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आज बाबा नागार्जुन की पुण्यतिथि है. इस अवसर पर युवा पत्रकार-लेखक अरविन्द दास का यह लेख प्रस्तुत है, जिसमें उनके गाँव तरौनी की यात्रा का भी वर्णन है. यह लेख उनके शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ‘बेखुदी में खोया शहर: एक पत्रकार के नोट्स’ में संकलित है. बाबा को सादर प्रणाम के साथ- मॉडरेटर
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सच का साहस
दरभंगा जिले में सकरी के ऊबड़-खाबड़ रास्तों से होते हुए जैसे ही हम नागार्जुन के गाँव तरौनी की ओर बढ़ते हैं, मिट्टी और कंक्रीट की पगडंडियों के दोनों ओर आषाढ़ के इस महीने में खेतिहर किसान धान की रोपनी करने में जुटे मिलते हैं. आम के बगीचे में ‘बंबई’ आम तो नहीं दिखता पर ‘कलकतिया’ और ‘सरही’ की भीनी सुगंध नथुनों में भर जाती है. कीचड़ में गाय-भैंस और सूअर एक साथ लोटते दिख जाते हैं. तालाब के महार पर कनेल और मौलसिरी के फूल खिले हैं…हालांकि यायावर नागार्जुन तरौनी में कभी जतन से टिके नहीं, पर तरौनी उनसे छूटा भी नहीं. तरह-तरह से वे तरौनी को अपनी कविताओं में लाते हैं और याद करते हैं. लोक नागार्जुन के मन के हमेशा करीब रहा. लोक जीवन, लोक संस्कृति उनकी कविता की प्राण वायु है. लोक की छोटी-छोटी घटनाएँ उनके काव्य के लिए बड़ी वस्तु है. नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता, ‘अकाल और उसके बाद’ में प्रयुक्तत बिंबों, प्रतीकों पर यदि हम गौर करें तो आठ पंक्तियों की इस कविता पर हमें अलग से टिप्पणी करने की जरूरत नहीं पड़ेगी.
बाबा नागार्जुन के व्यक्तित्व और कृतित्व में कोई फांक नहीं है. उनका कृतित्व उनके जीवन के घोल से बना है. यह घलुए में मिली हुई वस्तु नहीं है. नागार्जुन की रचना जीवन रस से सिक्त है जिसका उत्स है वह जीवन जिसे उन्होंने जिया. सहजता उनके जीवन और साहित्य का स्वाभाविक गुण है. इसमें कहीं कोई दुचित्तापन नहीं. लेकिन यह सहजता ‘सरल सूत्र उलझाऊ’ है.
नागार्जुन कबीर के समान धर्मा हैं. नामवर सिंह ने उन्हें आधुनिक कबीर कहा है. सच कहने और गहने का साहस उन्हें दूसरों से अलगाता है. कवि देवी प्रसाद मिश्र की एक पंक्ति का सहारा लेकर कहूँ तो उनमें ‘सच को सच की तरह कहने और सच को सच की तरह सुनने का साहस था’. नागार्जुन दूसरों की जितनी निर्मम आलोचना करते हैं, खुद की कम नहीं. जो इतनी निर्ममता से लिख सकता है- ‘कर्मक फल भोगथु बूढ़ बाप (कर्म का फल भोगे बूढ़े पिता)…’ तब आश्चर्य नहीं कि …बेटे को तार दिया बोर दिया बाप को…’सरीखी पंक्तियाँ उन्होंने कैसे लिखी होगी!
उनकी यथार्थदृष्टि उन्हें आधुनिक मन के करीब लाती है. यही यथार्थ दृष्टि उन्हें कबीर के करीब लाती है. यथार्थ कबीर के शब्दों का इस्तेमाल करें तो और कुछ नहीं-आँखिन देखी’ है. नागार्जुन को भी इसी आँखिन देखी पर विश्वास है, भरोसा है. मैथिली में उनकी एक कविता है ‘परम सत्य’ जिसमें वे पूछते हैं-सत्य क्या है? जवाब है-जो प्रत्यक्ष है वही सत्य है. जीवन सत्य है. संघर्ष सत्य है. (हम, अहाँ, ओ, ई, थिकहुँ सब गोट बड़का सत्य/ सत्य जीवन, सत्य थिक संघर्ष.)
नागार्जुन की एक आरंभिक कविता है- बादल को घिरते देखा है.’ देखा है, यह सुनी सुनाई बात नहीं है. अनुभव है मेरा. इस तरह का अनुभव उसे ही होता है जिसने अपने समय और समाज से साक्षात्कार किया हो. कबीर ने किया था और सैकड़ों वर्ष बाद आज भी वे लोक मन में जीवित हैं. कबीर ने इसे ‘अनभै सांचा’ कहा. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के मुताबिक यह अनुभव से उपजा और अनभय सत्य है.
कवि नागार्जुन में साहस है. सत्य का अनुभव है. सत्य के लिए वे न तो शास्त्र से डरते हैं, न लोक से. जिस प्रकार कबीर की रचना में भक्ति के तानेबाने से लोक का सच मुखरित हुआ है, उसी प्रकार नागार्जुन ने आधुनिक राजनीति के माध्यम से लोक की वेदना, लोक के संघर्ष, लोक-चेतना को स्वर दिया है. बात 1948 के तेलंगाना आंदोलन की हो, 70 के दशक के नक्सलबाड़ी जनान्दोलन की या 77 के बेछली हत्याकांड की, नागार्जुन हर जगह मौजूद हैं. सच तो यह है कि नागार्जुन इस राजनीति के द्रष्टा ही नहीं बल्कि भोक्ता भी रहे हैं. स्वातंत्र्योत्तर भारत के राजनैतिक उतार-चढ़ाव, उठा-पठक, जोड़-तोड़ और जनचेतना का जीवंत दस्तावेज है उनका साहित्य. नागार्जुन के काव्य को आधार बना कर आजाद भारत में राजनीतिक चेतना का इतिहास लिखा जा सकता है.
असल में साधारणता नागार्जुन के काव्य की बड़ी विशेषता है. ‘सिके हुए दो भुट्टे’ सामने आते ही उनकी तबीयत खिल उठती है. सात साल की बच्ची की ‘गुलाबी चूड़ियाँ’ उन्हें मोह जाती है. ‘काले काले घन कुरंग’ उन्हें उल्लसित कर जाता है. उनके अंदर बैठा किसान मेघ के बजते ही नाच उठता है. नागार्जुन ही लिख सकते थे: पंक बना हरिचंदन मेघ बजे.
नागार्जुन जनकवि हैं. वे एक कविता में लिखते हैं: जनता मुझसे पूछ रही है/ क्या बतलाऊँ/ जनकवि हूँ मैं साफ कहूँगा/ क्यों हकलाऊँ. नागार्जुन में जनता का आत्मविश्वास बोलता है. नागार्जुन की प्रतिबद्धता जन के प्रति है और इसलिए विचारधारा उन्हें बांध नहीं सकी. न हीं उन्होनें कभी इसे बोझ बनने दिया. प्रतिहिंसा उनका स्थायी भाव है. पर प्रतिबद्धता किसके लिए? प्रतिहिंसा किसके प्रति? उन्हीं के शब्दों में: बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त’, उनकी प्रतिबद्धता है. प्रतिहिंसा है उनके प्रति-‘लहू दूसरों का जो पिए जा रहे हैं.’
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संपर्क:arvindkdas@gmail.com
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हिंदी में पुस्तकों की अच्छी समीक्षाएं कम पढने को मिलती हैं. रामचंद्र गुहा द्वारा लिखी महात्मा गांधी की जीवनी के दूसरे और अंतिम भाग,’गांधी: द इयर्स दैट चेंज्ड द वर्ल्ड’ की यह विस्तृत समीक्षा जाने माने पत्रकार-लेखक आशुतोष भारद्वाज ने लिखी है. कुछ समय पहले ‘दैनिक जागरण’ में प्रकाशित हुई थी. साभार प्रस्तुत है- मॉडरेटर
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कई बरस पहले जब इतिहासकार रामचन्द्र गुहा वेरियर एल्विन की जीवनी लिख रहे थे, जर्मन विद्वान निकोलस बोयल ने उन्हें जीवनी लेखन के तीन मंत्र बताए थे। उनमें से सबसे महत्वपूर्ण शायद यह है: किसी जीवनी का मूल्य उस व्यक्ति से जुड़े अन्य इन्सानों के चित्रण द्वारा निर्धारित किया जा सकता है। इस आधार पर गुहा द्वारा लिखी महात्मा गांधी की जीवनी के दूसरे और अंतिम भाग, गांधी: द इयर्स दैट चेंज्ड द वर्ल्ड, को चार इन्सानों के आईने से देख सकते हैं।
पहली वह स्त्री जिसे गांधी ने कभी अपनी “आध्यात्मिक पत्नी” कहा था। 1919 में लाहौर यात्रा के दौरान गांधी रबीन्द्रनाथ टैगोर की भतीजी और बेहतरीन गायिका एवं लेखिका सरलादेवी चौधुरानी के घर रुके थे। उस समय गांधी का ब्रह्मचर्य व्रत अपने तेरहवें साल में थे लेकिन वे तुरंत “सरलादेवी के प्रति सम्मोहित हो गए”। वे जल्द ही फिर से लाहौर आए और इस बार अपने भतीजे मगनलाल को खत लिखा कि “सरलादेवी हरेक रूप में मुझ पर प्रेम बरसा रहीं हैं।” वे गांधी के साप्ताहिक अखबार यंग इंडिया में नियमित प्रकाशित होने लगीं।
गांधी और सरलादेवी एक दूसरे को नियमित खत लिखने लगे। “तुम मेरी नींद में भी मुझे तड़पाती हो,” गांधी ने एक पत्र में लिखा।
यह संबंध “दैहिक संपूर्ति” के इतना करीब आ गया था कि घबराए हुए चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने गांधी को पीछे लौट जाने को कहा नहीं तो यह उनके लिए घनघोर “शर्म और मृत्यु” की वजह बन जाएगा। गांधी ने उनकी सलाह मान अपने कदम रोक तो लिए लेकिन वे उनके भीतर देर तक स्पंदित होती रहीं। दिलचस्प यह कि इस प्रकरण के कुछ ही समय बाद गांधी जब अपनी आत्मकथा लिखने बैठे, तो उन्होंने सत्य के साथ अपने तमाम प्रयोगों का उल्लेख किया, वैवाहिक जीवन के अंतरंग पहलू उजागर किए लेकिन सरलादेवी को छुपा ले गए।
दूसरे किरदार हैं गांधी के दत्तक पुत्र महादेव देसाई। 1938 में गांधी किसी मसले पर महादेव से काफी नाराज हो गए। इसके बाद महादेव ने अपनी गलती को स्वीकारते हुए एक लेख हरिजन के लिए लिखा। गांधी ने इसे बहुत कठोरता से संपादित किया कि उनके शिष्य के विचार रत्ती भर भी उनसे अलग न जाएँ, लेकिन गांधी ने महादेव द्वारा लिखी एक छोटी सी कविता उस लेख के साथ जाने दी। वह कविता थी: “संतों के साथ स्वर्ग में रहना/ एक वरदान और दुर्लभ अनुभव है/लेकिन किसी संत के साथ पृथ्वी पर रहना/अलग ही कहानी है।“
चार साल बाद वह संत अपने शिष्य की मृत देह को नहला रहा था। गांधी, महादेव और तमाम नेता भारत छोड़ो आंदोलन के बाद हिरासत में ले लिए गए थे। पूना के आगा खाँ पैलेस में बंद थे। देसाई की मृत्यु इसी हिरासत में पंद्रह अगस्त 1942 को हुई थी, भारत को आजादी मिलने से ठीक पाँच साल पहले और गांधी द्वारा भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा के ठीक एक हफ्ते बाद।
इस मृत्यु को गुहा बड़ी मार्मिकता से चित्रित करते हैं। महल में ही महादेव का अंतिम संस्कार हुआ। उसके बाद गांधी उस स्थल पर रोज सुबह जा गीता का बारहवाँ अध्याय पढ़ते थे जो भक्ति पर केन्द्रित है, कभी उस जगह की राख़ के कतरे माथे से लगाते थे। एक तिहत्तर साल का वृद्ध, जो हिरासत में है, रोज सुबह मिट्टी के ढेर को गीता पढ़कर सुनाता है, मिट्टी माथे से लगाता है। यह उस वृद्ध के बारे में क्या बताता है?
बाकी दो हैं मुहम्मद अली जिन्ना और बी आर अंबेडकर, जो गांधी की नैतिक और राजनैतिक शक्ति के लिए सबसे बड़ी चुनौती थे। अंबेडकर गांधी को अपने समुदाय का, और जिन्ना मुसलमानों का नेता मानने से इंकार करते थे। अंबेडकर अनुसूचित जातियों के उत्थान के लिए कानून चाहते थे, गांधी सवर्णों के हृदय परिवर्तन पर बल देते थे। अंबेडकर के साथ चले लंबे और कसमसाते संवाद के दौरान गांधी के विचार इस मसले पर बदलते गए जिसे गुहा एकदम ठीक रेखांकित करते हैं: “अंबेडकर का गांधी गहरा प्रभाव पड़ा था जिसे वे शायद स्वीकारने से भी बचते थे।”
अंबेडकर तो फिर भी काँग्रेस में समाहित हो गए थे, जिन्ना ने गांधी को सबसे बड़ा धक्का दिया था। भारत विभाजन हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए प्रयासरत गांधी की व्यक्तिगत हार थी। विभाजन भले ही कई पीढ़ियों की नकामयाबी का नतीजा था, गुहा संकेत देते हैं कि गांधी ने जिस तरह खिलाफत आंदोलन के दौरान मुसलमानों का समर्थन किया उसने भारत में कट्टर इस्लाम को बढ़ावा दिया। जिन्ना जो तब तक काँग्रेस के साथ थे, मुस्लिम सांप्रदायिकता के विरोध में थे, वे जल्द ही काँग्रेस से अलग हो गए, उस रास्ते पर चल पड़े जो सीधा भारत विभाजन को जाता था।
गुहा गांधी का कई जगह बचाव करते हैं, लेकिन उनकी तमाम सीमाओं का भी उल्लेख करते हैं — मसलन अपने बेटों के साथ किया अन्याय।
गांधी गुहा के विषय हैं, वे उनकी खोज भी हैं। गांधी के जरिये गुहा स्वतंत्र होते भारत की कथा कहते हैं। गांधी के जीवन में आए अनेक किरदार, उनका टैगोर, नेहरू, सीएफ एंड्रूज इत्यादि से संवाद उन्हें स्वतन्त्रता संग्राम का रुपक बनाता हैं। गांधी के जरिये बीसवीं सदी के भारत में प्रवेश किया जा सकता है। गांधी पर बहुत लिखा गया है। यह जीवनी उस लेखन का बढ़िया विस्तार करती है। कई महाद्वीपों में फैले अभिलेखों को अपना स्रोत बनाती है, जिसमें गांधी के सचिव प्यारेलाल के निजी दस्तावेज़ भी हैं जिन पर काम करने वाले गुहा गांधी के पहले जीवनीकार हैं।
गांधी का अन्य विलक्षण पहलू यह है कि वे खुद को न सिर्फ अपने परिवार का या साबरमती और वर्धा आश्रम का,बल्कि पूरे भारत का अभिवावक मानते थे। पिछली सदी में कई बड़े नेता हुए थे लेकिन क्या माओ, चर्चिल या रूज़वेल्ट सरीखे राजनेताओं से यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे अनजान लोगों के खतों का जवाब देंगे जो उनसे अपनी पारिवारिक समस्याओं पर चर्चा करना चाहते थे? कोई भी राजनेता शायद ब्रह्मचर्य पर सार्वजनिक सलाह नहीं देगा। लेकिन गांधी सिर्फ महात्मा नहीं, वे बापू भी थे।
भारतीय संस्कृति में एक अभिवावक से अक्सर अपेक्षा होती है कि वह अपनी संवेदनाएं छुपा कर रखेगा। महादेव की मृत्यु के अठारह महीने के भीतर कस्तूरबा की मृत्यु उसी पैलेस में हो गयी। बहुत कम समय में गांधी ने वे दो इंसान खो दिये थे जिनका उनके निजी जीवन में, उनके सार्वजनिक कर्मों के निर्वाह में बहुत बड़ा योगदान था,जिनके बगैर गांधी शायद कभी गांधी नहीं हो पाते। एक वृद्ध इंसान जो अभी भी जेल में है, वह इस आघात को किस तरह जी रहा था? “वह इस त्रासद अनुपस्थिति पर शोक करते हैं क्योंकि वह जो आज हैं उसमें उनकी (कस्तूरबा) बहुत बड़ी भूमिका रही है। लेकिन वे एक दार्शनिक संयम ओढ़े रहते हैं…जब मैं और मेरे भाई शुक्रवार को उनसे विदा ले रहे थे, वे वही चुटकुले सुना रहे थे जिन्हें वे आंसुओं की जगह इस्तेमाल करते आए थे।” यह देवदास गांधी ने लिखा था जब वे अपनी माँ की अस्थियों के साथ अपने पिता से विदा ले रहे थे। भारतीय संस्कृति में एक मनुष्य और है जिसे अपार संयम के लिए याद किया जाता है — वह गांधी के आदर्श थे।
गुहा अपनी किताब का अंत गांधी की सबसे बड़ी उपलब्धि से करते हैं — सत्य की तलाश। गांधी ने अपने जीवन के हरेक पहलू को सार्वजनिक कर दिया, अपनी वासना, खामियों और उन्माद पर लिखा। जिन घटनाओं पर उन्होंने नहीं लिखा लेकिन जिसकी चर्चा अपने करीबी मित्रों से की (मसलन सरलादेवी पर हुए खत), वे उनके मरने के बाद प्रकाशित हो गए। “पता नहीं हम उन बड़ी हस्तियों के बारे में क्या सोचते…अगर हम उनके जीवन की तमाम अंतरंगताओं को इस कदर जान जाते,” गुहा लिखते हैं।
अनेक भारतीय गांधी को नकारते हैं। कुछ को ढेर सारी शिकायतें हैं, कुछ गांधी से कोरी नफरत करते हैं। यह जीवनी उन्हें अपना मत परिवर्तित करने को प्रेरित कर सकती है। हो सकता है वे मानने लगें या मानना चाहें कि गांधी वाकई राष्ट्र-पिता थे, एक विशेषण जो पहली बार गांधी के धुर वैचारिक विरोधी सुभाष चंद्र बोस ने प्रयुक्त किया था जब वे आजाद हिन्द फ़ौज़ की स्थापना कर रहे थे।
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युवा संपादक-लेखक सत्यानन्द निरुपम का यह लेख छठी मैया और दीनानाथ से शुरू होकर जाने कितने अर्थों को संदर्भित करने वाला बन जाता है. ललित निबंध की सुप्त परम्परा के दर्शन होते हैं इस लेख में. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर
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छठ-गीतों में ‘छठी मइया’ के अलावा जिसे सर्वाधिक सम्बोधित किया गया है, वे हैं ‘दीनानाथ’। दीनों के ये नाथ सूर्य हैं। बड़े भरोसे के नाथ, निर्बल के बल! ईया जब किसी विकट स्थिति में पड़तीं, कोई अप्रिय खबर सुनतीं, बेसम्भाल दुख या चुनौती की घड़ी उनके सामने आ पड़ती, कुछ पल चौकन्ने भाव से शून्य में देखतीं और गहरी सांस छोड़तीं। फिर उनके मुँह से पहला सम्बोधन बहुत धीमे स्वर में निकलता– हे दीनानाथ! ऐसा अपनी जानी-पहचानी दुनिया में ठहरे व्यक्तित्व वाले कई बुजुर्गों के साथ मैंने देखा है। वे लोग जाने किस भरोसे से पहले दीनानाथ को ही पुकारते! उनकी टेर कितनी बार सुनी गई, कितनी बार अनसुनी रही, किसी को क्या पता! लेकिन “एक भरोसो एक बल” वाला उनका भाव अखंडित रहा। मुझे वे लोग प्रकृति के अधिक अनुकूल लगे। प्रकृति के सहचर! प्रकृति से नाभिनाल बंधे उसकी जैविक संतान! अब कितने बरस बीत गए, किसी को दीनानाथ को गुहराते नहीं सुना। सिवा छठ-गीतों में चर्चा आने के! जाने क्या बात है! इस दौरान कई सारे देवता लोकाचार में नए उतार दिए गए हैं। कई देवियाँ देखते-देखते भक्ति की दुकान में सबसे चमकदार सामान बना दी गई हैं। अब लोग अपनी कुलदेवी को पूजने साल में एक बार भी अपने गाँव-घर जाते हों या नहीं जाते हों, वैष्णव देवी की दौड़ जरूर लगाते रहते हैं। जब से वैष्णव देवी फिल्मों में संकटहरण देवी की दिखलाई गईं, और नेता से लेकर सरकारी अफसरान तक वहाँ भागने लगे, तमाम पुरबिया लोग अब विंध्यांचल जाने में कम, वैष्णव देवी के दरबार में पहुँचने की उपलब्धि बटोरने को ज्यादा आतुर हैं। भक्ति अब वह फैशन है, जिसमें आराध्य भी अब ट्रेंड की तर्ज पर बदल रहे हैं। पहले भक्ति आत्मिक शांति और कमजोर क्षणों में जिजीविषा को बचाए रखने की चीज थी। अब श्रेष्ठता-बोध का एक मानक वह भी है। मसलन आप किस बाबा या माँ के भक्त हैं? बाबा या माँ के आप किस कदर नजदीक हैं? इतना ही नहीं, “साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय” वाली भावना आउटडेटेड बेचारगी जैसी बात है। नए जमाने के भक्त तो साईं को ही साईं के अलावा ‘सब कुछ’ बना देने पर उतारू हैं और इसके पीछे शायद भावना कुछ ऐसी है कि साईं की कृपा अधिकतम उन पर बरसे और वे सब सुख जल्द से जल्द पा लें। जैसे-जैसे कृपा होती दिखती है, वैसे-वैसे चढ़ावा बढ़ता है और विशेषणों की बौछार बरसाई जाती है। अगर कृपा बरसती न लगे तो आजकल बाबा या माँ बदलते भी देर नहीं लगती। भक्ति का आधार कपड़े और मेकअप के पहनने-उतारने जैसी बात नहीं होती, सब जानते हैं। फिर भी, तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं के समाज में ‘मंदिर-मंदिर, द्वारे-द्वारे’ भटकने और किसी ठौर मन न टिकने की आजिज़ी में अचानक किसी रोज किसी बाबा के फेर में पड़ जाना आजकल आम बात है। और बाबाओं के फेर ऐसा है कि वे बलात्कारी और धूर्त भी साबित हो जाएं तो तथाकथित भक्त उनके नाम का नारा लगाने में पीछे नहीं हटते। इसकी वजह शायद यह है कि बाबा सुनता तो है! सुनने वाला चाहिए सबको। कुछ करे न करे, सुन ले। दुख सुन ले। भरम सुन ले। मति और गति फेरे न फेरे, बात को तसल्ली से सुन ले। पहले दीनानाथ सुनते थे। भले हुंकारी भरने नहीं आते थे, लेकिन लोगों को लगता था, वे सब सुन रहे हैं और राह सुझा रहे हैं। आजकल हाहाकारी समाज को हुंकारी बाबा और माँ चाहिए। जो राह सुझाएँ न सुझाएँ, मन उलझाए रखें। वैसे लगे हाथ एक बात और कहूँ, नेता भी सबको ऐसे ही भले लग रहे हैं जो उलझाए रखें। हे दीनानाथ, सबको रौशनी देना!
(सत्यानन्द निरुपम के फेसबुक वाल से साभार)
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इन दिनों रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन नोटबंदी और जीएसटी को लेकर अपने बयान से चर्चा में हैं. पिछले साल जब उनकी किताब आई थी तब वह किताब भी बेहद चर्चा में रही. अर्थशास्त्र की किताब बेस्टसेलर सूची में आई. उस किताब में भी वर्तमान सरकार की आर्थिक नीतियों की पर्याप्त आलोचना है. हार्पर कॉलिन्स से प्रकाशित यह किताब इस साल हिंदी में आ गई है. अनुवाद मैंने ही किया है. प्रस्तुत है पुस्तक की भूमिका- मॉडरेटर
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इस किताब के शीर्षक से सार्वजनिक जीवन की आकस्मिक प्रकृति का अंदाजा होता है। मौद्रिक नीतियों से जुड़ी बैठकों के बाद मुझे प्रेस कांफ्रेंस में बोलने में आनंद आता था, खासकर इसलिए क्योंकि मैं अधिकतर संवाददाताओं को जानता था। एक बार जब एक प्रेस कांफ्रेंस समाप्त होने ही वाला था कि एक बार फिर एक जाने पहचाने चेहरे ने सवाल किया। सवाल यह था कि मैं येल्लेन की तरह अपनी अर्थ नीति में उदारता बरतने वाला था या वोल्कर की तरह सख्त नीतियाँ अपनाने वाला। मैं समझ गया कि वह संवाददाता क्या पूछ रहा था, लेकिन मैं खुद को बंधी बंधाई रुढियों में कैद करने की उसकी कोशिश को परे झटकना चाहता था। मैंने कुछ मजाकिया अंदाज में जेम्स बांड की शैली में बोलना शुरू किया, “मेरा नाम रघुराज राजन है…” इस पंक्ति के बीच में मैं घबरा गया क्योंकि मुझे यह नहीं समझ में आ रहा था कि इस पंक्ति को किस तरह से समाप्त करूं जिससे जिससे मौद्रिक नीति के बारे में उनको उससे अधिक कुछ नहीं पता चले जितना कि मैं चाहता था। इसलिए जब टीवी कैमरे मेरी तरफ घूमे तो मैंने धीरे से कहा “…मुझे जो करना होता है मैं वही करता हूँ।” किसी वजह से वह पंक्ति अगले दिन वित्तीय ख़बरों की सुर्ख़ियों में आ गया, जबकि हमारी मौद्रिक नीतियों से सम्बंधित ख़बरें अन्दर के पन्नों में दी गई थी। सोशल मीडिया पर हो रही टिप्पणियों का असर आम तौर पर मेरा समर्थन करने वाली बेटी के ऊपर भी हो गया और उसने मेरी इस बेइरादा टिप्पणी के ऊपर बार बार अंगूठा नीचे दिखाने वाला इमोजी बनाते हुए नकारात्मक प्रतिक्रिया की।
वैसे एक तरह से यह शीर्षक बिलकुल सही था। दो अलग अलग सरकारों ने मेरे ऊपर विश्वास जताते हुए मोटे तौर पर स्वतंत्रता से काम करने का मौका दिया। मैं इस बात को जानता था कि मेरा कार्यकाल तीन सालों का था इसलिए मैं बदलाव के लिए भरपूर कोशिश कर सकता था। धीरे धीरे निहित स्वार्थों का विरोध सामने आने लगता, लेकिन तब तक मेरे ख़याल से आरबीआई के जरूरी सुधार हो चुके होते। और सच में मैंने यही किया। जब मैंने अपना कार्यकाल संभाला उस समय मौद्रिक संकट था, जब भारत को सबसे कमजोर पांच देशों के रूप में देखा जा रहा था। इसलिए मेरा पहला काम यह था कि मौद्रिक स्थिरता लाई जाए। लेकिन मैं आरम्भ से ही इस बात को समझ गया था कि वित्तीय क्षेत्र में किये गए सुधारों से स्थिरता में मदद मिलेगी। भारत निम्न आय से मध्यम आय वर्ग के देश के रूप में संक्रमण कर रहा था इसलिए इन आर्थिक सुधारों की जरूरत का मतलब साफ़ था। जाहिर है, सुधार की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है और उनको वापस भी लिया जा सकता है। इसलिए जरूरी यह था कि नए संस्थानिक तौर-तरीके में आर्थिक सुधारों को जगह दी जाए, साथ ही आरबीआई तथा उससे जुड़ी बाहरी संस्थाओं में आर्थिक सुधारों को लेकर जिम्मेदारी का भाव पैदा किया जाए।
और यहाँ मुझे टीम के साथ काम करने की जरूरत महसूस हुई। प्रबंधन के क्षेत्र में यह मेरा पहला काम नहीं था। लेकिन मैं एक ऐसे संस्थान का प्रमुख बना था जहाँ 17 हजार लोग काम करते थे, जिसकी परिसंपत्तियां 400 अरब डॉलर से अधिक की थी। कोई इतने बड़े संस्थान को किस तरह से चला सकता है? जाहिर है मदद से। मैंने हमेशा इस बात को महसूस किया है कि प्रबन्धन का सबसे महत्वपूर्ण काम होता है अपने मातहत काम करने के लिए अच्छे लोगों का चुनाव करना, और मैं अपने साथ काम करने के लिए बहुत अच्छे लोगों का चयन कर पाने में सफल रहा। मेरी भूमिका सम्पूर्ण दिशा निर्धारित करने की थी(जाहिर है, उनसे राय विचार करते हुए), सरकार से अनुमति लेने के बाद अपने सहयोगियों के विस्तृत अनुभव के आधार पर इस सम्बन्ध में विस्तृत रुपरेखा तैयार की जाये, जिनके बारे में सामान्य तौर पर न करने की राय हो ऐसे कदम न उठाये जाएँ। जरुरत पड़ने पर अपने संस्थान में उत्साह बढाने सम्बन्धी काम किये जाएँ जिससे कि हम अपनी समय सीमा में काम कर पायें, उसके बाद प्रक्रिया से जुड़ी सारी संस्थाओं के साथ साथ आम जनता के साथ चर्चा के बाद उन प्रक्रियाओं को अमली जामा पहनाया जाए। आर्थिक सुधारों की शुरुआत हमने गोपनीय तरीके से नहीं की। हालाँकि आरम्भ में हमारे द्वारा उठाये गए कुछ क़दमों को पचा पाना विरोधियों के लिए मुश्किल रहा, लेकिन हमने जो भी कदम उठाये उसके लिए पहले आरबीआई द्वारा कई समितियां बनाई गई, सार्वजनिक व्याख्यानों में उनके बारे में चर्चा की गई, और उसके बाद उससे जुड़े लोगों के साथ विचार विमर्श के बाद उनको लागू किया गया। हम लोग हमेशा वैकल्पिक प्रस्तावों को सुनने के लिए तैयार रहते थे, लेकिन किसी भी सुझाव को स्वीकार करने से पहले मैं अपनी आर्थिक या वित्तीय सामान्य बुद्धि के आधार पर उनके बारे में विचार करता था, और मेरे सहकर्मी इस बात के आधार पर उनके ऊपर विचार करते थे कि वह केन्द्रीय और व्यावसायिक बैंकों के प्रचलन के अनुकूल है या नहीं। कुल मिलाकर, इस दोहरी छानबीन के आधार पर हम ऐसे सुझावों नहीं अपनाते थे जो इस काम में सहायक नहीं होते थे। हम जो सुधार कर रहे थे वह वह बाजार की भूमिका को बढाने तथा प्रतिस्पर्धा बढाने से प्रेरित होता था, और इस बात को सुनिश्चित करने के लिए होता था कि हमारे सारे कायदे कानून सही हों और उनको पूर्व-अनुमानित तथा पारदर्शी तरीके से लागू किया जाये, और इसको इस तरह से अंदाजा लगाते हुए धीरे धीरे लागू किया जाए जिससे कि व्यवस्था इसके साथ तालमेल बिठा सके। जैसा कि आगे मैं यह बताऊंगा मोटे तौर पर इन्हीं तरीकों से हमने मुद्रास्फीति के प्रबंधन से लेकर पुराने ऋणों के मुद्दों को निपटाया। इस दौरान, हमारी कोशिश यह थी कि इन प्रक्रियाओं का इस तरीके से संस्थानीकरण भी कर दिया जाए ताकि उनके बारे में पहले से पता हो और वे टिकाऊ भी हो जाएँ। भारत मध्य आय वर्ग का एक बड़ा देश बनता जा रहा है, बेहद जटिल और इतना विविध कि केन्द्रीय तौर पर उसको नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। सरकार को अर्थव्यवस्था को काबू में बनाए रखने की भूमिका से अपने आप को हटाने की जरूरत होगी, उसको अपने आपको सार्वजनिक सेवाएँ देने तथा नियंत्रणकारी ढांचा तैयार करने तक सीमित कर लेना होगा, और आर्थिक गतिविधियों को जनता के ऊपर छोड़ देना होगा। अपनी सामूहिक ऊर्जा को पूरी तरह से काम में लाने के लिए आने वाले सालों में भारत अगर यह चाहता है कि वह तेजी से सतत और समतापूर्ण ढंग से विकास करता रहे तो उसको इस तरह के कई सुधार करने होंगे।
मेरे व्याख्यान स्थिरीकरण तथा आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया के आवश्यक अंग थे, उनके माध्यम से मैं निवेशकों और आम जनता को बदलाव के पीछे के कारणों को समझाता था, आर्थिक सुधारों बन रहे ढांचे के बारे में बताता था और जब किसी तरह के विशेष नियम को बनाया जा रहा होता था तो उस सम्बन्ध में प्रमुख व्यक्तियों के बीच बहस को छेड़ता था ताकि जनमत तैयार हो जाए। हम जो करना चाहते थे उसके बारे में बार बार बताने से आरबीआई को बाजार से जरूरी सुधार का श्रेय उसकी घोषणा के समय ही मिल जाता था, उस काम के निष्पादन से बहुत पहले। बाजार के पुनः अस्थिर होने की स्थिति में यह महत्वपूर्ण हो सकता था। साथ ही, बहुत सारे भाषणों ने बड़े स्तर पर लोगों को अन्तर्निहित वित्त एवं अर्थव्यवस्था के बारे में शिक्षित करने की भी कोशिश की। अगर व्याख्यान को सुनकर कोई व्यक्ति और अधिक सीखने की दिशा में प्रेरित हो गया तो यह वित्तीय एवं आर्थिक साक्षरता की दिशा में बढ़ाया गया एक और कदम होता- मैंने वही किया जो हर अध्यापक चाहता है, एक राष्ट्रीय मंच, जिसको मैंने प्रभावपूर्ण और जिम्मेदार तरीके से आजमाने की कोशिश की।
अपने भाषणों के माध्यम से मैंने कुछ हद तक महत्वपूर्ण आरबीआई की एक और भूमिका का निर्वहन करने का प्रयास किया, देश के लिए समष्टि अर्थशास्त्र के खतरों के प्रबंधन का। इस लक्ष्य के कारण, जैसा कि हम लोग देखेंगे, व्याख्यान अधिक विवादित भी हुए, शायद इस कारण क्योंकि मैं केन्द्रीय बैंकिंग एवं विनियमन के सामान्य क्षेत्र से बाहर निकल कर बात कर रहा था, और शायद इस कारण भी क्योंकि मेरी चेतावनियों को आश्चर्यजनक तरीके से सरकार को दी जाने वाली चुनौती के रूप में देखा गया। बहरहाल, इस भाषणों को मैंने आरबीआई गवर्नर की जिम्मेदारी के रूप में देखा जो देश में समष्टि अर्थव्यवस्था के प्रबंधन के खतरे के लिए जिम्मेदार होता है।
अकादमिक जगत के होने के कारण मैंने अपने सभी भाषण स्वयं लिखे। मेरी पत्नी राधिका मेरे व्याख्यानों के प्रारंभिक प्रारूपों को पढ़कर उनकी रचनात्मक आलोचना किया करती थी। उसके बाद आरबीआई में उस विषय का विशेषज्ञ व्याख्यान के तथ्यों की जांच-परख किया करता था, उसके बाद उस व्याख्यान को मेरे बेहद योग्य कार्यकारी सहायक द्वारा पढ़ा जाता था(पहले, हमेशा विश्वास के काबिल विवेक अग्रवाल और बाद में उनके स्थान पर वैभव चतुर्वेदी आए)। अंत में, अल्पना किल्लावाला, जो हमारे यहाँ संचार विभाग में महाप्रबंधक थीं, उनको पढ़कर यह देखने की कोशिश करती थीं कि उसके कारण किसी तरह का राजनीतिक विवाद तो नहीं हो सकता था। उसके बाद मैं एक बार अपने व्याख्यान में जरूरी संशोधन करता और फिर भाषण देता था।
मीडिया की नजर हमेशा बहुत गहरी रहती थी, यहाँ तक कि ऐसी जगहों पर भी जहाँ मीडिया को बाहर रखा जाता था- वहां मौजूद कोई ऐसा आदमी होता था जो हमेशा मीडिया को बताने के लिए तैयार रहता था या सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखने के लिए तत्पर रहता था। प्रेस का ध्यान शायद इस वजह से बहुत अधिक रहता था क्योंकि उनको ऐसा लगता था कि शायद मैं भविष्य की मौद्रिक नीति के बारे में कोई बात बोल दूँ, लेकिन मीडिया को भी यह बात समझ में आ गई थी कि मैं मौद्रिक नीति की बैठकों के बाहर नई नीति के बारे में कुछ नहीं बोलता था, इसलिए मुझे लगने लगा कि वे इसलिए आते थे क्योंकि मेरे व्याख्यान बहुत दिलचस्प होते थे। खैर जो भी हो, मीडिया द्वारा इस कदर नजर बनाये रखना दोधारी तलवार की तरह था, जैसा कि हम आगे देखेंगे। हालाँकि इसके कारण आरबीआई का सन्देश आसानी से बाहर पहुँच जाता था, लेकिन मेरे व्याख्यान की कोई बात जो समझ में नहीं आती थी या किसी टिप्पणी को गलत तरीके से समझ लेने के कारण बिलावजह का तनाव होता था। मैं इसे सार्वजनिक मेलजोल की न टाली जा सकने वाली कीमत के रूप में देखता था, लेकिन कई बार मैं यह सवाल करता था कि मेरे कथन की गलत व्याख्या के पीछे आकस्मिक कारण होता था या ऐसा जानबूझकर किया जाता था। आरबीआई के गवर्नर का पद एक ऐसा संतोष भरा पद था जिसकी कामना कोई भी भारतीय अर्थशास्त्री कर सकता था। कई बार मैं घर लौटता था तो बहुत थका हुआ रहता था लेकिन मुझे इस बात की ख़ुशी होती थी कि हम बदलाव ला पाए। सार्वजनिक प्रशासन में ऐसे बहुत कम पद हैं जिसके ऊपर बैठा व्यक्ति ऐसा कह सकता हो, क्योंकि उसके ऊपर दूसरे संगठनों के साथ संगति बिठाने का दबाव रहता है, और आपसी खींचतान के कारण आगे बढ़ पाना भी मुश्किल हो जाता है। लेकिन आरबीआई में बहुत सारे मुद्दों को लेकर फैसला केवल हमारा ही होता है, इसलिए संभव थी और निरंतर संभव थी। इसका यह भी मतलब हुआ कि काम का बोझ हमेशा मेरे सर पर बना रहता था, मुझे यह पूछते रहना पड़ता था कि हम और क्या क्या कर सकते थे, क्योंकि इसकी संभावनाएं अनंत थीं। एक नीति निर्माण करने वाले अर्थशास्त्री को गवर्नर बनाए जाने का मतलब यह हुआ जैसे किसी बच्चे को टॉफी की दुकान में मनमानी करने के लिए छोड़ दिया जाए।
यह कहने की बात नहीं है कि इस पद पर काम करना हमेशा आसान और आनंददायक रहा हो। राजनेताओं के साथ मेरी अच्छी समझदारी थी- मैं नियमित तौर पर और सौहार्दपूर्ण माहौल में पहले प्रधानमंत्री डॉ। मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री चिदंबरम से मिलता रहता था, और फिर सरकार बदलने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली के साथ भी। यह ऐसा काम था जिसे करते हुए किसी भी अफसर को ख़ुशी महसूस होती, लेकिन मेरे पद का सबसे अनमना करने वाला था उन अफसरों के साथ निपटना जो रिजर्व बैंक को कमजोर करने की कोशिश में लगे हुए थे ताकि उनका रुतबा बढ़ सके। गवर्नर के रूप में अपने अंतिम भाषण में(आगे दिया गया है), मैंने सरकार को इस सम्बन्ध में सुझाव दिया इस तरह के बिलावजह के मनमुटाव को किस प्रकार कम किया जा सकता था।
किसी भी सार्वजनिक पद पर काम करते हुए बिलावजह की तारीफ भी मिलती है और अनुचित आलोचना का भी सामना करना पड़ जाता है। यह इंसान का स्वभाव होता है कि वह यह सोचता है कि तारीफ से अधिक उसकी आलोचना होती है। फिर भी यह आलोचना ही होती है जो आपको अपने सन्देश को और अधिक स्पष्ट बनाने में मदद करती है। इन व्याख्यानों के अधिकतर हिस्से में आलोचकों के लिए जवाब होता था, यह समझाने की कोशिश के रूप में कि क्यों उनको सब कुछ अच्छी तरह से पता नहीं था। इस हद तक तो आलोचना से इसमें मदद मिलती थी उसके जवाब में मैं स्पष्टीकरण देते हुए जो व्याख्यान देता था उससे जनता की समझ साफ़ होती थी, उसमें उम्मीद की किरण होती थी। लेकिन सबसे बड़ा पुरस्कार इस अर्थ में होता है जब अपने काम से निजी तौर पर संतुष्टि मिलती है, मुझे तब बहुत अधिक ख़ुशी होती है जब अनेक विद्यार्थी मुझसे यह कहते हैं कि वे अर्थशास्त्र और वित्त की पढ़ाई पढने के लिए प्रेरित हुए, हवाई जहाज में कोई अनजान मुसाफिर मुझे मेरे काम के लिए शुक्रिया अदा करता है, और यहाँ तक कि मेरे सफ़र के बोर्डिंग कार्ड के ऊपर मुहर लगाने वाला सुरक्षा अधिकारी मुझसे यह पूछता है कि मैं देश में काम करने के लिए वापस कब आ रहा हूँ।
जैसा कि मैंने पहले ही संकेत दिया है कि यह कोई हर बात का खुलासा करने वाली किताब नहीं है। हालाँकि इस भूमिका के समापन से पहले एक बात जिसको लेकर मुझे बहुत सवाल किये गए हैं, जिनके जवाब देने के लिए मैं जान बूझकर तब तक मना करता रहा जब तक कि मेरी चुप्पी का समय पूरा नहीं हो गया,और नवम्बर 2016 में भारत में लागू की गई विमुद्रीकरण की नीति के बारे में है। वे सवाल, जिनके बारे में बताया गया कि संसदीय समितियों ने भी पूछे थे, उनमें विमुद्रीकरण की सम्भावना और उसके बारे में मेरे विचारों को लेकर है। मीडिया ने सरकारी स्रोतों को उद्दृत करते हुए कई बार यह कहा कि मैं इसके खिलाफ था(विमुद्रीकरण की प्रक्रिया के आरंभिक दिनों में) और यह कि मेरी भी इसमें सहमति थी(हालिया रपटों में)।
विमुद्रीकरण के बारे में मैंने सार्वजनिक तौर पर केवल एक बार बोला था जब मैंने अगस्त 2014 में ललित दोषी स्मृति व्याख्यान के दौरान एक सवाल के जवाब में कहा था(बाद में देखें)। तब सरकार ने इस मुद्दे के ऊपर कोई चर्चा नहीं की थी। जैसा कि हिन्दुस्तान टाइम्स में अगस्त में खबर आई थी कि सालाना ललित दोषी स्मृति व्याख्यान के दौरान राजन ने कहा, “मुझे ठीक से समझ में नहीं आया कि आपका मतलब यह है कि पुराने नोटों का विमुद्रीकरण करके उनके स्थान पर नए नोट जारी किये जाएँ। अतीत में काले धन के प्रचलन को रोकने के लिए विमुद्रीकरण के बारे में सोचा गया था। क्योंकि तब लोगों को सामने आकर कहना पड़ता है कि मेरी तिजोरी में दस करोड़ नगद पड़े हुए हैं, तब उनको यह भी बताना पड़ जाता है कि उनके पास वे पैसे आये कहाँ से। इसे समाधान के रूप में पेश किया जाता है। दुर्भाग्य से, मुझे ऐसा लगता है कि चालाक लोग इससे बचाव के रास्ते निकाल लेते हैं।’
*http://www।hindustantimes।com/business-news/rajan-preferred-otherways-
over-demonetisation-to-tackle-black-money/story-vlTbd6oixy
राजन ने कहा, “जिनके पास बहुत सारा काला धन जमा होता है वे उसको छोटे छोटे हिस्सों में बाँटने के रास्ते निकाल लेते हैं। आप पाएंगे कि जो लोग काले धन को सफ़ेद बनाने के रास्ते नहीं निकाल पाते हैं वे उसको किसी मंदिर में हुंडी में जाकर डाल देते हैं। मुझे लगता है कि विमुद्रीकरण से बचने के रास्ते हैं। काला धन निकाल पाना इतना आसान नहीं है।” बिना हिसाब किताब का बहुत सारा काला धन सोने के रूप में होता है और जिनको पकड़ पाना और भी मुश्किल होता है, राजन ने कहा। उन्होंने यह भी कहा कि वह अधिक ध्यान प्रोत्साहनों के ऊपर देना चाहेंगे जिससे काले धन को बनाना और उसको जमा करने की प्रवृत्ति में कमी आये। करों के रूप में बहुत सारे प्रोत्साहन दिए जाते हैं और इस समय देश में करों की दर ठीक ही थी, उन्होंने आगे कहा। चूँकि मुझे लेकर कई हवाले दिए गए, यहाँ तक कि संसद में भी दिए गए, इसलिए मैं इस बात को स्पष्ट करना चाहता हूँ। फ़रवरी 2016 में सरकार ने विमुद्रीकरण के बारे में मुझसे राय ली थी, जिसका जवाब मैंने मौखिक रूप से दिया था। हालाँकि हो सकता था कि दीर्घ अवधि में इसका फायदा होता लेकिन तत्काल रूप से अर्थव्यवस्था के ऊपर जो भार पड़ता वह उस लाभ के ऊपर भारी हो जाता, इसलिए मुझे ऐसा लगा कि मुख्य लक्ष्य को हासिल करने के लिए बेहतर विकल्प मौजूद थे। मैंने अपने विचार स्पष्ट रूप से जाहिर किये। उसके बाद मुझसे एक नोट तैयार करने के लिए कहा गया, जिसे आरबीआई ने तैयार करके सरकार को दे दिया। इसमें विमुद्रीकरण के संभावित खर्चे और लाभों को रेखांकित किया गया था, साथ ही ऐसे विकल्पों के बारे में भी बताया गया था जिनके द्वारा भी इसी तरह के परिणाम हासिल किये जा सकते थे। अगर सरकार होने वाले लाभों और हानियों का आकलन करके विमुद्रीकरण को आजमाना ही चाहती थी तो ऐसी हालत में उस नोट में इस बात को रेखांकित किया गया था कि किस तरह की तैयारियों की जरूरत थी, और इसकी तैयारी में कितना समय लगता। आरबीआई ने इस बात को बताया था कि अगर तैयारी अपर्याप्त रही तो ऐसी सूरत में क्या हो सकता था। सरकार ने उन बातों के ऊपर विचार करने के लिए एक समिति बिठा दी। समिति की बैठकों में डिप्टी गवर्नर (करेंसी) जाते थे। मेरे कार्यकाल के दौरान किसी भी समय आरबीआई से यह नहीं कहा गया कि वह विमुद्रीकरण के बारे में फैसला ले ले।
The post रघुराम जी. राजन की पुस्तक ‘I Do What I Do’ का एक अंश appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..
स्पैनिश साहित्य की अमर कृति ‘दोन किख़ोते’ पर यह लेख सुभाष यादव ने लिखा है. वे हैदराबाद विश्वविद्यालय में स्पैनिश भाषा के शोधार्थी हैं, मूल स्पैनिश भाषा से हिंदी में अनुवाद करते हैं. एक विस्तृत और रोचक लेख- मॉडरेटर
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वैसे भी भला नाम में में क्या रखा है जो जी में आए समझ लीजिये हालाँकि स्पेनिश भाषा के इस सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक कृति को स्पेनिश भाषी दुनिया, और अंग्रेजी को छोड़ बाकी सभी यूरोपीय भाषाओं में दोन किख़ोते के नाम से जाना जाता है। भारत में इस महान उपन्यास का परिचय कराने का श्रेय विलायती बाबूओं को जाता है, जिन्होंने स्पेनिश जनता से कहीं ज्यादा इसे पढ़ा और अध्ययन किया। अंग्रेजो ने जाने अनजाने में आधुनिक विधि व्यवस्था, शिक्षा, उपकरण आदि से लैश हो कर यहाँ राज तो किया ही मगर साथ ही साथ भारतीय समाज के दीवारों में अनंत खिड़कियाँ और दरवाजे भी ठोक डाले जिनसे न वे सिर्फ़ वो आपस की नजदीकी दुनियाँ का जायजा ले सके बल्कि धरती के दूसरे छोरों पर स्थित, पाताल और आकाश जैसे दूर स्थित दुनियाँ की दास्तान भी पढ़ सके. इस संदर्भ में दोन किख़ोते से हमारा परिचय किसी अजूबे से कम नहीं हैं। समझ लीजिये कोई हमें पत्थर मारते समय अपनी अँगूठी के अनेको नगीने भी फेंक गया, जिन्हें आज सहेजने की जरुरत है।
लेखक पात्रों के कंधो पर बैठ सवारी करता है, और पात्रों के उस दुनियाँ का आँखों देखे हाल को शब्दों में उकेर कर पाठक तक पहुँचाता हैं। कभी कभी तो वो अपने दुःस्वप्न में आने वाले पात्रों के कन्धों पर भी बिलकुल काफ्का की तरह चढ़ बैठता है। मगर हमेशा नहीं। कभी कभी कल्पना के रॉकेट के पाइलट इन पात्रों पर से उस कथित लेखक का नियंत्रण खत्म हो जाता है और यहाँ तक की पात्र लेखक को अपने कन्धों से उतार फेंकते हैं। रोलैंड बार्थ की उद्घोषणा की लेखक मर चूका है, शायद देर कर चूका है। लेखक को तो कभी-कभी पात्रों की धक्का मुक्की में ही मर जाता है, और उस बेचारे को कागज के टुकड़ों पर या दीवारों में कैद पुस्तकालयों के अँधेरी गुफा सरीखे रैक में धूल फाँक कर, या तहख़ाने में दम घूँटकर या फुटपाथ पर कुचलकर मरने का मौका भी नहीं मिलकता। कुछ ऐसा ही हुआ और दोन किख़ोते ने अपने लेखक मिगुएल दे सेरवांतेस को अपने जंग लगी तलवार से उसी वक्त मार दिया जब उस महान कथाकार सेरवांतेस ने उसके हाँथों में तलवार ढाल और घोड़े का सवार बना दिया। हम बेचारे सेरवांतेस को कम जानते हैं और दोन किख़ोते को उनसे ज्यादा।
आख़िर सेरवांतेस है कौन?
दोन किख़ोते महान स्पेनिश उपन्यासकार मिगुएल(मिगेल) दे सेरवांतेस की अमर रचना है। मिगुएल दे सेरवांतेस का जन्म या सिर्फ सेरवांतेस जैसा की आमतौर पर उन्हें जाना जाता है, भारत की आजादी से ठीक 400 वर्ष पूर्व 1547 में स्पेन के राजधानी मैड्रिड से करीब 35 किलोमीटर दूर स्थित अल्काला दे एनारेस नामक एक छोटे से शहर में हुआ जो की गॉडजिला की तरह फैलते मैड्रिड शहर का अब मात्र एक हिस्सा भर है। सेरवांतेस की जीवनी भी इनके पात्रों की तरह ही फिल्मी(ख़ुशी, ग़म) और रोमांचकारी है। महज़ 18 साल के उम्र में देशनिकाले की सज़ा से इटली की तरफ भागते हैं, मगर सौभाग्यवश इनके जिंदगी के वो बेहतर पल हैं क्यूंकि रोम, नेपल्स या पूरा इटली में जो की उस समय कला, लेखन, चिंतन, आधुनिकता या कहें की पश्चिमी सभ्यता का समंदर है उन्हें गोते लगाने का मौका मिलता हैं। और युवक सेरवांतेस के अंदर एक बेचैन लेखक पैदा होता है. इटली के बहुत सारे भाग उस समय चूँकि स्पेनिश सम्राज्य के हिस्सा थे, सेरवांतेस समन्दरों पे राज करने वाली स्पेनिश अरमादा में भर्ती होकर लेपांतो के युद्ध में भाग लेते हैं। ध्यान देने की बात है की उस समय ईसाई और ईस्लामीक दुनियाँ के बीच अनेकों युद्ध चल रहें हैं। तुर्की से सटे ग्रीस या यूनान का हिस्सा जिसे लेवांत के नाम से जाना जाता है, वहाँ 1571 के युद्ध में युवक सेरवांतेस तीन गोलिओं के शिकार होते हैं और उनका एक बाँह जोकि बुरी तरह से ज़ख़्मी हो जाता है, किसी काम के लायक नहीं रह जाता। हालाँकि काटने की नौबत नहीं आती। फिर भी उन्हें स्पेन में लेपांतो का लुल्हा कहा जाता है।
बहरहाल सेरवांतेस 1580 में स्पेन लौटने के बाद सेना से किनारा कर लेते हैं और सिविलियन नौकरी की तलाश करते में दक्षिणी स्पेन के शहर सेविल्या की ओर रुख करते हैं जो की उस समय स्पेनी सम्राज्य के उपनिवेशी ताकत का एक महत्वपूर्ण केंद्र है। लेकिन ये उपनिवेशवाद भी क्या ग़जब की व्यथा है, स्पेनिश साम्राज्य अपने ही जनता पर अनेकों कर लाद कर अपने सैनिक या उपनिवेशी काफिलों को दक्षिण अमरीकी देशों को रवाना कर रही है, और जो माल आ रहा है बाहर से वो भी राजा के खजाने में। खैर जो भी हो, नौकरीओं की भरमार है, देश के अंदर भी और बाहर भी। सेरवांतेस भी दक्षिण अमरीकी देशों में आई कुछ बहालियों की अर्जी देतें हैं मगर उनका अमेरिकन ड्रीम कामयाब नहीं होता और उन्हें देश के अंदर ही कर वसूलने वाले अधिकारी के रूप में नौकरी मिल जाती है। लेकिन इंसानों की आह भी लगती है। जाने अनजाने में कइयों को रुलाया होगा, तड़पाया होगा, उनका हक छीन कर राजा की तिजोरी भरी होगी। बस सेरवांतेस महाशय को भी खाते की गड़बड़ी की आरोप में जेल की हवा खानी पड़ी क्यूंकि जिस बैंक में कर जमा कर रहे थे वो दिवालिया हो गया। खैर दिवालिया होना या लूट कर भाग जाना आज के आधुनिक भारत में वीरों और अमीरों की क्रीड़ा है। पूरा सीना फुला के दिन दहाड़ें करते हैं। खैर जो भी हो। त्रासदी फिर भी पीछा नहीं छोड़ती और युद्ध से देश वापस लौटते वक़्त समुद्री डाँकू उन्हें और उनके भाई को बंधक बना कर बेरेबेर(उतरी अफ्रीका के मुस्लिम कबीले) सैनिको के हाँथों बेंच देते हैं। 1575 से 1580 के दौरान कैद युवक सेरवांतेस चार बार भागने का कोशिश करता है मगर जाओगे कहाँ गुरु बिच में समंदर है. अंततः उनका परिवार और उनके चर्च के लोग पैसा इकट्ठा करके उन्हें छुड़ा लाते हैं। छुड़ा क्या लाते हैं खरीदते हैं क्यूंकि उस वक़्त चल रही धर्म युद्ध के बीच ईसाई गुलाम समुंद्री डाकुओं के लिए एक लाभकारी माल है। समंदर से उठा लाओ और मुस्लिम कबीलों को बेंच दो, फिर वो दुसरो को बेंचेंगे और जिस ईसाई के पास पैसा होगा वो खरीद कर ले जाएगा। तुर्की में ईसाई महिलाओं की जबरदस्त माँग थी, और तटवर्ती ईसाई गाँवों की दहशत उनके लोक कथाओं में भरी पड़ी है।
जिंदगी के थपेड़ों और समय की मार ने सेरवांतेस को सॉलिड बना दिया और समय से पहले ही पूर्ण परिपक्व लेखक अपनी पहली कृति ला गालातेया सन 1585 में प्रकाशित करता हैं। शहर, गांव, गरीब, अमीर और तमाम तरह की लम्बी लकीरों को काटती छाँटती यह उपन्यासिक कृति, उपन्यास और प्रचलित दन्त कथाओं के बिच की एक कड़ी है। थोड़ी सी प्रसिद्धि के बाद सेरवांतेस अपनी कभी न रुकने वाली लेखकीय विधा को 1605 में दुनिया के सामने अपनी सबसे मशहूर कृति दोन किख़ोते का पहला भाग प्रकाशित करते हैं। सेरवांतेस अपनी पूरी कोशिशों के बावज़ूद औपनिवेशिक जहाज़ पर सवार होकर नई दुनिया(दक्षिण अमेरिका) तो नहीं जा पाए लेकिन उनकी कृति प्रकाशन के महज कुछ ही महीनों बाद सज धज कर सैकड़ों की संख्या में लकड़ी और कील से बनी सुरक्षित बक्सों में लद कर अटलांटिक महासागर के उस पर पहुँच गयी जहाँ अमरीकी मूलनिवासियों को बिगड़ने वाली पुस्तकें पढ़ने की मनाही थी। खैर वैसे भी उन्हें पढ़ने के फुर्सत कहाँ। वो तो बेचारे पत्थर तोड़ कर चांदी और सोने की खान तलाशने या सड़के, कीलें, बंदरगाह बनाने में लगा दिए गए थे। बचे खुचे जंगल की सफाई कर खेती करने या कॉफी की फलियाँ, टमाटर, आलू, मिर्ची, शकरकंद इत्यादि से जहाजों को वापसी में भर रहे थे वरना औपनिवेशिक अधिकारियों की भी खैर नहीं थी उनको कौन पूछता है। उन पर तो स्पेन में बहस चल रही थी, उन्हें इंसान माना जाए या नहीं, जिसमे चर्च के पादरी बरनार्डो दे कासास ने मूलनिवाशियों के बचाव में शायद दुनिया का पहला मानव अधिकार मैनिफेस्टो लिख डाला।
खैर कहानी जो भी हो।
सेरवांतेस की यह अमर कृति स्पेन के मध्य हिस्से में स्थित कास्तिल्या प्रान्त में केंद्रित है। यह स्पेन का सबसे पथरीला और रुखा सूखा इलाका है जहाँ गर्मी की असहाय गर्म और जाड़े की बर्फीली हवाएँ वहाँ की न केवल आबो हवा को अंदर तक बेधती है बल्कि इसके निवासियों के जेहन को भी। यह स्पेन का वही हिस्सा भी है जहाँ के गावों से निकल कर फौलादी इरादे वाले स्पेनियार्ड अटलांटिक महासागर पार कर दक्षिण अमेरिका के बीहड़ जंगलों और अवेध पर्वत मालाओं में एल डोराडो ढूँढने और लूटने के लिए समंदर तक लाँघ जाते है। अटलांटिक महासागर के अनंत और अँधेरी विस्तार का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है की स्पेन के पश्चिमी छोर पर स्थित एक टीले को fisterra या धरती का अंतिम छोर नाम दिया गया हो। इसके बावजूद भी अगर जहाजों पर सवार होकर अगर ये लोग उस पार की दुनिया को जीत लेने का माद्दा रखतें हैं तो कुछ तो बात है! हालाँकि जिंदगी से खेल कर अगर पेट पालने की नौबत आ पड़ती है इसका मतलब है की जिंदगी बड़ी मुश्किल है। उसी सोलहवीं शदाब्दी की इसी क्रूरतम सच्चाई से सेरवांतेस हमें रूबरू करातें हैं। उपनिवेशिक उथल पुथल ने देश के बहार और भीतर ही नहीं बल्कि इंसानों के अंदर और बाहर भी अपना असर साफ साफ चपका देती है जिसे जीने और बयां करने के सिवाय कोई चारा नहीं। चाहे हँस के करें या फिर रो कर। और जैसा की हम देख चुके हैं खुद सेरवांतेस की जिंदगी इसकी साफ गवाह है। जब सेरवांतेस अपने कालजयी उपन्यास की शुरुआत करते हैं तो लगता है जैसे हर गाँव, शहर या कसबे की कहानी सुनाने जा रहे हैं जो की कमो बेस एक ही जैसी है। और ऐसा लगता है जैसे जिंदगी की क्रूर सच्चाई ने सेरवांतेस को मजबूर कर दिया हो, की छोडो यार क्या फर्क पड़ता है कौन सी जगह है, जब वो शुरुआत करते है “ला मांचा का वो शहर या गाँव, जिसको बेनाम ही रहने दूँ तो अच्छा है, वहाँ हाल तक एक अधेड़ लड़ाकू सामंत रहता था जिसके पास खूंटी पर टंगा एक पुराना ढाल-तलवार, दुबला सा शिकारी कुत्ता और एक मरियल सा घोड़ा था …” कहा जाता है अगर शुरुआत अच्छी हो तो फिर कहानी पाठकों के जेहन में बर्फ के माफ़िक जम जाती है। इस महान उपन्यास का यह पहला ही वाक्य बहुत सारी कहानियाँ अपने महज कुछ ही शब्दों में संजो रखा है और लगता ऐसा है जैसे दो खंडो में छपे इस भारी भरकम उपन्यास का यह मूल सूत्र हो। आइये जरा नज़र डालते है कुछ अनुवादों के ऊपर जिन्हें हम पढ़ या समझ सकते हैं। सेरवांतेस को समर्पित आधिकारिक वेबसाइट पर कुल २०० अनुवादों से ५० अनुवादों का प्रथम अध्याय उपलब्ध है. अकेले अंग्रेज़ी में अभी तक कुल २२ अनुवाद हुए हैं, ध्यान रहे की 1612 में पहला अनुवाद भी इसी भाषा में एक आयरिश विद्वान् थॉमस शेलटन ने किया था और सारे अनुवादों में सर्वमान्य और प्रचलित भी एडिथ ग्रॉसमैन का 2003 में प्रकाशित अंग्रेजी अनुवाद है। प्रोफेसर ग्रॉसमैन तो अनुवाद में इस कदर डूब गईं की अपनी नौकरी को लात मार कर इस विधा की सेवा में अपने को समर्पित कर दिया। अनुवाद की दुनिया में सर्व प्रसिद्ध लेख Why translation matters इसी अनुभव की अभिव्यक्ति है। |
किख़ोते बनाम सेरवांतेस
अगर आप गूगल में सेरवांतेस शब्द को अंग्रेजी में सर्च करते हैं तो आपको कुल 5 करोड़ 90 लाख रिजल्ट मिलते हैं मगर हिंदी में सिर्फ 184! है न मज़ेदार जानकारी? यह है हिन्दी साहित्यिक दुनिया का आलम! हिन्दी भारत की सबसे प्रसारित भाषा तो है ही इसके बोलनेवाले देश के बाहर भी हैं। यह छोटा सा नमूना बहुत ही भयावह और कड़वे सच्चाई की पोल खोलता है। जापान जैसा नन्हा सा देश दोन किखोते से इतना परिचित है की वहां कि एक पूरी सुपर मार्केट कंपनी किखोते के नाम से चलती है, न जाने कितने स्टोर्स, खिलौने, रेस्त्रां, बार किखोते के नाम से फलते फूलते हैं। जाहिर है पिता सेरवांतेस अपने ही पैदाइश दोन किखोते से हार चुके हैं। पुरे स्पेन में शायद ही कोई शहर या कस्बा हो जहां दोन किखोते नाम का कोई बार, रेस्त्रां, स्टोर या साइन बोर्ड आपको न दिखे। यहाँ तक की एक कैबरेट और नग्न शो का क्लब ने भी किखोते को नहीं बक्शा। मगर सौभाग्यवश स्पेनिश सरकार ने 11 मई 1991 को अपने भाषा के प्रचार प्रसार के लिए जब आधिकारिक संस्थान की स्थापना की तो उन्हें भी सेरवांतेस ने नाम की जरुरत पड़ी क्यूँकि साहित्यिक दुनिया स्पेनिश को सेरवांतेस की भाषा के नाम से जानती है। यह अपने आप में एक बहुत ही बड़ा सम्मान है। लेकिन शायद सबसे बड़ा सम्मान 15 दिसंबर 2015 को अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ ने दिया जब करीब 50 प्रकाश वर्ष दूर स्थित एक पुरे तारे समूह Mu Arae (μ Arae), या जिसे HD 160691 के नाम से भी जाना जाता है उसे सेरवांतेस और उनके कालजयी उपन्यास के अमर पात्रों के नाम समर्पित किया। शायद सेरवांतेस, दोन किखोते, दुलसीनिया, सांचो पाँसा, और घोडा रोसीनान्ते अपने इस नए बसेरे से इस दुनियाँ का तमाशा देख रहे होंगे और सोच रहे होंगे की अपने आप को आधुनिक कहने वाली यह दुनिया कुछ खास बदली नहीं हैं।
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रज़ीउद्दीन अक़ील दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में असोसियेट प्रोफ़ेसर हैं. मध्यकालीन इतिहास के वे उन चंद विद्वानों में हैं जिन्होंने अकादमिक दायरे से बाहर निकलकर आम पाठकों से संवाद करने की कोशिश की है, किताबें लिखी हैं. वे किताबें जरूर अंग्रेजी में लिखते हैं लेकिन बहुत अच्छी हिंदी भी लिखते हैं. मध्यकालीन भक्ति-परम्परा और गोरखनाथ पर उनका यह व्याख्यान प्रस्तुत है- मॉडरेटर
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मुझे ख़ुशी है कि आज मुझे यहाँ बोलने का मौक़ा मिला है l आमतौर पर इतिहास और साहित्य के विद्वान एक दूसरे से बातें नहीं कर पाते हैं, हालांकि सबको मालूम है कि इतिहास और साहित्य में चोली-दामन का रिश्ता है और दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं l राजनीति से प्रेरित या सिंप्लिस्टिक (एकांगी) काल-विभाजन भी इसी से जुड़ा हुआ मसला है l इतिहास को प्राचीन (संस्कृत), मध्य-काल (फ़ारसी) और आधुनिक-काल (अंग्रेजी) में विभाजित कर दिए जाने का नतीजा है कि भारतीय देशज भाषाई साहित्य का एक बहुत बड़ा भाग उपेक्षित रह जाता है l हाल के दिनों में इतिहासकारों ने देशज साहित्य का—चाहे वह असामी, बंगाली, अवधि और ब्रज (यानि हिंदी), पंजाबी, राजस्थानी, मराठी या दक्षिण भारत की विभिन्न भाषाओं में पाया जाता हो—न सिर्फ स्रोतों के रूप में इस्तेमाल किया है बल्कि उनके विभिन्न प्रकारों के महत्त्व को भी उनके विभिन्न सन्दर्भों में समझने का प्रयास किया है l
इनमें सूफियों और संतों की रचनाएँ, प्रेमाख्यान वग़ैरह, विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं l यहाँ चूँकि बात भक्ति-साहित्य के हवाले से करनी है, यह सर्व-विदित है कि मध्यकालीन भक्ति परम्पराओं की कई धाराओं ने समाज के निचले तबकों से आने वाले सुधारकों के नेतृत्व में धार्मिक अनुष्ठानों की निंदा की और जाति या जातिवाद पर आधारित भेदभाव की आलोचना करते हुए लोगों का आह्वान किया कि एक निराकार भगवान को, जिनको राम की संज्ञा दी गयी, अपने दिल के अंदर खोजने की ज़रूरत है l भक्ति की कुछ अन्य परम्पराएँ अयोध्या के मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के इर्द-गिर्द हिन्दू धार्मिक आंदोलनों के रूप में पहचानी जाती हैं और कुछ हद तक लोकप्रिय इस्लामी आध्यात्मिकता, सूफीमत, के खिलाफ एक प्रतिक्रिया का रूप ग्रहण करती हुई प्रतीत होती हैं l कालांतर में यह हिन्दू और मुसलमानी परम्पराएँ एक दूसरे से उलझती और टकराती नज़र आती हैं l हालांकि कबीर और नानक जैसे बड़े संतों और गुरुओं ने इस्लाम और हिन्दू धर्म की विवादस्पद राजनीतिक सीमाओं से ऊपर उठकर चलने का रास्ता दिखाया था, धार्मिक समुदायों की संरचना और उनकी शिनाख्त के संघर्ष में अक्सर खून की होली खेली गयी है l उन संतों की आत्मा कहीं ज़रूर तड़प रही होगी, खासकर इसलिए कि उन्होंने ने अंतरात्मा की आवाज़ पर ज़ोर दिया था और आत्मा और परमात्मा के बीच के बड़े फासले को पाटने की कोशिश की थी l यह सही है कि वह कुछ हदतक प्रतिस्पर्धी आध्यात्मिकता में शामिल थे और सामाजिक-धार्मिक विचारों के लिए एक दूसरे पर निर्भर रहते हुए अनुयायियों को अपनी ओर आकर्षित करने की होड़ में लगे थे, लेकिन उनकी मंशा अपने अनुयायियों को झगड़ालु समुदायों में व्यवस्थित करने की क़तई नहीं थी l
दुर्भाग्यवश, कई मामलों में अनुयायियों ने अपने आध्यात्मिक गुरुओं की मूल शिक्षाओं को पूरी तरह बदल दिया है, और उन गुरुओं के नाम पर गठित पंथ और सम्प्रदाय एक दूसरे को नीचा दिखाने और वश में करने के लिए राजनीतिक शक्ति के दुरूपयोग का प्रयास करते रहे हैं l कबीर और नानक के शवों के अंतिम-संस्कार पर उनके मुस्लमान और गैर-मुस्लमान अनुयायियों के बीच होने वाले मतभेद और संघर्ष के किस्से उन गुरुओं की जीवनी से जुड़ी ऐतिहासिक परम्पराओं के शर्मनाक अध्याय की ओर इशारा करते हैं l इन संतों को, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी धार्मिक सीमा-बंदियों और पाखंडों को चुनौती देने में लगा दी थी, मुसलमानी अंदाज़ में दफ़न किया जाना था या हिन्दू क्रियाक्रम के साथ दाह-संस्कार यह इस बात पर निर्भर था कि उनके अनुयायियों का कौन सा समूह अंतिम संस्कार की कार्यवाही पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने में सफल हो सकेगा l ग़नीमत है कि उन पवित्र आत्माओं के शव ग़ायब हो गए, इसे चमत्कार कहें या किसी सोंची समझी सदबुद्धि का नतीजा, लेकिन इसका एक फायदा ज़रूर हुआ कि उन गुरुओं को आसानी से, या प्रत्यक्ष रूप से, धार्मिक पहचान की गन्दी राजनीति में भागीदार नहीं बनाया जा सका l
कबीर और नानक की तरह, गोरखनाथ की साधना और उपदेश भी धार्मिक पहचान (हिन्दू, मुसलमान, योगी और संत) की लड़ाई में उलझ कर रह गयी है l भक्ति आन्दोलनों के इतिहास के सबसे सम्मानित विद्वानों में से एक, डेविड लोरेंज़ेन ने हाल में कबीर और गोरखनाथ के हवाले से पहचान से जुड़े प्रश्नों का सटीक विश्लेषण किया है l हालांकि गोरखनाथ और कबीर दोनों की जीवनी और शिक्षा का ज़्यादातर हिस्सा किंवदंतियों में डूबा हुआ है, उनकी शिक्षाओं का सार उन रचनाओं से उद्धरित किया जा सकता है जो मध्यकाल से ही उनके नाम के साथ जुडी रही हैं l गोरखनाथ ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दियों के बीच की अवधी में रहे होंगे और उनके धार्मिक विचारों में से कुछ, जिन्हें बाद में गोरखबानी में संकलित किया गया था, हिंदुत्व की मौजूदा राजनीति के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण हैं l
एक निपुण योगी के रूप में, गोरखनाथ ने कर्मकांडों से परिपूर्ण हिन्दू परम्पराओं से खुद को अलग रखते हुए कहा है: उत्पत्ति हिन्दू जरनम योगी अकली परी मुसलमानी (हम जन्म से हिन्दू हैं, योगी के रूप में परिपक्व और बुद्धि से मुसलमान) l मुसलमानों की बुद्धिमत्ता को इस तरह की श्रद्धांजलि अर्पित करना आज के चौतरफा गिरावट के ज़माने में एक विरोधाभास जैसा लग सकता है, लेकिन गोरखनाथ एक ऐसे युग में रह रहे थे जब मुसलमान कई क्षेत्रों में उत्कृष्टता के मानक स्थापित करते चले आ रहे थे l हालांकि गोरखनाथ ने, बाद में कबीर की तरह, यह नोटिस किया था कि मुसलमानों के मज़हबी ठेकेदार (मुल्ला और क़ाज़ी) सही पथ (राह) पर चलने में असमर्थ थे, उनकी नज़र में सूफी दरवेश स्थापित आध्यात्मिक साधना और गहरे चिंतन द्वारा भगवान के घर के दरवाज़े को खोजने में सक्षम थे (‘दरवेश सोई जो दर की जानें’), और इसलिए वह अल्लाह की जाति के थे (‘सो दरवेश अल्लाह की जाति’) l गोरखनाथ के कई अन्य छंद मुस्लिम और हिन्दू रीति-रिवाजों को दृढ़ता से अस्वीकार करते हैं और एक अलग और बेहतर योग परंपरा के गुणों पर प्रकाश डालते हैं l
कबीर की खुल्लम खुल्ला आइकोनोक्लास्म से बहुत पहले, गोरखनाथ ने दहाड़ा था: हिन्दू मंदिरों में पूजा करते हैं और मुसलमान मस्जिद जाते हैं, लेकिन योगी लोग उस सर्व-शक्ति की उपस्थिति में ध्यान करते हैं जहाँ न मंदिर है, न मस्जिद (‘हिन्दू ध्यावै देहुरा मुसलमान मसीत, योगी ध्यावै परमद जहाँ देहुरा न मसीत’) l वेद और क़ुरान जैसे शास्त्रों की राजनीति से प्रेरित व्याख्या से खुद को अलग करते हुए गोरखनाथ ने यह दावा किया कि केवल योगी ही परमपद के रहस्यों को अन्तर्निहित किये हुए छंदों को समझ सकते हैं, क्यूंकि बाक़ी दुनिया सांसारिक भ्रम और धंधे-बाज़ी में लिप्त है (‘ते पद जानें बिरला योगी और दूनी सब धंधे लायी’) l
गोरखनाथ की रचनाओं में तीन अलग-अलग धार्मिक पोसिशन्स निकल कर सामने आती हैं: औपचारिक और राजनीतिक रूप से हावी इस्लामी और हिन्दू परम्पराओं के अलावा योगियों की रहस्मयी दुनिया जो इस आत्मविश्वास से परिपूर्ण थी कि सूफियों के तरीक़त के महत्व को समझ सके l पंद्रहवीं सदी के उत्तरार्ध और सोलहवीं सदी के प्रारंभिक दशकों में, संत कबीर एक क़दम और आगे चले जाते हैं l खुद को बीच बाजार में खड़ा कर (‘कबीरा खड़ा बाजार में’), कबीर ने न केवल हिन्दू और मुस्लिम धार्मिक नेताओं की खिल्लियाँ उड़ाई, बल्कि स्वयंभू सूफियों और योगियों के ढोंग का भी पर्दाफाश किया l कबीर ने हिन्दुओं के पशु बलि अनुष्ठान की आलोचना की है, लेकिन उससे ज़्यादा मुसलमानों द्वारा पशुओं के वध की कड़ी शब्दों में निंदा की है: ‘बकरी मुर्गी किन्ह फुरमाया किसके कहे तुम छुरी चलाया….(और) दिन को रोजा रहत है रात हनत है गाय l’
योगियों के लिए कबीर का मशवरा था कि प्रणायाम और साधना के अन्य रूपों को अपनाने का तबतक कोई लाभ नहीं है जबतक व्यक्ति अपने दिल के भीतर की गन्दगी से पाक साफ़ न हो जाय l इस तरह, अगर इंसान का मन स्वच्छ हो जाय तब वह अपने अंदर के राम को तलाश लेगा, वरना वह पाखंड और धंधेबाज़ी में उलझा रहेगा l
ग्रन्थ-माला
अक़ील, रज़ीउद्दीन. 2009. इन दा नेम ऑफ़ अल्लाह. नई दिल्ली: पेंगुइन-वाइकिंग.
अक़ील, रज़ीउद्दीन और पार्थ चटर्जी, सं. 2008. हिस्ट्री इन दि वर्नाकुलर. नई दिल्ली: परमानेंट ब्लैक.
अग्रवाल, पुरुषोत्तम. 2009. अकथ कहानी प्रेम की: कबीर की कविता और उनका समय. नई दिल्ली: राजकमल.
कर्ली, डेविड. 2008. पोएट्री एंड हिस्ट्री: बंगाली मंगल-काव्य एंड सोशल चेंज इन प्रिकॉलोनिअल बंगाल. नई दिल्ली: क्रॉनिकल बुक्स.
नोवेत्ज़की, क्रिस्चियन लि. 2009. हिस्ट्री, भक्ति, एंड पब्लिक मेमोरी: नामदेव इन रिलिजन एंड सेक्युलर ट्रडिशन्स (नई दिल्ली: परमानेंट ब्लैक.
लोरेंज़ेन, डेविड. 2010. निर्गुण संतों के स्वप्न, धीरेन्द्रे बहादुर सिंह द्वारा हिंदी अनुवाद. नई दिल्ली: राजकमल.
वॉदेविल्ल, शेर्लोट. 1998. ए वीवर नेम्ड कबीर: सेलेक्टेड वर्सेज विद ए डिटेल्ड बायोग्राफिकल एंड हिस्टोरिकल इंट्रोडक्शन (नई दिल्ली: ऑक्सफ़ोर्ड.
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हिंदी की स्थिति पर मेरा यह लेख ‘नवभारत टाइम्स’ मुम्बई के दीवाली अंक में प्रकाशित हुआ है- प्रभात रंजन
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मेरी बेटी नई किताबों को खरीदने के लिए सबसे पहले किंडल स्टोर देखती है, जहाँ अनेक भाषाओं में लाखों ईबुक मौजूद हैं जिनमें से वह अपनी पसंद की किताब खरीद लेती है. कई बार वह स्टोरीटेल के ऐप पर जाकर अपनी पसंद के उपन्यास या कहानी को सुनने का आनंद उठाती है. जिन कहानियों-उपन्यासों को आवाज की दुनिया के पेशेवर लोगों द्वारा पढ़ा गया होता है. साल में एक बार मेरे साथ पुस्तक मेले जाकर किताबें भी खरीदती है, लेकिन उसके लिए किताब खरीदना अक्सर पहला विकल्प नहीं होता. दरअसल, आज की पीढ़ी के पास एक ही किताब को पढने के कई विकल्प मौजूद हैं. वह अपनी सुविधा से विकल्पों का चुनाव कर लेती है. मैं भी आजकल ट्रेन या हवाई जहाज में सफ़र करते हुए शोर-शराबे से बचने के लिए कान में ईयर फोन लगाकर हिंदी के क्लासिक उपन्यास सुनने लगता हूँ. इन्टरनेट ने आज किताबों की, साहित्य की एक ऐसी दुनिया रच दी है पंद्रह साल पहले तक जिसकी कल्पना भी मुश्किल लग रही थी. आज सैकड़ों लोग यूट्यूब पर चैनल बनाकर कहानी-कविता पाठ कर रहे हैं, साहित्यकारों के बारे में बोल-सुन रहे हैं. लगता ही नहीं है हम उसी हिंदी के लेखक-पाठक हैं दस-पंद्रह साल पहले तक जिसके हाशिये पर चले जाने का रोना रोया जाता था, मातम मनाया जाता था.
मुझे एक युवा टिप्पणीकार की बात याद आती है- 90 के दशक में बाजारवाद के धक्के के कारण हिंदी रेंगने लगी थी अब इन्टरनेट के पंख पाकर उड़ने लगी है. गहराई से सोचने पर इस बात में दम दिखाई देता है. हिंदी की सबसे बड़ी मुश्किल थी कनेक्टिविटी का न होना. बीसवीं शताब्दी के 90 के दशक में एक के बाद एक राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाएं बंद होने लगीं. धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि तमाम ऐसी राष्ट्रीय पत्रिकाएं बंद हो गई जो हिंदी साहित्य को महानगरों से लेकर गाँव-देहातों तक एक कर देती थीं. सीतामढ़ी के एक गाँव में अपने नजदीकी रिश्तेदार के यहाँ भाभी के मुंह से ‘भोगा हुआ यथार्थ’ मुहावरे को सुनकर चौंक गया था क्योंकि हिंदी की नई कहानी आन्दोलन का यह रूढ़ मुहावरा था. बाद में, पूछने पर पता चला कि भाभी के पास गुजरे दौर की प्रसिद्द साहित्यिक पत्रिका ‘सारिका’ के पुराने अंक मौजूद थे. उन्होंने वहीँ से सीखा यथा. इसलिए इन पत्रिकाओं के बंद होने के बाब कनेक्टिविटी का बड़ा संकट खड़ा हो गया. साहित्य लघु पत्रिकाओं में सिमट गया.
इन्टरनेट के आने के बाद धीरे-धीरे हिंदी में कनेक्टिविटी की यह समस्या दूर हो गई है. आज छोटे छोटे शहरों के पाठक भी ऑनलाइन साइट्स के माध्यम से अपनी पसंद की किताबें घर बैठे प्राप्त कर सकते हैं. छोटे शहरों के लेखकों की पीड़ा यह होती थी कि दिल्ली के प्रकाशक उनकी किताबें नहीं छापते. मेरे आरंभिक साहित्यिक गुरु रामचंद्र ‘चन्द्रभूषण’ नवगीतकार थे. नवगीत के सभी प्रमुख संचयनों में उनके गीत प्रकाशित हुए लेकिन उनकी यह साध पूरी नहीं हो पाई कि दिल्ली का कोई बड़ा प्रकाशक उनकी किताब प्रकाशित करे. आज इन्टरनेट ने लेखक होकर दुनिया भर में फैलने की पूरी आजादी मुहैया करवा दी है. मुफ्त इन्टरनेट डाटा के दौर में वह भी लगभग मुफ्त.
भारत में इन्टरनेट के सुलभ होने के बाद, यूनिकोड फोंट्स के प्रचलन में आने के बाद 2007 के आसपास से हिंदी में ब्लॉग लेखन का दौर शुरू हुआ जिसने हिंदी के जड़ हो चुके परिदृश्य को बदलना शुरू कर दिया. हल्द्वानी जैसे छोटे कस्बे से अशोक पांडे ने ‘कबाड़खाना’ ब्लॉग के माध्यम से राष्ट्रीय पहचान बनाई, रवि रतलामी(जिनको हिंदी का पहला ब्लॉगर भी कहा जाता है) ने रतलाम से ‘रचनाकार’ ब्लॉग के माध्यम से नई नई प्रतिभाओं की रचनाओं का प्रकाशन आरम्भ किया. इसी तरह, अजित वडनरेकर ने भोपाल से ‘शब्दों का सफ़र’ ब्लॉग शुरू किया और जिसने आम पाठकों, लेखकों को शब्दों और उनके अर्थों से जोड़ना शुरू कर दिया. इसी तरह अविनाश दास के ब्लॉग ‘मोहल्ला’ ने हिंदी पट्टी में ई-साक्षरता बढाने की दिशा में बड़ा काम किया. अब ब्लॉगिंग का वह दौर बीत चुका है लेकिन इस बात से शायद ही इनकार किया जा सकता है कि इन ब्लॉग्स के कारण हिंदी पट्टी के पाठक बड़े पैमाने पर इन्टरनेट और उसके माध्यमों से जुड़े. उस दौर की बहसों में अक्सर साहित्य बनाम ब्लॉग्स का मुद्दा आता रहा.
ब्लॉगिंग के बाद सोशल मीडिया का दौर आया. सोशल मीडिया के लोकप्रिय माध्यमों फेसबुक, ट्विटर का आगमन भारत में 2005-06 से ही आरम्भ हो गया था लेकिन हिंदी में 2010 के आसपास हिंदी वालों ने इसका बड़े पैमाने पर उपयोग आरम्भ किया. ब्लॉगिंग ने जो ज़मीन बनाई थी सोशल मीडिया के माध्यमों, खासकर फेसबुक ने हिंदी का आसमान रच दिया. हालाँकि, ट्विटर और लिंक्डइन जैसे सोशल मीडिया के माध्यमों पर भी हिंदी का प्रयोग बढ़ा है लेकिन आमतौर दोस्ती बढाने और चैट करने के माध्यम फेसबुक ने हिंदी के लेखकों-पाठकों को जोड़ने की दिशा में क्रांतिकारी काम किया. एक तो इस माध्यम ने लेखकों-प्रकाशकों को मुफ्त में किताब के विज्ञापन का अवसर प्रदान किया. इसके कारण आज हिंदी का हर छोटा-बड़ा प्रकाशक-लेखक फेसबुक पर अपनी किताब के बारे में लिखता हुआ मिल जायेगा. लेखकों-पाठकों के बीच कनेक्टिविटी की जो टूटी हुई कड़ी थी वह इसके माध्यम से न सिर्फ जुडी है बल्कि बेहद मजबूत हुई है.
सोशल मीडिया, विशेषकर फेसबुक माध्यम का सकरात्मक उपयोग करते हुए हिंदी में कई प्रयोग किये गए जिनमें कुछ बेहद सफल रहे. उदहारण ‘हिन्द युग्म’ प्रकाशन का लिया जा सकता है. हिन्द युग्म प्रकाशन ने सोशल मीडिया के माध्यम से ‘नई वाली हिंदी’ का मुहावरा प्रचलित करना शुरू किया. नई वाली हिंदी के लेखकों के रूप में ऐसे लेखकों की पहचान की गई जो हिंदी की पृष्ठभूमि के लेखक नहीं थे लेकिन उन्होंने एक नई तरह की भाषा के साथ समकालीन युवा जीवन के प्रसंगों को कहानियों-उपन्यासों में ढालना शुरू किया. प्रकाशक और लेखकों ने सोशल मीडिया विशेषकर फेसबुक के माध्यम से हिंदी पट्टी के पाठकों के बीच अपनी कनेक्टिविटी बढानी शुरू की और चार-पांच सालों के दरम्यान नई वाली हिंदी के लेखक सत्य व्यास, दिव्य प्रकाश दुबे, नीलोत्पल मृणाल, अनु सिंह चौधरी आदि हिंदी के नए पोस्टर बॉय बन गए हैं. इनके साथ राजकमल प्रकाशन ने अपने नए प्रकाशकीय उपक्रम ‘सार्थक बुक्स’ के माध्यम ‘लप्रेक सीरीज’ का प्रकाशन किया और इस श्रृंखला की किताबों ने बिक्री के नए कीर्तिमान रचे. इन किताबों ने यह दिखा दिया कि असल में हिंदी का पाठक वर्ग बहुत बड़ा है और अगर उन पाठकों तक पहुँचने के प्रयास किये जाएँ, लोक रूचि की किताबों के प्रकाशन किये जाएँ तो उस सुप्त पड़े बाजार को फिर से जाग्रत किया जा सकता है. इसे जाग्रत करने में सोशल मीडिया की विशेष भूमिका को रेखांकित किया जाना चाहिए.
अभी यह कहने-लिखने का अवसर नहीं है कि स्तरीयता के पैमाने पर इन किताबों को किस रूप में देखा जा सकता है, इन किताबों में समाज का व्यापक सच अभिव्यक्त हो रहा है या नहीं. हिंदी पट्टी के आम आदमी के संघर्ष की झलक इनमें दिखाई दे रही है या नहीं. इससे पहले हमें उस नए बनते पाठक वर्ग और उनकी रुचियों को समझने की जरूरत है. बीसवीं शताब्दी के 90 के दशक तक कम से एक एक बात तो स्पष्ट थी कि हिंदी पट्टी के मध्यवर्गीय परिवार के बच्चे हिंदी माध्यम के स्कूलों में पढ़ते थे, जो बाद में तकनीकी शिक्षा या उच्च अध्ययन के लिए बड़े शहरों में जाते थे. लेकिन उनकी हिंदी की बुनियाद बची रहती थी. आज तो हिंदी पट्टी के गाँव-गाँव में पब्लिक स्कूल खुल चुके हैं. जिसके पास थोड़ा सा भी साधन है वह अपने बच्चे को पब्लिक स्कूल में पढ़ा रहा है. बचपन से अंग्रेजी की महत्ता को सीख रहे ये बच्चे बड़े होकर किस तरह हिंदी साहित्य से जुड़ें नई वाली हिंदी इसी की सुचिंतित कवायद है. देश में इस समय युवाओं की आबादी बहुत बड़ी है, उस आबादी में भी सबसे अधिक लोग हिंदी पट्टी में रहते हैं. लेकिन वे अब हिंदी के स्वाभाविक पाठक नहीं रह गए हैं. वे सोशल मीडिया की चर्चाओं से आकर्षित होकर हिंदी की किताबों के पाठक बनते हैं, कई लेखक भी बन जाते हैं.
इसी बात को ध्यान में रखते हुए हिंदी के प्रकाशक-लेखक आज सोशल मीडिया और किताबों की ऑनलाइन सेल पर ध्यान केन्द्रित रखते हैं. आज किताबों के बाजार में आने से पहले उनके वीडियो जारी किये जा रहे हैं, किताबों की ऑनलाइन प्री-बुकिंग की जा रही है. सोशल मीडिया तथा अन्य डिजिटल प्लेट्फ़ॉर्म पर किताब के बारे में सामग्री प्रकाशित करवाकर उसके बारे में जिज्ञासा पैदा की जाती है. इन माध्यमों के उपयोग के माध्यम से किसी किताब की चर्चा हजारों-लाखों के बीच होने लगती है. उन्हीं हजारों-लाखों लोगों में से कुछ किताब ऑनलाइन मंगवाते हैं, कुछ पुस्तक मेलों में जाकर किताब खरीदते हैं. पिछले कुछ सालों से अनेक विश्लेषक यह लिखने लगे हैं कि सोशल मीडिया के कारण हिंदी के बौद्धिक समाज में नई तरह की सरगर्मी दिखाई देने लगी है और इसका असर पुस्तक मेलों में किताब खरीदने वालों की बढती भीड़ के रूप में दिखाई देने लगा है. पिछले साल स्टोरीनोमिक्स नामक संस्था ने एक सर्वेक्षण किया था जिसमें यह पाया गया कि हिंदी सोशल मीडिया पर सबसे अधिक प्रयोग की जाने वाली भाषा है और बहुत जल्द यह अंग्रेजी को पीछे छोड़ देगी.
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज हिंदी बनाम अंग्रेजी में अंग्रेजी के बरक्स हिंदी का पलड़ा मजबूत होता जा रहा है तो उसके पीछे बहुत बड़ी भूमिका सोशल मीडिया की है. मैं अपना ही उदाहरण देना चाहता हूँ. मैं फेसबुक पर नियमित रूप से नई किताबों पर संक्षिप्त टिप्पणियां लिखा करता हूँ. जिसे पढनेवालों की तादाद ठीकठाक है. इसका नतीजा यह हुआ है कि मुझसे अंग्रेजी के लेखक-प्रकाशक भी अपनी किताबें भिजवाकर लिखने का आग्रह करने लगे हैं. यह एक तथ्य है कि आज हिंदी साहित्य के मसलों को लेकर सोशल मीडिया पर जितनी बहसें होती हैं उतनी किसी अन्य भाषा में नहीं.
यही कारण है कि आज ब्लॉगिंग, सोशल मीडिया विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में विषय के रूप में पढ़ाई जाने लगी है. अभी हाल में ही हिंदी की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ ने सोशल मीडिया के ऊपर अंक प्रकाशित किया है. कहने का तात्पर्य यह है कि महज उपयोगकर्ता नहीं बढे हैं बल्कि इसकी स्वीकृति भी पहले से बढ़ी है. आज किसी साहित्यिक कार्यक्रम में लोगों की भौतिक उपस्थिति बेमानी हो गई है. हो सकता है किसी कार्यक्रम में सुनने वाले 50-100 लोग ही उपस्थित हों लेकिन यूट्यूब, फ़ेसबुक या अन्य माध्यमों से हो सकता है कि दुनिया भर में उस कार्यक्रम के वीडियो लाखों लोग देख लें और उस कार्यक्रम में उठाये गए मुद्दों को लेकर बहस भी करने लगें. सही मायने में सोशल मीडिया ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बना दिया है.
ऐसा नहीं है कि सोशल मीडिया में हिंदी के लिए सब कुछ गुडी-गुडी ही है. जिन पहलुओं के कारण इसके माध्यम से हिंदी मजबूत होती दिखाई दे रही है उन्हीं कारणों से यह कमजोर भी हो रही है. उदहारण के लिए आजकल प्री-बुकिंग के माध्यम से किताब प्रकाशन से पहले हजारों की संख्या में बिक जाती है. ऐसे में उस किताब की स्तरीयता को लेकर चर्चा बेमानी हो जाती है, क्योंकि इसने बिक्री को सफलता का एकमात्र पैमाना बना दिया है. प्रचार-प्रसार ठीक है लेकिन केवल प्रचार-प्रसार ही पैमाना हो जाए तो साहित्यिक मूल्यों का क्या होगा? हिंदी साहित्य में दशकों तक मानवीय मूल्यों की प्रधानता रही है, आज मनोरंजन की प्रधानता हो गई है. चूँकि पुस्तक संस्कृति के केंद्र में बिक्री, प्रचार-प्रसार है तो आजकल सेलिब्रिटी लेखकों की तादाद बढ़ रही है. वह सेलिब्रिटी कोई भी हो सकता है. राजनेता, फिल्म लिखने वाला लेखक, टेलीविजन कलाकार, टीवी पत्रकार. जितना बड़ा नाम होता है किताब की बिक्री में उतनी सहूलियत होती है. हालांकि यह प्रवृत्ति केवल हिंदी में नहीं बल्कि अंग्रेजी में भी तेजी से बढ़ी है.
आज हिंदी का लगभग प्रत्येक प्रकाशक या तो सेलिब्रिटी लेखक की किताब छापना चाहता है या ऐसे विषयों पर किताबें प्रकाशित करना चाहता है जिनके बिकने की सम्भावना अधिक हो. जैसे फेसबुक के ऊपर या ट्विटर पर जिनके लिखे को लाइक अधिक मिलते हैं उनको संभावित बिकाऊ लेखक के रूप में देखा जाने लगा है. हाल के वर्षों में ऐसी कई पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं जिनकी शुरुआत फेसबुक स्टेटस के रूप में हुई. साहित्य को हिंदी में साधना माना जाता रहा है आज वह बिकना हो गया है.
इसका नतीजा यह हुआ है कि अनेक विधाओं में अच्छी पुस्तकों का लगभग अकाल सा दिखाई दे रहा है. जैसे पिछले कुछ वर्षों में आलोचना की कोई उल्लेखनीय पुस्तक हिंदी में आई हो ध्यान नहीं आता. सोशल मीडिया के प्रभावी होते जाने का सबसे अधिक नुक्सान आलोचना की विधा का ही हुआ है. आलोचना मूल्य निर्धारण की विधा रही है जबकि सोशल मीडिया में लोकप्रियता ही सबसे बड़ा मूल्य है. मीडिया हो या सोशल मीडिया एक सी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देना उनका मूल स्वभाव होता है. हिंदी प्रकाशन जगत इस समय इस प्रवृत्ति से आच्छादित है. ऐसे में रचनाओं की सच्ची आलोचना लेखक-प्रकाशक बिलकुल ही सुनना नहीं चाहते और इस तंत्र का हिस्सा पाठक भी बनते जा रहे हैं. सब कुछ पाठकों के नाम पर हो रहा है हिंदी में दशकों तक जिनके न होने का रोना रोया जाता रहा है.
इन शंकाओं के बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इन्टरनेट के बाद के दौर में हिंदी की साहित्यिक दुनिया बहुत विस्तृत हो चुकी है, सबसे बड़ी बात यह है कि पेशेवर हो रही है, जनतांत्रिक हो रही है. इतने कम समय में इन्टरनेट ने इतना बड़ा बदलाव ला दिया है फ्री डाटा के इस दौर में इस बात से शायद ही कोई जानकार इंकार कर पाए कि हिंदी का बेहतर साहित्यिक भविष्य इन्टरनेट और उसके विभिन्न प्लेटफ़ॉर्म के माध्यम से लिखा जाना है. दुनिया हाथ-हाथ स्मार्ट फोन में सिमटती जा रही है इंटरनेट से हिंदी फैलती जा रही है.
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प्रभात रंजन
ए-39, इलाहाबाद बैंक सोसाइटी, मयूर कुञ्ज,
नोएडा चेकपोस्ट के पास, दिल्ली- 110096
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युवा पत्रकार अरविन्द दास का यह लेख फेक न्यूज को लेकर चल रही बहस को कई एंगल से देखता है. उसके इतिहास में भी जाता है और वर्तमान पेचीदिगियों से भी उलझता है. अरविन्द दास पत्रकार हैं, पत्रकारिता पर शोध कर चुके हैं और हाल में ही उनके लेखों का संग्रह प्रकाशित हुआ है ‘बेखुदी में खोया शहर’– मॉडरेटर
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पिछले दिनों बीबीसी ने फेक न्यूज के खिलाफ एक मुहिम शुरु किया है. इसके तहत लखनऊ में आयोजित एक कार्यक्रम में बोलते हुए समाजवादी पार्टी के नेता और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा कि ‘जो लोग फ़ेक न्यूज़ को बढ़ावा दे रहे हैं, वो देशद्रोही हैं.’ साथ ही उन्होंने कहा कि ‘ये प्रोपेगैंडा है और कुछ लोग इसे बड़े पैमाने पर कर रहे हैं.’
ऐसी खबर जो तथ्य पर आधारित ना हो और जिसका दूर-दूर तक सत्य से वास्ता ना हो फेक न्यूज कहलाता है. ऐसा नहीं है कि खबर की शक्ल में दुष्प्रचार, अफवाह आदि समाज में पहले नहीं फैलते थे. पर उनमें और आज जिसे हम फेक न्यूज समझते हैं, बारीक फर्क है. वर्तमान में देश की राजनीतिक पार्टियाँ राजनीतिक फायदे के लिए इसका इस्तेमाल करती हैं. बात राष्ट्रवादियों की हो या सामाजवादियों की. उनके पास एक पूरी टीम है जो फेक न्यूज के उत्पादन, प्रसारण में रात-दिन जुटी रहती है. जाहिर है, 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए फेक न्यूज एक बड़ी चुनौती है. पर क्या राजनीतिक पार्टियों से यह उम्मीद रखनी चाहिए कि वे इस चुनौती से निपटेंगे?
फेक न्यूज मूलत: संचार क्रांति के दौर में आई नई तकनीकी से उभरी समस्या है. कंप्यूटर, स्मार्ट फोन, इंटरनेट (टूजी, थ्री जी, फोर जी) और सस्ते डाटा पैक की दूर-दराज इलाकों तक पहुँच ने मीडिया के बाजार में खबरों के परोसने, उसके उत्पादन और उपभोग की प्रक्रिया को खासा प्रभावित किया है. अब कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति चाहे तो संदेश का उत्पादन और प्रसारण कर सकता है, इसे एक खबर की शक्ल दे सकता है. कई बार फेक न्यूज की चपेट में मेनस्ट्रीम मीडिया भी आ जाता है. मेनस्ट्रीम मीडिया पर जैसे-जैसे विश्वसनीयता का संकट बढ़ा है, फेक न्यूज की समस्या भी बढ़ी है.
बीबीसी की साख हिंदी क्षेत्र में काफी है. वह खबरों को विश्वसनीय ढंग से परोसने के लिए वह जानी जाती है. पर सवाल है कि फेकन्यूज क्या महज प्रोपेगैंडा है? यदि हम प्रोपेगैंडा को फेक न्यूज मानें तो इसकी जद में बीबीसी जैसे संगठन भी आ जाएँगे.
फेक न्यूज के पीछे जो तंत्र काम करता है उसकी पड़ताल करते हुए बीबीसी के शोध में पता चला है कि लोग ‘राष्ट्र निर्माण’ की भावना से राष्ट्रवादी संदेशों वाले फ़ेक न्यूज़ को साझा कर रहे हैं और राष्ट्रीय पहचान का प्रभाव ख़बरों से जुड़े तथ्यों की जांच की ज़रूरत पर भारी पड़ रहा है. हालांकि बीबीसी की इस शोध प्रविधि (मेथडोलॉजी) पर सवाल खड़ा किया जा रहा है. राष्ट्रवादी विचारधारा वाले, बीबीसी के इस शोध को मोदी सरकार के खिलाफ एक प्रोपेगैंडा कह रहे हैं. बीबीसी ने भारत में महज 40 लोगों के सैंपल साइज़ के आधार पर लोगों के सोशल मीडिया के बिहेवियर को विश्लेषित किया है. बीबीसी का यह निष्कर्ष आधा-अधूरा ही माना जाएगा. हालांकि बीबीसी का कहना है कि फेक न्यूज से जुड़े मनौवैज्ञानिक पहलूओं का अध्ययन इस शोध की विशिष्टता है. पर मीडिया के शोधार्थी हाल के वर्षों में खबरों के उत्पादन और उपभोग में भावनाओं की भूमिका अलग से रेखांकित करते रहे हैं. फेक न्यूज को इसका अपवाद नहीं माना जाना चाहिए. सच तो यह है कि भावनाएँ हर समय खबरों के प्रचार-प्रसार में प्रभावी रही है.
गौरतलब है कि भारत की आजादी के दौरान जब राष्ट्रवाद का उभार हो रहा था तब आधुनिक संचार के साधनों के अभाव में, मौखिक संचार के माध्यम से फैलने वाली अफवाहों से साम्राज्यवादियों के खिलाफ मुहिम में राष्ट्रवादियों को फायदा भी पहुँचता था. वर्ष 1857 में भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अफवाह किस तरह लोगों को एकजुट कर रहे थे, इतिहासकार रंजीत गुहा ने इस बात को नोट किया है. शाहिद अमीन ने भी चौरी-चौरा के प्रंसग में लिखा है कि किस तरह मौखिक खबरों के माध्यम से अफवाह (गोगा) तेजी से फैल रहे थे.
दूसरी तरफ साम्राज्यवादी ताकतें भी प्रोपेगैंडा से बाज नहीं आ रही थी. याद कीजिए कि बीबीसी में काम करते हुए लेखक-पत्रकार जार्ज ऑरवेल ने क्या लिखा था. उन्होंने बीबीसी के प्रोपेगैंडा से आहत होकर, 1943 में अपने इस्तीफा पत्र में लिखा था- “मैं मानता हूं कि मौजूदा राजनीतिक वातावरण में ब्रिटिश प्रोपेगैंडा का भारत में प्रसार करना लगभग एक निराशाजनक काम है. इन प्रसारणों को तनिक भी चालू रखना चाहिए या नहीं इसका निर्णय और लोगों को करना चाहिए लेकिन इस पर मैं अपना समय खर्च करना पसंद नहीं करुंगा,जबकि मैं जानता हूँ कि पत्रकारिता से खुद को जोड़ कर ऐसा काम कर सकता हूं जो कुछ ठोस प्रभाव पैदा कर सके.” साथ ही, नहीं भूलना चाहिए कि इराक युद्ध (2003) के दौरान बीबीसी ने जिस तरह से युद्ध को कवर किया, प्रोपगैंडा में भाग लिया,उसकी काफी भर्त्सना हो चुकी है.
वर्तमान में हिंदी में ऑनलाइन न्यूज मीडिया के जो वेबसाइट हैं, वहाँ क्लिकबेट (हेडिंग में भड़काऊ शब्दों का इस्तेमाल ताकि अधिकाधिक हिट मिले) और सोशल मीडिया (फेसबुक,ट्विटर आदि) पर खबरों के शेयर करने की योग्यता (शेयरेबिलिटी) पर ज्यादा जोर रहता है. निस्संदेह ऑनलाइन मीडिया की वजह से बहस-मुबाहिसा का एक नया क्षेत्र उभरा है जिससे लोकतंत्र मजबूत हुआ है, पर कई बार जल्दीबाजी में या जानबूझ कर जो असत्यापित या अपुष्ट खबरें (फेक न्यूज?)दी जाती है वह इन्हीं सोशल मीडिया के माध्यम से लाखों लोगों तक पहुँचती है. ऐसे कई उदाहरण है जिसमें हाल के दिनों में बीबीसी भी इससे नहीं बच पाया है.
असल में, फेक न्यूज की वजह से फेसबुक, व्हाट्सऐप, ट्विटर जैसे प्लेटफार्म की विश्वसनीयता पर भी संकट है. बड़ी पूंजी से संचालित इन न्यू मीडिया पर राष्ट्र-राज्य और नागरिक समाज की तरफ से भी काफी दबाव है. खबरों के मुताबिक गुजरात सरकार सोशल मीडिया पर फेक न्यूज की बढ़त को रोकने के लिए कानून लाने का विचार कर रही है. मीडिया पर किस तरह की कानूनी बंदिश लोकतंत्र के लिए मुफीद नहीं है. पर फेक न्यूज की समस्या और उसके स्रोत को वामपंथी और दक्षिणपंथी खांचे में बांट कर देखना, जैसा कि बीबीसी अपने शोध में करता दिख रहा है, विषय को विचारधारात्मक नजरिए को देखने का नतीजा है. इससे भारत में फेक न्यूज का सवाल राजनीतिक रंग लेता दिख रहा है. और शायद इसी वजह से सूचना एवं प्रसारण मंत्री रविशंकर प्रसाद ने बीबीसी के फेक न्यूज पर दिल्ली में हुए कांफ्रेंस में आखिरी समय में भाग लेने से इंकार कर दिया. ठीक इसी समय ट्विटर के सीईओ जैक डोरसे ने कहा कि फेक न्यूज और दुष्प्रचार की समस्याओं से निपटने के लिए कोई भी समाधान समुचित नहीं है. हाल-फिलहाल फेक न्यूज की समस्या का सीधा हल भले ही नहीं दिखे, यदि मुख्यधारा का मीडिया नागरिक समाज और सरकार के साथ मिल कर,एकजुट होकर इस दिशा में सार्थक पहल करे तो कोई रास्ता जरूर निकल आएगा.
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यह कहानी बनारस के एक मोहल्ले अस्सी की है। इसका समय 1988 से शुरू होता है और अगले 5-6 बरस की घटनाएं दर्शाई गई हैं। मोहल्ला अस्सी में ब्राह्मण रहते हैं। धर्मनाथ पांडे (सनी देओल) संस्कृत शिक्षक है। वह घाट पर बैठ कर पूजा पाठ भी करता है, लेकिन परिवार बढ़ने से बढ़ती आवश्यकताओं तथा महंगाई के कारण उसकी आर्थिक हालत दिन पर दिन खराब होती जाती है। उसके मोहल्ले के अन्य लोग भी चाहते हैं कि वे विदेशियों को पेइंग गेस्ट रख कर पैसा कमाए, लेकिन धर्मनाथ को म्लेच्छों ( विदेशियों ) का अपने मुहल्ले में रहना पसंद नहीं है। वह पड़ोसियों के घर पर विदेशियों को रहने का विरोध करता है। इससे मुहल्ले के लोग मन मार कर रह जाते हैं। पर समय बलवान होता है जो धर्मनाथ दूसरों के घरों में विद्यार्थियों के रहने पर हायतौबा मचाता है जब उसकी शिक्षक की नौकरी छूट जाती है तो वो खुद एक विदेशी लड़की को अपने घर रखने के लिए मजबूर हो जाता है।
कहानी दो ट्रेक पर चलती है। धर्मनाथ को समय के बदलाव के साथ अपने आदर्श ध्वस्त होते नजर आते हैं तो दूसरी ओर भारत की राजनीतिक परिस्थितियां विचलित कर देने वाली है। मंडल कमीशन और मंदिर-मस्जिद विवाद की गरमाहट पप्पू की चाय की दुकान पर महसूस की जाती है जहां भाजपा, कांग्रेस और कम्युनिस्ट विचारधारा के लोग रोज अड्डाबाजी कर चाय पर चर्चा करते रहते हैं।
इनकी चर्चाएं बगैर किसी लागलपेट के अपनी बात बिंदास तरीके से कहने के बनारसी अंदाज का नमूना हैं। इन चर्चाओं में गालियां तकिया कलाम की तरह इस्तेमाल होतीं हैं। तत्कालीन राजनीति पर होनेवाली गर्मागर्म बहसों में लोग किसी को भी.नहीं बख्शते। खासकर मंडल कमीशन को लेकर वीपी सिंह को तो जमकर लताड़ा गया है।
हाल के वर्षों में करीब आधा दर्जन फिल्में ऐसी बनीं हैं जिनकी आधारभूमि बनारस है जैसे रांझणा, मसान आदि लेकिन इन सब से तुलना कर देखा जाए तो बनारस की सबसे मुक्कमल तस्वीर मोहल्ला अस्सी में ही नजर आती है। बनारस के घाटों पर जीवन का जीवंत नमूना इसमें है। फिल्मांकन में बनारस की खूबसूरती लुभाती है।
इस फिल्म में मूल किताब की तरह ही गालियों की भरमार है। इनकी वजह से.ही ये फिल्म काफी दिनों तक सेंसर में लटकी रही और इसे ए सर्टिफिकेट दिया गया है। लेकिन ये गालियां गालियों की तरह इस्तेमाल नहीं होतीं ये उस इलाके के लोगों की सहज.बोलचाल का हिस्सा हैं। इसको फिल्म सहजता से दिखा पाई है।
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सुरेंद्र वर्मा का उपन्यास ‘मुझे चाँद चाहिए’ वह उपन्यास है जिसकी समीक्षा लिखते हुए उत्तर आधुनिक आलोचक सुधीश पचौरी ने लिखा था ‘यही है राईट चॉइस बेबी’. आज इस उपन्यास पर पूनम दुबे की टिप्पणी प्रस्तुत है. पूनम पेशे से मार्केट रिसर्चर हैं. बहुराष्ट्रीय रिसर्च फर्म नील्सन में सेवा के पश्चात फ़िलवक्त इस्तांबुल (टर्की) में रह रही हैं. अब तक चार महाद्वीपों के बीस से भी ज्यादा देशों में ट्रैवेल कर चुकी हैं. ‘मुझे चाँद चाहिए’ पर एकदम अलग एंगल से उनकी लिखी टिप्पणी पढ़िए- मॉडरेटर
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मार्केट रिसर्च की पहली नौकरी के शुरू होने के कुछ महीने बाद मेरी मुलाकात एक सक्रिय नाटक कलाकार से हुई. उन्हीं के साथ मैंने अपनी जिंदगी का पहला नाटक पृथ्वी थिएटर में देखा. विस्मित थी मैं! एक्टर्स को पहली बार इतने करीब से अभिनय करते देखा था, और वह भी इतनी इंटेंसिटी के साथ! “कैसे वह लगातार दो से तीन घंटे स्टेज पर अपनी एनेर्जी और अभिनय का ग्राफ बनाये रखते है” यह सवाल मुझे कई दिनों तक कुरेदता रहा. इन सवालों ने मन में उठी जिज्ञासा को हवा दी. तब से शुरू हुआ प्ले देखने का सिलसिला. उसके बाद जब भी मौक़ा मिलता मैं पृथ्वी, श्रीराम सेंटर या हैबिटैट में प्ले देखने चली जाती थी.
उस समय बिलकुल भी अंदाजा नहीं था कि, जिंदगी में एक ऐसा मौका भी आएगा, जब मुझे मैनहाटन के ब्रॉडवे थिएटर में फैंटम ऑफ़ द ओपेरा, टेमिंग ऑफ़ द श्रीयू, मटिल्डा और अल्लादीन जैसे प्रसिद्ध म्यूजिकल देखने का सौभाग्य प्राप्त होगा.
“मुझे चाँद चाहिए” को मैंने केवल एक उपन्यास की तरह नहीं बल्कि सौंदर्यबोधीय सवालों की कुंजी की तरह भी पढ़ा है. शुक्रिया हो गूगल बाबा का जिनकी मदद से मैं किताब में उल्लिखित अनगिनत नाटकों और उनके किरदारों पर रिसर्च कर उन्हें बेहतर समझ पाई. उपन्यास को पढ़कर यह भी स्पष्ट हुआ कि कलाकारों को एक किरदार में घुसने के लिए इंटरनल और एक्सटर्नल दोनों ही तरफ़ से प्रेरणा की जरूर होती है.
“मुझे चाँद चाहिए” शाहजहाँपुर के आर्थिक रूप से तंग, रूढ़िवादी, ब्राह्मण परिवार में जन्मी वर्षा वशिष्ठ की जीवन गाथा है. अपनी कलात्मक अभिलाषा को पूरा करने और जीवन के नए मायनों को तलाशने की आस में वर्षा संघर्ष की लंबी यात्रा पर निकल पड़ती है.
निजी जीवन में चल रहे द्वंद्व और मन स्थिति से प्रेरणा बटोरते हुए, वर्षा वशिष्ठ (शान्या, नीना, माशा, बिएट्रिस जैसे अनेक) किरदारों को बखूबी निभाती है.
अपनी रचनात्मक गहनता और प्रतिभा के बलबूते वर्षा वशिष्ट सिनेमा और रंगमंच दोनों ही दुनिया में ख्याति हासिल करती है.
वक्त के साथ मिली सफलता, भौतिक सुख और स्टारडम वर्षा के चरित्र पर कभी भी हावी नहीं होते. वह जीवन में अपना संतुलन बनाये रखती है और अपने सौंदर्यबोधीय आकांक्षा के प्रति समर्पित रहती है.
मेरे ख्याल से वर्षा सही मायने में मिसाल है फ़ेमिनिसम और नारी शक्ति की! अपने परिवार, समाज और मुश्किल परिवेश से जूझते हुए अंत तक वह वही रास्ता चुनती है जो उसे सही लगता है.
उपन्यास के लेखक सुरेंद्र वर्माजी ने किरदारों की मनोदशा और परिस्थितियों को बेहतरीन तरीके से रंगमंच के प्रसिद्ध ( अपने-अपने नर्क, तीन बहनें, सीगल और चार मौसम जैसे अनेक नाटकों) से जोड़ा है. महान रूसी प्लेराइटर चेखव तथा अन्य रंगमंच नाटकों के विस्तृत उल्लेख के जरिये उन्होंने उपन्यास को एक नए एंगल से एक्स्प्लोर किया है.
सुरेंद्र वर्माजी स्वयं बहुतेरे प्रसिद्ध नाटक लिख चुके है, जिनमें से कइयों के लिए उन्हें सम्मानित पुरस्कार से नवाज़ा भी गया है. रंगमंच के प्रति उनका लगाव और किताब को लिखने के लिए गहनता से किया गया रिसर्च उपन्यास के हर पहलू में झलकता है.
पूरी उपन्यास प्रतिष्ठित नाटकों की उल्लेख, उनके लेखकों, किरदारों, हॉलीवुड के कलाकारों, निर्देशकों के रेफरेन्स और टेक्निकल शब्दावली से लबालब है. जिन्हें समझने की लिए मैं गूगल बाबा की आभारी हूँ. यह केवल एक उपन्यास नहीं बल्कि रंगमंच और कला के क्षेत्र से संबंधित ग्लोसरी की तरह पढ़ी जा सकती है.
आप भी इस उपन्यास को पढ़िए वर्षा वशिष्ट की सफ़र का हिस्सा बने और कला की दुनिया में कुछ समय के लिए खो जाइये.
“कोई इच्छा अधूरी रह जाये, तो जिंदगी में आस्था बनी रहती है”. मेरी प्रिय पंक्तियाँ इस उपन्यास से!
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हाल में हिंदी प्रकाशन जगत में एक बड़ी घटना बड़ी खामोशी से हुई. पेंगुइन रैंडम हाउस और हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशन एक हो गई. हिंदी में पॉकेट बुक्स क्रांति लाने में हिन्द पॉकेट बुक्स की बड़ी भूमिका रही है. हिंदी के सबसे लोकप्रिय लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक ने हिन्द पॉकेट बुक्स की ऐतिहासिक भूमिका पर एक शानदार लेख लिखा है- मॉडरेटर
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हिंदी लोकप्रिय साहित्य का शायद ही कोई नया, पुराना पाठक होगा जो कि ‘हिन्द पॉकेट बुक्स’ के नाम से नावाकिफ होगा. ‘हिन्द पॉकेट बुक्स’ का प्रकाशन पिछली शताब्दी के छठे दशक में – सन 1958 में – आरम्भ हुआ था और ये भारत में इस प्रकार का पहला उपक्रम था. इस से पहले भारत में केवल बाहर के मुल्कों से आयी पॉकेट बुक्स ही मिलती थीं जो इंगलिश में होती थीं इसलिए हिन्दीभाषी पाठकों के लिए कोई मायने नहीं रखतीं थीं. ये वो वक़्त था जब भारत में न टीवी था, न मोबाइल था, न इन्टरनेट था और न ऐसा दूसरा कोई इलेक्ट्रॉनिक मीडिया था; तब मनोरंजन का साधन या रेडियो था या सिनेमा था. तब कथा साहित्य के नाम पर जो पुस्तकें छपती थीं, वो इतनी ज्यादा मूल्य में होती थीं कि मूल्य की वजह से ही आम पाठक की पहुँच से बाहर होती थीं. उन की खपत सिर्फ लायब्रेरियों में थी और अधिकतर पाठकों को उनकी खबर ही नहीं लगती थी. ऐसे माहौल में ‘हिन्द पॉकेट बुक्स’ ने अपने छ: पुस्तकों के पहले ही सेट के साथ पुस्तक व्यवसाय में इन्कलाब ला दिया. पुस्तकें अल्पमोली थीं, लेकिन एक रुपया कीमत जितनी अल्पमोली होना तब के पुस्तकप्रेमी पाठकों को चमत्कृत करता था. हर किसी ने उन पुस्तकों को हाथोंहाथ लिया और यूँ ‘हिन्द पॉकेट बुक्स’ ने अपने प्रथम प्रवेशी सेट के साथ ही पुस्तक व्यवसाय में खुद को मजबूती से स्थापित कर लिया और तदोपरांत दो महीने के अंतराल से ‘हिन्द पॉकेट बुक्स’ का नया सेट नियमित रूप से पाठकों के बीच पहुँचने लगा और पुस्तकों की बिक्री के ही नहीं, त्वरित बिक्री के नए कीर्तिमान स्थापित होने लगे. ‘हिन्द’ की देखादेखी ऐसे कितने ही नए प्रकाशक पैदा हो गए लेकिन अपनी भरपूर कोशिशों के बावजूद ‘हिन्द’ की व्यवसायिक सफलता की बुलंदियों तक कोई दूसरा प्रकाशक न पहुँच सका.
‘हिन्द पॉकेट बुक्स’ पहला प्रकाशन था जिसने घरेलू लायब्रेरी योजना शुरू की थी, जिस के शुरू होने के थोड़े ही वक्फे में आननफानन उसके स्थायी सदस्यों की संख्या पिचहत्तर हज़ार तक पहुँच गयी थी. ‘हिन्द’ की देखादेखी अन्य प्रकाशकों ने भी घरेलू लायब्रेरी योजना शुरू कीं लेकिन उनकी योजनाओं के सदस्यों की संख्या हजारों में होना तो दूर, हज़ार का आंकड़ा भी मुश्किल से पार कर पाती थी.
‘हिन्द पॉकेट बुक्स’ की अभूतपूर्व सफलता की उसके अल्पमोली होने के अलावा ये भी वजह थी कि उसमें विविधता बहुत थी और वो सही मायनों में गंभीर साहित्य का और लोकप्रिय साहित्य का संगम था. जहाँ ‘हिन्द’ में आचार्य चतुरसेन शास्त्री, अमृता प्रीतम, शिवानी, नरेन्द्र कोहली, हरिवंश राय बच्चन, कृशन चंदर, राजेंद्र सिंह बेदी, ख्वाजा अहमद अब्बास, इस्मत चुगताई जैसे महान साहित्यकार छपे, वहां उसमें गुलशन नंदा, वेदप्रकाश शर्मा, दत्त भारती, आदिल रशीद, आप के खादिम जैसे लोकप्रिय साहित्य के झंडाबरदारों ने भी जगह पायी. खुशवंत सिंह, आर. के. नारायण, डॉक्टर राधाकृष्णन, स्वेट मोर्डेन, जेम्स एलन जैसे इंग्लिश लेखकों के हिंदी अनुवाद छपे तो सार्त्र, नीत्शे, प्लेटो, मैकियावेली, खलील जिब्रान, शेख सादी जैसे महान चिंतकों और विचारकों के हिंदी अनुवाद छपे. बच्चन जी की ‘मधुशाला’ और रविन्द्र नाथ टैगोर की ‘गीतांजलि’ के 100 से ऊपर संस्करण हुये जो कि अपने आप में एक रिकॉर्ड है.
यहाँ मैं ‘हिन्द पॉकेट बुक्स’ के बुलंद किरदार की एक जुदा किस्म की मिसाल पेश करना चाहता हूँ:
‘हिन्द पॉकेट बुक्स’ की सफलता और लोकप्रियता जब अपने चरम पर थी तो तब लोकप्रिय साहित्य में निर्विवाद रूप से उसी को बड़ा और मकबूल लेखक माना जाता था जो कि ‘हिन्द पॉकेट बुक्स’ में छपता हो. ‘हिन्द’ में छपने वाले लेखक को कुकरमुत्तों की तरह उग आये दूसरे प्रकाशक हाथोंहाथ लेते थे. तब तक मेरे अस्सी उपन्यास छप चुके थे, कुछ रीप्रिंट भी हो चुके थे, लेकिन फिर भी मक़बूलियत के लिहाज से पॉकेट बुक्स के धंधे में बतौर लेखक मैं किसी गिनती में नहीं था. तब मैं ट्रेड के लोगों में अक्सर कहा करता था कि अगर कोई मेरा नावल ‘हिन्द पॉकेट बुक्स’ में छपवा दे तो बतौर उजरत जो पैसा वहां से मिले, वो भी वो ले ले और उतनी ही रकम मैं उसे अपने पल्ले से भी दूंगा.
‘हिन्द में छपने की ख्वाइश फिर भी पूरी न हुई; किसी ने भी मेरी पेशकश को कैश न किया.
यही नहीं, एक मर्तबा डॉक्टर गोपाल दास नीरज के दिल्ली प्रवास के दौरान उनके एक स्थानीय परिचित की सिफारिश से मैं उनसे मिला और उनसे ‘हिन्द’ के स्वामी और संस्थापक दीनानाथ मल्होत्रा के नाम उनकी हस्तलिखित सिफारिशी चिठ्ठी हासिल की कि मैं एक नौजवान, उदीयमान, वगैरह वगैरह लेखक था जिसे नीरज जी के अनुरोध पर ‘हिन्द’ में प्रकशित होने का अवसर दिया जाए.
चिठ्ठी तो मैंने हासिल कर ली लेकिन उसे लेकर ‘हिन्द’ में जाने का मेरा हौसला कभी न हुआ – पहले हौसला न हुआ, फिर गैरत ने, स्वाभिमान ने इजाजत न दी.
वो चिट्ठी आज भी मेरे पास मह्फूज है.
ये बाद दीगर है कि दस साल बाद मेरे कुछ किये बिना, अपने आप ही ऐसा इत्तफाक बना कि ‘हिन्द’ की सहयोगी संस्था ‘अभिनव पॉकेट बुक्स’ में सितम्बर 1985 और अप्रैल 1987 के बीच मेरे सात उपन्यास छपे. ‘स्टार नाईट क्लब’ अप्रैल 1987 में वहां से छपा मेरा आखिरी उपन्यास था. वो सिलसिला क्योंकर बंद हुआ, आज मुझे याद नहीं.
‘हिन्द’ के बारे में ऊपर जो कुछ मैंने दर्ज किया, उसका मकसद ये खास जानकारी पाठकों तक पहुँचाना है कि आइकानिक हिन्द पॉकेट बुक्स का स्वामित्व और प्रबंधन अब विश्व-विख्यात और सर्व-अग्रणी प्रकाशन पेन्गुइन रैंडम हाउस इंडिया के पास स्थानांतरित हो गया है और अब उम्मीद कीजिये कि इतने बड़े प्रबंधन के जेरेसाया आइन्दा हिंदी का और हिंदी पुस्तक संसार का कोई भला होगा, जो उच्चतम मापदंड कभी ‘हिन्द’ ने स्थापित किये थे, वो एक नयी आन बान और शान के साथ पुनर्स्थापित होंगे, नये आयोजन नयी बुलंदियों तक पहुंचेंगे.
सुरेंद्र मोहन पाठक
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प्रतिभा चौहान बिहार न्यायिक सेवा में अधिकारी हैं लेकिन मूलतः कवयित्री हैं. उनकी कवितायेँ लगभग सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं. जानकी पुल पर पहली बार प्रकाशित हो रही हैं. उनकी कुछ कविताओं पर उर्दू नज्मों की छाप है कुछ हिंदी की पारंपरिक चिन्तन शैली की कवितायेँ हैं. वे उनकी कविताओं में एक मुखर सार्वजनिकता है और उसकी चिंता है. पढ़िए कुछ चुनी हुई कविताएँ- मॉडरेटर
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आत्ममंथन
विचारों की आकाशगंगाओं में
डुबकी लगाते वक्त तुम्हारे लिए
पहली पूर्व शर्त थी -आत्ममंथन,
दूसरी- तुम्हारा मानवीय होना
हो सकता है इन शर्तों पर
तुम्हारा अधिकार ना हो
तो तुम्हें लांघनी होंगी
सीमाओं में बंटे भूखंडों की कतारें
तुम्हारे ऊपर जो
सहस्रों वर्षों से पड़ा है
पंथ युक्त लबादा -उतारना होगा,
जिनमें तुम कुछ ना होते हुए भी
सब कुछ होने का अभिमान रखते हो
यह जानते हुए भी कि तुम भी
ब्रह्मांड के क्षुद्र प्राणी हो
तुमने देखा है ?
अनादि काल से चला आ रहा कालचक्र
अपनी सीमाओं को नहीं लांघता
सूरज ने अपनी गर्मी नहीं त्यागी
न चंद्र ने शीतलता
न वृक्ष ने छाया
न ही नदी-समुद्र ने तरलता
तो तुम्हारे भीतर रक्त के हर कण में
बसी मानवता
जिसे माना जाता है आकाशीय परोपकार
उसे तुमने अपने आपसे कैसे निकाला
चीत्कारों में धूमिल हुई
तुम्हारे अच्छे नागरिक होने की शर्तें
विश्व जब दंश झेल रहा होता है
तब तुम्हारी समस्त विधाएं छीन ली जानी चाहिए
प्रकृति की ओर से
ऐसा मेरा मानना है
तुम चाहो तो अपनी उम्र बढ़ा सकते हो
प्रकृति पुत्र बनकर
अन्यथा युगों तक चलते चलते
पथों को घिसने का कार्य
प्रकृति शुरु कर देगी
अंततः !
तुम्हें माननी ही होगी
मानवता की परमसत्ता
और अपना सिर झुकाना ही होगा
प्रकृति के सम्मुख।
बेहतर है कुछ समय का मौन
अनकहे शब्दों की खामोशी
उलझती जा रही है
अपने खोने पाने के दस्तूर से
जो चालाकियां सीखते रहे उम्र भर
उस को चांद के तकिए पर टांग देना
बसा लेना कोई बस्ती बचपन की खिलखिलाहट की
और कर लेना गुफ्तगू बहते पानी से
अगर रुठे हुए दरिया में
हाल को पढ़ने का सलीका होगा
तो यकीनन सुलझेगी कोई उलझी हुई लट
यह मुमकिन नहीं कि हर कोई तुम्हें शरीफ समझे
बेहतर है कुछ समय का मौन
वे अक्सर खामोश रहते हैं
जो भीतर से गहराई में समंदर होते हैं
ख्वाहिशों की बारिश है
ख्वाब नम हैं
राहें कठिन है
असबाब कम हैं
क्यों ना चलो बना लें , चांद को अपनी मंजिल
और खो जाएं तारों की महफिल में
जो कुछ कह दिया तुमने
वही बन गयी मेरे यकीं की बुनियाद
फिर चाहें बात जिंदगी की उदास हंसी की ही क्यों न हो
ज़द्दोज़हद के मद्देनजर
हम उदास होना भी भूल गए हैं शायद
एक औरत के काम करते वक़्त के बंधे जूड़े में घुसी पिन की तरह
हमने जमा दिया
कभी न हिलने वाला अस्तित्व
उदासी की सलीब पर
ज़माने की
सबसे महंगी चीज है मुस्कराहट
और खरीदने चले हैं हम
उदासियों के कुछ सिक्के जेब में डालकर।
मेरी मुस्कराहट का तर्क है
ये जमीं पर की चांदनी
सूरज की फैली हुई ओढ़नी
सुकून का दरिया और उसमें पड़ी हुई
यादों की रौशनी
जैसे रिसता है लावा
जलता है पर्वत
उठता है धुआँ
वैसे ही तपता है दिन
जलती है आग
उबलता है लहू
बुझती है आग
ये जीवन की तीन फांक के अलग अलग पक्ष हैं
सूक्ष्म से भी सूक्ष्म
कतरा से भी कतरा
से शुरू होकर समुद्र बन जाने की
ललक लिए जीवन का अस्तित्व
तपाया जाता है
गर्म होता है
बह जाता है प्रकृति में
जम जाता है अस्तित्व सा
धरती की पीठ पर कड़ी परत के रूप में।
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हिंदी के वरिष्ठ लेखक नरेन्द्र कोहली की दो किताबें जनवरी में पेंगुइन रैंडम हाउस-हिन्द पॉकेट बुक्स से प्रकाशित होने वाली है. इसकी घोषणा हाल में ही हुई- मॉडरेटर
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हिंदी में मिथक कथाओं पर आधारित उपन्यासों के पर्याय माने जाने वाले नरेन्द्र कोहली की दो नई पुस्तकें पेंगुइन रैंडम हाउस के तहत हिन्द पॉकेट बुक्स से जनवरी 2019 में प्रकाशित होने वाली हैं. पद्मश्री प्राप्त इस लेखक का लेखन किसी परिचय का मोहताज नहीं है. 1975 में रामकथा को समकालीन सन्दर्भों में लिखकर कोहली जी ने जो ख्याति हासिल की समय के साथ वह बढती गई है. 44 साल बाद भी उनके लेखन का कोई सानी नहीं. उन्होंने विवेकानंद के जीवन-कर्म पर भी उपन्यास लिखा है. एक तरह से वे अपनी परम्परा का आरम्भ भी हैं और अंत भी.
इस अवसर पर श्री नरेन्द्र कोहली ने कहा, ‘पेंगुइन से सम्पर्क हुआ तो लगा कि मेरे साहित्य के आकाश पर जो नीले मेघ थे उनमें इन्द्रधनुष भी उग आया है. मेरे पंख कुछ और खुल गए हैं. मेरा आकाश कुछ और फैलकर विस्तृत हो गया है. मेरी गंगा अब गंगासागर में जा मिली है.’
हिन्द पॉकेट बुक्स की एडिटर इन चीफ वैशाली माथुर ने कहा, ‘श्री नरेन्द्र कोहली जैसी सर्जक प्रतिभाओं के साथ काम करने का यह हमारे लिए महान अवसर है. उनकी कृतियों ने हिंदी साहित्य को नयापन दिया है और मुझे उनके लेखन को नए पाठकों तक पहुंचाने के इस अवसर पर गर्व है.’
पेंगुइन रैंडम हाउस के सीनियर वाइस प्रेसिडेंट नंदन झा ने कहा, ‘स्तरीय पुस्तकों तथा उपन्यासों को पेश करते हुए हिंदी साहित्य जगत को सुदृढ़ बनाना बेहद जरूरी है. समकालीन हिंदी साहित्य को नए सिरे से और मजबूती के साथ पेश करने से पाठकों की एक पूरी पीढ़ी लाभान्वित होगी और उन लेखकों को भी फायदा मिलेगा जिनके योगदान ने हिंदी साहित्य को लगातार समृद्ध बनाया है.’
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रचना भोला यामिनी के लव नोट्स की किताब ‘मन के मंजीरे’ इस साल के आरम्भ में राजपाल एंड संज से आई थी. अपने ढंग की अलग सी शैली की इस रूहानी किताब की समीक्षा लिखी है कवयित्री स्मिता सिन्हा ने- मॉडरेटर
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तेरे पास में बैठना भी इबादत
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