए भी अब उसके चरित्र का हिस्सा है। वह पल में तोला और पल में माशा है। मगर इन सबके उलट बाहर महज़ आँखें तरेरकर बात समझा देने वाले ऋषि को अपने मोहल्ले में, अपनी गलियों में भूगर्भ विज्ञानी का नाम दिया गया है; क्योंकि अपने मोहल्ले में वह ज़मीन से नज़रें ही नहीं उठाता। व्यवहार का यही अंतर्विरोध ऋषि को पेंचीदा बनाता है।

दूसरे किरदार छाबड़ा साहब हैं। छाबड़ा साहब सिख हैं। पिता की ओर से अमृतधारी सिख और माता की ओर से पंजाबी हिंदू। अपने घर में सबसे पढ़े-लिखे भी। मसालों का ख़ानदानी व्यवसाय था मोगा में। अगर भाइयों से खटपट नहीं हुई होती तो कौन आना चाहता है इन पठारों में अपना हरियाला पिंड छोड़कर! अपने गाँव, अपने लोग छोड़कर! ब्याह औरतों से आँगन छीनता है और व्यापार मर्दों से गाँव। बहरहाल, कर्मठ इंसान को क्या देश क्या परदेस! वह हर जगह ज़मीन बना लेता है। बोकारो शहर के बसते-बसते ही छाबड़ा साहब ने अवसर भाँप लिया था और यहाँ चले आए। थोड़ी बहुत जान-पहचान से कैंटीन का काम मिल गया। पहले काम जमाया फिर भरोसा। काम अच्छा चल पड़ा तो एक बना-बनाया घर ही ख़रीद लिया। ऋषि ने इनके कुछ अटके हुए पैसे निकलवा दिए थे; इसलिए ऋषि को जब कमरे की ज़रूरत पड़ी तो छाबड़ा साहब ने अपना नीचे का स्टोरनुमा कमरा उसे रहने को दे दिया। बस शर्त यह रखी कि किराये में देर-सबेर भले हो जाए; घर सराय न होने पाए। अर्थात् बैठकबाजी और शराबनोशी बर्दाश्त नहीं की जाएगी। उन्होंने अपने घर के एक कमरे में गुरुग्रंथ साहब जी का ‘परकाश’ भी कराया। बाद में गाँव से पत्नी को भी ले आए। उनकी बेटी मनु हालाँकि तब गाँव में ही थी। वह एक साल बाद आई।

एक साल बाद आई ‘मनु’ ही इस कहानी की धुरी है। मनजीत छाबड़ा। मनु जो मुहल्ले में रूप-रंग का पैमाना है। मुहल्ले में रंग दो ही तरह का होता है- मनु से कम या मनु से ज़्यादा। आँखें भी दो तरह की- मनु से बड़ी या मनु से छोटी। मुस्कुराहट मगर एक तरह की ही होती है- मनु जैसी प्यारी। ‘आए बड़े’ उसका तकिया-कलाम है जिसके ज़रिये वह स्वतः ही सामने वाले को अपने स्तर पर ले आती है। भोली इतनी कि रास्ते में मरे जानवर की दुर्गंध पर छाबड़ा साहब अगर साँस बंद करने को कहें तो तबतक नहीं खोलती जबतक वह साँस छोड़ने को न कह दें। बी.ए. प्रथम वर्ष की छात्रा है और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी सिर्फ़ इस भरोसे से करती है कि एक दिन ऋषि उसे भी पढ़ाएगा। ऋषि एक-दो बार इसके लिए यह कहकर मना कर चुका है कि वह स्कूल के बच्चों को पढ़ाता है, कॉलेज के बच्चों को नहीं।

चौथा और सबसे महत्वपूर्ण किरदार यह साल है, 1984। साल जो कि दस्तावेज़ है। साल जो मेरी छाती पर किसी शिलालेख की भाँति खुदा है। मैं न भी चाहूँ तो भी तारीख़ मुझे इसी साल की बदौलत ही याद करेगी; यह मैं जानता हूँ।

बाक़ी, इसके अलावा जो भी नाम इस किताब में आएँ वे महज़ नाम हैं जो कहानी के किसी चरण में ही खो जाने हैं।

अब मेरा परिचय? मैं शहर हूँ- बोकारो। मेरे इतिहास में न जाएँ तो वक़्त बचेगा। वैसे भी इतिहास तो मैदानी इलाकों का होता है जहाँ हिंदुकुश की दरारों के बरास्ते परदेशी आते गए और कभी इबारतें तो कभी इमारतें बनाते गए। उनके मुकाबिल हम पठारी, लल-मटियाई ज़मीनों को कौन पूछता है? हमारी कहानियाँ किसी दोहरे, किसी माहिये या तवारीख़ में भी नहीं आतीं। इसीलिए हम अपनी कहानी ख़ुद ही सुनाने को अभिशप्त हैं।

अभिशप्त यूँ कि आज़ादी के 25 साल बाद भी 3 अक्टूबर 1972 को पहला फावड़ा चलने से पहले तक मुझे कौन जानता था! उद्योगों में विकास खोजते इस देश को मेरी सुध आई। देश की प्रधानमंत्री ने मेरी छाती पर पहला फावड़ा चलाया और मैं जंगल से औद्योगिक नगर हो गया। नाम दिया गया- ‘बोकारो इस्पात नगर।’ पहली दफ़ा देश ने मेरा नाम तभी सुना।

मगर दूसरी दफ़ा जब देश ने मेरा नाम सुना तो प्रधानमंत्री की हत्या हो चुकी थी और मैं शर्मसार हो चुका था। मैं आपको अपनी कहानी सुना तो रहा हूँ; लेकिन मैंने जानबूझकर कहानी से ख़ुद को अलग कर लिया है। इसके लिए मेरी कोई मजबूरी नहीं है। पूरे होशो-हवास में किया गया फ़ैसला है। बस मैं चाहता हूँ कि मुझे और मेरे दुःख को आप ख़ुद ढूँढ़ें और यदि ढूँढ़ पाएँ तो समझें कि आप के किए की सज़ा शहर को भुगतनी पड़ती है। तारीख़ किसी शहर को दूसरा मौक़ा नहीं देती।

अब ख़ुद को बीच से हटाता हूँ। आप किरदारों के हवाले हुए। बिस्मिल्लाह कहिए!

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किताब का नामः चौरासी

लेखकः सत्य व्यास

प्रकाशकः हिंद युग्म

उपन्यास, पेपरबैक, पृष्ठः 160, मूल्यः रु 125

 

अमेज़ॉन से 11 अक्टूबर 2018 तक या उससे पहले प्रीबुक करने वाले 500 भाग्यशाली पाठकों को स्टोरीटेल की तरफ़ से रु 299 का गिफ़्ट कार्ड फ़्री। किंडल पर किताब का प्रीव्यू एडिशन बिलकुल फ़्री।

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विद्याभूषण जी की पाँच कविताएं

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हिन्दी में न जाने कितने कवि-लेखक हुए हैं जिन्होने किसी फल की चिंता के बगैर निस्वार्थ भाव से लेखन किया, साधना भाव से। विद्याभूषण जी ऐसे ही एक लेखक-कवि हैं। आज उनकी पाँच कविताएं प्रस्तुत हैं- मॉडरेटर

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शब्द

शब्द
खा़ली हाथ नहीं लौटाते।
तुम कहो प्यार
और एक रेशमी स्पर्श
तुम्हें छूने लगेगा।
तुम कहो करुणा
और एक अदृश्य छतरी
तुम्हारे संतापों पर
छतनार वृक्ष बन तन जायेगी।

तुम कहो चन्द्रमा
और एक दूधपगी रोटी
तुम्हें परोसी मिलेगी,
तुम कहो सूरज
और एक भरा-पुरा कार्यदिवस
तुम्हें सुलभ होगा।

शब्द
किसी की फरियाद
अनसुनी नहीं करते।
गहरी से गहरी घाटियों में
आवाज़ दो,
तुम्हारे शब्द तुम्हारे पास
फिर लौट आयेंगे,
लौट-लौट आयेंगे।
कविता : एक उम्दा ख़्याल
कविता
एलार्म घड़ी नहीं है दोस्तो
जिसे सिरहाने रख कर
तुम सो जाओ
और वह हर नियत वक़्त पर
तुम्हें जगाया करे।
तुम उसे
संतरी मीनार पर रख दोतो
वह दूरबीन का काम देती रहेगी।

वह सरहद की मुश्किल चौकियों तक
पहुंच जाती है रडार की तरह,
तो भी
मोतियाबिंद के शर्तिया इलाज का दावा
नहीं उसका।
वह बहरे कानों की दवा
नहीं बन सकती कभी।
हांकिसी चोट खाई जगह पर
उसे रख दो
तो वह दर्द से राहत दे सकती है 
और कभी सायरन की चीख बन
ख़तरों से सावधान कर सकती है।

कविता ऊसर खेतों के लिए
हल का फाल बन सकती है,
फरिश्तों के घर जाने की खातिर
नंगे पांवों के लिए
जूते की नाल बन सकती है,
समस्याओं के बीहड़ जंगल में
एक बागी संताल बन सकती है,
और किसी मुसीबत में
अगर तुम आदमी बने रहना चाहो
तो एक उम्दा ख़्याल बन सकती है।

 

शर्त
एक सच और हजार झूठ की बैसाखियों पर
सियार की तिकड़म और गदहे के धैर्य से
शायद बना जा सकता हो महामहिम,
लेकिन आदमी कैसे बना जा सकता है!

पुस्तकालयों को दीमक की तरह चाट कर,
पीठ पर लाद कर उपाधियों का गट्ठर
लोग पा ले सकते हैं स्कालर का सम्मान,
मेहनत से आला अफसर भी बना जा सकता है।
किंचित ज्ञान और सिंचित प्रतिभा जोड़ कर
सांचे में ढाले जा सकते हैं
इंजीनियरडाक्टरवकील या कलमकार।
तब भी यह अहम सवाल बच जाता है
कि आदमी बनने का नुस्खा कैसे गढ़ा जाये!

साथियोदोस्तो,
सरोकार तय करते हैं तहजीब का मिजाज।
सीढ़ी-दर-सीढ़ी मिली हैसियत से बड़ी है
बूंद-बूंद जमा होती संचेतना।
धन और शक्ति के दम से हिंसक गैंडा
मेमने का मुखोश पहन सकता है
और ज्ञान तथा चातुरी में
धूर्त लोमड़ी की चाल छुपी हो सकती है।

यकीननआदमी होने की सिर्फ एक शर्त है
कि हम पड़ोसी के दुख में शरीक हैं या नहीं!

फर्क
सागर तट पर
एक अंजुरी खारा जल पी कर
नहीं दी जा सकती सागर की परिभाषा,
चूंकि वह सिर्फ जलागार नहीं होता।
इसी तरह ज़िन्दगी कोई समन्दर नहीं,
गोताखोरी का नाम है
और आदमी गंगोत्री का उत्स नहीं,
अगम समुद्र होता है।

धरती कांटे उगाती है।
तेजाब आकाश से नहीं उतरता।
हरियाली में ही पलती है विषबेल।
लेकिन मिट्टी को कोसने से पहले
अच्छी तरह सोच लो।
फूल कहां खिलते हैं?
संजीवनी कहां उगती है?
अमृत कहां मिलता है?
चन्दन में सांप लिपटे रहें
तो जंगल गुनहगार कैसे हुए?

मशीनें लाखों मीटर कपड़े बुनती हैं,
मगर यह आदमी पर निर्भर है
कि वह सूतों के चक्रव्यूह का क्या करेगा!
मशीनें साड़ी और फांसी के फंदे में
फर्क नहीं करतीं।
यह तमीज
सिर्फ़ आदमी कर सकता है।

 

बिरसा के नाम

ओ दादा!
कब तक
बंधे हाथ खड़े रहोगे
वर्षा-धूप-ठंढ में
एक ठूंठ साल के तने से टिके हुए?

ओ दादा !
खूंटी-रांची-धुर्वा के नुक्कड़ पर
तेज रफ्तार गाड़ियों की धूल-गर्द 
फांकते हुए
कब तक
बंधे हाथ खड़े रहोगे खामोश?

किसने तुम्हें भगवान कहा था?
पूजा गृह की प्रस्तर-प्रतिमा की तरह
राजनीतिक पुरातत्त्व का अवशेष
बना दिया गया है तुम्हें,
जबकि तुम अमृत ज्वालामुखी थे,
जोर-जुल्म के खिलाफ
और दिक्कुओं‘ के शोषण से दुखी थे।

आजाद हिन्दुस्तान में
शहीदों को हम इसी तरह गौरव देने लगे हैं
कि ज़िन्दा यादगारों को मुर्दा इमारतों में
दफ़न करते हैं,
बारूदी संकल्पों का अभिनन्दन ग्रन्थ 
छाप कर समारोहों को सुपुर्द कर देते हैं,
ताकि सुरक्षित रहे कोल्हू और बैल का
सदियों पुराना रिश्ता
और इतिहास की मजार पर 
मत्था टेकते रहें नागरिक।

आज कितना बदल गया है परिदृश्य :
नये बसते नगरों-उजड़ते ग्रामांचलों में
एक तनाव पसरा रहा है,
झरिया-धनबाद-गिरिडीह की खदानों में
ज़िन्दगी सुलग रही है,
बोकारो की धमन भट्ठियां और चासनाला के लोग
एक ही जलती मोमबत्ती के दो सिरे हैं।

पतरातू-भवनाथपुर-तोरपा की मार्फत
तिजोरियोंबैंक लाकरोंबेनामी जायदादों के लिए
राजकोष खुल गया है
और आमदनी के रास्ते खोजती सभ्यता के मुंह
खून लग गया है दादा!

आज कितनी बदल गयी हैँ स्थितियां :
जगन्नाथपुर मन्दिर के शिखर से ऊपर उठ गयी हैं
भारी इंजीनियरी कारखाने की चिमनियां,
सूर्य मंदिर के कलश
और रोमन-गोस्सनर चर्चों के
प्रार्थना भवनों से ऊंचा है
दूरभाष केन्द्र का माइक्रोवेव टावर।

लहराते खेतों को उजाड़ कर बनी हवाई पट्टी
औद्योगिक विकास के नाम पर 
खुली लूट का आमंत्रण देती है
आला अफसरों को,श्रेष्ठि जनों को,जनसेवकों को।
हटिया कारखाने की दिन-रात धड़धड़ाती मशीनें
लौह-इस्पात संयंत्र उगलती रहती हैं
देश-देशांतर के लिए और,
मेकान-उषा मार्टिन के ग्लोबल टेंडर खुलते हैं, 
और खुलते जा रहे हैं
आरामदेह अतिथि गृहचकला केन्द्रआलीशान होटल,
जनतंत्र को उलूकतंत्र में ढालते हुए।

दादा! 
विकास के इसी रास्ते
टिमटिमाती ढिबरियों की लौ 
पहुंचती है मजदूर झोपड़ों मेंखपड़ैल मकानों में,
दूरदराज गांवों में।

सचकितना बदल गया है परिवेश :
अल्बर्ट एक्का के नाम।
वसीयत होने के बावजूद
नगर चौक पर फिरायालाल अभी तक काबिज है।
तोरपा-भवनाथपुर-पतरातू-हटिया-डोरंडा में
सरकारी इमारतों के फाटकों पर
विस्थापितों की एक समान्तर दुनिया
उजाड़ के मौसम का शोक गीत गा रही है।

चिलचिलाती धूप में अंधेरा फैलाता है
हटिया विद्युत ग्रिड स्टेशन नावासारा-तिरील में।
कोकर-बड़ालाल स्ट्रीट में टेलिप्रिंटर-आफसेट मशीनों पर
समाचार का आयात-निर्यात व्यवसाय
दिन-रात चल रहा है।
मगर दीया तले अंधेरा है दादा!
अंधेरा है पतरातू ताप घर की जमीन से उजाड़ कर
बनाई गयी बस्ती में,
अंधेरा है
झारखंड के गांवों मेंजंगलों मेंपहाड़ों पर,
प्रखंड विकास अंचल कार्यालयों के इर्द-गिर्द,
वन उद्योग के सरकारी महकमों के चारों ओर
अंधेरा है।

दादाझारखंड के गर्भ गृहों की लूट ज़ारी है।
जंगल उजाड़ हो गये हैं राजपथ की अभ्यर्थना में।
पहाड़ों पर
कितने साल वृक्ष अरअरा के कट चुके हैं,
खदानों के बाहर काला बाजारियों के ट्रकों की
श्रृंखला अटूट लग रही है,
पतरातू विद्युत गृह अनवरत जल रहा है
राजधानी की मोतियाबिंदी आंखों में
रोशनी भरने के लिए।

उस दिन लोहरदगा रेल लाइन की पटरियों पर
उदास चलती मगदली ने पूछा था मुझसे,
सिसलिया और बुंची के चेहरों पर
छले जाने का दर्द था,
सावना की आंखों में वही हताशा झांक रही थी
जो ब्रिटिश राज से जूझते हुए
रांची सदर जेल में
सुकरात की तरह ज़हर पी कर बुझते हुए
तुमने महसूस की होगी।
तुम कौन थे? 
क्या किया था तुमने अपनी कौम की खातिर?
उस दिन यही सवाल पूछा था क्लास में।
मास्टर जी सिर खुजलाते बोले थे-
भगवान थेफिरंगियों की कैद में मरे थे
बीमार हो कर।

दादा! दन्तकथाओं की मालाओं से दब कर
तुम पुराण कथाओं के नायक बन गये हो,
मगर जुल्म से टक्कर लेने वाले उस आदमी 
की चर्चा क्यों फीकी है?

अनामिका तिर्की तुम्हें भगवान मानती है,
यही जानता है विवेक महतो।
रांची विश्वविद्यालय के परीक्षा केन्द्रों से 
उफनती युवा ज्वालामुखी 
डैनी-अमजद-राज बब्बर और 
पद्मिनी कोल्हापुरी को समर्पित है।

पार्टियां इस भीड़ को अपनी फौज में
बदलने की कोशिश कर रही हैं लगातार…
वैसे शहर में पार्टियां अकसर चलती हैं!
किसी घोटाले से बेदाग बचने की खुशी में
जश्न की महफ़िल सजती है,
थैली पार्टियों से झंडा पार्टियों की दोस्ती
खूब जमती है,
क्योंकि सफेदपोशों के इस देश में
बिचौलियों की चांदी है,
जनता नेता की बांदी है।

लेकिन तुमदादा तुम
कब तककब तक
बंधे हाथ खड़े रहोगे
खूंटी-रांची-धुर्वा के तिराहे पर
खामोश?

The post विद्याभूषण जी की पाँच कविताएं appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..


जीवन की आपा-धापी (प्रलय) में पिता (की स्मृतियों) का (लय की तरह) होना!

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सुमन केसरी चित्र: भरत तिवारी

अशोक कुमार पाण्डेय की कविता का पाठ प्रस्तुत है। पिता पर लिखी अशोक कुमार पाण्डेय की इस कविता का यह पाठ किया है जानी-मानी कवयित्री सुमन केसरी ने। पढ़कर राय दीजिएगा- जानकी पुल

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तो पहले कविता पढ़ें फिर पाठ…लौट लौट कविता पर आएँ, बस यही मकसद है इस पाठ का…

(एक)

जूतों की माप भले हो जाये एक सी

पिता के चश्मों का नम्बर अमूमन अलग होता है पुत्र से

जब उन्हें दूर की चीज़ें नहीं दिखतीं थीं साफ़

बिलकुल चौकस थीं मेरी आँखें

जब मुझे दूर के दृश्य लगने लगे धुंधले

उन्हें क़रीब की चीजों में भी धब्बे दिखाई देने लगे

और हम दृश्य के अदृश्य में रहे एक-दुसरे के बरअक्स

(दो)

उनके जाने के बाद अब लगता है कि कभी उतने मज़बूत थे ही नहीं पिता जितना लगते रहे. याद करता हूँ तो मंहगे कपड़े का थान थामे ब्रांड के नाम पर लूट पर भाषण देता उनका जो चेहरा याद आता है उस पर भारी पड़ता है तीस रूपये मीटर वाली कमीज़ लिए लौटता खिचड़ी बालों वाला दागदार उदास चेहरा. स्मृतियों की चौखट पर आकर जम जाती है सुबह-सुबह स्कूटर झुकाए संशयग्रस्त गृहस्थ की आँखों के नीचे उभरती कालिख

जैसे पृथ्वी थक हार कर टिकती होगी कछुए के पीठ पर पिता की गलती देह पर टिक जाता वह स्कूटर

(तीन)

हम स्टेफी से प्यार करते थे और नवरातिलोवा के हारने की मनौती माँगते थे काली माई से. भारतीय टीम सिर्फ इसलिए नहीं थी दुलारी कि हम भारतीय थे. मोटरसाइकल पर बैठते ही एक राजा श्रद्धेय फकीर में बदल गया.  त्रासदियाँ हमें राहत देती रहीं पुरुषत्व के सद्यप्राप्त दंश से. हम जितने शक्तिशाली हुए उतने ही मुखालिफ़ हुए.

हमारे प्रेम के लिए पिता को दयनीय होने की प्रतीक्षा करनी पड़ी.

(चार)

इसकी देह पर उम्र के दाग हैं. इसकी स्मृतियों में दर्ज है सन बयासी…चौरासी… इक्यानवे के बाद ख़ामोश हो गया यह और फिर इस सदी में उसका आना न आने की तरह था होना न होने की तरह.

घर में रखा फिलिप्स का यह पुराना ट्रांजिस्टर देख कर पिता का चेहरा याद आता है.

(पाँच)

भीतर उतर रहा है नाद निराला.

दियारे की पगडडंडियों पर चलता यह मैं हूँ उंगलिया थामें पिता की देखता अवाक गन्ने के खेतों की तरह शांत सरसराती आवाज़ में कविताओं से गूँजते उन्हें. आँखें रोहू मछली की तरह मासूम और जेठ की धूप में चमकते बालू सी चमकती पसीने  की बूँदों के बीच यह कोई और मनुष्य था. सबसे सुन्दर-सबसे शांत-सबसे प्रिय-सबसे आश्वस्तिकारक.

वही नदी है. वही तट. निराला नहीं हैं न वह आवाज़. बासी मन्त्र गूँज रहे हैं और सुन रही है पिता की देह शांत…सिर्फ शांत.

 

मेरे हाथों में उनके लिए कोई आश्वस्ति नहीं अग्नि है

 

(छः)

यह एक शाम का दृश्य है जब एक आधा बूढ़ा आदमी एक आधे जवान लड़के को पीट रहा है  अधबने घर के दालान में

यह समय आकाशगंगा में गंगा के आकार का है प्रकाश वर्ष में वर्ष जितना और प्रलय में लय जितना. दो जोड़ी आँखे जिनमें बराबर का क्षोभ और क्रोध भरा है. दो जोड़ी थके हाथ प्रहार और बचाव में तत्पर बराबर. यह भूकंप के बाद की पृथ्वी है बाढ़ के बाद की नदी चक्रवात के बाद का आकाश.

और ….

एक शाम यह है कुहरे और ओस में डूबी. एक देह की अग्नि मिल रही है अग्नि से वायु, जल, आकाश अपने-अपने घरों में लौट रहे हैं नतशिर. अकेली हैं एक जोड़ी आँखें बादल जितने जल से भरी.

उपमाएं धुएँ की तरह बहुत ऊपर जाकर नष्ट होती हुईं शून्य के आकार में

(सात)

कुछ नहीं गया साथ में

गन्ध रह गयी लगाए फूलों में स्वाद रह गया रोपे फलों में. शब्द रह गये ब्रह्मांड में ही नहीं हम सबमें भी कितने सारे. मान रह गए अपमान भी. स्मृतियाँ तो रह ही जाती हैं विस्मृतियाँ भी रह गयीं यहीं. रह गयीं किताबें अपराध रह गए किए-अनकिए. कामनाएं न जाने कितनी.

जाने को बस एक देह गयी जिस पर सारी दुनिया के घावों के निशान थे और एक स्त्री के प्रेम के

बेटी के जीवन में पिता की उपस्थिति और बेटे के जीवन में पिता का होना लगभग दो ध्रुवों से एक संबंध को देखना है। सदियों की परंपराओं ने बेटियों के मन में कहीं न कहीं यह बात कील की तरह ठोक दी है कि पिता यहाँ तक कि जननी के साथ भी उनके संबंध अस्थायी हैं…वे चिड़ियों का चंबा हैं, जिन्हें बाबुल के घर से उड़ जाना है। किंतु लड़कों के साथ एक स्थायित्व का भाव हमारे पारिवारिक-सामाजिक जीवन की सोच का, संस्कारों का हिस्सा है। भले ही यह बात निन्यानवे फ़ीसदी घरों में गलत सिद्ध हुई हो और लड़के घरों को छोड़ कर बाहर चले गए हों, किंतु हमारा मानस यही मानता रहता है कि लड़कों पर हमारा हक है और हम उनके यहाँ जा सकते हैं, रह सकते हैं।

संभवतः यही सोच-संस्कार लड़के और लड़की के अपने पिता के प्रति भावना को निर्धारित करते हैं। और अक्सर लड़कों का पिता के साथ संबंध  “होना न होने की तरह” जैसा हो जाता है। इस कविता की खासियत यह है कि जब पिता नहीं रहे, तो जिंदगी में उनकी मौजूदगी “न होने पर होने की तरह ” हो गई!

जब पिता थे तो “ हम दृश्य के अदृश्य में रहे एक दूसरे के बरअक्स” और आज जब वे नहीं हैं तो वे मेरे जीवन के प्रलय में लय की तरह हैं…

कविता सात खंडों में है…एक नैरन्तर्य लिए हुए।

कविता की शुरुआत इतने पहचाने मुहावरे / कहन से होती है कि आप यह पढ़ते ही कि “ जूतों की माप भले ही हो जाए एक सी” आप मन ही मन कहन को पूरा करने लगते हैं कि जब बेटे के जूते का माप, पिता के जूतों के माप जितना हो जाता है तो रिश्ते बदल जाते हैं, बेटा दोस्त हो जाता है! किंतु वह कवि ही क्या जो कहन को दुहरा दे और उसे ही कविता समझ ले! अशोक की कविता हमें बताती है कि जूतों का माप एक हो तो भी दोनों के चश्मों का नंबर अलग अलग होता है।अब आप देखिए कविता की चाल। हम अपने अब तक के अनुभवों के आधार पर – कि जवानी में दूर की आँख कमजोर होती है और बुढ़ापे में नजदीक का धुंधला दिखाई पड़ने लगता है- इसे ऐसे पढ़ने लग सकते हैं- कि  जवानी में हम अपना वर्तमान देखते हैं, बहुत दूर तक भविष्य के बारे में नहीं सोचते। पिता अपने अनुभवों से आने वाले कल को देखता है और हर पिता/ अभिभावक चाहता है कि बच्चा उसकी निगाह से आगत को देखे, उसके प्रति सचेत भाव से तैयारी करे। वह पिता तो खासकर, जो न खुद चांदी का चम्मच मुँह में लिए पैदा हुआ है, न अपनी संतति को दे पाया है।

किंतु अशोक की कविता यह नहीं कह रही जो मैंने ऊपर बताया बल्कि वह तो ठीक इसकी उलट बात कहती है। कविता कहती है कि जब पिता को उनकी प्रौढ़ावस्था में दूर की चीजें साफ़ नहीं दिखती थीं, तब बेटे की आँखें बिलकुल चौकस थीं। “चौकस” शब्द पर ध्यान देना जरूरी है। चौकस यानी चौकन्नी- वे निगाहें तो आगे-पीछे, दूर पास सबको देख ले, देख ही न ले बल्कि सुन ले- चक्षुश्रवा! एक क्रांतिकारी युवा भविष्य को बदल देने के लिए बहुत दूर तक देखता है, बहुत दूर तक सोचता है और समझता है कि जो लोग सत्ता की मशीन के कलपुर्जों में ढल गए हैं, वे चुक गए हैं। अब क्रांति का सारा भार युवाओं के ही कंधों पर है। यानि कवि कहता है कि पिता नहीं समझ रहे कि बेटा कितनी जरूरी चीजों में उलझा हुआ है। वह समाज को बदल कर बेहतर बनाना चाहता है। अगली पंक्ति बताती है कि कालांतर में जब बेटे को ‘दूर के दृश्य धुंधले लगने लगे तो उन्हें करीब की चीजों में भी धब्बे दिखाई पड़ने लगे।’ करीब की चीजों में धब्बे को हम पिता की आँखों में आए मोतियाबिंद की तरह भी पढ़ सकते हैं, किंतु मैं इसे पढ़ना चाहूंगी, आजादी के इतने सालों बाद भी स्थितियों के निरंतर बदतर होते जाने से उत्पन्न होने वाले नाउम्मीदी के तौर पर और  सिनिसिज़म के तौर पर। बेटे की दूर वाली दृष्टि में आए धुंधलेपन को मैं हिंसा-प्रेरित क्रांति की प्रचलित अवधारणा के प्रति संदेह के रूप में पढ़ूंगी।

और यह पहला अंश खत्म होता है  बाप-बेटा दोनों के बीच एक दूरी..एक दूसरे को समय पर न समझ पाने का क्षोभ और वेदना ।

कविता का दूसरा खंड स्वीकृति है पिता के न होने की। उनकी मृत्यु  के बाद पीछे मुड़ कर देखने का उपक्रम।

पिता मजबूती का दूसरा नाम है। हम सब समझते हैं कि दुनिया में निराले पिता बेहद मजबूत हैं, कोई भी हालात हों, वे छत की तरह हैं, जिसके नीचे हम सब सुरक्षित हैं। लेकिन क्या सच में? क्या सच में जिंदगी संभव करते पिता खुद तिल तिल मरते नहीं…दीए में स्नेह की तरह जलते नहीं। हम सब दीए का उजियारा देखते हैं, उसका तिल तिल जलना नहीं। जब वह बुझ जाता है तो पाते हैं कि तेल खत्म हो गया। कवि अपने पिता को कुछ इसी तरह देखता है। और कविता का पल है- “जैसे पृथ्वी थक हार कर टिकती होगी कछुए की पीठ पर पिता की गलती देह पर टिक जाता वह स्कूटर”

पृथ्वी नामालूम-सी चलती रहती है अहर्णिश। उसी तरह स्कूटर चलता है और जीविका के अर्जन का माध्यम बनता है, ठीक मंदराचल की तरह, जिससे सागर को बिलो कर अमृत, रत्न व लक्ष्मी को प्राप्त किया था देवताओं ने। किंतु यही मंदराचल जब रसातल में धंसने लगा तो विष्णु ने कच्छप के रूप में उसे अपनी पीठ पर संभाला। पुराने स्कूटरों को स्टार्ट करने के लिए चालक उसे अपने दमखम पर टेढ़ा करता था। कवि के ऑबजर्वेशन की गहराई और उसके अर्थान्वेषण की क्षमता को सराहें।यहाँ एक पौराणिक मिथ को कितने नए संदर्भ में प्रस्तुत किया गया है। यहाँ पिता एक व्यक्ति भर नहीं रह जाते बल्कि उन सब पिताओं के प्रतीक हो जाते हैं, जो ईमानदारी से अपने परिवार का भरण पोषण करते हैं तथा बाजार के  खतरे को देख रहे हैं। यह ब्रांड क्या है। कैसे एक मुहर भर लगा देने से कोई माल कई गुणा ज्यादा कीमत का हो जाता है। यह पिता सातवें दशक के अंतिम सालों में उद्योग व व्यापार-नीति में धीरे धीरे आ रहे परिवर्तन को देख समझ रहा है। वह बाजार के बढ़ते प्रभाव को, उसके आतंक को  बूझ रहा है। वह ब्रांड के लिए अपनी जमीर नहीं बेच रहा बल्कि लोगों को शिक्षित करने का, उन्हें आगाह करने का जोखिम उठाता हुआ खुद तीस रुपये मीटर वाली कमीज खरीदता-पहनता है, स्कूटर पर चलता है।

कविता का तीसरा खंड किशोर से जवान होते व्यक्ति के लिए है, जिसे टेनिस और अन्य खेलों से प्रेम है। यह युवादल पुरुषत्व से बाखबर है। और चुंकि वह एक नूतन शक्ति से ओतप्रोत हैं, इसीलिए विरोध इनके स्वभाव का हिस्सा है। व्यक्तित्व विकास का तात्पर्य ही है न कहने का माद्दा। अपने पर विश्वास।

पिता पितृसत्ता का जीवंत प्रतीक है। पिता की सत्ता सबसे प्रत्यक्ष अनुभव है अतः किसी भी स्वतंत्रचेता के लिए पहले विरोध का लक्ष्य भी। कहते हैं क्रांति की शुरुआत परिवार सत्ता के विरोध से ही होती है। देर रात तक घूमना, सिगरेट पीना, सिनेमा देखना और प्रेम करना व्यक्तित्व निर्माण के आधारस्तंभ हैं। चूंकि ऐसा करने से मना करता चेहरा अक्सर पिता का होता है, या ऐसा मान लिया जाता  है, अतः पिता के प्रति मुख्य भाव विरोध का होता है, आज्ञानिषेध का होता है, वह संवाद और दोस्ती का रिश्ता नहीं होता।और इसीलिए जब तक पिता तिल तिल कमजोर और दयनीय नहीं हो जाते, वे प्रेम के, संवाद के पात्र नहीं बन पाते।

यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि यह कविता 1975 में जन्मे और गोरखपुर आदि में रहे-पढ़े, बड़े हुए कवि की कविता है। क्या ऐसी बात उदारीकरण के दौर में पैदा हुए और महानगरों में रहने वाले युवकों में भी देखने को मिलेगी? यह सवाल मुझे बेचैन किए हुए है। क्या ऐसे युवा भी “स्टेफ़ी की जीत के लिए किसी काली माई की मनौती मांगते” या उन्हें यह बात इतने साफ़ तौर पर कहने की जरूरत महसूस होती कि “भारतीय टीम सिर्फ़ इसलिए नहीं थी दुलारी कि हम भारतीय थे।” दरअसल मेरी समझ में तो उन्हें काली माई याद भी नहीं आती। वे काली माई को काली माता भी मुश्किल से ही बोलते और भारतीय होने के नाते ही भरतीय टीम से प्यार करते। अगर उन्हें कोई और टीम अच्छी भी लगती तो वे उसे भरसक छिपाने की कोशिश करते। क्योंकि ऐसा अच्छा लगना उनके देशप्रेम में संदेह पैदा कर सकता है। किंतु इस कविता में ऐसा नहीं है। इसका देशकाल आठवें और शुरुआती नौंवे दशक का छोटा शहर है, गाँव है। बहरहाल इतना सही है कि चाहे वह स्टेफ़ी हो या भारतीय टीम, दोनों की ही शक्ति रही- हारने पर हार न मानना बल्कि जीत्ने का प्रयास करना और अंत में जीत हासिल करना।

हम देखते हैं कि जीवनीनुमा इस कविता में अशोक पांडेय अपने समय को अभिव्यक्त करते हैं, वे आज-वर्तमान से प्रभावित नहीं होते। यह बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि अक्सर लोग वर्तमान का प्रक्षेपण अतीत में कर देते हैं।

खंड चार बूढ़े होते पिता को याद करती है। यहाँ ध्यान देने योग्य हैं 21वीं सदी तक चले आए पिता की यादों में दर्ज घटनाएँ। अक्सर ही बूढ़े लोगों को पुरानी बातें याद रहती हैं, और वर्तमान उन्हें छू कर भी नहीं छूता। वे वर्तमान के प्रति गोया निस्संग हो चुके होते हैं या उनके अनुभव बताते हैं कि यह वर्तमान उन्हीं अतीतों से बना है, जिसे वे जब तब (उनके लिए प्रासंगिक और सुनने वाले के लिए अधिकतर ऊबाऊ दुहराव भऱ) सुनाते हैं। इस कविता में पिता की यादों में 1982 है। वह साल जिसमें भारत की शान ऊँचाइयाँ छू रही थीं। एशियाड हुआ था। पहली बार रंगीन टेलीविज़न आया था,इन्सैट वन-ए का लॉन्च हुआ था, भले ही बाद में उसे डी-एक्टिवेट कर दिया गया हो। और गोरखपुर देवरिया वालों के लिए उनका सूरज अस्त हुआ था, क्योंकि उसी वर्ष फ़िराक गोरखपुरी का इन्तकाल भी हुआ था। भला 1982 की यादें पिता को क्यों न सतातीं। इसी तरह बूढ़े होते पिता को 1984 का साल याद रहता है। इंदिरा गांधी की हत्या और सिक्खों का कत्लेआम। भारतीय राजनीति को सदा-सदा के लिए बदल देने वाला साल। हिंसा के नॉर्मेलाइजेशन का साल, जब कानून को अपने हाथों में लेकर दरिंदों ने आम नागरिकों की हत्या करके “इंसाफ़” के नए रूप को समाज के सामने रखा। आज की हिंसा में क्या ’84 की प्रतिध्वनि नहीं है?

इक्यानवे के बाद पिता की खामोशी को बड़े दर्द के साथ देखा है कवि ने। सन् 91 यानि कि राजीव गांधी की हत्या का वर्ष और उसके बाद सन् 92 में बाबरी मस्जिद का बिखंडन मानो भारतीय लोकतंत्र और समाज का ऐसा विघटन, जो कभी जुड़ कर वैसा न हो सकेगा, जैसा पहले हुआ करता था।

यह खंड फिलिप्स के ट्रांजिस्टर को देखते ही पिता के चेहरे की याद दिहानी से खत्म होता है। कविता के इस वाक्य को फ़िलिप्स व पिता के चेहरे में मिलान की कविताई के लिए तो रुक कर पढ़ना ही चाहिए, किंतु इसे पढ़ते हुए नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह के उदारीकरण के बिंब के तौर पर भी पढ़ने की जरूरत है। टेलीविज़न के प्रकोप के बढ़ने की बात इसमें सुनें। ट्रांजिस्टर-रेडियो को चलते-फिरते काम करते सुना जा सकता था। घर में एक रेडियो सबकी जरूरतों को पूरा कर देता था।किंतु टेलीविज़न और उसमें दिखाए जाने वाले अनगिनत कार्यक्रम। अब तो कमरे कमरे में एक टेलीविजन की जरूरत है। साथ ही टेलीविजन तो एक जगह बैठने को बाध्य करने वाली मशीन है। आपकी आँखें उसकी चकाचौंध के सामने हतप्रभ हो जाती हैं। टेलीविजन टोटल सरेंडर का रूपक है। वह जो दिखाए वही सही, वह जो बतलाए उसमें शक क्या? आज हम उसके परिणाम देख रहे हैं। अशोक की कविता इसे बहुत मानीखेज ढंग से रख देती है। छोटी छोटी चीजों से जुड़ी ऐसी यादें जो संवेदना के साथ साथ समय बोध को भी विकसित करती हैं।

आह! पाँचवे खंड में कवि अतीत के साथ वर्तमान में भी है, जिसमें सामने पिता की चिता है और मन में उसका बचपन! यह मन-मस्तिष्क में निराले नाद उतरने का समय है। एक ही समय में एक लंबे कालखंड को देखने का प्रयत्न जो आमतौर पर मृत्यु के बैकड्रॉप में अपनी पूरी संवेदना और निर्ममता से उपजता है। बचपन में दियारे की पगडंडियों में गन्ने के खेत के बीच पिता द्वारा सुनाई गईं निराला की रचनाओं के साथ। हम सब जानते हैं कि निराला के काव्य में नाद का अप्रतिम सौन्दर्य है। यदि उन कविताओं का पाठ उचित ढंग से किया जाए तो वे अद्भुत अर्थ-छटाएँ संभव करती हैं। यह पिता की आवाज़ का भी नाद है। यहाँ जरा पिता के चित्र को देखें- बेटे की उंगलियाँ थामे पिता निराला को अपने निराले अंदाज में पढ़ते हुए, बच्चे के मन में काव्य का जो संस्कार रच रहे हैं, वह अद्भुत है। इस आवाज की शांति को सुनिए। यह ओज का स्वर नहीं है, बल्कि गन्ने के खेतों की शांत सरसराती हवा की तरह की आवाज है। कवि पिता को कविताओं से गूंजता हुआ देख रहा है. व्यक्ति का नाद में बदलना, अद्भुत बिंब है यह। जरा अंतिम खंड को पढ़िए, वहाँ भी शब्दों की बात की गई है।कैसा संतरण है, उसे सराहिए। यहाँ कवि अपना बचपन याद कर रहा है, जिसमें वह पिता कोएक दूसरे ही मनुष्य के रूप में देख रहा है। गोया उत्तम कविता मनुष्य का रूपांतरण कर देती है।  मनुष्य शब्द ध्यान देने योग्य है यहाँ- मनुष्यत्व के साथ! ऐसी आदमीयत जिसमें आँखें रोहू की मछली की तरह मासूम हों- कोई दुनियादारी नहीं…कोई छल-कपट नहीं और देह मेहनत के पसीने से चमकती हुई। कविता पढ़ता व्यक्ति सचमुच ज्यादा मनुष्य होता व्यक्ति है।उसका मन -मस्तिष्क बहुत खुला, बहुत समावेशी।अशोक के लिए पिता की यह छवि अत्यंत शांत, प्रिय और आश्वस्तिदायक है।दियारे में गन्नों की मिठास के बीच में बालक की उंगली थामे कविता कहते पिता बिल्कुल वर्तमान के सौन्दर्य और आनंद में हैं, इसीलिए आश्वस्तिदायक भी!आश्वस्ति शब्द का प्रयोग यहाँ बहुत मानीखेज है। पिता की छत्रछाया बच्चों के लिए बहुत आश्वस्तिदायक होती है। पिता उस पेड़ की तरह लगते हैं, जिसकी नीचे छाया ही छाया महसूस होती है। इस खंड का महत्त्व और पिता की शांत आश्वस्तिदायक छवि का महत्त्व अगले खंड की नाटकीयता में और मुखर होकर उभरता है।

लेकिन उससे पहले इस खंड का अगला हिस्सा तो पढ़ें।

अब कवि उस दृष्य को देख रहा है जब वह उसी नदी तट पर खड़ा है, पर इस बार प्राणतत्त्व जो संभव करता था नाद वह शांत हो गया है। बासी मंत्र गूंज रहे हैं…निराला के गीत नहीं- ध्यान दें, जिसे गाने वाला गोया पुनः रचता जाता था, वह नहीं तो नव गति नव लय ताल छंद नव..की बात कैसे हो।कर्मकांड के लिए जाप किए जाने वाले मंत्रों को इतने मशीनी अंदाज में दुहराया जाता है कि वे अपने प्राणहीन प्रतीत होते हैं। सो, अशोक मंत्र के साथ बासी विशेषण लगा कर निराला की पिता द्वारा पढ़ी गई कविताओं की ताजगी से उसे कन्ट्रास्ट कर देते हैं।

इस खंड का अंतिम वाक्य “ मेरे हाथों में उनके लिए कोई आश्वस्ति नहीं अग्नि है” पढ़ते ही पाठक थर्रा जाता है। कितना निर्मम सत्य। शांत पड़ी देह को केवल अग्नि के सुपुर्द किया जाता है।उसे अब किसी आश्वासन की जरूरत नहीं।

अब आप इसी खंड में दो दो बार प्रयुक्त इन दो शब्दों को देखिए। पहला आश्वस्ति। जब बालक पुत्र दियारे में पिता की उंगली थामें चल रहा है तब पिता का होना आश्वस्तिकारक है। और जब पिता शांत पड़े हैं मात्र देह के रूप में तो पुत्र के हाथों में आश्वस्ति नहीं केवल अाग है। पिता के लिए पुत्र की ओर से आश्वस्तिदायक क्या हो सकता था- अच्छी नौकरी, सुखी गृहस्थ जीवन आदि…किंतु जिन पिताओं के पुत्रों को ये हासिल हैं, क्या उन पिताओं की अपने पुत्रों के संदर्भ में और कोई ख्वाहिश नहीं होती? क्या कभी भी, किसी काल में भी, कहीं भी कोई पुत्र प्रश्नातीत आश्वस्ति दे पाया है? क्या मरता व्यक्ति आश्वस्त हो सकता है पूरी तरह…यदि होता तो मरना दुःख क्यों देता, कष्ट क्यों देता मरने वाले को भी और पीछे जो छूट जाते हैं उन्हें भी!

दूसरा शब्द है शांत, पुत्र का हाथ थामें पिता शांत हैं, सुंदर हैं। किंतु नदी तट पर पड़ी देह शांत है…सिर्फ़ शांत…वह सुंदर नहीं है। यह मृत्युजनित स्तब्धकारी शांति है। देह शांत होना माने देह में दौड़ते लहू का रुक जाना है, जिव्हा का शांत होना है- सबकुछ गतिहीन हो जाना है, और यह शांत होना सुंदर नहीं हो सकता क्योंकि वह अवरुद्ध हो गया है। बासी हो गया है…नष्ट हो गया है। विनाश में सौन्दर्य की कल्पना कोई मतिहीन ही कर सकता है।

एक और शब्द की तरफ ध्यान देना होगा और वह है “दियारा”- दो नदियों के जलप्लावन से बना उपजाऊ भूभाग। तो बचपन में दियारा भी है और गन्ने की लहलहाती फसल भी।इसे जीवन की तरह देखा जाए। और मृत्यु- शवदाह के समय वही नदी है वही तट- पर दियारा नहीं दूर दूर भी कहीं नहीं! गौर करें इस कविताई पर। शब्दों का कितना सजग प्रयोग।अशोक एक शब्द को हटाते ही कितना करुण दृश्य उत्पन्न कर देते हैं। कविता इसे ही कहते हैं। न एक शब्द ज्यादा न कम।  शब्दविन्यास से अर्थों को ध्वनित करना ही  कविता है। एक पाठक उसमें कितने अर्थ संभव कर पाता है, कविता कितनी गूंजती है उसके मन में। यही तो हैं कविता के प्रतिमान।

छठा खंड पाँचवें खंड की वेदना को संदर्भ भी देता है और उसे सघन भी करता है। पाँचवें खंड में पुत्र बालक के रूप में पिता की आश्वस्ति की छाया तले विचर रहा है तो छठे खंड में वह आधे जवान की तरह पिता के प्रहारों से खुद का बचाव कर रहा है। यह दो पीढ़ीयों के टकराव के क्षण हैं। बालक से व्यक्ति बनने के क्षण और पिता का क्षोभ कि वह अपने पुत्र को वैसा नहीं गढ़ पाया, जैसा कि वह चाहता था, या उसे चाहना चाहिए था। यह संभवतः पिता के मन में बसे आदर्शों के टूट-बिखरने का भी समय है! यह वेदना कि जैसे नए स्वतंत्र भारत को होना चाहिए था, वैसी वह हुआ नहीं और उसने तो अपने बेटे को ऐसे देश में,ऐसे समाज में रहने की ट्रेनिंग ही नहीं दी, वह तो कविताओं में बसा रह गया और दुनिया बहुत भौतिकतावादी हो गई। बेटा दुनिया बदलने के सपनों में डूबा है। यह दृश्य कवि के मन में अमिट होकर रह गया है- “आकाश गंगा में गंगा की तरह और प्रकाश वर्ष में वर्ष जितना।” दरअसल यह पिता-पुत्र के संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करने वाली घटना है, जिसके बाद बचपन की आश्वस्ति वाला संबंध विरोध व सतत विरोध में तब्दील हो जाता है। यहाँ दो जोड़ी आँख और दो जोड़ी हाथ पर ध्यान देना जरूरी है। पहले दृश्य में दो जोड़ी बराबर के क्षोभ व क्रोध से भरी आँखें एक दूसरे को घूर रही हैं। यह बेटे का बड़ा होना है, अपना अलग व्यक्तित्व व जीवनशैली को पिता के बरअक्स रेखांकित करना है। और दो जोड़ी हाथ, जिनमें एक प्रहार कर रहा है और एक अपना बचाव।

यही आँखें और हाथ आप वर्तमान के अगले ही  दृश्य में फिर देखते हैं। पर इस बार वे दो जोड़ी नहीं बस एक जोड़ी हैं। यह फाइनल बिलगाव है। जिससे विरोध था, जिसके सामने खुद को स्थापित कर, अपना स्वतंत्र वजूद रेखांकित करना था, वह जा चुका था और ऐसे में एक जोड़ी हाथ अग्नि लिए पिता को विदा कर रहे हैं और एक जोड़ी आँखें जिनमें कभी बराबर का क्षोभ व क्रोध हुआ करता था, अब बादल जितने जल से भरी हुई हैं।

शाम दोनों ही दृश्यों में है। यह दृश्य भी अमिट हो जाएगा, पुत्र के मन में।पहले दृश्य को आखों में बसी क्रोधाग्नि प्रकाशित किए हुए है, दूसरे दृश्य में आँखों के आकाश में छाई बदली कुहरीला बनाए हुए है। एक सर्द आह!

गद्य में लिखे ये सारे वाक्य गजब की कविता निर्मित करते हैं। जीवन का कोई भी निर्णायक समय, जीवन की आकाश गंगा का स्थायी  भाव हो जाता है, जिसे कवि गंगा कहता है। क्रोध भी बहता है और आँसू भी। ध्यान देने की बात यह है कि इसी खंड से संकलन का शीर्षक लिया गया है- “प्रलय में लय जितना”, जिसकी आखिरी कविता को हम पढ़ रहे हैं। चाहें तो पढ़ सकते हैं कि पिता की मार वाली घटना (प्रलय) के बाद बेटे के जीवन का मार्ग निर्धारण (लय) हो गया। बेटे ने अपनी तरह से जीवन जीने की बात न केवल कह दी, बल्कि उस राह चल पड़ा।

कहते हैं कि यह शरीर जिन पंचतत्त्वों से बना है- क्षिति जल पावक गगन समीर- वे मृत्यु के बाद यहीं रह जाते हैं। कविता में इसकी अभिव्यक्ति का लावण्य देखें- “एक देह की अग्नि मिल रही है अग्नि से वायु, जल, आकाश अपने अपने घरों में लौट रहे हैं नतशिर।” घरों में लौटना नतशिर, जैसे कि यौद्धा लौटते हैं युद्ध में हारने के बाद। सचमुच देश की वह पीढ़ी जिसने देश की स्वतंत्रता में योगदान किया था और सपने संजोए थे, उनका जीवन से यूँ हार जाना बहुत सहज है। वे कैसे खुद को लुटा हुआ महसूस करते होंगे। पिता  इस कविता में उनका प्रतीक बन कर उभरते हैं।इस “नतशिर” में मुझे निराला की “राम की शक्तिपूजा” के ये अंश सहज याद आ रहे हैं-

लौटे युग – दल – राक्षस – पदतल पृथ्वी टलमल,

बिंध महोल्लास से बार – बार आकाश विकल।

वानर वाहिनी खिन्न, लख निज – पति – चरणचिह्न

चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न।

एक और बात पर ध्यान दें। अशोक की कविता की उपरोक्त पंक्तियों को एक बार फिर पढ़ें- हम पाते हैं कि उनमें मंत्र का सा नाद है- “एक देह की अग्नि मिल रही है अग्नि से वायु, जल, आकाश अपने अपने घरों में लौट रहे हैं नतशिर।” वैदिक मंत्रों की अनुगूंज सुनाई पड़ती है, इन्हें पढ़ते हुए। कोई भी कवि, यदि वह काव्य-परंपरा से गहरे में जुड़ा है, एक कन्टीन्यूटी का सृजन वह करता चलता है- सायास भी और अनायास भी। भाषा व रचनाशीलता की यही ताकत है। देखना यह चाहिए कि वह किन मूल्यबोधों को वाणी दे रहा है। अशोक की कविता निःसंदेह प्रगतिशील और लोकतांत्रिक मूल्यबोध की पक्षधर है।

जब कवि इस खंड को समाप्त करते हुए कहता है कि “उपमाएँ धुएँ की तरह बहुत ऊपर जाकर नष्ट हुईं शून्य के आकार में” तो वह एक बहुत महत्त्वपूर्ण बात कह रहा है- अपनी शैली के बरअक्स । यह कविता बिंब-प्रधान, उपमाओं-रूपकों आदि अलंकारों से अलंकृत कविता नहीं है, बल्कि लगभग सारी कविता गद्यात्मक है और कई अंशों में बात को सीधा कहती प्रतीत भी होती है- ध्यान दें प्रतीत होती है पर, क्योंकि बात उतनी सीधी-सपाट नहीं है, बल्कि अर्थगंभीरत्व से सिद्ध है। धुआँ विलीन होता है आकाश में – उसे शून्य का आकार कहना मृत्यु की ओर इंगित करने के साथ साथ शून्य के एक अन्य पर्याय- दार्शनिक पर्याय की ओर भी हमारा ध्यान ले जाता है। शून्य-पूर्ण भी है। पूर्ण से पूर्ण को निकालें तो भी पूर्ण ही बचता है- मैटर की अक्षुणता का वाचक है कवि का यह वाक्य! मैं इसे इस रूप में भी पढ़ने का अनुरोध करती हूँ ।

कविता का अंतिम और सातवाँ (ध्यान दें सातवाँ- शरीर के चक्रों की तरह, सात समंदर की तरह, सतखंडे महल की तरह, सातवें आसमान की तरह, सात जन्मों की तरह आदि आदि) खंड छठे खंड का विस्तार है- कुछ नहीं गया साथ में- सच में मरने के बाद सब कुछ यही धरा रह जाता है। किंतु कहन के ढंग में ही तो कविता का निवास होता है। तो कवि पीछे छूटा हुआ किन चीजों को देख रहा है- रोपे गए फूलों के गंध फलों में बसा स्वाद। कवि है तो शब्द पर उसका ध्यान जाना स्वाभाविक ही है (वैसे इतना स्वाभाविक भी  नहीं, क्यों कि शब्दों की सर्वाधिक हत्या कवि-लेखक ही करते हैं !) शब्द रह गए ब्रह्मांड में ही नहीं हम सबमें भी कितने सारे। सचमुच तमाम संबंधों की रचना शब्दों के माध्यम से ही होती है। संसार का सारा ताना बाना। हममें शब्दों का बचा रह जाना, उसी का द्योतक है। मान और अपमान का बचा रहना-पुनः अशोक के ऑबजर्वेशन को रेखांकित करता है, अन्यथा लोग उसे स्मृतियों के खाते में डालकर संतुष्ट हो जाते हैं। किंतु जिस कवि के लिए जवानी की दहलीज पर पिता से मार खाना आकाशगंगा में गंगा-सा प्रतीत होता है और प्रलय में लय सा, उसके द्वारा मान-अपमान को अलग से याद करना मायने रखता है।गोया कवि यह बताना चाहता है कि एक जीवंत रिश्ता, व्यक्ति के काल-कलवित हो जाने के बाद भी अपनी पूर्णता में कहीं न कहीं बचा रहता है।स्मृति और विस्मृति को कहना पुनः एक गहरी संवेदनशीलता का रेखांकन है, और कवि की सावधानी का भी।

लेकिन अंतिम वाक्य तो कविता का चरम है- “जाने को बस एक देह गयी जिस पर सारी दुनिया के घावों के निशान थे और एक स्त्री के प्रेम के”- वाह! अपनी माँ के अपने पिता के साथ संबंध को यह आधा वाक्य- “एक स्त्री के प्रेम का”- कितनी करूणा और खूबसूरती से व्यक्त कर देता है।अर्थों की कितनी ध्वनियाँ है इस अर्द्धाली में!  यह है एक बालिग व्यक्ति (पुत्र नहीं!) परिपक्व कवि की पहचान का क्षण। स्त्री-पुरुष के आदिम संबंधों को अभिव्यक्त करती कितनी मांसल और कितनी संयत अभिव्यक्ति!

कविता इसे कहते हैं!

अशोक की कविता को पढ़ते हुए पिता पर लिखीं अनेक कवियों की कविताओं की ओर स्वतः ध्यान चला गया।बेटी के लिए पिता की ओर से लिखी चंद्रकांत देवताले की यह पंक्ति  मन में कौंध रही है-

प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता

ईथर की तरह होता है

ज़रूर दिखाई देती होंगी नसीहतें

नुकीले पत्थरों-सी ..

यह पिता की कविता के पिता के लिए नहीं। और फिर याद आती है समीर बरण नंदी की कविता “ ओवरकोट” जिसमें पिता की दयनीयता एक भूखे-नंगे राष्ट्र की दयनीयता का प्रतीक बन जाती है। इसी तरह निरंजन श्रोत्रिय की कविता में इन दिनों स्त्री-जाति पर हो रही दरिंदगी के चलते पिता में आ गया अचानक बदलाव मन में धंस कर रह जाता है और अशोक वाजपेयी की कविता पिता को एक मूर्ति सा स्थापित करती लगती है। किंतु इन सभी पिता संबंधी कविताओं और अशोक पांडेय की इस कविता में बहुत मूलभूत अंतर है। ये कविता पिता की संकल्पना को प्रस्तुत करती कविताएँ है, जबकि अशोक की कविता पिता-पुत्र के बदलते संबंधों को घटनाओं के माध्यम से देखने-बूझने का प्रयास करती कविता है।यह एक अनुभवजनित कविता है, जिसमें हम मन और संबंध  का “पल पल परिवर्तित रूप” देखते हैं- होने न होने की विडंबना और त्रासदी से गुजरते हुए। यह बहुत ही जमीनी कविता है। अशोक एक तरह से पिता के साथ अपने संबंध की पुनर्सर्जना करते हुए उसे आध्यात्मिक ऊँचाइयों तक ले जाते हैं और साधारणीकरण के धरातल तक भी।पिता-पुत्र के संबंधों में उतार-चढ़ाव इसी का द्योतक हैं।यही इस कविता का वैशिष्ट्य भी है। इसीलिए गद्य और पद्य में लिखी यह एक बेहद महत्त्वपूर्ण रचना है।

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अशोक कुमार पांडे

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तकनीक ने बढ़ाया भारतीय भाषाओं का दबदबा

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आज ‘दैनिक हिंदुस्तान’ में पत्रकार-लेखक उमेश चतुर्वेदी का लेख प्रकाशित हुआ है जिसमें उन्होने आंकड़ों के आधार पर यह बताया है कि किस तरह तकनीक ने भारतीय भाषाओं को एक नई मजबूती प्रदान की, नई उड़ान दी है, नया आत्मविश्वास दिया है। साभार पढ़िये- जानकी पुल

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भाषाओं को लेकर आम धारणा यही रही है कि वे जब राजनीति का औजार बनती हैं, तो उनकी ताकत बढ़ती है। उनकी मान्यता बढ़ जाती है और लोग उन्हें लेकर संजीदा हो जाते हैं। लेकिन तकनीक की बढ़ती ताकत इस अवधारणा को झुठलाती दिख रही है। हाल ही में आई गूगल-केपीएमजी की रिपोर्ट यह बताती है कि बढ़ती तकनीक ने भाषाओं को ताकतवर बनाने की राह खोल दी है। रिपोर्ट के मुताबिक, यू-ट्यूब पर भारत में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाली भाषा के स्थान पर तेलुगू काबिज हो चुकी है, तमिल दूसरे नंबर पर है। यू-ट्यूब पर  इस्तेमाल होने वाली भाषा में देश का सबसे बड़ा भाषा समुच्चय हिंदी तीसरे स्थान पर है, मराठी, गुजराती और दूसरी भाषाएं इसके बाद हैं।

इन भाषाओं की ताकत किसी अभियान से नहीं बढ़ी। यह तकनीक के बढ़ते दबाव का नतीजा है। यही वजह है कि घोर अंग्रेजीभाषी ऑन लाइन कंपनी अमेजन हिंदी में अपना प्लेटफॉर्म शुरू करने की दिशा में आगे बढ़ी है, तो बाकी कंपनियों ने भी इस ओर अपने कदम बढ़ा दिए हैं। यानी आने वाले दिनों में हिंदी की देखादेखी दूसरी बड़ी भारतीय भाषाओं के भी डिजिटल प्लेटफॉर्म होंगे और उन जगहों पर भी स्थानीयता का बोलबाला बढे़गा। इससे हिंदी समेत भारतीय भाषाओं के बाजार में तो बढ़ोतरी और सहूलियत होगी ही, हिंदी और दूसरी भाषाओं के भी प्लेटफॉर्म बढ़ेंगे।

अब तक की अवधारणा के मुताबिक इन भाषाओं की ताकत और मांग तभी बढ़नी चाहिए थी, जब इनके लिए लड़ाइयां लड़ी जातीं। यूरोप में यूगोस्लाविया का बंटवारा हो या फिर यूरोपीय संघ में श्रेष्ठता-बोध का भाव, भाषाओं की अपनी भूमिका रही है। बांग्ला भाषा को आधिकारिक बनाने की मांग को लेकर पूर्वी बंगाल में उठी आवाज पाकिस्तान के बंटवारे की वजह तक बनी। भारत में भी भाषाओं को  आठवीं अनुसूची में शामिल करने की जो मांग उठती रही है, उसके पीछे भी भाषा को राजनीतिक ताकत दिलाना ही बड़ी वजह रही है। हाल में ओडिशा और झारखंड की सीमा पर पश्चिम बंगाल के इलाके में बोली जाने वाली भाषा ओलचिकी की पढ़ाई  को लेकर रेल और सड़क मार्ग पर लोगों ने जाम लगाया। भोजपुरी, अवधी आदि को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग भी कुछ ऐसी ही है।

बेशक अंग्रेजी अब भी भारत में इंटरनेट में इस्तेमाल होने वाली सबसे बड़ी भाषा है, लेकिन गूगल-केपीएमजी की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल जुड़ने वाले दस नए इंटरनेट यूजर्स में से नौ भारतीय भाषाओं के होते हैं। गूगल-केपीएमजी की इसी रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 50 करोड़ इंटरनेट यूजर हैं, जिनमें से 30 करोड़ भारतीय भाषाओं के हैं। इसी रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि ऑनलाइन अंग्रेजी यूजर्स की संख्या के लिहाज से शहरों का दबदबा है। जहां से भारतीय भाषाओं के सिर्फ 13 प्रतिशत, जबकि अंग्रेजी के यूजर्स की हिस्सेदारी 87 फीसदी है। लेकिन ग्रामीण इलाकों के इंटरनेट यूजर्स  में 69 प्रतिशत हिस्सेदारी भारतीय भाषा के यूजर्स की है, जबकि सिर्फ अंग्रेजी का इस्तेमाल करने वाले महज 31 प्रतिशत ही हैं। गूगल-केपीएमजी की इसी रिपोर्ट के मुताबिक, 2020 तक ऑनलाइन शॉपिंग करने वाले आधे लोग नॉन मेट्रो शहरों के होंगे।

भारतीय भाषाओं के कंटेंट की बढ़ती मांग ही है कि देश के टॉप 25 एप्स में सात और सोशल मीडिया व मैसेजिंग वाले चार टॉप एप्स वीडियो और म्यूजिक से जुड़ गए हैं। इसकी वजह यह है कि इन एप्स पर भारतीय भाषाओं में कंटेंट और वीडियो-म्यूजिक की मांग है। गूगल-केपीएमजी की रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले साल गूगल सर्च पर 30 प्रतिशत हिस्सेदारी हिंदी की रही। इसी रिपोर्ट के मुताबिक, 2021 तक भारतीय भाषाओं के इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या अंग्रेजी के मुकाबले ढाई गुना बढ़ जाएगी। एक दौर में हिंदी को बढ़ावा देने का काम टेलीविजन और सिनेमा ने किया। लेकिन अब जमाना इंटरनेट का है। कह सकते हैं कि राजनीतिक हथियार बनकर भारतीय भाषाएं भले ही कामयाबी के शिखर पर नहीं पहुंच पाईं, लेकिन तकनीक के जरिए वे अब छा जाने के लिए तैयार हैं।

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  • Web Title:Senior Journalist Umesh Chaturvedi article in Hindustan on 01 october
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UPTET 2018: सुबह 10 बजे फार्म भरा, 3 बजे मिला ओटीपी, घंटों प्रयास के बावजूद upbasiceduboard.gov.in वेबसाइट पर फार्म नहीं भर पा रहे अभ्यर्थी

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RRB group d exam 2018: 16 अक्टूबर के बाद की परीक्षा की डिटेल्स के लिए अभ्यार्थियों को करना होगा इंतजार, देखें www.indianrailways.gov.in

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Jio यूजर्स को लगने वाला है बड़ा झटका, इन FREE सेवाओं के लिए पैसे चार्ज करेगी कंपनी!

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बंदिशकार और संगीतकार बादशाह औरंगजेब

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पिछले एक-दो बरसों में फेसबुक पर प्रवीण झा ने शास्त्रीय संगीत पर बेहद रोचक शैली में लिखना शुरू किया है और उनके मेरे जैसे कई मुरीद पाठक हैं.  आज सुबह-सुबह उनका एक दिलचस्प लेख पढ़ा औरंगजेब और संगीत पर. शीर्ष संगीत इतिहासकार स्व. गजेंद्र नारायण सिंह की मरणोपरांत प्रकाशित किताब “मुस्लिम शासकों के रागरंग और फ़नकार शहंशाह औरंगज़ेब” के हवाले से, निकोलस मनुच्ची पुस्तक के हवाले से उन्होंने कई ऐसी बातें लिखी जो मेरे जैसे आम पाठकों के लिए बहुत नई है. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर

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शहंशाह औरंगज़ेब और मौसिक़ी का जनाज़ा की कहानी मैंने पहली बार निकोलस मनुच्ची की किताब ‘स्टोरिया डी मोगोर’ में पढ़ी। इतालवी निकोलस मनुच्ची चूँकि दारा शिकोह के ख़ास थे तो औरंगज़ेब पर उनके लिखने को कितना सच मानूँ? लेकिन औरंगज़ेब पर पढ़ने के लिए यह ऐसी किताब जरूर है कि किसी ने आँखो-देखी लिखी हो, और ख़्वाह-म-ख़्वाह कयास न लगाए। जैसे यह लिखना कि औरंगज़ेब के रंगरूट घूम-घूम कर मुल्लों की दाढ़ी नापते और गर ख़ास आकार की नहीं होती, तो काटते फिरते। उसी में यह भी ज़िक्र है कि जब संगीत की मनाही हुई तो सभी संगीतकार अपने वाद्य-यंत्र लेकर जमीन में गाड़ने निकल पड़े। जब मस्जिद में बैठे औरंगज़ेब ने पूछा कि बाहर क्या हो रहा है तो कहा कि मौसिक़ी का जनाज़ा जा रहा है। औरंगज़ेब शांत मुद्रा में जवाब देते हैं कि मौसिक़ी की रूह को ख़ुदा जन्नत बख्शे।

यह बात बाद में कई इतिहासकारों द्वारा इसी कलेवर में परोसी गयी कि औरंगज़ेब एक क्रूर शासक था और उसने सभी संगीतकारों को दरबार से लठिया कर भगा दिया। कई लोग यह भी कहते हैं कि तभी तमाम संगीत घरानों की स्थापना हुई जब यह भाग-भाग कर अलग-अलग जगह गए। खैर यह बात तो बेबुनियाद है क्योंकि संगीत के घराने औरंगज़ेब के काफी समय बाद ग्वालियर से जन्म लेने शुरू हुए। रही बात भगाने की, तो इस पर आश्चर्यजनक रूप से पहली बार एक जनसंघी ब्राह्मण संगीत-प्रेमी ने जोर देकर लिखा कि औरंगज़ेब स्वयं एक आला दर्जे का बीनकार और बंदिशकार था। आचार्य कैलाशचंद्र बृहस्पति के लेख “औरंगज़ेब का संगीतप्रेम” को ही आधार बना कर कैथरीन बट्लर ब्राउन ने एक शोध किया, हालांकि उस शोध में इधर का माल उधर वाली बात ही अधिक है। मौलिक शोध कि सिद्ध करना औरंगज़ेब वाकई फ़नकार था, यह पक्के तौर पर मुझे नहीं मिल पा रहा था।

तभी भारत के एक शीर्ष संगीत इतिहासकार स्व. गजेंद्र नारायण सिंह की मरणोपरांत प्रकाशित किताब “मुस्लिम शासकों के रागरंग और फ़नकार शहंशाह औरंगज़ेब” किताब हाथ लगी। किताब पढ़ कर मन में कुछ स्पष्ट हुआ कि गजेद्र बाबू ने यह किताब अपने जीवन के आखिरी समय के लिए क्यों बचा कर रखी थी। उन्होंने राष्ट्रकवि दिनकर के “संस्कृति के चार अध्याय” को तो आड़े हाथों लिया ही है, औरंगज़ेब की छवि ऐसी बनायी है जो शायद स्थापित धारणाओं को न पचे। हालांकि गजेंद्र बाबू एक निर्भीक और दबंग संगीत विशेषज्ञ-इतिहासकार रहे, फिर भी। यह बात तो उन्होंने किताब में ही लिखी है कि उनके शोध का पुरजोर विरोध हुआ, फिर भी उन्होंने ख़ुदाबख़्श ओरियेंटल लाइब्रेरी में बैठ-बैठ कर औरंगज़ेब आलमग़ीर के समय के मूल फ़ारसी ग्रंथों को स्वयं अनुवाद किया और यह शोध पूरा किया। बस इस किताब का मुँह देखने से पहले उनका देहांत हो गया।

गजेंद्र बाबू बिन्दुवार लिखते हैं कि संगीत पर प्रतिबंध लगने की वजह आखिर थी क्या? यह जान कर बड़ा ताज्जुब लगता है कि संगीतकार कूटनीति के मोहरे बनते थे। बिसराम ख़ाँ ने लाख अशर्फी रिश्वत लेकर शाहजहाँ को अपने गायन में ऐसा उलझाया कि औरंगज़ेब  को दक्कन भिजवाने वाले आदेश पर हस्ताक्षर उसी मध्य ले लिए गए। अब औरंगज़ेब को यह तो यकीं हो गया कि दरबारी कामों के मध्य संगीत को बंद करना ही होगा, अन्यथा शासन बाधित होगा। लेकिन यह तो राजनीति की बात थी, मेरे लिए यह जानना जरूरी था कि औरंगज़ेब खुद क्या गाते-बजाते थे? और किस वजह से फ़नकार जोड़ दिया? आज जिन कठमुल्लों को मौसिक़ी से दिक्कत है, उनके लिए तो औरंगज़ेब एक आदर्श है। एक बार गर यह सिद्ध हो गया कि औरंगज़ेब खुद वीणा बजाता था और बंदिशें रचता था, तो यह इस्लाम और मौसिक़ी का द्वंद्व औंधे मुँह गिर जाएगा।

अब औरंगज़ेब की लिखी बंदिश जो पुस्तक में है, उसकी पंक्तियाँ हैं-

“सौंतिनी सो बाजू पीअ प्रीत लीनि,

साहि औरंगज़ेब रीझि रूचि सौ कंठ लगाई..”

और यह बात तो निकोलस मनुच्ची ने भी लिखी है कि दरबार में मनाही थी, पर औरंगज़ेब अंत:पुर में खूब वीणा बजाता और संगीत में रमा रहता था। बल्कि एक दफ़े तो दक्कन में नदी किनारे वीणा बजाने लग गया था। अब इतिहासकारों और पूर्वाग्रहियों में द्वंद्व होता रहे, लेकिन अगर औरंग़जेब की यह बातें सत्य मानी जाएँ तो वह वाकई इकलौता मुग़ल शासक कहलाएगा जो बंदिशकार भी हो और संगीतकार भी। क्योंकि बहादुरशाह ज़फर बंदिश तो लिखते थे, पर बजाना-गाना न आता था। और अकबर तो खैर सिफ़र थे।

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प्रवीण झा

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नीलिम कुमार की कविताएँ

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नीलिम कुमार की ये कविताएँ उनके कविता संग्रह ‘एक खाली घर घुस आया मेरे भीतर’ से ली गई हैं. संग्रह प्रकाशित हुआ है धौली बुक्स प्रकाशन से. धौली बुक्स भुवनेश्वर केन्द्रित प्रकाशन गृह है. यहाँ से हिंदी, अंग्रेजी और ओडिया में श्रेष्ठ साहित्यिक पुस्तकों का प्रकाशन हुआ है. इस प्रकाशन की एक पुस्तक ‘कास्ट आउट’ को अमेज़न.इन ने साल की यादगार किताब के रूप में चयनित किया है-मॉडरेटर
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1.
बटन
बटन खो गया
क्या आपके हाथ में है
वह बटन?
 
आपने कहा था
खो जाने पर भी
आप मुझे खोज निकालेंगी.
 
मेरा बटन है क्या
आपके हाथ में?
दीजिये, सी दीजिये
मेरी कमीज़ पर
वह पौपीनुमा तारा
 
२.
दूसरा दृश्य
 
एक बच्चे की लाश
नदी में
बहती जा रही है
उस पर
बैठा है
एक कौवा
कौवा लाश को
चोंच से
चुभा नहीं रहा
बस
चुपचाप
ठहरी आँखों से
सांत्वना दे रहा है.
 
3.
मेनोपॉज
 
पुरानी सहेली ने
मुझे फोन किया है
उसके सीने की धक-धक
मेरे कानों में
फ़ैल रही है
मैंने पूछा
क्या बीमारी है?
उसने कहा
अनजानी बीमारी
बस हर पल
तकिये पर
गुस्सा करती रहती हूँ.
 
4.
किराया घर
 
मेरे एक कमरे में बैठ
वह पढ़ाई करता है
दूसरे में भोजन करता है
एक में गाना गाता है
और एक में सो जाता है
 
मेरे ह्रदय के चारो कमरे
किराए पर ले रखे हैं उसने
वह दूसरा कोई और नहीं
दुःख है!

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आलोक प्रकाश की कहानी ‘एक कामकाजी सोमवार’

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आज सोमवार है. पढ़िए आलोक प्रकाश की कहानी. आलोक मुंबई में टाटा कन्सलटेन्सी सर्विसेज में काम करते हैं और अपने पेशेवर दुनिया के अनुभवों को कहानियों में ढालते हैं. यह कहानी भी बहुत समकालीन है- मॉडरेटर

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स्वाती के आफ़िस लाइफ में तीन पुरुषों का बड़ा दखल है- रवि,श्याम और महेश। ये चार लोग मिल कर एस्कलेशन डेस्क हेंडल करते हैं – वर्किंग आवर्स में ,एक ही क्यूबिकल मे बैठते हैं चारों।

श्याम- रत्ना के ड्राइंग रूम से उगते सूरज की लालिमा एकदम साफ दिखती है । उनके बेड रूम से अस्त होता सूरज दिखाई देती है- कॉर्नर फ्लेट है उन दोनों का । अन्य काम काजी दिनों की तरह,  श्याम अलार्म बजने के कुछ देर पहले जाग गया। चारों ओर अंधेरा फैला हुआ है,सुबह होने में अभी देर है लेकिन रात कब की जा चुकी है । लगभग चार घंटे की नींद हासिल हुई है उसे आज की रात। रविवार दोपहर को लंच के बाद तीन घंटे सोया था श्याम। तीन- चार घंटे की नींद शनिवार दोपहर को भी मयस्सर हुई थी। ड्राइंग रूम में सोफे पर लेट कर वॉटस्एप मैसेज के ढेर को खंगालना शुरू किया उसने।सब ग्रुप मसेज हैं- लोकल ट्रेन में टाइम पास का मसाला।

 रत्ना ने सप्तहांत की दोपहर को लगभग आधे घंटे की झपकी ली थी। चाय जब तैयार हो गई तो श्याम ने रत्ना को आवाज़ लगाई।

‘ उठ जाओ चाय तैयार है।’

एक आवाज़ में जब बात नहीं बनी तो श्याम ने दूसरी बार आवाज़ लगाई । रत्ना उठ कर ड्राइंग रूम में आ गई है। उसके आने के बाद श्याम के मोबाईल का अलार्म जागा- अब घड़ी में पाँच बज रहे हैं ।  श्याम के लिए अलार्म बैक उप का काम करता है । चाय  की कप टेबल पर रखने कि आवाज सुनकर रत्ना उठ कर बैठ जाती है।श्याम को विदा करने के बाद रत्ना को घर के बहुत सारे काम निपटाने हैं – दोपहर में जम कर सोना है उसे

 

स्वाती ने आज हाई हील सॅंडल धारण किया है। जूतियों का रंग चटकीला है। वो सम्हल-सम्हल के फुट ओवर ब्रिड्ज से उतर रही है। हालाँकि, हील नुकीला है , फिर भी स्वाती को चलने में बहुत ज़्यादा दिक्कत नहीं हो रहा है।या फिर, देखने वालों को मालूम नहीं पड़ रहा है। जूतियों की हिफ़ाज़त के लिए आज उसने डोंबिवली से शुरू होने वाली स्लो लोकल पकड़ी है। कपड़े उसने हलके रंग के पहन रखे हैं, ताकि देखने वालों के लिए उसकी जूतियाँ आकर्षण का केंद्र बने। डोंबिवली मुंबई से सटा एक छोटा सा शहर है । आप इसे मुंबई के हो रहे सतत् विस्तार का हिस्सा मान सकते हैं। हालांकि,मुंबई के सर्व सुविधा संपन्न इलाक़े में रहने वाले इसे मुंबई का हिस्सा नहीं मानते हैं।स्वाती साँवले रंग की साधारण नयन-नक्स वाली लड़की है। उँची कतई नहीं है वो , या यूँ कहें नाटी है वो। काले रंग से थोड़ा सा साफ  रंग है ,उसकी त्वचा का। हाँ, उसके चेहरे पर एक चमक है जो उसे आकर्षक बनाती है। उसके चेहरे में कुछ भी किताबी नहीं है। आँखे बहुत सुन्दर नहीं हैं, लेकिन बोलती हैं- नजरें मिलीं तो देखने वाला इग्नोर नहीं कर सकता है बहुत कम लोगों से स्वाती खुल कर बातें करती है , लेकिन जिनसे बातें करती है उनकी बातें दिल पर नहीं लेती है।

लेडीज़ कॉमपार्टमेंट में सभी ओर खामोशी पसरी है। सभी को बैठने की जगह मयस्सर है। सुबह ६ बजे भीड़ इतनी नहीं होती है कि डोंबिवली में आपको सीट न मिले। वातावरण सुगंधित है, बालों से कॉनडिसनर और शैम्पू की खुश्बू आ रही है और, बदन से डियो की। लेडीज़ से सटे जनरल कॉमपार्टमेंट तक ये सुगंध फैली हुई है। जेनरल कोम्पार्टमेंट और लेडीज़ डिब्बे के बीच पार्टीशन कुछ इस तरह का है कि  आप एक डिब्बे से दुसरे डिब्बे में आ-जा नहीं सकते हैं , हाँ; ताका-झाँकी कर सकते हैं। मोबाइल फ़ोन में डूबे हुए कुछ पुरुष यात्री बीच-बीच में मोबाइल पर से नज़र उठा कर लेडीज़ कॉमपार्टमेंट की ओर देख ले रहे हैं। सौंदर्य दर्शन से उनकी आँखों को आराम मिल रहा है, रूह को चैन आ रहा है। कुछ ऐसे भी हैं ,जो पूरी तरह मोबाइल में डूबे हुए हैं मोबाइल- दर्शन उन्हें सुकून दे रहा है। कुछ यात्रियों को अंदर बैठना गवारा नहीं है। हालाँकि वातावरण में आरामदायक ठंडक है लेकिन उन्हें और शीतलता की दरकार है। ठंडी हवा का आनंद लेने के लिए वो दरवाजे के पास खड़े हैं।

विखरोली स्टेशन के फुट ओवर ब्रिड्ज पर जब स्वाती ने चलना शुरू किया तो रवि उसके ठीक पीछे , उसका पीछा करते हुए चल रहा है। वो इससे बेख़बर है। स्वाती का ध्यान अपने आप को सम्हाल कर आफ़िस तक ले जाने में है ।हालाँकि, चलते हुए वो वॉटस् उप  मेसेज भी पढ रही है। जब वो सीढ़ियों से उतरने लगी तो रवि ने उसे मेसेज किया । ‘सम्हल के चलो ,वरना गिर जाओगी। ’

अब उसकी निगाहें रवि को ढूँढने लगी।जब उसने पीछे मुड़ के देखा तो रवि को अपने ठीक पीछे पाया। उसने रवि की पीठ पर एक धौल जमाया और दोनों एक ही ओटो रिक्शा में बैठ कर ऑफिस की ओर रवाना हुए।।रवि, छह फुटा जवान है पूरे शरीर में कहीं चर्बी मालूम नहीं पड़ती है। फुटबाल और क्रिकेट का बेहतरीन खिलाड़ी है , कितनी भी भाग-दौड़ करे थाकता नहीं है वो। वो विखरोली ईस्ट में रहा है । काम पर आने के लिए तकरीबन पाँच मिनट वॉक करने के बाद रवि रेलवे की फुट ओवर ब्रिड्ज का इस्तेमाल करता है। स्टेशन के पश्चिमी अहाते में आकर वहाँ से कंपनी के लिए ओटो रिक्शा पकड़ता है। उसके कामकाजी दिनों की शुरुआत 6.15 की अलार्म बजने से होती है, स्वाती राउत के दिन का आगाज़ इससे सवा घंटा पहले होता है।

 

आफिस परिसर में पहुँचते ही दोनों की हृदय गति थोड़ी तेज हो गई। वातावरण में अजीब खामोशी पसरी थी, श्याम और महेश फ्लोर पर उन लोगों से तकरीबन एक दो मिनट पहले आए हैं और उनका सिस्टम अभी रीस्टार्ट हो रहा है। अर्ली मॉर्निंग शिफ्ट में यही चार लोग होते हैं। श्याम ने ‘गुड मॉर्निंग स्वाती’ कहा और अपना हाथ स्वाती की ओर बढाया स्वाती ने एक संयमित ‘हेलो’ कहा और हाथ मिलाया।

‘तुम्हारा हाथ बहुत सख़्त है रे और गर्म भी है।’ स्वाती ने अपना अनुभव सांझा किया।

 ‘अरे स्वाती! किसी का  हाथ छूने से तुम्हें कुछ फील होता है क्या?’

स्याम ने माहौल को थोड़ा खुशनुमा बनाने की कोशिश की

कुछ भी बकवास!, छूने से कुछ भी नहीं होता है-कुछ भी फीलिंग नही आती है।’ स्वाती ने चिढ़ने का ढोंग करते हुए कहा

 

‘क्या बात करती हो तुम? अलग-अलग लोगों के छूने से , हम सब के अंदर ,अलग अलग तरह की फीलिंग आती है -मैं छूता होऊँगा तो तुमको ब्रदरली फील होता होगा,शुकून लागत होगा, रवि के छूने पर फ्रेंडली फील होता होगा, अलग तरह का एहसास होता होगा,  महेश के छूने पर हो सकता है, मीठी चुभन होती होगी।’

श्याम, स्वाती के उत्तर का मानों इंतजार कर रहा था।

 ‘सबके छूने पर ‘नर्मल’ फील होता है।’

‘तब तुम बिलकुल अबनॉर्मल हो। बीस की हो गई हो तुम न? ’

 ‘हाँ, मार्च में इक्कीस की हो जाउंगी मैं’

‘फिर तो ज़रूर कुछ प्राब्लम है । तुम्हें डॉक्टर से दिखना चाहिए’

‘कुछ भी प्राब्लम नहीं है ।‘

‘तुम्हारे साथ यही प्राब्लम है,तुम मेरे सजेशन को गंभीरता से नहीं लेती हो।’

‘क्योंकि तुम सिरियसली कुछ कहते ही नहीं हो, बकवास करते हो सिर्फ़’

‘अरे स्वाती! एक टिकट आया है कामन पूल में जल्दी से ले ले- पुराना टिकट है; एस एल वयोलेटेड।’ श्याम ने मसखरी को विराम दिया और काम की बात शुरू की।’

समस्या यदि एजेंट के द्वारा हल नहीं होता है तो ग्राहक टिकट लॉग करता है। इनकमिंग कॉल और मेल हेंडल करने वाले कर्मचारी को काम काजी भाषा में  एजेंट कहा जाता है। एस एल का मतलब सर्विस लेवेल अग्रीमेंट – समान्य भाषा में , वह समय सीमा जिसके अंदर समस्या का हल हो जाना चाहिए था। जटिल समस्याओं के लिए कंपनी द्वारा एक मेल आई डी उपलब्ध करवाया गया है इस ग्रुप आई डी पर आए मेल पर एसकेलेशन डेस्क के एजेंट काम करते हैं ।

देखिए मेडम ! घँस रहे हैं लेकिन हो नहीं रहा है।

 ‘क्या घिस रहे हैं सर ,क्या नहीं हो रहा है?’

रिचार्ज कूपन’

अच्छा सर! आप स्क्रेच नहीं कर पा रहे हैं! किस चीज़ से आप स्क्रेच कर रहे हैं?

‘फिलहाल तो नाख़ून से कर रहे हैं ,दूसरा भी कोई तरीका है क्या?…. और मेडम मुंबई का मौसम कैसा है?’

‘अच्छा है सर’

अरे बुड्ढे ! हेलपडेस्क में कॉल किया है को काम की बात कर न ! फालतू  में फ़लर्ट क्यों कर रहा है’

फोन को म्यूट पर रखकर स्वातिं ने अपनी  भड़ास निकाली

सर आप ठीक से ट्राइ कीजिए स्क्रेच करना आसन है’

‘जा ! उपरका कागजवे फट गया,अब कैसे मिलेगा कूपन कोड। ‘

‘आपको स्क्रेच करना होता है सर, फाड़ना नहीं होता है।’

‘अरे नाख़ून बड़ा नहीं है मेरा, कैंची की नोक से खुरेच रहा था; अब कैसे मिलेगा कोड मुझे?….. और मुंबई में कहाँ रहती हैं आप ?’

‘ये सब बातें डिस्कस नहीं करते हैं सर हम कॉल पर। अब कुछ नहीं हो सकता है सर।’

‘अच्छा जाने दीजिए , दस रुपया का टॉकटाइम था उसमें।’

‘आपको और कोई जानकरी चाहिए?’

‘नहीं! ‘

‘टॉक बेहिसाब मे कॉल करने के लिए धन्यवाद,आपका दिन शुभ हो।’

कॉल ख़त्म होते ही स्वाती ने ‘एस्कलेशन औक्स’ डाला और टिकट पर काम करने बैठ गई। लंच औक्स , टी औक्स , मीटिंग औक्स  और ट्रेनिंग औक्स- ये चार किस्म के औक्स (ब्रेक)हैं। मीटिंग औक्स का प्रचिलित नाम एस्कलेशन औक्स है। – या तो आप किसी का एस्कलेशन (शिकायत) हेंडल कर रहे हो , या फिर आपके खिलाफ एस्कलेशन आई है। जब आप औक्स पर हो तो आपके फ़ोन की घंटी नहीं बजेगी।

‘अरे कॉल फ्लो तो नॉर्मल है, फिर पता नहीं मुझे कैसे कॉल हिट हो गया?’ स्वाती ने किसी एक  को संबोधित किए बिना अपनी भावनाएँ व्यक्त की।

 

‘अरे स्वाती तुमने ‘औक्स’ क्यों डाला। ?’

मज़ाकिया माहौल में भी श्याम की अपनी ज़िम्मेवारी का एहसास है

‘श्याम, या तो मैं कॉल लूँगी या फिर  टिकट पर काम करूँगी। दोनों काम मेरे से नहीं हो सकता है।’

‘अरे स्वाती नौ बजे सेकेंड शिफ्ट वाले जाएँगे तो तुम और महेश टिकट क्लोज़ करने बैठना फिर साथ में ब्रेक पर जाना और लंच पर पर भी साथ में ही जाना।’ अब रवि भी इस संवाद का हिस्सा बन गया है

बिल्कुल सही- आज भी सिर्फ़ हम दोनों ही लंच पर जाएँगे ।तुम्हें क्यों जलन होती है’

 ‘अरे महेश के साथ क्वालिटी टाईम स्पेंट करना है उसे ऐसा करेंगे तभी तो वो एक दूसरे को  बेहतर जान पाएँगे। – स्वाती को महेश से प्यार हो गया है।’ अब श्याम की बारी थी।

बराबर बोल रहा है श्याम’, रवि ने चुटकी ली।

‘बोथ आफ यू सेट उप प्लीज़। न तो प्यार हुआ है न ही प्यार होगा कभी- ये सब बकवास है मेरे लिए।’

अरे इतनी अकड़ अच्छी नहीं है स्वाती, क्या बुराई है महेश में , ओप्रटूनिटी डज नट अलवेज कम टुवर्ड्स यू, वेन इट कम्स ,यू शुड ग्रेब इट’ रवि ने स्वाती को उपदेश दिया।

‘अफ़कोर्स अच्छा लगता है वो मुझे – बट वी आर जस्ट फ्रेंड्स’

‘अरे महेश लड़की पट गई – आज तो तुम्हारे तरफ़ से पार्टी होनी चाहिए।’ रवि मैनें तुम्हें पहले भी कहा था उसे  उसे चिकने छोकड़े पसन्द हैं ‘श्याम ने फिर अपनी बात रखी।

महेश शांत भाव से काम में लगा हुआ है – स्वाती का खास दोस्त है वो – प्यार होते होते रह गया टाइप। दोनों एक दूसरे से फ्लोर के बाहर फ़ोन पर लंबी बात-चीत नहीं  करते हैं- न ही साथ में मूवी देखने जाते हैं । एक दूसरे से ‘प्यार’नहीं हो उसका पक्का ध्यान रखते हैं दोनों। हाँ, फ्लोर पर एक दूसरे का साथ अच्छा लगता है उन्हें। दोनों को एक दूसरे के साथ अकेले में  और ग्रुप में भी  नोंक-झोंक करना अच्छा लगता है। महेश के लिए स्वाती के दिल में एक दोस्त से बढ़कर जगह है।

स्वाती ने दो महीने पहले ट्रेनी के रूप में  कंपनी का बी पी ओ सेगमेंट जाय्न किया है।अच्छी ग्रास्पिंग क्षमता के कारण उसे ट्रेनी होने के बावज़ूद एस्कलेशन टीम का हिस्सा बना दिया गया है। साधारणत: कम से कम दो साल के प्रॉडक्ट नोलेज होने के बाद ख़ूँख़ार कस्टमर के सामने कंपनी आपको एक्सपोज करती है। काल्स हेंडल करने लिए एक अलग टीम है, किसी दूसरे लोकेशन पर- फोन बैन्किंग टीम ।  एस्कलेशन टीम, मल्टी टास्किंग करने वाली टीम है। फोन बैन्किंग टीम  के अर्ली मॉर्निंग शिफ्ट में रीसोर्स स्ट्रेन्थ काफ़ी कम होता है। कॉल फ्लो ज़्यादा होने पर एस्कलेशन डेस्क को कॉल राउट होता है।

श्याम लीड रोल में है। भड़के हुए ग्राहकों की गलियाँ सुनना और उसके जॉब प्रोफाइल का हिस्सा है। जब भी ग्राहक आपे से बाहर हो जाता है और मैनेजर से बात करने की ‘गुहार’ करता है ,श्याम को कॉल ट्रान्स्फर किया जाता है। श्याम तब तक ग्राहकों की बात सुनता था जब तक भद्दी गलियों की बारिश न शुरू हो जाए। हालाँकि ट्रेनिंग में यह बात बार बार समझाई जाती है कि भद्दी गलियों को पर्सनली मत लो लेकिन, खोपड़ी के अंदर का सॉफ्टवेर इसे स्टोर नहीं कर पता है। माँ- बहन से भले हम प्यार करें ना करें लेकिन उनके नाम की गलियों बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं, यह बात सर्व मान्य है।भद्ददी गालियाँ देने वालों को पी सी ओ बूथ पर से काल करके कुछ लोग अपनी भडांस भी निकाल लेते हैं। श्याम उनमें से नहीं है। बड़े ही प्यार से वो ग्राहक की बातें सुनता है। उनको बर्दास्त करता हैं।बर्दाश्त की हद पार हो जाने पर वो कस्टमर को तीन वॉर्ननिंग देकर कॉल डिसकनेक्ट कर देता है। कॉल हैंडल करने की बेमिसाल काबिलियत के वजह से ही वो टीम मैनेजर बन पाया हैं।

श्याम को ,एक भड़के हुए ग्राहक का कॉल , कॉल सेंटर से ट्रांसफर हुआ है। ग्राहक ने सीनियर औथॉरिटी  से बात करने की ज़िद ठान ली है – उसे मामूली एग्ज़िक्युटिव से बात नहीं करना है। – श्याम उतना सीनियर तो नहीं है लेकिन हाँ काम पर मौजूद लोगों में सबसे सीनियर ज़रूर है। ग्राहक के अनुसार इंटरनेट के इस्तेमाल के लिए जो बिल उसे भेजा गया था वो बहुत ज़्यादा था और उसे वेव ऑफ चाहिए। श्याम के पास वेव ऑफ की औथॉरिटी नहीं है। उसके पास सिर्फ़ शिकायात दर्ज करने की ताक़त है। उसने शिकायत दर्ज की और जल्द इस पर अमल होने का आश्वशन भी दिया। हरेक काल की समाप्ति के पहले, कंपनी द्वारा लॉंच किए गये एप के बारे में जानकारी देना अनिवार्य है।- ये

कंपनी का एक दिशा निर्देश था जिसे मानने के लिए वो बँधा हुआ है।  उसने ग्राहक को बताया ‘ हमारी कम्पनी ने अब आपको एक और सुविधा प्रदान की है। हमारा एक एप लॉंच हुआ है- क्या आप उसके बारे में आप जानना चाहेंगें?

‘आपके कंपनी के पास ** मा रने की सुविधा है?’ ग्राहक ने पहली बार अपशब्द का इस्तेमाल किया। श्याम ने इसका उत्तर नहीं दिया । कुछ देर की संवादहीनता के बाद ग्राहक ने फिर अपना सवाल दोहराया। ग्राहक के सवाल से श्याम विचलित नहीं हुआ ।

‘ क्षमा चाहता हूँ सर, इस प्रकार के किसी सुविधा के बारे में मेरे पास जानकारी स्पष्ट नहीं है।’

इस उत्तर ने ग्राहक खीज गया और उसने कॉल डिसकनेक्ट कर दिया।

उसने पूरा विवरण अपने दोनों पुरुष सहयोगियों को बताया और तीनों मिलकर ठहाके लगा कर हँसने लगे।

स्वाती ने पूछा: क्यों इतनी ज़ोर से हंस रहे हो तुम लोग?

‘बोएज टॉक है स्वाति, तुम नहीं समझोगी’

रवि ने व्यंग मिश्रित अंदाज में कहा

सुबह के नाश्ते के बाद अर्ली मॉर्निंग शिफ्ट के एजेंट गण में एक सुकून का एहसास घर कर जाता है। जनरल शिफ्ट के कर्मचारियों के आने से काम का भार बँट जाता है। एक अच्छी सी फिलिंग आने लगती है अब अर्ली मॉर्निंग शिफ्ट के कर्मचारियों में। सोमवार का ख़ौफ़ अब उनसे दूर जा चुका है।

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