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कवि-गीतकार नीरज का कल निधन हो गया. जिस तरह से सोशल मीडिया, मीडिया में उनको याद किया जा रहा है उससे लगता है कि वे सच्चे अर्थों में जनकवि थे. समाज के हर तबके में उनके प्रेमी थे. कल वे ट्विटर पर भी ट्रेंड कर रहे थे और आज ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ ने उनके निधन की खबर को अखबार की पहली खबर के रूप में जगह दी है. उनको यह छोटी-सी श्रद्धांजलि कवि-लेखक यतीन्द्र मिश्र ने अपने फेसबुक वाल पर दी है. आपके लिए- मॉडरेटर
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उनसे हमारा पारिवारिक रिश्ता था। अस्सी के दशक में तकरीबन हर साल वो अयोध्या आते थे हमारे यहाँ। हमारे इंटर कालेज में उनकी ही सरपरस्ती में देर रात तक चलने वाला मुशायरा होता था। वे और बेकल उत्साही, एक ज़रूरी उपस्थिति रहे लगभग एक दशक तक। बाद में धीरे-धीरे उनका आना कम होता गया। मुझे अपने बचपन के वो दिन याद हैं, जब घर में बैठे हुए मेरी तन्नू बुआ के आग्रह पर न जाने कितने गीत उन्होंने अपनी आवाज़ में रेकॉर्ड करवाए। मुझे याद है कि एक बार बड़े तरन्नुम में ‘नयी उमर की नयी फसल’ का अपना ही लिखा हुआ गीत ‘ देखती ही रहो आज दरपन न तुम, प्यार का ये मुहूरत निकल जाएगा’ ऐसा गाकर रेकॉर्ड करवाया, कि हर एक अपनी सुध भुला बैठा। मेरी बुआ ने न जाने कितनी नज़्मों को उनकी आवाज़ में सहेजा। आज, सब बस कल की ही बात लगती है।
हालाँकि मेरे लिए उनकी कविता का असर तब आया , जब इंटर में पढ़ते हुए एक दिन ‘तेरे मेरे सपने’ फ़िल्म का उनका गीत ‘ जैसे राधा ने माला जपी श्याम की’ मुझे सुनने को मिला। उस गीत में जाने कौन सा जादू था, जिसने एकबारगी नीरज जी की कविता के सम्मोहन में ऐसा डाला, जिससे अब इस जीवन में निकलना सम्भव नहीं। प्रेम और रूमान के इस गीतकार ने जैसे अन्तस छू दिया हो..
फिर तो उनकी कविता और उसके मादक सौंदर्य ने कभी आसव तो कभी मदिरा का काम किया.. उनके सारे गीत, जैसे भीतर की पुकार बनते चले गए। उन गीतों के अर्थ को पकड़ना ,जैसे कुछ अपने ही अंदर कस्तूरी के रंग को खोजने की एक तड़प भरी कोशिश रही हर बार… सबके आंगन दिया जले रे/ मोरे आंगन हिया/हवा लागे शूल जैसी/ ताना मारे चुनरिया/ आयी है आँसू की बारात /बैरन बन गयी निंदिया… इस गीत में लता जी की आवाज़ ने, राग पटदीप की सुंदर मगर दर्द भरी गूंज ने और नीरज की बेगानेपन को पुकारती कलम ने जैसे मेरे लिए हमेशा के वास्ते दुःख को शक्ल देने वाली एक इबारत दे दी। आज तक सैकड़ों बार सुने जा चुके इस गीत के रूमान से अब भला कोई क्यों बाहर निकलना चाहेगा ?वो जैसे नीरज को समझने की भी दृष्टि दे गया, जिसके पीछे कानपुर में छूट गया उनका असफल प्रेम शब्द बदल -बदलकर उनकी राह रोकता रहा। कानपुर पर उनकी मशहूर नज़्म के बिखरे मोती आप उनके फिल्मी गीतों में बड़ी आसानी से ढूंढ सकते हैं। ‘प्रेम पुजारी’ में उनका कहन देखिए- ‘न बुझे है किसी जल से ये जलन’, जैसे सारी अलकनंदाओं का जल भी प्रेम की अगन को शीतल करने में नाकाफ़ी हो। उन्होंने ये भी बड़ी खूबसूरती से कहा-‘चूड़ी नहीं ये मेरा दिल है, देखो देखो टूटे ना..’ हाय, क्या अदा है, प्रेयसी की नाज़ुक कलाइयों के लिए अपने दिल को चूड़ी बना देना.. फिर, शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब’ में नशा तराशते हुए प्यार को परिभाषा देने का नया अंदाज़… गीतों में तड़प, रूमान, एहसास, जज़्बात, दर्द, बेचैनी, इसरार, मनुहार, समर्पण और श्रृंगार सभी कुछ को नीरज के आशिक़ मन ने इबादत की तरह साधा। शर्मीली का एक गीत ‘आज मदहोश हुआ जाए रे मेरा मन’ सुनिए, तो जान पड़ेगा, कि कवि नीरज के लिखने का फॉर्म और उसकी रेंज कितनी अलग, बड़ी और उस दौर में बिल्कुल ताजगी भरी थी.. ओ री कली सजा तू डोली/ ओ री लहर पहना तू पायल / ओ री नदी दिखा तू दरपन / ओ री किरन ओढ़ा तू आँचल/ इक जोगन है बनी आज दुल्हन हो ओ/ आओ उड़ जाएं कहीं बन के पवन हो ओ/ आज मदहोश हुआ जाए रे मेरा मन…. नीरज जैसा श्रृंगार रचने वाला दूसरा गीतकार मिलना मुश्किल है, जो सपनों के पार जाती हुई सजलता रचने में माहिर हो..
हालाँकि,नीरज बस इतने भर नहीं है। वो इससे भी पार जाते हैं। दार्शनिक बनकर। एक बंजारे, सूफ़ी या कलन्दर की तरह कुछ ऐसा रचते, जो होश उड़ा दे.. -‘ए भाई ज़रा देखके चलो’, ‘ ‘ दिल आज शायर है, ग़म आज नगमा है,’ ‘ कारवां गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे’, ‘ सूनी -सूनी
सांस के सितार पर’ और ‘काल का पहिया, घूमे भैया…’
भरपूर दार्शनिकता, लबालब छलकता प्रेम, भावुकता में बहते निराले बिम्ब, दर्द को रागिनी बना देने की उनकी कैफ़ियत ने उन्हें हिन्दी पट्टी के अन्य गीतकारों पं नरेंद्र शर्मा, गोपाल सिंह नेपाली, भरत व्यास, इंदीवर, राजेन्द्र कृष्ण और योगेश से बिल्कुल अलग उनकी अपनी बनाई लीक में अनूठे ढंग से स्थापित किया है।
आज, जब वो नहीं हैं तो बहुत सी बातें, याद आती हैं। उनके गीत सम्मोहित करने की हद तक परेशान करते हैं.. मेरे पिता से कही उनकी बात जेहन में कौंधती है कि ‘मेरे गीत हिट होते गए और फिल्में फ्लॉप, इसलिए जल्दी ही मुझसे गीत लिखवाना लोगों ने बन्द कर दिया’…
मगर, फूलों के रंग से, दिल की कलम से पाती लिखने वाले इस भावुक मन के चितेरे को कभी भी भुलाया नहीं जा सकेगा…
उनकी कविताएं और गीत ऐसे ही दुखते मन को तसल्ली दे, भिगोते रहेंगे.. शब्दों की नमी से अंदर- बाहर को गीला बनाते हुए…
मैं आज भी, ‘तेरे मेरे सपने’ के पूरे साउंडट्रैक में खोया हुआ नीरज जी को बड़े अदब से याद करता रहूँगा…
नमन , आदर और श्रद्धांजलि…
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नीरज जी को श्रद्धांजलिस्वरूप यह लेख लिखा है युवा कवयित्री उपासना झा ने- मॉडरेटर
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श्री गोपालदास नीरज हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय कवियों में एक थे. कविता, प्रेमगीत, दोहों, मुक्तक, गजल सब विधा में उन्होंने खूब लिखा. काव्य-समारोहों में उनकी अपार लोकप्रियता ने उन्हें अपने समय के सबसे ज्यादा पढ़े और सुने जाने वाले कवियों की श्रेणी में कर दिया. बच्चन जी के बाद उन्होंने ही हिंदी की मंचीय कविता को गौरववान बनाये रखा. पिछले 60-70 सालों से मंचीय आयोजनों में उनकी उपस्थिति लगातार बनी रही. नीरज प्रेम के मौलिक कवि थे उर्दू से उधार लिए हुए इश्क़ का कोई प्रभाव उनकी कविताओं पर नहीं दीखता है.
गोपालदास सक्सेना ‘नीरज’ का जन्म 4 जनवरी 1925 में इटावा जिले (उत्तर प्रदेश) के पुरावली गाँव में बाबू ब्रजकिशोर सक्सेना के यहाँ हुआ था. बहुत कम आयु में पिता का देहांत हो गया. 1942 में एटा से हाई स्कूल परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर आगे की पढाई में भी बढ़िया अंकों से पास होते रहे. शुरुआत में इटावा की कचहरी में कुछ समय टाइपिस्ट का काम किया उसके बाद सिनेमाघर की एक दुकान पर नौकरी की। लम्बी बेकारी के बाद दिल्ली जाकर सफाई विभाग में टाइपिस्ट की नौकरी की. वहाँ से नौकरी छूट जाने पर कानपुर के डी०ए०वी कॉलेज में क्लर्की की। फिर बाल्कट ब्रदर्स नाम की एक प्राइवेट कम्पनी में पाँच वर्ष तक टाइपिस्ट का काम किया। नौकरी करने के साथ प्राइवेट परीक्षाएँ देकर 1949 में इण्टरमीडिएट, 1951 में बी०ए० और 1953 में प्रथम श्रेणी में हिन्दी साहित्य से एम०ए० किया।
‘नीरज’ का कवि जीवन विधिवत मई, 1942 से प्रारम्भ होता है। जब वह हाई स्कूल में ही पढ़ते थे तो उनका वहाँ पर किसी लड़की से प्रणय सम्बन्ध हो गया। दुर्भाग्यवश अचानक उनका बिछोह हो गया। अपनी प्रेयसी के बिछोह को वह सहन न कर सके और उनके कवि-मानस से यों ही सहसा ये पंक्तियाँ निकल पड़ीं:
कितना एकाकी मम जीवन,
किसी पेड़ पर यदि कोई पक्षी का जोड़ा बैठा होता,
तो न उसे भी आँखें भरकर मैं इस डर से देखा करता,
कहीं नज़र लग जाय न इनको।
और इस प्रकार वह प्रणयी युवक ‘गोपालदास सक्सेना’ कवि होकर ‘गोपालदास सक्सेना ‘नीरज’ हो गया। पहले-पहल ‘नीरज’ को हिन्दी के प्रख्यात लोकप्रिय कवि श्री हरिवंश राय बच्चन का ‘निशा नियंत्रण’ कहीं से पढ़ने को मिल गया। उससे वह बहुत प्रभावित हुए था। इस सम्बन्ध में ‘नीरज’ ने स्वयं लिखा है –
‘मैंने कविता लिखना किससे सीखा, यह तो मुझे याद नहीं। कब लिखना आरम्भ किया, शायद यह भी नहीं मालूम। हाँ इतना ज़रूर, याद है कि गर्मी के दिन थे, स्कूल की छुटियाँ हो चुकी थीं, शायद मई का या जून का महीना था। मेरे एक मित्र मेरे घर आए। उनके हाथ में ‘निशा निमंत्रण’ पुस्तक की एक प्रति थी। मैंने लेकर उसे खोला। उसके पहले गीत ने ही मुझे प्रभावित किया और पढ़ने के लिए उनसे उसे मांग लिया। मुझे उसके पढ़ने में बहुत आनन्द आया और उस दिन ही मैंने उसे दो-तीन बार पढ़ा। उसे पढ़कर मुझे भी कुछ लिखने की सनक सवार हुई।…..’
मेरठ कॉलेज मेरठ में हिन्दी प्रवक्ता के पद पर कुछ समय तक अध्यापन कार्य भी किया किन्तु कॉलेज प्रशासन द्वारा उन पर कक्षाएँ न लेने व रोमांस करने के आरोप लगाये गये जिससे कुपित होकर नीरज ने स्वयं ही नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। उसके बाद वे अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक नियुक्त हो गये और मैरिस रोड जनकपुरी अलीगढ़ में स्थायी आवास बनाकर रहने लगे।
नीरज ने ख्याति के सोपानों को छूना पाँच दशक पहले ही शुरू कर दिया था. कविता के मंचों पर तब बच्चन जी, गोपाल सिंह नेपाली, बलवीर सिंह, देवराज दिनेश, शिवमंगल सिंह सुमन और शम्भुनाथ सिंह का राज चलता था. युवा और आकर्षक व्यक्तित्व के धनी नीरज पर काव्य-रसिकों की नजर गयी और धीरे-धीरे वे सबकी आशाओं के केंद्र बन गए. अपनी लोप्रियता से आश्वस्त होकर नीरज ने स्वयं कहा था “ अब ज़माने को खबर कर दो नीरज गा रहा है”
हजारों की भीड़ के सामने अपनी दर्द भरी आवाज़ में सुरीले कंठ से जब नीरज कविता-पाठ करते थे तो सुनने वाले झूम-झूम जाते थे. लोगों को लगता था कि उनकी आकांक्षाओं और व्यथाओं को स्वर मिल गया हो. नीरज अपनी कविता से एक नया युग लिखने जा रहे थे.
उनकी अपार लोकप्रियता की ख़बर फिल्म नगरी में भी पहुँच गयी. ‘नयी उमर की नयी फ़सल’ उनकी बतौर गीतकार पहली फिल्म थी. १९६५ में रिलीज़ हुई इस फिल्म में उनका लिखा गीत ‘देखती ही न रहो तुम दर्पण’ बहुत लोकप्रिय हुआ. इसके बाद उन्होंने कई फिल्मों में गीत लिखे. नीरज जी को फ़िल्म जगत में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिये उन्नीस सौ सत्तर के दशक में लगातार तीन बार यह पुरस्कार दिया गया। उनके लिखे गये पुररकृत गीत हैं-
• 1970: काल का पहिया घूमे रे भइया! (फ़िल्म: चन्दा और बिजली)
• 1971: बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ (फ़िल्म: पहचान)
• 1972: ए भाई! ज़रा देख के चलो (फ़िल्म: मेरा नाम जोकर)
इन गीतों के अलावा भी नीरज ने कई मधुर गीत की रचना की और स्टार गीतकार माने जाने लगे. कहा जाता है की फ़िल्मी गीतों में नीरज से पहले और तो सब था बस प्रेम नहीं था. नीरज ने प्रेम को मानों परिभाषा दी जब उन्होंने लिखा “ शोखियों में घोली जाए थोड़ी सी शराब, उसमें मिला दी जाए फूलों का शबाब, फिर इस तरह होगा जो नशा तैयार, वो प्यार है”. उनके अन्य मधुर गीतों में ‘फूलों के रंग से दिल की कलम से तुमको लिखी रोज़ पाती, आज मदहोश हुआ जाए रे, दिल आज शायर है, जीवन की बगिया महकेगी, खिलते हैं गुल यहाँ, मेघा छाये आधी रात जैसे कर्णप्रिय और सफल गीत लिखे.
इस सफलता के साथ ही नीरज ने अपने प्रति ईर्ष्या भी अर्जित की. समीक्षकों और आलोचकों नीरज को वह महत्व नहीं दिया, उनपर बराबर सम्मेलनी कवि होने का आक्षेप लगता रहा. उन्हें नयी चेतना से बेखबर बताया गया. उस समय के अधिकांश गीत कवियों को ‘गीतकार’ कहकर एक उपेक्षा भाव का प्रदर्शन किया गया. उस उपेक्षा की गंध ने नीरज के अहम को चोट पहुचाई. उन्होंने भी मात्र प्रयोगशील छंद विहीन और व्यक्तिवादी कविता के प्रति आक्रोश प्रकट किया और यह लिखा
“दोस्त! तुम ठीक ही कहते हो
सचमुच मैं कवि नहीं हूँ
होते हैं कवि, वे नहीं गाते हैं
दुखी-दलित जनता के पास नहीं जाते हैं
जाते भी हैं तो शर्माते हैं.
नीरज कविता की परंपरागत शैली जिसमें लयबद्धता और छंद हैं को बचाए रखने की अपील भी करते हैं. पाश्चात्य प्रभाव के कारण आई छ्न्द्विहिनता के वे खिलाफ हैं. नीरज का मानना था की जो कविता दर्द पर मरहम न रख सके वह कविता नहीं है.
“ दुनिया के घावों पर जो मरहम न बन सके, उन गीतों का शोर मचाना पाप है”
मुक्तिबोध ने “एक साहित्यिक की डायरी” में लिखा है की उनकी पत्नी को नीरज की कवितायेँ पसंद हैं वहीँ अशोक वाजपेयी ने विदेश जाकर पाया कि लोग कवि के रूप में केवल नीरज का नाम जानते हैं. नीरज के गीत और कवितायेँ सार्वजनीन हैं जिसमें प्रेम की लय, संवेदना और मनुष्यता का मिला हुवा स्वर है.
जिस दौर में गज़ले कही जा रही थी उस दौर में भी नीरज ने गीतिकाएं लिखी और खुद को हिंदी-उर्दू के विवाद से दूर रखा. भावप्रवणता और आम बोलचाल की शब्दावली उसकी विशेषताएं हैं. अपने एकमात्र गज़ल-संकलन “नीरज की गीतिकाएं” में भी अपना मन्तव्य स्पष्ट करते हए उन्होंने लिखा भी है: मेरे इस संकलन में ऐसी काफ़ी गजलें हैं जो उर्दू के छंद विधान पर खरी उतरती हैं, मगर साथ ही कुछ ऐसी भी गजलें हैं जो गीत ज्यादा हैं. ये न शुद्ध रूप से गीत हैं न ही ग़ज़ल इसलिए मैंने इन्हें गीतिकाएं कहा है.
नीरज के कई कविता-संग्रह भी छपे जो इस प्रकार हैं
• संघर्ष (1944)
• अन्तर्ध्वनि (1946)
• विभावरी (1948)
• प्राणगीत (1951)
• दर्द दिया है (1956)
• बादर बरस गयो (1957)
• मुक्तकी (1958)
• दो गीत (1958)
• नीरज की पाती (1958)
• गीत भी अगीत भी (1959)
• आसावरी (1963)
• नदी किनारे (1963)
• लहर पुकारे (1963)
• कारवाँ गुजर गया (1964)
• फिर दीप जलेगा (1970)
• तुम्हारे लिये (1972)
• नीरज की गीतिकाएँ (1987)
उनके जाने से हिंदी कविता की सबसे बड़ी कड़ी विलुप्त हो गई. वह कड़ी जो साहित्य और लोक को जोड़ने वाली थी, जो कविता और जन को जोड़ने वाली थी. नीरज का जाना एक बड़ी परंपरा का अवसान है.
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शिव कुमार बटालवी आज होते तो 81 साल के होते. पंजाबी के इस अमर कवि को याद करते हुए युवा लेखिका अणुशक्ति सिंह का लेख- मॉडरेटर
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माये नी माये मैं एक शिकरा यार बनाया
उदे सर दे कलगी, ते उदे पैरी झांझर…
इन पंक्तियों को लिखने वाला मेरा वह यार भी शिकरा ही था. जग घूमे हुए उस यार ने हर उस दिल में जगह बना ली जिसने भी उसको कभी जाना, मगर वह कलगीदार, पैरों में झांझर पहनने वाले यार मोह में पड़ने वाला शख्स नहीं था. ऊँचे उड़ते हुए जब भी वह बुरांश के फूलों से भरे ऊँचे चट्टानों पर ठहरता, दो पल को साँस भरता और पैरों की झांझर को बजाते चला जाता.
उसके पैरों के झांझर से धुन निकलती, ‘कि पुच्छ दे ओ हाल फकीरां दा, साडा नदियों विछड़े नीरां दा .’ और वह गाता जाता ‘तकदीर ता अपनी सौंकन सी,तदबीरा साथो न होइया…’
१९७३ में ऊपरवाले के घर रुखसत करने वाला मुहब्बत का वह दीवाना आज कुल इक्यासी साल का हो गया है. पिछले पैंतालीस सालों से वह पैंतीस साल का है और अगले हजारों-लाखों सालों तक वह इसी उम्र का रहेगा.
सात आसमानों के ऊपर उड़ता हुआ, इन्द्रधनुष से अटखेली करने वाले उस यार को किसी की तलाश थी शायद. यह तलाश उस कुड़ी की थी, जिसका नाम मुहब्बत था. जिस मुहब्बत से वह बड़े प्यार से इसरार किया करता,
“आज दिन चढ्या तेरे रंग वरगा, तेरे चुम्मन पिछली रंग वरगा.’
जब मुहब्बत अपना रास्ता बदल कर चल लेती तो कभी वह सुबह की धूप में प्रेम की चाह को तड़पते हुए लिख देता ,
“है किरना विच नशा जिहा, किसी चिम्बे सांप दे डंग वरगा’.
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शिव कुमार बटालवी महज़ किसी पंजाबी कवि का नाम नहीं है. यह उस सुल्तान की पहचान है जिसके पास उसके हर भाव के लिए एक गीत था, और अपने लिखी हर इबारत से आगे बढ़कर कुछ उससे भी ख़ूबसूरत लिख देने की कला भी.
पंजाब के किसी सुदूर गाँव में पैदा हुआ वह दीवाना भरपूर प्यार करना जानता था, और हर बार प्यार से आगे बढ़ जाना भी. वह अपने गुम प्यार को याद करते हुए उसके हाल में पैदा हुए पहले बच्चे के बारे में सोचता है और लिख बैठता है,
“तीझा ओजा रंग गुलाबी, हो किसे गोरी माँ दा जाया.”
वह अपने दर्द को शब्दों में उकेरता है, उन शब्दों को अपनी धुन और अपने भाव देता है मगर अपनी यात्रा ज़ारी रखता है, नीड़-विहीन बाज़ की तरह, इसलिए जब पत्रकार का सवाल उनकी ओर आता है कि आपकी भूतपूर्व प्रेमिका दूसरी बार माँ बनीं हैं, आपने इस बार क्या लिखा तो वह हँस देते हैं और कहते हैं कि “क्या मैंने तय किया है कि हर बार जब उसे बच्चा हो, मैं कुछ लिखूँ.”
ये बोल उसी शख्स के थे जिसने पहली प्रेमिका मैना की मौत पर ‘मैना’ गीत रच दिया था.
यही तो खूबसूरती थी उस कवि की. वह हमेशा यात्रा में होता था, ज़िन्दगी को अपनी शर्तों पर जीता हुआ, अपनी खुशियों को अपनी तरह से तलाशता हुआ. उसकी यात्रा मैना से शुरू हुई, अरुणा तक गयी और अपने हर पड़ाव को उसने अपने हर्फों के ज़रिये अमर कर दिया.
वह अपनी इस यात्रा में अकेला नहीं था. शराबनोशी की उसकी आदत उसके साथ थी. वह शराब से लगभग उतना ही इश्क़ करता था जितनी मुहब्बत गुम कुड़ी से की थी. शराब बुरी आदत होगी, शिकरे यार की बला से. उसने तो दिन-दहाड़े कहा –
मैनु तेरा शबाब ले बैठा,
रगं गौरा गुलाब ले बैठा,
किन्नी- बीती ते किन्नी बाकी है,
मैनु एहो हिसाब ले बैठा,
मैनु जद वी तूसी तो याद आये,
दिन दिहादे शराब ले बैठा,
चन्गा हुन्दा सवाल ना करदा,
मैनु तेरा जवाब ले बैठा,
सोने वरगा रंग वाले उस कवि को आज भले ही सबसे कम उम्र के साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता के नाम से जाना जाता है मगर लोक का वह कवि अपने गीत सालों तक सजाकर नहीं रखना चाहता था, वह बस पंछी हो जाना चाहता था. वह कहता है कि,
ऐ मेरा गीत किसे ना गाना, ऐ मेरा गीत किसे ना गाना,
ऐ मेरा गीत मैं अपे गाके पलके ही मर जाना
कितनी अजीब बात है कि पीढ़ी दर पीढ़ी लोग उसके इसी गीत को गाते हुए पंछी हो जाना चाहते हैं, जिसके ज़रिये उसने अपना लिखा भुला दिए जाने की गुज़ारिश की थी.
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जैसे-जैसे लोगों की जीवन शैली बदल रही है किताबों के रूप भी बदल रहे हैं. फोन ऐप पर किताबों के साथ एक नया ट्रेंड जापान से शुरू हुआ है नहाते समय पढने के लिए प्लास्टिक के पन्नों पर छपी किताबें. आज ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में महेंद्र राजा जैन का लेख इसी विषय पर है. सोचा साझा किया जाए- मॉडरेटर
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यूरोपीय देशों के जनजीवन में स्नान का एक अलग ही स्थान है, लेकिन यह भी एक सत्य है कि वहां के 25 प्रतिशत से अधिक घरों में स्नानघर नहीं हैं। ऐसे लोगों को स्नान करने की सुविधा देने के लिए सरकारी या सार्वजनिक स्नानघर हैं, जहां तयशुदा शुल्क देकर एक निश्चित समय तक नहाने के लिए एक निश्चित मात्रा में गरम पानी लिया जा सकता है। वैसे तो वहां सामान्यत: सप्ताह में केवल एक दिन ही नहाने की ‘प्रथा’ सी बन गई है, गरीब तबके के तमाम ऐसे लोग भी हैं, जो महीने में एक बार भी नहीं नहाते। इसके विपरीत सम्पन्न वर्ग या सामान्यत: अच्छी आर्थिक स्थिति वाले लोग प्राय: प्रतिदिन नहाते हैं, लेकिन उनका यह स्नान हमारे यहां के समान सुबह नहीं, वरन प्राय: रात को सोने के पहले होता है। गरमी हो या सर्दी, वहां गरम पानी की ही जरूरत पड़ती है, क्योंकि इतनी गरमी नहीं पड़ती कि घर के अंदर ठंडे पानी से नहाया जा सके। यह इसलिए भी संभव नहीं है कि वहां नहाने का मतलब एक-आध घंटे तक बाथ टब में रहना तो होता ही है और यह गरम पानी के बिना संभव नहीं है। ऐसे में, यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि जो लोग पानी से भरे टब में आधा-एक घंटे तक बैठे या लेटे रहते हैं, वे आखिर इतनी देर तक वहां करते क्या हैं? और चूंकि नहाने में इतना अधिक समय लगता है, अत: आमतौर पर बाथरूम में टेलीफोन भी रहता ही है।
अब पानी में डूबे रहकर लेटे-लेटे पुस्तक पढ़ने का अपना आनंद तो है ही, लेकिन अक्सर ऐसा भी होता है कि पढ़ते-पढ़ते पुस्तक हाथ से छूटकर पानी में गिर जाती है या फिर पेज पलटते समय गीले हाथ पुस्तक खराब कर देते हैं। इसी परेशानी से बचने के लिए जापान के एक प्रकाशक ने प्लास्टिक की पुस्तकें खोज निकाली हैं। यूरोपीय देशों की तरह ही जापानी जीवन में भी स्नान का विशेष स्थान है,और वहां भी प्राय: लोग नियमित रूप से अपनी दिनचर्या की समाप्ति के बाद रात को गरम पानी के टब में बैठकर गुजारते हैं। इसलिए वहां ऐसी खोज स्वाभाविक ही है। अब वहां यह समय किताबें पढ़ते हुए बीतता है।
जापान में प्लास्टिक-पुस्तकों के प्रकाशन की कहानी भी कम रोचक नहीं है। वहां की एक पत्रिका की पाठिका ने संपादक के नाम पत्र लिखकर शिकायत की कि वह जब बाथरूम में होती है, तो अपने बच्चे, पति और रसोई आदि की चिंता के तनाव से मुक्त रहती है। घर के कामकाज से छुट्टी पाने पर वहां बाथरूम में ही कुछ समय मिल पाता है, जब वह कुछ पढ़ पाती है। कितना अच्छा होता यदि पुस्तकें वाटरप्रूफ होतीं, तब वे इस तरह खराब न होतीं।
बस यह सुझाव प्रकाशक कंपनी के मैनेजर को जंच गया और शुरू में केवल कंपनी के कर्मचारियों को नि:शुल्क वितरण के लिए पहली पुस्तक की दस हजार प्रतियां छापी गईं। एक पुस्तक विक्रेता ने जब यह पुस्तक देखी, तो उसने ऐसी पुस्तकों को व्यावसायिक ढंग से प्रकाशित करने का सुझाव दिया। कंपनी को यह सुझाव भी पसंद आया और शुरू में केवल 16 पृष्ठों की ऐसी पुस्तकें प्रकाशित की गईं, जिनसे लोगों को सामान्य ज्ञान की जानकारी प्राप्ति हो या जो उनके लिए उपयोगी हों, जैसे जापानी संविधान की मुख्य-मुख्य बातें या राष्ट्र संघ के सदस्य देश। इन पुस्तकों की सफलता से उत्साहित होकर प्रकाशकों ने बाद में अन्य विषयों की पुस्तकें प्रकाशित कीं, जिनमें अंग्रेजी वार्तालाप या गोल्फ का खेल जैसे विषय भी हैं। प्रकाशकों का कहना है कि स्नानगृह अब केवल वह स्थान नहीं रहा, जहां लोग शरीर साफ करने मात्र के लिए जाते हैं।
इसके बाद एक अन्य जापानी प्रकाशक ने बच्चों और बूढ़ों के लिए कुछ ऐसी पुस्तकें प्रकाशित कीं, जिन्हें वे नहाने के समय निश्चिंतता के साथ बिना पुस्तक गीली किए पढ़ सकते हैं। इस प्रकार की पुस्तकों की पहली सीरीज में छह पुस्तकें प्रकाशित की गईं, जिनकी देखते ही देखते तीन लाख से अधिक प्रतियां बिक गईं। उसके बाद तो अन्य प्रकाशकों ने भी बहती गंगा में हाथ धोना शुरू किया और आज स्थिति यह है कि वहां प्लास्टिक के पन्नों पर छपी हुई प्राय: किसी भी विषय की पुस्तक आसानी से मिल जाती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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आजकल आध्यात्म से जुड़ी किताबें खूब छप रही हैं. वेस्टलैंड ने कुछ दिन पहले ही श्री श्री रविशंकर की जीवनी प्रकाशित की थी जिसकी लेखिका उनकी बहन हैं. अब ध्यान पर आधारत एक किताब वेस्टलैंड से ही आई है ‘द हार्टफुलनेस वे’. लेखक हैं कमलेश डी. पटेल और जोशुआ पोलॉक. आजकल ध्यान भटकाने के इतने माध्यम आ गए हैं कि ध्यान की मांग बहुत बढ़ी है. हर आदमी चाहता है कि वह जो कर रहा है उसमें उसकी एकाग्रता बढे. इस किताब में उसी को समझाने की कोशिश है. पढ़िए पुस्तक की भूमिका का एक अंश- मॉडरेटर
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हम यह कभी नहीं जान पाते हैं कि जीवन में हमारे लिए क्या नियत है और अगले पल क्या होने वाला है। यही जीवन के रहस्य और उसके सौंदर्य का अभिन्न अंग है। इस धरती पर अपने जीवन के छह दशकों के दौरान मुझे अनेक आशीर्वाद प्राप्त हुए। उनमें से एक मुझे 1976 में तब मिला जब मैं युवा था और भारत के अहमदाबाद शहर में फार्मेसी की पढ़ाई कर रहा था। मैं अपने कॉलेज के एक साथी का आभारी हूँ जिसकी वजह से मैं हार्टफुलनेस ध्यान पद्वति से परिचित हो पाया। उसके कुछ ही महीनों बाद मैं एक विलक्षण व्यक्ति के सम्मुख आया जो तभी मेरे प्रथम गुरु बन गए और जिन्होंने इस अभ्यास में मेरा मार्गदर्शन किया। उनका नाम रामचंद्र था और हम उन्हें ‘बाबूजी’ कहते थे।
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पटना में लेखिकाओं की संस्था ‘आयाम’ का तीसरा वार्षिकोत्सव संपन्न हुआ. उसकी एक बहुत अच्छी रपट भेजी है युवा लेखक सुशील कुमार भारद्वाज ने- मॉडरेटर
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आयाम का तीसरा वार्षिकोत्सव गत दिनों पटना के ए एन कॉलेज के सभागार में साहित्यिक गहमागहमी के बीच सफलतापूर्वक संपन्न हो गया। आयोजन जितना सफल रहा उतना ही बहस तलब भी। जहाँ मंच से ही एक वक्ता ने “आयाम” जैसी संस्थाओं पर खाई-अघाई घर की औरतों की संस्था के आरोप की बात की वहीं दर्शक दीर्घा से सवाल उठने लगे कि महिलाओं के मंच पर एक ही सत्र में दो-दो पुरूष वक्ता क्यों? क्या महिला विद्वान नहीं होतीं है अच्छी समीक्षक नहीं होतीं? और सबसे अहम सवाल की आयाम के सदस्यों को मंच पर कविता पाठ का मौका क्यों नहीं?
आयाम का तीसरा वार्षिकोत्सव चर्चा का विषय शहर और सोशल मीडिया पर इसलिए भी बना क्योंकि पहली बार यह मंच आपसी ईर्ष्या-द्वेष के प्रदर्शन का गवाह भी बना जबकि इससे पहले सिर्फ मंच पर बैठने के लिए पैरोकारी की जाती थी।
आयाम- ‘साहित्य का स्त्री-स्वर’ की परिकल्पना को महिला रचनाकारों को एक स्वतंत्र मंच उपलब्ध कराने के उद्देश्य से भावना शेखर, निवेदिता, सुमन सिंहा, अर्चना, सुनीता सिंह आदि ने उषा किरण खान के नेतृत्व में 2015 ई० में मूर्त रूप दिया। आयाम के बैनर तले अक्सरहां कविता-कहानी आदि की गोष्ठी शहर में आयोजित की जाती है। जहाँ पुरूष साहित्यकार भी आमंत्रित किए जाते हैं लेकिन महज दर्शक या टिप्पणीकार के रूप में। लेकिन इस बार के आयोजन में यह परंपरा कुछ टूटी है।
जब प्रथम सत्र में ही वक्ता के रूप में राकेश बिहारी और वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी को प्रस्तुत किया गया तो लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि – “महिला समीक्षकों की कमी थी जो दो-दो पुरूष वक्ता को मंच पर एक साथ उतार दिया गया। जबकि उषा किरण खान महज अध्यक्ष के रूप में मंच पर थी।
जबकि आयाम के दूसरे वार्षिकोत्सव 2017 मेंं भी मंच संचालिका ने स्पष्ट रूप से कहा था – “अब महिलाएं बोलेंगीं और पुरूष सुनेंगें। अब तक पुरूषों ने साहित्य को अपने नजर से प्रस्तुत किया और महिलाओं को हीन साबित करने की कोशिश की। समय आ गया है कि अब स्त्री साहित्यकार के दृष्टिकोण को समझना जाय।”
उद्घाटन समारोह के बाद आयाम की संस्मरणिका और मंगला रानी की कविता-संग्रह का लोकार्पण किया गया। और प्रथम सत्र की शुरूआत करते हुए समीक्षक राकेश बिहारी ने “नई सदी में स्त्री लेखन: संदर्भ बिहार” पर एक सारगर्भित वक्तव्य दिया। जिसमें उन्होंने फिलवक्त की रचना धर्मिता पर अपनी बेबाक टिप्पणी करते हुए समकालीन कहानी की सभी प्रवृत्तियों को वर्गीकृत करते हुए कथाकारों की उनकी कहानियों के साथ चर्चा की। लेकिन जब उन्होंने अपने वक्तव्य में मुजफ्फरपुर की महज तीन कथाकार कविता, पंखुरी सिन्हा का नाम लिया तो सुनने वालों को उनके वक्तव्य में पूर्वाग्रह और पक्षपात की बू आने लगी।
भगवती प्रसाद द्विवेदी के प्रतिस्थापन में आमंत्रित वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी ने दूसरे वक्ता के रूप में कविता पर अपनी बात रखी लेकिन वे कालिदास के बाद भावना शेखर और निवेदिता आदि समकालीन कवयित्री तक ही सीमित रह गए।
दूसरे सत्र “बाढ़, बारिश और प्रेम” विषय पर केंद्रित कहानियों का विश्लेषण प्रस्तुत किया अपने वक्तव्य में, प्रथम वक्ता चंद्रकला त्रिपाठी ने। और जब दूसरे वक्ता के रूप में गीताश्री मंच पर आमंत्रित हुईं तो अपने ही तेवर में पूरे सभागार में बाढ़, बारिश और प्रेम की बरसा कर दी। अपेक्षित आक्रोश मेंं गीताश्री ने सबसे पहला सवाल दागा कि – “मैं किस हैसियत से इस मंच पर आमंत्रित हूँ?- एक पत्रकार? एक कथाकार या मुजफ्फरपुर की बेटी के रूप में?”
गीताश्री ने प्रथम सत्र के प्रथम समीक्षक वक्ता की ओर निशाना साधते हुए कहा कि ” समीक्षक महोदय किसी कारण विशेष से साहित्य जगत की कुछ जानकारियों से अनभिज्ञ हैं। मुजफ्फरपुर से ही रश्मि भारद्वाज जैसी कवयित्री हैं जो कथा की ओर बढ़ रहीं हैं। लेकिन पुरूष समीक्षक महिलाओं के प्रति पहले जैसे अन्याय करते थे वैसा ही अन्याय अभी-अभी दिख गया।”
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए गीताश्री ने हृषिकेश सुलभ, प्रियदर्शन आदि पुरूष कथाकार की रचनाओं का जिक्र भी महिला रचनाकारों के साथ-साथ किया।
सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रोफेसर तरूण कुमार ने अपने व्यंग्यात्मक अंदाज में कहा कि “हमलोग कमवक्त हो गए हैं।” गंभीरता के साथ तरूण कुमार ने कहा कि “साहित्यकार को कभी-कभी खुद की नजर से देखने के सिवाय दूसरों की नजर से भी देखे जाने की जरूरत है।”
तीसरे सत्र में चित्रा देसाई को सविता सिंह नेपाली ने नेपाली गीत सम्मान 2018 से सम्मानित किया। और सत्र की समाप्ति मृदुला प्रधान, चित्रा देसाई, और अनीता सिंह की कविताओं के साथ हुआ।
संपर्क- sushilkumarbhardwaj8@gmail.com
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वाणी प्रकाशन की पत्रिका ‘वाक्’ का संपादन सुधीश पचौरी करते हैं. पत्रिका के नए अंक में राष्ट्रवाद और देशभक्ति पर बहस का आयोजन किया आया है. इसमें सबसे सुचिंतित लेख मुझे कवि-लेखक-सम्पादक उदयन वाजपेयी का लगा. राष्ट्रवाद और देशभक्ति को बहुत अच्छी तरह हमारे सामने रखता है. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर
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देश प्रेम और राष्ट्रवाद में मूलभूत अन्तर है। एक तात्विक है दूसरा प्रतिक्रियात्मक। हर आधुनिक राष्ट्र में ये दोनों ही भावनाएँ हुआ करती हैं पर आत्मसजग राष्ट्र में देशप्रेम की अदृश्य भावना हमेशा ही प्रभुता सम्पन्न और अपेक्षाकृत स्थायी होती है। वहाँ राष्ट्रवाद की भावना होती अवश्य है पर वह राष्ट्र के अपेक्षाकृत निचली सतहों में पड़ी रहती है। भारत जैसी पेगन सभ्यता में वह किन्ही विशेष परिस्थितियों में ही उभरकर सामने आती है। महात्मा गाँधी और रवीन्द्रनाथ टैगोर देशभक्त थे और दोनों ने समय-समय पर राष्ट्रवाद को प्रश्नांकित किया है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपना प्रसिद्ध उपन्यास ‘चार अध्याय’ राष्ट्रवाद को मानो प्रश्नांकित करने के लिए ही लिखा था। यहाँ यह याद रखना शायद आवश्यक हो कि ‘राष्ट्रवाद’ न सिर्फ़ पारिभाषिक बल्कि आधुनिक प्रत्यय है और इसके पीछे पिछली दो-तीन शताब्दियों का लहुलुहान इतिहास है। ‘चार अध्याय’ में इसी राष्ट्रवाद पर तीखी बहसें हैं। इन बहसों के दो ठोस ऐतिहासिक सन्दर्भ थे। पहला तो ज़ाहिर है उस समय जर्मनी और इटली में फैला राष्ट्रवाद ही था जिसकी आड़ में हिटलर और मुसोलिनी अपने-अपने देशों में तरह-तरह की हिंसा और नरसंहार कर रहे थे। (इस राष्ट्रवाद के प्रतिपक्षियों ने हिटलर के शासन में यहूदियों के नरसंहार को अनेक तरह से रेखांकित किया है हज़ारों उपन्यासों, फ़िल्मों, कविताओं, रिपोर्टों आदि में पर स्वयं उन्होंने भी हिटलर के हाथों हुए जिप्सियों के नरसंहार को प्रकाश में लाना आवश्यक नहीं समझा। उन प्रतिपक्षियों के लिए भी जिप्सियों का जर्मन राष्ट्र में कोई स्थान नहीं था।) टैगोर के उपन्यास में राष्ट्रवाद के प्रश्नांकन का दूसरा सन्दर्भ सन् 1920 के आस-पास बंगाल और भारत के अन्य अंचलों में उभरता उग्र राष्ट्रवादी स्वतन्त्रता आन्दोलन था। इसमें शामिल आन्दोलनकारियों के लिए भारत राष्ट्र ही अन्य सभी मानव मूल्यों को वैधिकृत करने वाला एक तरह का ‘अतिमूल्य’ था। इस राष्ट्रवाद की छाया में किया गया कोई भी हिंसक कृत्य या अत्याचार इसलिए वैध या उचित था क्योंकि वह राष्ट्र के लिए किया गया था। रवीन्द्रनाथ टैगोर राष्ट्रवाद के इस अतिमूल्य होने को अपने इस उपन्यास में और अपने कुछ निबन्धों में भी प्रश्नांकित करते हैं। वे अपने इन लेखनों में यह इंगित करने का प्रयास कर रहे थे कि अगर राष्ट्रवाद को अन्य सभी मानव मूल्यों का नियामक मान लिया जाता है तो वह सभी मानवीय सम्बन्धों और भावनाओं को अनिवार्यतः कुतरने लगता है।
महात्मा गाँधी और भगत सिंह के बीच या स्वतन्त्रता आन्दोलन में शामिल तथाकथित नर्म दल और गर्म दल के बीच के विवाद को कुछ ध्यान से परिक्षित करने का प्रयास करें, हम पायेंगे कि वहाँ दरअसल विवाद इन दोनों दलों की कार्य-पद्धतियों को लेकर उतना नहीं जितना वह इन दलों की मूल्य व्यवस्थाओं में राष्ट्र की स्थिति को लेकर था। गर्म दल का तर्क राष्ट्र को सभी ‘मूल्यों के मूल्य’ के रूप में स्थापित करने का था। जबकि महात्मा गाँधी के लिए व्यापक मनुष्यता के प्रति नीतिपरक व्यवहार (जिसे उन्होंने ‘हिन्द स्वराज’ में ‘धर्मों का धर्म’ कहा है) का निर्वाह ही राष्ट्रवाद समेत अन्य सभी मूल्यों का नियामक था। उनकी दृष्टि में इस ‘धर्मों के धर्म’ की अनुपस्थिति में हर सम्भावित ‘अन्य’ (अदर) के प्रति हिंसा जायज़ ठहर जा सकती है। वह एक बार शुरू होने के बाद किसी भी स्तर पर रुकती नहीं है। गाँधी जर्मनी, इटली और जापान जैसे देशों में प्रत्यक्ष और यूरोप के कई अन्य देशों में परोक्ष रूप से व्यवहृत राष्ट्रवाद की छाया में पनपती व्यापक हिंसा और लगातार बढ़ते तरह-तरह के अत्याचारों के प्रति सचेत थे। आज जब कई हल्कों में महात्मा गाँधी को भगत सिंह की तुलना में या सुभाषचन्द्र बोस के बरअक्स कमतर बताने की कोशिशें होती हैं तब, दुर्भाग्य से, इन आन्दोलनकारियों के मूल्यबोध पर विचार करना आवश्यक नहीं माना जाता। यही कुछ पश्चिम बंगाल के माक्र्सवादियों ने रवीन्द्रनाथ टैगोर और खुदीराम बोस की चर्चा करते हुए किया है। वे यह कहते थकते नहीं थे कि खुदीराम बोस की फाँसी पर रवि बाबू ने कुछ न लिखकर कोई बड़ा अपराध कर दिया था। इस आरोप की जड़ में भी अन्ततः राष्ट्रवाद को ही, भले ही प्रच्छन्न रूप से, अतिमूल्य मानना है। रवि बाबू के ये आरोपी यह देख नहीं पाते कि टैगोर के सामने किसी विशेष क्रान्तिकारी की नियति के साथ ही इस देश की नियति का प्रश्न उपस्थित था और इसीलिए उन्होंने जिस गहरायी से राष्ट्रवाद के भ्रम को समझा था वैसा आधुनिक इतिहास में कम ही हुआ है।
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बीसवीं शती में प्रयुक्त ‘राष्ट्र’ शब्द अँग्रेज़ी के ‘नेशन’ का अनुवाद है। (इस शब्द की उत्पत्ति वेद आदि प्राचीन वैदुष्य के ग्रन्थों में देखने वालों को यह समझने की आवश्यकता है कि उन ग्रन्थों में राष्ट्र शब्द का प्रयोग राष्ट्रवाद में आये राष्ट्र के अर्थ से नितान्त भिन्न है। यह एक तरह का आरोपित निरुक्त है जो राष्ट्रवाद में आये राष्ट्र शब्द को प्राचीन वैदुष्य से वैधिकृत करने के लिए वेदज्ञानशून्य अध्येयताओं और राजनेताओं के लिए किया जाता है।) नेशन का अर्थ सिर्फ़ भौगोलिक सीमा नहीं होता। उसका अधिक आधारभूत अर्थ एक भौगोलिक सीमा में रहने वाला जन समुदाय हुआ करता है। जैसा कि स्पष्ट ही है यह जन समुदाय एकवचनात्मक इकाई नहीं हुआ करता। एक देश में रहने वाला जन समुदाय अनेक सम्प्रदायों या समूहों में जीवनयापन करता है। इन तमाम जन समूहों के बीच सम्बन्ध सूत्र और संवाद अवश्य होते हैं पर इनकी अपनी-अपनी विशेषताएँ भी हुआ करती है। उनके इन सम्बन्ध सूत्रों और विशेषताओं के पुष्पित-पल्लवित होने से ही देश की संस्कृति समृद्ध होती रहती है। एक देशप्रेमी के लिए देश की विविध संस्कृतियों की यह समृद्धि ही देश की समृद्धि होती है। राष्ट्रवाद इस सांस्कृतिक वैविध्य पर एकाग्र होने की जगह देश के सांस्कृतिक वैविध्य को कुछ सर्वग्राही प्रत्ययों या अवधारणाओं में संकुचित कर उन्हें समूचे देश पर आरोपित कर देता है और इस तरह वह सांस्कृतिक वैविध्य और उसका आधार देश के भीतर की विविध संस्कृतियों के आपसी संवाद को अवरुद्ध कर देता है। यह इसलिए होता है क्योंकि राष्ट्रवाद अपने देश को अपनी संस्कृतियों के सन्दर्भ में परिभाषित करने के स्थान पर किन्हीं अन्य देशों से उसके अलगाव या उनके प्रति शत्रुता के सन्दर्भ में परिभाषित करने का प्रयत्न करता है। इसके लिए वह देश की आत्यन्तिक पहचान के स्थान पर उसकी विरोधात्मक पहचान को स्थापित करने का प्रयत्न करता है। बल्कि यह कहना ज़्यादा सही होगा कि वह देश की विरोधात्मक पहचान को ही उसकी मुख्य पहचान के रूप में, उसकी मौलिक अस्मिता के रूप में स्थापित करने का प्रयत्न करता है। जबकि एक देशप्रेमी के लिए यह पहचान देश की आत्यन्तिक पहचान के पीछे चला करती है। इसका आशय यह है कि एक राष्ट्रवादी अपने देश की आत्यन्तिक मूल्य व्यवस्था के सन्दर्भ में दूसरे देशों को परिभाषित करने की जगह दूसरे देशों की मूल्य व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में अपने को परिभाषित करना शुरू कर देता है। यह विचित्र स्थिति है: यहाँ एक देश अपनी पहचान को त्यागकर ही अपनी भ्रामक पहचान हासिल करने के प्रयास में उन तमाम संवादों को निष्प्राण करता चलता है जिनसे देश की अस्मिता आकार लिया करती थी।
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सन् 2000 के मई महीने में मैं कुछ हफ़्तों के लिए स्वीट्जरलैण्ड के जेनेवा से सौ किलोमीटर दूर के एक गाँव लेविनी में ‘राॅइटर इन रेसिडेन्स’ था। हम छह लेखक पाँच देशों यानि ब्रिटेन, अमरीका, माल्दोविया, चेक गणराज्य और भारत से आकर वहाँ साथ रह रहे थे। दिनभर हम अपने-अपने कमरों बैठकर अपना काम करते, शाम को साथ बैठकर बातें किया करते और खाते-पीते। हमारे साथ एक माल्दोवियायी नाटककार काॅन्स्टेण्टाईन केनू भी रह रहा था। वह शाम को हम सबसे अँग्रेज़ी में पर चेक कवि पीटर काबिश से अक्सर रूसी भाषा में बात किया करता था। इस समय तक माल्दोविया और चेक गणराज्य सोवियत रूस के कब्ज़े से आज़ाद हो चुके थे। मुझे यह आश्चर्य होता था कि इस ऐतिहासिक घटना के बाद भी इन दोनों लेखकों को रूसी भाषा में ही बातचीत करना पड़ता था। वही उनके बीच की सामान्य भाषा हो गयी थी। यह कैसी विडम्बना थी कि जिस भाषा के आरोपण के कारण केनू और काबिश की अपनी भाषाएँ लगभग नष्ट होने की कग़ार पर पहुँच गयी थी और इसीलिए उन दोनों ही लेखकों की घृणा का पात्र थीं, उन्हें उसी में बात करना पड़ रहा था। यह रूसी राष्ट्रवाद, जो वहाँ के कम्युनिष्ट शासन की छाया में ही शक्ति-सम्पन्न हुआ था, का दुष्परिणाम था पर जो क्षति इस आरोपण से हुई थी वह इससे भी कहीं अधिक है। मेरे पूछने पर काॅन्स्टेण्टाईन केनू ने मुझे बताया था कि सोवियन रूस के टूटने और माल्दोविया के स्वतन्त्र हो जाने के बाद माल्दोवियायी भाषा दोबारा माल्दोविया में सामान्य रूप से बोली जाने लगी है। पर अब उसमें नये उभरे राष्ट्रवाद का ज़हर भर गया है: अब माल्दोवियायी भाषा सहज बोलचाल या सृजन की भाषा नहीं थी, वह रूसी संस्कृति के विरुद्ध माल्दोवियायी संस्कृति की पहचान का वाहक हो गयी थी। इसका आशय यह है कि जो भाषा सोवियत रूस के माल्दोविया पर कब्जे़ के पहले माल्दोवियायी संस्कृति का सहज वहन करती थी, वह अब सोवियत संस्कृति (जो तब तक रूसी संस्कृति की तरह पहचानी जाने लगी थी) के विरोध के ज़हर से भर गयी थी। ऐसा ही लेतविया, युक्रेन, जार्जिया, तज़ाकिस्तान आदि देशों में हुआ था।
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पन्द्रहवीं शताब्दी से लेकर लगभग दो सौ वर्षों तक यूरोपीय जहाज अमरीकी महाद्वीप पर जाते रहे। उन दो सौ वर्षों में उन्होंने वहाँ अपने-अपने राष्ट्रों की स्थापना के लिए उस महाद्वीप के स्थानीय निवासियों को बहुत बड़ी संख्या में मार डाला। एक आकलन के अनुसार उन दौ सौ वर्षों में यूरोपीय विजेताओं ने लगभग उतने ही अमरीकी निवासियों (इंडियनों) को मार डाला था जितनी उस समय यूरोप की कुल जनसंख्या थी। यह राष्ट्रवाद का राष्ट्र को ही नष्ट कर देने का एक और पर दूसरे छोर से लिया गया उदाहरण है।
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राष्ट्रवाद नामक प्रत्यय को युद्ध के सन्दर्भ में ही निर्मित किया जाता है। यानि यह प्रत्यय एक निर्मिति है और उसके कुछ ऐतिहासिक सन्दर्भ यह हैं: जब जर्मनी को हिटलर ने सारे यूरोप के विरुद्ध परिभाषित कर उसे उनसे युद्ध के लिए प्रेरित और तैयार किया था, राष्ट्रवाद का शब्द जर्मनी में अत्यन्त लोकप्रिय हुआ था। यही कुछ अमरीका ने अपने को वियतनाम या कोरिया या अफगानिस्तान के विरुद्ध और सोवियत रूस ने खुद को सारे तथाकथित पूँजीवादी दुनिया के विरुद्ध और इन दिनों उत्तर कोरिया अमरीका के विरुद्ध कर रहा है।
इस तरह हम देख सकते हैं कि राष्ट्रवाद एक विरोधात्मक प्रत्यय है। इसका उपयोग देश को उसकी आत्यन्तिक सम्पूर्णता में परिभाषित या परिकल्पित करने के स्थान पर उसे दुश्मन देश के सन्दर्भ में परिकल्पित करने के लिए किया जाता है। इस तरह से देश को परिकल्पित करने का अगला चरण युद्ध की सीधी-सीधी तैयारी और फिर युद्ध हुआ करता है। इस शब्द के नागरिक (जानपदीय) मानस पर आरोपण से देश का सहज जीवन तनावग्रस्त हो जाता है और नागरिक (जानपदीय) इस तनाव का कारण दुश्मन-देश की उपस्थिति को मानना शुरू कर देते हैं। इस रास्ते देश का सहज जीवन-व्यापार धीरे-धीरे दुविधाग्रस्त होने लगता है। नागरिकों (जानपदीयों) में शत्रु देश या देशों के प्रति बढ़ा हुआ तनाव सिर्फ़ वहीं तक नहीं रहता, वह आगे फैलकर नागरिकों में अपने रोज़मर्रा जीवन में हर दूसरे नागरिक के प्रति भी होने लगता है और देश की हर आंचलिक संस्कृति अपने किसी भी तरह के संकट का कारण अपने ही देश की अन्य संस्कृति या नागरिकों (जानपदीयों) में देखने लगती है। इस तरह देश की संस्कृतियाँ और स्मृतियाँ एकांगी होकर अपनी सूक्ष्मताएँ खोने लगती हैं। भाषा और कलाएँ, नीति और मर्यादाएँ अपनी बारीकियाँ खोकर मानो अपने स्वत्व को ही खो देने की स्थिति में आ जाती हैं। शताब्दियों में असंख्य कल्पनाओं और स्मृतियों के सहारे बनी ये सूक्ष्मताएँ धीरे-धीरे देश के रोज़मर्रा जीवन से विदा लेने लगती हैं और इस तरह देश अपनी सांस्कृतिक समृद्धि को खोने की शुरुआत कर देता है। जिसका अर्थ यह है कि वह अपने हज़ारों साल के जीवनानुभवों को बहुत थोड़े समय में ही निष्प्राण करने लगता है।
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राष्ट्रवाद का उभार शून्य में नहीं होता। कुछ ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं जिनके कारण राष्ट्रवाद की भावना को पनपने का अवसर मिल जाता है। कम-से-कम भारत में इसके उभरने के पीछे हमारा आधुनिकता का अन्धा-स्वीकार और अपनी पारम्परिक दृष्टियों का उतना ही अन्धा तिरस्कार है। स्वतन्त्रता के बाद से हमारी शिक्षा संस्थाओं से यह सहज प्रत्याशा थी कि वे अँग्रेज़ी शासकों द्वारा अँधेरे में धकेल दी गयी हमारी पारम्परिक जीवन दृष्टियों को पुनर्जीवित करने का प्रयास करेंगी। वे हमारी शिक्षा संस्थाओं से तिरस्कृत इस सभ्यता की ज्ञान परम्पराओं में शोध कर उन्हें दोबारा संस्थानीकृत करने का प्रयास करेंगी। दुर्भाग्य से न तो ऐसा शिक्षा संस्थाओं में हो सका और न हमारे अन्य बौद्धिक विमर्शों में। हम बौद्धिक धीरे-धीरे अपनी सभ्यता के दैनन्दिन जीवन से बहुत हद तक कटे हुए विमर्श में शामिल होते चले गये। हम यह मान चल निकले कि हमारी पारम्परिक विमर्श पद्धतियाँ इस योग्य ही नहीं थी कि उन्हें आधुनिक पश्चिमी विमर्शों के साथ बराबरी का दर्ज़ा दिया जा सके। हम यह भूल गये कि जब हम आधुनिक शिक्षा संस्थाओं से अपने पारम्परिक विमर्शों की स्मृति को अनायास ही मिटाने के अँग्रेज़ों के कार्य को आगे बढ़ाने में लगे थे। यही पारम्परिक विमर्श अपनी गहनता और अपना सत्य खोकर, अपने निकृष्टतम रूप में हमारे जीवन में पिछले दरवाजे से आकर हमारे विमर्शों पर अपनी छाया डालने लगा है और यहीं से राष्ट्रवादी विमर्श के सबल होने की शुरुआत हुई हो सकती है। दूसरे शब्दों में हमारे देश में राष्ट्रवाद के विमर्श के शक्तिशाली होने का कारण हमें हमारी शिक्षा व्यवस्था और स्वातन्त्र्योत्तर बौद्धिक विमर्श में खोजना होगा। हमारे बौद्धिकों ने पारम्परिक विमर्शों के जिन व्यापक इलाकों की अवहेलना की थी, वे राष्ट्रवाद के विमर्श में अपने स्थूलतम और सतही रूप में प्रकट हो गये हैं। अगर हमारे बौद्धिक विमर्श आज भी अपने को प्रश्नांकित करने के स्थान पर सिर्फ़ किन्हीं नीतियों या लोगों का दानवीकरण (डेमोनाइजे़शन) करते रहेंगे- जैसा कि आज अधिकतर तथाकथित वामपन्थी बौद्धिक कर रहे हैं- राष्ट्रवाद का विमर्श और उसकी भावना निरन्तर अधिक शक्ति सम्पन्न होते चले जायेंगे।
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देशप्रेम या देश भक्ति तात्विक होती है, प्रतिक्रियात्मक नहीं। उसके लिए किसी भी दूसरे देश से घृणा की अनिवार्यता नहीं हुआ करती। देशप्रेमी एक समय में एक से अधिक देशों के प्रति अनिवार्य रखते हुए भी अपनी देशभक्ति को बनाये रख सकता है, अपने देश के प्रति अपना धर्म निभा सकता है। जैसा कि महात्मा गाँधी ने अपने देश के प्रति सारी उम्र निभाया था। उनका योगदान भारत को औपनिवेशिक शासन की दासता से मुक्त कराना भर नहीं था (जिसे कमतर दिखाने की तमाम कोशिशें पहले वामपन्थी और अब दक्षिणपन्थी कर रहे हैं), उन्होंने इस सभ्यता को उसकी सुक्ष्मता में उसकी गहनता में समझकर उसकी चेतना को भारत की जानपदियों और नागरिकों में जगाने और उसके लिए आत्मालोचनात्मक दृष्टि रखने का आह्वान किया था। पर हम उस राह पर स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद दूर तक चल नहीं सके। पर इससे वह राह बन्द नहीं हुई है। उस पर चलकर ही राष्ट्रवाद को निरे नारों के स्थान पर किन्ही ठोस विचारों और समझ से प्रश्नांकित किया जा सकता है।
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अनुकृति उपाध्याय मुंबई में एक अंतरराष्ट्रीय वित्त संस्थान में काम करती हैं, नई जीवन स्थितियों को लेकर ख़ूबसूरत कहानियां लिखती हैं. सिंगापुर डायरी की यह उनकी तीसरी और आखिरी क़िस्त है. कितनी अजीब बात है एक ही शहर को अलग-अलग लेखकों की आँखों से देखने पर शहर अलग-अलग लगने लगता है. यही लेखक का सेन्स ऑफ़ ऑब्जर्वेशन होता है जो उसको सबसे अलग कर देता है- मॉडरेटर
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#१२
डेम्प्सी हिल के पुराने फ़र्नीचर की दुकान में तरह-तरह की लकड़ियों की पूजा की धूप सरीखी महक़ है। रोजवुड, एल्म और टीक का सामान। ये ओपियम बेड है, रॉबिन कहता है, चीन से आया है। मैं इकहरे बिस्तर से तनिक अधिक चौड़े, कलात्मक पैरों और सिरहाने वाले पलंग को देखती हूँ। चीन देश का कोई सामंत या गृहस्वामी इस पर उठंग हो लंबी जेड पत्थर और धातु की नली से अफ़ीम पीता होगा। व्यसन अतीत हो गया, ये ख़ूबसूरत साजो-सामान बच रह गया। रॉबिन इस दुकान में सेल्समैन है, कमीशन पर काम करता है। आयु सत्तर से ऊपर है। सिंगापुर में वृद्ध नागरिकों के लिए समुचित पेंशन का प्रावधान नहीं है, वह कहता है, रहन-सहन महंगा है। मुझ जैसे बहुत से मॉल और फ़ूड कोर्ट्स में काम करते दिख जाएंगे। यदि कुछ खरीदने का मन बने तो मुझसे ही लें, वह अपना कार्ड थमा देता है। बाहर सप्ताहांत की चहल पहल है। मिशेलिन स्टार वाले कैंडलनट रेस्तराँ के सामने एक शाइस्ता क़तार है। सैमीज़ में दक्षिण भारतीय भोजन के शौक़ीनों की भीड़ भाड़ है। सिंगापुर का समृद्धि और उपभोग का उत्सव जारी है।
#१३
रेस्तराँ के बाहर एक परिवार अपनी टेबिल की प्रतीक्षा में है। घुटनों चलती नन्हीं बच्ची सीढियों पर अटकती है। इसका नाम एस्टेल है, उसकी माँ गर्व से कहती है, तेरह माह की है। बहुत सुंदर है, है ना? मैं गर्दन हिलाती हूँ। वे फ्रांस देश के हैं, सिंगापुर में काम के अवसर हैं, साफ़-सुथरा है। न अपराध, न आतंकवाद। बच्चों को बड़ा करने लायक़ जगह है यह। इतने सब परिचय के दौरान एस्टेल पहली सीढ़ी पर हाथ जमाए, गुदकारे घुटनों पर गुलथुल देह साधे अपलक मुझे देख रही है। उसकी आँखें बेहद नीली हैं, सिंगापुर के आकाश सी नीली। उनमें खुली जिज्ञासा है। संशय और संकोच से अछूती जिज्ञासा। मेरे मन से आशीर्वचन निकलते हैं, सुंदर, प्रियतर, उन्मुक्त रहो सदा। स्वस्ति।
#१४
ऑर्चर्ड रोड पर ताकाशिमाया के विशाल बहुमंज़िला स्टोर के सामने, नीली रोशनी से जगमगाती सीढ़ियों के नीचे एक आदमी कुछ वाद्य यंत्र बजा रहा है। एक लगभग 4 फुट लंबा बाँस का तुरही जैसा वाद्य, कुछ चमड़ा-मढ़े लकड़ी के नक्कारे-नुमा ड्रम। एक घुँघरू-बंधे पैर से ताल दे भी रहा है। जब वह तुरही में फूँक मारता हुआ, दोनों हाथों से ड्रम और झाँझ बजाता है तो घने जंगलों में हवा सरसराने लगती है, पत्ते खड़कने लगते हैं, झिल्लियाँ झंकारनें लगती हैं। लम्बी तुरही ऑस्ट्रेलिया से है, ड्रम अफ्रीका से, धातु की झाँझ किसी पाश्चात्य देश से। वादक जापानी है। श्रोता देश-देश से – चीनी, भारतीय, मलय, कॉकेशियन। सिंगापुर का फुटपाथ संयुक्त राष्ट्र बना हुआ है!
#१५
ताकाशिमाया की विस्तृत इमारत में तरह तरह की ब्रांडों और खाने-पीने-पहनने की दुकानों के अलावा एक विशिष्ट दुकान है – किनोकुनिया। किनोकुनिया जापानी श्रृंखला-पणि है, चेन-स्टोर, किताबों का। यह किनोकुनिया विशेष है, एशिया की सबसे बड़ी पुस्तकों की दुकान। देश देश के लेखकों की अनगिन किताबें, अंग्रेज़ी और चीनी भाषाओं में, लेकिन अंग्रेज़ी में अधिक। एल्ड्स हकस्ले और अलेक्जेंडर सोल्ज़नीत्सिन, मैक्सिम गोर्की और ग्राहम ग्रीन, एक दूसरे से कंधे जोड़े। चीनी और जापानी लेखकों की अंग्रेज़ी में अनूदित किताबों के लिए अलग सेक्शन, मानक और त्वरित-बिकती किताबों कर लिए अलग। लिखने की सामग्री भी, पेन, पेंसिलें, तरह तरह की मोहक नोटबुक्स। कैशियर काउन्टर पर एक सिंगापुरी लड़की टोनी मोरिसन और कावाबाता की किताबों पर उड़ती निगाह डालती है। यदि आप इतनी किताबें ले रही हैं तो मेम्बर बन जाएँ, वह बिना मुस्कुराए कहती है, छमाही मेम्बरशिप, ख़रीद पर डिस्काउंट। अमूल्य शब्द पन्द्रह प्रतिशत सस्ते में मिल रहे हैं।
#१६
रविवार है। कामकाजी सिंगापुर छुट्टी का अलस स्वाद चख रहा है। सप्ताहांत जोड़ों और परिवारों का समय है, दोस्तों का समय है। अकेले लोग भीड़ में कितने अकेले हैं। बग़ल की मेज़ पर चालीस-पैंतालीस साला आदमी खाना ऑर्डर कर घड़ी देखता है, मानो किसी का इंतज़ार कर रहा हो। कोल्ड स्टोरेज पर घर का सामान लेती अकेली औरत अपनी टोकरी से इंस्टेंट नूडल्स और फ्रोज़न डिनर निकालती है और कैशियर के सामने धर देती है। साथ के काउन्टर पर रखे बच्चे के डाइपर, हरी सब्ज़ियों और केक बनाने के सामान से लदी टोकरी को वह सख़्त आँखों से देखती है। बोटैनिक गार्डन में अकेला दौड़ता पुरुष बच्चे के प्रैम धकेलते जोड़ों से क़तरा कर निकलता है। ऐसे में एक औरत ताल पर बने पुल पर बैठी है, आल्थी-पालथी मारे। अपने कुत्ते के भूरे माथे को सहलाती। होंठ और आँखों से मुस्कुराती। ये मेरा बेटा है, वह कहती है, एक शेल्टर से गोद लिया है, पहले डरा रहता था, अब प्यार पर विश्वास करने लगा है। ताल का पानी सूर्य किरणों से सुनहरी है। जलघास पर व्याध-पतिंगे नाच रहे हैं। कहीं नज़दीक कोई मुनिया घुँघरू सी झनकी है। इन सबको प्यार पर विश्वास है।
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पंकज सुबीर के कहानी संग्रह ‘चौपड़े की चुड़ैलें’ की कहानियों की पंकज कौरव ने बड़ी अच्छी समीक्षा की है. कई जरूरी मुद्दे उठाये हैं- मॉडरेटर
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वैचारिकी रचनाओं की नींव भर होती है. बड़े-बड़े बेमेल पत्थर भी नींव में ऐसे समा जाते हैं कि उनमें एकरूपता का अभाव पता ही नहीं चलता. नींव की यही वैचारिकी बड़ी से बड़ी इमारत को साध कर भी रखती है. हालांकि नींव की मजबूती अपनी जगह है और इमारत की ख़ूबसूरती अपनी जगह. पंकज सुबीर को पढ़ते हुए सबसे सुखद बात यही है कि उनके रचना संसार में नींव अपनी जगह है इमारत अपनी जगह.
वे अपनी किस्सागोई को हिन्दी कथाजगत के उस वीराने से निकालने में कामयाब नज़र आते हैं जहां नींव के पत्थर देखते ही देखते नींव से उपर उठकर दीवारों तक फैल जाते हैं और कंगूरे से लेकर मीनारों तक में उनकी छाप साफ नज़र आने लग जाती है. जैसे कोई रचना महज एक रचना न होकर एक प्राचीर हो और किसी भाषा का समग्र रचना संसार वैचारिकता का कोई अभेद किला. कहने में बात बुरी भी लग सकती है लेकिन है ऐसा ही कि कुछ पुराने प्राचीन किले हैं, जिनका अपना ऐतिहासिक महत्व है लेकिन उनके बरक्स कुछ नए किले भी बनते जा रहे हैं, जिनका फिलहाल कोई इतिहास नहीं लेकिन हां इनमें भी नींव के पत्थरों का वैचारिक गठजोड़ विस्तारित होकर पूरी इमारत को अपने कब्जे में ले लेता है. मानो ख़ूबसूरत होना ही बाजारू हो जाना है. लेकिन क्या सचमुच ऐसा है? हर ख़ूबसूरत दिखने वाली चीज़ नीलाम होने खड़ी हो ये ज़रूरी तो नहीं.
हालांकि बचने की लाख कोशिशों के बावजूद बाज़ार अपनी तरह से घुसपैठ करता है और घुसपैठ के वे मौके हिन्दी की अपनी विषमताओं की वजह से ही पैदा होते रहे हैं. इस कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी ‘चौपड़े की चुड़ैलें’ को ही ले लीजिए, संभव है यह संग्रह की शीर्षक कहानी शायद इसी बिनाह पर बन पायी हो कि ‘राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान’ प्राप्त कहानी है. अपने कथ्य, शिल्प और किस्सागोई के निराले अंदाज़ की वजह से संग्रह की बाकी कहानियों के मुकाबले ज्यादा चर्चित भी रही है. लेकिन इस सबके बावजूद संग्रह में कुछ दूसरी कहानियां अपने प्रभाव में ‘चौपड़े की चुड़ैलें’ से काफी आगे निकल जाती हैं. मसलन, ‘इन दिनों पाकिस्तान में रहता हूं…’
खैर ‘इन दिनों पाकिस्तान में रहता हूं…’ के अद्वितीय प्रभाव की बात आगे होगी, पहले अनुक्रम वाले क्रम से सिलसिलेवार सारी कहानियों की बात हो जाए. शुरूआत संग्रह की पहली ही कहानी ‘जनाब सलीम लंगड़े और श्रीमति शीला देवी की जवानी’ से. कहानी का शीर्षक देखते ही स्मृति में 1989 की रिलीज़ ‘सलीम लंगड़े पे मत रो’ तैर जाती है. हालांकि सईद अख्तर मिर्ज़ा की राष्ट्रीय फिल्म पुरुस्कार प्राप्त उस फिल्म से पंकज सुबीर की कहानी का कोई लेना देना नहीं है, और न ही इस कहानी के लिखे जाने की प्रक्रिया में कैटरीना कैफ़ के शीला की जवानी वाले आइटम डांस का ही कोई प्रभाव रहा होगा लेकिन यथार्थ कहानियों में ऐसे ही घटित होता है जैसे पंकज सुबीर की इस कहानी में घटित हुआ है. कहानी का शीर्षक और पात्रों के नामों के चुनाव को छोड़कर शायद ही कहीं पंकज सुबीर उन दोनों फिल्मी घटनाक्रमों के प्रभाव में नज़र आते हैं. और आगे चलकर यह कहानी धर्म के आधार पर समाज में हो रहे जिस ध्रुवीकरण के यथार्थ पर पुहंचती है वह स्तब्ध कर देने वाला है. वह रत्ती भर भी फिल्मी नहीं है बल्कि फिल्मों के पिछलग्गू हो चले साहित्य के लिए एक नज़ीर है. यह कहानी पढ़कर जाना जा सकता है कि साहित्य में वह माद्दा आखिर कैसे है जिसके ज़रिए वह अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों में सुपरसीड कर आगे बढ़ जाता है.
इस संग्रह की दूसरी कहानी ‘अप्रेल की एक उदास रात’ डॉ शुचि भार्गव के जीवन का ऐसा सच है जिसमें अपनी उम्र से दो-ढाई गुने बड़े डॉ भार्गव से शादी और अपने बेटे क्षितिज के जन्म से जुड़ी मार्मिक सच्चाई है. जिसका थोड़ा बहुत अंदाज़ा डॉ शुचि की सबसे प्रिय सहेली नंदा को भी है लेकिन वह अपना पूरा सच नंदा की बेटी पल्लवी से बांटती है. वही पल्लवी जो निकट भविष्य में उसके बेटे क्षितिज की पत्नी भी बनने वाली है. एक हतप्रभ कर देने वाले अंत पर खत्म हुई यह कहानी हमारे सामाजिक ढ़ांचे का ऐसा यथार्थ है जिसमें एक कामकाजी महिला के जीवन की स्वतंत्रता बाधित करने वाले सारे आयाम लक्षित होते हैं. प्रेम, फिर उस प्रेम में धोखा और बिना बाप का नाम दिए संतान पैदा करने का सारा जोखिम और त्रास यहां बिना किसी तरह का एकांगी दृष्टिकोण लिए, बखूबी प्रकट हुआ है.
तीसरी कहानी है ‘सुबह अब होती है… अब होती है… अब होती है…’. यह इस संग्रह की अपेक्षाकृत धीमी लेकिन बेहद प्रभावशाली कहानी है. कहानी एक तरह से यह एक सेवानिवृत्त बुजुर्ग की असमान्य मृत्यु की पड़ताल है. इस कहानी में पुलिसकर्मी समीर जब भी शक की बिनाह पर उस बुजुर्ग के घर सबूत जुटाने जाता है तो वहां उसे एक महिला, जो उस बुजुर्ग की पत्नी है और कपड़े में बंधे भगवान की पोटली मिलती है. समीर का संदेह गाढ़ा होता जाता है कि बुजुर्ग की मौत सामान्य नहीं बल्कि उसकी हत्या की गई है. देखने में जासूसी सी लगने वाली यह कहानी दरअसल एक महिला का मार्मिक वृत्तांत है. जिसने अपना सारा जीवन पितृसत्तात्मक ढांचे की काली छांव में गुज़ारा. पंकज सुबीर अपनी इस कहानी में भी किस्सागोई का ऐसा अद्भुत तानाबाना रचते हैं कि उस बुजुर्ग की मौत के बाद पोटली में कैद भगवान देखते ही देखते उस स्त्री की स्वतंत्रता का प्रतीक बन जाते हैं. यही एक किस्सागो के तौर पर पंकज सुबीर की सबसे बड़ी कामयाबी है. उनके अबाध रोचकता वाले किस्सों में रूपक भी ऐसे गुप-चुप आते हैं कि वे कहानी के प्रवाह में किसी तरह का कोई खलल नहीं डालते.
अब बात संग्रह की शीर्षक कहानी ‘चौपड़े की चुड़ैलें’ की. एक खंडहर वीरान हवेली की बावली के लिए कहानी में चौपड़ा शब्द प्रयुक्त हुआ है. उसका वर्णन निर्जन जगहों का ऐसा सजीव वर्णन प्रस्तुत करता है कि पढ़ते हुए सिरहन महसूस होती है. लगता है चौपड़े की नागझिरी से न जाने कब नाग निकल पड़ेंगे और अपने फंदे में जकड़ लेंगे. गांव के कुछ किशोर अक्सर दोपहर के वक्त उस चौपड़े में जाकर मटरगश्ती करते हैं, शापित चौपड़े के पानी में मज़े लेकर नहाते हैं. उन्हें नागझिरी से निकलकर डसने वाले नागों के किस्सों का कोई डर नहीं, जबकि हवेली की दो किशोरियों के चौपड़े में अंतिम स्नान की डरावनी कहानी पूरे गांव में बच्चा बच्चा जानता है. यही किशोरावस्था पर कर रही उम्र का वह रोमांच है जो इस कहानी को यथार्थ के बेहद निकट ले आता है. पंकज सुबीर की जादुई किस्सागोई इस कहानी में अपने चरम पर दिखाई देती है लेकिन इसीबीच एक चूक हो जाती है. कहानी जहां पूरी हो जानी चाहिए वहां से कुछ आगे निकल जाती है. कहानी का वह अतिरिक्त विस्तार ही इस कहानी का सबसे बड़ा झोल है. दरअसल किशोरों के संदर्भ में सेक्स को लेकर जिज्ञासा आज भी फॉर्बिडन फ्रूट है, एक वर्जित फल. इसलिए जहां हवेली का सच उजागर होता है, और वे किशोर अपने पहले वाली पीढ़ी को हवेली में वही वर्जित फल चखते हुए देखते हैं दरअसल यह कहानी वहीं पूरी हो जाती है. पितृसत्ता हो या राज सत्ता या फिर कोई और दूसरी सत्ताएं जिनका बहुत प्रभावशाली वर्चस्व समाज पर रहा उन सबने कई मिथ गढ़े हैं, उस मिथ का टूटना ही इस कहानी का लक्ष्य रहना चाहिए था जो कि कहानी के उत्तरार्ध के बिना पूरा भी हो जाता है. फिर यह अतिरिक्त विस्तार क्यों? खैर इसका बेहतर जवाब पंकज सुबीर ही दे सकते हैं.
अब बात इस संग्रह की सबसे अप्रतिम कहानी की, ‘इन दिनों पाकिस्तान में रहता हूं…’. धर्म के नाम पर स्लो-पाइजन जैसे ध्रुवीकरण की पड़ताल करने वाली समकालीन कहानियों में यह निश्चय ही एक बेहद महत्वपूर्ण कहानी है. भोपाल के क़ाज़ी कैंप मोहल्ले में ज़हीर हसन के घर की ओर जा रहा राहुल इस छोटी सी यात्रा में न जाने कितनी लंबी यात्राएं तय कर जाता है. इसमें उसका बचपन है, ज़हीर हसन जिन्हें वह भासा कहता है, उनके साथ, उनके परिवार के साथ बेहद आत्मीय स्मृतियों का सिलसिला देखते ही देखते किस्से में कई दूसरे किस्सों की परत खोलता जाता है. रूपक के तौर पर उनका सर्प-प्रेम इस कहानी में भी नज़र आया है, जिसका रोमांच आप उनकी यह कहानी पढ़ते हुए ही पूरी तरह महसूस कर पाएंगे. यहां सिर्फ यह बताना जरूरी है कि भासा और उनकी बेगम राहुल को बचपन से हर महीने एक तय दिन न्योता देकर भोजन करवाते आए हैं. यह सिलसिला भासा के रिटायर होने के बाद भोपाल में बसने पर ही टूटा. उसी भोज का कारण जानने की जिज्ञासा लेकर चली राहुल की यह कहानी इतने रोमांचक मोड़ लेगी इसकी कल्पना मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं. साथ ही अंत में भासा की वह हृदयविदारक स्वीकारोक्ति- ‘इन दिनों पाकिस्तान में रहता हूं…’. मजहब को लेकर और भी गहराती जा रही नफ़रत की खाई के बीच ऐसी कहानियां सचमुच बेहतर समाज की उम्मीद के लिए एक बड़ी आश्वस्ति हैं.
संग्रह की बाकी चार और कहानियों में पंकज सुबीर अपनी उसी जादुई किस्सागोई के ज़रिए समाज के सबसे संवेदनशील और जीवन के सर्वाधिक तनाव भरे मुद्दों को बेहद सहज ढंग से पाठकों तक पहुंचा देते हैं जिन्हें उठाना भी कभी कभी अकल्पनीय लग सकता है. मौका पड़ने पर उनकी यह किस्सागोई बहुत मामूली बातों को गैर-मामूली भी बना सकती है. मसलन संग्रह में अगली कहानी ‘रेपिश्क़’. जैसा कि कहानी का शीर्षक ही इशारा कर रहा है कि अगर किसी महिला को उसपर रेप अटैम्प्ट करने वाले से ही इश्क हो जाए तो?
‘धकीकभोमेग’ में भी वे धर्म के नाम पर ठगकर चढावे से करोड़पति बन बैठे एक बाबा की ऐसी बैंड बजाते हैं जो दरअसल बड़ी आसानी से गली-चौपाल में बैठकर गपबाज़ी का हिस्सा हो सकता है, लेकिन ‘धकीकभोगेग’ का एक झेपक जोड़कर उन्होंने इस किस्से को जो विस्तार दिया है वह उन्हीं के बस में था. ‘औरतों की दुनिया’ और ‘चाबी’ इन सभी कहानियों में भी उनकी कहन ही उन्हें अकल्पनीय विस्तार दे जाती है. उनकी कहन अगर हटा दी जाए तो वे कथ्य और विषयवस्तु में संभवत: बहुत हद तक सीमाओं में बंधी हुई कहानियां हैं.
अगर कहानी में आप अबाध और रोचक किस्सागोई के शौकीन हैं तो आप निश्चय ही पंकज सुबीर की ये सभी कहानियों से खुशी-खुशी होकर गुज़र सकते हैं. यहां कहानियां समझने में आपको बिल्कुल भी लोड नहीं लेना पड़ेगा. हां कहानी समझ आने पर दिल कितना लोड ले बैठे इसकी ज़रा भी गारेंटी नहीं है…
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अभी हाल में ही ‘दैनिक भास्कर’ ने राजस्थान में युवा लेखकों के लिए प्रतियोगिता का आयोजन किया था जिसमें एक लाख रुपये का प्रथम पुरस्कार श्रुति गौतम की कहानी को मिला. श्रुति अजमेर में कर अधिकारी हैं. उनकी कुछ कविताएँ पढ़ते हैं- मॉडरेटर
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1) प्रयोजन
अनायास सुनी हुई उन सायास विरुदावलियों में
तुम्हारे यश का गान था, कवि।
तुम्हारे बिम्ब विधान पे अभिमान करते हुए
चूकते नहीं थे कहने में कभी भी लोग
‘महाकवि कालिदास को भी न सूझती होगी ऐसी अद्भुत उपमा।’
तब तुम्हे विनत हो हृदय से लगा लेनी चाहिए थी
कुमारसंभव की लाल ज़िल्द में जड़ी हुई प्रति
लेकिन तुम्हारे कंठ में भरे थे प्रशंसा के हार
आवरित करते थे हृदय तुम्हारा
अनावरित करते थे आखिर क्या नहीं?
तुम्हारे दुरूह शब्दों पे वही जन जिस समय
आश्चर्य से दबा लेते दांतों तले अँगुली
ठीक उसी समय तुम्हे सरलता से
कविता के नीचे लिखने थे कठिन शब्दों के अर्थ
बिना उनके अर्थ पूछे जाने की प्रतीक्षा किये
किन्तु तुम्हे प्रिय था प्रश्नों का भोग
तृप्ति होती ही न थी, ऐसी तीव्र जठर की अग्नि
के कभी जनाभाव में स्वयं से करते हुए ऐसे प्रश्न
तुम्हे अक्सर पाया गया.. खोया गया वही तुम्हे।
तुम्हारी अंगुलियों की पोर पर ठहरी थी
नृत्य की त्रिभंग मुद्रा में स्वेद स्नात भाषा
तुम्हारे फाउंटेन पेन की निब में अटके
अनेक अनोखे शब्द थे, जिनके अर्थ
जानने के लिए शब्दकोश देखते थे प्रबुद्ध
अदेखे उपमान तुम्हारी लेखनी की दृष्टि में
व्यापते थे सदा, यदा-कदा-सर्वदा
तुम्हारे अपूर्व बिम्ब विधान का अवधान
सरल नहीं था। सहज तो संभव ही नहीं
किन्तु कवि!
वेदना से विदग्ध किसी हृदय को त्राण देते यदि
सोख लेते नयनों से दुःख की अश्रुसलिला
किसी की अक्ष से डिगी हुई पृथ्वी को
तनिक आधार देते, क्या बुरा था?
कि क्रौंच-वध से जन्मे प्रथम छंद को शास्त्र
अनुष्टुप कहते है, वाल्मीकि के नयन करुणा।
किसी अन्य विधा में इतनी शक्ति है ही नहीं
‘काव्ययशसे अर्थकृते’ से इतर
कुछ अन्य प्रयोजन भी होते है, मित्र।
विरुद के तीव्र निनाद में अस्फुट ही सही
लेकिन सुनाई देंगे, निर्णय तुम्हे लेना है
कि तुम क्या सुनोगे?
कि तुम क्या लिखोगे?
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अलेक्सान्द्र पूश्किन को हम एक कवि के रूप में जानते हैं. लेकिन उन्होंने कहानियां भी लिखी. उनकी प्रेम कहानियों का अनुवाद आ. चारुमति रामदास जी किया है, जो पुस्तकाकार प्रकाशित है. उसी पुस्तक से एक कहानी- मॉडरेटर
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सन् 1811 के अंत में, उस अविस्मरणीय कालखण्ड में, नेनारादवा जागीर में गव्रीला गव्रीलोविच आर. रहता था. अपनी मेहमाननवाज़ी और ख़ुशमिजाज़ी के लिए वह पूरे इलाके में मशहूर था. पडोसी हर क्षण उसके यहाँ खाने-पीने के लिए, उसकी पत्नी के साथ पाँच-पाँच कोपेक लगाकर ताश की बाज़ी खेलने के लिए आया करते, कुछ लोग तो सिर्फ इसलिए आते, ताकि उसकी सत्रह वर्षीया सुंदर, सुघड़, चम्पई रंग वाली पुत्री मारिया गव्रीलोव्ना को देख सकें. वह एक समृद्ध घराने की विवाह-योग्य कन्या थी. अनेक लोग अपने लिए या अपने पुत्रों के लिए मन ही मन उसका चयन कर चुके थे.
मारिया गव्रीलोव्ना फ्रांसीसी उपन्यास पढ़ते हुए बड़ी हुई थी और इसलिए प्यार में डूबी हुई थी. उसका प्रेम पात्र था फ़ौज का एक गरीब अफ़सर, जो छुट्टियाँ बिताने अपने गाँव आया हुआ था. ज़ाहिर है, कि उस नौजवान के दिल में भी बराबर की आग लगी थी और उसकी प्रियतमा के माता-पिता ने एक दूसरे के प्रति उनके रुझान को देखते हुए अपनी बेटी को उसके बारे में सोचने तक से मना कर दिया था और अपने घर में उसका स्वागत सेवामुक्त लेखा-जोखा अधिकारी की भांति करते थे.
हमारे प्रेमी एक दूसरे को पत्र लिखा करते और प्रतिदिन चीड़ के वन में या पुराने गिरजे के निकट एकान्त में मिला करते. वहाँ वे एक दूसरे के प्रति शाश्वत प्रेम की कसमें खाते, भाग्य को दोष देते, तरह-तरह की योजनाएँ बनाते, ख़तो-किताबत करते, और बातें करते-करते वे (जैसा कि स्वाभाविक है) इस निष्कर्ष पर पहुँचे : अगर हम एक दूसरे के बगैर ज़िंदा नहीं रह सकते, और हमारे निष्ठुर माता-पिता का इरादा हमारे सुख में बाधक है, तो उसकी अवहेलना क्यों न करें? ज़ाहिर है कि यह ख़ुशनुमा ख़याल पहले नौजवान के दिमाग में आया और मारिया गव्रीलोव्ना की ‘रोमान्टिक’ कल्पना को वह भा गया.
जाड़े का मौसम आया, उनके मिलन पर रोक लगाने; मगर इस कारण पत्र-व्यवहार और अधिक सजीव हो गया. अपने हर पत्र में व्लादीमिर निकोलायेविच विनती करता कि वह उसकी हो जाए, चुपके से शादी कर ले, कुछ समय के लिए कहीं छिप जाए, फिर माता-पिता के चरणों पर गिरकर क्षमा मांग ले, जो, ज़ाहिर है, प्रेमियों के इस दुःसाहस और उनके दुर्भाग्य को देखकर अन्ततः पिघल ही जाएँगे और यही कहेंगे, “बच्चों! आओ, हमारी आग़ोश में आओ!”
मारिया गव्रीलोव्ना बड़ी देर तक कोई निर्णय न ले सकी; भाग जाने की कई योजनाओं को अस्वीकार कर दिया गया. आख़िरकार वह मान ही गई: निश्चित दिन वह सिरदर्द का बहाना करके, रात्रि का भोजन किए बगैर अपने कक्ष में चली जाएगी. उसकी परिचारिका-सखी इस योजना में शामिल थी. वे दोनों पिछवाड़े से होकर उद्यान में जाएँगी, जहाँ उन्हें गाड़ी तैयार मिलेगी, जिसमें बैठकर वे नेनारादवा से पाँच मील दूर स्थित झाद्रीनो नामक गाँव पहुँचेंगी – सीधे गिरजाघर, जहाँ व्लादीमिर उनका इंतज़ार कर रहा होगा.
निर्णायक दिन की पूर्व रात को मारिया गव्रीलोव्ना पूरी रात सो न सकी, वह जाने की तैयारी में लगी रही, अपने वस्त्रों को समेटती रही; अपनी एक भावुक सहेली को उसने एक लम्बा पत्र लिखा, दूसरा पत्र लिखा माता-पिता को. उसने अत्यंत भाव-विह्वल होकर उनसे बिदा ली, अपने दुस्साहसभरे कृत्य को दुर्दम्य इच्छाशक्ति का परिणाम बतलाते हुए उचित ठहराया और पत्र को यह लिखते हुए समाप्त किया कि उसके जीवन का सर्वाधिक सुखद क्षण वह होगा, जब उनके पैरों पर गिरकर वह क्षमा माँग सकेगी.
पत्रों को दो धड़कते दिलों के निशानवाली तूला की मुहर से बंद करके पौ फटने से कुछ ही पूर्व उसने स्वयम् को बिस्तर पर झोंक दिया और ऊँघने लगी, मगर प्रतिक्षण डरावने ख़याल उसे झकझोरते रहे. कभी उसे ऐसा लगता, कि जैसे ही वह विवाह हेतु जाने के लिए गाड़ी में बैठने लगी, वैसे ही उसके पिता ने उसे रोककर बड़ी बेदर्दी से बर्फ पर घसीटते हुए एक अंधेरे, अंतहीन कुँए में फेंक दिया…और वह – दिल की थमती हुई धड़कनों को संभालती नीचे की ओर गिरती जा रही है. कभी उसे व्लादीमिर दिखाई देता – विवर्ण, खून में लथपथ, घास पर पड़ा हुआ. मरते हुए, हृदयस्पर्शी आवाज़ में उससे शीघ्रतापूर्वक शादी करने के लिए प्रार्थना करता हुआ…इसी तरह के अनेक बेसिर-पैर के सपने उसे आते रहे. आख़िरकार वह उठ गई, उसका मुख पीला पड़ गया था और सिर में सचमुच दर्द हो रहा था. माता-पिता ने उसकी बेचैनी को भाँप लिया, उनकी प्यारभरी चिन्ता और लगातार इस तरह के प्रश्न, कि “तुम्हें क्या हो गया है, माशा? तुम बीमार तो नहीं हो, माशा?” उसके दिल को चीरते चले गए. उसने उन्हें सांत्वना देने का प्रयत्न किया, प्रसन्न दिखने की कोशिश की, मगर सफ़ल न हुई. शाम हो गई. उसके दिल को यह ख़याल कचोटने लगा कि अपने परिवार के मध्य उसका यह अंतिम दिन है. वह अधमरी-सी हो गई, उसने मन-ही-मन अपने चारों ओर की हर चीज़ से, हर व्यक्ति से बिदा ली. रात्रि भोजन परोसा गया, उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा. काँपती हुई आवाज़ में उसने कहा, कि भोजन करने की उसकी इच्छा नहीं है और वह माता-पिता से बिदा लेने लगी. उन्होंने उसे चूमा और हमेशा की भाँति आशिर्वाद दिया, वह रोने-रोने को हो गई, अपने कमरे में आकर कुर्सी पर ढह गई और आँसुओं से नहा गई. परिचारिका-सखी ने सांत्वना देते हुए उसे ढाँढ़स बँधाया और उसका हौसला बढ़ाया. सब कुछ तैयार था. आधे घंटे बाद माशा हमेशा के लिए माता-पिता का घर, अपना कमरा, अपनी ख़ामोश कुँआरी ज़िंदगी को अलबिदा कहने वाली थी… बाहर बर्फानी तूफ़ान उठ रहा था, हवा चिंघाड़ रही थी, खिड़की के पल्ले चरमराकर भड़भड़ा रहे थे, हर चीज़ उसे धमकाती-सी, दर्दनाक भविष्य की चेतावनी-सी देती प्रतीत हो रही थी. शीघ्र ही घर शांत हो गया और सो गया. माशा ने अपने शरीर पर शॉल लपेटा, गरम कोट पहना, हाथों में सन्दूकची उठाई और पिछवाड़े की ओर निकल गई. पीछे-पीछे नौकरानी दो गठरियाँ लाई. वे उद्यान में उतरीं. आँधी शांत नहीं हुई थी, हवा थपेड़े लगा रही थी, मानो युवा अपराधिनी को रोकने की कोशिश कर रही हो. प्रयत्नपूर्वक वे उद्यान के अंतिम छोर तक पहुँची. रास्ते में उन्हें इंतज़ार करती हुई गाड़ी दिखाई दी. ठण्ड के मारे घोड़े खड़े नहीं हो पा रहे थे, व्लादीमिर का कोचवान बलपूर्वक उन्हें थामते हुए शैफ़्ट के सामने चहल-कदमी कर रहा था. उसने मालकिन एवम् उसकी सखी को गाड़ी में बैठने में और उनकी संदूकची तथा गठरियाँ रखने में सहायता की, लगाम खींची और घोड़े उड़ चले.
मालकिन को भाग्य और कोचवान तेरेश्का के कौशल के भरोसे छोड़कर चलें अब अपने नौजवान प्रेमी की ओर…
व्लादीमिर पूरे दिन दौड़धूप करता रहा. सुबह वह झाद्रिनो के पादरी के पास गया, बड़ी मुश्किल से उसे मनाया, फिर आस-पास के ज़मींदारों के पास गया गवाह जुटाने के लिए. सर्वप्रथम वह गया चालीस वर्षीय, घुड़सवार दस्ते के ऑफिसर द्राविन के पास, जो बड़ी प्रसन्नता से तैयार हो गया. उसने कहा कि यह रोमांचक कार्य उसे पुराने दिनों की घुड़सवारी की शरारतों की याद दिला गया. उसने व्लादीमिर से आग्रह किया कि दोपहर के भोजन के लिए उसके पास रुक जाए और विश्वास दिलाया, कि अन्य दो गवाहों को ढूँढ़ने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. सचमुच, दोपहर के भोजन के तुरंत बाद वहाँ आये ज़मीन का लेखा-जोखा रखने वाला, नाल जड़े जूते पहने मुच्छाड़ श्मित और पुलिस कप्तान का सोलह वर्षीय बेटा, जो हाल ही में सशस्त्र घुड़सवार दस्ते में भर्ती हुआ था. उन्होंने न केवल व्लादीमिर का प्रस्ताव स्वीकार ही किया, बल्कि उसके लिए अपनी जान तक की बाज़ी लगाने का वादा भी किया. व्लादीमिर ने उत्तेजित होकर उन्हें गले लगाया और तैयारी करने के लिए घर की ओर निकल गया.
अँधेरा कब का हो चुका था. उसने अपने विश्वासपात्र कोचवान तेरेश्का को समुचित सूचनाएँ देकर अपनी त्रोयका के साथ नेनारादवा भेज दिया और अपने लिए एक घोड़ेवाली गाड़ी तैयार करवाकर, बगैर किसी कोचवान के झाद्रिनो की ओर चल पड़ा, जहाँ दो घण्टे बाद मारिया गव्रीलोव्ना भी पहुँचने वाली थी. रास्ता उसका जाना पहचाना था, और सफ़र था सिर्फ बीस मिनट का.
मगर जैसे ही वह गाँव की सीमा पार कर खेतों में पहुँचा, इतनी तेज़ हवा चली और ऐसा भयानक बर्फानी तूफ़ान उठा कि उसे कुछ भी दिखाई नहीं दिया. एक ही मिनट में रास्ता ग़ायब हो गया, आप-पास का वातावरण धुँधले पीले अँधेरे से घिर गया, जिसमें बर्फ के सफ़ेद रोयें तैर रहे थे, आकाश धरती में समा गया. व्लादीमिर ने स्वयँ को खेतों में पाया और व्यर्थ ही रास्ते पर आने की कोशिश की, घोड़ा भी बड़ी बेतरतीबी से चल रहा था और कभी किसी टीले पर चढ़ जाता, तो कभी किसी गड्ढे में धँस जाता, गाड़ी हर पल डगमगा रही थी. व्लादीमिर सिर्फ यही कोशिश कर रहा था, कि राह न भूले. मगर उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि आधा घण्टा बीत जाने पर भी वह झाद्रिनो के निकटवर्ती कुंज तक भी नहीं पहुँचा है. दस मिनट और बीत गए, कुंज का अभी भी अता-पता नहीं था. व्लादीमिर गहरी खाइयों वाले खेतों से होकर जा रहा था. तूफ़ान थमने का नाम नहीं ले रहा था, आसमान साफ़ होने से कतरा रहा था. घोड़ा थकने लगा, हर पल कमर तक ऊँची बर्फ में चलने के बावजूद उसके शरीर से पसीने की धार बह रही थी.
आख़िरकार उसे विश्वास हो गया, कि वह गलत राह पर जा रहा है. व्लादीमिर रुक गया, सोचने लगा, याद करने लगा, समझने लगा और उसे यकीन हो गया, कि उसे बाईं ओर मुड़ना चाहिए. वह बाईं ओर मुड़ा. घोड़ा मुश्किल से कदम बढ़ा रहा था. उसे रास्ते पर निकले हुए एक घण्टे से ऊपर हो गया था. झाद्रीनो को निकट ही कहीं होना चाहिए था. मगर वह चलता रहा, चलता रहा, और मैदान था कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था. सब ओर या तो टीले थे या खाइयाँ, गाड़ी हर पल डगमगा रही थी, हर बार वह उसे सीधा करता. समय बीता जा रहा था, व्लादीमिर को बड़ी चिंता होने लगी.
आख़िरकार एक ओर कुछ काली-सी चीज़ दिखाई दी. व्लादीमिर उस ओर मुड़ा. निकट आने पर उसे एक वृक्ष वाटिका दिखाई दी.
‘धन्यवाद, प्रभु!’ उसने सोचा, ‘अब निकट ही है.’
वह वाटिका के निकट पहुँचा, इस आशा से, कि शीघ्र ही परिचित रास्ते पर आ जाएगा, या फिर इस कुंज का चक्कर लगाते ही सामने झाद्रिनो नज़र आयेगा. जल्दी ही वह रास्ते पर आ गया और शीत ऋतु के कारण नग्न हुए वृक्षों के अँधेरे झुरमुट में घुस गया. यहाँ हवा अपना तांडव करने में असमर्थ थी, रास्ता समतल था; घोड़े की हिम्मत बढ़ी और व्लादीमिर कुछ निश्चिन्त हुआ.
मगर, वह चलता रहा, चलता ही रहा, लेकिन झाद्रिनो कहीं नज़र न आया, वाटिका का भी कहीं अंत नहीं था. व्लादीमिर भयभीत हो गया, जब उसने देखा कि वह किसी अपरिचित वन में आ गया है. बदहवासी ने उसे दबोच लिया. उसने घोड़े पर चाबुक बरसाए, बेचारा बेज़ुबान जानवर दुलकी चाल से भागा, मगर फिर धीमा पड़ गया और पंद्रह मिनट बाद ही व्लादीमिर की तमाम कोशिशों के बावजूद बड़ी मुश्किल से एक-एक पैर आगे बढ़ा पा रहा था.
धीरे-धीरे पेड़ों का झुरमुट साफ़ होने लगा और व्लादीमिर जंगल से निकल आया, झाद्रिनो का कहीं अता-पता न था. शायद आधी रात हो चुकी थी. उसकी आँखों से आँसू बह निकले, वह अनुमान से चलता रहा. मौसम साफ़ हो गया, बादल बिखर गए, उसके सामने था बर्फ की सिलवटों वाला, सफ़ेद कालीन से ढँका मैदान. रात काफ़ी साफ़ थी. उसे दूर पर एक छोटा-सा गाँव दिखाई दिया जिसमें मुश्किल से चार या पाँच झोंपड़ियाँ थीं. व्लादीमिर उस ओर बढ़ा. पहली झोंपड़ी के निकट वह गाड़ी से कूदा, खिड़की की ओर भागा और खटखटाने लगा. कुछ क्षणों बाद खिड़की का पल्ला खुला और एक सफ़ेद दाढ़ीवाले ने बाहर झाँका.
“का है?”
“क्या झाद्रिनो दूर है?”
“नहीं, दूर नहीं, दस कोस होत.” यह सुनकर व्लादीमिर अपने बाल नोंचने लगा और यूँ सकते में आ गया मानो उसे मृत्युदण्ड सुनाया गया हो.
“किधर से आत रहो?” बूढ़ा पूछ रहा था. व्लादीमिर उत्तर देने की स्थिति में नहीं था.
“बुढ़ऊ,” उसने कहा, “क्या तुम झाद्रिनो तक जाने के लिए मुझे घोड़ा दे सकते हो?”
“हमारे पास कहाँ का घोड़ा…” देहाती बोला.”
“क्या रास्ता दिखाने के लिए किसी को साथ दोगे? मैं मुँहमांगी रकम दूँगा.”
“तनिक रुको”, खिड़की का पल्ला भेड़ते हुए बूढ़ा बोला, “हम अपने बिटवा को भेजत, ओही तुमका राह दिखावे.”
व्लादीमिर इंतज़ार करने लगा. एक मिनट भी बीतने न पाया कि वह दुबारा खिड़की खटखटाने लगा. खिड़की खुली, दाढ़ीवाला आदमी दिखाई दिया.
“का है”
“तुम्हारा बेटा कहाँ है?”
“आत है, जूते पहिनत रहिन. का तुम ठण्ड खा गए? – अंदर आव, तनिक गरमा लेव.”
“धन्यवाद. बेटे को जल्दी से भेजो.”
फ़ाटक चरमराया, एक छोकरा डंडा हाथ में लिए निकला और आगे-आगे चल पड़ा, कभी वह रास्ता दिखाता, कभी बर्फ के टीलों के नीचे छिपे रास्ते को खोजता.
“कितना बजा है?” व्लादीमिर ने उससे पूछा.
“जल्दी ही उजाला होने वाला है,” नौजवान छोकरे ने जवाब दिया. व्लादीमिर ने इसके बाद एक भी शब्द नहीं कहा. जब वे झाद्रिनो पहुँचे तो मुर्गे बाँग दे रहे थे, दिन निकल आया था. चर्च बंद था. व्लादीमिर ने छोकरे को पैसे दिए और वह पादरी के आँगन की ओर बढ़ा. आंगन में उसकी ‘त्रोयका’ नहीं थी. हे भगवान, क्या सुनने को मिलेगा.
मगर हम नेनारादवा के भले ज़मींदार के पास चलें और देखें, शायद वहाँ कुछ हो रहा है.
कुछ भी तो नहीं.
बूढ़े उठे और मेहमानख़ाने में आये – गव्रीला गव्रीलोविच टोपी और रोंएदार कुर्ता पहने और प्रस्कोव्या पेत्रोव्ना ऊनी शॉल ओढ़े. समोवार रखा गया और गव्रीला गव्रीलोविच ने नौकरानी को मारिया गव्रीलोव्ना के पास यह पूछने के लिए भेजा कि उसकी तबियत कैसी है और वह रात को ठीक से सोई या नहीं. नौकरानी वापस आकर बोली कि मालकिन ठीक से सो तो नहीं पाई, मगर अब उनकी तबियत बेहतर है और वह अभी मेहमानखाने में आएँगी. और, सचमुच ही दरवाज़ा खुला और मारिया गव्रीलोव्ना माँ और पिता का अभिवादन करने आई.
“सिरदर्द कैसा है, माशा?” गव्रीला गव्रीलोविच ने पूछ लिया.
“बेहतर है, पापा,” माशा ने जवाब दिया.
“तुम्हें, माशा, कल ज़रूर बुखार ही था,” प्रस्कोव्या पेत्रोव्ना ने कहा.
“हो सकता है, मम्मी,” माशा ने जवाब दिया.
दिन सही-सलामत बीत गया, मगर रात में माशा बीमार हो गई. शहर से डॉक्टर बुलाया गया. वह शाम को पहुँचा और उसने मरीज़ को बड़बड़ाते हुए पाया. उसका शरीर तप रहा था, और ग़रीब बेचारी लड़की दो सप्ताह तक मृत्यु की कगार पर खड़ी रही.
घर में कोई भी प्रस्तावित पलायन के बारे में नहीं जानता था. पलायन की पूर्वरात्रि को उसके द्वारा लिखे गए पत्र जला दिए गए थे, उसकी नौकरानी-सखी ने मालिक के क्रोध की कल्पना से किसी को भी इस बारे में नहीं बताया था. पादरी, घुड़सवार दस्ते का भूतपूर्व अफ़सर मुच्छड़ श्मित और पुलिस कप्तान का बेटा ख़ामोश रहे. कोचवान तेरेश्का कभी भी व्यर्थ की बकवास नहीं करता था, नशे में भी नहीं. इस तरह आधे दर्जन से अधिक षड़यंत्रकारियों ने इस रहस्य को गुप्त ही रखा. मगर स्वयम् मारिया गव्रीलोव्ना ने लगातार तेज़ बुखार में बड़बड़ाते हुए अपना भेद खोल ही दिया. मगर उसके शब्द इतने असंबद्ध थे कि उसकी माँ, जो उसके बिस्तर से ज़रा भी नहीं हटी थी, केवल इतना समझ पाई कि उसकी बेटी व्लादीमिर निकोलायेविच से ख़तरनाक हद तक प्यार करती थी और शायद यही प्यार उसकी बीमारी की वजह थी. उसने अपने पति से विचार-विमर्श किया, कुछ पड़ोसियों की सलाह ली और आखिरकार सभी एक राय से इस निष्कर्ष पर पहुँचे, कि शायद यही मारिया गव्रीलोव्ना के भाग्य में है, कि ईश्वर की बाँधी हुई गाँठ को खोला नहीं जा सकता, कि ग़रीबी अभिशाप तो नहीं है, कि रहना तो इन्सान के साथ है, न कि धन-दौलत के साथ, और भी इसी तरह के अनेक विचार रखे गए. जब हम अपने कृत्य के समर्थन में कोई वजह प्रस्तुत नहीं कर सकते तब ऐसी कहावतें सचमुच काफ़ी लाभदायक होती हैं.
इधर मालकिन के स्वास्थ्य में सुधार होने लगा. व्लादीमिर को गव्रीला गव्रीलोविच के घर में फिर कभी देखा नहीं गया. वह उस घर में होने वाले अत्यंत साधारण स्वागत से घबराया हुआ था. यह सुझाव दिया गया कि उसे बुलावा भेजकर अप्रत्याशित सुखद समाचार सुनाया जाए कि वे उनकी शादी के लिए सहमत हो गए हैं. मगर नेनारादवा के ज़मींदारों के विस्मय का ठिकाना न रहा जब उनके निमंत्रण के उत्तर में उन्हें मिला एक अर्धविक्षिप्त-सा ख़त. उसने लिखा था, कि वह उनके घर कभी भी पैर न रख सकेगा प्रार्थना की थी कि वे उस अभागे को भुला दें, जिसके सामने मौत के सिवा अन्य कोई रास्ता न था. कुछ और दिन बीत जाने पर उन्हें पता चला कि व्लादीमिर फ़ौज में चला गया है. यह हुआ सन् 1812 में.
इस बारे में काफी दिनों तक माशा को बता न सके, जिसकी हालत धीरे-धीरे सुधर रही थी. उसने कभी व्लादीमिर का ज़िक्र तक नहीं किया. कुछ महीनों के बाद बरोदिनो के निकट गंभीर रूप से घायल सैनिकों की सूची में उसका नाम पढ़कर वह फिर बेहोश हो गई, और सभी आशंकित हो गए कि उसे दुबारा सरसाम न हो जाए. मगर, भगवान की दया से, इस बेहोशी के बाद कुछ नहीं हुआ.
और एक शोकपूर्ण घटना उसके साथ घटी : गव्रीला गव्रीलोविच उसे पूरी जायदाद का वारिस बनाकर दुनिया से चल बसे. मगर इस जायदाद से उसे कोई सांत्वना नहीं मिली, वह बेचारी प्रास्कोव्या पेत्रोव्ना के दुख को बांटने का पूरा प्रयत्न कर रही थी, उसने कसम खाई कि कभी भी उनका साथ न छोड़ेगी, दर्दभरी यादों से जुड़े नेनारादवा को छोड़कर वे **जागीर में रहने चली गईं.
यहाँ भी विवाहेच्छुक नौजवान सुंदर एवम् समृद्ध विवाह योग्य इस युवती के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते रहे, मगर उसने किसी को भी ज़रा सा भी प्रोत्साहन नहीं दिया. माँ कभी-कभी उसे मनाती कि अपने लिए कोई मित्र ढूँढ़ ले, मारिया गव्रीलव्ना सिर हिलाती और ख़यालों में डूब जाती. व्लादीमिर अब था ही नहीं. फ्रांसीसी आक्रमण से पूर्व वह मॉस्को में मर गया था. माशा के लिए उसकी स्मृति बड़ी पवित्र थी, उसने हर वो चीज़ संभालकर रखी थी जो उसकी यादों से जुड़ी थी : किताबें, जो कभी उसने पढ़ी थीं, उसके बनाए हुए चित्र, लेख एवम् कविताएँ जो उसने माशा के लिए लिखी थीं. पड़ोसी उसकी दृढ़ता पर चकित थे और उत्सुकतावश राह देख रहे थे किसी ऐसे नायक की जो इस कुँआरी आर्तेमीज़ा की दयनीय पवित्रता पर विजय प्राप्त करेगा.
इसी बीच युद्ध समाप्त हो गया विजयश्री के साथ. विदेशों से हमारी सैन्य टुकड़ियाँ वापस लौटने लगीं. जनता उनका स्वागत करने भागी. संगीत की लहरों पर ‘हैनरी चतुर्थ की जय हो’, वाल्ट्ज़ की धुनें और ‘झोकोंडा’ की धुनें थिरकने लगीं. अफ़सर, जो किशोरावस्था में ही मोर्चे पर चले गए थे, युद्ध के वातावरण से नौजवान बनकर, सीने पर तमगे लटकाए वापस लौटे. सिपाही अपनी बोलचाल में प्रतिक्षण जर्मन एवम् फ्रांसीसी शब्दों का प्रयोग करते चहक रहे थे. अविस्मरणीय था यह समय. उत्साह और यश से सराबोर. ‘पितृभूमि’ शब्द से ही रूसी हृदय कितनी ज़ोर से धड़कने लगता था! मिलन के अश्रु कितने मीठे थे. जनमानस के स्वाभिमान एवम् सम्राट के प्रति प्रेम की भावनाएँ कितनी एकता से घुलमिल गई थीं, और उसके लिए यह कितना अभूतपूर्व क्षण था.
महिलाएँ, रूसी महिलाएँ, अद्वितीय प्रतीत हो रही थीं. आमतौर से उनमें पाया जानेवाला रूखापन समाप्त हो चुका था.
उनका छलकता हुआ उत्साह नैसर्गिक ही प्रतीत होता, जब विजयी योद्धाओं का स्वागत करते हुए वे चिल्लातीं “हुर्रे!!”
और हवा में उछालती टोपियाँ!
कौन-सा तत्कालीन अफ़सर यह स्वीकार न करेगा कि एक बेहतरीन, बेशकीमती उपहार के लिए वह रूसी महिला का आभारी है?….
इस जगमगाते समय में मारिया गव्रीलव्ना अपनी माँ के साथ उस **इलाके में रहते हुए यह न देख पाई कि दोनों राजधानियों में फ़ौजी टुकड़ियों के लौटने का उत्सव कितने हर्षोल्लास से मनाया जा रहा है. मगर छोटे-छोटे गाँवों और तहसीलों में जनमानस का उत्साह कुछ अधिक ही था. इन स्थानों पर फ़ौजी अफ़सर का आगमन उनके लिए एक उत्सव के समान था और उसकी तुलना में फ्रॉक-कोट पहने पड़ोसी प्रेमी पर भी कोई ध्यान नहीं देता था.
हम पहले ही बता चुके हैं, कि मारिया गव्रीलोव्ना को उसके रूखे स्वभाव के बावजूद विवाहेच्छुक युवक घेरे ही रहते थे. मगर उन सभी को पीछे हटना पड़ा जब उसके दुर्ग में घुड़सवार दस्ते का ज़ख़्मी अफ़सर बूर्मिन, सीने पर जॉर्जियन तमगा लटकाए, स्थानीय महिलाओं के शब्दों में, अपने आकर्षक पीतवर्ण के साथ प्रविष्ठ हुआ. उसकी उम्र लगभग छब्बीस वर्ष थी. वह अपनी जागीर में, जो मारिया गव्रीलव्ना के पड़ोसी गाँव में थी, अवकाश पर आया था. मारिया गव्रीलव्ना ने उसे विशेष सम्मान दिया. उसकी उपस्थिति में उसके खोएपन का स्थान सजीवता ले लेती. यह तो नहीं कह सकते, कि वह उसके साथ छिछोरापन करती थी, मगर उसके व्यवहार को देखकर कवि यही कहता:
मोहब्बत नहीं है, तो फिर और क्या है?…
बूर्मिन वास्तव में ही बड़ा प्यारा नौजवान था. वह ऐसी बुद्धिमत्ता का स्वामी था जो महिलाओं को पसंद आती है. शिष्ठ व्यवहार तथा निरीक्षण क्षमता वाला, मिलनसार एवम् हँसमुख, और बनावटीपन से कोसों दूर था वह. मारिया गव्रीलव्ना के साथ उसका व्यवहार सीधा एवम् सहज था, मगर उसके हर शब्द एवम् कृति का पीछा उसकी नज़रें करती रहतीं. वह शांत एवम् संकोची स्वभाव का था, मगर उसके बारे में यह अफ़वाह थी कि किसी समय वह बड़ा शरारती थी, और इस कारण वह मारिया गव्रीलव्ना की नज़रों से गिरा नहीं, जो (अन्य नौजवान महिलाओं की भांति) शरारतों को हँसते-हँसते क्षमा कर दिया करती थी, क्योंकि यह बहादुरी एवम् उत्साही स्वभाव की निशानी है.
मगर सबसे ज़्यादा…(उसकी नज़ाकत से भी ज़्यादा, उसकी प्यारी बातों से भी बढ़कर, उसके दिलकश पीलेपन से कहीं अधिक, उसके बैण्डेज में हाथ से भी ज़्यादा) नौजवान, घुड़सवार दस्ते के अफ़सर की ख़ामोशी उसकी उत्सुकता एवम् कल्पना को उकसा जाती थी. वह इस बात को अस्वीकार न कर सकी, कि वह उसे बेहद पसन्द थी, वह भी – शायद अपनी बुद्धि और अनुभव के कारण भाँप गया था कि वह उसे औरों से अधिक महत्व देती है, फिर अब तक उसने उसके पैरों पर झुककर प्रेम की स्वीकारोक्ति क्यों नहीं दी थी? कौन सी चीज़ थी जो उसे रोक रही थी? सच्चे प्रेम से जुड़ी शालीनता, स्वाभिमान या फिर चालाक स्त्री-लम्पट का छिछोरापन? यह उसके लिए पहेली थी. भलीभाँति सोचने पर वह इस निष्कर्ष पर पहुँची, कि इसका एकमात्र कारण शालीनता ही थी, और उसने नज़ाकत से तथा उस पर और अधिक ध्यान देने का निश्चय करके उसकी हिम्मत बढ़ाने की ठान ली. वह एक अप्रत्याशित उपसंहार की तैयारी कर रही थी और बड़ी बेसब्री से उस घड़ी का इंतज़ार कर रही थी, जब प्रेम की स्वीकारोक्ति प्राप्त होगी. एक स्त्री का हृदय, चाहे वह कितना भी बड़ा क्यों न हो, कोई भी भेद बर्दाश्त नहीं कर सकता. उसके आक्रामक कार्यकलापों का मनचाहा परिणाम हुआ, कम से कम बूर्मिन ऐसी सोच में पड़ गया और उसकी काली आँखें ऐसी भावना से मारिया गव्रीलव्ना पर ठहर-ठहर जातीं, मानो निर्णायक क्षण आ ही पहुँचा हो. पड़ोसी विवाह की बातें ऐसे करने लगे, मानो वह हो ही चुका हो, और यह देखकर, कि उसकी बेटी ने आख़िरकार सुयोग्य वर ढूँढ़ लिया है, भोली-भाली प्रास्कोव्या पेत्रोव्ना प्रसन्न हो जाती.
एक दिन बुढ़िया मेहमानखाने में अकेली बैठी ताश खेल रही थी कि बूर्मिन कमरे में घुसा और फ़ौरन मारिया गव्रीलव्ना के बारे में पूछने लगा. “वह उद्यान में है,” बुढ़िया बोली, “जाओ उसके पास, मैं यहीं आपका इंतज़ार करूँगी.” बूर्मिन चला गया और बूढ़ी सलीब का निशान बनाते हुए सोचने लगी, “हे भगवान! यह काम आज ही हो जाए!”
बूर्मिन ने मारिया गव्रीलोव्ना को तालाब के निकट, सरई के पेड़ के नीचे, बिल्कुल उपन्यास की नायिका की भांति, सफ़ेद गाऊन में किताब पढ़ते हुए पाया. पहले कुछ प्रश्नों के बाद मारिया गव्रीलोव्ना जानबूझकर ख़ामोश हो गई, जिससे उन दोनों के बीच असमंजस की स्थिति इतनी तीव्र हो जाए, कि उससे उबरने के लिए आकस्मिक एवम् निर्णायक स्पष्टीकरण देना आवश्यक हो जाए. ऐसा ही हुआ: बूर्मिन ने स्थिति के बोझिलपन को भाँपते हुए कहा, कि वह कई दिनों से अपने दिल की बात कहने के लिए मौका ढूँढ़ रहा था, और उसने ध्यान से उसकी बात सुनने की प्रार्थना की. मारिया गव्रीलव्ना ने किताब बंद कर दी और सहमति से पलकें झपकाईं.
“मैं आपसे प्यार करता हूँ,” बूर्मिन बोला, “मैं आपसे बेहद प्यार करता हूँ…(मारिया गव्रीलव्ना शर्म से लाल हो गई और उसने सिर को और नीचे झुका लिया). “मैंने बड़ी असावधानी से काम लिया, मैं इस प्यारी आदत का गुलाम हो गया, आपको हर रोज़ देखने की और सुनने की आदत का गुलाम…” (मारिया गव्रीलव्ना को सेन-प्रो के पहले ख़त की याद आ गई). “अब भाग्य का मुकाबला करने के लिए बहुत देर हो चुकी है, आपकी याद, आपकी प्यारी, अद्वितीय छवि अब मेरे जीवन में पीड़ा एवम् आनंद का स्त्रोत रहेगी, मगर मुझे एक अप्रिय कर्तव्य निभाना है और मेरे और आपके बीच एक अभेद्य दीवार खड़ी करनी है…”
“वह तो हमेशा ही थी,” मारिया गव्रीलव्ना बोली, “मैं कभी भी आपकी पत्नी नहीं बन सकती थी…”
“जानता हूँ,” उसने हौले से कहा, “जानता हूँ कि आपने कभी प्यार किया था, मगर उसकी मृत्यु और तीन साल का शोक…भली, प्यारी मारिया गव्रीलव्ना, मुझे अंतिम दिलासे से वंचित न कीजिए, यह ख़याल कि आप मेरा सौभाग्य बनने को राज़ी हो जातीं, अगर…”
“चुप रहिए, भगवान के लिए कुछ न बोलिए. आप मुझे यातना दे रही हैं. हाँ, मैं जानता हूँ, मैं महसूस कर रहा हूँ कि आप मेरी हो जातीं, मगर – मैं बड़ा अभागा हूँ, मेरी शादी हो चुकी है.”
मारिया गव्रीलव्ना ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा.
“मैं शादीशुदा हूँ,” बूर्मिन कहता रहा, “मेरी शादी हुए तीन साल से ऊपर हो चुके हैं और मैं नहीं जानता कि मेरी पत्नी कौन है, वह कहाँ है, और क्या मैं उससे कभी मिल सकूँगा…”
“यह आप क्या कह रहे हैं?” मारिया गव्रीलव्ना चीखी, “कितनी अजीब बात है, कहते रहिए, मैं अपनी बात बाद में कहूँगी…मगर, भगवान के लिए, बोलते रहिए.”
“सन् 1812 के आरंभ में,” बूर्मिन ने कहा, “मैं विल्ना की ओर जा रहा था, जहाँ हमारी सैनिक टुकड़ी थी. एक दिन डाक-चौकी पर देर रात से पहुँचते ही मैंने शीघ्रता से घोड़े देने की आज्ञा दी, कि तभी भयानक बर्फानी तूफ़ान उठा, डाकचौकी का चौकीदार और कोचवान मुझे इंतज़ार करने की सलाह देते रहे. मैंने उनकी बात मान ली, मगर एक अजीब-सी बेचैनी ने मुझे दबोच लिया, ऐसा लगा मानो कोई मुझे धक्का दे रहा हो. तूफ़ान था कि कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था, मैं सब्र न कर सका, दुबारा घोड़े जोतने की आज्ञा देकर उसी तूफ़ान में निकल पड़ा. कोचवान ने नदी के किनारे-किनारे जाने का निर्णय लिया, जिससे हमारा रास्ता तीन मील कम हो जाता. किनारे बर्फ से ढंके पड़े थे.कोचवान उस स्थान से आगे बढ़ गया, जहाँ से मुख्य मार्ग पर मुड़ना था और इस तरह हम एक अनजान प्रदेश में आ गए. तूफ़ान थम नहीं रहा था, मैंने एक स्थान पर रोशनी देखी और गाड़ी को वहीं ले जाने की आज्ञा दी. हम किसी गाँव में आ गए थे, गाँव के गिरजे में रोशनी जल रही थी. गिरजाघर खुला था, अहाते में कुछ गाड़ियाँ खड़ी थीं, ड्योढ़ी में लोग चल रहे थे. “यहाँ, यहाँ आओ!” कुछ आवाज़ें चिल्लाईं. मैंने कोचवान को नज़दीक चलने की आज्ञा दी.
“आओ, तुम कहाँ रह गए थे?” कोई मुझसे बोला, “दुल्हन बेहोश पड़ी है, पादरी को नहीं मालूम कि क्या करना है, हम वापस जाने ही वाले थे.”
मैं चुपचाप गाड़ी से कूदा और गिरजे के अंदर गया, जहाँ केवल दो या तीन मोमबत्तियाँ ही जल रही थीं. गिरजाघर के अंधेरे कोने में एक लड़की बेंच पर बैठी हुई थी, दूसरी उसकी कनपटियाँ सहला रही थी.
“भगवान का शुक्र है,” वह बोली, “बड़ी मुश्किल से आप आए. आपने तो मालकिन को मार ही डाला था.”
बूढ़ा पादरी मेरे पास आकर पूछने लगा, “शुरू करने की इजाज़त है?”
“शुरू करो, शुरू करो, मेहेरबान,” मैंने अनमने भाव से जवाब दिया.
लड़की को उठाया गया. वह मुझे ठीक-ठाक ही लगी…अबूझ, अक्षम्य चंचलता…मैं उसके निकट बेदी के सामने खड़ा हो गया. पादरी शीघ्रता से काम कर रहा था, तीन आदमी और एक नौकरानी दुल्हन को संभाले हुए थे और सिर्फ उसीकी ओर ध्यान दे रहे थे. हमारा विवाह सम्पन्न हुआ. “चुम्बन लो,” हमसे कहा गया. मेरी पत्नी ने मेरी ओर अपना पीला मुख घुमाया. मैं उसका चुम्बन लेना चाहता था….वह चीखी : “आह, ये वह नहीं है! वह नहीं है!” और वह बेहोश हो गई. गवाहों ने भयभीत नज़रों से मेरी ओर देखा. मैं मुड़ा और बगैर किसी बाधा के गिरजे से बाहर निकल गया, गाड़ी में कूदा और चिल्लाया, “चलो!”
“हे भगवान!” मारिया गव्रीलव्ना चीखी, “और आपको मालूम भी नहीं, कि आपकी बेचारी पत्नी के साथ आगे क्या हुआ?”
“नहीं जानता,” बूर्मिन ने जवाब दिया, “नहीं जानता कि उस गाँव का क्या नाम है, जहाँ मेरी शादी हुई थी, यह भी याद नहीं कि मैं किस डाकचौकी से गया था. उस समय मैंने अपने इस नीच पापी कृत्य को ज़रा भी महत्व नहीं दिया, और चर्च से निकलने पर सो गया,सिर्फ अगली सुबह, तीसरी डाकचौकी पर ही मेरी आँख खुली. नौकर, जो मेरे साथ था, युद्ध में मारा गया, इसलिए अब मुझे कोई उम्मीद ही नहीं है उसे पाने की जिसके साथ मैंने इतना निर्मम मज़ाक किया था, और जिसका बदला मुझसे इतनी क्रूरता से लिया गया है.”
“हे भगवान! हे भगवान!” मारिया गव्रीलव्ना ने उसका हाथ पकड़कर कहा, “तो वह तुम थे! और तुमने मुझे पहचाना तक नहीं!”
बूर्मिन का चेहरा पीला पड़ गया,,,और वह उसके पैरों पर गिर पड़ा…
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The post अलेक्सान्द्र पूश्किन की प्रेम कहानी ‘बर्फानी तूफ़ान’ appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..
शशिभूषण द्विवेदी नई-पुरानी कहानी के सीमांत के कथाकार हैं. नए तरह की जीवन स्थितियों-परिस्थितियों की आहट सबसे पहले जिन कथाकारों में सुनाई पड़ने लगी उनमें शशिभूषण सबस अलग हैं. उनकी कहानी ‘अभिशप्त’ मुझे बहुत पसंद है जो एक लम्बे अंतराल के बाद प्रकाशित उनके नए कहानी संग्रह ‘कहीं कुछ नहीं’ में शामिल है- मॉडरेटर
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अभी पेड़ से एक पत्ता टूटकर गिरा।
अभी-अभी हवा का एक झोंका आया। मैं जहाँ बैठा था वहीं बैठा रहा। वह चुपके से आकर मेरे बगल में बैठ गई और मैं सुनता रहा सूखी धरती पर पडऩे वाली पहली बारिश की तरह उसकी वह निर्मल हँसी। बिना बारिश भीग गया मैं। न आँख में आँसू हैं, न, दिल में गुबार…। एक सूनापन चारों ओर। पहाड़ हैं और बादलों में छिपे उनके शिखर। सबसे ऊँची चोटी हाथी टिप्पा। इसकी तलहटी में खड़ा है राजा का भुतहा महल। चारों ओर जंगलों से घिरा। रात-बिरात जंगली जानवर भी आते होंगे। आदमी तो नहीं आते।
—”नहीं, आते हैं कुछ तुम्हारे जैसे पगले।’‘ शिल्पी ने कहा था। मैं स्तब्ध। यह जादूगरनी है क्या…मन की बात पढऩे वाली। पता नहीं, मैंने कन्धे उचकाए। जादूगरनी मुस्कुरा दी। मैं डरने लगा हूँ इससे। दूर तक देखती है यह। गजब का पैनापन है इसकी आँखों में। मुग्ध हूँ इन आँखों पर मैं। इसकी मुस्कान जैसे कत्ल करने के बाद किसी कातिल की होती है…पुरकशिश।
शिल्पी का हू। हाथ मेरे हाथ में है और मैं राजा के भुतहे महल में घुसने की फिराक में। सुनता हूँ सदियों लम्बी चीख। परिन्दे फडफ़ड़ाने लगते हैं।
—”कौन रहता होगा यहाँ?’‘
—”आदमी तो नहीं रह सकता, प्रेत ही रहें तो रहें।’‘ शिल्पी ने फिर
कहा।
मैं शिल्पी को घूरकर देखता हूँ। उसकी नाक की लौंग महल के अँधेरे कोने में चमक उठती है…बिल्कुल जुगनू की तरह।
—”आखिर कहाँ जा रहे हैं हम?’‘ शिल्पी की आँखों में भी वही प्रश्न है जो पाँच साल पहले जया की आँखों में था।
थोड़ी देर मैं खामोश रहा। फिर बेतरह जया की याद आई। जया की याद आते ही मैं पसीने-पसीने हो गया।
—”क्या हुआ शशांक?’‘ शिल्पी ने फिर लय तोड़ी।
—”कुछ नहीं…अचानक भूला हुआ एक बुरा सपना याद आ गया।’‘ शिल्पी की पैनी निगाहों ने मुझे घूरकर देखा। मेरे बदन में हजारों-हजार सुराख हो गए।
—”न अब कुछ नहीं हो सकता। सब खत्म।’‘ मैंने सोचा।
—”मगर हम जा कहाँ रहे हैं?’‘ शिल्पी की फिर वही टेक।
—”एक लम्बी यात्रा पर। उसकी पगडंडियाँ इन्हीं खंडहरों के बीच से जाती हैं। पाँच सौ साल पहले कोई चला था इन पर और मर गया। सुनो उनकी चीख…। सुन रही हो न?’‘ जया को भी यही कहा था मैंने ठीक पाँच साल पहले।
—”मगर मुझे तो कुछ सुनाई नहीं देता…।’‘ शिल्पी का जवाब।
—”अपनी चीख तो सुनाई देती होगी। जो अपनी चीख सुन सकते हैं, दूसरों की चीख भी उन्हीं को सुनाई देती है।’‘ पता नहीं मैंने जया से कहा या शिल्पी से।
उसने कुछ नहीं कहा। मैंने भी जवाब की प्रतीक्षा नहीं की। मैं टार्च की रोशनी में महल की झरती दीवारें देखने लगा। लगा कि अभी भहराकर गिर पड़ेंगी। उनके बीच किसी विशालकाय पेड़ ने जड़ें जमा ली थीं। दीवारें दोफाड़। दीवार पर चाक से कुछ नाम लिखे थे—पुनीत-शालू, रजनी-विजय, सुशील-प्रतिमा…। कुछ लोग अपने प्रेम को इसी तरह जिन्दा रख पाते हैं शायद—मैंने सोचा।
—”अजीब पागल लोग होते हैं न ये भी। प्यार करते हो तो करो, बेमतलब उसका प्रचार क्यों करते हो। देखो कमबख्तों ने सारी दीवारें गन्दी कर रखी हैं।’‘ मानो प्रलाप कर रही थी शिल्पी। मैं फिर चौंका।
दाईं तरफ थोड़ी रोशनी दिखाई दी। रोशनी सीढिय़ों की तरफ से आ रही थी। सीढिय़ाँ परकोटे में खुलती थीं। हम सीढिय़ों पर चढ़े। सीढिय़ों के आस-पास ढेर सारे बरबाद कंडोम और शराब की खाली बोतलें पड़ी थीं। उन्हें देखते ही शिल्पी के चेहरे पर अजीब-सी दहशत छा गई। वह उबकाई लेने को हुई और चेहरे पर रूमाल रख तेजी से ऊपर भागी।
—”मुझे ये कहाँ ले आए तुम शशांक?’‘ शिल्पी चिड़चिड़ाई। हम दोनों परकोटे पर आ गए थे।
—”घबराओ नहीं, यह सब आदमी की ऊब और निरर्थकता की निशानियाँ हैं। ध्यान से देखो, क्या हर चीज यहाँ बेमतलब और फालतू नहीं लगती, प्यार भी?’‘
शिल्पी बिना कुछ बोले परकोटे की तरफ निकल आई और गहरी गहरी साँसें लेने लगी। परकोटे से विशाल गगनचुम्बी पर्वत श्रंखलाएँ देखते ही बनती थीं। वहाँ से दूर सर्पीली सड़कों पर दौड़ती-भागती बसें और गाडिय़ाँ छोटे-छोटे खिलौनों की तरह नजर आ रही थीं।
मैंने परकोटे से नीचे झाँककर देखा। नीचे खाई थी, इतनी गहरी कि सोचकर अब भी डर लगता है। यह विचार कि यहाँ से गिरे तो क्या होगा, हालाँकि निरर्थक था मगर भीतर कहीं बहुत गहरे डराने भी लगा था।
यह अजीब है लेकिन मेरे साथ ऐसा अक्सर होता है। जिस वक्त ऊँचाइयों से मैं डर रहा होता हूँ ठीक उसी वक्त वहाँ से कूद पडऩे की एक आत्मघाती इच्छा भी मेरे भीतर जोर मारने लगती है। परकोटे से खाई को देखते हुए भी मेरे मन में एक बार वहाँ से कूद जाने का विचार आया। शिल्पी ने मेरी आँखों में शायद मौत के उस आत्मघाती विचार को पढ़ लिया था। वह फौरन मेरे पास आई और मेरा-हाथ पकड़कर पचासों सीढिय़ाँ एक साथ उतर गई। वह बेतरह घबरा चुकी थी।
—”क्या हुआ?’‘ मैंने पूछा।
—”कुछ-नहीं। मैं डर गई थी थोड़ा।’‘
—”क्यों?’‘
—”पता नहीं, अचानक तुम्हारी आँखों में मुझे मौत की वीरानी और उजाड़ नजर आया। तुम खुद को मारना चाहते थे, क्यों?’‘
—”मैं अपने डर को मारना चाहता था।’‘
—”पता नहीं, तुम डर को मारना चाहते थे या डर तुम्हें। मैं अब तुम्हें यहाँ और नहीं रहने दूँगी।’‘ मेरा हाथ पकड़े-पकड़े वह तेजी से बाहर आई। अब हम महल के बाहर प्रांगण में थे। बाईं ओर से पुजारी जी आते दिखे। शिल्पी ने झुककर उनके पाँव छुए। मैंने हाथ जोड़कर प्रणाम की मुद्रा बनाई।
—”खुश रहो बिटिया।’‘ पुजारी जी बोले। फिर मुझे देख धीरे-से कहा, ”कैसे हो शशांक?’‘
—”ठीक हूँ पुजारी जी…काफी दिनों बाद आज आपके दर्शन हुए।’‘ मैंने कहा।
—”हाँ, देवी सुजाता के मन्दिर में एक बड़ा अनुष्ठान होने वाला है। उसी की तैयारियों में थोड़ा व्यस्त था? लेकिन यह बिटिया कौन है, पहले कभी देखा नहीं?’‘
—”ये शिल्पी है पुजारी जी, मेरी दोस्त। जल्द हमलोग शादी करने वाले हैं।’‘
—”ओह, बड़ी संस्कारी बच्ची है। मेरा आशीर्वाद तुम लोगों के साथ है।’‘
मुझे लगा पुजारी जी कुछ और कहना चाहते हैं लेकिन कह नहीं पा रहे। मैं विषयांतर का प्रयास करता हूँ, ”पुजारी जी, महल के भीतर वर्षों से मैं एक शिलापट देख रहा हूँ जिस पर एक अजीब-सी बात लिखी है।’‘
—”क्या?’‘
—”यही कि ‘स्त्रियाँ जन्मजात शासक होती हैं। वे एक साथ क्रूर, दयालु और महान हैं। कोई भी हद उनके आगे नहीं जा पाती।‘ इसका क्या मतलब है?’‘
एकाएक पुजारी जी गम्भीर हो गए। कुछ सोचते हुए बोले, ”वह शिलापट ही खंडहर होते इस महल का सच है बेटा। उसे अपनी मृत्यु से पहले इस छोटे-से पहाड़ी राज्य के राजा ने खुदवाया था कभी। रानी सुजाता की प्रतिष्ठा में। वही अन्तिम राजा था यहाँ का। उसके बाद न कोई राजा हुआ न रानी। तब से यहाँ सिर्फ मृत्यु का हाहाकार है।’‘
—”यह सुजाता कौन थी पुजारी जी?’‘ शिल्पी ने पुजारी जी को बीच में ही टोक दिया। पुजारी जी ने सिर उठाकर पल भर उसे देखा। उनकी आँखें भर आईं।
—”सुजाता राजा का दुर्भाग्य थी बिटिया। राजा से ज्यादा खुद अपना। एक मामूली गड़रिया की लड़की थी सुजाता। अपूर्व सुन्दरी और महान महत्त्वाकांक्षी। रानी बनने का स्वप्र देखा था उसने और उसके लिए माँ भवानी की विकट साधना भी की थी। तब यहाँ राजा रुद्रसेन काफी वृद्ध हो चले थे, लेकिन उस अवस्था में भी उनकी कामलिप्साएँ चरम पर थीं। एक दिन दुर्योग से वे जंगल गए शिकार करने और वहाँ गड़रिया की बेटी सुजाता की मदमाती मांसल देह के सम्मोहन में फँस गए। वे नहीं जानते थे कि सुजाता के लिए माँ भवानी का वरदान अभिशाप बन चुका है। माँ भवानी ने कहा था, ‘सुजाता निर्भय हो। तू विधाता की इच्छापूर्ति का माध्यम है। तू रानी बनेगी लेकिन कोई सामान्य पुरुष जब भी स्वर्णकंचन-सी दिपदिपाती तेरी देह को छूने का प्रयास करेगा, अपाहिज हो जाएगा।’ और इसी प्रयास में राजा अपाहिज हो गए बिटिया।…पाँच सौ साल पहले इस छोटे पहाड़ी राज्य की महारानी हुई देवी सुजाता। उधर बगल वाले मन्दिर में उसकी मूर्ति आज भी रखी हुई है अपने उसी चंडालिनी रूप में। कहते हैं राज्य के सभी पुरुषों को उसने बधिया करा दिया था। इसलिए, सुजाता के मन में यह बैठ गया था कि कहीं उसके रूप के आकर्षण में राज्य के सभी पुरुष अपाहिज न हो जाएँ। अभिशप्त रानी की सनक ने पूरे राज्य को वीर्यहीन कर दिया। हर दिशा, हर घर, हर चौराहे पर या तो स्त्रियाँ दिखतीं या फिर किन्नर।’‘
—”सुजाता को माँ भवानी ने वह अभिशाप क्यों दिया था, पुजारी जी?’‘ शिल्पी की आँखों में किस्से-कहानियों का कौतुक था और पुजारी जी की आँखों में एक उदासी।
—”कौन जाने बिटिया। सृष्टि में बहुत-से असम्भव और अभेद्य तर्क भी साँस लिया करते हैं। अकारण ही। हो सकता है कि माँ भवानी का वह अभिशाप भी सृष्टि का वैसा ही कोई असम्भव और अभेद्य तर्क रहा हो। या शायद यह सत्ता की अपनी ठसक थी जिसने महारानी सुजाता के सौन्दर्य को विषैला बना दिया था। अपनी कुटिलता और षड्यंत्रों से उसने सिंहासन के हर सम्भावित उत्तराधिकारी को ठिकाने लगाया। कहते हैं जब भी कोई उत्तराधिकारी मारा जाता, महारानी नौ दिनों के लिए अपने शोकभवन में चली जाती और जी भरकर रोया करती।’‘
—”लेकिन आपका यह आख्यान अधूरा है पुजारी जी। आप महारानी सुजाता की कथा से बिल्लेश्वर को कैसे हटा सकते हैं?’‘ मेरी बुदबुदाहट से पुजारी जी चौंके।
—”हाँ, सच है शशांक, सच है। बिल्लेश्वर को कैसे हटा सकते हैं?’‘
—”अब यह बिल्लेश्वर कहाँ से आ टपका पुजारी की?’‘ शिल्पी की जिज्ञासा चरम पर आ गई थी।
—बिल्लेश्वर सुजाता के बचपन का साथी था बिटिया। जंगल में जानवर चराता था। सुजाता से उसे प्रेम था और सुजाता भी उस पर बहुत विश्वास करती थी। मगर वह राजा नहीं था और सुजाता को रानी बनना था जिसके लिए उसने माँ भवानी को प्रसन्न किया था। सुजाता जब रानी बनी तब बिल्लेश्वर को ही उसने अपना प्रधान अंगरक्षक नियुक्त किया। बिल्लेश्वर की वीरता के तमाम किस्से लोग आज भी बड़े गर्व से सुनाते हैं। सुजाता की प्रसन्नता के लिए बिल्लेश्वर ने भी हर अपमान सहा और अपनी सभी व्यक्तिगत इच्छाओं की बलि दे दी। मगर जब महारानी सुजाता की सनक और क्रूरताएँ हद से गुजरने लगीं, तब राजशाही से विद्रोह का नेतृत्व भी उसी को करना पड़ा।
उसी रात महारानी सुजाता पर उसने अपना प्रेम प्रकट किया। मृत्यु सामने खड़ी थी। सुजाता एक भीषण अट्टहास के साथ चीख रही थी। अपाहिज राजा कुछ कहना चाह रहे थे, लेकिन उनके मँुह से गों-गों की कुछ अस्फुट-सी आवाजें ही निकल पा रही थीं। महारानी सुजाता के अत्याचारों से त्रस्त होकर प्रजा विद्रोह पर उतारू थी और महल को चारों ओर से घेरकर उसमें आग लगा दी गई थी। बिल्लेश्वर ने अन्तिम बार भरी आँखों से महारानी सुजाता को प्रणाम किया और बाहर निकलकर हिमालय की कंदराओं में खो गया। हालाँकि कुछ लोग यह भी मानते हैं कि बिल्लेश्वर बाहर नहीं आया था और महारानी के साथ उसने भी अग्निसमाधि ले ली थी। बिल्लेश्वर बाहर आया या नहीं भगवान जाने, लेकिन प्रजा के विद्रोह की गोपनीय योजना बिल्लेश्वर की ही बनाई हुई थी। इसके पर्याप्त प्रमाण हैं। बिल्लेश्वर प्रेम और कर्तव्य के बीच आजीवन तिल-तिल मरता रहा। जीवन अजीब होता है। हमेशा अनोखा और चमत्कारिक।’‘ पुजारी जी खामोश हो गए। धुँधलका उतरने लगा था। हर तरफ एक खौफनाक खामोशी थी। खामोशी के भीतर ही दु:स्वप्नों का कोलाहल भी था।
—”शशांक, क्या सचमुच कोई बिल्लेश्वर, कोई सुजाता, कोई राजा था कभी?’‘ शिल्पी ने बाहर आते हुए पूछा! मैंने कोई जवाब नहीं दिया। उस समय मैं सुजाता और बिल्लेश्वर के बारे में सोचते हुए जया के बारे में सोचने लेगा था। उसके घातक सौन्दर्य और असम्भव आकांक्षाओं के बारे में। क्या दिन थे वे भी। दिन सोने तो रातें चाँदी जैसी होती थीं। मैं जया के पागल प्यार की खुमारी में था। हर वक्त जैसे हम बादलों पर सवार रहते। सिर्फ वही थी जो बिना आहट जब चाहती मेरे सपनों के रंगमहल में चली आती और दूर से ही मैं उसकी देहगन्ध पहचान लेता। अक्सर उसकी देह टटोलते हुए मैं उससे पूछता कि आखिर कहाँ छपाई है तुमने वह कस्तूरी?’
—”कौन कस्तूरी?’‘
—”वही जो मेरे सपनों में भी तुम्हें महकाती रहती है।’‘
—”पागल…’‘ वह बच्चों की तरह खिलखिलाती।
यह जया थी। जयश्री सिंघानिया। पेज थ्री की मायावी दुनिया में बाद में उसे इसी नाम से जाना गया। लेकिन तब वह जयश्री सिंघानिया नहीं, सिर्फ जया थी। जया जिसे मैं बेतरह चाहता था। उस वक्त वह एक मामूली घर की कस्बाई लड़की थी। मैं भी तब एक मामूली-सा ट्यूटर था जो वर्षों से बेरोजगारी की मार झेलते-झेलते ज्योतिषियों के बताए उस दिन के इन्तजार में जी रहा था जब अचानक रातों-रात-ऐसा कुछ होगा कि मेरी किस्मत बदल जाएगी, मगर वह दिन था कि आने का नाम ही नहीं ले रहा था।
वह जया का बी.ए. फाइनल ईयर था। तन-मन में कबूतरों की फडफ़ड़ाहट की खतरनाक उम्र।
मैं उन खतरों से वाकिफ नहीं था। सो ट्यूशन पढ़ते हुए कब वह मुझे ही पढ़ाने लगी, पता ही नहीं चला। बस एक दिन अचानक तन-मन में कबूतर फडफ़ड़ाए और हम कस्बे से भागकर बम्बई आ गए। वह कहती कि कस्बे में उसका दम घुटता है। उसकी माँ भी कस्बे में दम घुटने से ही मरी थी। फिर उसके पिता ने दूसरी शादी कर ली। तब नई माँ के साथ-साथ उसे अपने पिता से भी नफरत हो गई थी। एक बार उसने मुझे बताया कि उसकी माँ कुल्टा है और पिता को पूरी तरह उसने अपने चंगुल में फाँस लिया है। ऐसा कहते हुए उसका चेहरा खतरनाक ढंग से विकृत हो गया था। फिर बोली, माँ मेरी खूबसूरती से जलती है। मैं मॉडल बनना चाहती हूँ। माँ मेरी इस बात पर हँसती है। मैं मॉडल क्यों नहीं बन सकती शशांक? आखिर कमी क्या है मुझमें? नहीं…मैं इस छिनाल को दिखा दूँगी कि मैं क्या कर सकती हूँ। बोलो…क्या तुम मेरा साथ दोगे?’‘ मैं खामोश रहा। उसने फिर पूछा तब झिझकते हुऐ धीरे-से मैंने सिर हिला दिया था।
शुरू के कुछ महीने बम्बई में हमें एक छोटी-सी चाल में काटने पड़े। मैं सुबह-सुबह काम-धन्धे की तलाश में निकल जाता और जया अपना प्रोफाइल बनाते-सँवारते मशहूर फोटोग्राफरों और मॉडलिंग एजेंसियों के चक्कर काटती। मॉडलिंग के उसके शौक को तब मैंने गम्भीरता से नहीं लिया था जबकि शुरू में तो उसके इस सपने को मैंने ही हवा दी थी। वैसे उसकी देह का एक-एक कोण बड़ी-से-बड़ी मॉडलों को मात देता था 34-24-37 का आइडियल स्टैटिक्स। उसे इसके जादू पर बहुत भरोसा था।
इधर दो महीने लगातार सड़कों पर चप्पलें चटकाने के बावजूद मुझे कहीं नौकरी नहीं मिली थी, अलबत्ता जया को जरूर छोटी-मोटी मॉडलिंग एजेंसियों में चांस मिलने लगा था। पैसा भी उसके पास ठीक-ठाक हो चुका था। कुछ समय बाद हम चाल छोड़कर फ्लैट में आ गए थे। फिर जया की सिफारिश पर मुझे भी एक एड एजेंसी में कॉपी राइटिंग का काम मिल गया। उस दिन सचमुच मैं बहुत-शर्मिन्दा था। लेकिन जया के रोम-रोम से उस दिन जैसे मेरे लिए प्यार-ही-प्यार छलक रहा था। अपनी सम्पूर्ण देहराशि उसने खुलकर उस रात मुझ पर लुटाई थी। जैसे कोई नदी थी जिसमें गहरे.. बहुत गहरे मैं डूब-उतरा रहा था। उस रात वह मुझे स्वतन्त्र और अपने से बहुत महान-सी लगी थी। यों कस्बे से भागते समय देवी सुजाता के मन्दिर में हमने अनौपचारिक रूप से शादी कर ली थी, लेकिन जया ने जाने क्यों मुझे यह कसम दी थी कि फिलहाल इस रिश्ते के बारे में मैं किसी से कुछ न कहूँ।
इस बारे में मैंने सचमुच कभी किसी से कुछ नहीं कहा।
धीरे-धीरे मेरा भी काम चल निकला था और जया को लेकर मैंने सपने बुनने शुरू कर दिए थे। जया भी मॉडलिंग से खासा नाम और पैसा कमा रही थी। अब अक्सर शराब के नशे में वह रात को देर से घर लौटती और लडख़ड़ाते हुए बिस्तर पर पसर जाती। आमतौर पर उसके साथ कारवाला कोई रईसजादा होता था जिससे लिफ्ट लेकर वह घर लौटती। शुरू-शुरू में एक-दो बार मैं भी इन पार्टियों में गया था, लेकिन फिर मुझे लगने लगा कि मेरे साथ होने से जया बहुत असहज महसूस करती है। शायद मेरे कस्बाई तौर-तरीके वहाँ लोगों को हास्यास्पद लगते थे। फिर कोई अगर उससे मेरे बारे में पूछता तो वह बेपरवाही से ‘जस्ट अ फ्रेंड’ या ‘रिलेटिव’ कहकर बात टालने की कोशिश करती। मैं खुद को बहुत अवांछित-सा महसूस करने लगता। बाद में वह मुझे समझाती कि इन पार्टियों की उसके प्रोफेशन में कितनी अहमियत है और अगर किसी को पता चल गया कि हम शादीशुदा हैं तो मेरा तो कॅरियर ही चौपट हो जाएगा। ‘सो डोंट टेक इट सीरियसली…बी कूल।’ वह सिगरेट के छल्ले उड़ाते हुए कहती। मैं भौंचक देखता रह जाता। एक मामूली कस्बाई लड़की में अब तक कहाँ छुपा था यह बिन्दासपन, यह आत्मविश्वास, यह दुनियादारी। मैं बौखला जाता तो वह हँस पड़ती। फिर हिरणी की तरह कुलाँचे भरते हुए मेरे पास आती और अपने सीने में मुझे छुपा लेती। मेरे कान में उसकी फुसफुसाहट उभरती…’पागल।’
यह हमारे सम्बन्धों के तीसरे साल की बात है। वह बुरी तरह बौखलाई हुई थी। आते ही अपने बड़े-बड़े नाखून मेरे चेहरे पर गड़ाते हुए चीखने लगी—”तुम इतने लापरवाह कैसे हो सकते हो शशांक?’‘
मैं भौंचक—”आखिर हुआ क्या?’‘
—”वही जो नहीं होना चाहिए था।’‘
—”मतलब?’‘
—”कुछ दिनों से मन अजीब-सा हो रहा था। आज मैं डॉक्टर से मिली। यू नो आई एम प्रेगनेंट।’‘
—”वाउ…वैरी गुड।’‘ मैं खुशी से चहकने लगा। वह रो पड़ी। शर्म, गुस्से और हताशा में उसका चेहरा अजीब-सा हो रहा था।
—”क्या कहा, वैरी गुड। आर यू स्टूपिड शशांक? तुम्हें पता भी है कि तम्हारी इस बेवकूफी से मेरा पूरा कॅरियर तबाह हो सकता है। बम्बई क्या मैं तुम्हारे बच्चे पैदा करने आई थी? ओह गॉड! अगर किसी को पता चल गया तो?’‘ वह रोते-रोते चीखने लगी। मैं अपराधी की तरह खड़ा चुपचाप उसे देख रहा था। जुबान जैसे तालू से सिल गई। उस रात वह देर तक रोती रही थी और मैं उसे समझाने की नाकाम कोशिशें करता रहा। मुझे लगा कि यह उसका शुरुआती भय है और मातृत्व का अहसास शीघ्र ही उसे भयमुक्त कर देगा। हालाँकि उन दिनों जया और सिंघानिया के अफेयर की चर्चा भी उड़ते-उड़ते मेरे कानों में पड़ी थी। सिंघानिया फिल्मी दुनिया में बड़े रसूख वाला फाइनेंसर माना जाता था। जया को उसी के जरिए किसी मल्टीनेशनल के लिए एक बड़ा ब्रेक मिला था। हालाँकि पहली बार जब जया और सिंघानिया के अफेयर की चर्चाएँ सुनी थीं तो थोड़ा अपसेट भी हुआ था, लेकिन फिर यह सोचकर चुप रह गया कि इस तरह की अफवाहें भी यहाँ बिजनेस का हिस्सा होती हैं। वैसे प्रेग्नेन्सी की खबर के दो दिन पहले जया ने खुद मुझसे कहा था कि सिंघानिया सर के साथ अगले हफ्ते वह पेरिस जा रही है। ”तुम यकीन नहीं करोगे…बहुत बड़ा वेंचर है यह। कसम से अगर यह टूर सक्सेसफुल रहा तो समझो हमारी तो निकल पड़ी। मिस जया फिर इंटरनेशनल सेलिब्रिटी बन जाएगी। क्यों क्या ख्याल है?’‘ उसने इठलाते हुए पूछा था। पता नहीं क्यों उस दिन उसकी वह अदा मुझे बिल्कुल अच्छी नहीं लगी थी। वह मुझे किसी पतुरिया की तरह लग रही थी। हालाँकि इस सोच के लिए बाद में मैंने खुद को धिक्कारा भी था।
अब मुझे उसके होने वाले बच्चे की फिक्र होने लगी थी। किस पर गया होगा वह…मुझ पर या जया पर। सोच-सोचकर खुश हो रहा था कि अचानक मेरे भीतर ही कोई मेरा दुश्मन पैदा हो गया। वह मेरी खिल्ली उड़ाते हुए कहने लगा, ”क्यों? अगर संघानिया पर गया हो तो?’‘
मैं बुरी तरह परेशान हो गया। घड़ी देखी। रात के ग्यारह बज रहे थे। तीन पैग हलक से नीचे उतारने के बाद एक-एक कर मैं अपने दुश्मनों से लडऩे लगा। जया अब तक नहीं लौटी थी। जैसे-जैसे समय गुजर रहा था, मेरे दुश्मनों की संख्या भी बढ़ती जा रही थी। वे सब मुझे घेरकर मारना चाहते थे। मेरा दम घुटने लगा। तभी दरवाजे की घंटी बजी। जया लौट आई थी। उसका शरीर गिरा-गिरा सा था। बीमार-सी लग रही थी। मैंने उससे पूछना चाहा कि अब तक कहाँ थी वह। वह चुप रही। मेरे बार-बार पूछने पर सिर्फ इतना कहा, ”मेरी तबीयत ठीक नहीं है। सुबह बात करेंगे।’‘ और वह बिस्तर पर गिरते ही नींद में चली गई या शायद बेहोश…। सुबह उसे सोता छोड़कर ही मैं दफ्तर चला आया। रात को जब लौटा तो जया घर पर ही थी। मुझे बेपनाह खुशी हुई। मैंने कहा, ”अच्छा किया जो जल्दी आ गईं। इन दिनों वैसे भी तुम्हें ज्यादा देर तक बाहर नहीं रहना चाहिए। बच्चे पर असर पड़ेगा।’‘ वह ठठाकर हँस पड़ी। बोली, ”पागल हुए हो। आज तो मैं कहीं गई ही नहीं। सारे अपाइंटेमेंट कैंसिल। डॉक्टर ने रेस्ट करने को बोला था। और ये बच्चा-वच्चा क्या लगा रखा है। मैंने तो कल ही अबॉर्शन करा लिया।’‘
…लगा जैसे किसी ने दसवें माले से मुझे नीचे धकेल दिया हो। कुछ भी तो मेरी समझ में नहीं आया। थोड़ी देर हकबकाकर मैं उसे देखता ही रहा। मुझे लगा मेरे भीतर के सारे दुश्मन बाहर आ गए। मुझे लगा सब मिलकर मेरी खिल्ली उड़ा रहे हैं। वह कह रही थी, ”नेक्स्ट वीक मुझे पेरिस जाना है। तुम्हारी समझ में तो कुछ आता नहीं। सिंघानिया सर को अगर पता चलता तो मेरी तो जान ही ले लेते। पेट फुलाकर मैं क्या खाक मॉडलिंग करती।…थैंक गॉड, सब अच्छे से निबट गया।’‘
—”लेकिन एक बार मुझसे पूछा तो होता। आफ्टरऑल मैं तुम्हारा पति हूँ। जनम-जनम तक साथ रहने की कसमें खाई थीं हमने।’‘ मैं जैसे नींद में बड़बड़ा रहा था।
—”पागलपन की बातें मत करो। ठीक है कि एक गलती हो गई थी मुझसे लेकिन बार-बार उसी गलती को दोहराना कहाँ की अकलमन्दी है। फिर तुम्हारी हैसियत ही क्या है! ये गाड़ी, ये फ्लैट सब तुम्हारी बीवी बनकर मुझे नहीं मिला…समझे।’‘
—”लेकिन मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।’‘ मैं रोने-रोने को हो आया। वह ठठाकर हँसी। बोली, ”आखिर रहे तुम वही मिडिल क्लास मास्टर ही न! प्यार करते हो, हुँह…लो करो प्यार, किसने रोका है?’‘ उसने अपना गाउन खोल दिया था। अब वह अपादमस्तक नंगी थी। मेरे भीतर के सभी दुश्मन बाहर आ चुके थे। सबके हाथों में नंगी तलवारें थीं। अब कुछ ही क्षणों में मेरा कत्ल कर दिया जाएगा। जया ने एक अंगड़ाई ली। मैं नपुंसक हो गया।
जया को उसी हालत में छोड़कर मैं उस रात शिल्पी के पास चला आया था। जया की चीखें मेरा पीछा कर रही थीं।
शिल्पी बार-डांसर थी। जया की अनुपस्थिति में पिछले कुछ दिनों से मेरी शामें उसी के साथ गुजर रही थीं। शिल्पी के साथ आते ही उसकी गोद में सिर रखकर मैं जार-जार रो पड़ा। उसने कुछ नहीं पूछा। बाद में भी शिल्पी ने इस बारे में कभी कुछ नहीं पूछा। क्या वह सब जानती थी। अगर नहीं तो कैसे वह मेरे आँसू पी सकी?
बाद में सिंघानिया से शादी करके जया जयश्री सिंघानिया बन गई। उन दिनों मीडिया में भी इस शादी को लेकर काफी चर्चा थी। इसी मौके पर सिंघानिया ने एक टीवी इंटरव्यू में घोषणा की थी कि जल्द ही वह जयश्री को लेकर एक मल्टीस्टारर फिल्म लाँच करने जा रहा है। हालाँकि वह फिल्म कभी नहीं बनी। अभी हाल ही में एक पार्टी में सिंघानिया का एक्स-सेक्रेटरी सोलंकी जरूर मिला था। कम्बख्त देखते ही मुझे पहचान गया। पास आकर जाम टकराते हुए बोला, ”तो आखिर चिडिय़ा उड़ ही गई न दोस्त!’‘ उसकी अश्लील मुद्रा देखकर मुझे गुस्सा आ रहा था मगर मैं जब्त कर गया। वह नशे में बड़बड़ा रहा था, ”सिंघानिया भी साला बड़ी कुत्ती चीज निकला। शादी-वादी तो खैर सब नाटक था। अपुन सब जानता है। बोले था कि मल्टीस्टारर फिल्म बनाएगा। मेरा ये बनागा फिल्म। अबे फिल्म क्या फोकट में बनता है। साले का सारा पैसा तो शेयर में डूब गया। रत्ती-रत्ती का हिसाब था मेरे पास। लेकिन जया,…क्या बोले कि सोने की चिडिय़ा थी मेरी जान। कमीने ने उसकी ब्लू फिल्में बना ली थीं। रातो-रात जब साला दिवालिया हुआ तो जयश्री के गहने तक बेच डाले कमीने ने और ये उड़ा, वो उड़ा। लेके पहुँच गया न्यूयार्क। और जयश्री, साली क्या झक्कास माल है यार…। आजकल न्यूयार्क में टॉप इंडियन पोर्न-स्टार है। अपुन देखेला एक-दो बार। तबीयत खुश।’‘ आगे वह कुछ बोलता, उसके पहले ही मैंने उसका कॉलर पकड़कर दो हत्थड़ रसीद कर दिए थे। पार्टी में खासा हंगामा मच गया था। मेरे भीतर के दुश्मनों ने फिर मुझे घेर लिया था। फिर क्या हुआ…पता नहीं। सुबह उठा तो मेरे सिर पर पट्टी बँधी थी और शिल्पी मेरे पास बैठी सुबक रही थी।
रात गहरा चुकी है। मैं देखता हूँ सामने एक खाई है। लगता है मैं अभी इसमें गिर पड़ँूगा। खाई की तलहटी से जैसे कोई मुझे पुकार रहा है। आखिर ये चीखें किसकी हैं? सुजाता की या जया की। पता नहीं। शायद मेरी ही।
—”हम रास्ता भटक गए शायद।’‘ मैं बोला।
—”नहीं हम घर की तरफ ही चल रहे हैं।’‘ शिल्पी ने फिर एक बार मेरा हाथ पकड़ लिया। हाँ, अब मैं निश्चिन्त था। हम घर की तरफ ही जा रहे थे।
The post शशिभूषण द्विवेदी की कहानी ‘अभिशप्त’ appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..
वरिष्ठ कवि पवन करण की पुस्तक ‘स्त्री शतक’ की एक विस्तृत समीक्षा लिखी है अमित मंडलोई ने- मॉडरेटर
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पीढिय़ों का इतिहास पन्नों में दफन हो जाता है। उन्हीं के साथ नेपथ्य में चले जाते हैं शूरवीरों के किस्से और युद्ध की गाथाएं। खत्म हो जाती हैं सारी कही-अनकही कहानियां। लोरियों में घुलकर हवाओं में बिखर जाती हैं प्रेम और विरह की सारी कथाएं। वक्त की देहरी पर अगर कुछ बाकी रह जाता है तो वे होते हैं एक स्त्री के सवाल। वे छिनी हथोड़ी लेकर समय के पाषाण पर हर रोज चोट करते हैं। क्योंकि कहानियों में योद्धा होते हैं उनकी प्रेमिकाएं, गणिकाएं होती हैं, लेकिन उनके अहसास कहीं नहीं होते। उनकी प्रतिक्रियाएं नहीं होती। क्योंकि जानते हैं कि स्त्री की प्रतिक्रियाएं यदि वक्त पर समझ ली गईं होती तो दुनिया का इतिहास वह नहीं होता जो आज है। सदियों से स्त्री की देह पर उतरती पीढिय़ां उसके मन पर अब तक नहीं पहुंच पाई, हर बार कोई कवि ही झिंझोड़ कर यह बात हमें समझाता है। स्त्री शतक के जरिये कवि-लेखक पवन करण के हिस्से में फिर यही काम आया है।
स्त्री शतक में इतिहास के पन्नों में दर्ज ऐसी 100 महिलाओं को उनके अहसासों के साथ सामने लाकर खड़ा कर दिया गया है। हर किरदार एक सवाल है। सवाल हमारी पीढिय़ों से, हमारी सोच, समझ से। मान्यताओं, दुर्बलताओं और पाखंड से। शतक की पहली कविता ही आपके जिस्म ही नहीं आत्मा पर चढ़े सारे लबादे उतारकर फेंक देती है। वृहस्पति की स्त्री तारा, जिसे चंद्र भगाकर ले गए थे। वह जब कहती है कि चमक का घर अंधेरे में डूबा रहता है, तो भीतर तक घना कोहरा भर जाता है। चंद्र की करतूत को याद कर कवि कहता है मैं यदि तुमसे कहूं कि तुम्हारा चेहरा चंद्र की तरह सुंदर है… तो तुम मेरी यह उपमा .. अपने चेहरे से नोचकर फेंक देना…वजह आखिरी पंक्ति में मिलती है किसी पुरुष का किसी स्त्री के चेहरे में चंद्र देख लेना, चंद्र को खुद उसके चेहरे का पता बता देना है।
इंद्र की पुत्री जयंति ऐसा सवाल खड़ा करती है कि सांस लेना दूभर हो जाता है वह कहती है.. देवताओं को स्त्रियां तब तक ही प्रिय हैं। जब तक वे उनकी अनुगता हैं, कामिनी हैं.. पैर दबाती लक्ष्मी सी आज्ञाकारिणी और ऋषि-तपस्या भंग करतीं मेनकाएं हैं। इसके बाद कुछ और कहने को क्या बाकी रह जाता है। स्त्रियों के सवाल महादेव की अद्र्धांगिनी गौरी तक जाते हैं। जब कौशिकी उन्हें कठघरे में खड़ा करती है, पूछती है उनसे कि वे क्यों रुद्र के विनोद का जवाब नहीं दे पाईं। क्यों नहीं कह पाईं कि महादेव, विनोद में ही सही, आप मुझे काली कहकर संसार की असंख्य स्त्रियों को प्रताडि़त कर रहे हैं। मगर आप तो शिव कथन से इतनी भयभीत हो गईं .. कि आपने अपनी सांवली त्वचा ही.. उतार फेंकी मेरे रूप में। आपने सोचा नहीं कि वस्त्र की तरह अपनी सांवली त्वचा उतारकर आपके अलावा संसार की कोई स्त्री गौरी हो सकेगी कभी।
वे राम की बहन शांता की आवाज बन जाते हैं। कहते हैं… जब दशरथ उसे ऋष्यशृंग को ..सौंप रहे थे तब क्या उसने.. तुमसे कहा कि मैं किसी.. ऋषि से नहीं राम भैया जैसे किसी राजकुमार से ब्याह करना चाहती हूं। कृष्ण पुत्री चारुमति के दर्द को साझा करते हैं। चारुमति कहती है जब स्त्रियों को मान देने वाले पिता ही.. चूक जाएंगे हृदय परखने से मेरा.. तो इस बात का मेरे लिए महत्व रह जाएगा कितना कि मैं पुत्री कृष्ण की। वहीं कृष्ण की बहन एकनंगा भी वही सवाल उठाती है… खुद की अनदेखीं वे बहनें थीं हम.. जो अपने-अपने कालखंड की स्मृतियों में छूटती गईं सबसे पीछे.. जबकि हम में से एक कृष्ण की बहन थी और एक राम की। सच ही तो हैं संसार में कृष्ण और राम की वंशावली में शांता और चारुमति को हम कितना याद रख पाए हैं।
वे स्त्री के दूसरे रूप को भी उद्घाटित करते हैं। मंथरा के मन की थाह लेते हैं। कहते हैं… मंथरा, भरत और केकयी से पहले..अपने दासत्व के लिए राजगद्दी चाहती थी.. जो मिली भी उसे, उसके दासत्व ने.. पूरे चौदह बरस सूने राजसिंहासन पर किया राज … दैत्यों की उत्पत्ति के लिए चुनी गई दिति जब कवि के मुंह से बोलती है जो दिशाएं भी अवाक रह जाती हैं। वह पूछती है मुझे ही क्यों चुना इसके लिए.. क्या इसलिए कि मैं स्त्री थी.. कश्यप को भी तो जा सकता था चुना.. मेरी जगह उन्हें भी तो दहका सकती थी कामाग्नि.. अंतत: मां तो बनना था मुझे ही।
ब्रह्मा की अप्सरा के रूप में भी फिर वही सवाल हमें मथता है। अप्सराएं प्रेम करने के लिए नहीं.. प्रेम प्रकट करने के लिए होती हैं मुझसे कहा जाता अक्सर घर की तरह नहीं उनकी देहें होती हैं सराय की तरह.. मां बनने के लिए नहीं बच्चे जनने के लिए होती हैं उनकी कोखें… तो ऐसा लगता हैै किसी ने पीठ उघाड़ पुरुषों को महिमा मंडित करते तमाम किस्सों पर कोड़े बरसा दिए हैं। रति के रूप में वे कहते हैं…क्या यह स्त्री रूपा होकर भी एक स्त्री के गर्भ से जन्म न ले पाने की तुम्हारी पीड़ा है जो तुम्हे स्त्री के भीतर बांधे रखती है संकोच से।
अनामिका के मुंह से जब वे कहते हैं तो लगता है स्त्रियों की सारी पीड़ा को जुबान मिल गई है। दासी अनामिका कहती है… मैं दासी न होकर देवी होती.. और उसकी कामललक.. उसे खींच लाती मेरे पास.. देवताओं की नजरों में तब भी.. हम दोनों पवित्र बने रहते.. आखिर में वह कहती है समस्या मेरे दासी होने में थी.. न कि मेरे स्त्री होने में, मैं दासी थी इसलिए अशुद्ध थी.. कुलटा थी.. शूद्रा थी।
इतिहास की सौ स्त्रियों की भावभूमि से अवगत कराने के लिए पवन करण निश्चित तौर पर साधुवाद के पात्र हैं। उन्हें पढऩे के बाद समझ आता है कि कलाकार सूने कैनवास में रंग भरते हैं, अनगढ़ पत्थरों को देवता बना देते हैं और कवि मन को तराशता है। स्त्री शतक की हर कविता स्त्री के प्रति नई समझ विकसित करने की कोशिश करती नजर आती है।
पुस्तक ज्ञानपीठ से प्रकाशित है और ऑनलाइन सहित प्रमुख स्टोर्स पर उपलब्ध भी।
संपर्क .9057531264
पुस्तक का नाम : स्त्रीशतक
प्रकाशनक का नाम: भारतीय ज्ञानपीठ
प्रकाशन वर्ष : 2018
पुस्तक का मूल्य: 370 रूपये।
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फिल्म ‘मुल्क’ रिलीज होने के पहले से ही चर्चा में है. इसकी एक अच्छी समीक्षा लिखी है पाण्डेय राकेश ने-
‘मुल्क’ बहुत अच्छी फिल्म है। और हां, यह राजनीतिक यथार्थवादी फिल्म है, पर कोरी बौद्धिक और बोरियत- भरी फिल्म नहीं है, जैसा- कि बहुत- से समीक्षक इसके बारे में लिख रहे हैं। जिस शो में मैंने फिल्म देखी उसमें हॉल की सारी सीटें फुल थीं, और मेरा अनुभव है कि सब पिन- ड्रॉप- सायलेंस और इन्वॉल्वमेंट के साथ फिल्म देख रहे थे, रिलेट कर रहे थे, और दर्शक तो सभी तरह की विचारधारा वाले रहे होंगे, पर ऑफेंड होता कोई प्रतीत नहीं हो रहा था। आईना में हम सब अपना चेहरा देख रहे थे, पर चिढ़ता हुआ तो कोई नहीं लग रहा था। लोग तो फिल्म में रूचि ले रहे हैं, फिर- भी ऐसा लगता है कि फिल्म के लिए उदासीनता पैदा करने का एक मौन प्रयास चल रहा है, जबकि फिल्म हर किसी को इनरिच करने वाली है। यह फिल्म एक खुली बहस का विषय बननी चाहिए। फिल्म सोचने- विचारने और अपनाने के लिए बहुत- कुछ देती है।
यह फिल्म अपने समय के प्रति एक जरूरी सांस्कृतिक हस्तक्षेप है। पर, इसे इस अर्थ में नहीं लिया जा सकता था कि फिल्म अपने समय को अंधेरा, बस अंधेरा से भरा चित्रित करती हो, जैसा- कि बहुत से समीक्षक लिख रहे हैं। यह फिल्म अपने पूरे समय को ‘ब्लैक’ पेंट कर देने की जल्दबाजी में नहीं है। बल्कि, यह ‘ब्लैक’ और ‘व्हाइट’ के बीच पसरे ‘ग्रे’ के बड़े क्षेत्र को देखना जरूरी बताती है। फिल्म में आज के समय का जो भी ‘ब्लैक’ है उसे तो मुख्य रूप से दिखाती है, जिसमें सरकारी संस्थाएं (फिल्म की कहानी में पुलिस) भीड़ जैसी पूर्वाग्रहों से काम कर रही हैं तो भीड़, सरकार बनकर फैसले (गो टू पाकिस्तान) सुना रही है। पर, बात यहीं तक सीमित नहीं है। पूर्वाग्रहों का बनना, फैलना और जड़ होना समाज में फैली हुई प्रक्रियाएं हैं। यह फिल्म हिंदू में मुसलमान के लिए पूर्वाग्रह बनने तो मुसलमान में भी हिंदू के प्रति प्रतिक्रिया बनने की समकालीन समाज- मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं को अपना विषय बनाती है, और इस क्रम में संवादों में आने वाले प्रतीकों के माध्यम से इन पूर्वाग्रहों और प्रतिक्रियाओं की ऐतिहासिकताओं की ओर इशारा कर उन्हें समाज के जमे- जमाये शक्ति- समूहों के हित से जोड़कर भी दिखाती है। पूर्वाग्रहों की सामाजिक- संरचनात्मक पोजिशनिंग भी बराबर रूप से करते हुए यह फिल्म मुख्य रूप से हमें हमारे अपने देखने के नजरिया को साफ करने का आह्वान करती है। हमारा नजरिया, जिसे समय खराब कर रहा है, उस समय की पहचान करने के साथ- साथ फिल्म हमें अपनी- अपनी जवाबदेही को देखने- समझने- निभाने का आह्वान भी कर रही है। फिल्म एक शहर (बनारस) के एक मुहल्ला के एक परिवार की कहानी के माध्यम से आज के बड़े सवाल ‘आतंकवाद’ तक की लोकप्रिय परिभाषा (आतंक माने कश्मीर, मुसलमान या नक्सलवाद बस) की सीमा को भी उजागर कर देती है और यह स्थापित करती है कि किसी भी एजेंसी जैसे स्टेट, प्रभावी सामाजिक- समूह या किसी विद्राही समूह के द्वारा अपनी बात मनवाने के लिए अनैतिक- असंवैधानिक- अमानवीय रूप से भय का कोई भी उपयोग ‘आतंकवाद’ ही है। और फिल्म यह बात अपनी पूरी कलात्मक विश्वसनीयता के साथ समझाती है, बात सीधी- सीधी समझ में आती है।
सत्ता- तंत्र के जो वकील साहब हैं वह मानकर चल रहे हैं कि धर्म और सत्य उनकी ओर है। अपनी मान्यता को ईमान और न्याय के सिद्धांतों तथा तर्क और प्रमाण के तरीकों की कसौटी पर कसना उनके लिए आवश्यक नहीं है। अदालत की जिरह उनके लिए खूंटी पर बंधी गाय है। अदालत का पूरा माहौल उनके कंट्रोल में है। उनका ‘पूर्वाग्रह’ ही उनका जिरह है जिसमें फोर्स और स्वेच्छाचारिता है, पर परत- दर- परत तर्क और प्रमाण की आवश्यकता नाममात्र है। न मात्र अदालत, समाज के अपने दबंग साथी ‘सहस्रबुद्धे’ के माध्यम से वह मीडिया, सोशल मीडिया आदि परसेप्शन बनाने वाले सभी माध्यमों को कंट्रोल करते हैं, और उनका परसेप्शन जो उनका सत्य है उसे ही समाज का सत्य बनाने में सक्षम हैं। नतीजा यह है कि वह पूर्वाग्रहों के कारोबारी और हितधारी हैं। पुलिस का अधिकारी है जिसे पता ही नहीं चलता कि कब वह संविधान और कानून का ‘अनुशासित’ सिपाही बनते- बनते सीमा लांघ जाता है और समाज के सफेदपोश सत्ता- तंत्र का अनुशासित सिपाही मात्र बनकर रह जाता है जो उस सत्ता- तंत्र के परसेप्शन के आधार पर ही अपनी दृष्टि बनाने लगता है और अमानवीय हो जाता है। समाज के साधारण लोग अपनी सामान्य मानसिकता के साथ उसी परसेप्शन के जाल में फंसते हैं और हर संदर्भ में समाज को किसी- न- किसी ‘हम’ और ‘वे’ में बंटा पाते हैं और सत्ता द्वारा आसानी से शासित होते हैं।
आज के समय की कहानी इस फिल्म में मीडिया या सोशल मीडिया का ज्यादा चित्रण या जिक्र नहीं है, जितनी मीडिया आई है वह भीड़ बनकर ही। यह पूर्वाग्रहों और भीड़ की मानसिकता से लड़ने के मामले में नपुंसक मीडिया है और स्वयं पूर्वाग्रहों और भीड़ की उत्पादक और हिस्सा है। फिल्म की कहानी में विलेन है समाज में प्रचलित या प्रचलित करा दिया गया ‘पूर्वाग्रह’ और उससे लड़ने का माध्यम है ‘जिरह’ (यहां अदालती)। अपने परसिव्ड सत्य को अपने पॉकेट में लेकर चलने वाले और उसे बड़ी आसानी से सामान्यीकृत बना देने वाले सत्ता- तंत्र के वकील साहब से वकील नायिका अदालती जिरह में टकराती है अपने न्याय और ईमान के तर्कशास्त्र के साथ। अपनी मूल गरिमा के साथ ‘अदालती जिरह’ फिल्म में नायक है। ‘अदालती जिरह’ प्रतीक है न्याय, ईमान और तर्क आधारित दृष्टि का जो पूर्वाग्रहों को चीर पाने और उससे आगे बढ़ने का अकेला उपाय है। अपने फैसले में जज साहब पीडि़त मुस्लिम पात्र से कहते हैं कि संविधान के पहले पन्ने की खूब सारी फोटो कॉपी कराकर अपने पास रख लो, जब भी कोई तुम्हारी दाढ़ी और ओसामा बिन लादेन की दाढ़ी में फर्क न करे तो उसे एक पन्ना पकड़ा दो।
उदारवादी विचार- दृष्टि से गढ़ी इस कहानी में समस्या के समाधान का दूसरा स्तर है कि अपनी और अपने बच्चों आदि की कथनी व करनी, जिससे पूर्वाग्रह और प्रचलित धारणाएं फैलते और जड़ीभूत होते हैं, की जवाबदेही लेना। और यह कि व्यक्तिगत रूप से अपने से अलग धर्म वाले लोगों से मित्रता और मेलजोल करने की जवाबदेही लेना।
फिल्म के बारे में बात करते हुए जिस एक और बात को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता वह यह कि प्रोटैगोनिस्ट वकील पात्र का स्त्री होना। स्त्रीवादी फिल्म ‘पिंक’ में तापसी पन्नू ने पीडि़त स्त्री पात्र का अभिनय किया था, जिसकी वकालत एक पुरूष पात्र (अमिताभ बच्चन) ने की। ‘मुल्क’ में वही तापसी पन्नू है और वही अदालती जिरह है, पर यहां अपने परिवार के लिए जिरह कर रही है स्वयं स्त्री- पात्र। इस पात्र को तापसी ने बहुत अच्छा निभाया है।
‘मुल्क’ हममें से हर किसी को किसी- न- किसी स्तर पर मन की अवगुंठनें खोलने में मदद करने वाली फिल्म है।
(लेखक स्वतंत्र लेखन करते हैं। मनोविज्ञान, समाज- मनोविज्ञान और पब्लिक- पॉलिसी लेखन के मुख्य क्षेत्र हैं। ऑर्गेनाइजेशनल- ट्रेनिंग और लाइफ- कोचिंग के क्षेत्र में भी दखल रखते हैं। )
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जलज कुमार ‘अनुपम’ के भोजपुरी कविता संग्रह पर पीयूष द्विवेदी भारत ने हिंदी में समीक्षा लिखी है- मॉडरेटर
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जलज कुमार ‘अनुपम’ का भोजपुरी कविता संग्रह ‘हमार पहचान’ की कविताओं के कथ्य का फलक ग्रामीण अंचल के विषयों और पारंपरिक जीवन-मूल्यों के पतन से लेकर राष्ट्रीय राजनीति के रंगों तक को समेटे हुए है। इन कविताओं की भाषा भोजपुरी है, जिसके विषय में कहा जाता है कि यह महज एक भाषा नहीं, एक पूरे समाज और संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है। ये बात इस संग्रह की तमाम कविताओं को पढ़ते हुए महसूस की जा सकती है कि कैसे भोजपुरी के भाषाई तत्वों सहित उसके सामजिक-सांस्कृतिक तत्व भी इसमें जीवंत हो उठे हैं। उदाहरणार्थ संग्रह की कविता ‘पहचान’ की ये पंक्तियाँ देखिये, ‘बिरहा कजरी फगुआ चईता जेकर ध्रुपद करे बखान/ भिखारी महेंदर धरीछन बाबा/ कईलें आपन सब कुरबान/ हमनी हईं उहे पुरुबिया/ भोजपुरी आपन पहचान’ इन पंक्तियों में भोजपुरी समाज-संस्कृति की एक झाँकी प्रस्तुत करने का प्रयास स्पष्ट है। ऐसी कई कविताए इस संग्रह में मौजूद हैं, जिनमें भोजपुरिया समाज के विविध पक्षों का चित्रण हमें देखने को मिलता है।
‘गऊँवा सहरियात बा’ शीर्षक कविता उल्लेखनीय होगी जिसमें पतनशील जीवन-मूल्यों की कथा कही गयी है जिसकी कुछ पंक्तियाँ देखिए, ‘चाचा-चाची के, के पूछे/ माई-बाबू जी हावा में/ नइकी बहुरिया बाहर चलली/ लाज झंवाइल तावा में/ ससुर आ भसुर से केहू/ नाही तनिको लजात बा/ गंऊवा सहरियात बा’। हम देख सकते हैं कि इस कविता में कवि संभवतः भावनाओं के आवेग में न केवल सामान्यीकरण का शिकार हो जाता है, बल्कि कई बार पूर्वाग्रहग्रस्त और आधुनिकता विरोधी भी लगने लगता है। पारंपरिक जीवन-मूल्यों के समर्थन में आधुनिकता का एकदम से विरोध करने की ये प्रवृत्ति उचित नहीं कही जा सकती। कुछ ऐसा ही पूर्वाग्रह कवि की राजनीति विषयक कविताओं में भी दिखाई देता है। इस प्रकार की कविताएँ कई जगह राजनीतिक व्यवस्था की बजाय दल-विशेष का विरोध करती प्रतीत होती है। कोई भी रचना उस वक्त तक अपनी स्वाभाविक लय में रहती है, जबतक कि उसपर रचनाकार के वैचारिक पूर्वाग्रहों का प्रभाव नहीं पड़ता। जलज को इस बात का ध्यान रखना चाहिए।
जरूरी बा, देशवा हमार सूतल बा, चूड़ीहारिन, काथी लिखीं बुझात नईखे, करेज, भारत के संविधान हईं आदि संग्रह की अन्य उल्लेखनीय कविताएँ हैं।
पूर्वाग्रहों से इतर जलज की कविताओं का कथ्य तो भावपूर्ण है, मगर शिल्प के कच्चेपन के कारण ज्यादातर कविताएँ साधारण से अधिक प्रभाव नहीं छोड़तीं। शिल्प के प्रति असजगता के कारण बहुत-सी कविताओं में लय का अभाव भी नजर आता है। इसके अलावा बहुत-सी कविताओं के स्वरूप में एकरूपता का न होना भी खटकता है। ये कविताएँ शुरूआत में लयपूर्ण तुकांत स्वरूप में आरम्भ होकर अंत होते-होते अतुकांत हो जाती हैं। इन शिल्पगत समस्याओं के कारण मनोरम कथ्य के बावजूद भी संग्रह की ज्यादातर कविताओं में कोई विशेष मोहकता नहीं उत्पन्न हो पाती।
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भावपूर्ण कथ्य की कच्ची प्रस्तुति
पुस्तक – हमार पहचान (भोजपुरी कविता संग्रह)
रचनाकर – जलज कुमार ‘अनुपम’
प्रकाशक – हर्फ़ प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य – 200 रूपये
पीयूष द्विवेदी
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करीब 40 साल पहले मनोहर श्याम जोशी तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ चीन यात्रा पर गए थे, माओ के बाद का चीन धीरे धीरे खुल रहा था. उन्होंने बहुत बारीकी से चीन के बदलावों को दिखाया है. आज मनोहर श्याम जोशी की जयंती पर उसी चीन यात्रा-संस्मरण पुस्तक ‘क्या हाल हैं चीन के’ की भूमिका पढ़िए. जानकी पुल की ओर से मनोहर श्याम जोशी की स्मृति को प्रणाम- मॉडरेटर
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अमेरिकी अर्थशास्त्री-राजनयिक प्रो. गालब्रेथ, चीन और अमेरिका के सम्बन्ध-सुधार का भ्रम शुरू होने से पहले चन्द दिनों के लिए चीन गए थे। लौटकर उन्होंने दो-चार लेख लिखे और बाद में उन्हें पुस्तककार भी छपवाया। चीन के सम्बन्ध में इतनी दुबली-उथली किताब प्रकाशित करने का औचित्य प्रोफेसर साहब ने यह बताया-मैं उन चन्द अमेरिकियों में से हूँ जो कम्युनिस्ट चीन देख आए हैं।
मैं समझता हूँ कि आधुनिक चीन के सम्बन्ध में अपनी इस पाण्डित्यहीन पुस्तक के प्रकाशन की सफाई में मुझे भी यही कहना पड़ेगा कि मैं उन चन्द (शायद कुल जमा तीन) हिन्दी पत्रकारों में से हूँ जिन्हें माओ के बाद का कम्युनिस्ट चीन देखने का अवसर मिला है।
चीन में मैं लगभग तीन सप्ताह रहा। एक बुजुर्ग किन्तु अश्रद्धालू पत्रकार के अनुसार किसी भी देश के सम्बन्ध में पुस्तक लिखने के लिए प्रवास की यह अवधि सर्वथा आदर्श है। इससे कम अवधि केवल एक लेख, या हद से हद लेखमाला करने का प्रस्तावित प्रेरित कर सकती है। इससे ज्यादा अवधि, अज्ञान के अनेकानेक आयाम उजागर कर जाती है और यह सोचने के लिए मजबूर करती है कि पुस्तक लिखने का अधिकार तुम्हें है कहाँ ?
इससे स्पष्ट है कि जो लोग कम्युनिस्ट चीन में बहुत लम्बे अर्से तक रहें हैं या जो उसके विशेषज्ञ हैं, उन्हें इस पुस्तक में बहुत सी कमियाँ-कमजोरियाँ, गलतियाँ-गलतफहमियाँ नजर आने की आशंका है। सच पूछिए, तो आशा अगर किसी बात की है, तो इसी की कि पड़ोसी चीन के विषय में जिज्ञासु औसत भारतीय को इस पुस्तक से कुछ मोटी-मोटी जानकारी प्राप्त हो सकेगी और साथ ही इस पहेलीनुमा देश के बारे में एक तटस्थ पत्रकार के मूल्यांकन पर।
कम्युनिस्ट चीन लम्बे अर्से तक शेष संसार से कटा हुआ रहा। भारत से शुरू में उसके सम्बन्ध मधुर थे और भारत इस बात के लिए यत्नशील रहा था कि नए चीन को मान्यता मिले। पश्चिमी देशों से उसके सम्बन्ध जुड़े। लेकिन सीमा के सवाल पर स्वयं भारत से चीन के सम्बन्ध बिगड़ गए और 62 के सीमायुद्ध की ज्वालाओं में भाई-भाई वाला दौर खाक हो गया। यद्यपि दोनों देशों में राजनयिक सम्बन्ध बने रहे लेकिन सांस्कृतिक आदान-प्रदान समाप्त हो गया। इस तरह भारत और भारतीयों के लिए भी चीन क्या एक अजनबी देश बन चला।
कितना अजनबी, यह मुझे तब मालूम हुआ, जब चीन के लिए रवाना होने से पहले मैंने यह जानने की कोशिश की कि फरवरी में चीन के विभिन्न भागों में मौसम कैसा रहता है ? कपड़ों के चुनाव के लिए यह जानकारी जरूरी थी लेकिन भारत की राजधानी में प्रामाणिक रूप से इस विषय में कुछ बता सकने वाला कोई नहीं मिला। विदेश विभाग से प्राप्त सूचना के अनुसार पीकिंग में फरवरी में इतनी ठंड पड़ती है कि होश फाख्ता हो जाएँ। इससे यही अनुमान किया जा सकता था कि वहाँ फरवरी में भी तापमान शून्य से काफी नीचा रहा होगा लेकिन यह धारण गलत निकली।
इसी प्रकार मुझे कोई यह नहीं बता सका कि स्विस एयर का जो विमान बम्बई-पीकिंग की सीधी उड़ान भरता है वह किस रास्ते होकर जाता है। इतना स्पष्ट था कि सीधी-सी उड़ान के लिए वह बैंकाक-हांगकांग वाला टेढ़ा रास्ता नहीं पकड़ता होगा। तो क्या वह हिमालय पार कर तिब्बत के ऊपर से होता हुआ जाता है ? स्विस एयर की स्थानिक प्रतिनिधि तक इस जिज्ञासा का समाधान नहीं कर पाईं, शायद इसलिए कि भारत से पीकिंग जाने वाले यात्री तब तक नहीं के बराबर रहे हों। वास्तव में सीधी उड़ान के लिए स्विस एयर की यह सेवा बम्बई-नागपुर-हीराकुंड-कलकत्ता-चटगाँव-माण्डले होता हुआ उत्तरी बर्मा, उत्तरी लाओस और दक्षिणी चीन की त्रिसन्धि पर पहुँचता है, मेकोंग नदी पार करता है और फिर चीनी इलाके पर पीकिंग की ओर उत्तर दिशा में बढ़ जाता है।
यही नहीं कि चीन के सम्बन्ध में ऐसी सामान्य जानकारी का अभाव रहा है बल्कि यह भी कि चीन की नीति-राजनीति के सम्बन्ध में जो साहित्य उपलब्ध है वह परस्पर विरुद्ध वक्तव्यों, सूचनाओं से भरा पड़ा है। माओ का चीन देखने के बाद जहाँ कई प्रशंसकों ने उसे मानवजाति के उज्ज्वल और सफल भविष्य का प्रारूप ठहराया था और फतवा दिया था कि चीन में नए मानव का उदय हो रहा है वहाँ कई निन्दकों ने उसे एक निहायत ही घटिया गरीब और आतंक शासित साम्यवादी देश ठहराया था।
यह भी उल्लेखनीय है कि अलग-अलग दौर में प्रशंसकों ने भी अलग-अलग बातों के लिए चीन का गुणगान किया था। मिसाल के लिए जब एक उग्र माओवादी दौर में श्रमिकों को अधिक उत्पादन के लिए किसी भी प्रकार की आर्थिक प्रेरणा देना गलीज काम ठहरा दिया गया तब प्रशंसकों ने कहा कि माओ, पश्चिम की भौतिक, अर्थलोलुप, संस्कृति के दुष्प्रभावों से चीन को मुक्ति दिला रहे हैं। अब जब चीन, बोनस देने की बात कर रहा है तब प्रशंसक इसलिए खुश हैं कि चीन भी पश्चिम देशों-जैसा एक समृद्ध और शक्तिशाली देश बनने की तह पर लग गया है।
कभी-कभी एक ही व्यक्ति ने भिन्न दो कालों में इस तरह दो सर्वथा विरुद्ध बातों के लिए चीन की प्रशंसा की है। कुछ चीन प्रशंसक ऐसे भी हैं जिन्होंने माओ के चीन में गुण गाए थे लेकिन माओ के बाद चीन पर फिलहाल कुछ भी नहीं कहा है। मिसाल के लिए ब्रितानी पत्रकार और पण्डित डेविड सेलबोर्न ने ‘एन आई टू इण्डिया’ में इन्दिरा गाँधी के भारत की भरपूर निन्दा करने के बाद ‘एन आई टू चाइना’ नामक पुस्तक में उग्र माओवादी दौर में चीन की भाव-विह्वल स्तुति की थी। सेलबोर्न, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखते रहे हैं। लेकिन अब तक उन्होंने यह कहने की जरूरत नहीं समझी है कि जिस चीन में आज माओवाद की कट्टरता को उखाड़ फेंका जा रहा है उसके बारे में उनका क्या ख्याल है।
संक्षेप में यह कि मैंने चीन-यात्रा ऐसे समय में की जब कि यह पहेलीनुमा देश आर्थिक, राजनीतिक संक्रमण के दौर में था और उसके विषय में सचमुच कुल मिलाकर पहले से अधिक बढ़ चला था। उसकी पहचान के लिए माओ के चीन में प्रशंसकों-निन्दकों की पोथियाँ नामाफी हो चली थीं और यह भी तय नहीं था (न अब तक है) कि माओ के बाद का चीन ‘आधुनिकता’ की साधना में पश्चिम देशों-जैसा हो जाएगा, कि स्तालिन के बाद का सोवियत संघ-जैसा ?
और तो और हम भारतीय पत्रकारों के लिए, जो तत्कालीन विदेश मन्त्री बाजपेयी के साथ चीन गए थे यह अनुमान कर सकना भी मुश्किल था कि क्या माओत्तर चीन सचमुच भारत से फिर भाई-भाई का नाता कायम करना चाहता है ? श्रीमती गाँधी के शासन काल से ही सम्बन्धों को सामान्य करने की जो प्रक्रिया शुरू हुई थी क्या वह इस यात्रा से जोर पकड़ेगी ?
यह कहना भले ही ठीक है कि नेहरू ‘चीनी खतरे’ से बेखबर नहीं थे और न ही वह किसी रूमानी पूर्वाग्रह से त्रस्त थे, पर इसका यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि इस ‘समझदारी’ में भारतीय राजनयिकों की उल्लेखनीय भूमिका थी। उन्हें नए चीन में भारत की आँख-कान बनना था। माना कि काम कठिन था पर जरा देखें कि इनमें से अधिकांश ने किया क्या ?
श्री के.पी. मेनन युद्धकाल में ही औपनिवेशिक सरकार द्वारा ‘एजेण्ट जनरल’ बनाकर पीकिंग भेजे गए थे। वह पाणिक्कर की नियुक्ति तक चीन में भारत के राजदूत रहे। उन्होंने अपने कार्यकाल का एक बड़ा हिस्सा बिताया गोभी के रेगिस्तान को पैदल नापते। इस घुमक्कड़ी से पता नहीं कुछ रोचक संस्मरणों के अलावा उन्हें या देश को क्या हासिल हआ ?
पाणिक्कर पारम्परिक-शैली के राजसी राजनयिक थे। सुसंस्कृत-सुरुचिपूर्ण-बौद्धिक-भद्रपुरुष थे। उन्होंने अपनी आत्मकथा में विस्तार से इस बात का वर्णन किया है कि कैसे गृहयुद्ध चीन में संस्कृत नाटकों का मलयालम में अनुवाद कर वे अपने को व्यस्त रखते थे। ठाले-बैठे (अधिकतर पश्चिमी) राजनयिकों के मनोरंजन के लिए एक ‘ताश क्लब’ भी उन्होंने चलाया। उनके शिकवे-शिकायतें इस तरह के भी मिलते हैं कि क्रान्ति के बाद चीन में नौकर कितने महँगे और सरचढ़े हो गए थे। ऐसे मिजाज वाले राजदूत को देखकर यदि चीनी भारत को सामन्ती बेड़ियों में जकड़ा ही समझते रहे तो उन्हें ज्यादा दोष नहीं दिया जा सकता।
मेनन और पाणिक्कर के कार्यकाल में जो ‘तेजस्वी’ होनहार युवा राजनयिक चीन में कार्यरत थे उनके पराक्रम भी कुछ विचित्र नहीं। प्रोफेसर जयन्तनुज बन्द्योपाध्याय ने (जो स्वयं राजनयिक रह चुके हैं) अपनी पुस्तक में वह प्रसंग दिया है जब श्री इन्द्रजीत बहादुर सिंह ने चाऊ-एन-लाई की ‘राजनयिक’ चुनौती माओ ताई (चावल की शराब) पीने के मोर्चे पर स्वीकर की थी और उन्हें ‘चित्त’ कर दिया था।
इसी तरह की अपनी उपलब्धि का सगर्व वर्णन श्री टी.एन. कौल ने अपनी जीवनी ‘डिप्लोमेसी इन पीस एण्ड वार’ में किया है जब उन्होंने एक बार राष्ट्रहित में अपना जिगर जलाते 18 प्याले गटक लिए थे। पता नहीं वैसे यह यथार्थवादी-अनुभवी राजनयिक यह समझ रहे थे कि अतिशय शिष्टाचारी-सामन्ती-औपनिवेशिक शैली अपनाना क्रान्तिकारी चीन में काम का सिद्ध होगा। इस तरह के सहयोगियों से पते की बात कैसे मालूम हो सकती थी।
कृष्ण मेनन ने माइकेल ब्रेचर के साथ जो लम्बी बातचीत की उसके प्रकाशन से भी यही पता चलता है कि भारत और चीन के संस्कार और शैली के टकराव ने निश्चय ही विवाद को विकट बनाया था। कृष्ण मेनन ने यह बात बेहिचक स्वीकार की कि नेहरू और वे (स्वयं) अंग्रेजों-अमरीकियों के साथ बात करना सहज पाते थे। चाऊ एन लाई को वे सुलझा हुआ, संसदीय प्रणाली में निष्ठा रखने वाला उदारपन्थी/मध्यमार्गी समझते थे। पता नहीं चीनी गृहयुद्ध क्रान्ति के इतिहास से सुपरिचित होने के बाद भी किस आधार पर उन्होंनें ऐसी मान्यता बनाई थी।
चीन के बारे में आधी-अधूरी जानकारी के लिए सिर्फ राजनेता, नौकरशाह, राजनयिक ही जिम्मेदार नहीं। इस बात से कतराना कठिन है कि बौद्धिक विशेषज्ञ बिरादरी ने भी देश को निराश ही किया है। इस संदर्भ में नेहरू युग के अनुभव की याद ताजा रखना भी सार्थक है और भविष्य के लिए उपयोगी।
‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ वाले वर्षों में बड़े पैमाने पर शिष्टमण्डलों, विद्वानों-छात्रों का आदान-प्रदान हुआ। इनमें से कुछ ने उल्लेखनीय विशेषज्ञता भी हासिल की। पर भारत-चीन सम्बन्धों में तनाव बढ़ने के साथ ही रातोंरात यह चीन के मित्र देशद्रोही के रूप में पूछे जाने लगे। कुछ ने चुप्पी साध ली, कुछ ने जान बचाने, या ऊपर उठकर आगे बढ़ने को सरकार का दामन थाम लिया। सरकारी गोपनीयता के अनुष्ठान ने बची-खुची कसर पूरी कर दी। दुभाषिए विदेश मन्त्रालय में जा दुबके और अनुवादक सैनिक विद्यालयों में। 1962 के बाद चीनी-पत्रिकाओं के पढ़ने पर रोक लगा दी गई और इस तरह चीन विद्या विशारदों की एक पूरी पीढ़ी निकम्मी बना दी गई।
1962 के बाद लगभग एक दशक तक अमरीकियों को यह लगता रहा कि उनके चीन विषयक सामरिक हितों का संयोग भारत के साथ हो रहा है। इस दौरान भारतीय चीन विशारदों की एक नई पौध तैयार की गई। फोर्ड निधि को उदारता से इनकी विधिवत् दीक्षा केलिफोर्निया आदि में हुई। अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग से स्थापित ‘चीन अध्ययन’ विभागों में ऐसे कोई आधा दर्जन लोग आज प्रतिष्ठित हैं। इस बात को प्रमाणित करने के लिए विशेष श्रम की आवश्यकता नहीं कि अधिकतर इनका ‘विश्लेषण’ अपने अमरीकी सहकर्मियों की रुचियों-रुझानों और स्थापनाओं को ही प्रतिबिम्बित करता है।
चीन के बारे में जानकारियों, चीन विषयक प्रकाशकों, विदेश भ्रमण आदि के लिए अमेरिकी सेतु की उपयोगिता बनाए रखना ही इनमें से अधिकांश को राष्ट्रहित नजर आता है। कुछ को यह भी लगता है कि जब तक भारत-चीन सम्बन्ध तनावपूर्ण रहते हैं, तभी तक इनकी पूछ होगी। निश्चय ही भारत-चीन विवाद का निबटारा इन ‘पण्डितों’ के शोधपूर्ण कृपाकटाक्षों या इनके स्वयं प्रचारित ‘शिखर-राजनय’ पर निर्भर नहीं तथापि ठकुर-सुहाती कहने-सुनने का लालच और विषय को अनावश्यक रूप से दुरूह-गहन बनाना सिर्फ घातक भ्रांतियों को ही पनपा सकता है।
भारत-चीन सम्बन्ध के ‘सामान्यीकरण’ का राजनयिक अभियान आरम्भ हुए लगभग 10 वर्ष बीत चुके हैं। हानि-लाभ, समस्याओं-सम्भावनाओं का लेखा-जोखा तैयार करने का समय कब का हो चुका है। नेहरू के कार्यकाल के 18 वर्षों में मैत्री और शत्रुता वाले काल खण्ड लगभग बराबर रहे थे। उसके बाद एक युग (12 वर्ष) सम्बन्ध-विच्छेद, बेरुखी का चला। यदि इस स्थिति को बदलना जरूरी समझा गया तो क्यों और इसके क्या परिणाम हुए और हो सकते हैं ? राष्ट्रहित में यही होगा कि अतीत के बोझ, ‘कटु यादों’ को उतार फेंका जाए और भारत-चीन विवाद-संवाद के बारे में देशी नजरिये से ठण्डे दिमाग से सोचना शुरू किया जाए।
इसमें जिम्मेदार नागरिकों की भूमिका तथाकथित विशेषज्ञों से कम महत्त्वपूर्ण नहीं।
लगभग 4 दशकों में फैले पं. जवाहरलाल नेहरू के सार्वजनिक जीवन की कोई और घटना इतना सालने वाली नहीं, जितनी भारत-चीन सीमा विवाद और 1962 में सैनिक मुठभेड़ में इसकी दुखद परिणति। अनेक विद्वानों का मानना है कि इस बात से नेहरू का नादान भोलापन ही नहीं पता चलता, बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में आदर्शवाद की निरर्थकता भी उजागर होती है। आज तक घाव छूने पर दर्द करता है। कुछ वर्ष पहले वियतनाम पर हमला करते वक्त चीनियों ने यह घोषणा की थी कि ‘दण्डानुशासन वाली कार्यवाही’ 1962 के नमूने पर ही की जा रही थी। इस तरह के वक्तव्यों को सुना-अनसुना करना असम्भव है।
अर्थात् बीस साल बाद भी ‘संघर्ष’ के विश्लेषण की सार्थकता की संगति बची हुई है।
दुर्भाग्यवश युद्धकाल में अन्ध देशभक्ति का जो बुखार चढ़ता है उसे उतारने में देर लगती है। आज तक भारत-चीन सीमा विवाद का जिक्र होने पर कुछ लोगों के तेवर ‘1962 के अपराधी’ ढूँढ़ने वाले होते हैं। एक और विडम्बना की ओर ध्यान दिलाना भी आवश्यक है अधिकांश आलोचकों को लगता है कि भारत-चीन मनमुटाव के घातक विस्फोटक की जिम्मेदारी सिर्फ नेहरू की थी—आखिर, कृष्ण मेनन और सरदार पाणिक्कर जैसे सलाहकार उन्हीं के विश्वासपात्र थे।
पंचशील का सपना किसने सच समझा था भला ? चीनी नेताओं के साथ व्यक्तिगत मैत्री के रुमानी शिकंजे में फँस बरसों मुग्ध-संतुष्ट और कौन रहा था ? पर साथ ही ऐसा मानने वालों की संख्या भी कम नहीं जो टिप्पड़ी करते हैं कि भारत-चीन विवाद सिर्फ नेहरू की ‘भोली-भलमनसाहत) या ‘नादान-नासमझी’ या आत्मघाती अहिंसा से उपजा भड़का था। इनका कहना है कि नेहरू का अहंकार, सीमान्त के हमले में उनका ब्रिटिश औपनिवेशिक रवैया, कथनी और करनी में अन्तर ही अलगाव और अन्ततः शत्रुता पैदा करने को काफी थे। मैक्सवेल और लोर्न काविक जैसे लोगों को नेहरू शान्ति दूत नहीं मक्कार लगते हैं।
‘टकराव’ का रास्ता मानो उन्होंने स्वयं चुना था और बेचारे चीनी मुँहतोड़ जवाब देने को विवश हो रहे हों जैसे बात आगे बढ़ाने से पहले इन भ्रांतियों से मुक्त होना आवश्यक है। 1962 के बाद ‘सफाइयों’ व बचाव पक्ष की दलीलों के नमूने पर बड़े पैमाने पर आत्मकथाओं का प्रकाशन हुआ था। इनमें जनरल कौल की ‘माई इयर्स विद नेहरू : दि चायनीज बिट्रेयल’ विशेषरूप से उल्लेखनीय है। पर इनमें उपलब्ध जानकारी को ‘प्रामाणिक’ सिद्ध करना कठिन है।
मोर्चे पर (उसके पहले भी) जनरल कौल का आचरण विवादास्पद रहा और तिलक के ऊपर यह आरोप लगाया जा सकता है कि उनके विभाग की लापरवाही-असफलता ने ही सेना की तैयारी को कमजोर किया था। चूक के बाद अपनी होशियारी और दूसरों की कमियाँ-गल्तियाँ दर्शाने का लालच ये लोग नहीं छोड़ पाए हैं। जनरल निरंजन सिंह, सुखवंत सिंह, आदि की पुस्तकें 1962 के दुःस्वप्न पर नई रोशनी जरूर डालती हैं पर हमारी समझ में उनका मूल विषय सैनिक इतिहास-रण संचालन—समर नीति है। मामले की तह तक पहुँचने के लिए हमें मैक्सवेल और काविक द्वारा जुटाई सामग्री उपयोगी सिद्ध होती है। ‘इण्डियाज चाइना वार’ और ‘क्वेस्ट फार सीक्यूरेटी’ में प्रकाशित दस्तावेजों की प्रामाणिकता पर किसी भी छिद्रान्वेषी ने आज तक प्रश्नचिह्न नहीं लगाए हैं।
अगर और गहरे पर बैठना हो तो डॉ. गोपाल द्वारा सम्पादित नेहरू के चुनिन्दा कृत्तित्व संकलन और 1962 के पहले प्रकाशित सरदार पाणिक्कर के संस्मरणों से उस स्थापना की पुष्टि की जा सकती है, जिसे यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
पहली बात तो यह है कि नेहरू को सीमा-विवाद का जनक मानना निपट मूर्खता है। यदि हजारों मील लम्बे दुर्गम हिमालयी सीमान्त में औपनिवेशिक शासक, स्थानीय प्रशासक सीमा रेखांकन, हदबन्दी नहीं कर सके थे तो पलक झपकते आजाद भारत के प्रधानमंत्री से इस उपलब्धि की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए थी। यह कहना गलत है कि इस मामले में नेहरू ने देशवासियों को अंधकार में रखा था या उन्हें कुछ पता ही नहीं लगने दिया था।
पं. हृदयनाथ कुंजरू, डॉ. राममनोहर लोहिया जैसे विदेशनीति में रुचि रखने वाले प्रखर सांसद-राजनेता आँखें मूँद कर मुँह खोलने वाले लोग नहीं थे। कांग्रेस पार्टी में ही पं. पन्त मोरारजी देसाई जैसे महारथी विद्यमान थे जिनका दक्षिणपन्थी-साम्यवाद-विरोधी नहीं तो उन्हें शक की नजर से देखने वाला रुझान प्रभावशाली था। सरदार पटेल ने नवम्बर 1950 में ही एक लम्बे नोट द्वारा नेहरू को चीनी खतरे के प्रति आगाह करते हुए लिखा था कि चीनी साम्यवादी बनने के बाद और भी त्रासद साम्राज्यवादी साबित हो सकते हैं। ‘नए चीन’ में पहले भारतीय राजदूत पाणिक्कर ने भी यह बात महसूस कर ली थी कि चीनी नेता अपने को ही ‘चौधरी’ समझते हैं दूसरों को छुटभैया।
यह अन्दाज उनके बर्ताव में झलकता रहता था। 1950 में तिब्बत को मुक्त कराने वाली चीनी सैनिक कार्यवाही के बाद इस विषय में किसी तरह का भरम पालने की गुंजाइश नहीं रह गई थी। 1957-58 में सीमान्ती गश्ती दस्तों के बीच जो जानलेवा मुठभेड़ें हुईं वे भारत की अग्रगामी नीति का नतीजा बताईं जा रही हैं। पर इससे यह निष्कर्ष कैसे निकाला जा सकता है कि भड़काने वाली पहल नेहरू ने की थी। हाँ यह अवश्य प्रकट होता है कि नेहरू हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे थे। अग्रगामी नीति बदले परिवेश में, औपनिवेशवादी-विस्तारोन्मुख नहीं प्रतीक्षात्मक थी। सरहद पर सजग रहे बिना घुसपैठ को नहीं रोका जा सकता था, न अनधिकृत कब्जे को।
यह नुक्ताचीनी भी संगत नहीं ‘तब शुरू से ही जुझारू तेवर क्यों नहीं अपनाए गए ? चीन को 1950 में ही चुनौती क्यों नहीं दी गई ? आखिर खाली खम ठोंकने से, ललकारने से क्या हासिल हो सकता था जब देश का रक्त रंजित विभाजन और काश्मीरी मोर्चे पर युद्ध, शरणार्थियों की पुनःस्थापना, साम्प्रदायिक सद्भाव का सृजन, देश का एकीकरण (रियासतों-रजवाड़ों के विलय के बाद), संविधान निर्माण, आम चुनाव की नींव पर जनतन्त्र का शिलान्यास और दरिद्रता से पिण्ड छुड़ाने के लिए परमावश्यक था। यदि चीन के साथ टकराव को टालने, विवाद को शान्तिपूर्ण परामर्श से निबटाने का प्रयत्न किया गया तो इसे दूरदर्शिता ही समझा जाना चाहिए। साथ ही साथ यदि सैन्य शक्ति बढ़ाने का अभियान जारी रहा तो इसे समझदारी ही कहा जा सकता है, पाखण्ड नहीं।
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विश्व की पहली ट्रांसजेंडर प्रधानाचार्या ,बंगाल ट्रांसजेंडर सेल की प्रमुख, ट्रांसजेंडर पर पहला शोध देने वाली , अबोमनोब (शुभुमन) पहली बंगला ट्रांसजेंडर पत्रिका की सम्पादिका, A Gift of goddess Lakshmi की लेखिका मानोबी बंद्योपाध्याय के साथ एक बहुत शोधपूर्ण साक्षात्कार लिया है प्रियंका कुमारी नारायण ने. प्रियंका बीएचयू की शोध छात्रा हैं. यह साक्षात्कार उनकी पुस्तक ‘किन्नर : सेक्स और सामाजिक स्वीकार्यता’ का हिस्सा है- मॉडरेटर
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– देखिए कोई बोल रहा है ‘सेक्स पॉलिटिक्स’, कोई बोल रहा है ‘जेंडर पॉलिटिक्स’ | जिन्हें ‘सेक्स’ बोलने में हिचक है वो ‘जेंडर पॉलिटिक्स’ बोल कर निकल लेते हैं लेकिन मेरा मानना है दोनों एक ही है | आपके बनारस में ही देखिए न, सुबह से गंगा स्नान करते हैं और हिन्दू विधवाओं को जगह देने के नाम पर क्या होता है ? दीपा मेहता ने जब वाटर फ़िल्म बनाई तो हंगामा होने लगा लेकिन यह कितना क्रूर है | वहाँ वेश्यावृत्ति कराते हैं | अगर हम बोलेंगे तो कहेंगे अरे बाप ! हिजड़ा लोग तो सेक्स भी देखते हैं | इस सब में पुरोहित और समाज के वो भद्र लोग हैं जो समाज में सफ़ेद ज़िन्दगी जीते हैं | उन भद्र संयमित लोगों को कभी सेक्स कि जरूरत नहीं होती लेकिन बच्चा पैदा हो जाता है | उनके अनुसार ये तो भगवान ने दिया है लेकिन ये भगवान ने नहीं दिया न ये तो रात दिया | रात बाकी बात बाकी …ऐसा ही है | मेरा एक ट्रांसजेंडर दोस्त है जो बिहार में नाचता है वो हमेशा कहता है तुम क्या बनना चाहते हो ..भद्रलोक बनना चाहते हो लेकिन जानते हो इनके बीच क्या चलता है …दिन में भैया रात में सैंया | पॉलिटिक्स तो है ही सब पॉलिटिक्स है लेकिन ये समाज का पॉलिटिक्स है ,भद्र लोगों का , राजनेताओं का पॉलिटिक्स है | मैं इस पर क्या बोलूँ लेकिन मैं राजनीति नहीं बल्कि कार्यनीति में हूँ |
५. सेक्स अपने आप में एक बेहतरीन अनुभव है और यह बायोलॉजिकली भी शरीर के लिए जरूरी है | भारत में कामसूत्र , खजुराहो में इसे जीवन एक कला के रूप में दर्शाया गया है लेकिन हम अपने समाज में कभी भी इसे एक सामान्य ‘शारीरिक प्रक्रिया’ के रूप में नहीं स्वीकार कर पाते हैं और उसमें भी कोई लड़की या महिला इसके लिए बात करे तो यह शर्मनाक माना जाता है | आज बलात्कार की घटना बढ़ती जा रही है | आप क्या कहेंगी जबकि आपको खुद भी “मेन स्टैकर” और “सेक्स मैनियक” कहा गया ?
– देखिए हिम्मत करनी पड़ेगी | तस्लीमा नसरीन को देखिए | जिन वजहों से भी उन पर फतवा जारी किया गया , बांग्लादेश से निकाल दिया गया लेकिन वो फ्रांस जाकर रह रही थी| लडकियां ख़ुद बात नहीं कर पाती हैं | उन्हें हिम्मत जुटानी होगी | जब द्रौपदी महाकाव्यों में बोल रही है कि अर्जुन के साथ उसे कैसा लगता है ,युधिष्ठिर के साथ कैसा लगता है ,भीम कैसा लगता है …लेकिन जब महाकाव्यों में बोला जाता है तब वह संगम हो जाता है और सामान्य लोगों में आता है तब इसे गंदगी के रूप में लेते हैं ,कुछ ‘सेक्स मेनियक’ हैं वो सही नहीं है ,पतिता होना अलग है, लेकिन इसे गंदगी मानना सही नहीं है | ट्रांसजेंडर के साथ तो इसे और गलत तरीके से लिया जाता है | सेक्स वंश आगे बढ़ाने के लिए शुरू किया गया | हाँ ,ट्रांसजेंडर के साथ वंश वाली बात में समस्या है, वो अलग बात है , लेकिन इसमें विकृति सही नहीं है | सेक्स का इस्तेमाल बिल्कुल गलत दृष्टि से होता है | वात्स्यायन के यहाँ यह दर्शन है | और समाज सिर्फ बायोलॉजिकल को लेता है , यह सही नहीं है ,उसमें प्रेम और रोमांस होना जरूरी है | इन सब से ऊपर जाने के लिये मस्तिष्क को विकसित करने वाली शिक्षा होनी चाहिए तब ही हम निश्चित कर पाएंगे सही क्या है गलत क्या है |मैं तो ख़ुद विवेकानंद को मानती हूँ और उनके कर्मयोग और ज्ञानयोग में विश्वास करती हूँ लेकिन सेक्स को गलत नहीं मानती हूँ |
६ . बंगाल में तो काफ़ी ख़ुलापन है शायद देवी पूजन की अलग परम्परा के कारण लेकिन जैसे जैसे आप हिन्दी पट्टी की ओर बढ़ती हैं , ख़ासकर उत्तरप्रदेश , बिहार , मध्य प्रदेश, सेक्स को पुरुषों के द्वारा एक “टूल” के रूप में इस्तेमाल किया जाता है |स्त्रियों को मानसिक और शारीरिक दोनों ही स्तर पर हैरेस करने की कोशिश की जाती है | अभी भी वहाँ स्त्रियाँ मानसिक और शारीरिक रूप से स्वतंत्र नहीं है ,आप क्या कहेंगी ?
आप विदेशों में चले जाइये वहाँ स्वस्थ संबंध होता है | लेकिन ये प्रदेश पुरुष तंत्रात्मक है | वे एक स्त्री से संतुष्ट नहीं होते | उनकी कुलीनता और पुरुष होने की परिभाषा ही यही है | अन्नपूर्णा का विग्रह देखिए वो अन्न डालती हैं | पुरुष ऐसे ही है | खाने के समय और भूख के समय ही स्त्री के पास आते हैं | लेकिन लड़कियों को ख़ुद ही हिम्मत करनी होगी, लड़ना होगा, आगे आना होगा | जब तक वो ख़ुद पारम्परिक शिक्षा से हटकर अपने अधिकारों को नहीं जानेंगी कुछ नहीं होगा | लड़कियां भी आँचल में चाभी बांध कर खुश हो जाती हैं | उन्हें इस तरह के सोच से बाहर निकलना होगा | कह सकते हैं विपरीत से महिला तंत्र भी चल रहा है जो लडकियों के पैर खींचती हैं ,उन्हें भी सही से लड़कियों का सहयोग करना चाहिये | सब कुछ उनके अपनी ताकत को विकसित करने और समझने पर है |
७ .”A gift of goddess lakshmi “की लेखिका हमेशा समाज कि जबर्दस्त आलोचना का शिकार होती है | हमेशा कोर्ट रूम में आना जाना लगा रहता है और वो आपको कहते हैं –“झारग्राम का प्रसिद्ध हिजड़ा प्रोफेसर जो साड़ी पहनने का नाटक करती है और जिसका पेनिस साये के अन्दर छुपा है और औरत बनी फिरती हैं |” आपको “सेक्स मनियक” और “मेन स्टैकर” तक कहा गया | एक स्वतंत्र देश में एक अच्छे खासे शिक्षित प्रोफ़ेसर को जेंडर के स्तर पर इस तरह की प्रताड़ना झेलनी पड़ी ,ऐसे में आपके लिए “स्वतंत्रता” और “लोकतंत्र” के क्या मायने हैं ?
– देखिए ‘स्वतंत्रता’ और ‘लोकतन्त्र’ ये सब एक मिथ है हमारे लिए | हम एक वृत्त में हैं सीता की तरह जैसे सीता घेरे से बाहर निकली और रावण लेकर चला गया वैसे ही हम निर्वासित हैं और अपने घेरे में रहने को मजबूर हैं | इससे बाहर हमारे लिए बहुत जगह नहीं है | हाँ अपने घेरे में हम राजा – रानी हैं | अगर लोकतंत्र और आज़ादी की बात कर रहे हैं तो लडकियाँ इतनी परेशान क्यों हैं ? ट्रांसजेंडर इतने परेशान क्यों हैं ? बलात्कार पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा हैं | आपकी इतनी बड़ी जनसंख्या प्रताड़ित है | असल में डेमोक्रेसी राजनेताओं का मुखौटा है | वो बतंगड़ ,बातेला है , रुपक है | ‘सदा सत्य बोलो | माता – पिता कि सेवा करो | सत्यमेव जयते | सब लिखने बोलने की बातें हैं | मानता कौन है ??
८ .यानी आपके लिए आज़ादी नहीं है ?
-रवीन्द्रनाथ का एक गाना है जिसमें कहा गया हम ख़ुद ही राजा है | ये हमारा आत्मविश्वास है | हाँ जिस दिन हमें स्वीकार कर लिया जायेगा तब हम मानेंगे कि हम स्वतंत्र हैं ,आजाद हैं |
९ . यानी अभी आप आजाद नहीं मानती ख़ुद को ?
नहीं |
१०. जब आपके ऊपर अरिन्दम (अभिजीत –यह नाम बायोग्राफी में नहीं है ) का केस चल रहा था और उस समय आपको यह जाँच कराना पड़ा कि सर्जरी के बाद आपका वेजीना पेनीट्रेशन और सेक्स के लायक है या नहीं और डॉक्टर्स और नर्स की भीड़, कैसा लग रहा था आपको ? कितना अपमानजनक था यह सब जबकि एक भीड़ आपके जेनिटल का निर्णय ले रही थी ?
– हाँ , जब यह सब सामने आ रहा था कि ‘पेनिट्रेट’ होता है या नहीं ,इन्टरकोर्स होता है कि नहीं ,मेरी हालत ख़राब हो गयी | मैं दिन – रात रोती थी | मैं नींद की गोलियां लेने लगी | मुझे होमोसेक्सुअल कहा जाने लगा | लेकिन मैं बस पत्नी बनना चाहती थी और प्रेम चाहती थी | लेकिन सब मुझे धोखा देते रहे |
११. आप अरिन्दम से बहुत प्यार करती थी और कमिटेड होना चाहती थी और यह आपके बचपने का प्रेम भी नहीं था, एक परिपक्व प्रेम था बावजूद ऐसा हुआ ?
– हाँ ! बस मैं प्रेम और परिवार चाहती थी केवल सेक्स नहीं लेकिन बदले में मुझे कोर्टरूम और तरह – तरह के डूब मरने वाले जाँच से गुजरना पडा सिर्फ अपनी सेक्सुअलिटी को प्रूव करने के लिए | मैं तो लड़कियों से बदतर रही |लगता था यह ज़िन्दगी क्यों मिली | मुझे होमोसेक्सुअल बोला गया ,मुझे गाली लगता था | हालाकि होमोसेक्सुअल की लड़ाई को मैं समर्थन देती हूँ लेकिन मैं ख़ुद होमोसेक्सुअल नहीं हूँ | मैं आत्मा से,दिल से लड़की हूँ, औरत हूँ |
१२. इसके ठीक बाद आप लिखती हैं कि डॉक्टर्स की टीम अवाक् थी कि उन्होंने क्या देखा है ? वे आपके ब्रेस्ट ,निप्पल और वेजिना सब जाँच रहे थे और स्तब्ध थे ,क्या लगा उस समय आपको जबकि उससे पहले एक मनोवैज्ञानिक ने आपका प्रेम संबंध ही बिखेर दिया था आपको बीमार घोषित करके ?
– हाँ ,ओल्ड स्कूल के डॉक्टर बहुत अलग हैं | वे बहुत पुरानी सोच रखते हैं लेकिन नये डॉक्टर अब ऐसी सोच नहीं रखते | वे बहुत अलग हैं | आज उनकी वजह से ही मैं अपनी ज़िन्दगी जी रही हूँ | हालाकि अभी भी पहले साइकि टेस्ट से गुज़रना पड़ता है उसके बाद हार्मोनल ट्रीटमेंट होता है | कुछ तो अभी भी पागल मानते हैं ,लेकिन ऐसा नहीं है | असल में वो मुख्य धारा के हैं जल्दी नहीं समझते | वो भी सोचते हैं कि इतना अच्छा पुरुष जीवन और शरीर है तुम स्त्री क्यों बनाना चाहते हो ?
१३. जब भी आप इस तरह के अपमान से गुजरती हैं आपकी एक्सैक्ट फीलिंग क्या होती है ?
– अरे फीलिंग को मत पूछिए,दिन – रात रोती रही हूँ | बस लगता है आज खुदखुशी कर लूं | कहाँ जाऊं | यहाँ तक कि लोग भी रास्ता देखते हैं कि मैं कब सुसाईड कर रही हूँ ? मेरे डॉक्टर को भी फ़ोन करके कहते हैं कि मैं मर गयी हूँ | अफ़वाह उड़ाते हैं मुझे लेकर | डॉक्टर फ़ोन करके पूछते हैं कि तुम ठीक तो हो !! हर रोज वो मेरे साथ इतना ख़राब व्यवहार करते हैं कि मैं दिमागी रूप से कमज़ोर पड़ कर आत्महत्या कर लूँ | मेरे प्रिंसिपल बनने से भी वो खुश नहीं हैं | कभी मुझ पर मार- पीट का आरोप लगाते हैं कभी कुछ का |
१४. लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी भी कुछ ऐसा ही कहती हैं ?
– हाँ ,लेकिन वो मुख्य धारा का काम नहीं करती,सरकार का काम नहीं करती इसलिए उनकी समस्याएँ अलग हो सकती है ,मेरी बहुत अलग | मुझे एक चपरासी से भी सुनना पड़ जाता है | मुझे सीधे मध्यवर्गीय जड़ताओं और मूल्यों से टकराना पड़ता है | इन्हें झेलना सामान्य लड़कियों के लिए मुश्किल है ,मैं तो बहुत अलग हूँ आपके समाज में |
१५ . आप मंजूश्री चाकी (नृत्यांगना) के साथ भी थी | वहां आप कई ट्रांसजेंडर से मिलती हैं लेकिन वे अपना ‘ जेंडर ओरिएंटेशन’ सामने नहीं आने देना चाहते | अपने ‘एक्सप्रेशन’ को नृत्य में छुपा ले जाना चाहते हैं फिर वे किस तरह एक सामान्य ज़िन्दगी जिएंगे ? लेकिन ऐसे में उन्हें समाज में जगह कैसे मिलेगी | वे बाहर नहीं आयेंगे और अपनी लड़ाई लड़ेंगे,अपना जेंडर एक्सप्रेस नहीं करेंगे , हम उन तक पहुँच नहीं पाएंगे ?
देखिये जब आन्दोलन होता है तब शुरुआत में अकेले होते हैं | राजा राममोहन राय,विद्यासागर स्वामी विवेकानंद, ………टैगोर कहते हैं न कि जब तुम्हारा कोई न सुने तुम एकला चलो | बस एकला चलो फिर सब आ जायेंगे | लीडर अकेला ही लड़ता है फिर सब आ जाते हैं समय के साथ |
१६ . बटलर वर्ष १९९० में अपने प्रोजेक्ट ‘जेंडर ट्रबल’ में ट्रांसजेंडर को फेमिनिस्ट थ्योरी के अंतर्गत रखने कि वकालत करते हैं | उनके अनुसार यह ज्यादा आसान और स्वीकार्य होगा ट्रांसजेंडर को समाज में स्थान दिलाने में – आप क्या मानती हैं ?
वो भारत में बहुत मुश्किल है | महिलाएं ही ट्रांसजेंडर को स्वीकार नहीं कर पाएंगी | वो नहीं स्वीकार करेंगी |
आप क्या चाहती हैं ?
नहीं हो पायेगा | लड़कियां हमें गन्दा समझती हैं | हम साड़ी पहनती हैं लड़कियों को हमें देखकर शर्म आती है | वो नहीं समझती कि हम भी उन्हीं की तरह है | अलग तो हमें पहले से ही कर दिया गया है ठीक है अब थर्ड जेंडर आ गया है तो हम ख़ुद ही अलग हो गये हैं | अब हम पर निर्भर करता है कि हम क्या हैं ,क्या करेंगे, क्या पहनेंगे ?
१७. इन सबसे हटकर आप बेलूर मठ से दीक्षित हैं | स्वामी विवेकानंद को आप आदर्श मानती हैं | भारतीय परम्परा और स्वामी विवेकानंद से आपको क्या मिला ?
मैं विवेकानंद को बहुत मानती हूँ | उनके विचारों से मुझे लड़ने की ताकत मिलती है | मेरे जीवन को दिशा मिली उनके भाव आन्दोलन से | जब भी जीवन में अँधेरा हुआ उनके विचारों से दिशा मिली | मैं ज़िन्दा ही आज उनकी वजह से हूँ | मेरे जीवन के झंझावातों में बस वहीं सहयोगी रहे | यह कह सकने की बात नहीं है |
१८. और अंत में एक हिजड़ा को हिजड़ा कहना कितना सही है ?
बिल्कुल सही नहीं है | बहुत दुःख होता है | ट्रांसजेंडर ,थर्ड जेंडर नया टर्म है | लेकिन हाँ हिजड़ा शब्द तो निष्पाप था लेकिन इसका इस्तेमाल कर करके गाली बना दिया गया |
१९. तो क्या फिर से इसका इस्तेमाल कर करके इसे पवित्र नहीं बना देना चाहिये ?
– देखिए बिहार में छठ पूजा होता है ,हमें बहुत आदर के साथ बुला कर नचवाया जाता है लेकिन जैसे ही पूजा समाप्त होता है हमें हटाओ हटाओ कह कर हटा दिया जाता है | ऐसे ही सारे अवसरों पर होता है | शब्द में क्या है ,यह तो पवित्र ही है ,समाज ने इसे गाली बना दिया है फिर समाज ही इसे सुधार सकता है |
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