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रईशा लालवानी और उनका उपन्यास ‘द डायरी ऑन द फिफ्थ फ्लोर’

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‘द डायरी ऑन द फिफ्थ फ्लोर’ की युवा लेखिका रईशा लालवानी मुंबई, जयपुर, दिल्ली, दुबई में रह चुकी हैं और उनके लिए जिंदगी एक लम्बा सफ़र रहा है. उनका मानना है कि कुछ लोग पैसों के लिए लिखते हैं, कुछ लोगों के लिए लिखना उनका शौक होता है, वह उस शांति के लिए लिखती हैं जो लिखने से उनको हासिल होती है.

25 वर्षीय लेखिका रईशा लालवानी के उपन्यास ‘द डायरी ऑन द फिफ्थ फ्लोर’ की कथा वाचिका जब अस्पताल के पांचवें माले पर भर्ती होती है तो उसके हाथ में एक मोटी डायरी होती है, कपडे के गत्ते वाली. उस डायरी में ऐसी कहानियां नहीं हैं जो एक लड़की के जीवन के घटनाक्रमों से बनी हुई हैं बल्कि उनमें जीवन के कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब हम आज बड़ी शिद्दत से तलाश कर रहे हैं- हम अपने-अपने जीवन में कितने भावनाहीन होते जा रहे हैं, कई बार हमें कोई ऐसा नहीं मिलता जिसके सामने हम अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त कर सकें, हमारे आस-पड़ोस, अपने-परायों के जीवन में रोज-रोज यह सब घटित होता है. हम उनके बारे में सुनते हैं, थोड़ी बहुत सहानुभूति जताते हैं और भूल जाते हैं. अस्पताल के पांचवें माले पर भर्ती उस लड़की की डायरी में सब कहानियां दर्ज हैं. उसको डर है कि अगर उसने डॉक्टर को अपनी डायरी दे दी तो शायद वह उसको इस तरह की बातें सोचने के लिए, उनको लिखने के लिए पगली समझ ले. उपन्यास में डायरी के किरदार खुलते चले जाते हैं, उनकी कहानियां पसरती चली जाती हैं. लेकिन एक सवाल अहम है जो बार-बार लौट कर आता है- हम जो हो चुके हैं क्या हम उससे खुश हैं? क्या हम जिंदगी में यही हासिल करना चाहते थे?

दिलचस्प किरदारों और घटनाक्रम के ताने-बाने से बुने इस उपन्यास का प्रकाशन शीघ्र होने वाला है. इन्तजार कीजिये.

प्रभात रंजन 

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अनुकृति उपाध्याय की कविता ‘अभी ठहरो’

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मीटू अभियान से प्रेरित यह कविता युवा लेखिका अनुकृति उपाध्याय ने लिखी है. आपके लिए- मॉडरेटर

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अभी ठहरो

अभी ठहरो
अभी हमने उठाए ही हैं
कुदालें, कोंचने , फावड़े
हमें तोड़ने हैं अभी कई अवरोध
ढहाने हैं मठ और क़िले
विस्फोटों से हिलाने हैं
पहाड़-सरीख़े वजूद
तुम्हारे पैरों-तले की धरती
अभी हमें खींचनी है

अभी ठहरो
चुप रह कर सुनो
तुम्हारे कानों में ये गरज हमारी नहीं है
ये तुम्हारे अपने दिल की
डर से धमकती धड़कन है
हमारी गरज
अभी हमारे कंठों में पक रही है

अब हम दर्द नहीं पैना रहे हैं
उनकी निशित धार
कब से हमारी आँखें चौंधिया रही है
अब हम उन्हें हाथों में उठा तौल रहे हैं
हवा में ये सनसनी
उनके भाँजे जाने की है

अभी ठहरो
लेकिन ये सोच कर नहीं
कि हम सागर में
मिट्टी के ढेलों से गल जाएँगे
बल्कि ये जान कर
कि हम सेतु-बंध की चट्टानें हैं
हम पर पाँव धर कर
आएगी आग और
तुम्हारी लंका को लील जाएगी

हम कँटीली बबूल डालों पर
उल्टा लटक
सदियों से साध चुके हैं कृच्छ
तपते सूए और दाग़ने वाला लोहा
अब हमें डराता नहीं
उकसाता है

अभी ठहरो
हमारी शुरुआत को
हमारा अंत मत समझो
अभी तो बस दोष-रेखाएँ उघड़ी हैं
भूचाल अभी आया नहीं है
बाँध की दरारों से
टपकती बूँदों से
भाँप सको तो भाँपों
धार का ध्वंसशाली वेग

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मी टू के लिए शक्ति के पर्व से बेहतर मौका और क्या हो सकता है?

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मीटू अभियान के बहाने एक अच्छा लेख वरिष्ठ पत्रकार-लेखिका जयंती रंगनाथन का आज ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में पढ़ा. साझा कर रहा हूँ- प्रभात रंजन

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हैशटैग-मी टू की गुहार हमारे यहां भी पहुंच ही गई। इस अभियान के लिए शक्ति के पर्व से बेहतर मौका और क्या हो सकता है? हर दिन कुछ नए नाम सामने आ रहे हैं, नए खुलासे हो रहे हैं, बातें बन रही हैं। फिल्म जगत, मीडिया, मनोरंजन जगत, राजनीति… औरतें सामने आ रही हैं, बता रही हैं कि बरसों पहले उनके साथ क्या हुआ था? कइयों ने कहा, हमारे पास उस समय आवाज उठाने का साहस नहीं था। वह शक्तिशाली था, उसके हाथ में हमारा भविष्य था। अब जब सब आवाज उठा रहे हैं, तो लग रहा है कि यही सही वक्त है, अपने साथ हुए यौन शोषण को दुनिया के सामने लाने का।

क्या यह सिर्फ शक्ति और सेक्स की जंग है? क्या हमारा समाज औरत विरोधी है? क्या यहां किसी भी क्षेत्र में महिलाएं सुरक्षित नहीं? मैं ऐसा नहीं पाती।

तीस साल पहले, जब मैंने अपने लिए पत्रकारिता का पेशा चुना था, तब पता था कि इस क्षेत्र में नाममात्र स्त्रियां होंगी। साथ काम करने वाले कुछ हमउम्र, तो कुछ वरिष्ठ पुरुष थे। धर्मयुग  के संपादक धर्मवीर भारती ने काम करने का माहौल जरूर सख्त रखा था, पर महिलाओं के लिए सौहार्दपूर्ण और स्नेहिल माहौल था। कभी यह एहसास नहीं हुआ कि आपको स्त्री होने की वजह से कम आंका जा रहा है। अपने आसपास दूसरी संस्थाओं में भी आमतौर पर ऐसा ही माहौल पाया। पूरे संस्थान में कोई एक पुरुष साथी ऐसा होता था, जिससे युवा लड़कियों को दूर रहने की सलाह दी जाती। और यह सलाह भी पुरुष और महिलाएं, दोनों देते थे। इसके अलावा स्त्री-पुरुष के बीच जो भी रिश्ते बनते, उनकी आपसी सहमति से बनते थे।

हैशटैग मी टू इंडिया की लहर शुरू हुई नब्बे के दशक की मिस इंडिया और फिल्म अभिनेत्री तनुश्री दत्त के उस बयान से, जिसमें उन्होंने दस साल पहले नाना पाटेकर पर फिल्म हॉर्न ओके प्लीज  के एक आइटम गाने की शूटिंग के दौरान यौन प्रताड़ना और हिंसा का इल्जाम लगाया था। पिछले कुछ साल से तनुश्री देश से बाहर हैं। इस घटना के तुरंत बाद भी वह मुंबई में पुलिस के पास गई थीं। लेकिन केस तब रफा-दफा हो गया। वर्षों बाद जब वह वतन लौटीं, तो उन्होंने एक बार फिर अपने साथ हुई प्रताड़ना का जिक्र छेड़ दिया।

तनुश्री के बयान के बाद बेशक इंडस्ट्री के बहुत कम लोगों ने उनका साथ दिया, पर कुछ ही दिनों में फिल्म इंडस्ट्री, मनोरंजन, राजनीति, पत्रकारिता और दूसरे भी क्षेत्र से जुड़ी कई हस्तियों के नाम सामने आने लगे। तीन दिन पहले रात को फेसबुक पर जब नब्बे के दशक में चर्चित धारावाहिक तारा की निर्माता और लेखिका विनता नंदा की पोस्ट पढ़ी, तो अवाक् रह गई। विनता से तारा  के निर्माण के दौरान और उसके बाद भी कई बार मिल चुकी हूं। हमारी पीढ़ी की वह एक स्मार्ट और प्रतिभाशाली नाम थीं। 19 साल बाद विनता ने यह राज खोला है कि कैसे तारा  में काम करने वाले मुख्य कलाकार आलोक नाथ ने उनके साथ न सिर्फ बलात्कार किया, बल्कि उन्हें प्रताड़ित भी किया था। विनता कहती हैं, ‘आलोक को सजा हो न हो, इससे अब मुझे फर्क नहीं पड़ता। मैं लंबे समय तक अवसाद में रही। मेरा करियर लगभग खत्म हो गया। मुझे इस हादसे से निकलने में वक्त लगा। अब जाकर हिम्मत जुटा पाई हूं कि जो मेरे साथ हुआ, वह दुनिया को बता सकूं।’
मुंबई में रहते हुए लंबे समय तक मैंने फिल्म और टीवी जगत को काफी नजदीक से देखा है। इस इंडस्ट्री का खेल दौलत-शोहरत और सेक्स पर टिका है। जिसके पास यह सब कुछ है, वह इस खेल में सबसे पावरफुल माना जाता है। इंडस्ट्री में येन-केन-प्रकारेण पैर जमाने को आतुर युवा अपने हिस्से का छोटा सा खेल खेलते हैं। इसमें कभी उनकी जीत होती है, तो कभी हार। हैशटैग मी टू के बारे में चर्चित अभिनेत्री और निर्माता पूजा भट्ट कहती हैं, ‘आप दुनिया के हर मर्द को कठघरे में नहीं खड़ा कर सकते। उसी तरह, आप यह भी नहीं कह सकते कि हमेशा औरत ही सही होती है। मैं इस इंडस्ट्री की बेटी हूं और यहां पर हर रिश्ता आपसी लेन-देन का होता है। अगर किसी के साथ कुछ गलत हुआ है, तो उसे आवाज उठानी ही चाहिए, ताकि जो गलत है, उसे और आगे बढ़ने का
मौका न मिले।’

पिछले साल लगभग इसी समय हॉलीवुड मी टू कैंपेन से थर्रा गया था। अभिनेत्री एलिसा मिलानो ने सोशल मीडिया पर मी टू हैशटैग के साथ नामी निर्माता हार्वे वांइस्टीन के यौन शोषण की करतूतों को जगजाहिर किया। इसके बाद तो कई अभिनेत्रियों ने अपनी बात सामने रखी। देखते-देखते मी टू कैंपेन ने हॉलीवुड के कई नए-पुराने नामों की धज्जियां उड़ाकर रख दी।

हॉलीवुड और अब अपने यहां भी यही लगता है कि  मी टू जैसे अभियान के लिए कोई तैयारी जैसी चीज नहीं करनी पड़ती। आपको बस खुले दिल से यह स्वीकार करना होगा कि आप अपने सामने कुछ गलत नहीं होने देंगे। अभी तक जो भी मामले सामने आए हैं, उनमें अधिकांश मामले वर्षों पहले घटे हैं। अभी तो आरोप तय होना है। पुरुषों को भी अपना पक्ष सामने रखना है। लेकिन यह बात भी अहम है कि स्त्रियां अपनी हर असफलता का दारोमदार मी टू पर नहीं बांध सकतीं। आपको अपने कुछ मसले खुद ही सुलझाने होंगे।

पिछले पांच साल से अपने संस्थान में यौन अपराध कमेटी की अध्यक्ष होने के लिहाज से मैंने यह पाया कि किसी भी कृत्य में भागीदारी सिर्फ पुरुष की या सिर्फ स्त्री की नहीं होती। हमेशा पुरुष ही गलत नहीं होते, कुछ मामले ऐसे भी सामने आए, जहां लड़कियां अपनी मर्जी से बने रिश्ते के टूट जाने के बाद आक्रामक हो गईं। मामले की सच्चाई जाने बिना किसी एक का पक्ष लेना अभियान की आंच को ध्वस्त कर सकता है। लेकिन यह भी सही है कि किसी स्त्री के साथ अगर कभी भी गलत हुआ है, तो उसे न्याय मिलना चाहिए और आरोपी को सजा। चाहे मी टू हो या न हो।

जिस तरह रोज खुलासे हो रहे हैं, उससे लग रहा है, अभी तो बस यह शुरुआत भर है। अभी तो और आवाजें उठनी हैं। इन आवाजों के जरिए ही इस अभियान की दिशा तय होगी और अंजाम भी। कहीं ऐसा न हो कि यह अभियान कुछ पुराने झगड़े निपटाने और अपना गुस्सा उतारने का एक मंच भर बनकर रह जाए।

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अंजलि देशपांडे का नाटक ‘अंसारी की मौत की अजीब दास्तान’

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अंजलि देशपांडे के दो उपन्यास, एक कहानी पढ़कर उनका मुरीद हुआ. उनकी रचनाओं में प्लॉटिंग होती है, सामाजिक सन्दर्भ होता है और गज़ब की रोचकता होती है. उनका यह सम्पूर्ण नाटक पढ़िए- प्रभात रंजन

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                       मौत कहीं दूर से आवाज़ देती है

                                   या

                         अंसारी की मौत की अजीब दास्तान

                               अंजली देशपांडे

तीन अंक, छह दृश्य.

प्रमुख चरित्र:

अंसारी

सुनीता

हवलदार जिले सिंह

महिला हवलदार ज्योति कुमारी

पुलिस इंस्पेक्टर

हवलदार  हरिचरण

जिले सिंह के बापू

जिले सिंह कि बीवी

मुखौटा धारी कमांडो मुकेश

मुखोटा धारी कमांडो धवन

पुलिस आयुक्त

पुलिस के विशेष कोष्ठक के मुखिया

बम निस्तारण दस्ते का प्रमुख

गृह सचिव

डॉक्टर एक

डॉक्टर दो

पुलिस का ए सी पी

धवल श्याम एंकर

विचित्रा वचनी एंकर

 

अंक एक

दृश्य एक

मंच दायें बाएं दो हिस्सों में बंटा है. दोनों हिस्सों का समान होना ज़रूरी नहीं है. बायीं ओर का हिस्सा कुछ ऊपर उठा हुआ है. इस पर बीच में एक मेटल डिटेक्टर चौखट रखा है. इसके पीछे दायीं तरफ एक हिस्सा स्क्रीन से ढंका हुआ है जैसा कि अस्पताल में मरीजों के बिस्तर के चारों तरफ लगा होता है. बायीं तरफ एक टूटीफूटी मेज़ है. इसके पीछे कांच की चमचमाती दीवार सी है जिसमे से पीछे के कमरे की दीवार पर कई मशहूर नाटकों के दृश्यों और गायकों की तस्वीरें पर टंगी हुई दिखाई दे रही हैं.

(वैकल्पिक तौर पर मंच आगे पीछे दो हिस्सों में हो सकता है. ऐसे में अंसारी वाले दृश्य आगे कि तरफ हों तो बेहतर हो.)

पर्दा उठता है.

मेटल डिटेक्टर के सामने छोटी सी पांत है. दो पुरूषों के पीछे सुनीता और उसके पीछे अंसारी खड़े हैं और उनके पीछे एक पैर से दुसरे पैर पर फुदकते हुये कुछ और भी लोग हैं. बायीं तरफ मेज़ के पास महिला हवलदार  ज्योति कुमारी हाथ से चलने वाला डिटेक्टर थामे ऊबी सी खड़ी है. चौखट के दायीं ओर हवलदार जिले सिंह दांत कुरेदते खड़ा है. कुछ खीजी सी बातचीत के अस्फुट से स्वर सुनायी देते हैं. चौखट के निकट खड़ा एक आदमी जल्दी से चौखट पार करके भीतर जाना चाह रहा है. डिटेक्टर छोटी सी ‘टून’ बोलता है. जिले सिंह उस आदमी को पीछे जाने का इशारा करता है और दोबारा चौखट पार करने का इशारा करता है.

आदमी : हद है. कितनी बार पार करें? संगीत सुनने आयें हैं…सरहद पार नहीं कर रहे….

जिले सिंह: शौक ना लाग रहा हमें…

दूसरा आदमी: ज़रा जल्दी करो…घंटे भर से खड़े है……

जिले सिंह: घणी बकवाद न कर…..बुला के ना लाया तेरेको घर से…

अंसारी: अरे, थोडा पेशेंस रखिये. हमारी हिफाज़त के लिए ही कर रहे हैं. काम है उनका, क्या करें…

(सुनीता चौखट पार कर लेती है. थोड़ी लम्बी सी टूँ बजती है. महिला हवलदार उसे अपनी तरफ आने का इशारा करके हाथ में थामा मेटल डिटेक्टर मेज़ पर रख कर उसका बैग खोलती है और सामान इधर उधर करने लगती है.)

सुनीता: ज़रा ध्यान से…

(इस बीच अंसारी चौखट के पार एक कदम रख कर गुजरने को होते हैं. डिटेक्टर से खूब जोर की टूँ की आवाज़ उठती है जैसे कोई हाथी का बच्चा चिंघाड़ रहा हो)

(जिले सिंह बौखला कर अंसारी को देखता है. अंसारी चौखट पार कर चुका है. जिले सिंह जोर से उन्हें धक्का दे कर चौखट के इस तरफ धकेल देता है.)

अंसारी: अरे… (दुबारा चौखट पार करने के लिए कदम उठाता है.)

जिले सिंह: (धीरे से हकलाता सा) बम, बम… (फिर जोर से चिल्लाते हुये) बम सर, मानव बम, इंसानी बम…

(स्क्रीन के पीछे से एक इंस्पेक्टर बाहर निकलता है. अंसारी के पीछे खड़े दो तीन लोग एकदम से पलट कर भागते हैं. सुनीता महिला हवलदार से अपना बैग छीन कर वापस चौखट से बाहर आ जाती है)

सुनीता: (अंसारी कि बांह पकड़ कर) चलो, भागो यहाँ से

अंसारी: (बांह छुडाते हुये) क्यों? छोड़ो.. कुछ गलत थोड़े किया है हमने….

सुनीता: बहस मत करो. चलो… (उन्हें घसीटते हुये मंच के ऊपर उठे हिस्से से नीचे उतरने को होती है)

जिले सिंह: (जहाँ खडा था वहीँ से) भाग रहे हैं…

इंस्पेक्टर (चौखट को लात मर कर) : चेकिंग बंद.

(फुर्ती से इंस्पेक्टर चौखट के पीछे शीशे का दरवाज़ा बंद करता है. महिला हवलदार उसकी मदद करती है. इंस्पेक्टर जिले सिंह को धौल जमाता है.)

इंस्पेक्टर : ले जाओ इनको उधर. (मंच के दायीं ओर इशारा करता है). वहां इनको घेर कर रखो. मैं बम डिस्पोजल स्क्वाड को फ़ोन करता हूँ.

(कुछ पुलिस वाले, महिला हवलदार समेत, सुनीता और अंसारी को घेर कर घसीटते हुये दायीं ओर ले जा रहे हैं.)

इंस्पेक्टर (वापस स्क्रीन के पीछे की ओर जाते हुये): क्या किस्मत है सर, क्या किस्मत है. मंत्रीजी आने वाले हैं इसीलिए तो ऐसा मेटल डिटेक्टर मिला. एक्चुअल में काम करता है सर, पकड़ा गया. देखिये, कितनी हिम्मत. हाँ, हाँ… जल्दी बताईये (वह स्क्रीन के पीछे चला जाता है.)

(मंच का बायां हिस्सा अब अँधेरे में है और दायें हिस्से में रोशनी  हो गयी है. पुलिसवाले अंसारी और सुनीता को यहाँ ले आये हैं और घेर कर खड़े हो गये हैं.)

जिले सिंह: नाम बताओ अपना, नाम जल्दी से

अंसारी: अंसारी, (गहरी सांस लेकर मुस्कुराते हुये कहते हैं) अहमद अंसारी.

ज्योति कुमारी : ज़रूर, ज़रूर बम है यह तो…

जिले सिंह: बम कहाँ है? कहाँ है बम?

अंसारी: क्या?

सुनीता: छोड़ दो उन्हें. यह कोई बम नहीं

जिले सिंह: नाटक मत कर. बम है तेरे पे, बता कहाँ है?

(एक पुलिसवाला अंसारी की पीठ पर लात मर देता है. वह गिर पड़ता है. सुनीता उसकी ओर लपकती है मगर महिला हवलदार उसे जोर से बांह पकड़ कर पीछे खींच लेती है. सुनीता उससे बांह छुड़ा कर उस पुलिसवाले को चांटा लगा देती है जिसने अंसारी को लात मारी थी)

सुनीता: शर्म नहीं आती? बाप के उम्र के आदमी पर हाथ उठाते हो?

वही पुलिसवाला (सुनीता की बांह पीछे की ओर मोड़ कर): तो तू बता बम कहाँ है?

(अंसारी का कुरता अस्त व्यस्त हो कर ऊपर को खिसक आता है. उसके नीचे एक बेल्ट दिखाई देती है जिससे दो उपकरण लटक रहे है. एक चार्जर जैसा दिखता है. दूसरा बैटरी जैसा. कुछ पुलिसवाले इन चीज़ों को देख सन्नाटे में आ जाते हैं.)

दूसरा पुलिसवाला : ओ, माईए देख तो, यह रहा बम…..

अंसारी (ज़मीन पर बैठे बैठे): सुनो, मैं बताता हूँ. सुनो, आपको बड़ी ग़लतफहमी हुयी है. मेरा दिल है न, लोहे का है.

जिले सिंह : वह तो दीख रहा है, भोंसड़ी के.

(इंस्पेक्टर एक हाथ में बन्दूक और दूसरे हाथ में मोबाइल फ़ोन लेकर आ जाता है.)

इंस्पेक्टर: (इशारे से जिले सिंह और कुछ पुलिसवालों को अपनी ओर बुला कर अकेले साइड में बात करते हुये) बताया कुछ इसने?

जिले सिंह: बड़ा ढीठ है सर…..

इंस्पेक्टर: स्क्वाड कह रहा है इससे पूछो, यह बचना चाहता है क्या? मैंने गाडी बुला ली है. सारे गायक, तबलची सबको ले जायेंगे. सारा थिएटर खाली करना होगा. साली ऐसी ऐसी मुसीबतें भी हमारी ही ड्यूटी पर आनी थी. उधर मंत्री का पी ए है कि फ़ोन नहीं उठाएंगे. साले एयर कंडीशन में आराम कर रहें हैं. मंत्री को रोकना होगा कि नहीं? फ़ोन नहीं उठाएंगे तो इनकी माँ रोकेगी उस मोटे भैंसे को? यहाँ आ मरा तो नौकरी और जायेगी.

(इंस्पेक्टर का फ़ोन बजता है.)

इंस्पेक्टर (फ़ोन उठा कर): सर, कब से लगा रहा हूँ मैं फ़ोन आपको. मंत्रीजी निकल तो नहीं लिए? गनीमत है सर, गनीमत …(कुछ पल रुक कर सुनता है)… नहीं, नहीं, मंच वगैरह सब तैयार है, लाइटिंग हो गयी, (फिर कुछ सुनता है)…… हाँ सर, सब आ गए हैं……. आप बात तो सुनिए सर, मंत्रीजी को रोकिये सर. सर, बम है यहाँ…….. हाँ सर, बम, बम, इंसानी बम सर…………क्या बात करते हैं आप….हम किस दिन के लिए हैं. हमारे होते क्या बाल भी बांका हो सकता है उनका, सर, सिन्हा हियर सर, सिन्हा, इनस्पेक्टर सिन्हा सर, मंत्रीजी के लिए ही ना इतनी मेहनत कर रहे हैं. जान दांव पर लगा दी है सर, जान, बस उनको आने न दीजिये …. याद रखे सर, सिन्हा सर…सिन्हा हियर….

(फ़ोन कट जाता है.)

इंस्पेक्टर (बुदबुदाते हुये): मीडिया को ही बताना होगा साले … नहीं तो ऊपर के लोग ले जाते हैं मेडल, काम करें हम और (स्क्रीन के पीछे चला जाता है)

जिले सिंह: (अंसारी से) सुन, मेरे को बता दे चुपचाप. बम किधर है. वह जो तेरे कुरते के नीचे है वही है ना? मैं बचा लूँगा थारे को. आ रहा है न स्क्वाड. बहुत बड़े माहिर लोग हैं. बहुत कुछ जानते हैं. सारे बम के बारे में. आते ही ना तेरा बम कैन्सील कर देंगे. एकदम एक झटके में. बचना है न?

अंसारी: आप समझ नहीं रहे…. आप को जब बात ही समझ में नहीं आ रही तो कौन बचाएगा? आपसे कौन बचाएगा मुझे?

महिला हवलदार ज्योति कुमारी : (सुनीता से) कम से कम यही बता दो कब फटना है बम को. फटेगा तो यह भी तो मरेगा ना, कौन लगता है तुम्हारा? खसम है?

सुनीता: मैं कह रही हूँ यह बम नहीं हैं….इनका दिल लोहे का

जिले सिंह: हमारा दिल भी फौलाद का है. क्या समझी? नहीं तो बैठे होते तेरे धोरे हम? अभी भी कुछ न बिगड़ा. बता दे, बम किसने लगाया. कौन करवा रहा है यह सब तुमसे?

 (नेपथ्य से गाड़ियों/जीपों के चलने की आवाज़ आती है.)

कुछ आवाजें:  ‘क्या हुआ?’ ‘बम?’ ‘कार्यक्रम केन्सील?’ ‘क्या ज़माना आ गया है’….

(फिर गाड़ियों के चलने की आवाज़ आती है. मंच का बायां हिस्सा अँधेरे में गुम हो जाता है.)

(इंस्पेक्टर फिर वहां आ जाता है.)

इंस्पेक्टर: चलो, हॉल तो खाली हुआ. (अंसारी की ओर देख कर) अबे, माँ के…कब फटना है तुझे? बचना है तो बता दे…

अंसारी: आप समझ नहीं रहे, मेरा दिल लोहे का है…

इंस्पेक्टर: (गुस्से में तिलमिला कर) दिखाएँ तेरेको कितने लोहा है हमारे अन्दर? (मुड कर जिले सिंह से) ले जाओ इसको आउटराम लाइन्स. स्क्वाड वहीँ पहुंचेगा.

सुनीता: सुनिए, मेरी बात सुनिए, यह सच कह रहे हैं. इनका दिल, इनका हार्ट लोहे का है. मेरे पास इसका मेडिकल सर्टिफिकेट भी है.

(जिले सिंह अपना मोबाइल फ़ोन जेब से निकलता है. एक नंबर घुमाता है.)

फ़ोन की मशीनी आवाज़: आप जिस सब्सक्राइबर से बात करना चाहते हैं वह इस समय फ़ोन नहीं उठा रहे हैं. कृपया थोड़ी देर बाद…

(जिले सिंह चिडचिडा कर फ़ोन काट देता है. तभी फ़ोन मटक मटक कर बजने लगता है ‘तेरे मस्त मस्त दो नैन’ या कोई और गीत)

जिले सिंह: (कांपते हाथों से फ़ोन उठाता है. लाउडस्पीकर का बटन दब जाता है.)

जिले सिंह कि पत्नी: (मंच पर आगे कि तरफ किसी कोने में प्रकट हो कर): क्या है जी? फ़ोन किया था?

जिले सिंह: तन्ने कभी फुरसत होवे है फ़ोन उठाने की? सुन, मने कह रहे हैं मानव बम को सत्रा किलोमीटर दूर ले जाण वास्ते..

पत्नी: के कह रहे हो. ज़रा सांस लेकर बोलो तो…

जिले सिंह: सांस लेण को बचने न वाला मैं…अरे इंसानी बम आ गया है…मेरे कु कह रहे हैं ले जाओ जीप में बिठा कर. रास्ते में फट गया तो चीथड़े ना मिलने के…

पत्नी: सुनिए जी, नौकरी…

(एक आदमी पत्नी के हाथ से फ़ोन छीन लेता है. वह फौरन साडी का आँचल खींच कर अपने चारों ओर लपेट कर गुडमुड हो कर नीचे बैठ जाती है)

जिले सिंह: बेरा ना के कहने जा रही थी सुसरी, नौकरी बजाने की कह रही थी कि छोडण की, बापू ही पास में डोला करे चौबीस घंटे…

आदमी: के बात से?

जिले सिंह: अरे, मरण जा रहा हूँ बापू. होर के? एक बम आ मरा है. इसको ले जाण कह रहे हैं, इब तो मैं न आता लौट के घर को … भाज के आ जाऊं?

आदमी: होर जो तीन लाख रुपये दिए तेरी नौकरी लगवाने के? एक पैसा न कमाया अभी तक. सालों ने एक दिन टिराफीक की ड्यूटी ना दी कि बन्दा कुछ कमा ही ले….कोई इन्साफ ही न रहा दुनिया में. थू…

जिले सिंह: मेरी जान खतरे में है बापू, पैसे की…

आदमी: मुआवजा तो देंगे? कोई तमगा तो देंगे? कोई इनाम, कोई गैस एजेंसी ही दे दें शायद. जा तेरा भला हो. यह टाइम स्वारथ का है कोई? कुणबे की सोच. शहीद होण जा रहा है….जा तेरा रब राखा…(फ़ोन काट देता है)

एक सब इंस्पेक्टर: जल्दी जीप लगाओ.

(जीप आ लगती है. सुनीता और अंसारी को खींच कर जीप के पीछे की तरफ ले जाया जाता है. उन्हें भीतर ठेल कर हवलदार हरिचरण, जो जीप चला रहा है, ज़ोरों से हॉर्न बजाता है. जिले सिंह अभी भी फ़ोन पर लगा है.)

हरिचरण: अबे, जल्दी कर हरामी के…उड़ जायेगी जीप कभी भी..

जिले सिंह: अबे तेरे को ही मिलना था यह काम भी? धीरे चलना, नहीं तो बम तो बाद में फटे तू पहले मार देगा अपनी स्पीड से

हरिचरण: तब तो बम फटा ही फटा समझ. ठाठ से मरेंगे. दस बीस को साथ ले जायेंगे. यमराज भी देख के खुस हो लेगा कि आये हैं कोई वी आई पी…मौत आये तो जरा शान की आये …. हो हो डरपोक साला….

(जिले सिंह जीप में कूद कर बैठ जाता है. महिला हवलदार ज्योति कुमारी पीछे का पिंजरा बंद करके ताला लगाती है और चाबी ले जा कर हरिचरण को पकडाती है. इंस्पेक्टर सिन्हा दौड़ कर बाहर आता है. जीप चल पड़ती है)

इंस्पेक्टर: जिले सिंह, हरिचरण, देश तुमको याद रखेगा. शाबाश.

(वह पसीना पोंछता हुआ पीछे गुम हो जाता है. अब मंच पर अँधेरा है. सिर्फ आगे कि तरफ जीप दौड़ रही है. पर्दा गिरता है)

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अंक एक

दृश्य दो

(दायाँ हिस्सा रोशनी में है. एकदम दायें हिस्से में बैरक नुमा कुछ कमरे बने हैं जिनमे से एक कमरा दर्शक दीर्घा के सबसे निकट है और साफ़ दिखाई देता है. इसका दरवाज़ा मंच के केंद्र की ओर खुला है और कमरे में सिर्फ एक पंखा और एक पीला बल्ब चमक रहा है. पंखा बंद है. इसके सामने मंच के केंद्र और कमरे के दरवाज़े के बीच मैदान सा है और बाहर की ओर की दीवार दिखाई देती है. पुलिस की गाडी के सायरन की आवाज़ दूर से नज़दीक आती है और बंद हो जाती है. एक काफिला सा कमरों कि ओर बढ़ता है. आगे जिले सिंह है, पीछे सुनीता अंसारी कि बांह थामे हुये और उनके पीछे है हरिचरण एक पिस्तौल ताने. सुनीता धीरे से अपना बैग खोल कर मोबाइल फ़ोन निकाल लेती है.)

हरिचरण: चुपचाप चले चलो. नहीं तो गोली मार दूंगा…

जिले सिंह: (हो हो करके हँसता है) बम पे गोली चलाएगा

(सुनीता एकदम से मुड कर अंसारी के सामने खड़ी हो कर मोबाइल लहराती है).

सुनीता: आगे नहीं बढना…नहीं तो बम फोड़ दूंगी

(हरिचरण और जिले सिंह रुक जाते हैं. सुनीता मोबाइल पर कुछ बटन दबाने लगती है.)

अंसारी: क्या कह रही हो? यह तो मान ही लेंगे कि बम है….

सुनीता: मानने दो, तभी तो मैं कुछ दोस्तों को खबर …. (मोबाइल में) हाँ रूपा, सुनो, रूपा, समथिंग टेरिबल हैस हैपेंड ….. हां धिस इस एन इमरजेंसी…..सुनो, धिस स्टुपिड पुलिस…इन्होने अहमी के हार्ट को बम मान लिया है और हमें पकड़ कर ले आये हैं आउटराम लाइन्स. प्लीज फाइंड हेल्प रूपा, प्लीज हेल्प…….इट इस अ  फैक्ट. नोट अ जोक… नो ऑफ़ कोर्स, नॉट जोकिंग ….यस, यस, आउटराम लाइन्स…

(हरिचरण अब तक घूम कर सुनीता के पीछे आ जाता है और अचानक अपना घुटना उसकी पीठ में धंसा देता है. सुनीता लड़खड़ा जाती है. उसके हाथ से मोबाइल छूट जाता है. उसका बैग गिर जाता है. जिले सिंह लपक कर दोनों उठा लेता है. हरिचरण सुनीता को घसीटता और जिले सिंह अंसारी को धकियाता है. दोनों को कमरे में बंद कर दिया जाता है.)

सुनीता: (गुस्से में) स्टुपिड, स्टुपिड. न कुछ सुनते हैं, न समझते हैं.

(अंसारी थके से ज़मीन पर बैठ जाते हैं, सुनीता उन्हें देख कर खुद पर काबू पाती है)

सुनीता: शायद कोई बड़ा अफसर आ जाए. क्या कह रहे थे? बम डिस्पोजल स्क्वाड आएगा? आने दो. वे तो ट्रेन्ड होते हैं. उनको फौरन पता चल जाएगा सब कुछ. सब जल्दी ही ठीक हो जाएगा. (अंसारी के बगल में बैठ कर ) तुम घबराओ मत…तुम्हारा बी पी

अंसारी: (बांह छुडाते हुये) भाड में जाए बी पी

सुनीता: धीरज रखो…

अंसारी: (सर ऊपर नीचे हिलाते हुये) ज़रूर, कितनी चोइसेस हैं मेरे पास, धीरज रखूँ, या शांत रहूँ, या चुप रहूँ, या बहस न करूँ ….आइ ऍम सो लकी टू बी इन अ डेमोक्रेसी….

(एक गाडी के आने की आवाज़ दूर से नज़दीक आती है और थम जाती है. दीवार के पार से दो आदमी कुछ प्लायर्स, पेंचकस, आदि कुछ उपकरण लेकर कमरे की ओर आते हैं. इनके पीछे खाली हाथ धवन आता है. मैदान में खड़े जिले सिंह और हरिचरण धवन को सलाम करते हैं.)

धवन: कहाँ है तुम्हारा बम?

हरिचरण (छाती फुलाये हुये गर्व से) : ले आये सर, यहाँ ला कर बंद कर दिया……

धवन: वाह क्या कमाल किया….दोनों को एक ही कमरे में रखा होगा, क्यों?

जिले सिंह: जी सर, जी बिलकुल सर

धवन: ताकि दोनों उड़ जाएँ संग संग, और कोई ना बचे देने एक भी सुराग…छांट के भरती करते हैं. (कड़क कर) निकालो एक को बाहर और ले जाओ दूर कमरे में…

(हरिचरण कमरे के अन्दर जाकर सुनीता पर पिस्तौल तान कर उसे बाहर चलने का इशारा करता है.)

सुनीता: नहीं जाऊँगी

धवन: (बाहर से): मैडम इधर आइये, आपसे बात करनी है…..

सुनीता : यहीं से बात करो. मैं अपने पति को छोड़ कर नहीं जाऊंगी. आप लोगों ने ना जाने क्या समझ लिया है हमको. मैं एक प्रोफेसर हूँ, नागरिक हूँ, मेरे हक हैं कुछ…

जिले सिंह : सारे हक तो क्रिनिमिनलों के ही होते हैं…….

धवन: चोप. मैडम, आप आकर समझायेंगी तो ना समझेंगे… बताइये हमारा क्या कसूर है. हम तो अपना काम ही कर रहे हैं. कोई बम होगा तो पूछताछ तो करना ही होगा न…

सुनीता (अंसारी से) : लगता है अब बात सँभलने वाली है. तुम घबराना नहीं.

(सुनीता बाहर आती है.)

धवन: आपका नाम ?

सुनीता: सुनीता. इतिहास पढ़ाती हूँ.

धवन: किस कॉलेज में? (वह पीछे को चलने लगता है. सुनीता उसके पीछे चलती जाती है.)

सुनीता: आपने सुना नहीं? मैं प्रोफेसर हूँ. हम कॉलेज में नहीं विश्वविद्यालय के संकाय में पढ़ते है, माने डिपार्टमेंट में…मेरे पति भी प्रोफेसर थे… रिटायर हो गए अभी डेढ़ साल पहले… वे फलसफा पढ़ते हैं, पढाते थे. आपको लगता है हम टेररिस्ट हैं? हम तो उनके खिलाफ आवाज़ उठाने वालों में हैं….

(धवन पीछे अँधेरे में गुम हो गया है और सुनीता भी धीरे धीरे उसके पीछे चलती हुई आँखों से ओझल हो जाती है. एक दरवाज़े के धडाम से बंद होने की आवाज़ आती है. फिर सुनीता की चीख.)

सुनीता: छोड़ दो मुझे. यहाँ क्यों बंद कर दिया….

(दरवाज़ा पीटने की आवाज़ आती है)

(धवन वापस रोशनी में आता है कमरे के पास जहाँ अब दो आदमी, जिनमे एक मुकेश है, जल्दी जल्दी अपने चेहरों पर मास्क चढ़ा रहे हैं. वह गर्व से जिले सिंह और हरिचरण को देखता है. मुकेश दरवाज़े के भीतर झाँक कर अंसारी को सर से पैर तक गौर से ताड़ता है.)

मुकेश: कैसा बम लगा है? जल्दी बताओ. तभी तो बचा पाएंगे तुम्हे. बचना चाहते हो न?

अंसारी: किससे?

मुकेश (धवन से): सर, यह तो ऐसे बन रहा है जैसे इसे कुछ समझ में ही नहीं आ रहा.

धवन: उलटा टांग के देंगे तलुओं पर चार तो सब समझ आ जाएगा…मैं भी क्या कह रहा हूँ….दिमाग सनक गाया है साला. यह तो सबको साथ ले उड़ेगा……

(दोनों दरवाज़े के पास जा कर अंसारी को गौर से देखते हैं.)

मुकेश: (फुसफुसा कर) सर, इसका कुरता बीच से कुछ उठा उठा सा लग रहा है, बम भी वहीँ होगा

(धवन भौहों से इशारा करता है. मुकेश चुस्ती से अन्दर जाकर अंसारी के कुरते के गिरेबान में हाथ डाल कर खींच लेता है. वैकल्पिक तौर पर वह कुरता ऊपर भी उठा सकता है. अंसारी के पैंट की बेल्ट से दो उपकरण लटक रहे हैं. एक बैटरी जैसा दिखता है, दूसरा चार्जर जैसा. यह चार्जर लम्बी स्टील की टयूब सी दिखनी चाहिए, किसी मोबाइल के चार्जर की तरह नहीं. इसमें से एक मज़बूत और मोटा तार निकल कर अंसारी के कंधे से होती हुये उसके कान के पीछे जा रहा है.)

(मुकेश एक बार को घबरा कर पीछे हो जाता है.)

मुकेश: मिल गया, मिल गया… यह रहा बम

(दरवाज़े के पास खडा धवन पीछे हो जाता है. जिले सिंह और हरिचरण पलट कर भागने को होते हैं फिर धवन को देख कर रुक जाते हैं. मुकेश प्लायर्स लेकर अंसारी कि ओर बढ़ता है और तार को पकड़ कर धीरे धीरे बड़े ध्यान से काटने लगता है.)

अंसारी: (पीछे हटते हुये) क्या करने जा रहे हो? जानते भी हो यह क्या है? जानते हो कितना कीमती है यह.

मुकेश: तो तुम्हे कीमत भी मालूम है इसकी? बताओ, बताओ. क्या कीमत है? और भी सब बताओ.

अंसारी: बताता हूँ. सब बताता हूँ. जार्विक असिस्ट डिवाइस कहते हैं इसको.

मुकेश: फिर से नाम लो. (मुड कर दरवाज़े पर खड़े दूसरे मास्क वाले आदमी से) नाम है बम का. नोट करना.

अंसारी: यह बम नहीं है. नकली दिल है. मेरा दिल बहुत कमज़ोर था. मैंने नकली दिल लगवा लिया है . आर्टिफिशियल हार्ट. मेरे दिल के अन्दर फिट हुआ है यह नकली दिल. टाइटेनियम से बना है. देखो यह चार्जर है, इससे दिल चार्ज होता है. इस बेल्ट में इस दिल की बैटरी है. हाँ, देख रहे हो? यह अन्दर के दिल से जुडा है. देखो मेरे कान के पीछे इसका प्लग भी है.

(अंसारी अपने दायें कान को आगे खींचता है. मुकेश लपक कर पीछे हो लेता है.)

अंसारी (आगे को बढ़ते हुये) : हर चौबीस घंटे में मुझे इसको चार्ज करना पड़ता है. हर चौबीस घंटे में. सुबह से पहले मुझे इसे चार्ज करना ही पडेगा.

(मुकेश फर्राटे से कमरे से बाहर हो जाता है. धवन और दूसरा मास्क धारी भी भागते हैं. जिले सिंह और हरिचरण भी उनके पीछे हो लेते हैं. कुछ दूर जाकर धवन रुकता है)

धवन : अरे, तुम भाग आये. बम निरस्त कौन करेगा?

मुकेश: सर, उसकी ज़रुरत नहीं. उसने कहा ना हर चौबीस घंटे में उसे बम को चार्ज करना पड़ेगा. बस, बिजली काट दो…

धवन: कहाँ है, मेन स्विच कहाँ है?

जिले सिंह: इधर सर….

(सब रोशनी  के दायरे से बाहर हो जाते हैं. पूरे मंच की बिजली गुल हो जाती है. अंसारी एकाएक अँधेरे में डूब कर चीखता है.)

अंसारी: रोशनी क्यों गुल हो गयी……..मुझे रोशनी  चाहिए….

सुनीता की चीख सुनायी देती है….

सुनीता: कोई तो सुनो, सुनो, बत्ती जलाओ कोई, यह अन्धेरा दूर करो…..

 

 

 

 

अंक दो

दृश्य एक

(मंच के बाईं ओर मेज़ के पीछे पुलिस आयुक्त और बम निस्तारण दस्ते के प्रमुख बैठे है. )

पुलिस आयुक्त: कोई कोई दिन कैसा मनहूस निकलता है. मैंने इंग्लैंड का ट्रिप प्लान किया था…मेरी साली रहती है वहां. शादी है उनके घर…अब देखो कब इस झमेले से फुर्सत मिलेगी…आईये बैठिये.

बम निस्तारण दस्ते के प्रमुख: होम सेक्रेटरी आ रहे हैं क्या?

पुलिस आयुक्त: यहाँ? आप को आज के दिन भी मजाक सूझ रहा है क्या? वो और यहाँ? बैठे हैं घर पर. हॉटलाइन है न. टेक्नोलॉजी है तो क्या ज़रुरत है…हाँ, स्पेशल सेल…’विशेष कोष्ठक’ के मुखिया आ रहे हैं. पहुँच ही रहे हैं.

(विशेष कोष्ठक के मुखिया का प्रवेश)

कोष्ठक के मुखिया: गुड इवनिंग…हमारे लिए तो ऐसे ही इवनिंग गुड होते हैं…क्यों? क्या कहते हैं आपके बम निस्तारण वाले? बम निरस्त हो गया?

पुलिस आयुक्त: असली काम तो हम कर चुके. हमारे बहादुर सिपाही ले गए बम को उठा के. अब तो फटे भी तो कहीं दूर फटेगा..

बम निस्तारण दस्ते के प्रमुख: तो सैंड बैग लगवा दें? बस काम ख़तम!

पुलिस आयुक्त (चिढ कर) : इनफ. जेंटलमेन, इनफ. होम सेक्रेट्री इस वेटिंग.

विशेष कोष्ठक के प्रमुख: गृह सचिव, कहिये, जनाब, हिंदी में…..

पुलिस आयुक्त: श्योर. गृह सचिव. मैं अपडेट देता हूँ. (फ़ोन उठा कर मेज़ पर रखते हैं.) सर, आपको मेरी आवाज़ सुनायी दे रही है?

(गृह सचिव एकदम बाएं कोने में एक स्पॉटलाइट में एक सोफे पर बैठे हैं.)

गृह सचिव: हूँ

पुलिस आयुक्त: सर, आप तो जानते ही हैं, सूफी संगीत का कार्यक्रम था. गृह मंत्री, जो कि कला के बड़े माहिर हैं, सूफी संगीत के तो ख़ास तौर से दीवाने हैं, पहुँचाने वाले थे. सुरक्षा के पुख्ता इंतज़ाम थे. यह बम वहीँ मेटल डिटेक्टर को पार करने की कोशिश में पकड़ा गया. इसका नाम अहमद अंसारी है. कम से कम कहता तो यही है. बीवी हिन्दू है सर. सुनीता नाम बताती है अपना.

गृह सचिव: हूँ. शक के पुख्ता आधार हैं.

विशेष कोष्ठक के मुखिया: अजीब बात है. बहुत ही अजीब. बम इस तरह खुले आम वहां क्यों गया?

पुलिस आयुक्त: सर, आप ठीक कह रहे हैं. उसकी बीवी ने बम होने की पुष्टि भी कर दी है. उसने हमारे बहादुर सिपाहियों को धमकाया कि बम फोड़ देगी और एक फ़ोन भी कर दिया. लेकिन हमारे मुस्तैद सिपाहियों ने बात पूरी नहीं होने दी, और फ़ोन छीन लिया.

विशेष कोष्ठक के मुखिया: मोबाइल को तो उसी समय छीन लेना चाहिए था जब अंसारी को थिएटर के बाहर पकड़ा गया…

पुलिस आयुक्त (उन्हें अनसुना कर): विशेष कोष्ठक अभी उस नंबर को ट्रेस कर रहा है…. (विशेष कोष्ठक के मुखिया की ओर देख) कब तक हो जाएगा?

विशेष कोष्ठक के मुखिया: (नाराज़ हो कर) हो रहा है.

(तभी बम निस्तारण दस्ते के प्रमुख के मोबाइल कि घंटी बजती है. वे हाथ उठा कर सबको चुप रहने का इशारा करते हैं. )

पुलिस आयुक्त: सर, एक सेकंड, फ़ोन आ रहा है. रुकना पडेगा.

(फ़ोन पर धवन है. बम निस्तारण दस्ते के प्रमुख फ़ोन का स्पीकर ऑन करके उसे फ़ोन के चोगे के पास मेज़ पर रखते है.)

बम निस्तारण दस्ते के प्रमुख: धवन, बोलो.

फ़ोन पर आवाज़ धवन की : सर, यह मामला बहुत गंभीर है. उसके पास जैसा बम है उससे हम परिचित नहीं हैं. वह तो खैर मानने को तैयार नहीं है कि बम है लेकिन कह रहा है जो भी है उसके दिल के अन्दर फिट है. एक बेल्ट भी पहने है. उससे बैटरी और चार्जर लटक रहे हैं. कहता है हर चौबीस घंटे में चार्ज करना ज़रूरी है.

पुलिस आयुक्त: तो? तुम किस तरह के बम निरस्त करते हो? जो बच्चे बनाते हैं, कबाड़ के सामान से?

फ़ोन पर धवन की आवाज़ : सर, हमें सेना की ज़रुरत है. उसने नाम भी बताया है बम का, बताया क्या सर, हमने पूछताछ में उगलवा लिया…क्या नाम बताया था, मुकेश? कुछ अजीब सा नाम था. क्या कहा था किस चीज़ से बना है?

मुकेश की आवाज़: सर, याद नहीं पड़ रहा…

धवन: साफ़ सुनाई नहीं दिया सर, लेकिन उसमे कुछ नियम था

पुलिस आयुक्त (खीझ कर) : नियम? नियम कायदे तो होंगे ही. तुम इस फ़ोर्स में नए तो नहीं हो. जानते हो कितने नियम हैं? नियम ही नियम हैं. लेकिन कोई नियम हमें रोक नहीं सकता. भूल जाओ नियम को. बम निरस्त करो ताकि हम उससे पूछताछ कर सकें.

धवन की आवाज़ : सर, सॉरी सर, मैं उस नियम की बात नहीं कर रहा. जनाब, हिंदी वाला नियम नहीं. बम जिस चीज़ से बना है उस चीज़ के नाम में कोई नियम सा कुछ था. मैंने कहीं पढ़ा भी है हाल ही में. शायद अखबार में. जब परमाणु बम परीक्षण हुआ था तब शायद पढ़ा है….

गृह सचिव: तुम लोग एकदम बेवक़ूफ़ हो. क्या वह यूरेनियम की बात कर रहा था?

धवन: मुकेश जा कर पूछ के आओ…

पुलिस आयुक्त: सर, क्या बात है. आपने फिजिक्स पढ़ा था कॉलेज में, आज देखिये सर देश के कितने काम आ रहा है. वरना हम तो अँधेरे में तीर चलाते रहते…

धवन: सर, कैदी बिलकुल कॉपरेट नहीं कर रहा. बताने से इनकार कर रहा है. कई बार पूछा मगर कहता है कुछ नहीं बताएगा…मगर उसमे कुछ ‘ट’ जैसा अक्षर था.

गृह सचिव: प्लूटोनियम? तुम कह रहे हो कि यह परमाणु बम है?!

(मेज़ के इर्द गिर्द बैठे सब चौंक कर एक दूसरे को देखते हैं. पुलिस आयुक्त बम निस्तारण दस्ते के प्रमुख को देखते हैं, दोनों के हाथ कांपने लगते हैं, और वे विशेष कोष्ठक के मुखिया को देखते है और फिर तीनो मेज़ पर रखे फ़ोन को.)

पुलिस आयुक्त: सर, क्या करें सर? एटोमिक रीसर्च सेंटर को फ़ोन करें? क्या करें सर? इस बम को तो निरस्त करना ही पडेगा…

विशेष कोष्ठक के मुखिया (मूंछ पर ताव देते हुये और अर्थपूर्ण मुस्कान फेंकते हुये): सर, आप सीधे बम से बात क्यों नहीं करते? आप फिजिक्स जानते हैं. आप जानते हैं कैसे क्या पूछना है. हम उस बम को मोबाइल पकड़ा देंगे….आप सीधे बात करिए सर…

बम निस्तारण दस्ते के प्रमुख: गुड थोट

पुलिस आयुक्त (उनकी बात में करेक्शन के अंदाज़ में): यू मीन, गुड आईडिया

विशेष कोष्ठक के मुखिया: थैंक यु सर, बोथ सर्स

(मंच के बाईं तरफ झुटपुटा सा होता है ताकि अंसारी दिखाई दे. अंसारी एक कोने में बैठे हैं, दीवार से सर टिकाये. निढाल. एकदम पस्त. धीरे से दरवाज़ा खुलता है और एक मोबाइल फ़ोन नीचे फर्श पर रख कर उनकी ओर खिसका दिया जाता है.)

मुकेश: बात करो. गृह सचिव का फ़ोन है.

(अंसारी चौंक कर जागते से हैं. जल्दी से फ़ोन के पास खिसक कर उठाते हैं.)

अंसारी: हेल्लो, हेल्लो… इस इट ट्रू? इस इट ट्रूली द होम सेक्रेटरी?

गृह सचिव: यस, यस. आप मुझसे तफसील से बात कीजिये. ठीक से बताइये क्या हो रहा है…

अंसारी: थैंक यू सर, थैंक यू. थैंक यू फॉर टाकिंग टू मी, सर, इसी को डेमोक्रेसी कहते हैं. अब सब कुछ साफ़ हो जाएगा सर. देखिये इन लोगों ने मुझे आतंकवादी समझ लिया है. मैं कोई बम नहीं हूँ. कोई बहुत ही बड़ी ग़लतफ़हमी हो गयी है इनको. समझ ही नहीं पा रहे मैं क्या बता रहा हूँ….

गृह सचिव: मुझे बताइये. ब्रीफ में. हाँ, जल्दी

अंसारी: बताता हूँ. मैं एक रिटायर्ड प्रोफेसर हूँ. आप चेक कर सकते हैं. फिलोसोफी पढाता रहा हूँ. मेरा दिल कमज़ोर था. मुझे हार्ट फेल्योर की बीमारी थी. आप समझते हैं ना, हार्ट अटैक नहीं, हार्ट फेल्योर. इसमें दिल की मांसपेशियाँ, मसल्स, मसल्स, सर, धीरे धीरे कमज़ोर पड़ते पड़ते बंद हो जाती हैं. इसका कोई इलाज भी नहीं है. मेरे डॉक्टर ने मुझे बताया कि एक नकली दिल बना है, किसीने बनाया है विदेश में. वे लोग प्रयोग के लिए वॉलंटियर ढूंढ रहे हैं. इसमें खतरा भी था. लेकिन मैं तो यूँ भी मर ही रहा था. मैंने अपना नाम दे दिया कि चाहें तो मुझ पर आज़मा लें. मुझ पर एक्सपेरीमेंट कर लें. बड़ी महंगी चीज़ है. मुझ जैसे गरीब प्रोफेसर की  क्या औकात कि ऐसा महँगा इलाज करा ले. एक्सपेरिमेंट था, सो उन्होंने मुझ पर कर लिया. सारे खर्चे दिए. मुफ्त में यह नया और नकली दिल मुझमें लगा दिया. बहुत ही जानी मानी चीज़ है सर. जार्विक असिस्ट डिवाइस कहते हैं इसे.

गृह सचिव: क्या नाम बताया? जार्विक असिस्ट डिवाइस? स्पेल्लिंग बताएं ज़रा…

अंसारी: जे ए आर वी आई के … ए एस एस आई एस टी…. डी ई वी आई सी ई

(गृह सचिव सामने रखे नोटबुक पर लिखता है.)

अंसारी: किसी भी हार्ट सर्जन को मालूम होगा. एक्सपेरिमेंटल है मगर जाना माना है. पूरे दो महीने मैं अस्पताल में रहा. फिर महीनों घर पर रहा कि कोई इन्फेक्शन न हो. ऑपरेशन के बाद आज पहली बार घर से निकला था सर. मेरी बीवी है, सुनीता. उसके बैग में तो इसका मेडिकल सर्टिफिकेट भी है. इन लोगों ने दिखाने ही नहीं दिया. अनपढ़ हैं सर. इग्नोरेंट हैं. मगर आप समझ सकते हैं. आप अगर सुनीता को घर जाने दें तो वह सारे मेडिकल पेपर्स ले आयेगी. एकाध घंटे में सारी बात साफ़ हो जायेगी. उसको भी इन्होने बंद कर रखा है. उसे जाने दीजिये सर. सारे सबूत मिल जायेंगे आपको कि मैं सच बोल रहा हूँ…

गृह सचिव: हूँ…..सुन ली मैंने बात आपकी… यह बताइये यह जो डिवाइस है, किस चीज़ का बना है?

अंसारी: सर इन्होने या तो बिजली काट दी है. या फिर यहाँ पर लाइट नहीं है सुनिए, मेरा जो दिल है उसको चौबीस घंटे में एक बार चार्ज करना पड़ता है. प्लीज पावर रिस्टोर करा दीजिये या मुझे शिफ्ट कराईये. जल्दी कुछ कीजिये. आप तो कुछ भी कर सकते हैं. अगर मुझे कुछ हो गया तो… अ डेमोक्रेसी मस्ट लिव उप टू इट्स नेम सर, इट्स क्लेम्स. अ डेमोक्रेसी इस फॉर इट्स सिटीजन्स, सर. मुझे पूरा यकीन है कि आप मुझे पूरा मौक़ा देंगे अपनी बात समझाने का…

गृह सचिव: देखते हैं. देखते हैं. किस चीज़ का बना है यह डिवाइस?

अंसारी: टाइटेनियम

गृह सचिव: हूँ…. ओके.

(सचिव फ़ोन काट देते हैं. फिर अपनी हॉट लाइन वाले लैंड लाइन फ़ोन पर कहते हैं )

गृह सचिव: कहता है कि सारे मेडिकल पेपर्स हैं. वह तो होंगे. ज़रूर होंगे. बनवा लिए होंगे. हमें शायद स्वास्थ्य सचिव को भी इस टीम में शामिल कर लेना चाहिए. कॉर्पोरेट होस्पिटलों को बढ़ावा देने की नीति पर कुछ तो लगाम लगानी होगी. कौन जाने कैसे कैसे लोग पैसा लगा रहे हैं और इनके डॉक्टर भी लोगों के भीतर क्या क्या लगा रहे हैं.

(मेज़ के इर्द गिर्द बैठे पुलिस अधिकारी एक दूसरे को देखते हैं.)

विशेष कोष्ठक के मुखिया: सर, यह अंसारी, इसका ऑपरेशन हुआ कहाँ था? यहाँ? या विदेश में?

गृह सचिव (एकदम बिफर कर): अपनी हद में रहो ! यह पता लगाना तुम्हारा काम है ! तुम तो डिवाइस का नाम तो पता नहीं लगा सके….मैंने गूगल किया है … यह जार्विक असिस्ट डिवाइस है ज़रूर.

पुलिस आयुक्त: यह काम तो बम बनाने वाले भी कर सकते हैं… हो सकता है पहले से पता लगा कर उन्होंने इसे यह सब कहने को सिखा दिया हो…

बम निस्तारण दस्ते के प्रमुख : यह भी हो सकता है कि उससे कहा गया है कि यह सब कह कर हमारा ध्यान  भटकाए रखे और हमला कहीं और होने जा रहा हो…क्योंकि यह तो समझ में ना आने वाली बात है कि बम मेटल डिटेक्टर को क्यों पार करके पकड़े जाने का ख़तरा उठा रहा था.

गृह सचिव: हो सकता है. हो कुछ भी सकता है. पता लगाओ, यह सच बोल रहा है या नहीं…एंड नाऊ गिव मी अ ब्रेक. मुझे मिनिस्टर से बात करनी है.

(गृह सचिव फ़ोन रख देते हैं. पुलिस आयुक्त एक फ़ोन उठा कर नम्बर घुमाते हैं)

पुलिस आयुक्त: इस शहर का सबसे बड़ा कार्डियोलॉजिस्ट मेरा दोस्त है….स्कूल में साथ पढ़े थे…(फ़ोन में) हल्लो दिल के दुश्मन, यार एक बात बता…यह कोई जार्विक असिस्ट डिवाइस नाम की चीज़ है क्या? आर्टिफिशियल  हार्ट है.

फ़ोन पर आवाज़ : तुझे लगवाना है क्या? साले दिलफेंक? कितने दिल चाहिए किस किस पर फेंकने के लिए….?

पुलिस आयुक्त: आय ऍम सीरियस. है ऐसी चीज़? गूगल करने से मिल भी जाता है….

फ़ोन पर आवाज़: यार हम तो बस धड़कन ही सुनने के हक़दार रह गए हैं…..यह काट छांट का काम तो सर्जन करते हैं. उन्हीको मालूम होगा. जहां तक गूगल का सवाल है, उस पर तो परी कथायें भी मिल जाती हैं. उस पर भरोसा नहीं कर सकते….(ज़ोर की हंसी)

(पुलिस आयुक्त रिमोट वाली घंटी बजाता है. एक आदमी अन्दर आता है.)

आयुक्त: तीन चार लोग भेजो. फ़ोन करो अस्पतालों के हार्ट सर्जन को

(तीन चार लोग आ कर सारे फ़ोन हथिया कर कंप्यूटर या डायरेक्टरी देख कर फ़ोन करते हैं)

एक मशीनी आवाज़: सारे सर्जन ऑपरेशन में व्यस्त हैं… कृपया अगले हफ्ते फ़ोन करें……

विशेष कोष्ठक के मुखिया: कोई फायदा नहीं. किसी अस्पताल में जा कर ही पूछना पडेगा

(पुलिस आयुक्त एक फॉर्म पर कुछ लिख कर एक भूरे लिफ़ाफ़े में बंद कर ए सी पी को देते हैं )

पुलिस आयुक्त: ले जाओ और ज़रुरत पड़े तो छापा मारने की धमकी से काम चलाओ……

अंक दो

दृश्य दो  

(मोटरसाइकिल के चलने की आवाज़. कुछ देर बाद जहाँ गृह सचिव बैठे थे वहां एक दूसरी कुर्सी रख दी जाती है और उसपर एक नवयुवती आकर बैठ जाती है. ए सी पी वहां पहुंचता है.)

युवती (फ़ोन पर) : गुड इवनिंग, मेंडिंग मेंडीकंट हॉस्पिटल… नहीं सर, सारे सर्जन बिजी हैं…तब तक कुछ टेस्ट करा लेंगे?

(ए सी पी वहां पहुँच जाता है.)

ए सी पी  : मुझे चीफ ऑपरेटिंग सर्जन इन कमांड आफ ऑपरेशन्स से मिलना है. फौरन.

युवती: सर, वे तो असेंबली लाइन पर हैं, ओपेरेशन करा रहे हैं. अभी मिल नहीं…

ए सी पी : तब तो हमें छापा मरना पड़ेगा (जेब से भूरा लिफाफा निकालता है)

युवती (घबरा कर) : आप रुकिए, मैं बुलाती हूँ (फ़ोन उठा कर) सर, पुलिस आयी है, छापा पड़ सकता है……आप को बुला रही है

(सफ़ेद कोट में एक डॉक्टर नमूदार होते हैं.)

डॉक्टर (तर्जनी उठा कर): सिर्फ एक मिनट…इतनी सी देर में एक टेस्ट का घाटा हो जाएगा.

ए सी पी : यह राष्ट्रीय आपातकाल है

डॉक्टर: हँ.. क्या है?

(पीछे से एक दूसरा डॉक्टर निकलता है और बाएं मुड़ कर जाने लगता है. वह पुलिसवाले को देख ठिठक कर सुनने लगता है.)

ए सी पी : नेशनल एमर्जेंसी. एक आदमी गिरफ्तार किया गया है. हमें शक है वह बम है. वह कहता है उसके अन्दर नकली दिल लगा है. आप यह बताईये (जेब से एक कागज़ निकाल कर धीरे धीरे पढ़ते हुये)…यह बताईये  कि क्या जार्विक.. असिस्ट…डी…डिवाइस नाम का कोई नकली दिल होता है?

पहला डॉक्टर: मैने तो ऐसे किसी चीज़ का नाम नहीं सुना….

ए सी पी : ठीक से सोच कर बताईये. या अपने और डॉक्टरों से पूछिए. किसीकी ज़िंदगी और मौत का सवाल है. और सुरक्षा का भी सवाल है…

दूसरा डॉक्टर: सर, एक मिनट, आपसे सोडियम लेवल के बारे में कुछ…एक पेशंट…

(पहला डॉक्टर झुंझला कर सर झटक देता है तो दूसरा डॉक्टर आकर उसकी बांह पर हाथ रख कर उसकी आँखों में देखता है और दोनों एक किनारे हो जाते हैं.)

दूसरा डॉक्टर: है, जार्विक असिस्ट डिवाइस, है. मुझे मालूम है.

पहला डॉक्टर: मुझे भी मालूम है. यह पुलिस केस है. यू वांट टू गेट इन्वोल्वड ? गो अहेड.

(दूसरा डॉक्टर सर हिला कर जल्दी से चला जाता है.)

ए सी पी : वह तो कहता है बड़ी मशहूर चीज़ है. गूगल करने से मिल जाता है.

पहला डॉक्टर: मेरे पास पढने की फुरसत नहीं है. मैं तो हर समय लोगों की चीर फाड़ में लगा रहता हूँ…..वैसे गूगल पर तो भूत प्रेत की कहानियां भी मिल जाती हैं, उस पर भरोसा नहीं कर सकते….

ए सी पी : वह तो कहता है कि उसने अपने को एक्सपेरिमेंट के लिए उनके हवाले कर दिया, उन्होंने सारे खर्चे उठाये, मुफ्त में यह चीज़ भी लगा दी, उसकी जान बचा ली. किस डॉक्टर ने किया, कहाँ किया, यह सब अभी इम्पोर्टेन्ट बात नहीं है….हो सकता है क्या यह सब?

पहला डॉक्टर: अनयुसुअल. मेरा तजुर्बा तो यह है कि हम मरीजों पर प्रयोग करते हैं, उनको बताते भी नहीं कि प्रयोग कर रहे हैं, और उनसे इलाज के नाम पर पैसे भी ले लेते हैं….यह आदमी जो कह रहा है वह मुझे बहुत डाउटफुल लग रहा है.

ए सी पी : यह नेशनल इमरजेंसी है. आप जल्दी पता करके हमें बताईये…

डॉक्टर: अच्छा मान लो कि ऐसा कोई नकली दिल है भी तो भी इस बात की क्या गारंटी है कि वही इस आदमी के अन्दर है? वह झूठ भी तो बोल सकता है. उसे काट कर देखना पडेगा ना…मेरी और मेरी टीम की रक्षा की गारंटी कौन देगा?

ए सी पी : क्यों? एम् आर आई, सी टी स्कैन और क्या क्या स्कैन आप लोग करते रहते हैं. उनसे पता नहीं चलेगा?

डॉक्टर: बहुत पढ़े लिखे हैं आप ! हाँ वह भी इस्तेमाल कर सकते हैं. खैर एम् आर आई तो नहीं, उसमे कोई भी मेटल नहीं डाल सकते, मशीन फट जायेगी, आदमी मर जाएगा, लेकिन पता लगाने के तरीके हैं. उसके लिए मरीज़ को यहाँ लाना पडेगा…हो सकता है वह यही चाहता हो कि इस बहाने अस्पताल में घुस जाए और यहाँ फट जाए. यहाँ कम से कम तीन वी आई पी पेशेंट भरती हैं. एक तो वी वी आई पी है. उनकी सुरक्षा कि गारंटी कौन देगा?

युवती (जो गौर से सब कुछ सुनने के लिए फ़ोन के चोगे उठाकर रख एक तरफ रख चुकी है) : और दूसरे मरीज़ सर…?

डॉक्टर: हाँ देखो, दूसरे मरीज़, उनकी जान को भी तो ख़तरा है. कितना ख़तरा है सोचो..जानते हो इस अस्पताल में कितना पैसा लगा है? अकेले बिल्डिंग ही १०० करोड़ की है …..

(ए सी पी पुलिस आयुक्त को अपने मोबाइल से फ़ोन लगाता है)

ए सी पी : जय हिन्द जनाब. ये डॉक्टर तो तैयार ही नहीं हो रहा कोई भी बात बताने को. या स्कैन या कुछ भी टेस्ट करने को…सर आपका हुक्म हो तो उठवा लें इसको? ले जाते हैं आउटराम लाइन्स.

पुलिस आयुक्त: और टेस्ट की मशीन कहाँ से लाओगे? इम्प्रक्टिकल. (फ़ोन रख कर) जो कुछ करना था कर लिया. अब चलो खाना खाते है. टाईम फॉर अ ब्रेक.

                                      पर्दा गिरता है

 

 

 

 

 

 

 

अंक तीन

दृश्य एक

(मंच का दायाँ कोना नीम अँधेरे या फीकी रोशनी में. बायाँ हिस्सा अँधेरे में और ज़रुरत के हिसाब से इसमें स्पॉटलाइट पड़ेगी. अंसारी दायीं ओर कमरे के बीचोबीच धीरे धीरे हाथ आगे करके टटोलता हुआ सा टहल रहा है.)

अंसारी: जाने और कितना वक़्त लगेगा. होम सेक्रेटरी से कहा है. उनको कितना वक़्त लगना चाहिए? कम से कम आधा घंटा शायद लगे. हो सकता है अभी सुनीता को छोड़ दिया हो…दरवाज़ा किधर है…हाँ हाँ यह रहा शायद, (टटोल कर) यही है….सुनो, कोई है…कोई है…? अरे कोई तो सुनो. एक मोमबत्ती तो देते जाओ. कितना अँधेरा है यहाँ…अपने हाथ तक नही दिखते….सूनी, सूनी, क्या तुम आस पास हो? सूनी, न जाने क्या होगा, न जाने क्या होगा….

(कुछ देर चुप रहने के बाद)

तरह तरह की मौत मैंने ख्यालों में देखी…कितने बरस. याद है सूनी, कहता था आख़िरी वक़्त मुझे अस्पताल में मत छोड़ देना किसी ट्यूब से बंधा हुआ. किसी मशीन को अपनी सांसें सुनाते हुये आखिरी हिचकी नहीं लेनी है मुझे…ज़िन्दगी में मौत हमेशा एक कदम पीछे चलती रही….तुम कहा करती थी, कुछ नहीं होगा… (रुक कर गहरी साँसें लेता है) मैं तुम्हारी गोद में सर रख कर तुम्हारी आँखों में अपनी रोशनी के आखिरी कण छोड़ देना चाहता था…मैं कहता था ना मेरा हाथ थामे रहना…और तुम, तुमने कभी भी वादा नहीं किया कि ऐसा होगा, तुम ही को भरोसा था अस्पतालों पर, डॉक्टरों पर, दवाइयों पर…..और देखो सूनी देखो क्या हो गया आज..

मैं तो सिर्फ एक नॉर्मल दिन बिताने निकला था, तुम्हारे साथ… खुली हवा में. तुमने मना किया था फिर भी, क्यूंकि तुम कहीं जाना नहीं चाहती जहाँ कोई मंत्री आनेवाला हो… मैं ही ज़िद करके निकला था. महीनों दवाओं की गंध सूंघने के बाद अपने फेफड़ों में शिरीष कि महक बसाने निकला था….वहां खिलते हैं शिरीष उस थिएटर के बाहर, वही शिरीष जिनके महकते पीली हरे धागों ने हमें एक सुरों के इस लय में बाँध दिया था…

(हंसता है) याद है, उस दिन ऐसी ही शाम थी जब हम गए थे राजेश्वरी देवी का कबीर सुनने…तब भी तो मंत्री को आना था… और तुम कह रही थी जहाँ मंत्री को आना हो वहां आम लोगों को जाना ही नहीं चाहिए…

(दायाँ हिस्सा अँधेरे में डूब जाता है…मंच के बायीं ओर एक अधेड़ उम्र की गायिका तानपुरा संभाले कुछ वादकों के साथ बैठी आँखें बंद किये ध्यान मग्न है. माइक थामे एक व्यक्ति बेचैनी से आगे पीछे हो रहा है. कुछ सीटियों की आवाजें आती है. हो सके तो अंसारी को सुनीता के साथ इस जगह हाथ पकडे हँसते हुये दिखाया जाए)

आदमी: अब और नहीं रुका जा सकता. लोग बेचैन हो चुके हैं. हंगामा हो जाएगा. डेढ़ घंटा होने को आया…जाने कब आएंगे मंत्रीजी…(माइक पर) श्रोताओ, आपके धीरज को सौ हाथों से सलाम. मंत्रीजी को अभी कुछ देर और लगेगी..(जोर से कुछ सीटियाँ और चीखीं सुनाई देती हैं). शांत, शांत हो जाईये……हम राजेश्वरीजी से गुज़ारिश करते हैं कि वे अपने मधुर बोलों से आपकी बेचैनी ख़त्म करें और ….(तालियों की गडगडाहट)…हाँ हाँ, मैं समझ गया, मुझे अब चुप हो जाना चाहिए……

राजेश्वरीजी: (शास्त्रीय या अर्ध शास्त्रीय गायन) भला हुआ मेरी घघरी फूटी, भला हुआ…. हुआ, भला हुआ मेरी घघरी फूटी,

मैं पनिया भरन से छूटी……..

(बीच में ही मंत्रीजी आ जाते हैं. आदमी दौड़ कर उन्हें हार पहनाता है. दो और लोग भी हार पहनाते हैं. राजेश्वरीजी के सामने से एक माइक हटा लिया जाता है…वे सुर और तानपुरा थामे रहती हैं…बेआवाज़ गाती रहती हैं)

आदमी: माफ़ कीजिये, लोग तोडा ताड़ी पर उतारू होने वाले थे….

मंत्रीजी: जनता भी ना, अहमक ही होती है..(माइक पर) राजेश्वरीजी आपका स्वागत है, सुना है पहली बार आयी हैं आप इस शहर में. वोह क्या है आप समझती होँगी कि यहाँ कला के कोई पारखी नहीं हैं…मगर हैं. देखिये, कितने लोग बैठे हैं. हमारी पार्टी की रैली में नहीं आते इतने लोग (क्यों, क्या बात कही ना हमने? के अंदाज़ में वे मंच के लोगों को देखते हैं. मंच पर ही स्वागत करने वाले खी खी करके हँसते हैं)…. और हम, हम भी इतने बिजी रहे आज… क्या बताएं, कितना काम रहा, फिर भी आपका स्वागत करने को हमने समय निकाला आपके लिए…हाँ हमको बताया संयोजकों ने कि आपको यकीन ही नहीं हुआ अपने भाग्य पर, आपने संदेसा भिजवाया था कि काम छोड़ कर फालतू टाइम बर्बाद करने हम यहाँ नहीं आयें, लेकिन हम कल्चर्ड लोग हैं, हम आये हैं. थोड़ा देर हुई, होती है, बिजी लोगों को टाइम निकालने में भी टाइम लगता ही है.. हा हा……कभी कभी हम भी क्या कमाल की बात कह देते हैं… टाइम लगता है टाइम निकालने में. एकदम कविता ही समझिये …(कुछ शोर सा मचता है, कुछ आवाजें आती हैं….’हो गया, बहुत हो गया’…) ठीक है. आप गाइये. (वे हार संभाल कर नीचे उतरते हैं.)

राजेश्वरीजी: मेरे सर से टली बला, बला, मेरे सर से टली बला..

(दाएं कोने में नीम रोशनी …अंसारी खयालों में डूबा हुआ)

अंसारी: उसी दिन की याद ताज़ा करने गए थे न हम आज…थिएटर के खुरदुरे रेक्सीन की बेआराम सीटें, सामने ढाबे की बेहद मीठी चाय, ब्रेड पकोडा जिससे खूब तेल टपकता था…आज तुमने खाने नहीं दिया मुझे वह पकोड़ा…वह चाय भी बड़ी ज़िद करके पी मैंने…इतना डरती रही तुम मेरे लिए, तुम्हारी मोहब्बत ने कैसी  हिफाज़ती कैद में रखा मुझे हर पल…आज कौन है मेरा हाफ़िज़? हमने तो दोनों ही धर्मों को नाकबूल कर दिया….दोनों ही आज बदला ले कर रहेंगे? वे सिरफिरे जो दुनिया में दीन की हुकूमत फैलाना चाहते हैं…इतना नहीं जानते कि अक्ल की लाशें इन्साफ की बुनियाद नहीं बनती…कितने लेख मैंने लिखे, कितने भाषण हमने दिये अपने स्टूडेंट्स को…….कि हुकूमत नस्ल की नहीं अक्ल की होनी चाहिए, मज़हब की नहीं मोहब्बत की होनी चाहिए…. मगर इन नस्लवादियों, तंग नज़रों, सर काटने, कटाने वालों…इन आतताइयों का बोलबाला है यहाँ, उन्होंने ही ऐसा माहौल बनाया है कि आज किसी को किसी पर भरोसा नहीं रहा….और जिस धर्म के भी हों आपस में हम कितना भी लड़ें….हैं तो सब एक दूसरे के हमशक्ल…इस ख़ूबसूरत दुनिया को कैसे खून से सराबोर कर दिया है भगवान का, खुदा का नाम लेने वालों ने… हम जैसों को लील रहे हैं दोनों धर्मों के ठेकेदार….. यह दुनिया नहीं है हमारे जैसों के लिए फिर भी इसे छोड़ कर जाने से डरता है दिल, और अब लगता है तुमसे कह भी नहीं पाउँगा, नहीं देंगे यह लोग हमें मिलने का मौका, कह नहीं पाउँगा कि इस आख़िरी लम्हे में तुम मेरे साथ होती तो मौत टलती तो नहीं डर टल जाता शायद…

(अंसारी थक कर बैठ जाता है और घुटनों में सर दे कर सिसक उठता है)

एक नार्मल दिन बिताने निकला था मैं….(हंस कर) हाँ हाँ, याद है मुझे, तुम क्या कहती हो.. कभी भूलने दिया है क्या…

(मंच की दायीं ओर स्पॉटलाइट. सुनीता हंसती हुई कहती है)

सुनीता: दुनिया में, कभी भी कोई भी वक़्त नार्मल नहीं होता…इतिहास तो यही बताता है.. मुझसे पूछो, इतिहास पढ़ाती हूँ, मैं बताती हूँ….यह जो लफ्ज़ है ना, नार्मल, उसका कोई मतलब ही नहीं होता. एकदम बेमायने है. हमको जो नार्मल लगता है वह इसलिए कि उसकी आदत डाल लेते हैं और जो भी अलग हो उसे हम असाधारण या एब्नार्मल कहकर उसकी खिल्ली उड़ा देते हैं, उसे ठुकरा देते हैं, उसकी निंदा कर देते हैं…

अंसारी: अरे कब तक भाषण दोगी यार…..

सुनीता: पूरे पचपन मिनट…लेक्चर पूरा न हुआ तो अपनी तनख्वाह कैसे जस्टिफाई होगी?

(स्पॉटलाइट बंद)

अंसारी: आज भी कह सकोगी तुम कि कोई वक़्त नार्मल नहीं होता. क्या कर रहे थे हम? जीने कि ज़िद? अपनी मर्ज़ी से, अपने तरीके से. इसकी सज़ा मिल रही है? (अंसारी खिसकता हुआ दीवार से सट जाता है).

                                      पर्दा गिरता है

अंक तीन

दृश्य दो

(मंच के बायीं ओर टी वी के स्टूडियो बने हैं. या कोई ऐसा बक्से जैसा स्थान जहाँ एक एक कर कई लोगों को प्रकट होना है. अभी धवल श्याम का मेक अप हो रहा है. उसकी एक असिस्टेंट युवा लड़की पास में अपने मोबाइल फ़ोन या टेबलेट पर देख देख कर उससे बात कर रही है.)

लडकी: सर, फेसबुक पर थोड़ी ही देर पहले एक अपडेट आया है…किसी यूनिवर्सिटी के लेक्चरार को गिरफ्तार कर लिया है…

(धवल श्याम हाथ से इशारा करता है कि यह कोई ख़ास बात नहीं)

धवल श्याम: मस्ट बी सम प्रोटेस्ट फॉर फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन…..

(इतने में पीछे लगे टी वी स्क्रीन पर (या किसी बक्से में से झांकती) विचित्रा वचनी बोलने लगती है)

विचित्रा वचनी: यहाँ अभी अभी खबर आ रही है कि थिएटर में घुसने कि कोशिश करते हुये एक मानव बम पकड़ा गया है…अभी ज़्यादा जानकारी नहीं है, लेकिन हाँ एक मानव बम है. यह धड़ल्ले से सूफी संगीत के एक कार्यक्रम में घुसने की कोशिश में लगा था…जी हाँ, मानव बम. घुस रहा था. सूफी संगीत के कार्यक्रम में…इस कार्यक्रम में खुद गृह मंत्री जाने वाले थे…

धवल श्याम: व्हाट इस धिस? हाउ डिड यू मिस इट?

लडकी: सर वही मैं आपको अभी बता रही थी…..वह लेक्चरार…….

धवल श्याम (इशारे से उसकी बात झटके से काट कर): नेवर माइंड. उसकी टी आर पी इतनी नहीं है….(वह अपने मोबाइल से किसीको फ़ोन लगाता है और बक्से में घुसता है. बक्से में से विचित्रा वचनी गायब हो जाती है और धवल श्याम उसकी जगह ले लेता है)

धवल श्याम: आज के इस शो में मैं धवल श्याम आपका स्वागत करते हुये भी डर रहा हूँ. यह डर आपके लिए है. अपनी तरफ से तो मुझे सिर्फ गुस्सा आ रहा है अपने निज़ाम पर, अपनी सरकार पर…और आपको भी आयेगा जब आप आज की यह खौफनाक खबर सुनेंगे कि इस शहर को इस वक़्त कितना बड़ा ख़तरा है. जी हाँ, एक बम इस वक़्त टिक कर रहा है टिक, टिक….कभी भी फट सकता है. यह है हमारी आज की चौंकानी वाली खबर. एक्सक्लूसिव है. सिर्फ हमारे पास है यह खबर. आज पता चलेगा आपको कि लोकतंत्र के दुश्मन कितने प्रभावशाली, कितने कार्यकुशल हो गए हैं. (धवल श्याम चश्मा ठीक से ऊपर चढ़ाता है और घूर कर सामने देखता है). हमारे दुश्मनों ने, यहाँ, इस देश के दिल में, इस देश की राजधानी में, एक ऐसे आदमी को ला खडा किया है जो बम है. आप पूछेंगे इसमें कौनसी नयी बात है. ठहरिये. यह कोई ऐसा वैसा बम नहीं, परमाणु बम है. जी हाँ…ठीक सुना आपने. परमाणु बम. एटम बम. जी, जी. मेरा दिमाग ख़राब नहीं हुआ है और आपके कान भी ठीक हैं. परमाणु बम. इसके लिए बहुत बड़ा ऑपेरशन करना पड़ता है. इसके लिए ऑपेरशन थिएटर चाहिए, डॉक्टर चाहिए, जो आदमी को चीरे, उसके अन्दर बम रखे और उसको सी दे.

क्या यह काम विदेश में हुआ? अगर हाँ तो यह बम देश में घुसा कैसे? क्या कर रही हैं हमारी सुरक्षा एजेंसियां? क्या यह काम यहाँ हुआ? इस देश में? तो फिर कौन हैं उसके साथी? कहाँ पर, किस अस्पताल में, किन लोगों ने अंजाम दिया इस खतरनाक खेल को?

पूछेंगे, सारे सवाल पूछेंगे हम. सबसे पूछेंगे. मगर पहले चलते हैं अपने जांबाज़ रिपोर्टर के पास जो ग्राउंड जीरो पर हैं, वहां जहाँ बम है. उससे कुछ ही फीट की दूरी पर. कुछ कदमों की दूरी पर. वहां जहाँ हमारे निकम्मे अधिकारियों ने बम को अलग थलग बंद कर रखा है. अपने रिपोर्टर से बात करने के बाद पूछेंगे हम अपनी सरकार से, अपनी सेना से, जो भी सुरक्षा के इंतजामों में ढील देने के ज़िम्मेदार हैं उनसे कि इस बम को शहर में ही क्यों रखा गया है? क्यों इसे एक ड्रोन में लाद कर समुद्र में फ़ेंक नहीं दिया गया? पहले अपने रिपोर्टर से बात करते हैं, हेल्लो, हाँ, हमें बताईये वहां क्या सिचुएशन है. हेल्लो, हेल्लो….

(धवल श्याम इधर उधर देखता है, सामने रखे कुछ पेपर उठाता रखता है. फिर उसके माथे पर बल पड जाते हैं.)

धवल: लगता है कि परमाणु विकीरण हमारे प्रसारण को प्रभावित कर रहा है. हमारा अपने रिपोर्टर से संपर्क नहीं हो पा रहा. जैसे ही होगा हम उनसे बात करेंगे और आपको पूरी जानकारी देंगे. जब तक हम हैं, हमारी बोलती बंद नहीं हुई है, आपको घबराने की ज़रुरत नहीं है….हम हैं आपके लिए….

(धवल श्याम फेड आउट होते हैं, यानी स्पॉटलाइट उनपर से हटाता है. पी आई बी के प्रमुख सूचना अधिकारी प्रकट होते हैं और मोबाइल फ़ोन मिला कर उस पर बोलते हैं.)

सूचना अधिकारी: हाँ हाँ, सचिव से बात कराईये, मैडम….मैं मुख्य सूचना अधिकारी…गुड इवनिंग क्या खाक होगा? आप यह बताईये आज एक मानव बम पकड़ा गया और आपने हमें खबर तक नहीं दी? प्रेस फ्रीडम नाम की चीज़ है या नहीं? कह दीजिये नहीं है, कह दीजिये, आप मालिक हैं, जो कहेंगे वही होगा…अरे कुछ मंत्रियों, अफसरों के भ्रष्टाचार के बारे में लिख दिया तो प्रेस एंटी नेशनल हो गयी…देखिये यह रवैया ठीक नहीं है…अगर आप लोगों ने यह रवैया नहीं बदला तो..तो…

फ़ोन पर आवाज़: ….आप इस्तीफा दे देंगे?

(मुख्य सूचना अधिकारी गुस्से में फ़ोन पटक देते हैं)

एक महिला एंकर (टी वी के बक्से में आ कर): ब्रेक के बाद ‘हर खबर’ में आपका स्वागत है…आज की सबसे बड़ी खबर.. आज क्या यह तो इस सदी की सबसे बड़ी खबर होनी चाहिए..जो मानव बम पकड़ा गया है वह शायद एक परमाणु बम है. जी हाँ, ठीक सुना आपने. परमाणु बम. हमारी निडर एंकर और इस चैनल की सर्वप्रिय संपादक विचित्रा वचनी इस समय उस परमाणु बम के नज़दीक हैं. वे ग्राउंड जीरो पर हैं और हम सीधे  चलते हैं उनके पास…

(बायीं तरफ दीवार के पास विचित्रा वचनी हाथ में माइक लिए खडी है)

विचित्रा वचनी (अपने पीछे के बैरक की ओर इशारा करती हुई) : यह है वह जगह जहाँ किसी भी पल अब एक बम फट सकता है. यह एक परमाणु बम भी हो सकता है.

महिला एंकर: आप बम के इतने नज़दीक खड़ी हैं. आपको डर नहीं लगता?

विचित्रा वचनी: औरों कि मौत रिपोर्टर की ज़िंदगी का हिस्सा होती है…और अपनी मौत दूसरों के लिए खबर…वैसे भी एक परमाणु बम के विस्फोट से बच कर हम कहाँ जा सकते हैं? कहाँ जायेंगे? कहाँ जाकर बचेंगे. मैं किसी भी पल मर सकती हूँ पर मरते दम तक मैं रिपोर्टर रहूंगी और मैं जानना चाहती हूँ कि एक इन्सान के भीतर फिट हो सके ऐसा परमाणू बम कितना छोटा या बड़ा हो सकता है? क्या यह पूरे शहर को तबाह कर सकता है? पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को ख़तम कर सकता है? कितनी दूर तक होगी इसकी पहुँच? कबसे मैं भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर में किसीको जगाने की कोशिश कर रही हूँ. मगर हमारे विषेशज्ञ हैं कि सोये ही चले जा रहे हैं. उनकी आँख ही नहीं खुल रही. यहाँ देश की राजधानी कांप रही है उनकी नींद नहीं खुल रही…

(बगल में धवल श्याम आ खड़ा होता है अपनी सहयोगी लड़की के साथ.)

धवल श्याम: मैंने रिपोर्टर को बर्खास्त कर दिया है. एसएम्एस भेज दिया है. यह वहां खडी रिपोर्ट कर रही है और वह पता नहीं कहाँ है…तुम ले लोगी उसकी जगह? तनख्वाह बाद में बढाएंगे…..

(धवल श्याम गायब हो जाते हैं)

(बायीं ओर झुटपुटे में जिले सिंह और अन्य पुलिसवाले आकर रिपोर्टिंग देखने लगते हैं. पीछे से सुनीता की बहुत ही हल्की चीख सुनायी देती है )

सुनीता: कोई है…मुझे बाहर निकालो…प्लीज. वह बम नहीं हैं. छोड़ दो उनको. उनकी जान खतरे में है……

(विचित्रा वचनी मास्क धारी मुकेश से खुसर फुसर करती है)

(अंसारी के चीखने की आवाज़ आती है. वे बेतहाशा दरवाज़ा पीट रहे हैं.)

अंसारी: मेरी तार जोड़ दो…मुझे बैटरी चार्ज करना है…किसी अस्पताल में ही ले चलो…

विचित्रा वचनी (माइक को बैरक की ओर घुमा कर) : श..श…सूना आपने? फिर से सुनिए…

(अंसारी और सुनीता की हल्की चीखें जिसमे सिर्फ कुछ शब्द सुनायी दे रहे हैं. )

चीखें: तार जोड़…छोड़ दो…प्लीज…बात …सुनो..सुनो….

विचित्रा वचनी: सुन सकते हैं आप? दुनिया में आज तक किसीने ऐसी खबर नहीं दी होगी. एक परमाणु बम मांग कर रहा है कि उसे बैटरी चार्ज करने दिया जाए. अपने बम की बैटरी चार्ज करने दिया जाए. सुनिए फिर से सुनिए…

(हलकी सी चीखें सुनायी देती हैं पर कोई शब्द सुनायी नहीं देता)

विचित्रा वचनी: यहाँ अँधेरा है. घुप्प अन्धेरा. इसका मतलब सरकार जाग रही है. उसने एक्सपर्ट से बात की है. और एक्सपर्ट ने कहा है कि बिजली गुल कर दिया जाए. तभी देश बचेगा. एक्सपर्ट ने कहा है अन्धेरा कर दो. तभी देश बचेगा. गज़ब की बात है कि सरकार ने एक्सपर्ट की सुन ली है. अब बम नहीं फटेगा. बम नहीं फटेगा. अन्धेरा होगा तो शहर बचेगा. देश बचेगा. हम बचेंगे.

(अंसारी पर स्पॉटलाइट. वह अब थका हुआ है और उसकी आवाज़ एक जानवर के दर्द भरी रिरियाहट सी है. एक ‘घों…घों..’ सी आवाज़. धीरे धीरे वे हाथ फैला कर पीछे को बढ़ते हैं. दीवार से टकरा कर वे धीरे धीरे नीचे को खिसकते हुये फर्श पर धम से बैठ जाते हैं.)

(बायीं तरफ मंच पर सुनीता रोशनी में आ कर कहती है)

सुनीता: आज तो मंत्री समय पर आ रहे हैं…वह रहा उनकी कार का सायरन

(जोर से कई सायरन बजते हैं..)

अंसारी: यह तो एम्बुलेंस का सायरन है…इतने एम्बुलेंस आ रहे हैं……यह क्या है, (एक हवलदार सामने खड़ा है) यहाँ यह हवलदार क्यों खड़ा है….कैसा शोर है….छोड़ दो मुझे……छोड़ दो……..(एकदम जोर से चीखते हैं) छोड़ दो….!

     (उठने की कोशिश करते हैं मगर फिसल कर गिर पड़ते हैं. वे आँखें बंद कर लेते हैं.)

                                        पर्दा गिरता है

संपर्क

अंजली देशपांडे

192, पॉकेट डी

मयूर विहार फेज २

दिल्ली 110091

anjalides@gmail.com

The post अंजलि देशपांडे का नाटक ‘अंसारी की मौत की अजीब दास्तान’ appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

महात्मा गांधी और कॉपीराइट का सवाल

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रामचंद्र गुहा ऐसे ऐसे विषयों पर लिखते हैं जिनको पढना रुचिकर भी लगता है और बहुत अच्छी जानकारी भी मिलती है. उनका यह लेख आज ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में प्रकाशित हुआ है. महात्मा गांधी और कॉपीराइट विषय पर. साभार प्रस्तुत है- मॉडरेटर

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आर ई हॉकिंस ऐसे अंग्रेज थे, जिन्हें ज्यादा शोहरत तो नहीं मिली, लेकिन बतौर प्रकाशक उन्होंने अपनी जड़ें जमाईं और भारत में ही बस गए। दिल्ली के स्कूल में अध्यापन के लिए 1930 में भारत आए हॉकिंस असहयोग आंदोलन में स्कूल बंद हो जाने पर बंबई चले गए और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से जुड़ गए। 1937 में इसके महाप्रबंधक बने और अगले 30 साल तक इसे खासी सफलता से संचालित किया। उनके नाम जिम कार्बेट, सलीम अली और वेरियर एल्विन सरीखे तमाम नामी-गिरामी लोगों की पुस्तकें हैं।
हॉकिंस गांधीजी के प्रशंसक थे। बंबई आकर तो उन्होंने खादी ही अपना ली और कुछ ही दिन बीते कि गांधीजी के सचिव महादेव देसाई को स्कूली बच्चों के लिए माइ एक्सपेरिमेंट विद ट्रुथ  (सत्य के प्रयोग) का संक्षिप्त संस्करण निकालने पर राजी कर लिया। अभिलेखागार में शोध के दौरान मुझे गांधीजी और हॉकिंस के कुछ दिलचस्प और अब तक अज्ञात पत्राचार देखने को मिले। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में गांधीजी जब पूना जेल गए, हॉकिंस बंबई में ही थे। विश्व युद्ध जारी था और ब्रिटिश प्रेस गांधी और कांग्रेस को लेकर दुष्प्रचार में लगा हुआ था। उन्हें हिटलर और उसकी सहयोगी ताकतों का पिट्ठू बताने का खेल चल रहा था। इसी समय हॉकिंस ने गांधीजी के ऐसे लेखों का संकलन प्रकाशित करने का फैसला लिया, जो उनकी सोच खुलकर सामने लाने में सहायक होते।
1909 में गांधीजी की पहली किताब हिंद स्वराज आई, तो उसके पहले पन्ने पर लिखा था- इसका कोई कॉपीराइट सुरक्षित नहीं है। तब तक गांधीजी कॉपीराइट में भरोसा नहीं करते थे। लेकिन जैसा कि कानूनविद् श्यामकृष्ण बालगणेश ने गांधी और कॉपीराइट की व्यावहारिकता  (कैलिफोर्निया लॉ रिव्यू, 2013) शीर्षक लेख में जिक्र किया है, समय के साथ वह इसे लेकर थोड़ा सचेत हो गए थे। गांधीजी प्राय: गुजराती में लिखते, लेकिन अन्य भाषाओं में अनुवाद होते-होते अर्थ बदल जाने की आशंका उनकी चिंता में थी। 1920 के दशक के उत्तराद्र्ध में जब उनकी आत्मकथा आई, तो उनके अमेरिकी शिष्य जॉन हेन्स होम्स ने उन्हें इसके वल्र्ड राइट्स मैकमिलन को देने की सलाह दी, ताकि उसका व्यापक प्रसार हो सके। गांधीजी इस सोच के साथ सहमत हुए कि ‘कॉपीराइट से प्राप्त धन का इस्तेमाल चरखा के प्रचार-प्रसार और समाज के दबे-कुचले लोगों के हित में किया जाए, तो इसमें कोई नुकसान नहीं है।’
1920 के दशक के अंत तक गांधीजी के समस्त लेखन का कॉपीराइट नवजीवन ट्रस्ट के पास आ गया। 1943 में जब हॉकिंस गांधीजी के लेखों का संकलन प्रकाशित करने की सोच रहे थे, गांधीजी जेल में थे। उसी साल अगस्त में उन्होंने गांधीजी को चिट्ठी लिखकर बताया कि वह उनके लेखों का चयन आर के प्रभु से कराना चाहते हैं। वही आर के प्रभु, जो तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी के दक्षिण कनारा के थे, 1930-31 के असहयोग आंदोलन में जेल गए और खासा लंबा वक्त पत्रकार के रूप में और गांधीजी का अध्ययन करते गुजारा था। यह चिट्ठी अधिकारियों तक नहीं भेजी गई, तो हॉकिंस ने सीधे नवजीवन ट्रस्ट को लिखा, लेकिन ट्रस्ट ने अनुमति देने से इनकार कर दिया। हॉकिंस ने गांधीजी का हवाला देते हुए बताया कि ‘गांधीजी ने स्वयं माना है कि उनके द्वारा संपादित पत्रिकाओं में प्रकाशित उनका लेखन सार्वजनिक संपत्ति है, क्योंकि कॉपीराइट अपने आप में कोई स्वाभाविक चीज नहीं।’ उन्होंने ट्रस्ट को आश्वस्त किया कि पुस्तक पश्चिम से लेकर उनके देशवासियों तक गांधीजी की सोच सही अर्थों में पहुंचाने का जरिया बनेगी और किताब के प्रकाशन के लिए यह सर्वथा उपयुक्त समय है। ट्रस्ट पर इन बातों का कोई असर नहीं पड़ा, बल्कि हॉकिंस को जवाब मिला कि उन्होंने गांधीजी की बात को अपनी सुविधा से और गलत तरीके से प्रस्तुत करने के चक्कर में वे शब्द छोड़ दिए हैं, जहां कॉपीराइट के बारे में गांधीजी कहते हैं कि ‘यह आधुनिक संस्था है और शायद किसी सीमा तक वांछनीय भी।’
मई 1944 में गांधीजी जेल से रिहा हुए। तब तक महादेव देसाई की मृत्यु हो चुकी थी और अब प्यारेलाल नय्यर गांधीजी के सचिव थे। हॉकिंस ने अपनी बात प्यारेलाल को लिखी और नवजीवन के साथ हुआ पत्राचार भी साथ भेजा। उन्होंने लिखा कि ‘अगर महात्मा गांधी पुस्तक प्रकाशन के लिए अपने लेखन और अन्य चीजों पर कॉपीराइट का दावा करते हैं, तो हम निश्चित तौर पर इसका प्रकाशन नहीं करेंगे। लेकिन यदि वह कॉपीराइट की बात नहीं करते और जैसा कि हमारा भरोसा भी है, वह हमें अनुमति दे देंगे, तो हम आश्वस्त हैं कि हम अच्छा संकलन दे पाएंगे और यह किताब को सामने लाने का एकदम उपयुक्त समय होगा। खासतौर से अमेरिका और इंग्लैंड के लिए, जहां गांधीजी को लेकर कई पूर्वाग्रही और पक्षपातपूर्ण बातें प्रचारित हैं।’
जुलाई 1944 में गांधीजी ने हॉकिंस को लिखा कि ऑक्सफोर्ड यह संकलन छाप सकता है, बशर्ते इसमें कॉपीराइट के तौर पर नवजीवन के उल्लेख के साथ सौ प्रतियां नि:शुल्क देने और उसे अपने अंग्रेजी के साथ ही सभी भारतीय भाषाओं के संस्करण निकालने का अधिकार रहे।’ हॉकिंस नवजीवन द्वारा अपने अलग अंगे्रजी संस्करण वाली शर्त छोड़ बाकी सब पर सहमत हो गए, क्योंकि इस शर्त से भारत में उनके अंग्रेजी संस्करण की सफलता संदिग्ध हो रही थी। गांधीजी पर इसका कोई असर नहीं हुआ। वह भारत में अंग्रेजी संस्करण न्यूनतम मूल्य पर उपलब्ध कराने के पक्ष में थे। सितंबर 1944 में गांधीजी के बंबई प्रवास के दौरान प्रभु और हॉकिंस उनसे मिले, जिसके बाद बहुत कुछ साफ हुआ। अंतत: मार्च 1945 में हॉकिंस की मेहनत रंग लाई। द माइंड ऑफ महात्मा गांधी  शीर्षक से किताब आ चुकी थी, जिसका संपादन आर के प्रभु और यू आर राव ने संयुक्त रूप से किया था।
निधन के 60 साल बाद गांधीजी का लेखन कॉपीराइट के दायरे से मुक्त हो गया। यानी 30 जनवरी, 2008 के बाद कोई भी उनका कुछ भी छापने के लिए आजाद था। जाहिर है, इसके बाद बहुत कुछ सामने आया, जिसमें कहीं-कहीं बहुत गुणात्मक अंतर है। अब समय है कि कोई सुरुचि संपन्न और समझदार व्यक्ति द माइंड ऑफ महात्मा गांधी  को फिर से छापे। यह दो स्वदेशी पत्रकारों और उस भारतप्रेमी अंग्रेज के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी, जिसने उनका काम सामने लाने का महत्वपूर्ण काम किया। महात्मा गांधी को जानने-समझने के लिए यह किताब अपने आप में पर्याप्त है। इसे अब इसके नए पाठकों के सामने लाया जाना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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अन्नपूर्णा देवी की संगीत-साधना हरिदासी है, निर्मोही है!

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चित्र साभार: द इन्डियन एक्सप्रेस

प्रवीण झा आजकल शास्त्रीय संगीत पर इतने रस के साथ लिखते हैं कि मेरे जैसा संगीत ज्ञानहीन भी संगीत समझकर उसका आनंद लेना सीख गया है. यही संगीत-लेखकों का काम भी होना चाहिए- आम पाठकों को संगीत दीक्षित करना. अन्नपूर्णा देवी पर लिखा उनका यह आलेख पढ़ कर बताइए कि क्या मैं झूठ बोल रहा हूँ?-प्रभात रंजन

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उस दिन अली अकबर चुपके से भाग कर कालीदीन की फांसी देखने गए थे, जो बीच शहर में होने वाली थी। बाबा को खबर न थी, पर बहन अन्नपूर्णा जरूर यह राज जानती थी। अली अकबर यूँ तो पाँच साल बड़े थे, पर बहन से कुछ न छुपाते। अभी कुछ दिनों पहले घर में छुप कर बहन को नाचते देखा था, तो एक छोटी साड़ी लाकर दी थी। जब बाबा बाज़ार गए तो वह आंगन में खूब नाची। उसे संगीत सीखने की इज़ाजत न थी। बड़ी बहन जहाँ-आरा के ससुराल वालों ने पहले ही संगीत के चलते तानपुरा जला कर वापस भेज दिया था। वह वक्त कहाँ था कि इज्जतदार घर की लड़कियाँ संगीत सीखे? और लड़के अली अकबर को संगीत से अधिक रुचि पतंग उड़ाने में।

बाबा भले बंदिश गाकर समझाते-डांटते,

“सुर साधो हे गुणी,

सुर को पहचानो।

जो सुर न समझे, वो असुर कहलाए,

बेसुरा गाए-बजाए, वो गू खाए।”

लेकिन तमाम कोशिशों पर भी अली अकबर को सुर ही न मिले। बाबा पैर पटकते बाज़ार निकल गए। जब लौटे तो देखा, दस वर्ष की बेटी अन्नपूर्णा गा रही है और भाई को सरोद सिखा रही है।

बाबा उसके बाल पकड़ खींचते कमरे में ले गए और फिर आँखों में आँखे डाल कहा, “तुम्हें आज से मैं संगीत सिखाऊँगा। लेकिन तुम्हें संगीत से ही विवाह करना होगा। तुम्हें मैं अपने गुरुओं का रहस्य सिखाऊँगा। लेकिन ऐसी चीज सिखाऊँगा जिसे बाज़ार के लोग न समझेंगे। जो गुणी होगा, वही तुम्हें सुनेगा। अन्नपूर्णा! तुम ही मेरी उत्तराधिकारी बनोगी। संगीत से लोग नाम-शोहरत पाते हैं, तुम संगीत से ईश्वर को पाओगी।”

इस बात को कुछ दिन हुए तो सर मुँडा कर नयी मूँछों वाला एक गोरा युवक दरवाजे पर खड़ा था। बाबा ने गौर से देखा और उछल पड़े, “रवि! यह तो रवि है…। रवि आ गया।” बाबा रवि को उनके बड़े भाई उदय के साथ यूरोप में मिले थे। सूट-बूट में, घुँघराले लंबे बालों वाला, नाचने-गाने वाला रवि आज जब इस रूप में सफेद खद्दर कुर्ते में आया तो पहचानने में वक्त लगा। बाबा रवि को आंगन ले आए जहाँ सुरबहार लिए अन्नपूर्णा बैठी थी।

बाबा ने कहा, “रवि! तुम्हें इसी की तरह सुर साधना है।” यह सुन कर वह बालिका शरमा कर पड़ोस में भाग गयी।

मैं जब मैहर में उस आंगन में खड़ा था तो ये दृश्य जैसे सामने आ गए। वहीं पड़ोस में रविशंकर का वह बसेरा, जहाँ के भूतों की कहानी सुन कर अन्नपूर्णा आश्चर्य जताती। 

“जानती हो अनु! वे बड़े नाक वाले भूत हैं। एक नहीं, बहुत सारे।”

मुझे वह भूत-बंगला न मिला, लेकिन जब मैहर देवी की सीढ़ीयाँ चढ़ रहा था तो लगा बाबा और उदय शंकर भी साथ सीढ़ीयाँ चढ़ रहे हैं। और ऊपर पहुँच कर माँ शारदा के सामने उदय अपने छोटे भाई का विवाह-प्रस्ताव रख देते हैं। बाबा की आराध्य देवी के समक्ष उनके जीवन की सबसे हृदय-विदारक निर्णय की नींव पड़ रही है।

सालों बाद ऊपर एक कमरे में अन्नपूर्णा देवी सुरबहार बजा रही हैं, तो नीचे अपने नाना की गोद में बैठा शुभो पूछता है, “बाबा! क्या यह उदासी का राग है?”

बाबा की आँखों में आँसू आ गए लेकिन गौर से उस बच्चे को निहारा। जिस रस को समझने में बरसों लग जाते हैं, यह बालक दो पल में समझ गया? रक्त में माँ का गंभीर सुरबहार, पिता का यशस्वी सितार। और उनके गुरू के गोद में बैठा बालक भला कोई साधारण बालक तो न था। जब मैं पं. रविशंकर और शुभो की साथ बैठी रिकॉर्डिंग देखता हूँ तो लगता है कि गगन में ईश्वर ने एक ही रवि के लिए जगह दी है। शुभो की सितार के सामने लगे माइक्रोफ़ोन पर लोग शक करते रहे कि मद्धिम है। और ऐसे ही कयास अन्नपूर्णा देवी और पं. रविशंकर के लिए भी लगाते रहे कि एक श्रेष्ठ। अब 1955 ई. की वह प्रस्तुति किसने देखी, किसने सुनी?

हाँ! अन्नपूर्णा देवी की संगीत-साधना हरिदासी है, निर्मोही है। अगर इस सदी के दो शुद्धतम सितार-सुरबहार वादक चुनने हों तो, एक हैं मुश्ताक अली ख़ान और दूसरी अन्नपूर्णा देवी। ऐसे वक़्त में जब युवा पं. रविशंकर की लयकारी और विलायत ख़ान के बाज़ से दुनिया झूमने लगी थी, अन्नपूर्णा देवी अपने आलाप और तान से मन मोह लेती। उनका यह गुण कुछ हद तक निखिल बनर्जी में आया, लेकिन यह दोनों लंबे समय तक आम श्रोताओं के नसीब में न रहे। यह तो लंबी तपस्या कर उनका सान्निध्य पाने वाले पं. हरिप्रसाद चौरसिया, नित्यानंद हल्दीपुर और अमित भट्टाचार्य सरीखों को नसीब हुआ कि अन्नपूर्णा देवी को करीब से देख लें।

रही बात पंडित जी की, तो मुझे एक वाकया मिलता है कि जब 1982 ई. में एक न्यौते पर वह बंबई आए और अन्नपूर्णा देवी जी आयोजक थीं तो पूछा,

“तुम अपनी मुंडेर पर बैठे कौवों और कबूतरों को इतना अनाज क्यों खिलाती हो?”

अन्नपूर्णा जी ने कहा, “वे कभी धोखा नहीं देते।”

पंडित जी ने विनोदी भाव में हँसते हुए कहा, “उन्हें अनाज देना बंद कर दो, वह आना बंद कर देंगे।” 

वह पंडित जी को सदा एक गुणी संगीतकार और बाबा की परंपरा को विश्व-पटल पर लाने वाला मानती रहीं। बस उनकी राह वही थी जो बाबा ने तय की थी। संगीत से ईश्वर की प्राप्ति। 

स्वपन बंधोपाध्याय लिखते हैं कि एक दिन माँ अन्नपूर्णा देवी अपने फ़्लैट के बाल्कनी में कबूतरों को दाना दे रही थी तो एक गर्भवती कबूतर आकर बैठी। उन्होंने कबूतर को सहलाते कहा, “तुम उड़ते-उड़ते थक गयी हो। तुम अब अपना ख़याल रखो।” यह कह कर उन्होंने कबूतर को सहारा देकर उड़ा दिया और निहारने लगी। उन उड़ते कबूतरों में उनकी आँखें बाबा, भाई, पंडित जी, शुभो..और न जाने किस-किस को ढूँढ रही थी। जैसे आज हमारी आँखें संगीत की इस अन्नपूर्णा को ढूँढ रही हैं।

(स्वपन कुमार बंधोपाध्याय की पुस्तक “अन्नपूर्णा देवी: ऐन अनहर्ड मेलोडी” पर आधारित)

 

 

 

 

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दुर्गा में लीन हुईं एकाकी संगीत साधिका  

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चित्र साभार: द इन्डियन एक्सप्रेस

संगीत साधिका अन्नपूर्णा देवी के निधन पर यह आलेख प्रसिद्ध लेखिका-संगीतविद मृणाल पांडे ने लिखा है.  एक सुन्दर आलेख पढ़िए- मॉडरेटर

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शारदीय नवरात्रि की चतुर्थी को, संगीत की तपोपूत एकाकी साधिका और मैहर घराने के संस्थापक बाबा अलाउद्दीन खान साहिब की इकलौती पुत्री अन्नपूर्णा देवी का मुंबई के एक अस्पताल में निधन हो गया। वे 93 वर्ष की थीं। आज कम ही लोग जानते हैं कि वे मशहूर सितारवादक पं रविशंकर की (पहली) पत्नी और जाने माने सरोदवादक स्व.उस्ताद अली अकबर खाँ साहिब की बहन भी थीं। इन दोनो संगीतकारों का अवदान आज सारी दुनिया जानती है, लेकिन उनसे भी अधिक प्रतिभा की धनी होते हुए भी अन्नपूर्णा जी ने कभी संगीत के भौतिक जगत से प्रतिदान की इच्छा नहीं पाली, न ही अपने शिष्यत्व का मोल लगाया। संगीत के प्रेमियों के लिये यह दु:खद है कि यह धुनी संगीतकार स्वेच्छा से महफिलों, रेकार्डिंग या रेडियो गायन से हमेशा दूर एक तपस्विनी का जीवन बिताती रहीं, इसलिये उनकी इक्का दुक्का रिकार्डिंग्स ही उपलब्ध है।(यू ट्यूब पर) उनका बजाया कौंसी कान्हडा और माँझ खम्माज खराब रिकार्डिंग के कारण उनकी गहन सांगीतिक क्षमता की झलकियाँ भर ही दे पाता है|

बाबा नाम से जाने जानेवाले अलाउद्दीन खाँ साहिब का परिवार त्रिपुरा का रहनेवाला था, 8 बरस की आयु में घर छोड कर सही गुरु की खोज करते करते वे रामपुर जा पहुँचे जहाँ उनको उस्ताद वज़ीर खां से तालीम मिली। फिर वे कोलकाता लौटे जहाँ संगीतप्रेमी ज़मींदारों के आश्रय में वे कुछ दिन रहे। पर अंतत: वे जब मैहर महाराजा के दरबार में आये उनके राजकीय गायक और स्वयं महाराज के गुरू बने, तो शारदा माता के मंदिर से ऐसी लौ लगी कि बस वहीं के हो रहे। उनके सबसे प्रसिद्ध शिष्यों में खुद उनकी दो संतानें: अली अकबर और अन्नपूर्णा देवी, पंडित रविशंकर, पन्नालाल घोष, निखिल बनर्जी, शरण रानी माथुर सरीखे होनहार कलाकार थे।

अन्नपूर्णा जी का जन्म मैहर में 1927 पूर्णिमा के दिन हुआ। बाबा तब प्रख्यात नर्तक उदयशंकर की पार्टी के साथ विदेश यात्रा पर थे। महाराजा ने ही गुरु पुत्री का नामकरण किया, अन्नपूर्णा। रोज़ मैहर की कुलदेवी माँ अन्नपूर्णा तथा शारदा माँ के लिये सुबह सुबह रियाज़ करनेवाले बाबा के लिये मज़हब की दीवारें बेमानी थीं। साधना सिर्फ साधना और बडा की कठोर अनुशासन: शिष्यों से बाबा कतई कोताही बर्दाश्त नहीं करते थे। गलत ताल के लिये एक बार हथौड़ा मार कर उन्होने महाराजा का हाथ ही तोड दिया था। पर गुरु की ताडना ही शिष्य को निखारती है। शुरू में बाबा पुत्र को ही सिखाते रहे। एक बार भाई का रियाज़ सुनती बाहर ईक्कड दुक्कड खेल रही अन्नपूर्णा ने चिल्ला कर कहा, भैया ये सुर गलत लगा है। बाबा ऐसे नहीं, इसे ऐसे बजाते हैं। फिर जो पिता का पाठ उन्होने हूबहू दोहराया, उस से भीतर बैठ कर सुनते बाबा ने उनकी मेधा के दर्शन पाये और इस तरह उनकी तालीम शुरू हुई। सितार तथा सुरबहार दोनो वाद्ययंत्रों में उनका हाथ जल्द ही सधने लगा। भाई सरोद में डूब चुके थे। 1940 तक यह पारंपरिक पद्धति का शिक्षा क्रम चला जिसमें स्त्री पुरुष की तालीम में कोई अंतर नहीं किया जाता। उनके लिये आगे जाकर बाबा ने कहा था कि वे किसी मायने में उनके दो अन्य बडे होनहार शिष्यों: रविशंकर और अली अकबर खां से कमतर नहीं, बल्कि ध्रुपद अंग की शिक्षा उसको खास तौर से मैंने दी है। लंबी और कठोर तालीम के साथ अपनी बेटी को बाबा ने यह सीख भी दी थी, कि संगीत आनंद से भगवान को अर्पण करने की चीज़ है। तुममें धैर्य है इसलिये तुमको वह संगीत दूंगा जिससे आंतरिक शांति मिले।

गुण के आधार पर अपनी प्रतिभाशालिनी बेटी का ब्याह अपने हिंदू शिष्य रविशंकर से बाबा ने कर दिया। यह रविशंकर जी की आत्मकथानुसार एक पारंपरिक तयशुदा विवाह था, जिसमें प्रेम नहीं बडों की इच्छा ही सर्वोपरि थी। रविशंकर के नर्तक बडे भाई उदयशंकर तब बहुत ख्यातनामा थे पर रविशंकर संगीत जगत के लिये लगभग अपरिचित थे। इस विवाह से एक पुत्र का जन्म हुआ, पर जैसे जैसे ख्याति बढी दूरियाँ बढने लगीं। अंतत: वह शादी टूट गई। बहुत तल्खी अंत तक बनी रही जिसका असर उनके पुत्र पर भी पडा। खैर अन्नपूर्णा देवी ने बेटे को पालना और तालीम देना शुरू कर दिया और उसमें भी जल्द ही प्रतिभा के दर्शन होने लगे। इस क्षण कई तलाकशुदा पुरुषों की तरह रविशंकर ने बेटे को अपने पास विदेश में बुला लिया और अपने साथ मंच पर बिठा कर बेटे की सराहना का श्रेय पाकर मुदित होने लगे। एक सन्यासिनी का जीवन जी रही अन्नपूर्णा जी के लिये बहुत जतन से पाले सिखाये बेटे को खोना तकलीफदेह रहा होगा, लेकिन उनकी अनवरत साधना और अन्य शिष्यों को तालीम देना नियमित बना रहा। बस इसके बाद और भी अंतर्मुखी बन कर उन्होने खुद को और अपनी कला को दुनिया से अलग थलग कर लिया। संगीत के गलियारों की कानाफूसी के अनुसार इसकी बडी वजह यह थी, कि महत्वाकांक्षी रविशंकर जी से उनको बेटे को पालने या संगीत प्रदर्शन जगत में जाने को लेकर खास प्रोत्साहन नहीं मिला। वे शुरू से अपने पिता की ही तरह वैराग्यमय तबीयत की रही आईं। वे मानती थीं कि संगीत गुरुमुख विद्या है और टेप वेप या डिजिटल आदि माध्यम उसकी सच्ची गहराई मापने में भी सक्षम नहीं, सीखना तो दूर रहा। उनकी सांगीतिक विरासत को थामनेवाले उनके कुछ गिनेचुने शिष्य बाँसुरीवादक हरिप्रसाद चौरसिया जी, सितारवादक निखिल बनर्जी, बहादुर खाँ, आशीष खाँ, गायक विनय भरतराम, सरोदिया वसंत काबरा, प्रदीप बारोट, गौतम चटर्जी सरीखे कलाकार हैं।

जिनको अन्नपूर्णा देवी को सुनने का सौभाग्य मिला है, उनका कहना है कि जैसे सृष्टि लयमय आनंदमय है, वैसा ही लयदार और आनंदमय उनका वादन भी था। और अपने गुरु तथा पिता की प्रतिभा का सबसे बडा अंश उनमें ही उतर आया था। लेकिन वे बाहर गाने बजाने से विरक्त पूरी तरह अपने संगीत में ही डूबी रहीं और अंतत: कई प्रतिभाशालिनी महिला कलाकारों की तरह चुपचाप दुनिया से चली गईं। उनका मानना था :’ हमारा संगीत पूर्ण समर्पण का है।यदि छात्र विनम्रता से इसकी साधना करता है, और उसमें धैर्य समर्पण और आहुति भाव है, तो निश्चय ही उसे वह मिलेगा जिसका महत्व और मूल्य उसके दिये से कहीं अधिक है|

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मेला, रेला, ठेला रामलीला!

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कल यानी रविवार को ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ के ‘फुर्सत’ सप्लीमेंट में रामलीला पर एक छोटा-सा लेख मैंने लिखा था. आपने न पढ़ा हो तो आज पढ़ सकते हैं- प्रभात रंजन

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यह रामलीला लाइव का ज़माना है. 10 अक्टूबर से नवरात्रि की शुरुआत के साथ देश के अलग-अलग हिस्सों में रामलीला शुरू हो जाएगी. बचपन में जब मैं सीतामढ़ी में रहता था गाँव की रामलीला साक्षात देखता था. हर दिन राम की कथा का कोई विशेष अंश मानचित होता था. कैकेयी-मंथरा संवाद वाले दिन सबसे अधिक चला-पहल होती थी. जिस दिन रामवनगमन का दृश्य मंचित होता उस दिन महिलाएं बहुत रोती थीं- “मोरे राम के भीजे मुकुटवा/लछिमन के पटुकवा/मोरी सीता के भीजै सेनुरवा/त राम घर लौटहिं।”

सबसे भव्य राम की बारात का आयोजन होता था. उसकी मुझे ख़ास याद है क्योंकि जब बारात रामलीला मंडप के पास पहुँच जाती थी तो हम बच्चों को बताशे दिए जाते थे. केवल बताशे ही नहीं लक्ष्मण का बात-बात में गुस्सा हो जाना और सीन के बीच बीच में हनुमान द्वारा नारद मुनि को चिढाने के सीन भी गाँव की रामलीला में हमें आधी रात तक जगाये रखते थे. पास में कुछ रेहड़ी वाले मिटटी के तेल का दिया जलाए नमकीन सेवैयाँ, जलेबी बनाते रहते थे. जिस दिन दादी बहुत खुश होती थी उस दिन दस पैसे की जलेबी खरीद देती थीं. बरसों बाद भी जब उस रामलीला की याद आती है तो साथ लगने वाला मेला भी याद आ जाता है.

जैसे हमारे देश में अलग-अलग भाषाओं में, अलग-अलग प्रान्तों में सैकड़ों रामकथाएं हैं उसी तरह सैकड़ों-हजारों रामलीलाएं, हर रामलीला का अपना-अपना आकर्षण होता है. जैसे दिल्ली के प्रसिद्ध रामलीला मैदान की रामलीला का सबसे बड़ा आकर्षण होता विजयादशमी के दिन रावण का पुतला दहन, जिसमें अक्सर प्रधानमंत्री भी शामिल होते हैं. उसी तरह लालकिले के मैदान में होने वाली रामलीला में हर बार समाज के अलग-अलग पेशों से जुड़े लोगों को अभिनेता के रूप में पेश किया जाता है. जैसे उन्होंने पिछले साल से नेताओं को अभिनेता बनाना शुरू कर दिया है. पिछले कुछ साल से रामलीला के दौरान स्वच्छता अभियान का सन्देश भी दिया जाने लगा है.

यह डिजिटल एज है. रामलीला भी हाईटेक होती जा रही है. इस साल एक रामलीला में तकनीक के कमाल से हवा में रावण और जटायु की लड़ाई दिखाई जायेगी तो एक रामलीला ने राम कथा में पहली बार सीता जन्म की कथा दिखाने की घोषणा की है. प्रसिद्ध लवकुश रामलीला समिति ने अपनी वेबसाईट बना रखी है. वेबसाईट पर रामलीला से जुड़ी हर अपडेट तो रहती है लाइव रामलीला की व्यवस्था भी है. यानी घर बैठे-बैठे 11 दिन तक चलने वाली रामलीला का आनंद उठाया जा सकता है. स्मार्ट फोन और यूट्यूब चैनल के इस दौर में सारी लोकल रामलीलाएं ग्लोबल हो रही हैं. यूट्यूब पर सर्च कीजिये अयोध्या से लेकर सीतामढ़ी तक हर जगह की रामलीला के वीडियो मौजूद हैं. रोज-रोज अपलोड किया जाता है, फेसबुक लाइव किया जाता है. कथा है कि राम लीला के लिए पृथ्वी पर आये थे आज जगह-जगह अनेक रूपों में उनकी लीला देखी-दिखाई जा रही है.

लेकिन रामलीला क्या वही है जो मंच पर दिखाई जाती है?

रामलीला का असली मजा राम की कथा का मंचन नहीं होता है बल्कि उसके साथ लगने वाले मेले की लीला होती है. जहाँ-जहाँ रामलीला होती है वहां आसपास मेला जरूर लगता है. रामलीला का इतिहास मेलों का इतिहास भी रहा है. पुरानी दिल्ली की रामलीलाओं में रोजाना मंच पर रामकथा के प्रसिद्ध अंशों का मंचन बमुश्किल आधे घंटे होता है लेकिन तरह-तरह के चाटों के स्टाल से लेकर अलग अलग तरह के झूलों के आसपास रौनक आधी रात तक बनी रहती है. पुरानी दिल्ली के खानपान को लोकप्रिय बनाने में वहां होने वाली रामलीलाओं का भी बड़ा योगदान रहा है. अगर रामलीलाएं न होती, उसके साथ लगने वाले मेलों की रौनक न होती तो कितने लोग जान पाते कि पुरानी दिल्ली अपने निरामिष खाने के लिए ही नहीं शुद्ध शाकाहरी खाने के लिए भी बेहद प्रसिद्द है. सीताराम बाजार की रामलीला के साथ वहां की छोटी-छोटी नागौरी कचौरी की भी धूम मच गई थी. खान-पान की बात चल रही है तो लगे हाथ बता दूँ कि सीतामढ़ी की मशहूर सोन पापड़ी का स्वाद भी हम लोगों ने रामलीला के मेले में ही चखा था.

रामलीला हमारी उत्सवधर्मी संस्कृति का प्रतीक है. कहीं न कहीं हमें यह अपने आदिम अतीत से जोड़े रखता है, सभ्यता की अनेक करवटों के बावजूद जो हमारे अन्दर राम की कथा के रूप में बचा हुआ है. संस्कृतिविद विद्यानिवास मिश्र ने अपने निबंध ‘मेरे राम का मुकुट भीग रहा है’ में यह प्रश्न उठाया है कि ‘क्या बात है कि आज भी वनवासी धनुर्धर राम ही लोकमानस के राजा राम बने हुए हैं? कहीं-न-कहीं इन सबके बीच एक संगति होनी चाहिए।‘ वास्तव में रामलीला के दिन ऐसे होते हैं जब हम अपनी आधुनिकता को भूल कर अपनी परम्परा के साथ एकाकार हो जाते हैं, खान-पान, धूल-धक्कड़, मेले-ठेले, खेल-खिलौने सब हमें अपने-अपने अतीत में ले जाता है. रामलीला धर्म का नहीं संस्कृति का उत्सव है. अकारण नहीं लगता है कि विविधता में एकता वाले हमारे देश में रामलीला का समापन रावण वध के अगले दिन राम-भरत मिलाप के साथ होता है. बुराइयों का अंत करके हम खुले दिल से एक हो जाएँ. हर साल रामलीला यही सन्देश दे जाता है.

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कहानियां तो हैं लेकिन कौशल की कमी है!

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विजयश्री तनवीर के कथा-संग्रह ‘अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार’ की सम्यक समीक्षा युवा लेखक पीयूष द्विवेदी द्वारा- मॉडरेटर

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विजयश्री तनवीर के पहले कहानी-संग्रह ‘अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार’ में कुल नौ कहानियां हैं, जिनमें से सभी के केंद्र में विवाहेतर संबंधों का विषय है। संग्रह की पहली कहानी ‘पहले प्रेम की दूसरी पारी’ में लेखिका ने विवाह और प्रेम के अंतर को बड़ी बारीकी से खोलने का प्रयास किया है। ‘अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार’ नामक शीर्षक कहानी कमाने गए पति से दूर जीवन की जद्दोजहद में अकेले जुटी स्त्री के मन में प्रेम की तीव्र आकांक्षा को उद्घाटित करती है। हालांकि कथानक में कसावट की कमी के कारण ये बहुत अधिक प्रभाव नहीं छोड़ पाती। ‘समंदर से लौटती नदी’ एक शादीशुदा और वयस्क व्यक्ति के एक जवान लड़की के आकर्षण में पड़ जाने और फिर सामाजिक लांछनों के भय से उससे दूरी बनाने की कहानी है। इसका कथ्य प्रभावी है, लेकिन उस कथ्य को कथानक में ढालने और चरित्र-गठन के बिन्दुओं पर यह कहानी कमजोर पड़ जाती है। ऐसे ही ‘भेड़िया’, ‘खिड़की’, ‘खजुराहो’, एक उदास शाम के अंत में आदि कहानियाँ भी अलग-अलग ढंग से विवाहेतर संबंधों का विषय उठाती हैं। लेकिन देखा जाए तो इन सब कहानियों का मूल स्वर विवाहेतर संबंधों की विसंगतियों और दुष्प्रभावों को उजागर करना ही है।

‘विस्तृत रिश्तों की संक्षिप्त कहानियाँ’ इस संग्रह की आखिरी और विशेष रूप से उल्लेखनीय कहानी है। प्रेम और शादी के अंतर को उद्घाटित करता इसका कथानक तो कोई बहुत नया नहीं है, लेकिन उसकी प्रस्तुति का ढंग प्रभावित करता है। ये कहानी एक लघुकथा की तरह कई छोटे-छोटे हिस्सों में बंटी हुई है जिन्हें अलग-अलग भी पढ़ा जा सकता है औत एक कहानी के रूप में भी। दोनों ही रूपों में वे हिस्से अर्थवान और प्रभावी हैं। इसके पात्र एक लड़का और लड़की हैं जो एकदूसरे से प्रेम करते हैं। हम देखते हैं कि प्रेम में लड़की की छोटी-छोटी खुशियों का ध्यान रखने वाला लड़का शादी के बाद पति बनते ही कैसे उसकी इच्छाओं को पूरा करने से पहले बजट देखने लगता है। समय बीतता है और उनका प्रेम छीजता जाता है। झगड़े होने लगते हैं। एक दिन दोनों में कुछ अधिक ही झगड़ा होता है और पति चला जाता है, वो भी नाराज होती है, लेकिन रात को जब बहुत देर तक वो नहीं लौटता तो उसे चिंता और आत्मग्लानि होने लगती है। आखिर देर रात गए वो आता है। तब वो कहती है, ‘हम जानें इतना क्यों झगड़ते हैं’ इसके जवाब में पति का ये कहना – ‘ताकि दूसरों से न झगड़ें’ – इस कहानी को एक प्रभावशाली अंत देता है। यह अंत तमाम विसंगतियों के बावजूद विवाह नाम संस्था के प्रति समर्थन व्यक्त करता है जो प्रकारान्तर से विवाहेतर संबंधों के विरुद्ध भी जाता है। निस्संदेह इस कहानी का एक दूसरा पहलू वैवाहिक संबंधों में स्त्री की निम्नतर स्थिति को रेखांकित करना भी है। लेकिन कुल मिलाकर ये इस संग्रह की हासिल कहानी है। भाषा सधी हुई हिंदी है, जिसमें किसी प्रकार का कोई अतिरिक्त प्रयोग करने की कोशिश नहीं की गयी है। एक और बात कि विजयश्री के पास कहानियाँ तो हैं, लेकिन उनको कहने का कौशल अभी जरा कच्चा है, जिसपर ध्यान देने की आवश्यकता है। समग्रतः ये कहानी-संग्रह में लेखिका में निहित अनेक रचनात्मक संभावनाओं का बोध कराता है।

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पुस्तक – अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार (कहानी-संग्रह)

रचनाकार – विजयश्री तनवीर

प्रकाशक – हिन्द युग्म, दिल्ली

मूल्य – 110

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गीताश्री की कहानी ‘खानाबदोश’

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समकालीन कथाकारों में गीताश्री के पास कहानियों की रेंज काफी विस्तृत है. इतने अलग-अलग तरह के विषयों पर उन्होंने कहानियां लिखी हैं कि कई बार हैरानी हो जाती है. जैसे यह कहानी पढ़िए- मॉडरेटर

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कोई मुझे नींद में ज़ोर ज़ोर से झकझोर रहा है। मैं गहरी नींद में छलाँग लगा चुकी हूँ।

“उठो.. उठो… मुझे छोड आओ.. जहाँ से लाई हो मुझे… मुझे नहीं रहना यहाँ… मुझे ले चलो वहाँ.. यही मौक़ा है.. निकल चलो…उठो…”

कोई मर्दाना आवाज आ रही है…

“ऊंह…” मैं कुनमुनाती हूँ और करवट बदल कर सो जाती हूँ.

कोई ज़ोर से हिला रहा है मुझे… अब चेतना जागने लगी है, कमरे में अंधेरा है. हौले से पलके उठीं.. अबे कौन है, क्या आफ़त आ गई…

सामने दीवार पर टीवी के नीचे रखा टाटा स्काई में पीली लाल बत्ती जल रही थी. कमरे के अंधेरे से लड़ने के लिए रोशनी की ये दो बूँदें नाकाफ़ी थीं. अंधेरे में दाएं हाथ से सिरहाने टटोल कर मोबाइल उठाया. स्क्रीन टच होते ही हल्का उजाला मेरे आसपास फैल गया. रोशनी की क़ीमत गहन अंधेरे में पता चलती है.

चारों तरफ नज़र दौड़ाई, कहीं कोई नहीं था..कमरा अंदर से लॉक था. बग़ल में जयंत सोया था, दीन दुनिया से बेख़बर.

कौन जगा रहा था मुझे…और क्यों..?

यक़ीनन यह सपना नहीं था। मैं हिली हुई थी। नींद कच्ची थी, टूट गई। सपना तो बिल्कुल नहीं। फिर…!

सवाल ने फन काढ़े तो मैं हड़बड़ा कर बेड पर उठ कर बैठ गई. जयंत जगा होता तो चिल्लाता-” कितनी बार बोला, करवट लेकर उठा करो, रीढ़ की हड्डी करकरा जाएगी एक दिन…!”

वह फिर दुबारा लेट गई और फिर दाएं करवट लेकर उठी. कहीं कुछ नहीं था. दीवारों पर वाल पेपर वैसे ही चमक रहा था. टेबल कुर्सी , ड्रेसिंग टेबल पर यथावत. कोई भूचाल भी नहीं. अक्टूबर के महीने में पंखें की हवा बहुत मीठी लगती है. लेकिन मुझे पसीना आ गया.

भय की लहर उठी और पूरे शरीर में फैल गई. मैं आत्मा-वात्मा में बिल्कुल यकीन नहीं करती. भूत प्रेत मानने का तो सवाल ही नहीं. चमत्कारों में यकीन नहीं. कभी आँखों से देखा होता तो यकीन होता न. समूचा जीवन तो होस्टल में कटा और शेष जीवन नौकरी करते महानगर में कट रहा.

कहाँ से आई थीं आवाज़ें ? बोल एकदम स्पष्ट थे।

किसी पुरुष की आवाज थी, थोड़ी भारी और हकलाई हुई. अटक अटक कर आ रही थी. मन किया जयंत को जगा कर बताऊं. फिर इरादा बदल दिया. वह नींद में बौखला जाता और मुझे वहमी करार देकर सो जाता इस चेतावनी के साथ कि “दुबारा जगाना मत, बहुत थका हुआ आता हूँ, दिन भर कंप्यूटर पर आँखें फोड़ता रहता हूँ, रात को चैन से सो लेने दिया करो यार…तुम्हारी तरह नहीं हूँ, आराम की ज़िंदगी…जब मन हुआ दो चार कविताएँ लिख लीं, कहानियाँ लिख लीं या फिर किटी पार्टी में नाच आए”

“तुम लिखने को कम मेहनत का काम समझते हो क्या ?”

मैं आँखें फाड़ कर उसका चेहरा देखती। क्या बक रहा है ये आदमी? अपने बचे हुए समय में लेखन या किटी कर लेती हूँ तो क्या बुरा है? मसालों की गंध से ऊब कर कीबोर्ड की खटपट में ऊँगलियाँ थिरकती हैं आजकल, और ये हैं कि मेरे गंभीर सुख को हल्के से लेते हैं।

“और क्या…! बौद्धिक विलास का भी अपना सुख है डार्लिंग , मज़े करो…यहाँ टारगेट सिर पर सवार, न करो तो डंडा खाओ बॉस का…!”

जयंत का चेहरा दयनीय हो उठता। मुझे बौद्धिक विलास शब्द से चिढ होती और जब तक मैं शाब्दिक प्रहार करती तब तक उसका चेहरा दयनीय हो उठता और मैं अपने हमले रोक लेती।

अभी आधी रात को जगाऊँ तो शेर की तरह दहाड़ने न लगे। फिर माथा घूम गया। क्या करुं। मोबाइल के स्क्रीन पर अंधेरा पसरा तो कमरा फिर अंधेरे में डूब गया । बस सामने दो आँखों की तरह पीली लाल बत्ती जलती दिखाई दे रही थी । रोशनी की दो आँखें, अलग अलग रंगों वाली। साथ साथ लेकिन अलग अलग रंग। उन्हें घूरती हुई चुपचाप फिर लेट गई। मुझे याद आया, पिछले दिनों चित्रकार सीरज सक्सेना की चंद लाइनें पढ रही थी – ऐसे ही दो रंगी आँखों के बारे में कुछ कहा था.

मैं लेटे लेटे उन पंक्तियों को याद करने की कोशिश करने लगी- माथे पे रख कर। नींद गायब हो चुकी थी.

” वे दो पाट हैं, काला और सफेद. इन्हीं के बीच रंगों की नदी बहती है। उनके बीच कोई भी रंग डाल दो, बदल जाएंगे. रंगों की माया है ही नहीं, मैं यह कह रहा हूँ। मेरी एक आँख श्वेत है, दूसरी श्याम। इसमें कोई भी रंग डाल दो, मैं एक चित्र बना कर निकलूँगा। मेरी दोनों आँखें दो पाट हैं…”

अचानक मुझे दो अलग अलग रंगों वाला रास्ता दिखा। दोनों आंखें अलग अलग रास्ता देख रही थीं।

एक तरफ हरे पहाड़, दूसरी तरफ रुखा-सूखा पहाड़। मैंने ऊंगली उठाते हुए पूछा था- “कौन-सा पहाड़ चाहिए तुम्हें? किस ओर जीना है…एक तरफ लाल है, दूसरी तरफ पीला। बीच में काला…काले का कोई भविष्य नहीं, सिर्फ अतीत है, अंधियारा अतीत। तुम्हें पीले रंगों की जरुरत है, घाटी में रहोगे तो सिर्फ लाल रंग ही मिलेंगे…तुम जी न पाओगे, चलो…मेरे संग।“

उस रात हम दोनों चुपचाप सोए। मिट्टी के बने उस घर में जहां खनाबदोश रातें और दिन हुआ करती हैं। जो घर मीठे चश्मे के शोर और पानी से भरा रहता है। मिट्टी की मजबूत छतें सब्जियां उगा रही होती थीं, उनमें जीवन रात दिन धड़कता था, मैं उनकी सांसे बिस्तर पर लेटे लेटे सुन सकती थी।

उस रात जब वह बेखबर सो गया, मैंने जागते हुए एचडी फार्मेट में फाइव डी  सपने देखे…कोई और ऐसे फार्मेट में सपने देखता है या नहीं, मुझे नहीं मालूम, मैंने देखे हैं। सारे दृश्य बेहद स्पष्ट । पास-पास, अपने ओरिजिनल रंगो के साथ। जगंल को छू सकती थी मैं, जंगली बारिश में भींग रही थी मैं। बस इसी जंगली हवा की चाहत थी। सारी आवाजें मुझे भेद कर आरपार हो रही थीं। झाड़ियां मुझे चुभ रही थीं। मैं चट्टानों की शीतलता महसूस कर सकती थी। इन्हीं चट्टानों पर सुस्ताना था कुछ देर के लिए। मेरे हौसलो के लिए ऊर्जा यहीं से निकलती है। सामने तीखे मोड़ दीख रहे हैं…मुझे वहां ठिठकना है…

दूर पहाड़ियां नजर आ रही है वृक्षों से लदी हुई। इन हरे वृक्षों से जैसे प्यार करती हुई पहाड़ियां, जो उसके लिए हवा और पानी का इंतजाम करती है। उसकी पथरीली, बलिष्ठ देह में माटी जमा कर उर्वर बनाती हुई हरियाली…

पहली बार ही उसे देखते मेरे मुंह से निकला था- “तुम्हारी बांहे हैं या पत्तों से लदी हुई सघन डालियां…तुम इस निर्जन में अकेले क्या कर रहे हो वनदेव…चलो न…हमारे साथ…”

वह मुकाराया तो लगा पीछे गिरता हुआ चश्मे का पानी थोड़ा और मीठा हो गया। इस स्वाद का जिक्र मेरे फसानों में हमेशा रहेगा। मैंने उम्मीद से उसकी तरफ देखा-हैरान करने वाला दृश्य।

एक चेहरा शिखरों पर अटका है…उसके हाथ आकाश में हिल रहे हैं…”ना ना ” की मुद्रा में..जैसे मना कर रहा हो…क्यों मनाही है..क्या है ऐसा नत्था टॉप की इन पहाड़ियों पर, सब जा चुके मैदानों में…ये क्यों वेताल की तरह लटक गया है यहां…

मैं गुस्से में हूं…आंखें लाल, कभी रुआंसी..कभी भभक रही हूं…”मैं तुम्हें ले जाऊंगी…चाहे जो हो जाए..तुम भी नहीं रोक सकते मुझे..जो होगा, देखा जाएगा..सामना करेंगे..”

एक डाली मेरी तरफ लपकी…बचने के लिए मैं भागी, किसी ठोस वस्तु से टकराई और लड़खड़ा गई। पूरी देह हिली और मेरा फाइव-डी सपना टूट गया।

सुबह हो चुकी थी। मैं सबकुछ जागी हुई छू सकती थी। यह हकीकत की छुअन थी। उसे भी और खुद को भी। वो मेरे सिरहाने ही बैठा था, मुझे अपनी बलिष्ठ भुजाओ से घेरे हुए। कच्चे दूध की खुशबू आ रही थी, उसकी हथेलियों से।

“भैंस दूह कर आ रहा हूं…कच्चा दूध पीओगी…”

“यासिर…” मैं बुदबुदाई.

“मेरे साथ चलो न…छोड़ो ये सब…कुछ दिनों में बर्फ गिरेगी यहां..सब नीचे चले गए। तुम अकेले क्या करोगे यहां…मेरा भी रिसर्च वर्क पूरा हो गया, अब बस सिलसिलेवार लिखना है और जमा कर देना है…”

मेरी आवाज की खानाबदोशी को कोई खानाबदोश ही भांप सकता था। मेरे माथे पर उसने अपनी ठंडी ठुड्डी रख दी। कुछ उसकी गरमाई, कुछ कमरे में हौले हौले रात भर सुलगने वाली अंगीठी की गरमाई, मेरी आंखें फिर से बंद करने के लिए काफी थीं।

इससे पहले कि मैं फिर सपनों में घुसती, उसने जो कहा, मैंने बाहर की तरफ देखा..दरवाजा खुला था…बाहर फुहिया पड़ने लगी थीं…

“बर्फ गिरने का अंदेशा है…जिद छोड़ो, चलो, चलता हूं…तुम न मानोगी…”

इतना सुनते ही मेरे लिए सारे रंग बदल गए थे। ये जिद भी न, उम्मीद के दम पर ही टिकी रहती है। दोनों का अबूझ रिश्ता है। जिद न हो तो उम्मीदें कहां। उम्मीदें न हो तो जिद का क्या मतलब…

उम्मीद की ताकत है जिद। जैसे तने की ताकत उसकी जड़े होती हैं। स्त्री की ताकत उसका आत्मविश्वास, जैसे नदी की ताकत उसका पानी, जैसे सांस की ताकत हवा।

वो महीने भर की जिद थी जो उम्मीदें पूरी कर रही थीं। मेरी आंखों में सीरज के रंग उमड़ने लगे, मुझे यकीन हो आया कि जरुर सीरज भी इसी तरह अनुभव के बाद चित्र बना कर ही निकला होगा। मैं भी जीवन-चित्र बना कर निकल रही थी। जीवित कैनवस लेकर शहर लौट रही थी। मुझे लगा कि मैं समूचा पहाड़ अपने साथ उठा कर ले जा रही हूं। सदियों से जमीन में धंसा, अपनी देह पर ग्लेशियर, जंगल, झरना, नदियां को झेलता सामधिस्थ पहाड़, मेरे साथ चल रहा था। “दी रॉक” फिल्म के शीन कॉनरी के पांव याद आए। फिल्म के पहले ही सीन में जंजीरों से जकड़े दो भारी पांव…कैद के अभ्यस्त पांव, जैसे ठिठक कर चल रहे थे, वैसे ही यासिर के खानाबदोश पांव मेरे साथ डर भर रहे थे। मैं उसे लाल रंगों से दूर ले जाना चाहती थी। आतंक के साये से दूर, जहां वह गोलियों की तड़तड़ाहट और गोले बारुद के खतरों से दूर रहेगा। मुखबिरी करने के लिए जहां बाध्य न किया जा सकेगा। वह खुल कर जी सकेगा। उसके हिस्से में भी प्रेम आएगा। टुकड़ो में ही सही, बंटा हुआ ही सही, खतरे से बाहर तो रहेगा।

“मुझे मत ले जाओ…मैं मैदानों में बीमार पड़ जाता हूं, मैं पक्का बकरवाल हूं, इसीलिए कभी जम्मू के तराई इलाके में भी नहीं बसा। काफिले को भेज कर खुद यही रुक जाता हूं…उनके वापस आने तक। ढोर ढंगर सब चले जाते हैं, मैं यहीं रुक जाता हूं, पहाड़ कभी हिलते नहीं…पहाड़ के पांव नहीं होते…”

वह हंस पड़ता। कच्चे दूध-से दांत बिजली की तरह चमकने लगते।

“कैसे काटते हो, बर्फीले दिन और रातें…सिर्फ दो ही रंग होते होंगे जीवन में, मैं तुम्हें सतरंगी दुनिया में ले जा रही हूं…पहाड़-सा जीवन कितना आरामदायक हो जाएगा। पूरे विश्व से जुड़ जाओगे…तकनीक का चमत्कार देखोगे…”

“आप रहोगी हमारे साथ…ऐसे, जैसे महीने भर रही हमारे साथ…?”

उसकी सुरमई अंखियों में सवालों के निर्जन द्वीप तैरते देखे। कुछ भी तो नहीं जानता मेरे बारे में, जयंत के बारे में, मेरी मुश्किल दुनिया के बारे में , फिर मैं क्यों जिद ठाने लिए जा रही, किस उम्मीद पर इसकी दुनिया बसाऊंगी…

सवाल मेरे जिस्म में कुलबुलाए। जैसे बरसात पानी में कीड़े कुलबुलाते हैं, सफेद, काले…असंख्य छोटे छोटे…

“चलो तो सही…कोई उपाय करेंगे…जहां चाह हो, वहां राहें निकल आती हैं…”

मैंने गाड़ी में बैठते हुए उसकी बांहे गह ली थीं। संशय उसकी रगो में बह रहा था, लहू के साथ, उसकी देह से मुझे ऐसी झनक सुनाई दे रही थी।

मुझे जम्मू में कुछ दिन उसके साथ गुजारना था फिर आगे प्रस्थान करना था। मैं उसके साथ कठुआ समेत उन मैदानी इलाको में जाना चाहती थी, जहां खानाबदोशों ने अस्थायी डेरा बना रखा है। पहाड़ों पर बर्फ पिघलते ही फिर वे मैदानों से पहाड़ों की तरफ कूच कर जाएंगे। सब चले गए थे सितंबर में ही, दिसंबर तक यासिर वहीं जमा हुआ था। वह कभी नहीं जाता तराई में। मिट्टी के घर में अपने लिए पर्याप्त आग बचा कर रखता है और पानी भी। मैं उसे इन सबसे दूर, अपने साथ लिए चली जा रही थी। पहाड़ों पर बर्फ गिरनेवाली थी कि मैं वहां पहुंच गई थी।

“एक खानाबदोश स्त्री, खानाबदोश पुरुष से जा मिली थी…”

यासिर ठहाके लगा लगा कर कहता और मैं एक पल के लिए झरना बन जाती।

फाइव डी सपने हमें गीला कर देते हैं, गर सपने पानी पानी हों। रात भर अजनबी फुसफुसाहटों ने ठीक से सोने न दिया था। रावी नदी के तट पर बने रिजार्ट में टिकने के लिए जयंत भी आ गया था। यासिर बगल वाले कमरे में था। हम कुछ दिन और रुक गए थे। जयंत के आने के बाद यासिर बुझ बुझ सा गया था। अपने भीतर गुम हो। हम दिन भर घूमते, यंत्रवत वो घुमाता और रात को अपने अपने कमरे में निशब्द। सुबह भींगी हुई मैं जगी थी। जयंत सोया पड़ा था। बाहर निकली तो यासिर खड़ा था। साथ में सामान। उसने मुझे दूर हाइवे से गुजरते हुए बकरवालो का काफिला दिखाया।

आंखों से सवाल उबल रहे थे- वो फट पड़ा..

“मैं यहां क्या कर रहा हूं…मेरी दुनिया तो गतिमान है, चलती रहती है, ऊपर नीचे, नीचे ऊपर…पहाड़ो पर, झरने के साथ बहता हूं, नदी के साथ सोता जागता हूं…बर्फ से लिपटता हूं…उसे आग देता हूं..आग लेता हूं…”

“मैं आपकी दुनिया का बाशिंदा नहीं बन सकता…मुझे जाना होगा…आप चाहे तो मेरे साथ चल सकती हैं…खाने भर को बहुत सब्जियां उगा लेता हूं, दूध , पनीर बहुत सप्लाई करता हूं, सबसे शुद्ध हवा और पानी पिलाऊंगा…”

“मोबाइल का सिगनल आता है, बड़े बड़े टावर लगे हैं, टी वी खरीद लेंगे…”

उसका गोरा चेहरा दहक रहा था। मैंने जैसे ही अपने कमरे की तरफ चेहरा घुमाया, आंखों में लाचारी भर कर आंखें यासिर की तरफ लौटाना चाही कि सामने कोई नहीं था। रावी नदीं का बहाव और तेज हो गया था।

कोई मर्दानी पुकार बच गई थी जो मेरे भीतर चीख बन कर बाहर उछली और हवाओं में घुल गईं। कैसे कहूं कि अब मेरे पास सिर्फ दो रंग है जिनसे मैं चितेरे की तरह चित्र बनाकर नहीं लौट सकती।

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प्रियंका ओम की कहानी ‘अजीब आदमी’

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युवा लेखिकाओं में प्रियंका ओम के नाम से सब परिचित हैं और उनके उपन्यासों से भी. यह एक छोटी-सी कहानी है. कहानी क्या एक कैफियत है. लेकिन पठनीय है- मॉडरेटर

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मेरे हाथ में उधड़े कवर और दीमक खाये पन्नों वाली एक किताब है, उसके बीच दबी है बदरंग हो चुकी तुम्हारी एक तस्वीर ! तुमने पीले रंग की बैगी शर्ट और काले रंग की पैंट पहनी है, आँखों पर धूप का चश्मा और माथे पर तरतीबी से सँवरे हुए बाल ! तस्वीर कुछ बीस बाइस साल पुरानी है !

मैं चाहती थी किसी ऐतिहासिक इमारत की तरह अडिग रहो लेकिन तुम हवा के मानिंद थे, ठहरते ही नही थे अब यह तस्वीर तुम्हारी यादों का अवशेष मात्र है, हाँ मैं अवशेष ही कहूँगी; यादों के असबाब से बचा एकमात्र अवशेष !

आज अलमारी साफ करते हुए यह किताब मिली, पता नहीं क्या सोचकर मैंने तुम्हारी तस्वीर इसके बीच रख दी थी ।
मैंने ऐसा क्यूँ किया होगा ? ठीक से याद नहीं !  चीज़ें रखकर भूल जाने की आदत रही है मुझे, तुम्हारी तस्वीर रख देने के बाद मैं तुम्हें भूल गई थी ! सच पूछो तो मैं तुम्हें भूल जाना चाहती भी थी, याद रखने का कोई पुख़्ता बहाना नहीं था लेकिन तुम अहैतुक ही याद आते रहे !

शुरू शुरू  में तुम्हारी यादें कलफ़ लगी हुई होती थीं, लेकिन अब इस तस्वीर की तरह तुम्हारी यादें भी पुरानी हो चुकी हैं, बुद्धिजीवियों का मानना है यादें कभी पुरानी नहीं होती, लेकिन मेरा अपना मत है मुझे लगता है जैसे किसी कपड़े को बार-बार पहनने वो पुराना हो जाता है उसी तरह बार-बार याद करने से यादें भी पुरानी हो जाती हैं ! तुम्हारी पुरानी हो चुकी यादों में अब इतनी भी जुंबिश नहीं बची कि उन्हें याद करने के लिये कोई स्याह एकांत कोना तलाशूँ या वे स्वयं ही भीड़ में चिहुँक कर आ जायें ! उनके बेवक़्त की आवाजाही कम होते-होते लगभग बंद हो चुकी थी !

पहले तुम्हारी यादें नहीं आती थी, तुम आते थे और तुम्हारे आने का कोई माक़ूल वक़्त भी नहीं होता था, असल में कुछ तयशुदा नहीं होता था तय होती थी सिर्फ़ तुम्हारी मसरूफ़ियत और बेभाव की बातें के ज़रूरी हो जैसे कोई काम ! लेकिन जिस दिन तुम आते थे उस दिन मेरे भीतर ख़ुशबूएँ महक जाती थीं, रंग बरस जाता था ! मैं फूलों का बाग़ीचा हो जाती थी मेरी आँख फड़कने लगती थी !

सच कहूँ तो उन दिनों मेरे पास तुम्हारी राह तकने के अलावा और कोई काम नहीं होता था और वो इंतज़ार के पल सिर्फ़ ये सोचने में गुज़र जाते थे कि इस दफ़ा तुमसे ये कहूँगी तुमसे वो कहूँगी और कहूँगी के “जब तुम नहीं होते हो, तब भी तुम होते हो” लेकिन तुम्हारे आते ही बातें चुप हो जाती थीं और पसर जाती थी एक चुप्पी बीच बीच में नपे तुले शब्द और हूँ हाँ ! वो चुप्पी ना तो मुखर होती थी ना ही चुप, असल में बेतरह बेसलीका होती थी वे चुप्पियाँ !

चुप्पियों के अतिरिक्त तुम्हारे मेरे बीच ऐसी और भी बहुत सी बातें होती थी जो अक्सर बातें नही होती थी जैसे तुम्हारा अचानक ही पूछ लेना ‘आज कौन सी तारीख़ है’ और मेरा ‘आज कौन सा दिन है’ पूछना; ख़ामोशियों को मुल्तवी करने की गरज से दिन और तारीख़ पूछने के अलावा बाक़ी सभी बातों के लिये हमारी बातें  बेशऊर थीं !

हाँ तुम्हारी आँखों की वर्णमाला इतनी तिलिस्मी होती थी कि कई बार मैं उसमें इस तरह उलझ कर रह जाती कि फिर अगली मुलाक़ात तक उसकी गिरहें सुलझाती रहती ! कभी-कभी तुम मुस्कुराते भी थे जिन्हें तह कर मैं अपने होंठों के गिर्द रख लेती थी और तुमने कहा  “वो लड़की हँसती है तो रजनीगंधा महकते हैं” और मैं आधी उजली आधी नारंगी हो शेफाली की तरह बिखर गई थी !

बिस्तर के हवाले से पहले तुमसे मुलाक़ात वाली तारीख़ दीवार पर टँगी कैलेंडर पर लाल घेरे में क़ैद हो जाती थी और डायरी का पन्ना गुलमोहर हो जाता था ! कितना कुछ लिख जाती थी मैं, उन स्पर्श की अनुभूतियों का वितान जो महसूस नहीं किया गया, मन पर स्थापित वह हिमखंड जो तरल नहीं हुआ, वे दूरियाँ जिन्हें लांघा नहीं गया और वह प्रेम जो स्वीकारा नहीं गया !

और फिर एक दिन अबोले ही चले गये बिना किसी पदचाप के और छोड़ गये उदासियों का बिम्ब जैसे गुलदस्ते में सूखते सफ़ेद गुलाब या दीवार पर आठ बीस बजाती बंद घड़ी !

फिर उस अवसन्न शाम को तुम बहुत दिनों बाद आये थे,
तुम्हारी आँखों पर ऐनक था और बालों में सफ़ेदी !
किंकर्तव्यविमूढ़ सी मैं तुम्हें तकती रही !
तुमने पूछा कैसी हो ?
जैसा छोड़ गये थे ।
हाँ लेकिन तब आँखों के नीचे काले घेरे नहीं थे !
और तुम्हारे बालों में सफ़ेद तार नंही थे !
चलो इसी बहाने हम उम्रदराज़ हुए !
हाँ लेकिन कुछ उम्रें ठहर जाती हैं और हम आगे निकल जाते हैं, मैंने व्यंग में कहा था !
बाज़ दफ़ा ठहरी हुई उम्रें आवाज़ देकर बुला लेती हैं, तुमने अपनी शर्ट के कोने से चश्मा साफ़ करते हुए कहा !
मैंने कौतुक से तुम्हें देखा, चश्मे के अंदर से झाँकती तुम्हारी आँखें मुस्कुरा रही थीं !

कल रात उसी तरह मुस्कुराते हुए तुमने कहा अगर यह दुनिया त्रिकोण होती तो किसी ना किसी कोन पर मैं तुमसे आकर मिल जाता किंतु विडम्बना यह है कि ये दुनिया गोल है इसलिये हर बार पुनः अपने पास लौट आता हूँ !

मैं फिर से तुम्हारी तस्वीर उसी किताब के बीच रख देती हूँ !
अगर आप जानना चाहते हैं तो आपकी ख़ातिर बताये देती हूँ किताब इस्मत चुगतई की “अजीब आदमी” है !

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सोनम कपूर ने किया बुक लांच

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21 अक्टूबर को फिल्म अभिनेत्री सोनम कपूर ने रईशा लालवानी के पहले उपन्यास ‘द डायरी ऑन द फिफ्थ फ्लोर’ का लोकार्पण किया. उपन्यास एक लड़की की आत्मकथात्मक यात्रा है जिसमें एक दिन अचानक एक मोड़ आ जाता है. दिल्ली के ताज पैलेस में हुए लोकर्पण समारोह में केन्द्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो, जेनरल वीके सिंह, अभिनेता मनजोत सिंह के साथ अनेक गणमान्य लोग मौजूद थे. दिल्ली विश्वविद्यालय की पूर्व छात्रा रईशा लालवानी के इस उपन्यास पर हुई चर्चा में हरिहरन, अश्विन संघी, कवयित्री स्मिता पारिख, युवा लेखक पंकज दुबे, रूपा पब्लिकेशन के कपीश मेहरा ने इस उपन्यास की तारीफ की और चर्चा के दौरान यह बात उभर कर आई कि इसकी कहानी आज कहीं न कहीं हर व्यक्ति से जुडती है. एक ऐसा समाज बनता जा रहा है जिसमें सब कुछ के बावजूद हम अकेले होते जा रहे हैं. जिन बातों को हम ऐसे अभिव्यक्त नहीं कर पाते लिखकर करते हैं.

‘द डायरी ऑन द फिफ्थ फ्लोर’ की युवा लेखिका रईशा लालवानी मुंबई, जयपुर, दिल्ली, दुबई में रह चुकी हैं और उनके लिए जिंदगी एक लम्बा सफ़र रहा है. उनका मानना है कि कुछ लोग पैसों के लिए लिखते हैं, कुछ लोगों के लिए लिखना उनका शौक होता है, वह उस शांति के लिए लिखती हैं जो लिखने से उनको हासिल होती है.

25 वर्षीय लेखिका रईशा लालवानी के उपन्यास ‘द डायरी ऑन द फिफ्थ फ्लोर’ की कथा वाचिका जब अस्पताल के पांचवें माले पर भर्ती होती है तो उसके हाथ में एक मोटी डायरी होती है, कपडे के गत्ते वाली. उस डायरी में ऐसी कहानियां नहीं हैं जो एक लड़की के जीवन के घटनाक्रमों से बनी हुई हैं बल्कि उनमें जीवन के कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब हम आज बड़ी शिद्दत से तलाश कर रहे हैं- हम अपने-अपने जीवन में कितने भावनाहीन होते जा रहे हैं, कई बार हमें कोई ऐसा नहीं मिलता जिसके सामने हम अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त कर सकें, हमारे आस-पड़ोस, अपने-परायों के जीवन में रोज-रोज यह सब घटित होता है. हम उनके बारे में सुनते हैं, थोड़ी बहुत सहानुभूति जताते हैं और भूल जाते हैं. अस्पताल के पांचवें माले पर भर्ती उस लड़की की डायरी में सब कहानियां दर्ज हैं. उसको डर है कि अगर उसने डॉक्टर को अपनी डायरी दे दी तो शायद वह उसको इस तरह की बातें सोचने के लिए, उनको लिखने के लिए पगली समझ ले. उपन्यास में डायरी के किरदार खुलते चले जाते हैं, उनकी कहानियां पसरती चली जाती हैं. लेकिन एक सवाल अहम है जो बार-बार लौट कर आता है- हम जो हो चुके हैं क्या हम उससे खुश हैं? क्या हम जिंदगी में यही हासिल करना चाहते थे?

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कश्मीरनामा : इतिहास और समकाल के दूसरे संस्करण का लोकार्पण

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अशोक कुमार पाण्डेय की पुस्तक ‘कश्मीरनामा’ ने यह बता दिया है कि अच्छी शोधपूर्ण पुस्तकों के न पाठक कम हुए हैं न बाजार. राजपाल एंड संज से प्रकाशित 650 रुपये की इस पुस्तक के दूसरे संस्करण के लांच के मौके पर 25 अक्टूबर को इण्डिया इंटरनेशनल सेंटर में अच्छी परिचर्चा का आयोजन हुआ. उस आयोजन की रपट लिखी है अक्षत सेठ ने. आज ‘कश्मीरनामा’ पर पुरानी दिल्ली के ‘वाल्ड सिटी’ में इस पुस्तक पर मैं लेखक अशोक कुमार पाण्डेय से बातचीत करूँगा. पहले यह रपट पढ़िए और मौका मिले तो दोपहर चार बजे पुरानी दिल्ली के ‘वाल्ड सिटी’ आइये- प्रभात रंजन

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राजपाल एंड संज, दिल्ली से प्रकाशित युवा कवि और विचारक अशोक कुमार पाण्डेय की बहुचर्चित पुस्तक “कश्मीरनामा : इतिहास और समकाल” के दूसरे संस्करण के लोकार्पण पर  बोलते हुए जाने माने इतिहासकार प्रो लाल बहादुर वर्मा ने कहा कि “एक अच्छी रचना की सबसे बड़ी ख़ासियत होती है कि वह पहले अपने रचयिता को बदलती है और फिर अपने पाठक को। हिन्दी समाज मे कश्मीर को लेकर जिस तरह का अज्ञान पसरा हुआ है उसके मद्देनज़र अशोक कुमार पाण्डेय की कश्मीरनामा यह महती भूमिका निभा सकती है। कोई भी भाषा सिर्फ़ कविता-कहानी से प्रभावी भाषा नहीं बनती। आज अंग्रेज़ी अगर विश्वभाषा है तो सिर्फ़ इसलिए नहीं कि कई सदियों तक दुनिया का बड़ा भूभाग अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद का ग़ुलाम रहा, बल्कि इसलिए भी कि अंग्रेज़ी में साहित्य के साथ-साथ इतिहास, विज्ञान, दर्शन, तकनीक सहित ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में सर्वश्रेष्ठ रचनाएँ रची गईं। कश्मीरनामा का महत्त्व इस रूप मे भी है कि वह हिन्दी के वांगमय में अभिवृद्धि करती है। ‘कश्मीरनामा’ को उन्होने वस्तुगत और सेकुलर इतिहासलेखन का उदाहरण बताते हुए कहा कि कश्मीर की समस्या केवल राजनीतिक नहीं बल्कि भारत और कश्मीर के अस्तित्व से जुड़ी हुई है। इस किताब का विभिन्न भाषाओं मे अनुवाद होना चाहिए ताकि लोग कश्मीर के बहुरंगी इतिहास और उस ऐतिहासिक प्रक्रिया से परिचित हो सकें जिसने कश्मीर के मौजूदा हालात को जन्म दिया है।

आयोजन का आरम्भ करते हुए लब्ध प्रतिष्ठ इतिहासकार प्रो हरबंस मुखिया ने किताब की भूमिका में प्रो पुरुषोत्तम अग्रवाल द्वारा इसे “कश्मीर समस्या पर हिन्दी मे मुकम्मल किताब” कहे जाने को उद्धृत करते हुए कहा कि एक तरफ़ यह परिपूर्ण के अर्थ में मुकम्मल है तो दूसरी तरफ़ क़माल की किताब है। इतने लम्बे इतिहास को इतने विविध स्रोतों से समृद्ध करते हुए अशोक ने जिस रवां भाषा और क़िस्सागोई वाली शैली मे इसे लिखा है वह आपको बाँध कर रखती है। इतिहासलेखन की परम्पराओं का ज़िक्र करते हुए उन्होने कहा कि इस किताब में अशोक ने खुली शैली अपनाई है जिसमें मिथकों, लोक कथाओं, साहित्य सहित हर तरह के स्रोतों का उपयोग करते हुए कश्मीर के इतिहास की परतें खोली गई हैं। किताब के एक अध्याय के शीर्षक “ग़ुलामी की शुरुआत : मुग़लों का शासन” के हवाले से उन्होने बहुत विस्तार से उस प्रक्रिया का ज़िक्र किया जिसमें कश्मीर तीन सौ से भी अधिक सालों तक उपनिवेश जैसी स्थिति मे रहा और कहा कि आज भारत और पाकिस्तान दोनों को कश्मीरी भावनाओं का सम्मान करते हुए ऐसा हल निकालने की कोशिश करनी चाहिए जिससे कश्मीरी सर उठा कर जी सके।

वरिष्ठ पत्रकार और भारत पाक मामलों के जानकार विनोद शर्मा ने कश्मीरनामा को इतिहास की एक ऐसी पुस्तक बताया जिसमें पत्रकारिता जैसा रस है। उन्होने कहा कि इस किताब मे जो गहन शोध किया गया है वह इसे एक ज़रूरी किताब बनाता है। भारत, पाकिस्तान और कश्मीर के अपने अनुभव साझा करते हुए उन्होने कहा कि बाजपेयी जी के समय ऐसा लगा था कि यह समस्या बस सुलझने ही वाली है लेकिन उनके अपने ही लोगों ने यह संभव नहीं होने दिया।

कश्मीर पर भारत सरकार के वार्ताकार समूह के सदस्य रहे प्रो एम एम अंसारी ने नब्बे के दशक के आतंकवाद सहित अनेक समकालीन मुद्दों पर विस्तार से बात करते हुए कहा कि अशोक पाण्डेय अपने इस निष्कर्ष मे एकदम सही हैं कि कश्मीर में नियंत्रित लोकतन्त्र ने वहाँ के लोगों मे गुस्सा और अविश्वास दोनों भरा है। अपने कई रोमांचक अनुभव साझा करते हुए उन्होने कहा कि आज कश्मीर एक अंधी गली मे फँस गया है। हथियारों से इस समस्या का समाधान कभी नहीं हो सकता। ज़रूरी है कि लोगों से बातचीत की जाये और कश्मीर को भारत की मुख्यधारा से जोड़ने की कोशिश की जाये। लेकिन वर्तमान हालात मे हो इसका उल्टा रहा है। कश्मीर के भीतर तो सेना तथा सुरक्षा बल हैं ही जब कोई कश्मीरी भारत के किसी हिस्से मे पढ़ने जाता है तो उसके साथ भी दुर्व्यवहार किया जाता है। ऐसे में एक आम कश्मीरी के मन में शक और गुस्सा पैदा होना लाज़िम है। उन्होने कई उदाहरण देते हुए बताया कि सरकारों ने अनेक कमेटियाँ बनाईं लेकिन अक्सर उनकी सिफ़ारिशें आधी-अधूरी ही लागू हो सकीं। पुस्तक के प्रकाशक और लेखक को बधाई देते हुए उन्होने कहा कि बहुत दिनों बाद हिन्दी मे कोई ऐसी किताब मिली जिसे मैंने पूरा पढ़ा।

किताब के लेखक अशोक कुमार पाण्डेय ने अपनी रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए कहा कि कश्मीर के बारे मे भारतीय समाज में जो जानकारी है वह कम ही नहीं नकारात्मक भी है। मीडिया और व्हाट्सेप तथा दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर लगातार फैलाई जा रही अफ़वाहों के मद्देनज़र ज़रूरी है कि हिन्दी मे कश्मीर पर लगातार गंभीर लेखन हो। कार्यक्रम का संचालन करते हुए राजपाल एंड संज की मीरा जौहरी ने प्रकाशन की लंबी परंपरा का ज़िक्र करते हुए मात्र नौ महीनों में कश्मीरनामा का दूसरा संस्करण संभव करने के लिए पाठकों का आभार व्यक्त किया।

आयोजन में प्रो पुरुषोत्तम अग्रवाल, उज्ज्वल भट्टाचार्य, लीलाधर मंडलोई, डॉ जया कक्कड़, विकास नारायण राय, अरुण होता, अरुण त्रिपाठी, मनोहर बाथम, सुमन केशरी सहित वरिष्ठ तथा युवा बड़ी संख्या में उपस्थित थे।

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मुसाफिर बैठा की कुछ कविताएँ

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मुसाफिर बैठा अपनी कविताओं में खरी-खरी कहने में यकीन रखते हैं. कभी विष्णु खरे ने उनको भारत का सर्वश्रेष्ठ दलित कवि था. उनके नए कविता संग्रह ‘विभीषण का दुःख’ से कुछ कविताएँ पढ़िए- मॉडरेटर
1.
सुख का दुःख
वह एक अदद दुःख को
चाहता था चूमना
इधर सुख की बारंबारता थी सघन इतनी
उसके जीवन में
कि एक दुखी इंसान की तरह परेशान था वह
सुख के बार-बार आ गले लगने से
 
2.
डर, देह और दिमाग
डरना
पहले दिमाग में आता है
फिर देह में
 
3.
काया
निडर की काया
कंचन की होती है
डरे की कांच
 
कंचन और कांच
दोनों पिघलते हैं
एक आकार पाने को
पाने को एक रूप!
 
4.
सच की मिर्ची
तय है कि राम कृष्ण झूठ है
अल्लाह ईश्वर झूठ है
सारे देवतावादी वितान झूठे फैले हैं
मगर
झूठ को झूठ कह तो
उन्हें सच की मिर्ची लगती है
 
5
जातमुखी मुकरी
 
वे मन मैले
शुद्धि पवित्रता के सिद्ध व्यापारी
अशुद्ध व्यवहार में पगे खिलाड़ी
भारी बसे उनमें
कथनी करनी का अंतर
राखे संग अपने कपट निरंतर टनटनाटन
 
क्या सखि बनिया, ना सखि पवित्तर बामन
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प्रकाशन: द मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन 
मूल्य- 130 रुपये 
 

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मैं अब कौवा नहीं, मेरा नाम अब कोयल है!

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युवा लेखिका अनुकृति उपाध्याय उन चंद समकालीन लेखकों में हैं जिनकी रचनाओं में पशु, पक्षी प्रकृति सहज भाव से उपस्थित रहते हैं. यह उनकी ताज़ा रचना है मौसम और परिस्थिति के अनुकूल- मॉडरेटर

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पतझड़ बनाम वसंत

मेरी खिड़की पर अक़्सर एक कौवा आ बैठता है। बड़बोला है, कर्कश भी। लेकिन मैं उसके लिए दाना पानी रख छोड़ती हूँ और जब वह आता है दस काम भूल कर उसकी झाँव झाँव सुनती हूँ। कारण ये है कि वो हवा, धूप और बारिश का हाल चाल सुना जाता है। कभी कभी उसका बताया हाल मेरी खिड़की में जड़े धरती-आकाश से मेल नहीं खाता। वह बता रहा होता है कि बाहर वर्षा की झड़ी है, जबकि मेरी खिड़की का निचाट आकाश धूप में जलजल कर रहा होता है। ऐसे में वह गर्दन टेढ़ी कर अपनी मनका आँख मुझ पर गड़ा देता है और कर्कश बोली को भरसक मद्धम कर षड्यंत्रकारी सुरों में कहता है – “सब कुछ जैसा दिखता है, वैसा होता नहीं। मेरी ख़बर सीधे ऊपर से है!” चूँकि उसके पंख हैं और मेरे पैर धरती से बँधे हैं, मैं उसकी बात पर अपनी आँखों से ज़्यादा भरोसा करती हूँ। आख़िर वह सीधे ऊपर से ख़बर जो लाता है।

कल वह आया और अपनी कड़ी, चमकीली चोंच पानी के कटोरे में डुबा कर एक साँस में सारा पानी पी गया। फिर बोला – “आज दाना नहीं खीर खिलाओ, खीर।”

मैं चौंकी। “खीर? किस बात की खीर?”

“बहुत बड़ी बात की। आज से पतझड ख़त्म! माने साल में पतझड का मौसम ही नहीं! अभी अभी ऊपर से हुक़्म आया है! है ना बड़ी बात!”

“लेकिन…लेकिन ये कैसे हो सकता है? पतझड तो… यानि ऋतु-चक्र में पतझड की जगह कौन सा मौसम लेगा?”

“तुम बताओ तुम्हें सब से ज़्यादा कौन सा मौसम पसंद है?”

“मुझे? मुझे तो वसंत सबसे ज़्यादा पसंद है।”

“बस तो पतझड की जगह वसंत ने ले ली है! बाहर कच्ची मीठी धूप में जवा और चम्पा खिल रहे हैं! और क्या हवा है, पराग से पीली! तुम कोई वसंत का गीत क्यों नहीं गातीं?”

मैंने खिड़की से बाहर देखा। आकाश सपाट था। रूखी-सूखी हवा के थपेड़ों से वृक्ष चोटिल थे।पीले, जर्जर पत्ते लगातार झर रहे थे।

कौवे ने मेरी दृष्टि पकड़ ली। उसकी गर्दन टेढ़ी हो गई। “तुम्हें कितनी बार बताया, जो दिखाई देता है…”

आँखों-दिखते पूरे के पूरे मौसम का नकारा जाना मुझे हज़म नहीं हो रहा था। मुझे पहली बार ख़याल आया कि जिस ऊपर की कौवा हमेशा दुहाई देता है, उसे मैंने कभी देखा नहीं है, न तो सुना ही है। उसके होने का आश्वासन मात्र इस कौवे की बातें हैं। ये कैसा ऊपर है जो एक समूचे मौसम को झुठला रहा है? अगर इतने साल ये कौवा झूठ बोलता रहा हो तो? “लेकिन, ज़रा सुनो तो, कौवे…” मैंने कहना शुरू किया।

“कौवा किसे कह रही हो? मैं अब कौवा नहीं, मेरा नाम अब कोयल है। ऊपर से हुक़्म आया है।”

ये तो हद थी। खिड़की के ठीक बाहर नारियल के पेड़ पर कोयल बैठा पर सँवार रहा था! “ये तुम क्या कह रहे हो? देखो, वहाँ, नारियल पेड़ की डाल पर कोयल…”

कोयल ने अपना मख़मली सर उठाया। “अगर तुम्हारा इशारा मेरी ओर है, मैं तुम्हें बता दूँ कि तुम सरासर ग़लत हो। मैं कोयल नहीं, मेरा नाम अब मोर है।” ग़ुस्से में उसका स्वर पंचम छू रहा था।

पेड़ के नीचे लम्बी, डंठल सी टाँगों पर टहलते मोर ने भारी पूँछ लहराई। “इससे पहले कि तुम कुछ कहो, ये जान लो कि मैं कबूतर हूँ।”

उसके बग़ल में अपने ख़ूबसूरत लाल पंजों पर फुदकता कबूतर लापरवाही से दाना चुग रहा था। “तो फिर ये कौन है?” मैंने पूछा।

“कहाँ? किसकी बात कर रही हो?” सब समवेत स्वर में बोले। “यहाँ तो हमारे अलावा कोई नहीं।”

कबूतर बदस्तूर दाना चुगने में मशग़ूल था। मैंने नारियल पेड़ की ओर देखा। ये पेड़ यहाँ वर्षों से है, कौवे और मुझ से, दोनों से पुराना। मुझे इस पेड़ की विज्ञता पर भरोसा है। “मेरी तरफ़ क्या देखती हो? मुझे तो तुमने अभी अभी ग़लत नाम से पुकारा है। मैं तो अशोक हूँ।”

“और मैं आम!” अशोक झूमा।

आम हँसा।”बहुत अच्छे! अब तुम आए दिन पत्थरों का मज़ा चखो! हर ऐरा ग़ैरा जब तुम्हारी डालियाँ पकड़ कर झकझोरेगा, तुम्हारे बौर और पत्ते और फल नोचेगा तब पता चलेगा!”

मेरा सर चकरा रहा था लेकिन ऐसे में भी मुझे आम की बेवक़ूफ़ी पर दया आई।”तुम किस तरह की बात कर रहे हो? अपनी फलों से लदी डालियाँ देखो और उसकी छूँछी शाखें।तुम्हें लगता है लोग तुम पर पत्थर नहीं फेंकेगे, तुम्हें नहीं नोचे-खसोटेंगे? या वो झाड़ी में छिपी अहेरी बिल्ली चुग्गा चुगते क़बूतर को झपट नहीं लेगी? नाम बदल देने से या नाम मिटा देने से गुण और रूप बदल जाएँगे?”

मेरी बात पर एक क्षण को सन्नाटा छा गया। फिर एक इतनी गहरी सामूहिक साँस उठी कि मेरी खिड़की के पट धड़ाके से बंद हो गए। मैंने उन्हें खोलने की कोशिश की लेकिन वे जैसे वज्रद्वार बन गए। बाहर कोयल बना कौवा कर्णकटु सुरों में कह रहा था – “यहाँ? यहाँ कोई खिड़की नहीं। इसका नाम आज से दीवार है। ऊपर से हुक़्म आया है…”

मैं जान गई कि अविश्वास करने में मैंने देर कर दी थी…

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सुनील गंगोपाध्याय की कविताएँ सुलोचना का अनुवाद

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बांगला भाषा के मूर्धन्य कवि-उपन्यासकार सुनील गंगोपाध्याय की पुण्यतिथि विगत 23 अक्टूबर को थी. उनको याद करते हुए उनकी कुछ कविताओं का मूल बांगला भाषा से अनुवाद किया है हिंदी की सुपरिचित कवयित्री सुलोचना ने- मॉडरेटर

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1. पहाड़ के शिखर पर
————————-
बहुत दिनों से ही मुझे एक पहाड़ खरीदने का शौक है |
लेकिन पहाड़ कौन बेचता है, यह मैं नहीं जानता |
यदि उससे मिल पाता,
कीमत के लिए नहीं अटकता मामला |
मेरे पास अपनी एक नदी है,
वही दे देता पहाड़ के बदले |

कौन नहीं जानता, पहाड़ की अपेक्षा नदी की ही कीमत होती है अधिक |
पहाड़ स्थिर रहता है, बहती रहती है नदी |
फिर भी मैं नदी के बदले पहाड़ ही खरीदता |
क्यूँकि मैं ठगा जाना चाहता हूँ |

नदी को भी हालाँकि खरीदा था एक द्वीप के बदले में |
बचपन में मेरा एक छोटा सा,
साफ़-सुथरा द्वीप था |
वहाँ थीं असंख्य तितलियाँ |
बचपन में द्वीप था मुझे बेहद प्रिय ।
मेरी युवावस्था में द्वीप मुझे
आकार में छोटा लगने लगा । प्रवाहमान सुव्यवस्थित तन्वी नदी मुझे खूब पसंद आई ।
दोस्तों ने कहा, इतने छोटे
एक द्वीप के बदले में इतनी बड़ी
एक नदी मिली?
क्या खूब जीता है माँ कसम !
तब मैं विह्वल हो जाता जीतने की खुशी में ।
तब मैं सचमुच ही नदी से प्यार करता था।
नदी मेरे कई सवालों का जवाब देती ।
जैसे , बताओ तो, आज
शाम को बारिश होगी या नहीं ?
वह कहती, आज यहाँ दक्षिणी गर्म हवा है।
केवल एक छोटे से द्वीप पर होगी बारिश,
किसी त्यौहार की तरह प्रबल बारिश !
मैं उस द्वीप पर अब नहीं जा सकता,
उसे मालूम था ! सभी को मालूम है।
फिर से नहीं लौटा जा सकता है बचपन में ।

अब मैं एक पहाड़ खरीदना चाहता हूँ।
उस पहाड़ के पाँव के पास
होगा गहन अरण्य, मैं पार कर लूँगा उस अरण्य को, उसके बाद केवल असहज
कठिन पहाड़ |
बिल्कुल शीर्ष पर, सिर के
बहुत पास आकाश, नीचे विपुला पृथ्वी,
चराचर में तीव्र निर्जनता |
कोई भी नहीं सुन सकेगा मेरा कंठ-स्वर वहाँ ।
मैं भगवान में विश्वास नहीं करता, वह मेरे सिर के पास सर झुकाकर खड़े नहीं होंगे ।
मैं केवल दसो दिशाओं को संबोधित कर कहूंगा,
हर मनुष्य ही अहंकारी है, यहाँ मैं हूँ अकेला-
यहाँ मुझे कोई अहंकार नहीं है।
यहाँ जीतने के बजाय, क्षमा माँगना अच्छा लगता है।
हे दसो दिशाओं, मैंने कोई दोष नहीं किया।
मुझे क्षमा कर दो |

2. जन्म नहीं होता, मृत्यु नहीं होती
——————————
मेरे प्रेम का कोई जन्म नहीं होता,
मृत्यु नहीं होती –
क्यूँकि मैं अन्य प्रकार के प्रेम के हीरे का गहना
शरीर में लेकर पैदा हुआ था।
नहीं रखा किसी ने मेरा नाम, तीन-चार छद्मनामों से
कर रहा हूँ भ्रमण मर्त्यधाम में,
आग को प्रकाश समझा, प्रकाश से
जलता है मेरा हाथ
यह सोचकर कि अंधकार में मनुष्य देखना होता है सहज भँवर में
अंधकार से लिपटा रहा
कोई मुझे देता है शिरोपा, कोई दोनों आँखों से हजार दुत्कार
फिर भी मेरे जन्म-कवच, प्रेम को प्रेम किया है मैंने
मुझे कोई डर नहीं लगता,
मेरे प्रेम का कोई जन्म नहीं होता,
मृत्यु नहीं होती |

3. उत्तराधिकार
——————-
नवीन किशोर, तुम्हें दिया मैंने भुवन तट का मेघों भरा आकाश
तुम्हें दी मैंने बटन विहीन फटी हुई कमीज़ और
फुफ्फुस भरी हँसी
दोपहर की धूप में घूमना पैयाँ-पैयाँ, रात के मैदान में सोना होकर चित
यह सब अब तुम्हारे ही हैं, अपने हाथों में भर लो मेरा असमय
मेरे दुःख-विहीन दुःख क्रोध सिहरन
नवीन किशोर, तुम्हें दिया मैंने मेरा जो कुछ भी था आभरण
जलते हुए सीने में कॉफ़ी की चुस्की, सिगरेट चोरी, खिड़की के पास
बालिका के प्रति बारम्बार गलती
पुरुष वाक्य, कविता के पास घुटने मोड कर बैठना, चाकू की झलक
अभिमान में मनुष्य या मनुष्य जैसे किसी और चीज के
सीने को चीर कर देखना
आत्म-हनन, शहर को अस्तव्यस्त करता तेज क़दमों से रौंदता अहंकार
एक नदी, दो-तीन देश, कुछ नारियाँ –
यह सब हैं मेरे पुराने पोशाक, बहुत प्रिय थे, अब शरीर में
तंग हो कसने लगे हैं, नहीं शोभते अब
तुम्हें दिया, नवीन किशोर, मन हो तो अंग लगाओ
या घृणा से फेंक दो दूर, जैसी मर्जी तुम्हारी
मुझे तुम्हें तुम्हारी उम्र का सब कुछ देने की बहुत इच्छा होती है |

4. व्यर्थ प्रेम
————-
हर व्यर्थ प्रेम देता है मुझे नया अहंकार
बतौर मनुष्य, मैं हो जाता हूँ तनिक लम्बा
दुःख मेरे सिर के बालों से पैर की उंगलियों तक
फैल जाता है
मैं सभी मनुष्यों से अलग होकर एक
अज्ञात रास्ते में सुस्त कदमों से
चलने लगता हूँ
सार्थक मनुष्यों के अधिकाधिक माँगों वाले चेहरे मुझे सहन नहीं होते
मैं रास्ते के कुत्ते को बिस्कुट खरीद कर देता हूँ
रिक्शेवाले को देता हूँ सिगरेट
अंधे आदमी की सफेद छड़ी मेरे पैरों के पास
आ गिरती है
मेरे दोनों हाथों में भरी है भरपूर दया, मुझे किसी ने
लौटा दिया है इसलिए पूरी दुनिया
लगती है बहुत अपनी
मैं निकलता हूँ घर से नयी धुली हुई
पतलून कमीज पहन कर
मेरे सद्य दाढ़ी बनाये हुए मुलायम चेहरे को
मैं खुद ही सहलाता हूँ
बहुत गोपन में
मैं एक साफ आदमी हूँ
मेरे सर्वांग में कहीं भी
नहीं है जरा सी भी गंदगी
ज्योतिर्वलय बन रहती है अहंकार की प्रतिभा
माथे के पीछे
और कोई देखे या न देखे
मुझे भान हो ही जाता है
ले आता है अभिमान मेरे होठों पर स्मित हास्य
मैं ऐसे रखता हूँ पाँव मिट्टी के सीने पर भी
कि नहीं पहुँचे आघात
मुझे तो किसी को भी दुःख नहीं देना है |

5. इच्छा
———–
काँच की चूड़ी को तोड़ने के समान रह-रहकर इच्छा होती है
कि तोड़ डालूँ दो चार नियम क़ानून
पाँव के नीचे पटक कर फेंकूँ माथे का मुकुट
जिनके पाँव के नीचे हूँ, उनके सर पर चढ़ बैठूँ
काँच की चूड़ी को तोड़ने के समान ही इच्छा होती है अवहेलना में
कि धर्मतला में भरी दुपहरी बीच रास्ते पर करूँ सुसु |
इच्छा होती है दोपहर की धूप में ब्लैक आउट का हुक्म देने की
इच्छा होती है कि करूँ झाँसा देकर व्याख्या जनसेवा की
इच्छा होती है कि मलूँ कालिख धोखेबाज नेताओं के चेहरों पर
इच्छा होती है कि दफ्तर जाने के नाम पर जाऊँ बेलूर मठ
इच्छा होती है कि करूँ नीलाम धर्माधर्म मुर्गीहाटा में
बलून खरीदूँ बलून फोडूँ, काँच की चूड़ी दिखते ही तोडूँ
इच्छा होती है कि अब पृथ्वी को तहसनहस करूँ
स्मारक के पाँव के पास खड़े होकर कहूँ
मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता है |

*धर्मतला, मुर्गीहाटा,बेलूर मठ =कोलकाता के विभिन्न स्थान

6. वो सारे स्वप्न
—————-
कारागार के अंदर उतर आयी थी ज्योत्स्ना
बाहर थी हवा, विषम हवा
उस हवा में थी नश्वरता की गंध
फिर भी फाँसी से पहले दिनेश गुप्ता ने लिखी थी चिट्ठी अपनी भाबी को,
“मैं अमर हूँ, मुझे मार पाना किसी के बूते की बात नहीं |”

मध्यरात्रि में अब और देर नहीं है
घंटा बजता है प्रहर का, संतरी भी क्लांत होते हैं
सिरहाने आकर मृत्यु भी विमर्श बोध करती है |
कंडेम्ड सेल में बैठ लिख रहे हैं प्रद्युत भट्टाचार्य,
“माँ, तुम्हारा प्रद्युत क्या कभी मर सकता है ?
आज चारोंओर देखो,
लाखों प्रद्युत तुम्हें देख मुस्कुरा रहे हैं,
मैं जिंदा ही रहा माँ, अक्षय”

कोई नहीं जानता था कि वह था कहाँ,
घर से निकला था लड़का, फिर वापस नहीं आया
पता चला कि देश से प्यार करने के लिए मिला उसे मृत्युदंड
अंतिम क्षण से पहले भवानी भट्टाचार्य ने
पोस्ट कार्ड पर बहुत तेज़ गति से लिखा था अपने छोटे भाई को,
“अमावस्या के श्मसान में डरते हैं डरपोक,
साधक वहाँ सिद्धि लाभ करते हैं,
आज मैं बहुत ज्यादा नहीं लिखूँगा
सिर्फ सोचूँगा कि मौत कितनी सुंदर है। ”

लोहे की छड़ पर रख हाथ,
वह देख रहे हैं अंधकार की ओर
दीवार को भेद जाती है दृष्टि, अंधेरा भी हो उठता है वाङ्‌मय
सूर्य सेन ने भेजी अपनी आखिरी वाणी,
“मैं तुम लोगों के लिए क्या छोड़ गया ?
सिर्फ एक ही चीज,
मेरा सपना एक सुनहरा सपना है,
एक शुभ मुहूर्त में मैंने पहली बार इस सपने को देखा था । ”

वो सारे स्वप्न अब भी हवा में उड़ते रहते हैं
सुनायी पड़ता है साँसों का शब्द
और सब मर जाता है स्वप्न नहीं मरता
अमरत्व के अन्य नाम होते हैं
कानू, संतोष, असीम लोग …
जो जेल के निर्मम अंधेरे में बैठे हुए
अब भी इस तरह के स्वप्न देख रहे हैं

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समानता का नया यूटोपिया रचती है देह ही देश- अनामिका  

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कल दोपहर दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज में गरिमा श्रीवास्तव की पुस्तक ‘देह ही देश’ पर परिचर्चा का आयोजन हुआ. जिसकी रपट डॉ. रचना सिंह की कलम से- मॉडरेटर
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दिल्ली।  ”देह ही देश” केवल यूरोप की स्त्री का संसार नहीं है बल्कि दर्द और संघर्ष का यह आख्यान अपनी सार्वभौमिकता के कारण बहुपठनीय बन गया है। सुप्रसिद्ध कवि-कथाकार अनामिका हिन्दू कालेज में  ‘देह ही देश’ पर आयोजित एक परिसंवाद  में कहा कि युवा विद्यार्थियों के बीच इस किताब पर गंभीर चर्चा होना यह विश्वास जगाता है कि स्त्री पुरुष समानता का यूटोपिया अभी बचा हुआ है और गरिमा श्रीवास्तव जैसे लेखक अपने साहित्य से इसे फिर फिर रचते रहेंगे। हिन्दू कालेज के महिला विकास प्रकोष्ठ द्वारा आयोजित इस परिसंवाद में उन्होंने कहा कि अच्छी किताबें बार बार पढ़ने को आमंत्रित करती हैं और मैंने इसे तीन बार पढ़ा है। नयी पीढ़ी भी ऐसे लेखन की संवेदनशीलता से अपने को जोड़कर ऐसी नागरिकता का निर्माण कर सकेगी जहाँ लैंगिक विषमताएं न हों।
सुपरिचित लेखिका और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिंदी की प्रोफ़ेसर गरिमा श्रीवास्तव की यह किताब यूरोपीय देशों क्रोएशिया और सर्ब के संघर्ष के दौरान स्त्रियों पर हुई ज्यादतियों और यौन हिंसा की डायरी है। प्रो श्रीवास्तव ने अपने क्रोएशिया प्रवास के दौरान इसे लिखा था। परिसंवाद में साहित्य की मासिक पत्रिका हंस के सहयोगी सम्पादक डॉ विभास वर्मा ने कहा कि हिंदी में इस तरह का लेखन नहीं मिलता है। डॉ वर्मा ने इसे पढ़ना एक असहज करने वाला अनुभव बताते हुए कहा ‘देह ही देश’ जैसी किताबें इस बात की फिर पुष्टि करती हैं कि सभी युद्ध औरतों की देह पर ही लड़े जाते हैं। डॉ वर्मा ने इसे कहानियों की एक कहानी भी कहा। उन्होंने आगे कहा कि उग्र राष्ट्रवाद और पूंजीवाद मिलकर युद्ध को अपने हितों का व्यवसाय बना देते हैं।
जामिया मिलिया इस्लामिया के हिंदी विभाग से आए प्रो नीरज कुमार ने समाज विज्ञान की किताबों और साहित्य में मूलभूत अंतर को बताते हुए कहा कि यहाँ आंकड़ों से मन की पीड़ा और युद्ध की विभीषिका को समझने का प्रयास किया गया है। प्रो नीरज ने हाल में वृन्दावन और गुरुग्राम में स्त्रियों के साथ हुई हिंसक घटनाओं का उल्लेख किया और कहा कि विचारणीय है कि विकास के साथ हम कहाँ पहुँच रहे हैं। प्रो नीरज कुमार ने कहा कि स्थितियों की विषमताओं से स्त्री को स्त्री होने का दंड मिलता है लेकिन पुरुष इससे बच जाता है। उन्होंने शांति के लिए होने वाली सैनिक कार्रवाइयों के दौरान स्त्रियों के प्रति होने वाली हिंसा और देह व्यापारों के इस पुस्तक में आए प्रसंगों का भी उल्लेख किया।पुस्तक को लिखे जाने के अपने विविध अनुभवों को साझा करते हुए प्रो गरिमा श्रीवास्तव ने कहा कि इतिहास में कभी भी स्त्रियों को समाज की नियंत्रक शक्ति के रूप में नहीं पहचाना गया, शक्ति और सत् हमेशा से उसके लिए वर्जित क्षेत्र रहे। उन्होंने कहा कि स्त्रियां जिस तरह से झेले हुए समय को याद करती हैं उन पर ध्यान दिया जाना जरूरी है क्योंकि उनकी स्मृतियों में इतिहास का उपेक्षित पक्ष आलोकित होता है। प्रो श्रीवास्तव ने श्रोताओं के सवालों के जवाब भी दिए। इससे पहले महिला विकास प्रकोष्ठ की प्रभारी डॉ रचना सिंह ने अतिथियों का स्वागत किया। संयोजन कर रहे हिंदी विभाग के अध्यापक डॉ नौशाद अली ने वक्ताओं का परिचय दिया। अंत में पुस्तक की प्रकाशक राजपाल एंड संज की निदेशक मीरा जौहरी ने सभी का आभार माना।

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भिंचे जबड़ों को खुलकर हँसने देने का मौका देने वाली फिल्म

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सिनेमा पर मुझे अक्सर ऐसे लोगों का लिखा पसंद आता है जो उस विषय के पेशेवर लेखक नहीं होते हैं. फिल्म ‘बधाई’ हो’ पर यह टिप्पणी डॉ. आशा शर्मा ने लिखी है. दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में पढ़ाती हैं, रंगमंच की विशेषज्ञ हैं और एक पठनीय टिप्पणी उन्होंने इस फिल्म पर लिखी है- मॉडरेटर

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यह सुखद बात है कि थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद बॉलीवुड में लीक से हटकर, नए विषयों के साथ अच्छी हिन्दी फ़िल्में आ रही हैं जिन्हें परिवार एक साथ बैठकर देख पाता है. पिछले हफ्ते रिलीज हुई ‘बधाई हो’ फिल्मों की इस सूची में नया नाम है. मात्र एक दृश्य के चलते सेंसर बोर्ड ने इसे ‘अभिभावकों के मार्गदर्शन’ में देखने का प्रमाणपत्र दिया है.

आज से लगभग आधी शताब्दी पहले तक अधेड़ उम्र में संतान हो जाना स्वाभाविक बात थी. दिल्ली-देहात में स्वयं मेरे पिताजी अपने दो सबसे बड़े भाई-बहनों की शादी के बाद पैदा हुए थे. बच्चों को भगवान की देन समझने-कहने वाली और परिवार-नियोजन, गर्भ-निरोधकों से बेखबर भारत की जनता में दर्जन-भर संतान पैदा करने के बाद माँ-बेटी या सास-बहू को एक साथ गर्भ धारण किये देखा जाना आम बात थी. बढ़ती आबादी के खतरों, भरण-पोषण, बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता, आर्थिक दबावों के चलते ‘आधुनिक’ कहे जाने वाले हमारे समाज में अब अधेड़ उम्र में संतानोपत्ति करना (यदि कोई शारीरिक बाध्यता न हो तो) ‘अपच’ वाली बात हो गयी है. इंसानों के बनाए समाज ने इंसानी जीवन को देखने के चश्मे इस तरह के गढ़ दिए कि उनसे ज़रा बाहर निकलते ही अपने-पराये सबकी नज़रें टेढ़ी और पैनी हो जाती हैं. लेकिन एक माँ, जिसने अपनी ‘अनवांटेड संतान’ को इस संसार में लाने का फैसला कर लिया है, अपने फैसले पर अडिग है. वह हार नहीं मानती, खुद की संतान, सास, पड़ोस, रिश्तेदारी – सबकी तरेरी नज़रों को चुपचाप सहन करती है. और ख़ास बात ये कि पति-पत्नी अपने खुशनुमा पलों के इस चौका देने वाले परिणाम के प्रति ‘जस्टीफिकेशन’ देते नज़र नहीं आते. अधेड़ उम्र में सेक्स जैसे ‘बोल्ड’ विषय को लेकर मध्यम वर्ग की मानसिकता और समाज के ताने-बाने को बारीकी और संजीदगी से ‘बधाई हो’ में प्रस्तुत किया गया है.

फिल्म के केंद्र में दिल्ली की लोधी कालोनी के सरकारी क्वार्टर्स में रहने वाली अपने दायरों में खुशहाल मध्यवर्गीय कौशिक-फैमिली है. पच्चीस वर्षीय नकुल की भूमिका में आयुष्मान खुराना इस परिवार का बड़ा लड़का है जो एक एम.एन.सी. में काम करता है और उच्च वर्ग से ताल्लुक रखने वाली गर्ल फ्रेंड रिने (सान्या मल्होत्रा) से प्यार की पींगे बढाने और शादी के सपने देखने में व्यस्त है. बूढ़ी दादी हैं जो सास के रूप में तुनकमिजाज और हर बात का दोष पुत्रवधू के सिर मढने में पारंगत हैं. सहृदय पिता (गजानन राव) रेलवे में टी.टी.ई. हैं जिन्हें रोमांटिक कविता रचने का शौक है. माँ प्रियंवदा (नीना गुप्ता) एक कुशल गृहिणी के रूप में दिन-रात परिवार की चिंता में खटती और बात-बेबात कसे गए सास के मारक तानों से अन्दर-ही-अन्दर कुढती रहती हैं. छोटा भाई गुलर बारहवीं में है.

इस रूप में यह ‘कम्प्लीट फैमिली’ अपने दिन गुजार रही होती है. एक रात पत्रिका में छपी स्वरचित कविता के पाठ और बाहर कविता के ही वाकिफ मौसम के तालमेल में अधेड़ पति-पत्नी बह जाते हैं. 19 हफ्ते बाद पता चलता है कि पत्नी को गर्भ ठहर गया है. गर्भपात गिराने का बहुत कम समय रहते हुए भी पत्नी अपनी संतान की गर्भ-हत्या करने से साफ़ मना कर देती है. पति, पत्नी के मनोभावों और निर्णय को पूरी इज्जत देते हुए परिवार, पड़ोस और रिश्तेदारी में पत्नी के साथ खड़ा दीखता है. एक माँ-बाप अपनी आने वाली संतान के कारण अपने वर्तमान ‘जवान-किशोर लड़कों’ की नज़रों का किस प्रकार सामना करते हैं – इसे बेहतरीन तरीके से फिल्माया गया है. जिस घर में बड़े बेटे की शादी के सपने देखे जा रहे हों वहां एक और ‘नए मेहमान’ के आने की खबर से संबंधों में खिंचाव आ जाता है. पड़ोसी से लेकर रिश्तेदार तक सभी ‘ताने के अंदाज में बधाई’ देते हैं. बहसो-बहस में नकुल की गर्ल फ्रेंड से ब्रेक-अप की नौबत आ जाती है.

फिल्म ऐसे अनेक छोटे-बड़े दृश्यों से भरपूर है जो बरबस आपको लोट-पोट होने के लिए मजबूर करते हैं वहीं कई दृश्यों में बहुतेरे दर्शक आंखों के कोने पोंछते देखे गए. अमित रविंदरनाथ शर्मा ने बेहतरीन निर्देशिकीय कला का परिचय दिया है. कहानी का कोई भी दृश्य अनावश्यक और बोझिल नहीं लगता. पटकथा पर बहुत बारीकी से काम किया गया है. फिल्म का पूर्वाद्ध तनाव से भरपूर है. उत्तरार्द्ध को क्लाईमेक्स पर ले जाकर धीरे-धीरे सधे हुए ढंग से सम्भाला गया है. ‘अपने तो आखिर अपने हैं’ के अन्दाज में फिल्म सुखद अंत तक पहुँचती है. बच्चों को बड़ा और आत्म-निर्भर बनाने के बाद पति-पत्नी की आपसी ‘बोन्डिंग’ कम नहीं होती बल्कि ‘और’ गहराती है. इस बात को मधुर मुस्कराहट से फिल्म समझा जाती है.

एक दूसरे सिरे पर यह फिल्म उच्च व मध्य वर्ग की सोच की नजदीकियों और दूरियों के द्वंद्व की ओर भी इशारा करती है. दिल्ली के पॉश इलाके में रहने और हाई-फाई सोच वाली चंचल, शोख, बिंदास रेने और उसकी माँ अपनी भूमिका में खूब जमी हैं. रेने की माँ (शीबा चड्ढा) में अमीरों की चाल-ढाल, पहनावा, भाषा, चेहरे के ‘अति सभ्य’ भाव – तनी और चढी नाक, गर्दन अकड़ी और थोड़ी ऊपर उठी ठोड़ी – अमीरी को सर्वांगता में दर्शाती है.

फिल्म के सारे किरदार अपनी भूमिकाओ में बेजोड़ हैं. थोड़े कंजूस पारंपरिक सरकारी बाबू, चेहरे पर हमेशा मंद मुस्कान धारण किये, कविहृदय, पुत्र-पिता-पति की भूमिका में गजराज राव खूब जमे हैं. नीना गुप्ता ने एक ‘स्त्री’ के विभिन्न पहलुओं को कुशलता से पेश किया है. निश्छल स्नेहमयी माँ – जो ‘आनेवाली’ और ‘आ चुकी’ संतानों में कतई भेदभाव नहीं करती. शांत दिमाग परिवार को मजबूती से बांधता है – बिन बोले कह गयी हैं. नकुल की भूमिका में आयुष्मान खुराना ने जवान लड़के के माँ-बाप द्वारा अनजाने में आहूत टेंशन को खूब झेला है. चारित्रिक-ग्राफ की दृष्टि से वे सशक्त किरदार बनकर उभरे हैं. और सबसे लाजवाब रही हैं दादी की भूमिका में – सुरेखा सीकरी. वे 1970-80 के दशकों में हिन्दी रंगमंच की बेहतरीन-अनुभवी अभिनेत्री के रूप में प्रतिष्ठित रहीं. उनके अभिनय में यह अनुभव दीखता है. जिस भी दृश्य में आई – छा गयीं! नकचढी और सख्त ‘सास’ से लेकर समझदार-अनुभवी ‘माँ’ तक की यात्रा में वे खूब फबी हैं. समाज के ‘संस्कारी’ होने की बखिया को निर्ममता से उधेड़ते हुए वे पति-पत्नी के प्यार और ‘सेक्स’ को खूबसूरती से बयान कर जाती हैं.

फिल्म का संगीत कहानी की मांग के अनुरूप सटीक – कभी चुस्त तो कभी संजीदा – मन को छू लेने वाला है. कैमरे ने कुछेक दृश्यों में दिल्ली, मेरठ और गुरुग्राम की लोकेशंस को खूबसूरती से कैद किया है. और हाँ! मारुति वैगन-आर के पुराने मॉडल की कार, जिस पर डेंजरस स्टाइल में KAUSHIK’S लिखा है – फिल्म में कई घटनाओं की गवाह बनते हुए दौड़-भाग करती दिखती है. साथ ही, घर की वह मुंडेर भी –  आने वाले मेहमान की खबर सुनकर निकाली गयी कुढन, ‘गिल्ट फील’ करते हुए तिरस्कृत मम्मी-पापा के प्रति पुनः प्यार की उमड़न, मम्मी के साथ गर्ल-फ्रेंड से ब्रेक-अप की शेयरिंग – तमाम अलग-अलग अंदाजों को इस मुंडेर ने बाखूब धारण किया है.

किसी भी सशक्त फिल्म की पहचान यह है कि वह बिना उपदेश झाड़े और बिना गला फाड़े दर्शकों को ‘कुछ’ दे जाय – ‘बधाई हो’ यह काम करती है. मूल विषय के साथ ही मध्यवर्गीय भजन-कीर्तन-तंबोला, दोस्तों के मज़ाक और चुलबुल शरारतें, भाई-भाई की बॉन्डिंग, समलैंगिक के मनोभावों न समझने वाले ‘अपने’, एटीएम पिन नंबर शेयर न करना – जैसे तमाम मुद्दों को बड़ी सुन्दरता से छूकर निकल जाती है.

‘बधाई हो’ पर साहित्यिक चोरी का आरोप भी लगा है जो मन खराब करता है. इस मसले को जल्द ही सुलझा लेना चाहिए. बहरहाल! लब्बोलुआब ये है कि भागमभाग-भरी जिन्दगी में कुछ सुकून पाने और तनाव से ‘भिंचे जबड़ों को खुलकर हँसने देने’ के लिए फिल्म को देखा जा सकता है.

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मनोज कुमार पांडेय की कहानी ‘पापियों के उद्धार की अनोखी योजना’

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मनोज कुमार पांडेय मेरी पीढ़ी के उन कथाकारों में हैं जो न सिर्फ निरंतर लिख रहे हैं बल्कि नए-नए कथा-प्रयोग भी कर रहे हैं. यह उनकी नई कहानी है जो लक्षणा और व्यंजना में पढ़े जाने की मांग करती है- प्रभात रंजन

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स्वर्णदेश का राजा उन लोगों के लिए हमेशा दुखी रहा करता था जो किसी न किसी वजह से पतन के गर्त में गिरे हुए थे। वह बार बार उनके लिए द्रवित होता। कई बार तो रोने ही लगता। वह हमेशा सोचता कि उन पतितों से जो भी अपराध हुए हों पर हैं तो ये सभी स्वर्णदेश की इसी पावन धरती के निवासी। इन सबमें स्वर्णदेश की उसी पवित्र हवा और पानी का अंश है जो राजा में है। जो गुप्तमंत्री में है।

आह! गुप्तमंत्री कहाँ हो तुम, राजा ने एक भावुक साँस खींची।

      नाम लेते ही गुप्तमंत्री हाजिर हो गया। यही तो खूबी थी उसकी। कई बार तो खुद राजा तक को नहीं पता चलता कि वह गुप्तमंत्री को याद कर रहा है पर गुप्तमंत्री को पता चल जाता और वह तुरंत हाजिर हो जाता।

राजा उसकी इस अदा पर फिदा था पर कई बार जब वह अकेला होता था तो उसे डर भी लगता कि गुप्तमंत्री उसे इस हद तक जानता है। पर वह इस डर के मारे डर भी नहीं पाता था कि कहीं गुप्तमंत्री को उसके डर के बारे में पता न चल जाय।

      देर तक राजा गुप्तमंत्री को और गुप्तमंत्री राजा को देखता रहा।

गुप्तमंत्री ने देखा कि राजा की आँखों में आँसू हैं। वह विह्वल हो गया। प्रोटोकाल की परवाह किए बिना गुप्तमंत्री ने राजा के आँसुओं को पोंछ डाला और राजा के हाथ अपने हाथों में लेकर उन्हें सहलाने लगा। हाथ सहलाते सहलाते वह राजा की चरणों में बैठ गया।

राजा अब भी चुप और भावुक दिख रहा था।

अब गुप्तमंत्री से नहीं रहा गया। उसने पूछ ही लिया कि हे महाराज इस दास को बताइए कि वह कौन सी चिंता है जो आपको इस कदर कमजोर बना रही है?

      राजा बोला कि हे गुप्तमंत्री तुमसे ज्यादा मेरे बारे में कौन जानता है? मेरी भुजाओं में हजारों शेरों का बल है। आँखों में ज्वालामुखियाँ लहराती हैं। चलते हुए सँभलकर पैर रखना पड़ता है कि कहीं आसपास के लोगों को भूकंप का डर न सताने लगे। बचपन में मैंने एक दुष्ट हाथी को सूँड़ से नचाकर आसमान में उछाल दिया था जो आज तक एक क्षुद्र उपग्रह के रूप में पृथ्वी की परिक्रमा कर रहा है। और तो और…

जानता हूँ महाराज, गुप्तमंत्री ने कहा। इसीलिए तो आपकी यह दशा मुझे और भी विचलित कर रही है। अब अधिक समय लेकर दास के धैर्य का इम्तहान न लें और उस चीज के बारे में बताएँ जो आपको यूँ अधीर बना रही है। जितना मैं आपको जानता हूँ यह जो भी समस्या होगी हर हाल में स्वर्णदेश से जुड़ी होगी। इसके सिवा और किसी भी बात में वह क्षमता नहीं है कि वह आपको इस कदर अधीर बना सके।

गुप्तमंत्री की बात सुनकर राजा ने उसे गले से लगा लिया और गले लगाये हुए ही अपने भीतर की बात गुप्तमंत्री के कानों में कहने लगा। पूरी बात सुनकर गुप्तमंत्री के चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंच गईं।

थोड़ी देर तक वह गंभीरता से सोचता रहा फिर बोला, उपाय है महाराज। पर ये उपाय ऐसा है कि इसके लिए आपको बहुत त्याग करना होगा। तरह तरह के लांछन सहने होंगे। इसलिए मैं यह उपाय आपके सामने रखने की हिम्मत नहीं कर पा रहा हूँ।

बदले में राजा ने गुप्तमंत्री से कहा कि वह निर्भीक होकर अपनी बात कहे। जिस तरह कि वह अब तक करता आया है। और जिस लिए वह राजा को अत्यंत प्रिय है।

      गुप्त मंत्री ने तब कहा कि हे महाराज इस समस्या का एकमात्र उपाय यह है कि आप उस नदी को सबके नहाने के लिए खोल दीजिए जिसमें अब तक आप और आपके प्रिय अनुचर ही नहाते रहे हैं। इस नदी में नहाकर सब पवित्र और निष्पाप हो जाएँगे। आप उन सबको बुलाइए और गले लगाइए। आपसे मिलकर, आपको छूकर उनके भीतर बची रही सही कालिमा भी सदा के लिए नष्ट हो जाएगी। यह अलग बात है कि इसके लिए आपको विरोधियों की तरफ से तरह तरह के लांछनों और हमलों के लिए तैयार रहना होगा।

      राजा ने फैसला करने में पल भर भी देर नहीं लगाई।

उसने कहा कि स्वर्णदेश और उसके लोगों के हित में मैं कितने भी लांछन और हमले खुशी खुशी झेलने के लिए तैयार हूँ। जाओ और जाकर एलान करवा दो कि वह नदी जिसका पानी पीकर मैं बड़ा हुआ हूँ। जो मेरी रगों में खून की तरह बहती है वह आज और अभी से सभी तरह के अपराधियों, भ्रष्टाचारियों, हत्यारों और बलात्कारियों के लिए खोल दी गई है। वे आएँ और इसमें डुबकी लगाकर अपने पापों से मुक्ति पाएँ।

इस बात की व्यवस्था करो कि जेलों में बंद जो पापी नदी में डुबकी लगाना चाहते हैं उन्हें भी इस बात का पूरा मौका मिले। तुम तो जानते ही हो कि मैं किसी भी तरह के पक्षपात का घोर विरोधी हूँ। एक भी पापी निष्पाप होने से बचा रह गया तो मैं इस पूरी योजना को ही असफल मानूँगा। आज और अभी से यह नदी सभी तरह के छोटे से छोटे और बड़े से बड़े पापियों के लिए पूरी तरह से खोल दी जाय।

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यह योजना पूरी तरह से कामयाब रही। स्वर्णदेश अपराधियों से लगभग मुक्त ही हो गया। नदी के दोनों किनारों पर पापियों की भीड़ लग गई। वे एक पवित्र खुशी से पागल हो रहे थे। नदी के जल में उतरते ही वे हमेशा के लिए पवित्र हो जाने वाले थे।

यह ऐसी बात थी जिस पर अभी भी उन्हें भरोसा नहीं हो रहा था। वे खुद को और दूसरों को चिकोटी काट रहे थे और जाँच रहे थे कि कहीं वे सपना तो नहीं देख रहे हैं। और तब तो वे विह्वल ही हो गए जब उन्होंने पाया कि यह सपने जैसी लगने वाली बात एकदम सच्ची थी। फिर तो इतनी बड़ी संख्या में लोग पवित्र नदी में उतरे की नदी का पानी गाढ़ा और मटमैला हो गया।

पापी लोग नदी में नहाते गए और पवित्र होते गए पर उनके नदी में घुल रहे पापों की वजह से नदी में रहने वाले जीव जंतु त्राहि त्राहि करने लगे। जब उनकी त्राहि त्राहि का शोर ज्यादा बढ़ गया तो एक राजाज्ञा निकाली गई जिसमें उन्हें स्वर्णदेश के हित में चुप रहने का आदेश दिया गया।

आदेश में यह भी था कि नदी की सफाई के लिए जल्दी ही एक महाबजट जारी किया जा रहा है। खुद राज परिवार के अनेक लोगों ने पापियों के नदी-स्नान पर दबे-छुपे स्वर में आपत्ति जताई पर राजा के आदेश का खुला विरोध करने का साहस उनमें नहीं था।

      जब बड़ी संख्या में पापी लोग नदी नहाकर पापमुक्त और इससे भी ज्यादा इज्जतदार बन गए तो उन्होंने राजा को उनकी अपार दयालुता की याद दिलाते हुए माँग की कि अब उनके पुनर्वास की व्यवस्था की जाय। वे फिर से पुरानी दुनिया में न लौट जाएँ इस लिए जरूरी है कि उनका समुचित पुनर्वास किया जाय।

इस माँग में धमकी का स्वर साफ साफ सुनाई दे रहा था फिर भी स्वर्णदेश के हित में राजा ने इस धमकी को नजरंदाज किया और गुप्तमंत्री के साथ पुनर्वास योजना की रूपरेखा बनाने में जुट गए।

      यह बहुत ही कठिन काम था पर गुप्तमंत्री के सक्रिय सहयोग से राजा ने यह भी कर दिखाया। तय पाया गया कि पापी के रूप में इन इज्जतदार लोगों का जो क्षेत्र रहा है वही उन्हें दिया जाय। इससे दो बातें होंगी। एक तो उनके पास अपनी गलतियाँ सुधारने का मौका होगा और दूसरे स्वर्णदेश को उनके अनुभवों का लाभ भी मिल सकेगा।

यह जरूरी है कि लोगों के अनुभवों को नजरंदाज न किया जाय। स्वर्णदेश के आगे बढ़ने का यही एकमात्र रास्ता है। राजा ने गुप्तमंत्री का गाल थपथपाते हुए कहा था।

      अगले दिन राजा के हस्ताक्षर के साथ पुराने अपराधियों जो कि अब और देशप्रेमी नागरिक बन चुके थे उनके पुनर्वास के बारे में आदेश जारी किया गया। इसमें कहा गया था कि चोरों को चौकीदारी, गुंडों और डाकुओं को पुलिस, आतंकवादियों को सेना, ब्लैकमनी वालों को बैंकिंग, बलात्कारियों को स्त्री शिक्षा व कल्याण आदि के काम दिए जायँ।

आदेश में यह भी था कि उनसे कोई प्रमाणपत्र वगैरह न माँगा जाय और पवित्र होने से पहले का उनका आपराधिक रिकार्ड ही उनकी योग्यता का सबसे बड़ा प्रमाण पत्र समझा जाय। इसी तरह से घोटालेबाजों, कफनचोरों, देशद्रोहियों और जमाखोरों का भी पुनर्वास किया गया।

यह योजना इतनी कामयाब रहेगी इसकी कल्पना राजा को भी नहीं थी। राजा के विरोधियों के पास विरोध करने का कोई मुद्दा ही नहीं बचा। सारे पवित्र हुए लोग अपने पिछले जीवन को इतना कोसते कि उतना विरोधियों के लिए भी संभव न होता।

वे बताते कि वे विरोधियों के चक्कर में आकर अपना सही रूप भूलकर पापी हो गए थे। और अब राजा जी के आशीर्वाद से उन्हें अपने सही स्वरूप का ज्ञान हो गया है। और जब तक राजा जी का आशीर्वाद उन पर बना रहेगा वे अपना यह स्वरूप कभी नहीं भूलेंगे।

यही नहीं वे राजा के विरोधियों को सबक सिखाने में राजा की बिना शर्त मदद के लिए भी तैयार थे। उनकी इस मदद के प्रस्ताव से राजा के गद्गद हो उठा। अपने ट्विटर संदेश में राजा ने कहा कि इसका मतलब यह है कि ये लोग पूरी तरह से बदल चुके हैं।

      राजा की इस उदार योजना के बावजूद जब राजा के विरोधी शांत नहीं हुए तो राजा को प्रजा के नाम एक सार्वजनिक संदेश देना पड़ा। संदेश देते हुए राजा ने कहा कि जो विरोधी है वह देशद्रोही है। और जो देशद्रोही है वह मेरा निजी दुश्मन है।

देशद्रोहियों को ललकारते हुए राजा ने कहा कि मैं पिछले राजाओं की तरह नहीं हूँ। मैं इनकी ईंट से ईंट बजा दूँगा। उन्हें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि पापियों के निष्पाप होने की प्रक्रिया में सभी बंदीगृह पूरी तरह से खाली हो गए हैं। उन्हें इन्हीं देशद्रोहियों से भरा जाएगा।

राजा ने प्रजा यानी अपने समर्थकों को यह जिम्मेदारी दी कि वह इन देशद्रोहियों को सबक सिखाए और इन्हें काबू में करने में और स्वर्णदेश को आगे बढ़ाने में राजा की मदद करे। अपनी प्यारी प्रजा के सक्रिय सहयोग के बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते, राजा ने कहा।

प्रजा ने गद्गद भाव से राजा की जयजयकार की। बदले में राजा ने प्रजा की तरफ हाथ हिलाया और वहाँ से सीधे विदेश यात्रा पर निकल गया।

      आगे का काम प्रजा ने बखूबी सँभाल लिया। अगले कुछ दिनों में प्रजा ने बहुत सारे देशद्रोहियों को मार गिराया। प्रजा के सहयोग से जल्दी ही सभी बंदीगृह फिर से आबाद हो गए। जल्दी ही मीडिया राजा की इस योजना के बखान से रंग गई।

मीडिया दिग्गजों ने कहा कि वे इस योजना का सिर्फ एक ही पहलू देख पाए थे। जबकि माननीय राजाजी ने न सिर्फ पुराने पापियों का उद्धार किया बल्कि उन तत्वों की भी शिनाख्त करने और धर-पकड़ने में सफलता हासिल की जो भविष्य में अपराध या कि पाप करने वाले थे। यह काम करने वाले वे स्वर्णदेश के ही नहीं बल्कि अखिल ब्रह्मांड के पहले राजा हैं।

      उधर इस प्रशंसा को निरपेक्ष भाव से स्वीकार करते हुए दूर एक रंग-बिरंगे देश के एक रंगारंग आयोजन में पत्रकार होने का अभिनय कर रहे एक मसखरे से राजा ने कहा कि वह बंदीगृह में बंद देशद्रोहियों के लिए जल्दी ही एक नई योजना ले आएँगे जिससे कि इन सब की आत्मा का शुद्धीकरण हो सके।

इस पर मसखरे ने तालियाँ बजाई जिससे ऐसी आवाज आई मानों वह अपना गाल पीट रहा हो।

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फोन : 08805405327

ई-मेल : chanduksaath@gmail.com

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‘चौरासी’: एक बिरादरी-बाहर कारोबारी लेखक की निगाह में

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निर्विदाद रूप से सुरेन्द्र मोहन पाठक हिंदी के सबसे लोकप्रिय लेखक हैं. सत्य व्यास समकालीन हिंदी के सबसे लोकप्रिय लेखकों में एक हैं. उनके नवीनतम उपन्यास ‘चौरासी’ पर सुरेन्द्र मोहन पाठक ने यह टिप्पणी लिखी है. एक संपादक के लिए मेरे लिए यह दुर्लभ संयोग है. पाठक जी ने इससे पहले किस किताब पर लिखा था मुझे याद नहीं है. इतने बड़े लेखक ने किसी युवा लेखक पर इतने विस्स्तार से कब लिखा था मुझे याद नहीं. बहरहाल, सुरेन्द्र मोहन पाठक का ‘चौरासी-पाठ’ प्रस्तुत है- प्रभात रंजन

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‘बनारस टाकीज़’ के बारे में किसी दोस्त ने बताया कि वो एक नए लेखक का बहुत ही प्रसिद्ध उपन्यास था जिस के बहुत थोड़े अरसे में दो शायद तीन दर्जन एडीशन हो चुके थे. मैंने उपन्यास पढ़ा तो पहला सवाल मेरे मन में यही उठा कि क्या वाकई मैंने उपन्यास पढ़ा था?

मनहर चौहान ने अस्सी के दशक में एक बार अमृता प्रीतम के लेखन के बारे में लिखा था कि उनकी कोई रचना पढ़ते वक़्त नहीं पता लगता था कि कहानी पढ़ रहे थे, उपन्यास पढ़ रहे थे, निबंध पढ़ रहे थे, संस्मरण पढ़ रहे थे, रिपोर्ताज पढ़ रहे थे,  कुछ पता लगता था तो बस ये कि भाषा पढ़ रहे थे. ‘बनारस टाकीज’ पढ़ कर मुझे भी ऐसा ही लगा कि मैं भाषा पढ़ रहा हूँ. अगर सच में वो उपन्यास था तो इस उम्र में उपन्यास की परिभाषा मुझे फिर से समझनी होगी. मैं तो यही समझता आ रहा था कि उपन्यास वही होता था  जिस में ‘एलिमेंट ऑफ़ फिक्शन’ प्रमुख हो और वसीह हो; चटपटी बातों का मजमुहा भी उपन्यास ही कहलाता था, मुझे नहीं मालूम था. नहीं मालूम था कि एक खास तरह के माहौल के चित्रण से भी उपन्यास लिखा होने पर दावेदारी बन जाती थी.

लेकिन ये जुदा मसला है, मैं दरअसल जिक्र उक्त लेखक की कलम से निकली नवीनतम ‘लव स्टोरी ए ला चेतन भगत’ ‘चौरासी’ का करना चाहता हूँ जिसे कि मैंने सफलता के सर्वोच्च शिखर की तरफ अग्रसर या पर पहुंच चुके लेखक की नवीनतम रचना के तौर पर पूरी तवज्जो के साथ पढ़ा. जो पढ़ा, उसकी बाबत मेरी राय लेखक को शायद नागवार गुजरे लेकिन ये भी एक स्थापित तथ्य है कि प्रशस्तिगाण से लेखक बौरा जाता है मगरूर हो जाता है, जब कि खामियों का जिक्र उसे खबरदार करता है. इसीलिए कहा गया है – निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय . . .

बहरहाल बतौर पाठक ‘चौरासी’ में जो खामियां मेरी निगाह से गुजरीं, वो ये हैं:

  • पहले कौर में ही मक्खी पड़ी जब मिश्रा कमीशन रिपोर्ट के हिंदी अनुवाद के अंत में ‘अनेक लोग हताहत और ज़ख्मी हुए पढ़ा’. हैरानी हुई कि विद्वान लेखक को ‘हताहत’ में ‘जख्मी’ शामिल न लगा. हताहत शब्द का संधि विच्छेद होता है- हत+आहत अर्थात मृत और घायल.
  • उपन्यास में पंजाबी किरदार होने की वजह से पंजाबी फिकरे बहुत हैं लेकिन तक़रीबन गलत हैं. मैं खुद पंजाबी हूँ इसलिए मेरे से बेहतर ये बात कौन जानता हो सकता है!
  • भाषा की ऐसी अशुद्धियाँ बहुत हैं जिन का ठीकरा कमजोर प्रूफरीडिंग के सर नहीं फोड़ा जा सकता. पन्क्चुयेशन्स का, स्पेलिंग्स का, प्रेजेंट-पास्ट टेंस का कहीं कोई लिहाज नहीं. उर्दू के कई अलफाज का गलत, गैरवाजिब इस्तेमाल है. नुक्ते का गलत, गैरजरूरी इस्तेमाल है. मैं इस बात से इसलिए वाकिफ हूँ क्योंकि मैं लाहौर में पैदा हुआ था और मेरी शुरुआती तालीम उर्दू में थी. उर्दू के कुछ ऐसे अलफ़ाज़ लेखक ने इस्तेमाल किये हैं जिन का मतलब जानने के लिए खुद मुझे डिक्शनरी देखनी पड़ी, जिन्हें उर्दू नहीं आती, उनका क्या हाल होगा!

मसलन ‘मोजज़े’. मैं नियमित रूप से उर्दू पढता हूँ लेकिन ये एक लफ्ज़ मेरी निगाह से कभी न गुजरा.

मसलन ‘जियां’. मसलन ‘मबहुत’. मसलन ‘अहवाल’ ‘हाल’ का बहुवचन है लेकिन लेखक ने इसे एकवचन की जगह – ‘हाल’ की जगह इस्तेमाल किया है. ऐसी और भी मिसाल हैं. नाचीज़ के खयाल से अगर लक्ष्य कोर्स में पढाई जाने लायक रचना लिखना न हो तो भाषा सहज, सुगम और सरल ही होनी चाहिए. हिंदी का लेखक होते हुए लेखक का उर्दू पर क्यों इतना जोर था, लेखक ही बेहतर जानता है.

दूसरे, फिक्शन के लेखक का खुद को भाषाशास्त्री सिद्ध करना जरूरी नहीं होता, मेरे खयाल से तो उच्चशिक्षाप्राप्त सिद्ध करना भी जरूरी नहीं होता. हिंदी में ऐसे कितने ही लेखक हुए हैं जो कि उच्चशिक्षाप्राप्त नहीं थे लेकिन कमाल की हिंदी लिखते थे. इस सिलसिले में जयशंकर प्रसाद की मिसाल देने का लोभ मैं नहीं संवरण कर सकता जो कि आठ जमातें पास थे लेकिन जिन की हिंदी को समझने के लिए आलिम फाजिल हजरात को भी सर धुनना पड़ता था.

यहाँ मैं नेपोलियन को याद करना चाहता हूँ जिस ने कहा है – Many a time the natural ability works better than the academic qualification.

  • 160 वर्कों में से 50 पढ़ लेने के बाद ही मुझे खबर लगी की मैं तकरीबन-एकतरफा प्यार की ‘लव स्टोरी’ पढ़ रहा था. फिर वो भी अधर में लटक गई और चौरासी के दंगों की रिपोर्ताज दर्ज होने लगी. फिर आखिरी कुछ पृष्ठों में बोकारो, जो शुरू में उपन्यास का अहम किरदार बताया गया था, सूत्रधार बन गया – सूत्रधार, जो ऐसे वाकयात का भी जामिन था जो बोकारो में वाकया नहीं हुए थे – मसलन मोगा में मनु की मनोदशा से बाखूबी वाकिफ था.
  • पृष्ठ 136 पर गर्दन पर पेचकस से पीछे से – रिपीट, पीछे से – वार का जिक्र है लेकिन पेचकस की नोक श्वास नाली में लगी जो की आगे गले में होती है!
  • पृष्ठ 138 पर कर्फ्यू में देखते ही गोली मार देने के आदेश का जिक्र है लेकिन ऐसा सख्त फरमान कर्फ्यू में नहीं, मार्शल लॉ में होता है जो कि अमन शांति के लिए अंग्रेज के राज में लागू किया जाता था. कर्फ्यू में सिर्फ घर से निकलने पर पाबन्दी होती है, फिर भी कोई कर्फ्यू तोड़ता बाहर पाया जाये तो उसकी गिरफ्तारी का प्रावधान है, न कि उसे गोली मार दी जाती है.

इसी पृष्ठ पर ‘दहशत’ की जगह ‘वह्शत’ है. दोनों पर्याय तो मेरे खयाल से नहीं होते!

  • पृष्ठ 159 पर शब्द ‘भगदड़’ चंद सतरों में ही पहले स्त्रीलिंग, फिर पुल्लिंग बन जाता है. ऐसा दर्जनों दूसरे शब्दों के साथ दूसरी जगहों पर भी है.
  • चैप्टर्स के headings शायद उपन्यास की स्टार अट्रैक्शन हैं लेकिन बेमानी हैं, गैरजरूरी हैं, असंगत हैं, irritate करते हैं.
  • ‘ही’ शब्द से लेखक का खास लगाव जान पड़ता है, बहुत जगह आया लेकिन एकाध जगह को छोड़ कर गैरजरूरी आया.
  • ख़राब प्रूफरीडिंग का एक ही नमूना काफी होगा :

‘खयाल’ चार तरह से छपा है – कभी आधे ‘ख’ के साथ, कभी पूरे ‘ख’ के साथ, कभी ‘नुक्ते’ के साथ, कभी ‘नुक्ते’ के बिना.

  • और सौ बातों की एक बात:

दंगों के वर्णन की बुनियाद ही गलत है. उपन्यास (!) में दर्शाया गया है कि इकतीस अक्टूबर की सुबह मैडम के मर्डर की खबर आते ही शहर में दंगे भड़क गये जब कि पहले दिन ऐसा कुछ नहीं हुआ था, पहला दिन हर जगह मुकम्मल अमन शांति के साथ गुजरा था. दंगे अगले दिन कांग्रेसी नेताओं के पब्लिक तो भड़काने से भड़के थे. ज्ञातव्य है कि गाँधी का हत्यारा मराठा था लेकिन गाँधी की हत्या के बाद मराठों का क़त्ल-ए-आम नहीं शुरू हो गया था. फिर ‘चौरासी’ में मैडम के क़त्ल की खबर आते ही क्यों सिखों ने आनन फानन सोच समझ लिया कि उन पर भरी विपत्ति टूटने वाली थी!

मैं जब छोटा था तो हमारे घर के पास एक टूरिंग टॉकी आती थी जो खुले में तम्बू तान कर सिनेमा चलाती थी और एक टिकट में दो फिल्म दिखाती थी. वैसा ही तजुर्बा मुझे ‘चौरासी’ के साथ हुआ.

एक टाइटल के तहत दो लघु उपन्यास (NOVELLA).

एक फिक्शन, एक रिपोर्ताज.

एक लव स्टोरी, एक हेट स्टोरी.

एक तीतर एक . . .

अंत में निवेदन है कि बुलंदी के शिखर तक पहुंचना बाज खुशकिस्मत लोगों के लिए फिर भी आसान होता है लेकिन उस पर बने रहना बहुत मुश्किल होता है, बहुत ही मुश्किल होता है, क्योंकि  – इस में लगती है मिहनत जियादा.

एस एम पाठक 

* * * 

PS:

Shortly I’d be reading ‘DILLI DURBAR’ because I’ve invested upon it.

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