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मिखाइल बुल्गाकव द्वारा लिखित उपन्यास ‘मास्टर और मार्गारीटा’का एक अंश

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मिखाइल बुल्गाकव के उपन्यास ‘मास्टर एंड मार्गरीटा’ सोवियत संघ में स्टालिन काल में लिखा गया था और विश्व के कुछ प्रमुख उपन्यासों में इसकी गणना की जाती है। आज इसके लेखक मिखाइल बुल्गाकव की जयंती है। इस मौक़े पर उनके इस प्रसिद्ध उपन्यास का अंश पढ़िए जिसका अनुवाद किया है आ. चारुमति रामदास जी ने। यह उपन्यास हिंदी में इनके ही अनुवाद में उपलब्ध है। फ़िलहाल अंश पढ़िए- मॉडरेटर

(क्वार्टर नंबर 50 का अंत)

अनुवाद : आ. चारुमति रामदास

 …लगभग चार बजे, गर्मियों की उस दोपहर में, सरकारी यूनिफ़ॉर्म पहने एक बहुत बड़ा आदमियों का दल तीन गाड़ियों से सादोवाया की बिल्डिंग नं. 302 बी के नज़दीक उतरा. यह बड़ा दल दो छोटॆ दलों में बँट गया, जिनमें से एक, गली के मोड़ से आँगन में होते हुए छठे प्रवेश द्वार में घुसा; और दूसरे ने अक्सर बन्द रहने वाला छोटा दरवाज़ा खोला, जो चोर दरवाज़े तक ले जाता था. ये दोनों दल अलग-अलग सीढ़ियों से फ्लैट नं. 50 की ओर चले.

इस समय करोव्येव और अज़ाज़ेलो – करोव्येव अपनी हमेशा की वेषभूषा में था, न कि उत्सव वाले काले फ्रॉक में – डाइनिंग हॉल की मेज़ पर बैठे नाश्ता कर रहे थे. वोलान्द अपनी आदत के मुताबिक, शयन-कक्ष में था, और बिल्ला कहाँ था यह हमें मालूम नहीं, मगर रसोईघर से आती बर्तनों की खड़खड़ से यह अन्दाज़ लगाया जा सकता था कि बेगेमोत वहीं है, कुछ शरारत करते, अपनी आदत से बाज़ न आते हुए.

“सीढ़ियों पर यह कदमों की आवाज़ कैसी है?” करोव्येव ने काली कॉफी में पड़े चम्मच से खेलते हुए पूछा.

“यह हमें गिरफ़्तार करने आ रहे हैं,” अज़ाज़ेलो ने जवाब दिया और कोन्याक का एक पैग पी गया.

“आ…अच्छा, अच्छा,” करोव्येव ने इसके जवाब में कहा.

अब तक सीढ़ियाँ चढ़ने वाले तीसरी मंज़िल पर पहुँच चुके थे. वहाँ पानी का नल ठीक करने वाले दो प्लम्बर बिल्डिंग गरम करने वाले पाइप की मरम्मत कर रहे थे. आने वालों ने अर्थपूर्ण नज़रों से पाइप ठीक करने वालों की ओर देखा.

“सब घर पर ही हैं,” उनमें से एक नल ठीक करने वाला बोला, और हथौड़े से पाइप पर खट्खट् करता रहा.

तब आने वालों में से एक ने अपने कोट की जेब से काला रिवॉल्वर निकाला और दूसरे ने, जो उसके निकट ही था, निकाली ‘मास्टर की’. फ्लैट नं. 50 में प्रवेश करने वाले आवश्यकतानुसार हथियारों से लैस थे. उनमें से दो की जेबों में थीं आसानी से खुलने वाली महीन, रेशमी जालियाँ, और एक के पास था – कमंद, तो दूसरा लिए था – मास्क और क्लोरोफॉर्म की नन्ही-नन्ही बोतलें.

एक ही सेकण्ड में फ्लैट नं. 50 का दरवाज़ा खुल गया और सभी आए हुए लोग प्रवेश-कक्ष में घुस गए. रसोई के धम्म से बन्द हुए दरवाज़े ने यह साबित कर दिया कि दूसरा गुट भी ठीक समय पर चोर-दरवाज़े से फ्लैट के अन्दर दाखिल हो चुका है.

 

इस समय शत-प्रतिशत नहीं तो कुछ अंशों में सफलता मिलती दिखाई दी. फौरन सभी कमरों में ये लोग बिखर गए, और कहीं भी, किसी को भी न पा सके, मगर डाइनिंग हॉल में अभी-अभी छोड़े नाश्ते के चिह्न ज़रूर मिले; और ड्राइंगरूम में फायर प्लेस के ऊपर की स्लैब पर क्रिस्टल की सुराही की बगल में विशालकाय काला बिल्ला बैठा हुआ मिला. उसने अपने पंजों में स्टोव पकड़ रखा था.

पूरी खामोशी से, बड़ी देर तक, आए हुए लोगों ने इस बिल्ले पर ध्यान केन्द्रित किया.

 

“हाँ…हाँ…सचमुच ग़ज़ब की चीज़ है,” आगंतुकों में से एक ने फुसफुसाकर कहा.

“मैं गड़बड़ नहीं कर रहा, किसी को छू भी नहीं रहा, सिर्फ स्टोव दुरुस्त कर रहा हूँ,” बिल्ले ने बुरा-सा मुँह बनाते हुए कहा, “और मैं यह बताना भी अपना फर्ज़ समझता हूँ कि बिल्ला बहुत प्राचीन और परम पवित्र प्राणी है.”

“एकदम सही काम है,” आगंतुकों में से एक फुसफुसाया और दूसरे ने ज़ोर से और साफ-साफ कहा, “तो परम पवित्र पेटबोले बिल्ले जी, कृपया यहाँ आइए.”

रेशमी जाली खोली गई, वह बिल्ले की ओर उछलने ही वाली थी कि फेंकने वाला, सबको विस्मय में डालते हुए लड़खड़ा गया और वह केवल सुराही ही पकड़ सका, जो छन् से वहीं टूट गई.

“हार गए,” बिल्ला गरजा, “हुर्रे!” और उसने स्टोव सरकाकर पीठ के पीछे से पिस्तौल निकाल लिया. उसने फ़ौरन पास में खड़े आगंतुक पर पिस्तौल तान लिया, मगर, बिल्ले के पिस्तौल चलाने से पहले, उसके हाथों में बिजली-सी कौंधी और पिस्तौल चलते ही बिल्ला भी सिर के बल फायर प्लेस की स्लैब से नीचे फर्श पर गिरने लगा, उसके हाथ से पिस्तौल छिटककर दूर जा गिरी और स्टोव भी दूर जा गिरा.

“सब कुछ ख़त्म हो गया,” कमज़ोर आवाज़ में बिल्ले ने कहा और खून के सैलाब में धम् से गिरा, “एक सेकण्ड के लिए मुझसे दूर हटो, मुझे धरती माँ से बिदा लेने दो. ओह, मेरे मित्र अज़ाज़ेलो!” बिल्ला कराहा, खून उसके शरीर से बहता रहा, “तुम कहाँ हो? बिल्ले ने बुझती हुई आँखों से डाइनिंग रूम के दरवाज़े की ओर देखा, “तुम मेरी मदद के लिए नहीं आए, इस असमान, बेईमानी के युद्ध में मुझे अकेला छोड़ दिया. तुम गरीब बेगेमोत को छोड़ गए, उसको एक गिलास के बदले छोड़ दिया – सचमुच, कोन्याक के एक ख़ूबसूरत गिलास के बदले! ख़ैर जाने दो, मेरी मौत तुम्हें चैन नहीं लेने देगी; तुम्हारी आत्मा पर बोझ रहेगी; मैं अपनी पिस्तौल तुम्हारे लिए छोड़े जा रहा हूँ…”

“जाली, जाली, जाली,” बिल्ले के चारों ओर फुसफुसाती आवाज़ें आ रही थीं. मगर जाली, शैतान जाने क्यों किसी की जेब में अटक गई और बाहर ही नहीं निकली.

“एक ही चीज़, जो गम्भीर रूप से घायल बिल्ले को बचा सकती है,” बिल्ला बोला, “वह है बेंज़ीन का एक घूँट…” और आसपास हो रही हलचल का फ़ायदा उठाकर वह स्टोव के गोल ढक्कन की ओर सरककर तेल पी गया. तब ऊपर के बाएँ पंजे से बहता खून का फ़व्वारा बन्द हो गया. बिल्ले में जान पड़ गई, उसने बेधड़क स्टोव बगल में दबा लिया, फिर से उछलकर वह फायर प्लेस के ऊपर वाली स्लैब पर बैठ गया. वहाँ से दीवार पर लगा वॉलपेपर फ़ाड़ते हुए ऊपर की ओर रेंग गया और दो ही सेकण्ड में आगंतुकों से काफी ऊपर चढ़कर लोहे की कार्निस पर बैठ गया.

एक क्षण में ही हाथ परदे से लिपट गए और कार्निस के साथ-साथ उसे भी फाड़ते चले गए, जिससे अँधेरे कमरे में सूरज घुस आया. मगर न तो चालाकी से तन्दुरुस्त बन गया बिल्ला, न ही स्टोव नीचे गिरे. स्टोव को छोड़े बिना बिल्ले ने हवा में हाथ हिलाया और उछलकर झुम्बर पर बैठ गया, जो कमरे के बीचोंबीच लटक रहा था.

“सीढ़ी!” नीचे से लोग चिल्लाए.

“मैं द्वन्द् युद्ध के लिए बुलाता हूँ!” नीचे खड़े लोगों पर  झुम्बर पर बैठे-बैठे झूले लेते हुए बिल्ला दहाड़ा, और उसके हाथों में फिर से पिस्तौल दिखाई दिया. जबकि स्टोव को उसने झुम्बर की शाखों के बीच फँसा दिया था. बिल्ले ने घड़ी के पेंडुलम की तरह झूलते हुए, नीचे खड़े लोगों पर अन्धाधुन्ध गोलियाँ बरसाना शुरू कर दीं. गोलियों की गूँज से फ्लैट हिल गया. झुम्बर से गिरे काँच के परखचे फर्श पर बिखर गए, फायर प्लेस के ऊपर जड़ा आईना सितारों की शक्ल में चटख गया, प्लास्टर की धूल उड़ने लगी. खाली कारतूस फर्श पर उछलने लगे, खिड़कियों के शीशे टूटकर गिर गए. गोली लगे, लटकते हुए स्टोव से तेल नीचे गिरने लगा. अब बिल्ले को ज़िन्दा पकड़ने का सवाल ही नहीं उठता था, और आगंतुकों ने क्रोध में आकर निशाना साधते हुए अपनी पिस्तौलों से उसके सिर पर, पेट में, सीने पर और पीठ पर दनादन गोलियाँ बरसाईं. इस गोलीबारी से बिल्डिंग के बाहरी आँगन में भय फैल गया.

मगर यह गोलीबारी ज़्यादा देर न चल सकी और अपने आप कम हो गई. कारण यह था कि इससे न तो बिल्ला और न ही कोई आगंतुक ज़ख़्मी हुआ. बिल्ले समेत किसी को भी कोई क्षति नहीं हुई. इस बात की पुष्टि करने के लिए आगंतुकों में से एक ने इस धृष्ट जानवर पर लगातार पाँच गोलियाँ दागीं और बिल्ले ने भी जवाब में गोलियों की झड़ी लगा दी, और फिर वही – किसी पर भी ज़रा सा भी असर नहीं हुआ. बिल्ला झुम्बर पर झूलता रहा जिसका आयाम धीरे-धीरे कम होता गया. न जाने क्यों पिस्तौल के हत्थे पर फूँक मारते हुए अपनी हथेली पर वह बार-बार थूकता रहा. नीचे खड़े खामोश लोगों के चेहरों पर जाने  क्यों अविश्वास का भाव छा गया. यह एक अद्भुत, अभूतपूर्व घटना थी, जब गोलीबारी का किसी पर भी कोई असर न हुआ था. यह माना जा सकता था कि बिल्ले की पिस्तौल एक खिलौना थी, मगर आगंतुकों के तमंचों के बारे में तो ऐसा नहीं कहा जा सकता था. पहला ही घाव, जो बिल्ले को लगा था, वह सिर्फ एक दिखावा था, इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का एक बहाना मात्र था; वैसे ही जैसे बेंज़ीन का पीना.

बिल्ले को पकड़ने की एक और कोशिश की गई. एक फँदा फेंका गया जो एक मोमबत्ती में जाकर फँसा, झुम्बर नीचे आ गया. उसकी झनझनाहट ने पूरी बिल्डिंग को झकझोर कर रख दिया, मगर इससे कोई लाभ नहीं हुआ. वहाँ मौजूद लोगों पर काँच के टुकड़ों की बौछार हुई, और बिल्ला हवा में उड़कर ऊपर, अँगीठी के ऊपर जड़े शीशे की सुनहरी फ्रेम के ऊपरी हिस्से पर जा बैठा. वह कहीं भी जाने को तैयार नहीं था और, उल्टॆ आराम से बैठे-बैठे, एक और भाषण देने लगा : “मैं ज़रा भी समझ नहीं पा रहा हूँ…” वह ऊपर से बोला, “कि मेरे साथ हो रहे इस ख़तरनाक व्यवहार का कारण क्या है?”

तभी इस भाषण के बीच ही में टपक पड़ी एक भारी, निचले सुर वाली आवाज़, “फ्लैट में यह क्या हो रहा है? मुझे आराम करने में परेशानी हो रही है.”

एक और अप्रिय नुकीली आवाज़ ने कहा, “यह ज़रूर बेगेमोत ही है, उसे शैतान ले जाए!”

तीसरी गरजदार आवाज़ बोली, “महाशय! शनिवार का सूरज डूब रहा है. हमारे जाने का समय हो गया.”

“माफ़ करना, मैं आपसे और बातें नहीं कर सकूँगा,” बिल्ले ने आईने के ऊपर से कहा, “हमें जाना है.” उसने अपनी पिस्तौल फेंककर खिड़की के दोनों शीशे तोड़ दिए. फिर उसने तेल नीचे गिरा दिया, और यह तेल अपने आप भभक उठा. उसकी लपट छत तक जाने लगी.

सब कुछ बड़े अजीब तरीके से जल रहा था, अत्यंत द्रुत गति से और पूरी ताकत से, जैसा कभी तेल के साथ भी नहीं होता. देखते-देखते वॉल पेपर जल गया, फटा हुआ परदा जल गया जो फर्श पर पड़ा था और टूटी हुई खिड़कियों की चौखटें पिघलने लगीं. बिल्ला उछल रहा था, म्याँऊ-म्याऊँ कर रहा था. फिर वह आईने से उछलकर खिड़की की सिल पर गया और अपने स्टोव के साथ उसके पीछे छिप गया. बाहर गोलियों की आवाज़ें गूँज उठीं. सामने, जवाहिरे की बीवी के फ्लैट की खिड़कियों के ठीक सामने, लोहे की सीढ़ी पर बैठे हुए आदमी ने बिल्ले पर गोलियाँ चलाईं, जब वह एक खिड़की से दूसरी खिड़की फाँदते हुए बिल्डिंग के पानी के पाइप की ओर जा रहा था. इस पाइप से बिल्ला छत पर पहुँचा.

यहाँ भी उसे वैसे ही, ऊपर पाइपों के निकट तैनात दल द्वारा, बिना किसी परिणाम के गोलियों से दागा गया और बिल्ला शहर को धूप में नहलाते डूबते सूरज की रोशनी में नहा गया.

फ्लैट के अन्दर मौजूद लोगों के पैरों तले इस वक़्त फर्श धू-धू कर जलने लगा, और वहाँ जहाँ नकली ज़ख़्म से आहत होकर बिल्ला गिर पड़ा था, वहाँ अब शीघ्रता से सिकुड़ता हुआ भूतपूर्व सामंत का शव दिखाई दे रहा था, पथराई आँखों और ऊपर उठी ठुड्डी के साथ. उसे खींचकर निकालना अब असम्भव हो गया था. फर्श की जलती स्लैबों पर फुदकते, हथेलियों से धुएँ में लिपटे कन्धों और सीनों को थपथपाते, ड्राइंगरूम में उपस्थित लोग अब अध्ययन-कक्ष और प्रवेश-कक्ष में भागे. वे, जो शयन-कक्ष और डाइनिंग रूम में थे, गलियारे की ओर भागे. वे भी भागे जो रसोईघर में थे. सभी प्रवेश-कक्ष की ओर दौड़े. ड्राइंगरूम पूरी तरह आग और धुएँ से भर चुका था. किसी ने भागते-भागते अग्निशामक दल का टेलिफोन नम्बर घुमा दिया और बोला, “सादोवाया रास्ता, तीन सौ दो बी!”

और ठहरना सम्भव नहीं था. लपटें प्रवेश-कक्ष तक आने लगीं. साँस लेना मुश्किल हो चला.

जैसे ही उस जादुई फ्लैट की खिड़कियों से धुएँ के पहले बादल निकले, आँगन में लोगों की घबराई हुई चीखें सुनाई दीं:

“आग, आग, जल रहे हैं!”

बिल्डिंग के अन्य फ्लैट्स में लोग टेलिफोनों पर चीख रहे थे, “ सादोवाया, सादोवाया, तीन सौ दो बी!”

उस वक्त जब शहर के सभी भागों में लम्बी-लम्बी लाल गाड़ियों की दिल दहलाने वाली घंटियाँ सुनाई देने लगीं, आँगन में ठहरे लोगों ने देखा कि धुएँ के साथ-साथ पाँचवीं मंज़िल की खिड़की से पुरुषों की आकृति के तीन काले साए तैरते हुए बाहर निकले, इनके साथ एक साया नग्न महिला की आकृति का भी था.

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कैसे रचा गया होगा यूँ पत्थरों में स्वर्णिम इतिहास

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भारती दीक्षित चित्रकार हैं, कहानियों का यूट्यूब चैनल चलाती हैं और बहुत अच्छा लिखती हैं। जानकी पुल पर हम उनके यात्रा वृत्तांत पहले भी पढ़ चुके हैं। इस बार एलोरा यात्रा का वर्णन पढ़िए- मॉडरेटर

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जब  अजंता से चले तब आँखों में चमक थी,मन और तन दोनों था ऊर्जा  से लबरेज़।  अब प्रकृति  के हर रंग और अधिक गहरे और चमकीले लग रहे थे।   अजंता से हमे औरंगाबाद जाना था पर फिर सोचा कि अभी वक़्त है तो क्यों न दौलताबाद का किला देख लिया जाय। यह किला औरंगाबाद के बहुत नज़दीक है। इसका परकोटा दूर तक फैला हुआ है ,यह कितना फैला हुआ है यह किले के ऊपर पहुंचने पर ही पता लग पाया।  जब दौलताबाद के किले पर पहुंचे तब अजंता की छवि को हटाकर उसके स्थान पर दूसरी छवि रखना नामुमकिन लग रहा था।  मेरे कदम किले की तरफ बढ़ तो रहे थे पर मन की डोर अब भी अजंता की चित्रकारी में ही गुंथी हुई थी।  सोचा बस थोड़ा टहल कर वापस चला जाय पर बातों बातों में  हम आगे  बढ़ते रहे। किले की मीनार और फिर आगे से सीढ़ियों से चढ़ाई।हम सोच रहे थे कि  बस पास ही होगा लेकिन सीढ़ियां ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले  रही थीं।  मोड़ आने पर अगली चढ़ाई के लिए सीढ़ियां फिर दिखाई देने लगतीं। हम सभी थक चुके थे पर उत्साह था कि देखें ऊपर क्या होगा।कई  सीढ़ियां अँधेरे कमरे,सुरंगों  से होती हुईं ऊपर जा रही थीं। कहीं संकरी सीढ़ी तो कहीं खड़ी चढ़ाई,इन्हें पार  करते -करते मेरी साँस और कदम दोनों जवाब दे गए।  अब हम लगभग किले के ऊपरी हिस्से पर थे ,पर अंतिम सिरा अभी भी और ऊपर था…मेरी साँस फूल रही थी और पैर  काँप रहे थे।  ऊपर से पूरा औरंगाबाद ऐसा लग रहा था मानो हम आसमान से देख रहे हैं सब कुछ छोटा छोटा सा और दूर तक फैला किले का परकोटा। कैसा होगा सदियों पूर्व सब।  बस अंदाज़ा  ही लगाया जा सकता था।  जब ऊपर चढ़ रहे थे तब किले के बारे में कई बात मालूम पड़ी कि इस किले को सिर्फ अलाउद्दीन खिलजी ही जीत पाया था। किले को दुश्मन से बचाने के लिए भूल -भुलैय्या रूपी कई दरवाज़े थे ,जिसमें से कई अब बंद थे.. और वे कहाँ जाकर खुलते होंगे नहीं पता ।  किले में एक सुरंग है अँधेरी। जिस तक दुश्मन यदि पहुँच भी जाये तो उसमे दुश्मन को मारने के पर्याप्त साधन मौजूद थे।  पूरा किला चारो ओर से कई फ़ीट गहरी खाई  के बीच बना है। ये खाई बारिश में पानी से भरी रहती होगी।  सोचो ज़रा पानी के बीच बना किला या  यूँ कहें तैरता हुआ किलानुमा जहाज़ ,जो आसमान को छूने का प्रयास रहा है और आज़ाद भारत में सर उठाये पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी उम्र में वर्ष का इज़ाफ़ा करता जा रहा है।ध्यान से देखने पर कहीं- कहीं बची खुची चित्रकारी भी दिखाई  दे जाती है।  इसका नाम देव गिरी हुआ करता था पर जब मुहम्मद बिन तुगलक ने इसे राजधानी बनाया तब इसका नाम बदल कर दौलताबाद रख दिया गया। चूँकि अब यह किला काफी क्षतिग्रस्त है पर सौंदर्य में अब भी किसी से कमतर नहीं। इसके बड़े-बड़े दरवाज़ों,बड़ी-बड़ी कुण्डियों,सुरंगों,तोपों सीढ़ियों आदि से पता लगता है कि यह अपने समय में कितना भव्य रहा होगा।
सांझ  होते-होते हम किले के बाहर  थे। काफी थके हुए, किन्तु कल एलोरा की गुफाएं देखनी थी सो दौलताबाद के किले की चढ़ाई मानो एलोरा के लिए ध्यान सिद्ध हुई। मैं मन से बतिया रही थी कि  कल हमे निर्जीव पत्थरों की देह पर रची सजीव मूर्तियों से भेंट करनी है। अपने मन को संयमित कर रही  थी। रात  में आँखों से नींद नदारद थी। घड़ी की बढ़ती हुई सुई एलोरा और मेरी दूरी को कम करने का काम कर रही थी सो रोमांचित थी।
 सुबह बढ़  चले अपने गंतव्य की ओर उत्साहित और हर्षित। ये जानती थी कि आज पुनः चमत्कार से दो-चार होना है। एलोरा या वेलूर की गुफाएं सड़क से ही दिखाई देने लगती हैं अतः मुझमे टिकट लेने तक का धीरज न था। नज़र टिकट खिड़की पर कम और गुफा की ओर  ज़्यादा थी।  अंदर जाकर कुछ वक़्त के लिए चारों ओर चट्टानों को देखा कि भला देखो…सामान्य पत्थरों को कैसे तराश कर जादू किया गया है। एलोरा की गुफा उसके निर्माण से ही अस्तित्व में रही, इनका निर्माण काल 600 से 1000 इसवीं माना  गया है।  यहाँ बुद्ध , जैन और हिन्दू धर्म से सम्बंधित शिल्प हैं।  गुफा प्रांगण में  प्रवेश करते ही सामने भव्य कैलाश मंदिर और उसके दाएं-बाएं क्रमश 1-15 और 17-34 गुफाएं हैं। हमने पहले गुफा 17-34 देखना तय किया जो कि  थोड़ी दूरी पर हैं। वहां बस द्वारा पहुंचा जा सकता है।  बस से उतरते ही कुछ कदम की दूरी  और गुफाएं सामने थीं। मुझे सुध न थी सिर्फ आँखे और मेरी  गर्दन का घुमाव यही हरकत महसूस कर रही थी। सामान्य छैनी हथोड़े से रची गई अनुपम शिल्पकारी।  यहाँ जैन गुफाएं थीं।  ये गुफाएं मानव निर्मित हैं, देख कर विस्मय होता है। इतनी विशाल शिल्पकारी करना आसान कार्य नहीं हैं।  जैन गुफाओं में इंद्र, इंद्राणी  की सभा , आदिनाथ और स्तम्भों  पर बनी अद्भुत नक्काशी। मेरा सर गोल घूम  रहा था और दिमाग शिथिल, कि कैसे काटी गई होगीं ये वृक्षों की प्रत्येक पत्तियां उन पर लगे फल मानो स्वयं प्रकृति  साक्षात् मेरे सामने मुस्कुरा रही है।  बेल-बूटे और फूल की नक्काशी ऐसे उकेरी गई है जो आपकी पुतलियों को स्थिर करने में भरपूर सहयोग देती हैं।गुफा में पहुंच कर ॐ का नाद किया। …. शांति और सुकून हर तरफ छाया हुआ। गुफा में मैं सबको छू कर देख रही थी कि कैसे प्रतिमाओं को कटाव, गोलाई दी गई है। बेहतरीन काम मेरे चारो ओर बिखरा हुआ था। प्रत्येक गुफा में लगा कि यही रुक जाएँ और घंटों शिल्पों से वार्तालाप करें…उन्हें निहारते हुए।  हिन्दू गुफा में आदम कद से कई गुना तिगुना, चौगुना या उससे भी ज़्यादा  बड़े बनी शिल्प प्रतिमाएं हैरत में डाल देती हैं। सीमित साधन में की गई अद्भुत कारीगरी।  शिव पार्वती  का विवाह हो या शिव की तांडव नृत्य मुद्रा, सब कुछ कल्पना से परे। शिव पार्वती विवाह शिल्प रचना मानो कैनवास पर चित्र हो…पूरी रचना परिप्रेक्ष्य के साथ…आश्चर्य …मैं मंत्र मुग्ध सी बस देखे जा रही थी…पलक झपकना कब का बंद हो चुका था।  कैसे रचा गया होगा यूँ पत्थरों में स्वर्णिम इतिहास।
 
 वापसी में हम पुनः गुफा नंबर 16 के सामने थे जो कैलाश मंदिर है। यह एक ही  चट्टान को काट कर बनाया गया है, पर मेरे कदम तो जैसे वहीँ जम गए बमुश्किल गुफा के बाहरी सम्मोहन से निकली और अंदर प्रवेश किया तब भीड़ अपने चरम पर थी। बहुत कोलाहल। खैर भीड़ मेरे लिए वहां नगण्य थी अतः उसे नज़र अंदाज़ कर जब सरसरी निगाह चारों ओर दौड़ाई तब मुझे लगा कि मैं सिर्फ भीड़ की आवाज़ सुन रही हूँ…महसूस कर रही थी बहती हुई हवा और दृश्यों को समेटते हुए मेरी नज़रों को, जो मेरे मन और दिमाग में लगातर इस छवि को क़ैद करती जा रही थीं।  यहाँ भी  दुविधा थी कि क्या देखूं और क्या नहीं। हाथियों के विशाल शिल्प शिल्पकारों के यशोगान में शामिल झूमते हुए से लगे। चारो तरफ शिल्प परिवार मानो सब मिल कर शिव स्तुति कर रहे हों। आस-पास दीवारों पर तराशी हुई विष्णु के अवतार, शिव की प्रतिमा और रावण की प्रतिमा सब कुछ विलक्षण।  छत पर नक्काशी, हर कोना, हर दीवार मानो छैनी हथौड़े रूपी तूलिका से  पत्थर नुमा कैनवास पर खींचा हुआ,  एक ही रंग से सजा हुआ या  उकेरा हुआ अद्भुत चित्र।  मैं स्वयं बुत बनी  देख रही थी। भूतकाल में जाने को आतुर। अब मुझे भीड़ का शोर ऐसे लग रहा था जैसे छैनी हथौड़े से मधुर स्वर ध्वनि कानों में बज रही है।  मंदिर में कहीं-कहीं चित्र भी हैं जो इसकी भव्यता में इज़ाफ़ा  करते हैं।  पूरा मंदिर अनेक खूबियों से  परिपूर्ण…. नि:संदेह सभी शिल्पकारों के समक्ष नत मस्तक हूँ। एक -एक गुफा की शिल्प कृति अद्भुत मिसाल देती हुई ।  परिश्रम, लगन, कारीगरी की अतुलनीय प्रस्तुति।   
 
गुफा नंबर  1-15 में से कुछ गुफा दर्शनीय है। बुद्ध की सुन्दर शिल्प रचना और कुछ सामान्य गर्भ गृह हैं। 
 
बड़ी-बड़ी सीढ़ियाॅ , बड़े कक्ष उनकी उत्तम वास्तु कला को बताते हैं । आखिर कैसा अनोखा संवाद रहा होगा चट्टानों को तराशे जाने के पूर्व …शिल्पकारों और चट्टानों के मध्य।  कलाकारों ने यूँ तराशा है मानो नरम मुलायम मक्खन का सामान्य छुरी से काटे जाना।  सहज किन्तु कितना जटिल रहा होगा ये हम उन्हें छू कर, देख कर ,महसूस कर सकते हैं।  इतना अद्भुत कार्य सामान्य छैनी हथोड़े से क्या यह संभव है? क्या यह मानव निर्मित ही है ?   मेरे प्रश्न एक-एक गुफा को देखते हुए बढ़ते जा रहे थे।  विशाल कक्ष , बड़ी बड़ी प्रतिमाएं, उनका स्पष्ट भाव , गंगा यमुना का देवी रूप में शिल्प , गणेश , महिषासुर मर्दिनी ,आदिनाथ ,इंद्र  , इंद्राणी , शिव पार्वती ,उनके गण , मानो पूरा परिवार हो , जो स्वयं सजीव हो और हमे बुत बने हुए देख रहे हों और  अभी कह उठेंगे …….आओ तुम्हें परिवार  के अन्य सदस्यों से भेंट करवाऊं . मेरा दिमाग और आँखों का संतुलन अपना आप खो चुके थे। 
 
 सभी दृश्यों को आंखों में समेटे मैं  कुछ समय के लिए मौन रहना चाहती थी ताकि यह रच -बस  जाये मेरे मन की गहराई में। वे शिल्पकार सच में महान हैं ,जो वर्षो वर्ष पत्थरों में जीवन फूंकते रहे और सौंप  गए हमें यह गर्वित मिसाल।  उन्हें मेरा शत शत नमन। 
 
 पर मेरे मन में एक  कसक थी… जब गुफा नंबर 16 के पास थी तब गुफा के पास एक छोटी  सी खाई थी जो अभी सूखी हुई थी। वर्षा के बाद पानी से भर जाती होगी..पर अभी  कूड़े के ढ़ेर से पटी हुई थी और इसके पास थी विश्व धरोहर कैलाश मंदिर … इस गुफा की ओर आते हुए रास्ते में भी झाड़ियों में कुछ गन्दगी  देखी जो कल्पना से परे है। यह गन्दगी मन व्यतीत कर गई। खाई में जमा कूड़ा मुझे मुँह चिढ़ा रहा था जिसमे  खाली बोतलें, बिस्किट और चिप्स के खाली पैकेट और अन्य कूड़ा था।  चूँकि वहां कूड़ेदान भी था जिसे लगातार खाली किया जा रहा था। … पर फिर भी कौन उठ कर  अपने पैरों को अतिरिक्त तकलीफ दे कर कूड़ेदान का उपयोग करे, शायद यही प्रवृत्ति रही होगी इसलिए  कूड़ेदान की जगह कूड़ा खाई में था। यह हमारी समझ को बताता है। इसमें शिक्षा का कहीं भी दूर-दूर से सरोकार नहीं। कूड़ेदान का उपयोग शिक्षित ,अशिक्षित गरीब या  अमीर के भेद से सर्वथा अलग हैं। मन में था कि क्या हम इस तरह स्वर्णिम धरोहर को आने वाली पीढ़ियों को सौपेंगे? कूड़े करकट से सजा हुआ, या यूँ  कि कौन देख रहा है….यहीं  फेंक दिया जाय। एक को कूड़ा डालते देख अन्य भी उत्साही हो जाते हैं और वो भी गर्वित हो ऐसा करते हैं । बुरा अनुसरण करना हम जल्दी सीख जाते हैं पर चेतना तो लानी ही होगी।  हमे अकल्पनीय कला,  परिश्रम को  सिर्फ देख कर या निहार कर इति श्री नहीं करना है इसे रचने में लगन, मेहनत, कल्पनाशीलता, हुनर लगा है इस पर भी विचार  करें ताकि हम स्वच्छ और सुरक्षित विरासत सौंप सकें।  संभालना होगा , सहेजना होगा , देखभाल करनी होगी , अपनों की तरह। ….. वैसे ही दुलार और अपनेपन के साथ, एक परिवार की तरह ………
 
खैर जब बाहर आने को हुई तो मन अशांत तो था पर एलोरा या वेलूर के शिल्पकारों की लगन और कलाकारी हावी रही।  मन में कसक ज़रूर थी पर छैनी हथौड़े का जादू मेरे मन और दिमाग पर चल चुका  था।  आँखें अब भी फैली हुई मुड़ – मुड़ कर पीछे देखती हुई। लगा वापस लौट जाऊं और फिर से भेंट कर आऊं सजीव शिल्प कृतियों से, कुछ क्षण और बतिया लूँ , बाकी था अभी उनसे बहुत कुछ कहना, सुनना और बतियाना……
 
मैं तब तक उन्हें देखती रही जब तक वे आँखों से ओझल नहीं हो गईं।  निः संदेह मैं गौरवशाली कला इतिहास को पाकर धन्य हूँ ,और सभी कलाकारों की अद्भुत कलाकारी पर हतप्रभ…अवाक…मौन और नतमस्तक।

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दो मूर्धन्य चित्रकारों का पत्राचार

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दो मूर्धन्य चित्रकारों सैयद हैदर रज़ा और किशन खन्ना के बीच पत्र व्यवहार की एक बड़ी अच्छी पुस्तक है ‘माई डियर’, जिसका अनुवाद मैंने दो साल पहले किया था। रज़ा न्यास के सम्पादक जी को वह अनुवाद बहुत पसंद भी आया जिसकी वे बार बार तस्कीद करते रहे लेकिन पुस्तक दो साल में प्रकाशित नहीं हो पाई। रज़ा न्यास को कोई समस्या रही होगी। लेकिन जानकी पुल एक अव्यवसायिक मंच है इसलिए मैं एक एक करके उसके पत्रों को आपके पढ़ने के लिए प्रस्तुत करता रहूँगा – मॉडरेटर

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पेरिस 27 अगस्त 1956

मेरे प्रिय खन्ना,

मैं कोशिश करूँगा कि आज रात मैं यह छोटी सी चिट्ठी लिखकर बिना किसी देरी के तुमको भेज दूँ, हालांकि मैं तुमको बहुत विस्तार से लिखना चाहता था। परियोजना में एक साल से अधिक समय लग गया। करीब एक पखवाड़े पहले जब तुम्हारा पत्र मिला तो मुझे बहुत ख़ुशी हुई। उम्मीद करता हूँ कि अपनी चुप्पी के लिए शायद कुछ कम ग्लानि भाव से लिख पाऊं।

हाँ, अब हालात बेहतर हो गए हैं। मैं संकल्प के साथ डटा रहा और कुछ तो हालात ने भी मेरी मदद की। अब सब ठीक है। मेरी कलाकृतियाँ बिक रही हैं। बिक्री के अलावा, उनमें वृद्धि हो रही है। कलाकृति में तनाव है, उस तरह का रुग्ण तनाव नहीं जो अल्प सामग्री या भावनात्मक स्थितियों के कारण बना हो, हालाँकि अब मैं उनकी भी अवहेलना नहीं करता; लेकिन मेरी कलाकृतियों को हर कहीं नकार दिया गया। क्यों? वे चीजों को समझने में मदद करती हैं, हालाँकि उनकी वजह से सामान्य रूप से असहायता का भाव भी आया।

याद है मैं जो क्रिसमस कार्ड्स बना रहा था? कुछ भी काम नहीं आया। करीब दो साल से भी अधिक समय तक मेरी पेंटिंग्स को हर जगह नकारा गया। क्यों? मुझे अभी नहीं पता, खासकर तब जब 1952 और 53 में शुरुआत इतनी अच्छी हुई थी। मुझे जीने के लिए दूसरे साधन अपनाने पड़े। मैंने कई तरह के काम करने की कोशिश की। आखिरकार, ऐसा लगा कि किताबों के लिए चित्रांकन बनाने का काम चल पड़ा। वह बहुत मेहनत का काम था और महीने में उससे सिर्फ 15 पाउंड की ही आय होती थी। यह करीब एक साल तक चला। मैंने कम पेंटिंग बनाई लेकिन मैं खुद को सम्मानित आदमी के रूप में महसूस करता था। धीरे धीरे मैंने सब चीजों का प्रबंध इस तरीके से कर लिया कि मैं पेंटिंग को अधिक समय देने लगा। पहली समूह प्रदर्शनी अक्टूबर 55 में रुइ डे सेन की एक नई कला वीथिका लारा विंसी लारा विंसी में प्रदर्शित हुई। उसकी काफी सराहना हुई। उसके बाद एक के बाद एक होती ही गई। मैं बिना थके पेंटिंग करता रहा, मैंने बाकी सभी तरह के असंगत काम छोड़ दिए। यहाँ कई समूह प्रदर्शनियों का आयोजन किया गया, और उसके बाद बियेनाल्ल डे वेनिस बायनेल द वेनिस में, और आखिर में चयन हुआ और उसके बाद प्रिक्स डे ला क्रिटिक प्री द ल क्रिटिक पुरस्कार मिला।

मुझे तुम्हें कुछ विस्तार बताना चाहिए। यह सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक है और करीब दस साल पहले पेरिस के चौदह कला समीक्षकों के एक निर्णायक मंडल ने इसकी शुरुआत की थी और इसकी प्रतिष्ठा बहुत अधिक बढ़ चुकी है। बुफे बफ़े ,लोर यू लोर यू, मीनास मायन्यो उन कुछ लोगों में हैं जिनको यह पहले मिल चुका था। पहली बार यह किसी विदेशी कलाकार को दिया गया है और जिसके कारण मेरी कलाकृतियों के पक्ष-विपक्ष में खूब आलोचना हुई है। जुलाई में उन सभी दस कलाकारों की सामूहिक प्रदर्शनी का आयोजन किया गया था जिनका चयन साल भर के दौरान निर्णायक मंडल द्वारा किया गया था। साल के आखिर में यह समस्त प्रदर्शनी जापान जाने वाली है। मुझे गैलेरी सेंट प्लेसाइड गैलेरी सेंट प्लासाईड द्वारा यह प्रस्ताव दिया गया है कि प्रदर्शनी से पूर्व मैं 15 से 28 सितम्बर के दौरान वहां प्रदर्शनी आयोजित कर सकता हूँ। यह मेरे लिए कुछ जल्दी है, लेकिन तिथियों में बदलाव नहीं किया जा सकता। चूँकि यह पेरिस में मेरी पहली एकल प्रदर्शनी है इसलिए मैं यह चाहता था कि मैं अपनी सर्वश्रेष्ठ कृतियों का प्रदर्शन करूं, लेकिन वे या तो वेनिस में हैं या बिक चुकी हैं। इसके अलावा, अब मेरे कई कटु शत्रु हैं जो लगातार मेरे खिलाफ लिख रहे हैं और मेरे कुछ अन्य हैं जो मेरे बारे में विस्तार और प्रमुखता से लिख रहे हैं। मैं काम कर रहा हूँ। ममेय ममर्ट में मेरे पास एक बड़ा सा कमरा है और जिसे मैंने दो महीने के लिए किराए पर लिया है। मेरे ख्याल से यह उतना बुरा नहीं है, लेकिन मुझे और समय मिला होता तो बेहतर होता। पिछले साल जिस तरह से सब कुछ हुआ था, उसे देखते हुए यह अविश्वसनीय सा लगता है, मुझे यह लगता है कि अब उससे पूरी तरह उदासीन हो चुका हूँ और अब उनके ऊपर मुस्करा सकता हूँ। लेकिन मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मैं उपहासपूर्ण ढंग से मुस्कुराता हूँ और थोड़ी कड़वाहट के साथ भी।

मैं लिखता चला जा सकता हूँ और तुमको ऐसी बहुत सी बातें बता सकता हूँ जिससे तुम हैरान रह जाओगे, लेकिन मुझे काफी कुछ करना है। हम जब बाद में मिलेंगे तो इसके बारे में बात करेंगे, और जब भी मौका मिला मैं तुमको पत्र लिखूंगा। तुम्हारे चार पत्रों के लिए शुक्रिया- वे मुझे एक के बाद एक मिले- और खासकर आखिरी चिट्ठी में जिस तरह की भावना थी। तुम जब यहाँ आए थे तो जो वाटर कलर लेकर आए थे उसके लिए भी मैं दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ। उससे मदद मिली।

जब लिखना तो मुझे बताना और मैं उम्मीद करता हूँ कि वह जल्दी ही यहाँ होगा; अगर श्री मदनजीत सिंह ने तुम से बियेनाल्ल डे वेनिस बायनेल द वेनिस के लिए अपनी कलाकृतियों को भेजने के लिए कहा। मैंने भरसक कोशिश की कि तुम्हारा प्रतिनिधित्व भी हो। प्रिज्मे दे आर्ट्स, प्रिज़्मे दे आर्ट्स जो कि एक महत्वपूर्ण कला पत्रिका है, समकालीन भारतीय चित्रकारों के ऊपर एक लेख छापने जा रहा है। मैंने रूडी को लेख लिखने के लिए कहा। उसने मुझे एक बड़ा प्यारा सा पत्र भेजा, लेकिन उसने अफ़सोस जताते हुए कहा कि उसके पास लिखने के लिए समय नहीं है। फिर हमने शामलाल ‘अदीब’ से बात की, जो टाइम्स ऑफ़ इण्डिया में उप-संपादक हैं। वह मान गए और अब वह इस लेखक को लिखेंगे। मैं इस आदमी का बहुत सम्मान करता हूँ जबकि मैं उसको महज उसके लेखन के माध्यम से ही जानता हूँ। उम्मीद करता हूँ कि वह अच्छा काम करें। मेरे दिमाग में यह भी था कि तुमको लिखने के लिए कहूँ, लेकिन तुम स्वयं पेंटर हो(तुमको मैं बैंकर के रूप में गंभीरता से नहीं लेता)। अच्छा, यह लेख पहले प्रिज्मे प्रिज़्मे  में प्रकाशित होगा और उसके बाद अंतरराष्ट्रीय कला पर एक किताब में।

अब मुद्दे की बात यह है कि अगर शामलाल ने तुमसे अब तक संपर्क नहीं किया हो तो कृपया उनको अपनी तरफ से लिखो। उनको बस इतना लिखना कि मैंने तुमसे अपने चित्रों की कुछ तस्वीरें भेजने के लिए कहा है और तुम वही कर रहे हो। मैं संपादक मिस्टर वाल्देमर जॉर्ज को अच्छी तरह से जानता हूँ। वे यहाँ के बहुत महत्वपूर्ण कला समीक्षक हैं, लगभग सभी जानते हैं, और वे क्लाइव बेल, रोजर फ्राई तथा अन्य कलाकारों के भी दोस्त थे।

शेष अगले पत्र में। जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी शामलाल को तस्वीरें भेज देना। मैं सच में यही कामना करता हूँ कि जो सर्वश्रेष्ठ है उसको प्रस्तुत किया जाए। तुम जानते हो कि भारतीय चित्रकला में दिन ब दिन रूचि बढ़ती जा रही है। और मुझे लगता है कि भारतीय चित्रकला जिसका प्रतिनिधित्व करता है- अगर उसका सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुत किया गया- वह बहुत प्रासंगिक है। अब मैं समाप्त करता हूँ। काश मेरे भीतर तुम्हारी ऊर्जा होती, वही ऊर्जा जो तुमको इसमें समर्थ बनाती है कि तुम खुद को एक सुन्दर पत्नी, दो अविवाहित बेटियों, दोस्तों के साथ तमाम शामों और चित्रकला के प्रति समर्पित कर पाते हो। मैं विस्तार से फिर लिखूंगा। तुम्हारी कृतियों को देखने की प्रतीक्षा है।

जेनिन और मेरी तरफ से तुमको और रेणु को प्यार,

रज़ा

मेरा पता हमेशा रहेगा:

18, द शपतल द चैपल , पेरिस- 9इ।

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नवारुण भट्टाचार्य की कहानी ‘पृथ्वी का आख़िरी कम्युनिस्ट’ 

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नवारुण भट्टाचार्य की इस प्रसंगिक कहानी का अनुवाद किया है जानी-मानी लेखिका, अनुवादिका मीता दास ने- मॉडरेटर

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इस पृथ्वी का आख़िरी कम्युनिस्ट

नवारुण भट्टाचार्य

बांग्ला से अनुवाद: मीता दास

2020 साल में एक घटना इस प्रकार घटित होगी जो इस कहानी से ही प्रमाणित हो जाएगा कि आज से ठीक सत्रह साल बाद जो घटेगा या जिस घटना का घटित होना संभव हो पाएगा उसी को लेक​र  ​यह कहानी मैं लिख रहा हूं।
उन्नीस सौ इक्यानवे में जिस सोवियत यूनियन की विलुप्ति की घोषणा इस दुनिया ​के​ सबसे नामी { प्रसिद्ध }
क्रिमि​नोलॉजिस्ट भी नहीं कर पाए।

 

अगर पृथ्वी को सैकड़ों बार जलाकर भस्म कर दिया जाए और इस तरह की हजारों न्यूक्लियर मिसाईल उनके साइलो में सोई हुई भी रहें और मार्किन युक्त राष्ट्र को नीचा दिखाने के लिए विशाल सामरिक वाहिनी, पुलिस, केबीजी, लाखों की तादात में पार्टी सदस्य सब ठूंठ साबित होंगे | इस घटना को हम विश्व का सबसे बड़ा पैरालिसिस { फ़ालिज } की भी संज्ञा दे सकते हैं | वलकोगन के जैसे इतिहासकार ने भी बाद में ढेर सारे तथ्य दिए | किन्तु इस महापतन के बारे में एक मात्र आभास कर पाते हैं हम साहित्यकार वुल्गाकाव, ग्रॉसमैन , लेव अनातोल से सलझेनित्सिन के अनेकों लेखों में | शायद उन्होंने साफ़ तौर पर नहीं लिखा पर उन लेखों में एक संभावना का आभास जरूर था | यह सब सिर्फ साहित्य में ही संभव है | 2010 यह संख्या बदल सकता है पर यह कहानी जरूर घटित होगा |

साल 2020 में व्हाइट हाऊस का लॉन , एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के प्रेसिडेंट अर्नाल्ड – शोवरजेनेगर के चलायमान संयुक्त शतक के अमोघ जययात्रा के सम्बन्ध में रिपोर्ट देते हुए यह समाचार भी जोड़ देंगे कुछ इस तरह —–

” ….. देखो … हाँ मैं आप लोगों को यह खबर बताना चाहूंगा कि — विश्व के आख़िरी कम्युनिस्ट की कल मौत हो गई है , ऑस्ट्रेलिया में | उनकी उम्र थी कोई बानवे साल | वह ईश्वर पर कोई आस्था न रखने के बावजूद भी ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें | अब पूरी पृथ्वी पर कोई कम्युनिस्ट नहीं बचा , एन्ड ऑफ़ द रेड …… “राईटर —- ” पर मिस्टर प्रेसिडेंट , आपको आखिरकार यह समाचार कहाँ से प्राप्त हुआ ? ”
” …….. क्यों ? जिन से हमें और भी कई तरह की सटीक खबरे आती हैं | सी आई ए , एफ बी आई , दोस्त ब्रिटेन के एम आई – फाइव | आजकल पृथ्वी स्वच्छ है , गोपनीय जैसा कुछ भी नहीं | कम से कम व्हाइट हाऊस में | ”
पर संयुक्त राष्ट्र के प्रेसिडेंट की बातों को नकार कर क्रेमलिन घोषणा करेगा कि शोवरजेनेगर की बातें गलत हैं | ऑस्ट्रेलियन वृद्ध पृथ्वी का आखरी कम्युनिस्ट नहीं है | पर पृथ्वी का आखरी कम्युनिस्ट भी मरने के कगार में है |रस्तोभ – अन – दन शहर के एक अस्पताल में | उसका नाम है ब्लादमीर रुवाकभ जिसे द्वितीय विश्व युद्ध में ” सोवियत यूनियन वीर ” का ख़िताब मिला |

रिपोर्टर लड़के का नाम था रॉबर्ट डायल , फ्रीलांस रिपोर्टिंग करता था | ” द डेली रिपोर्टर ” उसे मॉस्को में ईमेल से सूचित करता है कि वे लोग रुवाकभ ​पर एक स्टोरी करना चाहते हैं | ​ यह मेल डायल को रात में ही मिल चुका था | दूसरे ही दिन सुबह – सुबह डायल एरोफ्लाटेर डोमेस्टिक फ्लाईट पकड़कर रस्तोभ – अन – दन शहर पहुँच जाता है | रशिया के ​आतंरिक फ्लाईट के बारे में किसी भी तरह का उसे अनुभव नहीं था | यहाँ जिस तरह की बेढंगी एयर होस्टेस मिलीं उससे भी गंदी थी फ्लाईट का टॉयलेट | तीस सालों के कैपिटलिज़्म भी रशिया को सभ्य या भव्य नहीं बना पाई | रशियन केपिटलिस्ट मैनचेस्टर यूनाइटेड को भी खरीदना चाहते हैं | डायल रुवाकभ की खोज में निकलते ही उसे और भी कई स्टोरी मिल गईं | ऐसा कई बार होता है एक चक्कर के भीतर कई चक्कर | सिर्फ इसे इंट्रेस्टिंग बना पाए तो मजा आ जाये | डायल रस्तोभ – अन – दन के मेट्रोपोल होटल में चेक इन कर ही निकल पड़ा | उसके संग उसका नित्य का संगी लेपटॉप भी था |

” रशिया ही शायद विश्व का एकमात्र देश है जहाँ अस्पतालों में आयडोफॉर्म या उसी के जैसा कोई प्राचीन गंध मिलता है ” कुछ ऐसी ही लाईन मन ही मन सोचता डायल बॉरिस मेमोरियल हॉस्पिटल में प्रवेश करता है | रिसेप्सनिस्ट लड़की टूटी – फूटी इंग्लिश में कहती है —

” आप मिस्टर डायल हैं ? ”

” हाँ , प्रेस का कार्ड दिखलाऊँ क्या ? ”

” नहीं , कोई जरूरत नहीं ” मिस्टर मैक्सिम ब्लादमीरोव्हिच रुवाकभ आधे घंटे से आपका इंतजार कर रहे हैं | वे ही आपको पेशेंट के कमरे तक ले जायेंगे | ” डायल के करीब आ गए थे मैक्सिम , डायल जनता था मैक्सिम इंग्लिश के प्रोफ़ेसर हैं | हाथ मिलाते ही मैक्सिम बोले –

” कैसे हैं आपके डैड ? ”

” होश में हैं पर अनर्गल बातें कर रहे हैं पर हमारी बातों का वे कोई जवाब नहीं दे रहे हैं | डॉक्टरों का भी कहना है इससे ज्यादा और कुछ नहीं किया जा सकता | और फिर युद्ध में उनके दोनों कानों में बहुत ही अधिक चोटें थीं | आप क्या स्कॉटलैंड से हैं , गलत कह गया ? ”

” नहीं आपने बिलकुल ठीक कहा | ”

” अभी भी पढ़ रहा हूँ | हिऊ मैकडायरमिड मेरे प्रिय कवि हैं , अपने उन्हें पढ़ा है ? ”

” नाम सुना है ”

आदिम युग के सामान लिफ्ट के निकट आकर दरवाजा खोलते हुए मैक्सिम हँस पड़ा |

” बेहद इच्छा थी कि मैं हीऊ मैकडायरमिड​ के ऊपर काम करू, स्कॉट भाषा भी सीख ली थी अगर आपको ” फस्ट हिम टू लेनिन ” या अ ड्रंक मैन लुक्स एट द थिसल ” पढ़नी हो तो स्कॉट भाषा आनी ही चाहिए | ​सच – सच कहूं तो बानर्स भी मुझे उतना नहीं खींचते | ”

बरामदे में एक मोटी सी मेट्रन रुसी भाषा में मैक्सिम से कुछ कहा और मैक्सिम हँस पड़ा |
” लगातार बातें कर रहे हैं वे …… क्या आप रुसी समझते है ? ”

” खूब अच्छे से नहीं , पर शायद टूरिस्ट बने तो असुविधा नहीं होगी | ”

” सोचिये मत मैं कह दूंगा | ”

” अच्छा सब कह रहे हैं कीआपके पिता ही पृथ्वी के आखरी कम्युनिस्ट हैं ! क्या आपको भी इस बात पर विश्वास हैं ? ”

” पेपरों में , टी वी पर तो यही कहा जा रहा है | क्रेमलिन भी यही कह रहे हैं | ”

” पर आप ? अमिन आपकी बात कर रहा हूँ , आप क्या कहते हैं इस बारे में | ”

वे अब एक केबिन के भीतर प्रवेश कर रहे हैं | इसलिए मैक्सिम का जवाब देने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता , समय ही नहीं मिला | उसी वक़्त एक डॉक्टर केबिन से बाहर निकल रहा था ।

​मॉनिटरिंग मशीन चल रहा था उसके परदे पर आड़ी – तिरछी ​रेखायें लहरा रही थीं और यह भी सूचना दे रही थी की जीवन चल रहा है | एक नर्स भी थी वहां |
बूढ़े रुवाकभ को जरा ऊँचा कर सुलाया गया था | बूढ़े थे वे बेहद ही बूढ़े पर कमजोर नहीं | चौड़ा माथा , सफ़ेद बाल उलझे से , दोनों ही ऑंखें बंद पर अचानक दोनों ही आँखे खोलकर स्पस्ट बात करने लगे |

कल से ही वे ……. स्तालिनग्राद के युद्ध के बारे में ही कह रहे हैं , बड़बड़ा रहे हैं | अचानक वृद्ध ने किसीको पुकारा —-

” रुबिन ! रुबिन ! ” मैक्सिम कहे जा रहा था |

” रुबिन थे मेरे पिता के गहरे दोस्त , स्पेन के कम्युनिस्ट नेत्री – डोलोरेस ईबारुरी का बेटा | वे दोनों स्पेन की लड़ाई संग लड़े थे | रुबिन स्तालिनग्राद युद्ध में ही मारा गया था , तब मेरे पिता पास ही खड़े थे | ” वृद्ध जोर – जोर से कुछ कहने लगता है और बातों में बीच रुबिन का भी नाम ले रहा था | पर डायल कुछ समझ नहीं पा रहा था |

” पिताजी रुबिन से कह रहे हैं …. रुबिन इतनी जल्दी मरने से नहीं चलेगा , जर्मन बम वर्षक स्तुका अब आकाश में नहीं हैं | अब आकाश ने छीन ली है हमारे स्तरमोभिक बम वर्षक , जमीने दखल कर ली हैं हमारे टी – 34 टैंकों ने | आकाश में जितना भी उजाला है सब उजाला कातियुषा रॉकेट का है | रुबिन अभी तुम्हारा मरना कतई ठीक नहीं | रुबिन , कॉमरेड स्तालिन हमे कह रहे हैं ….. रुबिन तुम्हारे पैरों के भायलेनकि …… हाँफते हैं वे ….. ” मैक्सिम कहने लगे —–

भायलेनकि यानि स्नो फॉल्ट बूट { जूते } इसे लाल फौज पहनती थी उसके नीचे दो जोड़ी ऊनी मोजे | जर्मन लोग के पास भायलेनकि नहीं थे | इसलिए वे बर्फ में जम गए थे | रुबिन की जिस दिन मौत हुई उसदिन तापमान था माईनस चवांलिस ​डिग्री | वे उसे याद कर रो रहे हैं क्योंकि रुबिन की मृत्यु हो गई है | कल भी वे रुबिन की ही बातें कर रहे थे |

सिसकना जरा रुक गया था , वे शांत हो रहे थे , दीर्घ साँसें ले रहे थे | फिर होंठ हिलने लगे ….. जर्मन भाषा में बातें करने लगते हैं , डायल को जर्मन आती है वह इतना समझ गया की ” यह जूकभ आदमी आखिर है कौन ? ” इतना कहकर वृद्ध हँस देते हैं | आखिरकार ऐसा डायल को महसूस हुआ |

” मैक्सिम पूरा विवरण व्याख्या कर उसे बता देता है |

” लाल फौज का एक जोक , जर्मन जनरल वॉन रुनस्टेड , फ़रवरी1942 को ​बड़े बेहद अचरज के साथ यह बात कही थी | ​​और भी ज्यादा अवाक् रह गया था यह जानकर ​कि , मार्शल जूकव एक गरीब किसान परिवार की संतान थे | प्रशियन जुंकर विषमय से भर उठा | और यही बात लाल फौज के सैनिक आपस में कहा करते थे | युद्ध के दौरान ऐसे ही अनेक तरह के जोक्स प्रचलित थे | कितनी ही कहानियाँ सुन रखी हैं मैंने पिता से …….

अचानक नर्स ने उठकर मॉनिटर की और ताका … फिर फोन मिलाने लगी …. वृद्ध को सांस लेने में कष्ट हो रहा था जैसे उसे भारी बोझ उठाना पड़ रहा हो , बायाँ हाथ अपने आप ऊपर उठ रहा था | डॉक्टर आश्चर्य से भर उठा |
” रुबिन ! ”
वृद्ध की दोनों आंखे खुली हुई थीं , पता नहीं किसे ढूंढ रहे थे | किसे …… कौन ….. क्या किसी कॉमरेड ? क्या किसी कॉमरेड का हाथ या किसी कॉमरेड का गोलियों से छलनी हुये हाथ गिरी हुई रायफल ? डायल अचानक खिड़की से बाहर की ओर ताकता है उसे बाहर बार्च के पेड़ कांपते हुए नजर आते हैं | यह कोई आंधी का समय है ? वृद्ध के गले से घर्र – घर्र आवाज स्पष्ट सुनाई दे रही थी | डॉक्टर नर्स से कुछ कहा और नर्स डॉक्टर के कहे अनुसार एक एम्पुल लेकर सिरिंज में भरने लगती है | वृद्ध कुछ कह उठते हैं , इतनी साड़ी बातें मैक्सिम डायल को अपने पिता के मृत्यु के बाद बताते हैं |

” पिता जिस बात को अपने आखरी वक़्त पर कह रहे थे वह यह था कि वान पलासके को भेजा गया रस्कोसवायस्की का आखरी सावधान करने वाली बात —– यह थी आपलोगों की सैन्य वाहिनी मुश्किल में हैं उनकी हालात सोचनीय है | वे भूख , बीमारी और भयंकर ठण्ड से जूझ रहे हैं | यह निष्ठुर रूस की ठण्ड मात्र अभी शुरू ही हुआ है इसके बाद हिमपात , वीभत्स आंधी और हिमवर्षा के संग तेज हवाओं की आंधी तो अब तक शुरू ही नहीं हुई है | आप लोगों की सेना के पास उन आँधियों से लड़ने के लिए ठण्ड के पोशाक ही नहीं हैं …….. स्टालिन ग्राद के युद्ध में एक लाख साठ हजार नाजी सैनिक मारे गए और बंदी हुए थे नब्बे हजार …..

उस दिन उसे लगा जरा सी आंधी या , हिमवर्षा जरूर रस्तोव -ऑन – दन पर से गुजरेगी रिपोर्ट लन्दन भेज कर
कुछ देर ​​रुसी टी वी पर ​डायल सर्कस देखेगा | सार्बेरियन बाघ के सर्कस के एरिना में | जलते हुए रिंग के भीतर से शेर कूदकर पार हो रहा है | इसके पश्चात वह टी वी ऑफ कर सो जायेगा | और उसी रात में कइयों की नींद उड़ जाएँगी |

उसी रात को बाल्टिक नौ – बहर के नाविक विद्रोह कर उठेंगे | विद्रोध फ़ैल जायेगा मॉस्को गैरिसन में और हजारों – हजारों सैनिक रात में ही बर्फ को पैरों से रौंदकर लाल पताका लिए निकल पड़ेंगे | क्रेमलिन की दीवार पर धक्का लगेगा तूफ़ान का स्लोगन | सेंट पीटर्सबर्ग वापस कहलायेगा लेनिनग्राद |

उसी रात इंडोनेशिया में कम्युनिस्ट लोग अब बन्दूक बिना ही अभ्युथान करेंगे | ऑस्ट्रेलिया में एक के बाद एक बंदरगाह में होते ही रहेंगे हड़तालें | बोलीविया में विस्फोट के साथ टिन श्रमिकों के विक्षोभ – लेनिन और चे की तस्वीरें लिए लैटिन अमेरिका के हर राजधानी को अचल कर रख छोड़ेंगे छात्र और मध्यमवर्गीय लोग | श्रमिक आंदोलन अचल हो जायेंगे | फ्रांस , ईटली , ग्रीस , स्पेन ….. खबरें आएँगी अफ्रीका से , अरब देशों से ……
पूरी दुनिया में लौट आएंगे कम्युनिस्ट | हाँ आएंगे … जरूर आएंगे | पर उसके लिए आगामी सत्रह साल या उससे भी ज्यादा का समय प्रत्येक घंटा और प्रत्येक मिनिट का उपयोग करना होगा | पूरी पृथ्वी में कम्युनिस्ट लौट आएंगे | हाँ। .. आएंगे ही | दस नहीं …… दस हजार दिन तक दुनिया कांपेगी |

इसी बात को इस कहानी में कह दी ||
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मीता दास

मीता दास ।
63/4 नेहरूनगर , भिलाई ( छत्तीसगढ़ )
09329509050
mita.dasroy@gmail.com

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पिता ने राजीव गांधी को गुलाबों से प्यार करना सिखाया

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आज देश के विजनरी प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी की पुण्यतिथि है। उनको याद करते हुए आरती रामचन्द्रन की किताब ‘डिकोडिंग राहुल गांधी’ किताब से एक अंश प्रस्तुत है। किताब का प्रकाशन यात्रा बुक्स ने किया है- मॉडरेटर

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राजीव गाँधी और माँ सोनिया गाँधी को राजनीति में आने का अवसर मिला. दोनों ने अलग-अलग परिस्थितियों में यह फैसला लिया, बावजूद इसके कि उनकी राजनीति में खास दिलचस्पी नहीं थी. राजीव राजनीतिक ढंग के नहीं थे बावजूद इसके कि वे प्रधानमंत्रियों एवं राजनीतिक सरगर्मियों के दिनों में पक्के राजनीतिकों के घर में बड़े हुए थे. फिरोज एवं इंदिरा गाँधी के दो पुत्रों में बड़े राजीव का जन्म २० अगस्त १९४४ को हुआ था, स्वतंत्रता से तीन साल पहले. फिरोज का जन्म एक पारसी परिवार में हुआ था और वे इलाहाबाद में पले-बढ़े थे जहां नेहरु परिवार का घर अवस्थित था. फिरोज और इंदिरा का वैवाहिक जीवन अशांत था. इंदिरा जब अपने पिता, देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के साथ नई दिल्ली में रहने के लिए आ गई तो वे अलग रहने लगे, लेकिन उन्होंने कभी तलाक नहीं लिया.

जिसके कारण राहुल गाँधी के शुरूआती दिन तीन मूर्ति भवन में बीते उस भव्य और हरे-भरे परिसर में जो नई दिल्ली में प्रधानमंत्री का आधिकारिक निवास था. कई दफा इंदिरा आधिकारिक तौर पर उन लंच और डिनर को होस्ट किया करती थीं जो नेहरु को देना पड़ता था. इस बीच, वह अपने पिता की राजनीतिक सहायक भी हो गई.

जब राजीव और उनके छोटे भाई संजय थोड़े बड़े हुए तो नेहरु, जो हैरो और बाद में कैम्ब्रिज से पढ़े थे, ने अपने नातियों को दून स्कूल भेज दिया. दून एक आभिजात्य बोर्डिंग स्कूल था जो उत्तरी पहाड़ी शहर देहरादून में अवस्थित था, जिसे ब्रिटेन के बेहतरीन पब्लिक स्कूल के मॉडल पर बनाया गया था. वहां से राजीव इंग्लैण्ड के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए गए. हालांकि, उन्होंने वहां से बिना कोई डिग्री हासिल किए ही पढ़ाई छोड़ दी, वे परीक्षाओं में नहीं बैठे. वहां से वे लंदन के इम्पीरियल कॉलेज ऑफ साइंस एंड टेक्नोलोजी में मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए गए लेकिन उसे भी उन्होंने पूरा नहीं किया. बाद में उन्होंने स्वीकार किया कि परीक्षा के लिए रटाई करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी.7

भारत लौटने पर उन्होंने अपना कैरियर राजनीति के बाहर चुना. उन्होंने एयरलाइन पाइलट के रूप में प्रशिक्षण लिया और १९६८ में भारत के राष्ट्रीय उड़ान सेवा इंडियन एयरलाइंस में काम करना शुरु किया. उन्होंने सोनिया मैनो से विवाह किया, जो एक इटालियन छात्रा थी और जिनसे वह कैम्ब्रिज में मिले थे. वह वहां विश्वविद्यालय नगर के एक निजी भाषा संस्थान में अंग्रेजी की पढ़ाई कर रही थी.

सोनिया ९ दिसंबर १९४६ को, स्टीफानो एवं पाओलो मैनो की तीन बेटियों में से दूसरी बेटी के रूप में पैदा हुई थी.उनका लालन-पालन ओउब्रासानो में हुआ जो उत्तरी इटली में ट्यूरिन के पास एक नगर था. सोनिया के जीवनीकार राशिद किदवई अपनी पुस्तक ‘सोनिया: ए बायोग्राफी’ में कहते हैं की स्टीफानो ने अपना जीवन अपने बलबूते बनाया था जिनको ‘कई बार बेहद बुरे दौर से गुजरना पड़ा था.’ स्टीफानो ने तब ओउब्रासानो के छोटे-मोटे कंस्ट्रक्शन के व्यवसाय में अच्छी आय की थी जो युद्ध के बाद के उत्तरी इटली में ‘बूम’ के दौर में पनपा था.

सोनिया के जीवनीकार रशीद किदवई ने ‘सोनिया: ए बायोग्राफी’ में उस शहर के बारे में लिखा है जिसमें सोनिया पली-बढ़ी थी कि वह एक निम्न-मध्यवर्गीय शहर था. वे यह भी कहते हैं कि स्टीफानो ने अपनी बेटियों को ‘परंपरागत कैथोलिक ढंग’ से पाला-पोसा.

राजीव और सोनिया एकदम अलग तरह की पृष्ठभूमियों से आते थे. लेकिन १९६८ में विवाह करके एक विदेशी धरती पर एक भारतीय संयुक्त परिवार में अपनी सास के साथ रहने का निर्णय करके सोनिया ने बहुत बड़ा फैसला किया था. इंदिरा १९६७ में नेहरु के उत्तराधिकारी लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद प्रधानमन्त्री बने. लगता है सोनिया अपने नए वातावरण के अनुसार अच्छी तरह से ढल गई जो ऐसे आदमी के लिए बड़ी बात है जो भारत के बारे में शादी से पहले बहुत कम जानता हो. राहुल का जन्म १९ जून १९७० को हुआ और उनकी बहन प्रियंका का १२ जनवरी १९७२ को. राजीव और सोनिया गाँधी का अपना ‘छोटा लेकिन बेहद निजी दोस्तों का एक दायरा’ था. राजीव ने राजनीति में हाथ आजमाने की दिशा में कभी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. उनके जीवनीकार मिन्हाज मर्चेंट ‘राजीव: एंड ऑफ ए ड्रीम’ में कहते हैं कि उनका जीवन आरामदेह, व्यवस्थित और साधारण किस्म का था.10  उनके अनुसार, वे अपनी निजता को बहुत महत्व देते थे तथा उन राजनीतिज्ञों से बचकर रहते थे जो १ सफदरजंग रोड, जो प्रधानमन्त्री निवास था, पर नियमित तौर पर आते थे, और सतर्कतापूर्वक हर प्रकार की राजनीतिक गतिविधि से खुद को दूर रखते थे.11

एक पिता के रूप में राजीव ‘प्यार करने वाले सुलभ रहने वाले लेकिन सख्त’ थे, सोनिया ने ‘राजीव’ नामक पुस्तक में कहती हैं जिसे उन्होंने १९९१ में अपने पति की हत्या के बाद श्रद्धांजलि के तौर पर तैयार किया था. ‘वह ऐसी किसी भी तरह की बात को बर्दाश्त नहीं करते थे जिसे वे बिगड़ैल स्वभाव के लक्षण के तौर पर देखते थे जैसे खाना देखकर नाक-भौं सिकोडना या खाना बर्बाद करना. बच्चों को वह खाना खत्म करना होता था जो कुछ भी उनके लिए बनाया जाता था चाहे वह उनको पसंद आए या नहीं या उसे खाने में उनको चाहे कितना भी समय लगे. वे माँ को भी बीच में नहीं पड़ने देते थे. उनको रूखे व्यवहार या बुरी आदतों से सख्त नफरत थी, और वे इसके लिए परंपरागत ढंग से सजा देते थे- उदाहरण के लिए, बच्चों से १०० बार यह लिखने के लिए कहते थे, मैं दरवाजा नहीं पीटूँगा. 12

मर्चेंट कहते हैं13  राजीव की अनेक प्रकार की रूचियाँ थीं, जिनमें संगीत, फोटोग्राफी, हैम रेडियो, टारगेट शूटिंग तथा जहाज उड़ाना. वह एक अच्छे फोटोग्राफर थे तथा अपने बच्चों को फोटोग्राफी सीखने के लिए प्रोत्साहित करते थे, सोनिया राजीव में कहती हैं. उन्होंने उनको रंग-संवेदन सिखाया, और उनको इसके लिए नोट तैयार करना सिखाया कि वे कैसा कर रहे थे तथा वे किस तरह से बेहतर कर सकते थे. राहुल और प्रियंका आज तक फोटोग्राफी को लेकर उत्साहित रहते हैं. प्रियंका गाँधी वाड्रा की २०११ में आई चित्रों की पुस्तक ‘रणथम्भोर: द टाइगर्स रियल्म’(रणथम्भौर: शेर की दुनिया), जिसका उन्होंने अंजलि और जैसल सिंह के साथ सह-लेखन किया था, में उन्होंने कहा कहा है कि वह फोटोग्राफ इसलिए खींचती हैं क्योंकि उनके पिता ने उन्हें सिखाया था न कि किसी और कारण से.14  

हालांकि यह केवल फोटोग्राफी की ही बात नहीं है. राजीव ने अपनी बहुत सारी अभिरुचियाँ अपने बच्चों को दीं. सोनिया गाँधी१५ लिखती हैं कि राहुल के पहले जन्मदिन पर जब उसके सामने दो चीजें रखी गईं जिनमें से वह एक चुने और यह पता चल सके कि उसकी भविष्य संबंधी प्राथमिकताएं क्या हैं, जैसे शिक्षा के लिए पेन, राजीव को तब बहुत खुशी हुई जब राहुल ने मैकेनिकल कार को चुना. राहुल को उसके पिता की तरफ से जो आरंभिक उपहार मिले उनमें एक मैकेनिकल टूल किट था, उन्होंने लिखा है. फिरोज गाँधी ने अपने बेटों को बचपन में अपने हाथों से काम करना सिखाया था, इसके कारण राजीव और उनके छोटे भाई संजय दोनों के मन में हर उस चीज के प्रति बैठ गया जो मैकेनिकल हो.

इंदिरा गाँधी की दोस्त और जीवनीकार स्वर्गीय पुपुल जयकर ‘इंदिरा गाँधी: ऐन इंटिमेट बायोग्राफी’16 में वर्णन करते हुए लिखा है कि जब फिरोज १९५२ में रायबरेली से लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए तो वे नई दिल्ली में प्रधानमंत्री निवास में रहने के लिए आए. उन्होंने कहा है कि उनको वहां का वातावरण दमघोंटू लगा और वे जल्दी ही एमपी क्वार्टर में अपने स्वयं के घर में रहने के लिए चले गए. वीकेंड में दोनों लड़के अपने पिता के पास जाते थे. “जब वे अपने पिता के पास जाते तो फिरोज उनका पूरा ध्यान रखते. वे उनको दिखाते कि किस तरह खिलौने वाली ट्रेन या कार को अलग करके फिर से जोड़ा जा सकता है. उन्होंने उनको पौधे लगाना सिखाया गुलाबों के प्यार सिखाया.”

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गांधी की आलोचना से गोडसे के गुणगान तक

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लुई फ़िशर की किताब के हिंदी अनुवाद ‘गांधी की कहानी’ से कुछ प्रासंगिक अंश चुने हैं भाई परितोष मालवीय। आप भी पढ़िए- मॉडरेटर

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गाँधी की आलोचना ठीक है और ज़रूरी भी, लेकिन इधर लोग गाँधी की आलोचना नहीं, गोडसे का गुणगान कर रहे हैं। पूरा एक विचार-तंत्र प्रचारित और प्रायोजित है, जिसमें उसे भगवान बताया-बनाया जा रहा है। ऐसे लोगों में कुछ उन्मादी हैं, तो कुछ अधपढ़े। उन्मादियों की दवा कुछ अलग ही है, लेकिन बाकियों के लिए सच रखना ज़रूरी है। जनवरी 1948 को शुक्रवार जिस दिन महात्माजी गांधी की मृत्यु हुई, उस दिन वह वही थे, जैसे सदा से रहे थे- अर्थात् एक साधारण नागरिक, जिसके पास न धन था, न सम्पत्ति, न सरकारी उपाधि, न सरकारी पद, न विशेष प्रशिक्षण-योग्यता, न वैज्ञानिक सिद्धि और न कलात्मक प्रतिभा। फिर भी, ऐसे लोगों ने, जिनके पीछे सरकारें और सेनाएँ थीं, इस अठहत्तर वर्ष के लंगोटीधारी छोटे-से आदमी को श्रद्धांजलियाँ भेंट की। भारत के अधिकारियों को विदेशों से संवेदना के 3441 संदेश प्राप्त हुए, जो सब बिन माँगे आए थे, क्योंकि गांधीजी एक नीतिनिष्ठ व्यक्ति थे, और जब गोलियों ने उनका प्राणांत कर दिया, तो उस सभ्यता ने जिसके पास नैतिकता की अधिक संपत्ति नहीं है, अपने-आपको और भी अधिक दीन महसूस किया। अमरीकी संयुक्त राज्यों के राज्य-सचिव जनरल जार्ज मार्शल ने कहा था-’’महात्मा गांधी सारी मानव जाति की अंतरात्मा के प्रवक्ता थे।’’ फ्रांस के समाजवादी लियो ब्लम ने वह बात लिखी जिसे लाखों लोग महसूस करते थे। ब्लम ने लिखा-’’मैंने गांधी को कभी नहीं देखा। मैं उनकी भाषा नहीं जानता। मैंने उनके देश में कभी पांव नहीं रखाः परंतु फिर भी मुझे ऐसा शोक महसूस हो रहा है, मानो मैंने कोई अपना और प्यारा खो दिया हो। इस साधारण मनुष्य की मृत्यु से सारा संसार शोक में डूब गया है।’’ पोप पायस, तिब्बत के दलाई लामा, कैंटरबरी के आर्कबिशप, लंदन के मुख्य रब्बी, इंग्लैंड के बादशाह, राष्ट्रपति ट्रू मैन, च्याँगकाई शेक, फ्रांस के राष्ट्रपति और वास्तव में लगभग सभी महत्वपूर्ण देशों तथा अधिकतर छोटे देशों के राजनैतिक नेताओं ने गांधीजी की मृत्यु पर सार्वजनिक रूप से शोक प्रदर्शन किया। गांधीजी की मृत्यु पर संसारव्यापी प्रतिक्रिया स्वयं ही एक महत्वपूर्ण तथ्य था। उसने एक व्यापक मनःस्थिति और आवश्यकता को प्रकट कर दिया। न्यूयार्क के ’पीएम’ नामक समाचारपत्र में एल्बर्ट ड्यूत्श ने वक्तव्य दिया। ’’जिस संसार पर गांधी की मृत्यु की ऐसी श्रद्धापूर्ण प्रतिक्रिया हुई। उसके लिए अभी कुछ आशा बाकी है।’’ प्रोफेसर अल्बर्ट आइन्स्टीन ने दृढ़ता से कहा है-’’गांधी ने सिद्ध कर दिया कि केवल प्रचलित राजनैतिक चालबाजियों और धोखाधडि़यों के मक्कारी-भरे खेल के द्वारा ही नहीं, बल्कि जीवन के नैतिकतापूर्ण श्रेष्ठतर आचरण के प्रबल उदाहरण द्वारा भी मनुष्यों का एक बलशाली अनुगामी दल एकत्र किया जा सकता है।’’ संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद ने अपनी बैठक की कार्रवाई रोक दी ताकि उसके सदस्य दिवंगत आत्मा को श्रद्धांजलि अर्पित कर सकें। ब्रिटिश प्रतिनिधि फिलिप नोएल-बेकर ने गांधीजी की प्रशंसा करते हुए उन्हें ’’सबसे गरीब, सबसे अलग और प्रथभ्रष्ट लोगों का हितचिंतक’’ बतलाया। सुरक्षा परिषद के अन्य सदस्यों ने गांधीजी के आध्यात्मिक गुणों की बहुत प्रशंसा की और शांति तथा अहिंसा के प्रति उनकी निष्ठा को सराहा। संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपना झंडा चुका दिया। उपन्यास लेखिका पर्ल एस. बक ने गांधीजी की हत्या को ’ईसा की सूली’ के समान बतलाया। जापान में मित्रराष्ट्रों के सर्वोच्च सेनापति जनरल डगलस मैकआर्थर ने कहा- ’’सभ्यता के विकास में, यदि उसे जीवित रहना है। तो सब लोगों को गांधी का यह विश्वास अपनाना ही होगा कि विवादास्पद मुद्दों को हल करने में बल के सामूहिक प्रयोग की प्रक्रिया बुनियादी तौर पर न केवल गलत है बल्कि उसीके भीतर आत्मविनाश के बीज विद्यमान हैं।’’ सर स्टैफर्ड क्रिप्स ने लिखा था-’’मै किसी काल के और वास्तव में आधुनिक इतिहास के ऐसे किसी दूसरे व्यक्ति को नहीं जानता, जिसने भौतिक वस्तुओं पर आत्मा की शक्ति को इतने जोरदार और विश्वासपूर्ण तरीके से सिद्ध किया हो।’’ न्यूयार्क में 12 साल की एक लड़की कलेवे के लिए रसोईघर में गई हुई थी। रेडियो बोल रहा था और उसने गांधीजी पर गोली चलाए जाने का समाचार सुनाया। लड़की, नौकरानी और माली ने वहीं रसोईघर में सम्मिलित प्रार्थना की और आँसू बहाए। इसी तरह सब देशों में करोड़ों लोगों ने गांधीजी की मृत्यु पर ऐसा शोक मनाया, मानो उनकी व्यक्तिगत हानि हुई हो। गांधी जी के लिए शोक करने वाले लोगों को यही महसूस हुआ। उनकी मृत्यु की आकस्मिक कौंध ने अनंत अंधकार उत्पन्न कर दिया। उनके जमाने के किसी भी जीवित व्यक्ति ने, महाबली प्रतिपक्षियों के विरुद्ध लंबे और कठिन संघर्ष में सच्चाई, दया, आत्मत्याग, विनय, सेवा और अहिंसा का जीवन बिताने का इतना कठोर प्रयत्न नहीं किया और वह भी इतनी सफलता के साथ। वह अपने देश पर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध और अपने ही देशवासियों की बुराइयों के विरुद्ध तीव्र गति के साथ और लगातार लड़े परंतु लड़ाई के बीच भी उन्होंने अपने दामन को बेदाग रखा। वह बिना वैमनस्य या कपट या द्वेष के लड़े।

श्री लुई फिशर की पुस्तक ’’गांधी की कहानी’’ के अंश।

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जनादेश 2019: एक बात जो बार-बार छूट रही है…

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कल लोकसभा चुनावों के अभूतपूर्व परिणाम, जीत-हार का बहुत अच्छा विश्लेषण किया है युवा लेखक पंकज कौरव ने। हमेशा की तरह पंकज का एक गम्भीर, चिंतनपरक और बहसतलब लेख- मॉडरेटर

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जनादेश आखिर जनादेश होता है। हां कभी-कभी वह भावावेश में भी आता है लेकिन बावजूद इसके अगर दोहराया जाता है तो इसके मायने कुछ और गहराई में तलाशे जाने चाहिए। एक कारण है जिस पर 2014 के लोकसभा चुनावों के ठीक बाद पहुंचना शायद गलत निष्कर्ष हो सकता था पर अब 2019 की हार के दोहराव में छिपी बैठी  भारतीय जनमानस की वही मनोदशा फिर सतह पर तैर गई है। हालांकि रिजल्ट के बाद दिनभर सोशल मीडिया पर तांकते-झांकते हुए हर तरफ उस कारण की अनदेखी ही नज़र आई। हो सकता है यह आंकलन आपको व्यक्तिगत लगे जो कि है भी। कहना इसलिए ज़रूरी है कि सत्ताधारी पार्टी के समर्थक तो उस कारण की कभी खुलकर चर्चा नहीं ही करेंगे क्योंकि वह उनका ब्रह्मास्त्र है लेकिन मायूसी यह देखकर है कि जिन्हें एक सांप्रदायिक राजनैतिक दल के सत्ता में दोबारा काबिज हो जाने पर असंतोष है वे भी इस कारण की अनदेखी कर रहे हैं और सिर्फ जनता को कोस रहे हैं लेकिन क्या जनता वाकई इतनी नासमझ है जितनी उसे बुद्धिजीवी समझ रहे हैं?

दरअसल जनता को नासमझ समझने के आसपास ही उसकी असली मनोदशा समझने का टूल भी है। यह यूं ही नहीं हुआ होगा कि साम्राज्यवाद और राष्ट्रवाद के वीभत्स प्रदर्शन और प्रभाव के दौर में मोहनदास करमचंद गांधी ने अपना एक दर्शन तलाशा था जबकि उनके सामने रूसी-क्रांति की सफलता के सूत्र बिखरे पड़े थे. महात्मा गांधी इस भारत-भूमि पर पैदा हुए अंतिम मौलिक व्यक्तित्व रहे जिन्होंने शायद यह शिद्दत से महसूस किया कि बहुसंख्यक जनता का मानस कभी धर्म विमुख नहीं हो सकता। इसीलिए एक घनघोर सांप्रदायिक शक्ति के अलावा जनता में उनका स्वीकार्य भी इतना विराट रहा जिसकी कल्पना करना कठिन है। उनके बाद धर्मनिर्पेक्ष सिद्धांत धीरे-धीरे अपने अर्थ खोता चला गया। धर्मनिर्पेक्ष शब्द की अब प्रचलन में जो परिभाषा है वह कहती है – किसी धर्म को न मानने वाला ही धर्मनिर्पेक्ष हो सकता है।

धर्मनिरपेक्षता की ऐसी परिभाषाएं गढ़ने में जितना हाथ सांप्रदायिक शक्तियों का है उससे ज़्यादा खुद बुद्धिजीवियों का भी रहा है। सांप्रदायिक शक्तियों ने सुबह शाम शाखा लगाकर अपने समर्थकों की संख्या बढ़ाई है तो हमने संयोगवश किसी पूजा अनुष्ठान में बैठे मैनेजर पांडेय की फोटो सोशल मीडिया में घुमाई है या कभी किसी कार्यक्रम में योगी आदित्यनाथ के साथ एक फ्रेम में दिखने पर कहानीकार उदयप्रकाश को नज़र से उतारने का उपक्रम किया है, ऐसे सभी लोगों को लानत-मलानत भेजी हैं। हम बुद्धिजीवियों ने धर्म के प्रति अपने वैचारिक दुराव को इस हद तक महिमामंडित किया है कि अब यही दुराव लोगों को जोड़ने की बजाय उनके खुद छिटक कर दूर हो जाने का सबब बन गया है। अपनी वैचारिक सोच में ठीक वैसी कट्टरता पैदा की है जैसी सांप्रदायिक कट्टरता अब हमें चुभ रही है।

विश्व की महानतम रचनाओं का अनुवाद किया और पढ़ा जा सकता है लेकिन जब हम उन्हें भारतीय जनमानस के सामने परोसते हैं तो उसका भारतीय-करण भी होता है। कहानी, उपन्यास या नाटक उन सभी का भारतीय अडॉप्टेशन क्यों जरूरी है? क्यों नहीं उन्हें जस का तस परोस दिया जाता? क्योंकि भारतीय मानस वैसा नहीं है जैसा अन्य देशों में लोगों का होगा। तो बस इतना समझ लेना जरूरी है कि इस देश के लोगों की वैचारिक प्रक्रिया भी अलग है। लेकिन न जाने क्यों इसी बात की बार बार अनदेखी की जाती रही है। धर्म के मामले में सुधारवादी प्रक्रिया पिछले कई दशकों में लुप्त हो गई है। बुद्धिजीवी अगर खुद को सुधारवादी कहते हैं तो यह उनकी भूल है क्योंकि वे तो धर्म को ख़ारिज करते आए हैं। उन्होंने धार्मिक न होने का लेबल गलत तरीके से लगा लिया है, वह इस तरह लगाया गया है कि अब धार्मिंक आस्था वाला व्यक्ति उस पर विश्वास नहीं करता। ऐसे में अगर इस अविश्वास का कोई और फायदा उठा रहा है तो यह उसकी चतुराई है और यह अविश्वास ढोने वालों की मूर्खता। शायद यही कारण रहा होगा कि राहुल गांधी को मंदिरों के प्रांगण में देखकर जनता में वही अविश्वास और गाढ़ा हुआ।

धर्म और धार्मिक आस्था को लेकर सुधारवादी कोशिशें लगातार होती रहतीं तो शायद कुछ हद तक वर्तमान स्थितियों से पार पाया जा सकता था लेकिन अनजाने या कि अति आत्मविश्वास में लगातार वही भूल होती आई है जिनसे निकले सूत्र लपककर सांप्रदायिक ताकतों ने समाज में अपना वर्चस्व बढ़ा लिया है। दरअसल इस मामले में जितना नुकसान होना था उससे कहीं ज़्यादा हो चुका है इसके बावजूद संभावनाएं अब भी बाकी हैं। बेशक हम-आप नास्तिक रहें लेकिन ये खबर रहे कि बहुसंख्यक हमेशा धार्मिक संवेदना से भरे हुए लोग ही रहेंगे। उनकी औसत बुद्धि का निरादर कोई बड़ा बौद्धिक पराक्रम का काम नहीं है। सनद रहे धर्म के नाम पर पाखंड पर चोट करते करते कहीं धर्म पर ही चोट न पड़ जाए। धार्मिक-सुधार भले न कर सकते हों, पर इतना तो हम आप कर ही सकते हैं, हो सकता है इससे ही अच्छे भविष्य की संभावनाएं बची रहें।

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काफ़िर कवि की कविताएँ

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अच्छी कविताएँ उदासी को दूर कर देती है। सबसे अच्छी कविताएँ वह होती हैं जिनको पढ़कर मन उदास हो जाता है। कवि काफ़िर की कविताएँ मुझे तक ऐसे लेखकों-मित्रों के रास्ते आई जिनके पसंद, जिनके चयन मुझे पसंद आते रहे। काफ़िर मूलतः प्रेम के कवि हैं लेकिन उनकी अनेक कविताओं में सूक्ष्म राजनीतिक दृष्टि भी है। यह समय इतना राजनीतिक है फ़िलहाल कि प्रेम कविताओं का मौसम नहीं लग रहा। काफ़िर की कुछ दूसरी तरह की कविताएँ पढ़िए जिनमें राग और विराग का गहरा द्वंद्व है- मॉडरेटर
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1
महानिर्वाण
 
उफ़नती नदी तैरना नहीं
डूबना सिखाती है।
 
किनारे पर पहुँचना कायरों का काम है।
 
नाव –
एक सहमे हुए आदमी की ईजाद।
2
इतवार
 
मैं स्टालिन को फ़ोन करता हूँ
अर्ज़ी भेजता हूँ
माओ को,
मिन्नत करता हूँ
हिटलर की,
लेनिन के आगे हाथ जोड़ता हूँ।
 
पर कोई भी
नहीं ख़ारिज कर पाता
हफ़्ते से:
इतवार को।
 
…और मुझे फिर तुम्हारे बग़ैर
काटना पड़ता है
एक और दिन।
3
डर – 1
 
राजधानी के बाहर
जंगल से
आवाज़ आती है –
“बुद्धम् शरणम् गच्छामि”
 
और राजा डरता हुआ
अपने बच्चों को
महल में छुपा लेता है।
4
 डर – 2
 
जब लोग एक-दूसरे के
प्रेम में पागल होने लगे।
 
उन्होंने जंग का ऐलान करना ही मुनासिब समझा।
5
ढोल के भीतर
हर रात
उसे देना पड़ता है
अपने सतीत्व का सुबूत
बिस्तर पर !
निर्वस्त्र होकर !
मर्ज़ी या मर्ज़ी के बग़ैर
 
और दूर कहीं गूंजने लगते हैं
राम राज्य की जय-जयकार के नारे
6
कश्मीर / राष्ट्र
एक कारागार
जहाँ फ़ौजी जूतों की ताल पर
गाया जा रहा है – राष्ट्र गान
7
बीज
 
युद्ध के दौरान भी
वो लाता रहा किताबें
अपने बच्चों के लिए
 
ताकि वो ना लड़ें
आने वाले युद्धों में
8
बुद्धिजीवी
 
जंग के दौरान
वो चुप रहा।
जंग ख़त्म होने के बाद
उसने गहरी आह भरी
और ख़ामोश हो गया।
9
बहस
1
दो जन बहस रहे थे।
जब सारे तर्क ख़त्म हो गए
उनमें से एक ने
मंत्र उच्चारण शुरू किया।
 
और बहस ख़त्म हो गई।
 
2
दो जन बहस रहे थे।
जब सारे तर्क ख़त्म हो गए
उनमें से एक ने
गालियाँ देना शुरू किया।
और बहस ख़त्म हो गई।
10
सभ्यता
 
क़त्ल करने के लिए
चाक़ू की जगह
बन्दूक़ का इस्तेमाल किया जाना

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पूनम दुबे के उपन्यास ‘चिड़िया उड़’का एक अंश

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युवा लेखिका पूनम दुबे का पहला उपन्यास आया है ‘चिड़िया उड़’। जानकी पुल पर उनके यात्रा वृत्तांत प्रकाशित होते रहे हैं और पसंद भी किए जाते रहे हैं।प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित इस उपन्यास का एक छोटा सा अंश पढ़िए- मॉडरेटर

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कल्पना कथा

कप्पादोकिया में परियों की चिमनियों के ठीक ऊपर वह किसी चिड़िया सी उड़ रही थी.
अपनी बाहों को यूँ फैलाये हुए जैसे उसके गाँव में बाज़ उड़ा करते थे. गर्म हवा के गुब्बारों से भरे इस तुर्की आसमां में ऊँची उठ रही कल्पना की उड़ान के कई आयाम थे. एक वह भी… ।

कोर्ट की गहमा-गहमी भी कल्पना का ध्यान अपनी ओर नहीं खींच पा रही थी। उसकी आँखें टैब के लगातार बदलते पन्ने पर और दिमाग बचपन के उस खेल में खोया हुआ था। उसे अब भी याद है कि, स्कूल से घर आते हुए वह फूलदार झाड़ियों के पास ठिठक जाती। उसकी नज़र वहाँ उड़ रही तितलियों पर अटक जाती। नीली, पीली, लाल, सफ़ेद–जीवन के तमाम रंगों से खुद को रंग कर न जाने कहाँ से रोज़ इतनी सारी तितलियाँ वहाँ आ जातीं। उसे ये रंग मदहोश कर देते। वह उन तितलियों को देखते ही उन्हें पकड़ने को बेचैन हो जाती, मानों उनके पंख छीन कर रख लेगी! वह तितलियों को पकड़ती जाती और छोटा भाई राघव उन्हें डिबिया में बंद करता जाता।
तितलियों को पकड़ने और डिबिया में डालने का यह कार्यक्रम कभी-कभी बेहद लम्बा खिंच जाता, जिसकी झुंझलाहट राघव के मुँह से यूँ निकलती, “देखना ये तितलियाँ मरने के बाद दूसरा जन्म लेंगी, और तुझसे अपना बदला लेने आएँगी।”
वह राघव की बचकानी बात पर फिक से हंस देती…।
‘तितलियाँ अपना बदला लेने आएँगी ! पागल था राघव भी… । पर अगर यह उनका बदला नहीं है तो फिर क्या था?’
न जाने कितनी ही तितलियों के हत्या की गुनहगार थी! न जाने कितनी ही तितलियों की आज़ादी को छीन लिया था उसने! आखिर क्या मिल जाता था, उसे उन मासूम तितलियों को डिब्बियों में बंद करके घर ले जाने में? क्या यही वजह थी जो उसका जीवन भी एक डिबिया में सालों से बंद था. मान लो उसे इस डिबिया से छुटकारा मिल भी गया तो क्या वह फिर से उड़ पाएगी? या अपने टूटे पंख लिए किसी कोने में लाचार पड़ी रहेगी बिलकुल उन तितलियों की तरह! खयालों के इस सफ़र ने उसके आँखों के कोरों पर नमी ला दी थी। कोरों से पानी की उन अनचाही बूंदों को साफ़ करने के लिए उसने जैसे ही नज़रें ऊपर की, उसे शिखा आती दिखाई दी। शिखा उसके पास पहुंची ही थी कि अर्दली की आवाज़ भी उन दोनों तक पहुँची. ‘ग्यारह नंबर… ग्यारह नंबर अन्दर जाएँ।’
ग्यारह नंबर – इसी के इंतज़ार में तो थी वह वहाँ।
अर्दली की पुकार ने शिखा की आवाज़ में थोड़ी घबराहट घोल दी।
“सुनो, हमारी जज बदल गई है, और यह नई वाली थोड़ी कड़क है! प्लीज तुम कुछ मत बोलना, तुम मेरी क्लाइंट हो जो कहना है मै कहूँगी!”
“क्या मतलब बदल गई? और अगर मुझसे कोई सवाल पूछा जाएगा तो मैं ही जवाब दूँगी न ?
कल्पना की जुबाँ पर न चाहते हुए भी थोड़ी तीखी हो गयी थी।
“पूरे दो साल से घिस रहा है केस! पहली वाली जज रिटायर हो गई पिछले महीने. बड़ी मुश्किल से डेट मिली मुझे बस जल्दी केस क्लोज करना है!”
“मुझे भी शौक नहीं है यहाँ आकर मातम मनाने का! जरूरी मीटिंग छोड़कर आयी हूँ.”
शिखा को जवाब देती हुई उसकी आवाज़ का तल्ख़ लहजा अब भी वहीं था ।
“समझ गई बाबा! चलो अब अंदर चलें”!
शिखा मानो गुजारिश कर रही हो… ।

शिखा के साथ अन्दर घुसते हुए उसके दिमाग में आल्बेयर कामू की किताब स्ट्रेंजर का वह दृश्य खुल गया जब पादरी बाज़ दफा कामू के नायक से अपने अपराध का प्रायश्चित कर लेने को कहता है और वह सीधा नकार देता है, खड़े शब्दों में कि वह अपराधी नहीं…

कल्पना कदम आगे बढ़ाती है, सोचते हुए, ‘यह निश्चय ही अपराध नहीं…  

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अगत्य की उदासी

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प्रियंका ओम युवा लेखिकाओं में जाना पहचाना नाम है। इस बार उन्होंने एक बाल कहानी लिखी है। एकल परिवार के बच्चे के अकेलेपन को लेकर। पढ़िएगा- मॉडरेटर

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लंच ब्रेक में जब वो दोनो क्लास रूम में अकेले थे तब लड़की ने नाम पूछ कर बात शुरू की।
तुम्हारा नाम क्या है ?
अगत्य।
आदित्य?
नही, अगत्य!
अच्छा,  अगस्त्य!
एक तो क्लास रूम में लंच करने के दंड से अगत्य पहले ही दुखी था ऊपर से लड़की को उसका नाम समझने में जो प्रॉब्लम हो रही थी उससे वह और चिढ़ गया था इसलिए चीख़ कर बोला A G A T Y A ! अगत्य!

तुम चिल्ला रहे हो, तुम गंदे लड़के हो और इसलिये तुम्हें क्लास रूम में लंच खाने का दंड मिला है। लड़की बुरा मान गई थी!

तुम तो मुझसे भी ज़्यादा गन्दी हो इसलिए तुम्हें रोज़ क्लास रूम में टिफिन खाने की सजा मिलती है। अगत्य ने ग़ुस्से से कहा!
नहीं मैं सुन्दर लड़की हूँ, मेरी मम्मी ने धूप में जाने से मना किया है, मेरा चेहरा काला पड़ जायेगा!
लड़के को उसके काले गोरे होने से कोई फर्क नहीं पड़ता, वह अपनी सफाई में कहता है मेरी मम्मा ने भी टीचर से कम्प्लेन किया है, मैं टिफिन खाने के समय खेलता हूँ; खाना पूरा नहीं खाता।

अब दोनों के बीच एक ख़ामोशी पसर गई थी, स्याह रात के घने अंधेरे जैसी ख़ामोशी। लड़की चुपचाप पास्ता खा रही है और अगत्य ब्रेड नतेल्ला। उस शान्त झील जैसी ख़ामोशी में उनके मुँह चलाने की आवाज़ मछलियों के आपसी संवाद लग रहे थे, कोमल और दिलकश जिसे समझने के लिये मत्स्य भाषाविद होना नितांत आवश्यक है।

अभी कुछ ही दिन हुए है अगत्य के मम्मी पापा भारत से अफ़्रीका के दार सिटी तंज़ानिया शिफ़्ट हुए है, अगत्य का आज स्कूल में दूसरा हफ़्ता है।  यह स्कूल घर के बहुत पास है मॉम को दूर के स्कूल पसंद नहीं है, वो कहती है बच्चा स्कूल में कम, स्कूल बस में ज़्यादा होता है!

अगत्य को भी यह स्कूल बहुत पसंद आया है।  सभी टीचर्ज़ और क्लास मेड्ज़ बहुत अच्छी है, स्कूल में खिलौने भी बहुत है।

उसकी क्लास में पढ़ने वाले ज़्यादातर बच्चों के छोटे छोटे काले घुंघराले सख्त बाल है, जिनके लम्बे है उनके सुनहरे है बस यह एक लड़की है जिसके बाल काले भी हैं और लम्बे भी।  यह लड़की भी अगत्य की तरह भारतीय है यह उसने शुरू में ही नोटिस कर लिया था!

अगत्य बालों और त्वचा के रंग के इस फ़र्क़ को नहीं समझता, उसे तो बस खेलने की धुन रहती है।  जो उसके साथ खेलता है वह उसका दोस्त है और इतने कम समय में  ही उसके बहुत से दोस्त बन गये हैं बस इस लड़की से कोई बात नही हुई है।  यह लड़की सिर्फ़ भीतरी हिस्से में खेले जाने वाला खेल खेलती है लेकिन अगत्य को तो फिजिकल एक्टिविटी वाले खेल पसंद है।  वह सबके साथ सॉकर  खेलता है हलाकि उसे क्रिकेट खेलना बहुत भाता है और वह धोनी की तरह क्रिकेटर बनना चाहता है लेकिन यहाँ कोई भी क्रिकेट नही खेलता।  पापा ने बताया जैसे भारत में सभी क्रिकेट खेलते हैं वैसे यहाँ सभी सॉकर खेलते है, यहाँ रहते हुए उसे क्रिकेट भूल जाना चाहिए!

इस भारतीय लड़की की दिलचस्पी ना तो क्रिकेट में है न सॉकर से कोई लगाव है, बस कभी कभी ही बाहर निकल कर खेलती है, खेलती क्या है बस झूला झूलती रहती है जैसे मम्मी की कहानियों वाली कोई परी हो।  बाक़ी के दिन सिर्फ़ लेगो या कोई बोर्ड गेम खेलती है!

अगत्य बहुत मिलनसार है बहुत जल्दी सबसे घुल मिल गया है और यहाँ के हिसाब से ख़ुद को ढाल लिया है।  इस बात के लिये मम्मी पापा को उस पर बहुत गर्व होता है! उनकी हर बात मानता है कभी बेकार की ज़िद नही करता है लेकिन वो लोग जबसे यहाँ आये हैं अगत्य बदलने लगा है।  हर बात पर ग़ुस्सा करता है बात बात पर रोने लगता है, लंच तो कभी भी ख़तम नहीं करता है।  देखने में कमज़ोर लगने लगा है, चिड़ चिड़ा हो गया है।  मम्मी बहुत दुखी रहती है इसलिये स्कूल में शिकायत कर दिया।

ऐसा नहीं है कि उसे भूख नहीं लगती लेकिन वह बहुत धीरे खाता है।  दादी कहती थी खाना धीरे धीरे चबा कर खाना चाहिये और इतने में लंच टाइम निकल जाता है। स्पोर्ट्स ब्रेक इतना छोटा होता है कि उतना खेलने से उसका मन नही भरता इसलिए वह लंच टाइम में भी खेलता है!

रोज़ स्कूल जाते वक़्त मम्मी का यह रटा रटाया जुमला “खाओगे नहीं तो कमज़ोर हो जाओगे, कमज़ोर हो जाओगे तो खेलोगे कैसे ?” अब अगत्य को भी सुग्गे की तरह याद हो आया है! पापा इस बात पर कहते हैं कितना भी रटवा लो आज भी नहीं खायेगा पता नही यहाँ आकर इसे क्या हो गया है?।

अगत्य मम्मी को निराश  नहीं करना चाहता और पापा को ग़लत भी साबित नहीं कर पाता है, आख़िर वह करे भी तो क्या करे ? उसे खेलना बहुत अच्छा लगता है।  घर पर उसके साथ खेलने वाला कोई नही है।  या तो सारा दिन टी वी पर कार्टून देखता है या पापा की पुरानी मोबाइल पर गेम खेलता है।  मम्मी इसके लिये भी डाँटती है, सारा दिन टी वी देखते रहते हो, तुम भी नोविता के जैसे बुद्धू बन जाना।

मम्मी उसकी पसंद के बहुत सारे खिलौने खरीद लाती है एक दो दिन तो वह उन खिलौनों से खूब खेलता है लेकिन फिर अकेले खेलते खेलते ऊब जाता है।  पिछली बार पापा जर्मनी से उसके लिए एक ऐसी खिलौना कार लेकर आये थे जो चलते-चलते रोबोट में तब्दील हो जाती थी।  कार को रोबोट में बदलते हुए देखना उसे बहुत अच्छा लगता था, वह बहुत खुश होता था और अपनी ख़ुशी साझा करना चाहता था।  एक दो बार तो मम्मी ने खूब साथ दिया लेकिन बाद में कहने लगी एक ही चीज़ देख देख कर बोर हो गई हूँ! कभी कभी वो साथ में क्रिकेट या फुटबॉल खेलती है लेकिन थोड़ी देर में ही थक जाती है, कहती है मुझमें तुम्हारे जितनी एनर्जी नही है जाओ छोटा भीम ही देख लो इसलिए वह सारा दिन कार्टून देखता है!

उसकी क्लास में पढने वाला आश्ले सुबह से शाम तक स्कूल में रहता है, उसकी मम्मी भी नौकरी पर जाती है।  वह सोचता है काश मेरी मम्मी भी काम करती जैसे भारत में करती थी, तब वह भी डे केयर में रह सकता था।  यहाँ घर में उसकी देख भाल करने के लिये दादी और दादू तो हैं नही।  डे केयर में कितना मज़ा है, सारा दिन आश्ले और अन्य दोस्तों के साथ खेलना फिर शाम ढले घर जाना!

ऐसा नहीं है की उसे घर जाना अच्छा नहीं लगता ! रोज़ स्कूल के गेट पर मॉम को देख कर ऐसा लगता है जैसे आज बहुत दिन बाद देखा हो “मॉम”, कहता हुआ वह दौड़ कर उनसे लिपट जाता है, मम्मी भी उसे ऐसे गले लगाती है जैसे कई सालों से नहीं देखा हो” लेकिन घर पहुँचते ही फिर से वही सब शुरू हो जाता है “टी.वी  कार्टून और मॉम की डाँट ” ! वह इस सबसे तंग आ चुका है, वह हॉस्टल जाना चाहता है।  उसने तारे ज़मीन पे सिनेमा में हॉस्टल देखा है, फिल्म में ईशान हमेशा रोता रहता है वह होता तो कभी नहीं रोता बल्कि बहुत खुश रहता लेकिन मम्मी पापा हॉस्टल का नाम भी नहीं सुनना चाहते हैं।  फिल्म देखते हुए उसने कहा हॉस्टल कितना अच्छा है, वहां कितने फ्रेंड्स है तो मम्मी पापा ने उसे डांट दिया!

सोसाययटी में रहने वाले दूसरे सभी बच्चे शाम से पहले  खेल परिसर में नही आते, उसकी तरह अकेला कोई नहीं है सबके भाई बहन हैं।   उसके साथ खेलने वाला कोई नही सोचता हुआ अगत्य उदास हो जाता है ।

उदासी में कुछ भी अच्छा नही लगता है।  ऊपर से टिफ़िन में मूँग दाल का चीला।  उसने बुरा सा मुँह बनाया।  वैक !

दूसरे टेबल पर बैठी लड़की पर नज़र पड़ते ही उठकर उसकी टेबल पर चला गया ! अगत्य को दो चीज़ें बहुत पसंद है पहला तो खेलना दूसरा बोलना।   पापा कई बार कहते है पहला स्वभाव पापा से मिलता है दूसरा मम्मा से।
वैसे भी लड़के कहाँ बातों की गाँठ बाँधते है।  सो जेनेटिक और जेंडरटिक प्रभाव के अतिरेक में आकर उसने लड़की से पूछ लिया
” तुम्हारा नाम क्या है ?”
लड़की तो जैसे उसके पूछने का इंतज़ार कर रही थी!
फलक,  फलक ज़ुल्फ़ीकार! उसने जल्दी में कहा!
फलक! अगत्य ने सुनिश्चित किया !
हाँ फ़लक!
फलक ने बात को आगे बढ़ाते हुए पूछा “तुमने अपना लंच देखकर वैक क्यूँ किया ?”
दोनों में दोस्ती हो रही थी !
क्यूँकि मूँग दाल का चीला मुझे बिलकुल पसंद नहीं लेकिन मॉम तो मुझे यही खिलाना चाहती है!
क्यूँ ? फलक को बहुत आश्चर्य हो रहा था ?
मॉम कहती है मूँग दाल में बहुत प्रोटीन होता है अगर मैं चीला खाऊँगा तो लड़ाई  में sumo को भी हरा दूँगा !
फलक की बड़ी बड़ी आँखें आश्चर्य से और बड़ी हो गई, लेकिन मुझे तो पास्ता बेहद पसंद है  कहते हुए उसने फ़ॉर्क चुभे हुए पास्ता को अपने दाँतों से खींच लिया !
लेकिन मेरी मॉम कहती है पास्ता जंक फ़ूड है! अगत्य ने मम्मा से प्राप्त अपना सामान्य ज्ञान दर्शाया!
मेरी मम्मा तो बेस्ट है! फलक चिढ़ गई!
मेरी मॉम तो सुपर बेस्ट है , अगत्य ने बड़े घमंड से कहा!
और मेरी मॉम सुपर सुपर सुपर बेस्ट!
और मेरी मॉम वर्ल्ड की बेस्ट सुपर मॉम !
फलक ने ऊँ कहते हुए जीभ दिखा दिया! शायद उसने हार मान ली थी!
लड़कियाँ चिढ़ती बहुत हैं और लड़कों को उन्हें चिढ़ाने में मज़ा आता है!

सजा वाले दिन अगत्य लंच तो पूरा ख़तम करता है लेकिन मम्मा को हग नही करता है लेकिन आज वो बहुत ख़ुश था उसने मम्मा को हग करते हुए फ़लक के चिढ़ने के बारे में बताया!

अगत्य का मन लगने लगा है लंच भी फ़िनिश होने लगा है! अब सब ठीक हो जायेगा, मम्मा भी मन ही मन ख़ुश हुई!

उस दिन फ़्राइडे था! ग़र्मी का मौसम अपने अंतिम दिनों में था! रोज़ की तुलना में मौसम बहुत अच्छा था! फ़लक और अगत्य साथ में झूला झूल रहे थे! अगत्य ने अचानक ही कहा “मुझे छुट्टियाँ ज़रा भी पसंद नहीं”! फलक ने बिना समय गँवाये ही कहा “लेकिन मुझे तो बहुत पसंद है”!
हाँ तुम्हें तो ना खेलने में मन लगता है ना पढ़ने में, अगत्य ने उसे ताना मारा था!
छुट्टियों पर मैं अपने भाई के साथ खेलती हूँ!
भाई ? अगत्य को आश्चर्य हुआ था!
हाँ, मेरा छोटा भाई!
कज़िन ? अगत्य यकीन नहीं कर पा रहा था!
नहीं, वह मेरा सगा भाई है!
सगा भाई क्या होता है ? अगत्य समझा नहीं!
वो मेरी मॉम के पेट से आया है और हमारे साथ हमारे घर में ही रहता है!
अच्छा। कहकर अगत्य चुप हो गया था!
छुट्टी पर मैं घर में अपने भाई के साथ बहुत खेलती हूँ, वह सप्ताहांत का इंतज़ार करता है! फ़लक ने बात आगे बढ़ाई!
क्या खेलती हो तुम उसके साथ ? अगत्य बहुत उत्सुक था!
बॉल बॉल खेलती हूँ, उसको कवितायें गा कर सुनाती हूँ और कभी कभी उसके डाइपर भी बदलती हूँ !

ये सब करने में तुम्हें मज़ा आता है अगत्य ने अत्यधिक उत्सुकता से पूछा!
बहुत, फ़लक ने आत्ममुग्धता में कहा, फिर थोडा रुक कर कहा अब जल्दी ही वह भी स्कूल आना शुरू करेगा!

आज स्कूल से आकर अगत्य चुप चुप था, कुछ बोल नही रहा था। खोया खोया सा था वह! उसके जहन में फलक की बातें उधम मचा रही थी!

“क्या हुआ बेटा?” मम्मी घबरा गई थी।
‘मम्मा मेरा कोई अपना भाई क्यूँ नही है?’ कुछ सोचते हुए उसने पूछा था !
क्यूँकि .. मम्मा बोलना शुरू करते ही रुक गई थी, तुम नही समझोगे, अभी बहुत छोटे हो !
नही मुझे बताइये, कल तो आप कह रही थी मैं बड़ा हो गया हूँ अगत्य ज़िद्द पर अड़ा था !
क्यूँकि महंगाई बहुत बढ़ गई है और तुम बहुत फ़रमाइश करते हो!
अब फ़रमाइश नही करूँगा, अब ले आइये मेरे लिए भाई; मुझे उसके साथ खेलना है जैसे फ़लक खेलती है अपने अपने भाई के साथ !
जाओ डोरेमोन देखो कहते हुए मम्मी की आवाज़ भर्रा गई थी!
नहीं मुझे तो भाई चाहिए!

भाई बाज़ार में नहीं मिलते, मम्मी की आवाज़ चिढ़ी हुई थी!

मैं जानता हूँ मॉम कि टम्मी से आते हैं! यह सुनते ही मम्मी ने उसे चटाक से एक थप्पड़ लगाया – बहुत बोलने लगे हो! वह रोने लगा! फिर रोते रोते कब सो गया था उसे ध्यान नहीं लेकिन नींद खुली तो किसी के बोलने की आवाज़ आ रही थी – “कम का अर्थ एक नहीं होता, कम से कम दो तो होने ही चाहिए, बच्चों के व्यक्तित्व के विकास के लिए यह बेहद जरुरी है।  मेरे दोनों बच्चे कब university चले गए मुझे पता भी नहीं चला, और दोनों एक दुसरे के सबसे अच्छे दोस्त” यह नाइन्थ फ्लोर वाली इंडियन  आंटी की आवाज़ थी, वह कभी कभी  मम्मी से मिलने आती है शायद वह भी अगत्य की तरह अकेली हैं!

वह सोकर उठता है तो सीधा मम्मी के पास जाता है लेकिन आज वह गुस्सा है, मम्मी ने उसे थप्पड़ मारा है, वह मम्मी के पास नहीं जायेगा !

डॉक्टर ने दूसरे बच्चे के लिये मना किया है, मेरी जान जा सकती है, अगत्य के समय भी बहुत कॉम्प्लिकेशंज़ थे ! डॉक्टर ने कहा था किसी एक को बचाया जा सकता है, दोनो को बड़ी ही मुश्किलों से बचाया गया था !  डॉक्टर ने साफ़ साफ़ कहा था दूसरी बार वो कुछ नही कर पायेंगे।  यह मम्मी की आवाज़ थी!

अगत्य अक्सर बीमार होता रहता है, उसकी इम्युनिटी बहुत कमज़ोर है! डॉक्टर के पास आता जाता रहता है।  वह मम्मी की पूरी बात तो नहीं लेकिन इतना ज़रूर समझ गया कि भाई को लाने में मम्मी की जान जा सकती है, वह डर के मारे काँप गया।  दौड़कर मम्मी से जा लिपट गया!

मम्मी उसके सर पर हाथ फेर कर उसे चूमते हुए अपनी ही रौ में बोले जा रही थी कितना तो अरमान था दो बच्चों का, एक बेटी और एक बेटा! तब जाकर परिवार पूरा होता है! जो बड़ा होता है वह छोटे का धयान रखता है लेकिन क़िस्मत की लकीरें इतनी उलझी हुई होती है कि हम चाह कर भी रास्ता नही निकाल पाते हैं!

अगत्य मम्मी से चिपका हुआ ध्यान से सुन रहा था मैं अगत्य का अकेलापन बख़ूबी समझती हूँ, ख़ुद भी बड़े परिवार से हूँ और हम बहुत से भाई बहन हैं! उम्र में कम अंतर होने के कारण हम सभी भाई बहन आपस में दोस्त थे! साथ स्कूल जाते साथ आते! साथ साथ लड़ते झगड़ते खेलते बड़े हुए थे! किसी फ़िल्म की चर्चा हो या किसी किताब पर सारे भाई बहन अपनी अपनी राय देते थे और उसपर घंटों डिस्कशन करते थे! हमें कभी बाहरी दोस्त की ज़रूरत महसूस नही हुई!

मैं समझती हूँ बच्चों के व्यक्तित्व के विकास के लिये भाई या बहन का होना कितना ज़रूरी है ! बच्चों में रिश्ते को समझने के लिये और रिश्तों का अस्तित्व बचाये रखने के लिये कम से कम दो बच्चा बेहद ज़रूरी है! नही तो आने वाले समय में चाचा या बुआ जैसे रिश्ते लुप्त हो जायेंगे!

लेकिन मैं चाह कर भी अगत्य को भाई या बहन नही दे सकती! एक बार तो एक बच्चा अडॉप्ट करने की सोचा! दुनिया में ऐसे बहुत से बच्चे हैं जिन्हें माँ बाप के प्यार की ज़रूरत है! लेकिन परिवार के सभी सदस्य इस बात से सहमत नही हुए! उनका मानना है अपना ख़ून अपना ही होता है और बात आइ गई हो गई!

लेकिन आज मुश्किल हो रहा है अगत्य के सवालों का जवाब देना और उससे भी ज़्यादा मुश्किल हो रहा है उसका अकेलापन दूर करना।

अब तो ईस्टर की लम्बी छुट्टियाँ होने वाली होगी, हैं न अगत्य? आंटी ने उससे पूछा!

हाँ, डायरी में शायद यही लिखा है आज!

international स्कूल में पढ़ाई कम और छुट्टियाँ ज़्यादा होती है! तीन महीने में तीस दिन स्कूल बंद ही रहा है, आज ये तो कल वो अब ईस्टर की छुट्टी में घर में सारा दिन डोरेमोन और नोविता। अगत्य से ज़्यादा उसकी मम्मा उदास थी!

अगत्य ने लंच को छुआ भी नहीं ! नई इलेक्ट्रॉनिक बाइक आई है स्कूल में! जब बाक़ी के बच्चे लंच कर रहे थे उस वक़्त अगत्य बाईक के साथ खेल रहा था।

फ़लक ने याद दिलाया अगत्य लंच फ़िनिश कर लो नही तो कल फिर पनिश्मेंट मिलेगा!

कल से तो ईस्टर हॉलिडे शुरू है बुद्धू, आज खेल लेने दो कल से तो फिर टेन डेज़ के लिये बोर होता रहूँगा!  दस दिन की छुट्टी के अनाउन्स्मेंट पर सारे बच्चे ख़ुशी के मारे ये ये करने लगे! बस अगत्य दुखी हो गया था!

तुम सैड क्यूँ हो गये फलक ने पूछा!
मुझे हॉलिडे बिलकुल पसंद नही है!
मुझे तो हॉलिडे बहुत अच्छा लगता है!
तुम्हारी तरह मेरा कोई ओन ब्रदर नही है ! अगत्य अब और अधिक उदास हो गया था !
आज तो भारत से मेरे दादा जी और दादा आ रहे हैं ! फलक ने ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए कहा !
वाह क्या किस्मत है तुम्हारी अगत्य ने गहरी उदासी से कहा !
तुम्हारे दादा दादी नही हैं ?
हैं, लेकिन वे भारत में हैं !

अगत्य को याद हो आया इंडिया में कैसे दादू उसके लिये कभी घोड़ा बनते थे और दादी कहानियाँ सुनाती थी! दादू दादी तो उसके साथ लूडो भी खेलते थे और कैरम तो जानबूझकर कर हार जाते थे! अगत्य गेम में उनके साथ चीटिंग भी करता था दादी को तंग भी बहुत करता था! फिर भी दादी उसके स्कूल से आने के टाइम पर दरवाज़े के पास ही बैठी रहती थी! कितना रोई थी दादी जब वो यहाँ आ रहा था! अब हफ़्ते में एक बार स्काइप पर बात होती है दादी कहती है अगत्य के बिना उनका मन नही लगता। मन तो अगत्य का भी नही लगता लेकिन वो मम्मी पापा के बिना नही रह सकता!

मॉम आज फ़लक के दादा दादी आ रहे हैं!

अच्छा!
मॉम क्या मेरे दादू और दादी यहाँ नही आ सकते ?

यह सुनकर मॉम ने उसे ऐसे देखा जैसे उन्हें सबसे टफ़ पज़ल का हल मिल गया है जो उनकी आँखों के सामने तो था लेकिन सूझ नही रहा था!

 

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  कमला दास की कहानी ‘हिरासत’

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आज मलयालम की प्रसिद्ध लेखिका कमला दास की पुण्यतिथि है। 31 तारीख़ का उनके जीवन में अजब संयोग था। 31 मार्च 1934 को उनका जन्म हुआ और 31 मई 2009 को अपने पीछे विपुल साहित्य और असंख्य विवादों को छोड़कर दुनिया से कूच कर गई। उनकी इस मार्मिक कहानी का अनुवाद किया है युवा कवयित्री-लेखिका-अनुवादिक अनामिका अनु ने- मॉडरेटर

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रत्नअम्मा  गहरी नींद से चौंक कर उठी। उसने सपने में देखा कि उसका बच्चा उसके दूध के लिए रो रहा है। मगर बच्चा उसके बगल में नहीं था। जेल की चौंधियाती रोशनी ने रात को भी दिन बना दिया था। वह फ़र्श पर और दो औरतों के साथ लेटी हुई थी। दोनों वेश्याएं थीं, साधारण सी वेश्याएं।

उसने कल एक पुलिसवाले को कहते सुना था कि उन वेश्याओं को एक हफ्ते के भीतर छोड़ दिया जाएगा।

“लेकिन रंडी तुम बाहर नहीं जा पाओगी।” रत्नअम्मा के बालों को बेरहमी से दबोचते हुए वह पुलिस वाला गरजा।

“नेता हो न? एक महीना यहाँ गुजारो तब जान जाओगी तुम्हारी राजनीति कितनी गन्दी है…

रत्नअम्मा को आधी रात में गिरफ्तार किया गया था। भला हो उस भगवान का, रात में गिरफ्तार हुई! नहीं तो पुलिस की गाड़ी में जाते देखकर पड़ोसी अपमानजनक बातें करते- ”हमने तो शुरू में ही कह दिया था जिस रास्ते पर तुम आगे जा रही हो, वह तुम्हें जल्द ही बर्बाद कर देगा।”

इसके अलावा, अगर दिन में गिरफ्तारी हुई होती तो उसका नन्हा बच्चा जाग रहा होता और उसे जाते हुए देखकर जोर -जोर से रोने लगता। उसे जागते ही मेरे दूध की जरूरत होती है। उसके दोस्त अक्सर उससे पूछा कि नौ महीनों के बाद ही उसने बच्चे को अपना दूध पिलाना बंद क्यों नहीं किया? उन दिनों उसने अपने बुरे सपने में भी  नहीं सोचा था कि  एक दिन उसे जेल की हवा खानी पड़ेगी। यह बात सही है कि उसने कई जगहों पर जनता से जुड़े मुद्दों को लेकर आमसभाओं में भाषण दिये थे। लेकिन वह हिंसा और क्रांति में विश्वास नहीं रखती। फिर भी हिरासत में उसे निर्वस्त्र कर प्रताड़ित किया गया। अपमानित किया गया। उसने सुना है कि ये प्रताड़ना तब खत्म होगी जब वह कोई राज़ खोल देगी। लेकिन उसके पास क्या खुफिया जानकारी है? कुछ भी तो नहीं। अगर बेरहमी से डंडे  मार मार कर उसके घुटने तोड़ दिया जाए, तो भी वह क्या बता पाएगी? उसके सिर पर बार-बार लाठियाँ बरसायी जाती। बार-बार और कई बार वह बेहोश तक हो जाती। काली बर्बर रातें कभी खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थीं ।दूसरी तरफ जेल की रौशनी जो दिन-रात एक ही तीव्रता से जलकर उसे जलाए जा रही थी।

“तुम सोयी नहीं?” बगल में लेटी दोनों महिलाओं में से एक ने पूछा।

वह अपने सिर को जोर-जोर से खुज़ला रही थी।

“ये साली जूँए भी न।” वह बोली।

“मैंने सुना है कि तुलसी से निचोड़े गए रस को बालों में लगाने से जुएँ गायब हो जाती  हैं।” रत्नअम्मा बोली।

वह महिला उठकर बैठ गयी। उसने गोल छापे वाली साड़ी पहन रखी थी। पान सुपारी के खाने से उसके दांत काले पड़ चुके थे।

“तुम जरूर पढ़ी लिखी हो। तुम पढ़ी लिखी और अच्छे घर की लगती हो।”

रत्नअम्मा ने मुस्कुराने की कोशिश की। उसके होंठ घायल और सूजे हुए थे।

“सुना है तुम्हें भाषण देने के कारण यहाँ लाया गया है।” महिला ने कहा।

“गलत है अगर तुम भाषण देती हो,गलत है अगर तुम भूख से तड़प उठती हो और किसी पुरूष के बुलाने पर उसके पास जाती हो। सब ग़लत है, औरतें जो भी करती है सब ग़लत है।

“मर्दों को भी गिरफ्तार किया है। पिछली रात मैंने एक आदमी को लम्बे समय तक रोते हुए सुना था। उसे जरूर प्रताड़ित किया जा रहा होगा।” रत्नअम्मा बोली।

“इन्हें मर्दों को तंग करने में मजा नहीं आता है। इनको हमें नंगा करने और प्रताड़ित करने में आनंद आता है।”

“मैंने सुना है कि तुम दोनों को ये अगले हफ्ते छोड़ देंगे। तुम बच गयी।” रत्नअम्मा बोली।

“बच गये।” वेश्या बड़बड़ाई।

“हम यहाँ साल में पाँच या छः बार तंग करने के लिए लायी जाती हैं। फिर छोड़ दी जाती हैं। मैं यहाँ कई बार आ चुकी हूँ। क्या किया जाय? तीन बच्चे घर पर हैं… क्या उन्हें दिन भर में एक बार भी भोजन नहीं मिलना चाहिए? इसलिए रात में जब कोई बुलाता है तो मैं निकल जाती हूँ। यह मैं अपनी खुशी के लिए नहीं करती।” वेश्या बोली।

रत्नअम्मा कराह रही थी। उसके सिर पर गहरे जख्म थे। तेज रौशनी की तरह उसने एक गहरी पीड़ा महसूस की।

“क्या मैं तुम्हारा सिर थपथपा दूं?” महिला ने पूछा।

रत्नअम्मा ने ‘न’ में सिर हिलाया। फिर भी उस अधेड़ उम्र की वेश्या ने उसका सिर अपने गोद में रखा और प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरने लगी। रत्नअम्मा की आँखें भर आयी।

“मत रोओ मेरी बच्ची।अगर औरत के रूप में जन्म लिया है तो तुम्हें सब कुछ बर्दाश्त करना होगा। दर्द होता है,लेकिन हम क्या कर सकते हैं? बस उन्हें कह दो कि तुम फिर कभी भाषण नहीं दोगी।” वेश्या बोली।

रत्नअम्मा के ब्लाउज का अगला हिस्सा स्तन के बहते दूध से भींग गया था। इसे देखकर वेश्या बहुत मर्माहत हुई और बोली- “आह! तुम्हारा अभागा बच्चा भूख से रो रहा होगा। ये राक्षस हैं, भगवान करे इन शैतानों को चेचक हो जाए।ये बेरहम लोग।” वेश्या बोली।

“मेरे माथे और घुटने में दर्द है। मगर यह दर्द मैं बर्दाश्त कर सकती हूँ पर इस पीड़ा को नहीं, बिल्कुल नहीं।” रत्नअम्मा बोली। अपने दोनों स्तनों को हाथ से दबाते हुए वह दर्द से कराह उठी।

“तुम्हारे बच्चे का क्या नाम है?”

“मोहनन, मैं उसे उण्णि बुलाती हूँ।” रत्नअम्मा बोली।

“मेरे भी छोटे बेटे का नाम उण्णि है।” मुस्कुराते हुए वेश्या ने कहा।

                                        लेखिका  कमला दास

                                         अनुवाद- अनामिका अनु

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प्रवीण झा और उनकी किताब ‘कुली लाइंस’

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‘कुली लाइंस’ पढ़ते हुए मैं कई बार भावुक हो गया। फ़ीजी, गुयाना, मौरिशस, सूरीनाम, नीदरलैंड, मलेशिया, दक्षिण अफ़्रीका, युगांडा, जमैका आदि देशों में जाने वाले गिरमिटिया जहाजियों की कहानी पढ़ते पढ़ते गले में काँटे सा कुछ अटकने लगता था। इसीलिए एक साँस में किताब नहीं पढ़ पाया। ठहर-ठहर कर पढ़ना पड़ा। सोचता हूँ कि क्या कारण था कि इन गिरमिटियाओं की कहानी पढ़ते हुए मेरा दिल भर आया। मैं तो ऐसे इलाक़े का हूँ भी नहीं जहाँ से लोग जहाज़ बनने के लिए दरबदर हुए। असल में लेखक ने इसको ग्रेट इंडियन डायस्पोरा से जोड़ा है, हिंदुस्तान के बिखरने और दुनिया भर में पसर जाने की कहानी। पुरबियों के विस्थापन की कहानी। आख़िर मैं भी तो एक विस्थापित पुरबिया हूँ। इतिहास को लेकर लिखी गई किसी किताब को आँकड़े महत्वपूर्ण नहीं बनाते, उसका इतिहासबोध मायने रखता है। उन आँकड़ों के पीछे की जो दृष्टि होती है वह। ‘कुली लाइंस’ दोनों लिहाज़ से बहुत मायने रखती है। इसीलिए नौर्वे प्रवासी डॉक्टर प्रवीण झा की पुस्तक ‘कुली लाइंस’ इस साल की सरप्राइज़ पुस्तक है। सरप्राइज़ इसलिए क्योंकि मुझे यह उम्मीद नहीं थी कि प्रवीण झा इतनी अच्छी शोधपूर्ण पुस्तक लिखेंगे। वे डॉक्टर हैं, शोध में प्रशिक्षित हैं लेकिन इतिहास की किताब लिखना तलवार की धार पर चलना होता है।

अब सवाल यह है कि अभिमन्यु अनत का ‘लाल पसीना’ या अंग्रेज़ी के उपन्यासकार अमिताव घोष के इबिस त्रयी को पढ़ने के बाद भी गिरिमिटियाओं के बारे में पढ़ने को और क्या रह जाता है। यहाँ यह ध्यान दिला दूँ कि प्रवीण झा की किताब ‘कुली लाइंस’ नॉन फ़िक्शन है यानी इसमें जो भी लिख गया है सभी के संदर्भ मौजूद हैं। किताब दो तरह के पाठकों के लिए है- एक वे जो गिरिमिटिया जीवन के बारे में कुछ नहीं जानते हों- उनके लिए यह इतिहास पुस्तक है। लेकिन जिन्होंने उनके जीवन के बारे में अभिमन्यु अनत, अमिताव घोष के उपन्यास पढ़ रखे हों तो उनके लिए यह किताब पृष्ठभूमि का काम करती है। अगर इस उपन्यास को पढ़कर आप अमिताव घोष के उपन्यासों को पढ़ेंगे तो वह आपको अधिक समझ में आएगी। प्रवीण झा इसके लिए बधाई के पात्र हैं।

प्रवीण झा की पुस्तक को पढ़ने के पहले मैं यही समझता था कि गिरमिटिया बनकर केवल पूरबिए जहाज़ों में सवार हुए। किताब से यह पता चलता है कि दक्षिण से भी लोग बड़ी तादाद में गए। बल्कि इसी किताब से पता चला कि कुली वास्तव में तमिल भाषा का शब्द है, हिंदी का नहीं। इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है कि ‘कुली’ नाम से सबसे सफल फ़िल्म हिंदी में बनी हो।

किताब में अरकाटी के बारे में पढ़ने को मिलता है यानी वे एजेंट जो लोगों को बहला फुसला कर विदेश जाने के लिए राज़ी करते थे और बदले में उसको कमीशन मिलता था। ए के पंकज के उपन्यास ‘माटी माटी अरकाटी’ का ध्यान आया। प्रसंगवश, इस उपन्यास में झारखंड से बाहर गए आदिवासी मज़दूरों की कहानी है जिनको हिल कुली कहा गया।

ख़ैर, ‘कुली लाइंस’ किताब से यह भी पता चलता है कि केवल ऐसे ही लोग गिरमिटिया नहीं बने जिनको बहला फुसला कर ले जाया जाता था बल्कि कई बार लोग लड़-झगड़कर भी घर से भाग जाते थे। स्त्रियाँ भी जहाज़ी बनकर जाती थीं। याद आया कि अमिताव घोष के उपन्यास ‘सी ऑफ़ पॉपीज’ में कोलकाता से इबिस नामक जहाज़ पर दीठि भी नाम बदलकर सवार हो जाती है। सब इस सपने के साथ जहाज़ में सवार होते थे कि एक दिन पैसे कमाकर घर वापस लौट आएँगे। लेकिन वापस लौट पाना इतना मुश्किल कहाँ होता है। वे जहाँ गए अधिकतर वहीं के होकर रह गए, जो लौटकर आए वे अपनी धरती पर आकर भी विस्थापित ही रहे।

किताब के अंत में एग्रीमेंट का एक नमूना भी दिया गया, जिसके कारण उन लोगों को गिरमिटिया कहा जाने लगा। कुंती की चिट्ठी का हवाला भी आता है जो फ़ीजी गई थी और जहाँ उसका शोषण करने की बार बार कोशिश की। उसका पत्र 1913 में ‘भारत मित्र’ में प्रकाशित हुआ था, जिसमें कुंती ने भारत सरकार से यह अपील की थी कि किसी को गिरमिटिया बनाकर फ़ीजी ना आने दिया जाए।

किताब ऐसी नहीं है कि आप पढ़ें और भूल जाएँ। यह शेल्फ़ में सजाकर रखने वाली किताब है।

किताब का प्रकाशन वाणी प्रकाशन ने किया है।

प्रभात रंजन 

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‘अंडरवर्ल्ड के चार इक्के’ मुंबई के माफ़िया जगत की प्रामाणिक बयानी है

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मुंबई में जितना ग्लैमर फ़िल्मों का है उससे कम ग्लैमर माफ़िया जगत का नहीं है। 1960-70 के दशक में कई बड़े माफ़िया सरदार ऐसे हुए जिनके क़िस्से देश भर में सुने सुनाए जाते थे। अभी ‘अंडरवर्ल्ड के चार इक्के’ किताब के बारे में सुना तो कई किस्से याद आ गए।

कहते हैं फ़िल्म ‘दीवार’ में अमिताभ बच्चन का किरदार तमिलनाडु से सुल्तान मिर्ज़ा के रूप में मुंबई आकर हाजी मस्तान के नाम से मशहूर डॉन बन जाने वाले किरदार से प्रेरित था। दिलीप कुमार की तरह हमेशा सफ़ेद कपड़े पहनने वाले मस्तान का सोना मुंबई के बंदरगाहों पर उतरता था। वह फ़िल्मी सितारों की तरह जीता था और कहते हैं एक ज़माने में वह मशहूर फ़िल्म अभिनेत्री उसकी प्रेमिका थी जो बॉम्बे ड़ाइंग वाले सेठ की प्रेमिका थी। ना जाने कितनी फ़िल्में उसके किरदार से प्रेरित होकर बनी। आज तक बनती रहती हैं। जीवन के आख़िरी दौर में हाजी मस्तान ने राजनीति में भी हाथ आज़माया लेकिन सफल नहीं हुआ। जब सोने की तस्करी के बाद मुंबई में ड्रग्स की तस्करी शुरू हुई तो हाजी मस्तान ने उसके ख़िलाफ़ मुंबई में मुहिम भी चलाई। वह इसके सख़्त ख़िलाफ़ था कि नौजवानों को मादक द्रव्यों का आदी बनाया जाए। 1990 के दशक में उसकी मृत्यु गुमनामी में हुई।

कहते हैं फ़िल्म ‘ज़ंजीर’ में प्राण का किरदार करीम लाला के जीवन से प्रेरित था। मूलतः अफ़ग़ानिस्तान का पठान करीम लाला हाजी मस्तान की तरह तस्करी नहीं करता था बल्कि मुंबई में जुए, अवैध शराब से लेकर तमाम तरह के अवैध धंधों का बेताज बादशाह था। करीम लाला ने मुंबई में पठानों का गैंग बनाया और अपने ग़ुस्सैल स्वभाव के लिए जाना जाता था। ग्लैमर-औरतों से दूर रहता था लेकिन अपने घर ईद बक़रीद की पार्टियों में बड़े बड़े फ़िल्मी सितारों को बुलाता था। हर हफ़्ते दरबार लगाता और लोगों की मदद करता। सभी माफ़िया सरदारों में उसकी आयु सबसे अधिक रही। क़रीब 90 साल की उम्र में सत्रह साल पहले उसकी मृत्यु हुई।

वरदराजन मुदलियार का नाम उस समय ख़ूब चर्चा में आया था जब अमिताभ बच्चन फ़िल्म ‘कुली’ की शूटिंग करते हुए घायल हो गए थे। कहा जाता था कि वरदा भाई के नाम से मशहूर इस डॉन के घर में विशेष पूजा कक्ष में अमिताभ की ज़िंदगी की दुआएँ माँगी जाती थीं और वहाँ ख़ुद जया बच्चन भी दुआ माँगने जाती थीं। वरदा भाई भी हाजी मस्तान की तरह तमिल मूल का था लेकिन वह करीम लाला की तरह अवैध धंधे से मुंबई का माफ़िया सरदार बना। कहते हैं फ़िल्म ‘दयावान’ में विनोद खन्ना का किरदार उसी के जीवन से प्रेरित था। यही नहीं अमिताभ बच्चन द्वारा फ़िल्म ‘अग्निपथ’ का किरदार भी उसके जीवन से ही प्रेरित था। कहते हैं फ़िल्म अर्धसत्य का रामा शेट्टी भी उसी के जीवन से प्रेरित था या मणिरत्नम की फ़िल्म ‘नायकन’ का नायक भी वरदा भाई ही था। उसका राज बहुत कम दिनों का रहा लेकिन मुंबई की दक्षिण भारतीय आबादी पर उसकी पकड़ अद्भुत थी। 80 के दशक में पाटिल नामक एक पुलिस अफ़सर ने जब उसका गैंग का ख़ात्मा कर दिया तो वह वापस तमिलनाडु में अपने गाँव में जाकर रहने लगा। जब उसकी मृत्यु हुई तो हाजी मस्तान उसके मृत शरीर को लेकर मुंबई आया जहाँ उसकी अंतिम यात्रा में बड़ी तादाद में लोग शामिल हुए।

यह सब याद आ गया ‘अंडरवर्ल्ड के चार इक्के’ किताब के बारे में पढ़कर। मुंबई के दो प्रसिद्ध क्राइम रिपोर्टर्स विवेक अग्रवाल और बलजीत परमार की लिखी इस किताब की प्री बुकिंग शुरू हो गई। है। ऊपर जो लिखा वह मेरा लिखा था। किताब में ज़ाहिर है इससे भी दिलचस्प कहानियाँ होंगी क्योंकि दोनों लेखकों ने उस दुनिया को बड़े क़रीब से देखा है।

किताब का प्रकाशन राधाकृष्ण के फ़ंडा उपक्रम से हो रहा है। पेपरबैक संस्करण में छपने वाली इस किताब का आवरण अनिल आहूजा ने तैयार किया है। प्री-बुकिंग amazon.in पर शुरू हो चुकी है। किताब की डिलीवरी जून के अंतिम हफ्ते में शुरू हो जाएगी। क़ीमत केवल 125 रुपए है।

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सुषमा गुप्ता की कहानी ‘मेरी पीठ पर लिखा तुम्हारा नाम’ 

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सुषमा गुप्ता एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में प्रबंध निदेशिका हैं। इनकी कहानियाँ, कविताएँ प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। अभी हाल में इनकी एक कहानी ‘नया ज्ञानोदय’ में भी आई है। जानकी पुल पर यह लेखिका की पहली कहानी है- मॉडरेटर
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मेरी पीठ पर लिखा तुम्हारा नाम 
वहाँ कुछ अजीब था । बेहद अजीब सा ।
कोई रोशनी फूट रही थी ।
क्या समय हुआ होगा ?
ये काल कौन सा है ? भूत, भविष्य या वर्तमान।
मेरे पास कोई मानक न था जो नाप सके समय की गति को । जैसे मेरी आँखें उस लम्हा ये तक समझने में असमर्थ थी कि वह रोशनी सुबह के उगते सूरज की है या पूर्णमासी के डूबते चाँद की।
मेरे कदम खींचें चले गए ।
वो रोशनी यकीनन चुंबकीय थी क्योंकि वह स्थान ,वह रोशनी मेरी लिए सब अजनबी था । मुझे याद न रहा मानव मन का छोटा सा गणित , जो अजनबी है ज़हन की दुनिया में, वही आकर्षण का बिंदु है मन के लिए ।
और ऐसा लगभग हमेशा होता ही है ।
रोशनी ने अपनी और खींच लिया मुझे । उस उजली रोशनी के भीतर रखा था दुनिया का सबसे स्याह सत्य ।
रोशनी का सोत्र था एक गहरा गड्ढा ।
उस गहरे गड्ढे में था एक चौड़ा खुला ताबूत ।उस खुले ताबूत में थी दो देह ।
मृत देह ।
निवस्त्र देह ।
आदमी और औरत की देह ।
दूधिया रोशनी उन्हीं में से फूट रही थी ।
मेरी आँखें चौंधिया गई ।
मैंने घबरा कर आँखों पर हथेली रख ली ।
 उन शरीरों से निकलने वाली रोशनी हथेली फाड़ कर मुझे अंधा करने लगी ।
मैंने चाहा मैं मुड़ कर सरपट भाग जाऊँ। लेकिन मेरे पैर धरती से चिपक गए ।
मृत देह के पास अदृश्य मोहपाश‌ होते हैं । यह बात भी ठीक उसी समय मुझे भूल गई जिस समय याद होनी चाहिए थी ।मृत देह के मोहपाश हृदय, मस्तिष्क के साथ टाँगों पर भी डाल देते हैं मजबूत जंज़ीर । आप नहीं भाग सकते कहीं दूर ।
उस जड़ अवस्था में भी मैंने कुछ देखा ।
अलग सा , अद्भुत सा ।
अद्भुत वितृष्णा का स्वाद भी मेरे मन ने उसी लम्हें में पहली बार चखा ।
क्या ऐसा देखना कोई पाप था ?
मैंने पल के भी सौंवें हिस्से में देखा लिया था।
आदमी के उल्टे हाथ में औरत का सीधा हाथ । उनकी अँगुलियों ने एक दुसरे के हाथ को कस कर थाम रखा था ।
मेरी बंद पलकों में गरम सलाखों सी घुपने लगी उनके मरने से पहले के अतरंग आलिंगन के दृश्य । औरत के माथे पर अंकित थे आदमी के नीले बोसे । औरत की गरदन की तितली रखी थी आदमी के निचले होंठ के  ठीक नीचे  ।
औरत की नाभि पर चमक रहा था एक नन्हा चाँद जो शायद उस आदमी ने अपनी देह से बनाया होगा।
मैंने उस दृश्य की भव्यता से या जाने भयावहता से घबरा कर आँखें खोल लेनी चाही , पर लगा ,आँखों के खुल जाने का मतलब होगा उनका जल ही जाना ।
मुझे ठीक उसी वक्त याद आया बिनाई का ये छोटा सा रहस्य कि बंद आँखों से हमेशा ज़्यादा ही दिखता है ।
मैंने आँखें खोल ली। अब मुझे दिखाई दे रहे थे बस वो हाथ जो मजबूती से एक दूसरे को थामे थे । रोशनी का केंद्र बिंदु थे,वह जुड़े हुए हाथ ।
 मुझे लगा हाथ अलग कर देने से ये आँख फोड़ देने वाली रोशनी आनी बंद हो जाएगी । मैंने उस गहरे गड्ढे में उतरना तक गवारा कर लिया कि अजीब जुनून सवार हो उठा, ये हाथ अलग करने ही हैं ।
पर ऐसा हो नहीं पाया या मैं कर न सकी , ये मुझे तक समझ न आया । मुझे समझ आया तो बस इतना कि आदमी लैफ्टी था । उसकी पकड़ बेहद मज़बूत थी और औरत की अँगुलियाँ बेहद नाज़ुक । बावजूद इसके उस औरत की अँगुलियाँ बेहद सुकून से थी उस पकड़ में।
मेरी बदहवासी बढ़ रह थी । बिनाई जा रही थी और पूरी तरह चली जाए इस से पहले ही मुझे इस रोशनी को रोकना ही था ।
मैंने गड्ढे से बाहर आ नज़र दौड़ाई ।
चारों तरफ़ बहुत सारे ताबूत थे । कुछ सुंदर, कुछ बदबू मारते और कुछ कैसे भी नहीं । बस वो वहाँ थे । किन की लाशें हैं ये !
मैंने हर ताबूत के ढक्कन उठाने शुरू किए और शुरू किया इकठ्ठा करना पैबंदों को । मैंने फाड़े थोडे़-थोडे़ चौकोर कपडे़ उन सब मृत शरीरों से । आदमियों की देह से थोड़े बड़े और औरतों की देह से बहुत छोटे ।
सफेद दूधिया कफन के टुकड़ों से बनाई मैंने एक चौकौर चादर । पैबंदों को सील कर एक बेहद सुंदर चादर ।
ये दूधिया रोशनी इस दूधिया चादर से यकीनन मात खा जाएगी।
अब की दफा मैंने उस दो नग्न देह वाले गड्ढे में पैर न रखा । ऊपर से ही उढ़ा दी उनको वह चादर ।
रोशनी फूटनी कुछ कम हो गई या मेरी आँखें अब फूट चुकने के बाद अँधेरा बीन रही हैं उस पल मेरे लिए ये समझ पाना भी नामुमकिन हो रहा था ।
मैंने उनके उस चौड़े ताबूत का ढक्कन बंद करने के लिए शरीर और ज़हन की पूरी ताकत झोंक दी । वह वाकई बेहद भारी था । रोशनी के दहाने बंद करने के लिए कलेजा शैतान का चाहिए और शरीर दानव का । मेरे पास दोनों ही न थे । इसलिए भी छिल गए मेरे हाथ, पैर ,घुटने, सीना ,नाभि, गरदन, होंठ और आँखें भी ।
उस कब्र को ढकने के लिए कम पड़ गई पूरे कब्रिस्तान की मिट्टी कि बाकी कब्रों ने हिकारत फैंकी मुझ पर कि तूने एक में दो दफना दिए
ये कुफ्र है ।
जा तेरा सर्वनाश हो ।
मैंने अपने बालों में मिट्टी भर ली और उन आवाजों से सुर मिलाया।
“हाँ ज़रूर हो ।”
 रोशनी अब भी पलकें चीर कर आँखें कुंद रही थी । मैंने चुनी बीते दिनों की एक-एक ईंट कि मोटा चबूतरा बन सके जिसके आर-पार कुछ न जा सके। रोशनी भी नहीं।
चैन क्यों नहीं आ रहा कमबख़्त ।
ये आँख के साथ-साथ सीने में क्या दुख रहा है ।
एक बेहद गहरी टीस के साथ एक चुप वाली सिसकी होंठों पर ठहर गई
मैंने इस बार चूक नहीं की ।
उखाड़ कर सीने से गाड़ दिया कलेजा, स्लेट  सा उस दोहरी कब्र पर।
मैंने चारों तरफ़ नज़र घुमाई ।
हर कब्र की स्लेट पर उर्दू में कुछ लिखा था ।
उर्दू मुझे बिल्कुल नहीं आती पर उसके बावजूद मुझे हमेशा लगा ,वह दुनिया की सबसे खूबसूरत इबारत है ।
मेरी आँखें उन ईंट्टो, मिट्टी, ताबूत , पैबंद सबको फाँद कर फिर उन कोरी देहों  पर जाकर ठहर गई ।
औरत और आदमी दोनों के जिस्म अब पलट चुके थे । उनकी पीठ पर कुछ लिखा था  ।
शायद एक दुसरे के नाम …शायद अपने नाम..
नहीं-नहीं !
अपने नाम भला क्यों और कैसे लिखें होंगे ?!
यकीनन उन्होंने लिखे होंगे ,एक दूसरे की पीठ पर, एक दूसरे के नाम, वो भी अँगुली से कि एक वही अमिट कलम होती है।
मैंने दोबारा ध्यान से देखना चाहा कि पीठ से देख नाम स्लेट पर उतार लूँ।
पर वो दो जिस्म अब सीधे थे , पीठ के बल ।
पर ये अचानक कैसे हुआ !
क्या मेरा भ्रम था ?
क्या वो दो जिस्म कभी पलटे ही नहीं थे!
मैंने फिर वो पीठ पर लिखे नाम कैसे पढ़े!?
उफ्फफफ!
क्या हो रहा है यह सब ।
मैं घुटनों के बल हूं । हाथों से अपने बाल नोंचतें हुए ।
मुझे उर्दू क्यों नहीं आती !
मुझे कलेजे की उस स्लेट पर उर्दू में उनके नाम लिखने थे ।
मैंने यह पीठ पर लिखे नाम कहीं देखें हैं ।
हू ब हू यही नाम ।
पर कहाँ, दिमाग के परखच्चे उड़ रहे थे । परत दर परत जैसे कुछ उधेड़ा जा रहा हो।
मैंने‌ एक बार फिर कस कर आँखें बंद‌ कर लीं‌ कि रोशनी के पार‌ देखने‌ को आँखों का बुझना बेहद ज़रूरी था ।
कभी यूँ भी होता है हम कोई बात याद  करना चाहते हैं और हमें नहीं याद आती वह बेहद ज़रूरी बात , ठीक उसी समय , जिस समय उसका याद आना बेहद ज़रूरी हो  ।
होता तो यूँ भी है कि जब बेहद ज़रूरी हो‌ किसी को भूलना ज़िंदगी में बने रहने के लिए उस समय पूरी कायनात ही आपको अपनी हर एक शय से उसी की याद दिला रही होती है ।
भूल जाना और याद रह जाना , दोनों ही बातों का रैगुलेटर इंसान के मैनिफैक्चरिंग सिस्टम में डाला नहीं गया ।
उसके ब्रेन का मैमरी मैक्निज़म सैट रूल्स पर काम नहीं करता ।
मुझे अचानक याद आया । अतीत में किसी ने एक इबारत दी थी । दो नाम लिखे थे कोई । साथ में और भी  सुंदर लगते हुए । मैंने देने वाले से पूछा था
“ये क्या है ?”
 उसने कहा था ,
“एक उम्मीद भरा सपना शायद अगले या पिछले जन्म का ।”
वह मेरा नाम नहीं था न ही देने वाले का । ये भी उस देने वाले ने ही कहा था । मैंने वह भी मान लिया कि सच कहा होगा ,जैसे मैंने इबारत लेते हुए उसकी बोलती आँखों का कहा मान लिया था कि वह दो नाम दरअसल उसके और मेरे ही थे ।
मेरी बंद आँखें आहिस्ता से एक खाका खींच रही थी ।
——-
वह माँ का घर था ।
उस रोज़ उस घर में हम साथ थे । वह पीछे अपने कपड़े धो रहा था । मन ने कहा कि जाकर कहूँ, आप रहने दीजिए मैं कर देती हूँ। पर मुझे पता था , ये कहना ऐसा ही बेमानी होगा जैसे दीवार से कुछ बात करना । ‘हाँ’ या ‘न’ कुछ भी नहीं कहा जाएगा ।
वह ऐसा ही था, रूखा भी , शांत भी  और किसी बहते लावे सा खौलता हुआ भी । उस में कुछ बेहद अलग था । एक साथ कितनी विपरीत बातें उसके व्यक्तित्व में थी । मैं अक्सर सोच में पड़ जाती । मैं इस आदमी से इतनी आकर्षित क्यों हूँ , जबकि इसकी कोई आदत मुझे पसंद नहीं और इतना रूखा व्यवहार तो कतई ही नहीं । पर जिस प्रेम की कोई वजह ढूंढी जा सके तो वह फिर प्रेम ही कहाँ हुआ ।
 वह सिर झुकाए अपने कपड़ो पर ब्रश लगा रहा था ।
 मैंने खिड़की थोड़ी सी खोल ली कि बाहर की आहटें साफ़ सुनाई देती रहें।
थोड़ी देर में वाशिंग मशीन के  ड्रायर की आवाज़ सुनाई दी । अब सब्र हद के बाहर था । मुझे बहुत बेचैनी थी कि मैं हूँ फिर भी वह यह काम क्यों कर रहा है । वह कुछ दिन के लिए दिल्ली किसी ज़रूरी काम से आया था। पापा के बहुत कहने पर इस दफ़ा हमारे यहाँ रूकने को मान गया।
हालाँकि वह जानता था,या समझता था ,या उसे अंदेशा था उसके लिए मेरी मोहब्बत का या दिवानगी का या जूनून का , क्योंकि उसने मुझसे पहली बार के अपवाद को छोड़ दे ,तो कभी ठीक से बात नहीं की थी । मैं जब भी उस से बात की कोशिश करती उसके चेहरे पर अजीब से तनाव की लकीरें खींचने लगती । वह बात करते-करते हर छोटी बात पर झल्लाने लगता,कड़वे कटाक्ष करता और अक्सर बात को अधूरा ही छोड़ कर उठ जाता ।
मैं तब,हर बार कहना चाहती कि इतने तंज़ कसने बंद कर दो मुझ पर , मेरी तरह सब समझ जाएंगे कि तुमको भी मोहब्बत है मुझसे और यकीनन है।
बावजूद इस असहजता के , वह इस दफा हमारे यहाँ रूकने को  मान गया था।
ड्रायर की आवाज़ अब मध्यम होने लगी । मैं पीछे बरामदे में जाकर मशीन के पास खड़ी हो गई । वह बाल्टियों का पानी खाली कर उन्हें तरतीब से लगा रहा था। उसने मेरी तरफ प्रश्न भरी दृष्टि से देखा ।मैंने ऐसा दिखावा किया , जैसे उसे देखा ही नहीं ।
मैं ड्रायर से कपड़े निकाल तार पर फैलाने लगी । वह कुछ नहीं बोला । उसके चेहरे पर न कोई मुस्कान थी न कोई गुस्सा । उसने दीवार से टेक लगाकर सिगरेट सुलगा ली और मुंडेर पर बैठी चिड़िया की तरफ़ देखने लगा ।
मुझे जैसे बात शुरू करने की वजह मिल गई हो।
“तुम ये राइटर लोग शराब-सिगरेट पीना अपनी शान समझते हो न ?”
उसने कोई जवाब न दिया ।
मैंने अपनी बात जारी रखी ।
“पापा कहते हैं तुम कमाल का लिखते हो । तुम्हारे उपन्यासों में भाषा बहुत सुंदर होती है  । वैसे मैंने भी पढ़ी हैं तुम्हारी कुछ किताबें पर मेरे तो सब सिर पर से जाता है । जाने क्या इतना गूढ़ सा लिखते हो तुम सीधी सरल बात को । खासकर प्रेम की तो तुमने अपनी किताबों में जान ही ले डाली है ।इतना पेचिदा बना दिया है उसे जैसे कोई रॉकेट साइंस हो ।”
मैंने हँसते हुए उसकी तरफ़ बड़ी उम्मीद से देखा कि उसकी वही हँसी शायद देख पाऊँ जो पहली मुलाकात पर हीरे से लिशलिश‌ चमक रही थी उसके खूबसूरत होंठों पर ।
पर उसके होंठ एक करीने की लकीर‌ तक में तब्दील न हुए ।
मैं मायूस हो फिर तार पर कपड़े फैलाने‌‌ लगी । अनायास याद आई मुझे कल रात बैठक में हुई छोटे चाचा, भाई और पापा के बीच की बातचीत ।
चाचा और भाई ,पापा से बेहद खफ़ा थे कि धर्म के भक्षक इस लड़के को उन्होंने क्यों अपने घर ठहरा रखा है । रात दिन ये मुसलमानों के साथ उठता-बैठता है, उर्दू लिखता-पढ़ता है ।
पापा भी बेहद भड़क उठे थे कि कलम का कोई मज़हब नहीं होता ।
यह बात याद आई तो
मैं कपड़े सुखाते कुछ ठिठक गई ।
“एक बात पूछूं ? जवाब दोगे?”
“कोई ऊटपटांग सवाल मत करना?” उसने सपाट लहज़े में कहा।
पूछने से पहले ही मेरा मन बुझ गया फिर भी बुरा सा मुँह बना कर  मैंने पूछ ही लिया
“तुम तो हिंदू हो । पैदाइश-परवरिश सब हिंदुओं के बीच ही हुई है । फिर तुमने इतने कमाल की उर्दू कहाँ सीखी ?
पापा कहते है उर्दू ,फारसी, अरबी तीनों जुबान पर तुम्हारी पकड़ कमाल की है और तुम तो लिख भी लेते हो ।
कोई बोले तो मैं थोड़ी-थोड़ी समझ तो लेती हूँ पर लिखे हुए को पढ़ना …
तौबा…मेरे लिए तो काला अक्षर भैंस बराबर!”
मैं पड़ोस की समीना आपा की नकल करती हुई उन्हीं के लहज़े में बोली और खिलखिला कर हँस दी ।
इस बार तो वह भी मुस्कुरा दिया
“अहा! आप मुस्कुरा भी लेते हैं ।”
मेरा ये कहते ही पल भर को आई मुस्कान गायब हो गई ।
सिगरेट को पैर से मसल  , बिना कोई जवाब दिए उसने मुँह फेर लिया ।
उसका मुझे यूँ नकार देना मेरे लिए कोई नई बात नहीं थी इसलिए मुझे भी कोई खास असर न हुआ , मैं यथावत अपना काम करती रही । पीछे कुछ आवाज़ हुई तो मैं चौंकी , पलट कर देखा तो वह बरामदे में लगी कमरे की तरफ वाली खिड़की के पल्लों को, लोहे के जंगले से हाथ डाल कर पूरा खोल रहा था। एक पल के लिए मेरे चेहरे पर हैरानी दौड़ी कि इसकी क्या ज़रूरत आन पड़ी । फिर अगले पल ही समझ आ गया कि मिस्टर परफैक्ट को अपनी इमेज की चिंता हुई । घर के लोग यह न समझ ले कि घर की बेटी ,मेहमान के साथ पीछे बरामदे में जाने क्या ही कर रही है । बात तो उसने समझदारी की, की थी पर जाने क्यों मेरा मुँह बन गया ।
उसने फिर एक सिगरेट जला ली ।
मैंने हताशा से सिर हिलाया और बुदबुदाई “क्या ही पत्थर कलेजा है इसका ।”
बाल्टी में अब भी एक कमीज़ सुखानी बची थी ।
 पर तार का सिर्फ कोने वाला हिस्सा ही खाली रह गया था जो मेरे कद के हिसाब से कुछ ज़्यादा ही ऊँचा था । मैंने पंजों के बल उछल कर कई‌ बार कोशिश की पर नाकामयाब । पीछे सरसराहट हुई ,  हल्की सिगरेट की महक मेरी साँस में घुलने लगी।
आइ रियलाइज़ड़, आई वाज़‌ ब्लशिंग दैट मोमेंट
वह ठीक मेरे पीछे खड़ा था ।
कुछ मुस्कुराने लगा मेरे अंदर ‌। शायद ऐसे ही किसी लम्हें के लिए लिखा गया होगा, ‘बटरफ्लाइज़ इन स्टमक’ ।
मुझे लगा अभी वह मुझे पीछे से अपनी  बाँहों में लेकर ऊँचा उठा देंगा ताकि मैं तार पर कमीज़ आसानी से फैला सकूँ।
“हो गया हो खेल तो अंदर जाओ ” उसने बेहद ही तल्ख़ आवाज़ में कहा । इतनी तल्ख़ की मैं लगभग सहम गई ।
“जी !!”
मेरा स्वर भीग चुका था पर उसकी तल्ख़ी बरकरार रही ।
“मैंने कहा हो गया तुम्हारा बचपना तो‌ अब अंदर जाओ ।”
 ये कहते हुए उसने मेरे हाथ से अपनी कमीज़ लगभग खींच ली ।
एक हैरानी ,एक क्षोभ ,एक दर्द ,एक अपमान सब एक साथ मेरी आँखों में तैर गए ।
पर मैं क्या कहती , मैं उसे कभी समझ नहीं पाती , वह बेहद रहस्यमयी व्यवहार करता हैं, हमेशा ही।
आँखें कोमल प्रेम से भरी  , बात उतनी ही कड़वी और हाथ से कमीज़ लेने का अंदाज़ बेहद सख़्त ।
मैं रोते हुए तेज़ी से अंदर आ गई  ।
लेकिन मन बाहर ही रह गया था । जिस जगह अंदर मैं खड़ी उसकी तल्ख़ मिज़ाजी से आहत हुई आँसू बहा रही थी , वहाँ से वह मुझे साफ दिखाई दे रहा था पर उसे मैं नहीं ।
मैंने देखा ,उसका चेहरा उतर चुका है , बेहद उदासी से भरा , हताशा और निराशा में भीगा चेहरा।
एक चौंक मेरे चेहरे पर फैल गई ।
उसने वह कमीज़ अभी तक तार पर नहीं फैलाई थी । बल्कि वह उसे अपने चेहरे के पास ले गया। जैसे कुछ सूंघने की कोशिश कर रहा हो । पर वह ऐसा क्यों कर रहा था , अभी-अभी धुले कपड़ों से तो सिर्फ़ साबून की ही महक आएगी , उसमें सूंघना कैसा !
मैं असमंजस में थी कि ऐसा क्यों कर रहा है ।
वह जब कमीज़ सूखा कर अंदर आया , तो‌ मुझे वहीं खिड़की के पास खड़ा देख ठिठक गया । मेरा चेहरा आँसूओं से पूरी तरह भीगा था ।
उसके कदम मेरी तरफ़ बढ़े । हाथ उठा , मेरे चेहरे तक आया और रूक गया । वह एक बार फ़िर मुझे नकार कर सीधा कमरे से बाहर चला गया ।
उस शाम मैं जब उसके कमरे में चाय देने गई तो वह अपनी डायरी में कुछ लिख रहा था । उर्दू में । इस बात से बेखबर की मैं ठीक उसकी कुर्सी के पीछे ही खड़ी हूँ, वह दीन-दुनिया से बेज़ार लिखने में मसरूफ था ।
पर वह एक ही चीज़ बार-बार लिख रहा था।
मुझसे न रहा गया तो पूछ ही बैठी
“ये क्या लिख रहे हो बार-बार ?”
वह चौंक कर पलटा
“तुम कब आई?”
“अभी कुछ देर पहले । पर तुम लिख क्या रहे हो ?”
“तुम्हें उर्दू बिल्कुल भी नहीं आती न ?”
मैंने न में सिर हिला दिया
उसके चेहरे पर जैसे कोई सुकून उभर आया । मुझे चिढ़ हुई । लगा मुझे कमतर समझा जा रहा है ।
मैं बिना कुछ कहे चाय का कप रख कर जाने लगी । उसने आवाज़ दी ।
“सुनो !”
“कहो।”
“यह, दो नाम हैं।” उसने डायरी की तरफ़ इशारा करते हुए कहा।
“किसके ?”
“दो प्रेमी , जो कभी एक दुसरे के नहीं हो सकते ।”
“कौन हैं ये ?”
वह मुस्कुराया । मुड़ा । डायरी से पन्ना निकाला और मुझे देते हुए कहा ।
“रख लो । कभी उर्दू सीख जाओ तो खुद पढ़ लेना । पर संभाल कर रखना । कोई और न देखे ।”
“क्यों ? तुम तो ऐसे कह रहे हो जैसे हमारे नाम हो ।” मैंने हँसते हुए कहा
उसने ‘न’ में सिर हिला दिया।
पर वह ‘न’ करना शायद ऐसा ही था जैसे किसी के लिए जान देते हुए यह कहना मैं तुमसे प्यार नहीं करता ।
गहरी उदासी का कोहरा मुझे लील जाने लगा। मैं वहाँ से चली आई ।
फिर…
फिर एक दिन  वह पन्ना चाचा के हाथ में था । जाने कैसे ।
और ठीक उसी एक दिन मैं दूर कहीं उसकी आगोश में थी , उसके बेहद करीब । जाने कैसे।
एक जोड़ी होंठों की सरसराहट ने बनाया एक जोड़ी होंठों पर अपना नाम ।
एक जोड़ी आँखों मुस्कुराई और आँखों ने ही किया सवाल
“ये क्या लिखा ?”
एक जोड़ी आँखों ने ही दिया जवाब
“तो तुमने उर्दू अब तक नही सीखी !”
 फिर कोई आंधी आई , कोई शोर उठा । एक बवंडर आया और …
—-
शमशान‌ की लकड़ी की ज़हमत कौन करे । सो कब्रिस्तान सा गहरा गड्ढा और दो देह।
मेरा सिर फट रहा था …
मुझे याद आ ही गया  मैंने कहाँ देखे थे वो नाम।
मैंने छील दिए गए वजूद और जला दी गई आँखों के साथ दौड़ लगा दी बदहवास , समय के उस पहर की ओर, जहाँ वह इबारत कहीं छूट गई थी ।
मुझे ढूँढना ही था डायरी का वही पन्ना ।
मुझे लिखने ही थे वही दो नाम..
इस दोहरी कब्र की स्लेट पर जो उस इबारत में लिखे थे।
उफ्फफ! काश मैंने उर्दू सीख ली होती  ।
——-
डॉ सुषमा गुप्ता
327/16ए फरीदाबाद
हरियाणा
पिनकोड 121002
मो. 9899916431

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पूजा त्रिपाठी की कहानी ‘बैंगनी फूल’

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आज ईद के मौक़े पर पढ़िए पूजा त्रिपाठी की कहानी ‘बैंगनी फूल’– मॉडरेटर

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बैंगनी फूल

“क्या बकवास खाना है यार, इसे खायेगा कोई कैसे” विशाल ने टिफ़िन खोलते ही कहा. “ अगर ४ दिन और ये “खाना खाना पड़ा तो मुझसे न हो रही इंजीनियरिंग, मैं जा रहा वापस अपनी पंडिताइन के पास.”

“सुन हीरो, बाज़ार से लगी गली के आखिरी में एक पीला मकान है, एक आंटी खाना खिलाती है. और क्या बढ़िया बनाती है.” अजीत ने सिगरेट जलाते हुए कहा.

“पता चला मुझे और अगर मेरे पंडित बाप को पता चला कि मैं मुसलमान के यहाँ खाना खा रहा हूँ तो जनेऊ रखवा के चलता करेगा मुझे.”

तीन दिन बाद विशाल बाज़ार के तरफ टहल रहा था तो उसे वही पीला मकान दिखा. सोचा चल जाकर देखते हैं, जनेऊ है, जीपीएस थोड़े कि पंडित को पता चल जायेगा. कम से कम जान तो बची रहेगी.

विशाल ने दरवाज़ा खटखटाया. बेहद मामूली सा घर था, जगह जगह पेंट उखड़ा हुआ था,हाथ से बुनी हुई झालर जो अब बेरंग हो चुकी थी, दरवाज़े पर लटक रही थी. सुबह ही टूटे हुए गमले में किसी ने पानी दिया था जो नीचे फर्श पर फैला हुआ था, गमले में बैंगनी फूल लगे हुए थे. उस बेरंग से लैंडस्केप में वो बैंगनी फूल कुछ मिसफिट लग रहे थे.

तभी एक बूढी औरत ने दरवाज़ा खोला. “जी बेटा” सर पे पीला दुपट्टा डाले एक औरत सामने खड़ी थी जिसके किनारे से सफ़ेद बाल झाँक रहे थे. उस पीले दुपट्टे का रंग कई साल पहले शायद उड़ चुका था और उस कपडे पर बस पीली खुरचन रह गयी थी.

“आंटी जी मैं यहाँ इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ता हूँ. वो टिफ़िन का पूछने आया था”

“आओ बेटा, अन्दर आओ. बाहर तेज़ धूप है. शाहीन ज़रा एक गिलास ठंडा पानी तो ले आओ”

रसोई में कुछ हलचल हुई, शायद किसी ने कोई किताब बंद कर प्लेटफार्म पर गुस्से में पटकी, या हो सकता है उसका वहम हो. वह खोया ही हुआ था कि एक आवाज़ कानों में पड़ी “पानी”. सर उठाया तो उसकी नज़रें दो उदास आँखों से टकराई. उदासी भी खूबसूरत होती है ये उस दिन जाना.

काले दुपट्टे के बीच से कुछ बाल उसके चेहरे पर गिर रहे थे. कमरे में बिजली नहीं थी इसलिए पसीने की कुछ बूँदें माथे पर टिक गयी थी. पसीने की बूँदें भी उसके माथे से हटने से इनकार कर रही थी.विशाल का काशी बहुत पीछे छूट गया था बस सामने थी तो वो दो आँखें जो सामने से तो कभी का जा चुकी थी पर हट नहीं रही थी.

और अगले दिन से विशाल हर रोज़ खाने के लिए वहां जाने लगा. पता लगा शाहीन विमेंस कॉलेज में पढ़ती है, अब्बू कुछ साल पहले गुजर गए थे बस तभी से माँ बेटी टिफ़िन का काम कर के गुजारा चला रहे थे. और फिर जैसा होता है, विशाल ऑटोमैटीकली शाम को विमेंस कॉलेज के बाहर दिखने लगा. फिर पब्लिक लाइब्रेरी में बैठने लगा,बिना किताब पढ़े बैठा रहता, पर कभी शाहीन से बात करने की हिम्मत नहीं हुई.

आज शाहीन लाइब्रेरी के जगह बाज़ार की ओर निकली, निकली क्या उसकी सहेली उसे खीच कर ले जाने लगी. सहेली खरीदारी करती रही और शाहीन उसको बताती रहती कि क्या अच्छा लग रहा है. तभी शाहीन कि नज़र बैंगनी चूड़ियों पर पड़ी.विशाल ने देखा कि चूड़ियों को देखकर उसके आँखों के कोनों पे आंसूं टिक गया था.

“अरे तुझे क्या हुआ?” सहेली ने पूछा.
“कुछ नहीं यार, अब चलें कि तुझे पूरा मार्किट खरीदना है?”
“ पहले बता कि तू ऐसे दुखी क्यूँ हो गयी”
“अरे दुखी नहीं हूँ, बस अब्बा की याद आ गयी”
“चल तेरा मूड ठीक करते हैं.गोल गप्पे खाएगी?”

वो दोनों गोल गप्पे खाने लगे और शाहीन अपनी सहेली को बताने लगी कि कैसे एक ईद पर उसने परी वाली फ्रॉक कि जिद पकड़ी थी. अब्बा ने उसके लिए बैंगनी फूलों वाली फ्रॉक खरीदी जिसे देखकर वो रोने लगी.फिर अब्बा ने उसे बैंगनी परी की कहानी सुनाई, जो अब्बा ने उसे कन्विंस करने के लिए बनाई थी. ये किस्सा बताते हुए शाहीन जोर से हंस दी और उसकी सहेली ने उसे गले लगा लिया.

“बेटा एक हफ्ते मेस बंद होगा.”

“अरे क्यूँ आंटी” विशाल का कौर गले में ही अटक गया.”ईद कि वजह से?”
“अब ईद जैसा तो कुछ है नहीं बेटा, सोच रहे हैं इसकी फूफी के पास हो आयें, ईद पर मिलना भी हो जायेगा और उनकी तबियत भी कुछ ख़राब रहती है. बेटा वो इस महीने के पैसे मिल जाते तो, सफ़र का खर्चा निकल जाता.”
“जी आंटी,मैं आज शाम को ही दे जाऊंगा”

“और घर जा रहे छुट्टियों पर तो अपने अम्मी अब्बा को मेरा सलाम कहना बेटा”
“जी आंटी”

विशाल थोड़ा परेशान हो गया, एक हफ्ता बिना शाहीन को देखे, उसने आज तक उससे बात नहीं कि थी, वो उसे हमेशा देखती थी कॉलेज में, लाइब्रेरी में. पर किसी ने कभी कुछ कहा नहीं.

शाम को विशाल पीले मकान के सामने जाकर तीन बार लौट आया, उसे पता था हमेशा कि तरह शाहीन बाहर कुर्सी डाल कर पढ़ रही होगी. उसने दरवाज़ा खटखटाया. अन्दर से आवाज़ आई “कौन?”

“जी मैं विशाल आंटी “
“आओ बेटा, चाय पियोगे”
“पिला दीजिये आंटी, मन तो है. आंटी ये आपके पैसे”
“शुक्रिया बेटा”
आंटी चाय बनाने को उठी, तो विशाल शाहीन के पास जल्दी से एक पैकेट रख के आ गया.
“आंटी मुझे कुछ काम याद आ गया, मैं चलता हूँ” वह रसोई कि ओर देख के चिल्लाया.
“अरे चाय तो पीते जाओ बेटा”
“नहीं आंटी, चलता हूँ. आपको ईद मुबारक “
“तुमको भी बेटा”

ईद के एक दिन पहले कि रौनक बाज़ार में थी, चारों ओर हलचल थी, लोग खरीदारी कर रहे थे. रात के आखिरी पहर में शाहीन ने वो पैकेट खोला. अन्दर वही बैंगनी चूड़ियां थी. एक छोटी सी रंग बिरंगी गुड़िया भी साथ में रखी थी. वह मुस्कुरा दी, आँखों में फिर वही कमबख्त आंसू आकर टिक गए थे. पर आज आँखें उदास नहीं थी. बाहर ईद का चाँद मुस्कुरा रहा था और अन्दर शाहीन.

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‘बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान’ की घोषणा

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बिहार के प्रतिष्ठित ‘बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान’ की घोषणा हो गई है। यह सम्मान एक ज़माने में बिहार में समकालीन रचनाशीलता का प्रतिष्ठित पुरस्कार था। कभी मेरे प्रिय लेखकों आलोक धन्वा और सुलभ जी को भी मिल चुका है। इस बार भी कुछ प्रिय लेखों को मिला है- मॉडरेटर

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प्रेस विज्ञप्ति

 

 

आरा/3 जून, 2019

हिन्दी साहित्य का प्रतिष्ठित ‘बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान’ वर्ष 2012 के लिए हिन्दी कविता की प्रमुख हस्ताक्षर अनामिका को, 2013 के लिए प्रसिद्ध कथाकार रणेन्द्र को, 2014 के लिए प्रमुख कवि रंजीत वर्मा को, 2015 के लिए प्रमुख कथाकार गीताश्री को, 2016 के लिए प्रसिद्ध कवि संजय कुंदन को एवं 2017 के लिए हिन्दी कहानी के प्रमुख हस्ताक्षर पंकज मित्र को दिया गया है। विदित है कि वर्ष 2012 से ही यह सम्मान चयन कतिपय कारणों से रूका पड़ा था जिसे वर्ष 2019 में वर्ष 2012 के प्रभाव से ही शुरू किया गया है।

इस सम्मान के चयन के लिए निर्णायक मण्डल के सदस्य थे- वरिष्ठ आलोचक डाॅ० खगेन्द्र ठाकुर, डाॅ० रविभूषण, वरिष्ठ कथाकार संजीव एवं कवि मदन कश्यप। यह सम्मान 28 जून 2019 को साहित्य अकादमी, दिल्ली के सभागार में प्रदान किया जाएगा। इस कार्यक्रम के विषिष्ट अतिथि होंगे प्रसिद्ध आलोचक डॉ. मैनेजर पाण्डेय, डाॅ० रविभूषण एवं डाॅ० गोपेश्वर सिंह। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ आलोचक डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा की जाएगी।

यह सम्मान योजना आरा निवासी प्रेमचंदकालीन साहित्यकार बनारसी प्रसाद भोजपुरी की स्मृति में वर्ष 1989 से शुरू की गई है जिसका उद्देश्य बिहार की संभावनाशील तथा महत्वपूर्ण रचनाशीलता को सम्मानित करना है। इसके अंतर्गत प्रतिवर्ष कविता या कहानी की किसी एक विधा में उल्लेखनीय योगदान के लिए किसी एक रचनाकार को ‘बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान’ से सम्मानित किया जाता है जिसमें सम्मान-पत्र के अतिरिक्त पाँच हजार एक रूपये की राशि एवं प्रतीक चिह्न शामिल है।

अबतक यह सम्मान वर्ष 1989 में पत्रकारिता के क्षेत्र में अनिल चमड़िया तथा वेद प्रकाश वाजपेयी को संयुक्त रूप से, 1990 में कहानी में विजेन्द्र अनिल को, 1991 में कविता में आलोकधन्वा, 1992 में उपन्यास लेखन के लिए मनमोहन पाठक, 1993 में कहानी में सुरेश कांटक, 1994 में कविता के क्षेत्र में मदन कश्यप, 1995 में कहानी में चन्द्रकिशोर जायसवाल, 1996 में कविता में ज्ञानेन्द्रपति, 1997 में कहानी में अवधेश प्रीत, 1998 में कविता में विमल कुमार, 1999 में कहानी में हेमन्त, 2000 में कविता में बद्रीनारायण, 2001 में कहानी में ह्रषीकेश सुलभ, 2002 में कविता में निलय उपाध्याय, 2003 में कहानी में शैवाल, 2004 में कविता में निर्मला पुतुल, 2005 में कहानी में देवेन्द्र सिंह, 2006 में कविता में अनीता वर्मा, 2007 में कहानी में जयनंदन, 2008 में हिन्दी गीत में नचिकेता, 2009 में कविता में सुरेन्द्र स्निग्ध, 2010 में कहानी में रामधारी सिंह दिवाकर तथा 2011 में कहानी में ही संतोष दीक्षित को प्रदान किया जा चुका है।

इस अवसर पर बनारसी प्रसाद भोजपुरी रचनावली का लोकार्पण भी किया जाएगा।

 

(अरविन्द कुमार)

संयोजक

बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान

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इस्तांबुल से कोपेनहेगन

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पूनम दुबे के यात्रा वृत्तांत हम जानकी पुल पर पढ़ते रहे हैं। हाल में ही वह इस्तांबुल से कोपेनहेगन गई हैं। यह छोटा सा यात्रा संस्मरण उसी को लेकर। हाल में ही पूनम का उपन्यास आया है प्रभात प्रकाशन से ‘चिड़िया उड़’, जो उनकी अपनी जीवन यात्रा को लेकर है- मॉडरेटर

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इस्तांबुल से नाता छूटे आज एक महीने से भी ज्यादा हो गए. लेकिन अब भी रह-रहकर उन गलियों, सड़कों ओटोमन फैशन में बनी शानदार मीनारें, मस्जिद और उनके खूबसूरत गुंबज की झलकियां आँखों के सामने तैर जाती हैं. मेट्रो स्टेशन के पास वह नीली आँखों वाला टर्किश बूढ़ा जिसका चेहरा झुर्रियों से सना था, याद आता है मुझे.  सर्दियों में चेस्टनट्स तो गर्मियों में सीमीत (टर्किश बेगल कह लीजिए) बेचा करता था वह. न उसे मेरी भाषा समझ आती थी न ही मैं इतनी अच्छी टर्किश कभी बोल पाई. इंसानियत की कोई जबान नहीं होती! स्नेह में शब्दों की भाषा से ज्यादा जरूरी आँखों की भाषा को पढ़ना होता है यह मुझे इस्तांबुल ने सिखाया!

आज पूरा एक हफ़्ता हो गया कोपन्हागन आये मुझे, कोई शिकायत नहीं इस शहर से लेकिन इस्तांबुल की यादें अब भी ज़ेहन में बहुत ताजा है. नई भाषा, नए लोग, नया कल्चर सब कुछ बदल गया फिर से एक बार. धरती एक ही है लेकिन इतनी विविधताएं मन को अभिभूत कर जाती हैं कभी-कभी. ज़मीन पर खींचीं एक बॉर्डर से कितना कुछ बदल जाता है, यह बात अब भी मुझे आश्चर्यचकित कर देती है.

यहाँ बैठे-बैठे यूँ ही सोचती हूँ क्या अब भी बोस्फोरस के गहरे रंग के पानी पर ब्रिज से आने वाली नीले रंग की रोशनी पानी को रंगीन बनाने की कोशिश करती होगी? कितनी ही दिलकश शाम बिताई थी हमने बोस्फोरस के किनारे! अब यहाँ बोस्फोरस तो नहीं लेकिन कनाल जरूर है जिनपर चलने वाली बोट दूर से रोमांचक लगती है. मशहूर टर्किश साहित्यकार ओरहन पमुक को भी बोस्फोरस के किनारे टहलना सुकून देता था. जब ‘चिड़िया उड़’ लिख रही थी तो मैं भी चली जाती थी बोस्फोरस के किनारे प्रेरणा लेने यही सोचकर कि क्या जाने कोई चमत्कार हो जाए. मैंने भी इस्तांबुल की आबोहवा में हुजून (मेलानकली) को महसूस किया है वक्त बेवक्त. लोगों के चेहरे पर महसूस किया है इस हूजुन को! कुछ पल मैंने भी बिताये इसी हुज़ून के साये में. सिर्फ शहर से नहीं वहां लोगों से भी एक कशिश सी हो गई थी. इस्तांबुल है ही इतिहास की महबूबा तो दिल लगना एक जाहिर सी बात है.  क्या खूब कहा है नेपोलियन बोनापार्ट ने, “यदि पूरी दुनिया केवल एक देश होता तो इस्तांबुल उसकी राजधानी होती!” अब जब इस्तांबुल से दूर आ गई हूँ तो लगता है कितना सच कहा है.

हाल ही में यहाँ मैं लीसा से मिली, वह फ्रेंच है और यहाँ कोपन्हागन  में एनवायरमेंट पर अपनी पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही है. उसने मासूमियत से मुझे पूछा हिंदुस्तान कैसा है. मैं हंसी और बोली कुछ-कुछ यूरोप जैसा ही समझो जैसे यहाँ देश बदलते ही भाषा बदल जाती है और खाने का तरीका अलग हो जाता है वैसे ही मेरे भारत में स्टेट बदलते ही भाषा और खान-पान बदल जाता है. इस बात पर हम दोनों ही हंसने लगे. लीसा शाकाहारी है यह जानकर मैं भौचक्का हो गई. मैंने उससे कहा यह बीमारी तो मुझे है, तुम क्यों घास-फूस खाती हो? वह बोली पर्यावरण पर पढ़ाई कर रही हूँ इतना तो बनता है इसी बात पर मैंने भी उसे न्योता दे दिया दाल भात खाने का! एक अच्छी फीलिंग आई, आजकल वेजटेरियन और वीगन का ट्रेंड चल रहा है.

लीसा अच्छी लगी लेकिन मुझे ओज़लेम की झप्पियाँ याद आती है. टर्किश लोगों का तरीका ही यही होता है ग्रीट करने का, बस प्यार से गले मिल लो मुझे भी आदत सी हो गई थी उन प्यार भरी झप्पियों की. ओज़लेम मुझे टर्किश कम हिन्दुस्तानी ज्यादा लगती थी. कई बार मेरी साड़ियों को लपेटकर उसने बॉलीवुड के गानों पर ठुमके लगाए थे. एक अनोखा नाता सा जुड़ गया था उस शहर से जहाँ पूर्व और पश्चिम मिल जाते है बस पलक झपकते ही. जो ट्रेडिशनल और मॉर्डन कल्चर का एक अद्भुत संगम है. आजकल अर्नेस्ट हेमिंग्वे की ये पंक्तियाँ खूब याद आती है,” कभी भी किसी स्थान के बारे में न लिखें जब तक आप उससे दूर न हों, क्योंकि दूरी आपको दृष्टिकोण देता है।”

शुरुआत के दिनों में तो इस्तांबुल से भी मेरा जी घबराया था, हादसे ही कुछ ऐसे हुए थे वहां. लेकिन पिछले डेढ़ सालों में मानो इस्तांबुल ने मेरा दिल जीत लिया या फिर यह कहूँ कि मैं ही अपना दिल हार बैठी. यक़ीन है कि एक दिन कोपन्हागन से भी मेरा नाता जुड़ ही जाएगा. शुरुआती अड़चनें तो हर नए रिश्ते की पहचान होती है.

मिज़ाज से मुसाफ़िर हूँ इसीलिए लत सी है माहौल में ढल जाने की. चाहे वह मुंबई की भीड़ से ठसाठस भरी लोकल ट्रेन हो या मैनहाटन की चमचमाती एवेन्यू या स्ट्रीट्स हों या फिर इस्तांबुल की वह ऐतिहासिक गलियां जिन पर अब भी वक्त के निशान है जो हर क़दम एक नई कहानी बताते हैं. जरूरत है तो केवल ढलने की!

बहरहाल इस समय कोपन्हागन  में यूरोपीय समर का मौसम है. इरादा है इस मौसम में यूरोप की गलियों में मंडराने का। ठीक वैसे ही जैसे कल्पना निकल पड़ी थी अपनी एक नई उड़ान के लिए. यूरोप तो पहले भी घूमी हूँ लेकिन यहाँ रहकर बिना वीसा की जद्दोजहद के घूमने का आनंद ही कुछ और है. दिन बहुत ही लंबे होते है रात के दस बजे तक उजाला ही उजाला! कुछ ही महीने में आ जाएंगी सर्दियों, उस समय करूंगी शरमाते हुए सूरज के मद्धिम रोशनी में अलग तरीके से जीने की तैयारी.

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स्वयं प्रकाश की पुस्तक ‘धूप में नंगे पाँव’का एक अंश

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जाने माने लेखक स्वयं प्रकाश की आत्मकथात्मक क़िस्सों की किताब राजपाल एंड संज प्रकाशन से आई है- ‘धूप में नंगे पाँव।’ उसी किताब के कुछ रोचक अंश पढ़िए- मॉडरेटर

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जो कहा नहीं गया -१

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मैंने सन १९६६ मे जावरा पोलिटेक्निक  कोलेज से मेकेनिकल इंजीनिअरिंग में डिप्लोमा कर लिया था . जावरा मध्य प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री कैलाशनाथ काटजू  का विधान सभा क्षेत्र था,उन्हीं के प्रयत्नों से वहां पोलिटेक्निक कोलेज की  स्थापना हुई थी और इसका परिसर प्रयोगशालाएं वर्कशॉप  और हॉस्टल आदि आज के अनेक इंजीनियरिंग कोलेजों  से कहीं ज्यादा बड़े और विकसित थे. इस पोलिटेक्निक  कोलेज का अपना ही रुतबा और प्रतिष्ठा थी . वैसे भी उस समय पूरे मध्य प्रदेश में मात्र चार इंजिनीरिंग कोलेज और  बारह पोलिटेक्निक  थे और हमारे कोलेज के छात्रों को फायनल इयर कि परीक्षा में बैठने से पहले ही विभिन्न उद्योगों से  नियुक्ति प्रस्ताव और नियुक्ति पत्र प्राप्त  होने लगते थे हमसे एक बैच पहले तक यही आलम था.उस बएच के सभी  सफल छात्र  कहीं न कहीं ठाठ से लग गए थे. लेकिन ६५ में पाकिस्तान के साथ युध्ध हो गया .सारे ससाधन रक्षा में झोंके जाने लगे. बाकी सबसे खर्च में कटोती करने और भावी योजनायें फिलहाल स्थगित करने  को कह दिया गया उद्योगों में निवेश का रुझान थम गया सरकारी महकमों मे रिक्तियां निकलना बंद हो गयीं नतीजा यह हुआ कि जिन इंजीनियरों को नेहरूजी राष्ट्र निर्माता कहते थे और जिन्हें अपने यहाँ नियुक्त करने को उद्योग लालायित रहते थे  वे इंजीनिअर बेरोजगार घूमने लगे  इन बेरोजगार इंजीनिअरों में से एक में भी था .

पढ़े-लिखे की बेरोज़गारी बहुत मारक होती है .वह तब और वहां भी रोज़गार ढूँढने के लिए धक्के खाने लगता है  जब और जहाँ रोज़गार की  कोई संभावना नहीं होती वह घर पर खाना खाना टालने लगता है –यह कहकर कि आज तो फलां दोस्त ने खिला दिया ,और खाता  भी है  तो खाना कम खाता है पानी ज्यादा पीता है .चार की जगह तीन रोटी खाकर ही डकार लेने लगता है  और आवेदन पत्र, पोस्टल आर्डर  भेजने के लिए पैसे  उन सहपाठियों से उधार मांगने लगता है  जिन्हें पूरे कोलेज वर्षों में उसने कभी भाव नहीं दिया. वह “कहीं भी कोई भी “काम करने को राजी हो जाता है  और एक बार किसी ने ऐसा किया तो नियोक्ता भी समझ जाते हैं  कि अब इंजीनिअरों को भी इतनी कम उजरत पर रखा जा सकता है.

ऐसे ही फिट्मारे दिनों में भारतीय नौसेना में इंजीनिअरों के लिए पहली बार सीधी  भर्ती निकली और कुछेक परीक्षाओं के बाद बगैर किसी से पूछे-ताचे  या सलाह किये मे  उसमे घुस गया.

००००

 

बम्बई के फोर्ट इलाके में लोयंस गेट के सामने खड़े हो जाओ  तो अनुमान नहीं लगा सकते कि इसके भीतर आई. एन. एस. आंग्रे नामक एक पूरा नेवल बेस होगा जहाँ नए जवान भर्ती किये जाते हैं और पुराने जवान अपने नए जहाज के आने की प्रतीक्षा करते  हैं .

वहाँ एक बहुत  शानदार जिम था  जिसमें बहुत सारे हट्टे-कट्टे गोरे-चिट्टे नोसैनिक तरह-तरह के दर्शनीय व्यायाम करते थे उन दिनों मेरे हाथ-पैर सूखी लकड़ी की तरह और चेहरा छुआरे की  मानिंद था .मेरे लिए ये व्यायाम करते सुडौल-सुचिक्कन  नौसैनक ईर्ष्या का नहीं,स्पृहा का विषय थे .काश! कभी में भी ऐसा हो पाऊँ !में अपने पीछे  एक अदद प्रेमिका को छोड़कर आया था और क्योंकि वह मेरे  साथ -मुझ बेरोजगार छुआरे के साथ -भाग चलने को राजी नहीं हो रही थी ,इसलिए नेवी ज्वाइन करने के पीछे एक तरह से उसे मज़ा चखाने की  भावना भी थी.में अपनी कल्पना की  आँखों से देख रहा था  कि वह रोते- रोते मुझे लौट आने के लिए कह रही है! और में उसकी आंसू  भरी पुकार को अनसुना करके  समुद्री तूफ़ान में अकेला लहरों के थपेड़े खा रहा हूँ  आदि. हालाँकि किया उसने इसका ठीक उल्टा .उसने मुझ भगोड़े को अपने हाल पर छोड़ कर  नासा में कार्यरत एक प्रवासी भारतीय से शादी कर ली  और अमेरिका जा बसी .लेकिन इस प्रसंग क घटित होने में अभी समय था.

कसरती नौजवानों ने नेवी  ज्वाइन करने के मेरे इरादे को  और पक्का कर दिया  और मैंने स्वयं को नयी परिस्थितियों के लिए तैयार करना शुरू कर दिया .

नहाने के लिए वहां कोमन बाथरूम नुमा एक हौल था जिसमें चालीस शोवर लगे थे जिनके नीचे लोग खड़े होकर नहाते थे -अधिकांश नंगे !खाने के लिए थाली -कटोरी हाथ में लिए लाइन लगनी पड़ती थी  और दिन भर  कड़ी चिकित्सा परीक्षाओं से गुज़रना पड़ता था .

मध्य प्रदेश से हम दो ही लड़के थे .में और बापट. बापट को नंगे नहाने और गाना गाने का बहुत शौक था .गाने वह दीदार,अनमोल घडी,आन वगैरह फिल्मों के गा या करता था. शमशाद बेगम उसकी पसंददीदा गायिका थी. और वह काफी खुली,बेहद खुली,बल्कि इतनी खुली आवाज़ में मुंह ऊपर उठा कर गाता था मानो रेलगाड़ी मे भीख मांग रहा हो. श्रोता हंसने लगते थे और वह शरमाकर चुप हो जाता था और होठों पर से थूक पोंछने लगता था .मैंने उसका कोई गाना कभी पूरा नहीं सुना.

 

जो कहा नहीं गया-२

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सात दिन चली चयन प्रक्रिया पूरी हो जाने के बाद हम चयनित २५ इंजीनिअरों को लोनावाला ले जाया गया जहाँ रेलवे स्टेशन से कोई २२ कि मी दूर सघन वन के बीच बनी एक सुरम्य घाटी में नेवी का ट्रेनिंग सेंटर आई. एन.एस. शिवाजी था . हम सब विभिन्न प्रान्तों से आये हुए गरीब घरों के बच्चे थे  जिन्होंने कभी डाइनिंग  टेबल पर बैठकर चुरी -कांटे से खाना नहीं खाया था ,सुबह उठकर माँ-बाउजी को गुड मोर्निंग नहीं बोला था ,हवाई जहाज में सफ़र नहीं किया था  और कमोड़ पर बैठकर हगा नहीं था .कन्संत्रेशों   केम्प  के कैदियों की तरह जाते ही हमें एक जगह ले जाया गया  जहाँ हर लडके को दरी-कम्बल-चद्दर-तकिया और कित  बेग के अलावा पांच-पांच तरीके की वर्दियां ,तीन तरह के जूते ,स्वेटर-कोट-टोपियाँ-मोज़े-बरसाती-गमबूट-समेत चालीस आइटम इशू किये गए .उसके बाद हमें एक बैरक में ले जाया गया जहाँ दो कतारों में पच्चीस पलंग पहले ही लाइन से लगे थे . हमने एक-एक पलंग पर अपना सामान  पटका  और पसंद का पड़ोसी चुन लिया .अभी कमर सीधी भी नहीं की  थी  कि फिर चलने का हुकुम हुआ.जहाँ गए वहां जमीन पर लाइन से बैठा दिए गए लाइन के सबसे अगले सिरे पर  एक नाई आकर बैठ गया  और उसने अपनी जीरो मशीन से एक-एक का सर पकड़कर  इस तरह घास्कटाई शुरू की कि टोपी से बाहर एक बाल न दिखे. और आप यकीन  नहीं करेंगे उसे प्रति व्यक्ति पांच मिनिट का समय भी नहीं लगा .

उसके बाद हमें मेस में ले जाया गया. मेस में डिनर का मीनू था मूंग कि चिल्केवाली दाल ,आटे की ब्रेड  और खाने के बाद काली कोफी .अगले छह महीने सुबह-शाम हमारा यही मीनू रहना था और हमें न सिर्फ इसका अभ्यस्त हो जाना था बल्कि इसे पसंद भी करने लगना था .

बैरक में लौटकर सबने अपने सामान को देखा-जांचा-परखा,वर्दियोंको पहन -पहनकर देखा और एक-दुसरे  के इस नए अवतार को देखकर खुश हुए और खिलखिलाए .दो-चार लम्बे सरदार ही थे  जिन्हें वर्दी की फिटिंग के लिए दरजी के पास जाना पडा.हमें जो टोपी पहननी थी वह सफ़ेद रंग की पीक केप थी जिसका पीक काले  रंग का था   और जिसके शीर्ष पर जरी  से कढा भारतीय नौसेना का प्रतीक चिन्ह था .हममें से लगभग सभी  ने  लोनावाला जाकर वर्दी-टोपी पहनकर फोटो खिंचाई और घरवालों को भेजी. घरवाले इन तस्वीरों को देखकर खुश हुए होंगे या दुखी,पता नहीं.शायद पहले खुश हुए हों बाद में दुखी., बच्चा फौज को दे दिया तो फिर वह घर-परिवार का नहीं रहता ,उसे साल में एक बार घर जाने की छुट्टी मिलती है ,उसमें भी वह बीच रस्ते से वापस बुलाया जा सकता है ,वह जब चाहे नौकरी छोड़ नहीं सकता  और युध्ध के समय हर पल उसकी मृत्यु की आशंका घरवालोंको घेरे रहती है .

इन्दोर से आज़ाद का फोन था .

-सिलेक्शन हो गया ?

– हाँ. दस साल का बोंड है.

– दस साल का !!

वह नौकरी मिलने पर बधाई देना चाह रहा होगा .मेरी बेरोज़गारी से मुझसे ज्यादा वह परेशान था.उसने मेरी इंग्लिश  कोचिंग क्लास्सेस शुरू करवाने के लिए काफी पैसा खर्च किया था ,अपने घर का एक कमरा  भी खाली कर दिया था ,फर्नीचर की भी व्यवस्था कर दी थी ,लेकिन १९६६ में स्पोकेन इंग्लिश छह महीने में फ़र्राट सिखाने  के लिए चार रूपया महीना फीस  देनेवाले  बीस छात्र भी में नहीं जुटा  सका. .वश्वीकरण की हवा भारत में आने में अभी समय था . अभी वातावरण में जाति तोड़ो और अंग्रेजी हटाओ की प्रतिध्वनियाँ थीं .अभी घरों में प्रेमचंद-शरत-रवींद्र पढ़े जा रहे थे ,अभी मंचों पर नीरज-सुमन-वीरेंद्र मिश्र सुने जा रहे थे .

लेकिन दस साल सुनते ही आज़ाद के बोलती बंद हो गयी बधाई देना भूल गया.अब वह गुलाबसिंह को क्या बतायेगा ?कैसे दस साल प्रतीक्षा करने को मना पाएगा ?

मैंने भारतीय नौसेना से प्राप्त पहली  तनख्वाह ,अपने जीवन के पहले वेतन की पूरी राशि अपने माँ-बाप को नहीं ,आज़ाद की  माँ के नाम मनी आर्डर करा दी.

मैं आज़ाद का दोस्त था.उसकी पड़ोसन का प्रेमी. मैं लगभग हर रोज़ वहां होता था ,लेकिन शायद ही कभी ऐसा हुआ होगा क़ि भोजन का समय हो  और मैं आज़ाद के घर से बगैर खाना खाए लौट आया होऊँ. दो-चार बार तो ऐसा भी हुआ क़ि रसोई में पतरे  बिछाकर बीच में थाली रखकर आज़ाद ने ,आज़ाद के भाइयों ने  और मैंने खाना खा लिया  और अंत में बाईजी,यानि आज़ाद की  माँ सब्जी की  खाली कढाई में एक गिलास पानी डालकर उसे हिलाकर पी गयीं और उठ गयीं.

एक बार ऐसा हुआ क़ि मेरे घर से मनी आर्डर नहीं आया था और दो रोज़ बाद ही परीक्षा की फीस भरने की  अंतिम तारीख थी .मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करुं अंत में रात की  गाडी से जावरा से बैठकर सुबह इंदोर आ गया बगैर टीकट और आज़ाद को समस्या  बताई थी .लेकिन  आज़ाद के सारे घरवाले एक शादी में भाग लेने उदैपुर गए हुए थे .और बात दस-पांच रुपयोंकी नहीं पूरे पैंतीस रुपयों क़ी थी  जो किसी दोस्त से उधार भी नहीं मांगे जा सकते थे .उस ज़माने में विद्यार्थी कलाई घडी भी नहीं  बांधा करते थे कि उसी को बेचकर पैसे पा लिए जाएं कलाई घडी तो तभी कलाई  पर आती थी जब आदमी नौकरी करने लगता था.

तब आज़ाद ने बाईजी के संदूक का ताला तोड़कर मुझे पैतीस रुपये दिए थे ताकि में परीक्षा की फीस भर सकूं और मेरा साल न खराब हो !

वो पैंतीस रुपये मैंने आज तक आज़ाद को नहीं लौटाए हैं. सोचता हूँ आज उसे पैंतीस हज्जार या पैंतीस लाख रुपये भी लौटा दूं तो क्या बाईजी के संदूक का ताला तोड़कर दिए गए उन पैंतीस रुपयों का क़र्ज़ उतर पायेगा ?

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जो कहा नहीं गया -3

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ऐसा ही एक बार और हुआ था.

हॉस्टल का मेस बंद हो चुका था

कसबे  के होटलों में इतनी उधारी चढ़ चुकी थी उनहोंने पोलिटेक्निक के छात्रों को अपने यहाँ खाना खिलाना बंद कर दिया था .

उन दिनों में  एक पुस्तक पढ़ रहा था . ‘भगतसिंह और उनके मृत्युंजय पुरखे ‘जिसमें जेल में क़ी गयी उनकी तीस दिन लम्बी हड़ताल का लोमहर्षक वर्णन था.  घर से मनी आर्डर आने वाला था ,अब तक आ जाना चाहिए था, पर आया नहीं था.

तो मैंने सोचा भगतसिंह कर सकते थे तो मैं    क्यों नहीं कर सकता ?

तो शुरू हो गयी मेरी भूख हड़ताल !

दुसरे -तीसरे दिन भूख खूब लगी.खाने के ख्याल और सपने आते  रहे .उसके बाद भूख लगना बंद हो गयी.

शायद वह आठवां या नवां दिन था.मैं अपने कमरे में अधमरा पडा था .मेरे दोस्त कैलाश निगम को पता चला तो वह आया और मुझे जबरदस्ती साइकिल पर बैठाकर अपने घर ले गया. उसका घर जावरा में ही था. उसने खाना खिलाया. बहुत प्रेम से. ताकीद करते हुए क़ी आइन्दा खुद को कभी अकेला न समझूं और उसके होते भूखा न रहूँ. उसकी ममतामयी  माँ ने भी यही कहा.सर पर हाथ फेरा.

और हॉस्टल लौटकर मैंने उल्टी कर दी .

 

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आई.एन.एस.शिवाजी  एक बेहद सुरम्य स्थान था.बैरकों के पीछे  खेल का मैदान,आगे मेस,परेड ग्राउंड और ट्रेनिंग सेंटर जहाँ हमारी मरीन इन्गीनिअरिंग की कक्षाएं होती थीं ..फिर कई सारे वर्कशॉप और चारों तरफ घना जंगल और गहरी घाटियाँ दिन में ऊंचे फ्लेग मास्ट पर लगा भारतीय नौसेना का झंडा हममें एक अभय भाव संचारित करता था लेकिन रातें अँधेरी .भुतहा और डरावनी होती थीं नाईट  पेट्रोल की सीटियों के बावजूद इधर-उधर के सूने इलाकों में जाने क़ी कोई हिम्मत नहीं करता था.इसका एक कारण इलाके में घूमते जंगली जानवर भी थे–खासकर तेंदुए   जिनमें से दो को हमारा क्वार्टर मास्टर मार चुका था..

ट्रेनिंग सेंटर में एक बार भी था जो हम लोगों के ही लिए था लेकिन जहाँ सेलर्स का प्रवेश वर्जित था .सेलर्स भी  कई तो हमसे बहुत छोटे लेर्किन कई तो हमारी उम्र के ही थे .वे अँधेरा होने तक बार से सटे खेल के मैदान में फुटबोल खेलते रहते ,इस उम्मीद में कि हममें से कोई कभी अपना गिलास लेकर बाहर आ जाएगा और उसकी दारू चुपके से उनके मग्घे में ड़ाल देगा. कभी-कभी हम ऐसा कर भी देते थे. मेस भी हमारा अलग था और हमारे ही लिए था .मेस में हमें खाना  खिलाने के लिए सेलर्स की  ड्यूटी लगती थी जो बड़ी मजेदार अंग्रेजी बोलते थे .एक बार एक सेलर दही जैसा कुछ परोस रहा था .मैंने पुछा यह क्या है तो वह बगैर संकोच बोला “येस्तेर्देय्ज़  मिल्क टुडे  सर”

भारतीय नौसेना के सभी जहाजों और प्रशिक्षण केन्द्रों में खाने का मीनू एक समान था .बुधवार को लंच में मटन बिरियानी बनती थी और इतनी लाजवाब बनती थी कि खाते रह जाओ.आई.एन.एस.शिवाजी की  मटन बिरियानी पूरी नेवी में मशहूर थी .शुक्रवार को डिनर में मछली बनती थी. शनीवार  को डिनर में पराठे और रविवार को लंच में चिकन.बाकी दिन ब्रेड और मूंग की छिलके वाली दाल .पराठे एक बड़ी थाली के आकर के होते थे जिन पर ड्रम के डंके के आकर की एक कूंची से घी लगाकर सेका जाता था.ऐसे पराठों की थप्पी को एक ब्रेड काटनेवाली आरी से चार  भागों में काट दिया जाता था.हम में से कोई शूरवीर ऐसा नहीं था जो चार टुकड़े या पूरा एक पराठा खा पाता ब्रेड बनाने के लिए  बेकरी शिवाजी में ही थी.यह ब्रेड मैदा की  नहीं आटे क़ी होती थी.ताज़ा होती थी,साफ़-सुथरी होती थी और आसानी से हज़म हो जाती थी.

शिवाजी में एक “सिक बे”यानी डिस्पेंसरी  भी थी और एक सिनेमा होल भी था.सिनेमा हौल में ज़्यादातर अंग्रेजी पिक्चर आती थी.सिनेमा देखने के लिए चूंकि ऑफिसर्स के परिवार भी आते थे इसलिए हमें सेलर्स के साथ नीचे बैठना पड़ता  था और ऑफिसर्स ऊपर बालकनी में बैठते थे जहाँ हमारा प्रवेश वर्जित था. दरअसल हम अफसरों और जवानों के बीच में थे.न अफसर न जवान. हम थे जेसीओ.लेकिन दुनिया की  हर लड़ाई का इतिहास गवाह है कि युध्ध का सबसे अधिक अनुभव और असली नेतृत्व जेसीओ ही करते हैं और वे ही सबसे ज्यादा कुर्बानी देते हें .

नीचे बैठने में बुरा तो लगता था पर फिर हम इसके अभ्यस्त हो गए. इस थिएटर में मैंने अंग्रेजी क़ी अनेक क्लासिकल फ़िल्में देखीं और मर्लिन मुनरो,सोफिया लोरेन,औदरी हेपबर्न, जीना लोला ब्रिगेदा ,सांद्रा ड़ी ,रेक्स  हेरिसन,चार्ल्सटन हेस्टन ,ओमर शरीफ, एलिज़ाबेथ टेलर ,मर्लिन ब्रांडो, शर्ली मक्लीन आदि अभिनेता-अभिनेत्रियों से परिचित हुआ.

शिवाजी में एक जेल भी थी जहाँ अपराधियों को रखा जाता था और बेशक  उन्हें पकड़ने के लिए पुलिस भी थी .

हफ्ते में दो बार सेरेमोनिअल परेड होती थी जिसमें हमें युनिफोर्म  नंबर १० यानि टुनिक वगैरह पहनना पड़ती थी परेड क़ी शुरूआत कप्तान के इंस्पेक्शन के साथ होती थी जो स्लो मार्च क़ी धुन पर होता था और इस दौरान हमें पच्चीस मिनिट के करीब सावधान की मुद्रा में खड़े रहना पड़ता था .शुरू-शुरूमें दो-चार बन्दे गश खाकर गिर भी पड़े ,लेकिन फिर आदत पड गयी.में तो इस दौरान सामने दिखाई देते अत्यंत सुहाने प्राकृतिक दृश्य देखता रहता था और मन ही मन हिंदी की प्रेम कविताएं गुनगुनाता रहता था.

शिवाजी में एक बेन्ड भी था. बैंडमास्टर हमारे ही मेस  में खाना खाते थे.उनसे एक बार् मैंने  पुछा  कि आप हिंदी के गाने यानी प्रयाण गीत यानी मार्चिंग सोंग क्यों नहीं बजाते ?इस पर उनहोंने मुझे सात-आठ गैर  फ़िल्मी गाने गिना दिए  जो वे बजाते थे ,सिर्फ धुन सुनकर में पहचान नहीं पाता था .उनके बताने पर एक तो पहचानने लगा–कदम कदम बढाए जा –जो आज़ाद हिंद फ़ौज का मार्चिंग सोंग था.संगीत में मेरी रूचि देखकर ‘मास्टर’ ने मुझे प्रेक्टिस में आने को तो नहीं कहा ,शायद वह कह भी नहीं सकते थे -लेकिन जब भी प्रक्टिस चल रही होती और में उधर से गुज़रता वह मुझे देखकर सर उठाकर नज़रें मिलाते  थे और मुस्कराते थे .बैंड वाला भी कहीं  न कहीं  एक कलाकार होता है  और शैदाई की क़द्र करना जानता  है. में मास्टर  से पूछना चाहता था कि धुनों के नोटेशोंस कौन लिखता है.बजानेवाला पढ़-पढ़कर बजता है या बजाते-बजाते उसे याद हो जाता है.और कि जब नोटेशोंस सामने हैं तो फिर मास्टर बेटन क्यों हिलाता है ?इसका क्या मतलब है?और वैसे भी बजानेवाले उसकी तरफ देखते ही कहाँ हैं ?लेकिन मास्टर से दोस्ती हो पाती इससे पहले ही एक दिन शाम की  चाय के समय छोटी-मोटी बिदाई पार्टी जैसी हो गयी .मास्टर भारतीय नौसेना से सेवा निवृत्त होकर चले गए .

कोई साल भर बाद वह मुझे बम्बई के गेलोर्ड होटल में घुसते दिखाई दिए .चेहरा काला पड गया था,आँखों के नीचे थैलियाँ झूल रही थीं और सुबह के नौ बजे  भी उनके मुंह से शराब की  बदबू आ रही थी.पता चला उन्हें गेलोर्ड के बैंड में क्लेरेनेट बजने का काम मिल गया है.मैंने उनके बूढ़े लेकिन दमदार फेफड़ों को सलाम किया.कला रसिकों के लिए विनोद या मनोरंजन सही,कलाकार के लिए तो हाड़तोड़ मेहनत और जानलेवा मशक्कत ही है.

 

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नेवी में भर्ती के लिए आते समय मैं घरवालों को कुछ बताकर नहीं आया था इसलिए जैसे ही मेरी चिट्ठी और नेवी की  वर्दी वाली तस्वीर मिली,मेरी माँ तो फूट-फूटकर रोने लगी.दरवाजे पर पड़ोसनें  इकठ्ठा होकर ताक-झांक  करने लगीं …क्या हुआ…कोई गुज़र गया क्या ??जिसके घर में दो लड़के और उनसे छोटी छह लड़कियां हों  और जहाँ की  आर्थिक स्थिति  ऐसी हो  कि पांच का नोट इधर-उधर हो जाने पर तीन दिन कलेस मचा रहता हो, वहां बड़े बेटे का बगैर किसी को कुछ बताए फ़ौज में  चले जाना किसी सदमे से कम नहीं. होती होगी बहुत अच्छी नेवी की  नौकरी -मेरे परिवार को पड़ता नहीं खाता था .घर के बड़े बेटे क़ी निरंतर दस साल तक अनुपस्थिति मेरा परिवार बर्दाश्त नहीं कर सकता था .इस किस्म की कुर्बानी उनके बस की नहीं थी .पिताजी रेलवे में क्लर्क थे .खादी का कुरता-पजामा पहनते थे और रोज़ साईकिल चलाकर आठ किलोमीटर दूर ऑफिस जाते थे उन्हें और कुछ नहीं सूझा तो उनहोंने आई.एन.एस.शिवाजी के पते पर अपने मरने का तार भेज दिया.’जगत नारायण भटनागर एक्सपायर्ड ……एक बार लड़का आ जाए…फिर देखेंगे. वापस ही नहीं भेजेंगे.  करने दो क्या करते  हें वो लोग !

मुझे खबर मिली कि घर से ऐसा-ऐसा तार आया है  तो सबसे पहले तो मुझे गुस्सा आया .नेवी ज्वाइन करने का निर्णय मेरा था .कोई मुझे जबरदस्ती  पकड़कर नहीं लाया था.फिर मेरे निर्णय का सम्मान करने क़ी  बजाय  झूठे टेलीग्राम भेजकर यहाँ सबके सामने मेरी हंसी उडवाने का क्या मतलब है ?फिर कुछ गुस्सा ठंडा हुआ तो ख्याल आया–कहीं ये टेलीग्राम सच्चा हुआ तो ?और मेरे दिमाग में तरह-तरह के भयानक दृश्य घूमने लगे.पिताजी की लाश पड़ी है. टिकटी बांधी जा रही है. पांच-छह औरतें मिलकर मेरी रोती हुई माँ की चूडीयां पत्थेर से   तोड़ रही हैं. छोटी बहनों को पडोसी अपने घर ले गए हैं  और कुछ खिलाने-पिलाने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन वे गुमसुम हें और मुंह ही नहीं खोल रहीं हैं  मेरे छोटे भाई के बाल उतर लिए गए हें और एक  धोती पहनाकर उसके हाथ में एक धुँनाती मटकी का छींका पकड़ा दिया गया है ताऊजी एक आदमी के साथ पिताजी की साईकिल अपने घर भिजवा रहे हैं ……वगैरह …नतीजा यह हुआ क़ी आधे घंटे कमांडर के ऑफिस के बाहर  प्रतीक्षा करवाने के बाद अंततः जब मुझे उनके सामने पेश किया गया ..तो भीतर जाते ही मैं फूट-फूटकर रो पड़ा.

बूढ़े कमांडर पर इसका कोई असर नहीं पड़ा .उनहोंने सर उठाकर मुझे देखा तक नहीं. चुपचाप चांदी क़ी नन्ही सी करछुल से अपना चुरुट खुरच कर साफ़ करते रहे .फिर उनहोंने घंटी बजाकर  अपने स्टेनो को बुलाया  और बोले अजमेर एसपी को टेलीग्राम दो –कन्फर्म द डेथ ऑफ़  जगत नारायण भटनागर .ज़ाहिर-सी बात है कि चौबीस घंटे में बात साफ़ हो गयी .ये लोग शायद बीसियों बार ऐसी हरकतें देख चुके होंगे .

संभव था झूठा तार मंगाने के जुर्म में मुझे सजा मिलती -ताकि दूसरों को भी  सबक मिले-लेकिन नेवी में इन्गीनिअरो  का यह पहला बेच था -इसलिए मुझे माफ़ कर दिया गया .

 

जो कहा नहीं गया-४

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प्रशिक्षण के दौरान हमें जहाज के सञ्चालन और रख-रखाव के बारे में पढे जाता था .सरे जहाज एक जैसे नहीं होते. और उस समय तक तो भारतीय नौसेना में भाप से चलने वाले जहाज भी थे .जहाज के निचले हिस्से में उसका इंजिन रूम होता है और उसमें होते हैं बोयलर,टरबईन ,पम्प,प्रोपेलर  वगैरह .एक पूरा बड़ा होंल..बीसियों किस्म के संयंत्रों से ठसाठस भरा हुआ और असंख्य पाइप लाइनों के संजाल में उलझा हुआ.स्टीम शिप्स का इंजिन रूम इतना गर्म हो जाता है  कि पांच मिनिट भीतर रहकर बहार निकलो और बोयलर सूट उतारकर निचोड़ो तो आधी बाल्टी भर जाए .बगैर हाह में जूट रखे तो किसी नसेनी को हाथ नहीं लगा सकते .

लेकिन मुझे सबसे ज्यादा मज़ा आता था एनबीसी ड़ी में. नुक्लीयर ,बायोलोजिकल केमिकल डिसट्रक शन एंड डेमेज कंट्रोल म.इसमें हमें समुद्री युध्ध की फ़िल्में दिखाई जाती थीं .फिल्मों में समुद्र एक भयानक दैत्य जैसा लगता था और जहाज उसमें थपेड़े खाती -तैरती एक माचिस की डिबिया. सोचने से डर लगता था कि उनमें पच्चीस-पचास नौसैनिक भी होंगे जिन्हें कई -कई रोज़ इन्हीं पछाड़ें खाती विकराल लहरों के बीच फंसे जहाज पर रहना है और जिन्हें महीने-महीने भर ज़मीन के दर्शन नहीं होने हैं जहाज कि हस्ती समुद्र के आगे उतनी भी नहीं जितनी कमरे मं मक्खी की. कोस्ट लाइनर लक्ज़री शिप्स फिर भी मनुष्यों के तैरते  रहवास जैसे लगते हैं  लेकिन लड़की जहाज !!उनकी बात बिलकुल अलग होती है.

व्यवहारिक प्रशिक्षण के लिए शिवाजी में लोहे का एक ओवर हेड टेंक था जिसके नीचे एक के ऊपर एक लोहे के तीन बंद कमरे थे.हमारे बेच को एक दिन तीन हिस्सों में बाँट दिया गया और एक-एक हिस्से को एक-एक कमरे में बंद कर दिया गया.इसके बाद एक वोल्व खोल दिया गया .वोल्व खोलते ही हमारे अँधेरे बंद कमरों की दीवारों में जगह जगह ,ऊपर-नीचे छोटे-बड़े छेद .दरारें और संध बन गयीं जिनसे पानी की छोटी-बड़ी धाराएँ  पूरी ताकत से भीतर आने लगीं. कमरों में पानी भरने और चढ़ने लगा. हम में से आधे तो चकित थे और शेष आधे विमूढ़ .किसी को समाख में नहीं आ रहा था कि जो हुआ वह का है और अब क्या किया जाए. कोई बताने वाला भी नहीं था. कमरों में बीसियों लकड़ी के टुकड़े -कुन्दे और हथोडी-हथोड़े-घन और चेनियाँ पड़ी थीं .आखी किसी को सूझा कि जहाज में तारपीडो लग गया है.भीतर पानी आ रहा है,यदि जल्द से जल्द इन छेदों को बंद नहीं किया गया तो जहाज डूब जाएगा. जहाज का सिद्धांत है कि अगर एक तरफ गोला लग गया है  और पानी भर रहा है तो उस कम्पार्टमेंट को वाटर टाईट दरवाज़े से बंद कर दो और पानी भरने दो –ठीक दोसरी तरफ का भी एक कम्पार्टमेंट बंद कर दो  आयर उसमें पानी भर दो .इससे जहाज का संतुलन बना रहेगा और सारे जहाज में पानी भी नहीं भरेगा.

पता नहीं क्या बात थी कि हमें दिया गया समय समाप्त हो गया और हमसे एक भी छेद बंद नहीं किया गया .इस परीक्षा में हम सब फेल हो गए.बाद में पता चला कि कोई कुन्दा ऐसा था ही नहीं जो किसी छेद में फिट आये  और ठोके जाने पर उसे बंद कर दे .प्रशिक्षण इस बात का दिया जा रहा था कि अगर कभी ऐसी नौबत आई तो हम अपना आपा न खोएं ,बदहवास न हों, दिमाग ठंडा रखें.

बाद में व्यावहारिक प्रशिक्षण के लिए हमें वास्तविक जहाज़ों पर भी ले जाया गया .भारतीय नौसेना के जहाज़ों के नाम  बड़े मजेदार हैं –गंगा ,गोमती,गोदावरी …तीर,त्रिशूल,तलवार …खुकरी, किरपान, कटार….ब्यास, बेतवा,ब्रह्मपुत्र  वगैरह .और सबका राजा..नेवी क़ी शान  भारत का गुमान..एयर क्राफ्ट करियर आई.एन.एस. विक्रांत.वह तो एक चलता-फिरता शहर है जिस पर जाकर आप खो जाओ.और जिस पर से  बाहर आने का मन ही न करे

 

जो कहा नहीं गया-5

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खंडाला की बरसात इस कदर दर्शनीय होती है कि बारिश के मौसम में झुण्ड के झुण्ड बम्बई-पूनावासी पिकनिक मनाने खंडाला आते हैं.

शिवाजी में अटूट  वर्षा थी. हफ़्तों सूरज नज़र नहीं आता था .बरसाती टोपी और गम बूट पहने बगैर हम बैरक से मेस तक नहीं जा पाते  थे जो कि सिर्फ पचास मीटर दूर था. बादल ,धुंध और कोहरे की वजह से दस फुट दूर की चीज़ भी नज़र नहीं आती थी.दरवाज़ा या खिड़की खुली छोड़ दो तो बादल के टुकड़े कमरे के भीतर आ जाते थे .बिस्तर और तकिया बुरी तरह सील गया था .कभी में सोचा करता था बरसात के मौसम में कम्बल या रजाई ओढ़कर बिस्तर में पड़े-पड़े जासूसी उपन्यास पढने में कैसा मज़ा आये .इस रोमांटिक ख्याल की यहाँ छुट्टी हो गयी कागज़ सीलकर घास हो गए. किताब पढ़ी तो जा सकती थी बशर्ते बीच में बादल का टुकड़ा न आ गया हो.लेकिन उसका पन्ना एक हाथ से पलता नहीं जा सकता था .इस अहर्निश अलसाने और पुराने फ़िल्मी गाने सुनने के माहौल में भी हमें रोज़ सुबह पांच ब्सजे ऊठकर दाढ़ी बनाना पड़ती थी.नहाने के लिए लाइन लगाना पड़ती थी ,तेज़ बारिश न हो रही हो तो पीटी के लिए भी जाना पड़ता था  और हालाँकि सेरेमोनिअल परेड बंद थी ,क्योंकि परेड ग्राउंड पर पानी भरा था .लेकिन सुबह से शाम तक मरीन इंजीनिअरिंग की उबाऊ और एकरस कक्षाएं तो थी ही.

इस मौसम में सचमुच कहीं बहार थी तो वह होती थी बार में.उन दिनों हर शाम बार खचाखच भरी रहती थी. पूरे हौल में शराब की गंध और सिगरेट का धुआँ भरा रहता था एक-एक टेबल पर आठ-आठ लोग बैठे रहते थे और कहीं शेरो-शायरी चल  रही है  कहीं लतीफे तो कहीं पुराने सेलिंग के किस्से to  कहीं पुराने  फ़िल्मी गाने भी.  इतनी रौनक तो रविवार कि सुबह बी नहीं होती थी जब बार में तंबोला होता था .में हैरान रह गया जब बार में मैंने कुछ बन्दों के मुंह से ग़ालिब और मेरे का ही नहीं जोक,मोमिन और ज़फर का भी कलाम सुना.में सोचता कहाँ-कहाँ से ,कैसे-कैसे लोग,क्या-क्या छोड़कर फ़ौज में आये हैं क्या आजीविका सचमुच इतनी बड़ी चीज़ होती है ?

 

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आखिर तीन महीने की बेहद लम्बी प्रतीक्षा के बाद आज़ाद का पत्र आया.आज़ाद का पत्र ?गुलाबसिंह का नहीं ??लेकिन कोई बात नहीं आज़ाद के पत्र में भी गुलाबसिंह के समाचार तो होंगे ही. और क्या पता…कागजों की तहों के बीच एक मुडा-तुड़ा कागज़ ऐसा भी निकल आये  जो दरअसल गुलाबसिंह का पत्र हो !!

यह एक बेहद मोटा लिफाफा था जिस पर टिकट ही टिकट  लगे थे   खोला तो अखबार के आकार के पांच पन्ने !!आगे-पीछे ठसाठस आज़ाद की लिखाई गोल-गोल और लहरदार. मेरी चिर  परिचित. चिर प्रिय .जिसमें वह सारी दुनिया की प्रिय कवितायेँ अपने मोटे रजिस्टर में टीपकर रखता है.आज़ाद का “अ”जैसे किसी स्प्रिंग को खोलकर खींच लिया गया हो ..

 

जो कहा नहीं गया-आठ

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एक बार मैं हफ्ते भर के लिए अपने शहर अजमेर जाकर  लौटा तो देखा कि मदन की खोली पर ताला लगा है.  आसपास पूछने पर पटा चला वह चार रोज़ के लिए आज ही पूना गया है .अब मैं कहाँ जाता ?. रात का समय था. मदन से संपर्क करने का कोई तरीका नहीं था .मैं ताला तोड़ सकता था लेकिन ऐसा करना मुझे ठीक नहीं लगा. बहन का घर मैं पहले ही छोड़ चुका था .जीजाजी रोज़ घर लौटने पर पूछते थे -“सो ?व्हेन  आर यूं सेलिंग ?” मैं कैसे उन्हें बताता कि मैंने “सी गोइंग ड्रायवर्स टिकट”परीक्षा पास नहीं की है  इसलिए मेरे लिए सेलिंग की कोई सम्भावना नहीं है .मैं ऐसे ही टाइम पास कर रहा हूँ वह चाहते थे मैं शीघ्र तय करूँ कि मैं जिंदगी मैं क्या करना चाहता हूँ  और उन्हें बताऊँ .वह मुझे दो बार बहुत बड़े-बड़े लोगों के पास ले भी गए जो कभी भी मुझे नौकरी दे सकते थे ,लेकिन वहां भी मैं ठीक से समझा नहीं पाया कि मैं आखिर चाहता क्या हूँ ?क्योंकि मैं खुद भी कहाँ जानता था ?बहन मेरे इस सचेत रूप से वरण किये गए फिट्मारेपन और लक्ष्य विहीनता से भीतर ही भीतर बहुत दुखी रहती थी .लेकिन समझ नहीं पाती थी  कि इस आत्महंता आवारगी के नशे से मुझे कैसे बाहर निकला जाए !

मैं अँधेरी रेलवे स्टेशन जाकर एक बेंच पर सो गया .सुबह देखेंगे. सोचेंगे. कल्याण में अपने शहर के एक दोस्त बृजमोहन भाई रहते हैं. वहां चले जायेंगे. बारह बजे चौकीदार ने डंडा  फटकारकर भगा दिया. मैं दूसरे प्लेटफार्म पर जाकर सो गया चार बजे वहां से भी भगा दिया गया. तो ट्रेन में घुसकर सो गया. सारी रात एक हाथ से अटेची सम्हालनी पड रही थी  और दूसरे मच्छर  इतने थे कि…..

दूसरे दिन वीटी स्टेशन चला गया.अटेची क्लोक रूम में जमा करा दी फिर वोटिंग रूम में जाकर नहा-धो लिया .रात में वहीँ सो गया .आधी रात को उठा दिया गया .मैंने देखा बाहर बरामदे में बहुत सारे लोग  अखबार बिछाकर सो रहे हैं और उन्हें कोई नहीं उठा रहा .तो तीसरे दिन मैंने भी ऐसा ही किया .

मदन आया तो बहुत नाराज़ हुआ कि मैंने ताला खींचकर तो देखा होता ! जोर से खींचने पर खुल जाता है .बेकार परेशान होता रहा या फिर ताडदेव में बंसल साहब के ऑफिस चला जाता तो मेरा फोन नंबर मिल जाता और अपनी बात हो जाती .बहरहाल !यह ताड़ना पर्व ज्यादा नहीं चला क्योंकि उसे पूना की कमसिन वेश्याओं के साथ अपने दुर्लभ अनुभवों के बारे में बताने की जल्दी  थी और दूसरे यह कि वह  खासे पैसे कमाकर लौटा था .हमने आंटी के अड्डे पर जाकर खूब मजे से नौटाक पी .इरानी होटल में पेट भरकर खाना खाया  और घर आकर सो गए.

००००

 

दिहाड़ी के कामों में खटते.अपनी परिभाषा की तलाश में धक्के खाते और नौटाक पीते-ईरानी होटल का खाना खाते मेरी पूरी जिंदगी फ़ना हो जाती,लेकिन मुझे पीलिया हो गया. फिर भी मैं काम करता रहा. घूमता फिरता रहा. नौटाक पीता रहा. ईरानी होटल की तंदूरी रोटी और पाये खाता रहा. नतीजा यह हुआ कि एक दिन बिस्तर पकड़ लिया.एक-दो  रोज़ की बात होती तो ठीक था, रोज़-रोज़ कोई काम छोड़कर मेरे पास बैठ जाएगा तो खायेगा क्या ?फिर यहाँ तो नौबत बिस्तर में टट्टी-पेशाब करने की आ गयी थी.

आखिर मेरी तबीयत ज़रा सुधारते ही  एक दिन चार-पांच दोस्तों ने मुझे टेक्सी में डाला,वीटी ले गए,मेरा टिकट खरीदा  और मुझे टांगाटोली  करके अजमेर जानेवाली गाडी में बिठा दिया.

गाड़ी ने सरकना शुरू किया तो सबने हाथ  हिलाकर टाटा किया और बारी-बारी से खिड़की के पास आकर हरेक ने भीगी आँखों से कहा –“वापस मत आना स्वयं प्रकाश ! !  00

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तुम अगर हो तो तुम्हारे होने की आवाज़ क्या हो- नवीन रांगियाल की कविताएँ

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मार तमाम लिखा जा रहा है फिर भी कुछ नया ताज़ा पढ़ने को मिल ही जाता है। नवीन रांगियाल की कविताओं, शैली ने बहुत प्रभावित किया। इंदौर निवासी इस कवि की कुछ कविताएँ आप भी पढ़िए- मॉडरेटर
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सारी दुनिया उसकी लिखी हुई एक साज़िश है
 
आमतौर पर मैं नहीं लिखता, लिखना चाहता भी नहीं, क्योंकि लिखने का एफ़र्ट मेरे दिन और रात दोनों को बर्बाद कर देता है।
 
मैं कई घण्टों तक या दिनों तक लिखने के बारे में सोचता रहता हूँ, प्रतीक्षा करते रहता हूँ- और फिर एक दिन लिखने के मेरे सारे एफर्ट मेरे जिंदा रहने के एफ़र्ट में गल जाते हैं। दुनिया में बने रहने की मेरी भूख में सड़कर नष्ट हो जाते हैं। ख़बरें अक्सर कविताओं का शिकार कर लेती हैं।
 
फिर एक शाम मैं अपनी बंधी हुई रूटीन जिंदगी में धकेल दिया जाता हूँ। लिखने की जुगत को भुलाकर, बेलिहाज़ होकर सो जाता हूँ। यह सोचकर कि अब कई महीनों तक लिखने की नाकामयाब कोशिशों से बचा रहूंगा। अब कुछ दिन या हफ्तों तक लिखने और नहीं लिख पाने के बीच की अवस्था से मिलने वाली यातना नहीं भोगना पड़ेगी मुझे। लिखने की प्रतीक्षा नहीं करना होगी।
 
फिर किसी रात जब मैं नींद की आखिरी तह में डूब चुका होता हूँ, जब करवट के लिए भी कहीं कोई जगह नहीं बची होती है। ठीक उसी वक़्त, आधी रात को कोई अज्ञात अंधेरी गहरी सुरंग चाबुक मारकर मुझे जगा देती हैं। शब्दों का एक पूरा बाज़ार मेरी आत्मा को लालच में लपेट लेता है। फिर भी, मैं नींद में उन अक्षरों, वाक्यों के सिरे पकड़कर सिरहाने में दबोच कर रखे रखता हूँ। सोचता हूँ, बाद में इत्मिनान से किसी ख़ास गोश्त की तरह बचाकर खाऊंगा। मैं नहीं जागूँगा। मैं कोशिश करता हूँ नहीं उठने की। लेकिन शब्दों का एक जादुई सिरा मेरी नींद को मरोड़कर बिस्तर पर ही उसका गला घोंट देता हैं। पूरी रात का दम घुट जाता है। इसके बाद मेरी नींद एक बहुत ही खूबसूरत भूरे कबूतर में तब्दील हो जाती है। मेरी रात एक सफेद कागज़ का टुकड़ा बन जाती है। उस कागज के टुकड़े पर मैं एक किताब की तरह हो जाना चाहता हूं। एक कविता बनकर बिखर जाना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि इस रात में एक बोझिल सा निबंध बन जाऊं। या कभी न खत्म होने वाला एक घोर धीमा, ठहरा हुआ और लंबा नॉवेल।
 
फिर सोचता हूँ।
 
कृष्णबलदेव वैद अभी क्या लिख रहे होंगे।
निर्मल वर्मा होते तो क्या लिखते।
काफ़्का अपने कॉफ़िन में क्या सोच रहा होगा।
अल्बेर कामू अपनी कब्र में क्या कर रहा होगा।
जिन सिमेट्रियों में दुनिया के लेखक मरे दफ़्न पड़े हैं, वहां क्या आलम होगा।
 
क्या लेखकों को उनकी मृत्यु के बाद भी लिखने और नहीं लिखने के बीच का अभिशाप भोगते रहना पड़ता है। -या उन्हें इससे निज़ात मिलती होगी। या नहीं लिख पाने का अभिशाप मृत्यु के बाद भी जारी रहता है।
 
इस आधी रात की नींद को धक्का मारकर मैं गहरी खाई में पटक देता हूँ। मैं एक ऐसे घोड़े पर चढ़ जाता हूँ जो मुझे मेरी महबूबा के पास पहुंचाएगा।
मैं देखता हूँ कि यहां पहले से सबकुछ लिखा हुआ है
सुबह- सुबह कुछ दुकानदार गुलाब के फूल लिख रहे हैं। मोगरा और चमेली लिख रहे हैं
कुछ लोग जाने के लिए रास्तें लिख रहे हैं
कुछ लौटना लिख रहे हैं
रात अंधेरा लिख रही
झींगुर आवाजें
कमरे नींद और करवटे लिखते हैं
दोपहरें उबासियाँ लिखती हैं
औरतें मसालों का छौंक लिखती हैं
बच्चे स्कूल लिखते हैं
अख़बार हत्याएं लिख रहे हैं
अंधेरा अपराध लिखता है
चौकीदार ऊंघ रहे हैं
 
कुछ अस्पताल सायरन लिख रहे
चारदीवारी चीखें लिखती हैं
देवता आधी रात को आँखें फाड़कर जाग रहे हैं
 
हाथ लकीरें लिख रहे
उंगलियाँ की- बोर्ड लिखती हैं
 
मन अतीत
आँखें प्रतीक्षा लिखती हैं
 
दिल प्रेम
देह नष्ट होना लिखती है
 
होंठ प्रार्थनाएँ लिखते
उम्र मृत्यु लिख रही है
 
मंदिर धूप- बत्ती
मज़ारे इत्र- खुश्बू लिख रही हैं
 
मैं देखता हूं कि ईश्वर दफ़ा 302 के अपराध में बंद है
उसे आजीवन कारावास है
 
अधिकतर ख़ुदाओं को दुनिया की कैद हो गई है
मैं यहाँ उसकी याद लिख रहा हूँ
वो वहाँ आँखों में सुबह काजल
शाम को नमी लिख रही होगी
 
मैं देखता हूँ कि मेरी ज़मानत मुश्किल है
सारी दुनिया उसकी लिखी हुई एक साज़िश है
– नवीन रांगियाल
……………………………………………………………………………………
 
1. तुम्हारे होने की आवाज़ क्या हो
 
पत्थर दुनिया की सबसे ईमानदार स्थिति
नींद सबसे धोखेबाज़ सुख
 
तुम मेरी सबसे लंबी प्रतीक्षा
मैं तुम्हारी सबसे अंतिम दृष्टि
मौत सबसे ठंडी लपट।
 
रात सबसे गहरा साथ
छतें सबसे अकेली प्रेमिकाएं
 
पहाड़ बारिशों के लिए रोए
तो रोने की आवाज़ क्या हो
मैं हूँ तो मेरा होना क्या हो
तुम अगर हो तो तुम्हारे होने की आवाज़ क्या हो।
 
……………………………………………………….
 
2. किसी अज्ञात सुर की तलाश में
 
 
कानों मे पिघलने लगती है ध्वनियाँ
तबला… तानपुरा…
बिलखने लगते है कई घराने
साधते रहे जो सुरों को उम्रभर
 
 
मै गुज़ार देता हूँ सारे पहर इन्टरनेट पर
और डाउनलोड कर लेता हूँ कई राग
 
भैरवी
आसावरी
खमाज
 
साँस बस चल रही है
मैं ख़याल और ठुमरी जी रहा हूँ
 
कबीर हो जाता हूँ कभी
कुमार गन्धर्व आ जाते हैं जब
“उड़ जायेगा हंस अकेला
जग दर्शन का मैला “
 
ख़याल फूटकर तड़पने लगता है
बनारस की सडकों पर
पंडित छन्नूलाल मिश्र
“मोरे बलमा अजहूँ न आए “
छलक पड़ती है ग़ज़ल
 
रिसने लगती है कानों से
“रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ”
यह अलग बात है कि तुम अभी भी
वेंटिलेटर पर सुर साध रहे हो मेहदी हसन।
 
गन्धर्व का घराना भटकता है सडकों पर
देवास
भोपाल
होशंगाबाद
मुकुल शिवपुत्र
किसी अज्ञात सुर की तलाश में
इस बेसुरी भीड़ के बीच …
……………………………………………….
3. इश्क़ में कौन मरता है!
 
धरमपेठ के अपने सौदें हैं
भीड़ के सर पर खड़ी रहती है सीताबर्डी
कहीं अदृश्य है
रामदास की पेठ
बगैर आवाज के रेंगता है
शहीद गोवारी पुल
अपनी ही चालबाज़ियों में
ज़ब्त हैं इसकी सड़कें
धूप अपनी जगह छोड़कर
अंधेरों में घिर जाती हैं
घरों से चिपकी हैं उदास खिड़कियाँ
यहां छतों पर कोई नहीं आता
ख़ाली आँखों से
ख़ुद को घूरता है शहर
उमस से चिपचिपाए
चोरी के चुंबन
अंबाझरी के हिस्से हैं
यहाँ कोई मरता नहीं
डूबकर इश्क़ में
दीवारों से सटकर खड़े साये
खरोंच कर सिमेट्री पर नाम लिख देते हैं
जैस्मिन विल बी योर्स
ऑलवेज़
एंड फ़ॉरएवर …
दफ़न मुर्दे मुस्कुरा देते हैं
मन ही मन
खिल रहा वो दृश्य था
जो मिट रहा वो शरीर
अँधेरा घुल जाता है बाग़ में
और हवा दुपट्टों के खिलाफ बहती है
एक गंध सी फ़ैल जाती हैं
लड़कियों के जिस्म से सस्ते डियोज़ की
इस शहर का सारा प्रेम
सरक जाता है सेमिनरी हिल्स की तरफ़।
…………………………………………………..
4. सुसाइड नोट
 
एक सुसाइड नोट
हवा में उड़ रहा है
थ्रिल में बदलकर
एक कविता बनकर
क्या टेम्पटेशन है
आत्महत्या का एक नोट
पढ़ना चाहते हैं
जिसे सब छूना चाहते हैं
जिस पर लिख गया है
समबडी शुड बी देअर
टू हैंडल ड्यूटीज़ ऑफ़ माय फ़ैमिली
आई एम लीविंग
टू मच स्ट्रैस्ड आउट
फ़ेडअप!
 
…………………………………………………..
5. पहाड़गंज
 
अपनी दिल्ली छोड़कर
मेरी सुरंगों में चले आते हो
पहाड़गंज तुम।
मैं इन रातों में
आँखों से सुनता हूँ तुम्हे
मरे हुए आदमी की तरह।
ट्रेनें चीखती हैं तुम्हारी हंसी में
मैं अपनी नींद में जागता हूँ।
मेरे सपनों में तुम उतने ही बड़े हो
जितने बड़े ये पहाड़ हमारे दुखों के।
मैं देखता हूँ
तुम्हारी कमर की लापरवाहियां
और उस शहर के रास्ते
जिसके पानी पर चलते – चलते
थक गए थे हम।
मैं एक सांस खींच लेता हूँ तुम्हारी
जीने के लिए।
कमरें सूंघता हूँ होटल के
उस गली में
धुआं पीता हूँ तुम्हारे सीने से
मैं भूलना चाहता हूँ
तुम्हारी दिल्ली और अपना पहाड़गंज
जिसके नवंबर में
तुम्हारे होठों की चिपचिपी आग से
सिगरेट जला ली थी मैंने।
तुम धूप ठंडी करते थे मेरी आँखों में
मैं गुलमोहर के फूल उगाता था तुम्हारे हाथों में।
……………………………………………………………………
6. नमक पर इतना यक़ीन ठीक नहीं
 
निश्चित नहीं है होना
होने का अर्थ ही है- एक दिन नहीं होना
लेकिन तुम बाज़ नहीं आते
अपनी जीने की आदत से
 
शताब्दियों से इच्छा रही है तुम्हारी
यहाँ बस जाने की
यहीं इसी जगह
इस टेम्पररी कम्पार्टमेंट में
 
तुम डिब्बों में घर बसाते हो
मुझे घर भी परमानेंट नहीं लगते
 
रोटी, दाल, चावल
चटनी, अचार, पापड़
इन सब पर भरोसा है तुम्हे
 
मैं अपनी भूख के सहारे जिंदा हूँ
 
देह में कीड़े नहीं पड़ेंगे
नमक पर इतना यक़ीन ठीक नहीं
 
तुम्हारे पास शहर पहुंचने की गारंटी है
मैं अगले स्टेशन के लिए भी ना-उम्मीद हूँ
 
तुम अपने ऊपर
सनातन लादकर चल रहे हो
दहेज़ में मिला चांदी का गिलास
छोटी बाईसा का बाजूबंद
और होकम के कमर का कंदोरा
ये सब एसेट हैं तुम्हारी
मैं गमछे का बोझ सह नहीं पा रहा हूँ
 
ट्रेन की खिड़की से बाहर
सारी स्मृतियां
अंधेरे के उस पार
खेतों में जलती हैं
फसलों की तरह
 
मुझे जूतों के चोरी होने का डर नहीं लगता
इसलिए नंगे पैर हो जाना चाहता हूँ
 
सुनो,
एक बीज मंत्र है
सब के लिए
हम शिव को ढूंढने
नहीं जाएंगे कहीं
 
आत्मा को बुहारकर
पतंग बनाई जा सकती है
या कोई परिंदा
 
हालांकि टिकट तुम्हारी जेब में है
फिर भी एस-वन की 11 नम्बर सीट तुम्हारी नहीं
इसलिए तुम किसी भी
अँधेरे या अंजान प्लेटफॉर्म पर उतर सकते हो
 
नींद एक धोखेबाज सुख है
तुम्हारी दूरी मुझे जगा देती है
 
समुद्री सतह से एक हज़ार मीटर ऊपर
इस अँधेरे में
मेरा हासिल यही है
जिस वक़्त इस अंधेरी सुरंग से ट्रेन
गुज़र रही है
ठीक उसी वक़्त
वहां समंदर के किनारे
तुम्हारे बाल हवा में उलझ रहे होंगे
 
इस शाम की संवलाई चाँदनी
में बहता हुआ
तुम्हारे आँचल का एक छोर
भीग रहा होगा पानी में
 
डूबते सूरज की रोशनी में
तुम्हारी बाहों पर
खारे पानी की तहें जम आईं होगी
कुछ नमक
कुछ रेत के साथ
तुम चांदीपुर से लौट आई होगी
 
और इस
तरह
तुम्हारे बगैर
मेरी एक शाम और गुजर जायेगी ।
 
…………………………………………………………………………….
7. पेड़ कुल्हाड़ियों के तरफ़ होते हैं
जंगल समझते थे
पेड़ उन्हीं के होते हैं
असल में
पेड़ कुल्हाड़ियों के होते हैं
 
पेड़ समझते थे
उनके फूल-पत्ते होते हैं
और कलियाँ भी
दरअसल
उनकी सिर्फ आग होती है
सिर्फ ख़ाक होती है
 
अक्सर पेड़ खुद कुल्हाड़ियों की तरफ़ होते हैं
उनकी धार की तरफ़ होते हैं
 
जैसे आदमी, आदमी की तरफ़ होता है।
 
………………………………………..
8. अकथ नाम
 
 
मनुष्य जन्मता कुछ भी नहीं
मरता गांधी है
गोडसे और लोहिया मरता है कभी
 
इस बीच
कभी कभार
क, ख, ग, भी
 
बिगुचन का एक
पूरा संसार आदमी
 
मैं वही मरूँगा
जो रोया था
नवंबर में
एक प्रथम पहर
 
अकथ नाम
 
गांधी नहीं
लोहिया भी नहीं
क, ख, ग, तो कतई नहीं
 
या फिर
अंत तक
या अंत के बाद भी
उस पार
अपनी अंधेरी गली में
प्रतीक्षा करूँगा
स्वयं की।
 
 
 

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सौम्या बैजल की कहानी ‘ख़त’

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युवा लेखिका सौम्या बैजल की छोटी छोटी कहानियाँ और कविताएँ हम लोग पढ़ते रहे हैं। इस बार अरसे बाद उनकी कहानी आई है, छोटी सी प्रेम कहानी- मॉडरेटर

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ख़त

‘उस दिन जब तुमसे पहली बार मिली थी, तो यह नहीं सोचा था की इतने करीब हो जाएंगे। और आज जब जुदा होने की कगार पर बैठे हैं, तो ऐसा लगता है, की वक़्त यहीं रुक जाए। न वह मोड़ आये न पल। न मुझे कचोटते हमारे सच हों, जिन्हे मैं चाह कर भी झुठला नहीं सकती, न वह दायरे हों जो समाज की कठोरता को और सख्त बना देते हैं। बस एक ही रिश्ते का कुछ मोल हो, जो मैं ने महसूस किया है, हर उस पल में जिस में हम साथ थे। जहाँ ‘हम’ की गुंजाइश थी। जहाँ मैं ने मौके ढूंढे थे हमारे नाम साथ लेने के, जिस से मैं यह समझ पाऊं, की वह एक साथ कैसे सुनाई देते हैं। जहाँ और कोई नहीं था, बस एक सन्नाट्टा जिसमें मैं ने, तुम्हारे हाथ से टकरा टकरा कर, सब कुछ कह देना चाहा। क्योंकि जुबां से कह देना हमें हमारे बनाये दायरों से बाहर खींच लाता। उन सभी पलों में मेरी आँखें तुम्हे तब तक देखती थीं, जब तक तुम आँखों से ओझल न हो जाते थे, और फिर कुछ देर और वहीँ खड़ी रहती थी, यह सोच कर कि पलट के जब आओगे, तब भी कुछ बदलेगा नहीं। इन पलों को संभाल कर, सहेज कर उस तरह ले जाउंगी, जिस तरह जैसे हम दोनों ने यह दोस्ती समेटी है। लेकिन यादों का यही तो फायदा है। वह बदलती नहीं। सब कुछ बदल सकता है, तुम, मैं , हमारा यह रिश्ता, लेकिन वह बीते हुए पल नहीं। और वह नहीं, जो मैं ने तुम्हारे साथ बीते हर पल में महसूस किया। की हम एक इंसान हैं, जो बस बट गए हैं। और दूर हमें जाना ही है, क्युंकि हमारे आज, हमारे कल का फैसला कर चुके हैं।’

देव ने मीरा का यह ख़त उसी तरह पकड़ा हुआ था, जिस तरह इस समय वह मीरा का हाथ पकड़ना चाहता था। कल रात एयरपोर्ट पर जब मीरा ने उसे यह खत दिया था, उसकी आँखों की नमी, और उनका तेज वह भूल नहीं सकता था। मीरा, उसकी बेहद अज़ीज़ दोस्त, जिसकी मुस्कराहट से उसे बेहद सुकून मिलता था। वह चाहता था की मीरा की हर दिक्कत वह किसी भी तरह मिटा दे। मीरा खुद एक बेहद आज़ाद ख्याल वाली, सशक्त इंसान थी। जिसे किसी की ज़रुरत नहीं थी। वह रिश्तों को, लोगों को चुनती थी, और फिर उन रिश्तों को nourish करती थी। और उसकी यही बात, जिस तरह की वह इंसान थी, सशक्त भी, कठोर भी, निर्मल भी, सौम्य भी, और बिलकुल सच्ची, देव को बेहद पसंद थी। दोनों हर चीज़ के बारे में बात कर लिया करते थे, क्यूँकि दोनों की सोच एक जैसी थी, बस नजरिया कभी कभी अलग होता था। दोस्ती ऐसी, कि एक के मुँह से आधी निकली बात, शायद दूसरा बिलकुल उसी अंदाज़ से पूरा कर दे, जैसे पहले ने सोचा होगा।

देव समझ नहीं पा रहा था कि उसके मन में क्या चल रहा था। उसे ऐसा लग रहा था जैसे उसे अभी मीरा की ज़रुरत थी, उसके खुद को समझने के लिए। लेकिन मीरा वहां नहीं थी। देव यह बात स्वीकार कर चुका था कि मीरा को जाना था। वह जानता था की मीरा वह करने जा रही है जो उसकी तमन्ना थी, लेकिन फिर भी, मीरा को रोज़ न देख पाने का ग़म तो था ही। लेकिन इस पल से पहले, देव ने वह ग़म महसूस ही नहीं किया था। उसे लगा था की वह संभल जाएगा, मीरा यहाँ नहीं हुई तो क्या हुआ, बात-चीत तो चलेगी ही, लेकिन उसका अब वहां न होने का मतलब, इस समय देव को पूरी पूरी तरह समझ में आ रहा था। वह मीरा की गीली आँखों से जवाब माँगना चाहता था, उन सवालों के, जो उसने खुद से अभी किये भी नहीं थे। वह जानना चाहता था की आगे क्या? इस ख़त का भी वह क्या करे? मीरा के हाथ की गर्मी को उस ख़त में वह महसूस कर पा रहा था। आज से  पहले उसने मीरा का हाथ और बार क्यों नहीं थामा? क्यों नहीं पूछा उस से कभी भी, कि उसने उस से दोस्ती क्यों की? क्योँ नहीं जान ने की कोशिश की कभी की वह उसकी ज़िन्दगी में क्या था, और क्या बन रहा था? वह उस से क्या चाहती थी ? क्यों एक बार भी नहीं कहा उस से, या खुद से, कि वह उस से प्यार करता है? क्यों नहीं जताया वह प्यार कभी? शायद इसीलिए क्यूंकि वह जानता था, कि वह जानती है। जानती है की वह उस से प्यार करता है, देख लेती थी उसकी रोज़ कि आदतों में, पढ़ लेती थी उसके चेहरे पर। और यह भी समझती थी, की प्यार का भी एक दायरा नहीं होता। एक परिभाषा नहीं होती। तो क्या हुआ अगर वह साथ नहीं है, न हो सकते थे। उस से प्यार का क्या तालुक़ है? मीरा और देव दोनों बिना कहे अपने अंदर यह दायरे बना चुके थे। देव के दायरे समाज के दायरे थे और जज़्बाती भी। उसकी शादी जो १५ साल हो चुके थे, और वह मीरा से १०  साल बड़ा भी था। मीरा के दायरे सिर्फ जज़्बाती थे। वह देव कि ज़न्दगी में कोई परेशानी नहीं खड़ी करना चाहती थी। और रात का भी वह ख़त न सवाल कर रहा था, न कुछ मांग रहा था। उनकी इस गहरी दोस्ती की सच्चाई को आगे ले जा रहा था। वह वह सब कुछ बयान कर रही थी जो वह जानती थी की देव भी जानता था। और दोनों महसूस कर रहे थे। आज भी उस ख़त में उसने कुछ कहा नहीं था।

जज़्बातों को दायरों का खौफ नहीं होता। प्यार इजाज़त का मोहताज नहीं। और एक इंसान जब दो होते हैं, तो दर्द तो होता ही है।

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