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त्रिलोक नाथ पांडेय की जासूसी कहानी ‘आस्था’

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भारत सरकार के गुप्तचर ब्यूरो में बहुत वरिष्ठ पद से सेवानिवृत्त त्रिलोक नाथ पाण्डेय अब साहित्य-साधना में लग गए हैं. राजकमल प्रकाशन से अभी हाल में आये इनके उपन्यास ‘प्रेमलहरी’ ने काफी ख्याति अर्जित की है. चाणक्य के जासूसी कारनामों पर आधारित उनका शोधपरक ऐतिहासिक उपन्यास शीघ्र ही आने वाला है. इस बीच, जासूसी के विविध आयामों को उजागर करने वाली कहानियों के एक संकलन पर श्री पाण्डेय काम कर रहे हैं. उन्हीं में से एक कहानी है – ‘आस्था’, जो यहाँ प्रस्तुत है.

गुप्त वंश के निकम्मे और निर्वीर्य शासक रामगुप्त, जो प्रतापी सम्राट समुद्रगुप्त का बेटा और विख्यात सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय का बड़ा भाई था, के शासन-काल की जासूसी गतिविधियों पर आधारित इस कहानी में आप जासूसी के एक अनोखे आयाम से परिचित होंगे. स्मरण रहे यह वही रामगुप्त था जिसने शकों से हारने के बाद सन्धि के लिए शक राजा को अपनी बीवी ध्रुवदेवी को सौंपने को तैयार हो गया था.

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प्रातः सेनापति अभिरथ अपने शयनकक्ष में मृत पाए गए. सारे सुरक्षा प्रहरी अचेत मिले. भवन से कुछ चोरी न हुआ था. गायब थी सिर्फ उनकी सोलह-वर्षीया, मातृविहीना कन्या कमलिनी.

            पूरे पाटलिपुत्र में हड़कंप मचा हुआ था. यह पहली बार था कि प्रबल प्रतापी गुप्त साम्राज्य के सेनापति की हत्या उनके आवास पर ही हो गयी. प्रजाजन में विभिन्न प्रकार का प्रवाद (अफवाह) फैल रहा था. ज्यादातर लोग सम्राट राजाधिराज रामगुप्त को कोस रहे थे. सबको दिवंगत सम्राट समुद्रगुप्त याद आ रहे थे जिनके शौर्य की दुन्दुभी पूरे जम्बूद्वीप में बजती थी. कई तो उनके बड़े बेटे कदर्य (कायर) रामगुप्त को सम्राट होने लायक ही नहीं मानते थे, बल्कि उसकी जगह छोटे भाई चन्द्रगुप्त को ज्यादा योग्य समझते थे.

      लोग कमलिनी के गायब होने पर भी तरह-तरह का अनुमान लगा रहे थे. कोई कहता कमलिनी अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध निम्न वर्ण के पुरुष से प्रेम करती थी और वही पिता की हत्या कर भाग गयी होगी. कई इसका प्रतिवाद कर रहे थे और तर्क दे रहे थे कि सेनापति अभिरथ ने अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरी शादी न की और अपनी बेटी को खुद बड़े लाड़-प्यार से पाले थे.

      महामात्य चंद्रमौलि की पत्नी शुभा विशेष रूप से दुखी और चिंतित थी. कमलिनी उनकी छोटी बहन विभा की बेटी थी. “पहले बहन विभा रहस्यमय परिस्थितियों में मरी थी; फिर बहनोई अभिरथ की हत्या हो गयी और फिर कमलिनी गायब हो गयी. अब कमलिनी पर पता नहीं क्या बीत रही होगी!” कहते हुए शुभा विलाप कर रही थी. शुभा का दुःख जल्दी ही रोष में बदल गया और वह अपने पति चंद्रमौलि को धिक्कारने लगी कि जब ऐसे अतिविशिष्ट जन का यह हाल है तो साधारण प्रजाजन का क्या होता होगा! कैसा निर्वीर्य सम्राट है!! प्रतापी गुप्त साम्राज्य को किसकी नजर लग गयी!!!

      सम्राट रामगुप्त बुरी तरह डरे हुए थे. उन्होंने तुरंत अपने अमात्यों की एक आकस्मिक बैठक बुलाई और नाराजगी जताते हुए सबको झिड़का कि यह सब सारा प्रपंच उस षड्यन्त्र का अंग है जिसके अंतर्गत स्वयं उन्हें अपदस्थ करने और हत्या कर देने की योजना थी. उन्होंने महामात्य पर अप्रसन्नता व्यक्त की कि सारा अधिकार और पूरी गुप्तचर व्यवस्था उनके अधीन होते हुए भी वे अपने शक्तिशाली श्यालीवोढ (साढू) को बचा न सके. जो सिंह की भांति रण में गर्जन करता था वह निरीह बकरे की तरह खुद अपने घर में मारा गया इससे बड़ा कलंक महान गुप्त वंश के लिए और क्या हो सकता है! महाराजाधिराज स्वर्गीय सम्राट समुद्रगुप्त की आत्मा मुझे कोस रही होगी. जब अपना भाई ही अपने विरुद्ध हो जाय तो औरों को क्या कहना! कहते हुए सम्राट रोने लगे. उपस्थित सभी विशिष्ट जन आश्चर्य में पड़ गए कि इस आपातस्थिति में साम्राज्य की बागडोर सख्ती से सम्हालने की बजाय सम्राट बच्चों जैसा रो रहे हैं और कायरों जैसा अपने वीर भाई पर षड्यन्त्र का आरोप मढ़ रहे हैं. महामात्य चंद्रमौलि ने उन्हें आश्वासन देते हुए चुप कराया कि दोषियों को जल्द ही पकड़ कर दण्डित किया जायेगा और कमलिनी को शीघ्र खोज निकाला जायेगा. अन्वेषण (इन्वेस्टीगेशन) और आसूचना (इंटेलिजेंस) दोनों शाखाओं के अधिकारी गण इस कार्य में पूरी तरह लग जायेंगे.

      सम्राट रामगुप्त ने सलाहकार सभा को विसर्जित कर दिया. रोक लिया सिर्फ राजपुरोहित को. राजपुरोहित अभ्यर्थन से वह देर तक फुसफुसा कर विमर्श करते रहे, जिसका सार यह था कि राजपुरोहित महाकापालिक त्रयम्बकनाथ से सम्राट की सुरक्षा और सकुशलता के लिए विशेष तांत्रिक साधना का आयोजन कराएं. इसके लिए राजपुरोहित ने विशेष व्यय की बात बतायी, जिसे शीघ्रता से राजकोष से प्रदान किया गया.

चन्द्रगुप्त ऐसी बैठकों में नहीं बुलाया जाता था, किन्तु षड्यन्त्र के आरोप की बात उस तक पहुँच चुकी थी. सेनापति अभिरथ को वह सर्वदा वीर सैनिक का सम्मान देता था. उनकी इस तरह हत्या से उसे गहरा आघात लगा था. उनकी पुत्री कमलिनी को उसने एक सैनिक कार्यक्रम के दौरान देखा था. अद्भुत अलौकिक आभा थी उस किशोरी के मुखमंडल पर. चन्द्रगुप्त अनुरक्त तो नहीं, पर प्रभावित बहुत हुआ था उस दिव्य देवीरूपा कन्या पर.

भागवत (वैष्णव) धर्म गुप्त वंश का राजकीय धर्म था. अधिकांश गुप्त नरेशों ने परम भागवत की उपाधि धारण की थी, किन्तु रामगुप्त चुपके से निजी तौर पर शैवों के कापालिक धर्म का अनुयायी हो गया था. कहने वाले तो यहाँ तक कहते थे कि भीमकाय कापालिक त्रयम्बकनाथ से रामगुप्त का समलैंगिक सम्बन्ध था. लिच्छवि राजकुमारी ध्रुवदेवी, जो रामगुप्त की पट्टमहिषी (पटरानी) थी, सम्राट के इस आचरण से बहुत दुखी रहती थी. चूँकि क्लीव, निर्वीर्य, भसद्य (गांडू, भोंसड़ी वाला) व्यक्ति सम्राट ही नहीं, बल्कि उसका पति भी था, अतः ध्रुवदेवी राजकीय गरिमा के कारण मौन रहती थी. दबी जुबान लोगों में बातें चलती थी कि ध्रुवदेवी मजबूरन अपने देवर चन्द्रगुप्त से चुपके से जुड़ी हुई थी.

महामात्य चंद्रमौलि ने सेनापति अभिरथ की हत्या का प्रकरण अन्वेषण हेतु नगर दण्डाधिकारी विभाकर और कमलिनी को खोज निकालने का प्रभार क्षेत्रीय आसूचना अधिकारी अरिंदम को सौप कर उन्हें निर्देश दिया कि प्रतिदिन प्रगति प्रतिवेदन (प्रोग्रेस रिपोर्ट) से उन्हें अवगत कराया कराया जाय. यह कार्य सौंप कर वह तुरंत दूसरे कार्यों में लग गए, जैसे – मृत अभिरथ की पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंत्येष्टि, विभिन्न राजाओं और क्षत्रपों के श्वेतवस्त्रधारी दूतों द्वारा लाये गये शोक-सन्देश स्वीकार करना, और कुछ प्रतिद्वंद्वी राजाओं के दूतों का स्पष्टीकरण सुनना कि इस निर्मम हत्या में उनका कोई हाथ नहीं है और अभिरथ की वीरता का वे सदैव सम्मान करते थे.

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      सप्ताह भर गहरी छानबीन के पश्चात नगर दण्डाधिकारी विभाकर ने अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करते हुए चंद्रमौलि को सूचित किया कि घटना वाली रात कोई अभिरथ से मिलने आया था. आगंतुक कोई उच्चाधिकारी लग रहा था और उसके रोबीले और अधिकारपूर्ण बोलने के ढंग से सभी सुरक्षा प्रहरी आतंकित थे, यद्यपि आगन्तुक ने प्रसाद के रूप में सबको मोदक खिलाया था. यह भी पता लगा कि उस रात उस आगंतुक और अभिरथ के मध्य काफी देर तक बकझक होता रहा. फिर, न जाने कब अभिरथ की हत्या हो गयी; कब कमलिनी भाग गयी सुरक्षा प्रहरियों को पता न चल सका क्योंकि वे सबके सब मोदक खाकर अचेत थे. वे तो यह भी न पहचान सके कि आगंतुक वास्तव में कौन था.

      इसी बीच, चंद्रमौलि के चरों (गुप्तचरों) ने सूचित किया कि कोई कमलिनी को देवी का रूप बता कर अभिरथ से मांग रहा था किसी अनुष्ठान में अभ्यर्थना (पूजा) के लिए. वह कौन था, इसका पता तो नहीं लगा चरों को, लेकिन इतना अवश्य था कि वह साम्राज्य का कोई बहुत शक्तिशाली और प्रभावशाली व्यक्ति था क्योंकि अभिरथ के आनाकानी करने पर उसने परिणाम भुगतने को धमकाया भी था. वह व्यक्ति कौन था गुप्तचर गण अभी पता न लगा पाए थे.

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चन्द्रगुप्त राजभवन से गायब पाया गया. उसे किसी ने गायब न किया था, बल्कि वह स्वयं चुपके से एक निजी और विश्वस्त सहायक संग अदृश्य हो गया था. राजभवन से दूर जब वह प्रकट हुआ तो कोई उसे पहचान न पाया – मुंडित सिर, चन्दन से भरा हुआ ललाट और शरीर पर काषाय वस्त्र. उसका सहायक भी सन्यासी रूप में ही साथ था. षड्यन्त्र सम्बन्धी सम्राट के आरोपों का खंडन करने के लिए, सेनापति अभिरथ के हत्यारों को धर दबोचने के लिए और कमलिनी को खोज निकालने के लिए चन्द्रगुप्त स्वयं अपने तईं गुप्तचर अभियान शुरू किया था.

सर्वप्रथम दोनों सन्यासी अभिरथ के आवास पर शान्तिपाठ करते हुए पहुंचे. प्रकटतः वे दिवंगत सेनापति की आत्मा की शान्ति की कामना कर रहे थे, किन्तु अवसर का लाभ उठा कर सुरक्षा प्रहरियों से बात करने लगे और जानने की कोशिश करने लगे कि हत्या वाली रात जो आगंतुक आया था वह कैसा दिखता था. प्रहरियों ने बताया कि आगन्तुक जिसने प्रसाद के लड्डू खिलाये वह अत्यंत सामान्य कद-काठी का सामान्य व्यक्ति था. जब एक सन्यासी ने टोका कि सुना गया है कि वह बहुत रोबीला व्यक्ति था, प्रहरियों ने चुप्पी साध लिया और यह कहते हुए कि वे सब के सब बेहोश हो गये थे कुछ भी बताने से इंकार कर दिया. बाद में एक प्रहरी चुपके से सन्यासियों के पास आया और फुसफुसा कर कहा कि उस रात उसको उदरशूल था अतः उसने मोदक न खाया था, किन्तु जब सभी प्रहरी बेहोश हो गए थे तो वह भी बेहोश पड़े रहने का नाटक कर उनके साथ ही लेट गया था. उसने देखा कि सबको बेहोश पड़ा देख कर एक विशालकाय शरीर वाला आगंतुक आया जिसने अपना सिर और मुंह कपड़े से ढंका हुआ था. उसके आने के बाद ही सेनापति की चीख सुनाई पड़ी थी. फिर, वह भीमकाय व्यक्ति और उसके पीछे-पीछे एक अवगुंठनवती (घूंघट वाली) स्त्री चुपके से निकल गए.

चन्द्रगुप्त को अनुमान लग गया कि वह कौन व्यक्ति हो सकता था. उसे अब आगे बढ़ने का संभावित संकेत मिल गया. उसने अपने सहायक के माध्यम से सम्राट रामगुप्त के सबसे विश्वस्त और निजी सेवक को अपना सूत्र (एजेंट) बनाया और उसके द्वारा सम्राट रामगुप्त की अन्तरंग गतिविधियों पर दृष्टि रखना प्रारंभ किया. सूत्र प्रचुर धन बार-बार पाकर गुप्त सूचनाएं निरन्तर देने लगा.

सूत्र की सूचनाओं से ज्ञात हुआ कि सम्राट रामगुप्त और कापालिक त्रयम्बकनाथ के समलैंगिक सम्भोग की आवृत्ति अचानक बहुत बढ़ गयी थी. उत्तेजना की सीत्कारों के दौरान भी बीच-बीच में वे फुसफुसा कर कुछ बातें करते रहते थे, जिसे सूत्र ठीक से सुन न पाता था. फिर भी, उन फुसफुसाहटों में से ‘चक्र-साधना’ जैसा एक शब्द-युग्म सुन पाने का उसने अनुमान लगाया था.

***

काष्ठ-प्राचीर-परिवेष्टित (काठ की चाहरदिवारी से घिरे) पाटलिपुत्र नगर से थोड़ी दूर गंगा नदी और शोण नद के संगम क्षेत्र में फैले सघन वन में दो कापालिक बड़ी शीघ्रता से चले जा रहे थे. अँधेरा होने से पूर्व वे महाकापालिक त्रयम्बकनाथ के मठ में पहुँच जाना चाहते थे. कठिनाई उन्हें यह थी कि उन्हें न मार्ग पता था, न कोई मार्गदर्शक था. अपने विश्वस्त गुप्त सूत्रों द्वारा दी गयी आसूचना ही उनका एकमात्र संबल था.

मठ से कोई आध कोस पहले एक विशाल वटवृक्ष के नीचे वे थोड़े विश्राम के लिए ज्यों ही रुके उनके सामने एक विकट कापालिक वटवृक्ष से टपक पड़ा, या कहिये कूद पड़ा. धरती पर आते ही वह कापालिक दोनों आगंतुक कापालिकों से जांच-पड़ताल करने लगा.

“कौन हो?”

“वही, जो आप हो.”

“स्पष्ट उत्तर दो.”

“धिक्कार है! अपने सहधर्मी को भी नहीं पहचानते!!”

“कहाँ से आ रहे हो?”

“काशी से”

“कहाँ जा रहे हो?”

“कामाख्या, कामरूप”

“इधर क्यों आये?”

“आश्रय खोजते.”

      विकट कापालिक ने आगंतुक कापालिकों को वहीं रुक कर प्रतीक्षा करने के लिए कह कर भागता हुआ मठ में गया; महाकापालिक त्रयम्बकनाथ के पट्टशिष्य कापालिक कल्पनाथ से अनुमति लेकर उन्हें मठ में ले गया.

मठ एक जीर्ण-शीर्ण पुरानी इमारत थी, बहुत रहस्यमय और भयावह दिखती थी. आगंतुक कापालिकों में से एक ने, जिसने अपना नाम कापालिक रतिनाथ और अपने साथी का नाम कापालिक भवनाथ बताया था, बहुत प्रयास किया महाकापालिक त्रयम्बकनाथ के दर्शन करने का या कम से कम उनके प्रतिबंधित साधना क्षेत्र में प्रवेश करने का, लेकिन असमर्थ रहा. कापालिक कल्पनाथ भी उसकी सहायता न कर सका. हां, इतना जरूर हुआ कि उसने उससे गहरी दोस्ती गाँठ ली.

कापालिक रतिनाथ को कापालिक कल्पनाथ की दोस्ती का एक लाभ यह अवश्य मिला कि उसे महाकापालिक के बारे में बहुत सारी बातें पता चल गयीं. उसी से उसे पता लगा कि महाकापालिक की ‘कापालिक चक्र साधना’ एक त्रिपुरसुन्दरी भैरवी के अभाव में रुकी हुई थी. “आप तो जानते ही हैं कि त्रिपुरसुन्दरी भैरवी कितना कठिन कार्य है, किन्तु हमारे गुरु जी ने  ऐसी भैरवी का प्रबंध आखिर कर ही लिया. आगामी अमावस्या को उनकी चक्र-साधना है. उसके बाद तो गुरु जी किसी भी प्रकार सृष्टि या विनाश की शक्ति से युक्त हो जायेंगे.” कापालिक कल्पनाथ ने कापालिक रतिनाथ को फुसफुसा कर ये बातें अपना जान कर बतायीं. दोनों में दोस्ती बड़ी गहरी हो गयी थी.

अमावस्या की रात – ‘कापालिक चक्र-साधना’ की रात – शाम से ही मठ में मरघट-सा सन्नाटा छा गया. महाकापालिक के आवास के प्रतिबंधित क्षेत्र की ओर जाना तो दूर उधर देखने की भी पाबंदी थी. इस महान अवसर की महत्ता को महसूस करते हुए कापालिक रतिनाथ ने काशी से लायी हुई, किन्तु छुपा कर रखी गयी, वारुणी का सेवन सभी साथी कापालिकों को कराया. परिणामस्वरूप, कापालिक रतिनाथ और कापालिक भवनाथ के अतिरिक्त अन्य सभी कापालिक आनन्द के गहरे गर्त में डूब गए.

आधी रात के लगभग दोनों कापालिकों ने चुपके से प्रतिबंधित क्षेत्र में प्रवेश किया. वे बहुत धीरे-धीरे और सम्हाल कर चल रहे थे ताकि उस क्षेत्र में उनकी उपस्थिति पकड़ी न जाय. जब तक वे मुख्य पूजा-स्थल के निकट पहुंचे तब तक पञ्च मकारों में से मद्य, मांस, मत्स्य और मुद्रा का आयोजन सम्पन्न हो चुका था. वातावरण में एक विचित्र, तीक्षण गंध फैली हुई थी. पञ्च मकार के आखिरी चरण ‘मैथुन’ में दोनों – त्रयम्बकनाथ और कमलिनी – रत थे. रतिनाथ को यह देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि कमलिनी बड़े उत्साह से चक्रीय मैथुन में लगी हुई थी. कापालिकों की मान्यता के अनुरूप भैरव व भैरवी – साधक व साधिका – के एक साथ स्खलित होते ही मारे आनन्द के उन दोनों का ब्रह्मरंध्र खुल जाता है और दोनों को दिव्य तत्व की प्राप्ति एक साथ हो जाती है. इस साधना के लिए जिस आत्म-नियन्त्रण और संतुलन की आवश्यकता होती है उसे साधते हुए दोनों चरमोत्कर्ष पर पहुँचने ही वाले थे कि पीछे से बड़े चुपके और चपलता से पहुँच कर रतिनाथ ने त्रयम्बकनाथ की पीठ पर कस कर एक लात मारा.

अप्रत्याशित प्रहार से त्रयम्बकनाथ एकदम अचकचा गया. साधना भंग हो गयी. साधक ने सचमुच विकराल भैरव का रूप धारण कर लिया. साधक और आक्रामक दोनों में भयंकर द्वंद्वयुद्ध प्रारंभ हो गया. भारी-भरकम शरीर वाला त्रयम्बकनाथ फुर्तीले, युवा रतिनाथ पर पहले तो भारी पड़ा, किन्तु जल्दी ही वह हांफने लगा. फिर भी, अपनी पूरी शक्ति लगा कर जब वह रतिनाथ पर प्रहार करता तो रतिनाथ भूलुंठित हो जाता. एक बार तो लगा कि त्रयम्बकनाथ रतिनाथ को मार डालेगा. किन्तु, रतिनाथ ने अपनी मानव कपाल में छुपा कर रखी हुई छोटी-सी छुरी को एक झटके से उठा लिया और त्रयम्बकनाथ के सीने में ताबड़तोड़ प्रहार करने लगा. छोटी छुरी के प्रहार का विशाल और बलवान त्रयम्बकनाथ की भयंकरता पर ज्यादा प्रभाव न पड़ा. लेकिन, रतिनाथ जिस तीव्रता से सधे हाथों लगातार प्रहार कर रहा था, त्रयम्बकनाथ की छाती से खून झरने की तरह निकलने लगा. थोड़ी ही देर में पस्त हो कर वह जमीन पर गिर पड़ा.

साधना भंग होते ही भैरवी बनी कमलिनी का सम्मोहन टूट चुका था. सचेत होते ही वह रतिनाथ के असली रूप को पहचान गयी. वह चीखने ही वाली थी कि रतिनाथ के साथी भवनाथ ने दौड़कर उसका मुंह बंद कर दिया और उसे जकड़ कर पकड़े रहा.

कमलिनी का मुंह और हाथ कपड़े से बाँध कर रतिनाथ ने उसे अपने कन्धे पर लाद लिया और भवनाथ के साथ तेजी से वहां से भागा. वह समझ रहा था कि ज्यों ही अन्य कापालिक होश में आयेंगे, तो उनकी खोज में दौड़ पड़ेंगे. फिर तो भगोड़ों के जान की खैर नहीं.

भागते-भागते सब एक नाले के निकट पहुँच गए, जहाँ रतिनाथ और भवनाथ ने अपने-अपने मानव-कपाल फेंक कर सामान्य मनुष्य का रूप धारण कर लिया. कमलिनी भी अपने रक्षकों के प्रति अनुगृहीत होती हुई उनके साथ सहयोग करती भागने लगी.

***

रतिनाथ कोई और नहीं चन्द्रगुप्त ही था. जब उसने अपने बड़े भाई सम्राट रामगुप्त को सारा विवरण बताया तो वह बहुत क्रुद्ध हुआ. उसे ये सूचनाएं भी शांत न कर पा रही थीं कि त्रयम्बकनाथ ने ही सेनापति अभिरथ की हत्या की थी, क्योंकि वह कमलिनी को उसे सौंपने को राजी न था. उसी ने पहले कमलिनी की माँ विभा की भी हत्या की थी. चक्र-साधना के लिए उसने उसे बहुत उपयुक्त पाया था, किन्तु विभा ने उसके प्रस्ताव को घिनौना कह कर अस्वीकार कर दिया था. बाद में, एक आदर्श भैरवी बनने के सभी गुण उसने कमलिनी में पाए और कमलिनी को फुसला कर अपनी भैरवी बनने के लिए उसने पटा भी लिया था, किन्तु उसका पिता अभिरथ उसमें बाधक हो रहा था.

बड़ी मेहनत और जोखिम उठा कर अपने गुप्त सूत्रों द्वारा जुटाई गई सूचनाएं सौंप कर चन्द्रगुप्त अपने ऊपर लगे षड्यन्त्र के आरोपों की सफाई देना चाह रहा था, लेकिन उसके उलट सम्राट उसके ऊपर बहुत नाराज था. उसे महाकापालिक त्रयम्बकनाथ द्वारा चक्र-साधना से अर्जित शक्ति पर बड़ी आस्था थी. अपने शत्रुओं को परास्त करने में उसे महाकापालिक की दैवीय शक्ति का बड़ा भरोसा था. उसे बड़ा दुःख था कि उसकी कामक्रीड़ा का साथी उससे छिन गया.

सबसे बड़ी मुश्किल कमलिनी के लिए खड़ी हो गयी. त्र्यम्बकनाथ ने उसके देवी-रूप की बड़ाई कर-कर के उसको बहकाया था और चक्र-साधना सम्पन्न होने पर उसे सचमुच की देवी होने का विश्वास दिलाया था. चन्द्रगुप्त के हाथों महाकापालिक का दुर्दांत होते ही कमलिनी की आँखें खुल गयीं. अब उसका मोहभंग हो चुका था. लेकिन, अब वह अनाथ थी. उसके मौसा-मौसी – चंद्रमौलि और शुभा – भी सम्राट के कोप के कारण उसे अपने यहाँ आश्रय देने से पीछे हट गए.

ऐसे में, चन्द्रगुप्त आगे आया और अपने खड्ग तले कमलिनी को छाँव देने को तैयार हो गया. उसे सम्राट के क्रोध की परवाह न थी. कमलिनी भी उसकी वीरता और साहस पर रीझ गयी थी.

***

कुछ ही दिनों बाद शक आक्रान्ताओं से हारकर जब सम्राट रामगुप्त ने शक नरेश को अपनी पट्टमहिषी ध्रुवदेवी को सौंप कर सन्धि करनी चाही, तो अपमान से क्षुब्ध चन्द्रगुप्त ने उसी खड्ग से शक नरेश की हत्या कर ध्रुवदेवी का उद्धार किया. फिर उसी खड्ग से कायर सम्राट की हत्या कर पाटलिपुत्र का राजसिंहासन हासिल कर लिया.

ध्रुवदेवी अब ध्रुवस्वामिनी थी. कमलिनी को नया नाम मिला भुवनस्वामिनी. दोनों सम्राट चन्द्रगुप्त के खड्ग के छाँव तले बड़ी खुश थीं. दोनों अब उसकी रानियाँ थीं.

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वैशाली की कन्या और कमल के फूल

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वरिष्ठ लेखिका गीताश्री आजकल वैशाली के भग्नावशेषों में बिखरी प्राचीन कथाओं की खोज कर रही हैं। यह उस ख़ज़ाने की पहली कहानी है-

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वैशाली के खंडहरो में जाने कितनी प्रेम कथाएं सांसें लेती हैं। उन कथाओं के नाम कई स्तूप हैं। कुछ तो नष्ट हो गए, कुछ अब भी कथाएं सुनाती हैं। एक स्तूप से जुड़ी है एक रोमांचक प्रेम कथा और मां और हजार बेटों के बीच की रोमांचक दास्तान।

एक ऋषि थे, जो घाटियों और गुफाओं में छुप कर अकेले निवास किया करते थे। जल्दी बाहर नहीं निकलते थे। उनके बाहर आने की तिथि, मुहुर्त सब निश्चित था। वे केवल वसंत ऋतु के दूसरे महीने में शुद्ध जलधार में स्नान करने के लिए गुफा से निकलते थे। एक बार वे उस निर्जन जलधार में स्नान कर रहे थे कि एक मृगी उसी समय पानी पीने आई। ऋषि के प्रताप से वह मृगी उसी समय गर्भवती हो गई। जिससे एक कन्या का जन्म हुआ। कन्या इतनी अनुपम सुंदरी थी कि उसके जैसी कोई दूसरी कन्या पृथ्वी पर ढूंढे न मिली। दैवीय आभा से युक्त उस कन्या में एक ही ऐब था कि उसके पैर मृग जैसे थे। ऋषि ने मृगी से उस बालिका को ले लिया और उसका लालन पालन करने लगे। उस एकांत गुफा में अपूर्व सुंदरी कन्या पलने लगी। ऋषि की तरह वह भी बाहरी दुनिया से एकदम कटी हुई थी। उसकी दुनिया गुफा तक थी। इससे ज्यादा दुनिया उसने देखी न थी। कहीं अन्यत्र उसका आना जाना न हुआ था। धीरे धीरे वह कन्या बड़ी हो गई। एक दिन ऋषि ने उससे पहली बार कहा कि कहीं से थोड़ी –सी अग्नि ले आओ। बाहरी दुनिया से एकदम अनजान, अनभिज्ञ, अग्नि की तलाश में वह कन्या भटकते भटकते दूसरे ऋषि की कुटिया में पहुंच गई। बाहर की दुनिया में पहली बार उसके कदम पड़े थे। अपनी गुफा से निकल कर पहली बार घने जंगल में अपने पैर रखे थे। गुफा से बाहर जंगल,  हवाओं में घुली गंध सबकुछ उसे भा गया था। अचरज से वह जंगल के सौंदर्य को निहारती हुई, अपने में मग्न वह दूसरे ऋषि की कुटी तक पहुंची थी। वहां पहुंचने तक रास्ते में क्या हुआ, कन्या एकदम अनभिज्ञ थी। दूसरा ऋषि चकित रह गया, उसने जो देखा, वह अकल्पनीय था। उसे अपने नेत्रों पर भरोसा न हुआ। जिन रास्तो से गुजर कर कन्या वहां तक पहुंची थी, उन रास्तो पर कमल के फूल खिल उठे थे। ऐसा जादू, चमत्कार अपनी बरसो की साधना के वाबजूद न देखा था।

मासूम कन्या उनसे अग्नि मांग रही थी, अपने पिता के लिए अग्नि लेकर वापस गुफा में लौटना था। इधर ऋषि हैरान थे, वे अग्नि के बदले फूल मांग रहे थे।

ऋषि ने कन्या से एक शर्त्त रख दी और कहा- “मेरी कुटी के चारो ओर प्रदक्षिणा कर, तब मैं तुझको अग्नि दूंगा।“

अबोध कन्या को भला क्या समस्या होती। मृगनयनी ने बिना अचरज किए, सवाल किए, उनकी शर्त्त पूरी कर दी, कुटी के चारो ओर प्रदक्षिणा कर आई, ऋषि से अग्नि लेकर लौट गई। ऋषि की कुटी के चारो तरफ कमल खिल उठे थे।

उसी समय ब्रम्हदत्त नामक राजा जंगल में शिकार करने पहुंचा था। जंगल में शिकार की खोज करता हुआ राजा ने देखा कि कमल के फूल कतार में खिले हुए हैं। राजा को हैरानी हुई। इस तरह कभी भी खिले हुए कमल नहीं देखें उन्होंने। उन्हें उत्सुकता हुई कि इसका भेद जाने। आखिर ऐसे कैसे खिले कमल। मानो किसी के निशान हों। राजा ने कमल के कतारों का पीछा करना शुरु किया। कमल के फूल एक गुफा के द्वार पर जाकर खत्म हो गए थे। द्वार पर आहट सुन कर कन्या बाहर निकली। राजा उसे देखते ही अवाक रह गए। ऐसा अलौकिक सौंदर्य उन्होंने समूची पृथ्वी पर नहीं देखी थी। खुले, घने-केशपाश, उलझे हुए, मृगनयनी, भौंहे कमान-सी तनी हुई, पंखुड़ियो-से नरम, भरे भरे, गुलाबी होंठ, बांहें चंदन की शाखो-सी, बदन पर कंचुकी, कमर में लिपटा छाल-सा कोई वस्त्र। अलग-से पैर, मानो अभी कुंलाचे भर कर लौटी हों।

जैसे शिल्पकार ने अभी अभी तराश कर छेनी रख दी हो। वह राजा को सामने देख कर भयभीत हो गई। राजा मोहित अवस्था में देर तक खड़ा रहा। तभी ऋषि बाहर निकल कर आ गए। राजा को होश आया। उनका लाव लश्कर दूर खड़ा सारा तमाशा देख रहा था। किसी की हिम्मत न पड़ रही थी कि राजा को होश में लाने का यत्न करता। ऋषि को देख कर राजा को होश आया। तब तक राजा कन्या के प्रेम में पड़ चुके थे। प्रेम ने उन्हें साहस दिया और वे ऋषि के आगे झुक गए। उनकी कन्या को रानी बनाने का प्रस्ताव उनके सामने बेधड़क धर दिया। कन्या ने राजा को देखा, पहली बार अपने मन में कुछ खिंचाव-सा महसूस किया। घनी मूंछो वाला, चमकीली पोशाक पहने, हाथ में तीर-धनुष लिए, चेहरे पर अनुराग की लाली। मृगकन्या को लगा, उसे कोई सूत बांध रहा है। गुफा से बाहर ले जाने को खींच रहा है। वह वापस अंधेरी गुफा में जाने को तैयार नहीं थी। हमेशा अपना चेहरा पानी में देखा था, पहली बार किसी और के नेत्रों में झिलमिला उठी थी। नसों में कुछ तड़कने लगा था। पहली बार उसने ऐसा महसूस किया था। उसके अधर कांप उठे थे। कहने न कहने के बीच ऐसी ही कंपकंपी होती है।

ऋषि ने दोनों की मनोदशा को देखा और कन्या को राजा के साथ उसी शिकार रथ पर विदा कर दिया। ऋषि जानते थे कि इस जंगल और गुफा में रहते हुए उनकी पुत्री के लिए इससे बेहतर कोई संबंध द्वार चल कर नहीं आ सकता । कन्या की भलाई समझ कर उन्होंने राजा के हाथों अपनी पुत्री सौंप दी।

महल में पहुंचते ही वहां पूर्व रानियों में खलबली-सी मच गई। ज्योतिषियों ने पहली बार ऐसी अदभुत कन्या देखी थी। राजा ने राजज्योतिषी को बुला कर कन्या का भाग्य जानना चाहा। ज्योतिषि ने बताया कि इस रानी से आपके हजार पुत्र पैदा होंगे। इतना सुनते ही राजा खुश। गलहार निकाल कर तुरत राज ज्योतिषि के हाथों में थमा दिया। यह खबर समूचे महल में, रनिवास में फैल गई। रानियों को घोर ईर्ष्या हुई। वे इसके खिलाफ षडयंत्र करने लगी। नयी रानी के रुप सौंदर्य से पहले से ही उन्हें डाह होती थी। राजा को भी तक वे संतान नहीं दे पाई थीं, सो पहले से दुखी थीं। वे जानती थी कि हजार पुत्र पैदा करने वाली ही महारानी बनेगी।

नयी रानी गर्भवती हुई, उन पर कड़ी निगाह रखी जाने लगी। रानियों ने चारो तरफ से उसे घेर लिया था। नयी रानी के गर्भ से कमल का एक ऐसा फूल पैदा हुआ जिसकी हजार पंखुड़ियां थीं। प्रत्येक पंखुड़ी पर एक नन्हा बालक बैठा हुआ था। रानियों ने ऐसा अचरज कभी न देखा, न सुना। उन्हें अनिष्ट की आशंका हुई। वे राजा को भड़काने लगीं- “यह अनिष्ट घटना है, यह राज्य के लिए उचित नहीं। इसे नष्ट कर देना चाहिए।“ चारो तरफ निंदा होने लगी। राजा निंदा से डर गया और रानियों के बहकावे में आ गया। उसने वह फूल गंगा नदी फेंकने का आदेश दिया। कमल के फूल को संदूक में बंद करके नदी की धार के हवाले कर दिया गया।

उस दिन से महल में वीरानी छा गई। दो अनुरागी मन टूट गए। दोनों के बीच का विश्वास भरभरा कर ढह गया।

“मैं आपकी कन्या का सदा खयाल रखूंगा, मैं तुम्हें पटरानी बना कर रखूंगा…” ये सारे वचन लोप हो गए। मृगकन्या के चेहरे पर हंसी न लौटी और न फिर उसके पैरो से कमल फूल खिले।

इधर संदूक बहते बहते एक दूसरे, पड़ोसी राज्य में पहुंच गया। वहां का राजा शिकार करते हुए नदी किनारे पहुंचा तो उसने देखा , एक पीला-सा संदूक बहता हुआ उसकी ओर चला आ रहा है। राजा ने तपाक से नदी से संदूक को छान कर उठा लिया। उत्सुकता से संदूक खोला तो हैरान रह गया। संदूक में हजार बालक कुनमुना रहे थे। राजा उन्हें अपने महल में ले आए, पुत्रवत  उनका लालन-पालन करने लगे। वे बच्चे बड़े होकर बड़े पराक्रमी निकले। उनकी वीरता के किस्से चारो दिशाओं में गूंजने लगे। अपने बल पर उन्होंने अपने राज्य का विस्तार करना शुरु किया। उन्होंने अपनी सेना इतनी बड़ी कर ली कि वैशाली राज्य को भी जीतने का संकल्प ले लिया। राजा ब्रम्हदत्त तक ये खबर पहुंची कि पड़ोसी राजा चढ़ाई करने आ रहा है और उसके पास बहुत बड़ी सेना है। वीर, बलवानों से लैस है उनकी सेना जो लगातार कई राज्यों को जीत चुकी है। वे जानते थे कि वैशाली की सेना उसके सामने कभी नहीं टिक पाएगी। राजा संभावित पराजय की कल्पना से भयभीत हो उठे थे। राजा चिंतित हो उठे। उन्हें इस हालत में देख कर मृगपाद कन्या यानी नयी रानी सबकुछ समझ गई। उस तक भी वीर सेना की खबरें पहुंची थीं। राजा ब्रम्हदत्त और उनकी रानियां भूल चुकी थीं, लेकिन मृगपाद कन्या समझ गई थी कि पड़ोसी राज्य के वे हजार वीर बालक कौन है।

आत्मविश्वास से भरी हुई रानी ने राजा को कहा- “जवान लड़ाके सीमा पर पहुंचने वाले हैं। परंतु आपके यहां के सभी छोटे-बड़े लोग साहसहीन हो रहे हैं। आप आज्ञा दें तो आपकी ये दासी कुछ कर दिखाए। ये दासी उन वीरों को जीत सकती है।“

राजा को उसकी बात पर विश्वास न हुआ। होता भी कैसे। कहां वे वीर लड़ाके, कहां ये कोमलांगी, सुंदरी। बुझे मन से राजा ने आज्ञा दे दी। रानी सीमा पर पहुंची और नगर की सीमा पर बनी दीवार पर चढ़ कर खड़ी हो गई। वहां पर वह चढ़ाई करने वाले वीरो का रास्ता देखने लगी। वे हजार वीर, अपनी अपनी सेना के साथ आए, नगर की दीवार को घेरने लगे।

मृग-कन्या ने उनको संबोधित किया- “विद्रोही मत बनो मेरे पुत्रों। मैं तुम्हारी माता हूं। तुम मेरे पुत्र हो।“

उन लोगो ने उत्तर दिया- “हम नहीं मानते, इस बात का क्या प्रमाण है ?”

मृग-कन्या ने अपना स्तन दबाया, उसमें से दूध की हजार धाराएं निकलीं और हजार पुत्रों के मुख में समा गईं।

दोनों तरफ की सेनाएं चकित रह गईं। योद्धाओं ने युद्ध के दैरान ऐसा वात्सल्यपूर्ण दृश्य नहीं देखा था, जो उन्हें भावुक कर जाए। सबने हथियार वहीं धर दिए और हजार पुत्रों की माता को उसके खोए हुए पुत्र मिल गए। युद्ध बंद हो गए और वे हजार पुत्र अपने घर वापस लौट आए। दो दुश्मन राज्य एक दूसरे के संबंधी बन गए।

राजा ब्रम्हदत्त को ज्योतिषियों की भविष्यवाणी याद आई, फिर वह गर्भ से निकला कमल का फूल और उसकी हजार पंखुड़ियां याद आईं, जिन पर हजार शिशु चहचहा रहे थे। वे दुष्ट रानियां याद आईं जिनके बहकावे में आकर उसने घोर पाप किया था। राजा पश्चाताप से भर कर मृगकन्या रानी के सामने क्षमाप्रार्थी हो उठे।

मृगकन्या ने बस इतना कहा- “अनुराग की गहरी खाई में भरोसा हो तो छलांग लगाना चाहिए था महाराज। आपके एक अविश्वास और भय ने इतने साल आपको पुत्र सुख से, वैशाली को उत्तराधिकारी से और आपको मुझसे दूर रखा।“

वैशाली के उसी स्थान पर बुद्ध ने टहल टहल कर भूमि में चिन्ह बनाया और उपदेश देते समय लोगो को सूचित किया – “इसी स्थान पर मैं अपनी माता को देख अपने परिवारवालों से जा मिला था। तुमको मालूम होगा कि वे हजार वीर ही इस भद्रकल्प के हजार बुद्ध हैं।“

  ( ह्वेनसांग के भारत-भम्रण के एक प्रसंग पर आधारित कथा)

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आ. चारुमति रामदास की कहानी ‘ऐसा भी होता है!’

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आ. चारुमति रामदास हैदराबाद में प्रोफ़ेसर रही हैं। रूसी भाषा से उन्होंने अनेक कहानियों का हिंदी में अनुवाद किया है जिसमें मिखाईल बुलगाकोव का उपन्यास ‘मास्टर एंड मार्गरीटा’ भी है। आज उनकी एक छोटी सी कहानी जो कुछ कुछ जादुई यथार्थवाद जैसी है। आप भी पढ़िए- मॉडरेटर

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हम समुन्दर के किनारे टहल रहे थे. हम, यानी मैं मेरे चार दोस्त उनकी पत्नियाँ, मेरी पत्नी नहीं थी, क्योंकि मैंने अभी तक शादी ही नहीं की थी. चाहता था, कि पहले किसी लड़की से प्यार करूँ और बाद में शादी. इसी उम्मीद में दिन, महीने, साल बीतते गए, मैं कुँआरा ही रह गया. मिजाज़ बहुत शक्की हो गया, मन बेहद संवेदनशील…

ख़ैर, अपनी ही बात लिए क्यों बैठा हूँ?

तो हम समुंदर के किनारे पर टहल रहे थे. मौसम, जैसा कि उम्मीद थी, साफ़ था…धूप कुछ चुभ ही रही थी.

अचानक लाउड-स्पीकर से घोषणा सुनाई दी : “जल्दी आइए, अपनी आँखों से देखिए दिलजले का अंजाम!”

हम भी उधर ही गए, जहाँ एक लम्बी लाइन लगी थी. बाहर, एक तम्बू के सामने, एक आदमी मेज़ लगाए बैठा था, वह पाँच-पाँच रुपये में टिकट दे रहा था, भीतर जाने के लिए. मैंने सबके लिए टिकट ले लिए और हम लाइन में लग गए, जो हर पल लम्बी होती जा रही थी.

लोग बातें कर रहे थे : ‘शायद किसी के साथ ‘लिव-इन’ में था, उससे झगड़ा हो गया, लड़की ने “मी टू” के अंतर्गत इस रिलेशनशिप की पोल खोल दी. बेचारे का करियर बर्बाद हो गया, उसने आत्महत्या कर ली”.

दूसरे ने कहा, “अरे नहीं, वो बेहद बदसूरत था, अपने रंगरूप को सुधारना चाहता था. इश्तेहारों में दिए गए कॉस्मेटिक्स का इस्तेमाल करने लगा…चेहरा पहले से भी ज़्यादा बदसूरत हो गया…”

“शायद दिल टूट गया, पी-पीकर…” तीसरे ने आरंभ किया.

ओह, बस भी करो! हमें ख़ुद ही देखने दो कि माजरा क्या है…

हम आगे बढ़े. लाइन बेहद धीरे चल रही थी.

जब हमारा नंबर आया, तो हमने देखा कि एक तख़्त पर कोई चीज़ पड़ी है…क्या उसे इन्सान कह सकते हैं? लम्बे-लम्बे हाथ-पैर, मुँह पूरा खुला हुआ, तख़्त पर, और तख्त के चारों ओर बोतलें, कुछ खड़ी, कुछ ज़मीन पर पड़ी, उसके दोनों हाथों में एक-एक…मौत के बाद भी बोतलों पर उसकी पकड़ बनी हुई थी. एक नीचे लटक रहे पैर के पास, एक तख़्त पर दोनों पैरों के बीच, मुँह पूरा खुला हुआ. वह शायद इससे ज़्यादा खोल ही नहीं सका…आँख़ें भी खुली हुईं….

“ये कब हुआ?”

“तीन दिन पहले…”

“तीन दिन पहले? किसी ने पुलिस में ख़बर नहीं दी? अगर “मी-टू” के कारण आत्महत्या की है, तो लड़की के ऊपर केस????”

मगर, ठहरिये… तीन दिन हो गए…झूठ बोलते हो भाई! तीन दिनों में इसके बदन से बदबू क्यों नहीं आ रही है?

“कॉस्मेटिक्स की ख़ुशबू…”

किसी ने इसे दफ़नाने के बारे में क्यों नहीं सोचा? क्या इसका कोई नहीं है?

“हैं, सब हैं, मगर किसी को इसके बारे में कुछ पता ही नहीं है…”

“क्यों?”

“घर से भाग आया था…”

“कब?”

“पता नहीं…”

“जब पता नहीं है, तो अनाप-शनाप मत बोलो… वह लड़की कहाँ है?”

“कौनसी? “मी-टू” वाली? होगी इसी लाइन में…सुना है, कि रोज़ आती है और दो आँसू और एक फूल इसके पैरों पर चढ़ाकर चली जाती है…”

“उसे किसी ने पकड़ा नहीं?”

“उसने क्या किया है? उसने थोड़े ही कहा था, कि जान दे दो. उसे तो उम्मीद थी, बल्कि अभी भी है…”

“किस बात की उम्मीद?”

“कि यह उसके प्यार की शक्ति के कारण फिर से ज़िंदा हो जाएगा…”

“कमाल करते हो, कहीं ऐसा भी होता है?”

“सुना है, रोज़ शाम को पाँच मिनट के लिए यह अपना मुँह बंद करता है, आँखें घुमाता है और इधर-उधर देखकर फिर मर जाता है, इसीलिए शरीर अभी तक ताज़ा है…”

हम आगे बढ़े जा रहे थे…

जब हम उस ‘चीज़’ के पास पहुँचे, तो देखा कि उसके हाथ और पैर बेहद लम्बे हैं, मुँह खूब फूला-फूला, आँखे बाहर को निकलती हुई, हाथों में बोतलें कस कर पकड़ी हुई…मगर…यह क्या!! रंग़ तो पूरा हरा हो गया था…कहीं ऐसा भी होता है? जिस्म को नीला पड़ते हुए तो सुना था, मगर हरा भी हो जाता है, यह पहली बार देख रहा था.

मेरे दोस्त ख़ामोश थे, मन-ही-मन उस अभागे को श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे थे, उनकी बीबियाँ आँखों में आँसू भरे,… कह रही थीं (आपस में, ज़ोर से) “भगवान किसी को ऐसा दिन न दिखाए…” “कैसी होगी वह चुडैल…” “ अच्छे ख़ासे इन्सान को ज़िंदगी से उठा दिया…”, लोग प्यार-मुहब्बत करते ही क्यों हैं…”

जब मैं “उस चीज़ के पास पहुँचा, तो देखा कि उसमें कुछ हलचल हो रही है. मैं घबरा गया…

छह बजने को थे, अँधेरा छा रहा था, शायद उसके ज़िंदा होने का समय हो गया था…

सचमुच में वह झटके से उठा, आँखें घुमाईं, हाथ पैर सीधे किए, इधर-उधर देखा और फिर से चित हो गया.

किसे देख रहा था? किसकी राह देख रहा है? चैन से मर भी जा भाई, मरने के बाद तो अपना तमाशा न बना…

इतने में मेरा पैर किसी चीज़ में उलझा और मैं गिर पड़ा. गिरने को तो मैं गिर गया, मगर मैंने वह देख लिया, जो किसी ने नहीं देखा था…

मेरा पैर एक ट्यूब में उलझ गया था. ट्यूब एक गैस के सिलिण्डर से जुड़ी थी, और उसका सिरा “उस चीज़” में प्रवेश कर रहा था…

वाह!

रबड का बड़ा खिलौना, हवा भर के लिटा दिया जाता है, जब हवा भरते हैं, तो उसमें कुछ हलचल होती है…

और हम सब बेवकूफ़ बन गए, उसे मरा हुआ पीड़ित इन्सान समझ बैठे.

”क्या आपसे किसी ने कहा था, कि ये कोई इन्सान है (था)?”

“हम तो नमूना पेश कर रहे थे, कि दिलजले का अंजाम क्या हो सकता है…”

ये भी सच है! किसी ने भी कुछ भी नहीं कहा था. सब अपनी-अपनी कल्पना से “उस चीज़” को एक पहचान, एक वजह देने की कोशिश कर रहे थे…

होता है ऐसा भी, कभी-कभी…

******

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आलोक मिश्रा की ग़ज़लें

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आज पढ़िए युवा शायर आलोक मिश्रा की कुछ ग़ज़लें- त्रिपुरारी

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1

तुम्हारे साये से उकता गया हूँ
मैं अपनी धूप वापस चाहता हूँ

कहो कुछ तो ज़ुबाँ से बात क्या है
मैं क्या फिर सेे अकेला हो गया हूँ

मगर ये सब मुझे कहना नहीं था
न जाने क्यों मैं ये सब कह रहा हूँ

सबब कुछ भी नहीं अफ़सुर्दगी का
मैं बस ख़ुश रहते रहते थक गया हूँ

गिला करता नहीं अब मौसमों से
मैं इन पेड़ों के जैसा हो गया हूँ

2

चलते हैं कि अब सब्र भी उतना नहीं रखते
इक और नये दुःख का ईरादा नहीं रखते

बस रेत सी उड़ती है अब उस राहगुज़र पर
जो पेड़ भी मिलते हैं वो साया नहीं रखते

किस तौर से आख़िर उन्हें तस्वीर करें हम
जो ख़्वाब अज़ल से कोई चेहरा नहीं रखते …

इक बार बिछड़ जाएँ तो ढूंढें न मिलेंगे
हम रह में कहीं नक़्श ए क़फ़े पा नहीं रखते

फिर सुल्ह भी तुम बिन तो कहाँ होनी थी ख़ुद से
सो रब्त भी अब ख़ुद से ज़ियादा नहीं रखते

उस मोड़ पे रूठे हो तुम ऐ दोस्त कि जिस पर
दुश्मन भी कोई रंज पुराना नहीं रखते

क्या सोच के ज़िंदा हैं तिरे दश्त में ये लोग
आँखों में जो इक ख़ाब का टुकड़ा नहीं रखते

3

लुत्फ़ आने लगा बिखरने में
एक ग़म को हज़ार करने में

बस ज़रा सा फिसल गए थे हम
इक बगूले पे पाँव धरने में

कितनी आँखों से भर गई आँखें
तेरे ख़ाबों से फिर गुज़रने में

मैंने सोचा मदद करोगे तुम
कमनसीबी के घाव भरने में

बुझते जाते हैं मेरे लोग यहाँ
रौशनी को बहाल करने में …

किस क़दर हाथ हो गए ज़ख़्मी
ख़ुदकुशी तेरे पर क़तरने में ….

4-

जुनूँ  का  रक़्स  भी  कब तक करूँगा
कहीं  मैं  भी  ठिकाने  जा  लगूँगा

हुआ  जाता  है  तन  ये  बोझ  मुझ पर
मगर  ये  दुःख  भी  अब  किस से कहूँगा

भुला  दूँ  क्यूँ  न  मैं  उस  चुप को आख़िर
ज़रा  से  ज़ख़्म  को  कितना करूँगा

ख़ुदा  के  रंग  भी  सब  खुल गए हैं
गुनह  अपने  भी  मैं  क्यूँकर गिनूँगा

तिरी  ख़ामोशियों  की  धूप  में  भी
तिरी  आवाज़  में  भीगा  रहूँगा

अभी  बेबात  कितना  हँस  रहा  हूँ
निकलकर  बज़्म  से  गिर्या करूँगा

नहीं  वादा  नहीं  होगा  कोई  अब..
बहुत  होगा  तो  बस  ज़िंदा  रहूँगा

5-

साँस लेते हुए डर लगता है
ज़ह्र -आलूद धुआँ फैला है

किसने सहरा में मिरी आँखों के
एक दरिया को रवाँ रक्खा है

कोई आवाज़ न जुंबिश कोई
मेरा होना भी कोई होना है

इतना गहरा है अँधेरा मुझमें
पाँव रखते हुए डर लगता है

ज़ख़्म धोये हैं यहाँ पर किसने
सारे दरिया में लहू फैला है

बात कुछ भी न करूँगा अबके
रु -ब -रु उसके फ़क़त रोना है

शख़्स हँसता है जो आईने में
याद पड़ता है कहीं देखा है

चाट जाए न मुझे दीमक सा
ग़म जो सीने से मिरे लिपटा है

जाने क्या खोना है अब भी मुझको
फिर से क्यों जी को वही खद्शा है

आलोक मिश्रा”
Contact -9711744221

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मेरी हिम्मत देखना मेरी तबीयत देखना

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अग्रज और बाज़ौक शायर पवनजी ने जब ‘पालतू बोहेमियन’ पर मुझे रुक्के में लिखकर भेजा और इस ताक़ीद के साथ लिखकर भेजा कि ग़ालिब का एक मिसरा तुमने बहर से बाहर लिख दिया है और कमबख़्त उसी को शीर्षक भी बना दिया। उनकी यह शायराना टिप्पणी सबसे अलग थी लेकिन जानकी पुल पर लगाते हुए संकोच होता रहा। बहुत दिनों के संकोच के बाद आज लगा रहा हूँ- प्रभात रंजन

=======

जो सुलझ जाती है गुत्थी फिर से उलझाता हूँ मैं

‘पालतू बोहेमियन प्रभात रंजन की ‘हिम्मत और तबीयत’ की रचनात्मक अभिव्यक्ति है, क्योंकि ‘हिम्मत और तबीयत’ के बिना इतनी बेबाक़ और पठनीय पुस्तक लिखना सम्भव ही नहीं है. ‘पालतू बोहेमियन’ में गुरु और शिष्य के जीवन की न जाने कितनी गुत्थियाँ हैं जो सुलझती भी हैं और उलझती भी हैं.

‘जीवन में संयोग भी होते हैं’

पैदा कहाँ हैं ऐसे लोग परागन्द: तबअ लोग

अफ़सोस तुमको मीर से सोहबत नहीं रही

      मनोहर श्याम जोशी अपनी तबियत और व्यवहार में परागन्द: तबअ (खिन्न मन) बिल्कुल नहीं थे. हालाँकि मीर ने ख़ुद को परागन्द: तबअ कहा है और अफ़सोस उन लोगों पर जिन्हें मीर से सोहबत नहीं रही. लेकिन मीर साहब के शेर का अस्ल लुत्फ़ ‘परागन्द: तबअ’ में नहीं, ‘मीर से सोहबत’ में है, और कहना न होगा कि प्रभात को ‘जोशीजी’ से सोहबत रही और ख़ूब रही. प्रभात ने इस सोहबत से जहाँ अपने गुरु की ऊर्जा को पहचाना, उनसे सीखा, वहीं ख़ुद की भी नए सिरे से खोज की. क्या करना है, क्या छोड़ना है का विवेक हासिल किया और उस रास्ते को चुना जहाँ शोध विश्वविद्यालय के घुन भरे यथास्थितिवादी माहौल से निकलकर ‘जीवन की राहों’ पर चल निकलता है और ‘गोर्की’ के शब्दों में सारी दुनिया का ज्ञान पाने के लिए ‘मेरे विश्वविद्यालय’ बन जाता है. इस लिहाज़ से ‘पालतू बोहेमियन’ लेखक बनने की प्रक्रिया और उसके लिए की जाने वाली तैयारी का अद्भुत दस्तावेज़ है.

‘पालतू बोहेमियन’ पढ़ते हुए ‘यादगारे ग़ालिब’, ‘दूसरी परम्परा की खोज’ और ‘व्योमकेश दरवेश’ की बारहा याद आती रही, ये पुस्तकें भी अपने गुरुओं या उस्तादों के जीवन, उनके संघर्षों और साहित्यिक अवदान को हमारे सामने लाती हैं और अब प्रभात रंजन की यह पुस्तक भी इस फ़ेहरिस्त का हिस्सा बन गई है.

                  हो के ‘आशिक़’ वह परीरूख और नाज़ुक बन गया

                  रंग खुलता जाए है, जितना कि उड़ता जाए है

मिर्ज़ा ने भले ही शेर ‘आशिक़’ के मिज़ाज को प्रकट करने के लिए कहा हो लेकिन नाज़ुक बन गया निश्चित ही आशिक़ की संवेदनशीलता को अभिव्यक्ति देता है. और कहा जा सकता है कि संवेदनशीलता के अभाव में न प्रेम सम्भव है और न ही अच्छा शिष्य हो पाना. हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया और हज़रत अमीर खुसरो, मिर्ज़ा ग़ालिब और हाली, पं. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी और नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी इसी संवेदनशीलता के संबंधों की कही-अनकही मिसालें हैं. पुस्तक के आरम्भ में प्रभात का रंग जोशीजी से मिलने पर उड़ता हुआ दिखता है, लेकिन धीरे-धीरे यह रंग खुलता है और अब यह रंग ख़ूब खुल और खिल रहा है. मिर्ज़ा के ही शेर में इसे यूँ भी समझा जा सकता है.

                  मत पूछ के क्या हाल है मेरा तेरे पीछे

                  तू देख के क्या रंग है तेरा मेरे आगे

गुरु शिष्य परम्परा को यदि सही से समझने का प्रयास किया जाए तो उसके रंग साहित्य या अन्य पारम्परिक विधाओं में उतने देखने को नहीं मिलते जितने भारतीय शास्त्रीय संगीत और नृत्य में मिलते हैं! पंडित भीमसेन जोशी की मेहनत मशक़्क़त दिन-रात गुरु की ड्योढ़ी पर माथा रगड़ने से शुरू होकर उनकी सेवा टहल करते हुए व्यतीत होते थे, तब कहीं जाकर उन्हें गुरु के ज्ञान से कुछ हासिल हो पाया था और रियाज़ का कड़ा अनुशासन , ज़रा सी भी ग़लती होने पर फिर ककहरे से शुरू, कोई रियायत नहीं, गुरु का ताप ऐसा ही होता है—गुरु का साया तक उससे यानी ख़ुद से धुएँ की तरह भाग जाता है तो फिर शिष्य की क्या बिसात-

                  साया मेरा मुझसे मिस्ल-ए- दूद भागे है, असूद

                  पास मुझ आतशबजाँ के किससे ठहरा जाए है

प्रभात ने अपने आतशबजाँ (जिसके दिल में आग लगी हो) गुरु के ज्ञान के ताप को महसूस किया है उसमें तपे हैं. शिष्य की पहली कहानी पर गुरु के विचार, मध्यवर्गीय संस्कारों से मुक्त होने की सलाह और समय-समय पर शिष्य के मन में पैदा होते संदेह ‘कि कहीं मेरा इस्तेमाल तो नहीं हो रहा.’ ये ऐसी धारणाएँ परिणाम मिस्ल-ए-दूद धुएँ की तरह उड़ जाने में भी हो सकता था लेकिन प्रभात भागे नहीं, जिसका नतीजा आज पालतू बोहेमियन के रूप में सामने है.

प्रभात के व्यवहार में एक ख़ास क़िस्म की शालीनता है जो आद्यांत पुस्तक में गुरु के प्रति श्रद्धा भाव में रूपांतरित होती जाती है. प्रभात सोचते हैं, संदेह करते हैं, कुछ कहते भी हैं तो दबे स्वर में या इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि वे जोशी जी की किसी दुखती रग पर हाथ रख देने की गुस्ताखी नहीं कर पाते. यह गुस्ताखी ‘हाली’ यानि मौलाना अल्ताफ़ हुसैन ‘हाली’ से हुई थी, जिसका जवाब मिर्ज़ा ग़ालिब ए जिस पीड़ा के साथ बयान किया उसने ‘यादगार ग़ालिब’ को कालजयी रचना बना दिया, क़िस्सा मुख़्तसर यूँ है कि

‘एक रोज़ मिर्ज़ा ग़ालिब की महानता, उस्तादी और वृद्धावस्था के अदब और सम्मान को ताक पर रखकर नीरस धर्मोपदेशकों की तरह उनको नसीहत करनी शुरू की, वे पाँच वक्तों की नमाज़ पाबंदी के साथ पढ़ा करें. मिर्ज़ा को यह अभियान नागवार लगा. मिर्ज़ा ने मेरे बकवास क़िस्म के भाषण को देखकर जो कुछ फ़रमाया, वह सुनने लायक है. उन्होंने कहा:

सारी उम्र खुदा की नाफ़रमानी और बदकारियों में गुज़री. न कभी नमाज़ पढ़ी न रोज़ रखा, न कोई नेक काम किया. ज़िंदगी की चंद सांसें बाक़ी रह गयी हैं. अब अगर चंद रोज़ बैठकर या इशारों से नमाज़ पढ़ी तो इससे सारी उम्र के गुनाहों की तलाफ़ी (प्रायश्चित) क्योंकर हो सकेगी? मैं तो इस क़ाबिल हूँ कि जब मरूँ, मेरे अज़ीज़ और दोस्त मेरा मुँह कल करें और मेरे पाँव में रस्सी बाँध कर शहर के तमाम गली-कूचों और बाज़ारों में रूस्वा करें और फिर शहर से बाहर ले जाकर कुत्तों और चीलों और कौवों के खाने को (अगर वे ऐसी चीज़ खाना गवारा करें) छोड़ आये. हालाँकि मेरे गुनाह ऐसे हैं कि मेरे साथ इससे भी बदतर सलूक किया जाए.’

काश ‘पालतू बोहेमियन’ में भी ऐसा कोई प्रसंग होता, जहाँ जोशीजी भी मिर्ज़ा की तरह अपने भीतर कहीं गहरे दबे हुए दर्द को फ़रमा पाते. ख़ैर जो नहीं है उसका ग़म क्या?

हाँ एक प्रसंग ऐसा है जहाँ प्रभात ख़ुद से ‘किसी बात से दुखी चल रहा था’ की बात तो बताते हैं लेकिन कारण सामने नहीं आ पाता, लेकिन इस प्रसंग का अंत ख़ासा दुखद है —

‘मैं उन दिनों किसी बात से उनसे दुखी चल रहा था और कई महीने से उनके घर नहीं गया था. जिस दिन पार्टी थी, उस दिन उनका फ़ोन आया कि शाम में आ जाना.

मैंने कहा कि शायद आप भूल गए हैं कि अब मैं शाम में कॉलेज में पढ़ाने लगा हूँ इसलिए नहीं आ सकता…

देर शाम जोशी जी का फ़ोन फिर आया अब भी आ जाओ. मैंने कहा कि मैं एक -दो दिन में आता हूँ. इस पर वह बोले, एक दो दिन में आकर क्या करोगे?

तब मैं इस बात को समझ नहीं पाया, उस पार्टी के हफ़्ते भर बाद ही पता चला कि वह अस्पताल में भर्ती हो गए हैं—साँस की तकलीफ़ के कारण. अस्पताल जाने न जाने को लेकर मैं कुछ सोचता कि वह सुबह आ गई.

मैं सोया हुआ था कि पुण्य प्रसून वाजपेयी का फ़ोन आया. मैंने नींद में ही फ़ोन उठाया तो उधर से आवाज़ आई, ‘तैयार होकर साकेत निकल जाइए. जोशी जी नहीं रहे.’

इस प्रसंग पर कुछ कहना बेमानी है, जो कहना है वह जिगर अपने इस शेर में बख़ूबी कह गए हैं—

मिरी सिम्त से उसे ऐ सबा ये पायाम-ए- आख़िर-ए-ग़म सुना

अभी देखना हो तो देख जा कि खिजाँ है अपनी बाहर पर

क्या जोशी जी  भी अपने शिष्य को ‘प्याम-ए-आख़िरए-ग़म’ सुनाना चाहते थे?

शायद मैं नित नया कोई मोती निकाल दूँ

तौफीम दे जो डूबने की नारकदा मुझे.

अभी हाल ही में प्रभात ने अपनी एक फ़ेसबुक पोस्ट में जोशी जी के हवाले से एक घटना का ज़िक्र किया है जिसमें यह रोचक प्रश्न  किया गया है कि जब रचनाकार की कोई पुस्तक पाठकों में लोकप्रिय हो जाए तो क्या करना चाहिए? जोशी जी का ‘वन लाइनर’ जवाब है कि उसे एक और किताब लिखनी चाहिए. जोशी जी का जवाब दुरुस्त है और प्रभात दुरुस्त ही नहीं चुस्त भी हैं उन्हें तौफीक हो चुकी है अब नित नए मोती निकालने बाघी हैं और हो भी क्यों ना? उत्तर आधुनिक लेखक गुरु और उत्तर आधुनिक शोध निदेशक की सोहबत में निश्चित ही उन्हें अनेकों तजुर्बात और हवादिस हुए होंगे— साहिर के शब्दों में सिर्फ़ लौटाना बाक़ी है — दुनिया ने तजुर्बात-ओ-हवादिस की शक्ल में

जो कुछ दिया है मुझको वो लौटा रहा हूँ मैं

और अंत में, सिर्फ़ इतना कि मिर्ज़ा ग़ालिब को तो उम्र ये बात सलती रही कि ‘हक़ अदा न हुआ’ लेकिन प्रभात की बाबत यह तो निर्विवाद रूप से कहा ही जा सकता है कि ‘तुमने हक़ अदा किया और ख़ूब अदा किया.’

अब आगे-आगे देखिए होता है क्या—

पवन

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पीढ़ियों से लोकमन के लिए सावन यूं ही मनभावन नहीं रहा है सावन  

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प्रसिद्ध लोक गायिका चंदन तिवारी केवल गायिका ही नहीं हैं बल्कि गीत संगीत की लोक परम्परा की गहरी जानकार भी हैं, विचार के स्तर पर मज़बूती से अपनी बातों को रखती हैं। कल से सावन शुरू हो रहा है, सावन में गाए जाने वाले गीतों की परम्परा को लेकर उनका यह लेख पढ़िए- मॉडरेटर

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सृष्टि,स्त्री और प्रकृति का महीना सावन आ गया है. इसे गीत—संगीत का महीना भी कहते हैं. एक समय में हिंदी सिनेमा जगत भी इस सावन के प्रेम में फंसता था तो बॉलीवुड में भी सावन पर एक से एक गीत बने. हाल के वर्षों में हिंदी सिनेमा संगीत में सावन हाशिये पर चला गया है. लेकिन उससे गीत—संगीत की दुनिया में सावन की समृद्धि पर कोई असर नहीं पड़ा है. लोकगीतों की दुनिया में सावन पीढ़ियों से प्यारा था, अब भी उसी तरह से है. लोकगीतों की दुनिया से गुजर कर देखें तो हिंदी महीनो में सावन छोड़ कोई एक महीना ऐसा नहीं, जिसमें इतने तरीके के गीत गाये जाने का चलन रहा हो. गुणीजन—ज्ञानीजन कहते हैं कि भले ही बसंत को ऋतुओं का राजा कहते हों लेकिन मौसम की रानी तो सावन ही है. सावन के मेघ पर ही बसंत के उल्लास और रंग का भविष्य टिका होता है.
अब इस एक सावन महीने में गीतों की विविधता को देखें. सावन के आने से पहले से ही भूमिका बंधनी शुरू हो जाती है. सावन से पहले आषाढ़ में आषाढ़ी गीत गाने का चलन है. बादल—मेघ को बुलाने के लिए, आ जाने पर स्वागत करने के लिए गीत गाये जाते हैं. बादल आ जाते हैं तो खेती का मौसम शुरू हो जाता है. फिर खेती का मौसम आता है तो खेती गीत गाते हैं. रोपा—रोपनी का गीत. सावन को शिव का महीना कहा गया है तो सावन शुरू होते ही शिव का गीत. लेकिन शिव का सावन आखिरी पांच दिनों में राधा और कृष्ण के रंग मे रंग जाता है. महीने भर गीतों के संग झूला झूलने के बाद यह उत्सव में बदल जाता है. राधाकृष्ण के झूलनोत्सव में. और फिर आखिरी दिन तो यह सावन भाई बहन के प्रेम का पर्व या उत्सव बन जाता है. रक्षाबंधन नाम से. प्रेम का गीत भाई बहन के प्रेम गीत में ढल जाता है. और फिर जब सावन खत्म हो जाता है तो भादो आता है. कृष्ण का जन्म. जन्माष्टमी. सोहर गीतों की गूंज. सावन अपने आगे पीछे गीतों को लेकर चलता है. लेकिन इन सबके बीच सावन आने से पहले सावन के जाने के बाद तक जिसकी खुमारी रहती है वह है कजरी. कजरी और सावन एक दूसरे के पर्याय हैं. और जब कजरी की बात चलती है तो सबसे पहले नाम मिर्ज़ापुर का ही आता है. मान्यता है कि कजरी की विधा वहीं से निकली है, जिसे दुनिया में फैलाया बनारस ने. कई कहानियां है कजरी के पीछे. कोई इसे कजली देवी से जोड़ता है, जिनका मंदिर है उस इलाके में तो कोई कजली नामक नायिका से, जिसने प्रेम की तड़प के साथ अपने दुख और विरह को स्वर देना शुरू किया तो कजली गायन की विधा जन्मी, जो बाद में कजरी के नाम से जाना गया. खैर, कजरी की मिथकीय कहानियां ढेरों हैं. मिथकीय कहानियां तो एक तरफ हकीकत यह है कि कजरी की परंपरा गजब की रही है. कजरी की महफिलें सजती थीं. कजरी की बैठकी होती थी. कजरी में सवाल जवाब चलता था. कजरीबाजी होती थी. हिंदी के पितामह भारतेंदु हरिश्चंद्र इसके दिवाने थे. वे प्रेमधन की हवेली पर पहुंचते थे. प्रेमधन कजरी के रचवैया, रसिया और संरक्षक तीनों थे. कल्लू मास्टर जैसे कजरीबाज हुए. दिलदार खान से लेकर जगेसर जैसे कजरीबाजों की तूती बोलती थी. कई—कई रातें कजरी का अखाड़ा लगता. कजरीबाजी के इस अखाड़े में स्त्री और पुरूष, दोनों भाग लेते. सवाल—जवाब चलता. मूल रूप से यह कजरी तो प्रेम और विरह का ही भाव लिये हुए रहता लेकिन कजरीबाजों ने कजरी को कई रंगों में ढाला. देश की आजादी की लड़ाई के समय में यह सुदेसी रंग में ढला, किसानी के रंग में ढला. इस कजरी गीत में गांधी भी खूब आये. उनका चरखा, तकली,खादी भी आया. मिथक की दुनिया से निकलकर कजरी की हकीकत की दुनिया में आयें तो कजरी गीतों की तरह ही कजरी के किस्से, कजरी की कहानियां रस घोलती हैं. कजरी गायन को मिर्ज़ापुर और बनारस के कजरीबाजों ने आगे बढ़ाया. कजरी ने, दोनों शहरों और इलाकों को एक सूत्र में जोड़ा. और जब हम कजरीबाजी या कजरीबाजों की बात करते हैं तो महिलाओं के तरफ से एक नाम प्रमुखता से उभरकर आता है. वह नाम है सुंदर वेश्या का. कजरी की रानी कह सकते हैं उन्हें. हम सब कम जानते हैं उनके बारे में लेकिन एक जमाने में बरसाती चांद नाम से लिखित उनकी किताब बहुत मशहूर थी कलाकारों के बीच. उन्हें खुद ही बरसाती चांद कहा जाता था. सुंदर वेश्या की ही मूल रचना है मिरजापुर कईलअ गुलजार हो… जो आज दुनिया में मशहूर है और कजरीगीतों का पर्याय भी. सुंदर एक सुशील लड़की थी, जिसका अपहरण तब के मिसिर नामक गुंडे ने कर लिया था और उनका नाम सुंदर वेश्या कर दिया था. सुंदर को लेकर मिसिर कजरी के अखाड़े में जाता था. वह बड़े से बड़े कवियों से कजरी के अखाड़े में टकराती थी. लेकिन मिसिर अंग्रेजों का दलाल था और सुंदर को यह बात अखरती थी. वह सुंदर पर जुल्म भी ढाता था. बनारस के एक बड़े कजरीबाज और पहलवान नागर थे. नागर पहलवान कहते थे सब उनको. मतलब यह कि वह काशी के प्रमुख पहलवान थे. एक बार मिसिर गुंडा सुंदर को लेकर नागर के अखाड़े पर गया. नागर पहलवान अंग्रेजों के विरोधी थे. देशभक्त थे. मौका मिलते ही सुंदर ने मिसिर के जुल्म की कहानी बतायी. मिसिर और नागर में लड़ाई हुई. मिसिर मारा गया. सुंदर को नागर ने बहन माना. मिसिर की हत्या के जुल्म में नागर को कालापानी की सजा हुई. और उसके बाद सुंदर ने अपने भाई के बिरह के गीत रचने शुरू किये. इस तरह से देखें ने सुंदर ने अपने समय में प्रेम, बिरह, आजादी और भाई बहन के प्रेम, सभी तरीके के गीतों को रचा और लोगों को सुनाया. सुंदर के गीत तो लोकमानस में सदा—सदा रचा—बसा रहा लेकिन दुनिया में मशहूर करने का काम उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब ने किया, जब उन्होंने उनके कजरी गीतों पर शहनाई का रंग चढ़ाकर दुनिया में फैलाना शुरू किया. सुंदर के गीत दुनिया में फैल गये लेकिन हम सुंदर को नहीं जानते. उनकी कजरी दुनिया सुनती है लेकिन कजरी की उस पटरानी को हम नहीं जानते. लोकविधा में यह चुनौती भी रही है. हम मूल रचनाकार को गौण कर देते हैं. कितना सुंदर होता कि इस सावन हम सुंदर को, और कजरीबाजों को अच्छे से याद करते. इन दिनों हिंदी और भोजपुरी के बीच भी विवाद होते रहता है. कितना सुंदर होता कि कजरी गाते हुए हम भारतेंदु हरिश्चंद्र को याद करते, सबको बताते कि कजरी सिर्फ गीत या गायन नहीं, एक मुकम्मल चीज है. सावन सिर्फ एक महीना नहीं, यह तो सालों भर हमारे वजूद और अस्तित्व को बचाये—बनाये रखनेवाला महीना है. इसीलिए लोक जगह सदा से सावन का स्वागत विशेष रूप में करते रहा है.

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भगवंत अनमोल के उपन्यास ‘बाली उमर’का एक अंश

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‘ज़िंदगी 50-50’ जैसे चर्चित उपन्यास के लेखक भगवंत अनमोल का अगला उपन्यास ‘बाली उमर’ राजपाल एंड संज से इस महीने के आख़िर में आने वाला है। फ़िलहाल उसका एक छोटा सा अंश पढ़िए और ‘बाली उमर’ को महसूस कीजिए- मॉडरेटर

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भगवंत अनमोल बेस्टसेलिंग युवा लेखक हैं . वह उन चुनिन्दा युवा लेखको में  है, जिन्हें हर वर्ग के पाठकों ने हाथोहाथ लिया है. लेखक  उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के बालकृष्ण शर्मा नवीन पुरस्कार-2017 से भी सम्मानित हो चुके है. आपकी पुस्तक ‘ज़िन्दगी 50-50’ पर कई विद्यार्थी शोध कर रहे हैं.

पोस्टमैन:- (बंटी)

आइये, सबसे पहले आपको मिलवाता हूँ पोस्टमैन से. राजा महाराजाओं के जमाने में प्रेमी-प्रेमिका का ख़त पहुंचाने का काम पक्षी किया करते थे. उन पक्षियों में भी कबूतर को इस काम का विशेषज्ञ माना जाता था.  लेकिन मनुष्यों का प्रकृति पर हस्तक्षेप बढ़ता जा  रहा है. जिसका परिणाम यह हुआ कि कपूर के जन्म लेते ही यह जगह भी पक्षियों से मनुष्यों ने हथिया ली थी. अब कबूतर बेरोजगार रहने लगे थे. उनका काम बस मनुष्यों के सर पर एवं कपड़ो पर मल-मूत्र त्यागना भर हो गया था. शायद यह उनके विरोध करने का एक तरीका था. अब लव लैटर पहुचाने का काम  मोहल्ले के छोटे बच्चो को मिल गया था. खुदा ने भी दुनिया बनाते हुए किसी के साथ भेदभाव नहीं किया है. उसने हर जगह पर समान तरह के लोग और बराबर अवसर उपलब्ध कराए है. हर मोहल्ले में एक बच्चा जरुर ऐसा होता था, जो बचपन से ही पोस्टमैन के काम को बखूबी संभालता था. किसी को सिखाना नही पड़ता था, मानो उसे ईश्वर ने सिखा कर ही भेजा हो, जैसे गॉड-गिफ्टेड हो. वह बच्चा मोहल्ले में जवानी की दहलीज पर कदम रखते प्रेमी प्रेमिकाओं को एक दूसरे की चिट्ठियाँ पहुचाने का काम करने लगता. बंटी भी तो आजकल पोस्टमैन का ही काम किया करता था. वह कपूर और इति के ख़त एक दूसरे तक पहुंचाता. उसके साथी उसे पोस्टमैन कहा करते थे, पर वह इस बात से कतई इत्तेफाक नहीं रखता था. वह अपने इस कार्य को समाज सेवा का नाम देता. बंटी का मानना था कि अगर दो प्रेमियों की भावनाओं को वह एक दूसरे तक पहुंचा देता है तो यह समाज सेवा ही तो है. उसका समाज सेवा मानने के पीछे दूसरी बहुत बड़ी वजह भी थी. हुआ कुछ यूं, एक बार कपूर ने एक पत्र उसे थमाया था. बंटी बहुत पाजी* किस्म के थे. उन्होंने रास्ते में उस ख़त को पढ़ लिया था, उसमे लिखा हुआ था कि अगर मयूरी ने फलां बात नहीं मानी तो वह ट्रैक्टर के नीचे दबकर जान दे देगा. पर बंटी रहे बड़े होशियार, पढ़ते कक्षा तीन में ही थे लेकिन बुद्धि बहुत पा गए थे. वैसे भी यह बात पूरी तरह ठीक बैठती थी कि गाँव में समय से पहले सारा ज्ञान उस पोस्टमैन लड़के को ही मिलता है. सच कहते है ज्ञान कागज़ से ही मिलता है, भले ही वह पुस्तकों के माध्यम से प्राप्त हो  या लव लैटर के माध्यम में. यह समय से पहले बच्चो को  बड़ा बना देता है.

उसके  मन में तुरंत ख्याल आया, भला कोई ट्रैक्टर के नीचे भी दबकर जान देता है? उसने अभी तक तो यही सुना और देखा था कि लोग ट्रेन, ट्रक तथा बस के नीचे दबकर हाथ पैर तुड़वाते है पर आज उसने पहली बार ट्रैक्टर के नीचे दबकर जान देने की बात सुनी थी. इससे पहले कि यह बात उसके मन  में अधिक हावी होती, उसका मन दूसरी तरफ चला गया- बात यहाँ प्रैक्टिलिटी में जाने की नहीं है, बल्कि भावनाओं को समझने की है.  प्रेम में ऐसा ही होता है व्यक्ति खतो में ही चुम्बन देकर उसे महसूस कर लेता है, यहाँ तक जो भोजन खाया जाता है, वह भी ख़त के माध्यम से भेज दिया जाता है और सामने वाला उसका स्वाद ले लेता है. फिर? मतलब यह कि ट्रैक्टर के नीचे भी दबकर जान दी जा सकती है. अब पोस्टमैन साहब ने मान लिया था कि कपूर ट्रैक्टर के नीचे दबकर जान दे सकता है. इसलिए उन्होंने एक तरकीब निकाली.  जैसा कि आप सभी जानते है पोस्टमैन रहे बहुत होशियार, इति के पास कान में जाकर बोले- “ अगर कपूर की बात न मानी तो तुरंते जाके पूरे गाँव मा तुम्हारी पोल खोल देबे. पहिली बात तुम्हारे बाबू की कौनो इज्ज़त है नहीं आए, फिर  भी जोन बची खुची है भी वहो मिटटी पलीद हुई जाई “

उधर कपूर से जाके बोल आए “अगर तुम्हरे पिछवाड़े में सच मा पोटास* है तो  ट्रैक्टर या साइकिल के नीचे दबे की कोशिश भर करके देख लियो, हम तुम्हरे बाप से बता देंगे. मरोगे तो है नहीं, इलाज करावे का बाबू पैसा भी न देहें और तुम्हरे ऊपर चली- दे गन्ना दे गन्ना!! मार एतनी पड़ी कि पोट लाल हुई जैहैं और कहूं बैठे से पहिला दस बार सोचिहौ. “

असल में यह एक तरह का ब्लैकमेल था, परन्तु उसने अपने इन हरकतों से होने वाली संभावित दुर्घटना को घटित होने से रोका था. ऐसा उसने एक दफा नहीं किया, बल्कि कई बार किया था. इसलिए वह अपने इस काम को समाज सेवा ही माना करता था. इस काम के बदले उसकी धाक जमती थी. उसके इस समाज सेवा के अनेक फायदे थे. जैसे- दूसरे मोहल्ले का कोई भी लड़का उससे झगड़ने की कोशिश नहीं करता था. वर्ना वह तुरंत कपूर को ले जाया करता था. दूसरा यह कि जेब खर्च के लिए बाबू से ज्यादा घिघियाने की जरुरत नहीं पड़ती थी. बाबू से मांगने के बजाय वह कपूर से जेब खर्च खींच लिया करता था. तीसरा और सबसे महत्त्वपूर्ण यह कि वह दोस्तों के बीच अपने नए नवेले उस ज्ञान की धमक जमाए रहता था जो उसे लव लैटर के माध्यम से प्राप्त होता था.

बंटी को यह नही पता था कि वह मोहल्ले का आखिरी बच्चा है जो पोस्टमैन बना. क्योंकि जब तक वह अपना काम अगली पीढ़ी के बच्चो के लिए हैण्ड ओवर करेगा तब तक मोबाइल फोन ने पोस्टमैन की जगह ले लेगी और सभी बच्चे इस परम पुनीत कार्य के सौभाग्य से वंचित रह जायेंगे.

उसके पिता सजीवन लाल किसान थे, उनके पास बहुत अधिक खेती नहीं थी पर दूसरे लोगों से बटाई या बल्कट में उठाकर कड़ी मशक्कत करके खेती से थोड़ा बहुत कमा लिया करते थे. जिसमे बंटी भी उनकी मदद किया करता था. इस वजह से वह कम उम्र में ही ताकतवर हो गया था. रंग सांवला था पर शरीर मजबूत. उसके बारे में यह प्रसिद्ध था कि पहलवानी में बंटी अपने से डेढ़ गुना बड़े छोरे को पटखनी दे सकता है. दूसरी तरफ बंटी को यह बात भली भांति पता थी कि उसका भविष्य किसानी में ही है और पोस्टमैनी या समाज सेवा उसके लिए ज्ञानवर्धक एवं फिलहाल एक टेम्पररी काम है. जब कभी समय मिलता था तो वह पास के सरकारी स्कूल भी चला जाया करता था. स्कूल वह उस दिन जाता था, जिस दिन घर में कोई अन्य काम नहीं होता था. जब से मिड डे मील की व्यवस्था हो गयी थी, तब से वह खासकर वह दिन चुनता जिस दिन मिड डे मील में अच्छा भोजन मिलने वाला होता था. कुल मिलाकर बात यह थी कि गाँव के अधिकतर बच्चों के लिए पढाई सेकंड्री विषय होता था.

*पाजी- शैतान, पोटास-ताकत           

खबरीलाल :- (पेट्टर)

उस गाँव में मुख्य रूप से दो  ही तरह के व्यापारी थे, पहले किराना वाले और दूसरे दुदहा!! दुदहा नहीं समझते? कृष्ण जी के जमाने में उन्हें ग्वाला कहा जाता था. अब वक्त बदल गया था, अब उन्हें गाँव में दुदहा कहा जाता है.  मतलब गाँव के कई लोगो से दूध खरीदकर उसे शहर में बेचने का काम यही लोग किया करते थे. पेट्टर के पिता जी भी दुदाही का काम किया करते थे. पर पेट्टर ने कभी उन्हें पिता जी या बाबू नहीं कहा. वह उन्हें चाचा कहा करता था, कारण यह था कि उसके बड़े बाबू का लड़का, जो उससे बड़ा था, उन्हें चाचा कहा करता था. देखादेखी वह भी चाचा कहने लगा. न किसी ने पेट्टर को समझाने की जरुरत समझी न सुधारने की.

हर मोहल्ले में एक पत्रकार भी हुआ करता था. जो हर घर की खबर रखता. जिसे वह अपने साथियों के साथ साझा किया करता था. चूंकि पेट्टर के चाचा दुदहा थे, तो गाँव भर में दूध दुहाने उनके चाचा जाया करते थे और पेट्टर का काम मोहल्ले के सभी घरों से दूध लाना होता. उसके बाद उसके चाचा सारा दूध लेकर शहर चले जाते.  प्रतिदिन मोहल्ले के अधिकतर घरों के चक्कर लगाने के कारण उसे मोहल्ले के हर घर की खबर रहती थी. वह अपने साथियों को ताजातरीन लुभावनी ख़बरें दिया करता था. इसलिए सभी दोस्त उसे खबरीलाल कहकर बुलाते. पोस्टमैन की भांति उसे पढाई की फिक्र तभी सताती थी, जब उसका दुदाही और ख़बरें प्राप्त करने का काम ख़त्म हो जाता था. वह भी पोस्टमैन के साथ सरकारी स्कूल में उसी की कक्षा में पढता था और वह भी ठीक उसी दिन स्कूल जाता, जिस दिन उसके पास कोई अन्य काम न होता था. खबरीलाल के आँख-कान बहुत तेज थे लेकिन आवाज़ बहुत भारी थी. चूँकि वह सारा दिन काम करता था इसलिए वह अपनी उम्र के बच्चों से अधिक मजबूत हो गया था लेकिन  धूप लगने के कारण सांवला भी हो गया था.

उस मोहल्ले के अधिकतर घर एक दूसरे से जुड़े हुए थे. ज्यादातर मकान कच्चे थे और कुछ पक्के. दो मंजिला मकान तो दूर दूर तक किसी का नहीं था. इसलिए छत छत होकर ही मोहल्ले के कई घर नापे जा सकते थे. किसके घर में क्या बन रहा है और आँगन में क्या चल रहा है, सब कुछ देखा जा सकता था.

हर घर की खबर रखने वाले खबरीलाल ने अभी हाल ही में अपने दोस्तों को एक बार फिर से ताज़ातरीन रंगीन खबर दी थी. किराने की दुकान वाले भोगिल के यहाँ टेलर की पत्नी काम करने के लिए आती है, उसको लेकर उसके पास एक सनसनीखेज खबर थी.

उसने अपने मित्रों से बताया “ जानते हो बे, कल हम छप्पर के नीचे से भोगिल के घर में झाँक के देखे थे. वह टेलर की दुलहिन सिर्फ उसका घर का काम नहीं करत आये. भोगिल के साथ काण्ड भी करती है.”

“काण्ड! कैसा काण्ड?” एक साथ सबके मुंह से निकल पड़ा. “ जैसे कुछ देर के लिए वीडियो  हैंग कर गया हो. पोस्टमैन के अलावा अन्य दोनों दोस्तों(आशिक और गदहा) का मुंह तो ऐसा खुला था जैसे कहना चाह रहे हो “ जल्दी बको बे. कैसा काण्ड? ‘

उन दोनों का चेहरा देखकर खबरीलाल हँस हँस के लोटपोट हुआ जा रहा था “ बताता हूँ, ऐसा काण्ड जिसे तुम लोग अपनी ज़िन्दगी में पहली बार देखोगे. “ रूककर उसने रहस्योद्घाटन किया “टेलर की दुलहिन का बिलकुल नंगी देखा है. बिना कपडन के “

सभी के मुंह जैसे खुले हे वैसे खुले के खुले रह गए, पोस्टमैन के मुंह से निकला “ हैं?”

गदहा और आशिक ने ऐसे मुंह बनाया जैसे किसी को नग्न देखना जघन्य अपराध हो “ चल बे, झूठ बोलत हो. कौनो देख लेई न, तो ऐस छटाई करी कि न हगत बनी न मूतत “

“ हाँ बे, हम काहे झूठ बोलेंगे? अगर हमरे ऊपर विश्वास न होए तो भरी दुपहरिया में जब इस नीम के पेड़ की छाया उस नाली को बस छूने वाली होगी तब हम इशारा करबे, वही वक्त है जब पूरा काण्ड होत है. फिर तुम लोग दबे पाँव हमरे पास आ जाओ, छप्पर के बिलका से सब नज़ारा देखना. व वकत सब कोई सोवत है तो कौनो कैसे देख लेई “ अपना सर हिलाते हुए, वह माहौल का रस लेकर बता रहा था “ फिर देखना टेलर की दुलहिन का लेगपीस “

पोस्टमैन के दिमाग की बत्ती एकदम से जल उठी, मतलब जिस बात को उसने सिर्फ प्रेम पत्रों में पढ़ा था कहीं ये वही बात तो नहीं. आज वह उस क्रिया को अपनी नग्न आँखों से देखने वाला था. उसका शरीर कांपने लगा था, रोंगटे खड़े हो गए थे. पोस्टमैन के लिए यह नयी चीज़ ही थी. बाकी दोनों दोस्तों(गदहा और आशिक) को तो पहली बार पता चला था कि इस दुनिया में स्त्री पुरुष कुछ  ऐसा भी कार्य करते है. उन्हें तो ऐसा लग रहा था जैसे स्त्री का जन्म सिर्फ घर का खाना बनाने और पुरुष का जन्म बाहर जाकर कमाने के लिए ही हुआ है. उन दोनों को प्रेम का मतलब सिर्फ यह पता था कि लड़की छत पर चढ़ जाती है और प्रेमी घर के सामने से गुजरता है या फिर प्रेमी पोस्टमैन के माध्यम से प्रेमिका के लिए ख़त भेजता है. उन्हें यह भी पता था कि प्रेम करते वक्त बच के प्रेम करना चाहिए वरना कुटाई होने के भी बहुत चांस होते है. इसके सिवाय उन्हें कुछ जानकारी नही थी. इससे अधिक का ज्ञान उन्हें आज प्राप्त हो रहा था. वे भी इस नए करतब को देखने के लिए उतावले थे. आखिर कोई भी नयी चीज़ हो, उत्सुकता तो पैदा करती ही है. लेकिन वहीं पर एक लड़का ऐसा भी था जो इस कृत्य को देखने का आदी हो चुका था. वह था -खबरीलाल. उसने पिछले दो दिन से इस क्रिया का नयन सुख उठाया था. उसके बाद उसने अपने दोस्तों को बताने के बारे में विचार किया. अब वह इस अति आनंदपूर्ण खेल का मजा अकेले नहीं बल्कि ग्रुप में लेना  चाहता था.

खैर, किसी तरह दोपहर का वह वक्त आया जब नीम के पेड़ की छाया नाली को छूने लगी. बच्चों का यह वक्त कैसे गुजरा होगा, इसकी बस आप कल्पना कर लीजिये. सभी बच्चों के घर के लोग सो गए थे. लकड़ी की सीढ़ी लगाकर सभी बच्चे आज अपनी ज़िन्दगी में पहली बार इस क्रिया को आँखों देखने के लिए दबे पाँव डरते हुए चले जा रहा थे. पोस्टमैन को लग रहा था अब आज के बाद वह बड़ा हो जायेगा, आखिर वह इस दृश्य का भी आनंद ले लेगा. छत पर खबरीलाल पहले से ही झाँक रहा था, कब क्रिया प्रारम्भ हो और कब वह दोस्तों को इशारे से अपने पास बुलाये. आखिर वह वक्त आ ही गया. खबरीलाल ने अपने तीनों दोस्तों को आने का इशारा किया. सभी छप्पर में बने छिद्रों से उस क्रिया को  देखने लगे.

टेलर की  दुलहिन जैसेजैसे भोगिल के पास जा रही थी, वैसेवैसे इन चारों की साँसें तेज हुई जा रही थी. टेलर की दुलहिन ठीक पैसेंजर ट्रेन की रफ़्तार से कपड़े उतार रही थी और ये लोग शताब्दी में सवार थे. पोस्टमैन ने तो थ्योरी पढ़ रखी थी, वह प्रैक्टिकल देखना चाहता था. मगर पत्र में पोस्टमैन को कभी इतना विस्तार से पढने को नही मिला था. वहीँ अन्य दोनों दोस्तों के लिए यह एक रहस्यमयी फिल्म जैसा था, जिसे वे लोग पहली बार देख रहे थे. उनके लिए हर एक स्टेप नया स्टेप था. जीवन का एक नया रहस्य पता चल रहा था. सुरंग का द्वार खुल गया था. दूसरी तरफ नीचे आँगन में विविधभारती रेडियो स्टेशन पर बैकग्राउंड म्यूजिक चल रहा था –तन से तन का मिलन हो न पाया तो क्या, मन से मन का मिलन कोई कम तो नही. पर इन दोनों कामप्रेमियों के विचार इस गाने से बिलकुल भिन्न थे, इन दोनों का मानना था कि मन से मन का मिलन हो न पाया तो क्या, तन से तन का मिलन कोई कम तो नही. खैर, जैसे ही पास जाकर टेलर की दुलहिन ने पल्लू उतारी, चारपाई पर बैठे भोगिल ने उसकी  साड़ी ऊपर उठा दी. इन चारो दोस्तों की उत्सुकता हर स्टेप के साथ चरम पर पहुचती जा रही थी. वे टेलर की दुलहिन की गोरी चिकनी मांसल लेगपीस के जैसे ही दर्शन पाए थे ठीक तभी पोस्टमैन के पिछवाड़े पर जोरदार छड़ी पड़ी, उतनी ही तेजी से उसकी निकली आवाज ”आये अम्मा! “ चाहे जेतना कुकर्म कर रहे हो पर जब मार पड़ती है तो अम्मा ही याद आती है. सुनते ही सब चौंक गए. छत वाले भी और छत वालों का अपनी क्रिया से मनोरंजन करवाने वाले भी. पीछे देखा तो सच में आशिक की अम्मा ही थी, जिसे बुलाना था  वह पहले से ही हाज़िर था “ अरे करमजलो, नासपीटों पढ़े लिखे की उमर मा ई रांडन की नौटंकी देखे में जुटे हो.” छत वालों पर छड़ी बरसने लगी. सब अपने-अपने पिछवाड़े बचाते यहाँ वहां भागने लगे. सभी आये तो अपने अपने घर से थे लेकिन भागते हुए जो सीढ़ी पहले मिली उसके घर से नीचे उतर गए. आशिक की अम्मा सबको मारती जा रही थी और बड़बड़ाती जा रही थी “या रांड टेलर का घर बर्बाद किहिस ही. अब एखा करे आई है. जादा जवानी भरभरान है. नंगनाच मचाए है.“

इस कारण नीचे जो क्रिया होने वाली थी उस पर विराम लग गया. उन्हें भी पता चल गया था कि उनकी काली करतूत पकड़ी जा चुकी है. गाँव में हो-हल्ला मच गया और उन चारों के पिछवाड़े लाल हो गये. टेलर की दुलहिन का रोजगार बंद हो गया. अब वह सिर्फ टेलर के घर में चौका बेलन करने लगी. इन चारों बच्चों ने एक बार फिर से एक रोजगारशुदा नारी को चौका बेलन करने पर मजबूर करा दिया था.

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 लेह, ले मेरा दिल

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रचना भोला यामिनी जानी मानी अनुवादिक हैं और ‘मन के मंजीरे’ जैसी किताब की लेखिका हैं जो अपनी तरह की अकेली किताब है हिंदी में जिसमें जीवन, दर्शन सब जैसे शब्दों की लड़ियों में पिरो दिए गए हों। यह उनका यात्रा संस्मरण है जो लेह पर है- मॉडरेटर

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यात्रा अचंभित कर देने वाले क्षणों से भर देती है आत्मा की झोली …जाओ…कहीं दूर घूम आओ, मिल आओ, खु़द से घड़ी भर के लिए.. जी लो कुछ साँसें… कि ज़िन्दगी है छोटी और दुनिया का छोर नहीं!

दिन-रात काम की गहरी व्यस्तताओं के बीच, अपने कमरे बैठे-बैठे खु़द को लगातार प्रेरित करने और यात्रा की योजना तैयार करके निकलने में अंतर है। केवल सोचने की फैंटेसी और वास्तविकता में कहीं पहुँचने और घूमने के बीच की गहरी खाई सुविधाओं-असुविधाओं के पत्थरों से पाटनी पड़ती है। इस खाई को भरने के लिए मुद्रा रूपी चट्टानें गिराई जाती हैं, जिन्हें आप समझने के लिहाज़ से करेंसी भी कह सकते हैं। ऐसा लगता है कि ये चट्टानें जितनी ज़्यादा होंगी, खाई पार करना उतना सरल होता जाएगा परंतु यह सच नहीं है।

 विमान यात्रा ने कुछ ही घंटों में लेह पहुँचा दिया और आकाश से, श्रीनगर से लेह के दौरान दिखते दृश्यों से मन-प्राण भी जुड़ा गए पर इस यात्रा ने यह सुख देने के साथ-साथ सारी कसर भी निकाल ली। हाई आल्टीट्यूड सिकनेस की वजह से यह बयालीस किलो की लड़की, कुछ ही समय में ढह गई। लेह की सैर शुरू भी नहीं हुई थी कि उसी दिन गंभीर सनबर्न हुआ और उसकी मार से सांवला रंग और भी स्याह हो गया। पिछली बार लेह आई थी तो हम मनाली-लेह सड़क मार्ग से आए थे। रास्ते में, रात को केलांग में रुकने से इतनी परेशानी नहीं हुई थी। लेह पहुँचने तक शरीर कम ऑक्सीज़न में साँस लेने का अभ्यस्त हो गया था।

मानुष का स्वभाव ठहरा, एकबारगी तो मन हारना ही था। सजने-सँवरने को इतनी पोशाकें और टूम-छल्ले बैग में भर लाई थी और किसे पता था कि जाते ही बिस्तर से लग जाऊँगी। संजय जी और बेटे का चेहरा उतर गया। अक्सर हम औरतों के पास एक अतींद्रिय शक्ति पाई जाती है जो ज़रूरत पड़ने पर स्वयं ही आगे आ जाती है। कुछ घंटों के आराम, गर्म कॉफ़ी और टोमैटो सूप के बाद, मैं उन दोनों के साथ चलने को तैयार थी। एक्लाइमेटाइजे़शन की प्रक्रिया अपनी गति से जारी थी। हालांकि कमजोरी की वजह से चेहरा बुरी तरह से मुरझा गया था। अब आप डेढ सौ ग्राम भर के चेहरे को भी कुम्हलाने का मौका दे दें तो खु़द ही अंदाज़ लगाया जा सकता है कि पीछे चुहिया का चेहरा बचा होगा या फिर चींटी का!!

मुझसे न पूछें कि चली कितने कोस, कितने मोड़, कितने पहाड़, कितना पैदल, कितनी गाड़ियों में हुई सवार! दिन, महीने, घंटे, अब कौन रखे हिसाब उन बातों का जिनका बेहिसाब होते जाना ही बेहतर है। हिसाब रखती अँगुलियों के पोर अक्सर घिस जाते हैं और उन्हीं घिसे हुए पोरों से समय की रेत सरसराती हुई निकल जाया करती है। इन्हीं रेत के कणों के साथ बह जाते हैं यादों के छोटे-छोटे झिलमिलाते कण, जिनके सहारे रोशन होते हैं हमारी ज़िन्दगी के अंधेरे। कुछ बेहिसाबियाँ ज़िन्दगी का हिसाब बिठाने में मदद करती हैं क्योंकि यादें किसी हिसाब की मोहताज़ नहीं।

कौन रखे हिसाब कि मैं कम ऑक्सीज़न की मार झेलते फेफड़ों के संग, थिकसे मठ की कितनी सीढ़ियाँ हाँफते-हाँफते चढ़ी और क्यों मैंने कार से मठ के प्रवेश द्वार तक जाने से इंकार कर दिया। क्यों याद रखा जाए कि कितने पहाड़ी पठारों से चढ़ते-उतरते हाथों-पैरों में उभरी खरोंचें, जाने कितने मठों के निर्जन एकांत में बने कक्षों में पीले और सफ़ेद रंगों के वस्त्रों में बँधी प्राचीन पांडुलिपियों में छिपे तिब्बती मंत्रों ने बड़ी ललक से बाँहें पसारे मेरी आत्मा को छुआ होगा।

बड़े चाव से गहरे हरे रंग की सूती साड़ी और संतरी रंग का क्रॉप टॉप पहनने को रखे थे और मैं खु़द आईने में अपना चेहरा नहीं पहचान पा रही थी। संजय जी से कलात्मक तस्वीरें उतरवाने की सारी साधें अधूरी लगती जान पड़ रही थीं। तैयार तो हुई पर मन मरा-मरा सा था। साड़ी के रंग से मेल खाता चेहरा लिए उस ख़ूबसरत गोम्पा की छत तक पहुँची तो मन का मलाल जैसे चुटकियों में दूर हो गया।

तिब्बती शैली में बने बौद्ध मठ के भवन गोम्पा कहलाते हैं। इन्हें तिब्बती भाषा में ‘दगोन पा’कहते हैं यानी ‘एकांत स्थान। इन्हें प्रायः किसी ऊँचे पहाड़ या चट्टान पर बनाया जाता है। ज्यामितीय धार्मिक मंडल के आधार पर बने गोम्पा के केंद्र में बुद्ध की मूर्ति अथवा उन्हें दर्शाने वाली थांका चित्रकला पाई जाती है।

प्रकृति के उस विशाल प्रांगण में पल-पल रंग बदलते, बादलों से अठखेलियाँ करते पहाड़ों के बीच तिब्बत के पोताला महल के आधार पर बने थिकसे मठ की छत पर पहुँचते ही सिंधु घाटी के बाढ़ के मैदानों का जो अप्रतिम और अभूतपूर्व दृश्य दिखा तो जैसे कुछ पल के लिए अवाक् हो उठी।

अपनी छब बनाई के जो मैं पी के पास गई

जो छब देखि पीऊ की तो मैं अपनी भूल गई

मैं उस विराट महाप्राण उपस्थिति के आगे कितनी छोटी थी। उस सुंदरता के आगे क्या मेरी छब और मैं! बस एक वह क्षण और उसके बाद एक क्षण के लिए भी मन में अपनी उस अस्थायी कुरूपता के लिए हीनभावना नहीं आई। मैं माँ की गोद में खिलखिलाती बच्ची बन गई जिसके स्नेह और हार्दिकता के आगे बाक़ी सब कुछ गौण हो जाता है। आज भी उन तस्वीरों में भले ही अपना चेहरा अनचीन्हा लगता है पर आँखों में एक ऐसी चमक दिखती है जो कुछ अलौकिक, दिव्य और भव्य दिख जाने पर अनायास उभर आती है।

पूरे नौ बरस बाद लेह की धरती पर फिर से कदम रखे थे और ऐसा लग रहा था कि पहली बार तो देख रही थी उसका अनछुआ सौंदर्य! कौतूहल का अंत नहीं था। शहर के आधुनिक सुविधाओं से युक्त बाज़ार में देसी-विदेसी पर्यटकों की भीड़ के बीच हम तेज़ी से अपनी मंज़िल की ओर बढ़े जा रहे थे क्योंकि दिन ढलने को था और हमें लेह पैलेस जाना था।

फ़ोन की गैलरी में एक तस्वीर सेव थी जो पिछली लेह पैलेस यात्रा के दौरान खींची गई थी और पहले से तय था कि ठीक उसी जगह पर, लेह पैलस के सातवें तल से उसी टाईटैनिक पोज़ में एक और तस्वीर उतारी जाएगी जिसकी पृष्ठभूमि में पूरा लेह शहर दिखाई देता था। बेटे ने ठीक वैसी ही एक तस्वीर खींच दी।

दोनों तस्वीरें एक ही फ्रे़म में सैट करके देखी गईं। बेशक़ तस्वीरों में अंतर तो था, क्यों नहीं होगा। पूरे नौ बरस के फ़ासले में इस जीवनरूपी यात्रा में जाने कितने मानसिक संघर्ष झेले होंगे, जाने कितनी चुनौतियों से पार पाया होगा जिनके बारे में हमें सब भूल चुका था पर देह पर उन्हीं ज़्यादतियों के निशान उभर आए थे।

बालों में हल्की सफ़ेदी, चेहरे पर गहरी होती झुर्रियाँ… बहुत कुछ बदला हुआ था। बस नहीं बदला था तो दोनों तस्वीरों में संजय जी और मेरे हाथों का स्पर्श। इतने बरस बाद भी हाथों की छुअन उसी नेह और भरोसे से स्नेहासिक्त थी जो पहले थी। उस कंधे का स्पर्श आज भी उतना ही संबल दे रहा था जितना तब दिया होगा। हम अक्सर जीवन की भागदौड़ के बीच इन छोटी-छोटी नियामतों को जाने क्यों नज़रंदाज़ कर जाते हैं? इन बीते नौ बरसों में हमारे प्रेम ने लेह में बिताए उन पलों की एक-एक याद को ताजा़ रखा था। हम उन्हीं गलियों में अपने छूटे हुए कदमों के निशान खोज रहे थे और ‘गोटुल (पारंपरिक शैली में बने पुराने घर) के दरवाज़े नाराज़गी दिखाते हुए पूछ रहे थे, ‘कहाँ रही, जुगल जोड़ी इतने बरस?’ हमारे पास उन उपालंभों का कोई उत्तर नहीं था। जीवन के कड़े पाठ्यक्रम के बीच हम इसकी अचानक सामने आ जाने वाली परीक्षाएँ पार करते-करते भूल जाते हैं कि हम किसी से कोई वादा कर आए थे जिसे निभाने के लिए उसके पास लौटना होगा।

लेह से लगभग पैंतालीस किलोमीटर की दूरी पर, एक बहुत बड़ी पहाड़ी पर रमणीक प्राकृतिक परिदृश्य के बीच स्थित है, ’हेमिस गोम्पा।

यह मठ तिब्बती स्थापत्य शैली में बना है जो बौद्ध जीवन व संस्कृति का प्रदर्शन करते हैं। मठ में भगवान बुद्ध की तांबे से बनी विशाल प्रतिमा के दर्शन किए जा सकते हैं। इस मठ की देख-रेख द्रुपका संप्रदाय द्वारा की जाती है। तिब्बत में द्रुक का अर्थ है ‘ड्रैगन’। यह संप्रदाय बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय की वज्रयान शाखा का अनुयायी है।

तिब्बती कैलेंडर के अनुसार यहाँ हर बारह वर्ष के बाद नरोपा उत्सव का आयोजन होता है। हज़ारों बौद्ध अनुयायी, दार्शनिक व विद्वान नरोपा के जीवन का उत्सव मनाने के लिए सांस्कृतिक आयोजन करते हैं। पिछली बार वर्ष 2016 में इसे मनाया गया था परंतु सन् 2018 में इसे एक विशेष उत्सव के रूप में आयोजित किया गया था।

 हेमिस मठ में भारी चहल-पहल दिखाई दे रही थी। हम मठ के रेस्ट हाउस में ठहरे भिक्षुओं के साथ उनके मनोरंजन के कुछ क्षणों के सहभागी हुए।

हेमिस मठ के निकट ही एक खुले मैदान में नरोपा फेस्टीवल देखने का अवसर मिला, जिसे ‘हिमालय का कुंभ’नाम दिया गया था। किसी स्थान की कला, संस्कृति, इतिहास, धर्म व परंपराओं को जानना हो तो इससे बेहतर कोई जगह क्या हो सकती है। …और हम पूरा दिन नरोपा फेस्टीवल में विविध मठों से आए बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों, स्कूली बच्चों, ग्रामीण स्त्री-पुरुषों, माला पर निरंतर घूमती अंगुलियों के साथ बौद्ध मंत्र बुदबुदाती बूढ़ी आमाओं और हाथ में लिए मणि चक्र घुमाते अधेड़ बौद्ध अनुयायियों, रॉक स्टार्स की तरह गिटार लटकाए लंबे बालों वाले किशोरों और स्थानीय वेशभूषा में सजी युवतियों के बीच रमते रहे।

एक सुबह पहाड़ों पर बिखरी मीठी-मीठी धूप और आँख-मिचौली खेलते बादलों के संग रंग बदलते पहाड़ों की निगहबानी के बीच हम शे गोम्पा पहुँचे। शे गोम्पा लेह से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ स्थित बुद्ध की मूर्ति को लद्दाख में दूसरी सबसे बड़ी मूर्ति माना जाता है जिस पर ताँबे और सोने का पानी चढ़ा है। इस मठ का निर्माण राजा देल्दन नामग्याल ने वर्ष 1655 में करवाया था। पहले इसे लद्दाख की ग्रीष्मकालीन राजधानी माना जाता था। हालांकि अब यह स्थान जर्जर अवस्था में है परंतु गोम्पा के प्रबंधन के लिए भिक्षु उपस्थित रहते हैं।

शे गोम्पा मुख्य सड़क के किनारे पर ही स्थित है परंतु इस स्थान पर एक अनूठा सा पुरातन आकर्षण अनुभव होता है। भिक्षुओं ने बहुत ही क़ायदे से जगह को संरक्षित कर दिया है। मठ की छत पर तिब्बती बौद्ध मंत्र अंकित पाषाणों की क़तारें मन बाँध लेती हैं। मठ में दीपदान कक्ष में सैंकड़ों प्रकाशित दीपों के बीच हाथ जोड़ कर खडे़ होते ही लगता है मानो एक दिव्य और पवित्र वातावरण की सृष्टि हो गई हो। प्रकृति स्वयं एक-एक कण को अलौकिकता का अमृतपान करवा रही हो।

 हम भी उसी परिवेश में मंत्र-मुग्ध हुए खड़े थे कि बाहर से आते कोलाहल और हो-हल्ले के स्वर से तंद्रा टूटी। लगा किसी ने दैवीयलोक से खींच कर यथार्थ के धरातल पर ला पटका को। मेरे दोनों साथी चुपचाप अपने कैमरे की नज़रों से आसपास दिखते नज़ारों को कैद करने में मग्न थे। अचानक सीढ़ियों से छह-सात पर्यटकों का रेला धड़धड़ाता हुआ ऊपर आ गया।

‘ओ वाह! यार जगह मस्त है!’

‘ख़ाक़ मस्त है। सारी मोनेस्ट्री एक जैसी दिखती हैं? और कुछ घूमने को है नहीं? हम तो बोर ही हो गए आ कर। ऐसे ही हवा बना रखी है।’

बाकी लोगों के शिकायती सुर के बीच बेचारे प्रकृति प्रेमी पर्यटक की आवाज़ दब कर रह गई। उन लोगों ने ताबड़तोड़ सेल्फियों के दौर के बीच टॉफी-चॉकलेट और चिप्स चबा कर, रैपर वहीं छत पर फेंके और इस बहस में पड़ गए कि सीधा होटल जा कर कोई मूवी देखनी है या फिर एक और मोनेस्ट्री देखने का धीरज शेष है।

हम तीनों ने चुपचाप एक भी अक्षर कहे बिना, उनके फैलाए रैपर और खाली पैकेट बीनने शुरू कर दिए और उन्हें एक खाली लिफाफ़े में डाल दिया। हमें देख कर उनमें से एक सज्जन की आँखें शर्म से झुकीं और वे अपनी अंग्रेज़ी में घिघियाते हुए सॉरी का राग अलापने लगे। उन्होंने हमसे वह लिफाफ़ा लिया और वादा किया कि वे स्वयं उसे कूड़ेदान के हवाले कर देंगे।

पर्यटक दल के विदा होते ही उस स्थान की शांति और पवित्रता लौट आई और हम आपस में देख कर मुस्कुराए। जो बात कही नहीं जा सकती थी, हमने बिन कहे उन्हें समझा दी और उम्मीद थी कि शायद वे आगे से सार्वजनिक स्थानों और पर्यटन स्थलों पर इस तरह कचरा डालने से बाज़ आएँगे।

राह पर क्या चलना, बस खु़द रास्ता हो जाओ जी!

 ‘अरी देख, अरी देख… आँखें खोल के देख। जी भर कर देख न। मैं कार की खिड़की से लगातार गर्दन बाहर लटकाए खुद को कहती रही. देखते ही देखते गाड़ी ने काटा मोड़ और पहाड़ महाराज ने बदला रूप। लेह से नुब्रा घाटी की यात्रा के दौरान पहाड़ों ने इतने रूप बदले कि क्या कहा जाए। छलिए एक पल को भी तो टिकते नहीं। जितने पहाड़, उतने क्षण-प्रतिक्षण नए रूप। दृष्टि की एक सीमा ठहरी, किस ठौर तक जाएगी। इसकी भला इतनी कुव्वत, ये कु़दरत के हर नज़ारे को पी पाएगी? पी भी लिया तो क्या पचा लेगी? पचा भी गई तो क्या गुन सकेगी? न जी, क़ुदरत के महारहस्यमी रूपों में से एक, ‘पहाड़’ के आगे बौने हैं हम…

फिर भी अपनी अक्ल पर ज़ोर डालते हुए बड़े ही घमंड से पूछा मैंने…

कौन सा पहाड़ लेंगे जनाब?

ममेरे चचेरे भाईयों के दिलों में आ गई दूरियों से छितराए हुए पहाड़!

अमीरी-गरीबी की विषमता दर्शाते छोटे-बड़े पहाड़!

सेना में भर्ती नए रंगरूटों से सीना ताने गर्व से फूले पहाड़!

हसीन नदियों की निगरानी को सहोदर से खड़े चिंतालु पहाड़!

लाल-लाल सेबों से लदे पेड़ों को किसी जलनखोर पड़ोसी सा तकते भुक्खड़ पहाड!

वाई-फाई कनेक्शन न मिलने की तड़प में मुरझाए टीनएजर से झींक-झींक कर बड़े-बड़े पत्थर लुढ़काते पहाड़!

किसी पहाड़ी नदी से गोल-सफ़ेद पत्थरों को सड़क पर बिछा देने को आतुर पहाड!

अपनी पीठ पर तिब्बती मन्त्रों की खुदाई लिए किसी लामा से ध्यानमग्न खड़े पहाड!

धुर शिखर पर गोद में पुरातन गोम्पा लिए बैठी माँ से सहनशील पहाड़!

किसी पहाड़ी छोकरी की लटों में गुंथी बारीक चोटियों सी काली पतली सड़कें लिए इतराते पहाड़!

प्रकृति के विशाल प्रांगण में किसी एकांत कोने में आँखें मूंदे विश्व का कल्याण साधते गौतम से पहाड़!

किसी निपूते बाप से, संतान की किलकारी सुनने को मन ही मन घुलते बंजर पहाड!

घर में सुखाए मेवों के पैकेट बेचने को बैठी, दो चोटियों वाली बुढ़िया आमा की इंतज़ार में पसरी नज़र से उदास पहाड़!

हाईवे किनारे बने मॉर्डन पहाड़ों पर शेल्फ़ों पर सजे पैकेटबंद चिप्सों व पेय पदार्थों को बेबसी से तकते प्राचीन पहाड़!

अपनी ही नज़रों के आगे क़ुदरत की आब को पिघलती पतली बर्फ़ सा गलता देख बिसूरते पहाड!

किसी संगदिल आशिक की कठोर छाती पर उगे मुलायम काले बालों से झक्क काले पहाड!

किसी स्कूल गर्ल की आँखों से नाजु़क, छूते ही भरभरा कर बरसने को तैयार पहाड़!

 किसी घुमक्कड़ विदेशी के जटाजूट से उलझे, विस्फारित नेत्रों से निहारते भूरे-तांबई पहाड!

कहीं पास ही बलखाती रूपहली नदी की छुअन भर से लजाते-सकुचाते लाल पहाड!

 भयंकर हरहराती वेगवती नदी को जोड़ने वाले पुल की जीत में जश्न में झूम-झूम कर नाचते, मदमाते पहाड!

धुंधलके में किसी मानुष को निपट अकेला जान, किसी गुंडे-मवाली से चारों ओर से आ कर अचानक घेरते भयावह पहाड!

अपनी कंदराओं में सदियों से किसी रहस्य को छिपाए, रहस्यदर्शी से मंद-मंद मुस्कुराते मौन खड़े पहाड़!

नरम भुरभुरी माटी लिए, इंक्रेडीबल इंडिया के स्लोगन से, पर्यटकों को लुभाते और अपनी ओर खींचते पहाड़!

ओम मणि पदमे हुम की रंगीन लिखावट के बीच सभी रंगों को आस्था का सबक सिखाते गुरुजन से अडोल पहाड़!

पचपन बरस के बूढ़े के खल्वाट पर उगे चंद बालों से छिटपुट हरे बूटे लिए झेंपते पहाड़!

पीली-गुलाबी जंगली बेलों की लताओं को किसी मैराथन में मिले मैडल सा बार-बार पेश करते पहाड!

किसी अजूबे राक्षस के पंजों के निशान अपने पेट पर लिए, हर तकलीफ़ को अकेले ही पीते पहाड़!

किसी हिट फिल्मी अदाक़ारा से बारंबार रूप-रंग बदलते तमाशाई पहाड!

हर दृष्टि को एक नए कोण से दिखते, ज्यामिति की किसी प्रमेय से जटिल पहाड़!

चांद की रोशनी में नहाए, अवलोकितेश्वर के रत्नजटित मुकुट से झिलमिलाते पहाड!

स्याह रात से मिलन को उमड़ती वाहनों की टिमटिमाती बत्तियों से अपना श्रृंगार रचाती अलबेली पहाड़ी युवती से पहाड!

आसमान के कैनवस पर किसी स्वयंसिद्ध पेंटर से भूरे के हल्के, गाढ़े, मटमैले, धूसर, सब्ज़, पीले, हरे और जाने कितने शेड्स बनाते-मिटाते और बिखेरते पहाड!

कुशल बहुमुखी प्रतिभा के धनी निर्देशक से, केवल एक ही टेक में खूबसूरती का पैमाना रचते पहाड!

 सीने पर इत-उत बिखरी बर्फ़ संग, केक पर आईसिंग शुगर जैसे दिखते पहाड!

नकारात्मक शक्तियों से जूझते किसी तांत्रिक से काला चोला पहने तंद्रा में गोल-गोल झूमते पहाड!

चंदा और इक्का-दुक्का तारों की अगुवाई में किसी पहाड़ी मेजबान से बिछ-बिछ जाते पहाड़!

नज़ाकत से बिजली और इंटरनेट के टॉवर संभाले, पकी उम्र में कंप्यूटर सीखते किसी बूढ़े से उत्साही पहाड!

 किसी चरवाहे के उजाड़ फटेहाल तंबू में दुबकी सर्दी से कठोर व जनशून्य पहाड़!

अपनी ही असंभव सीमाओं से रोमांचित किसी पर्वतारोही को चुनौती देते, अंगूठा दिखाते, किसी शरारती बच्चे से खिल-खिल कर दांत निपोरते पहाड!

 किसी मंझे हुए कैरेक्टर आर्टिस्ट से हर बार नए क़िरदार के साथ दर्शकों को अचंभित करते पहाड!

हरी सब्जी पर मुंह बिचकाते, पिज्ज़ा खाने के हठ पर अड़े किसी बच्चे से अड़ियल टट्टू पहाड़!

बौद्ध भिक्षुओं की प्रार्थनाओं से धीमे-धीमे गुंजरित अनाम झींगुरों के समूह राग अलाप भरते रसिक पहाड़!

रंगीन पताकाओं की लड़ियों से लहराते, नीम अंधेरे की हल्की उजास में आशा का दामन थामे श्रद्धालु व आस्थावान पहाड़!

हर दूसरे-तीसरे मोड़ पर कुशल वाहन चालक के हुनर की परख़ करते, बोर्ड की परीक्षा में अचानक आ धमकी फ्लाइंग के ऑफ़िसर से गुस्सैल पहाड!

दिन के उजाले में अपने सलोने रूप में ललचाते और संझा ढलते ही कटी नाक वाली शूर्पणखा से डराते पहाड!

सभी विधाओं से परे, अनूठी श्रेणियों में रचते, किसी पुरस्कार के मोह से दूर, सज्जन साहित्यकार से खड़े विनीत पहाड़!

चेतना की सतह  पर सभी तो प्रतिबिंबित हैं, बस यही नहीं समझ पा रही कि जितना लेने गयी थी, उससे कहीं ज़्यादा अपना-आप छोड़ कैसे आई ?

क्रमशः

                                                                                                                          -रचना भोला ‘यामिनी’

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गीताश्री की कहानी ‘लिच्छवि राजकुमारी’

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प्राचीन भारत में रूपवती और गुणवती स्त्रियों के समक्ष जो समस्या थी वही आज भी है- उसे समझने वाला पुरुष कहाँ मिलेगा? प्रसिद्ध लेखिका गीताश्री ने प्राचीन भारत की इस कथा के माध्यम से इसी ओर ध्यान दिलाया है। बहुत प्रासंगिक कहानी है- मॉडरेटर

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लिच्छवि राजकुमारी की सुंदरता, विद्वता और वीरता की चर्चा समूचे नगर में होने लगी थी। रुपवती होने के साथ साथ उसने राजकाज भी सीख लिया था और युद्ध कला में निपुण हो गई थी। उसका लालन पालन राजकुमारों की तरह हुआ था। सभासदों से मुद्दों पर बहस भी कर लेती थी और आवश्कता पड़ने पर राजनीति भी कर लेती थी। लिच्छवि नरेश धनवर्मा उससे समय समय पर सलाहें भी लिया करते थे। लिच्छवियों के वंश की वह पहली राजकुमारी थी जो राजकाज में दक्ष थी और जिसे युद्ध-संचालन का कौशल भी मालूम था। वह बेहद निडर थी और अपने राज्य की सीमाओ को लेकर चौकस –चौकन्नी भी। ऐसी रुपवान-गुणवान बेटी को लेकर राजा बहुत प्रसन्न रहा करते थे, बस उन्हें हर पिता की तरह एक ही चिंता सताती थी कि बेटी के लायक वर कहां से ढूंढे। कहां मिलेगा ऐसा लड़का जो एक वीर-विदुषी बालिका को संभाल सके। जिसका बचपन तीर-तलवारों से खेलने में बीता हो और बाकी समय पोथियां पढ़ने में। जो हर समय सीमा पर जाकर युद्ध लड़ने को उद्धत हो। जो राज्य के कठिन से कठिन मामले भी झट से सुलझाने की क्षमता रखती हो।

नगर में उसकी सुंदरता और वीरता का बखान किया जाने लगा था। सबको लगता था कि राजा एक दिन राजपाट अपनी पुत्री को सौंप कर वानप्रस्थ को चले जाएंगे। राजा के मन में भी ये बात उठती थी। लेकिन वे आशंकित हो उठते थे, क्योंकि आखिर वह एक लड़की ही तो थी। वीरता और विद्वता का अदभुत सुयोग। वह तर्क और तलवार दोनों से पराजित करने की क्षमता रखती थी। राजा चिंता में घुलने लगे कि कहां से इसके लायक वर ढूंढा जाए। अपने पड़ोसी राज्यों में गुप्तचर भेज कर वहां के राजकुमारों का चरित्र पता लगवाना शुरु किया। सुंदर राजकुमारों की कहीं कमी नहीं थी। लेकिन सबमें कोई न कोई खोट निकल आता। राजा और चिंतित हो जाते। अपनी बेटी और अपने राज्य को किसी खतरे में नहीं डालना चाहते थे। उनका राज्य सबसे अलग था जहां सारे फैसले सभासद मिल कर करते थे। जहां राजा फैसले थोपते नहीं थे बल्कि गणतंत्र के लिए बनाए गए सात प्रकार के नियमों पर चलते थे। उन नियमों पर सारे लिच्छवि राजा चलते आए थे और आगे भी चलना था। यही बात उनके राज्य को अन्य राज्यों से अलग करती थी। वे एक खुशहाल राज्य के राजा थे और एक परम सुंदरी, विदुषी पुत्री के पिता भी थे। जिसके लिए सुयोग्य वर ढूंढना उनके लिए चुनौती थी। ऐसा वर हो जो राजकुमारी को समझे, उसे मान-सम्मान दे, उसकी वीरता को आदर से देखे और उसकी विद्वता के प्रति मान रखे। सिर्फ राजकुमारी के रुप से प्रभावित होने वाला वर उन्हें नहीं चाहिए था। इसी चिंता में दिन बीतते गए। कोई रास्ता न सूझता था। राजकुमारी के अनुरुप वर ढूंढना कठिन होता चला जा रहा था। राजकुमारी इन सब चिंताओं से मुक्त अपने को और गुणी बनाने में जुटी हुई थी। उसका पहला लक्ष्य अपना राजपाट, अपनी प्रज्ञा का सुख दुख देखना, संभालना था। उसने विवाह के सपने नहीं देखे थे। तरुणाई ने मन में कुछ फूल खिलाए थे जिन्हें वह अपने कर्तव्य के नीचे दबा देती थी। मन ही मन वो जानती थी कि उसके तेज को संभालने लायक कोई साथी मिले तो वह कदम आगे बढ़ाए। विवाह की चिंता पिता पर छोड़ दिया था।

इधर राजा की चिंता देखकर सभासद भी चिंतित हो उठे। राजा ने अपनी चिंता जताने के लिए एक बार सभा बुलाई। सभी मंत्रीगण, सभासदों के सामने अपनी चिंता रखी।

“आप सबको जानकर घोर चिंता होगी कि मैं किन कारणों से चिंतित रहता हूं इन दिनों। मैं एक राजा के साथ साथ एक पिता भी हूं। दोनों का कर्तव्य मेरे सम्मुख है। मैंने राज हित में ही अपनी पुत्री लालन पालन किया है, ताकि वे शासन व्यवस्था समझ सके, संभाल सके, अपने दायित्वों के निर्वहन में विवेक से काम ले सके, इसलिए उच्च शिक्षा दिलाई। एक शिक्षित प्रशासक प्रजा के हितों की बेहतर रक्षा कर सकता है। लेकिन एक समस्या मेरे सम्मुख आन पड़ी है, जिसके निवारण हेतु, उचित सलाह हेतु आप सबसे मंत्रणा करना चाहता हूं। मुझे आशा है कि आपकी राय से मार्ग सूझेगा।“

लिच्छवि नरेश की विनम्रता के सब पहले से ही कायल थे। वे हमेशा सबको मान देते थे और राजकाज में पारदर्शिता बरतते हुए सबकी सलाह पर अमल करते थे। इसीलिए लिच्छवि गणराज्य के टक्कर में कोई दूसरा राज्य टिकता न था।

राजा की बात सुन कर कुछ पल के लिए सभा में सन्नाटा छा गया। सब सोच समझ कर अपनी सलाह देना चाहते थे। मामला गंभीर था, सलाह भी किसी मामूली इंसान के लिए नहीं, एक अत्यंत रुपवती, गुणवती राजकन्या के हित में देना था। सलाह भी ऐसी हो कि जो राजा की दृष्टि में उचित लगे, सब वाह वाह कर उठे। सब अपने मन में गुणने लगे। एक से बढ़ कर सलाहें बरसने लगीं-

एक मंत्री ने कहा- “हमारी राजकुमारी अत्यंत रुपवती हैं, उनके लिए हमें कोई रुपवान राजकुमार ही खोजना चाहिए। हमें दोनों की जोड़ी मिलानी होगी। विवाह में हमेशा जोड़ा मिलाना उचित होता है। एक का भी रुप कम हो तो दापंत्य में दरार आ सकती है। किसी के मन में हीन भावना घर कर सकती है। यहां बराबरी का बोध अत्यंत आवश्यक है।“

महामंत्री थोड़े गंभीर मुद्रा में बैठे थे। राजा ने उनकी तरफ प्रश्नवाचक नेत्रों से देखा।

महामंत्री ने बोलना शुरु किया- “राजन, सुंदरता ईश्वरीय गुण होती है, वीरता हमें अपने बल पर अर्जित करनी पड़ती है। सौंदर्य सिर्फ स्त्री का देखा जाता है, वीर पुरुषों का नहीं। उनकी वीरता ही उनका सौंदर्य है। जिसके बल पर वीर पुरुष अपने दुश्मनों के स्वप्न में भी भय उत्पन्न कर देते हैं। वीर पुरुष इस पृथ्वी का सौंदर्य, सुख-शांति बहाल रख सकते हैं। राजकुमारी भी वीर हैं, भयहीन हैं, युद्ध कौशल जानती हैं, हमें उनकी टक्कर का कोई वीर पुरुष ढूंढना चाहिए ताकि वीरता का दंभ दोनों में बराबर का रहे। कोई किसी से कम न पड़े।“

स्वभाव से शांतिप्रिय एक मंत्री ने अपनी पारी आने पर प्रस्ताव रखा- “लिच्छवि राजकुमारी के लिए ऐसा वर होना चाहिए, जिसके टक्कर का पुरुष इस भू भाग में कम ही हों। उसे सर्वगुण संपन्न होना चाहिए जैसी हमारी राजकुमारी हैं। वैवाहिक संबंध बराबरी के हों तभी गाड़ी चलती है राजन।“

सभा में एक के बाद एक सलाहें आती रहीं। सबके मत भिन्न भिन्न थे। कोई रुप-सौंदर्य पर जोर दे रहा था तो कोई वीरता पर तो कोई धन-बल पर। किसी ने स्वंयर प्रतियोगिता आयोजित करने की सलाह दे डाली। एक बार की सभा में किसी एक सलाह पर एक राय न बन सकी तो कई बार ऐसी सभा बुलाई गई। राजा की चिंताएं बढ़ती जा रही थीं क्योंकि कोई भी सलाह उन्हें भा नहीं रही थी और न सारी सभा उस पर एकमत हो रही थी। सबकी सलाहें दूसरा व्यक्ति काट देता था। उससे बढ़ कर दूसरी सलाह देकर निरुत्तर कर देता। लगभग भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती जा रही थी।

एक बार इस पर विचार करने के लिए अंतिम सभा बुलाई गई जिसमें किसी न किसी निर्णय पर पहुंचना था।

समूची सभा में दो ही लोग थे अब तक जो चुप रहते थे। वे सबकी सलाहों पर मौन लगा जाते। एक विद्वान कनिष्ठ मंत्री थे। आज उनके बोलने की बारी थी- हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि लिच्छवि राजकुमारी अत्यंत विदुषी भी हैं। उनकी शिक्षा दीक्षा के बारे में हम क्यों भूल जाते हैं। एक स्त्री के लिए उसकी शिक्षा उसके सौंदर्य से बड़ी उपलब्धि होती है। वीरता भी एक गुण है किंतु विद्वता सबसे बड़ा गुण है जो व्यक्ति को विवेकवान बनाता है। सिर्फ वीरता और सुंदरता के बल पर न संबंध चलते हैं न राज कायम रहता है। न प्रजा पर आप कोई छाप छोड़ सकते हैं। सुंदर तो मूर्ख भी होते हैं, वीर तो अराजक भी होते हैं। मूर्खो का इतिहास नहीं बनता, अराजक भी विस्मृत कर दिए जाते हैं, स्मृति में विद्वता बनी रहती है। विद्वता की चमक इतिहास के पन्नो पर चमकती रहती है युगों युगों तक। हमें ऐसा राजकुमार ढूंढना चाहिए जो विद्वान हो, हमारी राजकुमारी ऐसे विद्वान के साथ ही सुखी रह सकेंगी।

इतना बोल कर कनिष्ठ मंत्री शांत हो गए। उनका चेहरा तप गया था। उन्होंने सिरे से सौंदर्य और वीरता दोनों को खारिज कर दिया था। सारी सभा मौन हो गई। लिच्छवी नरेश ने समूची सभा पर उम्मीद भरी निगाह डाली। वे चाहते थे कि किसी एक सलाह पर आम राय बन जाए। ताकि वे अपनी सुयोग्य बेटी के लिए सुयोग्य वर ढूंढ सकें। कई बार बैठकें हुईं और मतभिन्नताएं उभरीं, बात न बन सकी। राजा सोच में पड़ गए- जाने क्या लिखा है उसके भाग्य में। कन्याओ के अतिरिक्त गुण ही कई बार उनके मार्ग में बाधक बन जाते हैं। कभी किसी राजकुमार के लिए ऐसी सभाएं न हुई होंगी। न इतनी चिंताएं कि समूची सभा एक ही दिशा में समस्या का निदान ढूंढने में लगी हो।

राजा की चिंतन प्रक्रिया भंग करती हुई सभा में एक पुख्ता आवाज गूंज उठी। बेहद स्थिर, ठोस और निर्भय आवाज ने सबको चकित कर दिया।

वे एक वयोवृद्ध सभासद थे जो इन दिनों सभा में कम ही बोलते थे। उनकी राय के लिए कोई व्यग्र नही रहता था। वो बीते जमाने की बात हो गए थे। उन्हें भी अपनी उपस्थिति को बोझिलता का पता था। लेकिन इस बार बात कुछ ऐसे मोड़ पर आकर अटक गई थी कि उन्हें बोलना पड़ा।

वे बोले- “महाराज, जिस कन्या के लिए हम वर ढूंढ रहे हैं, हम इतना विचार- विमर्श कर रहे हैं। सबने भांति भांति के विचार प्रस्तुत किए। किसी को किसी के विचार पसंद नहीं आए। आप भी असहमत हुए। यहां सबको अपने विचार सर्वोपरि प्रतीत हो रहे हैं। आप सबके विचारो के प्रित सम्मान रखते हुए मैं एक सवाल पूछता हूं जिसमें मेरे विचार भी शामिल हैं। क्या आपने उस कन्या से उसकी राय पूछी है, उसका पसंद पूछा है जिसके लिए हम वर ढूंढ रहे हैं। जो खुद विवेकवान है, विदुषी है, जिसे अपनी आगे की जिंदगी अपने वर के साथ बिताना है, क्या उचित और न्याय संगत न होगा कि आप उस कन्या से पूछे कि उसे कैसा वर चाहिए। किस तरह के पति का वह स्वप्न देखती है। हमें न उसकी पसंद का पता है न उसके स्वप्नों और आकांक्षाओं का। मेरा मानना है कि शिक्षित कन्याएं अपने लिए हम सबसे बेहतर निर्णय ले सकती हैं। हमें उन पर अपना फैसला नहीं थोपना चाहिए। इस धृष्टता के लिए समूची सभा से क्षमा चाहता हूं।“

वयोवृद्ध सभासद इतना बोल कर अपनी जगह पर बैठ गए। समूची सभा सन्नाटे में डूब गई। इसके पहले कि कोई विवाद-प्रतिवाद होता, मन ही मन प्रसन्न होते हुए लिच्छवि नरेश ने घोषणा करके सबको चौंका दिया-  “राजकुमारी सभा में उपस्थित हों।“

राजकुमारी सभा के विचार विमर्श से अब तक अनभिज्ञ थी। राजा ने उसे अपने पास बिठाया, स्नेह में भर कर पूछा- आप यहां की राजकुमारी हैं, बेटी हैं, हर तरह से सुयोग्य हैं। हम आपमें एक संपूर्ण स्त्री की छवि देखते हैं। हमने इसी तरह से आपकी परवरिश की, कोई कमी नहीं रहने दी। अब समय आ गया है कि हम आपके भविष्य की चिंता करें। कुछ फैसले करें। हम जानते हैं कि एक जनक के रुप में हमारे लिए ये फैसला बहुत भावुक होगा, किंतु जगत की रीत यही है।

राजकुमारी अपने पिता को हैरानी से देखने लगी। उसके कमल नयन फैल गए थे।

“पुत्री, एक उलझन आन पड़ी है। आप ही सुलझा सकती हैं। हम सब कई दिन से यहां विचार-विमर्श कर रहे हैं, किंतु एकमत नहीं हो पा रहे हैं। आपके लिए कैसा वर ढूंढा जाए, स्वंयर के लिए क्या शर्त्ते रखी जाएं। हम किस तरह के राराजकुमारों को न्योता भेजें। आप ही बताएं कि आप जैसी सर्वगुण संपन्न कन्या के लिए कैसा वर चाहिए… सभा आपके विचार जानना चाहती है।“

राजकुमारी शर्माई, गौरवर्ण चेहरा रक्ताभ हो उठा। अधर कंपकंपा कर रह गए। बोल न फूटे। पिता और सभासदो के सामने अपने विवाह के बारे में कैसे बोले। क्या बताए कि कैसे पति का स्वप्न वो देखती रही है। पता नहीं, सब लोग उसे क्या समझेंगे। उसने सोचा भी नही था कि एक दिन ऐसा भी आएगा। अब वह बच नहीं पाएगी। वह कुछ देर चुप रही, भीतर ही भीतर साहस जुटाती रही।

उसे चुप देख कर सभी सभासद और राजा स्वंय आतुर हो उठे। राजा तो अपनी पुत्री की खुशी के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे। उनका बस चलता तो स्वर्गलोक से कोई देवता उतार लाते। सबने फिर से आग्रह किया।

आखिर राजकुमारी ने हिचकते हुए अपनी बात रख दी।

“पिताजी, मुझे न सुंदर पति चाहिए, न कोई राजकुमार, न महावीर योद्धा । ऐसे पति की कामना हरेक लड़की करती होगी। मेरा लक्ष्य सिर्फ पति खोजना नहीं, बेहतर इंसान तक पहुंचना है जिसके हृदय में मेरे लिए, मेरी प्रजा के प्रति गहरा आदरभाव हो। जो मेरे रुप पर न्योछावर न हो बल्कि मेरे गुणों की कद्र करे। मुझे बराबरी का मान दे। मुझे ऐसा पति चाहिए जो सबसे श्रेष्ठ और समर्थ कुल में जन्मा हो, उसके माता-पिता श्रेष्ठ हों, जिसका जन्म सबसे पवित्र स्थल पर हुआ हो,  जो सबसे श्रेष्ठ धर्म को मानता हो।“

राजकुमारी की बात सुनते ही सारी सभा वाह वाह कर उठी। राजा की उलझन थोड़ी बढ़ गई। सबसे श्रेष्ठ होने की शर्त्त रखकर राजकुमारी ने कठिनाई में डाल दिया था। राजा और सभा तो अब राजकुमारी की बातें मानने को बाध्य थे। राजकुमारी अपनी शर्ते रख कर मुस्कुराती हुई वहां से प्रस्थान कर गई।

स्वयंवर की तैयारियां शुरु कर दी गईं।

सभी राज्यों में संदेशा भिजवा दिया गया था। राजकुमारी की शर्तों के साथ। लिच्छवि राजकुमारी का स्वयंवर हो तो भला राजकुमार अपना भाग्य न आजमाना चाहेगा। राजकुमारी के रुप-गुण के किस्से दूर दूर तक फैल गए थे। जिसे सुनकर दूर देशों से भी राजकुमार आए। स्वयंवर के दिन भारी भीड़ उमड़ आई थी। सभी राजकुमार सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के लिए तैयार होकर आए थे। सबको लगता था कि वे एक राजकुमारी का हृदय तो आसानी से जीत लेंगे। सबके सब अपने को किसी से कम नहीं समझ रहे थे। एक से एक वीर, धनवान, उच्च कुल के दावेदार वहां मौजूद थे। स्वयंवर में आए राजकुमारों को देख कर प्रजा भी चकित थी कि राजकुमारी के लिए वर चुनना नि:संदेह कठिन होगा। सब एक से बढ़ कर एक जो थे।

स्वयंवर सभा में लिच्छवि महाराज ने राजकुमारी की शर्त्त फिर से दोहराई। स्वयंवर सभा में राजकुमारी अपने पिता के साथ बैठी थी। सामने सारे प्रत्याशी बैठे थे। सब एक एक कर उठने लगे। अपनी श्रेष्ठता का बखान शुरु हुआ। हर प्रत्याशी अपने कुल का जोर शोर से बखान करता, सात पीढ़ियों तक के गौरव का गान करता, अपने जन्म स्थान को सबसे पवित्र घोषित करता और खुद को सबसे श्रेष्ठ कुल का बताता। सभी प्रत्याशी एक से एक गुणवान थे। राजा ये सब देख कर अतिप्रसन्न हो उठे थे कि उनकी पुत्री के लिए कितने श्रेष्ठ राजकुमार उपस्थित हुए हैं। मन ही मन पुत्री की सराहना करते रहे। राजकुमारी ने सबका गुणगान सुना, बखान सुना और स्थिर बैठी रही। उसे किसी ने प्रभावित नहीं किया। उसने किसी राजकुमार के गले में जयमाला नही डाली। राजकुमारों के सिर इस प्रत्याशा में झुकते और फिर निराशा से तन जाते।

सारे सभासद चकित थे कि इतने रुपवान- गुणवान, वीर पुरुषों में से कोई राजकुमारी को पसंद क्यों नहीं आया?  क्या कमी रह गई? इसमें कई राजकुमार उच्चकुल के थे और जिनके पुरखे भी नामी गिरामी थे. उनमें कोई कमतर न था. आख़िर राजकुमारी चाहती क्या हैं? उनकी इच्छा क्या है? राजा और रानी भी पछताने लगे कि क्यों राजकुमारी को वर चुनने जैसा कार्य सौंपा? उसकी शर्तें क्यों मानी? अगर स्वयंवर  विफल होता है तो उनकी घोर निंदा होगी. उनका सिर झुक जाएगा. इसके बाद लिच्छवि कुमारी हमेशा के लिए कुँवारी रह जाएँगी.

स्वंयर के लिए ऐसी भी शर्त कोई रखता है? श्रेष्ठता कैसे मापी जा सकती है? कोई और शर्त हो सकती थी जिसमें राजकुमार भाग लेते, कुछ अनूठा, अदभुत प्रदर्शन करते. थोड़ी कठिन चुनौती होती तो भीड़ कम होती. कई राजकुमार बिना भाग लिए लौट जाते. स्वंयर में भारी भीड़ तो न उमड़ती.

राजकुमारी ने उचित नहीं किया. स्वयंवर सभा, विदूषक सभा में बदलती जा रही थी. जिसे देखो वही अपने कुल का बखान किए जा रहा है. कोई गा रहा है, कोई मूँछों पर ताव दे रहा है. विचित्र दृश्य उत्पन्न हो गया था.

अचानक एक कोने से एक साधारण युवक उठ कर बीच सभा में आ गया. साधारण वेशभूषा, ऊँचा क़द, गौरवर्ण, गठीला शरीर और दर्प मुखड़े से टपक रहा था. बड़ी बड़ी आँखें जिनमें आत्मविश्वास की चमक बाहर तक कौंध रही थी.

सारी सभा स्तब्ध रह गई. कुछ राजकुमारों के ठहाके गूँजे. न राजसी वेशभूषा न आभूषण न पैरों में जडाऊ जूतियाँ , न सिर पर कोई राजसी ताज ! जिस तरह वह सभा में आ खड़ा हुआ, वही सबके लिए चौंकाने वाली बात थी. कुछ मंत्रीगण को उसकी उपस्थिति अनुचित लगी. स्वयंवर सभा सिर्फ राजकुमारों के लिए थी, एक अनजान, बिन बुलाया साधारण अतिथि कहाँ से आन पड़ा? एक राजकुमारी के लिए ऐसे साधारण युवक की कल्पना भी राजा नहीं कर सकते थे। वहाँ सन्नाटा छा गया. फिर कुछ राजकुमार उसे देख कर ठहाके लगा कर अपनी झेंप मिटाने लगे। वे सब पराजित लोग थे जो अपने मुक़ाबले में उतरे एक साधारण युवक को देख कर सिर्फ हँस सकते थे। राजा तो वचनबद्ध थे, राजकुमारी की शर्तों से. राजकुमारी ने तो सबके लिए शर्त रखी थी, उसमें सिर्फ राजकुल के लोग शामिल नहीं होते, साधारण जन भी शामिल हो सकते थे। राजा ने अपनी तरफ से सिर्फ राजकुल को आमंत्रित किया था. फिर यह युवक कौन है और सभा में कैसे आया ? राजा के चेहरे पर अनेक सवाल आए और विलुप्त हो गए.

युवक ने अपनी बाँहें ऊपर उठाई –

सभा को प्रणाम किया , राजकुमारी की तरफ देखा, एक पल को दोनों की आंखों में बिजली कौंधी, युवक ने सिर झुकाया और फिर बोल पड़ा –

“मुझे पृथ्वी ने पाला है, गंगा में डूब गई मेरी नौका और मेरा परिवार समाप्त हो गया. तब से मुझे लहरों ने संभाला, पृथ्वी ने माता की तरह गोद दी, आकाश ने पिता बन कर छत दी, और प्रकृति ही मेरा वास रही , यही मेरा कुल है. मैंने सभी धर्मों का पालन किया, पृथ्वी मेरा जन्म स्थल है. विभिन्न स्थानों पर पलता बढ़ता रहा. प्रकृति में शरण पाई।

मैं दावा करता हूँ कि मेरे माता-पिता , मेरा जन्म स्थल , कुल और धर्म सर्वश्रेष्ठ है.“

सभा में राजकुमारों का अट्टाहास गूंजने लगा। सब मिल कर उस युवक का मखौल उड़ाने लगे। पड़ोसी राज्य के राजकुमार चंद्रसेन ने अहंकार में भर कर उसे ताना मारा-

“आपकी कहानी अदभुत है। अपने जीवन का थोड़ा और खुलासा करें, तनिक राजकुमारी जी को पता चले कि किस प्रकार आपका कुल, जन्म स्थान और माता पिता श्रेष्ठ हैं। आपकी जीविका क्या है, ये भी बताने का कष्ट करेंगे। आप एक राजकुमारी के स्वयंवर में खड़े हैं महाशय, आपमें इतनी चेतना तो होगी। यहां आने के लिए पहले पात्रता हासिल करनी होती है फिर यहां प्रवेश मिलता है। क्या ये बात आप भूल गए हैं?”

दूसरे राज्य के एक और राजकुमार बोल पड़े- “यहां आपको किसने अनुमति दी आने की, क्या आपके पास किसी ने आमंत्रण भेजा था…?”

एक सभासद बोल पड़ा- “यहां साधारण मनुष्य का प्रवेश वर्जित है, तुमने यहां आकर दुस्साहस किया है युवक…”

उसकी बात बीच में ही काटते हुए वृद्ध सभासद ने कड़कदार आवाज में कहा- “राजकुमारी की इच्छा का आप सभी अनादर कर रहे हैं। मत भूलिए कि राजकुमारी ने साधारण जन को शामिल होने का निषेध नहीं किया था। आप सब उनकी शर्त्त को याद करिए जिसके अनुसार कोई भी शामिल हो सकता था जो अपने को श्रेष्ठ साबित कर सके…इस युवक को एक अवसर अवश्य मिलना चाहिए।“

युवक के चेहरे पर अपार शांति थी। वह दृढतापूर्वक सभा में खड़ा रहा। उसने बोलना प्रारंभ किया-

“मैं जब गर्भ के अंधेरों से निकल कर बाहर आया, मैंने पाया कि पृथ्वी ने मुझे माता की तरह पाला पोसा, हवा ने मुझे सांसे दीं, सूर्य ने मुझे ताप दिया, पृथ्वी की समस्त वनस्पतियों ने मुझे भोजन दिया। जो सभी जीवों का आधार है। सूर्य महान है, उसके ताप से किसे इनकार है भला। वही सभी जीवन का आधार है। जब हम पैदा होकर पृथ्वी पर आते हैं तो सबसे पहले हवा हमें सांस के रुप में मिलती है, सूर्य हमें उष्मा देता है। समस्त जीवों का जो आधार है, वही श्रेष्ठ होगा। पृथ्वी का बल सूर्य है, पृथ्वी की सांसे हवा है। मैं पृथ्वी को अपनी माता मानता हूं और सूर्य को पिता। मुझमें सूर्य का वास है। पृथ्वी-सी धीरता है। मैं सूर्य-ताप से युक्त एक पुरुष हूं।“

“महानुभावों, माता का काम है, शरीर प्रदान करना, उसका पोषण करना। हमारे शरीर का पालन पोषण भोजन से होता है। पृथ्वी जो उगाती है हमारे लिए, हम उसे खाते हैं, शिशु से व्यक्ति बनते हैं। पृथ्वी ने मुझे शरीर दिया, इसीलिए वह मेरी माता है।“

“मेरी माता सभी माताओं में श्रेष्ठ हैं। मैं सदा उसके संरक्षण में रहता हूं। वह अपनी सभी संतानों को एक समान मानती है, कभी उनमें भेदभाव नहीं करती। चाहे कोई अच्छा हो बुरा। वह अतीव सुंदरी है क्योंकि घने वृक्ष, फसलें उसके वस्त्र हैं, जिससे उसकी देह ढंकी रहती है। वह सदानीरा है, उसकी गोद में जीवन जल छलछलाता रहता है। समस्त प्राणियों के लिए उसका नीर उपलब्ध है। मैं ऐसी माता का पुत्र हूं, जिन्होंने मेरे भीतर उदात्त करुणा का संचार किया है, निस्वार्थ भाव से सबके काम आना सिखाया है, मुझे क्षमाशील बनाया है और सहृदय भी। मैं सबकी रक्षा करने को तत्पर एक भूमिपुत्र हूं।“

युवक बोलता जा रहा था, सारी सभा सन्न थी। उसकी धीर-गंभीर आवाज सभा में गूंज रही थी और उपस्थित समुदाय पर मंत्रों सा काम कर रही थी। जैसे सब सम्मोहित हो रहे हों। सब अवाक खड़े होकर उस युवक की वाणी को सुन रहे थे।

“पृथ्वी सबसे पवित्र स्थान है, जहां मेरा जन्म हुआ।“

“महाराज, मेरा कुल, मानव–कुल है। बाकी सारे कुल मनुष्यों द्वारा निर्धारित किए गए हैं। उनका उद्देश्य देश, समाज को बांटना है। ऊंच-नीच का भेद पैदा करना है, यहां कोई करुणा, उदारता नहीं होती बल्कि वर्चस्व बोध होता है, उसे कैसे उच्च कुल कहा जा सकता है। मैं कर्म में विश्वास रखता हूं। मैं संसार के प्रति अत्यंत संवेदनशील हूं। मेरे कुल का निर्धारण प्रकृति ने किया है। उसी ने मुझे अपार बलशाली और सामर्थ्यवान बनाया है। मेरा कुल ही श्रेष्ठ है।“

युवक कुछ पल के लिए रुका। उसने राजकुमारी की तरफ देखा-

“हे वीर, विदुषी राजकन्या, मुझे अनेक लोगो ने शिक्षा दी, मेरी सेवा की, मुझे आश्रय दिया, मैं मानव-धर्म में विश्वास रखता हूं। जिसकी आस्था सिर्फ मनुष्यता में है। किसी पूजा-अर्चना में नहीं। मैं कर्म करता हूं। अपने श्रम से जीविका चलाता हूं।“

“अगर आपको मेरी स्थापनाओं पर विश्वास है तो वचन देता हूं कि मेरे रुप में आपको दुनिया का सर्वश्रेष्ठ प्रेमी मिलेगा। जिसकी आस्था सिर्फ मनुष्यता में है, और जो एक वीर, शक्तिशाली, विदुषी कन्या को मनुष्य रुप में स्वीकारने को उद्दत है। मैं आपके सामने इसलिए नहीं प्रस्तुत हुआ कि आप एक राजकुमारी हैं, बल्कि इसलिए कि आपने जो शर्त्ते रखीं थीं, स्वंयवर के लिए, वो कोई असाधारण स्त्री ही रख सकती थी। मैं आपका आशय समझ सका था।“

“मैं एक असाधारण स्त्री का असाधारण प्रेमी बनना चाहता हूं। “

युवक चुप हो गया। उसकी आवाज लरज गई थी। प्रेम तक आते आते वह अत्यंत कोमल और मधुर हो उठा था।

राजकुमारी अपनी जगह से उठ कर खड़ी हो चुकी थी। उनके साथ उनकी दासियां, सखियां सहेलियां भी खड़ी हो गईं। बाकी सब अपनी जगह बैठे रहे।

राजकुमारी ने गौर से युवक के चेहरे की तरफ देखा । माथे पर पसीने की बूंदें चहचहा रही थीं। युवक की बांहे उत्तेजना में फैली हुई थीं। आंखों में प्रतीक्षा और संशय के बादल घुमड़ रहे थे।

युवक ने सभा को स्तब्ध हालत में देख कर दोनों हाथ जोड़े, राजा का अभिवादन करके लौट पड़ा।

पीछे से आवाज आई-

“ठहरो…”

वीणा के तार बज उठे थे युवक के मन प्राण में। वह पलटा। राजकुमारी को उसी सखियां थामे हुए चली आ रही थी, उसकी ओर। हाथ में जयमाला लिए हुए राजकुमारी, ऐसे चल कर आ रही थी मानो किसी मंत्र के गहरे प्रभाव में हो। दासियां पग पग बलैया लिए जा रही थीं। सबके पांवो से रुनझुन की झंकार सुनाई दे रही थी। राजा की आंखों में खुशी के आंसू छलक आए थे। रानी अपने आंसू नहीं रोक पाई थीं।

बेसुध-सी वह युवक के मोहपाश में बंध गई थी। उसके जीवन में सर्वश्रेष्ठ घटित हो चुका था।

युवक ने सिर झुका दिया।

……

(अज्ञात स्रोत से प्राप्त एक लोक-कथा पर आधारित )

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लव इन टाइम ऑफ़ कॉलरा: प्रेम की अनोखी दास्तान

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वरिष्ठ लेखिका विजय शर्मा ने मार्केज़ के महान उपन्यास ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ पर यह लेख लिखा है। इस लेख में उपन्यास और उस पर बनी फ़िल्म दोनों  के बारे में लिखते हुए उन्होंने यह दिखाया है कि क्यों प्रेम का ज़िक्र मार्केज़ के इस उपन्यास की चर्चा के बिना अधूरा रह जाएगा- मॉडरेटर

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भले ही इसकी कोई एक परिभाषा निश्चित न की जा सके, एक बात पर सब सहमत होंगे कि हवा-पानी की तरह यह जिंदगी के लिए अत्यावश्यक है। इसके बिना भी क्या जीना। जब यह होता है तो प्रेमियों के पूरे वजूद को हिला कर रख देता है। आज शोध रिजल्ट बताते हैं कि प्रेम लम्बी उम्र का राज है। यह खुशहाली का बायस है। रहस्यमय है, नियंत्रक है, साथ ही व्यक्ति का विस्तार करता है। काबिज होने पर साथी पर पूरी तरह से कब्जा कर लेता है। किसी और को न तो तू देखे और न कोई और तुझे देखे। संपूर्ण समर्पण और संपूर्ण एकाधिकार चाहिए होता है प्रेम को। प्रेम विचारों पर छा जाता है, निर्णयों को प्रभावित करता है, निर्णय करने का साहस देता है। जोखिम लेने की हिम्मत देता है। यह माँग करता है कि साथी ईमानदार और स्वामीभक्त हो, प्रेमी इसके लिए सहर्ष राजी हो जाते हैं। प्रेम क्या है? प्रेम में पड़ना क्या होता है? इसे लिख कर व्यक्त नहीं किया जा सकता है फ़िर भी युगों-युगों से प्रेम पर लिखा जाता रहा है, आगे भी लिखा जाता रहेगा। इसे जानने-समझने का एक ही तरीका है आपादमस्तक इसमें डूबना। यह प्रेरक है, इसीलिए न मालूम कितने चित्र, मूर्तियाँ और साहित्य इसकी उपज हैं।

दुनिया में प्रेम से कठिन कुछ और नहीं है। यह मात्र हृदय तक सीमित नहीं है, इसका आलोड़न पूरी देह को विचलित कर देता है, भले ही प्रेमियों की उम्र शरीर विरूपित होने तक की हो चुकी हो। विश्वास नहीं होता तो गैब्रियल गार्सिया मार्केस की किताब ‘लव इन टाइम ऑफ़ कॉलरा’ का अंतिम हिस्सा पढ़ लीजिए। फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा और फ़रमीना डाज़ा तीन दिन से रीवरबोट पर यात्रा कर रहे हैं। आज रात दोनों फ़रमीना डाज़ा के प्रेसिडेंसियल स्यूट में हैं। असल में फ़रमीना डाज़ा उसे खींच लाई है अपने बिस्तर तक। वह बिस्तर पर पड़ा खुद को नियंत्रित करने का असफ़ल प्रयास कर रहा है। लाइट जल रही है और फ़रमीना डाज़ा अपने कपड़े उतार रही है। वह कहती है, “मत देखो।” छत की ओर देखते हुए हुए वह पूछता है, “क्यों भला?” उत्तर है, “तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा।” तब  देखता है कि वह कमर तक नंगी है और जैसा कि उसने कल्पना की थी, उसके कंधे झुर्रीभरे थे, उसके स्तन लटके हुए, पसलियाँ पीली, मेढ़क की तरह ठंड़ी, माँसल परतों वाली चमड़ी से ढ़ँकी थी। उसने उसी समय अपने उतारे ब्लाउज से अपनी छाती ढ़ँक ली और बत्ती बुझा दी। तब तक वह उठ कर बैठ गया और अंधेरे में अपने कपड़े उतारने लगा। अपने जो कपड़े उतारता जाता उसे उस पर फ़ेंकता जाता। वह हँसी से दोहरी होती हुई एक-एक कर कपड़ों को अपने पीछे डालती जाती।

अंधेरे में रीवरबोट पर नंगे संग-संग लेटे हुए ये दो व्यक्ति अपनी-अपनी आधी सदी दो अलग दुनिया में जी रहे थे, आज तिरपन साल, सात महीने और ग्यारह दिन के बाद ये एक दूसरे से जीवन साझा कर रहे हैं, उनके पास समय है केवल मृत्यु का। फ़रमीना डाज़ा और फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा का प्रेम पहली नजर में तब शुरु हुआ था जब वह १३ साल की और वह १८ साल का था। आज वह जानती है कि उसके शरीर से एक बुढ़िया की गंध आने लगी है। ये हड़ीले हाथ वे हाथ नहीं हैं जिसके स्पर्श की कल्पना उन्होंने किशोरावस्था में की थी। ठीक आधी से अधिक सदी के बाद, उन्हें यह समय मिला था और उसे ये भरपूर जीना चाहते हैं, जीते हैं। ५१ साल नौ महीने और चार दिन के बाद  फ़्लोरेंटीनो को अपना प्रेम पुन: व्यक्त करने का अवसर मिला था। अवसर भी कैसा? जिस दिन फ़रमीना डाज़ा के डॉक्टर पति की लाश दफ़नाई गई थी। यह उसके वैधव्य की पहली रात थी। अभी शव पर डाले गए फ़ूलों की खुशबू घर में भरी हुई थी।

किशोरावस्था में प्रारंभ हुए प्रेम का मारा फ़्लोरेंटीनो इस बीच छिटपुट अफ़ेयर्स के अलावा मात्र ६२२ स्त्रियों से शारीरिक संबंध बनाता है। इन संबंधों में बच्ची अमेरिका विकुना भी है, जिसका वह गार्जियन है। जिसके डायपर बदलते-बदलते वह उसे बच्ची से स्त्री बनाता है। हर बार प्रेम करने के बाद आइसक्रीम खिलाता है। अमेरिका विकुना जब सुनती है कि वह शादी करने जा रहा है तो पहले विश्वास नहीं करती है और कहती है कि यह झूठ है। ‘‘बूढ़े लोग शादी नहीं करते।’’ मगर यह सत्य है। वह सच्चाई का सामना नहीं कर पाती है और आत्महत्या कर लेती है। इन संबंधों में अश्वेत लियोना कैसीयानी भी है। दोनों एक दूसरे के लिए बने हैं। उसका प्रेम ऐसा है कि परदे के पीछे से सारा व्यापार संभालते हुए उसकी सफ़लता का सारा सेहरा वह फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा के सिर बाँधती है। इसी संबंध से फ़्लोरेंटीनो अरीज़ो को पता चलता है कि एक स्त्री और पुरुष बिना हमबिस्तर हुए भी अच्छे दोस्त हो सकते हैं। जब गिर कर पैर में प्लास्टर बाँधे वह बिस्तर पर पड़ा है लियोना कैसीयानी उसकी खूब सेवा करती है सारे काम करती है। इसमें वह स्त्री भी शामिल है जिसने जबरदस्ती उसका क्वाँरापन लूटा था और वह विधवा भी थी जिसे फ़्लोरेंटीनो डाज़ा की माँ ने बेटे का विरह-वियोग दूर करने के लिए जानबूझ कर उसके बिस्तर पर भेजा था। और भी न मालूम कितनी। हिसाब रखने की कोशिश बेकार सिद्ध होती है। मगर कभी पैसा दे कर उसने संबंध नहीं बनाया। यह तो प्रेम की तौहीन होती। यह दिल द मामला है। दिल है कि मानता नहीं, मन है कि फ़रमीना के अलावा किसी को स्वीकारता नहीं। इस रात वह सच्चे मन से स्वीकारता है, “मैं तुम्हारे लिए क्वाँरा था।” ऐसा नहीं है कि फ़रमीना उसकी बात पर विश्वास करती है। जिस उत्साह से यह मनोभाव व्यक्त किया गया है उसे उसका भाव लुभाता है। क्या हुआ जो वह अपने आठवें दशक में चल रहा है और फ़रमीना अपने सातवें दशक में है। कब्र में पाँव लटकाए ये प्रेमी कब तक रहेंगे प्रेम में? किताब अपने अंतिम वाक्य में कहती है, “सदैव”।

आज जब दुनिया पूरी तरह से सेक्स से सांद्र हो चुकी है, फ़िल्म, मीडिया, कला, विज्ञापन सब सेक्स से भरे पड़े हैं, सेक्स और सेक्स की कल्पना हर जगह दिखाई देती है। लगता है जिन्दगी में इसके अलावा कुछ और है ही नहीं, सारे समय सारे लोग बस यही कर रहे हैं। दिन का एक बड़ा हिस्सा इसे देखने-दिखाने, इसके विषय में बोलने, मजाक करने, इसकी कल्पना करने में, इसको पढ़ने में गुजरता है। असल में इसको हम कितना जानते-समझते-प्रयोग करते हैं? इसके लिए कितना समय निकाल पाते हैं? वास्तविकता में तो यह अधिकाँश समय बस ‘वाम-बाम थैंकयू मॉम’ में ही समाप्त हो जाता है। ऐसे समय में १८८० से १९३० तक चलने वाला ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ का अविश्वसनीय प्रेम, प्रेम के प्रति विश्वास मजबूत करता है। मात्र दो-तीन वाक्यों के कथानक – लड़का-लड़की मिले, पिता ने लड़की की शादी कहीं और करवा दी। लड़का इंतजार करता रहा। विधवा होने के बाद बूढी हो चुकी लड़की और बूढ़ा हो चुका लड़का संग रहने लगे – को साढ़े तीन सौ पन्नों में चित्रित किया है गार्सिया मार्केस ने। चित्रण ऐसा कि एक बार शुरु करके समाप्त किए बिना छोड़ा नहीं जा सकता है। मैं जो मार्केस की डाई हार्ड फ़ैन हूँ आज तक निश्चय नहीं कर पाई हूँ कि ‘क्रोनिकल्स ऑफ़ अ डेथ फ़ोरटोल्ड’ और ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ में किसे ऊपर रखूँ (‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सोलीट्यूड’ को कौन छू सकता है!)। भले ही कहती रहती हूँ कि मुझे ‘क्रोनिकल्स ऑफ़ अ डेथ फ़ोरटोल्ड’ सबसे अधिक रुचता है।

उपन्यास ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ पढ़ने पर मन में प्रश्न उठता है यदि यह प्रेम है तो वह क्या था जो आधी सदी तक डॉक्टर जुवेनल उर्बीनो और फ़रमीना डाज़ा, पति-पत्नी के बीच चल रहा था? प्रेम बहुत अनोखा होता है। यहाँ भी प्रेम है। यह वैवाहिक प्रेम है जिसमें एक दूसरे की आदतों से नफ़रत करते हुए, एक दूसरे को कटु वचन सुनाते हुए धीरे-धीरे एक- दूसरे की आदत पड़ जाती है। इतनी एकरूपता आ जाती है कि एक वाक्य बोलना शुरु करता है तो दूसरा उसे बोल कर समाप्त करता है। एक बोलने के लिए मुँह खोलता है तो दूसरे के होठों से उसके शब्द निकलते हैं। साम्यता इतनी हो जाती है कि दोनों भाई-बहन जैसे लगने लगते हैं। एक दूसरे पर निर्भरता इतनी बढ़ जाती है कि मरे हुए साथी को बताना आवश्यक हो जाता है कि कब, कहाँ जाया जा रहा है। जब-तब इस लोक से गया व्यक्ति सामने आ बैठता है और बाते करने लगता है। जीवित रहने पर वैवाहिक जीवन में नफ़रत होती है, एक दूसरे के मर जाने की कामना की जाती है। लम्बे समय तक एक घर में, एक छत के नीचे, एक बिस्तर पर संग सोते हुए जो लगाव उत्पन्न होता है क्या उसे प्रेम का नाम दिया जा सकता है? डॉक्टर फ़रमीना डाज़ा को प्रेम के नाम पर सारी भौतिक वस्तुएँ देता था। सुरक्षा, आदेश, प्रसन्नता, तमाम चीजें जो बाहर से देखने पर प्रेम जैसी लगती, तकरीबन प्रेम लगती पर वे प्रेम नहीं थीं। यह प्रेम नहीं था, यह शंका फ़रमीना को और बेचैन करती, उसकी उलझन को और बढ़ा देती क्योंकि उसे मालूम नहीं था कि वह प्रेम पाना चाहती है, प्रेम चाहती है, निखालिस प्रेम।

पत्नी बनने की सौगंध खाते ही उसने फ़्लोरेंटीनो को अपने दिमाग से पोंछ डाला और मात्र पत्नी बन गई। क्या होता है विवाह? मार्केस डॉक्टर के मुँह से कहलवाते हैं कि यह एक बेतुका अन्वेषण है जो ईश्वर की असीम अनुकंपा के बल पर ही संभव है। दो लोग जो एक दूसरे को जानते तक नहीं, जिनके बीच कुछ भी साझा नहीं है, कोई जुड़ाव नहीं है, जिनका चरित्र भिन्न है, जिनका लालन-पोषण भिन्न तरीके से हुआ है, जो भिन्न लिंग के हैं, विवाह में एक दूसरे के लिए प्रतिबद्धता में होते हैं, साथ रहते हैं, एक बिस्तर पर सोते हैं, शायद दो ऐसी नियती साझा करते हैं जो बिल्कुल विपरीत दिशा में जाती है। ऐसे दो लोगों का साथ रहना समस्त वैज्ञानिक कारणों के विरुद्ध है। एक समय था जब वैवाहिक जीवन को संक्षिप्त रखने में छोटी जीवनरेखा सहायता करती थी। मगर आज विज्ञान का चमत्कार जीवनरेखा लम्बी हो चुकी है और वैवाहिक यंत्रणा से तमाम मनुष्य छटपटा रहे हैं। वैवाहिक बोरडम को लोग झेल रहे हैं।

आज के जनसंचार माध्यमों के युग में इस बीच में बाजार क्यों चूकता। वैवाहिक जीवन के बोरडम को दूर करने के लिए मृत्यु तक (कहीं-कहीं सात जनम तक) साथ रहने की कसम खाए लोगों के बीच आज के उदार आर्थिक जनतंत्र, भूमंडलीकरण, बाजारवाद के दौर में बाजार अपनी पैठ बनाने में शिद्दत से लगा हुआ है। तरह-तरह की क्रीम, लोशन, वयाग्रा जैसी दवाओं के कारगर होने की जोर-शोर से वकालत की जा रही है। कॉउन्सिलिंग क्लीनिक बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं। पत्र-पत्रिकाओं में सेक्स लाइफ़ को विविधतापूर्ण और रंगीन बनाने के कॉलम हैं। आज की बातों को यहीं छोड़ कर चलिए करीब सौ साल पहले की ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ की दुनिया में लौट चलते हैं, जब बाजार था मगर बाजारवाद न था। यहाँ फ़रमीना डाज़ा और डॉक्टर जुवेनल अर्बीनो आधी शताब्दी तक वैवाहिक बंधन में रहते हैं। दुनिया के लिए सबसे सुखी और सुंदर जोड़ा। समाज के हर सार्वजनिक क्रियाकलाप में संग-संग मुस्कुराते हुए हिस्सा लेने वाला। सब जगह आदर्श जोड़े के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत।

अजब होता है वैवाहिक प्रेम। एक दूसरे के छोटे-छोटे नुक्तों पर खीजना-झगड़ना। बाथरूम में साबुन की टिकिया न होने की शिकायत, इस शिकायत को झूठी साबित करने की जिद, कमोड का रिम गीला करने पर साथी की बड़बड़ाहट और उससे बचने के लिए प्रयोग के बाद रिम को पोंछना, रिम सूखा रखने के लिए स्त्रियों की तरह बैठ कर पुरुष द्वारा उसका इस्तेमाल। एक जल्दी सो कर उठता है दूसरे को देर तक सोना अच्छा लगता है, सुबह नींद में खलल पसंद नहीं है, दूसरा उठ जाता है अत: खलल तो पड़नी ही है। एक को पशु-पक्षी बहुत अच्छे लगते हैं, उन्हें पालने का शौक है, दूसरा पशु-पक्षी देख नहीं सकता है। हुक्म है घर में कोई ऐसा जानवर नहीं आएगा जो बोल नहीं सकता है। नतीजन केवल एक तोता घर में है। तोता जिसे जितना सिखाया जाता है वह उससे ज्यादा सीखता-बोलता है। जब डॉक्टर कहता है, “यू स्काउंड्रल!” तोता उसी आवाज में कहता है, “यू आर इवेन मोर ऑफ़ अ स्काउंड्रल, डॉक्टर।” कॉलरा को जड़ से उखाड़ फ़ेंकने का प्रण किए डॉक्टर जुवेनल उर्बीनो की मौत का कारण यही तोता बनता है। गार्सिया मार्केस वैवाहिक जीवन की छोटी-से-छोटी बात, संवाद-व्यवहार पर निगाह रखे हुए हैं। सो वैवाहिक जीवन में न चित में चैन है न पट में शांति है। असल में इन सबका उत्स कहीं और होता है।

एक बार डॉक्टर अपनी पत्नी की शिकायत पर कहता है कि एक अच्छे वैवाहिक जीवन की सबसे महत्वपूर्ण चीज प्रसन्नता नहीं, बल्कि स्थिरता होती है। वही डॉक्टर खुद अपने वैवाहिक जीवन को अपनी बेवफ़ाई से हिला डालता है। फ़रमीना डाज़ा की कुत्ते की तरह सूँघते रहने की आदत से वह शुरु से परेशान है। वह नफ़रत करता है पत्नी की इस आदत से। दूसरी ओर फ़रमीना डाज़ा अपनी इसी अनोखी घ्राण शक्ति के बल पर पति की बेवफ़ाई उससे कबूल करवा पाती है। फ़रमीना डाज़ा के प्रति एकनिष्ठ डॉक्टर उसे बहुत चाहता था, पर था तो वह भी पुरुष ही। सो एक दिन उसका नाड़ा अपनी एक मरीज, एक मुलाटा मिस बारबरा लिन्च के लिए खुल जाता है। वह हर दिन पाँच बजे उसके पास बस उतने ही समय के लिए जाता है जितने में एक डॉक्टर अपने मरीज को एक इंजक्शन लगा सकता है। दुनिया को दिखाते हुए वह रोज अपनी प्रेमिका (क्या उसे प्रेमिका कहा जा सकता है?) को इंजेक्शन लगाने जाता है। इतने कम समय में कपड़े उतारने का वक्त नहीं होता है अत: पैंट घुटनों तक सरका कर काम चलाया जाता है। शहर छोटा-सा है और डॉक्टर बहुत सम्मानित है, रोज-रोज लिन्च के द्वार पर गाड़ी खड़ी करना खतनाक है।

फ़रमीना डाज़ा को दूसरों से नहीं, पति के बदले-उखड़े व्यवहार से और उसके कपड़ों से आती गंध से उसकी करतूत पता चलती है। सही स्रोत पता करने के लिए एक दिन वह पति से थिर आवाज में कहती है, “मेरी ओर देखो।” डॉक्टर उर्बीनो उसकी नजरों की ताब नहीं झेल पाता है, उस क्षण के बाद से वह कभी लिन्च के पास नहीं जाता है। वह सारी बात फ़रमीना के सामने स्वीकारता है, साथ ही जोड़ता है, “मुझे लगता है मैं मरने वाला हूँ।” पत्नी का उत्तर है, “बड़ा अच्छा होगा, तब हम दोनों को थोड़ी शाँति मिलेगी।” यह है मार्केस द्वारा चित्रित वैवाहिक प्रेम जिसमें शुरु से डॉक्टर जानता है कि उसे फ़रमीना डाज़ा से प्रेम नहीं है। उसने उससे शादी की क्योंकि उसे उसकी अदाएँ अच्छी लगती थीं। शीघ्र उसे मालूम हुआ कि दोनों के बीच सच्चे प्रेम में कोई बाधा नहीं होगी। वह प्रेम को भी अन्य वैज्ञानिक आविष्कारों की भाँति अन्वेषित कर लेगा। वे कभी प्रेम की बात नहीं करते हैं। मगर एक दूसरे से खूब-खूब प्रेम करते हैं। मरते समय डॉक्टर अपनी पत्नी से कहता है कि वह उसे प्यार करता है। पत्नी से उम्र में दस साल बड़ा डॉक्टर स्वाभाविक रूप से उससे पहले बूढ़ा होता है। फ़रमीना उसे एक बच्चे की तरह नहलाती-धुलाती है, कपड़े पहनाती है, खाना खिलाती है। अन्य प्रेम की भाँति वैवाहिक प्रेम भी विचित्र होता है।

दूसरी ओर डॉक्टर के ठीक विपरीत सिर से पाँव तक कुरूप और उदास फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा पूरी तरह से प्रेम का मूर्तिमान रूप है। रोमांस का अप्रतिम नायक। स्त्रियाँ उसकी प्रशंसा इस लिए करती हैं क्योंकि उसने उन्हें वेश्या बनाया है। फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा का रूप-रंग-बाना देखने योग्य है, मौसम कोई हो मगर उसकी पोषाक तय है। एक उपयोगी और गंभीर बूढ़ा, उसका शरीर हड्ड़ीला और सीधा-सतर, त्वचा गहरी और क्लीन शेवन, रुपहले गोल फ़्रेम के चश्मे के पीछे उसकी लोलुप आँखें, रोमांटिक, पुराने फ़ैशन की मूँछें जिनकी नोंक मोम से सजी हुई। गंजी, चिकनी, चमकती खोपड़ी पर बचे-खुचे बाल बिलक्रीम की सहायता से सजाए हुए। उसकी मोहक और शिथिल अदा तत्काल लुभाती, खासकार स्त्रियों को। अपनी छियत्तर साल की उम्र को छिपाने के लिए उसने खूब सारा पैसा, वाक-विदग्धता और इच्छाशक्ति लगाई थी और एकांत में वह विश्वास करता कि उसने किसी भी अन्य व्यक्ति से ज्यादा लम्बे समय तक चुपचाप प्रेम किया है। उसका पहनावा भी उसकी तरह विचित्र है। वेस्ट के साथ एक गहरे रंग का सूट, सिल्क की एक बो-टाई, एक सेल्यूलाइड कॉलर, फ़ेल्ट हैट, चमकता हुआ एक काला छाता जिसे वह छड़ी के रूप में भी प्रयोग करता। दूसरी ओर फ़रमीना डाज़ा ऐसी कि राह चलते लोग मुड़ कर देखें। वह मौके के अनुसार कपड़े-जेवर पहनती है। दुनिया के नवीनतम फ़ैशन की उसे जानकारी रहती है। एक समारोह में उसे जाना है, उसने सिल्क की ढ़ीली ड्रेस पहनी है जिसे बेल्ट से कसा है, गले में छ: लड़ा मोती का हार, हाई हील्ड साटिन शूज हैं और है सजा हुआ घंटी के आकार का (बेल शेप्ड) हैट। भले ही यह उसकी उम्र के लोगों के योग्य ड्रेस नहीं है पर यह उस पर फ़बती है। वह अपने पति के कपड़े भी अवसरानुकूल चुनती है। पहनाती भी है क्योंकि अब बुढ़ापे में वह खुद पहन नहीं पाता है।

फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा बराबर मिलता रहा है फ़रमीना डाज़ा से मगर सदैव सार्वजनिक स्थलों पर। फ़रमीना डाज़ा भी उससे वैसे ही मिलती है जैसे समाज के तमाम अन्य लोगों से मिलती है। डॉक्टर और फ़रमीना डाज़ा हवाई गुब्बारे में डाक लेकर उड़े, संगीतोत्सव में निर्णायक बने, चर्च में मास करने गए, सिनेमा देखने पिक्चर हॉल गए, बाजार-हाट गए, सब जगह वे टकराते हैं। डॉक्टर उसके साथ बड़े सम्मानपूर्वक ढ़ंग से पेश आता है। पहली बार जब वे मिलते हैं और डॉटर अपनी पत्नी की बात करने लगता है तो फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा सोचता है कि दोनों पुरुष एक ही नियती के शिकार हैं, दोनों साझे पैशन-हजार्ड को लेकर चल रहे हैं, दोनों एक जूये में जुते हुए हैं। फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा सफ़लता की सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते रिवरबोट कम्पनी का सर्वोच्च अधिकारी बन चुका है। मगर उसकी पोशाक नहीं बदली। देखने में यह ब्यूटी एंड बीस्ट की कहानी लगती है। जिसमें ब्यूटी तो है, मगर बीस्ट कभी कोई बीस्टली काम नहीं करता है। फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा फ़रमीना डाज़ा को लाल गुलाब देना चाहता है। डरता है क्योंकि वह उसकी तुनकमिजाजी से बहुत अच्छी तरह परिचित है। वह भी एक बूढ़े की जिद पाले बैठा है। उसके सिर के बाल उड़ने लगे, दाँत झड़ने लगे। पर दिल ज्यों का त्यों फ़रमीना डाज़ा के लिए सुरक्षित है। वह फ़रमीना डाज़ा की जिंदगी में आए बदलावों पर आँख रखे हुए है, उसे एक दिन अचानक उम्रदराज़ होने का अहसास होता है, वह देखता है कि फ़रमीना डाज़ा को चलते वक्त डॉक्टर के सहारे की जरूरत पड़ने लगी है। प्रेम समय-कुसमय नहीं देखता है फ़्लोरेंटीनो अपने प्रेम का पुन: इजहार करता है, “मैंने इस अवसर का आधी सदी से अधिक इंतजार किया है, अपने शाश्वत वफ़ाई और असमाप्त प्रेम की दोबारा कसम खाने के।” अवसर है उसके वैधव्य की पहली रात्रि का। किस उत्तर की अपेक्षा की जाती है। सही सोचा। वह कहती है कि दफ़ा हो जाओ मेरी नजरों के सामने से और मरने तक दोबारा फ़िर कभी अपना मुँह न दिखाना, तुम्हारे मरने में अधिक दिन नहीं बचे हैं। अवसर है जब वह अपने पति के साथ एक बार फ़िर से वही जिंदगी गुजारने की सोच रही थी।

जिंदगी को कोई कुछ सिखाता नहीं है, जिंदगी सबको सिखाती है। वह प्रेमी क्या जो हताश हो कर प्रेम पाने की कोशिश करनी छोड़ दे। जिंदगी भर प्रेम पत्र के अलावा कुछ और न लिख पाने वाला फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा फ़िर करीब दो साल तक अपनी प्रेमिका को खत लिखता है मगर इस बार वे पागल प्रेमी के उद्गार न हो कर एक मित्र के रूप में लिखे गए आध्यात्मिक पत्र हैं, जिनसे एक विधवा को अपने वैधव्य सहने की शक्ति मिलती है और वह उसे पुन: अपने जीवन में प्रवेश की अनुमति देती है। प्रेम की एक बार फ़िर जीत होती है।

प्रेम का कौन-सा आयाम है जो इस उपन्यास में चित्रित नहीं है। आधी सदी तक इंतजार करने वाला प्रेम, वैवाहिक प्रेम, माँ-बेटे का प्रेम, माँ-बेटी का प्रेम, एकांतिक प्रेम (जी हाँ इसमें लड़कियों के अपने शरीर के अंवेषण की बात है), समलैंगी प्रेम, विवाहेत्तर प्रेम, नौकर-मालिक-मालकिन, किशोर प्रेम, युवा प्रेम, बूढ़ा प्रेम, बच्ची से किया गया प्रेम। सब यहाँ उपस्थित है। और तो और पशु-पक्षी से प्रेम, पशु-पक्षी का प्रेम, प्रकृति-प्रेम भी यहाँ है। प्रकृति का मनुष्य द्वारा दोहन, प्रकृति का उजाड़ होते जाने, पर्यावरण प्रदूषण सब यहाँ चित्रित है। प्रेम का सकारात्मक और नकारात्मक दोनों रूप यहाँ है। इडीपस कॉम्प्लेक्स और एलेक्ट्रा कॉम्प्लेक्स आयाम इस उपन्यास में भरपूर आए हैं। जिन पर फ़िर कभी। नोबोकॉव की लोलिता भी यहाँ नजर आती है। उस पर भी फ़िर कभी और। बच्चों का फ़ोटोग्राफ़र और उसकी अश्वेत साथिन पर भी कभी और। मृत्यु इस उपन्यास की स्वरलहरी है। हर रूप, हर रंग में, हर स्थान पर उपस्थित। बुढ़ापे से मृत्यु, बुढ़ापे से डर कर आत्महत्या, जवानी में मौत, बच्ची की मौत, स्वाभाविक-अस्वाभाविक मौत, बीमारी से मौत, गंभीर मौत, हास्यास्पद मौत, बेतुकी मौत। मनुष्यों के साथ-साथ प्रकृति भी मर रही है। आदमियों के साथ-साथ शहर-देश मर रहा है। और मोहभंग? तरह-तरह के मोहभंग भी यहाँ वर्णित हैं। मगर अभी तो खालिस लव की बात, वह भी बस ‘लव इन द टाइन ऑफ़ कॉलरा’ की बात। जितने सुंदर, मार्मिक दृश्य इस उपन्यास में चित्रित है उससे कहीं ज्यादा वीभत्स चित्र यहाँ आए हैं। क्यों न आएँ, आखिरकार उपन्यास चल रहा है ‘इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ में।

गेब्रियल गार्सिय मार्केस को इस उपन्यास की सामग्री मिली अपने माता-पिता के जीवन से। कोलंबियन गेब्रियल गार्सिया मार्केस ने स्कूली शिक्षा भी न समाप्त की लेकिन पत्रकार के रूप में पेशेगत जिंदगी की शुरुआत कर विश्व का एक सर्वाधिक लोकप्रिय और बड़ा लेखक हासिल बनने का श्रेय लिया। ये पाठकों को एक दूसरी दुनिया में ले जाने में सिद्ध हस्त हैं। इनका जन्म ६ मार्च १९२७ को कोलंबिया के एक छोटे से तटीय शहर अराकाटाका में हुआ। पत्नी मर्सडीज़ के प्रति एकनिष्ठ रहते हुए इन्होंने न जाने कितने अफ़ेयर्स चलाए। मर्सडीज़ बारचा प्रादो से बेहद प्रेम करने वाले गार्सिया मार्केस स्कूली दिनों में मिले थे जब वे उन्नीस साल और ये तेरह साल की थीं। ये पत्नी का योगदान स्वीकार करते हैं। इनका मानना है कि  पत्नी के कारण ये लेखक बन कर जीवन व्यतीत कर पाए। गार्सिया मार्केस मानते हैं कि उनके जीवन में दो अच्छी बातें हुई है , एक उनका मीन नक्षत्र में जन्म लेना और दूसरा पत्नी मर्सडीज़ का होना। बोर्खेज़ और फ़ॉक्नर से प्रभावित गार्सिया मार्केस की अपने समकालीनों से खूब मित्रता है। संयुक्त परिवार में पले-बढ़े ये ग्यारह भाई-बहनों में सबसे बड़े हैं। इनका एक सौतेला भाई भी इनके पिता के किसी अल्पकालीन संबंध का परिणाम। साहित्य रचते हैं लेकिन उसे जानते नहीं हैं अत: उस पर कभी बोलना पसंद नहीं करते हैं।

इनके पिता गेब्रियल एल्गियो गार्सिया मार्टीनेज़ पढ़ने के लिए अराकाटाका आए थे मगर बनाना कम्पनी में काम करने लगे। वे टेलीग्राफ़ विभाग में काम करते थे। यहीं वे अपनी होने वाली पत्नी लुइसा सैंटीआगा मार्केस से मिले। मगर जैसाकि होता है लड़की के माँ-बाप को यह पसंद नहीं था। कारण वह बाहर से आ कर बसा था। वे खुद भी बाहर से आए थे मगर उन्होंने यहाँ खूब सम्पत्ति जोड़ ली थी। दूसरी बात जो उन्हें नागवार लग रही थी वह था लड़के का एक नाजायज औलाद था इसका मतलब निम्नजीवन। पहले माँ-बाप ने लड़की को रिश्तेदारों और मित्रों के यहाँ-वहाँ रखा ताकि वे एक दूसरे को भूल जाएँ। मगर उन्हें शीघ्र पता चला कि वे टेलीग्राफ़ के माध्यम से एक-दूसरे से लगातार जुड़े हुए हैं। प्रभावशाली पिता ने लड़के का स्थानान्तरण अन्य स्थान रिपोहाचा करवा दिया। इसके फ़लस्वरूप माता-पिता की कामना के विपरीत दोनों के प्रेम में बढ़ोतरी हुई। परिचितों ने माता-पिता को समझाया-बुझाया, अंतत: वे राजी हो गए। शायद राजी होने का असली कारण बेटी का गर्भवती होना था। इस तरह दोनों का, ग्रासिया मार्केस के माता-पिता का ११ जून १९२६ को विवाह कर दिया गया, इस शर्त के साथ कि वे अराकाटाका नहीं लौटेंगे। जल्द ही यह शर्त टूट गई और गेब्रियल गार्सिया मार्केस का जन्म उनके नाना-नानी के घर हुआ। कोलंबिया की संस्कृति में बच्चे के तीन नाम होते हैं। पहला उसका अपना नाम दूसरा पिता का और तीसरा माँ का। वहाँ व्यक्ति को बुलाने के लिए पहले अथवा तीसरे नाम का प्रयोग नहीं किया जाता है उसे दूसरे और तीसरे नाम से एक साथ बुलाया जाता है। इसी रीति का पालन करते हुए इस आलेख में इन्हें गार्सिया मार्केस संबोधित किया गया है। वैसे इनके मित्र और चाहने वाले इन्हें गाबो नाम से बुलाते हैं। इनके माता-पिता के जीवन से उपन्यास का काफ़ी साम्य है। ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ का नायक भी टेलीग्राफ़ विभाग में काम करता है और सारी जिंदगी बस प्रेम पत्र लिखता है। ऑफ़ीसयल लेटर के रूप में भे बस प्रेम पत्र। अपने प्रेम पत्र साथ ही दूसरों के प्रेम पत्र भी लिखता है। पत्रों के माध्यम से ही उसका प्रेम परवान चढ़ता है और एक लम्बे समय तक पत्रों की आस पर वह जीता है।

इनके माता-पिता में बेहद लगाव रहा। ये स्वीकारते हैं कि फ़रमीना डाज़ा का चरित्र इनकी माँ पर आधारित है मगर फ़रमीना डाज़ा अधिक दुनियादार है। रोमांटिक होते हुए भी जमीन से जुड़ी हुई। ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ की फ़रमीना डाज़ा आधुनिक स्त्री है, वह एक दुनियादार स्त्री है जो सुरक्षा और सम्मान के लिए प्रेम को ठुकरा कर डॉक्टर से विवाह करती है। उस डॉक्टर की घर-गिरहस्ती महारानी की तरह संभालती है। उसे एक बेटा और एक बेटी देती है। दुनिया घूमती है, घर में दुनिया की बेहतरीन चीजें सजाती है। जब चीजों से मन भर जाता है तो उन्हें हटा देती है। जरूरत पड़ने पर पति की बच्चे की तरह देखभाल करती है और जब यह भूमिका पूरी हो जाती है तो प्रेमिका की भूमिका में कुशलता के साथ समा जाती है। प्रेम का सब ढ़ंक लेने वाला शक्तिशाली रूप निर्णय लेने का साहस देता है। वह परिवार, समाज, दुनिया की परवाह न करते हुए अपने जनम-जनम के प्रेमी के साथ चल पड़ती है। उपन्यास दिखाता है कि प्रेम को ना कहना त्रासद होता है। इसकी प्राप्ति मनुष्य को सकून देती है।

प्रेम इस धरती पर तभी से है जब से मनुष्य इस धरती पर है। लेकिन यूनानियों के लिए प्रेम एक अनियमित और अल्पकालीन अनुभव हुआ करता था। दरबारी प्रेम अक्सर अवैध और जानलेवा होता। प्रेम का मतलब था दु:ख (क्या आज भी यह सत्य नहीं है?)। सुखांत प्रेम यूनानियों की सांस्कृतिक कल्पना में न था। सत्तरहवीं सदी तक प्रसन्न ‘रोमांस’ शब्द डिक्शनरी में न था। संग-साथ की कामना और लालसा प्रेम की शाश्वत छोटी-सी मासूम माँग रही है। मगर बारहवीं सदी का एडवाइज मैनुअल (ऑन लव एंड द रेमीडीज़ ऑफ़ लव) चेतावनी देता है: ‘प्रेमी को देखने या बात करने के बहुत अधिक अवसर प्रेम को कम कर देते हैं।’ शायद यह भी एक कारण है वैवाहिक प्रेम के घटते जाने का। पता नहीं कितना सही है जब कहा जाता है कि वैवाहिक प्रेम समय के साथ प्रौढ़ होता है, बढ़ता है। प्रेम को परिभाषित करना जितना कठिन है उससे कम कठिन नहीं है उसे फ़ार्मूलाबद्ध करना। पहले वैवाहिक जीवन की अवधि कम होती थी क्योंकि जीवन रेखा छोटी थी। आज जब विज्ञान की कृपा से जीवन रेखा लम्बी हो गई है तो वैवाहिक जीवन अवधि को छोटा करने के लिए तलाक की सुविधा उपलब्ध है। फ़रमीना डाज़ा तलाक नहीं लेती है मगर एक लम्बे समय के लिए अपनी कज़िन के यहाँ रहने चली जाती है। पति में उसे रोकने का नैतिक साहस नहीं है। वह तभी लौटती है जब डॉक्टर उसे खुद लिवाने जाता है।

मार्केस के ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ में पूरा जीवन, आधी सदी लग जाती है प्रेमी को अपनी प्रेमिका पाने में, एक दूसरे को पाने में। बुढ़ापे में दोनों मिल बैठ कर सुख-संतोष से समय गुजार रहे हैं। फ़रमीना डाज़ा की बेटी ओफ़ीलिया को यह नागवार लगता है। वह माँ के इस उम्र में अफ़ेयर की बात सुन कर न्यू ओरलियन से आई है। डॉक्टर बेटे के लिए दो अकेले लोगों के लिए यह एक स्वस्थ संबंध था। वह खुश था कि उसकी माँ को रंड़ापे में कोई साथी मिल गया। वही उसकी बहन के लिए यह कुत्सित वेश्यागिरी थी। वह अपनी दादी के स्वभाव की थी। दादी ने जीते-जी फ़रमीना डाज़ा को कभी चैन से न रहने दिया। एक टिपिकल सास थी वह, उसका बेटा एक टिपिकल बेटा था। बेटा अन्याय देखते हुए भी कभी माँ को कुछ न कह सका, पत्नी के पक्ष में एक शब्द न निकला उसके मुँह से। ओफ़ीलिया ठीक अपनी दादी की तरह कुंठाओं, पूर्वाग्रहों से भरी हुई थी। पाँच साल की नादान उम्र में भी वह स्त्री-पुरुष के बीच मासूम प्रेम की कल्पना नहीं कर सकती थी तो भला अस्सी साल के स्त्री-पुरुष के संबंध को कैसे मासूम मान लेती? वह अपने भाई से कटु विवाद करते हुए कहती है कि माँ को सान्त्वना देने के लिए बस एक ही काम फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा को करना बच गया है, माँ के बिस्तर पर पहुँचना। भाई उससे कभी पार नहीं पा पाता था इस बार भी नहीं पा पाता है। लेकिन उसकी पत्नी चुप नहीं रहती है। वह अपनी सास का पक्ष लेती है। वह प्रेम के लिए किसी उम्र सीमा को नहीं मानती है।

प्रेम अपने आप में पूर्ण होता है, उसका कोई अन्य लक्ष्य नहीं होता है। वह साधन और साध्य दोनों है। सदा से प्रेम को युवाओं, किशोरों का पागलपन माना जाता रहा है। फ़रमीना डाज़ा की बहु को अपनी सास के बुढ़ापे के प्रेम से कोई आपत्ति नहीं है बल्कि वह इसे न्यायोचित ठहराती है। मगर ओफ़ीलिया के लिए उसकी उम्र में भी प्रेम हास्यास्पद है और उनकी उम्र में तो यह जुगुप्सा उत्पन्न करने वाला है। आज के उत्तरआधुनिक युग में भी शायद बहुत सारे लोगों को यह घृणित लगे। जिद्दी ओफ़ीलिया ने तय किया कोई कुछ करे-न-करे वह फ़्लोरेंटीनो अरीज़ो को घर से निकाल बाहर करेगी। फ़रमीना डाज़ा जब ठान लेती है तो उसके रास्ते को कोई नहीं रोक सकता है। जब बेटी का इरादा माँ को पता चलता है वह बेटी को घर से निकल जाने का आदेश देती है। इतना ही नहीं अपनी मरी माँ की सौगंध खा कर कहती है कि अब वह इस घर में कभी कदम न रख सकेगी। फ़रमीना डाज़ा अपने मूल स्वरूप में लौट आती है, अब उसे कोई नहीं रोक सकता है। बेटी बाद में माँ से माफ़ी माँगती है मगर माँ उसे कभी नहीं माफ़ करती है, न ही कभी घर में घुसने देती है, उसने अपनी मरी माँ की कसम जो खाई थी।

ऐसी थी फ़रमाना डाज़ा। एक समय भले ही उसने फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा को अपनी जिंदगी से दूर कर दिया था लेकिन आज उसे पता है कि असल में वह कभी उसे दूर नहीं कर पाई थी। वह दुनिया देख चुकी है आज उसे अपने पिता की सच्चाई मालूम है। पिता की समृद्धि के स्रोत से भी वह अब परिचित है। वह जानती है कि एक सम्मानित विधवा को दूसरे पुरुष के साथ देख कर लोग क्या कहेंगे-सोचेंगे, खास कर इस पकी उम्र में। इसे किशोरावस्था और जवानी में होने वाली भूल माना जाता है। मगर यह कभी भी, कहीं भी, किसी उम्र, किसी जाति, किसी रंग, किसी नस्ल के व्यक्ति को हो सकता है। इससे कोई अछूता नहीं रह सकता है, यह किसी को भी कॉलरा की तरह दबोच सकता है। गार्सिया मार्केस से जब किसी ने पूछा कि वे कैसे मरना पसंद करेंगे तो उनका उत्तर था, ‘प्रेम में’। जब प्रेम व्यक्ति पर छाता है तो उसका सर्वांग निगल लेता है। प्रेमी-प्रेमिका की भूख-प्यास सब गायब हो जाती है। वे प्यार के लिए कुछ भी यहाँ तक की जान भी देने को राजी रहते हैं। अनारकलि अपने सलीम की गली छोड़ कर अपने प्रेमी के साथ डिस्को चल देने को तैयार रहती है। फ़रमीना डाज़ा भी अपने प्रेमी के साथ रीवरबोट की सैर को निकल पड़ती है। और जिस बोट पर जाती है उसका नाम है ‘न्यू फ़िडेलिटी’। सच में यह ‘नई वफ़ा’ का जमाना है जहाँ धैर्य का मीठा फ़ल प्राप्त होता है।

फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा ने उन्नति की है अब वह ‘रिवर कम्पनी ऑफ़ द करेबियन’ का प्रमुख है। उसकी बोट का प्रेसिडेंसियल स्यूट फ़रमीना डाज़ा के लिए आरक्षित है। बेटे की रजामंदी से माँ सैर के लिए जा रही थी। जब बेटे को पता चला कि बोट पर कोई और भी जा रहा है उसका पौरुष जाग पड़ता है और पाठक देखता है कि बाहर से प्रगतिशील बेटा भीतर से अपनी बह न की तरह ही दकियानूसी है। हाँ उसकी पत्नी आधुनिक विचार की है। वही इस नाजुक मौके पर बात संभालती है। फ़रमीना डाज़ा अपनी बहु को पहचानती है इसीलिए वह उससे अपने मन की बात कह पाती है। वह कहती है, “एक सदी पहले उस बेचारे और मुझ पर जिंदगी ने अत्याचार किया था क्योंकि हम बहुत छोटे थे, और अब वही फ़िर से करना चाहती है क्योंकि हम बूढ़े हैं।” कितनी अजीब बात है पेट की जाई उसे नहीं समझ पाती है और एक बाहर से आई स्त्री उसे न केवल सुनती-समझती है वरन उसकी सहायक भी बनती है। कम-से-कम उसे अपने डॉक्टर पति की तरह दु:ख नहीं है कि कोई उसे जानने-समझने वाला नहीं है। गार्सिया मार्केस यहाँ सास-बहु के रिश्तों को एक नया आयाम प्रदान करते हैं।

मार्केस इस अनोखी प्रेम यात्रा में बहुत कुछ दिखाते हैं। इस प्रेम कथा में लेखक पर्यावरण का निरीक्षण करता है। आज हम पर्यावरण को ले कर इतने चिंतित है मगर पर्यावरण प्रदूषण आज से सौ साल पहले भी था और बहुत भयंकर था। फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा इस बार की यात्रा में प्रकृति का बदलाव देख कर चकित है, वह देखता है कि पानियों का पिता कहलाने वाली मैग्डेलेना नदी में आज नॉव चलाना कठिन है। नदी आज मात्र स्मृतिभ्रम बन कर रह गई है। पचास साल से जंगल कट रहा है। बड़े-बड़े पुराने पेड़ रिवरबोट के ब्यॉलर चलाने के लिए काटे जा रहे हैं। फ़रमीना डाज़ा को अपने मनचाहे जानवर कहीं नहीं दीख रहे हैं। चमड़े के कारखानों की आपूर्ति के लिए उनका शिकार किया जा चुका है। न कहीं धूप सेंकते घड़ियाल हैं, न तितलियाँ और न ही चीखते तोते और पागलों की तरह चिंचियाते बंदर, न ही अपने बछड़े को अपने बड़े-बड़े थनों से दूध पिलाती जलगाय जो मनुष्य की आवाज में रो सकती थी। सब नष्ट हो चुका है। सारी धरती बंजर हो चुकी है। आज भी पर्यावरण पर किया जा रहा यह अत्याचार रुका नहीं है। जब पानी नहीं रहेगा तो हम क्या करेंगे? मार्केस व्यंग्य करते हैं, ‘तब हम सूखी नदी की छाती पर लक्ज़री ऑटोमोबील चलाएँगे।’ प्रश्न उठता है जब ऑटोमोबील का ईधन चुक जाएगा तब? समूद्र में डूबे खजाने और उसकी निष्फ़ल खोज का रूप भी इसमें वे रचते हैं।

आज इक्कीसवीं सदी में प्रेम को लेकर कोई वर्जना, कोई कुंठा नहीं है। साथ ही आज लोग प्रेम को लेकर इतने आश्वस्त नहीं हैं। लोग भ्रमित हैं। प्रेम को लेकर इतनी गलतफ़हमी है कि लोग सही-गलत का निर्णय खुद नहीं कर पा रहे हैं। इसे भी आज बाजार के हाथ सौंप दिया गया है। बाजार बहती गंगा में हाथ धो रहा है। पहले कोई एक पाठकजी दुल्हनियाँ दिलवाते थे। आज वैवाहिक विज्ञापनों से दुनिया भरी पड़ी है। वैवाहिक विज्ञापनों की नेट साइट से ज्यादा डेटिंग की नेटसाइट के विज्ञापन हैं। आपको कैसा साथी-साथिन चाहिए इसका डाटा बैंक बना लिया जाता है। पैसा फ़ेंको तमाशा देखो। फ़ैशन के इस दौर में गारंटी कौन दे सकता है। हाँ, आप चाहें तो आपकी जेब के अनुसार डेट की संख्या तय की जा सकती है। आपकी डेट बाजार अरेंज कर देगा और अगर आपकी पॉकेट पार्मीशन देगी तो आपकी पोशाक, नेल पॉलिस, जूते, टाई,, मेकअप, केशविन्यास, मिलने का स्थान, सब बाजार तय कर देगा। वह दुकान सजाए बैठा है बस आपको हाँ करने की देर है। अब आगे आपका भाग्य। आगे की घटना-दुर्घटना की जिम्मेवारी भला कौन ले सकता है। मैच मेकिंग दुनिया का एक प्राचीनतम पेशा है। आज भी ये आपके लिए साल में कम-से-कम बारह ब्लाइंड डेट अरेंज कर दे सकते हैं। ज्यादा नहीं बस आपको अपनी अंटी से १५-२० हजार डॉलर ढ़ीले करने होंगे। क्या कहा आप भारत में हैं। कोई दिक्कत नहीं भारत में आप इसे भारतीय करेंसी में चुका सकते हैं। एक शोध के अनुसार पुरुषों को इस सहायता की अधिक जरूरत होती है वे तय नहीं कर पाते हैं कि प्रेम के लिए किसे चुने। स्त्री अपने सहजज्ञान पर अधिक निर्भर करती है।

समाज में आज खुलेआम सब तरह के प्रेम संबंध, सब तरह के परिवार उपलब्ध हैं। भविष्य में भी लोग प्रेम और रोमांस में पड़ते रहेंगे। लम्बे समय तक संग रहने से पैशन कम हो जाए, सेक्स की इच्छा चुकने लगे, शायद पूरी तरह से बुझ भी जाए, मगर प्रेम में प्रौढ़ता आती जाती है। दिक्कत तब आती है जब एक साथी की सेक्स इच्छाएँ बुझने लगती हैं। क्या दूसरा साथी अपने स्वस्थ शरीर की जायज माँग को दबा कार रखे, उसे मन मार कर ठुकरा दे? प्रेम के लिए सेक्स के आकर्षण को समाप्त नहीं किया जा सकता है। यह तो ऐसे ही हुआ कि स्वस्थ अंग को शरीर से काट कर अलग कर फ़ेंक दिया जाए। इसके लिए बहुत ज्यादा बेहोशी की दवा की खुराक चाहिए होगी। इसके बाद भी दर्द का भूत पूरी तौर पर जाता नहीं है। समाज की नजर में साथी का बदलाव असफ़लता, बेशर्मी, असंतुष्टि का प्रतीक माना जाता है। सामाजिक अपेक्षाओं पर खरे उतरने के लिए वैवाहिक प्रेम के स्थायित्व के नाम पर, आर्थिक जरूरतों की पूर्ति के लिए लोग संबंधों को ढ़ोए चले जाते हैं। खुद भी खीजे रहते हैं, दूसरों को भी चैन से नहीं जीने देते हैं। असफ़लता को सफ़लता की तरह प्रचारित करते हुए वैवाहिक रिश्तों को तोड़ कर बाहर प्रेम खोजना आदिम काल से होता आया है। पहले यह छिपा कर किया जाता था अब खुलेआम किया जाता है। अगर हम इस ढ़ोंग से बाहर निकलता चाहते हैं तो आज के समय में हमें विवाह और वैवाहिक जीवन की परिभाषा बदलनी होगी। वरना समाज की पुरानी मान्यताओं को ठेंगा दिखाते हुए लोग तरह-तरह से रह ही रहे हैं। फ़िर बहकने लगी। एक बार फ़िर से ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ की ओर लौटते हैं जिस पर अब फ़िल्म भी बन चुकी है।

इस उपन्यास में आज से सौ साल पहले की कहानी में आधुनिक युग का वातावरण प्रस्तुत है। जैसे प्रेम और प्रेम कथाएँ कभी पुरानी नहीं पड़ती वैसे ही मार्केस का यह उपन्यास आने वाली पीढ़ियों के पाठकों के लिए सदैव नवीनता लिए रहेगा। गार्सिया मार्केस बनना चाहते थे जादूगर और बन गए शब्दों के जादूगर। प्रेम शब्दों का मोहताज नहीं होता है, प्रेम को लिखित रूप में व्यक्त करने के लिए शब्द चाहिए होते हैं। इस जादू को लिखने के लिए जादूई शब्द चाहिए होते हैं। ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ जादूई शब्दों में, जादूई भाषा में लिखा गया जादूई उपन्यास है। इतना लिखने के बाद भी लेखक को कोई मुगालता नहीं है कि साहित्य दुनिया बदल सकता है। इसके बिना भी दुनिया वही रहेगी। हाँ वे व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि यदि पुलिस न हुई तो दुनिया अवश्य भिन्न होगी। वे सोचते हैं कि यदि वे लेखक न हो कर एक टेरिरिस्ट होते तो मनुष्यता के लिए कितना भला होता। वे प्यार में मरना चाहते हैं मगर एड्स से नहीं। उनके अनुसार एड्स आदमी के अपने व्यवहार से आता है। वह कॉलरा से भिन्न है। कॉलरा आदमी के नियंत्रण के बाहर का खतरा है। एड्स को आप आमंत्रित करते हैं। फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा प्रेम में वैसे ही कष्ट पाता है जैसा कष्ट कॉलरा में होता है। गार्सिया मार्केस ने प्रेम के सारे मानदंडों को झुठलाते हुए शाश्वत प्रेम की कथा लिखी है। बस देखते रहिए कि फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा और फ़रमीना डाज़ा बिना तट पर रुके रीवरबोट पर मैग्डालेना नदी के कितने चक्कर लगाएँगे, क्योंकि फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा ने कॉलरा का फ़ायदा उठाते हुए कैप्टन को आदेश दे दिया है, “लेट अस कीप गोंइंग, गोइंग, गोइंग….

आइए अब इस उपन्यास पर इसी नाम से बनी फ़िल्म की बात करते हैं। २००७ में मार्केस के इस उपन्यास पर माइक नेवेल ने इसी नाम से फ़िल्म बनाई जिसमें फ़रमीना डाज़ा की भूमिका जिओवाना मेज़ोगिओर्नो ने की है और नायक अरिज़ा के किरदार को जेविएर बार्डेन ने निभाया है तथा डॉकटर का अभिनय बेंजामिन ब्राट ने किया है। मार्केस के उपन्यास पर लैटिन अमेरिका में नहीं हॉलीवुड में फ़िल्म बनी। फ़िल्म का एक गीत गायिका शकीरा ने लिखा है। मार्केस शकीरा के फ़ैन थे। ढ़ाई घंटे की यह फ़िल्म समीक्षकों को नहीं जँची। फ़िल्म उपन्यास के काफ़ी अंशों को छोड़ देती है। अगर दर्शक ने उपन्यास पढ़ा है तो वह फ़िल्म समझ सकता है लेकिन उसकी प्रशंसा करेगा इसमें शक है। अगर किताब नहीं पढ़ी है तो फ़िल्म पूरी तरह से समझ सकेगा इसमें शक है। इस उपन्यास को फ़िल्म में ढ़ालना आसान काम नहीं है और निर्देशक इसमें सफ़ल नहीं हुआ है।

किसी साहित्यिक कृति पर फ़िल्म बनाना एक बहुत बड़ा जोखिम है। किसी विश्व प्रसिद्ध साहित्यिक कृति पर फ़िल्म बनाना और बड़ा जोखिम है। कोलंबियन नोबेल पुरस्कृत लेखक गैब्रियल गार्सिया मार्केस इस बात से परिचित थे कि अक्सर फ़िल्म बनते ही साहित्यिक कृति का सर्वनाश हो जाता है। इसी कारण उन्होंने काफ़ीसमय तक निश्चय किया हुआ था कि वे अपनी कृतियों पर फ़िल्म बनाने का अधिकार भूल कर भी किसी को नहीं देंगे} उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘वन हंड्रेड एयर्स ऑफ़ सोलिट्यूड’ पर फ़िल्म बनाने के लिए उन्हें एक बहुर बड़ी रकम की पेशकश की गई। काफ़ी समय तक वे टस-से-मस नहीं हुए, अपनी जिद पर अड़े रहे। उनका एक और उपन्यास ‘लव इन द आइम ऑफ़ कॉलरा’ के फ़िल्मीकरण के लिए निर्देशक उनके चक्कर लगा रहे थे। वे इसके लिए भी सहमत न थे। प्रड्यूसर स्कॉट स्टेनडोर्फ़ ने तय किया कि वे इस विश्व प्रसिद्ध उपन्यास पर फ़िल्म बनाएँगे। इसके लिए उन्होंने मार्केस को घेरना शुरु किया। मार्केस राजी न हों। तीन साल तक मार्केस से अनुनय-विनय करते रहने के बाद अंत में स्कॉट स्टेनडोर्फ़ ने साफ़-साफ़ कह दिया कि जैसे फ़्लोतेंटीनो अरीजा ने फ़रमना डाजा का पीछा नहीं छोड़ा था वैसे ही वे भी मार्केस का पीछा नहीं छोड़ने वाले हैं। हार कर मार्केस ने अपने उपन्यास पर फ़िल्म बनाने की अनुमति स्कॉट स्टेनडोर्फ़ को दे दी। निर्देशन का काम किया जाने-माने फ़िल्म निर्देशक माइक नेवेल ने। और इस तरह 1988 में लिखे उपन्यास पर 2007 में फ़िल्म रिलीज हुई। फ़िल्म पूर्व प्रदर्शन के समय मार्केस स्वयं उपस्थित थे। फ़िल्म की समाप्ति पर उन्होंने चेहरे पर मुस्कान लिए हुए केवल एक शब्द कहा, ‘Bravo!’

उपन्यासकार ने फ़िल्म देख कर कहा, ब्रावो!’ लेकिन फ़िल्म देख कर दर्शकों पर क्या प्रभाव पड़ता है? यदि आपने पुस्तक पढ़ी है तो पहली बार में फ़िल्म जीवंत और तेज गति से चलती हुई लगती है। अगर आपने पुस्तक नहीं पढ़ी है तो बहुत सारी बातें बेसिर-पैर की लगती हैं। दर्शक उपन्यास की गूढ़ बातों से वंचित रहता है। नायिका की मुस्कान, उसका लावण्य दर्शकों को लुभाता है। उसकी डिग्निटी देख कर उसके प्रति मन में आदर का भाव उत्पन्न होता है। प्राकृतिक दृश्य बहुत कम हैं मगर सुंदर हैं, आकर्षित करते हैं। फ़िल्म का रंग-संयोजन मनभावन है। फ़िल्म देखने में आनंद आता है। कारण फ़िल्म की गति और उसकी जीवंतता है। पर जब दूसरी-तीसरी बार आप समीक्षक की दृष्टि से इसे देखते हैं तो यह आपको उतनी प्रभावित नहीं करती है।

यह सही है कि साहित्य और फ़िल्म दो भिन्न विधाएँ हैं और उनके मापादंड भी भिन्न हैं। चलिए इस वजह से ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ उपन्यास और ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ फ़िल्म की तुलना नहीं करते हैं। जब सिर्फ़ फ़िल्म को लेते हैंतो पाते हैं कि जिस दर्शक ने पुस्तक नहीं पढ़ी है, उसके पल्ले क्या अप्ड़ेगा? उसके पल्ले अप्ड़ेगा एक ऐसा हीरो जो कहीं से भी कन्विंसिंग नहीं लगता है। उसका हेयर स्टाइल, उसका झुका हुआ शारीरिक आकार, उसकी मुस्कान, सब मिल कर एक कॉमिक इफ़ैक्ट पैदा करते हैं। वैसे यह कोई नया एक्टर नहीं है। जेवियर बारडेम को इसके पहले ‘नो अकंट्री फ़ॉर ओल्डमैन’ के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का ऑस्कर पुरस्कार मिल चुका है। मगर यहाँ कुछ गड़बड़ हो गई है। दोष किसे दिया जाए? उनके मेकअप मैन को या जिसने उनकी विग डिजाइन की या उसको जिसने उनकी मूँछें और ड्रेस बनाई, या निर्देशक जिसने उनकी ऐसी कल्पना की। आखिर फ़िल्म तो निर्देशक की आँख से बनती है। ठीकरा किसी के सिर पर फ़ोड़ा जा सकता है। लेकिन बारडेम की एक्टिंग और मुस्कान फ़्लोरेंटीनो अरीजा के रूप में प्रभावित नहीं करती है। ठीक है वह एक निम्न आर्थिक स्तर, एक क्लर्क ग्रेड के लड़के के रूप में जीवन प्रारंभ करता है। बाद में जब वह रिवार बोट कंपनी का मालिक बन जाता है तब भी उसकी चाल-ढ़ाल में कोई परिवर्तन नहीं आता है, वह वैसा ही झुक कर रहता है। सबसे खराब प्रभाव डालती है, उसके चेहरे पर चिपकी उसकी मुस्कान। इस मुस्कान के चलते वह एक क्लाउन नजर आता है, डाई हार्ट प्रेमी नहीं, जैसा कि मार्केस ने उसे दिखाने का प्रयास किया है। वैसे उपन्यास में भी ठीक वह इसी रूप में चित्रित है (फ़्लोरेंटीनो अरीजा का रूप-रंग-बाना देखने योग्य है, मौसम कोई हो मगर उसकी पोशाक तय है। एक उपयोगी और गंभीर बूढ़ा, उसका शरीर हड़ीला और सीधा-सतर, त्वचा गहरी और क्लीन शेव्ड, रुपहले गोल फ़्रेम के चश्मे के पीछे उसकी लोलुप आँखें, रोमांटिक, पुराने फ़ैशन की मूँछें, जिनकी नोंक मोम से सजी हुई। गंजी, चमकती खोपड़ी पर बचे-खुचे बाल बिलक्रीम की सहायता से सजाए हुए। उसकी मोहक और शिथिल अदा तत्काल लुभाती, खासकर स्त्रियों को। अपनी छिहत्तर साल की उम्र को छिपाने के लिए उसने खूब सारा पैसा, वाक-विद्गधता और इच्छाशक्ति लगाई थी और एकांत में वह विश्वास करता कि उसने किसी भी अन्य व्यक्ति से ज्यादा लंबे समय तक चुपचाप प्रेम किया है। उसका पहनावा भी उसकी तरह विचित्र है। वेस्ट के साथ एक गहरेरंग का सूट, सिल्क की एक बो-टाई, एक सेल्यूलाइड कॉलर, फ़ेक्ट हैट, चमकता हुआ एक काला छाता, जिसे वह छड़ी केरूप में भी प्रयोग करता। – पुस्तक के अनुसार) लेकिन लिकित शब्दों में पढ़े वर्णन के साथ आपकी, पाठक की कल्पना जुड़ी होती है। वहाँ उसका यह रूप फ़बता है। वही रंग-रूप जब परदे पर रूढ़ हो जाता है, तो खटकता है। यह एक अब्ड़ा अंतर है साहित्य और सिनेमा का। सिनेमा चाक्षुष विधा है अत: अधिक सावधानी की आवश्यकता है। और यहीं निर्देशक चूक गया है।

पूरी फ़िल्म में एक बात अब्ड़ी शिद्दत से नजर आती है और दर्शक पर उतना अच्छा प्रभाव नहीं डालती है, वह है हर स्त्री –   चाहे वह किशोरी अमेरिका हो या फ़िर बूढ़ी फ़रमीना डाजा – का अपना वक्ष दिखाने को तत्पर रहना। हाँ, शुरु से अंत तक फ़रमीना डाजा के रूप में जिवोना मेजोगिओर्नो अपनी सुंदरता, अपने अभिनय से लुभाती है। उसकी स्मित मन में गहरे उतर जाती है। उसके बैठने, चलने और खड़े रहने का अंदाज उसकी उच्च स्थिति और उसके आंतरिक अग्र्व को प्रदर्शित करता है। फ़्लोरेंटीनो अरीजा की माँ ट्रांसिटो अरीजा के रूप में ब्राज़ील की अभिनेत्री फ़र्नाडा मोंटेनेग्रो का अभिनय प्रभावित करता है। फ़रमीना डाजा की कजिन हिल्डेब्रांडा सेंचेज के रूप में सुंदरी काटालीना सैडीनो को देखना अपने आप में एक भिन्न अनुभव है। यह किशोरीएक शादीशुदा व्यक्ति के प्रेम में है। इसकी मासूमियत पर फ़िदा होने का मन करता है। डॉ. जुवेनल उर्बीनो के रूप में बेंजामिन ब्राट के लिए कुछ खास करने को नहीं था} द विडो नजरेथ के रूप में एंजी सेपेडा जरूर परदे को हिला कर रख देती है।

फ़िल्मांकन की बात करें तो फ़िल्म की सिनेमैटोग्राफ़ी अवश्य प्रभावित करती है। घर, बोट की आंतरिक साज-सज्जा और बाह्य प्राकृतिक सौंदर्य को कैमरे की आँख से इतनी खूबसूरती से पाक्ड़ने के लिए सिनेमैटोग्राफ़र एफ़ोंसो बीटो बधाई के पात्र हैं। मेग्डालेना नदी और सियेरा नेवादा डे सांता मार्टा की पर्वत शृंखला बहुत कम समय के लिए दीखती है लेकिन अत्यंत सुंदर है। फ़िल्म की शूटिंग के लिए कोलंबिया के ऐतिहासिक पुराने शहर कार्टानेजा के लोकेशन का प्रयोग किया गया है। घर और बोट की साज-सज्जा पात्रों की आर्थिक और सामाजिक हैसियत के अनुरूप है।

फ़िल्म की शुरुआत मेंजब क्रेडिट चल रहे होते हैं बहुत खूबसूरत ऐनीमेशन है। चटख अरंगों में फ़ूलों का किलना, उनके प्ररोहों (टेंड्रिल्स) का सरसराते हुए आगे बढ़ना, विकसित होना और साथ में चलता संगीत, सब मनमोहक है। ऐनीमेशन फ़िल्म के मूड को सेट करता है। दर्शक तभी जान जाता है कि वह एक रोमांटिक फ़िल्म देखने जा रहा है। इसी तरह फ़िल्म की समाप्ति का ऐनीमेशन है। दक्षिण अमेरिका के पर्यावरण और रंगों का विशेष ध्यान रखते हुए, उनसे प्रेरित हो कर इसे लंदन के एक ऐनीमेशन स्टूडियो वुडुडॉग ने तैयार किया है। और संगीत इस फ़िल्म की जान है। क्यों न हो? संगीत लैटिन अमेरिका की प्रसिद्ध गायिका शकीरा ने दिया है। वे गैब्रियल गार्सिया मार्केस की बहुत अच्छी दोस्त हैं। उन्होंने इसका एक गाना लिखा भी है और गाया भी है। फ़िल्म का संगीत देने में शकीरा के साथ हैं अंटोनिओ पिंटो। फ़िल्म लैटिन अमेरिका, खासतौर पर कोलंबियन जीवन को बड़े मनोरंजक तरीके से प्रस्तुत करती है। स्पैनिश लोग हॉट ब्लडेड होते हैं। अल्डने, मरने-मारने को जितने उतारू, उतना ही प्रेम करने को उद्धत। भारत के पंजाब प्रांत के लोगों की तरह वे जो भी करते हैं, खूब आन-बान-शान से करते है, जीवंतता के साथ करते हैं।

‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ फ़िल्म का स्क्रीनप्ले रोनांड हार्वुड ने तैयार किया है। स्क्रीनप्ले ठीकठाक है। साढ़े तीन सौ पन्नों के उपन्यासमें पात्रों का जो मनोवैज्ञानिक चित्रण अर विकास है, उसे 139 मिनट की फ़िल्म में समेटना संभव नहीं है। उपन्यास के कई महत्वपूर्ण अंशों को बिल्कुल छोड़ दिया गया है, जैसे लियोना कैसीयानी का प्रसंग, जैसे फ़रमीना डाजा का अपने पति की कब्र पर जा कर उसे एक-एक बात बताना. जैसे डॉ. जुवेनल उर्बीनो और फ़रमीना डाजा का गैस बैलून में पत्र ले कर उड़ना, बुढ़ापे में फ़रमीना डाजा का अपने पति की सेवा करना, प्रकृति का मनुष्य द्वारा दोहन, प्रकृति का उजाड़ होता जाना, पर्यावरण प्रदूषण आदि, आदि। माइक औड्स्ले की एडीटिंग अच्छी है। फ़िल्म में एक बात खटकती है, वह है इसके पात्रों द्वारा बोली गई भाषा। फ़िल्म इंग्लिश भाषा में बनी है, स्पैनिश भाषा में नहीं। यह इंग्लिश में डब नहीं है। फ़िर पात्र स्पैनिश लहजे में इंग्लिश क्यों बोलते हैं? अगर फ़िल्म स्पैनिश भाषा में बनत तो क्या पात्र किसी खास एक्सेंट में बोलते या सहज-स्वाभाविक स्पैनिश भाषा का प्रयोग करते?

1880 से 1930 तक की अवधि को समेटे हुई फ़िल्म ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ मुझे बहुत अच्छी लगी। अगार ऊपर गिनाई गई कमजोरियाँ इसमें न होतीं तो यह अवश्य मेरी पसंदीदा फ़िल्मों की सूचि में बहुत ऊपर स्थान पर होती जैसे मार्केस मेरे मनपसंद लेखकों की सूचि में पहले नंबर पर आते हैं। यह मार्केस के उपन्यास पर हॉलीवुड स्टूडियो में बनी पहली फ़िल्म है, जिसे लैटिन अमेरिकन या इटैलियन निर्देशकों ने नहीं बनाया है।

हॉलीवुड के निर्देशक बहुत-बहुत कुशल होते हैं। इसके साथ ही उनकी एक सीमा भी है। एक खास तरह की सभ्यता-संस्कृति से ये निर्देशक बखूबी परिच्जित हैं। मगर इस खास दायरे के बाहर की सभ्यता-संस्कृति की या तो इन्हें पूरी जानकारी नहीं है या फ़िर ये उसे महत्व नहीं देना चाहते हैं। लैटिन अमेरिकी सभ्यता-संस्कृति अमेरिकी सभ्यता-संस्कृति से बहुत भिन्न है। यह बहुत समृद्ध है, इसकी बहुत सारी विशेषयाएँ हैं। यह एक विशिष्ट सभ्यता-संस्कृति है। मार्केस का साहित्य इसकी बहुत ऑथेंटिक झलक देता है। ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ फ़िल्म इस सभ्यता-संस्कृति की खुशबू को समेटने में समर्थ नहीं हो सकी है। हॉलीवुड के श्वेत निर्देशक अपने ही देश की अश्वेत सभ्यता-संस्कृति को पकड़ने में कई बार चूक जाते हैं। स्टीफ़न स्पीलबर्ग जिन्होंने उत्कृष्ट फ़िल्में बनाई है, लेकिन जब वे अफ़्रो-अमेरिकन साहित्य से ले कर ‘द कलर पर्पल’ फ़िल्म बनाते है तो उसके साथ न्याय नहीं कर पाते हैं। एलिस वॉकर का यह उपन्यास जिस संवेदनशीलता से रचा गया है, स्टीफ़न स्पीलबर्ग ने यह फ़िल्म उतनी ही असंवेदनशीलता से बनाई है। फ़िल्म निर्देशक माइक नेवेल ने भी बहुत अच्छा काम नहीं किया है।

क्यों करते हैं हॉलीवुड के माइक नेवेल या स्टीफ़न स्पीलबर्ग ऐसा खिलवाड़? क्यों दूसरों को कमतर दिखाते हैं? क्या यह हॉलीवुड के श्वेत निर्देशकों का अहंकार है अथवा उनकी समझ की कमी? क्या यह उनकी अज्ञानता है या फ़िर उनका अदंभ? यह शोध का विषय हो सकता है। अगर यह नासमझी है तो आज के जागरुक और वैश्विक युग में इस तरह की नासमझी स्वीकार नहीं की जानी चाहिए। अगर यह झूठा दंभ है तब तो इसे कतई स्वीकार नहें किया जाना चाहिए।

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डॉ. विजय शर्मा

326, सीतारामडेरा, एग्रीको

जमशेदपुर – 831009

मो. 8789001919, 8430381718

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अनिल अनलहातु का कविता संग्रह ‘बाबरी मस्जिद तथा अन्य कविताएँ’: कुछ नोट्स

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‘बाबरी मस्जिद तथा अन्य कविताएँ’ पर कुछ नोट्स लिखे हैं कवि यतीश कुमार ने- मॉडरेटर

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जब कभी भी इस कविता संग्रह को पढ़ा, दिल ने कहा कि एक बार और पढ़ लूँ फिर लिखूंगा।लगभग एक साल की जद्दोजहद के बाद बहुत हिम्मत जुटा कर पर आज सोचा सका कि अब इन कविताओं पर  लिख ही दूं।

उदय प्रकाश जी आपको मुक्तिबोध की पंक्ति का मानते हैं तो अवधेश प्रीत आप में धूमिल की आक्राकमकता देखते हैं ।डॉ. विनय कुमार भी कहते हैं कि पूर्वज कवियों की परछाई होने के बावजूद आप अपनी कविताओं को अलग से चिन्हित कराने में सफल रहे हैं पर मुझमें इतना अधिक ज्ञान नहीं कि मैं यह सब कह सकूं, अपितु मैंने वही लिखा जो मेरी समझ में आया।

आपकी कवितायें पढ़ते वक़्त आप अपने पाठक को कविताओं के बाहर भी ले जाते हैं, नए-नए विषयों पर उनके साथ विचरते हैं और फिर पुनः अपनी कविताओं पर उसे लौटा लाते हैं ।

संग्रह की आरंभिक पंक्तियों में ही आप अपने ईमानदार लेखन का परिचय देते हुए लिखते हैं —

‘मैं वर्षों आईना नहीं देखता….

बुद्ध होना सोचना भी
एक बड़ी उपलब्धि है।
भिक्खु और राजा एक ही
आईना के दो पहलू हैं
और
नीग्रो उसकी पहली सीढ़ी।’

आप ‘वे’ के माध्यम से पूरे विश्व को अपनी कविताओं में समेट लेते हैं और हर ‘वह’ की उसकी खुद की बात को रखते हैं जो हाशिये पर खड़ा द्वंद्व में संलिप्त है।

‘जिंदगी पहाड़ पर टंगी लालटेन नहीं है
यहाँ एक ही मोहन -जो-दड़ो काफी है।’

आप के स्केच का विस्तार समझना किसी पाठकीय उपलब्धि से कतई कम नहीं ।

लिखते-लिखते आप कई बार खुद के विरोध में खड़े हो जाते हैं ,अपनी केंचुल उतार कर बतियाते हैं।
कभी “गोरख”तो कभी “क्यू” में अपने आप को ढूंढते हैं
फिर समाज की उपलब्धि का ब्यौरा आपकी कविताओं में कुछ इस तरह से मिलता है जहाँ लिखा जा रहा है “सामान्य आदमी को असामान्य बनाकर मार डालना अब  उपलब्धि है”।

आप सदियों से चांद को छूने के मुंतज़िर लोगों को निहारते है और फिर उनके अस्त होने का जिक्र अपने तरीके से यूँ करते हैं कि इंका और माओरी में वो जीर्ण घास के तिनके युगों-युगों से उनके साथ हिमाकत  का मुलम्मा चढ़ाए घूम रहे हैं और जिनका हस्र भी
वही होता आ रहा है जो बाबरी मस्जिद का हुआ है।

कविताओं का सफ़र वहां भी बढ़ता है जहां —
चांद का सफर जारी है
जैसे पहाड़ से उतरने पर
पहाड़ का सफर जारी है ।

इसी सफ़र में शरीक़ कवि न केवल धनबाद स्टेशन को देखता है बल्कि वहां से पूरी दुनिया को देखता है।
वो आजादी के पहले वाली दुनिया को देखता है
फिर वो देखता है आज भी है गांधी
और आज भी है उनकी लड़ाई जिंदा ।
और यह देखकर वो फिर से
सोने की कोशिश करने लगता है

‘जिगुरत’ को मेटाफर बनाने का साहस हर किसी के बस का नहीं है यहाँ तो बस चेहरे की परतों की उम्र नापनी है। कविता द्वारा मानवीय पीड़ा पर चढ़ी परतों का हिसाब करने का दुस्साहस तो अनिल जी ही कर सकते हैं मुझे तो विश्लेषण के चार शब्द कहने का साहस जुगाड़ने में साल लग गया।

कवि का यह कहना कि वो सारे जानते हैं कि वो क्या कर रहे हैं और वो सारे बच्चों की मुस्कराहट को जज्ब करने की हिम्मत भी रखते हैं।

आगे चलकर कविता प्रश्न करने लगती है कि
खजूर का पेड़ बना आदमी कितने  हैं आज ?
और कवि कहता है
जनाब हैं और रहेंगे
देते रहेंगे रेगिस्तान को चुनौती
और मुसाफिर को छाँव

कोहासे से भरे धुंधलके में
कवि पारभासक शीशे में कैद
देखता है पूरी कायनात को
वह यह देखने में सक्षम है कि
नज़रें ‘नुनेज’ की मिल गई हैं सबको
और आज इस माहौल में उजाला
एक बेतुका शब्द है।

कमाल करते हैं भाई, आप
कहाँ से लाते हैं ऐसी पैनी नज़र
जो ईशा की हत्या को खींच कर
लाता है उस जबह किये जाने वाले
बकरे के पास
जिसकी आंखे
उस गुलाम नीग्रो से मिलती जुलती है
जहां लिंचिंग करते समूह के बीच
भाषा की हत्या हो रही है- सरेआम
और राजा अपने संवाद में इसका जिक्र भी कर रहा है।

कहाँ मिलेगा मुझे वो आदमी जो दो शून्य को जोड़ कर अनंत की सृष्टि करता है ?
मेरे अंदर ही दफ्न हो गया है क्या ?
कहाँ से लाऊंगा इस सराब को तोड़ने की कला
जबकि जानता हूँ अमृत कलश फूट गया है?

आपकी पंक्तियां मुझे आपकी कविताओं से आगे लकीर खींचने को उकसाती है और मैं रुक नहीं पा रहा हूँ। लिखता जा रहा हूँ ।
हाँ बस डर इस बात का है कि ये गली बड़ी तंग है और इस तारीक से गुजरने में कहीं धड़ाम से गिर न पडूँ।

‘किस-किस से फरागत होंगे रकीब
यहां तो जिंदगी में होना ही फरागत है’
क्योंकि जिंदगी तो मुझे छोड़
ऐशगाह में लेटी जनतंत्र और समाजवाद
के ख्वाब देख रही है और मैं बस ‘फरागत।’

इतिहास में अपने बाप को ढूंढ रहा हूँ
ताकि वो मुझे मेरी लाश तक तो पहुँचा दे। ‘कहानी यहां भी खत्म नहीं होती जैसे खत्म नहीं होती है कोई कविता’ – ये मेरा नहीं अनिल जी का मानना है।

अब प्रश्न ये है कि घोड़ों की संख्या कम तो हो रही है फिर भी घोड़ों की टाप के साथ खून के छींटे कम नहीं हो रहे । हरिकिशुना क्या साफ करता रहेगा सारे दाग और कहेगा दाग अच्छे हैं क्योंकि मुझे इसे साफ करने की तनख्वाह मिलती है या ये कहेगा अब इंसान और गाय दोनो के साफ करूंगा तो ज्यादा मिलेगी ।

मेरी बायीं आंख नम क्यों है अनिल भाई और दायीं निश्चल,अपलक,अविनोद,असंवाद ।
निरस्त करनी है मुझे दायीं आंख में जमीं परतों को और बहाना है दोनो आंखों से समान आँसू कि मैं भी एक आदम रहना चाहता हूँ बस ।
चुप क्यूँ हो
अनिल भाई कुछ तो कहो।

let me die natural death
क्या सच में मार्क्स के पन्नों से जिंदगी तक पसर गया है यह कसैला सच………

मैंने आपकी गुमनाम चिट्ठी में विनोद कुमार शुक्ल की लिखी “गोष्ठी” पढ़ ली तो अब बताइये ये जुर्म है क्या?

डोडो बन जाएंगे हमारे अल्फाज भी एक दिन
पर डोडो मूर्ख नहीं था
हां उसने जब अहिंसा को अपनाया तो उसके आंख पर ऐनक और हाथ में लाठी थी ।
डोडो आज भी जिंदा है मर नहीं सकता
अगर डोडो न हो तो राजा हुंकार कैसे भरेगा
राजा को राजा कौन कहेगा
पर क्या पता मेरे जैसे डोडो के कब पंजे नुकीले हो जाये
कई बार “आम आदमी”का नाम लिए समूह अपने चोंच बाहर कर ले, पर उसके पंजों में अभी भी शक्ति नहीं है ।

डोडो के बाज बनने का सफर अभी बाकी है…..

मनुष्य को समय के कालचक्र में जकड़कर
अशोक स्तम्भ में चिपकवा दिया और सभ्यता को उसके चारों ओर घूमने का आदेश देकर आप चिल्लाते रहे कि आदमी नामक जंतु को भी भूख लगती है और फिर
ये कहते -कहते आप क्यों अश्वमेघ के धुएँ में गुम हो गए ।
अब धुआँ से सिर्फ टप-टप की आवाज आती है तुम नहीं आते!
कवि तुम नहीं आते!

कभी ये भी सोचता हूँ प्रभु कि अगरचे को गरचे कहने का हुनर मुझे क्यूं नहीं आया।

आप कहते हैं कि विश्व का सबसे बड़ा उल्कापात साइबेरिया में हुआ था और मैं कहता हूँ कि यह कवि के हृदय में घटित हुआ था।हमारे बीच अब ये द्वंद जिंदा है और रहेगा ।
यह इसलिए भी लिख रहा हूँ कि जब एक कण में निमित्त शक्ति पृथ्वी का उपहास कर रही होती है तब उसी समय कवि का लिखा एक-एक शब्द ग्रंथों पर भारी पड़ रहा होता है और ऐसा होना जारी रहेगा और जारी रहना भी चाहिए।
इन सब घटित घटनाओं के बावजूद कल जो कम्युनिस्ट था वह आज भी कहीं पनप रहा होगा क्यूँकि दावानल के बाद भी राख में ही सृजन होना प्रकृति है।
नाम बदलेगा पर काम नहीं आदम नहीं ।
यही घटनाएँ आप जैसे कवि को बार-बार छोटे बच्चे के पास ले जाती हैंऔर लिखने को मजबूर करती हैं कि ऊर्जा का सम्पूर्ण  विनाश असंभव है। यह आपने ही लिखा है कि वे एक स्मृति से निकल दूसरी स्मृति में जा ठहरते हैं ।

आप हिंदुस्तान को ट्रेकर और ठेले पर चढ़ते देखते हैं
मैं उसे पहाड़ से ….उतरते और चढ़ते देखता हूँ।

अगर सिबिल कहती है i want to die  तो उसके गोद में बैठा बच्चा मौत से कौन सा सवाल पूछेगा, क्या यह पूछेगा कि मेरी मुस्कुराहट में गर जिंदगी लिखी है तो तुम मौत क्यों मांग रही हो।

शब्दों की बाजीगरी में भाषा एक कीप की तरह प्रयुक्त हो रही है, या आप शब्द को विद्रोही बना किसी मंचासीन दलाल के मुंह पर पिच्च से थूक देते हैं।
आपकी कविताओं में भाषा, शब्द ,कविता अपने-अपने रूप तो बदल रहे हैं पर अर्थ नहीं ।अर्थ वहीं टिका है जहाँ टिका है बुद्ध के साथ बौद्ध और रुद्र के साथ अर्ध चंद्र।

आप यह भी लिखते है कि हँस लो थोड़ा ही सही क्योंकि हँसी  के खोखलेपन का सीधा जुड़ाव भीतर के खोखलेपन से है और वो अभी और गहरायेगा ….

आप लिखते हैं
सजे -सजाए ड्राइंग रूम में लटका रखा है
अपने गाँव को झाड़-फानूस की तरह …..

आपकी कविताओं के प्रतीक हमेशा गाँव से शहर की ओर भागते प्रतीत होते हैं चाहे वो श्रमशील-शोषित औरत हो या हरिकिशुना या फिर यह नृशंस समय, सब की एक ही गति, दिशा और दस्तूर जिन्हें टहलाकर आप अपनी कविता की अंतिम दिशा निर्धारित करते हैं ।मुझे लगता है आप गाँव और बड़े शहर के बीच कहीं फँस गए हैं और विचलित हैं इन दोनों के बीच – हरिकिशुना की तरह और लिख देते हैं कि दरअसल वे बड़े शहर के बड़े होने से नहीं ,अपने छोटे होने पर खफा हैं।और फिर आप हमेशा लौट कर ढूंढते हैं बाघ बहादुर को खुद के अवचेतन में ताकि उनके जैसा सैकड़ों और पैदा हो सके जो जीवन को बचाने का अथक प्रयास करेगा और एक दिन पाटेगा शहर और गाँव की दूरियां।

आप को चुनना था मेनिन्जाइटिस,ब्रेन ट्यूमर या पागलपन में से कोई एक, पर आपने धूमिल,मुक्तिबोध और गोरख के शब्दों को दुःस्वप्न मानते हुए भी चुनना पसंद किया ।

आप अपने आप से अक्सर दुःस्वप्न में मिलते हैं।आपको हरबार किसी सद्यजात बच्चे की पहली रुलाई क्यों सुनाई देती है? फिर आप  चिल्लाते हैं और अपनी दब चुकी चीख को गूँगे हरिकुशना की चीख बताते हैं ।
जब हड़बड़ाकर उठते हैं तो कोहरा आपकी आंखों के भीतर होता है जिसे आप भाप के इंजन का नाम दे देते हैं पर वो उभरता भाप आपकी सोच की ऊष्मा का असर बस है।
उस ऊष्मा के दाब से अंतस के आंतरिक प्रकोष्ठ में तेज रोशनी का पुंज फूटेगा ,अंतःकरण खरोंचेगा और फिर उस भाँप की सीटी की आवाज़ इस संग्रह के माध्यम से संसार सुनेगा और सुनता रहेगा।

यतीश कुमार

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यायावारी का शौक़ है तुम्हें?

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यह युवा लेखिका अनुकृति उपाध्याय की स्पेन यात्रा के छोटे छोटे टुकड़े हैं। हर अंश में एक कहानी है। यात्राओं पर लिखने का अनुकृति उपाध्याय का अन्दाज़ मुझे सबसे जुदा लगता है। इन अंशों को पढ़ते हुए आपको भी ऐसा महसूस होगा। लेखिका का एक कहानी संग्रह ‘जापानी सराय’ प्रकाशित हो चुका है-

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मालागा से हेरेज़ दि ला फ़्रोंतेरा – १

मालागा से हेरेज़ दि ला फ़्रोंतेरा की रेल-यात्रा में पेदरेरा में व्यवधान आया।

‘रेल पटरियों की मरम्मत चल रही है। पेदरेरा से बस से ओशुना जाना होगा। वहाँ से सिविया के लिए फिर से रेल।’ कंडक्टर ने स्पैनिश, अंग्रेज़ी और हस्त मुद्राओं के मिश्रण से समझाया।

‘मरम्मत-मशक़्क़त,’ बग़ल की सीट में बैठी महिला  ने कंधे उचकाए। ‘साल भर पहले कोन्फ़्रेस में आई थी, तब भी काम चल रहा था।’

‘साल भर बाद भी चलता रहेगा। ये रैनफ़े है।’ पुरुष सहयात्री बोला। ‘ मैं पाँच साल बाद आया हूँ और कुछ नहीं बदला है!’

रैनफ़े स्पेन की सरकारी रेल कम्पनी है। स्थानीय, अंतरप्रदेशीय, द्रुतगामी सब रेलें रैनफ़े चलाता है। सरकारी उपक्रम है लेकिन लाभ कमाता है।

‘लाभ,’ महिला भर्त्सना में सिर हिलाती है, ‘लाइन मरम्मत नहीं करवाने का कारण ये लाभ ही है, इस लाइन पर ज़्यादा आवाजाही नहीं इसीलिए।’

‘कभी होगी भी नहीं,ख़राब पड़ी रहती है, लोग गाड़ियों से आते जाते हैं। मेरा पिता मुझे लेने आ रहा है पेदरेरा।’

‘और मेरा पति। रेल लाइन ख़राब होने के कारण उसे गाड़ी किराए पर लेनी पड़ी है वरना हम सिविया में मिलने वाले थे।’

दोनों का बोलने का अन्दाज़ अनूठा है। एक की बात पूरी हो उससे पहले दूसरा बोलने लगता है और स्वरों के जाल में शब्द मछलियों से उलझ जाते हैं। महिला डॉक्टर है। ‘ हम सब सुरक्षित हैं, एक पूरी क्वालिफ़ायड डॉक्टर हमारे साथ है!’ पुरुष हँसता है। वे एक सहज बेतकल्लुफ़ी से आपस में बात करते हैं जैसेएक-दूसरे को पहले से जानते हों हालाँकि वे पहली बार ट्रेन में ही मिले हैं। दोस्ताना अकुंठित खुलापन स्पैनिश लोगों के स्वभाव का हिस्सा लगता है। स्त्री-पुरुषों के सामान्य सामाजिक व्यवहार में कहीं निषेध-जन्य झिझक नहीं दिखती।

‘मैं पाँच सालों बाद लौट रहा हूँ…’ पुरुष दोहराता है। रेल पाइरनीज़ के चित्र-लिखे से पहाड़ पार कर मैदान में आ चुकी है। सूखी सुनहरी-कत्थई घास के बीच नाटकीय रीति से सहसा उठते भूरे- पीताभ, स्तम्भों-से चट्टानी उभार और उन पर मँडराते बाजों की जगह अब

ज़ैतून के बाग़ान हैं। पेड़ों के तने लोहे  रंग  हैं और पत्तियाँ गहरी काही-हरी। हवा से पत्तियाँ उलट जाती हैं और उनके हल्के श्वेत पिछले हिस्से झलकते हैं। पेड़ झिलमिलियों में बदल जाते हैं। ‘ऑलिव के ये नाटे पेड़ पहले नहीं देखे…’ वह कहता है।वह पिछले कई सालों से नोर्वे में रहता है। उसकी गर्ल-फ़्रेंड नोर्वे की है।‘नोर्वे अच्छा है, मेरा काम भी वहाँ ठीक-ठाक है। अगले साल शायद शादी करें…’ हमारी बधाइयाँ वह हँस कर स्वीकारता है। यूरोपियन यूनियन ने देशों की सरहदें झीनी कर दी हैं, यात्राएँ सहल और अंतर्देशीय प्यार संभव। वे स्पेन की क़र्ज़-दबी अर्थव्यवस्था और बेरोज़गारी के बारे में बात करते हैं।स्पेन की राजनीति उलझी हुई है। राजशाही के झगड़े और दशकों एक झूठमूठ का गणतंत्र, स्पेन का आंतरिक युद्ध, फ़्रेंको की तानाशाही, प्रदेशों के आपसी तनाव और केटालेन और बास्क़ विद्रोह, रोमन कैथोलिक चर्च का समाज और राजनीति में अंतर्ग्रन्थन – सूची लम्बी और जटिल है।  महिला बार्सीलोना से है, केटेलान प्रदेश से।‘सारा झगड़ा पैसे है,’ वह तर्जनी और अँगूठे को मसलती है। ‘कास्तिले और केटालेन का बस यही मसला है।’

पुरुष कंधे झटकता है, ‘पोलिटिक्स…’

रेल छोटे स्टेशनों से गुज़र रही है – अल जाइमा, पिज़्ज़ारो, आलोरा। पिज़ारो के स्टेशन पर एक कोने में दीवार पर छोटे हाथों के छापे हैं। काले छापे जिन पर सफ़ेद अक्षरों में लिखा है ‘लूसिया’ । उनके पास खिलौने, काग़ज़ के फूल और बुझी मोमबत्तियाँ एक क़तार में रखे हैं लूसिया नाम की किसी बच्ची की याद में।हेरेज़ का प्राचीन नगर अभी दूर है।

एनरीको का पिज़्ज़ेरिया

‘मैं यहाँ एक गर्मी बिताने आया था। ये बीस साल पहले की बात है!’ एनरीको ठठा कर हँसता है। उसके लाल लाल गाल और उभर आते हैं, गुलनार चेहरे में रक्त और तेज़ी से दौड़ता है।

हेरेज़ दि ला फ़्रोंतेरा छोटा सा शहर है। कादीस सा पुरातन नहीं, न आरकोस सा बीते समय में रुका हुआ। हेरेज़ का अपना विशिष्ट आकर्षण है, अपनी मंथर सुंदरता जहाँ जीवन की गति किसी धीमी, भूली रागिनी पर बहती है। हेरेज़ दि ला फ़्रोंतेरा यानि सरहद वाला हेरेज़, यूरोप में मुस्लिम और ईसाई प्रभावों कीसीमा पर बसा। एंडालूसिया प्रोविंस के कई अन्य शहरों की तरह सात सौ शताब्दियों चलने वाले ऐश्वर्यशाली मुस्लिम शासन में बना- पनपा और ईसाइयों द्वारा बारहवीं शताब्दी में जीता गया। एंडालूसिया के शौर्य और पुरुषार्थ का गढ़, फ़्लेमेंको के अद्भुत नृत्य के इतिहास का हिस्सा, शैरी-वाइन और घुड़सवारी कीकला के लिए प्रसिद्ध – हेरेज़।

हम हेरेज़ में शाम-पड़े पहुँचे। इमारतों के प्राचीन पत्थरों, ओस्ट्रेलियन बरगद, नारंगी और नील-अमलतास के पेड़ों, प्लाज़ा और गलियों में दिन तब भी पीली आभा में दमक रहा था। ग्रीष्म-मध्य का लम्बा दिन, रात दस बजे ढलने वाला। कथीड्रल के प्लाज़ा में ख़ुशनुमा रेस्तराँ में शाकाहारी खाना नहीं मिला लेकिनमददगार दोस्ताना लोग मिल गए। शाम और तापास व्यंजनों का लुत्फ़ उठाने आए एक परिवार ने एक स्त्री को आगे किया। उसने सिर, कंधों, बाँहों को हिला कर जताया गया कि उसे अंग्रेज़ी आती है । हमने भी अपने भिक्षु-कोष से इनी-गिनी स्पैनिश निकाली और ‘सोमोस वेजितारिआनोस’ का नारा बुलंद किया।गर्दनें ज़ोर-शोर से हिलने लगीं, हाथों के इशारों और बातों की झड़ी लग गई। अंत में वह स्त्री हमें बाँह पकड़ कर गली के छोर पर ले गई और इंगित से एनरीको के पिज़्ज़ेरिया की ओर जाने वाला रास्ता दिखाया।

एक सँकरी, पीली दीवारों वाली गली में पूरा कोना छेंके, दो द्वारों वाला पिज़्ज़ेरिया। पके सूरज की मद्धिम ऊष्मा वाली नर्म धूप में गली की दीवारें और एनरीको के भोजनालय का नीला दरवाज़ा जैसे वॉन गोह की किसी तस्वीर से निकला था। स्पेन में रात्रि-भोजन के लिए अभी देर थी। यह शैरी की चुस्कियों के साथ[तापस] खाने और मित्रों-परिजनों से बतियाने का समय था और हम एनरीको के पहले ग्राहक थे। ‘ग्राहक नहीं, मेहमान! तुम्हारे लिए कुछ ख़ास बनाऊँगा। तुम मेरी एक दोस्त सी दिखती हो! तुम्हें सचमुच स्पैनिश नहीं आती?’

एनरीको इतालवी है। वह और उसकी पत्नी मिल कर पित्ज़ेरिया चलाते हैं। एनरीको स्वयं ख़ास व्यंजन बनाता है।उसकी पीत्ज़ा लोकप्रिय हैं और शाम को रेस्तराँ भर जाता है। एक साथ तीसेक लोग और एनरीको और उसकी पत्नी के अतिरिक्त एक सहायक, एक बार-टेंडर मद-वितरण के लिए और दो वेटर, कुलइतने कर्मी। लेकिन कहीं भौंहें नहीं चढ़तीं, आवाज़ें तुर्श नहीं पड़तीं। हेरेज़ में किसी को खाना परसे जाने की जल्दी नहीं। लोग वाइन और बातों में तृप्त, एंतीपास्ती के लघु-व्यंजनों और मुख्य व्यंजन के लिए धीरज से प्रतीक्षा करते हैं।

‘मैं इटली में जन्मा और मेरी बीवी ब्राज़ील में बुएनोस आयर्स में। हम इटली में मिले, नेपल्स के जादुई समुद्र-किनारे।वहाँ समुद्र की रेत को लहरों से प्यार है तो हमें प्यार कैसे नहीं होता?’ वह हँसा। एप्रन बाँधती उसकी पत्नी भी।

‘इटली में रेस्तराँ चलाना मुश्क़िल काम है। तरह तरह की अनुमतियाँ, सिटी म्यूनिसिपैलिटी से, दूसरे विभागों से भी। बहुत महँगा है, सबको कुछ न कुछ चाहिए,’ वह मध्यमा और अँगूठा मसलता है। ‘यहाँ आया तो यहीं बस गया। लेकिन पकाने का सामान इटली से मंगवाता हूँ, मेरे गाँव के टमाटर!’ वह अंगुलियाँ कागुच्छा बना, उनके पोर चूमता है। ‘और आज ही ताज़ा बुर्राटा चीज़ आया है। केवल हफ़्ता भर टिकता है, तुम्हारे लिए पीत्ज़ा बनाऊँगा। तुम वाइन नहीं पीतीं? कोई बात नहीं, ख़ास नींबू पानी, ख़ालिस अमृत।’ वह अपनी पत्नी की तरफ़ मुड़ता है। वह जग में बर्फ़ डाल रही है और नींबू और नारंगी की लम्बी तराशें। ‘अबये सब सीख गई है, सारी गुप्त रेसिपीज़। मुझे इसके भाग जाने का अब जवानी के दिनों से ज़्यादा डर है!’ उन दोनों के ठहाकों से कमरा गूँज उठता है। बाहर सीगल्स पुकार रही हैं और शाम के रंग उभरने लगे हैं।

पलॉसीओ देल विर्रे लसेरना 

सादा सफ़ेद दीवार में पीले पुराने पत्थर का गृह-मुख और बंदनवारों की नक़्क़ाशी वाला चौखट है। भारी काष्ठ-द्वार खुला है और भीतर पुराने संगमरमर का फ़र्श उतरती मध्याह्न में एक मृदु दीप्ति से चमक रहा है।हेरेज़ के महिमाशाली कथीड्रल, इग्लेसियस दि सैन मिगेल और सैंटीआगो के विशाल चर्च, पुराने क़िले केभव्य खंडहरों के बाद ये अग्रभाग साधारण लगता है लेकिन तोरण के ऊपर सामंती चिन्ह लगा है और गली का नाम है कॉनडे दे ऐंडीज़, ऐंडीज़ के सामंत की गली।

ये पलॉसीओ देल विर्रे लसेरना है, पेरू के अंतिम स्पैनिश वाइसरॉय लासेरना और एंडीज़ के काउंट का महल।

स्वागत कक्ष में मेज़ के पीछे बैठी लड़की झबरे बाल झटक कर मुस्कुराती है, ‘तुम लोग ठीक समय पर आए हो, महल का अगला टूर कुछ ही मिनटों में है।’

स्वागत कक्ष काँच के विभाजक से दो भागों में बँटा है। दूसरा हिस्सा लम्बे गलियारे जैसा है जिसकी भिक्षुणी के चोग़े सी श्वेत दीवारें तक किसी भी सजावट से रहित हैं। गलियारे के रीते श्वेत अंतराल में एक अत्याधुनिक डिज़ाइन की पारदर्शी प्लास्टिक की मेज़ धरी है जिस पर रखे लैपटॉप पर एक आदमी काम कररहा है। हमारे अलावा स्वागत कक्ष में कोई और दर्शनार्थी नहीं है। ‘सुबह के टूर में कई लोग थे। स्पेन अनूठा है, सैलानी भी स्पैनिश सीएस्ता लेना सीख जाते हैं!’ झबरे बालों वाली युवती हँसती है, ‘विश्वास करो, स्पेन सा कोई देश नहीं। मैं हेरेज़ में पली-बढ़ी हूँ मगर दुनिया देखी है,  पूरा यूरोप और साल भर यू.एस.मेंभी रही हूँ लेकिन स्पेन बस स्पेन है…’ वह कंधे हिलाती है।

यायावारी का  शौक़ है तुम्हें?

वह फिर हँसती है। ‘शायद। नौ महीनों से फ़िनलैंड में थी, इसी महीने लौटी हूँ।’

नौ महीने? क्या नौकरी के लिए या कोई और कारण?

‘न, बस यूँ ही!’

ठीक कहा, कहीं भी जाने के लिए कोई कारण क्यों हो? कारण तो लौटने के लिए चाहिए, नहीं?

वह हाथ में थमी क़लम घुमाती है। ‘शायद। लेकिन मैं क्यों लौटी, यह कह नहीं सकती। एक दिन मैंने बिल्कुल साफ़ ढंग से महसूस किया कि अब लौटना चाहिए।’

तुम यहाँ से जाने के लिए गईं और लौट आने के लिए लौट आईं, ये अपने आप में समुचित कारण हैं।

वह मुझे ग़ौर से देखती है। कहीं घड़ी के घंटे बजने लगते हैं। ‘ओह… चार बज गए, टूर का समय… बड़ी दिलचस्प बात बीच में रह गई…’

लैपटॉप पर काम करता व्यक्ति उठ आता है। वह घर का भीतरी द्वार खोलता है और बाँह लहरा कर हमें भीतर आमंत्रित करता है।

‘मेरे घर में तुम लोगों का स्वागत है।’ हमें महल दिखाने वाला एंडीज़ का नवाँ काउंट है, हेरेज़ के एक बड़े पुराने पुख़्ता ख़ानदान का उत्तराधिकारी। वह लम्बे क़द का है और उसके रक्तहीन संपुट होठों पर शालीन मुस्कान है। उसकी हरी टी शर्ट घिसी-पुरानी लगती है और उसके जूतों के तले अलग हो रहे हैं।इसकेबावजूद वह किसी मध्यकालीन तस्वीर में अँके स्पैनिश ग्रैंडी सा दिखता है – पीछे को सँवारे भूरे बाल, आँवले-सी हरी आँखें और उभरी हड्डियों वाले गाल। कल्पना की जा सकती है कि उसका कोई पूर्वज, गहरा लाल लबादा पहने स्पेन के कुख्यात धार्मिक न्यायालय की पीठिका पर बैठ वाद निबटाता होगा और कोईश्वेत कंठ-वस्त्र और काले कसे कोट, तंग ब्रीचेज़ और चमड़े के चमकते बूटों में घोड़ा दौड़ाता होगा। बाद को हमने घर के भीतर इस कुलीन वंश के सबसे विख्यात पुरुष,एंडीज़ के पहले काउंट और पेरू के आख़िरी वाइसरॉय, की तस्वीर देखी, क्रवाट, काले कोट और रंग-बिरंगे तमग़ों समेत। उसकी दर्प-तिरछी आँखोंऔर पीत मुख पर अनुशासित दमन और क्रूरता की झाईं थी। ‘एंडीज़ के पहले काउंट को पेरू छोड़ना पड़ा था, दुर्भाग्य से पेरु और अमेरिका  के दूसरे देश स्वतंत्र होने लगे थे।’ वह निर्व्याज भाव से कहता है।

‘हमारा यह घर तेरहवीं शताब्दी से हमारे परिवार के पास है। उससे पहले यह किसी मुस्लिम सामंत का रहा होगा। दसवें ऐल्फ़ॉन्सो, जिसे उसकी प्रज्ञा के कारण सेज कहा जाता था,  ने हेरेज़ की विजय के बाद यह हमारे पूर्वजों को दे दिया।’ उसका चेहरा निर्विकार है।’घर में अब भी अरब शिल्प के चिन्ह हैं। दीवारों मेंये पुराने कुंड मिले हैं,’ वह इंगित से ख़ूब पकाई मिट्टी का रंग-उड़ा, बड़ा कलसा दिखाता है, ‘इन्हें दीवारों में उल्टा चिना जाता था और इनके भीतर क़ैद हवा दीवारों को ठंडा रखती थी। यह शायद ज़नाना आँगन था, ऊपर से खुला हुआ, मेरे पूर्वजों ने इसे काँच से ढाँक दिया। वह देखो, काँच पर मेरे वंश का कोट ऑफ़आर्म्स। इधर दीवार पर लगा यह लाल-नीला पैनल अरबकालीन है, हमने जब महल का विस्तार और मरम्मत की तो ये दीवारों पर से हटा दिए गए।’

इतिहास हालाँकि विजेताओं का होता है लेकिन शताब्दियों पहले लूटे गए इस घर में विजित जाति की अपूर्व प्रतिभा झलक रही है। चौड़ी दीवारों में चिने कुंड, महल के बीचोंबीच धूप और हवा न्यौतता खुला दालान और पत्थर तराश कर बनाई गईं ख़ूबसूरत लाल-नीली जालियाँ विजित अरबों की अर्हता दिखाते हैं।काँच पर अँके स्पेन के राजा द्वारा स्वीकृत वंश-चिन्ह के रंग बुझे से लग रहे थे और कमरों में सीलन और धूल की उदास गंध है।

‘यह रोज़ रूम है, यह बैठक,’ वह एक के बाद एक कमरों की बत्तियाँ जलाता है। कमरों में नफ़ीस साजो-सामान है – चीन की पौट्री, इंग्लिश घड़ियाँ, फ़्रेंच कुर्सियाँ, टर्की और ईरान की टेपेस्ट्री, चित्र, मूर्तियाँ, इतिहास। ‘यह मेरी दादी की तस्वीर है, यह मेरी माँ की। यहाँ मेरे पिता राजा से हाथ मिला रहे हैं और यहाँ मैं, दोनों अपनी अपनी पीढ़ी के राजाओं के साथ। यह महल का सबसे पुराना बारगेनिया है।’ जगह जगह हाथीदाँत और सीपियों की पच्चीकारी के काम वाली ये नाज़ुक, छोटी बारगेनिया अलमारियाँ धरीं हैं। हर बारगेनिया में एक गुप्त कोष्ठक होता है। ‘इसमें भी है लेकिन हमारे परिवार में से कोई उसे नहीं ढूँढ पाया है।यह चित्र देखो, एक विख्यात पेंटर ने बनाया है। वह सिर्फ़ खंडहरों के चित्र ही बनाता था, उसके बनाए सारे खंडहर काल्पनिक हैं, एक भी सच्चा नहीं।’ धूमिल, गहरे रंगों वाला चित्र विगत वैभव और क्षय की छायाओं से घिरे कमरे की दीवार पर टँका है। चित्र में गिरती दीवारें हैं और पृष्ठभूमि में रोम का ध्वस्तकोलोसियम।

हम एक छोटे उद्यान में निकल आते हैं। घर की ही तरह उद्यान में भी पूर्व और पश्चिम की मिली-जुली सौंदर्य-चेतना है – बेहिसाब बढ़ते नारंगी और नींबू के वृक्ष और चमेली की अनफूलती लतरें। लॉन में जँगली घासें उगी हैं और पैर-बाग़ के पत्थरों में दरारें हैं। हर ओर वनस्पतियों और नारंज वृक्षों की हरी-नारंगी, धूप-पगी गंध है। ये उद्यान बीते कालों में देखे गए सपने की स्मृति सा है। ‘यहाँ सितम्बर माह में  नाटक रचे जाते हैं, शेक्सपियर के सभी नाटक, रोमियो जूलियट के अलावा,’ वह किफ़ायत से मुस्कुराता है, ‘रोमियो जूलियट वहाँ होता है, नए  विंग में।बालकोनी में जूलियट और नीचे रोमियो।’

नया विंग माने चौरानवे वर्षों पहले बनाया गया दुमंज़िला। ‘स्पेन का हर राजा हमारे महल में आ कर ठहरा है। नए भाग में तेरहवाँ ऐल्फ़ॉन्सो अपने राज-समाज के साथ ठहरा था। तुम भी ठहर सकते हो। वे कमरे किराए पर उपलब्ध हैं।’ सीढ़ियों पर अलाबास्टर के प्रतिमाएँ धूप पी रही हैं। ‘ये मेरी दादी की मूर्ति है जबवह एक छोटी लड़की थी…’ टूर समाप्त हो गया है। हम वापस स्वागत कक्ष में हैं। ‘ये चुंबकीय टायल हेरेज़ का एक कलाकार बनाता है। मैं स्थानीय कलाकारों की तस्वीरें भी दिखा सकता हूँ यदि तुम ख़रीदना चाहो।’ दो सौ साल के कुलीन वंश के इतिहास का कुलाधार सात सौ वर्ष पुराने घर के अग्रहार में स्पेन कीदरबारी रीतिनुसार मेरे हाथ को अपने दोनों हाथों में ले कर झुकता है।

हेरेज़ का स्टेशन

हेरेज़ के ट्रेन स्टेशन पर बंदूक़ों की आवाज़ गूँज रही है। सेमी ओटोमैटिक हथियार की भट-भट और स्नाइपर राइफ़ल की पुट-पुट। दोनों योद्धा पैंतरे बदलते हैं और प्रतीक्षा-गृह के मोज़ाइक वाले फ़र्श पर उनके दौड़ते पैरों की आवाज़ गूँजती है। एक पस्त है, रुक कर दम लेता है और पानी पीता है। दूसरा घुटने के बलज़मीन पर गिर अपनी राइफ़ल साधता है। पुट-पुट की अनुगूँज और पहला योद्धा भहरा कर गिर पड़ता है। पहले अस्फुट और फिर खुल कर किलकारियाँ लहराती हैं। घुटनों के बल झुका योद्धा कूद कर खड़ा हो जाता है और हाथ में थमा काल्पनिक हथियार कमर में खोंस लेता है। गिरा हुआ योद्धा उठता है और अपनीकाल्पनिक मशीन गन फेंक देता है। विजेता योद्धा का पिता टिकट ख़रीद चुका है। वह अपना नीला बस्ता उठाता है और अपने पिता के पीछे चल देता है। प्रतीक्षा गृह के द्वार पर पीछे मुड़ वह अपने कुछ पल के साथी को हाथ हिला विदा कहता है। दोनों बच्चे हँसते हैं। मुझे  अपनी ओर देखता पा पराजित योद्धा झेंपजाता है और अपनी माँ के बाँह में मुँह छुपा लेता है। प्रतीक्षा गृह में खिलखिलाहटों के बाद की ख़ुशनुमा शांति छा जाती है।

स्टेशन की दीवारों पर एक विशाल चित्र है – स्पेन के राज घराने के शाही चिन्ह, ग्रीवाएँ मोड़े ग्रीक निम्फ़्स और चारों तरफ़ बलखाते बेल-बूटे, पीली रंग-संयोजना वाले। ये चीनी-मिट्टी के टाइल्स से बना हैं या भित्ति-चित्र है? गर्दन बढ़ा और आँखें गड़ा कर ताकने के बावजूद जानना कठिन है। कहीं जोड़ नज़र नहीं आते।शायद दीवार पर चित्र ही बने हैं।

‘न, टाइल्स हैं।’

मैं मुड़ कर देखती हूँ। छोटी, चमकती आँखें, जबड़े की तीखी कटी रेखा से ज़रा नीचे आते काले-श्वेत बाल, सफ़ेद ब्लाउज़ और बिस्कुटी रंग की पतलून और कंधे पर ओवर-नाइट बैग। वह मुस्कुरा रही है। लाल रँगे होंठों में से दंत-पंक्ति और चेहरे की झुर्रियों में से एक उत्सुक भोलापन झाँक रहा है।

‘माफ़ करना तुम दोनों की बात सुनने और बीच में पड़ने के लिए!  ये एंडालूसिया के प्रसिद्ध टाइल्स हैं, अजूलेहोस टाइल्स। एक विशेष विधि से बनते हैं। ये वाले बहुत पुराने हैं। हेरेज़ का रेलवे स्टेशन एंडालूसिया में सबसे पुराना है। 1854 में बना था शैरी वाइन के काष्ठ-पात्र स्पेन भर में ले जाने के लिए।’

उनका नाम लूसिया है। कादीस जा रही हैं सप्ताहांत के लिए। कोलम्बिया से हैं।

‘अब तो यहीं से समझो। बीस साल से हेरेज़ में हूँ। सब छोड़-छाड़ कर आई थी कार्तागेना दि इंदीयास से।’

घर-परिवार छोड़ कर उतनी दूर दक्षिणी अमेरिका से यहाँ स्पेन में? कोलम्बिया अरसे तक स्पेन का उपनिवेश था । भाषा और संस्कृति के साम्य के कारण शायद?

‘अँह, शायद। मेरे शहर की दीवारें, समुद्र की खारी गंध और पोर्ट की ओर खुलती सब गलियाँ बिल्कुल कादीस जैसी हैं। लेकिन उस समय यह नहीं सोचा था। उस समय तो बस कोलम्बिया से दूर निकल जाना चाहती थी। एक बेहद कठिन डाइवोर्स से गुज़री थी…’

ट्रेन लगभग बेआवाज़ आती है। उन्होंने हमारे लिए सीटें रोक ली हैं। खिड़की से सुनहरी-कत्थई सूखती घास और नमक के छिछले जलकर दिखाई देते हैं।

‘एक लगभग अविश्वसनीय बात बताना चाहूँगी… तलाक़ के बाद मैं एक महीने अस्पताल में थी। नर्वस ब्रेकडाउन हुआ था… बेहद कठिन समय… तब एक दोस्त ने ध्यान और योग के बारे में बताया। उसके घर एक गुरु आए थे, आनंदमार्ग के।मैं उस पंथ के बारे मैं कुछ नहीं जानती…’ उनकी आँखें कुछ झँपी, ‘लेकिन उस मुश्क़िल वक़्त में मेडिटेशन मेरे लिए जीवनी-शक्ति बन कर आया। मैंने कोलम्बिया छोड़ने का तय किया। स्पेन रवाना होने के एक दिन पहले मेरे घर की घंटी बजी और दरवाज़े पर एक आनंदमार्गी भगवा कपड़ों में। बोला – तुम्हारे लिए कुछ लाया हूँ, तुम्हारी यात्रा सहल बनाने के लिए। मैंने पूछा तुम्हें कैसे पता मैंयात्रा पर निकल रही हूँ तो बस हँस दिया। बोला इस चीज़ को हमेशा अपने साथ रखना…’ उन्होंने हमारी ओर ग़ौर से देखा। ‘तुम सोचते होंगे – सिरफिरी औरत है…’

मैं गर्दन हिलाती हूँ। क़तई नहीं।

‘वह एक तस्वीर दे गया, आनंदमूर्ति की। मेरे पास है, हर दिन ध्यान करती हूँ। लेकिन आज तक जान नहीं पाई कि उसे कैसे पता चला की मैं कहीं जा रही हूँ… ‘

मैं नहीं कहती कि शायद तुम्हारी दोस्त ने बता दिया हो या यात्रा वाली बात उस व्यक्ति ने  जीवन के लिए घिसे-पुराने चलताऊ मुहावरे के रूप में प्रयोग की हो। दुःख में कोई संबल चाहिए, असहनीय को कुछ सह्य बनाने के लिए। गिरने वाला कुछ भी थाम लेना चाहता है, चंदन-काष्ठ की लाठी हो या काँटों वालीझाड़ी। लेकिन आनंदमार्ग? उन लोगों पर अपने ही अनुयायियों को मारने का आरोप साबित हुआ था।

‘ख़ैर मैं उस बारे में कुछ नहीं जानती। आनंदमार्ग से कोई सम्पर्क नहीं अब। देखो, कादीस का समुद्र-तट! अटलांटिक यहाँ उछल-कूद करता, शोर मचाता सागर नहीं है। आसपास द्वीप हैं और तट यहाँ मुड़ता है, सो इसकी चाल मद्धम है।’

बाहर अटलांटिक का शांत-मधुर, छोटी-छोटी लहरियों से लचकता विस्तार है। नील-हरित, धूपालोकित। मालागा में देखे मेडिटरेनियन सागर के नीलमणि-नील, नगाड़े बजाती लहरों वाले ज़ोर-शोर समुद्र से भिन्न।

‘मैं बीच पर ध्यान करने आऊँगी…’ वे कहती हैं। ट्रेन रूकती है और वे हमें बाहुओं में भर कर चूमती हैं। ‘संयोग कुछ नहीं होता। हम फिर मिलेंगे। मेरा घर तुम्हारा घर है, इस राह आओ तो कहना।’

मालागा से हेरेज़ दि ला फ़्रोंतेरा – २

सिविया का स्टेशन नया है और पहचान-रहित, रूखा-फीका, यूरोप के किसी भी मध्यम आकार के शहर के स्टेशन सा – चमकता फ़र्श, खान-पान-कपड़ों-सामान की दुकानें, ओटोमैटिक दरवाज़े।इलेक्ट्रॉनिक सूचनापट्ट पर ट्रेन के समय और प्लेटफ़ार्म जुगनू से जल-बुझ रहे हैं। एक कपासी बालों वाले चुस्त-दुरुस्त वृद्धचमड़े का छोटा बैग लिए क़दम-ताल से चले आ रहे हैं। हैट और छड़ी से लैस एक अन्य फ़ुर्तीले वृद्ध ने उन्हें हेला दिया। बैग वाले वृद्ध ने क़दम रोके और छड़ी वाले वृद्ध ने बढ़ कर उनके हाथ थाम लिए। दोनों खुल कर हँस पड़े। दो पुरुष प्लेटफ़ार्म की ओर जाते-जाते रुक गए। चारों जन स्टेशन की भीड़ में रास्ता छेकेहँसने-बतियाने और एक साथ तस्वीरें खींचने लगे। आते-जाते लोग मुस्कुरा कर बग़ल से बच कर निकलने लगे। सहसा इस दूरस्थ, विदेशी स्टेशन में एक परिचित ऊष्मा प्रकट हुई।

ट्रेन में बग़ल की सीटों पर तीन लड़कियाँऔर उनकी माँ बैठे हैं। तीनों लड़कियों  उम्र पाँच से दस सालों के बीच है। सबसे छोटी लड़की ऊँची-पतली आवाज़ में बार-बार माँ को सम्बोधित करती है। बीच वाली लड़की होंठ गोल कर खिड़की के काँच में अपने प्रतिबिंब की ओर चुम्बन उछाल हँसती है। सबसे बड़ी लड़की चुपचाप किताब पढ़ रही है। किताब स्पैनिश भाषा में है। अंतिम पन्ने हैं। उसका समूचा सत्व आँखों में केंद्रित है। आस-पास बिला गया है। वह उस ट्रेन में नहीं है, काग़ज़ के सरसराते पन्नों में सबसे भिन्न यात्रा पर निकली है। आख़िरी पृष्ठ पर वह कुछ देर ठिठकी रहती है। फिर किताब बंद कर गहरी साँस लेती है।उसकी आँखें धीरे-धीरे दूर से लौटतीं हैं। वह बीच वाली लड़की पर एक उड़ती नज़र डालती है। उसके हाथ में एक लकड़ी की पहेली है – फ़्रेम में लकड़ी के टुकड़े हिला-डुला कर अलग-अलग शब्द बनाने वाली। बड़ी लड़की की भौंहें सिकुड़ती हैं और वह पहेली छीन लेती है। बीच वाली लड़की की अँगुली पहेली के दोटुकड़ों में फँस गई है। वह फूट कर रो उठती है। छोटी लड़की  के साथ चित्र में रंग भरती माँ आँखें उठाती है और बड़ी लड़की के हाथ से पहेली ले लेती है। बीच वाली लड़की अपनी अँगुली सहलाती, भीगी पलकें झपकाती है। छोटी लड़की का स्वर नई ऊँचाई चढ़ता है। उनकी माँ और मेरी दृष्टि मिलती है। हम मुस्कुराते हैं। बड़ी लड़की फिर खो गई है। उसके बिसूरे होंठ नर्म पड़ गए हैं और आँखें अदीखते दृश्यों में खो गई हैं। अगला स्टेशन हेरेज़ है।

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त्रिलोकनाथ पाण्डेय के उपन्यास ‘बिकमिंग गॉड’का एक अंश

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‘प्रेमलहरी’ के लेखक त्रिलोक नाथ पाण्डेय का नया अंग्रेजी उपन्यास आया है – Becoming God, जिसके बारे में दावा किया गया है कि यह एक आध्यात्मिक थ्रिलर है. पौराणिक शिव-कथा को नये कलेवर और नये आयामों को उजागर करते हुए कहने का प्रयास किया गया है इस उपन्यास में. कथा पुरातन होते हुए भी उसमें नवीनता का ऐसा समावेश किया गया है कि कहानी बड़ी रोमांचक और आह्लादकारी बन गयी है.

कुछ लोगों के आग्रह पर श्री पाण्डेय ने अपने अंग्रेजी उपन्यास के एक छोटे से अंश का हिंदी अनुवाद किया है, जो यहाँ प्रस्तुत किया गया है. यदि लोगों का आग्रह बढ़ा तो पूरे उपन्यास का हिन्दी अनुवाद लाने की सम्भावना भी हो सकती है-

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सावन महीने की अमावस्या – काली, घनी स्याह रात. आसमान में घने-काले बादलों का डेरा. शाम से ही रुक-रुक कर बारिस हो रही थी. लोग जल्दी अपने घरों में घुस गये थे और थोड़ी रात जाते-जाते गहरी नींद में समा गए थे.

      अचानक, लोग जग गये. आकाश में भीषण विस्फोट जैसी ध्वनि के साथ हजार सूर्यों का उजाला फैलता देख कर सब चौंक गए. घबड़ा कर वे अपने घरों से बाहर भागे, तो देखा एक विचित्र चमकीला पदार्थ आसमान से घड़घड़ाते हुए धरती की ओर चला आ रहा है. उन्हें लगा कि कोई दानव या दैत्य आसमान से धरती पर उतर रहा है. मारे डर के वे सब त्राहि माम, त्राहि माम चिल्लाते हुए शिव के पास दौड़े गए.

      शिव स्वयं यह नजारा देख कर पहले से ही अपने ‘धाम’ (शिव के आवास का नाम) के द्वार पर आ खड़े हुए थे. आग के गोले को आसमान से लुढ़कते हुए और फिर उसे धड़ाम से गंगा की रेती में गिरते हुए देख कर शिव समझ गए कि कोई बड़ा उल्कापिंड आकाश से टूट कर गिरा है. शिव ने बड़ी राहत महसूस की कि वह उल्कापिंड काशी की मुख्य बस्ती से थोड़ी दूर गंगा की रेती में गिरा है अन्यथा अनर्थ हो जाता; उसकी चपेट में आकर न जाने कितनी जन-धन की क्षति हो जाती.

      शिव ने लोगों को आश्वस्त किया कि डरने की कोई बात नहीं है. खतरा टल गया है. सब अपने घर जा कर शान्ति से सो जाएँ. सुबह देखा जायेगा कि मामला क्या है.

***

अगली सुबह लोग जब शिव की अगुआई में गंगा तट पर पहुंचे तो यह देख कर आश्चर्य में पड़ गए कि अरे, यह तो काले रंग का पत्थर है जो गिरने की वजह से बने एक गहरे गड्ढे में जा अटका है.

      यह अनुमान लगाते हुए कि उल्कापिंड अभी भी बहुत गरम होगा, शिव ने लोगों से आग्रह किया कि गंगा से पानी ले आकर वे उस पर डालें ताकि वह ठंढा हो सके.

उल्कापिंड की ऊष्मा से उस पर पानी की धार पड़ते ही वह वाष्प बन कर उड़ जाता. जब यह प्रक्रिया काफी देर तक चली तो अंततः उल्कापिंड ठंढा पड़ गया. फिर, शिव स्वयं उस उल्कापिंड का निरीक्षण करने गड्ढे में उतरे.

शिव ने देखा कि वह उल्कापिंड वेग से गिरने की वजह से जगह-जगह से दरक गया है. उसमे से एक टुकड़ा उठा कर उन्होंने देखा और ख़ुशी से चिल्ला उठे, “अरे यह दिव्य है. आकाश का यह धरती के लिए उपहार है.” वहीं, उसी समय, शिव ने गिना तो पाया कि उस उल्कापिंड के कुल बारह टुकड़े हो गये थे.

उन बारहों टुकड़ों में से एक को शिव ने अपने ‘धाम’ के सामने रखवा दिया. बाकी के ग्यारह टुकड़े शिव के आदेश से विद्यापीठ के अनुशीलन केंद्र के प्रांगण में सुरक्षित रख दिया गया. बाद में, शिव के धाम के सामने वाला उल्काखंड एक विशेष आकर के बनाए गये आधार पर समारोहपूर्वक स्थापित कर दिया गया.

लोगों के मन में इस प्रस्तर-खंड के प्रति अपार श्रद्धा उत्पन्न होने लगी. वे इसे आकाश की ओर से धरती को मिला दिव्य उपहार समझ कर बड़ा आदर करते थे. वे बहुत प्रभावित थे कि स्वयं शिव इस प्रस्तर-खंड को दिव्य मान कर सम्मान देते थे. जलधार से इसे शीतल करने के लिए शिव ने पहले दिन जो क्रिया करवाई थी उसकी स्मृति को सहेज कर रखने के लिए लोग इस प्रस्तर-खण्ड पर श्रद्धा से जल चढ़ाने लगे. कोई-कोई तो इस पर दूध की धार भी गिराता था और कोई अति उत्साही इसे मधु का भोग भी लगाने लगा. जो कोई भी शिव के ‘धाम’ के सामने से गुजरता, श्रद्धा से उस प्रस्तर-खण्ड के समक्ष झुक जाता. शीघ्र ही, लोगों ने इस पर छाया करने के लिए इसके चारों ओर खम्भे खड़े करके छत डाल दिया और उसका नाम मंदिर रखा.

      लोग उस प्रस्तर-खण्ड के बारे में तरह-तरह की बातें करते; तर्क-वितर्क करते; विमर्श करते. कई ऐसे थे जो इन विमर्शों से विरत रहते. वे उस प्रस्तर-खण्ड के प्रति गहरी श्रद्धा और भक्ति रख कर ही खुश होते. यही वे लोग थे जो जल, दूध या मधु से अक्सर इसका अभिषेक करते और मानते थे कि इसको शीतल करते रहने से उनके अपने जीवन में सुख-शान्ति आएगी. कुछ दूसरी तरह के लोग इसकी पूजा-अर्चना यह मान कर करने लगे कि इससे वीर्यवृद्धि और प्रजनन-क्षमता बढ़ेगी. इनमें से कुछ लोग थे जो मजाक में कहते थे कि यह आकाश का उत्तेजित लिंग है जो धरती की उर्वर योनि में आ घुसा. कुछ ऐसे भी लोग थे जो इसका नाता शिव पार्वती से जोड़ने लगे. वे अपनी कल्पना-शक्ति को खूब हवा देकर मजाक-मजाक में पत्थर के उस टुकड़े को शिव के उत्तेजित लिंग का प्रतीक मान कर उसे ‘शिवलिंग’ कहने लगे. यही वे लोग थे जो इस मामले में रस ले-ले कर चर्चा करते थे और अपार लैंगिक सुख पाते थे. कई तो आधार के ढांचे की विशिष्ट बनावट देखकर उसे योनि की संज्ञा देने लगे और यह मानने लगे कि वह शिव की संगिनी पार्वती की योनि है. इन कामुकतापूर्ण बातों के परिमार्जन के लिए कुछ समझदार लोग आगे आये जिन्होंने उन लोगों को समझाया कि आकाश से गिरा प्रस्तर-खण्ड पुरुष के पौरुष का प्रतीक है जबकि धरती पर उसे आधार देने वाला ढांचा स्त्री की शक्ति और उर्वरता का प्रतीक है.

ये सब बातें जब शिव की जानकारी में आतीं तो वे कुछ न कहते; बस मंद-मंद मन-ही-मन मुस्काते. वे सबके तर्कों, सबके विमर्शों, सबकी व्याख्याओं का मौन समर्थन करते. वे यह मानते थे कि किसी वस्तु को देखने-समझने की हर व्यक्ति की अपनी दृष्टि होती है और अपनी दृष्टि को बनाये रखने का हर व्यक्ति को अधिकार है.

शिव खूब हँसते थे जब कोई उनका नजदीकी उनकी निगाह में यह बात लाता था कि किस प्रकार कुछ लोग पूरे मामले को अश्लील रंग दे रहे थे और दूसरे कुछ लोग इस अश्लीलता को शिव-पार्वती से जोड़ रहे थे. उनके नजदीकी मित्रों में से जब एक ने यह सुझाव दिया कि उनके बारे में इस तरह की अश्लील को बातों को बंद कराया जाना चाहिए, तो शिव ने इस प्रस्ताव को सिरे से ख़ारिज करते हुए कहा कि सबको निर्भय और निष्कलुष हो कर अपनी बात कहने का अधिकार है. शिव ने समझाया कि इस तरह की बातों पर रोक लगाने से विकृतियाँ उत्पन्न होंगी और यही विकृतियाँ बढ़ कर आगे अपराध का रूप ले लेती हैं. शिव के एक मित्र ने उनका ध्यान इस बात की ओर आकर्षित किया गया कि इस तरह की मुक्त अभिव्यक्ति सामाजिक संघर्ष को जन्म देगी; परस्पर-विरोधी विचारों वाले आपस में लड़ पड़ेंगे यदि हस्तक्षेप न किया गया. मित्र की आशंका को दरकिनार करते हुए शिव ने समझाया कि लोग बड़े समझदार हैं और समझदारी पर किसी एक का सर्वाधिकार नहीं है. सब अपने-आप में चालाक हैं. कुछ लोगों का आक्षेप था कि इस तरह की अश्लील चर्चाएँ भविष्य में समाज के स्वस्थ विकास के लिए घातक होंगी. इस पर शिव का कहना था कि आने वाला समाज ज्यादा समझदार होगा और अपनी चिंता करने में स्वयं सक्षम होगा.

एक दिन कुछ मित्रों ने शिव को सूचित किया कि कुछ लोग शिवलिंग की पूजा इस विश्वास के साथ कर रहे हैं कि वह उनके कष्ट दूर करेगा. मित्रों ने चिंता व्यक्त करते हुए शिव से शिकायत की कि इससे तो लोग अंधविश्वासी हो जायेंगे और स्वाध्याय (स्वयं श्रम करना) से विमुख हो जायेंगे. उनके तर्कों को तार-तार करते हुए शिव ने उन्हें समझाया कि यह सही है कि आगे बढ़ने के लिए खुद मेहनत करने की जरुरत पड़ती है, लेकिन यह भी सही है कि सिर्फ इतना ही काफी नहीं है. इसके लिए मानसिक मजबूती की भी जरूरत होती है जो श्रद्धा से ही संभव होती है. मन जिस किसी वस्तु में स्वाभाविक रूप से रमे ऊसमें श्रद्धा रखने से मन को शान्ति मिलती है और वहीँ से मनुष्य का आध्यात्मिक अभ्युदय शुरू होता है. वह वस्तु चाहे शिवलिंग नामक प्रस्तर-खंड ही क्यों न हो.

अपने मित्रों को समझाते हुए शिव ने कहा कि श्रद्धालु लोगों ने अपना स्वयं का मार्ग खोजा है. यह मार्ग उन्हें सहज और निष्कपट रूप से मिला है. यह मार्ग उनकी श्रद्धा को मजबूत करेगा और उनके लिए शान्ति का स्रोत होगा. यह शिवलिंग उन्हें प्रकृति (पत्थर) में उपस्थित दिव्यता का बोध कराएगा और उन्हें याद दिलाता रहेगा कि यह आकाश की ओर से धरती को मिला उपहार है. शिव ने अपने मित्रों का आह्वान किया कि निरीक्षण-परीक्षण की वैज्ञानिक विधि से ज्ञानी जन उस उल्काखंड का तात्विक शोध और अध्ययन करें जबकि सामान्यजन को श्रद्धापूर्वक उसकी पूजा करने दी जाय. किसी की स्वतन्त्रता में कोई रोक न हो – न ज्ञान-मार्ग में न श्रद्धा की राह पर.

अपने गणों को शिव ने आदेश दिया कि विद्यापीठ के अनुशीलन केंद्र के प्रांगण में सुरक्षित रखे हुए बाकी ग्यारह उल्काखण्डों को देश के विभिन्न महत्वपूर्ण स्थानों में स्थापित कराया जाय ताकि वहां के स्थानीय लोग आकाश के इस दिव्य उपहार का दर्शन कर सकें और ज्ञान जन उसकी वैज्ञानिक व्याख्या और अनुशीलन कर सकें.

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वैशाली के आचार्य और एक मेघाच्छादित रात्रि की बात

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गीताश्री आज कल हर सप्ताह वैशाली के भगनावशेषों में जाती हैं कथा का एक फूल चुनकर ले आती हैं। स्त्री-पुरुष सम्बंध, मन के द्वंद्व, कर्तव्य, अधिकार- परम्परा से अब तक क्या बदला है! इतिहास के झुटपुटे की कथा कहने की एक सुप्त हो चुकी परम्परा गीताश्री के हाथों जैसे पुनर्जीवन पा रही। आज नई कथा पढ़िए- मॉडरेटर

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गगन में घटाएं घिर आईं थीं। वर्षाकाल आया नहीं था फिर भी मेघों ने आकाश को ढंक दिया था। आचार्य दिव्य ने आकाश की तरफ सिर उठा कर देखा। वे किंचित चिंतित भी हुए। मेघों ने पृथ्वी को प्रकाशविहीन क्यों कर दिया। दिवस में ही रात्रि का आभास होने लगा था। सदानीरा के तट पर बैठे हुए गीले नेत्रों से उस पार देख रहे थे। दोनों कूल कभी मिल नहीं सकते, जल उन्हें जोड़ता है। अचानक घटाएं घहराने लगीं, बिजली कौंधी और दिवस में सांध्य बेला का भास होने लगा। आचार्य घबराए। जाने क्या होने वाला है। असमय बरसात की वे कल्पना नहीं कर पा रहे थे। हृदय में भयानक उथल-पुथल मची हुई थी। गहन चिंतन उन्हें झकझोर रहा था। वे लगातार सोच रहे थे – “आचार्य का पद स्वीकार करके उन्होंने खुद के साथ घोर अन्याय किया है। ये वैशाली के हित में भी नहीं है। वे इस पद के लायक नहीं हैं। वे अब राजसत्ता के नियमों और मर्यादाओं से बंध गए हैं। उनका जीवन पहले जैसा नहीं रहा।“

“आह ”… निकल गई मुंह से। झुक कर सदानीरा का जल अंजुरी में भरा और चेहरे पर झोंक दिया। ठंडी लहर दौड़ गई मन-प्राण में, नसों में। व्यग्रता थम ही नहीं रही थी। कुछ तो गलत हुआ है, बहुत गलत। जो नहीं होना चाहिए था। वे इस पद के लिए अपनी अभिलाषाओं, अपने प्रेम की बलि नहीं चढ़ा सकते। तो फिर…

उनके संवलाये -कुम्हलाए चेहरे पर नैराश्य का भाव उमड़ा। जैसे मेघ घुमड़ आए थे, नीले गगन में।

रास्ता क्या है।

इससे श्रेयस्कर होता कि मैं देवी दिव्या के वादक मंडली में शामिल रहता। कम से कम देवी की दृष्टिछाया तो मुझ पर बनी रहती। हर समय उनका सान्निध्य मिलता।

अपने आप से बातें करने लगे- “कितना भी कुछ और सोचना चाहूं तो नहीं सोच पाता हूं, चारों तरफ से देवी मेरे सम्मुख आ खड़ी होती है, मेरा मार्ग रोक कर खड़ी हो जाती हैं।“

अपनी दुर्बलता पर, अपनी असमर्थता पर क्रोध भी आ रहा था और झुंझलाहट भी हो रही थी।

आखिर इसमें देवी का क्या दोष है। न मेरा दोष न देवी का, दोष तो हैं केवल आचार्य बहुलाश्व का जिसने मुझे वैशाली में इसी दुविधा के लिए भेजा है। यहां आते ही देवी के दर्शन हुए और वे संयम खो बैठे। विस्मृत से होते जा रहे थे सब राजकाज। हा…आचार्य…आपने किस दुविधा में डाल दिया…?

आचार्य के प्रति मन में विकार आते ही खुद को वे धिक्कार उठे।

दुविधा से निकलने का मार्ग तो सूझ ही गया था। बस आज की रात ही है उनके पास। कल से जीवन बदल जाएगा। न खुद वही होंगे न देवी शिव्या मार्ग रोकेंगी। कल सबकुछ बदल जाएगा।

देवी का भी क्या दोष। जब वह खुद ही उनके लायक नहीं हैं। एक दिन उनके मन में आया था कि देवी के आगे प्रेम निवेदन कर ही दें। परंतु अगले ही क्षण वे सोचने लगे- क्या प्रेम भी याचना से मिल सकता है। और जब मैं उससे यह याचना करुंगा तो और देवी कह देंगी- जाओ, मैं तुम्हे प्रेम नहीं करती तो क्या होगा। क्या प्रेम याचना से मिल सकता है।

मन ही मन सोचने लगे- क्यों देवी ही उसके लिए सबकुछ बन गई हैं। क्या उनकी कृपा पाए बिना जीवित नहीं रहा जा सकता ?

मन में गहरा द्वंद्व चल रहा था।

“देवी के बिना जी तो रहा हूं, परंतु क्या इसी जीवन की कामना की थी मैंने जिसमें देवी का प्रेम न हो। ऐसा जीवन निस्सार है, धिक्कार है ऐसे जीवन पर, जिसमें प्रेम न मिल सके।“

अपने जीवन को धिक्कारते धिक्कारते थोड़ी ग्लानि का अनुभव भी हुआ। जिस वैशाली ने उन्हें इतना कुछ दिया, मान-सम्मान, पद –प्रतिष्ठा, सुख वैभव सबकुछ। क्या उस वैशाली के प्रति इतना उदासीन होना उचित है।

यह उदासीनता ही तो है कि वे सबसे विमुख होकर सदानीरा के तट पर बैठ कर अपने जीवन का सबसे कड़ा निर्णय ले चुके हैं। आचार्य उठे और झटपट अपने प्रसाद में पहुंचे जहां उनकी अर्द्धांगनी मंजरिका भोजन के लिए उनकी राह ताक रही थी। कुछ व्यग्र-सी, खिन्न-सी, विभिन्न प्रकार की आशंकाओ से घिरी हुई। आचार्य ने मंजरिका का चेहरा देखा और उनका चेहरे पर अपराध-बोध की छाया गहरा गई। मजंरिका ने भोजन परोस दिया। वे भोजन के लिए बैठे और तत्क्षण उठ खड़े हुए। कुछ ध्यान आया और वे द्रुत गति से बाहर निकले, अश्वारुढ़ हुए और दूर मार्ग पर ओझल हो गए। मंजरिका स्तब्ध होकर सब देखती रह गई।

रात गहरा गई थी। हल्की बूंदाबादी भी शुरु हो गई थी। आम्रवन से कच्चे-पके आमों की हल्की गंध आने लगी थी। मार्ग के दोनों तरफ घने आम्रवन थे।

वे खाली हाथ नहीं जाना चाहते थे। देवी के लिए कुछ भेंट ले जाना चाहते थे। आजतक उन्होंने देवी शिव्या को कुछ भी भेंट नहीं दिया था। दस सालो के संबंधो के पटाक्षेप का समय आ ही गया है तो उसे क्यों न यादगार बना लिया जाए। कोई भेंट देकर। उनकी स्मृति में पुष्करिणी सरोवर में खिला कमल का फूल याद आया। वे खिल उठे। कमल का फूल लेकर वे देवी को कहेंगे- देवी, मैंने घनघोर बारिश में, गरजते मेघों और गहन अंधकार के बीच, अपने श्रम से आपके लिए यह भेंट अर्जित की है, मेरे पास नगर के श्रेष्ठीपुत्र कप्पिन की भांति कोई बहूमूल्य मुक्ताहार तो नहीं है, आप इसे स्वीकार कर लें, आपके केशपाश में कंठ के मुक्ताहार से कहीं अधिक शोभायमान हो सके। सरोवर के पास अश्व से उतरे और कमल के फूलो को देख कर देवी के मुखड़े को याद करते रहे। जब यह कमल उनके केशपाश में टंकेगा तो वे कितनी शोभेंगी। उनकी आभा द्विगुणी हो जाएगी। कमल फूल तोड़ने के लिए उन्हें गहरे कुंड में उतरना पड़ा।

मन ही मन सोचते रहे- “प्रेम की गहराई कुंड से कहीं ज्यादा होती है। मेरे लिए प्रेम धर्म है, त्याग है, साधना है, आज के बाद देवी आप मेरी तरफ से मुक्त हैं, जिसे चाहे प्रेम करें, मैं कभी आपके मार्ग की बाधा नहीं बनूंगा।“ वे श्वेत कमल लेकर कुंड से बाहर निकले, पूरी तरह जल से तर बतर हो चुके थे। रक्तिम कमल जानबूझ कर नहीं तोड़ा, क्योंकि उनके अनुराग की यह अंतिम रात्रि साबित होने वाली थी।

आचार्य कुछ ही देर में देवी के द्वार पर जा पहुंचे थे। मन में विचारो का अंधड़ वैसे ही उठ रहा था-

“आज मन की बात करके रहूंगा। अब तक जो न कह सका, वो बातें कह डालना चाहता हूं। बरसो अपनी और उनकी मर्यादा का पालन करता रहा। आज की रात्रि बस आखिरी है, कल से जीवन बदलने वाला है, आज नहीं कह पाया तो बदले हुए जीवन में भी शांति न पा सकूंगा।“

“देवी से कल की बारे में कोई बात नही बताऊंगा…क्या पता, देवी मार्ग रोक दें…नहीं, अब मुझे वापस इस जीवन, इस रुप में नहीं आना है। इतनी विपदा नहीं सहनी है। मन ही मन कामनाओं की भट्टी में झुलसते हुए नही जीना है। इसी देह और मन के नियंत्रण में खुद को सौंपना नहीं है। इनसे मुक्ति चाहिए। कल से जीवन का अर्थ, धर्म सबकुछ बदल जाएगा।“

इतना सबकुछ चिंतन करते हुए उनका अश्व अट्टालिका की तरफ बढ़ा चला जा रहा था। भांति भांति के विचारो का तूफान झेलते हुए वे बेसुध हुए जा रहे थे। उनके मन से देवी शिव्या की वह छवि जाती न थी। बार बार कौंधती थी वह छवि, वह मुग्धता, वह परिहास , जब श्रेष्ठीपुत्र कप्पिन ने उनके नृत्य पर रीझ कर उनके कंठ में मुक्ताहार पहनाया था और देवी की वह मोहक मुस्कान भुलाए नहीं भूलती। देवी ने कभी उस तरह उन्हें नहीं देखा। मुग्ध तो वे भी हुए उस रात। जब देवी अलौकिक नृत्य कर रही थीं। देवी आम्रपाली की सबसे योग्य शिष्या के नृत्य की प्रशंसा चहुंओर होती थी।

परंतु देवी के मन में क्या है। यह प्रश्न उन्हें बींधता रहता।

“देवी…आज कुछ ऐसा कहें कि मैं आपसे घृणा करने लगूं। आपसे घृणा करने में आपकी सहायता चाहता हूं। अपनी दुर्बलता पर उन्हें खीझ भी हो रही थी। देवी से वैसी मुस्कान की आकांक्षा क्यों पल रही है जैसी वे कप्पिन को दे रही थीं। अब अगर वे ऐसा करें भी क्या, अपने निर्धारित मार्ग से वे डिग जाएंगे। नहीं, बिल्कुल नहीं।असंभव।“

मन ही मन आचार्य प्रण करते हुए अंदर प्रवेश की अनुमति की प्रतीक्षा कर रहे थे।

उन्हें भय था कि देवी कहीं कल के फैसले पर जाने से उन्हें रोक न दें। अब रुकने का क्या लाभ। देवी तो कभी नहीं मिलेंगी। कल के बाद देवी को पाने की लालसा ही समाप्त हो जाएगी। इसी लालसा ने तो उन्हें भटका दिया है और ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां से उनका रास्ता कहीं और जाता है।

ये सब सोचते सोचते अपने फैसले पर वे और ढृढ़ संकल्प हो गए। चाहे कुछ भी हो जाए, देवी की बात नहीं मानेंगे।

बाहर बरसात बहुत तेज हो गई थी। काली घटाएं गरज रही थीं और दामिनी रह रह कर दमक उठती थी। बरसात का रौद्र रुप देख कर आचार्य थोड़े हैरान भी हुए। तेज हवाएं उन्हें रह रह कर कंपकंपा जातीं। अश्व से उतर कर द्वार तक पहुंच कर लगभग वे बारिश से तर हो चुके थे। देवी की अट्टालिका उस अंधेरे में भी दमक रही थी। आचार्य ने देखा – देवी खुद चल कर उन्हें द्वार तक लेने आ गई थीं। मेघों की गर्जना सुनकर वे थोड़ी सहमी-सी दीख रही थीं। देवी भी भींगी हुई थीं। उन्हें आश्चर्य हुआ। ऐसा मालूम हो रहा था कि वे जानबूझ कर भींगती हुई उन्हें स्वंय लिवा लाने आना चाहती थीं। देवी को मानो अपनी सुधि नहीं थी। उज्ज्वल-धवल वस्त्र उनके गात से चिपक गए थे। आचार्य उन्हें इस अवस्था में देखकर पहले स्तब्ध हुए, जैसे देवी इतनी रात्रि में उन्हें अचानक अपने द्वार पर देखकर स्तब्ध हुई थीं। दोनों की वाणी मौन थी। किसी के कंठ से बोल न फूटे। आचार्य मंत्रसिक्त होकर उनके पीछे पीछे अस्थानागार में चले गए। देवी के भीगे केशपाश में कमल का फूल टांकने की इच्छा हो रही थी। आज की रात के बाद न ऐसी अभिलाषा उत्पन्न होगी न ऐसे अवसर आएंगे। बस दोनों के बीच यह एक रात ही बची हुई है।

अस्थानागार में पहुंच कर आचार्य ठिठक गए। अपने साथ लाया हुआ कमल पीठिका पर रख दिया। देवी ने कमल को देखा और आचार्य से सीधा पूछा- आगे चलोगे अब तो

“अवश्य चलूंगा,परंतु वस्त्र बदलना चाहिए। देवी के सामने जाने लायक नहीं हूं अभी…”

“क्या देवी को अभी भी प्रमाण की आवश्यकता है ?”

देवी मुस्कुरा उठी।

“नहीं देवी शिव्या, वैशाली में प्रमाण नितांत आवश्यक है..” आचार्य गंभीर हो उठे थे।

“सो तो है, मैं जानती हूं, अच्छा चलो…मेरे कक्ष तक चलो, वहां कोई प्रमाण की आवश्यकता नहीं “

“चलो, वस्त्र बदलने की आवश्यकता नहीं…”

देवी के जोर देने पर आचार्य खुद को रोक न सके। बारिश और तेज हो गई थी। खुले गलियारे से होते हुए देवी के कक्ष तक जाना होता था। सो दोनों भींगते हुए कक्ष की तरफ चल पड़े।

कक्ष के बाहर ठिठक कर देवी अपनी परिचारिका को आदेश दिया- आज की सांध्य समाज का आयोजन संभव न हो सकेगा। ऐसी सूचना करवा दो।

फिर वह आचार्य को लेकर अपने निजी कक्ष की ओर चल पड़ी।

देवी ने अपने काष्ठ मंजूषा से पुरुष परिधान निकाल कर आचार्य के सामने धर दिए।

“देवी, सच सच बताइए, क्या मंजरिका ने आपसे कुछ कहा है। कुछ बताया है मेरे बारे में ?”

“नहीं तो, वो क्यों कुछ कहेंगी, मंजरिका तो देवी हैं”

“देवी शिव्या, ऐसा कह कर आप मेरा परिहास तो नही कर रही हैं ?”

“मैं ऐसी धृष्टता कैसे कर सकती हूं, यह परिहास नहीं है, आपने कैसे ऐसा समझ लिया?”

देवी गंभीर हो उठी।

“सांध्य समाज में नियमित नृत्य करना मेरा कर्तव्य है, कर्तव्य के प्रति निष्ठा भाव ही मेरी जीवन है। कदाचित मंजरिका ने भी यही समझा होगा। तभी तो वे यहां आईं, आपके वस्त्र रख गईं और बोली-

“देवी शिव्या, मैं आचार्य दिव्य को व्यवस्थित रखने में असमर्थ हूं, असहाय भी हूं। यदि तुम ऐसा कर सको तो मुझ पर बड़ा उपकार होगा। ऐसा उपकार जिससे मैं जीवन भर उऋण न हो पाऊंगी।“

आचार्य के होठो पर कारुणिक मुस्कान उभरी।

“देवी, कल से सबकुछ व्यवस्थित हो जाएगा, कल से मेरी भूमिका बदल जाएगी। तब देवी मंजरिका को कोई कष्ट न होगा और न किस अन्य को कोई कष्ट पहुंचेगा।“

आचार्य का स्वर अवरुद्ध हो गया था।

वे देवी से कल के लिए अनुमति लेने आए थे, ये बात वे भूल ही चुके थे और उनका मष्तिष्क कहीं और भटकने लगा था। वे वापस जाने को उद्दत हुए कि देवी ने उनका हाथ पकड़ लिया।

“आज मैं आपको ऐसे नहीं जाने दूंगी ”  देवी खुल कर हंस पड़ी थी।

“क्यों…?” आचार्य पूछ बैठे।

“देवी, मैंने इसके पूर्व आपको इस तरह हंसते हुए नहीं देखा था, कदाचित यह अभिनय नहीं है, मेरा उपहास उड़ा रही हैं आप…”

देवी के मुख पर खिन्नता भरी।

“यह सत्य है कि पहली बार मैं इतना विहंस रही हूं। परंतु यह उपहास की हंसी नहीं है। रही बात अभिनय की तो क्या जीवन ही अभिनय नहीं है।“

“कमसेकम मैं वैसा नहीं समझता ”

“आप भले न समझे, यह एक वास्तविकता है, ये कैसे, बताना चाहूं भी तो नहीं बता सकती। मेरी भी कोई अपनी मर्यादा है। खैर…”

“आप बताइए…आज यहां कैसे आना हुआ ?” ऐसा क्या हुआ कि आप अपना निश्चय भूल कर यहां चले आए।

आचार्य को देवी का इस तरह पूछना अपमानजनक लगा। परंतु बिना उत्तेजित हुए बोले- “मालूम पड़ता है, भयंकर भूल हो गई मुझसे।“

देवी ने बीच में बात काटते हुए कहा- “इसमें भूल की बात कहां, अच्छा हुआ आप यहां चले आए। अवश्य कोई विशेष प्रयोजन होगा।“

आचार्य ने अपनी गीली आंखें देवी पर टिका दी- “अच्छा होता, अगर आप मेरा यहां कभी प्रतीक्षा की होती। अप्रतिक्षित, अयाचित अतिथि भूल ही करता है।“

देवी इतना सुनकर निरुत्तर रहीं। उन्हें यह उत्तर शायद पसंद नहीं आया था। वे बहुत कुछ बोलना चाहती थीं, मगर होठ कांप कर रह गए। वे शांत रहीं। उन्हें इस अवस्था में देख कर आचार्य असहज हो उठे और कक्ष से बाहर की ओर चल पड़े।

देवी ने आगे बढ़ कर उनकी बांह फिर से थाम ली। आचार्य उन बांहो की पकड़ से छूटना नहीं चाहते थे।

“आचार्य , अब इस समय कहां जाएंगे आप। बाहर मूसलाधार बारिश हो रही है। रात्रि भी हो गई है। नगर के सूने राजपाथ पर आज प्रकाश भी नहीं है। चारो दिशाओं में अंधेरा ही अंधेरा है। यदि कोई अनहोनी हो गई तो…?”

“तो क्या देवी…लोग तो यही कहेंगे न कि रात्रि के इस पहर में देवी शिव्या ने अपने आचार्य को नही रोका, उन्हें जाने दिया। और लोगो को छोड़िए, देवी मंजरिका क्या कहेंगी। “

“और यदि आज रात्रि यहां रहा तो कल प्रात: सारी वैशाली क्या कहेगी”

देवी मुस्कुराई- “वैशाली की चिंता आप करें, यह तो व्यय है अपनी चिंताओ का “

“ऐसा क्यो देवी ?”

“आपने स्वंय ही कहा है कि वैशाली हृदय नगरी है, उसका यहीं वास है…फिर चिंता व्यर्थ हुई न ”

दोनों प्रथम बार एक साथ हंसे। सम्मिलित हंसी से कक्ष का प्रकाश झिलमिला उठा।

“देवी, आप सचमुच गण-कल्याणी हैं।“

देवी अपनी परिचारिका को पुकार उठीं।

“आचार्य का यहीं पर शय्या लगा दो, मैं यहीं भूमि पर सो रहूंगी। आचार्य यह सुनकर स्तब्ध रह गए। परिचारिका भी चकित उनका मुंह ताकती रह गई।“

परिचारिका के बोल निकले- “क्यों देवी, आप भूमि पर क्यों सोएगी। इतनी बड़ी अट्टालिका है, अनेक सुशोभित कक्ष हैं, केवल यही एक शय्या तो नहीं है।“

आचार्य ने परिचारिका को रोकते हुए कहा- “नहीं, तुम रहने दो। यह संभव नहीं। मुझे इसी पहर अपने प्रासाद में लौटना होगा।“

देवी पूछ उठी- “आपको यहां सोने में कोई संकोच है ?”

“हां, संकोच तो है देवी , और…”

“और क्या…आपको आत्मविश्वास नहीं , आपको आज यहीं सोना पड़ेगा, इतनी रात्रि को मैं न जाने दूंगी।“

“मेरा संकोच ये है कि आज की रात्रि यहां रुका तो हम दोनों पर कलंक लगेगा। मुझ पर लगे तो परवाह नहीं, क्योंकि कल से मेरा जीवन बदल जाएगा, आपको तो अभी इसी तरह रहना है, आप कलंकित हों, मुझे स्वीकार्य नहीं देवी…”

देवी अट्टाहास कर उठीं।

“केवल कलंक के भय से तो मैं आपको बाहर नहीं जाने दे सकती। आपको अपने पर विश्वास न हो तो वो दूसरी बात है। मुझे विश्वास है कि सारी रात्रि आप न भी सो पाएं तो भी प्रात: आप खुद को अस्वस्थ नहीं पाएंगे।“

आचार्य, देवी को समझाने में सफल न हो पाए। उन्हें उनके हठ के आगे झुकना पड़ा। वे मन ही मन उलझ गए थे कि देवी आज रहस्यमयी संवाद कर रही हैं। कुछ भी खुल कर नहीं बोल रही हैं। सारी शंकाओ और प्रश्नों को उलझा दे रही है, अपने वाक चातुर्य से।

कक्ष में थोड़ा व्यवस्थित होने के बाद आचार्य ने फिर प्रश्न उछाल ही दिया। उनका मन बहुत भरा हुआ था सवालों से। बस आज की आखिरी रात्रि थी उनके बीच, जिसमें सबकुछ कह देना, सुन लेना था। एक प्रश्न जो उनके चित्त को अशांत किए हुए था, पूछ ही लिया।

“देवी, क्या श्रेष्ठी-पुत्र कप्पिन पर मेरा संदेह उचित नही है ?”

देवी मौन रहीं।

आचार्य फिर बोले- “मैं जानता हूं कि ये प्रश्न अनुचित है, मेरी संकीर्णता का परिचायक है, कदाचित इसका मुझे अधिकार भी नहीं है, फिर भी न जाने क्यों, मैं इस प्रश्न का उत्तर जानने को व्यग्र हूं। इस प्रश्न के निसंदेह दो उत्तर होंगे, उनमें से कोई भी उत्तर सुन कर मुझे संतोष होगा। मैं तैयार हूं किसी भी उत्तर का सामना करने के लिए, आप विश्वास रखे। “

इसका एक तीसरा उत्तर भी हो सकता है आचार्य, वो ये कि मैं इसका उत्तर दूं, ये आवश्यक तो नहीं।

“अपने लिए न सही, मेरे लिए ही , आप उत्तर दे सकती थीं। चलिए, इतना बता दीजिए कि क्या अगर मेरी जगह ये प्रश्न आपसे कप्पिन पूछते, मेरे बारे में तब भी क्या आप ऐसा ही उत्तर देतीं ?”

आचार्य के होठो पर फीकी मुस्कुराहट उभरी। व्यथा की रेखाएं और गहरी होती चली जा रही थीं।

“आचार्य, हमारे आपके बीच श्रेष्ठी पुत्र कप्पिन की वार्ता हो, यह कई अनिवार्य तो नहीं। आप इस समय मुझे नगर के सुरक्षा प्रधान प्रतीत हो रहे हैं। “

“देवी, न जाने क्यों, मैं इस मामले में आश्वस्त होना चाहता हूं…क्या इतना भी मेरा आप पर अधिकार नहीं है ?”

देवी आचार्य के भीतर पुरुषोचित ईर्ष्या देख कर भीतर ही भीतर सिहर गई। ऊपर से गर्वीली मुस्कान ओढ़ कर बोली-

आचार्य दिव्य, मैं भी कुछ आश्वस्त हुआ चाहती हूं। मुझ पर अधिकार ही नहीं, मेरे प्रति आपका कर्तव्य भी है।

आचार्य कक्ष से बाहर की तरफ जाने लगे। देवी ने उन्हें इस बार नहीं टोका, रोका। आचार्य खुद ही कुछ पग चल कर ठिठक गए। शायद उन्हें उत्तर की प्रतीक्षा थी।

अपने मन को कड़ा करके बोले-

“देवी, मैं इस समय बहुत दुविधा सी स्थिति में हूं। परंतु मैं आपको आश्वस्त कर सका तो मेरा सौभाग्य होगा। बताएं…”

“आपका ही नहीं, ये वैशाली का भी सौभाग्य होगा…सुरक्षा प्रधान का दायित्व अत्यंत महत्वपूर्ण है। उसके प्रति आपका यह भाव किसी प्रकार उचित नहीं है। आचार्य दिव्य, आपसे मेरा निवेदन नगर की गण-कल्याणी के कारण है।“

“देवी शिव्या होने के नाते कोई और आग्रह नहीं…?”

देवी उल्लास से भर गईं। मानो मनोनूकूल प्रश्न पूछ लिया गया हो।

“अच्छा हुआ, आपने ये पूछ लिया। सुनिए , देवी मंजरिका भी आपसे कुछ अपेक्षा रखती हैं। हमारा क्या, जब तक यह गणराज्य अजर-अमर है, तब तक गण –कल्याणी भी जीवित है। और उसका सुरक्षा-प्रधान भी। फिर उसकी चिंता क्यों ?”

मंजरिका का नाम सुनते ही हृदय में शूल-सा चुभा। कहीं अपराध-बोध सा जागा।

कम से कम यहां आने से पहले मंजरिका को बताते आते कि बस आज रात भर का संबंध इस मायावी संसार से बचा रहेगा। प्रात उनका संसार अलग हो चुका होगा। फिर उसके बाद तुम्हे कोई कष्ट नहीं देगा मंजरिका, चलते चलते जो अनाचार तुम पर कर बैठा, वैसा अब फिर नही कर पाऊंगा। फिर कभी नही देवी मंजरिका…फिर कभी नहीं…मैं तुम्हें बता नहीं पाया, इसका पछतावा रहेगा देवी। तुम्हे कल दूसरे लोग बताएंगे, मेरा प्रहरी बताएगा, मैं नही होऊंगा बताने के लिए…

बड़बड़ाते हुए आचार्य का गला रुंध गया। बाहर मेघ वैसे ही गरज रहे थे। देवी वैसे ही मौन थीं। अपने सांसारिक जीवन की अंतिम रात्रि एकांगी प्रेम के मौन के साथ बिताना चाहते थे। देवी के हृदय से नितांत अनभिज्ञ आचार्य ने देवी से आगे कोई वार्ता न करने का संकल्प ले लिया। उस कक्ष में देवी की शय्या पर सोए हुए, भूमि पर लेटी हुई उस स्त्री को देखते रहे। निद्रा में स्त्रियां देवी की भांति लगती हैं और देवियां स्त्रियों की भांति। बार बार उनके हृदय में अभिलाषा जगे- एक बार देवी के खुले केशपाश में पुष्करणी सरोवर से लाए हुए श्वेत कमल टांक दें। एक बार दूधिया, झिलमिल चादर चेहरे से खिसका कर शयन कक्ष को रोशन हो जाने दें। बस एक बार…एक बार…देवी के बाहुपाश में स्वंय को खो जाने दें। फिर चाहे मेघ गरजते रहें, बिजली गिर जाए। एक बार देवी उसके प्रेम को स्वीकार लें। एकांगी प्रेम की पीड़ा को किसे समझाएं।

व्यग्र चित्त को निद्रा कहां आती है। निद्रा सिर्फ बाहर-बाहर थी और उनके मौन में थी। जाने किस पहर, किस विधि दोनों को निद्रा ने दबोच लिया होगा अपने पाश में।

प्रात: आचार्य निद्रा से जगे। देवी वहां नहीं थीं। कुछ देर बाद देवी वहां प्रकट हुईं। अनिद्रा का प्रभाव उनके नेत्रों पर भी वे भांप गए थे।

आचार्य ने वज्रपात किया-

“देवी, मेरे मन में एक भ्रम था, वह यहां आकर और गहरा हुआ है। अब कहने को कुछ नहीं बचा है। सुनने का अवकाश भी कहां। सत्य तो ये है कि मेरे मन का बोझ उतर चुका है। मैं खुद को बहुत मुक्त महसूस कर पा रहा हूं। आपसे विदा चाहता हूं, मंजरिका आपके पास आएगी, आप जो बताना चाहें, बता देंगी। यहां आने के कारण, रात्रि विश्राम के कारण और अब यहां से वापसी के कारण। यह निर्णय मैं कल ही ले चुका था।“

“मैं आज से भिक्षु संघ में प्रवेश करने जा रहा हूं…”

आचार्य को लिवा लाने उनका प्रहरी द्वार पर अश्व लेकर खड़ा था।

देवी ने उन्हें सूने नेत्रों से देखा, उसमें एक आश्वस्ति थी, जिसे वे देख न सके। पीछे खड़ी परिचारिका ने उन्हें थाम लिया।

देवी बुदबुदाई- मेरे मार्ग पर मुझसे पहले आप चले गए आचार्य। जब आप ही मुक्त हुए तो मैं भला बंध कर क्या करुंगी आचार्य।

 

…..

 

 

 

 

 

 

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पूनम अरोड़ा की कविता सीरीज़ ‘दृश्यों में कनॉट प्लेस’

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पूनम अरोड़ा समकालीन कविता का जाना पहचाना नाम है। यह उनकी नई कविता सीरीज़ है- मॉडरेटर

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दृश्यों में कनॉट प्लेस

(कनॉट प्लेस- दृश्य १)
🔹 संडे पार्किंग

कनॉट प्लेस में पार्किंग नहीं मिलती संडे को
आजकल हवा भी नहीं लहराती बातों के बीच
शनिवार रात के जागे युवकों की आँखों से बहती है स्कॉच की गंध

संडे को कनॉट प्लेस एक घना पेड़ दिखाई देता है
जिसकी शाखों पर कुकरमुत्ते की भीड़ सी लगते हैं दिल्ली के नौजवान
मुझे सुनाई देता है उनकी टूटी हुई हँसी में
एक वर्जिन लड़की को न पा सकने का स्पष्ट दुख

*****

(कनॉट प्लेस-दृश्य २)
🔹एक्स्ट्रा वर्जिन ऑलिव ऑयल

वह डी-ब्लॉक के खुरदुरे फर्श पर नाचने की लगभग तैयारी में थी
कैमरे के ऐंगल को सही करती
खुद में थोड़ा जादू भरती हुई वह अपने पति को गालों पर एक चुम्बन देती है
थोड़ा सिकुड़ कर ब्रा में मस्क की खुशबू बिखेरती है

चुम्बन अपना काम करता है
और पति उसी ऐंगल से उसकी तस्वीर उतारता है

पित्ज़ा पर एक्स्ट्रा वर्जिन ऑलिव ऑयल में भूनी पनीर और सोया चंक्स जीभ पर घुल जाते हैं

****

(कनॉट प्लेस-दृश्य ३)
🔹कबीर सिंह बनाम फालतू की बहस

वे एक गोल घेरा बना कर बहस कर रहे थे
कनॉट प्लेस का वह कोना पूरी तरह से आरक्षित था
सरकार की कोई कारस्तानी नहीं थी इसमें

बहस थी कबीर सिंह पर

फ़िल्म का विरोध कर रही नौजवान मंडली एक उजाड़ सत्य से भरी थी
लेकिन शनिवार रात का जागा लड़का अब पूरे होश में था
बहस किसी मुद्दे पर तर्क से परास्त हो जाती है

विरोधी मंडली जून की गर्म शाम में झुलसती हुई अपने चश्मे, जूते और तख्तियों पर एक नज़र डालती है

दिल्ली बारिश से त्रस्त है अभी तक
यह सोच कर कबीर सिंह को बख्श दिया जाता है

बहस पर ‘व्हाट द हेल इज़ दिस’ की तोहमत लगाने वाला शनिवार की अधूरी नींद को पूरा करने के लिए एक बार में घुसता है
रात को सेफ सेक्स के लिए अपनी गर्लफ्रैंड से डॉटेड कंडोम के बारे में पूछता है

‘भाड़ में जाये कबीर सिंह’ कहते हुए मंडली की सबसे उग्र लड़की देखते ही देखते
बिसलेरी संस्कृति को अपने गले से उतार लेती है

*****

(कनॉट प्लेस-दृश्य ४)
🔹शुक्ला पान वाला

कनॉट प्लेस के कुछ कोने धुँए का अखाड़ा लगते हैं कभी-कभी
घुटनों और जांघों से फटी
आसमानी पेंसिल डेनिम जीन्स पहने
सिगरेट सुलगाते हुए
लड़की अपनी सबसे हसीन अदा में नहा रही है

सिगरेट के छल्लों में कितने खुशनुमा काल्पनिक मौसम देख रही है वो

साथ खड़ा लड़का किसी सहानुभूति का पक्षधर नहीं
वह आने वाले दिनों में कोई चोट दे सकता है लड़की को
या यह मेरा पूर्वग्रह भी हो सकता है

लड़की साथ खड़े लड़के से कहती है “मुझे नहीं लगता आग से डर”
और शुक्ला पान वाला सीने में गर्व की पुकार भरकर पान में आग जलाता है और कठोरता से ठूस देता है जलता हुआ पान लड़की के मुँह में

*****

(कनॉट प्लेस-दृश्य ५)
🔹 बेरकोज़ में “रोमियो, जूलियट और अंधेरा”

दृश्य में विदेशी शराब का सन्नाटा था
नाक पर गंध की मछलियाँ उधम कर रही थीं

उन गोल घूमती सीढ़ियों पर से शराब के सन्नाटे को लाँघना था
कॉरपोरेट संसार के लोगों की पतलूनें और इस्त्री से सीधी जमी कमीज़ें शोर की कैंचियों से एक-दूसरे की ज़ुबाने काट रही थीं

रोशनी और अंधेरा
अंधेरा और कुत्ते का बच्चा
कॉरपोरेट संसार की सुंदर लड़की के बगल में ही थे
लड़की कार्ड स्वाइप कर बिल चुकाती है सबका
यह उसके ब्रेकअप का जश्न था

वाइन का एक ग्लास टूटता है
सारे माहौल में बेलगाम ठहाका नीले कालीन पर फैल जाता है

(कनॉट प्लेस-दृश्य ६)
🔹पैर

पैरों के अपने भय थे
वे कपट को छुपाते हुए चल रहे थे

कभी ये आत्मघृणा में लज्जित हो रहे थे
तो कभी उदात्तता में कबूतरों के झड़े हुए पंख बनकर ज़मीन से थोड़ा ऊंचा उड़ कर चल रहे थे

एल ब्लॉक के एक कोने में
कुछ नौजवान सुरों को धोखा देते हुए
गिटार पर गा रहे थे “साडा हक़ ऐत्थे रख”

यह एक सार्वजनिक बौनापन था या ऊंचाई
इसी का सामंजस्य वे अपनी चीख में बैठाने की कोशिश कर रहे थे

कई जोड़ी पैर एक शब्द ‘अपराध’ में
घुटनों के बल झुक कर सकुचा रहे थे
कनॉट प्लेस शाम तक
किसी अधूरे वाक्य में बदलने लगा था

(कनॉट प्लेस-दृश्य ७)
🔹 सेल्फी और उदास फूल

वे एक दूसरे से बात नहीं कर रहे थे
बीच में कोई भी एक नज़र उठा कर आसमान की ओर देख लेता था

यह एक चुप्पी थी
और इस चुप्पी की जड़ें उनके जाहिर किए गए अच्छेपन में थी

सेल्फी लेने वाली लड़कियों का झुंड छोटी पोशाकों में था
उनके गुलाबी रंगे होठ और शाम के पाँच बजे का साधारण समय एक विरोधाभास बन उनके बीच से चुपचाप निकल गया

फूल किसी उदासी में अपना शिल्प खो रहे थे

‘कौन ही विलय करता है धवल सिंगार की स्मृति’ अपने गुप्त नक्षत्रों में”
फूल वाला यह कविता लिख रहा था

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विनय कुमार की पुस्तक ‘यक्षिणी’से दो कविताएँ

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देश के जाने माने मनोचिकित्सक विनय कुमार को हम हिंदी वाले कवि-लेखक के रूप में  जानते हैं। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित उनकी किताब ‘यक्षिणी’ दीदारगंज की यक्षिणी की प्रतिमा को केंद्र में रखकर लिखी गई एक लम्बी सीरीज़ है। आज उसी संकलन से दो कविताएँ- मॉडरेटर
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1
जिस जगह तुम पाई गई
वह दीदारगंज है
अलकापुरी नहीं
ढूँढो तो भारत के नक़्शे पर
अलकापुरी कहीं नहीं है
न वो प्रजाति जिसे कहते हैं यक्ष
 
अब तो वो शिल्पी भी नहीं न वो कला
यह सूचना भी नहीं चिरयौवने
कि मगध के किस ग्राम में मायका तुम्हारा
और दो हज़ार साल से पहले का समय
तो समय का सर्जक भी नहीं ला सकता
 
मगर तुम हो
जैसे दीदारगंज है
जैसे चुनार है उसके सैकत पत्थर हैं
और मेरी आँखें हैं तुझे निहारती
और मेरी भाषा का पानी
जिसमें तुम्हारी परछाइयाँ हैं!
 
 
2
 
माना कि तुम पत्थर की हो
मगर पत्थर नहीं
तुम्हारे मुख से फूटती प्रसन्नता पत्थर नहीं
न वह छाया ही
जो शिल्पी के मानस से नसों तक आई
और पत्थर पर प्रकाश की लिपि में बस गई
 
और मैं भी पत्थर नहीं
 
मेरी जीवित आँखें मेरा मोद विहवल मन
और तुम्हारी चेतन कौंध
और शिल्पी की मनस्तरंगें सब एक हैं
आज यहाँ अभी!

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‘बाली उमर’के लेखक भगवंत अनमोल से स्मिता सिन्हा की बातचीत

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नायरा वहीद की कुछ कविताएँ

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नायरा वहीद एक अफ्रीकी-अमेरिकी कवयित्री हैं। वहीद के ‘नमक’ और ‘नजमा’ नाम से दो काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। दोनों संग्रह नस्लवाद, महिला-विरोधी और ज़ेनोफ़ोबिया जैसी ताकतों के खिलाफ एक शांत धर्मयुद्ध करते हैं। वहीद अपनी नन्ही-नन्ही कविताओं में हमें पुकारतीं हैं, बहुत कम शब्दों में हमें बतातीं हैं कि वो क्या है जो हमें खुद से दूर ले जा रहा है, वे भोर की किरन की तरह हमारी जिन्दगी में उजियारा भरती हैं। जीवन का पुनर्मूल्यांकन करतीं ये कविताएँ खोल में लिपटे पूर्वाग्रहों, धारणाओं और भावनाओं को आहिस्ता से अलग करतीं हैं और हमें हमारे वजूद का अहसास करातीं हैं। भोजन में नमक की तरह ये कविताएँ लाखों-करोड़ों पाठकों के जीवन में अहम भूमिका निभा रहीं हैं जैसा कि अमेरिकी कवयित्री ऑड्रे लॉर्ड का भी कहना है: “कविता सिर्फ एक लक्जरी नहीं है यह हमारी जरूरत भी है।”

इन्स्टाग्राम पर बेहद लोकप्रिय इस कवयित्री के तीन सौ करोड़ से अधिक प्रशंसक हैं और ताज्जुब की बात यह है कि इतनी प्रसिद्धि के वावजूद किसी भी सोशल साईट पर उनका कोई एकाउंट नही और न ही उनकी कोई तस्वीर है| वर्जनाओं से निकलकर सतर्क और सचेत हो रास्ता ढूँढती वहीद की कविताएँ अफ्रीका के अलावा और कई देशों के विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल की गयीं हैं| नायरा अंग्रेजी भाषा में लिखतीं हैं उनकी कुछ कविताओं के हिंदी अनुवाद नीता पोरवाल द्वारा-

 

1.
 
मैने तुम्हें प्यार किया
क्योंकि
यह
खुद को प्यार करने से ज्यादा
आसान था
 
 
2.
 
‘नही’
वह शब्द है
जो उन्हें गुस्से में भर देगा
और तुम्हें
आजादी देगा
 
 
3.
 
उदासी का
उसी तरह इन्तजार करो
जैसे तुम
इन्तजार करते हो बारिश का
दोनों ही
चमकाते हैं हमें   
 
 
4.
 
तुम्हारा
मुझे न चाहना
मेरे लिए
खुद को चाहने की शुरुआत थी 
तुम्हारा शुक्रिया!
 
 
 
5.
 
मुझे
हर महीने
रक्तस्राव होता है
मैं तब भी नही मरती  
मैं कैसे मान लूँ कि
मैं कोई जादू नही?
 
 
 
6.
 
मैं
इस बात को तवज्जो नही देती
कि दुनिया खत्म हो रही है
मेरे लिए तो यह
कई बार
खत्म हुई
और अगली सुबह
शुरू भी हुई
कई बार 
 
 
 
7.
 
मुझे खुद से प्यार है
और यह
अब तक की
सबसे शांत
सबसे सरल
सबसे ताकतवर
क्रांति थी
 
 
 
8.
 
बेशक तुम्हें कोई चाहता होगा
पर इसका मतलब यह नही
कि वे तुम्हारी कदर भी करते होंगे  
इसे एक बार फिर पढ़ें
और इन शब्दों को अपने दिमाग में गूँजने दें 
 
 
 
9.
 
ये कैसी
चौंका देने वाली कैमिस्ट्री है
कि आप मेरी बांह छूते हैं
और लपटें  
मेरे दिमाग में उठने लगतीं है
 
 
 
10.
 
इच्छा
एक ऐसी शय है
जो तुम्हें खा जाती है
वहीँ तुम्हें  
भूखा भी छोड जाती है
 
 
 
11.
 
यह
अपने दर्द के बारे में
ईमानदार होना ही है  
जो मुझे अजेय बनाता है 
 
 
 
12.
 
उन पर
कभी भरोसा मत करना
जो कहते हैं
कि उन्हें रंग नजर नही आते
इसका मतलब है
कि उनके लिए
तुम अदृश्य हो
 
 
 
13.
 
अगर कोई मुझे चाहेगा नही 
तो दुनिया खत्म नही हो जायेगी
पर अगर मैं खुद को नही चाहूंगी
तो दुनिया जरूर खत्म हो जायेगी
 
 
 
14.
 
 
 
“फूल का काम
आसान नहीं
लपटों के बीच
नरम बने रहने में
वक़्त लगता है।”
 
 
 
15.
 
मेरे पास
प्रेम के लिए
सात अलग-अलग लफ्ज़ थे
तुम्हारे पास
सिर्फ एक
मेरी बात में वजन है
 
मानोगे?
 
अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद: नीता पोरवाल

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वैशाली की रुपजीविता

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वैशाली से इस हफ़्ते गीताश्री लाई हैं प्रेम और अध्यात्म के द्वंद्व में फँसी एक भिक्षुणी की कथा। वैशाली के अतीत की एक और सम्मोहक कथा-

=========================

“माते, आज आप मेरा इतना श्रृंगार क्यों कर रही हैं। मुझ पर इतनी साज सज्जा शोभती नहीं है। मैं आपका मंतव्य जानना चाहती हूं।“

कुमारी विमला ने अपनी माता के म्लान चेहरे को देखा, जो इस समय कांतिविहीन हुआ जा रहा था। उसे अकुलाहट हुई कि माते मुझे सज्जित करते हुए क्यों विकल हुई जा रही हैं। सबकुछ तो था माते के पास। अपार धन, ऊंची अट्टालिका। नगर के अनेक श्रेष्ठ जन सांध्य बेला में पधारते थे, माते गायन, नृत्य प्रस्तुत करती थीं। वे प्रसन्न रहा करती थीं, अपनी कला साधना में। पिता की अनुपस्थिति पर कभी विलाप नही किया। माते ने उसे इतने वैभव से पाला था। स्वभाव से अल्पभाषिणी विमला चकित थी अपनी माते के व्यवहार से। माते स्वंय अपने हाथों उसे सजा रही थीं। उनकी परिचारिका हाथों में सज्जा की वस्तुएं लिए खड़ी थी। गोटे-बूटे वाली चमचमाती रेशमी वस्त्र उसे पहना कर कंठ में सफेद मोतियों की माला डालने ही जा रही थी कि कुमारी ने उनका हाथ रोक दिया-

“माते, आपको बताना पड़ेगा। आज क्या है, कोई उत्सव है, हमारे बैठकखाने को इतना क्यों सजाया जा रहा है, आज समूचा माहौल परिवर्तित प्रतीत होता है। बताइए न…”

वह ठुनकने लगी। उसके युवा मुख पर दीप्ति उभरी।

माते ने परिचारिका के हाथ से बड़ी –सी नथ उठाई और कुमारी के नाको में पहना दिया। वह कराह उठी। उसे समझ में आ गया कि उसके साथ सबकुछ बलपूर्वक किया जा रहा है।

माते एकदम चुप थीं। कुमारी बोल उठी- “कोई विशेष प्रयोजन है माते, आप छुपा रही हैं। आप पर ऐसे वस्त्र रोज सांध्य बेला में शोभते हैं। मैं तो अपने सादे वस्त्रो में ही प्रसन्न रहा करती थी। मुझे कभी आपको देख कर लालसा न हुई कि आपकी तरह सिंगार करुं। मैं आपके रुप-यौवन को सराहती रही हूं, कभी आपकी तरह बनने की कामना नहीं की।“

माते के नेत्रों को देखा, जो उफन रही थीं। सदानीरा जब वर्षाऋतु में ऐसे ही उफनती है, वैशाली के लोग भयभीत हो उठते थे। तटबंध टूटने के भय से सबसे चेहरे पर पीत छायाएं उभर आती थीं। मछुआरें भयभीत हो जाल पेड़ों पर टांग देते थे। यहां तो माते के नेत्रों में उफान आ रहा है। जोर से वह माते से चिपट गई।

कुमारी विमला देर तक भींगती रही, सदानीरा का पानी झरझर बह रहा था।

माते ने खुद को सयंत किया। परिचारिका के नेत्र भी गीले हो आए थे। उसने पार्श्व से आकर अपनी कोमल हथेली माते के पीठ पर रख दी। दोनों छिटक कर अलग हुए।

“अब तुम्हें प्रतिदिन सांध्य बेला ऐसे ही साज सिंगार करना पड़ेगा पुत्री, मेरा समय समाप्त हो गया है। तुम्हारा समय प्रारंभ होता है। तुम्हें सारा दायित्व परिचारिका सुगंधा बता देंगी। इनकी हर बात गौर से सुनना, मानना आपका दायित्व है।“

“माते…” विलाप कर उठी विमला।

“आप मेरी जननी हैं, मेरा आदर्श नहीं।“

“पुत्री, जीवन की आवश्यकताएं, परिस्थितियां सारे आदर्श विस्मृत करा देती हैं। अभी तक जिस वैभव में तुम पली हो, वो आदर्शो के मूल्य पर ही अर्जित किए गए थे। सदा स्मरण रहे, योग्यता से ज्यादा वैभव हमेशा मूल्यों की भेंट चढ़ा कर ही पाए जाते हैं।“

छटपटा उठी कुमारी।

सुगंधा, शाम के समारोह के लिए आवश्यक निर्देश देकर कुमारी को बैठकखाने में ले आएं। नगर क सबसे बड़े श्रेष्ठीपुत्र सुमंत पधारने वाले हैं।

अपने हृदय को कठोर बना कर, लीला देवी वहां से ये वचन बोल कर चली गई। परिचारिका आज्ञा का पालन करने को उद्धत हुई। कुमारी उससे छिटक कर अट्टालिका के झरोखे के पास जाकर खड़ी हो गई।

बाल्यकाल के लेकर युवा होने तक की सारी घटनाएं दृश्य की तरह झरोखे से दिखाई देने लगी थी। सांझ होने में देर थी अभी। बाहर चहल पहल की आहटें सुनाई देने लगी थी। कुमारी की माता लीला देवी, वैशाली की रुपजीविता स्त्री, जिसकी इस गणराज्य में रुप की चर्चा सबसे ज्यादा थी। उनके यहां आने वालो में संभ्रांत लोग अधिक थे। कुछ तो स्थायी सदस्य थे जो नृत्य और संगीत के बाद देर तक सुरापान में डूबे रहते, फिर मुद्राएं फेंक फेंक कर लीला से अभिसार करते थे। वो सबके मनबहलाव का साधन थी।

वैशाली के इस छोटी-सी बस्ती मधुवन में सिर्फ गणिकाओं की अटटालिकाएं थीं। मधुवन सांध्यबेला में रमणीय हो जाता था। ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं में प्रकाश झिलमिला उठते थे। उसके स्तंभो में बंधी मशालें जल उठती थीं और नगर के युवा, अधेड़ और बूढ़े आसपास मंडराने लगते थे। चहल पहल बढ़ जाती थी। इलाका अपना रुप, चरित्र सब बदल लेता था। दिवस में शांत, उचाट पड़ी अट्टालिकाएं बजने लगती थीं। घुंघरुएं खनकने लगती थीं। ढोलो की थाप बाहर तक सुनाई देती और कोई कोई सुरीली आवाज, दर्द में डूबी हुई, अंधेरे को भेद देती । अट्टालिका के बाहर खड़ी परिचारिकाएं अतिथियों को बड़े सम्मान के साथ अंदर लिवा ले जाती। नगर के संभ्रांत, श्रेष्ठी-जन, नगर सेठ, सभा के सदस्य साधिकार अट्टालिका में घुसते थे।

 मधुवन क्षेत्र में प्रवेश करते ही पहली अट्टालिका के बाहर खंबो से चिपक कर एक नन्हीं-सी बच्ची नियमित ये तमाशा देखा करती थी। उसे कौतुहल होता। उसे सबकुछ विचित्र लगता। वह कभी इसका हिस्सा नहीं बनना चाहती थी। उसे माता की गायन-वादन मंडली में सबसे प्रिय वह युवक माधव लगता, जो शाम को नृत्य के साथ गाने के लिए गीत लिखा करता था। कई बार छुप कर देखा, वह कोने में बैठा कुछ कुछ भोजपत्र पर लिखा करता था। पास जाने का कभी साहस न हुआ, परंतु माधव के चेहरे पर जो तेज देखती, वह समझती, लिखना शायद सबसे रोमांचक काम होगा। तरुण बेचैनी से पहलू बदलता, कभी लेट जाता, कभी झुका रहता घंटो। बेसुध-खोया-खोया –सा। उसकी एकाग्रता तब भंग होती जब मंडली का कोई उसके पास जाकर कुछ कहता। वह ध्यान से उन्हें सुनता। सहमति में सिर हिलाता और फिर सबसे बेखबर होकर मोरपंख उठा लेता। उस वक्त उसका मुख देखने लायक होता। कुमारी को लगता- एक दिन कोने में बैठ कर वह इसी तरह कुछ लिखना चाहती है। माता की तरह न नाचना चाहती है न किसी को रिझाना। एकबारगी मन हुआ तरुण के पास जाकर पूछे- क्या लिखते रहते हो। एक दिन पहुंच ही गई।

युवक ने चौंक कर उसकी तरफ देखा, उसके मुंह से बोल फूटे-

“इस रंगमहल में कौन हो देवी, किस लोक से चली आई हो, कैसा ये मेला है जग का, कैसी ये तरुणाई है”

माधव ने उसे हाथों के संकेत से दूर जाने को कहा। जबकि उसका मन हुआ, वहीं पास बैठ कर दो पंक्तियां इसमें जोड़ दे…

“सुख-वैभव के स्वप्नलोक में पलना, चमक-दमक का मेला है, ये मेरी नहीं, इनकी-उनकी अमराई है”

मन की बात मन में ही रह गई। उसके मुख से फूटने वाली पहली कविता मन में ही घुट कर रह गई। होठ कांप कर रह गए। माधव अपने गीतों में खो गया। हर शाम उसे एक नया गीत रच कर मंडली को देना होता था।

उसे माधव पर अतिशय क्रोध आया। वह पास जाना चाहती थी, वह उसे दूर भगा रहा था। वह उसकी शिष्या बनना चाहती थी, वह अपने में बेसुध था। जिसमें वह खुल कर अपने को व्यक्त कर सकती थी, वह संसार उससे छूट गया था। इस भवन-भुवन में कौन सुनेगा उसकी आकांक्षा को। कैसे बताए कि उसके भीतर कुछ पल रहा है, जो उसके साथ जन्मा है, जिसे वो अव्यक्त नहीं रखना चाहती। उसे सुअवसर की खोज है। लीला देवी तो दिन में एक बार ही मिल पाती हैं। स्नेहालिंगन करके, परिचारिका को आवश्यक निर्देश देकर फिर वे बड़े से भवन में खो जाती हैं।

कुमारी चिंहुक गई। परिचारिका ने साधिकार आवाज दी थी। उसे जाना होगा।

नयी जिंदगी, नया काम और अनजाने लोग। परिचारिका समझा रही है कि ये उनकी परंपरा है। जिसका पालन करना ही होगा। वे कुछ और नहीं कर सकती।

नथ के दर्द से कराहती हुई कुमारी ने उसे उतारना चाहा तो परिचारिका ने रोक दिया।

आपके शरीर पर इस वक्त सबसे मूल्यवान यही है कुमारी। परंपरा के मुताबित नथ-उतराई की रस्म होगी, जो सबसे अधिक मूल्य चुकाएगा, वही उतारेगा। वो तय हो चुका है।

परिचारिका सुगंधा का मुख लाल हो उठा था। उसके भीतर जाने दर्द की कौन-सी चट्टाने थीं जो दरक रही थीं।

कुमारी शिथिल कदमों से उसके साथ चल पड़ी। लंबे गलियारे को पार करते हुए बार बार कुमारी को लगता- वह कहीं दूर भाग जाए। सदानीरा नदी में छलांग लगा दे। इससे पहले की वह किसी परंपरा का हिस्सा बने, वह आम्र वन में ही छिप जाए। डाल-पात खेलते हुए कितनी बार वह छुपी थी, कोई नहीं ढूंढ पाता था, जब तक वह खुद कुहुक कर बोलती न थी। कोयल की आवाज में कूकती थी और पकड़ी जाती।

अब भाग कर कहां जाएं। इस नगर के बाहर का संसार उसे मालूम नहीं। उसके पास मुद्राएं नहीं, कोई अंतरंग सखा भी नहीं। कोई शुभचिंतक भी नहीं जो उसे यहां से दूर ले जाए। एक एक पग उसे भारी मालूम हो रहे थे।

बैठकखाने के पास पहुंची तो कदम थम गए। समूची वादन मंडली अंदर प्रवेश कर रही थी। सबसे आखिरी व्यक्ति रुक गया। वह माधव था।

उसके हाथ में कुछ मुड़ा हुआ-सा था, जिसे कस के पकड़ रखा था।

कुमारी से नेत्र मिले। उन नेत्रों में कोई चिट्ठी –सी थी, मानो। वह वहीं ठिठका रहा, कुमारी की प्रतीक्षा कर रहा था। द्रुत गति से कुमारी ने उनके सामने से कदम बढ़ाए। कुमारी को उसे देख कर उन्माद हुआ। चित्त में शांति मिली। गर्वीली हो कर , थोड़ी अकड़ कर उसने उसे देखा। भीतर से मुक्ति की लेन-देन का प्रथम आभास हुआ। उसने कृत्रिम मुस्कान के साथ नये जीवन को स्वीकार कर लिया।

…..

प्रात: जगी तो उसके जीवन की ऋतुएं बदल चुकी थीं। लीला देवी न्योछावर हुईं जा रही थीं।

उनके हर्ष में डूबे स्वर कक्ष में शोर कर रहे थे- “पुत्री, मैं अत्यंत प्रसन्न हूं। देखो, श्रेष्ठीपुत्र क्या क्या न देकर गए हैं। हमारा जीवन यापन आराम से होगा। तुमने सबकुछ अच्छे से संभाल लिया है। आज तो उनसे भी बढ़कर महानुभाव आ रहे हैं। उन्होंने संदेशा भिजवा दिया है। मैं अब आराम कर सकूंगी। मैं थक गई हूं।“

“परंपरा से थकान होने लगी माते आपको ?”

उनींदी आंखों से माते को देखते हुए कुमारी ने पूछा।

“कुमारी…!!”

“आपने तो जीवन भर के लिए झोंक दिया मुझको…क्या आप जानती हैं कि मैं इससे अलग भी कोई कला जानती हूं। मैं उससे जीवन यापन कर सकती थी। अगर मैं भार थी आपके लिए तो मैं गृहस्थी बसा सकती थी। क्या कमी है मुझमें, मुझे कोई अंतरंग सखा मिल जाता माते, इस वैभव से उचित होता कि किसी विपन्न साथी का हाथ थाम लेती। परंपरा के नाम पर आप मेरी बलि तो न चढ़ातीं।“

“कुमारी…”

लीला देवी जोर से चीखी।

“धृष्टता कर रही हैं आप। हम आपकी माता हैं। हमारे प्रति भी आपका कोई कर्तव्य है या नहीं। आप जानती हैं कि गणिकाओ से कोई ब्याह नही करता है, चाहे वैशाली हो या राजगृह या पाटलिपुत्र। उज्जयिनी, कलिंग तक भी आप चली जातीं, आपकी छाया आपका पीछा नहीं छोड़ती। कमसे कम हम वैशाली की गणिकाएं जनपद कल्याणी तो हैं, प्रतिष्ठा तो पाती हैं। देवी अंबपाली ने तो हमें और प्रतिष्ठा दिलवाई है। आप उस ऊंचाई को प्राप्त करने की कोशिश करें। और हां, एक सत्य जान लीजिए कि हमारी अनुमति के बगैर हमें कोई छू नहीं सकता। हां, हम मुद्रा कमाने के लिए ये काम करती हैं। हमारा काम है ये, हम अपने काम से मुद्रा कमाते हैं, किसी से भिक्षा नहीं मांगते। आप एक बार इस काम में आ गईं, फिर कभी बाहर नहीं जा पाएंगी। मुक्ति का मार्ग नहीं है इसमें। बाहर जाने का मार्ग नहीं होता।“

“मुझे एकांत चाहिए…आप अविलंब प्रस्थान करें। मैं वार्तालाप नहीं चाहती। मुझे चिंतन –मनन का समय दें। मैं जो कुछ घटित हुआ है, उस पर विचारना चाहती हूं। जब तक मैं कुछ न कहूं, आप कुछ तय नहीं करेंगी मेरे लिए। कृपया प्रतीक्षा करिए…”

कुमारी ने माते को हाथ जोड़ कर प्रणाम किया।

क्लांत-मुख लिए, अचरज से भरी हुई लीला देवी वहां से लौट गईं।

इस भीरु, अल्पभाषिणी कन्या में इतना साहस कहां से आया। एक रात में इतना कटु बोलना कैसे सीख गई।

देर तक कुमारी अपनी शय्या पर अनमनस्क-सी पड़ी रही। जीवन में मानो सारे लक्ष्य समाप्त हो गए थे। एक अयाचित लक्ष्य की तरफ ढकेल दी गई थी। जिसमें प्रवेश का मार्ग होता है, निकास का नहीं। जितना सोचती, तड़पती जाती। कुछ लिखना चाहती थी। ये सबकुछ लिख देना चाहती थी। उसने परिचारिका को पुकारा।

माते को बोल देना, अब मैं जब कहूं, तभी मेरे लिए सांध्य समारोह करें, और जिसे मैं चुनूं, वहीं आएं…मैं इस पर उनसे संवाद करने को उत्सुक नहीं हूं। थोड़ी देर मैं शब्द साधना करना चाहती हूं, कोई ध्यान भंग न करें।

सुगंधा ने उसके हाथ में कुछ पकड़ा दिया। एक छोटा-सा वसन-टुकड़ा था-

लिखा था-

“सखि, परमार्थ बिताए दिवस-काल

लौकिक सुख को नहीं चाहता थामना

निज जीवन में नहीं कोई स्वार्थ –साधना

ढंक लिया है तिमिर ने मेरे मन को

कदाचित मैं नहीं स्वप्न भीरु

मैं अस्वतंत्र, असमर्थ की क्यों करुं कामना …”

इस छोटे से टुकड़े को पढ़ते हुए आंखें मूंद ली। काजल पिघल कर बहते रहे नेत्रों के किनारे पर।

कुछ दिवस ऐसे बीते। अट्टालिका में शांति छाई रही। लीला देवी अपने कक्ष में सिमट गई थीं। बाहर से कुमारी के लिए अनेक कुमारों के, धनाढयों के संदेशा आए, वे परिचारिका से उसके कक्ष तक भिजवा देतीं। एक दिवस उन्होंने दर्पण में खुद को निहारा। वे अपने को ही नहीं पहचान पाईं।

कुमारी ने माधव को ढूंढवाया। गायन-वादन मंडली खाली हो गई थी। माधव का कहीं पता न चला। मंडली के लोग अलग अलग अट्टालिकाओं में काम पा गए थे। इसी उदासी में कुछ मास बीते तो परिचारिकाओ ने कुनमुनाना प्रारंभ किया। सब की सब अट्टालिका की आसन्न  विपन्नता से भयभीत हो गई थीं। मुंडेरों और झरोखो पर कपोतो की कुर-कुर ज्यादा ही बढ़ गई थी, जिसे सुन सुन कर परिचारिकाओ का हृदय कांपने लगा था। एक दिवस साहस करके एक परिचारिका ने कुमारी को आगाह किया। कुमारी मन बना चुकी थीं। परंपरा और मुद्राएं दोनों उन्हें खींच रही थीं। अट्टालिका एकबार फिर से गूंजने लगी।

….

देवी अंबपाली भिक्षुणी बन चुकी थी। उनके पीछे पीछे मधुवन की अनेक गणिकाएं भी, सामान्य स्त्रियां भी गृहत्याग कर चुकी थीं। वैशाली में अनेकानेक लोग भिक्षु संघ में प्रवेश पाने के लिए उतावले थे। अपना घर द्वार त्याग कर लोग संघ की ओर उन्मुख हो रहे थे। वैशाली पर आक्रमण की भी आशंकाएं थीं। नगर का समूचा दृश्य बदल चुका था। सांध्य बेला में अपने धनाढ़य रसिको की प्रतीक्षा करती हुई कुमारी विमला अर्थात देवी विमला झरोखे पर बैठ कर बाहर के दृश्य देखना पसंद करती थीं। उस सांझ भी वे वैसे ही बैठी थीं। उन्हें बरस भर बीते थे, गणिका बने हुए। पहले मधुवन में सिर्फ रसिकों की टोली घूमा करती थी। उनके अश्व आते जाते दिखाई देते थे या घोड़ेगाड़ियां। देवी की आंखों ने जो कुछ देखा, वह सहसा विश्वास न कर सकी। सुंदर, गठीला शरीर, सिर मुड़ाए हुए, कंधे पर उत्तरीय, छोटी धोती, घुटनो तक की, सफेद झक्क वसन पहने, हाथ में भिक्षा-पात्र लिए एक दिव्य पुरुष धीमी धीमी गति में दक्षिण दिशा की तरफ चला जा रहा था।

सुगंधा को जोर से पुकारा…

“ये देखो, अदभुत दृश्य, भगवान बुद्ध भिक्षाटन के लिए चले जा रहे हैं।“

“देवी, ये महात्मा बुद्ध नहीं हैं, वे आजकल राजगृह में निवास कर रहे हैं। ये हमारे नगर के भिक्षु संघ के स्थविर, महामौदगल्यायन हैं।“

सुगंधा पास में ही बैठी थी। वो मुग्ध भाव से भिक्षु को देखने लगी। देवी विमला के नेत्रो में एक परछाई सदा के लिए अंकित हो गई।

“सुगंधा, इनके बारे में सबकुछ पता करो, वह कब निकलते हैं, कहां कहां जाते हैं भिक्षाटन के लिए, यथाशीघ्र पता करो…”

बोलते हुए देवी की आंखें मोहक हो उठी थीं। सुगंधा अनुभवी स्त्री थी। नेत्रो की भाषा पढ़ते-देखते-समझते अधेड़ हो चली थी। उम्र की ढलान पर वह मुख के एक एक भाव पकड़ लेती थी। उसे चिंता हुई। देवी व्यर्थ के कामों में लगा रही हैं उसे।

“देवी, पता करने की क्या आवश्यकता। सबको मालूम है कि देवी अंबपाली के आम्रवन में इनका विहार है। वहीं निवास है सारे भिक्षुओ का। कूटागार शाला में नियमित आते हैं भिक्षा के लिए। नियमित अलग अलग दिशाओ में जाते हैं भिक्षाटन के लिए। इनकी पीछा करना कठिन है देवी।“

“हमें कल आम्रवन विहार के लिए जाना है, हमारे जाने का प्रबंध करो…”

उस सांझ देवी ने सांध्य समारोह स्थगित कर दिया। बस वे वीणा सुनना चाहती थी। दूर से उसकी ध्वनि आती रहे। वे अपने सुगंधित कक्ष में जाकर शय्या पर लेटी रही। मोरपंख निकाल कर कुछ लिखने की चेष्टा करती रहीं। कुछ न लिख पाईं। शब्द मानों रुठ गए हों।

उस रात्रि देवी ने एक गाढ़ा और अबूझ स्वप्न देखा। स्वप्न में गंध और लय भी और पलायन भी।

एक बड़ा –सा संदूक है, उसके पास खड़े हैं मौदगिल्यायन। उनके मुख-मंडल पर प्रसन्नता दिखाई दे रही है।

बाहर से चंपा-गंध आ रही है, मंद मंद समीर के साथ। चिड़ियाएं मधुर गान गा रही हैं। तरुवर हिलोरे ले रहा है।

यही हैं…यही हैं मेरे स्वप्न पुरुष…मेरे आकांक्षा-पुरुष । हृदय पुरुष । मुझे आपसे मिलन की आकांक्षा है…

अपने को ध्यान से देखती है। वह भी किसी की काम्य स्त्री हो सकने लायक है। चंपई-स्त्री जो अपनी ही आभा में दमकती है बस कलंक ने उसे स्याह बना रखा है। उससे मुक्ति चाहिए। उसकी मुक्ति यही है। स्थविर मना नहीं कर पाएंगे। उन्हें वापस गृहस्थ आश्रम में आना पड़ेगा। मैं वापसी लेकर आऊंगी…

देवी को अपने उपर अभिमान हुआ। नगर के बड़े बड़े वणिको को अपने आगे झुकाने वाली स्त्री के लिए एक सुंदर भिक्षुक कहां कठिन है। सामना तो होने दें, इनकार न कर पाएंगे। वह दौड़ कर उनके शरीर से लिपट जाना चाहती है। उनके भिक्षा-पात्र में स्वंय को डालना चाहती है।

अचानक कुछ आवाजें गूंजने लगती हैं-

बुद्धम शरणम गच्छामि….संघम शरणम….

नींद झटके से खुल जाती है। वह नेत्रों को फाड़ फाड़ कर उनमें प्रकाश भरने की कोशिश करती हैं।  भोर का सपना था। सच होकर रहेगा…वह कांप गई।

हिम्मती, दुस्साहसी देवी कहां मानने वाली थीं। प्रातकाल ही सुगंधा को साथ लेकर वे आम्रवन विहार करने पहुंच ही गईं। वह समय भिक्षुओ के भिक्षाटन पर निकलने का था। संघ स्थल से दूर वे उस मोड़ पर खड़ी थी, जहां से मार्ग पास के गांवो में जाता था। भिक्षुओ की कतारें निकलीं। देवी सबको एक एक कर देखतीं जाती। जैसे ही महामौदगल्यायन दिखे, वे घोड़ा गाड़ी से उतर कर उनकी तरफ चल पड़ी। वे मार्ग रोक कर खड़ी हों गई थी। भिक्षुक उनकी धृष्टता पर मुस्कुरा उठे। देवी निहाल हो गईं। ये उनके जीवन का दूसरा सर्ग था। पहला सर्ग माधव का था, जो अधूरा रहा। इस दूसरे सर्ग को कदापि अधूरा न रहने देंगी। भिक्षु के सामने एक रुप,वैभव, लावण्य से भरपूर स्त्री खड़ी थी, मार्ग रोके।

“स्थविर, क्या आपको इन हवाओं में मेरे आर्त्तनाद की प्रतिधव्नियां नहीं सुनाई देतीं-?”

बोलते हुए देवी ने पलकें मींच लीं।

“आप मुग्धमती, स्वैरिणी-सी मान-मर्यादा मत भूलिए। मैं आपके जीवन और उसके अभावों को समझ सकता हूं“

“मैं विवश हूं स्थविर…” वह विकल हो उठी। उसे दोनों बार प्यार किसी निष्ठुर से ही क्यों हुआ।

उसके अश्रु बहने लगे।

“आप उन्मादिनी हैं, यह प्रेम शरीरी है, मात्र आकर्षण। हम जिससे वंचित रहते हैं, वह हमें सदैव खींचता है देवी। हम उसे बहुधा प्रेम समझ बैठते हैं। प्रेम गुणों से विकसित होता है, उसके ध्यान से स्थिरता आती है। हम असांसारिक रह कर भी प्रेम में निवास कर सकते हैं। आप प्रेम प्रदर्शित कर रही हैं, यह प्रदर्शन की वस्तु नहीं, आंतरिक गुण है। एक भिक्षुक से ऐसा आचरण अमर्यादित है देवी”

“मुझे भी संघ में प्रवेश चाहिए, मैं इस जीवन से ऊब गई हूं महामना, मुझे अपनी शरण में लें”

वह कांप रही थी। सुगंधा ने आकर फिर से थाम लिया।

“स्थविर…” सुगंधा के अधर कांपे।

“इन्हें मार्ग से गृह की ओर ले जाओ देवी। ये भटक गई हैं। इन्हें संघ में भी प्रवेश की अनुमति नहीं मिल सकती, जब तक अपने विकारो पर ये नियंत्रण नहीं पा लेतीं।“

कोई तो मार्ग होगा स्थविर कि देवी को शांति मिल जाए, अगर संन्यास से ही इन्हें सुख मिलता हो तो आप क्यों बाधक बन रहे हैं ?

सुगंधा गिड़गिड़ा रही थी और शिकायत भी कर रही थी।

मैं एक मार्ग सुझाता हूं, उस पर पहले देवी चलें, फिर हम इनके संघ प्रवेश पर विचार करेंगे।

ये नियमित धर्मोपदेश सुनें। उस पर विचारें। मैं फिलहाल इन्हें उपासिका के रुप में दीक्षित करता हूं…

मैं इन्हें सुनाता हूं, आइए, कहीं बैठते हैं, देवी सुनें।

“को नु हासो किमानन्दो निच्चं पज्जलिते सति।
अंधकारेन ओनद्धा पदीपं न गवेसथ॥’

धम्मपद में दिए गए इस श्लोक का तात्पर्य है कि यह हंसना कैसा? यह आनंद कैसा?

जब नित्य ही चारों ओर आग लगी है। संसार उस आग में जला जा रहा है। तब अंधकार में घिरे हुए तुम लोग प्रकाश को क्यों नहीं खोजते?

देवी विमला की अप्रत्याशित सुधि लौटी। नेत्र नीचे करके हाथ जोड़ लिए। सपने का पहला और  आखिरी हिस्सा कौंधने लगा। धर्मोपदेश से भरे संदूक के साथ खड़े महामौदगल्यायन और अंतिम हिस्सा, सारी छवियां लुप्त होने के बाद एक प्रकाश का वृताकार टुकड़ा पृथ्वी पर बचा रहता है।

इसी प्रकाश की खोज करते हैं हम सब जीवन भर। जीवन का पूरा सर्ग है यही प्रकाश वृत्त। उसे वहीं तक पहुंचना है।

स्थविर वहां दोनों देवियों को बुद्ध के मुख्य उपदेश सुनाते रहे।

वहां से लौटते हुए दोनों की काया और हृदय बदल चुके थे। अब विमला देवी एक दीक्षित गृहस्थ शिष्या के रुप में दीक्षित हो चुकी थी। कठिन परीक्षा में उनके गुरु ने उन्हें डाल दिया था। काजल की कोठरी में रहना था, बिना काजल का बिंदू लगे।

यह ध्यान और साधना की उच्चतम उपासिका थी। वे जानती थी कि स्थविर उनकी परीक्षा ले रहे हैं और जब तक पात्रता प्राप्त नहीं करतीं, उनके लिए संघ का प्रवेश असंभव है। अन्य गणिकाओ के लिए जितना सुगम था, उतना देवी विमला के लिए नहीं। वे प्रेममार्गी जो थीं। अब उन्हें ध्यानावस्था में कुछ मास बिताना था। एक वर्षाकाल बीते तब महामौदगल्यायन उन्हें स्वंय संघ में प्रवेश कराने ले जाएंगे।

देवी विमला ने मोरपंख उठाया। जिस ब्राम्ही लिपि को वे लगभग विस्मृत कर चुकी थी, उसमें उनकी वाणी फूट पड़ी –

“रुप-लावण्य से , सौभाग्य और यश से मतवाली हुई

यौवन के अहंकार में मस्त

मैं अज्ञानी

अपने को कितना गौरवमय समझती थी

गहनो से शरीर को सजाए हुए

मैं अनेक तरुण युवको का आकर्षण बनती थी

वेश्या-गृह के द्वार पर सतर्क दृष्टि से

बैठी हुई मैं

व्य़ाध के समान जालों का निर्माण करती थी

लज्जा-शर्म को छोड़ कर मैं कपड़े उतार कर नंगी तक हो जाती थी

वही आज मैं मुड़े हुए सिरवाली हूं, चीवर-वसना हूं

वृक्षों के नीचे ध्यान-रत हुई

मैं अविर्तक ध्यान को प्राप्त कर

बिहरती हूं

देवी और मानुषी कामनाओं के सभी बंधन मेरे उच्छिन्न हो गए

सब पापों को मैंने दूर फेंक दिया है

आज मैं निर्वाण की परम शांति का अनुभव कर रही हूं

मैं निर्वाण-प्राप्त हूं

परम शांत हूं।“

महामौदगल्यायन के निर्देश पर वे चलीं, विकारो से दूर हुई, संघ में प्रवेश की अर्हता प्राप्त की। उनकी शब्द साधना युगो युगो तक के लिए थेरीगाथा में दर्ज कर ली गई।

(थेरीगाथा की एक प्रमुख थेरी विमला की कथा पर आधारित)

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विहाग वैभव की कविता ‘चाय पर शत्रु -सैनिक’

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2018 का भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार युवा कवि विहाग वैभव को देने की घोषणा हुई है। उनकी वह पुरस्कृत कविता यहाँ प्रस्तुत है।यह निर्णय इस वर्ष के निर्णायक प्रतिष्ठित कवि अरुण कमल ने लिया है। उन्होंने कहा है कि यह कविता ‘वृत्तान्त शैली का व्यवहार करती हुई दो पात्रों के निजी सुख-सन्ताप की मार्फ़त युद्धोन्माद, घृणा और अनर्गल हिंसा की भर्त्सना करती है तथा मनुष्य होने और बने रहने की पवित्र आकांक्षा को रेखांकित करती है।’
श्री विहाग वैभव बनारस में शोध छात्र है तथा अभी इनका कोई कविता संग्रह प्रकाशित नहीं है, लेकिन अनेक पत्र, पत्रिकाओं में अनेक कविताएँ प्रकाशित हैं।
पुरस्कार रज़ा फ़ाउण्डेशन द्वारा आयोजित वार्षिक समारोह ‘युवा-2019’ के अवसर पर 11 अक्टूबर-2019 को प्रदान किया जायेगा।
चाय पर शत्रु -सैनिक
 
_______________________
 
 
उस शाम हमारे बीच किसी युद्ध का रिश्ता नही था
मैंने उसे पुकार दिया –
आओ भीतर चले आओ बेधड़क
अपनी बंदूक और असलहे वहीं बाहर रख दो
आस-पड़ोस के बच्चे खेलेंगें उससे
यह बंदूकों के भविष्य के लिए अच्छा होगा
 
 
वह एक बहादुर सैनिक की तरह
मेरे सामने की कुर्सी पर आ बैठा
और मेरे आग्रह पर होंठों को चाय का स्वाद भेंट किया
 
 
मैंने कहा –
कहो कहाँ से शुरुआत करें ?
 
 
उसने एक गहरी साँस ली , जैसे वह बेहद थका हुआ हो
और बोला – उसके बारे में कुछ बताओ
 
 
मैंने उसके चेहरे पर एक भय लटका हुआ पाया
पर नजरअंदाज किया और बोला –
 
 
उसका नाम समसारा है
उसकी बातें मजबूत इरादों से भरी होती हैं
उसकी आँखों में महान करुणा का अथाह जल छलकता रहता है
जब भी मैं उसे देखता हूँ
मुझे अपने पेशे से घृणा होने लगती है
 
 
वह जिंदगी के हर लम्हे में इतनी मुलायम होती है कि
जब भी धूप भरे छत पर वह निकल जाती है नंगे पाँव
तो सूरज को गुदगुदी होने लगती है
धूप खिलखिलाने लगता है
वह दुनिया की सबसे खूबसूरत पत्नियों में से एक है
 
 
मैंने उससे पलट पूछा
और तुम्हारी अपनी के बारे में कुछ बताओ ..
वह अचकचा सा गया और उदास भी हुआ
उसने कुछ शब्दों को जोड़ने की कोशिश की –
 
 
मैं उसका नाम नहीं लेना चाहता
वह बेहद बेहूदा औरत है और बदचलन भी
जीवन का दूसरा युद्ध जीतकर जब मैं घर लौटा था
तब मैंनें पाया कि मैं उसे हार गया हूँ
वह किसी अनजाने मर्द की बाँहों में थी
यह दृश्य देखकर मेरे जंग के घाव में अचानक दर्द उठने लगा
मैं हारा हुआ और हताश महसूस करने लगा
मेरी आत्मा किसी अदृश्य आग में झुलसने लगी
युद्ध अचानक मुझे अच्छा लगने लगा था
 
 
मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा और और बोला –
नहीं मेरे दुश्मन , ऐसे तो ठीक नहीं है
ऐसे तो वह बदचलन नहीं हो जाती
जैसे तुम्हारे सैनिक होने के लिए युद्ध जरूरी है
वैसे ही उसके स्त्री होने के लिए वह अनजाना लड़का
 
 
उसने मेरे तर्क के आगे समर्पण कर दिया
और किसी भारी दुख से सिर झुका लिया
 
 
मैंने विषय बदल दिया ताकि उसके सीने में
जो एक जहरीली गोली अभी घुसी है
उसका कोई काट मिले –
 
 
मैं तो विकल्पहीनता की राह चलते यहाँ पहुँचा
पर तुम सैनिक कैसे बने ?
क्या तुम बचपन से देशभक्त थे ?
 
 
वह इस मुलाकात में पहली बार हँसा
मेरे इस देशभक्त वाले प्रश्न पर
और स्मृतियों को टटोलते हुए बोला –
 
 
मैं एक रोज भूख से बेहाल अपने शहर में भटक रहा था
तभी उधर से कुछ सिपाही गुजरे
उन्होंने मुझे कुछ अच्छे खाने और पहनने का लालच दिया
और अपने साथ उठा ले गए
 
 
उन्होंने मुझे हत्या करने का प्रशिक्षण दिया
हत्यारा बनाया
हमला करने का प्रशिक्षण दिया
आततायी बनाया
उन्होनें बताया कि कैसे मैं तुम्हारे जैसे दुश्मनों का सिर
उनके धड़ से उतार लूँ
पर मेरा मन दया और करुणा से न भरने पाए
 
 
उन्होंने मेरे चेहरे पर खून पोत दिया
कहा कि यही तुम्हारी आत्मा का रंग है
मेरे कानों में हृदयविदारक चीख भर दी
कहा कि यही तुम्हारे कर्तव्यों की आवाज है
मेरी पुतलियों पर टाँग दिया लाशों से पटी युद्ध-भूमि
और कहा कि यही तुम्हारी आँखों का आदर्श दृश्य है
उन्होंने मुझे क्रूर होने में ही मेरे अस्तित्व की जानकारी दी
 
 
यह सब कहते हुए वह लगभग रो रहा था
आवाज में संयम लाते हुए उसने मुझसे पूछा –
और तुम किसके लिए लड़ते हो ?
 
 
मैं इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं था
पर खुद को स्थिर और मजबूत करते हुए कहा –
 
 
हम दोनों अपने राजा की हवश के लिए लड़ते हैं
हम लड़ते हैं क्यों कि हमें लड़ना ही सिखाया गया है
हम लड़ते हैं कि लड़ना हमारा रोजगार है
 
 
उसने हल्की मुस्कान के साथ मेरी बात को पूरा किया –
दुनिया का हर सैनिक इसी लिए लड़ता है मेरे भाई
 
 
वह चाय के लिए शुक्रिया कहते हुए उठा
और दरवाजे का रुख किया
उसे अपने बंदूक का खयाल न रहा
या शायद वह जानबूझकर वहाँ छोड़ गया
बच्चों के खिलौनों के लिए
बंदूकों के भविष्य के लिए
 
 
उसने आखिरी बार मुड़कर देखा तब मैंनें कहा –
मैं तुम्हें कल युद्ध में मार दूँगा
वह मुस्कुराया और जवाब दिया –
यही तो हमें सिखाया गया है ।

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