
The post सर्जिकल स्ट्राइक को गौरवान्वित करने वाली फिल्म ‘उरी’ appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..
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कुम्भ के मौसम में मार्केज़ की इस कहानी की याद आई. वैज्ञानिकता के असर में हम सभ्यता को इकहरा बनाते-समझते हैं जबकि इसकी कई परतें हैं, कई रूप भी. कहानी का अनुवाद विजय शर्मा ने किया है- मॉडरेटर
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बाइस वर्ष बाद ट्रास्टवेयरे की पतली रहस्यमयी गलियों में से एक में मार्गरीटो डुआर्ट को देखा। उसे पहचानने में पहले मुझे मुश्किल हुई क्योंकि वह टूटी-फ़ूटी स्पैनिश बोल रहा था और देखने में एक बूढ़ा रोमन लग रहा था। उसके बाल काफ़ी झड़ चुके थे और सफ़ेद हो गए थे। उसके ऐंडियन बुद्धिजीवी तौर-तरीके और सूतक के जिन कपड़ों में वह पहले-पहल रोम आया था उनका कहीं नामो-निशान नहीं बचा था। हमारी बातचीत के दौरान मैं उसे धीरे-धीरे उन बीस वर्षों में से निकाल लाया जिसमें निर्मम समय ने उसके साथ अन्याय किया था। तब मैंने उसे उसी रूप में देखा जैसा वह था; रहस्यमय, अप्रत्याशित और पत्थरकट की भाँति दृढ़। अनेक बार में से एक में बैठ कर पुराने दिनों की तरह ही दूसरा कप कॉफ़ी पीने से पहले मैंने उससे वह प्रश्न पूछने की हिम्मत की जो भीतर-ही-भीतर मुझे कुरेद रहा था।
“संत के साथ क्या हुआ?”
“संत यहीं है इंतजार में।” उसने उत्तर दिया।
हमें वर्षों से उसकी कहानी इतनी अच्छी तरह मालूम थी कि गायक राफ़ेल सिल्वा और मैं ही उसके उत्तर की मानवीय पीड़ा को समझ सके। मैं सोचता था कि मार्गरीटो डुआर्ट एक ऐसा चरित्र था जो एक लेखक की खोज में था, जिसका हम कहानीकार ताजिंदगी इंतजार करते हैं। मैंने कभी उसे मेरा उपयोग नहीं करने दिया क्योंकि अंत में उसकी कहानी कल्पनातीत लगती थी।
वह उस खिले हुए वसंत में रोम आया था जब पोप पायस द्वादश हिचकियों के हमले से ग्रसित था, हिचकियाँ जो न तो डॉक्टरों की अच्छी-बुरी कलाओं से ठीक हो रही थीं, न ही झाड़-फ़ूँक के जादुई इलाज से। कोलंबियन ऐंडीज की ऊँचाई पर स्थित टोलीया गाँव से वह पहली बार बाहर आया था। यह एक सच्चाई थी जो उसके सोने के तरीके तक में नजर आती थी। एक सुबह वह अपने हाथ में वायलिन केस के आकार-प्रकार का पॉलिस किया हुआ पाइन का बक्सा लिए हुए हमरे कॉन्सुलेट में नमूदार हुआ और उसने कॉन्सल को अपनी यात्रा का आश्चर्यजनक कारण बताया। कॉन्सल ने अपने देशवसी गायक राफ़ेल रिबेरो सिल्वा को फ़ोन किया कि जहाँ हम दोनों रह रहे हैं उसी छात्रावास में उसके रहने का भी इंतजाम कर दें। इस तरह मैं उससे मिला।
मार्गरीटो डुआर्ट प्राइमरी स्कूल से आगे नहीं बढ़ा था परंतु लिखने-पढ़ने के उसके व्यवसाय के कारण जो भी छपा हुआ उसके हाथ लगा उसने उसे बड़े उत्साह से पढ़ा। अट्ठारह वर्ष की आयु में जब वह गाँव में क्लर्क था उसने एक खूबसूरत लड़की से शादी की, जो उनकी पहली संतान एक बच्ची को जन्म देने के तत्काल बाद मर गई। अपनी माँ से भी अधिक खूबसूरत वह बच्ची भी सात साल की उम्र में बुखार से मर गई। परंतु मार्गरीटो डुआर्ट की कहानी असल में उसके रोम पहुँचने के छ: महीने पूर्व प्रारंभ हुई। एक बाँध निर्माण के सिलसिले में उसके गाँव की कब्रगाह उस स्थान से विस्थापित करने की जरूरत पड़ी।
इलाके के सभी निवासियों की भाँति मार्गरीटो डुआर्ट ने भी अपने मृतकों को नई कब्रगाह में ले जाने के लिए खोद निकाला। उसकी पत्नी मिट्टी बन चुकी थी परंतु उसकी बगल वाली लड़की ग्यारह सालों के बाद भी ज्यों-कि-त्यों थी। असल में जब उन्होंने ताबूत खोला तो उनके नथुनों में उन ताजा कटे गुलाबों की खुशबू भर गई जिनके साथ उसे दफ़नाया गया था। सब से ज्यादा आश्चर्यजनक बात यह थी कि लड़की के शरीर में कोई भार न था।
चमत्कार की गूँज से सैकड़ों उत्सुक गाँव में उमड़ पड़े। इस विषय में कोई शंका न थी, शरीर की अक्षयता उसके संत होने की असंदिग्ध निशानी थी और यहाँ तक कि डायोसीज के बिशप ने स्वीकारा कि ऐसे विलक्षण चमत्कार को वेटिकन के फ़ैसले के लिए दर्ज किया जाना चाहिए और इसके लिए उन्होंने जनता से चंदा उगाहा ताकि मार्गरीटो डुआर्ट रोम की यात्रा कर सके और इस निमित्त के लिए जद्दोजहद करे जो अब केवल उसका नहीं था, न ही केवल गाँव की सीमा में संकुचित था वरन एक राष्ट्रीय मुद्दा बन चुका था।
शांत पारीओली जिले के छात्रावास में जब वह हमें अपनी कहानी सुना रहा था, मार्गरीटो डुआर्ट ने ताला खोला और उस सुंदर बक्से का ढक्कन उठाया। इस तरह गायक राफ़ेल रिबेरो सिल्वा और मैं उस चमत्कार के साझीदार बने। संसार के बहुत से संग्रहालयों में दिखने वाली सूखी ममी (शव) की तरह वह नहीं दिखती थी। एक छोटी बच्ची जिसने दुल्हन की पोशाक पहन रखी हो और जो एक लंबे समय से जमीन के भीतर सो रही हो, वह ऐसी ही लगती थी। उसकी त्वचा चिकनी और नरम थी, उसकी खुली आँखें स्वच्छ थीं और ऐसा लगता था कि वे मृत्यु के पार से हमारी ओर देख रही हों, जिसे सहन करना कठिन था। उसके मुकुट में साटिन और नारंगी के जो कृत्रिम फ़ूल लगे थे उन्होंने समय की मार झेली थी, उसकी त्वचा ने नहीं। परंतु उसके हाथ में जो गुलाब के फ़ूल रखे गए थे वे अब तक ताजा थे। यह एक सच्चाई थी कि जब हमनें शरीर संदूक से हटा दिया तब भी संदूक के भार में कोई बदलाव नहीं आया।
पहुँचने के अगले दिन से मार्गरीटो डुआर्ट ने अपनी बातचीत प्रारंभ कर दी। पहले-पहल डिप्लोमेटिक असिस्टेंट के साथ जो दयालु ज्यादा, कुशल कम था। और फ़िर उसने वेटिकन के रचाए गए अनगिनत चक्रव्यूहों की घेराबंदी के प्रत्येक दाँवपेंच से बात की।वह अपने उठाए गए प्रत्येक कदम में सदैव बड़ा गंभीर था लेकिन हमें मालूम था कि वेटिकन के घेरे अनगिनत थे और कोई लाभ नहीं होने वाला था। उसने सब धार्मिक सभाओं और जो भी मानवीय संघ मिला उनसे संपर्क साधा। वे बड़े ध्यान से उसकी बात सुनते परंतु कोई आश्चर्य नहीं कि तत्काल कदम उठाने के लिए किए गए वायदे कभी पूरे नहीं होते। सच्चाई यह थी कि यह समय बहुत अनुकूल था भी नहीं। प्रत्येक वह कार्य जिसमें पोप के पवित्र दर्शनों की आवश्यकता थी, तब तक के लिए मुल्तवी कर दिया गया था जब तक पोप की हिचकियों का दौर बंद न हो जाए। जो न केवल विशेषज्ञों का प्रतिरोध नहीं कर रही थीं बल्कि समस्त संसार से भेजे जा रहे प्रत्येक प्रकार के जादू-टोनों को भी बेअसर किये हुए थीं।
आखिर में जब जुलाई महीने में पोप पायस द्वादश स्वस्थ हुए और अपने ग्रीष्मकालीन अवकाश के लिए कैसल गैंडोल्फ़ो चले गए। मार्गरीटो डुआर्ट संत को साप्ताहिक दर्शन के लिए इस आशा के साथ ले गया कि वह उसे पोप को दिखा सकेगा। पोप भीतरी सहन की एक इतनी नीची बाल्कनी पर आए जहाँ से मार्गरीटो डुआर्ट उनके नाखून की चमक और लैवेंडर की सुगंध पा सका। संसार के प्रत्येक देश से आए पर्यटकों के बीच उन्होंने विचरण नहीं किया जैसा कि मारग्रीटो डुआर्ट ने आशा की थी। परंतु छ: भाषाओं में एक ही कथन बार-बार दोहराया गया और सार्वजनिक आशीर्वाद के साथ पोप ने अपना दर्शन समाप्त किया।
बहुत विलंब के बाद मार्गरीटो डुआर्ट ने बात अपने हाथ में लेने का निश्चय किया और उसने लगभग साठ पन्नों का एक पत्र सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट को लिखा, परंतु कोई जवाब नहीं आया। उसे यही अंदेशा था, क्योंकि जिस कार्यकर्ता ने सारी औपचरिकता के सथ उसका हस्तलिखित पत्र लिया था उसने मृत लड़की पर एक सरसरी नजर डालने के अलावा उसे किसी और योग्य नहीं समझा था। पास से गुजरते क्लर्कों ने उसे बिना किसी रूचि के देखा था। उनमें से एक ने बताया था कि पिछले वर्ष उन लोगों ने साबुत शवों को संत का दर्जा देने के संबंध में दुनिया के विभिन्न हिस्सों से आठ सौ से ज्यादा पत्र पाए थे। अंत में मार्गरीटो डुआर्ट ने याचना की कि शरीर की भारहीनता की पुष्टि की जाए। अधिकारियों ने जाँच की परंतु उसे स्वीकार करने से इंकार कर दिया।
“यह सामूहिक सम्मोहन का मामला है।” उन्होंने कहा।
ग्रीष्म के शुष्क इतवारों को अपने थोड़े से बचे समय में वह अपने कमरे में रहता और इस विषय पर जो भी साहित्य उपलब्ध होता उसे घोंटता रहता। प्रत्येक माह के अंत में, अपने खर्चे की विस्तृत गणना एक विशिष्ट क्लर्क की खास लिपि में दर्ज करता और अपने गाँव के दानकर्ताओं को नवीनतम जान्कारियों के साथ भेजता। साल खतम होने के पहले उसे रोम की समस्त भूल-भुलैया ज्ञात हो गई थी। ऐसा लगता था मानो वह यहीं जनमा हो। वह अपनी ऐंडियन स्पैनिश के लहजे में फ़र्राटेदार इटैलियन बोलने लगा था और संत घोषित किए जाने की प्रक्रिया (कैनेनाइजेशन) के बारे में सब कुछ जान गया था। लेकिन उसे अपने सोग वाले कपड़े, वेस्ट और मजिस्ट्रेट का हैट बदलने में काफ़ी समय लगा जो खुल कर न बताने वाली रहस्यमय उद्देश्य वाली सोसाइटी के प्रतीक थे। वह कभी-कभी संत वाला बक्सा ले कर तडके निकल पड़ता और गई रात थका-उदास लौटता। परंतु सदैव अगले दिन के लिए उत्साह की चमक से भरा रहता।
“संत का अपना खास समय होत है।” वह कहता।
यह रोम में मेरा पहला अवसर था जहाँ मैं एक्सपैरिमेंटल फ़िल्म सेंटर में पढ़ रहा था, मैंने सघन संवेदना के साथ उसकी यंत्रणा को जिया।
हमारा छात्रावास विला बोर्गीस से कुछ कदम की दूरी पर एक आधुनिक अपार्टमेंट था। मालकिन स्वयं दो कमरों में रहती थी और उसने चार कमरे विदेशी छात्रों को किराए पर उठाए हुए थे। हम उसे बेला मारिया पुकारते थे। अपना वसंत बीत जाने पर भी वह गजब की सुंदरी और तुनक मिजाज थी। वह इस नियम में विश्वास करती थी कि प्रत्येक इंसान अपने कमरे का बादशाह होता है। मगर वास्तव में उसकी बड़ी बहन बिना पंखों वाली एक फ़रिश्ता ऑन्ट एंटनिटा रोजमर्रा की सारी मुसीबतें उठाती थी। वह घंटों-घंटों उसके लिए काम किया करती, दिन भर लकड़ी की बाल्टी में पानी और ब्रश लिए अपार्टमेंट में घूमती, संगमरमर के फ़र्श को शीशे सा चमकाती। उसी ने हमें नन्हीं साँग बर्ड खाना सिखाया, जो उसका पति बरटोली, युद्ध की बुरी लत के कारण पकड़ लाता था। जब मार्गरीटो डुआर्ट बेला मारिया का किराया चुकाने में असमर्थ रहा तो उसी ने उसे अपने घर में शरण दी।
बिन नियमों वाला घर मार्गरीटो डुआर्ट के स्वभाव के मुआफ़िक नहीं था। प्रत्येक घंटे हमारे लिए कोई-न-कोई अचम्भा इंतजार करता रहता, यहाँ तक कि भोर में जब हम विला बोर्गीस के चिड़ियाघर के शेर की दहाड़ के साथ जागते। गायक रिबेरो सिल्वा को विशेषाधिकार प्राप्त था। रोमन भी उसके सुबह के रियाज का बुरा नहीं मानते। वह छ: बजे सुबह उठ कर बर्फ़ीले ठंडे औषधीय स्नान करता, अपनी बकरा दाढ़ी-मूँछें संवार कार ऊनी चारखाने वाले कपड़े, चाइनीज सिल्क का स्कार्फ़ पहनता और अपना खास इत्र लगा कर वह तन-मन से रियाज में जुट जाता। जब शरत ऋतु के तारे आकाश में जगमगा रहे होते तब भी वह अपनी खिड़की खोल रखता। गरमाने की हद तक वह अपने खुले गले की पूरी ताकत से महान प्रेम की तान लेता। रोजाना जब वह पंचम सुर में ‘डो’ का आलाप लेता तभी विला बोर्गीस का शेर पृथ्वी कंपाने वाली दहाड़ से उसका उत्तर देगा ऐसी सब की अपेक्षा रहती।
“तुम सच में सेंत मार्क के अवतार हो प्यारे!” ऑन्ट एंटोनिटा आश्चर्य के साथ घोषित करती। “केवल वही शेरों के साथ बात कर सकता है।”
यह शेर नहीं था जिसने एक सुबह उत्तर दिया। गायक ने ‘ओटेलो’ से एक युगल प्रेम गीत की तान छेड़ी और नीचे आँगन से एक मधुर पंचम सुर में उत्तर सुनाई दिया। गायक ने रियाज जारी रखा और पड़ौसियों को प्रसन्न करते हुए उन्होंने पूरा गाना गाया। लोगों ने उस प्रचंड प्रेम धार के लिए अपनी-अपनी खिड़कियाँ खोल दीं। गायक करीब-करीब बेहोश हो गया जब उसे ज्ञात हुआ कि उसकी अदृश्य डेस्डोमोना और कोई नहीं स्वयं महान मारिया कनोग्लिया थी।
मुझे ऐसा लगता है कि इस कड़ी ने मार्गरीटो डुआर्ट को इस घर के जीवन से जोड़ने का सटीक कारण दे दिय। तब से वह हमारे सथ टेबल पार बैठने लगा। पहले वह रसोई में बैठता था। जहाँ प्रतिदिन ऑन्ट एंटोनिटा उसे साँग अ बर्ड का स्टू देती थी। जब भोजन समाप्त हो जाता, हमें इटैलियन सिखानी की गरज से बेला मारिया अखबार जोर-जोर से पढ़ती और खबरों पर टिप्पणी भी करती चलती, जो हमारी जीवन में रस घोलता। एक दिन उसने हमें बताया कि पॉलेर्मो शहर में एक बहुत विशाल म्युजियम है जहाँ पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों के अक्षय शव रखे हुए हैं और यहाँ तक कि बहुत से बिशप के भी जो उसी कपुचिन कब्रगाह से हटाए गए थे। इस खबर से मार्गेरीटो डुआर्ट इतना विचलित हो गया कि जब तक हम पॉलेर्मो नहीं गए उसे चैन नहीं पड़ा। परंतु उसके निर्णय के लिए उन विषादजनक गैलरियों की उदास ममी पर एक नजर डालना काफ़ी था।
“वह बिल्कुल नहीं हैं,” उसने कहा। “कोई भी बता सकता है कि ये मरे हुए हैं।”
दोपहार अपने अगस्त महीने के आलस्य में डूब जाती। दोपहार का सूर्य मध्य आकाश में अटका जड़ा रहता और दो बजे की नीरवता में केवल पानी की आवाज सुनाई पड़ती, जो रोम की नैसर्गिक ध्वनि है। लेकिन जब सात बजे ठंडी हवा चलने लगती तो खिड़कियाँ खुल जातीं, और छतों के ऊपर फ़ूलों के बीच प्रेम गीतों के स्वरों के मध्य बिना किसी उद्देश्य एक खुशनुमा भीड़ मात्र जीने के लिए सड़क पर उमड़ पड़ती।
गायक और मैं झपकी नहीं लेते थे। हम वेस्पा पर सवारी करते, मैं पीछे बैठता और वह चलाता। हम विला बोर्गीज की सदियों पुरानी लॉरेल की छाया में जागे हुए राहगीरों का चमकते हुए सूर्य में इंतजार करती थिरकती नन्हीं वेश्याओं के लिए बर्फ़ और चाकलेट लाते। उन दिनों की अधिकाँश इटैलियन औरतों की तरह वे सुंदर, गरीब और प्यारी थीं। वे नीली ऑर्गंडी, गुलाबी पॉपलीन, हरी लीनेन पहनती और हाल के युद्ध की गोलियों की बौछार से फ़टे हुए पारासोल की सहायता से स्वयं को धूप से बचातीं।
उनके साथ रहना एक खास तरह की खुशी थी क्योंकि वे धंधे के नियमों को नजर अंदाज कर हमारे साथ बार के एक कोने में बैठ कर कॉफ़ी पीने और बातें करने के लिए अपने धनी ग्राहकों को छोड़ देतीं, या फ़िर वे हमारे साथ बग्घी में बैठ कर पार्क का चक्कर लगातीं, हमें अपदस्थ बादशाहों और उनकी अर्खैलों की बातें बता कर दयाद्र करतीं जो गोधूलि में घोड़े की पीठ पर बैठ कर गेलेपोशियो का चक्कर लगाते थे। कई बार हम उनके दुभाषिए बनते, जब कोई विदेशी बहक जाता।
हमारा मार्गरीटो डुआर्ट को विला बोर्गीज लाने का करण वेश्याएँ नहीं थीं। हम चाहते थे कि वह शेर देखे। शेर छोटे से टापू में बिना पिंजड़े के खुला रहता था और हमें दूर से देखते ही उसने दहाड़ना शुरु कर दिया। इतनी बेचैनी से कि उसका रखवाला चकित हो गया। पार्क में घूमने आए लोग आश्चर्य से जमा हो गए। गायक उसे अपनी सुबह वाली‘डो’ के द्वारा आकर्षित करना चाहता था पारंतु शेर ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। वह हम सब पर दहाड़ रहा था। फ़िर भी उसका रखवाला तुरंत जान गया कि वह केवल मार्गरीटो डुआर्ट के लिए दहाड़ रहा था। जिधर वह घूमता, शेर भी उधर घूम जाता और जब वह ओझल हो जाता तो शेर दहाड़ना बंद कर देता। उसक रखवाला क्लासिकल लिटरेचर में सियोन यूनिवर्सिटी से डॉक्टरेट था, उसका मानना था कि मार्गरीटो डुआर्ट उस दिन दूसरे शेरों के साथ था और अपने संग उनकी गंध लाया था। रखवाला इस अतार्किक तर्क की कोई और व्याख्या नहीं सोच पा रहा था।
“खैर, यह दहाड़ सहानुभूति की है, युद्ध की नहीं।” उसने कहा। इस अलौकिक एपीसोड से गायक रिबेरो सिल्वा को उतना आश्चर्य नहीं हुआ जितना मार्गरीटो के सम्भ्रमित होने से हुआ। जब वे पार्क में लड़कियों से बात करने के लिए रुके। गायक ने टेबल पार इस बात का जिक्र किया और हम सब सहमत हो गए – कुछ शैतानी से और कुछ सहानुभूति से – मार्गरीटो डुआर्ट के अकेलेपन को दूर करने का विचार अच्छा है। हमारे दयालु विचार से द्रवित बेला मारिया ने अपने मातमही जैसे सीने पर नकली पत्थरों की अँगुलियों से भरे अपने हाथ दबाए।
“मैं, मैं यह फ़ोकट में करती। लेकिन मैं वेस्ट पहनने वाले आदमी बरदाश्त नहीं कर सकती।” वह बोली।
और इस तरह गायक अपने वेस्पा पार दोपहर दो अब्जे विला बोर्गीज गया और एक नन्ही तितली को ले कर लौटा। उसे लगा कि वह मार्गरेटो डुआर्ट को एक घंटे अच्छा साथ देगी। गायक के कहने पार उसने गायक के कमरे में अपने कपड़े उतारे। गायक ने उसे खुशबूदार साबुन से नहलाया, पोंछा, अपने खास कोलोन से उसे महकाया और उसके सारे शरीर पर कर्पूर वाला आफ़्टर शेव पाउडर छिड़का। फ़िर उसने इस एक घंटे तथा एक और घंटे की कीमत अदा की एवं क्या-क्या करना है उसे बताया।
झपकी के स्वप्न की मानिन्द नग्न सुन्दरी ने छायादार घर में पंजों के बल चलते हुए बेडरूम के पिछले दरवाजे पर दस्तक दी। नंगे पैर, नंगे बदन मार्गरीटो डुआर्ट दरवाजे पर आया।
“नमस्कार,” उसने एक स्कूली लड़की की अदा और स्वर में कहा, “मुझे गायक ने भेजा है।”
बड़ी शान के साथ मार्गरीटो डुआर्ट ने इस हादसे को पचाया। लड़की के अंदर आने के लिए उसने दरवाजा खोल दिया। वह बिस्तर पर लेट गई। इस बीच शर्ट और जूते पहनते हुए वह तेजी से अंदर गया ताकि लड़की का पूरे सम्मान के साथ स्वागत कर सके। फ़िर वह उसकी बगल वाली कुर्सी पर आ कर बैठ गया और बातचीत करने लगा। परेशान लड़की ने कहा कि वह जल्दी करे क्योंकि उनके पास मात्र एक घंटा है पर लगता नहीं कि वह इस बात को समझा। अगर वह चाहता तो वह सारा वक्त उसके साथ गुजारती और एक सेंट भी नहीं लेती। ऐसा लड़की ने बाद में बताया। क्योंकि उसे लगा कि इतना अच्छा व्यवहार करने वाला इस दुनिया का हो ही नहीं सकता है। क्या करना है इसे नहीं जानते हुए लड़की ने इस बीच पूरे कमरे में चारों ओर नजर दौड़ाई। और फ़िर फ़ायरप्लेस के पास रखे लकड़ी के केस पर उसकी दृष्टि पड़ी। उसने मार्गरीटो डुआर्ट से पूछा क्या वह सेक्सोफ़ोन है। मार्गरीटो डुआर्ट ने जवाब नहीं दिया लेकिन खिड़की का परदा सरका दिया ताकि थोड़ी रोशनी आ सके, वह केस बिस्तर के पास उठा लाया और उसने उसका ढक्कन उठा दिया। लड़की ने कुछ कहने की कोशिश की पर उसके खुले जबड़े लटक गया। या जैसा कि उसने बाद में हमॆं बताया कि वह दहशत से चीख कर भागी। लेकिन हाल में वह रास्ता भटक गई और ऑन्ट एंटनिटा से जा टकराई जो मेरे कमरे का बल्ब बदलने आ रही थी। वे दोनों इतना डरी हुई थीं कि लड़की ने सारी रात गायक का कमरा नहीं छोड़ा।
ऑन्ट एंटनिटा को कभी पता नहीं चला कि क्या हुआ था। वह इतनी भयभीत थी कि उससे मेरे लैम्प का बल्ब नहीं बदला जा रहा था। उसके हाथ काँप रहे थे। मैंने पूछा, क्या हुआ?
“इस घार में भूत बसते हैं,” उसने कहा, “अब दिन-दहाड़े घूमते हैं।”
पक्के विश्वास के साथ उसने मुझे बताया कि युद्धकाल में एक जर्मन ऑफ़ीसर ने अपनी रखैल का गला उसी कमरे में काट डाला था, जिसमें गायक रहता है। जब ऑन्ट एंटोनिटा काम करती इधर-उधर जाती है अक्सर उस बेचारी का भूत कॉरीडोर में मिलता है। मैंने अभी-अभी हॉल में उसे नंगी चलते हुए देखा है,” वह बोली, “वह वही थी।”
शहर ने पतझड़ की दिनचर्या पकड़ ली थी। हवा के पहले झोंकों के साथ गर्मी की फ़ूलों वाली छतें बंद हो गई थीं। और गायक तथा मैं अपने ट्रास्टवेयरे के पुराने अड्डे पर लौट आए जहाँ काउंट कारलो कैल्काग्नि के जोर-जोर से बोलने वाले छात्रों और मेरे फ़िल्म स्कूल के कुछ सहपाठियों के साथ हम रात का भोजन करते। इनमें हमारे सबसे नजदीक लाकिस था जो बुद्धिमान और दोस्ताना व्यवहार करने वाला यूनानी था। सामाजिक न्याय पर उबाऊ भाषण देना जिसकी एकमात्र कमजोरी थी। यह हमारा सौभाग्य था कि गायक और वादक सदैव उसे गानों के चयन से चित्त कर देते, जिसे वे पूरा गला फ़ाड़ कर गाते, जिससे आधी रात के बाद भी कोई परेशान नहीं होता। उल्टे कोई-कोई देर रात का मुसाफ़िर उनसे सुर मिलाता और वाहवाही के लिए पड़ौसी खिड़कियाँ खोल देते।
एक रात जब हम गा रहे थे, हमारे गाने में बाधा न पड़े इसलिए मार्गरीटो डुआर्ट दबे पाँव आया। वह पाइन केस लिए हुए था। उस दिन वह संत को लैटरानो में सैन गिओवानी के पेरिस प्रीस्ट को दिखाने ले गया था, जिसके विषय में माना जाता था कि उसकी होली कॉन्ग्रगेशन में अच्छी पहुँच है। लौटने पर उसे संत को छात्रावास में रखने का वक्त नहीं मिला था। मैंने कनखी से देखा कि उसने केस को दूर एक टेबल के नीचे रख दिया और हमेशा की तरह हमारा गाना समाप्त होने तक बैठा रहा। आधी रात के बाद जब रेस्तराँ खाली होने लगता हम कई टेबल खींच कर जोड़ लेते और एक झुंड में आ बैठते, गाते, फ़िल्म की बातें करते। हमारे बीच मार्गरीटो डुआर्ट रहस्यमय जिंदगी वाला चुप, उदास कोलंबियन के रूप में जाना जाता था। लाकिंस को जिज्ञासा हुई उसने पूछा क्या वह सेलो बजाता है? मैं औचक पकड़ा गया क्योंकि मुझे वह नाजुक प्रश्न बड़ा मुश्किल लगा। गायक भी उतना ही परेशान अनुभव कर रहा था, वह भी स्थिति को संभाल नहीं सका। मात्र मार्गरीटो डुआर्ट ही ऐसा था जिसने प्रश्न का बड़े सामान्य ढ़ंग से उत्तर दिया।
“यह सेलो नहीं है, संत है।” उसने कहा।
उसने केस टेबल पर रख दिया, उसका ताला खोला और ढ़क्कन हटा दिया। रेस्तराँ अचंभे से हिल गया। दूसरे ग्राहक, बैयरे, यहाँ तक कि रसोई के लोग भी अपने खून सने ऐप्रेन के साथ इस आश्चर्य को देखने जमा हो गए। कुछ ने सीने पार क्रॉस बनाया। एक खानसामा अपने घुटनों पर गिर, हाथ जोड़ कर मन-ही-मन प्रार्थना करते हुए भक्ति भाव से काँपने लगा।
जब घबराहट शांत हुई हम वर्तमान काल में संत भावना की कमी के बारे में जोर-जोर से आलोचना करने लगे। स्वाभाविक रूप से लाकिंस सबसे ज्यादा उत्तेजित था और अंत में उसने स्पष्ट किया कि वह संत के विषय पर एक क्रिटिकल मूवी बनाना चाहता है। “मुझे विश्वास है, बूढ़ा सीजर इस विषय को कभी भी हाथ से नहीं जाने देगा।” उसने कहा।
उसका इशारा सीजर जवाटोनी की ओर था जो हमें प्लॉट डिवलपमेंट और स्क्रीन राइटिंग पढ़ाता था। फ़िल्म इतिहस में वह एक हस्ती था और केवल वही था जो क्लास के बाहर भी हमसे संपर्क रखता था। वह न केवल हमें क्राफ़्ट सिखाता वरन जीवन के प्रति एक अलग नजरिया रखना भी बताता था। वह प्लॉट इजाद करने की मशीन था। प्लॉट उससे उमड़ते-घुमड़ते रहते। करीब-करीब उसकी इच्छा के बिना भी इतनी तेजी से नि:सृत होते कि उन्हें बीच में रोकने के लिए किसी-न-किसी की आवश्यकता पड़ती। क्योंकि वह उन्हें जोर-जोर से बोल कर सोचता था। उसका जोश प्लॉट को पूरा कर के ही दम लेता था। “बहुत बुरी बात है कि इन्हें फ़िल्मों में ढ़ालना है.” वह कहता। उसे लगता कि परदे पर इनका मौलिक जादू काफ़ी हद तक नष्ट हो जाएगा। वह अपने विचारों को दीवार पर पिनअप कर के रखता, वे इतने अधिक थे कि उनसे कमरे की पूरी दीवारें भर गई थीं।
अगले शनिवार हम मार्गरीटो डुआर्ट को उसके पास ले गए। हमने जो आइडिया फ़ोन पर उसे बताया था उसमें उसकी रूचि के कारण वह बेताब था। जवाटीनी के पास इतना उत्साह था कि वह हमें विपा-डि-सेंट-एंजेला-मेरिसी के दरवाजे पर खड़ा मिला।
आदतन करने वाला अभिवादन भी उसने नहीं किया। और अपने द्वारा तैयार की गई मेज के पास मार्गरीटो डुआर्ट को ले गया। केस उसने स्वयं खोला। तभी कुछ ऐसा हुआ जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे। हमारी आशा के विपरीत पागल होने के बजाय वह एक प्रकार के मानसिक लकवे का शिकार हो गया। “आश्चर्य!” वह भय से बुदबुदाया।
संत को उसने दो-तीन मिनट तक निहारा और फ़िर केस को स्वयं बंद कर दिया। बिना एक शब्द कहे वह मार्गरीटो डुआर्ट को द्वार तक ऐसे ले गया मानो कोई बच्चा अपना पहला कदम उठा रहा हो, उसने मार्गरीटो डुआर्ट के कंधे पर थपकी देते हुए उसे विदा दी।
“धन्यवाद, मेरे बच्चे, बहुत-बहुत धन्यवाद!” उसने कहा।
“ईश्वर तुम्हारे संघर्ष में तुम्हारा साथ दे।” दरवाजा बंद कर वह हमारी ओर मुड़ा और उसने अपना निर्णय सुनाया।
“यह मूवी के लिए अच्छा नहीं है, कोई पतियाएगा नहीं।” उसने कहा।
जब हम ट्राम से घर लौटे तब वह आश्चर्यजनक पाठ भी हमारे साथ यात्रा कर रहा था। अगर जावाटीनी ने ऐसा कहा है तो यह सत्य ही होगा। कहानी अच्छी नहीं थी। परंतु बेला मारिया हमें जावाटीनी के संदेश के साथ छात्रावास पर मिली। वह उस रात हमारा इंतजार करेगा। लेकिन उसने हमें मार्गरीटो डुआर्ट के बिना बुलाया था।
हमने उस्ताद को सितारों की बुलंदी पर पाया। लाकिंस अपने दो-तीन साथियों को ले कर आया था, पारंतु जब जावाटीनी ने दरवाजा खोला, उसने उनकी ओर देखा भी नहीं।
“मुझे मिल गया,” वह चिल्लाया, “यह एक सनसनीखेज पिक्चर होगी, यदि मार्गरीटो डुआर्ट एक जादू करे और लड़की को पुनर्जीवित कर दे।”
“पिक्चर में या असल जिंदगी में?” मैंने पूछा। उसने अपनी झुंझलाहट दबा ली, “बेवकूफ़ मत बनो।” उसने कहा।
हमने उसकी आँखों में अदमनीय उमड़ते विचारों को कौंधते देखा, “यदि वह उसे जीवन में पुनर्जीवित कर दे तो?” उसने विचारा और पूरी गंभीरता से जोड़ा –
“उसे कोशिश करनी होगी।”
यह एक क्षणिक प्रलोभन से ज्यादा न था, उसने पुन: सूत्र संभाला। वह एक आनंदित पागल की तरह प्रत्येक कमरे में चहलकदमी करने लगा। जोर-जोर से चिल्लाते हुए, हाथ हिला-हिला कर फ़िल्म दोहराने लगा। चकराते हुए हमने उसे सुना, ऐसा लग रहा था मानो हम सब फ़िल्म देख पा रहे हों। जैसे अंधेरे में चमकती हुई चिड़ियों के झुंड खुले छोड़ दिए गए हों। उनकी पागल उड़ान पूरे घर में भर गई।
उसने कहा, “एक रात जब किसी कारणवश वह जिन बीस पोप से मिल था, वे मर गए, मार्गरीटो डुआर्ट बूढ़ा हो गया। एक दिन वह थका-हारा अपने घर आता है, केस खोलता है, छोटी मृत लड़की का चेहरा सहलाता है और संसार की सारी कोमलता के साथ कहता है: “मेरी बच्ची! अपने पिता के प्यार की खातिर उठो और चलो।”
उसने हम सब की ओर नजर डाली और एक विजयी मुद्रा के साथ समाप्त किया:
“और वह ऐसा करती है।”
वह हम से कुछ अपेक्षा कर रहा था मगर हम इतना खो गए थे कि एक शब्द न कह सके। केवल यूनानी लाकिंस ने अपना हाथ उठाया मानो वह स्कूल में हो और पूछने के लिए आज्ञा माँग रहा हो।
“मेरी मुसीबत यह है कि मैं इस पर विश्वास नहीं कर पा रहा हूँ,” उसने कहा। हमें चकित करते हुए वह जावाटीनी से कह रहा था, “माफ़ करना उस्ताद, लेकिन मुझे इस पार विश्वास नहीं।”
अब चौंकने की बारी जावाटीनी की थी।
“और क्यों नहीं?”
“मुझे क्या पता।” लाकिंस ने व्यथा के साथ कहा। “परंतु यह असंभव है।”
“आश्चर्य!” उस्ताद ने इतने जोर से और ऐसे स्वर में गर्जन किया जो पूरे पड़ोस में अवश्य सुनी गई होगी।
“स्टालिनवादियों की यही बात मेरी समझ में नहीं आती है कि वे क्यों यथार्थ में विश्वास नहीं करते।”
जैसा कि स्वयं मार्गरीटो डुआर्ट ने बताया अगले पंद्रह वर्ष वह संत को इस इंतजार में कैसल गैंडोल्फ़ो ले जाता रहा कि उसे एक बार संत को प्रदर्शित करने का अवसर मिलेगा। करीब दो सौ तीर्थयात्रियों का जत्था लैटिन अमेरिका से पोप जॉन तैइसवाँ का दर्शन करने आया था।इस अवसर पर वह किसी प्रकार उन्हें अपनी कहानी सुन सका।
परंतु उन्हें लड़की दिखा नहीं सका. क्योंकि हत्या के प्रयासों के तहत की जा रही सावधानी के कारण अन्य यात्रियों के सामान के साथ उसे भी संत को प्रवेश द्वार पर ही छोड़ देना पड़ा। भीड़ में जितने ध्यान से पोप सुन सकते थे उन्होंने उसकी बात सुनी और उसके गाल पर उत्साहजनक चपत लगाई।
“शाबाश, मेरे मित्र।” उन्होंने कहा। “ईश्वर तुम्हारी लगन को ईनाम दे।”
मगर मुस्कुराते एल्बीनो लुसीआनी के अल्पकालीन शासन के दौरान मार्गरीटो डुआर्ट को पक्का यकीन हो गया था कि उसके स्वप्न पूरे होने का समय आ गया है। माग्ररीटो डुआर्ट की कहानी से प्रभावित पोप के एक रिश्तेदार ने हस्तक्षेप करने का वायदा किया।इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया, लेकिन जब दो दिन बाद वह छात्रावास में खाना खा रहा था किसी ने टेलीफ़ोन पर सरल त्वरित संदेश मार्गरीटो डुआर्ट के लिए दिया। उसे किसी भी सूरत में रोम नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि वृहस्पतिवार से पहले किसी भी समय उसको निजी दर्शन के लिए वतिकान से बुलावा आ सकता है।
किसी को भी पता नहीं चल सका कि यह मजाक था या नहीं। मार्गरीटो डुआर्ट ने ऐसा नहीं सोचा और सतर्क रहा। उसने घर नहीं छोड़ा। अगर उसे बाथरूम भी जाना होता तो वह सब को सुना कर कहता, “मैं बाथरूम जा रहा हूँ।” बेला मारिया बुढ़ापे में भी मजाकिया थी, वह मुक्त स्त्रियों की तरह खुल कर हँसती थी। “हमें मालूम है मार्गरीटो,” वह जोर से कहती, “अगर पोप बुलाए तो।” अगले सप्ताह एक दिन भोर में मार्गरीटो करीब-करीब बेहोश हो गया, जब उसने दरवाजे के नीचे सरके अखबार की सुर्खी देखी: “पोप मर गया।” कुछ क्षण वह भ्रम में रहा कि हो-न-हो यह पुराना अखबार है, जो गलती से वितरित हो गया है। यह विश्वास करना कठिन था कि प्रति माह एक पोप मरेगा। लेकिन यह सत्य था: मुस्कुराने वाला एल्बीनो लुसीआनी जो मात्र तैंतीस दिन पूर्व चुना गया था, अपनी नींद में ही चल बसा।
पहली बार मार्गरीटो डुआर्ट से मिलने के बाईस वर्ष बाद मैं रोम लौटा था, शायद मैं उसके विषय में नहीं सोचता यदि हम अचानक एक-दूसरे से टकरा न जाते। मैं खराब मौसम से उतन हताश था कि किसी भी विषय पर सोच नहीं पा रहा था। वर्षा की एकसार झड़ी गरम सूप की भाँति लगातार गिर रही थी। दूसरे मौसम की हीरे जैसी चमकती रोशनी मटमैली हो गई थी। स्थान जो कभी मेरा था, मेरी स्मृति में था, अब अजनबी हो गया था। जहाँ छात्रावास था वह जगह अभी भी नहीं बदली थी। मगर कोई बेला मारिया के विषय में नहीं जानता था। वर्षों पहले गायक रिबेरो सिल्वा ने जो छ: भिन्न-भिन्न अलग टेलीफ़ोन नंबार मुझे भेजे थे उन पर कोई उत्तर नहीं मिले। फ़िल्म स्कूल के नए लोगों के साथ खाते समय मैंने अपने उस्ताद की स्मृति जगानी चाही पर एक क्षण के लिए टेबल पर चुप्पी छा गई जब किसी ने कहने की हिमाकत की, “जावाटीनी! कभी नाम नहीं सुना उसका।”
यह सत्य था। किसी ने उसके बारे में नहीं सुना था। विला बोर्गीज के पेड़ बारिश में अस्त-व्यस्त हो गए थे, सुंदर उदास रखैलों के गेलेपिओ को खर-पतवार ने ढक लिया था। पुरानी सुंदर लड़कियाँ बहुत पहले एथलीट की पुरुषों जैसी चमकीली ड्रेस में बदल गई थीं। लुप्तप्राय प्राणियों में केवल बूढ़ा शेर बचा था जो अपने सूखे पानी वाले टापू पर खुजली और नजले से परेशान था। पित्जा डि स्पैग्ना के प्लास्टिक ट्रेटोरियाज(होटल) में न तो कोई गाता था न ही कोई प्रेम में मरता था। क्योंकि हमारी स्मृति का रोम सीजर के रोम के भीतर एक और दूसरा पुराना रोम बन चुका था।ट्रास्टवेयरे की पतली गली में तभी किसी ने मुझे पुकार कर सर्द कर दिया था:
“हेल्लो, कवि!”
यह वह था, बूढ़ा और थका। चार पोप मर चुके थे।
शाश्वत नगार रोम पहली बार वृद्धावस्था की क्षीणता के लक्षण दिखा रहा था और वह अब भी प्रतीक्षा कर रहा था।
“मैंने इतने दिन इंतजार किया है, अब और अधिक समय नहीं लगेगा।” चार घंटे अतीत की याद में बिताने के बाद विदा होते समय उसने कहा। “यह सिर्फ़ कुछ महीनों की बात है।” कॉम्बैट बूट और पुरानी बदरंग कैप पहने वह सड़क के बीचोंबीच चहबच्चों को नजर अंदाज करता जहाँ डूब रही थी डगमगाता हुआ चला जा रहा था। अगर पहले जरा भी शक था भी तो अब मुझे कोई शक नहीं था कि संत तो असल में मार्गरीटो डुआर्ट था। बिना इस तथ्य को जाने बिना वह अपनी बेटी के अक्षय शरीर के निमित्त अभी भी जीवित था। अपने ही – कैनेनाइजेशन * के वैध संघर्ष में बाईस साल लगा रहा। उसका संघर्ष अपनी बेटी के लिए नहीं उसके अपने लिए ही था।
०००
– अगस्त १९८१
रूपांतरण दिसम्बर २००२
०००
मो.: ०९९५५०५४२७१, ०९४३०३८१७१८ईमेल:vijshain@gmail.com
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मनीष पुष्कले बेहद चर्चित चित्रकार हैं और साथ ही बेहद संवेदनशील लेखक भी. आज प्रभात खबर में प्रकाशित उनका यह लेख युवाओं को अवश्य पढना चाहिए. जिन्होंने न पढ़ा हो उनके लिए हम प्रस्तुत कर रहे हैं- मॉडरेटर
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पिछले कुछ सालों से विभिन्न शहरों, धाराओं और अनेक तबकों के युवाओं के साथ मेरा संबंध और संवाद बढ़ा है. ये युवा लेखन, नर्तन, रंगमंच, चित्रकला, पत्रकारिता, राजनीति व अन्यान्य क्षेत्रों से रहे हैं. उनसे हुए संवादों के आधार पर, अपने अनुभव से मैं यह कह सकता हूं कि स्वयं को लेकर जिस प्रकार की गंभीरता हमारे छोटे शहरों, कस्बों या गांव के युवाओं में दिखती है, वह बड़े शहरों के युवाओं में नहीं दिखती. मैंने महसूस किया है कि शहरी युवाओं के मानस में स्वप्नासक्ति और संवेदनशीलता के साथ पराक्रम और साहस का अनुपात घटा है.
यूं तो समय हमेशा से ही अपने साथ नयी-नयी चुनौतियों को लाता है और इतिहास में ऐसे तमाम प्रमाण दर्ज है, जिन्हें पढ़ कर हम किसी काल विशेष की दुरूहता और उसमें रहे युवाओं की चुनौतियों को समझ भी सकते हैं. लेकिन, हमने इतिहास से सीख लेना बंद कर दिया है. यह तो सुखद है कि शहरों से दूर, ग्रामीण या छोटे अंचलों से अब भी अनेक ऐसे युवा लेखक, विचारशील कलाकार उभर रहे हैं, जिनका दृष्टिकोण साफ है. वे आज के दुनियावी परिवर्तनों के प्रति सजग हैं और अपने पारंपरिक बोध से सहज भी.
उनके आचरण में अपनी परंपराओं को लेकर सम्मान है और उसके मूल्यों का उनके वर्तमान में यथायोग्य स्थान भी है. इसके बरक्स मैं महानगरों के अनेक ऐसे युवाओं से भी मिलता रहा हूं, जिनमें आत्मविश्वास तो बहुत है, लेकिन वे दिशा-भ्रम में हैं. उनका आत्मविश्वास, परंपरा और आधुनिकता के बीच उभरी दूरियों में केंद्रित है. विशेषकर चित्रकला के क्षेत्र में तो यह अंतर इसलिए भी बहुत साफ दिखता है, क्योंकि उसमें शास्त्रीयता का व्याकरण वैसा नहीं होता, जैसा अन्य शास्त्रीय कलाओं में होता है. उसमें हर कलाकार को अपनी व्याकरण भी रचनी होती है और उससे अपना मुहावरा भी बनाना होता है.
इसलिए, संभवतः चित्रकला अकेली ऐसी कला है, जिसमें शास्त्रीयता, समकालीन होती है. उसमें कलाकार का मानवीय पक्ष, उसकी सामाजिक चेतना का स्तर उसके बिंबों से साफ प्रकट होता है. संभवतः इसलिए चित्रकला को सभी कलाओं में श्रेष्ठ कहा गया है. कलाएं स्कैनर का काम भी करती हैं, जिससे हम सामाजिक संवेदनाओं को समझ सकते हैं.
बहरहाल, जिस प्रकार से कल्पना और आग्रह का परस्पर संबंध ग्रामीण अंचल से आये आज के कलाकारों की रचनाशीलता में दिखता है, वह शहरी माहौल में रहे कलाकारों की संवेदना से भिन्न है.
भू-मंडलीकरण के इस दौर में वैसे तो हर चीज ही अपने स्थापित उद्देश्य और औचित्य से विलगति नजर आती है, जिसकी छाया में हर मान्यताओं का चलन और प्रचलन स्थगित-सा होता प्रतीत होता है. लेकिन, संक्रमण के इस काल में विभिन्न क्षेत्रों से आते आज के युवाओं से ऐसे साहस की अपेक्षा रखने में कोई बुराई नहीं है, जिससे हमारी पारंपरिक चेतनाएं अक्षुण्ण रह सकें. संयोग से इस अपेक्षा पर ग्रामीण अंचल के युवा ही खरे उतरते प्रतीत होते है. पारंपरिक ज्ञान और शिक्षा की अनुपस्तिथि में आधुनिक शिक्षा पद्धति अपनी पूर्ण विफलताओं की ओर अग्रसर है, जो निरंतर एक निर्भीक और सभ्य नागरिक की जगह अंततः एक डरपोक और असभ्य, लेकिन आधुनिक मनुष्य का निर्माण कर रही है.
युवाओं के इस पक्ष पर विचार करने का कारण मेरे मन में शाह फैसल के उस कदम से उठा है, जिससे मैं बेहद प्रभावित हूं. ये वही कश्मीरी नौजवान हैं, जो साल 2009 में सिविल सर्विसेज टॉपर थे. इन्होंने हाल की राजनीति में कश्मीर की समस्या के प्रति उचित रवैये और पर्याप्त विमर्श के न होने से विचारपूर्वक भारतीय प्रशासनिक सेवा से अपना इस्तीफा दे दिया.
वे अब उसी राजनीति की मुख्यधारा से जुड़ कर अपना अलग रास्ता तलाश रहे हैं. अपने हालिया बयानों से इस समस्या के प्रति विभिन्न सरकारों की कोशिशों और मंतव्यों के बीच उन्होंने अपने विचारों को जिस प्रकार रखा है, वह बेहद प्रशंसनीय है.
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कल प्रसिद्ध फ़िल्मकार, अभिनेता विजय आनंद की जन्मतिथि थी. उनके बारे में एक एक सूचनात्मक लेख लिखा है नवीन शर्मा ने- मॉडरेटर
विजय आनंद को हिंदी सिनेमा का हरफनमौला खिलाड़ी कहना ज्यादा सही रहेगा। वे बेहतरीन निर्देशक थे, संवेदनशील अभिनेता भी थे। इसके साथ साथ वे लेखक और अच्छे एडिटर भी थे।
देव आनंद की सबसे बेहतरीन फिल्म गाइड मानी जाती है। इस लाजवाब क्लासिक फिल्म को विजय आनंद ने ही निर्देशित किया था। आरके नारायण की किताब पर देव आनंद बतौर निर्माता दो भाषाओं में ‘गाइड’ (1965) बना रहे थे। उनके बड़े भाई चेतन आनंद हिंदी और टेड डेनियलवस्की अंग्रेजी संस्करण का निर्देशन कर रहे थे। मगर चेतन ‘गाइड’ बीेच में ही छोड़ अपनी फिल्म ‘हकीकत’ बनाने लगे। तब ‘गाइड’ के निर्देशन की जिम्मेदारी गोल्डी यानी विजय आनंद पर आई। गोल्डी ने कहा कि वे फिल्म की पटकथा अपने हिसाब से लिखेंगे। गोल्डी ने ‘गाइड’ में अध्यात्म का पुट दिया और देव की लवर बॉय की इमेज को ध्वस्त कर दिया। गाइड के गाने और उनका मनमोहक फिल्माकंन ने फिल्म को हिट कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।इसके सुरीले गीतों में पिया तोसे नैना लागे रे, दिन ढल जाए हाय रात ना जाए और कांटों से खींच के ये आंचल प्रमुख हैं।
अंग्रेजी से अलग हिंदी ‘गाइड’ में उन्होंने कई बदलाव भी किए क्योंकि उनका मानना था कि भारतीय दर्शक किसी महिला को पराये मर्द से इश्क करते स्वीकार नहीं करेंगे। मजरूह सुलतानपुरी ने इसके गाने लिखे तो गोल्डी को लगा कि गानों के लिहाज से तो हीरोइन खलनायिका नजर आती है। लिहाजा उनकी जगह शैलेंद्र को फिल्म के गीत लिखने की जिम्मेदारी दी गई, जिन्होंने नायिका को खलनायिका के बजाय बागी तेवर दिए।
गाइड फिल्म का अंग्रेजी संस्करण बॉक्स आॅफिस पर फ्लॉप रहा हुआ लेकिन विजय आनंद की हिंदी ‘गाइड’ सुपर हिट साबित हुई। आरके नारायण, जिनके उपन्यास पर फिल्म बनी थी, ने तो यहां तक कहा कि फिल्म मेरी किताब से भी ज्यादा खूबसूरत बनी है। अब विडंबना देखिए की देव आनंद ने टेड को ‘गाइड’ के निर्देशन के लिए दस लाख दिए मगर अपने छोटे भाई गोल्डी को न तो कुछ दिया और न गोल्डी ने कुछ मांगा। यहां तक कि गोल्डी की मेहनत के बावजूद देव आनंद ने ‘गाइड’ के पोस्टरों पर लिखा- ए फिल्म बाय देव आनंद।
जब गोल्डी को लगा कि उनके घर में उनकी कीमत नहीं हो रही है लिहाजा उन्होंने बाहर की फिल्म निर्देशित करना तय किया। नासिर हुसैन ने उन्हें ‘तीसरी मंजिल’ का निर्देशन सौंपा। यहां भी विजय आनंद ने कहा कि वे अपना संगीतकार लाएंगे। नासिर और ‘तीसरी मंजिल’ के हीरो शम्मी कपूर शंकर-जयकिशन के भक्त थे। मगर गोल्डी के कहने पर दोनों ने आरडी बर्मन को सुना और उनके भक्त बन गए। इस फिल्म के गीतों की सफलता से आरडी बर्मन ने हिंदी फिल्म गीतों में एक नया आयाम जोड़ा। यह नए जमाने का संगीत था जिस पर पश्चिमी वाद्ययंत्रों का प्रभाव साफ दिखाई देता है। अनुबंध के मुताबिक फिल्म के बॉम्बे वितरण क्षेत्र के मुनाफे में गोल्डी को 20 फीसद मिलना था। फिल्म के हिट होते ही नासिर ने अपने चचेरे भाई को गोल्डी के पास अनुबंध पर पुनर्विचार करने भेजा। गोल्डी को बुरा लगा और उन्होंने 20 फीसद मुनाफे वाली बात खुद अनुबंध से हटाई और अपना मेहनताना तक नहीं लिया। यह बात गोल्डी के मित्र फिल्म वितरक गुलशन राय को बहुत बुरी लगी।
गुलशन राय को अफसोस था कि उनके मित्र को ठग लिया गया है। लिहाजा उन्होंने अपनी कंपनी त्रिमूर्ति फिल्म्स बनाई और कहा कि गोल्डी उनके लिए एक फिल्म निर्देशित करें। इसके मुनाफे में वे उन्हें 33 फीसद हिस्सेदारी देंगे। गोल्डी ने कहा कि पैसों के बारे में बाद में बातचीत करेंगे क्योंकि उन्हें पैसे की बात करना पसंद नहीं। इस तरह बनी बतौर निर्माता गुलशन राय की पहली फिल्म ‘जॉनी मेरा नाम’ (1970) बनी। फिल्म सुपर हिट हुई तो गुलशन राय ने गोल्डी को बुलाया और कहा कि मैं तो तुम्हें फिल्म के मुनाफे में 33 फीसद भागीदारी देने के लिए तैयार था। मगर तुमने ली नहीं। अब बताओ कि मेरी इस फिल्म का निर्देशन करने का तुम कितना पैसा लोगे? गोल्डी गुलशन राय को भी नासिर हुसैन बनते देख रहे थे।
विजय आनंद के संवेदनशील अभिनेता भी थे। उनकी इस प्रतिभा की बानगी हम कोरा कागज फिल्म में देख सकते हैं। जया भादुड़ी के साथ विजय आनंद ने भी इसमें अच्छा अभिनय किया है। इस फिल्म का टाइटल सांग मेरा जीवन कोरा कागज काफी लोकप्रिय हुआ था। इस फिल्म को मनोरंजक लोकप्रिय फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी हासिल हुआ था।
विजय आनंद ने दूरदर्शन पर तहकीकात नाम के सीरियल में जासूस की भूमिका निभाई थी। इसमें वो अपराध की घटनाओं की जांच कर अपराधी को पकड़ते थे।विजय आनंद ने ‘काला बाजार’, व ज्वेलथीफ ’ जैसी कई अन्य सफल फिल्में भी निर्देशित कीं।
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हाल में ही एक लेखिका ने मुझे अपनी पांडुलिपि भेजी ‘लेडी मस्तराम की कहानियां’. मैं लेखिका का नाम नहीं बताऊँगा लेकिन पाण्डुलिपि से एक कहानी लगा रहा हूँ. लेखिका को पहचानिए और इस बात पर अफ़सोस जताइए कि क्यों इस तरह की कहानियां लिखने के लिए हिंदी के लेखक-लेखिकाओं को अपना नाम छुपाना पड़ता है-प्रभात रंजन
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प्यार का बोरोलीन
‘लेडी मस्तराम बनना है क्या?’
मुझे अच्छी तरह याद है। मैंने पूर्णेंदु सर को अपनी पहली कहानी पढने के लिए दी थी। उन्होंने दो दिन बाद कहानी को बड़े करीने से लिफ़ाफ़े में डालकर लौटाते हुए कहा था।
मुझे अच्छी तरह याद है वृहस्पतिवार का दिन था। उन दिनों मैं सोलह वृहस्पतिवार का व्रत कर रही थी। हर वृहस्पतिवार के दिन मैं गरीबस्थान मंदिर में भोले बाबा को जल चढाने जाती थी। जल चढ़ाकर लौट रही थी तो रिक्शे वाले को रिंग बाँध की तरफ से लेने के लिए बोल दिया। वहीं कोने पर उनका बंगला था। जब मैं पहुंची तो वे आम के पेड़ के नीचे कुर्सी डाले अखबार पढ़ रहे थे। ठंड जा चुकी थी लेकिन गर्मी ठीक से आई नहीं थी। छांह में बैठकर धूप को महसूस करना अच्छा ही लगता था। पेड़ में खूब मंजर आये हुए थे। पीछे से चिरई-चुनमुन की आवाजें आ रही थीं। चारों तरफ फूल ही फूल। पूर्णेंदु सर के पहले कविता संग्रह ‘रंगारंग’ के शीर्षक की प्रेरणा शायद यहीं से मिली हो उनको!
कैसे भूल सकती हूँ मार्च की वह मनहूस सुबह जब मेरी पहली कहानी को अच्छी तरह लिफ़ाफ़े में सहेजकर लौटाते हुए पूर्णेंदु सर ने महज एक वाक्य कहा और अन्दर की तरफ चले गए। जिस महीने में फूल खिलते हैं, लोगों के दिल मिलते हैं, मेरा टूटकर मुरझा गया था। लेखिका बनने के मेरे सपने पर सर ने जैसे सूखे पत्तों की बारिश बरसात कर दी हो।
पूर्णेंदु सर ने ही मुझे लेखन के लिए प्रेरित किया था। कहा था ऐसे अनुभवों को लिखो जिनको किसी ने न लिखा हो और ऐसे लिखो कि पढने वालों को लगे ऐसा तो वह भी लिख सकता है।
एक महीने तक वैशाली नोट बुक के न जाने कितने पन्ने फाड़ने के बाद मैंने शब्दों को जोड़ जोड़ जो लिखा वह क्या किसी लायक नहीं था? क्या उसकी नियति पीले लिफ़ाफ़े में बंद हो जाना थी?
क्या मेरे लिखे का कोई अर्थ नहीं था या मेरी जिंदगी का? जिनको भूल जाने से पहले मैं जिसको दर्ज करके हमेशा के लिए भूल जाना चाहती थी। मैं तो पीछे का सब भूलकर आगे निकल जाना चाहती थी।
पूर्णेंदु सर ने भूलने कहाँ दिया?
यह है मेरी पहली कहानी जो तब लिखी गई थी जब न कंप्यूटर आया था न हाथ में घड़ी घड़ी घंटी बजाने वाला मोबाइल फोन। 5 रुपैया के रेनोल्ड्स का पेन खरीद कर लिखे थे-
किरायेदार से मेरे जीवन की कहानी के किरदार तक
भाई के दिल्ली पढने जाने के बाद घर में मैं माँ-पापा के साथ अकेली रह गई। नया नया डेरा बनवाये थे पापा बाईपास के पास। ऊपर दो रूम था जिसमें हम लोग रहते थे। नीचे चार कमरा था जिसमें किरायेदार आते जाते रहते थे। उस ज़माने में चारों रूम में तो कभी किरायदार नहीं आये लेकिन एक न एक किरायेदार जरूर रहता था।
पापा ने नियम बना रखा था कि वे कभी किसी विद्यार्थी को भाड़े पर कमरा नहीं देंगे। नौकरीपेशा लोगों को घर देना ठीक रहता है। रहते हैं, ट्रांसफर हो जाता है चले जाते हैं। जब तक रहते हैं टाइम पर किराया भी दे जाते हैं।
मनोज मोहन नाम था उनका। किरायेदार थे। यूनियन बैंक का नया नया ब्रांच शहर में खुला था। उसी में कैशियर लगे थे। सवेरे कब तैयार होकर ऑफिस चले जाते। कब लौटकर आता कुछ पता नहीं चलता था। वैसे झूठ क्यों बोलूं कि मुझे पता नहीं चलता था। संयोग से एक दिन मैंने सवेरे साढ़े आठ बजे कमरे की सफाई करते हुए खिड़की का पल्ला सीधा किया तो देखा हाथ में बैग लटकाए जा रहे थे। उसके बाद से क्या संयोग था कि सवेरे मैंने उसी समय कमरे की सफाई करने लगी। जब खिड़की खोलती वह जाते दिखाई देते।
मौसी कहती थीं कि जवान पुरुष जहाँ रहते हैं वहां आसपास के सारे खिड़की-दरवाजों की फिजा को भांप जाते हैं। न जाने उनको कैसे इस बात का पता चल जाता है कि किस खिड़की के पीछे कौन रहती है, किस दरवाजे के खुलने पर किस वक्त कौन निकलती है- न जाने कैसे वे भांप जाते हैं। नहीं, मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि मनोज ने कभी खिड़की खुलने पर ऊपर देखा भी हो। वह तो माथा झुकाए जाता था माथा झुकाए आ जाता। ‘बहुत सलज्ज लड़का है’, मैंने सुना एक दिन पापा खाना खाते समय माँ से कह रहे थे।
‘बेटी से बियाह करना है क्या? सलज्ज है तो क्या करना है? समय पर किराया देता रहे बस…’
माँ ने पापा के कटोरे में दाल डालते हुए कहा।
‘फिर भी!’ पापा ने हाथ से बस का इशारा किया और बोले।
पापा की आदत थी सवेरे एक ही बार खाना खाकर ऑफिस चले जाते थे। कलेक्टेरियेट में सप्लाई विभाग में बड़ा बाबू थे।
दिन में घर में माँ और मैं दोनों रहती थी। हाइवे पर घर था, हमेशा चहल-पहल बनी रहती। डर जैसी कोई बात ही नहीं थी। उस साल मैं प्राईवेट से इंटर की परीक्षा की तैयारी कर रही थी। इसलिए घर से बाहर कभी कभार ही निकलती। वह भी माँ के साथ। लेकिन माँ कथा सुनने, सत्संग सुनने कई बार चली जाती थी। मुझे सख्त हिदायत रहती- माँ पापा को छोड़कर किसी के लिए दरवाजा मत खोलना।
दरवाजा तो नहीं खोलती लेकिन खिड़की रोज खोलती थी। एक दिन खिड़की खोलते समय धूल का ऐसा झोंका आया कि मुझे खांसी होने लगी। उसी समय फ़्लाइंग शर्ट जींस पहने, हाथ में चमड़े का बैग लटकाए मनोज बाबू गेट खोलकर बाहर निकलने ही वाले थे कि खांसी की आवाज सुनकर उनकी नजर ठीक खिड़की पर आकर ठहर गई। और मेरी नजर उनके ऊपर ठहर गई। कुछ देर दोनों की निगाहें ठहरी रहीं फिर उसने उसी तरह नजर झुकाई और गेट खोलकर चला गया।
मेरी एक फुआ हैं। नेपाल में रहती हैं। बचपन से उनकी एक ही बात याद है- जब जब जो जो होना है तब तब सो सो होता है!
झूठ क्यों बोलूँ कि इस तरह उससे नजर मिलना, फिर उसका इस तरह नजर झुकाकर चले जाना अच्छा लगा था। मुझे नहीं लगता है कि ऐसी कोई लड़की होती होगी जिसको यह सब अच्छा न लगता हो। कह शायद कोई नहीं पाती, लिखने में भी झिझक जाती हैं।
अच्छा लगने का असर था या सिर्फ संयोग! लेकिन उस सुबह के बाद से ऐसा बार बार होने लगा। सुबह पूरब वाली खिड़की खुलती। सामने से बैग उठाये जाते मनोज बाबू दिखाई देते। गेट खोलने से ऐन पहले एक बार गर्दन ऊपर उठाते और निगाहें सीधे खुली खिड़की पर जातीं, मेरी आँखों से टकराती और झुक जातीं। गेट खुलता और झटके से वे बाहर निकल जाते…
कुछ नहीं होता था लेकिन अच्छा लगता था। सुबह की हल्की हवा और मुलायम धूप में सब कुछ खिला खिला लगने लगता।
तीन महीने इसी तरह बीत गए। माँ-पापा में किरायेदारों को लेकर जो चौकन्नापन होता है वह जाता रहा। तीन महीने में किराया देने के अलावा कभी ऊपर की सीढियों पर मनोज बाबू ने कदम तक नहीं रखा था।
‘किसी चीज की जरूरत हो तो बोलियेगा’, वह जब भी ऊपर आते तो जाते समय माँ यह कहना नहीं भूलती थी।
वैसे माँ के कहने के बाद ही उस बात को सब भूल जाते थे। यहाँ तक कि खुद माँ भी।
एक दिन दोपहर में दरवाजे पर घंटी बजी। मैं पढ़ाई में लगी हुई थी। चौंककर उठी। माँ तो डॉक्टर विश्वनाथ झा के घर कथा में गई थी। आधा ही घंटा हुआ था गए। इतनी जल्दी लौटने का सवाल ही नहीं उठता था। कौन था?
‘कौन है?’
दरवाजा खोलने से पहले पूछना जरूरी था। मैं घर में अकेली थी न।
‘मैं हूँ… मनोज।’
मनोज मतलब मनोज मोहन मतलब मनोज बाबू! आज तक दिन में कभी दिखाई नहीं दिए था तो आज कैसे?
मैंने दरवाजा खोला और सवालिया निगाहों से उनकी तरफ देखा।
‘ई नीचे गिरा हुआ था। देने आया था…’ कहते हुए उन्होंने हाथ में लपेटा हुआ कपड़ा आगे बढ़ा दिया।
‘ओह’ कहते हुए मैंने उनके हाथ से कपड़ा लिया और अन्दर कमरे में रखने चली गई। छत पर सूखने के लिए कपड़ा डाले थे। उसी में से मेरी शमीज और पैंटी न जाने कैसे नीचे गिर गई थी। असल में पैंटी को छुपाकर सुखाने के लिए शमीज के नीचे डाला था। पता नहीं कैसे हवा में उड़कर दोनों कपड़े नीचे गिर गए। कभी कभी कपड़े गिर जाते हैं। कोई नई बात नहीं। लेकिन यह पहली बार हुआ कि कोई ऊपर पहुंचाने आ गया।
मुझे इतनी शर्म आई कि लगभग पीछे मुड़ते हुए मैंने हाथ में कपड़े लिए और सीधा अन्दर भागी। जब वापस आई तो वे गेट पर ही खड़े थे। इससे पहले कि मैं कुछ कहती वही बोल पड़े
‘आज सर्दी के कारण थोड़ा बुखार जैसा बुझा रहा था इसलिए ऑफिस से जल्दी आ गए।’ कहते हुए मनोज बाबू जाने के लिए पीछे मुड़ने ही वाले थे कि मेरे मुंह से निकल गया-
‘चाय पीकर जाइए। दवाई लिए हैं कि नहीं?’
पहली बार घर के बाहर के किसी पुरुष से अकेले में बात की थी। साँसें तेज तेज चल रही थी और इसके कारण आवाज थोडी काँप भी रही थी।
मनोज बाबू बिना न नुकुर किये कमरे में कुर्सी पर बैठ गए। मैं चाय बनाने चली गई।
ट्रे में चाय लेकर आई और उनके पास ट्रे रखने में घबराहट के कारण शायद ट्रे हिल गई और चाय का कप नीचे गिरने लगा। कप को थामने के लिए अचानक मनोज बाबू ने अपना हाथ आगे कर दिया था इसलिए गरम गरम चाय उनकी बांह पर भी गिर गई। हडबडाहट में मैंने भी हाथ आगे कर दिया और मेरा हाथ उनकी बांह पर चला गया। पता नहीं चाय की गर्मी थी या उनके शरीर की पल भर में ही ऐसा महसूस होने लगा जैसे मेरा पूरा बदन जल रहा हो। पता नहीं क्यों वह जलन अच्छी भी लग रही थी। मन कर रहा था कि हाथ ऐसे सटा रहे बदन ऐसे ही जलता रहे। लेकिन यह तो पाप होता। माँ कहती थी कि मर्द कोई भी हो उससे कुछ दूरी बनाकर रखना चाहिए। शादी से पहले किसी भी पुरुष से फालतू बात भी नहीं करना चाहिए। माँ की बात याद आई और अचानक मैं पीछे मुड़कर अन्दर वाले कमरे में भागी। वापस आई तो हाथ में बोरोलीन का ट्यूब था।
‘घर में बर्नोल नहीं है तो बोरोलीन ले आई। लगा लीजिये…’ उनकी तरफ बोरोलीन का डिब्बा बढाते हुए मैंने उनकी आँखों में देखते हुए कहा। मैंने ध्यान दिया कि उनकी आँखें लाल थी। पता नहीं बुखार की गर्मी थी या वही गर्मी जो मुझे चढ़ी हुई थी। मुझे एकटक देखते हुए उन्होंने बोरोलीन का ट्यूब लिया और चुपचाप सीढ़ी से नीचे उतर गए। मन में तो हो रहा था कि अभी कुछ देर और बैठते, दूसरा मन कह रहा था जल्दी से चले जाएँ मनोज बाबू। कहीं किसी ने देख लिया तो जाने क्या हो जाए…
आग तो लग चुकी थी। गर्मी चढ़ चुकी थी। उस दिन से न तो मन पढ़ाई में लग रहा था न किसी काम में। किसी न किसी बहाने से खिड़की पर जाती नीचे देख लेती। कहीं… कोई नहीं दिखता था लेकिन मन में लगा रहता था। उस दिन जैसी गर्मी चढ़ी थी वह एक बार और चढ़ जाए। मन ऐसा बौराया हुआ था कि अपनी उँगलियाँ भी अगर अपने बदन से लगती थी तो मन चिहुंक जाता था।
मेरी एक सहेली है रूमा। वह मैट्रिक के परीक्षा के लिए स्कूल के होस्टल में पढने के लिए रहने चली गई थी। उसने बताया था कि मामा के लड़के रोहित से उसको प्यार हो गया था। जब वह होस्टल में रहती थी तो वह देखने के लिए। नाश्ता लेकर, मूढ़ी-चूड़ा लेकर आते रहते थे। घंटा घंटा भर रहते, दोनों खूब बतियाते और दोनों को प्यार हो गया। एक दिन होस्टल की मैडम से मार्केटिंग करवाने का परमिशन माँगा। मैडम को पता था कि भाई है। परमिशन दे दी। बाहर निकलकर बोले कि बजरंग सिनेमा के पीछे नीले रंग का गेट वाला घर है। वहीं चली जाना। मेरे दोस्त बंटी का घर है। घर में बस उसकी भाभी हैं आज। उनको बताये हुए हैं तुम आने वाली हो। दस मिनट बाद मैं भी आ जाऊँगा।
रूमा पहले तो डर गई। रोहित के प्यार के सामने सब डर पीछे छूट गया। उस दिन दो घंटे तक दोनों को भाभी ने ऊपर वाला कमरे में बंद कर दिया।
‘ऊपर ऊपर से इतना प्यार किये उस दिन मत पूछो सुमन, कितना अच्छा लगता है। कोई छूता रहे। अंग अंग सहलाता रहे, लगता है जैसे हवाई जहाज की सैर हो रही हो। मत पूछो। ऐसा मन करता है कभी ख़त्म न हो यह सब। चलता रहे। अपने अंग अंग से किसी के अंग अंग का हो जाना ही तो प्यार है।’
‘मतलब तुम सब कुछ कर ली?’ मैंने कुछ आश्चर्य से पूछा।
‘नहीं पागल। कसम से कहते हैं। बस ऊपर ऊपर से किये। कभी किस्सू, कभी… मत पूछ प्यार में कैसा कैसा होता है…
‘दो घंटे तक बस यही?’ मुझे समझ में नहीं आ रहा था।
‘अरे जब होगा तब समझ आएगा। सुख क्या होता है सुषमा। तब समझ आएगा।’
रह रह कर रूमा की बात याद आ रही थी और सोचती रहती थी वही गर्मी एक बार फिर से चढ़ जाए। वही सब दुबारा… लेकिन कब कहाँ?
संयोग से तीन दिन बाद एक दिन…
एकादशी का दिन था। माँ उस दिन शिव मंदिर गई थी। शहर के दूसरे कोने में। बोली थी महीने का सामान भी बाजार से लेती आएँगी। तुम खाना बनाकर खा लेना।
सुबह के ग्यारह भी नहीं बजे थे कि घर की घंटी बजी और मेरे मन की भी- कौन?
वही थे। मनोज बाबू। इस बार बोरोलीन लौटाने आये थे।
‘आज लंच के बाद बैंक जाना है। सोचा आपका बोरोलीन लौटा आऊँ। उस दिन के लिए बहुत धन्यवाद’, बोरोलीन बढाते हुए वे ऐसे बोल रहे थे जैसे जाने वाले हों।
‘बैठिये न।’ मेरे मुंह से जाने कैसे निकल गया।
‘माँ-पापा नहीं हैं क्या?’ इधर उधर देखते हुए वे बैठने के लिए कुर्सी की तरफ बढे।
‘नहीं।’ माँ मंदिर गई हुई हैं। आप बैठिये मैं चाय बनाकर लाती हूँ’, कहकर मैं किचेन में जाने ही वाली थी कि मनोज बाबू की आवाज आई।
‘नहीं, चाय नहीं पियूँगा। न हो तो आप भी बैठ जाइए न।’
‘अअअ… आपसे कुछ पूछना था। बात ये है कि मैं भी बैंकिंग की तैयारी करना चाहती हूँ परीक्षा के बाद। आप कुछ इस बारे में गाइड कर देते। पापा कहते हैं कि बैंक की नौकरी सबसे अच्छी होती है। इस बार के प्रतियोगिता दर्पण में उसके बारे में आगरा यूनिवर्सिटी के किसी प्रोफ़ेसर का लेख भी छपा है। आपको दिखाती हूँ’, कहकर मैं उठने ही वाली थी कि उन्होंने हाथ पकड़ लिया और बोले,
‘बैठिये न। मैं जब तक हूँ अच्छे से गाइड कर दूंगा। किताब, नोट्स अभी भी सब मेरे गाँव वाले घर में है। छुट्टी में जाऊँगा तो लेता आऊंगा।’
एक मन हाथ छुआने के लिए दूसरा मन कह रहा था जो हो रहा है होता रहे । मैं बैठ गई। शायद मैं भी यही चाहती थी। क्या मैं यही चाहती थी?
लग रहा था जैसे बदन में खून की धारा तेज हो गई हो। अंग अंग जैसे टभक रहा था। क्या यही वह छुअन थी जो उस दिन उससे खो गई थी। उसका हाथ मेरी उँगलियों से ऊपर की तरफ बढ़ रहा था। धीरे धीरे…
धीरे धीरे अच्छा लगता जा रहा था। लग रहा था बस ऐसे ही चलता रहे, आसपास कहीं कोई न हो। बस मैं और मनोज बाबू हों। अगले ही पल लगता था कहीं कोई आ न जाये। कोई मुझे मनोज बाबू के साथ इस हाल में देख न ले। अगले ही पल लगता था कोई कुछ न देखे। मनोज बाबू का हाथ ऊपर बढ़ता जा रहा था और उनकी साँसें करीब आती जा रही थी। उनकी तेज तेज चलती साँसों की गर्मी मेरे शरीर से जब छूती थी तो लगता था जैसे गर्म तवे से गर्म पानी की बूँदें उड़ रही हों। दोनों हाथों से उसने मुझे अपनी बांहों में ऐसे पकड़ जकड लिया जैसे धामिन सांप किसी को जकड़ लेती हो। लग रहा था पूरा बदन टूट जाए। मन कर रहा था कोई पूरे बदन को ऐसे ही जकड़ कर तोड़ दे।
‘जानती हो जिस दिन तुमने मुझे पहली बार प्रणाम कहा था उसी दिन से मुझे तुमसे प्यार हो गया था। इन सुन्दर आँखें हैं तुम्हारी। साफ़ पानी में तैरती दो मछलियाँ हों जैसे’, मनोज बाबू ने मेरी आँखों को चूमते हुए कहा।
‘मुझे भी आप बहुत अच्छे लगते हैं। कितने सलज्ज हैं आप। मुझे भी आपसे इसीलिए प्या…’ अपनी बात पूरी करती इससे पहले ही उन्होंने पागलों की तरह मुझे किस करना शुरू कर दिया। गाल पर, गर्दन पर और जब होंठों पर उनके होंठ आये तो लगा जैसे जैसे शरीर का खून उबलने लगा हो और उबलकर बाहर निकलना चाह रहा हो। उनके हाथ मेरे कुर्ती के अन्दर था। कुर्ती उठाकर बैठते हुए उन्होंने मेरी नाभि को चूम लिया। ऐसी सिहरन हुई कि उनकी पीठ पर मैंने अपना सर टिका दिया। उन्होंने मुझे धीरे से उठाया और उनके हाथ मेरी सीने पर कुछ टटोल रही थी।
‘शमीज के नीचे तुम ब्रा पहनती हो?’ मनोज बाबू की आवाज में चुहल था।
‘हाँ बिना शमीज के ब्रा पहनेंगे तो शर्म नहीं आएगी क्या?’ मैंने उनके सीने पर सर टिकाते हुए कहा।
उन्होंने मुझे जोर से भींच लिया। मनोज बाबू का अंग अंग तन गया था। मुझे महसूस हो रहा था। मुझे कुछ ध्यान नहीं रहा। जब ध्यान आया तो देखा कि मैं फर्श पर लेटी हुई थी ऊपर मनोज बाबू चढ़े हुए थे। मुझे जोर से भींचे हुए किस किये जा रहे थे। दीन दुनिया कुछ ध्यान नहीं आ रहा था। मन हो रहा था बस यह चलता रहे। तभी जोर की आवाज हुई और हम दोनों अचानक से उठते हुए संभल गए।
फोन की घंटी बज रही थी। मैं भागी फोन उठाने के लिए।
माँ का फोन था। उन्होंने दुकान से यह बताने के लिए फोन किया था कि रिक्शे का इन्तजार कर रही थी। वह घर आने वाली थी।
‘माँ आ रही हैं’, फोन रखते हुए मैंने बदहवास सी हालत में कहा।
मनोज बाबू ने दरवाजा खोला और दनदनाते हुए सीढियां उतर गए।
ऐसा लगा जैसे मैं सपने में थी और माँ ने आकर जगा दिया हो।
अच्छा हुआ जो जो जगा दिया। नहीं तो जाने क्या हो जाता। अगले ही पल सोचा- क्यों जगा दिया माँ ने। कितना कुछ होते होते रह गया!
जो होना था वह तो हो चुका था-
प्यार!
मैंने प्रेम वाजपेयी के उपन्यास ‘तन्हाई और परछाइयां’ में पढ़ा था, ‘प्यार में मिलने से ज्यादा मजा बिछड़ने में आता है।‘
पाँच मिनट के प्यार के बाद फिर एक लंबी जुदाई… मेरे पहले प्यार के नसीब में शायद यही था।
पुनश्च: यही वह कहानी है जिसे लौटाते हुए पूर्णेंदु सर ने कहा था- लेडी मस्तराम बनना है क्या?
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कृष्णा सोबती के उपन्यासों में दिलो-दानिश का अपना मुकाम है. पुरानी दिल्ली की मिली जुली संस्कृति पर ऐसा उपन्यास मेरे जानते कोई और उपन्यास नहीं है. उनके अनेक उपन्यासों की तरह यह उपन्यास भी अपने परिवेश और किरदार के लिए याद रह जाता है. उसी का एक अंश- मॉडरेटर
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-जी साहिब, दो में लहरिया है और दो में टुकड़ी। नियाज़ के यहाँ काम अच्छा होता है। दो धूप-छाँह की और बन रही हैं। उनमें निगन्दा और भी अच्छा उभरेगा।
मुंशीजी की काँइयाँ बेमुरव्वती नज़र के सामने कुटुम्ब दिल-ही-दिल तमतमाईं। फिर अपने को सँभालकर पूछा-हिसाब तो बाकी नहीं ? पैसे देने हों तो कहिए।
-जी नहीं। कमरे में ही भुगतान हो जाएगा। हाँ, जो दो तैयार हो रही हैं उनकी लम्बान-चौड़ान ज़रा इनसे कम ही बैठेगी।
जाने कुटम्ब प्यारी समझीं कि नहीं।
-मुंशीजी, चार रज़ाइयाँ तो ये रहीं। दो पिछले जाड़ों में बनी थीं। जो दो और बन रही हैं, भला किस काम आएँगी ! गद्दों और दुलाइयों-रज़ाइयों के तो घर में ढेर लगे हैं।
मुंशीजी अपने चेहरे को घीया-कद्दू बनाए रहे, फिर चुप्पे सी गोट डाल दी-शायद फ़राशख़ानेवालों के लिए बनवाई गई हैं।
मुंशीजी को अन्देशा था, सुनते ही वकीलनी साहिबा फट पड़ेंगी, पर ऐसा कुछ न हुआ।
बन्दगी कर क़दम उठाया ही था कि पीछे से आवाज़ पड़ गई- मुंशीजी, याद आया। छोटी दोनों रज़ाइयाँ हमें पम्मो और दम्मो के लिए चाहिए होंगी। आप न उठवाइएगा। हम ही ले आएँगे। भला क्या-क्या रंग हैं उनके !
-साहिबा, एक तो लाल-नीली है, दूसरी हरी-उनाबी; और दोनों में संजाफ़ गुलाबी है।
-नियाज़ के यहाँ ही तो !
मुंशीजी ने सिर हिला हामी भरी और हवेली के बाहर हो गए। डाह। औरत को भला लशाना भी क्या मुश्किल !
मुंशीजी सीधे नियाज़ के यहाँ पहुँचे। रज़ाइयाँ झल्ली में रखवाईं और नियाज़ के कान में हँसकर कुछ फुसफुसा दिया।
-मुंशीजी, वकील साहिब के घर से आन ही पहुँचीं तो हम भी क्या सफ़ाई देंगे !
मुंशीजी मकर से मुस्कुराए-इसी रंग के दो टुकड़े सिलाई में और रखवा दीजिएगा। वैसे आने से रहीं। एहतियातन आपको बता दिया है।
नियाज़ के बड़े भाई फ़ैयाज़ हँसे।
-मुंशीजी, आपके वकील साहिब का भी जवाब नहीं। मुक़द्दमे के बहाने लाखों का कीमती हीरा मार लिया।
अनसुना-सा कर मुंशीजी ने कदम भरा और लपककर झल्ली वाले के साथ हो लिये। नुक्कड़ पर पहुँचते-न-पहुँचते तेज़ हवाएँ चल निकलीं। दूकानों के बाहर लटकते रंग-बिरंगे चमकीले सूती-रेशमी-ऊनी कपड़े उड़-उड़ लहराने लगे। जितने में दूकानों से निकले हाथ उन्हें झपटकर समेंटें, बड़ी-बड़ी पनीली बूँदों की बरखा होने लगी। पटरियों पर तेज़-तेज़ भागने की होड़-सी लग गई। बौछार से बचने के लिए छज्जों तले अधगीलों की टोलियाँ पानी थमने का इन्तज़ार करने लगीं।
सामने से टनटनाती ट्रैम सड़क के बीचोबीच सरकती आई तो भीड़ से खचाखच भरी थी। रुकी और रुकते ही सरक गई।
मुंशीजी ने झल्ली पर तिरपाल डलवाई। सवारी का ताँगा रोका और झल्लीवाले के समेत घोड़े की सरपट चाल पर फ़राशख़ाने की ओर निकल चले। सड़कों पर फैली रोशनियों की लम्बी-गीली परछाइयाँ अपने में न जाने कैसे-कैसे रंग-रूप उभारने लगी थीं।
मुंशीजी ने हस्बेमामूल कनखियों से चावड़ी के जगमग छज्जों की ओर देखा और दिल में सेंक महसूस कर दिल-ही-दिल मखमली बिछौने और तोशक की सुनहरी झालरों का नज़ारा बाधँने लगे। कभी मौक़ा लग गया तो हम भी देख लेंगे।
ज़ीने के नीचे सिकुड़कर बैठे बब्बन मियाँ फ़तुही में भी ठिठुर रहे थे।
मुंशीजी को देखा तो देखते ही हड़बड़ाकर उठ खड़े हुए।
-ऐसी बारिश में कैसा आना हुआ, मुंशीजी ! यह झल्ली में क्या रखवा लाए ?
-बब्बन मियाँ, ऊपर जाकर इत्तला करिए, वहीं खुलेगा यह राज़। आवाज़ सुनकर बदरू ने सीढ़ियों से झाँका।
-अजी मुंशीजी, इस मूसलाधार बारिश में ! भला झल्ली में क्या है ? गजरेला तो हो नहीं सकता ! न तिल के लड्डू, न गज़क और न रेवड़ियाँ। गरमाई मेवे भी नहीं। उसे तो आप थैले में ही डाल जाते।
मासूमा भाई के साथ आन खड़ी हुई।
-हम बताएँ, मुंशीजी बड़शाह बूले की नानखताई लाए होंगे। बदरू बहन के सीधेपन पर हँसे-झल्ली और नानखताई ! क्या मुंशीजी हमसे खोमचा लगवाएँगे !
बदरू मुंशीजी की ख़ुशामद करने लगे-अब देर न कीजिए, मुंशीजी ! दिखा डालिए ! कहीं जामा मस्जिद से हमारे लिए तीतर-बटेर तो नहीं ले आए ?
मासूमा बोली-मैना होगी। बुलबुल होगी।
मुंशीजी ने आँख के इशारे से त्रिफला उठवा दी तो भाई-बहन ख़ुशी से रीझ-रीझ गए।
-हाय अल्लाह ! कितनी खूबसूरत ! अम्मी देखिए तो, नए लिहाफ हैं !
मुंशीजी ने बन्दगी की तो बेगम साहिबा ने एक नज़र भर देखा और भीगी बयार की तरह हँसकर कहा-मुंशीजी इन्हें इतना तो समझाइए कि सवालों का इतनी भरमार क्यों। कुछ नज़र से भी तो देखा-समझा जाता होगा।
मुंशीजी ने एक झुकी-झुकी चिराग़ नज़र बेगम साहिबा पर ड़ाली और बच्चों को रिझाने के लिए कहा-अपनी-अपनी पसंद कीजिए। दोनों सदाबहार हैं। देखिए तो, हज़ूर ने क्या-क्या उम्दा रंग मिलाए है।
तशतरी में गज़क रख कर महक बानो ने मुंशीजी के आगे की-लीजिए, मुँह तो मीठा कीजिए। आप तो बच्चों के लिए जाड़े की बरकत ले आए हैं।
-हाँ अम्मी, अब तो कोहरा छोड़, दिल्ली में बर्फ़ पड़ती रहे !
बदरू के साँवले शोख चेहरे पर नटखटपन फैल गया।
मासूमा बोली-दिल्ली में बर्फ़ पड़ ही नहीं सकती।
-हूँ ! यह तो ठीक कह रही हैं आपा ! पहाड़ यहाँ से बहुत दूर हैं। हम जुगराफ़िया में पढ़ चुके हैं।…मलाई की बर्फ़ ऊनी कपड़े में जमती है न, लकड़ी की पेटी में। मुंशीजी, क्या मज़ा आए अगर रंज़ाई ओढ़कर बस बर्फ़ की चुस्की चूसते रहें, रात भर।
मासूमा ने टोका-ठंड में बदन अकड़ जाएगा।
-रज़ाई ओढे होंगे तो कैसे अकड़ेगा ! चुस्की ज़बान में घुलती रहेगी। बदन लिहाफ़ में लिपटा रहेगा।
-बच्चू आपकी ख़ुद की कुल्फ़ी बन जाएगी।
बदरू मुंशीजी के कन्धे पर झूल गए।
-हमारी कुल्फ़ी तो बन ही नहीं सकती। आपा गोरी-चिट्टी हैं, इन्हीं की बर्फ़ जमेगी।
मासूमा चिढ़ गई-ऐसी महीन चुटकी काटूँगी कि…
महक ने आँखों से तरेरा।
-बच्चो, मुंशीजी जाने को खड़े हैं। नई रज़ाइयों के लिए शुक्रिया, मगर अम्मी लिहाफ़ का क्या हुआ ? बनेगा न ?
इन कानाफूसी में महक के पल्ले कुछ न पड़ा।
-मुंशीजी, यह शैतान लड़का क्या कहे जा रहा है आपको ?
मुंशीजी ने बड़ी संजीदगी से सिर हिलाया-माफ़ कीजिए, यह हम दोनों की आपसदारी की बात है। इसे हमारे बीच ही रहने दीजिए।
मासूमा बोली-हमें मालूम है अम्मी, मुंशीजी से लाल-नीली पैंसिल की फ़रमाइश कर रहे होंगे।
अम्मी ने टोका-लाल-नीली पैंसिल तो उस्ताद रखा करते हैं। आपको क्या ज़रूरत आन पड़ी ?
बदरू चहकने लगे।
-मुंशीजी, एक बार मौक़ा तो लगने दीजिए। उस्तादों को भी हम इसी पैंसिल से नम्बर देंगे। ऐसे कि एक-एक का चेहरा लटक जाए। जैसे वह लडकों को सताते हैं, वैसे ही हम भी उन्हें सताएँगे।
महक ने बेटे को डाँट दिया।
-उस्तादों के बारे में यूँ कहा जाता होगा ! कान पकड़कर नसीहत निकालिए, नहीं तो इल्म आपसे दूर रह जाएगा।
मासूमा खीझकर बोली-अम्मी, बदरू बेकार की बघारा करते हैं।
अम्मी के माथे पर तेवर चढ़े देखे तो बदरू को अचानक कुछ सूझ गया :
महाराज चाय की ट्रे मेज़ पर रख गए तो कुटुम्ब प्यारी ने चाय का प्याला बनाया, चीनी हिलाई और वकील साहिब की ओर सरका दिया।
आमने-सामने बैठे मेज़ पर कोई शोर न उभरा तो कृपानारायण बड़े रुआब से बोले-क्यों खैरियत तो है ? इस जाड़े में कोई ढंग का कपड़ा पहना होता। आपकी साड़ी देखकर तो दहलीज़ पर बुढापा खड़ा नजर आता है।
कुटुम्ब प्यारी तुनक गईं।
-क्या हरदम गोटे-किनारी के कपड़े पहनें रहें ? हमें घर-गृहस्थी के दस काम हैं। आप हैं कि वकालत के अलावा बस एक ही काम सूझा करता है।
कृपानारायण साहिब ने ख़ाली प्याला मेज़ पर रखते हुए बड़ी नरमी से कहा-महरी है, महाराज है, बर्तन भाड़े का लड़का है। कपड़ों के लिए धोबन है, घर चलाने में अब कौन सा काम बाकी है जो हमें आपकी मदद के लिए करना चाहिए।
इस अदालती ठस्से से कुटुम्ब प्यारी ख़फ़ा हो गईं-आप क्या करेंगे !
नौकर तो हमीं हुए। हजार दिन-रात हल्कान होते रहें पर हमें तो शिकायतों से ही नवाज़ा जाएगा।
वकील साहिब की ओर से न हाँ और न ना। कुछ देर आँखें मूँदे बैठे रहे, फिर उठे। हाथ-मुँह धो कपड़े ताज़ा किए। इत्र का फोहा लगाया और बिना कुछ कहे कमरे से बाहर हो गए।
कुटुम्ब के दिल में हड़कम्प-सा मचा और आँखों के रास्ते बहकर थिर हो गया। कपडों की अलमारी खोली और चुनने लगीं। वकील साहिबा ने ‘शाहजानपुरी’ से रोटी-गोश्त रखवाया, गजरैले का मटकैन बधँवाया और जाड़े की भरपूर गीली शाम में अपनी मंज़िल की ओर बढ़ चले।
बग्घी में बैठे-बैठे कभी बाजार को देखते, कभी पलटकर अपने दिल को। एक-दूसरे से सटी दूकानें क्या रोशनी टपका रही हैं ! भरी हुई। मालामाल। यह क्या ? खिलौनों की दूकान पर गुड़िया और गुड्डे लटक रहे हैं ! डोर बँधी है। रात को उठाकर अन्दर रख दिए जाएँगे। अगले दिन फिर इसी जगह। लेकिन यह सड़कों और पटरियों पर फैला हुजूम कहाँ जा रहा है ? अपने घरों की ही तो ! और हम ? कभी कुटुम्ब के किनारे और कभी महक के। क्या समझाएँ ! जिस्म को राहत चाहिए होती है। पर दिलो-दिमाग़ भी कुछ माँगते हैं। सारा खेल खाने-पीने-सोने और घर चलने का ही तो नहीं। अगर है ही तो उसकी अदायगी भी क्या हमीं को करनी होगी ! क्या सिलसिला है ! कुछ पाबन्दियाँ अपने साँचे में ढाल देती हैं और कुछ बिना साँचे के भी चल निकलती हैं। इतनी-सी बात हमारी बीवी की समझ में नहीं आती। चिड़िया बनी आईने में अक्स को कोंचे चली जाती हैं।
महक के ज़ीने तक पहुँचते-न-पहुँचते वकील साहिब ने कुटुम्ब को गृहस्थी के ख़ानदानी तख़त पर बिठा दिया और हल्के दिल सधी चाल में सीढ़ियाँ चढ़ ऊपर जा पहुंचे।
छींट के जोड़े पर गोट लगी उनाबी ओढ़नी में महक बानो किंगरी-सी खिल रही थी।
-तशरीफ़ रखिए।
वकील साहिब ने बूँदों से गीली हुई शेरवानी उतारकर खूँटी पर टाँग दी। महक ने बाँह बढ़ा गरम चद्दर पकड़ा दी।
-जानम, पहले मटकैने में से पुए निकालिए। आज शीरा कुछ ज्यादा ही डला लगता है।
महक कमरे में कोयले की अँगीठी उठा लाई। रूमाली रोटी सेंक तश्तरी में डाली और मटकैने खोल आगे सरकाए-लीजिए।
वकील साहिब ने बुरकी बना महक की ओर बढ़ाई-जानम, चख़कर देखिए सभी पकवानों का मज़ा एक साथ।
महक ने गस्से का ज़ायका उठाया और मुस्कुराकर सिर हिलाया-मान गए साहिब !
अँगीठी के आमने-सामने बैठे वकील साहिब और महक। दोनों में से किसी को भी न कुछ अटपटा लगा, न नया ही। जाड़े की इस बारिश में दोनों जैसे हमेशा से इसी जगह बैठते आअ हों।
-बच्चे आज जल्दी सो गए ?
-देर तक नए लिहाफ़ों की ख़ुशी करते रहे। उनका बस चलता तो रात-भर न सोते, पर साहिब, नींद को तो आना ही था।
महक को बर्तन उठाते-समेटते देख कृपानारायण कुछ ऐसे मगन से हुए रहे कि बीते बरसों को इस एक शाम में जीते हों।
महक छिपे-छिपे वकील साहिब की ख़ामोशी पढ़ती रही। इस सम ताल के पार जाने क्या देखा जा रहा है ! कौन सी तान उठ खड़ी हो ! झूले या झकोले की !
महक के उभारों से लगी स्वेटर पर नज़र पड़ी तो कहा-आपके लिए शाल लाना चाहते रहे। घंटाघर पर हाकमतानी की दूकान पर रुके भी, पर तेज़ बारिश की वजह से इरादा बदल दिया। कल भिजवा देंगे।
महक बानो ने वकील साहिब की आवाज़ में जाने क्या पा लिया कि मगन होकर कहा-दुनिया में दो ही नेमते हैं साहिब, बेटा और बीवी। आपने हमें दोनों दिए।
सुनकर वकील साहिब का दिल भर आया।
-हमसे पूछो जानम, तो हम तुम्हारे लायक़ ख़ास कुछ भी नहीं कर सके।
महक बानो ने आज दुपहर ही सोचा था कि बच्चों के लिए वकील साहिब से कुछ कहेगी, पर यह सुनते ही रुख पलट लिया।
-नए लिहाफ़ों में ज़रा बच्चों को देखिए तो सही ! रंगों की दमक से घर खिल पड़ता है।
वकील साहिब से बेहतर भला और कौन जानता था कि बानो अपनी ही दिलजोइ कर रही है। कई पल बच्चों के कमरे में ठिठके रहे। खिड़की के काँच पर पड़ती बौछार ने उन्हें जाने ऐसा क्या सुझा दिया कि बाँह से घेर बानो को अपने साथ लगा लिया। बारी-बारी बच्चों को चूमा और महक को उसके कमरे की ओर लिवा लाए।
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आज ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ अखबार ने कृष्णा सोबती को श्रद्धांजलि स्वरुप सम्पादकीय लिखा है. आज अखबार में यही एक सम्पादकीय है. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर
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जिस किसी ने 90 साल की उम्र में अस्वस्थता के बावजूद 1 नवंबर, 2015 को दिल्ली के मावलंकर सभागार के मंच तक व्हीलचेर पर आईं और व्यवस्था के प्रति अपना प्रतिरोध दर्ज कराती कृष्णा सोबती को देखा या सुना होगा, उसे कृष्णा सोबती के होने का मतलब बताने की जरूरत नहीं। उस दिन सोबती ने न सिर्फ मौजूदा हालात के खिलाफ विरोध का स्वर बुलंद किया था, बल्कि सत्ता से सीधे-सीधे कुछ सवाल भी पूछे थे। वह लेखकों-संस्कृतिकर्मियों पर चारों ओर से हो रहे हमलों से क्षुब्ध थीं और आक्रोश भरे स्वर में कहा था, ‘जिन लोगों का साहित्य से कोई परिचय ही नहीं है, जिन्हें भारतीयता का कोई बोध ही नहीं है, वे लेखकों को भारतीयता सिखाएं और उनके विरोध को ‘मन्युफैक्चर्ड’ बताएं, हमारे समय की इससे बड़ी कोई दूसरी विडंबना नहीं हो सकती’। कृष्णा सोबती का यही गुस्सा तब भी दिखा था, जब 2010 में उन्होंने पद्म भूषण सम्मान देने की भारत सरकार की पेशकश यह कहकर ठुकरा दी थी कि ‘एक लेखक के तौर पर मुझे सत्ता प्रतिष्ठान से दूरी बनाकर रखनी चाहिए।’ लेखक, लेखन, अभिव्यक्ति की आजादी और आम आदमी के पक्ष में मुखर रहने वाली यह आवाज अब हमारे बीच नहीं है।
आज के दौर में, जब शब्दों की अर्थवत्ता संकट में हो, सोबती ऐसी रचनाकार थीं, जिन्होंने शब्दों की शक्ति को न सिर्फ कमजोर होने से बचाया, वरन उन्हें नए सिरे से सशक्त किया। उनके लेखन के एक-एक शब्द के पीछे सच्चाई का जोर और साहस का आधार है, जो किसी के रोब में झुकना नहीं जानता। नामवर सिंह ने बिल्कुल सही कहा है कि सोबती शब्दों को अपनी जिंदगी की तरह जीती रहीं। उन्होंने हिंदी के मर्दवादी लेखन को एक नया मुहावरा दिया, जो स्त्रीवादी लेखन की प्रचलित परिपाटी और प्रचलित मुहावरे से कहीं अलग था, लेकिन उन्होंने खुद को कभी स्त्रीवादी लेखन के चौखटे में रखना मंजूर नहीं किया। उनके लिए लेखक का मतलब लेखक था, जिसे किसी तमगे की जरूरत नहीं।
एक बड़ी रचनाकार होने के साथ-साथ वह अपने समय-समाज से अलग न रहकर सीधे-सीधे जिस तरह हस्तक्षेप करती थीं, उसे और उनके समूचे रचनात्मक अवदान को देखते हुए कहा जा सकता है कि वह हमारे हिंदी समाज के लिए आज के दौर में अंतरात्मा की आवाज थीं। वह बेजोड़ साहस की ऐसी प्रतीक थीं, जिसने अपने बौद्धिक बेलागपन और साहसपूर्ण हस्तक्षेप के साथ हिंदी समाज में पब्लिक इंटलेक्चुअल की भूमिका का भी निर्वाह किया। यह अनायास नहीं था कि 92 वर्ष की उम्र में 2017 में जब उन्हें साहित्य के क्षेत्र का सर्वोच्च सम्मान ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ देने की घोषणा हुई, तो समूचे साहित्य समाज ने इसे देर से दिया गया सम्मान माना। उन्हें उनके उपन्यास जिंदगीनामा के लिए वर्ष 1980 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला और 1996 में अकादेमी के ही उच्चतम सम्मान ‘साहित्य अकादेमी फेलोशिप’ से नवाजा गया। हाल ही में प्रकाशित बंटवारे की पृष्ठभूमि पर लिखा गया आत्मकथात्मक उपन्यास गुजरात पाकिस्तान से, गुजरात हिन्दुस्तान विभाजन पर अब तक लिखे गए तमाम उपन्यायों में अलग से रेखांकित हुआ है। वह जिस मौलिक ऊर्जा और मौलिक मुहावरे के साथ हर बार वृहत्तर समाज के समक्ष उपस्थित होती रहीं, उनकी वह उपस्थिति और ऊर्जा उनके शब्दों के रूप में हमारे साथ बनी रहेगी।
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बाला साहेब ठाकरे की बायोपिक आई है जिसमें नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ने ठाकरे की भूमिका निभाई है. उसी फिल्म पर नवीन शर्मा की टिप्पणी- मॉडरेटर
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आजकल हिंदी सिनेमा में बायोपिक का दौर चल रहा है। इसकी लेटेस्ट फिल्म है ठाकरे। इसके कुछ हफ्ते पहले ही मनमोहन सिंह पर द एक्सिडेंटल प्राइमिनिस्टर आई थी। बाला साहेब ठाकरे का नाम लेते ही उन सारे विवादों की तस्वीरें और उनके विवादास्पद बयानों की गूंज सुनाई देने लगती है।
ठाकरे फिल्म के निर्माता और सहलेखक शिवसेना के नेता संजय राउत हैं। यह बात ही इस फिल्म को एक बेहतरीन बायोपिक बनने की राह में रोड़ा बन जाती है। फिल्म के रिलीज के पहले आजतक को दिए इंटरव्यू में नवाजुद्दीन सिद्दीकी कहते हैं की संजय राउत चाहते थे कि ठाकरे फिल्म एटनबरो की गांधी के लेबल की बने, लेकिन संजय राउत यह भूल गए कि जब एक शिव सैनिक इस फिल्म को लिखेगा तो वो निरपेक्ष होकर बाला साहेब के बारे सब कुछ साफ साफ नहीं लिख पाएगा। यही बात ठाकरे फिल्म को एक शानदार बायोपिक बनने से रोक देती है। ठाकरे में बाल साहेब की छवि को सुपर हीरो की तरह से दिखाया गया है। ठाकरे को एक हीरो या मराठियों का मसीहा के तौर पर पेश किया गया है।
फिल्म में ठाकरे के रूप में नवाजुद्दीन सिद्दीकी छाए रहते हैं, हर सीन में उनका दमदार अभिनय दिखता है. वे कहीं कमजोर नहीं पड़े। बाला साहेब के जैसा दिखने, चलने और बोलने में उन्होंने काफी मेहनत की है। उनके जैसा ही बेबाक और दमदार वक्ता के रूप में भी खुद को पेश करने में सफल रहे हैं। ठाकरे फिल्म की सबसे बड़ी खूबी नवाजुद्दीन की बेहतरीन अदाकारी है। उनके तल्ख अंदाज को पकड़ने की कोशिश की। फिल्म के प्रभावी संवाद इसमें चार चांद लगाते हैं। अमृता राव को ठाकरे की पत्नी मीना ठाकरे के रूप में स्क्रीन पर जितना स्पेस मिला, उससे उन्होंने अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई।
बाला साहब ठाकरे कमाल की शख्सियत थे । एक तेज तर्रार कार्टूनिस्ट। अच्छे संगठनकर्ता और बेबाक वक्ता। जो बात कह दी उससे पीछे नहीं हटनेवाले। नवाजुद्दीन ने उनके इन रूपों को.दिखाने की कोशिश की है। महाराष्ट्र में भाजपा शिवसेना सरकार का रिमोट कंट्रोल हमेशा बाला साहब के पास ही रहता था। महाराष्ट् की सत्ता खोने के बाद भी मुंबई पर उनका राज चलता था। लेकिन उन्होंने अपने को संकीर्ण सीमाओं में बांध लिया था। वे मराठी मानुष के हित की बात करते थे जो काफी हद तक स्वभाविक है। जो व्यक्ति जिस समुदाय का होता है उसके हित की बात सोचे तो कोई बुरी बात नहीं है लेकिन वे अपने समुदाय का हित करने के चक्कर में दूसरे समुदायों के हितों पर चोट करने लगते थे।
मुंबई को उन्होंने मराठियों की जागीर बनाना चाहा वो भूल गए कि बंबई को बनाने औऱ उसे आगे बढ़ाने में मराठियों से कहीं अधिक योगदान गैर मराठियों जैसे अंग्रेज, पारसी, गुजराती, सिंधी, मारवाड़ी, दक्षिण भारतीय और उत्तर भारत के भईया जी लोगों का है। उनका पूरी तरह बस चलता तो वे गैर मराठियों को मुंबई से निकाल बाहर करते। फिल्म में इस बात को जस्टिफाई करने के लिए यह दिखाया है कि गैर मराठा लोगों ने मराठियों को उनका उचित हक नहीं दिया। उनकी रोजी रोटी पर गलत ढंग से काबिज हो गए। यह बात काफी हद तक गलत है। जो समुदाय ढंग से शिक्षित नहीं होगा और उचित कौशल प्राप्त कर उद्यम नहीं करेगा उसक पीछे रहना तय है। फिल्म में दिखाया गया है कि पहले तो ठाकरे ने दादागिरी कर मराठियों को नौकरी दिलाने की कोशिश की फिर. बाद में उनका कौशल बढ़ाने की भी कवायद की थी।
यह भावना कहीं से उचित नहीं है। भारत के नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में जाकर बसने व रोजगार करने का अधिकार है( कुछ राज्यों व क्षेत्रों को छोड़कर)।
पाकिस्तान को लेकर उनके विचार भी गौर करने लायक हैं वहां से संचालित हो रही आतंकवादी गतिविधियों के कारण उस देश से हम ज्यादा बेहतर संबंधों की उम्मीद नहीं रख सकते। खासकर तब जब उस देश की सरकारी एजेंसी आईएसआई सीधे तौर पर आतंकियों की मदद कर रही हो। संसद पर हमला और मुंबई पर आतंकी हमले के बाद उस देश से हम सामान्य दोस्ताना संबंध नहीं रख सकते। इस भावना को ठाकरे ने भुनाया यहां तक की पाकिस्तान के.साथ मुंबई में क्रिकेट मैच से.पहले शिवसैनिकों ने पिच तक खोद दिया था।
बाल ठाकरे ने खुद ही अपने लिए सीमा रेखा खींच दी थी वे महाराष्ट से आगे कि नहीं सोचते थे। वे भले जय भारत , जय महाराष्ट्र नारे में जय भारत. पहले बोलते हों पर उनके कार्यकलापों में महाराष्ट्र ही सबसे ऊपर रहा है। जहां उन्होंने अपना मुकाम तय किया था वहां वो जरूर पहुंचे , लेकिन गैर मराठियों के लिए वे और उनके भतीजे राज ठाकरे विलेन बन गए। ये लोग ये छोटी सी बात समझ नहीं पाए कि केवल मराठियों के बल पर मुंबई तो महज एक छोटा सा शहर ही रहता उसे देश कि आर्थिक राजधानी बनाने में पूरे देशवासियों का हाथ है इसलिए भी मुंबई भारत में है तो सारे भारतवासियों की है। केवल मुंबई ही नहीं सारा भारत ही भारतवासियों का है। इस बात को सभी क्षेत्रिय मानसिकता रखनेवाले लोगों को समझन होगा।
इस फिल्म की एक और बात खास है कि हर विवादास्पद मुद्दे पर.बाला साहेब की बेबाकी और साफगोई स्पष्ट दिखाई गई है। उन्होंने अपने निहित स्वार्थों की वजह से इमरजेंसी का समर्थन तक किया था। ठाकरे में बाल साहेब के जीवन की क्रोनोलाजी अच्छे ढंग से दिखाई गई है। फिल्म का फर्स्ट हाफ ब्लैक एंड व्हाइट है और इंटरवल के.बाद रंगीन हो जाती है। दोनों में सिनेमेटोग्राफी अच्छी है।
बाला साहेब के अयोध्या के विवादास्पद ढ़ाचे को गिराए जाने के मामले में भी बेबाक विचार थे। वे अदालत में भी उस पर कायम रहे। वे साफ स्वीकार करते रहे की शिवसैनिकों ने ही ढांचा ध्वस्त किया था और वे इसे गलत नहीं मानते थे। इसके पक्ष में भी वे कोर्ट में मजबूती से अपनी राय रखते हैं। खैर मेरी एक जिज्ञासा है कि पता नहीं नवाजुद्दीन सिद्दीकी बाला साहेब की इन विचारों से कितना इत्तेफाक रखते हैं। हो सकता है कि वे उसे बस महज एक रोल निभाने के लिए बड़े ही प्रोफेशनल ढंग से उस किरदार को निभा कर गुजर गए।
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आज महात्मा गांधी की पुण्यतिथि है. एक समाचारपत्र के लिए महात्मा गांधी की समकालीन छवियों पर लिखा था. आज उनकी स्मृति में समय हो तो पढ़कर बताइयेगा- प्रभात रंजन
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असगर वजाहत के नाटक गोडसे@गांधी.कॉम में नवीन नामक एक विद्यार्थी गांधी जी के पास आता है। गांधी जी उससे पूछते हैं कि तुम क्यों आये हो? वह जवाब देता है- आपके दर्शन करने! यह सुनकर गांधी जी जवाब देते हैं- ‘दर्शन? क्या मैं तुम्हें मंदिर में लगी मूर्ति लगता हूँ?’ यह एक बड़ा सवाल है जो आज के युवाओं को कक्षा में पढ़ाते हुए उठ खड़ा होता है कि क्या गांधी महज एक मूर्ति बने रहे? मुझे अपने बचपन का एक प्रसंग याद आता है। बिहार के छोटे से कस्बे सीतामढ़ी को सीता की जन्मभूमि के रूप में जाना जाता है। वहां एक विशाल जानकी मंदिर है। उस मंदिर में राम-सीता की मूर्ति के सामने संगमरमर की बनी गांधी की एक स्मित मूर्ति है। गाँव-देहात से मंदिर में दर्शन करने आने वाले लोग बहुधा सहज भाव से उनकी मूर्ति के सामने भी प्रसाद रख देते थे। कुछ बच्चे मूर्ति के खुले मुंह में प्रसाद भी डाल देते थे।
शहर-शहर गाँधी के पुतले लगे हैं, उनके नाम पर सड़कें बनी हुई हैं, शिक्षा संस्थान हैं। क्या उनके विचारों की कुछ उपयोगिता भी है आज के जीवन में? स्कूल के पाठ्यक्रम से लेकर कॉलेज तक गांधी सबसे अधिक पढाये जाते हैं, अलग-अलग विषयों में पढाये जाते हैं। लेकिन शायद हमने पाठ्यक्रमों में महात्मा गांधी के महात्मा रूप पर अधिक जोर दिया गांधी पर कम। शायद इसीलिए वे आज के युवाओं को अपने बहुत पास भी लगते हैं और दूर भी। 1915 में जब महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से लौटकर भारत आये थे तो आने के बाद आरम्भ में जिन स्थानों की यात्रा पर गए थे उनमें शान्तिनिकेतन भी था। शान्तिनिकेतन से लौटते हुए विद्यार्थियों को महात्मा गांधी ने यह सलाह दी थी कि विश्वविद्यालय में बावर्ची का खर्च बचाने के लिए उन लोगों को अपना भोजन स्वयं बनाना चाहिए। विद्यार्थियों ने उनकी बात मानी या नहीं यह तो नहीं पता लेकिन गांधी इस तरह की छोटी-छोटी सीखों के लिए याद किये जाने चाहिए न कि अपनी उस विराट छवि के लिए जो सोहनलाल द्विवेदी की इस कविता में है- चल पड़े जिधर दो डग, मग में/चल पड़े कोटि पग उसी ओर/गड़ गई जिधर भी एक दृष्टि/गड़ गए कोटि दृग उसी ओर… गाँधी को पढ़ाते हुए, गांधी के बारे में बात करते हुए यह संशय बराबर बना रहता है कि महात्मा के बारे में बताएं या गांधी के बारे में, जो अपने कर्मों से महात्मा बना।
गांधी हमेशा युवाओं के, विद्यार्थियों के बहुत पास रहे हैं और उतने ही दूर भी। जिन दिनों हम पढ़ते थे तब पाठ्यक्रमों में उनके महात्मा रूप में बारे में कवितायेँ पढ़ते थे, ‘सुनो सुनो ऐ दुनिया वालो बापू की ये अमर कहानी’ जैसे गीत सुनते थे, बापू के तीन बन्दर की कहानी पढ़ते थे लेकिन कक्षा के बाहर ‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी’ जैसे मुहावरे सुनते थे। महात्मा पास लगते थे गांधी दूर।
अभी हाल में ही सोपान जोशी की दो किताबें आई हैं- ‘बापू की पाती’, जो तीसरी से आठवीं कक्षा के बच्चों के लिए है और दूसरी किताब है ‘एक था मोहन’ जो नौवीं से बारहवीं कक्षा के बच्चों के लिए है। किताबें बिहार सरकार ने लिखवाई हैं और इनका उद्देश्य है बच्चों के जीवन से गांधी के जीवन से जोड़ना। गांधी को रोज पढ़ाया जाना है ताकि विद्यार्थी उनके जीवन से प्रेरणा लें उनको महात्मा मानकर उनके जन्मदिन, शहीदी दिवस, स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस के दिन ही याद करके साल भर उनको भुलाए न रहें। ‘एक था मोहन’ किताब में सोपान जोशी ने गांधी जी के जीवन की कथा एक साधारण व्यक्ति के रूप में कही गई है। जैसे, इसमें यह लिखा है कि मोहनदास कोई साहसी बालक नहीं थे, किताबी पढ़ाई-लिखाई में बहुत मेधावी बालक नहीं थे, लेकिन उनमें जिज्ञासा बहुत थी। वे महात्मा स्कूल या कॉलेज की शिक्षा से नहीं बने बल्कि जीवन की शिक्षा ने उनको महान बनाया। बहुत रोचक शैली में आज के बच्चों को यह किताब न केवल बच्चों को उनके जीवन से जोड़ने वाली है बल्कि प्रेरक भी है। अध्ययन-अध्यापन में यह एक बड़ा फर्क आया है। पहले महात्मा गांधी में ‘महात्मा’ शब्द पर जोर रहता था अब ‘गाँधी’ शब्द पर जोर बढ़ रहा है। नई पीढ़ी उनका नए सिरे से पुनराविष्कार कर रही है।
युवा इतिहासकार सदन झा का अनुभव इस सम्बन्ध में दिलचस्प है, ‘मैं हाल में अहमदाबाद के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में उत्तर औपनिवेशिकता और इतिहास पढ़ा रहा था। जाहिर है, गांधीजी एवं उनके द्वारा तैयार की गई आधुनिकता की आलोचना तथा पश्चिमी विज्ञान की आलोचना के चर्चा के बगैर एवं गैर पश्चिमी समाज यथा भारत के अनुभवों के बगैर यह संवाद अधूरा रहता। तो मैंने किसानों एवं गांवों की बात करने से पहले कक्षा में उपस्थित विद्यार्थियों से पूछा कि उनमें गाँव से सम्बन्ध रखने वाले कितने विद्यार्थी हैं, जवाब शून्य। मैंने फिर पूछा किस किस ने गांव देखा है? जवाब फिर से शून्य। यह नया शहरी तबका है जिसके लिए गांधीजी किसी इतिहास या विचारधारा में कैद नहीं हैं। यह युवा तबका गांधीजी में खुला भविष्य देखता है।‘ गांधी का भारत गाँवों के बिना अधूरा था। वे ग्राम-स्वराज की बात करते थे लेकिन आज शहरी समाज उनके विचारों में अपनी समस्याओं का निदान देखने लगा है।
पहले गांधी के जीवन को पढ़ा जाता था। अब उनके विचारों की तरफ युवा वर्ग का ध्यान नए सिरे से जा रहा है। गूगल पर महात्मा गांधी का नाम टाइप कीजिये और असंख्य पेज खुल जाते हैं। आप अपने फोन के ऐप स्टोर में गांधी शब्द टाइप कीजिये और करीब दो दर्जन ऐप आ जाते हैं। हाल के सालों में सबसे अधिक बिकने वाली किताबों में रामचंद्र गुहा की दो खण्डों में गांधी पर किताबें हैं ‘गांधी बिफोर इण्डिया’ और ‘गांधी: द ईयर्स दैट चेंज्ड द वर्ल्ड 1914-1948’। समाज में जैसे जैसे एकवचनीयता बढती जा रही है बहुवचनीयता के इस सबसे बड़े विचारक की प्रासंगिकता बढती जा रही है। जब मैं छोटा था तो स्वतंत्रता दिवस समारोह में या विशेषकर 2 अक्टूबर को अपने शहर में जगह-जगह लाउडस्पीकर पर ‘दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल/ साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’ बजता सुनाई देता था। अब इस तरह के गीत सुनने को नहीं मिलते लेकिन हाल में शहरों में जिस तरह से युवा शांतिपूर्ण आंदोलनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने लगे हैं, नैतिकता-अनैतिकता के सवाल पर बहस करने लगे हैं उससे गांधी की याद आती है। रामचंद्र गुहा ने अपनी पुस्तक ‘गांधी: द ईयर्स दैट चेंज्ड द वर्ल्ड 1914-1948’ में लिखा है कि आइन्स्टाइन गांधी को ‘सर्वोच्च नैतिक दिशासूचक’(सुप्रीम मोरल कम्पास) मानते थे। यह नए गांधी हैं जो आज के विद्यार्थियों के फोन में उसके साथ चलते हैं, उसके साथ रहते हैं। ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ फिल्म में मुन्नाभाई पुस्तकालय में जाकर गांधी को पढता था। आज गांधी टेक्स्ट, ऑडियो, वीडियो सभी रूपों में युवाओं के फोन में मौजूद हैं। महात्मा अपनी मूर्तियों से बाहर निकलकर गांधी बन रहे हैं।
अंत में, अभी हाल में एक विद्यार्थी ने व्हाट्सऐप पर सन्देश भेजा- ‘आज के नेता गांधी के रामराज्य को याद नहीं करते वोट के लिए राम-राम करते रहते हैं!’
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प्रदीपिका सारस्वत सुपरिचित लेखिका हैं. वेबसाइट्स पर बहुत अलग तरह की स्टोरीज करती हैं. कविताएँ लिखती हैं, यह उनकी एक छोटी सी कहानी है समुद्र के पानी की तरह अपने साथ बहाकर ले जाने वाली- मॉडरेटर
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कभी देखा है किनारे की रेत को? उस पर से जब पानी लौट जाता है तो वो आईने जैसी हो जाती है। उसका अपना वजूद ढक जाता है और हर गुज़रते आदमी की नज़र उसमें अपनी सूरत देखने के लिए एक पल को ही सही, ठहरती ज़रूर है। मुझे खुद को देख कर इन दिनों ऐसा ही लगता है। समंदर मुझे छूकर लौट गया है और मैं शीशे की हो गई हूं। तमाम लोग मुझ में अपना कोई चेहरा देख जाते हैं और मैं… बस यूं ही एकरस खड़ी रह जाती हूं।
न। इन दिनों कोई तो रस घुलते पाया है मैंने खुद में। आईने पर जैसे भाप सी जम जाती है इन दिनों, बिलकुल वैसे जैसे दिल्ली की सर्दियों में गरम पानी से नहाते वक्त शीशे पर जम जाया करती थी। इधर समंदर के पास सर्दियां नहीं है। पर भाप है। जब से उसे देखा है, मैं सब कुछ में उसी को देखने लगी हूं। या उससे मिलते-जुलते किसी और को।
अभी सूरज ढलने में वक्त है। धूप सीधे चेहरों पर पड़ रही है। रेत की पूरी चादर विदेशी सैलानियों से भरी हुई है। सैलानी तो क्या ही कहूं इन्हें प्रवासी कहूं तो बेहतर होगा। सूरज और समंदर में डूबे हुए ये रूसी यहां महीनों रह जाते हैं। प्रवासी पक्षियों की तरह। पिछले तीन दिनों से इधर हलचल कुछ ज़्यादा बढ़ गई है। न, न। मैं कोई नई कॉन्सपिरेसी थ्योरी नहीं बना रही हूं। बस, देख रही हूं कि छब्बीस जनवरी के बाद से कुछ ज़्यादा लोग दिख रहे हैं इधर।
आज फिर वही यूक्रेनियन अपनी किशोर बेटी को योग के नए आसन सिखा रहा है। कोई 12-13 साल की लड़की कुछ देर पिता के निर्देश सुनती है तो कभी बटोरी हुई सीपियों को उलटने-पलटने लगती है। आज उसमें पिछले दिनों जैसी तन्मयता नहीं है। शायद अब वह इस उनींदे समुद्री गांव की ज़िंदगी से थकने लगी है। मुझे उसकी चंचल आंखों में वही आंखें दिख रही हैं। ताज़ा-ताज़ा पांच साल के हुए साशा की आंखें। अरे, साशा नहीं सिद्धार्थ। उसके पारिवारिक गुरू ने पूरे परिवार को हिंदी नाम दिए हैं। साशा को अब सिर्फ नए नाम से बुलाया जाना अच्छा लगता है। मैं साशा को, नहीं सिद्धार्थ को फिर से देखना चाहती हूं। हां, मैं सिद्धार्थ की आड़ में किसी और को नहीं देखना चाहती। नहीं। मैंने कोशिश कर के अपनी भिंची हुई मुट्ठियाँ खोल ली हैं। पर चेहरे पर खिंची तनाव की चादर को खींच कर दूर फेंक देने की कोशिश इस बार भी कामयाब नहीं हुई है।
मेरे कदमों की रफ़्तार अचानक बढ़ गई है। मन की बेचैनी को मन तो नज़रअंदाज़ कर देगा पर तन का क्या? उसे बरगलाना इतना भी आसान नहीं। ‘डू नॉट लेट योर माइंड प्ले विद यू।’ मैं उसका निर्देश हज़ारवीं बार खुद को देती हूँ। मैं किसी तरह के सवालों में नहीं पड़ना चाहती। सूरज डूबने के इंतज़ार में रेत पर बैठे तमाम जोड़ों के बीच से जाकर मेरी नज़र उस छह फुटे रूसी पर जा टिकी है जो अपनी लंबी बांहों में अपने नन्हे बच्चे का पालना लेकर झुला रहा है। झुला क्या रहा है खुद ही झूम रहा है। बच्चे को सीधे बाहों में लेकर भी तो झुलाया जा सकता था, कभी चुप न होने वाला मेरा दिमाग सवाल करता है। पर बांहों में लेकर झुलाना सिर्फ माँओं को ही आता, नए पिताओं को तो डर ही इतना लगता है कि नन्हीं सी जान को कुछ हो गया तो? मेरे गले में कुछ फंस रहा है, नमक की डली सा कुछ। और सीने में जैसे कोई भंवर बनने लगा है जहां लहरें जाकर फंस जाती हैं, वापस नहीं आ पाती। न जाने कब से सब कुछ सीने में जाकर फंस ही तो रहा है। कुछ भी वापस नहीं लौटा है। पर आज इतने दिन बाद मैं क्यों देख रही हूँ यह सब कुछ। आह! कोशिश करने पर भी शीशे पर जमी भाप नहीं हट पा रही है। मैं अब खुद को अकेले देखने के लिए मजबूर होती जा रही हूँ। समंदर मेरी ओर आ रहा है क्या? मैं डूब रही हूँ?
नहीं। पानी के वेग को समझ लिया है मैंने। पर लहरें मेरे साथ कुछ और देर खेलना चाहती हैं। मेरे थके हुए, पर तेज़-रफ़्तार कदम गीली रेत के किनारे पर हैं, मगर समंदर ने अचानक पैंतरा बदला और लहरों को मेरी ओर फेंक दिया। एक समंदर मेरे भीतर भी है। इसी समंदर का कोई छूटा हुआ हिस्सा। मैं बच के भाग निकलती हूँ। बेचारा समंदर इस बार भी मेरे पांव भिगोते-भिगोते रह जाता है। समंदर से जीतने की ज़िद में कहीं खुद से तो हार नहीं रही हूँ न मैं? ये सवाल खत्म क्यों नहीं होते? सामने कुछ गोरे बच्चे पानी में उतर गए हैं। तीनों भाई-बहन हैं। सबसे छोटा लगभग दो का होगा। रिज जितना। नहीं। दो का तो वह पिछले साल था। अब तो तीन का होने को होगा। मैं आज बावली क्यों हो रही हूँ। ये नाम जिसे मैंने साल भर में खुद से दूर करने की कोशिश की है वह आज क्यों मुझे जकड़ कर अपने करीब खींच रहा है?
रिज की छोटी नीली गाड़ी समंदर ने छीन ली है और वह चिल्ला के रो पड़ा है। आह। वह रिज नहीं है। वह तो सिद्धार्थ भी नहीं है। मैं उसी की तरह फूट-फूट के रोना चाहती हूँ। रिज अब चुप हो गया है। समंदर बच्चों को नहीं रुलाता। पर बड़ों को? समंदर ने अगली पाली में उसकी गाड़ी लौटा दी है। ‘समंदर अपने पास कुछ नहीं रखता, सब लौटा देता है…,’ मुझे लगता है अभी-अभी उसने मेरे कानों में फिर से दोहराया है। मैं समंदर से पूछना चाहती हूँ कि क्या वह उसे भी सचमुच लौटा देगा? मैं पंजों के बल खड़ी होकर समंदर के उस पार की ज़मीन देखने की कोशिश करती हूँ। मेरी सांसें रुकने लगी हैं। गले में नमक की डली तीखी होती जा रही है और सीने का भंवर गहरा होकर रगों में दौड़ता खून भी सोखने लगा है। क्या मुझे कुछ देर रेत पर बैठ जाना चाहिए?
मैं आंखें बंद किए रेत पर बैठी हूँ। मुझे खबर नहीं कि सूरज डूबा है या नहीं। मैं उन तस्वीरों और आवाज़ों से लड़ रही हूँ जिनके निशान मिटाए जा चुके हैं। ‘ तुम्हारे पास मौजूद मेरी एक तस्वीरे भी मेरी जान ले सकती है। और तुम्हारी भी।’ मैं फिर से उसकी आवाज़ सुनती हूँ। मैं इस आवाज़ को सुनती रहना चाहती हूँ। पर वह रिज के बारे में कुछ क्यों नहीं कहता? मैं उसकी आवाज़ में रिज का नाम सुनना चाहती हूँ। पूरा नाम। अर्जुन पारिजात गिल। पर आखिरी बार मैंने खुज कब रिज का नाम लिया था? और पारिजात का? नहीं। मुझे उसके लौट आने तक उसका नाम लेने की मनाही है। उसके बेटे के सामने भी? हाँ। अब बस। समंदर मेरे ऊपर से गुज़र रहा है और ज़मीन का अहसास मैं खो चुकी हूँ।
रिज मेरा कंधा पकड़ कर हिला रहा है। रिज, इधर, मामा के पास आओ मेरी जान। मैं आंखें खोलती हूँ। सिद्धार्थ है। उसकी उंगली पर दांतों के निशान हैं। साथ खेलते बच्चे ने नाराज़ होकर काट खाया है। दोनों के मां-बाप पानी में उतर चुके हैं। मुझे पहचान कर सिद्धार्थ मुझसे शिकायत करने आया है। मैं उसे गोद में बैठाना चाहती हूँ। पर यह रूसी बच्चा सहानुभूति नहीं चाहता। वह थोड़ी देर मुझे देखता है और फिर वापस दौड़ कर रेत का महल बनाने में जुट जाता है। मेरी गोद उसके स्पर्श को महसूस करना चाहती है। मन को तो भरमा लूँ पर तन का क्या?
नारियल के झुरमुट के पीछे से चांद ऊपर चढ़ आया है। रेत की चादर लगभग खाली है। मैं वापस कमरे तक नहीं जाना चाहती। चांदनी में उस यूक्रेनी बच्ची की बटोरी हुई सीपियां पास ही चमक रही हैं। हवा पहले से ज़्यादा तेज़ और ठंडी हो गई है। मछुआरों की नावों पर चमकती हुई रौशनियां मुझे समंदर की तरफ खींच रही हैं। ऐसी ही किसी नाव पर मेरी किसमत लिखी गई होगी। ‘किसमत कोई पहले से लिखा हुआ दस्तावेज नहीं है। हम अपनी किसमत रोज खुद लिखते हैं, और अपने मुल्क की भी।’ मैं समंदर की आवाज़ में उसे सुनती हूँ, उसकी मुस्कुराहट को भी। ‘इंतज़ार लंबा है। आसान नहीं होगा। ट्राइ टू मूव ऑन.’ कितनी कोशिश की है मूव ऑन करने की। एक औरत के लिए आदमी से आगे बढ़ना शायद आसान होगा पर एक मां की बच्चे से आगे बढ़ने की कोशिश का उसे अंदाज़ा तक नहीं होगा? क्या सचमुच उसे पता होगा रिज के बारे में?
मैं पानी की तरफ बढ़ रही हूँ। उसकी आवाज़ में रिज की आवाज़ घुलने लगी है। उसकी खनकती हुई मीठी आवाज़। मैं उन दोनों को एक साथ गले लगाना चाहती हूँ। समंदर बुला रहा है। माइ माइंड इज़ नॉट प्लेइंग विद मी। यह मन की नहीं तन की तलाश है। आज रात मैं बिना उन दोनों को गले लगाए वापस नहीं लौटूंगी।
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प्रेमचंद का साहित्य जब से कॉपीराईट मुक्त हुआ है तब से उनकी कहानियों-उपन्यासों के इतने प्रकाशनों से इतने आकार-प्रकार के संस्करण छपे हैं कि कौन सा पाठ सही है कौन सा गलत इसको तय कर पाना मुश्किल हो गया है. बहरहाल, मुझे उनका सबसे प्रासंगिक उपन्यास ‘रंगभूमि’ लगता है. इतना बड़ा विजन हिंदी के बहुत कम उपन्यासों का है. सच्चे अर्थों में यह राष्ट्रीय उपन्यास है. इस उपन्यास पर मैंने किसी प्रसंग में कुछ लिखा है. आप भी पढ़िए- प्रभात रंजन
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प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ का प्रकाशन 1925 में हुआ था। इससे पहले देश में महात्मा गांधी के नेतृत्व में 1920 ईस्वी में शुरू हुए असहयोग आन्दोलन का प्रभाव राष्ट्रव्यापी पड़ा था। समाज बड़े पैमाने पर जाग्रत हो गया था और भारतीय समाज की अलग-अलग धाराओं, विचारों, धर्मों, जातियों का द्वंद्व अपने चरम पर था। सबसे बढ़कर एक उत्साही युवा वर्ग देश को विदेशी शासन से मुक्त करवाने के लिए उत्साह के साथ सकारात्मक हो गया था। ‘रंगभूमि’ उपन्यास के पाठ को समझने के लिए भारत की इस तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियों को ध्यान में रखना जरूरी है। यह उपन्यास महज अपने कैनवस, विजन में ही बड़ा नहीं है बल्कि यह प्रेमचंद का सबसे अधिक पृष्ठों का उपन्यास है।
उपन्यास की शुरुआत में पाठकों का परिचय बनारस के एक बाहरी मोहल्ले पांडेपुर के सूरदास से होता है। वह अँधा है और भीख मांगकर अपना जीवन यापन करता है। इसी भीख मांगने के दौरान उसका सामना एक ऐंग्लो-इन्डियन जॉन सेवक और उसके परिवार से होता है। जॉन सेवक एक व्यापारी है और पहली ही मुलाक़ात में अंधे भिखारी को भीख देने का झांसा देकर एक किलोमीटर दौड़ा देता है और उसके बाद भी भीख नहीं देता। पता चलता है कि जॉन सेवक पांडेपुर ही जा रहा था। वहां उसने खाली जमीन देख रखी थी। उस जमीन पर वह सिगरेट का कारखाना खोलना चाहता था। पता चलता है दस बीघे की जमीन का वह टुकड़ा सूरदास का है तो व्यापारी जॉन सेवक उसे जमीन बेचने के लिए कहता है, मुंहमांगे दाम का प्रलोभन देता है। कहता है यहाँ कारखाना खोलूँगा, उस कारखाने में हजारों लोगों को रोजगार मिलेगा। लेकिन सूरदास साफ़ मना कर देता है। बहुत जोर देने पर वह कहता है कि वह अपने मुहल्लेवालों यानी अपने समाज से पूछे बिना कोई फैसला नहीं लेगा।
उपन्यास की कथा के केंद्र में यही टकराव है। जॉन सेवक ने अपने बेटे प्रभु सेवक को अमेरिका सिगरेट के कारखाने के प्रशिक्षण के लिए भेजा। वह हर हाल में कारखाना लगाना चाहता है। शहर के रईसों के शेयर उसने ले रखे हैं। अपने और उन सबके मुनाफे के लिए हर हाल में कारखाना लगाना उसका परम ध्येय है। दूसरी तरफ उस जमीन का मालिक सूरदास है जो हर काम के औचित्य को धर्म-अधर्म के आधार पर तौलता है। उसके लिए धर्म है उस जमीन को बचाना और अधर्म है कारखाने का लगना, जो समाज के ऊपर बुरा प्रभाव डालने वाला है।
जमीन भले सूरदास की है लेकिन मोहल्ले वाले अपनी अपनी सुविधाओं के लिए उसका उपयोग करते हैं। उसके मोहल्ले में जगधर है जो खोंचा लगाता है, दूध बेचने वाला बजरंगी, ताड़ी बेचने वाला भैरों, मंदिर का पुजारी दयागिरी, पान बेचने वाला ठाकुरदीन है, और मुखिया नायकराम है। सबकी जातियां अलग हैं, पेशे अलग हैं लेकिन रात में सोने से पहले सभी मिलकर ठाकुर के मंदिर के बाहर कीर्तन करते हैं। सब लड़ते-झगड़ते साथ रहते हैं और मिलकर अपने अपने हित में सूरदास की जमीन का उपयोग करते है।
पांडेपुर के उस मंदिर की मासिक वृत्ति कुँवर भरत सिंह के दरबार से आती है। उनका बेटा विनय सिंह है जो समाज सेवा के लिए मंडली चलाता है। उसकी मंडली के लोग देश में कहीं आपदा आने पर मदद के लिए जाते हैं। उनकी बेटी इंदु है। जिसने स्कूल की पढ़ाई नैनीताल से की थी। स्कूल में उसकी सहपाठिनी जॉन सेवक की बेटी मिस सोफिया थी। इंदु का विवाह चतारी के राजा महेंद्र कुमार सिंह से हुआ था जो बनारस की म्युनिसिपैल्टी के प्रधान थे। महेंद्र कुमार सिंह विचारों से साम्यवादी थे लेकिन जनवाद के नाम पर समाज में अशांति फैले इसके पक्ष में भी नहीं थे। इन सबके सूत्र आपस में जुड़े हुए हैं और उपन्यास के घटनाक्रम के केंद्र में मूल रूप से यही किरदार हैं। इनके आपसी हित-अहित हैं, द्वंद्व हैं और सबके सूत्र कहीं न कहीं पांडेपुर से जुड़ते हैं। इनमें एक किरदार ताहिर अली भी है, जो जॉन सेवक का गुमाश्ता है।
पांडेपुर उपन्यास में भारत देश के रूपक की तरह लगने लगता है, जिसे एक ईसाई जॉन सेवक के इशारे में शहर के प्रभावशाली वर्ग अपने कब्जे में लेना चाहता है, दूसरी पांडेपुर के गरीब हैं जो सूरदास के साथ हैं ताकि वह सामूहिक उपयोग वाली जमीन बची रहे। अंग्रेजों और उनका साथ देने वाले देशी रजवाड़ों के शासन से त्रस्त लोग और पढ़ा-लिखा नौजवान शहरी तबका सूरदास के इस संघर्ष के साथ खड़ा हो जाता है। जमीन को बचाने की लड़ाई देश को बचाने की लड़ाई लगने लगती है।
लेकिन प्रेमचंद के उपन्यासों को महाकाव्यात्मक उपन्यास कहा जाता है अर्थात ऐसे उपन्यास जिसमें जीवन और समाज को उसकी सम्पूर्णता में दिखाया जाता है। इसलिए उपन्यास का एकमात्र द्वंद्व देशी बनाम विदेशी का नहीं है। तत्कालीन समाज में द्वंद्व के अनेक कारण थे और उपन्यास में भी।
जॉन सेवक के घर में धर्म का द्वंद्व है। जॉन सेवक के पिता ईश्वर सेवक बहुत धर्मपरायण हैं, रोज बाइबल का पाठ सुनते हैं। जॉन सेवक पक्के व्यापारी हैं और वे बदलते समय को पहचानना खूब जानते हैं, और उसका लाभ उठाना भी। जॉन सेवक की पत्नी मिसेज सेवक भी पक्की ईसाई हैं और भारतीय लोगों से नफरत करती हैं। उनका बेटा प्रभु सेवक अन्दर से उतना धार्मिक नहीं है लेकिन अपनी धार्मिक भावनाओं को वह अंदर ही अन्दर छिपा कर रखता है। इसके विपरीत उसकी बहन बाइबिल के कथनों पर आँख मूंदकर विश्वास नहीं रखती। वह उनको तर्क के तराजू पर तोलती रहती है। वह अपनी धार्मिक स्वतंत्रता को बनाए रखना चाहती है। इसी बात से उसकी अपनी माँ से नहीं बनती है।
ऐसे में एक दिन वह अपने घर से निकल जाती है और कुँवर भरत सिंह की हवेली पहुँच जाती है। जहाँ वह राजा साहब के बेटे विनय सिंह को आग में फंसने से बचाते हुए घायल हो जाती है। जब होश में आती है तो पाती है कि वह अपनी सहेली इंदु के घर में है। विनय सिंह इंदु का भाई होता है। इस घटना के बाद वह उसी घर में रहने लगती है और इंदु की माँ ज्योत्स्ना उसको अपनी बेटी की तरह मानने लगती हैं।
जब सेवक परिवार को पता चलता है कि उनकी बेटी कुँवर भरत सिंह के घर में है तो वे उसको लाने जाते हैं। लेकिन इंदु की माँ के इसरार पर उसे वहीं छोड़ देते हैं। जॉन सेवक को इस सम्बन्ध में भी फायदा दिखाई देता है। वह पहले मुनाफे का लालच देकर कुँवर साहब को अपनी कम्पनी का शेयर बेच देता है। चेतारी के राज महेंद्र कुमार सिंह मुनिसिपैल्टी के प्रधान हैं और कुँवर साहब के दामाद हैं। वह उनकी मदद से पांडेपुर की जमीन हासिल करने की कोशिश करता है। पारिवारिक संबंधों को देखते हुए राजा साहब तैयार हो जाते हैं।
वे सूरदास से स्वयं बात करने जाते हैं। सूरदास को हर तरह से समझाते हैं। वह कहता है कि इस जमीन पर पशु चरते हैं, धार्मिक अवसरों पर तीर्थ यात्री ठहरते हैं। कारखाना खुल जाने से ये सारे सामाजिक कार्य बंद हो जायेंगे। इस पर राजा साहब कहते हैं कि तुम दस में से नौ बीघे जमीन कारखाने के लिए दे दो और एक बीघे जमीन से धर्म-कर्म का काम करो। लेकिन सूरदास कहता है कि यह जमीन उसके पुरखों की धरोहर है वह तो महज संरक्षक है इसका। वह बिना समाज की अनुमति के कैसे बेच सकता है।
राजा साहब कहते हैं कि कारखाना खुलने से रोजगार बढेगा। सूरदास कहता है कि कारखाना खुलने से कई तरह की बुराइयाँ बढेंगी। इसके अलावा गाँव से लोग खेती का काम छोड़कर रोजगार के लिए आयेंगे। समाज का पूरा ताना-बना बिखर जाएगा। राजा साहब उसकी बातों से प्रभावित होते हैं और यह कहकर चले जाते हैं कि वे जॉन सेवक को समझा देंगे कि सूरदास जमीन देने को तैयार नहीं हुआ।
वास्तव में इस उपन्यास की कथा का यह द्वंद्व आधुनिकता और परम्परा का द्वंद्व है। जो प्रेमचंद के उपन्यासों में बार-बार आया है। समाज का पुराना ढांचा टूट रहा था। वह ढांचा जो सामाजिकता पर आधारित था, जो जमीन-जायदाद, पशुओं के माध्यम से जीवन यापन करता था। उसकी जगह पर नई औद्योगिक सभ्यता आ रही थी जो पूँजी पर आधारित थी। जो सामाजिक ताने बाने से अधिक व्यापारिक लाभ-नुक्सान पर ध्यान देता था। प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ में गाँव बनाम शहर का द्वंद्व नहीं है बल्कि यह द्वंद्व विदेशी बनाम स्वदेशी का है। विदेशी पूँजी पर आधारित उद्योग के माध्यम से देसी सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर देना चाहते हैं। जॉन सेवक उसी विदेशी यथार्थ का प्रतीक है जबकि सूरदास देशी आदर्श का।
उधर कुँवर भरत सिंह के घर में रहते रहते सोफिया को विनय सिंह से प्यार हो जाता है। हालांकि उसने यह प्रण कर रखा था कि वह विवाह नहीं करेगी। दूसरी तरफ सेवा समिति के माध्यम से संकट में पड़े लोगों की सेवा का व्रत ले चुके विनय सिंह के लिए भी निजी सुखों से अधिक समाज का सुख महत्व रखता है। इतने बड़े जमींदार के एकमात्र पुत्र होने के बावजूद सामान्य जीवन जीता है। अपने दल के साथ देश भर में घूमता रहता है। लेकिन सोफिया से उनको भी प्यार हो जाता है और वह अपनी बहन इंदु के सामने इस बात को स्वीकार भी कर लेता है। जब विनय सिंह की माँ को यह पता चलता है कि दोनों के बीच नजदीकियां बढ़ रही हैं तो वह विनय सिंह को राजपुताना जाने का फरमान जारी कर देती हैं। सोफिया और विनय सिंह की यह प्रेम कहानी इस उपन्यास में मिलन से अधिक वियोग की है, पाने से अधिक खोने की है, प्रेम से अधिक त्याग की है।
उधर सूरदास के मना करने पर जॉन सेवक अंग्रेज अधिकारियों से मिलकर उसकी जमीन का सार्वजनिक हित में अधिग्रहण करवा लेता है। मुआवजा लेने से सूरदास मना कर देता है तो उस पैसे को सरकारी खजाने में जमा कर दिया जाता है। लेकिन सूरदास हार नहीं मानता है। वह भीख मांगने के लिए तो रोज घूमता ही था। अब उसने घूम घूम कर अपने साथ हुए इस अन्याय के खिलाफ माहौल बनाना शुरू कर दिया। एक दिन वह गिरजाघर भी चला गया जहाँ विशेष सरमन वाले दिन गणमान्य इसाई जुटे हुए थे। वहां कई लोगों ने सूरदास की बातों का समर्थन किया। सोफिया भी उसके साथ हुए अन्याय से द्रवित हो जाती है और वह जमीन पर सूरदास का हक़ वापस दिलवाने के लिए अपनी सहेली इंदु के घर जाती है ताकि उससे कहे कि वह राजा साहेब से कहकर सूरदास को उसकी जमीन वापस दिलवा दे। लेकिन इंदु उसके सहयोग से इनकार कर देती है। सोफिया अपने अपमान का बदला लेने के लिए मिस्टर क्लार्क का सहयोग लेती है। मिस्टर क्लार्क जिले के सबसे बड़े अधिकारी हैं और सोफिया से विवाह करने की इच्छा रखते हैं। सोफिया ईसाई धर्म का वास्ता देते हुए मिस्टर क्लार्क से कहती है कि ‘आप लोग ऐसे साधुजनों से अन्याय करने में भी बाज नहीं आते जो अपने शत्रुओं पर एक कंकड़ उठाकर भी नहीं फेंकता। प्रभु मसीह में यही गुण सर्वप्रधान था।’ जवाब में मिस्टर क्लार्क कहता है कि इसका प्रायश्चित निश्चित होगा। वह इस आधार पर वह जमीन सूरदास को वापस दे देते हैं क्योंकि व्यक्तिगत स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए सरकारी कानून का दुरूपयोग किया गया था।
इस बीच राजपूताना पहुँचने पर विनय सिंह को पता चला कि वहां जनता के ऊपर शासन द्वारा बहुत अत्याचार किया जा रहा था तो वे अपने दल के माध्यम से जनता के लिए काम करने लगे। सरकार ने ख़तरा भांपते हुए उनको गलत आधार पर फंसा कर गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया था। जब यह बात सोफिया को पता चलती है तो उसको जेल से निकालने का जुगत लगाती है। सूरदास की जमीन वापस करने के कारण ऊपर से मिस्टर क्लार्क के ऊपर कार्रवाई होती है। उसको अपने पद से हटा दिया जाता है और यह अवसर उसके सामने होता है कि वह किसी रियासत का रेजिडेंट बन जाए। सोफिया इस बात को अच्छी तरह समझती थी कि मिस्टर क्लार्क उसका दीवाना था। जबकि वह खुद विनय सिंह की दीवानी थी। वह क्लार्क के ऊपर जोर डालकर उसको राजपूताना का रेजिडेंट बनने के लिए तैयार कर लेती है और उसको वहां जेल से छुडाकर ले आती है।
इधर ताड़ी बेचने वाले मित्र भैरों की पत्नी के कारण सूरदास पर मुकदमा हो जाता है और सूरदास के ऊपर जुर्माना भी हो जाता है। उसको सजा होने के बावजूद शहर के राष्ट्रवादी लोग उसके साथ सहानुभूति रखने लगते हैं। वे उसके जुर्माने कि रकम जुटाने के लिए आपस में चंदा करने लगते हैं, इसमें राजा महेंद्र कुमार सिंह की पत्नी इंदु भी चंदा दे देती है जिससे राजा साहेब दुखी और नाराज हो जाते हैं।
इस सबके बीच कारखाने के निर्माण का काम चलता रहता है। वह पूरा होने को होता है कि समस्या यह उठ खडी होती है कि कारखाने के मजदूरों को रहने के लिए कहाँ जगह दी जाए। उसके बाद उस बस्ती को खाली करवाने के लिए साम दाम दंड भेड़ को आजमाया जाने लगता है। सूरदास इस बार अपनी झोपड़ी खाली करने से इनकार कर देता है। उसकी तरफ से लड़ाई लड़ने के लिए विनय सिंह अपनी सेवा समिति के साथ लग जाता है। विनय सिंह सूरदास से कहता है कि यह तुम्हारी झोपड़ी नहीं हमारा जातीय मंदिर है। उसको बचाने के लिए संघर्ष होता है, गोलियां चलती हैं जिसमें सूरदास और विनय सिंह बारी बारी मारे जाते हैं। सोफिया इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाती है। उसके ऊपर एक बार फिर परिवार की तरफ से दबाव डाला जाने लगता है कि वह मिस्टर क्लार्क से विवाह कर ले। वह हाँ तो कर देती है लेकिन एक दिन रात में घर छोड़कर निकल जाती है। जाने कहाँ? प्रभु सेवक कुछ दिन सेवा समिति से जुड़ा था। बाद में भी उसने उसको चंदा दिया लेकिन उसके जीवन का उद्देश्य अलग हो चुका होता है। वह अपने जीवन का लक्ष्य बना चुका था प्राच्य और पाश्चात्य के द्वंद्व को मिटाना।
इस सबके बीच कारखाना बन जाता है। कुँवर साहब भी अपना राज कोर्ट ऑफ़ वर्ड के हवाले करके पुनः विलासितापूर्ण जीवन जीने लगते हैं। जिला प्रशासन जनता के आन्दोलन से मजबूर होकर राजा महेंद्र कुमार सिंह को उनके पद से हटना पड़ता है, जहाँ सूरदास की झोपड़ी थी उस जगह पर उसकी एक प्रतिमा स्थापित की जाती है। शेष लोग अपने अपने घर के बदले मुआवजा लेकर पीछे हट जाते हैं, व्यापार राज को स्वीकार कर लेते हैं। उपन्यास में एक स्थान पर जॉन सेवक और एक स्थान पर उनके पुत्र सेवक यह कहते हैं कि यह व्यापार राज है। सत्ता से अधिक व्यापार की महत्ता होगी।
जितने आदर्शवादी लोग इस उपन्यास में थे सब मारे जाते हैं- सूरदास, विनय सिंह, सोफिया। जीवित बचे लोगों में जाह्नवी अपने पति का मार्ग छोड़कर और उनकी पुत्री इंदु अपने पति महेंद्र कुमार सिंह के अन्यायों का भागी न बनते हुए विनय सिंह की सेवा समिति के काम को आगे बढाने के लिए पंजाब निकल जाने का निश्चय करते हैं। उनक साथ डॉ. गांगुली भी तैयार हो जाते हैं, जिनकी शिक्षा ने विनय सिंह को राष्ट्रवादी बनाया था। उपन्यास में अंत में यह सूचना भी आती है कि जॉन सेवक अब पटना में भी सिगरेट का कारखाना बनाने के बारे में सोच रहे हैं। व्यापार राज फ़ैल रहा था।
‘रंगभूमि’ प्रेमचंद का एक ऐसा उपन्यास है जो भारत के सबसे बड़े आधुनिक द्वन्द्व की व्याख्या करने की कोशिश करता दिखाई देता है। समाज को अपने परम्परागत कौशल, पारम्परिक रूप के सहारे आगे बढ़ाया जाए या औद्योगिकीकरण के माध्यम से आधुनिक विकास का मार्ग चुना जाए।
लेखक व्यापार को वास्तविकता के रूप में स्वीकार करता है तथा सेवा-भावना को आदर्श के रूप में बचाए रखना चाहता है।
The post ‘रंगभूमि’ का रंग और उसकी भूमि appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..
राकेश तिवारी को मैं एक अच्छे पत्रकार, लेखक के रूप में जानता, पढता रहा हूँ लेकिन उनकी यह कहानी कुछ अलग ही है. कुमाऊँ का परिवेश, किस्सागोई और मुचि गई लड़कियां. पढियेगा, आपको भी अच्छी लगेगी. यह कहानी ‘आजकल’ में प्रकाशित हुई थी- मॉडरेटर
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धनंजय कहता है यह तारा सती वह लड़की नहीं हो सकती। क़तई नहीं। वह तो बड़ी मस्तमलंग थी। चीज़ों के पीछे-पीछे भागना उसकी फ़ितरत में नहीं था। वह चाहती तब भी इतनी दूर नहीं निकल पाती। उसके बस का नहीं था। आपको बनाने और बिगाड़ने वाली सारी बातें आपके अंदर होती हैं और आपके आसपास होती हैं। वह सब दिखाई देता है। वहां तो ऐसा कुछ नहीं था। पानी की तरह बहता चला जाता जीवन था। उस पानी में ज़्यादा से ज्यादा कोई पनचक्की लगा लेगा। ज़्यादा से ज़्यादा। बांध कैसे बना सकता है ? वह नौ-दस साल पहले की उस तारा के बारे में सोचता है, तो अब भी हँसी आ जाती है। उसे अब भी वैसी ही कल-कल बहती कोसी होना चाहिए। सचमुच वह वैसी ही होगी। कहीं न कहीं दीवार धकेलती होगी।
एक बात उसकी समझ में कभी नहीं आई। वह लड़की उसे याद क्यों आती है। किसी को एक मुलाक़ात के बाद— केवल एक मुलाक़ात के बाद— कोई एक दशक तक क्यों याद रखता है ? महज नाम की वजह से क्यों किसी लड़की में उसको ढूंढना शुरू कर देता है ? क्या तुक है ?
मन में उठ रहे सवालों से वह इस वक़्त भी पीछा नहीं छुड़ा पा रहा। पता नहीं कहां होगी वह आज और कैसी होगी ? और उसकी सहेलियां ? वह उम्र का हिसाब लगाता है तो जीरोकाट की उस तारा की उम्र भी तारा सती की उम्र के आसपास बैठती है। लेकिन जीराकोट की तारा जैसे लोग ज़िंदगी से ज़्यादा नहीं चाहते। बशर्ते कोई ज़िद न ठान लें। ज़िद्दी तो वह भी बहुत थी। लेकिन हर ज़िद्दी आदमी एवरेस्ट की तरफ़ तो कूच नहीं कर जाता। नहीं। असंभव। वह लड़की हरगिज़ तारा सती नहीं हो सकती। नो वे।
सन् 2009। जीराकोट।
वह इस मौसम का एक सामान्य दिन था। ठंडा और हाड़ कंपा देने वाला। जीराकोट गांव में सूरज ढल रहा था। इस मौसम में यहां लोग सूरज ढलते ही घरों को गर्म रखने और बच्चों व बूढ़ों के आग तापने का इंतज़ाम करने लगते हैं। पहाड़ की चोटी पर बसे इस गांव में हवाओं की गुंडागर्दी चलती थी और उन दिनों उन तीन लड़कियों की भी चल रही थी बल। लोग लकड़ियां इकट्ठा करने लगे थे या कर चुके थे। एक आमा (दादी अम्मा) सिर पर लकड़ियों का गट्ठर लिए संकरी पगड़ंडी पर तेज़ी से घर की तरफ़ जा रही थी। आमा के पीछे-पीछे, कोई डेढ़ सौ गज की दूरी पर एक बैल चला जा रहा था। खरामा-खरामा। बैल के पीछे वही तीन लड़कियां चल रही थीं। अपनी मस्ती में। चूंकि बैल धीमे और लड़कियां तेज़ चल रही थीं, इसलिए उनके बीच की दूरी लगातार कम होती जा रही थी। लड़कियों के पीछे बी.डी.ओ साहब ( रिटायर खंड विकास अधिकारी) और उनकी पत्नी चले आ रहे थे। वे शाम की सैर पर निकले थे। बातों में मशगूल। मानो, घर में बतकही के लिए वक़्त कम पड़ जाता हो। हालांकि वक़्त उनके पास इफ़रात था।
हवाएं सूरज डूबने का इंतज़ार कर रही थीं, ताकि सांय-सांय मचा कर गांव वालों को परेशान कर सकें। दोनों बुजुर्गों ने ऊनी कपड़े डाट रहे थे। भले ही सूरज अभी पहाड़ की ओट में नहीं गया था। उसी वक़्त इन लड़कियों में से एक ने जो किया वह एकदम अप्रत्याशित था। तारा ऐसी हरकत कर बैठेगी इसका गुमान उसके साथ चल रही नीता और कांता को भी नहीं था। लड़कियां ऐसा करती हैं भला ? उस घटना के बाद यह सवाल गांव में हर किसी की ज़ुबान पर था। लड़कियां ऐसा क्यों नहीं कर सकतीं, यह सवाल लड़कियां पूछ रही थीं। उनके इस तरह के सवाल से लोग बिदक गए थे। बदतमीज़ कहीं की। यह भी कोई बात है ? औरत जात और ऐसा उत्पात ?
तेरह साल की नीता और कांता। चौदह की तारा। तीनों जीराकोट के उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में आठवीं कक्षा में पढ़ती थीं। किशोर उम्र की और युवा होती हुईं। नीता और कांता औसत नाक-नक्श की और रंग तकरीबन गोरा। तारा की सफ़ेदी में जीराकोट की आबोहवा ने दो बूंद लाल रंग भी घोल दिया था। नाक-नक्श भी बनिस्बत ज़्यादा तीखे थे। लेकिन समस्या दूसरी थी। पूरे गांव में तीनों इस उम्र में ही कुख्यात हो गई थीं। लोग ग़ुस्से में उन्हें ‘गुंडियां’ कहने लगे थे। ‘गुंडियां’ का अर्थ था शरारत और बदमाशी करने वाली। केवल इतना ही। बदतमीज़, नालायक, बिगड़ैल छोकरियां जैसे विशेषण तो आम बात थी। लेकिन ‘गुंडियों’ से कुछ ख़राब-सी ध्वनि निकलती है, यह लड़कियों को हमेशा महसूस होता था। इससे उनका ग़ुस्सा और नाराज़गी बढ़ गई थी। शरारतें और बदमाशियों के लिए ज़िद भी इसी कारण बढ़ी थी। हालांकि, देखा जाए तो तमाम शरारतों के बावजूद तीनों गांव की सरल लड़कियां ही थीं। थोड़ा नासमझ और थोड़ा-थोड़ा मासूम। गड़बड़ केवल यह कि वे जीराकोट की लड़कियों के लिए तय शरारतों की सीमा लांघ रही थीं। बस।
‘गुंडियां’ कहे जाने के बाद एक बात उन्होंने और गांठ बांध ली। ठीक है, लड़के गुंडे हो सकते हैं तो लड़कियां गुंडियां क्यों नहीं हो सकतीं ? लड़कों की बराबरी करने की ऐसी ही बेवजह की ज़िद में पिछले साल तीनों ने लड़कों की तरह बाल कटा लिए थे। बाल कटाने का क़िस्सा समझने के लिए थोड़ा गांव का भूगोल समझना ज़रूरी है। असल में जीराकोट गांव काठगोदाम-अल्मोड़ा मोटर मार्ग से आधा किलोमीटर की चढ़ाई पर है। पैदल रास्ता है। गांव वालों के लिए यह मामूली दूरी है। नीचे, अल्मोड़ा जाने वाली सड़क के दोनों तरफ़ कुछेक दुकानें हैं। सड़क के ठीक नीचे कोसी नदी बहती है और बहुत दूर तक सड़क से बात करती हुई-सी चलती है। सड़क किनारे की इन्हीं दुकानों पर रोज़मर्रा की ज़रूरत का सामान मिल जाता है। वरना बाज़ार करने के लिए किसी जीप या बस में बैठ कर सात-आठ किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। गांव के कुछ कंजूस बुड्ढे पैदल ही निकल जाते हैं। गांव को जाने वाले पैदल रास्ते की जड़ पर, जहां मोटर मार्ग है, चंद दुकानों के बीच एक दुकान नाई की भी है। जीराकोट में अब तक बाल सिर्फ़ मर्द कटवाते थे। लड़कियों के बाल लीख और जुईं की भरमार होने या चोट-पटक लगने पर ही कटवाये जाते। वरना थोड़ा-बहुत लीख-जुईं तो घर की औरतें दोनों अंगूठों ने नाखून से ही पुड़का (फोड़) देती हैं।
ये लड़कियां स्वेच्छा से और फैशन के कारण आई हैं, ऐसा नाई ने समझ लिया था। उसे खुशी हुई कि उसके तीन और स्थायी ग्राहक हो गए। लड़कियां घरवालों को बिना बताए बाल कटाने निकली थीं। कांता ने उस बाईस-तेईस साल के युवा नाई को निर्देश दिया कि लड़कों से अच्छे बाल कटने चाहिए, नहीं तो वे उसका शीशा फोड़ देंगी। बाकी दोनों ने समर्थन किया। नाई घबरा गया। जवाब में उसका कहना था, “बिल्कुल बैंणी (बहन), लड़कों को फेल कर दूंगा।”
वह इन लड़कियों को तब से जानता था, जब ये बहुत छोटी थीं। वह इन्हें ‘आवारा’ कहने लगा था। क्योंकि लड़कियां दिन में कई चक्कर गांव से उतर कर नीचे चली आती थीं। खास तौर पर जब इनके पास पैसे आ जाएं। ग्राहक बनने के बाद नाई ने लड़कियों के बारे में अपनी धारणा बदलने का फैसला किया था। इन लड़कियों की एक आदत और थी। सड़क से उतर कर कोसी में पहुंच जातीं। गर्मियों के दिन हों तो नदी में घंटा-डेढ़ घंटा नहातीं। उसके बाद दो लड़कियां पहरा देतीं और तीसरी किसी पत्थर के पीछे छुप कर कपड़े बदल लेती। इस तरह दूसरी की बारी आती। नहा-धो कर वे सबसे ऊंचे और चौड़े पत्थर पर पसर जातीं और रिंगाल की बंसी लेकर लड़कों की तरह मछलियां मारतीं। दो-चार मछलियां हाथ लग जाएं तो दम साध कर गांव की तरफ़ दौड़ पड़तीं। घर से बर्तन और तेल, मसाले, नमक वगैरह चुरा कर जीराकोट की चोटी में पहुंच जातीं, जहां जंगल था। वहीं तीन पत्थर अड़ा कर चूल्हा लगातीं, जलातीं, मछलियां पकातीं और खा पीकर जंगल में ही सो रहतीं। कभी-कभी घर से रोटियां भी चुरा लातीं। यहीं एक बार तीनों ने बीड़ी पीकर भी देखी। लेकिन बीड़ी इन्हें रास नहीं आई।
बाल कटाने से लड़कियों को लेकर नई चर्चा छिड़ गई। ज़्यादातर का मानना था कि छोकरियां इतराने और उड़ने लगी हैं। गांव वाले ‘हरकतें’ तो थोड़ा बहुत बर्दाश्त कर लें, इतराना भी पचा लें, लेकिन उड़ने-उड़ाने से उन्हें सख्त एतराज था। इस गांव में औरतों को कभी किसी ने उड़ते नहीं देखा। किसी औरत ने कभी सोचा ही नहीं कि उड़ना कोई ज़रूरी क्रिया हो सकती है। औरत जैसे दोपाये को उड़ना क्यों चाहिए ? सुबह उठना, खाना पकाना, बर्तन मांजना, कपड़े धोना, ढोर-डंगरों के लिए घास-पात और सानी-पानी का इंतज़ाम करना, घर में जलावन की लड़की की व्यवस्था देखना, आटा पिसा कर सिर पर लाना, बच्चे पैदा करना, उनका हगा-मूता साफ़ करना, खांसना, कराहना, चुपके-से रोना और आधी नींद सोना। यह निरंतर चलने वाला चक्र था, जैसे कोल्हू का बैल। इसी में सारे दृश्यमान सुख थे, इसी में तमाम अदृश्य दुख। इस सबके बाद पंख फड़फड़ाने की कूवत बचती है क्या ? पर इन लड़कियों को जाने क्या सूझी कि फुर्र-फुर्र करने लगीं। भुगतेंगी। ऐसा गांव में जब खुद तीनों की माएं जब कह रही थीं तो बाकी जाने क्या-क्या बकते होंगे। अपनी लड़कियों को इन तीनों की कुसंगत से बचाना है। यह गांव वालों की आम धारणा थी।
पिछले दो-तीन सालों से तीनों के ही घर वाले उन्हें मुचि गई चेलीं (हाथ से निकल गई लड़कियां) कहने लगे थे। गुंडियां नाम तो पिछले साल से पड़ा जब इन्होंने छेड़छाड़ करने वाले एक लड़के का नाक-मुंह फोड़ दिया। इस घटना से गांव के लड़के सनाका खा गए थे। इससे पहले चिड़ियों पर निशाना लगा रहे एक लड़के की गुलेल तारा ने तोड़ दी थी। उसने छूटते ही गाली दे दी। इस पर तीनों ने उसे पटक-पटक कर मारा था। वरना इनका सबसे प्रिय शगल था लड़कों पर पथराव करना। मकसद चोट पहुंचाना नहीं, डराना भर होता था। पर ‘ नाकफोड़ कांड’ को इनकी बढ़ती गुंडई का सबूत मान लिया गया था। तारा की बदक़िस्मती यह कि गांव में दो तारा थीं। इस तारा की पहचान के लिए झट-से कहा जाता— अरे वही, तरुलि (तारा) गुंडी। बदनामी के नुकसान हजार हों, पर एक फ़ायदा उन्हें हुआ। अब अकेले-दुकेले इनसे उलझने में अच्छे खासे सूरमाओं की हिम्मत जवाब दे जाती। एक ही बहाना होता। बदतमीज़ लड़कियां हैं। कौन मुंह लगे।
तीनों की अनंत कथाएं थीं। हरि की तरह। लेकिन उस दिन बैल के पीछे चलते हुए जो इन्होंने किया वहां से इनकी छवि को एकदम बट्टा लग गया। वहीं से इनकी जिंदगी में एक नया मोड़ भी आया। दरअसल बैल को देख कर तारा ने पूछा था, “जैसे गाय लड़की (मादा) होती है, वैसे ही बैल लड़का (नर) होता है ना ?”
पता तीनों को ही था, लेकिन फिर भी तारा ने यह निरर्थक सवाल किया था। ज़ाहिर है दोनों ने ‘हां’ ही कहना था। अब तक तीनों बैल के ठीक पीछे पहुंच चुकी थीं। पगडंडी बहुत पतली थी और बैल की चाल बेहद धीमी। उससे आगे निकलने में जोखिम था। सींग मार सकता था। पीछे-पीछे चलने में उलझन हो रही थी। दो-चार बार वे ‘हट-हुट’ कह चुकी थीं। लेकिन बैल अपनी मस्ती में चल रहा था। तारा को पता नहीं क्या सूझा कि उसने बैल की पिछली दोनों टांगों के बीच में लात जमा दी। बैल बिदक गया। अगर पगडंडी की जगह चौड़ा रास्ता होता तो संभव है वह पलट कर पीछे आया होता। मगर वह रॉकेट की तरह आगे की ओर दौड़ा। दौड़ते हुए उसने लकड़ी का गट्ठर लेकर चल रही आमा को सींगों पर उछाल दिया। आमा खाली टोकरे की तरह हवा में तैरती हुई चारों खाने चित। सीधा पगडंडी के नीचे खेत में गिरी। लकड़ियों का गट्ठर कई फुट दूर जाकर गिरा। अच्छा ही हुआ। वरना वही लकड़ियां उसके काम आ गई होतीं। बुढ़िया की कराह से लड़कियों के साथ-साथ बुजुर्ग दंपति भी दहल गए।
आमा के खेत में गिरते ही लड़कियां भी पगडंडी से नीचे कूद गईं। उन्होंने भाग कर आमा को उठाया। वह कराह रही थी और उठने को तैयार नहीं थी। उलटा-पलटा कर देखा। खड़े सींग वाला बैल था। कहीं बुढ़िया की पीठ या कमर न चीर दी हो। लेकिन आमा के बदन पर कोई घाव नहीं था। फिर भी वह उठने को तैयार नहीं थी। इतनी देर में रिटायर बी.डी.ओ. और उनकी पत्नी भी एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर बेढब-से रास्ते से पगडंडी के नीचे उतर आए। बी.डी.ओ. दूर से ही लड़कियों को डांटते आ रहे थे। ग़ुस्से से उनके होंठों के दोनों कोरों पर झाग जमा हो गया था। तभी उनकी पत्नी ने आगे बढ़ कर लड़कियों को एक-एक थप्पड़ जड़ दिया। लड़कियां सन्न रह गईं। पर अभी उन्हें थप्पड़ और डांट की नहीं, चित पड़ी बुढ़िया की चिंता थीं। डर था कि कहीं गुम चोट से मर-मरा न जाए।
थोड़ी ही देर में उनकी कोशिशों से आमा खड़ी हो गई। कुछ दूर लंगड़ा कर चली और और फिर कमर पकड़ कर सीधी हो गई। अब उसे लकड़ी के गट्ठर की चिंता हुई। उसने इधर-उधर देखा। लड़कियों ने कहा कि वे लकड़ी का गट्ठर घर पहुंचा देंगी। लेकिन वह नहीं मानी। उन्होंने गट्ठर उसके सिर पर रख दिया और लचकती हुई घर की ओर चल दी। इसके बाद गांव में काफ़ी हंगामा हुआ। हर किसी को लड़कियों की इस करतूत पर सख्त एतराज था। लड़कियां उल्टा बहस कर रही थीं कि इसमें लड़कियों वाली क्या बात है। अगर यह ग़लत है तो लड़कों के लिए भी ग़लत है।
तारा की इजा (मां) ने तीनों को डांट लगाई, “लड़कियों को अपने हाथ, पैर और ज़बान पर काबू रखना चाहिए। ये क्या हुआ बेहूदा हँसना, बेहूदा हरकतें करना। लड़की मतलब गाय। बकरी।”
कांता और नीता तो उसकी इजा का लिहाज कर रही थीं, लेकिन उसने तड़ाक्-से सवाल किया, “गाय-बकरी का मतलब ?”
“शांत, संयमी।…बैल के ऐसी जगह लात मारना…लड़कियों को ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए कि आदमियों को अकेले में हँसने और मज़ाक करने का मौका मिले। पीठ में मार देते।”
“क्यों मार देते पीठ में ? जहां मन करेगा, वहीं तो मारेंगे।”
“चुप बदतमीज़। ऐसी जगह नहीं मारते।”
“क्यों ?”
इजा क्या जवाब दे। बोली, “वहां प्राण होते हैं।”
“अभी तक तो तू दिल पर हाथ लगा कर कहती थी कि प्राण हृदय में होते हैं।”
तीनों हँसने लगीं। उसकी इजा को कुछ नहीं सूझा। बोली, “हर नाज़ुक जगह पर प्राण होते हैं।”
तीनों नसीहतों की अनसुनी करके भाग गईं।
बहरहाल, लड़कियों के मन में बी.डी.ओ. दंपति को लेकर गांठ पड़ गई थी। अगर आमा को चोट लगी होती तो शायद उन्हें ग़लती का अहसास हुआ होता और यह गांठ मजबूत न हुई होती। शायद। पर बी.डी.ओ. की डांट और उनकी पत्नी के थप्पड़ उन्हें भूल नहीं रहे थे। यों बदला लेने के रास्ते बहुत थे। जैसे कि एक बार उन्होंने गांव के मैदान से थोड़ा नीचे, खायी की तरफ़ रहने वाले चतुर सिंह के लौंडे हरिया से बदला लिया। हरिया ने अकेले में नीता का हाथ मरोड़ दिया था। वह उम्र में बड़ा और हट्टा-कट्टा था। इसलिए लड़कियों ने योजना बना कर उसी रात उनके घर की टिन की छत पर पथराव कर दिया। एक-एक लड़की ने दस-दस पत्थर मारे। गांव में हंगामा मच गया। लेकिन लड़कियां पकड़ में नहीं आईं। पथराव का यह क़िस्सा भूतों के कारनामे से लेकर किसी दुश्मन की कारगुजारी तक कई कथाओं में बदल गया था। शक नाते-बिरादरी वालों तक भी पहुंच गया। दुश्मनी की नौबत आ गई। जितने मुंह उतनी बातें। यह राज लड़कियों ने किसी और पर ज़ाहिर नहीं होने दिया। हां, शक की गिरफ़्त में वे भी आई थीं।
ऐसा ही इलाज बी.डी.ओ. का किया जा सकता था। लेकिन इसमें पहली दिक़्कत उनके घर की स्थिति के कारण थी। जीराकोट जिस पहाड़ी पर बसा था, वह आदमी की तोंद की तरह थी। वहां से डामर की सड़क दिखाई नहीं देती थी। लेकिन नदी साफ़ नज़र आती थी। तोंद का आगे निकला हुआ हिस्सा गांव का मैदान था। उस जगह स्कूल था और कुछ घर थे। बाकी घर पहाड़ी पर अलग-थलग और छिटके पड़े थे। कोई चोटी पर था तो कोई मैदान से नीचे के ढलाव में। जहां भी थोड़ा चौड़ी जगह थी, वहीं घर बना लिए गए थे। आसपास ऊंची-नीची जगहों पर लोगों के खेत थे। संयोग से गांव में पानी पर्याप्त था और इन खेतों में ज़्यादातर सब्जियां उगाई जाती थीं। बी.डी.ओ. का घर मैदान से थोड़ा ऊपर और गांव के सबसे आखिरी छोर पर था। उसके दूसरी तरफ़ जंगल लग जाता था। वहां वन विभाग ने कंटीले तारों की बाड़ लगा रखी थी। बी.डी.ओ. के घर जाने के लिए मैदान वाले रास्ते से थोड़ा-सा चढ़ना पड़ता था। अन्यथा छोटी पगडंडी पकड़नी होती थी, जो उनके घर के पिछवाड़े खत्म हो जाती। जहां से खड़ी उतराई में उनका घर था। पगडंडी गांव के मैदान से थोड़ा ऊपर चढ़ कर शुरू होती और यहां तक आती थी। पगडंडी के नीचे या बराबर में भी कुछ घर थे। ऊपर केवल कुछ सीढ़ीनुमा खेत थे। थोड़ा ऊपर चले जाने पर बी.डी.ओ. साहब के घर के बराबर से चले आ रहे कंटीले तार मिल जाते थे। अगर वे तीनों पथराव करके भागतीं तो अपने घर की ओर लौटना उसी पगडंडी से पड़ता। इसमें पकड़े जाने का ख़तरा था।
एक तकरीब और थी। ऊपर पहाड़ पर चढ़ जाओ। खेतों और जंगल की तरफ़। वहां से पथराव करो। उसमें जोखिम था। एक तो उस इलाक़े में रात को घुसना ख़तरे से खाली नहीं था। वहां अक्सर बाघ दिखाई देता था। दूसरा, बी.डी.ओ. साहब के घर में तीन सेल का टॉर्च तो था ही, उनकी छत पर एक सर्च लाइट जैसा तेज़ रोशनी वाला बल्ब भी लगा था। वह बल्ब था या कुछ और, लड़कियों को ठीक से पता नहीं था। लेकिन लोग उसे सर्च लाइट कहते थे। बी.डी.ओ. साहब उसे तभी जलाते जब गांव में बाघ देखे जाने की ख़बर हो। इसके अलावा जब दीपावली पर उनके परिवार के लोग गांव आते। पथराव होने पर वे सर्च लाइट जला सकते थे। तीसरा ख़तरा यह था कि गांव में दो रसूखदार लोगों के अलावा बी.डी.ओ. साहब ही थे जिनके घर बंदूक थी। उन्हें कभी किसी ने बंदूक चलाते तो नहीं देखा, लेकिन सर्दियों में वे धूप में बैठ कर कभी-कभी लाल मिर्च की तरह कारतूस सुखाने डाल देते थे और बैठे-बैठे बंदूक साफ़ करते थे। पर जिसने कभी बंदूक नहीं चलाई, वह चला तो सकता था।
एक रोज़ हुआ यों कि कांता की आमा (दादी) अपनी गुदड़ी लेकर धूप में बैठी थीं। कांता और उसके भाइयों की छुट्टी थी। वह भी छोटे भाई के साथ दादी के पास ज़मीन पर बैठी धूप सेंक रही थी। छोटे भाई के ऊपरी मसूढ़े से दांत के ऊपर एक और दांत निकल आया था। दादी ने नीचे वाला पुराना दांत हिला-हिला कर कुछ दिन पहले तोड़ दिया था। लेकिन ऊपर वाला दांत खाली जगह से हट कर निकला था और बहुत भद्दा लग रहा था।
दादी ने उसे अपने पास बुला कर उसके दांत को दबाते हुए कहा कि वह इसी तरह सुबह-शाम इसे धकेला करे। इससे दांत सही जगह पर पहुंच जाएगा। यह सुन कर कांता का सवाल था, “आमा, धकेलने से दांत नीचे कैसे पहुंच जाएगा ?”
“धकेलने से बड़े-बड़े पत्थर भी हिल जाते हैं।”
कांता को आश्चर्य हुआ। जिज्ञासा बढ़ गई, “अगर हम मकान को धकेलेंगे तो वह भी हिल जाएगा ?”
“हां, क्यों नहीं।” दादी ने उनींदे स्वर में कहा। उन्हें धूप में नींद का नशा छाने लगा था।
यह उसके लिए एकदम नई सूचना थी। दोपहर में उसने सारा क़िस्सा अपनी सहेलियों को बताया और सुझाव दिया कि अगर हम लोग सुबह-शाम बी.डी.ओ. का मकान धकेलें तो एक दिन वह लुढ़क कर नदी में चला जाएगा। यह बात बाकी दोनों को भी जंच गई। बी.डी.ओ. का घर पहाड़ के जिस कोने में था वहां से अगर उसे नीचे धकेलने की कल्पना की जाए तो ऐसा लगता था कि मकान सीधा नदी में जाकर गिरेगा। इस विचार से तीनों को बड़ी आत्म तुष्टि हुई। जैसे थोड़ी-सी मेहनत के बाद यह सब हो जाने वाला हो। उन्होंने आगे की कई और कल्पनाएं कर डालीं। मसलन, जब मकान लुढ़केगा तो नदी में सीधा खड़ा हो जाएगा या सिर के बल गिरेगा ? कहीं किसी पेड़ से या चट्टान से टकरा कर चकनाचूर तो नहीं हो जाएगा और नदी में उसका मलबा ही पहुंचे ? बी.डी.ओ. और उसकी घरवाली को भागने का मौका मिल पाएगा या वे भी मकान से साथ नदी में पहुंच जाएंगे ? उन्होंने बी.डी.ओ. की बंदूक, सर्च लाइट, टीवी वगैरह के बारे में भी सोचा। उन्होंने यह भी तय कर लिया था कि अगर बंदूक उनके हाथ लग गई तो वे उसे गड्ढे में दबा कर रख लेंगी और कभी-कभी जंगल में जाकर चलाएंगी। फिर तो बाघ का भी डर नहीं रहेगा। सोच-सोच कर वे काफ़ी खुश थीं। ऐसा लग रहा था जैसे आधा बदला चुका दिया हो।
तीनों लड़कियों को सुबह स्कूल जाने की हड़बड़ी में समय नहीं मिलता था। लेकिन शाम को अब वे टहलते हुए बी.डी.ओ. के घर की ओर निकल जातीं। ठीक अंधेरा होते वक्त बी.डी.ओ. और उनकी पत्नी सैर से लौटते। हाथ-मुंह धोते, चाय पीते और तब बी.डी.ओ. साहब तबला व उनकी पत्नी हारमोनियम लेकर बैठ जाते। यह उनका नियम था। दोनों कोई न कोई राग छेड़ देते। कभी भजन या कोई पुराना फिल्मी गाना ही सही। दोनों रिटायर हो चुके थे। जब गांव की औरतें शाम को पूजा-आरती कर रही होतीं या खाने की तैयारी करने लगतीं और बच्चे व बूढ़े आग ताप रहे होते तब वे घंटे भर इसी तरह गाते-बजाते।
ठीक इसी वक़्त, चूंकि वे दोनों व्यस्त रहते और शाम का झुटपुटा हो चुका होता, तीनों लड़कियां बी.डी.ओ. के घर के पिछले हिस्से में पहुंच कर उनकी दीवार को पांच-सात मिनट पूरा ज़ोर लगा कर ठेलतीं। उन्हें यक़ीन होने लगा था कि घर अवश्य हिल रहा है और एक दिन ढह कर नदी में चला जाएगा।
कई महीनों तक यह क्रम चलता रहा। कभी-कभी नागा भी हो जाता। अगले दिन वे कुछ ज़्यादा देर तक दीवार धकेलतीं और पहले दिन की कसर पूरी कर देने से उन्हें तसल्ली होती। किसी को अभी तक उनके इस नए कारनामे की भनक नहीं लगी थी। लड़कियां खुश थीं और पूरे समर्पण के साथ अपना काम कर रही थीं। इस तरह सर्दियां बीत गईं। गर्मी आई और वह भी बीतने वाली थी। जून के अंत की बात है। पहाड़ों में इस दौरान बारिश शुरू हो जाती है। हालांकि इस बार अभी तक बारिश नहीं हुई थी। गर्मी की छुट्टी में शहर से बी.डी.ओ. साहब का पोता धनंजय, जिसे वे धानू कहते थे, गांव आया हुआ था। कुछ साल पहले तक धानू और उसकी बहिन अपने माता-पिता के साथ अक्सर दीपावली पर या गर्मी की छुट्टियों में गांव आते थे। फिर बच्चों की पढ़ाई और माता-पिता की व्यस्तता के कारण धीरे-धीरे उनका गांव आना कम हो गया। इस बार पोते ने ज़िद की थी और वह अकेला ही चला आया था।
धानू अठारह-उन्नीस साल का था। पिछले सत्र में उसने दिल्ली के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश लिया था। धानू कभी-कभी शाम के वक़्त अकेला ही घूमने निकल जाता। वरना दादी-दादी के साथ किसी न किसी काम में और कभी पढ़ाई में व्यस्त रहता। पहले दिन जब वह गांव में निकला तो कुछ लोग उसे देख कर चौंके। लेकिन एकाध दिन में ही सब को ख़बर हो गई कि वह बी.डी.ओ. साहब का पोता है। उन तीन लड़कियों को भी पता चल गया था। वे अब शाम के वक़्त सतर्क होकर बी.डी.ओ. के घर के पिछवाड़े जातीं और अपना काम कर चुपचाप लौट आतीं। धानू का कमरा घर की उत्तर दिशा में था। उसी दिशा में एक खिड़की खुलती थी। वह शाम के वक्त उन लड़कियों को अपने घर की तरफ़ आते और कुछ देर में लौटते हुए देखा करता था। उसे लगता था, लड़कियां यूं ही टहलने आती होंगी।
अभी धानू को आये चार दिन ही हुए थे कि एक रात पगडंडी के रास्ते में पड़ने वाले सोहन त्रिपाठी के घर में आग लग गई। त्रिपाठी परिवार उसी दिन किसी रिश्तेदार के घर शादी में गया हुआ था। घर बंद था। गांव वालों ने पानी डाल कर आग बुझा दी। लेकिन लोगों ने लड़कियों को आग लगने से कुछ देर पहले वहां से गुज़रते हुए देख लिया था। लड़कियां चूंकि शरारतों के लिए बदनाम थीं और कई दिन से पगडंडी के आखिरी छोर तक जाती हुई देखी गई थीं, इसलिए यह माना गया कि आग उन्हीं ने लगाई।
मौसम ठीक था। हवाओं की गुंडई इन दिनों उतार पर थी। आग बुझाने के बाद लोग गांव के खुले मैदान में खड़े थे और लड़कियों की शरारतों से तंग आ चुकने की चर्चा कर रहे थे। लड़कियां आग लगाने से साफ़ इनकार कर रही थीं। चूंकि वे रोने की जगह ऐंठ रही थीं, इसलिए कोई उन पर भरोसा नहीं कर रहा था। खुद उनके घर वाले उन्हें सबके सामने पीट-पाट चुके थे। तभी, बीडीओ साहब भी चले आए। उनके साथ उनका पोता भी था। आते ही बी.डी.ओ. ने कहा, “देखो, मानते हैं कि लड़कियां शरारती हैं। मैं खुद इनकी शरारतें देख चुका। लेकिन ये आग लगाने का काम नहीं कर सकतीं।”
लोग चौंके। बी.डी.ओ. साहब यह क्या कह रहे हैं। लड़कियों को भी आश्चर्य हुआ। गांव के एक बुजुर्ग ने कहा, “आप नहीं जानते बी.डी.ओ. साहब, इन लड़कियों ने नाक में दम कर रखा है। इनके अलावा कोई हो ही नहीं सकता।”
“देखिए आग या तो शॉर्ट सर्किट से लगी होगी या घर में कोई दीया वगैरह जला रह गया होगा।” उन्होंने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा।
“आपको इतना भरोसा कैसे है कि आग लड़कियों ने नहीं लगाई ?” किसी और ने पूछा। बी.डी.ओ. ने बताया कि लड़कियां इस हद तक नहीं जा सकतीं। फिर उनके पोते ने अपनी आंखों से देखा है। ये तीनों त्रिपाठी जी के घर के पास से निकलीं जरूर, पर वहां पर रुकी नहीं। उन्होंने घर की तरफ़ देखा तक नहीं।
लड़कियां हैरान रह गईं। बी.डी.ओ. साहब इतनी मजबूती से उनका पक्ष ले रहे हैं ? उनका पोता भी उनके पक्ष में गवाही दे रहा है ? बी.डी.ओ. की बातें सुन कर सब लोग आपस में खुसर-पुसर करने लगे। तीनों लड़कियों के परिवार के लोगों ने राहत की सांस ली। उनमें थोड़ा हिम्मत आ गई थी। कहने लगे कि लड़कियां शरारती ज़रूर हैं, लेकिन हर बात का दोष इन्हीं के सिर मढ़ना ठीक नहीं। शरारत करना अलग बात है और आग लगाना और बात।
थोड़ी देर की बक-झक के बाद क़िस्सा ख़त्म हुआ। लड़कियां अपने-अपने घर चली गईं। लेकिन तीनों की समझ में नहीं आ रहा था कि इतने खड़ूस लोगों का हृदय परिवर्तन कैसे हो गया। फिर इतने बड़े गांव में केवल वही लोग उन्हें बचाने के लिए सामने आए जिनका घर वे ढहा देना चाहती हैं?
इसके अगले दिन लड़कियों में भी एक अजीब-सा बदलाव देखा गया। जैसे रोतोंरात सयानी हो गई हों। बात-बात में धानू की तारीफ़ करतीं। उसका डील-डौल, उसके कपड़े, उसका इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ना। उसके परिवार की पृष्ठभूमि, शिक्षा। उफ्। क्या नहीं था उसमें। हर खूबी। कितना अच्छा। तीनों के मन में एक साथ कोई कोमल-सा अंकुर सरसरा कर फूट रहा था। एकदम पहला-पहला और ताज़ा अंकुर। उन्हें एक-दूसरे से कोई ईर्ष्या नहीं थी। पूरे गांव में किसी से कोई शिकायत नहीं रह गई थी। चारों तरफ़ सब कुछ अच्छा-अच्छा सा। मन में इंद्रधनुष-सा खिंच गया था। जीराकोट सतरंगी हो गया था।
शाम को धानू अपनी खिड़की के पास बैठा पढ़ रहा था। ज्यों-ज्यों शाम घिरने लगी बार-बार उसके मन में एक ही विचार आता कि लड़कियां टहलने के लिए उस तरफ़ क्यों नहीं आई होंगी ? कहीं कल की घटना के बाद उनका घर से निकलना बंद तो नहीं कर दिया गया ? पर लड़कियां असल में आज जान-बूझ कर देर कर रही थीं। स्कूल में छुट्टी थी। वे तीनों जंगल की तरफ़ निकल गईं और वहां बांज के पेड़ के नीचे बैठ कर उन्होंने धानू के बारे में दिल खोल कर बात की। उसके बाद उनका घर ढहाने की अपनी कोशिशों पर भी गंभीर मंथन किया था। वह उनकी मंथन करने और योजनाएं बनाने की प्रिय जगह थी। तीनों को लगता था कि अगर अब वे बी.डी.ओ. के घर की दीवार को धकेलना बंद भी कर दें तो मकान अब तक हिल चुका होगा। बारिश शुरू होते ही धँसक जाएगा और नदी में चला जाएगा। बी.डी.ओ. और उनकी पत्नी का मकान के साथ नदी में चले जाना तय है। और अगर बरसात शुरू होने तक यह धानू यहीं रह गया तो बेमौत मारा जाएगा। इतने अच्छे लोग और ऐसा अंत ?
शाम घिर आई। जब धानू के दादा-दादी तबले और हारमोनियम पर गाने-बजाने लगे और लड़कियों के आने का वक्त निकल गया तो उसने खिड़की बंद कर दी। वह बिस्तर पर लेट कर पढ़ने लगा। तभी उसे घर के बाहर कोई आहट-सी सुनाई दी। मन में एक ही ख्याल आया कि बाघ न हो। उसने दूसरे कमरे में जाकर दीवार पर टंगी दादा जी की बंदूक उठाई, टार्च उठाया और बाहर निकल आया। हालांकि बंदूक को छूने की मनाही थी। फिर भी उसे लोड कर उसने कंधे पर टांग लिया और टार्च की रोशनी इधर-उधर फेंकने लगा।
तीनों लड़कियां आज घर के अगले हिस्से में पहुंची हुई थीं। लड़कियों को भी उसके कदमों की आहट सुनाई पड़ गई। वे तीनों भाग कर घर के पिछवाड़े छिप गईं। धानू ने चारों तरफ़ टॉर्च की रोशनी डाली पर कुछ दिखाई नहीं दिया। वह लौटने लगा कि तभी उसे पीछे की तरफ़ कुछ गिरने की आवाज़ सुनाई दी। वह सतर्क हो गया। असल में बी.डी.ओ. के घर से पगडंडी की ऊंचाई करीब पंद्रह फुट थी। कांता और नीता तेज़ी से पगडंडी पर चढ़ गई थीं। सबसे पीछे तारा थी। जब वह चढ़ने लगी तो फिसल कर नीचे आ गई। उसके हाथ से पांच लीटर का एक खाली कैन छिटक कर नीचे गिरा था। जिसकी आवाज़ से धानू चौंक गया था।
धानू ने टॉर्च वहीं ज़मीन पर रख दी और दोनों हाथों से बंदूक ताने आगे बढ़ने लगा। अगर घर के पिछवाड़े बाघ हुआ तो हमला कर सकता था। तभी उसने देखा हाथ में कुछ थामे दो साये पगडंडी की तरफ़ भाग रहे हैं। इधर-उधर देखा तो तीसरा साया वहीं ज़मीन पर गिरा था। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ा और उस साये के सिर पर बंदूक तान दी। जब ग़ौर से देखा तो हैरान रह गया। वह तारा थी। लड़की के पास में ही एक पांच लीटर का कैन ज़मीन पर गिरा पड़ा था। उसका दिमाग़ तेज़ी से सोहन त्रिपाठी के घर लगी आग की तरफ़ गया। उसे विश्वास हो गया कि बाकी दो साये इसकी सहेलियां रही होंगी। फिर तो उस घर में इन्हीं लड़कियों ने आग लगाई होगी। शायद आज ये उनके घर में भी तेल छिड़क कर आग लगाने आई थीं। ग़ुस्से और घृणा से उसके रोंगटे खड़े हो गए। मन किया घोड़ा दबा दे। तारा ज्योंही संभल कर उठी, धानू ने उसे बंदूक की नली से ठेल कर दीवार के सहारे खड़ा कर दिया। वह बुरी तरह डर गई। धानू चिल्लाया, “हमारा घर फूंकने आए थे ?”
“हम तो पानी डालने आए थे।”—तारा ने अपना डर छुपाते हुए बड़े ही निर्विकार भाव से कहा।
“चुप,” धानू ने उसे डांटा, “आग लगी नहीं और तुम पानी डालने आ गए थे ? झूठ बोलेगी तो गोली मार दूंगा।”
तारा डरी हुई तो थी, लेकिन हिम्मत नहीं हारना चाहती थी। कहने लगी वह डरती नहीं। धानू चाहे तो गोली मार ले। धानू ने पूछा कि उन्होंने मिट्टी का तेल क्यों छिड़का ? तारा ने बताया कि कैन में मिट्टी का तेल नहीं, पानी था। उसने कैन उठा कर उसके तले में बचा पानी अपने हलक में उतार लिया, “देख ले, क्या है ?”
पहले तो टॉर्च की रोशनी से उसकी आंखें चुंधियाई हुई थीं। अब उसे अंधेरे में सब कुछ साफ़ दिखाई देने लगा था। तारा को कैन का पानी पीते देख कर धानू को हैरानी हुई। ये लोग उनके घर में पानी डालने क्यों आई होंगी भला ? रहस्य और गहरा गया था। उसने तारा की गरदन पर बंदूक की नली का दबाव डालते हुए धमकाया, “अब सच-सच बता दे, तुम लोग क्या करने आए थे, वरना मुझे ग़ुस्सा आ जाएगा। ”
अब तक तारा को भरोसा हो गया था कि धानू उसे गोली नहीं मारने जा रहा। उसने धौंस दी कि गुस्सा आ जाएगा तो वह क्या कर लेगा ? धानू को लग गया कि वह डरने वाली नहीं है। उसने बंदूक दीवार के सहारे खड़ी कर दी, “चल ठीक है, अब बता कि तुम लोग क्या करने आए थे ?” तारा अब भी मुंह खोलने को तैयार नहीं थी। धानू ने बाएं हाथ से उसकी गरदन दबोच ली और अपना चेहरा उसके एकदम करीब लाते हुए बोला, “बता दे।”
तारा घबरा गई , “पहले थोड़ा दूर से बात कर।”
“दूर ही हूं।” उसने झेंप कर तारा का गला छोड़ दिया और एक कदम पीछे हट गया। कहने लगा, “देख, बिना पूरी बात जाने तो तुझे छोड़ने वाला नहीं हूं।”
तारा ने उसकी दादी के थप्पड़ मारने से शुरू कर सारा क़िस्सा कह सुनाया। उसने यह भी बताया कि जब उसने और उसके दादा जी ने उन्हें बचाया तो उन लोगों को बहुत अफससोस हुआ। इसी के बाद उन्होंने घर को उल्टी तरफ़ धकेलने का फैसला किया। धानू ने पानी के कैन साथ लाने के बारे में पूछा तो तारा ने बताया, “मकान की जड़ को गीला करके धकेल रहे थे, ताकि जल्दी अपनी जगह पर आ जाए।”
धानू का हँससे-हँसते बुरा हाल हो गया। तारा अंधेरे में आँखें फाड़े उसे देख रही थी। उसी वक़्त बी.डी.ओ. और उनकी पत्नी का गाना बंद हो गया। उधर ऊपर पगडंडी पर खड़ी तारा और कांता घबराई हुई थीं और लगातार घुघुत (फाख्ता) की आवाज़ में सीटी बजा रही थीं। अब उनकी सीटी साफ़ -साफ सुनाई देने लगी थी। धानू ने उसे धकेलते हुए कहा, “चल जा, तेरी सहेलियां बुला रही हैं। दादा-दादी का गाना भी बंद हो गया।”
जब वह चढ़ने लगी तो धानू ने पास में रखी टॉर्च की रोशनी दिखाते हुए कहा, “संभल कर जाना पागल लड़की। फिर से गिरना मत।”
जब वह पगडंडी पर पहुंच गई तो उसने ज़ोर से कहा, “डफ़र कहीं की…यूजलेस लड़कियां।”
अचानक ही तारा के प्रति एक अजीब सा आकर्षण और लगाव उसके अंदर पैदा हो गया था।
“चल बदतमीज़ !” कह कर तारा ऊपर से चिल्लाई। वह मुस्कराया। जब तक वह ओझल नहीं हो गई वह उसे टॉर्च दिखाता रहा।
रात की घटना पर बात करने के लिए अगले दिन तीनों फिर से जंगल में उसी बांज के पेड़ के नीचे पहुंच गईं। धानू का ‘पागल लड़की’ कहना, टॉर्च दिखाना और संभल कर जाने की हिदायत देना बड़ा सुखद था। इतना अच्छा लड़का इतनी बुरी मानी जाने वाली लड़कियों से इस तरह पेश आए। मन में फुरफुरी-सी होती थी। तारा का मन कभी उसके सीने पर सिर रख कर सोने को करता तो कभी रोने को। नीता और कांता ने उसकी पलकों के झपकने से उसके सपने को ताड़ गई थीं। उन्होंने तारा को छेड़ा भी।
लेकिन बार-बार मामला ‘डफ़र’ और ‘यूजलेस लड़कियां’ पर अटका जा रहा था। आखिर उसने यह सब क्यों कहा ? ये शब्द तारा को रात भर मथते रहे। पहले तो उसे लगा कि यह भी कोई अपनेपन के साथ कही गई बात होगी। लेकिन रात में ही उसने डिक्शनरी में ‘डफ़र’ का अर्थ देखा था। स्पष्ट था कि धानू का आशय ‘मूर्ख’ से था। यह शब्द थोड़ा आपत्तिजनक तो था लेकिन इतना भी नहीं। उन्हें लगता था, यह उसकी झिड़की थी। सिर्फ़ झिड़की। वे ‘डफ़र’ को बर्दाश्त करने के लिए तैयार हो गई थीं। लेकिन ‘यूजलेस’ का मतलब समझ में नहीं आ रहा था। डिक्शनरी में इसका मतलब ‘व्यर्थ’ और ‘बेकार’ लिखा गया था। अंततः वे ‘यूजलेस’ का मतलब पूछने अपनी अंग्रेजी की टीचर के घर पहुंच गईं। टीचर ने पूरा वाक्य पूछते हुए उन्हें बताया कि शब्दों का अर्थ वाक्यों के मुताबिक निकाला और समझा जाना चाहिए। लड़कियों ने बताया कि किसी ने उन्हें ‘यूजलेस लड़कियां’ कहा। पहले तो टीचर को हँसी आ गई। फिर उसने बताया कि इसका मतलब तो ‘फ़ालतू, रद्दी, बेकार या निकम्मी लड़कियां’ है।
तारा को लगा वह उड़ते-उड़ते हवा से टकरा कर गिर पड़ी। कांता और नीता भी बुझ गई थीं। वे तीनों टीचर के घर के पास एक टीले पर बैठ गईं। खामोश। आखिर उसने समझा क्या है ? हम बेकार, रद्दी, निकम्मी और फ़ालतू हैं ? कांता ने कहा। तारा ने ‘यूजलेस’ शब्द को बुदबुदाते हुए दोहराया।
उन्हें टीचर के हँसने पर भी ग़ुस्सा आ रहा था। क्या वह भी हमें यूजलेस समझती है ? वे काफ़ी उदास हो गई थीं। कुछ भी बोलने का मन नहीं कर रहा था। ऐसा लगता था, उस नए-नवेले अंकुर को, जिसके सिर पर अभी बीज की उल्टी टोपी लगी थी, पाला मार गया। टीले के पास अखरोट के पेड़ में पीले पेट वाली छोटी-सी चिड़िया चुन-चुन करती हुई लगातार चँहक रही थी। तारा को ग़ुस्सा आया और उसने एक पत्थर उठा कर चिड़िया की तरफ़ उछाल दिया। चिड़िया चिर्र करती हुई भाग गई।
यह उनके जीवन का सबसे दुखदायी क्षण था। ‘यूजलेस’ शब्द उन्हें गांव वालों के आवारा, गंदी, बदमाश, शरारती, मूर्ख और जंगली जैसे संबोधनों से अधिक चुभ रहा था। इतना क्यों चुभ रहा है, वे खुद भी नहीं जानती थीं। यही दुखदायी क्षण अंततः उनके जीवन का निर्णायक क्षण बना। तीनों ने तय किया कि इस घमंडी लड़के को तो दिखाना है।
दिखा कर रहना है।
क्या दिखाना है ? क्या करेंगी वे, उन्होंने पहली बार इस पर आपस में कोई सलाह-मशविरा नहीं किया। संभव है उन्हें खुद भी पता न हो कि वे क्या करेंगी। उन्होंने इस तरह तो कभी सोचा ही नहीं था। बस, धानू ने ‘यूजलेस’ कह कर बहुत निराश किया था। इसे वे भूल नहीं पा रही थीं।
सूरज ढल रहा था। तीनों ने डूबते सूरज को देखा। शायद मन ही मन कोई संकल्प लिया कि जाने क्या हुआ, वे पगडंडी पर चढ़ कर धानू के घर की ओर बढ़ने लगीं। उतने की मंद चाल में जितना उस दिन बैल चल रहा था। जब वे लोग बी.डी.ओ. के घर के पास पहुंची, अंधेरा घिर आया था। बी.डी.ओ. के घर से उनकी पत्नी का स्वर सुनाई दे रहा था— मन तड़पत हरि दर्शन को आज…। तीनों ठिठक गईं और ग़ुस्से से उनके घर की ओर देखती रहीं। जो असल में, उनकी नज़र में धानू का घर था। उनके घर की ओर मुंह करके तारा ने अचानक ‘मन तड़पत’ की तर्ज पर ‘मन में है विश्वास’ गाना शुरू कर दिया। उसकी देखादेखी कांता और नीता भी पूरे जोश में गाने लगीं ‘पूरा है विश्वास…।’
गाते-गाते तीनों रोने लगी थीं।
*
प्रोफेशनल्स की सोशल नेटवर्किंग साइट ‘लिंक्डइन’ में इन दिनों बहुत सारे लोग तारा सती की प्रोफाइल देख रहे थे। लेकिन धनंजय को इस तारा सती की वजह से नौ साल पहले की तारा याद आ गई। याद्दाश्त पर बहुत ज़ोर देने पर अचानक माथा ठनका। जिस दिन सोहन त्रिपाठी के घर आग लगी थी, दादा जी ने घर लौट कर उन तीनों लड़कियों के बारे में दादी को बताया था। उन्होंने कहा था कि उनमें से एक लड़की बहादुर सिंह की थी, एक…। उसके पिता का नाम कोई सती ही बताया कि कुछ और। याद नहीं आ रहा। अब तो दादाजी भी नहीं हैं। जब उसकी इन लड़कियों से मुठभेड़ हुई थी, उसके अगले साल ही वे बीमार पड़ गए थे। पिताजी उन्हें इलाज के लिए दिल्ली ले आए। दादी भी साथ आ गई थीं। यहां दादा जी कुछ महीनों में ही गुज़र गए। दादी बीमार रहने लगीं। तीन साल बाद वह भी नहीं रहीं। तब से धनंजय का गांव जाना फिर कभी नहीं हुआ। वह कैसे जाने के उस तारा और उसकी सहेलियों का क्या हुआ।
तारा सती को लेकर बाकी लोगों की दिलचस्पी की दूसरी वजह थी। उसने अमेरिका के एक मशहूर विश्वविद्यालय से एम.एस. करने के बाद अभी हाल में बंगलुरू में एक नामी बहुराष्ट्रीय कंपनी ज्वाइन की थी। इंजीनियरिंग क्षेत्र में चर्चा उसके अविश्वसनीय पैकेज को लेकर है। थोड़ी देर पहले ही धनंजय के एक जूनियर ने तारा सती के बारे में एक चौंका देने वाली जानकारी दी। उसने बताया कि तारा आई.आई.टी. खड़गपुर में उसकी जूनियर थी। बाद में उसे कैंपस प्लेसमेंट मिला था। अच्छा पैकेज होने के बावजूद उसने महीने भर में नौकरी छोड़ कर एम.एस. करने का फैसला कर लिया था। उसने सिर्फ़ इस बात पर नौकरी छोड़ दी क्योंकि उसके इमीडिएट बॉस ने उसे और उसके दो सीनियर्स को एक प्रजेंटेशन में मामूली देरी के लिए ‘यूजलेस फेलोज’ कह दिया था।
हो सकता है, यह तारा सती वही तारा हो और इसकी सहेलियों भी दुनियावी भाषा में आज कामयाब हों। यानी नदी की तरह बहते-बहते बांध बना दी गई हों। तितलियों की तरह उड़ते-उड़ते हवा में टांग दी गई हों। यह भी हो सकता है कि जीराकोट की दूसरी लड़कियों की तरह दसवीं-बारहवीं तक पढ़ा कर उनकी भी शादी कर दी हो। हवा से घायल हुए उनके पंख फिर कभी खुले ही न हों। पता नहीं। असल में हर कामयाब आदमी की कोई न कोई कहानी होती है। अक्सर कहानी कामयाबी के बाद बनती है। पर यह कामयाबी के बाद गढ़ी गई कहानी तो है ही नहीं, कामयाबी की कहानी भी नहीं है। यह तो सिर्फ़ उन्हीं मुचि गई (हाथ से निकल गई) लड़कियों को खोजने की कोशिश है, जिन्हें धनंजय ने जीराकोट में देखा था। जिन्होंने एक-दूसरे को बीड़ी पीते देखा था। जो कभी किसी के हाथ आने वाली नहीं लगती थीं।
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आज शास्त्रीय संगीत की महान विभूति पंडित भीमसेन जोशी की जयंती है. इस अवसर पर संगीत अध्येता प्रवीण झा का यह सुन्दर आलेख पढ़िए- मॉडरेटर
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धारवाड़ में उस दिन उस्ताद विलायत ख़ान सितार बजा रहे थे, और रात भर का कार्यक्रम था। तब तक बंबई का वह विक्रमादित्य सम्मेलन हो चुका था; जिसमें सितार को विलायत ख़ान ने वह ऊँचाई दिलाई थी कि अब उसे भी गायकी के बराबर इज्जत मिलने लगी। और धारवाड़ तो खैर गायकी का गढ़ था, जहाँ एक सितार-वादक को यूँ रात भर सुनना आम न था। विलायत ख़ान बजाते रहे, और उंगलियों से रक्त बहने लगा। उन्होंने पट्टी बाँध कर सितार बजाना जारी रखा। लोग बीच-बीच में आ-जा रहे थे, लेकिन एक युवक अगली पांत में बैठ उछल-उछल कर वाह-वाह कर रहे थे। रात बीत गयी, न सितार रुका, न वह उत्साही युवक रुके। यह श्रोता कोई भी संगीत-रसिक हो सकता था, लेकिन यह रसिक की सीढ़ी से कहीं ऊँचे पायदान पर बैठे व्यक्ति थे। या शायद एक सम्पूर्ण रसिक ही सम्पूर्ण कलाकार भी बन सकता है? धारणा यह है कि सुर पर विजय ‘वोकल-ट्रेनिंग’ या रियाज से पायी जा सकती है; लेकिन छुपा विज्ञान शायद यह है कि सुर पर विजय ‘ईयर-ट्रेनिंग’ या श्रवण से अधिक पक्की संभव है? साहित्यकार संभवत: इस तर्क से साम्य बिठाए कि साहित्य में आगे बढ़ने का तरीका लिखने के अभ्यास से पहले पढ़ने के अभ्यास से है? पं. भीमसेन जोशी की ‘वोकल-ट्रेनिंग’ वर्षों के ‘ईयर-ट्रेनिंग’ के बाद शुरु हुई। इस बात के मेरे पास कई तर्क हैं, लेकिन फिलहाल यह कह दूँ कि धारवाड़ के वह अगली पांत के युवक भीमसेन जोशी थे।
अधिकतर ख़ानदानी घरानों में यह रिवाज रहा है कि छोटी उम्र से घंटो गवाया जाए। डागरों की परंपरा रही है कि ग्यारह सौ मनकों की माला लेकर बैठते, और एक हज़ार बार यह माला जपते हुए एक ही स्वर या स्वर-समूह गाते। इस कठिन ‘वोकल ट्रेनिंग’ से उनका अभ्यास पक्का होता जाता। इसे यूँ समझा जाए जैसे बच्चों को पहाड़े रटाना, और उसका गणित बाद में समझाना। कविता पहले रटाना और उसमें छुपा रस या भाव उम्र के साथ समझना। लेकिन यह अगर उल्टा किया जाए तो? अगर वर्षों तक बच्चा कविता सुनता रहे, भाव समझने का प्रयत्न करता रहे, और फिर जाकर छंद लिखने शुरु करे तो? यह रास्ता कठिन है, अपारंपरिक है, और कुछ हद तक अवैज्ञानिक भी। मेरा पहला कयास यह है कि पं. भीमसेन जोशी एक अवैज्ञानिक संगीतकार थे। यह सुनते ही संभवत: कई संगीत-अध्येता मुझे खारिज कर दें। लेकिन मैं बस यह कह रहा हूँ कि यह बस मेरा कयास है।
अब यह किंवदंती तो कई लोगों ने अलग-अलग तरह से सुनी होगी कि पं. भीमसेन जोशी ने एक चाय की दुकान पर अब्दुल करीम ख़ान की रिकॉर्डिंग सुनी- ‘फगवा बृज देखन को चल दी’ और पंडित जी भी घर छोड़ कर चल दिए। किसी ने यह भी जोड़ दिया कि घर में कुछ मामूली झगड़ा छेड़ दिया और भाग गए। लेकिन भाग कर वह अब्दुल करीम ख़ान या उनके शिष्यों के पास क्यों नहीं गए? आखिर सवाई गंधर्व तो उनके गाँव के पड़ोसी ही थे। यह तो साधारण तर्क है कि व्यक्ति को अगर वही गुरु चाहिए और गुरु पास ही है, तो वहीं जाएगा। फिर वह मध्य भारत या उत्तर भारत क्यों निकल गए? वह उस गायकी के स्रोत का पीछा शायद नहीं कर रहे थे, वह तो इस संगीत-जगत के भाव की तलाश में था। और वह बस धारवाड़ तक सीमित नहीं था। या यूँ कहिए कि वह यूँ गुरु के शिष्यों की पांती में बैठ कर टेक्स्टबुक रियाज करते जीवन गुजारने में संतुष्ट न हों। मैं भीमसेन जोशी जी के कई साक्षात्कार पढ़ और देख चुका, लेकिन यह प्रश्न अनुत्तरित ही रह गया।
पंडित जी ग्वालियर में उस्ताद हाफ़िज अली ख़ान (अमजद अली ख़ान के पिता) के पास पहुँचे। यह बात उस्ताद अमजद अली ख़ान को भी तभी पता चला जब पंडित जी ने बताया। लेकिन सोचिए। एक संभावी गायक भला सरोद-सुरशृंगार वादक के पास क्यों गये? उनसे आखिर कैसे गायकी की सीख मिलेगी? यह दरअसल ‘इयर-ट्रेनिंग’ थी। ऐसे ही कभी पहाड़ी सान्याल जैसे फ़िल्मी व्यक्ति के घर नौकर बन कर रहना, तो कभी जलंधर के ध्रुपदिए से सीखना, या इलाहाबाद के संन्यासी संगीतज्ञ भोलानाथ भट्ट को ढूँढ निकालना। यह सब अपारंपरिक है। इनमें कोई भी स्थापित खयाल गायक या गायकी घराने के उस्ताद नहीं थे। यह सब एक फक्कड़ जीवन का भटकाव कहिए, या अन्वेषण कहिए। लेकिन यह कहीं से भी पारंपरिक गंडा-बंधन कर गुरु-शिष्य परंपरा का निर्वाह तो नहीं ही थी। बिना किसी स्कूल में एडमिशन लिए ज्ञान-अर्जन करना कितना कठिन है? और उससे मिलेगा क्या? आप यह कड़ी जोड़ लें, उत्तर मिल जाएगा। उत्तर तो मिल ही जाएगा, दुनिया के सभी महान् व्यक्ति इसी कड़ी में मिल जाएँगे। अब तो खैर फ़िल्मी डायलॉग बन चुका- “सफलता के पीछे मत भागो….सफलता खुद-ब-खुद पीछे आ जाएगी।”
पुराने संस्मरणों को पढ़ कर यह भी स्पष्ट होता है कि पंडित जी के स्वर में शक्ति समय के साथ ही आई। पहाड़ी सान्याल ने जब बंबई में उनको सुना, उन्होंने पहचाना ही नहीं कि यह तो मेरे घर में कभी बेसुरा नौकर रह चुका है। यह परिवर्तन आखिर कैसे हो गया कि आज मैं इसकी गायकी पर झूम रहा हूँ। पंडित जी ने सुर पर ध्यान तभी देना प्रारंभ किया, जब उनकी भाव पर पकड़ हो गयी। और जब भाव पर पकड़ हो गयी, सुर खुद-ब-खुद पीछे चले आए। यह भाव गले से आए, तार से आए, मृदंग से आए, या अनाहत नाद से आए, सन्नाटे से आए। पंडित जी को मैंने करीब से देखा है, और उनके गायकी से पहले ही उनके चेहरे पर भाव आ जाते हैं। उनकी भृकुटी, उनकी आँखें, उनके होंठ, उनका गला सब भिन्न-भिन्न रसों के हिसाब से बदल जाते हैं। आप देख कर कह देंगे कि पंडित जी बसंत गाने वाले हैं या दीपक, बशर्तें कि हमें भी भाव की समझ हो। और जैसे-जैसे उनकी गायकी का भूमंडलाकरण होता जाएगा, स्वर खुल कर वातावरण में पसरते जाएँगे, उनकी भंगिमाएँ भी मुखर होती जाएगी। जैसे उस रस का एक इकोसिस्टम उस कमरे में तैयार हो गया हो। इसमें रागदारी ढूँढने वाले उनकी मीड से और गले की थरथराहट से कन्फ्यूज़ होते रहेंगे कि पंडित जी किस शैली में गा रहे हैं, बागेश्री का कौन सा अंग गा रहे हैं; रस ढूँढने वालों को पंडित जी स्पष्ट नजर आएँगे। मैं इस विवाद से ही यह लेख संपन्न करुँगा कि किराना घराना के इन विभूति को बस किराना से न बाँधिए। यह उन्हें एक दायरे और शैली में समेटना है; जबकि पंडितजी की गायकी ऐसे किसी पूर्व-स्थापित शैली में सीमित रही ही नहीं। न किसी परंपरा में, न किसी विज्ञान में। जो इन दायरों में फँसा, वह भीमसेन जोशी न बन सका।
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युवा लेखिका अनुकृति उपाध्याय का कथा-संग्रह हाल में आया है ‘जापानी सराय‘, जिसकी कहानियां हिंदी की मूल प्रकृति से बहुत भिन्न किस्म की हैं. पशु-पक्षियों के प्रति करुणासिक्त कहानियां भी हैं इसमें. यह शायद कम लोग जानते हैं कि अनुकृति वाइल्ड लाइफ के क्षेत्र में काम करती हैं. उनकी हाल की एक वन यात्रा का यह गद्य-विवरण प्रस्तुत है- मॉडरेटर
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ताडोबा के बाँस-वनों में हवा सो रही है। टीक, महुआ, तेंदू, इमली, बेहड़, सेमल वृक्षों के कंधों पर टिका आकाश क्षण क्षण उजला रहा है, श्याम से नील पड़ रहा है। उसके मरकत पर रक्त-चंदन और गोरोचन लिप गए हैं। लम्बी सूखी घास ताम्बई कौंध रही है। ताडोबा लेक के जेड-वर्णी जल में उजाले के डले घुल रहे हैं। मोहर्ली और ज़री और नवेगाँव और कोलरा के प्रवेश द्वारों पर की हलचल के बाद यहाँ जंगल के भीतर निविड़ शांति है। जल-घास की सरसराहट और पंछियों के परों की फड़कन तक सुनाई देती है। ठूँठ पर पंख फुलाए, गर्दन टेढ़ी किए बैठा सर्पेंट ईगल सहसा ऊँचे फ़ॉल्सेटो सुर में गा उठता है। अधसोए वन- पर्यटक आँखों से भोर-पूर्व की जगार का अवसाद झाड़ कर चेतते हैं। दूरबीनें और गाइड की दूरबीन से भी बेहतर आँखें घास-मैदान, बाँस के खोंपों और वृक्षों के झुरमुटों पर सध गई हैं। तालाब के जल-भींजे तट पर धनुषाकार पीठ झुकाए काले आईबिस और लंब-चोंचे इंडीयन स्पूनबिल तनिक थमक कर फिर चरने लगे हैं। बत्तख़ों के दल दर्पण से शांत जल पर निर्द्व्न्द्व तिरते रहते हैं किंतु और बगले निश्चल खड़े रहते हैं। ताल के उस पार लहरती घास पर हिरनों के दल छपे हैं। उनके बीच एक वराह धरती खूँद रहा है। गहरी सलेटी पीठ पर कड़े बालों की पाँत, थूथन के अगल बग़ल निकले हँसिए से दाँत, नाटी कड़ियल टाँगें।
कल निकट के गाँव में किसान ने कहा था –
वाघ या बिबट्या का इतना भय नहीं जितना डुक्कर का।
व्याघ्र और तेंदुए से अधिक जंगली सुअर का डर?
हाँ, फ़सल उजाड़ देते हैं, दाँत से फफेड़ कर मार डालते हैं रानडुक्कर।
रात भर जागता है कृषक और आधी घड़ी की नींद का मूल्य महीनों की मेहनत। पूस की रात अस्सी-पिच्चासी सालों में बीती नहीं है।
अचानक झाड़ियों से चीतल आर्त स्वर में पुकारता है, जैसे मोरचंग का टंकार। लंगूरों का दल डालियाँ झकझोरता फुनगियों पर टँक गया है। हिरन कनौतियाँ चढ़ाए स्तब्ध हैं। रोमांच से शरीर कँटीले हो रहे हैं, चेहरों पर उदग्रता उगी है। कॉल चल रहा है! टाइगर! यहीं कहीं आस-पास! सरग़ोश स्वरों में बतकही। गाइड और प्रकृतिविद हाथों और आँखों से इंगित कर रहे हैं।
पिछले हफ़्ते वाघ गायी ले गया था, किसान ने कहा था। सरकार का मुआवज़ा आएगा तब दूसरी ख़रीदी जाएगी।
बाघ अक़्सर गाएँ ले जाता है?
जंगली जीव है, शिकारी है, ले जाता है।
तुम्हें ग़ुस्सा नहीं आता वाघ पर?
क्रोध? किसलिए? भूखा था, ले गया। सरकार पैसे दे देती है। ताडोबा जैसे हमारे रक्षक, वैसे वाघ के।
जंगल के बेटे हैं किसान और बाघ। हम सुख-सुविधा-अभ्यस्त नागर नहीं, रूखी सूखी धरती कुरेद कर बमुश्क़िल खाने लायक़ अन्न उगा पाने वाला किसान बाघ का संरक्षक है। उसकी सहिष्णुता के चलते ताडोबा के सुरक्षित वन-संकुल में सड़सठ बाघ हैं और वन के बाहर बफ़र ज़ोन के छितरे जंगलों, खेतों और चरागाहों में चवालीस। आए दिन तेंदुए और चीते पशु उठा ले जाते हैं और वह संतोष कर लेता है कि भूखा जीव ले गया। जंगलों की तराश जैसे गाँव-घर, हार-खेत, झाड़-बनी पर मनुष्य और जानवरों दोनों का अधिकार है। किसे बेदख़ल किया जाए?
आह्ह! एक समवेत साँस गूँजती है। एक साथ कई नथुने फ़ॉल्ट्स हैं, कई छातियाँ फूलती हैं। बाघ! वाघ! टाइगर! लुक, देयर! लम्बी घास में पहले एक जोड़ा पीली-भूरी अवर्णननीय आँखें, फिर निःशब्द गुर्राहट में खिंचा, नुकीले दाँत झलकाता भीषण मुँह और आख़िर में बलखाती धारियों वाला शक्ति-पुंज सा शरीर, मानो हमारे देखने से ही, हमारी आँखों के सामने ही बनता, हमारी मूर्तिमान भयंकर-मनोहर कल्पना। टाइगर!
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आजादी की लड़ाई के दौरान क्रांतिकारी संगठन का हिस्सा रहे मन्मथनाथ गुप्त हिंदी के लेखक भी थे और उन्होंने खूब लिखा, अनेक विधाओं में लिखा. कल यानी 7 फ़रवरी को उनकी जयंती थी. उनको याद करते हुए नवीन शर्मा का यह लेख- मॉडरेटर
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आमतौर पर बंदूक व कलम को दो विपरीत ध्रुव मानी जाती हैं। इन दोनों से ही तालमेल बना कर जिस व्यक्तित्व का निर्माण होता है वो अलहदा होता है। मन्मथनाथ गुप्त भी इस तरह के बेमिसाल व्यक्ति थे जो यह करिश्मा कर पाए। क्रांतिकारी और लेखक मन्मथनाथ गुप्त का जन्म 7 फरवरी 1908 को वाराणसी में हुआ था। उनके पिता वीरेश्वर विराटनगर (नेपाल) के स्कूल के हेडमास्टर थे। इसलिए मन्मथनाथ ने भी दो वर्ष वहीं शिक्षा पाई। बाद में वे वाराणसी आ गए। बहिष्कार का पर्चा बांटते पकड़े गए, जेल गए उस समय के राजनीतिक वातावरण का प्रभाव उन पर भी पड़ा और 1921 में महज 13 वर्ष की आयु में ब्रिटेन के युवराज के बहिष्कार का नोटिस बांटते हुए गिरफ्तार कर लिए गए और तीन महीने की सजा हो गई। जेल से छूटने पर उन्होंने काशी विद्यापीठ में प्रवेश लिया और वहाँ से विशारद की परीक्षा उत्तीर्ण की। तभी उनका संपर्क क्रांतिकारियों से हुआ और मन्मथ पूर्णरूप से क्रांतिकारी बन गए। काकोरी कांड के हीरो वे हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के सक्रिय सदस्य भी बने । क्रान्तिकारियों द्वारा चलाए जा रहे आजादी के आन्दोलन को गति देने के लिये धन की तत्काल व्यवस्था की जरूरत के मद्देनजर शाहजहाँपुर में हुई बैठक के दौरान राम प्रसाद बिस्मिल ने अंग्रेजी सरकार का खजाना लूटने की योजना बनाई थी। इस योजनानुसार दल के ही एक प्रमुख सदस्य राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने 9 अगस्त 1925 को लखनऊ जिले के काकोरी रेलवे स्टेशन से छूटी “आठ डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेन्जर ट्रेन” को चेन खींच कर रोका और क्रान्तिकारी पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफाक उल्ला खाँ, पण्डित चन्द्रशेखर आज़ाद व 6 अन्य सहयोगियों की मदद से समूची ट्रेन पर धावा बोलते हुए सरकारी खजाना लूट लिया। 8 अगस्त को राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ के घर पर हुई एक इमर्जेन्सी मीटिंग में निर्णय लेकर योजना बनी और अगले ही दिन 9 अगस्त 1925 को शाहजहाँपुर शहर के रेलवे स्टेशन से बिस्मिल के नेतृत्व में कुल 10 लोग, जिनमें शाहजहाँपुर से बिस्मिल के अतिरिक्त अशफाक उल्ला खाँ, मुरारी शर्मा तथा बनवारी लाल, बंगाल से राजेन्द्र लाहिडी, शचीन्द्रनाथ बख्शी तथा केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), बनारस से चन्द्रशेखर आजाद तथा मन्मथनाथ गुप्त एवं औरैया से अकेले मुकुन्दी लाल शामिल थे; 8 डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर रेलगाड़ी में सवार हुए। ट्रेन रोककर ब्रिटिश सरकार का खजाना लूटने वाले 10 व्यक्तियों में वे भी सम्मिलित थे। इसके बाद गिरफ्तार हुए, मुकदमा चला और 14 वर्ष के कारावास की सजा हो गई। साहित्य रचना में मनोविश्लेषण पर जोर मनोविश्लेषण में आपकी काफ़ी रुचि रही है। आपके कथा-साहित्य और समीक्षा दोनों में ही मनोविश्लेषण के सिद्धांतों का आधार ग्रहण किया गया है। काम से संबंधित आपकी कई कृतियाँ भी हैं, जिनमें से ‘सेक्स का प्रभाव’ (प्रकाशन वर्ष: 1946 ई.) विशेष रूप से उल्लेखनीय है। बाद में वे भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से भी सम्बद्ध रहे और आजकल पत्रिका का सम्पादन किया। भारत और विश्व साहित्य संगोष्ठी में शिरकत विज्ञान भवन, नई दिल्ली में “भारत और विश्व साहित्य पर प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी” में मन्मथनाथ गुप्त भी उपस्थित थे। एक भारतीय प्रतिनिधि ने जब उनके नेता राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ पर कलम और पिस्तौल के पुरोधा – पं० रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ शीर्षक से एक शोधपत्र प्रस्तुत किया तो मन्मथ जी बहुत खुश हुए और उन्होंने उसे शाबाशी देते हुए कहा – “क्रान्त जी ने तो आज साहित्यकारों की संसद में भगत सिंह की तरह विस्फोट कर दिया!” साहित्यिक अवदान गुप्त जी ने साहित्य की विभिन्न विधाओं में लिखा है। इनके प्रकाशित ग्रन्थों की संख्या 80 के लगभग है। कथा साहित्य और समीक्षा के क्षेत्र में आपका कार्य विशेष महत्व का है। बहता पानी (प्रकाशन वर्ष: 1955 ई.) उपन्यास क्रान्तिकारी चरित्रों को लेकर चलता है। समीक्षा-कृतियों में कथाकार प्रेमचंद (प्रकाशन वर्ष: 1946ई.), प्रगतिवाद की रूपरेखा (प्रकाशन वर्ष: 1953 ई.) तथा साहित्य, कला, समीक्षा (प्रकाशन वर्ष: 1954 ई.) की अधिक ख्याति हुई । ‘भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास”क्रान्ति युग के अनुभव’ ‘चंद्रशेखर आज़ाद”विजय यात्रा’ ‘यतींद्रनाथ दास”कांग्रेस के सौ वर्ष ‘कथाकार प्रेमचंद”प्रगतिवाद की रूपरेखा’साहित्यकला समीक्षा आदि समीक्षा विषयक ग्रंथ हैं। उन्होंने कहानियाँ भी लिखीं। निधन प्रसिद्ध क्रांतिकारी और सिद्धहस्त लेखक मन्मथनाथ गुप्त का निधन 26 अक्टूबर 2000 में हुआ।
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वसंत आया तो अपने ही एक पुराने लेख की याद आ गई- प्रभात रंजन
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‘यह कैसा युवा लेखन है जी? कोनो वसंत पर लिखता ही नहीं है!’ सीतामढ़ी के सनातन धर्म पुस्तकालय के पुराने मेंबर सुशील बाबू ने जब फोन पर पूछा तो अचानक कोई जवाब ही नहीं सूझा. वसंत आ गया है. सुबह से ही चिड़ियों की चहचहाहट और मौसम में हलकी गर्मी की चुनचुनाहट बढ़ गई है. लेकिन सच में हिंदी के समकालीन कविता में अब वसंत उस तरह से नहीं आता है जिस तरह से आता रहा है. कविता इसलिए क्योंकि कविता को साहित्यिक अभिव्यक्ति का सर्वोच्च रूप कहा जाता है. बोले तो ह्रदय के सबसे करीब मानी जाने वाली. यह अपने आप में इस बात का उदाहरण है कि समकालीन जीवन प्रकृति से इतना दूर होता जा रहा है कि उसमें मौसमों का आना-जाना अभिव्यक्त ही नहीं हो पाता. आखिर क्या कारण है कि ‘हवा हूँ हवा मैं बसंती हवा हूँ’ जैसी कविता पढ़कर बड़ी हुई पीढ़ी अपनी कविताओं में वसंत का आना जाना नहीं लिखती है.
सुशील बाबू की बातों में कुछ तो दम इसलिए भी दिखता है क्योंकि इस समय हिंदी में युवा लेखन प्रधान स्वर है. वसंत को यौवन का माह कहा जाता है. कविता याद आती है- अभी न होगा मेरा अंत/ अभी अभी ही तो आया है मेरे जीवन में वसंत. एक दौर तक हिंदी के सभी कवियों के लिए यह निकष की तरह था कि किसने वसंत पर कविता लिखी. वसंत एक ऐसा मौसम है जिसने हिंदी में सभी विचारधारा के कवियों को एक कर दिया. कहते हैं मौसम तो कई हैं लेकिन मन का मौसम यही होता है. फूलों के खिलने, नई कोंपलों के फूटने, सर्दी के बीत जाने के इस मौसम को अब क्या कोई इस तरह से याद करता है जैसे कवि केदारनाथ सिंह ने याद किया था- प्राण आ गए दिन दर्दीले/ बीत गई रातें ठिठुरन की. अब वसंत नहीं वसंत पर लिखी कविताओं की याद अधिक दिखती है. सोशल मीडिया के इस दौर में वसंत पर लिखी कविताओं की लोकप्रियता दिखाई देती है. लेखक-पाठक अपनी अपनी पसंद की कविताओं को फेसबुक, ट्विटर पर शेयर करते हैं, यूट्यूब पर वीडियो बनाते हैं. लेकिन यह सच्चाई है कि वसन्त इस महानगरीय जीवन में जीवन से दूर होता जा रहा है. शायद इसीलिए वसंत में वसंत के होने की अनुभूति ही शायद नहीं होती है. रघुवीर सहाय की कविता-पंक्ति बेसाख्ता याद आती है- ‘और मन में कुछ टूटता-सा/ अनुभव से जानता हूँ कि यह वसंत है.’
मुझे याद आता है कि उर्दू की मशहूर लेखिका कुर्रतुल ऐन हैदर के ‘आग का दरिया’ जैसे क्लासिक उपन्यास लिखने के पीछे की प्रेरणा वसंत ही थी. पाकिस्तान से आई उनकी एक रिश्तेदार बच्ची ने जब उनसे पूछा कि वसन्त क्या होता है? तो इस बात ने उनको इस कदर सोचने पर मजबूर कर दिया कि ‘आग का दरिया’ जैसा साभ्यतिक उपन्यास लिखा गया, जिसमें भारत के होने न होने की कहानी कही गई है.
असल में समकालीन जीवन बचपन से ही आज बच्चों को मौसमों की इस फीलिंग से दूर कर रहा है. जब हम स्कूल में पढ़ते थे तो हमें निबंध लिखने के लिए दिया जाता था- ऋतुओं में ऋतु वसंत! हम अच्छे से अच्छा निबंध लिखने के लिए खूब पढ़ते थे, अपनी कल्पनाशीलता पर जोर डालते थे, उन दिनों हमने विद्यापति की कविता पढ़ी थी- आयल ऋतुपति राज वसंत! अब ‘गूगल एज’ में न वह कल्पना बची न वह वसंत. प्रकृति से दूर बसते जा रहे कंक्रीट के जंगलों में अब यह अहसास कहाँ हो पाता है यही वह मौसम होता है जब धरती सबसे रंगीन, सबसे सुन्दर हो जाती है. पुराने का त्याग कर फिर से नई नवेली हो जाती है.
जब मन में ही वह भाव नहीं बचा तो कविता में कहाँ से वसंत आएगा- सुशील बाबू की बात का कोई ठोस जवाब नहीं सूझ रहा है!
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युवा लेखिका प्रदीपिका सारस्वत को किसी परिचय की दरकार नहीं है. कहानियां जरूर उन्होंने हाल में लिखना शुरू किया है. आज उनकी नई कहानी पढ़िए- मॉडरेटर
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मैं आज एक नए मकान में पहुँचा हूँ. नया मकान, हुँह! मकान बहुत पुराना है. कुछ नहीं तो 100 से ऊपर का तो है ही. अजीब सी बू है यहाँ, धूल की, नमी की, किसी की पुरानी यादों की. कुछ-कुछ वैसी ही जैसी गाँव के पुराने घर में मिलती थी, जब मैं माँ, बाबा और भैया के साथ महीनों, और फिर सालों बाद वहाँ जाया करते था. सोचता हूँ कि चलो कुछ तो अब भी एक सा बाक़ी है इन दो मुल्कों में.
मैंने एक कमरा थोड़ा-बहुत साफ़ कर लिया है. हाँ, यहाँ मेरे पास कोई घनश्याम नहीं है मेरे काम करने के लिए. एक तहख़ाना मिलाकर कुल आठ कमरे हैं इस मकान में. मैंने पहले माले पर पीछे की तरफ़ का एक कमरा अपने लिए चुना है. पीछे की तरफ़ ख़ाली मैदान है. मैदान क्या, कभी खेत रहे होंगे, अब कोई प्लॉट है, जिस पर चाचा-भतीजे झगड़ रहे होंगे. बाक़ी के कमरे वापस बंद कर दिए हैं. इनमें भी शायद कुछ लोग रहने आएँ, पर फ़िलहाल तो बस मैं ही हूँ. कहाँ बस मैं ही हूँ! तुम्हें यक़ीन नहीं आएगा यहाँ कितनी मकड़ियाँ हैं. कुर्सियों के कोनों से लेकर ताकों पर पड़ी अधजली मोमबत्तियों तक, हर चीज़ को मकड़ियों ने एक दूसरे से जोड़ दिया था. ऐसा कम्युनिकेशन सेंस कि कोई बड़ा इंजीनियर भी चकरा जाए. हम हैं कि यहाँ अब भी एक क़िस्से के तार दूसरे से जोड़ने के लिए इंसानों की दौड़ के भरोसे हैं, और इनकी तकनीक देखो, कुछ भी कहीं बाक़ी नहीं जिसे जोड़ा नहीं गया है.
बहुत काम बाक़ी है मुझे. दरबारा सिंह काग़ज़ों का पूरा ढेर इधर ही छोड़ गया है. जो खाना लाया था वो भी ठंडा हो चुका है और यहाँ गरम करने के लिए कोई स्टोव तक नहीं. ये सब शिकायत के मुद्दे हैं भी नहीं अब, पहले भी नहीं थे शायद. पर काम बहुत है. वक़्त बहुत होने के बावजूद भी कम ही लगता है. लगता है जितना वक़्त हाथ में है कुछ और देख लेना चाहिए, सुन लेना चाहिए. समझने की शायद ज़रूरत ख़त्म हो गई है. तस्वीरों और आवाज़ों को अब प्रोसेस किया जाता है, दिमाग में, मशीन में. दिमाग भी तो मशीन ही है. ठंड लग रही है थोड़ी. मतलब शरीर अब भी मशीन नहीं बन पाया है. पिछले दिनों कमर में इंजुरी हुई थी. ठंड ने फिर से उसका दर्द बढ़ा दिया है. अब शरीर उतना ताज़ा नहीं रह गया है.
इस कमरे में भारी लकड़ी की एक अलमारी है, कपड़ों से भरी हुई. तमाम चादरें, कंबंल और मेज़पोश रखे हैं इसमें. बेलबूटों वाले. फूलों वाले. किसी ने बड़े मन से काम किया होगा इन पर. लेकिन अब सब यहाँ पड़े हैं, अनक्लेम्ड. क़ैद में मर जाने वाले की लाश की तरह. उन हाथों में कितनी सुइयाँ चुभी होंगी वो सब फूल सींते हुए जो अब किसी के नहीं हैं. दरअसल किसी के कभी हो ही नहीं पाए. कमाल है, मैं अब चादर पर सिले फूलों की भी तफ्तीश करने लगा हूँ. सरदारा ठीक कह रहा था कि सब चादरें कोरी हैं, कभी इस्तेमाल नहीं हुईं. पर देखो, हर चादर पर दाग पड़े हुए हैं. बिना इस्तेमाल किए कोई चीज़ कैसे मैली हो सकती है? पर होती है. मैं देख रहा हूँ. हाँ, देख रहा हूँ.
इस तरफ़ जाने से मुझ जैसों को बचना चाहिए, पर… यह भी तो मुझ जैसे ही कहते हैं न, क़ायदे तोड़ने के लिए बनते हैं. मैं देख रहा हूँ, मेरा एक हिस्सा इन चादरों जैसा हो गया है. मैला. बिना इस्तेमाल में आए भी मैला. रात गहरी हो रही है और सर्दी भी. पाँवों की अंगुलियाँ कब से ठंडी पड़ी हुई हैं. बदन थका हुआ है. पिछली तीन रातें मैं और सरदारा जागते रहे हैं. वो तो अब तक अपने बशीर मियाँ के बरामदे में खर्राटे लेने लग गया होगा. पर मैं, बिस्तर से बचने के बहाने ढ़ूँढ रहा हूँ. इससे पहले कितने घरों में, कितने बिस्तरों में सोया हूँ. पर यहाँ कुछ तो अलग है. शायद चीज़ों का इस्तेमाल न होना, उनका किसी का न हो पाना और फिर बस ख़त्म हो जाना… ये डरा देने वाली बात है. है न?
मैं ये सब नहीं सोचता. ये सब कमज़ोरियाँ हैं दिमाग की. इन सब ख़यालों के ज़रिए तुम्हारा अपना दिमाग तुम पर क़ाबू पाने की कोशिश करता है. तुम्हें हराने की कोशिश करता है. हाँ, हमें हर वक़्त बाहरी नहीं, भीतरी दुश्मनों से भी लड़ते रहना होता है. बाहरी जंगें जीतना उतना मुश्किल नहीं जितना भीतर की. बाहर क्या चाहिए? बदन की ताक़त, हथियार और हिम्मत. भीतर के दुश्मन आपके अपने की शक्ल में आते हैं. आप उन पर हथियार नहीं उठा पाते. आप मानने को तैयार ही नहीं होते कि वो आपके दुश्मन हो सकते हैं. हाँ, उन्हें पहचान लेना ही जंग जीत लेने के बराबर है. देखो तो, बाहर मैं किसी और का दुश्मन हूँ. और भीतर खुद अपना. पिछले दिनों सड़कों पर रातें जागते हुए भी उतनी ठंड नहीं लगी, जितनी आज कमरे के भीतर बिस्तर के सामने लग रही है.
बिस्तर पर चादर नहीं डाली है. डाल ही नहीं पा रहा हूँ. तीन चादरें निकाल कर वापिस रख चुका हूँ. इनमें एक अजीब सी महक है. वक़्त के बीत जाने की, कोरे अनछुएपन की और… और शायद इंतिज़ार की. मैं इन चादरों में अपना वो चेहरा देख रहा हूँ जो तुम देखने की कोशिश करती रही हो. जब भी तुम उस चेहरे के क़रीब आकर रुक गई हो, मैं आँखें बचाकर कर दूर निकल गया हूँ. यह जानते हुए भी कि तुम्हारे क़रीब आते ही मुझ में अपने उस चेहरे को तुम्हारी आँखों में देखने की ख़्वाहिश सर उठाने लगती है. लग रहा है जैसे कोई जादू है इन सफ़ेद चादरों में, वैसा ही जैसा तुम्हारी नज़्मों में, तुम्हारी चिट्ठियों में होता था. तुम्हारी उन बातों में, सवालों में होता था, जिनसे मैं जितनी दूर रहने की कोशिश करता हूँ, उतना ही उनमें डूब जाना चाहता हूँ.
एक अरसे से मैं सोचता रहा हूँ कि तुम इन दिनों क्या लिखती होगी. जानता हूँ कि मेरे पते के बग़ैर भी मुझे चिट्ठियाँ लिखी होंगी तुमने. पर आज मुझसे इजाज़त लिए बिना इस महक ने किसी मकड़ी की तरह समंदर के इस छोर से उस छोर तक एक जाल बना दिया है. वर्ल्ड वाइड वेब का कनेक्शन. ना, मैं खुद अपने ख़िलाफ़ इस साज़िश में शामिल हूँ. मैं यहाँ होते हुए हुए भी तुम्हारी मेज़ के दूसरे छोर पर बैठा तुम्हें लिखते हुए देख रहा हूँ. तुम्हारे नए कंप्यूटर के कैमरे से झाँकते हुए. तुम अब भी वैसी ही हो, जैसा आख़िरी बार देखा था. ये कहना कितना फ़िल्मी और किताबी है, जानता हूँ. पर सच है. मैं भी वैसा ही हूँ जैसा तुमने आख़िरी बार देखा था. मेरे आस-पास सब कुछ बदल जाने के बावजूद. बाहर सब कुछ बदल जाने के बाद भी भीतर कुछ होता है जो कभी नहीं बदलता. जो कभी नहीं बदलेगा. उन चादरों पर दाग लग जाने के बाद भी उनमें कुछ तो वैसा ही बाक़ी है जैसा पहले दिन रहा होगा. तुम मुझे सुनतीं तो कहतीं मैं शाइरों की तरह बातें कर रहा हूँ.
मैं तुम्हें चिट्ठी लिखना चाहता हूँ. इससे पहले कि मेरे भीतर की बेल-बूटों वाली इस चादर का ताना-बाना किसी हादसे में खुल कर बिखर जाए, या उसे उठा कर कहीं ऐसी जगह डाल दिया जाए जहाँ से उसे फिर से देखे जाने, छुए जाने का कोई रास्ता ही न बचे, मैं उसे इस्तेमाल होते देखना चाहता हूँ. इस बात के बावजूद कि जिस तरह तुमने हमेशा मुझे देखा है, मैंने कभी तुम्हें नहीं देखा, मैं चाहता हूँ कि जैसे मैं तुम्हें अभी देख रहा हूँ, तुम भी मुझे देखो. मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ कि मेरे भीतर का एक हिस्सा बिलकुल कोरा है, जिसे कभी छुआ नहीं गया, इस्तेमाल नहीं किया गया. मैं चाहता हूँ कि तुम उसे क्लेम करो, इससे पहले कि उस पर पड़े दाग उसे ख़त्म कर दें. आज मैं खुद को नहीं रोकूँगा, तुम्हें भी नहीं.
कल शायद मैं इस जादू से बाहर निकल चुका होउंगा. तब मैं फिर तुमसे, तुम्हारे ख़याल से दूर भागूँगा. पर उससे पहले, आज, मैं चाहता हूँ कि तुम आकर मुझसे कहो कि बाक़ी सब झूठ है, सिवाय मेरे और तुम्हारे यहाँ इस पल में एक-साथ होने के. मैं चाहता हूँ कि तुम एक चादर चुन कर बिस्तर पर डाल दो, और हम उसे क्लेम कर लें. तुमसे यह सब कहते हुए मैं खुद को कमज़ोर नहीं जान रहा हूँ. नहीं, मेरा दिमाग मुझसे किसी तरह के झगड़े में नहीं है. मैं किसी से हार या जीत नहीं रहा हूँ. मैं बस अपने भीतर खुद की शिनाख्त कर रहा हूँ. मेरा दिमाग मेरे कंधे पर हाथ रखकर मेरे बाज़ू में खड़ा है. मैं देख रहा हूँ कि जिन्हें हम दुश्मन समझते हैं, वो कई बार दोस्त होते हैं. और कई बार दुश्मन ही सबसे अच्छे दोस्त होते हैं.
बाहर दरवाज़े पर आहट हो रही है. ओह, दरबारा आ पहुँचा है. रात कब बीत गई मैं देख ही नहीं पाया. ये अनलिखी चिट्ठी अधूरी छोड़नी होगी मुझे. बाहर के तमाम काम पूरे करते हुए मैं अपने आप को अपने भीतर यूँ ही अधूरा छोड़ता रहा हूँ. पर जानता हूँ कि तुम सब संभाल लोगी, मेरा और अपना दोनों का अधूरापन. तुम कहती हो ना, जीना तुम्हारे हिस्से और महसूस करना मेरे हिस्से. इस तरह तो हम अधूरे जीते हुए भी पूरा ही जिएँगे. तारीख़ याद है मुझे आज की, 14 फ़रवरी है, मगर बाकी प्यार करने वालों की तरह तुम्हारा दिन किसी ख़ूबसूरत शाम के इंतज़ार में नहीं बीतेगा. मुझे भी कुछ देर में काम पर निकलना है, पर मैं आज दिन भर तुम्हारे साथ रहूँगा. मेरा काम बहुत ज़रूरी है. पर मिरी जान, कोई भी चादर अनक्लेम्ड नहीं रहनी चाहिए.
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