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नामवर सिंह की नई किताब है ‘द्वाभा’

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जीते जी किंवदंती बन चुके नामवर सिंह की नई किताब आ रही है ‘द्वाभा’. राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस किताब के बारे में पढ़िए- मॉडरेटर

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नामवर सिंह अब एक विशिष्ट शख्सियत की देहरी लाँघकर एक लिविंग ‘लीजेंड’ हो चुके हैं। तमाम तरह के विवादों, आरोपों और विरोध के साथ असंख्य लोगों की प्रशंसा से लेकर भक्ति-भाव तक को समान दूरी से स्वीकारने वाले नामवर जी ने पिछले दशकों में मंच से इतना बोला है कि शोधकर्ता लगातार उनके व्याख्यानों को एकत्रित कर रहे हैं और पुस्तकों के रूप में पाठकों के सामने ला रहे हैं। यह पुस्तक भी इसी तरह का एक प्रयास है, लेकिन इसे किसी शोधार्थी ने नहीं उनके पुत्र विजय प्रकाश ने संकलित किया है।

इस संकलन में मुख्यत: उनके व्याख्यान हैं और साथ ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिखे-छपे उनके कुछ आलेख भी हैं। नामवर जी ने अपने जीवन-काल में कितने विषयों को अपने विचार और मनन का विषय बनाया होगा, कहना मुश्किल है। अपने अपार और सतत अध्ययन तथा विस्मयकारी स्मृति के चलते साहित्य और समाज से लेकर दर्शन और राजनीति तक पर उन्होंने समान अधिकार से सोचा और बोला। इस पुस्तक में संकलित आलेख और व्याख्यान पुन: उनके सरोकारों की व्यापकता का प्रमाण देते हैं। इनमें हमें सांस्कृतिक बहुलतावाद, आधुनिकता, प्रगतिशील आन्दोलन, भारत की जातीय विविधता जैसे सामाजिक महत्त्व के विषयों के अलावा अनुवाद, कहानी का इतिहास, कविता और सौन्दर्यशास्त्र, पाठक और आलोचक के आपसी सम्बन्ध जैसे साहित्यिक विषयों पर भी आलेख और व्याख्यान पढ़ने को मिलेंगे।

पुस्तक में हिन्दी और उर्दू के लेखकों-रचनाकारों पर केन्द्रित आलेखों के लिए एक अलग खंड रखा गया है, जिसमें पाठक मीरा, रहीम, संत तुकाराम, प्रेमचंद, राहुल सांकृत्यायन, त्रिलोचन, हजारीप्रसाद द्विवेदी, महादेवी वर्मा, परसाई, श्रीलाल शुक्ल, $गालिब और सज्जाद ज़हीर जैसे व्यक्तित्वों पर कहीं संस्मरण के रूप में तो कहीं उन पर आलोचकीय निगाह से लिखा हुआ गद्य पढ़ेंगे।

बानगी के रूप में देश की सांस्कृतिक विविधता पर मँडरा रहे संकट पर नामवर जी का कहना है : ‘संस्कृति एकवचन शब्द नहीं है, संस्कृतियाँ होती हैं…सभ्यताएँ दो-चार होंगी लेकिन संस्कृतियाँ सैकड़ों होती हैं…सांस्कृतिक बहुलता को नष्ट होते हुए देखकर चिन्ता होती है और फिर विचार के लिए आवश्यक स्रोत ढूँढ़ने पड़ते हैं।‘

यह पुस्तक ऐसे ही विचार-स्रोतों का पुंज है।

पुस्तक : द्वाभा

लेखक   :  नामवर सिंह 

आईएसबीएन  : 978-93-88183-22-2

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन 

बाईंडिंग : हार्डबाउंड 

मूल्य : 695

प्रकाशित वर्ष   : 2018, नॉन फिक्शन

Key Selling Points  | यह किताब क्यों खरीदें ?

  • इस पुस्तक में सांस्कृतिक बहुलतावादआधुनिकता,प्रगतिशील आन्दोलनभारत की जातीय विविधता जैसे सामाजिक महत्त्व के विषयों के अलावा अनुवादकहानी का इतिहासकविता और सौन्दर्यशास्त्रपाठक और आलोचक के आपसी सम्बन्ध जैसे साहित्यिक विषयों पर भी आलेख और व्याख्यान पढऩे को मिलेंगे।
  • पुस्तक में हिन्दी और उर्दू के लेखकोंरचनाकारों पर केन्द्रित आलेखों के लिए एक अलग खंड रखा गया हैजिसमें पाठक मीरारहीमसंत तुकारामप्रेमचंदराहुल सांकृत्यायन,त्रिलोचनहजारीप्रसाद द्विवेदीमहादेवी वर्मापरसाईश्रीलाल शुक्ल, $गालिब और सज्जाद ज़हीर जैसे व्यक्तित्वों पर कहीं संस्मरण के रूप में तो कहीं उन पर आलोचकीय निगाह से लिखा हुआ गद्य पढ़ेंगे।

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निर्मल वर्मा को जब भी पढ़ती हूँ तो चकित होती हूँ- ममता सिंह

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रेडियो की प्रसिद्ध एंकर ममता सिंह की कहानियां हम सब पढ़ते रहे हैं. हाल में ही राजपाल एंड संज प्रकाशन से उनकी कहानियों का पहला संकलन आया है ‘राग मारवा’, उसी को सन्दर्भ बनाकर युवा लेखक पीयूष द्विवेदी ने उनसे एक बातचीत की. आपके लिए- मॉडरेटर

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सवाल आपका पहला कहानी-संग्रह ‘राग मारवा’ अभी ही आया है, इसकी कहानियों के विषय में कुछ बताइये।

ममता कहानी संग्रह ‘राग मारवा’ में कुल 11 कहानियां हैं। सभी अलग विषय की कहानियां हैं….जैसे कहानी ‘आखिरी कॉन्ट्रैक्ट’ सांप्रदायिकता और घर की तलाश पर आधारित है। उस कहानी में इस बात का तनाव है कि एक हिंदू लड़की मुस्लिम लड़के से शादी करती है। उसे एक अच्छी सोसाइटी में घर इसलिए नहीं मिलता है क्योंकि वो एक मुसलमान की बीवी है। ‘पहल’ में छपी इस कहानी का पाठ भी मैंने मुंबई में एक आयोजन में किया था। ‘राग मारवा’ एक रिटायर्ड गायिका के संघर्ष की दास्तान है,  जिसे उसके परिवार वाले पैसे कमाने की मशीन बना डालते हैं। इसी तरह “गुलाबी दुपट्टे वाली औरत” कहानी एक स्त्री के कोख के कारोबार पर आधारित है। कहानी ‘जनरल टिकट’ एक ऐसी महत्वाकांक्षी लड़की की कहानी है, जिसके आगे बढ़ने में परिवार तमाम तरह के विरोध करता है। उसके बावजूद वह अपनी मंजिल तक पहुंचती है। इसी तरह अन्य कहानियां भी हैं जो समाज के कुछ ज्वलंत मुद्दों को उकेरती हैं।

सवाल आप लिख काफी समय से रही हैं, सो ऐसा नहीं लगता कि पहली किताब आने में कुछ देर हो गयी?

ममता मुझे लगता है हर चीज का एक समय निर्धारित होता है। मेरे पास लिखने के अलावा गृहस्थी और दफ्तर की भी जिम्मेदारियां हैं, इसलिए कहानियों का अंबार नहीं लगा पाई।

सवाल आप  रेडियो की एक लोकप्रिय उद्घोषिका हैं, कार्य के दायित्वों के बीच लेखन के लिए समय निकालना कैसे हो पाता है?

ममता बहुत चुनौतीपूर्ण होता है वक्त निकाल पाना। वक्त निकालती नहीं बल्कि वक्त चुराती हूँ। फिर होता है लिखना। जिस वक्त सब लोग सो रहे होते हैं, मेरी कलम चल रही होती है,  जब लोग बैठकर हंसी-ठट्ठे के साथ गपशप कर रहे होते हैं…..मैं उस वक्त लिख रही होती हूँ। राह चलते, गाना सुनते हुए, किसी से बात करते हुए, कहीं किसी पर्यटन स्थल पर वग़ैरह….. इन तमाम हालात में अपनी कहानी के किरदार को जीती और पकाती हूँ और जैसे ही थोड़ा वक्त मिलता है, वैसे ही फटाफट लिख डालती हूँ कहानी। कहानी कई टुकड़ों में पूरी होती है, एक सिटिंग में लिखना मेरे लिए मुमकिन नहीं होता। उसके बाद उसमें सुधार करना और अगले ड्राफ्ट तैयार करना। कुल मिलाकर बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है।

 सवाल आपकी कहानियों की प्रेरणा?

ममता रोज़मर्रा की ज़िंदगी से मिलती है। समाज की कुछ घटनाओं से भी, अपने आस पास के लोगों के जीवन के यथार्थ से भी। आंखें खुली रखनी पड़ती हैं बस।

सवाल आपकी कहानियों के विषय बड़े यथार्थपरक लगते हैं, लेकिन इनमें कल्पना और सच्चाई के बीच का अनुपात कितना है?

ममता हर कहानी यूं तो काल्पनिक होती है तभी तो उसे ‘फिक्शन’ कहते हैं ना …लेकिन कहानी सिर्फ कल्पना के धरातल पर बुनी हो, उसमें यथार्थ का पुट ना हो तो कहानी आपको उतनी अपील नहीं करती। उतनी अपनी-सी नहीं लगती। इसलिए कल्पना के साथ-साथ यथार्थ का पुट होना बहुत जरूरी है। जो हमने देखा हो, भोगा हो – वो हो तो कहानी दमदार हो जाती है। और मैं कल्पना, संवेदना और यथार्थ में सामंजस्य बिठाने की कोशिश करती हूँ।

सवाल आपकी कहानी है – ‘आख़िरी कॉन्ट्रैक्ट’। इसमें आपने मुस्लिमों को घर न मिलने की कठिनाई को रेखांकित किया है, किन्तु क्या आपको नहीं लगता कि इस संकट के लिए काफी हद तक मुसलमान ही जिम्मेदार हैं?

ममता मुझे नहीं लगता किसी संकट के लिए कोई क़ौम जिम्मेदार होती है। किसी मुसीबत के पीछे किसी संप्रदाय का हाथ होता है। हर संप्रदाय में, हर जाति-धर्म में, हर तरह के लोग होते हैं – बुरे और अच्छे ….कुछ गिने-चुने व्यक्तियों के कारण पूरी कौम को बदनाम करना ठीक नहीं होता। असल में कौम की बजाय प्रवृत्तियों की शिनाख्त ज़रूरी है। एक व्यक्ति जो ना मुस्लिम है, ना हिंदू है, ना सिख है, ना ईसाई है, वह सिर्फ एक बेहतर इंसान है। उसे घर खरीदने में किस तरह की जद्दोजहद करनी होती है– यह कहानी ‘आखिरी कॉन्ट्रैक्ट’ का मर्म है। मैंने दिखाया है कि किस तरह सांप्रदायिकता की आग किसी के सपनों को कुचल डालती है।

सवाल आपके प्रिय लेखक और लेखिकाएं कौन हैं? नए और पुराने सभी तरह के नाम बता सकती हैं।

ममता सबसे मुश्किल सवाल यही है, किसका नाम लूं और किसका छोड़ूँ …पुराने दौर के तमाम कालजयी लेखक-लेखिकाएं हैं, जिन्हें पढ़-पढ़ कर हमारा बचपन गुजरा है, वह सब हमारे प्रिय लेखक रहे हैं। कबीर सूर तुलसी जायसी, इन्हें स्कूल के पाठ्यक्रम में पढ़ा। जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, निराला, महादेवी वर्मा, अज्ञेय, निर्मल वर्मा,  इसके बाद मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, ममता कालिया, मृदुला गर्ग, अलका सरावगी, नासिरा शर्मा, धीरेंद्र अस्थाना, उदय प्रकाश, अखिलेश, प्रियंवद….बहुत लंबी फेहरिश्त है। सबके नाम यहां कैसे लूं। पर हां बहुत पढ़ती हूँ- सबको पढ़ती हूँ।

सवाल कोई ऐसे लेखक-लेखिका जिनके लेखन ने आपको प्रेरित या प्रभावित किया हो?

ममता निर्मल वर्मा को जब भी पढ़ती हूँ तो चकित होती हूँ। उनका लेखन हमेशा तिलिस्मी सा लगता है। उनके कुछ शब्द और वाक्यों को नोटबुक में नोट भी कर लेती हूँ….. दुबारा पढ़ने के लिए। निर्मल वर्मा जब पहाड़ों का ज़िक्र करते हैं तो भीतर बर्फ की सी ठंडक महसूस होती है, इतना ज्यादा वह प्रभावित करते हैं। उनके शब्द-चित्र को हम बाक़ायदा जीते है। उनकी कहानियों के किरदार के साथ साथ हम हंसते और रोते हैं। ये एक लेखक की बड़ी सफलता है। बाक़ी सभी वरिष्ठ लेखकों को पढ़ कर कुछ न कुछ  सीखती हूँ।

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भारतीय भाषाओं में इतिहास-लेखन की परम्पराएँ और चुनौतियाँ (हिंदी के विशेष सन्दर्भ में)

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मध्यकालीन इतिहास के विद्वान रज़ीउद्दीन अक़ील ने भारतीय भाषाओं में इतिहास लेखन को लेकर एक गंभीर सवाल उठाया है. आजकल रज़ी साहब की चिंता के केंद्र में यह बात है कि हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं में इतिहास की किताबें आनी चाहिए ताकि देश के आम जन तक इतिहास की जानकारी मूल रूप में पहुंचे. वे स्वयं बहुत अच्छी हिंदी लिखते हैं. यह लेख उन्होंने हिंदी में स्वयं लिखा है-मॉडरेटर

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रज़ीउद्दीन अक़ील

औपनिवेशिक काल की अंग्रेजी कठ-दलीली को अगर नजरअंदाज कर दिया जाए, तो यह बात यकीन के साथ कही जा सकती है कि हिंदुस्तान में साहित्य-सृजन और इतिहास-लेखन की बहुआयामी परम्पराएँ प्राचीन-काल से मध्य-युग होते हुए आधुनिक दौर तक चली आती रही हैं l साहित्यक परम्पराएँ न केवल संस्कृत, तमिल और फारसी जैसी शास्त्रीय भाषाओँ में देखने को मिलती हैं, बल्कि मध्य-काल से विभिन्न देशज या क्षेत्रीय भाषाओँ – कन्नड़, बंगाली, मराठी, हिंदी और उर्दू इत्यादि – में भी पायी जाती हैं l

भारतीय ऐतिहासिक साहित्य चाहे भाषा के आधार पर विभाजित हो या नाना प्रकार की शैलियों में फैला हुआ हो, कालांतर में ये महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोत का रूप ग्रहण कर लेता है l लेकिन यहाँ हमारा प्रयास इन स्रोतों की तथ्यात्मकता और साक्ष्य के रूप में उनके बहुमूल्य उपयोग को दिखाने तक सीमित नहीं है l अपितु, इस साहित्य का बहुत बड़ा भाग लेखन-शैली के आधार पर अपने आप में ‘इतिहास’ की हैसियत रखता है l इतिहस, पुराण, वंशावली, चरित, बुरंजी, बाखर और तारीख आदि शैलियों में पेश किये गए लेख शायद मिथकों से भरे पड़े हों, तथ्यों की सत्यात्मकता की कसौटी पर पूरी तरह खरे न उतरें या उनका विवरण सटीक काल-क्रमानुसार न हो, फिर भी वह भारत में इतिहास-बोध और ऐतिहासिक परम्पराओं की प्रचुर मिसाल पेश करते हैं l सिर्फ इसलिए कि वह आधुनिक काल की पाश्चात्य ऐतिहासिक पद्धति से कुछ हद तक अलग हैं, हम उनके महत्त्व को सिरे से नकार नहीं सकते l

देशज भाषाई इतिहास की एक बड़ी समस्या यह भी है कि धर्म, जात-पात, क्षेत्रीयता या भाषाई पहचान की राजनीति और संघर्ष में उनका इस्तेमाल एक हथकंडे के रूप में किया जाता है l संवेदनाएं मामूली और कमजोर होती हैं और उनके ठेकेदार बाहुबलि l वह तय करते हैं कि ऐतिहासिक अनुसंधान से निकल कर आने वाली आवाज को कुचल देना है, ताकि समाज परम्परागत मान्यताओं और विश्वास के मायाजाल में फंसा रहे l नतीजतन, साक्ष्यों और ऐतिहासिक तथ्यों पर सामाजिक और ऐतिहासिक स्मृतियों को तरजीह दी जाती है, तथ्यों की व्याख्या में पक्षपात और पूर्वाग्रह की समस्या उभर कर सामने आ जाती है और ज्ञान-रूपी गंगा को संवेदनशील भावनाओं की गन्दी राजनीति से मैली कर दी जाती है l यह सब दरअसल सत्ता की होड़ में इतिहास के दुरूपयोग की निशानी है l

वहीँ दूसरी ओर, राजनीतिक विचारधाराओं और ऐतिहासिक यथार्थ के बीच के अंतर्विरोध और अन्य तमाम कठिनाइयों के बावजूद, विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों और अकादमिक पत्रिकाओं से निकल कर आने वाला पेशेवर इतिहास अपनी बुनियादी उसूलों और रुपरेखा के साथ नए आयाम तलाशता रहा है l भूतकाल से जुड़े प्रासंगिक ऐतिहासिक प्रश्नों का विश्लेषण साक्ष्यों और तथ्यों की प्रमाणिकता के आधार पर किया जाता है l हालांकि इतिहासकारों के सामाजिक और राजनीतिक सन्दर्भ, साहित्यक भाषा, सैद्धांतिक प्रतिपादन और अवधारणाएं, ऐतिहासिक व्याख्या और विवरण को प्रभावित करते हैं, एक अच्छे इतिहासकार से यह उम्मीद की जाती है कि वह अपने ऐतिहासिक विवेचन में वस्तुनिष्ठता और निष्पक्षतावाद का परिचय दें l इन्हीं मापदंडों के आधार पर उनके कार्यों की समीक्षा और कदरदानी होती है, अन्यथा प्रोफेसर तो बहुत बनते हैं लेकिन इतिहास-लेखन के इतिहास में सबको जगह नहीं मिलती l

इतिहास-लेखन की सामयिक प्रवृतियों पर नजर डाला जाए तो हाल के दो-तीन दशकों में काफी प्रगति देखने को मिलती है l विभिन्न भारतीय भाषाओँ और शैलियों में पाए जाने वाले स्रोतों के आधार पर राजनीति, धर्म, संस्कृति, स्थापत्य और चित्रकला, जेंडर (लिंग), जाति और क्षेत्रीय आकाँक्षाओं के इतिहास को समझने का प्रयास किया जा रहा है l तक़रीबन सारा अच्छा काम अंग्रेजी में होता है और उसे अंतर्राष्ट्रीय ज्ञान-पटल से जोड़ने का प्रयास किया जाता है l कुछ हद तक बंगाली, मलयालम और मराठी इतिहास अंग्रेजी के अलावा स्थानीय भाषा में भी लिखा जाता रहा है, लेकिन उसका स्तर अंग्रेजी से नीचे रहता है l उत्तर भारत के हिंदी प्रदेशों से आए हुए प्रतिष्ठित संस्थानों के बड़े इतिहासकार हिंदी में पठन-पाठन को अपनी शान के खिलाफ समझते हैं l यानि, यहाँ हालत और भी चिंताजनक है l

शैक्षणिक संस्थान अपने इर्द-गिर्द की सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों से पूरी तरह कटकर नहीं रह सकते l इसलिए शिक्षण और शोध के विषय अपने समकालीन सन्दर्भ से प्रभावित होते रहते हैं l फिर भी सार्वजनिक ज्ञान-क्षेत्र के भारतीय भाषाई इतिहास और पेशेवर अकादमिक इतिहास के बीच एक बहुत बड़ी खायी है, जिसे पूरी तरह पाटना तो मुश्किल है लेकिन उनके बीच के फ़ासले को कम करके ऐतिहासिक शोध को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचाना ज़रूरी है l राजभाषा के नाम पर सरकार प्रति वर्ष करोड़ों रुपये खर्च करती है और गैर हिंदी भाषी प्रदेशों में हिंदी थोपने का मुद्दा गाहे-बगाहे उभरता रहता है l लेकिन, काम कागजी है, या सिरे से नदारद l हिंदी की सौतेली बहन उर्दू का मामला भी जग-जाहिर है – बड़े मियां तो बड़े मियां, छोटे मियां सुबहानल्लाह l

हिंदी में गुणात्मक, स्तरीय और अकादमिक ग्रंथों की कमी कोई ढकी-छुपी बात नहीं है l पाठ्य-पुस्तकें तीस-चालीस साल पुराने शोध को बैलगाड़ी की चाल से ढोती हैं l अच्छे मौलिक शोध-प्रपत्र हिंदी में नहीं लिखे जाते हैं l ऐतिहासिक शोध-पत्रिकाएं या तो नहीं के बराबर हैं या उनका स्तर घटिया दर्जे का है l इतिहासकारों और शोधकर्ताओं को कम से कम दो से तीन भाषाओँ में महारथ होनी चाहिए – ऐसे विद्वान कम ही मिलते हैं l आम तौर पर, साहित्य वाले नया इतिहास नहीं पढ़ते और इतिहासकार अभी भी साहित्य को पूरी तरह मनगढंत समझकर उनके महत्व को नजरअंदाज कर जाना चाहते हैं l यह एक नासमझी है, जिसे हाल के वर्षों में थोड़ी-बहुत सफलता के साथ दूर करने की कोशिश की गयी है l

हिंदी में इतिहास-लेखन और शिक्षण से जुडी समस्याओं के निदान को मद्दे नजर रखते हुए शायद यह कहा जा सकता है कि अंग्रेजी की अच्छी किताबों और अधिकृत पाठ्य-पुस्तकों का अनुवाद आसान जबान में निरंतर होता रहना चाहिए l इसके आलावा हिंदी में भी मौलिक पाठ्य-पुस्तकों का लेखन और प्रकाशन जारी रहे l हिंदी में ऐतिहासिक शोधकार्य को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए l यह विडंबना है कि प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों और संस्थानों के शोधकर्ता अपना शोध-ग्रन्थ, जिसके लिए उन्हें पी.एच.डी. की उपाधि मिल सके, हिंदी में नहीं लिख सकते l लेकिन सरकारी बोर्ड हिंदी में अवश्य लिखे होने चाहिए l स्तरीय प्रकाशन को बढ़ावा देने के लिए हिंदी में ऐतिहासिक जरनल या पत्रिकाएं सुचारू रूप से निकाले जाने की आवश्यकता है, यहाँ भी सरकारी संस्थानों और वित्तीय योगदान की जरुरत है l हम अकादमिक संस्थानों में घोटालों की बात नहीं करते l यहाँ समस्या और भी जटिल है l यहाँ बात सिर्फ प्रायोरिटी (प्राथमिकता) और ग्लैमर (अंग्रेजी की चमक-झमक) की भी नहीं है, बल्कि विभिन्न प्रसंगों में स्वार्थ और नियत की भी है l

भारतीय भाषाई साहित्य निम्नवर्गीय इतिहास और महत्वकांक्षाओं की भी अक्कासी करता है, वहीं अकादमिक संस्थानों में ब्रिटिश औपनिवेशिक काल से उच्च तबकों के सामंती लोग आधुनिकता का चोला ओढ़कर अपनी पैठ बनाए बैठे हैं l परिणामस्वरूप, पिछड़े वर्गो से उठकर आने वाले न जाने कितने कबीर-दबीर का गला घोंट दिया जाता है l इसके अलावा, नए शोध को आसानी से तस्लीम नहीं किया जाता है l पब्लिक डुमेन में न्याय की बात उठाना राजनीतिक प्रोपगंडे का रूप धारण कर लेता है l इसके बरअक्स, अकादमिक संस्थानों में गुरु-चेला, जात-पात, क्षेत्रीयता और धार्मिक सम्प्रदायिकता को विचारधारा और सिद्धांत-रूपी विद्वत जामा पहनाकर ऐतिहासिक अनुसंधान और ज्ञान-विज्ञानं की बात की जाती है l

किसी समाज के निरंतर नव-निर्माण में उसके ऐतिहासिक धरोहरों का ज्ञान और उपयोग बहुत बड़ी भूमिका अदा करते हैं l चालीस-पचास साल पहले लिखी गयी किताबों को लेकर हम बैठ जाएँ तो पुरानी लकीर के फकीर ही बने रहेंगे, जबकि दुनिया कहाँ से कहाँ जा चुकी होगी l दुनिया की वही क़ौमें तरक्की करती हैं जो इतिहास की दिखाई हुई रौशनी में दूर तक निकल जाती हैं l शैक्षणिक संस्थान इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण कड़ी का काम करते हैं l लेकिन मौजूदा दौर में सारा जोर या तो डिग्रियों या उपाधियों पर है या ज्ञान से जुडी सत्ता की राजनीति पर l फलस्वरूप, शिक्षा से जुड़े लोगों का, न सिर्फ छात्रों बल्कि शिक्षकों का भी, मानसिक पुनर्गठन नहीं हो पा रहा है l दकियानुसिता एक ऐतिहासिक यथार्थ है l

(डा. रज़ीउद्दीन अक़ील दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में एसोशिएट प्रोफेसर हैं l मध्यकालीन भारत की साहित्यक, ऐतिहासिक और धार्मिक परम्पराएँ इनके शोध और शिक्षण के मुख्य विषय हैंl प्रस्तुत लेख दिल्ली विश्वविद्यालय के ‘जीवन पर्यन्त शिक्षण संस्थान’ में 26 मार्च 2014 को दिए गए व्याख्यान पर आधारित है l)

ग्रन्थमाला:

अक़ील, रज़ीउद्दीन और पार्थ चटर्जी, सं., हिस्ट्री इन दि वर्नाकुलर (नई दिल्ली: परमानेंट ब्लैक, 2008).

कर्ली, डेविड, पोएट्री एंड हिस्ट्री: बंगाली मंगलकाव्य एंड सोशल चेंज इन प्रिकॉलोनिअल बंगाल (नई दिल्ली: क्रॉनिकल बुक्स, 2008).

घोष, अंजन और पार्थ चटर्जी, सं., हिस्ट्री इन दि प्रेजेंट (नई दिल्ली: परमानेंट ब्लैक, 2002).

चटर्जी, कुमकुम, दि कल्चर्स ऑफ हिस्ट्री इन अर्ली मॉडर्न इंडिया: परशिआनाइज़ेशन एंड मुग़ल कल्चर इन बंगाल (नई दिल्ली: ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2009).

थापर, रोमिला, दि पास्ट बिफोर अस: हिस्टोरिकल ट्रडिशन्स ऑफ़ अर्ली नार्थ इंडिया (नई दिल्ली: परमानेंट ब्लैक, 2013).

राव, वेल्चेरु नारायण, डेविड शूलमन और संजय सुब्रह्मण्यम, टेक्सचर्स ऑफ़ टाइम: राइटिंग हिस्ट्री इन साउथ इंडिया, 1600-1800 (नई दिल्ली: परमानेंट ब्लैक, 2001).

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‘तमाशा’प्रेम की कहानी है या रोमांस की

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तीन साल पहले आज के ही दिन इम्तियाज़ अली की फिल्म ‘तमाशा’ पर युवा लेखिका सुदीप्ति ने यह लेख लिखा था. तमाशा इम्तियाज़ की शायद सर्वश्रेष्ठ फिल्म है. प्यार और रोमांस के दर्शन की ओर ले जाने वाली फिल्म. खैर, कुछ दिन पहले इम्तियाज़ ने भी इस रिव्यू को पढ़कर इसकी तारीफ की थी और कहा कि यह रिव्यू लोगों को फिल्म देखने के लिए प्रेरित करने वाली है. तीन साल बाद पढ़ते हैं इस रिव्यू को और देखते हैं कि क्या वाकई फिल्म और उस फिल्म पर इस लिखत में कुछ जादुई है. अजय ब्रह्मात्मज जी के ‘चवन्नी चैप’ से साभार -मॉडरेटर =====================

तमाशा ज़ारी रहता है, बस करने वाले बदल जाते हैं. और इस तमाशे में तो कहानी भी नहीं, बस कहन का एक तरीका है, सलीका है. कुछ दृश्य हैं, जिनमें जीवन है. लम्बी कविता है, जिसमें लय है, सौन्दर्य है, दर्शन है. रंगीन कल्पना की ऊँची उड़ान है. मूर्त और अमूर्त के बीच का, सच और आवरण के बीच का, मिथ और यथार्थ के बीच का द्वंद्व भी है, संतुलन भी.

जब इम्तियाज़ ने इस टैग लाइन के साथ अपनी फिल्म शुरू की— ‘व्हाई दी सेम स्टोरी?’— तो हमारे जैसे सिने-प्रेमियों को लगा कि यह अपने ऊपर लगने वाले आरोप (कि उनकी हर फिल्म की कहानी एक ही होती है) का एक एरोगेंट जवाब है. लेकिन फिल्म के शुरूआती दस-पंद्रह मिनट देखने के बाद यह स्पष्ट हुआ कि नहीं, यह अपनी कहानी के बारे में नहीं, बल्कि दुनिया की तमाम कहानियों के बारे में कहा गया सूत्र वाक्य है. मुझे लगता है कि इम्तियाज़ अपने ऊपर लगने वाले आरोप से थोड़े त्रस्त हो गए होंगे, जिसका जवाब इस फिल्म की शुरुआत में दिया है. लेकिन क्या ही खूबसूरत जवाब है! कोई ऐसा क्रिएटिव जवाब दे तो हम क्यों न आरोप लगाएं भला? वाकई कहानी एक ही होती है, भाव और किरदार एक ही होते हैं, बस बताने/दिखाने का नजरिया और निभानेवाले बदल जाते हैं. अलग लोग और बदली हुई स्थितियों से कहानी थोड़ी बदली दिखती है, पर मूल तो एक ही है.

‘तमाशा’ में नायक कल्पनाशील कथा-सर्जक और वाचक है. जब हम उसकी नज़र से दुनिया के सभी महा आख्यानों को देखते हैं तो दरअसल हम इम्तियाज़ के नज़रिए से देख रहे होते हैं. दुनिया की तमाम महागाथाओं को एक फलक पर समेटने का यह कौशल ही इस फिल्म का चरम है. अगर आपको देखना हो कि दुनिया के तमाम महा आख्यानों को सबसे संक्षिप्त रूप में कैसे दिखाया और सुनाया जा सकता है तो आप तमाशा देखिये. किसी कहानी का चरम जरुरी नहीं कि उसका अंत ही हो. क्लाईमेक्स की पुरानी अवधारणा से बाहर निकल कर, और रोमांस के चलताऊ मुहावरे से हट कर फिल्म को देखते हैं तो तमाशा का चरम शुरू के दस-पंद्रह मिनटों में पा लेते हैं. शुरुआत ही कुछ ऐसी ऊँचाई पर ले जाती है जहाँ के बाद सिर्फ ढलान ही है, और कुछ हो भी नहीं सकता. पहाड़ की चोटी से आसमान छूने की कोशिश के बाद और क्या बचता है? कहानी वहां भी कुछ नहीं है, पर एक निर्देशक के रूप में इम्तियाज़ स्पष्ट कर देते हैं कि वे जो कह रहे हैं, वह इतना सरल नहीं है. उस तक पहुँचने के लिए दर्शक को भी चलना पड़ेगा. कुछ दर्शक यह सोचते हुए बैठे रहते हैं कि नहीं, यह भूमिका है, असली फिल्म तो बाद में शुरू होगी. यही चूक हो जाती है. जोकर और उसका तमाशा ही असल है, बाकी उसे सिद्ध करने की जद्दोजहद.

शुरुआत में मुझे राजकपूर के जोकर की याद आई. बस याद. झलक जैसी कुछ. फिर शिमला की वादियों के इस कल्पनाशील बच्चे के बचपने में खोकर मैं अपने बचपन में पहुँच गयी. वे फिल्में आपके दिल के करीब आसानी से पहुँच जाती हैं, जिनसे आपका अपना जीवन जुड़ जाता है. व्यक्तिगत तौर पर जानती हूँ कि कहानी के प्रेमी, कहानी को चाहने वाले, कहानी की कल्पनाशीलता में रहते हैं. मैं भी बचपन में एक कहानी-खोर की तरह की श्रोता थी. कहानी के आगे भूख-प्यास सब ख़त्म. कहानी के झांसे में कोई मुझसे कुछ भी करवा सकता था. सुनकर, पढ़कर और दिमाग चाटकर कहानियों में जीती थी. कार्टून वाली पीढ़ी इस कहानी वाले बचपन से कम रिलेट कर पायेगी खुद को. आज भी तमाम पौराणिक कहानियों का जरा भी ज़िक्र आते ही अच्छा-खासा सुना सकती हूँ, पर यह याद नहीं होता कि कहाँ पढ़ी या सुनी थी; क्योंकि वह कभी आरंभिक बचपन में हुआ होगा. तो कहानी की दुनिया में विचरता हमारा नायक मुझे तो बेहद अपना लगा. जो कहानियां उसने एक रहस्यमय कथा-वाचक से सुनी, उसे अलहदा अंदाज़ में सुनाने वाला बन सकता है या नहीं, वह बाद की बात है. एक बच्चे के दिमाग में चलने वाली कथा का सिनेमाई चित्रण इस फिल्म को विशिष्ट बना देता है. रंगों और परिदृश्य का चयन, घर और स्कूल के जाने-पहचाने वातावरण में कल्पना के घोड़े दौड़ाने की यह कलाकारी सामान्य में असामान्य है, इसलिए आसान नहीं है.

ज्यादातर लोगों को कोर्सिया भर पसंद आया. मालूम नहीं क्यों भला? अगर यह कहूँ कि वह फिल्म का सबसे चलताऊ, आसान और खिलंदड़ा हिस्सा है तो कई लोग नाराज़ भी हो सकते हैं. नयनाभिराम प्राकृतिक दृश्य, नायक-नायिका की आकर्षक जोड़ी, दोनों की सहज प्रेमिल केमेस्ट्री और चुटीले-नमकीन संवाद— यही है कोर्सिया का हिस्सा. मुझे उस हिस्से में दूसरी फिल्मों के दृश्यों के दुहराव दिखे. यह कहना गलत नहीं होगा कि हमारे समय की फिल्मों का एक सामान्य मुहावरा बन गया है— नायक-नायिका को किसी बाहरी लोकेशन पर ले जाओ और वहाँ एक-दूसरे के आकर्षण में प्यार या प्यार जैसा कुछ तो हो ही जाना है. प्यार हो जाने भर में साथ के सिवा उस अलग जगह की स्वछंद मस्ती एक उत्प्रेरक की तरह होती है. इसमें भी कुछ ऐसा, और कुछ रहस्य और अनचीन्हे का जादू है. सच कहूं तो मुझे लगा कि साथ से भी ज्यादा दवाब इस बात का था कि फिर कभी नहीं मिलेंगे. नायिका के निर्णय और कोर्सिया में उसके अंतिम संवाद को ध्यान से सुन कर देखिए, “फिर कभी नहीं मिलेंगे”— इस भाव से वह अपने खिंचाव को ठहराव देना चाहती है. इसी वादे से या इसी तरह हतप्रभ रहते हुए वे अलग हो जाते हैं. यहाँ तक कोर्सिया में जो हुआ, वह इम्तियाज़ का अंदाज़ कम था, लेकिन जो आगे होता है वह उनकी अपनी ख़ास शैली है. प्रेम के मुहावरे में आख्यानों को पढ़ने वाले इम्तियाज़ ही राम-कथा के केन्द्र में विरह को देख-दिखा सकते हैं, तो उनका अंदाज़ अलग ही होना चाहिए न?

जहाँ तक मैं समझ पाई हूँ, इम्तियाज़ की फिल्मों में दीवानगी वाली मुहब्बत के अहसास तक कोई एक (नायक/नायिका) पहुंचता है, लेकिन दूसरे पर थोपता नहीं उसे. दूसरे के वहाँ पहुँचने का इंतजार और उसकी यात्रा ही असली प्रेम-कथा होती हैं उनकी. यही मूल होता है इम्तियाज़ की फिल्मों में कि लोग मिलते हैं, मिलकर लगाव होता है और उस भाव को लोग ज़ज्ब होने देते हैं कि यह क्षणिक है या शाश्वत. अगर वह सच्चा है तो भी सामने वाला खुद उस सचाई तक पहुँचे. उसे जबरन खींच नहीं लिया जाता रिश्ते में, धकेल नहीं दिया जाता प्रेम में जो ‘रॉकस्टार’ में भी था. इम्तियाज़ के यहाँ प्यार एक ऐसी चीज़ है, जिसमें किसी को ऊँगली या बांह पकड़ के खींचा नहीं जा सकता. एक आग का दरिया है, तैर के जाना है— वाली बात होती है. दुनिया की तमाम उदात्त प्रेमकथाओं की परंपरा में जुड़ती एक और दृश्य-कथा जैसी चीज. वो कोर्सिया में मिलना और बिछड़ना और बिछड़ते समय अपने वादे को कायम रखना… नायिका अलग होकर भी हो नहीं पाती. साल-दर-साल गुज़र जाते हैं और फिर किस तरह वे मिलते हैं, ये सब फानी बातें हैं जो आप फिल्म देखकर जान जाएंगे. यही तो कहानी है, अगर कोई है तो! फिर जब वे मिलते हैं तो भी नहीं मिलते. क्यों? मिथ और यथार्थ की जो दुरुहता है वो यहीं से शुरू होती है.

जो है और नहीं है; जो मेरे भीतर है और मुझे मालूम है; जो मुझे मालूम है लेकिन मुझे नहीं मानना है; जो मैं मानता हूँ लेकिन तुम्हारे सामने नहीं स्वीकार सकता… जाने कितने द्वंद्व, कितने टुकड़ों में हम जीते हैं! जो हम हैं लेकिन हो नहीं सकते— यह सच हमारे जीवन का कैसा कडवा सच हो सकता है— इसे जानना है तो तमाशा देखिये. हमारे इर्द-गिर्द अधिकतर लोग बेवजह आक्रामक या कुंठा में दिखते हैं. कभी आपने उनपर सोचा है? जो लोग अपने भीतर अपनी इच्छाओं, अपनी चाहनाओं को बाकी दुनिया की तमाम शर्तों के दवाबों से दबा कर रखते हैं, उनकी इच्छाओं के बोनसाई की मुड़ी-तुड़ी डालियाँ कैसे उनको बीच-बीच में तबाह करती हैं, कैसे उनके मन को छलनी कर देती हैं और ऐसे में जो आक्रोश वे अपनों को दिखा नहीं सकते, वह भीतर की घुटन कैसे अकेले में या शीशे के सामने निकलती है— इसे जानना हो तो देखिये यह फिल्म. कई बार हम नहीं जानते कि हम क्या चाहते हैं और वह किये जाते हैं जो दूसरे हमसे चाहते हैं. वह बेवजह की विनम्रता हमें भीतर से कैसा खोखला और आक्रामक बनाती है, यह ‘तमाशा’ में देखना एक हद तक डरावना है.

यह एक ऐसी प्रेम कहानी है, जहाँ इस प्रेम में कोई दूसरा बाधक नहीं, जब एक ही दो हो तब क्या किया जाए? जब अपने ‘स्व’ को कोई स्वीकारे नहीं तो क्या? जब जतन से खुद को खोल में छिपा रखा हो और एक दिन कोई बेहद करीब आ उस खोल को उधेड़ दे और हम लज्जा से अपने को भी ना देख सके तो? जरुरी नहीं है दूसरे का प्यार; उसकी कदर, उसका समझना जरुरी है, अपने को पहचानना जरुरी है. इसीलिए जब कथा-वाचक वेद से कहता “तू अपनी कहानी मुझसे जानना चाहता है, कायर, धोखेबाज़!” तो फिर उसे समझ आ जाता है कि अपने तक पहुँच कर ही अपनी कहानी जान सकता है. ‘कुन-फाया-कुन’ में एक पंक्ति है, “कर दे मुझे मुझसे ही रिहा/ अब मुझको भी हो दीदार मेरा”. यह जो अपनी गिरफ्त है, खुद की जकड़न है, उस जकड़न और गिरफ्त की झलक दिखाने वाले के प्रति एक रोष पहले उभरता है, और फिर कृतज्ञता. वही कृतज्ञता स्टेज परफोर्मेंस के अंत में दिखती है.

मेरे लिए यह पहुँचना और मुक्ति मनचाहे कैरियर की नहीं. वह तो सामान्यीकरण है. वह सतही है. यह सतत द्वन्द्व इस बात का है कि हम वास्तव में क्या हैं? क्या होना चाहते हैं और क्या बनकर रहते हैं? हमारी कल्पना और हमारी वास्तविकता जीवन को दुरूह या सरल बनाती है. वही डॉन है, वही वेद है. लेकिन नहीं कह सकते हैं कि वही मोना डार्लिंग है और वही तारा है. तारा मोना का अभिनय कर रही है और मोना होते हुए भी बहुत कुछ तारा है, लेकिन डॉन होते हुए वेद कहीं भी नहीं. होना ही नहीं चाहता. दोनों दो हैं. वेद होते हुए वह डॉन को स्वीकार नहीं करना चाहता. यही असल और अभिनय का सच है.

अगर आप इन दुरुहताओं से परे फिल्म देखना चाहते हैं तो भी समाधान है आपके लिए. जाइए, और कोर्सिया से लेकर दिल्ली तक के सुन्दर दृश्यों में दो जानदार अभिनेताओं का परफोर्मेंस देखिये. रणवीर अपने समय के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता बन चुके हैं. उनका अंदाज़, उनके तेवर, पल-पल बदलते चेहरे के रंग और मध्य-वर्गीय सपनों की विवशता को देखिये. दीपिका इसीलिए मुझे पसंद है कि उनको खुद को कहानी के हिसाब से ढालना आता है. उनका किरदार ‘लव-आजकल’, ‘जवानी-दीवानी’, ‘कॉकटेल’ जैसी फिल्मों के चरित्रों जैसा ही हो जाता, अगर उनको संजीदगी से संभालना नहीं आता. कोर्सिया के रंग-बिरंगे गाने में उन्होंने दिखा दिया कि एक ही फ्रेम में सबसे फ्रंट पर ना होकर, दूसरे के क्लोजअप में रहते हुए भी कैसे अपना महत्व बढ़ा लिया जाता है. इस फिल्म में उनकी भूमिका सहायक की थी, नेपथ्य की थी, जिसे बेहद खूबसूरती से निभाया.

अंत में, कहना चाहूंगी कि ‘रॉकस्टार’ से ‘तमाशा’ की तुलना उचित नहीं है. एक ही निर्देशक और अभिनेता की होने के कारण दोनों की तुलना कर दें, यह सही नहीं है. फिर भी जो लोग ‘रॉकस्टार’ को इम्तियाज़ की बेस्ट फिल्म मानते हैं, उनके लिए कहना चाहूंगी कि ‘तमाशा’ एक अलग, अलहदा और आगे निकली हुई, एक दार्शनिक धरातल की फिल्म है. ‘रॉकस्ट्रार’ में कुछ कमियाँ हैं, जबकि ‘तमाशा’ में संतुलन है. दोनों फिल्मों में फ्रेम में रणवीर ही हैं, पर यहाँ बैकग्राउंड में रह कर उसे और खूबसूरती से उभार देती हैं दीपिका. जबकि पहली फिल्म में नायिका का मजबूत चरित्र एक लचर अदाकारा के हाथों पिट गया. वहां गाने और संगीत बहुत ख़ास हैं, लेकिन एक फिल्म सिर्फ उम्दा गाने भर तो नहीं!

इस फिल्म को कहानी नहीं, कल्पनाशीलता के लिए देखा जाना चाहिए. इस दुनिया में जो अलहदा लोग हैं, वे कहाँ सर्वाईव करते हैं? करते भी हैं या नहीं करते हैं? नहीं करते हैं तो कहाँ रह जाते हैं और किन हालात में जीते हैं? देखिये और समझिये कि मध्य वर्ग, उसकी सोच और उसके सपने और प्रतिभा कैसे संघर्षों में खप जाने को मजबूर हैं. इस फिल्म में यात्राएं बहुत तरह की हैं. सबसे आसान कोर्सिया की है. फिर कोर्सिया में जो होता है, वहीँ रहता है; पर होता क्या है— जानने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी. देख आइये.

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‘इमा’तुझे रोके है , रोके है मुझे ‘बेटी’

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मणिपुर की राजधानी इम्फाल का इमा बाजार, जहाँ सिर्फ महिलायें बाजार लगाती हैं. उसके बारे में एक जीवंत टेक्स्ट लिखा है गीताश्री ने. वह अभी हाल में मणिपुर यात्रा पर गई थीं. बहुत साधा हुआ गद्य, न्यू जर्नलिज्म की तरह यानी ऐसा रिपोर्ताज जो पढने में साहित्य सा आनंद दे- मॉडरेटर
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वह अवाक मेरा मुँह ताक रही थी. वह मेरी भाषा नहीं समझ पा रही थी और वह कुछ बोल नहीं पा रही थी. हम बाहरी थे उनके लिए. उनसे संवाद कैसे स्थापित करुं,  मैं अकबकाई-सी खड़ी थी. मैं मुस्कुराना चाह रही थी और चाहती थी कि बूढे चेहरे पर कम से कम व्यवहारिक, व्यापारिक सहजता तो दिखे.
एक रंगीन मफ़लर पर मेरी नज़र अटक गई थी. महिलाओं के उस बाज़ार में प्रवेश करते ही आँखें चौंधिया गईं थीं, कई कारणों से. शुरुआत कहीं से तो करनी थी.
मैं मफ़लर की तरह इशारा करके उसका मूल्य पूछ रही थी. वह बूढी औरत कुछ समझ नहीं पा रही थी. उसने मुझे लगभग इगनोर कर दिया.
पीछे से किसी स्त्री की आवाज आई- आपको यहाँ शॉपिंग करनी है तो दूकान पर बैठी स्त्रियों को “ इमा” बोलो. फिर देखो…! इमा का रेस्पेक्ट जरुरी है. “
पीछे एक मणिपुरी युवती खड़ी थी, अपने पारंपरिक परिधान में. उसके साफ हिंदी बोलने पर मैं गदगद होने ही वाली थी कि उसने कहा- मैं दिल्ली में पढी हूँ… हिंदी लिख – पढ लेती हूँ. यहाँ बाज़ार में बूढी औरतें हिंदी नहीं समझती, मगर युवा लडकियां आठवीं तक हिंदी पढीं हैं, उनसे मदद लो आप..!
मुझे रास्ता बताते हुए वह बाला बाज़ार की भीड़ में खो गई.
मेरे साथ आए स्थानीय गाइड हेनरी कहीं पीछे छूट चुका था. हेनरी का नाम मैने ओ हेनरी कर दिया था और उसे हमारा पूरा ग्रुप “लास्ट लीफ़” बुलाने लगा था. मैने हेनरी को खोजा. फिर याद आया कि हेनरी के अनुसार इमा का अर्थ “माँ” होता है.
वह लडकी जाते जाते बता गई थी कि दुकानदार स्त्रियों से कैसे बात करनी है. मुझे ये नहीं अंदाज़ा था कि वह फ़ायदेमंद मंत्र दे गई थी जिसके सहारे बाज़ार में जमकर छूट मिलती है.
मैने शुष्क बूढी औरत को कहा – “इमा”, वो मफ़लर कितने का ? उसने इमा सुनते ही जो कहा , मैं हैरान.
“ बेटी” लो … ! मतलब इतनी हिंदी तो जानती ही है कि स्त्री ग्राहक को कहाँ रोक लेना है. उसका तना हुआ चेहरा ढीला पड़ा. माथे पर चंदन की लंबी लकीरें थीं.
उसने दाम बताए और अच्छी खासी छूट भी दी. मुझे शॉपिंग मंत्र मिल गया था. चार हज़ार स्त्रियों के बाज़ार में सारी “ इमा” निकलीं और हम बेटियाँ. बाज़ार में भीतर धंसते हुए जिसे मैं हैलो इमा कहती, वो कहती- बेटी, बेटी.. “
वो फिर माएँ थीं जो इमा सुनते ही मुस्कुरा पड़ती थी और जिनके सूखे चेहरे पर सहजता आ जाती थी.
मैं इंफाल के ऐतिहासिक “ इमा मार्केट , इमा कैथल“ के बारे में बात कर रही हूँ जिसे मदर्स मार्केट के नाम से भी जाना जाता है. इस बाज़ार की भी एक दिलचस्प कहानी है. बताते हैं कि 16वीं शताब्दी में जब यहाँ पर राजा का शासन था तब अधिकांश पुरुष सेना में भर्ती होते थे या उन्हें चावल की खेती करने के लिए दूर दराज़ इलाक़ों में भेज दिया जाता था. ऐसे में बाज़ार सूने. न कोई विक्रेता न कोई ख़रीदार. जब पुरुष नदारद हो तो ऐसी स्थिति में महिलाओं को ही बाकी काम करने पड़ते थे। उन्हें घर से निकल कर बाहर का मोर्चा संभालना पड़ता था. सन 1533 में इस बाज़ार की नींव रखी गई थी. ऐसा बाज़ार सिर्फ मणिपुर की राजधानी इंफाल में ही नहीं , सूबे के हरेक जिले में , बड़े शहरों में मिलेगा. हर जगह एक इमा मार्केट है जिसकी जड़े इतिहास में धंसी हैं.
ज्यादातर महिलाओं के लिए युद्धकाल का मतलब परेशानी, परिवार को अकेले संभालना और राशन साझा करना था.
ऐसी ही आवश्यकताओं ने स्त्रियों को मुक्त किया है हमेशा. इतिहास गवाह है कि दूसरे विश्वयुद्ध के समय जब सारे पुरुष मोर्चे पर चले गए तब स्त्रियों ने ही सारा कार्य – व्यापार संभाला था. दफ़्तरों में घुसकर काम किए. जब पुरुष मोर्चे से वापस लौटे तो स्त्रियों ने क़दम पीछे करने से इनकार कर दिया. उन्होंने साबित कर दिया था खुद को कि आवश्यकता पड़ने पर सारे काम कर सकती हैं जो उनके लिए वर्जित थे. जिनसे उन्हें वंचित रखा गया था. व्यापार भी उनमें से एक है.
मणिपुर का समाज 500 साल पहले अपनी स्त्रियों को मुक्त कर चुका था, वजह एक ही होती है, मुक्ति का देशकाल अलग.
इमा बाज़ार पाँच सौ साल पुराना है और तब से आजतक इसकी परिपाटी नहीं बदली. इस बाज़ार में सिर्फ शादीशुदा स्त्रियाँ ही व्यापार कर सकती हैं. उनकी जगहें तय हैं जहाँ वे पिछले कई दशको से बैठती चली आ रही हैं. माँ अपनी बेटी को विरासत सौंपती चली आ रही है. यह विरासत बेटों को नहीं मिलता, शादीशुदा बेटियों को मिलता है. पाँच सौ साल से यही रिवाज चला आ रहा है. समय के साथ भी नहीं बदला है यह रिवाज.
“यह बाज़ार नहीं परंपरा है . मेरी माँ ने मुझे सौंपा है यह काम. आगे मैं अपनी बेटी को सौंपूँगी मगर शादी के बाद”
युवा दूकानदार राजेश्वरी टूटी फूटी , तुतलाती हिंदी में बताती है. इन्हें बाज़ार का इतिहास पूरा नहीं पता. बस इतना मालूम है कि इस बाज़ार पर मातृसत्ता क़ायम है , जिसे कोई नियम क़ानून बदल नहीं सकता. राजेश्वरी के बग़ल में बैठती हैं 70 साल की वेदमणि ! इंफाल के पास के गाँव से रोज आती हैं. सुबह नौ बजे तक बाज़ार में माल लेकर पहुँचती हैं और शाम चार से पाँच बजे के बीच दूकान समेट कर गाँव निकल जाती हैं. वे पिछले चालीस साल से इमा बाज़ार में दुकान चला रही हैं . उनकी चिंता ये है कि उनके बाद इस परंपरा को आगे कौन बढ़ाएगा. इकलौती बेटी प्रदेश छोड कर विदेश चली गई है और उसे ये काम पसंद नहीं. वेदमणि अपनी विरासत सौंपने के लिए उचित पात्र ढूँढ रही हैं. वे नयी पीढी से थोड़ी खफा भी हैं कि ऐसे भागती रहेंगी तो यह बाज़ार कहीं मातृसत्ता के क़ब्ज़े से निकल न जाए. ढेरों बेरोज़गार युवक दुकान लगाने को बेताब घूम रहे हैं. अभी तो पुरुष यहाँ सिर्फ ख़रीदार की तरह आते हैं . दुकान लगाने का हक नहीं उन्हें. पितृसत्ता पूरी तरह अपदस्थ है इस बाज़ार से.
बहुत बडा बाज़ार है जहाँ एक साथ चार हज़ार महिलाएँ बैठती हैं एक साथ. दूर दराज़ के इलाक़ों से रोज सुबह आती हैं, शाम को वापस जाती हैं. कुछ को बाज़ार की इमारत के अंदर जगह नहीं मिली है, वे बाहर पटरियों पर बैठ कर बेचती हैं दैनिक आवश्यकताओं से जुड़ी चीज़ें.
अगर आप मणिपुर की यात्रा पर जा रहे हैं तो इमा बाज़ार की सैर के बिना अधूरी रहेगी यात्रा.
महिला व्यापारियों को आदर से “इमा” कहिए, चाहे वे युवा ही क्यों न हो, बदले में सामान, मुस्कान और भारी छूट पाइए.
तुतलाती हुई हिंदी की मिठास यात्रा की थकान दूर कर देगी. यकीन मानिए… ऐतिहासिक इमारत के भीतर बसे बाज़ार में “इमाएं” शोर नहीं मचाती !

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विनीता परमार की कुछ कविताएँ

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आज पढ़िए विनीता परमार की कविताएँ- मॉडरेटर

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*नहीं की मैंने कोई यात्रा*

1.

अंतहीन प्रतीक्षा की  सरलता

कितनी आसानी से मान लिया

ठहर कर देखने की सहजता ने ।

 

तुम्हें हमेशा चलने की परेशानी रही

यात्राओं की जद से

बचने में नहीं चाही कोई यात्रा ।

 

तुम्हारी कल्पनाओं में नहीं रहा कोई मैगलन

न ही तुमने कोशिश की कोलंबस होने की

तूने इब्नेबतूता को भी गानों के बोल से जाना ।

 

परिणाम के गणित से दूर

तुमने तके कितने रास्ते

खोज ना पाई कोई अंतिम तरीका ।

शकुंतला बैठी है

दुष्यंत की तपस्या में

तो कभी सोती आंखें भी

चिहुंक  राहुल को जोर से

चिपका  लेती हैं छाती से ।

सीता ,उर्मिला निहार रहीं

प्रतीक्षक बनकर

बैठी रहीं प्रेम की आस में ।

 

तुम तो  पोषिका हो

फिर भी है तुम्हें

हरदम एक संदर्शिका की खोज

नियंता की विश्वासिनी हो

संरक्षक  की संरक्षिका हो

उसकी खोज आत्मा है

वो सत्य ढूंढ़ता है

धर्म खोजता है

उसकी संस्थापना करता है ।

 

तुम्हारी खोज में तो तुम खुद भी नहीं

युगों से राम की छाया

बनकर रहने तक में ही

तुम्हारी खोज पूरी है ।

2.

सोचती हूँ ,

उस मनुष्य को

जब उसकी कोई ज़बान न थी,

वो बोलता होगा पंछियों की भाषा

हँसता होगा फूलों की हँसी

मन के हिलोरों में कोई  सागर  उठता होगा ।

 

तभी ब्रह्मा ने लिखा होगा प्रेम  उसी समय बदल गये होंगे रंग

सभ्य हो गई होगी भाषा

जन्म लिये होंगे पहरूए

फिर बन गया होगा समाज

नाम दिया होगा व्यसन ,

बांधने को एक नया शब्द विवाह,

जिसके ये कितने रूप

प्रेम ,अनुलोम,विलोम और जाने क्या – क्या ?

सबने पार की देह की दहलीज को

प्रेम फिर देह ,

संघर्ष स्वयं से,

संस्कारो ने माना

पहले देह फिर प्रेम

हमने  दी जगह

तो फ़िर

प्रेम की पराकाष्ठा

नदी होना या भाप बन कर उड़ जाना

नदियों को बांधने की पुरानी तकनीक आज भी कारगर है ।

2.अंतिम लड़ाई

________________

खुद की बनाई दुनिया खतरनाक इसका भान है मुझे

फिर भी बना ली है मैंने अपनी एक दुनिया

इलाज से ज्यादा कायरता है

मेरे इन दु;खद सुखों में ।

 

मैं अब संभावनाओं से

भाग जाना चाहती  हूँ

नींद में ही सही विरोध दर्ज करते – करते

नहीं बचा है  रास्ता मेरे पास

सिवाय खुद हथियार बनने के ।

 

दुनिया के निर्दयी लोगों से डरकर

अब हमें निकाल लेने चाहिए

हमारे सारे आखिरी हथियार

जो इस्तेमाल हुए थे

महज पहली लड़ाई के वक्त…

 

अगर सच  ऐसा है तो हम कुछ नही सीख पाए

त्रासदियों में लिपटे

कायर इतिहास से  ।

 

सपनों से अंजान ये सबर लड़कियां

____________________

तुम्हारा मानव होना या न होना

उनकी घोषणाओं में था

जन्म से कभी अपराधी कभी विमुक्त आज लुप्तप्राय

वृक्ष की बची – खुची   ,

पहाड़ों पर थोड़ी सी जगह ढूंढ़ रह रहीं ये सबर लड़कियां

नहीं जानती कोई खेती

नाही  अपनी कोई लिखित भाषा

अ या आ के सपनों से अनजान

नहीं जानती रिश्तों की पुकार

मायके के त्योहार या ससुराल

का महावर

नहीं जानती कलीकापुर बाज़ार

जहां बिकते हैं स्वाद, चेहरे व सतरंगे सपने

पहाड़ों पर अटक गया सफ़र

नहीं हो सकी कोई यात्रा ।

 

इनके  ही पहाड़ों को तोड़कर

खड़े हुए हैं मॉल

इनके साथ खींचे फोटो से

मल्टीप्लेक्स में दिखाई जाती है फ़िल्म

छापे गए उपन्यास, छपी अखबारों की स्टोरी

ये सिर्फ़ जानती हैं कुएं या गुर्रा नदी का पानी

नहीं जानती शुद्ध – अशुद्ध पानी का फ़र्क ।

 

नहीं जानती बालों का बनाना

कोई शैंपू , क्रीम या आँखों का शूरमा

गजरे की खुशबू से अनभिज्ञ

हंडिया के नशे में धुत्त पति के

दिल तक जाने के लिए

भात के अलावा  जानती हैं सिर्फ़ बरसाती फतिंगों का स्वाद।

 

छ: सौ की पेंशन और पंद्रह किलो चावल के इर्द – गिर्द घूमते

मांड – भात के भाप में

अब तक भांप न सकी अपनी आदिम सुगंध

नहीं पा सकी उचित धूप

गा ना सकी प्रथम गीत ।

 

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किताबों का साल अनुवाद का हाल

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हिंदी में अनुवाद के पाठक बढ़ रहे हैं और चुपचाप उसका बाजार भी तेजी से बढ़ता जा रहा है. इसी विषय पर मेरा यह लेख ‘कादम्बिनी’ के दिसंबर अंक में प्रकाशित हुआ है. जिन्होंने न पढ़ा हो उनके लिए- प्रभात रंजन

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कुछ महीने पहले यात्रा बुक्स की निदेशिका नीता गुप्ता ने यह कहकर चौंका दिया था कि उनके यहाँ से प्रकाशित अमीश त्रिपाठी के किताबों के हिंदी अनुवादों की पांच लाख से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी हैं. यात्रा बुक्स हिंदी में अनुवाद-केन्द्रित प्रकाशन है और उसकी निदेशिका का कथन यह बताता है कि हिंदी में अनुवादों के माध्यम से कितने पाठक बढ़ रहे हैं. यह बात पिछले कई सालों से कही जा रही है कि हिंदी किताबों का बाजार बढ़ रहा है. हिंदी में नए-नए लेखक आ गए हैं जिनकी किताबें बड़ी तादाद में बिकने लगी है, उन लेखकों को मीडिया द्वारा पोस्टर बॉय की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है. लेकिन दुर्भाग्य से इस बात का स्वतंत्र विश्लेषण नहीं किया गया है कि हिंदी में अनुवाद की पुस्तकों का बाजार कितना बढ़ा है. वास्तव में, इस समय हिंदी में जो नए पाठक आ रहे हैं वे हिंदी के पारंपरिक पाठकों से भिन्न हैं. पहले हिंदी के अधिकतर पाठक हिंदी माध्यम के स्कूलों से पढ़कर आते थे. लेकिन अब छोटे-छोटे कस्बों में भी हिंदी माध्यम की शिक्षा कम होती जा रही है. पब्लिक स्कूलों का जोर बढ़ता जा रहा है. इसलिए इस समय जो हिंदी के नए पाठक हैं वे रूचि से हिंदी पढने की दिशा में अग्रसर होते हैं. वे आमतौर हिंदी में अंग्रेजी जैसा साहित्य पढना चाहते हैं. अकारण नहीं है कि हिंदी में ‘नईवाली हिंदी’ का प्रचलन बढ़ता जा रहा है और अनूदित पुस्तकों की तरफ रुझान भी.

इस सन्दर्भ में, जो बात रेखांकित की जाने वाली है वह यह कि हिंदी में अंग्रेजी सहित अन्य विदेशी भाषाओं से जिन पुस्तकों के अनुवाद होते हैं उन विषयों पर आमतौर पर हिंदी में पुस्तकों का अभाव है. अमीश त्रिपाठी की किताबों की हिंदी में लोकप्रियता का एक बड़ा कारण यह है कि उन्होंने मिथकीय फिक्शन लिखने शुरू की जिनका हिंदी में कुछ अपवादों को छोड़कर सिरे से अभाव रहा है. हिंदी में मिथकों पर लिखना एक तरह से पिछड़ापन माना जाता रहा है, उसको दक्षिणपंथ से जोड़कर देखा जाता रहा है, जबकि अंग्रेजी में इस समय सबसे बड़ा ट्रेंड यही है. एक मीडिया हाउस द्वारा हर तिमाही बेस्टसेलर किताबों की सूची जारी की जाती है जो विशुद्ध रूप से बिक्री के आंकड़ों के ऊपर आधारित होती है. इस में अनुवाद की सूची में मिथक कथाओं पर आधारित पुस्तकों की उल्लेखनीय संख्या होती है.

इस सन्दर्भ में देवदत पटनायक का उल्लेख आवश्यक लगता है. वे आधुनिक सन्दर्भों में मिथक कथाओं के पाठ लिखते हैं और हिंदी में उनकी किताबों के अनुवाद भी खूब पढ़े जाते हैं. मिथकों पर लिखते हुए वे धार्मिक दृष्टि की जगह पर भारत की बहुलतावादी दृष्टि को सामने लाते हैं. एक ऐसी आध्यात्मिकता जो धार्मिकता से मुक्त है. उनके लेखन के मुरीद हिंदी में भी बढ़ते जा रह हैं. इस साल अलग-अलग प्रकाशनों से उनकी कई किताबों के अनुवाद हिंदी में आये- मेरी हनुमान चालीसा, जो हनुमान चालीसा की आधुनिक टीका है. इसी तरह देवलोक का तीसरा खंड प्रकाशित हुआ. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण किताब ‘ओलिम्पस’ आई जिसमें उन्होंने ग्रीक मिथकों का भारतीय सन्दर्भों में पाठ प्रस्तुत किया है. ग्रीस के अनेक देवी-देवताओं की तुलना उन्होंने भारतीय देवी-देवताओं से की है. यह अपने ढंग की अनूठी किताब है.

हिंदी में समाज विज्ञान, सामाजिक विषयों, राजनीति पर गंभीर पुस्तकें कम लिखी जाती हैं. इस कमी को भी अनुवादों के जरिये पूरा किया जाता है. ज्यां द्रेज़ और अमर्त्य सेन की किताब ‘भारत और उसके विरोधाभास’ इस सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण अनूदित पुस्तक है जिसमें भारत के आर्थिक-सामाजिक विकास की गाथा प्रस्तुत की गई है. जाहिर है, दोनों विद्वानों के नाम किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं और यह एक शोधपूर्ण पुस्तक है. इसी तरह शशि थरूर ने हाल में अंग्रेजी में आधुनिक भारत के सामाजिक-राजनीतिक अंतर्विरोधों को कई किताबें लिखी हैं. उनकी अपनी एक विशिष्ट शैली है, भाषा है और विषय को बरतने का अपना विशिष्ट अंदाज है. हिंदी में इस साल उनकी दो किताबों के अनुवाद प्रकाशित हुए और चर्चित भी हुए. एक किताब ‘मैं हिन्दू क्यों हूँ’ प्रकाशित हुआ और दूसरी किताब ‘अन्धकार काल: भारत में ब्रिटिश साम्राज्य’ है जो एक नए तरह के राष्ट्रवाद की हिमायत करने वाली किताब है. दोनों किताबें खूब चर्चा में रही. यह कहना गलत नहीं होगा कि उनके लेखन का हिंदी में भी कम आकर्षण नहीं है.

अंग्रेजी किताबों की दुनिया में एक नया ट्रेंड शुरू हुआ है आध्यात्मिक गुरुओं की किताबों के प्रकाशन का. साथ ही, बड़े आध्यात्मिक गुरुओं के जीवन-शिक्षण को लेकर भी किताबें प्रकाशित हो रही हैं, जिनमे हिंदी अनुवाद भी प्रकाशित हो रहे हैं. इस क्रम में सबसे उल्लेखनीय पुस्तक पवन के. वर्मा की ‘आदि शंकराचार्य: हिन्दू धर्म के महान विचारक है, जो उनकी अंग्रेजी में लिखी किताब का अनुवाद है. इस किताब के प्रकाशन से यह बात स्पष्ट हुई कि हिन्दू धर्म की पुनर्स्थापना करने वाले इतने बड़े संत-विचारक के ऊपर हिंदी में कोई उल्लेखनीय पुस्तक नहीं लिखी गई थी. यह किताब इसी कमी को पूरा करने वाली है. आर्ट ऑफ़ लिविंग के लिए दुनिया भर में विख्यात गुरु श्री श्री रविशंकर की जीवनी का अनुवाद भी इसी वर्ष हिंदी में प्रकाशित हुआ ‘गुरुदेव शिखर के शीर्ष पर’, यह जीवनी उनकी बहन भानुमती नरसिम्हन ने लिखी है, जो उनके जीवन को बहुत करीब से देखने का मौका देती है. श्री श्री का एक बड़ा भक्त-समुदाय है और उनके बारे में आम लोगों में भी जानने की उत्सुकता रहती है. यह किताब दोनों तरह के पाठकों को संतुष्ट करने वाली है.

इसी तरह, विज्ञान-तकनीक, अर्थशास्त्र की पुस्तकों के बारे में यह माना जाता है कि हिंदी में उसके पाठक नहीं हैं. इसलिए हिंदी में अकादमिक जगत को छोड़कर उसके बाहर इन विषयों पर शायद ही कुछ लिखा-छापा जाता हो. लेकिन पिछले साल अंग्रेजी में जो दो किताबें भारत में लगातार बेस्टसेलर सूची में बनी रही वे तकनीक और अर्थशास्त्र जैसे गूढ़ विषयों को लेकर थीं. एक, माइक्रोसोफ्ट के भारतीय सीईओ सत्य नडेला की किताब ‘हिट रिफ्रेश’ और दूसरी आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन की किताब ‘आई डू व्हाट आई डू’ इस साल दोनों किताबें हिंदी में अपने मूल नाम से प्रकाशित हुई हैं. सत्य नडेला की किताब ‘हिट रिफ्रेश’ तकनीकी के माध्यम से भविष्य में होने वाले परिवर्तनों को बताती है, जो कई बार आश्वस्त भी करती है तो कई बार डराती भी है. आजकल यह बहस छिड़ी हुई है कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के प्रचलन के बाद दुनिया में बड़े पैमाने पर बेरोजगारी बढ़ जायेगी. इस किताब में इस विषय को विस्तार से समझाया गया है. इसी तरह रघुराम राजन की पुस्तक में भारतीय बैंकिंग व्यवस्था के बारे में विस्तार से लिखा गया है.

सिनेमा एक ऐसा विषय है जिसके पाठक हिंदी में बहुत अधिक हैं लेकिन हिंदी में आमतौर पर इससे जुड़े विषयों पर मौलिक किताबें नहीं लिखी जाती हैं. फ़िल्मी सितारों की आत्मकथाएं हों या उनकी जीवनियाँ वे मूल रूप से अंग्रेजी में ही लिखी जाती हैं, उनके अनुवाद हिंदी में प्रकाशित होते हैं. इस साल दिलीप कुमार की आत्मकथा ‘वजूद और परछाईं’ का हिंदी अनुवाद प्रकाशित हुआ. ऋषि कपूर की आत्मकथा ‘खुल्लमखुल्ला’ का हिंदी अनुवाद प्रकाशित हुआ. साथ ही, संजय दत्त की जीवनी ‘बॉलीवुड का बिगड़ा शहजादा’ भी हिंदी में प्रकाशित हुई.

यहाँ महज कुछ प्रवृत्तियों की तरफ इशारा किया गया है. इस बात का आकलन दिलचस्प होगा कि हिंदी में जिस तेजी से अनूदित पुस्तकों के प्रकाशन में वृद्धि हो रही है उस तेजी से मौलिक पुस्तकों के प्रकाशन में वृद्धि नहीं हो रही है.

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लोकप्रिय लेखन सम्राट सुरेन्द्र मोहन पाठक अब पेंग्विन रैंडम हाउस इण्डिया से

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हिंदी लोकप्रिय लेखन सम्राट सुरेन्द्र मोहन पाठक के प्रसिद्ध विमल सीरीज की आगामी दो किताबें अब हिंद पॉकेट बुक्स से प्रकाशित होंगी. जैसा कि विदित हो पेंग्विन-रैंडम हाउस ने हिंदी के सबसे प्रतिष्ठित प्रकाशकों में एक हिन्द पॉकेट बुक्स का हाल में ही अधिग्रहण कर लिया है और उसके बाद की शुरूआती घोषणाओं में यह घोषणा है कि पाठक जी कि आगामी दो किताबें जनवरी माह में हिन्द पॉकेट बुक्स से प्रकाशित होंगी.

पाठक जी की अब तक 300 से अधिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. उनका लेखन कैरियर साठ साल तक फैला हुआ है. इन साथ सालों के दौरान हिंदी रहस्य-रोमांच कथा धारा को शिखर तक ले जाने वाले पाठक जी अपनी विधा के निर्विवाद रूप से बेताज बादशाह हैं. इस मौके पर अपने सन्देश में सुरेन्द्र मोहन पाठक ने कहा, ‘प्रतिष्ठित हिन्द पॉकेट बुक्स के पेंग्विन रैंडम हाउस से जुड़ने पर मैं अपनी विमल श्रृंखला के अगले दो उपन्यासों के इस नए बैनर तले प्रकाशित होने को लेकर बेहद उत्साहित हूँ. हिंद पॉकेट बुक्स द्वारा स्थापित ऊंचे मानकों को इस नए गठबंधन के बाद नई बुलंदी हासिल होगी और हिंदी साहित्य को भी आगे बढाने में मदद मिलेगी.’

सुरेंद्र मोहन पाठक के पेंग्विन-रैंडम हाउस समूह से जुड़ने की घटना से उत्साहित होकर हिन्द पॉकेट बुक्स की एडिटर इन चीफ वैशाली माथुर ने कहा, ‘मैं पाठकजी की कृतियों को पसंद करती हूँ और उनकी अगली पुस्तकों के प्रकाशन के लिए उनके साथ काम करने को लेकर उत्साहित हूँ. पिछले कुछ वर्षों में, उन्होंने पल्प फिक्शन विधा को अपने लेखन से तरोताज़ा बनाया है और मुझे पूरा भरोसा है कि देश भर के पाठकों को अब उनके नए थ्रिलर का इन्तजार होगा.’

पेंग्विन रैंडम हाउस के लिए भारतीय भाषा कार्यक्रम को नेतृत्व प्रदान करने वाले नंदन झा ने कहा, ‘देश में स्थानीय भाषा के प्रकाशन को मजबूत एवं गतिशील बनाए रखने की अपनी वचनबद्धता के चलते हिन्द पॉकेट बुक्स में हम श्री सुरेन्द्र मोहन पाठक सरीखे उर्वर लेखक के साथ क्राइम फिक्शन के क्षेत्र में कदम रखते हुए उत्साहित हैं. बेशक, इस विधा के लिए पहले से कई प्लेटफ़ॉर्म और फोर्मेट उपलब्ध हैं लेकिन हिंदी पल्प फिक्शन लेखक को आम जनता काफी समय से पसंद करती आई है और हम इस रुझान को आगे भी जारी रखेंगे.’

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कोलकाता में आयोजित ‘लिटरेरिया -2018’की एक रपट

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कोलकाता में आयोजित होने वाले साहित्यिक आयोजन लिटरेरिया का यह दूसरा साल था. इस साल भी लेखकों-पाठकों की अच्छी भागीदारी रही. इस आयोजन से भाग लेकर लौटी कवयित्री स्मिता सिन्हा ने इस आयोजन पर एक विस्तृत टिप्पणी लिखी है. मॉडरेटर
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कोलकाता देश भर के साहित्यिक व सांस्कृतिक जगत के लोगों के बीच गहमागहमी का केंद्र बना रहा। मौका था 30 नवम्बर से 2 दिसम्बर तक ‘नीलांबर कोलकाता’ के तत्वाधान में चलने वाला ‘लिटरेरिया -2018’. यह तीन दिवसीय कार्यक्रम कई कई मायनों में उन प्रयोजित कार्यक्रमों से अलग था , जहाँ साहित्य नेपथ्य में होता है , भव्यता अपनी समग्रता में और मंच पर बाज़ारवाद हावी रहता है। वस्तुतः लिटरेरिया एक ईमानदार कोशिश व आश्वस्ति है समकालीन सहित्यिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों के समानांतर साहित्य को अपने सम्पूर्ण अर्थों में पारिभाषित करने की। कोलकाता जैसे अहिंदी भाषी प्रदेश में शहर के केंद्र में बने सबसे चर्चित ‘नंदन’ का 325 सीटों वाला सभागार अगर दर्शकों व श्रोताओं से कार्यक्रम के हर दिन, हर सत्र में खचाखच भरा पड़ा हो तो कार्यक्रम की स्तरीयता व गुणवत्ता स्वतः प्रमाणित हो जाती है। नंदन के कार्यकर्ताओं के लिये यह एक सुखद आश्चर्य था, जब वहाँ चारों तरफ हिन्दी के इस कार्यक्रम को लगातार फ़्लैश किया जा रहा था। नीलांबर इतिहास रच रहा था। लिटरेरिया ने अपनी सुदृढ़ प्रबंधन कौशलता के साथ पूरे कार्यक्रम को जो रूपाकार प्रदान किया, वह अकल्पनीय व अद्भुत था। कला, फ़िल्म, रंगमंच, कविता, कहानी, नृत्य नाटक, कविता कोलाज़, आलोचना और विमर्श के एक से बढ़कर एक सत्र और पूरे विनियोग से उसकी प्रस्तुति – यह हौसलों और प्रतिबद्धताओं की साझी सफलता थी। 
                  आप बतायें कब, कहाँ और कितने कार्यक्रमों में इतनी पारदर्शिता व सहजता देखी आपने, जहाँ विमर्श व कवितायें मंच से लेकर लंच ब्रेक तक और कार से लेकर गेस्ट हॉउस के कमरों तक चलता रहता हो। जहाँ तमाम वैचारिक व नैतिक मतभेदों के बावज़ूद हर सत्र का समापन लेखको, चिंतकों, आयोजकों और दर्शकों की साझी मुस्कान से हो। इस तरह के साहित्यिक कार्यक्रमों में जहाँ अंत तक जाते जाते माहौल बोझिल व नीरस हो जाता हो, वहाँ यह एक जरुरी हस्तक्षेप था कि मंच व दर्शक दीर्घा के बीच स्वस्थ संवाद कायम रहे।
        ‘लिटरेरिया -2018’ में देश भर के वरिष्ठ व युवा लेखकों , कवियों और रंगमंचकर्मियों ने शिरकत की। सेमिनार का पहला सत्र शुरु हुआ  ,”स्त्री विमर्श -उपलब्धियां और भटकाव “ के विषय पर। कात्यायनी ने जहां कविताओं में स्त्री विमर्श को तलाशा, वहीं शोधकर्ता दीबा नियाज़ी धर्म को इसके खिलाफ साजिश करते हुए देखती है और राजनीति में महिलाओं की कम भागीदारी को भी इससे जोड़ती हैं।  प्रोफेसर राजश्री शुक्ला जी महिलाओं और लड़कियों के आगे बढ़ने के छोटे-छोटे संघर्षों को भी स्त्री विमर्श की सफलता के रूप में देख रही हैं। कुल मिलाकर स्त्री विमर्श का यह सत्र बहुत ही रोचक और ज्ञानवर्धक रहा। प्रियंकर पालीवाल ने भी स्त्री विमर्श को आगे बढ़ाते हुए उनके आत्मविश्वास पर चर्चा की। इस सत्र की संचालिका अल्पना नायक ने  भी महिलाओं के द्वारा छोटी-छोटी परंपराओं को निभाते जाने को भी स्त्री विमर्श से जोड़ा।
सत्र के बाद दस मिनट के एक मोनो एक्ट ‘ रज्जो ‘ का मंचन किया गया जिसमें कलाकार दीपक ठाकुर के भावपूर्ण अभिनय को दर्शकों ने खूब सराहा। सेमिनार का दूसरा सत्र का विषय था , “ स्त्री विमर्श की संभावनाएं “। ममता कालिया , गरिमा श्रीवास्तव , अलका सरावगी  और रजनी पांडेय ने इस विषय पर खुल कर अपने वक्तव्य रखे।वागर्थ के सम्पादक शंभुनाथ की अध्यक्षता में पहले  शोधकर्ता रजनी पांडेय ने इतिहास में स्त्रियों की जगह को तलाशा,  वहीं गरिमा चौधरी ने वैश्विक स्तर पर स्त्रियों के साथ हो रहे यौन अत्याचारों पर प्रकाश डालते हुए स्त्री विमर्श के दायरे को बढ़ाने की बात कही। उन्होंने कहा कि स्त्री विमर्श से पहले स्त्री का मनुष्य के रूप में स्थापित होना जरूरी है। यह समाज स्त्री को मनुष्य समझे इसके लिए प्रयासरत होना होगा। लेखिका अलका सरावगी ने अपने वैश्विक स्तर पर स्त्री विमर्श पर चर्चा की। जहां उन्होंने बेल्जियम जैसे प्रगतिशील देश का जिक्र करते हुए कहा कि वहाँ की 8% महिलाएं आज भी घरेलू हिंसा का शिकार हैं। वरिष्ठ लेखिका ममता कालिया ने बच्चियों पर यौन हिंसा पर अपनी गहरी चिंता जाहिरकी।डॉ शंभुनाथ  ने स्त्री स्वतंत्रता पर  बेबाकी से विचार व्यक्त करते हुए कहा कि महिलाओं को तय करना होगा कि स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है या सुरक्षा? उन्होंने स्त्रियों के शोषण के लिए पूंजीवाद की तीव्र भर्त्सना की।
इस मौके पर लेखिका गरिमा श्रीवास्तव जी की किताब ‘ देह ही देश’ का लोकार्पण भी किया गया। काफी रचनात्मक और गंभीर विमर्शों के बाद की यह शाम दिलकश ग़ज़लों के नाम रही।  इस दिन कुंवर रवींद्र के कविता पोस्टर की प्रदर्शनी में भी लोगों ने जमकर शिरकत की एवं इसे खूब सराहा।
            दूसरे दिन संवाद सत्र में  ‘कविता में राजनीतिक मुहावरे और अनुभव का सवाल’ विषय पर अपने वक्तव्य में गीत चतुर्वेदी ने कविताओं को एक ऐसी पुस्तक से जोड़ा जिसे स्मृति, स्वप्न एवं कल्पना के तीन रास्तों से खोला जा सकता है , किन्तु यथार्थ ही है जो इन तीनों को आपस में जोड़ कर रखता है। उन्होंने कहा कि कविता ही मेरी राजनीति है और एक कवि में एक मरे हुए आदमी का सब्र होना चाहिए। वही ऋतुराज का मानना है कि कविता में तात्कालिक समय का प्रभाव होना आवश्यक है। वे कहते हैं कि प्रतीक्षा भी एक तरह का डर है अतः कविता में राजनीति का प्रतिरोध एवं उसके सुधार के प्रयास आवश्यक हैं। इसी क्रम में अष्ट भुजा शुक्ल ने अपना वक्तव्य तुलसीदास के उदाहरण से प्रारंभ किया। उनका मानना है कि राजनीति अतिशयोक्तिवाद से परिपूर्ण है और इसका परिमार्जन कविता में स्पष्ट रूप से किया जाना चाहिए। इसके पश्चात  ऋतुराज की अध्यक्षता में प्रथम कविता सत्र प्रारंभ हुआ जिसका संचालन आनंद गुप्ता द्वारा किया गया। इस सत्र में ऋतुराज की अध्यक्षता में राजेंद्र कुमार, कात्यायनी , एकांत श्रीवास्तव , प्रेम शंकर शुक्ल , अनुराधा सिंह , स्मिता सिन्हा , ज्योति शोभा , द्वारिका प्रसाद उनियाल , कुमार मंगलम एवं अंचित  द्वारा कविताओं का पाठ किया गया।  अष्टभुजा शुक्ल की अध्यक्षता में द्वितीय कविता सत्र प्रारंभ हुआ जिसका संचालन मंटू कुमार साव ने किया। इस सत्र में सुबोध सरकार , संतोष चतुर्वेदी , गीत चतुर्वेदी , लवली गोस्वामी , यतीश कुमार, नताशा , पराग पावन   ने काव्य पाठ किया। विभिन्न कविताओं के माध्यम से एक ऐसे लोक की सृष्टि हुई जिसमें श्रोताओं ने जीवन के विभिन्न पहलुओं को सुना, महसूस किया और साथ ही जिया। तभी तो कभी सभागार में हँसी के ठहाकों के साथ करतल ध्वनि गूंजी तो कभी आँसुओं के साथ मौन व्याप्त हो गया। अंत में  ‘एक शाम कहानी की’ के अंतर्गत मन्नू भंडारी जी की कहानी ‘अनथाही गहराइयाँ’ को नीलांबर कोलकाता द्वारा एक फिल्म के माध्यम से प्रस्तुत किया गया। फिल्म प्रदर्शन के साथ-साथ मन्नू भंडारी जी की सुपुत्री रचना यादव द्वारा इस कहानी का पाठ किया गया। कुशल निर्देशन एवं उत्कृष्ट अभिनय के साथ इस भावपूर्ण कहानी के फिल्मांकन ने सभी दर्शकों का दिल जीत लिया जिसका प्रमाण उनके आँखों की नमी थी।                  कार्यक्रम के तीसरे व अंतिम दिन संवाद का विषय था , “आज के साहित्य में स्त्री और आज का स्त्री साहित्य ‘ । अपने वक्तव्य में अनुराधा खुल कर कहती हैं कि आज भी स्त्री के प्रति समाज का बरताव दोयम दर्जे़ का है , लेकिन साहित्य में उसे अतिशय करुणा या महात्म्य के साथ लिखा जा रहा है । यह स्त्री के मौजूदा संघर्ष का दस्तावेजीकरण है । संतोष चतुर्वेदी अपनी बात रखते हुए कहते हैं कि उनका जीवन प्रवासी का जीवन होता है ।श्रद्धांजलि सिंह के शब्दों में वर्तमान स्त्री ने मनुष्यता के विमर्श के रुप में अपनी पहचान बनाई है । ‘आज की आलोचना के प्रतिमान ‘ विषय पर बोलते हुए शंभुनाथ जी ने आलोचना के तमाम प्रतिमानों पर अपनी बात रखी और यह भी कहा कि आलोचना सिर्फ़ रचना से प्रतिमान ग्रहण नहीं कर सकती ।  राजेंद्र कुमार जी के शब्दों में आलोचना रचना का समानांतर रुप है , जबकि नरेन्द्र जैन ने अपने वक्तव्य में बड़ी प्रखरता से कहा कि एक आलोचक का पहले एक साहित्यकार होना आवश्यक है । थीम कोलाज़ के अंतर्गत वरिष्ठ कवि राजेश जोशी की कविता पर हावड़ा नवज्योति के बच्चों ने खास प्रस्तुति की । एक दूसरे कविता कोलाज़ में वरिष्ठ कवि अष्टभुजा शुक्ल की कविता ‘मैं स्त्री ‘ पर कोलाज़ प्रस्तुत किया गया । प्रसिद्ध अभिनेत्री एवं नृत्यांगना रश्मि बन्दोपाध्याय और मौसुमी दे ने कविताओं पर बेहद सुन्दर नृत्य प्रस्तुत किया । शाम के समापन सत्र में सुप्रसिद्ध नाट्यकर्मी एवं अभिनेता विनय वर्मा द्वारा निर्देशित नाटक ‘मैं राही मासूम ‘ का मंचन किया गया । इस अवसर पर फिल्म पंचलैट के निर्देशक प्रेम मोदी को निनाद सम्मान एवं विनय वर्मा को रवि दवे सम्मान से सम्मानित किया गया ।

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‘एक सेक्स मरीज़ का रोगनामचा: सेक्स ज़्यादा अश्लील है या कला जगत’की समीक्षा

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प्रसिद्ध कला एवं फिल्म समीक्षक विनोद भारद्वाज ने कला जगत को लेकर दो उपन्यास पहले लिखे थे. हाल में ही उनका तीसरा उपन्यास आया है ‘एक सेक्स मरीज़ का रोगनामचा: सेक्स ज़्यादा अश्लील है या कला जगत’, इस उपन्यास की समीक्षा इण्डिया टुडे के नए अंक में प्रकाशित हुई है जिसे युवा लेखिका रश्मि भारद्वाज ने लिखा है- मॉडरेटर

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विनोद भारद्वाज अपने त्रयी श्रृंखला के अंतिम उपन्यास ‘एक सेक्स मरीज़ का रोगनामचा’ में कला जगत की अंदरूनी सच्चाई और त्रासदी को मनोविकार के माध्यम से प्रस्तुत करते हुए सवाल करते हैं कि सेक्स ज़्यादा अश्लील है या कला जगत. वाणी प्रकाशन द्वारा आए इस उपन्यास का नायक जयकुमार ख़ुद को एक सेक्स मरीज़ मानता है जबकि दरअसल वह कला जगत की वजह से अपने जीवन में आई अस्थिरता, कुंठा और हताशा को दूर करने के लिए सेक्स को एक ‘एस्केप’ की तरह प्रयुक्त करता प्रतीत होता है. जयकुमार की रंगीन ज़िन्दगी में कई अँधेरे कोने हैं जो पूरे उपन्यास पर हावी हैं. अक्सर देखा जाता है कि कला एवं साहित्य की तमाम उपरी चमक दमक के नीचे अकेलेपन और असफलता की घुटन छिपी होती है. इस उपन्यास के मूल में वही काफ़्का शैली का अवसाद है जो अंत में नायक को सेक्स से भी विरक्त कर देता है. एक स्थायी करियर, रिश्ते और पैसे के बिना अकेला छूट चुका नायक अंत में ख़ुद से सवाल करता है: ‘तो क्या ख़ुशी सच में चली गयी है?’ अंतिम अध्याय में आने वाली यह लड़की ख़ुशी जिसके नाम पर यह अध्याय भी है ‘ख़ुशी का आना और जाना’ दरअसल ख़ुशी को एक प्रतीक की तरह दिखाता है. ख़ुशी सिर्फ जय को लड़कियां उपलब्ध करने वाली एजेंट ही नहीं है, वह सभी बाहरी कृत्रिम आकर्षण और भौतिक छलावों के विरुद्ध नायक को अपनी आंतरिक प्रसन्नता एवं संतुष्टि तलाशने के लिए प्रवृत करती है. यह ओपन एंडेड अंत ओशो की तर्ज़ पर एक ख़ास तरह की आध्यात्मिक आत्मसंतुष्टि की बात करता है.

यहाँ नायिकाएं भी अपनी यौनिकता के लिए पूर्णतः सजग एवं मुखर है और कई बार अपनी फंतासियों को पूरा करने के लिए समाज द्वारा तय की गयी सीमाओं का अतिक्रमण भी करती हैं. रिश्तों में अक्सर प्रयुक्त होने वाले अदृश्य चेस्टिटी बेल्ट का ज़िक्र कर लेखक ने उन्हें पुरुषों के समकक्ष यौनिक स्वतंत्रता दिलाने का प्रयास किया है.

दूसरे अध्याय ‘फ़ पेंटिंग की नायिका कहती है कि फ़ के कई अर्थ हो सकते हैं, फ्लावर, फ़ाइन या फ़क. अपनी रचनात्मकता को नए आयाम देने और अपने अंदर के ‘रचनात्मक जानवर’ को जगाए रखने के लिए के लिए सभी कलाकार नए एवं रोमांचकारी प्रयोग करते हैं जिसका प्रभाव उनकी निज़ी ज़िन्दगियों पर भी पड़ता है. रिश्तों की गरिमा एवं प्रतिबद्धता यहाँ कहीं दिखाई नहीं देती. शायद यही वजह है कि लगभग हर पात्र अपने अकेलेपन एवं जीवन की अस्थिरता से आक्रांत है. हमारे उत्तर आधुनिक समाज की वह विडंबना यहाँ पूरी शिद्दत से चित्रित की गयी है जहाँ स्त्रियाँ भी अपनी आंतरिक मुक्ति को तरज़ीह नहीं देकर यौन मुक्ति को ही असली आज़ादी मान बैठती हैं. नायक ख़ुद को ‘कनिलिंगस किंग’ कहता है और स्त्रियों की यौनिकता एवं इच्छा का पूरा सम्मान करता है लेकिन इसके अतिरिक्त स्त्रियों से कोई भावनात्मक जुड़ाव नहीं रख पाता. जिस स्त्री से वह मन से जुड़ जाता है, उसके साथ सहजता से सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाता. यह सिर्फ़ नायक की अक्षमता नहीं, हमारे समय के खोखले हो रहे रिश्तों की भयावह सच्चाई है.

ऊपरी तौर पर यह किताब एक सेक्स मरीज़ की डायरी प्रतीत हो सकती है लेकिन यहाँ कई महत्वपूर्ण सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक मुद्दे अन्तर्निहित हैं जो पाठकों को सोचने के लिए बाध्य करेंगे. इस उपन्यास की पृष्ठभूमि मूलतः राजनैतिक है एवं वर्तमान सरकार की कला एव संस्कृति विरोधी नीतियों के विरुद्ध यहाँ एक तीव्र प्रतिरोध का स्वर मुखरित है. नोटबंदी को केंद्र में रखकर लेखक ने वर्तमान सरकार की नीतियों और उसकी वजह से कला जगत पर आये दुष्प्रभावों का सोदाहरण वर्णन किया है.

हमेशा से कट्टरपंथियों के निशाने पर रहा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुद्दा इस उपन्यास में प्रमुखता से चित्रित है. कोणार्क की मूर्तियों को अश्लील करार देकर उन्हें ढकने के लिए चलाये जा रहे कुछ शुद्धतावादी नेताओं के प्रसंग द्वारा यह सवाल बख़ूबी उठाया गया है. इसके अतिरिक्त सदियों से चला आ रहा यह प्रश्न कि कला सिर्फ़ कला के लिए हो या उसकी समाज के लिए कोई नैतिक ज़िम्मेदारी भी बनती है, यहाँ बड़ी ही कुशलता से उठाया गया है.

एक कला समीक्षक के नाते लेखक विनोद भारद्वाज कला जगत के अंदरूनी गलियारों में आवाजाही करते रहे हैं. वहीँ से वास्तविक पात्र एवं घटनाएँ उठाकर वह हमें चमकीले रंगों के नेपथ्य में छिपी एक बदरंग और भयावह दुनिया की झलक दिखाते हैं. वह दुनिया दरअसल हमारे इस जटिल उत्तरआधुनिक समय का एक टुकड़ा भर है जहाँ तकनीकी, विज्ञान, धर्म एवं सत्ता के चौतरफ़ा आक्रमण से संवेदना एवं मानवीय रिश्तों की ऊष्मा क्षीण पड़ती जा रही. जो कुछ भी सुन्दर एवं कोमल है, वह नष्ट होने की कगार पर है.

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जब ग़ज़ल नहीं बुन पाता हूँ कहानी बुनने लगता हूँ- गौतम राजऋषि

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गौतम राजऋषि भारतीय सेना में कर्नल हैं लेकिन हम हिंदी वालों के लिए वे शायर हैं, ‘हरी मुस्कुराहटों का कोलाज’ के कथाकार हैं, साहित्यिक बहसों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वाले लेखक हैं. उनसे एक बेलाग और बेबाक बातचीत की है युवा लेखक पीयूष द्विवेदी ने- मॉडरेटर

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सवाल ये सवाल तो आपसे अक्सर ही पूछा जाता होगा कि फ़ौज में काम करते हुए लेखन के लिए समय कैसे निकाल लेते हैं, लेकिन मेरा सवाल ज़रा अलग है कि फौलादी माने जाने वाले फ़ौजी हृदय में कविता के कोमल अंकुर कैसे फूट पड़े? इसके पीछे कोई ख़ास वजह या किस्सा हो तो बताइये।

गौतम कोई ख़ास वज़ह तो नहीं, कविताओं का एक बचपन से ही शौक था जो सेना में शामिल होने के बाद भी बना रहा। दरअस्ल कविता मेरे लिये एक उस काल्पनिक द्वार की तरह है जिसके जरिये मैं किसी और दुनिया में प्रवेश कर जाता हूँ। वो साइंस फिक्शन वाली फ़िल्मों में दिखाते हैं ना कि कोई गोल सा पोर्टल खुलता है पृथ्वी पर जिसमें अंदर घुसने पर फ़िल्म का किरदार किसी और ग्रह पर पहुँच जाता है…ठीक वही पोर्टल मेरे लिये कविता है, फिर चाहे वो कविता लिखना हो या उसे पढ़ना। कविता में…एक अच्छी कविता में वो तिलिस्म होता है जो अपने डूब कर पढ़ने वाले पाठक को किसी दुनिया से किसी और दुनिया में पलक मूँदते ही ले जाने की क्षमता रखता है। इस मुआमले में विज्ञान अभी बहुत पीछे है कविता से। वैसे आपके इस सवाल से नीरज जी के एक विख्यात गीत की पंक्तियाँ याद आ गयीं। फ़िल्म ‘प्रेम पुजारी’ का गीत है…”ताकत वतन की हमसे है” जो विगत तेरह साल से मेरे मोबाइल का कॉलर-ट्यून भी है, की पंक्तियाँ…

“सीना है फ़ौलाद का अपना, फूलों जैसा दिल है

तन में विंध्याचल का बल है, मन में ताजमहल है”

सवाल बात चली है, तो एक ज़रा व्यक्तिगत सवाल कि आप फेसबुक पर बड़े इश्क़ मिज़ाजी ख़यालात साझा करते रहते हैं, ज़िन्दगी में इश्क़ से साबका पड़ा है कभी?

गौतम मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि इश्क़ से ज़्यादा सामयिक और इश्क़ से ज़्यादा सटीक कुछ भी नहीं है लिखने के लिये। मुझे ज़िन्दगी से इश्क़ है दरअस्ल। अपने प्रोफेशन में मौत को इतनी बार साँस भर की दूरी से गुज़रते देख चुका हूँ और कई नज़दीकी दोस्तों को खो चुका हूँ कि ज़िन्दगी के हर लम्हे से इश्क़ में सरापा डूबा रहता हूँ। सच कहूँ तो अपने सवाल में आपका इशारा जिस इश्क़ से है, वो तो मैं शायद तीसरी कक्षा से करता आ रहा हूँ, यदि तनिक संकोचवश नर्सरी कक्षा की बातें भूल जाऊँ तो (हाहा) !…और फ़ेसबुक की तो बात ही अलग है। कोई उदास शेर लगाते ही, “सब ठीक है ना” के संदेशे आने लगते हैं इनबॉक्स में और इश्क़ में डूबा कोई नया शेर लगाया नहीं कि इनबॉक्स “कौन है बे वो” की उत्सुकताओं से सराबोर होने लगता है।

सवाल आपकी ग़ज़लें अपने अनूठे प्रतीकों के कारण विशेष रूप से आकर्षित करती हैं, कहाँ से सूझते हैं ये प्रतीक?

गौतम वली साब का एक बड़ा ही विख्यात शेर है..

“क्या नज़ाकत है कि आरिज उनके नीले पड़ गये

हमने तो बोसा लिया था ख़्वाब में तस्वीर का”

शायरी से अपनी मुहब्बत के शुरूआती दौर में जब ये शेर सुना तो शायर की इमेजरी ने एक नाख़त्म होने वाले लम्हे भर के लिये निःशब्द कर दिया…मतलब, नज़ाकत की ऐसी कल्पना कि सपने में तस्वीर को चूमने से माशुका के गालों पर नीले धब्बे पड़ गये। उफ़, शायर का तसव्वुर…जैसे ख़ुद ब्रह्मा द्वारा नया सृजन। लेकिन जब भी दोस्तों को ये शेर सुनाता तो साथ में शब्दों के मतलब बताने की मेहनत करनी पड़ती…आरिज यानी कि गाल…बोसा मतलब चुंबन। वो शायद दसवीं कक्षा की बात थी और मैंने सोचा कि अगर मैं कभी ग़ज़ल कहूँगा तो उसे पढ़ने या सुनने वालों को कभी मतलब समझाने की नौबत नहीं होगी। तो आप और मेरी ग़ज़लों के पाठक जिसे अनूठे प्रतीक कहते हैं, वो दरअस्ल हमारे आसपास की रोज़मर्रा की चीज़ें होती हैं, जिनमें इतना अपनापन होता है कि वो पसंद आता है लोगों को। एक ग़ज़ल कही थी मैंने ‘नीला नीला’ रदीफ़ लेकर, जिसका मतला यूँ था कि “उजली-उजली बर्फ़ के नीचे पत्थर नीला नीला है / तेरी यादों में ये सर्द दिसम्बर नीला नीला है”। इसी ग़ज़ल का एक शेर देखिये जो अस्ल में वली साब के शेर की आसान सी तर्जुमानी है(वली साब से करबद्ध क्षमा-याचना के साथ)…”मैंने तो चूमा था तेरी तस्वीरों को रात ढले/सुब्ह सुना कि कुछ तेरे गालों पर नीला नीला है”। कहने का सार ये कि एक ग़ज़ल को ख़ूबसूरत होने के लिये उर्दू के भारी-भरकम लफ़्जों की ज़रूरत नहीं। एक मेरा शेर जो बहुत ही लोकप्रिय हुआ है…”धूप शावर में जब तक नहाती रही/चाँद कमरे में सिगरेट पीता रहा”…अब इस शेर के प्रतीकों में कुछ भी अनूठा तो नहीं। सब आस-पास की देखी-भाली  चीज़ें हैं और हम जिसे देखने के अभ्यस्त होते हैं, उनका नये तरह से इस्तेमाल उन्हें दिल के क़रीब ले आता है।

सवाल आपकी पहली किताब ग़ज़ल संग्रह थी, जो लोकप्रिय भी हुई। फिर अगली किताब में सीधे कहानीकार कैसे बन गए?

गौतम महज़ किताब आने या न आने भर से तो कोई कहानीकार बनता या नहीं बनता है। गुलेरी जी बस एक कहानी से सिरमौर हो गये, हम जैसे हज़ारों लिखने वाले सौ कहानी लिख कर भी उस मुक़ाम तक नहीं पहुँच पायेंगे। मेरी किताब भले ही अब आयी हो, लेकिन कहानी लिखते आठ-नौ साल हो गये हैं। पहली कहानी दो हज़ार दस में ‘पाखी’ पत्रिका में आयी थी…तब से लगभग पंद्रह कहानियाँ लिख चुका हूँ। छपना ही यदि पैमाना है कहानीकार होने का तो किताब आने से पहले चार कहानियाँ हंस में, दो कहानी जनसत्ता में और एक-एक कहानी वागर्थ, कथादेश, परिकथा, लमही, वर्तमान साहित्य, कादम्बिनी, अहा ज़िन्दगी, कथाक्रम जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं में आ चुकी हैं। किताब अभी लाने का कोई इरादा था नहीं, सच कहूँ तो। वो तो कथादेश पत्रिका में छपने वाले मेरे मासिक कॉलम “फ़ौजी की डायरी” पढ़ने के बाद राजपाल प्रकाशन की चीफ़ एडिटर मीरा जौहरी जी ने इच्छा ज़ाहिर की…तो कहानियों की यह किताब “हरी मुस्कुराहटों वाला कोलाज” आ गयी। दरअस्ल क्या है न कि ग़ज़ल कहना तनिक मुश्किल काम होता है…तो जब ग़ज़ल नहीं बुन पाता हूँ, कहानी बुनने लगता हूँ।

सवाल आपकी कई कहानियाँ के विषय तो यथार्थपरक हैं ही, उनकी प्रस्तुति भी ऐसी है कि कई कहानियाँ पढ़ते हुए तो ऐसा लगता है कि हम कहानी नहीं, कोई सत्य घटना पढ़ रहे हैं। ये कहानियाँ कितनी सच्ची और कितनी काल्पनिक हैं?

गौतम आपने तो पूरी किताब डूब के पढ़ी है, पीयूष और आभारी हूँ आपका कि किताब की शुरूआती समीक्षाओं में आपकी लिखी समीक्षा बहुत ही ख़ास है। किताब में कुल इक्कीस कहानियाँ हैं और सब की सब सच्ची हैं…अधिकांश आँखों देखी और चंद कानों सुनी, थोड़ा-बहुत लेखकीय कल्पना का पुट लिये। बस ‘बार इज क्लोज़्ड ऑन ट्यूज़्डे’ का आख़िरी हिस्सा काल्पनिक है, वरना सारी कहानियों का एक-एक हिस्सा सच है।

सवाल किसी कहानी का वास्तविकता के इतने निकट हो जाना कि उसमें कहानीपन का ही लोप हो जाए, अच्छा नहीं माना जाता। आपको नहीं लगता कि आपकी कई कहानियों में ये समस्या रही है?

गौतम शुक्रिया पीयूष, आपने यह सवाल पूछा वरना यहाँ पूरा इंटरव्यू यही सोचते हुए बीत जाता है कि कब कोई ऐसा सवाल आएगा कि थोड़ी सी असहजता महसूस हो। आजकल जितने भी लेखकों के साक्षात्कार पढ़ता-देखता हूँ, मुझे लग रहा था कि इन दिनों साहित्यिक साक्षात्कार में तीखे सवालों का चलन ख़त्म हो गया है। इतनी मिठास…इतनी मिठास कि देखकर शुगर बढ़ जाने का ख़तरा नज़र आता है मुझे। शुक्र है कि ये भ्रम कहीं तो टूटा और लेखकों का मुँह पोछने वाले सवालों से परे ऐसा कोई सवाल सामने आया।

सवाल में उठायी गयी आपकी बात से बिल्कुल सहमत हूँ मैं। ‘हरी मुस्कुराहटों वाला कोलाज’ की कई कहानियाँ वास्तव में कहानी से ज़्यादा संस्मरण प्रतीत होती हैं। क़ायदे से कहानी विधा पर सही ढंग से उतरती हुई बस दस-ग्यारह कहानियाँ हैं किताब में। लेकिन मैंने ज़्यादा परवाह नहीं की इस बात की। साहित्य मेरा शौक है बस। मैं इस साहित्य-जगत में शोहरत पाने या पुरोधा बनने की लालसा से नहीं आया हूँ। ग़ज़लों में भी मैंने बनी-बनायी परिपाटी को तोड़ा  है…आलोचना भी ख़ूब हुई कि देशज से लेकर आम हिन्दुस्तानी शब्दों का इस्तेमाल करता हूँ मैं, जो क्लासिकल ढर्रे के बरख़िलाफ़ है। मेरा अपना मानना है कि मेरे पास सुनाने को कुछ नयी कहानियाँ हैं और सुनाने का ख़ास अपना सलीका है। ढाई-तीन हज़ार लोगों के हाथों में किताब है और तक़रीबन उतने ही लोगों ने साहित्यिक पत्रिकाओं में इन कहानियों को पढ़ा होगा। इससे ज़्यादा कभी सोचा नहीं…मेरे आसमान का विस्तार इतना भर है। समस्त आलोचनाओं को हृदय के क़रीब रखता हूँ और इनसे सीख लेकर अगली बार बेहतर करने की कोशिश करता हूँ। ये कोशिश भी दरअस्ल ख़ुद की संतुष्टि के लिये है, ना कि चर्चा में बने रहने के लिये। अपनी इस किताब को लेकर जो एकमात्र आशंका मेरे मन में थी कि एक ही विषय और परिवेश पर आधारित कहानियाँ होने की वज़ह से कहीं किताब से पाठक ऊब न जायें बीच में…लेकिन ख़ुशी है कि अभी तक जितनी पाठकीय प्रतिक्रियाएँ आयी हैं, सबने सराहा ही है। अगली किताब में इस कमी को दूर करने का भरसक प्रयास होगा।

सवाल आपका गज़ल संग्रह इस बार भी जागरण बेस्टसेलर में जगह बनाए हुए है। कैसे देखते हैं आप इस सूची को?

गौतम ख़ुशी होती है किताब को इस फ़ेहरिश्त में शामिल देख कर। और-और पाठकों तक पहुँचने का माध्यम बन रही है जागरण की बेस्टसेलर मुहिम, लेकिन व्यक्तिगत रूप से मुझे इस फ़ेहरिश्त में पारदर्शिता की साफ़ कमी दिखती है। जहाँ इस फ़ेहरिश्त में शामिल कुछ किताबें निश्चित रूप से पाठकों की माँग देखते हुए शक की कोई गुंजाइश नहीं छोड़तीं, वहीं दूसरी ओर चंद किताबों का शामिल होना ना सिर्फ उन किताबों के लेखकों बल्कि प्रकाशकों को भी हैरान कर रहा है कि ये कैसे हो गया। लेकिन इस कमी के बावजूद जागरण बेस्टसेलर का मैं स्वागत करता हूँ। हिन्दी में सबसे ज़्यादा पढ़ा जाने वाला अख़बार जब नयी हिन्दी किताबों का नाम लेता है, तो किताब दूर-दराज़ इलाक़ों तक पहुँचती हैं और हमारी हिन्दी का विस्तार होता है।

सवाल आपके प्रिय लेखक-लेखिका? पुराने और समकालीन सब तरह के नाम बता सकते हैं।

गौतम पढ़ने का रोग पाल रखा है मैंने…एक तरह से लत कह लीजिए आप। हिन्दी साहित्य के लगभग सारे पुराने और क्लासिकल लेखकों का लिखा पढ़ चुका हूँ। जितने भी चर्चित नाम हैं सब के सब शामिल हैं प्रिय की फ़ेहरिश्त में कि वे सब के सब आराध्य की श्रेणी में आते हैं।

इस इक्कीसवीं सदी की शुरूआत से सामने आये लेखकों की…विशेषकर कहानी और कविताओं की तमाम किताबें ढूँढ़-ढूंढ़ कर ख़रीदी है मैंने और इन सबको पढ़ा है। कहानीकारों में मेरी पसंद उदय प्रकाश, अखिलेश, ममता कालिया, प्रियंवद, मनीषा कुलश्रेष्ठ, कुणाल सिंह, चंदन पांडेय, अल्पना मिश्र, प्रभात रंजन, शशिभूषण द्विवेदी, पंकज सुबीर, विमल चंद्र पांडेय, प्रत्यक्षा सिन्हा, मधु कांकरिया, विवेक मिश्र, पंकज मित्र, निलाक्षी, वंदना राग, गीताश्री, किशोर चौधरी, योगिता यादव, उपासना नीरव, सिनीवाली शर्मा हैं। कवियों और शायरों में मेरी पसंद अनिरुद्ध उमत, गीत चतुर्वेदी, आशुतोष दुबे, दिनेश कुशवाहा, शिरीष मौर्य, विकास शर्मा राज, अभिषेक शुक्ला, स्वप्निल तिवारी, इरशाद ख़ान सिकन्दर, मनोज कुमार झा, केशव तिवारी, नील कमल, ज़ुबैर अली ताबिश, बाबुषा कोहली, शैलेय, सौरभ शेखर, अपर्णा मनोज, विपिन चौधरी, रश्मि भारद्वाज, अशोक कुमार पाण्डेय, राकेश रोहित, अविनाश मिश्र, सुशोभित सक्तावत, दर्पण शाह, उपासना झा, वीरू सोनकर हैं।

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मनीषा कुलश्रेष्ठ की पुस्तक ‘बिरजू लय’का एक अंश

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प्रसिद्ध लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ ने कथक-गुरु बिरजू महाराज पर एक पुस्तक लिखी ‘बिरजू लय’. अभी हाल में ही उसका प्रकाशन नयी किताब प्रकाशन से हुआ है. प्रस्तुत है पुस्तक का एक छोटा सा अंश मनीषा कुलश्रेष्ठ की भूमिका के साथ- मॉडरेटर

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कथक’ संसार से मेरा नाता, कथक की ‘विशारद’ तक शिक्षा ग्रहण करने मात्र का रहा. मैं कभी ‘परफॉर्मिग’ कलाकार नहीं रही.  यह मेरा सौभाग्य था कि मैंने रायगढ़ घराने का ‘कथक’ सीखा था, मेरे गुरु ‘भगवान दास माणिक’, दिवंगत कथकाचार्य कल्याण दास महंत के शिष्य और पौत्र भी हैं. कथक सीखने के दौरान मेरी दृष्टि गुरु जी की किताबों के संग्रह पर रहा करती थी, जहाँ अन्य शिष्याओं के लिए कथक की किताबें महज इतिहास रटने का ज़रिया होती थीं, मेरे लिए वे बहुत रोचक और पठनीय सामग्री का विपुल भंडार होती थीं. मैं हर बार उनसे एक किताब माँग कर ले जाती. रायगढ़ घराने के राजा चक्रधर ज्यू का कथक प्रेम मुझे हैरान करता था, उनकी किलोग्रामों में लिखी गई किताबों का ज़िक्र यह सोचने पर मजबूर करता था कि क्या कथक नृत्यकला का ऎसा महासागर है? वहाँ दोनों घरानों के महागुरुओं की स्पर्धा और उसमें से उपजे दोनों घरानों की खूबियों वाले ‘रायगढ़ घराने’ को जानते हुए अच्छ्न महाराज की खूबियों को जाना था. कथक पर अध्ययन में मेरी रुचि बढ़ती ही रही.
कथक की प्रस्तुतियाँ जब-जब अवसर मिला देखीं. तानसेन महोत्सव में, ग्वालियर में. स्पिक मैके के कार्यक्रमों में जयपुर में. जयपुर घराने के हर बड़े कलाकार का नृत्य देखा, पंडित दुर्गालाल जी का अद्भुत नृत्य कॉलेज के ज़माने में देखने का अवसर मिला था. जयपुर और लखनऊ घराने की विशिष्टताएँ बाद के कलाकारों में तो घुलती नज़र आती हैं, लेकिन जब दिल्ली आने पर बिरजू महाराज की साक्षात प्रस्तुतियाँ देखने का अवसर मिला तो जो यह रोचक और बराबरी का फर्क एक सम्मोहन जगाता रहा था, वह और बढ़ गया.
कथक में आमद यानि अवतरण सदा मेरे आकर्षण का विषय रहा है किसी भी कथक प्रस्तुति में, रायगढ़ घराने में हम दोनों आमदें करते थे, जयपुर घराने की ‘ धातिट – धातिट- धा-धातिट’ लय चौगुन में जाती थी, वहीं मंद गति और कोमल संचालन के साथ लखनवी आमद – मद्य विलंबन में “धा तक थुंगा, धागे दिंग था….
कथक के प्रति एक जिज्ञासु आत्मलीनता के चलते अनवरत अध्ययन भी बना रहा. जब मुझे रज़ा फाउंडेशन की यंग क्रिटिक फैलोशिप के लिए आवेदन करने का अवसर मिला तो मैंने समय गँवाए बिना ‘सिनॉप्सिस’ बना कर दे दी. वह स्वीकृत हुई. अब मुझे बिरजू महाराज पर एक समालोचनात्मक पुस्तक लिखनी थी.
मनीषा कुलश्रेष्ठ
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बिरजू महाराज : तीन सौ साल पुरानी जीवित परंपरा के वाहक

एक सितारा उगता है, अकेला. निरभ्र आकाश के कोने में संकोच के साथ और धीरे – धीरे सूर्य साबित होता है, उसका अपना सौरमंडल बनता है, ग्रह – उपग्रह और अनंत को अपने प्रकाश में डुबो लेता है.
कितना ही बचें हम बिरजू महाराज के मूल्यांकन में उनकी विरासत से, वह सामने आ खड़ी होती ही है, क्योंकि वह जितनी समृद्ध थी, उतनी ही बिरजू महाराज तक आते – आते लखनऊ घराने के जहाज का मस्तूल जर्जर हो चुका था,  जिसे नया स्वरूप् देकर, जहाज़ को नई दिशा दी को बिरजू महाराज ने।

किशोर बिरजू महाराज जब अपने पिता के समय में एक अपना बचपन  वैभव में जीने के बाद, उनको खोकर, महज दो साल की तालीम पाकर अपनी मां के संरक्षण में अभावग्रस्त जीवन बिता रहे थे. तब कपिला वात्स्यायन ‘संगीत’ भारती के लिए उन्हें दिल्ली लाईं, वे चौदह वर्ष के थे और गुरु बने, तब के उनके शिष्यों में रानी कर्णावती रहीं. इस बहाने उनकी स्वयं की प्रतिभा का विकास हुआ. वे मुंबई लच्छु महाराज के पास भी आते – जाते रहते रहे. सीखते रहे.
भारतीय कलाकेंद्र में निर्मला जोशी जी ने लखनऊ में विनिष्ट होते इस घराने को दिल्ली में संरक्षण देने के प्रयास में शंभू  महारज को आमंत्रित किया. कहते हैं, तब पहली और अंतिम बार बिरजू महाराज और शंभू  महाराज ने कर्ज़न रोड पर कॉंस्टीट्यूशनल क्लब में निर्मला जी के अनुरोध पर नृत्य किया था. चाचा ने गत निकास, गत भाव और अभिनय प्रस्तुत किया, भतीजे ने तोड़े, परण और तत्कार प्रस्तुत किए.
संगीत भारती से निर्मला जोशी बिरजू महाराज को भारतीय कला केंद्र उन्हें लाईं और वे बतौर शंभू  महाराज के सहायक काम करने लगे. वे दोनों चाचाओं से नृत्य सीखते भी रहे और अपने शिष्यों को सिखाते भी रहे. भारतीय कला केंद्र उन दिनों उत्कृष्ट कलाकारों का केंद्र बनने लगा था. डागर ब्रदर्स, उस्ताद मुश्ताक़ हुसैन. उस्ताद हाफिज़ अली खाँ, और सिद्धेश्वरी देवी आदि की संगीत कला की धाराएँ बहा करती थीं.  “उन दिनों भारत की राजधानी दिल्ली में कई महान कलाकार एकत्रित हो चुके थे. मशहूर तबला नवाज़ पं चतुर लाल और सितार वादक पं रविशंकर आदि भी दिल्ली में संगीत के वातावरण को सजाए थे. ऎसे महत्वपूर्ण सांगीतिक वातावरण में फलते – फूलते प्रतिभावान बालक बिरजू महाराज गायन, वादन तथा नृत्य तीनों कलाओं में निपुण हो गए.” यह उल्लेखनीय है कि तत्कालीन राजनीतिक काल भी ऎसा था जब कलाओं के पुनरुत्थान और संरक्षण के लिए संस्थाएँ बन रही थीं, वह बात अलग है कि कालांतर में ये संस्थाएँ कितनी उपयोगी साबित हुईं या सफेद हाथी बन कर रह गईं, किंतु उस समय इन संस्थाओं ने बहुत से बड़े कलाकार भारत को दिए और वैश्विक स्तर पर भारत की एक सांस्कृतिक पहचान बनी.
पं. बिरजू महाराज के कला – कौशल और सृजनशीलता को पल्लवित होने का अवसर और अधिक मिला. “ संगीत नाटक अकादमी के तत्वाधान में 1954 – 55 के आस पास कुछ उच्च कोटि की नृत्य नाटिकाओं का निर्माण किया गया, जिनके नाम हैं शान ए अवध, मालती माधव, कुमार संभवम, कथक थ्रू द एजेस आदि. इन सभी नृत्य नाटिकाओं में संगीत निर्देशन प्रसिद्ध घरानेदार संगीतकार ‘डागर बंधुओं ने दिया, स्वयं गाया भी बजाया भी.”
बिरजू महाराज की कला यात्रा और उनके आज के बिरजू महाराज होने का श्रेय केवल बिरजू महाराज की पारंपरिक विरासत को नहीं दिया जा सकता बल्कि उन समस्त हाथों और साथों और संगतों का है जिन्होंने उन्हें बिरजू महाराज होने में अपना योगदान दिया. परिस्थितियाँ, गुरु, संस्थाएँ, वे संस्था प्रधान, वे गायक, वे वादक, राजनेता…वह समय और परिवेश और स्वयं कलावंत दर्शक, समीक्षक सभी ने मिल कर बिरजू महाराज को बनाया. और यह तभी संभव था जब स्वयं किशोर बिरजू महाराज ने स्वयं को विनम्रता के साथ सौंप दिया. इसके पीछे शायद वे अभाव और उनकी मां की शिक्षा रही होगी.
सत्ताईस साल की उम्र में केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी का राष्ट्रीय पुरस्कार आज के समय में अचंभा हो सकती है, क्योंकि आज के प्रतिस्पर्धा से भरे, सिफारिशी युग में सत्ताईस साल में तो कोई कलाकार अपनी एकल प्रस्तुति के लायक नहीं समझा जाता. 1986 में वे पद्मविभूषण से अलंकृत हुए. इसी वर्ष ‘कालीदास सम्मान’ भी मिला.
आज बिरजू महाराज स्वयं कथक की अनूठी गंगा – जमनी परंपरा के महज वाहक ही नहीं, एक लाईट हाउस हैं. वे नृत्याचार्य भी हैं और नर्तक भी, जब वे मंच पर आते हैं, आते ही दर्शकों से एक  सहज संबंध जोड़ लेते हैं, न केवल गुणवंतों से बल्कि आम दर्शकों से भी. यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि वे आम और शास्त्रीयता से परे किसी भी व्यक्ति को लय, यतियाँ, ताल और उसकी मात्राओं को, सम को आम भाषा में, सहज उदाहरणों में समझा जाते हैं, समझाते हुए, उसकी यति में रह कर भी वे अनूठे उदाहरण पेश करते हैं. यही वजह है कि भारत में एक औसत व्यक्ति भी कथक का अर्थ बिरजू महाराज ही समझता है. बिरजू महाराज की जो सबसे बड़ी उपलब्धि रही है वह है उनका कम उम्र में ख्यातनाम हो जाना. और वह ख़्यानाम होना यूँ सहज भी नहीं था, इसके पीछे एक कच्ची, लचीली और नियति के मुक्कों से खूब गुंथी हुई नम मिट्टी और बहुत से महारत भरे हाथ रहे हैं. सत्ताईस वर्ष की आयु में तो उन्हें संगीत नाटक अकादमी अवार्ड मिल गया था, अपनी उम्र के चौथे दशक में तो वे पद्मविभूषण से विभूषित हो चुके थे.
किंतु क्या यह यात्रा इतनी आसान है कि एक चौदह साला किशोर कथक नर्तक लखनऊ से दिल्ली लाया गया और वह परंपरा बन गया!  ऎसे ब्रजमोहन में यहाँ एक संगमरमरी विनम्रता थी, कि आओ गढ़ो मुझे ! जो भी बन सकूँ !! यही विनम्रता आज भी बिरजू महाराज का स्थायी गुण है. वे ब्रिटिश टीवी पर नाहिद सिद्दीकी को दिए गए एक साक्षात्कार में कहते हैं. “हमें तो आज भी हम से बेहतर कोई कथक का जानकार मिले तो उसे उस्ताद बना लें.”
कथक के प्रति यह आस्था बिरजू महाराज के भीतर छिपे अनहद का सिमटाव है. मनुष्य में अहं जहाँ अपने चरम पर पहुँच चुका है. भौतिकता के अंध विवर से निकास का रास्ता है नृत्य. इस बात को हम आउटडेटेड कह कर नकार भी सकते हैं, मगर जो नाचते हैं वे जानते हैं कि भीतर और बाहर के बिखराव को अपने नम हाथों से थाप देता है नृत्य.
स्वयं बिरजू महाराज कहते ही हैं कि उनके पूर्वज राजदरबारों तो नाचे ही, लेकिन धार्मिक आयोजनों में नृत्य मंडलियों में भी कथक होता था, तब साजिन्दे वाद्यों को देह से बाँधे कथक के साथ साथ सभा में चलते जाते थे. कथक नाच के माध्यम से कथानक प्रस्तुत करते थे. कालीय दमन, रास, राम और कृष्ण की बाल लीलाएँ, रावण वध, और भी अनंत कथाएँ उस अनंत हरि की.
हमेशा यूँ ही ग्राफ़ चलता है, होता यूँ है कि कोई छोटी सी कलात्मक अभिव्यक्ति एक उठान लेते हुए एक लंबे कालांतर में कलाकारों, रसिकों द्वारा अपनाई सराही जाती है, कला के विशुद्ध स्तर पर आकर वह शास्त्रीय शिल्प ओढ़ती है, व्याकरणबद्ध होती है पहले श्रुति और स्मृति और फिर ग्रंथों के स्वरूप में. वह कला का विशुद्ध रूप बन कर सामने आती है…स्वर्णकाल पाती है. फिर जनरुचियों में उतरती है, कला जनमानस के समूह तक आती है, उसमें फरमाईशें और आम जन तक संप्रेषणीयता का तत्व आने लगता है और कला के क्याकरण में समय का बदलाव और जनता की माँग मिलावट लाते हैं, भाषा, अंदाज़ और कविता तीनों प्रभावित होते हैं. और कला तट बदलने लगती है. ऎसे ही कथक मंदिरों से दरबारों और दरबारों से और आगे जनता में आया. फैला…अपनाया गया इसे.
अपनी परिशुद्ध ताल और लयकारी तथा भावपूर्ण गतों के लिये प्रसिद्ध बिरजू महाराज ने एक ऐसी शैली विकसित की है, वह पदचालन की सूक्ष्मता और मुख व गर्दन के चालन और विशिष्ट चालों (चाल) और चाल के प्रवाह का श्रेय वे अपने प्रख्यात परिवार से मिली विरासत को देते हैं। वैसे तो बिरजू महारा़ज अपने आप में एक परंपरा का नाम है, एक तकनीक का नाम है और नाच के विशुद्ध शास्त्रीय प्रारूप में एक प्रयोगात्मक श्रृंखला का नाम हैं।  हर महान कलाकार  की तरह स्वयं महाराज जी  विनम्रता के साथ हर निपुण कलाकार को अपने आप में घराना मानते हैं।
कला की हर पारंपरिक विधा पर समय का प्रभाव पड़ता है। उसकी अभिव्यंजना में समाज और तत्कालीन समय की अवधारणाएं अनजाने ही आ जाती हैं। अपनी रचना प्रक्रिया में बिरजू महाराज कथक को जनमानस के निकट ला पाए । उनकी परंपरा में  कथक की शास्त्रीयता केवल क्लिष्ट तालों और अंकगणितीय नृत्त शास्त्र से उपर उठी है, मात्राओं के चमत्कार, सहज अभिव्यक्ति बन गए हैं, और आज भी मायने रखते हैं।
नवसृजन के प्रति अपने सुनहरे काल में महाराज जी का झुकाव रहा है, उन्होंने  कथक केंद्र के और अपने दोनों की नवयुवावस्था में, कुमार संभव, शाने अवध आदि नृत्यनाटिकाएं , बैले आदि की रचनाएं की थीं। तो नवसृजन और परंपरा की शुद्धता के बीच उन्होंने एक हद तक सामंजस्य बिठाया भी. विरासत में मिली, एक स्त्रोत से निकली, मगर विभिन्न रंग, रूप, रस और गंध वाली तीन रसधाराओं की अद्भुत  त्रिवेणी बिरजू महाराज ने कथक में अपना निज तत्व डाल कर कथक को अभूतपूर्व योग दिया. तीन भाई और उनके नितांत भिन्न ढंग कथक नाचने के, और विशद व्याकरण और ज्ञान बिरजू महाराज को हस्तांतरित हुआ था. उनको यह सूझ और बूझ अब अपने भीतर जगानी थी, कि परंपरा के इस विशद और वैविध्यता पूर्ण मगर बिखरे ख़ज़ाने में से ‘कथक’ को एक शास्त्र सम्मत मगर कलात्मक नृत्य में कैसे साधा और शोधन किया जाए.
एक ज़माने में कहते आए हैं लखनऊ घराना, नज़ाकत का, लास्य को समर्पित, परिलक्षित घराना है, जहाँ बोल, बंदिशें, ख्याल, ठुमरियाँ, ग़जलें और बेहतरीन अभिनय का अंग है, वहाँ लयकारी और तत्कार की जादुगरी मिसिंग है. नृत्त का अंग कमज़ोर है. नृत्त यानि शुद्ध नाच. ताल की मात्राओं और यतियों के बीच विलंबित और द्रुत लय पर क्लिष्ट अंगसंचालन, जो मंच पर जादू जगाता है. बिरजू महाराज ने लय को साधा और लय सम्राट बने.
आशीष मोहन खोकर कहते हैं – नृत्त वह अमूर्तन का नृत्य है, जिसमें हस्त मुद्राएँ निरर्थक होती हैं, उनका प्रयोग केवल सौंदर्य बढ़ाने के लिए किया जाता है लेकिन बिरजू महाराज के यहाँ हस्त मुद्राएँ बाक़ायदा हिस्सा लेती हैं नृत्त में, अपनी नृत्त तिहाइयाँ प्रस्तुत करते हुए भी हस्त मुद्राएँ लय का मिजाज़ प्रकट करती हैं, उस अमूर्तन के निर्वात में अपना एक वायवीय महत्व रखती हैं. नृत्त की प्रतिष्ठापना में हाथ सहयोग देते हैं.

अपने तीनों पथप्रदर्शकों के प्रमुख लक्षणों के मिश्रण सहित उन्होंने अपनी अलग शैली विकसित की है, अपनी प्रतिभा से हस्तक और पद संचालन को सतर्क सूक्ष्मता प्रदान करने के साथ – साथ अतिनैतिक सूक्ष्मता प्रदान की. उन्होंने कथक कला को गौरव की पराकाष्ठा तक पहुँचा दिया है. आज भी कथक नर्तक उनसे प्रेरणा पाकर, जाने या अजाने उनका अनुकरण करते हैं. वे कथक के युगप्रवर्तक हैं. और एक परंपरा कायम की है.”  (परंपरा और बिरजू महाराज – “ कलावार्ता नवंबर – दिसंबर 1984”)
वैसे बिरजू महाराज की नृत्यकला पर अकसर यह संदेह किया जाता है कि एक नौ साल के बालक की स्मृति, खंडो में ली गई तालीम, चौदह साल ही से नृत्य शिक्षा देने वाले कलाकार ने अपना ही कोई ‘कथक’ बना लिया है. उनके कथक में कुछ भी जो तकनीकी है वह परंपरा से बहुत थोड़ा आता है.
बिरजू महाराज कहते हैं (संदर्भ प्रभा मराठे महानायक ऑफ कथक डांस नर्तनम)
अपनी तीन से लेकर दस साल तक की उम्र तक मैंने अपने पिता की तमाम छवियां अपने तईं सोख ली हैं। मैं उनका पुत्र हूं। उनका रक्त बहता है मेरे शरीर में।  एक हद तक मैं उन्हीं की तरह नाचने के लिए बना हूं।  बना हूं ना? लेकिन जिसे घराना कहते हैं, वह केवल पारिवारिक विरासत की चीज़ नहीं है, यह कहीं उदार और वृहत सामाजिक सरोकार की चीज़ है। तुम्हें पता है – एक परण है, बढ़इया की परण। इसके पीछे एक कथा है, बहुत पहले लखनऊ में एक महान पखावज वादक हुए हैं कुदउ सिंह. वे जहाँ रहते थे उसके नीचे वाली मंजिल पार एक बढ़इया दुकान चलाता था. वह पखावज सीखना चाहता था. वह हिम्मत जुटा कर कुदउ सिंह से मिला. मगर उसे निराश लौटना पड़ा क्योंकि उनका नियम था कि केवल ब्राह्मण शिष्यों को सिखाते थे. लेकिन बढ़ई की इच्छाशक्ति मजबूत थी. वह कोई भी चीज़ बारीकी के साथ सीखने में तेज था, उसने उस्ताद को देख कर, सुन कर सीख लिया. उन्होंने एक रोज़ उसे एक जगह बजाते देख लिया. उन्होंने केवल उसके लिए अपने नियमों को लचीला किया और अपनी उस्तादी में ले लिया. इस तरह लखनऊ घराने में केवल ‘बढ़इया की परण’ शामिल हुई. अन्यथा लखनऊ कथक परंपरा में किसी की कंपोज़िशन स्वीकार नहीं की जाती. मैं अपने घराने का बेटा हूँ, लेकिन फिर भी मुझे भी इसमें मेरा अपना कुछ देय तो देना है न! बाबूजी के जाने बाद, मेरे पैरों के नीचे ज़मीन नहीं थी. कुछ दिन नेपाल दरबार में, कुछ दिन पटना में बहनोई के यहाँ, कुछ दिन छोटे चाचा के यहाँ जो बड़े भाई की मृत्यु से बेज़ार थे.कुछ दिन बॉम्बे जहाँ मेरे बड़े चचा फिल्मी हीरोइनों को सिखाने में व्यस्त थे. तमाम दुखों के बाद मेरे साथ जो अच्छी बात हुई, वह यह थी कि सौभाग्य से मेरे आस – पास बड़े कलाकार बने रहे, मेरे दोनों चचा, डागर बंधु, रविशंकर जी, हाफ़िज़ अली खान साब, मुश्ताक़ हुसैन साब, पुरुषोत्तम दास जी, चतुर लाल, सिद्धेश्वरी देवी, गिरिजा देवी, किशन महाराज चचा, गुदई महाराज ये लिस्ट अंतहीन है. मैंने इनको रियाज़ करते, प्रोग्राम करते देखा है. उनकी बातें सुनी हैं, उसके सोचने का ढंग खुदमें उतारा है.”
इस तरह परंपरा प्रवाह में अपने उत्स के साथ उतरे बिरजू महाराज, जहाँ उनकी आधुनिक समझ और प्रतिभा ने कथक में ट्रेंड सेट किए, वहीं कई जगह कथक विरल भी हुआ. इसकी गाढ़ी क्लिष्टता में तरलता आई और यह मंच के अनुरूप ढल गया. कुछ लखनऊ घराने के परंपरा वाहक शिष्यों ने आगे बढ़ाई परंपरा तो कुछ ने विचलन दिया. प्रवाहमान होने का अर्थ निरंतर पोषित, प्रदूषित और फिर छनना और फिर स्वच्छ होना और आगे बढ़ना है. नदी जैसे बहुत से तटों से मीठे और खारे लवण रास्ते में लेती चलती है, फिर वे अवक्षेपित हो छूटते हैं, पानी अपना मूल तात्विक नहीं छोड़ता वह जहाँ होता है दो अणु ऑक्सीजन एक अणु हाईड्रोजन ही होता है.
” अगर मेरे पिता अच्छन महाराज अगर आज का नाच देख पाते मुझे शक है कि वे इसमें से कुछ कथक की तरह पहचान पाते। ” बिरजू महाराज की यह टिप्पणी प्रशंसनात्मक है, कि किसी पछतावे में ढकी हुई ? या शायद थोड़ी – थोड़ी दोनों भावों से भरी क्योंकि उन्होंने पिछले पचास सालों में कथक में आए बदलावों को और इसकी शास्त्रीयता में आई तरलता को देख चुके हैं।  (इंडियन क्लासिकल डांस ,  पृष्ठ 4, लीला सैमसंग   अविनाश पसरीचा)
हालांकि परंपरा से अपना चुना हुआ तत्व लेने की और उससे अपना ‘स्व’ खड़ा करने की सूझ बूझ हरेक में नहीं होती. बिरजू महाराज में थी, बल्कि अपूर्ण स्कूली शिक्षा के वावजूद बिरजू महाराज तीक्ष्ण बुद्धि के रहे हैं. उन्होंने अपना वजूद खुला रखा, नृत्य का कलात्मक पक्ष समझने की चाह रखी, बैले को समझा, विदेशी दर्शकों और विदेशी छात्रों से संवाद कायम किया. अपना ‘स्व’ कायम किया जो कि हज़ारों के लिए प्रेरक बना. लेकिन यह बात भी उतनी ही सही है कि कलाकार का खुद को खुला रख देना हर सीख के प्रति उसे महान बनाता है, वहीं खुद को किसी किले में बंद कर लेना, उसके ह्रास का कारण भी बनता है. कथक एक जीवंत और प्रवाहमय विधा है, जो परंपरा की बहुत गहरी जड़ों से पोषण पाती है ।

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ख़ुसरौ रैन सुहाग की जागी पी के संग, तन मेरो मन पियो को दूधिए एक रंग 

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जब इतिहास के किसी किरदार, किसी प्रसंग पर इतिहासकार लिखता है तो उससे विश्वसनीयता आती है और आजकल इतिहास के विश्वसनीय पाठ पढना जरूरी लगने लगा है. हज़रत अमीर ख़ुसरौ देहलवी (१२५३ – १३२५) पर जाने-माने इतिहासकार रज़ीउद्दीन अक़ील का लिखा पढ़िए. हिंदी और उर्दू के इस आरंभिक शायर पर रज़ी साहब ने मूल रूप से हिंदी में ही लिखा है- मॉडरेटर

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‘छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके….’

सूफ़ियों के चिश्ती सिलसिले के एक बड़े पीर और ख़्वाजा, हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया से वाबस्ता, दोस्त, मुरीद और शायर अमीर ख़ुसरौ का नाम क़व्वाली के हर प्रोग्राम में लाज़मी तौर पर लिया जाता है. हिन्दुस्तान के सांस्कृतिक धरोहरों की उपलब्धियों और उत्कृष्टता की सुनहरी तारीख़, ख़ासकर गीत, संगीत, शेरो-शायरी, जैसे ग़ज़ल और क़व्वाली, में ख़ुसरौ का नाम और उनके बहुमुखी और महत्वपूर्ण योगदान की चर्चा पहली पंक्ति की मायनाज़ हस्तियों के साथ किया जाता रहा है. फिर भी खुसरौ की जीवनी पर इतिहासकारों ने न के बराबर ही लिखा है, हालांकि दिल्ली सल्तनत में सत्ते की उठा-पटख़, राजनीतिक गठजोड़ और जंगों की ख़ून-रेज़ियों को भी ख़ुसरौ ने बहुत क़रीब से देखते हुए विजय-पताका लहराने वाले सुल्तानों और उनकी औलादों की बहादुरी का अपने क़सीदों में जोशो-ख़रोश के साथ महिमा-मंडन किया था.

आधुनिक दौर में, फ़ारसी और उर्दू के उस्ताद भी ख़ुसरौ की क़ाबिलियत की दाद देते रहे हैं, लेकिन उन पर अच्छे शोध ग्रन्थ कम ही मिलते हैं. ख़ुद ख़ुसरौ की लेखनी का एक बहुत बड़ा ज़ख़ीरा पांडुलिपियों की शक्ल में महफ़ूज़ तो है, लेकिन उनका सम्पदान, प्रकाशन और भाषाई और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से अध्ययन लगातार जारी रखने की ज़रूरत है. ख़ुसरौ के हिन्दवी कलाम को इतिहासकारों ने ज़्यादा तवज्जो नहीं दिया है, और हालांकि उर्दू-हिंदी के सभी प्रतिष्ठित विद्वान उनकी तारीफ़ करते रहे हैं लेकिन काम कम ही किया है. ग़र्ज़ कि ख़ुसरौ पर जितना भी अच्छा काम लिखा और प्रकाशित किया जाए कम ही होगा.

इस लेख में मेरी कोशिश का दायरा थोड़ा सीमित है, क्योंकि यह इस दिशा में एक प्रांरभिक प्रयास का हिस्सा है. यहाँ पहले हम मुग़ल दौर के सबसे बड़े इस्लामी स्कॉलर, हदीस के जानकार, तारीख़दाँ और तज़किरा-निगार (जीवनी-लेखक), शेख़ अब्दुल हक़ मुहद्दिस देहलवी की जानी-मानी फ़ारसी किताब, अख़बारूल अख़यार, में अमीर ख़ुसरौ की सूफ़ियाना जीवनी से जुड़ी किंवदंतियों के कुछ अंश प्रस्तुत करेंगे. इसके बाद २०वीं शताब्दी में वहीद मिर्ज़ा कृत, अमीर ख़ुसरौ, से चंद इक़्तिबासात लेकर ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में एक संक्षिप्त टिप्पणी किया जाएगा. मेरे नज़दीक वहीद मिर्ज़ा की यह तसनीफ़ अमीर ख़ुसरौ पर उर्दू में लिखी सबसे अच्छी किताबों में शुमार हुआ चाहती है.

अब्दुल हक़ मुहद्दिस ने अपनी प्रामाणिक और विश्वसनीय ग्रन्थ, अख़बारूल अख़यार में अमीर ख़ुसरौ पर लिखे अध्याय का एक बड़ा हिस्सा अमीर ख़ुर्द किरमानी की १४वीं शताब्दी के मध्य में लिखी किताब सियरुल औलिया पर आधारित किया है. अमीर ख़ुर्द का पूरा परिवार निज़ामुद्दीन औलिया का तरबियत-याफ़्ता था, और सियरुल औलिया को चिश्ती सूफ़ियों के एक प्रमाणपुष्ट और लोकप्रिय तज़किरा के तौर पर माना और पढ़ा जाता रहा है. ख़ुसरौ को कवियों के सुलतान, बड़े आलिम-फ़ाज़िल और कमाल के शायर बताते हुए, अब्दुल हक़ ने कहा है कि आप शेख़ निज़ामुद्दीन औलिया के पुराने दोस्तों और मुरीदों में से थे. आपको शेख़ से निहायत अक़ीदत व मुहब्बत थी, और शेख़ भी आप पर बहुत शफ़क़त व इनायत करते थे. शेख़ की ख़िदमत और हुज़ूर में किसी और को इतनी राज़दारी और क़ुरबत हासिल न थी जितनी अमीर ख़ुसरौ को थी. आपका यह मामूल था कि रात की नमाज़ (इशा) के बाद हमेशा शेख़ की ख़िदमत में हाज़िर होते और हर क़िस्म की गुफ़्तगू के अलावा अपने दोस्तों की दरख़ास्तों को पेश करते.

अब्दुल हक़ ने आगे कहा है कि शेख़ ख़ुसरौ की सूफ़ियाना तरबियत चिट्ठी लिखकर भी करते और उनमें शायर को तुर्क-अल्लाह के नाम से ख़िताब करते। एक ख़त का मज़मून चिश्ती सूफ़ियों की तालीमात को एक बेहतरीन वाक्य में इसतरह समेट देता है: जिस्म की हिफाज़त के बाद उन तमाम मामलों से गुरेज़ किया जाए जो शरअन नाजायज़ हैं, और अपने औक़ात की निगरानी करनी चाहिए, अपनी उम्र अज़ीज़ को ग़नीमत समझा जाए कि इसके सबब तमाम मुरादें हासिल होती हैं, ज़िन्दगी बेकार कामों में ज़ाए न की जाए, अगर ज़मीर चाहत के एहसास में मुबतला हो तो उसे दिली सुरुर में ढाल देना चाहिए, क्योंकि तरीक़त के रास्ते में इसी का एतबार है, और ख़ैर-ख़ूबी की तलब को हर चीज़ से ऊपर रखा जाए.

इस तरह, अब्दुल हक़ के अनुसार, सूफ़ीमत के उसूल और दरवेशों के हाल से पूरी तरह वाक़िफ़ ख़ुसरौ का दरबारी लोगों और बादशाहों से ताल्लुक़ तो था लेकिन स्वाभाविक तौर पर उनके दिल का मैलान सत्ताधारी लोगों के साथ न था. क्योंकि आपके कलाम में जो रुहानी बरकात हैं वह पापी लोगों के दिलों में कम ही पायी जाती हैं और ऐसे लोगों की कविताओं को क़बूलियत और दिली तासीर मुयस्सर नहीं होती.

दिल्ली सलतनत से जुड़े एक राजनीतिक अभिजात परिवार में पैदा होने वाले इस शायर (बाप तुर्क और माँ राजपूत) की सूफ़ी-इस्लामी तरबियत का ही कमाल था कि, एक रिपोर्ट के मुताबिक़, ख़ुसरौ देर रात की नमाज़ (तहज्जुद) में हर शब क़ुरान के तीस में से सात पारे या खंड पढ़ा करते थे. इसलिए इसमें कोई ताज्जुब नहीं कि निजामुद्दीन औलिया अपने जमाअत-ख़ाने में महफ़िले समा का आग़ाज़ ख़ुसरौ की तिलावते क़ुरान के साथ करवाते थे. कहते हैं कि एक रोज़ शेख़ ने उनसे पूछा: तुर्क, तुम्हारी मशग़ूलियात का क्या हाल है? ख़ुसरौ ने अर्ज़ किया कि: मख़दूम, रात का आखिरी हिस्सा अक्सरो-बेश्तर ख़ुदा को यादकर रोने में कटता है. शेख़ को यह बात अच्छी लगी और आपने फ़रमाया: अल्हम्दोलिल्लाह, कुछ असरात ज़ाहिर हो रहे हैं.

फ़ारसी शायरी में भी अपने पिरो-मुर्शिद निजामुद्दीन औलिया के मशवरे पर ही ख़ुसरौ ने इस्फ़हानी तर्ज़ अपनाया था. और शेख़ ने ख़ुद अपने हाथ से ख़ुसरौ को एक ख़ास टोपी से नवाज़ा था और कहा था कि सूफ़ियों के अक़वाल को हमेशा पेशेनज़र रखना। इसके साथ ही, निज़ामुद्दीन ने ख़ुसरौ की तारीफ़ में यह शेर भी कहा है, रुबाई:

ख़ुसरौ के बे नज़्मो नस्र मिसलश कम ख़ास्त

मिलकियत मुल्के सुख़न ऑन ख़ुसरौ रास्त

इन ख़ुसरौ मास्त नासिर ख़ुसरौ नीस्त

ज़ीराके ख़ुदाए नासिरे ख़ुसरौ मास्त

यानि, नज़्मो नस्र में अमीर ख़ुसरौ का और कोई हम पल्ला नहीं, सुख़नगोई की बादशाहत उसी के शयाने शान है, यह हमारा ख़ुसरौ है, नासिर ख़ुसरौ नहीं, क्योंकि हमारा ख़ुसरौ नासिर ख़ुसरौ से बुलन्दतर है.

एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक़, ख़ुदा की याद में ग़र्क़ एक मजज़ूब दरवेश ने ख़ुसरौ की पैदाइश के वक़्त ही यह भविष्यवाणी कर दिया था कि यह ख़ुशनसीब और प्रतिभासम्पन बच्चा फ़ारसी के शायर ख़ाक़ानी से दो क़दम आगे निकल जाएगा। अब्दुल हक़ ने कहा है कि शायद इससे मुराद ख़ुसरौ की मसनवी और ग़ज़ल में महारथ से हो, क्योंकि वह क़सीदे में ख़ाक़ानी के स्तर तक नहीं पहुँच सके. इसतरह शेरगोई में आप ख़ाक़ानी के हम पल्ला हैं, लेकिन उनसे आगे नहीं निकल सके.

अब्दुल हक़ ने बाद के इस रिपोर्ट को भी ख़ारिज किया है कि मुलतान में ख़ुसरौ की मुलाक़ात फ़ारसी के अज़ीम शायर सादी शिराज़ी से हुई थी. ख़ाने शहीद ने, जो ग़ियासुद्दीन बलबन का बेटा, मुलतान का हाकिम था और मंगोलों के हाथ मारा गया, सादी को शीराज़ से मुलतान आमंत्रित किया था. लेकिन सादी ने यह कहकर आमंत्रण ठुकरा दिया था कि: अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ और हिन्दुस्तान के सैर की ख़्वाहिश भी नहीं है.

जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, हिन्दुस्तान फ़ारसी और संगीत की तारीख़ में अमीर ख़ुसरौ का नाम सुनहरी अलफ़ाज़ में लिखा जाता रहा है. ख़ुसरौ की बेहतरीन ग़ज़लों के सम्बन्ध में उनके आधुनिक जीवनी-लेखक वहीद मिर्ज़ा फ़रमाते हैं: ‘ख़ुसरौ की ग़ज़लों में जो सोज़ो-गुदाज़ है इसका बैन सबूत यह है के उनके ज़माने से लेकर आज छह सौ साल से ज़ायेद गुज़र चुके हैं, लेकिन समा और क़व्वाली की महफ़िलों में ग़ालिबन अब भी सब से ज़्यादा उन्हीं की ग़ज़लें मक़बूल और रायेज हैं’.

सूफ़ियों की रवादारी के बारे में बहुत कुछ कहा जाता रहा है. ख़ुद ख़ुसरौ का यह कथन मशहूर है कि हर क़ौम के अपने तरीक़े, रस्ते और क़िबले होते हैं, उसी तरह से जिस तरह मुसलमानों ने मज़हबी गुमराही के टेढ़े रास्ते को छोड़कर अपने दीन की सीधी राह पर चलना सीखा है:

हर क़ौम रास्त राही दीनो क़िबले गाही

मा क़िबले रास्त करदीम बरतरफ़ कज-कुलाही

हालांकि ख़ुसरौ की शख़्सियत किसी तग़मे की मुँहताज नहीं, लेकिन फिर भी यह ख़ुशी की बात है कि उनके समकालीन ईरानी फ़ारसी कवियों ने भी इस हिन्दुस्तानी शायर की बेनज़ीर सलाहियत का एतराफ़ किया है. यहाँ तक कि एक शेर में फ़ारसी के बुज़ुर्ग-तरीन शायर हाफ़िज़ शिराज़ी ने ख़ुसरौ की तरफ़ इस तरह इशारा किया है:

शकर शिकन शवंद हमे तूतियाने हिन्द

ज़े-इन क़न्द-ए पारसी के बे बंगाला मी-रवद

हाफ़िज़ को बंगाल के सुलतान ने अपने वहाँ आमंत्रित किया था, तो शायर ने क्या ख़ूब कहा कि हिन्दुस्तानी तोतों के फ़ारसी की मीठी आवाज़ के कुछ टुकड़ों की मिठास अब तो बंगाल तक पहुँच चुकी है, तो क्या बजा है कि इसका लुत्फ़ न उठाया जाए! हाफ़िज़ का यह शेर इसलिए भी अहमियत रखता है कि बाद के ज़माने में ईरानियों ने हिन्दुस्तानी फ़ारसी को सिरे से हिन्दुस्तानी स्टाइल, सबके हिन्दी, कहकर हिक़ारत की नज़र से देखने की कोशिश की है. हालांकि यहाँ यह याद-दिहानी भी ज़रुरी है कि ईरानियों को हिन्दुस्तानियों से ख़ास दिल्लगी है, और इसका इतिहास बहुत पुराना है. हाफ़िज़ ने अपनी एक ख़ूबसूरत ग़ज़ल में शीराज़ की तुर्क हसीना के गोरे चेहरे पर आकर्षक काले तिल को हिन्दू की संज्ञा दी है, और कहा है कि उसके एवज़ समरक़ंद और बुख़ारा को बख़्श दिया जाना क्या मज़ायक़ा है!

इस दिलचस्प मामले के साथ ख़ुसरौ पर लौटते हैं. अरबी, संस्कृत और भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं पर ख़ुसरौ की राय और उन पर ख़ास पकड़ का अंदाज़ा निम्नलिखित शेरों से लगाया जा सकता है. अरबी पर यूँ फ़रमाया है कि हिन्दुस्तानी तुर्क होने के नाते हम हिन्दवी में सुख़नगोई के लायक़ तो ज़रुर हैं, लेकिन हमारे पास अरबी की मिस्री-शकर नहीं है कि कोई माक़ूल जवाब दे सकें:

तुर्क हिंदुस्तानीम मन हिन्दवी गोयम जवाब

शकर मिस्री नादारम के-अज़ अरब गोयम सुख़न

संस्कृत को एक धार्मिक भाषा की हैसियत से इसतरह इज़्ज़त बख़्शी है कि यह फ़ारसी-सिफ़त है, बल्कि पुरानी फ़ारसी (दरी) से बेहतर है, लेकिन शायद अरबी से कमतर:

व-इनअस्त ज़बानी बे-सिफ़त दर दरी

कमतर अज़ अरबी ओ बेहतर अज़ दरी

और मध्य-युग में सबको मालूम था कि संस्कृत और फ़ारसी एक दूसरे की बहनें हैं, एक का सुसराल ईरान और दूसरे का हिन्दुस्तान, यह और बात है कि बाद के ज़माने में इनके बीच सौतेलेपन का धार्मिक ज़हर घोल दिया गया हो.

मातृभाषा की हैसियत से ख़ुसरौ का हिन्दवी कलाम बहुत अहमियत का हामिल है, हालांकि फ़ारसी की सियासत के नशे में चूर तारीख़दाँ अब भी क़ायल नहीं हैं, लेकिन ख़ुद ख़ुसरौ ने अर्ज़ किया है कि उन्होंने हिन्दुस्तान की बहुत सारी भाषाओं को कमो-बेश सीखकर उनमें अपनी बात कही है:

मन बे-ज़बानहाय बेशतरी

करदे अम अज़ तबे शनासा-गुज़री

दानमो दरयाफ़्ते ओ गुफ़्ते हम

जस्ते ओ रौशन शुदे ज़े-ऑन बेशो-कम

ख़ुसरौ के मशहूर हिंदी दोहों के ऐतिहासिक मूल्य को भी नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता। कई मंझे हुए क़व्वालों ने इन्हें बहुत अच्छे से निभाया है. मुलाहिज़ा फ़रमायें:

ख़ुसरौ रैन सुहाग की जागी पी के संग

तन मेरो मन पियो को दूधिए एक रंग

और अपने पिरो-मुर्शिद हज़रत निज़ामुद्दीन के स्वर्गवास पर, शोक-संतप्त ख़ुसरौ द्वारा कहा गया यह मर्सिया-नुमा दोहा मक़बूले आम है:

गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस

चल ख़ुसरौ घर आपने रैन भइ चहुँ देस

और आख़िर में, हिन्दवी कलाम में पायी जाने वाली पहेलियों में से कुछ तो ख़ुसरौ की अवश्य होंगी। मिसाल के तौर पर:

फ़ारसी बोली आयी न

तुर्की ढूंढी पायी न

हिंदी लोलूं आरसी आए

ख़ुसरौ कहे न कोई बताए

संभव है कि बाद के ज़माने में लोगों ने पॉपुलर गीतों को ख़ुसरौ के नाम से जोड़कर उनके प्रचलन और प्रसारण को चार चाँद लगा दिया हो, क्यूंकि ख़ुसरौ जीते जी बड़े शायर थे और उनका नाम बिकता था. हिन्दुस्तानी समाज और संस्कृति की झलकियों का जो कोलाज़ ख़ुसरौ ने अपनी लेखनी से बनाया था उसकी भी बहुत तारीफ़ सुनने को मिलती रही है. कुछ नेक लोग ख़ुसरौ को देशभक्त सूफ़ी शायर के लक़ब से नवाज़ते हुए भारत में बहुलवादी समाज के नव-निर्माण में ख़ुसरौ के अहम रोल की दुहाई देते रहे हैं, जो कुछ हदतक आज के कठिन दौर में ज़रूरी भी है.

ख़ुसरौ का देहांत उनके पीर निज़ामुद्दीन के स्वर्गवास के छह महीने के अंदर ही ईस्वी सन १३२५ में हुआ, और दोनों की ख़्वाहिश के मुताबिक़ उनका दफ़न भी उनके पहलु में ही किया गया. ख़ुसरौ का मक़बरा, क़व्वालों  की जोशीली आवाज़, और श्रद्धालुओं का अक़ीदत-मंदाना हुजूम दरगाह परिसर को एक रुहानी एटमॉसफ़ेयर प्रदान करते हैं, जो दिलों के फ़ायदे और राहत का सबब है.

ज़े हाले मिसकीन मकुन तग़ाफ़ुल दुराय नयना बनाय बतियाँ….

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लेखक संपर्क: razi.aquil@gmail.com

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‘केदारनाथ’के सिवा फिल्म में नया कुछ नहीं है

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फिल्म ‘केदारनाथ’ की समीक्षा सैयद एस. तौहीद ने लिखी है- मॉडरेटर
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रॉक ऑन’ और ‘काई पो चे’ जैसी फिल्में बनाने वाले अभिषेक कपूर की फ़िल्म ‘केदारनाथ‘ रिलीज़ हो चुकी है। नवोदित सारा अली खान एवं सुशांत सिंह राजपूत के नामों से सजी कहानी केदारनाथ प्राकृतिक आपदा के इर्द-गिर्द बुनी गई है। सैफ अली ख़ान एवं अमृता सिंह की बेटी सारा अली ख़ान की डेब्यू के लिए फ़िल्म का लम्बे समय से इंतज़ार था। फ़िल्म से गुज़र कर इंतज़ार बेमानी नहीं लगा। सारा ने पहले ही एफर्ट में काफ़ी प्रभावित किया है। सहज सरल सुगम अदाकारी की अच्छी मिसाल कायम की है।
केदारनाथ की जब घोषणा हुई तब एक उम्मीद जागी थी हिंदी सिनेमा प्राकृतिक आपदाओं को डॉक्यूमेंट कर रहा। पहली बार भी नहीं क्योंकि इमरान हाशमी की ‘तुम मिले’ में मुंबई की बाढ़ पर फ़िल्म बनी थी। केदारनाथ आपदा ने कई घरों को उजाड़ा। परिवार बर्बाद हो गए। जिंदगियां तबाह हो गई। हजारों हमवतन हमेशा के लिए खो गए। अभिषेक कपूर की फ़िल्म ने उसी स्मृति को एक कहानी ज़रिए अच्छे से जिया है। लव स्टोरी के साथ केदारनाथ के वो मंजर बड़े पर्दे पर उतारने की सराहनीय कोशिश हुई है। फिल्म को इस नेक कोशिश के लिए ही देखना बनता है। केदारनाथ का फिल्मांकन उसे देखने की एक बड़ी वजह हो सकती है।
प्रेम अमर होता है, इसलिए प्रेम कहानियां भी अमर होती है। दो पात्र होते हैं।  संघर्ष के लिए अलग इतिहास व वर्त्तमान होता है।  आकर्षण होता है। प्यार के समानांतर नफ़रत होती है। पात्रों के परिवेश में एकरुपता का न होना आम होता है। कभी लड़का ग़रीब तो लड़की अमीर। कभी लड़की हिन्दू तो लड़का मुसलमान।  इनके प्यार के सामने आग का दरिया होता है।  परिवार एवं हालात दोनों खिलाफ होते हैं। लेकिन अक्सर अंत तक सब ठीक हो जाता है। सुख देता है।
कहानी जिद्दी, खुशमिज़ाज़ और अल्हड़ मंदाकिनी उर्फ़ मुक्कु (सारा अली खान) से शुरू होती है। मुक्कु हिन्दू परिवार से आती है।  ऊंची जाति वाली मुक्कु को  तीर्थयात्रियों को कंधे पर ज़्यारत कराने वाले मुस्लिम लड़के मंसूर (सुशांत सिंह राजपूत) से मुहब्बत हो जाती है। इनकी मुहब्बत में साठ दशक की फ़िल्म ‘जब जब फूल खिले’ की छाप नज़र आती है। समाज को दोनों का प्यार पसंद नहीं । प्यार को तोड़ने की भरपूर जद्दोजहद शुरू हो जाती है।  मुक्कू केदारनाथ के सबसे बड़े पंडितजी की बिटिया है। जबकि मंसूर मामूली मजदूर । यह प्रेम नामुमकिन सा लगता है। अलग धर्म की वजह से दो प्रेमियों की राह में काफी अड़चनें आती हैं। समापन फिल्म की जान  है।
‘केदारनाथ’ पहाड़ों और वादियों में बुनी गई एक नेक कोशिश है। हिमालय की खूबसूरत तस्वीरों को बेहद खूबसूरती से फिल्माया गया है। स्थानीय परिवेश को बढ़िया से रचा गया है। रहने वालों के दरम्यान बीच निराला रिश्ता है। अभिषेक कपूर- कनिका ढिल्लन की स्क्रीप्ट सेक्युलर भाव से शुरू होती है। लेकिन मंदाकिनी व मंसूर का प्यार समीकरण बदल देता है। एक समय प्रेम से साथ रहने वाले लोग एक मुहब्बत को प्रेस्टिज का विषय बना लेते हैं । प्रेमियों को अलग करने के लिए पंडितों और पिट्ठुओं के बीच ठन जाती है । इसी बीच केदारनाथ की प्राकृतिक आपद भी आ जाती है। प्रेम पर होने वाले प्रहार व आपदा में एक संबंध सा था शायद।
धार्मिक स्थलों पर उमड़ती भीड़। टूरिज्म के लिए होटल और इमारतें । कुदरत का पहलू । एवं इन सबको जोड़ती प्रेम कहानी। किसी भी नए कथन के लिए यह चीजें कमाल की हो सकती थीं। लेकिन मुकम्मल हो नहीं सकीं। सम्भावना पराजित सी हुई है फिर से बॉलीबुड में। अभिषेक कपूर की ‘केदारनाथ’ बहुत बेहतर हो सकती थी।

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सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात, और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात

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कल एक पुस्तक मिली ‘कविता सदी‘. राजपाल एंड संज प्रकाशन से प्रकाशित इस संकलन के सम्पादक हैं सुरेश सलिल. 624 पृष्ठों के इस संकलन को नाम दिया गया है आधुनिक कविता का प्रतिनिधि संचयन. भारतेंदु हरिश्चंद्र, श्रीधर पाठक से शुरू होकर यह संचयन सविता सिंह की कविताओं पर जाकर समाप्त हो जाता है. चयन पर पसंद-नापसंद की बात की जा सकती है लेकिन जो बात मुझे इस संचयन में अच्छी लगी वह यह कि इसमें अनेक भूले-बिसरे गीतकारों के गीतों को भी जगह दी गई है, जैसे बलवीर सिंह ‘रंग’, रमानाथ अवस्थी, भारतभूषण, गोपाल सिंह नेपाली से लेकर, हल्दी घाटी वाले श्याम नारायण पाण्डेय तक. एक विस्तृत संचयन है और हिंदी कविता की विविधता का रसास्वादन करने के लिए ठीक है. इसी संचयन से दो गीत- मॉडरेटर

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रमानाथ अवस्थी का एक प्रसिद्ध गीत 

1.

सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात।

मेरे बहुत चाहने पर भी नींद न मुझ तक आई
ज़हर भरी जादूगरनी सी मुझको लगी जुन्हाई
मेरा मस्तक सहला कर बोली मुझसे पुरवाई

दूर कहीं दो आंखें भर भर आईं सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात।

गगन बीच रुक तनिक चंद्रमा लगा मुझे समझाने
मनचाहा मन पा जाना है खेल नहीं दीवाने
और उसी क्षण टूटा नभ से एक नखत अनजाने

देख जिसे मेरी तबियत घबराई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात।

रात लगी कहने सो जाओ देखो कोई सपना
जग ने देखा है बहुतों का रोना और तड़पना
यहां तुम्हारा क्या‚ काई भी नहीं किसी का अपना

समझ अकेला मौत मुझे ललचाई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात।

मुझे सुलाने की कोशिश में जागे अनगिन तारे
लेकिन बाजी जीत गया मैं वे सबके सब हारे
जाते जाते चांद कह गया मुझको बड़े सकारे

एक कली मुरझाने को मुस्काई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात।

भारत भूषण का एक गीत

2.

आधी उमर करके धुआँ यह तो कहो किसके हुए
परिवार के या प्यार के या गीत के या देश के
यह तो कहो किसके हुए

कन्धे बदलती थक गईं सड़कें तुम्हें ढोती हुईं
ऋतुएँ सभी तुमको लिए घर-घर फिरीं रोती हुईं
फिर भी न टँक पाया कहीं टूटा हुआ कोई बटन
अस्तित्व सब चिथड़ा हुआ गिरने लगे पग-पग जुए —

संध्या तुम्हें घर छोड़ कर दीवा जला मन्दिर गई
फिर एक टूटी रोशनी कुछ साँकलों से घिर गई
स्याही तुम्हें लिखती रही पढ़ती रहीं उखड़ी छतें
आवाज़ से परिचित हुए गली के कुछ पहरूए —

हर दिन गया डरता किसी तड़की हुई दीवार से
हर वर्ष के माथे लिखा गिरना किसी मीनार से
निश्चय सभी अँकुरान में पीले पड़े मुरझा गए
मन में बने साँपों भरे जालों पुरे अन्धे कुएँ
यह तो कहो किसके हुए —

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रोजनामचा है, कल्पना है, अनुभव है!

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हाल में ही रज़ा पुस्तकमाला के तहत वाणी प्रकाशन से युवा इतिहासकार-लेखक सदन झा की ललित गद्य की पुस्तक आई है ‘हाफ सेट चाय और कुछ यूँही’. प्रस्तुत है उसकी भूमिका और कुछ गद्यांश- मॉडरेटर

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किताब के बारे में:

एक रोजनामचा है. यहाँ कल्पना है, अनुभव है. दोस्तों के बीच खुद को बहलाने की कवायद है. गप्पबाजी है और अकेलेपन को बिसरा देने के लिए स्मृतियों कि गठरी है: मैली सी, जहां तहां से फटी हुई सी पर फिर भी ठहरी एक गठरी. दूसरी तरह से कहें तो यात्रा का नाम दिया जा सकता है: भटकाव की डोर थामे चलते चले जाने जैसा कुछ. लेकिन भटकाव का वेग कुछ ऐसा कि एक पगडंडी कहाँ दूसरी में मिलकर पौने तीन कदम पर ही जाने किस तरफ मुड़ जाय. किसी तय राह पर कुछ दूर तक निभा जाने को जैसे असमर्थ हों ये शब्द. पौने तीन या कभी कभी तो ढाई या फिर सवा कदम पर ही राह बदलने को अभिशप्त भटकते शब्द.

” हिंदी‌‌ में औपचारिकता का‌ ऐसा वर्चस्व सा है कि अनौपचारिकता अक्सर जगह नहीं पाता। सदन झा का गद्द यहां से वहां सहज भाव से जाने की विधा है।” अशोक वाजपेयी ।

वाणी प्रकाशन और रजा फाउंडेशन दिल्ली से 2018 में प्रकाशित यह किताब लघु कथाओं, यात्रा-डायरी और जिन्दगी के आम लम्हों पर की गयी टिप्पणियों का संग्रह है हाफ सेट चाय. यहाँ लन्दन की ब्रिटिश लाइब्रेरी की दुपहरिया है तो दरभंगा के नकटी गली का भय और स्कूल से वापस लौटाता बचपन भी, समसामयिक राजनैतिक वातावरण है तो स्मृतियों का अवकाश भी.

राजधानी 

1

2033 ई. राजस्थान में राष्ट्रीय राजमार्ग से बीस किलोमीटर दक्षिण, रात के सवा दो बजे उन दोनों की सांसें बहुत तेज चल रही थीं. फिर, उस एसी टेंट में सन्नाटा पसर गया. दोनों ही को गहरी नींद ने अपने आगोश में ले लिया।

यह सौ- सवा सौ किलोमीटर का टुकड़ा कभी निरापद और वीरान हुआ करता था, जहां रोड और हॉरर फिल्मों की प्लॉट तलाशते हुए हिंदी सिनेमा वाले कभी आया करते थे। यही जगह पिछले पांच सालों से ऐसे अनगिनत एसी तंबूओं और उनमें निढाल हुए इंजीनियरों, प्लानरों, ऑर्किटेक्ट, ब्यूरोक्रेट और खूबसूरत मर्दाने सेफ से अटा पड़ा है।

2 

निशा अभी-अभी तो मसूरी से निकली है और सीधे पीएमओ से उसे यहां भेज दिया गया, स्पेशल असाइनमेंट पर। निशीथ अभी-अभी तो स्विट्जरलैंड से हॉटल मैनेजमेंट का कोर्स कर लौटा और लीला ग्रुप ने अपने सेटअप की जिम्मेदारी देते हुए यहां भेज दिया।

दस साल में कितना कुछ बदल जाता है। पिछली बार, शारदापुर में छोटकी पीसिया की जइधी की शादी में एक क्षण देखा था। हाय-हेलो होकर रह गया था। नंबर और ईमेल एक्सचेंज भी नहीं कर पाया। कई दफे फेसबुक पेज पर जाकर भी फ्रेंड रिक्वेस्ट नहीं भेज पाया। आखिर दूसरे तरफ से भी तो पहल हो सकता था। पहल करने के मामले में निशी भी पुराने ख्याल की ही थी। कोल्ड फीट डेवलप कर लेती। और… उस भागम भाग माहौल में दोनों के पास यदि कुछ बचा रह गया तो महज एक जोड़ी नाम और दो जोड़ी आंखें। और आज वही नाम, वही आँखे एक दूसरे से मिल गये। अब सब कुछ शांत।

टेंट में आई पैड पर बहुत हल्के वॉल्यूम में अमजद अली का सरोद बजता रहा। निशी की यह अजीब सी आदत जो ठहरी, जहां जाती उसके ठीक उलट संगीत ले जाती। पहाड़ों पर डेजर्ट साउंडस्केप के साथ घूमती और रेगिस्तान में कश्मीर को तलाशा करती। जल तरंग और सरोद।

 

3 

टेंट कुछ ऊंचाई पर था। इंजीनियरों और आर्किटेक्टों से भी थोड़ा हटकर। सामने नीचे सौ-सवा सौ किलोमीटर का नजारा। नियॉन रोशनी में नहाई रात अब तनहा तो न थी। सामने जहाँ तक नजर जाती रोशनी ही रोशनी। दैत्याकार मशीन, सीमेंट, लोहे, प्रीफैब्रिकैटिड स्लैव, क्रेन, और असंख्य चीनी और बिहारी मजदूर। उधर, दूर इन मजदूरों की बस्ती से आती बिरहा की आवाज सरोद की धुन में मिल गयी थी।

‘चलु मन जहां वसइ प्रीतम हो, वैरागी यार

आठहि काठ केर खटिया हो, चौदिस लागल कहार…’

 

4 

एक सौ साल पहले कुछ ऐसा ही तो मंजर रहा होगा, जब दिल्ली की रायसीना की पहाड़ियां सज कर तैयार हुई होंगी।

 समय बदला, लोग बदले, तकनीक बदला। वही दिल्ली रहने लायक न रही। हवा और पानी भला कहां जात-पांत, पैसा, ओहदा माने। पहले-पहले तो गरीब-गुरबे अस्पताल जाते मिले। नेता, अफसर और प्रोफेसर निश्चिंत सोते रहे।

पर, जब हवा ही जहरीली हो तो किसकी सुने?

फिर, मीटिंग बुलाया गया।

5

रातों-रात अफ्सरों को जगाया गया। सबसे कंजरवेटिव अफसरों और सबसे रैडिकल प्लानरों को सुबह पौने सात बजे तक हॉल में आ जाना था। डिफेंस, रियल स्टेट, पर्यावरण साइंटिस्ट, मिट्टी के जानकार, पानी के एक्सपर्ट, मरीन बॉयोलोजिस्ट सभी को लाने का जिम्मा अलग-अलग सौंप दिया गया था।

उद्योगपतियों और मीडिया हॉउस के पॉंइंट मेन को अपने दरवाजे पर पौने पाँच बजे तैयार खड़ा रहना था जहाँ से उन्हें सबसे नजदीकी सैन्य हवाई अड्डे तक रोड से या हेलीकॉप्टर से ले जाने का प्रबंध कर दिया गया था। यहाँ तक कि ट्रैफिक कमिश्नरों को इत्तला दे दी गयी थी कि अपने महकमे के सबसे चुस्त अधिकारियों के साथ वे ऐसे खास ऐडरेसेज और हेलीपैड या एयर बेस के बीच के यातायात पर खुद निगरानी रखें। पर, किसी और से इसका जिक्र न करने की सख्त हिदायत भी साथ ही दिया गया था। पौने सात बजने से ढ़ाई मिनट पहले उस विशालकाय मीटिंग हॉल की सभी मेज पर हर कुर्सी भर चुकी थी। सभी के सामने एक और मात्र एक सफेद कागज का टुकड़ा और एक कलम रखा था।

पीरियड।

लेकिन एक ही पेज क्यों, लेटर पैड क्यों नहीं? नजरें और चेहरे खाली कुर्सी पर टिकी थी जो उस हैक्सागोनल हॉल के किसी भी कोने से साफ दिखता था। और, जिस कुर्सी से उस हॉल की हर कुर्सी पर बैठे आंखो की रंगत को पहचाना जा सकता था। यह एक अदभुत मीटिंग था। आज देश की सबसे विकट समस्या का हल ढूंढ़ना था। हवा के बारे में बातें करनी थी, जो बिगड़ चुकी थी। आज राजधानी को बदलने की योजना तय होनी थी। आज निशा, निशीथ और उनके जैसे असंख्य की जिंदगी की दिशा तय होनी थी।

आज ही के मीटिंग में रेगिस्तान की जमीन पर सरोद का बिरहा से मिलन तय होना था। आज ही तो तय होना था कि निशीथ की पीठ पर दायें से थोड़ा हटकर नाखून की एक इबारत हमेशा के लिए रह जाएगी।

एक खुरदरे टीस की तरह…

सदन झा सूरत स्थित सेंटर फॉर सोशल स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं.

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कोलंबियंस को सिएस्टा और फिएस्टा दोनों से लगाव है

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गाब्रिएल गार्सिया मार्केज़, शकीरा और पाब्लो एस्कोबार के देश कोलंबिया की राजधानी बोगोता की यात्रा पर यह टिप्पणी लिखी है युवा लेखिका पूनम दुबे ने. पूनम पेशे से मार्केट रिसर्चर हैं. बहुराष्ट्रीय रिसर्च फर्म नील्सन में सेवा के पश्चात फ़िलवक्त इस्तांबुल (टर्की) में रह रही हैं. अब तक चार महाद्वीपों के बीस से भी ज्यादा देशों में ट्रैवेल कर चुकी हैं. पढना और लिखना उनका पैशन है- मॉडरेटर

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अब से कई साल पहले तक मेरे लिए कोलंबिया का मतलब था शकीरा और उसके दिल धड़का देने वाले गाने. जब भी शकीरा का “हिप्स डोंट लाय” गाना देखती तो झूमने लगती थी उनके डांस को देखकर! इसी गाने के वजह से मैं उनकी दीवानी हो गई. यह तो हम सभी जानते है दीवानगी में हम लोग कितने ही ख्वाब पाल लेते है. उन दिनों से मेरे मन में यह इच्छा थी कि काश एक दिन मैं शकीरा के दर्शन पाऊं और उसके साथ डांस करने की मेरी नन्ही से हसरत पूरी हो . खैर मेरी नन्ही हसरत इतनी भी नन्ही नहीं थी यह मुझे बाद में पता चला.

मेरे सामान्य ज्ञान में बढ़ोतरी तब हुई जब संयोगवश 2014 में मई के महीने में मैं बोगोता पहुँची.  बोगोता कोलंबिया की राजधानी है. यहाँ स्पैनिश बोली जाती, देखा जाए तो लगभग सभी साउथ एंड सेंट्रल अमेरिकन देशों में स्पैनिश ही मुख्य भाषा है. अमेरिका में भी इंग्लिश के बाद स्पैनिश ही सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है.

एयरपोर्ट से टैक्सी लेकर लॉज में पहुँचते ही मैंने अपना सामान ठिकाने लगाया. कुछ देर सुस्ताने बाद बड़े उमंग से मैं शकीरा की खोज में निकली (ठीक वैसे ही जैसे मुंबई में और क्षेत्रों से आये लोग पहले अमिताभ बच्चन और शाहरुख से मिलने निकल पड़ते है) अफ़सोस शकीरा नहीं मिली, शायद उसे नहीं पता था कि मैं आई हूँ.  मौसम सुहावना था, कोशिश थी कि प्लाजा बोलिवार जाऊं जो कि सिटी सेंटर है. कोलंबिया 1492 से 1824 के अवधि तक स्पेन की कॉलोनी रह चुकी है. स्पैनिश कोलोनाइजेशन का प्रभाव यहाँ के आर्किटेक्ट और सभ्यता में बखूबी झलकती है.

प्लाजा के ओर चलते हुए मेरा ध्यान जगह-जगह किताबों और अन्य दुकानों पर गया जहां गाब्रिएल गार्सिया मार्केज़ के बड़े-बड़े पोस्टर और बैनर लगे थे, जो मैंने एयरपोर्ट पर भी नोटिस किया था. उसी साल कुछ ही हफ़्ते पहले गाब्रिएल गार्सिया मार्केज़ का देहांत हुआ था. उस समय मैं उनके गौरव से लगभग अनजान थी. सुना था उनके देहांत के बाद पूरा कोलंबिया शोक में डूब गया था और कोलंबियन सरकार ने तीन दिन का नेशनल हॉलिडे भी घोषित किया था. मन ही मन मैं हतप्रभ! क्या रुतबा रहा होगा इन साहब का जो लोग अब तक श्रद्धांजलि दिए जा रहे है. निष्ठा तो देखिये लोगों की, ग्राब्रिएल साहब तो सालों पहले मेक्सिको के रहवासी बन गए थे, और जीवन की आखिरी साँसे भी वहीं ली!  “कुछ लोगों का व्यक्तित्व इतना वैभवशाली होता है कि उनकी छाप लोगों के मन में जीवन के अनंतकाल तक रह जाती है.”  मार्केज़ भी उन्हीं तेजस्वी लोगों में से एक थे.

दुकानों की चहल पहल देखी तो मैं एक बुक स्टोर के भीतर चली गई. ज्यादातर मुझे गाब्रिएल की ही किताबें सजी हुई दिखीं.

उनकी लिखी किताब “एकाकीपन के सौ साल” ने लैटिन अमेरिकन लिटरेचर को दुनिया की नजरों में एक नए मुकाम पर पहुँचाया. मार्केज़ की “एकाकीपन के सौ साल” (one Hundred years of solitude) पिछले सौ सालों में लिखी गई किताबों में से एक बेहतरीन किताब मानी जाती है. मार्केज़ को मैजिकल रिअलिज्म का पिता भी कहा जाता है.  इसी उपन्यास के लिए ग्राब्रिएल को 1982  में साहित्य की दुनिया में नोबेल से नवाज़ा गया.

ग्राब्रिएल ने पाब्लो एस्कोबार पर भी “न्यूज़ ऑफ़ किडनैपिंग” नॉनफिक्शन लिखी है. पाब्लो एस्कोबार से तो अब हम भी बखूबी वाकिफ़ हो गए हैं, आज कल नेटफ्लिक्स पर जो छाए है. ड्रग लार्ड होने के बावजूद भी मेडेलिन के लोग आज भी उन्हें सम्मानपूर्वक याद करते हैं. पाब्लो एस्कोबार ने मेडेलिन के लोगों के लिए रॉबिनहुड जैसी भूमिका निभाई थी. ठीक वैसे ही जैसे कि हमारे देश में बहुत से लोग फूलनदेवी की निर्भयता को सम्मानित रूप से देखते है.

स्वयं जादुई यथार्थवादी मार्केज़ भी शकीरा के अलौकिक काम करने सलीके से खूब प्रभावित हुए थे. २००२ में उन्होंने शकीरा पर एक सुंदर लेख लिखा” शायर और शहजादी” जो कि बहुत चर्चित रहा. आगे चलकर  मार्केज़ और शकीरा अच्छे दोस्त बने. शकीरा ने मार्केज़ के उपन्यास “लव इन द टाइम ऑफ़ कोलेरा” पर आधारित फ़िल्म के लिए “आइ अमोरीस” गाना भी गाया है.

मार्केज़ ने कहा था कि कोलंबिया आज अपने वतन के, पाब्लो एस्कोबा,शकीरा और मार्केज़ इन तीन लोगों के लिए जाना जाता है. सच ही है!

सड़कों और गलियों की छानबीन करते हुए मैं एक कैफ़े के भीतर गई.  कोलंबिया आकर बिना यहाँ की काफी का आनंद लिए जाना किसी गुनाह से कम नहीं. अपनी कॉफी के लिए कोलंबिया पूरे विश्व में प्रसिद्ध है. मैंने स्टारबक्स में कहीं लिखा देखा था कोलंबियन कॉफ़ी के बारे में! लेकिन यहाँ मैंने काफ़ी स्टारबक्स से नहीं एक लोकल कॉफ़ी स्टाल से खरीदी.

मुझे कोलंबियंस अपने क्रिश्चियनिटी फेथ के प्रति बड़े समर्पित जान पड़े. उसके पीछे एक कारण यह भी हो सकता है कि यहां, “साल्ट कैथेड्रल ऑफ़ ज़िपाकिरा” स्थापित! यह एक अंडरग्राउंड रोमन कैथलिक चर्च है जो कि तीर्थ स्थल की तरह पूजा जाता है. साल्ट कैथेड्रल वास्तुकला की दृष्टि से बहुत है अहम माना जाता है. पर्यटकों की काफ़ी भीड़ लगी थी. कुछ समय मैंने भी वहां बिताया.

किसी भी नई जगह पर जाने से पहले मेरे मन में सबसे पहले एक ही ख्याल आता है “क्या वहाँ जाकर शाकाहारी भोजन मुझे नसीब हो जाएगा”? अब तो तजुर्बे के साथ मैंने जुगाड़ करना भी सीख लिया है.  आसपास की कुछ दुकानें तलाशने के बाद मेरी नज़र राजमा पर पड़ी. राजमा देखते ही पेट में चूहे खुशी के मारे सालसा करने लगे. मैंने सोचा राजमा है तो चावल भी होगा! मन में भगवान को पुकारा और कहा बिना चावल खाये मैं यहाँ से नहीं जाऊंगी. हालांकि कुछ देर लगी वेटर को समझाने में कि मुझे सिर्फ राजमा चावल प्लेट में दे. वह भी हैरान भौंहें तानकर घूरने लगा, “अच्छा ख़ासा मीट प्लेट से बाहर निकलवाकर यह लड़की चावल के पीछे पड़ी है”  बाहरी देशों में लोगों को शाकाहारी का कांसेप्ट ठीक से समझ नहीं आता. खासकर वहां जहाँ भारतीय लोगों का बसेरा सीमित है.

खाने के बाद पेट में चूहों का सालसा बंद हुआ तो सोचा शकीरा न सही, क्यों न यहाँ के लोगों के साथ सालसा कर लूँ. कोलंबिया आये और सालसा नहीं किया तो क्या किया. इसलिए मैं एक सालसा क्लब के भीतर चली गई. उस दिन मैं इतना बुरा नाची कि उन्हें लगा होगा शायद मैं इंडियन सालस कर रही हूँ. वहां लोग इतनी सहजता से ताल से ताल मिलाकर सालसा कर रहे थे कि, जैसे माँ के कोख से सीखकर आये हो.  वहां के लोग, उनकी जमीन से कुछ अपनापन सा महसूस किया. सिर्फ भाषा और पहनावे में अन्तर दिखाई दे रहा था. सीधे-साधे और खुश मिजाज, अपनी दुनिया में मस्त रहने वाले लोग! कुछ हद तक रूप रंग में भी वह हम जैसे लगे.  उन्हें देखकर मन में ख़याल आया सचमुच कोलंबियंस को सिएस्टा और फिएस्टा दोनों से बड़ा लगाव है.

बमुश्किल से डेढ़ दिन मिले थे बोगता में. हालांकि जितना भी समय वहां बिताया उसके आधार पर कह सकती हूँ बड़ी दिलचस्प जगह है.  अगली बार के लिए मैंने एक लंबी लिस्ट तैयार कर रखी है जिसमें से  मेडिलिन, काली और अराकाताका (मार्केज़ का जन्म स्थल,  जिसने उन्हें प्रेरणा दी एकाकीपन के सौ साल लिखने की) को भूले से भी चूक नहीं सकती.

वापसी के वक्त एयरपोर्ट पर मैंने “एकाकीपन के सौ साल” खरीद ही ली. कुछ सालों बाद इस अद्भुत उपन्यास को पढ़ते हुए मैंने भी अपने भीतर के एकाकीपन को टटोला! मैजिकल रिअलिज्म पर आधारित यह किताब खुद किसी सम्मोहन से कम नहीं. अब मेरे लिए कोलंबिया महान कहानीकार गाब्रिएल गार्सिया मार्केज़ का देश है.  हिंदी जगत के प्रख्यात लेखक प्रभात रंजन ने मार्केज़ के जीवन पर आधारित “जादुई यथार्थ का जादूगर” किताब लिखी है. जो अभी हाल ही में मेरे हाथ लगी है.  पूरा भरोसा है कि इस किताब को पढ़कर मन में मार्केज़ के प्रति उठ रहे कौतूहल को तृप्ति मिलेगी.

आप सोच रहे होंगे शकीरा का क्या हुआ?  करीब एक साल बाद मैनहाटन में मैडम टुसाड जाकर मैंने शकीरा के स्टैचू के साथ फोटो खिचवायी और बिलकुल वैसे ही महसूस किया जैसे शारुख के बंगले मन्नत को देखकर दर्शनार्थी सद्भावना से भर जाते हैं.

“यह सच नहीं है कि लोग सपनों का पीछा करना इसलिए बंद कर देते हैं क्योंकि वे बूढ़े हो जाते हैं, वे बूढ़े हो इसलिए जाते हैं क्योंकि वे सपनों का पीछा करना बंद कर देते हैं.”  मार्केज़ के यह सुनहरे शब्द जीवन को एक नई तरीके से देखने के लिए प्रेरित करते है. जीवन में कोशिश यही रहेगी कि मन में कोई न कोई सपना पलता रहे.

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तसनीम खान की कहानी ‘मेरे हिस्से की चांदनी’

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समकालीन युवा लेखन में तसनीम खान का नाम जाना-पहचाना है. उनकी नई कहानी पढ़िए- मॉडरेटर
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आंगन में फैली रातरानी के महकने का वक्त हो चला। वो इस कदर महक रही थी कि पूरा घर इस खूशबू से तर हो गया। हवा के झोंकों के साथ इसकी खुशबू कमरों की खिड़कियों से होकर आती रही और छोटे—बड़े सभी इस पुरखुशबू माहौल में नींद की आगोश में चले गए। चांद अपनी चमक इस खुशबुओं से भरे आंगन में बिखेर रहा था। आसमान में चांद पूरा था, तो चांदनी भी बड़ी खुशी से इठला रही थी। पूरा घर उनिंदा यानी शांत हो चला। बस, एक कोना था जहां अब भी कोई जाग रहा था। बड़े से खुले चौक के एक ओर छत पर चढ़ रही सीढ़ियों में से ही एक पर वो बैठी थी। दीवार पर टेका लगाए और सीढ़ी के किनारे चल रहे पिलर पर उलझे थे उसके दोनों पांव। एक टक वो उस चांद को देख रही थी, जिसकी चांदनी उसे चेहरे के नूर में इजाफा कर रही थी, लेकिन उसका दिल किसी अंधेरे कुएं में उतरा जा रहा था। आज की यह खुशबूओं और चांदनी से भरी रात उसके लिए नहीं थी। यही बात उसे और उसकी आंखों को बोझिल कर रही थी। हर अरमान से खाली सी उसकी आंखें चांद पर ही टिकी रही, जैसे वो अपना कुछ खोया उसमें ढूंढ रही हो। एक आंसू सा उसके चेहरे के नूर को बिखेरता हुआ सा उतरा।
‘आज की यह चांदनी तो मेरे हिस्से में नहीं। चांदनी भी बंटती है भला, ये बंटवारा मुझे कतई मंजूर नहीं।’ यह कहते उसने अपने घुटनों के भीतर सिर छिपा लिया। वो जानती है कि उसकी इस मंजूरी या नामंजूरी की जरूरत किसी को नहीं।
रात आधी हो चुकी थी। चौक की चांदनी के पीछे अंधेरे कमरे में दो आंखें और जाग रही थी, जो इन सीढ़ियों की ओर ही देख रही थी। दो आंखों से आ रहे आंसुओं को बूढ़ा गए हाथों से पौछा और अम्मा ने पूरी ताकत से आवाज लगाई, अरी निगहत, ओ री निगहत। आ जा, सो जा दुल्हन, रात बहुत हो गई।
निगहत ने तो जैसे सुना ही नहीं, अब भी उसकी खाली आंखें, उस पूरे चांद को देख रही थीं।
बूढ़ी अम्मा जानती हैं कि उनके कहने से कुछ नहीं होगा। यह जगराता चलता रहेगा, फिर भी वो हर दिन यह आवाज देना नहीं भूलती। बस इस आवाज में दिन के हिसाब से नाम भी अलग होते। कुछ कुछ चांदनी रातों में नाम निगहत होता, तो कुछ रातों मीना।
ऐसा भी नहीं कि अम्मा की आवाज से उसे कोई फर्क नहीं पड़ा हो। कई देर से रुके—रुके आंसू अब लगातार बह निकले थे। आंखें अब भी आसामान की ओर थीं। अगले दो दिन और उसे उसी दर्द से गुजरना होगा। चांद और चांदनी के बीच यूं ही अकेले बैठना होगा। दिल की अरमानों को मसोस कर और अपने हिस्से की चांदनी को किसी ओर के आगोश में होने की चुभन साथ लिए जीना होगा।
‘बस दो रातें ही तो ओर हैं।’ निगहत ने फिर अपने दिल को दिलासा दिया। आंसुओं से भारी हो चुकी उसकी आंखें अब खुले रहने से इंकार कर रही थीं। वैसे भी चौके में लगी बड़ी सी घड़ी सुबह के 3 बजा रही थी। वो बोझिल कदमों से सीढ़ियां पार करते हुए नीचे आई और अपने कमरे की ओर रुख किया। दरवाजे तक पहुंचते—पहुंचते फिर उसकी रुलाई फूट पड़ी। फिर आंखों को साफ किया और भीतर चली आई। आंगन में सो रहे तीनों बच्चों की ओर देखा और वहीं उनके पास एक कोने में लेट गई। उसका मन अब भी पास के कमरे में ही था। उसके कान उस कमरे से आने वाली आहटों पर लगे रहे। हालांकि सब शांत था, लेकिन फिर भी उसे पास के कमरे से लगातार आवाजें आते रहने का वहम हो चला।
सुबह पांच बजते—बजते उसकी आंख खुल गई। टंकी के पास मुंह धोने आई तो सामने ही मीना बाल सुखाते मिल गई। एक टीस उसे भीतर तक उतर गई। सुबह—सुबह मीना का नहाना उसके लिए किसी कयामत से कम नहीं होता। और इस पर मीना का गुनगुनाना उसे और भी जला देता।
सबसे अनजान बनते वो चुपचाप रसोई में नाश्ता बनाने में जुट गई। जानती थी सैफु्द्दीन यानी उसके शौहर को नहाते ही चाय का कप हाथ में बहुत पसंद है। वो चाहती थी कि उसके नहाकर निकलने से पहले ही वो उसके लिए चाय लिए खड़ी हो। हुआ भी यही। सैफुद्दीन तौलिए से बाल पौंछता बाहर निकला और निगहस चाय की प्याली लिए उसके सामने हाजिर हो गई।
‘अरे वाह।’ सैफु्द्दीन ने तौलिए को निगहत के कंधे पर डालते हुए चाय की प्याली ले ली। एकबारगी निगहत रात के आंसू भूल कली सी खिल गई। उसे लगा जैसे ‘अरे वाह’ सैफुद्दीन ने चाय के लिए नहीं उसके लिए कहा हो। वो बिना कुछ कहे रसोई में चली गई। उसे महसूस हुआ कि अब मीना का मूड खराब हो गया और वह पैर पटकते हुए कमरे में घुस गई। निगहत को क्या, वो तो पूरे जोश से भरी रही और सुबह के नाश्ते से लेकर दिन तक के खाने का काम निपटा दिया। आज उसने सैफुद्दीन की पसंद के दम आलू बनाए थे। वो हर काम सैफुद्दीन के पसंद का करना चाहती थी। रात उसकी नहीं तो क्या दिन तो उसका हो सकता है ना। सारा काम कर वो आईने के सामेन संवरने पहुंच गई। ताकि किसी तरह मीना से कम नहीं दिखाई दे। जबकि जानती है। मीना और उसकी उम्र में दस—बारह साल का अंतर है, जो साफ दिखता भी है। उसके बाद भी वो अपने अधेड़ उम्र को मीना की जवानी के बराबर करना चाह रही थी। वो देख रही थी कि मीना अनमनी सी अपने कमरे में आरी—तारी का काम कर रही है। वो यह देख और भी खुश हो गई।
घर में यह माहौल कमोबेश हर दिन का था, बस कभी खुश मीना होती तो कभी निगहत। कभी निगहत अनमनी सी हो जाती तो कभी मीना। दोनों भंवरों की तरह सैफुद्दीन नाम के फूल के ईर्द—गिर्द मंडराते रहती और सैफुद्दीन को दोनों का यह मंडराना उसकी हैसियत को उंचा कर देता।
आज शाम को मीना की रसोई से छुट्टी थी, शादी की दावत आई थी घर भर के लिए। सभी दावत निपटाने मदरसे की ओर चल दिए। यहां कुछ नए—पुराने रिश्तेदार भी मिल गए। अम्मा की सहेली सईदन और उनकी बहू भी आए थे। अम्मा बहुत खुलूस से दोनों से मिली। दोनों को अपने पास ही बिठाए रखा। अम्मा के पास ही बैठी निगहत और मीना भी बड़ी खुशी से उन दोनों से मिली। निगहत को तो वे जानती थीं, मीना को देख पूछा— ‘यह कौन है?’
यह पूछते ही निगहत और अम्मा ने एक—दूसरे की ओर देखा, जबकि मीना शरमाने में लगी थी। अम्मा ने धीमी आवाज में कहा, सैफुद्दीन की दूसरी बीवी है।
सईदन आपा ने बनावटी मुस्कुराहट लिए उसके सिर पर हाथ फेर दिया। मगर उनके साथ बैठी बहू किश्वर को बात नागवार गुजरी। झट से निगहत से रूबरू होते पूछा— ‘आप लोग साथ ही रहती हो।’
‘निगहत ने मीना की ओर हंसते हुए नजर डाली और कहा, ‘हां— साथ ही रहती हैं।’
मीना तपाक से बोली— ‘बहनों की तरह रहते हैं हम।’
किश्वर ने हैरत से पूछा— ‘दिक्कत नहीं आती तुम लोगों को।’
मीना ने कहा— ‘काहे की दिक्कत। सुबह का काम ये कर लेती हैं और शाम का मैं। और तो और ये भी हम में झगड़ा नहीं होने देते। तीन रात इनके पास, तीन मेरे पास और एक रात अम्मा और बच्चों के पास सोते हैं। ऐसे में कोई झगड़ा नहीं।’
किश्वर ने उसे हैरत से देखा और उसके अनपढ़पन या भोलेपन पर बहुत हमदर्दी हुई उससे।
निगहत कुछ शर्मिंदा हुई और बात का रुख बदल दिया।
‘और सुनाओ आपके बच्चे कैसे है…’
रात जैसे—जैसे गहराने लगी, निगहत का दम निकलने लगा। रातरानी की खुशबू उसे फिर से बेकल करने लगी। कभी इसकी खुशबू से खुश रहने वाली निगहत को अब इसका होना ही बुरा लग रहा था। सीढ़ियों पर बैठे फिर वो चांद को घूर रही थी।
‘कैसी खुशबूएं? सौत हो तो जिंदगी से एक बू आने लगती है। पराई रातों की बू, जिसमें सैफूद्दीन मीना के साथ होता है।’ उसने फिर अपने आप से बात की।
मीना की आवाजें उसके कानों में गूंज रही थीं— ‘बहनों की तरह रहती हैं…’
‘बहनें भी सौतनें बन जाएं तो फिर कहां बहनें रह पाती हैं।’ और यह तो— वो मन ही मन बातें किए जा रही थी
अच्छी—भली ही तो चल रही थी जिंदगी। दो बेटियों और दो बेटों के साथ। इस आंगन में अकेले निगहत की ही चलती थी। पूरा घर उसके जिम्मे तो था ही, हुकुमत भी उसी की थी। अम्मा का एक ही बेटा था सैफूद्दीन। सो अपनी इकलौती बहू पर अम्मा खूब प्यार लुटाती और वो भी अम्मा का खूब खयाल रखती। सैफूद्दीन भी बीवी से मोहब्बत किया करता। वो चाहता था कि निगहत हर वक्त उसी के आसपास मंडराती रहे। और निगहत को घर के कामों में उलझा देख वह झल्ला जाता। शाम को घर आते ही वो निगहत का इंतजार करता कि वो उसके पास आए, दो घड़ी बैठे, पर निगहत वक्त नहीं निकाल पाती।
‘निगहत, मेरे लिए भी तो कुछ वक्त निकाल लिया करो।’ एक दिन उसने निगहत से शिकायत की।
‘सारा वक्त तुम्हारा ही तो है।’ वो पलटकर जवाब देती।
‘नहीं तुम पहली सी नहीं रही। अब पहले सा खुलूस कहां तुममें। आकर मुझसे लिपटती भी नहीं हो। ना ही रात को मुझे वक्त दे रही हो। पूरे दिन तो इस घर और बच्चों में उलझी रहती हो, फिर रात को तो मेरे साथ हुआ करो। बच्चों के पास ही सोने की क्या आदत डाल ली तुमने।’
‘क्या करूं, बच्चों को आदत है मेरी। और मैं भी रात तक बहुत थक जाती हूं, बस इसीलिए।’ सैफूद्दीन के इशारे का निगहत ने भी इशारे में ही जवाब दे दिया।
धीरे—धीरे सैफूद्दीन निगहत से दूर होने लगा। अब तो शाम को भी घर नहीं आता। ना निगहत से शिकायत करता और न ही उससे मोहब्बत। निगहत भी इस खिंचाव से कुछ परेशान होती, लेकिन घर के कामों में अपने को लगाए रखती।
इतवार का दिन था, जब सैफूद्दीन ने यह फरमान सुनाया था। निगहत दिन का काम निपटाकर हमेशा की तरह अम्मा के पास आकर बैठी थी।
‘अम्मा मैं कौसर खाला की बेटी मीना से निकाह कर रहा हूं।’
लेटी हुई बूढ़ी अम्मा को उठने में तकलीफ होती है, लेकिन यह सुनते ही उन्हें ऐसा झटका लगा कि तुरंत उठ गई।
उनके पैर दबाना छोड़ निगहत तुरंत सैफूद्दीन के पास आ गई।
‘ऐसा क्यूं कर रहे हैं आप। क्या कमी रह गई मुझमें, जो किसी को मेरी सौत बना रहे हो।’
‘मुझे जरूरत है एक और बीवी की, बस इसीलिए।’
‘बीवी होते हुए तुझे उसे बेवा से निकाह की क्या सूझी।’ अम्मा ने उसे झिड़कते हुए कहा।
‘अम्मा बेवा का घर बसाना भी तो सवाब का ही काम है। वैसे भी मैं कौनसा नया काम कर रहा हूं, सभी करते हैं हमारे यहां दो निकाह। मेरे दूसरे निकाह से तुम लोग इतने हैरान क्यूं हो।’ सैफूद्दीन ने बेशर्मी से कहा।
‘नहीं, ऐसा नहीं होगा, तुम दूसरा निकाह करोगे तो मेरा और बच्चों का क्या होगा। अपने चारों बच्चों की तो सोचो।’ निगहत रोते हुए बोल रही थी।
‘मैं कौनसा तुम्हें और बच्चों को छोड़ रहा हूं। कुछ सीख अपनी भावज से, वो भी तो अपनी सौतन के साथ ही रहती है, बड़ी बहन की तरह।’
‘नहीं, मैं अपनी आंखों के सामने अपनी सौतन को बर्दाश्त नहीं कर सकती।’
‘नहीं कर सकती तो रास्ता खुला है, तुम जा सकती हो इस घर से।’ ढिठाई से बोलते हुए सैफूद्दीन कमरे से बाहर निकल गया।
इसके बाद से सैफूद्दीन से न तो अम्मा ने कोई बात की और न ही निगहत और बच्चों ने। बात न बनते देख निगहत ने अपना सामान समेटा और बच्चों को लेकर मायके आ गई। उसकी उम्मीद के मुताबिक कुछ न हुआ। न तो सैफूद्दीन उसे मनाने ही आया और न ही सैफूद्दीन ने निकाह की जिद छोड़ी और एक दिन उसकी निकाह की खबर भी आ गई।
‘देख, निगहत अब मर्द जात यह तो करते ही है, तेरे लिए कौनसी नई बात है यह। तेरी भी छोटी अम्मी है। हमने भी तो बर्दाश्त की है। तू भी थोड़ा बर्दाश्त कर ले इन बच्चों के लिए। कहां जाएगी? कुछ नहीं कर सकते हम सब इस बारे में। तुझे तो अपने घर चले जाना चाहिए।’ निगहत की अम्मी बोली।
निगहत ने बस बेबसी से अपनी अम्मी की ओर देखा और यहां से भी उसने अपना सामान समेट लिया।
शाम होते—होते वो फिर अपने घर में थी। सैफूद्दीन ने हंसकर उसका सामना उठाया और उसके कमरे में चल दिया। वो उसके आने से बहुत खुश नजर आ रहा था। सिर झुकाए चुपचाप निगहत अम्मा के कमरे में पहुंची और सलाम किया। वहीं बैठी अम्मा की भांजी और नहीं बहू मीना उठकर निगहत के पास आई और सलाम किया। निगहत बिना जवाब दिए वहां से अपने कमरे में लौट आई। न उसने सैफूद्दीन से बात की और ना ही चारों बच्चों ने। दोनों बेटो अमान और अयान के कमरे में अब मीना के रहने का इंतजाम हो चुका था। इसीलिए भी वो खफा थे।
इस घर में कुछ ही दिन पहले नई दुल्हन आई थी, लेकिन पूरे घर में सन्नाटा यूं पसरा था, जैसे मातम के दिन हो। निगहत ने अपनी खामोशी न तोड़ी। वो चुपचाप अपने घर का काम निपटाती और कमरा बंद कर बैठी रहती। अब उसने अम्मा के पास भी बैठना बंद कर दिया था। सैफूद्दीन के दूसरे निकाह के लिए वो अम्मा को भी जिम्मेदार मानती थीं कि उन्होंने अपनी बेवा भांजी का घर बसाने के लिए सैफूद्दीन को दूसरी निकाह के लिए नहीं रोका। दोनों बेटियां उसके पास बैठे उसे दिलासे देने की कोशिश करती, लेकिन उनकी अम्मी पर चुप्पी छा रखी थी।
‘अम्मी, अम्मा बुला रही हैं।’ अलमास ने आकर निगहत की तन्हाई को तोड़ा।
सिर पर दुपट्टा सही करते हुए वह अम्मा के कमरे में आ गई। वहां मीना पहले ही मौजूद थी।
‘देख भई निगहत, अब जो होना था वो तो हो गया। सैफूद्दीन पर तुम दोनों का ही हक है। इसीलिए मैंने और सैफूद्दीन ने तय किया है कि वो तुम दोनों को बराबर वक्त दे। हफ्ता में तीन दिन मीना और तीन दिन तेरे साथ रहेगा। एक रात वो मेरे और बच्चों के बीच सो जाएगा। इस तरह तुम दोनों की हक तलफी नहीं होगी। दोनों हंसी—खुशी रहो, अब बस यही चाहती हूं।’ कहते हुए अम्मा ने एक लम्बी सांस ली, जैसे दिल पर कोई बोझ अब भी हो।
शाम को खाना खाते ही सैफूद्दीन निगहत के कमरे में था, यानी पहले तीन दिन निगहत के थे। सैफूद्दीन के सामने वो घंटों खामोश रही। जैसे ही सैफूद्दीन ने उसे बाहों में भरा वो फूट पड़ी। खूब रोई, जब तक कि सैफूद्दीन का शर्ट भीग नहीं गया हो। बस कहा कुछ नहीं। सैफूद्दीन उसके सिर को देर तक सहलाता रहा कि जब तक उसकी हिचकियां बंद नहीं हो गई। सैफूद्दीन जानता है कि औरत जात है ही इतनी मुलायम उसे खड़े रहने के लिए भी सहारे की जरूरत तो होती ही है। इसीलिए निगहत के दूर जाने का तो सवाल ही नहीं था।
दूसरे दिन निगहत को घर कुछ पहले सा लगा। उसने नहा—धोकर एक नया सूट पहना और खूशबू भी लगाई। दिन में सैफूद्दीन की पसंद का खाना बनाया और सैफूद्दीन के आते ही उसके आगे पीछे हुई।
इधर अब सैफूद्दीन के भी दिन अच्छे आ गए थे। पहले तो उसे एक बीवी से तवज्जोह न मिलने की शिकायत थी कि अब तो दोनों ही उसके आगे—पीछे घूमती। एक तरबूज का थाल लाती तो दूसरी आम काट लाती। एक चिकन बिरयानी तो दूसरी मुर्ग मुसल्लम उसके लिए तैयार रखती और दोनों ही नए कपड़े पहने, मेकअप किए इस तरह घर में घूमती कि दो नई बहुएं यहां ब्याह आई हैं। जिसके तीन दिन होते वही सैफूद्दीन के खिदमत में कोई कसर न छोड़ती।
‘अरी निगहत, कब तक बैठी रहेगी, आजा सो जा।’ अम्मा ने फिर सीढ़ियों की ओर आवाज लगाई।
निगहत की सोच का सिलसिला टूटा। आंख से फिर एक आंसू टूट गिरा। ‘सैफूद्दीन… तुम यही तो चाहते थे।’ उसे याद आया बच्चे होने के कुछ सालों बाद से ही उसे सैफूद्दीन के साथ सोने की हसद नहीं रही थी। धीरे—धीरे वो उससे जिस्मानी तौर पर दूर रहने लगी थी और अब जब सौतन सामने हैं तो वो अपने तीनों दिन उसकी रातों के बिछ जाती है। अब जिस्म सैफूद्दीन को नहीं चाहता, फिर भी सौतन से कमतर आंकने को वह कैसे बर्दाश्त करती।
‘अब बस एक रात और काटनी है’, यही सोचते हुए वो फिर अपने कमरे में आ गई। चांद की रोशनी आज कल से कुछ कम हो गई थी और उसका दर्द भी। ‘बस एक रात ओर’ का दिलासा देते हुए उसने आंखें मूंद ली।
आज तो सुबह से निगहत को जैसे पंख लगे थे। पूरा मेकअप और बदन से आती कई तरह के इत्र की खुशबूएं उसे और दिनों से जुदा बना रही थी। अपने हिस्से का सुबह का काम निपटाकर वह फिर अम्मा के पैर दबाने पहुंच गई। उसे खुश देख अम्मा भी खुश थीं। सोचा चलो, इसकी तीन कयामत की रातें तो खत्म हुई। रात होते ही आज सैफूद्दीन अपनी पहली बीवी के पहलू में पहुंच गया। निगहत की चांदनी आज ठंडी हवाएं भी साथ लाई थी।
मगर सीढ़ियां, सीढ़ियों की सिसकियां कहां खत्म हुई।
मीना बीच की एक सीढ़ी पर बैठी चांद को तक रही थी। चांद अब पूरा नहीं था। अधूरे चांद की अधूरी सी चांदनी में बैठी मीना ने सोचा— आज की चांदनी मेरे हिस्से में नहीं। ‘इस दर्द की टीस को चांद तू ही जानता है, इससे तो अंधेरे में बैठी बेवा ही अच्छी।’
‘अरी, मीना, कब तक वहां बैठी रहोगी, सो जाओ, रात बहुत हो गई है।’ अम्मा ने अपने आंसू पौंछते हुए आवाज दी।

The post तसनीम खान की कहानी ‘मेरे हिस्से की चांदनी’ appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

भारत में शादी विषय पर 1500-2000 शब्दों में निबंध लिखें

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अभी दो दिन पहले नोएडा जाते वक्त जाम में फंस गया. कारण था शादियाँ ही शादियाँ. तब मुझे इस व्यंग्य की याद आई. सदफ़ नाज़ ने लिखा था शादियों के इसी मौसम में- मॉडरेटर

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भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकतर देशों में शादी एक सामाजिक और नैतिक ज़िम्मेदारी मानी जाती है। आमतौर पर शादी समाज की खुशी और नियमों को निरंतर+सतत+अनवरत बनाए रखने के लिए कभी खुशी से और कभी ज़ोर ज़बरदस्ती से करवाई जाती है। समामान्यतः शादी समाज की ‘खुशी’, ‘मर्यादा’ और‘सम्मान’ के लिए समान धर्म+संस्कृति+जाति+उपजाति+हैसियत+रंग+रूप में ही की जाती है।शादी अगर उपर्युक्त लिखे स्वर्ण अक्षरों से प्रतिरोध करते हुए अपनी इच्छा और पसंद से कर ली जाए तो यह एक सामाजिक मसला बन जाता है। ऐसी शादियों से आमतौर पर लोगों की इज़्ज़त वाली नाक कट जाया करती है। फलस्वरूप कई बार पक्ष और विपक्ष के बीच लाठी-डंडे,ठुकाई-कुटाई और कोर्ट-कचहरी तक की नौबत आ जाती है। हालांकि साल दो साल के बाद ज़्यादातर मामले तब निपट जाते हैं जब पक्ष-विपक्ष के रिश्तेदारों का खून अपने-अपने ‘खूनों’की तरफ़ खींचना शुरू हो जाता है। ऐसे में प्रारंभ में पक्ष-विपक्ष के लोग समाज-पड़ोसी से सकुचाए छुपते-छुपाते अपने-अपने ‘खूनों’ से मिलते-जुलते हैं।

लेकिन जब इज़्ज़त की दूसरी नाक उग आती है तो खुले आम सुखी परिवार की तरह एक साथ रहने लगते हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में कई बार शादी-ब्याह इज़्ज़त+संस्कृति के लिए भयानक मसला बन जाता है। ऐसा तब होता है जब लड़का-लड़की अपनी मर्ज़ी से दूसरी जाति,धर्म,कबीले या फिर समान गोत्र में नियम विरूद्ध ब्याह रचा लेते हैं। ऐसे जोड़ों की हत्या स्वंय माता-पिता,रिश्तेदार और समाज वाले कर देते हैं। जिसे ‘ऑनर किलिंग’ के नाम से अलिखित मान्यता प्राप्त है। दरअसल पूरा भारतीय उपमहाद्वीप भंयकर रूप से ‘धर्म परायण’ लोगों की बेहद पवित्र स्थली है। ये लोग अपने बच्चों और अन्य लोगों की जान दे-ले सकते हैं, लेकिन अपनी धार्मिक+सांस्कृतिक+सामाजिक +++++ जितनी भी मान्यताएं हैं उन पर खरोंच तक नहीं लगने देते हैं। अपने बच्चों की प्रति इनका भयानक रूप से प्रेम ही होता है (खास कर बेटियों के लिए) कि ये समाजिक+धार्मिक+सांस्कृतिक नियम विरूद्ध शादी रचाने वाले बच्चों की हत्या कर देते हैं। ऐसा वो अपने प्यारे बच्चों को दोजख+नर्क+हेल वगैरह की आग में जन्म-जन्मातंर या फिर लाखों-करोड़ों बरसों तक जलाए जाने से बचाने के लिए करते हैं। मृत्यु के बाद बच्चों को दोजख+नर्क+हेल की आग में न जलना पड़े इसी लिए इन्हे दुनिया में ही खत्म कर दिया जाता है (हालांकि प्रत्येक धर्म कहता है कि हर एक अपने कर्मों का स्वंय उत्तरदायी होता है)। इस महाद्वीप में प्राचीन काल से ही शादी एक ऐसा गठबंधन है जिसमें शादी करने वालों की राय+खुशी+समझ से ज़्यादा समाज की खुशी+राय+समझ को ज़रूरी माना जाता है। इन देशों में शादी व्यक्तिगत पंसद या जरूरत की बजाए सामाजिक और नौतिक ज़िम्मेदारी मानी जाती है। इसी सामाजिक और नौतिक ज़िम्मेदारी का सही-सही निर्वहन करने के लिए बच्चों का पालण-पोषण धर्म+संस्कृति+रिश्तेदारों+पड़ोसियों की पसंद और नापसंद की आधार पर किया जाता है।

शादी चूंकि निजी नहीं बल्कि सामाजिक और नैतिक मामला होता है। ऐसे में इस विषय पर समाज के हर व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति को राय+लताड़+छींटाकशी करने का मौलिक अधिकार मिला होता है। जिसका वे भरपूर उपयोग करते हैं( लेकिन इस अधिकार का प्रयोग आमतौर पर व्यक्ति की हैसियत और पहुंच देखकर करते हैं, ‘पहुंचे’ लोगों पर छींटाकशी का करने जोखिम प्रायः नहीं उठाया जाता है)। भारतीय उपमहाद्वीप में शादी एक ऐसा त्योहार है जिसे रिश्तेदार+परिवार+समाज+पड़ोसी बड़ी ही खुशी-खुशी मिलजुलकर मनाते हैं। यही कारण है कि लोग बेगानी शादियों में भी अब्दुल्लाह बन कर नाचते-गाते हैं। यहां समाज केवल शादी करवा कर ही अपनी ज़िम्मेदारी पूरी नहीं मान लेता है। समाज+पड़ोसी+रिश्तेदार शादी के बाद जोड़े के पहले बच्चे हो जाने तक पूरी निष्ठा से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं। सामाजिक लोग जब तक शादी के लड्डू,हंडिया छुलाई की खीर और पहले बच्चे की अछवानी ना खा लें शादीशुदा जोड़े पर अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखते हैं। अगर पहला बच्चा ‘लड़का’ हुआ तो समाज अपनी ज़िम्मेदारियों से स्वंय को मुक्त मान लेता है, और किसी दूसरी‘ज़िम्मेदारी’ की तलाश में निकल पड़ता है। सारी स्थापित प्रक्रियाओं से गुज़रने के बाद इस स्टेज पर आकर शादी पूरी तरह से व्यक्तिगत मामले की श्रेणी में आ जाता है। इसके बाद पति-पत्नि में जूतम-पैजार हो या फिर कोर्ट-कचहरी में मामला पहुंच जाए, चाहे उन्हें आर्थिक समस्याओं से जूझना पड़ रहा हो और किसी तरह की सहायता की ज़रूरत हो। कोई समाज+संस्कृति+धर्म+रिश्तेदार+पड़ोसी इनके निजी मामले में दखल देने की कोशिश नहीं करते हैं।

सभ्यता और संस्कृति से ओत-प्रोत मन वाले किसी के घरेलू+नीजि मामले में दखल देना पसंद नहीं करते हैं। हां लेकिन लेकिन अगर बेटी हो जाए तो समाज+परिवार+रिश्तेदारों की जिम्मेदारी ख़त्म नहीं होती है। और जब तक बेटा ना हो जाए तो वो शादी-शुदा जोड़े को मॉटीवेट करते रहते हैं। कभी ताने-उलाहने की शक्ल में तो कभी-कभी बिन वारिस के बुढ़ापे की डरावनी कल्पना करवा-करवा कर। अगल लगातार बेटियों के बावजूद पुत्र रत्न की प्राप्ति नहीं होती है तब समाज इस जोड़े की देखभाल का जिम्मा उम्र भर के लिए उठा लेता है। ऐसे में समाज+संस्कृति+धर्म की अगुवा औरतें-पुरूष यदा-कदा और मुत्तहदा होकर कभी कातर स्वर में रूदन कर के और कभी ताने की राग भैरवी समेत शादीशुदा जोड़े की ख़ैर-ख़ैरियत उम्र भर लेते रहते हैं। शादी अगर अपने धर्म+जाति+उपजाति+हैसियत+नस्ल में की जाए तो अतिउत्तम।अगर इस इक्वेशन में थोड़ा भी फेरबदल कर शादी की जाए तो धर्म+समाज+रिश्तेदार+पड़ोसियों की नाराजगी झेलने पड़ती है। वो ऐसी शादियों में तरह-तरह स्वादिष्ट व्यंजनों का तो लुत्फ़ उठाते हैं लेकिन उनके माथे से बल कम नहीं हो पाते हैं। शादी के सारे इक्वेशन सही जा रहे हों लेकिन कैलकुलेशन में गड़बड़ हो जाए यानी दहेज मनचाहा ना हो तो रिश्तेदार-परिवार ऐसी शादियों को पूरी तरह से सर्टीफाईड करने से मना कर देते हैं। अगर किसी जोड़े या परिवार के दिमाग में क्रांति के कीड़े पड़ जाएं और वो आदर्श किस्म का कम खर्चे वाला ब्याह रचाने को तैयार हो तो ऐसे में भी कई बार समाज+रिश्तेदार+पड़ोसी को आपत्ति हो जाती है। आदर्श शादी करने वाले जोड़े और उनके अभिभावकों को कंजूस और गैरसमाजी माना जाता है। इस तरह के गलत कारनामें से दूर-पार के रिश्तेदारों की भी इज़्ज़त चली जाती है।

भारी खर्चे और भारी दहेज वाली शादियों से समाज+रिश्तेदार+पड़ोसी सब ही ईर्ष्यामिश्रित खुशी महसूस करते हैं।दरअसल भारतीय उपमहाद्वीप में धर्म+संस्कृति+जाति+उपजाति+हैसियत+रंग+रूप के सारे गुण मिल जाएं तो एक सफल समाजिक जिम्मेदारियों वाली शादी की नींव रखी जा सकती है। लड़के-लड़की की सोच-समझ कितनी मिलती है इन बेकार किस्म की बातों पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता है। यहां तयशुदा नियमों की प्रक्रिया से गुज़रने के बाद ही सफल शादी की नींव रखी जाती है। वरना कई बार तो दो लोगों के द्वारा आपसी समझ से की गई शादी अख़बारों की सुर्ख़ियां और राष्ट्रीय स्तर के बहस का विषय भी बन जाया करती हैं। संविधान द्वारा प्रद्त्त दो व्यस्कों के अपनी मर्ज़ी से साथ रहने की इज़ाज़ को समाज और संस्कृतिक के लोग ज्यादा तरजीह नहीं देते हैं।

शादियां आमतौर पर समाज में रूतबे,इज़्ज़त और सुरक्षा के लिए की जाती है। हलांकि आजकल समाज में ‘लव विथ अरेंज’ वाली शादियों का भी प्रचलन हो गया है। इस तरह की शादियां तेजी से प्रचलित हो रही हैं। बस ऐसी शादियों में थोड़ी सावधानी बरतनी होती है, प्रेम करने से पहले शरलॉक होम्स की तरह थोड़ी तहकीकात करनी पड़ सकती है। यानी पहले जाति+धर्म+उपजाति+हैसियत+गोत्र वगैरह का पता कर के प्रेम में पड़ना पड़ता है। इस प्रकार के प्रेम को परिवार-रिश्तेदार मिल-जुल कर अरेंज्ड कर देते हैं। यानी इसमें प्रेम के साथ समाजिक शादी की भी फीलिंग आती है। इस तरह की शादियों में वो सब कुछ होता है जो एक सामाजिक शादी में होता है। एकता कपूर मार्का धारावाहिकों से मिलते-जुलते रस्मों रिवाज,मंहगी और चकाचक अरेंजमेंट और जगर-मगर करते लोग। हमारे भारतीय उपमहाद्वीप में शादी को ‘दो आत्माओं’ का मिलन माना जाता है। दोआत्माओं को मिलाने का परम पुण्य काम प्रायः परिवार+समाज+संस्कृति के बुज़ुर्ग उठाते हैं। दो आत्माओं को जोड़ने की शुरूआती मीटिंग में बुज़ुर्गों के बीच अहम मुद्दा होता है कि कौन सा पक्ष कितने मन लड्डू लाएगा,लड्डू घी के बने होंगे या फिर रिफाइन ऑयल से तैयार होंगे, डायट मिठाईयां भी होंगी,कितने तोले सोने के ज़ेवर लिए दिए जांएंगे, दहेज में क्या होगा, एक दूसरे के रिश्तेदारों को कैसे और कितनी कीमत के गिफ्ट दिए-लिए जाएंगे, बारातियों का स्वागत पान-पराग से होगा या नहीं, शादी की अरेंजमेंट कितनी शानदार-जानदार होगी? इन बेहद अहम मुद्दों पर सही-सही जोड़-घटाव करने के बाद ही बुज़ुर्गों द्वारा पवित्र आत्माओं के मिलन की शुरूआती प्रक्रिया पूरी की जाती है। हालांकि इन सब के दौरान बार्गेनिंग,रूठना-मनाना, तूतू-मैंमैं की भी पूरी संभावना बनी रहती है।

दो आत्माओं के मिलन की इस महानतम सोच को लेकर निष्ठा का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि आईआईएम,आईआईटी जैसी शिक्षण संस्थानों से निकले युवक-युवतियां भी इस पर पूरी आस्था रखते हैं। ये नौजवान अपने बुज़ुर्गों की बात से पूरी तरह से सहमत होते हुए शानदार-दमदार-जानदार किस्म की शादियों की तैयारियों में जुट जाते हैं। लड़कियां भी मंहगी से मंहगी ज्वेलरी और कपड़े खरीद कर ही ससुराल जाना चाहती हैं। ताकि उनकी ‘इज्ज़त’ पर कोई आंच ना आए। भले ही इस दौरान बाप के कमज़ोर कंधे और झुक जाएं या फिर मां के अपने ख्वाहिशों को मार-मार के जमा किए पैसे एक्सेसरीज में खर्च हो जाएं। शादी-ब्याह की महत्ता का अंदाजा इससे भी लगया जा सकता है किसमाज+संस्कृति को जितना डर पॉकेटमारों,डकैतों,भ्रष्ट अफसरों,नेताओं से नहीं होता है, उससे कहीं ज्यादा डर बिनब्याहे लड़के-लड़कियों से महसूस होता है।

दरअसल प्राचीन काल से ही भारतीय उपमहाद्वीप में इस पर गहन शोध किया गया है कि बिना शादी के लड़के-लड़कियां समाजिक कुरीति और बुराई की बड़ी वजह होते हैं। यही कारण है कि इन्हें किराए के मकान भी नहीं दिए जाते हैं। कई हाउसिंग सोसायटी कुंवारों को घर देने पर बैन लगाती हैं। क्योंकि इनकी वजह से संस्कृति के खराब होने की संभावना बनी रहती है। यह भी एक कारण होता है कि समाज गैरशादीशुदा लोगों की शादी जल्द से जल्द ‘किसी’ से भी करवा देना चाहता है। समाज तयशुदा उम्र के भीतर-भीतर लड़के-लड़की की शादी करवाने के लिए प्रतिबद्ध होता है। अगर लड़के-लड़कियों की  प्राथमिकता करियर हो या फिर कोई अन्य कारण हो और ‘तयशुदा’ उम्र में शादी नहीं करना चाहते हैं तो इसे समाज-संस्कृति के नियमों का उल्लंघन माना जाता है। जिस के दंड स्वरूप समाज नौवजवानों के साथ-साथ उनके माता-पिता औऱ रिश्तेदारों पर व्यंग बाण छोड़ता रहता है। इस मुद्दे पर समाज का एकजुट मानना होता है कि ऐसे नौजवानों के माता-पिता और परिवार वाले अपने बच्चों का ख्याल नहीं रखते हैं(मने समाज ही इन बच्चों की पढ़ाई-लिखाई,दुख,बीमारी औऱ हर तरह की आवश्यकताओं की पूरी जिम्मेदारी उठाता है)। भारतीय उपमहाद्वीप में शादी की महत्ता इस से भी पता चलती है कि समाज भले ही भयानक बीमारी,एक्सीडेंट,पढ़ाई-लिखाई,खाने के लिए किसी की आर्थिक मदद ना करता हो। लेकिन किसी गरीब कि बेटी की शादी में दहेज में देने के लिए पलंग,आलमारी,सोने की अंगूठी टाईप चीजें घट रही हों तो फौरन ही भावविह्ळ होकर आर्थिक मदद कर देता है।

दरअसल समाज के लिए शादी ब्याह पुण्य का काम है। खासकर बेटियों की शादियां करवाना तो उच्च स्तर का सवाब होता है (उन्हें पढ़ाना-लिखाना,आत्मनिर्भर बनाने से कहीं ज़्यादा)। पांच लड़कियों की शादी करें एक हज का सवाब पाएं कन्या दान करें स्वर्ग का टिकट कन्फर्म करवाएं वगैरह-वगैरह!भारतीय उपमहाद्वीप में शादी की महत्ता का अंदाजा इस से भी लगता है कि माना जाता है कि शादी कर देने से हिस्टीरिया,मिर्गी और कई तरह की दिमागी बीमारियां ठीक हो जाती हैं। इसी लिए कई बार झूठ और धोखे से ऐसे मरीजों से ठीक-ठाक लोगों की शादियां करवा दी जाती हैं। चूंकि यह परम पुण्य का काम होता है तो ऐसे धोखे पर समाज-संस्कृति वैगरह चुप ही रहते हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में अकेले रहने वाला व्यक्ति कितना भी भला आदमी हो, सफल हो वो उन्नीस ही रहता है।इसकी जगह भ्रष्ट-कपटी लेकिन भरेपूरे परिवार वाला विवाहित व्यक्ति सम्मानित नागरिकों के श्रेणी में रखा जाता है।

sadafmoazzam@yahoo.in

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नेटफ्लिक्स का जंगल बुक सांप्रदायिक है

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नेटफ्लिक्स पर जंगल बुक देख रहा था. उसमें मैंने देखा कि बघीरा मोगली को सिखा रहा था कि गाय का शिकार नहीं करना चाहिए क्योंकि वह हमारी माँ होती है. यही नहीं केवल एक शेर खान है जो जंगल में गाय का शिकार करता है. यह जंगल बुक का नया पाठ है. हालाँकि सैयद एस. तौहीद ने ‘जंगल बुक’ पर लिखे हुए इस बात को नजरअंदाज किया है जबकि मुझे यही बात खली थी. खैर, आप उनकी लिखी टिप्पणी पढ़िए- मॉडरेटर
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नब्बे के दशक में दूरदर्शन पर ‘द जंगल बुक‘ नाम से शुरु हुए  धारावाहिक के बाद मोगली का किरदार घर घर में लोकप्रिय हो गया था। गुलज़ार का लिखा शीर्षक गीत …जंगल जंगल बात चली है,पता चला है, चड्ढी पहन के फूल खिला है। लेखक रुडयार्ड किपलिंग की कहानी ‘द जंगल बुक’ पर आधारित इस किरदार पर हॉलीवुड में पहले भी फिल्म  बन चुकी है। लेकिन एनिमेटेड फॉर्म में थी। बच्चों को ध्यान में रखकर बनी थी।अब नेटफ्लिक्स एक नए नाम के साथ मोगली को फिर लेकर आया है। शीर्षक रोल में रोहन चंद ने प्रभावित किया।
नेटफ्लिक्स के मोगली में गहरी परतें किरदार में पढ़ने के लिए बहुत कुछ है। संवेदनाओ की परतें दिलचस्प हैं। भारत में फिल्म हिंदी में भी रिलीज़ की गई है। बॉलीवुड के जाने पहचाने नामों ने वॉइस ओवर देकर इसे रोचक बना दिया है।  यदि आपने दूरदर्शन के ज़माने वाला ‘द जंगल बुक’ देखा होगा तो मोगली के संसार को बदला हुआ पाएंगे। मूल कहानी हालांकि वही मिलेगी। लेकिन बहुत कुछ बदला हुआ है।
एक आदमखोर बाघ के हमले में मारे गए कुछ लोगों में एक छोटा बच्चा किसी तरह बच जाता है। इस बच्चे को बघीरा भेड़ियों के पास छोड़ देता है। भेड़िए इस मासूम की देखभाल व लालन -पालन करते हैं। यही बच्चा आगे चलकर जंगल को शेर से मुक्ति दिलाता है। मोगली कुल मिलाकर दादी नानी के किस्सों सी नहीं । यह एक बच्चे की खुद को जानने की यात्रा है।
मोगली जंगल को अपना परिवार समझता है । इंसान व पशुओं के संवाद हमारे भीतर के इंसान छू जाने का प्रयास करते हैं। मोगली की दिली ख्वाहिश है कि वह भेड़िये के रूप में पैदा हो। कोई भेड़िया इंसान के पास नहीं जाएगा। इंसान को पालतू पशुओं का शिकार मना है। कोई भेड़िया इंसान को  नहीं मारेगा क्योंकि इंसान का मरना आफत लाता है। यह आफत जंगल और जानवरों पर बराबर रूप से पड़ती है। यह  मूल आस्था कथा में रुचि का कारण है।
फ़िल्म के संवाद ठीक ठाक हैं। वॉयसओवर हालांकि बहुत प्रभावी बनते बनते रह गया। मूल जंगल बुक की कहानी में इंसानी बच्चे को जंगली जानवरों ने मिलकर पाला था। बच्चा अपनी प्रतिभाओं के साथ उनका बच्चा बन जाता है। नेटफ्लिक्स की फ़िल्म में ज़ोर प्रतिशोध पर है । बच्चे की आत्मा का पक्ष बहुत प्रकाश में नहीं।
जंगल का डरावनापन उसकी नैसर्गिक खूबसूरती से अधिक रच गया है।  प्रकृति के नैसर्गिक दृश्यों की यहां कमी खलती है। बहती नदी,पक्षियों के झुंड,दरख़्तों का कारवां सचमुच कमाल कर सकते थे। मोगली का दोस्त,नन्हा सफ़ेद भेड़िया आदि आसपास के साथियों में बहुत संभावनाएं थी। लेकिन उन्हें ऊपर ऊपर ही छुकर निकला गया है। मोगली कुल मिलाकर दादी नानी के किस्सों सी नहीं। यह एक बच्चे की यात्रा है। एक आत्मनवेषी सफ़र। जो कि बहुत सुंदर हो सकता था। किंतु बाक़ी ही रहा।

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