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कुछ कविताएँ ‘चौंसठ सूत्र सोलह अभिमान’की

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युवा कवि अविनाश मिश्र का कविता संग्रह ‘चौंसठ सूत्र सोलह अभिमान’ हिंदी में अपने ढंग का अकेला संग्रह है. यह कामसूत्र से प्रेरित है और प्रेम सिक्त है. हिंदी में इरोटिक कविताएँ लिखी गई हैं लेकिन घोषित रूप से इरोटिक कविता संकलन न के बराबर हैं. जो हैं भी उनके प्रति हिंदी में दबा-छुपा भाव रहा है. उम्मीद करता हूँ हिंदी में अपने ढंग का अनूठा यह संचयन कविता और साहित्य की नई धारा को दिशा दे. राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इसी संकलन से कुछ कविताएँ- मॉडरेटर

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1.
औपरिष्टक 
 
तुमसे ही मांगूंगा तुम्हें 
सिर्फ तुम्हें 
इनकार मत करना 
 
देने से घटता नहीं है 
और बचाते हैं वे 
जिनके पास होता है कम 
 
 
2. 
सीत्कृत
 
हल्के प्रकाश में 
तुम और भी सुन्दर थीं 
हल्की सांस लेती हुई 
आशंका को स्थान न देती हुई 
लापरवाहियां तुम्हारे शिल्प में थीं 
 
इस अर्थ में इस अर्थ से दूर 
तुम्हारी बंद आँखों में भी मद था 
मैंने देखा सारी रात 
तुम्हें 
खुली आँखों से 
 
3. 
 
बिछुए 
 
वे रहे होंगे 
मैं उनके बारे में ज्यादा नहीं जानता 
मैं उनके बारे में जानना नहीं चाहता 
उनके बारे में जानना 
स्मृतियों में व्यवधान जैसा है 
 
4.
 
नथ 
 
वह सही वक्त बताती हुई घड़ी है 
चन्द्रमा को उसमें कसा जा सकता है 
और समुद्र को भी 
 
5. 
 
काजल 
 
तुम्हारी आँखों में बसा 
वह 
रात की तरह था 
दिन की कालिमा को संभालता 
उसने मुझे डूबने नहीं दिया 
कई बार बचाया उसने मुझे 
कई बार उसकी स्मृतियों ने 

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जिंदगी अपनी जब इस रंग से गुजरी ‘ग़ालिब’

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मौलाना अल्ताफ हुसैन ‘हाली’ की किताब ‘यादगारे ग़ालिब’ को ग़ालिब के जीवन और उनकी कविता पर लिखी गई आरंभिक किताब में शुमार किया जाता है. हाली ने १८५४ से १८६९ तक यानी उनके जीवन के आखिरी दौर तक को बहुत करीब से देखा था. इसी कारण ‘यादगारे ग़ालिब’ को महत्वपूर्ण किताबों में शुमार किया जाता है. इसी कारण १८९७ में प्रकाशित इस किताब को आज तक याद किया जाता है. आज ग़ालिब की पुण्यतिथि के अवसर पर उसी किताब का एक अंश, जिसका संबंध ग़ालिब के जीवन के अंतिम दिनों से है- जानकी पुल.
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मौत की आरज़ू

मिर्ज़ा या तो इस कारण, कि उनकी जिंदगी मुसीबतों और कठिनाइयों में गुजरी थी, या इसलिए कि उन पर कठोर परिस्थितियों का बहुत ज्यादा असर होता था, आखिरी उम्र में मौत की बहुत आरज़ू किया करते थे. हर साल अपनी मौत की तिथि निकालते और सोचा करते कि इस साल ज़रूर मर जाऊंगा. १२७७ हिजरी में उन्होंने अपने मरने की तारीख यह कही कि – ‘ग़ालिब मुर्द’(यानी ग़ालिब मर गया. ‘ग़ालिब मुर्द’ के अक्षरों का संख्यावाची योग १२७७ होता है.). इससे पहले की अनुमानित तिथियाँ गलत हो चुकी थीं. मुंशी जवाहर सिंह जौहर, जो मिर्ज़ा के खास दोस्तों में थे, उनसे मिर्ज़ा साहब ने इस अनुमानित तिथि का ज़िक्र किया. उन्होंने कहा, ‘हज़रत, इंशाअल्लाह यह अनुमान भी गलत साबित होगा’. मिर्ज़ा ने कहा, ‘देखो साहब, तुम ऐसी बुरी बात मुंह से न निकालो, अगर यह अनुमान सही न निकला तो मैं सर फोड़कर मर जाऊंगा.’

एक दफा शहर में सख्त महामारी पड़ी. मीर मेहदी हुसैन ‘मजरूह’ ने पूछा कि ‘हज़रत, महामारी शहर से भाग गई या अभी तक मौजूद है?’ उसके जवाब में लिखते हैं, ‘भई, कैसी महामारी! जब एक सत्तर बरस के बुड्ढे और एक सत्तर बरस की बुढिया को न मार सके तो ऐसी महामारी पर धिक्कार!’

इसी तरह की और बहुत सी बातें तथा किस्से उनके बारे में मशहूर हैं, जिनसे अंदाजा हो सकता है कि वे आखिरी उम्र में किस कदर मरने के इच्छुक थे!

आखिरी उम्र के हालात

मरने से कई बरस पहले से चलना-फिरना बिलकुल बंद हो गया था. प्रायः चारपाई पर पड़े रहते थे. खाते-पीते कुछ नहीं थे. छः-छः, सात-सात दिनों में पाखाना होता था. पाखाने की चौकी पलंग के पास ही थोड़े से ओट में रखी हुई थी. जब हाजत मालूम होती थी तो पर्दा कर दिया जाता था. वे किसी नौकर-चाकर के सहारे के बिना ही, कपड़े उतार कर, बैठे-बैठे खिसकते हुए चौकी तक पहुँचते थे. पलंग से चौकी तक जाना, चौकी पर चढ़ना, वहां देर तक बैठे रहना और फिर चौकी से उतरकर पलंग तक आना- एक बड़ी मंजिल तय करने के बराबर था. मगर इस हालात में भी पलंग पर पड़े-पड़े ही खतों के जवाब बराबर लखते रहते थे, या किसी दूसरे आदमी को बताते जाते थे, वह लिखता जाता था. मरने से चंद रोज पहले बेहोशी तारी हो गई थी. पहर-पहर, दो-दो पहर के बाद चंद मिनट के लिए होश आ जाता था, फिर बेहोश हो जाते थे. मृत्यु से शायद एक दिन पहले मैं उनको देखने के लिए गया था; उस वक्त कई पहर के बाद होश आया था और वे नवाब अलाउद्दीन अहमद खान के खत का जवाब लिखवा रहे थे. उन्होंने लोहारू(जगह का नाम) से हाल पूछा था, उसके जवाब में एक फिक्र और एक फ़ारसी शेर, जो संभवतः शेख सादी का था, लिखवाया. फिकरा यह था कि ‘मेरा हाल मुझसे क्या पूछते हो, एकाध रोज में दोस्तों से पूछना.’ और शेर का पहला मिसरा मुझे याद नहीं रहा, दूसरा मिसरा यह था-

न कर्द-हिज्र मदारा बमन सरे तू सलामत’ अर्थात वियोग ने मेरे टुकड़े कर दिए हैं, तेरा सिर सलामत रहे.

आखिर जीकाद हिजरी १२८५ की दूसरी और फरवरी १८९६९ की पंद्रहवीं तारीख को ७३ बरस और चार महीने की उम्र में वे दुनिया से कूच कर गए और दरगाह हजरत सुलतान निजामुद्दीन कुद्सुस्सरा में, अपने ससुर के मज़ार की बगल में दफ़न किये गए. उनकी मृत्यु की तारीखें, जो मुद्दत तक हिन्दुस्तान के उर्दू अखबारों में छपती रही, वे गिनती के बाहर हैं. सिर्फ एक तारीख, जिस पर दस-बारह लोग सहमत हुए, याद रखने के काबिल है. यानी ‘आह ग़ालिब बमुर्द’(१२८५ हिजरी) जिसको विभिन्न लोगों ने अलग-अलग ढंग से कतओं में व्यक्त किया था. तारीखों के अलावा मिर्ज़ा कुर्बान अली बेग ‘सालिक’, मीर मेंहदी हुसैन ‘मजरूह’ और इस किताब के लेखक ने उर्दू में तथा मुंशी हरगोपाल ‘तुफ्ता’ ने फ़ारसी में मिर्ज़ा के मर्सिये भी लिखे थे, जो उसी ज़माने में छपकर प्रकाशित हो गए थे.

जनाजे की नमाज़

मिर्ज़ा के जनाजे पर, जबकि देहली दरवाज़े के बाहर नमाज़ पढ़ी गई, इस किताब का लेखक भी मौजूद था, तथा शहर के अधिकांश प्रतिष्ठित और गणमान्य लोग भी- जैसे, नवाब जियाउद्दीन अहमद खान, नवाब मोहम्मद मुस्तफा खान, हकीम अहसानुल्लाह खान, आदि-आदि और बहुत से अहले सुन्नत तथा इमामिया दोनों संप्रदाय के लोग उनकी अंतिम यात्रा में सम्मिलित हुए थे.

बख्शी महमूद खान के पौत्र सैयद सफ़दर सुलतान ने नवाब जियाउद्दीन अहमद खान से कहा कि ‘मिर्ज़ा साहब शिया थे; हमको इसकी इजाजत हो कि हम अपने तरीके के अनुसार उनका कफ़न-दफ़न करें.’ मगर नवाब साहब नहीं माने और तमाम रस्में अहले-सुन्नत के अनुसार अदा की गईं. इसमें शक नहीं कि नवाब साहब से ज्यादा अन्य कोई भी व्यक्ति उनके वास्तविक धार्मिक विचारों से परिचित नहीं हो सकता था, मगर हमारे ख़याल से बेहतर यह होता कि शिया और सुन्नी दोनों मिलकर या फिर अलग-अलग उनके जनाजे की नमाज़ पढते और जिस तरह से जिंदगी में उनका बर्ताव सुन्नी और शिया दोनों के साथ समान रहा था, उसी तरह मरने के बाद भी दोनों संप्रदाय अपने-अपने ढंग से उनकी अंतिम रस्में अदा करते.

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नामवर सिंह एक व्यक्ति नहीं प्रतीक थे

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नामवर सिंह के निधन पर श्रद्धांजलि स्वरुप यह लेख नॉर्वे प्रवासी डॉक्टर-लेखक प्रवीण झा ने लिखा है- मॉडरेटर

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नामवर सिंह जी पर लिखने बैठा तो घिघ्घी बँध गयी। यूँ हज़ारदो हज़ार शब्द लिख डालना कोई बड़ी बात नहीं; लेकिन यह शब्द लिखे किनके लिए जा रहे हैं? शब्दों के पारखी के लिए। वह तो एकएक शब्द को, वाक्यसंयोजन को, लेखनविधा को, लेखनकाल को, इस पूरीएनाटॉमीको परखेंगे। और फिर कहेंगे कि तुमने तो बिना पढ़ेजाने ही लिख डाला। नामवर सिंह को तुम कितना जानते हो? कितना पढ़ा? कितना सुना? बस तस्वीर देखी और भीड़ में श्रद्धांजलि देने गए? इसी पशोपेश में सिकुड़ कर बैठ गया। फिर लगा कि अब भी कुछ नहीं बिगड़ा। नामवर सिंह को अब भी तो जाना जा सकता है। वह एक व्यक्ति से अधिक प्रतीक भी तो थे। यह नाम सुनते ही एक शब्द तो मन में कौंधता है– ‘लिटररी क्रिटिसिज़्म वांग्मय की भाषा अंग्रेज़ी जाने कब बन गयी, कि पहले ऐसे मौकों पर अंग्रेज़ी शब्द ही मन में आता है।

 यह बारीक अंतर है कि हम साहित्य को अपने स्वाद के हिसाब से चखते हैं या उसकी समालोचना करते हैं। जाहिर है कि एक बड़ा वर्ग तो साहित्य पर एक रोमांटिक नजर रखते हैं, लेकिन एक छोटा प्रतिशत तो जरूर होगा जो साहित्य पर विद्वतापूर्ण नजर भी रखता होगा। इस मंथन में ही कभी हजारी प्रसाद द्विवेदी हुए होंगे, तो कभी उसी घराने में नामवर सिंह हुए होंगे। आगे भी और लोग होंगे। कई लोगों को कहते सुना कि अगले नामवर सिंह नहीं होंगे। इस निराशा के साथ तो मैं श्रद्धांजलि दे पाऊँगा। अगले नामवर सिंह जरूर होंगे। अभी शैशवावस्था में हों, और बात है।

 दो पल के लिए अगर मैं ही इस कल्पनालोक में प्रवेश कर जाऊँ कि अगला नामवर सिंह मैं ही हो जाऊँ तो? मेरी उम्र में वह क्या करते होंगे? अब इसमैंमें इन पंक्तियों के लेखक और पाठक सभी सम्मिलित हो जाएँ और अपनीअपनी कल्पनालोक बनाएँ। साठसत्तर का दशक होगा, चे गुवैरा की तस्वीरें कॉलेज़ों और छात्रावासों में लोकप्रिय होंगी। वामपंथ और समाजवाद का कॉकटेल साहित्य में भी उमड़ कर आता ही होगा। मेज पर उन किताबों के ढेर में कहीं खोया, अपनी कलम से कुछ निष्कर्ष लिख रहा होऊँगा। मनन कर रहा होऊँगा। पुराने प्रयोगों की खामियाँ निकाल रहा होऊँगा, और उन्हें यथातथा खारिज भी कर रहा होऊँगा। साहित्य के नए प्रतिमान गढ़ रहा होऊँगा। यह बड़ा ही असहज और वैज्ञानिक कार्य है। सैकड़ों लेख, कविताएँ, गल्प पढ़ लिए, उसे आत्मसात कर लिया और फिर उसकी एक समग्र दृष्टि बनाई। इससे बेहतर यह नहीं कि सैकड़ों कहानियाँ ही लिख लेते, खूब छपते, खूब पढ़े जाते? आखिर इसलिटररी क्रिटिसिज़्मकी जरूरत ही क्या है? इससे भाषा को मिला क्या?

 समग्र (होलिस्टिक) दृष्टि की जरूरत सदा रहेगी ही। वरना भाषा भटक जाएगी। लोग कहेंगे कि पाठक ने फलाँ गद्य या कविता पढ़ ली, समीक्षा कर दी। एक नहीं, सौ पाठकों ने कर दी। अब इससे अधिक क्या समालोचना होगी? लेकिन यह तो एकल विश्लेषण है। एक दौर में कई तरह के साहित्य लिखे गए, पढ़े गए, समीक्षा किए गए; लेकिन अगर उनसे कोई पैटर्न बनता नहीं दिखा तो वह बिखर जाएँगे। या दिशाहीन हो जाएँगे। आज के दौर में जबनई वाली हिन्दीजैसे शब्द आए, याहिंग्लिशलेखन आया, अथवा ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधुनिक रूपरेखा में पात्र गढ़े जाने लगे तो एक पैटर्न तो बनता दिख रहा है। लेकिन उनका वैज्ञानिक विश्लेषण नहीं हो रहा। उनकी एक सामूहिक व्याख्या नहीं हो रही। या हो भी रही है तो लेखकों और विश्लेषकों के मध्य मौखिक आयोजनों में हो रही है, जिसका निष्कर्ष समग्र रूप से नहीं रखा जा रहा।

 एक और बात कि अब लोकतांत्रिक समाजवादी संरचना या जनकल्याण की चक्की पूँजीवाद से चलती है। और यह साहित्य में भी कमोबेश प्रदर्शित होगा ही। इसलिए नयी पीढ़ी के नामवर सिंह नयी संरचना में ही जन्म लेंगे। एककोर्स करेक्शनया दिशा दिखाने की जरूरत तो अभी निश्चित तौर पर है, जो अंग्रेज़ी या अन्य भाषाओं में नियमित होती रही है। और साहित्य के नवमाध्यमों (सोशल मीडिया आदि) के आने से नए प्रयोग भी हो रहे हैं। विश्लेषण के माध्यम भी बढ़े हैं और समालोचना का वैश्विक रूप भी बदला है। इसलिए कहा कि नामवर सिंह एक व्यक्ति नहीं, एक प्रतीक या आवश्यक तत्व हैं जिनके बिना भाषा भटक जाएगी। मुझे विश्वास है कि हिन्दी के नामवर सिंह अवश्य लौटेंगे।

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अर्चना जी के व्यक्तित्व में गरिमा और स्वाभिमान का आलोक था

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विदुषी लेखिका अर्चना वर्मा का हाल में ही निधन हो गया. उनको याद करते हुए युवा लेखक-पत्रकार आशुतोष भारद्वाज ने यह लिखा है, उनके व्यक्तित्व की गरिमा को गहरे रेखांकित करते हुए- मॉडरेटर

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कृष्णा सोबती और अर्चना वर्मा उन बहुत कम लेखकों में थीं जिनके साथ मेरा लंबा संवाद होता था,  जिनके पास जब चाहे जा सकता था, देर तक बतियाता था, जो मुझे कभी भी फोन कर दिया करतीं थीं, बुला लिया करतीं थीं। कथादेश का जो विशेषांक मैंने संपादित किया था, उसके लिए अर्चना वर्मा ने ही हरिनारायण को कहा था।

कृष्णा सोबती अपने रचनाकार को लेखक-लेखिका, स्त्री-पुरुष के द्वैध से दूर मानती थीं, अर्चना वर्मा की चेतना में स्त्री होने का एहसास था लेकिन वह पुरुष के नकार या विरोध में नहीं था। दोनों के सान्निध्य में गरिमा और स्वाभिमान का आलोक था।

कभी मैंने एक्सप्रेस के लिए राजेंद्र यादव का साक्षात्कार किया था। “हंस के चरित्र निर्धारण में अर्चना का बहुत बड़ा योगदान था। अब वह चली गयी है। मैं अकेला पड़ गया हूँ,” वे बोले थे। तब तक वे कथादेश जा चुकी थीं।

 मैंने कई बरस पहले अर्चना वर्मा को एक खत लिखा था। शायद उसे अब यहाँ साझा किया जा सकता है।

 

“मैं कुछ कन्फ़ैस करना चाहता हूँ।

जहाँ मैं आपको अपना कच्चा-पका भेजता रहता हूँ, आपके लेखकीय संसार से अब तक जानबूझ कर अपरिचित रहा हूँ। एकदम अप्रत्याशित है यह मेरे लिए। जिसके भी संपर्क में आता हूँ, किसी से मिलने से पहले भी उसे पढ़ने का प्रयास करता हूँ।
आपको लेकिन — जिन्हें इतने बरसों से जानता हूँ, जिन्हें हमेशा अपने साथ उपस्थित पाता हूँ — कभी पढ़ने का साहस नहीं कर पाया। हमेशा संकुचित रहा आया।
किसी को पढ़ते वक्त, कहीं न कहीं हम उसका मूल्यांकन, शायद बतौर इंसान भी — जो निहायत ही अनुचित और क्रूर,लेकिन शायद एक अपरिहार्य प्रक्रिया है — उसके लेखन के आधार पर करते रहते हैं। अपने बहुत प्रिय रचनाकारों के साथ भी मैं ऐसा ही अन्याय करता आया हूँ।
ये क्रूरता आपके साथ नहीं दोहराना चाहता था। इसलिए आपकी वे किताबें जो आपने मुझे दीं पढ़ने से बचता रहा।
आपसे झूठ बोल दिया कि पढ़ लीं हैं।
किसी को नहीं पता आपको नहीं पढ़ा मैंने। हाल ही …. के साथ आपकी कहानियों पर बात आई तो भी सफाई से बात बचा ले गया। लेकिन कम-अस-कम आपको तो पता हो कि जो अपना लिखा सबसे पहले आपको भेजने की हिम्मत करता है, वो खुद आपकी किताबों के पास जाने से कितना सहमता-संकोच करता है। “

उनका तुरंत जवाब आया।

“प्रिय आशु,

अजीब सी बात एक यह भी है कि मैंने इसके पहले कभी किसी को अपनी कोई किताब पढ़ने के लिये कहा हो। कुछ भी कभी भी नहीं, किसी से भी नहीं। संकोच ही हो शायद या शायद खास कभी इच्छा भी नहीं हुई।

तुम्हारा स्नेह मेरे लिए कहीं ज़्यादा कीमती है, अपने लिखे के बारे में तुम्हारी राय से ज़्यादा कीमती। इसलिये तुमने नहीं पढ़ा तो कोई बात नहीं और न ही पढ़ो तो अच्छा।“

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मृणाल पांडे की कहानी ‘चूहों से प्यार करने वाली बिल्ली’

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वरिष्ठ लेखिका मृणाल पांडे की एक लघु रूपक कथा पढ़िए- मॉडरेटर

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गली की एक दीवार पर भूरे बालों और कंजी आखों वाली मन्नो बिल्ली आज फिर बैठी  बैठी पंजे में थूक लगा लगा कर चेहरा साफ किये जा रही थी. मन्नो का जिगरी दोस्त झग्गड बिल्ला कुछ देर उसे देखता रहा फिर उसने मन्नो से पूछा, आज सुबह तू खंडहरों में नहीं दिखी.| कुछ खाने पीने का इरादा नहीं क्या तेरा? चल एकाधेक चूहा पकड कर मज़ेदार नाश्ता कर लेते हैं , क्या पता कुछेक अंडे भी हाथ लग जायें किसी झाडी में.  चल ना. राख जैसी रंगत और नुँचे हुए कानों वाला झग्गड मुहल्ले भर में बिल्लियों का पहलवान दादा करके मशहूर था. मजाल क्या कि उसके होते गली में पराई गली का कोई और बिल्ला या बिल्ली आ घुसे ? तुरत बदन को धनुष बनाये गुर्राता झग्गड उस पर टूट पडता और फिर जो महाभारत होता कुछ पूछो मत. आखिरकार नुँचा नुँचाया परदेसी बिल्ला या बिल्ली तीर की तरह झग्गड के इलाके से तीर की तरह भागता दिखाई देता और विजय गर्व से सीना फुलाये झग्गड दीवार पर बैठ कर अपने घाव चाटता हल्की गुर्राहट से मुहल्ले को देर तलक जताता रहता कि देखो यह मेरा इलाका है. खबरदार जो हमसे टकराये तो , हाँ.

मन्नो ने भक्तिन वाला मुँह बनाया , हमें नहीं खाने चूहे वूहे , हम वेजीटेरियन हो गई हैं हाँ ! टी वी वाले योगी बाबा का कहना है कि मीट माट खाना अधर्म है | पच्छिमी खाना शरीर को खराब करता है. उनकी सलाह मान कर अब हम तो सिर्फ दूध और दूध से बने पदार्थ ही खायेंगी.

  • हा हा हा , झग्गड हँसा, अरे बावली , तेरा भेजा फिरेला है क्या ? बिल्ली चूहे नहीं खायेगी, तो क्या योगी बाबा की तरह फल का रस पियेगी ? और दूध ? यहाँ बस्ती के बच्चों को तो फल या दूध मिलता नहीं, गली की बिल्ली को कौन जूस या दूध पिलायेगा | साँप भी होती तो चल सकता था. पर बिल्ली तो लोग पालते ही इस लिये हैं कि चूहों की भरमार न हो पाये. तू चूहा मारने से इनकार करेगी तो तुझे कौन पूछेगा ?
  • न पूछे. हम इंसानों की चलाई पौलिटिक्स का विरोध करते हैं जो जीव को हिंसा सिखाती है. बाबा का कहना है कि खुराक बदलने के बाद भी हमको दूध और फलों से विटामिन मिलेंगे भरपूर और हिंसा से हम हो जायेंगे दूर. जय भारतमाता!
  • ले! बिल्ली के लिये चूहा खाना कोई हिंसा है? यह तो हमारा कुदरती स्वभाव है. कुदरत ने हर जीव के लिये खाने की जो आदतें तय की हैं उनका निर्वाह करने से सबका भला होता है. अब देख तू यदि चूहे खाना छोड देगी तो चूहों की तादाद दिन दूनी रात चौगुनी यहाँ तक बढ सकती है कि एक दिन वे किसानों के बखारों का अनाज तक चट कर देंगे. अब देख न, जहाँ शेरों को मार डाला गया वहाँ हिरनों, नीलगायों की तादाद इतनी बढ गई है कि बेचारी बकरियों भेडों को चारा नहीं मिलता. जब रात को जंगल से आकर हिरन खरगोश और नीलगायें खेतों में खडी तमाम फसलें चर जाते हैं तो लोग बाग कहते हैं काश शेर बचाये होते तो इतने चारा खाने वाले जीव हमारा जीना कठिन न करते. दूसरी तरफ यह सोच कि, बाबा लोग की भी तो पौलिटिक्स होती है. कल को अगर उनके खिलाफ किसी दूसरे चैनल पर कुछ दूसरे बाबा लोग कहने लगे, कि चरागाह कम हो रहे हैं. दूध देने वाले जानवरों को बचाने को बहुत सारा चारा खाने वाले हाथी घोडे सरीखे पशुओं को अब मीट माट खाना चाहिये ताकि भैंसों – गायों बकरियों ऊँटों को चारा मिलता रहे , तब तो हमारी भी जान खतरे में आ सकती है. बाबाओं का क्या ? वो तो मंच से कूद कर अपने आश्रम में छुप जायेंगे , मारा जाई बिल्ला ! इंसान अपनी सोचे तो हमको भी अपनी सोचना चाहिये. अमरीका योरोप में जहाँ गाय का ही मीट चलता है , सुनते हैं आजकल कई जगह मुर्गियों गायों के चारे में घोडे कुत्ते का मीट मिलाया जा रहा है ताकि जानवर जल्द खूब मोटे हों और इंसान को उनसे ज़्यादा माँस मिल सके.

मन्नो कुछ चिंता में पड गई. बात तो झग्गड गलत नहीं कह रहा था. सुबह से भूखी बैठी है , दूध तो क्या सडा फल तक नसीब नहीं हुआ है. आखिरकार एक छलाँग लगा कर दीवार से उतरी और पूँछ उठा कर झग्गड से बोली , टी वी वाला बाबा गया भाड में , चल अपुन शिकार करते हैं.

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कासनी पर्वत-रेखाओं पर तने सुनील आकाश

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अनुकृति उपाध्याय का कहानी संग्रह ‘जापानी सराय’ अभी हाल में ही आया है राजपाल एंड संज प्रकाशन से, जिसकी कहानियां अपने कथन, परिवेश, भाषा से एक विशिष्ट लोक रचती है. अनुकृति के यात्रा वर्णनों की भी अपनी विशिष्टता है. उनके लेखन में परिवेश जिन्दा हो उठता है. यह यात्रा कुमाऊँ के एक गाँव की है- मॉडरेटर 

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रास्ता जनवरी के रूखे सूखे पहाड़ों से हो कर जा रहा है। दृष्टांत तक पर्वत। पर्वत श्रेणियों के पीछे छायाकृतियों सी और, और पर्वत श्रेणियाँ। चीड़ और देवदारु की पाँतें, आकाश में गोधूलि। कुछ रंग बस पहाड़ों के लिए ही बने हैं। जैसे हरा और नीला और कासनी। इस क़दर पक्के रंग कि पहाड़ों से लौटने पर भी मन का एक हिस्सा इन रंगों में डूबा रहता है, कासनी पर्वत-रेखाओं पर तने सुनील आकाश और चीड़-वनों की निविड़ हरी शांति में रमा।

भुरभुरी ढलानों और चट्टानी ऊँचाइयों को काट- छाँट, गोद-गाद कर जगह- बेजगह घर बने हैं। गाँव-घर वाले घर, बँगले, विशाल कंकरीटी होटल। घाटी की शांति को हफ़्ते भर  तक नव वर्ष मनाते सैलानी पंजाबी गीतों की दुर्दम्य गतों से कँपा रहे हैं।

– ये फ़लाँ जरनल साहब का बँगला है, ये अलाँ क्रिकेटर का और वह ढिमाका एक्टर का। ये नए फ़्लैट बन रहे हैं, वहाँ एक रिज़ॉर्ट, पाँच सितारा। विदेश से एंजिनियर आए थे, छः महीने के लिए…

– अच्छा, वो सब ठीक लेकिन उस पहाड़ का क्या नाम? उस नदी का? वहाँ, घाटी में कौन गाँव? ये पेड़ पर क्या हैं? इतने बड़े नींबू?

– (अचम्भे से हँसते हुए) पहाड़, पेड़ का आपको क्या करना?

– तुम बताओ सही।

– वो पहाड़ धुआधार है। शंकर महादेव ने अपनी धुजा गाड़ी थी कैलास मानसरोवर को जाते।

ध्वजाधर पर्वत। अनगढ़, मिट्टी का भंगुर पहाड़। यहाँ यति शिव ने यात्रा में विराम लिया, अपनी ध्वजा स्थापित की, एक घटी साधना की और आगे को चल पड़े। एक मंदिर है, छोटा कैलाश।

– मंदिर कितनी दूर यहाँ से?

– ज़्यादा नहीं। लेकिन आप लोगों के लिए तो ऊँचा ही है। हमारे बच्चे सुबह को जाते हैं तो दोपहर तक परिक्रमा करके लौटते हैं। आप गाड़ी से जाना जितनी दूर तक हो सके।

– हम भी जा सकते हैं। पहाड़ों में घूमे हैं।

– मैदान के लोग थोड़ा… पहाड़ है, ऊपर-नीचे है, आप को चीड़ का जंगल दिखाता हूँ।

वह कहता नहीं लेकिन मैं सुन लेती हूँ – मैदान के लोग कमज़ोर ही होते हैं, तिस पर दूर सागर-तट के महानगर से आए तो और भी नाज़ुक। ये चाहिए, वो चाहिए, गर्म पानी, सारी रात हीटर। रास्ते में गिर-गिरा जाएँगे…

मैं चीड़वन से बहल जाती हूँ किंतु। चीड़ और देवदारु की सुवास। मुलायम तीलियों सी पत्तियों से लदी-फँदी शाखाएँ। धरती पर शहतीरों सी खिंची छायाएँ। चीड़ के कठियल, शंकु-सरीखे फलों से रिसती रेज़िन से अंगुलियाँ सुगंधित हुईं और चिपचिपी भी। पहाड़ी काग बोल रहा है, जैसे हवा में धातुई छल्ले गिर रहे हों। नीचे झाड़ियाँ बुलबुलों से झुनझुनों-सी झनक रही हैं। और उनसे भी नीचे, बहुत नीचे घाटी में कलसा की फेनिल धारा है।जल में नहाते पत्थर धूप में चमक रहे हैं।  

– नदी पर लोग हैं?

– औरतें हैं। कपड़े धो रही हैं। पास दिखती है नदी लेकिन है बहुत दूर। जाने में यहाँ से दो घंटा। पत्थल-झाड़ वाला रास्ता।

– वो औरतें कैसे पहुँची?

– (वही अचंभित दृष्टि) पहुँच गईं। बिना जाए काम कैसे चले?

एक चिड़िया चीड़ की टहनियों में फुदक रही है। गहरे रंग की। जापानी पंखे सी पूँछ खोलती है तो पंखों में छिपे फ़िरोज़ी-नीले रंग से डाल उद्भासित हो जाती है। पर फुला, पीली चोंच उठा वह सीटी-स्वर में पुकारती है।

– अरे, देखो ब्लू विस्लिंग थ्रश!

– ये तो कलचुनिया है! ये और मैनाएँ दिन भर शोर करती हैं।

– और वो जोड़ा? वहाँ सड़क-किनारे मिट्टी में?

– हम मूसिया चिड़ा कहते हैं। धरती खोदते रहते हैं, जैसे मूस! पहले नालों में दीखते थे, वहाँ बाँध बन गए हैं। अब सड़क के किनारे, मेंड़ों पर, यहाँ- वहाँ…

जगह-जगह दिख जाती हैं ये गदबद चिड़ियाँ, पहाड़ की मिट्टी सी ललौहीं-भूरी। बाँधों ने इन्हें बेठौर का कर दिया है।और भी जाने कितनों को।

एक कुत्ता हमारे साथ साथ आया है। काला, मख़मली, शांत आँखें। हमें रास्ता दिखाता, टहलता-सा, बेफ़िक्र समांतर चलता। छबरी पूँछ ज़रा-ज़रा हिलती है।  आगे बढ़ाई डबलरोटी ले कर खा लेता है। सहलाने को बढ़े हाथ से अलग हट जाता है किंतु। स्वायत्त और आश्वस्त, सहचर और एकाकी। सहसा थमकता है और हवा में थूथन उठा कुछ सूँघने लगता है। एक कत्थई, बालदार पशु, घुमावदार सींग और नुकीले कान वाला, रास्ते के उस ओर से कुलाँच भरता आता है और इस ओर की झाड़ियों में गुम। मैं झाड़ियों में झाँकती हूँ। नीचे घाटी तक खड़ी ढाल है।

– अरे किधर गया? कौन था?

– थार था। इतनी देर रुकेगा?! अब तक तो तल्ला सेला के नीचे!

थार या टाहर। जंगली बकरी।पहाड़ों के दूसरे बाशिंदों सा सीधी चढ़ाइयों और धार सी ढलानों पर निर्द्व्न्द्व फिरता, बँटे हुए खुरों से चट्टानों में पैर जमा विरल घास-पात चरता।

रास्ता अब सड़क होने लगा है। चार गाएँ हाँकती एक औरत डंडे से धरती ठोकती है और बिन-दाँतों की मुस्कराहट खोलती है। सड़क की बग़ल बग़ल खेत और घर। हर घर में एक बेतहाशा भौंकता पहाड़ी कुत्ता, एक नाटी गाय, खुलेपन से हँसती लड़कियाँ, गोलमोल बेहद प्यारे शिशु। एक आदमी खोद-खाद में लगा है। मैं रुक जाती हूँ।

– बड़ी ठंड है।

– ( काम रोक मुँहभर हँसता है।)

– खेत में क्या लगा है? क्या बना रहे हैं?

– मटर लगे हैं। कमरा बना रहा हूँ। अगले सीज़न किराए पर दे दूँगा, कुछ पैसे निकल आएँगे। खेती से कहाँ गुज़ारा?

– ये बच्चे?

– (गर्व से हँसता है) स्कूल जाते हैं।

– अच्छा पढ़ते हैं?

– ये फ़ेल हो गई (छोटा शोख़ लड़का बड़ी बहन की ओर इशारा करता है।)

– ये कौन फल है?

– (हाथ बढ़ा कर दो तीन बड़े पीले, नींबू से फल तोड़ कर) जमीरी हैं। ले जाइए, पहाड़ की कढ़ी बनती है इनसे।

खेती से खाने भर का कमाने वाला, ठंड में गीली मिट्टी खोदता वह जन हाथ हिला कर मना करता है, पैसे नहीं लेता। मेरे इसरार पर लड़की आगे आती है और नोट ले लेती है।

थोड़ा आगे दो-तीन दुकानें हैं।

– पाँच भाइयों की दुकान! ये कैसा नाम है?!

– पाँच भाई हैं, उनकी दुकानें। और क्या नाम हो? चक्की, पंसारी, मोबाइल-ओबाइल सब कुछ। वो कोने वाली इनके चाचा की है।

छोटी सी दुकानों में बर्नियों, बोरियों में थोड़ा थोड़ा सामान। नाप, तौल कर पुड़िया बाँधता आदमी हँसता है। एक बूढ़ी औरत लाठी टेकती आती है। मेरे पास से निकलते, रुक कर मेरे सिर-मुँह पर हाथ फेर अपनी भाषा में बुदबुदाती है। बिना भाषा जाने भी मैं जान लेती हूँ कि असीस रही है। फटा कम्बल ओढ़े, पहाड़ से कठोर हाथों वाली वह औरत नर्म आशीः से मुझे समृद्ध कर देती है।

फ़ेल होने वाली लड़की दुकान की ओर चली आ रही है। मैं बिस्कुट के पैकेट ख़रीदती हूँ।

– ये लो। ख़ुद खाना और भाइयों को देना। फ़ेल मत होना अबके। भाई चिढ़ाएगा।

– बोर्ड की परीक्षा मटर फलने के टाइम पर आती है। दिन भर चिड़ियाँ न उड़ाओ तो कुछ न बचे। पढ़ूँ कब?

लकड़ी के धुँए और पकती रोटियों की गंध आने लगी है, तोक सेला,तल्ला सेला, मल्ला सेला के घरों से। भीमुल, दूदीला, काफल, तुन वृक्षों पर साँझ राख सी झर रही है। एक पंछी कूजता है।

– लंबपुँछिया है। गलगल के पेड़ में गा रहा है। अब लौटिए।

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उषाकिरण खान की कहानी ‘मुझे ले चलो: भूखी हॅूं’

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आज वरिष्ठ लेखिका उषाकिरण खान की कहानी. उषाकिरण जी का कथा संसार बहुत विस्तृत है, इतिहास से वर्तमान तक उनकी कलम से कुछ भी नहीं बचा है. वह लोक और शास्त्र दोनों की सिद्धहस्त लेखिका हैं- मॉडरेटर

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बेहद नर्म सॉझ! कास के नर्म फूलों से आच्छादित खेत खलिहान। प्रेमियों का स्वर्ग। कई जोड़े छुप छुपकर मिलते, योजनायें बनाते आगामी जीवन के। सुभग यादव बड़े सम्पन्न और रसूखबार घर का चश्मे – चिरान तथा जगतारिणी उसी गॉंव के विपन्न पंडित की बेटी। दोनों का प्रेम उनके हमउम्रों को पता था, क्योंकि स्कूल जाने आने के बीच यह पनपा था। बात पंख लगा कर घर घर पहॅुंंच गई। सुभग को उसके दादा जी ने दालान पर सभी चाचाओं, भाई बहनों के सामने डॉटा –
‘‘सुभगा, तुम्हारी शादी पूरब पार के लखेन्दर मंडल के घर तय कर दिया है, जादे हाथ पैर न निकाल । पता है लखेन्दर बाबू केतना बड़े नेता हैं, पूरा परिवार पढ़ा लिखा जिमिदार है।’’ – हाथ उठाकर कहा
‘‘तोरो से बड़ा नेता बाबा जी?’’ – टिमकी ने ऑंखे फैलाकर पूछा। मंझले बेटे की बेटी को बचपन में ममरखा बीमारी हो गई थी सो कोइ तीन चार साल तक उसके हाथ पैर सींक सलाइ से और पेट खासा बड़ा हॉंड़ी सा रहा। तभी उसके असली नाम निर्मला को भ्ूल कर लोग टिमकी कहने लगे, सिर्फ उसकी दादी उसे नीरो कहकर बुलाती। वह दादी दादा की मुॅंह लगी थी।
‘‘हम तो उसके सामने कुछ नहीं हैं, ऊ हाथी तो हम चुट्टी।’’
‘‘हाथी? बाप रे बड़का अरना भैंसा जैसा तुम ही हो, ऊ और मोटा?’’
टिमकी की बात पर दादा जी हॅंस पडे़े थे, पास खींच कर सर सहलाने लगे थे। सोच रहे थे बड़ी भोली है। तभी तो उसने अपने साथ पढ़ने वाली जगतारिणी और सुभग भैया की प्रेम कहानी बयान कर डाली।
‘‘बाबा हो, सुभग भैया और जगिया राधा किसुन जैसा लगते हैं।’’ – बाबा हरिचन यादव का माथा ठनका। अरे, यह क्या सारा खेल चौपट्ट। सुभग होनहार लड़का है; मैट्रिक पास अच्छे नं0 से किया है। देखने में राजकुमार जैसा रूप है। उसकी राधा मंडल जी के घर से आयगी। हरिचन यादव ने बात को मोड़ा। लेट गये चौकी पर। यह उनका विशाल दालान था जिसमें एक कोने में बड़ी सी चौकी बिछी थी। उस पर पुआल बिछा था, पुआल के ऊपर मोथा घास की बुनी हुई गद्देदार चटाई, चटाई के ऊपर दुसुत्री खादी को चादर बिछी थी। चादर फूलदार था चटक रंगों का। दो मसनद थे बड़े, मोटे, गोलाकार। हरिचन यादव उसी पर सर रखकर सोते । दूसरे कोने पर कुछ नीचे मचान थे बॉंस की खपच्चियों के जिस पर शाम ढलते ही लोग जुट जाते। दो और चौकियॉं अपेक्षाकृत छोटी बिछी थी, उस पर चटाई मोड़कर रखी रहती। कोई आता तो बिछा दिया जाता।
हरिचण बाबा लम्बलेट हो गये और बच्चों से उंगली चटकाने से लेकर मुक्की मारने हाथ पॉंच दबाने की फरमाईश कर दी। बच्चों का यह आनन्दी काम था। सुभग, रमन दो चचेरे भाई हमउम्र थे और एक ही कक्षा में पढ़ते थे। रागिनी की शादी हो गई थी गौना न हुआ था, टिमकी तो छोटी थी, बंकू और टिमकी हम उम्र थे और साथ ही एक कक्षा में पढ़ते। इस तरह इस घर से हाइ स्कूल में 3 लड़के और सिर्फ एक लड़की टिमकी स्कूल जाती । दो साईकिल घर से मिले थे जिसका पर लद कर पॉंच लोग जाते। गांव के कम ही बच्चों के पास यह साइकिल थी। बाकी बच्चे कूदते फांदते स्कूल पहुॅंचते। अक्सर सुभग साइकिल छोड़कर चलता क्योंकि उसे जगतारिणी उर्फ जागो उर्फ राधा से बातें करनी होती। गॉंव के सभी बच्चे जागो को राधा कहते और सुभग को कृष्ण। अभी इन बालक बालिका को इल्म नहीं था कि जात पॉंत आड़े आयेगा। शादी ब्याह की बात बाबा के कहने पर दिमाग में आया वरना पता ही न था । पके पकाये खेती किसानी करने वाले मुखिया कोटि के बाबा नगर-नगर घूमते, राजनीतिक गलियारों में पैठ बनाते अपनी राह बना रहे थे। वैसे भी जातीय वर्गीकरण को जानने वाले इस प्रकार की प्रेमी जोड़ी का हस्र खूब समझते। परन्तु यहॉं सबसे बड़ा सवाल था हरिचन यादव का ऊॅंचे रसूखदार घर से जुड़ने का। सुभग प्रतिमा सम्पन्न पोता ही इन्हें कामनाओं का भवसागर पार करायेगा यह क्या हो रहा है । नः यह सब होने न देंगे।
पैर, पिंडली और सर दबाते बच्चों को बरहकेसी रानी की कथा रचरच कर सुनाने लगे । – ‘‘टिमकी, कभी बरह केसी रानी को देखी हो?’’
‘‘उहुॅंक’’ – टिमकी ने सर डोलाया, साथ में सभी छोटे-बडे़ बच्चों ने सर ना में हिलाया।
‘‘हम देखे हैं। पुरबिया लखेन्दर बाबू की पोती ही बरहकेसी है।’’
‘‘ऐं?’’ – सभी बच्चे चौंक उठे। सुभग और रमन कथा से इतरभी कुछ समझ रहे थे । इनकी मसें भीग रही थी, ये जवानी की दहलीज पर खड़े थे। कथा टिमकी और छोटे बच्चों के लिए नहीं, सुभग और रमण के लिए कही जा रही थी। तभी गांव के कुछ लोग आ गये। बच्चे छुट्टी पाकर फुर्र हो गये। बारहवीं में पढ़ने वाला रमन सुभग ने देखा ग्यारहवीं में पढ़ने वाली जगतारिणी कुमारी तीन दिनों से स्कूल नहीं आ रही है। उसके घर के पास की लड़कियों ने कहा कि
‘‘जागो को स्कूल आने की मनाही हो गई है।’’
‘‘क्यों,’’ पूछा सुभग ने।
‘‘तुम्हारे बाबा ने पुरहित काका को धमकाया। कहा कि इस गॉंव से उजाड़ देंगे । बेटी को स्कूल भेजना बंद करो।’’- सुभग सब समझ गया। पर कुछ बोल नहीं सकता। उसकी ऑंखों के सामने जगतारिणी की बड़ी-बड़ी काली ऑंखें प्रश्न करती सी दीखीं। जुगाड़कर वह मिला उससे। उसके पिता ने बड़ी बेरहमी से उसे मारा कि यह लड़की पगड़ी धूलधूसरित कर गई। पहले तो उस कुजात ग्वाला के बेटे से लागडाट कर बैठी फिर समझाने पर कहती है कि प्रेम करती है। अभी प्रेम का भूत उतर जायेगा । दोनों तरफ से रोक हो गई, इन्हें कुछ न सूझा, एक दूसरे के प्रेम में डूबे दोनों मृग छौने से प्रेमी भाग खड़े हुए। पुरोहित और उसकी पत्नी ने सर ठोका-
‘‘हमारे लिए मर गई छोकरी, हम उसका श्राद्धकर देंगे।’’- क्रोध से पैर पटकते बोले।
‘‘यह तो भला है कि दूर-दूर में कोई घर अपनी जात का नहीं है, सो इज्जत थोड़ी तो बची। ए जी, सिमरिया वल के श्राद्ध कर आवे।’’- यह सब हो ही रहा था कि हरिचन यादव ने निकटवर्ती थाना में केस कर दिया। सुभग और जगतारिणी पकड़े गये। नाबालिग थे, दोनों दो रिमांड होम में रखे गये। भागे हुए दोनों किशोर लुकते छिपते एक दूसरे से जनम जनम का साथ निभाने का वादा करते न थकते। जगतारिणी को अपने पागल प्रेमी पर पूरा भरोसा था, सुभग को अपने आप पर विश्वास कि हम फिर मिलेंगे । अलग अलग सुधारगृह में जाते जाते इन्होंने ऑंखों ही ऑंखों में एक दूसरे को परस्पर आश्वस्त किया। बिना किसी रीति रिवाज में बंधे ये एक दूसरे के हो चुके थे।
रिमांड होम का जीवन जगतारिणी का मानो नरक था। घबराई सकुचाई सी प्रवेश करते ही उसे संचालिका का सामना करना पड़ा। पतली दुबली सी सॉंवली काया बाली, कीमती कपड़ों और गहनों से लदी मैडम ने कड़क पर पूछा –
‘‘बड़ी आग लगी थी शरीर में कि इसी उमर में यार के साथ भाग आई? बढ़िया जगह पहुॅंची, हो सारी आग बुझ जायेगी।’’- टेढ़ी मुस्कान थी। जगतारिणी ने उसकी बात समझी ही नहीं। पर जाने क्यों, तीर सी बेध तो गई। लहजा और चेहरे की तिर्थक मुस्कान। फिर कुर्सी पर बैठ गई रजिस्टर लेकर।
‘‘नाम क्या लिखें?
‘‘जी जगतारिणी’’
‘‘यहॉं यह नाम नहीं चलेगा, आज से तुम्हारा नाम हुआ नीतू, समझी?’’
‘‘जी’’ – इसका हलक सूख रहा था। एक स्टाफ इसे अन्दर ले गई। अन्दर, पन्द्रह बीस हर उम्र की औरतें थीं। कुछ इसकी उमर की भी थीं, कुछ बड़ी, लेकिन किसी के बदन पर पूरा कपड़ा नहीं था स्टाफ ने इसे धकेल कर कहा – जा बैठ, जरूरत होगी तो बुलायी जायेगी। जाते जाते बरामदे की किवाड़ बंद करती गई। अब अनायास इसकी ऑंखे भर आई, यह रोने लगी। छोटी लड़कियॉं पास सिमट आई। बड़ी औरतों ने डपटा – ‘‘क्या रोना धोना मचा रही है, चुप रह।’’
‘‘जिन्दगी भर रोना ही है, अभी सारा ऑंसू बहा देगी?’’ – दूसरी थी इनमें से एकाध को छोड़कर सभी प्रेमी के साथ भागी हुई औरतें थीं दूसरे ही दिन नीतू बनी जगतारिणी तथा दो अन्य युवतियों को साबुन साफ-चमकीले कपड़े और श्रृंगार के सामान संचालिका ने भेजे । खाना भी खाने को दिया गया । नीतू हैरत में थी पर साथी लड़कियों ने ऑंखों में ऑंसू भर कर खाया। उम्रदार औरतों को अपने भोजन में से ऑंख बचाकर युवतियों ने दिया क्योंकि उन्हें वही पानी जैसी कंकड़ वाली खिचड़ी दी गई थी। उम्रदार औरतों ने नीतू को समझाया कि उसे कहॉं जाना है। किसी रसूखदार अमीर या नेता के यहॉं जाना है। नीतू घबड़ा कर रोने लगी। उनमें से एक औरत ने डपट कर कहा – ‘‘यार के साथ जो कर चुकी है वही सब तो होगा, चुप रह।’’
‘‘ऐसा था तो घरसे भागी क्यों थी?’’ – दूसरी थी। रोने कलपने से क्या होता, नीतू तो पहले ही प्यार में फिसल कर बियाबान में खड़ी थी। अब उसकी देह अपनी न रही। रोज बिकने लगी। बिना किसी कैलेंडर वाले रिमांड होम में रहते उसे कई साल गुजर गये। वह मात्र तीन महीनों के लिए आई थी। कोई लेने न आया। पिता ने सचमुच सिमरिया घाट जाकर श्राद्ध कर डाला। प्रेमी के बाबा तीन माह पूरा होते ही उसे छुड़ा ले गये। घर जाकर अपने हमउम्र भाई से पूछा कि क्या जगतारिणी का कोई अता-पता है? भाई ने बताया कि पुरोहित जी का परिवार अब गॉंव में नहीं रहता। उसे छुड़ाकर वे ले गये होंगे। एक आह भरने के सिवा वह क्या कर सकता था। कड़ी निगरानी में पढ़ाई और परीक्षा में लग गया।
हरिचन बाबा का राजनीति में कद बढ़ने लगा। अपने इलाके के सर्वमान्य नेता जो थे। इनका खपरैल कच्चा दालान अब पक्का हो गया था। एक कोठरी निकाल दी गई थी जिसमें नये काट का पलंग और सोफासेट सजा था खुले में कुर्सियॉं और बेंचे लगी थीं। एक बार मंडल जी इलाका घूमने आये थे। तब जेनरेटर से रोशनी का प्रबंध किया गया था। कबीर की बंदगी के बहाने इलाके भर के कबिरहे इकट्ठे हो गये थे। मंडल जी के सामने यह यादव जी का शक्ति प्रदर्शन ही था। बड़े-बड़े खेतों के किते और तबेले में गाय भैंसे, बैल इत्यादि देख सम्पन्नता का अहसास हो गया था। मंडल जी अपने मंझले बेटे की सॉंवनी नकचढ़ी नातिन का रिश्ता सुभग के साथ तय कर दिया। सुभग ने बी0ए0 पास कर लिया था, बाबा के साथ आज्ञाकारी बन रहाता। लखेन्दर मंडल को लड़का अपनी काली माई नातिन के लिए उपयुक्त लगा। अपने गले से मोटा सोने का चेन निकालकर पहना दिया गले में और गांव घर की औरत मर्दों के सामने छेका कर दिया ।
‘‘समय रहता तो पुरोहित को आमगॉंव से बुलस लेते प्रभु।’’- हरिचन ने मंडल जी से कहा हाथ जोड़ कर।
‘‘इतने लोगों के सामने हम दोनों परिवार एक दूसरे से संबंध जोड़ने का संकल्प ले रहे हैं, यह बहुत है यादव जी। ये ही गवाह हैं। बाकी पुरोहित पंडित का काम शादी में।’’
‘‘हम भी आते हैं मंडल जी, पतोह के लिए कुछ फर्ज है कि नहीं?’’ – यादव जी की बात पर मंडल जी हॅंस पड़े। विदा हो रहे थें तब याद दिलाने पर सुभग ने लखेन्दर मंडल के चरण घुए। बडे़े लावलश्कर के साथ हरिचन यादव लड़की छेकने पहुॅंचे। एक सौ एक दही, चूड़ा, खाजा लड्डू का भार लेकर । शादी भी उतने ही लाव लश्कर के साथ हुई। चानन नदी के पूरब पश्चिम लोगों का कुटुम्ब का रिश्ता पक्का हो गया । एक दूसरे को मीठी गाली देने का सर्टिफिकेट मानो मिल गया। अगले चुनाव में इस संबंध में मंडल जी को पहली बार लोकसभा भिजवा दिया। हरिचन फूले न समाते। अब इनके दालान पर अफसर नेता बैठने लगे। बेटे को सड़क की पुल की ठेकेदारी मिल गई। सुभग के दिल का हाल तो कोई नहीं जानता था, हॉं वह चालाक ठीकेदार हो गया था । खादी का कुरता पाजामा और जैकेट उसके भरे-भरे-भरे मूॅंछों वाले व्यक्तित्व पर खूब फबता । राजधानी में मकान पर मकान बन गये। बाजार बन गया । मॉल की योजना बन गई। पर गॉंव का घर खेत, बगान और तबेला नहीं छूटा। पहले दूध से क्रीम निकालने के लिए दो मशीनें चलती थीं अब दर्जन भर चलती है। सारे चचेरे भाई खटाल और मशीन देखते। वह आमदनी का बढ़िया जरिया था। नये नये मशीन भी आने लग गये थे। बाबा हरिचन के गुजर जाने के बाद सुभग सपरिवार राजधानी में रह गये। पिता सखीचन यादव हाई स्कूल के हेडमास्टर बन कर रहे। रिटायरमेंट के बाद गांव में ही रह गये। उनकी रूचि राजनीति में नहीं थी। उन्होंने गांव में ही पुस्तकालय वाचनालय बना लिया वहीं कुछ युवाओं को साइन्स पढ़ा देते, अधेड़ बैठकर सतसंग करते। कभी कभी कबीर वाणी भी गूंजती सरकारें बदलती रहीं सुभग यादव की किस्मत वैसी ही चमकदार रहीं। हरिचन बाबा के सिखाये पर चलते रहे तो कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। बड़े से बड़े पुल का ठेका मिल जाता। इनकी ओर से भी मुॅंह मांगी व्यवस्था हो जाती। सरकारें बदलतीं पर व्यवहार नहीं बदलता। दस्तूर वहीं रहता जो गुलाम भारत में था। सो इन लड़कियों के खाने पीने का प्रबंध होता रहता। नीतू रानी, गुलाब नामधारी ये लड़कियॉं जीवित हैं यह अन्दर पता भी नहीं चलता। छोटे छोटे चिथड़े मात्र कोई एक अंग ढॅंक सकता। एक दिन किसी ने कहा – ‘‘थोड़ा बड़ा कपड़ा दे दो’’ – कर्मचारी औरत ने डपटकर कहा – ‘‘क्यों? भागने का इरादा है क्या? शरम है सो बाहर नंगी तो जा नहीं सकती।’’ – राक्षसी हॅंसी हॅंसती रही थी। यह लगता ही नहीं कि वह भी औरत है। एक दिन रानी ने बिसूरती गुलाब सेकहा कि वह खुद नंगी रह लेगी दो टुकड़े लेकर गुलाब भाग जाये। बाहर जाकर कोई उपाय करे, पढ़ी लिखी है। पर बड़ी अधेड़ औरतों ने मना किया। बाहर अगर मनुष्य हो तो जाओ वरना सब तरफ हिंस्र जानवर हैं। ये दीवार से सर पटकती विवश थीं। नीतू बनी जगतारिणी सोचती कि क्या कभी सुभग इसके बारे में नहीं सोचता होगा? वह जरूर छुड़ा लिया गया होगा। वह इसे ढूंढता नहीं होगा? उसकी मुलायम छुअन इसके कोमल तन मन को स्मृति में ही सहला जाती। माता-पिता कभी इसे याद नहीं करते होंगे? कितने निर्मम हैं। अपनी संतान का जीते जी श्राद्ध कर दिया। अच्छा तो है, श्राद्ध तो हुआ वरना पिछले साल मरी फूलकुमारी चाची की तरह घसीट कर कुत्ते की लाश की तरह गंगा किनारे फेंक दी जाती। न अग्नि संस्कार, न कब्र नसीब, कौन करता? श्राद्ध के बाद यह नरक भोग रही है। किस पाप का फल है, प्रेम करने के पाप का, नहीं औरत होने के पाप का। यह समझ गई है नीतू। बाद में आने वाली लड़कियों को देखती तब इसकी रूलाई फूट जाती।
एक दिन तीन युवतियॉं साथ जिस गाड़ी में जा रही थीं, उसके आगे वाली गाड़ी में जो बैठा था वह सुभग यादव से कितना मिलता था, क्या वहीं है? जब एक विशाल परिसर में उतरीं और एक हॉल में पहुॅंची तब भी उसे कुछ कहते सुन रही थी। सभी इन्द्रियॉं कान में इकट्ठी हो गई थीं। यह तो सुभग की आवाज है । चलकर सुभग की ओर आई। उसने इसे देखा तो देखता रह गया; तभी एक स्त्री आकर इन्हें पकड़कर ले गयी। तीनों को तीन सजे धजे कमरों में पहुॅंचाया नीतू ने सुभग की ऑंखों में पहचान की एक कौंध तो देखी जो पल भर में बिला गई। उन सूखी पथरीली ऑंखों में पानी नहीं था। नीतू के मन में जो एक झूठी ही सही छवि थी वह खंड खंड हो गई । अब वह अधिक निर्लिप्त भाव से अपना देह दान करती। वह मनुष्य नहीं है, प्रेत है, ये सारे कामुक लोग प्रेतसमागम करते हैं। यह सोचकर संतोष कर लेती।
जाने क्या हुआ एक दिन सभी स्त्रियों को तेल साबुन और कपड़े दिये गये। नहा धोकर पहनने का हुक्म हुआ। फिर संचालिका ने बुलाकर एक-एक को समझाया कि आनेवाली अधिकारियों के बीच मुॅंह न खोलना, कहना सब ठीक है वरना वो गई और तुम सबकी शामत आई। तेजाब से नहला दॅुंगी।’’ – वही हुआ किसी ने कुछ न कहा। अधिकारी ने पूछा – ‘‘तुमलोगों में से कोई पढ़ी लिखी है? और कुछ हुनर जानती है?’’
‘‘मैं ग्यारहवीं पास हॅूं।’’- नीतू ने कहा।
‘‘गुड, बेटी गुड’’ – बाकी सब भी कुछ न कुछ पढी लिखी थीं और अन्य काम जानती थीं। कुछ दिन वहॉं कोई वर्कशॉप चला फिर बंद हो गया। उस महिला अधिकारी का तबादला कर दिया गया ।
सुभग ने नीतू को पहचान लिया था, मन के अंदरखाने में कुछ खलबली हुई। फिर सधे हुए खिलाड़ी ने सब पर राख डाल दी। वह एक सम्मानित व्यक्ति है और जगतारिणी बेभाव ही बिक जाने वाली नगण्य जीव। कभी खिले थे प्यार के पुष्प जिसकी पंखुड़ियॉं झड़ गई, अब उसमें कीड़े कुलबुला रहे हैं । झटक कर फेक देना ही श्रेयष्कर है। सीढ़ियॉं ऐसे ही चढ़ी जाती हैं । यह राजभवन तक जाता है, गॉंव में दुर्गामंदिर के उद्घाटन के अवसर पर राज्यपाल को ले गया था, इलाके में देवी भक्त होने का श्रेय इसे ही मिला है । अपनी वक्तृता से सबों को मंत्रमुग्ध किये देता है –
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते
रमन्ते तत्र देवता!
‘‘मैं इसी पर विश्वास करता हॅूं। आप भी करें।’’ लाल सिंदूर का बड़ा सा टीका लगाये लाल वस्त्र धारण किये दुर्गा मॉं की प्रतिमा के आगे बैठा कितना पवित्र लगता सुभग यादव। अहा, एकदम अपने बाबा हरिचन बाबू पर गये हैं, समाज को मंदिर बनाकर समर्पित किया। पिताजी सखीचन तो अपने मिजाज के अपने मालिक हैं। शरीर अशस्त हो गया था नीतू का रंग झॉंवर हो गया, ऑंखें कोटर में धॅंस गई थी। कई दिनों से मॉंउ पर थी, अंतड़ी ऐंठ रही थी। मैली कुचैली फटी साड़ी में वह झाडू़ लगा रही थी कि तीन किशोरियॉं सजकर बाहर निकली, वे गाड़ी में बैठ गई। नीतू तेजी से निकली और आगे सीट पर बैठे अधेड़ आदमी का कुर्त्ता पकड़ लिया – ‘‘सुभग बाबू, मुझे भी ले चलो न, मैं कई दिनों की भूखी हॅूं।’’ – साथ में बैठा स्टाफ लपक कर आया छुड़ाने, रिमांड होम की दीदी दौड़ी आईं। गाड़ी निकल गई। अंदर आकर उस पर ताल घूंसों की बरसात होने लगी। वह अचेत होने तक चीखती रही – ‘‘सुभग बाबू मुझे ले चलेगा, मुझे खाना मिलेगा। लाओ नये कपड़े मुझे दो।’’
-‘‘दिमाग चल गया है बुढ़िया का, अब पागलखाना भेजना होगा। नीतू उर्फ जगतारिणी निश्चेष्ट थी। कास के फूल की कोमल छुअन बिला गई थी, अब उसकी पत्तियों की धार से छलनी यह नीतू थी।

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राजकमल प्रकाशन के सत्तर साल और भविष्य की आवाजें

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राजकमल प्रकाशन के सत्तरवें साल के आयोजन के आमंत्रण पत्र पर सात युवा चेहरों को एक साथ देखना मुझे हिंदी साहित्यिक हलके की एक बड़ी घटना की तरह लगती है. राजकमल प्रकाशन ने एक तरह से हिंदी के कैनन निर्माण में भूमिका निभाई है. निस्संदेह राजकमल हिंदी की प्रगतिशील मुख्यधारा का सबसे बड़ा प्रकाशक है तो उसने हिंदी की नई-नई प्रवृत्त्तियों को भी स्वीकारा है, हिंदी के नए मुहावरों को मंच दिया और नई आवाजों को मुखर किया. यह कहना शायद अतिशयोक्ति न हो कि आजादी के बाद का हिंदी साहित्य का इतिहास बहुत कुछ राजकमल प्रकाशन का इतिहास भी होगा. राजकमल इतिहास भी है, वर्तमान भी और हिंदी के भविष्य के आहटों को सबसे पहले सुनने और समझने का भी काम उसने निरंतर किया है. ऐसे में ‘भविष्य के स्वर’ आयोजन में सात युवा चेहरों को एक साथ देखना यह बताता है कि युवा रचनाशीलता को उसकी सम्पूर्ण विविधता में स्वीकार करके राजकमल ने यह बताया है कि वास्तव में समकालीन युवा लेखन अब तक का सबसे विविधवर्णी युवा लेखन है, वह केवल गल्प नहीं लिखता है, समकालीन युवा लेखन एकांगी नहीं है, नॉन फिक्शन तथा साहित्य की अन्य विधाओं में भी उसकी दखल है, उसकी पकड़ है. वह परंपरामुक्त बदलाव का लेखन नहीं है बल्कि हिंदी की समृद्ध परम्परा के विस्तार का लेखन है, जो बहुत सी विधाएं सिमटती जा रही थीं उनके पुनराविष्कार का लेखन है. वर्तमान में वह उतना स्पष्ट भले न दिख रहा हो भविष्य में उसका रूप शायद और स्पष्ट हो- यही भविष्य के स्वर हैं.

मैं निजी तौर पर इस इस आयोजन को लेकर बहुत उत्सुक हूँ और आप सभी से यह आग्रह भी करता हूँ कि 28 फ़रवरी को इण्डिया इन्टरनेशनल सेंटर के मल्टीपर्पस हॉल में शाम छः बजे आएं- सात आवाजों, सात विचारों को सुनें.

प्रभात रंजन

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हिंदी का सबसे बड़ा साहित्यिक प्रकाशन समूह कौन है?

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यह पुराने प्रकाशनों के विलयन का दौर है, उनको नया रूप देने के लिए बड़े प्रकाशकों द्वारा अपनाया जा रहा है. कुछ समय पहले पेंगुइन ने हिन्द पॉकेट बुक्स को खरीद लिया था. अब खबर आई है कि राजकमल प्रकाशन समूह ने हिंदी के चार प्रकाशनों को पुनर्जीवित करने के लिए उनका विलय कर लिया है. इनमें 102 साल पुराना और राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन द्वारा स्थापित ‘साहित्य भवन’ है, जैनेन्द्र कुमार द्वारा स्थापित पूर्वोदय प्रकाशन है, मोहन गुप्त द्वारा स्थापित सारांश प्रकाशन है जिसने एक जमाने में शायरी की अनेक अच्छी अच्छी किताबों का प्रकाशन किया था, और पिछले दशक में अपने चयन और प्रोडक्शन से पाठकों का ध्यान खींचने वाला प्रकाशन रेमाधव है. इससे पाठकों को यह लाभ होने वाला है कि बहुत सी ऐसी किताबें फिर से प्रकाशित हो पाएंगी जो इन प्रकाशनों के साथ लुप्त हो गई थीं. पूरी खबर पढ़िए- मॉडरेटर

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बीते दशक में हिंदी पाठकों की एक नई पीढ़ी तैयार हुई है. जो न केवल नए लेखकों और नए तरह के कंटेंट की उम्मीद से सराबोर है, बल्कि उसे अपनी भाषा की विरासत की भी चिंता है. इसका सकारात्मक असर हिंदी प्रकाशन उद्योग पर भी पड़ा है. किसी भी जिम्मेदार और दूरदर्शी प्रकाशक को जब पाठकों का बहुत मजबूत साथ मिलता है तो उसे नई से नई योजनाओं को साकार करने, विरासत को नई पहुँच देने का कदम उठाने में संकोच नहीं होता. फ़िलहाल हिंदी प्रकाशन के इतिहास में एक बहुत मानीखेज मोड़ सामने आया है जब इतिहास के पन्नों में रह जाने की हालत में पहुँचने वाले बहुत प्रतिष्ठित चार प्रकाशनों का राजकमल प्रकाशन समूह में विलय हो गया है. साहित्य भवन प्राइवेट लिमिटेड (स्थापना वर्ष : 1917), पूर्वोदय प्रकाशन (स्थापना वर्ष : 1951), सारांश प्रकाशन (स्थापना वर्ष : 1994), रेमाधव प्रकाशन (स्थापना वर्ष : 2005) — ये चारों प्रकाशन अपने लेखकों और अपने यहाँ से प्रकाशित कृतियों की दृष्टि से हिंदी के लिए बहुत खास रहे हैं. अब ये राजकमल प्रकाशन समूह के अंग हो गए हैं.

इस विलय के बारे में बताते हुए राजकमल प्रकाशन समूह के अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक अशोक महेश्वरी ने बताया कि जब से मैंने होश संभाला, हिंदी प्रकाशकों को आपस में थोक खरीद की बातें करते ही पाया। थोक खरीद यानी सरकारी निर्भरता। सब इसी के लिये झगड़ते और इसी के कारण दोस्ती करते। तभी से सोचता रहता कि इससे मुक्ति कैसे मिल सकती है! मुझे लगता रहा है कि अच्छी, पाठकप्रिय पुस्तकें ज्यादा से ज्यादा हों, एक साथ हों, तभी शायद इससे मुक्ति संभव हो सकती है। अतीत के गर्त में जाती इन हजारों पुस्तकों को जो श्रेष्ठतम भारतीय मनीषा द्वारा रची गई हैं, जो पाठकों को प्रिय रही हैं, जिनमें भारतीय परंपरा और चिंतन की धारा है—एकत्र करना, बाजार में बेहतर ढंग से वापस ले आने का संयोग जुटाना आत्मनिर्भर और पाठक-निर्भर होने की दिशा में हमारा एक बड़ा कदम है।

102 वर्ष पुराने ‘साहित्य भवन’ की स्थापना महान हिंदीसेवी राजर्षि पुरूषोत्तमदास टंडन जी की अगुआई में हुई थी. शुरुआत में संस्था का दृष्टिकोण व्यवसायिक न होने के कारण इसे आर्थिक कठिनाई का सामना करना पड़ा। हालाँकि यह वही प्रकाशन है जिसने निराला, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पन्त, हजारीप्रसाद द्विवेदी, परशुराम चतुर्वेदी से लेकर नामवर सिंह का लेखन भी पहली बार प्रकाशित किया. शरतचंद्र, ताराशंकर वंद्योपाध्याय, क्षितिमोहन सेन, सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या से लेकर महाश्वेता देवी तक को बांग्ला से हिंदी में ले आया. दरअसल बाद के वर्षों में नगरसेठ मनमोहन दास टंडन ने इसके आर्थिक पक्ष को मजबूत कर इसे आगे बढ़ाया. उनके प्रपौत्र और साहित्य भवन के वर्तमान निदेशक अलंकार टण्डन ने विलय के बारे में बात करते हुए कहा कि “साहित्य भवन से लगभग सभी साहित्यिक विधाओं में एक हजार से अधिक दुर्लभ किताबें प्रकाशित हुई हैं। राजकमल प्रकाशन समूह हिन्दी में अग्रणी प्रकाशन संस्थान है। ऐसे समूह में साहित्य भवन प्रा.लि. का शामिल होना न केवल पब्लिकेशन इंडस्ट्री के लिए, बल्कि साहित्यिक दृष्टिकोण से भी एक मह्त्वपूर्ण परिघटना है। हम प्रसन्न हैं और समूह के उज्जवल भविष्य की कामना करते हैं।“

पूर्वोदय प्रकाशन की स्थापना हिंदी के सुप्रसिद्ध लेखक जैनेन्द्र ने की थी। उनके सुपुत्र प्रदीप कुमार का कहना है—“हमारे लिए यह बहुत सम्मान की बात है कि पूर्वोदय प्रकाशन की विरासत अब राजकमल प्रकाशन समूह के प्रतिष्ठित हाथों में है। पूर्वोदय प्रकाशन ने कई दशकों से बेहतरीन एवं गुणवत्तापूर्ण साहित्य पाठकों के लिये उपलब्ध कराया है। उम्मीद है कि राजकमल प्रकाशन समूह में पूर्वोदय प्रकाशन का शामिल होना हिन्दी भाषा और साहित्य की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को और आगे बढ़ायेगा।“

रेमाधव प्रकाशन तीन दोस्तों—अतुल गर्ग, अशोक भौमिक और माधव भान के जोश और उत्साह से शुरू हुआ था. इन्होने शुरुआत बांग्ला के मूर्धन्य लेखक—सत्यजीत रे, शंकर, श्रीपन्थ, सुनील गंगोपाध्याय की किताबों के हिन्दी अनुवाद से की. आकर्षक कवर और अच्छे प्रोडक्शन से इनकी बड़ी पहचान आरम्भ से ही बन गई. रेमाधव के सह-संस्थापक माधव भान का कहना है, “राजकमल प्रकाशन हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ प्रकाशन है। रेमाधव पब्लिकेशन्स का ऐसे संस्थान के साथ जुड़ना हमारे लिए गौरव की बात है। मुझे खुशी है कि रेमाधव की किताबें, अपनी परंपरा के अनुरूप शानदार प्रोडक्शन के साथ अब राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होंगी।“

सारांश प्रकाशन के संस्थापक मोहन गुप्त ने हिंदीतर भारतीय भाषाओं के साहित्य और विश्व साहित्य की चुनिंदा कृतियों के अनुवाद साथ ही सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक विषयों पर वैचारिक पुस्तकों के प्रकाशन के ध्येय के साथ जब अपना काम शुरू किया तब उनकी उम्र 60 के पड़ाव पर थी। बहुत जल्द उन्होंने बड़े-बड़े लेखकों की कई महत्वपूर्ण किताबों का प्रकाशन उच्च गुणवत्ता के साथ किया. उनका कहना है कि “सारांश एक सपने की फलश्रुति थी. मुझे इसकी गुणवत्ता की रक्षा की चिंता थी. किसी के आर्थिक हितों के लिए मैं इसके नाम का दुरूपयोग नहीं होने देना चाहता था। लेकिन अशोक महेश्वरी की कार्यशैली और उनके व्यवहार को काफी समय तक देखने के बाद भरोसा हुआ कि वे इस गौरवशाली संस्थान की परंपरा को न केवल सुरक्षित, रखने बल्कि आगे बढ़ाने में भी समर्थ हैं। अब सारांश उनका है और मैं आश्वस्त हूँ कि वे मेरे इस सपने की महनीयता को भी सुरक्षित रखेंगे।“

 

ज्ञात हो कि राजकमल प्रकाशन की स्थापना 1947 में हुई. इस वर्ष 28 फरवरी को वह अपना 70वाँ प्रकाशन दिवस ‘भविष्य के स्वर : विचार पर्व’ के रूप में मना रहा है. राजकमल से 45 से अधिक विषयों की 21 विधाओं में 7000 से अधिक किताबें प्रकाशित हैं. 25 से अधिक भारतीय और भारतीयेतर भाषाओँ के श्रेष्ठ साहित्य का हिंदी में अनुवाद प्रकाशित कर चुके इस प्रकाशन के कई किताबें पांच-पांच लाख प्रतियों से ज्यादा बिक चुकी हैं. ओंप्रकाश जी जैसे दूरदर्शी संस्थापक की डाली हुई मजबूत नींव पर खड़ा यह प्रकाशन 1995 में तब प्रकाशन समूह बन गया जब इसके साथ राधाकृष्ण प्रकाशन एवं लोकभारती प्रकाशन का विलय हुआ।

राजकमल प्रकाशन समूह के सम्पादकीय निदेशक सत्यानन्द निरुपम ने इस विलय को हिंदी और कई भारतीय भाषाओं की अनेक दुर्लभ अनूदित कृतियों को संरक्षित करने और भावी पीढ़ी को सौंपने वाला कदम बताया। उन्होंने कहा कि राजकमल के इस बड़े कदम की असल शक्ति उसके पाठक हैं। उनके भरोसे के बल पर न केवल नए तरह के कंटेंट के प्रयोगधर्मी प्रकाशन हम लगातार कर रहे हैं, बल्कि अतीत की दस्तावेजी किताबों को सहेजने-पुनर्प्रकाशित करने का काम भी आगे बढ़ाया जा रहा है। हिंदी लेखन के वैविध्य को सर्वोत्तम ढंग से सामने ले आने का यह सिलसिला अभी और आगे बढ़ेगा। यह हिंदी प्रकाशन का एक नया और बेहतर दौर है।

राजकमल प्रकाशन समूह के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) आमोद महेश्वरी का कहना है कि प्रतिष्ठित चार प्रकाशनों का राजकमल प्रकाशन समूह में विलय, पाठकों तक पहुँचने की राजकमल की प्रतिबद्धता और जुनून को दर्शाता है। हिन्दी प्रकाशन जगत में इन चारों प्रकाशनों की एक विशेष पहचान रही है। इन प्रकाशनों से प्रकाशित किताबें को नए रूप में ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों तक पहुँचाने के काम में राजकमल प्रकाशन समूह जुट गया है।

राजकमल प्रकाशन समूह,  मार्केटिंग डायरेक्टर अलिंद महेश्वरी ने कहा कि किताबों को आकर्षक अंदाज, रूप, एवं भिन्न प्लेटफॉर्म पर पाठकों तक पहुँचाने के लिये राजकमल प्रकाशन हमेशा से जाना जाता है। उन्होंने कहा, “पाठक की रूचि एवं उनकी पसंद हमारे लिये सर्वोपरी है। यह हिन्दी प्रकाशन जगत के लिये एक मील का पत्थर साबित होगा। चारों प्रकाशनों की किताबें न केवल प्रिंट बल्कि डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भी पाठकों के लिये उपलब्ध हों, इसके के लिए हम प्रयासरत हैं। “

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‘जहाँ नहीं गया’की कविताओं में समकालीनता और भविष्य

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कवि अमृत रंजन के कविता संग्रह ‘जहाँ नहीं गया’ की समीक्षा लिखी है सुपरिचित कवयित्री स्मिता सिन्हा ने- मॉडरेटर

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आसमान के सात रंग

मेरी ही करतूत हैं ।
जी हाँ !
अचम्भित ?
यह वही सात दुपट्टे हैं ,
जो हर दिन हवा में फेंका करता था ।
मुझे क्या पता था
कि तुम्हारे यही लाल , पीले , नीले , हरे , बैंगनी दुपट्टे
आसमान का मन मोह लेंगे ।
कमाल कर दिया ।
आजकल भी बरसात के बाद ,
आसमान से रुका नहीं जाता
उन दुपट्टों को चूमने से ।
हम भी दृश्य का मज़ा लेते हैं !
अमृत रंजन उस समय महज बारह साल के रहे होंगे , जिस वक्त मैंने उनकी यह कविता यहीं जानकीपुल पर पढ़ी थी । मुझे अच्छी तरह से याद है कि इस कविता को पढ़ने के बाद मैं देर तलक ठहर गयी थी अपनी सोच में । इंद्रधनुष का ऐसा मनोहारी बिम्ब …..स्तब्ध थी अमृत की उम्र के परिपेक्ष्य में उसके विचारों की परिपक्वता और इतनी विलक्षण कल्पनाशीलता देखकर । फिर हमारी मुलाकात भी हुई और बातचीत के क्रम में जाने कितनी बार पूछ गयी मैं , अमृत किन मनोदशाओं में लिख जाते हो ये कवितायें ? बालसुलभ सहजता से उसने जवाब दिया , बस ऐसे ही जैसे आपसे बातें कर रहा हूँ । मैं चकित देखती रही उसकी अबूझ आंखों में । विस्मृत सी उसकी मुस्कुराहट की गहराइयों को देखकर ।
                     हाँ तो जिस उम्र में बच्चे नखरे दिखाते हैं , ज़िद ठानते हैं , दोस्ती यारी और हाईटेक डिजिटल उपकरणों में खुद को झोंक देते हैं , उस कच्ची सी उम्र में अमृत परिमार्जित कर रहा था अपने विचारों को । पहचान बढ़ा रहा था अपनी भाषा से । पारम्परिक काव्यात्मकता और लयात्मकता से विलग रच रहा था अपना रचना संसार । पारिभाषित कर रहा था खुद को कविता की उस भीड़ में जहाँ खुद कविता गुम हो चुकी थी । मेरे लिये उसे हर एक दिन एक एक कदम आगे बढ़ाते हुए देखना उतना ही पुरसुकूं था , जितना कि छोटे से पौधे पर पहली कोंपल को फूटते देखना । उसका हरापन इस मायने में भी स्निग्ध लगता कि मैंने बेहद करीब से देखी थी पास की धरा में इस पौधे की बीज की बुआई , उसका सींचना और धीरे धीरे पल्लवित होना ।
                     खुद को बेहद अंडरटोन रखने वाले अमृत का पहला काव्य संग्रह ‘जहाँ नहीं गया ‘ अभी जब मेरे हाथ में हैं तो मैं समझ नहीं पा रही कि कहाँ से शुरु करुँ ! बिल्कुल अंतिम कविता से शुरु होकर भी पहली कविता तक आया जा सकता है या फिर कहीं भी किसी भी पृष्ठ पर कोई भी कविता से शुरु किया जा सकता है । हर एक कविता आपको हाथ बढ़ाकर रोक लेगी अपने पास सोचने विचारने , समझने बुझने , लड़ने झगड़ने या फिर बिल्कुल मौन होकर रह जाने के लिये । इस संग्रह की हर एक कविता पहली कविता बन सकती है और हर शब्द संग्रह का शीर्षक । कवि हर कविता में अपने सभी अर्थों के साथ मौजूद है । हर एक कविता में अपनी चेतना से दार्शनिकता का बोध कराता । हर एक कविता में पीड़ा और बेचैनी का अलहदा रंग ।
कितना और बाकी है ?
कितनी और देर तक इन
कीड़ों को मेरे ज़िस्म पर
खुला छोड़ दोगे ?
चुभता है ।
बदन को नोचने का मन करने लगा है ,
लेकिन हाथ बंधे हुए हैं ।
पूरे जंगल की आग
केवल मुट्ठी भर पानी से कैसे बुझाऊँ ।
गिड़गिड़ा रहा हूँ ,
रोक दो ।
आह ! क्या कहूँ अमृत । शब्द जहाँ जाकर ख़त्म होते हैं , बेबसी शायद वहीं से शुरु होती होगी । आज जबकि हर ओर शब्दों का कोलाहल है , विचारों का प्रतिरोध है , कलात्मकता का क्षरण है , वैसे में तुम्हारी रचनायें अपनी जड़ों की मजबूती को लेकर बेहद आश्वस्त दिखती हैं । तकनीकी कविताई के दौर में तुमने न सिर्फ़ खुद को रेखांकित किया है , बल्कि यह तुम्हारे शब्दों की बेबाकी ही है जो कह जाती है …….
वह लहरें पानी को डूबा रही हैं ।
देखो कैसे कूद रही हैं
बार बार पानी के ऊपर !
पानी मर जायेगा ,
कोई कुछ करो !
संग्रह से फुट नोट्स सी यह कुछ छोटी कवितायें अपने वितान में बड़ी प्रखरता से इस बात की ताकीद करती दिखती हैं कि , शब्दों को खरचना भी एक हुनर है । इस पूरे संग्रह में मुझे जिस बात ने सबसे ज़्यादा आकर्षित किया , वह यह कि अमृत ने कहीं भी परिष्कृत हिन्दी का इस्तेमाल नहीं किया है । सीधे सरल शब्दों में अपना द्वन्द , अपना संशय , अपनी पक्ष -प्रतिपक्ष हमारे सामने रखा । शब्दों का कोई मायाजाल और प्रपंच कहीं नहीं ।
अगर हम उसके बच्चे हैं
तो वह हमारे सबसे अच्छे
भाइयों और बहनों को ,
मौत से पहले क्यों मार देता ?
मैं पूछता हूँ क्यों ?
ऐसे कोई अपने बच्चों को पालता है ?
ईश्वर भी एकबारगी खुद को गुनहगार मान बैठे , नाराज़गी की इस तटस्थता के सामने ।
दुनिया तुम्हें खींच रही थी ,
मैंने अपने बदन को
तुम दोनों के बीच फेंक दिया ।
धरती बस तुम्हारे
पैर ही चूम पायी थी ।
तुम्हारे ज़िस्म का हकदार मैं हूँ ,
तुम्हारे लिये धरती से
लड़ जाने वाला
असम्भव !
कवि के सृजन में जीवन भी है और प्रकृति भी , यथार्थ भी है और भ्रम भी , सरोकार भी है और आग्रह भी ।
बचपन में मन ने समझाया
समय घड़ी है ,
घड़ी ही समय है ।
फिर वक्त क्या है ?
पर्याय ?
नहीं ।
समय संसार के लिये आगे बढ़ता है
और वक्त एक जीवन का समय होता है ।
बस आगे जाने की जगह
पीछे ।
विचारों की यह विराटता , दो अलग परिस्थतियों का यह झंझावात और तमाम विसंगतियों के बीच घिरा गहन प्रलाप , जब कवि स्वयं से पूछता है …….
रेगिस्तान में सूरज कैसे डूबता है ?
क्या बालू में ,
रौशनी नहीं घुटती ?
अमृत की दो और कविताओं का जिक्र करना चाहूंगी । एक है ‘बलि’ और दूसरी ‘चीड़’। भौगोलिक प्राकृतिक विघटन पर पर इतने सचेत शब्द और सशक्त कविता पिछले कई वर्षों से पढ़ने को नहीं मिले ।
कितना चुभता है
नल से निकलते
पानी की चीख़ सुनी है ?
मानो हमारे जीवन के लिये
पानी मर रहा है ।
यहाँ न केवल सवाल है , बल्कि शोक संतप्त भी सिहरन है । एक छटपटाहट , एक व्याकुलता……जो कुछ थोड़ा सा बच गया है बस उतना ही भर बचा ले जाने की लालसा और अदम्य जिजीविषा है ।
जंगलों की सैर करने गया था
आवाज़ों को पीने की कोशिश की थी
लेकिन
पेड़ों ने बोलने से इन्कार कर दिया ।
चीड़ की चिकनी छाल को छुआ
लेकिन
उनसे मेरे हाथों में काँटे चुभा दिये ।
भावनाओं का कोई अतिरेक नहीं , वरन ख़त्म होते जीवन और परिवेश का मात्र सूक्ष्म विश्लेषण । संबंधित तथ्यों और अनुभवों का अन्वेषण करते चौकस शब्द । शब्द जो सजग हैं संलिप्त भी हमारे क्रियाकलापों को लेकर । शब्द जो परत दर परत पड़ताल कर रहे हैं हमारे आसपास की विद्रूपताओं का । इस भयावह वक्त में जब हम उन्हीं सड़कों पर चल रहे हैं , जिसके नीचे की मिट्टी रोज़ धंसी जा रही है , अमृत रंजन वह सुदृढ़ नींव बनकर उभरे हैं जो न सिर्फ़ अपनी प्रगतिशील पीढ़ी की का प्रतिनिधित्व  कर रहे हैं , बल्कि हमारी साहित्यक क्षरण के विरुद्ध एक मज़बूत बौद्धिक दीवार बन कर भी खड़े हुए हैं । उन्हें बखूबी ज्ञात है कि अपनी विरासत को सहेजना और उसे समृद्ध बनाना क्या होता है । आज अमृत की क़लम से निकले शब्द कुम्हार की चाक पर गढ़े जा रहे टेढ़े मेढ़े चुक्का सरीखे भले ही हों , आने वाले दिनों में उनकी ठनक देर तक और बहुत दूर तक सुनाई देगी ।
स्मिता सिन्हा

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‘जापानी सराय’और अनुभव का नया संसार

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अनुकृति उपाध्याय के कहानी संग्रह ‘जापानी सराय’ की समीक्षा लिखी है डॉ. संजीव जैन ने. यह कहानी संग्रह ‘राजपाल एंड संज’ से प्रकाशित है- मॉडरेटर

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‘सोचना, पुकारने से कदम भर ही दूर है’
(जापानी सराय और अनुकृति जी की अन्य कहानियां)

यह किसी कहानी का शीर्षक नहीं है, यह एक वाक्य है जो अद्भुत तरीके से जापानी सराय संकलन की ‘रेस्टरूम’ कहानी में प्रयुक्त हुआ है। इस एक वाक्य ने मुझे अनुकृति जी की जीवन से गुंधी गंधाती कहानियों पर लिखने को मजबूर किया है। सृजनात्मक भाषा जीवन के गहरे तल्ख और बेतरतीब अनुभवों से ही जन्म लेती है। जापानी सराय की सभी कहानियों में जीवन का यह अद्भुत सौंदर्य महसूस किया जा सकता है हरसिंगार के फूलों की खुशबू की तरह जो देह की गंध के साथ एक नई हरवायंदी गंध बन कर तन मन में फ़ैल जाती है।
हम सबने इंद्रधनुष देखा है, पर कंचनजंगा फाल में तेजी से गिरते दूधिया पानी के बीच तीन आयामी इंद्रधनुष की लुकाछिपी का सौंदर्य स्वर्गीय अनुभूति देता है। यह तीन आयामी प्रभाव उस परिवेश की देन है जहां तीन और से अलग अलग झरने गिरते हैं ऊपर से सूय की रोशनी पानी के बारीक कणों का हवा में उड़ते रहने से पैदा होता है। ऐसा ही कुछ अनुकृति जी ने अपनी कहानियों में किया है। भाषा, अनुभूति, और परिवेश के ऊपर चिंतन की रोशनी से इनकी कहानियों में तीन आयामी इंद्रधनुषी प्रभाव पैदा हो सका है।
अनुकृति उपाध्याय का यह पहला कहानी संग्रह है और मैं इसमें सृजनात्मक भाषा की अनपरखी अनप्रयुक्त संभावनाओं को महसूस कर रहा हूं। बतौर लेखक के दायित्वों में एक दायित्व यह भी होता है कि वह भाषा के नये क्षितिजों की खोज में व्याकुल दिखाई दे। जीवन जिस तरह बदल रहा है और जीवन के नये आयामों की खोज निरंतर हो रही है तो इस जीवन को फिर रचने वाली भाषा जड़ और खोखली हो तो जीवन भी भरे-पूरे गतिशील अनुभवों और प्रवहमान यथार्थ के रूप में आने की जगह जड़ और खोखले रूप में ही प्रस्तुत होता है। जापानी सराय में एक रात बिल्कुल शांत और पूर्वग्रह मुक्त तरीके से गुजारने पर जीवन ताजी गिरी बर्फ की खुशबू की तरह महसूस हो सकता है।
इनमें से कुछ कहानियां वाकई ‘ सोचने, और कदमभर दूर से पुकारने’ की अनुभूति पैदा पर रहीं हैं। ‘जापानी सराय’ संकलन की पहली कहानी है। इससे गुजरते हुए डूब जाने को मन करता है। टोक्यो जैसे व्यस्त और अत्याधुनिक शहर में ‘जपानी सराय’ आधुनिकता का विलोम रचती महसूस होती है। विलोम का मतलब मध्यकालीन नहीं, विलोम का अर्थ भविष्य की वह उम्मीद जो हम आधुनिकता की चकाचौंध में गंवाते जा रहे हैं, जीवन की खुशबू जो कृत्रिम रंगों और साधनों में चमगादड़ों की तरह विलुप्त होती जा रही, वह इसमें महसूस की जा सकती है।
इस कहानी में किसी चरित्र की कोई पहचान नहीं। नायिका या नैरेटर है और एक मरीन जूलोजिस्ट है। कथा के दो अनजाने चरित्र हैं जो अनजानी अपरिचित जगह एक रेस्तरां में अचानक मिलते हैं। मिलना बात चीत होना कथा नायिका कुछ भी नहीं बताती है अपने बारे में सिवाय इसके कि वह ‘टी टोटलर’ है और बीयर या शराब नहीं पीती है और पेशे से वकील हैं। इतना परिचय भी बातचीत के दौरान आ जाता है। मजे की बात है कि मरीन जूलोजिस्ट ही अपनी कथा कहता है। इस पूरी संवाद संरचना का कोई लाजिक नहीं है, मगर जीवन की सार्थकता है। मरीन जूलोजिस्ट कहता है “जानती हो सब कुछ कह डालने के लिए अजनबियों से अच्छा कोई नहीं होता।” या फिर जब वह यह कहता है कि “तुम बार में कभी अकेली हो ही नहीं सकतीं।” यह दो बिल्कुल अजनबियों के बीच का संवाद है। क्या इतना सार्थक और जीवंत संवाद हम अपने साथ जीवन बिताने वाले लोगों से कर पाते हैं? शायद नहीं। यहीं वह बात है जो कहानी को एक बिल्कुल अपरिचित आयाम देती है।
दोनों अपनी पीड़ाओं में बंधे हैं, उनके बीच संवाद एक समानुभूति की सहजता का संवाद है। कथा नायिका की आंखों से आंसुओं का बहना सिर्फ एक संकेतभर है उसके एकाकी जीवन की अनगिनत पीड़ाओं का। वह कहता है “ दर असल पीड़ा चिरंतन है, हम सब अपनी पीड़ा में एक से हैं, नंगे और नि: शस्त्र। तो उसे सहने में कैसी शर्म?” अभूतपूर्व जीवन दर्शन है। यहां पीड़ा का आदर्शीकरण नहीं है न पीड़ा के कारणों या परिस्थितियों का दुखड़ा रोया गया है। यह पीड़ा को सहज में स्वीकारने और जीने की कला है। यहां स्त्री पुरुष की पीड़ा का भी भेद नहीं है। आंसू दोनों ओर हैं क्योंकि सबके पास अपनी पीड़ा है और उसे सहने में कोई शर्म नहीं है। जिस दिन हम पीड़ा को बेशर्म होकर जीना सीख जायेंगे उस दिन पीड़ा उत्सव की तरह महसूस होगी।
यह जीवन के प्रति अलग तरह की एप्रोच है। यह एप्रोच जीवन में एकाकीपन की तल्खी को जीने की ताकत देती है। एक तरह की प्रतिरोधक क्षमता विकसित करती है। यह जीवन का इस तरह का स्वीकार ‘एक सराय’ की तरह का सहजताबोध आज की अनिवार्यता है। कहानी एक जीवन को सराय की तरह जीने के नया आयाम खोलती है। अजनबियों के बीच हम कितने कम्फर्ट हो सकते हैं, और अपनों के बीच बहुत औपचारिक और असहज। एक नये तरह का विलोम संबंध है, जो अनुकृति जी ने रचा है।
जापान में ‘चेरी ब्लासम’ का आगमन एक उत्सव की तरह मनाया जाता है। भारत में शिलांग में भी नवम्बर माह में ठंड के पहले चेरी ब्लासम के फूल खिलते हैं। सब कुछ गुलाबी नजर आता है। मौसम का यह रंग बहुत खूबसूरत होता है जिसका आनंद लेने दूर दूर से लोग आते हैं। इस कहानी को भी लेखिका ने अनाम तरीके से ही लिखा है। कथा नायिका हो सकता है स्वयं लेखिका हो टोक्यो में उतरती है होटल में पैंतीसबीं मंजिल पर कमरा है। बीच बीच में उसे टोकने वाला कोई है, कौन है यह कोई संकेत नहीं दिया। पर पता चलता है कि वह पुरुष है और देसीपन को हेयता से देखता है। वह रास्ते में कथानायिका को टोकता है।
जीवन अनजाने बंधे नियमों को स्वीकार करने के खिलाफ हैं, वे नियम कितने भी आधुनिक हों या कितने भी पुरातन। “अनजान बंधे नियमों पर चलने वाला कुछ भी समझने में उसे हमेशा अड़चन रही है।” इस एक वाक्य को लिखने के लिए पूरी कहानी लिखी गई है।
अनुक‌ति जी जिस परिवेश में काम करती हैं, वह कारपोरेट दुनिया है, चकाचौंध से भरी, अजनबीपन के विचित्र संस्करण मिलेंगे यहां, सब इतने आत्मीय और शालीन दिखेंगे जैसे कोई स्वर्ग हो, पर यह चकाचौंध अंदर से जीवन से रिक्त होती है, यह रिक्तता का नया जंगल है, एक साथ पास पास रहने वाले रेत के कणों का संसार है। इसके बीच से स्निग्धता की नमी सरस्वती नदी की तरह गायब हो चुकी है। बहुत बारीक संकेतों से या भाषाई कौशल से इस रिक्तता को बयां किया है। कहानियों में घटनाओं, चरित्रों के स्थूल विवरण और वर्णनों से बचा गया है, यह सायास नहीं है, दर असल बाहर के जीवन में इतनी स्थूलता और औपचारिकता है कि उसका विलोम तो कहानी में आना स्वाभाविक था। चरित्रों के नाम और थे उनका बाहरी विवरण बिल्कुल गायब है, बहुत दिखावटी जीवन के रंगों की जगह भी कहानियों में नहीं है।
ऐसी ही एक कहानी है ‘रेस्टरूम’। इस कहानी में ही वह वाक्य लिखा है जो मेरे लेख का शीर्षक है। ‘सोचना, पुकारने से कदम भर दूर है, लड़की।’ इसमें ‘लड़की’ शब्द की जो झंकार है उसकी अनुगूंज कृष्णा सोबती की लंबी कहानी ‘ए लड़की’ तक जाती है। यह संबोधन इस अद्भुत वाक्य के साथ है जिसे मैं हिंदी गद्य के श्रेष्ठतम वाक्यों में से एक कहूंगा।
शब्द के दो आयाम होते हैं चिंतन और कर्म । यह बात कितने सार्थक तरीके से अनुकृति जी ने इस वाक्य में कह दी। शब्दों के बिना सोचा नहीं जा सकता और सोचे बिना पुकारा नहीं जा सकता और सोच लिया तो लगभग पुकार लिया कितना निजी सा वाक्य है। ऐसा लगा जैसे प्रेमिका के बारे में सोचा और वह एक कदम दूर दिखाई दे जाये, ऐसा ही महसूस हुआ इस वाक्य को पढ़ते हुए। इसमें ‘कदम भर दूर’ पद कितने सलीके से प्रयोग किया है। मैं बहुत देर रुका रहा इस वाक्य पर। भाषा में इस तरह के वाक्य इससे पहले मैंने शिक्षाविद ‘पाओलो फ्रेरे’ और जेपत्सिता आंदोलन के संगठनकर्ता ‘सब कमांडेंट मार्कोस’ के बाद पहली बार किसी के गद्य में पढ़ें हैं।
इस तरह बिल्कुल अद्भुत और नये तरह के वाक्य पढ़कर बहुत ही अच्छा महसूस हुआ। यह जीवन में बहुत गहरे तक धंसे बिना संभव नहीं। इस वाक्य की ताकत और ध्वनि भाषा के इतिहास में बहुत दूर और गहरे तक गूंजेगी। यह भाषा का एकदम नया मुहावरा है। इस संकलन में ऐसे और भी वाक्य हैं, जिन्हें मोतियों की तरह सजाकर रखने को मन कर रहा है। जैसे ‘मुझे तो किसी और तरह देखना आता ही नहीं।’ ‘उत्सुक और नर्वस’, ‘ किसी अनजान भाषा में भी चिरौरी और विनय पहचाने जा सकते हैं।’ ‘रुखे सूखे अनुच्छेदों में काइंया लालच’ ‘हम अपने को समझने में उतना समय भी खर्च नहीं करते जितना एक शर्ट चुनने में।’ ‘ऐसी मुस्कान जो यत्न से चिपकानी नहीं पड़ती।’ ……इन वाक्यों में अद्भुत आकर्षण है ठीक वैसा ही जैसा प्रेमिका के साथ पहली बार समय गुजारने में या मानसरोवर पर अचानक पहुंच जाने पर होता है।
रेस्टरूम जिंदगी का वह आयाम है जो निजी समय और निजी स्थान का प्रतीक है। जीवन में निजी और स्वतंत्र समय और स्थान निहायत जरूरी है। पर जीवन का यह निजी स्थान भी पीड़ा और आंसुओं का सबब बन जाये तो बहुत मुश्किल हो सकता है। जीवन विखर सकता है, सम्पूर्ण तानावान टुकड़े टुकड़े हो जाता है। इस बिखराव को लेखिका इस तरह व्यक्त करती हैं-”सब कुछ निकालकर यदि मेज पर रखा सकता तो? रखकर सहूलियत से देखा जा सकता, उलट-पुलट कर, अंधेरे में टटोलने के बजाए?” हम चीजों और लोगों को अंधेरे में टटोलकर देखते महसूसते रहते हैं, एक बंदपन हमारी जिंदगी में घर किये रहता है। हम कभी भी चीजों को लोगों को मेज पर रखी वस्तुओं की तरह उलट – पलट कर देखने या कहने जितना साहस या खुलापन नहीं ला पाते। यही कारण है कि रेस्टरूम रुदन रूम बन जाता है, आंसुओं का घर बन जाता है, पीड़ा का सागर लहराता दिखाई देता है।
जीवन समय और स्थान की तर्कसंगत संगति का नाम है पर जब इनकी अन्विति विच्छिन्न हो जाती है तो जीवन एकाकी पशु की तरह बन जाता है। इस कहानी की कथा नायिका जिसके आसपास रेस्टरूम को बुना गया है, वह इस तरह महसूस करती है- “सब कुछ थोड़ा सा बिगड़ा हुआ है, अपनी धुरी से थोड़ा सा हिला, अपनी लीक से कुछ टेढ़ा, जैसे किसी ने तस्वीर तिरछी लटका दी हो।” जीवन किसी के बिना अपनी धुरी से हिला हुआ महसूस होता है। आधुनिक जीवन की अनेक विडंबनाओं में से एक यह भी है कि हर व्यक्ति चाहे स्त्री हो या पुरुष भीड़ में अकेला है। यह भीड़ रिश्तों की, दोस्तों की, बाजार की या वस्तुओं में से किसी को भी हो सकती है। सब अपनी वैयक्तिकता में कैद हैं। जापानी सराय में एक अजनबी से परिचय रेस्तरां में होता है। वहां भी आंसू हैं दोनों के जीवन में। रेस्टरूम में बुर्का वाली लड़की उसे मिलती है उसके जीवन में भी आंसू हैं। दूसरी कहानियों में भी आंसू और पीड़ा किसी न किसी रूप में अंतर्निहित है। यह आकस्मिक नहीं है। अनुकृति जी जिस दुनिया को अपने आसपास जी रहीं हैं उसमें सबके निजीपन में वे आंसुओं की स्थिति महसूस करतीं हैं, यह जीवन में गहरे तक उतरे बिना संभव नहीं है।
संकलन की आरंभिक चारों कहानियां एक ही कहानी के विस्तार के रूप में पढ़ी जा सकती हैं। उनमें व्यक्ति या चरित्र की कोई स्पष्ट पहचान नहीं है। वह कोई भी हो सकता है, स्वयं अनुकृति जी भी हो सकतीं हैं या कोई भी। उस भागते दौड़ते चकाचौंध से भरे जीवन में अकेले होने की तीखी अनुभूति की टीस हमें सुनाई देती है।
वे निर्मल वर्मा की तरह परिवेश को मानसिक स्थिति की सघनता बताने के लिए चित्रित नहीं करतीं। अनुकृति जी की कहानियों में परिवेश अपने भौतिक रूप में जैसा वह वैसा ही आता है, उस पर मानवीय भावों का कोई किसी तरह का आरोपी या संबंध बैठाने की कोशिश नहीं की गई है। ‘चेरी ब्लॉसम’ गुलाबी फूलों का मौसम है, पर इस मौसम का कोई गहरा प्रभाव न सकारात्मक न नकारात्मक पैदा करने की कोशिश नहीं की गई है। मौसम है और कथानायिका है टोक्यो के कुछ लोग हैं जो अपनी अपनी तरह से इस मौसम के फूलों का लुत्फ उठा रहे हैं। बस एक सहज स्थिति का प्रस्तुतीकरण भर है। यह एक विशेष मानसिक स्थिति है, जिसे किसी परंपरागत मानवीय भावनाओं में कैद नहीं किया जा सकता।
इन कहानियों में भाषा के तथाकथित या परंपरागत अलंकरण, बिम्ब, प्रतीक, व्यंजना, या अवसाद को नहीं देखा जा सकता। भाषा स्मृति-विस्मृति, पकड़ना-छूटना, लयबद्धता-लयभंग की मानसिक दशाओं को पूरी जीवंतता और यथार्थ वास्तविकता के साथ प्रस्तुत करती है। अनेक जगह स्वगत संवादों के दौरान लयभंग की स्थिति को महसूस किया जा सकता है। ऐसा लगता है कि राग भैरवी के बीच अचानक राग मालाकोस आ गया हो, और फिर धीरे से राग भैरवी पर आ गया हो संगीत।
यह लयभंग दर असल लयबद्धता का विलोम बनकर नहीं आता है यह पूरक है। यह जीवन का द्वंद्वात्मक संबंध है। इन कहानियों के बीच से गुजरते हुए स्थितियों और व्यक्तियों के बीच के इस द्वंद्वात्मक संबंध को शिद्दत से महसूस किया जा सकता है। जीवन की गतिशीलता को कहानियों की भाषा और स्थितियों की गतिशीलता के माध्यम से अनुभव किया जा सकता है।
जिंदगी बेवजह बीतती जा रही है, अनुकृति जी अपनी कहानियों में जीने की वजह ढूंढती नजर आती हैं। तमाम उलझनों, विसंगतियों, अनावश्यकताओं के बीच आ छोटी छोटी वजहें जो बिना प्लान के मिल जाती हैं, वे ही जीवन की व्यस्तताओं में फुर्सत के पल की तरह सार्थकता प्रदान करती हैं। अनुकृति जी अपनी कहानियों में इन वजहों को उपलब्ध करती हैं और जीवन को महसूस करने का बहाना बनाती हैं। इसी तरह कि एक कहानी है हरसिंगार। पूरी कहानी अंत से पहले तक एक ट्रेडिशनल कहानी है। पिता की मृत्यु पर मोना का घर जाना और पिता के प्रति बेटी का प्यार सब कुछ परंपरागत है। मैं अंत के पहले तक सोचता रहा कि यह कहानी क्यों लिखी? हरसिंगार का कोई संदर्भ समझ नहीं आया। अंत से ठीक पहले अनुकृति जी चौंकाती हैं, वही इस कहानी में हुआ। परंपरागत आलोचक और पाठक इस कहानी के अंत को कतई स्वीकार नहीं करेंगे। भारतीय मूल्य व्यवस्था के संदर्भ में खतरनाक अंत किया है इस कहानी का, अनुकृति जी ने। उनपर तमाम तरह के मूल्यविध्वंस के आरोप और आक्रमण किये जायेंगे इस कहानी के अंत को लेकर। मैं भी बहुत समय तक सोचता रहा कि क्या यह अंत जरुरी था, यदि था तो क्यों? बहुत चौंकाने वाला अंत है। आपने जोखिम उठाई है तो उसे सही संदर्भ में समझना जरूरी है।
मोना के पिता की मृत्यु हो चुकी है तमाम कार्यक्रम हो चुके हैं, घर के पुरुष गंगा स्नान के लिए गये हैं, महिलाएं गहरी नींद में सो रही हैं, मोना उस हरसिंगार के नीचे खड़ी है जहां उसके पिता अक्सर बैठा करते थे। वातावरण का सजीव और मादक चित्रण है। इसी समय मोना को अपने प्रेमी विश्वा की याद आती है और वह जयपुर में है तो फोन करके उसे बुलाती है। देह पर हरसिंगार के फूलों की गहरी मादक सुगंध है, एक कोठरी में दोनों मिलते हैं और देह की खुशबू और हरसिंगार की महक एकमेक हो जाती है। दोनों एक दूसरे में समा जाते हैं। कहानी समाप्त हो जाती है।
पिता की चिता की आग ठंडी नहीं हुई और बेटी …..? भारतीय समाज और मूल्य व्यवस्था इस बात को कभी नहीं पचा पायेगी। पर जीवन को दूसरी तरह से देखा जायेगा तो यह अस्वाभाविक नहीं है‌। तन मन अशांत और बेचैन है, सब लोग जीवन की भौतिक जरूरतों को पूरा करने में व्यस्त हैं। यदि मोना अपने तनाव और जीवन को सहज करना चाहती है तो इसमें गलत क्या है? इस कठिन वक्त में हम सब अपने सबसे प्रिय जनों के पास होना चाहते हैं। यदि मोना को अपने सबसे प्रिय साथी से मिलने की जरूरत महसूस हुई तो कुछ भी अस्वभाविक नहीं है। यह जीवन को जीने का एक सर्वाधिक तरीका है‌।
यह संदर्भ अनुकृति जी ही प्रस्तुत कर सकतीं थीं, यह जीवन का अलग दृष्टिकोण है, यह किसी का अपमान नहीं है जीवन का एक रंग है‌। इसे पचाने में समाज को सौ साल लगेंगे। पर अनुकृति जी का नजरिया साफ है। जीवन एक प्रवाह है जो रुकता नहीं, कुछ समय के लिए ठहर सकता है, पर आगे बढ़ना ही जीवन है।
पिछली पूरी सदी साहित्य को अंतर्द्वंद्व, आत्मसंघर्ष, आत्माभिव्यक्ति, अस्मिता, अस्तित्व जैसी अवधारणाओं के खांचों में बांटकर देखती परखती रही। यह खांचाबद्ध जीवन की अभिव्यक्ति थी‌। पर क्या वाकई जीवन खांचाबद्ध था ? कभी हमने यह प्रश्न नहीं पूछा। अनुकृति जी की कहानियां हमें यह सवाल करने को विवश करती हैं। इन कहानियों में जीवन तमाम तरह के खांचों के खिलाफ हैं। जया, मीरा, मोना जानकी किन खांचों में फिट होते हैं? कोई सांचा बना ही नहीं इनके लिए। मोना में, मीरा में, जया में, अस्तित्वादी अंतर्द्वंद्व नहीं है। निर्णय लेने और जीने का साहस है। यही साहस स्त्रियों को पूरी दुनिया में जाने की, काम करने की, जीने की उम्मीद बनता है।
परंपरा, समाज, मूल्य, नैतिकता, यौनिकता यहां विश्लेष्य नहीं हैं, अनुकृति जी की कहानियों में इनका कोई रूप दिखाई नहीं देता। न इनका होना न विरोध। यह जो नया दृष्टिकोण है जीवन के प्रति यह आधुनिकता की सीमाओं से परे है। स्त्री को संपूर्ण मानवीय और भौतिक परिवेश के घात-प्रतिघात के बीच जूझते-सुलझते, डूबते-उतराते देखना और चित्रित करना स्त्री के आदर्शीकरण और पाश्विकीकरण की अतिवादी विचारधारा के खिलाफ ले जाता है। न तो किसी को ग्लेमराइज करने की कोशिश की है न यथार्थ और उत्तर आधुनिकता के अतिवादी रूपों को थोपने की कोशिश की गई है। यह दृष्टिकोण जीवन की नई खोज का रास्ता है।
प्रेम संबंध और सेक्स के बीच कहानियों में अक्सर स्त्री को अतिवादी स्थितियों में दिखाकर या तो असाधारण मानवीय रूप में दिखाया जाता है या अमानवीय करण की पतित स्थितियों में। अनुकृति जी की स्त्री किसी भी रूप में बस एक स्त्री है न कम न ज्यादा। न आदर्शीकरण न अमानवीय करण। इस रूप में जबतक हम स्त्री को स्वीकार नहीं करेंगे तब तक असंतुलन और अमानवीय स्थितियों के शिकार होते रहेंगे।
प्रजेंटेशन कहानी भारतीय जमीन पर लिखी अप्रवासी कहानी है। इसको पढ़कर ऊषा प्रियंवदा याद आ गईं। इस कहानी की मीरा ‘शेष यात्रा’ की अनुका का पूर्वांश है। मीरा का अंतिम वाक्य की “मैं दो दिन बाद वापस जा रही हूं।” के बाद जो मीरा की मानसिक स्थिति होती (जिसे अनुकृति जी ने नहीं रचा) वह बहुत कुछ अनुका की मानसिक स्थिति के रूप में शेष यात्रा में ऊषा जी ने लिखी है। काल को एकदम उलट पुलट दिया आप दोनों ने। ऊषा जी साठ साल पहले प्रजेंटेशन की मीरा के अंत का विस्तार अपनी अनुका के जीवन से आरंभ करती हैं, उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि साठ साल बाद अनुकृति उनकी अनुका का पूर्वांश लिखेंगी।
एक बार शेष यात्रा को आप फिर से पढ़ेंगें तो शायद मेरी बात आपको बहुत कुछ सच लगे। रुकोगी नहीं राधिका की राधिका भी मीरा के चरित्र का विकास है। समय और परिवेश के अंतर को नजर अंदाज कर दिया जायेगा तो बहुत कुछ ऐसा है मीरा को ऊषा जी के तीनों उपन्यासों के साथ अलग तरह से खड़ा करता है। यह बात अनुकृति जी को किसी परंपरा के विकास की कड़ी के बताने के रूप में नहीं कह रहा हूं। आपके शिल्प और कहानी कहने के ढंग, कथ्य का अनुठापन सब अलग है। यह कहना आपका अलगपन नजर अंदाज करना नहीं है।
प्रजेंटेशन की मीरा और मनु और आगरा का परंपरागत भारतीय परिवार, और मीरा का अमेरिका जाने का अवसर सब एक द्वंद्वात्मक परिवेश रचते हैं। इस कहानी के कथाचयन और घटनाओं में, मनु के दृष्टिकोण में कुछ भी नया नहीं। बहुत बार यह कहानी अनेक रूपों में लिखी जा चुकी है। परंतु प्रजेंटेशन का रचना-शिल्प, मीरा का स्थितियों के सहज स्वीकार के साथ नये रास्तों पर चलने का निर्णय, अपने परिवेश और पारिवारिक दम घोंटू स्थितियों के प्रति अविद्रोह का भाव, रुढियों और अवरूद्धताओं को तोड़ने के लिए अपनी ऊर्जा का अपव्यय करने की बजाय अपने प्रजेंटेशन में उसका उपयोग करना अलग तरह की स्त्री को पहचानना है। अनुकृति जी ने इस नई स्त्री को न केवल जिया है, बल्कि उसके बीच से एक नई संभावना को खोजकर प्रस्तुत करने का प्रयास भी किया है।
नई दुनिया में काम करती लड़कियां अलग तरह से खुद को रच रहीं हैं। अनुकृति जी अपनी कहानियों से उस गफलत और गलतफहमी के कुहासे को छिन्न-भिन्न कर देतीं है, जो इस तरह के माहौल में लड़कियों के चारित्रिक पतन और विगड़ने का मिथक रचती रही हैं। यह एक तरह से नये तरह का यथार्थ है, नया भावबोध है, या अलग-सा, अपरिचित-सा, अबतक न परखा गया सा यथार्थ है जो हमें इस संकलन की कहानियों में मिलता है।
‘जानकी और चमगादड़’ इस संकलन की अलग थीम की कहानी है। इस तरह की तीन कहानियां इसमें हैं- इंसेक्टा, छिपकली और जानकी और चमगादड़।

जानकी और चमगादड़ कहानी एक बेव पोर्टल पर पढ़ी तो अनुकृति जी से मैंने पूछा था कि यह थीम कैसे सूझी आपको? मैं यह सोचकर हैरान हूं कि चमगादड़ के साथ एक सामाजिक और मानवीय रिश्ता ढूंढा जा सकता है करता इस ज़माने में भी। लेखिका कारपोरेट दुनिया में काम करती हैं जयपुर की रहने वाली हैं चमगादड़ के साथ मानवीय रिश्ता खोजना कैसे संभव है? चमगादड़ में इतनी संवेदनशीलता को महसूस कर पाना आज के अमानवीय होते जा रहे समय में, जहां इंसान इंसान के बीच ही संवेदनशील संप्रेषण संभव नहीं हो रहा वहां इस तरह की रचना का आना आश्चर्य चकित करता है। मतलब अब तक पड़ी गई कहानियों में सबसे अनोखी कहानी है। एक
विलुप्त प्राय जीव के साथ मानवीय रिश्तों का जो संप्रेषण और समन्वय लेखिका ने रचा है वह अद्भुत है।
इसका विलोम है छिपकली कहानी। जानकी और चमगादड़ में चमगादड़ जानकी की रक्षा करती है एक सांप से और स्वयं मारदी जाती है। इन दोनों के बीच एक सहयात्री जैसा रिश्ता कायम है। जानकी पीपल के पेड़ पर रहने वाली एक चमगादड़ से दोस्ती कर लेती है या रोज रोज आते जाते दोस्ती हो जाती है। दोनों में एक अबोला संवाद चलता रहता है। यह संवाद ही उनमें संवेदनशील अनुभूति को पैदा करता है। छिपकली में उस घर का जो लड़का है बारह साल का वह छिपकली को मां और नौकरानी के द्वारा मारे जाने पर भावुक हो जाता है, दुखी हो जाता है। एक अजीब सी कहानी रची है छिपकली नाम से। उस लड़के को अलग तरह की संवेदना दी है लेखिका ने जिसके कारण वह बहुत कुछ अलग तरह से महसूस करता है जीवन की सभी गतिविधियों को। तीसरी कहानी इंसेक्टा तो बहुत ही अलग है। ‘म’ इसका नायक हैं जिसे विभिन्न प्रजाति के जीव-जंतुओं से बहुत लगाव है। मनुष्य कुतरते बिल्ली पालता है तोता-मैना पालता है, पर बिल्कुल अलग और डरावने जीव-जंतुओं से प्रेम इन कहानियों की खासियत है।
महत्त्वपूर्ण यह है कि अनुकृति जी जीवन का विस्तार संपूर्ण प्राणीजगत में देखती हैं। कोई भी प्राणी अलग नहीं है यदि उसके साथ एक साथ होने का रिश्ता बनाया जायेगा। यह जीवन का विस्तार हैं, खुश होने के लिए दुनिया बहुत बड़ी है, सवाल स्वयं को खोलने का है। बंद जीवन से खुलेपन में निकले बिना इन कहानियों को महसूस नहीं किया जा सकता।
कहानियों का अंत अचानक आ जाता है, पर अप्रत्याशित नहीं होता। यह ठीक वैसा ही है जैसे हम किसी पहाड़ की चोटी की ओर जा रहे हों और अचानक ऊंचाई खत्म हो जाये, चोटी समतल मैदान में बदल जाये या चोटी के उस तरफ उतरने की ढलान का न होना।
संकेतों में कहने की तकनीक का नया संस्करण है अनुकृति जी कि कहानियां। जापानी जीवन को हावी न होने देने के साथ साथ छोटे-छोटे टुकड़ों में पूरा जीवन रख देना। मसलन शहरों के नाम, रेस्तरां, बार, स्टेशनों के नाम, सड़कों के नाम, बीयर और अन्य पेय पदार्थों के नाम, खाने की चीज़ों और खाने के ढंगों के माध्यम से या वेशभूषा के संकेत, सब-में जापानी जीवन झांकता है। ये सब हैं और गहरी अनुभूति के साथ हैं, उनमें परायेपन की बू नहीं आती, एक सहजता है इनके ‘साथ होने की स्थिति’ कहानियों में विभिन्न स्थितियों में महसूस होती है।
आरंभ की चार कहानियों में जो जापाने में लेखिका के अनुभव खंडों के संकेंद्रित समय में लिखी गईं हैं – जापानी सराय, चेरी ब्लासम, रेस्टरूम, शावर्मा इनमें जो ‘ मै’ शैली अपनाई है वह महत्वपूर्ण है और इसलिए कि विदेश में जहां अपना नाम अपनी पहचान न बन सकता हो, वहां संवेदना और समय के किसी आयाम में ही हम अपना अस्तित्व कायम रख सकते हैं। यही ये कहानियां करती हैं। रेस्टरूम के बासरूम में उस लड़की का होना और कथानायिका का होना, एक दूसरे को महसूस करना, आंसू और उनके पीछे की पीड़ा से संवेदना के स्तर पर ही जुड़ा जा सकता है, वहां किसका क्या नाम है इसके होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। यह तकनीक चारों कहानियों में है।
कुल मिलाकर ‘जापानी सराय’ की कहानियां पढ़ने और डूबकर पढ़ने की मांग करती हैं। हमारी कहानी परंपरा से कुछ अलग हैं, इसलिए पचाने में थोड़ा समय लगता है। पर कहानियों में संभावनाओं के नये क्षितिज खोलती नज़र आ रहीं ये कहानियां।

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डा. संजीव जैन
522 आधारशिला, ईस्ट ब्लाक एक्सटेंशन
बरखेड़ा, भोपाल, म.प्र.
462021
मोबा. 9826458553

https://www.amazon.in/Japani-Sarai-Anukriti-Upadhaya/dp/938653472X/ref=sr_1_1?ie=UTF8&qid=1551667040&sr=8-1&keywords=japani+sarai

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मुंशी युनुस की कहानी ‘इन्द्रधनुष का आठवां रंग’

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बांगला भाषा के युवा लेखक मुंशी युनुस की कहानियों में मिथकों के साथ इन्टरटेक्सुअलिटी है. यह कहानी भी नचिकेता के मिथक के साथ संवाद करती है. कहानी का अनुवाद लेखक के साथ मैंने किया है- मॉडरेटर

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असहनीय दर्द.

बहुत सारी बातें कहने की कोशिश करने के बावजूद सिर्फ दो चार शब्द ही मुंह से निकल पा रहे थे. लेकिनउन शब्दों के पंख एक दूसरे के साथ मिल नहीं पा रहे थे. लग रहा था कि कोई एक टोर्नेडो उसके सीने से मुंह की तरफ भागते हुए अचानक दिशा बदल कर कहीं और खो जा रहा था. दाहिना पैर थोड़ा हटाने की कोशिश की लेकिन जरा सा भी हट नहीं पाया. वह फिर से स्थित हो गया. भीगे हुए आँखों के पन्ने खोलकर सामने की तरफ देखने की कोशिश करता है अवि. सब कुछ धुंधला धुंधला दिखाई दे रहा था. चारों ओर बहुत सारे लोग जमा थे, जिनमें किसी को भी वह अलग से पहचान नहीं पा रहा था. बीच-बीच में कुछ शब्द उसके कान तक पहुँच रहे थे. जैसे ‘अवि’, जैसे बच गया, जैसे और थोडा सा इधर उधर होता तो…अवि के दिमाग में कुछ अलग थलग भावना आ रहे थे. कभी अकेले. कभी बहुत सारे एक साथ. कोई भावना थोड़ा आगे बढ़ते हुए और किसी भावना को जोड़ते हुए नए सोच को जन्म दे रहे थे. उसके बाद सब कुछ खो जा रहा था. पूरा शून्य. फिर से नया सोच की शुरुआत.

शांतनु एक दिन अचानक अवि से बोला था, ‘तुम बहुत ज्यादा भावुक हो.’

अवि चुप था. शांतनु ने इसकी कोई व्याख्या नहीं मांगी. क्योंकि वह बहुत अच्छी तरह अवि को पहचानता था. उसका चुप रहना, एक विषय से दूसरे विषय पर अचानक चले जाना. किसी विषय पर बहुत उत्साह के साथ बातें करना और फिर रुक जाना. अवि कभी बहुत गंभीर हो जाता था और कभी मानो कोई बाधा उसको रोक नहीं सकती थी. तब वह मजनू जैसा हो जाता था. स्वाभाविक विषय को अस्वाभाविक और अस्वाभाविक विषय को स्वाभाविक के साथ मिलाने की क्षमता अवि के भीतर थी. इसीलिए परीक्षा के पहले सभी लोग जब पढ़ाई करने में व्यस्त थे तब अवि पहाड़ देखने चला गया था. लौटता परीक्षा के चार दिन पहले. पूछने से बोल उठा, ‘देख शांतनु, तुम लोगों की परीक्षा साल में एक बार आती है, लेकिन मेरी परीक्षा दिन प्रतिदिन, प्रति घंटा, प्रति पल. मैं बहुत थका हुआ हूँ.’ थोड़े गुस्से के साथ शांतनु बोल उठता है, ‘फिर छोड़ दे न. ये परीक्षा, पढ़ाई इससे क्या फायदा. सिर्फ आनंद के लिए पढ़ते रहो, नौकरी वौकरी की चिंता करने की क्या जरूरत.’ अवि का चेहरा थोड़ा काला पड़ जाता है. संकुचित हो जाता है. यह चेहरा देखते हुए शांतनु दूसरे विषय पर बात करने लगता है, ‘छोड़ यह सब, क्या देखा पहाड़ में. हाथी.’ थोड़ी देर गंभीर रहने के बाद अवि पूरी सांस छोड़ते हुए बोलता है, ‘मृत्यु नहीं है मेरे भाई, पूरी ही जिंदगी.’ चुप हो जाता है शांतनु.

‘हेलो.’

‘मैं.’

‘मैं कौन?’

‘मैं मतलब आ..’

‘समझ गई, बोल अवि. इतने दिन बाद याद आई.’

‘न मतलब मैं ऐसे ही.’

‘ठीक है मैं समझ गई. आज शाम तुम मेरे घर आ सकते हो.’

‘आज! मेरा एक ट्यूशन है, छह बजे से.’

‘अवि, मतलब तुम क्या हो? तुम आज शाम छह बजे मेरे घर आ रहे हो. बस मैं और कुछ नहीं जानती. रखती हूँ.’

‘हेलो रंजीता… हेलो…’

‘दादा पैसा तो दे जाइए.’

‘ओह’, कहते हुए अवि वापस आता है, एक दो रूपया का सिक्का एसटीडी बूथ वाले को थमा कर चलना शुरू कर देता है. कहाँ उसको जाना था कहाँ जाना पड़ेगा सब कुछ मानो उलट-पुलट हो गया. थोड़ा पैदल चलने के बाद वह बस स्टॉप पर जाकर रुक जाता है. जेब में बहुत तलाश करने के बाद एक बीड़ी मिलती है. अवि का मुंह स्वाधीन लग रहा था. बीडी जलाकर दो तीन काश मारने के बाद उसको फेंक देता है. उसके बाद अपना चप्पल उस जलते हुए बीडी के ऊपर रखकर धीरे धीरे दबा रहा था. पैर हटाने के बाद देख रहा था कि वह जलती हुई बीडी लगभग बुझ गई. बहुत ही ख़ुशी महसूस हो रही थी. जी कर रहा था कि वही बुझी हुई बीडी दुबारा उठाकर कश लगाया जाए.

‘अरे, अवि! क्या कर रहे हो?’

अवि घूमकर शकील को देखता है. ‘नहीं, मतलब एक फोन करने आया था.’

‘तुम्हारे होस्टल से सियालदह तक! सिर्फ फोन करने!’

‘बस ऐसे ही चलते हुए आ गया.’ अवि ने विचित्र सी हँसी हँसते हुए कहा.

‘तुम मेरे होस्टल चलोगे.’

‘आज सही नहीं लग रहा. आज छोड़ दो. कभी और चलूँगा.’

शकील अभिरूप की तरफ देखता रह जाता है. इधर उधर अपने पैर को फैलाते हुए अवि आगे बढ़ता है.

कल रात अवि बिलकुल नहीं सोया था. एक नींद की गोली लेने के बाद दो चार घंटे बिस्तर में बस पड़ा हुआ था. कुछ ही समय के लिए नींद आई थी. और उसी नीद के अन्दर अवि को दिखाई दिया कि वह ऐनसिएंट मेरिनर की तरह समुद्र भ्रमण में निकला हुआ है. मगर जहाज में वह अकेला था. अचानक अवि देखता है कि जहाज के शरीर से एक नीली डोल्फिन उठकर आ रही है. बहुत ही धीरे से वह डोल्फिन आगे बढ़ रही थी. अवि को एक अजीब सा दर्द महसूस हो रहा था. मगर वह डोल्फिन और करीब आने के बाद एक जलपरी में बदल गई. बीच रात की तीव्र चांदनी में वह जलपरी अपने हाथ और पूंछ के बल और करीब आ रही थी. मगर उसके सीने का हिस्सा जहाज में घिसट गया था, वहां से खून निकल रहा था. जैसे नीला और लाल दोनों रंग में वह रंग गई हो. बहुत जोर से चीखते हुए अवि जहाज से कूदने की कोशिश कर रहा था मगर उसका एक पैर जहाज के मस्तूत की रस्सी से जुड़ गया था. सौ कोशिश करने के बावजूद अवि उसको छुडा नहीं पा रहा था. इधर जलपरी उसके और निकट आ गई. उसकी दोनों आँखों से आंसू टपक रहे थे. वह कुछ बोलने की कोशिश कर रही थी पर बोल नहीं पा रही थी. इधर अवि भी जहाज से कूद नहीं पा रहा था.

‘अवि, क्या हुआ?’ तेज झटके से अवि की आँख खुल जाती है. देखता है सामने शांतनु खड़ा है. अवि उसको सीने से चिपका लेता है. लम्बे समय तक दोनों ऐसे ही बने रहते हैं. उसके बाद धीरे धीरे अपने दोनों हाथ हल्का करता है.

‘क्या हुआ था तुम्हें?’ शांतनु पूछता है.

‘जलपरी’,

‘जलपरी?’

अवि और कुछ जवाब न देते हुए बिस्तर से अपनी कमीज खींचकर घर से निकल जाता है. शांतनु कई दफा पूछता है लेकिन उसको जवाब नहीं मिलता है. उसके बाद धीरे धीरे चलते हुए सियालदह के एक एसटीडी बूथ से रंजीता को फोन किया.

आज दोपहर से ही बारिश हो रही थी. सावन महीने में कुछ दिनों से बारिश शुरू हुआ है, आज ही सबसे ज्यादा. क्लास में बैठे बैठे अवि समझ पा रहा था बारिश फिर से शुरू होने वाली है. बचपन से ही वह हमेशा स्कूल के क्लास में खिड़की के पास बैठना पसंद करता था. क्लास की पढाई से आगे बढ़ते हुए खिड़की से वह बहुत दूर तक पहुँच जाता था. आज भी बरसात का पहला ठंडा झोंका अवि को छूते हुए बह रहा था. सुमन, अनामिका, दयाल- इन लोगों के बीच में. अवि बार-बार लम्बी सांस ले रहा था और छोड़ रहा था. लग रहा था, बहुत ही जानी पहचानी कोई सुगंध उसको चारों ओर से से घेरे हुई थी. इन सबके बीच में सब कुछ होते हुए भी वह अपने आँख को बहुत ही अकेला महसूस कर रहा था. अचानक उसके दिमाग में कल रात देखा हुआ सपना दुबारा आ गया. अवि को लगता है चारों ओर अँधेरा छाया हुआ है. बहुत जोर से बारिश गिर रही है. वह देख पाता है उसके चारों ओर हजारों बारिश की बूँदें झर रही हैं. सारी बूँदें अवि के बदन पर जोर ओर से गिर रही थी. अचानक एक बिजली कडकी/ जलपरी अभी भी उससे दो हाथ दूर है. अवि पत्थर.

‘क्या अवि, क्लास में ही बैठे रहोगे?’ मीता के प्रश्न से सर ऊंचा करके अवि देखता है कि सिक्स्थ पीरियड ख़त्म हो चुका है. खिड़की से आये तेज बारिश के छींटे उसके पूरे कुरते को गीला कर दिया था. सबसे आखिर में अवि क्लास से बाहर निकलता है.

अवि संतोषपुर ट्यूशन पढ़ाने जाता है. आज वह बालीगंज में ही उतर गया. बारिश रुक गई है, फिर भी रास्ते का यहाँ वहां गड्ढे में पानी जमा हुआ है. बहुत ही सावधानी से अवि गीला रास्ता पकड़ कर चल रहा था. बाएं तरफ दो कट छोड़कर सामने चार नंबर हाईराइज बिल्डिंग के पहले माले पर रंजीता रहती है. रंजीता के साथ उसका पहला परिचय कुछ साल पहले कोलकाता के नेशनल लाइब्रेरी में हुआ था. थोड़े दिन बाद उसे पता चला रंजीता उससे चार साल बड़ी थी. तभी पढ़ाना शुरू की थी एक कॉलेज में. अवि पहले पहले उसे ‘आप’, ‘रंजीता दी’ कहकर पुकारता था. बाद में रंजीता ही उसे अपना नाम से पुकारने के लिए बोली. धीरे धीरे इन दोनों के बीच में नजदीकी बढती गई. इसी दौरान अवि कई दफा रंजीता के घर भी गया. लेकिन औरतों के बीच में अवि कभी सहज नहीं रहा. लड़कियों के बीच में कभी वह बड़बोला बन जाता तो कभी एकदम गुमसुम. पहले पहले रंजीता के साथ भी अवि बहुत सोच समझ कर बात करता था. पर रंजीता बिलकुल अलग थी. वह किसी के भी साथ सहज हो जाती थी. सच कहें तो, रंजीता के इस यह व्यवहार के कारण ही अवि उसका दोस्त बना गया. रंजीता बहुत दूर तक अवि को पढ़ सकती थी, इसीलिए उसका चुप रहना, गुस्सा होना अजीब हरकत करना- सब कुछ रंजीता प्यार के नजर से ही देखती थी. बहुत ही घनिष्ठ मित्र होने के बावजूद कहीं पर इन दोनों के बीच में कुछ फर्क भी था. सच कहें तो रंजीता की पढ़ाई, पढ़ाना, परिवार के सपने- कुछ भी अवि को छू नहीं पाता था. लेकिन रंजीता के अन्दर एक दोस्त के साथ साथ अभिभावक हो उठना, और उसी अधिकार बोध को चीर-फाड़ करने की क्षमता रहने के बावजूद उस डोर में अपने आपको फंसाए रखना- सबके भीतर अवि को एक तरह से मजा आता था. रंजीता बार-बार अवि को सही तरह से पढने के लिए कहती. पर अवि से नहीं होता. जब भी वह सोचता था अपने कैरियर के बारे में तभी कुछ ही दिनों में उसकी सारी कोशिश ख़त्म हो जाती थी. जैसे कि यह सब उसके लिए कोई मायने ही नहीं रखता हो. सच कहें तो रंजीता कभी अवि की तरह अपने आप से खो नहीं जा सकती. इसिलिए वह बार बार कोशिश करती थी कि अवि को अपने जैसा बनाए. मगर ऐसा नहीं होता.

‘अवि तुम निर्बोध है.’

‘तो’

‘अवि तुम समझ नहीं पा रहे. जिंदगी में तुम्हारा कुछ बनना कितना जरूरी है, ऐसे ही बैठे रहोगे तो कोई तुमको नौकरी नहीं देगा.’

‘रंजीता तुम तो जानती हो मैं कोशिश कर रहा हूँ पर…’

‘परन्तु क्या? बोल? तेरा सब कुछ खो जा रहा है? नहीं हो रहा है? यही सब न.’

‘यकीन करो रंजीता, तुम तो मुझे जानती हो, पहचानती हो. अगर मैं दुनिया के और पांच लोगों की तरह न बन पाऊँ, इसमें मेरा क्या कुसूर?’

‘क्यों नहीं हो पाएगा? क्यों नहीं कर पायेगा तू, खुद से पूछो. कभी खुद से पूछकर पूछा है तुमने? तेरी प्रतिभा, तेरा ज्ञान- सब कुछ ऐसे ही बर्बाद होने देगा?’

अवि चुप हो जाता है. रंजीता के इन सवालों के कोई जवाब नहीं देता. रंजीता फिर से कह उठती- ‘अवि, जरा सोच. कम से कम मैं तो हमेशा तेरे पास हूँ. ऐसे तुम अपने आपको बर्बाद नहीं कर सकता. अगर तुम खुद को बर्बाद करोगे तो मैं क्या करूंगी? मेरे सारे सपने सिर्फ और सिर्फ तुझ से ही घिरे हैं. उन सपनों का क्या होगा?’

‘मैं अभी जवाब ढूंढता हूँ. क्या तुम यह बोलना चाह रही हो कि सारा दोष सिर्फ मेरा ही है? यह सच है कि तुम हमेशा मेरा अच्छा सोचती हो. मेरे लिए सोचती हो. लेकिन मैं जब भी कुछ शुरू करता हूँ मुझे न जाने क्यों यह महसूस होता है कि इस पर मेरा कोई अधिकार ही नहीं है. लगता है चारों ओर से अँधेरा मेरा दम घोंट रहा है… चारों तरफ मुझे कहीं भी रौशनी की किरण दिखाई नहीं देती.’

रंजीता अपनी कुर्सी छोड़कर खडी हो जाती है. उसके दोनों आँखों से जैसे आग टपक रही थी. आँखों में आँखें डालते हुए वह अवि की तरफ आगे बढती है. धीरे धीरे अपने सारे कपडे खुद के बदन से मुक्त कर देती है. काले अंधियारे के अन्दर अपना सब कुछ अवि के साथ मिला देती है रंजीता. पूछती है, ‘देख, मेरी तरफ देख अवि कुछ ढूंढने से कुछ मिलता है या नहीं?’ परन्तु बाहर की बारिश की आवाज से भी ज्यादा जोर से अवि रंजीता के बदन के ऊपर गिर कर रो पड़ता है. ‘मुझसे नहीं हो पा रहा है रंजीता, नहीं हो रहा है, सब अँधेरा… अँधेरा.’

रात के साढ़े ग्यारह बजे अवि होस्टल वापस आ जाता है. ‘क्या हुआ? इतनी देर क्यों?’ शंतानुन के प्रश्न के कोई जवाब अवि नहीं देता है. चुपचाप अपने बिस्तर में बैठ जाता है. ‘तेरा खाना रखा हुआ है. खा लेना.’ शांतनु ने कहा.

‘भूख नहीं है’, कहकर अवि बिस्तर में सो जाता है.

‘कपड़ा चेंज नहीं करोगे? कहीं बाहर से खा कर आये हो?’

‘नहीं. अच्छा नहीं लग रहा.’

‘क्यों. क्या हुआ?’

कुछ समय चुप रहने के बाद अवि अचानक शांतनु से पूछता है, ‘तुमको क्या पता है जब यम नचिकेता को मृत्यु रहस्य बताया था उसके बाद क्या हुआ था? इसके बाद की कहानियां क्या उपनिषद में है?’

‘मुझे क्या पता? मैं क्या तुम्हारी तरह भावुक हूँ. मैं अब सो रहा हूँ. तुमको लगे तो खा लेना और सो जाना.’

अवि चुप हो जाता है. थोडी देर बाद वह बालकनी में जाता है देखता है कि बारिश रुकने के बाद आसमान में दो-चार तारे चमक रहे हैं. मगर आसमान के अधिकतर हिस्से खाली पड़े हैं. अवि को लगता है वे तारे जैसे आसमान में घाव के निशान हों. और जो हिस्सा खाली है उस पर भी घाव फ़ैल जाएगा. यह सोचते हुए अवि को फिर से दर्द महसूस होता है. उसके बाद वह नहीं सोचा पाता. अवि भागकर कमरे के अन्दर आ जाता है. कुर्सी पर बैठकर जोर जोर से सांस लेने लगता है. मगर चारों ओर देखने से उसको फिर से लगता है कि वह ऐनसिएंट मैरिनर बन गया और उसके सामने जलपरी के नाक से हजारों सांप उसकी तरफ बढ़ रहे हैं. वह कोई आवाज नहीं निकाल पा रहा था. अचानक अवि का एक हाथ टेबल के ऊपर गिरता है. पास में नींद की आठ गोलियों की एक पत्ती लग जाती है. एक के बाद एक सारी गोली अवि खा लेता है.

अब बहुत ही कष्ट करके अवि अपने आँख खोल पाता है. चारों ओर उसके जानने वाले खड़े हैं. रंजीता भी. बिस्तर के पास खड़ा शांतनु उसके मुंह अवि के कान के पास मुंह लाकर पूछता है, ‘अब कैसा महसूस कर रहे हो?’ अवि एक बार अपनी गर्दन हिलाता है पर पर ज्यादा देर तक आँखें खुला नहीं रख पाया. दोनों आँखें बंद कर लिया. सर के पास रखा हुआ फ्लावर पॉट से फूल की सुगंध उसके नाक तक आ रही थी. बाहर कहीं बैठे हुए एक कौवे की चीख उसके कान तक पहुँच रही थी. अवि एक करवट लेते हुए फिर से आँखें बंद करता है तो उसको आर्य युग का नचिकेता दिखाई दिया. अवि देख पा रहा था पूरे आसमान में नचिकेता. मिट्टी में नचिकेता. इंसान, पक्षी, पेड़, पौधे सभी चीज के अन्दर वही नचिकेता और इन सभी के बीच अवि का अपना कोई अलग अस्तित्व नहीं था. वह खुद भी अपने अन्दर डूबते हुए ढूंढ रहा था खुद के नचिकेता को.

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त्रिपुरारि की कुछ नई ग़ज़लें

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आज युवा शायर त्रिपुरारि की कुछ नई ग़ज़लें पढ़िए- मॉडरेटर
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ग़ज़ल-1
तिरा ख़याल है या गुनगुना सा पानी है
मिरी निगाह में जो अनकहा सा पानी है
हमारी सम्त नज़र जब पड़ी तो उसने कहा
उदासियों में घिरा ख़ुशनुमा सा पानी है
मैं ख़ल्वतों में जिसे हम-सुख़न समझता हूँ
बहुत हसीन मगर ग़मज़दा सा पानी है
बदन की क़ैद से जो आज तक रिहा न हुआ
हयात धुन पे ज़रा नाचता सा पानी है
तमाम रंग उड़े हैं तमाम चेहरों के
ये क्या हुआ था कि अब तक बुझा सा पानी है
हँसी के होंट को छूकर मैं लौट आया हूँ
वहाँ भी तह में अजब टूटता सा पानी है
हमारी रूह में कुछ अधजली सी लाशें हैं
हमारे जिस्म में कुछ अधमरा सा पानी है
ये नींद क्या है कोई भुरभुरी सी मिट्टी है
ये ख़्वाब क्या है नया अधखिला सा पानी है
ग़ज़ल-2
जिस्म के ख़्वाब सजाते हुए दम घुटता है
उसके नज़दीक भी जाते हुए दम घुटता है
उसका दावा है कि वो इश्क़ बहुत करती है
सो तअल्लुक़ को निभाते हुए दम घुटता है
तुमने इक उम्र तलक ज़हर पिलाया है क्या
किसलिए जाम पिलाते हुए दम घुटता है
जिस गली में थी कभी ख़ाक उड़ाई हमने
उस गली से ही तो आते हुए दम घुटता है
शाख़ वो जिसपे परिंदों ने बनाया हो घर
हाँ वही शाख़ हिलाते हुए दम घुटता है
फूल-तितली से कोई रब्त नहीं है लेकिन
फूल से तितली उड़ाते हुए दम घुटता है
लोग जो प्यार में धोका भी नहीं दे सकते
रूह में उनको बसाते हुए दम घुटता है
ग़ज़ल-3
ज़िंदगी दर्द बना दो तो मज़ा आ जाए
मुझ को मरने की दुआ दो तो मज़ा आ जाए
प्यार से जाम बढ़ाओ मिरी जानिब लेकिन
जाम में ज़हर मिला दो तो मज़ा आ जाए
तुम ने लिक्खा है मिरा नाम लब-ए-साहिल पर
लहर से पहले मिटा दो तो मज़ा आ जाए
जिस ने ये इश्क़ बनाया है, ख़ुदा है शायद
तुम ख़ुदा को ही सज़ा दो तो मज़ा आ जाए
मुझ में इक आग है रह रह के भड़क उठती है
आग को और हवा दो तो मज़ा आ जाए
तुम मिरे ख़ून से अब लिख दो किसी ग़ैर का नाम
हैसियत मेरी बता दो तो मज़ा आ जाए
चाँद की तरह मैं रातों को जला करता हूँ
चाँद सीने का बुझा दो तो मज़ा आ जाए
क्या? गुज़रता ही नहीं एक भी पल मेरे बिना
यूँ करो मुझको भुला दो तो मज़ा आ जाए
गर मुझे डूब ही मरना है किसी दरिया में
अपनी बाँहों मे डुबा दो तो मज़ा आ जाए
मैं जो इतराऊँ कभी अपनी हुनरबाज़ी पर
मुझ को आईना दिखा दो तो मज़ा आ जाए

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इरशाद ख़ान ‘सिकन्दर’ की कहानी ‘अधूरा उपन्यास’  

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बहुत कम शायर होते हैं जो गद्य भी अच्छा लिखते हैं उन्हीं कुछ शायरों में इरशाद खान ‘सिकंदर’ हैं, उनकी यह कहानी ‘हंस’ में आई है. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर

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रात के डेढ़ बजे ही मुशायरा ख़त्म हो चुका था और अहमद की परेशानी शुरू हो चुकी थी, उसके मन में आग बरस रही थी और बाहर पानी थमने का नाम नहीं ले रहा था, उसे बार-बार लालक़िला याद आ रहा था, लालक़िले में मुशायरा कभी भी ख़त्म हो उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था क्योंकि वहाँ से उसकी उम्मीदों के कई दरवाज़े खुलते थे। हर बार वो यही सोचकर मुशायरा सुनने आता था कि शायद अबकी बार मुशायरा रातभर चले लेकिन…।
ख़ैर… कोई बहुत अधिक परेशानी नहीं होती थी, समस्या बस इतनी सी थी कि जनवरी की कड़कड़ाती ठण्ड में रात के इस पहर वो घर कैसे जाये? बस सुबह छः बजे से पहले मिलती नहीं थी! और ऑटो से जाने के पैसे होते नहीं थे ! पर इस समस्या का हर बार वो नया नया हल ढूँढ लेता था।
पहली बार जब वो मुशायरा सुनने गया था, तो मुशायरा ख़त्म होने के बाद वो टेंट वालों के साथ ही सो गया था दूसरी बार जब ऐसा कोई रास्ता नहीं दिखा तो उसने लालक़िले के बाहर बस स्टैंड पर बैठकर रात काट ली थी, तीसरी बार वो चाँदनी चौक वाली राह पर यूँ ही टहलने के मक़सद से आगे बढ़ा ही था कि दाहिने हाथ पर लाजपत राय मार्किट के साथ ही एक चाय का ठीहा दिख गया, जहाँ उसके जैसे और भी लोग समय काटने के लिए चाय का सहारा ले रहे थे। चौथी बार ठण्ड की अधिकता ने उसे पैदल चलने पर मजबूर कर दिया जिसका दोहरा फ़ायदा हुआ, एक तो उसके बदन में गर्मी आ गयी दूसरा वो बिना पैसों के सवेरे तक अपने घर पहुँच गया था। लेकिन ये लाल क़िले की बात थी..।
‘‘ख़ुदा जहन्नुम में पहुँचाये उन हरामज़ादे दहशतगर्दों को ! न लालक़िले पर हमला हुआ होता न ये तारीख़ी मुशायरा वहाँ से शिफ्ट करके इस मनहूस तालकटोरा स्टेडियम में लाया जाता’’
अहमद लालक़िले को याद करते हुए तालकटोरा स्टेडियम को कोस रहा था, कोसे भी क्यों न? एक तो उसके रात गुज़ारने की सारी उम्मीदों पर पानी फिर चुका था और इधर पानी है कि बरसे ही जा रहा है, ऊपर से ये कमबख़्त सिक्योरिटी वाले ठहरने नहीं दे रहे

‘’चलो भाई …चलते रहो ..यहाँ मत खड़े होइए’’

‘’क्या हो गया भाई? क्या आफ़त आ गयी? थोड़ी देर खड़े ही तो हैं..पहले तुमने अन्दर से भगा दिया..फिर वहाँ थे तो वहाँ से भगा दिया अब इस छज्जे के नीचे भी?आख़िर बिगड़ क्या रहा है तुम्हारा’’? अहमद सिक्योरिटी गार्ड पर झल्ला उठा
‘’कुछ नहीं बिगड़ रहा बाबू जी हम लोग मजबूर हैं, ड्यूटी का सवाल है इहाँ किसी को रुकने का परमिसन नहीं है’’ सिक्योरिटी वाला बड़ी नर्मी से समझाते हुए बोला ।
अहमद को अपनी झुँझलाहट पर पछतावा हुआ, और उसने वहाँ से आगे बढ़कर एक घने दरख़्त की ओट ले ली, लेकिन दरख़्त बारिश से बचाव में उसकी कोई मदद न कर सका। अब भीगना ही उसने अपना मुक़द्दर समझ लिया। इस वक़्त उसे महसूस हुआ कि ठण्ड में ठिठुरने की जगह मिलना भी क़िस्मत की बात होती है। एक एक करके सारी गाड़ियाँ, मोटरसायकिल, ऑटो, बस उसके सामने से गुज़र गयीं, लेकिन उसके घर जाने की कोई सूरत नहीं बनी। तालकटोरा स्टेडियम अब सुनसान होने लगा था इक्का दुक्का लोग ही थे जो यहाँ वहाँ नज़र आ रहे थे शायद वो कर्मचारी होंगे ।
‘’आदाब अर्ज़ है” ।
अहमद ने इस मिमियाती आवाज़ पर पलटकर देखा, तो सामने एक दुबला-पतला, उमर शरीफ़ के लफ़्ज़ों में कहें तो कुछ कुछ ‘’झाड़ू से बिछड़े हुए तिनके’’ जैसा अधेड़ शख़्स नज़र आया। मटमैली सी शेरवानी, अलीगढ़ी पाजामा और सर पर गोल ऊँची टोपी, बाल कन्धों पर लटकते हुये, गोरा रंग क्लीन शेव, और चेहरे पर ऐसे भाव कि किसी उस्ताद का ‘’छिनाल औरत’’ वाला जुमला याद आ गया, जो उन्होंने एक शायर की तस्वीर देखकर कहा था।
‘’नाचीज़ को पत्थर इलाहाबादी कहते हैं, आपका इस्मे-गिरामी?
‘’आँय’’? अहमद ने हैरत से पूछा?
हमारा मतलब है कि हमारा नाम पत्थर इलाहाबादी है, आपका क्या नाम है मियाँ?
‘’अच्छा…अहमद अली’’! अहमद ने कन्धे उचकाकर कानों को ढकने की नाकाम कोशिश करते हुए लापरवाही से उत्तर दिया
‘’आप यहाँ क्यों खड़े हैं? घर क्यों नहीं गये? बस नहीं मिली? अच्छा मुशायरा सुनने आये होंगे? पत्थर इलाहाबादी ने धड़ाधड़ प्रश्नों की बौछार कर दी
अहमद ने बिना पत्थर को देखे एक छोटा सा उत्तर चिपकाया
‘’हाँ जी’’।
‘’तो आपको शायरी में दिलचस्पी है? वैसे ख़ाली सुनने का शौक़ ही है या कुछ कहते भी हैं? वैसे एक मश्वरा मानियेगा? यहाँ खड़े होने का कोई फ़ायदा नहीं, आइये आहिस्ता आहिस्ता आगे बढ़ते हैं, इसी बहाने कुछ वक़्त साथ काट लेंगे और एक-दूसरे को जान भी लेंगे’’! ये कहते हुए पत्थर ने अहमद के कन्धे पर हाथ रखकर चलने का दबाव बनाया और अहमद के पाँव कश्मकश में आगे बढ़ गये। अहमद मन ही मन सोच रहा था कि आख़िर है कौन ये नमूना? तब तक पत्थर फिर मिमियाया
‘’जनाब आपने कोई जवाब नहीं दिया?
‘’किस बात का’’? अहमद ने अपनी गीली जैकेट की पॉकेट में हाथ डालते हुए पूछा
‘’यही कि आप शायरी…
अहमद ने बात काटते हुए जवाब दिया
…मैं तो जी..सुनने का शौक़ीन हूँ और हर साल सुनने आता हूँ, और हाँ ..सिरफ़ सुनने का शौक़ है…शेर-वेर कहना अपने बस का नईं है..। अहमद के मुँह से भाप निकल रही थी वो जेब से अपने दोनों हाथ निकालकर हथेली आपस में रगड़ने लगा
‘’तो आपने हमें पहचाना नहीं”? पत्थर की इस बात पर अहमद मन ही मन बुदबुदाया
‘’ये कोई बड़ी तगड़ी फ़िल्म है यार…(फिर ज़ोर से)जी, नहीं पहचाना! क्योंकि आपसे कभी मैं मिला ही नहीं तो पहचानूँगा कैसे?’’
‘’मियाँ क्या बात कह दी आपने?हमें मुशायरों में देखा नहीं? आज के मुशायरे में भी तो स्टेज पर थे हम’’
‘’आज के मुशायरे में? कहाँ?’’ मैंने तो नहीं देखा!
‘’आप देर से आये होंगे शायद? हमने बिल्कुल शुरूअ में अपना कलाम पढ़ लिया था’’
‘’जी लेकिन मैं तो मुशायरा शुरू होने से पहले ही आ गया था’’
‘’आपने  ख़ातूने-मशरिक़, पाकीज़ा आँचल, ख़ूबसूरत अन्दाज़ इन रिसालों को पढ़ा है कभी’’
पुरानी बात को अधूरा छोड़कर ये नया सवाल दाग़ा था पत्थर ने, अहमद चिढ़ते हुए बोला
‘’जी कभी कभार पढ़ लेता हूँ’’
‘’तो आपने पढ़ा नहीं? सबमें मुसलसल नाचीज़ का कलाम छपता रहता है’’
‘’नाचीज़ कौन? अहमद ने हैरत से पूछा
‘’मियाँ आप भी निरे बौड़म हैं, शेरो-शायरी से रग़बत है और अदबी गुफ़्तगू से वाक़िफ़ ही नहीं हैं, अमा अदब में जब अपने लिए कोई बात कहना हो तो ख़ाकसार या नाचीज़ लफ़्ज़ का इस्तेमाल किया जाता है, यही अदब का तक़ाज़ा भी है और असातिज़ा की ज़बान भी यही है’’
अहमद अपनी अज्ञानता को जानता था इसलिए चुपचाप पत्थर की बातें सुनने और समझने की कोशिश करता रहा.. उसे न जाने क्यों पत्थर संदेहास्पद नज़र आने लगा, उसकी बातों के सारे सिरे कहीं के कहीं जुड़ जाते थे? वो शायर है और अगर आज वो मुशायरे में था तो मुझे क्यों नहीं दिखा? पत्थर अपनी बात जारी रखे हुए था
‘’मियाँ इस वक़्त के हिन्दुस्तान के अहम शायरों में ख़ाकसार का शुमार होता है, हिन्दुस्तान ही क्यों? बैरूनी मुल्क में भी बड़े एहतेराम के साथ सुना जाता है ख़ाकसार को… मुल्क का ऐसा कोई रिसाला नहीं जो नाचीज़ के कलाम के बग़ैर शाया हो जाये..’’
अहमद कम पढ़ा लिखा था लेकिन वो कुछ उर्दू पत्रिकाएं कभी कभी उर्दू सीखने की ग़रज़ से पढ़ लिया करता था और ग़ज़लों में तो उसकी ख़ास दिलचस्पी थी लेकिन फिर भी उसने कभी ‘पत्थर इलाहाबादी’ नाम न पढ़ा न सुना! पत्थर जारी था..
‘’मियाँ कहते हुये अच्छा नहीं लगता लेकिन ये सच्चाई है कि आप बड़े ख़ुशक़िस्मत इन्सान हैं जो इतने वक़्त से ..
अहमद को न जाने क्यों ‘सरफ़रोश’ फ़िल्म का नसीरुद्दीन शाह द्वारा निभाया ग़ज़ल गायक का किरदार याद आ गया, और पत्थर पर उसका सन्देह बढ़ने लगा..उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वो चलते-चलते पत्थर के साथ कहाँ आ गया है,और आगे कहाँ और क्यों जा रहा है। बारिश तो लगभग बन्द हो चुकी थी और फ़िज़ा में कोहरा बढ़ रहा था. पत्थर बोला
‘’मियाँ ज़रा ठहरिये..सामने मेडिकल खुला है मैं ज़रा एक दवा लेकर अभी हाज़िर हुआ’’।
अहमद पत्थर के पीछे पीछे चलकर मेडिकल स्टोर से ज़रा पहले ठहर गया।
पत्थर– (मेडिकल वाले से) ‘’आदाब मियाँ, नाचीज़ को पत्थर इलाहाबादी कहते हैं…
मेडिकल वाला एक सफ़ेद लोई ओढ़े हुए बैठा था वो बिना किसी प्रतिक्रिया के पत्थर की बातें सुनता रहा।
…आपने सुना होगा कि आज तालकटोरा में एक मुशायरा था, तो हुआ कुछ यूँ कि ख़ाकसार को भी उसमें शिरकत का शरफ़ हासिल हुआ…ख़ैर मैं ये अर्ज़ कर रहा था कि आपके पास कफ़ सीरप हो तो इनायत कीजिये…
मेडिकल वाला– आपको क्या चाहिये चचा..
पत्थर– वही तो अर्ज़ किया अभी कि कफ़ सिरप!
मेडिकल वाला एक शीशी अलमारी से उठाकर काउन्टर पर रखते हुए
‘’20 रुपये’’।
पत्थर ने पैसे देकर शीशी जेब के हवाले की और अहमद की सिम्त बढ़ा। अहमद ने सोचा इस आदमी से पीछा छुड़ाकर यहीं मेडिकल स्टोर के पास ही रुक जाना अधिक सुरक्षित है पता नहीं ये कौन हो? क्या हो? ख़ुदा न ख़्वासता ‘सरफ़रोश’ वाले ग़ज़ल गायक की तरह आतंकवादी हुआ तो? और जैसे ही पत्थर क़रीब आया अहमद ने कहा
‘’चचा आप को जहाँ जाना हो जाइए मैं यहीं मेडिकल वाले के पास ही रुकूँगा, अभी थोड़ी देर में सुबह हो जायेगी फिर घर चला जाऊँगा’’
पत्थर ने फिर उसके कन्धे पर हाथ का दबाव बनाते हुए उसे आगे बढ़ाया
‘’यहाँ रुकने का कोई फ़ायदा नहीं है मियाँ..अभी सुबह होने में बहुत वक़्त है चलते रहिएगा तो जिस्म में गर्माहट रहेगी, कहीं बैठे तो अकड़ जाइएगा..वैसे आपका घर है कहाँ?
‘’मेरा अपना घर नहीं है, मैं त्रिलोक पूरी में किराये पर रहता हूँ’’ अहमद ने दो टूक जवाब दिया
पत्थर उछल पड़ा, और जेब से शीशी निकालकर सारा कफ़ सिरप एक बार ही में पी गया और फिर रोड के किनारे शीशी फेंकते हुए बोला..
‘’ये तो और भी अच्छी बात है मुझे नोएडा जाना है साथ ही चलेंगे दोनों,
पहले एक कप चाय आपके साथ आपके घर! उसके बाद होगा आगे का सफ़र!
इसी बहाने आपका घर भी देख लेंगे क्या ही उम्दा बात होगी….वाह’’
अहमद की जान सूख गयी कहाँ वो इस मुसीबत से जान छुडाना चाहता था कहाँ ये मुसीबत घर में दाख़िले का इरादा कर चुकी थी..’’उफ़ क्या करे? कैसे बचे अब? या तो ये कोई पागल है या फिर पक्का ‘’सरफ़रोश’’ वाला…’’
वो तमाम तरह की उधेड़बुन में था इतने में चलते-चलते गुरुद्वारा बंगलासाहिब दिख गया, अहमद को अब कुछ कुछ रास्ता समझ आने लगा था..पत्थर फिर उबला
‘’आइये मियाँ समझिये कि इन्तिज़ाम हो गया’’
‘’कैसा इन्तिज़ाम’’? अहमद ने पूछा
‘’मियाँ आइये तो सही’’ कहते हुए पत्थर अहमद का हाथ खींचता हुआ गुरुद्वारे के अन्दर दाख़िल हो गया, अन्दर जाकर पहली मंज़िल पे जाती हुई सीढ़ियाँ नज़र आयीं, पत्थर बन्दर की तरह उछल उछल कर सीढ़ियाँ चढ़ने लगा, और पलट-पलटकर अहमद को हाथों के इशारे से जल्द ऊपर आने को कहता हुआ ख़ुद ऊपर पहुँच गया इतने में अहमद भी आ गया..
वहाँ दीवार के कोने में टेबल कुर्सी डाले हुए एक सरदार जी गठरी बने बैठे थे नीचे फ़र्श पर मुसाफ़िरनुमा तमाम लोग कम्बल ओढ़े सो रहे थे, पत्थर ने इधर उधर एक नज़र दौड़ाई फिर सरदार जी की तरफ़ गर्मजोशी से बढ़ा
पत्थर– ‘आदाब अर्ज़ है सरदार साहब’
सरदार– सत श्री अकाल जी.. आदाब जी..
पत्थर– नाचीज़ को पत्थर इलाहाबादी कहते हैं आज तालकटोरा में एक मुशायरा था…सो ख़ाकसार को भी कलाम पढ़ने का शरफ़ हासिल हुआ..
सरदार– ‘अच्छा जी ‘’
पत्थर– मैं ये अर्ज़ कर रहा था कि (अहमद की तरफ़ इशारा करते हुए) हम दोनों…अगर आपकी इजाज़त हो तो कुछ वक़्त यहीं रुक जायें..?
सरदार– रुक जाओ जी..रुक जाओ
पत्थर– बहुत शुक्रिया हुज़ूर…एक छोटी सी गुज़ारिश थी
सरदार– दस्सो जी दस्सो..
पत्थर –अगर एक कम्बल मिल जाता तो हम दोनों …
सरदार– 100 रुपये जमा करा देओ जी.. कम्बल मिलजेगा जदों तुसीं कम्बल वापस करोंगे पैहे वापस मिल जाणगे।
पत्थर ने अहमद की तरफ़ देखा, अहमद रेलिंग से पीठ टिकाये फ़र्श पर बिछी दरी पर सिकुड़कर बैठ गया था..अहमद ने कहा ‘’मेरे पास नहीं हैं पैसे’’
पत्थर-(सरदार से) ख़ैर…सरदार साहब ज़रा देर की तो बात है, हम यूँ ही बैठकर वक़्त काट लेंगे।
सरदार– कोई गल्ल नईं जी…अराम नाळ बैठो तुसीं।
पत्थर-जी शुक्रिया ..।
पत्थर अहमद के पास वापस आकर बैठ गया और उसकी ज़ुबान फिर चल पड़ी
‘’सरदार लोग बहुत ही प्यारे होते हैं …कमाल के मुहब्बती और मेहमान-नवाज़..
हम तो अक्सर पंजाब जाते हैं मियाँ.. ख़ैर पंजाब जाने की भी क्या ज़रूरत है? अब तो हर शह्र में एक छोटा सा पंजाब मिल जायेगा..बल्कि कई शहरों में बड़ा बड़ा पंजाब मिल जाएगा …आँ$$$ह्ह्ह’’
पत्थर बोलते बोलते जम्हाई लेने लगा था उसकी जम्हाई पर बग़ल में सोये मुसाफ़िर ने कुनमुनाते हुए गर्दन कम्बल से बाहर निकाली
पत्थर– मुआफ़ कीजियेगा हुज़ूर..अगर हमारे सबब आपकी नींद में ख़लल पहुँचा हो तो ..
मुसाफ़िर को जैसे कुछ भी समझ  न आया हो, वो करवट बदलकर मुँह दूसरी तरफ़ करके सो गया। मुसाफ़िर के करवट लेने से उसके  कम्बल में थोड़ी सी जगह बन गयी पत्थर ने झटपट अपनी दोनों पतली पतली टाँगे फैलाकर कम्बल में घुसेड़ दीं और अहमद से कहा-
‘’आप भी आ जाइए मियाँ ज़रा .. आँ$$$ह्ह्ह’’ और ये कहते हुए उसे फिर जम्हाई आने लगी इसबार उसका मुँह ठीक सामने होने की वजह से पत्थर की  साँसें अहमद के नथुनों से टकराईं और शराब की सी गन्ध से उसका जी ख़राब हो गया उसने मुँह फेरते हुए कहा-
‘’नहीं मैं यहीं ठीक हूँ’’
पत्थर ने फ़ोर्स भी नहीं किया और आहिस्ता आहिस्ता फ़र्श पर पसर गया  अब उस पर नींद का जादू छाने लगा था ज़बान अब भी चल रही थी मगर लड़खड़ाते हुए…
‘’जानते हैं मियाँ सुबह जब मैं आपके घर चलूँगा… तब आपको अपनी ज़िन्दगी के…. पथरीले और सियाह रास्तों की सैर कराऊँगा..आपको सुनकर हैरानी होगी.. कि मैंने बहुत बड़ी बड़ी फ़िल्मों में.. बड़े बड़े फिल्मी सितारों के साथ छोटे छोटे काम किये हैं….पाँच हज़ार से ज़ियादा गाने लिखे, कितनी ही स्क्रिप्टें लिखी हैं.. बरसों से मुम्बई में हूँ …अब तक शादी नहीं की..अपना सरमाया अदब और सिनेमा में झोंक दिया.. पता है शादी क्यों नहीं की? मियाँ बस वो एक मौक़ा मिल जाए जिससे कि ज़िन्दगी में कुछ ठहराव पैदा हो ..कामयाबी! …कामयाबी ही वो मौक़ा अता करेगी! …मैं जिस दिन कामयाब हो गया शादी भी करूँगा और बच्चे भी….तुम आना ज़रुर मियाँ..मेरी शादी में ..’’

कुछ देर ख़ामोशी रही अहमद को लगा पत्थर सो गया लेकिन पत्थर की ज़ुबान फिर लड़खड़ाई
‘’जानते हैं मियाँ हज़ारों ग़ज़लें कहीं मैंने लेकिन आज तक मजमूआ शाया नहीं करवाया…करवाऊंगा…पहले स्टैबलिश हो जाऊं फिर ये काम भी करूँगा… पर हाँ, तुम्हें ज़रूर सुनाऊंगा ग़ज़लें…तुम सच्चे सामईन हो आजकल तुम जैसे….
पत्थर फिर ख़ामोश हो गया अहमद बुत बना कुछ देर यूँ ही बैठा रहा जब बड़ी देर तक पत्थर कुछ नहीं बोला तो उसे लगा कि इससे पीछा छुडाने का यही बेहतर मौक़ा है अहमद ने सरदार जी की तरफ़ एक नज़र देखा सरदार जी कुर्सी पर बैठे-बैठे जम्हाई ले रहे थे। अहमद धीर-धीरे ये सोचते हुए उठ खड़ा हुआ कि अगर पत्थर ने पूछा तो वो कह देगा कि सू सू करने जा रहा है. अहमद ने खड़े होकर एक भरपूर अँगड़ाई की आड़ में हालात का जायज़ा लिया।
कहीं कोई हलचल नहीं.. पत्थर ख़ामोश था.. उसने बिल्ली के पन्जों की तरह अपने क़दम आगे बढ़ाए और सीढ़ी पर पहुँचते ही बिजली की रफ़्तार से नीचे उतरा..नीचे उतरते ही सामने पेशाब घर की तरफ़ गया और फिर बाहर निकलकर ऊपर नज़र दौड़ाता हुआ गुरुद्वारे के उस तरफ़ बढ़ गया जहाँ ताज़ा गर्मागर्म हलवा बँट रहा था..अहमद हलवा लेकर बाहर निकला..उसने एक नज़र फिर ऊपर की तरफ़ देखा..पत्थर की कहीं कोई सुगबुगाहट न थी, वो जी ही जी में ख़ुशी से बुदबुदाया ‘’लगता है मुसीबत को नींद आ गयी’’ पल भर के लिए सर्दी का सारा एहसास फुर्र हो गया वो कुलाँचे मारता हुआ गुरुद्वारे से बाहर जाना चाहता था लेकिन इधर-उधर लोगों को देखकर वो ख़ामोशी से ‘’वाहे गुरु जी’’ को शुक्रिया कहता हुआ बाहर आ गया. गेट पर उसने एक व्यक्ति से बसस्टैंड का रस्ता पूछा, व्यक्ति ने हाथ के इशारे से रस्ता बताया ।
अगले ही पल अहमद बस स्टैंड के बोर्ड को दूर ही से पढ़ने की कोशिश करता हुआ बढ़ रहा था. उसने बोर्ड पर 378 नम्बर लिखा देखा तो कुछ राहत की साँस ली। वो बस स्टैंड के बिल्कुल क़रीब आ गया, उसे थोड़ी तसल्ली हुई कि पहले से चार लोग बस स्टैंड पर बैठे हुए थे।
अब भी अहमद को ये डर सता रहा था कि कहीं पत्थर उसे ढूँढता हुआ फिर न आ जाए, वो गुरुद्वारे की तरफ़ देखता हुआ बस स्टैंड में लगे लोहे की पाइप से अपनी पीठ टिकाकर खड़ा हो गया..
‘’अबे भों…के दाँत न चियारो…
अहमद ने पलटकर ग़ौर से देखा एक अधेड़ उम्र का मैला कुचैला सा व्यक्ति अपने साथ बैठे व्यक्ति पर ख़फ़ा था, साथ वाला व्यक्ति एक छोटा सा रेडियो कान पर सटाये, रेडियो का वॉल्यूम तेज़ करता हुआ इस अधेड़ की बात को मुस्कुराकर टाल रहा था, उसके बग़ल में बैठे 2 लड़के खी खी हँस रहे थे, अधेड़ ने गन्दा सा जैकेट पहना हुआ था, रेडियो वाला व्यक्ति कम्बल और कंटोप में अपने आपको क़ैद किये हुए था बाक़ी दोनों लड़के शायद स्वेटर जैसा कुछ पहने हुए थे, बस स्टैंड पर अँधेरा था इसलिए अहमद को उनका हुलिया साफ़ साफ़ नहीं दिखाई दे रहा था। वो बस रेडियो के स्वर में मिश्रित होती आवाज़ सुन पा रहा था। रेडियो की तेज़ आवाज़ और दोनों लड़कों की खी..खी.. पर अधेड़ और चिढ गया-
‘’ससुर के नात जब ठाँय से चूतर प गोली चली न! तब ई खी खी न चली हुआँ..समझ्यो? जान पियारी है त मान जाव .. अबहीं तू लोग दुनिया नाई देखे हव..एही से हमार कुल बात मजाक लागत होय..जहिया पाले परि जइबो वोह ससुरन के..ओह दिन अकिल काम न करी..’’
‘’ओय बकचोदी बन्द कर ले बुड्ढे कुछ ना होता..चुप चाप गाणा सुण…’’ रेडियो वाला व्यक्ति बोला। बगल वाले दोनों लड़के फिर खी खी कर कोरस में हँसने लगे। अहमद सुनकर अनुमान लगाने की कोशिश कर रहा था कि आख़िर माजरा क्या है? अधेड़ बिदकता हुआ अहमद की ओर मुख़ातिब हुआ
‘’अच्छा तुम्हई बताओ भईया..तुम पढ़े लिक्खे जान परत हव.. अबहीं 26 जनवरी के चलते मिलिटरी अ पुलिस दुनहुन क एह एरिया में केतना सखत पहरा है?आँय? है कि नाईं?
‘’हाँ पहरा तो है लेकिन बात क्या है….’’
रेडियो वाला रेडियो की आवाज़ कम करते हुए बोला ‘’अरे बात कुछ ना है भाई साब..आप अपणा काम करो बुड्ढा पागल हो गया है यू’’  और रेडियो की आवाज़ बढ़ा ली, बग़ल वाले फिर कोरस में हँसने लगे अधेड़ फिर भड़कते हुए अहमद की तरफ़ रुख करके
‘’ दे’ख्यो भईया? ई हैं आजकल के लवन्डी!
…मरै क एतना शउक है त मरौ भोंsss के.. हमार त जइसे तइसे पार होइ गई लेकिन तूँ लोग?तूँ लोग रामधे कुत्ता क मउवत मारा जाबो.. कउनो दिन आतंकवादी बतायके ठोंक दीहें त परा रह्यो मुँह बाय के …ओह दिन ई रेडियो कामे न आई’’
रेडियो बन्द करते हुए रेडियो वाला खीझकर बोला ‘’ओय चुप कर भेणके लौ…बुड्ढे..साणे तू अभी क्यों म्हारी लास ठाणा चा.. रा.. बोल तो दी तुझे इब णा जाउंगा… चाए सुसरी पैंट में कू टट्टी हो जा पर उधर ना जाउंगा.. इब के लिखके दूं तझे..?
‘’चाय ले लो रे……’’
बस स्टॉप के कुछ दूर दीवार से लगी झोपड़ीनुमा जगह से एक महिला की आवाज़ आई
‘’आज्जा चल चा पी ले ‘’ कहकर रेडियो वाला चल पड़ा दोनों कोरस वाले लड़के भी उसके साथ चल पड़े,अहमद ने फिर अधेड़ से पूछा ‘’हुआ क्या चाचा’’?
अधेड़ बड़ी नर्मी से समझाते हुए बोला ‘’देखौ बेटा बात ई है कि 26 जनवरी क समय नगिच्चे है अ ई बाउ साहब, हऊ उहाँ सामने देखत हौ.. ओह इलाका मा.. मैदान होय गै रहन..अब तुहीं बताओ पुलिसवाला आतंकवादी बतायके मार दें तौ? तनी भर में त खेला खतम होइ जाइ..गलत कहत होईं त बतावा?
भाषा पूरी तरह समझ में न आने के बावजूद अनुमान से अहमद को सारा माजरा समझ में आ रहा था अधेड़ की चिन्ता एक पिता की चिन्ता सी थी
‘’ह्म्म्म..बात तो सही है आपकी… वैसे…आप लोग क्या करते हैं’’? अहमद ने उत्सुकतावश पूछा
‘’जवन मिल जाय उहै कई लिहा जात है बाबू’’
‘’मतलब आप लोग मज़दूर हैं’’
‘’जब काम मिल जाय त मजूर, नाहीं त भिखारी’’
अहमद को कुछ समझ नहीं आया आज सबकुछ रहस्यमयी ही हो रहा था, उधर पत्थर इलाहाबादी और अब ये… ख़ैर बस न आने तक समय तो काटना था। अहमद ने बात आगे बढ़ाई-
‘’आप रहते कहाँ हैं’’?
‘’जहैं जगह मिल जाय! बस अड्डा..रेलवे स्टेशन..अ अगर पुलिसवालालोग मार के न भगावें त कवनो फुटपाथ’’
अहमद ने हैरत से पूछा ‘’मैं कुछ समझा नहीं चचा..मतलब मैं ये जानना चाहता हूँ कि आप लोग कौन हैं आपका घर कहाँ है?’’
‘’हम लोग कौन हैं? का करिहौ जानिके? ए बच्चा! हम लोग पूरा हिन्दुस्तान हैं..पूरा हिन्दुस्तान!..ऊ दे’ख्यो? रेडियो वाला लड़का? ऊ अपने घर क राजा रहन.. अपने खानदान क एकलौता वारिस.. बीए एम्मे पास… समय एक करवट बदलिस हमरे लोग के संघरी आज भिखारी बना बइठा हैं। आजो उनके पटिदार लोग क खबर मिल जाय… त एक मिनट मा गोली मरवाय दें.. सहारनपुर घर होय उनकर। अ हऊ लोग क दे’ख्यो र’ह्यो न? एक लड़का ओहमा गढ़वाल से है दुसरा नेपाल से। हम का देखौ! हम गोंडा से हन….अ उ अउरत जउन चाह खातिर बोलाइस है …ऊ यहीं पुरानिये दिल्ली क होय, एतनै नाईं बचवा अउर बहुत लोग होंय, कहाँ तक गिनाई? इनकर गिनती त जनगणना बिभागो क लगे न पइबो..कहा न तोंहसे पूरा हिंदुस्तान! सरकारी खाता से बाहर क हिन्दुस्तान..
‘’ओय बुड्ढे चाय ठण्डी हो री फेर गरम ना होगी..आज्जा’’ रेडियो वाले की आवाज़ आई
‘’चलो आओ ..चाह पी ल्यो’’ अधेड़ ने अहमद से कहा
‘’नहीं आप लोग पीजिये मेरी बस आने वाली है’’
‘’अरे पी ल्यो बस आई त चला जायो…आओ’’
अहमद न चाहते हुए भी अधेड़ के पीछे चल पड़ा
‘’ये औरत जब दिल्ली की ही है तो यहाँ क्यों रहती है अपने घर क्यों नहीं जाती’’? अहमद ने चलते चलते अधेड़ से पूछा
‘’जवाब बहुत कठिन है बेटा सवाल न पूछौ..एक एक आदमी क कहानी सुनै खातिर एक एक महिन्ना कम परि जाई… चलौ पटाई मारके चाह पियो अउर अपने घर जाव’’
अहमद चुप होकर चल पड़ा अधेड़ झोंपड़ीनुमा दड़बे में घुसकर दो गन्दे से कप में चाय ले आया,एक ख़ुद ली और एक अहमद की तरफ़ बढ़ाया-
‘’अन्दर आजा बैठकर पी ले आराम से’’ अन्दर से महिला की आवाज़ आई
इतने में 378 नम्बर बस आती दिखी..अहमद ने चाय तेज़ी से सुड़की और कप रखकर बस की तरफ़ लपका
‘’अच्छा चचा शुक्रिया…..बस आ गयी चलता हूँ’’
‘’सम्हार के जाओ हड़बड़ाओ मत ……धियान से …..हाँ …’’
अहमद लपककर बस में सवार हो गया, टिकट कटाकर वो सीट पर बैठा सोचने लगा कि ये रात थी या कोई अधूरा उपन्यास? उसे पीछे छूटे किरदार याद आ रहे थे..लेकिन सब के सब अधूरे, वो सोचता जा रहा था और अजीब से ख़ालीपन से भरता जा रहा था ।

अहमद को मुशायरे के अलावा मुशायरे की रिपोर्ट भी पढ़ने का शौक़ था।अगले दिन चाय की दूकान पर अहमद ने अख़बार के पन्ने खोले तो दिल्ली की ख़बरों वाले पृष्ठ पर एक छोटी सी ख़बर उसे पत्थर की चोट सी लगी।
‘’गुरुद्वारा बंगला साहिब परिसर में एक व्यक्ति मृत अवस्था में पाया गया प्राथमिक जाँच में उसकी मृत्यु का कारण हार्टअटैक बताया जा रहा है।प्राप्त सूत्रों से जानकारी मिली है कि उसका नाम कमलकिशोर था और वो पत्थर इलाहाबादी के नाम से लेखन कार्य करता था,उसने सिनेमा और साहित्य में बरसों संघर्ष किया लेकिन उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिली। सम्भवतः इसी   कारण वो अपना मानसिक संतुलन खो बैठा था….’’
अहमद को जैसे लकवा मार गया हो, उसने ख़बर आगे नहीं पढ़ी, पत्थर का चेहरा उसकी आँखों के आगे नाचने लगा और वो पत्थर बना काफ़ी देर वहीँ बैठा रहा…

लालक़िले का तारीख़ी मुशायरा अगले साल से वापस लालक़िले में लौट आया लेकिन अहमद ने फिर कभी मुशायरा सुनने जाने की ज़हमत नहीं उठाई ।

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अंकिता आनंद की आठ कविताएँ

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अंकिता आनंद का नाम अंग्रेजी पत्र पत्रिकाओं में सुपरिचित है. हिंदी में कविताएँ लिखती हैं. उनकी कविताओं में जो बात सीखने लायक है वह है शब्दों की मितव्ययिता. चुन चुन कर शब्द रखना और भावों को कविता की शक्ल देना. लम्बे अंतराल के बाद उनकी आठ कविताएँ पढ़िए- मॉडरेटर
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1.
असंबद्ध
 
शिकायत करती इस दुनिया से
सभी गलतियाँ गिनवाती
नाराज़गी जताती
अगर एक-दूसरे के होते हम,
मैं
और दुनिया
2.
बर्थडे पार्टी, 1990
नई फ्रॉक
और आज घर पर ही
बाहर जानेवाली एकमात्र सैंडल
बाल झाड़ लो ठीक से,
कोई आएगा तो क्या बोलेगा कि
ठीक से बाल भी नहीं झाड़ी है
उधार के कैमरे ने
बच्चों के दाँत
अमरूद में गड़े देखे
आँटियों ने कचौड़ियाँ
खाने से पहले बनाईं
हमलोग कोई गेस्ट हैं क्या?
छोले पर जान छिड़कने के लिए
हर थोड़ी देर में
एक जाँबाज़ प्याज़ तैयार
पेपर प्लेट के बाहर
पाँव पसारता केला
सिंघाड़े से अपनी हीनता
छिपाने की कोशिश में,
ट्राईंग टू हार्ड, इफ़ यू आस्क मी
1. केक
2. खीर (दूध ठीक से ओटिएगा और चावल खाली एक मुट्ठी)
3. गुलाबजामुन
बहुत है, और कितना मीठा रहेगा भाई
गुलाबी कागज़ से निकला
गिफ़्ट लंच बौक्स अभी रख दो
नए क्लास में ले जाना
अभी तो तुम्हारा चल ही रहा है
 
3.
चींटियाँ
आंदोलन और नुक्कड़ नाटक के पहले,
पेडीक्योर को मुँह चिढ़ाती दरारों के पहले,
मेरे तलवों के नरम बचपन ने जाना था
एक के बाद एक कदम आगे रखकर
लंबी दूरी तय की जा सकती है।
गर्वीले पाँव, शीतल ज़मीन,
लगा चींटियाँ मेरा रास्ता काट रही हैं।
उन्हें बताना पड़ेगा, सोचा,
व्यवस्था में किसकी जगह कहाँ है।
धरती से मिलकर चलनेवालों को
धराशायी करने मेरे पैर ऊपर से नीचे आए।
एक पल में इतना विस्तार था,
उसमें तरल लोहे की महक
और उसके स्त्रोत बिंदु की टीस
दोनों समा गए।
मानना तो ये चाहूँगी
ज़िंदगी के सबक जल्दी सीख लेती हूँ।
ईमानदारी की बात ये है
मेरे गुरु निपुण थे।
अब कोई जीवन में कुछ
बड़ा करने की सलाह देता है,
तो सोचती हूँ
सटीक होना काफ़ी है।
 
 
4.
अवसरवाद
आप सोचेंगे
कवियों पर डेडलाइन का बोझ नहीं
पर उन्हें भी
शुष्क शहर में हुई
एक कमज़ोर, टपकती बारिश को
निचोड़ लेना पड़ता है
अकालग्रस्त आश्वस्त नहीं हो सकता
दोबारा सरकारी हेलिकौप्टर वहीं से गुज़रेगा
वो और कवि
दोनों आश्वस्त नहीं हो सकते
उनके आसमान में फिर बादल मँडराएँगे
और वे उस पक्षाघाती दुख के न होंगे
जिसमें न पकड़ी जाएगी कलम,
न उठा ही सकेंगे
राहत सामग्री
 
5.
जत्था
मुझे भागती हुई औरतों के सपने आते हैं
दीवारों को फाँदते, लगातार हाँफते
थाने के सामने दम भर ठहरते
और फिर से भागते,
याद करके, “ओह, इनसे भी तो भागना था”
ये वो सपना नहीं
जिससे उठकर कहा जाए
“शुक्र है, बस एक सपना था,”
ऐसा सच है
जो कई सपनों को लील गया
मैं जानती हूँ मैं वो सब औरतें हूँ
जानती हूँ वो मुझे बचाने के लिए भागती हैं
अब मैं उनके भीतर से लपक
उनके सामने आ जाना चाहती हूँ
देना चाहती हूँ उनको विराम
चाहती हूँ वो मेरी पीठ और कंधों पर
सवार हो जाएँ
मैं उनको लेकर उस दंभ से चलूँ आगे
जिसके खिलाफ़ हमें चेताया गया था
हर बार जब हमने दृढता दिखाई
एक-एक कदम पर हिले धरती
जगाती उन सभी को
जो उसमें ठूँसी गई थीं
उन के दिल पर रखा एक-एक पत्थर फूटे
फाड़ता हुआ कानों पर पड़े परदे
हमारे दाँत मुँह से कहीं आगे तक निकले हों
गर्भावस्था के दौरान किसी कमज़ोरी से नहीं
इस बार
अधिकार से गड़ने को हर लूटे गए निवाले में
आँखों का काजल फैल चुका हो
नज़रबट्टू बन उन गालों पर
जिन पर कालिख फेंकने वो बढ़े थे
जब उनकी दी गई लाली पोतने से
हमने मना कर दिया था
हम अट्टहास करें, भयावह दिखें, औक्टोपस बनें
शरीर से छोड़ते स्याही की पिचकारियाँ
उन पर साधे
जो संग होली खेलने को व्याकुल थे
 
 
6.
मंच निर्देशन
मैं चाहती हूँ तुम वाक्य की शुरुआत
“सुनो” से करो, जिससे साफ़ हो जाए
ये कहानी मेरे लिए है,
वैसे तो तुम दफ़्तर के जूनियर्स और पार्टियों में
कितना ही ज्ञान बाँच देते हो
उन लोगों से फ़र्क करने के लिए
मुझसे पूछो मेरे काम के बारे में बिना राय दिए,
मेरी मदद माँगो, और अपनी घबराहट का खुलासा करो
लगेगा कुछ बात हुई हमारी,
कि सिर्फ़ बातें बनाकर नहीं चले गए तुम
हमारे मामूली मर जाने के डर से
कितने ही खयाली महल बना डाले हमने
उधर इतने दिनों से टपकता नल
आहत नजरों से मुझे बींधे जा रहा है
आज उसके लिए किसी को बुलाकर ही आते हैं
उसके बाद जाकर कुछ देर पार्क में बैठ जाएँगे
फिर शायद तसल्ली हो
सब कुछ देख ही लिया हमने आख़िर
ज़िंदगी यूँ ही हमारे हाथों से छूटती नहीं जा रही
 
 
7.
नियम और शर्तें
 
अगर तुम दोस्ती के लिए भी
गहरी आँखों की शर्त रखो
तो ये समझे रहना
बहुत सीढ़ियाँ उतर तुम पहुँचोगे
उसके घर तक
 
फिर वहाँ आकर
ऐसी कोई बेवकूफ़ाना हरकत मत कर देना
“लाईट औन कर दें क्या?”
या “तुमने अँधेरा क्यों कर रखा है?”
 
बैठे रहना जैसे पूरी दुनिया में यही होता आया है
और जैसे तुम समझते हो कि अँधेरे में ही
लोग एक-दूसरे से बात करना सीखते हैं
 
फिर ये मत कहना, “कहीं बाहर चलें?”
भात और जल्दी में गरम पानी डाल बढ़ाई गई
पनसोर आलू की सब्ज़ी खा लेना
और सो जाना
 
घड़ी से मत गिनना सुबह होने तक के घंटे
जब वो वापस सीढ़ियाँ चढ़ ऊपर जाने लगे
तुम हल्के से दरवाज़ा लगा
चुपचाप उसके पीछे निकल आना
 
 
8.
सामग्री
एक उदास कहानी मुझसे छेड़े गए सभी अभियान भुलवा सकती है
हींग के छौँक की महक मुझे कृतज्ञ आँसू रुलवा सकती है
पिछ्ले खोए के लौटने की उम्मीद जगा
मौसम से लड़ कर खिला एक फूल हाथ पकड़ मुझे उठा सकता है
बंद जाली के कोने से घुसा दुष्ट कबूतर
मुझे ढिठाई, बेहयाई के फ़ायदे गिनवा सकता है
लड़के के रोने से मैं दुनिया के खिलाफ़ तलवार साध सकती हूँ
लड़की के हँसने पर मेरी रुकी साँस आज़ाद हो जाती है
दोस्त की माफ़ी मुझे फिर से जिला देती है
टटोलने भर से इनमें से कुछ तो हाथ लग ही जाता है
एक और खेल के लिए मैं फिर तैय्यार हो जाती हूँ
 

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गौतम राजऋषि की कहानी ‘तीन ख्वाब, दो फोन-कॉल्स और एक रुकी हुई घड़ी’

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गौतम राजऋषि सदाबहार लेखक हैं, शायर हैं. आज उनकी एक दिलचस्प कहानी पढ़िए- मॉडरेटर

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 सर्दी की ठिठुरती हुई ये रात बेचैन थी| गुमशुदा धूप के लिए व्याकुल धुंध में लिपटे दिन की अकुलाहट को सहेजते-सहेजते रात की ठिठुरन अपने चरम पर थी|

…और रात की इसी बेचैनी में एक बेलिबास-सा ख़्वाब सिहरता रहा था नींद में,नींद भर। जलसा-सा कुछ था उस ख़्वाब के पर्दे पर| बड़ा-सा घर एक पॉश-कॉलोनी के लंबे-लंबे टावरों में किसी एक टावर के सातवें माले पर,एक खूबसूरत-सी लिफ्ट और घर की एक खूबसूरत बालकोनी| कॉलोनी के मध्य प्रांगण की ओर झाँकती वो बालकोनी खास थी सबसे| ख़्वाब का सबसे खास हिस्सा उस बालकोनी से नीचे देखना था| ख़्वाबों का हिसाब रखना यूँ तो आदत में शुमार नहीं, फिर भी ये याद रखना कोई बड़ी बात नहीं थी कि जिंदगी का ये बस दूसरा ही ख़्वाब तो था| इतनी फैली-सी, लंबी-सी जिंदगी और ख़्वाब बस दो…? अपने इस ख़्वाब में उस सातवें माले वाले घर की उस खूबसूरत बालकोनी और कॉलोनी के मध्य- प्रांगण में हो रहे जलसे के अलावा सकुचाया-सा चाँद खुद भी था और थी एक चमकती-सी धूप| चाँद लिफ्ट से होकर तनिक सहमते हुये आया था सातवें माले पर…धूप के दरवाजे को तलाशते हुये| धूप खुद को रोकते-रोकते भी खिलखिला कर हँस उठी थी दरवाजा खोलते ही, देखा जब उसने सहमे हुये चाँद का सकुचाना| जलसा ठिठक गया था पल भर को धूप की खिलखिलाहट पर और चाँद…? चाँद तो खुद ही जलसा बन गया था उस खिलखिलाती धूप को देखकर| धूप ने आगे बढ़ कर चाँद के दोनों गालों को पकड़ हिला दिया| बहती हवा नज़्म बन कर फैल गयी जलसे में और नींद भर चला ख़्वाब हड़बड़ाकर जग उठा| बगल में पड़ा हुआ मोबाइल एक अनजाने से नंबर को फ्लैश करता हुआ बजे जा रहा था| मिचमिचायी-निंदियायी आँखों के सामने न कोई दरवाजा था, न ही वो चमकीली धूप| दोनों गालों पर जरूर एक जलन सी थी, जहाँ ख़्वाब में धूप ने पकड़ा था अपने हाथों से…और हाँ नज़्म बनी हुई हवा भी तैर रही थी कमरे में मोबाइल के रिंग-टोन के साथ| टेबल पर लुढ़की हुई कलाई-घड़ी पर नजर पड़ी तो वो तीन बजा रही थी| कौन कर सकता है सुबह के तीन बजे यूँ फोन… और अचानक से याद आया कि घड़ी तो जाने कब से रुकी पड़ी हुई है यूँ ही तीन बजाते हुये| बीती सदी में कभी देखे गए उस पहले ख़्वाब में आई हुई गर्मी की एक दोपहर से बंद पड़ी थी घड़ी यूँ ही…अब तक|

      मोबाइल बदस्तूर बजे जा रहा था और नज़्म बनी हुई धूप की खिलखिलाहट कमरे के दीवारों पर पर अभी भी टंगी थी…अभी भी बिस्तर पर उसके संग ही रज़ाई में लिपटी पड़ी थी| वो अनजाना सा नंबर स्क्रीन पर अपनी पूरी ज़िद के साथ चमक रहा था| एक बड़ी ही दिलकश और अनजानी सी आवाज थी मोबाइल के उस तरफ…अनजानी सी, मगर पहचान की एक थोड़ी-सी कशिश लपेटे हुये|  नींद से भरी और ख़्वाब में नहायी अपनी आवाज को भरसक सामान्य बनाता हुआ उठाया उसने मोबाइल…

“हैलो…!”

“हैलो, आपको डिस्टर्ब तो नहीं किया?”

“नहीं, आप कौन बोल रही रही हैं ?”

“यूँ ही हूँ कोई | नाम क्या कीजियेगा जानकर|”

“………”

“अभी अभी आपकी कहानी…वो…वो ‘धूप, चाँद और दो ख़्वाब’ वाली…पढ़ कर उठी हूँ| आपने ही लिखी है ना?”

“जी, मैंने ही लिखी है…लेकिन वो तो बहुत पुरानी कहानी है| साल हो गए उसे छपे तो|”

“जी, डेढ़ साल| आपका मोबाइल नंबर लिखा हुआ था परिचय के साथ, तो सोचा कि कॉल करूँ| अन्याय किया है आपने अपने पाठकों के साथ|”

“???????”

“कहानी अधूरी छोड़कर…”

“लेकिन कहानी तो मुकम्मल है|”

“मुझे सच-सच बता दीजिये प्लीज?”

“क्या बताऊँ…????”

“यही कि चाँद सचमुच गया था क्या धूप की बालकोनी में या बस वो एक ख़्वाब ही था?”

“मै’म, वो कहानी पूरी तरह काल्पनिक है|”

“बताइये ना प्लीज, वो ख़्वाब था बस या कुछ और?”

“हा! हा!! मैं इसे अपनी लेखकीय सफलता मानता हूँ कि आपको ये सच जैसा कुछ लगा|”

“सब बड़बोलापन है ये आप लेखकों का|”

“ओह, कम ऑन मै’म! वो सब एक कहानी है बस|”

“ओके बाय…!”

“अरे, अपना नाम तो बता दीजिये!!!”

      …कॉल कट चुका था| मोबाइल सुबह का आठ बजा दिखा रहा था| खिड़की के बाहर दिन को धुंध ने अभी भी लपेट रखा था अपने आगोश में| नींद की खुमारी अब भी आँखों में विराजमान थी| कमरे में तैरती और रज़ाई में लिपटी हुई धूप की खिलखिलाहट लिए नज़्म अब भी अपनी उपस्थिति का अहसास दिला रही थी और वो विकल हो रहा था ख़्वाब के उस सातवें माले पर वापस जाने के लिये अपने जलते गालों को सहलाता हुआ| टेबल पर लुढकी हुई कलाई-घड़ी की सुईयाँ दुरूस्त नब्बे डिग्री का कोण बनाती हुईं पहले ख़्वाब की कहानी सुना रही थीं… जाने कब से| वो पहला ख़्वाब था| ज़िंदगी का…अब तक की ज़िंदगी का पहला ही तो ख़्वाब था वो| तब से रुकी पड़ी घड़ी, जहाँ एक ख़्वाब के ज़िंदा रहने की तासीर थी, वहीं ऊपर वाले परमपिता परमेश्वर का उसके साथ किए गए एक मज़ाक का सबूत भी| पहला ख़्वाब…गर्मी की चिलचिलाती दोपहर थी वो…सदियों पहले की गर्मी की दोपहर, जब चाँद पहली बार उतरा था धूप की बालकोनी में|पहली बार आ रहा था वो धूप से मिलने| सूरज कहीं बाहर गया था धूप को अकेली छोड़ कर अपनी ड्यूटी बजाने और चाँदनी भी मशरूफ़ थी कहीं दूर, बहुत दूर| धूप के डरे-डरे से आमंत्रण पे चाँद का झिझकता-सहमता आगमन था| उस डरे-डरे आमंत्रण पर वो झिझकता-सहमता आगमन बाइबल में वर्णित किसी वर्जित फल के विस्तार जैसा ही था कुछ| …और उसी लिफ्ट से होते हुये सातवें माले पर उतरने से चंद लम्हे पहले होंठों में दबी सिगरेट का आखिरी कश लेकर परमपिता परमेश्वर से गुज़ारिश की थी चाँद ने दोनों हाथ जोड़कर वक्त को आज थोड़ी देर रोक लेने के लिये| दोपहर बीत जाने के बाद…धुंधलायी शाम के आने का बकायदा एलान हो चुकने के बाद, जब धूप और चाँद दोनों साथ खड़े उस खूबसूरत बालकोनी में आसमान के बनाए रस्मों पर बहस कर रहे थे, उसी बहस के बीच धूप ने इशारा किया था कि चाँद की घड़ी अब भी दोपहर के तीन ही बजा रही है| परमेश्वर के उस मजाक पर चाँद सदियों बाद तक मुस्कुराता रहा| उस ख़्वाब को याद करते हुये फिर से नज़र पड़ी टेबल पर लुढ़की कलाई-घड़ी की तरफ| एकदम दुरूस्त नब्बे डिग्री का कोण बनाते हुये कलाई-घड़ी बदस्तुर तीन बजाये जा रही थी| एक सदी ही तो गुज़र गई है जैसे| अब तो किसी घड़ीसाज से दिखलवा लेना चाहिए ही इस रुकी घड़ी को| ईश्वर का वो मज़ाक ही तो था कि उसके वक्त को रोक लेने की गुज़ारिश उसकी घड़ी को थाम कर पूरी की गई थी | …और यदि उसने कुछ और माँग लिया होता उस दिन ईश्वर से? यदि उसने धूप को ही माँग लिया होता ? क्या होता फिर ईश्वर के तमाम आसमानी रस्मों का ? सवाल अधूरे ही रह गये कि मोबाइल फिर से बज उठा था| वही नंबर फिर से फ्लैश कर रहा था…फिर से उसी अजीब-सी ज़िद के साथ…

“हैलोssss…!!!”

“वो बस एक ख़्वाब था क्या सच में ?”

“मै’म, वो बस एक कहानी है…यकीन मानें !”

“आप सिगरेट पीते हैं ?”

“हाँ, पीता हूँ |”

“जानती थी मैं | अच्छी तरह से जानती थी कि आप सिगरेट पीते होंगे |”

“कैसे जानती हैं आप ?”

“आपकी कहानी का हीरो…वो चाँद जो पीता रहता है घड़ी-घड़ी |”

“आप अपने बारे में तो कुछ बताइये |”

“पहले ये बताइये कि धूप और चाँद की फिर मुलाक़ात हुई कि नहीं ?”

“मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा मै’म कि आप क्या पूछ रही हैं ?”

“हद है, कैसे लेखक हैं आप ? अपनी कहानी तक याद नहीं आपको ?”

“अच्छा, आपको कहानी कैसी लगी ?”

“एकदम सच्ची…हा ! हा !! हा !!!” मोबाइल के उस पार की वो हँसी…उफ़्फ़, कितनी पहचानी-सी| ख़्वाब-सी, मगर कितनी जानी-सी | कमरे के दीवार पर टंगी वो नज़्म फिर से जीवंत हो कर जैसे हिली थी पल भर को |

“अब क्या बोलूँ मैं इस बात पर ?”

“आप अपनी इस कहानी का सिक्वेल भी लिखेंगे ना ?”

“नहीं मै’म, कहानी तो मुकम्मल थी वो |”

“ऐसे कैसे मुकम्मल थी ? आजकल तो सिक्वेल का जमाना है…लिखिये ना प्लीज़ !”

“आप अपना नाम तो बता दीजिये कम-से-कम|”

“पहले आप, सिक्वेल लिखने का वादा कीजिये!”

“हद है ये तो…क्या लिखूंगा मैं सिक्वेल में ?”

“कमाल है, लेखक आप हैं कि मैं ? कहानी को आगे बढ़ाइये | चाँद और धूप ने आसमान के बनाए कायदे की ख़ातिर आपस में नहीं मिलने का जो निर्णय लेते हैं आपकी कहानी में…उसके बाद की बात पर कुछ लिखें आप |”

“वो कहानी वहीं खत्म हो जाती है, मै’म…ठीक उस निर्णय के बा द| उसके बाद कुछ बचता ही नहीं है |”

“अरे बाबा, कैसे कुछ नहीं बचता | दोनों मिल नहीं सकते, लेकिन चिट्ठी-पत्री तो हो सकती है,कॉल किया जा सकता है…तीसरा ख़्वाब देखा जा सकता है |”

“तीसरा ख़्वाब ?आप कौन बोल रही हैं ??”

“जितने बड़े लेखक हैं आप, उतने ही बड़े डम्बो भी !”

“आप…आप कौन हो ? प्लीज बता दो !”

“सिगरेट कम पीया कीजिये आप !”

“आप…आप…!!!”

“एकदम डम्बो हो आप | वो कलाई घड़ी आपकी अभी तक तीन ही बजा रही है या फिर ठीक करा लिया ?”

“धूप ?…तुम धूप हो ना ?”

“हा ! हा !! ब’बाय…!!!”

“हैलो…हैलो…हैलो…”

      …कॉल फिर कट चुका था | नींद अब पूरी तरह उड़ चुकी थी | बाहर दिन के खुलने का आज भी कोई आसार नज़र नहीं आ रहा था और नज़्म बनी हुई हवा अब भी टंगी हुई थी कमरे में,अब भी लिपटी हुई थी रज़ाई में | कानों में गूँजती हुई मोबाइल के उस पार की वो खनकती-सी खिलखिलाहट कमरे में टंगी हुई नज़्म के साथ जैसे अपनी धुन मिला रही थी और गालों पर की जलन जैसे थोड़ी बढ़ गई थी | सिगरेट की एकदम से उभर आई जबरदस्त तलब को दबाते हुये चाँद ने अपने गालों को सहलाया और मोबाइल के रिसिव-कॉल की फ़ेहरिश्त में सबसे ऊपर वाले उस अनजाने से नंबर को कांपती ऊंगालियों से डायल किया | मोबाइल के उस पार से आती “दिस नंबर डज नॉट एग्जिस्ट… आपने जो नंबर डाल किया है वो उपलब्ध नहीं है, कृपया नंबर जाँच कर दुबारा डायल करें” की लगातार बजती हुई मशीनी उद्घोषणा किसी तीसरे ख़्वाब के तामीर होने का ऐलान कर रही थी ।

~ गौतम राजऋषि

9759479500

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मृणाल पांडे का उपन्यास ‘सहेला रे’माइक्रोहिस्टोरिकल फ़िक्शन है

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मृणाल पांडे का उपन्यास ‘सहेला रे’ एक दौर की कला की दास्तानगोई है. महफ़िल गायकी की छवि को दर्ज करने की एक नायाब कोशिश. इस उपन्यास पर नॉर्वेवासी अपने लेखक डॉक्टर प्रवीण झा ने लिखा है. उपन्यास राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित है. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर

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कुछ किताबों के शीर्षक बुलाते हैं, या जिन्हें कुछ ख़ास लत है, उन्हें भरमाते हैं। ‘सहेला रे’ बंदिश जिसने सुनी, वह इस पाश को समझता है कि यह कितना ‘हॉन्टिंग’ है। ठीक से याद नहीं, लेकिन अरुंधति रॉय जी को एक दफ़े लंदन में किसी साक्षात्कार में सुना था कि यह बंदिश गाड़ी में सुनती हैं तो सम्मोहित हो जाती हैं। साहित्य से जुड़े लोग इसमें छुपे टीस मारते अवसाद को शायद ‘मैंने मांडू नहीं देखा’ से जोड़ पाएँ। जो भी हो, इस भँवर से मैं न बच पाया और हकबकाया इस शीर्षक से जुड़ी किताब ढूँढने लगा। एक गुणी मित्र से पूछा कि किस संदर्भ में किताब है, आप तो खूब पढ़ते हैं? उन्होंने भी प्रश्न का त्वरित उत्तर दिया कि पुस्तक किशोरी अमोनकर जी पर है। यह उसी तरह के हितैषी मित्र हैं जिन्होंने कभी कहा था कि गिरमिटियों पर सबसे सुंदर किताब गिरिराज किशोर जी की ‘पहला गिरमिटिया’ है। और यही लोग महावीर जयंती पर हनुमान जी को लड्डू भी चढ़ाते हैं। खैर, मैं पहले ही स्पष्ट कर दूँ कि ‘सहेला रे’ पुस्तक किशोरी अमोनकर जी पर नहीं, ‘पहला गिरमिटिया’ गिरमिटियों पर नहीं, और महावीर जयंती का हनुमान जी से संबंध नहीं। 

इस पुस्तक को अगर किसी श्रेणी में रखना होना, तो मैं ‘माइक्रोहिस्टोरिकल फ़िक्शन’ कहूँगा। आप एक विशाल इतिहास का एक बहुत ही छोटा हिस्सा उठाते हैं, और उसे किसी शल्य-चिकित्सक की तरह इस कदर बारीकी से उधेड़ डालते हैं कि सब कुछ जीवंत हो उठता है। बिल्कुल इटली के इतिहासकार कार्लो गिन्ज़बर्ग की तरह कथा की मुख्य पात्र इतिहास की एक छोटी खिड़की खोलती है और उसके अंदर एक बड़ा संसार बुन डालती है। कि आप एक इवेंट के अंदर न जाने कितने समानांतर इवेंट देखते जा रहे हैं। यह एक अद्भुत् प्रयोग है क्योंकि लेखिका के अनुसार यह गल्प है, सत्य नहीं। लेकिन संदर्भ जिस बारीक स्थान, काल-खंड, और व्यक्तियों की सत्यपरकता से लिखे गए हैं कि यूँ लगता है कि सब हू-ब-हू घट चुका है। बल्कि मैं तो इसके नोट्स निकाल कर रिफ़रेंस की तरह प्रयोग भी करने वाला था। कुछ पात्रों के तो नाम और उनके विवरण भी इतिहास से ही रखे गए हैं, जो कुछ-कुछ वी. एस. नैपॉल के याद दिलाती है। 

हर छोटे-छोटे पात्र की पूरी छवि गजब की ‘डिटेलिंग’ के साथ उकेरी गयी है। यह नॉस्टैलजिक इसलिए भी कि शैली शिवानी जी की कथाओं की याद दिलाती है। अब यह पढ़िए- 

‘पीतांबर दत्त जी दुर्बल काया और लम्बी काठी के जीव हैं। पक्का रंग, तीखी गरुड़ की चंचु की तरह तनिक झुकी तीखी नाक के अगल-बगल कोटरग्रस्त लेकिन चमकदार आँखें, धँसे हुए गाल और खरखराती अधिकारसंपन्न आवाज़ जो जाने कितने छात्रों को तराश-तराश कर ज्ञानी बना चुकी हो। ‘आने कि’ उनका तकिया कलाम है। रिटायर हुए दसेक साल बीत चुके पर अभी भी ‘फॉर हैल्थ रीजंस’ हर सुबह ठीक साढ़े सात मील घूमने जाते हैं। पैंट-कोट पहनते हैं और कभी-कभार सर पर तनिक तिरछी फ्रेंच कैप। घड़ी के बेहद पाबन्द और वर्तमान शिक्षा प्रणाली के घनघोर निंदक हैं।’ 

इस तरह के माइक्रो-हिस्ट्री का शोधी फ़िक्शन अपने-आप में एक प्रयोग ही है।

दूसरा प्रयोग तो यह है कि पूरी कथा चिट्ठियों के आदान-प्रदान में लिखी गयी है। वह भी कोई अनौपचारिक ई-मेल बातचीत नहीं, बाकायदा जैसे अंतर्देशीय चिट्ठी लिखी जा रही हो, और जवाब डाकिया लेकर पहुँचा रहा हो। सभी मुख्य नैरेटर चिट्ठियों से ही बात कर रहे हैं। जो उन चिट्ठियों के दौर के पाठक हैं, वह तो इसी नॉस्टैल्जिया में खो जाएँ जब यूँ चिट्ठियाँ लिखी जाती थी। तो इस पुस्तक का मेरा दूसरा वर्गीकरण है- ‘एपिस्टोलरी नॉवेल’। इसका हिन्दी समकक्ष फिलहाल स्मरण नहीं आता।

 मुझे यह भी अंदेशा था कि जिन्हें संगीत और इतिहास के कॉकटेल में रुचि है, वही इस पुस्तक को बूझ पाएँगे। शास्त्रीय संगीत तो यूँ भी युवा-वर्ग के लिए अग्राह्य होता जा रहा है, तो वह ऐसे पुस्तक छूने से घबड़ाते हैं। ‘सहेला रे’, ‘जलसाघर’, ‘राग मारवा’ सरीखे शीर्षकों के साथ यह समस्या है कि लगता है कि कुछ अलग ‘क्लास’ के लोग पढ़ेंगे। मैंने भी इस कॉकटेल में रुचि के कारण ही पुस्तक उठाई, लेकिन पढ़ते-पढ़ते यूँ लगा कि यह तो जनमानस के करीब है। इसमें संगीत को धुरी भी न कह कर एक मजबूत नेपथ्य कहूँगा। सत्यजीत रे की ‘जलसाघर’ के कथ्य और उपन्यास ‘सहेला रे’ के कथ्य में अंतर है। भले ही आपके मन में छवि कुछ उसी काल-खंड और माहौल की बनती जाती है। पूरी कथा ही इतनी ‘विज़ुअल’ है कि मन में सबा दीवान की एक वृत्तचित्र ‘द अदर सॉन्ग’ से गुजरते टीकमगढ़ की असगरी बाई तक सामने आ जाती है। जबकि कथ्य उनसे भी भिन्न है।

हर चिट्ठी में खुलती कड़ियाँ, हीराबाई-अंजलीबाई और लाट साहब की दुनिया, और संगीत की भूली-बिसरी कहानियाँ एक ऐसा नॉस्टैल्जिया बुनती है जो हमारे सामने कभी घटा ही नहीं। ‘सहेला रे’ को इस मद्दे-नजर एक तीसरे वर्गीकरण ‘लिटररी रियलिज़्म’ के आईने से भी देखना चाहिए कि इस गल्प में जो भी वर्णित है, वह यथार्थ है।

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मृणाल पांडे की लम्बी कहानी ‘पार्टीशन’

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जानी-मानी लेखिका मृणाल पाण्डे की कहानी ‘पार्टीशन’ पढ़िए. उनके लेखन में गजब की किस्सागोई के साथ-साथ विभाजन का एक विराट रूपक भी. हमेशा की तरह बेहद पठनीय और सोचनीय भी- मॉडरेटर

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पार्टीशन :                                    8 मार्च 2019

ऐसा कैसा बेसिर पैर का पार्टीशन?

अय देखा न सुना।

बँटे हुए घर के एक हिस्से में तो रसोई समेत पूरा भंडार, और दूसरे में सारे संडास और नहानघर?

अब इंसानों की ज़ात। न खाना छूट सकै, न पाखाने जाना। पर दो सगे भाइयों के परिवारों को रातोंरात रोज़ाना के साथ उठने बोलने ही नहीं, साझा रसोई में खाने या साझा संडासों में हगने से तक परहेज़ हो जाये तो अदालत और करती भी क्या? कह दिया सरकारी अमलेदार से माप जोख करवा के घर के मुरब्बे को दो बराबर हिस्सों में दोनो भाइयों के बीच बाँट दिया जाये। उनको क्या कि पुश्तैनी साझा घरों के किसी खीरे की तरह दो बराबर टुकडे नहीं किये जा सकते!

कचहरी के आर्डर पर फीते लिये हुए सरकारी खसरे खतौनी खुले । फिर माप जोख वाले आये । मापजोख के बाद सियाही से ऐसी सरकारी लकीरें खींच दीं गईं जिनका ज़मीन या पानी की कुदरती बनावट-ढलाव से कोई वास्ता नहीं था ।

इतने महाभारत के बाद भी दो घर बने तो आधे-अधूरे ।

अदालत के इशारे से घर एक के दो हुए तो दोनो के भीतर कुदालें चलने लगीं, दिन रात ।

पार्टीशन कोई हो, ठेकेदारों की बन आती है ।

कोठी मे तरह तरह के फेर बदल को जगह की कमी कतई नहीं थी । पुश्तैनी कोठी की इमारत खूब बुलंद थी, और हाता भी काफी बडा और खुला खुला । छत भी खासी लंबी चौडी और खुली थी जहाँ घर के लडके मर्द कनकौव्वे उडाते, बहुरियाँ मायके का बखान और बूढियाँ पोतों की तारीफ और बहुओं की निंदा करती हुई बडी अचार मुरब्बे पापड बनातीं, सुखाते आये थे ।

पर सबसे पहले ज़रूरी थी दोनों घरों के बीच एक मज़बूत दीवार ।

यह तय हुआ तो सबके दो टुकडे होने लगे । परिवार की बोली, बानी, खान पान, पहिरना, ओढना, सब का रवैया रातों बदला और बेमतलब बन गया ।

दोनो भाइयों ने अलग अलग ठेकेदार लगवाये थे । लंबी जिरह चली । भाइयों का मनमुटाव तो रहा, लेकिन भीतरखाने सुलह कर दोनो ठेकेदार दाम बढवाने को एक हो गये । पहले दोनों ने अपनी फीस दुगनी करवाई । तब बारी आई दीवार की चिनाई की ।

जैसा हुकुम था, ठेकेदारों ने वैसी ही पक्की ऊंची दीवार बना दी । और और ऊपरी सिरे पर टूटी बोतलों के काँच लगा दिये गये कि भैंचो इधर उधर आवत जावत का सवाल ही ना उट्ठे ।

आखिरकार दीवारवाले मजदूर बिदा हो गये । बच रही कोठी और उसको दो टुकडों में तकसीम करनेवाली मनहूस दीवार, जिसे न इन्ने रंगवाया न उन्ने । अलबत्ता दोनो तरफ अलग अलग दो फाटक लग गये जिनके अगल बगल मालिकान के नामों की दो अलग तख्तियाँ लटक गईं ।

अब भीतरखाने नयी गढवाई शुरू हुई ।

खुदाई की गंध पाकर सबसे पहले पुश्तों से बसे भंडार के चूहे बाहर माटी के बिलों में सरक गये । काकरोच नालियों में समा गये। दोनो भीतर भीतर अपने पुरखों की तरह नई पाली का इंतजार करने लगे। कहते हैं जब जापान पर बम गिरा था और इलाके की सारी इंसानी नसल मिट गई तब भी कई साल बीतने के बाद जैसे ही नई बसासत शुरू हुई, भीतर छुपे चूहे और कॉकरोच सही सलामत बाहिर निकल आये । बम भी उनका कुछ नहीं बिगाड सका था ।

खैर, चलो इसी बहाने नई तरह से सब हमारे लायक बन जायेगा । बेटे बहुओं ने कहा जिनको आनेवाले वकत में कोठी विरासत में मिल जानी थी ।

तो सा’ब इधर चूल्हों की कालिखभरी निश्वासें मिटीं । उधर काईदार संडासों नहानघरों की बारी आई । इस सब के साथ बहुत सारी धूसर फुसफुसाहटों में पुराना गायब हो चला । मसालों की गंध, पानी की मिट्टी से मिलने और फिर छुपे पिछवाडों में काई बनने की गंध । पुराने साबुनों, पेशाब और गू की गंध ।

दोनो नये घरों में अब रसोईघर टाइलवाले थे । दोनो में संडास और नहानघर भी अलग की बजाय एक ही साथ बन गये । अब हर सोनेवाले कमरे का अपना नहानघर और संडास था । सुबह सुबह दरवाज़ा ठकठका कर इंतज़ार काहे भाई ?

इस सबके बावजूद रोज़ाना अंधेरा होते ही कई बूढे उल्लू एक एक कर दोनो तरफ हाते के दरख्तों पर अपने सालों पुराने कोटरों से निकल कर शाखों पर बैठ जाते । पीली आँखों से वे जाने किसको क्या क्या अद्भुत इशारे करते रहते थे । लोग मानते थे कि वे रात को इंसानों का आगा पीछा, जीवन मरण सब साफ साफ देख सकते हैं , क्योंकि तमाम प्रेतात्माओं जिन्नातों से उनकी दोस्ती होती है । उल्लू हर मच्छर हर नक्षत्र, हर ज़मीन के भीतर मूंछें सुरसुराते चूहे, नालियों के भीतर कीचड और गू पर ज़िंदा हर काकरोच की बाबत जानते हैं । ऐसा चौकीदारों का मानना था जो खुद भी निशाचर थे । रात के जीव ।

दिन भर सोते, रात रात जाग कर पहरा देते, जागते रहो ! होशियार !

उनके और त्रिकालदर्शी उल्लुओं के बीच अदब भरी खामोशी रहती थी ।

आए होंगे । उल्लुओं की मार्फत पिरेतों से खबर मिली होगी तौ पुरखे एक एक कर ज़रूर आये होंगे अपनी कोठी को दो हिस्सों में तकसीम होते हुए देखने को । पर चौकीदारों को यकीन था कि मिट्टी, पानी, हवा, अक्कास और अगिन का बँटवारा होते देख कर शरीर में अवसाद और मन में ज्वर लिये वे वापिस उड गये होंगे ।

इतने कलेस, उलाहनों, और दिन रात के झगडों बीच मरने के बाद कौन टिकना चाहेगा ? चौकीदार आपस में कहते ।

महीनों तक ठोकापीटी चली । साझा छज्जे तोडे जाते रहे, पेडों से अधपके फल झडाये जाते रहे । कोई कोई जंग खाया दरवाज़ा ज़िद पकड जाता । क्षय होने से वो तब तलक कतई इनकार करता रहता जब तक कि भारी हथौडा न मँगवाया जाता । मजदूरों की गालियों से चरमराता अंत में वह ढह ही जाता ।

मच्छरों –मक्खियों से गुंजायमान, ठेकेदारों की कर्कश बमचख के बीच नींद की कामना को मकडी के जाले की तरह हटाते हुए दोनों तरफ के परिवार रात रात जागते । हर सुबह आती तो आलसी मक्खियोंकी भिन भिन से भरी हुई । एक दिन सब बढिया बन ही जायेगा वे सोचते । दोनो तरफ ।

शहरवालों को यह टूटती बनती नीम अंधेरी कोठी समुद्र पार का कोई मायावी द्वीप नज़र आती थी । वे दूर बैठे सिर्फ अफवाहों को सुनते जमा करते कहते, ऐसा कैसा पार्टीशन जी ? न देखा न सुना ।

बडे घरों की बातें खुद बाहर नहीं जातीं, चूती छत की तरह धीमेधीमे टपकती रहती हैं, बरसों तलक । चाँदनी रातों में शहर में छत दर छत कयास लगाये जाते जिनके पीछे खौफ नहीं, केवल जिज्ञासा होती थी, या केवल रोमांच । कोठी बहुत बडे लोगों की थी । उनके लिये शहर के नये लोग कृमि कीट की नाँईं थे ।

राधेश्याम बाबू से, जिनके बाप, कोठी के पहले मालिक के मुंशी रह चुके थे, चौकीदार महफूज़ मियाँ ने जाना था, कि शहर के नामी गिरामी वकील साब की पीले रंग से पुती जहाज़ जैसी ये कोठी, जिसके एक हिस्से में वे पहरेदारी करते थे, दूसरी में मुन्ना चौकीदार, एक ज़माने में एक थी । तब ये पीली कोठी कहलाती थी । इलाके की सबसे सुंदर कोठी हुआ करै थी ये तब । चार एकड में फैली ज़मीन का इतना बडा मुरब्बा वकील साहेब को उनके एक दिलदार ज़मींदार मुवक्किल ने अपनी पुश्तैनी ज़मीनों का भारी पेचीदा मुकदमा जीतने पर फीस के साथ बतौर तोहफे के दे दिया था ।

बहुत कुछ बिन मांगे मिल जाये तो क्या मन में शुबहा या डर नहीं पैठता होगा ? चौकीदार कहते ।

कर्ज़, मर्ज़, फर्ज़, औरतें, इन सब को लेकर भय तो हर किसी में रहता ही है । पर मुफ्त की ज़मीन मिल रही हो तो सब संसा मिट जाती है ।

साँझ निस्तेज हो कर बुझ जाती तब चौकीदारों की डूटी शुरू होती थी । पहले चारों तरफ ऊंचे नीडों के बीच, थकी चिडियों की चहचहाहट बंद होती । फिर चाँद उगता, अकेला । फिर झुंड के झुंड नछत्तर ।

जब इतना हो जाता तब मनुष्यों के बनाये तमाम नियम कायदे भी एक एक कर तहा कर कोठीवाले सोने चले जाते । तब दोनो कोठियों के चौकीदार गश्त शुरू करते, जागते रहो ! होशियार ! चिल्लाते लाठियाँ ठक ठकाते हुए ।

देर रात दोनो हर रोज़ कुछ घंटे नीम पीपल पाकड और जामुन की पीली पत्तियों की चुर्रमुर्र्र के बीच चुपचाप अगल बगल बैठते । वे अंधेरे के गवाह थे जो जब कहानियों से छूट भागना चाहते हैं, पर छूट नहीं पाते, तब प्रेतात्माओं की तरह रात गये वे अगल बगल के फाटकों पर पास पास सरक आते हैं ।

सावधान !

घर के भीतर जागती बूढियों को उनके पैरों की गश्ती आहट लगातार तब तक फिर भी मिलती रहती है जब तक डूबता सुक्कर तारा सुरज महाराज का रास्ता नहीं खोलने चल देता ।

कहानियों से चौकीदारों का दिल कई बार भर आते थे । पर वे ज़्यादा देर दुखी नहीं हो पाते थे । क्योंकि कोठी की दोनो मालकिनें देही से कमज़ोर पर जीभ से कसैली थीं । तिस पर उनके मनीजर और उनकी औलादें सात समंदर पार से कोठियों के गिर्द खुफिया कैमरों से उन पर लगातार शक की निगाह बनाये रखते थे ।

अरे महतारियों को कोई जिनावर माफिक ऐसे छोड जाता है कोई ? कितनी ही बूढी हों, अभी सरग पाताल के बीच अटकी उनकी माँयें ही तो उनकी पुश्तैनी विरासत को नागिनों जैसी थामे हुए थीं ।

‘कीडे मकोडे मनुष्य सबकी अपनी ज़िंदगी की मीयाद तय है । कोई डोरी तो नहीं कि हम जीने का मन न होने पर तोड दें ?’ मालिशवालियों ने लैप टाप पर बच्चों से बतियाती महतारियों को । बार बार खुद्द देखा सुना था

अपने कागज़ात पर कुछ लिखापढी करते निंदियाये बेटे सात समंदर पार से कहते थे, ‘ ठीक, ठीक है । अच्छा फिर..’

फिर लाइन कट जाती । महतारियाँ करवट बदल कर उनसे कहतीं, पीठ पर तेल से ज़रा कस कर मालिश कर दें ।

जब वे कपडे सँभालती डगमग नहानघरों को चली जातीं । उनके बिछौने समेटती मालिशवालियाँ देखतीं उनके तकिये कुछ भींगे हुए हैं ।

धरती पर जिसे नहीं होना था, वह घटता है । तो भी बहुत कुछ माया मोह शेष रह जाता है । कई कई रामनौमियाँ, करधनियाँ, दस तोलेवाली नथें, पंचलडे सतलडे हार, कंगन, बाजूबंद, चूहादंती चूडियां, सरपेंच, सोने के कामदार बटन, चाँद सितारे जडी रेशमी साडियों जोडों से भरे बक्से, बचपन के झबले, ननिहालों से आईं चाँदी की दूधभात वाली नन्हीं सी कटोरियाँ, गिलसियां, पुरानी अशर्फियां, गिन्नियाँ, यूरो, डालर, बिटकॉइन्स ।

वे बार बार बेटों को उनकी बाबत बताना चाहतीं, पर जो रात रात भर बहनेवाली पूंजी का सारे बरमांड में पीछा करते हैं, अपनी माँओं से बात करते हुए भी अधसोये रहेंगे ही । ‘ठीक है, ठीक है,’ कह कर वे हर बार यह थाती गिनाती माँओं को अधबीच चुपा देते हैं ।

उनकी अनचाही, लेकिन फिर भी तजी न जाती माँयें दु:स्वप्नों से भरी नींद की प्रतीक्षा करती हैं हर रात । अपने मालिकों को हर हफ्ते रपट देनेवाले मनीजर हर हफ्ते आते हैं, डराइवरों, मालियों, खाना पकानेवालियों, मालिशवालियों, चौकीदारों का हाल चाल थाहते हैं । पुलिसवालों से उनके गहरे रसूख हैं । नये साल पर, बडे दिन पर ईद बकरीद, होली दिवाली पर कोठियों की तरफ से वे इलाके के थाने में डालियाँ भिजवाते हैं । रात सायरन न बजाती पुलिस की वैन या दुपहिया हर रात चक्कर मार जाती है ।

बाहर चौकीदार जब पुकारते हैं ‘जागते रहो !’ तो उसका खास मतबल नहीं होता, कश खींच कर रात की कालिख में आग के सूराख बनाते महफूज़ मियाँ कहते ।

चौकीदार महफूज़ मियाँ बताते हैं कि उनके जनम से बहुत पहले उनके अपने इलाके में भी पारटीसन हुआ जिसे उनकी तरफ ‘भग्गी’ कहते हैं । तब ज़मींदारी खानदानों के कई लोग अनत देस जा बसे थे । जमीन उमीन छोड कर । उधर के उजडे लोग अपनी जमीनें छोड कर इधर आन बसे थे ।

भारी मारकाट की कहानियाँ बताते थे वो लोग जो उन्ने अपनी दादी से सुनीं थीं ।

चौकीदार मुन्ना की तरफ भी कई कहानियाँ थीं । उनकी अजिया बताती थीं कि इंगरेज के जमाने में भुतहा इमली इलाके की एक कोई भारी लाट थी जिसके बारे में मसहूर था कि वह धीमे धीमे धंस रही है । और जिस दिन वह गिरी, जातपाँत सब खतम । धरम करम मिट जायेगा धरती से । एक दिन उसके चौकीदारों ने पाया वह गिरी पडी है । तब भी बडी भारी मार काट मची थी । गांव के गांव खाली हो गये थे ।

इस इलाके की बडी बडी कोठियाँ रातोंरात खाली होते देखीं, तौ सरकार के कुछ अफसरों का दिल जिन ज़मीनों पर आगया उनको दुश्मन की मिल्कियत बता कर फिर सरकार से औने पौने खरीदा जाने लगा । इस दौरान अपने खान साहिब पे भी नालिश कर दी गई कि उनकी पुश्तैनी ज़मीनें तो अब तो दुश्मन की मिल्कियतवाली कटगरी में आती हैं लिहाज़ा इन पर सरकार का दावा बनता है ।

अमां ऐसा भी क्या न्याव ?

खान साहेब तुरत अपने पुराने दोस्त वकील साहिब के पास गये, जिनका तब बडा नांव था । और अक्ल माशेअल्ला ऐसी पेचीदा थी, कि कील डालो तो साली सक्रू बन कर बाहिर निकलती थी । खान साहिब से बातचीत के बाद भैया वकील साहिब ने सरकारी वकीलों की फौज के खिलाफ मुकदमा ऐसा जम के लडा, ऐसे ऐसे पेचीदा दाँव लगाये कि साल भर में उनके मुवक्किल को उनकी पुश्तैनी मिल्कियत बाइज़्ज़त वापिस मिल गई । अफसर टापते रह गये ।

ईद का चाँद उस बरस हँसुए की तरह उगा और वकील साहिब पर बरक्कत बरसा गया । मुकदमा जीतने के बाद एक मन मिठाई लेकर ज़मींदार साहिब वकील साहिब से मिलने आये थे । उन्ने वकील सा’ब से पेशकश की कि फीस के अलावा वो ज़मीन का चार एकड का एक फलदार मुरब्बा भी उनकी तरफ से बतौर तोहफा कुबूल फर्मायें ।

वकील सा’ब जानते थे कि उस नायाब ज़मीन की कीमत उनकी फीस से भी कई गुनी ठहरती थी । उनको क्या उज्र होता ? वैसे भी अल्ला के फज़ल से अब तक दो दो बेटों के बाप बन चुके थे और किसी मुनासिब जगह पर अपनी अगली पुश्तों के वास्ते एक खूब बडी सी कोठी बनवाने की सोच भी रहे थे । खान साहिब की तीन बेटियाँ थीं । ब्याह कर बाहर देस चली जायेंगी । तौ भी उनके लिये ज़मीन से कहीं बडा मोल खान सा’ब की दोस्ती का था ।

सो बडी मुहब्बत और खुलूस के साथ ये इत्ती बडी कोठी बनवाई गई । जैसा चलन था, पीढी दर पीढी ये कुटुंब के साझा इस्तेमाल के लिये ही बनवाई गई थी । बरसों यह गुलज़ार भी रही । जाने कितनी शादियाँ देखीं इसने, कितने मुंडन, होली-दीवाली, जापे और भोग सराध ।

पर समय होत बलवान । किसे पता था सगा खून इस तरह बँट जायेगा ?

किसे पता था कि भाभो एक दोपहरी को सोयीं तो फिर ना जागेंगी ।

अगले बरस इस जहाज़ सरीखी कोठी के मालिक पे अचानक भारी हार्ट अटैक आ जायेगा ।

काल के हाथ एक दिन मिटा देते हैं सब । नछत्तरों को भी भैया, क्या ?

नछत्तरों को भी ।

पर इच्छा कभी नहीं मरती । न सपने ।

शुरू में घर के लोग ही घरेलू नौकर चाकरों की मार्फत अपने अपने हातों पर नज़र रखते थे । दोनो हाते बँटवार के बाद भी काफी बडे थे और छायादार फलदार पेड पौधों की भरमार । पर डायन की तरह बगूलों से धूल बिखेरती हवा भुतहा पेडों और दीवारों के बीच गई रात जाने क्या क्या खेल कर जाती है ।

रात के अंधेरे में कई अजीब अजीब बातें होने लगीं ।

सोचा गया कि मज़बूत कद काठी के चौकीदार रखे जायें जो तेल पिलाई लाठियों के साथ रात भर जागते रहो, होशियार कहते हुए गश्त लगायें ताकि कोई घुसपैठ ना हो ।

शुरू में दो चार चौकीदार महीने की तनख्वाह लेने के बाद यह कहते हुए छोड गये कि रात के अंधेरे में दीवार के बीच से एक धूल का गोले आकार लेने लगते हैं । किसी को वकीलनी का भूत दिखा, किसी को वकील सा’ब का । हवन्नक जैसे चेहरे से वे मालिकान से कहते कि अचानक किसी झाडी से भी एक बगूला सा निकल के इंसान जैसा कुछ बनता है, फिर उनके खून को बर्फ जैसा जमाते हुए उनको झकझोर के जैसे उठा था, वैसे दीवार में घुस के गायब हो जाता है ।

शहर के कद काठीवाले चौकीदार नट गये तौ बाहर से चौकीदारों को बुलवाया गया । घर की औरतें कहती रहीं कि इससे ज़रूरी खर्चों पर कटौती हो जावेगी । पर जब मर्दों ने डपट दिया कि ज़रूरी है । वे भी चुप साध गईं । रात तेज़ हवा चलती तो अपार हवा उनकी मच्छरदानियों में जाने कैसे घुस कर उनको किसी गुब्बारे की तरह नक्षत्रों की ओर उडाने की कोशिश करती । कभी कोई बिल्ली अकारण रोती घूमा करती । कभी उल्लुओं की फडफडाहट एकदम पास ।

दोनो कोठियों के बीच लाग ढाँट का लंबा सिलसिला चला । खूब खर्चा हुआ मुकदमेबाज़ी पर जब दोनो तरफ पुश्तैनी ज़मीन का हवाला देकर दोनो घरों की लडकियों से मौरूसी ज़ायदाद का हक छीन लिया गया ।

एक एक कर बच्चे बाहर जाने लगे । कोठियों की हलचल मंद पडती गई । दोनो तरफ । उनकी अगली पीढी का दुबई, पेरिस कनाडा या अमरीका में जन्म । उनको याद दिलाने कभी कभार वो लोग लौटते । गुरिल्लों की तरह अपने अपने पिट्ठुओं पर बोतलबंद पानी, अपने कपडे और दवाइयाँ अलग से लिये हुए । यहाँ का कच्चा पानी, फल, सब्ज़ियाँ उनको ज़हर की तरह डराते थे ।

फिर कुछ दिन सैर सपाटा कर के, दिन भर फोटू खींच खाँच के एक दिन टीका लगा के या इमामज़ामिन बँधवा के वो वापिस बेबीलोन कहो या लंदन या कुस्तुन्तुनिया चले जाते ।

पीछे बस बूढी बेवायें ।

दोनो तरफ के बच्चों ने माँओं की हिफाज़ती को दो लंबे तगडे चौकीदार छांट के रखवाये । एक इस तरफ, एक उस तरफ । महफूज़ मियाँ इस तरफ । मुन्ना भाई उस तरफ ।

काली राख जैसी रात । पीछे दो अंधकार भरी भाँय भाँय करती कोठियाँ ।

बस दो चौकीदार जागते थे जिनकी बीडियाँ अंधेरे में दो सूराख बनाती थीं ।

चुप्पी । निचाट चुप्पी ।

महफूज़ मियाँ के पुरखे मेवात के जिल्ला भरतपूर सैड के थे । मुन्ना मथुरा सैड के किसी पहलवानी खानदान के ।

हमारे कहते हैं कि ‘मेव कौ कहा मुसलमान’, मुन्ना छेडता । मियाँ तूं भी हमारे ही जस ।

सो तौ है । गरीब की भैंचो जात क्या ?

अजब देस मेवात । भैंचो पहले गाली पिच्छे बात ।

पुरानी कहावतें, उनसे भी पुरानी कहानियाँ ।

रौद्र झिलमिल अपार कोठियों में निस्सहाय कैद, कभी सहन में धूप खाती, तेल लगवाती तो कभी भीतर अपनी छपरखटों पर पडी निद्राहीन बूढियोँ उसाँसें छोडती कभी पुकार लेतीं, अरे मियाँ जागते हो ?

जी हुज़ूर ।

काहे मुन्ना जागत हौ ?

जागत ही सरकार ।

आधी रात के घुप्प पलों में जादूपुर की इन्नरजाली कथायें घुग्घुओं की तरै पंख फडफडाती उतरने लगतीं ।

‘ये इंसानों की बस्तियाँ जो हैं न महफूज़ भाई, मुन्ना चौकीदार कहता है, ‘ ये सब साली मिट्टी हवा पानी अगिन जल से नहीं, कहानियों से बनी हैं ।’

महफूज़ मियाँ ने सर हिलाते हैं, ‘बात तो भैंचो सही है । ’

जब तमाम तरह की नई बनावटों के साथ अलग अलग ज़िंदगियाँ बह निकलीं, तो शौकीन मिजाज़ चच्चू सैड ने पहला काम किया के कबूतर पाल लिये कई तरां के । चच्चू को जिनावरों का शौक तो बचपन से था पर वकीलनी को पंछी कुत्ते या बिलार पालने से परहेज़ था । पुरानी चाल के नेम धरमवाली थीं । रसोई उनकी ऐसे चमकती जैसे शीशा । बहुओं को बताया जाता । सो कई दफे इस्कूल से वापिस आती बिरिया चच्चू जी पिल्ले या चिडिया के बच्चे उठा लाते जिनको उनके इस्कूल से वापिस आने तक कहीं फ़िंकवा दिया गया होता । दो तीन बार पैर पटके खूब चिल्लाये पर दद्दू जी ने अपने नये खिलौने उनको थमा कर बहला लिया । दद्दू जी का चंद्रमा उच्च का था सुभाव से शीतल थे ।

चच्चू जी के ससुराल में इसके उलट जिनावर पालने, पतंगबाज़ी और कबूतरबाज़ी का शौक खानदानी था । अपने हिस्से की कोठी में आते ही सलमा ने कई तरैयों के कबूतर और परिंदे मँगवा कर पाल लिये । छत पर रंग बिरंगी ललमुनिया के पिंजडे लटक गये । नवाबजान बढई से चच्चू के कुछ खास दुलारे लक्का कबूतरों के वास्ते दरीचे निकलवा लिये गये ।

जवाब में दद्दू जी ने दो बडे खूंखार जरमन के कुत्ते पाल लिये । हाते की रखवाली को दोपहर के खाने के बाद उनको दो घटे को खोल दिया जाता । फिर दोबारा रात दस बजे के बाद से सुबह तलक । मजाल कि उनके गश्त लगाते इधर की कोठी में उस सैड का कोई पैर भी रख सके ? सुना किसी के उकसाये उन्होने उधर के माली और धोबी समेत को चारेक बार काट खाया तो नौकरी छोड के चले गये कि इस साली कोठी के झगडे में हमारी जान नाहक काहे जाये भाई, एं ?

समय बहता गया । गोधूलि की मेघ सीमा पर साँझ उतरती । एक तरफ आरती घंटा, दूसरी तरफ अज़ान ।

होते होते अतीत के प्रेत भी मिट चले ।

विक्षुब्ध प्रेत । बीते ज़माने का सारा तामझाम खो कर दीवारों के आर पार खोजते भी तो क्या ?

उधर कबूतरों की सुनो । वो पंछी की जात, न दीवार मानें ना बाड । न पिरेतों से डरें , ना ज़िन्नातों से ।

कितनी तिथियाँ, कितने वार अतिथि, कितने रमज़ान, कितने होली दिवाली ।

फिर भी छत से रोजीना भाभो की महरी चिल्लातीं, कि ये गोस पोस पकने की बास से जियु घिन्ना जाता हैगा भाभो जी का । राच्छसों की तरैयाँ दिन रात का गोस , कोरमा । अरे खानेवालों के पेट में कीडे पडें । नौरातों में भी गोस मच्छी .

दूसरी तरफ से जुवाब आता अय बीबी जो हमारे खाने पे ऐतराज़ हो तो हो । हम तो वही पकायेंगी जो हमको पसंद है । तुम नाक पे कपडा बाँध लो । ज़्यादे दिल मचलता हो तो कह दो कुछेक बोटियाँ फेंक देंगे तुम्हारे कुत्तों के लिये भी । दीवार पे पंजे टिका के लार चुआते रहते हैं मुए ।

पृथ्वी की प्रेत नज़र । सहसा तैर जाता पुरखों का कोप । सुनाई देता इस या उस कोठी में बहुरिया के पेट अचानक गिर गया । माँएं छाती फाड रोतीं तो ज़च्चाघर और स्मशान पास खिसक आते । अंधकार की बेला में जाडे की रातों को कई बार कल तक की गर्भिणी के क्रोधभरे रुदन में रात गये उसके शिशु भ्रूण तारे बन चमकते तब चौकीदारों को पीपल के बीच छिपी मरचिरैया की चीख सुनाई देती ।

उजाले अँधेरे में चौकीदारों के कपाल के भीतर सपने एक एक कर बुझ जाते हैं । कौन रुक सकता था इन हाहाकारी कोठियों के हाते के उजाले में ?

मुए कबूतरन की बीट साफ करते कमर दुखने लगी हैगी उनकी, पुरानी नौकरानियाँ कहतीं । बडियाँ पापड सुखवाने डलवाये गये तौ बीट । अचार के मर्तबान मुँह पर धुला साफ कपडा बाँध कर रखवाये गये तो उन पर बीट । गेहूं धुलवा कर मचिया पर सूखने डालना तौ नामुमकिन हो गया । राम राम । धोतियों तक पर हग जाते थे ।

पतझर के उनींदे दिन थे । जिया अलसाने हो रामा के दिन ।

सुबह सुबह हल्ला मचा कई कबूतर मरे पडे थे । कुछ छत के इस पार कुछ उस पार । थानेदार को बुलवाया गया तौ उसने सर खुजलाते कहा कि सर पंछियों पर हमारा क्या बस चलैगो । आप ऐसा करें कि छत के ऊपर ऊपर तार का बाडा बनवा लें । दबी ज़ुबान से कहा सुना गया गया दिन उगने से पेश्तर कई गोलियाँ उस सैड से इस सैड फेंकी गईं थीं । पर रोजीना के झगडे में पुलिस कचहरी क्या करें ? दद्दू जी ने पहले ही कह रखा था कि हम दो लोगों के बीच का मसला है, हमीं निबटायेंगे । थल्ड पाल्टी लाने की जरूरत नहीं ।

अब भैया हमने तौ जैसी सुनी तैसी बताई ।

फिर सुना दद्दू के दोनो दोनो कद्दावर कुत्ते एक सुबह ढेर पाये गये । मूं से झाग निकल रहा था, पास में कुछ हड्डियाँ पडी थीं । अब कहो वैष्णो घर में ई अखाद्य कैसे पहुँचा ?

चौकीदारों के दुपहर की नींद के भीतर सपने नहीं आते । सब देवताओं को छोड कर  गुडी मुडी नवजात बच्चों की तरह रात गये मुन्ना और महफूज़ मियाँ अपने प्राणों के पास लौटते हैं । और तब पानी की तरह घुमड घुमड कर दो एकाकी दिल एक दूसरे से बात करते हैं । इंसानी रातें कहानियों के सहारे ही तो कटती हैं ।

क्यों तुमको, जिनके पास सब कुछ है, जो हमारी तरह पेट की खातिर दिन दिन बडे होते बच्चों और दिन दिन बुढा रही बीबियों को अकेला छोड कर परदेस में दूसरों के घर की पहरेदारी करने मजबूर नहीं हो, शांति के साथ रहना नहीं आता?

क्यों खुश नहीं हो पाते तुम अपनी या दीवार पार की खुशी में ?

धूल माटी, गाल भर हवा खाकर अधेड चौकीदार दो मग चाय पर गोल हो बैठ जाते । कभी कभार गश्ती पुलिसवाला रामसनेही भी अलाव देख कर हाथ सेंकने आ जुटता ।

तीन जोडी कान । कई कहानियाँ इस उस कहानी के पेट से निकलने लगती हैं ।

कोठी में बरतन मलनेवाली रामरत्ती की दादी ने रामनरेस की फुआ को बताया था के वकील साब के अदब से जो खानदान बरसों एकजुट बना खूब फलता फूलता रहा । पर फिर वकीलानी एक ही बहू ला पाईं थीं, कि चच्चू जी की बारी आती, उससे पहले ही सुरग सिधार गईं । वकील साहिब को दो साल बाद हार्ट अटैक आया और मिनटों में देही छोड दी । बस तब से घर को घुन लग गया ।

सब दिन होत न एक समाना ।

अगली पीढी में दोनो बेटों के बीच भीतरखाने बदफैली हो गई । बाद को बात इतनी बिगड गई, कि वकील साहब के बडे, जो दद्दू जी कहलाते थे, और उनके छोटे भाई चच्चू जी सगे भाई होते हुए भी जुदा होने पर तुल गये ।

शहर में पीली कोठी के पार्टीशन की बाबत कई बाशिंदों के बीच कही सुनी जाती कहानियाँ तनिक खोदो तौ ज़मीन के भीतर से परतों में सदियों से दफ्न नदियों की माफिक धार धार सतह पर आ जाती हैं ।

‘ और क्या सुनते हो महफूज़ भाई ?’ बातून मुन्ना ने महफूज़ भाई से पूछा जो उसीकी तरह कंबल ओढे बगल के फाटक पर जागता था ।

हूं ?

‘ रामसनेही की बात पर सोच रहा था ।

हूं ?

‘अब कोठीवालों का रसूख जित्ता बडा हो, लोगों के मुंह पर तो ताला नहीं लग सकता किसी तरैयाँ ।’

हूं ।

‘ बरतनवाली रामरत्ती ई बताई कि भाई भाई के बीच अलग्योझे का माहौल इस तरैयाँ बना, कि वकील साब के छोटे बेटे चच्चू जी ने अचांचक सालों पहले बाप की दी ज़ुबान झुठलाते हुए ऐलान कर दिया, कि वे घर की बडी बहू यानी भाभो जी की छोटी बहन से ब्याह नहीं करेंगे ।

रामरत्ती यह भी कहती थी कि जब से भाभो ब्याह के आईं थीं, कोठी में उनकी छोटी बहन का आना जाना लगा रहता था । चुहलबाज़ चच्चू का दद्दू भैया की साली साहिबा से हँसी मज़ाक भी चलता रहता । कभी कभार दोनो बहनों को दोपहर का सनीमा भी दिखा लाते थे चच्चू । यह सब देख कर भीतरखाने सब निष्फिकर से थे कि चलो घर की अगली बहू खोजने को बाहर नहीं जाना होगा । घर में कुशल गिरस्तन भाभो का भारी रुआब था । और दद्दू जी ही नहीं, चच्चू जी भी उनके कहे उठते बैठते थे । उनको पक्का यकीन था कि उनकी बहन ही उनकी देरानी बन कर घर की शोभा बढायेगी । हाँ ।

पर जैसा कि रामरत्ती की माय कहती थी, समय होत बलवान जगत में, समय होत बलवान !

उधर भाभो और उनके मायकेवाले छोटी के लिये गहना गुरिया साडी लहँगे मोला रहे थे और इधर बाप के मरने के बाद चच्चू जी को काम के सिलसिले में बाहर जाना पडा । यह वही शहर था जहाँ उनके बाप के उसी खानदानी मुवक्किल का घर था, जिसने कोठी की ज़मीन उनके वकील साब को दी थी और सालों तक उनको ईद मीलाद पर उनको तोहफे भिजवाया करते थे ।

ज़माने का क्या ? बदलना उसकी फितरत है । महफूज़ मियाँ ने लंबी चुप्पी के बाद कहा ।

चच्चू जी के टैम तक मुवक्किल मियाँ सरीखे कई पुराने ज़मींदार लोगों की शहर को चलानेवालों के बीच औकात ऐसी दो कौडी की हो के रह गई थी कि मुंसीपाल्टी चुनावों में कौंसलर का टिकट भी उनको नहीं मिला था । दिलों में मैल जो आगया था । बात बात में मसला हो जाता । ज़मींदार साहिब खानदानी आदमी थे सो बाहरखाने चुप साध गये । बडा दामाद जरमन में था, दूसरा इराक में । बीबी गुज़र चुकी थीं लिहाज़ा अखिरी बच्ची की किसी भली जगह शादी करना अब उनकी सबसे पहली और आखिरी ज़िम्मेदारी थी ।

हालात से आसानी से हार माननेवालों में से खान साहिब न थे । ठीकठाक तरह खाने पीने रहने को अभी भी काफी ज़ायदाद थी, फलों के बागान थे । बेदिली ही सही पर दिखावे को उनको अभी भी मान पान दिया ही जाता था । शहर बदल रहा था । दरख्त कट रहे थे । माल और पब खुल रहे थे । कौडियों की ज़मीन अशर्फियों पर तुलने लगी थी । पर उनकी ही तरह सारे खानदानी घरों के अगली पीढी के लडके बाहर जाने लगे थे, कनाडा,आस्ट्रेलिया, मैनचेस्टर । खान साहिब पा रहे थे कि उन सभी ने बहुओं के साथ इधर उधर  आशियाना बसा लिया था, वापिस कोई नहीं आता था । कुछेक ने तो बूढे माँ बाप को उधर बुला लिया गो कि खतूत से लगता था कि वहाँ बूढे खुश नहीं थे । उन्होने तय कर लिया था कि सबसे छोटा दामाद वह लायेंगे जो इधर ही बसा रहे । जो बचा है सब उसीका । उन्होने वकील साब के बेटे को बडी आवभगत से किरायेदार रख लिया ।

धीमे धीमे बातून चच्चू जी से घर की लडकियाँ खुलने लगीं । बडी या मँझली जब भी मायके आतीं उनसे पर्दा न करतीं । उनके शौहर भी बडी मुहब्बत से पेश आते । होते होते कुछ समय बाद नन्हों उर्फ सलमा का टाँका चच्चू जी से भिड ही तो गया । चच्चू जी बिंदास आदमी थे और बात जैसे ही परवान चढी तो जाके लडकी के बाप से कह दिया कि उनका इरादा सीधे शादी ब्याह का है । कुछ देर खामोशी के बाद पूछा गया, बरखुरदार, आपको कलमा पढना मंज़ूर है ?

है ।

इस तरैयां पीली कोठी को भनक होती इससे पहले चच्चू जी कलमा पढ कर सलमा का खाविंद बनना तीन बार कुबूल कर चुके थे । अब कहो ?

क्या कहना सुनना भाई । मन्ने भी उडती सी सुनी थी ।

महफूज़ मियाँ ने बीडी नीचे गिरा कर कुचल दी और अपनी कोठी के पीछे की तरफ जा कर लाठी से ठक्क ठक्क करने लगे ।

मुन्ना भी चल दिये ।

फिर वही काली रात । पानी अब बरसा कि तब बरसा ।

‘ हमलोगों के देवता में किसुन जी की एक कहानी दादी कहती थी ।’ बीडी खींचते मुन्ना फिर शुरू हुआ । तौ किसुन जी और रुकमनी का दिलफेंक बेटा था कोई शंब । शहर से उसकी बडी शिकायतें आती थीं । महतारी बाप ने एक दिन अपने बेटे को खुद्दै ताडने को ग्वाला ग्वालिन का रूप धरा और द्वारका में घूम घूम कर ‘दई ल्यो दई’, कहते घूमने लगे । शंब ने सुंदर ग्वालिन देखी तो बोला आजा मंदिर में आके मोकूं छाछ पिला दे । दुगुना रुपैया ले ले । ग्वालिन मटकी लिये जा पहुँची द्वारे । अब भीतर से शंब कहै तू भीतर आ तब पैसा दूंगो । वो बोली ना जी पहले पैसा फिर छाछ । तौ भैया शंब ने हाथ पकड ल्यो वाको । के पकडो ?

हाथ।

हाँ जोरा जोरी बढी तौ भैया महतारी बाप ने बेटे कौ असिल रूप दिखाया, और शरम से पानी पानी सर पर पैर रख के घर भागा छोरा । घर जाते हैं तो के देखते हैं कि छोरा एक बडी सी कील बना र्यो है । तो पूछी कि बेटा ई का ? तो जवाब मिलो के ई कहानी जिन्ने किसी को भी सुणाने को मूं खोला वाके मूं में सीधो जाके ठोक दूंगो ।’

किस किस का मूं बंद करैगो कोई ?

सोई तौ ।

पीली कोठी चच्चू जी के बियाह की खबर पहुँची तो मानो बम फटा । दद्दा जी रात भर छत पर सिगरेट फूंकते टहला किये, भीतर भाभो जी बेहाल बेसुध । उनकी बहन को खबर हुई तो उसेतो ऐसे दौरे पडने लगे कि घरवालों को आगरा ले जाके इलाज करवाना पडा । लौटी तो किसी कदर खामोश और गुम सुम । चुपचाप किसी ईसाई भक्तिनोंवाले लडकियों के कानवेंट में वार्डन बन कहीं दूर पहाड चली गई, फिर वह कभी पीली कोठी में नहीं देखी गई ।

अब भाभो ने साफ कह दिया कि अगर सामने के रास्ते से चच्चू और उनकी बीबी आये तो वो उसी मिनट पिछवाडे के रास्ते से मायके चली जायेंगी और फिर कोठी में पैर नहीं रक्खेंगी ।

कोठी वहीं की वहीं रही, जहाँ पर कि थी, पर बंटवार की नींव पड गई ।

शरीफों के घरानों के बीच बात मारपीट तक न जाये इस लिये अदालत की मार्फत एक बेतुकी सी बँटवार मंज़ूर करा ली गई , कि चल अब एक भाई इधर, एक उधर शांति से अपने अपने हिस्से में रहेगा ।

अदालत फैसला दे सकती है शांति तो नहीं ? पार्टीशन रे पार्टीशन सयाने देखते और उसाँस भरते ।

अपने घरों में भी उनकी सुनता कौन था ?

नक्काशीदार कंगूरों और खिडकी दरवाज़ेवाली कोठी के दोनो हिस्से इस मनहूस नंगी बूची दीवार और भगवा हरे फाटकों की वजह से दूर से पहले ही कतई बेमेल नज़र आने लगे थे । अब लोग उधर जाने आने से भी बचने लगे । पीली कोठी की बजाय इमारत शहर में दीवारवाली कोठी कहलाने लगी ।

दीवार तो ईंट गारे की चीज़, दिल ही बँट गये तो फिर उसका मतलब बस हर तरह का अलगाव । और यह काम ऊपरवाला झूठ न बुलवाये, बिला रंग की वह दीवार कोई सत्तर सालों से किये जा रही थी ।

शहर से उड कर कई और मशहूर किस्से भी आते रहते थे । मसलन कैसे पार्टीशन के बाद महीनों तक खानदान का एक हिस्सा मुंह अंधेरे लोटा लेकर जंगल जाने को मजबूर हो गया था । वे बहुएं तलक जिनका मुंह बाहर किसी मरद ने नहीं देखा था । किस तरह दूसरे हिस्से का परिवार महीने भर को खुले में राँधने खाने को मजबूर हो गया । नया बावर्चीखाना बना तो तमाम अल्लम गल्लम रखने को आंगन के सैड के सुंदर सहन जिसके बीचों बीच फव्वारा था, तुलसीचौरा था, बेले चमेली थे, पाट कर भंडार बनाया गया । दूसरी सैडवालों ने अपने लिये हाते के कुछ फलदार पेड कटवा कर नये पाखाने नहानघर बनवाये थे ।

वकील साहिब और खान साहिब के जीते जी पानी की इफरात थी उस इलाके में पहले । पूरा बाग था यहाँ आम का सिंदूरी, समरबिहिश्त, लँगडे, सफेदे, तोतापरी, बेगमपसंद, किसम किसम के नाम किसम किसम के आम । एक कुआँ भी था जहाँ कुआं पुजाई के लिये अडोस पडोस की नई बहुओं को भी गाती बजाती औरतें लाती थीं । पर जब कोठी तामीर की गई तो  पुराने कुंए को पाट कर मालिक ने बडे शौक से पानी की पैपलाइन डलवा ली थी । लाइन से पानी तब चौबीसों घंटे आता था फिर भी घर की गायों के हेत पानी को भरने के लिये एक बडा सा हॉज धूमधाम से बनवाया गया जिसके लिये सुनते हैं चार दिन तक यज्ञ हुआ । कई बहुओं ने बताया कि उनसे उस पर ही कुआं पुजाई की रसम करवाई गई थी ।

पार्टीशन की तहत अब पानी भी बँटने पर आगया था । ऐसा कैसा बँटवारा जी ? गिलासभर पानी के लिये सगे भाइयों के बीच जूतियों में दाल बँटने लगे ? कोई महीनाभर लग गया सुनते हैं, राजमिस्त्रियों को यही हिसाब किताब बिठाने में, कि अब तक एक ही पैपलाइन से भरती रहे उस टैंक को किस जुगत से इस तरह चार टंकियों से जोडा जाये कि किसी भी हिस्से को खाने नहाने को पानी कम बेशी ना मिले ।

चच्चू जीवाला हिस्सा यूं तो दद्दू जी वाले हिस्से से भिन्न नहीं था, पर सजावट एकदम जुदा जुदा । बारामदे में तखत रहता और सहन के अगल बगल दो चार मूडे रखे गये थे जिन पर बैठे खान साहिब सुबह शाम आनेजाने वालों से मिलते हुक्का पीते रहते थे । चच्चू घर से कचहरी जाते आते समय रात हो जाती । उनके घर की औरतें अमूमन मर्दाना हिस्से से ओझल रहती थीं । सिर्फ नन्ही बेगम यानी सलमा कभी कभार बारामदे के तख्त पर बैठी छालियां कतरती देखी जातीं ।

दद्दू जी के घर की बहुएं हरचंद कोशिश करतीं कि उस दम भाबो उस तरफ न आयें । इससे उनका ब्लड प्रेशर इतना चढ जाता था कि कई कई बार डाक्टरनी को बुलाना पडता ।

भाबो जी चल बसीं तो सुना चच्चू जी ने जवाब कहलाया सोग को आना चाहते हैं । इधर से मनै हो गई । कहते हैं दद्दू जी बेटों बहुओं से साफ कह गये थे कि उनकी मैयत देखने क्या, छूने भी ना दी जावे चच्चू लोगों को ।

फिर खान साहिब गये और उसके कुछेक बरस बाद ही यकायक सलमा बेगम भी, तौ दोनो बार उनके ही लोगों ने मिट्टी उठाई । उधर से जब जब रोने कुरानखानी की आवाज़ें और लोबान की खुशबू आईं, तो इधरवाले ज़ोरों से भजन के कैसेट बजने लगे ।

ठीक नहीं हुआ ।

आमने सामने कहने की किसी की हिम्मत न थी । कौन बडे लोगों के मूं लगे ? किसे अपने मूं में लोहे की कील ठुकवाने का शौक होता है भाई ?

अब तीसरी पीढी थी, पर बेरुखी मिटी नहीं गहराई ही थी ।

सत्तर बरस में बहुत कुछ बदल गया था । बारिश कम हो गई थी और शहर की नदी में पानी उतर चला था । पैप लैन से अब गली मुहल्लों के लिये सुबह शाम दो दो घंटे को पानी छोडा जाता था बस ।

पिछले दस बरस से, जब से मुन्ना चौकीदार एक तरफ और महफूज़ मियाँ दूसरी तरफ चौकीदार थे, उनका काम था ठीक चार बजे सुबह का पानी भरने और शाम चार बजे शाम का पानी भरने को मोटर चालू कर दें । मुन्ना बिरज सैड का था । उसकी जान गाने में बसती थी, या किस्सागोई में । दूसरी कोठी के चौकीदार महफूज़ मियाँ मेवाती । अब तक दोनो तरफ के बूढे मालिक मर चुके थे, उनकी बुज़ुर्ग बेवायें रह गई थीं । दिनों दिन बुढाती । एक दूसरी पर नौकरों की मार्फत निगाह रखती । चौकीदारों की नियमित चौकीदारी भी करतीं । दोनो पर रात किसी पल सोने का शक हो तौ मच्छी जैसी मिनमिनी आवाज़ से चिल्लातीं, कहाँ मर गये मुन्ना ? या महफूज़ मियाँ ?

टॉर्च चमकाते दोनो चौकीदार कहते, “यहीं हैं बीबी जी पिछवाडे चेक कर रहे थे ।”   दोनो ने अब तक रतजगे साबित करने का बुनियादी गुर सीख लिया था । कहानियाँ, बीडियाँ, टॉर्च का इधर उधर मारना और कभी कभार खाँसी ।

जवानों की कहो तो वही घर घर की कहानी दोनो कोठियों की भी थी ।

पार्टीशन के बाद दोनों घरों की एक पीढी पली पुसी, खूब पढी । ज़हीन तो ये नसल थी ही । एक से एक बढिया नौकरियाँ हाथ में आ गईं तो बेगाने होकर बच्चे परिवार समेत परदेस जा बसे थे । कहाँ की उर्दू कहाँ की हिंदुस्तानी । बरसों परदेस में रहते रहते दोनो तरफ के जवान लोग बस अंगरेज़ी में ही गिटपिट करने लगे थे । जाडों में बेटे बहुएं एकाध बार चक्कर लगा जाते । बाकी साल दोनो घरों को दो बूढियाँ थामे रहतीं ।

प्रकट में दोनो अम्मा कहलातीं थीं, पर चौकीदार रात को चाँद तारों तले बैठे बात करते तो उनको कहते बुढिया ।

‘ एक बार की बात है दो बूढियाँ थीं जो अगल बगल की दो झोंपडियों में अकेली रहती थीं । सुना महफूज़ भाई ?’

हूं ।

-तौ एक की भगती से खुस हो के वाको किसुन जी ने दरसन दिये और कहा माँग जो मांगती है । वो बोली कि मुझे एक बडी सी शाही कोठी दे दो । मिल गई ।

इब दूसरी बुढिया को लगी खार । उसने साल भर बस फलाहार कर भजन किया तौ किसुन जी उस पर भी प्रसन्न भये । कहा मांग ले जो माँगना है । सो वो बोली कि जित्ता मेरी पडोसन के पास है मोको उससे दूनो दे दो । इब पहली बुढिया सुबे उठती है तौ देखती है कि पडोसन के पास दू दू कोठी । जो भी वो माँगै, उसको दूनो पडोसन को मिल जाये । फिर एक दिन वाने कही कि हे किसुन महाराज मेरी एक आँख फूट जाये । अगले पडोसन की दोनों फूट गईं । लाठी लेकर ााने जाने लगी । फिर उन्ने कई मेरी कोठी फिर फूस की बन जाये । पडोसन की कोठियाँ भी गईं । फिर भी हिरस ना कम हुई तौ उसने माँगा कि मेरा एक हाथ एक एक टांग टूट जाये । पडोसन हाथ पैर से लाचार हो गई ।

फूस की कुटिया में पडी पडी लाचार बुढिया सोचै लगी, ई मेरे ही करमन कौ फल है ।’

-अच्छा भाई चलें चक्कर लगा लें…

दोनो घरों को पैसे की तंगी न थी । बेटे बैंकों में पीछे छोडी गई माँओं के लिये खाते खोल जाते थे जिनमें रुपया आता रहता । दो मनीजरों और कोई चारेक माली, झाडू बरतन वालियों और दवाइयों के लिये उसका ब्याज ही बहुत था । पर घर पर शाम ढले सिर्फ दो बूढियाँ बच रहतीं । चौकीदारों के लिये हातों के भीतर पिछवाडे में कोठरियाँ नलके अलग से थे । उनको छोड कर बाकी सब काम करनेवाले शाम गये घर चले जाते । दोनो हातों के पुराने पेडों की निचली टहनियाँ काट दी गईं थीं ताकि वे ऊंचे हों पर पत्तियाँ अधिक न गिरें और गर्मियों में चंदोबा भी कायम रहे । दोनो तरफ दो गराज भी थे जिनमें कार रहती थी ताकि मन होने पर बूढियाँ आ जा सकें । ड्राइवर सुबह से शाम तक अक्सर बैठे रहते । फून से ज़रूरत होने पर गाडी पोरच पे लगा देते । बूढियाँ उम्र के साथ कम ही निकलतीं थीं, पर ज़रूरत पडती ही थी, खासकर जब परदेस से लडके बच्चे आते । शेष समय ड्राइवर उनकी सफाई सुफूई करके देखते रहते कि तेल पानी ठीक है । कि चिडियों चूहों ने उनके भीतर घोंसले बना कर बच्चे वच्चे तो नहीं दे दिये । शाम को वे कैनवास के कवर से ढाँक दी जातीं । मनीजर सब का काम नियमित रूप से चेक करते थे । मनीजरों का काम बेटे । अब तो चारों तरफ लगे कैमरों से वे लोग स्काइप पर सीधे देख लेते थे कि सब ठीक ठाक है ।

चौकीदारों का तीन टाइम का खाना कोठियों से ही आता था और दिन में वे अक्सर सुरती मलते उबासियाँ लेते दिखते थे । बढिया काम था । रात भर चौकीदारी, दिन भर सोओ या टहलो । अक्सर दोनों एक दूसरे के गले की खँखार सुनते । जब बुढियाँ सोने का ऐतबार हो जाये तो कुछ देर साथ बैठ कर बीडी फूंक लेते । उनके बीच रात भर छोटी छोटी बातें होतीं, किस्से कहानियाँ निकल आते , फसलों के, गाँवों के, कोठियों के ।

तो सुन बे मेवाती, मुन्ना कहता । ई जमाना साला हैई नंगई का । सगे भाइयों का बँटवारा, मारी गईं औरतें । हमारीवाली बूढा दिन भर टी वी देखती हैं । कभी कभार लडकों बच्चों से बात हो जाती थी, पर अब कान जवाब दे रहे हैं । हलू हलू करती रहती हैं ।

इब देख तुम्हारे उधर भी वही फूल पत्ते परिंदे, हमारी तरफ भी . तेरी तरफ से धूल उडती है तो हमारे यहाँ हमारी तरफ की तुम्हारे यहाँ ।

नंगई का ये, हमारे उधर किस्सा है कि औरंगजेब पातशाह जामा मस्जिद को नमाज़ के लिये निकला तो उसने एक निपट नंगे फकीर को महल के सामने बैठा देखा । बगल में काला कंबल धरा था ।

भौंचक्का पातशा कहै कि तू नंगा काहे को है बे ? कुछ तो शरम कर ! जानता नहीं मैं कौन हूं ?

जानता हूं तू मुलक का सबसे बडा चौकीदार हैगा । फकीर पीठ खुजलाते हुए बोला । पर मत भूल के तेरे मेरे ऊपर हम दूनू से बडा एक चौकीदार भी बैठा है ।

पातशा ताव खा गया । बोला तेरी ये मजाल मुझसे मूं दराज़ी करता है ? चल उठा कंबल और अपनी शर्म ढाँक ले !

तो फकीर ने कहते हैं हंसते हुए अपना काला कंबल उठाया । क्या उठाया ?

काला कंबल ।

हाँ तो पातशा क्या देखता है, कि उसने अपने जिन दो भाइयों को गद्दी पाने को हलाक कराया था कंबल के नीचे उनके ही लहू से लथपथ सर पडे हैं ।

तब फकीर हँस कर पातशा से कहते हैं, बोल तेरी शरम ढाँकूं कि अपनी ?

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मार्केज़ का जादू मार्केज़ का यथार्थ

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जानकी पुल पर कभी मेरी किसी किताब पर कभी कुछ नहीं शाया हुआ. लेकिन यह अपवाद है. प्रवासी युवा लेखिका पूनम दुबे ने मेरी बरसों पुरानी किताब ‘मार्केज़: जादुई यथार्थ का जादूगर’ पर इतना अच्छा लिखा है साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर सका- प्रभात रंजन

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कुछ महीने पहले जब मैंने “एकाकीपन के सौ साल” पढ़ी तभी से गाब्रिएल गार्सिया मार्केज का जुनून सर पर कुछ दिनों तक ऐसा छाया रहा कि बस मैं उन्हीं के बारे में सोचती रही. आखिर कैसे लिखी होगी मार्केज ने यह किताब, कैसा रहा होगा उनका सफ़र. क्या इंस्पिरेशन रहे होंगे इस तरह की लैंडमार्क बुक को लिखने में जिसने वर्ल्ड लिटरेचर को इस कदर प्रभावित किया. सवालों की लहरें बार-बार दिमाग़ की नसों को कुरेद जाती. कई बार गूगल बाबा की मदद भी ली उनके बारे में जानने की. उनकी प्रसिद्धि की झलक तो मैंने बोगोता में पा ही ली थी, किताब पढ़ने के बाद उनके व्यक्तित्व को लेकर मेरी उत्सुकता और भी बढ़ गई.  फिर हाथ लगी हिंदी साहित्य के माने जाने शख़्सियत प्रभात रंजन की लिखी किताब “जादुई यथार्थ का जादूगर.” इसी से शुरू हुआ मार्केज को जानने का मेरा अपना सफ़र. मेरा मानना है कि महान कहानीकार और आर्टिस्ट लोगों का केवल काम ही नहीं उनका जीवन भी हमारी को सोच को परिपक्व बनाता है, और एक नई दिशा देता है.

जैसे हर घर कुछ कहता है, वैसे ही हर किताब कुछ सिखाती है. इस किताब को पढ़कर जो कुछ मैं सीख पाई वह आपके सामने है.

बचपन में हिंदी के कोर्स में बछेंद्री पाल पर एक पाठ पढ़ा था जिसमें यह मुहावरा था, “होनहार बिरवान के होत चिकने पात” यानी कि श्रेष्ठ व्यक्ति के गुण बचपन से ही दिखाई देने लगते है. गाब्रिएल में महान कहानीकार के लक्षण बचपन से दिखने लगे थे लेकिन क्या इतना काफी था. नहीं, असल जिंदगी में गुण के अलावा कड़ी मेहनत, जुनून, दृढ़ता और बहुत ज्यादा धैर्य की जरूरत होती है. गाब्रिएल ने तपस्वियों सा तप किया लिटरेचर जगत में इस मुकाम तक पहुंचने के लिए, इसका आभास मुझे इस किताब को पढ़कर हुआ.

गाब्रिएल के पिता चाहते थे कि ग्रेजुएशन के बाद वह वकालत करें, पैसे कमाए और अच्छी जिंदगी बसर करें. उस समय कोलंबिया में वकालत करने की हवा चली थी उसपर गाब्रिएल अच्छे नंबरों से पास भी हुए. इसके बावजूद उन्होंने अपना मन केवल साहित्य में ही लगाया. शायद वह अपनी कॉलिंग को समझ गए थे. मुश्किल परिस्थितियों, और आर्थिक तंगी के बावजूद भी वह साहित्य से जुड़े रहे. बहुत ज्यादा साहस और अंदर आग की जरूरत होती है अपनी कालिंग का पीछा करने के लिए.

अपनी अनोखी लिखाई के चलते वह लोगों की नजर में आ तो गए थे, लेकिन उतना काफ़ी नहीं था. उनतालीस की उम्र में जब उन्होंने हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सॉलिट्यूड लिखी तब जाकर उन्हें वह मुकाम हासिल हुआ जिसने यह साबित कर दिया की वह शब्दों जादूगर हैं. क्योंकि गली बॉय के कहे अनुसार, सब का टाइम आता है! इस किताब को लिखने में करीब अठारह महीने लगे  मार्केज को उस दौरान आर्थिक रूप से उन्होंने भीषण परिस्थितियों का सामना करना पड़ा. प्रभात जी ने मार्केज के उन अठारह महीनों और उसके बाद के क्रिएटिव प्रोसेस का व्याख्यान बड़ी खूबसूरती से किया है. जो मेरे लिए प्रेरणा का स्रोत बना.

जब भी किसी क्रिएटिव व्यक्ति या आर्टिस्ट की बात होती है तो इस बात की चर्चा जरूर होती है कि आखिर उनके जीवन पर किसका इन्फ़्लुएंस था. लोगों में उत्सुकता होती है कि आखिर इन लोगों के दिमाग में क्या चलता है जो वह दुनिया को अलग ही तरीके से देखते है. विन्सेंट वैन गो का उदाहरण ले लीजिये वह प्रकृति से प्रेरणा लेते थे और अपने आर्ट के जरिये नेचर को प्रेजेंट करने का उनका तरीका भी बहुत निराला था. गाब्रिएल फ्रेंज काफ़्का, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, विलियम फॉकनर, जेम्स जोएस, नथैनियल हॉथॉर्न, हेर्मेन मेलविले आदि की किताबें पढ़ा करते थे. दरअसल वह खूब किताबें पढ़ा करते थे. इससे यह बात बड़ी साफ़ है कि एक अच्छा लेखक बनने के लिए एक अच्छा रीडर होना बहुत ही आवश्यक है. ठीक वैसे ही जैसे अच्छी सेहत के लिए अच्छा भोजन की जरूरत होती है.

उनका बचपन काफ़ी दिलचस्प था. उनकी लिखी सभी कहानियां कहीं न कहीं वास्तविकता से जुड़ी है. बचपन में नाना, नानी के घर बिताये साल उनके जिंदगी का बहुत दिलचस्प समय था. इन्हीं बिताये दिनों की यादें उनके लेखनी का मुख्य हिस्सा बनी. वही आम सी लगने वाली वाकयात दरअसल उन्हें ख़ास लगी, उनमें उन्होंने कहानियां ढूंढ ली.  इस किताब में प्रभात जी ने गाब्रिएल की लिखी किताबों, कहानियों और उनके वास्तविकता से जुड़े प्रसंगों के विस्तार में उदाहरण दिए है, जिन्हें पढ़कर यह मालूम होता है कि लेखक की अपनी एक अलग दुनिया होती है.

किताब को पढ़ते हुए मुझे अंग्रेजी की कहावत “गेटिंग अंडर द स्किन” कई दफ़ा जेहन में आती रही. प्रभात जी गाब्रिएल गार्सिया मार्केज से बहुत ज्यादा प्रभावित रहे हैं, यह बात उनकी लिखाई में साफ झलकती है. हैरानी इस बात की भी होती रही कि आखिर न जाने कितने ज्यादा रिसर्च, और अध्ययन की जरूरत पड़ी होगी किताब को लिखने में.  एक इंटरनेशनल लेखक के बारे में लिखना बहुत ज्यादा स्टडी और डेडिकेशन की डिंमांड रखता है. सही मायने में यह केवल किताब नहीं प्रियतम को प्रेमी की तरफ से की गई भेंट के समान है.

आखिर में यह बात भी कहना जरूरी समझती हूँ कि, यह किताब केवल गाब्रिएल के दीवानों के लिए नहीं है, यह किताब उन सभी लोगों के लिए है जो जीवन में साहित्य और किताबों में रुचि रखते है. आज दुनिया गाब्रिएल को एक कामयाब रचनाकार के रूप में जानती है. लेकिन इस कामयाबी से पहले उनके सालों का संघर्ष किसी प्रेरणा से कम नहीं है. असल सीख तो संघर्ष और सफलता की सीढ़ी तक पहुंचने के प्रोसेस में होती ही. केवल किसी की सफलता को देखकर हम सभी सफल हो जाते हो क्या बात होती. “जादुई यथार्थ का जादूगर” के जरिये मुझे गाब्रिएल के जीवन के विभिन्न पहलुओं में झांकने और समझने का एक मौका मिला. प्रभात जी की किताब से ही प्रभावित होकर मैंने गाब्रिएल की “लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा” पढ़नी शुरू का दी है.

कुछ दिन पहले पता चला है कि जल्द ही प्रभात जी की मनोहर श्याम जोशी पर लिखी किताब “पालतू बोहेमियन” आ रही है जिसका मुझे बेसब्री से इंतजार है. क्योंकि जैसे मैंने कहा कि महान कहानीकार और आर्टिस्ट लोगों का केवल काम ही नहीं उनका जीवन हमारी को सोच को परिपक्व बनाता है, और एक नई दिशा देता है.

पालतू बोहेमियन के जरिये मैंने मनोहर श्याम जोशी के बारे में जानने को खूब उत्सुक हूँ.

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बचपन में अपने भविष्य के बारे में कुल जमा पचपन सपने देखे थे

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आज मनोहर श्याम जोशी की पुण्यतिथि है. 2006 में आज के ही दिन उनका देहांत हो गया था. संयोग से उसी साल उनको साहित्य अकादेमी पुरस्कार भी मिला था. उस अवसर पर उन्होंने जो संक्षिप्त भाषण दिया था वह यहाँ अविकल रूप से प्रस्तुत है- मॉडरेटर

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हाल में एक दिन गिनने बैठा तो पाया कि बचपन में अपने भविष्य के बारे में कुल जमा पचपन सपने देखे थे. तब मशहूर खिलाड़ी बनने से लेकर मशहूर वैज्ञानिक बन जाने तक की कल्पनाओं का सुख मेरे मन ने लूटा लेकिन पुरस्कार विजेता बनने का नहीं. यह तब जबकि मेरा जन्म एक साहित्यानुरागी परिवार में हुआ था. मेरा ही साहित्य की ओर कोई रुझान नहीं था. स्कूल की वाद-विवाद प्रतियोगिता में मुझे हिंदी के विरुद्ध और हिन्दुस्तानी के पक्ष में बोलने पर किसी अज्ञेय की ‘शेखर: एक जीवनी’ नामक पुस्तक बतौर प्रथम पुरस्कार दी तो मैं रो पड़ा कि ये क्या बेकार सी किताब दे दी. मुझे तब ज्ञान-विज्ञान की किताबें पढना पसंद था. बहुत हद तक आज भी है. मैं शायद लेखक बनने के लिए पैदा हुआ ही न था और अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद अब तक बन भी नहीं पाया हूँ. लेकिन नियति के खेल निराले हैं. मुझे ने केवल लेखक बनना था बल्कि बावन साल पहले दिल्ली पहुंचकर उसी अज्ञेय से गण्डा बंधवाना था जिनका उपन्यास कुछ ही वर्ष पहले मैंने पहला पन्ना पढ़कर फेंक दिया था. बहरहाल, पैनी नजर वाले तब भी ताड़ सके थे कि मैं साहित्यकारों की पंगत में घुस आया कोई ठग हूँ. याद पड़ता है कि अज्ञेय जी ने अपनी रेडियो साहित्यिक पत्रिका में कवि के रूप में प्रस्तुत किया तो अंग्रेजी दैनिक ‘स्टेट्समैन’ के समीक्षक ने मुझे ‘शाल्टन’ यानी छद्म कवि ठहराया था. कविता करना तो मैंने शीघ्र ही छोड़ दिया था. गद्य लिखना भी छोड़ दिया होता तो आज बुढापे में ये दिन न देखना पड़ता.

बता चुका हूँ कि मुझे विज्ञान प्रिय था और मैंने बचपन में वैज्ञानिक बनने का सपना देखा था तो भौतिकशास्त्री बनने के इरादे से लखनऊ विश्वविद्यालय में पढने पहुंचा. वहां होस्टल में गरीब छात्र की हैसियत से रहते हुए इतना अकेलापन महसूस किया कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के पुजारियों की गोद में जा बैठा. उनमें से एक ने मुझे बताया कि तुम कहानी लेखक हो, जिस तरह से बातें सुनाते रहते हो उसी तरह से लिख डालो तो कहानियां बन जायेंगी. मैंने उस शुभचिंतक का नुस्खा आजमाया और लखनऊ लेखक संघ की बैठक में अपने को कहानी पढता पाया. तो मेरा लिखना किसी आंतरिक उद्वेलन के कारण नहीं, संयोगवश आरम्भ हुआ. आगे वह जारी रहा तो दुहरी मजबूरी के कारण. पहली थी आर्थिक जिसके चलते मैं कथाकार और पत्रकार दोनों एक साथ बना. बेरोजगारी के आलम में कलम घिसकर तो कमाया ही नौकरियां भी सब ऐसी मिलीं जिनमें अपनी रचनात्मकता को व्यावसायिक आवश्यकताओं पर न्योछावर करना पड़ा. दूसरी मजबूरी अस्तित्ववादी किस्म की थी. पढ़ाई चौपट कर डाली थी, भौतिकशास्त्री बन नहीं पाया था, नौकरी मिल नहीं रही थी. मुझे हर माने में बेकार बालक ठहराया जा चुका था. अपने कुछ होने और देश दुनिया को बदल सकने की खुशफहमी क्रांतिकारी लेखक की भूमिका अपनाकर ही पाली जा सकती थी. लिहाजा अपनी चार कहानियों और ढाई कविताओं के बूते मैं अपने आपको प्रयोगधर्मी और प्रगतिकामी साहित्यकारों की एक विश्वव्यापी बिरादरी का सदस्य मानने लगा.

अब मेरे इस स्वभाव को क्या कहिये कि इस भूमिका में आत्ममुग्ध रहने की जगह आत्मसंशय से पीड़ित हो उठा. मुझे लगा कि मेरी और मेरे मित्रों की प्रयोगधर्मिता पश्चिम से आयात की हुई है और क्रांति कामना बुर्जुआ आत्मदया से उपजी भावुकता भर है. मेरी बिरादरी पता नहीं किस आधार पर अपने को विशिष्ट समझती है और ऐसे फिकरे बोलती है जिनका अर्थ बस वही जानती है. वह जहाँ एक ओर भाषा और शिल्प की बात करना अपनी तौहीन समझती है वहां दूसरी ओर उसका चहेता फिकरा है- रचनाप्रक्रिया. जो प्रक्रिया मस्तिष्क के संश्लेषणधर्मी दायें गोलार्ध में चलती है और जिसके बारे में वैज्ञानिक तक अभी तक कुछ नहीं जान पाए हैं उसका हम साहित्यकार पूरे विश्वास से विश्लेषण करते  रहते हैं. वांग्मय भी गोया एक व्यंजन है हमारी रसोई का.

संक्षेप में यह कि साहित्यकार बन बैठने के बाद मुझे अपना साहित्य और अपनी क्रांतिकारी भूमिका दोनों ही व्यंग्य के पात्र प्रतीत होने लगे. इस मनःस्थिति में लिखना कठिन था और लिखे से संतुष्ट होना कठिनतर, तो रचनाएं अधूरा छोड़ता रहा और फाड़कर फेंकता रहा. लिखना स्वान्तः सुखाय किस्म की चीज बन चली मेरे लिए. साहित्यिक लेखन छोड़ ही दिया मगर मित्रों के लिखे में मीन मेख निकालता रहा. थोक के भाव व्यावसायिक लेखन करते हुए कभी खुदरा साहित्यिक कृति निकाल दी तो इस मजबूरी में कि कुछ तो लिखिए कि दोस्त कहते हैं कि अबे खुद भी तो कुछ लिखकर बता. शायद किसी लायक हों अंदाज में प्रस्तुत मेरी कृतियाँ आलोचकों को ही नहीं स्वयं मुझे भी बतौर दाद एक आधी-अधूरी ताली से ज्यादा की हकदार कभी नहीं लगी हैं. मैं साहित्य अकादेमी का आभारी हूँ कि उसने मेरी किसी रचना को पुरस्कृत करने लायक समझा. मुझे अपने मित्र स्वर्गीय सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की यह बात याद आ रही है कि जो लाख समझाने के बावजूद लिखता ही चला जाए तो उसे कभी-कभी इस ढिठाई के लिए भी पुरस्कृत कर दिया जाता है.

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