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दिव्य प्रकाश दुबे ‘नई वाली हिंदी’ के सबसे पुराने लेखक हैं. उनका नया उपन्यास आ रहा है ‘अक्टूबर जंक्शन’. उसके कुछ चुनिन्दा अंश पढ़िए- मॉडरेटर
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किताब के बारे में- चित्रा और सुदीप सच और सपने के बीच की छोटी-सी खाली जगह में 10 अक्टूबर 2010 को मिले और अगले 10 साल हर 10 अक्टूबर को मिलते रहे। एक साल में एक बार, बस। अक्टूबर जंक्शन के ‘दस दिन’ 10/अक्टूबर/ 2010 से लेकर 10/अक्टूबर/2020 तक दस साल में फैले हुए हैं।
एक तरफ सुदीप है जिसने क्लास 12th के बाद पढ़ाई और घर दोनों छोड़ दिया था और मिलियनेयर बन गया। वहीं दूसरी तरफ चित्रा है, जो अपनी लिखी किताबों की पॉपुलैरिटी की बदौलत आजकल हर लिटरेचर फेस्टिवल की शान है। बड़े-से-बड़े कॉलेज और बड़ी-से-बड़ी पार्टी में उसके आने से ही रौनक होती है। हर रविवार उसका लेख अखबार में छपता है। उसके आर्टिकल पर सोशल मीडिया में तब तक बहस होती रहती है जब तक कि उसका अगला आर्टिकल नहीं छप जाता।
हमारी दो जिंदगियाँ होती हैं। एक जो हम हर दिन जीते हैं। दूसरी जो हम हर दिन जीना चाहते हैं, अक्टूबर जंक्शन उस दूसरी ज़िंदगी की कहानी है। ‘अक्टूबर जंक्शन’ चित्रा और सुदीप की उसी दूसरी ज़िंदगी की कहानी है।
लेखक के बारे में- बेस्ट सेलर ‘मसाला चाय’ और ‘शर्तें लागू’ लिखने के बहुत समय बाद तक दिव्य प्रकाश दुबे को यही माना जाता था कि वे ठीक-ठाक कहानियाँ लिख लेते हैं। लेकिन अब जब वे ‘स्टोरीबाज़ी’ में कहानियाँ सुनाते हैं तो लगता है कि वे ज्यादा अच्छी कहानियाँ सुनाते हैं। TEDx में बोलने गए तो टशन-टशन में हिंदी में बोलकर चले आए। इनकी संडे वाली चिट्ठी बहुत पॉपुलर है। तमाम लिटेरचर फेस्टिवल्स, इंजीनियरिंग एवं MBA कॉलेज जाते हैं तो अपनी कहानी सुनाते-सुनाते एक-दो लोगों को लेखक बनने की बीमारी दे आते हैं। पढ़ाई-लिखाई से B.Tech-MBA हैं। साल 2017 में MBA टाइप नौकरी को अलविदा कह चुके हैं। साल 2016 में छपे अपने उपन्यास ‘मुसाफिर Cafe’ की बंपर सफलता के बाद दिव्य प्रकाश ‘नई वाली हिंदी’ के पोस्टर-बॉय की तरह देखे जाने लगे हैं। यह इनकी चौथी किताब है।
पुस्तक-अंश
10 अक्टूबर 2020, प्रेस कॉन्फ्रेंस, दिल्ली
यूँ तो हिंदुस्तान में किताब का लॉन्च होना कोई इतनी बड़ी बात नहीं है लेकिन आने वाली किताब चित्रा पाठक की है, इसलिए दिल्ली में अच्छी-खासी सरगर्मी है। चित्रा की उम्र है करीब 37-38 साल। उसकी पिछली तीन किताबें कुल-मिलाकर 50 लाख से ऊपर बिकी हैं। जहाँ एक तरफ ऐसा लगता था कि किताब बेचने के मामले में चेतन भगत और अमीश त्रिपाठी को कोई पीछे नहीं छोड़ पाएगा, वहीं चित्रा उनको लगातार टक्कर देने लगी है। हिंदुस्तान का कोई ऐसा लिटरेचर फेस्ट कोई ऐसा बड़ा कॉलेज नहीं है जहाँ चित्रा को नहीं बुलाया जाता। चित्रा को क्या पसंद है क्या नहीं, यह पूरी दुनिया को पता है। शहर की कोई भी पेज-3 पार्टी बिना चित्रा के पूरी नहीं होती। हर संडे उसका आर्टिकल पेपर में आता है। वह तो आर्टिकल लिखकर भूल जाती है लेकिन उसके आर्टिकल पर सोशल मीडिया में तब तक डिस्कशन होता रहता है जब तक उसका अगला आर्टिकल नहीं आ जाता।
चित्रा हर 10 अक्टूबर को कुछ-न-कुछ बड़ा अनाउन्स करती है। चित्रा की किताब आए एक साल से ऊपर हो गया था। कुछ महीनों से उसने आर्टिकल लिखना भी बंद कर दिया था।
जिस दौरान चित्रा किताबों की दुनिया में अपनी जगह बना रही थी उसी दौरान एक और लेखिका सुरभि पराशर का नाम उभरकर आया। सुरभि पराशर हिंदुस्तान की किताबों की दुनिया का ऐसा नाम है जिसको हर कोई जानता है। सुरभि की पहली किताब तीन पार्ट की एक सीरीज है। उस किताब के दो पार्ट आ चुके हैं और तीसरे पार्ट का सबको इंतजार है। सुरभि का स्टाइल आजकल के सभी लेखकों से बिलकुल अलग है। सुरभि बच्चों के लिए किताब लिखती है जिसको बच्चे से लेकर बूढ़े तक सब पढ़ते हैं। मीडिया में यह भी माना जाता है कि सुरभि ने हिंदुस्तान का अपना हैरी पॉटर क्रिएट कर दिया है। किताब के दो पार्ट आने के बाद से बच्चों से लेकर बूढ़े तक तीसरी किताब का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। सुरभि पराशर और चित्रा पाठक की हर बात एक-दूसरे से अलग है। लिखने से लेकर लाइफ स्टाइल तक। कमाल की बात यह है कि सुरभि कहाँ रहती है, सुरभि की उम्र क्या है, उसने क्या पढ़ाई की है, वह रहने वाली कहाँ की है, ये किसी को भी नहीं पता। सुरभि की कोई फोटो उसकी किताब के पीछे नहीं आती। न ही वह कोई इंटरव्यू देती है, न ही किसी इवेंट में बोलने के लिए जाती है। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में कई बार बुलाए जाने के बाद भी सुरभि ने जाने के लिए कभी हामी नहीं भरी। मीडिया में अक्सर ही खबर चलती रहती है कि कोई बड़ा राइटर सुरभि पराशर के नाम से लिखता है।
सुरभि की पहली ही सीरीज की तीसरी किताब का इंतजार उसके लाखों फैन कर रहे हैं। सुरभि के पब्लिशर भी सुरभि के बारे में कोई जानकारी नहीं देते। जहाँ एक तरफ चित्रा को लिटरेचर के क्रिटिक कोई भाव नहीं देते वहीं सुरभि पराशर क्रिटिक्स की फेवरेट राइटर है। चूँकि सुरभि की किताबें भी लाखों में बिकती हैं इसलिए चित्रा पाठक को सोशल मीडिया पर ट्रोल करने वाले हमेशा यही बोलते हैं कि अच्छा लिखकर भी लाखों लोगों तक पहुँचा जा सकता है। वैसे चाहे चित्रा पाठक, सुरभि पराशर से न चिढ़ती हो लेकिन उनके फैन आपस में हिंदुस्तान-पाकिस्तान का क्रिकेट मैच खेलते रहते हैं।
प्रेस कॉन्फ्रेंस में थोड़ी देरी हो रही थी। लोगों में सरगर्मी बढ़ती जा रही थी। चित्रा के कुछ फैन इस उम्मीद में वहाँ पहुँचे हैं कि वे अपनी किताब पर ऑटोग्राफ ले सकें।
चित्रा अपनी टीम के साथ हॉल में पहुँची। चित्रा की हर बात किसी बड़ी हीरोइन वाली थी। उसने गॉगल पहन रखें थी। शिफॉन की साड़ी उस पर बहुत सूट करती है। उसकी स्टाइल में कई औरतें साड़ी पहनने की कोशिश करती हैं। चित्रा के बाल छोटे हैं। चित्रा से जब कोई रिपोर्टर सवाल करता है तो वह ऐसे देखती है जैसे आदमी की आत्मा तक का एक्सरे कर लेगी।
एक कोट-पैंट-टाई पहना हुआ 40 साल का आदमी आगे आकर लोगों को चुप करवाना शुरू करता है। अपने स्टाइल से यह आदमी चित्रा का मैनेजर लगता है।
”आप लोग प्लीज शांत हो जाइए।”
चित्रा की टेबल पर पानी की बोतल है, माइक है और एक कप में चाय रखी है। चित्रा पानी पीकर 10 सेकंड का पॉज लेती है और पूरे कमरे में एक कोने से दूसरे कोने तक देखकर बोलना शुरू करती है।
”इतने शॉर्ट नोटिस पर आप सभी लोगों का आने के लिए शुक्रिया।”
चित्रा ने बोलना शुरू ही किया था कि इतने में फिर से शोर-शराबा बढऩा शुरू हो जाता है। हर किसी के पास चित्रा के लिए अलग सवाल है। अगली किताब किस बारे में है? वह अगली छुट्टी मनाने कहाँ जाने वाली हैं? उसकी किताब पर कौन फिल्म बना रहा है? वह आजकल किसको पढ़ रही हैं? चित्रा आजकल किसको डेट कर रही हैं?
इतने में पीछे से कुछ लड़के-लड़कियों का एक ग्रुप एक साथ चिल्लाता है,
”Chitra, we love you.”
चित्रा का मैनेजर बीच में आकर सबको चुप रहने के लिए कहता है। चित्रा माइक को अपने पास खींचकर कहती है, ”’मुझे आप लोगों से एक कन्फेशन करना है।”
चित्रा कभी कन्फेशन जैसा कमजोर शब्द बोलेगी इस बात का यकीन कर पाना मुश्किल है। चित्रा ने जो भी किया है डंके की चोट पर किया है। हॉल में बैठे लोगों की आँखों में सवाल-ही-सवाल हैं जिनके जवाब केवल चित्रा के पास हैं।
चित्रा के सामने बैठे एक बुजुर्ग की आँखों में देखती है। ये बुजुर्ग चित्रा के साथ ही हॉल में आए थे। वे बुजुर्ग चित्रा की ओर देखकर हामी में अपना सिर हिलाकर जैसे चित्रा को हिम्मत देते हैं।
चित्रा चाय का एक सिप लेकर बोलना शुरू करती है- ”मैं हर 10 अक्टूबर को अपनी नयी किताब के बारे में अनाउन्स करती हूँ। आज भी मैं एक नयी किताब के बारे में आप सबको बताने वाली हूँ लेकिन… वो किताब मेरी नहीं बल्कि सुरभि पराशर की है। एक सच जो आज पहली बार दुनिया के सामने आ रहा है वो ये कि सुरभि पराशर और चित्रा पाठक एक ही हैं।”
चित्रा के इतना बोलते ही पूरे हॉल में सन्नाटा पसर जाता है। उन बुजुर्ग ने चैन की साँस ली और अपनी पीठ कुर्सी पर पीछे टिका दी। चित्रा आगे बोलना शुरू करती है।
”लेकिन सुरभि पराशर और चित्रा पाठक केवल किताब के पार्ट-3 में एक हैं। मैंने सुरभि की किताब के पहले दो पार्ट नहीं लिखे हैं। सुरभि को कोई नहीं जानता, मैं भी नहीं जानती थी। जब मैंने यह सच बता ही दिया है तो आपलोग ये भी जान लीजिए कि मैंने केवल किताब के पार्ट-3 का आधा हिस्सा लिखा है। मैं यह भी बता देना चाहती हूँ कि सुरभि पराशर नाम का कोई व्यक्ति नहीं है बल्कि सुरभि पराशर के नाम से सुदीप यादव ने सारी किताबें लिखी हैं।”
कमरे में खुसुर-फुसुर शुरू हो जाती है, लेकिन चित्रा अपना बोलना जारी रखती है।
”सुदीप कौन है ये आप सब लोगों को पता है। आप थोड़ा-सा जोर डालेंगे तो आपको याद आएगा कि सुदीप यादव जिसने आज से दस साल पहले अपनी कंपनी बुक माइ ट्रिप डॉट कॉम से धूम मचा दी थी। सुदीप के ट्विटर पर 50 लाख फॉलोवर थे। सुदीप दुनिया के Wonder Under 30 की लिस्ट यानी तीस साल से कम उम्र में जो सबसे ज्यादा प्रभावी लोग थे उस लिस्ट में अपनी जगह बना ली थी। अपनी कंपनी के अलावा वह दूसरों के बिजनेस में इन्वेस्ट भी करता था। सुदीप यादव के साथ एक मिनट लिफ्ट में जाने के लिए भी लोग बेचैन रहते थे। एक-दो बार उसने लिफ्ट में मिले हुए किसी लड़के के आइडिया में तुरंत इन्वेस्ट कर दिया था।
क्रिकेट में जो जगह सचिन की थी, वो स्टार्टअप की दुनिया में सुदीप यादव की थी। किसी भी कॉलेज का कोई लड़का अपना स्टार्टअप शुरू करने का सपना देखता था तो वह सुदीप यादव को अपना आइडल मानता था। देश की बड़ी-से-बड़ी मॉडल और हीरोइन सुदीप यादव के साथ डेट करने के लिए तैयार थी। यह वही सुदीप यादव है जो सुरभि पराशर के नाम से किताब लिख रहा था।”
चित्रा ने इतना कहकर पानी पिया।
”सुदीप ने किताब का थर्ड पार्ट खुद क्यों नहीं पूरा किया?”
”आप सुदीप को कैसे जानती हैं?”
”ये किताब के लिए पब्लिसिटी स्टंट तो नहीं है?”
”आप सुरभि पराशर से चिढ़ती हैं?”
”सुदीप यादव आज यहाँ क्यों नहीं आया?”
”सुदीप यादव कहाँ है?”
”क्या सुदीप यादव किसी सुरभि पराशर नाम की लड़की से प्यार करता था?”
”सुदीप और आपके बीच अफेयर है?”
चित्रा के इतना बोलने के बाद कमरे में सवाल कम नहीं हुए थे बल्कि सवाल और बढ़ गए थे। सब सवालों के जवाब केवल चित्रा के पास थे। आज जो चित्रा लोगों के सामने थी वह अभी तक की अपनी पब्लिक अपीयरेंस से बिलकुल अलग थी। आज बड़े से कॉन्फ्रेंस हॉल में बैठी चित्रा और दस साल पहले की चित्रा में कोई फर्क नहीं था। वह चित्रा जो आज से ठीक दस साल पहले बनारस गई थी।
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किताबः अक्टूबर जंक्शन (उपन्यास), पेपरबैक
लेखकः दिव्य प्रकाश दुबे
पृष्ठः 150
मूल्यः रु 125
प्रकाशकः हिंद युग्म
इन दिनों किताब की प्रीबुकिंग अमेज़ॉन से ज़ारी है।
The post दिव्य प्रकाश दुबे की आनेवाली किताब ‘अक्टूबर जंक्शन’ के कुछ अंश appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..
आशुतोष भारद्वाज शिमला के उच्च अध्ययन संस्थान में अपनी फ़ेलोशिप के दौरान भारतीय उपन्यास की स्त्री पर एक किताब लिख रहे हैं। उसका एक अंश- मॉडरेटर
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उपन्यास की भारत में यात्रा कई अर्थों में भारत की खोज में निकली एक साहित्यिक विधा की यात्रा है। पिछले डेढ़ सौ वर्षों से भारत आधुनिकता और राष्ट्रीयता के जातीय स्वरूप पर चल रहे एक कसमसाते विमर्श से गुजर रहा है। उपन्यास इस विमर्श का एक प्रमुख और प्रामाणिक दस्तावेज़ है। उपन्यास और राष्ट्र के सम्बंध पर काफ़ी लिखा जा चुका है, यह लेख यह प्रस्तावित करना चाहता है कि भारतीय उपन्यास की यात्रा कई अर्थों में उसके स्त्री किरदार की यात्रा है। राष्ट्रीयता और आधुनिकता से उपन्यास का संवाद अक्सर स्त्री की ड्योढ़ी पर दर्ज हुआ है, अनेक उपन्यास स्त्री किरदार के ज़रिए इन प्रत्ययों को प्रश्नांकित और पुनर्परिभाषित करते है। स्त्री वह आइना है जिसमें हमें इस उपन्यास की एक मुकम्मल छवि मिल सकती है, अपनी सभी सच्चाइयों, प्रेम, फ़रेब, निरीहता, हसरत और वासना के साथ।
स्त्री शुरू से ही भारतीय उपन्यास के केंद्र में रही है। अनेक भाषाओं के शुरुआती उपन्यास स्त्री-केंद्रित थे — रानी केतकी की कहानी (हिंदी, १८०१), यमुना पर्यटन (मराठी, १८५७), राजमोहन वाइफ़ (अंग्रेज़ी, १८६०), सरस्वतीचंद्र (गुजराती, १८८७-१९००), इंदुलेखा (मलयालम, १८८८), उमराव जान अदा (उर्दू, १८९९), मोनोमती (असमिया, १९००) इत्यादि।
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से ही उपन्यास ने ऐसी (कु) ख्याति अर्जित कर ली थी कि इस पर स्त्री को बिगाड़ देने के आरोप लगने लगे थे। तत्कालीन भारतीय समाज मानने लगा था कि उपन्यास पढ़ कर स्त्री भ्रष्ट हो जाती है। यह मान्यता बेवजह नहीं थी। उपन्यास राजनैतिक विचारों और सामाजिक मान्यताओं को प्रश्नांकित कर स्त्री को समाज के प्रति विद्रोह करना सिखा रहा था। दूसरे, उपन्यास पढ़ने की क्रिया भी बड़ी विध्वंसक थी। रामचरितमानस या सत्यनारायण की कथा समूह में पढ़ी जातीं थीं, लेकिन उपन्यास का पाठ नितांत एकाकी कर्म था। उन्नीसवीं सदी के एक दृश्य की कल्पना कीजिए। एक लड़की जो अभी तेरह की भी नहीं है या एक नई वधू जो किसी पेड़ के नीचे या छत पर अकेली बैठी एक किताब पढ़ रही है जिसके भुरभुरे पीले पन्ने आकाश की रोशनी में चमक रहे हैं। एक समाज जिसने स्त्रियों को अब तक सिर्फ़ धार्मिक ग्रंथ ही पढ़ते देखा था अचानक उन्हें विद्रोही प्रेम की कथाओं में डूबता पा रहा था. उपन्यास पढ़ती स्त्री की छवि उसके परिवार को बेचैन करने के लिए काफ़ी थी।
उस समय के भारतीय साहित्य ने स्त्री और उसकी प्रिय किताब के मध्य चल रहे संवाद को बड़े जतन से दर्ज किया है। अनेक कृतियों की स्त्री किरदार उपन्यास पढ़ अपने जीवन का निर्माण करती है। जब उपन्यास भारत में अपनी शैशवावस्था में ही था, इंदुलेखा की नायिका ने परम्परागत नायर परिवार में हलचल पैदा कर दी थी क्योंकि वह धर्मग्रंथों के बजाय उपन्यास पढ़ती थी। रविंद्रनाथ टैगोर के चोखेर बाली (१९१३) की बिनोदिनी बंकिम चंद्र के विष वृक्ष (१८७३) को पढ़ती है। दोनों उपन्यासों की नायिका विधवा हैं लेकिन एक विवाहित पुरुष से प्रेम करती हैं, एक वर्जित सम्बंध की हसरत लिए जीती हैं।
१९०० के आसपास लिखी शरत चंद्र की कहानी अनुपमा का प्रेम किसी लड़की पर उपन्यास के प्रभाव की अद्भुत कथा कहती है। इसका शुरुआती वाक्य साहित्य के महानतम पहले वाक्यों में रखा जा सकता है: “ग्यारह साल की होने तक अनुपमा ने अपना दिमाग़ उपन्यास पढ़-पढ़ कर पूरी तरह से ख़राब कर लिया था।”
टैगोर के बड़े भाई ज्योतिरिंद्रनाथ टैगोर का नाटक अलीकबाबू (१९००) भारतीय स्त्री के जीवन में उपन्यास के योगदान पर इससे भी बड़ा वक्तव्य है। इसकी नायिका हेमांगिनि अपनी सहायिका से कहती है: “तुम्हें मालूम है उपन्यास क्या है? उपन्यास एक नये तरह की किताब है जो हाल ही आयी है, जिसमें किसी भी अन्य किताब से कहीं अधिक ज्ञान है। पहले मुझे रामायण और महाभारत पढ़ना अच्छा लगता था, लेकिन उपन्यास पढ़ने के बाद इन्हें छूने का भी मन नहीं करता।”
कुछ ही दशकों में उपन्यास ने स्त्री को सम्मोहित कर दिया था, लेकिन अचंभा होता है कि उस समय के साहित्य में सिर्फ़ स्त्री उपन्यास पढ़ती दिखाई देती है। इन तमाम रचनाओं में शायद एक भी पुरुष पाठक नहीं है जबकि शुरुआती उपन्यासकार अमूमन पुरुष ही थे। क्या उपन्यास को बोध था कि उसे स्त्री अपने एकांत में पढ़ेगी, कि वह किसी एकाकी स्त्री को सम्बोधित है? क्या आरम्भिक भारतीय उपन्यासकार की चेतना में यह दर्ज था कि वे किसी स्त्री के लिए लिख रहे थे? क्या ये उपन्यासकार एक साथ दो स्त्रियों से अपनी कल्पना में संवादरत थे — स्त्री बतौर किरदार, और पाठिका भी? यह चेतना भारतीय उपन्यास को किस दिशा में ले जा रही थी?
***
वापस राष्ट्रीयता और आधुनिकता पर आते हैं.
झूठा सच (१९५८) के पहले खंड के अंत में हिंदू स्त्रियाँ एक सरकारी क़ाफ़िले में भारत में प्रवेश करती हैं। भारत ने हाल ही अपनी नियति से साक्षात्कार किया है। इन स्त्रियों को उनकी मातृभूमि में जिसका नाम अब पाकिस्तान हो गया है मुस्लिम युवकों ने बेतहाशा लूटा है। इन हिंदू स्त्रियों ने रास्ते में तमाम मुस्लिम स्त्रियों को हिंदू युवकों द्वारा लूटे जाते भी देखा है। अमृतसर पहुँचने पर उनके साथ चल रही भारतीय अधिकारी गहरी साँस ले कहती है: “ लो बहनो, पहुँच गए… उतरो! तुम्हारा वतन तो छूटा पर अपने देश में, अपने लोगों में पहुँच गयीं.”
राष्ट्रवाद का जो स्वप्न भारतीय उपन्यास ने बंदे मातरम के रूप में आठ दशक पहले आनंदमठ (१८८२) में रचा था, जिस स्वप्न ने राष्ट्रभक्तों की अनेक पीढ़ियों को संचालित किया था, वह स्वप्न यशपाल के पन्नों में स्वाहा हो गया है। आनंदमठ की बेड़ियों में जकड़ी भारत माता काग़ज़ पर मुक्त हो चुकी है, देश को हासिल किया जा चुका है लेकिन — राष्ट्र खो गया है। वह स्त्री भी खो चुकी है जिसे अमूर्त माँ भारती का दैहिक स्वरूप होना था।
झूठा सच की नायिका तारा पूछना चाहती है — क्या राष्ट्रवाद का आदर्श, जैसा अनेक राष्ट्रवादी इसे समझते थे, अतिपौरुषेय है, स्त्री-विरोधी है? बँटवारे के दौरान हुई हिंसा के लिए साम्प्रदायिकता को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है। क्या इस पाश्विक हिंसा के लिए राष्ट्रवाद ज़िम्मेदार है? आख़िर जिन्होंने हम स्त्रियों को जानवर की तरह बरता, वे बड़े गर्व से ख़ुद को ‘राष्ट्रवादी’ कहते थे?
आनंदमठ और झूठा सच के मध्य स्थित है गोरा (१९०५), राष्ट्र और आधुनिकता के स्वरूप पर ब्रह्म समाज और हिंदू पुनरुत्थानवादियों के बीच चल रहे विमर्श की कथा। ऊपरी तौर यह नायक-प्रधान उपन्यास है लेकिन तीन स्त्रियाँ इस विमर्श की सबसे सशक्त आलोचना करती हैं — सुचरिता, ललिता और आनंदमयी। पहली दो ब्रह्म समाजी हैं, आनंदमयी हिंदू हैं, लेकिन तीनों अपने सम्प्रदाय की संकीर्णता से परे निकलती हैं, दोनों नायकों यानि गोरा और विनय को परिवर्तन के लिए प्रेरित करती हैं। मसलन जब ललिता से विवाह करने के लिए विनय ब्रह्म समाज में दीक्षा लेने को तैयार हो जाता है, ललिता उसे हिंदू बने रहने के लिए कहती है क्योंकि वह नहीं मानती कि “मनुष्य का जो भी धर्म-विश्वास या समाज हो उसे बिलकुल छोड़कर ही मनुष्यों का परस्पर योग हो सकेगा”.
कट्टर हिंदू गोरा जाति व्यवस्था का समर्थक है, मानता है कि भारत का भविष्य हिंदू के पुनरुत्थान में निहित है, लेकिन सुचरिता के सम्पर्क में आकर वह अपने विचार की कमज़ोरी पहचानता है। जो नायक आदर्श हिंदू स्त्री को घर की चारदीवारी में समेट देता था, वह “सुचरिता के ज़रिए सत्य की प्राप्ति करता है” और मानता है कि “जब तक भारतवर्ष की नारी उसकी अनुभव गोचर नहीं हुई थी, तब तक उसकी भारतवर्ष की उपलब्धि कितनी अधूरी थी।”
महत्वपूर्ण यह है कि गोरा के भीतर यह परिवर्तन स्त्री की किसी कथित संवेदनात्मक अपील की वजह से घटित नहीं होता। सुचरिता गोरा को तर्क से झकझोरती हैं। उपन्यास इस ग़लत अवधारणा को ध्वस्त करता है कि पुरुष तार्किकता का झंडाबरदार है, जबकि स्त्री को संवेदना और आवेग से फुसलाया जा सकता है. इस उपन्यास में गोरा आवेग से संचालित होता दिखाई देता है जबकि सुचरिता और आनंदमयी तर्कनिष्ठ नज़र आती हैं, उग्र राष्ट्रवाद का प्रतिकार करती हैं।
ग़ौरतलब है कि टैगोर उग्र राष्ट्रवाद का प्रतीक पुरुष को बनाते हैं, उसके प्रतिकार के लिए स्त्री को चुनते हैं जो भारतीयता का कहीं संश्लिष्ट और समन्वयकारी स्वरूप प्रस्तावित करती है।
लेकिन इसके बावजूद टैगोर कहीं चूक जाते हैं. सुचरिता का चित्रण समस्यामुक्त नहीं है। सुचरिता के भीतर गोरा की वजह से कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आता, लेकिन जैसे ही गोरा सुचरिता की वजह से अपना रास्ता बदलता है वह आख्यान में नायक के लिए सिर्फ़ एक माध्यम, नायक की यात्रा को सरल बनाने का एक साधन बनती प्रतीत होती है। दोनों के बीच का संवाद और कारोबार लगभग एकतरफ़ा सा प्रतीत होने लगता है।
यह उपन्यास ऐसी आधुनिकता प्रस्तावित करना चाहता है जो भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल हो। लेकिन क्या इसकी आधुनिकता एक ऐसी जगह पहुँचती है जो स्त्री को स्वतंत्र चुनाव की, पुरुष से प्रश्न करने की जगह तो देती है, लेकिन वह पुरुष के जीवन में महज़ एक लाइटहाउस, एक प्रेरणा बनती नज़र आती है? पुरुष की प्रेरणा — इस विशेषण में सिमटने से ही शायद तमाम स्त्रियाँ बचना चाहती हैं। वे नहीं भूली हैं कि पिछली सदी की स्त्रियों को पुरुष की प्रेरणा होने की सांत्वना देकर उनके विकल्प सीमित कर दिए जाते थे।
क्या अनेक बड़े उपन्यास भी स्त्री को इसी आइने से देखते हैं? क्या इससे स्त्री की स्वतंत्रता बाधित होती है, और उपन्यास की आधुनिकता संकटग्रस्त हो जाती है?
इस प्रश्न के साथ एक और बड़े उपन्यास पर आते हैं.
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यू आर अनंतमूर्ति का संस्कार(1965) एक वेद-शिरोमणि आचार्य के एक अछूत स्त्री चंद्री के साथ हुए आकस्मिक दैहिक सम्बंध के बाद उपजे आध्यात्मिक संकट को परखता है. पिछली सदी के महानतम उपन्यासों में रखी जाने वाली इस कृति में स्त्री के स्वरुप आलोचकों का ध्यान कम गया है।
यह अनुभव प्राणेशाचार्य को तो झकझोर देता है, आत्मचिन्तन में डुबो देता है, लेकिन चंद्री के जीवन पर खरोंच तक नहीं आती। आचार्य का मोनोलॉग पूरी तरह आत्म-केन्द्रित है, उनके भीतर इस घटना पर चंद्री के दृष्टिकोण को जानने की कोई इच्छा नहीं है. वे धर्म और नैतिकता पर चिंतन जरुर करते हैं, लेकिन उनकी सुई ऐन्द्रिक अनुभव पर ही अटकी हुई है. चंद्री आचार्य के लिए सिर्फ़ एक विराट दैहिक अनुभव है, ब्रह्मचारी आचार्य की लिबिडिनल रिलीज़ का माध्यम है। ग़ौर करें, उपन्यास भले ही नारणप्पा के अंतिम संस्कार पर उठे प्रश्न से शुरू होता है, कथा जल्द ही आचार्य की कामेच्छा पर सिमट जाती है। आचार्य को नहीं सूझता कि चंद्री देह से कहीं अधिक भी हो सकती है.
दूसरे, उपन्यास एक औचित्यहीन और बेतुका सरलीकरण करता है। उपन्यास की सभी ब्राह्मण स्त्रियाँ “दुर्गन्धभरी, उबाऊ, अपाहिज” हैं, जबकि छोटी जाति की स्त्रियाँ सम्मोहिनी नायिकाएँ हैं जिनकी तुलना मेनका इत्यादि से होती है। उपन्यास के ब्राह्मण चंद्री की कल्पना कर लार टपकाते हैं, अपनी लालची और रसहीन पत्नियों को कोसते हैं। क्या स्त्री की मादकता इतने निश्चित तौर पर जातिगत होती है या विभिन्न जातियों के स्वभाव कहीं अनिश्चित और जटिल हैं? इस उपन्यास के अंग्रेज़ी अनुवादक ए के रामानुजन स्त्री किरदारों के “बेहिसाब ध्रुवीकरण” को तो इंगित करते हैं लेकिन इससे उपजी समस्याओं को नहीं देख पाते।
चंद्री ही नहीं किसी ब्राह्मण स्त्री के पास भी अपना कोई स्वर नहीं है, सभी स्त्रियाँ पुरुष द्वारा ही परिभाषित होती हैं, स्त्री के लिए सदियों से सींचे जाते रहे पुरुष के आईने से ही दिखाई देती है।
आलोचकों ने आचार्य को एक आधुनिक नायक माना है। धर्म पर प्रश्न आधुनिकता में उनके प्रवेश का क्षण है, लेकिन आधुनिक चेतना की परख उस अवकाश से भी हो सकती है जो यह अपने ‘अन्य’ को देती है। चंद्री का प्रवेश नायक के ‘अन्य’ बतौर होता है लेकिन जैसे ही उसका एकमात्र कार्य यानि आचार्य के साथ संसर्ग पूरा हो जाता है, वह कथा से ग़ायब हो जाती है, मात्र एक उत्प्रेरक बन कर रह जाती है जिसका एकमात्र उद्देश्य आचार्य को आत्मचिंतन की ओर धकेलना था। क्या आचार्य और उनके रचयिता उपन्यासकार को बोध था कि वे चंद्री के साथ संवाद सिर्फ़ अपनी कल्पना में ही कर सकते हैं जहाँ वे उसे मनचाही छवि दे सकते थे? अगर चंद्री को उपन्यास के पन्नों में पर्याप्त स्थान मिला तो वह आचार्य पर कड़े प्रश्न उठायेगी, इसलिए वह आचार्य के लिए सिर्फ़ अनुपस्थिति में ही स्त्री हो सकती थी?
अनुपस्थित स्त्री। चंद्री लेकिन कोई अपवाद नहीं है।अनेक बड़े उपन्यासों में स्त्री के पास विकल्प बहुत कम होते हैं, वह अक्सर पुरुष के एक लिए प्रेमिका, एक देह, एक माध्यम की तरह जीती है। एक प्रश्न पूछा जाता है — चिड़िया मृत्यु के लिए आख़िर किस जगह जाती हैं? एक प्रश्न यह है — उपन्यास की अनुपस्थित और विकल्पहीन स्त्रियाँ कौन सा ठौर खोजती हैं? आचार्य तो अपनी आंतरिक तलाश में निकल गए, चंद्री कहाँ जाएगी?
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इस विधा के जन्म से ही यूरोप के उपन्यास किसी आंतरिक या बाह्य यात्रा में निकले पुरुष को रॉबिंसन क्रूसो और डॉन कीहोते जैसे नायकों में चित्रित करते रहे हैं। एक लंबी परंपरा जो जल्द ही नोट्स फ़्रम द अंडरग्राउंड तक पहुँच जाती है, लेकिन ख़ुद को खोजती स्त्रियाँ बहुत देर से और बहुत कम दिखाई देती हैं। मदाम बोवारी और अन्ना करेनिना अपने अकेलेपन से जूझती स्त्रियाँ थीं जो अपने उपन्यासों की तमाम कलात्मक शक्ति के बावजूद आखिर में सिर्फ प्रेम ही खोज रहीं थीं। यूरोपीय उपन्यास की तमाम महान नायिकाएँ सिर्फ़ प्रेम और शादी चाहती हैं, उसकी तलाश में ही चुक जाती हैं। इसका अर्थ यह क़तई नहीं कि प्रेम एक विराट अनुभव नहीं है, बल्कि यह कि जहाँ पुरुष किरदार तमाम अनुभवों की यात्रा पर निकलते हैं, स्त्रियाँ अमूमन एक अदद पुरुष की चाह में ही जीती हैं। यह तर्क दिया जा सकता है कि चूँकि समाज की स्त्री यायावरी नहीं है, परिवार ही चाहती है, इसलिए उपन्यास की नायिका उसका ही अनुकरण करेगी। इस तर्क के प्रत्युत्तर में यह पूछना चाहिए कि समाज की सीमाएँ तो समझ आती हैं, क्या कोई रचनाकार भी उन सीमाओं से ख़ुद को बाँध लेता है?
जैसा ऊपर कहा भारतीय उपन्यास के केंद्र में आरंभ से ही स्त्रियाँ रहीं हैं, लेकिन ऐसे उपन्यास कम हैं जहाँ कोई स्त्री किसी अकेली यात्रा में अपने अस्तित्व को तलाश रही है। स्त्री किरदार विद्रोही और निर्भीक होते गए, लेकिन उनका विद्रोह अमूमन प्रेम पर ही एकाग्र रहा है। स्त्री के लिए प्रेम की आज़ादी का निश्चित ही महत्व है, उसके द्वारा उपन्यास में हासिल की जाने वाली यह पहली आज़ादी रही है लेकिन तुलना करें उन पुरुष किरदारों से जिनकी तड़प उन्हें स्त्री-प्रेम के अलावा भी कई दिशाओं में ले जाती थी। दिलचस्प है कि यह प्रवृत्ति सिर्फ पुरुष ही नहीं स्त्री के लेखन में भी दिखती है। शेखर: एक जीवनी और मित्रो मरजानी अपने शीर्ष किरदारों के विद्रोह की वजह से जाने जाते हैं। शेखर प्रेम में है लेकिन अनेक राहों पर चल रहा है, किसी बड़े सत्य की तलाश में है, जबकि पचास साल बाद भी मित्रो अमूमन “अपनी यौनिकता की स्वच्छंद अभिव्यक्ति” के लिए याद की जाती है। कमला दास की माई स्टोरी का एक ऐसी स्त्री की कहानी बतौर जिक्र होता है जो अपनी सेक्सुएलटी के अनेक आयाम खोज रही है।
शेखर और मित्रो अपवाद नहीं हैं। इतिहास में मीरा या अक्का महादेवी जैसे गिने-चुने उदाहरण के सिवाय एकांत और स्व की खोज पर अमूमन पुरुष का ही विशेषाधिकार रहा है। बुद्ध सरीखे तमाम पुरुष आंतरिक साधना के लिए एकांत चुनते थे, यशोधरा उस अनुपस्थिति को स्वीकार करने के लिए बाध्य थीं जो पुरुष के निर्णयस्वरूप उन पर आ ठहरी थी। आधुनिकता ने शायद पहली बार स्त्री को वह जगह दी जहाँ वह अकेली किसी तलाश में निकल सकती थी। लेकिन यह जगह आसानी से उपलब्ध नहीं थी — समाज में नहीं, उपन्यास में भी नहीं। शायद इसलिए स्त्री उपन्यास के केंद्र में तो आयी, लेकिन उसके विकल्प सीमित रहे आए।
क्या आज भी एक एकाकी स्त्री को किसी यात्रा पर जाते देखना उपन्यासकार को असहज बना देता है? चूंकि यात्रा, भले वह आंतरिक हो या बाह्य, यात्री को समाज के प्रभाव से दूर ले जाती है, क्या ऐसी यात्रा का स्पेस उपन्यास की स्त्री के पास आज भी सीमित है?
इस प्रश्न के लिए अरुंधती रॉय के द गॉड अव स्मॉल थिंग्स (१९९७) पर आते हैं जिसमें केरल में रहती एक तलाक़शुदा सिरियन ईसाई स्त्री अम्मू एक अछूत के साथ सम्बंध बनाती है। अरुंधती का व्यक्तिगत जीवन निर्भीकता और असहमति का बेहतरीन उदाहरण है। उनकी नायिका के पास कौन से विकल्प उपलब्ध हैं?
अम्मू का अपने परिवार और सामाजिक नियमों के ख़िलाफ़ विद्रोह उपन्यास की बुनियाद है। लेकिन सतह को थोड़ा खुरचिये, उसका विद्रोह अपने भाई चाको और उसकी विदेश से लौटी पत्नी मार्ग्रेट कोचम्मा के बीच सहसा उमड़े प्रेम के ख़िलाफ़ नज़र आता है। उपन्यास का अंत इस भाव पर होता है जो अम्मू के भीतर वेलुथा के साथ पहली बार संबंध बनाने के बाद उमड़ता है — “हाँ, मार्ग्रेट, अम्मू ने ख़ुद से कहा. हम भी ऐसा करते हैं!”
यह महत्वपूर्ण वाक्य है जो अम्मू के विद्रोह को समझने की कुंजी है। अंतरंगता के इस दुर्लभ क्षण जो अम्मू को न मालूम कितने सालों बाद हासिल हुआ है, उसे अपने भाई की पत्नी एक ईर्ष्यालु विजय के साथ क्यों याद आ रही है? क्या अम्मू का विद्रोह ईर्ष्या से जन्मा है? क्या यह वाक़ई “प्रेम के नियम” तोड़ने की आकांक्षा थी, “नियम जो तय करते थे किसे प्रेम किया जाएगा, कितना और किस तरह से,” जिसका यह उपन्यास बार-बार दावा करता है? या अम्मू का विद्रोह सिर्फ अपने भाई और उसकी पत्नी के ख़िलाफ़ था? अपने बच्चों की उपेक्षा देखती एक माँ घर में आयी एक स्त्री और उसकी बच्ची पर उड़ेले जा रहे प्यार से झुलस जाती है। किसी कीड़े की तरह उसे कुरेदता यह घाव एक अछूत से सम्बंध बनाने के निर्णय में तब्दील होता है। एक ऐसा पुरुष जो उसके पड़ोस में रहता था लेकिन जिसके साथ उसका कभी कोई संवाद नहीं था। अम्मू और वेलुथा के बीच कोई जुड़ाव या लगाव नहीं था जिसका अवसर आने पर विस्फोट हुआ हो। क्या ये “प्रेम के नियम” नहीं थे जिन्हें चुनौती देनी थी, बल्कि सिर्फ़ प्रेम का आघात था जिसका बदला एक स्त्री लेना चाह रही थी? क्या अम्मू का विद्रोह निहायत ही रूढ़िगत कर्म है जहाँ एक घायल स्त्री आवेश में आ सामाजिक पायदान में अपने से कहीं निचले पुरुष के साथ संबंध बनाती है? क्या उपन्यास अम्मू को इस दैहिक विद्रोह के अलावा कोई और विकल्प देता है?
अम्मू को निर्मल वर्मा के एक चिथड़ा सुख की इरा के बरक्स रखते हैं। इरा का प्रेम भी कथित सामाजिक नियमों के विरुद्ध है। वह भी प्रेम के नियम तोड़ती है, लेकिन उसकी प्रतिक्रिया आंतरिक है। अम्मू मार्ग्रेट को सामने पा ईर्ष्या से सुलग जाती है, इरा नित्ती भाई की पत्नी को देख घनघोर ग्लानि से भर उठती है, पीछे हट जाना चाहती है। क्या इन दोनों उपन्यासों की स्त्रियों का प्रेम की चोट के प्रति दृष्टिकोण बुनियादी तौर पर भिन्न है? आधुनिक जीवन में स्वतंत्रता का अर्थ है अनेक उपलब्ध विकल्पों में किसी एक को चुन लेने का अधिकार। अम्मू अपने निर्णय लेने में कितनी स्वतंत्र है?
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इस छोटे से लेख में जिन उपन्यासों का ज़िक्र हो पाया है वे ज़ाहिर है समूचे भारतीय उपन्यास और उसकी स्त्री का सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते। इनके अलावा भी इरा समेत अनेक स्त्री किरदार हैं जो इस लेख की प्रस्तावनाओं का प्रतिकार करेंगी, जिनके पास अनेक विकल्प हैं, जिनका जीवन कहीं अधिक स्वतंत्र हैं। लेकिन इसके बावजूद यह कहने में कोई समस्या नहीं कि क़रीब सवा सौ वर्षों के दौरान अनेक भाषाओं में लिखे गए जिन उपन्यासों को यह लेख केंद्र में रखता है वे निसंदेह भारत के प्रतिनिधि उपन्यास कहे जा सकते हैं। कई और प्रतिनिधि स्त्री किरदार भी होंगी, लेकिन विष वृक्ष की कुंद से लेकर इंदुलेखा, सुचरिता, तारा, मित्रो, चंद्री और अम्मू इतिहास और साहित्य के एक ऐसे लम्बे धागे में पिरोयी हुई हैं जहाँ उनकी संगति में तमाम और स्त्रियाँ भी हैं। उपन्यास में भी, उसके बाहर भी।
इसलिए यह कहा जा सकता है कि भारतीय उपन्यास ने स्त्री को यह सहूलियत तो बहुत जल्द दे दी थी जहाँ वह अपने एकांत में इस विधा से संवाद कर सकती थी, लेकिन ऐसा एकांत जहाँ वह ख़ुद को बग़ैर किसी सहारे के तलाश सकती अभी भी हासिल नहीं हुआ है।
लेकिन एक सच्चाई और भी है। अपने अस्तित्व की तलाश में निकली स्त्री मानव इतिहास और साहित्य में चूँकि हाल ही आयी है, तमाम रचनाकार उससे सामंजस्य नहीं बिठा पाए हैं, उसके सामने असहज महसूस करते हैं। ख़ुद लेखिकाओं के स्त्री किरदारों के पास भी सीमित विकल्प हैं। पीछे मुड़ कर देखने पर कोई इन किरदारों को अनेक संभावनाएँ दे सकता है, लेकिन यह इतिहास और उपन्यास में उनकी स्थिति के प्रति शायद न्याय नहीं होगा. उन्हें शायद ऐसा जीवन ही जीना था जो भविष्य को अधूरा नज़र आता, जिसे देख यह प्रश्न उठता: उपन्यास की स्त्री किस भारत की तस्वीर बनाती है?
बालचंद्र राजन की बेमिसाल किताब द फ़ॉर्म अव द अन्फ़िनिश्ड के हवाले से कहें तो उपन्यास की स्त्री अपूर्णता का विधान है — लेकिन इस अपूर्णता में भी वह कहीं मुकम्मल है।
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संदीप नैयर को मैंने पढ़ा नहीं है लेकिन फेसबुक पर उनकी सक्रियता से अच्छी तरह वाकिफ हूँ. उनका उपन्यास मेरे पास हिंदी और अंग्रेजी अनुवाद दोनों रूपों में उपलब्ध है. समय मिलते ही पढूंगा. उनके साथ यह बातचीत की है युवा लेखक पीयूष द्विवेदी ने- मॉडरेटर
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सवाल – आप विदेश में रहते हैं और आधुनिक आचार-विचार के व्यक्ति हैं, फिर पहली किताब में एक काल्पनिक ऐतिहासिक कहानी लिखने का मन कैसे बन गया? कहीं अमीश त्रिपाठी से प्रभावित होकर तो नहीं?
संदीप – इतिहास से मेरा गहरा लगाव रहा है। हम सभी का अतीत के प्रति एक नास्टैल्जीया है। अपने ज़ाती माज़ी के प्रति भी और अपने सामूहिक अतीत के प्रति भी। हर कौम को अपने अतीत में कहीं न कहीं उनका स्वर्णिम काल दीखता है। उसके प्रति उनमें एक तीव्र ललक होती है। प्रेम में भी एक नास्टैल्जीआ होता है। मैंने डार्क नाइट में लिखा है – प्रेम की ललक अतीत के प्रेम की ललक होती है। हर प्रेम में हम कहीं न कहीं अपना पुराना प्रेम ढूँढते हैं। यह बात देशप्रेम में भी होती है। अधिकांश देशप्रेमी इतिहास से देशप्रेम की प्रेरणा लेते हैं। ऐतिहासिक चरित्र उनके नायक होते हैं। साहित्य में भी पुराने क्लासिक्स के प्रति एक अलग ही तरह का लगाव होता है। अंग्रेज़ी की किताबों में मैंने बाल साहित्य के बाद जो पहली दो किताबें पढ़ीं थीं, वे पण्डित नेहरू की ‘द डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ और ‘ग्लिम्प्सेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री’ थीं। तो इतिहास से रोमांस पुराना है। विदेश आकर यह नास्टैल्जीआ और भी बढ़ गया।
अमीश से सीधे-सीधे तो कोई प्रेरणा नहीं ली, मगर अमीश ने ऐतिहासिक गल्प की लोकप्रियता के लिए जो ज़मीन तैयार की उस पर समरसिद्धा का छपना सरल हो गया। प्रकाशकों की अचानक से ऐतिहासिक गल्प में रूचि बढ़ गई और मुझे पेंगुइन रैंडमहाउस जैसा प्रतिष्ठित प्रकाशक मिल गया।
सवाल – अपने दूसरे उपन्यास डार्क नाईट में आपने आज के युवा वर्ग की प्रेम, सेक्स, अवसाद जैसी समस्याओं को विषय बनाया है। एक ही किताब के बाद इतिहास से मोहभंग हो गया क्या?
संदीप – मोहभंग जैसा तो कुछ नहीं है। अभी समरसिद्धा की उत्तरकथा यानी भाग-2 लिखने पर विचार चल रहा है। प्रकाशक से चर्चा भी हो चुकी है। मगर जो बात मुझे ज़रूरी लगती है वह यह कि साहित्य को विविधता चाहिए। हिंदी साहित्य में विविधता अपेक्षाकृत कम है। डार्क नाइट की जो विधा है जिसे मैं इरॉटिक रोमांस कहता हूँ, उस पर तो हिंदी में बहुत ही कम लिखा गया है। इन दिनों भी कुछ ख़ास नहीं लिखा जा रहा। ये भी एक विडम्बना है कि हिंदी साहित्य में रीति काल के बाद आधुनिक काल में साहित्य से कामुकता लगभग गायब ही हो गई। इसमें अंग्रेज़ों के दिए विक्टोरियन संस्कारों की बहुत बड़ी भूमिका है।
हिंदी में एक ग़लतफ़हमी भी है कि जिस भी रचना में सेक्स का चित्रण हो, उसे इरॉटिका कह दिया जाता है। मगर सेक्स के कोरे चित्रण से कोई रचना इरॉटिका नहीं हो जाती। सेक्स का कोरा चित्रण पोर्न होता है। इरॉटिका और इरॉटिक रोमांस अलग विधाएँ हैं, जिनमें व्यक्ति की यौन इच्छाओं और यौन कल्पनाओं का भी चित्रण होता है और उसका उसकी मानसिकता और उसके यौन सम्बन्धों पर प्रभाव का भी ज़िक्र होता है। इरॉटिका का उद्देश्य मात्र उत्तेजना देना नहीं होता। इरॉटिका और इरॉटिक रोमांस पढ़ते वक़्त पाठक पात्रों से भावनात्मक लगाव भी महसूस करता है। साहित्य वही है जो पाठक के मन को भी छुए। चेतना को भी विस्तार दे।
सवाल – ‘डार्क नाईट’ के जरिये आपने क्या सन्देश देना चाहा है?
संदीप – पहली बात तो यह कि मैं साहित्यकार पर सन्देश देने का बोझ पसंद नहीं करता। साहित्य के लिए सन्देश देना अनिवार्य नहीं है। साहित्य क्या किसी भी कला के लिए नहीं है। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने लिखा है कि कला का उद्देश्य चेतना को परिष्कृत करना है। मैं भी यही मानता हूँ।
दरअसल सन्देश और विचार का महत्त्व और उनकी अनिवार्यता हमने पश्चिम से ली है। पश्चिम में मध्यकाल में विचार का इतना अधिक दमन हुआ और उन्होने स्वतंत्र विचार के लिए इतना अधिक संघर्ष किया कि वे विचार को सर्वोपरि मानने लगे। मगर हमारी संस्कृति में विचार को गौण माना गया है। विचारातीत अवस्था को महत्वपूर्ण माना गया है। प्रसिद्ध गल्पशास्त्री जोसेफ़ कैम्पबेल भी यही कहते हैं कि उत्कृष्ट कला वही होती है जो विचारों के परे असर करती है, व्यक्ति को एक एस्थेटिक अरेस्ट देती है, बाँध देती है।
फिर एक बात और कि साहित्य में रस का भी अपना महत्त्व है। साहित्य जिसमें सिर्फ़ ज्ञान और सन्देश हों मगर रस न हो वह पाठकों को बाँध नहीं पाता। मगर फिर भी, डार्क नाइट में रस के साथ ज्ञान और सन्देश भी हैं। मूल सन्देश तो प्रेम, यौन और सौन्दर्य के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण का है। मैंने पुस्तक की भूमिका में ही प्रसिद्ध ब्रिटिश कवि जॉन कीट्स की इन पंक्तियों को कोट किया है – ‘सौन्दर्य ही सत्य है और सत्य ही सौन्दर्य, यही आप इस पृथ्वी पर जानते हैं और बस यही जानने की आपको ज़रूरत है।’ आज के युवा का सौन्दर्यबोध विकृत हुआ जा रहा है। सौन्दर्य के मॉडल बना दिए गए हैं, विशेषकर नारी सौन्दर्य के। फिर सौन्दर्य की परिभाषा में भौतिकता हावी है। पुस्तक में मैंने ग्रीक गोल्डन अनुपात का ज़िक्र किया है। यह भी पश्चिम की ही देन है। भौतिक शृंगार आवश्यक है, चाहे वह प्रकृति का किया हुआ हो या मनुष्य का स्वयं का किया हुआ मगर यदि उसमें सुन्दर भाव न रचे हुए हों तो वह मन में सौन्दर्य नहीं जगाता, प्रेम नहीं जगाता। वासना भले जगाए, मगर प्रेम नहीं।
प्रसिद्ध ब्रिटिश कवि जॉन मिल्टन का एक किस्सा है। किसी ने उनकी पत्नी को देखकर कहा – आपकी पत्नी तो बहुत सुन्दर हैं, बिल्कुल गुलाब की मानिंद। मिल्टन ने उत्तर दिया – हाँ उनके काँटों की चुभन मैं अक्सर महसूस करता हूँ।
सवाल – आप डार्क नाईट में अध्यात्म होने की बात कहते रहते हैं, लेकिन उसमें फिल्मों जैसे प्रेम-प्रसंगों और सेक्स के अलावा ज्यादा कुछ दिखता नहीं। अध्यात्म कहाँ है?
संदीप – डार्क नाइट अपने स्वयं में एक आध्यात्मिक दशा है जिस पर मैंने उपन्यास की कहानी को आधारित किया है। एक स्पेनिश ईसाई संत कवि हुए हैं, सेंट जॉन ऑफ़ द क्रॉस, उनकी कविता है, द डार्क नाइट ऑफ़ द सोल। डार्क नाइट ऑफ़ द सोल, अवसाद की वह अवस्था है जिसमें मनुष्य की चेतना आध्यात्मिक विस्तार पाती है और उन समस्याओं के हल ढूँढने के प्रयास करती है जो उस अवसाद का कारण बनी होती हैं। उपन्यास के दो मुख्य पात्र कबीर और प्रिया इस डार्क नाइट से गुज़रकर अपनी चेतना को विस्तार देते हैं, अपनी समस्याओं के हल पाते हैं और परिष्कृत और परिवर्तित होते हैं।
मगर हर पाठक किसी भी रचना को अपने हिसाब से पढ़ता है और उसके अपने अर्थ निकालता है। साहित्य में यह ज़रूरी भी है। साहित्य वस्तुपरक तो नहीं होता, वह व्यक्तिपरक ही होता है। और फिर चूँकि उपन्यास की विधा इरॉटिक रोमांस है तो उसमें सेक्स और प्रेम-प्रसंगों की अधिकता स्वभाविक है। फिर हमारे संस्कार भी कुछ ऐसे हैं कि सेक्स बाकी आयामों पर हावी लगने लगता है। समरसिद्धा पर यह प्रश्न नहीं उठता कि उसमें सिर्फ युद्ध और हिंसा ही हैं, अध्यात्म कहाँ है।
सवाल – इस उपन्यास में आपने अंग्रेजी के शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है, क्या आप साहित्यिक या किसी भी लेखन में ‘हिंग्लिश’ का समर्थन करते हैं?
संदीप – डार्क नाइट की पृष्ठभूमि लन्दन की है। उसमें कुछ अंग्रेज़ और अन्य यूरोपीय चरित्र भी हैं। तो उनके संवाद तो मैंने अंग्रेज़ी में रखे हैं। हिंदी में रखता तो यह प्रश्न उठता कि विदेशी पात्र इतनी अच्छी हिंदी कैसे बोल रहे हैं। वह स्वभाविक नहीं लगता। फिर ब्रिटेन के भारतीय भी हिंगलिश ही बोलते हैं। शुद्ध हिंदी बोलते तो मैंने यहाँ किसी को नहीं सुना, तो इसलिए उनके संवादों की भाषा भी वैसी ही रखी है। वैसे उसमें अंग्रेज़ी कम की जा सकती थी। आप सबकी प्रतिक्रियाओं को देखते हुए अगले संस्करण में अंग्रेज़ी काफ़ी कम की है।
जहाँ तक हिंदी साहित्य में हिंगलिश का प्रश्न है तो मेरा मानना है कि लेखन की भाषा, कहानी या कथावस्तु की पृष्ठभूमि और पात्रों के परिवेश के अनुसार होनी चाहिए। समरसिद्धा में तो लगभग विशुद्ध हिंदी है, क्योंकि उसकी पृष्ठभूमि उत्तरवैदिक काल की है। उसमें तत्सम शब्दों की बहुलता है।
अंग्रेज़ी से बैर या परहेज़ का कारण मुझे समझ नहीं आता। हमने हिंदी साहित्य में उर्दू स्वीकार ली है जिसमें अरबी, फ़ारसी, तुर्की आदि विदेशी भाषाओं के शब्दों का समावेश है। स्वयं अंग्रेज़ी ने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लगभग पंद्रह हज़ार शब्द लिए हुए हैं। बहुत से शब्द तो अब वहाँ आम बोलचाल में आ गए हैं। अंग्रेज़ स्वयं इंग्लैंड को ब्लाईटी कहते हैं जो कि विलायत से बना है। अंग्रेज़ी का एक पूरा शब्दकोश है, हॉब्सन-जॉब्सन जिसमें सिर्फ भारतीय भाषाओं से लिए हुए शब्द हैं। इनका अंग्रेज़ी साहित्य में भी खूब प्रयोग होता है। –
ब्रिटिश प्ले राइटर टॉम स्टौपर्ड के नाटक ‘इंडिया इंक’ में एक दृश्य है जिसमें दो चरित्र फ्लोरा और नीरद के बीच अधिक से अधिक हॉब्सन-जॉब्सन शब्दों को एक ही वाक्य में बोलने की होड़ लगती है –
फ्लोरा – “वाईल हैविंग टिफ़िन ऑन द वरांडा ऑफ़ माय बंगलो आई स्पिल्ल्ड केजरी (खिचड़ी) ऑन माय डंगरीज़ (डेनिम की जीन्स) एंड हैड टू गो टू द जिमखाना इन माय पजामाज़ लूकिंग लाइक ए कुली”
नीरद – “आई वास बाइंग चटनी इन द बाज़ार वेन ए ठग हू हैड एस्केप्ड फ्रॉम द चौकी रैन अमोक एंड किल्ड ए बॉक्सवाला फॉर हिस लूट क्रिएटिंग ए हल्लाबलू एंड लैंडिंग हिमसेल्फ इन द मलागटानी (भारतीय मसालों से बना सूप)।
सवाल – आपको कई बार ऐसा कहते हुए देखा है कि हिंदी के साहित्यकार दंभी होते हैं। आपको ऐसा क्यों लगता है?
संदीप – मैंने यह नहीं कहा था कि हिंदी के साहित्यकार दम्भी होते हैं, मैंने यह कहा था कि हिंदी के साहित्यकारों का दंभ मेरी समझ में नहीं आता। और यह बात मैंने आज के साहित्यकारों के सन्दर्भ में कही थी। देखिए जब फ़िराक़ गोरखपुरी लिखते हैं –
ग़ालिब–ओ–मीर, मुसहफ़ी,
हम भी फ़िराक़ कम नहीं।
या
आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख्र करेंगी हमअसरों,
जब भी उनको ध्यान आएगा, तुमने फ़िराक़ को देखा है।
तो उनका दम्भ समझ आता है। हिंदी में तो पिछले कुछ दशकों में ही ऐसा कुछ ख़ास नहीं रचा गया जिस पर गर्व या दम्भ किया जा सके। पहले ऐसी कुछ उपलब्धियाँ तो हों जिन पर दम्भ किया जा सके।
सवाल – अभी कुछ नया लिख रहे हैं?
संदीप – जी। फ़िलहाल तो डार्क नाइट का सीक्वल और प्रीक्वल का मिलाजुला कुछ लिख रहा हूँ। इसमें सेक्स कम है तो आपकी शिकायत भी दूर होगी। फिर समरसिद्धा की उत्तरकथा पर भी काम चल रहा है। एक और उपन्यास थोड़ा लिखकर आराम दिया है, वह डिमेंशिया के एक बूढ़े मरीज़ की काफ़ी संवेदनशील कहानी है। मगर विषय ऐसा है कि उसके लिए काफ़ी अध्ययन और रिसर्च की आवश्यकता है। उसमें काफ़ी समय लगेगा। इसलिए उसे थोड़ा आराम दिया है।
सवाल – नए-पुराने सभी में से प्रिय लेखक-लेखिका कौन हैं आपके?
संदीप – नए लेखक-लेखिका तो सभी मित्र ही हैं। कुछ के नाम लूँगा तो बाकियों को नाराज़ करूँगा। पुराने लेखकों में बहुत हैं। इस तरह के प्रश्न धर्म संकट खड़ा करते हैं। किसका नाम लें, और किसका छोड़ें। फिर भी हिंदी-उर्दू में कृशन चंदर बहुत पसंद हैं। उनका किस्सागोई का अंदाज़ मुझे बहुत अच्छा लगता है। मंटो और इस्मत चुगताई का भी मैं मुरीद हूँ। प्रेमचंद तो खैर कथा-सम्राट माने ही जाते हैं। उन्हें कौन नहीं पसंद करता। फिर भीष्म साहनी बहुत पसंद हैं। राही मासूम रज़ा भी। लेखक तो इतने हैं कि नाम लेते-लेते शाम बीत जाएगी।
मगर सिर्फ नाम लेना ही तो काफ़ी नहीं होता। उन्हें पढ़ना और उनसे सीखना ज़्यादा ज़रूरी है। हम नए लेखकों के लिए बहुत ज़रूरी है कि हम न सिर्फ उनका आदर करें बल्कि उन्हें निरंतर पढ़ें और उनकी विशालता और महानता से अचंभित भी हों। हम जब तक किसी की महानता से अचंभित नहीं होते तब तक उससे कुछ ख़ास सीख भी नहीं पाते, कुछ विशेष प्राप्त भी नहीं कर पाते, चाहे वह ईश्वर हो, प्रकृति हो या हमारे आदर्श हों।
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हिंदी साहित्य के पर्याय की तरह है राजकमल प्रकाशन. पुस्तकों को लेकर नवोन्मेष से लेकर हिंदी के क्लासिक साहित्य के प्रकाशन, प्रसार में इन सत्तर सालों में राजकमल ने अनेक मील स्तम्भ स्थापित किये हैं. सहयात्रा के उत्सव के बारे में राजकमल प्रकाशन के सम्पादकीय निदेशक सत्यानन्द निरुपम के फेसबुक वाल से साभार- मॉडरेटर
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~सहयात्रा का उत्सव~
किसी प्रकाशन का महत्व इससे तय नहीं होता कि वह कितना पुराना है! प्रकाशन का महत्व इस बात से तय होता है कि उसके सफर के साथी कौन हैं, वह किस-किसके साथ है। वह समाज के बीच, समाज के लिए प्रकाशित क्या कर रहा है। Rajkamal Prakashan Samuhके लिए अपनी स्थापना का 70वाँ वर्ष इस मायने में बहुत खास है। नए-पुराने सभी रिश्तों की याद, संगत, बैठकी का साल…आत्मालोचन का साल, विस्तार-परिष्कार और नवाचार का साल, जलसे का साल!
2019–उत्सव-वर्ष होगा राजकमल प्रकाशन के लिए; आप सबके साथ, भरोसे के साथ! उत्सव-वर्ष का लोगो आज क्रिसमस के मुबारक दिन वृहत्तर पाठक समाज के बीच सार्वजनिक करते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता हो रही है। उत्सव स्याही और कागज़ के साहचर्य का, शब्दों की निरन्तर यात्रा का, भरोसे के टिकाऊपन का–लेखक-पाठक-प्रकाशक की सहयात्रा का!
सहयात्रा के उत्सव को घर-घर ले चलना है, हर उस घर जहाँ किताबें हैं, जहाँ किताबों को होना चाहिए…70 से शुरू हुआ है, 75 तक हम सब किताबों के लिए ज्यादा से ज्यादा, और ज्यादा घरों को जोड़ने में जुटें, इस उत्सव-वर्ष का यही संकल्प रहेगा…
[ उत्सव-वर्ष के लोगो की परिकल्पना रबीउल इस्लाम की है। ]
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शाम को संगीत सभा होती है. जब इस सभा में हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत को लेकर प्रवीण झा को पढने को मिल जाए तो कहना ही क्या. पढ़िए उनके कुछ संगीत-किस्से- मॉडरेटर
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यह विडंबना है कि क्रिकेट पर किताबें रामचंद्र गुहा और शशि थरूर सरीखों को लिखनी पड़ी। राजदीप सरदेसाई तो फिर भी पत्रकार हैं। राहुल भट्टाचार्य, हर्षा भोगले और शिवेंद्र सिंह जी खेल पत्रकारिता से जुड़े हैं, तो उनका भी इस विधा पर अधिकार है। लेकिन क्रिकेट पर किताब तो भारत के गली-गली के बच्चे भी लिख सकते हैं। यह तो भारत के रक्त में बसा है, कि एक पैंसठ वर्ष के बुजुर्ग भी जब मैकग्राथ को गेंद फेंकते देखते हैं तो कहते हैं कि यह ‘गुड-लेंथ’ गेंद थी, एक कदम बढ़ा कर शॉट न लिया तो बेहतर ही है कि जाने दिया। यही बात कभी संगीत-लेखन की भी थी। अमजद अली ख़ान को एक बार कहते सुना कि पटना जाता हूँ तो सँभल कर बजाना होता है, लोग-बाग पकड़ लेते हैं कि ग़लत बजा रहा है। यही हाल अविभाजित भारत के लाहौर की छतों पर बैठे लोगों के बारे में भी कहा जाता। कि महफ़िल जमी तो आह-वाह के लिए बड़ी ज़हमत करनी होती। जिसने कभी तबले को हाथ भी न लगाया, वह भी कहता कि तबलिया सम ही ढूँढता रह गया। नाचते भले न थे, लेकिन नाच जानते थे। तो उन्हें आंगन टेढ़ा कहने का हक था।
हालिया सुनीता बुद्धिराजा जी की ‘रसराज: पंडित जसराज’ पढ़ा तो यही बात मन में कौंधी। उसमें कई दफ़े ‘सुनकार’ शब्द का जिक्र है। फ़नकार नहीं, सुनकार! यानी जिसमें संगीत सुनने का गुण हो। ऐसे सुनकारों के सामने गायक-वादक भी चौकन्ने रहते कि वे भैंस के आगे बीन नहीं बजा रहे। सुनीता जी ने तो सैकड़ों मंच-संचालन किए, संगीतकारों को करीब से देखा। उन्होंने कुछ गाया-बजाया भले नहीं, लेकिन वह सुनकार हैं। आज की पीढ़ी में यतींद्र मिश्र जी वही भूमिका निभा रहे हैं। वह भी संगीतकारों के हाव-भाव से लेकर उनके जीवन और संगीत को बारीकी से लिख रहे हैं। लेकिन संगीत को लिखना एक भगीरथ कार्य है।
पहली बात तो यह कि ये लेखक प्रशिक्षण से इतिहासकार नहीं है। उनकी लेखन-विधि में इतिहासकारों के वैज्ञानिक तर्क कम मिलेंगे। इसे मैं प्राकृतवाद या ‘रोमांटिसिज़्म’ कहना चाहूँगा जिसमें इतिहास कई दफ़े एक परीकथा जैसी कही जाएगी। जैसे पं. जसराज के पूर्वजों के समय आशीर्वाद देने पानी पर चल कर गुणीजन आए। या कोई मर कर जी उठे। साधुओं के आशीर्वाद से लुप्त आवाज़ वापस आ गयी। गजेंद्र नारायण सिंह इतिहासकार थे, लेकिन उनके भी लेखन में ऐसी कई परीकथाएँ मिलेंगी। हालांकि संगीत का एक मूल तत्व आध्यात्म भी है, और ऐसे कई संदर्भ रूपक भी हो सकते हैं। ख़ास कर जब ये संदर्भ सुने किस्सों की तरह लिखे गए। इतिहास जो पहले भी लिखा गया, उसमें काव्यात्मक परीकथाएँ तथ्यों के मध्य रही है। कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ की तुलना हम आधुनिक कश्मीर इतिहास से नहीं कर सकते। उस समय वैज्ञानिक तर्क तो पश्चिम में भी नहीं आए थे। और सबसे महत्वपूर्ण बात कि भारतीय मानसिकता में जब तक दैविक या ‘सुपरलेटिव’ तत्व न आए, तब तक उससे जनमानस जुड़ाव नहीं महसूस करता। कुमार गंधर्व स्वर्ग से आए थे, पैग़ंबर थे, यह बातें प्रशंसा-तंज हर रूप में कही गयी। लेकिन वाकई कुमार गंधर्व और नत्थन ख़ान सरीखों के गायन में ईश्वर दिखने लगे। अगर बिना अलंकारों के यह बात लिखी जाती, तो शायद वजन न आता।
दूसरी समस्या यह है कि ज्ञान में कई ‘फ़िल्टर’ लगे हैं। वह छन-छन कर आ रहा है, और एक गप्प से दूसरी गप्प भी निकल रही है। कई बातें स्मृति के आधार पर हैं, जो उस्तादों ने बाल्य-काल में सुनी-देखी। इतना ही नहीं, एक ही प्रकरण चार संस्मरणों में चार तरह से लिखी मिलेगी। वंशावली भी पक्की कहनी कठिन है। ग्वालियर घराने की वंशावली अगर हम कुमार प्रसाद मुखर्जी, सुनीता बुद्धिराजा और ग्वालियर की मीता पंडित जी से पढ़ें-सुनें, तो भिन्न-भिन्न मिलेगी। हालिया अन्नपूर्णा देवी जी के जन्म-वर्ष पर मैहर घराने के उनके परिवार वाले भी उत्तर देने में असमर्थ थे। स्वपन कुमार बंदोपाध्याय ने आखिर कुछ कयास लगा कर एक जन्म-वर्ष का निष्कर्ष निकाला। एक और बात है कि घरानों के मध्य (और घरानों के अंदर) श्रेष्ठता की भी प्रतिद्वंद्विता रही है। कई घराने स्वयं को तानसेन के वंशज कहते हैं, जिससे एक श्रेष्ठता का प्रमाण-पत्र मिल जाता है। सेनिया बंगाश, मैहर सेनिया, बीनकार घराने, ग्वालियर तो जोड़ते ही रहे हैं, बेतिया वाले भी कहते हैं कि असली वंशज वे हैं!
लेकिन इन समस्याओं के बावजूद यह क्रोनिकल लिखना आवश्यक है। मराठी भाषा में नियमित ऐसे क्रोनिकल लिखे जाते रहे हैं, और संगीत इतिहास में सबसे समृद्ध आज भी मराठी भाषा ही कही जाएगी, जिनके हिन्दी अनुवाद हुए ही नहीं। एक महत्वपूर्ण विशेषता जो सुनीता जी और यतींद्र जी के लेखन में दिखी, वो यह कि उन्होंने हर बात डिक्टाफ़ोन पर रिकॉर्ड की है। तो इतिहास ‘उत्तम पुरुष’ (फर्स्ट-पर्सन) में अधिक लिखा। यह वैज्ञानिक रूप से सर्वश्रेष्ठ स्रोत माने जाएँगे कि पंडित जसराज या लता जी ने अपनी कहानी अपनी ही जबानी कही। वह हू-ब-हू बिना लाग-लपेट के किताब में आ गया। जब हम सुनी बातें लिखते हैं, तो कुछ हमारे विचार और कुछ सुनाने वाले का मसाला जुड़ जाता है। इन दोनों की लेखनी में यह न के बराबर है। हर बात संदर्भित है, और सीधे तुरंग-मुख से (फ़्रॉम हॉर्सेस माउथ) है।
एक आखिरी सवाल जो एक संगीतकार ने ही उठाया कि संगीत की समझ तो हमें सालों के रियाज के बाद आती है, एक लिक्खाड़ भला संगीत पर क्या लिखेगा? उसे क्या लयकारी, ताल और तान समझ आएगी? और यह बात ठीक भी है कि सचिन तेंदुलकर क्रिकेट पर शशि थरूर से बेहतर कह सकते हैं। लेकिन सचिन के पास तो बस बैट पकड़ने का हुनर है, कलम के सिपाही तो वह हैं नहीं। संगीतकार के पास वक्त कहाँ कि वह लिखे, और लिखे भी तो दूसरों पर कैसे लिखे? यह जरूर हुआ कि कुमार प्रसाद मुखर्जी सरीखे सुनते-लिखते हुए बंदिश रचना भी सीख गए और गाने भी लग गए। लेकिन यह कठिन है और दोनों कार्य भिन्न है। तो बेहतर यही है कि संगीतकार एक लेखक को माध्यम बनाएँ। जब लेखक ऐसे पुल बनाएँगे तो जनमानस और शास्त्रीय संगीत के मध्य बढ़ती खाई पार करना आसान होगा। पुराने जमाने में तो एक रियासत के खुफिए या भाट दूसरी रियासत के संगीतकारों को सुन कर आते और तारीफ़ करते, फिर न्यौता भेजा जाता। अब तो यह आसान है कि एक क्लिक पर यू-ट्यूब में फ़नकार मिल जाते हैं। अब यह नवाबों-राजाओं की जागीर कहाँ? यह विडंबना है कि आज भी यह ‘एलीट’ वर्ग के लोगों की पसंद बना है, क्योंकि संगीत की बात उतनी सहजता से नहीं हो रही, जितनी सहजता से क्रिकेट की बात हो रही है।
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लेखक संपर्क:doctorjha@gmail.com
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इतिहासकार रज़ीउद्दीन अक़ील लगातार हिंदी में लिखते हैं और अनेक संवेदनशील विषयों से हिंदी भाषा को समृद्ध करते हैं. जैसे यह लेख देखिये जिसमें इतिहास लेखन और धर्म के विषय पर उन्होंने स्पष्ट सोच के साथ लिखा है- मॉडरेटर
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वैचारिक संघर्षों और पहचान की राजनीति में इतिहास का इस्तेमाल एक हथियार के रुप में किया जाता है. धार्मिक राजनीति से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों में इतिहास का दुरुपयोग ख़ास तौर से देखने को मिलता है. सार्वजनिक बहसों में उपयोग किए जाने वाले एजेंडा से प्रेरित इतिहास में ऐतिहासिक यथार्थ या सच्चाई के सवाल को ताक़ पर रखकर लोगों की भावनाओं और समय की आवश्यकताओं पर ज़ोर दिया जाता है. इस तरह की बहसों में, साक्ष्यों और तथ्यों के आधार पर अतीत की घटनाओं के सटीक ज्ञान के बजाय, राजनीति से प्रेरित राय या परिप्रेक्ष को थोपने का प्रयास किया जाता है. यह समस्या सार्वजनिक अनुक्षेत्र में परिचालित देशज भाषाई इतिहास के अलावा प्रोफ़ेशनल अकादमिक इतिहास की मान्यताओं में भी देखने को मिलती है. हालाँकि दोनों के प्राइमरी फंक्शन्स अलग-अलग हैं, विभिन्न पहलुओं और नज़रिए के साथ दोनों इतिहास को राजनीतिक संघर्षों का अखाड़ा बनाते हैं.
शैक्षणिक संस्थानों के समय और जगह के विभिन्न सन्दर्भों में, धार्मिक और राजनीतिक संस्कृति इतिहास के अध्ययन पर गहरा असर डालती हैं, जिससे झगड़ालु तर्कों के साथ इतिहासलेखन के समूहों और स्कूलों का निर्माण होता है. इस तरह, पिछली दो शताब्दियों में हिन्दुस्तान में इतिहासलेखन के इतिहास ने कई दृष्टिकोणों से विभिन्न मान्यताओं और फ़ॉर्मूलेशन्स को सामने लाया है. मिसाल के तौर पर, औपनिवेशिक इतिहासलेखन में – जिनकी कुछ क़िस्में हाल के दशकों तक भी जारी रही हैं – उपनिवेशवाद को कुछ इस तरह पेश किया गया है कि मानो उसे ग़ुलामी की ज़ंजीर से जकड़े गए लोगों की भलाई के लिए लाया गया था; वर्ना, वह इतिहास-हीन पशु-माफ़िक़ बर्बर बने रहते. यह गलत धारणा इस दृष्टिकोण के अनुरुप थी कि विजयी शक्तियाँ पराजित लोगों के शरीर को छलनी करते हुए अपनी सत्ता और कामयाबी का इतिहास लिखना चाहती हैं. १५वीं-१६वीं शताब्दी से, पाश्चात्य आधुनिकता ने यही हथकंडा अपनाया है. इस तरह के शोषण की दास्तान सत्ता के ग़लत इस्तेमाल के अन्य सन्दर्भों में भी देखने को मिलती है, जहाँ सत्ताधारी लोग अपने शक्ति प्रदर्शन के भयावह नैरेटिव को धर्म और संप्रदाय के वर्चस्व से जोड़कर वैधता हासिल करने का प्रयास करते हैं.
उपनिवेशवाद पर कटाक्ष करते हुए और यह दिखाते हुए कि पराजित लोग भी अंततः अपनी कहानी बताने या इतिहास लिखने के लिए जीवित रहते हैं, धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी इतिहासलेखन के विभिन्न धड़ों या धाराओं ने १९वीं और २०वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की काली करतूतों को दोषी ठहराया है जिनके कुपरिणाम को अंग्रेज़ अपने पीछे छोड़ गए हैं. हिंदू-मुस्लिम संघर्ष, जाति-व्यवस्था, आर्थिक गिरावट और अन्य जवलंत मुद्दों और ख़राबियों को ब्रिटिश शासन की ग़लत नीतियों के तहत निर्माण किए जाने के रुप में दिखाया गया है. सेक्युलर स्कालरशिप की यह धारा सार्वजनिक जीवन में धर्म के महत्व को भी नज़रअंदाज़ करने की कोशिश करती है, हालाँकि विभिन्न सन्दर्भों में धर्म का दुरुपयोग सांप्रदायिक घृणा की आग में ईंधन की तरह किया जाता है. जेएनयु के इतिहासकार नीलाद्रि भट्टाचार्य ने इस दुखद यथार्थ को धर्मनिरपेक्ष इतिहास के प्रेडिकामेन्टस की संज्ञा दी है.
दूसरी ओर, हिंदू सांप्रदायिक प्रचार इतिहास के रूप में बदसूरत मोड़ लेता है. दक्षिणपंथी ख़ेमे से जुड़े गंभीर इतिहासकार, हालाँकि उनकी संख्या न के बराबर है, अपनी बेतुकी सोच के साथ सत्ता के बाज़ार में अपनी दुकान खोलते हैं. उनकी हास्यास्पद डेस्पेरेशन या हताशा की एक मिसाल देखिए: “मध्ययुगीन भारत अंधकारमय था. पूरा देश अंधकार में डूबा हुआ था. क्योंकि बिजली की सप्लाई बंद थी. ऐसा इसलिए था कि कट्टरपंथी मुस्लिम शासक सत्ता में थे. उन्होंने इस्लाम का पालन किया और इस्लाम विज्ञान के ख़िलाफ़ है!” बदक़िस्मती से एक बहुत बड़ी आबादी के एक छोटे से भाग को, इस दौर में भी, इस तरह की ग़ैर-ज़िम्मेदाराना लफ़्फ़ाज़ी से बेवक़ूफ़ बनाकर थोड़े दिनों के लिए सत्ता हथियाया जा सकता है.
इसके विपरीत और सांप्रदायिक हिंदू आख्यान के पूरक के रुप में, एक वैसी ही विचित्र मुस्लिम अलगाववादी क़लम-तराज़ी की परंपरा है, जो भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लामी अतीत का गौरवगान करती है. यह ८वीं शताब्दी की शुरुआत में सिंध पर अरब विजय से ही पृथक हिंदू-मुस्लिम पहचान की तारीख़ गढ़ती है. साथ ही, संत कबीर और मुगल सम्राट अकबर जैसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक व्यक्तित्वों को हिंदू धर्म के एजेंटों के रुप में पेश करते हुए यह इलज़ाम थोपने की कोशिश भी करती है कि उन्होंने मध्ययुग में इस्लाम के कॉज़ को नुक़सान पहुँचाया था. इस तरह की तलवार-बाज़ी उनकी पृथक राजनीति की बिसात बिछाने के उधेड़बुन का नतीजा है.
इस प्रकार, हम आम तौर पर जिस समस्या का सामना कर रहे हैं वह दरअसल राजनीतिक प्रोपगंडे हैं जिन्हें इतिहास के रुप में प्रस्तुत किया जाता है. क्या इसका मतलब यह है कि इतिहासलेखन वैचारिक नियंत्रण से मुक्त नहीं हो सकता है? शुक्र है, हाल के दिनों में तथ्यपरकता पर आधारित बुनियादी उसूल की पाबंदी के अतिरिक्त सैद्धांतिक रुप से परिष्कृत शोधों ने ऐतिहासिक पद्धति और लेखन में ताज़ा सोच को जन्म दिया है. धर्मनिरपेक्षतावादियों और दक्षिणपंथी राजनीतिक झंडाबरदारों दोनों के द्वारा खड़ी की गई रुकावटों और विरोध के बावजूद भारत-सहित पश्चिमी देशों, विशेषकर संयुक्त राज्य अमेरिका, के अकादमिक संस्थानों में ऐतिहासिक शोध और शिक्षण के नए फ्रंटियर्स निरंतर तलाशे जा रहे हैं. तमाम राजनीतिक अड़चनों और धंधेबाज़ी से दूरत्व बनाकर इतिहासकार अपने काम में मसरूफ़ हैं. यह हर दौर की ज़रुरत है. राजनीतिक नालियों के कीड़े-मकोड़े और ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में दबे गर्दो-ग़ुबार एवं जीवाणुओं से जूझकर ही इतिहासकार और उनके सहयोगी – राजनीतिक तथा सामाजिक शास्त्र के विद्वान, लेखक और दार्शनिक – बौद्धिक चिंतन के नए पैमाने तय करते हैं.
किसी तरह के भय और लालच से ऊपर उठकर, नए शोध में सांप्रदायिक रुप से संवेदनशील मुद्दों जैसे मध्यकाल में उपासना-स्थलों पर राजनीतिक हमले और ग़ैर-मुस्लिमों के इस्लाम में धर्मांतरण के सवाल को ऐतिहासिक विमर्श का विषय बनाया गया है. राज्य की प्रकृति का मूल्यांकन सभी के लिए बराबर क़ानून और न्याय के लिए शासकों की चिंता, समाज में शांति व्यवस्था की स्थापना, कल्याण तंत्र के साथ-साथ धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों पर आधारित भारत के अपने राजनीतिक सिद्धांत की तलाश की रौशनी में किया जा रहा है. अकबर और औरंगज़ेब पर नए अध्ययन में उन व्यापक राजनीतिक ढांचों, सिद्धांतों और नीतियों का विश्लेषण किया जाता है, जो धर्म के दुरुपयोग करने वाली संकीर्ण और भेदभाव से प्रेरित राजनीतिक रणनीतियों के विपरीत हैं. शासन के सिद्धांतों पर ऐतिहासिक उदाहरण और दार्शनिक अंतर्दृष्टि का उपयोग यह बताने के लिए किया जाता है कि जब बहु-सांस्कृतिक या बहु-धार्मिक संदर्भों में राज्य के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों का धार्मिक विश्वासों से टकराव होता है, तो धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों और प्रगतिशील कानूनों को तरजीह दिया जाना चाहिए, जैसा कि हाल ही में विश्लेषणात्मक दार्शनिक, अकील बिलग्रामी ने भी ज़ोर दिया है. यानि, देश में कोई क़ानून-व्यवस्था है कि नहीं, या हर तरफ़ धार्मिक मान्यताओं और विश्वासों का तांडव चलेगा?
इसके अलावा, प्राचीन (संस्कृत), मध्ययुगीन (फ़ारसी) और आधुनिक (अंग्रेज़ी) काल में (उपयोग किए जाने वाले स्रोतों की विशिष्ट भाषा के साथ) भारतीय इतिहास के पारंपरिक काल-विभाजन पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया जा रहा है. साथ ही, इतिहासलेखन में साहित्य के विवेकपूर्ण उपयोग सहित समृद्ध स्रोतों के माध्यम से पुराने और सरल अवधारणाओं को तोड़ा जा रहा है. मिसाल के तौर पर, सूफ़ी प्रेमाख्यान, या प्रेम की कविता, मलिक मुहम्मद जायसी की पद्मावत जिसके सबसे अच्छे उदाहरणों में से एक है, का हाल के वर्षों में इतिहासकारों और साहित्यिक विद्वानों द्वारा अध्ययन किया जा रहा है. हालांकि, वह अभी भी ऐसी स्थिति में नहीं हैं कि कलात्मक स्वतंत्रता या सांप्रदायिक राजनीति के नाम पर पैदा किए गए कुचक्र को संभाल सकें – जैसा कि हमने हाल ही में देखा है.
आध्यात्मिकता से शराबोर पब्लिक के बीच, सूफ़ी-भक्ति परम्पराओं के साझा और विवादित क्षेत्रों में सांस्कृतिक विमर्श के जोड़-तोड़ एवं क्रूर राजनीतिक हिंसा की संभावनाओं के दोषपूर्ण व्यवहार उजागर होते हैं. दो उदाहरण जो यहां दिए जा सकते हैं: योगी गोरखनाथ का सूफ़ियों के प्रति अनुकूल रवैया, जिन्हें अल्लाह की जाति से संबंधित समझा गया, और मध्ययुगीन भारत में शाकाहार के नए शौक़ या सनक को संत कबीर का आक्रामक समर्थन। यह और इन जैसे कुछ और अहम मुद्दों ने जहाँ एक ओर सामाजिक संबंधों में दरार को सामने लाया, वहीं दूसरी तरफ़ सामाजिक संरचना के कम्प्लेक्स टेक्शचर से भी अवगत कराया।
अंत में, निष्कर्ष के तौर पर, यह कहा जा सकता है कि सार्वजनिक डोमेन की लोकप्रिय राजनीति में इतिहास का बाज़ार गर्म है, हालाँकि यह ज़रुरी नहीं है कि कोई इतिहासकार रिज़र्व बैंक का गवर्नर बनकर बड़ा काम करेगा! कई तरह के वैचारिक खूँटों और विभिन्न प्रकार की शिनाख़्त की राजनीति के दबाव ने मिलकर ऐतिहासिक पद्धति और लेखन पर गंभीर अड़चनें डालीं हैं. लेकिन जैसा कि ऊपर बताया गया है, सब तरह की चुनौतियों के बावजूद, ऐतिहासिक शोध की नई परतें निरंतर खुलती रही हैं. विभिन्न स्रोतों, साक्ष्यों और तथ्यों का पेशेवर इतिहासकार उनके विभिन्न संदर्भों और ख़ुद अपने समकालीन परिप्रेक्ष में अध्ययन कर नए-नए विषयों और मुद्दों से निपट रहा है. धर्म और राजनीतिक संस्कृति के बीच के जटिल अन्तर्सम्बन्ध पर पर्दा डालकर अब उनको नज़रअंदाज़ नहीं किया जाता. क़ालीन के नीचे दबाए गए कूड़ा करकट को ज़्यादा दिनों तक छुपाया नहीं जा सकता. इतिहासकार उनमें से भी गड़े मुर्दे निकलकर उनका पोस्ट-मॉर्टम कर सकते हैं.
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अजमेर में प्राध्यापिका विमलेश शर्मा ने साल 2018 के साहित्यिक परिदृश्य का लेखा जोखा प्रस्तुत किया है. लेख में व्यक्त विचार लेखिका के अपने हैं- मॉडरेटर
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और शब्द-रथ पर यों ही कारवाँ चलता रहे…
“मुझमें जीवन की लय जागी
मैं धरती का हूँ अनुरागी
जड़ीभूत करती है मुझको
यह संपूर्ण निराशा त्यागी।”
जनवादी कवि त्रिलोचन की इन्हीं पक्तियों का अनुसरण करते हुए हर सर्जक उजास, चेतना और जिजीविषा की एक अनवरत यात्रा पर निकल पड़ता है। लिखना भी एक यात्रा पर निकल है, लिखना स्वयं को जीवित रखना है और इन्हीं मायनों में साहित्य की उपादेयता अक्षुण्ण है ; क्योंकि साहित्य बदलते हुए समय का दस्तावेज़ीकरण करते हुए चलता है। वह मनोभावों और संवेदनाओं को चिह्मित करता हुआ साहित्य के इतिहास में दर्ज़ होता है, यही कारण है काल-सापेक्ष साहित्य का इतिहास जानना अपरिहार्य है ।
सुखद है कि समकालिक भारतीय लेखक विविध विधाओं में श्रेष्ठ साहित्य की सर्जना कर रहे हैं। इसी दृष्टि से सन् 2018 , हिन्दी साहित्य में युवा लेखकों की पुरजोर उपस्थिति का वर्ष कहा जा सकता है। जहाँ एक ओर वर्ष 2018 साहित्य में समेकित रूप में कथा-साहित्य, काव्य और कथेतर गद्य का एक अद्भुत साम्य लेकर उपस्थित होता है; वहीं यह वर्ष गंभीर बनाम लोकप्रिय साहित्य की बहस को भी तरजीह देता हुआ दिखाई देता है। इस वर्ष कई महत्त्वपूर्ण कृतियाँ व रचनाकार सम्मानित हुए तो कई रचनाएँ दिल के क़रीब रहकर बदस्तूर महकती भी रहीं।
इस वर्ष प्रकाशित रचनाओं में कथेतर गद्य की बात की जाए तो ज्ञानपीठ ने वर्ष २०१७ में अपना प्रतिष्ठित नवलेखन पुरस्कार युवा लेखक आलोक रंजन की कृति ‘सियाहत’ जो कि यात्रावृत्त (ट्रेवलॉग) है, को प्रदान किया। यह कृति इस वर्ष प्रकाशित हुई। वस्तुतः ‘सियाहत’ एक यात्रा है तथा इसका वर्ण्य विषय उत्तर-दक्षिण भारत के मध्य का संवाद सेतु है। ‘सियाहत’ दो पृथक् परिवेश और संस्कृति के बीच का पुल है जिसमें लेखक सहज भाषा की चित्रवीथि गूँथते हुए यह संदेश देता है कि यात्राएँ कभी ख़त्म नहीं होती वरन् वे अंततः भीतर की ओर मोड़ लेती हुई दिखाई देती हैं। आलोक इस यात्रा में प्रकृति-चित्रण में ही नहीं भटक जाते वरन् वे प्रकारान्तर से अनेक विषयों को भी उठाते हैं। यात्रा-वृत्त-साहित्य की ही बात करें तो ‘दर्रा-दर्रा हिमालय’ के बाद अजय सोडानी की ‘दरकते हिमालय पर दर-ब-दर’ भी उल्लेखनीय रचना है। इसी क्रम में असगर वज़ाहत की पुस्तक ‘अतीत का दरवाज़ा’ को भी पाठकों ने सराहा । ‘दरकते हिमालय पर दर-ब-दर’ में जहाँ हिमालय के अचिह्मित स्थानों के किस्से हैं, जिन्हें लेखक, पाठक के समक्ष रखते हुए यह सोचने पर मज़बूर करता है कि सभ्यता और आधुनिकता की बयार में आख़िर हमने क्या खोया और क्या पाया? वहीं ‘वज़ाहत’ मध्य एशिया, यूरोप और दक्षिणी अमेरिका के परिदृश्य और छोटी-बड़ी घटनाओं को वृत्तांत शैली में प्रस्तुत करते हैं।
अशोक कुमार पांडेय की कृति ‘कश्मीरनामा’ इस वर्ष की चर्चित शोधपरक पुस्तक रही। कश्मीर से जुड़े मुद्दे अभी भी अलक्षित हैं, ऐसे में यह कृति तर्क के साथ कई भ्रमों को तोड़ती है। शिवदत्त जी निर्मल वर्मा के अनन्य प्रेमी-पाठक के रूप में ख्यात हैं। उनकी कृति ‘स्मृतियों का स्मगलर’ एक भिन्न पाठकवर्ग की माँग रखती है, जो लेखक के शब्दों में ही, ‘निर्मल वर्मा के उपन्यास ‘एक चिथड़ा सुख’ का अघोर पाठकीय अवगाहन है।‘ अष्टभुजा शुक्ल की ‘पानी पर पटकथा’ ललित निबंधों की कृति है। पुस्तक में संकलित निबंधों में भाषा का लालित्य, भदेसपन और संस्कृतनिष्ठ प्रवृत्ति द्विवेदी-परम्परा का एहसास कराती प्रतीत होती है तो वहीं विषयवस्तु की रोचकता, दार्शनिक गहनता उत्तरप्रदेश के सांस्कृतिक परिदृश्य को गद्यात्मक लय में सामने रखती है।
अनुवाद में आई उल्लेखनीय कृतियों में डॉ. बलराम शुक्ल की ‘निःशब्द नूपुर’ उल्लेखनीय रचना है। यों तो सूफी-शायर मौलाना मुहम्मद जलालुद्दीन की ग़ज़ल और रुबाइयाँ कई बार अनूदित हुई हैं; परन्तु यह इस बात में अनूठी है, क्योंकि इसका अनुवाद ‘शुक्ल’ ने मूल फ़ारसी से किया है। शंखघोष केवल बांग्ला भाषा के रचनाकार नहीं वरन् भारतीय मनीषा के महत्त्वपूर्ण प्रतीक-चिह्न भी हैं। इनकी तीन पुस्तकों का अनुवाद एक साथ हिन्दी में आना सुखद है। इनमें ‘निःशब्द की तर्जनी’ और ‘होने का दुःख’ गद्य रचनाएँ हैं,जिनके अनुवादक उत्पल बैनर्जी हैं तो ‘मेघ जैसा मनुष्य’ काव्य-संकलन के अनुवादक प्रयाग जोशी हैं। शंख घोष के गद्य के केन्द्र में, ‘मैं से तुम’ अर्थात् ‘व्यक्ति से लेखक’ तक की यात्रा हैं तो उनकी कविताएँ जीवन के यथार्थ की ओर इशारा करती हैं।
कथा-साहित्य में इस वर्ष अनेक महत्त्वपूर्ण रचनाएँ सामने आई । इस साल के चर्चित उपन्यासों में गीतांजलि श्री का ‘रेतसमाधि’, ज्ञान चतुर्वेदी का ‘पागलखाना’ चर्चित रहे तो अलका सरावगी के ‘एक सच्ची-झूठी गाथा’, ऊषाकिरण खान का ‘गई झूलनी टूट’ और मधु कांकरिया का ‘हम यहाँ थे’ उपन्यास भी चर्चा में आया। ‘रेतसमाधि’ और ‘गई झूलनी टूट’ उपन्यास स्त्री-संघर्ष की परिवेशगत बयानगियाँ हैं,वहीं ज्ञान चतुर्वेदी का पाचवाँ उपन्यास ‘पागलखाना’ उन पागलों की कथा है जो जीवन को बाज़ार से बड़ा मानते रहे। बाज़ार को लेकर उन्होंने एक विराट् फैंटेसी की सर्जना की है। प्रज्ञा रोहिणी का उपन्यास ‘गूदड़बस्ती’ 2017 की उल्लेखनीय कृति रही इस वर्ष उनकी कहानियाँ और आलोचना पुस्तक ‘नाटक-पाठ और मंचन’आई है। इसी वर्ष गरिमा श्रीवास्तव की ‘देह ही देश’ रचना भी प्रकाश में आई है। लेखिका ने इसे क्रोएशिया की प्रवास डायरी कहा है। बोस्निया युद्ध की पृष्ठभूमि में यह उन हज़ारों पीडिता स्त्रियों की कहानी है जिनकी देह पर ही जाने कितने युद्ध लड़े गए हैं।
इसी वर्ष असगर वज़ाहत का कहानी-संग्रह ‘भीड़तंत्र’ भी प्रकाशित हुआ साथ ही मनीषा कुलश्रेष्ठ का ‘किरदार’ कहानी संग्रह, ममता सिंह का प्रथम कहानी संग्रह ‘राग-मारवा’, दिव्या विजय का ‘अलगोजे की धुन पर’, जयंती रंगनाथन का ‘नीली छतरी’ तथा सैन्य पृष्ठभूमि के जाबांज गौतम राजऋषि का कहानी-संग्रह ‘हरी मुस्कराहटों वाला कोलाज़’ भी ख़ासा चर्चित रहा।
भाषा समय-सापेक्ष है; पर क्या भाषा में आ रहा बदलाव क्या भाषा के कलेवर के लिए ख़तरा है, ऐसे कई सवाल ‘नई वाली हिन्दी’ मुहावरे से आई अनेक रचनाएँ पाठक और शुद्धतावादियों के जेहन में भी छोड़ गईं। इन रचनाओं में भगवंत अनमोल का उपन्यास ज़िंदगी-५०-५० तथा सत्य व्यास का ‘चौरासी’ खासा चर्चित रहा। हालाँकि ‘चौरासी, बनारस टॉकीज के बाद भाषाई प्रांजलता की ओर लौटती नज़र आती है। ज़िंदगी ५०-५० में भगवंत थर्ड जेन्डर जीवन की टीस और वेदना को राहतों की ठंडी फूहारें देने की कोशिश करते हैं।
कहानी-संग्रहों में निखिल सचान का ‘नमक स्वादानुसार’ ,दिव्य प्रकाश दुबे का ‘शर्तें लागू’, अंकिता जैन की ‘ऐसी-वैसी औरत’ रचनाएँ मुखरता से सामने आईं, जिनमें से अधिकांश बेस्ट-सेलर के मुहावरे को भी रचती हैं। विमलेश त्रिपाठी का उपन्यास ‘हमन है इश्क मस्ताना’ भी इस वर्ष का लोकप्रिय उपन्यास है।
कविता की दृष्टि से यह काल अपेक्षाकृत कम उल्लेखनीय रहा;परन्तु साल बीतते-बीतते यह रिक्तता भी भरती नज़र आई। केदारनाथ सिंह के निधनोपरान्त उनका अंतिम कविता-संग्रह ‘मतदान केन्द्र पर झपकी’ शीर्षक से आया। वीरेन डंगवाल की कविताओं का संग्रह ‘कविता वीरेन’ भी इसी वर्ष आया। सुमन केशरी का ‘पिरामिडों की तहों में’, श्यौराज सिंह बैचेन का ‘भोर के अँधेरे’, असंगघोष का ‘अब मैं साँस ले रहा हूँ’, अनुराधा सिंह का ‘ईश्वर नहीं, नींद चाहिए’ इस वर्ष के कतिपय उल्लेखनीय काव्य-संग्रह हैं। ‘मुश्किल दिनों की बात’ शिरीष कुमार मौर्य की ४० कविताओं का संकलन है। एक लम्बे समय बाद गगन गिल का काव्य संकलन ‘मैं जब तक आयी बाहर’ भी इसी वर्ष प्रकाशित हुआ, जिसमें कहन को विशेष ढंग से बयां करती हुई छोटी-छोटी कविताएँ समावेशित हैं।
संभावनाशील युवा कवियों की प्रकाशन शृंखला की योजना के तहत वाणी प्रकाशन द्वारा रज़ा फाउण्डेशन के सहयोग से मोनिका कुमार का काव्य-संग्रह ‘आश्चर्यवत्’ प्रकाशित हुआ। वाणी से ही अम्बर पाण्डेय की ‘कोलाहल की कविताएँ’ प्रकाशित हुईं । ये कविताएँ अम्बर के भाषिक सामर्थ्य, बहुभाषाई ज्ञान और मिथकीय चेतना की गहरी समझ की जीवंत अभिव्यक्ति हैं। इधर ‘मैं बनूँगा गुलमोहर’ युवा-प्रातिभ-मेधा और विविध विषयों पर साधिकार लिखने वाले लेखक सुशोभित सक्तावत की प्रेम कविताएँ और गद्यगीत हैं । सुशोभित का ही इसी वर्ष आया अन्य काव्य-संग्रह ‘मलयगिरि का प्रेत है’, जिसकी कविताएँ आदिम भित्ति-चित्रों पर रचित शास्त्रीय राग सी ही मनोहर हैं। अम्बर और सुशोभित की रचनाएँ काव्य-जगत् में युव-हस्ताक्षरों की झकझोरने वाली उपस्थितियाँ हैं, जो पुरातन और नव्य का अभीष्ट संगम प्रस्तुत करती हैं।
इस बरस नीलिमा पाण्डेय की दिसंबर,2018 में ‘थेरीगाथा’ पुस्तक आई। यह बौद्ध भिक्षुणियों द्वारा संघ प्रवास के दौरान लिखी गई कविताओं का संकलन है।कविताओं की कुल संख्या 73 है तथा इनकी भाषा पाली है। थेरीगाथा की स्त्रियों से संबद्धता उसे एक उत्साहवर्धक -उत्तेजक-रोचक-शोधपरक साहित्य बनाती है।यह एकमात्र ऐसा प्राचीन धार्मिक साहित्य है जिसे एकाकी रूप से स्त्रियों के द्वारा रचा गया है।
पुरस्कारों की बात करें तो सुप्रसिद्ध कथाकार चित्रा मुद्गल को इस वर्ष का साहित्य अकादमी पुरस्कार उनकी औपन्यासिक कृति ‘नालासोपारा’ (प्रकाशन वर्ष 2016) के लिए प्रदान करने की घोषणा की। यह उपन्यास हाशिए पर उपस्थित उस वर्ग की दारुण गाथा है ,जिसे समाज थर्ड-जेन्डर की संज्ञा से नवाज़ता है। हाल ही में प्रसिद्ध कवि गीत चतुर्वेदी को शैलेश मटियानी कथा पुरस्कार की घोषणा भी हुई है।
हेमन्त शेष की काव्य-कृति ‘प्रायश्चित् प्रवेशिका व अन्य कविताएँ’ व गीत चतुर्वेदी का ‘टेबल-लैम्प’ शीर्षक से गद्य-संग्रह भी साल बीतते-बीतते प्रकाशित हुई।
आलोचना की दृष्टि से यह वर्ष समृद्ध कहा जा सकता है। इसी वर्ष वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह जी की पुस्तकें आलोचना और संवाद, पूर्वरंग, द्वाभा, छायावाद:प्रसाद, निराला, महादेवी और पंत तथा रामविलास शर्मा शीर्षक से प्रकाशित हुईं। ओम निश्चल के संपादन में कवि कुंवर नारायण पर ‘अन्विति और अन्वय’ शीर्षक दो खण्डों से पुस्तकें प्रकाशित हुईं। विनोद शाही की पुस्तक ‘आलोचना की ज़मीन’ , राजेश जोशी की ‘कविता का शहर’, ओमप्रकाश सिंह, शीतांशु की उपन्यास का वर्तमान आदि पुस्तकें प्रकाशित हुईं।
पत्रिकाओं ने इस वर्ष कई महत्त्वपूर्ण अंक निकाले। आलोचना,हंस, ज्ञानोदय, पहल,वागर्थ,पाखी के साथ ही अनेक शोध पत्रिकाओं यथा वाड़्मय, अनुसंधान तथा अन्य ई-पत्रिकाओं ने अनेक विषयों पर अच्छे अंकों का संपादन भी किया। बनास जन पत्रिका के अंक भी इसी वैशिष्ट्य की दृष्टि से सहेजने लायक हैं। इधर बरस बीतते यह भी ख़ुशी है कि ‘कथन’ पत्रिका का प्रकाशन फ़िर से प्रारम्भ होने जा रहा है। ई-पुस्तकों के रूप में नॉटनल नई संभावनाओं को लेकर उपस्थित हुआ है, तो बाल साहित्य में भी रोचक सामग्री लेकर ‘साइकिल’ जैसी पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं।
बीतते साल की साहित्यिक घोषणाओं में चौंकाने वाली एक घोषणा यह भी रही कि भारतीय साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार ‘ज्ञानपीठ’ एक अंग्रेजीदां लेखक अमिताभ घोष को प्राप्त हुआ। मेरी सोच के पाठकों का यह सोचना अंग्रेजी भाषा से किसी झगड़े के कारण नहीं है, न ही पुरस्कृत लेखक से शिकायत के तहत; पर इससे जुड़ा प्रश्न भारतीय साहित्य व क्षेत्रीय भाषाओं की अस्मिता से जुड़ा प्रश्न है।कई मायनों में इस घोषणा ने भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार के महत्त्व को तो कम किया ही साथ ही भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं के आत्मविश्वास को भी हतोत्साहित किया है।
बहरहाल यह वर्ष भी रचनात्मकता की दृष्टि से अपेक्षाकृत उर्वर रहा तो साथ ही भाषा-नई भाषा की ज़ंग को , लोकप्रिय और गांभीर्य की बहस को हवा भी देकर जा रहा है। यह वर्ष कई बड़े साहित्यकारों दूधनाथ सिंह, कुंवर नारायण, अमृतलाल वेगड़, गीतकार गोपालदास नीरज, अभिमन्यु अनत के अवसान का वर्ष भी रहा। बड़ेरों की यह क्षति अपूरणीय है पर सतत साहित्य-सर्जना आशा के नवीन लाल सूरज के प्रति आशान्वित भी करती है कि आने वाला वर्ष 2019 रचनाकारों के श्रेष्ठ अवदान का गवाह बन माथे पर पुनः चमकेगा।
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हिंदी में पाठक घट रहे हैं या बढ़ रहे हैं यह वाद विवाद का विषय हो सकता है लेकिन एक बात सच है कि हिंदी में पाठकजी(सुरेन्द्र मोहन पाठक) का विस्तार होता जा रहा है. कभी हिंदी में लुगदी साहित्य के पर्याय माने जाने वाले इस लेखक ने निस्संदेह हिंदी के लोकप्रिय लेखन को एक नई ऊँचाई, नया मुकाम दिया है. लोकप्रिय साहित्य को उन्होंने मास से क्लास तक पहुंचाया. राजकमल प्रकाशन से उनकी आत्मकथा का दूसरा खंड प्रकाशित हो रहा है. यह घटना कितनी बड़ी है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आज तक किसी अन्य लोकप्रिय लेखक की आत्मकथा तो दूर राजकमल ने किसी लोकप्रिय लेखक की पुस्तक भी प्रकाशित नहीं की थी. मैं इस घटना को हिंदी के लोकप्रिय धारा के सम्मान की तरह देखता हूँ. स्वीकृति तो पहले से ही हासिल थी. पढ़िए पूरी रपट- प्रभात रंजन
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क्राइम फिक्शन एवं थ्रिलर उपन्यासों के सबसे प्रमुख लेखकों में से एक सुरेन्द्र मोहन पाठक की आत्मकथा का दूसरा खंड हिंदी के सर्वश्रेष्ठ प्रकाशन राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होने जा रहा है. हिंदीप्रकाशन दुनिया की यह बड़ी परिघटना राजकमल प्रकाशन के 70वें साल के ‘ईयर लॉन्ग सेलिब्रेशन’ की एक महत्वपूर्ण कड़ी होगी.
राजकमल प्रकाशन समूह के संपादकीय निदेशक सत्यानन्द निरुपम ने किताब की उपलब्धता के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि –“हम नहीं चंगे बुरा नहीं कोय”2019 अप्रैल के दूसरे हफ्ते बाज़ार में उपलब्ध हो जाएगी. इसका प्रकाशन हिंदी की पाठकीयता में विविधता को बढ़ावा देने की दिशा में एक ज़रूरी कदम है.
यह पहली बार होगा जब पॉकेट बुक्स का कोई लेखक मुख्यधारा के साहित्यिक प्रकाशन से जुड़ रहा है. इस बारे में सुरेन्द्र मोहन पाठक अपनी ख़ुशी जाहिर करते हुए कहते हैं, “हिंदी पुस्तक प्रकाशन संसार में राजकमल प्रकाशन के सर्वोच्च स्थान को कोई नकार नहीं सकता. सर्वश्रेष्ठ लेखन के प्रकाशन की राजकमल की सत्तर साल से स्थापित गौरवशाली परंपरा है. लिहाज़ा मेरे जैसे कारोबारी लेखक के लिए ये गर्व का विषय है कि अपनी आत्मकथा के माध्यम से मैं राजकमल से जुड़ रहा हूँ.मेरे भी लिखने का साठवाँ साल अब आ गया है. यह अच्छा संयोग है.’’
इसी साल जनवरी 2018 में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में उनकी आत्मकथा का पहला भाग ‘न कोई बैरी न कोई बेगाना’ का लोकार्पण हुआ था. वह भाग वेस्टलैंड बुक्स से छपा था.
बीते छह दशकों में सुरेन्द्र मोहन पाठक अब तक लगभग 300 उपन्यास लिख चुके हैं. उनकी पहली कहानी ‘57 साल पुराना आदमी’ मनोहर कहानियाँ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी. तब से अब तक के उनके लेखन के सफर को हिंदी पल्प फिक्शन के एक लंबे इतिहास के सफर के रूप में देखा जा सकता है.
हिंदी साहित्य जगत में गंभीर साहित्य और लोकप्रिय साहित्य भले ही दो किनारों की तरह नज़र आते हों, लेकिन यह सच है कि पाठकों ने हमेशा दोनों को पसंद किया है. यह जानना प्रेरक और दिलचस्प दोनों होगा कि जीवन की कई विषम परिस्थितियों के बीच रहकर भी पाठक जी ने 300 से ज्यादा उपन्यास कैसे लिखे और कामयाबी के शिखर पर कैसे बने रहे. राजकमल प्रकाशन से सुरेन्द्र मोहन पाठक की आत्मकथा के दूसरे खंड का प्रकाशित होना हिंदी की बड़ी परिघटना क्यों है, इस बारे में समूह के प्रबंध निदेशक अशोक महेश्वरी का कहना है, “पाठक जी की आत्मकथा को प्रकाशित करना उनके लाखों पाठकों का सम्मान है. यह दो पाठक-वर्गों के जुड़ाव की परिघटना है, इसलिए यह हिंदी प्रकाशन दुनिया की बड़ी परिघटना साबित हो सकती है.”
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अगला साल सुरेन्द्र मोहन पाठक के लेखन का साठवां साल है. साथ साल पहले उनकी एक कहानी ‘माया’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी. लेकिन अपने लेखकीय जीवन के साठवें साल में भी उनके पास नई-नई योजनायें हैं, अपने पाठकों के लिए नए नए प्लाट हैं. वे आज भी वैसे ही ऊर्जा से भरपूर हैं. अभी हाल में ही राजकमल प्रकाशन ने यह घोषणा की कि पाठक जी की आत्मकथा का दूसरा खंड वहां से प्रकाशित होने वाला है. इस मौके पर उनका वक्तव्य- मॉडरेटर
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मेरी आत्मकथा तीन खण्डों में है, अगस्त 2017 में जिन का समापन मैंने एक साथ किया था, फिर भी किन्हीं अपरिहार्य कारणों से कोई डेढ़ साल के वक्फे में, केवल एक खंड – ‘न बैरी न कोई बेगाना’ – ही प्रकाशित हो पाया था. सवा साल के असाधारण विलम्ब के साथ दूसरा खंड – ‘हम नहीं चंगे बुरा न कोय’ – अब अप्रैल 2019 में राजकमल से प्रकाशित होगा. ये मेरे लिए संतोष का विषय है कि दूसरे खंड ने आखिर . . . आखिर राजकमल प्रकाशन में अपना मुनासिब मुकाम पाया. दूसरा खंड अन्यत्र प्रकाशित होता तो ये महज खानापूरी होता जब कि उसका राजकमल से प्रकाशन मेरे लिए एक अतिविशिष्ट आयोजन सिद्ध होने वाला है. ये मेरे लेखन जीवन की एक बड़ी घटना है और मेरे लिए गर्व का विषय है कि मेरे जैसा कारोबारी लेखक अपनी आत्मकथा के माध्यम से अब आखिर राजकमल से जुड़ने जा रहा है. सर्वश्रेष्ठ लेखन के प्रकाशन की राजकमल की सत्तर साल से स्थापित गौरवशाली परम्परा है जिस का सुख अब आप का खादिम भी पायेगा.
[] सुरेन्द्र मोहन पाठक
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आज प्रियंका ओम की कहानी ‘वह फूहड़ स्त्री’ पढ़िए. नए साल की शुरुआत समकालीन रचनाशीलता से करते हैं- मॉडरेटर
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उस स्त्री के पहनावे का रंग संयोजन था मुझे विस्मय से भर देता ! पीले रंग की ब्लाउज़ पर एड़ी से चार अंगुल ऊँची ब्लू छींट की साड़ी, और साड़ी के नीचे से ढीठाई से झाँकता लाल रंग का पेटीकोट और कभी इस सबके विपरीत !
समस्त केश राशि का समान वर्ग विन्यास करती हुई माथे के बीचो बीच गहरे संतरे रंग की एक दमकती रेखा और ठीक दोनो भौं के सीध में माथे के बीच बड़ी सी गोल लाल बिंदी !
कितना तो अद्भुत सौंदर्यनुभूति है, ललाट पर गोधूली का विहंगम दृश्य, अक्सर ही मेरी आँखे उस ओर देखने लगती जिस ओर वह दृष्टिगत होती !
“क्या ही फूहड़ स्त्री है” सोसाययटी की तमाम औरतों को वह नाहद जाहिल मालूम पड़ती ! कपड़े पहनने का ज़रा भी सलीक़ा नही, जब देखो इंद्रधनुषी बनी फिरती है !
मुझे तो जादूगरनी लगती, भारी टोना टोटका जानती है ! सबको वश में कर ख़ुद अपनी ही धुन में रहती है ! इस बात से सर्वथा अनभिज्ञ कि उसके बारे में सोसायटी की अन्य औरतें “पता नही कौन है कहाँ से आई है?” जैसे मामूली सवालों के अनेक जवाबी अनुमान में घंटों बिता देती है !
सोसायटी के बाहरी पार्कनुमा हिस्से के घुटनों तक घेरे पर निष्क्रिय बिजली के तार पर क़तार में बैठी पंछियों की तरह रोज़ाना बैठकी लगाने वाली ग़पेड़ स्त्रियों के लिये वह कौतूहल का विषय थी !
‘इस तरह का शृंगार तो अब गाँवो में दुष्प्राप्य है’ या ‘‘इससे पहले शहर में नही आई”.. तरह तरह की मुखाकृति बनाकर अटकल लगाने वाली स्त्रियों में जानने की यह स्वाभाविक जिज्ञासा से मैं भी वंचित नही थी.
लगता है नई नई शादी हुई इसलिये ही शायद शृंगार के लिये ऐसा अनोखा खिंचाव है क्या ? ! समूह की बुज़ुर्ग सभापति तत्काल उसकी चर्चा को स्थगित कर दूसरों की बहू-बेटियों की निंदा में लिप्त हो गई !
कुछ दिनों में ही सोसायटी की सभी स्त्रियाँ उसकी बेपरवाह स्वभाव की अभ्यस्त हो गई और उसे शाम की बैठक का निर्विघ्न हिस्सा बना लिया !
कभी किसी ने किसी पुरुष के साथ नही देखा; शायद परित्यक्ता है !
साथ में कोई बच्चा भी तो नही ! शायद बाँझ है इसलिये छोड़ दी गई है !
लेकिन अभी तो कच्ची उम्र है…ईश्वर ही जाने क्या बात है ?, ये तो किसी से बात भी नही करती !
अरे बात तो दूर की बात है हमारी ओर ताकती तक नही, जाने ख़ुद को क्या समझती है ..हुह !
उस दिन वह चप्पल की चट चट और पायल की रून झुन की मिली जुली सरगम के साथ पंगती स्त्रियों को अनदेखा करती ठीक सामने से मुख्य द्वार की तरफ़ चली जा रही थी जो राजमार्ग पर खुलती है !
राजमार्ग की दूसरी तरफ़ राशन और सब्ज़ी की छोटी छोटी दुकानों ने एकजुट होकर बाज़ार की शक्ल ले ली थी !
इतनी जल्दी बाज़ार का भी पता मालूम हो गया ? यह सुगमसाध्य तंज़ सुचिता वाली स्त्रियों को बहुत प्रिय है !
अर्थात उसे तो हमसे आकर पूछना चाहिये था कि फ़लाँ प्रयोजन का समान कहाँ उपलब्ध होगा लेकिन यह तो पहले से प्रचंड जान पड़ती है !
क्या पता यह शहर उसे जानता हो या वह इस शहर को जानती हो; या फिर नमक ही ख़त्म हो गया हो पता नही क्यूँ मेरे मन ने उसकी तरफ़दारी की !
उसके गुज़रते ही गुलाब की मसृण ख़ुशबू अगरबत्ती सा महक गई, सहसा मेरी नज़रें वय प्राप्त पुरुष की तरह उसकी पीठ से छिपकली की तरह जा चिपकी !
मैं कोई अलग स्त्री नही थी, किसी ख़ास ग्रह से नही आई थी बल्कि उन सब जैसी ही थी; मेरी संरचना भी उन्ही हाथों से हुई थी जिन हाथों से निर्मित उसके बारे में सब जान लेना चाहती थी !
पीठ को पूरी तरह से ढँकती हुई आँचल सर के पृष्ठ भाग से ऐसे झूल रही थी मानो केश में तेल की जगह गोंद लगा रखा हो और उस गज़गामिनी के आँचल के नीचे नितंब पर काले नाग की पूँछ सी हिलती हुई चोटी का अंतिम बित्ते भर का हिस्सा मेरे विस्मय के लिये पर्याप्त था !
इतने लम्बे कुन्तल, मेरे भीतर अचरज का द्वार मेरे मुख के समान ही खुला रह गया ! नीलगिरी के पेड़ की परछाइयों सी लम्बेतर केश राशि, वर्तमान दिनों की स्त्रियों में इतना अद्भुत चिक़ुर प्रेम दुर्लभ है !
इस स्त्री के उल्लेखनीय श्रृंगार दर्शन के प्रति मैं अपने भीतर एक विशिष्ट खिंचाव महसूस कर रही थी जो तमाम आदिम संवेगों की तरह मुझे अहर्निश रहा कि जैसे इसके साथ ही मेरा जन्म हुआ हो, या मेरे भीतर ही किसी शिशु की तरह पल रहा हो ! अजाने ही मैं उसके साथ नाभिनाल सा जुड़ाव महसूस कर रही थी किंतु क्यूँ ही ? यह एक सवाल प्रायः मेरे ज़हन में कौंध जाता जैसे मेह में तड़ित या निर्जन में जीवन !
रात अलग सी बेचैनी में कटी, कभी इस पहलू तो कभी उस पहलू, करवटों के कई बदलाव के तत्पश्चात मैं सुबह देर तक सोती रही, जब खिड़की के रास्ते धूप कमरें में घुस तलवे को गुदगुदाने लगी तब एक अंतिम करवट के उपरांत मुझे यक़ीन हो गया कि अब मैं नींद में नही हूँ !
नर्म तकिये से जुदा होकर मैंने बालकनी का दरवाज़ा खोला तो मिट्टी की सोंधी सोंधी खुशबू से घर महक गया ! मौसम की बची हुई कुछेक बारिशो में से एक आज पुरज़ोर बरस कर जा चुकी थी ! जमे हुए ईंट पर सीमेंट की मोटी परत वाले रास्ते धुल कर चमक रहे थे, पत्तियों से संग्रहित पानी से निर्मित आख़िरी बूँद टपकने को तैयार थी ! बारिश के बाद सूर्य की किरणें सात घोड़े जुते रथ पर सवार अन्य दिनों की तुलना में अधिक प्रचंड और प्रखर हो मेरी बाल्कनी में उतर रही थी !
कार्तिक माह के शुरू होते ही कुलीन घरों की स्त्रियाँ सूर्योदय के पूर्व स्नानआदि से निवृत हो तुलसी जी में जल अर्पण कर अगरबत्ती खोसते हुए कोई मंत्र बुदबुदाती है और इस जैसी निकम्मी सुस्त स्त्रियाँ तुलसी और अगर से सुगंधित पवित्र समीर से लापरवाह हाथ में चाय का कप लिये पता नही क्या सोचती रहती है !
बग़ल के छज्जे पर नीलकंठ, छींटदार आवरण वाली गौरैया और एक धवल कबूतर से लाल गर्दन और टेढ़ी मुँह वाला नारद सुग्गा मेरी चुग़ली कर रहा था !
ये देर रात तक जागती है, दिये का तेल ख़त्म हो जाने तक, बाती के जल जाने तक जागती है या तो पढ़ती है या लिखती है ! संतप्त धुएँ के नशे से इसकी आँखे बोझल रहती है अतः देर तक सोती रहती है ! नीलकंठ ने मेरी वकालत में कहा !
ये सब तुम्हें कैसे पता ? सुग्गे ने अपने पंख झाड़ते हुए तुनक कर पूछा !
इसकी उनींदी आँखों आँखों में सब लिखा है कहकर नीलकंठ किसी और अनुग्रह के लिये उड़ गया और सुग्गा पुनः बाक़ी दोनो श्रोता से नीलकंठ और मेरी बुराई में लीन हो गया !
तुम्हें कमियों पर गोष्ठी से फ़ुर्सत मिले तो कभी ख़ूबियों पर भी ताली बजाना गिरेसुनी सी मैंने पलट कर जवाब दिया और भीतर घुस ठाक से दरवाज़ा बंद कर लिया !
( नोट :- गिरेसुन – टर्की का एक प्रान्त जहाँ मनुष्य पक्षियों की भाषा बोलते हैं )
माघ माह की पहली दहाई के अंतिम दिनों की एक गुनगुनी दोपहर मैं अपनी पसंद की किताब लेकर सोसायटी के पिछले हिस्से, जहाँ धातु की दो बेंच लगाकर पार्क होने का भ्रम पैदा किया गया था पहुँच गई ! यह हिस्सा वह एकांत जगह है जहाँ आमतौर पर कोई आता जाता नही, नारद सुग्गा भी अपनी गोष्ठी के लिये इस पार्क को उपयुक्त नही मानता किंतु पढ़ने के लिये मुझे एकांत की तलब होती है जो घर से हमेशा ही नदारद मिलती है इसलिये प्रायः ही मैं इस नीरवता में कोई प्रिय पुस्तक लेकर चली आती हूँ !
मुझे अचंभित करते हुए लाल मगज वाली कुश की चटाई पर आज वह वहाँ किसी वांछित इक्षा सी पहले से प्रस्तुत थी, उसके पास ही रखी एक स्टील की कटोरी छीले हुए मटर के दानों से भरी थी और पारदर्शी प्लास्टिक की बैग छिलकों से !
छिमी तो अभी बहुत महँगी है बाज़ार में, मंझोले श्रेणी के परिवार के लिये सुगम नही है और पहली दृष्टि में तो यह गुप्ता उच्च वर्ग की क़तई ही नही लगती परंतु क्या मालूम हो ! अक्सर ही जो दृष्टिपात हो वही सत्य नही ! सत्य हमेशा ही कृत्रिम भेष में रहता है, उसकी खोज में मनुष्य उसी तरह भटकता है जैसे मृग कस्तूरी की !
मेरी इस मानसिक द्वन्द से नितांत अंजान वह मुदित भाव से सलाइयाँ चला रही थी, ऊन गहरे हरे रंग का था, स्वेटर शायद किसी पुरुष का था ! मुझे देखते ही उसके ऐसे हाथ रूक गये, जैसे उसके अनुस्ठान में जैसे कोई विघ्न पड़ा हो, जैसे किसी उड़ती हुई चिड़िया का मल उसके सर पर गिरा हो !
वह उठने को उद्धत हुई तो तत्काल ही मैंने मृदुल लफ़्ज़ों में रुकने का आग्रह किया !
मैंने क्यूँ रुकने का आग्रह किया ? क्या मैं उसके साथ किसी वाक् संबंध की अभिलाषी थी औपचारिकता पूर्वक प्रार्थना !
उसने मेरी ओर मुस्कुरा कर देखा और पुनः चटाई पर पाल्थी लगा लिया !
उसके मुस्कुराने को स्वतः ही मैंने मित्रता का संकेत मान लिया और आह्लादित हो नाम पूछा !
पार्वती ! कहकर वह चुप हो गई लेकिन मेरे ज़हन में कई कहानियाँ कौंध गई ! उन कहानियों के शब्द मेरे समक्ष तास के घर की तरह भड़भड़ा कर गिर पड़े !
देव की पार्वती, उनके अद्वैत प्रेम के द्वैत होने की कहानी देवदास, वास्तव में देवदास प्रेम कहानी ना होकर देव के अहं और पार्वती के ग़ुरूर की कहानी है जो इस वक़्त मेरे हाथ थी !
स्वेटर बुनती पार्वती का मुख प्रेम से प्रदीप्त दिये की जलती हुई लौ सा दमक रहा था ! निश्चित ही यह देव की पारो नही, पारो का मुख तो ग़ुरूर से प्रकाशित था ! यह प्रेम में पगी गौरा है जिसने सौ वर्षों तक तपस्या कर एक सौ आठ जन्मों तक शिव को पाया है और अब वे अवियोज्य हैं !
महवार लगे पैरों में चौड़ी पायल और उँगलियों में जड़े बिछुए, हाथों में कच्ची लाह की चूड़ियाँ और ब्लू रंग से रंगे नाख़ून ! निकृष्ट स्वप्न से जागी निष्कलंक सुबह सी, जलावन योग्य दरख़्त में जन्मी नई कोंपल; किसी झक कैन्वस पर खींची हुई पहली रेखा सी पार्वती मुझे लुब्ध कर रही थी !
चाँदी के पार वाली पीले रंग की सादी रेशमी साड़ी पर गहरे हरे रंग का ब्लाउज ! मैं आप ही मुस्कुरा दी ! शरतचंद्र ने भी ऐसी पार्वती की कल्पना नही की थी, उसके अदम्य सौंदर्य के लिये ऐसा रंग संयोजन नही चुना था !
मैंने बुक मार्क लगे पेज को खोला किंतु नज़रें उद्वेलित हो बार बार उसपर जा टिकती ! छंद में लिपटी कविता सी वह मुझे मुग्ध कर रही थी !
जाड़े में शाम जल्द चली आती है, शाम अपनी स्याह पैहरन चढ़ाने लगी थी, उसने अपना असबाब समेटा और उठ खड़ी हुई ! जाने से पहले उसने मुझपर अपनी मुस्कुराती हुई नज़र फेंकी और प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही चल दी !
पार्वती, मैंने बेतकल्लुफ़ी से पुकारा !
जी, सूर्यमुखी ने गर्दन मेरी ओर घुमाई और निर्निमेष मुझे देखा !
तुम कल भी आओगी ? मेरे इस प्रश्न से स्तब्ध रह गई थी वो ! जवाब में उसकी आँखों में कई तलब उभर आये थे जिन्हें मेरे पढ़ने से पहले ही उसने पलक झपक कर प्रश्नपत्र ग़ायब कर दिये ! फिर बमुश्किल कहा, नही, आज वो आयेंगे कहकर जल्दी से मुड़ गई !
जैसे किसी किताब पढ़े बिना ही बंद कर दी जाती है, आगुंतक को बिना दरवाज़ा खोले ही “घर में कोई नही है” कह दिया जाता है वैसे ही वह मुझसे कोई बवास्ता नही रखना चाहती थी, जो ताल्लुक़ रखना होता तो कम अज कम नाम ही पूछ लेती ! अनिक्षा से मृषा ही !
शायद मुझे निकृष्ट समझती है, अदमक़द आइने में ख़ुद पर दृष्टि डाली मैंने, मुझमे उस जैसा अनूठापन नही, रंगों के बिलक्षण युग्मन का गुण नही अन्यथा मुझे तुच्छ जानती है ! कदाचित् एकांतप्रिय हो, मैंने अपने क्षोभ को मिटाने हेतु विहित बहाना तलाश लिया !
पाँतिबद्ध स्त्रियों की नज़र को दूषित करने में विफल काला धुआँ छोड़ती मोटर साइकल का प्रधान रोशनी स्रोत अंधेरे को चीरती हुई तेज़ी से गुज़र गई !
आज तो रूप ही बदला हुआ है, एक साथ कई स्वर थे ! उसके रूप की तरह आज तंज भी बदला हुआ था !
मेरी तो पहचान में भी नही आई न वो और ना तंज ! चुस्त जींस टॉप पर चोक्लेटी रंग की बूट और मेल खाता जैकेट उसपर लम्बे खुले बाल ! चालक लड़के से मक्खी की तरह चिपक पर बैठी वह एक आम लड़की थी, जिसमें मेरी दिलचस्पी रत्ती भर नही थी ! ‘उसके बाल ख़राब हो जायेंगे’ यह एक मामूली चिंता हुई थी मुझे !
अरे आपको उसके बाल की चिंता हो रही है ? मुझे सोसाययटी की बहु बेटियों की चिंता हो रही है ! हमारी मुखिया ने चिढ़ कर कहा था !
कल तक तो आदर्श बनी घूम रही थी आज बेशर्म लड़की की तरह बाइक पर लड़के के साथ उड़ रही है !
किसकी बात कह रहीं है आप ? मैंने बेख़याली से पूछा !
अरे वही, जो रंग बिरंगी कपड़े पहना करती थी, जिसके रूप लावण्य पर आप बड़ा मुग्ध हुआ करती थी !
मेरे भीतर अचरज की नदी बह निकली, उस नदी से औचक की कई छोटी छोटी धारायें निर्गत होने लगी !
दूसरी सुबह पूरी सोसाययटी में बात आग की तरह फैल गई थी “वह किसी के अन्य पुरुष के साथ भाग गई” !
मैं स्तब्ध थी, पार्वती शिव के साथ गई थी या देव के साथ !
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अनुकृति उपाध्याय हिंदी कहानीकारों की जमात में नई हैं लेकिन उनकी कहानियां बहुत अलग तरह की हैं. उनका पहला कथा संग्रह राजपाल एंड संज से प्रकाशित हुआ है ‘जापानी सराय’. जिसकी भूमिका लिखी है सुप्रसिद्ध कथाकार हृषिकेश सुलभ ने. फिलहाल आप भूमिका पढ़िए- मॉडरेटर
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समकालीन हिन्दी कहानी का परिदृश्य विविधताओं से भरा हुआ है। कई पीढ़ियाँ एक साथ रच रही हैं। सबके अपने-अपने जीवनानुभव हैं और कथा-कथन के अपने-अपने अंदाज़। अनुकृति उपाध्याय नई पीढ़ी की कथा-लेखिका हैं और जपानी सराय उनका पहला कथा-संकलन है। इस संकलन की कहानियों से गुज़रते हुए हम सर्वथा एक नए कथालोक की यात्रा पर होते हैं, जहाँ हमारा सामना उस संसार से होता है जो हिन्दी कहानी में अपेक्षाकृत कम चित्रित-वर्णित हुआ है। अनुकृति उपाध्याय की कहानियों में नवाचार केवल कथानक के स्तर पर नहीं है, बल्कि कथ्य और कहन की शैली के स्तर पर भी यहाँ बहुत कुछ नया घटित होता है। इन कहानियों में नाटकीय सामर्थ्य अपनी प्रभावशाली भंगिमाओं के साथ उपस्थित है। हिन्दी कहानी अब तक इस नाटकीय सामर्थ्य के लिए अधिकांशत: लोककथाओं, किंवदन्तियों, जनश्रुतियों और लोक-विश्वासों तथा पारम्परिक प्रेमाख्यानों के भरोसे रही है। इन कहानियों में इनसे परे जाकर समकालीन जीवन के अन्तर्द्वन्द्वों से यह नाटकीय सामर्थ्य अर्जित करने का प्रयास किया गया है। प्रेम यहाँ है, पर वह अख्यान की मोहकता के साथ नहीं बल्कि इस समय की यांत्रिकता के दबावों में पिस कर मानवीय सम्वेदनाओं की तलाश करते हुए उपस्थित है। समकालीनता के जो आन्तरिक टकराव हैं, अनुकृति उपाध्याय की नज़र उन टकरावों के प्रति बेहद सम्वेदनशील है। इन टकरावों के महीन तंतुओं से वह अपनी कहानियों के भीतर एक ऐसा संसार रचती हैं जहाँ जीवन की तहों के भीतर छिपी मनुष्य की आकांक्षाओं और सम्बन्धों की गरिमा उद्घाटित होती है। जापानी सराय, चेरी ब्लॉसम, शावार्मा जैसी कहानियों को इस संदर्भ में रेखांकित किया जा सकता है। इन कहानियों में प्रतिकात्मकता और कथा-शिल्प की जटिलताओं का आग्रह नहीं है। अपने लेखन के आरम्भिक दौर में ही यह सहजता अर्जित करना एक बड़ी उपलब्धि है।
हरसिंगार के फूल जैसी कहानी में स्मृतियों की अवाजाही से सम्वेदनाओं का एक आर्द्र लोक सृजित होता है। इस आवाजाही की त्वरा में एक विलक्षण लयात्मकता है, जिससे संगीत उपजता है। मौना और विश्वा की यह प्रणय-कथा जिन स्थितियों में अपने शिखर पर पहुँचती है उसकी पृष्ठभूमि में मृत्यु की छाया है। प्रेम की दीप्ति में देह के मिलन की उत्ताप भरी भंगिमाएँ एक ऐसे लोक को रचती हैं जिससे गुज़रते हुए पाठक के भीतर कोई नम सोता फूट पड़ता है। मानवीय सम्बन्धों और सम्वेदनाओं के लिए आज का समय दुर्भिक्ष-काल है। इसकी चिन्ता आज वैश्विक चिन्ता बन चुकी है। आदमी आज अपने व्यक्तित्व की निजताएँ खोकर भीड़ का हिस्सा बनता जा रहा है। अपने-आप से, अपने आत्म से अलग होकर जीने की इस भयावहता को अनुकृति उपाध्याय की कहानियाँ निर्ममता के साथ उजागर करती हैं। प्रेजेंटेशन में मीरा का संघर्ष कैरियर का संघर्ष नहीं है। वह अपने आत्म को पाना चाहती है, पर मनु और पारम्परिक संयुक्त परिवार की रूढ़याँ उसे दलदल में फँसाए रखना चाहती हैं। रिश्तों की आड़ में युवा शिकारी दीपू के आक्रमण का वह सामना करती है और अपने लिए राह बनाती है।
मुझे विश्वास है कि इस संकलन की कहानियों को पढ़ते हुए पाठक को मात्र नए जीवनानुभव ही नहीं मिलेंगे। इन जीवनानुभवों के आंतरिक संश्लेषण से बुनी हुई कहानियों में पीड़ा और सुख का अनूठा द्वन्द्व मिलेगा। अनुकृति उपाध्याय की कहानियों को केवल उनके प्रभाव और रसात्मकता के आधार पर मूल्यांकित नहीं किया जा सकता। कई बार वह कथा-शैली के प्रचलित रूपों का अतिक्रमण करती हैं, पर उनका यह अतिक्रमण कहानी के चरित्र और सम्वेदन को नए आवेगों से पूरित करता है। यथार्थ की संश्लिष्टता के कारण ये कहानियाँ कहानी-कला की कई शर्तों को पूरा करती हैं और यथार्थ की विविधवर्णी छवियों की पुनर्रचना करती हैं। इस आश्वस्तकारी आरम्भ के लिए शुभकामनाएँ!
हृषीकेश सुलभ
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भाषा एवं शिक्षा शास्त्र विशेषज्ञ कौशलेन्द्र प्रपन्न का यह लेख शहरों के अपने परायेपन को लेकर है. बेहद आत्मीय गद्य- मॉडरेटर
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शहर किसी का भी हो वह हमें ताउम्र प्यारा होता है। बार बार लौटकर अपने शहर आने का लोभ हम रोक नहीं पाते। कहीं भी रहें। देश दुनिया टहल घूम आएं, लेकिन हर किसी की चाहत होती है कि अपने शहर लौट जाऊं जब अंतिम समय आए। लेकिन वैश्विक नागरिक जब से हुए हैं तब से यह संभव नहीं। जनमते कहीं हैं, पलते-बढ़ते कहीं हैं और रोजगार की तलाश में हमारा शहर पीछे छूटता जाता है। इतना पीछे छूट जाता है कि फिर हमें हमारा शहर समेटा नहीं जाता। हालांकि शहर कोई वस्तु नहीं जिसे पॉकेट में भर लिया जाए। इतना तो ज़रूर हम करते हैं कि उन शहरों की स्मृतियों को अपनी यादों में समेटने की पुरजोर कोशिश करते हैं जब भी हमें अपने शहर लौटने, टहलने का मौका मिलता है। चाहे वह लेखक हों, कवि हों, पत्रकार, व्यापारी, डॉक्टर सब के सब अपने शहर के जुड़े होते हैं। बातों ही बातों में लिखने में या कहने में हमारा शहर न चाहते हुए भी ज़िंदा हो जाया करता है। वह तस्लीमा नसरीन हों, सलमान रूश्दी हों, कुलदीप नैय्यर हों, विद्या निवास मिश्र हों आदि। सब के सब ताउम्र अपने शहर लौटने की उम्मीद लिए यहां से कूच कर गए। तस्लीमा नसरीन का अधिकांश लेखन जिसमें ‘‘जाबो न केनेर जाबो ना’’, ‘‘फेरा’’ आदि में अपने वतन और जन्मस्थली को ढूंढ़ते हुए अटी हुई हैं। वहीं कुलदीप नैय्यर भी कई बार कह चुके वो अपने देश जहां जन्मे वहां जाना चाहते थे। गए भी, लेकिन सब कुछ बदला बदला सा मंज़र मिला। शायद अंदर से निराश भी हुए। यहां मांग व उम्मीद कितना जायज है कि जो शहर आपकी स्मृतियों में रचा- बसा है। वह सदियों बाद भी वैसा का वैसा ही रहे। यह संभव नहीं। बल्कि यह मांग ही अपने आप में ग़लत कह सकते हैं। विकास की गति में आप ही का शहर क्यों पीछे रहे। क्यों वहां के रहने वालों को बड़ी बड़ी दुकानों, मॉल्स में घूमने, खरीदारी करने से महरूम रहना पड़े। क्यों वहां भी छह और आठ लेन की सड़कें न गुज़रें। क्यों नहीं आपके शहर के लोगों को बड़ी बड़ी गाड़ियों पर घूमना का शौक पूरा हो। होना चाहिए। दरअसल हम थोड़े से संकुचित हो जाते हैं। बल्कि कहना चाहिए हम अपनी स्मृतियों में ही जीना चाहते हैं। अतीतजीवी होकर हम कहीं न कहीं शहर के विकास और प्र्गति को नकारना चाहते हैं।
जब हम अपने शहर में जन्मे तब और अब में ख़ासा बदलाव नज़र आने लगता है। हम उस बदलाव को पचाना नहीं चाहते या उस परिवर्तन के चक्र को रोक देना चाहते हैं। कोई भी शहर, गांव, कस्बा वहीं नहीं रह जाता जैसा आपने बीस तीस साल पहले देखा और जिया था। बदलाव तो वहां भी घटित होंगे ही। वह देश कौन सा है जहां शहर नहीं बदले। गांव और कस्बे नहीं बदले? तकनीक के कंधे पर चढ़कर हर शहर अपने आप को बाबू और शहरी रंगबाज़ बनना चाहता है। उन्हें हम किस नैतिक आधार पर रोक सकते हैं। जब हम स्वयं महानगर में रहते हुए तमाम सुविधाओं का आनदं उठाने में गुरेज़ नहीं करते तो हम किस आधार पर उन शहरों में खुलने वाले अत्याधुनिक प्रसाधनों, सुविधाओं का विरोध करने का अधिकार रखते हैं जो परिवर्तन के साथ चलना और चलाना चाहते हैं। जिन शहरों में हम लोग जन्मे, बुनियादी तालीम हासिल की तब की स्थितियां एकदम भिन्न थीं। फोटो कॉपी कराना हो तो, फोन करना हो तो, फोटो निकलवाना हो तो काफी श्रम और वक़्त लगा करता था। लेकिन इस बार जब आप या कि हम उस शहर लौटे तो वो सभी सुविधाएं हमें मिलीं जिसकी आदत हमें महानगर में लग चुकी है। हम इस तथ्य और तल्ख़ हक़ीकत को पचा नहीं पाते कि अरे यहां के लोग भी इन सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। तुर्रा यह कि हमें लगता है हमारा शहर बदल गया। हमारे शहर में मॉल नहीं खुलने थे। हमारे शहर की पुरानी पहचान बरकरार रहें आदि-आदि।
जब से हम वैश्विक नागरिक से होने लगे हैं तब से यह तय कर पाना मुश्किल है कि हम कहां जन्मेंगे, कहां शिक्षा हासिल करेंगे और कहां नौकरी करते हुए बस जाएंगे। जन्म चाहे किसी भी भूखंड़ में और नौकरी कहीं समंदर पार किया करते हैं। लेकिन ऐसे में अंतिम मिट्टी हमें हमारे शहर की नसीब हो यह कैसे मयस्सर हो सकता है। हालात तो यह हो चुके हैं कि अपने मां-बाप की मृत्यु, शादी आदि अवसरों पर भी हम अपने शहर, अपनों के बीच अपने घर नहीं लौट पाते। और एक टीस मन में लिए डोला करते हैं। काश अंतिम क्षणों में उन्हें मिल आता। तब हमारी ज़ेब और नौकरी तय किया करती हैं हमारी प्राथमिकताएं। कब कहां और किनके बीच जाना है। ऐसे परिवार हमारे बीच हैं जिनके बच्चे प्रदेश में हैं जब वो अपने उम्र के अंतिम पड़ाव में होते हैं तब भी उनके बच्चे उनके पास नहीं हो पाते। यह एक पीर हमें सालती रहती हैं। लेकिन सच्चाई तो यह भी है ही कि हम समय पर अपने शहर नहीं लौट पाते। वज़हें जो भी हों।
जब कभी जाना हो अपने घर एवं अपने शहर तो ज़रा इन खाली कमरों को ज़रूर देखने का अवसर निकालिएगा। वहां उन अंधेरे कमरों में भी जाने की कोशिश कीजिएगा जहां आप कभी उठा-बैठा करते थे। जिन सोफों पर बैठने के लिए आपस में लडाई होती थी उस सोफे पर अब चूहों, बिल्लियों की धमाचौकड़ी करती मिलेंगी। कोई नहीं बैठता अब आपके बैठकखाने में। कोई बैठा मिलेगा तो बस पुरानी यादें। इन्हीं यादों को सजोए बैठे मिलेंगे हमारे मां-बाप। जो तमाम कमरों को बंद कर एक दो कमरों पर सिमटकर रह गए हैं। क्या करेंगे सारे कमरे खोल कर। कमरे खुलेंगे तो यादे बाहर झांकने लगेंगी। बाहर की हवाओं और धूल से गंदे होंगे। तब कौन साफ-सफाई करेगा। जहां मां-बाप रहा करते हैं उन्हें ही साफ करना उनसे नहीं बनता। बिस्तर पर ही पिछली यात्रा के बैग, सामाना पड़े हैं। उन्हें तो रखा नहीं जा सका। खाली कमरों को कौन दुरुस्त करे।
इन सूनी आंखों और खाली कमरों को न तो देखने वाला कोई है और न संभालने वाला। यूं ही कभी जाना हो घर तो देख सकते हैं छत भी जगह जगह से पलस्तर छोड़ रहे हैं। पुराने पंखे चलने बंद हो गए हैं। उन्हीं पंखों की जिनके नीचे पूरा घर सोने के लिए मारा मारी किया करता था। अब वे पंखे भी बंद पड़े हैं। मां-बाप से पूछ लिया कि यह क्यों बंद है? लालटेन क्यों ख़राब है? या फिर कल, बिजली का मीटर ठीक क्यों नहीं है? आदि तो जवाब मिलेगा अब हमने नहीं बनता। उम्र सत्तर अस्सी पार है। अपने लिए खाना-पानी, दवा सेवा करें कि इन्हें देखें। कौन सुनेगा? कोई नहीं सुनता। कई बार बिजली आफिस, बैंक का चक्कर काट आए हैं मगर रोज नया बहाना बना देते हैं आज के मैनेजर। तुम्हारे पिता की स्मृतियां भी तो ऐसी ही हो चली हैं। इन्हेंं संभालें कि खाली घरों को। पैसे लेकर जाते हैं बाजार और पैसे कहां किसे दे आते हैं या गिरा देते हैं। पूछो कि सामान कहां हैं तो बच्चों सा मुंह बना लेते हैं। लगता है पैसे तो दिए थे, लेकिन सामान वहीं छूट गया शायद। कहते कहते मां की बेबसी छलकने लगती है।
तुम लोगों के पास वक़्त कहां है? कोई भी तो नहीं आता। मुहल्ले वाले, आस-पड़ोस वाले, नाते रिश्तेदार सब के सब पूछा करते हैं फलां को तो आए जमाना हो गया। बेटी भी पिछले कई सालों से नहीं आई। कोई नहीं आने वाला। इतना पढ़ाया ही क्यों इन्हें? नहीं पढ़ाते तो कम से कम आपके पास रहते आदि आदि। ऐसे ऐसे तर्कों, कुतर्कों से मां-बाप के कान पक चुके हैं। वो भी कई बार, कई मर्तबा अपने आप को समझा चुके हैं कि बच्चे व्यस्त हैं। सब के सब अपने आफिस और बच्चे में उलझे हुए हैं। लेकिन कभी तो कान में इन बातों का असर तो पड़ता ही है। और मां-बाप कभी कभी उन्हीं की जबाव बोलने लगते हैं।
खाली कमरों, सूनी आंखों की संख्या लंबी है। हर शहर, हर कस्बे में ऐसी कहानी आम मिलेगी। शहर छोटा हो या बड़ा। लेकिन बच्चों का विस्थापन बतौर ज़ारी है। शहर और कस्बे ख़ासकर इस माईग्रेशन से गुजर रहे हैं। शहरों में विकास और निर्माण कार्य देखे जा सकते हैं। पुरानी दुकानें, घर तोड़कर पुनर्नवा किया जा रहा है। इन्हीं बनते,टूटते शहर में कुछ कमरे अभी भी तवा रहे हैंं कोई रहने नहीं आता। कोई इनका हाल जानने नहीं आता। यदि किसी दिन मां-बाप में से कोई भी एक खिसका फिर बच्चे भागे भागे आएंगे। यह मेरा कमरा, वहां तेरा कमरा। घर को दो फांक किया जाए। उस कमरे को भी बांटा जाए जिसमें देवता घर हुआ करता है। और औने पौने दामों में घर को बेचने का सिलसिला निकल पड़ता है।
याद आता है कभी पड़ोस के चचा ने अपना घर बेचा। बेचकर सारी रकम बेटे को सौंप दी। और अब आलम यह है कि बीच में कुछ कहानियां बनीं और वापस उसी शहर में आना हुआ। लोगों ने देखा। बातें बनाईं और कहानी फिर चल पड़ी। यह एक ऐसी कहानी थी जिसे सुनकर आंखों में किसी को भी लोर भर आए। लेकिन क्या कीजै जब होनी को होनी थी और हुई भी। उम्र नब्बे साल। पत्नी की उम्र अस्सी साल। अब दोनों उसी शहर में किराए पर रहा करते हैं।
काफी हद तक वैश्विक साहित्य और कला की अन्य विधाएं इन्हीं टीसों और शहर की कहानियों में सनी हुई हैं। वह कहानी, उपन्यास, कविता, यात्रासंस्मरण आदि में कथाकार, कवि अपने अतीत के शहर और पलों को जीया करता है। जिन्हें जीया उन्हें लिखा। जिन्हें लिखा उसे ताउम्र जीने की पढ़ने-पढ़ाने की कोशिश किया करते हैं। जब याद किया करते हैं अपने शहर को तो वह तमाम चीजें आंखों के आगे घूमने लगा करती हैं। सुबह के होते अज़ान और हनुमान चालीसा दोनों की मिश्रित ध्वनियां कानों में एक ख़ास एहसास से भर देते हैं।
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हाल में ही जानकी पुल के संपादक और युवतम कवि अमृत रंजन का कविता संकलन ‘जहाँ नहीं गया’ नयी किताब प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. आप किताब की भूमिका पढ़ सकते हैं जो मैंने लिखी है. पुस्तक मेले में यह किताब नयी किताब के स्टाल पर उपलब्ध है. आप चाहें तो ले सकते हैं- प्रभात रंजन
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आजकल हिंदी में सबसे अधिक कविताएँ लिखी जा रही हैं। लेकिन यह भी सोचने की बात है कि सबसे कम नवोन्मेष कविता की विधा में दिखाई देता है। हर नया कवि किसी पुराने कवि की तरह लिखता दिखाई देता है। इसीलिए अगर कोई कवि लीक से हटकर कुछ रचता दिखाई देता है उसकी तरफ सहज ही ध्यान चला जाता है। किशोर कवि अमृत रंजन मेरे लिए एक ऐसे ही समकालीन कवि जिसकी काव्य-यात्रा निरंतर अपने मुहावरा गढ़ने और उसको पुख्ता रूप देने की अनवरत कोशिश के रूप में सामने आती है। एक बनते हुए कवि को बनते हुए देखना, अपनी जिद को शब्दों में आकार देते हुए देखना एक अच्छा रचनात्मक अनुभव रहा है।
अमृत रंजन की पहली कविता मैंने पढ़ी थी जब शायद वह 12 साल का था और छठी कक्षा का विद्यार्थी था। ‘अंधेरी रातों में/सोकर भी जगा रखता यह/सपना…कभी-कभी सोचता हूँ/कि किस दुनिया में ले जाता यह/सपना’। इस कविता में कुछ भी बालकोचित नहीं लगा था। ऐसा नहीं मानो किसी बच्चे ने हिंदी की कक्षा में कविता प्रतियोगिता के लिए लिखा हो या महज अपने सहपाठियों या जानने वालों को प्रभावित करने के लिए लिखा हो। हो सकता है कि कविता को उसने शुरुआत में हॉबी के रूप में अपनाया हो लेकिन समय के साथ उसने कविता को पेशे की तरह गंभीरता से लिया है। यही बात उसकी कविताओं में मुझे सबसे प्रभावित कर गई कि जिस तरह से आज मार-तमाम कविताएँ लिखी जा रही हैं, बिना किसी बड़ी काव्यात्मक उपलब्धि की महत्वाकांक्षा के, बिना किसी रचनात्मक सजगता के, वह उनसे अलग लिखता है। वह भीड़ में तो है लेकिन भीड़ के लिए बना ही नहीं है। कवि सुमित्रानंदन की कविता ‘प्रथम रश्मि’ की बरबस याद आ गई- ‘ प्रथम रश्मि का आना रंगिणि!
तूने कैसे पहचाना?
कहाँ, कहाँ हे बाल-विहंगिनि!
पाया तूने वह गाना?
शायद यह कविता प्रकृति की सुन्दरता को शब्दों में जीवंत कर देने वाले कवि सुमित्रानंदन पन्त की आरंभिक कविताओं में एक है, जिसमें एक आदिम जिज्ञासा की अभिव्यक्ति है।
उसकी कविता में एक गहरी जिज्ञासा का सहज भाव ही था जो पहली नजर में ही प्रभावित करने वाला था। बादरायण के अथातो ब्रह्म जिज्ञासा को परम सत्य की प्राप्ति की दिशा में सबसे बड़ा सूत्र माना गया है। कुछ साल बाद अमृत ने जिज्ञासा पर एक लेख लिखा था जिसमें उसने इसाक असीमोव को उधृत किया था- एट फ़र्स्ट देयर वॉज़ क्यूरिओसिटी यानी सबसे पहले जिज्ञासा थी। सपने से शुरू हुई उसकी इस पहली कविता को पढने के बाद पिछले चार-पांच साल के दौरान उसकी कई दर्जन कविता पढ़ी, उसको बालक से किशोर होते हुए देखा और एक कवि के रूप में भी उसको बालकोचित जिज्ञासा से वयस्क अभिव्यक्ति करते हुए देखा है। उसकी जिज्ञासा को बेचैनी बनते हुए देखा है। मसलन, इस साल उसकी जो कविताएँ मैंने पढ़ी उनमें मुझे ‘बेचैन’ कविता याद आ रही है- कितना और बाक़ी है?
कितनी और देर तक इन
कीड़ों को मेरे जिस्म पर
खुला छोड़ दोगे?
चुभता है।
बदन को नोचने का मन करने लगा है,
लेकिन हाथ बँधे हुए हैं।
पूरे जंगल की आग को केवल मुट्ठी भर पानी से कैसे बुझाऊँ।
गिड़गिड़ा रहा हूँ,
रोक दो।
उसके कविता संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए उसके इन दो काव्यात्मक सूत्रों की तरफ ध्यान जाता है जो उसके अब तक की काव्यात्मक यात्रा को समझने में मदद करती है। अमृत रंजन की कविता-यात्रा के सन्दर्भ में जो बात रेखांकित की जानी चाहिए कि एक ‘लोकप्रिय’ समय में बड़ा हो रहा कवि लोकप्रियता के सांचों से लगातार दूरी बनाये हुए है। समकालीन लेखन पीढ़ी का सबसे बड़ा रचनात्मक द्वंद्व यह दिखाई देता है कि लोकप्रिय मानकों को किस तरह अपनाया जाए। अमृत की कविताएँ इस द्वंद्व से मुक्त हैं। उसके द्वंद्व भी दूसरे हैं और सरोकार भी।
बीसवीं शताब्दी के दौरान हिंदी कविता के प्रतिमान और सरोकार कमोबेश एक जैसे ही बने रहे। उनमें अभावों की पीड़ा थी, विषमता का प्रतिकार था, राजनीतिक रूप से प्रतिबद्धता थी और बाद के दिनों में बाजारवाद का विरोध। हिंदी कविता के मानक में निजता को, निजी अनुभूतियों को उतनी प्रमुखता नहीं मिली जबकि कविता को माना ही निजतम अभिव्यक्ति जाता रहा है। हिंदी कविता के ऊपर सार्वजनिक का दबाव बहुत अधिक रहा है। लेकिन नई शताब्दी में हिंदी कविता धीरे धीरे इन मानकों से बाहर निकल रही है, सार्वजनिक के शोर के बीच उसमें निजता का स्पेस बढ़ा है। दूसरी तरफ, सरोकार भी बदले हैं।
मसलन आज वैश्विक स्तर पर हम पर्यावरण के संकट के दौर से गुजर रहे हैं, प्रकृति के साथ हमारी दूरी बढती जा रही है, विस्थापन बढ़ता जा रहा है। जाहिर है, आज के युवाओं के सरोकारों में इनसे जुड़े मुद्दे होने चाहिए। हम जब बच्चे थे तो दिवाली का इन्तजार महज इसलिए करते थे क्योंकि उस रात हमें पटाखे छोड़ने का मौका मिलता था। आज दिवाली आने से पहले बच्चे यह कहते पाए जाते हैं कि पटाखे न चलायें, पर्यावरण बचाएं। अमृत की कविताओं में जिस बात ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया वह यह है कि उसकी कविताओं में पर्यावरण और प्रकृति की चिंता है। उदहारण के लिए, क्या आज से पहले पानी पर ऐसी कविता लिखी जा सकती थी- ‘कितना चुभता है
नल से निकलते
पानी की चीख सुनी है?
मानो हमारे जीवन के लिए
पानी मर रहा है।‘
अमृत की कविता में प्रकृति और परिवेश के असंख्य बिम्ब हैं, असंख्य कथन हैं और उनके पीछे एक तरह का भय झांकता दिखाई देता है उनके पीछे से। अमृत की कविताओं में यही नयापन है जो मुझे आकर्षित करता है और एक बेहतर कवि की सम्भावना जगाता है। परम्परागत रूप से जिसे सौन्दर्य कहा जाता रहा है, जिन उपादानों को प्रकृति के आलंबन के रूप में देखा जाता रहा है अमृत की कविताओं में उनको लेकर एक तरह का संशय है, एक तरह का भय है, सिहरन है, प्रश्नाकुलता है। यह काव्य-मुहावरा नितांत मौलिक है जो अमृत की कविताओं में दिखाई देता है। जो है उससे परे जाकर देखने वाली उसकी नजर हिंदी कविता की कुछ बेहतर निगाहों में हैं। एक बेहतर सम्भावना। उनकी एक कविता है ‘चीड़’-
जंगलों की सैर करने गया था
आवाज़ों को पीने की कोशिश की थी
लेकिन
पेड़ों ने बोलने से इन्कार कर दिया।
चीड़ की चिकनी छाल को छुआ
लेकिन उसने मेरे हाथों में काँटे चुभा दिए।
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‘प्रेम लहरी’ के लेखक त्रिलोकनाथ पाण्डेय से युवा लेखक पीयूष द्विवेदी की बातचीत पढ़िए. यह उपन्यास राजकमल प्रकाशन के स्टाल पर उपलब्ध है- मॉडरेटर
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सवाल – आपने अपनी पहली ही किताब के लिए ऐतिहासिक प्रेम कहानी चुनी, कोई ख़ास कारण?
त्रिलोकजी – इसके कई कारण हैं। पहला, मैं भारत सरकार के गुप्तचर ब्यूरो में राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े बहुत संवेदनशील मुद्दों को डील करता था। मैं उन विषयों पर सार्वजनिक रूप से कुछ बोल नहीं सकता था। दूसरा, एक सरकारी मुलाजिम होने के नाते समसामयिक सामाजिक राजनीतिक मुद्दों पर कुछ लिखना भी मेरे लिए संभव नहीं था। ऐसी स्थिति में ऐतिहासिक कथानक मुझे कुछ सुरक्षित लगे। तीसरा, कुछ ऐतिहासिक व्यक्तित्व, जैसे पंडितराज जगन्नाथ, कूटनीतिज्ञ कौटिल्य, गीतगोविन्द के गीतकार जयदेव, औरंगजेब की बागी बेटी जेबुन्निसा उर्फ़ मक्फी, वगैरह। इनमे पंडितराज जगन्नाथ पर सबसे पहले लिखा क्योंकि मुझे लगता है इतिहास में सबसे ज्यादा अन्याय इन्हीं के साथ हुआ है। आगे अभी हाल में, मैंने जासूसी के जनक चाणक्य पर अंग्रेजी में एक शोधपरक जासूसी उपन्यास लिखा है – Chanakya’s Spies – जो प्रकाशनाधीन है और जिसका हिन्दी रूपान्तरण आजकल मैं ‘चाणक्य का चक्रव्यूह’ नाम से लिख रहा हूँ। मेरी अगली योजना जयदेव के गीतगोविन्द पर आधारित एक ललित उपन्यास लिखने की है जो राध-कृष्ण की कहानी पर एक अभिनव प्रयोग होगा। मुग़ल सम्राट औरंगजेब की बागी बेटी जेबुन्निसा जो मक्फ़ी (=छुपी हुई) उपनाम से फारसी में कविता करती थी, मुझे बहुत आकर्षित करती है, उसकी आह-कराह मैं अपने दिल की गहराइयों में निरन्तर सुनता हूँ। उसके ऊपर एक आत्मकथात्मक उपन्यास लिखे बिना मुझे चैन नहीं। यह सब ऐतिहासिक उपन्यास लिख लूँगा तो तब मैं सामाजिक मुद्दों पर आऊंगा जिसमें प्रमुख है में मौत और मोक्ष से जुड़े व्यवसाय, उसमे संलग्न लोग और पुरोहित वर्ग पर एक शोधपरक उपन्यास। इस बीच, शिव की कथा का एक नवीन विश्लेषण करता मेरा उपन्यास अंग्रेजी में है – Becoming God जो शीघ्र ही आ रहा है। तो, एक तरह से आप कह सकते हैं कि मैं मूलतः ऐतिहासिक विषयों पर उपन्यास लिखना पसंद करता हूँ।
सवाल – ‘प्रेम लहरी’ में कितना इतिहास है और कितनी कल्पना?
त्रिलोकजी – इस उपन्यास में इतिहास नींव है और साहित्य उस पर उठी हुई इमारत है। इतिहास पृष्ठभूमि है तो साहित्य उस पर पड़ने वाला प्रकाश है। कल्पना और जनश्रुतियों के धागों से इतिहास की जमीन पर बुनी हुई यह प्रेमकथा है। अगर प्रतिशत में जानना चाहें तो कह सकते हैं की इस कथा में इतिहास और कल्पना का अनुपात 50-50 है।
सवाल – क्या कुछ शोध भी करना पड़ा इस कहानी के लिए?
त्रिलोकजी – बहुत शोध करना पड़ा। ऐसे उपन्यास बिना गहन शोध के नहीं लिखे जा सकते। मेरे घर में पड़े संस्कृत के कुछ ग्रन्थों के आलावा दिल्ली के सेंट्रल सेक्रेटेरिएट लाइब्रेरी, तीनमूर्ति भवन की लाइब्रेरी, जेएनयू का केन्द्रीय पुस्तकालय बहुत उपयोगी रहे। इसमें मेरी बेटी डॉ संज्ञा और बेटे अनुतोष ने बड़ी सहायता की।
सवाल – ‘प्रेम लहरी’ हिन्दू-मुस्लिम प्रेम कहानी पर आधारित है, आज के समय में अक्सर ऐसे संबंधों के त्रासद अंत की ख़बरें आती रहती हैं। क्या राय रखते हैं आप इसपर?
त्रिलोकजी – आपने सुना है न –
“भूख न देखै बासी भात, प्यास न देखै धोबी घाट।
नींद न देखै टूटी खाट, प्रेम न देखै जात कुजात।”
प्रेम किसी जाति धर्म का गुलाम नहीं होता। ऐसे संबंधों के त्रासद अंत के बारे में सचेत होते हुए भी प्रेमीजन प्रेम में अचेत होते हैं। प्रेम करने वाले परिणामों की गणना करके प्रेम नहीं करते। प्रेम की वेदी पर प्रेमीजन सदैव से अपने प्राणों की आहुति देते आये हैं। यह आज भी जारी है। इसमें नया कुछ नहीं है।
सवाल – आप भारत सरकार के गुप्तचर विभाग में कार्यरत रहे हैं, सो आपको नहीं लगता कि आप थ्रिलर बेहतर लिख सकते हैं?
त्रिलोकजी – मुझे लगता है थ्रिलर में साहित्यिक उत्कृष्टता कम होती है और हिस्टिरिकल उत्तेजना ज्यादा होती है। यद्यपि मेरे आगामी उपन्यास Chanakya’s Spies और उसका हिन्दी रूपान्तरण ‘चाणक्य का चक्रव्यूह’ थ्रिलर की श्रेणी में रखे जा सकते हैं, फिर मैंने गहन शोध और कठिन परिश्रम से उन्हें थ्रिलर की संकुचित सीमा से निकालकर ठोस ऐतिहासिक धरातल पर स्थापित करने की कोशिश की है। एक बात यहाँ मैं और स्पष्ट कर दूं कि गुप्तचरी का कार्य बहुत धीमा, नीरस और उबाऊ होता है। इसमें मनोरंजक या उत्तेजनात्मक कुछ नहीं होता। असली जासूसी के काम में वैसा कुछ नहीं होता जैसा जासूसी उपन्यासों या फिल्मों में दिखाया जाता है।
सवाल – हिंदी साहित्य में इन दिनों भाषा को लेकर बड़ी खींचतान है। अंग्रेजी के शब्दों के प्रयोग के हिमायती लोग बढ़ रहे हैं। आप क्या सोचते हैं?
त्रिलोकजी – भाषा को लेकर अभिनव प्रयोग होते रहने चाहिए। भाषा कोई स्थैतिक माध्यम नहीं है, यह गतिक है। और, यह गति ही उसमें प्राण फूंकती है। हिन्दी में अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू, फारसी, देशज, तद्भव वगैरह सभी प्रकार के शब्दों का यथोचित प्रयोग होना चाहिए। हाँ, यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि भाषा भाव की अनुगामिनी हो; पांडित्य प्रदर्शन या बहुज्ञ होने के दंभ में दूसरी भाषा के शब्दों को जानबूझ कर घुसेड़ना भाषा में कृत्रिमता लाती है। जहा तक स्वाभाविक है वहां तक अंग्रेजी सहित अन्य भाषाओं-बोलियों के शब्दों के प्रयोग का स्वागत है।
सवाल – नए-पुराने किन लेखकों-लेखिकाओं को पढ़ते हैं?
त्रिलोकजी – मैं बहुत व्यापक रूप से पढ़ता रहता हूँ। नाम गिना पाना यहाँ संभव नहीं लगता। मैंने ज्यादातर पुरानों को पढ़ा है। नयों को अभी जो पढ़ सका हूँ उनमें बहुत प्रतिभा पाता हूँ, उनमे बहुत संभावनाएं अभी छुपी पड़ी हैं। बस डर है कि बाजारवाद की विवशताओं और लोकप्रियता के दबावों के चलते उनकी प्रतिभा प्रभावित न हो।
The post इतिहास पृष्ठभूमि है तो साहित्य उस पर पड़ने वाला प्रकाश है- त्रिलोकनाथ पाण्डेय appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..
चुप्पा कवि राकेश रेणु का कविता संग्रह भी इस मेले में मौजूद है ‘इसी से बचा जीवन’, जो लोकमित्र प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. शायद इस बात को राकेश जी भी न जानते हों कि सीतामढ़ी में रहते हुए अपने शहर के जिस बड़े लेखक-कवि की तरह मैं बनना चाहता था वे राकेश रेणु ही थे. आप उनकी कविताएँ पढ़िए- मॉडरेटर
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स्त्री – एक
एक दाना दो
वह अनेक दाने देगी
अन्न के।
एक बीज दो
वह विशाल वृक्ष सिरजेगी
घनी छाया और फल के।
एक कुआँ खोदो
वह जल देगी शीतल
अनेक समय तक अनेक लोगों को
तृप्त करती।
धरती को कुछ भी दो
वह और बड़ा,
दोहरा-तिहरा करके लौटाएगी
धरती ने बनाया जीवन सरस,
रहने-सहने और प्रेम करने लायक
स्त्रियाँ क्या धरती जैसी होती हैं ?
स्त्री – दो
यह जो जल है विशाल जलराशि का अँश
इसी ने रचा जीवन
इसी ने रची सृष्टि।
यह जो मिट्टी है, टुकड़ाभर है
ब्रह्मांड के अनेकानेक ग्रह नक्षत्रों में
इसी के तृणाँश हम।
यह जो हवा है
हमें रचती बहती है
हमारे भीतर–बाहर प्रवाहित।
ये जो बादल हैं
अकूत जलराशि लिए फिरते
अपने अंगोछे में
जल ने रचा इन्हें हमारे साथ-साथ
उन्होंने जल को
दोनों समवेत रचते हैं पृथ्वी-सृष्टि।
ये वन, अग्नि, अकास-बतास
सबने रचा हमें
प्रेम का अजस्र स्रोत हैं ये
रचते सबको जो भी संपर्क में आया इनके।
क्या पृथ्वी, जल,
अकास, बतास ने सीखा
सिरजना स्त्री से
याकि स्त्री ने सीखा इनसे ?
कौन आया पहले
पृथ्वी, जल, अकास, बतास
या कि स्त्री ?
स्त्री – तीन
वे जो महुये के फूल बीन रही थीं
फूल हरसिंगार के
प्रेम में निमग्न थीं
वे जो गोबर पाथ रही थीं
वे जो रोटी सेंक रही थीं
वे जो बिटियों को स्कूल भेज रही थीं
सब प्रेम में निमग्न थीं।
वे जो चुने हुए फूल एक-एक कर
पिरो रही थीं माला में
अर्पित कर रही थीं
उन्हें अपने आराध्य को
प्रेम में निमग्न थीं
स्त्रियाँ जो थीं, जहाँ थीं
प्रेम में निमग्न थीं
उन्होंने जो किया-
जब भी जैसे भी
प्रेम में निमग्न रहकर किया
स्त्रियों से बचा रहा प्रेम पृथ्वी पर
प्रेममय जो है
स्त्रियों ने रचा।
स्त्री –चार
वे जो चली जा रही हैं क़तारबद्ध,
गुनगुनाती, अंडे उठाए चीटियाँ
स्त्रियाँ हैं ।
वे जो निरंतर बैठी हैं
ऊष्मा सहेजती डिंब की
चिड़ियाँ, स्त्रियाँ हैं।
जो बाँट रही हैं चुग्गा
भूख और थकान से बेपरवाह
स्त्रियाँ हैं ।
जीभ से जो हटा रही हैं तरल दुःख
और भर रही हैं जीवन
चाटकर नवजात का तन
स्त्रियाँ हैं ।
जो उठाए ले जा रही हैं
एक-एक को
पालना बनाए मुँह को
स्त्रियाँ हैं।
स्त्रियाँ जहाँ कहीं हैं
प्रेम में निमग्न हैं
एक हाथ से थामे दलन का पहिया
दूसरे से सिरज रही दुनिया।
स्त्री – पाँच
जो राँधी जा रही थीं
सिंक रही थीं धीमी आँच में तवे पर
जो खुद रसोई थीं रसोई पकाती हुई
स्त्रियाँ थीं।
व्यंजन की तरह सजाए जाने से पहले
जिनने सजाया खुद को
अनचिन्ही आँखों से बस जाने के लिए
वे स्त्रियाँ थीं
शिशु के मुँह से लिपटी
या प्रेमी के सीने से दबी
जो बदन थीं, खालिश स्तन
स्त्रियाँ थीं
जो तोड़ी जा रही थीं
अपनी ही शाख से
वे स्त्रियाँ ही थीं।
वे कादो बना लेती थीं खुद को
और रोपती जाती थीं बिचड़े
अपने शरीर के खेत में।
साग टूंगते हुए वे बना लेती थीं
खुद को झोली
जमा करती जाती थीं
बैंगन, झिंगनी, साग, या कुछ भी
और ऐसे चलतीं जैसे गाभिन बकरी
जैसे छौने लिए जा रही कंगारु माँ
वो एक बड़ा आगार थीं
जो कभी खाली न होता था
देखना कठिन था
लेकिन उनका खालीपन
सूना कोना-आँतर!
स्त्री –छह
मैं स्त्री होना चाहता हूँ।
वह दुख समझना चाहता हूँ
जो उठाती हैं स्त्रियाँ
उनके प्रेमपगे आस्वाद को किरकिरा करने वाली
जानना चाहता हूँ
जनम से लेकर मृत्यु तक
हलाहल पीना चाहता हूँ
प्रतारणा और अपमान का
जो वो पीती हैं ताउम्र
महसूसना चाहता हूँ
नर और मादा के बीच में भेद का
कांटे की चुभन
नज़रों का चाकू कैसे बेधता है
कैसे जलाती है
लपलपाती जीभ की ज्वाला
स्त्रीमन की उपेक्षा की पुरुषवादी प्रवृत्ति
मैं स्त्री होना चाहता हूँ
उनकी सतत मुस्कुराहट
पनीली आँखों
कोमल तंतुओं का रचाव
और उत्स समझना चाहता हूँ
मैं स्त्री होना चाहता हूँ।
संताप
हँसते-हँसते वह चीखने लगी
फिर चुप हो गई।
उसकी इठलाती कई-कई मुद्राएँ कैद हैं मोबाइल में
अब एक अदम्य दुख से अकड़ा जा रहा उसका तन
वह ठोक रही धरती का सीना अपनी हथेलियों से
न फटती है वो न कोई धार फूटती है।
उसकी चीख में शामिल है
सूनी मांग की पीड़ा
उस आदमी के जाने का दुख
बैल की तरह जुतने के बाद भी
जो बचा ना पाया अपने खेत।
उसकी चीख में शामिल
अबोध लड़की का दुख
हमारे समय की तमाम लड़कियों, औरतों की चीख
रौंद डाले गए जिनकी इच्छाओं
और संभावनाओं के इंद्रधनुष।
उनकी चीख में शामिल
मर्दाना अभिमान का दुख
धर्म और जात का दुख
प्रेम के तिरोहन का दुख।
उसकी चीख में शामिल
इस अकाल-काल का दुख।
अनुनय
उदास किसान के गान की तरह
शिशु की मुस्कान की तरह
खेतों में बरसात की तरह
नदियों में प्रवाह की तरह लौटो।
लौट आओ
जैसे लौटती है सुबह
अँधेरी रात के बाद
जैसे सूरज लौट आता है
सर्द और कठुआए मौसम में
जैसे जनवरी के बाद फरवरी लौटता है
फूस-माघ के बाद फागुन, वैसे ही
वसंत बन कर लौटो तुम !
लौट आओ
पेड़ों पर बौर की तरह
थनों में दूध की तरह
जैसे लौटता है साइबेरियाई पक्षी सात समुंदर पार से
प्रेम करने के लिए इसी धरा पर ।
प्रेमी की प्रार्थना की तरह
लहराती लहरों की तरह लौटो !
लौट आओ
कि लौटना बुरा नहीं है
यदि लौटा जाए जीवन की तरह
हेय नहीं लौटना
यदि लौटा जाए गति और प्रवाह की तरह
न ही अपमानजनक है लौटना
यदि संजोये हो वह सृजन के अंकुर
लौटने से ही संभव हुई
ऋतुएँ, फसलें, जीवन, दिन-रात
लौटो लौटने में सिमटी हैं संभावनाएँ अनंत !
–प्रतीक्षा-
यह ध्यान की सबसे जरूरी स्थिति है
पर उतनी ही उपेक्षित
निज के तिरोहन
और समर्पण के उत्कर्ष की स्थिति
कुछ भी इतना महत्त्वपूर्ण नहीं
जितनी प्रतीक्षा
प्रियतम के संवाद की, संस्पर्श की
मुस्कान की प्रतीक्षा।
चुपचाप
बूंदें गिर रही हैं बादल से
एकरस, धीरे-धीरे, चुपचाप।
पत्ते झरते हैं भीगी टहनियों से
पीले-गीले-अनचाहे, चुपचाप।
रात झर रही है पृथ्वी पर
रुआँसी, बादलों, पियराये पत्तों सी, चुपचाप।
अव्यक्त दुख से भरी
अश्रुपूरित नेत्रों से
विदा लेती है प्रेयसी, चुपचाप।
पीड़ित हृदय, भारी कदमों से
लौटता है पथिक, चुपचाप।
उम्मीद और सपनों भरा जीवन
इस तरह घटित होता है, चुपचाप।
विध्वंस
प्रथमेश गणेश ने दे मारी है सूँढ़
धरती के बृहद नगाड़े पर
और दसों दिशाओं में गूँजने लगी है
नगाड़े की आवाज़ – ढमढम ढमढम
आधी रात निकल पड़े हैं धर्मवीरों के झुण्ड
तरह तरह के रूप धरे
इस बृहद ढमढम की संगत में
मुख्य मार्गों को रौंदते
टेम्पो, ट्रकों, दैत्याकार वाहनों में
अपनी आवाज़ बहुगुणित करते
वे लाएँगे – लाकर मानेंगे
एक नया युग – धर्मयुग, पृथ्वी पर
निर्णायक है समय, साल
यहीं से आरंभ होना है नवयुग
तैयारी शुरू कर दी गई है समय रहते-
बस अभी, यहीं, इसी रात से।
इस युग में कुछ न होगा धर्म के सिवा
केवल एक रंग उगेगा
सूरज के साथ चलेगा एक रंग
पसर जाएगा आसमान में
छीनते हुए उसका नीलापन
पहाड़ों से छीन लेगा धूसर रंग
धरती से छीनी जा सकती है हरीतिमा
वे जो रंग न पाएँगे
उस एक पवित्र रंग में
ओढा दिया जाएगा उनपर
लाल रंग रक्तिम
धरती की उर्वरा बढाएँगे वे अपने रक्त से।
महाद्वीप के इस भूभाग की धरती
सुनेगी केवल एक गीत, एक लय, एक सुर में
ओढ़ेगी अब महज एक रंग
एक सा पहनेगी
बोलेगी एक सी भाषा में एक सी बात
मतभेद की कोई गुंजाइश नहीं रह जाएगी
गाएगी एक सुर में धर्मगान।
कोई दूसरा रंग, राग-लय-गान
बचा न रहेगा- बचने न पाएगा
धरती करेगी एक सुर में विलाप!
फैसला
एक बार कुत्तों की सभा लगी
और एक स्वर में
औपचारिक भौंक भरे स्वागत के बाद
प्रधान कुत्ते के इशारे पर प्रस्ताव रखा गया
कि तमाम मरियल- नामालूम से कमजोर कुत्तों को
देश से बाहर खदेड़ दिया जाए
वे हमारी जात के हो नहीं सकते
इतने मरियल-संड़ियल से
राष्ट्रीय विकास के महान लक्ष्य में
हो नहीं सकता इनका कोई योगदान
वैसे भी ये बाहर से आए घुसपैठिये हैं
हमारे हिस्से का खाएँगे और हमारी ऊँची कौम खराब करेंगे
हमारे संसाधनों पर बोझ हैं वे
घुस आए हैं हमारी बस्ती में पड़ोसी बस्तियों से
उन बस्तियों से जो हैं तो छोटे, कीट-फतिंगों से
कि जिनके बारे में कहा जाता है
विकास के पैमानों पर आगे हैं हम से
लेकिन हम उनकी परवाह क्यों करें?
क्या हम मनुष्य हैं कि मानवता की बात करें?
मानवीय सूचकांकों से डरें?
वैसे भी भूख के सूचकांक में या स्वास्थ्य के सूचकांक में या फिर
शिक्षा के सूचकांक में या आमदनी और रोज़गार के सूचकांक में
जो हमें पीछे दिखाया जा रहा है साल-दर-साल
-कहा वज़ीरे दाख़िला कुत्ते ने-
यह एक साजिश का हिस्सा है विरोधियों का
प्रमुख विपक्षी दल ने जो है तो पर नहीं होने जैसा है
उसकी सांठगांठ है विदेशी कुत्ता शत्रुओं से
उसके नतीजतन हमें पिछड़ता दिखाया जा रहा है
ध्यान रहे हम विकास की दौड़ में हैं, बहुत आगे हैं
अब तो कह दिया है अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने, मित्र राष्ट्रों और मित्र कारपोरेटों ने भी
कि जल्दी ही सबसे आगे निकलने वाले हैं हम दुनियाभर में सबसे आगे
फिर हम क्यों डरें, क्यों परवा करें?
लिहाजा प्रस्ताव किया जाता है
प्रस्ताव क्या, फैसला किया जाता है
कि सभी मरियल, नामालूम से, कमजोर कुत्तों को
घुसपैठिया घोषित किया जाए
बंद कर दी जाए उन्हें मिलने वाली तमाम सुविधाएँ तत्काल प्रभाव से
और जल्दी से जल्दी उन्हें देश से बाहर किया जाए।
सभासद सभी कुत्तों ने
प्रस्ताव का समर्थन किया एक सुर से
तनिक गुर्राहट, तनिक भौंक के अनोखे, रोमाँचक मेल के साथ
मानो कह रहे हों- साधु! साधु!
ये जो हम देखते हैं
सड़कों, गलियों, मोहल्लों में
मरियल, कमजोर, अजनबी (?) कुत्ते को घेर
भौंकते, काटते, डाँटते और गाहे-बेगाहे जान से मारते कुत्तों के समूह
ये उसी बड़े फैसले पर अमल की तैयारी है
कुत्तों के कार्यकर्त्ता और राष्ट्र सेवक
चौकस हैं दिन-रात
अब कोई बाहरी रह नहीं पाएगा
कुत्ता राज में।
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ – एक
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ
क्योंकि तुम पृथ्वी से प्यार करती हो।
मैं तुममें बसता हूँ
क्योंकि तुम सभ्यताएँ सिरजती हो।
पृथ्वी का खारापन तुमसे
उसके आँचल के जल की मिठास तुम
तुमने सिरजे वृक्ष, वन, पर्वत, पवन
तुमने सिरजे जीव, जन
ओ स्त्री, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।
क्योंकि तुम पृथ्वी से प्यार करती हो।
भाषा की जड़ों में तुम हो।
हर विचार, हर दर्शन रूपायित तुमसे
हर खोज, हर शोध की वजह तुम हो
सभ्यता की कोमलतम भावनाएँ तुमसे
कुम्हार ने तुमसे सीखा सिरजना
मूर्तिकार की तुम प्रेरणा
चित्रकार के चित्रों में तुम हो
हर दुआ, दुलार तुमसे
नर्तकी का नर्तन तुम हो।
संगतकार का वादन
रचना का उत्कर्ष तुम हो।
मैं तुममें बसता हूँ
क्योंकि तुम सभ्यताएँ सिरजती हो।
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ – दो
जो कुछ सोंचू
लिखूँ कोई भी अक्षर
कोई शब्द
उसमें तुम दिखो
जो मैं लिखूँ नीम
तुम्हारी छवि उभर आए
जो कहूँ धान
बालियों की जगह
तुम्हारा चेहरा नज़र आए।
बांस के झुड़मुट में हँसती तुम दिखो जो कहूँ बांस
वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर से
तुम्हारा कम से कम एक
नाम रखना चाहता हूँ
कम अज कम उनचास
नाम तो हों तुम्हारे
और उनचास ही क्यों
उनचास अलग-अलग नाम हों।
अलग-अलग वर्णों से
मसलन उनचास पेड़
उनचास पक्षी
उनचास फूल
उतने ही प्रकार के अन्न
और उनचास स्थान हों या देश
या नदियाँ, पर्वत, घाटियाँ, झीलें
कम अज कम उनचास नक्षत्र तो हों
क्या इतने ग्रह होंगे ज्ञात नक्षत्रों के?
सभ्यता को रचने वाले
कितने लोगों के नाम याद हमें
कितने वैज्ञानिकों, संगीतज्ञों, कवियों, विचारकों के नाम
कम से कम उनचास तो होंगे ही न
यानी हर अक्षर से एक-एक?
सबको याद करना चाहता हूँ
देखना चाहता हूँ सबका चेहरा
प्रेमपगा तुम्हारे चेहरे में
किस अथाह प्रेम में उनने रची मनुष्यता
संस्कृति पृथ्वी की।
अप्सरा- एक
हमारी मनीषा की सबसे सुंदर कृति है वह
अनिंद्य सुंदरी, अक्षत यौवना
सदैव केलि-आतुर, अक्षत कुमारी
ऋषियों, राजर्षियों, राजभोगियों को सुलभ
पृथ्वी पर नहीं देवलोक में बसती है
जब चाहे विचरण कर सकती है पृथ्वी पर
उसके बारे में सुन-पढ़-जान कर
आह्लादित होती है पृथ्वी की प्रजा
कहते हैं मानवीय संवेदनाओं से मुक्त होती है वह
नहीं बांधता उसे प्रेमी अथवा संतति मोह
वह हमेशा गर्वोन्नत होती है
अपने सौंदर्य, शरीर सौष्ठव और सतत कामेच्छा से युक्त
पुरुष सत्तात्मक समाज में
भोग की अक्षत परंपरा है वह
लागू नहीं होते शील के
मध्यवर्गीय मानदंड उसपर
न उनके साथी पर
ऋषि बना रह सकता ऋषि, तत्ववेत्ता, समाज सुधारक, सिद्धांतकार
राजा केवल अपनी थकान मिटाता है,
वह फैसले सुना सकता दुराचार के खिलाफ
कौमार्य, यौवन
और सतत् कामेच्छा के सूत्र बेचने वाले
क्या तब भी मौजूद थे देवलोक में ?
अप्सरा- -दो
जहाँ चाहो उपलब्ध करा देंगे
घर, उपवन, वन में
अनादि काल से गोपनीय और दैवलोक के लिए आरक्षित रसायन
प्रजा हर्षित हो
परंपरा से गुप्त रसायन
वे उतार लाए हैं धरा पर
पृथ्वी पर बढ़ने लगी है संख्या उनकी
ऋषि, राजा, अप्सरा के साथ-साथ।
अप्सरा- –तीन
हमारे समय में
वह तोड़ती है बेड़ियाँ
अपने अक्षत यौवन से
अनादि काल से मजबूत
पितृ सत्तात्मक व्यवस्था की बेड़ियाँ
वह मुक्त होती है
काम मार्ग से, योनि मार्ग से
वह मुक्त होती है
चराचर के समस्त बंधनों से
संबंधों से, समाज से, परंपरा से
वह मुक्त होती है अपनी
तरलता और सरलता से
अंतरित होती है नवीन काया में
नई व्यवस्थाएँ रचती है
निःसृत होती है काम मार्ग से
कसती है मोहिनी, माया का पाश
देव, ऋषि, वृक्ष-वन, नदी से गुजरती है
वह कसती है मनुज को पाश में अपने
और मुक्त होती है परंपरा में।
उत्तर सत्य- एक
वह आदमी
आदमी नहीं।
उसका अतीत, अतीत नहीं
इतिहास, इतिहास नहीं।
वह स्त्री
स्त्री नहीं है
उसके हाथों में फूल
फूल नहीं,
सच, सच नहीं
टेलीविजन पर दिखे वह सच
पर्दे पर नाचे वह सच
मंच पर खड़ा,
नाच रहा सच
हाथ में कटार सा सच
मृत्यु सत्य है
‘रामनाम’ सत्य है
मौत का तरीका सच है
मारना / खदेड़ना – बतंगड़
वह सच नहीं
सच है कि वह सच को जिबह करने ले जा रहा था
आँकड़े सच नहीं
आत्महत्या करने वाले का बयान सच नहीं
सच एक मरीचिका है
सच उसकी उंगलियों में फंसा
टूंगर है
नचाता है वह जिसे
विजय-पर्व के ठीक पहले।
उत्तर सत्य- दो
हम शांतिप्रिय देश हैं
विविधता में एकता वाले
हम तेजी से आगे बढ़ रहे हैं
हम एक जनतांत्रिक देश हैं
हम खुशहाल हैं
हमने करोड़ों लोगों को रोजगार दिए
सबको दी शिक्षा, सुरक्षा और सेहत का प्रकाश
इतिहास का गौरव है हमारे साथ
वैज्ञानिक चेतना है हममें
मानवीय संवेदना से लबरेज़ हैं हम
दलित, स्त्रियाँ, वंचित, सब बराबर यहाँ
-संविधान देख लो
तर्क और विमर्श हमारी परपंरा का हिस्सा हैं
हम विचारों का सम्मान करते हैं
असहमति का आदर परंपरा हमारी
हमारी कथनी करनी एक-सी
कोई बनाव-दुराव नहीं हममें
पारदर्शी हैं हम, हमारा कार्य-व्यवहार
हमसे पहले कुछ नहीं था-
न जल, न वायु, न पृथ्वी, न आकाश
मध्यकाल एकदम नहीं था
इतिहास का उद्गम वहीं से होता है जहाँ हमने शोध कर बताया
हजारों साल पहले
हमने दिए दुरूह शल्य कौशल
आणविक शक्ति रही हमारे पास
हमने ही बनाए विमान, राकेट, मिसाइलें
पहले-पहल
हमने कहा केवल ध्रुव सत्य, किया सदैव सर्वश्रेष्ठ
सत्य से परे कुछ न था
श्रेष्ठता हमारी रही प्रश्नातीत !
बदलते विश्व के बारे में
हम सो रहे होंगे
और हमारे सपने में होगी तितली
जब तितलियों के पँश काटे जाएँगे
हम मुस्करा रहे होंगे उनकी रंग-बिरंगी छटा पर
हम सो रहे होंगे
और निगल ली जाएगी पूरी दुनिया
संभवतः जागने पर भी करें हम अभिनय सोने का
क्योंकि शेष विश्व सो रहा होगा उस वक्त
और विश्वधर्म का निर्वाह होगा हमारा पुनीत कर्तव्य
हम सो रहे होंगे और यह होगा
कोई थकी-हारी महिला
निहारेगी दैत्याकार विज्ञापन मुख्य मार्ग पर
और फड़फड़ाएगी अपने मुर्गाबी पँश
हम सो रहे होंगे इस तरह
और किसी की प्रेयसी गुम जाएगी
अचानक किसी दिन किसी की पत्नी
किसी का पति गायब हो जाएगा
किसी का पिता अगली बार
उपग्रह भेजेगा सचित्र समाचार अंतरिक्ष से
नवीन संस्कृति की उपलब्धियों के –
ये जो गायब हो गए थे अचानक
लटके पाए गए अंतरिक्ष में त्रिशंकु की तरह
उनकी तस्वीरों की प्रशंसा करेगी पृथ्वी की सत्ता
ड्राइंगरूम में सजाना चाहेंगे उसे लोग
और तिजारत शुरू हो जाएगी
अतृप्त इच्छाओं वाले उलटे लटके लोगों की
हम सो रहे होंगे
और बदल दी जाएगी पूरी दुनिया
इस तरह हमारे सोते-सोते
बहुत देर हो चुकी होगी तब
नींद से जागेंगे जब हम
बचा रहेगा जीवन
सुबह-सुबह
जिस गर्मी से नींद खुली
वह उसकी हथेली में थी
बिटिया का हाथ मेरे चेहरे पर था
और गर्मी उसके स्पर्श में
वह गर्मी मुझे अच्छी लगी।
खटखटाहट के साथ जो पहला व्यक्ति मिला
दूधवाला था
उसके दूध और मुँह से
भाप उठ रहा था
एक सा
टटकेपन की उष्मा थी वहाँ
दूध की गर्मी मुझे दूधिये से निःसृत होती दीखी।
सूर्य का स्पर्श
बेहद कोमल था उस दिन
कठुआते जाड़े की सुबह वह ऐसे मिला
जैसे मिलती है प्रेयसी
अजब सी पुलक से थरथराती हुई
सूर्य की गर्मी मुझे अच्छी लगी।
अभी-अभी लौटा था वह गाँव से
गाँव की गंध बाकी थी उसमें
दोस्त के लगते हुए गले
मैंने जाना
कितनी उष्मा है उसमें
कितने जरूरी है दोस्त का साथ जीवन में
वृद्धा ने उतावलेपन से पूछा
माँ के स्वास्थ्य के बारे में
सब्जी वाले ने दी ताजा सब्जियाँ
और लौटा गया अतिरिक्त पैसे
अपरिचित ने दी बैठने की जगह बस में
रिकशे वाले ने पहुँचाया सही ठिकाने पर
दुकानदार पहचान कर मुस्कुराया और
गड़बड़ नहीं की तौल में
तीर की तरह लपलपाती निकलती थी उष्मा इनसे
और समा जाती भीतर
गरमाती हुई हृदय को।
केवल बची रहे यह गर्मी
बचा रहे अपनापन
बचा रहेगा जीवन
अपनी पूरी गरमाहट के साथ।
अब जबकि तुम चली गई हो माँ
कौन बताएगा तिलबा-चूरा के रोज
सुबह-सवेरे ठिठुरते हुए नहा कर
कौन सी ढेरी छूनी है चावल की
कि मकसद केवल धुआँ लगाना है तिल का
अलाव तापना नहीं
कि तिल-गुड खाने से गर्मी आती है शरीर में?
जाड़े के उन्हीं दिनों में
कौन रखेगा छुपा कर
खेसारी की साग मेरे लिए
कौन पहचानेगा तार उँगलियों पर
लाई बांधने से पहले
और लाई की तरह ही
कौन बांधे रख पाएगा पूरे परिवार को
एक सोंधी मिठास के साथ?
कौन बनाएगा खिलौने सूखी हुई डंठल से
मडुवा कटनी के दिनों में
कौन बताएगा
कि नहीं खाना चाहिए अमौरियाँ
सतुआनी से पहले किसी भी हाल में?
किस दिन खिलाते हैं पखेओ बैलों को
छठ के बाद
किस रोज़ होगी गोवर्धन पूजा
सुबह उठकर किस दिन
नहाना पड़ेगा बगैर बोले
कि बढोतरी होती है उपज और अनाज में
किस रोज़ घर लाने से गेहूँ की भुनी हुई बालियाँ
नहीं लगती बुरी नज़र
लहसुन लटकाने से गले में?
कौन बताएगा यह सब
अब जबकि तुम चली गई हो माँ?
माँ का अकेलापन
केवल वसंत नहीं
ॠतुचक्र गुजरता रहा उसकी हथेलियों से होकर
जिन हथेलियों ने दुलारा-संवारा भाई-बहनों को मेरे साथ-साथ
गोरैया सी उसकी हथेलियाँ
टंगी हैं बाहों की फैली कमाची पर
बिजूखे की तरह न जाने कब से
छूना चाहती हैं हथेलियाँ उन सबको
छूटते, दूर होते गए जो उनसे
अब रात-बेरात, दिन-दोपहर
भर उठता है बिजूखा अनिष्ट की आशंका
और अजीब-सी बेचैनी से
बिजूखा अकेलेपन से डरता है
माँ सुबह-सुबह बाबूजी को याद करती है
बिछड़ने की पीड़ा घनीभूत हो उठती है आलऔलादों की याद में
असीसती है सबको जागते-सोते
बिजूखा टटोलता-सहलाता है मेरा माथा
आधी रात, अल्लसुबह
माँ अकेलेपन से डरती है।
भय
एक दिन सब संगीत थम जाएगा
सभागारों के द्वार होंगे बंद
वीथियाँ सब सूनी होंगी
सारे संगीतज्ञ हतप्रभ और चुप
कवियों की धरी रह जाएँगी कविताएँ
धरे रह जाएँगे सब धर्मशास्त्र
धर्मगुरूओं की धरी रह जाएँगी सब साजिशें
शवों के अंबार में कठिन होगा
पहचानना प्रियतम का चेहरा
उस दिन पूरी सभ्यता बदल दी जाएगी दुनिया की
एक नया संसार शुरू होगा उस दिन
बर्बर और धर्मांधों का संसार
कापालिक हुक्मरानों का संसार
गिरगिट
मुहावरों में कई तरह से जाना जाता है इसे
परंपरा में यह भय उत्पन्न करता है
विज्ञान हालांकि अलग मत रखता है
परंपरा विज्ञान विरोधी है
लेकिन यह अलग विषय है।
अनाज में यह घुन की तरह नहीं लगता
चूहे की तरह नहीं कुतरता जरूरी कागजात
इसकी मौजूदगी में छुपा नहीं होता प्लेग का भय
कीड़ों-फतिंयों से सफाई करता घर की
बन न सका पूज्य
यह लघु-उदर-जीव
किसी लंबोदर का कृपापात्र नहीं परंपरा में
जो तुच्छ हैं, लघु हैं – हेय हैं परंपरा में
लेकिन यह अलग विषय है
परंपरा से सीखा हमने
कि जहर है इसका जल-मल गेहूँ की दाने जितना
मनुष्य के गूं-मूत के बारे में
क्या राय रखती है परंपरा
समाज के सबसे उपेक्षित लोगों की जमात-सा है यह
ठंड से ठिठुरता, शीतलहर की पेट भरता
मनुष्य का बेहतर मित्र हो सकता है निर्वाक
लेकिन मनुष्य में आस्था कैसे भरे यह
परंपरा से कैसे लड़े यह?
-कभी मजबूत होती होगी आस्था परंपरा से
विश्वास तोड़ती है अब यह
लेकिन यह अलग विषय है।
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हाल में मैंने जिन किताबों के अनुवाद किये हैं उनमें चीनी लेखक लाओ मा की कहानियों का संग्रह ‘भीड़ में तन्हा’ बहुत अलग है. चीन की राजनीति, समाज पर लगातार एक व्यंग्यात्मक शैली में उन्होंने कहानियां लिखी हैं. बानगी के तौर पर एक कहानी देखिये. यह किताब ‘रॉयल कॉलिन्स पब्लिकेशन’ से आई है- प्रभात रंजन
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मेरे अध्यापक श्रीमान झाओ की एक ख़ास आदत है- मरीजों को देखने जाना।
एक बार उनके जन्मदिन के दिन मैंने कुछ और विद्यार्थियों के साथ मिलकर उनके लिए जन्मदिन की पार्टी रखी। उस दिन वे बड़े जोश में थे इसलिए उन्होंने कुछ प्याले अधिक पी लिए और यह राज़ की बात बताई।
श्रीमान झाओ ने बताया कि जब उनके विभाग का एक सहकर्मी, जो उनका परिचित भी था, बीमार पड़ा और अस्पताल गया तो वे हमेशा चाहते थे कि अस्पताल जाएँ और रोगी को शुभकामना दें। हमें उनका यह बर्ताव बहुत अच्छा लगा कि वे दूसरों की परवाह करते थे और दोस्ती को महत्व देते थे।
लेकिन श्रीमान झाओ रोगियों से प्रेमवश मिलने नहीं जाते थे, बल्कि दूसरे कारणों से जाते थे। कुछ और प्याले चढाने के बाद वे और भी जोश में आ गए।
उन्होंने कहा कि इस दुनिया में जो प्रतिस्पर्धा होती है वह कुछ लोगों के बीच की होड़ होती है। उन्होंने कहा कि देशों, जिलों, कंपनियों और स्कूलों की प्रतिस्पर्धा से उनका कोई लेना देना नहीं था, और उनमें उतना उत्साह भी नहीं होता है जितना कि दो व्यक्तियों के बीच की प्रतिस्पर्धा में होता है। प्रतिस्पर्धा आमतौर पर जाने पहचाने लोगों के साथ ही होती है, जैसे विद्यार्थियों, सहकर्मियों, यहाँ तक कि भाई-बहनों के बीच प्रतिस्पर्धा बहुत आसानी से विकसित हो जाती है। आप किसी अनजान व्यक्ति के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं करना चाहते। उन्होंने बड़े संतुष्ट भाव से बताया कि कुल मिलाकर वे एक सफल इंसान थे। वे सफल क्यों थे? इसका सम्बन्ध स्वास्थ्य से था।
उन्होंने बताया कि जब भी उनको यह पता चलता कि उनका कोई सहकर्मी, पुराना सहपाठी, या कोई दोस्त बीमार पड़ गया है तो वे अस्पताल जाते और इससे उनको एक प्रकार की ऊर्जा महसूस होती थी इसलिए वे उनको देखने के लिए अस्पताल जाना चाहते थे।
उनका कहना था कि उनको उससे संतुष्टि का अनुभव होता था। जब वह अस्पताल के बिस्तर पर दूसरे लोगों को कराहते, चिल्लाते, दर्द के मारे छटपटाते देखते तो उनको ख़ुशी महसूस होती थी। कई बार जब वे अजीब अजीब तरह की नलियाँ अपने किसी बीमार सहकर्मी या पुराने सहपाठी के शरीर में घुसे हुए देखते तो खुद को बेहद भाग्यशाली समझते थे कि वे खुद मरीज नहीं होते थे। दर्द सबसे अधिक सहन करने लायक तब होता है जब वह किसी और को हो रहा होता है।
इस बात को समझाने के लिए उन्होंने कई तरह के उदाहरण दिए:
“एक अध्यापक ने अपने नेताओं और साथियों को रपट की चिट्ठी लिखी ताकि उसको प्रोफ़ेसर की उपाधि मिल सके। उस रपट पत्र में उसने लिखा कि मैं जो पढाता हूँ उस सामग्री में दूसरों की अध्यापन सामग्री से चोरी की गई होती थी। उसके इस बर्ताव के कारण तीन साल तक मेरी उपाधि सम्बन्धी मूल्यांकन टल गई। और उसकी ख्वाहिश पूरी हो गई। उसको मुझसे दो साल पहले ही प्रोफ़ेसर की उपाधि मिल गई और कुछ समय के लिए वह खुश हो गया। लेकिन अंत में नतीजा क्या रहा? उसको जिगर के कैंसर के कारण अस्पताल में भर्ती होना पड़ा, उसका कैंसर काफी बढ़ गया था। मैं बारिश में भीगते हुए उसको देखने के लिए गया। उसको इतना दर्द हो रहा था कि वह बोल भी नहीं पा रहा था। लेकिन मैं ख़ुशी ख़ुशी बतियाता रहा।
“एक बार फिर, स्कूल में अध्यापक होने के बाद मेरा एक पुराना सहपाठी मेरे साथ प्रतिस्पर्धा करने लगा। वह उपाध्यक्ष बन गया जो मुझे बनना चाहिए था। लेकिन आखिर में नतीजा क्या रहा? उसको दिल की बीमारी हो गई। उसको बाईपास करवाने में हजारो युआन खर्च करने पड़े।अब उसकी हालत क्या है? अब वह उपाध्यक्ष नहीं है, और कर्ज में डूबा है। मैं अस्पताल में उसको देखने के लिए गया था। वह कुत्ते की तरह दुबला हो गया था। बेचारा लग रहा था!
“और एक श्रीमान कियान थे। उन्होंने और मैंने एक ही साल स्कूल में अध्यापक के रूप में काम करना शुरू किया था। उनको मुझसे एक साल पहले ही घर मिल गया। हम एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते थे। उस समय वह बहुत खुश थे। और ऐसा लगता था जैसे वह पूरी दुनिया को बता देना चाहते हों। दस साल पहले उनको सेरेब्रल थ्रॉम्बोसिस हो गया। वे चलने की बजाय दौड़ने लगते थे, और रुक नहीं पाते थे फिर लड़खड़ाकर गिर जाते थे। अब उनकी मुझसे कोई तुलना नहीं। मैं आधा किलो मसालेदार बीफ मीट खा सकता हूँ और ढाई सौ ग्राम शराब खाने के साथ पी जा सकता हूँ, लेकिन वे किसी मृत के समान हो गए हैं। जब मैं अस्पताल में उनको देखने गया तो वे उनको बैठने में भी मुश्किल हो रही थी, और लगभग बेहोश ही हो गए थे। मैंने वार्ड में उनके सामने 100 बार दंड-बैठक की जिससे वे बेहद गुस्से में आ गए।”
अपने अध्यापक की इन शानदार बातों को सुनने के बाद हमने उनके सुखद औए स्वस्थ जीवन की कामना की और उनकी शिक्षाओं को अपने दिल में संजो लिया।
अधिक समय नहीं हुए जब प्रोस्टेट की बीमारी के कारण उनका ऑपरेशन हुआ और वे अभी अस्पताल में ही हैं। हम उनके विद्यार्थी थे और इस नाते हमें उनके पास रहना चाहिए लेकिन अस्पताल में मरीज को देखने जाने को लेकर उन्होंने जो अनोखी बात बताई थी इसलिए उनको देखने जाने की हमारी हिम्मत नहीं हुई क्योंकि हमें इस बात का डर था कहीं वे हमें गलत न समझ लें। हम आज तक उनसे मिलने नहीं गए हैं। हम उनके लिए बस दुआ कर सकते हैं कि वे जल्दी से जल्दी ठीक हो जाएँ और अपने अपने बीमार विद्यार्थियों, सहकर्मियों और दोस्तों को देखने पहले की तरह जा सकें।
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2 दिसम्बर 2016 को रऊफ़ रज़ा साहब के इन्तक़ाल की ख़बर ने मुझ समेत तमाम नौजवानों को भी गहरा दुख पहुँचाया था| इसका कारण ये नहीं था कि रऊफ़ साहब अच्छे शायर थे या सीनियर शायर थे(वो तो और लोग भी हैं) बल्कि कारण ये था कि रऊफ़ साहब का व्यवहार हमसे दोस्ताना था|
रऊफ़ साहब के इन्तक़ाल के बाद ‘’ऐवाने-ग़ालिब’’ में उनकी याद में एक प्रोग्राम हुआ था जिसमें फ़रहत एहसास साहब के लफ़्ज़ थे-
’’मौत ने अपना काम कर दिया अब ज़िन्दगी को अपना काम करने दीजिये…रऊफ़ की मौत का जो मुझे दुख है वो ये कि उन्हें भरी बहार में उठाया गया| इस वक़्त वो अपनी शायरी के उरूज पर थे ख़ूब ग़ज़लें कह रहे थे…..’’ ख़ैर…इस बात को यहीं रोक देना ठीक है वरना ‘’बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी….’’|
मुख्य बात ये है कि पिछले महीने उनकी किताब ‘’ये शायरी है’’ उर्दू में प्रकाशित हुई है, उसी किताब से ये पाँच ग़ज़लें पेश कर रहा हूँ| आप पढ़कर देखिये मुझे उम्मीद है आप भी कह उठेंगे ‘’ये शायरी है’’- इरशाद खान सिकंदर
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1
यहाँ-वहाँ से बिखर रहा हूँ ये शायरी है
मैं आज ऐलान कर रहा हूँ ये शायरी है
मैं जानता हूँ कि अगली सीढ़ी पे चाँद होगा
मैं एक सीढ़ी उतर रहा हूँ ये शायरी है
ख़ुदा से मिलने की आरज़ू थी वो बन्दगी थी
ख़ुदा को महसूस कर रहा हूँ ये शायरी है
वो कह रहे हैं बुलन्द लहजे में बात कीजे
मैं हार तस्लीम कर रहा हूँ ये शायरी है
जो उड़ रही है तुम्हारे क़दमों की दिल्लगी से
वो रेत आँखों में भर रहा हूँ ये शायरी है
2
हमरक़्स एहतियात ज़रा देर की है बस
ये महफ़िले-हयात ज़रा देर की है बस
कैसे महक उठे हैं मिरे ज़ख़्म क्या कहूँ
फूलों से मैंने बात ज़रा देर की है बस
मैंने कहा मैं रात के जोबन पे हूँ निसार
उसने कहा ये रात ज़रा देर की है बस
मैं जी उठा मैं मर गया दोबारा जी उठा
ये सारी वारदात ज़रा देर की है बस
कुछ और इन्तेज़ार कि फिर वस्ल-वस्ल है
क़िस्मत ने तेरे साथ ज़रा देर की है बस
3
रौशनी होने लगी है मुझमें
कोई शय टूट रही है मुझमें
मेरे चेहरे से अयाँ कुछ भी नहीं
ये कमी है तो कमी है मुझमें
बात ये है कि बयाँ कैसे करूँ
एक औरत भी छुपी है मुझमें
अब किसी हाथ में पत्थर भी नहीं
और इक नेकी बची है मुझमें
भीगे लफ़्ज़ों की ज़रूरत क्या थी
ऐसी क्या आग लगी है मुझमें
4
गुज़रते वक़्त ने तुमसे मिज़ाज पूछा है
जवाब दो उसे पलकों पे रोक रक्खा है
जहाँ-तहाँ से बिगाड़ो मगर सजा डालो
तुम्हारे सामने सारा जहान फैला है
ज़मीने-इश्क़ को ख़तरा किसी तरफ़ से नहीं
कि ये जज़ीरानुमा इन्तिहा-ए-दुनिया है
फ़ुज़ूलियात है अब शह्र में रवादारी
यहाँ ज़मीन नहीं आसमान चलता है
जहाँ किताब के किरदार बैठे रहते हैं
वहीँ ये तेरा दिवाना भी हँसता रहता है
5
जितना पाता हूँ गँवा देता हूँ
फिर उसी दर पे सदा देता हूँ
ख़त्म होता नहीं फूलों का सफ़र
रोज़ इक शाख़ हिला देता हूँ
होश में याद नहीं रहते ख़त
बेख़याली में जला देता हूँ
सबसे लड़ लेता हूँ अन्दर-अन्दर
जिसको जी चाहे हरा देता हूँ
कुछ नया बाक़ी नहीं है मुझमें
ख़ुदको समझा के सुला देता हूँ
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पुस्तक मेले में रुपेश दुबे की किताब ‘बोल बच्चन’ खरीदी. इस किताब का आइडिया मुझे बहुत पसंद आया. अमिताभ बच्चन के संवादों के माध्यम से लिखी गई मोटिवेशनल किताब. बहुत दिलचस्प शैली में लिखी गई यह किताब बहुत अलग सी लगी. आप इसका एक अंश पढ़िए और किताब की शैली से रूबरू होइए- मॉडरेटर
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आज खुश तो बहुत होगे तुम
अमिताभ बच्चन की सफलता ने उनकी फ़िल्मी रील लाइफ की एंग्री यंग मैन की छवि तो गढ़ी ही साथ ही उस छवि के इर्द गिर्द या उस छवि को पूर्ण करने के लिए कुछ ऐसे मसाले भी ईजाद किए जो उनकी छवि का हिस्सा बन गए और फिल्म दर फिल्म दोहराए गए | उदहारण के लिए फ़िल्म में उनके पिता की उनके बचपन में ही मृत्य होना या फिर उनका उन्हें मंझधार में छोड़ के चले जाना, जो ज़्यादातर उनके गुस्से का मूल कारण होता था | अपनी माँ से प्यार का अतिरेक, शराब पीना और फिर छोड़ना | समाज में जहाँ-तहाँ हो रहे अत्याचार पर आक्रोश जो इस कदर गहरा था कि भगवान से भी उनकी अक्सर ठन सी जाती थी और तकरीबन अंतिम कुछ रीलों तक वो नास्तिक रहते थे | लेकिन अपने गुस्से को अभिव्यक्त करने के लिए वो भगवान से भी संवाद करते थे | उनका भगवान से किया गया सबसे लोकप्रिय संवाद आपको इस अध्याय के शीर्षक में नज़र आया होगा |
बड़ी कड़वाहट के साथ और खुद को महादेव शिव के लगभग समकक्ष मानने वाले अन्दाज़ में फ़िल्म ‘दीवार’ में वो शिवजी से कहते है कि “आज खुश तो बहुत होगे तुम |” अब वो ठहरे बिग बी , चलो महादेव से ये प्रश्न कर भी लिया | महादेव ने भी बुरा नहीं माना और उनका ये संवाद कालजयी हो गया | बुरा मानना तो छोड़ो, शिव तो इस कदर प्रसन्न हुए कि पिक्चर सुपर डुपर हिट हो गयी और १०० हफ्ते चलने वाली पिक्चर की श्रेणी में आ गयी | लेकिन मैंने पहले ही कहा की भैया वो ठहरे बिग बी, पर आप को अगर अपने जीवन में फिल्म ‘दीवार’ की तरह सफल होना है और अपने जीवन को फिल्म की तरह ही यादगार बनाना है तो महादेव से यह सवाल पूछने के बजाय कि “आज खुश तो बहुत होगे तुम,” आप अपने अन्दर उपस्थित देव से पूछिए,
“ आज खुश हूँ क्या मै?”
तो जवाब क्या आया ?
क्या कहा ? नहीं हो ! चलो अच्छा है कि नहीं हो, वर्ना यह अध्याय आप आगे नहीं पढ़ते | जस्ट जोकिंग | सेल्फ़-हेल्प – यह वो श्रेणी है जिसमें मैं अपनी इस किताब को रखना चाहूँगा- इस साहित्य श्रेणी का अभ्युदय और इसका जन मानस में स्वीकार्य होना यह दर्शाता है कि आधुनिकता के साथ हमारे जीवन में दुख और दुविधा दोनों बढ़े हैं | ज़रा-सा दिमाग पर ज़ोर डालो तो खुद की पारीवारिक स्तिथि, शैक्षणिक योग्यता , आर्थिक स्तिथि, कैरियर की आपाधापी ऐसी लगती है कि इसमें खुश होने वाली आखिर बात ही क्या है | और यहीं पर व्यक्ति गलती कर जाता है | सदियों से यह बहस चलती आ रही है कि अंडा पहले आया या मुर्गी , सदियों तक आगे भी ये बहस चलती रहेगी | पर एक बात हम इस अध्याय में ही तय कर लेंगे कि- खुशी अधिकांशतः सफलता के पहले आती है | देखा जाये तो ज़्यादातर दुखों का कारक हमारी किसी अधूरी अभिलाषा से जुड़ा होता है जिसमे ‘अगर’ बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है-
मै पंक्तियों पर पंक्तियाँ लिखते चला जाऊँगा पर इस ‘अगर’ का अंत नहीं होगा और खुशी के दर्शन हमें हो नहीं पायेंगे | यहाँ जानबूझकर मैंने यह नहीं लिखा कि ‘खुशी का अनुभव नहीं हो पायेगा !’ कारण यह कि हम वर्षो से ख़ुशी को एक भावना मान कर चलते हैं जो किसी-न-किसी कार्य विशेष के अपने मनमाफ़िक होने पर अनुभव की जाती है | उसे हम वैसा ही एक्स्ट्रा समझते है जिन्हें हम हमारे हीरो-हीरोइन के इर्द गिर्द मंडराते हुए अपने फ़िल्मी नाच-गानों में देखते है | वह हमें इसलिए दिखाई पड़ जाते है, क्योंकि हमारा ध्यान जो वैसे तो मुख्य हीरो-हेरोइन पर ही रहता है, यदा कदा भटक कर उन तक भी पहुँच जाता है |
लेकिन खुशी को हमें एक क्रिया मान कर चलना होगा जो करने से ही पूर्ण होती है | हमें उसे मुख्य हीरो या सुपरस्टार मानना ही पड़ेगा |
बात जब फिल्मो की चल ही निकली है और आगे भी चलती रहेगी, तो मै एक और उदहारण आपको देता हूँ | जो लोग हमारी हिन्दी फ़िल्मों की कार्यशैली से परिचित होंगे वो तो यह बात जानते ही होंगे और जो परिचित नहीं होंगे उनके लिए मै थोड़ा विस्तार से बता देता हूँ | हमारी फ़िल्मों में अगर किसी सुपरस्टार को ले लिया जाता है तो बाकी की चीज़ें अपने आप हो जाती है | पूँजी निवेशक आसानी से मिल जाते हैं,एक बड़ी नायिका काम करने को तैयार हो जाती है, वितरक और थियेटरवाले आपकी शर्तें मानने को तैयार हो जाते है और हम सब जो जनता जनार्दन हैं वो भी रिलीज़ की तिथि की एडवांस बुकिंग करने को तत्पर रहते है | खुशी को भी हमें इसी सुपरस्टार की तरह समझाना है| हमें सबसे पहले उसके पास पहुँचना है जिस तरह आज के दौर के निर्माता-निर्देशक सलमान, आमिर, शाहरुख़ खान या फिर अक्षय कुमार के यहाँ पहुँचते है अपनी फिल्म बनाने के लिए | और जैसे फिछले ज़माने के, अमिताभ बच्चन के यहाँ पहुँचते थे | आखिर हम अपने जीवन के निर्माता, निर्देशक जो ठहरे |
लेकिन खुशी नामक सुपरस्टार के साथ हमें ‘नियम एवं शर्ते लागू’ वाला एक छोटा स्टार भी मुफ़्त मिलता है | यह स्टार हमें आगाह करने के लिए है कि ‘भैया सिर्फ़ ख़ुशी के पास पहुँचने से या उसे पा लेने से आप के जीवन की वैतरणी पार नहीं होने वाली |’ इसके लिए कुछ उम्दा काम भी करना पड़ेगा | विदित हो की बड़े-से-बड़े स्टार की पिक्चर उसके स्टारडम के नाम पर पहले तीन दिन ही ताबड़तोड़ कमाई करती है | उसके बाद तो पिक्चर कितनी उम्दा बनी है, उसी पर ही, फिल्म की सफलता निर्भर करती है |
‘लो कर लो बात, जब अंत में काम और वह भी उम्दा काम ही करना है तो हम इस कमबख्त खुशी के पीछे भागें ही क्यों ? आखिर क्यों ?“ यह सवाल आप के मन में हिलोरें मार रहा होगा | मारना भी चाहिए |
खुश रहना और दुखी रहना दोनों एक विकल्प की तरह है | दोनों में किस विकल्प का चुनाव करना है वह मैं आपकी समझदारी पर छोड़ता हूँ | और मुझे यकीन है कि हर समझदार व्यक्ति की तरह आप खुशी को ही चुनेंगे | जीवन रुपी इस चुनाव में हमें ‘नोटा’ (NOTA यानी इनमें से कोई नहीं) की सुविधा उपलब्ध नहीं होती | अगर हमने ख़ुशी को नहीं चुना तो हमारे बिना जाने ही हमारा मन-मस्तिष्क दुख को चुन लेता है, क्योंकि हमारा मन-मस्तिष्क ‘शून्य’ में क्रियान्वित नहीं होता |
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है की यह ‘अगर’ जो है वो इकलौता नहीं है | इसका एक भाई भी है, जिसका नाम है ‘मगर’ | एक पल के लिए मान लें की उपरोक्त बातें जो आपके और आपकी खुशी के बीच दीवार बन कर खड़ी थी वह यथार्थ में बदल भी जाती है, तो, ‘अगर’ का छोटा लेकिन समान रूप से योग्य भाई “मगर” आपके जीवन में प्रवेश करता है-
अक्सर होता यह है कि ये ‘अगर’ और ‘मगर’ नामक दोनों भाई आपको आपकी डगर से भटका देते हैं और खुशी नाम की आपकी प्रेमिका का आप इन्तज़ार ही करते रह जाते हैं| खुशी तो आपके साथ होती नहीं पर आपके साथ होते हैं मुहम्मद रफ़ी और उनका ये गीत-
“ सुहानी रात ढल चुकी ना जाने तुम कब आओगे,
जहाँ की रुत बदल चुकी ना जाने तुम कब आओगे”
ऐसी बहुत सी सुहानी रातें ढल जायेंगी पर खुशी कभी आयेगी नहीं क्योंकि एक तो आपकी संगत ‘अगर’ और ‘मगर’ नमक भाइयो के साथ है और दूसरा आपने खुशी को एक्स्ट्रा समझ रखा है जो खुद उतनी ज़रूरी नहीं है | एक पर एक फ्री | अगर खुशी को पाना है तो इन दोनों भाइयों की बुरी संगत को छोड़ कर ख़ुशी के पास खुद चल के जाना पड़ेगा, वो खुद नहीं आयेगी |
एक ज़माना था जब लोग अपनी बात में और वज़न डालने के लिए चच्चा ग़ालिब का एकाध शेर अपनी बात के साथ कह दिया करते थे | साहित्य के कुछ रसिया अब भी ऐसा ही करते है, पर, आजकल लोगबाग अपने एक दूसरे चाचा का सहारा कुछ ज़्यादा ही लिया करते हैं | उनका नाम है गूगल चाचा | इस चाचा के पास अपने भतीजे और भतीजियों के कमोबेश सभी सवालों का जवाब होता है- इनके यहाँ से कोई खाली हाथ नहीं लौटता | तो भला मै कैसे लौटता | मैंने जब इनसे पूछा कि- बताओ खुश रहने और कार्यक्षमता बढ़ाने का कोई वैज्ञानिक शोध है ? तो इन्होंने मुझे बताया कि-
‘ब्रिटेन में सोशल मार्किट फाउंडेशन और वार्विक यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर कॉम्पिटीटिव एडवांटेज इन ग्लोबल इकोनौमी ने 700 कर्मचारियों पर एक शोध किया | उन्होंने इनको दो भागो में बाँट दिया | एक वर्ग को उन्होंने कॉमेडी फ़िल्म दिखा कर खुशी से चार्ज किया, और दूसरे वर्ग के साथ ऐसा नहीं किया | जिनको खुशी से चार्ज किया गया था उनकी कार्यक्षमता में औसतन 12 प्रतिशत का इज़ाफा हुआ और कुछ लोगों पर तो 20 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी भी हुई | शोधकर्ता डॉ डेनियल सिग्रोई ने अपनी रिपोर्ट में लिखा की अर्थव्यवस्था में जी.डी.पी अगर 3 प्रतिशत भी बढ़ जाती है तो उसे बहुत अच्छा मना जता है | ‘
आपको अब देख कर लगता है कि मेरी बातों का कुछ-कुछ असर आप पर हो रहा है | शुरुआत की वो अदृश्य दीवार जो मेरे सन्देश और आपके श्रवण के बीच थी, वह ज़्यादातर हिस्सों में अब ढह सी गयी है | कुछ लोग ज़रूर दिख रहे है जो दीवार को मजबूती से पकड़ के रखे हैं | गिरने नहीं दे रहे है |
‘खुश होने का गणित है कि यथार्थपरक आकांक्षा | खुश होने के लिए या तो अपने यथार्थ को समृद्ध कर लीजिये या फिर अपनी आकांक्षाओं को कम कर दीजिये |’
जूडी पिकल्ट ( नाइनटीन मिनट्स)
तो क्या ये वे लोग है जो अपनी आकांक्षाओं को कम करने को तैयार नहीं ? अगर ऐसा हो तो भी कुछ बुराई नहीं क्योंकि इंसानी महत्वाकांक्षा ने ही इंसान को प्रगति के मार्ग पर अनवरत चलायमान रखा है | लेकिन इनके लिए तो हमने वो सुपरस्टार वाली बात कर ही ली है कि ‘महत्वाकांक्षा’ नामक फ़िल्म बाद में बनेगी और खुशी नामक सुपरस्टार पहले साइन होगा | थोड़ा और नज़दीक से देखता हूँ | अच्छा ! ये महात्वाकांक्षी लोग नहीं बल्कि कुछ ऐसे लोग हैं जिनके चेहरे के भाव ये कह रहे है कि-
“हमारे ह्रदय की पीड़ा तुम क्या जानो रुपेश बाबू !
हम चाह कर भी खुश नहीं हो सकते!’
ये वो लोग है जो आज भी चच्चा ग़ालिब को याद कर उन्हें दोहराते है कि
“हम भी जानते है जन्नत की हकीक़त लेकिन
दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है | “
आगे वह अपनी पीड़ा बयां करते हैं | हर के पास दुखी होने का एक लाइसेंस है | वो कहते है कि
– मुझे एक असाध्य रोग है |
– मै गले तक क़र्ज़ में डूबा हूँ |
– मै विकलांग हूँ |
– मै एक अबला नारी हूँ जिसका तलाक भी हो चुका है और जिसके एक बच्चा भी है |
– मैंने अपने जीवन के ४० बसंत देख लिये और इस जीवन में कुछ भी हासिल नहीं किया है |
अब ऐसी किसी लिस्ट को पढ़ कर अच्छा-खासा उत्साही व्यक्ति भी एक पल को रुककर सोचने पे मजबूर हो जायेगा कि भला अब क्या करें ? तो क्या हम उन्हें उनके हाल पर ही छोड़ दें? लोगों में उत्साह का संचार करने के लिए लिखी गयी इस किताब पर पहले अध्याय में ही पूर्णविराम कैसे लगाएँ ? चलो एक और लिस्ट है हमारे पास, ज़रा उसे मुलाहिज़ा फ़रमाइए | शायद अगली लिस्ट पढ़कर आप में उत्साह और खुशी का पुनः संचार हो |
– पाकिस्तानी ऑल राउंडर वसीम अकरम को 1997 में ही मधुमेह यानी डाइबिटीज़ की बीमारी हो गयी थी | पर वो 2003 तक सफलतापूर्वक खेलते रहे |
– सन 2000 में जब अमिताभ बच्चन की उम्र 58 वर्ष की थी, वे तकरीबन १०० करोड़ के क़र्ज़ में डूबे थे और आज उनकी जो संपत्ति है उसके जीरो गिनने में मेरी सीमित गणितीय योग्यता आड़े आती है |
– विश्वविख्यात भोतिकी वैज्ञानिक स्टीवन हॉकिंग को मोटर न्यूरोन बीमारी थी लेकिन वे वर्तमान युग के सबसे बड़े वैज्ञानिक माने जाते हैं |
– हैरी पॉटर पुस्तकों की लेखिका जे के रोलिंग, अपने पहले उपन्यास के प्रकाशन के समय तलाकशुदा सिंगल पैरेंट थी और सरकारी मुआवज़े पर गुज़र-बसर कर रही थीं |
– 1908 में जब हेनरी फोर्ड ने टी-कार नामक क्रन्तिकारी अविष्कार कर एक ऑटोमोबाइल क्रांति का सूत्रपात किया तब उनकी उम्र 45 वर्ष की थी |
उम्मीद है इस लिस्ट ने आप में ज़रूर उत्साह का संचार किया होगा |
‘हमारी खुशी इस बात पर निर्भर करती है कि हम अपनी सोच-विचार की प्रक्रिया को कैसे संचित करते हैं | अगर हम हर्षपूर्ण विचारों से अपनी विचार प्रक्रिया को सींचेंगे और खुश रहने को एक आदत बनायेंगे तो हम एक खुश दिल के मालिक होंगे और जीवन हमारे लिए कभी न खत्म होने वाला एक उत्सव होगा |’
-नार्मन विन्सेंट पील
कम्प्यूटर जी कृपया इस लाइन को लॉक किया जाए-
खुशी को अपने दैनिक लक्ष्य में शुमार कीजिये और पूरी कोशिश करिए कि ये लक्ष्य आप हर रोज़ हासिल करें |
The post रुपेश दुबे की किताब ‘बोल बच्चन’ का एक अंश appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..