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क्या मार्क्सवाद ने सचमुच हिंदी साहित्य का भारी नुक़सान कर दिया?

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हिंदी पत्रकारिता में दक्षिणपंथ की सबसे बौद्धिक आवाज़ों में एक अनंत विजय की किताब ‘मार्क्सवाद का अर्धसत्य’ ऐसे दौर में प्रकाशित हुई है जब 2019 के लोकसभा चुनावों में वामपंथी दलों की बहुत बुरी हार हुई है, वामपंथ के दो सबसे पुराने गढ़ केरल और पश्चिम बंगाल लगभग ढह चुके हैं। इस तरह की टिप्पणियाँ पढ़ने में रोज़ आ रही हैं कि यह वामपंथ का अंत है, वह अप्रासंगिक हो चुका है, आदि, आदि। लेकिन सवाल यह है कि क्या मार्क्सवादी विचारधारा को केवल चुनावी राजनीति में प्रदर्शन के आधार पर ही आकलन किया जाना चाहिए? क्या साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में मार्क्सवादियों के योगदान को नकारा जा सकता है?

इस किताब को पढ़ते हुए मेरे मन में यह सवाल इसलिए उठा क्योंकि यह किताब और इसके लेख एक तरह से साहित्य, संस्कृति और मार्क्सवाद को ही केंद्र में रखकर लिखे गए हैं। किताब की शुरुआती लेख में अनंत विजय जी ने ज़रूर किताबी हवालों का सहारा लेते हुए माओ और फ़िदेल कास्त्रो की उस विराट छवि को दरकाने की कोशिश की है जो उनको इतिहास पुरुषों के रूप में स्थापित करने वाली है। लेकिन किताब एक शेष लेखों में साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में मार्क्सवाद के अंतर्विरोधों को दिखाना लेखक का उद्देश्य लगता है।

इसके अलावा, किताब में अधिकतर लेख 2014 के बाद देश में बौद्धिक जमात के प्रतिरोधी क़दमों की आलोचना करते हुए लिखी गई, अवार्ड वापसी, धर्मनिरपेक्षता की बहाली के लिए अलग अलग मौक़े पर उठाए गए क़दम, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़े सवालों पर लेखक ने आलोचक रूख अख़्तियार किया है। लेखक यह सवाल उठाते हैं कि वामपंथियों ने आपातकाल के दौर में चुप्पी क्यों साधे रखी और 2014 के बाद के फूल छाप के दौर में उन वामपंथी लेखकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की याद बार बार क्यों आती रही? अब यह सवाल है कि क्या अतीत के तथाकथित पापों की याद दिलाने से वर्तमान के पाप सही साबित हो जाते हैं? क्या हिंदी के मार्क्सवादी लेखकों को महज़ इस बात के लिए याद रखा जाना चाहिए कि उन्होंने क्या नहीं किया? लेखक ने इस किताब में एक लेख में इस बात पर अफ़सोस जताया है कि लेखक अपनी सामाजिक भूमिका को भूलते जा रहे हैं। लेकिन जब समाज में ग़लत होने पर लेखक पुरस्कार वापस करने लगते हैं तो अनंत जी को उसमें सामाजिकता नहीं दिखाई देती है। यह बदला हुआ सांस्कृतिक माहौल है जिसमें कन्हैया कुमार नामक युवा की सामाजिकता देशद्रोह बताई जाती है और एक केंद्रीय मंत्री की ग़ैर ज़िम्मेदाराना टिप्पणियों को देशभक्ति का पर्याय माना जाता है। अगर आप यह समझना चाहते हैं कि 2014 के बाद से किस तरह से एक ख़ास तरह के सांस्कृतिक परिदृश्य के निर्माण की कोशिश की जा रही है, एक विचारधारा से जुड़ाव के नाम पर हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ को ख़ारिज कर कुछ ख़ास तरह के लेखकों को स्थापित करने की कोशिश की जा रही है तो इसके लिए आपको अनंत विजय की किताब ‘मार्क्सवाद का अर्धसत्य’ किताब ज़रूर पढ़नी चाहिए। मैं उस तरह के पाठकों में नहीं हूँ जो असहमत विचार के लोगों को नहीं पढ़कर अपने आपको ज्ञानी समझूँ, मैं असहमत लोगों को ध्यान से पढ़ता हूँ ताकि अपनी सहमति के बिंदुओं को लेकर और मज़बूत हो सकूँ।

मैं वामपंथी नहीं हूँ लेकिन हिंदी का एक लेखक हूँ और इस नाते क्या मैं स्वयं को प्रेमचंद, मुक्तिबोध से लेकर वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल की परम्परा से अलग कर सकता हूँ? या प्रसाद, अज्ञेय से लेकर धर्मवीर भारती से लेकर नरेंद्र कोहली तक के साहित्य को इसलिए अपनी परम्परा का हिस्सा नहीं मानना चाहिए क्योंकि ये लेखक वामपंथी नहीं थे। अगर हिंदी में वामपंथ के आधार को मिटाने की कोशिश की गई तो ईमान से कहता हूँ गीता प्रेस के ढाँचे के अलावा कुछ और नहीं बच जाएगा।

किताब में एक बहसतलब लेख वह भी है जिसमें लेखक ने बहस के इस बिंदु को उठाया है कि हिंदी में धर्म, आध्यात्म को विषय बनाकर लिखने वालों को हाशिए पर क्यों रखा गया? यह एक गम्भीर सवाल है लेकिन इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए महज़ नरेंद्र कोहली को ही नहीं रामकुमार भ्रमर को भी देखा जाना चाहिए या ‘वयं रक्षामः’  के लेखक आचार्य चतुरसेन को भी। नरेंद्र कोहली की रामकथा का मॉडल आचार्य चतुरसेन से कितना प्रभावित है इसके  ऊपर भी बहस होनी चाहिए। साहित्य में वामपंथ के अर्धसत्य से कम अर्धसत्य दक्षिणपंथ में भी नहीं हैं। आज कितने दक्षिणपंथी हैं जो गुरुदत्त को पढ़ते हैं?

ख़ैर लेखक विचार के आधार पर दक्षिणपंथ की जितनी आलोचना कर लें लेकिन इस किताब के अच्छे लेखों में वह लेख भी है जिसमें वह नामवर सिंह के अकेलेपन को लेकर दिए गए बयान के संदर्भ में हिंदी के अस्सी पार लेखकों के अकेलेपन की चर्चा करते हैं। संयोग से उनमें से अधिकतर लेखक अब इस संसार में नहीं हैं।

अनंत जी ने विजय मोहन सिंह के उस इंटरव्यू की भी अपने एक लेख में अच्छी ख़बर ली है जिसमें विजमोहन जी ने ‘रागदरबारी’ उपन्यास की आलोचना की थी और जनकवि नागार्जुन के संदर्भ में काका हाथरसी को याद किया था। अनंत जी की यह बात मुझे अच्छी लगती है कि तमाम वैचारिक असहमतियों के बावजूद उनके लेखन के केंद्र में हिंदी के वही लेखक या साहित्य है जिसको वामपंथी के नाम से जाना जाता है। उनकी लेखन शैली उनके लिए आलोचनात्मक ज़रूर है लेकिन उसमें छिपा हुआ एक प्यार भी है जो नामवर जी, राजेंद्र यादव जी, अशोक वाजपेयी जी आदि के प्रति दिखाई दे जाता है। वे ख़ारिज करने वाली शैली में नहीं लिखते बल्कि बहस करने की शैली में तर्क रखते हैं। आज दक्षिणपंथ को ऐसे तर्क करने वाले लेखकों की ज़रूरत है जो वाद विवाद संवाद की परंपरा को आगे बढ़ाए। ख़ारिज करने वाली कट्टर परंपरा का हासिल कुछ नहीं होता।

यह किताब बहुत से सवाल उठाती है। ज़ाहिर है उनमें से कुछ सवाल ऐसे ज़रूर हैं जिनको लेकर वामपंथी संगठनों, लेखकों को विचार करना चाहिए। किसी भी तरह की कट्टरता का हासिल कुछ नहीं होता। जड़ता से निकलने का रास्ता आलोचनाओं को स्वीकार करने से भी निकलता है।

किताब का प्रकाशन वाणी प्रकाशन ने किया है।

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राष्ट्रवाद के भारी बारिश की उम्मीद है

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आज यह व्यंग्य पढ़िए। लिखा है सेंट स्टीफेंस कॉलेज में इतिहास के विद्यार्थी उन्नयन चंद्र ने- मॉडरेटर

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भारत की लगभग 44 फ़ीसदी आबादी जल संकट से जूझ रही है. गर्मी में चापाकल सूख रहे है. टुल्लू पम्प में पानी ऐसे आ रहा है जैसे मोपेड एवरेस्ट पर चढ़ रहा हो. महाराष्ट्र और तमिलनाडु में पानी की किल्लत काफी व्यापक और ‘एक्यूट’ है. ऐसे में आम तौर पर ‘क्यूट’ और ‘कूल’ लोगों की दिल्ली में शोले भड़क आये है. कई लोगों ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि लोकसभा चुनाव के परिणामों के बाद दिल्ली में जल संकट और गहरा गया है. आम तौर पर सम-भाव की स्थिति में रहने वाले केजरीवाल ने ऐसी विषम परिस्थिति का सामना करने के लिए मफ़लर और टोपी का त्याग कर ‘सम-विषम’ योजना बनायी है. डीयू के मार्क्सवादी चिंतकों ने पानी के उपलब्धता के आधार पर दिल्ली की जनता को ‘प्रोलीतारीयेत’ और ‘बुर्जुआजी’ वर्ग में विभक्त कर दिया है और क्रांति की मांग की है. कन्हैया कुमार ने बेगुसराय में हार के लिए जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के उन लोगों को ज़िम्मेदार ठराया है जो मुफ्त का पानी पीने दिल्ली से बिहार आये थे. जल संकट की विषम परिस्थिति में नरेन्द्र मोदी ने इजराइल, फिलिस्तीन, सऊदी अरब, इराक और ईरान जैसे देशों से मदद माँगी है. इन देशों के साथ हमारे मित्रवत संबधों और प्रधान-मंत्री की सूझ-बुझ की व्याख्या करते हुए देश के नामी समाचार चैनलों ने विपक्ष की कटु आलोचना की है. वहीँ अमेरिका द्वारा किसी भी तरह के सहायता से इंकार की बात की राजनाथ सिंह ने भरपूर निंदा और आलोचना की है. विपक्ष को निकम्मा बताते हुए पत्रकारों ने कांग्रेस को गाँधी के नमक आन्दोलन की याद दिलाई है और पार्टी को जल-समाधि लेने का सुझाव दिया है. पार्टी ने जल की किल्लत को देखते हुए समाधि के विचार को अनिश्चितकाल के लिए टाल दिया है. ठीक वैसे ही जैसे अध्यक्ष पद पर लोकतांत्रिक तरीके से कराये जाने वाले चुनाव को. राहुल गाँधी ने कमज़ोर मॉनसून से होने वाली आम के उत्पादन में कमी पर चिंता व्यक्त करते हुए इटली और थाईलैंड में पाए जाने वाले आम के पेड़ों को देश में लगाने की सलाह दी है. राहुल गाँधी आम और लीची के कम उत्पादन की बात सुन कर खासे दुखी नज़र आये. सरकार के एक मृदुभाषी मंत्री ने इसके लिए नेहरु को जिम्मेदार ठहराया है क्यूंकि देश के पहले प्रधान-मंत्री ने पूरे देश में डैम नहीं बनवाया. दूसरे अल्पभाषी मंत्री ने उन लोगों को पाकिस्तान जाने की सलाह दी है बिहार और उत्तर प्रदेश का पानी पी के लाहौर की मिटटी की खुशबू को भुला नहीं पाए है. गंगा के पानी से  वुज़ू करने वाले लोगों पर टैक्स लगाने की भी बात उठाई गयी है.

केजरीवाल ने दिल्ली में पानी के इस्तेमाल में औड-इवन फार्मूला अपनाने की बात की है. उन्होने यह घोषणा की है कि पुरुष केवल सोमवार, गुरुवार और रविवार को स्नान कर सकते है. महिलाएं केवल मंगल, बुध एवम शुक्रवार को. बच्चे शानिवार को नहा सकते है और भैंस एवम अन्य पशु  केवल रात में नहा सकती है. भाजपा ने केजरीवाल पर भेद भाव का आरोप लगाते हुए गाय की महत्ता को ‘इगनोर’ करने की बात कही है. केजरीवाल ने योजना के अनुसार दिल्ली के सभी बाथरूम में सिसीटीवी कैमरे लगाने की बात की है. केजरीवाल ने धमकी देते हुए कहा की इस बार  अगर केंद्र सरकार ने कोई अड़चन पैदा की तो वह ‘दिल्ली जल बोर्ड’ के टंकी में जल मग्न हो कर धरना देंगे.

 केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री ने ज्योतिष के सहारे जल संकट के निदान की बात की है. पूरे देश का वातावरण यज्ञ हवन से सुगन्धित हो गया है. जल संकट के मध्य नज़र विश्व कप के मैच में इंग्लैंड में मैदान पर पानी के इस्तेमाल को मायावती और राबड़ी देवी ने गलत बताया है और अँगरेज़ से पुराने पानी का हिसाब माँगा है. इसी दौरान विराट कोहली से पूछे जाने पर उन्होने अपने ‘700’ प्रति लीटर वाले पानी का बोतल दिखा कर दिल जीत लिया. नम आँखों से कोहली ने कहा की वे तो शुरू से ही विदेश से पानी मनवाते रहे है ताकि देश का पानी बचे. इस निश्चल देशप्रेम की बात को सुन कर आम लोगों की आँखें भर आई जिस से राष्ट्रवाद के भारी बारिश की उम्मीद है. सरकार ने बाकि कार्यों को रोकते हुए आपदा प्रबंधन विभाग को ‘हाई अलर्ट’ पर रहने का आदेश दिया है.

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लेखक सम्पर्क:

unnayanchandraa@gmail.com

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‘क्या अब भी प्यार है मुझसे?’का एक अंश

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अंग्रेज़ी के लोकप्रिय लेखक रविंदर सिंह अपने हर उपन्यास में समाज की किसी समस्या को उठाते हैं और उसी के बीच उनकी प्रेम कहानी चलती है। उनके उपन्यास ‘will you still love me?’ में सड़क दुर्घटना को विषय बनाया गया है ताकि युवाओं में सड़क दुर्घटनाओं को लेकर जागरूकता पैदा हो सके। दो अलग अलग परिवेश के किरदारों की प्रेम कहानी तो है ही। इस उपन्यास का हिंदी अनुवाद ‘क्या अब भी प्यार है मुझसे?’ नाम से प्रकाशित हुआ है। प्रकाशन पेंगुइन बुक्स ने किया है। अनुवाद मैंने किया है- प्रभात रंजन

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दो नौजवान, जिनमें एक की 30 से आसपास है और दूसरे की 30 से कुछ अधिक, पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ के गलियारे में टहल रहे हैं। उनके पहनावे-ओढ़ावे से यह साफ लगता है कि दोनों अलग-अलग सामाजिक पृष्ठभूमियों से आए हैं। दोनों में जो कम उम्र का है उसने ब्रांडेड कपड़े पहन रखे हैं, जबकि बड़ी उम्र वाला नौजवान साधारण परिवार का लग रहा है। दोनों एक दूसरे के साथ बहुत सहज लग रहे हैं और दोनों एक साथ कॉलेज ऑडिटोरियम में प्रवेश कर जाते हैं।
यूनिवर्सिटी की तरफ से सड़क सुरक्षा सप्ताह मनाया जा रहा है। फर्स्ट ईयर के विद्यार्थी वहां उन दो लोगों की परिचर्चा सुनने के लिए जुटे हुए हैं। असल में विद्यार्थी वहां होना ही नहीं चाहते थे। आखिरकार, सड़क सुरक्षा पर सुनना कौन चाहता है? कितना नीरस है। अब चूँकि फर्स्ट ईयर के विद्यार्थियों की मर्जी कम ही चल पाती है, इसलिए उनको मजबूरीवश उस सत्र में आना पड़ा है।
‘आप लोगों में कितने लोग इस बात से अवगत हैं कि आपके परिवार, मित्रों, या परिचितों में से कम से कम एक व्यक्ति की मृत्यु सड़क दुर्घटना में हुई? कृपया अपने हाथ उठाइए।’ कम उम्र वाले नौजवान ने बिना अपना परिचय दिए इस तरह से सत्र की शुरुआत की।
और तत्काल सबका ध्यान उसके ऊपर चला गया।
थोड़ी सी फुसफुसाहट के बाद वहां मौजूद सभी लोगों ने हाथ ऊपर उठा दिए, जिनमें मंच पर मौजूद दोनों लोग भी शामिल थे। दोनों नौजवानों ने एक दूसरे की तरफ देखा और विद्यार्थियों को इसका मौका दिया कि वे यह देख लें कि कितने हाथ उठे हुए थे।
उसके बाद मंच पर मौजूद व्यक्ति ने अगला सवाल किया, जिसके जवाब में भी हॉल में मौजूद सभी लोगों ने हाथ उठा दिए, लेकिन इस दफा हाथ झिझकते हुए, अजीब तरह से और निश्चित रूप से ख़ुशी ख़ुशी हवा में नहीं उठे।
सवाल था, ‘आप में से कितने लोगों को ऐसा लगता है कि जो उनके साथ हुआ वह आप लोगों के साथ भी हो सकता था?’

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उपहार सिनेमा हॉल त्रासदी: न्याय की लड़ाई और ‘अग्निपरीक्षा’

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आज दिल्ली के उपहार सिनेमा ट्रेजेडी के 22 साल हो जाएँगे। 13 जून 1997 को दर्शक मैटिनी शो में बॉर्डर फ़िल्म देख रहे थे कि सिनेमा हॉल में आग लग गई। निकास द्वार की कमी के कारण बाहर निकलते समय भगदड़ में 59 लोग मारे गए। मरने वालों में नीलम और शेखर कृष्णमूर्ति के किशोर बेटे-बेटी भी थे। अभी हाल में ही पेंगुइन बुक्स से आई किताब ‘अग्निपरीक्षा’ में उन्होंने इस त्रासदी और न्याय की लड़ाई पर विस्तार से लिखा है। नीलम जी से जब मैंने फ़ोन पर पूछा कि आपने किताब का नाम ‘अग्निपरीक्षा’ क्यों रखा तो उनका कहना था कि इस देश में न्याय की लड़ाई अग्निपरीक्षा ही है। बाईस साल हो गए लेकिन न्याय की लड़ाई अब भी जारी है। सब जानते हैं कि हादसा हुआ, सब जानते हैं कि उपहार के मालिक कौन हैं लेकिन अदालत में साबित करना किसी अग्निपरीक्षा से कम है क्या?

उनका स्पष्ट रूप से कहना है कि न्याय प्रणाली से उनका विश्वास उठ गया है। लेकिन वह इस लड़ाई को लड़ती रहेंगी क्योंकि वह यह देखना चाहती हैं कि न्याय प्रणाली उनको कहाँ तक ले जाती है। ‘अपने बच्चों को न्याय दिलाना हमारा फ़र्ज़ है। उन अन्य 57 लोगों को न्याय दिलाना। न्याय की इस लड़ाई में मैं यह समझ चुकी हूँ कि देश में न्याय पैसे वालों के लिए ही है।‘

नीलम जी ने कहा कि आम आदमी के लिए न्याय पाना कितना मुश्किल है यह इस किताब को पढ़ते हुए समझ में आता है। बाईस साल से हम लड़ रहे हैं कि हमें न्याय मिले? लेकिन न्याय मृगमरीचिका की तरह है। 20 साल बाद इस केस का फ़ैसला आया जिसमें सिनेमा हॉल के एक मालिक को एक साल की सज़ा दी गई, एक को छोड़ दिया गया। 30 करोड़ रूपए का जुर्माना लगाया गया। न्याय का मखौल नहीं है यह तो क्या है? क्या किसी के जान की क़ीमत पैसों से चुकाई जा सकती है?

जब मैंने नीलम जी से यह पूछा कि क्या उनको बाईस साल से यह लड़ाई लड़ते लड़ते किसी तरह की निराशा होती है? उनका जवाब था कि कि मुझे बंदूक़ उठाकर उन लोगों को गोली मार देनी चाहिए थी। शायद तब मुझे न्याय मिल जाता। जिस त्रासदी को सभी लोगों ने टीवी पर देखा, जिसके बारे में अख़बारों में इतना लिखा गया। उसका कोई अपराधी साबित नहीं हो सका।

उपहार सिनेमा हॉल त्रासदी अपने आप में इस न्याय व्यवस्था पर बड़ा सवाल है!

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जॉन नैश को श्रद्धांजलि स्वरूप विनय कुमार की कविता

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जॉन नैश को कौन नहीं जानता। Game Theory के लिए अर्थशास्त्र के नोबल से सम्मानित नैश जीते जी ही किंवदंती बन गए थे। उनके जीवन पर बनी फ़िल्म Beautiful Mind एक ऑल टाइम क्लासिक मानी जाती है। फ़िल्म ने चार महत्त्वपूर्ण ऑस्कर अवार्ड जीते थे। जॉन नैश विस्फोटक प्रतिभा और स्कीज़ोफ़्रेनिया लेकर दुनिया में आए थे। जब तक रोग उन्हें अक्षम करता ,तब तक वे एक महान शोध कर चुके थे। उस शोध को सम्मान भले बाद में मिला मगर नैश के इस अनोखे योगदान की चर्चा पहले से थी।
अलीशा जॉन नैश से की पत्नी थीं। मैं इनसे २००७ में अमेरिकन साइकाएट्रिक असोसिएशन के वार्षिक सम्मेलन के मौक़े पर मिला था। जॉन नैश वहाँ कॉन्वकेशन लेक्चर देने आए थे।स्कीज़ोफ़्रेनिया के दुष्प्रभाव के कारण जॉन नैश मिलनसार नहीं थे। मगर अलीशा सहज, हँसमुख और गर्मजोशी से मिलनेवाली महिला थीं। चंद मिनटों की बातचीत में ही मुझे लगा कि उनका व्यक्तित्व आश्वस्त करनेवाला है। बोली में मिठास और सहायता को तत्पर। ये तस्वीरें तभी की हैं।
यह एक अजीब दुःखद संयोग है कि अंतरराष्ट्रीय ख्याति के इस अनोखे दम्पति की मृत्यु एक साथ एक कार दुर्घटना में हुई। वे उस वक़्त नूअर्क एयरपोर्ट से प्रिन्सटन जा रहे थे।
आज जॉन नैश का जन्मदिन है। उन्हें श्रद्धांजलि स्वरूप यह कविता- विनय कुमार
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अलीशा नैश
कहा जा सकता है
कि अब तुम एक क़िस्सा हो
फिर भी तुम मेरे जीवन का हिस्सा हो
कोई दिन नहीं जब सदियों पुराने मेरे आकाश में
तुम आँसुओं की बदली सी न घुमड़ती हो
वह वधू जो अपने ठिठके हुए वर के भीतर
सुहागरात ढूँढने में मदद माँगने आयी है
या वह जो अपने आत्मलीन सहचर में संवाद
या वह जो अपने कंत की सूनी आँखों में वसंत
या वह जो अपने पुरुष में पालनहर विष्णु
या वह जो अपनी टूटी हुई तलवार में थोड़ी सी ढाल
या वह जो एक जलते हुए क्रोध में स्वयं के जीवित रहने भर जल
या वह जो अपने ही कमरे में बड़बड़ाती हुई अनिद्रा में दिन को ठीक-ठाक जागने भर नींद
या गालियों की मशीन में थोड़ी सी मर्यादा
या गली-मुहल्ले में परिवार के लिए थोड़ा सा सम्मान
या अपनी बेटी के लिए एक ऐसा बाप जो भींगी आँखों से कर सके कन्यादान
सब की सब तुम्हारी ही परछाइयाँ हैं अलीशा
मानता हूँ कि इनमें से किसी के साथ नैश नहीं होता
मगर एक डरा-सहमा या बौखलाया या चुप्पा या होश-बदर जॉन यक़ीनन होता है
माना ये तुम्हारी तरह एमआइटी-पलट भौतिकीविद् नहीं होतीं
मगर तुम्हीं कौन सी भागी थीं उस शोध के पीछे
जो तुझे नोबल के हीनयान पर बिठा दे
रौशन मंच तक जाते धूसर गलियरों से स्त्रीत्व के आँगन में तुम्हारा लौटना
एक उपन्यास लिखने की ख़्वाहिश का एक सिसकती रूबाई में जज़्ब हो जाना नहीं तो और क्या था
वह स्त्री कहाँ की
सल्वाडोर
या अमेरिका
या मलेशिया
या रूस
या चीन
या भारत
कहाँ की है वह
सिसकती रूबाई का कोई देश नहीं होता अलीशा
उसके गीले क़दम सारी काल्पनिक लकीरें पोंछ देते हैं
नहीं भूल सकता वह पल
जब सैन डीएगो के कन्वेन्शन सेंटर की
लम्बी-चौड़ी लॉबी में
अपने ममूलीपन का ज़िक्र करते हुए
माँगी थी तुमसे मदद
कि मैं मिस्टर नैश से मिलना चाहता हूँ
और तुम हौले से मुस्कुरायी थीं
बिलकुल वैसे ही जैसे कुतूहल के मारे बच्चे को देखकर कोई माँ
अगर मैं भी अपनी पसंद का खिलौना लेकर
लौट आता उस रोज़
तो आज कुछ भी लिखने के लायक न बचती मेरी आत्मा
तुम्हारे होने के हँसते हुए रंगों ने
मेरी कृतज्ञता को वैसे ही बचाया
जैसे अप्रिय आवाज़ों से अपने नैश को
जब भी देखता हूँ अपने कैमरे से खींची तुम्हारी तस्वीर
श्रद्धानत हो जाता हूँ उस किरण के प्रति
जो बुद्धि के प्रिज्म से गुज़रकर सात देवियों में बँटी दिखती है
कंठों और जीभों की दुनिया में उत्सुक कान
क्रूर अधिकारों की दुनिया में विनम्र कर्तव्य
आदेश दनदनाती दुनिया में आश्वस्त करती सेवा
लम्पट लूट की दुनिया में मौनव्रती त्याग
और दिखती-दिखाती देहों की दुनिया में निरपेक्ष प्यार
यह तुम हो अलीशा….तुम
किसे परवाह थी
कि एमआइटी के गलियरों में भटकता एक सूरज
बेहद अटपटे ढंग से उगता है
जाने किधर मुँह फ़ेरे चढ़ता है आसमान
और हवा के चेहरों को घूरता
जाने किस से बुद-बुद बतियाता
कमरे में अपने अस्त हो जाता है
किसे परवाह थी कि अमित सम्भावनाओं का
सूरज हौले-हौले दरक रहा है
न होते अगर करुणा की तलैया पर
कमल से तिरते दो हँसते हुए नैन तुम्हारे
तो तरुण यह सूरज हो जाता अस्त अनदेखा ही
तुम्हीं लेकर गयीं उसे बोस्टन की गलियों में
बिस्ट्रो में रेस्तराँ और पब में
तुम्हीं ने चखाये उसे रसों के स्वाद
तुम्हीं ने पिलाए उसे घूँट रसकुल्लों के
तुम्हीं ने बचाया उसे ख़ुद से
तुम्हीं ने रचाया उसकी ठिठुरी हुई आत्मा का
अपनी ऊनी गहराइयों से ब्याह
तुम्हीं ने बचाया उसे दाग़ भर बचने से
कहते मनगुनिया कि ईगो जब दरकता
तो जो भी आभासी वही पास वही ख़ास
तुम्हीं थीं अलीशा कि “लॉजिक और रीज़न” की
छोटी सी छतरी को ताने रहीं
भ्रमों-विभ्रमों की तेज़ाबी बारिश में
पहनी तो नहीं कभी साड़ी न ओढ़ा दुपट्टा ही
आँचल की छाँव मगर फिर भी की
अपनी ही धूप से जल जाता जॉन
मगर उसे छिपाकर कहा मिस्टर नैश से
आओ मेरे पास मेरे पुरुष मेरे प्यार
क्रीड़ा के नियम भले लिखे उस तरुण ने
पीड़ा की गलियों में क्रीड़ा
कब
कैसे
क्यों
तुमने सिखाया
लम्बा एक जीवन कोई टूटा पुरुष कैसे जी पता
सिर्फ़ ब्रेड और चीज़ और मीट और वाइन के सहारे
पार्ट्नर या स्पाउस के सहारे
पृथ्वी और प्रकृति-सी भरी और पूरी
सारे सम्बन्धों की गरिमा और छटा लिए
तुझ-सी सम्पूर्णा सहगमन-सहवास को न होती यदि
कैसा था बंधन कैसी थी गाँठ जो खुली नहीं
सुखों के दैन्य अभावों की आँधी में
मृत्यु के प्राणांतक़ वार-प्रहार में
यूरोप से नूअर्क
नूअर्क से से प्रिंसटन घर की तरफ़ जाते हुए
विकट दुर्घटना के द्वार से एक साथ चले गए
दूर बहुत दूर
सारे अभावों से सारी सीमाओं से
भ्रमों-विभ्रमों आभासी आवाज़ों से दूर
निर्मल नीरोग निश्चिह्न अनंत में
शोध-शेष कथा-शेष मिस्टर जॉन नैश
कविता-शेष तुम
हाँ कविता-शेष तुम !
आज़ादी के बारे में सोचता हूँ
तो आकाश याद आता है
और पचास साल पुराना एक स्वप्न
जिसमें चाँदनी रात में देर तक उड़ता रहा था
आज़ादी के बारे में सोचता हूँ
दाख़िला भी मिल जाएगा
दाख़िल भी हो जाएगा
मगर उसके आगे
यह रोग जो रह रहकर होश छीन लेता है
इससे कैसे निपटेगा
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कवि विनय कुमार देश के जाने माने मनोचिकित्सक हैं और लेखक हैं। 

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सुजाता के उपन्यास के ‘एक बटा दो’का अंश-इन जॉयफुल हॉप ऑफ रेजरेक्शन

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युवा लेखिका सुजाता का उपन्यास  ‘एक बटा दो’ राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। स्त्री जीवन को लेकर लिखा गया यह उपन्यास अपने कथानक और भाषा दोनों में अलग है। इस अंश को पढ़िए और बताइएगा- मॉडरेटर

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इन जॉयफुल हॉप ऑफ रेजरेक्शन

कभी जिस एकांत की ख़ूब कामना करते हैं वह किसी दिन एकदम से सिर पर आकर सवार हो जाए तो उस लाड़ले नन्हे बच्चे सा भी लगता है जो आप ही की गोद में बैठ आप ही की आँख में अँगुली घुसेड़ कर हँसता है और आप फिर भी उसे ‘ना मुनिया’ कहकर मनाने की ही कोशिश करते हो । एक अकेली रात की तैयारी के लिए दिन भर की घुमाई पर्याप्य होते हुए भी थकाऊ नहीं थी । रिसेप्शन पर हीटर था । वहीं चली गई । एमा घर जाने की तैयारी कर रही थी । सुबह से रिसेप्शन पर वही थी । मेरी मुस्कुराहट का जवाब मुस्कुराहट से देते हुए वह जाने लगी तो मैंने उसे उसके बैग के लिए कॉम्प्लीमेण्ट दिया । वह रुकी और मेरी खैरियत पूछी । मेरी अजीब शक्ल से शायद उसे अंदाज़ा हुआ हो कि ठ्ण्ड की वजह से मै परेशान हूँ । कमरे में भी हीटर भिजवा देगी वह । बातें चल निकलीं तो वह ज़रा सी खुल गई बस उतना कि अस्सी गज के लहंगे का घेर बस तब तक बेधड़क घूमे किजब तक आप घूमते रहो और रुकते ही सिमट जाए । वह तिब्बती कौम को लेकर खासी नाख़ुश थी । स्कूलों में अगर तिब्बती बच्चों को यह सिखाया जाए कि पूंजीवादी व्यवस्था में हिस्सा लो और कमाओ ताकि अपने समुदाय की मदद कर सको तो यह हमारे उद्देश्यों के एकदम खिलाफ है । चिंता थी उसे कि आख़िर तिब्बतियों को पूंजी ही हराएगी जिससे बचकर चीन का साथ छोड़ा था । मुझे याद आया कि दिन में बाज़ार में मैंने बेहद महंगे मोबाइल फोन कुछ लड़कियों के हाथ में देखे थे । एमा जब आधी हिंदी आधी अंग्रेज़ी बोलती थी तिब्बती एक्सेंट में तो उसे पास बिठाकर सिर्फ सुनते रहने की प्रबल इच्छा होना स्वाभाविक था । उठ कर जाने को आतुर एमा का आखिरी वाक्य कि- “एन.जी.ओज़ के एक्सपायरी डेट होना चाहिए टेन यिअर्स का…इससे पुराना एन.जी.ओ पर मुझे ट्र्स्ट नहीं होता ।” मुझे बेहद रोचक लगा । जाते हुए हमने एक छोटा सा आलिंगन किया और देर तक उसकी बाह में उदास रंगों वाली कश्मीरी कढाई का बैग झूलता दिखता रहा ।

उसके चेहरे की मुस्कुराहट बातों में चिढ बनके ढली थी और अब जाते कदमों में उदासी बनकर उतर गई । एक फ्री तिब्बत अब कहाँ होने वाला है । कौन सा घर है जहाँ इन्हें अब जाना है! उसके अलावा कौन सा घर होता है कि जहाँ हम रात को अपने पाँव बिस्तर पर पसारते हैं तो एक शुकराना ज़बान पर आता है और आँखों में गहरी नींद! तीस साल पहले,अपने बचपन में परिवार के साथ भाग कर यहाँ आ बसे इटालियन रेसत्राँ में काम करने वाले लड़के के माँ-बाप शायद जानते होंगे ।

 

देखादेखी जो वोद्का ली गई थी अब उसे पीना था । दरवाज़ा, खिड़की बंद करके पर्दे लगा दिए । मोबाइल फोन बंद कर दिया । पहला घूँट जब गले से उतरा तो कलेजा मुँह को आ गया । शायद कोल्ड ड्रिंक कम मिलाई है । फिर और मीठा करके उसे पिया । जल्दी से दूसरा घूँट् । तीसरे घूँट के बाद जैसे शिराओं में चींटियाँ दौड़ने लगीं ‘होल्ड द ड्रिंक’ ! किसी पार्टी में कहा था किसी ने- खाना खाती हो या जल्दी से झाड़ू-पोंछा निबटाती हो । धरमकोट के बारे में कितना सुना था । गांजा चरस का अड्डा है । विदेशी भरे रहते हैं । लेकिन हिम्मत नहीं कर सकी वहाँ जाकर देखने की । आधा गिलास ख़त्म हो गया लेकिन सिर्फ उतना चक्कर आ रहे हैं जितना देह में हीमोग्लोबिन की कमी से आते हैं । आपका एच.बी. 4.5 है आप ज़िंदा कैसे हैं, चलती-फिरती कैसे हैं…न, अब तो मर-गिरकर दस हो जाता है । सबको माफ कर दो, बुद्ध हो जाओ । यहीं न बस जाऊँ किसी स्कूल में पढाऊंगी । बस यहाँ की सरदी काटना मुश्किल होगा बहुत ।मैं हर बार अधूरे जवाब देकर आती हूँ और बाद में सोचती हूँ । अय्यर आँटी ने जब कहा था- कहाँ से आ रही हो, आज बहुत देर हो गई, स्कूल तो दोपहर में ख़त्म हो गया होगा न ! तब सारी डीटेल नहीं देनी थी, कहना था गुलछर्रे उड़ा के आ रही हूँ । भला आप क्यों सारा दिन जासूसी करती हैं बहू बेटियों की ? गिलास ख़त्म करके मैंने खड़े होने की कोशिश की । ज़रा सी लड़खड़ाहट है बस । दिमाग एकदम ठीक काम कर रहा है । एक और पीना चाहिए । बस । सिध जैसे कहीं से झांक रहा हो । कैसे कैसे गंदे काम करने लगी हो ! धीमे-धीमे दिमाग में पेंच घुमाता है सिद्धांत भी । प्यार से । वही बचपन वाला खेल,ज़ोर से आँख भींच लेती हूँ । अपने भीतर नहीं झाँकती आँख, अपना ही अक्स बनाने की कोशिश करती है । जल में कुँभ कुँभ में जल है बाहर भीतर पानी/ फूटा कुम्भ जल जलहिं समाना यह तत कह्यो गियानी… पुरुष स्त्री की देह है?  उसे धारण कर लेती है तो जैसे मोह-माया में पड़कर सारी दुनिया से कट जाती है? प्रकृति से भी? वर्ना तो वह वही मिट्टी है , पानी,आग ,आकाश और हवा । है न !  नाना नहीं रहे तब नानी हम सबकी हो गईं । जब तक जीते थे नाना वे उनके जंजाल में घुसी-मुसी रहतीं । दरवाज़ा खोलती हूँ तो एक झोंका बरफीला चेहरे पर पड़ता है । लड़खड़ाते हुए लौट आती हूँ उसे बंद करके । गुदड़ी-मुदड़ी रजाई में जैसे अयुज सोया है । सोफे पर नानी बैठी हैं । अस्सी की उम्र में भी काले बाल, आदिम स्त्री की सी घनी झाड़ियों सी बरौनियाँ, सलवार-कुरते में सिकुड़ी हुई देह और पनीली आँखें । मैं घुटनों पर सर टिकाकर बैठ गई हूँ ज़मीन पर । मैं पूछती हूँ -नानी भटकती हो ? क्या अब भी आज़ाद नहीं हो? अपनी क्या कोई देह नहीं है नानी? मै भी हूँ कुँभ या पानी ही हूँ ? क्या रोकता है नानी हमें ? बेहद बेहद बूढी हो गई नानी । बूढ़े बरगद जैसी । क्या माँ भी इनके जैसी दिखेंगी कुछ साल बाद? उनसे तो अभी कुछ नहीं कहा । क्या माँ भी रोएंगी ऐसे ही बेआवाज़ , जैसे नानी रोती है इस वक़्त?

पाँव की अँगुलियाँ ठण्ड से  सुन्न हैं । तीसरी बार गिलास में ढाला आसव ।

 

अगले दिन दोपहर का खाना खाने के बाद अचानक मेरा बाज़ार की भीड़ से अलग हटने का मन हुआ । चलते चलते एक चर्च के पास पहुँची । हलकी बारिश से भीगी हुई शाम में वह चर्च एक रहस्यमय सा वातवरण रच रहा था । लोहे का गेट खोलकर चर्च के लॉन के भीतर घुसी तो बाईं तरफ एक सिमिट्री थी । कब्रें कितनी सारी । एक मन हुआ करीब से देख आऊँ । कदम बढाते हुए लगा कि मेरे आने से उन्हें परेशानी न हो  कुछ पर्यटक वहाँ से बेखौफ निश्चिंत निकल गए तो लगा मैं भी जा सकती हूँ । एक छबीस साल की लड़की इसाबेला की कब्र देखकर रुक गई मैं वहाँ । लुधियाना रेजिमेण्ट के लेफ़्टीनेंट की पत्नी जिसकी सन 1866 धर्मशाला में मृत्यु हुई । मान लो अगर यह कब्र से उठे और मेरे भीतर प्रविष्ट हो जाए तो ! मेरे भीतर एक छबीस साल की क्रिश्चियन लड़की जो पता नहीं असमय क्यों मर गई । आत्महत्या कर ली, मार दी गई, कोई बीमारी थी, कोई हादसा था…अचानक जैसे कोई मेरे बालों में अँगुलियाँ फिरा कर छिप गया था…पीछे एकदम घनी झाड़ियाँ थीं और कोई नहीं था वहाँ । मुझे अचानक लगा कि मौत एक सीक्रेट लवर की तरह है…आप बस की सीट पर बैठने लगो तो अचानक वहाँ कोई एक गुलाब रख गया है…किसी दिन सुबह उठो तो दरवाज़े की घण्टी के साथ अखबार नहीं एक फूलों का गुलदस्ता है जिसपर किसी का नाम नहीं है आप कई दिन अंदाज़ा लगाओ कि कौन होगा…आप घर की सीढियों से उतरो, बारिश होने लगे अचानक, आप पल भर रुको और वापस मुड़ो तो सीढी पर एक छाता रखा गया है कोई…लौटो बहुत थक कर इस चिढन के साथ कि सो भी नहीं सकेंगे ठीक से कि किसी ने सेज सजाई हो जतन से…हौले से बाल सहलाए पीछे से और कान में फुसफुसा दिया -तुम चाहो तो हमेशा के लिए सो जाओ मेरी प्रिया !

कब्र पर खुदा है ‘इन जॉयफुल होप ऑफ हर रेज़रेक्शन’ । जॉयफुल मुश्किल से पढा गया था क्योंकि बहुत देर तक तक यकीन ही नहीं आया कि कब्र पर यह शब्द हो सकता है । पांव के नीचे हलचल महसूस करती हूँ । कोई भूकम्प की लहर चलती चली गई है ! धरती के भीतर से चलता हुआ कोई मुझमें प्रविष्ट हो रहा है…एक सफेद फ्रॉक वाली छ्ब्बीस साल की लड़की पूरे कमरे का सामान इधर से उधर फेंकती चली जा रही है, पर्दे नोच लिए हैं उसने, चिल्ला रही है लगातार, कांच की किरचें बिखर गई हैं एक उसके पाँव में खुभ गई है खून बह रहा है वह फिर भी झगड़ रही है किसी अदृश्य से…कोई आवाज़ नहीं है जैसे टीवी को म्यूट कर दिया गया हो सिवाय इसके कि कान में साँय साँय की आवाज़ गूँज रही हो…वह अचानक से गिर गई है फर्श पर…वह पिघल रही है…जैसे किसी पेंटर की अभी-अभी बनी तस्वीर पर पानी डाल दिया हो भर गिलास किसी ने…

 

एक गाइड के साथ एक झुँड ने प्रवेश किया है । विदेशी टूरिस्ट हैं सब ।

भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड एल्गिन की कब्र भी है यहाँ जो इस इलाके पर इतना मुग्ध थे कि मैक्लॉड्गंज को भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाना चाहते थे । भीगता हुआ चर्च भीष्म पितामह सा लग रहा था जिसने कसम खाई है और जो टल नहीं सकती  । मैं चर्च होती तो मॉन्यूमेण्ट के रखरखाव के नाम पर होने वाले खेल को मना करके कबकी ढह जाती, बह जाती बोरिंग लोगों की इस दुनिया से । अचानक मुझे मुक्तेश्वर में देखा वह जला हुआ घर याद आया जो खँडहर हो गया था । जब मैं किसी खण्डहर को देखती हूँ तो उसके युवा दिन याद करने के लिए नहीं । मैं उसका खण्डहर होकर उसमें रम जाना देखती हूँ…छूकर उसे पूछना चाह्ती हूँ कि जब हम अपनी सारी हँसी बिसार चुके होते हैं, जब हम अतीत वर्तमान और भविष्य किसी में नहीं होते, जब हम अगम्य हो जाते हैं ,खुद अपने लिए भी…तब हमारे पास क्या बचता है? तब कौन आता है हमारे पास? खण्डहर से कोई जवाब नहीं आता । जले हुए आकार हैं और पुराना पड़ा मलबा ।गीला होता है । सूखता है । लकड़ी के किसी कुंदे पर मशरूम निकल आता है । कहीं घास सर उठाती है तो ग्रेफाइट से बनी तस्वीर में रंग भरने लगता है…तस्वीर आधी ही छूटती है और कलाकार बगल में एक पुराने पोस्ट ऑफिस की सीढी पर बैठकर बीड़ी का धुँआ उड़ाता है । खुल-खुल आवाज़ करता हँसता है । मुझे गौर से देखते खड़े एक सत्तर पिचहत्तर के एक मनचले बूढ़े ने कहा ‘सौ साल पुराना है यह, भीतर जाकर देखो’ मैंने पूछा इस पोस्ट ऑफिस में आप नौकरी करते थे? वह कहता है नहीं यहाँ नहीं पी डब्ल्यू डी में । मुझे हैरान होते देख वह कहता है ‘पकौड़े वाले की दुकान’ और फिर खुल –खुल करके हँसता है जैसे भीतर का सारा अस्थि पिंजर साथ बजता हो  । ज़रा सी देह वाला यह बूढा जिससे दारू की बास आती है मुझे रोज़ उसी रास्ते में मिल जाता था । सब उससे कन्नी काटते हुए निक्ल जाते थे…मैं बरबस रुक जाती थी और कहीं नहीं होती थी उस वक़्त । जब जाने के लिए न अतीत न वर्तमान न भविष्य बचता हो तो…ज़िंदगी को नदी के बीच पड़ी चट्टान पर पांव पसार कर विस्तार देना चाहती हूँ… खण्डहर हवा की तरह फैलता है…अदृश्य …सर्वत्र ।

 

खाते-पीते घर की लुगाइयों के नाटक से हमें क्या!

आज एक प्री ब्राइडल आना था । परसों शादी है । तीन दिन मैं बहुत व्यस्त रहूंगी । अपना पार्लर खोलना भी आसान नहीं है ।बीच में तो बुरी तरह दर बदर हो गई थी । ‘एल्पस’ वालों के यहाँ से लड़कर निकली थी । वापस ‘मेपल्स’ में जा नहीं सकती थी । थूक कर कैसे चाट लेती । पिछले कुछ सालों में बोलना-बहसियाना-लड़ना ख़ूब सीख लिया था । यह तो जगजीत भी कहता था । लड़ाकिन हो गई है । उधर अबीर का मेसेज आ रहा था- मिलो, मिलो, मिलो । खाक तुमसे मिलूँ ! एक बार मिले तो पीछे ही पड़ गए  ।शादीशुदा हूँ । तीन बच्चे हैं । तुम सोच रहे हो तुमसे पींगें बढाने लगूँ? तुम्हे तो एक टाइमपास मिल जाए और अपना इधर घर बिगड़ जाए । सब मर्द देखे । सब एक से । एक गुजराती मिला था छह मुलाकातों में एक बार भी कह नहीं पाया ।  सोचना था न कि मैं टकराने के बहाने क्यों ढूँढती हूँ बच्चू जी । अच्छा होता वही समझदार होता तो पार्लर में दिन भर की रंगाई पुताई से मैं बचती । कहीं सेठानी बन बैठी होती । लेकिन अच्छा हुआ नहीं मिला । ज़िंदगी भर फाफड़ा –खाखरा खाती …… ऊई ! क्लाइण्ट चिल्लाई थी…मेरा हाथ चेहरे पर ज़रा सख्त होकर पड़ा था । उसने आराम से मालिश करने को कहा । लेकिन ऐसे नाज़ुक हाथ फिराऊंगी तो रौनक कैसे आएगी चेहरे पर । क्रीम मे तो कोई जादू होता नहीं । जैसे डेढ सौ की ऐसे डेढ हज़ार की । जिसको भीतर से खुशी हो सजना उसी के चेहरे पर खिलता है । मन भी तभी करता है पहनने ओढने का । तभी तो दुल्हन कैसी भी हो मेकप करने के बाद शादी में वही खिलती है ।

सारी दुनिया से लड़-भिड़ कर काम पर आती थी उदास तो सोचती थी क्या वाकई मुझे नौकरी करना इतना बुरा लगता है? शायद नहीं । नौकरी न करती होती तो जगजीत मुझे ज़िंदगी भर के मज़े चखा देता । ससुराल वाले मेरी पीठ पर सवारी करते और जेठानी मुझे कान पकड़ कर चलाती । उसकी सारी खुन्दक ही यही है कि सुबह चली जाती हूँ शाम को आती हूँ ,हाथ में अपने कमाए चार पैसे आते हैं । जेठ जी भले ही ख़ूब कमाते हैं लेकिन मांगे हुए पैसे में वह आनंद कभी नहीं  वह आत्मसम्मान कभी नहीं मिल सकता । जब तैयार होकर निकलती हूँ तो चोर की तरह दोनो का मुझे देखना गंदा लगता है ।सर से पाँव तक घूरती हैं जैसे नौकरी पर नहीं लड़के पटाने निकली हूँ । दिक्कत यही थी कि मैं उनके गैंग में शामिल नहीं होना चाहती थी । उसके लिए बहुत वक़्त चाहिए जो मेरे पास नहीं था । एल्पस वाली बबली भी यही कहती थी मीना कैसे रहती है बिना सिंदूर लगाए, अब भी किसी को पटाना है क्या ! यह हँसने वाली बात नहीं थी, मन करता था मुँह तोड़ दूँ । “तू करवाचौथ की विज्ञापन बन जा, मुझे नज़र मत लगा…” उसे बुरा लगा था लेकिन मैं क्या कर सकती थी । अब लोग सम्भल कर न बोलें तो बुरा बनना ही पड़ता है ।

प्री ब्राइडल की क्लाइण्ट बहुत देर से हिल-डुल रही थी । मैंने पूछा कुछ परेशानी है ? तो बोली नहीं । फिर भी उसकी असहजता ख़त्म नही हो रही थी । आख़िर उसने हिम्मत करके कहा -“आण्टी मेरा वी-वैक्स कर दोगे? ”  मैं मुस्कुराई और कहा “आप चाहती हैं तो एकदम कर देंगे,बबीता वैक्स हीट करने रखा? जब लेग्स करोगी तो बिकिनी लाइन भी कर देना दीदी का” अब क्लाइण्ट ने चैन से आँखे बंद कीं और चेहरे की मसाज का आनंद लेने लगी ।

हम तीन लड़कियाँ, तीनों थकीं थीं आज । ग़ज़ल का ठीक नाम लेना मेरा बस का नहीं था मैं गज़ल ही कहती थी । “आजा गज़ल, आज तो तेरा रेड अलर्ट है, नमाज़ भी नहीं पढनी होगी, आज साथ खाना खा ले…वो क्या कहते हैं वज़ू कर ले और टिफिन ले आ …” गज़ल के यहाँ बना मीट मुझे बेहद पसंद है, हालांकि वह पार्लर में कभी नहीं लाती नॉनवेज । मुझे भी छुप कर ही खिलाया था । बाड़ा हिंदूराव के पास उसका घर है, इतनी दूर आना जाना करती है रोज़ । बहुत कम बोलती है । चश्मा लगाती है । चश्मे वाली लड़की को पार्लर में मैंने इससे पहले कभी नहीं देखा था । लगता है ख़ूब पढी है लेकिन ग्यारहवीं ही पास है । कहती है मदरसा जाती थी । काम के लिए निकलना मजबूरी थी । बात करने में ख़ूब तहज़ीब, तमीज़ और ठीक ठाक काम लायक अंग्रेज़ी भी । बहुतदिन तक आईब्रो बनाते हुए क्लाइँट को स्टिच करने के लिए कहती थी…मैंने समझाया था स्टिच नहीं , ‘स्ट्रेच’ कीजिए…वे स्ट्रेच करेंगी तो तुम ठीक से थ्रेडिंग कर सकोगी । हँसी थी वह ख़ूब और मैडम की बजाए दीदी कहने लगी उसी दिन से ।

हर बार की तरह विशाखा दीदी बिना अपॉइट्मेंट लिए काम करवाने आई थीं । पुराने लोगों को मना भी नहीं किया जाता । हमने फटाफट कटे हुए बालों को एकतरफ किया झाड़ू से और कैंची वगैरह ढंग से लगा दी शीशे के सामने । गज़ल के मुँह में धागा था और हाथ तेज़ चल रहे थे । मैं उनके बालों के लिए रंग बनाने लगी ।  डार्क ब्राउन !  काम करते-करते बात न करो तो थकान दोगुनी हो जाती है  । विशाखा दी बातें भी मस्त करती हैं तो मैंने भी यों ही उनसे पूछ लिया –“आपके ननद की शादी हुई थी न पिछले साल ! कैसी हैं वो?”

मानो विशाखा दीदी की दुखती रग छेड़ दी हो “पता नहीं भई, आजकल की लड़कियाँ अजीब हैं, इतनी बिगाड़ी हुई लड़की है कि क्या कहें । अभी बच्चा हुआ है,सारा दिन उसे डायपर में रखती है, हम तो नैपियाँ बदलते धोते पसीना बहाते बच्चे पालते थे । ये हवा भी नहीं लगने देतीं लड़के की मुन्नो में । रैश पडेंगे तो पता चलेगा पता क्या चलेगा ,इन्हें पड़ी ही क्या है । एक दिन दूध नहीं पिलाया । घड़ी-घड़ी पाउडर मिलाती हैं पानी में…अभी गला भरा होता है बच्चे का कि फिर से बोतल ठूँस देती है कहती है ले पी साले …कितना रोता है…”

“हा हा हा…दीदी आपकी ननद तो निराली है !साला कहती है बच्चे को ? और मुन्नो क्या होती है ?” मैंने चटखारे लेते हुए पूछा ।

“मुन्नो होती है सूसू बच्चे की…लेकिन बाईगॉड अगर कोई मशीन होती न कि बच्चे के मुँह पर लगाओ और उसके मन की बात सुनाई देने लगे तो यह बच्चा बाईगॉड माँ –बहन एक कर देता माँ बाप की  ।”

वे अब ज़रा सन्यत लग रही थीं । मैं फिर बोर होने लगी “तो अभी वे आपके पास आई हुई हैं? ”

“अरे पूछ मत मीना, जब रहने आती है मेरी जान निकल जाती है । इस बार तो आज सुबह आई है कैब से और तब से पति को मेसेज पर मेसेज फोन पर फोन चल रहे हैं । मैंने कहा जैसे आई हो वैसे ही चली जाओ – कैब से । बोलीं ऐसे कैसे चली जाऊँ भाभी- सुबह ये जल्दी निकल गए थे तो एहसान जता के आई हूँ कि अकेले जा रही हूँ बच्चा लेकर । शाम को भी ले जाने के लिए नहीं बुलाऊंगी तो आदत पड़ जाएगी इन्हें । कल को कह देंगे जैसे गई थी वैसे लौट भी आ । आज ब्लीच मत करना , पिछली बार का चल रहा है । तो मैं यहाँ आ गई कि करो भई माँ-बेटी चुगलियाँ आराम से । इतने नाटक हमारी माँ भी सिखा देतीं !”

विशाखा दी की आँखें बंद थीं और मेरे बबीता के इशारे चल रहे थे । खाते-पीते घरों की लुगाइयों के भी अजीब नाटक होते हैं । इनकी सारी ज़िंदगी पतियों को कंट्रोल करने की जद्दोज़हद में ही बीत जाती है । पीछे से गालियाँ बकती हैं और करवाचौथ पर कार्टून की तरह तैयार भी होती हैं । अपना क्या है, ये हैं तो बिज़नेस है हमारा ।

 

 

 

 

 

 

The post सुजाता के उपन्यास के ‘एक बटा दो’ का अंश-इन जॉयफुल हॉप ऑफ रेजरेक्शन appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

रानी एही चौतरा पर

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लेखक राकेश तिवारी का यात्रा वृत्तांत ‘पवन ऐसा डोले’ रश्मि प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। प्रस्तुत है उसी का एक अंश- मॉडरेटर
रानी एही चौतरा पर
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अगले दिन सोन पार उतर कर अगोरी की ओर डोल गये। ऊँचे सिंहद्वार पर सिंहवाहिनी दुर्गा। भीतर, जहाँ-तहाँ बढ़ चले झाड़-गाछ-लतरें, ढही दीवारें, छितरी ईंटें, आगारों की ध्वस्त छतें और तिलिस्मी खजाने की खोज में पास-पड़ोसियों द्वारा फर्श पर खने गये गड़हे। इनके बीच रास्ता बनाते पश्चिमी सिरे की अधगिरी दीवार के सहारे बची रह गयी छत पर जा बैठे।
पीछे किले की दीवार से सोन तट तक को छूती चापाकार पर्वत श्रेणी, अगले सिरे से सटे सोन के सुनहरे पाट पर सजी चमकीली धारा, ओ पार गहरी हरियाली के बीच फूली पीली सरसों।
कुछ गयार-भैंसवार टहलते हुए किले के भीतर आये। एक काली बड़ी नाव से सवारियाँ उतरती रहीं। उतराई का पैसा ना चुका पाने वाले और सिर पर जलावन धरे औरतें पंजिया हेल कर नदी पार करती दिखीं। एक बगल ऊँटों की कतार।
बगल से गुजरे लंबे, खासे कढ़े, मजबूत, पतली मूँछ वाले गयार ने बरबस हमारा ध्यान खींचा। लंबी खुली कमीज और घुटनों तक चढ़ी धोती में बड़ा जँच रहा था। टूटे कंगूरों पर चढ़ा, ढही प्राचीरों से उतरा, गिरते-गिरते लड़खड़ा कर सँभला। फिर, बीच के बड़े चौतरे पर पसर कर मुक्त भाव से अलापने लगा,  ‘रानी एही चौतरा पै बैठल रहलीं ना- ऽ-ऽ-ऽ-ऽ-ऽ-ऽ-ऽ…।’
थोड़ी ही देर में एक और फक्कड़ जवान ‘रूदन खरवार’ भी वहाँ  आ जुटा। चुटकी भर तमाखू होंठों में दबा कर पूरब दिशा में खेतों में बिखरे प्रस्तर-पट्टों  की ओर अँगुली उठा कर बताने लगा-
‘सामने के खंडहर की जगह कभी ‘महरा’ की बखरी रही। एतना धनी, बली ओ  समरथ कि अकेले अगोरी-राज बरब्बर।
एक बारी राजा अगोरी अपने राज में टहरै बदे निकरलन। ‘महरा’ अपनी बखरी में सोना की चौकी पर जमल रहल, राजा के ओरी देखबौ न कईलस। राजा दू-एक बार खंखारलस तब्बौ नाहीं। राजा ने महल में लौट कर सिपाही भेज कर ‘महरा’ के बुलाय कै कौड़ी खेलै के दाँव फेंकलस – हम दुन्नो हई बरब्बर बकी राजा तो एक्के रही दुन्नो में से, जे जीतै, ओही रहै। ‘महरा’ मान गइल। राजा बिराजै राजगद्दी पै, ओ ‘महरा’ कथरी पर।  कौड़ी फेंकावै लागल खड़ाभड़। घोड़ा-घुड़शाल, हाथी-हथिसार, घटिहटा गाँव, अगोरी पाल, किला-दरबार, राजा की गद्दी। एक पै एक, महरा कुल जीततै गईल। राजा कान पकरि के निच्चे ओ ‘महरा’ चढ़ल सिंहासन उप्पर।
राजा मुँह लटकाये बन में चलल। राह में भेष रखवले बरह्मा मिल गइलन। राजा के लिलारे पै लिखल तुरतै बाँच के बतउलें – वापिस अगोरी जाओ, साहोकार से धन उधारी जुटा के फिर से कौड़ी खेलौ, राज-पाट वापिस पाय जउब्या।
अबकी ‘महरा’ सिंहासन पर ओ राजा कुश की कथरी पर। फिन फेंकावै लागल कौड़ी – घोड़ा-घुड़शाल, हाथी-हथिसार, घटिहटा  गाँव, अगोरी पाल,  किला-दरबार, राजा की गद्दी। एक पै एक, राजा जिततै चलल। सब जीत कै आखिरी दाँव में ‘महरिन’ कै कोखवौ ओकर हो गइल – लइका भया तो घुड़साल में सईस, ओ लइकी भई तो रनिवास में दासी।
महरिन के कोख से एक-एक कर छह कन्या जनमतै राजा के रनिवास गयीं। सतवीं कै जनमले दिग-दिगंत में परकास फैल गया, पहरन सोना बरसा। महरिन के कहे उसका भाई ‘सोबाचन’ नेग देवै बदे सेर भर सोना गँठियाय कै, नाल-छेदन बदे, नोना चमाइन के ली-आवै दौड़ल। बकी मौका लउक कै नोनवौ तमक गइल – सतवंती कन्या जनमल हौ पालकी-कहार ली आवा तब्बै चलब। वो भी आया, तो सोलह नाहीं बत्तीस सिंगार किये, चार-चार अंगुल पै सोना कै तार जड़ल चटकत दखिनिही साड़ी पहरि कै चलल। सतवंती कन्या जनमल रहल, सोना के कटारी से नाल कटल। राजा सुनलस तो इहौ कन्या के महल में ली आवै लपकल।’
महरिन ने बड़ा दु:ख पाया था, अब तक जनमते ही छह कन्याएँ छिन चुकी थीं। इस बार चातुरी बानी बोली – ‘इसे लेकर आप क्या करेंगे महाराज? माता का दूध पिलाया तो बहिन, बहिन का पिलाया तो भयनी, और, रानी का पिलाया तो पुत्री। फिर, आप इसका भोग कैसे करेंगे, महाराज? मेरा दूध पिएगी, तो जल्दी युवती हो जाएगी। किसी अहीर से ब्याह देंगे, हमारा धरम रह जाएगा। फिर, आप बलपूर्वक उसे अपने रनिवास में  रख लीजिएगा।’
ई बात राजा के जँच गइल।
कन्या के नाम धराइल ‘मँजरी’। दिन दूना, रात चौगुना बढ़ी। अनिन्न सुन्नरी निकरी। उसकी सुंदरता की खबर पंख लगाये चौतरफा उड़ चली। अगोरी के राजा ‘मुलागत’ ने सुना, तो उसे पाने को अकुलाया।
‘मँजरी’, जनम कै बिलक्षण। राजा को वारने को राजी नहीं और राजा से लड़कर उससे ब्याह करे, तो कौन? राजा से ठान कर धरती-आकाश-ओ-पाताल में रहत तो कहाँ?
ओहर ‘गौरा गाँव’ में रहा एगो अहीर, नाम धराइल रहल ‘लोरिक’। बेहिसाब साहस ओ ताकत कै धनी। जे ओसे टकराय ढहि जाय। एक बारी ‘सोन’ ओ लोरिक में ठन गइल। कंडाकोट पहाड़ से पाथल लाये कै लोरिका सोन कै धारा पाट देहेलस। आवाज लगाये, तो बादर थर्राए, कदम धरे धरती धमके, एक्कै परग में सोन छलाँग जाय।
लोरिका कै करतब मँजरी लै पहुँचल, तो मनै मन नेह जागल। साध उठल कि ओही से बियाह करब। लोरिका के पता चला, तो बारात लै के अगोरी आ धमकल, ओ तलवार कै दम पर डोला लेवाय गइल। केकर बल जो लोहा ले ओसे। बकी, मारकुंडी घाटी पार करते-करते मँजरी ने लोरिका की परीछा लेने की गरज से लोरिका को ललकारा कि सामने की चट्टान तलवार के एक्कै वार में काटा त जानी तोके? लोरिका की तलवार वज्र सी चली, चट्टान का एक हिस्सा गिर गया, दूसरा जस का तस रहा, दूर तक चिंगारी चटक गयी।
अब मँजरी ने दूसरी चुनौती रख दी- ऐसन कटे कि जस के तस खड़ी रहे।
लोरिका उहौ कै के देखाय देहलस।
दो फाँक कटल ऊ  चट्टान आजऊ  खड़ी बा उहाँ, लोरिका पाथल के नाम से पूजल जा ली। सीनुर फूटा ला ओसे। शादी के बाद सब दुलहिन ऊ  सीनुर माथे धरैं ली, लम्मा सुहाग बदे।’

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पवन ऐसा डोलै ( यात्रा-संस्मरण)
राकेश तिवारी
सहयोग राशि : 275 रुपये
ISBN : 978-93-87773-20-2
प्रकाशक
रश्मि प्रकाशन
204, सनशाइन अपार्टमेंट,
बी-3, बी-4, कृष्णा नगर, लखनऊ-226023

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प्रेम और कुमाऊँनी समाज के प्रेम का उपन्यास ‘कसप’

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साहित्यिक कृतियों पर जब ऐसे लोग लिखते हैं जिनकी पृष्ठभूमि अलग होती है तो उस कृति की व्याप्ति का भी पता चलता है और बनी बनाई शब्दावली से अलग हटकर पढ़ने में ताज़गी का भी अहसास होता है। मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास ‘कसप’ पर चन्द्रमौलि सिंह की इस टिप्पणी को पढ़ते हुए ऐसा ही अहसास हुआ। हिंदू कॉलेज में मेरे पुराने सहपाठी चन्द्रमौलि भारत सरकार में आला अफ़सर हैं लेकिन साहित्य से अनुराग गहरा है। ख़ूब पढ़ते हैं, अब आग्रह है कि इस तरह किताबों पर लिखा करें- प्रभात रंजन

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अब इस कालजयी रचना की रिव्यू क्या लिखूँ में? हिंदी साहित्य में जिसकी भी ज़रा भी अभिरुचि होगी, क्या नहीं पढ़ी होगी उसने ये किताब? क्या नहीं जानते होंगे लोग इसके कथानक को? क्या नहीं आयी होगी एक साथ उनके चेहरे पे मुस्कान और आँखों में नमी, इस उपन्यास को पढ़कर? सो ज़्यादा कुछ नहीं कहूँगा, बस इतना ही की, क्या उपन्यास है यार!

वैसे तो इसे आसान लफ़्ज़ों में संज्ञातीत करना हो तो यही कहेंगे के एक असफल प्रेम कहानी है, पर मेरे हिसाब से ये पुस्तक उससे कहीं ज़्यादा है, कई चीज़ों को इंगित करती हुई..प्रेम तो पुस्तक के सेंटर में रचा बसा है ही, और आपका इस प्रेम सम्बंध को देखने का अपना अपना नज़रिया हो सकता है..वो कहते हें ना, ‘इश्क़ की दास्तान है प्यारे, अपनी अपनी ज़ुबान है प्यारे..’! सो आप इसको अपने परिष्कृत नज़रिये से देखिए या फिर भदेस से, आपकी मर्ज़ी..सो जिन लोगों ने नहीं पढ़ी, उनको बताता चलूँ के ये कहानी है अनाथ, सुशील, सहित्यनिषट्, कथाकार, उपन्यासकार, देवदत्त उर्फ़ डीडी की जो बॉम्बे फ़िल्म जगत में अपनी पैठ बनाने की कोशिश कर रहा है, और अल्हड़, खिलंदर, मस्तमौला बेबी उर्फ़ मैत्रेयी की, उनके असफल प्रेम की…दोनो की मुलाक़ात होती है एक शादी के ज़नवासे में, और फिर नायक को एकदम से और नायिका को धीरे धीरे से, हँसी मज़ाक़ और खिलंदरी करते करते प्यार हो जाता है नायक से। जैसा अमूमन होता है, बेबी के परिवारवालों, ख़ास कर उसके भाई और भावज को बिलकुल ही नहीं भाता ये प्यार। लड़का अनाथ, कुछ ख़ास करता नहीं, खास आमदनी भी नहीं, भला ऐसे में कोई परिवारजनों पसंद करे भी तो कैसे? पर प्रेमी प्रेमिका कहाँ मानने वाले थे..उनकी ज़िद के आगे झुकना पड़ा बेबी के माता पिता को और तय हो गयी दोनो की शादी। पर फिर नायक पे सवार होती है धुन अमेरिका जा कर कुछ बनने की, और उसको अमेरिकी विश्वविद्यालय में दाख़िला ले कर आगे फ़िल्म बनाने की पढ़ाई करने को उत्प्रेरित करती है फ़्रांसीसी प्रोड्यूसर गुलनार, जिसके साथ वो एक प्रोजेक्ट में काम कर चुका था। बेबी को उसके अमेरिका जाने की बात समझ में आती नहीं, खास कर के जब उसने उसे पा लिया है, उनकी ज़िन्दगी अब साथ गुजरने वाली है, एक हो कर! वो उसे रोकने की कोशिश करती है, पर असफल होने पर ख़त्म कर देती है उस से रिश्ता ! बेबी जिसने आपने आप को डीडी का व्याहता मान लिया था, अब अपने आप को विधवा मान बेबी से मैत्रेय, विदुषी मैत्रेयी, बनने की राह पर अग्रसर हो जाती है, खो देती है अपने आप को किताबों और पठन पाठन में। मेरे हिसाब से कई रिश्ते इस अमेरिका जाने, कुछ नया बन जाने की बलि चढ़ गए हैं, और जब इंसान उस रिश्ते के ख़त्म होने के झंझावात से गुज़र रहा हो, वो रिश्ते जो उसने अटल और अमर मान लिए हों, जिसपर उसका यकीन से ज़्यादा विश्वास हो चला हो, ऐसे रिश्तों के खात्मे पे, किताबों और पठन पाठन में डूब जाना इस चित्त चिता की अग्नि को शमन करने का सबसे बेहतरीन तरीक़ा होता है…. एक तो किताबें एक नयी दुनिया खोल देती हैं, और समय भी अच्छा खासा खा जाती हैं आपका ….

वैसे, क्या जो भी फैसले उन दोनों ने लिए, वो सुख दे पाए दोनों को, इसका जवाब ही है उपन्यास का शीर्षक, ‘कपस’….एक कुमाऊनी शब्द, जिसका अर्थ है, ‘क्या मालूम ‘!मनोहर श्याम जोशी जी ने इस उपन्यास के शीर्षक के बारे में लिखा था, ‘.. पर इस कथा के जो भी सूझे मुझे विचित्र शीर्षक सूझे। कदाचित इसलिए कि इस सीधी-सादी कहानी के पात्र सीधा-सपाट सोचने में असमर्थ रहे।”

वैसे यह किताब सिर्फ बेबी और डी डी की प्रेम कहानी ही नहीं है, यह कुमाऊनी समाज, उसके रहन सहन का एक आईना भी है.. उपन्यास की भाषा मूलतः कुमाऊनी ही है, और यह कहते मुझे कोई झिझक नहीं हो रही की रेणु के मैला आँचल के बाद यह आंचलिक बोली की सबसे बेहतरीन रचना है. कुमाऊनी सामाजिक परिप्रेक्ष को लेखक ने जैसे कागज़ पे उकेर कर जीवंत कर दिया है. उदहारण के तौर पर ये देखिये किसी नव अवंतुक के परिचय का तरीक़ा, “कौन हुए’ का सपाट सा जवाब परिष्कृत नागर समाज में सर्वथा अपर्याप्त माना जाता है। यह बदतमीजी की हद है कि आप कह दें कि मैं डीडी हुआ। आपको कहना होगा, न कहिएगा तो कहलवा दिया जाएगा, मैं डीडी हुआ दुर्गादत्त तिवारी, बगड़गाँव का, मेरे पिताजी मथुरादत्त तो बहुत पहले गुजर गए थे, उन्हें आप क्या जानते होंगे, बट परहैप्स यू माइट भी नोइंग बी.डी तिवारी,वह मेरे एक अंकल ठहरे…..वे मेरे दूसरे अंकल ठहरे। उम्मीद करनी होगी कि इतने भर से जिज्ञासु समझ जाएगा। ना समझा तो आपको ननिहाल की वंशावली बतानी होगी।’ वैसे उपन्यास इस बात से भी पाठकों को इंगित कराती है की भाषा चाहे कोई भी हो, भावनाओं के सम्प्रेषण में कभी बाधक नहीं बनतीं.. उपन्यास में वह प्रसंग जहाँ नायक नायिका को पत्र लिखता है, पर नायिका उनको इतना गूढ़ पाती है की वो पत्र अपने पिता को दे देती है, की पढ़ें और उसे समझाएं की उसके प्रेमी ने आखिर लिखा क्या है! अब ऐसे प्रसंगों से आपके चेहरे पे मुस्कान आएगी ही.. और जब उसके पिता उसे नायक के पत्र समझते हैं, तो नायिका जवाब में लिखती है, ‘तू बहुत पडा लिखा है। तेरी बुद्धी बड़ी है। मैं मूरख हूँ। अब मैं सोच रही होसियार बनूँ करके। तेरा पत्र समझ सकूँ करके। मुसकिल ही हुआ पर कोसीस करनी ठहरी। मैंने बाबू से कहा है मुझे पडाओ।….हम कुछ करना चाहें, तो कर ही सकनेवाले हुए, नहीं? वैसे अभी हुई मैं पूरी भ्यास (फूहड़)। किसी भी बात का सीप (शऊर) नहीं हुआ। सूई में धागा भी नहीं डाल सकने वाली हुई। लेकिन बनूँगी। मन में ठान लेने की बात हुई। ठान लूँ करके सोच रही।’ वैसे ही जैसे की नायक नायिका अपने प्रेम के इज़हार करते हैं, ‘जिलेम्बू’ कहकर! कई शब्द सिर्फ शब्द न होकर प्रतीक हो गए हैं इस कहानी में, ‘मरगाठ’ क्या सिर्फ शब्द है, या एक मानसिक दशा?

जोशी जी की अन्य रचनाओं की तरह एक बात जो इस रचना में भी उभर कर आती है वो है मजबूत नारी चरित्र और लुंज पुंज पुरुष करैक्टर. बेबी भले ही खिलंदड़ हो, अल्हड़ हो, उसमे एक स्थिरता है. जब एक बार उसने ठान लिया की डी डी से ही करेगी व्याह, स्वीकार करेगी उसको उसकी हर कमी के साथ, तो फिर उसका इरादा टस से मस नहीं हुआ. नायक को दे दिया जनेऊ, और मान लिया पति गणानाथ के सामने, वो भी तब जब उसका विवाह किसी और से तै हो चुका था. सारे समाज से भिड़ गयी वो और करा ली अपनी बदनामी …. नायक जब परिवार की दुहाई देता है तो फूट पड़ते हैं ये बोल उसके मुख से, ‘झे मुझसे सादी करनी थी कि मेरे घरवालों से? मुझसे करनी थी तो मैं कह रही हो गई सादी। मेरी सादी के मामले में मुझसे ज्यादा कह सकने वाला कौन हो सकने वाला हुआ? मैंने अपनी दादी की सादी वाला घाघरा-आँगड़ा पहनकर माँग में गणानाथ का सिंदूर भरकर अपने इजा-बाबू, ददाओं-बोज्यूओं सारे रिश्तेदारों के सामने कह दिया उसी दिन गरजकर : मेरी हो गई उस लाटे से सादी। कोई उस पर हाथ झन उठाना। कोई उसे गाली झन देना। तब उन्होंने कहा ठहरा : बच्चों का खेल समझ रखा सादी? अब तू भी वही पूछ रहा ठहरा।’ इसके बरक्श नायक हर समय दुविधा में ही दीखता है, आत्म प्रवंचना और आत्म संदेह से ग्रसित. कई बार उपन्यास पढ़ते समय ऐसा लगा की उसे झगझोरूँ और पूछूं की अबे तू चाहता क्या है बे? किस चीज़ की तलाश में अकारण बजे चला जा रहा है, भागे जा रहा है. ज़िन्दगी तुझे ठहराओ देना चाह रही है, और तू है के.. मुक़म्मल जहाँ मिलता नहीं है किसी को, उन्ही कमियों में मुक़म्मलता तलाशनी पड़ती है!

एक और चीज़ जो उभर कर सामने आती है वो है १९५० के दशक का भारतीय समाज. आज़ादी के बाद होती तब्दीलियां. आधुनिकता धीरे धीरे पैर पसार रही थी, सामाजिक परिवर्तन धीरे धीरे हो रहा था. एक और चीज़ जो उभर कर सामने आती है वह है, सामाजिक परिप्रेक्ष में सफलता का मयार … आईएएस अधिकारी बनना भारत में उस समय शायद सफलता और कुलीन होने का सबसे बड़ा पैमाना माना जाता था….नेहरुवियन भारत में अर्थ पैदा करने वालों की शायद उतनी पूछ नहीं थी, जितनी की अर्थ को व्यवस्थित और रेगुलेट करने वालों की. बेबी की जुबां में कहें तो ‘घोड़े की जीन’ (इसका कॉन्टेक्स्ट तो पाठक समझ ही गए होंगे) पर चाबुक चलनेवालों की पूछ घोड़े से कहीं ज़्यादा थी.

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हे मल्लिके! तुमने मेरे भीतर की स्त्री के विभिन्न रंगो को और गहन कर दिया

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अभी हाल में ही प्रकाशित उपन्यास ‘चिड़िया उड़’ की लेखिका पूनम दुबे के यात्रा संस्मरण हम लोग पढ़ते रहे हैं। आज उन्होंने वरिष्ठ लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ के चर्चित उपन्यास ‘मल्लिका’ पर लिखा है। आपके लिए- मॉडरेटर

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मनीषा कुलश्रेष्ठ जी की किताब मल्लिका पर लिखते हुए मुझे क्लॉड मोनेट की कही यह पंक्तियाँ याद आ गई “हर कोई मेरी कला पर चर्चा करता है और समझने का प्रदर्शन करता है, जैसे कि समझाना आवश्यक था. जबकि जरूरत है तो केवल प्यार की.” कुछ ऐसी ही फीलिंग मुझे भी आई मल्लिका को पढ़ते समय. कितना समझी हूँ यह तो नहीं पता लेकिन प्यार जरूर है मल्लिका से! और उसी प्यार को मैंने यहाँ व्यक्त करने की कोशिश की है शब्दों में.
सही मायने में ‘मल्लिका’ मुझे एक आर्ट फ़िल्म की तरह लगी. जिस तरह आर्ट फ़िल्म में स्टोरीलाइन के अलावा उसका मुख्य एसन्स, उसकी खूबसूरती उसके सफ़र में छुपी होती है. उसी तरह इस किताब का एसन्स मुख्य किरदार मल्लिका’ की जर्नी और उन्नीसवीं सदी के चित्रण किए गए परिवेश में है.
भारतेन्दु की प्रेयसी मल्लिका पर लिखी यह किताब हमें उसी पुराने एरा में लेकर जाती है. मन का ट्रांज़िशन इतनी सहजता से प्रेजेंट से उन्नीसवीं शताब्दी में हो जाता है मानो कि यह यात्रा टाइम ट्रैवेलिंग मशीन में तय किया हो. उस समय का परिवेश कैसा था, लोग किस तरह से बात करते थे, या किस तरह के कपड़े पहनते थे इन सब का विवरण इतनी बारीकी से किया गया है कि मनीषा जी की कल्पनाशक्ति के आधार पर लिखी यह किताब मेरे लिए अब ऐतिहासिक मल्लिका का सच है. आश्चर्य की बात यह है कि मल्लिका को पढ़ते समय आप स्वयं को एलियन नहीं महसूस करते है बल्कि उसी एरा का हिस्सा बन जाते हैं.
किताब की इक्स्पीरिएंशल वैल्यू इतनी ज़्यादा है कि बतौर पाठक मुझे जल्दी-जल्दी पन्ने पलटकर अंत तक पहुंचने की कोई अधीरता नहीं थी. मैं पीरियड ड्रामा की बहुत बड़ी फैन हूँ इसलिए इस किताब में मल्लिका के चित्रण, भारतेन्दु और उनके के बीच के प्रेम ने मेरी कल्पना को अप्लिफ्ट किया है. खासकर तब जब कि इस समय में भी मल्लिका के बारे में ऑनलाइन या गूगल पर पढ़ने के लिए कोई ख़ास मटेरियल नहीं उपलब्ध है.
मल्लिका से आकर्षित न होना लगभग नामुमकिन है. स्वभाव से वह सरल और सहज है लेकिन अपने अधिकारों और सोच के प्रति सचेत है. नियति के खेल के कारण मल्लिका बचपन में ही बाल विधवा हो जाती है परंतु अपने आप को अबला न समझकर वह अपनी राहें खुद चुनती है. उसका रिबेल्यस स्वभाव गवाह है नारी शक्ति का. वह भारतेन्दु से सच्चे मन से प्यार करती है और बिना किसी अपेक्षा के उनसे तक जुड़ी रहती है. प्रेम में समर्पण का प्रतीक है मल्लिका. उस समय में एक जागरूक स्त्री होने के बावजूद अंत में वह सब कुछ त्याग देती है भारतेन्दु के प्रेम में. यह सब बातें कई सवाल उठा गई मन मेरे में।
इस बात का मुझे दुख है कि हिंदी को उपन्यास की विधा से परिचित कराने वाली मल्लिका का इस बारे में कोई जिक्र नहीं. लेकिन खुशी इस बात की है कि मनीषा जी ने इतिहास के पन्नों में धूमिल हो रही इस बेहतरीन किरदार को इस किताब के जरिये फिर से जीवित कर दिया है.
किताब में तो वैसे बहुत सी ऐसी पसंदीदा लाइनें है जिन्हें मैंने अंडरलाइन किया है लेकिन यह कुछ मेरी बेहद ख़ास है.
पहाड़ जाकर नदियों को तो नहीं देखा मगर सुना है उनके स्रोत बहुत छोटे या अदृश्य गड्ढे होते हैं। उनका कुछ चिन्ह नहीं मिलता। आगे बढ़ने पर थोड़ा-सा पानी सोते की भाँति झिर-झिर बहता हुआ दिखता है और आगे बढ़ने पर इसी की हम एक पतली धार पाते हैं। यही पतली धार कुछ और आगे बढ़कर और कई एक दूसरे पहाड़ी सोतों से मिलकर एक नदी बन जाती है। कलकल-कलकल बहती है। लहरें उठती हैं। कहीं पत्थर की चट्टानों से टकरा कर छींटे उड़ाती है। फिर बड़ी नदी बनती है और बड़े वेग से समुद्र की ओर बहती है।
हमारी चाहों का भी यही ढंग है, पहले जी में इसका कोई चिन्ह नहीं होता। पीछे धीरे-धीरे उसकी एक झलक सी इसमें दिखलाई देती है। कुछ दिन और बीतने पर उसकी एक धार-सी भीतर-ही भीतर फूटने लगती है पीछे यही धार फैलकर जी में घड़ी-घड़ी लहरें उठाती है। अठखेलियाँ करती है। अड़चनों से टक्कर लगाती है और अपने चहेते की ओर बड़े वेग से चल निकलती है।
अंत में यही कहना चाहूंगी हे मल्लिके, तुमने मेरे भीतर की स्त्री के विभिन्न रंगो को और गहन कर दिया. उसकी सचेतन समर्पण और स्वावलंबन को और भी उजागर कर दिया।

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उपन्यास ‘मल्लिका’ राजपाल एंड संज से प्रकाशित हुआ है। 

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ब्लू व्हेल’गेम से भी ज़्यादा खतरनाक है ‘नकारात्मकता’का खेल

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संवेदनशील युवा लेखिका अंकिता जैन की यह बहसतलब टिप्पणी पढ़िए- मॉडरेटर
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हम बढ़ती गर्मी, पिघलती बर्फ़ और बिगड़ते मानसून के ज़रिए प्रकृति का बदलता और क्रूर होता स्वभाव तो देख पा रहे हैं, पर क्या तकनीकि के दुरुपयोग से अपने बदलते और क्रूर होते मिज़ाज़ को समझ पा रहे हैं?
कुछ महीनों पहले बच्चों के जीवन और भविष्य से जुड़े ऐसे मामले आए जिन्होंने हमें सचेत किया। बच्चों के बीच बढ़ते इंटरनेट गेम्स के चलन ने कई जगह उन बच्चों को मौत के मुँह में धकेला। इन गेम्स का असर बच्चों में तेजी से बढ़ते ज़हर की तरह दिखा। लेकिन, क्या आप जानते हैं कि आप पर, मुझ पर, और हमारे आसपास के कई लोगों पर एक धीमे ज़हर का असर बढ़ रहा है।
इस धीमे ज़हर का नाम है राजनैतिक एजेंडों के तहत फैलाई जा रही नकारात्मकता, जिसने हम मनुष्यों को असल और बेहद ज़रूरी मुद्दों से भटकाकर बस कुछेक बातों में बुरी तरह उलझा दिया है। इस उलझन का असर हमारी सोच, व्यवहार और मानसिकता पर पड़ रहा है।
मैं निजी अनुभव बांट रही हूँ, सभवतः आपमें से या आपके आसपास कुछ लोग और हों जो इससे इत्तेफ़ाक़ रखते हों। कोशिश करें कि अपने भीतर घुस रहे इस धीमे ज़हर के द्वार का पता लगा पाएँ और इससे निज़ात पाएँ।
पिछले एक साल में मैंने अपने भीतर कई बदलाव महसूस किए हैं। बदलाव जैसे कि मैं बहुत ज्यादा नकारात्मक हो गई हूँ, जीवन के प्रति भी और समाज-माहौल के प्रति भी। मेरे भीतर डर बढ़ गया, अपने बच्चे के लिए बहुत ज्यादा डर। मेरे भीतर गुस्सा, शोर्ट-टेम्परनेस, शिकायती रवैया और अवसाद बढ़ गया है। मुस्कुराहट कम हो गई है, ज़िन्दगी से शिक़ायतें बढ़ गई हैं।
पिछले वर्ष जब कठुआ बलात्कार की घटना सामने आई तब मैं कुछ ऐसे लोगों से जुड़ी थी जो बहुत अधिक राजनैतिक रूप से एक्टिव, किसी विशेष सोच, पंथ के समर्थक हैं। वे सच्चे हैं या नहीं, मैं नहीं जानती लेकिन जो मैंने अनुभव किया वह यह कि वे हर बात में नकारात्मकता ढूंढ लेते थे, खामियां ढूँढ लेते थे। मैं भी उनके संपर्क में रहकर वैसी ही होने लगी। वैसा ही लिखने लगी, सोचने लगी। हर बात में हाय-हाय चिल्लाना या राजनैतिक सोचना मेरे भीतर घूमने लगा। उन लोगों से कुछ ही महीनों बाद मेरा संपर्क टूट गया। लेकिन, मेरे भीतर वह बातें घूमती रहीं। इसी बीच देश का माहौल चुनावों की वजह से एक अलग रंग में रंगा दिखा। हर तरफ से सिर्फ नकारात्मक खबरें ही सुनाई पड़ती-दिखाई पड़तीं। दोनों ही पक्ष के लोग एक-दूसरे को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। प्रोफाइल में भी जाने कहाँ से अचानक से दोनों ही पार्टियों के समर्थक कुकुरमुत्तों की तरह उग आए थे। ये वे लोग थे जो पहले सामान्य रूप से पोस्ट आदि करते थे, लेकिन चुनाव नज़दीक आते ही अपने असली रंग में दिखाने लगे। दो प्रोफाइल जिनमें से एक लाल-कृष्ण आडवानी की बन गई, एक राहुल गाँधी की। ढूंढ-ढूंढकर मैंने सभी को बाहर निकाला। पर मित्रगण भी उसी तर्ज पर गाने गा रहे थे। अधिकांश लोगों के पास एजेंडे हैं यहाँ। सभी किसी ना किसी धागे को पकड़कर आगे बढ़ रहे हैं।
इसी बीच बच्चों से सम्बन्धित कई नकारात्मक खबरें आती रहीं। कहीं किडनैप के बाद क़त्ल हो रहा था कहीं बलात्कार। और अब किसी बुख़ार की वजह से मृत्यु। ये सभी अपराध या मौतें जातिवाद के खेमों में बंट जाती हैं। समस्या का समाधान ढूँढने की जगह सब जगह बस दो दिन हाय-हाय, दोषारोपण करके हम संतुष्ट हो जाते हैं। मसलन यह दोषारोपण हमारे लिए इन्हेलर बन गया है और साँस फूलते ही हम इससे थोड़ी साँस भर लेते हैं। पर यही हाय-हाय, दोषारोपण कुछ लोगों की मानसिकता पर असर डालते हैं। कुछ मेरे जैसे लोग जिनके पास निजी एजेंडे नहीं हैं और जो स्क्रीन से हटते ही फौरन एक अलग दुनिया में नहीं जा पाते।
मैं यह सब देखते हुए आगे बढ़ रही थी लेकिन यह सब धीमे-धीमे मेरी मानसिक स्थिति को कहीं-न-कहीं ज़ख्मी कर रहा था। इसका आभास उस दिन हुआ जब किसी नकारात्मक/उत्तेजित/क्रन्तिकारी पोस्ट को पढ़ने के कुछ समय बाद मेरा शोर्ट-टेम्पर मेरे दो साल के बेटे पर निकला। जबकि वह एक बहुत समझदार और सभ्य बच्चा है फिर भी मैं अचानक ही उस पर इतना गुस्सा क्यों करने लगी हूँ? मेरा धैर्य बहुत कमज़ोर हो गया है और सहनशीलता भी।
मैं आजकल उस पर ज़रा-ज़रा सी बात पर गुस्सा करने लगी हूँ। वह घर से बाहर जाता है तो डर जाती हूँ। दिल्ली में पढ़ाई कर रही बहन के लिए हर समय चिंताग्रस्त रहती हूँ। बेटे को सकारात्मक माहौल देने की जगह मैं सोशल-मीडिया पर उपजी फेक-क्रांति का ग्रास बनती जा रही हूँ। मैं किसी अवसाद में घिरती जा रही हूँ और हर समय चिंता में रहती हूँ। मुझे हर समय हर किसी से शिकायतें रहने लगी हैं। यह मेरा स्वाभाव नहीं था। शांति से बैठकर सोचने और ऑनलाइन मनोरोग विशेषज्ञ से मदद लेने के बाद मुझे अपने भीतर के इन आक्रामक बदलावों की वजह समझ आईं। जो है मेरे आस-पास बिखरी नकारात्मकता।
यह सच है कि हम सभी एक ज़िम्मेदार नागरिक हैं। ग़लत के ख़िलाफ़ लिखना, बोलना, सचेत रहना, आवाज़ उठाना हमारी जिम्मेदारी है। पर, इस सबमें कहीं हम अपने आसपास का, अपने भीतर का कोई सुकून तो नहीं खोते जा रहे हैं? कहीं हमारे स्वभाव में बिना वजह की उत्तेजना तो नहीं बढ़ती जा रही? कहीं हम हर समय नकारात्मक तो नहीं रहते? हर समस्या को एक ही सिरे से तो नहीं पकड़ते? क्या हम निजी या आसपास के माहौल में सुधार की जमीनी कोशिशें कर रहे हैं?
यह सच है कि सोशल मीडिया पर लिखकर बोलकर आप-हम किसी दबी आवाज़ को ऊपर उठा सकते हैं। पर, उससे भी बड़ा सच यह है लिखते हुए आप जो लिख रहे हैं उसका गहरा असर आप पर पड़ता है यदि आप डूबकर लिख रहे हैं। और यह भी कि मेरी तरह आप नन्हे भविष्य के माता-पिता, दादा-दादी, बुआ-चाचा-मौसी हैं।
हमारा पहला कर्तव्य उस नन्हे भविष्य को एक सुन्दर सकारात्मक माहौल देना है। उसे सभ्य और सुसंस्कृत बनाना है। उसे ज़िम्मेदार बनाना है। उसे समस्याओं से लड़ना, उनके हल ढूंढना सिखाना है न कि उनके लिए सिर्फ चिल्लाना और दूसरों पर दोषारोपण करना। उसे एक बेहतर इंसान बनाना है। सोशल मीडिया पर ही क्रांति लिखकर आप-हम शायद अपने समय और जीवन दोनों को ग़लत दिशा में मोड़ देंगे।
निष्कर्षतः हम समस्याओं को लिखें पर उससे पहले उनके कारण खोजें, उन्हें समझें। और यकीन मानिए हर समस्या पर आपका लिखना उतना ज़रूरी नहीं जितना ज़रूरी आपके बच्चे के हर सवाल का जवाब देना या उसके लिए हर समय मौज़ूद होना है।
सोशल मीडिया से भागना इलाज नहीं है, वरन वहां कम से कम अपने द्वारा एक सकारात्मक माहौल बनाने की कोशिश करना इलाज है ताकि मैं या मेरी तरह जो लोग अनजाने में ही जिस अवसाद/नकारात्मकता/गुस्से में डूब रहे हैं, उससे उबर पाएँ। साथ ही उन लोगों/मित्रों से भी दूरी बनाएं जिन्हें अपने निजी एजेंडों के तहत सिर्फ जातिवाद-धर्मवाद-पार्टीवाद लिखना-बोलना है।
किसी भी पोस्ट को पढ़ते समय ध्यान दें कि क्या वह उत्तेजक/नकारात्मक/राजनैतिक उद्देश्यों/जातिवादी/धर्मवादी इनमें से आपके भीतर की किसी भी भावना को ट्रिगर कर रही है। यदि हाँ तो वह उसी ख़तरनाक खेल का हिस्सा है। उससे जितना हो सके बचकर रहिए और समस्याओं के हल ढूँढिए, उसका इतिहास खोजिए, उसकी पैदाइश कब और कैसी हुई। खोजिए। सिर्फ दोषारोपण किसी समस्या, किसी अपराध, किसी बीमारी का इलाज नहीं है। इलाज उसकी गहराइयों में जाकर उसका हल ढूँढना है।
यदि आपको अपने या अपने आसपास किसी के भी भीतर गुस्सा, शोर्ट-टेम्परनेस, शिकायती रवैया और अवसाद के लक्षण बढ़ते नज़र आएं तो जागरूकता बढ़ाइए, सोचिए, आत्ममंथन कीजिए और खुशियों के रास्ते ढूँढिए 😊
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अंकिता जैन की पुस्तक ‘मैं से माँ तक’ इन दिनों विशेष चर्चा में है। 

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किन्नौर- स्पीति घाटी : एक यात्रा-संस्मरण

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कमलेश पाण्डेय वैसे व्यंग्यकार हैं लेकिन यात्रा इनका जुनून है। इनका यह यात्रा संस्मरण पढ़िए- मॉडरेटर

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पहाड़ आमतौर पर बड़े मनोरम जगह होते हैं. ख़ास कर उनके लिए जो वहां घूमने –फिरने जाते हैं. उनके पास खूब सारे गर्म कपडे और गर्म खाना-पीना होता है. साथ ही जलेबी जैसी सडकों पर सलीके से चलने वाली ड्राइवर युक्त आरामदेह गाड़ी भी होती है और होता है खूब सारा रसूख और पैसा, जिनकी मदद से दुर्गम से दुर्गम पहाड़ों में भी हर किस्म का रास्ता निकल आता है. यही पहाड़ उन लोगों के लिए भी मनोरम ही होते हैं जिनके पास मुग्ध होने के लिए एक जोडी आँखें और संजो लेने के लिए कैमरे की लेंस होती है और होता है प्रकृति को सराहने का भरपूर जज्बा. ये लोग थोड़ी-बहुत सहूलियतें जुटा कर उन मुश्किल राहों पर निकल पड़ते हैं जिन पर एक ऎसी यात्रा संपन्न हो जिसका संस्मरण लिखा जा सके.

जानते बूझते दुनिया की सबसे विकट सड़कों में से एक से होते हुए इतनी ऊँचाई पर चढ़ते जाना कि फेफड़े ऑक्सीजन मांगने लगें, ठीक-ठाक मात्रा में सनक की मांग करता है. उस पर भी आप की जिद हो कि इन उंचाईयों को आप अपने परिवार के साथ ही लांघेंगे, तब ये संदेह हो सकता है कि आप व्यंग्यकार हैं और कुछ भी सोच, लिख और कर सकने का माद्दा रखते हैं. पर यहाँ स्पष्ट कर दूं कि किन्नौर और स्पीती की यात्रा प्रकृति से एक बेहद आत्मीय साक्षात्कार होने के अलावा आपको उफ़ कहने को मज़बूर न कर एक शांत-चित्त सी अनुभूति या कहें तृप्ति देती है. यहाँ प्रकृति के उतार चढाओं की विसंगति भी एकदम संगति में है. नज़ारा ऐसा है कि व्यंग्यकार कवि हो जाए, सहज संभाव्य है.

यहाँ पहुँचने और होने के दौरान रास्तों की दुरुहता से चाहें तो जीवन दर्शन के सबक लें, पर ये तय है कि ढेर सारी सकारात्मक प्रवृत्ति और एडवेंचर की सनक की हद तक ललक के बिना ये यात्रा नहीं की जा सकती.  इस यात्रा में आप धरती की अंदरूनी करवटों से चरमराते पहाड़ों के उठान-ढलानों पर रेंगती सड़कों को पहाड़ों से ही एकाकार देख खुद को पहाड़ों की गोद में खेलता महसूस करेंगे. कभी नीले झक्क आकाश में उजले बादलों के साथ खेलते सूरज को हैरत से देखेंगे कि यही बादल आपके शहर में आपको यों रोमांचित क्यों नहीं करते.  या फिर अपनी दीवार पर टंगी महँगी लैंडस्केप पेंटिंग के लाखों संस्करण वहां एकदम मुफ्त आंखों के आगे बिछे देख आप कुदरत के गतिमान रंगों के पैटर्न को सुकून से निहारते –क्लिक करते वक़्त बिताते सोचेंगे कि क्या ये वही आप हैं जो अपनी रूटीन ज़िन्दगी में कैसे बौखलाए-से वक्त को पकड़ने की जिद में खुद भी भागते रहते हैं. आप इस दार्शनिक उलझन में पड़ जायेंगे कि क्या ज़िन्दगी को भी प्रकृति की दुरूह -सी मगर खूबसूरत उठानों-ढलानों की तरह समन्वित कर नहीं जिया जा सकता? किन्नौर के रास्तों पर ये कोई जीवन दर्शन नहीं बल्कि क्रूर सत्य है जहां हर कुछ दूर पर बोर्ड घोषणा करते रहते हैं कि सावधान आगे सडक बेहद ख़राब है और ऊपर से पत्थर गिरते हैं (अब देख लो जी, आगे जाना है या..). और वाकई गिरते हैं. कई बार तो पूरी की पूरी सडक ऊपर से नीचे पसर आये पहाड़ की ज़द में आ जाती है और नदियों की तरह सडक को भी रास्ता बदलना पड़ता है.

गुरुत्वाकर्ष्ण के मारे भारी पत्थरों ने कई बार हमारा भी रास्ता रोका, पर सीमा सडक संगठन (बी आर ओ) को सलाम जिनकी मशीने तुरंत रास्ता साफ़ करने के काम में जुट जातीं. यहाँ ‘हम’ मेरा छोटा सा परिवार है – मैं श्रीमतीजी और हमारा युवा बेटा, जिसने हमें किन्नौर और लाहौल स्पीती की यात्रा करने को उकसाया है. हम एक गाड़ी जिसे एस यू वी कहने का चलन है, पर सवार हैं जिसको अशोक नाम का पूर्ण  सकारात्मक वृत्ति वाला हंसमुख आदमी चला रहा है. हम कुछ उत्तेजित से हैं क्योंकि रामपुर बुशहर पीछे छोड़ते ही बदलती दृश्यावली  से हिमालय की सबसे ऊंची वादियों में तीन पर्वत-श्रृंखलाओं से घिरी खूबसूरत घाटियों में बसे किन्नौर की गंध आने लगी है, जो सपनों में बसने वाले किसी गाँव जैसा होगा ऎसी आशा जगा रहा है. इस उम्मीद में महादेव शिव के दर्शन भी शामिल हैं जो यहीं किन्नर-कैलाश की चोटी पर विराजे हैं.

जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे हैं, ढलान से जैसे कदम दर कदम उतरती हरियाली, चमकीले छप्परों से आभासित होते नन्हें-नन्हें गाँव, दुनिया के सर्वश्रेष्ठ सेबों के बागीचे और सीढीनुमा खेत दिखने लगे हैं. उसे बादल नीले आकाश से कभी भालू तो कभी खरगोश बन कर बर्फीली चोटियों के कन्धों पर कूदते दिखाई देते हैं. हालांकि स्वभाववश मुझे ये बिम्ब ठीक लगता है कि वे बादल चोटियों पर यूं ही अलसाए से लदे हैं. जून के महीने में एक ठंढा मीठा अहसास फैला है. स्वर्ग के कई रूप हैं हमारी धरती पर, पर वहां तक पहुँचने के रास्ते भी उतने ही कठिन. एक दम शास्त्रों में बताये गए जैसे.

सतलुज, बसपा और स्पीती नदियों की ये घाटियाँ अपनी बनावट में अनोखी हैं. बर्फीले रेगिस्तान का हिस्सा होते हुए भी इनमें हरियाली और नरमी का आभास होता है. तीनों नदियाँ पहाड़ों की चट्टानों और भुरभुरी मिट्टी को चीरती मटमैली होती हुई सांप की चाल से नीचे उतरती हैं. आदमी ने जहां तहां इन्हें बाँध कर इनके बल निकालने की कोशिश की है. पर रुकती कहाँ है नदी. सलीके से पहाड़ों को तराशती है. आदमी की प्रकृति से उलट, जो अपना रास्ता बनाने के लिए बारूद से उड़ाता है. बारूद की ये धमक पहाड़ की छातियों में बस जाती है, उसे रह-रह कर स्खलित करती.

किन्नौर की ऊँची चोटियों को गर्दन उचका कर देखने का आनंद और आतंक एक साथ मन में लिए हम खुद को दुनिया की सबसे धोखेबाज़ (treacherous) सडक बताने वाले रास्ते से होते दस घंटों में शिमला से सांगला पहुंचे तो शाम ढल रही थी. किन्नौर की इस ख़ूबसूरत घाटी को घेरे खड़े पहाड़ों पर रौशनी और छाया का परम्परागत खेल चल रहा था. ये रोमांच किन्नौर की धरती पर होने भर से इस नाम से जुड़े तिलिस्म का भी था. हमें इस पौराणिक तथ्य कि इस जादुई सौन्दर्य वाली धरती के निवासी महाभारत कालीन किन्नौर में पांडवों को अज्ञातवास के सबसे रोमांटिक दौर में शरण देने वालों के वंशज बसे हुए हैं, के अलावा ये भौगोलिक तथ्य भी रोमांचित करता रहा कि भारत से तिब्बत जाने वाले इस ऐतिहासिक मार्ग पर हाल तक सैलानियों के लिए परमिट लेना अनिवार्य था. रामपुर बुशहर से आगे चलते ही नज़ारे बदल गए थे. वांगतू पुल से किन्नौर जिले की सीमा शुरू होती है तो वहीँ करछम में बसपा का सतलुज में विलय होता है.

आगे बसपा नदी के साथ-साथ सांगला की चढ़ाई. ढाई हज़ार मीटर की औसत ऊंचाई और इतनी हरियाली. स्वच्छ चमकते नीले आकाश से नज़रें हिमशिखरों पर टिकतीं और घाटी में बहती नदी से मिलने को इठलाती हुई उतरती पतली-पतली धाराओं के साथ खुद भी उतर जातीं. इस प्राकृतिक सौन्दर्य का कहाँ तक बखान हो. बस समझ लें आँखें निर्मल हो जाती हैं. किन्नौरी स्त्रियों का सौन्दर्य भी मशहूर है, पारंपरिक परिधान में एक ख़ास तरह की टोपी और तीखे नाक-नखश से अलग ही पहचानी जाती हैं. सांगला से 14 किमी दूर रक्छम तक धूल-धूसरित टूटी सड़कों से उलझते चलने में वक़्त इतना लगा कि अँधेरा हो गया. उसपर बूंदा-बांदी भी शुरू. टिमटिमाती रौशनी में घाटी के विस्तार का अंदाजा लगाते बसपा नदी ही हहराती धारा की गूँज में लोरी सा सुनते बेहद थके हुए हम सो गए. सुबह आँख खुली तो बाहर दिख रहे नज़ारे ने कल की हाड-तोड़ यात्रा का मकसद एकदम समझा दिया. पहाड़ों को तराश कर बनाई गई डरावनी सुरंगनुमा सड़कों पर से गुजरते हुए गाडी की ह्चक के साथ आपकी चूलें भी हिलती चलती हैं पर सडक से नज़र हटा कर  नजारों पर ले जाओ तो आँखें वहीँ थमी  रह जाती हैं. बस्पा नदी ने दोनों ओर आसमान छूती चोटियों को भरसक हरे दुशाले उढा रखे थे. बर्फीली चोटियों से ऊंचे देवदार के पेड़ों की ढलान पर फिसलती हरियाली नन्हीं-नन्ही धाराओं में बंट कर पत्थरों पर शरारती बच्चे सी उछलती नदी प्रकृति की एक नायाब कलाकृति थी. दृश्यों के बारे में लिखते हुए दोहराव ज़ुरूर महसूस हो सकता है पर वहां उन्हीं पहाड़, झरने, नदियों और एक शीतल तृप्तिकारी अनुभूति में प्रतिपल एक नयापन था.

यहाँ से ज़रा और ऊपर छितकुल देख हम देखते ही रह गए. ये एक घाटी का ‘पिक्चर-परफेक्ट’ था, जहां प्राकृतिक सौन्दर्य के सभी उपकरणों को इतनी दक्षता और परिपूर्णता से संयोजित किया गया था कि वास्तविक होने पर संदेह हो जाए. यों सैलानी इसे भारत का स्वीटज़रलैंड भी कह लेते हैं, पर ऐसी अफ़वाह अपने यहाँ  कई जगहों के बारे में है. मैं कभी स्वीटज़रलैंड गया तो देख समझ कर उसे यूरोप का छितकुल कह लूंगा. ये जगह आकाश छूते पहाड़ों की गोद में तिब्बत सीमा पर हमारे देश का नन्हा सा आखिरी गाँव है. नदी, पर्वत और आकाश के अनंत विस्तारों के बीच आदमी की जीवट भरी उपस्थिति का प्रतीक. अगले कुछ घंटे हमने इस उहापोह में बिताया कि इस जगह पर किस-किस कोण से फोटोग्राफी की जाय. जिधर कैमरा घुमाते, लेंस उसी फ्रेम को चूम लेता. आखिर हमने उसे खुली छूट दे दी. अब तक कुछ थकी और ज़रा उदासीन सी श्रीमतीजी भी मोबाईल से अपनी फोटोग्राफी के पैतरे आजमाने लगीं. सेल्फियों के तो ढेर लग गए.

पत्थरों पर बस्पा की छलछलाती धारा के साथ, पीछे घाटी के लम्बे विस्तार को रख कर, छितकुल के स्कूल और इमारतों को पहाड़ों की पृष्ठभूमि सहित और नीले कनवास पर दूधिया बादलों के बेतरतीब पैटर्न. छितकुल मन के अलबम में कई पन्ने घेर कर बैठ गया. करछम तक दुबारा उसी रास्ते लौटते हुए दोहराव का कोई अहसास नहीं था, सिवा इस तथ्य के कि रास्ता बेहद ख़राब था. हमारी गाड़ी भी घाटी में नदी की चाल सी उछलती कूदती चली. कुछ बीसेक किलोमीटर चलने के बाद सड़क अचानक एकदम चिकनी हो गई तो भारतीय परम्परा के अनुसार हम समझ गए कि किन्नौर का मुख्य शहर रिकांग-पियो आ गया है. मुख्य चौराहे पर हमारी आँखों और फिर कैमरे को एक अद्भुत दृश्य-फ्रेम दिखा. विशाल लहराते तिरंगे को अपनी गर्वीली पृष्ठभूमि दे रही थी किन्नर कैलाश की भव्य पर्वत श्रेणी. गुनगुनी सी धूप, ठंढी बयार, विश्व की सबसे उन्नत प्रजाति के सेबों के पेड़ों की हरियाली और ऊपर-ऊपर को चढ़ता जाता शहर . हम कुछ पल रुक कर इस शहर को महसूस करने को बाज़ार में घुसे. एक रेस्तोरां में स्थानीय लोगों के साथ नूडल्स, थुक्पा और मोमोज़ खाए. किन्नौर के लोगों के साथ चलने बैठने भर में भी एक ताज़गी और नयापन था.

फिर पन्द्रह किलोमीटर ऊपर चढ़ते चले गए. जहां पहुंचे, वहां किन्नर कैलाश के नाटकीय ढंग से एक दम रू-ब-रू आ खड़े होने का अहसास था. कल्पा सचमुच कल्पनातीत-सा है. इतनी ऊंचाई पर सेब के बगीचों के बीच एक विशाल पर्वत श्रृखला पर बादलों की लुकाछिपी देख पाने का मौक़ा बस यहीं संभव है. कल्पा की शाम धीरे धीरे धुंधलाते किन्नर कैलाश की चोटियों के साथ, बूंदा-बांदी के बीच, पतली सी नहर के साथ टहलते या कंपकंपाती हवा में गम पकौड़े खाते बीती. हाँ, यहाँ एक शांत सा बौद्ध विहार भी था, जहाँ किन्नर  कैलाश से होकर आती ठंढी  हवाएं सरगोशी कर रही थीं. कल्पा में झीनी-झीनी फुहारें गाहे-बगाहे आकर आपको भिगो देती हैं. मालूम हुआ कि साल के छः महीने बर्फ भी यहाँ इसी अंदाज़ में गिरती है. अपनी कल्पना को कि ये घाटी सफ़ेद चादर ओढ़ कर कैसी दिखती होगी, हम होटल की दीवारों पर लगी तस्वीरों में ही देख पाये. शाम ढले अपने होटल में हमें कुछ परिचित आवाजें सुनाई दीं. ये बंगला भाषी पर्यटक थे जो मुझे किन्नौर में भी उसी तरह मिले जैसे घूमने योग्य किसी भी जगह पर अनिवार्य रूप से मिलते रहे हैं. मालूम हुआ कि किन्नौर में आने वाले पर्यटकों में सबसे बड़ी संख्या इन्हीं की है. सो जब-तब कान में ‘कोलपा’ शब्द गूंजता और मुझे कल्पा को ‘कोल्पाता’ कहने का मन करता.

अब  आगे क्या? किन्नौर से स्पीती घाटी की ओर – और क्या? रुडयार्ड किपलिंग ने कुछ ऐसा कहा था कि यहाँ निश्चित ही देवताओं का वास है, आदमी का नहीं. साधे बारह हज़ार फीट की औसत ऊंचाई पर पहाड़ों के ऊंचे नीचे कनवास पर पिघलती बर्फ की धाराओं और नदियों द्वारा उकेरी गई कल्पनातीत आकृतियों से बनी घाटी- जहां दूर-दूर तक नज़र जिधर पड़े एक अनोखी दुनिया से साक्षात्कार करती है. अविश्वसनीय ऊंचाईयों पर बसे गाँव जिनमें गिनती के सफ़ेद गेरुआ रंग के मिट्टी के घर बादलों से बातें करते लगें. दुनिया की सबसे दुर्दांत सर्दियां झेलने वाला ये आबाद इलाका हमें ज़रा सी ही मुहलत देता है कि इसके उलझे पुलझे रास्तों से होते हुए आखिर स्पीती नदी की ऊँगली पकड़ साथ-साथ चलते काजा पहुँच जाएँ, वरना छह माह  तो सब कुछ सफ़ेद बर्फ से ढका होता है. और ये नदी भी कैसी गंभीर चित्रकार है जो धरती पर दोनों और अपनी चोटियों पर सफेदी सी पोते खड़े पहाड़ों से बह कर आती धाराओं को जज़्ब करती खुद भी कई धाराओं में बंटती घाटियों में अनोखे पैटर्न उकेरती चली है. दूसरी नदियों के मुकाबले कुछ शांत, अपने आसपास हरियाली के धब्बे छोडती.

किन्नौर की आखिरी ऊँचाई से उतरने से पहले हमने फिर जन्नत-सा एक जहां देखा. घंटों सतलुज के साथ पहाड़ों को तराश कर बनाई गई छतरी नुमा सड़कों के सहारे बढ़ते हुए एक विन्दु से जैसे एकदम ऊपर चढ़ते चले गए और अब तक गर्दन उचका कर देखे जाते रहे पहाड़ों के बराबर पहुँच गए. ये सड़कें साफ़-चिकने पहाड़ों पर काले सांप सी लिपटी नज़र आती थीं.

 इस मौसम में बर्फ तो चोटियों पर ही दिखती थी मगर नीचे तलहटी तक पिघलती बर्फ के निशाँ पहाड़ों को बड़ी ही नाटकीय आकृति दे रहे थे. नाको की 3662 फीट की ऊंचाई इस ऊंचे नीचे विस्तार को दम साध के देखने का मौक़ा देती है. एक खूबसूरत-सी झील और सूना-सा पर बेहद सुन्दर बौद्ध मठ भी धरती पर इस सबसे अधिक ऊंचाई पर बसे सबसे बड़े गाँव नाको में हैं. फोटोग्राफरों के सबसे प्रिय फ्रेमों में से एक- झील में पहाड़, हरियाली और बादलों का प्रतिबिम्ब पकड़ने की कोशिश में कुछ वक़्त लगा.

फिर गर्म-गर्म थुपका खाते हुए एकदम मन हुआ कि आज यहीं रुक जाएँ. पर कहाँ रुक रुक पाता है आदमी अपने मनचाहे पडावों पर. हम शाम ढले काजा पहुँचने की रेस में लग गए. स्पीती घाटी अपने नाम की नदी के साथ-साथ चली. शहरों के बीहड़ से कितना अलग था ये अजीब सी आकृतियों से रचा संसार, जहां दूर तक बस हम ही हम थे इसे ऊंचे विस्तार में.

काजा में हलकी बूंदा बांदी और ठंढी तेज़ हवाओं के बीच हमने अपने कमरे की खिडकी खोली तो कुछ दूर ही बर्फीली चोटियों पर बैठे बादलों के पीछे से सूरज अपनी सुनहरी किरणों का अद्भुत नज़ारा रचे हुए था. इन ईश्वरीय किरणों (गॉड रेज़) को अपनी शादी की पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर प्रकृति का तोहफा मानकर हमने उसी खुली खिडकी के पास केक, वाइन और पकौड़ों के साथ जश्न मनाया.

थोड़ी ही देर में आकाश जगमगाते तारों से भर गया. हम इस सजीव स्वप्नलोक से फिसलकर नींद की आगोश में चले.

बारह हज़ार फीट की औसत ऊंचाई पर बहती स्पीती नदी के सुन्दर से किनारे पर बसा काजा स्पीती का मुख्य शहर है जहां एक और तिब्बती बौद्ध धर्म व् संस्कृति की झलक है तो दूसरी और हिमाचल सरकार के प्रशासनिक अंगों से नियंत्रित छोटा-सा नगरीय परिवेश. ढेरों होटल व् रेस्तोरां, पतली-सी टेढ़ी-मेढ़ी गलियों के दोनों ओर एक नन्हा सा बाज़ार भी. अगली सुबह के लक्ष्य स्पीती के दो ख़ास विन्दु- ‘की’ और ‘किब्बर’ थे. नदी फिर साथ हो ली. इस बार वो अनगिनत धाराओं में बंटी खूब चौड़ी थी. चोटियाँ सफ़ेद थीं पर पहाड़ों के कंधे और बाजू धूप-छाँव के साथ, अगर पहाड़ क्षमा करें तो कहूँ कि, किसी नेता की तरह  रंग बदल रहे थे.

किब्बर गाँव के वासियों को एक फर्शी सलाम बनता है. वैसे भी जिस हैरत में डालने वाली साढ़े चार हज़ार मीटर की ऊंचाई पर उनका गाँव है, उनके मुकाबले हम हमेशा ज़मीन चूमते ही नज़र आयें. यहाँ ऐसा लगा मानों पूरा गाँव छत से जा लगा हो. सफेद गेरुआ तिब्बती शैली में  रंगे मिटटी के घर, जिनकी छत पर एक और छत आसमान का. बादल ठीक ऊपर बैठे. किब्बर वासियों को नमस्कार करते, जवाब लेते हम आगे बढे. आसपास हर संभव आकृति के टीले, दो पहाड़ों के बीच दर्रेनुमा रास्ते थे. कहीं हरियाली, कहीं मटमैला-पीला सपाट विस्तार. ऎसी अनोखी भूमि हमने तो नहीं देखी थी कहीं. ये लद्दाख के रेतीले रेगिस्तानों से अलग था. किब्बर से हम कुछ और आगे तक गए और लगा जैसे धरती यहाँ ख़त्म हो गई. सुदूर आगे तिब्बत की सीमा थी. एक ऊँचे टीले से हमने पूरे इलाके का जायजा लिया. तस्वीरें लीं और पीछे लौटे. और कर भी क्या सकते थे. साँसें यों भी थमी ह्हुई थीं, ऑक्सीजन अलग से कम था.

साढ़े तेरह हज़ार फीट की ऊंचाई पर एक शंखनुमा चट्टान पर कोई आठ सौ साल पुराना ‘की’ बौद्ध मठ अपनी आकृति और अवस्थिति में इतना अनूठा है कि हम कुछ देर आँखे फाड़ देखते रहे कि क्या ये वाकई वहां है. नदी के साथ चलते रस्ते से ऊपर चढ़ते हुए ये तब तक नहीं दिखाई पड़ता जब तक इसका पूरा आकार सामने न आ जाए. महायान बौद्ध के जेलूपा संप्रदाय से संबंधित ये मठ काष्ठ और मिट्टी से बनी एक बहुमंजिला इमारत है, जिसके परकोटों से स्पीती घाटी का बहुत ही सुन्दर विस्तार दिखाई पड़ता है. ऊपरी मंजिल पर बौद्ध भिक्षु हमें एक अँधेरे से कमरे में ले गए पर पीटने के इरादे से नहीं अपने अहिंसक मिज़ाज के अनुरूप बल्कि स्वादिष्ट चाय पिलाने के लिए. हमने इस जगह के इतिहास के सन्दर्भ याद करते हुए अलग अलग कालों और मौसमों में इसके स्वरूप की कल्पना की और सर खुजा कर रह गए. हज़ारों साल पुराने हस्तलिखित दस्तावेजों और कुछ हथियारों का संग्रह देखा तो संकरी सीढियों से उतरते-चढ़ते कुछ ठोकरें भी खाईं. दरवाज़े मेरे सवा छः फुट लम्बे बेटे के सीने तक ही आते थे. एक न भुलाने वाला अनुभव लेकर हम नीचे उतरे और काजा की ओर लौटे. रास्ते में कुछ जाबांज सैलानियों के झुण्ड मिले, कुछ हमारी तरह गाड़ियों पर, अधिकतर मोटर-साईकिलों पर तो कुछेक पैदल भी. ये दस किलोमीटर वाकई पैदल चला जा सके तो स्पीती के सबसे सुन्दर रास्ते का पूरा लुल्फ़ लिया जा सकता है. काजा से ज़रा पहले जहां से ‘कुंजुम दर्रे’ का रास्ता स्पीती पर बने पुल से होकर अलग हो जाता है, नदी अपने पूरे शबाब पर नज़र आती है. पहाड़ बादलों की छांह में रंग बदलते, नदी की धाराएं किसी विराट कैनवास पर ब्रश से कई रंगों के स्ट्रोक्स जैसी दिखती है. सैलानी खामख्वाह कवि बनते रहते हैं. आज भी हमें अपनी यात्रा के कुछ बेहद सुन्दर तस्वीरें मिलीं.

आज छत से अपने कैमरे में तारों का नज़ारा कैद करना था. रात गहराते ही पूरा आकाश जैसे किसी प्लेनेटोरियम जैसा हो गया. दिल्ली में तो जैसे ये नज़र ही नहीं आते. यहाँ छिटके फिर रहे थे. ठंढ खुली छत पर हावी होने लगी. दो एक बूंदे पड़ीं तो हम भागे.

अगली सुबह वापसी की यात्रा शुरू की. अभी स्पीती में हमारी एक रात और बाक़ी थी. स्पीती घाटी में एक ख़ास पर्यटन स्थल  ‘ताबो’, जहां बौद्ध धर्म के प्राचीनतम मठों में से एक है. पर पहले धनकड़ का बखान सुनिए.

स्पीती में महीनों बर्फ से ढंके रहने वाले पहाड़ों की बाहरी संरचना एक अलग ही परिदृश्य रच देते हैं, पर धनकड़ पहुँचते ही ऐसा लगता है मानों यहाँ विशालकाय दीमकों ने अपने बड़े-बड़े भीत बना रखे हों. भुरभुरी पीली मिटटी की ये आकृतियाँ बर्फीले रेगिस्तानों में खूब मिलती हैं. यहाँ स्पीती और पीन नदी के संगम पर कोई हज़ार फुट की ऊंचाई पर ऎसी ही भीतों के समूह पर एक कोने में लकड़ी और मिटटी से बना एक बेहद पुराना बौद्ध मठ है. संकरे रास्तों से होकर इसमें प्रवेश करते हुए डर सा लगता है कि कहीं ये समूची की समूची संरचना ढह न जाय. पर ये तो सदियों से यूं ही खडा है, छीज जरुर रहा है. हम बेहद संकरी सीढियों से ऊपर गुफओं जैसे कमरों में जैसे सरक कर घुसे. और ऊपर एक कोने से डरते-डरते बाहर झांका तो कुछ कल्पनातीत दृश्य दिखे. घाटी यहाँ अपनी सम्पूर्णता में नज़र आती है – एक ही दृश्य संयोजन में बर्फीली चोटियों वाले पहाड़ की तलहटी में पसरती सी नदियाँ, मिट्टी के भीतों से घिरे सीढीनुमा हरियाले खेत और रौशनी और छाँव से चिन्हांकित उठान और ढलान – जैसे किसी चित्रकार की अंतिम कल्पना हो. हमने यहाँ भी जिस किसी कोण से क्लिक किया विस्मयकारी परिणाम आये.

स्पीती घाटी का अगला पड़ाव ताबो भी अपनी प्राकृतिक संरचना में अनोखा था. एक बड़े कटोरे-सा भूखंड इक्कीस हज़ार फुट की ऊंचाई पर, एक छोटी सी झील विशाल समतल हरियाली के टुकडे के बीच. सडक की दूसरी और पहाड़ों की गोद में प्राकृतिक गुफाएं, जिनतक पहुंचकर हमने ताबो को स्पीती के एक ‘पिक्चर-परफेक्ट’ गाँव के रूप में देखा. यहाँ का सबसे विशिष्ट आकर्षण ताबो  का बौद्ध मठ है. बौध धर्मावलम्बियों के लिए तिब्बत जैसी महत्ता रखने वाला ये मठ 996 ई. से यहाँ अपनी पूरी प्राचीन मौलिकता के साथ खडा है. मिटटी से लिपे मिट्टी के ही स्तूप, और प्राचीन ग्रंथों का एक संग्रहालय. एक नया रंगबिरंगा मठ भी जिसकी पृष्ठभूमि में जैसे सोने का एक हार पहने एक पहाड़. ढलती धूप में इस पहाड़ के गले पर टिके पीली मिटटी के वलय को चमकता देख यही उपमा सूझी थी.

सुबह स्पीती घाटी से विदा लेने का वक़्त आ गया. लौटते नजारों को जी भर देखते हम एक विन्दु से फिर ऊंचाई पर चढ़ने लगे. ‘मेलिंग नाला’ दोबारा मिला तो वापसी का अहसास गहराने लगा. एक गरजते झरने को पार कर हम फिर किन्नौर की कुख्यात सड़कों पर हिचकोले खाते नजर आये. आगे एक तेज़ रफ़्तार वापसी की. आखिर एक और रात सराहन में ,जो भीमाकाली माता का आसन है, बिता कर सात घंटे की यात्रा में नारकंडा जैसे ठौरों पर आडू, खुबानी आदि खरीदते मज़े-मज़े में चलते हुए शिमला लौटे. हैरान हुए कि अचानक कितनी भीड़ में आ फंसे हैं हम. पर्यटन का सीजन पूरे शबाब पर था. पहाड़ों पर आये लोग, शिमला तक आकर रुक जाते हैं. यहाँ सारी सुविधाएं हैं, होटल, मॉल और खूबसूरत  मौसम भी. पर किन्नौर और स्पीती से लौट कर ये सपनों की जगह हमें बेतरह अघाई, फंसी हुई और ऊबती सी लगी. सड़कों पर गाड़ियों के लम्बे जामों का क्या कहें, अपर लोअर सभी माल रोड पर जहाँ वाहनों की आवाजाही मना है, इंसानों तक का जाम लगा था. कंधे से कंधा रगड़े बिना चलना मुहाल.

देर शाम हम बस से दिल्ली रवाना हुए तो शिमला छोड़ते ही एक लम्बे ट्रैफिक जाम में फंसे. फिर बड़ी याद  आयी स्पीती की उन सड़कों की जो पीछे मुड़ कर भी देखी जा सकती थीं और अक्सर मीलों उनपर हमारे सिवा कोई नहीं होता था.

 

 

 

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यतीश कुमार की कविताएँ

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आज यतीश कुमार की कविताएँ। वे मूलतः कवि नहीं हैं लेकिन उनकी इन संकोची कविताओं में एक काव्यात्मक बेचैनी है और कुछ अलग कहने की पूरी कोशिश, जीवन के अनुभवों का कोलाज है। आप भी पढ़िए- मॉडरेटर

१)हम तुम

एक स्थिति हैं
हम तुम
वह जो डाल पर बैठे
तोता मैना हैं
हम तुम हैं
पेड़ की जो दो फ़ुंगियाँ हैं
आपस में बिन बात बतियाती रहती हैं
हम तुम हैं
कुमुदिनी के फूल
जो जोड़ो में ही खिलते हैं
बस दो दिन के लिए
कल ही तो खिले थे
तुम्हारे गमले में हम
हम हैं स्टेशन की पटरी
जो शुरुआत में समानांतर
आगे जब चाहे क्रॉसिंग पर
गले मिलती रहती है
या फिर नाव के वो दोनो चप्पू
साथ चलने से जिसके गति रहती है
गंतव्य पर रोज़ रख दिए जाते है
एक साथ रात काटने के लिए
हम तुम हैं
पर शायाद हम तुम हैं
घर के अक्वेरीयम में तैरती
नीली और काली मछलियाँ
मौन को समझ,इशारे में बात करते हैं
या वो जो गिन्नी पिग हैं दोनो
पिंजड़े में अपने शब्द चुगती,पचाती
और कुछ नहीं कह पाती
हम दोनो हैं कभी
दो ,असंख्य
कभी एक या सिर्फ़ शून्य

२)सर्पिली लटें

तुम्हारी लटें लहरा नहीं रहीं
कम्पन अंतस का डोल रहा है
मन के उथले क्षितिज पर
सपनों की टुस्सियाँ फैल रही हैं
नाख़ून कितना भी काटो
बदस्तूर बढ़ता जा रहा है
और त्वचा बढ़ती स्थूलता से
ख़ुद आश्चर्यचकित है
धमनियों में शोर का पारा
तेजी से फैल रहा है
और यूँ पसीने में नमक की मात्रा
कम होती जा रही है
सावधान
वो नन्हा-सा सर्प तुम्हारे भीतर
अवचेतन में जन्मेगा- पनपेगा
और फिर दिग्भ्रांत केंचुली को पहन
तुम्हारी लटों में बदल लहराएगा
लपेट लो इन्हें अपने जूड़े में
ये लपटें भावनाओं की हैं
बढ़ते नाख़ून से खुरेचना
उन जमी हुई खुरचन को
कच्चे विष-दन्त ने अभी डसना सीखा नहीं
पर सीखना तो स्वाभाविक प्रवृति है
डंक मारना प्रकृति नहीं तुम्हारी
पर प्रवृत्ति प्रकृति को पैरहन ओढ़ाती है
घुंघराले बाल मेरे
मुझे और मेरी छाया
दोनों को भ्रमित करते हैं
रुद्र और बुद्ध तो
हम सब में हैं
बस लटों को बाँधना किसे आता है …..

३)मील का पत्थर

——————-
जो तुम जानते हो
मत थोपो मुझ पर
बाँधो मत
धागों की उलझी लड़ियाँ
खोजना चाहता हूँ
ख़ुद से अनजान चीज़ों को
अपने लिए स्रोत
स्वयं बनना है मुझे
ज्ञान को मुक्ति का
आधार रहने दो
मत दिखाओ मार्ग मुझे तुम
नहीं रहना चाहता हूँ खड़ा
तुम्हारे कंधो पर टिक कर
खपरैल के खोखले बाँस की तरह
जो अपनी उम्र से पहले सड़ जाए
गुम हो जाना चाहता हूँ
जड़ की आखिरी कोशिकाओं में
शीर्ष वर्धमान सिरा का
मूलरोम बनकर
ढूँढना है,जानना है
मिट्टी के गुण-अवगुण
गासों में जिजीविषा
पत्थर में जीवन
पानी में अमृत
तुम में मैं
और मैं में हम
मिटाना चाहता हूँ
हम से
अहम की सिलवटें
बनना चाहता हूँ
मील का पत्थर
और खड़ा रहना चाहता हूँ
सदियों तक
दिशा और दूरी को समेटे हुए
४)मैं पूछ नहीं सका
पूछना चाहता था
ठीक पास बैठी महिला से
कि उसने मास्क क्यों पहन रखा है
क्या उसकी साँसे घुटती नहीं है
सामने खड़े दरबान से भी पूछना था मुझे
कि क्या तुम्हारी टांगों में दर्द नहीं होता
कुछ पल के लिए
बैठ क्यों नही जाते
रीढ़ को झुकाए
मोची से भी कहना था मुझे
ऐंठ जाएँगी टाँगे बैठे-बैठे
थोड़ा चहलकदमी तो कर लो
सर्द रात में बोरे में लिपटे
बुज़ुर्ग से पूछना था
जिसके हाथ में
जल कर बुझ चुकी बीड़ी है
सीना धौंकनी-सा फड़फड़ा रहा है
और पेट का तंदूर ठंडा पड़ गया है
बुझायी गयी बीड़ियों से
दीवार पर उसने
बीते दिन लिख रखे हैं
भाषा अव्यक्त सी है
उसके ही पाँव से टिकी
उस औरत से भी पूछना भूल गया मैं
जिसकी आँखों का नूर
कोरों पर अब भी अटका पड़ा है
नमक बहने का उस पर असर कम क्यों है?
वह इतनी तेजी से दौड़ा
कि मैं पूछ ही न पाया
उस बच्चे से
उसके घर का पता
मासूमियत पर जिसके
चढ़ चुका है
नीमक़श तेजाबियत का नशा
जो मुझे ऑफ़िस आते-जाते
हर बार खेलता दिख जाता है
उन किन्नरों से भी नहीं पूछ पाया
कि तुम्हें तीसरे लिंग का दर्जा मिलने में
युग क्यों बीत गए ?
कागज में दर्ज हो चुकने के बाद
अब भी चौराहे पर
तुम ताली क्यों बजा रहे हो ?
उस पागल से
उसकी हँसी का राज
समझना था मुझे
जो मुर्दा घरों के बाहर
रोते-बिलखते लोगों पर हँसता है
मैं ख़ुद से भी नहीं पूछ पाया
कि इतना परेशां क्यूँ हूँ
और सही समय पर
आँखें मूँद लेने की कला
कब सीख गए !!

५)यंत्रणा का अन्तरलाप

अतृप्ति का सोता लिए
दर-ब-दर भटकते लोग
सुख की तलाश में
अपने-अपने दुःख नत्थी कर चुके हैं
खून और पसीना
एक साथ बह रहे हैं
हवा का रवैया इतना पुरवैया है कि
सोखना-सुखाना तक मुश्किल…
इन दृश्यों के बीच
उस हर शख्स के पास एक कविता है
जिनके हाथों में छेनी-हथौड़ा है
वे पत्थरो पर निरंतर गढ़ रहे हैं शब्दों को…
समय ने उनको घिस कर
वह सिक्का बना दिया है
जो चलन से बाहर हो चुका है
उनका पसीना अब अलोना हो चुका है
और महावर ज़ियादा सुर्ख़
स्वेदार्द्र आँखों ने कोर पर
रोक रखी है अपनी धार
मुश्किलों को मुट्ठी में दबाए
वह सोने की कोशिश में मुब्तिला है
स्वप्न में भी निर्माण और ध्वंस
लहरों की विकल्प-आवृति सा
धार के साथ एकसार है..
इन सबके दरमियान
यंत्रणा का अन्तरलाप
घरों से निकल
एक-दूसरे के गले लग रहे हैं
इन सबके बीच
अपने एकांतवास से निकल
दर्द अब एक सामूहिक वक्तव्य है.
६)पूर्ण विराम
—————-
दिखता है
बुद्ध के घुंघराले बालों जैसा
अंधेरे को केंद्र में दबोचे
झाँकता है सूरज पीछे से
चाँदना की लालिमा
आतुर है मुस्कान लिए
खिलखिलाने -फैल जाने को
पहाड़ की ओट से आभा धीरे-धीरे
फैल रही है धान के बीचरे पर
भीतर कोलाहल है, दृश्य का
कंचे की तरह उछलते कूदते बुलबुले
निरंतर ध्वस्त हो रहे है
दृश्य बोल रहा है
परिदृश्य की खामोशी को
चुपके से तोड़ता
बीचरे रौंदे जा रहे है
पानी अंदर ही अंदर धँसता जा रहा है
कीचड़ के भीतर-बाहर
परत दर परत
मिट्टी सूखी-सूखी
फिर पानी,पत्थर और शब्द
सब ग़ायब
बुद्ध के हर लटों में
सैकड़ों लहरें है
और वह बस मुस्काता है

७)इतना ही सीखता हूँ

इतना ही सीखता हूँ गणित
कि दो और दो को बस
चार ही गिन सकूँ
इतनी ही सीखता हूँ भौतिकी
कि रोटी की ज़रूरत के साथ
हृदय की प्रेम तरंगे
और कम्पन भी माप सकूँ
इतना ही सीखता हूँ भूगोल
कि ज़िंदगी की
इस भूल भूलैया में
शाम ढलने तक
घर की दिशा याद रख सकूँ
इतनी ही सीखता हूँ अंग्रेज़ी
कि देशी अंग्रेज़ों के बीच
अपने स्वाभिमान के साथ
अपनी हिंदी भी बचा सकूँ
इतना ही पढ़ता हूँ ज़िंदगी को
कि दीवार पर उभरी
चूल्हे की कालिख में
परतों की उम्र भी पढ़ सकूँ
उकेरता हूँ लेखनी को उतना ही
जितना सच
बचा है
मेरे अंतस में
८)भूख -रोटियों की गंध
अंतहीन गंध के चक्कर में
घूमती रहती है धरती
या इसी चक्र में घूमते हैं
इस पर रहने वाले लोग
मृग तृष्णा है ये गंध
या इंसानों में भी है कोई कस्तूरी
विचित्र अग्नि है
रूह झुलसती नहीं
बस सुलगती रहती है
भूख करवट यूँ बदलती है
मानो जलती लकड़ी
आँच ठीक करने के लिए
सरकाई जा रही हो
उसी आँच पर रोटी पकेगी
सोच कर नींद नहीं आती
आँच आती है, बढ़ती है
बस कमबख़्त रोटी नहीं आती
आँखें बुझ जाती है
नींद डबडबाती है
देह सो जाती है
पर भूख अपलक जागती है
हाँ,कभी-कभी ढिबरी में
ज़्यादा तेल फैल जाने जैसा
फकफ़काती भी है
एक लम्बी रुदाली है
जिसकी सिसकियाँ नहीं थमती
एकसुरा ताल है जिस पर
ताउम्र नाचता है जीवन
एक ठूँठ पेड़ है
जिसकी पत्तियाँ नहीं होती
तने का बस हरापन ज़िंदा है
और वो जो लहू हरे में बह रहा है
वो अजर-अमर भूख है
भूख को अमरत्व प्रदान है
पर सपनों को नहीं
देह से बाहर
देश की भूख अलग होती है
और देश के अंदर
राज्यों की अलग भूख
अनंत सीमाओं की भूख लिए
दूर अंतरिक्ष से दिखते हैं देश
ऊन के उलझे धागों जैसे
कोई एक भी सीधी रेखा नहीं दिखती
बीते दिनों देश की भूख
रोटी से ज़्यादा पानी की हो गयी है
पूरी नदी चाहिए इनको
पर इन दिनों प्यास
और विकराल हो चला है
इसे अब नदी से संतुष्टि नहीं
पूरा समंदर चाहिए
भूख की स्थूलता
अब इस पर निर्भर है
कि ये किसकी भूख है
भारत की,पाकिस्तान की
चाइना की या अमेरिका की
पर भूटान की भूख
थोड़ी मीठी सी है
भूख की ज़िद इनदिनों
आक्टोपसी हो गयी है
इसलिए कहता हूँ यतीश
रोटी से ऊपर के सारे भूख
दरिंदे होते है
नुक़सान होना तय है
बोसों की भूख को
रोटी से नीचे की भूख मानता हूँ मैं
कई घर जिनमें रोटी नहीं है
वो बोसों के आलिंगन पर ही तो टिके हैं
और ज़्यादातर देश ??
ज़्यादातर देश टिके हैं
आलिंगन की सांत्वना पर
रोटी की गंध अपनी नाभि की कस्तूरी में लेकर ।

९)ओसारा

घर का ओसारा
पहले सड़क के चौराहे तक
टहल आता था
पूरे मोहल्ले की ठिठोली
उसकी जमा पूँजी थी
ओसारे से गर कोई आवाज़ आती
तो चार कंधे हर वक़्त तैयार मिलते
शाम हो या कि रात
वहाँ पूरा मेला समा जाता था
हर उम्र का पड़ाव था वह
कंचे की चहचहाहट
चिड़िया उड़ और ज़ीरो काटा में
चहचहाती किलकारियाँ
पोशंपा के गीत
या ज़मीन पर अंकित
स्तूप का गणित
पिट्ठु फोड़ हो
या विष-अमृत की होड़
या फिर ताश और शतरंज में लगाए कहकहे
सब के सब वहाँ अचिंतन विश्राम करते
पर आज वहाँ
हर वक्त दोपहर का साया है
वो चौराहे तक पसरा हुआ ओसारा
चढ़ते सूरज में सिमट आया है
ढलती शाम की पेशानी
वहाँ अब टहल नहीं पाती
और न ही उगते सूरज की ताबानी के लिए
कोई जगह शेष है
ओसारा अब अपना पैर सिकोड़े
सर पर चढ़े सूरज को ताक रहा है
और वो ख़ुद में समा गए
अपने ही साये से बेइंतहा परेशान है

१०)चौराहों का शतरंज

पगडंडी से निकला ही था वह
कि दोराहे से उसकी मुलाक़ात हो गयी।
बातों ही बातों में दोराहे ने
उसे चौराहे तक छोड़ दिया
चौराहा उसे दोराहे से ज़्यादा दिलचस्प लगा
उसकी बातों में चार कंधों सा अहसास था
उस अहसास ने बड़ी आसानी से
चौराहों के झुंड से उसे मिलवाया
अब वो चौराहों के मेले में है
उसकी आँखे ऊपर उठती है
उसे मेले का प्रतिबिम्ब
हवा में दिखाई देता है
हवा में मादक नज़रों से निहारती
दसमुखी सर्पीली राहें हैं
बहुत जल्दी में है वह
और उस पर राहों का नशा सवार है
नशे की मादकता इतनी कि
उसने सर्पीली दसमुखी को चुम लिया
गगनचुंबी चुम्बन का विषाक्त
अब शरीर से भारी है
भार लिए आसानी से गिरता है वह
अब चौराहों पर बिछी बिसात का
वह ऐसा प्यादा है
जिससे राजा को मात देने की कला
छीन ली गयी है…..

११)कार से झाँकती ज़िंदगी

उफ़क पर सूरज डूब रहा है
कार बेतहाशा दौड़ रही है
अस्त होने की गति को
अपनी गति से मिलाना है
खामख्याली का सुरुर है
शहर में शाम ढल रही है
शोर का सैलाब
घुसपैठ की हद तक
ज़िद में है.
कार के शीशे नहीं चढ़ाता मैं
बल्कि अपने और उफनते सैलाब के बीच
पर्दा गिराता हूँ
अंधेरी सड़क पर दौड़ती कार से
ऐसे ताकता हूँ
जैसे सर्च लाइट की रोशनी में
ज़िंदगी राह ढूँढ रही हो
रीयर व्यू मिरर में झाँकता हूँ
समय अपने आकार से बड़ा
और ख़्वाब
सुबह दिखे सपने से ज़्यादा
नज़दीक दिखते हैं
वाइपर चलाने की
पुरज़ोर कोशिश करता हूँ
कि भविष्य और स्पष्ट देख सकूँ
यूँ भी होता है अक्सर
कि नीले-पीले सारे ख़याल
ड्राइविंग सीट पर बैठते ही
कंधे पर फुदक कर बैठ जाते हैं
उन फुदकती चिड़ियों को
जब भी पकड़ना चाहता हूँ
ज़िंदगी की इस गाड़ी को
ब्रेक लगाना पड़ता है
१२)देह के मोती
कभी कभी कुछ पल 
ऐसे होते है
जिनमें पलकें खोलना
समंदर बहाने जैसा होता है
उन पलों में आप और लम्हे
एक साथ सैकड़ों नदियों में
हज़ारों डुबकियाँ लगा रहे होते हैं
कभी लम्हा सतह से उपर
और कभी आप ………
लम्हों और आपके बीच की
लुक्का -छुप्पी , डुबकियाँ
सब रूमानी- सब रुहानि
फिर आप जैसे समंदर पी रहे हो
और नदियाँ सिमट रहीं हों
असीमित फैलाव समेटने के लिए
फिर एक लम्हे में छुपे हुए सारे समंदर
और उनमें छुपी सैकड़ों नदियाँ
छोड़ देते है बहने
लम्हे बिलकुल आज़ाद है अब
छोड़ देना आज़ाद कर देना
सुकून की हदों के पार
ला खड़ा करता है आपको
आप जैसे खला तक फैल कर
फिर ज़र्रे में सिमट रहे हो
बिखरते हर लम्हे ऐसे लगते है
जैसे आप के अस्तित्व के असंख्य कण
आपसे निकल कर
अंतरिक्ष के हर नक्षत्र को टटोलते फिर रहे हैं
पूरे ब्रह्मांड में आपका फैलाव
हावी हो रहा हो
जैसे हर लम्हा आपसे छूटकर
जाता हो ईश्वर को छूने
देवत्व का टुकड़ों में हो रहा हो
स्वाभाविक वापसी
जगमगाते लम्हे, टिमटिमाते लम्हे
अंतरिक्ष में असंख्य सितारे
और उस पल उगते हैं
देह पर असंख्य नमकीन मोती
ब्रह्मांड भी कभी धरती पर
समाता हो एक शरीर के बहाने
हर ज़र्रा,हर लम्हा,शरीर का हर मोती
कायनात को रचने की क्षमता रखता है
और तब उस प्रेम भरे पल में
रीता लम्हा भी सृष्टि रचने की क्षमता रखता है।

१३)चीख़ती रूहें

बस
शहर की सबसे डरावनी चीज़ है
जिसके आगे
किसी का कोई बस नहीं
शेर के पंजों-सी झपट है उसमें
चींटियों की कतार-सी चल पाए
वो हुनर नही
चीते-सी रफ्तार है
पर कतार से बाहर
मदमस्त पागल हाथी सी
डग भरने लगती है
अल्हड़ यौवन-सी मदमस्त
उसे होश कहाँ रहता है
पूरे शहर को नापती
बस दौड़ती फिरती रहती हैं
हर चौराहे पर
एक चीख़ शिनाख्त हैं इसके नाम
सड़क पर बिछी कोलतार पर
खरोंची और खींची हुई है सुर्ख़ लकीरें
चीख़ टायर से निकली या हलक से
क्या फ़र्क़ पड़ता है !
निशान लाश के हैं या टायर के
क्या फ़र्क़ पड़ता है
भागते-दौड़ते लोगों में
सोचने का वक़्त किसके पास है
और मैं सोचता हूँ सोचने के लिए
वक़्त ठहर क्यूँ नहीं जाता
लोग अकेले निकलते है घरों से
फिर भीड़ में गुम हो जाते है
पर चीख़ अकेले निकलती है
और अकेली रह जाती है
इंतज़ार में हूँ
एक दिन भीड़ के चीख़ने का
क्योंकि जब भीड़ चीख़ती है
तो अनहद-नाद में बदल जाती है
पता नहीं है कि ये रोज़ का सफ़र
मौत है या मंज़िल
मैं तो बस
लड़खड़ाते उतरते फिसलते
और फिर दौड़ते
मौत देखता हूँ बार-बार

१४)आलय का आला

(यादों के झरोखे)
आलय के आले से उड़
स्मृतियों का उद्भ्रांत पाखी
अक्सर मेरे कंधे पर बैठ जाता है
कंधा कई बार झटकता हूँ
पर पदचिह्नों की सुगबुगाहट
कंधे से चिपकी रह जाती है
शाम अंधेरे में धीरे से आती है
अंधेरे का धीरे धीरे रेंगते आना
बड़ा अच्छा लगता है मुझे
सुबह का सपना
अक्सर भूल जाता हूँ
दोपहर का सपना
हमेशा याद रहता है
अपने बुखार का पारा
माँ के चेहरे में देखता था कभी
नज़र की तपिश
माँ के चेहरे का पीछा करती थी
नज़र की ऊष्मा में
चेहरे का उतार चढ़ाव समतल
और झुर्रियों के बल
स्वतः ढीले पड़ जाते थे
फिर मुझे लगता
माँ ठंडी साँसे ले रही है
पर उस समय भी माँ ऊनींदी में
मेरे घुंघराले बालों में उंगली टहलाती थी
आज भी वो उद्भ्रांत पाखी
मेरे बालों को छू
छू मंतर हो जाता है
सोचता हूँ
माँ ने सब कुछ तो समझाया था
ज़िंदगी कैसे जीनी है
कैसे चढ़नी है
सबसे कठिन समय की
सबसे कठिन चढ़ाई
और कैसे उतरनी भी है
अखरोटों को बटोरते
गिलहरी की तरह
ख़ुद की चढ़ी ऊँचाइयों को
सहेजते सुरक्षित
रेंगती चींटियों की एकता
और जूट पटसन के धागों में
बंधी कसाई हुई एकता
कुत्तों और घोड़ों की वफ़ादारी
उस पर इंसानी ऐयारी
क्या कुछ तो सिखाया था माँ ने
शतरंज की बिसात में
हमेशा हाथी नहीं
ऊँट भी बनना है
अंतिम निर्देश था
सिपाही की तरह
राजा को मात देना
मेरे भीतर गहरी सी साँस
उखड़ आयी ये सोचकर कि
बीते दिनों को
वापस बुलाने का तरीक़ा ,माँ
तुमने कभी नहीं बतलाया

१५)आज

वक़्त ने अपनी शक्ल छुपा दी
और घड़ी ने अपने हाथ
बर्फ़ पिघलने और
नदी जमने लगी है
पगडंडियाँ हो रही हैं विलुप्त
और रास्ते लगें हैं फैलने
केंचुओं ने छोड़ दिया है
मिट्टी का साथ
और मिट्टी ने किसानों का
बारिश ने ही
चुरा लिया है
मिट्टी से सोंधापन
गुलाब के काँटे
अब चुभते नहीं
आघात करते हैं
कमल अब सूरज को देख नहीं खिलता
छुइमुई ने भी शर्माना छोड़ दिया है
और दीमक
दीमक अब लोहे को भी चाट जाता है
नेवला बिल में घुस गया है
साँप बिल में अब नहीं रहता
शहर में घुस आया है
सियार अब आसमान ताके
आवाज़ नहीं लगाता
मुँह झुकाए रिरियाता है।
 
और इंसान ???
इंसान ने इन सबकी शक्ल चुरा ली है

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जीवन जिसमें राग भी है और विराग भी, हर्ष और विषाद भी, आरोह और अवरोह भी

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अनुकृति उपाध्याय के कहानी संग्रह ‘जापानी सराय’ को जिसने भी पढ़ा उसी ने उसको अलग पाया, उनकी कहानियों में एक ताज़गी पाई। कवयित्री स्मिता सिन्हा की यह समीक्षा पढ़िए- मॉडरेटर

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कुछ कहानियां अपने कहे से कहीं कुछ ज़्यादा कह जाती हैं । कुछ कहानियां जो निचोड़ ले जाती हैं हमारा कलेजा और जमी हुई साँसों की घनीभूत विचलन में हम महसूसते हैं जीवन को । जीवन जिसमें राग भी है और विराग भी , हर्ष और विषाद भी , आरोह और अवरोह भी ।

                   अनुकृति उपाध्याय का पहला कहानी संग्रह ” जापानी सराय ” ऐसी ही दस खुबसूरत और शानदार कहानियों का संकलन है । इन कहानियों को पढ़ते हुए स्वतः ही महसूस होता है कि यहाँ दृश्यों में भी हम ही बने हुए हैं और द्रष्टा भी हम ही हैं । जहाँ तमाम कहे जा चुके शब्दों के बीच एक ख़ामोश सी चुप्पी है । जहाँ बंदिशों से छूटने की एक उत्कट सी चेष्टा है । अनुकृति की सभी कहानियों में एक आत्मकथ्य है , एक आत्मनुभव , जो कथोपकथन में परिलक्षित  होते दिख पड़ते हैं । सारे किरदार इतने साधारण कि कहानियों के इर्द गिर्द घूमते हुए जाने कितनी ही बार आप खुद से टकरा जाएंगे ।
                         हालांकि मैं कहानी संग्रह की कहानियों को अक्सर एक ही रौ में पढ़ जाती हूँ , बावज़ूद इस किताब को पढ़ने के बीच मैंने कई ब्रेक लिये । यह ब्रेक इसलिए कि हर कहानी एक नये टोन,  एक नये फ्लेवर और नये ड्राफ्ट में सामने आती थी । और हर पहली कहानी का अंत मुझे उस मानसिक अवस्था में छोड़ जाता था जहाँ से सिर्फ़ आह या उफ़्फ़ करके निकल आना संभव नहीं था । हर अंत देर तक आपके जेहन पर दस्तक देता रहता और आप विचारों के व्योम में भटकते रहते । सारी कहानियों के केंद्र में होती एक स्त्री और हर स्त्री के हिस्से में एक अथक यात्रा । हर यात्रा का नया जोखिम , नया झंझावात और इनसे टकराते हुए खुद को पाने की ज़द्दोज़हद में संघर्षरत एक स्त्री ।
                            अब इसी संकलन की शीर्षक कहानी लीजिये । दो अजनबी अपनी पीड़ाओं को लेकर किस कदर आत्मीय हो सकते हैं , उसकी एक बानगी देखिये । ” दरअसल पीड़ा चिरंतन है , हम सब अपनी पीड़ा में एक से हैं , नंगे और निशस्त्र । तो उसे सहने में शर्म कैसी ? यह लो “, उसने अपनी जेब से टिशू का पैकेट निकाल कर बढ़ाया । ” तुम्हें इनकी ज़रुरत है । ” वह निश्चल रही , आँखों से आँसू गिरते रहे । चेरी ब्लॉसम, रेस्टरूम और शावर्मा ऐसे ही अनजाने लोगों की अनजानी कहानियां हैं , जिनकी स्मृतियां वक़्त की तारीखों में कैद हो गये ।
                     अब बात ” प्रेज़ेंटेशन ” की । कानपुर जैसे छोटे शहर से निकली मीरा दिल्ली से इंजीनियरिंग करके बिना शर्त शादी के बंधन में बंध जाती है । तमाम बेहतरीन कैरियर प्रोस्पेक्टस को दरकिनार कर रिश्तों को सहेजने की मशक़्क़त में उसने खुद की प्राथमिकता ख़त्म कर दी । बावज़ूद उसकी ज़िंदगी दुधारी तलवार पर चलने सी बनी रही । उसका प्रोफेशन भी कभी उसके लिये सलाहत भरा मसला नहीं रहा । परिवार और नौकरी के बीच संतुलन बनाती मीरा के मानसिक द्वंद को देखकर दिल और दिमाग भन्ना उठता है । अच्छी बात यह रही कि लेखिका ने अपनी स्त्री किरदार को कमज़ोर होने की हद तक संवेदनशील नहीं बनाया । उनकी चेतना हमेशा उनके बस में रही और यही व्यावहारिकता मीरा को दीपू और परिवार के स्वार्थ का शिकार होने से बचा पायी । प्रोफेशनलिज्म और मध्यमवर्गीय परिवार की चुनौती को झेलते हुए अपने लिये राह बनाने का जोखिम उठाया है स्त्री पात्रों ने और यही जिजीविषा इस किताब को खास बनाती है ।
                         अनुकृति के लेखन में एक किस्म की परिपक्वता है , विषयांतर के साथ साथ विषयों की ग्राह्यता है और मानवीय संवेदनाओं का सूक्ष्म अवलोकन है । सघन रिश्तों के बीच किरदारों की कसमसाहट को सहज ही महसूस किया जा सकता है । एक और कहानी है ” हरसिंगार का फूल “, जहाँ पीड़ा के बीच भी प्रेम सृजित होता है । मृत्यु की वेदना की छाया में मोना और विश्वा के बीच घटित होता प्रेम । हालांकि उस पीड़ा में प्रेम की इस मुखरता को कहने का जो साहस लेखिका ने किया , प्रश्नों के घेरे में उसे जस्टिफाई करना उनके लिये थोड़ा मुश्किल होगा । किंतु एक स्त्री मन और उसकी उद्दीप्त कामनाओं को एकदम से ख़ारिज भी नहीं किया जा सकता । फ़िर यहाँ मोना और विश्वा का प्रेम जुगुप्सा भी पैदा नहीं कर रहा , बल्कि उनकी आकांक्षाओं के आलोक में आपकी आत्मा स्वतः नम होती चली जाती है । रिश्तों के  समीकरणों की इतनी तीखी बानगी कि कहीं किसी कोने में आप खुद को अटका पायें मुक्ति की चाह में । मुक्ति,  जो देह और आत्मा के आख्यानों से मुक्त थी । मुक्ति जो यथार्थ की संश्लिष्टता की पुष्टि करती दिखती है ।
              कुछ और कहानियां हैं जिनका जिक्र आवश्यक हो जाता है , जैसे “जानकी और चमगादड़ “और “डेथ सर्टिफिकेट “। “जानकी और चमगादड़” में जानकी उन सभी युवाओं का प्रतिनिधत्व करती नज़र आती है , जो प्रकृति के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को लेकर सजग और गंभीर हैं । जबकि ” डेथ सर्टिफिकेट ” में कारपोरेट वर्ल्ड की  भयावहता है , जिसे लेखिका ने बड़ी कलात्मकता से कथ्य में पिरोया है । अनुकृति अपनी चमत्कृत भाषा शैली और सम्मोहक कथ्य के कारण भी अचंभित करती हैं । नई वाली हिन्दी ने हिन्दी का जितना नुकसान किया उतना किसी और ने नहीं । ऐसे में अनुकृति के शब्दकोश से निकले सुंदर , सुगठित और परिष्कृत हिन्दी के शब्द ताज़ा हवा के झोंके सी ताजगी लाते हैं । लेखिका का अनुभव उनकी क़लम में बोलता दिखता है । हर कहानी में एक नयी सी ठसक उसे औरों से अलग बनाती है । लेखिका रहस्यों का ऐसा अनूठा संसार रचती हैं , जिसमें अप्राप्य सा कुछ नहीं । जहाँ दुःख की अपनी परिभाषा है , पर सुख भी अबूझ नहीं । कालातीत की स्मृतियां भी जीवन सृजित कर सकती हैं और करती रही हैं । और जीवन के इसी छोर अछोर के बीच की उस यात्रा में हम सब संलग्न हैं ।

The post जीवन जिसमें राग भी है और विराग भी, हर्ष और विषाद भी, आरोह और अवरोह भी appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

मुड़ मुड़ के क्या देखते रहे मनोहर श्याम जोशी?

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आमतौर पर ‘जानकी पुल’ पर अपनी किताबों के बारे में मैं कुछ नहीं लगाता लेकिन पंकज कौरव जी ने ‘पालतू बोहेमियन’ पर इतना अच्छा लिखा है कि इसको आप लोगों को पढ़वाने का लोभ हो आया- प्रभात रंजन

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ट्रेजेडी हमेशा ही वर्क करती आयी हैं और शायद आगे भी करती जाएंगी क्योकि वे भीतर तक छू जाती हैं, तंद्रा तोड़ देती हैं और मोहभंग कर जाती हैं। मनोहर श्याम जोशी की प्रसिद्धि के उफान से शुरू होकर उनके दैहिक अवसान तक के संस्मरणों की बेहद पठनीय यात्रा करवाती प्रभात रंजन की किताब पालतू बोहेमियन भी एक लिहाज से हिंदी साहित्य जगत की सबसे ताज़ा ट्रेजेडी है। हालांकि गौर करने वाली बात यह है कि यहां इसे ट्रेजेडी कहने के निहितार्थ बहुआयामी हैं।

बेशक यह किताब मनोहर श्याम जोशी के जीवन के विभिन्न चरणों, ख़ासकर उनके जीवन के उत्तरार्ध पर केंद्रित संस्मरणों का बेहद रोचक पाठ प्रतुस्त करती है। इसे पढ़ते हुए आप हंसते हैं, वर्तमान साहित्य जगत की हठ और कुंठाओं के गैर-विस्मयकारी उद्घाटन से कुछ ठिठकते भी हैं। अपनी शैली में यह कुछ उपन्यास सरीखा है। इन संस्मरणों के केंद्र में ‘कुरू कुरू स्वाहा’ जैसे बेहद लोकप्रिय उपन्यास के लेखक और ‘बुनियाद’ धारावाहिक से भारतीय टेलिविजन के सूत्रपात में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले मनोहर श्याम जोशी हैं, वहीं दूसरी तरफ डीयू के मानसरोवर हॉस्टल में रहने वाला एक ऐसा शोधार्थी है जो फटाफट लेखक बन जाना चाहता है। उदय प्रकाश की कहानियों पर एमफिल के बाद पी-एचडी में प्रभात रंजन एक ऐसा विषय चुनते हैं जिसमें उत्तर-आधुनिकता भी है और मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास भी, पर बतौर संस्मरण-कर्ता वे यह स्वीकारने में ज़रा भी नहीं झिझकते कि उनके लिए मनोहर श्याम जोशी के प्रति आकर्षण का सीधा मतलब धारावाहिकों के लिए लिखने का मौका पाना भर रहा। अब इसे मनोहर श्याम जोशी के असाधारण व्यक्तित्व और उसका आकर्षण न कहें तो क्या कहें कि मनोहर श्याम जोशी के दीर्घकालिक संग साथ का असर धीरे धीरे प्रभात रंजन के भीतर आकार ले रहे लेखक पर पड़ता है और वे रचनात्मक और आलोचनात्मक लेखन की दिशा में बढ़ते चले जाते हैं। हालांकि उनका खुद एक पटकथा लेखक बनने का सपना इस प्रक्रिया में पटाक्षेप पा लेता है। यह भी एक तरह से ट्रेजेडी है.

 ‘पालतू बोहेमियन’ के एक संस्मरण में मनोहर श्याम जोशी प्रभात रंजन से कहते हैं- ‘जानते हो, मैंने तुम्हारे और न जाने कितने संपादकों, लेखकों के बार बार कहने के बावजूद अज्ञेय जी के ऊपर कोई संस्मरण क्यों नहीं लिखा? क्योंकि मेरा यह मानना रहा है कि किसी के ऊपर संस्मरण लिखने का अधिकारी वही होता है जिसकी दक्षता कुछ तो उसके समकक्ष हो जिसके ऊपर वह लिख रहा है। मैं चाहे जो भी हो गया होऊं, अज्ञेय जी के आसपास भी नहीं पहुंच पाया- न प्रतिभा में न उपलब्धियों के मामले में।‘

तो क्या प्रभात रंजन एक लेखक के तौर पर मनोहर श्याम जोशी के आसपास पहुंच गए हैं जो उनके ऊपर संस्मरणों की पूरी की पूरी किताब लिखने का दुस्साहस कर बैठे? दरअसल यह सवाल ही बेमानी है। विनम्रतापूर्वक असहमति दर्ज करते हुए यहां इतना जोड़ना ज़रूरी है कि किसी योग्य व्यक्ति पर संस्मरण लिखने की योग्यता के लिए बस उसकी जीवन यात्रा में कहीं न कहीं जुड़ा होना भर ज़रूरी है। यह भी कि वह सिर्फ बेलाग लिख सके फिर भले ही संस्मरण लिखने वाला वह व्यक्ति वर्षों तक नामवर सिंह का ड्राईवर या अज्ञेय का टाइपिस्ट ही क्यों न रहा हो। यकीनन पाठकों के लिए शायद वे ही सबसे सरस संस्मरण होंगे। क्योंकि उनके अनुभवों से निकले संस्मरण जरूरी नहीं कि सिर्फ महानता ही गढ़ें, सिर्फ किसी विचारधारा को पुष्ट करें। यहां प्रभात रंजन इस मामले में ईमानदार लगते हैं। वे कोई विशिष्ट लेखक/आलोचक के तौर पर नहीं बल्कि एक शोधार्थी के तौर पर अपनी स्मृतियों में बसे मनोहर श्याम जोशी का जादुई व्यक्तित्व कागज़ पर उतारते हैं। फीकी चाय पीते हुए गुड़ की डली कुतरते मनोहर श्याम जोशी देखते ही देखते पाठक के सहचर हो जाते हैं. बोनस में मिलते जाते हैं उनसे वक्त वक्त पर एक से बढ़कर एक सूत्रवाक्य! साथ ही लेखक प्रभात रंजन को अमेरिकन सेंटर लाइब्रेरी का मेंबरशिप कार्ड मिलना एक तरह से इस संस्मरण के पाठक के लिए भी विश्व-साहित्य का द्वार खुलने जैसा हो जाता है। ‘उत्तर-आधुनिकतावाद और मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास’ विषय पर सुधीश पचौरी के निर्देशन में पी-एचडी के दौरान उनका इस बोहेमियन लेखक से परिचय हुआ, इसके आगे उनका मनोहर श्याम जोशी से जितना भी संग साथ रहा, वह अपनी परिपूर्णता के साथ रहा, यह बात तो ‘पालतू बोहेमियन’ साबित करती ही है साथ ही मनोहर श्याम जोशी के व्यक्तित्व की ऐसी अभिव्यंजना भी प्रस्तुत करती है जिसमें उन्हें महान सिद्ध करने की कोई जुगत नहीं, न ही स्वयं अपनी वैचारिक या सैद्धांतिक दृढ़ता गढ़ने का कोई सायास प्रयास है। इस विधा में लेखन का पहला त्रास या ट्रेजेडी यही है कि संस्मरण व्यक्ति-विशेष और स्वयं की वैचारिक प्रतिबद्धता गढ़ते रहने के विधान भी रहे हैं। कभी कभी एक वैचारिक दृष्टि से घोर लंपट नज़र आने वाला व्यक्तित्व दूसरे वैचारिक दृष्टिकोण से घनघोर वैचारिक प्रतिबद्धता वाला दिखता है या दिखाया जाता है।

एक और बेहद मारक ट्रेजेडी यह है कि मीडिया के घनघोर प्रभाव के दौर ने हमें जो भी अच्छी-बुरी चीजें दी हैं, उनमें जो सबसे बुरी चीज हर किसी ने सीखी, वह है – हैडलाइन ले उड़ना। संदर्भ कांट-छांटकर विवादास्पद लगने वाला वाक्य ले उड़ना कोई कम बड़ी विभीषिका नहीं है। ‘पालतू बोहेमियन’ के सतही पाठ में भी इस तरह के जोखिम बहुत हैं। हो सकता है अबतक कुछ लोग ऐसी हैडलाइन ले भी उड़े हों। यह भी हो सकता है उन हैडलाइनों का वे अपनी धरा और धारा मजबूत करने में इस्तेमाल भी शुरू कर चुके हों, और ‘पालतू बोहेमियन’ में मनोहर श्याम जोशी और प्रभात रंजन के कहे हुए कुछ सूत्र वाक्य दिखा-दिखाकर अपनी जमात में तालियां भी बटोर रहे हों। लेकिन संदर्भों की कांट-छांट में यह कैसे भूला जा सकता है कि खुद मनोहर श्याम जोशी अपनी युवावस्था के दिनों में वामपंथ के प्रति उनका गहरा लगाव रहा। इतना ही नहीं अपने अंतिम दिनों तक वे वामपंथ की आलोचना दृष्टि के कायल रहे. प्रभात रंजन लिखते हैं कि जब कभी कोई वामपंथी आलोचक उनकी रचना की तारीफ कर देता था तो वे बहुत खुश हो जाया करते थे। किसी भी विचारधारा से चिपके न रहने वाले मनोहर श्याम जोशी भले कितने भी बोहेमियन क्यों न रहे हों लेकिन मार्क्सवादी आलोचना के प्रति मनोहर श्याम जोशी की आस्था ‘पालतू बोहेमियन’ में दर्ज इसी बात से हो जाती है – ‘हिंदी में मार्क्सवाद का जोर शायद ही कभी कम हो, इसका कारण वे यह मानते थे मार्क्सवाद के आलोचकों ने, ख़ास कर नामवर सिंह ने, हिंदी में मार्कवाद का रचनात्मक पक्ष बहुत मज़बूती से तैयार किया’। लेकिन हैडलाइन ले उड़ने वालों को यह बात समझ नहीं आएगी और वे हो सकता है दूसरे चटपटे प्रसंग ले उड़ें, यह भी एक ट्रेजेडी ही है।

हालांकि इस सब के बावजूद इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि मार्क्सवाद की कसौटी पर खरी न उतने वाली रचनाओं और रचनाकारों को ख़ारिज करते जाने की परिपाटी ने भी हिंदी का कोई बड़ा हित किया हो, ऐसा नहीं है। इसके उलट हुआ यह कि राजनीति से प्रेरित जिस तरह का ध्रुवीकरण समाज में पिछले कुछ दशकों से प्रभावशाली हुआ जा रहा है, कमोबेश उसी तरह के साहित्यिक ध्रुवीकरण की नींव भी इसी बहाने भरी जाती रही है। देखते ही देखते अब तक खारिज किए जाते रहे बहुसंख्यक हो चले हैं। मनोहर श्याम जोशी का सबसे प्रिय शब्द ‘दुचित्तापन’ शायद इसी आने वाले ख़तरे का इशारा रहा होगा। वैसे भी वे वागीश शुक्ल के साथ मेल-मिलाप में अक्सर इस निष्कर्ष पर पहुंचते रहे थे कि ग्लोबलाइजेशन के अंतिम दौर में राष्ट्रवाद बेहद प्रभावशाली रूप में सामने आएगा। अब सवाल यह है कि विचारधाराओं के बंधन से मुक्त रहते हुए मनोहर श्याम जोशी और उन्हीं की तरह तटस्थ भाव रखने वाले अन्य लेखक विद्वानों को अगर इन आने वाले ख़तरों का अंदाज़ा रहा, तो मार्क्सवादी आलोचना दृष्टि इन्हें चिन्हित और लक्षित करने से कैसे चूक गई? अगर ऐसा किसी वैचारिक आत्ममुग्धता की वजह से हुआ तो यह भी कोई कम ट्रेजेडी नहीं है।

अपनी आत्मकथा ‘मुड़ मुड़के देखता हूं’ में राजेन्द्र यादव चेखव के नाटक ‘तीन बहनें’ का एक संवाद उद्धृत करते हुए लिखते हैं – ‘काश, जो कुछ हमने जिया है, वह सिर्फ ज़िन्दगी का रफ-ड्राफ्ट होता और इसे फेयर करने का एक अवसर हमें और मिलता!’ हालांकि राजेन्द्र यादव ने यह संवाद भाषा महात्म्य और शुचिता को लेकर बवाल मचाने वालों की खिंचाई करते हुए कोट किया था. लेकिन यह संवाद अपने अंतिम दिनों में मनोहर श्याम जोशी के मन की उथलपुथल बयां करने में बेहद सटीक नज़र आता है. जब उन जैसा आइडिया गुरू अपने तमाम आधे-अधूरे उपन्यासों पर बेतरतीब ढंग से एक साथ काम करने बैठ जाता है। ऐसा करके अपनी ज़िन्दगी का कौन सा रफ-ड्राफ्ट फेयर करने लग गए थे मनोहर श्याम जोशी? क्या हिंदी के लोकप्रिय लेखक और फिर एक सफल पटकथा लेखक के तौर पर मिली सफलता और पहचान के बावजूद उनके मन का कोई कोना खाली रह गया था जिसे वे जल्द से जल्द भर लेना चाहते थे? पछतावा उन्हें बेशक अपने किसी निर्णय का न रहा हो पर क्या धारावाहिक लेखन में मिल रही नाकामी उन्हें वापस साहित्य की ओर मोड़ रही थी या फिर उन्होंने आखिरकार समझ लिया था कि उन्हें क्या करना चाहिए? लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी? अगर यह सही है तो बेहद मारक है, क्योंकि जब हमें पता चले कि दरअसल अब आगे क्या करना क्या है, ठीक उसी वक्त… सारा वक्त हथेली से रेत की तरह फिसल जाए… तो यह सबसे बड़ी ट्रेजेडी है।

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कबीर सिंह एब्‍नॉर्मल और एक्‍स्‍ट्रा नाॅॅर्मल है, उसे न्‍यू नॉर्मल न बनाएं

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कबीर सिंह फ़िल्म जब से आई है तबसे चर्चा और विवादों में है। इस फ़िल्म पर एक टिप्पणी लेखक, कोच। पॉलिसी विशेषज्ञ पांडेय राकेश ने लिखी है- मॉडरेटर

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कबीर सिंह एक व्यक्तित्व विकार से पीडि़त पात्र की कहानी है, साथ- ही मर्दवादी समाज में मिसोजिनि यानि स्‍त्री द्वेष के सूत्रों की सफल- असफलत अभिव्‍यक्ति भी है। प्रोटैगोनिस्‍ट कबीर दुनिया के तमाम स्‍त्रीयों से मूलत: घृणा करता है, या ऑब्‍जेक्‍ट के रूप में ही देख पाता है। पर, भीतर के हार्मोनों के प्रवाह के वशीभूत ‍जिस एक को प्‍यार करने के ‍लिए ‘पिक’ करता है, उसके पीछे पागल हो जाता है। यह निर्विरोध ‘पिक’ होना पसंद करने वाली और उस तथाकथित सुरक्षा में अपना कल्‍याण व प्‍यार खोजने वाली प्र‍ीति की भी अफसोसजनक कहानी है। यह स्‍त्री को ‘पिक’ करने करने की सहूलियत देने वाले और ‘पागल’ प्‍यार को महिमामंडित करने वाले समाज की भी कहानी है। समाज क्‍यों न महिमामंडित करे, ‘पागलपन’ का लाइसेंस मिल जाना ‘कंट्रोल करने’ का लाइसेंस मिल जाना है।

फिल्‍मकार ने कबीर सिंह (और प्रीति के भी) के ऑब्‍सेसन को ‘प्रेम कहानी’ बनाया है। देखा जाए, तो प्रेम में कमोबेश ऑब्‍सेसन होता है। पर, ऑब्‍सेसन ही प्रेम नहीं होता। फिल्‍मकार ने ऑब्‍सेसन के चित्रण और दर्शक द्वारा इसका ‘मजे लेने’ पर जितना जोर दिया है, उतना जोर प्रेम के ऑब्‍सेसन से ठहराव की ओर यात्रा पर नहीं दिया है। कबीर ने प्र‍ीति के व्‍यक्तित्‍व में कोई स्‍वायत्‍ता नहीं छोड़ी है, उसे अपनी चेरी बना लेता है। वही प्र‍ीति जब अपने पिता के आगे बेबस हो जाती है, तो कबीर उसे अपने प्रेम के लिए लड़ने की शिक्षा देता है, प्रेम के मार्ग में जो जाति और हैसियत आती है, उसे कोसता है। कबीर की समस्‍या ही यही है कि उसकी सामाजिक चेतना बड़ी सेलेक्टिव है, और बस अपने स्‍वार्थ के काम आती है।

सनक की मनोसामाजिक प्रक्रिया देखनी है, तो फिल्‍म महत्‍वपूर्ण है । पर, सनक को ग्‍लोरिफाई करके फिल्‍मकार ने धंधा किया है, इस लिहाज से फिल्‍म बेईमान ठहरती है।  कबीर सिंह इंसान सच्‍चा तो है, पर बस अपने लिए। जैसा- कि अपने कॉलेज में अपने डीन से बहस करते वक्‍त कहता है, कि ‘आई एम रिवेल फॉर नो रीजन’। एक डिस्‍पोजिशनल यानि व्‍यक्तित्व  में जड़ीभूत एक सच्‍चाई है, रिवेल वह इसलिए भी है। लेकिन, यह रिवेल किसी लक्ष्‍य से नहीं जुड़ता। समाज ने इस रिवेल को दिशा तो नहीं दिया, पर इस रिवेल से अपने लिए लार्जर दैन लाइफसाइज ‘मर्द’ बना लेता है।  वह एक व्‍यक्तित्‍व विकार का शिकार है, जिसे ठीक करने के लिए परिवार और समाज ने कभी इंटरवेंशन तो नहीं किया, पर समाज अपनी मर्दवादी और स्‍त्री द्वेषी मूल्‍यों को उसमें इंजेक्‍ट करके अपना एक नायक जरूर तैयार करता है। समाज ने उस व्‍यक्तित्‍व प्रकार की मौलिक सच्‍चाई का लाभ तो न लिया, उसकी सनक को दुरूस्‍त करने की जवाबदेही तो न ली, पर अपना सारा जहर उसमें इंजेक्‍ट जरूर करता है।

पर, मैंने कबीर सिंह को खारिज नहीं ‍किया है। देखिए, पर आलोचनात्‍मक विवेक साथ रखकर देखिए।

फिल्‍म ने जीवन के एक स्‍याह पक्ष को विषय बनाया है। फिल्‍म मात्र इसलिए स्‍याह नहीं हो जाती।

सनक हमारे जीवन के आसपास खूब पसरा सच है। हम सबके भीतर कुछ न कुछ प्रतिशत सनक है। एक कला- माध्‍यम सनक को क्‍यों न विषय बनाए।

फिल्‍मकार ने प्रोटागोनिस्‍ट को सनकी ही कहा है। फिल्‍मकार ने कोई यह प्रस्‍तावना नहीं की है कि वही समाज का नॉर्मल है, और पूरे समाज को ऐसा ही हो जाना चाहिए। दरअसल, ‍फिल्‍मकार ने वह समाज भी ‍दिखाया है, जो इस सनक में आनंद प्राप्‍त करता है। यहां तक ‍कि जी- जान से चाहने वाला दोस्‍त भी वह है जिसे कबीर सिंह के सेक्‍सुअल भटकावों में अपना विकारियस सटिस्‍फैक्‍शन यानि सेकेंड हैंड दबी- छुपी संतुष्टि मिलती है। उसके दरवाजे के भीतर सभी झांकना चा‍हते हैं। कबीर सिंह की नज़र से स्‍त्री या तो मां बहन के रूप में सोना- चांदी में लदी- फदी और पूजा- पाठ और सभा- सोसायटी में रत देवी है, प्रेमिका के रूप में संपत्ति है, और बाकी सब- के- सब मादा हैं।

‍सिनेमा के कैनवस पर हर स्‍त्री बस मादा के रूप में नज़र आती है। यह सिनेमा का स्‍याह विषय है। कबीर सिंह समाज का एक प्रतीक चिह्न है, एक सोशल पोजिशन है, जहां पर खड़े होकर हर स्‍त्री एक मादा है। सिनेमा को देखते हुए अपने- अपने मनोविज्ञानों के अनुसार या तो हम उस सैडिज्‍म में आनंद प्राप्‍त करते हैं, या एक डिस्‍गस्‍ट एक बेचैनी महसूस करते हैं। अगर बेचैनी उस आनंद से ज्‍यादा होती तो फिल्‍म को सार्थक कहा जा सकता था।

सिनेमा से शिकायत तो है। शिकायत यह नहीं है कि उसने ‘सनक’ को विषय कैसे बनाया। ऐसा करके तो फिल्‍मकार ने एक जरूरी काम किया। फिल्‍मकार ने यह गलती भी नहीं की कि उसने सनक में प्रेम को नकली प्रेम क्‍यों नहीं कहा। दरअसल, फिल्‍म में फिल्‍मकार ने एक सनकी के माध्‍यम से प्रेम- संबंध में पैशन के महत्‍व, जितना भी वह है, को रेखांकित किया है। वह पैशन अगर सनक से मिलता है, जिसमें कुछ महीनों में चार सौ से अधिक बार सेक्‍स हो सकता है, तो सनक को दरकिनार कर भी वह पैशन तो खोजने और पाने लायक है ही।

सिनेमा से शिकायत यह है कि उसने सनक के चित्रण पर जितना जोर दिया, उतना सनक से हीलिंग पर नहीं। ऐसा लगता है कि सनक को ‘न्‍यू नॉर्मल’ मानने को तैयार बैठे युवा और समाज के साथ फिल्‍मकार ने जरूरत से ज्‍यादा फ्लर्ट किया है। विकारियस यानि दूसरों की संतुष्टि से संतुष्‍ट होने वाले और सैडिस्टिक संतुष्‍टि ढूंढने वाले दर्शक- वर्ग को वह यह संतुष्टि तो खूब दिलाता है, पर सनक के पतन को दर्शाने में वह सफल नहीं हो सका है, या शायद जानबूझकर इसपर जोर नहीं देता है।

सिनेमा में हीलिंग व ग्रीफ हीलिंग भी एक विषय है। दुख से उबरने के मनोविज्ञान का सार- तत्‍व यह है कि दुख को स्‍वीकार कर और उसको जीकर और क्रमश: दुख के निरपेक्ष स्‍वीकार की एक स्थिति तक पहुंचकर दुख से बाहर निकलते हैं। दुख में कबीर सिंह गुस्‍सा करता है, नशा करता है, पर कभी रोता नहीं है।  उसका व्‍यक्तित्‍व- विकार और मर्दवाद का सामाजिक प्रशिक्षण उसे रोने से रोकता है। शायद, फिल्‍मकार यह दिखलाना चा‍हता है कि कबीर सिंह की दादी यह समझती है। कबीर सिंह के पिता ने एक बिंदु पर यह समझा और उसे घर से निकाल दिया कि अब अपनी अनैतिक और कमजोर हरकतों की जवाबदेही वह खुद ले। भाई ने नैतिक साथ कभी न छोड़ा। ग्रीफ हीलिंग के मनोविज्ञान के आधार पर कहें तो, नशा से लड़ने में नशा से परेशान होने की जगह नशा को जीते हुए भी जितनी जल्‍दी हो सके नशा पर निर्भरता से बाहर आकर, अपने पापों की सब सजा भु्गतकर, अपने भीतर बैठे चालाक समाज जो हमारी बुराईयों से अपनी बुराई को इनक्‍लाइन करता है को बाहर फेंककर, प्रेमी/ प्रेमिकाओं के प्रति की गई ज्‍यादतियों के लिए प्रायश्चित कर, अपने ईगो और समाज के मानकों का अतिक्रमण कर प्रेमी/ प्रेमिका को स्‍वीकारने की मानसिक- नैतिक तैयारी और पाने की जद्दोजहद- यह सब हीलिंग की प्रक्रियाएं हैं।

मुझे फिल्‍म से शिकायत यह है कि उसने सनक, नशा, सेक्‍सुअल डेविएशन आदि को एन्‍जॉय तो बहुत किया, पर हीलिंग की प्रक्रियाएं खानापूर्ति हैं।  नायक के दर्द से उबरने और नायिका को पाने की पूरी प्रक्रिया के चित्रण में व्‍यवसायिक चालाकी है, कि सिनेमा में पूरे समय दर्शक जिस सैडिस्टिक आनंद में डूबता- उरराता रहा, उस आस्‍वाद में खलल लेकर हॉल से बाहर न आए। नायक के उबरने और बदलने की पूरी प्रक्रिया बहुत ब्रीफ है, नाटकीय प्रभावों के बिना है, और कंविंस नहीं करती। बात तो तब होती, जब कबीर सिंह प्रेमिका प्रीति को तब भी स्‍वीकार करने को तैयार होता जब प्रीति के पेट में उसके पति का बच्‍चा होता। फिल्‍मकार ने कबीर सिंह को सिद्धांत रूप में तो इसके लिए तैयार दिखाया है, पर पता अंत में यही चलता है कि वह बच्‍चा तो कबीर सिंह का ही है। यानि, फिल्‍मकार ने दर्शक वर्ग की उस हद तक शॉक- थेरेपी करने की हिम्‍मत नहीं दिखाई, व्‍यक्तित्‍व विकार और समाज के मर्दवाद से निर्मित सनक को उबरने के लिए जिस हद के शॉक की जरूरत होती है।

सिनेमा से शिकायत यह नहीं है कि उसने स्‍याह को विषय बनाया। सिनेमा से शिकायत यह है कि उसने स्‍याह में डूबते- उतराते रहना ही ज्‍यादा पसंद किया है।

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पांडेय राकेश
9910906627

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एक इतिहासकार की दास्तानगोई

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हाल में ही युवा इतिहासकार, लेखक सदन झा की पुस्तक आई है ‘देवनागरी जगत की दृश्य संस्कृति’। पुस्तक का प्रकाशन रज़ा पुस्तकमाला के तहत राजकमल प्रकाशन से हुआ है। पुस्तक की समीक्षा पढ़िए। लेखक हैं राकेश मिश्र जो गुजरात सेंट्रल यूनिवर्सिटी में शोध छात्र हैं- मॉडरेटर

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हिंदी जगत में आये दिन ये शोकगीत सुनने को मिलता है कि हमारे यहाँ पर पर्याप्त मात्रा में बौद्धिक लेखन नहीं हो रहा | इस शोकगीत को थोड़ा और विस्तार दिया जाए तो ये भी सुनने को मिलता है कि हिंदी में होने वाले शोधपरक लेखन का स्तर लगातार गिर रहा है | ये दोनों तरह का मातम कुछ हद तक ठीक भी है, पर हिंदी के महत्वपूर्ण इतिहासकार और कहानीकार सदन झा की किताब देवनागरी जगत की दृश्य संस्कृति (रज़ा पुस्तकमाला के तहत राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, 2018) को पढ़ते हुए लगता है,  तमाम अंधकार के बावजूद कुछ लेखक एक खास चुप्पी और तैयारी के साथ काम कर रहे हैं | सदन जी उन्हीं थोड़े से लेखकों में से हैं | इस समीक्षा का उद्देश्य लेखक को स्थापित करना नहीं है बल्कि हमारे समय के इस ज़रूरी इतिहासकार को सुनने की कोशिश है | एक ऐसा इतिहासकार जो अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए अपनी झोली में कई दास्तान ले के खड़ा है | डॉ. सदन झा शुरू से ही इतिहास के विद्यार्थी रहे हैं | वो इतिहास, साहित्य, कला के तमाम रूपों और समकालीन मुद्दों पर गजब की तैयारी और आत्मविश्वास के साथ बोलते हैं | पिछले दो दशक में सदन जी ने हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में पर्याप्त मात्रा में लेखन किया है |  हाल ही में, उनकी छोटी कहनियों का संग्रह हाफ सेट चाय  ने हिंदी के पाठकों के बीच में अच्छा-खासा हलचल मचाया था | 2016 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित उनकी किताब रेवरेन्स, रेसिस्टेंस एंड पॉलिटिक्स ऑफ सीइंग इंडियन नेशनल फ्लैग ने राष्ट्रीय झंडा, चरखा और भारत के इतिहास के संदर्भ में होने वाले शोध के लिए कई नए रास्ते खोल दिए हैं | पर फिलहाल, इस लेखक के कद पर बात करने के बजाए मैं प्रस्तुत किताब पर पाठकों का ध्यान केन्द्रित करना चाहता हूँ |

भूमिका के अलावा ये किताब 9 लेखों का संग्रह है, जो लेखक ने पिछले 10-15 सालों में लिखा है | इन लेखों  से गुज़रते हुए एक दिलचस्प बात सामने आती है की कैसे एक इतिहासकार अपने समय को विभिन्न धरातल पर देख रहा है ? पिछले दो दशक में इतिहास, कला, दृश्य-जगत, साहित्य, सिनेमा, राजनीति और समकालीन मुद्दों पर जो कुछ भी लिखा गया है, वो इन लेखों  से गुज़रते हुए इस तरह के तमाम लेखन का पुनर्पाठ करने का मौक़ा मिलता है | एकदम शुरू में ही लेखक ने इस किताब की भूमिका में दृश्य-संस्कृति के अध्ययन की चुनौतियों पर खुलकर बात किया है | लेखक ने जोड़ देते हुए कहा है की सिर्फ देखना ही काफी नहीं है | ये ज्यादा महत्वपूर्ण है कि कुछ देखते हुए जो अनुभव हमे होता है, उस अनुभव को हम कैसे देख रहे हैं ? इस देखने की संस्कृति में किस तरह से “चित्र ने लिखित शब्द की तुलना में अपने को बेहतर पायदान का हकदार बना लिया” | एक मुश्किल जिम्मेदारी लेते हुए लेखक ने इस किताब की भूमिका में अनुभव और ज्ञान के फर्क को समझाने की कोशिश की है|

इस किताब की यात्रा संतोष रेडियो से शुरू होती है | बिहार के दरभंगा में जॉन नज़ारथ का प्रवेश | फिर 1980 के दशक में संतोष रेडियो का आना, जिसने घर-परिवार के माहौल को बिल्कुल बदल दिया | 1980 के ही दशक में बिहार से होने वाला पलायन, दहेज की यादगार कहानियाँ, शादियों में रेडियो और घड़ी के लिए वो मत्वपूर्ण स्थान, संतोष रेडियो कि कहानी पढ़ते हुए ये सबकुछ किसी दृश्य की तरह आँखों के सामने से गुज़रता है | संतोष रेडियो के बारे में पढ़ते हुए लगता है कि लेखक ने फिक्शन और नॉन-फिक्शन के अंतर को खत्म कर दिया है |

किताब के दूसरे अध्याय, “मामूली राम की दिल्ली : आर्काइव का शहर और शहर का आर्काइव” में लेखक ने दिल्ली शहर के आर्काइव और आर्काइव में बदल चुके इस शहर को पढ़ने की कोशिश की है | किताब के इस हिस्से को पढ़ते हुए ये देखना और जानना बहुत दिलचस्प है की अखबार की कतरनें भी किसी शहर को पढ़ने में मदद कर सकती हैं | द हिन्दुस्तान टाइम्स (1940) और दिनमान (1966) के कुछ कतरनों को हमारे सामने रखते हुए लेखक ने एक ज़रूरी सवाल उठाया है की किसे ‘खबर’ माना जाए और किसी नहीं माना जाए? आज के समय में जब फेसबुक, व्हाट्सअप और ट्विटर जैसे अनेक सोशल मीडिया के माध्यम हमारे सामने उपलब्ध हैं, तब ये सवाल हमारे लिए कुछ ज्यादा ही महत्वपूर्ण हो गया है | ख़बरों के इस बाढ़ में कैसे कल तक जो ‘ख़बर’ थी, वो आज के मीडिया विमर्श में अचानक से गायब हो जाता है |

बहुत दिनों बाद किसी लेखक ने भीड़ को अलग तरीके से ‘देखने’ और ‘दिखाने’ की कोशिश की है | लेखक ने ये काम अपने तीसरे अध्याय, “भीड़, जन समुदाय और राजनीती” में किया है | ये किताब जिस कारण से पढ़ी जानी चाहिए वो है लेखक के पैने और स्पष्ट सवाल | जैसे की भीड़ के बारे में सोचते हुए हर बार हमारे दिमाग में एक नकारात्मक छवी बनती है | इस लेख को पाठकों के सामने रखते हुए लेखक की मूल चिंता यहीं है की भीड़ को कैसे देखा जाए ? इस लेख  के लगभग आखिर में लेखक ने जनलोकपाल बिल के लिए अन्ना हज़ारे द्वारा किये गए आन्दोलन पर बात किया है | यहाँ लेखक ने जोड़ देते हुए कहा है की, किसी जन-समुदाय का आंकलन हम किन रूपों में करें, ये हमें जार्ज रुदे, एडमंड बुर्के और इलिया कोर्नेती जैसे इतिहासकारों के बारे में सोचने को मज़बूर कर देता है, जिन्होंने भीड़ से जुड़े सवालों पर लम्बे समय तक अलग-अलग तरीकों से सोचा है|

किसी भी लेख  में लेखक ने पाठकों को सवालों में उलझाने की कोशिश नहीं की है बल्कि यहाँ पर भीड़ के बारे में सोचते हुए लेखक ने साफ-साफ रेखांकित किया है कि भीड़ हमेशा किसी बाह्य कारकों या उद्देश्यों के प्रभाव में आकर क्रांति में भाग लेती है |

किताब के चौथे और पांचवे लेख  को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए | इस चौथे लेख को लेखक ने प्रभाष  रंजन के साथ मिलकर लिखा है | किताब का ये अध्याय किसी परम्परागत अकादमिक बनावट के बजाए एक रोचक लेख के रूप में हमारे सामने आता है | इस लेख की शुरुआत बहुत छोटे से अवलोकन के साथ होती है | दिल्ली के डी.टी.सी बस में सफर करते लेखक की नज़र पड़ती है उस कोशिश पर जो इस तरह की बसों में ‘महिलावों’ को ‘हिलावों’ में बदल देता है | उपरी तौर पर ‘महिलाओं’ का ‘हिलाओं’ में बदल जाना कहीं ना कहीं पुरुष और महिला सत्ता के बीच के संघर्ष को दिखाता है | पर थोड़ा ठहरकर सोचे तो ये एक त्रिकोणीय लड़ाई है, जो महिला बनाम पुरुष, जन स्थान और पुरुषवादी राज्य के बीच में चल रहा है | पर लेख का सबसे ज़रूरी हिस्सा है रक्स मिडिया समूह के इन्स्टालेशन को देखना | जिस इन्स्टालेशन में बच्चों द्वारा बनाई गई मोहक तस्वीर है और साथ ही भारी-भरकम कानून के शब्द भी | किताब के पांचवें अध्याय को पढ़ते हुए लगता है की जैसे आप दिल्ली के पुरानी गलियों में किसी उत्साही गाइड के साथ भटक रहे हैं | पर ये लेख दिल्ली शहर के बजाए उन सड़कों और मोहल्लों के बारे में है, जिन तक बहुत कम लोग पहुँचते हैं | दिल्ली के हर सड़क और गली के पास अथाह कहानियाँ हैं | यहाँ लेखक ने इन्हीं में से कुछ कहानियों को सुनने और सुनाने की कोशिश की है, ‘सड़क की कहानी’ लिखते हुए |

इस किताब का सबसे मजबूत पक्ष ये है कि ये किताब बार-बार ‘देखने’ पर जोड़ देती है | देखना एक क्रिया है | पर ये क्रिया आसान नहीं | इस देखने के हज़ारों आयाम हो सकते हैं | चाहे वो दिल्ली शहर को देखना हो, राष्ट्रीय ध्वज को देखना हो या 19 वीं सदी की पत्रिका श्री कमला  में छपे किसी चित्र को देखना हो | इस किताब में लेखक देखने के ही नए-नए रास्ते खोज रहा है |

खासतौर से किताब के छठवां और सातवां अध्याय को पढ़ते हुए प्रसिद्ध कला चिंतक और लेखक जॉन बरजर की किताब वेज़ ऑफ़ सीइंग  की याद आती है | छठवां अध्याय इस मामले में भी महत्वपूर्ण लगता है की यहाँ पर लेखक सिर्फ भारतीय झंडा से जुड़े आस्था पर ही नहीं बात कर रहा बल्कि यहाँ पर लेखक ने राष्ट्र और उसके प्रतिक के अंतर को साफ-साफ रखने की कोशिश की है | साथ ही, इस दिशा में भी कुछ नया जोड़ने की कोशिश की है की क्या राष्ट्र या राष्ट्रवाद से बाहर आकर झंडे के बारे में बात नहीं की जा सकती ? इस अध्याय के आधार में वो प्रसंग है जिसमें उद्योगपति और सांसद नवीन जिंदल के छह-साला मुकदमे के बाद केंद्र सरकार ने अप्रैल 2001 में आख़िरकार झंडे के फहराने और प्रदर्शन के बारे में उदार निर्णय लिया | इस निर्णय के पीछे कई अनकही कहानियाँ हैं जो लेखक ने यहाँ कहने की कोशिश की है | किताब के इस हिस्से को पढ़ने के बाद कम से कम ये बात साफ हो जाता है की पिछले दो दशक में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय ध्वज को लेकर जो भी निर्णय लिए हैं वो कहीं ना कहीं राष्ट्रीय ध्वज के उदार उपयोग और उसकी पवित्रता की रक्षा के बीच एक किस्म का संतुलन बनाए रखने की कोशिश है | जबकी किताब का सातवाँ अध्याय 1850 से लेकर 1920 तक देवनागरी में साहित्य,संस्कृति,प्रिंट,विज्ञापन आदी के क्षेत्र में हुए तेज बदलाव के छानबीन की कोशिश है | खास तौर से 1860 के दशक में ना सिर्फ प्रिंट और प्रकाशन की दुनिया में लगातार बदलाव हो रहा था बल्कि फोटोग्राफी एक पेशे के तौर पर भी अपना पैर पसार रही थी | ये वहीँ समय था जब ये तय किया जा रहा था की क्या देखने के लायक है और क्या देखने के लायक नहीं है ?

1850 से लेकर 1920 तक के समय पर बात करते हुए लेखक ने फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना के बाद पैदा हुए हिंदी, उर्दू और हिन्दुस्तानी के नाम पर पैदा हुए विवाद को भी छूने की कोशिश की है | इस किताब के आख़री अध्याय में लेखक ने विभाजन के सिनेमाई दुनिया की पड़ताल की है | विभाजन की त्रासदी पर आपनी बात रखते हुए लेखक ने सबसे पहले भीष्म साहनी के उपन्यास पर आधारित गोविन्द निहलानी द्वारा निर्देशित तमस  (1988) पर बात की है |

तमस  को देखते हुए लेखक ने ना सिर्फ साम्प्रदायिक तत्व को रेखांकित किया है बल्कि उस अपराधबोध की ओर भी इशारा किया है, जो विभाजन के बाद असंख्य लोगों के भीतर पैदा हुआ | तमस  का नत्थू एक अच्छा उदहारण है उस अपराधबोध को समझने के लिए | किताब का ये लेख कुछ-कुछ अधुरा सा लगता है, पर इस एहसास के बावजूद लेखक ने किताब के इस आख़री हिस्से में मनमोहन देसाई निर्देशित छलिया  (1960) का एक गहरा विश्लेषण हमारे सामने रखा है | विभाजन के दौरान अपहरण की गई, लापता और बेसहारा औरतें बहुत लम्बे समय तक विभाजन के इस विमर्श से बाहर थीं | यहाँ लेखक ने इस विमर्श में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया है, लाहौर  और अमर रहे यह प्यार  जैसी फिल्मों पर चर्चा करते हुए | इस लेख को पढ़ते हुए गदर (2001) और अर्थ:1947 (1999) जैसी फिल्मों को देखने के लिए एकदम नई दृष्टि मिलती है | गदर  सिर्फ अपने सफलता के कारण ही रोचक नहीं है बल्कि इस फ़िल्म ने कई पीढ़ियों के बीच विभाजन के अतीत को लेकर संवाद भी स्थापित किया | वहीँ नंदिता दास द्वारा निर्देशित अर्थ:1947 ने उस अपराधबोध को पुरुष देह के बदले नारी देह के माध्यम से देखने की कोशिश की है |

संक्षेप में कहें तो ये किताब ‘देखने’ का एक निरंतर अभ्यास है | इस देखने में ‘इतिहास’ और ‘कहानी’ का फर्क लगातार धुंधला पड़ता गया है | कुछ जगहों पर लेखक का भटकाव थोड़ा खटकता है पर ये मुझ जैसे पाठक की सीमा भी हो सकती है | हिंदी में इस तरह ही किताबों का लगातार स्वागत होना चाहिए | हिंदी की दरिद्रता पर रोने से ज्यादा बेहतर है की इस तरह कि किताबें लिखी और पढ़ी जायें |

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किताब का विवरण : देवनागरी जगत की दृश्य संस्कृति (विमर्श) : सदन झा ; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली;

2018; 250 /-

संपर्क :

Rakesh Kumar Mishra, CUG Boys Hostel, 16/6, Sector-24, Near Chandra Studio, Gandhinagar, Gujarat-382024.

 

फ़ोन :

08758127940

ईमेल:

rakeshansh90@gmail.com

 

 

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प्लेन व्हाइटवाश घरों की हरी-भरी बालकनियां!

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युवा लेखिका पूनम दुबे के यात्रा संस्मरण अच्छे लगते हैं। कोपेनहेगन पर उनका यह छोटा सा गद्यांश पढ़िए- मॉडरेटर

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विलियम शेक्सपियर और उनके लिखे नाटक “रोमियो और जूलियट” को कौन नहीं जानता. रोमियो और जूलियट की कहानी एपिटोम है प्यार का! इसी प्ले में एक बहुत ही प्रसिद्ध सीन है जिसमें जूलियट बालकनी में खड़ी हैं और रोमियो उसकी बालकनी के नीचे खड़ा उसके विरह में तड़पता उससे बाते करता है. उस समय पहली बार वह दोनों अकेले होते हैं. बालकनी बनती है उनके मुहब्बत का जरिया जहाँ वह दुनिया और अपने घरवालों की नजरों से छुपकर अपने प्यार का इज़हार करते हैं. यहीं से उनकी कहानी एक नए मुकाम की ओर चलती है. रोमियो और जूलियट के बीच का बालकनी वाला यह सीन एपिक है.

ऐसी कई फिल्में और प्ले है जहाँ बालकनी को रोमांटिसाइज़ किया गया है. इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि एक ज़माने में बालकनी कितने ही मुहब्बतों और इश्क जरिया बनी होगी. अब का नहीं कह सकती क्योंकि अब तो व्हाट्सएप्प और टिंडर है. लेफ्ट स्वाइप एंड राइट स्वाइप ने बालकनी रोमांस को दुर्लभ (एक्सटिंक्ट) कर दिया है. ख़ैर हमारे देश में छतों और खिड़कियों का ज्यादा योगदान रहा है इन मामलों में!

पहले कभी बालकनी पर इतना ध्यान नहीं दिया था लेकिन जब से कोपन्हागन आई हूँ मेरा ध्यान रह-रहकर यहाँ के घरों की बालकनियों पर ही चला जाता है. यहाँ के लगभग सभी घरों में बालकनी देखीं मैंने. अच्छी खासी बालकनी कम से कम दो लोगों के बैठने और लेटने की जगह हो इतनी बड़ी. समर का मौसम है. लोग अपनी बालकनियों में आराम कुर्सी पर लेटे धूप सेंकते नजर आ जाते है. हाथों में किताब होती है या फिर फ़ोन,लेटे रहते है घंटों-घंटे! कभी कॉकटेल होता है साथ तो कभी चाय, कॉफ़ी. इन बालकनियों को देखकर ऐसा लगता है यहाँ बालकनी कलचर बड़ा स्ट्रांग है. अपनी बालकनियों को खूब सजा-धजा कर रखते हैं लोग. छोटे-छोटे गमले, रंगबिरंगे फूलों के पौधे और लताएं आसपास होती है. कई लोगों को मैंने स्विम सूट में छतरी के नीचे बालकनी में लेटे देखा है. इन्हें सूरज की किरणों से बेहद लगाव है क्योंकि रैशनिंग में जो मिलती है यहाँ. सड़कों पर आदमी बिना शर्ट के साइकिल चलाते या ऐसे ही वाक कर नजर आ जाए तो कोई अचरज की बात नहीं है. अभी कुछ दिन पहले हॉउस हंटिंग के दौरान मैंने कौतुक बस यूँ अपनी हाउस हंटिंग एजेंट जैनेट से पूछा, “एक बात पूछूँ, यह बताओ लोग समर के बाद इन बालकनियों का किस चीज के लिए इस्तेमाल करते है? मतलब समर तो यहाँ ज्यादा से ज़्यादा चार महीने की होती है बाकी के आठ महीने क्या उपयोग है इनका? मौसम भी तो ऐसा नहीं ऐसा होता है कि कोई कपड़े भी सूखा सके! जैनेट ब्लॉन्ड बाल, लंबे कद हेज़ल-ग्रीन रंग की ख़ूबसूरत आँखों वाली क़रीब पचास साल की हंसमुख महिला है. मेरा सवाल सुनकर उसे हंसी छूटी  मेरी तरफ देखकर बोली,  “बात में पॉइंट तो है. समर के बाद बाकी के समय एक्स्ट्रा फ्रिज के स्टोरेज की तरह काम आ जाता है.” यह सुनते ही मुझे भी हंसी आ गई, समझ गई वह मज़ाक कर रही है. मन ही मन डर भी लगा न जाने क्या होगा मेरा सर्दियों में!

सर्दियों में यहाँ लोग ‘हुग्ग’ करते हैं. यानी कि घरों में परिवार और दोस्तों के साथ मिलकर समय बिताना. एक साथ कोज़ी होकर खाना, टीवी देखना, म्यूजिक सुनना किताबें पढ़ना. हाल ही में एक डेनिश दोस्त ने बताया कि सर्दियों में मौसम इतना ठंडा डार्क और ग्रे होता है कि डेन्स इंडोर ‘हुग्ग’ करना पसंद करते है. जैनेट ने घर दिखाते हुए बताया था कि ‘हुग्ग’  भी एक कारण है कि यहाँ के घरों में बेडरूम छोटे, किचन और ड्राइंग रूम एक साथ होते है ताकि परिवार एक साथ ज्यादा समय बिताए.

फिलहाल तो मौसम है बालकनियों का इसलिए मैं भी कभी-कभी चाय या कॉफ़ी का कप लेकर खड़ी हो जाती हूँ अपनी बालकनी में. देखतीं हूँ आते-जाते साइकल पर सवार और राह चलते राहगीरों को. दिख जाती है आस-पास की और भी बालकनियाँ. उनसे आती हंसी-ठहाके की आवाज़ सबूत देती है घर के ख़ुशनुमा माहौल का! चुप-चाप, शांत रूखे-सूखे पुराने पौधों से तितर-बितर बालकनियां कह जाती है न जाने कितनी अनकही और अनसुनी कहानियाँ!

वो कहते है न “आँखें आत्मा की खिड़की होती है” शायद उसी तरह “बालकनी भी घर के आत्मा की खिड़की होती है.” बहुत कुछ कह जाती है इन प्लेन व्हाइट वाश घरों की हरी भरी बालकनियां!

 

 

 

 

 

 

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‘लौंडे शेर होते हैं’उपन्यास का एक अंश

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आज युवा लेखन में तरह तरह के प्रयोग हो रहे हैं। कथा से लेकर शीर्षक तक तरह तरह के आ रहे हैं। युवा पाठकों को हिंदी से जोड़ पाने में इस तरह के प्रयास सार्थक भी हो रहे हैं। हिंद युग्म से ऐसा ही एक उपन्यास आया है कुशल सिंह का ‘लौंडे शेर होते हैं’। उसका एक अंश पढ़िए- मॉडरेटर

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क्या होगा जब कैरियर की चिंता में घुलते हुए लड़के प्रेम की पगडंडियों पर फिसलने लग जाएँ? क्या होगा जब डर के बावजूद वो भानगढ़ के किले में रात गुजारने जाएँ? क्या होगा जब एक अनप्लांड रोड ट्रिप एक डिजास्टर बन जाए? क्या होगा जब लड़कपन क्रिमिनल्स के हत्थे चढ़ जाए?

‘लौंडे शेर होते हैं’ ऐसे पाँच दोस्तों की कहानी है जो कूल ड्यूड नहीं बल्कि सख्त लौंडे हैं। ये उन लोगों की कहानी है जो क्लास से लेकर जिंदगी की हर बेंच पर पीछे ही बैठ पाते हैं। ये उनके प्रेम की नहीं, उनके स्ट्रगल की नहीं, उनके उन एडवेंचर्स की दास्तान है जिनमें वे न चाहते हुए भी अक्सर उलझ जाते हैं। ये किताब आपको आपके लौंडाई के दिनों की याद दिलाएगी। इसका हर पन्ना आपको गुदगुदाते हुए, चिकोटी काटते हुए एक मजेदार जर्नी पर ले जाएगा।

आप इस किताब को बुक करें, पढ़े, और अपना प्यार दें

जय हो, जवानी ज़िंदाबाद!

 

लौंडे शेर होते हैं: एक अंश

 

सनी के घरवाले तो उसके पीछे ही पड़ गए थे और उधर सनीबेचारा इस मसले पर सोचते हुए जल-भुनकर ख़ाक हुआ जा रहा था। शादी अभी हुई नहीं थी सिर्फ़ बात चली थी और सनी अभीसे परेशान था, जैसे शादी के बोझसे दबा हुआ कोई गृहस्थ आदमी हो।सनीटेंशनमें था और बाक़ी सब मज़े ले रहे थे।

“तो भाई इसमें प्रॉब्लम ही क्या है? आख़िर शादी तो एक न एक दिन करनी ही है न! अभी कर ले, क्या फ़र्क़ पड़ता है। तुम्हारा घर बस जाएगा। कभी-कभी हमको भी घर का खाना नसीब हो जाया करेगा। भाभी के हाथ का।”पांडेय ने सनी की मुश्किल आसान करने की कोशिश करते हुए कहा।

“अरे यार जे बात नहीं है। सोच रहा हूँ कि कटेगी कैसे? तनख़्वाह इतनी ज़्यादा तो है नहीं कि दो लोगों की गुज़र सके। ऊपर से दिल्ली की महँगाई, रोज़ के ख़र्चे। पुलिस की भरती भी न निकली है दो साल से कि ट्राई मारें।ऊपर से घर वालों ने लड़की वालों को सैलरी बढ़ा-चढ़ाकर बता राखी है।”सनी बड़ी देर बाद कुछ बोला।

“लेकिन तू तो कह रहा है कि लड़की भी गुड़गाँव में नौकरी करती है। शादी के बाद तो तेरी सैलरी भी डबल हो जाएगी न!” दीक्षित ने कहा।

“अरे यार ये भी तो एक समस्या है। घरवाले बता रहे थे उसकी सैलरी हमसे ज़्यादा है। अब बताओ कोई ईगो है कि नहीं हमारा?”सनी का मेल ईगो चिल्लाने लगा।

“लेकिन यार ये भी तो हो सकता है कि तुम्हारी तरह उसके घरवालों ने भी बात को बढ़ा-चढ़ाकर बताया हो!”संजू ने अपना तर्क दिया।

इस तर्क से सनी को कुछ राहत पहुँची। दरअसल बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं थी।सनी हमेशा से इमैजिन करता रहा था कि वो किसी लड़की से प्रेम की पींगे बढ़ाएगा। उसे लव लेटर लिखेगा। घंटों चैटिंग-शैटिंग होगी और रात-रात भर बातें करने के बाद प्यार परवान चढ़ेगा।फिर फ़िल्मों की तरह घरवालों को मनाने के जतन किए जाएँगे तब कहीं बड़ी मुश्किलें झेलने के बाद शादी होगी।‘ऐंड देन दे विल हैप्पिली लिव्ड आफ़्टर’ वाला साइन स्क्रीन पर लिखा आएगा। मगर आजतक कोई लड़की उसकी लाइफ़में नहीं आई थी और वो खोली के बाक़ी लोगों की तरह सिंगल और कुंठित था। लेकिन आज जब मिन्गल होने का टाइम आया था तो पता नहीं क्योंसनीके दस्त छूटे जा रहे थे!

“यार ये सब तो ठीक है लेकिन तूने अभी ‘डिंपल आई लव यू’ वाली कहानी नहीं बताई। आख़िर ये डिंपल थी कौन बे?” आशू ने पुरानी बात याद दिलाई।

सनी गंभीर हो गया और एक लंबी-सी साँस खींचकर बोला“यार ये एक बहुत पुरानी कहानी है हमारे बचपने की। हम संग में ट्यूशन पढ़ते थे।बड़ाफूट-फूटकर हँसती थी वो। उसकी एक दाँत एक्स्ट्रा थी, बिलकुल मौसमी चटर्जी की तरह। इसी से मुझे उसकी हँसी बड़ी अच्छी लगती थी। वो जब बातें करती तो नज़रें ज़मीन पर गड़ा लिया करती।पढ़ने में बड़ी तेज़ रही यार वो और हम तो शुरू से ही अलजेब्रा में फिसड्डी रहे।” कहानी सुनाते हुए सनी अपने बचपन में खो गया।

“उसे इम्प्रेस करने के लिए घर से मैथ की प्रैक्टिस करके जाता था। अभी भी अच्छे से याद है, जहाँ वो बैठा करती थी वहाँ मैंने परकार से खोद-खोदकर दिल की शेप का अमीबा बना दिया था।”सनी अपनी यादों में घुलकर बोले जा रहा था।

“लेकिन यार दिल और अमीबा इन दोनों का क्या रिलेशन है?” दीक्षित ने सनी को टोक दिया।

ऐसे अचानक से रोमांटिक मूड में कुतर्क करने से सनी थोड़ा डिस्टर्ब हुआ और दीक्षित को घूरते हुए बोला“अबे परम लंठ चूतिये, साइंस पढ़ी होती तो पतो होती न। दिल टूट भी सके है, लेकिन अमीबा टूट केभी अमर रेहवे है इसलिए। तुम सारेआर्ट्स वाले थोड़े ही न जानोगे।खाली गृह विज्ञान ही पढ़ते रह गये तुम।थोड़ा पढ़ लिए होते तो कुछ बन न जाते। लव लेटर ही लिखते रहे ज़िंदगी भर तुमझापड़ी के!”

“जाने दे न बे। तू कंटिन्यू कर सनी।”संजू बोला।

“यार का बताएँ वो तो टेम ही अलग हतो। जब ट्यूशन जाने को इंतज़ार करे करते थे। उसकी गली वाले मोड़ तक उसे छोड़कर आता था। दो किलोमीटर एक्स्ट्रा साइकिल चलानी पड़ती थी डेली, लेकिन बाबा क़मस कभी अफ़सोस नहीं हुआ। घर आने के बाद रोज़बब्बू मान और कुमार सानू की कैसेट फ़ुल वॉल्यूम पर बजाया करता था। न जाने कितनी बार सोन दी झड़ी नी लगी सोन दी झड़ी और पहला ये पहला प्यार तेरा मेरा सोनी सुना था। साला रील अगर फँस जाती थी तो पेंसिल घुमा-घुमाकर चढ़ाता था। हफ़्ते में कम से कम एक बार तो ज़रूर उसके घर पीसीओ से कॉल करता था इसी उम्मीद में कि शायद डिंपल फ़ोन उठा ले। लेकिन उसकी प्रोबैबिलिटी इतनी कम रहती थी कि बाई चांस ही उसने कदी फ़ोन उठाया होगा। लेकिन फ़ोन उठाने का भी क्या, एक बार भी डिंपल से आगे नहीं बढ़ पाया। कभीनहीं कह पाया कि डिंपल आईलवयू।”सनीचुप हो गया।

“फिर…! फिर क्या हुआ भाई।”पांडेय ने पूछा।

“फिर क्या यार। हाई स्कूल के बाद उसने बायोलोजी ले ली और उसके बाद अपनी अलजेब्रा धरी रह गई ख़ाली पासवर्ड बनकर।”

सनी ने उदास होकर मुँह नीचे कर लिया और बाक़ीसब खिलखिला रहे थे।

“भाई तेरी कहानी सुनकर मुझे भी अपने पुराने दिन याद आ गए। सुनोगे?” दीक्षित ने कहा।

“हाँ बेन्चो सुनाओ सुनाओ। तुम्हारी मोहब्बतों के क़िस्से सुनने ही तो सब वेले बैठे हैं!” आशू बोला।

“अरे सुनाओ न दीक्षित भाई।”पांडेय ने ज़ोर देकर कहा।

दीक्षित पूरे शायराना मूड में आकर बोला “चचा ग़ालिब ने अर्ज़ किया कि ‘इश्क़ ने हमें निकम्मा कर दिया ग़ालिब, वर्ना आदमी हम भी काम के थे।इश्क़ के इस दौर से हम भी गुज़रे थेयार! मगर इश्क़ कभी मुकम्मल नहीं हुआ।ये ऊपरवाले का खेल ही है, जिसने आशिक़ाना मिज़ाज तो दे दिए मगर कमबख़्त एक महबूब देना गवारा नहीं हुआ। हाँ हो सकता है अगर महबूब दे दिया होता तो ये मिज़ाज, ये हुनर न दिया होता। सीने में दर्द न होता तो काग़ज़ पर कैसे उतारता सूनेपन के ज़ख़्मों को!”

“बे पूतेखानी के कुछ बताएगा भी या ख़ाली शायरी के पाद ही मारता रहेगा। भेंचो घंटा नी पल्ले पड़ रहा कुछ!”दीक्षित की बात को काटकर आशू बीच में कूद पड़ा।

“अबे मेरी कहानी के बीच में कोई घुसकर डिस्टर्ब नहीं करेगा। पूरी रिद्म ख़राब कर दी झाँटू ने।” दीक्षित ग़ुर्राकर कर बोला।

फिर से दीक्षित ने कंटिन्यू किया“हाँ तो ये उस दौर की बात हैजब कोई भी लव स्टोरी लव लेटर्स के बिना परवान नहीं चढ़ती थी। प्रेमी और प्रेमिका के अलावा एक और कड़ी होती थी जो बहुत ज़रूरी होती थी और वो थी लव लेटर्स। आजकल ये फ़ेसबुक,व्हाट्सऐप ने सब बिगाड़ दिया है। पहले चिट्ठी आने की बेचैनी रहती थी। दिल में हज़ारों ख़याल और बेचैनियाँ पलती थीं जिसे आशिक़ काग़ज़ पर उतारा करता था। लेकिन आज साला दो-दो मिनट परफ़ोन टुनटुनाता रहता है।”

“भाई लोग, मुझे नबचपन से ही फ़िल्मों का बड़ा शौक़ था। गाने तो जैसे एक बार सुनने से ही रट जाया करते थे।शायरी का भी शौक़ था। बच्चे मेले में जाते थे तो तीर-कमान, हनुमान का मुखौटा, तलवार, गदा लाते थे और मैं पकोड़े और गोलगप्पे के पैसे बचाकर सड़क किनारे लगी हुई दुकानों से शायरी और हिट ग़ज़लों की किताबें ख़रीद कर लाता था। उन्हें पढ़-पढ़कर मर्ज़े-इश्क़ वबाल हो गया।”

सिगरेट का पफ़ खींचकर दीक्षित ने फिर बोलना शुरू किया“पढ़ने में भी ठीक ही था मैं।हिंदी और अंग्रेज़ी की हैंडराइटिंग भी अच्छी थी। इसी वजह से एक दोस्त का लव लेटर क्या लिखा, सारे एरिया में बदनाम हो गया। लौंडे दूर-दूर से अपनी बंदियों के लिए लव लेटर लिखवाने आते थेऔर मैं हर एक बंदी को अपनी माशूक़ा की तरह लेटर लिखता था। मालूम है तुमको, कितना ख़तरनाक और दुखदाई काम होता था वो! रोज़ मेरी एक नई महबूबा होती थी और रोज़ मैं अकेला-तन्हा। रोज़ एक नई प्रेम कहानी में ख़ुद को डुबोता और स्याही से नहीं अपने ख़ून से वो लेटर लिखा करता।ऐसा नहीं है कि मैं ख़ुद को बचाने की कोशिश नहीं करता था। मगर जानते ही हो मीर साहब पहले ही कह गए हैं कि क्या कहें क्या है इश्क़…अबे ये जान का वबाल होता है। तुम साला बचने के लिए ज़ोर लगाते रहो और उधर इश्क़ तुम्हें फँसाने के लिए दुगना ज़ोर लगाएगा। मैंनेसबकी प्रेम कहानियों मेंहज़ारों रंग भरेलेकिन मेरी अपनी कोई कहानी न बन पाई।” दीक्षित ने एक ज़ोर की साँस छोड़कर कहा।

कहानीसुनाते-सुनाते दीक्षित ने माहौल थोड़ा-सा उदास कर दिया था। फिरथोड़ा पॉज़ लेकर सोचते हुए दीक्षित ने बोलना शुरू किया“फिर आख़िरकार एक दिन मुझे मेरी उमराव जान भी मिली। दिल में जो भी इश्क़ था, सब उस पर लुटाने को तैयार था। मैंने उसे सैकड़ों ख़त लिखे। हाँ, वो बात और है कि वो ख़त अब तक मेरी डायरियों और दराज़ों में ही क़ैद होकर रह गए।”

“आगे क्या हुआ?”पांडेय ने बड़ी उत्सुकता से पूछा।

“हुआ क्या यार! एक दिन उमराव जान किसी ज़ोरावर के साथ बाइक पर गलबहियाँ डाले स्पॉट हुई। हमारे दिल को गाय के गोबर की तरह टायर से कट मारकर चल दी। फिर साला उस दिन के बाद किसी के लिए उस टाइप की फ़ीलिंग नहीं आई।” दीक्षित हँसते हुए बोला।

सब हँस रहे थे लेकिन पांडेयथोड़ा दुखी टाइप हो गया और बेचारा मुँह लटका कर बोला“यार हम लोगों की क़िस्मत एक जैसी ही है। हमको भी प्यार हुआ था एक बार, एकदम मोहब्बतें वाला।”

“ओह्हो…क्या बात है..क्या बात है।” बाक़ियों ने शोर मचा दिया।

“फिर आगे क्या हुआ?”

पांडेय ने बोलना जारी रखा“हाँ यार!तब हमने UPSC की तैयारी करनी शुरू ही की थी। तब हम इलाहाबाद में थे। उसी दौरान रचना से हमारी मुलाक़ात हुई थी। वो लोकल ही थी और हमारे ही साथ तैयारी कर रही थी। अक्सर हम हिस्ट्री और पॉलिटिक्स के बारे में उसको बताते रहते थे। कांस्टीट्युशन तो उसके पल्ले ही नहीं पड़ता था। हम ही उसके नोट्स बनवाते और घंटों उसको लेक्चर देते रहते थे। बड़ी देर तक वो बिना पलकें झपकाए हमारी तरफ़ देखती रहती थी।किताब पढ़ते-पढ़ते पन्ने पलटने के लिए जब वो हौले से ज़ुबान में ऊँगली लगाती थी तो उफ़्फ़!!! पूरा का पूरा टाइम ही वहीं रुक जाता था।”

अब रोमांटिक होकर यादों में खोने की बारी पांडेय की थी। वो पूरी रौ में आ गया,“हमारा शर्ट की बाहें चढ़ाकर पहनना उसे अच्छा लगता था। अक्सर हमको टोक दिया करती थी कि बाँहें ऊपर करिए।उसको बिना कोई बात किए शांति से संगम किनारे बैठे रहना बहुत पसंद था। हर शनिवार हम उसको संगम लेकर जाते थे।चश्मे में से झाँकती उसकी आँखें बड़ी प्यारी लगती थी हमको।उसके दाहिने हाथ पर एक बड़ा-सा बर्थ-मार्क था और ठोड़ी के नीचे एक छोटा-सा तिल जो उसके गोरे रंग पर बड़ा फबता था। हम शाम को एक साथ उसके हॉस्टल के पास वाली गुमटी पर चाय पीने जाते थे। वहीं हम घंटों बैठे रहते थे।”

अचानकपांडेय चुप हो गया।

“क्या हुआ पांडेय भैया आगे भी तो बोलो।” दीक्षित ने उसे टोकते हुए कहा।

उदासी से मुँह उठाकर पांडेय बोला,“हम लोग एक ही साथ सारे फ़ॉर्म भरते थे और एक ही साथ तैयारी करते थे।हमसे पहले उसका UPPSC में हो गया। उस दिन हमारा दिलबहुत दुखा।”

“क्यों? क्योंकि उसका तुमसे पहले सिलेक्शन हो गया इसलिए?” आशू ने टोककर पूछा।

“नहीं।”पांडेय ने ग़ुस्से से कहा। फिर धीरेसे बोला,“उसका साथ छूट रहा था, हमें इसका बहुत ग़म था। लास्ट टाइम जब मिले तो उसको भी ऐसा ही लगा था कि हम उसकी सक्सेस से ख़ुश नहीं हैं। लेकिन वो नहीं जानती कि उसका रिज़ल्ट आने के बाद उस चाय की टपरी पर मिठाई बाँटने वाले हम ही थे। बिना कुछ ज़्यादा बात किए वो चली गई।हम वहींठहर गए। फिर न प्यार के मौसम रहे और न उसकी मुस्कुराहटों के। उसके बाद फिर हमें इलाहाबाद रास ही नहीं आया और हम दिल्ली चले आए। तब से यहाँ चूतर घिस रहे हैं। यहाँ साला 22-22 साल की नई छोकरियाँ पहली बार में आईएएस निकाल दे रही हैं और हमसे तोसाला पहली किक में कभी स्कूटर भी स्टार्ट नहीं हुआ।”

पांडेय की बात सुनकर माहौल थोड़ा मेलनकोलिक हो गया था उसे हल्का करने के लिहाज से आशू ने चुटकी लेते हुए कहा,“अरे दादा रे! ससुर एक लड़की तो तुमसे कभी पटी नहीं और ये अल्ताफ़ राजा के गाने सुन-सुनकर बात ऐसी कर रहे हो कि जैसे 10-15 छोड़कर जा चुकी हों!”

“हाँ बेटा जैसे तुम बड़े लेडी किलर हो।”संजू ने आशू को झिड़कने के अंदाज़ से कहा।

“सही कहा!लल्ला कॉलेज में सब हमको लेडी किलर ही तो कहते थे।सनीकी तरह अगर मैं पासवर्ड रखता तो मुझे एक डायरी मेन्टेन करनी पड़ती भाई।”

“बड़े पापी रहे हो मतलब तुम!”संजू ने पलटकर कहा,“इसलिए बेटा आज तुम्हारे पाप का घड़ा भर गया है।”

“मेरा तो मानना है कि भाई लोग जब पाप का घड़ा भर जाए तो उसे हटाकर बाल्टी लगा देनी चाहिए।”उस वक़्त आशू ने एकदम अमरीश पूरी वाली स्माइल दी।

“हम्म…देख लो ज़राएक साला हम हैं जो अभी तक घोड़ी चढ़ नहीं पाए है और ये साला घोड़ी से उतर ही नहीं रहा है।”दीक्षित को तनु वेड्स मनु का जिमी शेरगिल याद आ गया।

“अरेकहने को तो बशीर बद्र साहब ने भी कहा है कि फूल से आशिक़ी का हुनर सीख, तितलियाँ ख़ुद रुकेंगी सदाएँ न दे। मगर सच कहें न तो सब की सब बकैती हैबकैती। असल बात तो ये है कि यारहम लोगों के जीवन में नारी का सुख है ही नहीं।”पांडेय ने उदासी से कहा।

“देखो यार 100 में से 80 लौंडे आज भी अपनी पासवर्ड के जाने के बाद या फिर शादी तय होने के बाद मेरी क़िस्मत में तू नहीं शायदजैसे गाने सुनकर अपना ग़म ग़लत करते रहते हैं। लेकिन शेर लौंडा वही है जो फ़िक्र को धुँए में उड़ाता हुआ दूसरा पासवर्ड तलाश ले। नहीं तो हालत तुम सबके जैसी हो जाती है।” आशू का महाज्ञानी मोड चालू हो गया था।

“वैसे सिंगल रहना भी कौन सा बुरा है। देखे नहीं हो अटल बिहारी, अब्दुल कलाम और नरेंद्र मोदी सब सिंगल रहते हुए कहाँ से कहाँ पहुँचे हैं!”पांडेय ने अंगूर खट्टे हैं टाइप मुँह बनाते हुए कहा।

“वाह बेटा, माल्या को भूल ही गए! उसे देखो वो तो आज इंडिया से विदेश पहुँच गया। उसकी सक्सेस का अंदाज़ा नहीं है क्या?” आशू ने पटलवार किया और मोहब्बतें के शाहरुख़ ख़ान की तरह लौंडों को कॉलेज की दीवार फाँद जाने के लिए उकसाने लगा।

“देखो यार बंदियाँ तो आज भी मिलती हैं। बात वही है कि लौंडे बेचारे अक्सर मार खा जाते हैं। दिल्ली में तो लड़कियाँ मिलती ही कहाँ हैं। सब हॉट चिक्स हैं, हॉट चिक्स और उनके लिए तो कूल डूड ही चाहिए न भाई! इसलिए अपना देशीपन खूँटी पर टाँगकर कूल कोट पहनना पड़ेगा तब शायद काम बने।”

सब अपनी पाँचों इंद्रियों को खोलकर महाज्ञानी आशू के प्रवचन का लाभ ले रहे थे।

“देखो यार…एक अदा होती है जो लड़कियों को तुम्हारी तरफ़ खींचती है। कैरेक्टर में थोड़ा-सा कमीनापन ज़रूरी होता है सक्सेस के लिए।”

“नहीं यार मैं नहीं मानता। ये सब जान-बूझकर थोड़े ही होता है। कभी तुमने केले के छिलके पर पैर रखा है और फिसले हो?नहीं फिसले होगे। ये साला इश्क़ भी वैसी ही बीमारी है अचानक पैर पड़ेगा और तुम धाँय से नीचे।” दीक्षित ने आशू को बीच में ही टोक दिया।

“अबे तभी तो तुम सिंगल का स्टेटस लेकर घूम रहे हो। प्यार मोहब्बत के मारे मजनूँ, थोड़ा इश्क़ की गली से बाहर भी निकलकरनो एंट्री में घुसो।” आशू आगे कुछ बोल पाता, उसके फ़ोन की घंटी बजी ये रात और ये दूरी तेरा मिलना है ज़रूरी कि दिल मेरा…।

“हेल्लो..हाँ बेबी। नहीं सोना तुमको ही याद कर रहे थे।…ओह्ह्ह मेरा बच्चा। अच्छा…हाँ, हाँ बिलकुल बिलकुल।अच्छा बेबी मैं तुमको थोड़ी देर में कॉल करूँ? वो क्या है न पड़ोस के कुछ बच्चों को कोचिंग दे रहा हूँ।…अरे नहीं-नहीं वो तो ऐसे ही बच्चे आ गए…भैया थोड़ा गॉइड कर दो एग्ज़ाम टाइम है इसीलिए….।”

बात करते-करते अचानक से आशू का मुँह टेढ़ा हो गया“क्या? कैसे? मतलब इतनी जल्दी कैसे ख़त्म हो गया? अभी 4-5 दिन पहले ही तो 1.5 GB का रिचार्ज करवाया था! और मैंने तो तुम्हें पिक्स और वीडियोज़ भी सेंड नहीं किए। अरे नहीं-नहीं मना कहाँ कर रहा हूँ, अभी रिचार्ज करवा देता हूँ न। ओके हाँ-हाँ सी यू बेबी। बाय…लव यू।” फ़ोन काटने के बाद आशू ने सबके खुले हुए मुँह की तरफ़ देखा।

“ऐसे क्या देख रहे हो बे?वो जो सामने चौथे नंबर फ़्लैट में रहती है न वही है, अभी नया-नया टाँका भिड़ाए हैं। लेकिन ये साला बेरोज़गारी में इश्क़ फ़रमाना भी गुनाह है। साला रोज़ का नया-नया ख़र्चा। ऊपर से यार ये व्हाट्सऐप पर भी न! आजकल लोग-बाग फ़ालतू ग्रुप बनाकर अंड-बंड सेंड करते रहते हैं। साला एक ही वीडियो चार-चार बार डाउनलोड हो जाता है। क़सम से आत्मा किलस जाती है। भेंचो एक महीने से मोबाइल की स्क्रीन टूटी हुई है, उसको नहीं बनवा पा रहे हैं। ख़ाली मिस कॉल मारने का बैलेंस बाक़ी है। लेकिन महीने में कम से कम मैडम का तीन बार रिचार्ज करवाओ। वो तो भला हो धीरू भाई का जो दुनिया में आशिक़ी और आशिक़ों दोनों को ज़िंदा रखे हुए है, नहीं तो साला मोहब्बत महँगी होकर दम तोड़ देती।”

सब मुँह फाड़कर उसे देख रहे थे।

“हाँ तो मैं क्या कह रहा था…” आशू ने पुरानी लाइन फिर से पकड़नी चाही, उससे पहले ही सनीने उसे टोक दिया।

“अबे सब फालतू की बकैती बंद करो और मेरे मैटर पर ध्यान दो। बताओ क्या करें हम?”सनी उन सबकी कहानियों में कोई इंट्रेस्ट नहीं ले पा रहा था।

“करना क्या है। एक बार मिलो लड़की से। ज़रूरी थोड़े ही है कि बात बन ही जाए! आख़िर ट्राई करने में क्या हर्ज है।”पांडेय बोला।

“हाँ और इस बहाने हमारे सनीको थोड़ी देर के लिए ही सही लेकिन किसी महिला का सान्निध्य तो मिल ही जाएगा!” आशू के तेवर अभी भी छेड़ने वाले ही थे।

कुछ देर की ख़ामोशी के बाद सनी बोला“लेकिन यार पहली दफ़े में लड़की से बात क्या करूँगा?”

“ये तो भई करोड़ रुपये का प्रश्न है।”दीक्षित का फ़िल्मी कीड़ा फुदककर बोलने लगा,“एक मुलाक़ात, चार बातें…और बस तय करो कि ज़िंदगी इसी के साथ काटनी है।”

“अबे तुमको क्या लगता है कि अरेंज मैरिज चार बातें करने की वजह से होती हैं? असल में सब यह देखने जाते हैं कि लड़की कितनी गोरी है। खाना बना लेती है या नहीं। ख़ातिर कैसी करते हैं लड़की वाले। लड़की के बाप का स्टेटस क्या है और दहेज में कितना माल मिलेगा? इसी से तय होता है कि शादी होनी है या नहीं। बाक़ी सब बेटा बकैती है।”आशू का तर्क भी एक हद तक सही था।

“लेकिन भाई आज की तारीख़ में भी क्या अरेंज मैरिज रेलेवेन्ट है?”संजू ने पूछा।

“क्यों नहीं रेलेवेन्ट है, बिलकुल रेलेवेन्ट है और आगे भी रहेगी। मालूम है आज भी 75 प्रतिशत इंडियन्स अरेंज मैरिज प्रेफ़र करते हैं। सबसे ज़्यादा कमीने लोग तो अरेंज ही करना चाहते हैं।क्योंकि उसमें दो तरह के फ़ायदे होते हैं,एक तो लड़की तुम्हारे कमीनेपन से वाक़िफ़ नहीं होती है और दूसरा साला ससुर के दहेज पर भी नज़र रहती है। और वैसे भी आज की डेट में अरेंज मैरिज भी हम लोगों के बाप-दादों के ज़माने जैसी थोड़े ही रह गई है। वो दौर अलग था जब दूल्हा फ़र्स्ट नाइट को स्टेटस अपडेट करके गाता था कि सुहागरात है, घूँघट उठा रहा हूँ मैं। अब तो साला सारे घूँघट और परदे पहले ही उठ जाते हैं। रोका हुआ नहीं कि लड़की के पास नया स्मार्ट फ़ोन फ़्री टॉकटाइम के साथ भेज दिया जाता है और फिर व्हाट्सऐप, फ़ेसबुक, मैसेंजर, आईएमओ से दिन रात बकरपेली होती रहती है।‘जानू कैसी हो? खाना खाया कि नहीं?’ से शुरू होकर रात को क्या पहना है तक प्रेमी जोड़े न जाने क्या-क्या बतियाते रहते हैं। अब ज़्यादा मुँह खोलेंगे तो बोलोगे बास आ रही है। साला आधा हनीमून तो फ़ोन पर ही हो जाता है। अरेंज मैरिज अब रह ही कहाँ गई है भाई लोग।” आशू बोला।

“सही कह रहा है यार। आजकल लड़की तो छोड़ो पुरानी फ़िल्मों जैसे ससुर भी नहीं मिलते जो कहते थे, ये लो ब्लैंक चेक और निकल जाओ मेरी बेटी की लाइफ़ से। आजकल ब्लैंक चेक तो छोड़ो मोबाइल रिचार्ज करवाने के पैसे तक नहीं मिलते।”दीक्षित हँसते हुए बोल रहा था।

“और वैसे भी यार सनी तुम कौन से कुछ उखाड़ लिए अभी तक। टिंडर पर भी ख़ूब राइट और लेफ़्ट स्वैप कर लिए। एक भी तो लड़की तुमसे पटी नहीं! अब घर वाले जब तुमको ख़ुद ही ढूँढ़कर दे रहे हैं तो उसमें भी परेशानी है! जो तुमसे न हुआ तो घर वालों को ही कर लेने दो। और रही बात बैचलरहुड ख़त्म होने की तो यार कब तक छुट्टे साँड़ जैसा घूमे आदमी, नथ तो आख़िर पहननी ही है ना।”

“तुम लोग न टॉपिक को डाइवर्ट कर रहे हो।सनीको ये बताओ कि वो जब मिले तो लड़की…मेरा मतलब है भाभी जी से बात क्या करे?”पांडेय ने वापस मुद्दे पर सबको खींचने की कोशिश की।

“पहलीबार में यार फ़ैमिली बैकग्राउंड, पसंद-नापसंद, कॉलेज और एजुकेशन के बारे में पूछना।” दीक्षित ने कहा।

“अबे ये सब जवाब तो लड़की की प्रोफ़ाइल से पता चल जाएगा ही। लड़की वालों ने फ़ोटो और बायो तो भेजा ही होगा न, उसे पहले से ही पता होगा। फ़ालतू बात ही क्यों करनी।” आशू ने अपना तर्क रखा।

“अरे भाभी का फोटू हमको भी तो दिखाओ!”पांडेय ने सनी सेकहा।

सब की उम्मीद से परे फ़ोटो किसी स्टूडियो में खिंचवाई हुईनहीं थी। तीन-चार पिक थे जिनमें से एक शायद किसी मॉल का नज़र आ रहा था और बाक़ी घर के थे। फ़ोटो से कहना आसान नहीं था कि लड़की मॉडर्न कल्चर की थी या फिर ट्रेडिशनल।

“नाइस! भाभी तो सुंदर हैं।”पांडेय बोला।

“अबे सनी!बहुत सही यार… ओ तेरी रब ने बना दी जोड़ी…तू हाँ कर या न कर यारा।” दीक्षित बोला।

“अबे लड़की की सोशल प्रोफ़ाइल चेक की या नहीं?” आशू ने सवाल दागा।

सनीके ब्लैंक एक्सप्रेशन देखकर उसे समझने में देर न लगी कि सनी नेअभी तक उतना सोचा ही नहीं है।

लैपटॉप तुरंत खोला गया और फ़ेसबुक ओपन करके लड़की का नाम सर्च किया। थोड़ी देर की मशक़्क़त के बाद लड़की की प्रोफ़ाइल मिल गई। गौगल लगाए एक मॉडर्न-सी दिखने वाली लड़की की फ़ोटो और प्रोफ़ाइल सामने खुलकर आ गई। लड़की मॉडर्न है या ट्रेडीशनल अब इस बात की शंका दूर हो गई।सनी आँखें और मुँह खोले हुए लड़की की फ़ोटो ताड़ने लगा।

“यार इसको देखकर तो लग रहा है कि बंदी मार अंग्रेज़ी बोलती होगीऔर अपन लोग तो अच्छी अंग्रेज़ी सुनकरya ya, you are right, ya ya कहकर खिसकने का जुगाड़ खोजते हैं। ऐसा ही हुआ तो बब्बू मान की क़सम बहुत बेज्जती हो जाएगी यार।”सनी आने वाले वक़्त की कल्पना करके बोला।

सब हँस रहे थे और इधर सनी को टेंशन हो रही थी।

“अबे मेरे अभिमन्यु ऐसे-कैसे बेज्जती हो जाएगी। हम तेरे को चक्रव्यूह में आने और जाने दोनों का रास्ता बताकर भेजेंगे। ये बता जाना कब है?” दीक्षित ने कहा।

“परसों, संडे के दिन।”सनी ने बताया।

“पहली बार में लड़की से थोड़ा क़ायदे से बात करना और पूरा मुँह भचाक से मत खोल देना। अपने बारे में सब मत बताना कि सिगरेट-दारू पीते हो। धीरे-धीरे आगे चलकर सब पता चल जाता है।”संजू का सुझाव था।

“लेकिन भाई, भाभी जी कहीं दारू-सुट्टा तो नहीं पीती होंगी न!”पांडेय ने मासूमियत से पूछा।

कमरे में एक साइलेंस छा गया।

“नहीं पीती होंगी। हम भी कभी-कभी न जाने कैसी फालतू चीज़ें सोचते रहते हैं।”पांडेय ख़ुद से बात करते हुए बड़ी ही मासूमियत से कहा।

पांडेय जी का इतना कहना काफ़ी था, दिमाग़ की बत्ती जलाने के लिए। सबके दिमाग़ में नए एंगल ने जन्म ले लिया और उनको विभा की याद आ गई जो बड़े प्यार से सबको फुद्दू बनाकर गई थी।सनी के दिमाग़ में होने वाली बीवी के हाथ में शराब और सिगरेट नज़र आने लगी।

“लेकिन यार नाइट क्लब, डिस्को वग़ैरह तो जाती ही होंगी!”पांडेय फिर से बोल पड़ा।

अब तो सनी के कान में ज़ोर-ज़ोर से यो यो हनी सिंह और बादशाह के रैंप धाँय-धाँय बजने लगे और झूमतीहुईलड़की सामने दिखने लगी।

“अरे यार। जब पीती ही नहीं होंगी तो डिस्को जाके क्या करेंगी? मने ऐसे ही मन में आ गया था तो कह रहे हैं।”पांडेय ने सबको घूरता देख भोलेपन से कहा।

किसी को समझ नहीं आया कि पांडेय सच में मासूमियत के फ़्लो में कह गया था या फिर जान-बूझकर कमीनेपन की गंध फैला रहा था। इधर सनी का दिमाग झंड हुआ जा रहा था और बाक़ी सब मन ही मन हँस रहे थे।

“लेकिन भाई…एक बात और है….।”पांडेय फिर से कुछ बोलने को हुआ ही था कि बाक़ी सब चिल्लाकर बोले,“अबे चुप साले बकचोद!”पांडेय के अल्फ़ाज़ गले में ही अटककर रह गए।

 

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कहाँ फँस गए कमालुद्दीन मियाँ?

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उषाकिरण खान हिंदी की वरिष्ठ लेखिका हैं और उनके लेखन में बहुत विविधता रही है। उनकी ताजा कहानी पढ़िए। यह कहानी उन्होंने ख़ुद टाइप करके भेजी है- मॉडरेटर

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कहाँ फँस गये
कमालुद्दीन मियाँ कमाल ही कहे जाते हैं। वे क़ुतुब मियाँ के इकलौते चश्मेचिराग थे। चार खूबसूरत बेटियों के बाद कमाल के लेरपा वाली दुलहिन ने जना था। बडा दुलारा था कमाल। उसे बहनें दुलार से कमलू कहतीं। सारा गाँव कमलू कहता। कमलू सीधा संकोची ज़हीन बच्चा था। क़ुतुब मियाँ खुद निरक्षर था ।उसको पढ़ाना लिखाना चाहता था। गाँव से बाहर पाँच कोस पर मदरसा था जहाँ पहुँचा देने बड़े भइया ने कहा। बड़े भइया के चार बेटे दो बेटियाँ थीं । एक बेटी मदरसों वाले गाँव में ब्याही थीं। तजवीज़ हुई कि उसी बहन के यहाँ रहकर कमाल पढ़ेगा । लेरपा वाली रोने लगी कि कलेजे के टुकड़े को अलग कैसे करेगी?
” रे बहिनी, करेजा में सटा के रखेगी तब मुरुखे न रहेगा हमलोग जैसा? समझाओ दुलहिन को।” बड़े भाई ने कहा
” देखो मलकीनी, बेटा पढलिख लेगा त कुल बदल जायगा”- समझाया क़ुतुब मियाँ ने
” की बदल जायगा, हमलोग कुजरा से शेख़ हो जायेंगे?”-लोहछ के दुलहिन ने जवाब दिया भरे गले से।
” ई अमरुक जनेना –” बोलकर कपार ठोकता क़ुतुब रूठकर भौजाई के पास बैठ गया।
” की हुआ?”- भौजाई ने पूछा, वह मुँह फुलाये बैठा रहा।
” त भौजइया के गोझनौटा में मुँह छुपा के बैठने से होगा कि दुलहिन को इल्म से समझाओगे?”- भइया ने हंसकर कहा। भौजी सारा मामला समझ गई , कहा-” चुप रहिये आपलोग एकदम्मे हम सब ठीक कर देंगे।” दोनो भाई सहमति में सिर हिलाने लगे।
मदरसे वाले गाँव में जो बेटी थी उसे बडका बेटा को भेज लिवा लाई। उसे सारी बात बताकर काकी को समझाने कहा। बेटी बहुत खुश हुयी कि चचेरा प्यारा भाई उसके साथ रहेगा। उसने काकी को समझाया और भाई को बड़े प्यार से नाव पर बैठाकर ले गई। कमाल के लिये सफ़ेद कुर्ता पाजामा और माथे पर गोल टोपी ख़रीदी गई। टोपी पहनना बेहद अटपटा लगता। एकबार सुन्नत के बाद गाँव क घर घर बिलौकी माँगने वक्त पहना था बस। इन दिनों नमाज़ के समय वो भी रमज़ान में कुछ पल के लिये पहनता। अब हरदम पहनना नागवार गुज़रता। मौलवीसाहब की ज़ुबान ही समझ में न आती इसे। उन्हे चम्पी करनी भी न आये। दिदिया के घर पढुआ बच्चे का खूब मान होता।
एक दिन कमाल बीमार पड़ गया। बुखार से तप रहा था। अम्मा अम्मा करने लगा। घर के लोगों का मन पसीज गया। दवा वगैरह ले दिया पर दिदिया अंकवार में भर कर काकी को सौंप गई। महीने भर में कमाल ने उर्दू का एक हरुफ सीख न पाया। अब जाने के मूड में बिलकुल नहीं था।
” कुतुब्बा, बाबू को अपने गाँव के सरकारी असंतुलन में काहे नहीं पढ़ाते हो?”– भइया ने समझाया।
हँ काहे नहीं, बिदिया त बिदिया है की हिंदी इंग्लिश की उर्दू फ़ारसी “- कहा क़ुतुब ने और दूसरे ही दिन गाँव के मिडिल स्कूल में नाम लिखा गया। कमाल को अपने दोस्तों के साथ पढ़ने में मन लग गया। अब भोरे उठ कर भैंसी की पीठ पर चढ़कर पहसर भी चराता, इसकूल भी जाता और शाम को आलू की क्यारी पर मिट्टी भी चढ़ाता । खानगी मास्टर से भी पढ़ता कमाल। वह बड़ी आसानी से सेकेंड डिवीज़न मिडिल पास कर गया। हाइ स्कूल में दू कोस दूर नाम लिखा तो लिया पर गया नहीं। १४-१५ साल की उमर हुई तब सिमरी गाँव में शादी हो गई दो साल बाद गौने पर आ गई सिमरी वाली। कमाल अपने बाप के साथ मिलकर सब्ज़ियों का बडा किसान हो गया। क़ुतुब कलम कागज लेकर बेटा को हिसाब जोड़ते देखता तो गद्गद रहता। कमाल के तीन बेटे और एक बेटी है। तीनों बेटों ने फोकानिया की परीक्षायें पास कीं। दो बेटे मदरसा में पढ़ाने लगे हैं। कमाल एक संतुष्ट पिता है। बिटिया की शादी बुआ के गाँव में हुई। दामाद सब्ज़ी का आढ़तियों है। बहुत सुखी सम्पन्न है।
” अब्बा, तुम ज़ाहिल क्यों रह गये? सुना तुमको पढ़ने भेजा गया था भागकर चले आये?”- छोटे मुँहलगे बेटे ने पूछा। कमाल मुँह बाये उसे देखता रहा।
” बोलो अब्बू– बेटे ने कोंचा
“कलम कागज रातदिनमेरे हाथ में रहता है, तुम जाहिल कहते हो, क्या जवाब है इसका?” ोचिढकर बोला कमाल
” एको हरुफ उर्दू जानते हो? कुरानशरीफ देखा है?”- कमाल आसमान से गिरा। सच ही तो है, इसने नहीं पढा है क़ुरान । बेटों के पास है पर पढ नहीं सकता। दिनरात सोचता रहा। सिमरी वाली ने टोका ।
” सिमरी वाली, हम जाहिल हैं, क़ुरान तो पढे नहीं।”- कमाल ने अपना दर्द बाँटा ।
“त की सब कुराने पढा होता है ? देखा भी नही होगा। हमरे घर मे तो है।” बीबी गर्व से बोली।
यही न साल रहा है कि रहते हुए हम नहीं पढ सकते हैं।”
काहे? आप तो पढे लिखे हैं”
” हम उर्दू पढ़ना नहीं जानते”
बीबी को लिपि भाषा के बारे कुछ न पता था सो उलझ। में पड़ गई। कमाल साइकिल उठाकर तीन कोस दूर खादी भंडार आये और मैनेजर साहब को शंका कह सुनाया।- मैनेजर साहब ने हँसकर कुर्सी पर बैठने कहा और किताबों की आलमारी से गहरे नीले जिल्द की किताब निकाली और बाज़ू की कुर्सी पर बैठ गये।
दोनों हाथ लाइये कमाल” कमाल ने हाथ बढ़ाया । किताब कमाल के हाथ पर रख दी। बड़े सुनहरे अक्षरों में अंकित था– कुरआनशरीफ । कमाल के शरीर में झुरझुरी पसर गई। उसने सीने से लगा लिया।
” यह हिंदी में है देवनागरी में जो आप पढ सकते हैं”
ले जाऊँ ?”
हाँ पढ लीजिये, शहर जाकर आपके लिये नई ला दुंगा।”- उन्होंने एक झोला दिया किताब रखने के लिये।

कमालुद्दीन मियाँ अब रोज़ क़ुरान शरीफ़ पढ़ते हैं।  जाहिल न कहलायेंगे अपनी ही औलाद के सामने।

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मार तमाम के दौर में ‘कहीं कुछ नहीं’

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मैंने अपनी पीढ़ी के सबसे मौलिक कथाकार शशिभूषण द्विवेदी के कहानी संग्रह ‘कहीं कुछ नहीं’ की समीक्षा  ‘हंस’ पत्रिका में की है। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस संग्रह की समीक्षा हंस के नए अंक में प्रकाशित हुई है। जिन्होंने न पढ़ी हो उनके लिए- प्रभात रंजन

सन 2000 के बाद के शुरुआती सालों बात है, मिलेनियम शब्द बहुत चर्चा में था। हिंदी में भी नई तरह के लेखन, लेखकों का शोर शुरू हो गया था। कुछ नए मुहावरों के साथ नई रचनाशीलता पहचान बनाने लगी थी। मुझे अच्छी तरह याद है उन्हीं दिनों मैंने ‘काला गुलाब’ नामक एक कहानी पढ़ी थी। कहीं छपी नहीं थी मेरे पास पढ़ने के लिए आई थी। बहुत अलग कहानी थी। उन दिनों हिंदी कहानी में भूमंडलीकरण का विरोध, सांप्रदायिकता, स्त्री विमर्श, दलित विमर्श हिंदी कहानियों के कुछ मुखर साँचे थे जिनमें मेरे जैसे न जाने कितने लेखक ख़ुद को फ़िट करने में लगे रहते थे। उन साँचों में फ़िट करके हम हिट कहानियाँ लिख रहे थे। कहानियों में सबसे असधिक कंटेंट के ऊपर बल दिया जा रहा था।

आलोचक-सम्पादक ऐसी कहानियों को स्वीकृत कर रहे थे, उनको पुरस्कार मिल रहे थे। सच बताऊँ तब हमें यही बताया गया था कि इन प्रचलित साँचों से अलग हटकर लिखने वाले हिंदी के लेखक ही नहीं। ऐसे में शशिभूषण द्विवेदी नामक एक लेखक की डाक से आई हस्तलिखित कहानी को पढ़कर मैं यही सोचता रहा कि यह कैसी कहानी है जो बहुत कुछ कहना चाहती है लेकिन कहती कुछ नहीं है। अव्यक्त की एक गहरी टीस थी उस कहानी में जिसमें उस समय की कहानी का एक प्रचलित फ़ॉर्म्युला बेरोज़गारी का तो था लेकिन प्रेम की पीड़ा, विरसे में मिली बेघरी और एक घर का सपना। मैं कुछ कह नहीं पाया था। जब आप बने बनाए फ़ोर्मूले से अलग हटकर कुछ पढ़ते हैं तो आप एकबारगी कुछ कह नहीं पाते। यह शशिभूषण द्विवेदी की कहानी के साथ मेरा पहला परिचय था, जिसकी याद उनके दूसरे कहानी संग्रह ‘कहीं कुछ नहीं’ में संकलित इस कहानी को देखकर याद आ गई।

वास्तव में शशिभूषण द्विवेदी की कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि उनकी कहानियों में वह सब है जो उस समय के लेखक विषय के रूप में उठा रहे थे लेकिन वे अपने अन्य समलीक़ालीन लेखकों की तरह लाउड हो जाने की हद तक पोलिटिकली करेक्ट होते नहीं दिखते हैं। सब कुछ के बावजूद वे अपने समय के सभी लेखकों से बहुत अलग हैं। यह अपने आप में बहुत अलग बात है कि उनमें लेखक के रूप में सफल हो जाने की आकांक्षा कहीं नहीं दिखती है। वे अपनी कहानियों में मुक्त भाव से जीवन के किसी प्रसंग को उठाकर उसके इर्द गिर्द जीवन का तमाम अव्यक्त जाल जंजाल बुन देते हैं। जैसे ‘काला गुलाब’ कहानी में पिता की मृत्यु के समय कथा नायक का अस्पताल में अटका जीवन है, जहाँ उसको प्रिया नामक नर्स मिलती है जो उसकी स्मृतियों में सदा के लिए अटकी रह जाती है। घर का सपना सपना ही रह जाता है। बेघरी, निरंतर बेरोज़गारी, टूटते सपने उनकी कहानियों में अंतर्निहित धारा की तरह है जो कभी प्रकट रूप में मुखर नहीं होता लेकिन जिसकी अनुगूँज बराबर बनी रहती है।

इस संग्रह में एक कहानी है ‘न भूतो ना भविष्यति’, प्रकट तौर पर यह कहानी रामभक्तों की तेज़ होती राजनीति और उनके छल प्रपंचों की है लेकिन याहन कहानी भूतों की है। ऐसे समय में जब देश में भूतकाल की चर्चा तेज़ी हो गई हो, इतिहास के प्रसंगों को अपनी-अपनी तरह से लिखा जा रहा हो कहानी के भूत पालने वाले नाना बड़े प्रासंगिक लगते हैं। वे गांधी से इतने प्रभावित हुए कि सुल्तानपुर से पैदल ही गांधी से मिलने के लिए दिल्ली निकल लिए। वे चाहते थे कि अगर गांधी जी चाहें तो वे अपने भूतों को भी आज़ादी की लड़ाई में लगा देना चाहते थे। गांधी जी ने तब तो यह कहते हुए मना कर दिया था कि वे भूतों में यक़ीन नहीं करते। लेकिन आज जिस तरह गांधी के हत्यारे को महिमामंडित करने का अभियान चल रहा है, ऐसा लगता है कि नाना के भूत फिर से निकल आए हैं। इस कहानी में भी सपने हैं और उनके टूटने पर भूत बनते किरदार। यह बात रेखांकित की जानी चाहिए कि जिस दौर में यथार्थवाद को हिंदी साहित्य का निकस माना जाता था शशिभूषण की कहानियाँ बार बार उस चौखते को तोड़कर बाहर निकल जाना चाहती हैं, उस चौखटे से जिसमें इंसानी सपनों का कोई मोल नहीं।

ख़ुद इंसान का ही कोई मोल नहीं रह गया है। कथा संग्रह की शीर्षक कहानी ‘कहीं कुछ नहीं’ में कथा नायक कुमार साहब अपने जीवन की कथा लिखवा रहे हैं। वे एक दिन स्वप्न में हज़ार साल आगे की दुनिया में चले जाते हैं जहाँ और कुछ नहीं सिर्फ़ तकनीक ही तकनीक है।जहाँ अब मनुष्य नहीं रहते, मुर्दे रहते हैं। यह वह डिस्टोपिया है जिसमें आज तकनीक केंद्रित समाज जी रहा है- आने वाले समय के उन्नत तकनीक के भयावह दौर की कल्पना में। ऐसी दुनिया में जिसमें वह कुछ नहीं रह जाएगा जिसे आज होने की पहचान के रूप में देखा जाता है। कहीं कुछ नहीं रह जाएगा। कुमार साहब राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा अन्य नेताओं को चिट्ठियाँ लिखते हैं जिसमें अपने नाम के साथ लिखते हैं ‘अध्यापक, दार्शनिक और चिंतक’। लेकिन कभी कहीं से कोई जवाब नहीं आता। लेखक की टिप्पणी है कि अब ऐसे लोगों की कोई ज़रूरत ही नहीं है इसलिए कोई जवाब नहीं आता। कुमार साहब अपने जीवन की कथा लिखवाकर वह सब बचा लेना चाहते हैं जिसे वे जीवन में बचा नहीं पाए।

शशिभूषण द्विवेदी की कहानियाँ एकरैखीय नहीं है। इन कहानियों में कथा के सूत्र ढूँढना बेमानी है। ये गीत की अधूरी पंक्तियों की तरह हैं, कविता की पंक्तियों की तरह, डायरी के टीपों की तरह, चित्र की तरह, ओझल होते जाते दृश्य की तरह हैं। ऊपर मैंने अव्यक्त को व्यक्त करने की उनकी विशेषता के बारे में लिखा। वे ऐसे लेखक हैं जिनके लिए कहानियाँ कुछ और लिखने का माध्यम नहीं हैं बल्कि अपने आप में कुछ हैं। रिचर्ड बाक के उपन्यास जोनथन लिविंगस्टोन सीगल की उस चिड़िया की तरह जिसके लिए उड़ान कहीं पहुँचने के लिए नहीं है बल्कि उड़ान अपने आप में एक सुख की तरह है। इन कहानियों में पाने का नहीं खोने का सुख है। चाहे वह उदास वायलिन के धुन की तरह बजने वाली कहानी ‘अभिशप्त’ हो या ‘शालिग्राम’ कहानी, जिसके रिटायर पिता जो पहले शालिग्राम की तरह थे यानी जिनको केवल भोग लगाने के समय याद किया जाता था। इसके अलावा घर में उनकी कोई उपस्थिति नहीं थी। लेकिन रिटायरमेंट के बाद वे अपने जीवन में वह सब करने लगते हैं जो जीवन भर नहीं किया था।

संग्रह में दो कहानियाँ ऐसी हैं। जो शशिभूषण के लेखन मिज़ाज और इस संग्रह के टोन से भिन्न हैं। एक कहानी है ‘छुट्टी का दिन’। बहुत सामान्य से जीवन की कहानी है। एक कामकाजी आदमी की कहानी है जो सप्ताह भर काम करके छुट्टी के दिन का इंतज़ार करता रहता है। जब छुट्टी आती है तो रोज़मर्रा के ज़रूरी काम आ जाते हैं। काम निपटाकर शाम में पत्नी के साथ घूमने निकलता है और एक मॉल में चला जाता है। मध्यवर्गीय जीवन की एक सामान्य सी कहानी है। जिसे पढ़ते हुए लगता है जैसे उनकी कहानियों के बेघर नायकों को जैसे घर मिल गया हो। इसी तरह की एक कहानी है ‘मोना डार्लिंग और जॉर्ज बुश’। रात में दिल्ली जाने वाले बस के इंतज़ार में खड़े नायक की कहानी है। कुल मिलाकर ये दोनों ऐसी कहानियाँ नहीं हैं इस संग्रह में नहीं होती तो शायद किताब कुछ और अच्छी बन सकती थी। अंत में, लेखक का एक लम्बा आत्मकथ्य भी दिया गया है जिसमें शशिभूषण जी ने अपने संघर्षों की कथा लिखी है। लेकिन सच बताऊँ तो मैं पढ़ते हुए ये सोच रहा था कि क्या आज का हिंदी लेखक अपने अभावों की चर्चा करके अपने लेखन को ‘ग्लोरिफ़ाई’ करने की कोशिश करेगा। मुझे लगता है कि आज हिंदी के लेखकों की दुनिया में वैसा संघर्ष नहीं रह गया है। आज का लेखक सोशल मीडिया के माध्यम से इतना अधिक प्रकट रहता है कि उसके पास अलग से बताने-लिखने के लिए कुछ रह नहीं जाता।

बहरहाल, यह शशिभूषण द्विवेदी का दूसरा कहानी संग्रह है। ‘ब्रह्महत्या तथा अन्य कहानियाँ’ उनका पहला कहानी संग्रह था और उसके प्रकाशन के लम्बे अंतराल के बाद उनका यह संग्रह प्रकाशित हुआ है। उस लिहाज़ से जिस तरह का विकास उनकी कहानियों का होना चाहिए था वह इन कहानियों में नहीं है। अच्छी भाषा है, सहज विट है, विराट रूपक गढ़ने की क्षमता है, काव्यात्मकता है, परंपरा से मुठभेड़ है, शास्त्र और लोक से अंतरपाठीयता है लेकिन फिर भी कोई ऐसा बड़ा मुहावरा उनकी कहानियों का नहीं बन जाता है। बड़ी सम्भावनाएँ जगाकर रह जाती हैं, बड़ा रच नहीं पाती। लेकिन सब कुछ के बावजूद शशिभूषण की कहानियों का अपना ख़ास आकर्षण, कुछ मौलिक रचने की जो आकांक्षा है वह प्रभावित करती है। भाषा की एक ख़ास तरह की आवारग़ी  है जो आपको अपने साथ लिए उद्दाम यात्रा पर निकल जाता है।

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समीक्षित पुस्तक: कहीं कुछ नहीं

लेखक: शशिभूषण द्विवेदी

राजकमल प्रकाशन, मूल्य-295 रुपए     

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