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‘पालतू बोहेमियन’के लेखक के नाम वरिष्ठ लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक का पत्र

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वरिष्ठ लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक जी ने मेरी किताब ‘पालतू बोहेमियन’ पढ़कर मुझे एक पत्र लिखा है। यह मेरे लिए गर्व की बात है और इस किताब की क़िस्मत भी कि पाठक जी ने ने केवल पढ़ने का समय निकाला बल्कि पढ़ने के बाद अपनी बहुमूल्य राय भी ज़ाहिर की। आप भी पढ़िए-प्रभात रंजन

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जनाब प्रभात रंजन जी,

आप की ताजातरीन किताब ‘पालतू बोहेमियन’ दिल-ओ-जान से पढ़ी, फ़ौरन से पेशतर पढ़ी और उसकी बाबत अपनी हकीर राय इन अल्फ़ाज़ में दर्ज करने की गुस्ताखी की:

आप कमाल के आदमी हैं। ‘ पालतू बोहेमियन’ से जोशी जी के बारे में तो जो जाना सो जाना, आप के बारे में और भी ज़्यादा जाना।ख़ास तौर से ये कि आप ने – रिपीट, आपने – कभी जासूसी उपन्यास लिखने का भी मन बनाया था, वो भी सलीम-जावेद की तरह किसी दूसरे लेखक की जुगलबंदी में, वो भी एक अनपढ़, नालायक पब्लिशर के इदारे से। सोचता हूँ जोशी जी का कृपापत्र होशियार, ख़बरदार आलम फ़ाज़िल नौजवान वेद प्रकाश शर्मा की परछाईं बनता कैसा लगता!

आप का अन्दाज़-ए-बयाँ बिलाशक बहुत बढ़िया और पढ़ने के लिए मजबूर करने वाला है। इतवार शाम को भोजनोपरान्त पुस्तक को हाथ आते ही पढ़ना शुरू किया, रात को सोने की मजबूरी के तहत सुबह उठते ही फिर पढ़ना शुरू किया और आख़िरी पेज तक पढ़ कर छोड़ा। ऐसी पठनीयता हाल में पढ़ी किसी पुस्तक में न दिखाई दी।
पुस्तक में भूपेन्द्र कुमार स्नेही, ब्रजेश्वर मदान का ज़िक्र अच्छा लगा क्यों कि लेट सिक्स्टीज़ में वो (जमा, बाल स्वरूप राही, शेर जंग गर्ग) हिंदुस्तान टाइम्ज़ में जोशी जी के दरबारी थे और इन चार महानुभावों के चीफ़ चमचे की हैसियत में गाहे बगाहे जोशी जी से साक्षात्कार का सौभाग्य yours truly को भी प्राप्त हो जाता था।

बहरहाल बढ़िया किताब लिखी जिस के लेखक की शान में क़सीदा पढ़ने के अंदाज से अर्ज़ है:
तेरे जौहर की तारीफ़ ज़ुबाँ से करूँ कैसे बयाँ,
ये तो होगा देना गुलाब को ख़ुशबू का धुआँ।

जो बातें अखरीं, वो हैं:
जोशी जी पर पुस्तक में जोशी जी से ज़्यादा ज़िक्र आप का था। अगर फ़ोकस जोशी जी पर रखना अनिवार्य न होता तो पुस्तक का नाम ‘दो बोहेमियन’ भी हो सकता था।

कई जगह दोहराव ने जोल्ट दिया। कई पूर्वस्थापित बातों का ज़िक्र फिर आया।
109 पेज की टेक्स्ट की 17 पेज की प्रस्तावना से लगता था कि अगर प्रस्तावना लेखक के अतिउत्साह पर अंकुश न होता तो विस्तार में प्रस्तावना भी मूल पाठ को कंपीटीशन दे रही होती। प्रस्तावना में जोशी जी का दर्जा पान में लौंग का था, अलमोड़ा पान का दर्जा पाने से बाल बाल बचा।

वैसे भी मेरी निगाह में प्रस्तावना की यही हैसियत होती है कि आम खाना है तो गुठली झेलनी पड़ेगी।

नेक खवाहिशात के साथ,
सुरेन्द्र मोहन पाठक

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विकास के साथ परिवर्तन की नई सोच की कहानियाँ ‘राग मारवा’

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इस साल के आरम्भ से ही ममता सिंह के कथा संग्रह ‘राग मारवा’ की चर्चा है। उनकी कहानियों का कथानक, उनकी सघन बुनावट बहुत स्वाभाविक है। आज इस कहानी संग्रह पर अनिता दुबे की विस्तृत टिप्पणी पढ़िए- मॉडरेटर

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राग मारवा ” रेडियो सखी ममता सिंह का पहला कहानी संग्रह है । इस संग्रह में अलग-अलग ग्यारह कहानियों से ममता सिंह ने समाज से जुड़े उन बिम्बों को उकेरा है जहाँ सामाजिक मूल्य और मान्यताएं विकास के साथ धूमिल हुए है आपसी रिश्तों में कड़वाहट सद्भाव की होती कमी सगे रिश्तों को अपरिचित बनाती है तो साथ ही कहीं धार्मिक अंधता जातिवाद की जड़े मानवीय आधारों का हनन कर रही है । वहीं विकास के साथ परिवर्तन की नई सोच को भी दर्शाती कहानी है ।

कहानी संग्रह की पहली कहानी ” राग मारवा ”
एक शास्त्रीय गायिका के जीवन में आईं वो तमाम सच्चाई हैं जिसका सामना पिछली पीढ़ी में कई महिलाओं ने किया है । समाज को आइना दिखाती कहानी जहाँ माँ की साधना स्वयं उसी के बच्चे मात्र व्यापार और अपने स्वार्थ तक ही समझते हैं ।एक स्त्री, एक गायिका, एक माँ के अन्तः मन की तड़प को कुरेदती उसकी पीड़ा को नकारते समाज पर एक प्रश्न है। बहुत सोचने को मजबूर करती कहानी है ।

दूसरी कहानी “गुलाबी दुप्पट्टे वाली लड़की” एक गाँव की अनपढ़ निसंतान स्त्री की कहानी जो रूढ़िवादी परम्पराओं का शिकार होती है पुरूष प्रधान समाज से जूझती है और आखिर स्वयं गहरे अंधकार में अपने जीवन की रोशनी ढूढ़ती है माँ बनकर और कई और निसंतानों को संतान देकर अपने जीवन को समर्पित करती है जहाँ पढ़ा लिखा वर्ग भी इस सोच में शायद पीछे रह जाता है । जहाँ पुरानी रिवायतों के समाज में एक स्त्री का माँ होना ही उसके पूरे अस्तित्व से जुड़ा होता है ।इस समाज से कैसे एक लड़की जूझकर मिसाल बनती है इस कहानी का खास बिन्दु है।

तीसरी कहानी “जनरल टिकिट”में समाज की रूढ़ियों के परम्परागत रूप को नकारती लड़की की कहानी है जो स्त्री पुरूष के भेद को तोड़कर विकास की दिशा में अपनी महत्वाकांक्षा से कदम बढ़ाना चाहती है जहाँ समाज दो रास्तों पर चलता है। मध्यम वर्ग की लड़की जिसके सपने आगे बढ़ना है मगर समाज के दवाब में परिवार के बंधन उसकी रचनात्मकता के रास्ते खड़े रहते हैं और वो समय के साथ पीछे नहीं देखना चाहती बड़ती जाती है आगे अपने लक्ष्य की ओर यह उस समय की कहानी लगती है जब विकास के तेज कदमों के साथ समाज कदम नहीं मिला पा रहा था । कहीं – कहीं आज भी कई लड़कियों को इसी अवधारणा का शिकार होना पड़ता है ।जहाँ परिवार ही उसके रास्ते की एक दीवार बन जाती है ।

कहानी “फैमिली ट्री” महानगर की ही नही बल्कि आज हर कामकाजी महिलाओं के परिवार की है जहाँ बच्चों की देखभाल दूसरों पर निर्भर रखना मजबूरी है । मुम्बई की बारिश का डरावना रूप और वहीं एक माँ और बेटे के स्नेह बंधन के उस स्वरूप को दर्शाती है जहाँ बच्चा मासूम कल्पनाओं के जाल से निकल अपने परिवार ,माँ पापा के लिए चिन्तित होकर एक सफर तय कर बिना किसी आशंका भय से हिम्मत और विश्वास का परिचय देता है मगर अपनी माँ जो उसके सभी प्रश्नों का उत्तर है उसे सदा अपने पास चाहता है। परिवार के आपसी बंधन को जताती कहानी जिसमें दिनचर्या के संवाद को बखूबी उकेरा है और एक माँ का अपने बेटे के पालन में आनेवाले पड़ावों के साथ अटूट स्नेह बंधन और व्यस्तता के साथ महानगर की वास्तविक स्थिति को बताया है ।

कहानी “आवाज़ में पड़ गईं दरारें “एक ऐसी प्रेम
कहानी जहाँ शारव और सनोवर दोनों एक दूसरे से प्रेम के साथ अपेक्षा करते हैं मगर मन के ठहराव को बांध नहीं पाते और प्रेम के बाबजूद अपनी महत्वकांक्षा के साथ अलग दिशा खोजने चल देते हैं मानों मन की कई परतें हैं और हर व्यक्ति कब किसे ओढ़ता है यह समय और परिस्थितियों पर निर्भर करता है। इस कहानी में बहुत सरलता और सहजता का लेखन वास्तविक रूप और सच समान प्रतीत हुआ है ऐसे अनुभवों से कहीं ना कहीं हर व्यक्ति गुज़रता है । कहानी में लगातार रोचकता और जिज्ञासा बनी रही ।

“धुंध” कहानी वर्तमान समय में कई परिवारों में घटित रिश्तों की कमजोर होती डोर को बताती है
जहाँ भिन्न-भिन्न मानसिकता के सदस्यों के बीच तालमेल बिठाने परिवार को एक साथ जोड़े रखने में कहीं ना कहीं किसी ना किसी सदस्य की भावनाएं आहत होती रहती हैं और वो परिवार से दूर होता जाता है । कहानी के परिदृश्य बहुत सहज और चलचित्र की तरह है मानों लेखिका ही नहीं अपितु पाठक भी इस यात्रा में साथ ही था । कहानी में कहीं – कहीं व्यंग्य का समावेश भी रोचकता लाया है लगता है मानों इस कहानी में एक पात्र हम भी थे जो मूक होकर इस कहानी के साथ चल रहे थे ।

“आसमानी कागज़” कहानी एक युवक के प्रेम के उन जज्बातों से भरी डायरी है जहाँ वो अपने प्रेम को इज़हार तो करता है मगर इकरार करने के पहले ही आपसी दूरी उनके बीच एक शून्य सा बना देती है नायक चाहकर भी अपनी बात स्पष्ट नहीं कर पाता और बस इन्तज़ार ही उसके पास बचता है ।कई बार दो व्यक्तियों की आमसहमति भी एक नहीं हो पाती परिस्थितियों और समय के घेर में उलझ जाती है जिसे समेट कर व्यक्ति सिर्फ समय काटता है शायद उम्मीद पर की बीता समय लौट आयेगा एक अनिश्चितता के साथ ।मानों जैसे प्यार में होने के लिए एक पल लगता है मगर उसे पाना शायद आसान नहीं होता । इस कहानी में प्यार भरे सुन्दर भावों की अच्छी प्रस्तुति की है ।

कहानी “सुरमई “आभासी दुनिया से बने रिश्तों का जादू है । वास्तविक दुनिया से बिल्कुल उल्टा बहुत दूर होते हुए जानते हुए भी व्यक्ति अपने मन भावनाओं को एक आवाज़ से बांध लेता है और यह हकीक़त में होता है । हम सभी रेडियो के दौर से गुज़रे है और अपने पसंदीदा प्रस्तुतकर्ता को अपने सबसे करीब भी महसूस कर चुके है यह काल्पनिक कहानी हो सकती है मगर इसमें हकीक़त की वो परछाई भी है जो आज भी सुनने वाले या श्रोता अपनी भावनाओं को एक आवाज़ से रिश्ते में बांध लेते है चाहे वो रिश्ता किसी भी रूप में हो । ममता सिंह स्वयं रेडियो सखी है और उनके जीवन में ऐसे कई अनुभव हुए होगे जहाँ उनकी आवाज़ से ही श्रोता अपने आपसे एक रिश्ते में बंध जाते रहे होगे मगर कहानी के रूप में उन अनुभवों को समेट कर इस प्रकार की सुन्दर प्रस्तुति बेहद मोहक, रोचक और मजेदार भी लगी है ।

कहानी “विदाई “एक बिखरते टूटते समाज के उन रिश्तों की कहानी है जहाँ सगे रिश्ते भी दूर और पराये हो जाते है । एक भाई बहन के रिश्ते बचपन के अटूट संबंध बड़े होकर कभी विपरीत दिशा में घूम जाते है जहाँ वो आपसी प्रेम को दुनियादारी और परिस्थितियों की बली चढ़ाकर अपरिचित सा जीवन व्यतीत करने को मजबूर होते है आपसी निर्भरता भावनाओं की अपेक्षा धन या खर्चे से जुड़ जाती है । एक लड़की की शादी में उसकी घर से विदा तो खुशियों को संजोय होती है मगर विधवा होने पर उसका अपना घर जुड़े लोग नाते रिश्तेदार सभी उसकी जिम्मेदारी बोझ समझने लगते है मतलब की रिश्तेदारी निभाता समाज आज भी मुँह खोले खड़ा है ।

“पानी पर लिखा ख़ामोश अफ़साना “कहानी पति पत्नि के बीच की वो परत है जहाँ दूरियाँ मन को विक्षिप्त कर देती है । कई परिवार में छोटी छोटी नाजुक इच्छाओं के पूरे ना होने पर इस प्रकार की समस्या होना आम बात है। रिश्तों में उपरी परत तो खुशहाल नज़र आती है मगर कई परतें और भी छुपी रहती है जहाँ रिश्ते घुटन से जुड़े होते है । इस कहानी में अर्थपूर्ण उपमाओं का बहुत सुन्दर उपयोग किया है।

“आखरी कॉन्ट्रेक्ट ” एक बेहतरीन कहानी है जहाँ धर्म की आड़ में इन्सान हैवान बन जाता है। मानवीय संवेदनाओं और भावनाओं का मूल्य नगण्य होकर सिर्फ धार्मिक अंधता के चलते लोग भेदभाव से ग्रस्त होकर रहते है समाज को ना जाने किस दिशा में ले जाने की कोशिश करते लोग आपसी मोहब्बत को भुला देते है । वहीं कहानी के दोनों पात्र धार्मिक अंधता को छोड़ अपने प्यार के विश्वास पर आगे बड़ते है । आज भी विकास की परमसीमा में धर्म और जातिवाद का साया समाज को जकड़े है आपसी विरोध और अमानवीय कृत्य करते इन्सान धर्म के रक्षक नहीं हो सकते यह कहानी इसी जकड़न को दर्शाती है ।

ममता सिंह रेडियो की आवाज़ हैं घर -घर पहचानी जाती हैं। चूंकि मैं स्वयं आकाशवाणी का हिस्सा रही हूँ और आकाशवाणी से विशेष लगाव हैं लगभग एक दशक से भी ज्यादा समय से उनकी आवाज़ से एक दोस्ती रही है । उनसे व्यक्तिगत परिचय से भी पहले रेडियो पर उनकी बातचीत से भी प्रभावित रही हूँ ऐसे में ही कुछ वर्षों पहले उनसे मुलाकात का अवसर मिला और तब एक साहित्य सम्मेलन में उनकी सुन्दर कहानी उनके ही मुख से उतने ही सुन्दर अंदाज से सुनी और सुनकर उनकी गहरी सोच में लेखिका की संवेदनाओं , भावनाओं का भी पता लगा था ।

सभी कहानियाँ समाज को आइना दिखाती है हम विकासशील होते हुए अभी भी कई रूढ़ियों धार्मिक अंधता जातिवाद के साथ स्वार्थी होते जा रहे है जहाँ मानवीय संवेदनाओं और भावनाओं का स्थान संकुचित हो रहा है ।
मैंने एक आम पाठक के नज़रिये से इनकी कहानियों को समझने की कोशिश की है ।
ममता सिंह को विकृत होते समाज की इस दिशा में कहानियों के माध्यम से अपनी आवाज़ उठाने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद और अपने पहले मगर गंभीर विषयों पर कहानी संग्रह के लिए बहुत-बहुत बधाई ।शुभकामनाएं आगे भी यूँ अच्छी कहानियाँ पाठक तक पहुँचे।
अनिता दुबे

‘राग मारवा’ राजपाल एंड संज प्रकाशन से प्रकाशित है। 

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वसीम अकरम के उपन्यास ‘चिरकुट दास चिंगारी’का एक अंश

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प्रस्तुत है युवा लेखक वसीम अकरम के उपन्यास ‘चिरकुट दास चिंगारी’ का एक अंश। उपन्यास हिंद युग्म से प्रकाशित हुआ है- मॉडरेटर

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उपन्यास के तीसरे अध्यायइक्सका एक अंश

मारकपुर से कोस भर की दूरी पर सप्ताह में दो दिन बजार लगता थामंगलवार को और इतवार को। मंगलवार को बड़ा बजार लगता था जिसे लोगमंगर बजारकहते थे। और इतवार को छोटा बजार लगता था जिसे लोगइतवारी बजारकहते थे। मंगर बजार के दिन भीड़ ज्यादा होने की वजह से मटरू को वह तनिक भी नहीं सुहाता था। इसलिए वह अक्सर इतवारी बजार जाता था, जहाँ भीड़ कम होने के कारण इत्मीनान से अच्छी तरह सउदा पटाने के लिए उनको ज्यादा वक्त मिल जाता था। 

इतवार का दिन था। शाम के चार बज रहे थे। मटरू ने अपनी माई को दुकान पर बैठने के लिए कहा और अपने बाबूजी की शादी में मिली ऊँचकी साइकिल के पीछे दोचार ठो खाली झोराबोरा बाँधकर इतवारी बजार को चल दिया। थोड़ी देर तक मटरू की माई दुकान पर बैठी रही, तभी जलेबिया चाची नमक लेने धमकीं। नाम तो उनका जलेबिया था, लेकिन उनकी जुबान में जलेबी की मिठास तनिक भी ना थी।

‘‘ ठुनकिया कऽ माई! तनिक पाव भर नीमक दे दो बहिनी। जमुनिया के बाबू भी , बजार से सब लेके आते हैं, बाकिर नीमकवे भुला जाते हैं।’’ जलेबिया चाची ने आते ही अपने पति भिरगू परसाद की शिकायत शुरू कर दी।

ठुनकिया की माई ने ठुनकिया को आवाज लगायी– ‘‘ ठुनकिया, तनिक देख तऽ कोठरी में नीमक है का, लेके आव हियाँ।’’ ठुनकिया ने हामी भरी और थोड़ी ही देर में वह नमक की बोरी उठा लायी। जलेबिया चाची नमक लेकर भिरगू की फिरफिर शिकायत करती हुई दुकान से बाहर निकल गयीं।

जलेबिया चाची के जाने के बाद ठुनकिया की माई ने ठुनकिया को कहा कि– ‘‘एहरओहर ठुनको मत, मटरुआ के आने तक दोकान देखो, तब तक हम चूल्हा बार लेते हैं।’’ यह कहकर वह रसोई में चली गयीं।

ठुनकिया दुकान पर बैठ गयी। मटरू नहीं था तो चाय बननी बंद थी। लोगों को पता था कि इतवारी बजार के चलते मटरू के यहाँ चाय नहीं मिलेगी, इसलिए इतवार के दिन साँझ भए चायवाय पीने कोई आता भी नहीं था। चाहे चाय पीने की बात हो या फिर कोई सउदासमान लेने की, जब मटरू रहता था तो लोग ज्यादा आते थे। एक तो यह कि मटरू तमाम गहकी सब से प्यार से बोलता था और दूसरे यह कि रियायत में कभीकभार गहकी सब को उधारपाँच भी दे देता था। वहीं ठुनकिया और उसकी माई से ये सब नहीं हो पाता था। गाँव भर में उनकी बेमुरव्वती मशहूर थी, इसलिए उन दोनों के रहते लोग कम ही रुकते। पूरे गाँव में सिर्फ तीन ही दुकानें थी। बाकी दो तो सिर्फराशनपानीकी दुकानें थीं, लेकिन मटरू की दुकान ‘‘राशनपानी’’ के साथसाथ ‘‘चाहपानी’’ की भी थी।

साँझ धीरेधीरे मटरू की दुकान के छज्जे से नीचे उतर रही थी। थोड़ी देर में ठुनकिया की माई दुकान में दीयाबाती कर गयी।

देर से खाली बैठी ठुनकिया की निगाह गल्ले के पास रखे पुड़िया बाँधने वाले कागज की रद्दी के गत्थे की ओर गयी। रद्दी में से सरस सलिल पत्रिका का एक कोना झाँक रहा था। ठुनकिया सरस सलिल लेकर उसके पन्नों को पलटने लगी कि तभी एक पन्ने पर ‘‘छम्मक छल्लो’’ फिगरायमान हो गयी। छम्मक छल्लो ने एक मसखरे को अच्छा मजा चखा दिया था। यह पढ़तेपढ़ते ठुनकिया हँसने लगी। उसके नारी मन को अच्छा लगा कि एक नटखट लड़की ने एक मसखरे लड़के के लड़की पटाने की कोशिशों का भतुआपाग बना दिया था। दरअसल, छम्मक छल्लो का तिकड़म काम कर गया और उससे चुम्मा माँगने पर एक बदमाश लड़के को अपने पिछवाड़े में भैंस की सींग खानी पड़ गयी थी। बस! ठुनकिया खुश हुई।

उस अल्हड़ सी छम्मक छल्लो की चंचलचितवन वाली छवि को ठुनकिया हर कोने से देखनेपरखने में इतना खो गयी कि उसे पता ही नहीं चला कि कब सुखनन्नन यादव का छोटा लड़का अँड़वा उसके पास आकर खड़ा हो गया और वह भी फिगरायमान छम्मक छल्लो को निहारने लगा। चूल्हाचौका का वक्त हो ही आया था। अँड़वा की अम्मा ने उसे माचिस लाने के लिए दो रुपये का नोट देकर भेजा था। ठुनकिया को खोए हुए देख उसके किशोर मन में ‘‘इक्स’’ अँखुआने लगा। पिछली रात को ही उसने भाकस पाँड़े की दलानी में उनकी ब्लैक एंड व्हॉइट टीवी पर गोविंदा की कोई फिल्म देखी थी। बस उसी का असर था। गोविंदा की तरह ही अँड़वा की आँख से ‘‘इक्स’’ निकलकर ठुनकिया के मुस्कुराते मुखड़े पर बरसने वाला था। बेखबर ठुनकिया मन ही मन छम्मक छल्लो में खुद को देख ही रही थी कि तभी अँड़वा ने ठुनकिया को बड़े प्यार से निहारते हुए बोला– ‘‘ थम्मक थल्लो’’

‘‘का चाही रे?’’ ठुनकिया ने चौंककर रद्दी के कोने में पत्रिका फेंकते हुए पूछा। अँड़वा को इस तरह अचानक अपने पास देखकर वह चिहुँक सी गयी और फौरन ही खुद में सिमटने लगी। लेकिन अँड़वा को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा, वह अभी भी उसी अंदाज में था, और दोबारा उसी तरह प्यार से बोला– ‘‘ थम्मक थल्लो!’’

‘‘थम्मक थल्लो तोहाल माई!’’ ठुनकिया ने फौरन गुस्से में आकर कहा। गुस्से में ही उसने खुद को सँभाला और फिर अपनी ठुनक पर उतर गयी– ‘‘का चाही रे? कुछो बोलेगा भी कि बनाएँ हम तुम्हरा भतुआपाग?’’

‘‘ दू लुपिया का नोत लख लो, एक थो माचिछ दे दो।’’ अँड़वा ने ठुनकिया को दो रुपये का नोट पकड़ाते हुए बहुत प्यार से कहा।

‘‘अउल बाकी बचल लुपिया कऽ का चाही?’’ ठुनकिया ने दो रुपये का नोट गल्ले में रखा और अँड़वा की नकल उतारते हुए ठुनककर पूछा।

‘‘तुम्मा!’’ अँड़वा ने ठुनकिया का सवाल पूरा होते ही फौरन गोविंदा के अंदाज में अपनी तोतली माँग रख दी।

‘‘का?’’ ठुनकिया चौंक पड़ी, उसका मुँह खुला रह गया। उसको अँड़वा की इस माँग का तनिक भी अंदाजा नहीं था। अब तक तो वह अपनी ठुनक में ही थी, लेकिन अँड़वा के हीरोगिरी वाले अंदाज से वह कुछ सहम सी गयी। उसे शर्म के साथ गुस्सा भी रहा था।

‘‘तुम्मा!’’ अँड़वा ने फौरन ठुनकिया के ‘‘का?’’ का जवाब दिया।

‘‘ माई! देख अँड़वा का माँग रहा है…’’ ठुनकिया जोर से चिल्लाई। शर्म को छोड़ उसने गुस्से का इजहार किया।

‘‘जउन माँग रहा है तउन दे दोहम दोकान में बइठे हैं कि तू…’’ भीतर चुल्हानी से ठुनकिया की माई की कुछ खीझ भरी आवाज आयी।

‘‘तुम्मा माँग रहा है…’’ ठुनकिया के मुँह से अचानकचुम्माकी जगहतुम्मानिकल गया। अँड़वा की हुमक में अपनी ठुनक भूलकर वह बेचारी उसकी तुतलाती लय में गयी थी।

‘‘हमको का पता कि तुम्मा का बला है अउर मटरुआ ने कहाँ रक्खा है। हम रसोई छोड़ के ना आएँगे, तुम खोज के दे दो, नहीं तऽ कहो उसे कि दोसर दोकान से जाके लेले।’’ अबकि ठुनकिया की माई ने चुल्हानी में से ही खीझते हुए कहा।

अँड़वा कीतुम्मा की तोतलीमें माँबेटी दोनों उलझ गयी थीं। लेकिन ठुनकिया ज्यादा देर तक उलझी रहने वाली में से तो थी नहीं! फिर क्या था, वह धड़ाम से गल्ला वाले चौकी पर से कूदी और नीचे से झाड़ू उठाकर अँड़वा के पीछे दौड़ी। उसके कूदते ही अँड़वा अपनी हीरोगिरी से वापस गया था और भाँप गया था। अपनी तुतलाती लय में ही भुनभुनाते हुए ही वह दुकान की चौखट लाँघकर तेजी से भागा।– ‘‘तुम्मा तो अब मिलने छे लहा, छाला दू लुपिया भी गया भोंछली के।’’

ठुनकिया चिल्लाई– ‘‘आउ दोगला! झालू का झुम्मा दें हम तुमको।’’ वह अब तोतली ठुनक में गयी थी। आगेआगे अँड़वा पीछेपीछे ठुनकिया। लेकिन अँड़वा कहाँ पकड़ में आने वाला था। वह भाग गया और ठुनकिया थककर वापस हो गयी। कुछ देर तक ठुनकिया की कोई आहट पाकर मटरू की माई ने उसे भीतर से ही आवाज दी लेकिन कोई जवाब पाकर खुद दुकान में चली आयीं। तभी ठुनकिया हाथ में झाड़ू झुमाते हुए दुकान के दरवाजे से भीतर दाखिल हुई।

‘‘ झाड़ू लेके कहाँ से रही है रे ठुनकिया?’’ मटरू की माई ने पूछा। ठुनकिया कुछ नहीं बोली। वह बताती भी क्या, अँड़वा के ‘‘तुम्मा’’ माँगने के अंदाज को सोचकर बस मुस्कुराके रह गयी। लेकिन माई ने दोबारा पूछा। इस पर ठुनकिया ने बसयहीं बाहर ही थीकहकर झाड़ू को चौकी के नीचे फेंका और गल्ले के पास बैठ गयी।

अँड़वा भागतेपराते हाँफता हुआ सीधे घर पहुँचा। उसकी अम्मा इस इंतजार में बैठी थी कि वह माचिस लेकर आएगा तो चूल्हा बारेगी और जल्दी से रसोई बनाकर टँड़वाअँड़वा के बाबूजी के पास खरिहान में भेजेगी। अँड़वा का एक डर खत्म हो गया था कि वह झाड़ू के चुम्मा से तो बच गया था लेकिन दूसरा डर यह था कि अपनी अम्मा के लतुम्मा से वह कैसे बचेगा, जब वह पूछेगी कि माचिस काहे नहीं लाए और उसके पास इसका कौनो जवाब नहीं होगा। लतुम्मा यानि ‘‘राजधानी की चाल से लतवँसने के साथ ही शताब्दी की चाल से गरियाने का अंदाज।’’ अभी अँड़वा दूसरे डर से बचने का रास्ता सोच ही रहा था कि उसे एक तीसरा डर भी वहीं नजर गया। बड़ा भयानक डर था वहकि यदि यह बात उसके बाबूजी को पता चल गयी कि रसोई में देरी उसकी वजह से हुई है और इसलिए खाना देर से पहुँचा, तो उसके बाबूजी अपनी धोती कपार पे उठा के अपनी ही नाक पर बैठेंगे। पूरा गाँव जानता था कि जब सुखनन्नन यादव एक बार अपनी नाक पर बैठें तो समझ लीजिए कि अब लतुम्मा की घनबरखा होने वाली है। उसका डर सही था। अँड़वा बलभर लतवँसा गया। साँझ भए अपनी अम्मा से और रात गए बाबूजी से।

रात को बिना खाना खाए ही अँड़वा दलानी में सोने चला गया। दर्द के मारे उसे नींद तो नहीं रही थी लेकिन जिस्मानी दर्द से बेखबर उसके किशोर मन को एक बात सालने लगी और मन ही मन वह अपने को ही कोसने लगा– ‘‘भक्क छाला! इछछे तऽ अच्छा होता थुनकिया के झालू का झुम्मा ही खा लिए होते! छाला दूगो लुपियवा भी तल जाता!’’

उस दिन से अँड़वा पंद्रहबीस दिनों तक मटरू की दुकान की ओर नहीं फटका कि कहीं ठुनकिया ने देख लिया तो जाने इस बार किस चीज का चुम्मा लेके दौड़ पड़ेगी।

आसाढ़ के दिन थे। गर्मियों की छुट्टियाँ खत्म हो चुकी थीं। जुलाई शुरू हो चुकी थी। लड़केलड़कियाँ अब स्कूल जाने लगे थे। दाखिले शुरू हो गए थे और अब सब एक कक्षा ऊपर चढ़ चुके थे। ठुनकिया, सबितरी, मोहनी, फेंकना, झबुआ, छँगुरा, वगैरह अब आठवीं में पहुँच चुके थे। जमुनिया, हेनवा, टँड़वाअँड़वा, वगैरह भी अब नौवीं में पहुँच चुके थे, तो वहीं सनीचरी, मँगरुआ, बलिस्टर, बुधना और सफरुआ, वगैरह दसवीं में। इन सब लड़केलड़कियों को भले ही गाँव भर के लोग ऐसे उटपटांग नामों से पुकारते थे, लेकिन स्कूल के रजिस्टर में इनके बड़े ही प्यारेप्यारे नाम दर्ज थे। गाँव से एक किलोमीटर की दूरी पर स्कूल था। सब वहीं पढ़ते थे।

सुबह के आठ बजने वाले थे। सब लड़केलड़कियाँ स्कूल पहुँच चुके थे। पहली घंटी खाली ही रहती थी इसलिए पढ़ाई अभी शुरू नहीं हुई थी। कुछ बच्चे अपनी कक्षा में बैठे एकदूसरे से बातें कर मेलजोल बढ़ा रहे थे तो कुछ स्कूल के सामने वाले बड़े से प्रांगण में हरीहरी घास पर खेल रहे थे। सर्दियों में तो वह पूरा प्रांगण क्लासरूम बन जाता था। सारे बच्चे जगहजगह गोलबंद होकर सर्दी की गुनगुनी धूप में अपनीअपनी कक्षाएँ लगाकर पढ़ाई करते थे। मास्टर साहब और मास्टरनी साहिबा लोगन को भी एकदूसरे को देखदेख पढ़ाने में बहुते मजा आता था और तब वे बड़े ही रोमांचित अंदाज में पढ़ाया करते थे।

पच्छू टोले के पास से एक पतली सी सड़क गुजरती थी। बाजार और स्कूल को पार करती हुई वह सड़क जाकर राजधानी मार्ग में मिल जाती थी। स्कूल का प्रांगण एक छह फुट की दीवार से घेराबंद था और उस दीवार से सटे एक पतली सी सड़क जाती थी। सड़क के किनारे ही स्कूल का प्रवेश द्वार था। प्रांगण में जगहजगह आम और नीम के ढेरों छोटेबड़े पेड़ लगे हुए थे। जुलाई के पहले सप्ताह का शनिवार था। हर शनिवार को लेजर तक ही पढ़ाई होती थी और लेजर के बाद के बाकी समय में बच्चों को खेलकूद और सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने का मौका मिलता था। इसलिए हर शनिवार को बच्चों में उत्साह थोड़ा ज्यादा होता था और वह उत्साह सुबह से ही शुरू हो जाता था।

आसाढ़ का शुक्ल पक्ष चल रहा था। मँगरुआ को तो जैसे सुकवा लग गया था। देह हरियाने ही लगी थी उसकी और उसके हमउम्रों की भी। सुकवा लगता है तो आम के पेड़ के नीचे जामुन मुस्कुराता है! पर यहाँ जमुनिया थी। मँगरुआ प्रांगण में एक आम के पेड़ के नीचे जमुनिया को अपने सामने बिठा कर खुद कुमार सानू बने गाना गा रहा था– ‘‘तू मेरी जिंदगी हैतू मेरी हर खुशी है…’’ जमुनिया उसको सुनकर मुस्कियाए जा रही थी, शरमाए जा रही थी, और थोड़ा घबराए भी जा रही थी। उस दिन पता चला था कि जब हालिया हरियाए देह को सुकवा लगता है तो उसकी आवाज में इक्स के पक्के सुर बसते हैं।

एक किशोर के हरियाए देह में ‘‘इक्स’’ का हल्का झोंका छू जाए तो बचपन की उमर भी जवानी के टीले पर पहुँच जाती है। उस टीले पर पहुँचकर सुकवा लगे लड़के की देह पतंगा बन दिनभर उधियाती फिरती है और उसका मन खटूरुस टिकोरे में से भी पकलुस आम का रसास्वादन करने लगता है। बबूल के पेड़ से उचककर गुलाब का फूल तोड़ लेता है और खिसियाए हुए माईबाबू को भी फौरन मना लेता है। सुकवा को गइयाभैंसिया में भी सुकइया ही नजर आने लगती है और रात के घनघोर अँधियारे में ऐसा उजियार हो जाता है जैसे आसमान से उतरकर चाँद सुकवासुकइया के माथे पर पंखा झल रहा हो। इक्स का यह झोंका तो मौसम के मिजाज तक को इधर से उधर कर देता हैजनवरी की हाँड़ कँपाने वाली ठंडी को जेठ की दुपहरी बना देता है और जून की चिलचिलाती गर्मी को पूस की रात में तब्दील कर देता है।

हरियाए बदन पर इक्स बड़ी ही तेजी से अँखुआता है। इक्स अँखुआने लगे तो बुचन्नी भर का दिमाग ऐसा दर्शनिया जाता है कि खुद से ही खूब बतियाने लगता है और इतना फरहर चलने लगता है कि उसको बाकी सब के सब बकरीदू नजर आने लगते हैं। उस टीले पर अकेले बैठकर ‘‘आपन दरसन बघारो आपे’’ जैसी हालत हो जाती है। का सही का गलत, यह सब कुछ नहीं, वह जो सोचे वह सही, जो ना सोचे वह गलत! उस समय में ‘‘लौंडयास्टिक रोमांस’’ का दायरा इतना बड़ा हो जाता है कि जिसमें दो के अलावा किसी और के लिए कोई जगह ही नहीं बचती है। मँगरुआ उसी टीले पर खड़ा होकर गाना गा रहा था और जमुनिया रोमांचित होकर सुन रही थी। उन दोनों के दिल का आलम कौन बताए। और अगर कोई बताए भी तो उसे समझे कौन? ‘‘सुकवा ही जाने सुकइया का हालसुकइया ही जाने काहें सुकवा बेहाल!’’

प्रांगण में आम के पेड़ों पर अब कम ही आम बचे थे। घंटी खाली देख बुधना और सफरुआ दीवार से लगे एक पेड़ पर चढ़ गए। पेड़ की डाली झकझोरकर वे बचे आमों को गिराने की फिराक में थे क्योंकि पलई पर फले आम उनकी पहुँच से दूर थे। वहीं हेनवा, ठुनकिया, सनीचरी और अँड़वा सब के सब पेड़ के नीचे भदाभद गिर रहे आमों को बँटोर कर अपनेअपने बस्ते में भर रहे थे। टँड़वा भी प्रांगण की दीवार पर चढ़ गया और वहीं से बुधना और सफरुआ को आम की उन डालियों को दिखाने लगा जिन पर कुछ आम अभी लगे हुए थे। तभी प्रांगण के एक कोने से सड़क पर केशव प्रसाद अपनी साइकिल डगराते आते दिखाई दिए। केशव प्रसाद गणित के मास्टर थे। पढ़ाते कम मारते ज्यादा थे।

‘‘अरे सफरुआबुधनाजल्दी उतरो बे भोंसड़ी केकेसउआ रहा है। देख लिया तऽ सगरो आम पिछवाड़े घुसेड़ देगा। भागो रे बकरीदुओं’’ टँड़वा दीवार से कूदते हुए चिल्लाया। सारे लड़केलड़कियाँ क्लास की ओर भागे जैसे केशव प्रसाद मास्टर नहीं, कोई भकाऊँ हों, जो आते ही सबको भकोस जाएँगे। बच्चे भी अक्सर भकोसे जाने वाला काम ही करते थे कि मास्टरों का गुस्सा तरकुल पर चढ़ जाता था।

टँड़वा को लगा कि केशव मास्टर बहुत दूर थे इसलिए वे सुने नहीं होंगे कि उसने किस वाक्य में अतिसहायक विशेषण के साथ उनके नाम को इज्जत दी थी। बच्चे तो अक्सर इसी मुगालते में रहते हैं कि मास्टरों के पीठ पीछे वे सब जो कर रहे हैं, मास्टरों को उसके बारे में कुछ पता ही नहीं होता। जल्दी से भागकर सब अपनीअपनी क्लास में बैठ गए।

थोड़ी देर में केशव प्रसाद क्लास रजिस्टर लेकर क्लास में दाखिल हुए। बड़ीबड़ी मूँछें थीं उनकी। बाएँ हाथ में रजिस्टर और दायाँ हाथ मूँछ पर। क्लास में घुसते ही अँड़वा से बोले– ‘‘बेटा, एक काम करो तो जरा। स्कूल के पीछे जाओ और उहाँ से बेहाया का डंडा तोड़कर ले आओ।’’ केशव मास्टर का आदेश पाते ही ‘‘जी गुलु जी’’ कहकर अँड़वा फौरन सन्नाटा हो गया। जिस अंदाज में वह क्लास से बाहर निकला, उससे लगा कि अब वह वापस नहीं आएगा।

बेहया के डंडे का नाम सुनते ही टँड़वा को ऐसा लगने लगा जैसे कि उसकी पैंट में एक ओर करइत और दूसरी ओर बिच्छी घुस गयी हो। जरा सा हिला नहीं कि डंक लगा और वह जान से गया। एकटक वह ब्लैकबोर्ड की तरफ देखता रहा। बाकी बच्चे भी समझ गए कि आज मरकहवा मास्टर जी का घान गिरने वाला है और आज सबकी पीठ ललहर होने वाली है। केशव मास्टर बेहाया के छरके से बच्चों को बेमुरव्वत मारने के लिए पूरे स्कूल में ही नहीं बल्कि पूरे गाँवजवार में मशहूर थे। गलती किसी एक बच्चे की होती लेकिन केशव मास्टर पूरी क्लास की धुनाई करते। शनिवार के दिन यदि वे डंडा मँगा लिए तो बच्चे समझ जाते कि अब लेजर के बाद का धुरंधरधमाचौकड़ी वाला पूरा हिस्सा पीठ सहलाने में ही जाएगा। तो केशव मास्टर अपनी आदत की कुर्सी छोड़ते थे, और बच्चे अपनी शरारत की पोटली घर पे रख के आते थे। आए दिन उनमें प्रतियोगिता भी चलती किफलनवा की वजह से हम मार खाए हैं, तऽ हमरा वजह से काहें नहीं मार खाएगा।

रजिस्टर खोलकर उसमें अपना चश्मा धँसाए हुए केशव मास्टर तो अभी टँड़वा की ओर देखे भी नहीं थे कि उसकी थरथराहट शुरू हो गयी थी। मास्टर जी बच्चों की हाजिरी लेने लगे। वे जैसेजैसे एकएक बच्चे का नाम बोलने लगे वैसेवैसे टँड़वा के पिछवाड़े की धड़कन बढ़ने लगी। तभी अँड़वा बेहाया के डंडे लेकर गया। वह अपनी अँकवारी में सत्रह डंडे भर लाया था और मास्टर जी की कुर्सी के पास पटकते हुए बोला।– ‘‘लेईं गुलु जी।’’ 

बेहाया का हरा छरका देखकर टँड़वा कुढ़ गया कि बकरीदुआ इतना कचहर बेहाया लाया कि पीठ पर पड़ जाए तो चमड़ी पर कटहा कुकुर की तरह अपना निशान छोड़ जाए और बेजइती खराब तो ऐसी होनी है कि कोई अपनी पीठ दिखाने के लिए भी कहीं का रहे। हाजिरी खत्म कर मास्टर जी कुर्सी से उठे और सारे डंडों को एकएक कर हाथ में लेकर वजन करने लगे कि कौन डंडा कितना मजगर था। काफी देर से पूरे क्लास में सन्नाटा पसरा हुआ था। तभी सन्नाटा टूटा

‘‘किसने कहा था कि केसउआ रहा है?‘‘

केशव मास्टर ने यह सवाल बड़े प्यार से ऐसे पूछा जैसे पूछ रहे हों कि तिरभुज में केतना कोना होता है और सभी कोने का जोग केतना अंश होता है। और जैसे नौवीं में चुके सारे बच्चे एक साथ हाथ उठाकर फटाक से बता दें कि तीन गो कोना होता है गुरु जी और तीनों कोनों का जोग एक सौ अस्सी अंश होता है। लेकिन किसी ने कुछ नहीं बोला। बोलते तब जब सवाल गणित का होता! मास्टर जी अपने हाथ में बेहाया का मोटा डंडा लिए क्लास के इस कोने से उस कोने तक टहल आए। सारे बच्चे चुपचाप उन्हें टहलते हुए देखते रहे। मास्टर जी ने फिर चुप्पी तोड़ी।

‘‘तू लोग का गणित चाहे जेतना कमजोर हो, लेकिन गरामर बड़ा मजबूत होता है। है नऽ…? आठवीं पास कर गए हो अबऔर तू लोग के लिए आठ के पहाड़े में अब भी भले हीअठिका आठआठ दुनी दस…’ होता हो, लेकिन गरामर एतना परफेट्ट होता है कि तू लोग एक वाक्य में एक बार अतिसहायक विशेषण का इस्तेमाल करना कभी नहीं भूलतेहै कि नहीं?’’ बच्चे चुप रहे, वे समझ रहे थे कि आज सारे डंडे उन सबकी पीठ पर कुर्बान जाने हैं।

‘‘किसने कहा था कि केसउआ रहा है?‘‘ केशव मास्टर इस बार गुस्से में मेज पर डंडा पटकते हुए लगभग चीखे।

बच्चे सब सन्न रह गये, उनकी सिट्टीपिट्टी सब गुम हो गयी। किसी ने कुछ नहीं बोला, किसी ने नहीं बताया कि टँड़वा ने कहा था। बच्चे चुप थे कि बताने से कोई फायदा तो होना नहीं था, मार तो सबको खानी थी, फिर काहें बोलें। मेज से डंडा उठाकर फिर मास्टर जी क्लास में टहलने लगे। भयानक सन्नाटा। बच्चा सब के कपार में खुजली तो हो ही रही थी लेकिन वे खुजलाएँ तो कैसे? कहीं मास्टर जी की नजर पड़ गयी तो डंडे का घान वहीं से गिरना शुरू हो जाएगा। अचानक मास्टर जी टँड़वा के पास जाकर रुक गए। टँड़वा का बायाँ हाथ झट से ऊपर उठ गया। वह अपनी कानी अँगुली दिखाकर सुसुआलय जाने की इजाजत माँग रहा था।

‘‘पहिले बता दो कि किसने कहा था केसउआ रहा हैफिर चले जाना अउर खाली कानी अँगुरी नहीं, बाकी अँगुरी भी कर आना।‘‘ डंडे के सहारे टँड़वा के मुँह पर झुककर केशव मास्टर बड़े प्यार से बोले।

‘‘हमको नहीं पता।’’ टँड़वा ने अपना हाथ नीचे करते हुए कहा। वह डर के मारे काँपने लगा था।

‘‘हूँऽऽऽतो सच्ची तुमको नहीं पता?’’ झुके हुए मास्टर जी अपनी कमर सीधी करते हुए बोले। एक बार पूरे क्लास को गौर से देखे और फिर एक हाथ में टँड़वा का बाल पकड़कर उसकी आँख में आँख गड़ाए हुए चिल्लाए

‘‘हम तुम्हरे बाप के बाप के बाप के बाप के बाप को पढ़ाया हूँ और तुम हमको बोलता है केसउआ रहा है!’’

इतना चिल्लाने के फौरन बाद केशव मास्टर मारे गुस्से के देदनादनदेदनादन टँड़वा की पीठ पर डंडा बरसाने लगे। टँड़वा चिल्लाने लगा। बाकी बच्चे सहम से गए। क्लास का दरवाजा बंद था। वे भाग भी नहीं सकते थे। थोड़ी देर में अपनी पीठ का झोलाबस्ता अपने पेट से चिपकाए हुए पूरी क्लास बाहर निकली।

इस मार के बाद पूरे एक सप्ताह तक नौंवीं क्लास के बच्चे स्कूल नहीं गए। सारे बच्चों ने अघोषित छुट्टियाँ कर दिया था। जबजब केशव मास्टर के डंडे की घनबरखा होती थी, तबतब बच्चे अघोषित छुट्टियाँ कर लेते थे। और जब स्कूल आने को लेकर बच्चों के घर शिकायत जाती तो घर वाले केशव मास्टर की शिकायत कर देते। मामला बराबरी का हो जाता था। केशव मास्टर कुछ दिन थिर रहते और फिर एक दिन किसी बच्चे की जरा सी गलती पर सिंघिया माँगुर हो जाते। कभीकभार मँगरुआ जैसे धुरंधर इक्स करते पकड़े जाते तो केशव मास्टर अपने गुस्से की ओखरी में धुरंधरों के रोमांस का चूड़ा कूट डालते। धुरंधर लड़कों को मास्टर जी से पिटने का उतना नहीं अखरता था। उन्हें तो इस बात का अफसोस होता था कि मास्टर जी में लेहाज नाम की कौनो चीज ना थी और वे लड़कियों के सामने ही कूटने लगते थे। मास्टर जी से कूटे जाने के बाद पीठ का दर्द उतना नहीं सालता जितना कि कूटे जाने के वक्त लड़कियों की खीखी सालती थी। फिर क्या था! मास्टर जी के सम्मान में ऐसीऐसी अतिसहायक विशेषणों और सहायक क्रियाओं का प्रयोग होता कि अगर वे सुन लें तो अपने कूट की बूट और मार की धार दोगुनी कर दें।

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उपन्यास : चिरकुट दास चिन्गारी

लेखक : वसीम अकरम

प्रकाशक : हिन्द युग्म प्रकाशन, दिल्ली

मूल्य : 125 (पेपरबैक)

संपर्क :   talk2wasimakram@gmail.com   मोबाइल: 9899170273

लेखक परिचय

उत्तर प्रदेश के मऊ जिले में एक छोटे से गांव मुबारकपुर (पोस्ट: रतनपुरा) में जन्म। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से इंग्लिश लिटरेचर में पोस्ट ग्रेजुएट वसीम अकरम ग़ज़ल, नज़्म, स्क्रिप्ट, कविताएं और कहानियां लिखते हैं। इनका लेखन समयसमय पर विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में प्रकाशित। साहित्य लेखन के साथसाथ वसीम फिल्म निर्देशक भी हैं औरदहशतगर्दीनाम से इन्होंने एक पोएटिक शॉर्ट फिल्म भी बनाई है। पहली किताब के रूप में नज़्म संग्रहआवाज़ दो कि रोशनी आएप्रकाशित।चिरकुट दास चिनगारीइनकी दूसरी किताब है और यह पहला उपन्यास है। वसीम फिलहाल दो नये उपन्यासों का लेखनकार्य पूरा कर चुके हैं, जिनके जल्दी ही प्रकाशित होने की उम्मीद है। पेशे से पत्रकार वसीम अकरम फिलहालप्रभात खबरके दिल्ली ब्यूरो में कार्यरत हैं।

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नूर ज़हीर की कहानी ‘अब भी कभी कभार’

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वरिष्ठ लेखिका नूर ज़हीर के लेखन के बारे में कुछ लिखना कम ही होगा। हिंदी-अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में अपने उपन्यासों, कहानियों, संस्मरणों के कारण वे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जानी जाती हैं। यह उनकी नई कहानी है- मॉडरेटर

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चिट्ठी हाथ में थी, माँ के हाथ का लिखी हुई, शक की कोई गुंजाईश थी I माँ के अलावा आजकल कौन ख़त लिखता है और माँ कभी झूठ नहीं बोलती इतना उसे विश्वास था I झूठ बोलने की ज़रूरत भी क्या थी? एक पेड़ की ही तो बात थी I कोई सुनेगा तो उसकी बेचैनी पर हंसकर कहेगा, आप साहित्यिक लोग ही ऐसा कर सकते हैं की तथ्य और कल्पना को उलट पुलट दें I कल रात उसने  मायन सभ्यता पर एक किताब का अनुवाद ख़त्म किया था I दक्षिण अमरीका के पहले निवासियों के रहस्यमय जीवन को जब भी वह समझने की कोशिश करती तो अचम्भा और दिलजस्पी दोनों ही बढ़ जाते, साथ ही गुस्सा और दुःख भी होता कि वह यह काम न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में कर रही है, उन गोरों के पैसे से जिन्होंने मायन जनजातियों को पहले हराया, फिर लूटा और फिर नेस्तनाबूद करके आज उनकी सभ्यता के आधे अधूरे अवशेषों पर करोड़ों डॉलर खर्च करके उनकी भाषा, संस्कृति और रीति रिवाज को समझने की कोशिश कर रहे हैं

कल देर रात तक उसने एक बहुत ही रोचक अध्याय ख़त्म किया था —-मायन जनजातियों में रिवाज था की हर बच्चे के जन्म पर सौर पेड़ लगाकर उनकी देखभाल करते जबतक बच्चा खुद ऐसे करने के काबिल हो जाए I फिर बच्चे का परिचय उन पेड़ों से करवाकर कुछ दिनों बच्चे को वहां अकेला छोड़ आते I जब इंसान और पेड़ एक दूसरे को ठीक से जान जाते तब उन सौ में एक पेड़ बच्चे से बात करता और उसकी बात सुनता! दोनों पर एक दूसरे की बात सुनना, समझना और मानना फ़र्ज़ हुआ करता थाI धीरे धीरे इंसान और पेड़ों में दूरी बढ़ी, पहले मर्दों ने पेड़ों की सलाह माननी छोड़ दी, फिर उनसे बात करने की ज़रूरत को नकार दिया और सबके बाद महिलाओं को अपने से अलग राय रखने पर पेड़ों को दोषी ठहराकर, औरतों के पेड़ों से मिलने जिलने पर रोक लगा दी I कुछ एक औरतें चोरी छुपे वनों में जाती रहीं, लेकिन उनके परिवार के कौन से पेड़ हैं यह परिचय करवाने वाले समय के साथ मर खप गए और एक नए गिरोह का जन्म हुआ; वे जो इस रिश्ते का मज़ाक़ उड़ाते थे; कुछ समय और बीता, रिश्ते पर हंसी ठिठोली चुटकुले बने, पेड़ों से सम्बन्ध को पागलपन कहा जाने लगा और रिश्ते निभाने वालियों कोचुड़ैलनाम दे दिया गया I

ऋचा ने भी तो मजाक उड़ाया था अपनी माँ का, जब पिछली बार वह झांसी उनसे मिलने गई थी I  अस्सी साल की, कुछ सप्ताह पहले विधवा हुई, माँ ने दोनों भाइयों से अलग उससे फरमाइश की थी, “ऋचा, मुझे आम के पेड़ तले बैठावेगी? बड़े दिन हो गए हुआ बैठी!” चली तो वह खुद भी जाती लेकिन पेड़ तले बना चबूतरा इतना नीचा था कि ऋचा का सहारा लेने की ज़रूरत पड़ी और वह हँसते हुए बोलीं, “ पहली बार सास ने ऐसे ही सहारा देकर बिठाया था इस पेड़ के नीचे, तब गहनों का भार नहीं उठता था, अब अपने शरीर का भार नहीं संभलता.” और फिर शुरू हुई थी उनकी जीवन कथा, जो टुकडो, हिस्सों में ऋचा पहले भी सुन चुकी थी I “तब नौ मील मतलब बहुत दूर होता था, सड़क, बस, झांसी से यहाँ पहुँचने में बैलगाड़ी से तीन घंटे लग गए थे I शाम हो गई थी, तेरी दादी ने जल्दी जल्दी खाना खिलाया और अपनी चारपाई के पास ही मेरा बिछौना कर दिया I अच्छी थीं मेरी सास, समझ रहीं थीं की मेरा शरीर बनारस से झांसी ट्रेन में और उसके आगे बैलगाड़ी में थक कर चूर हो गया है; विदाई का रोना पीटना, ब्याह का रतजगा जो था वह तो था ही I वैसे मेरा जी अन्दर से अकुला रहा था तेरे बाबू जी के पास जाने को; पता तो चले कैसे, क्या होता है?” ऋचा हंस दो थी, बुढापे में गाँव की औरतों का फक्कडपन, अश्लीलता की तरफ चल निकलता है I “थकन ज्यादा थी, तो मैं सो गई I सुबह सवेरा भी नहीं हुआ था कि ससुर जी ने आवाज़ लगाकर सास को जगाया और कहा, “बहू को जरा उठाकर आम के पेड़ के नीचे ले I” मैं आई तो मुझे बताने लगे, ‘यह पेड़ मैंने १५ साल पहले लगाया था जब रामपुर से इस गाँव पटवारी होकर आया थाI हर साल इसमें दो चार गुछे बौर तो आते हैं लेकिन फल एक नहीं लगता I तू इसकी एक परिक्रमा करदे, तेरा आँगन में पहला पग शुभ हुआ तो इस साल ज़रूर फल आएगा I’ सासू माँ ज़रा सा बिगड़ी, ‘बांज पेड़ तले बहू का पहला पग मतलब अपशकुन को न्योता!’ नई बहू मुझे तो वैसे भी सर झुककर रखना था, पेड़ की जड़ों को देखते हुए परिक्रमा की और इतना देख लिया कि पेड़ की जड़ों में दीमक का बास है I

राशन का ज़माना था, मुट्ठी भर चीनी पेड़ों की जड़ों में छिड़कने पर सास वह बिगड़ीं कि पूछो मत; लेकिन तीन दिन के अन्दर चीटियों ने पहले चीनी खाई फिर दीमकों को भी चट कर गईं I दो सप्ताह बाद देखा नई कोपलें फूट रहीं हैं I तेरे दादा जी को मच्छी बहुत पसंद थी, सप्ताह में एक दो दिन, खुद खरीदकर लाते, साफ़ करते और बनाते I मैं शलक, बलकल, अन्दर की पेटी, खाने के बाद बचे कांटे हड्डियाँ, सब जमा करती और पेड़ की जड़ों में दबा देती I पेड़ को घर के दूसरे लोग भी प्यार करते थे; फल सही, चम्बल की तन जलाने वाली धूप से छाँव तो देता ही था I एक शाखा पर मोटी रस्सी का, नीचे तख्ता लगा झूला था I इसपर छोटी नंदे झूला करती थी और मैं भी काम काज से निबटकर इसपर बैठ हवा खा लेती I

एक दिन मैंने तेरे बाबूजी से फरमाइश की, “झूला उतारकर दूसरी शाखा से बाँध दो.”

क्यों भला? यहाँ ठीक ही तो है I”

लो, हम क्या एक हाथ में बोझ उठाये उठाये थक नहीं जाते? हाथ नहीं बदलना पड़ता?” वे हँसे तो मेरे ऊपर लेकिन पेड़ पर चढ़कर रस्सी खोली और दूसरी पर लंगर फेंकने ही वाले थे कि मेरी नज़र पहली वाली शाखा पर पड़ी, जो दो जगह से छिली, कटी फटी थी I “रुको रुको!” मैं अन्दर दौड़ी और एक पुरानी चुनर ले आई, “पहले यह तह करके रखो, इसके ऊपर रस्सी डालो, रस्सी की भी उमर बढ़ेगी और पेड़ भी घायल नहीं होगा I”

उस साल फागुन में बौर से लद गया पेड़! किसी को तब भी विशवास नहीं था कि बांज पेड़ फल देगा I लेकिन जब एक तोते के जोड़े ने इसपर घोंसला बनाया, तब मैं समझ गई फलेगा ज़रूर क्योंकि फल खाने वाले पक्षी इसपर रहे हैं I फ़ालतू बौर झड़े और नन्ही नहीं अम्बोरियां दिखने लगी तो सास ने अचार का मसाला तैयार करना शुरू किया I अच्छा ही किया क्योंकि उसी गर्मियों में तेरे बड़े भैय्या ने आने का इरादा किया I

मैं दोनों तरह से जीत गई I सास ने देखभाल के ख़याल से झूले पर बैठना बंद कर दिया, तब मैंने यह चबूतरा बनवाने को कहा I ससुर तो पेड़ लगा, चारों ओर गोल और पक्का बनवाना चाहते थे, मैंने कहा नहीं, चौकोर, पेड़ की जड़ों से थोडा हटकर और कच्चा होना चाहिए I दस पन्द्रह दिन में एक बार, मैं ही घर के बचे चिकनी मिटटी और गोबर से लीप देती I इस चबूतरे और पेड़ की ओट में, दूसरी तरफ, घरवालों की नज़र बचाकर तेरे बाबू जी और मेरी बातें होती I

जब चौथा महीना गुज़र गया, उल्टियाँ रुक गईं और मैंने आधे से ज्यादा अचार खा डाला, तब मेरा अलग अलग चीज़ें खाने को जी चाहने लगा I शर्म भी आती, संकोच भी होता, किस्से कहती? तो इस पेड़ से ही कह दिया और जी हल्का कर लिया I मुझे क्या पता था पेड़ उनसे कह देगा? ज़रूर कहा ही होगा, तभी तो अगली सुबह उन्होंने मुझसे पूछा, “सुन, तुझे कौनसी मिठाई पसंद है?”

बालूशाही!” अब यह रोज़ स्कूल से लौटते हुए, दो बालूशाही लाते, वहीँ पेड़ की जड़ों के सहारे पत्ते का दोना टिका देते और मैं मौक़ा देख अंचल में छिपाकर खा लेती I एक महीने में ऐसा लगा की किसी ने बालूशाही का नाम भी लिया तो मुझसे पिटेगा I इसीसे कहा, “कोई मिठाई जितनी भी पसंद क्यों हो, रोज़ रोज़ वही मिले तो जी ऊब जाता है; लाने वाले को कौन समझाए! वे बुरा भी तो मान सकते हैं I अगली शाम दोने में दो लाड्डो रखे थे I गाँव है यह, उस समय बस बालूशाही, लड्डू और जलेबी ही मिलती थी I

इसी की छाँव में, झूले पर तेरे दोनों भाइयों को और फिर तुझे डालकर मैं घर का सारा काम निबटा लेती थी I लोग कहते हैं आम का पेड़ एक साल फलता है, एक साल सुस्ताता है; लेकिन यह कभी नहीं सुस्ताया, एक बार फलना शुरू हुआ तो बीते सालों की भी कसार पूरी कर दी I   

सास ससुर की अर्थी भी इसी के नीचे रखी गई और यहीं से उनकी अंतिम यात्रा शुरू हुई I तेरे भाइयों को तो आगे पढना था ही, यहाँ गाँव में कहाँ टिकते, लेकिन जब तूने भी ग्वालियर जाने की ठानी तो तेरे बाबू जी बहुत चिंतित हुए और एक पूरी रात इस पेड़ तले बैठे सोचते रहे I पेड़ ने जाने क्या सलाह दी कि सुबह उठे और नौ साल पहले तय किया हुआ तेरा समबंध यह कहकर तोड़ आये, ‘आगे बढ़ते हुए पैरों में बेड़ियाँ क्यों रहे?’ बदनामी सह ली, गालियाँ सुन ली, और तुझे ग्वालियर भेज दिया; वहां से तू दिल्ली चली गई फिर विदेश! तेरी शादी की चिंता मैंने कितनी बार इस पेड़ से कही; कभी ढारस बंधाता, कभी दिलासा देता; एक दिन बोला, ‘ऋचा खुश है, तुम क्यों उसकी ख़ुशी में खुश नहीं हो? क्यों अपनी ख़ुशी उसके ऊपर थोपना चाहती हो?”

इस साल फागुन में इसमें बौर नहीं आया I हमने सोचा ज़रा सुस्ता रहा है I कुछ महीने पहले तेरे बाबू जी के साथ के मास्टर जी ने आकर बताया, पेड़ मर रहा है I तेरे बाबू जी बीमार चल रहे थे, कमज़ोर बहुत हो गए थे, फिर भी किसी तरह उठकर आँगन में आये I दूर से ही पेड़ को देखकर बोले, “हाँ, आम का पेड़ ऐसे ही मरता है, नीचे से हरा रहता है, ऊपर से सूखना शुरू होता!’ यह देखकर ही जैसे उनके अन्दर कुछ टूट गया, बस जीने से जैसे मन भर गया उनका! तीन महीने के अन्दर ही चल दिए I अब तो ऊपर की आधे से ज्यादा टहनियां सूख गई हैं I”

इतना कहकर माँ कुछ देर चुप रही और अपनी छड़ी से ज़मीन पर कुछ लकीरें बनातीं रहीं; फिर अचानक ऋचा से कम ख़ुद से ज्यादा बोलीं, “कोशिश तो करनी चाहिए; अंत तक कोशिश करते रहना यही इंसान का फ़र्ज़ है I सुन ऋचा मुझे सहारा देकर चबूतरे पर खड़ा कर देगी?”

माँ इतनी मुश्किल से तो तुम्हे यहाँ लाकर बिठाया है, उठोगी भी सहारे से, चबूतरे पर कैसे चढोगी?” ऋचा ने समझाते हुए कहा I

अरे चढ़ जाउंगी, तू पास जा, तेरा कन्धा पकड़कर—-“

माँ तुम अस्सी पार कर चुकी हो, तो मैं भी साठ छू रही हूँ, अगर डगमगा गई और तुम गिर पड़ीं तो?”

अच्छा जा, रसोई से पटरा ले , उसपर एक ईंट रख दे, बस बन गया जीना, तब तेरे कंधे पर बोझ नहीं पड़ेगा!”

माँ, ज़रूरत क्या है यह सब सर्कस करने की!” ऋचा की आवाज़ में डर और खीज दोनों थी I

मुझे उससे बात करनी है ना

किससे?”

तू जबसे विदेशी हुई है, हिंदी में हो रही बात को कान ही नहीं देती I इतनी देर से किसकी बात कर रहीं हूँ मैं? मुझे आम के पेड़ से बात करनी है I जनम भर के साथी से इतनी दूर से कैसे बात करूँजा जा पटरा ला, मैं ईंट उठा लाती हूँ

जिद करके माँ चबूतरे पर चढ़ीं थीं और जहाँ से मोटा ताना तीन शाखाओं में बंट रहा था वहां बड़े प्रेम से हाथ रखकर बोलीं, “समझतीं हूँ कि तुम बुढ़ा गए हो; यह भी जानती हूँ कि तुम अकेले हो गए हो; क्या करूँ, बच्चों ने एक एक करके अपना जीवन चुन लिया, दो साल यह इतना बीमार रहे, इनकी सेवा टहल में तुमसे मिलने आना नहीं हुआ I इनके जाने के बाद आना चाहिए था मुझे पर सच बताऊँ तुम्हारी छाँव में, तुम्हे देखकर ही इनकी बहुत याद आती है मुझे, इसीलिए दूर रही I लेकिन यह मेरी भूल थी, तुम्हारा गुस्सा ठीक ही है, जो चला गया उसके लिए जो है उसकी अवहेलना थोड़ी करनी चाहिए I मैं वादा करतीं हूँ, रोज़ आऊँगी तुम्हारे पास; और तुम भी जिस पथ पर चल दिए हो उससे पलट आओ I मैं भी कितने दिन और हूँ? जब तक हूँ मेरा साथ निभा दो; कोई तो मेरे लिए रुक जाए; कोई तो मेरा ख्याल करे I”

माँ जहाँ तक हाथ पहुँच रहा था, तने और शाखाओं को धीरे धीरे सहला रही थीं और पास खड़ी ऋचा, मुहं पर साड़ी का पल्लू रखे अपनी हंसी रोकने की कोशिश कर रही थी I

तीन दिन बाद वह न्यूयॉर्क लौट आई थी और आज पांच महीने बाद माँ की यह चिट्ठी आई है, “आम के पेड़ में भरपूर बौर आया है, दो जोड़ी तोते भी गए हैं और एक कोयल भी आसपास मंडरा रही है I अभी उसका कंठ सधा नहीं है; आजमाने के लिए बीच बीच में बोलती है जो कूकने से ज्यादा चूकने सा लगता है I आम जून तक पकेंगे! बहुत सारा प्यार, माँ !            

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पंकज कौरव की कविता ‘फ़िल्म इंडस्ट्री के लौंडे’

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युवा लेखक पंकज कौरव अपनी हर रचना से कुछ चौंका देते हैं। अब यही कविता देखिए- मॉडरेटर
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वे एक्टर बनने नहीं आए थे
पर अभिनेता वाली सारी ठसक
उनमें कूट कूट कर भरी थी
वे स्टाइल में खड़े होते
अदा के साथ अपनी हर बात रखते
और बची हुई बाक़ी अदा
ओढ़-बिछाकर अंधेरी में सो जाते
वे साहित्य और फिल्मों में
क्रांति का नया नारा लाना चाहते थे
वे सपने नहीं
सिर्फ कहानियां बुनते
सपनों में उनके परियां नहीं थीं
किसी के भी पर काट देते थे वे
बड़े से बड़ा निर्देशक
उनसे
अपनी फ़िल्म को
युवाओं में
लोकप्रिय बनाने का तरीक़ा पूछता
और वे
मेट्रिक से लेकर
हॉस्टल लाइफ के अनुभवों को
जीवन का सार बताने से नहीं चूकते
जैसे कि
लड़कों और लड़कियों को
अलग-अलग वर्ग में न बंटे
को -एड में पढ़ने वाले
और पार्ट-टाइम नौकरी करते हुए
प्राइवेट से ग्रेजुएशन करने वाले
महज़… खैर छोड़िए!
और सबसे खास बात यह थी
कि जब वे सुबह सोकर उठते
उन्हें कई छल्लेदार कहानियां मिलती
जैसे
अंडरवियर के आसपास मिलते हैं
कुछ टूटे हुए बाल….

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प्रदीपिका सारस्वत की कहानी ‘इनफ़िडल’

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युवा लेखिका प्रदीपिका सारस्वत के लेखन की कैफ़ियत बहुत अलग है। उलझी हुई गुत्थी की तरह। फ़िलहाल उनकी एक कहानी पढ़िए- मॉडरेटर

=====

अगर ये कहानी, ‘एक लड़की थी’ से शुरू होगी तो क्या आप इसे पढ़ेंगे? शायद हाँ, शायद नहीं. पर ये कहानी एक लड़की थी से ही शुरू होती है. कहानी मेरी है. लेकिन शुरू इस लड़की से होती है. मैं उन दिनों खुद से भी बातचीत बंद कर चुका था जब उस लड़की ने मुझे मैसेज किया था कि मैं ज़ीरो घाटी हूँ और अब मुझे आगे कहाँ जाना चाहिए. वो उस अनसुनी-अनदेखी जगह तक पहुँचने का रास्ता जानना चाहती थी, जिसका मैंने किसी मुलाक़ात में ज़िक्र किया था.

मैं पश्चिमी घाट के समंदर के किनारे टिका हुआ था, जब मुझे उसका मैसेज मिला. मुझे उसके पागलपन पर ज़रा भी हैरत नहीं हुई थी. बस यही पागलपन तो है जो हम दोनों के बीच एक सा है. मैंने उसे रास्ता बता दिया. उसने मुझे बताया था कि वो अकेली नहीं थी, कोई था उसके साथ. मैं नहीं जानना चाहता था कि उसके साथ कौन था. मैं ये भी नहीं जानना चाहता था कि वो कहाँ थी, क्यों थी. मैं उसके बारे में, अपने बारे में कुछ भी नहीं जानना चाहता था. क्योंकि कुछ जानने की शुरूआत के बाद, अगर दिलचस्पी हो, तो सबकुछ जान लेने की कोशिश की शुरुआत होने लगती है. इंसानी दिमाग ऐसे ही काम करता है. क्योंकि सबकुछ आप जान नहीं सकते, मगर उस सबकुछ को जानने की कोशिश में, जो आप जानना चाहते हैं, आप वो सब भूलने लगते हैं, जो आप जानते हैं, या जिसको जानना इस मोमेंट में बहुत ज़रूरी है. मैं उन दिनों जिसे जानना बेहद ज़रूरी था, उसके आगे कुछ भी जानने में दिलचस्पी लेने की हालत में नहीं था.

फिर भी मैंने उससे एक सवाल किया. और सवाल दिलचस्पी का पहला बयान है. मैंने उससे पूछा कि इनफिडैलिटी से वो क्या समझती है. सवाल पूछने का यह उपक्रम कुछ जानने से ज़्यादा बताने के लिए था, ये वो सवाल पढ़ते ही जान गई थी. उसका जवाब वही था जो मैं सुनना चाहता था. पर मैं ये नहीं जानता था कि खुद का चाहा हुआ जवाब सुनने के बाद मैं खुद अपने साथ नहीं रह जाउंगा. मैं वो सब ज़रूरी काम नहीं कर पाउँगा जिनके कारण मैं किसी भी चीज़ में दिलचस्पी लेने से बचता रहा हूँ. उसने मुझे बताया कि वो अगली सुबह दापोरिजो के लिए निकल जाएगी. दापोरिजो के बाद उस से बात नहीं होगी. वहाँ तक मोबाइल के कमज़ोर सिग्नल्स मिलते हैं, पर उससे आगे कुछ भी नहीं.

बात शायद अब से कुछ देर बाद भी न हो. ऑर्डर्स आते ही मुझे शायद बोट लेनी पड़े. और समंदर से मैं उसे मैसेज नहीं कर सकता. वैसे भी हमारे पास बात करने के लिए कुछ नहीं होता. हम दोनों बात करते हुए बेज़ुबान हो जाते हैं. मैं बहुत कुछ उसे बता नहीं सकता. वो बहुत कुछ मुझसे पूछती नहीं. हम दोनों बहुत कुछ समझते हैं और बहुत कुछ बोलते नहीं. शायद इसीलिए मोबाइल सिग्नल कमज़ोर पड़ने पर भी कुछ कमज़ोर नहीं पड़ता. मैं तब भी अक्सर खुद को उससे बात करते देखता हूँ जब खुद से बात नहीं करता. मेरी लाइन ऑफ़ ड्यूटी में किसी से भी ग़ैरज़रूरी बात करना ठीक नहीं होता. पर फिर भी मैं खुद को उससे बात करने देता हूँ. ड्यूटी पर ही सीखा है कि क़ायदे तोड़ने के लिए ही बनते हैं. और फिर बिना किसी सिग्नल और भाषा के की गई ये बातें कहीं दर्ज़ नहीं होतीं, और कहीं इस्तेमाल नहीं की जा सकतीं.

इससे पिछली बार जब उससे बात हुई थी तो वो खासी पहाड़ियों में थी. तब तक मुझे पता चल गया था कि अब हम शायद मिल नहीं सकेंगे, सालों तक या शायद कभी नहीं. मैंने तय कर लिया था कि अब उसे मुझसे आगे बढ़ जाना चाहिए. मैंने तस्वीर भेजने को कहा था, तो उसने खासी बच्चियों और अनानास के पेड़ों की क़तारों पर नाचती तितलियों की तस्वीर भेज दी थी. सीधे बताने पर कि मैं उसे देखना चाहता हूँ, उसने अपनी तस्वीरें भेजी थी. ख़ुश थी वो. इतना ख़ुश पिछले महीनों में कम ही देखा था उसे. मैं चाहता था कि वो ख़ुश ही रहे. हमारे न मिल सकने के बारे में जानकर दुखी होगी वो, लेकिन वक्त के साथ सँभल जाएगी. मैं चाहता हूँ कि वो मेरा इंतज़ार करे, पर मैं यह भी चाहता हूँ कि अनिश्चितता भरा यह इंतज़ार उसके नाज़ुक दिल पर न आ पड़े. कहीं न कहीं मेरे भीतर यह डर भी है कि अगर मेरे लौटने पर अगर मैंने उसे किसी और के साथ पाया तो? नहीं, मैंने अपने डर पर क़ाबू पा कर तय किया था कि उसे मुझसे आगे बढ़ जाना चाहिए. हमें अब और बात नहीं करनी चाहिए.

पर उस दिन उसके मैसेज ने एक बार फिर मुझे वहीं लाकर छोड़ दिया जहाँ से मैं बड़ी मुश्किल से आगे बढ़ सका था. मुझे कोफ़्त भी हुई थी उसका मैसेज देखकर और ख़ुशी भी. कोफ़्त इसलिए कि घाटियों, पहाड़ों में बेफ़िक्री से घूमती इस लड़की को कोई अंदाज़ा नहीं कि मैं किन हालात में, किन सवालों का सामना कर रहा हूँ. और ख़ुशी इसलिए कि हम दो मैं से कोई तो है जो बेफ़िक्र हो सकता है, सिर्फ इसलिए घर से निकल कर मीलों दूर जा सकता है कि वहाँ उसका कोई अपना कभी रहा था. बारिश में भीगती पहाड़ियों को देखकर मुस्कुरा सकता है, घंटों बिना किसी वजह, किसी नदी के किनारे बैठ सकता है. ख़ुश रह सकता है. चाह कर भी उसे कुछ नहीं बताया था मैंने. सिर्फ वो बेवक़ूफ़ाना सा सवाल किया था कि वो इनफिडैलिटी से क्या समझती है. इसमें पूछने जैसा क्या था. कुछ भी तो नहीं. मैं जानता था कि सब जानने के बाद उसने मोबाइल पर डिक्शनरी खोल कर इस अंग्रेज़ी लफ़्ज़ का मानी ढूँढा होगा. और उसके बाद थम गए अँगूठों को एक बार सीधा कर मेरे सवाल का जवाब टाइप किया होगा. इस बार कोलन और क्लोज़ ब्रैकेट वाला स्माइली बनाते वक्त वो मुस्कुराई नहीं होगी. पर जब उसे याद आया होगा कि बिना मुस्कुराए स्माइली भेज दिया है, तब उसके होंठों पर फीकी सी मुस्कुराहट उभरी होगी, उसकी आँखों में उतर आई नमी जैसे रंग की मुस्कुराहट.

तिब्बत बॉर्डर पर लगे उस पहाड़ी गाँव तक पहुँचने का रास्ता बता दिया था मैंने उसे. अरुणाचल जाने के ज़िक्र  पर कभी दिल्ली में उसके ड्रॉइंग रूम में बैठे हुए मैंने उस गाँव के बारे में बताया था उसे. आख़िरी मोटरेबल पॉइंट से चार दिन लगते हैं वहाँ पहुँचने में, जब मैंने बताया था तो उसकी आँखों में चमक आ गई थी. तुम अगर मेरे प्रोफ़ेशन में होतीं तो मुझ से बेहतर काम करतीं, मैंने कहा था उसे. उसने कहा था कि मैं वहाँ तक तुम्हारे साथ जाना चाहुँगी. आज वो अकेले वहाँ जा रही थी. अकेले नहीं, किसी और के साथ. किसी और का साथ होना मानी नहीं रखता, मुझे कहने की ज़रूरत नहीं. मानी रखता था उसका वहाँ जाना. मीलों तक फैले उन अनजाने रस्तों पर पैदल चलना, थकना, रुकना और ये सोच कर मुस्कुराना कि इन रास्तों से कभी मैं भी गुज़रा होउंगा. मुझे अच्छा लगा था ये सोच कर कि वो उन रास्तों पर मेरे साथ न होकर भी मेरे साथ चल रही होगी.

हालाँकि अब रास्ते कुछ बदल गए थे. चार दिन का रास्ता दो दिन चल कर तय किया जा सकता था. पर रास्ते के साथ चलती नदी, अब भी वही थी. मुझे वहाँ गए कई साल बीत चुके थे. सर्विस के शुरुआती दिनों में वहाँ हुआ करता था मैं. तब अगर उसे मिला होता तो यहाँ लेकर आता. यहाँ तो उसे आना ही था, तब न सही, तो अब. जो आपके बारे में सबकुछ जानना चाहता है, वो आपके दोस्तों से मिलता है, परिवार से मिलता है. मुझे जानने के लिए वो पत्थरों और दरख़्तों से मिला करती है. यूँ ही उसका पागलपन मुझे अपने जैसा नहीं लगता.

सीमा के उस गाँव में इंडो-तिब्बतन पुलिस के लकड़ी के क्वार्टर में रुकी थी वो. उसे मंज़िल तक पहुँचने की सीधी तरकीब आती है. जो करना है, बस कर लो, सोचो मत. वो करती है, बहुत सोचती है, मगर करती ज़रूर है. क्वार्टर में पहली रात बिताने के बाद सुबह उठते ही उसने चिट्ठी लिखी थी मुझे. वापस लौटकर बताया था उसने. कहा था मिलोगे तो पढ़ने को दूँगी. मैंने हाथ से लिखी गई चिट्ठी तस्वीरें माँग ली थीं. उसे भेजनी पड़ीं. वो सोच रही थी कि मैं इंतज़ार नहीं कर पा रहा हूँ चिट्ठी पढ़ने का. उसे नहीं पता था कि मैं नहीं जानता था कि अब हम कब मिलेंगे. चिट्ठी में लिखा था, ‘यहाँ पहुँच कर मैं तुम हो गई हूँ, लेकिन अब भी मैं अपने से बाहर तुम्हें देखना चाहती हूँ’. उससे मिलने से पहले मैंने ऐसी बातें सिर्फ उपन्यासों में पढ़ी थीं. कोई सचमुच की चिट्ठियों में ऐसा लिखता है, मैंने सोचा ही नहीं था. मेरे लिए कोई ऐसा लिखेगा ये और भी उदास कर जाने वाला ख़याल था. मेरे पास कुछ नहीं है उसे देने के लिए. अपना आप भी नहीं.

चिट्ठी में उसने किसी गुम्फा पर जाकर हम दोनों के लिए प्रार्थना करने की बात लिखी थी. इतना वक्त वहाँ बिताने के बाद भी मैं खुद कभी उस गुम्फा तक नहीं गया था, जहाँ वो पगली प्रार्थना के चक्के घुमा कर आई थी. उसके पास सबकुछ है, मुझे उसे देने के लिए कुछ भी नहीं चाहिए. अपना आप भी नहीं. मेरा अपना आप वो पहले ही अपने आप में, अपनी प्रार्थनाओं में समेट चुकी है. उस चिट्ठी को पढ़ने के बाद मैं उससे मिलना चाहता था, उससे कहीं ज़्यादा जितना वो मुझसे मिलना चाहती थी.

मेरे पास वक्त नहीं था. मुझे जाने की तैयारी करनी थी. जाने से पहले बहुत कुछ बनाना था, बहुत कुछ मिटाना भी था. मिटाने वाली चीज़ों में उसके निशान भी शामिल थे. मैं उसे बता चुका था कि अब हम बहुत लंबे अरसे तक नहीं मिल सकेंगे. उसने शिकायत नहीं की. शिकायत की थी उसने मुझसे मेरी बेरुख़ी की, जो मैं बड़े जतन से अपने और उसके बीच की ख़ाली जगह में भरने की कोशिश कर रहा था. ख़ाली जगह जो बढ़ती ही जाने वाली थी. मैं भूल गया था कि वो मैं हो चुकी थी. और हमारे बीच कोई गुंजाइश नहीं थी किसी और चीज़ की.

मेरे जाने से पहले हम मिले थे. आख़िरी बार मिलने जैसा नहीं था वो. पहली बार जैसा भी नहीं था. वैसा मिलना कैसा होता है शायद मैं या वो ही जान सकते हैं. कोई और नहीं. हमने बातें नहीं की थीं. ख़ामोश बैठे रहे थे देर तक. हमने एक दूसरे को उस तरह प्यार भी नहीं किया था जैसे आख़िरी बार मिलने वाले एक दूसरे को करते होंगे. हम बस साथ बैठे थे, चुपचाप. एक-दूसरे के होने को अपने भीतर और सामने, एक साथ महसूस करते हुए. जाने से पहले उसने अपनी माँ के हाथ की बनी मिठाई का एक छोटा सा टुकड़ा मुझे खिला दिया था. बस. फिर देहरी तक आकर ज़ोर से बाँहों में भींच लिया था मुझे. मैं जितना उस पकड़ से आज़ाद होकर वापस अपनी दुनियावी हक़ीक़त में लौट जाना चाहता था, उतना ही उस बंधन में बँधे रह जाना चाहता था. पर मेरे क़दम मुझे बाहर खींच ले गए थे.

क़दमों पर कई बार शरीर का बोझ नहीं होता, न ही दिल और दिमाग का, कई बार वो सिर्फ ज़िम्मेदारी का वज़न उठाते हैं. मेरे पैरों को उसी वज़न से नियंत्रित होने की आदत है. वो मेरी ज़िम्मेदारी नहीं है, ये मैं नहीं कहुँगा. पर अभी मैं खुद अपनी ज़िम्मेदारी नहीं हूँ. मुझ पर हम दोनों से बड़ी ज़िम्मेदारी है, जिसके नाम पर मैं अपने और उसके लिए ग़ैर-ज़िम्मेदार होने का लांछन सह सकता हूँ. पर वो मुझ पर लाँछन नहीं रखती, मैं जानता हूँ. इस जानने का वज़न कई बार मेरी साँसों पर भारी हो आता है, पर तब मैं अपना ध्यान अपनी साँसों से हटाकर वापस अपने क़दमों पर लगा देता हूँ.

आज जागते ही मेरी साँसों में बग़ावत महसूस की है मैंने. कानों में उसकी पसंद की क़व्वाली बज रही है. अभी सुबह नहीं हुई है. मुझे बिस्तर पर लेटे रहना है. करवट बदलता हूँ तो देखता हूँ कि मेरे शर्ट के कफ में मेरे पास सोई हुई लड़की के बाल उलझे हुए है. मेरे हाथ उन्हें निकालने के लिए नहीं बढ़ते. मैं अपने पाँवों की ओर देखते रहना चाहता हूँ. मैं याद रखना चाहता हूँ जो कुछ उसने कहा था, जब मैंने पूछा था कि इनफिडैलिटी से वो क्या समझती है.

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अनामिका अनु की कविताएँ

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आज अनामिका अनु की कविताएँ। मूलतः मुज़फ़्फ़रपुर की अनामिका केरल में रहती हैं। अनुवाद करती हैं और कविताएँ लिखती हैं। उनकी कुछ चुनिंदा कविताएँ पढ़िए- मॉडरेटर

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१.मां अकेली रह गयी

 

खाली समय में बटन से खेलती है

वे बटन जो वह पुराने कपड़ों से

निकाल लेती थी कि शायद काम आ जाए बाद में

हर बटन को छूती,उसकी बनावट को महसूस करती

उससे जुड़े कपड़े और कपड़े से जुड़े लोग

उनसे लगाव और बिछड़ने को याद करती

हर रंग, हर आकार और बनावट के बटन

ये पुतली के छट्ठे जन्मदिन के गाउन वाला

लाल फ्राक पर ये मोतियों वाला सजावटी बटन

ये उनके रेशमी कुर्ते का बटन

ये बिट्टू के फुल पैंट का बटन

कभी अखबार पर सजाती

कभी हथेली पर रख खेलती

कौड़ी,झुटका खेलना याद आ जाता

नीम पेड़ के नीचे काली मां के मंदिर के पास

फिर याद आ गया उसे अपनी मां के ब्लाउज का बटन

वो हुक नहीं लगाती थी

कहती थी बूढ़ी आंखें बटन को टोह के लगा भी ले

पर हुक को फंदे में टोह कर फंसाना नहीं होता

बाबूजी के खादी कुर्ते का बटन?

होगी यहीं कहीं!

ढूंढती रही दिन भर

अपनों को याद करना भूल कर

दिन कटवा रहा है बटन

अकेलापन बांट रहा है बटन

 

२.मैं  पूरा वृक्ष

 

मैं सिर्फ खोह नहीं पूरा वृक्ष हूं।

मैं सिर्फ योनि नहीं

जहां मेरी सारी इज्जत और पवित्रता को स्थापित कर रखा है

मैं पूरी शख़्सियत

मजबूत ,सबल,सफल

किसी ने चोट दिया तन हार गया होगा

मन कभी नहीं हारेगा

नेपथ्य से कहा था

अब सम्मुख आकर कहती हूं-

मैं हारूंगी नहीं

 

खोह में विषधर की घुसपैठ

मैं रोक नहीं पाती

पर इससे मेरी जड़े भी हिल नहीं पाती

मेरा बढ़ना ,फलना,फूलना इससे कम नहीं होता

मैं वृक्ष ही रहती हूं

कितने पत्ते टूटे

कितनी टहनियां आंधी उड़ा ले गयी

पर मैंने नये पत्ते गढ़े ,नयी टहनियां उपजाई

अपनी बीजों से नए वृक्ष बनाए

मैं सिर्फ खोह नहीं पूरा वृक्ष हूं।

 

मेरे खोह से बहते लाल रक्त को

अपावन मत कहना

इसमें सृजन की आश्वस्ति है

इसमें सततता का दंभ है

यह यूं ही लाल नहीं

इसमें जीवन का हुंकार है

प्राण उगाने की शक्ति है

ये सुंदरतम स्त्राव है मेरा

जीवन से भरा

इसमें सौंधी सुगंध मातृत्व की

श्रृंगार मेरा,पहचान मेरी

सबकुछ न भी हो पर बहुत कुछ है ये मेरा।

 

३. मैंने अब तक टूट कर प्यार किया नहीं

 

मैंने अब तक टूट कर प्यार किया नहीं

अब करूंगी छत्तीस में

ये इश़्क मौत तक चलेगा, पक्का है

प्रेमी मिलेगा ही, ये भी तय है

मैं सर्वस्व उसे समर्पित कर दूंगी, गारंटी है।

जब वह आलिंगन में लेगा

मैं पिघल कर उसमें समा जाऊंगी

इत्र बन कर उसके देह की खुशबू बन जाऊंगी

अपने रोम-रोम को उसकी कोशिका द्रव्य का अभिन्न हिस्सा बना दूंगी

 

वह वृक्ष तो मैं फंगस बन,उसकी जड़ों से जुड़ जाऊंगी

माइकोराइजा* सा उसे और भी हरा-भरा कर दूंगी।

तब कोई भी दूर से ही उसकी लहलहाती हंसी देख कर कह देगा

वह किसी के साथ है,साथ वाली खुशी छिपती नहीं

यह गर्भ की तरह बढ़ती है

और  सृजन करती है, जन्म देती है जीवन को

मैं टूट कर प्यार करूंगी तुम्हारी आंखों में चमकती अमिट

तस्वीर बन जाऊंगी ताकि

कोई भी खोज ले भीड़ में तुमको, तेरी आंखों में मुझे देखकर

ये पहचान नई देकर मैं प्यार करूंगी

 

तेरे रूह के पाक मदीने में मैं कालीन सा बिछ जाऊंगी

इश़्क उस पर सिजदे ,आयतें और नमाज़ पढेगा

तुम अनसुना कर देना बाहर का हर कोलाहल

और भीतर से आती हर अज़ान पर गुम हो जाना मेरी याद में

 

मैं टूट कर प्यार करूंगी इस बार

पहली और अंतिम बार

तेरी उंगलियों के पोर-पोर को मैं कलम बनकर छुऊंगी

तुम मेरे कण-कण में भाव भर देना

फिर इस मिलन से जो रचना होगी,उसे तुम कविता कह देना

जिस पर वह लिखी जाए,उसे तुम कागज कह देना

 

इस बार टूट कर प्यार करूंगी

चिर चुम्बन तेरे लब के कोलाहल को दीर्घ चुप्पी में ढक देगा ,

तेरे सारे भाषण मेरे लबों की लाली बन घुल जाऐंगे

मैं ऑक्सीजन सा हाइड्रोजन में मिल जाऊंगी

फिर पानी बन कर बह जाऊंगी

कोई इसे तर्पण मत कहना

मैं! कब मेरा हाड़ मांस थी?

मैं अनामिका, अपरिचित, अनकही ,अनलिखी कविता थी

फिर कैसे मैं जल कर राख,गलकर मिट्टी,नुच कर आहार!

मैं स्वतंत्र और मौत के बाद शुरू होता है मेरा विहार

मौत मेरा अंतिम  प्रेमी और मैं मौत की अनंत आवर्ती यात्रा का एक प्रेमपूर्ण विश्राम मात्र।

गंभीर श्वास, उन्मुक्त निश्वास

 

*माइकोराइजा-कवक और पेड़ के जड़ों के बीच एक सहजीविता का संबंध

 

४.तथाकथित प्रेम

अलाप्पुझा रेलवे स्टेशन पर,

ई एसआई अस्पताल के पीछे जो मंदिर हैं

वहां मिलते हैंl

फिर रेल पर चढ़कर दरवाजे पर खड़े होकर,

हाथों में हाथ डालकर बस एक बार जोर से हंसेंगे,

बस इतने से ही बहती हरियाली में बने ईंट और फूंस के घरों

से झांकती हर पत्थर आंखों में एक संशय दरक उठेगा,

डिब्बे में बैठे हर सीट पर लिपटी फटी आंखों में

मेरा सूना गला और तुम्हारी उम्र चोट करेगी

मेरा यौवन मेरे साधारण चेहरे पर भारी

तेरी उम्र तेरी छवि को लुढ़काकर भीड़ के दिमाग में

ढनमना उठेगी

चरित्र में दोष ढूंढते चश्मों में वल्व जल उठेंगे

हमारे आंखों की भगजोगनी भुक भुक

उनके आंखों के टार्च भक से

हम पलकें झुकाएंगे और भीड़ हमें दिन दहाड़े

या मध्यरात्रि में मौत की सेंक देगी

तथाकथित प्रेम ,मिट्टी से रिस-रिस कर

उस नदी में मिल जाएगा

जिसे लोग  पेरियार कहते हैं।

 

५.लज्जा परंपरा है

मां टीका कितना सुंदर है

रख दें ठीक से!

मुझे दोगी?

नहीं?

क्यों?

भाई की पत्नी को दूंगी

क्यों?

तू पराया धन है

तुम्हें क्यों दूंगी?

बेटी के हाथ से लेकर

मां ने डिब्बे में रख दिया

बेटी ने उस दिन ही अपनी सब चाहे डिब्बे में रख दी

और परायेपन को नम आंखों से ढोती रही

उसकी चुप्पी को लज्जा और  त्याग को

परंपरा कह दिया गया

 

 6. कामरेड की पत्नी थी वह

 

वह कामरेड की पत्नी

घिसी चप्पल जुड़वाती

दौड़ कर बस पकड़ती

तांत,सूती से बाहर नहीं निकल पाती

केरल में रहकर भी सोना नहीं पहनती

रातों में भी, दो पैग के बाद ही वह आता

इश्क या जरूरत ,जो समझो

दिन में घुमक्कड़,रफूचक्कर

बच्चे हो गये दो चार

वक़्त मिलेगा कब है इंतजार

चाक श्यामपट्ट पर घिसी रही

घर के तानाशाह पर तंज कस रही

कभी उसका हाथ पकड़ कर

चलता नहीं सड़क पर

सब जानते हैं उसको

पर वह जानता नहीं हमसफ़र को

गर्भ में पले बच्चे

उम्र के इस पड़ाव पर घूरते हैं

अम्मा है या अच्चन!*

आंखों से टटोलते हैं

बुढ़ापे के इस पड़ाव पर

कामरेड बड़ा नेता हो गया

बच्चे मुकाम पर

वह विरान में वजूद तलाशती

खु़द से ही बाते करती,हंसती,बुदबुदाती

और सबको बतलाती रिक्त आंखों से कि

कामरेड की पत्नी का कोई साथी नहीं होता

 

*अम्मा-मां, अच्चन-पिता

 

 

 

 

 

 

 

 

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अरविंद दास का लेख ‘बेगूसराय में ‘गली बॉय’

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बिहार के बेगूसराय का चुनाव इस बार कई मायने में महत्वपूर्ण है।कन्हैया कुमार जहाँ भविष्य की राजनीति की उम्मीद हैं तो दूसरी तरफ़ उनका पारम्परिक राजनीति की दो धाराओं द्वारा विरोध किया जा रहा है। जीत हार बाद की बात है लेकिन यह चुनाव विचारधारों के संघर्ष का एक बड़ा मुक़ाम है। पढ़िए अरविंद दास का लेख-

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प्रसिद्ध संपादक प्रभाष जोशी ने कहीं लिखा था कि ‘बिहार में यदि चुनाव नहीं देखा तो क्या देखा.’ उत्तर प्रदेश भले ही लोकसभा में सबसे ज्यादा सांसद भेजने वाला राज्य हो, पर लोकतंत्र के रंग चुनाव के दौरान सबसे ज्यादा बिहार में ही खिलते रहे हैं. 17वीं लोकसभा का चुनाव इसका अपवाद नहीं है.

इस चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू यादव की भाषण शैली को लोग मिस कर रहे हैं. ऐसा लग रहा है कि लालू यादव की इस कमी को बेगूसराय से भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के टिकट पर चुनाव लड़ रहे कन्हैया कुमार पूरा कर रहे हैं. ना सिर्फ अखबारों और टीवी चैनलों पर बल्कि सोशल मीडिया में भी कन्हैया कुमार की खूब चर्चा है. पापुलर मीडिया और वेबसाइट पर उनके भाषणों को खूब देखा-सुना जाता है.

असल में, कन्हैया कुमार जहाँ पिछले तीन वर्षों में विपक्षी पार्टियों और नागरिक समाज के लिए एक ‘पोस्टर बॉय’ बन कर उभरे हैं, वहीं वे केंद्र में सत्तासीन बीजेपी और संघ की आँखों की किरकिरी हैं. राष्ट्रवाद, आतंकवाद और राजद्रोह इस चुनाव में बीजेपी के लिए मूल मुद्दे हैं. रोजगार, विकास और ‘अच्छे दिन’ पीछे छूट गए लगते हैं. और यही वजह है कि बीजेपी के वरिष्ठ नेता अपने चुनावी भाषणों में ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ की खूब चर्चा करते हैं. गौरतलब है कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू), दिल्ली में फरवरी 2016 में एक कार्यक्रम के दौरान तथाकथित देश विरोधी नारे के आरोप में जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष, सीपीआई के छात्र संगठन एआईएसएफ के नेता, कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी हुई थी. इसका पूरे देश में विरोध हुआ. कैंपस और कैंपस के बाहर छात्र, बुद्धिजीवी सड़क पर उतरे. मोदी सरकार के मुखर विरोधी के रूप में कन्हैया कुमार की पहचान बनी. उनकी भाषण देने के शैली को युवाओं ने खूब पसंद किया. उनका भाषण और ‘आजादी’  का कौल हाल ही में ‘गली बॉय’ फिल्म के माध्यम से एक बार फिर से चर्चा में है.

निम्न मध्यमवर्गीय परिवार से आने वाले कन्हैया कुमार मूल रूप से बेगूसराय के हैं. ‘नेता नहीं बेटा चाहिए’ का नारा इन दिनों वहाँ की फिजां मे गूंज रहा है. बेगूसराय में वाम विचारधारा की जमीन भी वर्षों से रही है और इस वजह से इसे ‘बिहार का लेनिनग्राद’ कहा जाता रहा है. वहीं जेएनयू भी वामपंथी विचारों के लिए जाना जाता है. जेएनयू की छात्र राजनीति में, जहाँ कन्हैया कुमार केंद्र में रहे, सरोकार और सक्रियता की परंपरा शुरुआती दौर से रही हैं. समाज के हाशिए पर रहने वाले, उपेक्षितों के प्रति एक संवेदना हमेशा रही है और वाद-विवाद-संवाद की स्वस्थ परंपरा से जेएनयू की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय जगत में पहचान बनी.  भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) की छात्र इकाई आइसा से जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे, बिहार के चंद्रशेखर ने जब जमीन पर काम करना शुरु किया तो मोहम्मद शाहबुद्दीन के समर्थकों ने उनकी वर्ष 1997 में हत्या कर दी. जेएनयू में आज भी छात्र उन्हें शिद्दत से याद करते हैं. करीब 20 वर्ष बाद जेएनयू की छात्र राजनीति ने कन्हैया कुमार के रूप में देश को एक जुझारू छात्र नेता दिया है.

कन्हैया कुमार वाम विचारधारा के प्रतिनिधि हैं, भाजपा के गिरिराज सिंह दक्षिणपंथी विचारधारा का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, राष्ट्रीय जनता दल के तनवीर हसन सामाजिक न्याय का. भारतीय राजनीति में जातिगत गोलबंदी और धर्म महत्वपूर्ण धुरी हैं जिसके इर्द-गिर्द चुनाव प्रचार और वोट डाले जाते हैं. चर्चित लेखक हरिशंकर परसाई ने अपने निबंध-हम बिहार में चुनाव लड़ रहे हैं, में वर्षों पहले जो लिखा था वह कमोबेश आज भी सच है:

कृष्ण ने कहामैं ईश्वर हूं. मेरी कोई जाति नहीं है.

उन्होंने कहा देखिए नइधर भगवान होने से तो काम नहीं न चलेगा. आपको कोई वोट नहीं देगा. जात नहीं रखिएगा तो कैसे जीतिएगा?

जाति के इस चक्कर से हम परेशान हो उठे. भूमिहारकायस्थक्षत्रिययादव होने के बाद ही कोई कांग्रेसीसमाजवादी या साम्यवादी हो सकता है. कृष्ण को पहले यादव होना पड़ेगाफिर चाहे वे मार्क्सवादी हो जाएं.

पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी के भोला सिंह ने तनवीर हसन को हराया था, जबकि सीपीआई के राजेंद्र प्रसाद सिंह तीसरे स्थान पर रहे थे. इस चुनाव में तीनों ही इस सीट पर अपनी दावेदारी पेश कर रहे हैं. इस त्रिकोणीय लड़ाई ने इस चुनावी मुकाबले को मीडिया के लिए दिलचस्प बना दिया है. पर चुनावी हार, जीत से इतर, निस्संदेह, कन्हैया कुमार इस चुनाव में वर्चस्वशाली सत्ता के विरुद्ध एक चुनौती बन कर उपस्थित हैं. यह भारतीय लोकतंत्र की जीत है.

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सुरेन्द्र मोहन पाठक और उनका नया उपन्यास ‘क़हर’

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मैं पहले ही निवेदन करना चाहता हूँ कि मैं सुरेन्द्र मोहन पाठक के अनेक उपन्यास पढ़े ज़रूर हैं लेकिन उनका फ़ैन नहीं रहा। लेकिन उनके विमल सीरिज़ की बात ही कुछ और है। विमल, जो क़ानून की नज़र में अपराधी है लेकिन वह एक ऐसा किरदार है जिससे आपको प्यार हो जाएगा। असल में सुरेन्द्र मोहन पाठक की यह सीरिज़ हिंदी के यथार्थवादी साहित्य के बरक्स रखकर पढ़ी जानी चाहिए। जिसे हम गम्भीर यथार्थवादी साहित्य कहते हैं पिछले कुछ दशकों में वह भी एक फ़ॉर्म्युला बन गया है। समाज जितनी तेज़ी से बदला है यथार्थवादी साहित्य के मानक उतनी तेज़ी से नहीं बदले। अकारण नहीं है कि हिंदी में लोकप्रिय कहा जाने वाला साहित्य पाठकों को पसंद आ रहा है। हिंदी का नया पाठक उससे कनेक्ट करता है, तथाकथित यथार्थवादी साहित्य से वह कनेक्ट नहीं कर पाता है शायद। ख़ैर, ‘क़हर’ उपन्यास आया है। सुरेन्द्र मोहन पाठक के विमल सीरिज़ का कोई उपनायास लम्बे समय बाद आया है। विमल मुंबई से अपराध की दुनिया छोड़कर दिल्ली में आम शहरी का जीवन जीने आया है। अपनी पत्नी और बच्चे के साथ। लेकिन वह अपराध छोड़ने की जितनी कोशिश करे अपराध उसे नहीं छोड़ता। वह एक ऐसा अपराधी किरदार है जो लगातार अपराधियों से लड़ता रहा है। दिल्ली में उसके आने के कुछ दिन बाद कुछ ऐसा हो जाता है कि उसको मजबूरन फिर से अपनी उसी अंधेरी दुनिया में जाना पड़ता है जिसे छोड़ने की उसने बार बार कोशिश की।

विमल सीरिज़ के अन्य उपन्यासों की तरह ही इस उपन्यास की ख़ासियत यही है कि यह आम आदमी के रोज़मर्रा के जीवन से जुड़ा लगता है। आजकल सड़कों पर छोटे-बड़े तमाम तरह के अपराध होते हैं जिनका कोई हल पुलिस के पास नहीं होता। मेरी एक दोस्त का महँगा मोबाइल फ़ोन दरियागंज के इलाक़े में छीन लिया गया पुलिस ने रपट तक नहीं लिखी। साकेत में मनोहर श्याम जोशी की पत्नी का महँगा हार उनके घर के सामने सड़क पर स्नैचर छीन कर भाग गया, पुलिस सिवाय रूटीन विजिट के कुछ नहीं कर पाई। आम आदमी रोज़ रोज़ ऐसी तमाम तरह की दुर्घटनाओं का सामना करता है जिससे बचाने वाला उसे कोई नहीं होता। एक सभ्य नागरिक समाज में सरे आम महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार होता है लोग देखकर भी नहीं देखते। लेकिन विमल ऐसा नहीं है। वह सबके न्याय के लिए लड़ता है, बेज़ुबानों की आवाज़ बनता है। भले इसके लिए वह क़ानून की नज़र में अपराधी क़रार दिया जाए लेकिन आम आदमी की नज़र में मसीहा है।

समाज में आम आदमी अपने दुखों से मुक्ति पाने के लिए लगातार किसी मसीहा, किसी अवतार की प्रतीक्षा करता है। राजनीति के जितने बड़े अवतार, मसीहा आए उन सबने जनता की उम्मीदों, उनकी आशाओं के साथ छल किया। जनता उसी तरह सड़क पर लुटती रही, मसीहा सत्ता लूटते रहे। लेकिन विमल कभी छल नहीं करता। वह तो ख़ुद आम आदमी है, उनके बीच से निकला मसीहा है।

हिंद पॉकेट बुक्स से प्रकाशित उपन्यास ‘क़हर’ ने एक बार फिर यह साबित किया है कि सुरेन्द्र मोहन पाठक को क्यों लोकप्रिय साहित्य का बादशाह कहा जाता है। लगभग अस्सी की उम्र में इतना कसा हुआ, साधारण जीवन में घटने वाली असाधारण घटनाओं से कसा हुआ उपन्यास लिखकर पाठक जी ने एक बार फिर यह बता दिया है कि न तो उनके कलाम की धार कम हुई है न ही आम आदमी के रोज़मर्रा के जीवन पर उनकी पकड़। अकारान नहीं है कि इस उपन्यास ने अब तक बिक्री के अनेक मानक तोड़ दिए हैं। यह एक नए तरह का यथार्थवादी उपन्यास है जिससे मेरी तरह आप भी कनेक्ट करने लगेंगे। पढ़कर तो देखिए।

348 पृष्ठ के इस उपन्यास की क़ीमत महज़ 175 रुपए है।

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लेखक- प्रभात रंजन 

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कृष्णा सोबती उनकी जीजी थीं

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हंस पत्रिका का अप्रैल अंक कृष्णा सोबती की स्मृति को समर्पित था, जिसका सम्पादन अशोक वाजपेयी जी ने किया है। इस अंक में कृष्णा जी को याद करते हुए उनकी भतीजी ने एक आत्मीय संस्मरण लिखा है जिसका अंग्रेज़ी से अनुवाद मैंने किया है। आपने न पढ़ा तो तो पढ़िएगा- प्रभात रंजन

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यादगारे जीजी

हर बात के पीछे एक कहानी होती है- कई दफा कहानियां सामान्य होती हैं कई बार संगीन और दिल को तोड़कर रख देने वाली. लेकिन इन सभी कहानियों के पीछे कृष्णाजी की कहानी रही है- क्योंकि वह वहां है जहाँ से मेरी कहानी शुरू हुई.

इस आंटी ने इस छोटी लड़की का दिल चुरा लिया और वह उनको जीजी बुलाने लगी– हम सभी उनको प्यार से यही बुलाते. कृष्णा सोबती को कहानियां सुनाने से अधिक शायद ही कुछ पसंद था- शायद सिवाय ऐसी कहानियों के जो खुद उनके अपने जीवन से जुड़ी होती हों. आँखें चमकाते हुए, रंगमंच के कलाकारों जैसी पक्की टाइमिंग के साथ वह अपना जादू बिखेरती थीं. प्यारी आंटी, आत्मविश्वास से भरपूर और शाश्वत विदुषी जीजी के प्रखर विचारों, धुन और प्रज्ञा ने उनको एक ऐसा इंसान बना दिया अपनी पूरी जिंदगी में ऐसे इंसान से कोई बार बार नहीं मिलता.

पुराने जमाने जैसा कोई ज़माना नहीं हुआ. मेरे अन्दर जीजी की जो छवि है वह 1960 और 1970 के दशक की है. उनके काले बाल उनके चेहरे पर इस तरह लहराते रहते थे जिस तरह उस समय हॉलीवुड फिल्म स्टार के लहराते थे, वह अपनी ड्रेसिंग टेबल पर आगे की तरफ झुकी अपने चेहरे पर चार्मिस कोल्ड क्रीम लगाती(जिसका जार ख़ास तरह के गुलाबी रंग का होता था), या अपने होंठों पर सुर्ख लाल लिपस्टिक लगाने के लिए अपने हंसमुख मुँह को अंग्रेजी के ओ अक्षर के की तरह गोल कर लेती थीं. जीजी इवनिंग ऑफ़ पेरिस, चार्ली और चैनल नंबर 5 परफ्यूम लगाती थीं और मेरे पास अभी वह स्प्रे वाली बोतल है जो कुछ समय पहले उन्होंने मुझे अपने ड्रेसिंग टेबल से उठाकर दी थी, यह तब की बात है जब हम उनके बेडरूम में साथ थे. मैं उसको नहीं सूंघती हूँ क्योंकि इससे उनके न रहने का दर्द बहुत सालने लगता है. वह ढीले ढाले सिल्क के गोटा गरारा पहनती थीं जो उनके घुटनों पर बहुत नाटकीय ढंग से लहराती रहती थीं, चिकनकारी वाली कुर्ती, दुपट्टे से ढंके सर, उनके बड़े फ्रेम का चश्मा, बड़े डायल वाली धातुई पट्टी वाली घड़ी, उनके कंगन, वही जिनके लिए प्रसिद्ध थीं, यह सब मिलाकर ऐसा प्रभाव छोड़ता था और उनके बोलने का लहजा, पहनावा ओढावा और भावनात्मक शैली भावनाओं को बहुत अतियथार्थवादी गूढ़ अंदाज में सामने लाती थी. जादुई रौशनी के महीन जाल के सहारे बिना किसी अतरिक्त प्रयास के वह जो रचती थीं, मेरा भाई बॉबी और मैं जीजी के उन अलग अलग अवतारों से मंत्रमुग्ध हो जाते थे जो वह धारण कर लेती थीं-जादूगर, सूत्रधार, रहनुमा, इतिवृत्त्कार और इतिहासकार. जीजी ने दिल्ली के सभी 305 गाँव देख रखे थे, सबसे अच्छे मटर उस इलाके में उगते थे जिसे आज प्रगति मैदान कहा जाता है, वह अपने छोटे भाई जगदीशजी(वह अपने छोटे भाई को यही बुलाती थीं जो मेरे पिता भी हैं) के साथ 16 अगस्त को उस ऐतिहासिक मीलस्तम्भ का गवाह बनी थीं जब लाल किले के प्राचीर पर झंडा फहराया गया था(उस दिन दोनों कर्जन रोड से लालकिले पैदल ही गए थे, गांधीजी की अंतिम यात्रा में भी दोनों शामिल हुए थे जिसमें हार्डिंग एवेन्यू के पास वे उसका हिस्सा बने थे.

जब चांदनी चौक में घंटाघर के गिरने की खबर आई तो वह तत्काल वहां गई थीं. उसके बाद जिस तरह वहां मलबा था और जिस तरह से अफरा तफरी मची थी जिसके बारे में बताते हुए अक्सर उनकी आँखों में करुणा दिखाई देती थी- औरतों की चमकदार ओढनियाँ मलबे के अन्दर से दिखाई दे रही थी और उसके बाद प्रदर्शन करने के लिए जिस तरह से भीड़ जमा हो गई थी, उनकी स्मृति में जैसे उसकी तस्वीर से बनी हुई थी. वह युद्ध स्मारक के ऊपर चढ़ गई थीं जिसके ऊपर से धुंआ निकल रहा था, गाँधी मैदान में सुभाष चन्द्र बोस के खून सने शर्ट के कारण किस तरह का मंत्रमुग्ध कर देने वाला नजारा था, जब उन्होंने संविधान सभा के सत्रों में हिस्सा लिया था जहाँ विमर्श और बहस इस तरह की शालीनता के साथ होता था, चाहे कितनी भी भड़काऊ बात आ गई हो, एशियाई सम्मलेन और उसके साथ ही हुए पुरातात्विक प्रदर्शनी के समय पुराना किला के पीछे कैसी चहल-पहल थी- जीजी की दास्तानगोई में यह सब और भी बहुत कुछ बिंधी हुई रहती थी.

चूँकि जीजी उस पीढ़ी की थीं जिसने ब्रिटिश भारत से आजाद भारत के मादक संक्रमण को देखा था, उनकी समृद्ध, उदबोधनात्मक गुलकारी जैसी हस्तलिपि से हमारे बचपन के दिनों की यादें भरी हुई हैं. वह अक्सर कहती थीं कि सीखते हुए और जीते हुए बीच के साल फीके नहीं पड़े. जब हम उनके पास जाते थे तो वह अपने जीवन की कथा को पूरी भावुकता से सुनाती थीं. निर्मोही भाव से वह बताती कि किस तरह से उनके रिश्तेदार बर्बाद हो गए, मार डाले गए और बेघरबार हो गए और किस तरह अपने प्यारे प्यारे लाहौर को उन्होंने अलविदा कहा.दो कहानियां सुनाते हुए उनको खूब मजा आता था- एक उनकी जन्मदिन के जलसे की थी जो रावी नदी में एक बाजरे पर मनाया गया था, जिसमें दिल खोलकर पैसे खर्च किये गए थे, बैठने के लिए खुले में कुर्सियां और मेजें लगाई गई थीं, जिसमें जाने माने रेस्तरां से चीज पैटीज, म्योनिज, एग सैंडविच, लेमन टार्ट, चॉकलेट केक के साथ स्पेंसर से विम्टो कोल्ड ड्रिंक मंगवाया गया था- जिन सब चीजों की वजह से वह शाम जानदार और शानदार हो गई थी. दूसरी स्मृति बड़ी मार्मिक थी जो फतेहचंद कॉलेज को अलविदा कहने से जुडी है जहाँ उन्होंने पढ़ाई की थी, जब उनका सामान तांगे पर लादा जा चुका तो जीजी आखिरी बार अपने होस्टल की सीढियों पर गई और हसरत भरी नजरों से अपने कमरे की तरफ देखा- नीचे उनको एक पेन्सिल पड़ी हुई दिखाई दी और जिससे उन्होंने दीवार पर लिखा दिया- जाती बहारों ये याद रखना/ के कभी हम भी यहाँ बसते थे. कृष्णा जी जब लद्दाख गई तो उन्होंने वहां यह पंक्ति एक विहार के बाहर लिखी हुई देखी थी- जब भी किसी चीज को देखो तो इस तरह देखो जैसे पहली बार देख रहे हो- जब भी किसी चीज को देखो तो इस तरह से देखो जैसे आखिरी बार देख रहे हो. मैं इस बात को अनुभव से जानती हूँ कि ईश्वर सही है- स्मृतियाँ अनन्त होती हैं. जीजी बताती थीं कि श्रीनगर-लद्दाख की यात्रा उनके लिए निर्णायक थी- सिंध का प्राचीन नीलापन औए नयनाभिराम दृश्य एक तरफ राष्ट्रीय गर्व की भावना से भर देते थे- जब वह भारतीय वायुसेना के जहाज को आकाश में उड़ते हुए देखती तो उनके अन्दर एक अव्याख्येय सी भावना उमड़ती थी, इसके साथ ही उनके अन्दर एक तरह की उदासी और दुःख की भावना भी भर गई जिसको वह बेहद अपना कहती थीं. गुजरात जहाँ के आकर्षक फाटक और शाम की सैर बीते ज़माने की बातें लगती थीं. जैसा कि जीजी हमेशा कहती थीं, ‘विभाजन को भुला पाना तो मुश्किल है- लेकिन उसको याद करना भी उतना ही खतरनाक है.’

बीती यादों के प्रयासहीन प्रवाह से भरपूर दास्तान, जो बहुत बारीकी से बुना गया होता- महत्वपूर्ण पल जिसमें कृष्णा सोबती की किस्सागोई- दस्तावेजी, चाक्षुष, सौन्दर्यशास्त्रीय, ऐतिहासिक, रोजमर्रापन से प्रचुर किस्से. जिनमें छोटी कृष्णा सोबती के पुरखों की हवेली की पेचीदा घुमावदार परतें होती, जिनमें ऐंग्लो-सिख निर्णायक युद्ध के बाद के हालात का जायजा होता था, वह युद्ध जो चिलियानौला, गुजरात तथा कियेंरी में 1849 की सर्दियों में लड़ा गया था. हवेली के बरामदे चौड़े थे ताकि छाया मिल सके, खिडकियों पर चिक पड़े होते थे और ठंडा रखने के लिए पानी का छिडकाव किया जाता था, दोपहरों में हल्का अँधेरा किया जाता था और बाहर की चमकदार रौशनी बांस की चिक से आती थी, बचपन में सोने जाने के पहले पिताजी की सुनाई फूलवालों की सैर, हल्दीघाटी और टाइटैनिक जहाज के डूबने की कहानियां; फूलों और सब्जियों को पोटेशियम परमैगनेट के घोल में धोया जाता था जिससे पानी गुलाबी हो जाता था; भुलाई जाने वाली बात थी कॉड लीवर आयल और अंडे की ज़र्दी का पिलाया जाना. दूध को एक जग में रखकर उसके ऊपर जाली से नीले मनकों से लटकाकर रखा जाता था जो बहुत गर्म होता था जिससे उसके ऊपर मोटी मलाई जम जाती थी. शिमला(छोटा विलायत) की कहानियां जिनमें ओक, चीड़, देवदार और बुरुंश के जंगल होते थे; फर्न, काई, शैवाल और विंडफ्लावर्स इन्डियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडीज के विशाल स्कॉटिश बंगले की सीढियों को ढंके रहते थे. जीजी की सुन्दरता के ढांचे में उत्तरी पहाड़ों की बर्फीली चोटियाँ थीं; लम्बे लम्बे समय तक एक्जीक्यूटिव बांड कागजों के बीच, शेफर इंक पेन से लिखते जाना, मसूरी, नैनीताल, रानीखेत, मुक्तेश्वर, कौसानी में आनंदभपूर्ण किताबें, उनका नगीना- शिमला और मुर्री. जुहू के सन एंड सैंड होटल में बुनियाद सीरियल के जमाने में रमेश सिप्पी के साथ; मास्टरजी के लम्बे अतीत की पीड़ा को पंजाबियत देते हुए; श्यामला हिल्स में सुरमा भोपाली दोपहरें और दिलचस्प कबाबी कहानियां; ज़िन्दाबादी बुकस्टोर और किताबखाना. सीपी की किताब की दुकानें भवनानी संज, रामाकृष्णा, अमृत बुक्स और दरियागंज का लतीफी प्रेस. हार्टले पामर की स्वादिष्ट बिस्किट हो या एंकर या ग्लैक्सो के बिस्कुट, उनके स्वाद को याद कर आज भी कृष्णा जी के मुंह में पानी आ जाता था; मंगोलिया, कैरी होम या बहुत बाद में क्वालिटी के आइसक्रीम(उनका पसंदीदा था सभी आइसक्रीम की रानी वनिला और बड़े आकार की डाइजेस्टिव), जब वह नब्बे साल से ऊपर की हो गई थीं तब भी कप भर बचपन में खाया जाने वाला ओवल्टीन, कभी कभार कपुचीनो, और कॉम्प्लान को याद करती थीं. यह साफ़ लगता था कि वहां उनका दिन बहुत अच्छा गुजरा था- ऐसा लगता था कि वह हमेशा वहीँ रहती थी.

सत्तर के दशक के आरम्भ से लेकर 80 के दशक तक बीजी हमारे लिए बरगद की छांह जैसी रहीं, रौशनी के असंख्य मौके हमारे जीवन में उनके कारण आये. अज्ञेय, भीष्म साहनी(हमारे लिए भीष्म अंकल), उपेन्द्रनाथ अश्क, मन्नू भंडारी, राजेंद्र यादव, निर्मल वर्मा, कृष्ण बल्देव वैद जैसे शीर्षस्थ लेखकों की छाया में बड़े होना ऐसा है जैसे ऐसे इकत को बुना रहे हों जो जीवन के लिए मीलस्तम्भ की तरह हो और जिसमें एक शानदार दृश्यावली की घुलावट भी हो. कृष्णा जी के दोस्त और भरोसे के साथी, जैसे स्वर्ण सेठ, प्रोमिला कल्हण, आनंदलक्ष्मी, गिरधर गोपाल, सत्येन, मंजूर भाई, गौरी पन्त, रमा झा. ये सभी लोग उनके और मेरे जीवन में जीवन के ज़र, ज़र्दा, जेवर, ज़ाफ़रान थे. ऐसी ही दोस्तियों को कोई सबसे संजोकर रखता है उतार चढ़ाव के दौर में सबसे याद करता है, जो हमेशा ताज़ा रहती हैं, जिनको आप जब चाहें फिर से शुरू कर सकते हैं, जो दूरी और नजदीकी के उदहारण के रूप में होती हैं. कैलेण्डर में तारीख़ देखकर टैरेस और पोर्च में गमलों में चीड के पौधे लगाये जाते और उनको आइसक्यूब में डालकर लाया जाता था और छायादार जगह के हिसाब से उनको रखे जाने के स्थान बदले जाते रहते थे, ताकि चंगेजी गर्मी से उनको बचाया जा सके(जैसा कि जीजी कहती थीं); सूर्यास्त के बाद होने वाली बार बे क्यू पार्टियों के लिए जामा मस्जिद के इलाके से खानसामे बुलाये जाते, सुषम(मेरी माँ) से इस बात के लिए सम्पर्क किया जाता था कि टेबल पर क्या बिछाया जाए और मीठे में क्या बनवाया जाये- खुमानी का मीठा होना चाहिए या फिरनी या खीर या ज़ाफ़रान चावल; जब कोई जश्न का मौका आता था तब ओबेरॉय मैडंस में पूलसाइड बैठकर डैनिश पेस्ट्री और आइसक्रीम के साथ कोल्ड कॉफ़ी का भोज दिया जाता था, साथ ही चाय का पूरा बंदोबस्त, ट्रे में चाय साथ में चीनी के टुकड़े, टीकोजी और साथ में खाने के लिए चुनिन्दा- मार्बल केक, क्रैकर्स जो याद रह गया. हमारी प्लेट में मिठाई नहीं होती थी(जीजी को मिठाई कुछ ख़ास पसंद नहीं थी न ही आम). भारतीय क्रिकेट टीम से मिलने जाने के लिए मैडेंस होटल जाना, इण्डिया गेट और बुद्ध जयंती पार्क में पिकनिक मनाना, द साउंड ऑफ़ म्यूजिक और द गन्स ऑफ़ नवोरोन देखना, कनिष्का में कोना कॉफ़ी पीना, आईआईसी में बेक्ड अलास्का का आनंद उठाना, कोका कोला पीने की बारीकी को सीखना, पाकीज़ा देखने के बाद मगन होकर बड़ों द्वारा उसकी की जा रही समीक्षा को सुनना, पढ़ाई के साथ कटोरी में चाय पीना(यह मैंने कृष्णा सोबती से नहीं सीखा). हम असामान्य रूप से उमंग से भरे रहते थे, उसी तरह से जिस तरह से उन किताबों को होना चाहिए जो हम लिखते हैं,उनके अन्दर यह भावना हमेशा कायम रही.

और अब मिजाज- वह बनने-बिगड़ने वाला था, चिडचिडा और कई बार समझ में न आने वाला. इसी तरह जीजी का मूड भी विविधवर्णी था. विभाजन की धूल धूसरित चिंताओं को सहेजकर रखने के कारण वह असाधारण रूप से करुणा का बर्ताव करती थीं. वह एक चमत्कारिक लेखिका थीं- किनारों पर मुलायम जबकि लोहे की तरह अडिग रहने वाली. आवाभागत उदारता दिखाने का सबसे दुर्लभ और सबसे शुद्ध रूप है, इस मामले में वह अपने जैसी अकेली थीं, कई बार उनका हुक्म चलाने वाला व्यक्तित्व हावी हो जाता था, लेकिन उससे न तो किसी को घुटन महसूस होती थी. भतीजियाँ अपनी बुआओं से सीखती हैं, जो मैंने भी सीखी. उनकी आत्मा और उनका भाव योद्धा जैसा था, और मेरे जीवन में उनकी मौजूदगी हमेशा बनी रही. उनका अडिग आदर्शवाद, और बहुलतावादी विचारों के प्रति उनका रुख उनको प्रेरक बनाता था.

शरारती मुस्कान के साथ हिंदी के ह अक्षर से शुरू होने वाले चार अक्षरों वाले शब्द के साथ लम्बे और रंगीन वाक्य बोलने वाली जीजी मेरी बचपन की स्मृतियों में भरी हुई हैं- उनका नाटकीय व्यक्तित्व, उनकी चमकदार भेदने वाली निगाह, उनकी भव्य स्टाइल, जो भव्य होने के साथ, भरपूर था, एकाग्रता से भरपूर था, जिसमें विरक्ति की झलक भी थी और विस्मय का रस भी था, जिसमें यादों के पल आते रहते थे. अब यह सब बहुत पहले की बात लगती है. कनॉट प्लस के हवादार बरामदे से गुनगुनाते हुए (जिसका निर्माण इस मकसद से किया गया था कि ब्रिटिश राज की महानता का डंका बजाय जा सके) जीजी का विशाल व्यक्तित्व क्वींस वे पर इम्पेरियल होटल में घुसता, ताड़ के पेड़ों के भव्य बगीचे से होते हुए वह उस पोर्च तक जाती थीं जो लम्बे लम्बे गलियारों की तरफ जाती थी जहाँ कमरे और प्रांगण बने हुए थे. वह बहुत धीरे से बताती थीं कि यह उनका और जिन्ना का प्रिय होटल था. सबसे प्रसिद्ध रेस्तरां टैवर्न, दिल्ली का एक ऐतिहासिक रेस्तरां जहाँ लाइव बैंड भी था, हलकी रौशनी में बैंड बजता रहता था और शानदार सजावट के बीच बहुत अच्छा खाना और पीना. यहाँ लड़के-लड़कियां सुबह तक एक दूसरे का हाथ पकड़कर नाचते-गाते रहते थे, जो उन दिनों बड़े साहस की बात मानी जाती थी. फिर लैबोहम और विन्गर्स था- जो जीजी की एक और पसंदीदा जगह थी- ये सब उनके शहर के सामाजिक जीवन का हिस्सा था, इसके अलावा सामाजिक मेलजोल घरेलू कामों से भी उनका वास्ता था. मानवीय सीमांतों का धूपछांही चित्रण इतने स्वाभाविक ढंग से किया गया है कि यह पुराने दौर की सुसज्जित गोधुली की तरह लगती है जहाँ बहुत आकर्षक बातचीत, उत्कृष्ट कविता तथा दिल को छूने वाला संगीत तथा ऐसी तहजीब जिसमें कहीं कोई जल्दबाजी नहीं रहती थी. वेन्गर्स का डाइनिंग हॉल पहली मंजिल पर था और वहां का बैंडमास्टर जीजी के आग्रह पर बड़ी उदारता से उनकी पसंद के सदाबहार गाने बजाता था- ‘माई शूज कीप वाकिंग बैक टू मी’ और ‘नाऊ और नेवर, कम होल्ड मी टाईट, फॉर टुमारो में बी टू लेट’, ये गीत इस कदर महसूस होने लायक हैं कि कोई यह कल्पना कर सकता है कि इन धुनों पर कृष्णा जी डांस कर रही हों, उन्होंने बॉलरूम डांसिंग एक स्विस महिला से सीखी थी जो शंकर मार्किट में सिखाती थीं, वह अक्सर मुझे बताती थीं. इसी तरह वह यह भी सुनाती थीं कि किस तरह उन्होंने युनेस्को के एक कोर्स में दाखिला लिया था जहाँ सार्वजनिक अभिभाषण और सम्प्रेषण सिखाया जाता था- ताकि वे बातचीत के दौरान किस तरह से कहाँ रुका जाये और कहाँ क्या कहा जाए, किस तरह से हावभाव व्यक्त किये जाएँ ताकि सहज बातचीत हो सके. जैसा कि वह मजाक में कहती थीं- ‘मेरे पास बस एक जोड़ी जूता है जो इतना सही है कि सही तरह से चलने में मेरी मदद करता है और सीधा तनकर खड़े रहने में.’ इसके अलावा मैं जीजी के साथ बड़े बड़े खम्भों वाले दुकानों के इलाके सिंधिया हाउस जाती थी, जहाँ ऊपर की मंजिल पर रहने के लिए घर बने हुए थे जबकि नीचे कूक एंड केविन, गिरधारीलाल एंड कांजीमल जैसे व्यापारियों की दुकानें थीं, जो पारिवारिक गहनों के विश्वसनीय नाम थे, होने वाली दुल्हनों के लिए बेहतरीन कपड़ों के लिए एक ऐसी दुकान थी हरनारायण गोपीनाथ, अचार और बोतलबन्दों का स्वाद हमें जिनकी दुकानों की तरफ खींच ले जाता था, ओरिएण्टल फ्रूट मार्ट में हम एवोकैडो, ऐस्परैगस और बुल्स आई खरीदने जाते थे, रीगल बिल्डिंग में वैश ब्रदर्स, तथा लोकनाथ टेलर्स, स्नोव्हाईट ड्राईक्लीनर्स, पंडित ब्रदर्स, गोदिंस ओर्गंस एंड पियानोज, फोटोग्राफर्स किन्सले ब्रदर्स, महत्ता, और बेहद ही प्रसिद्ध रंगून स्टूडियो, एम. आर. स्टोर्स, एम्पायर स्टोर्स, चाइनीज आर्ट पैलेस, गेलॉर्ड्स और क्वालिटी. जीजी की रोजमर्रा की जिंदगी और उसका नामा इसी सबके दरम्यान गुजरता था- जिसमें यादों की खुशबू रची बसी होती थी- मक्खन के टुकड़े की भीनी खुसबू लेते, ओवन से निकाले गए मफीन की खुशबू, गूंजते आलाप के बीच वह सामने के काउंटर से ब्राउन ब्रेड का एक टुकड़ा खरीद ले लेती थीं, फिरोजशाह रोड से टेलीग्राफ लेन के बीच तेजी से चलते हुए, किसी दोपहर उग्रसेन की बावली के दीदार के लिए चल दिए, ईस्टर्न कोर्ट जाकर एक टेलीग्राफ करना. जब सर्दियों का अँधेरा फैलेगा तब हम उनकी छोटी छोटी कद्रों को याद करेंगे- एक केक, एक हग, बातचीत करने के लिए बुलावा, और एक एक गुलाब. लाखों छोटी छोटी बातों को मिलाकर जीजी की दिल्ली की असाधारण सुन्दरता का रहस्यलोक खड़ा होता था. कृष्णा जी मेरे लिए ऐतिहासिक सवेरे की तरह थीं- वह कहानियों और किरदारों का छिपा हुआ खजाना थीं, ऐसे नाम जो सदियों में गूंजते महसूस होते थे. उनकी कहानियों में सोने की महीन रेखा जैसी रहती थी. जब वह मुझसे बात करती थीं और धीरे धीरे आने वाले सालों के दौरान मेरे लिए यह ऐसा हो गया था कि मैं उनका हाथ उठाकर उसको ज़री में बन दूँ जो अपने आप में इतिहास जैसा महसूस होता था. एक के बाद दूसरी घटना- जीजी को यह याद आती थी कि लोगों का हुजूम संसद की तरफ बढ़ा जा रहा था और वह आधी रात में आयोजित सत्र में आगंतुक दीर्घा में बैठी थीं, और नेहरु के ‘ट्रिस्ट ऑफ़ डेस्टिनी’ वाले भाषण को सुनकर वह कितनी भावुक हो गई थीं. उनको यह भी याद था उन्होंने नेहरु को राजकाज सँभालते हुए देखा था, 15 अगस्त को संसद भवन के बाहर गोल बारामदे पर दोनों सरकारों ने अपनी अपनी बैठने की जगह बदल ली थी. उन्होंने राष्ट्रपति भवन में आयोजित माउन्टबेटन के विदाई समारोह को भी देखा था. लार्ड माउंटबेटन ने गार्ड ऑफ़ ऑनर का निरीक्षण किया और उसके बाद एक बग्घी में बैठकर वहां से विदा हो गए. सीढियों पर खड़ी होकर कृष्णा जी ने बग्घी को टीले तक जाते हुए देखा और वहां बग्घी कुछ देर के लिए रुकी रही और वहां सिर्फ बग्घी दिखाई दे रही थी न कि घोड़े. सुनने में यह आया कि एक घोड़ा परेशानी खड़ी कर रहा था और उसको बदल दिया गया था. कृष्णाजी खुद घोड़े की सवारी में दक्ष थीं खुद इस बात को अच्छी तरह समझ नहीं पाई कि आखिरी वायसराय इस तरह से बिना किसी जश्न के एक जोड़े कम घोड़े के साथ विदा हुआ.

और उन्होंने इसका खूब आनंद उठाया. सनसनी और रोमांच उनके लिखे पन्नों से उभरता है- मित्रो मरजानी, जिंदगीनामा, दिल-ओ-दानिश और गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान तक, इन सभी किताबों के पन्नों में एक दुनिया की प्रदक्षिणा है. उनकी मेहनत और संयम ने उनके लेखन को बेहद उर्जपूर्ण बनाया और उनकी फड़कती हुई भाषा, उसका चहकता हुआ सोबतीपन. उनकी रचनाओं में साहस के साथ मूर्तिभंजन था जो कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था, उनके सोच की विदग्धता और लहजा, सुक्तिपूर्ण और सूत्रात्मक लहजा उनके लेखन की ऐसी शक्ति है जिसकी प्रशंसा उनके दुश्मन भी करते हैं. उनकी कहानी ऐ लड़की- जो बार बार याद आने वाली कहानी है और फिर भी बहुत सुन्दर है- यह कहानी ऐसी है जैसे काँटों से शहद को चाटना. उनका दिमाग असाधारण रूप से शक्तिशाली था- वह सुकरात का दिमाग था- वह बहुत सूक्ष्म रूप से विश्लेषण करता था और इस हद तक फोटोग्राफिक था कि यकीन नहीं होता था. उन्होंने हर ऐसे लेखक को पढ़ रखा था जो पढने के लायक था- बुआ-भतीजी गुलाबी जाड़े में या ढलती शाम में खूब सारा खाने पीने का सामन लेकर बैठती थीं. उनको खाते हुए दिल्ली का आखिरी मुशायरा, आजादी की छाँव में, हेवेन उनके पसंदीदा थे, सिस्टरहुड शक्तिशाली है, कॉफ़ी, चाय और मैं, राइनर मारिया रिल्के, हम इनके बारे में बातें करते और अर्थ को समझने की कोशिश.

बुआ तो कोई भी हो सकती हैं- लेकिन कृष्णा सोबती कोई कोई होती हैं. समय ने हमें बहुत अच्छे तरीके से यह समझा दिया है कि असल में क्या मायने रखता है- जीजी मेरा हाथ तो कुछ पल के लिए थामती थीं लेकिन उन्होंने जीवन भर के लिए मेरा दिल थाम लिया. उन्होंने जो विरासत पीछे छोड़ी है मैं उसके ऊपर गर्व करती हूँ- वह मुझे बीबा बुलाती थीं और उनका मन्त्र आज भी गूंजता है- सोबती लड़कियां नेअमत होती हैं. वह अब मुझसे अपने शब्दों की उष्मा से बात करती हैं(ज़िन्दगी न औकात की, न कलम की, न लेखन की- जिन्दी बस खुद की खुद बदलती चली गई), अब वह मुझसे दिल की चुप्पियों में बात करती हैं, उनका गहरा प्यार जिसको कभी मापा नहीं जा सका, जिन्होंने ऐसी धडकनें दी जिनको सुना नहीं बल्कि महसूस किया जा सकता है. जीजी जैसी बुआ अपने जैसी ही होती हैं- जीवन के धागे की ज़रदोज़ी. उन्होंने दुनिया को अपने लेखन के माध्यम से दिया, अपनी कृतियों के माध्यम से उसके खोये हुए दिल का एक टुकड़ा. जैसा कि वह सदा कहती थीं कि किताबें पढने से दुनिया बदल जाती है- इसी तरह लेखन भी बदल देती है. यह जीवन को इस तरह से महसूस होता है जैसे सूरज की राहत भरी रौशनी में खड़े होना.

यह उन गुलाबों की खुशबू है जो समय के गलियारे से झोंके तरह महसूस हो रही है जो मुझे अतीत की सुखद यादों को याद करने जैसा है.

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सुधा उपाध्याय की कविताएँ

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आज कुछ कविताएँ सुधा उपाध्याय की। सुधा जी को हाल में ही अपनी कविताओं के लिए शीला सिद्धांतकर सम्मान मिला है। वह दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं और मुखर स्त्रीवादी कवयित्री हैं। उनको जानकी पुल परिवार की शुभकामनाएँ- मॉडरेटर
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1
वो पूछ रहे हैं,
आप ने अपनी कलम में
स्याही किससे पूछकर भरी?
हिम्मत कैसे हुई
बिना रज़ामंदी के कुछ बोलने की?
अरे !! लगातार धमकियों के बाद भी
तुम सिर उठा रहे हो?
उन्होंने बनाया एक रोड़मैप
चिन्हित किया हमारे आपके घरों को
बनाई एक भीड़ की फौज और छोड़ दिया
पनेसर, कुलबुर्गी, अख़लाक होने तक।
अब मालदा हिंसा के बाद
वो फिर से पूछ रहे हैं हमसे
अब क्यों नहीं बोल रहे हो तुम?
दरअसल वो पूछ नहीं बता रहे हैं देश को
फिर से जुटा रहे हैं अलग तरह की भीड़
कर रहे हैं मंदिर के लिए सेमिनार
धार चढ़ा रहे हैं धर्म की तलवार पर
किसी भी सूरत में अब वो
नहीं गंवाना चाहते चुनाव दंगल।
 
 
2 बड़े बड़े मॉल और शॉपिंग काम्प्लेक्स के आगे
 
साहस किया किसी ने गुमटी खोलने की
लोक को गुमटी अपनी सी लगी
 
भीड़ तो बढ़नी ही थी
गुमटी को भी वैचारिक बल मिलने लगा
 
और बढ़ने लगा मॉल का अत्याचार
गुमटी पर रोजाना हमले बढ़ने लगे
 
दीवारें थोड़ी कमज़ोर थीं सो बुल्डोज़र चला दिया गया
सबसे कमज़ोर धड़ा ढहा
 
पर उसके ढहने पर भी गुमटी ने साहस नहीं छोड़ा
अंदर से और मज़बूत हुवी
 
लोक जो साथ था गुमटी के
अब हर गली मोहल्ले में गुमटियां तैयार होने लगीं
 
सांसत में थी जान मॉल हाउस की
अब लोक को भी समझ में आने लगी अपनी ताक़त और सत्ता का आभास
मॉल संस्कृति और शॉपिंग काम्प्लेक्स से गुमटी के ”अराजक” हो जाने की संज्ञा मिली
सूना है गुमटी गिराने के लिए हेलीकाप्टर बुलवाये जा रहे हैं
हाँ ठीक है। …
 
अराजक होना लोकतंत्र नहीं। …
 
पर अलोकतांत्रिक होना कहाँ का लोकतंत्र है
लोक ता तंत्र तोड़ कर मॉल ग्लोबल होना चाहते हैं। ……
 
कहिये आप में से कौन कौन गुमटी के साथ है ??
 
 
3. महागाथाएं जन्म देती हैं औरतें
 
मूसल’, जांत, चक्की और सिलबट्टे में
अपनी उम्र पीस पीस कर महीन करती औरतें
स्वयं लय ताल और सुर पैदा करती हैं
इनका श्रमशील जीवन
 
देश प्रांत राज्य से परे है
राष्ट्र के दायरों में भी नहीं बंधता है लोकसंगीत
हर उम्मीद को सजा देती हैं रसोई से कुएं तक
कोई भी मौसम महीना तीज त्यौहार भूलने नहीं देती हैं
कुदरती चमत्कार से नदियाँ पहाड़ जमीन जंगल
 
बसाने की कूबत रखती हैं औरतें
पीपल तुलसी मैया का चौरा
सजाती संवारती है समभाव से
उन्हें ही करनी है कई व्रत कई उपवास
 
सभी संकल्प इन्हीं के ठीकरे है
आसुओं से तैयार करती हैं पोखर तलैया
भीतर धीरज का पहाड़ ढोती हैं
गुणा भाग ना जानती हो भले
जोड़ घटा जानती हैं हिसाब भर
पनघट हो या मरघट चूड़ियाँ दरकाती चटकाती
पूरे कसबे को सजाती है औरतें
उबहन बन लटकती हैं कभी
पगहा बन बंधती है खूंटे से
व्यथा की अल्पना से रंगती हैं खेत खलिहान
लीपती है आसुओं से आँगन दुआर
स्वयं लय ताल और सुर पैदा करती हैं औरतें
 
 
4. मौन धर्मिता
 
ढूंढ रहा है वह इस वाचाल समय में
 
एक विनय शील विकल्प
भीतर कि छटपटाहट ज़िंदा रखता है कि
 
एकबारगी सबकुछ उगल देने कि
 
नहीं कोई जल्दी उसमें
एक वही सुनने में विश्वास रखता है
 
जबकि सब सुनाने पर तुले हैं
उसकी आंच की परख इसी धैर्य से होती है
 
सुनकर पचा जाता है बड़ी साधना से
उसकी मौनधर्मिता को अराजक, भ्रष्ट।
 
वाचाल समय का संरक्षक कतई ना माने
सुनने कि प्रक्रिया में कई अनकही बातों को
 
वह भीतर तक उतार लेता है
वह शब्द भर नहीं
 
उसके पीछे कि मंशा यहाँ तक कि
 
बहुत बोलने वालों कि पूरी रणनीति जानता है
सावधान हो जाईये
 
जब वह गौर से सुनता है
तो जान लीजिये भविष्य में वह
बहुत कुछ सुनाने कि ताक़त रखता है
 
 
 
5  वंचितों के सपने
 
विद्रोह की छाती पर अंकुरित होने लगे
अन्याय की धरती भी नहीं रोक सकी
नहीं रोक सकती पैदा होने से
इन सुलगते सपनों को
वादी खामोश है प्रतिवादी ताकतवर
कुंठित चुनौतियां फहरा रही हैं
विजय पताका बनकर
क्यों नहीं मान लेते
जब-जब होगा समर
मनुष्य ही हारेगा।
लड़ाई जारी रहेगी, मरेगी मानवता
भरपेट और भूखे की भेदक खाई और बढ़ेगी।
 
 
6 बोनसाई
 
तुमने आँगन से खोदकर
मुझे लगा दिया सुंदर गमले में
फिर सजा लिया घर के ड्राइंग रूम में
हर आने जाने वाला बड़ी हसरत से देखता है
और धीरे-धीरे मैं बोनसाई में तब्दील हो गई
 
मौसम ने करवट ली
मुझमें लगे फल फूल ने तुम्हें फिर डराया
अबकी तुमने उखाड़ फेंका घूरे पर
आओ देखकर जाओ
यहां मेरी जड़ें और फैल गईं हैं

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‘दि टीनएज डायरी ऑफ़ जहाँआरा’पुस्तक का एक अंश

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सुभद्रा सेनगुप्ता की किताब ‘दि टीनएज डायरी ऑफ़ जहाँआरा’ में मुग़लिया इतिहास के उस दौर को दर्ज किया गया है जब शाहजहाँ ने अपने पिता जहांगीर से बग़ावत कर दी थी और अपने परिवार के साथ दक्कन में रह रहे थे। शाहजहाँ की बेटी जहाँआरा के बारे में सब जानते हैं कि वह लेखिका थी। इसी बात को आधार बनाकर एक दिलचस्प किताब लिखी गई है। पुस्तक का प्रकाशन ‘स्पीकिंग टाइगर’ ने किया है। उसी किताब का एक अंश मेरे अनुवाद में- प्रभात रंजन

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वो दोपहर

मेरे भाई घुड़सवारी के लिए गए हुए हैं, और मैं औरंगज़ेब और उसके सवालों से ख़ुद को बचा पाने में कामयाब हो गई। लेकिन मैं इस बारे में सोच रही हूँ। किस वजह से नूरजहाँ का यक़ीन मेरे अब्बा से जाता रहा? अचानक उसने शहज़ादे शहरयार को शह देने का फ़ैसला क्यों किया? बड़ा अजीब चुनाव था।

मैं शहज़ादे शहरयार के बारे में सोच रही थी जो जहांगीर के चार बेटों में सबसे छोटे हैं। चूँकि उनकी अम्मा एक रखैल थीं और उनका कोई ख़ास दर्जा नहीं था इसलिए उनको अपने भाइयों जैसी इज़्ज़त नहीं बख़्शी गई। मज़े वे हमेशा से अजीब से लगते रहे हैं और दारा का भी यह मानना है। दारा को इस बात का यक़ीन है कि शहरयार दिमाग़ी तौर पर कुछ कमज़ोर है। वह बड़े अजीब तरीक़े से हँसते हैं, जैसे घोड़े हिनहिना रहे हों और शर्मिंदा करने वाले मौक़ों पर वे मुँह दबाकर हँसते हैं। मुझे हमेशा से यही लगता था कि दादा जहांगीर और नूरजहाँ दोनों को उनका मिज़ाज पसंद नहीं था।

आज मैं अपना काग़ज़, क़लम और दवात लेकर झरोखे में आ गई हूँ। मुझे यहाँ बैठकर लिखना बहुत अच्छा लगता है। चेहरे से टकराती हवा और बाग़ से दूर झील के काँपते पानी की चाँदी जैसी चमक मुझे अच्छी लगती है। एक समय था जब दादा जहांगीर को मांडू बेहद अच्छा लगता था।

खुशी के उन दिनों में वह और बादशाह बेगम परीयर के साथ मांडू में बारिश देखने आया करते थेझील के किनारे खुली हवा में खाना पीना होता था और साज़िंदे संगीत बजाते रहते थे। आजकल उनको कश्मीर जाना पसंद है। उनको पहाड़ पसंद हैं और वह कहते हैं कि साफ़ हवा में उनको अच्छा महसूस होता है और वे अधिक खुलकर साँस ले पाते हैं। मुझे लगता है कि अगर सम्भव रहा होता तो उन्होंने कश्मीर को ही राजधानी बना ली होती और गर्म तथा धूल भरे आगरा में कभी लौट कर नहीं आते।

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‘अवेंजर्स एंडगेम’फ़िल्म नहीं फिनौमिना है!

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फ़िल्म अवेंजर्स एंडगेम पर विमलेश शर्मा की टिप्पणी पढ़िए- मॉडरेटर

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हाँ तो Avengers Endgame की बात कर रहे हैं हम यहाँ जिसे देखना मेरे लिए काफ़ी Adventurous था… इसे देखने से  पहले इतनी हिदायतें दी गई कि मुझे याद नहीं कभी माँ होते हुए मैंने पुत्तर जी को उतनी दी होंगी ।हम भी हमारे इयर प्लग्स को लेकर आपातकालीन परिस्थितियों से निबटने को तैयार पर ॰॰॰

बेटे को बड़ा होते देखते हुए दो बातों को इस तरह जाना कि कॉमिक पढ़ने वाले बच्चे या तो मार्वल फ़ैन होते हैं या डी.सी(डिटेक्टिव कॉमिक्स) फ़ैन । दरअसल ये दोनों ही कॉमिक कंपनियाँ हैं जो जासूसी और रोमांच पैदा करने वाले कथानकों की सर्जना करते हैं ।इस हेतु वे अतिमानवीय किरदार /नायकों की सर्जना करते हैं ; जो बाल और नवयुवाओं को ख़ासा लुभाते हैं । यह यों मान और जान  लीजिए कि डिटेक्टिव यूनिवर्स के सुपरहीरो सुपरमैन,बेटमैन , एक्वामैन, वंडरवुमेन हैं तो मार्वल के नायक आयरन मैन, कैप्टन अमेरिका, थॉर, हल्क, ब्लैक पैंथर आदि …इत्यादि ।

मार्वल के सुपरहीरो की सर्जना लेखक स्टेन ली ने की है ; इन किरदारों को लेकर लिखे गए ये कॉमिक्स ख़ासा चर्चित रहे हैं …अभी भी हैं  । मेरी जैसी माँओं ने स्टेन ली के इन नायकों को खूब छिपाया है और सर पकड़ा है जब अलमारी , स्टडी टेबल,पुस्तकों पर जब -तब इन्हें प्रकट होते देखा है।

बहरहाल #Avengers_Endgame मार्वल स्टूडियो की 22 वीं सुपरहीरो फ़िल्म है; जिसकी शुरूआत Iron Man के साथ 2008 में होती है। इसके बाद की फ़िल्म -शृंखला में विभिन्न अतिमानवीय नायकों को सिनेपटल पर कहानी-दर-कहानी उतारा गया है । इनमें Hulk , Thor, Iron Man 2,Captain America, Guardians of the galaxies,Spider man , Avengers Infinity War लोकप्रिय रहीं । Avengers Endgame का इंतज़ार जिस बेसब्री से युवा होते बालक कर रहे थे ये उनके संरक्षक ही समझ सकते हैं और यों इन किरदारों और फ़िल्म के रोचक होने का अंदाज़ा भी सहज ही लगाया जा सकता है।

फ़िल्म पर बात करने से पहले इस शृंखला की पहली फ़िल्म और इस शृंखला की स्थापन कड़ी मार्वल के बारे में जानना ज़रूरी है । मार्वल का प्रारम्भ 1939 में टाइमली कॉमिक्स के रूप में हुआ , 1998 में इसी नाम से मार्वल एंटरटेनमेंट कंपनी का प्रारम्भ हुआ और 2005 में मार्वल स्टूडियो का प्रारम्भ हुआ । कंपनी ने मेरिल लिंच के साथ साथ कई अहम क़रार कर मार्वल स्टूडियो का प्रारम्भ किया ;जिनमें मार्वल के 10 कॉमिक पात्रों के अधिकार भी गिरवी रखना शामिल था । चकित करने वाली बात यहाँ यह है कि पहली फ़िल्म का किरदार आयरन मैन इन दस पात्रों में शामिल नहीं था लिहाज़ा मार्वल के सामने इस फ़िल्म के लिए धन जुटाना एक बड़ी समस्या रही। मार्वल के मालिकों ने अपनी संपत्ति गिरवी रख कर इस फ़िल्म के  लिए येन-केन-प्रकारेण धन जुटाया ।

आयरन मैन फ़िल्म के नायक राबर्ट डाउनी जूनियर के लिए भी यह फ़िल्म बहुत महत्त्वपूर्ण थी ; क्योंकि डाउनी उस समय जीवन के झंझावातों से जूझ रहे थे।डाउनी ड्रग्स और अन्य अनैतिक कृत्यों के चलते अवसाद में थे और जीवन की उठापठक को झेल रहे थे। यही कारण है कि इस फ़िल्म की सफलता मार्वल के साथ-साथ स्वयं आयरन मैन के लिए भी महत्त्वपूर्ण थी। सुखद रहा कि तमाम संघर्षों के बाद फ़िल्म आई और वह इस अपरिहार्य सफलता को स्टूडियो तक पहुँचाने में कामयाब रही।

कितना व्यापार और मुनाफ़ा हुआ इसके आँकड़े अन्तर्जाल पर मौजूद हैं पर इस सफलता के बाद डिज़्नी ने मार्वल का अधिग्रहण कर लिया। डिज्नी अमेरिका की मल्टीमेशनल मास मीडिया कंपनी है जिसके उत्पादनों से सिनेपटल और हम-आप भली-भाँति वाक़िफ़ है।

लब्बोलुआब और चेतावनी यह है कि Avengers Endgame यदि आप पूर्वपीठिका को जानकर देखने जाते हैं तो कुछ आसान हो जाती है ;नहीं तो सिरे जोड़ने में आप साथ बैठे साथी को परेशान कर उसके क्रोध का शिकार भी हो सकते हैं।

इस फ़िल्म में धरा को और विभिन्न ग्रहों को बचाने के प्रयास हैं ; कुछ बेहद ज़रूरी चिंताएँ हैं । ये चिंताएँ काल्पनिक प्रतिनायकों द्वारा रची गई हैं जिनमें थानोस Thanos प्रमुख है। Thanos को आलोचकों ने Necessary Evil ;अनिवार्य शत्रु  की संज्ञा दी है । थानोस आधी दुनिया और बसाहटों को सिर्फ़ इसलिए मिटा देना चाहता है कि संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा/ प्रतिद्वन्द्विता समाप्त हो । कि मानवीय संघर्ष समाप्त हो ;वह  दुनिया को अपने ही तरीक़े से चलाना चाहता है और अपने उत्तराधिकारी को जहां की मिल्कियत सौंपना चाहता है  ।इस साज़िश में उसकी चाहना में उसके साथ उसकी एक पूरी सेना है जो उसकी इस  नकारात्मक परियोजना पर काम भी  करती है ताकि प्रतिद्वंद्विता न हो।  वह वे  सारे अधिकार अपने हाथ में लेना चाहता है और दुनिया को अपने ही तरीक़े से चलाना चाहता है; इस साज़िश में उसकी चाहना में उसके साथ उसकी एक पूरी सेना है जो इस नकारात्मक परियोजना पर उसके साथ काम करती है।दूसरी तरफ़ सच्चाई और अच्छाई की प्रतीक एवेंजर्स की टोली है जो इस दुनिया को बचाना चाहती है ;जो रिक्तियों को लेकर चिंतित है ;जो उस भरावन को लाना चाहती  है जो बीत चुकी है , जो मानवीय उपस्थितियों को हरा करना चाहती है और  जो ताबूतों पर अफ़सोस करती है।

फ़िल्म में अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् की ही तर्ज़ पर स्व से ऊपर उठने की बात कही गई है । Thanos और एवेंजर्स के बीच के संघर्ष के इस  कथानक में अनेक रोचक कथाएँ हैं ,बिछड़ने की त्रासदी है ; अमरत्व और चिरयुवा रहने की सहूलियत को त्याग देने का जज़्बा है , मानव के सकारात्मकता के चरम पर पहुँच कर ईश्वरीय शक्ति प्राप्त करने का हौंसला  ( थोर के हैमर प्रसंग)  है और सुकून देता यह वाक्य भी है कि “Iron man has a heart”; हालाँकि इन सभी सूत्रों की अपनी अंतर्कथाएँ हैं जो फ़िल्म को देखने पर ही समझी जा सकती है ।

फि़लवक्त इसकी रोचकता के संबद्ध में इतना ही कहना पर्याप्त  है कि आप अगर हिंदी सिनेमा और कलात्मक सिनेमा के दर्शक हैं और फिर भी अगर ज़बरन इस फ़िल्म को देखने जाएँ तो आप इसे पूरा देखने पर एक तसल्ली और रोमांच ज़रूर महसूस करेंगे। बाकि तो सिनेपटल स्वयं गवाही दे ही रहे हैं कि जोश कैसा है ।

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नमिता गोखले के उपन्यास ‘राग पहाड़ी’का एक अंश

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कुमाऊँ अंचल से मुझे प्यार है और यह जगाया है कुछ साहित्यिक कृतियों ने। उन कृतियों में हिंदी की तमाम कृतियों के अलावा अंग्रेज़ी के कुछ उपन्यासों का योगदान भी रहा है। जिनमें एक नाम नमिता गोखले के उपन्यास ‘दि हिमालयन लव स्टोरी’ का भी है। मुझे याद है मनोहर श्याम जोशी ने उसकी प्रति देते हुए मुझे कहा था कि अगर तुमको कसप पसंद है तो यह भी पसंद आएगा। ‘थिंग्स टू लीव बिहाइंड’ कुमाऊँ कथाओं में सबसे अलग है, अपनी विराटता में महाकाव्यात्मक। कथाओं, लोक कथाओं के साथ कुमाऊँ की जीवंत उपस्थिति है इस उपन्यास में। राजकमल प्रकाशन से इसका हिंदी अनुवाद आया है ‘राग पहाड़ी’ के नाम से, अनुवाद किया है जाने माने लेखक पुष्पेश पंत ने। कल यानी गुरुवार को इस किताब पर लेखिका नमिता गोखले और अनुवादक पुष्पेश जी के साथ आलोचक संजीव कुमार बातचीत करेंगे। फ़िलहाल आप इस उपन्यास का एक अंश पढ़ सकते हैं- मॉडरेटर

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दुर्गा की अनाथ बेटी तिलोत्तमा का पालन-पोषण उसके मामा देवीदत्त पंत और उनकी नि:संतान पत्नी सरूली ने किया। वह एक ख़ुशमिज़ाज बच्ची थी जो अपने कष्टों को कभी ज़ाहिर नहीं करती थी। उसके तीन बुजुर्ग रिश्तेदार उसका लालन-पालन स्नेह से करते थे। तिलोत्तमा की माँ ताल में डूबकर मरी थी, उसने अपने पिता को कभी नहीं देखा था। वकील मामा उसे कहानियाँ पढ़कर सुनाते थे और सरूली मामी अँधेरी रात में लोरियाँ गाकर सुलाती थी। सरूली की माँ उसके लिए मुलायम-मीठे मालपुए बनाती थी। दिन के समय यह बच्ची बड़ा बाजार वाले घर के गलियारों में घूमती रहती थी। अपनी माँ के उन चित्रों पर अँगुलियाँ फिराती जिनमें अनकही कहानियाँ थीं। जब ऊँचे पहाड़ों से नीचे उतर रेशम और मूँगा बेचने हूणियाँ आते तब बड़ी माँ सरूली उसके लिए रिबन और रंगीन किनारे वाले मफ़लर ख़रीद देती। दुर्गा के सोने के गहने हँसुली, गुलूबन्द और नथ तिलोत्तमा की शादी के लिए, सरूली की भारी पायजेब के साथ अलग रख दिए गए थे। दुर्गा की अनाथ लड़की अब छह साल की होने जा रही थी और उसके लिए योग्य वर की तलाश शुरू हो गई थी।

परिवार के पुरोहित ने लड़की की जन्मपत्री देखी तो तुडी-मुडी कुंडली को ध्यान से देखते हुए उन्होंने कहा, “इतने ज़ोरदार ग्रह, पारिवारिक सुख-शांति के लिए अच्छा लक्षण नहीं है।“ लग्न-विचार कर उन्होंने कहा, ”मैं सोचता हूँ इसकी समस्याओं का एकमात्र समाधान अश्वत्थ विवाह ही है ताकि मंगल दोष का निवारण हो सके। इसकी शादी एक जवान केले यी पीपल के पेड़ से करनी होगी फिर उसे ब्राह्मण वर से बेफ़िक्र होकर किया जा सकता है…।“

वकील साहब को गुस्सा आ गया। ”हम आधुनिक युग में जी रहे हैं। गोरे लोग रेलगाड़ियाँ बना रहे हैं जो सौ घोड़ों से तेज दौड़ती हैं। उन्होंने बिजली की बत्तियों का आविष्कार किया है जो दर्जनों चन्द्रमा की तरह चमकती हैं। समय आ गया है कि हम इस दकियानूसी से निजात पाएँ। मैं देवीदत्त वकील चार वेदों को जानने वाला ब्राह्मण पंडित आपसे यह कह रहा हूँ। मेरी बात याद रखें ज्योतिषी जी, आप अभागे कमजोर लोगों को ही मूर्ख बना सकते हैं।”

वे लोग बैठक में बैठे थे जहाँ फ़र्श पर गद्दे के ऊपर लट्ठे की चादर बिछी थी ज्योतिषी एक मसनद पर टिके थे। बात उन्हें अच्छी नहीं लगी पर उन्होंने कुछ कहा नहीं। अभी उन्हें अपनी दक्षिणा वसूल करनी थी। ग्रहदशा बता रही थी कि जन्म-कुंडली का दोष हटाने के लिए कुछ न कुछ उपाय करना होगा लेकिन यदि जजमान उनकी बात ना सुने तो वह भला क्या कर सकते थे?

उन्होंने कुछ विचारते हुए कहा, “एक रास्ता है। आप इसकी शादी को 13 वर्ष के लिए टाल दीजिए। जब तक वह 19 वर्ष की ना हो जाए। तब तक शनि की कुदृष्टि और मंगल दोष की अवधि समाप्त हो चुकी होगी।“

देवीदत जी ने उनकी बातें सुनीं पर कहा कुछ नहीं । ज्योतिषी जी को लग गया कि उनकी बातों का असर हो रहा है। उन्होंने कुंडली को फिर से फहराया, उस पर कुमकुम छिड़का और लपेटकर वकील साहब को लौटा दिया। अपनी दक्षिणा लेने के लिए किसी और दिन आना उन्होंने मन ही मन तय किया।

देवीदत्त पंत उन आधुनिक तरीकों को मानते थे जो अंग्रेज अपने साथ लाए थे। फिर भी भारत के ऊपर असन्तोष के काले बादल मँडरा रहे थे। अंग्रेज़ सारे भारत में टिड्डीदल की तरह फैल गए थे। ईस्ट इंडिया कंपनी बंगाल से बाहर निकल उत्तरी भारत के मैदानी इलाकों से होते हुए सिंध और पंजाब तक फैल चुकी थी। टौमी सिपाही, बॉक्स वाले सौदागर, मेम साहब और ईसाई मिशनरी सारे देश में फैल गए। उस देश में, जिसे इन फ़िरंगियों ने मुग़लों से छीन लिया था।

तिलोत्तमा के मृत पिता के छोटे भाई बद्रीदत्त उप्रेती गरम मिज़ाज और बाग़ी तेवरों वाले थे। वह काशीपुर में अपने परिवार और अपनी पत्नी के लम्बे-चौड़े कुटुम्ब दोनों के ही लिए परेशानी का सबब थे। लम्बे क़द के गोरे रंग और लम्बी नासिका वाले उप्रेती जी नाक सदा ऊँची रहती थी उनकी शादी मशहूर हर्षदेव जोशी की सबसे छोटी लड़की से हुई थी।

हर्षदेव जोशी कुमाऊँ की राजनीति के चाणक्य कहलाते थे। उन्होंने पहले चन्द राजाओं के ख़ात्में के लिए हमलावर गोरखों की मदद की थी और फ़िर उन्हें निकालने के लिए अंग्रेज़ विलियम फ्रेज़र को बुलावा दिया था।

बद्रीदत्त उप्रेती अकसर यह कहा करते, “हर्षदेव जोशी ने भले ही मेरी पत्नी को जन्म दिया, वह देशद्रोही और ख़ुदगर्ज इनसान थे।“ उनके श्रोता जुटते-घटते रहते थे जिनमें होनहार क्रान्तिकारी या सिर्फ़ कुतूहल के मारे होते। “मैं उन्हें गद्दार समझता हूँ विभिषण और जयचन्द जैसा।“ उनके यहाँ तक पहुँतचे उनकी पत्नी गरिमा के आँखों से आंसू फूट पड़ते और सुनने वालों को यह पता चल जाता कि अब बात किस तरफ़ मुड़ने वाली है।

“हम पहाड़ी स्वामीभक्ति को सबसे बड़ा गुण समझते हैं पर हमें अपनी कौम के प्रति स्वामीभक्ति होना चाहिए। मेरा कहना है कि रावण या पृथ्वीराज चौहान का साथ देना बेहतर है बनिस्बत उन विजेताओं के जो हमारी ज़मीनें हथिया लेते हैं और हमारा भविष्य बर्बाद कर देते हैं।“ उनकी आवाज़ नाटकीय ढंग से ऊँची होने लगती।

जब कभी बद्रीदत्त नैनीताल आते तो यही बातें बड़ा बाजार वाले घर में भी होतीं। तिलोत्तमा के मामा सरकारी वकील देवीदत्त पंत चुपचाप कमरे से निकल जाते अपने नाखूनों को निहारते। उन्होंने ज़िला जज मिस्टर वाइट डेविस को ऐसा करते देखा था और यह अदा उन्हें भा गई थी। देवीदत्त जी की वकालत बढ़िया चल रही थी और उन्हें कोई कारण नज़र नहीं आ रहा था कि वह इस तरह की ऊल-जुलूल बातों से उसे ख़तरे में डालें। फिरंगी चतुर और साहसी थे। वे संकट के वक़्त शान्त रहते थे और वे शासन करने योग्य थे। फिर वे किसी भी सवर्ण ब्राह्मण से ज़्यादा गोरे थे। देवीदत्त पंत निस्संकोच भाव से गोरों की सराहना करते थे, उन्हें लगता था वे निश्चय ही इस देश के भाग्य विधाता होने के अधिकारी हैं।

किन्तु बद्रीदत्त उप्रेती का गुस्सा और फिरंगी शासकों के प्रति आक्रोश हिन्दुस्तान के मैदानों में जगह-जगह गूँज रहा था। क्रांति की अफ़वाहें गरम लू की धूल के साथ फैल रही थीं। लोग फुसफुसा रहे थे कि अवध के नवाब वाज़िद अली शाह ने काली कुमाऊँ के राजा श्रीकालू महरा से मदद माँगी है। ठाकुर माधोसिंह फत्र्याल और ठाकुर खुशहाल सिंह जलाल अंग्रेज़ साहबों के प्रति वफ़ादार बने रहे। आनन्द सिंह फत्र्याल, बिशन सिंह करायत फ़िरंगियों के अन्याय के प्रति दबी ज़ुबान में शिकायत करने लगे थे। तिलोत्तमा के चाचा बद्रीदत्त उप्रेती बेहिचक बाग़ियों के साथ थे।

कुमाऊँ के कमिश्नर हैनरी रामजे सभी पहाड़ियों के लाड़ले थे। लोग उन्हें प्यार से रामजी कहते थे। मेजर रामजी ने कुमाऊँ को अपना दूसरा घर बना लिया था। जब भी कोई ऐसा आदेश ऊपर से आता जो रामजे की नज़र में पहाड़ियों के लिए नुकसानदेह होता है तो वह हाशिए पर लाल स्याही से यह लिखकर उसे ख़ारिज कर देते, “इसे कुमाऊँ में लागू नहीं किया जा सकता।“

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किताब – राग पहाड़ी

लेखक – नमिता गोखले

प्रकाशन – राजकमल प्रकाशन

विधा – उपन्यास / अनुवाद

कीमत पेपरबैक – 199/-

आईएसबीएन – 9789388753999

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राग पहाड़ी’ का देशकाल, कथा-संसार उन्नीसवीं सदी के मध्य से लेकर बीसवीं सदी से पहले का कुमाऊँ है। कहानी शुरू होती है लाल-काले कपड़े पहने ताल के चक्कर काटती छह रहस्यमय महिलाओं की छवि से जो किसी भयंकर दुर्भाग्य का पूर्वाभास कराती हैं। इन प्रेतात्माओं ने यह तय कर रखा है कि वह नैनीताल के पवित्र ताल को फिरंगी अंग्रेजों के प्रदूषण से मुक्त कराने की चेतावनी दे रही हैं। इसी नैनीताल में अनाथ तिलोत्तमा उप्रेती नामक बच्ची बड़ी हो रही है। जिसके चाचा को 1857 वाली आज़ादी की लड़ाई में एक बाग़ी के रूप में फाँसी पर लटका दिया गया था। कथानक तिलोत्तमा के परिवार के अन्य सदस्यों के साथ-साथ देशी-विदेशी पात्रों के इर्द-गिर्द भी घूमता है जिसमें अमेरिकी चित्रकार विलियम डैम्पस्टर भी शामिल है जो भारत की तलाश करने निकला है।

तिलोत्तमा गवाह है उस बदलाव की जो कभी दबे पाँव तो कभी अचानक नाटकीय ढंग से अल्मोड़ा समेत दुर्गम क़स्बों, छावनियों और बस्तियों को बदल रहा है, यानी एक तरह से पूरे भारत को प्रभावित कर रहा है। परम्परा और आधुनिकता का टकराव और इससे प्रभावित कभी लाचार तो कभी कर्मठ पात्रों की जि़न्दगियों का चित्रण बहुत मर्मस्पर्शी ढंग से इस उपन्यास में किया गया है जिसका स्वरूप ‘राग पहाड़ी’ के स्वरों जैसा है। चित्रकारी के रंग और संगीत के स्वर एक अद्भुत संसार की रचना करते हैं जहाँ मिथक-पौराणिक, ऐतिहासिक-वास्तविक और काल्पनिक तथा फंतासी में अन्तर करना असम्भव हो जाता है। यह कहानी है शाश्वत प्रेम की, मिलन और विछोह की, अदम्य जिजीविषा की।

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आप लेखक बनना चाहते हैं तो इस पर नज़र रखें

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दिल्ली में नेहरु प्लेस के पास जर्मन बुक ऑफ़िस है। जर्मनी और भारतीय पुस्तक व्यवसाय से जुड़े लोगों, संस्थाओं के साथ मिलकर पुस्तकों के विस्तार के लिए काम करती है। इसका एक बहुत अच्छा कार्यक्रम है jumpstart। जिसके तहत यह संस्था बच्चों और वयस्कों के लिए किताब तैयार करवाने की दिशा में मदद देने का काम करती है। समय समय पर वर्कशॉप का आयोजन करती है। जिनमें अपने अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ सम्भावित लेखकों को टिप्स देते हैं। उदाहरण के लिए बाल साहित्य पर आयोजित वर्कशॉप के मेंटर थे जाने माने लेखक ज़ेरी पिंटो। मुझे समय पर पता चला होता तो मैं भी ज़रूर जाता। मैं भी बच्चों के लिए लिखना चाहता हूँ लेकिन यह नहीं समझ आता है कि क्या लिखूँ जो आजकल के बच्चों के अनुकूल हो। इसी तरह एक वर्कशॉप हिंदी कहानी लेखन पर अनु सिंह चौधरी ने आयोजित किया। अनु सिंह हिंदी के उन कुछ गिने चुने पेशेवरों में हैं जो अपने काम को बहुत अच्छी तरह अंजाम देती हैं। निश्चित ही सम्भावित लेखकों को इससे काफ़ी कुछ सीखने को मिला होगा। हाल में ही एक अलग तरह का वर्कशॉप jumpstart में आयोजित हुआ जो किताबों के प्रोमोशन को लेकर था। केवल किताब लिखना ही नहीं किस तरह उसको प्रकाशन के लिए संपर्क किया जाए, किस तरह प्रचार प्रसार पर ध्यान दिया जाए। इसमें मेंटर थे जाने माने अनुवादक, लेखक अरुणावा सिन्हा। ब्लूम्सबरी की मीनाक्षी और पेंगुइन बुक्स की मिली ऐश्वर्या विशेषज्ञ के रूप में मौजूद थीं। मुझे यह देखकर अच्छा लगा कि हर उम्र, हर पेशे के लोग वर्कशॉप में मौजूद थे और हर तरह से उनकी जिज्ञासाओं को शांत किया जा रहा था। एक बुज़ुर्ग महिला भी थीं जिन्होंने अस्सी साल की उम्र के बाद लिखना शुरू किया था।

अगर आप लेखक हैं या लेखक बनने की तमन्ना रखते हैं तो jumpstart की वेबसाइट पर नज़र रखें। बहुत अच्छा अनुभव रहेगा।

प्रभात रंजन

http://app.junpstartfest.com/

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‘ऐवेंजर्स एंडगेम’एक पल हँसाती है दूसरे पल भावुक कर जाती है

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फ़िल्म ‘ऐवेंजर्स एंडगेम’ पर फ़िल्म समीक्षक सैयद एस॰ तौहीद की टिप्पणी पढ़िए- मॉडरेटर
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लंबे इंतजार के बाद भारत में ‘एवेंजर्स इंडगेम’ रिलीज हो चुकी है । हिंदी अंग्रेजी के अलावा तमिल और तेलुगू में भी रिलीज हुई है। फिल्म का इंतजार इसलिए भी था क्योंकि ये एवेंजर्स सीरिज की सबसे उत्सुकता जगाने वाली फ़िल्म है। फिल्म के क्लाइमैक्स सीक्वेंस हमें झकझोर कर रख देता है। एक्शन एवं भावनाओं का सामंजस्य एवेंजर्स की ताकत रही है । इस बार भी फ्रेंचाइजी ने दर्शकों की नब्ज को पकड़ते हुए जबरदस्त फ़िल्म बनाई है। एवेंजर्स सीरीज की सबसे रोमांचक फिल्म बनाई है। ऐवेंजर्स एंडगेम के सभी किरदारों ने बेहतरीन अभिनय किया है। रॉबर्ट डाउनी का किरदार ‘टोनी स्टार्क’ लेकिन हमारा पर्सनल फेवरिट होगा ।
ऐवेंजर्स एंडगेम एक ही समय में हमें हंसाती और दूसरे ही पल भावुक कर जाती है। कहना होगा कि सीरीज़ की सबसे भावुक फ़िल्म निकलकर आती है।  पुरानी यादों को ताजा करना उससे ताल्लुक जोड़ लेना इसकी बड़ी ताक़त है। एक अविस्मरणीय नॉस्टेल्जिया। बहुत समय के बाद तीन घंटे की फ़िल्म देखते हुए वक्त का एहसास ही नहीं होता । फ़िल्म कुछ ऐसा ही इंगेजिंगअनुभव निर्मित करती है। हम लगभग उसमे डूब से जाते हैं। एवेंजर्स  पिछले नोस्टाल्जिया को कुछ यूं बुनती है। तरोताज़ा हो जाती हैं। एवेंजर्स एंडगेम को अतीत के साथ खूबसूरती से जोड़ा गया है। सुपर हीरोज की इस फ़िल्म में वैश्विक अपील है। इनके अद्भुत-अनोखी शक्तियों ने समय-समय पर सृष्टि को बचाया है। इनका रोचक संसार सदा से आकर्षित करता रहा है। इस बार भी फ्रेंचाइजी वही करती है। एक लगाव लेकर जाने पर फिल्म में बहुत आनंद आता है। फिल्म  ज़्यादा समझ में आती है। इंडगेम के साथ असीम लगाव फ़िल्म की उपयोगिता बढ़ा जाता है। फ़िल्म की रिकॉर्ड कमाई सारे रिकॉर्ड्स ध्वस्त कर जाएगी संभव लगता है।
कहानी वहीं से शुरू होती है जहां पिछली बार ऐवेंजर्स इन्फिनिटी वॉर खत्म हुई थी। थेनोस ने सभी इन्फिनिटी स्टोन हासिल करने के बाद दुनिया के वजूद को खतरे में डाल दिया है।  मार्वल फैन की मुस्कुराहट भी छीन ली है। टोनी स्टार्क स्पेस में नेब्यूला के साथ अकेले हैं। सभी सुपरहीरोज थेनोस से बदला लेना चाहते हैं। सुपर हीरोज की पूरी टीम यहां एक साथ है । दरअसल क्वांटम थियरी के जरिए यदि वो अतीत में जाकर थैनोस से पहले उन मणियों को प्राप्त कर लें, तो इन्फिनिटी जंग से बचा जा सकता है।  खोए अपनों को वापस लाया जा सकता है। विभिन्न परिस्थियों से गुजरकर टीम मणियों को प्राप्त करनें में सफल हो जाती है । आइरन मैन (रॉबर्ट डाउनी) कैप्टन अमेरिका (क्रिस इवांस), थॉर (क्रिस हैम्सवर्थ), हल्क (मार्क रफैलो), ब्लैक विडो (स्कारलेट जोहानसन), जेरेमी रेनर, ऐंट मैन (पॉल रड) कैप्टन मार्वल (ब्री लार्सन) …की टीम थैनोस से इंगेजिंग बदला लेती  है। अवेंजर्स एंडगेम को आज के दौर की सबसे रोचक फिल्म कहना गलत नहीं होगा । बुराई के ऊपर अच्छाई की जीत वाली शाश्वत अपील लिए हुई यह फ़िल्म बहुत गहराई लिए हुए है। इसी वजह से इसका रिपीट मूल्य ज़्यादा है। एक बार नहीं बार बार देखी जानी चाहिए।  आप एवेंजर्स का कोई भी प्रशंसक फ़िल्म मिस नहीं करेगा। यही नहीं आम दर्शक भी इससे अभिभूत हुए बिना नहीं रह सकता। महंगी टिकट होने के बाद भी सिनेमाघरों की भीड़ तो कम से कम यही कहती है।

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टैगोर: ‘वह कवि जब तक जिया, उसने प्रेम किया’

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आज रबीन्द्रनाथ टैगोर की जयंती पर सुपरिचित कवयित्री, प्रतिभाशाली लेखिका रश्मि भारद्वाज का लेख पढ़िए। पहले यह लेख ‘दैनिक भास्कर’ में प्रकाशित हो चुका है। वहाँ से साभार पढ़िए- मॉडरेटर

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 ‘मैंने अपने जीवन में चाहे और जो कुछ भी किया हो, एक लंबी ज़िंदगी जी लेने के बाद आज मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूँ कि मैं सिर्फ़ एक कवि ही हूँ, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं’।

रवींद्रनाथ टैगोर ने 1861 के जिस बंगाल में अपनी आँखें खोलीं वह उस समय राजा राम मोहन राय और बंकिम चंद्र जैसे दिगज्जों के नेतृत्व में एक व्यापक सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक और राजनैतिक चेतना के दौर से गुज़र रहा था और इसका गहरा असर उनके जीवन और व्यक्तित्व पर पड़ा और ताउम्र बना रहा।

बंगाल के एक सम्पन्न, सुसंस्कृत परिवार में जन्में रवींद्र का बचपन बहुत अकेलेपन और नौकरों की कड़ी देखरेख के बीच गुजरा। बालक रवींद्र को नौकर एक घेरे के अंदर खड़ा कर देते और वह भय से उसके अंदर ही घंटों खड़े रहते, और पास की खिड़की से दिखती बाहर की दुनिया की आधी अधूरी झलक लेकर अपना कल्पना लोक बुनते। पारंपरिक जमींदार परिवार के नियमों में बंधी माँ को भी वह कभी कभार ही देख पाते, आध्यात्मिक रुचि रखने वाले पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ अक्सर हिमालय प्रवास पर ही रहते। अपने भाई-बहनों में सबसे छोटे रवींद्र के लिए स्कूली शिक्षा भी एक सजा की तरह ही थी। अपने कटु अनुभवों को याद करते हुए उन्होंने बाद में लिखा ‘जब मैं स्कूल भेजा गया तो, मैने महसूस किया कि मेरी अपनी दुनिया मेरे सामने से हटा दी गर्इ है। उसकी जगह लकड़ी के बेंच तथा सीधी दीवारें मुझे अपनी अंधी आँखों से घूर रही है।’ शिक्षा को सख्त और पारंपरिक नियमों के दायरे से निकालने के लिए उन्होंने 1901 में बोलपुर के पास ब्रह्मचर्य आश्रम के नाम से एक विद्यालय की स्थापना की, जिसे बाद में शान्तिनिकेतन के नाम से पुकारा गया। एक ऐसा स्कूल जहां साहित्य, कला, विज्ञान, संगीत हर विषय पढ़ाया जाता था लेकिन जहां पेड़ की छाया में भी कक्षाएं लग जातीं थीं और अनुशासन के नाम पर विधार्थियों को पिंजड़े में क़ैद नहीं किया जाता था।

 रवींद्रनाथ ने बहुत जल्दी औपचारिक स्कूली शिक्षा से नाता तोड़ लिया और घर में ही कला, संगीत, विज्ञान आदि की शिक्षा निजी अध्यापकों से लेनी शुरू की। उन्हीं दिनों एक अध्याय रटते वह एक पंक्ति पर अटक गए। यह पंक्ति उन्हें सूचनाओं के बोझिल संसार से बाहर निकालकर अपनी उन्हीं कल्पनाओं की दुनिया में ले गयी जहां विचरना उन्हें सबसे प्रिय था। वह पंक्ति थी- ‘बारिश में कांपते पत्ते।‘ यह उनके लिए साहित्य की दुनिया का दरवाज़ा खुलने जैसा था । बाद में पिता देवेन्द्र्नाथ और अपने से बारह वर्ष बड़े भाई ज्योतिरिंद्रनाथ के सानिध्य में उन्होंने कला और साहित्य की दुनिया को बहुत करीब से जाना और ख़ुद भी कविताएँ लिखने लगे। ज्योतिरिंद्रनाथ की पत्नी कादंबरी देवी किशोर रवीन्द्रनाथ के एकाकी जीवन की पहली सखा के रूप में आई जो उनकी कविताएं सुनती और उसकी आलोचना भी करतीं। वह ख़ुद भी साहित्य रसिक थीं। माँ को छोटी उम्र में खो चुके रवींद्र को हमउम्र कादंबरी ने स्त्री के सुंदर, स्नेहिल संसार से परिचित कराया जो उनके लिए अब तक अबूझ था।

उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से वह 1878 में इंग्लैंड गये। वहाँ भी कुछ ही दिन तक बाइटन स्कूल में रह पाए और अंतत: भारत लौट आये। 1881 में फिर कानून की पढ़ार्इ के विचार से इंग्लैंड गए पर उनका जहाज मद्रास ही पहुंचा था कि किन्ही अज्ञात कारणों से अचानक उन्होंने अपना विचार बदल लिया और सीधा मसूरी पहुँच गए। उन दिनों उनके पिता वहीं रह रहे थे। उन्होंने पिता से भारत में ही रहने की इच्छा प्रकट की जो उनके उदार पिता ने सहर्ष दे भी दी। बक़ौल रवींद्रनाथ, पंद्रह से तेईस की उम्र उन्होंने बहुत ही अव्यवस्थित और दिशाहीन ढंग से बिताई। विदेश में उन्होंने कोई डिग्री तो प्राप्त नही की, पर उन्हें पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करने का अवसर मिला। दोनों ही संस्कृतियों का सर्वश्रेष्ठ तत्व उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बन गया। इंग्लैंड से लौटकर उन्होंने ख़ुद को पूरी तरह से लेखन के लिए समर्पित कर दिया। उन्हें अपने जीवन की दिशा मिल चुकी थी। विदेश में ही उन्होंने अपनी पहली काव्य नाटिका ‘भग्न हृदय’ लिखना शुरू किया था जिसे भारत आकर पूरा किया।

1883 में भवतरिणी राय चौधरी से विवाह के समय वह ‘नलिनी’ लिख रहे थे और उसी के तर्ज़ पर उन्होंने बालिका वधू भवतारिणी का नाम बदल कर मृणालिनी रख दिया। यह नाटक परिवार के सदस्य ही मिलकर प्रस्तुत करने वाले थे लेकिन इससे पहले कि यह नाटक पूरा हो पाता, पूरे परिवार को एक गहर सदमा पहुंचा। कादंबरी देवी की आत्महत्या ने रवीन्द्रनाथ को बहुत मानसिक आघात और पीड़ा पहुंचाई। माँ की मौत के बाद किसी अपने की मौत से यह उनका पहला परिचय था। बांग्ला लेखक अमिय चक्रवर्ती को लिखे अपने पत्र में उन्होंने अपनी उस अवस्था का ज़िक्र किया है, ‘उसकी मृत्यु के बाद मुझे ऐसा लगा कि मेरे पैरों के नीचे ज़मीन नहीं बची और आकाश की रोशनी बुझ चुकी है। मेरी दुनिया वीरान और गयी और जीवन बोझिल। मैं नहीं जानता था कि मैं कभी भी इस खालीपन से उबर पाऊँगा या नहीं। लेकिन इस असीम दुख ने पहली बार मुझे सही अर्थों में मुक्त भी किया। मुझे समझ आया कि जीवन का सच जान पाने के लिए उसे मौत की खिड़की से देखना होगा’।

रवीन्द्रनाथ को परिवार का सुख भी बहुत कम दिनों के लिए मिला और और उनकी पत्नी मृणालिनी और तीन बच्चों को भी मौत ने उनसे दूर कर दिया। एक पुत्र रथिंद्रनाथ और पुत्री मीरा ही परिवार के नाम पर बचे रह गए। मीरा की नगेन्द्रनाथ गांगुली से हुई शादी टिक नहीं पायी। रवीन्द्रनाथ ने मीरा को कभी भी अपने पति के पास वापस लौटने का दबाव नहीं दिया और शांतिनिकेतन में रहकर अपनी शिक्षा पूरी करने का सुझाव दिया। मीरा को लिखा उनका ख़त स्त्री के लिए उनकी उदार और समान सोच को दिखाता है। वह लिखते हैं, ‘तुम्हें अपने सही और गलत का निर्णय ख़ुद करना होगा। मुझे विश्वास है कि तुम दूसरों के कहने की परवाह किए बिना अपने आदर्शों के साथ आगे बढ़ती रहोगी’।

सक्रिय राजनीति में कभी भी विशेष रुचि नहीं होने के बाद भी बंगाल विभाजन का अन्याय वह झेल नहीं सके और कोलकाता की गलियों में एकता, स्वतन्त्रता और बंधुत्व का गीत गाते घूमने लगे। विभाजन के विरुद्ध चल रहे स्वदेशी आंदोलन का नेतृत्व किया और अंग्रेजों को यह विभाजन रद्द करना पड़ा।

1913 में अपने द्वारा अंग्रेज़ी में अनुदित गीतांजलि के लिए साहित्य का विश्वप्रसिद्ध नोबेल पुरस्कार पाने वाले वह एशिया के प्रथम कवि बने। वह अपने अंग्रेज़ी कवि-मित्र यीट्स से उसका पाठ सुनते और उनकी अंग्रेज़ी पर मुग्ध होते । उन्हें हमेशा अपने अंग्रेज़ी ज्ञान पर संशय रहा जबकि यीट्स उसे बेहतरीन मानते रहे।

जालियाँवाला बाग में अंग्रेजी सरकार द्वारा की गयी निर्ममता से आहत कवि ने अपनी  ‘नाइटहुड’ की उपाधि लौटा दी। वैचारिक असहमतियों के बाद भी गांधी उन्हें बहुत प्रिय थे। टैगोर मानवतावादी थे जबकि महात्मा गांधी के लिए राष्ट्र सर्वोपरि था। टैगोर के लिए गांधी ’महात्मा’ थे तो गांधी जी ने उन्हें ‘गुरुदेव’ बुलाया करते।

1941 में अपनी मृत्यु से पहले रवीन्द्रनाथ एक साहित्यकार, शिक्षाविद, समाजसेवी, और संगीतकार के रूप में दुनिया भर में प्रसिद्ध हो चुके थे लेकिन उनके हृदय में एक ही इच्छा आख़िरी दम तक बनी रही जिसे उन्होंने अपनी इस कविता में अभिव्यक्त किया है –‘ जब मैं इस धरती पर ना रहूँ, मेरे पेड़, तुम अपनी बसंत की ताज़ा उगी पत्तियों से कहना कि वह यहाँ से गुजरते हर यात्री के कानों में हौले से कहे, वह कवि जब तक जिया उसने प्रेम किया’।

*पूरी दुनिया को अपना घर मानने वाले कवि रवीन्द्रनाथ एकमात्र ऐसे लेखक हैं जिनका लिखे गीत दो देशों के राष्ट्रगान है। भारत का जन गण मन और बांग्लादेश का आमार सोनार बांग्ला।

*जीवन के साठवें दशक में उनका रुझान चित्रकला की ओर हुआ जो उनके लेखन का ही विस्तार था। अपने अर्जेंटीना प्रवास के दौरान वह प्रसिद्ध लेखिका विक्टोरिया ओकैंपो के संपर्क में आए। विक्टोरिया ने गीतांजलि पढ़ रखी थी और उनसे बहुत प्रभावित थी। विक्टोरिया ने टैगोर के स्केचेज को देखकर उन्हें चित्रकला की ओर प्रेरित किया।  माना जाता है कि टैगोर के पेंटिंग की प्रेरणा दरअसल विक्टोरिया ओकैंपो ही थीं और उनकी दो दर्जन से अधिक कविताओं की ‘बिजया’ भी।

*गीतांजलि की भूमिका लिखने वाले कवि यीट्स लिखते हैं कि मैं कई दिनों तक इन कविताओं का अनुवाद लिए रेलों, बसों और रेस्तराओं में घूमा और मुझे बार-बार इन कविताओं को इस भय से पढ़ना बंद करना पड़ा कि कहीं कोई मुझे रोते-सिसकते हुए न देख ले। अपनी भूमिका में यीट्स ने लिखा कि हम लोग लंबी-लंबी किताबें लिखते हैं जिनमें शायद एक भी पन्ना लिखने का ऐसा आनंद नहीं देता है। बाद में गीतांजलि का जर्मन, फ्रैंच, जापानी, रूसी आदि विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में अनुवाद हुआ।

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राष्ट्रवाद और सामंतवाद के मध्य पिसता किसान और ‘अवध का किसान विद्रोह’

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राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित सुभाष चंद्र कुशवाहा की किताब ‘अवध का किसान विद्रोह’ पर यह टिप्पणी प्रवीण झा ने लिखी है। प्रवीण झा की पुस्तक ‘कूली लाइंस’ आजकल ख़ासी चर्चा में है- मॉडरेटर

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राष्ट्रवाद और सामंतवाद के मध्य पिसता किसान। सुभाष चंद्र कुशवाहा जी की पुस्तक ‘अवध का किसान विद्रोह’ तो सौ वर्ष पुराना इतिहास है, लेकिन मूलभूत प्रश्न अब भी वही हैं। जब किसान कहें कि हमें स्वराज नहीं, रोटी चाहिए; तो हमें ठिठक कर सोचना चाहिए। कि देश से ऊपर क्या है? क्या देश से ऊपर मानवता है, जो कभी-कभी देश को भी कटघरे में खड़ी कर देती है?।जब हम ‘नून-रोटी’ (नमक-रोटी) खाकर देशप्रेम की प्रतिज्ञा करते हैं, तो इसका दूसरा पक्ष भी देखना चाहिए। कि देशप्रेम के नाम पर सरकार हमें नून-रोटी ही तो खिलाती नहीं रह जाएगी? जैसा तानाशाही देशों में होता रहा है? उस वक्त के विद्रोह में प्रश्न कांग्रेस के नेताओं से था, जो ब्रिटिश के खिलाफ असहयोग आंदोलन में किसानों को शामिल करना चाहते थे। और इस पृष्ठभूमि में गांधी जी के नाम पर कहीं दुकानें लूटी जा रही थी; तो कहीं किसानों पर अत्याचार को अनदेखा किया जा रहा था क्योंकि जमींदार कांग्रेस के सहयोगी थे। यह एक अंतर्द्वंद्व है, जिसे किताब में बारीकी से तथ्यपूर्ण रूप से उकेरा गया है।

लगभग एक ही समय में दो लोग भारत लौटते हैं। अफ्रीका से ‘पहला गिरमिटिया’ यानी मोहनदास करमचंद गांधी, और फिजी से लौटे गिरमिटिया बाबा रामचंद्र। गांधी चम्पारण में गोरे जमींदारों के खिलाफ ‘सत्याग्रह’ की नींव रखते हैं, और रामचंद्र अवध में भूरे (भारतीय) सामंतों के खिलाफ। ज्यादतियाँ दोनों तरफ थी, लेकिन भारतीय सामंतों के खिलाफ कांग्रेस कभी खुल कर नहीं आ सकी। इसकी वजह स्पष्ट थी कि भारतीय सामंतों की कांग्रेस में पैठ थी। गांधी जी और कांग्रेस को संभवत: यह विश्वास भी था कि ‘स्वराज’ मिलने के बाद सामंत-किसान समस्याएँ भी खत्म हो जाएगी। जहाँ गांधीजी का कद बढ़ता गया, उनकी राष्ट्रीय पहचान बनी; बाबा रामचंद्र का दायरा अवध तक सिमट कर रह गया और वह किसान, कांग्रेस और सामंतों के मध्य उलझ कर रह गए। पुस्तक में वह महत्वपूर्ण घटना वर्णित है जब गांधीजी की उपस्थिति में काशी विद्यापीठ के उद्घाटन के समय बाबा रामचंद्र को गिरफ्तार कर लिया गया। गांधी जी की मृत्यु के दो वर्ष बाद बाबा रामचंद्र भी चल बसे। आज उन्हें कम लोग जानते हैं।

सुभाष जी ने अपनी पुस्तक में कई शोधपरक सूक्ष्म-इतिहास लिखे हैं, कई भ्रांतियों को तोड़ा है। मुंशीगंज का गोली कांड तो इतना मार्मिक है कि इसकी तुलना ‘जालियाँवाला बाग़’ से करना अतिरेक नहीं। और विडंबना यह कि इसे किसी गोरे डायर ने नहीं, भारतीय जमींदार की बंदूक ने अंजाम दिया। इतिहास की पारंपरिक स्कूली शिक्षा में यह इतिहास क्यों नहीं सम्मिलित किया गया, या कम तवज्जो दी गयी, यह कोई ‘रॉकेट साइंस’ नहीं। किसान विद्रोह और असहयोग आंदोलन के मध्य एक ‘कन्फ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट’ आजादी के बाद भी उसी रूप में रहा। इसी पक्ष को किताब में क्रमबद्ध दर्शाया गया है।

एक दूसरे पक्ष पर भी किताब ध्यान दिलाती है। किसान विद्रोह के जातीय पक्ष पर। मदारी पासी के गुणगान तो शायद कई लोगों ने सुने हों, लेकिन सुभाष जी ने कई अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों से परिचय कराया है। उन्होंने मदारी पासी पर लिखे इतिहास की भी शोधपूर्ण तफ्तीश की है। इनके अतिरिक्त छोटा रामचंद्र का भी बहुकोणीय विश्लेषण है। कई ऐसे नाम जो इतिहास के पन्नों में दब गए, उन्हें उचित स्थान मिला है। हर बात यहाँ लिख कर मैं पाठकों के लिए ‘स्पॉयलर’ नहीं बनना चाहता। लेकिन, इस किताब को वक्त लेकर वाक्यों के मध्य छुपे वाक्यों को पढ़ना चाहिए।

किताब समाप्त करने के बाद किताब से अलग खड़े होकर देखते हुए, मुझे ऐसे तर्क भी नजर आते हैं कि कांग्रेस या गांधी जी ने किसान-विद्रोह से दूरी क्यों बना ली। सामंत और किसान दोनों भारतीय थे, और कांग्रेस इनके मध्य विवाद लाकर ब्रिटिश के खिलाफ लड़ाई को कमजोर नहीं करना चाहती थी। गांधी चाहते थे कि सामंत ही किसानों का हल निकालें, जैसे दरभंगा राज का जिक्र पुस्तक में है। भले ही यह अकल्पनीय इच्छा था कि शोषक ही शोषित का साथ दें। उनकी मूल धारणा यही रही होगी, और जो पुस्तक में भी लिखा है, कि किसान देश के लिए कुछ दिन सामंतों का शोषण सह लें।

आज भी परिदृश्य ख़ास नहीं बदला। कॉरपोरेट सामंत जिनके पास देश की नब्बे प्रतिशत से अधिक संपत्ति है, उनकी सरकार में पैठ है। किसानों और आर्थिक निम्न-वर्ग की समस्या गौण हो जाती है। राष्ट्र-निर्माण में इन सामंतों की भूमिका की दुहाई देकर किसान मुद्दों की अनदेखी कर दी जाती है। किसानों के छिट-पुट विद्रोह आज भी होते हैं, और आज भी सरकार या राजनैतिक पार्टियाँ उनके समर्थन से छिटकती है। क्योंकि ऐसे विद्रोहों से पूँजीपति कमजोर पड़ते हैं, और उनके कमजोर पड़ने से देश की आर्थिक व्यवस्था कमजोर पड़ती है। लेकिन राष्ट्र-निर्माण मात्र अर्थ से तो नहीं होता, सौ वर्ष बाद और ब्रिटिशों के जाने के बाद तो यह अंतर्द्वंद्व उचित नहीं।

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रूसी भाषा के लेखक सिर्गेइ नोसव की कहानी ‘अच्छी चीज़’

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 सिर्गेइ नोसव की इस कहानी का अनुवाद किया है रूसी भाषा की विदुषी प्रोफ़ेसर और अनुवादिक आ. चारुमति रामदास  ने- मॉडरेटर

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अच्छी चीज़

लेखक: सिर्गेइ नोसव

अनुवाद : आ. चारुमति रामदास

 

“ ये बड़ी देर चलेगा,” पेत्या ने कहा. “ऐह, उनका ट्रैफ़िक सिग्नल भी काम नहीं कर रहा है.”

“ठीक है,” ल्येव लाव्रेन्तेविच  ने ओवरकोट की ऊपर वाली बटन बन्द करते हुए कहा, “मैं पैदल ज़्यादा जल्दी पहुँच जाऊँगा. यहीं पास में ही है.”

“जैसा चाहो.”

चाहता तो नहीं था. बाहर बेहद चिपचिपा था, गीला, गन्दा. विन्डशील्ड पर भारी-भारी गोले गिर रहे थे जो निश्चित ही बर्फ के फाहे नहीं थे. ल्येव लाव्रेन्तेविच  ने फिर से बटन खोल दी, कार के भीतर गर्माहट थी, वह बाहर नहीं निकला. आज उसे लेख के लिए पैसे मिले थे, जो बसन्त के मौसम में “सम्मेलन की कार्यवाही” में छपा था, – उसे मानधन पाने की कोई उम्मीद नहीं थी. मेट्रो में बैठकर अपने उनींदे मोहल्ले में चला जाता, मगर अपने सहलेखक, ग्रेज्युएट स्टूडेन्ट पेत्या के प्रस्ताव से इनकार न कर सका, जो अपनी फोर्ड में शॉपिंग-सेन्टर जा रहा था. मानधन प्राप्त होने के बाद भी ल्येव लाव्रेन्तेविच  का ‘मूड’ बहुत ख़राब था. सच कहा जाए, तो उसकी बीबी किसी उपहार के काबिल ही नहीं थी – दो दिन से वे लड़ पड़े हैं. कम से कम आज तो समझौता करने का उसका इरादा नहीं है, और, हो सकता है, कि आज कोई गिफ्ट ख़रीदना कुछ बेईमानी-सी होगी – कम से कम उसकी अपनी नज़र में. ऊपर से, अभी वक्त है. नए साल में अभी तीन दिन हैं…

“तुम कितने साल के हो, पेत्या? पच्चीस?”

“चौबीस.”

“तीस साल की उम्र तक मज़े से बिना शादी किए रह सकते हो. कम से कम तीस साल तक तो रह ही सकते हो.”

चाँदी जैसे चमकीले ओवरकोट में एक लड़की कारों के पास छोटी-छोटी पत्रिकाएँ ला रही थी. ल्येव लाव्रेन्तेविच ने कार का शीशा नीचे गिरा दिया. जानी-पहचानी सेवाओं का इश्तेहार था. “पहचान के लिए!” – ल्येव लाव्रेन्तेविच  ने शीर्षक पढ़ा. बिल्कुल “टोस्ट” जैसा लग रहा है. कवर पे भरे-भरे वक्षस्थल, भूरे बालों वाली टॉपलेस लड़की, मुस्कुराते हुए शैम्पेन का जाम उठा रही थी. हो सकता है, कि उनके यहाँ भी क्रिसमस की ‘सेल’ चल रही हो?

“यहाँ हमेशा बाँटते रहते हैं,” पेत्या ने स्टीयरिंग पर ठोढ़ी रखकर कहा, “मुझे कल भी इस चौराहे पर दिए थे, और परसों भी…काफ़ी प्रतियाँ निकालते हैं.”

माँ कसम! कितने हैं इसमें! ल्येव लाव्रेन्तेविच  उसकी क्वालिटी से हैरान होकर पन्ने पलटने लगा. कई सारे फोटो थे, कुछ माचिस की डिबिया के लेबल के आकार के, कुछ बड़े – हर पृष्ठ पर दस-दस – ल्येव लाव्रेन्तेविच  की आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा. और ये है एक इश्तेहार.

“प्रति घण्टा उच्च आय हेतु लड़कियाँ आमंत्रित की जाती हैं”, ल्येव लाव्रेन्तेविच ज़ोर से पढ़ता है. “साक्षात्कार के लिए आने वाली हर लड़की को भेंट स्वरूप एक हज़ार रूबल्स प्राप्त होंगे, जिसका साक्षात्कार के परिणाम से कोई संबंध नहीं है”. नहीं, क्या कर रहे हैं! कैसे फुसला रहे हैं!

“बेहतर है कि आप तस्वीरों के नीचे लिखी इबारतें पढें. ज़िंदगी के बारे में ज़्यादा जानकारी मिलेगी.”

“भूरे बालों वाली आकर्षक लड़की अमीर मर्दों को आमंत्रित करती है…” ल्येव लाव्रेन्तेविच  ने सरसरी नज़र से पढ़ा. “जोशीली लड़की ख़ुशी के पल देगी…”, “दो प्यारी बिल्लियाँ बेपनाह कल्पनाओं के साथ दिलदार मेहमान का इंतज़ार कर रही हैं…”

दूसरी जगह खोला.

“एक्सेसरीज़के साथ आऊँगी. सहेली के साथ आ सकती हूँ”… “बल-प्रयोग को छोड़कर हर चीज़”…”सबूत मिटाने की गारंटी”…

“ये आप BDSM पढ़ रहे हैं…एक्ज़ोटिक पन्ने.”

“जिओ और सीखो,” ल्येव लाव्रेन्तेविच  बुदबुदाया. “इन्सानियत नीचे-नीचे जा रही है. कब की जा चुकी है. मैं ये शब्द जानता भी नहीं हूँ. ये ‘फैस्टिनाडो’ क्या है?”

“मालूम नहीं.”

“पोनी-प्ले?”

“नाम से ऐसा लगता है…कोई घोड़े का रोल कर रहा है.”

“मान लेते हैं,” ल्येव लाव्रेन्तेविच  ने सहमति दर्शाई. ”बॉन्डेज”. मुझे पता है कि बॉन्डेज क्या होता है.”

“सुनिए, आपको कैसे पता होगा? आप “बॉन्डेज” में कुछ उलझ गए हैं…”फ्लॅगेलेशन – ये क्या है?”

“मुझे डर है, कहीं पिटाई तो नहीं…”

“फ्लॅगेलेन्ट्स…” ल्येव लाव्रेन्तेविच  को याद आया. “मध्य-युग में होते थे ऐसे…अपने आप को कोड़े मारने वाले…पापों के लिए ख़ुद को सज़ा देते थे…”

“वो वाले धार्मिक कल्पनाओं से हैं…”

एक फोटो में कपड़े पहनी हुई लड़की थी. सैद्धांतिक रूप से कपड़ों में थी – पूरी और शराफ़त से, काली चमडी वाली बदहवास कामुक नहीं. स्वेटर में थी. स्वेटर की कॉलर ठोढी तक गर्दन को ढाँके हुए थी.

“ ‘पोर्काथेरपी’ – ल्येव लाव्रेन्तेविच  ने घोषणा की, “छुटकारा पाइए अवसाद से, अपराध-बोध की भावना से, मानसिक बेचैनी से. बगैर सेक्स के”. नहीं, कैसा लग रहा है? क्या कोई “बगैर सेक्स” के जा सकता है?”

“सब कुछ मुमकिन है. आप इसे घर ले जाइये, बीबी के साथ चर्चा कीजिए.”

“हा-हा,” ल्येव लाव्रेन्तेविच ने पूरे हफ़्ते में पहली बार मुस्कुरा कर कहा.

और क्या? अगर पपडियाँ हटाने और भूसा छीलने में कोई उपचारात्मक अर्थ होता, तो सारे पति तंदुरुस्त, जोश से भरपूर और मानसिक रूप से संतुलित रहते. क्या उसे कोई हथौड़ा उपहार में दूँ, बड़ा सा हथौड़ा,  बदलने वाले मॉड्यूल का, या जैसे, गोल-आरी? या फिर जिग्सा? समझेगी नहीं. बुरा मान जाएगी.

सबसे ज़्यादा बेसब्र लोगों ने हॉर्न बजाना शुरू कर दिया.

“लो,” पेत्या ने कहा, “हो गया शुरू पागलखाना.”

“पेत्या, हम कब से पागलखाने में रह रहे हैं! पूरी दुनिया – पागलखाना है, फूहडपन के लिए माफ़ करना! तुम ज़रा आने-जाने वालों के चेहरों पर नज़र डालो, कैसे ईडियट्स जैसे हैं!…सड़क पर चलने में डर लगता है, जिसकी ओर देखो, वही तुम्हारे कंधे को काट लेगा!…नहीं, देखो, ये कैसा लगता है? – भूतपूर्व बीबी के नए दूल्हे के कुल्हाडी से टुकडे कर दिए और खा गया!…खा गया!…इन्सान को खा जाना!…और जब पॉलिक्लीनिक में आते हो – बीमारी की छुट्टी के लिए!… बेहतर है घर में ही लटक जाना!…ऊपर से ये…लगातार गर्म होता मौसम!…थैंक्स, सैर के लिए. ज़्यादा सही है, यहाँ तक छोड़ने के लिए. ख़ुदा ने चाहा, तो इससे भी निकल लेंगे.

उसने पेत्या से हाथ मिलाया, कार का दरवाज़ा खोला.

“ले लीजिए, ले लीजिए, मेरे पास ऐसे कम से कम पाँच हैं…”

“रहने दो, पेत्या, छह हो जाएंगे…”

“अच्छा, तो कलश (यहाँ कलश के आकार के डस्ट-बिन से तात्पर्य है – अनु.) में फेंक दीजिए.”

मैगज़ीन ली और कार से बाहर आया. ठण्डा कीचड़ जूतों में घुस रहा था. किनारे तक पहुँचने के लिए जैसे इस समंदर को पार करना था. वह चल नहीं, बल्कि भाग रहा था, रूकी हुई विदेशी कारों के बीच से रास्ता बनाते हुए. कोशिश कर रहा था कि हल्का भूरा ओवरकोट गंदे मड-गार्डों को न छुए. पैरों के नीचे मच्-मच् हो रही थी, पैरों के नीचे से फ़व्वारे उछल रहे थे.

फुटपाथ पास ही था, जब वह एक अपंग की व्हील-चेयर से टकराते-टकराते बचा : मुश्किल से स्वयम् को बचाते हुए, एक लंगडा इस अथाह कीचड़ की ओर ध्यान न देते हुए तेज़ी से चला जा रहा था, और चालकों से भीख माँग रहा था.

बर्फ के छोटे से टीले के बचे-खुचे अनपिघले अवशेषों को पार करके (शुक्र है कि पैर हैं), ल्येव लाव्रेन्तेविच  फुटपाथ पर पहुँच गया; यहाँ अपेक्षाकृत सूखा था. अपने आप को लोगों के रेले के हवाले करने से पहले वह मुड़ा : एक मनहूस दृश्य. दिमाग़ में ख़तरनाक शब्द “सेक्स्टिलियन” हथौड़े बजा रहा था. सेक्स्टिलियन, मतलब “बहुत ज़्यादा”, वह ख़ुद भी नहीं जानता था कि कितना. आँखों से पेत्या की कार नहीं ढूँढ पाया, जिसे अभी-अभी छोड़कर आया था. दोनों दिशाओं में और ट्राम की पटरियों पर भी लोग खड़े थे. ‘उसे कार की ज़रूरत ही क्या है?’ – ग्रेजुएट स्टूडेन्ट के बारे में ख़याल आया. ‘वह उसका गुलाम है, गुलाम.’

और ये रहा कलश. ल्येव लाव्रेन्तेविच  ने गुज़रते हुए उसकी ओर “परिचय के लिए” फेंक दिया. वह उसमें गिर गया.

कलशों की नई पीढ़ी को इस इबारत से सुशोभित किया गया है : “अपने शहर से प्यार करो!”

और अगर ल्येव लाव्रेन्तेविच, चुनौती को स्वीकार करके, उसी तरह से जवाब देता, कि हाँ, अपने शहर से प्यार करता है और उसे गन्दा नहीं करता, तो ताज्जुब है, इस स्वीकारोक्ति से किस वस्तु को सुशोभित करना उचित होता? क्या फिर से कलश?

“अपने शहर से प्यार करता हूँ” – कलश पर?

कुछ लोग क्रिसमस-ट्रीज़ लेकर जा रहे थे. घर में कृत्रिम क्रिसमस ट्री है. सजाने का मन हो तो सजाए. अगर किसी ने कनखियों से देखा होगा, किसी ने कान लगाकर सुना होगा, कि बहस किस बात से शुरू होती है, तो यकीन नहीं करता, कि ये संभव है – फूहड़पन! – जैसा कि इस बार हुआ : इस कारण को बेवकूफ़ी से समझाने के कारण कि ल्येव लव्रेन्तेविच को अपनी गर्दन की गोलाई की नाप क्यों नहीं मालूम है. वह ख़ुद तो अच्छी तरह जानती है, कि ल्येव लाव्रेन्तेविच  की गर्दन की गोलाई कितनी है, मगर, वह अपने आप से पूछता है, देखिए, उसे इस बात को जानने की ज़रूरत क्या है, जब कि उसके लिए ये जानना ज़रूरी नहीं है. अपने आप पर ध्यान न देना, बीबियों की राय में, उस पर और ज़्यादा ध्यान न देने जैसा है, और उसकी राय में यह साफ़-साफ़ स्वार्थीपन है, – पन्द्रह साल के सुखी विवाहित जीवन के संचित सभी अपमानों को याद न रखना कैसे संभव है?…गर्दन का यहाँ क्या काम है? शायद टाई वाली कमीज़ प्रेज़ेन्ट करना चाहती थी; करने दो, अच्छा है, बढ़िया है – वह उसी टाई से लटक जाएगा! हालाँकि तरीका घिसा-पिटा है, मगर सफ़लता की पूरी-पूरी ग्यारंटी है!

कितना समय गुज़र गया – पता ही नहीं चला (शायद, करीब पाँच मिनट) – ल्येव लाव्रेन्तेविच  ने स्वयम् को एक ट्रेड-सेन्टर में पाया. प्रचुरता के साम्राज्य में हर छोटी-मोटी चीज़, हर बेकार की चीज़ ल्येव लाव्रेन्तेविच  से उलझने की – दूरदृष्टि से उसकी बीबी पर हावी होने की कोशिश कर रही थी. और वह, शो-केसेस के, शेल्फों के, काउन्टर्स के पास से गुज़रता हुआ, समझ रहा था, कि वह यहाँ, इस प्रचुरता के उत्सव में, फ़ालतू है – कम से कम आज. आज कोई भी चीज़ ल्येव लाव्रेन्तेविच  को लुभा नहीं सकती थी – न तौलिए का स्टैण्ड, न टॉयलेट-पेपर होल्डर, न उपयोगी वस्तुएँ रखने के लिए डिब्बे. ना तो तकिए के गिलाफ़, ना बेसिन धोने के ब्रश, ना लैम्पशेड्स, ना ही पैरों को रखने वाले स्टूलस. ना परदों के कन्ट्रोलर्स, ना माँस काटने की कुल्हाड़ी, ना सेल्मन काटने का चाकू, ना लहसुन-प्रेस, ना मसालेदान, ना बॉक्स-पार्टीशन्स, ना बिल्लियों के लिए खिलौने, ना किताबों के लिए बॉक्सेस, ना ही बॉक्सेस के लिए किताबें…

ना लेटर-होल्डर्स. ना पॉलिस्टर की थैलियाँ. ना ही एक्स्प्रेसो-कॉफी के लिए कप-सॉसर्स…

प्रवेश कक्ष के लिए कोई तस्वीर भी नहीं. भारी स्ट्रोक्स से बनाई गई पेन्टिंग्स. मूल तस्वीर का सम्पूर्ण प्रभाव.

हर चीज़ ल्येव लाव्रेन्तेविच को गुस्सा दिला रही थी, मगर सबसे ज़्यादा गुस्सा मॉडेल्स पर आ रहा था. पिछले कुछ समय से मॉडेल्स उसे बेहद गुस्सा दिला रहे थे. हर तरह के मॉडेल्स. बेसिर के, मिसाल के तौर पर, – जब बेसिरे मॉडेल्स का फ़ैशन था. मगर सिर वालों से भी चिढ़ होती थी – चेहरे की बनावट चाहे जैसी भी हो. चिकने चेहरे, बिना आँख-कान के, बिना नाक-मुँह के, जिनका सिर शुतुरमुर्ग के अण्डे जैसा हो; या एलियन्स के थोबड़ों जैसा ; या, मिसाल के तौर पर, जान बूझ कर बिगाड़े गए इन्सानी चेहरे जैसा – माइक्रो और मॅक्रोस्तर पर; या फिर इसके विपरीत, किसी हायपर रीयल तरीके से बनाए हुए, जब माथे की झुर्रियाँ भी दिखाई दे रही हों, और ठोढ़ी का डिम्पल भी, और जब इस अमानवीय वस्तु को सेल्समैन- कन्सल्टेन्ट समझने की भूल कर बैठते हो. पहले वे ऐसे नहीं हुआ करते थे, पहले वे बिना किसी दिखावे के होते थे. इसीलिए ल्येव लाव्रेन्तेविच उनसे नफ़रत करता था – दिखावे के लिए! पुतलों की ओर देखते हुए ल्येव लव्रेन्तेविच इन्सान के बारे में सोचे बगैर नहीं रह सका. क्या पुतले की ओर देखते हुए इन्सानी कौम से भरोसा टूट सकता है, क्योंकि पुतले को इन्सान से मिलता-जुलता ही तो बनाया गया है? ल्येव लाव्रेन्तेविच को याद आया, कि कैसे कोई टी.वी. में सभी पुतलों के प्रमुख गुण समझा रहा था, जिनमें प्रमुख हैं हमेशा कार्यक्षम रहने की उनकी योग्यता, उनकी, अनावृत अवस्था में, अलैंगिकता. मतलब, सिद्धांत रूप से, चाहे जो भी हो जाए, पुतला किसी भी इन्सान को उकसाने के लिए तत्पर नहीं होता (सिवाय, बेशक, खरीदारी के). मगर, पहली बात, उसकी कार्यक्षमता को कैसे समझा जाए – हो सकता है, ऐसे भी लोग हों, जिनके लिए पुतले का मुख्य काम अनिवार्य रूप से हैंगर होना नहीं है, और, दूसरी बात, ल्येव लाव्रेन्तेविच का उदाहरण लें : अगर, उस टी.वी. वाले जीनियस के अनुसार पुतला तीव्र भावनाएँ उत्पन्न करने में अक्षम है, तो ल्येव लाव्रेन्तेविच का दिल क्यों चाहता है कि उसके थोबड़े पे झापड़ मारे? किसी भी पुतले को, चलिए मान लेते हैं, हर पुतले को नहीं, बल्कि किसी ख़ास पुतले को, जैसे – ये, जो खड़ा है बरगंडी टी-शर्ट और क्लब-सिल्क जैकेट में और जिसकी पलकें भी हैं, मगर नज़र लगभग सार्थक है, या इससे भी बदतर : आदर्श है? ल्येव लव्रेन्तेविच ने मुट्ठियाँ भींच लीं, मगर अपने आपको रोक लिया, पुतले के थोबड़े पे झापड़ नहीं मारा. दूर हट गया. बिना कुछ ख़रीदे बाहर आ गया.

ट्रॅफ़िक जॅम धीरे-धीरे कम हो रहा था.

“अपनी बवासीर भूल जाओ!” – एक भड़कीला पोस्टर बुला रहा था.

“क्लिनिकल केस,” ल्येव लाव्रेन्तेविच  ने यंत्रवत् क्लिनिक का पता पढ़कर अपने आप से कहा. वैसे वह इश्तेहारों के मजमून पढ़ने से अपने आपको रोकता था. मगर हर बार ऐसा नहीं हो पाता था.

“बवासीर” के पास नौजवानों की एक गंन्दी-सन्दी टोली खड़ी थी, उनमें से एक बड़े जोश से गिटार पर हाथ मारे जा रहा था और घिनौने ढंग से रेंक रहा था, और उसकी सहेली भी ये सोचकर, कि वह गा रहा है और इस गाने को इनाम मिलना ही चाहिए, टोपी फैलाकर आने-जाने वालों के पास जा रही थी. ल्येव लाव्रेन्तेविच  के पास भी भागकर आई, मगर उसके चेहरे का दृढ़ भाव “नहीं दूँगा”  पढ़कर फ़ौरन दूर हट गई. वाकई में ल्येव लाव्रेन्तेविच  के चेहरे से कुछ अधिक ही क्लिष्ट भाव प्रकट हो रहा था : “पहले बजाना और गाना सीखो, और बाद में, अंगूठा चूसने वालों, पब्लिक में आओ!” बगल से गुज़र गया, शैतानियत का भाव लिए. क्यों, ये ऐसे क्यों हैं? ल्येव लाव्रेन्तेविच  भी चार तार बजाना जानता है, और इस लड़के से बुरा नहीं बजाता, मगर वह क्यों, किन्हीं भी परिस्थितियों में अपनी साधारण योग्यता को किसी के भी मत्थे नहीं मारता – वो भी रिश्वत की ख़ातिर!? अगर असंभाव्य को भी मान लें और  कल्पना करें, कि ल्येव लाव्रेन्तेविच  भीख माँग रहा है (समझ लो, दुर्भाग्यपूर्ण ज़रूरत के कारण, या मार डाले जाने के भय से), तो ये होगा (जो, बेशक, कभी नहीं होगा) भिखारी, चीथड़ों में, बिना जूतों के, नम्र ल्येव लव्रेन्तेविच, ईमानदारी से गंदी सिमेन्ट पर बैठा हुआ, अपने सामने मुड़ी-तुड़ी कैप रखे – मगर बगैर गिटार के! बिना गानों के! बिना फूहड़ नकलचियों के!

और ये “अपनी बवासीर भूल जाओ” क्या है? कोई उसे क्यों भूल जाए, जबकि वो मौजूद है? कैसे भूलें – पर्स, या छतरी की तरह?…और ये, ज़ोर देता हुआ, बेवकूफ़ीभरा “अपनी”!…अपनी भूल जाओ, और औरों की बवासीर भूलने की ज़रूरत नहीं है?

उसे महसूस हुआ, कि, अगर वह थोड़ी-सी पीता नहीं है, तो टूट जाएगा.

ल्येव लाव्रेन्तेविच  अंडरपास पर नहीं उतरा, जो मेट्रो स्टेशन तक जाता था, बल्कि, करीब दो सौ कदम चलकर, कम आबादी वाली टी-लेन में मुड़ गया. वहाँ नीचे, सेलार में, पिछले साल की शरद ऋतु से “एल्ब्रूस” नामक ‘ग्लास-हाउस’ खुला था, मगर जो पुरानी यादों के कारण “कटलेट-हाउस” के नाम से ही ज़्यादा जाना जाता था.

तहखाने का नाम “एल्ब्रूस” क्यों है, इसकी कोई अन्य वजह न सूझने के कारण ल्येव लाव्रेन्तेविच  ने सोचा कि एल्ब्रूस – मालिक का नाम है.

भीतर जाते हुए पचास की कल्पना की; काउन्टर पर सौ के बारे सोचा और तय किया : डेढ़ सौ. उसे छोटी-सी सुराही में दी गई. टोमॅटो-जूस का गिलास लिया. कुछ खाने का मन नहीं था, तीन दिन से भूख नहीं थी.

बैठा, जाम भरा, ख़यालों में चार हिस्सों में बाँटते हुए. जल्दी मचाने की ज़रूरत नहीं है. महसूस करते हुए, समझदारी से, सलीके से. पी गया, टॉमेटो-जूस गटका, थोड़ा-थोड़ा दो बार. बगल वाली मेज़ पर दो लोग बैठे थे, बियर पी रहे थे, प्लेट में सूखे घोंघो का ढेर लगा था. ल्येव लाव्रेन्तेविच ये कचरा बर्दाश्त नहीं कर पाता था.

जब से “कटलेट-हाउस” “ग्लास-हाउस” बना था, यहाँ कटलेट्स बेचना बंद कर दिया गया था.

सिगरेट पी.

म्युज़िक, खैरियत है, नहीं था.

मगर बगल वाली मेज़ पर बैठे लोगों की बातों के मुकाबले में म्यूज़िक सुनना ज़्यादा अच्छा होता. उनमें से एक दूसरे को अपना कुलनाम बदलने के लिए मना रहा था. “कव्न्युकोव, बदल दो, तुझे वैसे भी गव्न्युकोव (गव्न्युकोव शब्द का अर्थ है – मूर्ख – अनु.) ही समझते हैं!” (ये, कि वो कव्न्युकोव है, लेव लाव्रेन्तेविच  सुन कर नहीं, बल्कि वाक्य के संदर्भ से समझा.) दूसरे ने पहले वाले को जवाब दिया कि वह गव्न्युकोव ही है, ये तो उसके दादा ने युद्ध से पहले गव्न्युकोव को कव्न्युकोव में बदल दिया, जबकि सही कुलनाम है गव्न्युकोव, और वो, याने कव्न्युकोव कभी भी अपना कुलनाम बदल कर एडमिरालव, या वीशेगोर्स्की नहीं रखेगा, और अगर बदलेगा भी, तो वापस गव्न्युकोव में बदलेगा, क्योंकि असली कुलनाम, सही है, और उसका सम्मान करना चाहिए. उसने कई बार अपने वाक्यों में सर्वनाम “हम” का प्रयोग किया, मगर बोलकर समझाने में मुश्किल हो रही थी : “हम – कन्युकोव” या “हम – गन्युकोव”. आख़िरकार वो वाक्य गूंजा, जो, सोच सकते हैं, कि असाधारण कुलनाम वाले व्यक्ति के लिए आदर्श वाक्य था, जिसे लेकर वह आत्मविश्वास से ज़िंदगी में आगे बढ़ रहा था, भाग्य को चुनौती देते हुए : “गव्न्युकोव अनेक हैं, मगर गव्न्युकोव सिर्फ एक है”. (हो सकता है, उसने कहा हो “कव्न्युकोव एक है” – एक शैतान.)

क्या बकवास है?….इसे कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं?…ल्येव लाव्रेन्तेविच  अपने आप ही गुस्सा हो गया. अगर ये ऐसा ही चलता रहा, तो उसे बस उल्टी आ जाएगी.

वोद्का, वाकई में ठीक-ठाक थी, मगर टोमॅटो जूस भी उसे अच्छा नहीं लगा. नमक ही नहीं है. मगर उसने ख़ुद नमक नहीं डाला – जानबूझकर. कहते हैं, कि टोमॅटो जूस को अगर नमक डाल कर उबाला जाए तो वह लीवर को नुक्सान पहुँचाता है.

कव्न्युकोव-गव्न्युकोव पर इस बात से भी गुस्सा आ रहा था, कि ल्येव लाव्रेन्तेविच  को हमेशा अपने नाम और पिता के नाम पर गर्व था. गव्न्युकोव में ऐसी कौन सी ख़ूबसूरती है, जब, अगर वाकई में कोई ख़ूबसूरती है, तो वह, बेशक ल्येव लाव्रेन्तेविच में है? गज़ब का ध्वनि संयोजन है, सूक्ष्म अनुप्रास, ध्वनियों की लहरों का शीघ्र उतार-चढ़ाव : ल्येव, लाव. ल्येव, लाव, आय लव यू. ल्येव. आय लव यू, लाव, आय लव यू, लाव्रेन्तेविच. औरतों ने उससे कभी भी ऐसा नहीं कहा था. अफ़सोस.

ज़िंदगी, अगर ईमानदारी से कहा जाए, तो बुरी रही.

और ज़िंदगी हमेशा ही बुरी होती है.

जैसे ताश का घर.

और वोद्का डाली.

शुक्रिया माँ-बाप का. नाम रखा ल्येव. इससे अच्छा कुछ और सोच ही नहीं सकते.

माँ-बाप के नाम. जूस पी लिया.

कुलनाम इतना रास नहीं आया. अपने आप में तो ठीक-ठाक है, मगर नाम के साथ – बात नहीं बनती. ल्येव कमारोव. अर्थ की दृष्टि से विफ़ल. (कमारोव, कमार शब्द से बना है जिसका अर्थ है मच्छर, जबकि ल्येव का मतलब है – सिंह – अनु.)  कोई एक ही होना चाहिए था – या तो ल्येव या कमार. कुलनाम  कमारोव ने ल्येव लाव्रेन्तेविच के अस्तित्व में बचपन से ही ज़हर भर दिया था. और यदि वह गव्न्युकोव होता तो? ल्येव गव्न्युकोव…कल्पना ही भयानक है.

अब वे पॉलिटिक्स के बारे में चर्चा कर रहे थे.

“देख लेना, गव्न्युकोव, पहले अलग होगा स्कॉटलैण्ड. फिर – वेल्स.”

“सबसे पहले इंग्लैण्ड अलग होगा,” बगल वाली मेज़ पर गव्न्युकोव भविष्यवाणी कर रहा है. “स्कॉटलैण्ड और वेल्स रह जाएँगे बिना इंग्लैण्ड के.”

“अरे नहीं, इंग्लैण्ड-विंग्लैण्ड कुछ नहीं है, गव्न्युकोव, ग्रेट ब्रिटेन की सीमा में एक अनाम प्रदेश है…”

बस हो गया.

दोनों को मार डालता.

एक ‘बेघर’ जैसा दद्दू भीतर आया. चेहरा जैसे जाना पहचाना है, ल्येव लाव्रेन्तेविच उससे निश्चित ही कहीं मिल चुका है. ये देखते हुए, कि उसने हाथ में क्या पकड़ा है, उसके हाथ में तो है “पहचान के लिए”, लगता है कि दद्दू मुफ़्त वाली मैगज़ीन को बेच रहा है. हालात का जायज़ा लेकर, वह उन दोनों की ओर बढ़ा.

“बीस रूबल्स में लीजिए,” गव्न्युकोव से बोला, “देखिए, कैसी खानदानी हैं. एक से बढ़कर एक…”

“भाग जा,” गव्न्युकोव ने कहा. “तू ख़ुद ही खानदानी है.”

“अच्छा लगता है देखकर,” दद्दू गव्न्युकोव के दोस्त से मुख़ातिब हुआ. “कम से कम दस ही दीजिए.”

दद्दू की नज़ाकत का आकलन करना ही था: दस रूबल वो रकम थी जो कोई भी भिखारी बिना कुछ सोचे माँग सकता था, दद्दू तो ख़ुद को व्यापारी के रूप में पेश कर रहा था; ल्येव लाव्रेन्तेविच ने आकलन किया.

“फूट ले,” गव्न्युकोव के दोस्त ने सलाह दी.

दद्दू ल्येव लाव्रेन्तेविच की तरफ़ आने ही वाला था, मगर उससे नज़र मिलाते ही वह मानो अपनी जगह पर जम गया, जैसे कुछ याद कर रहा हो, फिर घबरा कर मुड़ गया और दरवाज़े की ओर भागा.

“रुक जाओ!” ल्येव लाव्रेन्तेविच ने हुक्म दिया; उसने सौ रूबल्स का नोट निकाला और दद्दू को दिखाया. मगर ये देखकर कि दद्दू अपनी जगह पर खड़ा ही है, वह ख़ुद उसके पास गया.

उसने ये मानवप्रेम की ख़ातिर नहीं, बल्कि गव्न्युकोव और उसके मित्र को नीचा दिखाने के लिए किया.

“तुम्हें, चचा!” दद्दू की तरफ़ बढ़ा दिया.

“मदद के तौर पर.”

दद्दू ‘आह-ओह’ करने लगा, एहसान के कुछ दयनीय शब्द बुदबुदाए. गरिमा और सैद्धांतिकता से वह अपरिचित नहीं था : वह मैगज़ीन गड़ाकर ल्येव लाव्रेन्तेविच से उसे लेने की ज़िद कर रहा था, मगर ल्येव लाव्रेन्तेविच “पहचान के लिए” को अपने से दूर हटा रहा था. “बस कीजिए,” उसने समझौते भरी चिड़चिड़ाहट से फुसफुसाते हुए दद्दू से कहा, “मुझे इसकी ज़रूरत नहीं है, किसी को बेच दीजिए…” “नहीं! …इतना पैसा दिया है…” दद्दू हौले से बुदबुदाया, “नहीं, नहीं, नहीं…आपको ज़्यादा ज़रूरत है, आप जवान हैं…”

‘हो सकता है, कि फैकल्टी में काम करता था?’ फूले-फूले पीले चेहरे को ग़ौर से देखते हुए ल्येव लाव्रेन्तेविच याद करने की कोशिश कर रहा था. कुछ भी हो सकता है. आदमी गिर गया है.

दद्दू ने चालाकी से “पहचान के लिए” को बीचों बीच मोड़कर ल्येव लाव्रेन्तेविच की जेब में घुसा दिया, इसके बाद वह फ़ौरन बाहर निकल गया.

ल्येव लाव्रेन्तेविच आत्मसंतोष के भाव से, जो उसके लिए स्वाभाविक नहीं था, अपनी मेज़ पर आया. उसने तीसरा पैग भरा. सोचने लगा. कहीं ये नमूना ही तो पंद्रह साल पहले प्रबंधन सिद्धांत के मूलतत्व नहीं पढ़ाता था?

“एह, तू ईडियट है!” कव्न्युकोव-गव्न्युकोव की आवाज़ आई (ऊँची आवाज़). “अरे इन्हें तो चौराहों पर मुफ़्त में बाँटते फिरते हैं, जितने चाहो ले लो!”

“सबको नहीं देते,” गव्न्युकोव के दोस्त ने कहा. “सिर्फ विदेशी कारों के ड्राइवर्स को. पैदल चलने वालों को नहीं देते. और बेघर लोगों को भी नहीं देते.”

“बेघर लोगों को ही देते हैं. तुम्हारे ख़याल में ये कौन था? बेघर नहीं?..बेघर लोगों को देते हैं, ताकि वे इस जैसे ईडियट्स को बेचें. बेघर बेचता है, और पैसे आपस में बाँट लेते हैं. सुन रहे हो, ईडियट! तुझे पता है, ईडियट, कैसा ईडियट है तू? और तू भी ईडियट है!”

अपमान. न सिर्फ ग़लीज़ बौछारों के लहज़े ने, और लहज़े ने भी ल्येव लाव्रेन्तेविच को इतना अपमानित नहीं किया, जितना इस हास्यास्पद विश्वास ने, कि वह सेक्स-सर्विसेस का फ्री-केटेलॉग ख़रीदने में सक्षम है. मगर लहज़ा भी! – लहज़ा अपने आप में ही अपमानजनक था.

‘हमने ‘ब्रदरहुड’ के लिए नहीं पी है.’

ये कहकर ल्येव लाव्रेन्तेविच ने आख़िरकार तीसरा पैग टकराया, जैसे ये दिखा रहा हो, कि वह अपने आप में मस्त है. सुराही में चौथे पैग के लिए अभी वोद्का शेष थी.

‘तुम्हारे साथ तो मैं कभी न सिर्फ ‘ब्रदरहुड’ के लिए पिऊँगा, बल्कि तुम्हारी बगल वाला टॉयलेट भी इस्तेमाल नहीं करूँगा!’

कमीना कहीं का! मगर, ठहरो. ल्येव लाव्रेन्तेविच ने जेब से मैगज़ीन निकाली, उसे मेज़ पर रखा, और एक इज़्ज़तदार आदमी की तरह आराम से पन्ने पलटने लगा, जो यह जानता है, कि उसने क्या हासिल किया है और किसलिए.

“देख, देख रहा है.”

“घर में काटकर दीवार पर लटकाएगा.”

“ईडियट, मैग्निफाइंग ग्लास ख़रीद ले!”

शान्ति से! ल्येव लाव्रेन्तेविच ने मोबाइल निकाला और इस काम को यथासंभव महत्व देते हुए, उसे मैगज़ीन की बगल में रखा. सुराही से जाम में बची हुई वोद्का डाली. पन्ना पलटा. दूसरा. कपड़े पहनी लड़की को देखा, उसी को. पीने ही वाला था – हाथ जाम की तरफ़ बढ़ा, मगर – रुक गया! – मोबाइल उठाया, जाम नहीं.

उसने कपड़े पहनी लड़की को क्यों चुना? कहीं इसलिए तो नहीं कि वह ख़ुद कपड़ों में था?

“देख, नंबर लगा रहा है.”

रिसीवर:

“हैलो.”

“नमस्ते!” ल्येव लाव्रेन्तेविच ने स्पष्ट और ज़ोर से कहा. “क्या हाल है?”

“क्या हम मिल चुके हैं?”

“केटेलॉग देख रहा हूँ…प्रस्तावों को देख रहा हूँ.”

“क्या ख़ुशी पाना चाहते हैं? या फिर? ख़ुशी या संतोष?”

दार्शनिक सवाल है. ल्येव लाव्रेन्तेविच बारीकियों में नहीं गया. गव्न्युकोवों को ये दिखाना अच्छा रहेगा, कि उसका हर शौक आराम से पूरा हो जाता है.

“जो चाहिए,” ल्येव लाव्रेन्तेविच ने कहा.”मतलब कि ये भी और वो भी! इस समय मुझे उसीकी ज़रूरत है. और और भी कई चीज़ें, आप मेरी बात समझ रही हैं. मेरे पास काफ़ी आइडियाज़ हैं. वैसे, धन्यवाद.”

बेकार ही में “धन्यवाद” कहा. “धन्यवाद” किसलिए? और ये “वैसे, धन्यवाद” किसलिए? उसे अपने आप को पब्लिक के सामने सक्रिय व्यक्ति की तरह, अमीर मर्द की तरह दिखाने की ज़रूरत महसूस हुई.

“आपको अफ़सोस नहीं होगा,” ल्येव लाव्रेन्तेविच ने कहा.

अंतराल कुछ सेकंड चला, ज़ाहिर है, ल्येव लाव्रेन्तेविच के सुझावों का बारीकी से विश्लेषण किया जा रहा था.

“तुम्हें भी अफ़सोस नहीं होगा…पेन उठाओ और पता लिखो.”

ल्येव लाव्रेन्तेविच ने पेन लिया और टिश्यू-पेपर पर पता लिखने लगा – बेहद लापरवाही से, सिर्फ दिखाने के लिए.

दूर नहीं है, कहीं पास ही में है. जिससे ल्येव लाव्रेन्तेविच को बातचीत को ज़्यादा सटीक बनाने में मदद मिली:

“ये, जहाँ जूतों की दुकान है?”

“उसके दूसरी ओर. मेडिकल स्टोर की बगल में. आँगन से प्रवेश है.”

“मेडिकल स्टोर की बगल में,” ल्येव लाव्रेन्तेविच ने दुहराया. ”और मैं, बस नुक्कड़ पर ही हूँ…” उसने बताया कि कौन से नुक्कड़ पर है, और सुना:

“बढ़िया. तेरी ‘लेडी’ बिल्कुल ‘फ्री’ है. और बेसब्री से इंतज़ार कर रही है.”

“मिलते हैं,” ल्येव लाव्रेन्तेविच ने कहा.

मोबाइल रख लिया. आख़िरी पैग पी लिया. करने दो इंतज़ार.

उठा और दरवाज़े की तरफ़ चला. अगर गव्न्युकोव लोग ख़ामोश ही रहते, तो वह दरवाज़े से उनसे कहता “फिर मिलेंगे”. मगर पहले गव्न्युकोव से ही नहीं रहा गया:

“सौ डॉलर्स, हाँ?”

“सौ यूरो,” और बिना मुड़े बाहर निकल गया.

रास्ते पर आकर सोचा कि “दो सौ” कहना चाहिए था.

अचानक हल्की सी ख़ुशी की लहर दौड़ गई और तभी शरीर में जानी-पहचानी ठण्डक महसूस हुई : अभी भी ठण्ड है.

ओवरकोट की ऊपरी बटन बन्द करते हुए वह सोच रहा था, कि नेकटाई खरीदने के लिए गर्दन की गोलाई को जानना ज़रूरी नहीं है. हो सकता है, बात तब नेकटाई की न हो रही हो. गिफ्ट में तो उसे नेकटाई मुश्किल से मिलने से रही. ज़िंदगी चल रही है.

दो तरह की संभावनाएँ हो सकती थीं : मेट्रो में बैठकर घर चला जाए (घर पर उसे कल अधूरी रह गई बिचले तल्ले की सफ़ाई करनी थी…) या फिर गव्न्युकोवों के बगैर किसी महत्वपूर्ण जगह पर जाए, इस तरह, कि बीबी के सामने एक बेहद बेफिक्र अंदाज़ में पेश हो सके. दूसरे प्लान के फ़ायदों के बारे में सोचते हुए, ल्येव लाव्रेन्तेविच “हकलाहट का इलाज” वाले बैनर तक पहुँचा और रुक गया. उसे विश्वास की नहीं हो रहा था कि यहाँ वाकई में हकलाहट का इलाज होता है. और हकलाहट का सैद्धांतिक रूप से इलाज किया जा सकता है, ये बात उसे काफ़ी संशयास्पद प्रतीत हुई. झूठ बोलते हैं. शायद झूठ बोल रहे हैं.

ग़नीमत है, कि वह हकलाता नहीं है.

चारों ओर नज़र दौड़ाई.

गव्न्युकोव अपने दोस्त के साथ पीछे-पीछे आ रहा था.

उनके बीच करीब 100 मीटर्स का फ़ासला था, वे अभी-अभी तहखाने से निकले थे. “एल्ब्रूस” से. उन्हें और क्या चाहिए? वे ल्येव लाव्रेन्तेविच के पीछे-पीछे क्यों आ रहे हैं? अपनी बियर पी लेते. ल्येव लाव्रेन्तेविच को शक हुआ कि उनके इरादे अच्छे नहीं हैं. सुनसान गली. हो सकता है, उन्होंने सोचा हो, कि उसके पास बहुत सारे पैसे हैं? या मोबाइल छीनना चाहते हैं? महीना भर पहले किसी छोटे-मोटे चोर ने ल्येव लाव्रेन्तेविच के चौदह साल के भतीजे का मोबाइल छीन लिया; वह अपनी हिफ़ाज़त न कर सका. ल्येव लाव्रेन्तेविच ऐसा नहीं होने देगा.

दाएँ हाथ पर गार्डन-स्क्वेयर था; दो लालटेनें बेकार ही स्क्वेयर को प्रकाशित कर रही थीं, जो किसी अन्य मौसम में नर्सरी थी. अभी तो ठण्डे कीचड़ ने गार्डन और चौक दोनों को लबालब भर दिया है, इस सबके बीच जैसे जानबूझ कर एक धातु-प्लास्टिक की संरचना खड़ी है, अगर बर्फ हो तो बैठ-बैठकर फिसलने के लिए. ल्येव लाव्रेन्तेविच ने तेज़ कदमों से निडरता से गार्डन वाला क्षेत्र पार किया और काफ़ी चहल-पहल भरी एम-स्ट्रीट पर आया.

इस बात का यकीन करने पर कि उसका पीछा नहीं हो रहा है, ल्येव लाव्रेन्तेविच शहर के सेन्टर की ओर चल पड़ा. गाड़ियों का आवागमन पूरी तरह फिर से शुरू हो गया था, और इससे कीचड़ उड़ने का ख़तरा था. दो-एक बार उछल कर दूर हटना पड़ा. दूसरे आने-जाने वाले, घरों के नज़दीक-नज़दीक से चल रहे थे. ल्येव लाव्रेन्तेविच घर के पास गया और उसे देखा.

उसने उसे देख लिया – दद्दू कलश के अंदर पड़ी हुई चीज़ों का जायज़ा ले रहा था. मुझे यकीन है. वह ठीक उसी को ढूँढ रहा है. व्यस्तता से कलश में हाथ डालकर ढूँढ़ रहा है. क्या सौ रूबल्स उसके लिए कम हैं? ये क्या है? – चाहे जितना भी दो, कलश में ही घुसेगा?

ल्येव लाव्रेन्तेविच को फ़ौरन अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ, एक पल ऐसा था, जब उसे लगा कि उससे गलती हो गई है, ये कोई और है. नहीं, वही था. अफ़सोस, वही था. पुराना परिचित.

दुखी हो गया. ऐसी उदासी छा गई!…मगर उदासी के पीछे एक और उदासी चलती है. ल्येव लाव्रेन्तेविच बिना इधर-उधर देखे वहाँ से गुज़र गया, – जैसे ही वह घर के नुक्कड़ से मुड़ा, उसे याद आ गया, कि इस दद्दू से कब और कहाँ मिला था – इससे पहले.

कलश के पास! सिर्फ दूसरे!…

बिल्कुल अभी-अभी!

ल्येव लाव्रेन्तेविच की आँखों के सामने तस्वीर घूम गई : वह उस घिनौनी, चमकीली मैगज़ीन को कलश में फेंकता है, और कलश की बगल में दद्दू खड़ा है – बेघर जैसा! ये बिल्कुल वो ही है! आख़िरकार, याद आ ही गया!…

हाँ, ये अभी-अभी ही तो हुआ था, दो घण्टे भी नहीं बीते!

मगर ऐसा लगा था, कि बहुत पहले कहीं मिल चुके हैं…डिपार्टमेन्ट में…फैकल्टी में…

छि: छि: – हाँ, कलश के पास!

इसका क्या मतलब हुआ? मतलब ये हुआ, कि सेक्स-सर्विसेज़ वाली मुफ़्त मैगज़ीन, जिसे ल्येव लाव्रेन्तेविच ने कलश में फेंक दिया था, उसे दद्दू ने कलश से निकाल लिया? और फिर कलश से निकाली हुई मैगज़ीन को ल्येव लाव्रेन्तेविच के गले वापस मढ़ दिया, जैसे कुछ हुआ ही ना हो?… और ल्येव लाव्रेन्तेविच ने उसे ले लिया?…कलश से निकली मैगज़ीन को!… जिसे ख़ुद ही इस कलश में फेंका था!…

ये – “गले मढ़ दिया” – क्यों? क्या ल्येव लाव्रेन्नतेविच ने ख़ुद ही पहल करके दद्दू को नहीं बुलाया था? ख़ुद ही ने? क्या ख़ुद ही उसे वो नासपीटे सौ रूबल्स नहीं पेश किए थे? यही तो बात है, कि ख़ुद ही ने ये किया था!

इसे इस तरह भी देख सकते हैं : दद्दू को सौ रूबल्स की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि वह पैसे होते हुए भी कलश खंगालता रहता है, ये बहुत महत्वपूर्ण बात है, क्योंकि उस हाल में सौ रूबल्स बिल्कुल रिश्वत नहीं है और प्रायोजित इनाम नहीं है, बल्कि वाकई में कीमत है. कीमत उसकी, जिसके लिए दद्दू उसे प्राप्त करना चाहता था – मुफ़्त की मैगज़ीन के लिए! सेक्स-सर्विसेस वाली. जिसे कलश से निकाला गया था.

मतलब, गव्न्युकोव सही है : ल्येव लाव्रेन्तेविच ने सौ रूबल्स देकर मुफ़्त वाली मैगज़ीन खरीदी.

मतलब, गव्न्युकोव सही है : ल्येव लाव्रेन्तेविच ईडियट है!

और ये तब, जब गव्न्युकोव नहीं जानता था, कि मैगज़ीन कहाँ से आई है – कि उसे नहीं मालूम था, कि कलश से आई है!…और ये, कि ख़ुद ल्येव लाव्रेन्तेविच ने ही उसे कलश में फेंका था!… नहीं जानता था!…और अगर जानता होता, तो?

नहीं, ल्येव लाव्रेन्तेविच कितना बड़ा ईडियट है, गव्न्युकोव को पता ही नहीं है!

ये बहुत बड़ा धक्का था. पैरों के नीचे ज़मीन खिसक गई. ल्येव लाव्रेन्तेविच सोच रहा था : ये तुम मेरे साथ कर क्या रहे हो ददुआ? ये तो ठीक है कि मैं अपने आप का भी वैसा ही आलोचक हूँ, जितना दुनिया का. मगर कोई और आदमी? कोई और आदमी, जिसके पास कोई नैतिक आधार नहीं है, उसका आधार तो बिल्कुल ही खो जाएगा (बात हो रही है नैतिकता की), इन्सानियत से विश्वास उठ जाएगा, दिमाग़ में उपजे हर ख़याल को पूरा करने की इजाज़त देते हुए – क्या ये पाप नहीं होगा?

सोचना पड़ेगा, 150 ग्राम वोद्का दिमाग़ के लिए बेहतरीन खुराक है, जब वह सबसे अच्छी तरह से सोच सकता है.

ल्येव लाव्रेन्तेविच रुक गया.

एक और शहरी पागल पानी में इस तरह साइकल पर जा रहा था जैसे सूखी ज़मीन पर जा रहा हो; कोई और दुकान से भाले की तरह खूब लम्बा बेसबोर्ड उठाए निकला; ‘टो-ट्रक’ तेज़ी से गलत पार्क की गई “नाइन” (VAZ- 2109) कार को उठाने के लिए आगे बढ़ा, – मगर ल्येव लाव्रेन्तेविच को चैन नहीं था, वह अपनी जगह पर खड़ा रहा, बिना हिले-डुले – गलतियों और भूलों का हिसाब करते हुए.

बहुत सारी गलतियाँ हुई हैं, शुरुआत हुई पैदा होने से. और ये, कि शादी की. और ये, कि पेत्या की बात मान ली, कार में बैठने का लालच करके बीबी के लिए गिफ्ट लाने चल पड़ा (और फिर, ख़रीदा भी नहीं!…), और ये कि सेक्स-सेवाओं की मैगज़ीन कलश में फेंकने को तैयार हो गया, और ये, कि उसे फिर से हासिल भी कर लिया…सौ रूबल्स में…मगर यही सब कुछ नहीं है! ये, कि उसने उस “कपड़े पहनी” लड़की को फोन किया, ये भी गलती ही थी! और ये सबसे ख़तरनाक गलती थी!

पसीने की पाइप जैसी ड्रेन पाइप को देखते हुए, उसे इस अंतिम गलती की गंभीरता का एहसास हुआ.

उसका मोबाइल रोशनी फेंक रहा है. वह डाटा-बेस में फँस गया है. अब उसे ढूँढ़ना आसान है. वाकई में, ढूँढेंगे, ज़रूर ढूँढेंगे. ख़ुद ही फोन किया और नहीं आया. सेक्स-बिज़नेस बेईमानी को माफ़ नहीं करता. असल में, उसने फोनवाले बदमाश जैसा काम किया है : एक बोगस-ऑर्डर दिया (या, असल में उसे क्या कहते हैं?), सिर्फ इससे मज़ाक करने की इजाज़त नहीं है. हो सकता है, कि ल्येव लाव्रेन्तेविच की शीघ्र विज़िट के ख़याल से उसने किसी अन्य क्लाएण्ट को इनकार कर दिया हो, परिणाम स्वरूप ल्येव लाव्रेन्तेविच नुकसान का, हानि का कारण बना है – नैतिक और वित्तीय हानि का. नैतिक से भी ज़्यादा – वित्तीय हानि का. उसे फ़ोन करेंगे और पूछेंगे कि वह कहाँ है. और कहेंगे कि मार्केट को जवाब देना ज़रूरी है. चाहे जो भी हो, उससे दूर नहीं हटेंगे. उसे फ़ोन करते रहेंगे और ख़ास तरह की सेवाओं का प्रस्ताव रखेंगे. रात को भी. नहीं, रात ही में. जब वह बीबी के साथ एक बिस्तर में सोया होगा (या नहीं सोया होगा). जिसके लिए आज उसने गिफ्ट नहीं खरीदा था.

चौराहे से एक के बाद एक बर्फ़ हटाने वाली मशीनें गुज़र रही थीं. किसलिए – अगर बर्फ के ढेर पिघल चुके हैं?

एक उपाय है – ऑर्डर कैन्सल कर दिया जाए. फ़ौरन. इससे पहले कि वहाँ से उसे फ़ोन करें.

उनके फ़ोन का इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं है.

और उसने फ़ोन किया – कैन्सल करने के लिए.

“ये – फिर से मैं हूँ,” ल्येव लाव्रेन्तेविच ने कहा.

“हम कहाँ घूम रहे हैं?”

“अफ़सोस, परिस्थितियाँ बदल गई हैं. मैं नहीं आ सकूँगा.”

“ ये ‘नहीं आ सकूँगा’ का क्या मतलब है? कहीं पास ही में घूम रहे हो, और अचानक “नहीं आ सकूँगा?” ये क्या बात है. आ जाइए, पछताएँगे नहीं. हमें कोई डिस्टर्ब नहीं करेगा. मैं इंतज़ार कर रही हूँ. आइए, आ जाइए.”

“क्या आप वाकई में डिप्रेशन से छुटकारा दिलाती हैं?” ल्येव लाव्रेन्तेविच ने पूछा, क्योंकि उसे वाकई में जवाब में दिलचस्पी थी.

“और गुनाह के एहसास से भी. और अप्रिय अनुभवों से.”

“हो जाता है?”

“और नहीं तो क्या!”

“माफ़ कीजिए : मैं विश्वास नहीं करता. किसी पर भी विश्वास नहीं करता, और ख़ास तौर से आप पर.”

“प्यारे, इसे अपने आप पर आज़माना पड़ता है, महसूस करना पड़ता है, और तभी – “विश्वास करता हूँ, नहीं करता” कहो.  मैं उच्च श्रेणी की चिकित्सक हूँ. और आख़िर, मैं ग्यारंटी के साथ काम करती हूँ.”

“मगर सेक्स के बगैर,” ल्येव लाव्रेन्तेविच ने उसे रोकने की कोशिश की.

“सिर्फ इतना मत कहो, कि तुम्हें सेक्स चाहिए. मेरे चन्दा, तुम्हें संवाद की ज़रूरत है, न कि सेक्स की. मुझे मालूम है, कि मेरा किससे पाला पड़ा है.”

“और, ग्यारंटी क्या है, ताज्जुब है? (और असल में: क्या, ताज्जुब है, ग्यारंटी है?)”

“एक सेशन के बाद, आत्महत्या एक महीने के लिए स्थगित हो जाएगी.”

बात में दम था.

“कम्बख़्त,” ल्येव लाव्रेन्तेविच ने ग्यारंटी का मूल्यांकन किया. और सुना:

“चलो, फोन पर बात करना काफ़ी है. पता याद दिलाती हूँ.”

याद दिलाया.

आख़िर क्यों नहीं? उससे बातें करना भी दिलचस्प है. नये-नये अनुभव…

…दरवाज़ा खोला एक अलमारी ने – चौड़े कंधे, चौड़ी हड्डियाँ, और उसकी आँखें भी बेहद चौड़ी थीं. दाढ़ी बेहद चिकनी थी.

नज़रों से ल्येव लाव्रेन्तेविच को तौलते हुए उसने ज़ोर से कहा:

“तुम्हारा!” – और किचन में चला गया.

वह कमरे से बाहर आई – ल्येव लाव्रेन्तेविच ने देखकर पहचान लिया कि “कपड़े पहनी हुई” लड़की है – करीब पैंतीस – चालीस साल की भरी-पूरी औरत, होंठ रंगे हुए, बॉबकट हेयर स्टाइल : “कपड़े पहनी हुई” लड़की रसीले-नीले रंग के ट्रैक सूट में थी और वह किसी बड़े खेल की अनुभवी खिलाड़ी की तरह लग रही थी – मध्यम श्रेणी के पूर्व वेटलिफ्टर से कुछ अधिक.

“तो, हमारी समस्या क्या है?”

“मतलब?”

“किसी बात का पछतावा? किसी काम के अधूरा रह जाने की भावना? अपनी कमी की वजह से मानसिक कष्ट? नहीं? ओवरकोट, मेहेरबानी से, यहाँ. आपके ओवरकोट का हुक क्या उखड़ गया है? सिया क्यों नहीं है? बीबी है?”

“वैसे, हाँ,” ओवरकोट को ऊपर वाली बटन के छेद से लटका कर ल्येव लाव्रेन्तेविच बुदबुदाया.

इंटरव्यू जारी रहा:

“मैं डिप्रेशन का कारण जानना चाहता हूँ. कौन सी चीज़ ठीक नहीं है?

“मुझे हर चीज़ ठीक लगती है…मगर न जाने क्यों हर चीज़ वैसी नहीं है…कुछ सही नहीं है…”

“अपराध भावना?”

“नहीं, अपराध की कोई भावना नहीं है…मैंने किसी के भी प्रति कोई गुनाह नहीं किया है…”

“मगर बेशक. अपने मुकाबले में दुनिया से ज़्यादा शिकायतें हैं. हर बात के लिए हम मानवता को दोषी मानते हैं.”

“आम तौर से मेरे मन में मानवता के प्रति कोई ख़ास शिकायत नहीं है, उसके कुछ अलग-अलग प्रतिनिधियों के प्रति हैं, और बड़ी शिकायतें हैं…मगर दूसरी तरफ़ से, आप मानेंगी, कि किसी लिहाज़ से हमारी मानवता …ओय,ओय…”

“मानवता – ओय, मगर आप – हुर्रे.”

“हुर्रे ही तो नहीं है. अगर हुर्रे होता, तो मैं आपसे बात नहीं कर रहा होता.”

“क्या पी रहे थे?”

“वोद्का…थोड़ी सी.”

“तीन हज़ार,” कपड़े पहनी औरत ने कहा.

उसे मालूम था, कि महँगा ही होगा. पीछे हटने के लिए अब देर हो चुकी थी. पैसे निकाले, उसने नोटों को स्पोर्ट्स पैन्ट की जेब में छुपा लिया.

“मुझे मैडम कहोगे.”

“तेज़ है”, ल्येव लाव्रेन्तेविच ने सोचा.

वह मानवता के दोषों पर कुछ और दार्शनिकता बघारना चाहता था, मगर मैडम ने पूछा:

“कॉफ़ी?”

“हाँ, एक कप कॉफ़ी, अगर संभव हो तो.”

“और ये किसने कहा, कि संभव है? मैंने पूछा, चाहिए या नहीं चाहिए, और संभव है या असंभव, इसका फ़ैसला करने की तुम्हें ज़रूरत नहीं है, समझ गए, ईडियट? आँखें क्यों निकाल रहे हो? अटेन्शन! मार्च करते हुए कमरे में जाओ!”

ल्येव लाव्रेन्तेविच के पैर अपने आप मुड़ गए, जैसा उसे आदेश दिया गया था, और फ़ौजी चाल से कमरे में ले गए. ल्येव लाव्रेन्तेविच ने सिर को थोड़ा सा झुकाया था, ताकि देहलीज़ से न टकराए. या सिर पे कोई चोट न लगे.

उसकी आँख़ों के आगे अँधेरा छाने लगा – या तो डर के मारे, या कुछ बुरा होने के एहसास से, या तो कुछ समझ न पाने से, कि कहीं कुछ ठीक नहीं है. मगर वह ग़ौर कर सका : कमरे जैसा ही कमरा – फर्श पर एक लैम्प, लापरवाही से समेटा गया बिस्तर, मेज़, मेज़ पर गन्दा मेज़पोश, एक प्लेट, प्लेट में केले के बचे-खुचे टुकड़े. पीड़ा पहुँचाने के औज़ार नज़र नहीं आए. साधारण कमरा.

“तुम शायद सोच रहे होगे, कि मैं चुटकुले सुनाकर मज़ाक करने वाली हूँ? मैं दिखाऊँगी तुम्हें चुटकुले! दीवार के पास तख़्ता है – तख़्ता उठाओ!”

उठाया.

“उसका सिरा पलंग पर रखो! ये वाला नहीं, बल्कि वो, बेवकूफ़! और ये सिरा यहाँ लगाओ, अलमारी की टाँग में! जल्दी, मूरख!”

ल्येव लाव्रेन्तेविच ने जल्दी-जल्दी आदेश का पालन किया.

“तू, घनचक्कर, जूते पहनकर अंदर आ गया? पता नहीं है, जूते कहाँ उतारते हैं? हो सकता है, तुझसे फर्श धुलवाऊँ? जल्दी!…खड़े क्यों हो? अब आ ही गए हो तो यहाँ उतारो!…पतलून उतारो! जैकेट रहने दो…

ल्येव लाव्रेन्तेविच कुछ बुदबुदाया असमानता के बारे में, इस लिहाज़ से नहीं, कि पतलून की अनुपस्थिति में जैकेट रहने देना सरासर असमानता है, बल्कि इस लिहाज़ से कि एकता होनी चाहिए, जब एक पतलून में है, और दूसरा बगैर पतलून के…

अब तो मैडम पूरी तरह बिफ़र गई:

“तू, केंचुए, क्या मुझे कपड़े उतारने को कह रहा है? तेरी हिम्मत कैसे हुए मुँह खोलने की? सुनो, बेवकूफ़, अगर कुछ कहना चाहते हो, तो पहले बोलो : मैडम, मुझे कहने की इजाज़त दीजिए, और तुझे कहना चाहिए या नहीं कहना चाहिए, इसका फैसला मैं करूँगी!… ये ईडियट की तरह क्या देख रहा है? कमीने, तू पतलून उतारेगा या नहीं? तीन तक गिनूँगी! एक…दो…”

पता नहीं, कि तीन कहते ही क्या हुआ (हो सकता है, वो चौड़े कंधों वाला उछल कर प्रकट हो गया हो…), मगर ल्येव लाव्रेन्तेविच अपनी मैडम को चेतावनी देने में सफ़ल हो गया – पतलून अंतर्वस्त्रों समेत नीचे फिसल गई.

“मुँह के बल तख़्ते पर लेट जाओ!” –  मैडम ने आज्ञा दी.

लेट गया. बिना आदेश के भी वह लेट जाता.

“छड़ी? चाबुक? रूलर? बाँस? फ़ौजी का बेल्ट?”

वह समझ रहा था, कि उसे इनमें से एक चुनने के लिए कहा जा रहा है, मगर किसी एक को चुनने में वह असमर्थ था. वह कहना चाहता था : रुकिए, मैं परपीड़क नहीं हूँ, मुझे इनमें से किसी की भी ज़रूरत नहीं है, मैं सिर्फ बातचीत करना चाहता था…मगर उसकी ज़ुबान जैसे गूँगी हो गई, ल्येव लाव्रेन्तेविच कुछ भी न कह सका.

“ मैं छड़ी की सिफ़ारिश करती हूँ. ताज़ी. बिना इस्तेमाल की हुई.”

सुना : वह बाल्टी को दूसरी जगह पर रख रही है (कमरे में घुसते हुए उसका ध्यान बाल्टी की ओर नहीं गया था). कहीं बाल्टी में छड़ियाँ तो नहीं हैं?

उसे तो बचपन में कभी मार नहीं पड़ी थी, दूसरी कक्षा में भी, जब उसने दादा के पासपोर्ट पर न जाने क्यों डाक टिकट चिपका दिए थे…

मगर ‘ब्लैक एण्ड व्हाइट’ में साफ़-साफ़ लिखा हुआ था : “पोर्कोथेरपी” – उसने ख़ुद ही तो पढ़ा था! अब हैरानी की क्या बात है?! या तो तुम्हारा हर चीज़ से इस कदर भरोसा उठ गया है, कि छपे हुए अक्षर पर भी विश्वास नहीं है?…

हवा में सीटी-सी बजी, और उसे जैसे जला दिया हो.

“आह!”

“अच्छा लग रहा है? मैं बताती हूँ तुझे कि डिप्रेशन क्या होता है!”

 “आह!”

“मैं तुझे बताती हूँ कि घमण्ड कैसे चूर होता है!”

“आह!”

“मैं तुम्हें बताती हूँ…”

मगर इससे पहले कि उसे चौथी बार मार पड़ती, ल्येव लाव्रेन्तेविच चिल्लाया, जैसे किसी को मदद के लिए बुला रहा हो:

“आSSSSSSSSSSS!”

जवाब में आई एक गरजती हुई और तीखी चीख, जो ज़ाहिर है मैडम की नहीं थी.

“कमीने!” अत्याचारी औरत ने कहा.

उसने सिर को ज़रा सा मोड़ा तो दीवार पर कोई गोल-गोल चीज़ देखी – सॉस-पैन जैसी और इस चीज़ पर चीख़ मारने वाला कोई प्राणी घूम रहा था.

“बैरोमीटर,” मैडम ने सोचा कि समझाना संभव है. “तीखी आवाज़ होते ही बन्दर बाहर उछलता है. अगर ताली बजाओ या चिल्लाओ, जैसा अभी तुमने किया था. ये मेरे पति ने उपहार में दिया है.”

इस समय उसकी आवाज़ ज़रा भी हुकूमत भरी नहीं थी, बल्कि सिर्फ ऊँची आवाज़ थी, जिससे बन्दर उसके शब्दों को न दबा दे. ल्येव लाव्रेन्तेविच को मैडम की आवाज़ में कुछ नज़ाकत भी महसूस हुई, मगर, हो सकता है, कि ये सिर्फ एहसास हो, मगर पता कैसे चले, कैसे पता चले…

बन्दर ख़ामोश हो गया.

“मैडम…आप शादी-शुदा हैं?”

हो सकता है, वह समझ गई, कि कमज़ोर पड़ रही है, और, अपनी इच्छा शक्ति को मुट्ठी में इकट्ठा करके, फिर से चिंघाड़ने लगी.

“मैं तुझे दिखाती हूँ शादी-शुदा!…मैं तुझे दिखाती हूँ, कि पारिवारिक बंधन क्या होता है!…मैं तुझे दिखाती हूँ, कि बीबी से बेवफ़ाई क्या होती है!…:

वह कहना चाहता था कि वह बीबी से बेवफ़ाई नहीं करता, सिर्फ अभी, इस बात को छोड़कर, अगर इसे बेवफ़ाई कहा जाए तो, – मगर नहीं , बिल्कुल नहीं, क्योंकि उसने कहा था : “सेक्स के बगैर”! उसे समझाना चाहिए…मगर कैसे समझाए, जब :

“ये ले!…ये ले!…ये ले!…”

“बस!” ल्येव लाव्रेन्तेविच ने विनती की, इस डर से कि कहीं बन्दर को न डरा दे. “काफ़ी हो गया!”

“ख़ामोश!…तुझे तो अभी बीस ताज़ी छड़ियाँ भी नहीं पड़ी हैं!…ले!…ले!…ले!..नहीं, आपने ऐसा देखा है, उसने सोचा कि मैं मुफ़्त में ही पैसे लेती हूँ?! मैं तुझे दिखाती हूँ ‘काफ़ी हो गया’!…मैं तुझे दिखाती हूँ ‘काफ़ी हो गया’!…ये ले, कमीने! ये ले, कमीने!…सुइसाइड, कहता है!…ज़िंदगी से शिकायत, कहता है…शिष्टाचार का पतन, बूढ़ा खूसट, कहता है!…और तूने वोट किसे दिया था, कमीने?…मैं तुझे सिखाऊँगी, कि किसे वोट देना है!…मैं तुझे वोटिंग में नहीं जाना सिखाऊँगी!…मैं तुझे दिखाऊँगी शिष्टाचार का पतन!…मैं तुझे सिखाऊँगी इन्सानियत से प्यार करना!…”

“मैSSSSडम!” ल्येव लाक्रेन्तेविच कराहा और ओय-ओय, ई—ई करने लगा; ये आख़िरी चाबुक था.

शक्तिहीन होकर मैडम धम् से कुर्सी में धँस गई. वह धीरे से तख़्ते से नीचे सरका, डरते हुए कि उसे रोक न दिया जाए. फ़ौरन अंतर्वस्त्र, पतलून पहन लिए. बेल्ट कस लिया.

“मुझे तो कभी कोने में भी खड़ा नहीं किया गया,” ल्येव लाव्रेन्तेविच ने कहा और सिसकियाँ लेने लगा.

“बेकार ही ऐसा नहीं किया.”

बिना किसी नफ़रत के उसने कहा. इन्सान की तरह. सुन रहा था कि वह गहरी-गहरी साँसे ले रही है. फिर भी एक नज़र उस पर डाल ही दी : मोटी, मोटे-मोटे हाथ – बाप रे! सोचा : ये तो अच्छा हुआ कि बगैर सेक्स के कहा था.

“मैंने ‘मसाजिस्ट’ की ट्रेनिंग ली थी. मगर अब तो ये मसाजिस्ट इतने ढेर सारे हो गए हैं. दूसरी ट्रेनिंग लेनी पड़ी – साइको-थेरापिस्ट की. कॉफी पियेंगे?”

“नहीं, नहीं, धन्यवाद.”

“सेशन ख़त्म हुआ. आपकी ख़ातिर कर सकती हूँ.”

“धन्यवाद, मैं जाऊँगा.”

“तबियत थोड़ी बिगड़ेगी, माफ़ी चाहती हूँ.” और दरवाज़े में: “स्थायी कस्टमर्स को दस प्रतिशत की छूट मिलती है.”

बाहर हवा में ताज़गी थी, ठण्डक थी. उसने ऊपर से गिरती हुई चीज़ को देखने के लिए सिर उठाया – इस बार बर्फ गिर रही थी. पैदल यात्री ख़ुश थे और भले लग रहे थे. उसके चारों ओर की हर चीज़ वैसी नहीं थी, जैसी कुछ देर पहले थी. हर चीज़ ज़्यादा बेहतर और ज़्यादा साफ़ थी. उसके भीतर भी कुछ असाधारण रूप से अद्भुत जैसा था, ऐसा लग रहा था, कि रोशनी हो गई है, और सीने में इतना हल्कापन था, कि बस उड़ ही जाओ. सबको माफ़ करता हूँ और मुझे भी माफ़ कीजिए. ज़ोर की भूख लग आई थी. मेट्रो के लिए और सॉसेज-रोल्स के लिए पैसे पर्याप्त थे. पहले सॉसेज-रोल्स, और फिर मेट्रो में. घर, घर!…कोई बात नहीं. कल उधार ले लेगा. उसके लिए बन्दर वाला बैरोमीटर खरीदेगा. अच्छी चीज़ है.

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प्रज्ञा पांडे की कहानी ‘सती का चौरा’

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प्रज्ञा पांडे की कहानी ‘सती का चौरा’ की आज फ़ेसबुक पर चर्चा देखी तो सोचा पढ़ाया जाए। काफ़ी बहस की माँग करती कहानी है- मॉडरेटर

सती  का चौरा

               नई नई आगता के वे हाथ अपनी कुशल गति में कुछ गढ़ रहे थे.नीले आसमान पर उड़ते परिंदे की उड़ान सा कुछ, शब्दहीन, बिलकुल अनाम सा या फिर जैसे कुम्हार गढ़ता है कोई आकार नया। सुबहसुबह हथौडियों की कोमल चोट ने पूरे गाँव को पीपल के उस दरख्त के नीचे इकठ्ठा कर लिया था. थोड़ी देर के लिए तो एक बेआवाज़ सा सन्नाटा चारों  ओर पसरा था।

      आगता की माँ दामिनी ने अपनी सात वर्ष की मासूम आँखों से, दरवाजे की दरार से झाँककर अपनी जिज्जी कमलिनी को जिस दीपशिखा में बदलते देखा था वह दीपशिखा प्रलयानल बनकर उस दिन उसकी नाभि में ही समा गई थी और जाने कब वक़्त की किसी गोधूलि में, धीरे से, गर्भनाल से लिपट उसकी बेटी आगता की नाभि के भीतर पैठ गई थी। आज छेनी पर पड़ती हथौड़ी की चोट से निकलती चिंगारियों में वही आग बार-बार ज़िंदा हो रही थी. उस दिन सुबह-सुबह पीपल के उस पेड़ के नीचे पुरुषों से कहीं अधिक औरतें इकठ्ठा हो रहीं  थीं.

      उनमें कुछ बहुत उम्रदार,कमज़ोर आँखों वाली, अनुभवी स्त्रियाँ थीं जिन्हें वह छेनी हथौड़ी वाली लड़की, कमलिनी लग रही थी। कमिलिनी जिसको जलकर मरे  हुए तो चार दशक बीत चुके थे फिर भी उसकी मृत्यु का वह कालखंड उस पूरे गाँव पर हावी था.वहां एक ऊर्जा मिश्रित सा उत्तेजित भय तारी था। वहां खड़े लोगों की फुसफुसाहट बढ़ती ही जा रही थीं ।

 आगता के एक जोड़ा अनुभवहीन और अगढ़ हाथ नई कोंपलों जैसे थे, जिनमें छेनी और हथौड़ी का होना उस गांव के लिए एक अचम्भा था .वे वर्षों पुराने सती-चौरे की एक-एक ईंट पर छेनी लगाकर, बिना किसी भय के बहुत सधेपन से प्रहार कर रहे थे. तिलिस्म का कतरा-कतरा बिखर रहा था और वर्षों से पूजित सिंदूर,बुझे हुए दिया-दीप, जली हुई रुई की बत्तियों,अगरबत्तियों और धुएं के काले निशानों से धुआंई वह जगह ज़मीन पर बिखर रही थी. अँधेरे और धुएं के जाने कितने शापग्रस्त प्रारूप ध्वस्त होते जा रहे थे. वह चौरा जैसे किसी मनुष्यता से हीन बस्ती में बना, पथराया हुआ काला पहाड़ था जो पिघलकर बीत रहा था. सती चौरे का टूटना और औरतों का चुप रह जाना भी एक अचरज था। वहां खड़ी वे स्त्रियाँ भयों के चौरों में कब-कब,और कितनी-कितनी बार बंधीं थीं,कौन जानता था लेकिन  अचानक कुछ आवाजें एक साथ उठीं थीं और उठकर फिर दब गयीं थीं .

    बरसों बरस पहले वह माह फागुन ही था जब उसी जगह एक युवती रहती थी, नाम था कमलिनी थी। वह हंसती तो बसंत हँसता था.वह धान के खेतों की तरह थी, भीगी-भीगी नरम मिटटी जैसी लेकिन उसके चारों ओर परकोटे सा थाला रोप कर उसे  बड़ा किया जा रहा था ताकि वह उनकी गढ़ी प्रजाति की स्त्रियों जैसी ही खिले, फले और फूले।

      कमलिनी ने अपने चारों और बने थाले के विध्वंसक उठान को अजीब निगाहों से देखा था और विद्रोह कर ज़मीन की उमस के भीतर जा पहुंची थी. ऐसा उसने कब किया इसका अनुमान कर पाना किसी के लिए भी उतना ही कठिन था जितना हरहराते समुद्र के अथाह गर्भ में बैठे सुनामी के सुराख को जन्मता देख पाना। कोई जान भी न पाया था और कमलिनी भीतर ही भीतर,नीचे ही नीचे  फैलने लगी थी जहाँ घुटन,धुंआ और अन्धेरा था, जहाँ सपनों का सिर्फ मर जाना था, और तरह तरह की चुप्पियाँ थीं लेकिन जिसके गर्म लावे को फूटने से रोकने के लिए लोहे की चट्टान भी असमर्थ थी .

         सुमेधा ने अखबार उठाकर खबर देखी।गाँव वही था,सुरपुर। वह चौंकी। वह न्यू जागरण टाइम्स में एक कालम के लिए काम करती थी.गांवों की अंधविश्वास से भरी खबरों की पड़ताल कर स्टोरी बनाती थी और उनका सच उजागर कर उसका खंडन करती थी.आज उसी गाँव के बाहर बने सती चौरे को एक अट्ठारह-उन्नीस साल की लड़की  तोड़ रही थी ।खबर ने उसे बेचैन कर दिया था।

     आज से दो साल पहले ही तो सुमेधा उसी सती चौरे की कहानी पर काम करने गई थी लेकिन सुरपुर एकमात्र ऐसी जगह थी जहाँ जाकर वह उस पहेली में खुद ही उलझ गई थी, जो उसने अपनी आँखों से देखा सुना था, उसको अन्धविश्वास कैसे कहे. उसे तो सुमेधा पलटवार कह सकती थी लेकिन क्या दुनिया से रुखसत होने के बाद कोई स्त्री पलटवार कर सकती है ? ऐसा  पहली बार हुआ था कि वह स्टोरी पूरी नहीं कर पाई थी और उसे सम्पादक को अफ़सोस के साथ ‘न’ कहना पड़ा था.

     आज का समाचार पढ़ते हुए उसने बुदबुदाते हुए कहा-लगता है कि आज कहानी पूरी हो जायेगी.सुरपुर से लौटकर उसने उस सुरपुर की चर्चा कई लोगों से की भी थी- ‘लड़की की पहली विदाई से पहले ही उसका पति उससे मिलने चला आया था और  लड़की के भाई ने उसे देख लिया था।  भाई भानु ने बहुत अनाप शनाप कहने के साथ ही लड़की को चरित्रहीन कह दिया था, लड़की ने आग लगा ली थी और  जल कर मर गई थी.गाँव के वे परिवार जिनके घर का कोई सदस्य उस घटना में शामिल हुआ था, भानु की जिंदगी के तबाह हो जाने के अलावा, वर्षों बीत जाने के बाद भी कुछ ख़ास लोगों की तबाही और उन घरों का वीरान हो जाना, आदि कई घटनाएं थीं जो अब भी घट रहीं थीं और विज्ञान की समझ से बाहर थीं। विश्वास नहीं होता।

 लड़की का श्राप  कमोबेश पूरे गांव को लगा. ऐसा कैसे  हुआ। यह भी कोई बात  हुई ?

 यह तो आये दिन की बात है.जाने कितनी लड़कियाँ रोज़ ही तो जलती-मरती हैं. कहाँ किसी को किसी स्त्री का श्राप लगा। सीता अहिल्या द्रौपदी कुंती सभी की कहानियां उसके दिमाग में घूम गयीं, श्राप तो उन्हें लगा जिन्होंने दुःख उठायेऔर वे सब स्त्रियाँ थीं ।

       उसके चारों ओर पढ़ी लिखी स्त्रियों का मजबूत तबका है। वे स्त्रियां भी खूब हैं जिनकी बड़ी बड़ी गाड़ियों के दरवाजे खुलते ही महंगे परफ्यूम का जबरदस्त भभका आता है। उनका कहना था – उसने कायदा तोड़ा था।  यह तो गलत किया था उसने। लेकिन हाँ, तब के लोगों में एक आब होती थी .अब ये सब कहाँ .

” आप भी क्या कहतीं हैं। ये सब पुरानी बाते हैं. आजकल यह सब कहाँ होता है जलता-बुझता कौन है।

“पुरानी बातें ?”

“अरे ,यह भी कोई बात हुई। हाँ ये बात माननी पड़ेगी कि पहले वे खुद ही जलतीं थीं और अब जलाई जाती हैं”

समय किस तरह अपने भीतर के किसी अँधेरे में समा रहा है और लोग हैं कि  हर बात को जुमला बना देते हैं .स्त्रियों के मामले में कुछ बदलता क्यों नही.सुमेधा सोचती है।

     अब वह कितनी बहस करे।जितने मुंह उतनी बातें . शहर में आये दिन तो नाबालिग़ से सामूहिक बलात्कार  की घटनाओं के लिए सभाएं और जुलूस होते रहते हैं। बड़े शहरों में लोग मोमबत्तियाँ भी जलाते हैं। जुलूस निकालते हैं। अपनी जलाई मोमबत्तियों से अपने ही हाथ जला लेते हैं लेकिन बात जहाँ की तहाँ ही रह जाती है। कुछ भी तो नहीं बदलता है .उसको लगता है फर्क बस इतना ही हुआ है कि अब गावों की खबरें शहर की खबरों से मिल गयीं हैं।अब यहाँ सी खुली दुश्वारियां वहां भी हैं।

      सुमेधा ने अपने लैपटॉप में सर्च किया-सुरपुर- दो साल पहले लिखी अपनी स्टोरी निकाली-जब एक दिन वह  महानगर से एक निर्जन से गाँव की ओर चल पडी थी. उसे सब कुछ ज्यों का त्यों याद आने लगा। बस, गनेशपुर बीतते-बीतते एक किलोमीटर बाद ही उसे उतर जाना  था, पहचानस्वरूप उस पुराने पीपल के पेड़ को देखते ही वह बस रुकवाकर सड़क के बगल ही उतर पडी थी. वह पीपल का पेड़ तो उस गांव के बसने के पहले से वहां है। उसने देखा  उसकी मोटी-मोटी  सोरें जमीन में बहुत गहरे धंसी हैं। उसे देखते ही वह समझ  गई थी कि यही वह दरख़्त   है जो  कमलिनी  की मौत का आखिरी गवाह  है.लोग कहते थे कि उस पीपल को उस रात की एक-एक बात मालूम है, उसके पास आवाज़ नहीं तो क्या .

                       उसने गांव की ओर जाता रास्ता पकड़ा  और कमलिनी के उस फूल तक पहुंच गई। सबसे पहले तो वह उस सफ़ेद फूल की चर्चा सुनकर ही उस गाँव की ओर आयी थी जो हर वर्ष बसंत को मुंह चिढ़ाता, गाँव के बीचोबीच खड़े वीराने में खिलता था और जिसकी चिरायंध गाँव भर के लोगों को परेशान तो करती ही थी, बाहर निकलकर दिगंत तक जाती थी.वह फूल पूर्णिमा के पूरे चाँद सा खिलता था. फर्क बस  इतना था कि फूल का केंद्र लाल लपटों से लिपटा हुआ  था। उस फूल को लोग ‘कमलिनी का फूल’ कहते थे.

       चुभती धूप से चमकता, भरे पूरे गाँव के बीचोबीच एक विशाल कच्चे घर की गिरी हुईँ दीवारें और ढही हुई छत के बीच एक आंगन था जिसे देख पता चलता था कि वर्षों पहले यह एक अन्न-धन से संपन्न घर रहा होगा. उसे देख कर ही उसे लगा कि जाने कब से किसी ने इस जगह की खोज-खबर नहीं ली है। उसने अगल-बगल खड़े लोगों से पूछा। पकी उम्र के लोगों ने मिचमिचाती आँखों से उसे देखते हुए यही कहा -अरे उस ओर कोई नहीं जाता। वह जगह तब से वीरान है जब हम लोग जवान थे।

    पूरे गाँव में चारों ओर हरियाली की लतरें आपस में अँगुलियों सी उलझी हुईं दिखाई दे रहीं थीं। झरी हुई ईंटों के बीच से  फूटते विशाल पेड़ों के रूप थे तो कहीं चमकते  फूलों वाले मदार के रंग। कहीं झरबेरी, कहीं मेंहन्दी कहीं सदाबहार. कटी फसलों से भरे खलिहान, खाते -पीते किसान-परिवार, गोधन से भरी दुआरों और छलकती सुन्दर स्त्रियों वाला गाँव था वह. खँडहर पडा था तो बस वह एक गिरा हुआ विशाल पुराना घर .

       सती कमलिनी की कहानियां वह गाँव में घुसते ही सुनने लगी थी उसका लंबा कद, उसकी मन-मोहिनी हंसी, उसके लहराते लम्बे बाल, जिसके मुंह से उसने सुना उसी सती की चर्चा सुनाई दे रही थी. एक ही कमलिनी के कितने रूप थे .गाँव के  लोगों  ने उस सती स्त्री का अप्सरा रूप उसके जेहन में बसा दिया था .

     गाँव के लोगों ने ही बताया कि उस वीरान घर के मालिक उस घटना के वर्ष ही गांव-जवार छोड़ कर चले थे । उनलोगों ने अपने  सारे खेत खलिहान  बेच दिए थे । एक समय जिन खेत खलिहानों को वारिस की ज़रुरत पडी थी और  मंदिरों-दरगाहों,पीरों और फकीरों के दर पर माथा रगडते जिनके माथे के घाव भरे  नहीं थे, जिनके लिए मन्नतें मानते रहे थे वे, वे ही शहरों की ओर भाग गए थे . वह मन ही मन हंसी। गीदड़ की मौत आती है तब वह शहर की ओर  भागता है लेकिन वह इसे किसी लड़की का श्राप कैसे मान सकती थी .

     उसे उस वीराने से आती कमलिनी की आवाज़ सुनाई दे रही थी जैसे वह कहती जा रही हो- जब वह वंश का अर्थ भी न जानती थी तब से उसने वंश के बारे में सोचना शुरू कर दिया था. उसे लगता था कि वंश कोई बहुत बड़ी चीज होगी जो जमीन से आकाश तक जाती होगी। उसे मालूम नहीं था कि उसका भाई भानु ही वंश है. कमलिनी उससे बातें करने लगी थी। कुछ अजीब सी मिटटी थी उस गांव की। कमलिनी विदेह होकर भी रूप धरे खड़ी थी .

     अपनी  कहानी उसने  खुद ही सुना दी थी-“बालपन की जो बातें मुझे याद नहीं थीं  उन उदासियों के बारे में मैं  माँ की रोती आँखें देख जान गई थी. बाद का सब  कुछ तो  मुझे  याद है. उस बार सभी बहुत खुश थे। माँ के दिन पूरे हो रहे थे और मुझे  भी बेसब्री से भाई के आने का इंतज़ार था।मैं भी बारह-पंद्रह बरस की तो थी ही . एक अर्धरात्रि में अचानक  मैं  अचकचाकर जाग गई थी.थाली बजने की जगह सिसकियों की आवाजें थीं , पिता के गरजने की आवाज़ थी और सौर-घर के एक कोने से  लिपटकर  मां के थरथर काँपने  की आवाज़ थी .उन बहुत तरह की आवाज़ों में एक आवाज़ मेरी  भी थी ।मैं  माँ का हाल देख आर्तनाद करती थी, बिना बोले ही यातना के गीत गुनगुनाती थी -किसलिए ब्याह करू -कहीं मैने भी बेटी जनी, तब क्या होगा। कैसा घुटता हुआ संवाद था. मां ने  एक दो नहीं पांच बार आधी बनीं बेटियों का अपना गर्भ वंश के लिए वार दिया था। मैं  माँ के दुखों की चश्मदीद गवाह बनती जा रही थी. माँ रात भर सोती नहीं थी,रात के अँधेरे में पूरे घर में अर्धविक्षिप्त सी रेंगती रहती थी । छोटी बहन दामिनी की उपेक्षा मेरे  रहते कैसे हो सकती थी।  माँ को दामिनी को दूध पिलाने-जिलाने-खिलाने के लिए इतने ताने सुनने पड़ते कि माँ दामिनी को छूती नहीं थी वह  मर-मर कर जी रही थी । मैं  ही दामिनी की माँ हो गई थी। अपनी छोटी बहन  दामिनी के जन्मने के  बाद से ही शायद मैंने ज़मीन के भीतर फैलना शुरू कर दिया था. मैं कभी भी ज्वालामुखी की तरह फूट सकती थी . इस बात को घर के लोग नहीं जानते थे . अपने ही घर की  स्त्री के बारे में घर के लोग कुछ भी तो नहीं जानते.”

  उसके ताऊ के बेटे  भानु ने  सपने में भी न सोचा था- डरी-डरी, बड़ी बड़ी आँखों वाली बित्ती भर की लड़की इतनी सी बात पर सर्वनाश करेगी.दीवारों में चुनी हुई ईंटें जब एक साथ गिरतीं हैं तब अपने साथ बहुत सी गर्द और आवाज़ लेकर गिरती हैं. वे अपने आसपास ही नहीं बहुत दूर तक  बहुत कुछ ध्वस्त करतीं हैं। उस दिन  कमलिनी  ने यह साबित का दिया था । वह बात भानु को छोटी लगी थी लेकिन कमलिनी को बहुत बड़ी लगी थी.कमलिनी गौने के लिए रोकी गई थी. वह सारे नियम कायदों को सिर माथे पर उठाये थी .उसे चौखट का मान घुट्टी में पिला दिया गया था लेकिन उसका पढ़ा लिखा पति खुद को नहीं रोक पाया था और भानु की अनुमति लिए बिना ही उससे मिलने चला आया था . भानु उसी समय घर वापस आ गया था और उसने कमलिनी को पति के साथ बैठे देख लिया था . गौने के पहले पति के सामने बेशर्मी से बैठना भानु को कुल परम्परा का असह्य अपमान लगा था  . वह  कमलिनी के पति को कुछ कहने का साहस तो नहीं जुटा पाया मगर उसे कमलिनी को कुछ भी कह जाने की आदत थी तो उसी झोंके में वह कह गया था –‘तुम्हें मालूम नहीं कि हमारे घर में गौने से पहले पति से मिलना वर्जित है.तुम्हारे पास चरित्र नहीं है. तुम बेशर्म हो.” कमलिनी को काटो तो खून नहीं..पहली बार  बैठे पति के सामने हुए इस अपमान से नहा लाल हो उठी वह.जब उसकी लाज का घूंघट उसको चारों ओर उसका आवरण बना पडा था तभी जैसे किसी ने उसकी चीर खींच दी थी. उसका मान-अभिमान चोटिल हो गया.तारों की छांव की जगह घना अन्धकार छा गया .  उसकी बहुत सी बहनों के अर्ध-बने भ्रूण उसके भीतर बेआवाज़ चीख पड़े थे . उसकी पृथ्वी के भीतर इकट्ठा गर्म लावा अब भीतर रुकने को तैयार नहीं था. उसने उसी पल तय कर लिया –‘आज सर्वनाश करके ही छोडूंगी ’

दहकती आँखों से उसने भानु को देखा और अपने पति से उसी समय चले जाने के लिए कह गई .कुछ देर पहले की लजाती स्त्री असली रूप में रूपांतरित हो गई थी. उसका पति  कुछ भी समझता उसके पहले ही उसने अपनी कोठरी का दरवाज़ा भीतर से बंद कर लिया. अपमानित पतिचुपचाप चला गया. भानु गुस्से में बहुत देर तक बडबडाता रहा. उस घर पर किसी तूफ़ान के आने के पहले का सन्नाटा छा गया ..थोड़ी ही देर में कमलिनी की कोठरी से आग की लपटें उठने लगीं. सात-आठ साल की दामिनी कमलिनी की कोठरी की और भागी और दरवाजे की फांक से उसने अपनी प्यारी जिज्जी को धू धू कर जलते देखा .कमलिनी की आत्मा को जलाती वह आग उसी दिन सात साल की उस नन्हीं बच्ची के सीने में समा गई .दरवाज़ा तोड़कर कमलिनी को  निकाला गया और गांव  के बाहर बने पीपल के पेड़ के चारों ओर बने जगत पर  लिटा दिया गया.

         गाँव के बड़े बूढ़े कुछ सोच विचार कर ही रहे थे कि तभी कमलिनी के भीतर कोई शक्ति आ गई.जिस भानु के सामने उसकी घिघ्घी बंधी रहती थी उसी भानु को उस ने सबके बीच फटकारा–“मैं तुम्हारे खिलाफ पुलिस में बयान  दूँगी कि मैं  तुम्हारे कारण जली हूँ, तुमने मुझे चरित्रहीन कहा है?” भानु भौचक इधर -उधर देखने के बाद जली हुई असहाय कमलिनी को देखता रह गया. उसके बोल नहीं फूटे। उसको बचाने का जतन करने के लिए उसको चारों और से घेरे हुए गांव के वर्चस्वशाली पुरुष एक-एक कर उससे दूर होने लगे. रह गए प्रधान,सरपंच और पुजारी और गाँव के कुछ इज्जत्त के लिए मरने वाले लोग. उनलोगों ने सर्व-सम्मति से भानु को बचाने का फैसला किया और तय हुआ कि कमलिनी को इलाज सुलभ कराना उनके लिए बहुत खतनाक होगा .उसे उसकी मृत्यु आने तक वहीँ छोड़ दिया जाए. उन्होंने अनेक स्त्रियों को मरते देखा था. एक स्त्री के मर जाने से क्या बिगड़ जाता है लेकिन एक पुरुष यदि जेल चला गया तो पूर्वजों का  पुन्य-प्रताप  मान-सम्मान सब बिला जाएगा . कुल कलंकित हो जाएगा सो अलग . वे तो सर्वशक्तिमान थे.उनकी आँखों ने तो भय-भरी हिरनियों की आँखों के भय को मधुरस की तरह अनिर्वचनीय सुख में बैठकर पिया था . वे तो उसे बचा सकते थे। क्या उन्  डरी हुई  स्त्रियों की आँखों में भी उन्हें आग मिली थी?और वे क्या सचमुच उसी से डरे हुए थे .यह उस समय अनंत नींद में समाती कमलिनी समझ पाई थी । थोड़ी ही देर में कमलिनी की देह मर गई थी .दामिनी फटी-फटी आँखों से जिज्जी को देखती सहमती काँपती रही . उसका रुदन उसके सीने में जम गया और वह एक लम्बे अंतराल के लिए खामोश हो गई थी बहुत इलाज के बाद जब वह बोली थी तब जिज्जी के लिए चिघाड़ उठी थी । कमलिनी कुछ वर्ष बीतते न बीतते सती का चौरा बन गई थी ।लोग उसका  नाम भूल उसे सती कहने लगे थे.लेकिन दामिनी अपनी  जिज्जी का नाम नहीं भूली थी .

      कमलिनी के मरने के बाद उस गांव में कई मौतें हो गईं थीं।लोग कहते कि जाते-जाते वह  अपने साथ पांच और लोगों को ले गई। पुजारी, पंच,प्रधान, गोसाईं बाबू और भानु तो बच  गए लेकिन  रात-रात भर बौउआने के लिए बचे । भानु अचानक पागलों की तरह  कमलिनी- कमलिनी चिल्लाने लगता था.वह  रातों में जागता था . थोड़ी देर को सोता तो जाने सपने में क्या देख लेता कि जागने के बाद डरा सहमा बैठा रहता . उसने घर से बाहर निकलना बंद कर दिया . उस घर में इतनी अप्रत्याशित घटनाएँ घटने लगीं कि खासकर पुरुषों का जीवन तबाह होने लगा . वे लोग घर द्वार,गाँव छोड़कर वहां से जाने के लिए विवश हो गए . वह घर वीरान होकर उजाड़ हो गया . वहां सिर्फ कमलिनी की यादें रह गयीं और रह गई कमलिनी की रूह . कभी कभी वहां से गुजरने वाले लोग उस उजाड़-वीराने से कमलिनी की हंसी की आवाजें सुनते थे. कुछ ही दिनों बाद गाँव की शान्ति के लिए गाँव के बाहर पीपल के उस पुराने पेड़ के नीचे एक सती का चौरा बन गया था , जहाँ गाँव की औरतें पूजा पाठ करने लगीं.वे  अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए,अपने अचल सुहाग के लिए अपनी बेटी के ब्याह के लिए पीपल के चारों ओर धागा लपेट मन्नतें मानने लगीं. सती-चौरे पर अक्षत फूल चढाने लगीं .

सात साल की दामिनी के भीतर उस दिन की समाई लपटें जलतीं थीं . उसी के कारण अब घर के किसी पुरुष की हिम्मत नहीं थी जो दामिनी को किसी भी काम को करने से रोके . दामिनी पढ़ लिख कर डॉक्टर बनी. उसने बहुत सी स्त्रियों को बेटी जनने का हौसला दिया और उनके पास खडी होकर उनका जन्म कराया. उसने भी बेटी जनी और नाम रखा आगता .दामिनी की नाभि में समाई आग आगता  की नाभि में खुद-ब-खुद जलने लगी थी ..

         आगता ने सती चौरों की सच्चाई पर काम करना शुरू किया.उसने शिव की सती से लेकरसीता तक ही नहीं जौहर व्रत करने वाली राजपूत स्त्रियों की विवशता को  भी जाना, रनिवासों की हकीकत, स्त्री का महिमा-मंडन, कन्या-भ्रूण हत्याओं के अंतहीन सिलसिले और उनके बीच बनते सती चौरे, उनपर पूजा करतीं स्त्रियाँ जो अपनी ही कब्र को पूजतीं थीं शायद और अधिक मरने के लिए. चालीस साल पहले से सती बनकर पूजी जाती उसकी मासी कमलिनी की कहानी का एक एक पल उसकी आँखों  में अंगारों सा जलता  .वह मिटा कर रहेगी  सती चौरे. .उसने तय किया . सबसे पहले वह उसी को तोड़ेगी जिसकी एक एक ईंट में कमलिनी की दाहक सिसकियाँ कैद थीं .वह जो पूजी जाती हुई भी  बेचैन है ।

   उसकी छेनी ऐसे चौरों  की ईंटे गिरा कर उन्हें ध्वस्त कर देगी. विशाल दरख़्तों के नीचे पूजित ईंटों के बीच के अंधेरों की क़ैद ख़त्म कर देगी। लेकिन यह इतना भी आसान नहीं था.

उस पीपल के पेड़ के नीचे इकट्ठा होते स्त्री पुरुषों का मौन पहले फुसफुसाहट में बदला उसके बाद तेज़ फुसफुसाहट में जैसे ढेरों मधुमक्खियाँ भिनभिना रहीं हो .उसके बाद भीड़ के  विरोध का स्वर सुनाई देने लगा ..हाँ… हाँ  ना ..ना ये क्या.. रुको रुको…लेकिन आगता को रुकना नहीं था . तभी एक बहुत कर्कश स्वर आया-“अरे सुनो , तुम हो कौन ?कहाँ से आयी हो ? आगता के हाथ रुक गए . उसने पीछे मुड़कर देखा.अस्सी साल का वृद्ध ,माथे के सारे बाल सफ़ेद  और हाथ में एक डंडा लिए .छोटी छोटी आँखों के बीच कटे का गहरा निशान लाल टीके सा. आगता उस गाँव के  पुजारी को पहचान गई .दामिनी ने भी उस काली रात में उसी को पहचाना था .आगता ने विकराल रूप धारण किया और पुजारी के सामने आ खड़ी हुई-उसकी आवाज़ असामान्य हो गई .”मैं आपको पहचानती हूँ, केशव पंडित” .

केशव पंडित उस अनजान लड़की के मुंह से अपना नाम सुन एकदम  हड़बड़ा गए-“आपने ही न, आज से चालीस साल पहले उस अंधेरी  रात में सरपंच,प्रधान,और भानु को कुएं की और ले जाकर समझाया था- कि इसको आज यहीं मर जाने दो.इसका मरना विपत्ति  का जाना है .” केशव पंडित की आवाज़ उनके गले में अटक गई उनका मुंह लाल मिर्च सा हो, सूख  गया. उनके सामने ये कौन खड़ी है?कमलिनी ?

तभी आगता ने उसी असामान्य रूप से मोटी  होती गई अपनी आवाज़ में फिर कहा- “ डरिये नहीं, मैं आगता हूँ, कमिलिनी नहीं हूँ .कमलिनी यहाँ है इस सती चौरे में .आईये मैं आपको उससे  मिलवाती हूँ . आपने उसको मारने के बाद  यहाँ कैद किया है ?सती बनाकर ?” केशव पंडित जाने कब भीड़ में छुप गए थे .आगता ने भीड़ को ललकारा था-“कमलिनी के हत्यारे हैं आपलोग . यहाँ क्या कोई और भी है जो उस रात  इस पीपल के पेड़ नीचे मौजूद था ?उस रात के कितने हत्यारे अभी और बाकी हैं ?” भीड़ में सन्नाटा पसर गया था . भीड़  अनगिनत मूर्तियों में बदल गई थी .उस रात  का दृश्य भी ऐसा ही रहा होगा .आगता ने सोचा –आज दिन का उजाला है और वह रात थी . इतना ही फर्क है .

आगता के हाथ की छेनी और हथौड़ी समय को अपने ढंग से गढ़ने में लगी थीं। उसने उस पीपल के पेड़ के नीचे निर्मित सती के चौरे को तोड़ दिया था.तब यह सच खुला था कि वह सती का चौरा नहीं कमलिनी का चौरा है जिसकी आँखों में नींदे थी जो ताउम्र  जागती रह गई थी. जगह-जगह बने सती चौरों के सच खुलने लगे थे।

            सुमेधा उस लड़की के सामने खड़ी थी जिसके हाथ में छेनी हथौड़ी थी.सुमेधा के साथ अखबार का फोटोग्राफर भी था.कुछ मीडिया वाले भी अपने अपने कैमरों के साथ वहां पहुँच गए थे .खबर आग की तरह फैल गई थी .आगता ने केशव पंडित को दुबारा आवाज़ दी .लेकिन केशव पंडित कहीं खो गए थे.सती का चौरा कैमरे की रोशनी में टूट रहा था .तस्वीरें सोशल मीडिया से लेकर टी वी चैनलों तक सुर्खियों की तरह कौंध रहीं थीं .इस हेड लाइन के साथ-उसका अगला कदम था अगला चौरा।

सुमेधा ने आगता से पूछा- क्या स्त्री में इतना क्रोध होता है? क्या उसमेंधैर्य नहीं होता है!वह तो माँ होती है न! आगता  मुस्करायी ” बर्फ क्या सिर्फ जमती है. क्या  उसे पिघलने का अधिकार  नहीं ?

     सुमेधा को लगा कि कमलिनी अब सती चौरे से निकल बाहर खड़ी हो गई है.अब वह सती नहीं है, स्त्री है . उसे जमी हुई बर्फ का पिघलना और सारी पृथ्वी का समुद्र में बदल जाना परिघटित होता हुआ लगा। आगता की छेनी पर पड़ती हथौड़ी की आवाज़ स्त्रियों की मुक्त हंसी सी सुनाई देने लगी थी .

प्रज्ञा पाण्डेय

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