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रुस्तम की बारह कविताएँ

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रुस्तम जी की कविताओं का स्वर हिंदी की प्रचलित समकालीन कविता से भिन्न है. वे मूलतः दार्शनिक हैं और उनके लिए कविताएँ सोचने, विचार प्रकट करने का ही एक ढंग है. रुस्तम जी की विचार कविताओं में एक तरह की लयात्मकता है जो बहुत विरल गुण है. आज बहुत दिनों बाद जानकी पुल पर पढ़िए एक साथ उनकी बारह कविताएँ- मॉडरेटर

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गाय

एक गाय का चित्र खींचता हूँ। वह गली में रहती है, वहाँ जहाँ कचरे के ढेर हैं। दिन भर वहीँ मंडराती है। तुमने भी तो देखा होगा उसे ? कचरा जल रहा होता है। धुएँ और आग में भी वह थूथुन डाल देती है, भोजन का कोई टुकड़ा बचाने के लिए। क्या-क्या नहीं खा लेती वह ! कागज़ और प्लास्टिक की पन्नियाँ — ये भी उसका भोजन हैं। और भी बहुत सारी अपथ्य वस्तुएँ। उसकी आँखों में आशा नहीं है। देह भूखी-सूखी है। तब भी वह जुटी रहती है अपने जीवन को कुछ और आगे खींचने की कोशिश में। एक गाय का चित्र खींचता हूँ।

 

 

क्रोध से भरा है

क्रोध से भरा है
क्योंकि वह खरा है
जैसे किसी ज़माने में
खरा होता था नदियों, तालाबों और झीलों का पानी
और पशु-पक्षी आते थे उसे पीने
और नहाने उसमें,
सहज ही उतर जाते थे उसके प्रांगण में
उस पर भरोसा करते हुए
और फिर उसी सहजता से निकलकर चले जाते थे
उसे वैसा ही खरा छोड़कर।

ये एक गुज़रे हुए ज़माने की बातें हैं।
उसे याद करने वाले भी बस कुछ ही बचे हैं
और जल्द ही वे भी चले जायेंगे
उसी के साथ जो अब
क्रोध से भरा है
और ठगा-सा खड़ा है।

 

 

एक दफ़्तर के बरामदे में

एक दफ़्तर के बरामदे में
सीढ़ियों के आगे
भला वह जानवर खड़ा था।
निश्चित ही वह स्वस्थ नहीं था
और अन्दर से सड़ रहा था
क्योंकि वह स्थान उसकी सड़ान्ध से भरा था।
वह शान्त था, चुप था, पर उसकी आँखों में अदृश्य एक पीड़ा थी
जो चोखी और घनी थी और जिसे मैंने भाँप लिया था।
यह स्पष्ट नहीं था कि कब तक उसे उस पीड़ा को सहना था,
कब उसका अन्त होना था,
कब उसे ढहना था।
मैं बरसों से स्वयं को रोक रहा था,
लेकिन उस क्षण
मैंने पहली बार
प्रकृति को श्राप दिया
जिसने जीवन को जन्म दिया था।

 

 

पेड़ कट गया

पेड़ कट गया।
जबकि मैं अब भी ज़िन्दा हूँ।

मेरी तरह
वह भी एक प्राणी था,
उसकी रगों में भी लहू दौड़ता था।

वह तब भी कट गया।

वह एक बूढ़ा पेड़ था,
लगभग एक ठूँठ।
वह ज़रा भी छाया नहीं देता था।
कोई पक्षी उस पर घोंसला नहीं बनाता था,
न ही रात को आकर कोई उस पर सोता था।

सब प्राणियों ने उसे अकेला छोड़ दिया था।

पर था तो वह एक पेड़ ही
जिसमें अभी जान थी।

उसे काट दिया गया।
वे खींचकर ले गये उसे।
जबकि मैं अब भी ज़िन्दा हूँ।

यह कितना विचित्र है कि एक बूढ़े पेड़ को सरेआम काट दिया गया
और किसी ने भी उस हत्या का विरोध नहीं किया।

 

 

रात के नौ का समय था

रात के नौ का समय था।
शहर बत्तियों से चमचमा रहा था।
गाड़ियाँ आ रही थीं, गाड़ियाँ जा रही थीं,
गाड़ियाँ रुक रही थीं, थम रही थीं,
चिल्ल-पौं मचा रही थीं।
सड़कों पर
उनमें से
निकलने वाला धुआँ
भरा था।
और मैंने देखा कि
इस सब के बीचों-बीच
ऐन चौराहे पर
अकेला एक जानवर खड़ा था —

मनुष्यों की
भद्दी दुनिया में
सहमा हुआ एक जानवर
जिसकी आँखों में
रह-रहकर
रोशनी पड़ रही थी
और उनमें
ज़रा भी
चमक नहीं थी।

 

 

वे बाहर से हमें देख रहे थे

वे बाहर से हमें देख रहे थे।
हम एक चमचमाते हुए रेस्तराँ में थे
जिसके दरवाज़े काँच के थे।

हम दूर से
टहलते हुए से
उनकी ओर बढ़े थे।

वे तब भी हमें देख रहे थे

और तब भी जब हम
रेस्तराँ में घुसे।

हम सोफे पर बैठ गये।
हमने चाय और ठण्डी कॉफी के लिए कहा।
फिर हम अपनी पुस्तकें निकालकर पढ़ने लगे।

वे एक छोटे-से ट्रक के यात्री थे जो थोड़ी देर के लिए वहाँ रुका था,
वहाँ सड़क के किनारे।
ट्रक धूल से भरा था।

वे बाहर से ही हमें देख रहे थे, लगातार देख रहे थे।

उनसे आँख मिलाऊँ, यह माद्दा मुझमें नहीं था।

 

 

मेरे पिता की तस्वीर

मेरे पिता की तस्वीर आज कुछ कागजों में मिली।
यह उनकी एकमात्र तस्वीर है जो बची है।

पिता को तस्वीरें पसन्द नहीं थीं।
वे सभी निजी तस्वीरों को फाड़कर फेंक देते थे।
हमारे बचपन की जो थोड़ी-सी तस्वीरें थीं वे भी इसी तरह ही गयीं।

तस्वीरें ही नहीं, वे घर की अन्य चीजें भी उठाकर ग़ायब कर देते थे।
उन्हें चीजों की भरमार अच्छी नहीं लगती थी।

उनके सारे कपड़े एक छोटे, काले ट्रंक में समा जाते थे।
वे छोटा-सा एक रेडियो भी रखते थे,
बढ़िया पेनों के शौकीन थे,
उर्दू का अख़बार पढ़ते थे।

उनकी बदौलत हमारा घर हल्का रहता था।

उनकी यह तस्वीर मैंने एक एलबम में रख ली है।
मेरे जाने के बाद इसे कोई नहीं देखेगा।

 

 

दवंगरा रोज़ एक कुत्ते को कुछ खिलाती है

दवंगरा रोज़ एक छोटे, मरियल कुत्ते को कुछ खिलाती है,
शाम को जब वह दफ़्तर से लौटती है।

वह अकेला ही होता है — मैंने कभी उसको अन्य कुत्तों के साथ नहीं देखा।

शुरू में वह उससे डरता था, उससे परे भागता था, तब भी जब वह उसे खाने को कुछ देती थी।

फिर दवंगरा ने तरकीब निकाली।

वह खाना रखकर दूर चली जाती थी, और जब वह मुड़कर देखती थी वह खा रहा होता था।

अब वह उसे देखते ही उसके साथ चलने लगता है और खाने के लिए अपने-आप कुछ मांगता है।

हर जीव को कुछ प्रेम, कुछ स्नेह चाहिए होता है,
और साथ में कुछ खाने को।

मात्र प्रेम और स्नेह से पेट नहीं भरता।

 

 

न यह रात है, न दिन है

न यह रात है,
न दिन है।
या फिर यूँ कहें कि
रात और दिन यहाँ
दोनों छिन्न-भिन्न हैं,
टुकड़ों में बंट गये हैं —

यह अजब दृश्य
जिसे मैं देख रहा हूँ —
या मैं उसके भीतर हूँ —
क्या यह कोई पेंटिंग है
जिसमें रात और दिन
बेतरतीब एक ढंग में
यहाँ-वहाँ छिटक गये हैं,
और फट गये हैं,
कट गये हैं,
फिर जुड़ गये हैं,
टेढ़े-मेढ़े मुड़ गये हैं,
स्वयं ही से चट गये हैं,
ऊब गये हैं अपने जीवन से,
भटक गये हैं, भटक गये हैं?

रात और दिन
दोनों छिन्न-भिन्न हैं।
या फिर यूँ कहें कि
न यह रात है, न दिन है।

 

 

अन्तिम मनुष्य

तुम अकेले ही मरोगे।

तुम्हारे चहुँ ओर मरु होगा।

सूर्य बरसेगा।

तुम मरीचिकाएँ देखोगे,
उनके पीछे दौड़ोगे,
भटकोगे।

पानी की एक बूँद के लिए भी तरसोगे।

ओह वह भयावह होगा !

एक मामूली जीव की तरह
मृत्यु से पहले
असहाय तुम तड़पोगे।

इतिहास में
सारे मनुष्यों के
सभी-सभी
कुकृत्यों का
जुर्माना भरोगे।

तुम अकेले ही मरोगे।

 

 

 

हालाँकि वे बचेंगे

हालाँकि वे बचेंगे।
हालाँकि वे फलेंगे।

आह तुम्हारी
उनको लगेगी।

हालाँकि तुम निहत्थे होगे
और उनके हाथों में
नश्तर होंगे।

हालाँकि तुम अकेले होगे
और वे सत्तर होंगे।

हालाँकि तुम घिरोगे।
हालाँकि तुम गिरोगे।

हालाँकि लहू से लथपथ
तुम वहाँ पड़े होगे।

हालाँकि कोई तुम्हारी
मदद को नहीं आयेगा।

हालाँकि तुम निश्चित ही,
निश्चित ही मारे जाओगे।

हालाँकि वे हँसेंगे।

हालाँकि वे तब भी बचेंगे,
तब भी फलेंगे।

आह तुम्हारी
उनको लगेगी।

 

 

मैं बूढ़ा हो जाऊँगा

मैं बूढ़ा हो जाऊँगा।
कोई मुझसे मिलने नहीं आयेगा।
सड़क पर या गली में
सब मुझसे कतरा कर निकलेंगे।
कोई मुझसे आँख नहीं मिलायेगा।
महिलाएँ सोचेंगी यह बूढ़ा कभी सुन्दर रहा होगा।
अपने स्तन वे मुझे नहीं दिखायेंगी।
मैं बूढ़ा होता जाऊँगा, और और बूढ़ा।
बुढ़ापे को गालियाँ सुनाऊँगा।
मर साले बुढ़ापे ! दफा हो जा यहाँ से !
फिर एक दिन मैं घर में या अपने कमरे में
मरा हुआ पाया जाऊँगा।

===============

— कवि और दार्शनिक, रुस्तम के पाँच कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें से एक संग्रह में किशोरों के लिए लिखी गयी कविताएँ हैं. उनकी कविताएँ अंग्रेज़ी, तेलुगु, मराठी, मल्याली, पंजाबी, स्वीडी, नौर्वीजी तथा एस्टोनी भाषाओं में अनूदित हुई हैं. रुस्तम सिंह नाम से अंग्रेज़ी में भी उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हैं. इसी नाम से अंग्रेज़ी में उनके पर्चे राष्ट्रीय व् अन्तरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं.

 

 

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विक्टर श्क्लोव्स्की (1893-1984) के उपन्यास “ज़ू या (अ)प्रेम पत्र” से एक अंश

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चारुमति रामदास जी हैदराबाद के रूसी भाषा विभाग से सेवानिवृत्त हुई. रूसी से उन्होंने हिंदी में काफी अनुवाद किये हैं. आज एक रोचक अंश विक्टर श्क्लोव्स्की के उपन्यास से- मॉडरेटर

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लेखकीय प्रस्तावना

यह पुस्तक इस तरह से लिखी गई.

सबसे पहले तो मैंने सोचा कि रूसी-बर्लिन के बारे में कई किस्से प्रस्तुत करूँ, फिर ऐसा प्रतीत हुआ कि इन किस्सों को किसी सामान्य विषय में पिरोना काफ़ी दिलचस्प होगा. विषय चुना “चिड़ियाघर” (“Zoo”) – पुस्तक का शीर्षक पैदा हो गया, मगर वह विभिन्न टुकड़ों को जोड़ नहीं रहा था. फिर ये ख़याल आया कि इसे पत्रों की शक्ल के एक उपन्यास का रूप क्यों न दिया जाए.

पत्रों वाले उपन्यास के लिए किसी कारण की आवश्यकता होती है – आख़िर लोग एक दूसरे को पत्र क्यों लिखते हैं. आम तौर से एक कारण होता है – प्रेम और विरह. मैंने अंशतः इस कारण को चुना: एक प्रेमी ऐसी महिला को पत्र लिखता है, जिसके पास उसके लिए समय नहीं है. अब मुझे एक नए संदर्भ की ज़रूरत पड़ी: चूंकि पुस्तक की प्रमुख विषयवस्तु प्रेम नहीं है, अतः मैंने प्रेम के बारे में लिखने की बंदिश को चुना. परिणाम वह हुआ जिसे मैंने उपशीर्षक में दर्शाया है – “(अ)प्रेम-पत्र”.

अब तो जैसे किताब ख़ुद-ब-ख़ुद लिखती चली गई, उसे बस, ज़रूरत थी विषयवस्तु को जोड़ने की, अर्थात् प्रेम-काव्य पक्ष और वर्णनात्मक पक्ष को गूंथने की. भाग्य और विषयवस्तु के सामने सिर झुकाते हुए, मैंने इन चीज़ों को तुलनात्मक रूप से एक दूसरे से जोड़ा: तब सारे वर्णन प्रेम के रूपक प्रतीत होने लगे.

श्रृंगार-काव्य की चीज़ें इस तरह से लिखी जाती हैं: उनमें वास्तविक चीज़ों को नकारते हुए रूपकों पर बल दिया जाता है.

“प्राचीन कथाओं” से तुलना करें.

 

 

 

प्रस्तावनात्मक

पत्र

 

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यह पत्र लिखा गया है सबको, सबको, सबको.

पत्र का विषय : चीज़ें इन्सान का पुनर्निर्माण करती हैं.

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अगर मेरे पास एक और सूट होता, तो मुझे कभी दुःख का एहसास न होता.

घर लौटने के बाद कपड़े बदले, हाथ-पैर सीधे किए – बस, अपने आप को बदलने के लिए इतना काफ़ी है.

औरतें तो इसका उपयोग दिन में कई बार करती हैं. आप औरत से जो भी कहते हो, उसका जवाब फ़ौरन मांग लो; वर्ना वह गर्म पानी का शॉवर लेने चली जाएगी, ड्रेस बदल लेगी, और आपको अपनी बात फिर से शुरू करनी पड़ेगी.

कपड़े बदलने के बाद वे हाव-भाव भी भूल जाती हैं.

मैं आपको सलाह दूँगा कि औरत से फ़ौरन जवाब मांग लें.

वर्ना, आप अपने आप को अक्सर किसी नए, अप्रत्याशित शब्द के सामने परेशानी से खड़ा पाएँगे.

औरतों की ज़िन्दगी में वाक्यविन्यास (सिंटैक्स) लगभग होता ही नहीं है.

मर्द को बदलती है उसकी कारीगरी.

औज़ार न केवल इन्सान के हाथ को निरंतरता देता है, मगर वह ख़ुद भी उसमें निरंतर बना रहता है.

कहते हैं कि अंधा स्पर्श के एहसास को अपने डंडे के छोर पर केन्द्रित करता है.

अपने जूतों के प्रति मेरे मन में कोई ख़ास लगाव नहीं है, मगर फिर भी वह मेरी ही निरंतरता है, वो मेरा हिस्सा है.

आख़िर छड़ी ने स्कूली-छात्र को बदल दिया और वह उसके लिए प्रतिबंधित हो गई.

बन्दर डाल पर ज़्यादा ईमानदार होता है, मगर डाल भी मनोविज्ञान पर असर डालती है.

फिसलन भरी बर्फ़ पर जाती हुई गाय का मनोविज्ञान तो कहावत में बन गया है.

सबसे ज़्यादा इन्सान को बदलती है मशीन.

लेव टॉल्स्टॉय “युद्ध और शांति” में वर्णन करते हैं कि कैसे शर्मीला और साधारण तोपची तूशिन युद्ध के समय एक नई दुनिया में चला जाता है, जो उसके तोपखाने ने बनाई थी.

 “इस भिनभिनाहट, शोरगुल, एकाग्रता की आवश्यकता और कार्यकलाप के कारण तूशिन को भय की अप्रिय भावना का एहसास भी नहीं हो रहा था…उल्टे, उसे अधिकाधिक प्रसन्नता महसूस हो रही थी…

चारों ओर से कानों को बहरा कर देने वाली अपने हथियारों की आवाज़ से, दुश्मन के तोप के गोलों की सनसनाहट और उनकी मार से, हथियारों के निकट भाग-दौड करते, पसीने से लथपथ, लाल पड़ते हुए सैनिकों की ओर देखने से, इन्सानों और घोड़ों के खून को देखने से, उस पार उठ रहे दुश्मन के धुँए से (जिसके बाद हर बार तोप का गोला उड़ते हुए आता और ज़मीन में , इन्सान के जिस्म में, तोपखाने में या घोड़े के बदन में धँस जाता), – इन सब चीज़ों को देखते हुए उसके दिमाग़ में अपनी एक काल्पनिक दुनिया बन गई थी, जो इस समय उसे आनन्द प्रदान कर रही थी…वह अपने आप को बेहद ऊँचा, ताक़तवर मर्द समझ रहा था, जो दोनों हाथों से तोप के गोले उठा-उठाकर फ्रांसिसियों पर फेंक रहा था.”

मशीन-गनर और डबल-बास बजाने वाला – अपने अपने यंत्रों की निरंतरता ही होते हैं.

अण्डर-ग्राऊण्ड रेल्वे, ऊपर उठने वाली क्रेन्स और कारें – मानवता के कृत्रिम अंग हैं.

कुछ ऐसा हुआ कि मुझे कुछ वर्ष ड्राईवर्स के बीच बिताने पड़े.

चालीस हॉर्स-पॉवर का इंजिन पुराने नैतिक मूल्यों को नष्ट कर देता है.

वेग ड्राईवर को मानव से अलग करता है.

इंजिन चालू करो, एक्सेलेरेटर दबाओ – और जैसे ही गति का सूचक घूमने लगता है, तुम देश और काल से दूर चले जाते हो.

कार महामार्ग पर सौ किलोमीटर्स प्रति घण्टे से अधिक की रफ़्तार दे सकती है.

मगर इतनी रफ़्तार की ज़रूरत क्या है?

वह सिर्फ भागने वाले या पीछा करने वाले के लिए ज़रूरी है.

कार आदमी को खींचते हुए वहाँ तक ले जाती है, जिसे ईमानदारी से, अपराध कहा जाता है.

सौभाग्य से, रूसी ड्राईवर आम तौर से अच्छा कामगार होता है.

वह उन रास्तों पर चलता है, जो लहरों की याद दिलाते हैं, स्तेपी में कार दुरुस्त करता है, जब बर्फ और पेट्रोल के कारण हाथ अकड़ जाते हैं. मगर इसके साथ ही ड्राईवर कामगार नहीं है; कार में वह तनहा होता है.

उसकी कार उसे नशे में धुत करती है, रफ़्तार उसे नशे में धुत कर देती है, ज़िन्दगी से दूर ले जाती है.

क्रांति से पूर्व कारों के योगदान को नहीं भूलना चाहिए.

वोलीन्स्की की फ़ौज ने बैरेक्स से निकलने का फ़ैसला एकदम नहीं किया.

रूसी फ़ौजें अक्सर खड़े-खड़े विद्रोह करती थीं.

दिसम्बर-क्रांतिकारियों को अपनी जगह पर ही नष्ट कर दिया गया था.

विद्रोहियों ने बैरेक्स छोड़ दिए, मगर वे अनिश्चय की स्थिति में थे. उनसे मुक़ाबले के लिए दूसरे आ गए.

फौजें मिल गईं और रुक गईं.

मगर गैरेजों के दरवाज़ों पर पत्थरों की मार होने लगी, और पकड़ी गई भोंपू वाली कारों पर मज़दूर शहर भाग गए.

आपने फ़ेन से क्रांति को शहर में बिखेर दिया, कारों पर बिखेर दिया.

क्रांति ने रफ़्तार बढ़ाई और चल पड़ी.

कारों के स्प्रिंग्स मुड़ गए, मडगार्ड्स मुड़ गए, कारें शहर में दौड़ती रहीं, और वहाँ, जहाँ पहले दो थीं, पता चला कि अब वहाँ आठ हो गई हैं.

मुझे कारें पसन्द हैं.

उस समय पूरा देश हिचकोले ले रहा था. क्रांति ने फ़ेनिल अवस्था पार कर ली थी और पैदल ही सीमा पर चली गई.

हथियार आदमी को ज़्यादा बहादुर बनाता है.

घोड़ा उसे घुड़सवार में बदल देता है.

चीज़ें आदमी के साथ वो करती हैं, जो वह उनके साथ करता है. रफ़्तार गंतव्य की मांग करती है.

चीज़ें हमारे चारों ओर उगती हैं, – अब वे दो सौ साल पहले के मुक़ाबले में दस गुना या सौ गुना ज़्यादा हो गई हैं.

मानवता का उन पर स्वामित्व है, अलग-थलग आदमी – है ही नहीं.

किसी रहस्यमय कार का व्यक्तिगत स्वामित्व होना चाहिए, नया रोमांटिसिज़्म होना चाहिए, जिससे कि वे ज़िन्दगी के मोडों पर इन्सानों को बाहर न फेंक दें.

अभी मैं परेशान हूँ, क्योंकि ये डामर, जो कारों के टायरों से घिस गया है, ये रंगबिरंगे विज्ञापन और अच्छे कपड़े पहनी हुईं औरतें, – ये सब मुझे बदल रहा है. यहाँ मैं वैसा नहीं हूँ, जैसा था, और लगता है कि यहाँ मैं ठीक नहीं हूँ.

 

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संजू शब्दिता के सौ शेर

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जैसे गर्मी में बारिश से राहत मिलती है वैसी ही राहत दिल कि बेचैनी को शायरी पढने से मिलती है. संजू शब्दिता के शेर आप सब फेसबुक पर पढ़ते रहे हैं. आज उनके सौ शेर एक साथ पढ़िए
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मैंने बस प्यास संभाले रक्खी
ख़ुद ब ख़ुद दरिया मेरे पास आया
किस भरोसे जियेगा दरवाज़ा
कोई उम्मीद तो हो दस्तक की
आज दरिया बहुत उदास लगा
एक कतरे ने फिर बग़ावत की
अचानक से बदलने लग गई हूँ
मेरे अंदर का बच्चा मर रहा है
मैं सबब हूँ किसी उदासी का
कितनी बेचैन करने वाली बात
नाख़ुदा हाल जाने दरिया का
लोग तो नाव में सवार हैं बस
साथ चलना है उनकी मजबूरी
दो किनारों की एक मंज़िल है
इतने मामूली हैं कि पूछो मत
हम किसी को नज़र नहीं आते
मेरा कुछ भी कहाँ सुना उसने
सीधे सूली चढ़ा दिया उसने
१०
उसकी ख़ामोशी जान लेवा थी
वैसे तो कुछ नहीं कहा उसने
११
हमें सैलाब का इम्कान समझो
बहुत से गम अभी रोये नहीं हम
१२
हिज्र का रोना लेके बैठ गए
वस्ल में भी अज़ाब होते हैं
१३
गुम थे हम चाँद में सितारों में
और जमीं पांव की खिसकती रही
१४
एक ही नाव में सवार हैं लोग
एक दिन एक साथ डूबेंगे
१५
जाने क्या ख़ो गया है हम सबका
जाने क्या फेसबुक में ढूंढ़ते हैं
१६
तुझे जो चाहिए तू मांग ले ऐ ज़िन्दगी मुझसे
है अच्छा मूड मेरा आज तुझसे ख़ुश बहुत हूँ मैं
१७
हम तो ख़ुद ही ग़ुलाम थे उसके
फ़िर भी उसने हमें क़फ़स में रखा
१८
उसने रक्खा हमें अज़ाबों में
हमने उसको मगर नफ़स में रखा
१९
फिर वही सिलसिले दलीलों के
फिर वही मुद्दआ बहस में रखा
२०
दे दी परवाज़ उस परिन्दे को
और फिर हद को दस्तरस में रखा
२१-
नदी ख़ामोश रहने लग गयी है
सफ़ीने पार होते जा रहे हैं
२२-
मैं ख़ारिज हूँ जहाँ से
अभी अवसाद में हूँ
२३-
तलब इतनी ज़्यादा है कहने की कुछ
मुनासिब यही है…. मैं चुप ही रहूँ
२४-
उम्र गुज़री जो इम्तेहानों में
उसके सारे नतीजे थे जाली
२५-
वस्ल की रस्म हम समझते जब
तब तलक दूर जा चुका था वो
२६-
फ़ासला एक ही क़दम का था
मेरी दुनिया बदलने वाली थी
२७-
हज़ारों चाहने वाले थे उसके
जिसे तन्हाइयों ने मार डाला
२८-
ख़ुशी रक़्स करने लगी धुंध में
नए साल का जश्न भी ख़ूब है
२९-
इतनी शिद्दत से मुझे चाहे वो
मुझको नफ़रत का गुमाँ होता है
३०-
हाँ चलो ठीक है…नहीं रोती
क्या सितम है कि मुस्कुराऊँ भी
३१-
हर क़दम सोच कर उठाते हैं
बेख़ुदी का हमें कहाँ हक़ है
३२-
आज चुपचाप हमें रोने दो
ऐसी हालत में कोई शेर नहीं
३४-
मैंने हालात दिल के लिख तो दिए
अब इन्हें बज़्म में सुनाऊं भी.. ?
३५-
इश्क़ में आज ऐसे मोड़ पे हैं
हम जहाँ रूठ भी नहीं सकते
३६-
हमारे साथ बहुत देर तक रहे कल तुम
हमें भनक न लगी तुम नहीं हो दुनिया में
३७-
क्या बताते तुम्हें पता अपना
एक मुद्दत से हैं मुहाज़िर हम
३८-
कहा जो उसने कोई मसअला नहीं उसका
रुका जो कहते हुए बस कसक उसी की है
३९-
जब कि दरिया मेरी निग़ाह में था
रूह सहराओं में भटकती रही
४०-
चाहिए था कि ख़ुद को बदलूँ मैं
मैं मगर आईने बदलती रही
४१-
मुक़ाबिल देखकर नन्हा दिया
बड़े हैरान हैं सूरज मियां
४२-
बचा रक्खे थे हमने गम के आँसू
हमें ख़ुशियों में रोना ख़ूब आया
४३-
हमारी दस्तरस में था कहाँ वो
मगर जब हाथ आया ख़ूब आया
४४-
हक़ीक़त तो मेरी सहरा है लेकिन
मेरे हिस्से में दरिया ख़ूब आया
४५-
गुमाँ में चूर है दरिया का पानी
किनारे पर जो प्यासा ख़ूब आया
४६-
इतना ज्यादा सफ़र तवील हुआ
मुझको मंज़िल की याद ही न रही
४७-
ज़िन्दगी सुन तुझे जियेंगे हम
और कोई विकल्प भी तो नहीं
४८-
उम्र के आख़िरी पड़ाव पे हम
दोस्ती चाहते हैं बचपन की
४९-
ये जो ख़्वाबों की एक दुनिया है
इसके बेताज बादशाह हैं हम
५०-
दिल को तन्हाई में ग़ज़लों की तलब होती है
और तो ख़ास कोई इसको जरूरत ही नहीं
५१-
जिन्दगी भर ज़मीन का खाया
मरने तक आसमान को सोचा
५२-
हमको दरिया ने कई बार किनारे पटका
जब तलक डूबे नहीं हार नहीं माने हम
५३-
मैंने सहरा में घर बना तो लिया
पर समन्दर ख़िलाफ़ है मेरे
५४-
तैर कर हमने पार की दरिया
लोग आए मगर सफीने से
५५-
वो परिंदा हवा को छेड़ गया
उसने क्या खूब ये हिमाक़त की
५६-
वक़्त मुंसिफ़ है फ़ैसला देगा
अब ज़रूरत भी क्या अदालत की
५७-
तेरी आँखों पे पर्दा है जो मुंसिफ़
कोई मासूम सूली चढ़ न जाए
५८-
कहानी ख़त्म तो हम कर ही देते
मगर किरदार सारे रो पड़े थे
५९-
हमारा तो किरदार सादा ही था
कहानी जो बदली,बदलना पड़ा
६०-
किनारे तक तो बहकर आ गए हम
अगर तूफां न आता डूब जाते
६१-
मैं घर से ही नहीं निकली अभी तक
मेरे अशआर दुनिया घूम आए
६२-
जैसी हूँ मैं इक़दम वैसी दिखती हूँ
लोग इसे मेरी कमज़ोरी कहते हैं
६३-
दिन,कई दिन छिपा रहा जैसे
कोई उसको सता रहा जैसे
६४-
सुब्ह, सूरज को नींद आने लगी
अब्र चादर उढ़ा रहा जैसे
६५-
हम मुसाफ़िर हैं एक जंगल में
खौफ़ रस्ता दिखा रहा जैसे
६६-
उलझा-उलझा सा एक चेहरा ही
सौ फ़साने सुना रहा जैसे
६७-
बढ़ गया आगे काफ़िला मेरा
मुझको माज़ी बुला रहा जैसे
६८-
बचपना तो अभी गया भी न था
जाने कब आ गया बुढ़ापा भी
६९-
उम्र सस्ते में ख़र्च कर डाली
हाथ आया नहीं ख़सारा भी
७०-
ज़िन्दगी जैसे रेल का हो सफ़र
छूटते जाते हैं…….हसीं मंज़र
७१-
लोग नज़रें टिकाए बैठे थे
बस उसी दम सितारा टूट गया
७२-
इतनी खुशियाँ हैं मेरे दामन में
सारी दुनिया को रश्क हो जाए
७३-
जो परिन्दे हैं शोख़ गुलशन में
वो हैं सैयाद के निशाने पर
७४-
हटा ही देगा मुझे रास्ते से इक दिन वो
सफ़र में दूर तलक रहनुमा का काम ही क्या
७५-
सितारे का चमकना तो सभी ने देख लिया
सितारा टूट कर गया कहाँ,किसे मालूम
७६-
बीच दरिया में फंसी नाव बचे भी कैसे
हाथ पर हाथ धरे बैठा है माझी मेरा
७७-
सितमगर के सजदे में मशग़ूल हैं वो
हमें क्या मिला जो मसीहा हुए हम
७८
हमें जो डूबना मंजूर हो जाता
तो दरिया से समन्दर हो गए होते
७९-
तीर सारे निकल गए आख़िर
कब किसी ने कमान को सोचा
८०-
आज शालीन पेश आया वो
हमने उसके गुमान को सोचा
८१-
वो जमीदोंज हो गया तबसे
जबसे हमने उड़ान को सोचा
८२-
एक हीरे ने ज़िन्दगी अपनी
पत्थरों की तरह गुज़ारी है
८३-
एक लम्हा युगों से है ज़िन्दा
कौन कहता है दुनिया फ़ानी है
८४-
मंज़िलों के सफर में रस्ते भर
जान जाती है जान आती है
८५-
हम बदलते रहे पता अपना
ज़िन्दगी आई और लौट गई
८६-
ज़िन्दगी ने हमें हवस में रखा
यों सराबों के दस्तरस में रखा
८७-
किसी गलती की माफ़ी ही नहीं दी
कि रब बेह्तर बनाना चाहता था
८८-
कहाँ तक रोकते पहरे से उसको
रिहाई दे ही दी पिंजरे से उसको
८९-
उसे आवाज़ से ही जानते थे
कहाँ पहचानते चेहरे से उसको
९०-
जा रही हूँ इस जहाँ से या ख़ुदा
छोड़ कर सारे तमाशों का हुजूम
९१-
मुझको मालूम है वो मेरा नहीं
है तसल्ली कि वो किसी का नहीं
९२-
बुझ गए सारे दीप आँगन के
क्या यही शक़्ल है क़यामत की
९३-
बहुत तेज रफ़्तार कदमों की थी
मगर हमको दर – दर पे रुकना पड़ा
९४-
हमें मंज़िलों का पता था मगर
मिले ऐसे रस्ते भटकना पड़ा
९५-
मुझपे किस्मत जो मेहरबान हुई
मुझको इक बारगी यकीं न हुआ
९६-
किनारे पर वो आ जाता मगर
उसे फ़िर बीच में जाना पड़ा
९७-
ख़ुदकुशी से वो बच भी सकता था
कोई सूरत निकलने वाली थी
९८-
एक मुद्दत से मेरी उम्र अंधेरों में कटी
इन उजालों में मेरी रूह सहम जाती है
९९-
देख रफ़्तार मेरे कदमों की
झुक गया आसमां मेरे आगे
१००-
उम्र गवां कर मंज़िल तक तो आ पहुंचे
फिर हम समझे मंज़िल एक छलावा है

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‘गांधी की मेजबानी’पुस्तक से एक अंश

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रज़ा पुस्तकमाला श्रृंखला के अंतर्गत राजकमल प्रकाशन से कई नायाब पुस्तकों का प्रकशन हुआ है, दुर्लभ भी. इनमें एक पुस्तक ‘गांधी की मेजबानी’ भी है. मूल रूप से यह पुस्तक अंग्रेजी में मुरिएल लेस्टर ने लिखी है. गांधी की यूरोप यात्राओं के दौरान उनको महात्मा गांधी की मेजबानी का मौका मिला था. पुस्तक का अनुवाद जाने माने गांधीवादी विचारक-लेखक नंदकिशोर आचार्य ने किया है. पुस्तक का एक अंश जिसमें यह बताया गया है कि किस तरह पश्चिम की मीडिया गांधी को लेकर पगलाई रहती थी- मॉडरेटर

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मि. गांधी की अख़बारी कीमत दुनिया भर में सर्वाधिक है, केवल प्रिंस ऑफ वेल्स निश्चय ही अपवाद हैं। फ्लीट स्ट्रीट का कहना था और अब किंग्सले हॉल को स्वर्णिम फसल काटने का अवसर दिया जाना था।

कई सजे धजे महाशय प्रस्ताव लेकर मेरे पास आये कि मैं गांधीजी के हमारे यहां ठहराव से सम्बंधित खबरों के सर्वाधिकार उन्हें देकर मुनाफ़े में हिस्सा पा सकती हूं। कुछ अन्य लोगों ने इतना ही कहा कि मुझे ये अधिकार उनके संस्थान को दे देना चाहिए – उन्हें मेरी मुफ्त भेंट की तरह।

आनेवालों का रेला बहने लगा- सिनेमा के लोग, ग्रमोफ़ोन कम्पनियाँ और फोटोग्राफर। तारों, टेलीविजनों और कभी कभी व्यक्तिगत मुलाकात के लिए मेरा पीछा किया जाने लगा -देहातों के अंदरूनी इलाक़ो में भी। एक व्यक्ति ने मेरा सिर्फ़ इसलिए पीछा किया कि मैं उसे गाँधीजी का एक परिचयात्मक विवरण लिख दूँ जिसे वह मसलीज में उनके आगमन पर उन्हें भेंट कर सके। वह वहाँ के लिए अपनी यात्रा आरक्षित कर चुका था और यदि मैं ऐसा कर दूँ तो मुझे सौ पौण्ड मिल सकते थे।

“लेकिन मैं अपने अतिथि को बेच कैसे सकती हूं?” मैंने पूछा।

कई सप्ताहों तक अपने अथक प्रयासों और लंबे वार्तालापों की एक श्रृंखला के बाद ही वह मेरी कठोरता को मान पाया। “ठीक है, कुमारी लेस्टर,” आख़िर में उसने  कहा, “यदि आप मि. गांधी को हमारे व्यवासायिक प्रस्ताव के लिए सहमत करने की अपनी ओर से पूरी कोशिश करें- चाहे कोई वादा न करें या सफल हों या नहीं- तो भी मेरी कम्पनी आपके हॉल को सौ पौण्ड दे देगी।“

ऐसे आश्चर्यजनक प्रस्ताव कार्यान्वित तो नहीं हुए लेकिन ये मुलाक़ातें बहुत दिलचस्प रहीं और मैंने सोचा कि ये गाँधीजी के विचारों को ब्रिटिश जनता तक पहुंचाने के लिए उपयोगी हो सकती हैं- उनकी कल्पना को कुछ विस्तार देने , भारतीय परिस्थिति में उनकी अंतर्दृष्टि विकसित करने, उन तीन सौ साथ मिलियन लोगों के भविष्य का निर्णय करने के महान काम को अंजाम देने के लिए उन्हें तैयार करने के लिए, जिनके लिए वे उत्तरदायी थे, जबकि उनकी आकांक्षाओं के बारे में वे कुछ भी नहीं जानते थे। लेकिन कुछ सप्ताह बाद मैंने ये प्रयास छोड़ दिये।

मूवीटोन के लोगों द्वारा लाये गए सामान से हमें बहुत कुतूहल हुआ। तीन बार अलग अलग मौकों पर किंग्सले हॉल की फिल्में बनायी गईं और इसमें उनकी सहायता करना हमारे सदस्यों अथवा उस मौके पर उपस्थित किसी के लिए भी एक रोमांचक अनुभव था। आख़िर, यह एक चमत्कार जैसा था कि किसी के शयनागार के दरवाजे पर आप बिना किसी लाउडस्पीकर या ईयरफोन के खड़े हैं, कोई माइक भी नहीं दिख रहा और अचानक आप शांत और अंतरंग स्वरों में सुनते हैं: – “अभी अभी अपने जो कहा, कुमारी लेस्टर, बहुत सुंदर और स्पष्ट था। बुरा न मानें और उसे दोबारा कहें।“

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‘काला’ प्रतिपक्ष का वितान रचती एक सुंदर फिल्म है

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‘काला’ फिल्म पर एक अच्छी टिप्पणी लिखी है युवा लेखक मनोज मल्हार ने- मॉडरेटर

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    निर्देशक पा. रणजीत एक निर्देशक के रूप में बहुत सारे अन्य निर्देशकों से शैली के मामले में बहुत अलग नहीं दिखते. ‘कबाली’ और अब ‘काला’ में दृश्य संयोजन, चरित्र, एक्शन, इमोशन बहुत सारे अन्य निर्देशकों की तरह है. ये भी सच है कि उन्हें उन दर्शकों को फिल्म दिखानी है जो रजनीकांत के महानायकत्व के दीवाने है. पर एक चीज जो पा. रणजीत को अन्य फिल्मकारों से अलग करती है, वो है – विषय वस्तु का चयन. ’कबाली’ और ‘काला’ में उन्होंने दलित – बहुजनों के सांस्कृतिक कामनाओं को विशालकाय फलक पर रखा है. ‘काला’ ‘कबाली’ से बहुत आगे की फिल्म है. कबाली अपने अध्ययन और सम्मानपूर्ण पहनावे को महत्वपूर्ण बनाता है वहीँ, काला एक बहुत बड़ी संरचनागत वृत्त खींचता है. ‘काला’ वर्चस्वशाली सामाजिक और राजनैतिक विचारधारा के खिलाफ काले रंग की विचारधारा का प्रतिकार है, और खुद के सशक्त होने की घोषणा भी. बहुत पहले हिंदी में जे.पी. दत्ता की फिल्म आई थी – ‘गुलामी’. फिल्म में समानजनक नाम, पढने का हक़, पानी पीने का हक़, दलितों का घोड़े पर चढने का हक़ और भूमि पर अधिकार को मुद्दा बनाया गया था, और धर्मेन्द्र को अकेले संघर्ष करते दिखाया गया था. उस समय की मनःस्थिति शायद यही रही हो. किन्तु ‘काला’ में नायक अकेला नहीं है. उसके साथ हज़ारों हाथ हैं. यह संघर्ष और संस्कृति की बदली हुई स्थिति है. फिल्म में एक संवाद के द्वारा कालेपन को मेहनत करने वालों का रंग कहा गया है. वर्चस्वशाली चमक दमक और शालीनता बड़े राजनीतिज्ञ हरे भाऊ (नाना पाटकर) की संस्कृति है, तो कालापन, मेहनत, और सहजता धारावी में राज करने वाले काला करीकरण की. जहां ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता के प्रतीक हरे भाऊ हाथ में तलवार लेना और स्त्री सहित सबसे पैर छुवाना पसंद करते हैं , वहीँ काला हाथ में किताब रखता है, और हाथ मिलाना पसंद करता है. हरे भाऊ के आसपास स्त्रियाँ और बच्चे डरे सहमे रहते हैं, वहीँ काला के पास स्त्री और बच्चे सहजता और उल्लास के साथ रहते है. पूरी फिल्म इस तरह के द्वैत्व में है. उस एक रात की घटनाओं का अंकन शानदार है, जिसमें हरे भाऊ राम कथा सुन रहे हैं और उनके गुंडों की टोली धारावी में रक्त और मज्जा की बरसात कर रही है. निर्देशक की इस महीन विस्तारपरक सूझबूझ के लिए प्रशंसा करनी होगी.

  पा. रणजीत की एक और चीज के लिए प्रशंसा करनी होगी. वह है – साहस. सामाजिक विषयों पर फिल्म बनाना उतना चुनौतीपूर्ण नहीं होता, जितना समकालीन राजनीतिक विषयों पर.  समकालीन राजनीतिक – सामाजिक संस्कृति में सत्य को सत्य कहना भी अपने लिए खतरा मोल लेना है. कुछ दृश्यों में निर्देशक ने ये किया है. मसलन, शहर में हरे भाऊ को बड़ा कट आउट लगा है. किनारे पर देशभक्त होने और राष्ट्र को स्वच्छ बनाने का दावा करती पंक्तियाँ लिखी हैं. एक युवक कटआउट पर पत्थर फेंक कर हरे भाऊ का दांत तोड़ देता है. धारावी में अपनी ज़मीन को हरे भाऊ की बिल्डर कंपनी से बचाने के लड़ रहे लोगों को नेता जी देशद्रोही, देश के विकास में बाधक कहते हैं. कह सकते हैं कि जहां ज़नाब राजमौली ने ’बाहुबली’ में पितृसत्ता और ब्राह्मणवाद को रंगने में अपनी पूरी प्रतिभा लगा दी, वहीँ पा. रणजीत ने उसके धुर विरोधी विचारधारा काला को सुंदर बनाने में अपनी काफी प्रतिभा लगा दी है. धारावी के चित्र और सन्दर्भ कई हिंदी फिल्मों के विषय वस्तु बने हैं, किन्तु यहाँ लेखकों ने धारावी के लोगों में तमिल पहचान को प्रमुखता दी है. धारावी में तमिल समुदाय की स्मृतियों को उभरने के लिए एनीमेशन का सहारा लिया गया है.

   फिल्म में काला के बेटे का नामकरण लेनिन करना, उसे बार बार क्रन्तिकारी कहना, और उसका बच्चों जैसे उत्साही के रूप में चित्रण दिलचस्प है. मानो रूसी क्रांति के नायक लेनिन भारतीय परिवेश में सीखने की कोशिश करते एक युवा हों. एक लड़की का नाम कायेरा भी है, जिसका अर्थ है – काले रंग की.

   फ़िल्म का क्लाइमेक्स वाला दृश्य रंगों के कुशल संयोजन और बैकग्राउंड म्यूजिक की वजह से यादगार बन पड़ा है. पहले भूमि पूजन स्थल के बीचोबीच हरे भाऊ का झक्क सफ़ेद रंग, फिर काले रंग के छींटें, फिर गहरा भरपूर काला रंग, फिर लाल रंग के कुहासों में लिपटा सबकुछ… और फिर नीला रंग. सब कुछ नीले रंग की रंगत में रंग जाता हुआ. इस सीक्वेंस में कठोर संगीत, उन्मत्त नृत्य, और सैकड़ों की संख्या में मौजूद कलाकारों के मध्य रजनी दा का काला रूप बहुत मनमोहक है. चुनना मुश्किल है कि किसे शाबासी दी जाए? कोरियोग्राफर को, संपादक को, सिनेमेटोग्राफर को, या फिर निर्देशक को. शानदार दृश्य.

    यह स्पष्ट है कि ‘काला’ एक मुख्यधारा की मनोरंजक फिल्म है. रजनी की करिश्माई छवि में हिंसा, ताकत, मसीहाई अंदाज़ शामिल ही है. एक बार रजनी की इस छवि को चुन लेने के बाद लेखक – निर्देशक के लिए कुछ  ज्यादा बचता ही नहीं है. हिंसा, एक्शन और इमोशन को पेश करने में निर्देशक सफल रहा. रजनी इस उम्र में इतनी ऊर्जा, उत्साह बनाए रखे हुए हैं, ये आश्चर्यजनक लगता है. पंकज त्रिपाठी को पुलिस अधिकारी के रूप में बहुत ही कम स्क्रीन टाइम मिला है, पर उसमें भी उनकी अदा दर्शकों को लुभाती है. समुथी काला की पत्नी के रूप में दर्शकों को भावुक बनाती है. नाना पाटकर एक अहंकारी और शातिर नेता के रूप में जमे हैं. हुमा कुरैशी साधारण है. कुल मिलाकर ‘काला’ प्रतिपक्ष का वितान रचती समकालीन दौर की एक सुंदर फिल्म है.

                      …………………………………………………………

मनोज मल्हार
  कमला नेहरू कॉलेज
   8826882745

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कुछ-कुछ सीखना और बहुत कुछ न सीख पाना: व्योमेश शुक्ल

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कवि व्योमेश शुक्ल ने अपनी रंग-यात्रा पर बहुत अच्छा लिखा है. इससे किसी भी कलाकार की यात्रा, उसकी जद्दोजहद, उसके संघर्ष को समझा जा सकता है. ‘रंग प्रसंग’ से साभार- मॉडरेटर

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कभी-कभी अपनी जाँच ख़ुद ही करनी होती है. दूसरों के मुँह से अपनी और अपने कामकाज की तारीफ़ और बुराई सुनने के अभ्यस्त आदमी के लिए यह कुछ मनहूस बात है. इसमें धोखा भी हो सकता है. लेकिन धोखा तो कहीं भी हो सकता है. यानी ऐसी कोशिश में कोई हर्ज भी नहीं है.

मैं बनारस में पैदा हुआ. यहीं जवान हुआ और यहीं चुपचाप बूढ़ा हो रहा हूँ. मरूंगा भी यहीं. इस चीज़ का नाम है संस्थापन. एक ही जगह रहने की पस्ती. यह विस्थापन का सौतेला भाई है. बुद्धि के बाज़ार में विस्थापन की क़ीमत बहुत ज़्यादा है और संस्थापन मिट्टी के मोल मिलता है. मैं भी बेमोल हूँ, लेकिन चिर संस्थापित हूँ.

इस कमबख्त संस्थापन ने मेरा सबकुछ बिगाड़ दिया और बदले में दिया एक दो कौड़ी का हौसला, कि मैं एक महान सभ्यता का प्रतिनिधि हूँ और मेरे कियेधरे को उसी की रौशनी में देखा जाय. ध्यान दें, यह हौसला मेरी कमाई नहीं है. प्रतिभा और मेहनत से मैंने इसे हासिल नहीं किया है. यह बस यहाँ रहते-रहते मुझे मिल गया है. जैसे किसी भाग्यशाली को पुश्तैनी संपत्ति विरासत में मिल जाती है. वज़नदार अतीत बहुत बड़ा झमेला भी है. मशहूर संस्कृतिकर्मी, कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी ने आईएएस की अपनी नौकरी में यूपी कैडर इसीलिए नहीं लिया कि इस प्रदेश के विगत वैभव में अपनी क्षमता से कुछ नया जोड़ पाना उन्हें असंभव लगा था. यहाँ रहकर आप जो भी करेंगे, वह पहले ही हो चुका होगा. यह स्लेट पहले ही इबारतों से भरी हुई है. उस पर खड़ी पाई के बराबर ज़मीन भी ख़ाली नहीं है. कबीरचौरा मुहल्ले की एक गली में थोक के भाव पद्म पुरस्कार-प्राप्त कलाकारों का घर है. सिद्धेश्वरी देवी, सितारा देवी, गोपीकृष्ण, किशन महाराज, सामता प्रसाद और राजन-साजन मिश्र पड़ोसी हैं. थोड़ी दूर रविशंकर, बिस्मिल्लाह खां और छन्नूलाल मिश्र की रिहाइश है. पुलिस थाने के पीछे जयशंकर ‘प्रसाद’ की सुंघनी की दूकान है. बग़ल में, बर्तन और साड़ी के बाज़ार में भारतेंदु हरिश्चंद्र की हवेली है. पड़ोस में महाश्मशान है. कहीं आगा हश्र का जन्म हुआ है, कहीं प्रेमचंद की मौत हुई है. गनीमत है कि मेरी नज़र सौ-दो सौ साल पीछे तक ही जा रही है और सोलहवीं सदी के छज्जे पर खड़े होकर कबीर, तुलसी और रैदास नीचे, यानी आगे की ओर झाँक  रहे हैं.

इस महान भूगोल के बादल मुझ पर हमेशा घिरे ही रहते हैं. लेकिन सभ्यता में महज़ शिखर ही नहीं होते, गहरी खाइयाँ भी होती हैं और होते हैं दूर-दूर तक फैले समतल मैदान. मेरा जीवन मैदान का जीवन है और मेरे जैसे लोग इस सभ्यता का खाद-पानी हैं, लेकिन ग़ौर कीजिए, खाद-पानी भी जितना बनारस में है, उतना कहीं और मिलना मुश्किल है. मसलन, ठीक है कि एक किशन महाराज, तबले जैसे साज़ में, सौ साल में एक पैदा होते हैं, लेकिन ठीक-ठाक तबला बजाने वाले औसत तबलावादक जितनी बड़ी संख्या में आपको बनारस में मिलेंगे, देश के किसी और शहर में नहीं. यही हाल कथक नृत्य, सितारवादन, अभिनय, चित्रकला, यहाँ तक कि लेखन का भी है. मझोले कलाकार और औसत क़िस्म की अभिव्यक्तियाँ यहाँ ख़ूब हैं. इसी बात से माहौल बनता है. बहुत से लोग माहौल के दबाव से कलाकार बन जाते हैं. अगर आस-पास के दस घरों में अल्लसुबह वैदिक उच्चारण हो रहा है, तो आप अपनी नींद के टूटने से झल्ला-झल्लाकर भी वेदज्ञ बन जायेंगे. अगर किसी का बड़ा भाई गायक है, तो झख मारकर वह तानपुरा और तबला मिलाना सीख जायेगा. दूसरी सभ्यता में जो उपलब्धि है, बनारस में वह मजबूरी है. ख़ुद मुझे दुर्गा सप्तशती कब कंठस्थ हुई, तबला बजाना कब आया, नहीं याद. ज़ाहिर है, इसमें मेरी कोई भूमिका नहीं.

यों, मैंने यहीं रहकर कुछ-कुछ सीखा और बहुत कुछ नहीं सीख पाया. हवा और पानी बहुत बड़े शिक्षक होते हैं. वे सीखने वाले की नसों में घुल जाते हैं. यहाँ विद्या, प्रतिभा, अभ्यास, व्युत्पत्ति, आत्मविश्वास, विनय और औद्धत्य के जल एकदूसरे में हिले-मिले हैं और इस शहर का ख़मीर सदियों की साधना से तैयार हुआ है.

बनारस में रहना ही अनंत और सनातन का कीर्तन है और कोई भी कला इन दो तत्वों के बिना प्रबल नहीं बनती. इन चीज़ों के बग़ैर वह निरी समकालीन होकर रह जाती है, उसकी साँस बहुत छोटी हो जाती है और उसकी आवाज़ अतीत के गुम्बदों से टकराती नहीं. बिना शाश्वत को पैमाना बनाये कला में क्षणिक सनसनी या तत्काल का विमर्श तो संभव है, आनंद मुमकिन नहीं है और कला में आनंद नहीं है तो है क्या ?

लेकिन यही आनंद विद्वानों की राह का रोड़ा है. समझदार आदमी इस ज़मीन पर पैर रखते हिचकिचाते हैं, लेकिन मैं बेवकूफ़ों की तरह इस फ़र्श पर दौड़ा. मैं समझता भले ही कम हूँ, आनंद की इस ज़मीन को चाहता बहुत हूँ.

इसी बुखार में जेएनयू छोड़कर वापस आ गया. जिन कवियों को, जिन कविताओं को, आलोक धन्वा, पाश और चेराबंडा राजू को, मैं बहुत प्यार करता था, अब भी करता हूँ, ताउम्र करता रहूंगा, उन्हीं कविताओं और उन्हीं कविताओं को प्यार करने की तमीज़ मुझे वहाँ के माहौल ने सिखाने की कोशिश की. एक जैसे पोस्टर्स, एक जैसी वालराइटिंग, एक जैसे झोले और एक जैसे चश्मे और एक जैसी विश्वदृष्टि. मैं सात वार और नौ त्यौहार वाली सभ्यता का चिर संस्थापित नागरिक और वहाँ साँस भी एक लय में लेनी थी.

वापस आकर कुछ बरस राजनीतिक-सांस्कृतिक सक्रियता, समकालीन हिंदी कविता और काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की तिकड़म और उठापटक में मौज लेकर बिताने के बाद मेरे मन में थिएटर का पुराना भूत फिर से जी उठा.

मैं बचपन से ही थिएटर के समुद्र में तैर रहा था. शहर की प्रतिष्ठित अंतर्विद्यालयीय नाट्य प्रतियोगिता में दो बार सर्वोत्तम अभिनेता का पुरस्कार पाकर दस साल की उम्र में मैं दिग्गज था. लेकिन पढाई आदि की वजह से वह रास्ता बीच में ही रुक गया. 2011 में, बचपन बीत जाने के पंद्रह साल बाद, एक मंद्र अर्जेंसी बिलकुल सामने आकर खड़ी हो गई और हमउम्र अभिनेता दोस्तों के साथ हमने आषाढ़ का एक दिन खेलने का फ़ैसला किया.

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की एक कार्यशाला में हमने इस नाटक के कुछ महत्त्वपूर्ण मंचनों की वीडियो रिकॉर्डिंग्स देखीं थीं. कृति के कालजयित्व से कभी कोई इनकार नहीं है, लेकिन उस पर मोहन राकेश, यहाँ तक कि कालिदास के भी क्रियेटिव और रोमैंटिक पर्सोना की अत्यंत गहरी छाप पड़ी हुई है. रही सही कसर ओम शिवपुरी के अभिनय के मिथक ने पूरी कर दी. इससे समझ का विचित्र स्टीरियोटाइप तैयार हुआ और बड़े सवाल पीछे हो गए. एक लेखक का सत्ता-प्रतिष्ठान से क्या संबंध होता है और कहाँ तक जाने के बाद तंत्र उसे एप्रोप्रियेट कर लेता है ? क्या तंत्र का हिस्सा बन जाना अच्छे लेखक की मजबूरी है ? उसकी नियति ? क्या तंत्र की मीमांसा तंत्र के बाहर रहकर नहीं की जा सकती ? ऐसे सवाल इस नाटक के निर्देशकों ने उठाये नहीं. अगर प्रयोग करने की कोशिश हुई भी, तो टेक्स्ट के बाहर जाना पड़ा. टेक्स्ट को अपराजेय मान लिया गया और उस पर अभिनय और डिज़ाइन के फूल चढ़ाये जाने लगे.

यह बात बहुत बेचैन करती थी. वह नाटक पढ़ते हुए मेरे मन में दिवंगत श्रीकांत वर्मा जैसे बहुत से समकालीन कवि आते थे, जो सत्ता-प्रतिष्ठान से एक आलोचनात्मक दूरी को लम्बे समय तक बरत नहीं सके और व्यवस्था ने उन्हें हजम कर लिया. उनकी जीवन-कथाओं के विवरण इस महान नाटक में दाख़िल होना चाहते थे. दूसरी ओर राजसत्ता के भीतर अधिग्रहण का जो चरित्र छिपा हुआ है, उसको देखने और दिखाने का भी मन था. प्रतिकार की नयी किस्म भी एक पुराने नाटक के ज़रिये खुले, यह भी कामना थी.

तो हमने नाटक के कालिदास को मज़दूर नेता बना दिया. वह जींस और कुरता पहनता था, लेकिन संवाद बिलकुल राकेशीय तत्सम हिंदी में बोलता था. संघर्ष और समकालीनता के रूपक का निर्वाह करने के लिए बहुत सी चीज़ें बदलनी पड़ीं. कई बार वे किसी जादू की तरह अपने आप भी बदल गयीं. असल नाटक में जो आहत हिरन शावक है, हमारी प्रस्तुति में वह छात्रों और मज़दूरों का एक समूह है. मूल नाटक में उस घायल हिरन के बच्चे को उठाकर कालिदास अपनी प्रिया मल्लिका के घर जाता है. राजपुरुष वहाँ पहुँचते हैं और उससे वह हिरण शावक ले लेने की कोशिश करते हैं, क्योंकि वह हिरन शावक राजकुमार के तीर से छलनी हुआ है. कवि कालिदास हिरन का बच्चा दे देने से इनकार कर देता है और आमने-सामने की नौबत आ जाती है.

हमारी प्रस्तुति में हिरन तो था नहीं, उसकी बजाय छात्रों और मजदूरों का जत्था था, क्योंकि हमें भूमि अधिग्रहण और ग़रीब किसान के विस्थापन से इस दृश्य को जोड़ना था. एक पूरा समूह ही मेरे लिए हिरण शावक था. घायल और बेघरबार होकर मानो वह एक आंदोलनकारी हिंदी कवि के साथ-साथ उसकी प्रिया के घर जान बचाने चला आया था. यह पूरा समूह भयाक्रांत होकर कालिदास से बिलकुल चिपका हुआ था. एक आदमी से चिपके हुए एक दर्जन आदमी. ऐसा अतियथार्थवादी कोई दृश्य मोहन राकेश के इस महान नाटक में नहीं है, लेकिन ऐसी अनगिन दृश्यावलियाँ इस महाजीवन में रोज़ बन-बिगड़ रही हैं. क्यों नहीं इसे किसी नाटक में होना चाहिये ? इस दृश्य के इर्द-गिर्द संघर्ष और विस्थापन की दूसरी कहानी, उपन्यास या नाटक रच डालने से बात बहुत सपाट और स्थूल हो जायेगी. बहुत प्रभावशून्य पैटर्न पर ऐसा हमारे यहाँ हुआ भी है. दरअसल, यह बात ही अपने आप में इतनी लाउड है कि इसे बहुत सूक्ष्म और कलात्मक छंद में नाटक आना चाहिये. आषाढ़ का एक दिन में ऐसी संभावना थी. ठीक है कि मैंने नाटक को अतिरिक्त ढंग से पढ़ लिया था और बाद में बनारस में उस पर पर्याप्त विवाद भी हुआ, लेकिन अतिपाठ भी तो एक पाठ ही है.

इसके बाद राजपुरुषों के आ जाने पर जो आमना-सामना मूल नाटक में कालिदास और उनके बीच हुआ है, हमारे नाटक में एक जनसमूह और सत्ता में होता दीखता है. इससे प्रस्तुति के विज़ुअल में एक समकालीन उत्तेजना आ गई और मुझे भी काम में मन लगाने का एक बहाना मिला. इसके बाद, जब कालिदास उज्जयिनी के शासन के क़रीब जाकर अपनी ज़मीन और प्रिया से दूर हो जाते हैं और उनका व्यक्तित्व एक राजपुरुष में अवमूल्यित हो जाता है तो मैंने उन्हें पारंपरिक वेशभूषा में दिखाया. यों, परंपरा राजसत्ता और समकालीनता जनभावना का प्रतीक बन गई और असल ज़िंदगी का कन्फ्रंटेशन एक प्रेमकथा के भीतर संभव हो पाया. बाद में एक विशद थीसिस में अग्रणी रंग निर्देशक देवेंद्र राज अंकुर ने इस प्रस्तुति की सराहना की और इसे आषाढ़ का एक दिन की सर्वोत्तम प्रस्तुतियों में शामिल किया.

लेकिन यह प्रस्तुति आगे नहीं जा सकी. हममें कमियाँ थीं. मैं एक समूह को रंगमंडल की तरह विकसित नहीं कर पाया. हमउम्र अभिनेता दोस्तों से अपनी सही-ग़लत हर बात मनवा पाना मुश्किल था और मुझे ऐसा ही अनुशासन चाहिए था. भावोच्छ्वास से मेरा काम न चलना था. मुझे मेरी शर्तों पर चलने वाला एक फिदायीन दस्ता चाहिए था, जिसे नाटक करने के अलावा संसार का कोई और काम न करना हो.

यह खोज आने वाले दो सालों में पूरी हुई. मुझे एक विद्यालय में नाटक सिखाने का मौक़ा मिला और मिले दर्जन-भर किशोर-किशोरियाँ. उस विद्यालय की प्रधानाध्यापिका मेरी माँ थीं. उन्होंने मंचन के बाद हाईस्कूल और इंटर की कक्षाओं में हिंदी और अंग्रेज़ी पढाने का मौका भी मुझे दे दिया. इस अवसर का इस्तेमाल मैंने उस समूह के मन में अच्छी कविता की समझ और प्यार पैदा करने के लिए किया.

वह समय नशे में गुज़र गया. हमने सरहपा से लेकर गीत चतुर्वेदी तक की कविता से मुहब्बत की. एक घंटे की क्लास तीन घंटे तक चलती. वर्तनी की एक भी ग़लती आत्मघात के बराबर थी. हर विद्यार्थी क्लास में बोलने लायक़ बनाने की कोशिश करता. हर छात्र  सुलेख लिखने का प्रयत्न करता. सब मेरी आँखों में झाँकते हुए न जाने कौन सी व्यंजना की तलाश करते. कभी हम सब प्रसादजी के उजाड़ घर चले जाते, कभी भारतेंदु की ड्योढ़ी की धूल माथे पर लगाते. थिएटर दूर-दूर तक नहीं था तो ज़ाहिर है हम पर किसी प्रतिस्पर्धा का दबाव भी नहीं था. यह अपनी पूर्वज कविता को चाहे जैसे सेलिब्रेट करने का युग था. रंगकर्म उसका एक औज़ार बना. 1936 में कामायनी की रचना हुई थी और 2011 में उसके पचहत्तर साल पूरे हुए थे. इस कविता के माहात्म्य पर बहुत दिनों से नज़र थी.

यह सच है कि इस बीच कामायनी को दूर से देखा गया है. वह बातचीत, आदत और अभिव्यक्ति में नहीं है. यह समकालीनता की हद है. हमलोग कदम-कदम पर भारी मुआवज़ा देते हुए आगे निकले और उत्तराधिकार खंडित हो गया. सवाल रचना के विराट को पूरा-पूरा धारण कर लेने का नहीं था – वह संभव नहीं है, ज़रूरी भी नहीं है – उसके लिए कोई और ही मौसम, दूसरी ही धातु चाहिए – लेकिन उसे आरंभ, हमसफर, चुनौती या दायित्व मानने में क्या हर्ज़ है ? घबराने की भी कोई बात हमारे लिए नहीं थी. अंततः प्रसाद पड़ोसी हैं। बनारस में उनका घर, अवदान और संततियाँ बर्बाद और अभिशप्त हैं। कॉपीराइट खत्म हो गया है तो पुस्तकें एक-एक करके पेशेवर प्रकाशकों के पास जा रही हैं और कीमती भौतिक संपदा भू-माफियाओं के पास कभी भी पहुँच सकती है. कामायनी सहित सभी कृतियों का कोई क्रिटिकल एडिशनअब तक तैयार नहीं हुआ. विभिन्न संस्करणों के पाठ में अनेकानेक अंतर हैं. कई जगहों पर पूरी-पूरी पंक्तियाँ बदली हुई हैं. छात्र संस्करण कुछ और कहता है, भारती भंडार वाला हस्तलिपि संस्करण कुछ और. कविपुत्र रत्नशंकर प्रसाद ने यथाशक्ति और प्रामाणिक पाठ तैयार किया, लेकिन उसे अंतिम मान लेना ठीक नहीं है. जन्मशती के मौक़े पर प्रकाशित रचनावली अनुपलब्ध है. महान रचनाकार के घर से कुछ दूर स्थित दूकान तक आन-जाने के रास्ते पर आबादी का कब्ज़ा है. पुश्तैनी ज़र्दे का कारोबार ठप है. शहर में दूसरी चीज़ों का हल्ला है और शालीन नागरिकता चुप रहती आई है. वह दृश्य में है और नहीं दिख रही है. तब भी नहीं दिख रही थी.

ऐसे अभाग्य के साथ शुरुआत कुछ कम मुश्किल हो गई. यहाँ से शोक की बजाय उत्सव का वरण भी मुमकिन था. एक अवसर बन रहा था और हम इसी में से प्रसाद का स्पर्श करना चाहते थे – हम नौजवानी  की ओर से रचनाकार का अभिषेक करना चाहते थे, इसलिए कामायनी के मंचन का फैसला हुआ. हमारा ख़याल था कि ऐसी कोशिशों से भौतिक दिक्कतों को टाला या भूला जा सकता था. इसी राह पर चलकर कभी-कभी उन उलझनों को अपदस्थ भी किया जा सकता है.  अब भी हम इस नज़रिये पर कायम हैं.  

 जो पंक्तियाँ कामायनी के काव्य में निहित कहानी को ज़ाहिर करती थीं, अपने नाट्यालेख में हमने सिर्फ़ उन्हीं को लिया गया. यह चालाकी थी और विवशता, लेकिन एक अनुभवहीन आत्मविश्वास भी कहीं काम कर रहा था कि कामायनी की कहानी जिन पंक्तियों से बनती है महज़ उनसे भी महाकाव्य में शामिल बड़ी दार्शनिक समस्याओं की झाँकी मिल जाएगी. बाक़ी कविता भी अनिवार्य है और हमारे चयन में वह आलोकित ही होती है. ऐसे ही, पंक्तियों के क्रम में भी कहीं-कहीं कुछ उलटफेर हमने किया. प्रसादजी ने मनोविकारों के आधार पर सर्गों की रचना की है। हमने कहीं उन मनोविकारों को स्वाधीन चरित्रों की तरह विकसित किया – कहीं वे दूसरे चरित्रों में घुल गये और कहीं उन्हें पूरा छोड़ भी दिया गया है। यों, हमारा नाट्यालेख भले ही मूल कविता-पंक्तियों के स्तंभ पर खड़ा हुआ, उससे पूरी तरह स्वायत्त भी बना रहा और पढऩे की मेज़ की जगह रिहर्सल के फ्लोर पर – मंचन के लिहाज़ से तैयार हुआ.

 इस आलेख को नृत्य और संगीत में विन्यस्त होना था. मैं बनारस घराने के शास्त्रीय संगीत को थिएटर की बीच में ले आना चाहता था. दरअसल, हम संगीत के ज़रिए अपने रंगकर्म में कुछ और परिष्कार और बारीक़ी भी पा लेना चाहते रहे हैं. दृश्य में जो रंगसंगीत ‘लाइव कंटेंट’ की तरह मौजूद है, ज़्यादातर लोकसंगीत है और उसका मज़ा इसी बात में है कि वह तत्काल उपजे. वह शास्त्रीय संगीत का अपभ्रंश है. हमारा काम इससे न चलता. हमने अपने बहुत से महीने और साल अपनी एक-एक प्रस्तुति का संगीत तैयार करने में स्वाहा किये हैं. हमारे संगीत का काम सर्वोत्तम संगीतकारों के बिना भी नहीं चलता और सर्वोत्तम संगीतकार रोज़ की रिहर्सल्स और मनमानी तारीख़ों पर शो के लिए न मिलते. इसके अलावा अभिनेताओं के बीच रिकार्डेड म्यूज़िक के साथ काम करते हुए आप लयगति और ‘इमोशनल बिहेवियर’ की लगातार खोज में बहुत गहरे जा सकते हैं. मिसाल के लिए, तबले पर एक छोटी सी चक्करदार तिहाई आप पचास बार बजाकर अभिनेता के साथ पसीना बहाएँ. अगर तबलावादक साक्षात सामने बैठा हुआ है तो उससे एक ही तिहाई पचास बार बजवाने की कल्पना भी असंभव है. तब परिष्कार के साथ समझौता करना होगा.

 कविता अपनी अभिव्यक्ति के लिए एक खास क़िस्म की कोरियोग्राफी की माँग करती है. वह यथार्थवादी अभिनय-रूपों में सँभल नहीं पाती.

यथार्थ का गैरज़रूरी दबाव उनके अमूर्तनों को समतल करने लगता है और सबसे कोमल अंतर्ध्वनियाँ गुम या अवमूल्यित हो जाती हैं.

 कामायनी की शास्त्रीयता के अलग से भी कुछ आह्वान थे. हमने अपनी प्रस्तुति में तीन नृत्यरूपों – छऊ, भरतनाट्यम और कथक की ब्लेंडिंग के भीतर से एक आधुनिकतर देहभाषा की खोज की कोशिश की. इस तरीके से असहमत और भिन्न भी हुआ जा सकता है.

 इस कृति में शिल्प की, अभिव्यक्ति के अलग-अलग मॉडल्स की, व्याख्या और बहस के अंतरालों की खोज की अशेष संभावनाएं हमेशा हैं. ऐसी अनेकांत चीज़ ही हमारी फेवरिट हो सकती थी. शुरूआत में बचकानी और अपरिपक्व कुछेक प्रस्तुतियों के साथ हमारा काम हिचकोले खाता हुआ आगे बढ़ा. हमें बहुत दूर तक संदेह और संभावना का लाभ मिला है. इसीलिए हिंदी के साहित्य और संस्कृति-संसार के बारे में एक राय मेरी यह भी है कि यह चाहे जैसा हो, हमें तुरंत मान्यता दे देता है. हमें पहचान और मौक़े मिलने लगे, जबकि हमारे कलाकार किशोर और अप्रशिक्षित थे, ख़ुद मैं एक कवि के रूप में पर्याप्त प्रशंसित और पुरस्कृत था, लेकिन रंगमंच तो दूसरी ही बला थी. आज यह तय करना मुश्किल है कि पहले से कवि होने के तथ्य ने  मेरे रंगकर्म का फ़ायदा ज़्यादा किया या नुक़सान. मेरी कविता के बहुत से प्रशंसकों को यह लगने लगा कि नाटक-नौटंकी आदि के चक्कर में पड़कर मैं अपने लेखकीय व्यक्तित्व को चोट पहुँचा रहा हूँ, लेकिन यहाँ तो धुन सवार थी. हम देश-भर में घूम-घूम कर प्रदर्शन कर रहे थे, जबकि ईमान की बात यह है कि मुझे अपनी रिहर्सल्स से ज़्यादा ख़ुशी किसी चीज़ में नहीं मिल रही थी. हम उस मोर्चे पर अंधाधुंध मेहनत कर भी रहे थे.

 कामायनी के वज़न की ही एक और कृति ‘राम की शक्तिपूजा’ के मंचन का समय आया. शक्तिपूजा का मंचन मेरी माँ डॉक्टर शकुंतला शुक्ल का स्वप्न था. उन्होंने इस प्रोजेक्ट में अपनी सीमाओं के पार जाकर हमारे समूह की मदद की. अपनी ही शर्तों पर हमने इस प्रस्तुति का भी पार्श्व संगीत तैयार किया. यह सारा काम बहुत महँगा था.

 इसका  बोझ भी महसूस होता था. अब अतीत की यात्रा करने की बारी थी. शक्तिपूजा अपनी अंतर्वस्तु में एक आधुनिक रचना है, लेकिन उसके शिल्प में तुलसीदास की रामलीलाओं तक चले जाने की क्षमता भी है. मुझे यह बात थोड़ी-बहुत इसलिए समझ आ गई कि बनारस की संसार-प्रसिद्ध मौनीबाबा रामलीला में मैं बचपन में राम बन चुका था. मैंने लीला की कई सुन्दरताओं को अपने इस नाटक में शामिल कर लिया. कविता की पिछली पढाई अब हमारे अभिनेता-अभिनेत्रियों के काम आ रही थी. वे इस कठिन कृति में रम पा रहे थे. एक बार फिर कुछ नालायक़ मंचनों के साथ यह यात्रा भी शुरू हुई. हमलोग कछुए की चाल से आगे बढे. शक्तिपूजा के पास रामलीला के वैभव का समर्थन था, इसलिए भी यह प्रस्तुति ज्यादा सफल हुई. हम एक ओर नृत्य और संगीत के समारोहों में शिरकत कर रहे थे तो दूसरी तरफ़ थिएटर फेस्टिवल्स में भी जा रहे थे, लेकिन दोनों ही संसारों ने हमें अपनाया नहीं. हमसे दूरी बरती गई. हमारे नाटक में संवाद नहीं थे. सबकुछ प्रीरिकार्डेड था. उसकी वजह की ओर इशारा हम पहले ही कर आये हैं. वहीँ नृत्यरूप भी तीन थे. हम विशुद्ध नाटक और विशुद्ध नृत्य की अवधारणा के शिकार हुए. हमारा काम मिलावटी था. अब भी है. शायद आगे भी रहे. इसलिए हमें अपनाया नहीं गया. यह बात हमारे पक्ष में ही गई. हम सबसे अलग हैं, यह साबित हो गया.

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उषाकिरण खान की कहानी ‘बम महादेव’

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हिन्दी और मैथिली की प्रख्यात लेखिका उषाकिरण खान बिहार की पहली महिला लेखिका हैं जिन्हें पद्मश्री का सम्मान मिला। वे बिहार के मिथिला क्षेत्र दरभंगा लहेरियासराय से संबंधित हैं। उनकी तकरीबन चालीस किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनको भामती” के लिए साहित्य अकादमी सम्मान मिल चुका है।

उषाकिरणजी की यह कहानी “बम महादेव”  मैथिली से अनूदित है। कहानी के एक पात्र रसूल मियाँ को खुदाई में महादेव-गौरी की मूर्ति मिलती है। फिर एक बिजनेस ऑपरच्युनिटी का आईडिया आता है। भगवान का बिजनेस कोई नयी बात तो है नहीं, लेकिन अगर कोई मुसलमान हिन्दू भगवान को बेचे तो…?                                                                — अमृत रंजन

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रघुनाथ बाबू काॅलेज से रिटायर होकर गाँव जाने का विचार करने लगे। दक्षिण बिहार में जो आजकल झारखण्ड कहलाता है उसी ओर आज से उठ छत्तीस साल पहले काॅलेज की नौकरी करने गये थे। नयी उमर थी, नवविवाहित थे, नयी गृहस्थी थी और नई नौकरी भी थी। कॉलेज में पढ़ाना इनका सपना नहीं था कभी, सपना था बैंक की नौकरी करना सो जबतक नहीं हुआ था तबतक के लिए मित्र के सुझाव पर काॅलेज ज्वाइन किया जो स्थाई हो गया, बैंक में कभी प्रतियोगी परीक्षा नहीं निकाल पाये। शुरुआती दिन में गाँव जाया करते छुट्टियों में। गाँव जाते तो ननिहाल जाते, बुआ के ससुराल जाते, काकी के मायके जाते। छुट्टियाँ लम्बी हुआ करतीं। आम लीची खाने, निमंत्रण का मान रखने गाँवों में जाते रहते रघु बाबू। पूरी छुट्टी गाँव में बिताते मात्र जाना और आना करते। झारखण्ड अलग प्रदेश हुआ। आवास उन्होंने बिहार की राजधानी में बनाया, उनके कई सहकर्मियों ने भी वैसा ही किया क्योंकि घर तो बिहार के इलाके में था। राजधानी में रहना इसलिए जरूरी था कि डाॅक्टर वैद्य की सुविधा थी, बेटे बेटी भी आसानी से आते जाते रह सकते थे। सबसे बड़ी और अहम बात कि नगर में रहने की आदत हो गई थी। बहुत दिन हो गये थे गाँव गये, विचार तो करते थे पर पैर नहीं उठते थे। ऐसे ही समय में बालसंगी रामजी केवट मिलने आये। रघुनाथ बाबू ने प्रफुल्लित होते हुए कहा – “आओ दोस्त, बहुत दिन बाद मिले।

‘‘क्या कहते हो? मैं तो जब बाबा धाम गया, तुमसे मिला, तुम्हीं तो गाँव भूल गये हो।’’ – उसने उत्तर दिया

‘‘ मैं अक्सर गाँव जाता रहा’’ – रघुनाथ बाबू थे।

‘‘अपने गाँव जाते रहे, बुआ के गाँव कहाँ कभी गये?’’

‘‘फुरसत नहीं थी। बुआ रही नहीं, उनके सारे बच्चे बाहर रहते हैं कहाँ जाता; तुम्हें ही आना था।’’

‘‘कैसे आता, सुनता कि तुम आये हो। जब तुम्हारे गाँव आता तुम लौट गये होते।’’

‘‘अब मैं यहाँ स्थाई रहॅूंगा। गाँव भी आया करूॅंगा, खबर दॅूंगा, मुलाकातें होती रहेगी।’’ –

रामजी केवट दरभंगा से मोटर साईकिल से किसी नवयुवक के साथ आये थे। बहुत दिनों बाद दोनों मित्र सुस्थिर होकर मिले थे और घर परिवार की बातें की थीं। रामजी केवट तालमखाने की खेती और व्यापार करते थे सो अच्छे मोटे हो गये थे। रूपये पैसे आने के बाद गाँव इलाके के छुटभैया नेता भी हो गये थे। बहुत देर तक दोनों मित्र गपशप करते रहे थे। चाय नाश्ता करके रामजी केवट जब विदा हुआ तब रघुनाथ सोचने लगे कि इनका अपने गांव में कोई दोस्त तो है ही नहीं उसका कारण गोतिया लोगों का परस्पर द्वेष था। बहुत लोग अनपढ रह गये। गाँव में कोई कृषि उद्योग मसलन पशुपालन, मछली पालन भी नहीं किया, खेती भी ढंग से नहीं की; नतीजा यह हुआ कि बाल बच्चों के ब्याह में जमीन बेच कर खर्च किया वे सहज रूप से विपन्न होते गये। रघुनाथ बाबू ने ऐसा नहीं किया अपनी कमाई से बच्चों को पढ़ाया और विवाह किया। मातापिता के देहावसान के बाद खेत बटाई पर था अब स्वयं जाकर करने की कोशिश करेंगे

रामजी केवट का मोबाईल नं0 नोट कर लिया था। विचारा था जाने के पहले उन्हें खबर कर देंगे बुआ के गाँव का रामजी केवट और रसूल कुजड़ा इनके निकटतम मित्र थे। बुआ के देवरों के बेटे इनसे खूब नहीं घुलते मिलते। आठ साल की आयु से ही ये तीन दोस्त थे। हर साल कम से कम एक सप्ताह के लिए बुआ के गाँव जाते वहाँ बंसी खेलते मछली पकड़ते, फानी लगाकर बगेरी फॅंसाते खेत में ही सूखा घास जलाकर मछली और बगेरी भून कर खाते। बुआ को पता चल जाता, डाँट पड़ती पर बेपरवाह के बेपरवाह बने रहते। बुआ मल्लाह टोला जाकर रामजी की दादी को चेता आतीं -‘‘काकी ये क्या करते हैं बच्चे ? मेरे भतीजे को कुछ हो गया तो भौजाई नौ नतीजा करेगी। बच्चों को बजरिये, यहाँ वहाँ डोलते फिरें।’’

‘‘ऐे कनियाँ, कुछ होगा, रमजीया जलजीव हैं, रघुनुनू को कभी पानी में जाने देगा।’’- कहने को कह देती दादी पर रामजी को अपनी टेढ़ी वालीलाठी लेकर दौड़ाती – ‘‘इधर सइंमेरौनी का नाती, तेरे बंसी में जंग लगे! कहाँ गया वह मियाँ छोकरा रसुलबा, जो कुजड़ागिरी छोड़कर फानी लगाने लगा फुद्दी बगेरी फॅंसाने? बड़का महाजाल बुनवैया बना है, अभी सलाई लगा दूँगी।’’ – रामजी केवट गायब हो जाते शाम ढले, गाय बैल घंटी टुनटुनाते बथान पर लौट आते तब तक रामजी का पता नहीं चलता। उस दिन बुआ के दालान वाले मचान पर रामजी केवट और रसूल राइन, सुशील बालक बन गाल पर हाथ धरे बैठा रहता और एक लकड़ी की उॅंची कुर्सी पर बैठकर रघुनाथ बाबू चन्दामामा की तिलस्मी कहानी पढ़कर सुनाते होते भड़भूजे के यहाँ से भुने पचरंगे चबेनों में अॅंचार का तेल मसाला मिला बुआ बड़े चाव से फूल की छिपली में रघुनाथ को और डलियों में अलगअलग रामजी और रसूल को फाँकने बड़े प्रेम से देतीं उन्हें हिदायत भी देती – ‘‘ऐसे ही रघु बौआ से ज्ञान की बात सीखा करो तुमलोग’’ – बुआ जी ममता की मूरत थीं। शाम ढले, दीया बाती होने के बाद जब रामजी नहीं पहुॅंचता तब दादी अपनी टेढ़ी मेढ़ी लाठी टेकती रघु की बुआ के घर ही आतीं।

‘‘लो, यह यहाँ विराज रहा है मैं जंगल तालाब भटकती रही।’’

‘‘पहले लोग घर में ढूँढ लेते हैं तब बाहर जाते हैं काकी, आपको भी भटकना अच्छा लगता है।’’ – बुआ कहतीं

‘‘आपने ही तो कहा था कनियाँ, कि ये लोग खेत पथार, गड़हीं तालाब नापते रहते हैं।’’

‘‘आज तो मजलिस यहीं, जमी’’ – अब सब अपने अपने घर की ओर चले गये रसूल मियाँ की सिर्फ एक दादी थी, माँ न बाप! एक बड़ी बहन थी सो ब्याह कर ससुराल चली गई। समय बीतता चला गया। रघुनाथ बाबू बी00 की परीक्षा देकर बुआ के गाँव गये थे। रामजी केवट का विवाह, द्विरागमन हो चुका था। रघुनाथ बाबू उसके आंगन गये थे, रामजी की कनियाँ ने घूंघट उठाया पर चुपचाप पीछे से एक बाल्टी आलतई रंग घोलकर नहा जरूर दिया था। रसूल कुजड़ा बुआ के खेत में आलू बैगन उपजाता और बैलगाड़ी पर लादकर हाट पर बेच आता।

सांध्यकालीन बैठक में रामजी और रसूल ने रघुनाथ से कहा – ‘‘मछली फॅंसाने के लिए बाँस का बाड़ा लगा रहे थे कि पैर में कुछ ठोस वस्तु टकराया; खोदकर निकाला तो मूर्ति निकली, हमने उसे वहीं दबा दिया है।’’

‘‘ऐं कैसी मूर्ति है, किसकी है?’’ – रघुनाथ ने पूछा

‘‘देखोगे तब यार, जान पड़ता है शिवलिंग है।’’

‘‘उसपर देवी की मूरत भी हैं। मेरी समझ से ऐसी मूरत कहीं नहीं है’’ – रसूल ने कहा

‘‘कहाँ हैं?’’

‘‘चलो , उसे चैर में ही दबा दिया है।’’ – तीनों मिलकर चैर पर पहुॅंचे। चैर पहले कभी बड़ा रहा होगा पर अभी छोटा सा जलजमाव था। चारो ओर खेती ही खेती ये लोग मात्र 81-82 साल के थे परन्तु योजना सौ साला बना बैठे। सचमुच काले पत्थर का विशाल शिवलिंग था उसपर सोलहो श्रृंगार किये गौरी पार्वती की मूर्ति उत्कीर्ण थी। तीनों मित्रों की सलाह हुई कि कल नाटकीय ढंग से घोषणा की जायकि रात में देवी ने इन तीनों को स्वप्न में आकर कहा है कि मैं चैर में मिट्टी के नीचे दबी पड़ी हॅूं मेरा उद्धार करो रघुनाथ ने बताया मित्रों को कि या तो सन् चौंतीस को भूकम्प में यहाँ कोई विशाल मंदिर होगा जो जमींदोज हो गया या बड़े वाले जलाप्लावन में कहीं नेपाल तरफ से दहभॅंसकर गया होगा अब जो हुआ सो हुआ। क्यों थोड़ी प्रतिष्ठा अर्जित कर ली जाये साथ ही पुन: प्रतिष्ठा का पुण्य लूट लें। लोकोपकार भी होगा। जैसे ही इन तीनों के मुॅंह से सपने की कथा प्रसारित हुई लोगों ने मूर्ति खोजना शुरू किया। गाँवों के इलाके भर में समाचार आग की तरह फैल गयी लोग चैर के पास इकट्ठे होने लगे बच्चे बूढ़े और जवान। निकट गाँव की स्त्रियाँ भी जातीं खुरपी कुदाल चलने लगा। एक बुजूर्ग ने बरजा – ‘‘कुदाल का सफाई हाथ मारो मूरत खंडित हो जाय।’’

‘‘अंगअंग मूरत पूजित होंगी।’’ – दूसरे ने कहा कीर्तनमंडली अपना झाल मृदंग लेकर बैठ गई कीर्तन होने लगा। एक डाॅक्टर साहब थे गाँव में। उन्होंने कहा – ‘‘अरे नवयुवकों ने सपना देखा, उस बात को इतनी गंभीरता से क्यों ले बैठे आपलोग? सपने कहीं सच होते हैं?’’ कुछ लोगों को उनका कहा सही लगा पर अधिकतर लोगों को बहुत बुरा लगा।

‘‘देवी क्यों सपने में आयेंगी सत्य ही होगा।’’ – एक आस्थावान वृद्धा बोलीं। बुआ जी के मन में द्वन्द्व होने लगा कि उन्हीं के भतीजे ने सपना देखा और यह मजमा इकट्ठा हो गया है

‘‘हे माँ, लाज रखना।’’-

रामजी और रघुनाथ ने विचार किया आज रसूलबा के हाथों देवी प्रकट किया जाय। कोेई सन्देह हो सो रामजी दूसरी ओर पानी में उतरा और रसूल मियाँ मूर्ति की तरफ कच्छा पहन कर घुसा। एक घंटा तक इधर उधर डूबते तैरते रसूल ने पकड़ा – ‘‘यह बड़ा पत्थर मिला, मूर्ति ही है।’’ चारो तरफ से तैराक कूदे और देखते देखते मूर्ति लेकर निकल आये। फुलपाॅक से मूर्ति निकाल सूखे पर रखी गई कई बाल्टी पानी से धोई गई। काले सुचिक्कन प्रस्तर मूर्ति को देख अचम्भित और भावविभोर थे लोग। इस इस विषय पर विचार होने लगा कि मूर्ति को कहाँ और कैसे स्थापित किया जाये। अनायास विचार हुआ कि मन्दिर वहीं बने। यह जमीन गैरमजरूआ है, तालाब घाट सहित बन जाय। इन तीन तिलंगों का भाव बढ़ गया था। समय पाकर मंदिर बन गया भव्य मंदिर! आखिरी बार जब रघुनाथ बाबू बुआ के गाँव आये थे तो देखा विशाल मंदिर अहाता, परिसर परिसर में दूकानें फूल बेलपत्र की, अॅंचरी चूड़ी, सिन्दुर चुनरी की दूकानें। इन पूजन सामग्री की दूकान रसूल मियाँ की थीं रामजी केवट की दो दूकानें थी पूजन सामग्री और भभूत मिठाई वगैरह की। रसूल और रामजी की दूकानें पक्की थीं। रसूल ने पक्का घर भी बनवा लिया था। शादी हो गई थी, बाल बुतरू भी हो गये थे। त्योहार के अवसर पर मंदिर खूबसूरती से सजाया जाता जैसेजैसे भक्तों की वांछित मनोकामना है पूरी होती, वैसेवैसे ख्याति बढ़ती जाती भक्तगण कुछ कुछ दान देकर शोभा द्विगुणित करते रहते। यह सब भगवान और भक्त के बीच का मामला था।

एम00 करने के बाद रघुनाथ बाबू अपने निजी जीवन को गंभीरता से लेने लगे काॅलेज की नौकरी सिर्फ टेम्परेरी समझकर किया था वहाँ परमानेन्ट हो गये। आवश्यकतानुसार पी0एच0डी0 करने में लग गये। काॅलेज में सीढ़ियाँ चढ़ते गये विभाग के अध्यक्ष तो बने ही विश्वविद्यालय के प्रो0 वी0सी0 पद तक पहुॅंच गये। सचमुच रामजी केवट कई बार बाबा धाम आया और इनसे मिलता रहा जब मखाने का व्यापरी हो गया तब अक्सर एक बोरिया मखाना लेकर आता था। गांव घर का समाचार सुनाता। रसूल राइन के बेटे सब्जियों के व्यापारी हो गये थे। मंदिर परिसर के कई भोजनालयों में तरकारी मुहय्या कराते। रसूल अब अधिक समय दूकान पर गुजारता  शिवरात्रि का व्रत वह हर साल करता। रामजी केवट और रसूल राईन अक्सर खानगी में बतियाते कि धन्य ये गौरी शंकर कि हमलोगों जैसा नंगा फकीर आज सम्पन्न हैं वह मूर्ति इन्हीं लोगों को क्यों मिली और इनलोगों ने ऐसी सुनिश्चित योजना ही क्यों बनाई ? राजी तो था ही, रसूल पूर्णतया भोलाभाला था। रमजान रोजा, सब अपनी जगह बाबा अपनी जगह। दोनों आस्था साथ लेकर चलता। रघुनाथ के पूछने पर रामजी ने बताया था कि ‘‘रसूल ने अपना खास दो बीघा जमीन अरज लिया है, बेटा बेटी पढ़ा सो व्यापार बढ़ाया पर उसका एक दामाद बड़ा टेटियाहा है।

‘‘ऐं ऐसा क्या?’’ – रघुनाथ चौंका था।

‘‘भई दामाद कुछ ज्यादा पढ़ा लिखा है। अपने गांव में ही मदरसा खोल लिया है।’’ – रामजी ने बताया

‘‘ठीक तो है, गाँव के बच्चे पढलिख लेंगे।’’- रघुनाथ ने कहा।

‘‘पढ़ेगा! यह होता तब ? चेला चाटी को उल्टा पुल्टा सिखाता है।’’

‘‘ऐं?’’ रघुनाथ सोचने लगे। समय पाकर गाँव गये तो रामजी को खबर की। रामजी से कहा कि रसूल को लेते आये। पर वो अकेले आया। पूछने पर बताया कि रसूल आने लायक नहीं है

घर में उसका दामाद अक्सर अपमानित करता है कि गौरीशंकर मंदिर में रहता है। बरत करता है, ईद बकरीद छोड़ कभी नमाज नहीं पढ़ता है। अब तो बेटों ने भी कहना शुरू किया कि मंदिर वाले दूकान को किराया पर उठा दो, तुम बैठो पर रसूल सुना तो सुना। एक दिन रसूल ने अपने बेटे बेटी, बहू दामाद को बैठाकर मूर्ति मिलने की सच्ची कथा सुना दी और कहा – ‘‘देख लो, अल्लामियां ने मेरे हाथों मूरत का उद्धार कराया, हम उनका दर छोडेंगे।’’

‘‘अल्ला को काहे सानते हो अब्बा, दोजख में भी जग्गह मिलिहैं। फाजुल बात बोलते हो। दिमाग चल गिया है।’’- दामाद ने हिकारत से कहा रसूल अब लोगों को पकड़ पकड़कर मूरत मिलने की कथा कहता रहा, मेरे समझाने पर भी मानता। सचमुच बौरा गया है

अचानक जीवन के अवसान काल में रघुनाथ बाबू को बोध हुआ कि कोई अपराध हो गया तीनों तत्कालीन नवयुवकों द्वारा। यदि ये सच्ची बात जाकर लोगों को समझाते हैं तो इन्हें भी लोग पागल समझेंगे और रामजी अलग नक्कू बनेगा।

‘‘रामजी, क्या मैं चलूँ रसूल के पास? कोई लाभ होगा?’’

‘‘कैसे कहॅूं?’’ – रामजी ने कहा। रघुनाथ बाबू बहुत सोच विचार के बाद सीधे मंदिर परिसर गये रसूल मियाँ अपनी दूकान पर मिले उसकी दूकान से सीधे गर्भगृह दीखता था; शिवलिंग के दर्शन होते बहुत देर तक देखता रहा रसूल रघुनाथ बाबू को, पहचान गया; वर्षों बाद देख रहा था

‘‘ रघुनाथ बाबू, मेरी सच बातों को कोई कान नहीं देता है, यह मलहबा रमजीया भी कुछ नहीं बोलता मेरा मौलवी दमाद कहता है मंदिर छोड़ दो।’’- विह्वल था रसूल

‘‘रसूल यार, मन की बात मन में ही रखो। बाबा मन में हैं।’’ रसूल ने मेरी कही सुनी गाँव से आये छः माह हो गये थे कि एक दिन रामजी आया। रसूल के बारे में पूछने पर बताया कि उसके घर की प्रगति हो रही है। मदरसा सरकारी हो गया और दामाद जी सरकारी सेवक लेकिन रसूल मियाँ पूर्ण पागल हो गया बच्चे ढेला मारते हैं और चिढ़ाते हैं – ‘‘बम महादेव बमरी,  सवा हाथ का नेंगड़ी’’- हम डाँट कर भगाते हैं बेटे दामाद जो उसी के कारण आज सम्पन्न हैं कहते हैं – ‘‘ईहो होयके बाकी रहलो हे, जैसन करनी तैसन भरनी’’

दोनों मित्र भारी मन से इस पारिवारिक विषय को सोचते बैठे रहे देर तक।

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गगन गिल के नए कविता संग्रह से पांच कविताएँ

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गगन गिल ने एक दौर में हिंदी कविता को नया मुहावरा दिया. दुःख की नई आवाज पैदा की. ऐसी आवाज जिसमें निजी-सार्वजनिक सब एकमेक हो जाते हैं. यह ख़ुशी का विषय है कि तकरीबन 14 साल बाद उनका नया कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है ‘मैं जब तक आई बाहर’. यह संग्रह वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. साथ ही, उनके पिछले सभी कविता संग्रह भी वाणी प्रकाशन से पुनर्प्रकाशित हुए हैं. उनेक नए संग्रह से पांच कविताएँ- मॉडरेटर
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ज़रा धीरे चलो, वनकन्या

ज़रा धीरे चलो, वनकन्या

बीज सो रहा है
मिट्टी में

घास चल रही है
धरती में

बर्तन लुढ़क रहे हैं
भीतर तुम्हारे आले से

जहाँ भी रखती हो पाँव
दरक रही है धरती

ज़रा धीरे चलो, वनकन्या

पछाड़ दिया है तुमने
ऋतु-चक्रों को
पुरखों को
गिद्धों को

पछाड़ दिया है तुमने
संवत्सर को
सूर्य और
स्मृति को

कब का हुआ मिट्टी
तुम्हारे हृदय का वह टुकड़ा

यहाँ रख दो उसे
ऊँची इस शिला पर

जाने दो उसे

सूर्य की ओर
वायु की ओर
रश्मि की ओर

बीत गया युग एक

धीरे-धीरे
लौटो अब
वनकन्या

 

देवता हो, चाहे मनुष्य

देवता हो, चाहे मनुष्य
देह मत रखना किसी के चरणों में

देह बड़ी ही बन्धनकारी, वनकन्या!

सुलगने देना
अपनी बत्ती
अपना दावानल

साफ होने देना खेत
जल लेने देना
पुराना घास-फूस

अपनी मज्जा
अपनी अग्नि
परीक्षा अपनी

डरना मत किसी से, वनकन्या

धीमे-धीमे बनना लौ
उठती सीधी
रीढ़ में से ऊपर

साफ
निष्कम्प
नीली लौ

अपनी देह
अपना यज्ञ
अपनी ज्वाला

फिर निकलना दूर
इस यज्ञ से भी

खड़े होना
अकेले कभी
आकाश तले

मात्र एक हृदय

नग्न और देह विहीन

निष्कलुष
पारदर्शी

आसान नहीं होगा यह
बहुत मुश्किल भी नहीं, वनकन्या
रहना बिन देह के

लौटना मत इस बार
किसी कन्दरा
किसी कुटिया में

लौटना यदि किसी दिन
तो लौटना यहीं
इस हृदय में अपने

देह बड़ी ही बन्धनकारी, वनकन्या!

इसे मत रख देना
किसी की देहरी पर

देवता हो
चाहे मनुष्य

 

तुम्हें भी तो पता होगा

मैं क्यों दिखाऊँगी तुम्हें
निकाल कर अपना दिल

तुम्हें भी तो
पता होगा

कहाँ लगा होगा
पत्थर
कहाँ हथौड़ी

कैसे ठुकी होगी
कुंद एक कील
किसी ढँकी हुई जगह में

कैसे सिमटा होगा
रक्त
नीचे चोट के
गड्ढे में

नीला मुर्दा थक्का
बहता हुआ
ज़िंदा शरीर में

तुम्हें भी तो दिखता होगा
काँच जैसा साफ?

मैं क्यों दिखाऊँगी तुम्हें
अपना आघात?

तुम्हें भी तो
पता होगा

कितने दबाव पर
टूट जाती है टहनी
उखड़ जाता है पेड़
पिचक जाता है बर्तन

तार जब काट देता है हड्डी
फेंक देता है
उछाल कर बाज़ू
हवा में

तुम्हें भी तो
पता होगा
कितना सह सकता है मनुष्य
कितना नहीं?

कितना कर सकता है क्षमा
कितना नहीं?

कोई क्यों मांगेगा
किसी और के किये की क्षमा
भले कितना ही अंधेरा हो
पीड़ा का क्षण?

कोई क्यों हटायेगा
सामने से अपने
भेजा तुम्हारा प्याला?

क्यों नहीं लेगा कोई
तुम्हारी भी परीक्षा?
कि देख सकते हो कितना तुम?
सह सकते हो कितना?

कैसे चटकता है कपाल
भीतर ही भीतर

उठता है रन्ध्र एक
धीरे-धीरे ऊपर
किस पीड़ा में

तुम्हें भी तो
पता होगा
कुछ?

मैं क्यों कहूँगी तुमसे
अब और नहीं
सहा जाता
मेरे ईश्वर?

 

इस तरह

इस तरह शुरू होती है यात्राएं
एक पत्थर टकरा कर
आपके पाँव से
गिर जाता है नीचे
घाटी में

पल भर के लिए आप
भौंचक रह जाते हैं

रास्ते की बजाय नीचे घाटी में
दिखती है नदी
सुंदर नहीं, भयानक

आप चढ़ाई चढ़ रहे होते हैं
तोड़ देता है
हवा का दबाव
सीने का पिंजरा
निकल आता है बाहर
धक्-धक् करता दिल

आँखों के आगे
छा जाती है काली धुंध

कुछ समझ नहीं पाते आप
ऊपर जाएँ या नीचे

कि तभी
पहाड़ की चट्टान में से
झांकते हैं
नन्हे नीले फूल

उड़ जाती है एक तितली
छू कर आपकी बांह

घास उठाती है
हलके से अपना सिर

आप मुस्कराते हैं
हौले से

और देखते हैं
आप ही नहीं हैं
प्रकृति में अकेले
एकांत में मुस्काने वाले

फूल हैं
और तितलियाँ
और बच्चे
बहुत बूढ़े हो गए
समय के उस पार चले गए
कुछ लोग

सब मुस्करा रहे हैं अकेले-अकेले
ठीक इस वक्त

सब चलते हैं अकेले
रुकते हैं, मुड़ते हैं

पता ही नहीं चलता उन्हें
अकेले नहीं वे
जब तक छू न जाए उन्हें
तितली का पंख

इस तरह शुरू होती हैं यात्राएं
एक पत्थर से
दूसरे पत्थर तक
रुक-रुक कर

धीरे-धीरे पहुंचते हैं आप
चोटी तक
देखते हैं मुड़ कर

न कहीं फूल दिखाई देते हैं
न तितली

न वह पत्थर
जो एक दोपहर
आपके पैर से टकराया था
आप लुढकने वाले थे नीचे घाटी में

कैसे नादान थे आप
सोचते थे तब
गिरे तो मरे

जानते न थे
इसी तरह होती हैं यात्राएं

 

इस तरह खोलते हैं लंगर

इस तरह आप खोलते हैं लंगर
हवा में एकटक ताकते हुए
लहर को धकेलते हुए भीतर
पीड़ा ने डुबो रखा था आपको
गर्दन से पकड़ कर

एक सांस और
बस एक सांस

एक झोंका और
थोड़ी सी हवा बस

आप खोलते हैं
अपने लंगर
जैसे काटते हों कोई टांका
किसी घाव का

अब वहां सूखी गड़न है केवल
स्मृति किसी चोट की

अब सब गड़बड़ है
स्मृति भी
चोटों का हिसाब भी

कहीं जाना न था
आपको
कहीं आना न था

आप यहीं रुकना चाहते थे
सदा के लिए
गाड़ना चाहते थे
अपना खूंटा
जैसे कोई चट्टान हों आप
या कोई पत्थर

इतने भारी
इतने थिर होना चाहते थे आप
कि कोई
हिला न सके आपको
कर न सके विस्थापित

कितनी मृत्युएँ लिये अपने भीतर
घूमते रहे बेकार आप
भारी मश्क लेकर

आप खोलते हैं अपने लंगर
और कोई नहीं रोकता
आपकी राह
कोई नहीं पुकारता
किनारे से

कोई यह तक नहीं देखता
कि आप उठ गए हैं
सभा से

कि खाली होने से पहले ही
भर गयी है आपकी जगह

पानी पर लिखीं थीं
आपने इबारतें
सन्नाटे में सुनीं थीं
अपनी ही प्रार्थनाएँ

आपको पता भी नहीं चला
हवा ले गयी
धीरे-धीरे
चुरा कर आपके अंग

कि अब आप ही हैं धूल
अपनी आँखों की

छाया की तरह आप
गुज़रते हैं
इस पृथ्वी पर से
इस दिन पर से
इस क्षण पर से

काश कोई
ग्रहण ही हुए होते आप
बने होते
हवा और रश्मि के

कहीं रह जाता आपका निशान

The post गगन गिल के नए कविता संग्रह से पांच कविताएँ appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..


सागर का सम्मोहन: लक्षद्वीप

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लक्षद्वीप की सुंदरता विलक्षण और निराली है। मुकुल कुमारी अमलास ने लक्षद्वीप की यात्रा के पूरे अनुभव को बड़ी ख़ूबसूरती से बयान किया है। यह संस्मरणात्मक लेख काफ़ी बारीकी से लक्षद्वीप के इतिहास और समाज के बारे में आपको बताने के साथ ही समंदर की रोमांचक गहराइयों में ले जाएगा।

———–

 

 

 

नोबेल पुरस्कार विजेता स्पेनिश कवि पाब्लो नेरुदा की यह कविता जीवन के दर्शन का सही निचोड़ है 

आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं,

अगर आप करते नहीं कोई यात्रा,

अगर आप पढ़ते नहीं कोई किताब,

अगर आप सुनते नहीं जीवन की ध्वनियाँ,

अगर आप करते नहीं किसी की तारीफ़।

बहुत दिनों से एक ही जगह पर रहते-रहते और एक सी दिनचर्या बिताते हुये मुझे भी लग रहा था कि मैं मर रही हूँ। जीवन में जैसे कोई रस नहीं रह गया था। सबकुछ जैसे बर्फ सा जमा हुआ, स्थिर और निर्जीव सा। ऐसे में यात्रा ही इस हिमखंड को तोड़ सकती थी। जल्द ही मौका मिला।

          केरल के थिरुअनन्तपुरम में दक्षिण भारतीय शादी देखने का मौका और साथ में लक्षद्वीप की सैर यानी एक पंथ दो काज। पर मन में उत्साह की कमी है। सच पूछो तो तन और मन दोनों थके हैं काम के बोझ से। हाल की अखिल भारतीय माध्यमिक विद्यालय परीक्षा के दस दिनों के मूल्यांकन कार्य ने तो जैसे आँख और कमर की गत बना कर रख दी है। ऊपर से घर का झंझट जो कभी पीछा ही नहीं छोड़ता। सोच लिया था अब घर से निकलना ही है चाहे जैसे भी हो। हम जैसी शिक्षिकाओं के लिये ग्रीष्मावकाश से बेहतर समय और क्या हो सकता है! समुद्र तट मेरी कमजोरी रही है अतः इस बार कहीं और नहीं, चल मेरे मन सागर तीरेयाद आता है कई बरस पहले की हुई गोवा के समुद्र तट की यात्रा। मेरे पास स्नान करने केलिए कोई कपड़ा नहीं था पर सागर को सामने देख मैं खुद को रोक नहीं पाई और साड़ी में ही सागर में उतर गई , बाद में पतिदेव का शर्ट पहन अपनी साड़ी सुखाती रही थी। बस सागर का यही एक अनुभव मेरे साथ था। लक्षद्वीप आने की इच्छा बहुत दिनों से थी पर अवसर नहीं मिल पा रहा था। कुछ बरस पहले भी जब अपने बच्चों के साथ केरल आई थी तब भी मानसून की बरसा शुरू हो जाने के कारण लक्षद्वीप नहीं जा पाई  थी । सोच लिया इस बार जाना ही है । टिकट और लक्षद्वीप घूमने के लिए प्रशासनिक अनुमति लेने आदि का काम पतिदेव ने संभाल लिया था । ऐन मौके पर कई समस्याएं आईं लेकिन अंततः प्रोग्राम बन ही गया। उत्साह का न होना एक नकारात्मक बिंदु है पर सोचती हूँ यह परखने का मौका मिलेगा कि सचमुच समुद्री-यात्रा में कुछ हीलिंग पॉवर होती है या नहीं ? यह मेरे उत्साही स्वभाव को फिर से वापस ला सकता है या नहीं ? लक्षद्वीप तुम मुझे शिद्दत से बुलाओ तो सही कि क्लांत तन-मन में आवेग आ जाये और मैं दौड़ पडूँ तुमसे मिलने के लिये ।

मिल जाऊँगा दरिया से तो हो जाऊँगा दरिया

सिर्फ़ इसलिए क़तरा हूँ कि दरिया से जुदा हूँ।

सुना है यहाँ का समुद्र जीवित है और जगहों की तरह केवल रेत और पानी नहीं। ओ सागर देखना चाहती हूँ तुम्हारी उस जीवंतता को, किनारे पर चलते जीवों और पानी में समाये प्रवालों को। बच्चों की भाँति अपनी फ्रॉक की झोली बना चुनना चाहती हूँ किनारे में फैले सीपों और शंखियों को। तुम्हारे किनारे किसी पेड़ की छाया में बैठ लिखना चाहती हूँ कविता अंबर और अवनी के प्रेम की, एक छोटी बच्ची बन दौड़ना चाहती हूँ ठंडी-ठंडी रेत पर, एक छोटी सी नौका ले निकल जाना चाहती हूँ बिल्कुल ही किसी निर्जन द्वीप पर और महसूसना चाहती हूँ उसकी निर्जनता। शायद मेरे मन-सागर में फैली निर्जनता वहाँ की निर्जनता से मिल फिर से आबाद हो सके, फिर से कुछ दिन जीने की इच्छा जग जाये। जयशंकर प्रसाद की कविता याद आती है –

ले चल वहाँ भुलावा दे कर मेरे नाविक! धीरे-धीरे

जिस निर्जन में सागर लहरी,

अम्बर के कानों में गहरी,

निश्छल प्रेम-कथा कहती हो- 

तज कोलाहल की अवनी रे।

केरल की शादी सादी पर सुरुचिपूर्ण लगी। उत्तरी भारत के ताम-झाम और गहमा-गहमी का अभाव, मेरे थके तन-मन को बहुत सकूनदायी लगा। सबसे अच्छा लगा शादी का प्रभात बेला में संपन्न होते देखना। मंगलाचरण का पाठ बहुत प्रभावी था। शादी के उपरांत केले के पत्तल पर केरालाई व्यंजनों का स्वाद न भूलने वाला अनुभव था। शादी के उपरांत सुबह का नाश्ता और उसके तुरंत बाद पद्मनाभ स्वामी मंदिर जाने का मौका मिला। एक घंटे लाईन में रहने के बाद दर्शन का सौभाग्य। क्षीरसागर में शेषनाग पर लेटे विष्णु भगवान को देख सोचती रही कहाँ है यह सागर। अरब सागर, हिन्दमहासागर से कुछ संबंध है इसका? अरब सागर में जा रही हूँ ढूँढूँगी भगवान को,  मिलेंगे क्या? पर भगवान क्या इतनी आसानी से मिलते हैं? फिरभी सागर बुला तो रहा है, वरना इतनी बाधाओं के बाद भी जा पा रही हूँ, लगता तो नहीं था जा पाऊंगी। शाम का समय है केरल की हरियाली मन को मोह रही है। सुनहरे आसमान के बैकग्राउंड में नारियल के पेड़ों का झुरमुट और बैकवाटर का खुबसूरत दृश्य सचमुच सुन्दर है। थिरुअनंतपुरम से एर्नाकुलम, रेल से सफर लगभग तीन घंटे का, केरल को अंदर से देखने का मौका देता है। साफसुथरे रेलवे स्टेशन , संभ्रान्त लोग। केरल यूं ही भारत का सबसे विकसित राज्य नहीं कहा जाता। ट्रेन में सारे लोग चुप अपने में खोए हुए, हाथों में मोबाइल, कानों में ईअर फोन, बिल्कुल  पिछले साल की गई यूरोप यात्रा की याद ताजा हो आई। कोई बहसबाजी नहीं कोई राजनीति की चर्चा नहीं। रात को एर्नाकुलम में रुकने के बाद कल सुबह एअर इंडिया की फ्लाईट से हमलोग अगत्ती पहुंचेंगे। सोच रही हूँ कैसा होगा लक्षद्वीप? इसका नाम लक्षद्वीप क्यों पड़ा? क्या सचमुच सौ हजार द्वीप रहे होंगे पहले यहाँ? अभी तो सिर्फ 36 द्वीप हैं जिसमें से सिर्फ सात में लोग निवास करते हैं। देखें कितनों को देख पाती हूँ! यूँ तो लक्षद्वीप जाने का सबसे अच्छा मौसम सितंबर से मार्च माह के दौरान माना जाता है पर अपनी छुट्टी तो गर्मी में ही होती है अतः बिना कुछ सोचे निकल पड़ी हूँ। कोच्ची हवाई अड्डे पर जब आई तो कुछ बातों को लेकर मन बहुत भारी था। डबडबाई आँखों से प्लेन में बैठी। नीचे पानी का नीलापन था ऊपर आकाश का। धरती और आकाश सब मिल से गये थे और मैं जैसे उसके केंद्र में बने भंवर में डूब-उतर रही थी। अजीब संवेगों, उद्वेगों, ग्लानि, क्रोध, आक्रोश न जाने किन भावों, मनोभावों में डूबी। आँखों के सामने रह-रह कर सारा दृश्य धुंधला हो रहा था। लाख कोशिश करने पर भी आँसू रुक नहीं रहे थे। सबकुछ अस्तित्व पर छोड़कर आँखें बंद कर लेती हूँ।

सुना है आज समंदर को बड़ा गुमान आया है

उधर ही ले चलो कश्ती जिधर तूफ़ान आया है।

प्लेन नीचे उतरने लगा सागर का नीलापन हरेपन में बदलने लगा। अगत्ती द्वीप के पास सागर का जल कितना स्वच्छ और पानी का रंग हरेपन की आभा के साथ कितना आकर्षक। अगर मन में उत्साह होता तो इस सुंदर द्वीप को जो ऊपर से अरब सागर के गले का हार सा चमक रहा था, को देख कर मैं ख़ुशी से पागल सी हो जाती पर अभी तो बस शरीर चल रहा है, सभी भाव सुषुप्तावस्था में हैं । छोटा सा एअरपोर्ट सबका सामान एक जगह रख दिया गया और वहीं से उठा कर सब चल दिए। संभवतः दुनिया का सबसे छोटा हवाई अड्डा। हमें लेने के लिए कार आई हुई थी। जहाँ पर हमें ठहराया गया था वह स्थान देखकर मन को थोड़ा सकून मिला। समुद्र के किनारे छोटे-छोटे हटमेंट्स, बाहर टेबल-कुर्सी और पेड़ों में टंगे झूले। सामने दूर-दूर तक लहराता सागर। आसपास आबादी का कोई नामोनिशान नहीं। बस इसी निर्जनता की मुझे तलाश थी। अब कुछ समय खुद के और प्रकृति के साथ बिता सकूँगी। वहाँ पहुंचते ही सबद (हमारा केयरटेकर) नारियल का पानी ला कर पिलाता है, रूह को अजीब सी शान्ति मिलती है। नारियल के पेड़ यहाँ-वहाँ छतरी की भाँति खड़े हैं उसके नीचे आरामकुर्सी लगी है बस उस पर बैठ आँख बंद करने की जरुरत है कानों में समुन्दर का संगीत गूँजने लगता है। निश्चय ही यहाँ आने का निर्णय लेकर मैंने सही किया। हर समय लहरों का मधुर संगीत मन की बेचैनी को शांत करता जा रहा है। सागर की तरफ देखती हूँ तो वह जैसे इशारे से मुझे पास बुलाता सा महसूस हुआ। दोपहर का समय था और सागर में ज्वार सा आया था पर मैं चल पड़ी उसकी ओर। सागर का भी अज़ीब सम्मोहन है, वह पास बुलाता भी है और पास आने पर अपने लहरों से प्रबल प्रहार कर गिराता भी है। पत्थरों के बीच पानी में जा बैठी। उसके शीतल जल का स्पर्श मिलते ही जैसे मैं जी उठी। पूरा शरीर झंकृत हो उठा। रोम-रोम पानी में डूब जाना चाह रहा था। वहीं पत्थरों और रेतों के बीच पालथी मार कर बैठ गई पर दूसरे ही क्षण जोरों की एक लहर आ कर मुझे पटक गई। संभलते-संभलते मुझे सागर की शक्ति का एहसास हुआ। फिर तो मुझे वह चुनौती सा देता लगा, मुझे ललचाता सा जैसे कह रहा हो -और आओ मेरे पास। मैंने इस चुनौती को स्वीकारा और एक ऐसी जगह खोजी जो चारों ओर पत्थरों से घिरा था और बीच में रेत भरा था। सोचा यहाँ बैठ थोड़ी देर आँख बंद कर ‘सागर ध्यान’ करुँगी। लहरों से ये चट्टानें मुझे बचा लेंगी, ऐसा सोचना था कि एक जोड़ की लहर आई और मुझे पत्थरों के बीच बुरी तरह झकझोर कर चली गई। मुझे खुद को संभालने में काफी समय लग गया, उँगलियों में जोर की चोट लगी और ये समझ आया प्रकृति की शक्तियों से कभी खिलवाड़ नहीं करते न उसे चुनौती देते हैं। फिर तो मैंने महासागर को नमन किया और आराम से खुद को उसकी गोद में छोड़ दिया। जब भी लहरें आती थोड़ा झुक कर अपने को उसके हवाले करती और शरीर को तनाव मुक्त रखती, धीरे-धीरे उसे जाने देती। थोड़ी ही देर में मेरे पैरों की जलन गायब हो गई शरीर तरो-ताज़ा हो गया। दोपहर का समय था धूप तीखी थी पर पानी से निकलने का मन नहीं कर रहा था। आँखों में जब खारा पानी जाता जलन सी होती, ओठों पर उसका स्वाद आंसूओं सा नमकीन लगता। इस सबके बाबजूद सागर के जल की छुअन उद्वेगों के बवंडर से धराशायी मेरे तन-मन के एक-एक ऊतक को सहेजता रहा। जल से निकलने की इच्छा ही नहीं हो रही थी। ऐसे ही निर्जन स्थान की मुझे दरकार थी। यहाँ दूर-दूर तक कोई नहीं था। केअर टेकर सबद भी खाना लाने गया है। अगर गिर कर लहरों के साथ बह जाऊँ तो न कोई मेरी आवाज़ सुन सकेगा न मुझे बचाने आयेगा। धरती पर अब भी कुछ ऐसे एकांत जगह बचे हैं जो लोगों की भीड़भाड़ से दूषित नहीं हुये हैं, जीवन में पहली बार इसकी झलक मिली। काश महीने भर के लिए यहीं रह पाती, यह मेरा कुंभ हो जाता। शरीर और आत्मा दोनों की शुद्धि हो जाती। शरीर और आत्मा दोनों ही दुनिया के जंजाल में रह कर इतने दूषित हो गये हैं कि चार-पाँच दिन का समय बहुत कम है उसकी गँदगी साफ करने के लिये। अभी तक ऐसा महसूस हो रहा है कि जैसे किसी दलदल में फंसी हूँ, कीचड़ में लस्त-पस्त उससे निकलने के लिये बेदम हो रही हूँ। सागर का स्वच्छ जल शायद मुझे निर्भार कर सके।

    शाम को पतिदेव ने घूमने चलने को कहा पर कहीं जाने की इच्छा नहीं हो रही थी, उँगली में चोट भी लगी थी अतः कहीं नहीं गई और एक नारियल पेड़ के नीचे आराम कुर्सी लगा कर सागर किनारे बैठ गई लहरों और सागर को निहारते। जीवन में पहली बार प्रकृति के इतने नजदीक हूँ मेरा रोम-रोम ईश्वर के प्रति अहोभाव से भरा है। एक-एक क्षण जो बीत रहा है अमूल्य है मेरे जीवन का फिर कहाँ यह पल छीन। मेरा रोम-रोम जैसे आँखों में बदल गया हो जो एक-एक सुन्दर दृश्य का रस पान कर लेना चाहता हो। ऐसी खूबसूरती जीवन में पहली बार देखी है। समुन्दर रह-रह कर रंग बदलता है। कभी हल्का नीला दिखता है तो कभी गहरा नीला, कभी फिरोजी कभी हरा। शाम जैसे-जैसे गहराती है वैसे-वैसे वह काले रंग में तब्दील हो जाता है । दोपहर में तो वह ऐसे विशाल चमकीले आईने सा दिख रहा था जिसमें रह-रह कर लहरें उठ रही हों। कितना स्वच्छ, कितना पारदर्शी बिल्कुल हीरे सा दमकता हुआ। आंखें जुड़ा गईं प्रकृति का यह रूप देख कर।

          सबद रात के डिनर के लिए पूछने आता है क्या खायेंगे आपलोग?  उसे कहती हूँ यहाँ का लोकल फिश खिलाओ। रात को बहुत स्वादिष्ट मछ्ली, चावल, रोटी, सलाद और वहाँ का स्पेशल पापड़ खिलाता है। हम छक कर खाते हैं। जाते-जाते कल का मेन्यू भी पूछता जाता है जैसा हम बताते हैं उसी हिसाब से वह हमें भोजन कराता है स्वादिष्ट और भरपूर। कहीं और जाने और कुछ खाने की जरूरत नहीं। शाम और सुबह की चाय भी वही ले आता हैतीसरे पहर नारियल पानी भी पिलाता है, अतः किसी रेस्तोरेंट आदि में जाने की हमें जरूरत ही नहीं पड़ी।

रात को पतिदेव जब सो जाते हैं मैं बरांडे में निकल आती हूँ। दूर-दूर तक कहीं आँखों में नींद नहीं है। मन का तनाव अभी पूरी तरह गया नहीं है। वहीं कुर्सी पर बैठ सामने लगे मेज का सहारा ले पैर फैला लेती हूँ और सुनती रहती हूँ समुद्र का हाहाकार एक संवाद सा चलता है हमारे बीच- 

हे सागर

तेरा जल कितना खारा

कुछ ऐसा ही स्वाद मिला है

मुझे मेरी आँसूओं में भी

मेरी आँखों में भी एक सागर लहराता है

कभी-कभी किनारा तोड़ बह जाता है

आँसूओं की बूँदें क्षुद्र और छोटी

पर इतने बहाये हैं               

कि गर इकट्ठा कर पाती

तो शायद उस में डूब जाता

मेरा ही पूरा अस्तित्व

इसका खारापन मेरे अणु-अणु को गला चुका होता

गलती हुई उसका हिसाब नहीं रखा

अब आई हूँ तेरे शरण में

तो वह स्वाद फिर से उभर आया है यादों में

क्या तुम भी किसी की आँसूओं का जखीरा हो

कौन है वह

निश्चय ही उसका दुःख मेरे दुःख से बड़ा होगा

काश मैं मिल पाती उससे

अपना दुःख आपस में बाँट

एक-दूसरे को ढ़ाढ़स बंधा

हम सहेलियाँ बन जातीं

सागर किनारे बंद आँखों से

सुनती हूँ उसका रुदन

तेरी लहरों का हाहाकार

जैसे वह छाती पीट-पीट कर रो रही है

सागर का कोलाहल जैसे

उसी दुखियारी के दुःखों का प्रक्षेपण

हे अपार, हे विस्तृत, हे अगम्य

क्यों होता है ऐसा –

जब कोई स्वंय दुःखी हो

प्रकृति की समस्त सुंदरता ओझल हो जाती है

हवा पानी धरती आकाश दसों दिशाएं

दुखियारी लगती है

    बहुत रात गए न जाने ऐसे ही किन विचारों में खोई हुई बिछावन पर आती हूँ और सो जाती हूँ। नींद खुलती है सबद की आवाज से, वह चाय ले आया है और हमें दस बजे तक तैयार हो जाने को कह रहा है। आज एक बोट हमें बंगाराम द्वीप लेकर जाने वाली है। मैं चाय पीकर फिर सागर में नहाने निकल जाती हूँ जल को छूते ही महसूस हुआ सच ही कहा है – जीवन का प्रादुर्भाव जल से ही हुआ है। जल में डूबते ही लगा माँ की गोद में आ गई हूँ। कितने अरसे बाद माँ की गोद का सुख मिला। बिल्कुल वैसा ही एहसास। जैसे मैं माँ  के गर्भ में हूँ और एक शिशु बन उसके गर्भ-जल में तैर रही हूँ। कितना निर्मल, पवित्र, स्निग्ध एहसास। लगभग एक घंटे तक जी भर कर स्नान के बाद आई तो सबद, हमारा केयरटेकर, नास्ता लगा कर हमारा इंतजार कर रहा था। इडली, प्लेन डोसा, सांभर, नारियल चटनी शुद्ध दक्षिण भारतीय नाश्ता जो मेरी कमजोरी रही है, देख कर मुँह में पानी भर आया। नाश्ता के बाद हमें जल्दी तैयार होना था। थोड़ी देर में हम और हमारे पड़ोसी टूरिस्ट परिवार बड़े से मोटर बोट पर सवार थे हमारे साथ दो नाविक भी थे। सबद ने लंच पैकेट और पानी बोतल भी साथ में रख दिया था। जैसे-जैसे हम किनारे से दूर हो रहे थे अगत्ती द्वीप की खुबसूरती हमें विमुग्ध कर रही थी। यह द्वीप चौड़ाई में काफी छोटा पर अपने लंबाई में लगभग सात किलो मीटर तक फैला हुआ है। द्वीप के एक छोर पर हवाई अड्डा है जिसे कल देखा था और दूसरे  छोर को आज देख रही थी, जो एक सुंदर बीच है। दूर से ही सफेद रेत चमक रहे थे। समुद्र में दूर निकलते ही समुद्र का रंग  मुझे विस्मित कर रहा था, फिरोजी रंग का सागर चारों ओर स्फटिक सा चमक रहा था अपने पूर्ण शुद्ध और स्वच्छ रूप में। लोग दूसरे देशों में जाते हैं समुद्र का आंनद उठाने। मुझे विश्वास नहीं होता क्या दुनिया के किसी भी कोने में इससे स्वच्छ और सुंदर सागर लहराता होगा! मैं खुशनसीब हूँ की यह सब देख पा रही हूँ। समुद्र के अंदर बीच-बीच में काले-काले धब्बे सा कुछ उभरा हुआ था मुझे लगा शायद चट्टानें हैं पर नाविक ने बताया ये कोरल्स हैं। लगभग 45 मिनट के सफर के बाद हम दूसरे द्वीप के नजदीक थे। दो-तीन द्वीप आसपास ही जिसमें से सबसे बड़ा बंगाराम है उसके बाजू में तिनाकार, परली1, परली2 और परली3 । हम पहले तिनाकार गये। बोट से उतरते ही हमारे सामने था एक छोटा द्वीप जहाँ लक्षद्वीप सरकार के 20-25 कर्मियों के अलावा कोई नहीं रहता। इन्हीं कर्मियों की बातों से पता चला स्पोर्ट्स (सोसाइटी फॉर प्रमोशन ऑफ़ नेचर टूरिस्म एंड स्पोर्ट्स) वालों ने टूरिस्टों के लिये कुछ टेंट लगा रखे हैं पर उसका रेंट काफी ज्यादा है। नारियल के पेड़ों का जंगल, इधर- उधर गिरे हुए नारियल, एक पॉवर हाऊस, कुछ हटमेन्ट टाइप घर एक-दो स्पोर्ट्स के कर्मी और लहराता, घहराता समुद्र यही नज़ारा था वहाँ का। थोड़ी देर घूम कर देखने के बाद हम एक मचाननुमा चीज पर बैठ गये। यहीं कुछ स्पोर्ट्स कर्मी मिले उनसे बातें होती रही। उन्होंने बताया यहाँ कुल 26 कर्मी रहते हैं उनके लिये एक कॉमन किचन है दो शेफ़ हैं कभी-कभी कोई टूरिस्ट यहाँ रहने आ जाता है इसके अलावा यहाँ कोई नहीं रहता। मैंने दो मीटर लंबा और दो मीटर चौड़ा एक गढ्ढा देखा जिसमें पानी भरा था लेकिन यह पानी गुलाबी रंग का था अतः मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ उसके रंग को देख कर। उन लोगों  से जिज्ञासावश पूछा यह गुलाबी क्यों है? उन्होंने बताया इस पानी में हम नहाते हैं क्यूंकि यह कम खारा है और बार-बार साबुन इस्तेमाल करने की वज़ह से यह गुलाबी हो गया है। महसूस हुआ पर्यटन के लिए तो ठीक है पर स्थायी रूप से  यहाँ रहना आसान नहीं। मुझे प्यास लग आई थी हमारा नाविक कहीं से नारियल का घौद उठा लाया और फिर उसने हमें ख़ूब नारियल पानी पिलाया। इन द्वीप समूहों में पीने का पानी भी कठिनाई से उपलब्ध होता है अतः प्रकृति ने इस रेडीमेड पानी की व्यवस्था कर दी है। बीच पर थोड़ा समय बिताने के बाद हमलोगों ने बंगाराम के लिये प्रस्थान किया।

        बंगाराम और द्वीपों के बनिस्पत अधिक साफ-सुथरा और व्यवस्थित है। यहाँ स्पोर्ट्स कर्मी काफी सक्रिय दिखे। बीच के किनारे-किनारे लाईन से खड़ी छोटी-छोटी ख़ूबसूरत झोपड़ियाँ, सामने लगे झूले, लहराते नारियल के पेड़, बीच के सामने लगी टेबुल कुर्सियाँ और आर्मचेयर-कम-बेड। बीच की साफ-सफाई का काफी घ्यान रखा गया था। हर तरह के वाटर स्पोर्ट्स जैसे कयाकिंग, कैनोइंग, स्नोर्कलिंग, याटिंग, विंड सर्फिंग, वाटर स्कीइंग, स्कूबा डाइविंग की सुविधा। अब भूख लग आई थी अतः एक टेबल कुर्सी पर नारियल की छाँव में हम बैठ गये और सबद का दिया लंच पैकेट निकाला। स्वादिष्ट फीस-बिरयानी खा कर मजा आ गया। सामान समेट ही रही थी कि एक आदमी आकर कहने लगा कृपया सारे पैकेट्स वहाँ रखे डस्टबीन में डाल दें। उनकी तत्परता देख अच्छा लगा। पाँच बजे तक का हमारे पास समय था अतः हमने एक ग्लास बोट लेकर कोरल्स देखने का मन बनाया। धूप काफी तेज हो गई थी लेकिन बोट में बैठ जैसे ही हम समुद्र में उतरे सागर की शीतलता ने गर्मी का एहसास कम कर दिया, और थोड़ी देर बाद किताबों में पढ़ी चीजों को ग्लासबोट से सामने देख हम रोमांचित थे। रंग-बिरंगे विभिन्न क़िस्म के कोरल्स जीवन में पहली बार देख रही थी मैं। काफी देर तक समुद्र की इस सैर के बाद हम किनारे लौट आये। थोड़ी देर आराम करने के बाद हमने सोचा इस द्वीप के बीच में स्थित झील को देखा जाये। लगभग आधे घंटे तक हम उसकी खोज करते रहे पर वह नहीं दिखा बाद में पता चला हमने गलत रास्ता पकड़ लिया था। अब इतना समय नहीं था कि फिर से कोशिश की जाये, अतः हम लौट चले। अँधेरा होने से पहले हमें अगत्ती पहुँचाना था। हम सभी अपने बोट में आ बैठे लगभग एक घंटे का अभी समुद्री सफ़र बाकी था। सूरज मद्धम हो चला था आसमान में लालिमा फैलने लगी थी। सूर्यास्त का नज़ारा देखते बनता था। वापस अगत्ती पहुँच चाय पीती हूँ और झूले पर लेट जाती हूँ। अँधेरा हो चला है अब सागर नहीं दिखता पर उसकी लहरों का शोर कानों में निरंतर पड़ रहा है। 

  अगले दिन कबरत्ति जाना तय था पर पता चला वहाँ कोई बड़े नेता आ रहे हैं अतः परमिट मिलने की संभावना कम है जिसका डर था वही हुआ परमिट नहीं मिला और जाना न हो सका। लगा आज का दिन तो बेकार गया पर नाश्ते के बाद ही जमालुद्दीन जी (जिनके हम अतिथि थे) ने अपने भाई कमरुद्दीन को भेज दिया जो यहाँ स्कूबा डाइविंग का सेंटर चलाते हैं। तय हुआ कि वहाँ चला जाये और स्कूबा डाइविंग किया जाय। मुझे तो भरोसा नहीं था कि मैं कुछ कर पाउंगी पर सोचा कोशिश करने में क्या हर्ज़ है। कमरुद्दीन ने सबसे पहले 15 मिनट का क्लास लिया हमारा, सारे ऑपरेटर्स के साथ फिर ड्रेस पहनाया और सागर में उतारा। दिन के 10 बज रहे होंगे थोड़ी देर फिर पानी में ट्रेनिंग चली और जब हम मुँह से साँस लेना सीख गये तो फिर सबसे पहले पुरुषोत्तम जी(मेरे पति) को वह पानी के अंदर ले गया। लोग कहते थे की जिनको तैरना नहीं आता वह स्कूबा डाइविंग नहीं कर सकते पर ऐसा बिल्कुल नहीं है। हर समय एक इंस्ट्रक्टर साथ रहता है अतः कोई दिक्कत नहीं होती। पुरुषोत्तम जी जबतक लौट कर नहीं आये मैं किनारे पर ही हाथ-पाँव मारती रही। जब वो लौट कर आये उनके चेहरे पर खुशी थी और बातों में खनक, अब मेरी बारी थी। पहले तो लगा जा ही नहीं पाउंगी पर कमरुद्दीन ने कहा- ‘ इट्स ऐन ऑपॅरट्यूनिटि डोंट मिस इट मैम’ पुरुषोत्तम जी ने भी बढ़ावा दिया तो थोड़े से अभ्यास से सब नार्मल हो गया और थोड़ी ही देर में मैं एक अदभुत, और अनोखी दुनिया में पहुँच गई। समुद्र के अंदर की अभूतपूर्व दुनिया, विस्मित थी मैं उन प्रवालों, समुद्री सफेद‌‌‌-नीले फूलों, सुन्दर-सुन्दर मछलियों और समुद्री जीवों को देख कर। कुछ मछलियों के साथ तो खेलती रही मैं, कुछ पास आते ही भाग जाती थीं कुछ ढीठ सी हटती नहीं थीं, न डरती थीं। एक से बढ़ कर एक रंग की सुन्दर -सुन्दर मछलियां। एक बार सर को थोड़ा ऊपर उठाया तो सर के ऊपर छोटी-छोटी मछलियों का झुंड देख विस्मित हो गई। जीवित पॉलिप्स छूते ही हाथ में कुछ चिपकने सा एहसास होता था लसलसा सा। बिल्कुल रोमांच हो आया। फिर तो मैं दूर-दूर तक इस दुनिया में तैरती रही, अकल्पनीय था सबकुछ। कभी-कभी कान में थोड़ा दर्द सा महसूस होता था पर उससे बचने का तरीका इंस्ट्रक्टर ने बता रखा था अतः छोटी-छोटी समस्याओं पर जल्द ही मैंने विजय पा ली और लगभग चालीस मिनट तक डाइव करती रही अनेक तरह के प्लांट बड़े-बड़े कोरल रीफ़ सबके बिल्कुल पास मैं तैरती पहुँचती जाती थी। इंस्ट्रक्टर लगातार मेरे साथ था और रह रह कर इशारे से पूछ लेता आप ठीक तो हैं?  थोड़ी ही देर में मैं समुद्र के तल की दुनिया को देखने में ऐसी खोई की सब भूल गयी न कोई थकावट थी न कोई ग़म बस एक विस्मय कि इस दुनिया से हम कितने अपरिचित हैं। इंसानों की दुनिया से अलग भी एक दुनिया है यह पहली बार देखा मैंने अपने शुद्धतम रूप में। लौटी तो साथ था एक अविस्मरणीय अनुभव और इस दुनिया को कुछ और बेहतर समझ पाने का एक बोध। ईश्वर के प्रति अहोभाव से भरी नतमस्तक थी मैं। इस धरती के दो-तिहाई हिस्से में पानी है तो धरती का लगभग सत्तर प्रतिशत जीव भी समुद्र में ही निवास करते हैं। समुद्र के तल में पहुँच कर इसका आभास भी हुआ। निश्चित रूप से लक्षद्वीप विश्व के अद्भुत प्राकृतिक विरासत स्थल में से एक है।

      शाम में फिर सागर किनारे आ गई हूँ नारियल के पेड़ों की झुरमुट में सामने असीम सागर लहरा रहा है उसके जल को स्पर्श कर आती ठंडी हवाएं मेरे तन-मन को अपने आगोश में ले चुकी है, मैं आँखें बंद कर इसकी छुअन को महसूस कर रही हूँ लगता है मैं जल में हूँ शीतल, ठंढ़े जल में। इस आवोहवा की तासीर ऐसी है कि मेरे सारे रंजो-गम काफ़ूर हो गए हैं मेरे मन में जो तनाव था और रेशे-रेशे में जो दर्द न जाने कहाँ चले गये हैं। मानती हूँ इस आबोहवा में हीलिंग पॉवर है, पुनर्जीवित कर दिया है इसने मुझे एक बार फिर से जैसे जीने का कारण और मक़सद मिल गया हो।

सागर किनारे बैठी

निहारती हूँ क्षितिज को

अभी-अभी सूर्यास्त हुआ है

उसकी लाली अभी भी

आसमान में फैली है

सागर की लहरें

निरंतर किनारे पर आती हैं

खुद को बिखेर लौट जाती है

लहरों के आने और जाने में

एक ताल है लय है

उससे निःसृत एक मधुर संगीत

बिना रुके निरंतर प्रवाहमान

जीवन का संदेश देता आह्वान

नारियल के पेड़ के पत्तों की सरसराहट

लहरों के साथ जैसे चल रही हो जुगलबंदी

कितनी कर्णप्रिय रागिनी

सागर समीर मद्धिम चाल से चल

रोम-रोम को पुलकित कर रहा

नारियल के दो पेड़ो में बंधा झूला

अपनी आँखें बंद किये लेटी मैं

महसूस करती हूँ

अस्तित्व को

अपने विशाल हाथ से मुझे थामे

मैं एक शिशु की भांति उसके आग़ोश में पड़ी

निश्छल, निर्द्वन्द

आसमान में टिमटिमाते तारे

ऊपर से आशीर्वाद बरसाते से

नारियल के पेड़ों के पत्ते

छतरी की भांति फैले हुये

उस पेड़ पर बैठी न जाने कौन सी चिड़िया

रह-रह कर किर-किर की एक टेर सा छेड़ती

प्रकृति में कितना रिदम है

हम इंसान क्यूँ नहीं सुन पाते उसे

हर शय एक-दूसरे में लय

क्या स्वर्ग इससे इतर होता होगा ?

अगले दिन अगत्ती के छोटे से म्यूजियम में गई तो बहुत कुछ जानने को मिला इस द्वीप के बारे में। वैसे तो लक्षद्वीप के इतिहास के बारे में बहुत कम जानकारी है पर इसे खंगालने की कोशिश में पता चला कि समय के साथ संभवतः इसके कई द्वीप बनते-बिगड़ते रहे हैं। इस द्वीपसमूह की चर्चा सबसे पहले संगम साहित्य में मिलती है जिससे पता चलता है कि यहाँ के कुछ द्वीपों पर चेर राजवंश का आधिपत्य था। एक किंवदंती के अनुसार क्रांगानोर के हिंदू राजा चेरामन पेरूमल इस्लाम धर्म कबूल कर क्रांगानोर से मक्का की ओर रवाना हुए, किंतु समुद्री तूफान से दिग्भ्रमित होकर बंगारम द्वीप पहुंच गए। बंगारम से वह अगत्ती पहुंचे। देश वापसी पर उन्होंने लाव लश्कर भेजा। उनमें सभी हिंदू थे। शायद इसलिए यहाँ अधिसंख्य जनसंख्या के मुस्लिम होने के वाबजूद हिंदू प्रभाव देखने को मिलते हैं। समय के साथ अगत्ती तथा अन्य द्वीपों की खोज हुई। किंवदंती है कि सातवीं शताब्दी में जद्दा मुस्लिम फकीर उबेदुल्ला को स्वप्न में मोहम्मद साहब ने आदेश दिया कि वे सुदूर देशों में जाकर इस्लाम का प्रचार करें। इस यात्रा में उनका जहाज एक द्वीप के समीप छूट गया तो वह अमीनी द्वीप पर पहुंचे। यहां शुरू में तो उनका विरोध हुआ, पर बाद में वह अपने धर्म के प्रचार में सफल हो गए। आंद्रेते में उनकी दरगाह पवित्र मुस्लिम तीर्थ है। कहा जाता है मोरक्कोवासी महान यात्री इब्न बतूता ने भी लक्षद्वीप की यात्रा की थी और अपनी पुस्तक किताब-उल-रेहला में विस्तार से इन द्वीपों का वर्णन किया है। समय बीतने के साथ इन द्वीपों के लिए भी सत्ता के संघर्ष हुए। 16वीं सदी में पुर्तगाली यहां आए, पर कुछ वर्षों बाद अराकन के मुस्लिम बादशाह के हाथ में यहां की सत्ता वापस आ गई। 1783 में टीपू सुल्तान का कब्जा हुआ। टीपू की मौत के बाद 1885 में द्वीप पर ईस्ट इंडिया कंपनी का कब्जा हो गया। 1947 में भारत के मूल भूखंड के साथ इसका विलय हुआ। 1956 तक यह मद्रास का अंग बना रहा। इसके बाद केंद्रशासित राज्य बना। भारत का सबसे छोटा पर सबसे सुंदर केंद्रशासित प्रदेश।

    अगली सुबह कमरुद्दीन जी ने हमें रीफ टॉप वॉकिंग का निमंत्रण दिया था, अतः हम जल्दी उठ कर तैयार हो गये। अगत्ती द्वीप के दूसरे तरफ समुद्री किनारे पर बने लैगून तथा समुद्री जीवों को देखने का यह एक बड़ा ही सौभाग्यशाली अवसर था। कोरल टॉप पर लगभग एक फ़ीट तक फैले गहरे पानी में छोटे-छोटे घास उगे हुये थे और स्वच्छ पानी में तरह-तरह के समुद्री जीव दिख रहे थे। स्टार फिश, लॉयन फिश, सी कुकुंबर, जील आदि अपने सामने देख मैं हतप्रभ थी। इसे कहते हैं जीवंत सागर आज सबकुछ मेरे सामने था। सीप, शंखों से मुझे बहुत प्रेम है उसके कलेक्शन का शौक़ है पर जब उन्हें अपने सामने रेंगते देखा तो मैं रोमाचित हो गई और मैंने उसे उठाना छोड़ दिया। कछुए दूर से ही पानी में तैरते से दिखे पास आते ही वे भाग जाते थे पर कमरुद्दीन ने एक को पकड़ ही लिया फिर हम सब उसके पास गये और उसे क़रीब से देखा। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें थी, काफी वजनी था वह लगभग तीस किलो का। उसे देख अति उत्साहित हो गई मैं। उसे छूकर देखा वह अपने दो डैने को बार-बार फैला रहा था। मैंने उसे डिस्टर्ब करने के लिए माफ़ी माँगी, उससे हाथ मिलाया, फोटो खिंचा और उसे जाने दिया। जीवन का अद्भुत अनुभव था वह।

  नाश्ता के बाद थोड़ा आराम और फिर स्नान के लिये जल में। लगभग एक-ड़ेढ घंटे हम जल-क्रीड़ा करते रहे। तैरने का थोड़ा अभ्यास किया तो हाथ-पाँव के कल-पुर्ज़ों में जैसे जान आ गई। महसूस हुआ इससे अच्छा और मज़ेदार व्यायाम कुछ हो ही नहीं सकता। आज के इस डेढ़ घंटे की तैराकी से यह समझ में आ गया कि पानी मनुष्य को तरोताजा क्यों बना देता है, क्योंकि पानी के अंदर जाते ही हमारा शरीर हल्का हो जाता है अतः यह वेटलेसनेस की फ़ीलिंग ही हमें आनंद देती है, साथ ही पानी की शीतलता सारी थकान दूर कर देती है। जीवन का यह अदभुत आनंद है जो अब हर जगह उपलब्ध नहीं है। नदियाँ गंदी हो चुकी हैं, तालाब भथ कर मर चुके हैं, झीलें कचरों से भरी हैं यहाँ तक की समुद्र भी हर जगह साफ नहीं है। मुंबई में तो समुद्र की गँदगी देखी नहीं जाती। लक्षद्वीप में अरब सागर की स्वच्छता, उसका गहरा नीला-हरा रंग आह्लादित करनेवाला है। और ऐसा शायद इसलिए क्योंकि यहाँ पर्यटन काफी हद तक प्रतिबंधित है। सबको यहाँ आने की इजाज़त मिलती नहीं। खुद हमें भी यहाँ आने के लिये परमिट बनवाने में काफी जद्दोजहद करनी पड़ी थी। संभवतः भारत सरकार की यह नीति देश की सुरक्षा को दृष्टि में रख कर बनाई गई है। अगर इन द्वीपों पर दुश्मनों का कब्ज़ा हो जाये तो निश्चित रूप से भारत की सुरक्षा खतरे में पर सकती है। अगत्ती द्वीप की पूरी आबादी लगभग साढ़े सात हजार के आसपास है और सारी जनसंख्या मुस्लिम हैं। सात किलोमीटर की लंबाई में फैले इस द्वीप में लोगों के घर, तीन-चार छोटे-छोटे मस्ज़िद, कुछ छोटी-छोटी दूकानें, एक सरकारी गेस्ट हाउस, एक हॉस्पिटल, एक स्कूल, एक एक्वेरियम शाम की सैर में मुझे यही सब दिखे। जहाँ हम रुके थे शाम में वहाँ कुछ महिलायें आ गईं, उन्होंने इशारा से मुझे बुलाया, मैं उनके पास गई। सब मलयालम बोल रही थीं और हिंदी, अंग्रेजी के कुछ शब्द भर, जैसे मेरे ड्रेस को देखकर उन्होंने कहा –‘सुपर’। उनमें से एक बोली- ‘नो इंग्लिश नो हिंदी ओनली मलयालम’। जब मैं ने मोबाइल निकाला तो एक लड़की गाने लगी –‘तू खिंच मेरी फोटो, तू खिंच मेरी फोटो’। तब मुझे समझ में आया कि हिंदी सिनेमा के गीत देश के हर कोने में कितने लोकप्रिय हैं और कैसे संपूर्ण देश को एकता के सूत्र में बाँधे हुये है। फिर सबने मेरे साथ फोटो खिंचवाये, थोड़ी देर टूटी-फूटी हिंदी-इंग्लिश में बातें की और चली गईं।

    गोधूलि बेला में सागर किनारे बैठ सागर की उठती-गिरती लहरों का संगीत सुनना अब मेरा सबसे मनपसंद शगल बन गया है और आज दिमाग में घूम रही हैं ये पंक्तियाँ –

सागर किनारे बैठ

दिखता मुझे सामने

साक्षात

आँखों देखा झूठ

मिलन धरती आसमान का

कितना बड़ा धोखा

कितना बड़ा भ्रम

हमेशा आँखों से देखा

सच नहीं होता

आँखें भी हमें छल जाती हैं

क्षितिज है कितना बड़ा 

छलावा

       अगले दिन एक छोटे से बोट पर सवार हो हम कलपिट्टी द्वीप देखने गए। अगत्ती के सबसे पास  स्थित द्वीपों में से यह एक है कहा तो यह भी जाता है कि यह अगत्ती एटोल का ही एक हिस्सा है, यद्यपि देखने में ऐसा नहीं प्रतीत होता और यह द्वीप अपना अलग अस्तित्व रखता है । यह पूर्णतः निर्जन द्वीप है किसी भी तरह का कनस्ट्रक्शन वर्क वहाँ नहीं सिवाय एक स्तंभ के जिसमें भारत का राष्ट्रीय चिन्ह उकेरा हुआ है और जिसमें यह लिखा है कि यह द्वीप भारत का एक अभिन्न अंग है। वहीं जा कर पता लगा कि भारत सरकार की योजना यहाँ से अगत्ती तक एक रनवे बनाने की थी ताकि वहाँ जेट विमान उतारा जा सके पर पर्यावरणविदों  ने इसकी इजाजत नहीं दी। अगर यह रनवे बन जाता तो अगत्ती रनवे का विस्तार कलपिट्टी तक होता और यह दोनों द्वीपों के बीच स्थित कछुओं की बस्ती और प्रवालों को बरबाद कर देता। निश्चय ही यह एक बहुत अच्छा निर्णय था। पूर्णतः निर्जन इस द्वीप की सुंदरता मन को मुग्ध कर रही थी। यहाँ प्रकृति अपने शुद्धतम रूप में दिखाई देती है। मैंने कान लगा कर उस निर्जनता की आवाज और समुद्र का गर्जन दोनों को सुनने की कोशिश की। सोचती रही क्या प्रचीन काल में ऐसे ही निर्जन द्वीपों में अपराधियों को निर्वासित करने की सजा दी जाती थी? लेकिन मैं इसे निर्जन क्यों कह रही हूँ सिर्फ एक इंसान नहीं है यहाँ वरना वनस्पतियों और समुद्री जीव-जंतुओं का तो यह स्वर्ग है, जिसे परेशान करने, छेड़ने, आहत करने वाला वहाँ दूर-दूर तक कोई नहीं। समूची धरती पर तो मनुष्यों ने अपना आधिपत्य जमा ही रखा है ऐसे ही कुछ क्षेत्र बच गए हैं जो मनुष्य के चंगुल से मुक्त हैं। यहाँ भी हम जैसे कुछ लोग आ ही जाते हैं उन्हें परेशान करने यद्धपि मेरी पूरी कोशिश थी कि मुझसे उन्हें कोई नुकसान न पहुँचे और कोई जीव मेरे पैरों तले न कुचल जाए। समुद्र के किनारे चलते और तरह-तरह के जीव-जंतुओं को यूँ निर्द्वंद रेंगते और दौड़ते देखना अपने आप में एक ऐसा सुख था जिसका वर्णन करना मेरे बस में नहीं बस इतना ही कह सकती हूँ कि रोम-रोम सिहर से उठे थे मेरे, पूरे शरीर में रोमांच हो आया था। थोड़ी देर इन जीवों के पीछे-पीछे चलती रही फिर अपनी टोली में लौट आई। किनारे पर कुछ नारियल के पेड़ ऐसे टेढ़े खड़े थे कि उनकी जड़ें तो द्वीप में गड़े थे पर पूरा तना समुद्र के पानी के ऊपर फैला था , थोड़ा रिस्क उठा उस पर बैठ एक सुंदर सा फोटो लेने का लालच नहीं संवर कर पाती हूँ। फोटो लेने के बाद हम थोड़ी देर उस द्वीप में घूमते रहे और फिर लौट आए। शाम हो चली है, सागर किनारा फिर बुला रहा है, आराम कुर्सी पर बैठ गुनगुनाती हूँ–

मैं दरिया भी किसी गैर के हाथों से न लूँ

एक कतरा भी समंदर है अगर तू दे दे ।

आज लक्षद्वीप यात्रा का अंतिम दिन है, सुबह की सैर को हमदोनों निकल पड़ते हैं- 

सूर्योदय का समय

सूरज अभी-अभी जल से निकल

आसमान में चढ़ रहा

सुनहरी किरणों का एक पुल सा बना है

जल के ऊपर

इशारा करता

पास बुलाता सा

सोने का सेतु

जैसे हो वह स्वर्ग तक जाने का मार्ग

इच्छा होती है दौड़ पड़ूँ मैं

पानी के ऊपर चलते हुये

इस सेतु के सहारे

इस दुनिया के रंजो-गम से दूर

सूरज की सुनहरी दुनिया में

रोशनी ही रोशनी हो जहाँ

अंधकार का नामोनिशान न हो जहाँ

  बस कुछ ऐसे ही विचार, कुछ पंक्तियाँ मन मस्तिष्क में उभरती हैं और छाती जाती हैं। अलविदा लक्षद्वीप। तुम मेरी यादों के झरोखे में सदा रहोगे। अब शायद फिर कभी ऐसी सुंदरता, प्रदूषणमुक्त वातावरण, नीले सागर का सफेद जल, उसमें तैरती असंख्य रंग-बिरंगी मछलियां, मूंगा-मोती का अक्षय भंडार, नारियल के पेड़, सफेद बालुका राशि तथा शांत द्वीपवासी देखने को मिलें न मिले। पर मेरे मन पर तूने जो अमिट छाप छोड़ा है वह तो कभी न मिटेगा। सोचती हूँ प्रकृति बिन बोले कितना कुछ बोल जाती है। जैसे यह समुद्र मुझसे बोलता रहा पूरी यात्रा के दौरान। कितना सबक़ सीखा देती है, कितना पाठ पढ़ा देती है। लाखों पुस्तक मिलकर भी यह काम न कर पाए। आज इस यात्रा का अंतिम दिन है, इन चार दिनों को क्षण-क्षण जीया मैंने, लक्षद्वीप तुम्हें भूल नहीं पाउंगी, फिर-फिर बुलाना मुझे। तेरे सागर के जल ने माँ की गोद का आंनद दिया, आँखों को शीतल कर देने वाले दृश्य दिये, कानों को निरंतर सागर का घहराता, लहराता संगीत दिया, तेरी आबोहवा ने मेरे सारे दुःख छीन लिये, तनावमुक्त कर दिया मुझे, तुझे जितना भी धन्यवाद दूँ कम है। तेरे पास आकर अवकाश के आंनद को वास्तविक अर्थों में जाना मैंने, महसूसा मैंने। तुम्हारी खूबसूरती मेरे मन के मंजूषे में सदैव सजी रहेगी और यादों में महकती रहेगी। सफ़र के अंत में बस कुछ ऐसे ही भाव उठ रहे थे मन में जैसा कि इन पंक्तियों में सुमित्रानंदन पंत ने कहा है-

सागर की लहर लहर में

है हास स्वर्ण किरणों का,

सागर के अंतस्तल में

अवसाद अवाक् कणों का!

जग जीवन में हैं सुख-दुख,

सुख-दुख में है जग जीवन;

हैं बँधे बिछोह-मिलन दो

देकर चिर स्नेहालिंगन।

जीवन की लहर-लहर से

हँस खेल-खेल रे नाविक!

जीवन के अंतस्तल में

नित बूड़-बूड़ रे भाविक!

  सुबह के नाश्ते से पहले एक अंतिम बार हम सागर में स्नान करने जाते हैं और पूरी तरह इस स्नान का आनंद ले थक कर चूर हो लौटते हैं । सबद अंतिम बार हमें प्रेम से नाश्ता कराता है और बताता है कि थोड़ी देर में आपको ले जाने के लिए गाड़ी आएगी। मैं सामान बाँधती हूँ और बड़े प्रेम से उन सूखे कोरल्स को सहेजती हूँ जो हमें सागर किनारे यहाँ वहाँ मिले और जो कमरुद्दीन जी ने हमें उपहार स्वरूप दिया। पर तब बेहद दुःखी हो जाती हूँ जब सबद बताता है कि यह सब मत ले जाईए यहाँ से कोरल्स ले जाने पर प्रतिबंध है, हवाईअड्डा पर पकड़े जाने पर बहुत दंड भरना पड़ेगा। लाचार हो सब छोड़ना पड़ता है। भरी आँखों से बाहर निकल एक अंतिम बार सागर को निहारती हूँ और गाड़ी में बैठ जाती हूँ हवाई अड्डा जाने के लिए। और यूँ खत्म होता है लक्षद्वीप का सफर। सच कहती हूँ आज भी जब मैं थकी, उदास या अकेली होती हूँ तो बॉलकनी में आरामकुर्सी पर बैठ आँख बंद कर लेती हूँ और कल्पना में डूब जाती हूँ कि मैं लक्षद्वीप में हूँ उसी समुद्र के किनारे उसी आराम कुर्सी पर बैठी, अभी-अभी सूर्य समुद्र में डूबा है, उसकी लाली आसमान में फैली है, नारियल के पत्ते हवा में डोल रहे हैं, समुद्र का रंग धीरे-धीरे गहरा होता जा रहा है। फिर मेरे विचार थम से जाते हैं, कोई हलचल नहीं, शरीर और चित्त दोनों स्थिर हो जाते हैं, मैं नितांत स्व में थिर हो जाती हूँ, रह जाता है सिर्फ साक्षी भाव। प्रकृति और मैं जैसे एक लय हो जाते हैं। इस यात्रा का असर मेरे उपर इतना जबरदस्त पड़ा है कि यह यात्रा मेरे लिए एक ध्यान बन गई है। अक्सरहाँ एकांत में बैठ मैं उसी जगत में पहुँच जाती हूँ, सारा दृश्य कल्पनालोक में सजीव हो उठता है और मैं कुछ देर के लिए फिर से अपने मानस जगत में उसकी सैर कर आती हूँ। यह अंतर्यात्रा मुझे ताजगी और उत्साह से भर देती है। 

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शुभम अग्रवाल की पन्द्रह कविताएँ

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युवा कवि शुभम अग्रवाल (उम्र 27 वर्ष) हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लिखते हैं. उनकी कविताएँ इन दोनों भाषाओं में साहित्यक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं. हिन्दी में उनका पहला कविता संग्रह लगभग तैयार है. वे गुड़गाँव में सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं.  

 

 


1.

कवि
नहीं हूँ मैं

अगर होता
तो लिखता उन शब्दों को
जिन्हें चुना था ह्रदय में

मगर शब्द मायावी थे

उन्हें जोड़ने पर
वो था ही नहीं अर्थ
जिसकी की थी कल्पना मैंने

उन्हें स्वायत्त छोड़ने पर
निरर्थक थे वे 

और उन्हें विभाजित करते-करते
अब सिर्फ रेखाएँ, बिन्दु और प्रतीक
ही शेष बचे हैं

कैसे बनूँगा कवि
अगर नहीं लिख पाया
इन शब्दों को।

2. 

प्रेम 

एक विचार था
सुन्दर

जिसे भोगना रहेगा बाकी

वास्तव में मैं
निर्लिप्त था

असहाय
निष्क्रिय

इस असहाय सृष्टि को
दे सकता था
अपनी असहायता।

3.

मैं
अमलतास के पेड़ के नीचे
खड़ा होकर

बुहारता हूँ

झड़े हुए फूलों के ढेर को
और सोचता हूँ

कि
लिखूँगा एक और कविता

मगर फिर
सोचता हूँ
कि
अपनी निरर्थकता को प्रमाणित करने का
यह मौसम ठीक नहीं।

4.

आँख
खुलती है
किस बेला में

नहीं जान पाती

तंग गलियारों में चलती
श्वासें
टोह लेती हैं
आगंतुकों की

स्मृति से/ का
नक़्शा लिए
फिरता है
हाथियों का समूह

संसार
भाषा

बूझती
अपरिचित

क्या तुम यहाँ से हो?

पूछता है कोई मुझसे

बार बार।

5.

क्रन्दन
रात का
भंग करने की चेष्ठा

उतर जाता है
ठहरा हुआ जल

निर्मोही

जागती है पिपासा

किवाड़
खुलते
बन्द होते
खुल जाते हैं

कोई था
जो बसता था इधर

पैरों के चिह्न
उकेरता हुआ
देह पर

पार करता नहर
आत्म की

भुला देता अर्थ
होने का।

6.

निर्लिप्त
बहता हुआ

मुड़ जाता है
उन्माद

चाँद
देखते ही देखते
पड़ जाता है ठण्डा

देह

छुपती
होठों की आड़ में

आँखें
कौंध जाती हैं
उजास की कल्पना से

किनारों पर जीता
ठहर जाना चाहता है
जीवन।

7.

शब्द
नहीं बचे हैं
अब कोई

निरस्त्र
हार जाता है
अस्त होता सूरज

फेर
रात दिन का

बदलता कुछ भी नहीं

बूढ़ा वृक्ष

गले हुए
तैरते तख़्ते

नाविक
बन्द कर देता है
खेना

आत्मा
डूब जाती है
उथली झील में।

8.

कोने में
ठण्डी उँगलियाँ उड़ रही है

सिगरेट जलाकर भूल जाता है
अँधेरा

घूंट उतरता हलक़ से

बरसाती जल फिसलता चला जाता है
जूतों के नीचे से

वह व्यक्ति जो पूछ रहा था

मेरी ध्वनि से
भाग जाते हैं निरीह परिंदे

आँखें
प्रयास करती हैं पहचानने का

सड़क पे
चलते हैं पाँव आदिम लहजे में

कोई जाता है
या
ले जाया जाता है
निर्णय नहीं हो पाता।

9.

भूल जाना सहसा
कि वह छुपा जाता है

प्रवृत्ति जो जंगली थी

चम्मच का थाली से टकराना

वह खो जाता है उस व्योम में
जहाँ नहीं पहुँच पाती
अनुभूति

वह बारीकी से गिनता है क़दम

हँसी के टुकड़े
पीछे कहीं

वह मुड़ेगा
या नहीं

वह देखेगा या नहीं

निरुत्तर
जैसे रेत के ढेर।

10.

एक ही क्षण में
भंग हो जाएगा
तिलिस्म

होंठ हिलते रहते हैं
पर कोई सुन नहीं पाता

प्रेत
जो मेरे अपने थे

निराकार

उन्हें बाँधे रखना
भूल भी हो सकती थी

शाखों का हिलना
शाखों का हिलना नहीं था

वह संकेत था
उस ऋतु का
जो कभी नहीं आती।

11.

आदमी
प्रतीक्षा करता है
प्रतीक्षारत आदमी की

बिखरे हुए टुकड़ों को
पंक्ति में लाना
एक असम्भव प्रक्रिया है

माटी में से
रिस आया जल
बहते-बहते
लुप्त हो जाता है

नदी
मोड़ पर आकर
लचीली कम
उत्तेजित अधिक हो जाती है

बह जाने की
कल्पना का विचार
डूब जाता है

एड़ियों को
पूरा उठा लेने पर भी
हाथ
कहीं नहीं पहुँचता।

12.

प्रेम
बढ़ता है
और कर लेता है
परिग्रहण

भेड़ों के ह्रदय का

उग आती है काई
पाषाणों पर

उसके छोटे कान
छुप जाते हैं
दो उँगलियों के दायरे में

उस विस्तार को
जिसे समेटा था
शैय्या पर

उस सूक्ष्म अवसाद को
जिसके लिए
छोटा था
आकाश

नाखुनों में
उतर आया नीला
नहीं छूटता
किसी तरह।

13.

कन्धों तक
उतर आये केश
छुपा जाते हैं

कोई बोलता है
और बोलता ही रहता है

मुख के मुहाने पे खड़े
हम देखते रहते हैं

रुके हुए
वक्तव्य तक
कौन लेकर जायेगा

पाँव
चलते रहते हैं
किसी अपरिचित गन्ध
की खोज में

समयकाल से उठती
मुस्कान
धुन्धलाती है
और लुप्त हो जाती है

डूबता ह्रदय
उभरने में प्रयासरत
उभरना नहीं चाहता।

14.

कहाँ है वह आसक्ति
जब चाहता हूँ
डूबना
पड़ना
मोहपाश में

एक खुला आमंत्रण
लौट आता है
बन्द
अधखुला
खुला
अस्वीकृत

मन
सोखता है अवसाद
जैसे सोखता है जल
लट्ठ
लकड़ी का
शिराएँ
पत्ते की
पंख
पाखी का।

15.

एकस्वर
निकलताहुआ
चीख़कीतरह

लौटआतीहै
ढूँढतेहुए
बिल्ली
बच्चेको

वर्षाजल
टकराताहैवस्त्रोंसे
औरउतरजाताहै
देहमें

संवादोंमेंसे
टूटकर
अलगहोजातेहैं
शब्द

अतार्किकताकेपरे
कराहताहैसांध्यगीत,
जिसेगुननेका
प्रयत्नकरतेहोंठ
हारजातेहैं
थककर।

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वीरेन डंगवाल की सम्पूर्ण कविताएँ: मंगलेश डबराल की भूमिका

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वीरेन डंगवाल सच्चे अर्थों में जनकवि थे. उनकी मृत्यु के बाद उनकी सम्पूर्ण कविताओं का संकलन आया है ‘कविता वीरेन’. किताब का प्रकाशन नवारुण प्रकाशन से हुआ है. भूमिका लिखी है जाने माने कवि मंगलेश डबराल ने. प्रस्तुत है वह भूमिका- मॉडरेटर

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‘इन्हीं सड़कों से चल कर आते हैं आततायी/ इन्हीं सड़कों से चल कर आयेंगे अपने भी जन।’  वीरेन डंगवाल ‘अपने जन’ के, इस महादेश के साधारण मनुष्य के कवि हैं। वे उन दूसरे प्राणियों और जड़-जंगम वस्तुओं के कवि भी हैं जो हमें रोज़मर्रा के जीवन में अक्सर दिखाई देती हैं, लेकिन हमारे दिमाग में दर्ज नहीं होतीं। कविता के ये ‘अपने जन’ सिपाही रामसिंह और इलाहाबाद के मल्लाहों, लकड़हारों, रेलवे स्टेशन के फेरीवालों, डाकियों, अपने दोस्तों की बेटियों समता और भाषा, निराला, शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार, पीटी उषा, तारंता बाबू, किन्हीं माथुर साहब और श्रोत्री जी तक फैले हुए हैं। मनुष्येतर जीवधारियों और वस्तुओं के स्तर पर यह संसार भाप के इंजन, हाथी, ऊँट, गाय, भैंस, कुत्ते, भालू, सियार, सूअर, मक्खी, मकड़ी, पपीते, इमली, समोसे, नींबू, जलेबी, पुदीने, भात और पिद्दी का शोरबा आदि तक हलचल करता है। इन जीवित-अजीवित चीज़ों से वीरेन का व्यवहार कितना आत्मीय और ऐंद्रीय है, इसके साक्ष्य उनकी बहुत सी रचनाओं में हैं। मसलन, ‘फरमाइशें’ में वे कहते है : ‘कुत्ते मुझे थोड़ा-सा स्नेह दे/गाय ममता/भालू मुझे दे यार/शहद के लिए थोड़ा/अपना मर्दाना प्यार/भैंस दे थोड़ा बैरागीपन/बंदर फुर्ती/अपनी अक्ल से मुझे बख्शे रहना सियार’। इस कविता में कुत्ते, गाय, भालू, भैंस, बंदर और सियार की अपनी-अपनी स्वभावगत और मासूम विशेषताओं का वर्णन है, लेकिन असल चीज़ शायद वह प्रेम और आत्मीयता है जो इन प्राणियों के प्रति कवि के भीतर से उमड़ती है। कवि सियार से भी यह कहता है कि मुझे तुम्हारी अक्ल यानी चालाकी की ज़रूरत नहीं है।

भाप इंजन को याद करती, नींबुओं को सलाम करती, पोस्टकार्डों की महिमा गाती, अधेड़ नैनीताल की उधेड़बुन में उलझती, फूलों से भरी हुई फरवरी का ‘घुटनों चलती बेटी’ की तरह स्वागत करती, जीव-जंतुओं और खाद्य पदार्थों की विलक्षण सत्ता का गुणगान करती इन कविताओं का उद्देश्य उनका एक ‘लार्जर दैन लाइफ’ रूपांतरण करना नहीं, बल्कि उनके अपने अस्तित्व को, एक खास और संक्षिप्त अर्थवत्ता और उस छोटे से प्रकाश को दिखलाना है जिसे हम प्राय: अनदेखा किये रहते हैं। साधारण चीज़ों की एक असाधारण दुनिया दिखाने का काम हिंदी कविता में कुछ हद तक हुआ है, लेकिन वीरेन की कविता जैसे एक जि़द के साथ कहती है कि मामूली लोग और मामूली चीज़ें दरअसल उसी तरह हैं जिस तरह वे हैं और इसी मामूलीपन में उनकी सार्थकता है, जिसे पहचानना उनके जीवन का सम्मान करना है और हम जितना अधिक ऐसे जीवन को जानेंगे, उतने अधिक मानवीय हो सकेंगे। व्यापक नकार और ‘सिनिसिज़्म’ के दौर में वीरेन की कविता जीवन के स्वीकार को ज़रा भी नहीं छोड़ती। ‘मक्खी’ शीर्षक कविता में स्याही में गिरी हुई मक्खी को जब बाहर निकाला जाता है तो ‘वह दवात के कगार पर बैठी रही कुछ देर / हाल में घटी दुर्घटना के बोझ से झुकी हुई और पस्त/फिर दवात की ढलान पर रेंगती उतर गयी धूप में/अपने जुड़े पंखों पर पतली टांगों को चलाते हुए/उसने लिया हवा और धूप को /अपने झिल्ली डैनों पर/खिड़की पर बैठे हुए/कुछ देर बाद वह वहाँ नहीं थी/सलाख पर…/ गिरी न होगी /उड़ चली होगी दूसरी मक्खियों के पास/क्योंकि मक्खियाँ गिरा नहीं करती कहीं से/अगर वे जि़ंदा हों।’

वीरेन के अड़सठ वर्षीय जीवन-काल (जन्म: 5 अगस्त 1947; निधन : 28 सितंबर 2015) में तीन कविता संग्रह, कुछ छिटपुट लेख और ‘पहल पुस्तिका’ के रूप में तुर्की के क्रांतिकारी महाकवि नाजि़म हिकमत की कविताओं के अनुवाद प्रकाशित हुए। यह सफर 1991 में ‘इसी दुनिया में’ से शुरू हुआ हालांकि तब तक ‘रामसिंह’, ‘पीटी उषा’, ‘मेरा बच्चा’, ‘गाय’, ‘भूगोल-रहित’, ‘दुख’, ‘समय’ और ‘इतने भले नहीं बन जाना साथी’ जैसी कविताओं ने वीरेन को माक्र्सवाद की ज्ञानात्मक संवेदना से अनुप्रेरित ऐसे प्रतिबद्ध और जन-पक्षधर कवि की पहचान दे दी थी, जिसकी आवाज़ अपने समकालीनों से कुछ अलहदा और अनोखी थी और अपने पूर्ववर्ती कवियों से गहरा संवाद करती थी। उसमें खास तौर पर निराला और शमशेर बहादुर सिंह के काव्य-विवेक की रोशनी थी। ‘इसी दुनिया में’ की कुछ कविताएँ कवि की मूल प्रस्थापनाओं का घोषणा-पत्र जैसी मानी जा सकती हैं :

 मैं ग्रीष्म की तेजस्विता हूँ

 और गुठली जैसा

 छिपा शरद का ऊष्म ताप

 मैं हूँ वसंत का सुखद अकेलापन

 जेब में गहरी पड़ी मूँगफली को छाँट कर

 चबाता फुरसत से

 मैं चेकदार कपड़े की कमीज हूँ

 उमड़ते हुए बादल जब रगड़ खाते हैं

 मैं उनका मुखर गुस्सा हूँ।

आत्मकथ्य सरीखी इन पंक्तियों में वीरेन की काव्य संवेदना के प्रमुख सरोकार साफ हो जाते हैं। उसमें अनुभव की उदात्तता है तो रोज़मर्रा की मामूली चीज़ों के प्रति गहरा लगाव भी। ग्रीष्म की तेजस्विता और शरद की ऊष्मा और वसंत के सुखद अकेलेपन के साथ जेब में पड़ी मूँगफली और चेकदार कमीज की उपस्थिति एक नया यथार्थ और नया सौंदर्यशास्त्र निर्मित करती है। यहाँ उदात्त अनुभवों और साधारण दुनियावी चीज़ों में कोई बुनियादी विभेद नहीं है, अमूर्तनों और भौतिक उपस्थितियों के बीच कोई दूरी नहीं है, बल्कि वे एक दूसरे के साथ और उनके भीतर भी अस्तित्वमान और पूरक हैं। मामूलीपन और नगण्यता के जिस गुणगान के लिए वीरेन की कविता पहचानी गयी, उसकी शुरुआत इस तरह की बहुत सी और खासकर ‘पीटी उषा’ जैसी कविताओं से हुई थी जिसमें वीरेन क्रिकेट की संभ्रांतता के बरक्स एक दुबली-पतली धावक पीटी उषा के खेल की अपेक्षाकृत निम्नवर्गीयता, उसके सामान्य चेहरे और सांवलेपन को उभारते हुए उसे ‘मेरे गरीब देश की बेटी’ कह कर संबोधित करते हैं : ‘उसकी आँखों की चमक में जीवित है अभी/भूख को पहचानने वाली विनम्रता/ इसीलिए चहरे पर नहीं है/ सुनील गावस्कर की छटा।’ वे उसे सलाह देते हैं कि अगर खाना खाते समय तुम्हारे मुँह से चपचप की आवाज़ होती है तो यह अच्छा है क्योंकि जो लोग ‘बेआवाज़ जबड़े को सभ्यता मानते हैं/ वे दुनिया के सबसे खाऊ और इसलिए खतरनाक लोग हैं।’

 ‘पर्जन्य’, वरुण’, ‘इंद्र’, ‘द्यौस’ जैसे रूपकों और बिंबों पर रोमांचक शिल्प की कविताओं में भी वीरेन की संवेदनात्मक स्मृति का स्वरूप इसी तरह जनवादी और प्रतिबद्ध रहा। इन वैदिक छवियों को साधारण जन की आंखों से और एक भौतिक भूमिका में देखा गया है। वीरेन जब इंद्र का उल्लेख करते हैं तो उसकी उंगलियों में मोटी-मोटी पन्ने की अंगूठियाँ दिखलाना नहीं भूलते : ‘वह समुद्रों को उठाकर सितार की तरह बजाता है/ वह पानी का स्वामी है,/सातों समुद्रों और सारी नदियों पर उसका एकाधिकार है/ जबकि यहाँ हमारे कंठ स्वरहीन और सूखे हैं’। वन की देवी वन्या भी जंगलात के अफसरों की क्रूरता से भयभीत स्त्री है और अपने ही जंगल में जाते हुए आशंका से भरी हुई है : ‘अकेले कैसे जाऊँगी मैं वहाँ/ मुझे देखते ही विलापने लगते हैं चीड़ के पेड़/ सुनाई देने लगती है/ किसी घायल लड़की की दबी-दबी कराह।’ इन रचनाओं में वीरेन ने देवताओं के संसार में भी वर्ग-विभेद को, उनकी जन-पक्षधर और जन-विरोधी उपस्थितियों को जिस  शिद्दत से रेखांकित किया, वह हिंदी कविता में पहले नहीं थी। यह एक नया आयाम था, जिसमें पपीता, इमली, समोसे, जलेबी, ऊँट, हाथी, गाय, मक्खी जैसी वस्तुएं भी पहली बार कविता का विषय बनीं।

 ये कविताएँ जिस दौर में लिखी गयीं, वह नेहरू युगोत्तर मोहभंग की सामाजिक-बौद्धिक-राजनीतिक उथल-पुथल, नक्सलबाड़ी की ‘वसंत गर्जना’ और उसके क्रूर दमन, विश्व स्तर पर वियतनाम युद्ध के विरोध, अमेरिका की विद्रोही बीट पीढ़ी की अराजकता और काली या अश्वेत चेतना से उबलता हुआ था। वीरेन की संवेदना पर भी इस वैश्विक उभार की गहरी छाप पड़ी। उन्हीं दिनों आलोकधन्वा की ‘जनता का आदमी’ और ‘गोली दागो पोस्टर’, लीलाधर जगूड़ी की ‘बलदेव खटिक’ और वीरेन की ‘रामसिंह’ नक्सलबाड़ी संघर्ष की प्रमुख कविताओं के रूप में चर्चित हुईं और नाटकों की शक्ल में भी मंचित की गयीं। इन कविताओं का मुख्य सरोकार मनुष्य का शोषण-दमन करने वाली शासक शक्तियों का प्रतिरोध करना, क्रांति का स्वप्न जगाना और मानवीय अच्छाई और समानता के संघर्ष की अनिवार्यता को रेखांकित करना था। ‘रामसिंह’ एक गरीब पहाड़ी परिवार के बेटे और फौजी सिपाही को सालाना छुट्टी पर घर जाते हुए देखती है और उसे आत्म-साक्षात्कार के बिंदु तक ले जाती है :

तुम किसकी चौकसी करते हो रामसिंह?

तुम बंदूक के घोड़े पर रखी किसकी उँगली हो?

किसका उठा हुआ हाथ?

किसके हाथों में पहना हुआ काले चमड़े का नफीस दस्ताना?

जि़ंदा चीज़ में उतरती हुई किसके चाकू की धार?

कौन हैं वे, कौन

जो हर समय आदमी का एक नया इलाज ढूँढ़ते रहते हैं?

जो रोज़ रक्तपात करते हैं और मृतकों के लिए शोकगीत गाते हैं

जो कपड़ों से प्यार करते हैं और आदमी से डरते हैं

वे माहिर लोग हैं रामसिंह

वे हत्या को भी कला में बदल देते हैं

यह कविता अपने क्रांतिकारी वक्तव्य के अलावा रामसिंह के फौजी जीवन के ब्यौरों के साथ पहाड़ के स्मृति-बिंबों को एक विरोधाभासी कथ्य-संयोजन में रखने की वजह से भी याद की गयी। ऐसे बिंब तब तक हिंदी कविता में बहुत नहीं आये थे : ‘पानी की तरह साफ खुशी’, ‘घड़े में गड़ी हुई दौलत की तरह रक्खा गुड़’, ‘हवा में मशक्कत करते पसीजते चीड़ के पेड़’, ‘नींद में सुबकते घरों पर गिरती हुईं चट्टानें’, ‘घरों में भीतर तक घुस आता बाघ’ ऐसे ही सघन दृश्य हैं। हाथी, ऊँट, गाय, पपीता, इमली, समोसे वगैरह पर लिखी कविताओं की संरचना विवरणात्मक और निबंध सरीखी है। ‘गाय’ कविता की प्रारंभिक पंक्तियाँ—’वह एक गाय है/धुँधला सफेद है उसका रंग/ वह घास चर रही है/ वहाँ जहाँ बरसात ने मैदान बना दिया है/ जब वह चरती है तो चर्र-चर्र करती है’—तीसरी-चौथी कक्षा के किसी बच्चे के वाक्यों की याद दिलाती है जिसे परीक्षा में गाय पर निबंध लिखने के लिए कहा गया हो। यह संघ परिवार की करतूतों और सांप्रदायिक धर्मतंत्र द्वारा एक आक्रामक धार्मिक प्रतीक में बदल दी गयी गाय नहीं, बल्कि भारतीय गाँवों और किसान जीवन के ‘सेकुलर स्पेस’ की प्राणी है। कई वर्ष पहले ‘इसी दुनिया में’ की समीक्षा करते हुए रवींद्र त्रिपाठी ने लिखा था कि ‘कवि गाय को धार्मिक संदर्भों से मुक्त कर उसे आत्मीय रूप में प्रस्तुत करता है। यह भारतीय मनुष्य और गाय के उदात्तीकृत रिश्ते का एहसास है।’ इसी संग्रह की ‘इलाहाबाद :1970’ और ‘सड़क के लिए सात कविताएँ’ भी चर्चा में रहीं जो इलाहाबाद को तत्कालीन साहित्यिक माहौल में अनोखे ढंग से देखती थीं : ‘छूटते हुए छोकड़ेपन का गम, कडकी, एक नियामत है डोसा/ कॉफी हाउस में थे कुछ लघुमानव, कुछ महामानव/ दो चे गेवारा/ मनुष्य था मेरे साथ रमेन्द्र/उसके पास थे चार रुपये।’

संग्रह की एक और कविता में वीरेन मनुष्य के दुख की पहचान एक नये और भैतिक ढंग से करते हैं, उसे ‘भाप की तरह तैरते हुए’ देखते हैं, अँधेरे में भी उसकी सच्चाई से साक्षात्कार करते हैं और फिर उससे एक सार्थक राजनीतिक आयाम दे देते हैं : ‘नकली सुखी आदमी की आवाज़ में/टीन का पत्तर बजता है/ मसलन मारे गये लोगों पर/राजपुरुष का रुँधा हुआ गला।’ इस तरह के अप्रत्याशित अर्थ-स्तर वीरेन की कविता में बहुत बार आते हैं और एक कथ्य अचानक एक ज़्यादा व्यापक अनुभव तक चला जाता है। मुक्तिबोध ने जब ‘कविता की स्थानांतरगामी प्रवृत्ति’ की ज़रूरत का जि़क्रकिया था तो उनका आशय ऐसे ही विस्तारों से रहा होगा। ‘तोप’ शीर्षक कविता इसकी एक सुंदर मिसाल है जो कवि की प्रतिबद्धता, अन्याय के साधनों और जन-सघर्षों से जुड़ी ऐतिहासिक प्रक्रियाओं को बतलाती है। सन् 1857 की जन-क्रांति का दमन करने के काम आयी एक औपनिवेशिक तोप का मौजूदा हाल यह है कि उस पर बच्चे घुड़सवारी करते हैं और चिडिय़ाँ कभी उसके ऊपर और कभी भीतर बैठकर गपशप करती हैं। अंत में कवि कहता है : ‘कितनी भी बड़ी हो तोप/ एक दिन तो होना ही है उसका मुँह बंद।’  दरअसल वीरेन आरंभ से ही एक अलग किस्म के कवि के रूप में सामने आये और ‘इसी दुनिया में’ आठवें दशक की कविता का एक प्रमुख दस्तावेज़ बन गया।

ग्यारह साल बाद सन 2002 में वीरेन का दूसरा संग्रह ‘दुश्चक्र में स्रष्टा’ प्रकाशित हुआ, जिस पर उन्हें साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला। कुछ समय तक यह तुलना भी होती रही कि दोनों संग्रहों में से कौन सा बेहतर है। निश्चय ही, ‘दुश्चक्र में स्रष्टा’ पहले संग्रह से आगे का कदम था : शिल्प-सजगता और भाषा के स्तर पर कहीं अधिक परिपक्व, लेकिन संवेदना की आधार-भूमि पहले जैसी थी। यह स्वाभाविक भी था क्योंकि अच्छे कवियों की मूल भूमि बदलती नहीं है, उनका वास्तविक निवास वही रहता है, सिर्फ उनका जलागम-क्षेत्र—कैचमेंट एरिया—विस्तृत होता रहता है और संवेदना ग्रहण करने के स्रोत बढ़ते जाते हैं। खास बात यह है कि वीरेन की ज़्यादातर वे कविताएँ बेहतर मानी गयीं जिनमें कहीं-न-कहीं ‘इसी दुनिया में’ की ऊष्मा और विकलता का विस्तार था। संग्रह की शीर्षक कविता के साथ ‘हड्डी खोपड़ी खतरा निशान’, ‘रात-गाड़ी’, ‘मां की याद’, ‘माथुर साहब को नमस्कार’, ‘फैज़ाबाद-अयोध्या’, ‘हमारा समाज’, ‘कुछ नयी कसमें’, ‘सूअर का बच्चा’, ‘तारंता बाबू से कुछ सवाल’, ‘पोस्टकार्ड महिमा’ और ‘उजले दिन ज़रूर’ ऐसी ही अर्थ-बहुल और शिल्प-समृद्ध रचनाएँ थीं जिनमें से ‘दुश्चक्र में स्रष्टा’ वीरेन की हस्ताक्षर-कविता बनी। ‘उजले दिन ज़रूर’ को प्रतिबद्ध जनवादी कथ्य के कारण ‘इतने भले नहीं बन जाना साथी’ और ‘हमारा समाज’ जैसी पहले संग्रह की कविताओं के साथ बहुत सी साहित्यिक गोष्ठियों और खासकर जनसंस्कृति मंच और ‘हिरावल’ के कार्यक्रमों में गाया जाने लगा। इसी दौर में वीरेन ने नाजि़म हिकमत की कई कविताओं का प्रभावशाली अनुवाद किया, जिनकी गहरी भावनात्मकता की छाप भी उन पर पड़ी।

‘दुश्चक्र में स्रष्टा’ वीरेन की बेहतरीन कविताओं में शामिल है। यह किसी अज्ञात ईश्वर, किसी ‘करुणानिधान’ से किये गये शिकवे की तरह है, जिसमें प्रकृति के विशाल कारोबार को, नदी, पर्वत, हाथी की सूँड़, कुत्ते की जीभ और दुम, मछली, छिपकली और आदमी की आँतों के जाल को ‘भगवान का कारनामा’ करार देते हुए समकालीन यथार्थ का भयावह परिदृश्य है और मौजूदा अमानुषिकताओं-विरूपणों के बारे में विचलित करने वाले सवाल पूछे गये हैं :

नहीं निकली कोई नदी पिछले चार-पाँच सौ सालों से

जहाँ तक मैं जानता हूँ

न बना कोई पहाड़ या समुद्र

एकाध ज्वालामुखी ज़रूर फूटते दिखाई दे जाते हैं कभी-कभार।

बाढ़ें तो आयीं खैर भरपूर, काफी भूकंप,

तूफान खून से लबालब हत्याकांड अलबत्ता हुए खूब

खूब अकाल, युद्ध एक से एक तकनीकी चमत्कार

रह गयी सिर्फ एक सी भूख, लगभग एक सी फौजी

वर्दियां जैसे

मनुष्य मात्र की एकता प्रमाणित करने के लिए

एक जैसी हुंकार, हाहाकार!

प्रार्थनागृह ज़रूर उठाये गये एक से एक आलीशान!

मगर भीतर चिने हुए रक्त के गारे से

वे खोखले आत्माहीन शिखर-गुंबद-मीनार

ऊँगली से छूते ही जिन्हें रिस आता है खून!

आिखर यह किनके हाथों सौंप दिया है ईश्वर

तुमने अपना इतना बड़ा कारोबार?’

 ‘दुश्चक्र में स्रष्टा’ हमारे समाज, लोकतंत्र और मनुष्य की आत्मिक संरचना में आये क्षरण और गिरावट को दर्ज करता है। ‘हड्डी खोपड़ी खतरा निशान’ में जब वीरेन कहते हैं कि ‘अब दरअसल सारे खतरे खत्म हो चुके हैं/ प्यार की तरह’ तो वे एक आत्म-केंद्रित, खुदगजऱ् और संवेदना-रहित होते जाते समाज पर गहरा व्यंग्य करते हैं। ऐसी रचनाओं में खास तौर से लोकतंत्र पर बढऩे वाले संकटों और सांप्रदायिक ताकतों के उन्माद की तीखी प्रश्नाकुल चीरफाड़ मिलती है : ‘पर हमने कैसा समाज रच डाला है/ इसमें जो दमक रहा, शर्तिया काला है/ वह कत्ल हो रहा सरे आम सड़कों पर/ निर्दोष और सज्जन, जो भोला-भाला है/ किसने ऐसा समाज रच डाला है/ जिसमें बस वही दमकता है जो काला है?’ अयोध्या में बाबरी मस्जिद के साजि़शी विध्वंस की त्रासदी पर लिखते हए वीरेन दो कविताओं में निराला को याद करते हैं और राम और निराला, दोनों को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सांप्रदायिक-फासिस्ट ताकतों के प्रतिरोध का औज़ार बना देते हैं। ‘अयोध्या-फैज़ाबाद’ भी निराला की एक कविता-पंक्ति को उद्धृत करते हुए कहती है :

वह एक और मन रहा राम का

जो न थका

इसीलिए रौंदी जा कर भी

मरी नहीं हमारी अयोध्या

इसीलिए हे महाकवि, टोहता फिरता हूँ मैं

 इस

अँधेरे में

तेरे पगचिह्न।

एक छंदबद्ध कविता उजले दिन ज़रूर’ में भी देश और समाज के हालात बतलाने के लिए निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ का संदर्भ है : ‘आकाश उगलता अंधकार फिर एक बार/ संशय विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती/…होगा वह समर, अभी होगा कुछ और बार/ तब कहीं मेघ ये छिन्न-भिन्न हो पायेंगे/ आयेंगे उजले दिन ज़रूर आयेंगे।’  ‘रात-गाड़ी’ भी संग्रह की एक अहम कविता है हालाँकि उसकी चर्चा ज़्यादा नहीं हुई। वह ‘दीन और देश’ यानी नैतिकता और समाज के विकृत-अमानवीय परिदृश्य की पड़ताल करती है जहाँ एक तरफ ‘बेरोज़गारों के बीमार कारखानों जैसे विश्वविद्यालय’ हैं, ‘राजधानियां गुंडों के मेले हैं’, ‘कलावा बांधे गदगद खल विदूषक’ हैं जो ‘सोने के मुकुट पहनकर फोटो उतरवा रहे’ हैं, और दूसरी तरफ ‘बेघर बेदाना बिना काम के मेरे लोग/ चिंदियों की तरह उड़े चले जा रहे हैं/ हर ठौर देश की हवा मैं।’ दो विसंगतियों को एक साथ रखने की इस प्रविधि में हमें पूरा देश दिखाई दे जाता है जिसकी आिखरी पंक्तियों में कवि कहता है : ‘खुसरो की बातों में संशय है/ खुसरो की बातों में डर है/ इसी रात में अपना भी घर है’। ‘माथुर साहब को नमस्कार’ भी ऐसी ही कम चर्चित कविता है, जो दो व्यक्तियों के माध्यम से मनुष्यता की निरंतरता और उसमें कवि की अटूट आस्था को मर्म छूने वाले ढंग से रेखांकित कर जाती है। इस प्रसंग में कवि को कहीं अचानक अपने गणित के दिवंगत अध्यापक माथुर साहब दिखाई दे जाते हैं, लेकिन फिर पता चलता है कि वे कोई श्रोत्री जी हैं जिन्हें कवि ने माथुर सर समझ कर नमस्कार किया है। माथुर साहब की अनुपस्थिति में श्रोत्री जी की उपस्थिति समूची मनुष्य जाति से प्रेम का एक मार्मिक वक्तव्य निर्मित करती है : ‘लोगों में ही दीख जाते हैं लोग भी/ लोगों में ही वे बच रहते हैं/ किसी चमकदार सुघड़ मज़बूत विचार की तरह/ दीख जाते हैं कौंधकर जब लग रहा होता है ‘सब कुछ खत्म हुआ’/शुक्रिया श्रोत्रीजी माथुर सर शुक्रिया/याद रखूँगा मैं अपना सीखा गणित का एकमात्र सूत्र/ ‘शून्य ही है सबसे ताकतवर संख्या/ हालाँकि सबसे नगण्य भी।’

वैचित्र्य-विरूप और कौतुक को, जि़ंदगी के ऊटपटाँगपन को देखने की वीरेन की लाजवाब क्षमता भी इस संग्रह की कई कविताओं में सामने आयी। मिसाल के लिए, यूनानी संगीतकार यान्नी की अगवानी में लिखी गयी ‘डीज़ल इंजन’। यान्नी ने कुछ वर्ष पहले ताजमहल के सामने अपना संगीत प्रस्तुत किया था। यान्नी संगीत के हमारे देसी माहौल में उसी तरह की उपस्थिति हैं जैसे कोयला इंजन के रोमांच की दुनिया में बेसुरे भड़भड़ करते डीज़ल इंजन का आगमन। यह छोटी सी कविता रेल में डीज़ल इंजन और संगीत में यान्नी का एक साथ इस तरह स्वागत करती है : ‘आओ जी, आओ लोहे के बनवारी/अपनी चीकट में सने-बने/यह बिना हवा की पुष्ट देह/ यह भों-पों-पों/ आओ पटरी पर खड़कताल की संगत में/ विस्मृत हों सारे आर्तनाद / आओ, आओ चोखे लाल/ आओ, आओ चिकने बाल/ आओ, आओ दुलकी चाल/ पीली पट्टी लाल रूमाल/ आओ रे, अरे, उरे, उपूरे, परे, दरे, पूरे, दपूरे/ के रे केरे?’  यह देखना दिलचस्प है कि वीरेन किस तरह डीज़ल इंजन और यान्नी के बीच एक संबंध बनाते हैं। दोनों का संगीत हमारे अपने ध्वनि-सहचर्यों को दबा देता है और उस विसंगति को पैदा करता है जो हमारे अपने जीवन-स्वर को विस्मृत करती हुई एक विरूपता को प्रविष्ट करा देती है। कविता की अंतिम पंक्तियाँ : ‘आओ रे, अरे, उरे, उपूरे, परे, दरे, दपूरे, के रे, केरे’ के विन्यास में सतह पर कुछ अपरिचित शब्द हैं और इन शब्द-समुच्चयों को हम उत्तर रेल, उत्तर-पूर्व रेल, पश्चिम और दक्षिण रेल, दक्षिण-पूर्व रेल और केंद्रीय रेल जैसे अर्थों में ले सकते हैं, लेकिन यहाँ वे अपने अर्थों से विच्छिन्न संकेतकों का रूप भी ग्रहण कर लेते हैं और ध्वनियों का एक विरूप पैदा करते हैं।

‘घोड़ों का बिल्ली अभिशाप’, ‘काम-प्रेम’, ‘गप्प-सबद’ और ‘कुछ नयी कसमें’ भी ऐसी रचनाएँ हैं जिनमें वीरेन शिल्पगत तोडफ़ोड़ करते हैं और अनुभवों के विद्रूप की चीरफाड़ भी करते हैं। ‘कुछ नयी कसमें’ विचित्र ढंग से ‘हल्दीराम भुजिया की कसम/ रिलायंस के तेल की कसम/ प्रमोद महाजन की कसम, कालू वितर्णा की कसम/ भाईचुंग भूटिया की कसम’  खाती हुई अंत में कुछ सुंदर-साधारण-सुखद चीज़ों की कसमें खाकर एक प्रतिरोधात्मक कविता बन जाती है : ‘फिर भी लेता हूँ फूलमती तिराहे की कसम/ पुल बंगश की कसम/ चमेली की बगिया की कसम/ ठंडी रसमलाई की कसम/ सिविल लैन इलाहाबाद की कसम/ सेमल की रूई जैसे कुरकुरे कोहरे से भरे / नैनीताल की कसम/ जो चीज़ तू है कोई और नहीं।’ ऐसी कविताओं का उद्देश्य सिर्फ भाषाई खिलवाड़ या कौतुक नहीं है। इन कसमों के ज़रिये वीरेन यह भी बताते चलते हैं कि साधारण चीज़ों-जगहों के कसम खाने में एक असाधारणता और वर्गीय विशिष्टता निहित है। इस अर्थ में ये कसमें कवि की राजनीतिक प्रस्थापनाएँ भी हैं।

एक और कविता ‘सूअर का बच्चा’ वीरेन की बारीक निरीक्षण क्षमता, ब्यौरों की पकड़, छंद-प्रयोग और ठेठ देसी किस्म के सौंदर्यशास्त्र का सुंदर उदाहरण है। पहली बारिश में ‘धुल-पुँछकर अंग्रेज़’ बना हुआ सूअर का बच्चा अपनी आंखों से सड़क के जो दृश्य देखता है, उनका इतना राग-भरा वर्णन एक दुर्लभ अनुभव है जो वीरेन के अलावा शायद नागार्जुन या त्रिलोचन या नगरीय प्रसंगों में रघुवीर सहाय के यहाँ ही मिल सकता है। वे एक कस्बे की सड़क के दृश्य हैं जिनमें आम तौर पर कोई आकर्षण नहीं होता, लेकिन वीरेन सूअर के बच्चे की आंखों से देखे गये दृश्यों को इतना कोमल और उदात्त बना देते हैं कि वह एक क्लासिकी अनुभव में बदलने लगता है : ‘पहले-पहल दृश्य दीखते हैं इतने अलबेले/ आँखों ने पहले-पहले अपनी उजास देखी है/ ठंढक पहुँची सीझ हृदय में अद्भुद मोद भरा है/ इससे इतनी अकड़ भरा है सूअर का बच्चा।’ पहले इस कविता का उपशीर्षक ‘सूअर के बच्चे का प्रथम वर्षा दर्शन’ था। सूअर का बच्चा वीरेन की निगाह में किसी भी दूसरे मानवीय या मानवेतर शिशु जैसी ही, बल्कि शायद उससे भी अधिक कोमल-निश्छल उपस्थिति है। दरअसल मनुष्यों, पशु-पक्षियों, वनस्पतियों और खाद्य सामग्री का भी एक निम्न वर्ग, एक ‘सबॉल्टर्न’ होता है, जिससे वीरेन को मानव जाति जैसा ही लगाव है। ‘समोसे’ इस संदर्भ में एक प्रतिनिधि उदाहरण है। इसमें एक आम निम्नवर्गीय दुकान का जि़क्र है जहाँ ‘कढ़ाई में सनसनाते समोसे’ बन रहे हैं : ‘बड़े झरने से लचक के साथ/ समोसे समेटता कारीगर था/दो बार निथारे उसने झन्नफन्न/ यह दरअसल उसकी कलाकार/ इतराहट थी/ तमतमाये समोसों के सौंदर्य पर/ दाद पाने की इच्छा से पैदा’, और फिर—’कौन अभागा होगा इस क्षण/ जिसके मन में नहीं आयेगी एक बार भी/ समोसा खाने की इच्छा।’ जब कवि समोसे खाने के लिए लपकता है, तब तक समोसे बनाता कलाकार और समोसे की कलात्मकता इतने स्वायत्त हो उठते हैं कि अपना सौंदर्यशास्त्र निर्मित कर लेते हैं और उनके सामने समोसे के लिए ललचाता व्यक्ति कुछ अप्रासंगिक हो उठता है। वीरेन का हुनर यह है कि वे मनुष्य के उपभोग में आने वाली चीज़ों को मनुष्य से अलग करके स्वतंत्र और स्वायत्त बना देते हैं।

वीरेन की संवेदना के एक सिरे पर नागार्जुन जैसे जनकवि की देसीपन और यथार्थवाद है तो दूसरे सिरे पर शमशेर जैसे ‘सौंदर्य के कवि’ हैं और दोनों के बीच कही निराला की उपस्थिति है। तीनों मिलकर उनके काव्य- विवेक की त्रिमूर्ति निर्मित करते हैं और अपने वक्त के अँधेरे से लडऩे की राह दिखाते हैं : ‘कवि हूँ मैं पाया है प्रकाश।’ ‘शमशेर’ शीर्षक कविता एक बड़े कवि के विकल जीवन को बहुत कम शब्दों में दर्ज करती है : ‘अकेलापन शाम का तारा था/ इकलौता/ उसे मैंने गटका/ नींद की गोली की तरह/ मगर मैं सोया नहीं।’  दरअसल पूर्वजों से लगातार संवाद करती वीरेन की कविता भाषा का भी एक नया देशकाल रचती है, जिसमें तत्सम-तद्भव आपस में घुले-मिले हैं और अक्सर तत्सम की जगह तद्भव है या इसका उलट है। उनके राजनीतिक-नैतिक सरोकार और ठेठ देशज अनुभव क्लासिक आयाम से जुड़कर एक संश्लिष्ट काव्य-व्यक्तित्व बनाते हैं। यह अंतक्र्रिया तब और भी दिखती है जब वे शमशेर जैसी सौंदर्य की ऊँचाई पर जाते हैं और वहाँ एक नागार्जुन खड़े मिलते हैं और जब नागार्जुन के निपट निरलंकार यथार्थ को खोजते हैं तो वहाँ एक शमशेर मौजूद होते हैं। इन दो बड़ी परंपराओं के भीतर काम करते हुए वीरेन प्रचलित काव्य-प्रविधियों में एक ज़रूरी विखंडन भी पैदा करते हैं और सौंदर्य, प्रेम और संघर्ष की निम्नवर्गीयता को कसकर थामे रहते हैं। इसके लिए वे भाषाई अराजकता को भी अपनाते हैं, कई प्रचलित देशज शब्दों का इस्तेमाल करते हैं या पुराने शब्दों को नयों की तरह बरतते हैं।

वीरेन का तीसरा संग्रह ‘स्याही ताल’ सन 2010 में प्रकाशित हुआ, जिसमें उनकी बेचैनी और बेफिक्री, समकालीन हताशा और बुनियादी उम्मीद के भरपूर साक्ष्य मिलते हैं। ‘कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित कथा’ जैसी कुछ लंबी कविता में वीरेन अपने भयावह समय को एक खंडित गद्यात्मक कथा में पढ़ते हैं। यह एक चिंतित मनुष्य की कविता है जो समाज के ‘सड़ते हुए जल’ में देखता है कि किस तरह एक कस्बाई जीवन में ग्राम प्रधान, दारोगा और स्मैक तस्कर वकील का भ्रष्ट त्रिकोण घुसपैठ कर चुका है। वह एक गरीब विधवा की चौदह वर्ष की बेटी को अपना शिकार बनाना चाहता है। यह एक दुर्वह-दुस्सह अनुभव के ब्यौरों की कविता है जिसके और भी बर्बर और डरावने रूप आज हमारे समाज में बढ़ रहे बलात्कारों, बेरहमियों और हिंसा में दिखाई दे रहे हैं। ‘ऊधो, मोहि ब्रज’ में इलाहाबाद के ‘अमरूदों की उत्तेजक लालसा-भरी गंध’ को याद करने के साथ ही वीरेन कहते हैं : ‘अब बगुले हैं या पंडे हैं या कउवे हैं या वकील/…नर्म भोले मृगछौनों के आखेटोत्सुक सियार।’ यह सिर्फ मोहभंग नहीं है, बल्कि एक नये डरावने समय में आशंकित मन की मुक्तिबोधीय चिंता है।

 ‘स्याही ताल’ वीरेन डंगवाल के जीवन की दो त्रासद घटनाओं का दस्तावेज़ भी है : पिता की मृत्यु, और खुद की बीमारी, जो सारी उम्मीदों के िखलाफ असाध्य और अंतत: प्राणघातक बनती गयी। ‘रॉकलैंड डायरी’ बीमारी के दौरान अस्पताल में देखे-सोचे गये दृश्यों की डरावनी फैंटेसी है और अनायास मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता ‘अँधेरे में’ की याद दिलाती है : ‘विभ्रम/ दु:स्वरप्न /कई धारावाहिक कूट कथाओं की रीलें/ अलग-बगल एक साथ चलतीं,/ जनता, हां जनता को रौंद देने के लिए उतरीं/ फौजी गाडिय़ों की तरह/ हृदय में घृणा और जोश भरे/ साधु-संत-मठाधीश-पत्रकार दौलत के लिज-गिल-गिल/ पिछलग्गू /ललकारते जाति को एक नये विप्लव के लिए।’  चार कवितांश पिता की बीमारी, मृत्यु, अंतिम संस्कार और फिर स्मृति से संबंधित हैं और अंत में पिता स्मृति में इस तरह बच रहते हैं : ‘एक शून्य की परछाईं के भीतर/ घूमता है एक और शून्य पहिये की तरह/ मगर कहीं न जाता हुआ/ फिरकी के भीतर घूमती एक और फिरकी/ शैशव के किसी मेले की।’ लेकिन गौरतलब है कि तमाम हताशाओं के बावजूद वीरेन उस उम्मीद को कभी ओझल नहीं होने देते जो यह मानती है कि ‘आदमी कमबख्त का सानी नहीं है/फोड़कर दीवार कारागार की इंसाफ की खातिर/तलहटी तक ढूँढ़ता है स्वयं अपनी राह।’ अपने जहाज़ी बेटे के लिए लिखी गयी इस कविता ‘उठा लंगर खोल इंजन’ में वीरेन कहते हैं : ‘हवाएँ रास्ता बतलायेंगी/ पता देगा अडिग रुख/ चम-चम-चमचमाता/ प्रेम अपना/ दिशा देगा/ नहीं होंगे जबकि हम तब भी हमेशा दिशा देगा/लिहाजा/ उठा लंगर खोल इंजन छोड़ बंदरगाह।’

गंभीर बीमारी और सर्जरी के बावजूद वीरेन ने लिखना जारी रखा और उनकी जो भी अब तक असंकलित कविताएँ हैं, वे दो बदलावों का संकेत करती हैं : वे संवेदना और अनुभव के उन स्रोतों की ओर मुड़ रहे थे जिनमें या तो स्थानीयता और कुछ ‘पहाड़ीपन’ था या जिनसे ‘रामसिंह’ जैसी जुझारू कविता संभव हुई थी, और शिल्प के स्तर पर भी वे उस रास्ते को अपना रहे थे जिसका जि़क्र उन्होंने पिछले संग्रह में किया था : ‘इसीलिए एक अलग रस्ता पकड़ा मैंने/ फितूर सरीखा एक पक्का यकीन।’  एक लंबी नाटकीय रचना ‘परिकल्पित कथालोकांतर काव्य-नाटिका नौरात शिवदास और सिरीभोग वगैरह’ खास तौर से ध्यान खींचती है जो लोक-कथा की शक्ल में एक प्रतिभाशाली दलित ढोल-कलाकार और एक रानी के प्रेम संबंधों और राजा द्वारा उसकी हत्या के षड्यंत्र के इर्दगिर्द बुनी गयी है, लेकिन खास बात यह है कि सोने की तलवार से मारे जाने से पहले ही ढोलवादक राजा को पीटकर फरार हो जाता है। इस घटना के वर्षों बाद उस वादक का पोता शिवदास कथा के प्रसंग में एक नया गीत जोड़ता हुआ एक बड़े संघर्ष का आवाहन करता है :

राज्जों, वजीरों का, शास्त्रों-पुराणों का नाश हो

जिन्होंने हमें गुलाम बनाया

इन तैंतीस करोड़ देवताओं का नाश हो

जो अपनी आत्मा जमाये बैठे हैं

हिमालय की बर्फीली चोटियों में

किसने सताया तुम्हें-हमें

इन पोथियों-पोथियारों, ताकतवालों ने

इनका नाश हो

इस रास्ते पर आगे बढ़ते हुए वीरेन कविता के नये पड़ावों की ओर जा रहे थे, लेकिन असामयिक और दुखद मृत्यु ने उनके सफर को रोक दिया। उनकी आख़िरी कविताओं में यह एहसास विकल रूप में दिखता है हालाँकि उसके साथ उम्मीद का दामन भी नहीं छूटता : ‘ये दिल मेरा ये कमबख्त दिल/ डॉक्टर कहते हैं ये फिलहाल सिर्फ पैंतीस फीसद काम कर रहा है/ मगर ये कूदता है शामी कबाब और आइसक्रीम खाता है/ भागता है/ शामिल होता है जुलूसों में धरनों पर बैठता है/ इंकलाब जि़ंदाबाद कहते हुए/ या कोई उम्दा कविता पढ़ते हुए अब भी भर लाता है/ इन दुर्बल आँखों में आँसू/ दोस्तो-साथियो मुझे छोडऩा मत कभी/ कुछ नहीं तो मैं तुम लोगों को देखा करूँगा प्यार से/ दरी पर सबसे पीछे दीवार से सटकर बैठा।’ इसी नाउम्मीद सी उम्मीद के भीतर वीरेन मौजूदा देश-समाज का जायज़ा लेने से नहीं चूकते : ‘हमलावर बढ़े चले आ रहे हैं हर कोने से/ पंजर दबता जाता है उनके बोझे से/ मन आशंकित होता है तुम्हारे भविष्य के लिए/ ओ मेरी मातृभूमि ओ मेरी प्रिया/ कभी बतला भी न पाया कि कितना प्यार करता हूँ तुमसे मैं।’ यह गौरतलब है कि वैचारिक प्रतिबद्धता और जनता के संघर्षों पर विश्वास वीरेन डंगवाल की कविता और व्यक्तित्व में अंत तक बने रहे और उनकी आरंभिक प्रस्थापना की ताईद करते रहे : ‘एक कवि और कर भी क्या सकता है/ सही बने रहने के अलावा।’ यह आकस्मिक नहीं है कि रघुवीर सहाय की प्रसिद्ध कविता का ‘रामदास’ वीरेन के आख़िरी दौर में अस्पताल में असाध्य बीमार पड़े हुए ‘रामदास-2’ के रूप में लौट आता है।

हर कवि की एक मूल संवेदना होती है जिसके इर्द-गिर्द उसके तमाम अनुभव सक्रिय रहते हैं। इस तरह देखें तो वीरेन के काव्य-व्यक्तित्व की बुनियादी भावना प्रेम है। ऐसा प्रेम किसी भी अमानुषिकता और अन्याय का प्रतिरोध करता है और उन्मुक्ति के संघर्षों की ओर ले जाता है। ऐसे निर्मम समय में जब समाज में लोग ज़्यादातर घृणा कर रहे हों और प्रेम करना भूल रहे हों, मनुष्य के प्रति प्रेम की पुनर्प्रतिष्ठा ही सच्चे कवि का सरोकार हो सकता है। शायद इसीलिए वीरेन की कविता में वर्गशत्रु या अंधेरे की ताकतों से नफरत उतनी नहीं है, बल्कि बर्बर ताकतों का तिरस्कार ज़्यादा है। यह कविता इसीलिए एक अजन्मे बच्चे को माँ की कोख में फुदकते, रंगीन गुब्बारे की तरह फूलते-पचकते, कोई शरारत-भरा करतब सोचते हुए महसूस करती है या दोस्तों की बेटियों को एक बड़े भविष्य का दिलासा देती है। एक पेड़ के पीले-हरे उकसे हुए, चमकदार पत्तों को देखकर वह कहती है : ‘पेड़ों के पास यही तरीका है/ यह बताने का कि वे भी दुनिया को प्यार करते हैं।’ शायद इसीलिए वीरेन ‘कत्थई गुलाब वाले’ शमशेर के बहुत निकट हैं, उन्हें बार-बार याद करते हैं और शमशेर के जीवन का निचोड़ और खुद हमारे समाज का निर्मम हाल बतलाते हैं : ‘मैंने प्रेम किया/ इसी से भोगने पड़े/ मुझे इतने प्रतिशोध।’

यह देखकर आश्चर्य हो सकता है कि ‘पूरे संसार को ढोनेवाली/ नगण्यता की विनम्र गर्वीली ताकत’ की पहचान और प्रतिष्ठा करती हुई वीरेन डंगवाल की कविता अपने कलेवर में इतने अधिक प्राणियों और वस्तुओं को, उनके विशाल धड़कते हुए अस्तित्व को समेटती चलती रही। हिंदी कविता में यह एक दुर्लभ घटना है जब कोई कवि अपने से इतना अधिक बाहर रहकर, इतना अधिक बाह्यांतर से जुड़कर सार्थक सृजन कर पाया है। कविता से बाहर भी वीरेन के दोस्तों और प्रशंसकों की दुनिया इतनी बड़ी थी जितनी शायद किसी दूसरे समकालीन कवि की नहीं रही होगी। उनके निधन पर असद ज़ैदी ने मीर तकी ‘मीर’ की एक रुबाई का हवाला दिया था जिसमें किसी ऐसे व्यक्ति से मिलने की ख्वाहिश ज़ाहिर की गयी है जो सचमुच मनुष्य हो, जिसे अपने हुनर पर अहंकार न हो, जो अगर कुछ बोले तो एक दुनिया सुनने के लिए एकत्र हो जाये और जब वह खामोश हो तो लगे कि एक दुनिया खामोश हो गयी है। वीरेन की शिख्सयत ऐसी ही थी, जिसके खामोश हो जाने से लोगों और कविताओं की विस्तृत दुनिया में जो उदास खामोशी व्याप्त हुई थी, वह अब तक महसूस होती रहती है।

—मंगलेश डबराल

जून 2018

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हम जैसों को अमृतलाल वेगड़ जी कल्पनाओं में ही मिले, और कल्पना में ही दूर हो गए

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नर्मदा नदी की यात्रा करके उस पर किताबें लिखने वाले अमृतलाल वेगड़ आज नहीं रहे. उनकी स्मृति में यह श्रद्धांजलि लिखी है नॉर्वे-प्रवासी डॉक्टर लेखक प्रवीण झा ने- मॉडरेटर

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हम जैसों को अमृतलाल जी कल्पनाओं में ही मिले, और कल्पना में ही दूर हो गए। जैसे कुमार गंधर्व, जैसे बाबा नागार्जुन, जैसे अनुपम मिश्र। कभी-कभी रश्क आता है उनसे जो इन लोगों को करीब से मिलते रहे। बर्मन घाट, धवरीकुंड, पथौरा, नरेश्वर, सरदारनगर, भेड़ा घाट मन ही मन घूमता रहता हूँ। यूँ तो अब नदियों के देश में नदी तीरे ही रहता हूँ, और नदियाँ जब पहाड़ों को काट कर ‘फ्योर्ड’ बनाती है तो नर्मदा की छवि बनती है। नदी जिसे मर्जी काटे, जिसे मर्जी ले डूबे। समस्या तो तब आती है जब हम नदी को अपनी मर्जी से काट नर्मदा संकरी कर देते हैं।

जिन्होंने भी अमृतलाल जी के साथ नर्मदा का परिक्रमण किया हो, उन्हें शायद याद हो कि कैसे ओंकारेश्वर में नर्मदा और कावेरी मिलती हैं, फिर उनमें कुछ मनमुटाव होता है तो अलग हो जाती हैं, और फिर उनमें वापस मित्रता हो जाती है। जैसे नदियों का मानवीय स्वरूप हो, दैविक नहीं कहूँगा। अमृतलाल जी की परिकल्पना में भी नदी का अस्तित्व पार्थिव ही नजर आया, कभी मातृस्वरूपा तो कभी संगिनी। जब उन्हें नर्मदा किनारे एक चाय की कुटिया पर बैठे सज्जन मिलते हैं, और कहते हैं कि उनका घर यह खाट है, उनका झोला उनकी संपत्ति और नर्मदा संगिनी। जब नर्मदा का क्रोध बढ़ता है, तो उनकी खाट उठा कर दूर पटक देती है। और वो फिर नर्मदा के पास लौट मनाने आ जाते हैं। कुछ महीनों में नर्मदा शांत हो जाती है। वो नर्मदा के बिना नहीं रह सकते, और मुझे वेगड़ की जो पढ़ कर लगा कि नर्मदा भी शायद उनके बिना न रह पाए।

जब यह प्रश्न उठता है कि साहित्य के लिए शब्दों की लड़ी और मायाजाल बुनना पड़ता है, तो वेगड़ जी जैसे लोग इसमें एक मूलभूत तत्व लाते हैं। गर मनुष्य जीवन में रम नहीं गया, तो क्या शब्दजाल बुनेगा? और गर रम गया तो कलम से शब्द भी फूटेंगे और चित्र भी। मैंने उन्हें इंटरनेट पर ही सुना-पढ़ा, और साहित्य अकादमी पुरस्कार वाले भाषण की सहजता ने दिल जीत लिया। कभी उनका कहा सुना कि जैसे उनके शरीर पर चर्बी नहीं, वैसे ही उनके भाषा में भी भारीपन नहीं। एक गुजराती प्रकृतिप्रेमी की हिंदी में मुझे वो वजन लगा कि मैं उसके भार से मुझ जैसे सदा के लिए दब गए। एक मित्र ने उनका सूत्र दिया, और उस डोर को पकड़ हकबकाए जो भी उनका लिखा मिलता गया, पढ़ता गया। अब हर नदी में कथा ढूँढता हूँ, गीत ढूँढता हूँ, पर मुझे वो हासिल नहीं होता जो वेगड़ जी को हुआ। इसके लिए उनके ही शब्दों को जीना होगा। जटा बढ़ा कर झोला लटकाए झाड़ियों को लाँघते नर्मदा का परिक्रमण कई बार करना होगा। नेताओं और मनोकामना पूर्ण की इच्छा से नहीं, नर्मदा की परिक्रमा नर्मदा के लिए ही करनी होगी।

नदियों और नहरों के शहर एम्सटरडम के सफर पर हूँ, जहाँ लोग कहते हैं कि “हम जल से लड़ते नहीं हैं, जल के साथ जीते हैं”। यह बात तो वेगड़ जी कब के कह गए। पर अब कौन कहेगा? न अनुपम जी रहे, न वेगड़ जी।

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चारुमति रामदास अनूदित अलेक्सांद्र कूप्रिन के उपन्यास ‘द डुअल’का एक हिस्सा

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अलेक्सांद्र कूप्रिन (1870-1938) एक प्रसिद्ध रूसी लेखक थे. यहाँ दिया गया हिस्सा कूप्रिन के सबसे प्रसिद्ध उपन्यास द डुअल से लिया गया है। इस हिस्से को पढ़ते हुए आपको अहसास होगा कि टाल्सटाय ने क्यों कूप्रिन को चेखब का सही उत्तराधिकारी कहा था। चारुमति रामदास के द्वारा इस तर्जुमा को पढ़िए जानकीपुल पर। 

– अमृत रंजन


द्वंद्वयुद्ध – 22

लेखक : अलेक्सान्द्र कूप्रिन

हिंदी अनुवाद : . चारुमति रामदास

अपने घर के पास आते हुए रोमाशोव ने अचरज से देखा कि उसके कमरे की छोटी खिड़की में गर्मियों की रात के गर्माहट भरे अंधेरे के बीच, मुश्किल से दिखाई दे रही लौ फड़फड़ा रही है. ‘इसका क्या मतलब है?’ उसने उत्तेजनापूर्वक सोचा और अनचाहे अपनी चाल तेज़ कर दी. ‘हो सकता है, मेरे गवाह लौटे हैं द्वन्द्वयुद्ध की शर्तें निश्चित करके?’ ड्योढ़ी में वह गैनान से टकरा गया; उसे देखा नहीं, डर गया; थरथर काँपने लगा और गुस्से से चिल्लाया, “क्या शैतानियत है! ये तू है, गैनान? वहाँ कौन है?”

अंधेरे के बावजूद वह महसूस कर रहा था कि गैनान, अपनी आदत के मुताबिक, एक ही जगह पर नाच रहा था.

 “तुम्हारे लिए मालकिन आई है, बैठी है.”

रोमाशोव ने दरवाज़ा खोला. लैम्प का कैरोसीन कब का ख़त्म हो चुका था, और अब, चटचटाते हुए, वह आख़िरी लपटें फेंक रहा था. पलंग पर किसी औरत की निश्चल आकृति बैठी थी, जो आधे अँधेरे में अस्पष्टता से दिखाई दे रही थी.

 “शूरोच्का!” रोमाशोव ने गहरी साँस लेते हुए कहा और, जाने क्यों, पंजों के बल सावधानी से पलंग की ओर आया. “शूरोच्का, ये आप हैं?”

 “धीरे; बैठिए,” उसने जल्दी से, फुसफुसाहट से जवाब दिया. “लैम्प बुझा दीजिए.”

उसने काँच में ऊपर से फूँक मारी. भयभीत नीली लौ मर गई, और फ़ौरन कमरे में अँधेरा और ख़ामोशी छा गए; और उसी समय शीघ्रता से और ज़ोर से मेज़ पर रखी हुई अलार्म घड़ी बज उठी, जिस पर अब तक किसी का ध्यान नहीं गया था. रोमाशोव अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना की बगल में बैठ गयाझुक कर, और उसकी ओर देखते हुए. भय का, परेशानी का, दिल में एक जम जाने का अजीब एहसास उस पर हावी हो गया, जो उसके बोलने में बाधा डाल रहा था..

 “तुम्हारे यहाँ, बगल में कौन है, इस दीवार के पीछे?” शूरोच्का ने पूछा, “वहाँ सुनाई देता है?”

 “नहीं, वहाँ ख़ाली कमरा हैपुराना फर्नीचरमालिकबढ़ई है. ज़ोर से बोल सकते हैं.”

मगर फिर भी वे दोनों फुसफुसाकर ही बोलते रहे, और इन ख़ामोश, टूटेटूटे शब्दों में, बोझिल, घने अँधेरे के बीच काफ़ी कुछ डरावना सा, सकुचाहटभरा और रहस्यमय ढंग से छिपा हुआ सा था. वे लगभग एक दूसरे से सटे हुए बैठे थे. रोमाशोव के कानों में ख़ून निःशब्दता से हिलोरें मार रहा था.

 “क्योंआपने ऐसा क्यों किया?” अचानक वह हौले से मगर उदासीनतापूर्ण भर्त्सना से बोली.

उसने उसके घुटने पर अपना हाथ रखा. रोमाशोव ने अपने वस्त्रों से होते हुए उसकी सजीव, तनावपूर्ण गर्माहट का अनुभव किया; और गहरी साँस लेकर आँखें सिकोड़ लीं. मगर इससे अँधेरा गहराया नहीं, बस आँखों के सामने तैरने लगे परीलोक के तालाबों जैसे नीली चमक से घिरे हुए वक्राकार घेरे.

 “याद है, मैंने आपसे विनती की थी कि उसके साथ संयम बरतना. नहीं, नहीं; मैं उलाहना नहीं दे रही हूँ. आपने जानबूझ कर झगड़े की वजह पैदा नहीं कीमुझे ये बात मालूम है. मगर उस समय, जब आपके भीतर जंगली जानवर जाग उठा, क्या एक मिनट के लिए भी आप मुझे याद करके रुक नहीं सकते थे? आपने मुझसे कभी प्यार ही नहीं किया!”

 ‘मैं आपसे प्यार करता हूँ,” हौले से रोमाशोव ने कहा और हौले से सकुचाहटभरी, थरथराती उँगलियों से उसका हाथ छू लिया.

शूरोच्का ने उसे छुड़ा लिया, मगर फ़ौरन नहीं, धीरे धीरे, जैसे कि उस पर तरस खा रही हो और उसे अपमानित करने से डर रही हो.

 “हाँ, मुझे मालूम है कि तो आपने, ही उसने मेरा नाम लिया, मगर आपका शिष्टतापूर्ण व्यवहार बेकार गया: शहर में तो अफ़वाह फैल ही रही है.”

 “माफ़ कीजिए, मुझे अपने आप पर काबू रहाईर्ष्या ने मुझे अंधा कर दिया था,” मुश्किल से रोमाशोव कह पाया.

वह कटुता से देर तक हँसती रही.

 “ईर्ष्या? कहीं आप ये तो नहीं सोच रहे हैं कि मेरा पति इतना उदार दिल वाला है कि आपसे हाथापाई होने के बाद उसने स्वयँ को मुझे यह बताने की ख़ुशी से महरूम रखा होगा कि आप कहाँ से मेस में आए थे? उसने नज़ान्स्की के बारे में भी मुझे बताया.”

 “माफ़ कीजिए,” रोमाशोव ने दुहराया, “मैंने वहाँ कोई बेहूदगी नहीं की. माफ़ कीजिए.”

वह अचानक ज़ोर से, निर्णयात्मक और संजीदा फुसफुसाहट से बोल पड़ी, “ सुनिए, गिओर्गी अलेक्सेयेविच, मेरे लिए हर पल क़ीमती है. मैं घंटे भर से आपका इंतज़ार भी कर रही हूँ. इसलिए संक्षेप में, और केवल काम के बारे में बातें करेंगे. आप जानते हैं कि वोलोद्या की मेरी ज़िन्दगी में क्या जगह है. मैं उसे प्यार नहीं करती, मगर उस पर मैंने अपनी रूह का एक हिस्सा निछावर कर दिया है. मेरे पास अधिक आत्मसम्मान है उसके मुक़ाबले में. दो बार वह अकादमी की प्रवेश परीक्षा में फेल हो गया. इससे मुझे उससे कहीं ज़्यादा दुख पहुँचा है, अपमान का अनुभव हुआ है. जनरलस्टाफ़ का ये पूरा ख़याल सिर्फ मेरा है; मेरे अकेले का. मैंने अपने पति को पूरी ताक़त से इसमें घसीटा; उसे उकसाती रही; उसके साथ साथ रटती रही, दुहराती रही, उसके आत्मसम्मान को कसती रही. येमेरा अपना, सर्वाधिक प्रिय उद्देश्य है; मेरी कमज़ोरी है. अपने दिल की इस ख़्वाहिश को मैं निकाल कर फेंक नहीं सकती. चाहे कुछ भी क्यों हो जाए; मगर वह अकादमी में प्रवेश ज़रूर पाएगा.”

रोमाशोव हथेली पर सिर टिकाए झुक कर बैठा था. उसे अचानक महसूस हुआ कि शूरोच्का ख़ामोशी से, धीरे धीरे उसके बालों पर हाथ फेर रही है. उसने विषादयुक्त अविश्वास से पूछा: “मैं क्या कर सकता हूँ?”

उसने गले में बाँहें डालकर उसका आलिंगन किया और प्यार से उसका सिर अपने सीने पर रख लिया. उसने चोली नहीं पहनी थी. रोमाशोव अपने गाल से उसके शरीर की लोच को महसूस करता रहा और उसकी गर्म, तीखी, मीठी मीठी ख़ुशबू को सूँघता रहा. जब वह बोलती तो अपने बालों पर वह उसकी रुकी रुकी साँस महसूस करता.

 “तुम्हें याद है, तबशाम कोपिकनिक पर. मैंने तुम्हें पूरा सच बताया था. मैं उसे प्यार नहीं करती. मगर सोचो: तीन साल, पूरे तीन साल उम्मीद से भरे, कल्पना से भरे, जीवन की योजनाओं से भरपूर; और ऐसा घृणित काम! तुम्हें तो मालूम है कि मुझे बेहद नफ़रत है भिखमंगे अफ़सरों के इस तंग दिमाग़, फूहड़, नीच समाज से. मुझे हमेशा बढ़िया कपड़े पहने; ख़ूबसूरत, सलीकापसन्द होना अच्छा लगता है; मैं चाहती हूँ लोगों के झुक झुक कर किए गए सलाम, सत्ता! और अचानकभद्दी, नशे में धुत होकर की गई मारपीट, अफ़सरों का स्कैण्डल; और सब ख़त्म, सब धूल में मिल गया! ओह, कितना भयानक है ये! मैं कभी भी माँ नहीं बनी, मगर मैं कल्पना करती हूँ: मेरा बच्चा बड़ा होगाप्यारा, दुलारा; उस पर सारी उम्मीदें हैं, उसके लिए दी गई हैं चिंताएँ, आँसू, जागती रातेंऔर अचानकफूहड़पन, एक घटना, जंगली, प्राकृतिक घटना: वह खिड़की में बैठा खेल रहा है; दाई पलटती है; वह नीचे गिरता है, पत्थरों पर. मेरे प्यारे, सिर्फ इसी मातृत्व की बदहवासी से मैं तुलना कर सकती हूँ अपने दुर्भाग्य की और कटुता की. मगर मैं तुम्हें दोष नहीं देती.”

झुककर बैठना रोमाशोव को असुविधाजनक लग रहा था, और उसे डर लग रहा था कि शूरोच्का को भार महसूस हो. मगर वह ख़ुश था इसी तरह घंटों बैठने और एक विचित्र, उमस भरे नशे में उसके छोटे से दिल की धड़कनें सुनने में.

 “तुम मेरी बात सुन रहे हो?” उसने उसकी ओर झुकते हुए पूछा.

 “हाँ, हाँबोलो, अगर मेरे बस में हो तो मैं वह सब करूँगा जो तुम चाहती हो.”

 “नहीं, नहीं. पहले मेरी पूरी बात सुनो. अगर तुम उसे मार डालोगे; या उसे इम्तिहान देने से रोका जाता हैसब ख़त्म हो जाएगा! मैं उसी दिन, जब इस बारे में सुनूँगी, उसे छोड़कर चली जाऊँगीकहीं भीपीटर्सबर्ग या ओडेसा, या कीएव. ये सोचना कि ये किसी अख़बारी उपन्यास का झूठा वाक्य है. मैं ऐसे सस्ते प्रभाव डालकर तुम्हें डराना नहीं चाहती. मगर मुझे मालूम है कि मैं जवान हूँ, ज़हीन हूँ, पढ़ी लिखी हूँ. ख़ूबसूरत नहीं हूँ, मगर मैं अन्य कई सुन्दरियों से ज़्यादा दिलचस्प होना जानती हूँ, जिन्हें बालनृत्यों में पुरस्कार के तौर पर अपनी ख़ूबसूरती के लिए कोई जर्मनसिल्वर की ट्रे या संगीत वाली अलार्म घड़ी मिलती है. मैं अपने आप पर अन्याय करती हूँ, मगर मैं एक पल में जल जाती हूँपूरी चमक से, आतिशबाज़ी की तरह!”

रोमाशोव ने खिड़की से बाहर देखा. अब उसकी आँखें, जो अंधेरे की आदी हो गई थीं, खिड़की की अस्पष्ट, मुश्किल से दिखाई देने वाली फ्रेम की चौखट देख सकती थीं.

 “ऐसा कहोऐसा नहीं कहना चाहिएमुझे तकलीफ़ होती है,” उसने दयनीयता से कहा. “ठीक है, क्या तुम चाहती हो कि मैं कल द्वन्द्व युद्ध से इनकार कर उससे माफ़ी माँग लूँ? ऐसा करूँ?”

वह कुछ देर चुप रही. अलार्मघड़ी अपनी धातुई बड़बड़ाहट से अंधेरे कमरे के सभी कोनों को भर रही थी. आख़िर में उसने मुश्किल से सुनाई देने वाली आवाज़ में, मानो सोच में डूबी हो, कुछ ऐसे भाव से कहा जिसे रोमाशोव पकड़ नहीं पाया, “मैं जानती थी कि तुम यही कहोगे.”

उसने सिर उठाया और, हालाँकि शूरोच्का ने उसकी गर्दन को हाथों से थाम रखा था, वह पलंग पर सीधा हो गया.

 “मैं डरता नहीं हूँ!” उसने ज़ोर से, बिना आवाज़ किए कहा.

 “नहीं, नहीं, नहीं, नहीं,” उसने आवेगपूर्ण, शीघ्र, विनती करती हुई फुसफुसाहट से कहा. “तुम मुझे समझे नहीं. मेरे नज़दीक आओजैसे पहलेआओ !…”

उसने दोनों हाथों से उसका आलिंगन किया और फुसफुसाने लगी, उसके चेहरे को अपने नर्म, पतले बालों से सहलाते हुए और उसके गाल पर गर्म गर्म साँस छोड़ते हुए:

 “तुम मुझे समझ नहीं पाए. मैं कुछ और ही कहना चाहती हूँ, मगर तुम्हारे सामने मुझे शर्म आती है. तुम इतने पाकसाफ़, इतने भले, और मुझे तुमसे यह कहने में सकुचाहट हो रही है. मैं चालाक हूँ, नीच हूँ…”

 “नहीं. सब कह दो. मैं तुमसे प्यार करता हूँ…”

 “सुनो,” वह कहने लगी, और वह शीघ्र ही उसके शब्दों को सुनने के बदले भाँपने लगा. “अगर तुम इनकार कर दोगे, तो कितना अपमान, शर्म और मुसीबतें झेलनी पडेंगी तुम्हें. नहीं, नहीं, मैं फिरवो नहीं कह पा रही. आह, मेरे ख़ुदा, इस पल मैं तुम्हारे सामने झूठ नहीं बोलूँगी. मेरे प्यारे ये सब मैंने बहुत पहले ही सोच रखा था, और इस पर भलीभाँति विचार भी कर लिया था. मान लेते हैं, तुमने मना कर दिया. पति का सम्मान पुनर्स्थापित हो जाता है. मगर, समझो, द्वन्द्व युद्ध में, जो समझौते से समाप्त हो जाता है, हमेशा कुछ रह जाता हैकैसे कहें?…वो, याने कि, संदेहास्पद, कुछ कुछ ऐसा जो अविश्वास एवं निराशा को उकसाता हैतुम मुझे समझ रहे हो?” उसने शोकपूर्ण नर्मी से पूछा, और सावधानीपूर्वक उसके बालों को चूमा.

 “हाँ. तो फिर क्या?”

 “फिर ये, कि इस हालत में पति को परीक्षा लगभग देने ही नहीं दी जाएगी. जनरलस्टाफ़ के अफसर की प्रतिष्ठा पर ज़रा सा भी धब्बा नहीं होना चाहिए. मगर, यदि आप सचमुच में एक दूसरे पर गोली चलाते हैं, तो इसमें कुछ वीरतापूर्ण, शक्तिशाली होगा. उन लोगों के लिए कई, कई सारी चीज़ें माफ़ हो जाती हैं, जो गोलियों की बौछार में स्वयं की गरिमा बनाए रखते हैं. फिरद्वन्द्व युद्ध के बादतुम, अगर चाहो तो, माफ़ी भी माँग सकते होख़ैर, ये तुम्हारा फैसला है.”

कस कर एक दूसरे का आलिंगन करते हुए वे षडयंत्रकारियों की भाँति फुसफुसाते रहे; एक दूसरे के चेहरों को और हाथों को छूते हुए; एक दूसरे की साँसें सुनते हुए. मगर रोमाशोव महसूस कर रहा था कि उनके बीच अदृश्य रूप से कोई रहस्यमय, नीचतापूर्ण, चिपचिपी चीज़ रेंग गई है, जिससे उसकी आत्मा में ठंड की लहर दौड़ गई. उसने फिर से स्वयं को उसके हाथों से आज़ाद करना चाहा, मगर वह उसे छोड़ नहीं रही थी. समझ में आने वाली, बहरी चिड़चिड़ाहट को छिपाने की कोशिश में उसने रूखेपन से पूछा, “ख़ुदा के लिए, सीधे सीधे समझाओ. मैं हर बात का वादा करता हूँ.”

तब उसने हुकूमत के स्वर में, उसके ठीक मुँह के पास कहना आरंभ किया; उसके शब्द शीघ्र, थरथराते हुए चुंबनों जैसे थे:

 “तुम्हें कल किसी भी हाल में गोली चलानी होगी. मगर तुममें से कोई भी घायल नहीं होगा. ओह, मुझे समझने की कोशिश करो, मुझे दोषी समझो! मैं ख़ुद भी कायरों से नफ़रत करती हूँ, मैं एक औरत हूँ. मगर मेरी ख़ातिर यह करो, गिओर्गी! नहीं, पति के बारे में कुछ पूछो, उसे मालूम है. मैंने सब, सब, सब, कर लिया है.”

अब वह झटके से सिर हिलाकर उसके मुलायम और शक्तिशाली हाथों से स्वयं को छुड़ा सका. वह पलंग से उठ कर दृढ़ता से बोला, “ठीक है, ऐसा ही होने दो. मैं राज़ी हूँ.”

वह भी उठ गई. अँधेरे में उसकी गतिविधियों से वह देख नहीं पाया, मगर उसने अंदाज़ लगाया, महसूस किया कि वह शीघ्रता से अपने बालों को ठीक कर रही है.

 “तुम जा रही हो?” रोमाशोव ने पूछा.

 “अलबिदा,” उसने क्षीण आवाज़ में कहा. “मुझे आख़िरी बार चूमो.”

रोमाशोव का दिल दया और प्यार से थरथराने लगा. अँधेरे में टटोलते हुए उसने हाथों से उसका सिर ढूँढा और उसके गालों और आँखों को चूमने लगा. शूरोच्का का चेहरा गीला हो रहा था ख़ामोश, सुनाई देने वाले आँसुओं से. इसने उसे परेशान कर दिया, उसके दिल को छू लिया.

 “मेरी प्यारीरो मतसाशाप्यारी…”उसने सहानुभूतिपूर्वक, नर्मी से दुहराया.

उसने अचानक रोमाशोव की गर्दन में बाँहें डाल दीं, हवस और शक्ति से पूरी तरह उससे चिपक गई और उसके मुँह से अपने जलते हुए होठों को बिना हटाए रुक रुक कर, पूरी तरह थरथराते हुए और गहरी गहरी साँसें लेते हुए कहा, “मैं इस तरह तुमसे बिदा नहीं ले सकतीअब हम फिर कभी नहीं मिलेंगे. इसलिए किसी बात से नहीं डरेंगेमैं, मैं चाहती हूँ वोएक बारअपनी ख़ुशी का लुत्फ उठा लेंमेरे प्यारे, आओ मेरे पास, आओ, आओ…”

और वे दोनों, और पूरा कमरा, और पूरी दुनिया एकदम परिपूर्ण हो गई किसी बेक़ाबू, खुशगवार, कँपकँपाते उन्माद से. एक सेकंड के लिए तकिये के सफ़ेद धब्बे के बीच रोमाशोव ने परीकथा की स्पष्टता से अपने निकटअति निकट, अपने क़रीब शूरोच्का की आँखों को देखा, जो बदहवास ख़ुशी से चमक रही थीं, और वह लालची की तरह उसके होठों से चिपक गया

 “क्या मैं तुम्हें छोड़ने आऊँ?” उसने शूरोच्का के साथ दरवाज़े से आँगन में निकलते हुए पूछा.

 “नहीं, ख़ुदा के लिए, कोई ज़रूरत नहीं है, प्यारेये मत करो. मैं वैसे भी नहीं जानती कि तुम्हारे यहाँ मैंने कितना समय गुज़ार दिया. कितने बजे हैं?”

 “मालूम नहीं. मेरे पास घड़ी नहीं है. ठीक ठीक नहीं जानता.”

 वह जाने में देरी करती रही और दरवाज़े से टिक कर खड़ी रही. हवा में ख़ुशबू थी मिट्टी की; और पत्थरों से सूखी, लालसायुक्त गंध थी गर्म रात की. अँधेरा था, मगर अँधेरे के बीच रोमाशोव ने देखा, जैसे तब, बगिया में देखा था कि शूरोच्का का चेहरा विचित्र, श्वेत प्रकाश से दमक रहा है, मानो संगमरमर के पुतले का चेहरा हो.

 “तो, अलबिदा, मेरे प्यारे,” आख़िरकार थकी हुई आवाज़ में उसने कहा, “अलबिदा.”

उन्होंने एक दूसरे का चुंबन लिया, और अब उसके होंठ थे ठंडे और निश्चल. वह जल्दी से फाटक के पास गई, और रात का गहरा अँधेरा फ़ौरन उसे खा गया.

रोमाशोव खड़े होकर तब तक सुनता रहा, जब तक फाटक की चरचराहट सुनाई दी और शूरोच्का के हल्के क़दम ख़ामोश हो गए.

गहरी, मगर प्यारी थकान ने अचानक उसे दबोच लिया. वह मुश्किल से अपने कपड़े उतार पायाइतनी उसे नींद रही थी. और अंतिम सजीव अनुभूति जो नींद से पहले थी वह थी हल्की, मीठी मीठी ख़ुशबू, जो तकिए से रही थीशूरोच्का के बालों की ख़ुशबू, उसके सेन्ट की और ख़ूबसूरत, जवान जिस्म की ख़ुशबू.

23

2. जून. 18..                                      महामहिम

  शहर Z                                        N पैदल कम्पनी के कमांडर

                                                की सेवा में,

                                                इसी कम्पनी के स्टाफ कैप्टेन

                                                दीत्स की ओर से.

रिपोर्ट

एतद् द्वारा महामहिम को सूचित करने का सम्मान प्राप्त करता हूँ कि आज 2 जून को, आपके द्वारा कल, 1 जून को, नियत की गई शर्तों के अनुसार लेफ्टिनेंट निकोलाएव और सेकंड लेफ्टिनेंट रोमाशोव के बीच द्वन्द्वयुद्ध हुआ. विरोधी 6 बजने में पाँच मिनट परदूबेच्नायानामक बगिया में मिले, जो शहर से 3 ½ मील दूर है. द्वन्द्वयुद्ध, सिग्नल देने के समय को मिलाकर, 1 मिनट और 10 सेकंड चला. द्वन्द्वयुद्ध करने वालों की जगहें टॉस द्वारा नियत की गईं. “आगे बढ़” कमांड के अनुसार दोनों विरोधी एक दूसरे की ओर बढ़े; मगर लेफ्टिनेंट निकोलाएव द्वारा दाग़ी गई गोली ने सेकंड लेफ्टिनेंट रोमाशोव के पेट के ऊपरी दाहिने हिस्से को घायल कर दिया. गोली के जवाब के इंतज़ार में निकोलाएव उसी तरह खड़ा रहा. जवाबी फ़ायर के लिए निर्धारित आधे मिनट के अंतराल के बाद यह पाया गया कि सेकंड लेफ्टिनेंट रोमाशोव अपने प्रतिद्वन्द्वी को जवाब देने की स्थिति में नहीं है. इसके फलस्वरूप सेकंड लेफ्टिनेंट रोमाशोव के गवाहों ने प्रस्ताव रखा कि द्वन्द्वयुद्ध को ख़त्म हुआ समझा जाए. सर्वसम्मति से यह किया गया. सेकंड लेफ्टिनेंट रोमाशोव को गाड़ी में ले जाते समय उसे ज़ोर का दौरा पड़ा और सात मिनटों के पश्चात् आंतरिक रक्तस्त्राव के कारण वह ख़त्म हो गया. लेफ्टिनेंट निकोलाएव की ओर से गवाह थे: मैं और लेफ्टिनेंट वासिन; सेकंड लेफ्टिनेंट रोमाशोव की ओर से गवाह थे सेकंड लेफ्टिनेंट बेगअगामालोव और वेत्किन. द्वन्द्वयुद्ध का निर्देशन सर्वसम्मति से मुझे सौंपा गया. जूनियर डॉक्टर ज़्नोयको का प्रमाणपत्र इस पत्र के साथ संलग्न करता हूँ.

1905                                                       स्टाकैप्टेन दीत्स.

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गिसेप उंगारेत्ति की कविताएँ: अमृत रंजन का अनुवाद

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प्रसिद्ध इतालवी कवि गिसेप उंगारेत्ति की कविताओं का अनुवाद प्रस्तुत है. अनुवाद किया है अमृत रंजन. अमृत रंजन में पहली बार कविताओं का अनुवाद किया है और काफी प्रवाहमयी शैली में किया है- मॉडरेटर
====================================================
अमर
 
तोड़े गए फूल
अर्पित फूल
बीच में
अनगिनत शून्य
——————————
 
सैनिक
 
हम वैसे हैं
पतझड़ में
जैसे टहनियों पर
पत्ते
 
——————————
 
भाई
 
भाइयो
किस रेज़िमेंट के हो तुम सब?
 
शब्द कंपकंपाते हैं
रात में
कल ही जन्मा पत्ता
 
जलती हुई हवा में
अपने टुकड़े के साथ मौजूद
व्यक्ति का
बेवश विद्रोह
 
भाइयो!
 
——————————
 
सितारा
 
सितारा, सिर्फ़ मेरा सितारा,
रात की ग़रीबी में तुम अकेले चमकते हो,
केवल मेरे लिए चमकते हो;
लेकिन, मेरे लिए,
वो तारा जो कभी चमकने से रुक नहीं सकता
बहुत कम समय मिला है तुमको
तुम्हारी पूरी रौशनी
कुछ नहीं करती
बस मेरे दुख को बढाती है।
 
——————————
 
गहरी रात
 
 
पूरी रात
कसे बंद होंठ
निर्ममता से कत्ल किए गए
हमारे ही आदमी के बग़ल में
दुबक कर बैठ
चाँद पर हँसते हुए
और उसके भरे हुए हाथ
मेरी ख़ामोशी में समाए थे
मैंने कई प्यार के पत्र लिखे हैं
 
 
जिंदगी से इतना कभी
नहीं जुड़ा।
 
 
 
——————————
 
सूर्यास्त
 
आसमान की लाली
शाद्वल को जन्म देती है
प्यार के बंजर में
 
 
 

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दो रंगों के बीच की रेखा, खजुराहो और सीरज सक्सेना का कला-कर्म

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सीरज सक्सेना समकालीन चित्र कला, सिरेमिक आर्ट का जाना-पहचाना नाम है. अपने इस संस्मरणात्मक लेख में चित्रकार-लेखक राजेश्वर त्रिवेदी ने सीरज जी के कला-कर्म के आरंभिक प्रभावों को रेखांकित किया है. बेहद आत्मीय और जानकारी से भरपूर गद्य- मॉडरेटर

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अठारह साल के लंबे अंतराल में मैंने सीरज को लगभग तीन बार खजुराहो के मंदिरों की पृष्ठभूमि में देखा, जहां वह हर बार पत्थरों में उत्कीर्ण स्थापत्य के देहराग को अपनी ही तरह से अनुभूत कर रहे थे। लगभग दो दशक पहले पहली बार खजुराहो के अद्वितीय शिल्प सौंदर्य से रूबरू होना सीरज के लिए  अपनी शिल्प निर्मिती में संभवत: एक नई दृष्टि का मिलना भी था। खजुराहो के शिल्प को देखते हुए लगता है कि हम उस तरह के एक अनूठे संसार में रहते हैं जहां सुंदरता के बिना जीवन की कल्पना करना बेहद मुश्किल है। इसी सौंदर्य से साक्षात होते हुए पहली बार जब सीरज ने अपने रेखांकनों को शुरू किया था तब शायद उन्हें भी इस बात की कल्पना नहीं रही होगी कि खजुराहो के स्थापत्य से उनका रिश्ता इतना प्रगाढ़ होगा कि वे भविष्य में  बार-बार आकर इस अद्वितीय शिल्प सौंदर्य  को अपने रेखांकनों में खोजेंगे।

मुझे याद है अपनी अकादमिक शिक्षा के दौरान सीरज पहली खजुराहो यात्रा से लौटकर बेहद अभिभूत थे। सीरज जैसे युवा और विचारशील कलाकार के लिए निश्चित रूप से यह एक सृजनात्मक यात्रा थी। यही वह यात्रा थी जिसने उन्हें उत्तरोत्तर अपने कलाकर्म को विविध आयामों को स्थापित करने के रास्ते सुझाए। खजुराहो की इस यात्रा के बाद सीरज अपने साथ खजुराहो की असंख्य छवियां लेकर आए थे, जिन्हें उन्होंने दूल्हादेव, वामन, जवारी, जैन आदि मंदिरों के मूर्ति-शिल्पों की रेखाओं को अपने कागज पर महसूस किया था, अगर संख्या में बात करें तो लगभग 200 से ज्यादा रेखाचित्रों की अपार संपदा को सीरज ने इस यात्रा में उकेरा था।  ‘‘मैंने खजुराहो को पहली बार इस रूप में देखा था और शायद बहुतों ने भी। ’’

जिस कलात्मक निष्ठा और आत्मविश्वास के साथ सीरज ने यह विन्यास रचा था वह उनके चित्रों और शिल्प संसार में एक स्थाई भाव की तरह अनुभूत होता है। खजुराहो को इस तरह अपनी रेखाओं में समेटे सीरज ने अपने लिए अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति की राह को प्रशस्त किया। यह वह राह थी जिसने उन्हें भविष्य में शिल्प निर्मिती की तरफ आहुत किया। कला की अकादमिक शिक्षा के बाद सीरज ने खुद को (सिरेमिक) मृतिका शिल्प जैसे माध्यम में बरताने का प्रयास किया, शायद उनका यह प्रयास आज भी जारी है। मुझे याद है भारत भवन की सिरेमिक कार्यशाला में सीरज मंथर गति से मिट्टी को अपने हाथों में महसूस करते-करते उसे ऐसे आकार में परिवर्तित कर देते जो दूसरों की दृष्टि में ‘आकारहीन’ होता। संभवत: वे खजुराहो में देखे हुए शिल्प सौंदर्य पर लगातार विचार करते हुए उसे अपने नवाचारी ढंग से रचने का प्रयास कर रहे थे।

रेखांकन का महीन रियाज सीरज के शिल्प व चित्रों के अंतस में समाहित एक ऐसा तत्व है जो उन्हें सर्वमान्य कलागत मुहावरों में सबसे अलग लक्षित करता है। Homage to unknown Sculptors of Khajuraho जैसे शीर्षक वाले सीरज के शिल्प, संस्थापन और चित्रों की शृंखला को देखकर यह सहज ही अनुभूत होता है कि सीरज अपने में किन प्रभावों को लेकर व्यस्त रहे हंै। जाहिर तौर पर इन सब में खजुराहो की असंख्य प्रतिछवियां अपनी मौजूदगी दर्ज करवाती हैं।

खजुराहो के भूदृश्य में फैले मंदिरों की विशाल शृंखला के मध्य सीरज को अपने पूर्ण मनोयोग के साथ रेखांकन करते हुए देखना हर बार एक तरह का आत्मीय अनुभव रहा। ‘कर्णावती’ की सहायक ‘हुडर’ नदी के किनारे सीरज ने पश्चिम मंदिर समूह के अपने पसंदीदा ‘दूल्हादेव’ मंदिर परिसर में फैली हरितिमा में हजारों साल से खामोश खड़े सौंदर्य को देखते हुए ही अपनी इन रेखाओं को रचने का प्रथम प्रयास किया था। सीरज के रेखांकनों की संख्या में सबसे ज्यादा इसी ‘दूल्हादेव’ की दीवारों पर अवस्थित पाषाण देह पाषाण प्रणय की संख्यातित मुद्राओं के ही किए थे। मंदिरों पर छाई रतिमग्न प्रतिमाओं और गर्भगृह में अवस्थित देवताओं के ये रेखांकन अपने स्वछंद बोध में लक्षित होते हैं। किसी शिल्प या स्थापत्य के सौंदर्य को व्यक्त कर पाना हमेशा शायद संभव नहीं होता पर उसे देखते हुए आप अपनी कल्पनाओं के कई प्रतिमान जरूर रचते हैं।

रंग, रेखा और आकार को लेकर सीरज की धारणा है कि जहां दो रंग मिलते हैं वहीं रेखा बिन बुलाए मौजूद रहती है। दो रंगों के मध्य ही रेखा प्रस्फुटित होती है। रंग और अवकाश के मध्य रेखा भ्रमण करती है। अवकाश ही आकार का जनक है। हर आकार अपना निजी अवकाश अपने साथ लाता है। यह रेखांकन अवकाश और आकार की एक ऐसी धारणा पर रचे प्रतीत होते हैं जहां कोई स्वरूप स्वत: इनमें विलीन सा महसूस होता है। सौंदर्य से साक्षात्कार कि परिणिति सीरज की इन रेखाओं में ध्वनि और अनुभूति की तरह मौजूद है।

ये रेखांकन हमारी उस दीर्घ परंपरा को संबोधित है जिसमें गहरी कलात्मक अवधारणा हजारों साल से शामिल रही है। मुझे याद है सीरज ने खजुराहो शृंखला के  शुरुआती रेखांकन को पहली बार लगभग डेढ़ दशक पहले अपने कला महाविद्यालय की बेहद सुंदर कला दीर्घा में प्रदर्शित किया था। संयोग से उन दिनों मकबूल फिदा हुसैन इंदौर के प्रवास पर थे। एक दिन अचानक उन्होंने सीरज के इन रेखाचित्रों की प्रदर्शनी में अपनी मौजूदगी से सबको चकित कर दिया था। हुसैन बहुत देर तक इन रेखाचित्रों को देखते रहे और फिर उन्होंने एक हल्की सी मुस्कराहट के साथ सीरज को अपनी गजगामिनी शृंखला का एक रेखाचित्र कला दीर्घा में बनाकर दिया था। अपनी कला-शिक्षा के दौरान प्रसिद्ध भारतीय चित्रकार केके हेब्बर के रेखांकन से सीरज प्रभावित रहे हंै, वे उन्हें अब भी प्रभावित करते हैं। बकौल सीरज उनकी रेखाएं इतनी सशक्त होती हैं कि सामने खड़ी जड़ देह को भी तांडव नृत्य कराने का सामर्थ्य रखती हैं। दो या तीन मिनट में रेखांकन करना आसान नहीं। एक तरह का आत्मविश्वास किसी भी कलाकार के पास होना बहुत जरूरी है और यह ऊर्जा कलाकार की दृष्टि पर निर्भर है, जैसी आंखें, वैसा चित्र। अपनी तीसरी यात्रा में सीरज ने करीब चालीस रेखांकन किए, उनके अनुसार मुझे किसी भी पुरुष या स्त्री का चेहरा याद नहीं। यह यात्रा आलिंगन से उपजी पाषाण रेखाओं से मिलने की थी। रेखाओं की बारीकियों में उलझकर न तो चेहरे दिखते हैं, न इनके शरीर और न आभूषण। दिखता है तो रेखाओं का चमत्कार, जो इनकी देह के धरातल पर सूर्य की रोशनी के साथ घुलकर हर सुबह यहां नृत्य करता है। इस सौंदर्य में अपनी आस्था सीरज उत्तरोत्तर नई दृष्टि के साथ प्रकट करते हंै।  हर बार वे ही संख्यातित मुद्राएं मगर हर बार रेखाओं के नए धरातल पर।  संभवत: अठारह साल के लंबे अंतराल के बाद ये रेखांकन पुन: खुद को नए रूप में उद्घाटित कर रहे हंै। सीरज अपनी रेखाओं में लय और गति को तलाशते हुए पाषाण देह के इस उन्मुक्त सौंदर्य को अनेकार्थों में रच रहे हैं। संभव है भविष्य में उनकी रेखाएं इस सौंदर्य को एक अंतहीन विस्तार में परिवर्तित करेंगी।

                                                                           -राजेश्वर त्रिवेदी

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सियाह और सफ़ेद से कहीं अधिक है यह ‘सियाहत’

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आलोक रंजन केरल में हिंदी पढ़ाते हैं. उनका यात्रा-वृत्तान्त आया है ‘सियाहत’, जिसकी समीक्षा की है श्रीश पाठक ने- मॉडरेटर

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आज की दुनिया, आज का समाज उतने में ही उठक-बैठक कर रहा जितनी मोहलत उसे उसका बाजार दे रहा। यह तीखा सा सच स्वीकारने के लिए आपको कोई अलग से मार्क्सवादी अथवा पूँजीवादी होने की जरुरत नहीं है बस, अपने स्वाभाविक दोहरेपन को तनिक विश्राम दे ईमानदार बन महसूस करना है। इस बाजारवाद ने एक निर्मम उतावलापन दिया है और दी है हमें बेशर्म कभी पूरी न होने वाली हवस। बाजार के चाबुक पर जितनी दौड़ हम लगाते हैं उतना ही पूंजीपति घुड़सवार को मुनाफा होता है। वह इस मुनाफे से अकादमिकी सहित सबकुछ खरीदते हुए क्वालिटी लाइफ़ के मायनों में ‘वस्तु-संग्रह की अंतहीन प्रेरणा’ ठूंस देता है और हम कब बाजार के टट्टू बन गए, यह हमें भान ही नहीं होता। इस दौड़ में है नहीं,  तो दो पल ठहरकर हवा का स्वाद लेने का सुकून। सुकून का ठहराव नहीं है तो हम जल्दी-जल्दी सबकुछ समझ लेना चाहते हैं। यह हड़बड़ी भीतर ‘सरलीकरण की प्रवृत्ति’ पैदा कर देती है। अपने-अपने ‘सरलीकरण’ से इतर जो कुछ भी दिखाई देता है उसे हम नकारना शुरू कर देते हैं और सहसा हम असहिष्णु बन तो जाते हैं, पर यह भी कहाँ स्वीकार कर पाते हैं ! सरलीकरण की छटपटाहट हमें रीटोरिकल, स्टीरियोटिपिकल बनाती है। हड़बड़ी में हममें से अधिकांश मानने लगते हैं कि इतिहास माने कहानी, राजनीति माने साजिश, दर्शन माने पागलपन, मनोविज्ञान माने पागलों का अध्ययन, साहित्य माने कविता, कहानी आदि, आदि। इसी छटपटाहट में किसी कृतिविशेष को पढ़ने में व्यक्ति-विशेष को एक ऐसी असुविधा होती है जो वह व्यक्त नहीं कर पाता और कृतिविशेष का सार फिसल जाता है। उसे समझ ही नहीं आता कि किसी कविता में इतिहासप्रसंग कहाँ से आ गया, कि किसी कहानी में मनोविज्ञान कैसे घुस गया, कि किसी यात्रावृत्तांत में राजनीति क्या कर रही है, कि किसी उपन्यास में दर्शन का क्या काम, आदि, आदि। आलोक अपनी पहली ही पुस्तक से इस स्टीरियोटिपिकल मानसिकता पर घना चोट करते हैं। किताब के पहले अध्याय में ही राजनीतिक-सामाजिक-मनोवैज्ञानिक ‘अस्मिता-विमर्श’ के दर्शन करा देते हैं और यह यकीन मानिये एक लेखक के तौर पर उनके सजग, संबद्ध, प्रतिबद्ध, संजीदा होने का पाठकीय संतोष दे जाता है। आलोक की ‘सियाहत’ एक लेखक की समूची अभिव्यक्ति है फिर वह फॉर्मेट की परवाह नहीं करता, विधा की चिंता नहीं करता, वह सबकुछ दर्ज करता चलता है ईमानदारी से। सही भी है आखिर सियाहत (यात्रा) जो शुरू हुई तो मन की सियाहत को भी तो स्याही मिले। फिर यात्रा शुरू हो जाती है, पृष्ठसंख्या पर ध्यान नहीं जाता और पुस्तक के अंत में आयी चित्रवीथि आ जाती है इस अंतर्भूत संदेश के साथ कि –यात्राएँ ख़त्म नहीं होतीं !

कोई कृत्रिमता नहीं, लेखक लगातार बौद्धिक संवाद में है, यात्रा के लगभग सभी दृश्यों में वह सजग है और न अपना बिहारी भदेसपना छोड़ता है और न ही अपनी अध्यापकीय  वृत्ति। उसकी व्यक्तिगत मनोदशा का भी भान जबतब होता है, खासकर बिंब-आयोजना में, नहीं तो प्राकृतिक सौंदर्य की तुलना वह रेगिस्तान के रेत के सौंदर्य से क्यों करता। यही साफगोई, लेखक और पाठक में कोई पर्दादारी नहीं रहने देती। लेखक को लाखों-लाखों का बना देती है। इस सियाहत के पन्ने अलग-अलग रखें जाएँ तो साहित्य की कई विधाएँ अपना-अपना दावा ठोकेंगी पर मूलतः है यह यात्रावृत्तांत ही। लेखक अपने अनुभवों के एक त्रिकोण में काम कर रहा है जिसके तीन कोण हैं:  सहरसा, दिल्ली और नेरियामंगलम।  अधिकांश पृष्ठों में ये तीनों कोण अपना-अपना हिस्सा अभिव्यक्त कर ही लेते हैं। यह खूबी आलोक की कलम को प्रवाह देती है। यात्रावृत्तांत में लेखक अपने मेज के स्थिरतल पर स्थिर नहीं होता, केवल कल्पनाएँ मददगार नहीं होतीं, महज बिंबों से बानगी नहीं आती, उसे लिखने के लिए हर पल, यात्रा के प्रत्येक पल में फिर-फिर यात्रा करनी होती है; इस जरूरी बौद्धिक थकन से फिर निकलती है- सियाहत। आलोक के लिए यह यात्रा किसी जहमत की तरह नहीं है बाकि एक रूहानी खब्त है जो कभी  किसी तरह ऊपर जाया जाय के रूप में आती है तो कभी चिलचिलाती धूप में साठ किमी की साईकिल पैडलमार यात्रा पर भेजती है, कभी सुदूर संपर्कविहीन मुतुवान आदिवासियों के बीच ले जाती है तो कभी लता-प्रतान सहारे चढ़-चढ़कर माड़म (वृक्ष आवास) में रहने को उकसाती है, वट्टावड़ा के उस गाँव में बीसपच्चीस सेकेण्ड में जीवन का अब तक का सबसे बड़ा भय महसूस कराने के बावजूद वापसी में उसी जगह पर रूककर हरिणों को देखने का साहस देती है और फिर विष्णु नागर जी द्वारा उद्धृत तथ्य लें तो एक अध्यापक ने अपने पैसे खरच यह सियाहत पूरी की है। आलोक के भीतर का यह खब्त प्रथम तो उन्हें एक उम्दा यात्री बनाता है फिर उनका अनुशीलन एक अर्थपूर्ण यात्रावृत्तांत की पृष्ठभूमि बना देता है।

सियाहत के भीतर सतत संवादों का एक सेतु बनता है। सेतु के दोनों ओर दो नगर बसते हैं जो अपनी-अपनी हनक में बहुत ही कम संवाद करते रहे हैं; उत्तर भारत और दक्षिण भारत। एक खांटी उत्तर भारतीय ठेठ दक्षिण में जा पहुँचता है। अपनी ही रौं का अलमस्त बिहारी केरल के कच्चे सौंदर्य में जा पहुँचता है। ‘नाद तक चांप, घुघनी, गनगना, एकपैरिया आदि’ शब्द-युग्मों के साथ आलोक के कथ्य में जहाँ अल्हड बिहारीपना मौजूद है वहीं वह दक्षिण के बिंब उसकी उसी महक में पिरोना नहीं भूलते। काजू के पके फल की महक, लेमनग्रास, हरी इलायची, लौंग, काली मिर्च, केले के पत्ते, नारियल, पदीमुखम की छाल, चंदन, झरना, खड़े पहाड़ों की मोटी भाँप, चाय बागान, स्ट्राबेरी के खेत, बारिश, तीखी धूप से मन तक जलना, ठंडे जंगल, रंगीन गिलहरी, रंगीन घर, हाथी, जोंक, भालू ये सभी मिलकर सियाहत का समवेत बिंब गढ़ते हैं।  यह बिहारी सूर्यलंका में पहली बार समुद्र देखते हुए बाज न आते हुए लहरों के समानांतर दौड़तेदौड़ते दूर निकल  आता है और रोकते पुलिस वालों से भाषा के बहाने बच आता है तो बिट्ठल परिसर में पचास रूपये देकर महामंडप पर चढ़कर प्रतिबंधित हिस्से में जाने का रोमांच ले लेता है या फिर साठ किमी की साईकिल यात्रा के बाद भालू अभ्यारण में साईकिल के प्रतिबंधित होने पर रोकते अभ्यारणकर्मी की ही स्कूटी जुगाड़ लेता है।  सियाहत में दो पृथक परंपरा में पनपे बिंबों का संवाद है, दो पृथक ऐतिहासिक धाराओं का प्रयाग है, दो सामाजिकताओं, दो संस्कृतियों, दो प्राथमिकताओं, दो सामानांतर पल रहे वर्तमानों का विंध्यांचल है, सियाहत; इसलिए ही इसका पाठ महती का है। इसके पाठ का एक वितान अनेकता में एकता को तथ्यतः रेखांकित करता है तो दूसरा एकराट की भव्य संकल्पना का यथार्थिक निर्वहन करता है।

खानपान, संस्कृति का एक बेहद महत्वपूर्ण आयाम है। लेखक की यात्रा में जहाँ कहीं भी भोजन के प्रसंग हैं, वे विस्तार में इसी हेतु हैं। बहुधा भोजन, लेखक के जीभ पर चढ़े स्वाद के अनुरूप नहीं है पर खिलाने वालों के भाव से ही लेखक को भोजन में रूचि बढ़ जाती है। यह कितनी महत्वपूर्ण बात है कि अक्सर हम उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीयों और अन्य राज्यवासियों के स्वाद की कोई परवाह ही नहीं करते, बल्कि यह भी विनोद का ही विषय हो जाता है। लेखक ने उचित ही लिखा है- आपको दूसरों की भिन्नताओं का सम्मान करना होता है।  आदिवासियों के गाँव तेरा में भी लेखक ने अधिक भाव ही ग्रहण किया जब सुगु की माँ सबको ठीक उसी तरह परोस रही थीं जैसे तीन हजार किमी दूर लेखक की माँ सबको परोसती हैं और अंत में खुद खाती हैं।

यहाँ जो भी रंग हैगहरा है !

 आलोक जब इस वाक्य से सियाहत की शुरुआत करते हैं तो पाठक को पता चल जाता है कि यह गहरे पानी पैठे के शब्द हैं। पुस्तक के पहले ही अध्याय में वे क्रूर सोने का रूपक रचते हैं और सचेत कर देते हैं कि इस गहरे रंग वाले देश में कितना कुछ छिछला भी है। जगह-जगह झरनों वाले देश में वे पानी की सियाहत पर जिज्ञासा कर बैठते हैं और पूछ उठते हैं- क्या कोई यात्रा कभी समाप्त होती है? लिखते हैं कि- कितनी अजीब बात है, झरने भी मनुष्यों की तरह होते हैं। जो छोटावो अकेला।  दिवाकरन के खेतों से गुजरते हुए लेखक में मानवीय संवेदना जब खेतों के चारो तरफ बिजली प्रवाहित होते लोहे के तार देखती है तो एक तरफ मनुष्य जीवन तो दुसरी तरफ पशु जीवन के चयन का ‘धर्मसंकट’ पर लेखनी चलती है। यह अजीबसा दुर्भाग्य है कि हम वही नहीं करते जो पास हो और जिसे आसानी से किया जा सकता है। इस वाक्य में लिपटे संदेश की ग्राह्यता से ओतप्रोत आलोक ‘ज्यू टाउन’ पहुँचते हैं और हैरान होते हैं कि ज्यू टाउन में यहूदी बचे ही कितने है -महज पाँच या शायद तीन ही। यात्रा, इतिहास और राजनीति की शुरू हो जाती है फिर और लेखक की फिलिस्तीन के प्रति संवदना के लिए संस्थान के अधिकारियों के सम्मुख दिए गए स्पष्टीकरण तक जाती है। वह चर्चा रोचक है जिसमें लेखक यहूदी वृद्धा सारा से मिलता है और बिहार से आया जानकर सारा एक क्रम में पहले, अभी उनके पास काम नहीं हैऔर फिरमै भूखा तो नहीं हूँ ?’ के बिंदु पर लेखक से जुड़ती हैं। इस एक सरल प्रसंग से बिहार और केरल की आधुनिक आवाजाही आलोक स्पष्ट कर देते हैं।

सरकारी छुट्टियों और रविवारों में निकाली गयी गुंजाइशों के बीच की खब्त की निशानी है-सियाहत। आलोक लिखते हैं- वैसे रविवार का दिन मूलतः कल्पना का ही दिन है। किसी महान कवि के बारे में कहा जा सकता है कि उसका सारा जीवन एक रविवार ही होता होगा। आलोक यहाँ बोर्गेस की तरह सोचते हैं जिन्हें ‘स्वर्ग एक पुस्तकालय’ प्रतीत होता है। अगला ही अध्याय एक महान कवि पर है जो इस पुस्तक के कुछ महत्वपूर्ण अध्यायों में से है- . एन. वी. ! जो देखते हैं आलोक वहाँ तो इस प्रश्न से जूझते हैं कि- एक कवि की पहुँच कितनी हो सकती है! चौंकते हैं कि- बाजार कबसे कवि को स्वीकार करने लगा।  इस अध्याय के आखिर में आलोक उस तथ्य तक पहुँच भी जाते हैं जहाँ से उन्हें अपने प्रश्न का माकूल जवाब मिल जाता है। त्रिवेंद्रम से कन्याकुमारी की बस यात्रा करते हुए लेखक को सीट को लेकर वही झगड़ा, वही तनातनी दिखी जो उसे राप्तीसागर एक्सप्रेस के इरोड स्टेशन पर रुकने पर ट्रेन की सीट पाने को लेकर दिखी और जो उत्तर भारतीय सार्वजनिक परिवहन का भी सामान्य प्रसंग है। लेखक के स्थान से बमुश्किल पांच किमी की दूरी पर हुए दर्दनाक भूस्खलन पर लेखक की छटपटाहट दिखती है जो उसे भाषा संबंधी सीमाओं पर बेबस बनाती है पर चिंता की अपनी भाषा पढ़ने में वह नहीं चूकता। यहाँ, एक बड़े उल्लेखनीय तथ्य का जिक्र आलोक करते हैं जिसमें वह दिखाते हैं आमतौर पर किसी प्राकृतिक आपदा के होने पर महज रस्मी समझी जाने वाली राजनीतिक यात्राएँ दरअसल किस तरह मानवीय जिजीविषा को सहारा दे उनसे उबरने में मदद देती हैं बशर्ते वे संजीदा हों और समय से हों। केरल के मुख्यमंत्री की वह विजिट अचानक ही आपदास्थल में व्याप्त डर के ऊपर अपना असर बना लेती है और जनबल सामान्य हो उठता है। आगे के पृष्ठों में अपने परिवेश की खोजखबर लेते हुए आलोक धर्म के समाजीकरण की प्रकिया पर कलम चलाते हैं। उनका कहना है कि भारत में प्रचलित सभी धर्मों का भारतीयकरण हो चूका है। अलग-अलग रिचुअल्स भले हैं पर उनकी अभिव्यक्ति लगभग एक जैसी ही है। यहीं, भाषा पर स्थानीयता के प्रभाव की भी चर्चा है जब लेखक बिहारी नसीर की भाषा में अपनी भाषा की स्वभाविकताएँ छूटते देखता है और उसमें मलयाली नोशन्स पाता है। आलोक स्वीकार करते हैं कि हमारे यहाँ धर्म का जैसा समाजीकरण किया गया है वह धार्मिक असहिष्णुता जगाता है। व्यक्ति के विकास में उचित शिक्षा व माहौल की क्या भूमिका है, लेखक के इस आत्मकथ्य से स्पष्ट है: धीरेधीरे यही प्राथमिक समाजीकरण पुख्ता होकर इतना गहरा हो जाता है कि अपने धर्म से इतर धर्म वाले के प्रति इंतहाई नफरत भर जाती है। शुक्र है इस कदर कट्टर बनने से पहले ही मेरे दूसरे समाजीकरण ने काम करना शुरू कर दिया। अंततः इस निष्कर्ष के साथ आलोक अध्याय समाप्त करते हैं कि- धर्म का स्वरुप बहुत हद तक उसके मानने वालों की संख्या और उनके स्थानीय चरित्र पर निर्भर करता है।

रामक्कलमेड़ की उस ऊँचीं छोटी पर आलोक

 इस कदर अपने जगह की खिड़की पर घोंसला बनाते मैना युगल को देखकर चहचहाता लेखक फिर रामक्कलमेड़ की उस ऊँचीं छोटी पर रामायण के राष्ट्रीय महत्त्व को महसूसता है। राष्ट्रीयता का ही महत्त्व समझते हुए लेखक द्वारा कश्मीर से कन्याकुमारी तक की यात्रा कराने वाली हिमसागर एक्सप्रेस की यात्रा को बेहद जरूरी कहा जाता है और फिर राप्तीसागर एक्सप्रेस से अपनी एर्णाकुलम-लखनऊ यात्रा पर उत्साह प्रकट किया जाता है। इस रेलयात्रा में कई प्रसंग आते हैं पर राष्ट्र-निर्माण प्रक्रिया के जरूरी अंग के रूप में ‘शिक्षा और सेवा प्रक्रिया में राष्ट्रगत स्थानांतरण का महत्त्व’, ‘शिक्षाव्यय के मद में सरकार का पुराना और उदासीन रवैया’, ‘खुले में शौच की समस्या के मूल में आयगत असमानता, ‘एक महिला अध्यापक की राजनीतिक अशिक्षा’, ‘महिलाओं के लिए देश भर में व्याप्त असुरक्षा’ विषय बेहद जबरदस्त ढंग से उठाये गए हैं। इस अध्याय का अंत भी तनिक मार्मिक है जब लेखक यह सोचकर ट्रेन से उतरते हैं कि ट्रेन के स्टेशन पर रुकने भर के समय में साथी अध्यापकों व बच्चों से मिल लिया जाये पर आलोक लिखते हैं – मुझेलाइफ ऑफ़ पाईफिल्म का अंत याद गया जहाँ बाघ ने जंगल में जाने से पहले पाई की ओर पलटकर देखा तक नहीं ! ऐसा ही शून्य लेखक को अपनी एक हवाई यात्रा में भी महसूस होता है जब एक अजनबी सहयात्री लेखक से एक साहित्यिक किताब मांग बैठती है और बहुत दिनों बाद जब डाक से वह किताब वापस आती है तो उसमें औपचारिक संदेश भी नहीं होता। सभ्यता ने सोख ली है हमारी संवेदना। एयरपोर्ट पर लेखक को भी उस स्थिति से गुजरना पड़ता है जो अब भारत के लगभग हर रेलवे स्टेशन, बस स्टेशन पर आम है। हैरान-परेशान सा कोई आपसे मदद मांगता है, वह समझाना चाहता है कि दुनिया भर की सारी मुसीबतें उसके साथ इकट्ठी हो गयीं हैं और अंततः लोग उसकी मदद कर देते हैं; ज़ाहिर है अपने संवेदनशील लेखक ने भी मदद कर दी और उचित तर्क गढ़ लिख दिए हैं। अपनी लेपाक्षी की यात्रा में लेखक को स्थापत्य के अद्भुत नमूने के अलावा जो कुछ याद रहा वह महज पचास रूपये की आस में दिनभर चरखा चलाने वाली वृद्धा, जिसके बेटे-बहु बंगलौर में रहते हैं और सिलबट्टे का वह लोढ़ा जो लेखक के सर से लगभग दुगुना बड़ा रहा होगा।

सियाहत का अगर कोई ऐसा अध्याय है जहाँ लेखक आलोक अपनी लेखकीय प्रतिभा के शिखर पर हैं तो वह ‘उदास खड़े खँडहर’ अध्याय है। 1964 में आये चक्रवाती तूफान ने देखते-देखते ही अचानक धनुष्कोटि की बसावट को लील लिया था। यकीनन, इसे पढ़कर किसी भी संवेदनशील पाठक के रोयें खड़े हो जायेंगे। बात बिंब की हो, प्रवाह की हो, संवेदना की हो, शब्दचयन की हो, शब्दचित्रांकन की हो, सब कुछ उम्दा :

नीले समंदर पर रुई जैसे सफ़ेद बादलों वाला आकाश। वहाँ किसी दीवार के साये में खड़े होकर या फिर टूटे हुए मंदिर में धूप से बचने के लिए बैठे हुए कुत्ते को देखकर कई बार यह ख्याल आता है कि यहाँ भी ठीक वही दुनिया रही होगी जहाँ से हम आते हैं। उतनी ही हँसी और आँसू रहे होंगे। किसी ओर से मछलियाँ पकड़ी जा रही होंगी और किसी घर से मछली पकने की महक रही होगी।

पर अभी तो बस अंदाजे हैं। ……. वहाँ चहलकदमी करते हुए एक अपराधबोध लगातार मेरे साथ बना रहा कि, जाने अनजाने मै उन यादों के ऊपर से गुजर रहा हूँ जो कभी एक भरापूरा वर्तमान था।

 

अध्याय ‘मुतुवान के बीच’ सियाहत के  रोमांच का चरम है। जब लेखक आदिवासी सुगु के गाँव तेरा पहुँचते हैं जिस गाँव से बाकी केरल का संपर्क लगभग नगण्य है। कोई भी साधारण यात्री न तो इसे एक अवसर के रूप में देखता और न ही कोई पाठक, लेखक की गतिविधियों को साधारण कह सकेगा जो उसने उस ग्राम-प्रवास में कीं। पहाड़ों के बीच झील में तैरना, लताओं-प्रतानों के सहारे माड़म पर पहुँचना और रात गुजारना, शहद शहद की खोज में निकलना, सबसे ऊँची चोटी के लिए जाना, साही के काँटें चुनना, त्वचा पर हल्की ठंडक महसूस कर जोंक हटाना, चाड़-अम्बम-बिल्ल खेल का हिस्सा होना, आदिवासी लोगों का लेखक के लिए गाना और नृत्य करना, लेखक का मैथली के दो लोकगीत सुनाना और फिर अंततः गाँव के कई लोगों का दूर नदी तक छोड़ने आना। पहाड़ की उस चोटी से जो सुन्दर अलौकिक दृश्य लेखक ने निहारा, उसने लेखक को उस शानदार शब्द-युग्म को सिरजने की प्रेरणा दी जिसका जिक्र प्रोफ़ेसर अजय तिवारी जी ने भी किया था- सौंदर्य का प्रलय प्रवाह! आलोक बेहिचक बताते हैं कि केरल सरकार के दावों के विपरीत इस गाँव में कोई बिजली नहीं है अलबत्ता पहली बार फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सप्प, फोन कॉल्स और इंटरनेट की अनुपलब्धता में स्वयं को काफी समय तक असुविधा महसूस हुई। हम, कितने घिर गए हैं इन सबके बीच, जिनका अभी हमारे बचपन तक नामोनिशान नहीं था। बकौल आलोक – एक जीवन जिसके हम आदी होते हैं और एक जीवन जिसके हम आदी नहीं होते हैं दोनों जब एक दूसरे के खिलाफ खड़े हो जाएँ तो अजीब उबाऊ समय खड़ा हो जाता है। यह इसी गाँव से होकर लिखना संभव था कि- हम तीनों झरने के पानी में बिस्किट भिगोकर खाने लगे।  एक हमारी सभ्य सामाजिकता जिसमें एक अदद शुक्रिया के लिए व्यक्ति मोहताज हो जाये, एक वह सुगु का गाँव जहाँ हर एक शख्स लेखक से मिलना चाहे। इसी सामाजिकता से सुगु ने ऊपर आंवले के पेड़ से सारे आंवले नहीं तोड़े थे कि और भूखा आये तो उसे खाने को मिले। आज की नाकारी शिक्षा जिसमें व्यावहारिक सहज बुद्धि के लिए अवकाश ही शेष नहीं कि सुगु जैसे आदिवासी विद्यार्थी का वन्य कौशल उसमें अपनी साख बना सके।

आख़िरी अध्याय ‘इतिहास का उत्तर’, इतिहास, भूगोल, समाज तीनों की यात्रा समेटे हुए है। आपाधापी वाला बंगलौर घूमते हुए होसपेट जाने की योजना बनती है। हम्पी का विजयनगरम देखने की मंशा है। विरुपाक्ष मंदिर के दर्शन के बाद सूर्योदय का दृश्य मनोहारी है किन्तु देख कौन रहा है, दृश्य तो कैमरे के फ्रेम भर सहेजे जा रहे। बहुत कम लोग थे जो किसी योगी की भाँति उस सौंदर्य को आत्मसात कर रहे थे।  बिट्ठल मंदिर के उस परिसर को देखते हुए लेखक इतिहास और वर्तमान का अंतर कुछ यों दर्ज करते हैं: इतिहास में जब वह रथ बन रहा होगा तब बनाने वालों को जरा भी अंदाजा नहीं रहा होगा कि वहाँ तक सबका प्रवेश इतना सुलभ हो जायेगा कि देशी तो देशी विदेशी भी कुछ रुपल्ली का टिकट लेकर रथ को धक्का लगाने जाएँगे ! इस सियाहत ने लेखक को तीन जर्मन दोस्त भी दिए जहाँ भाषा संकट पर एक अनामंत्रित की तरह लेखक प्रविष्ट हुआ पर अपनी सहज व्यक्तित्व से सर्वमान्य सर्वस्वीकार्य हो गया। इस  भारत-जर्मनी मैत्री ने साथ-साथ केवल धमाल ही नहीं मचाये अपितु जाने कितने ही विषयों पर लगातार सक्रिय विमर्श भी जारी रहा। किताब की शुरुआत में जहाँ लेखक भारत के राज्यों के बीच विमर्श करते हैं वहीं इस अध्याय में वह भारतीय प्रतिनिधि बनकर जर्मन नागरिकों से विमर्श में आ जुटते हैं। अजनबी बच्चों का लेखक से तुरत ही घुलता मिलता देख उनके जर्मन दोस्त बेहद हतप्रभ होते हैं। एक प्रश्न आलोक यहाँ उन जर्मन लोगों से करते हैं जिसपर उनमें एक लम्बी चुप्पी छा गयी और दरअसल जिसका जवाब पश्चिमी संस्कृति के सापेक्ष भारतीय संस्कृति की उदात्तता में है : तुम्हारे देश में जहाँ अपराध का दर भारत के मुकाबले इतना कम है वहाँ लोग अपने ही लोगों पर विश्वास क्यों नहीं करते? जबकि हम बच्चों के प्रति बढ़ती हिंसा के बावजूद एक दूसरे पर सामान्यतया विश्वास करते हैं। हतप्रभ तो उनके जर्मन दोस्त इसबात पर भी होते हैं कि आखिर आलोक ने अभी तक उनसे हिटलर के बारे में पूछा क्यों नहीं। उचित शिक्षा और माहौल में रचा-पगा लेखक जानता है कि जर्मन लोगों से हिटलर के बारे में पूछना क्या निहितार्थ निकालता है। उनके यह पूछने पर कि आखिर भारतीय हिटलर में इतनी दिलचस्पी क्यों लेते हैं? यह संवाद अवश्य उल्लेखनीय है :

_____वह इसलिए कि वह हमारे दुश्मन का दुश्मन था। दुश्मन का दुश्मन दोस्त। हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के एक नेता सुभाषचंद्र बोस जर्मनी से मदद माँग चुके थे और हिटलर ने मदद का वादा भी किया था। बोस की आजाद हिन्द फौज का गठन ही जर्मनी में हुआ था। इसलिए भारतीय हिटलर को एक मददगार के रूप में देखते थे। आज भी भारत में हिटलर की आत्मकथा बहुत पढ़ी जाती है। …!

_____तो अब तो भारतीयों को समझना चाहिए कि हिटलर ने मानवता को कितना नुकसान पहुँचाया …. !

_____मैडम, भारत ऐसा देश है जहाँ आजकल गाँधी को स्थापित करने की जरुरत पड़ रही है। रूढ़िवादी शक्तियाँ राजनीति और इतिहास को अलग तरह से परिभाषित कर रही हैं इसमें हिटलर और गाँधी की हत्या करने वाला नाथूराम सम्मानित किये जा रहे हैं। नाथूराम का तो बाकायदा मंदिर बनाने का प्रयास किया गया।

_____व्हाट नॉनसेंस ! इयान उत्तेजित हो गया।

रूढ़िवादी शक्तियाँ लगभग पुरे विश्व में फिरसे अपनी जड़ें जमा रही हैं, यह स्पष्ट हुआ जब उन्होंने अपने एक प्रदेश बवारिया का उदहारण दिया जहाँ के नागरिक कुछ भी नया स्वीकार नहीं करते।

एक सुरुचिपूर्ण लेखक के तौर पर आलोक कुछ यकीनन बेहतरीन बिंब और रूपक गढ़ सके हैं, जिन्हें सियाहत के ज़िक्र के साथ-साथ याद किया जायेगा। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं:

  • हरियाली के उस गहरे अनुभव को स्पर्श करने की तमन्ना मन को इस पत्ते से उस पत्ते पर चिपका रही थी।
  • नदी को मोटेमोटे हरे कंबलों ने ढँक रखा था।
  • शरीर के ऊपर से पानी के लगातार गुजरने से त्वचा के ऊपर पानी धड़क रहा था। नदी की जमीन को हमेशा ऐसा ही महसूस होता होगा।
  • सुबह के सपनों को हल्की ठंडक झकझोरती है फिर पायताने से कब की नीचे गिर चुकी चादर याद आती है और शुरू होती है सपनों को वापस पकड़ने की दौड़।
  • खेतों के टुकड़े यूँ कटे हुए थे मानों बच्चों ने खेलखेल में ढेर सारे ब्रेड के टुकड़े करीने से बिछा दिए हों फिर उसपर हरीहरी चटनी डाल रखी हो। खेतों में खड़े नारियल और केले के पेड़ ऊपर से ब्रेड पर बिछाई चटनी की परत जैसे लग रहे थे।
  • मै वहाँ से गिरता तो यकीनन तमिलनाडु में ही लेकिन जीवित नहीं बचता।
  • वे बूँदें सीधे मन पर गिर रही थीं और मन तृप्त हो रहा था।
  • आकाश में सफ़ेद बादल के बड़े बड़े थक्के थे।
  • मुख्य सड़क से जब हम नीचे उतरे तो टायरों के नीचे से सड़क के बजाय सड़कनुमा कोई चीज गुजर रही थी।
  • आइये हमारे धान के खेतों के बीच से गुजरकर, महसूस होगा कि कहीं से आये हैं। मन महमह कर उठेगा।
  • पेड़ों के नीचे चलते हुए लग रहा था कि किसी हरी सुरंग में चले जा रहे हों।

सियाहत एक रौं में की गयी यात्राप्रसंगों पर आधारित नहीं है। इसलिए इसके लेखन में भौतिक यात्रा और मानसिक यात्रा के प्रसंग बेतरतीब पैबस्त हैं। इसमें लेकिन पाठक को सजग रहना पड़ता है कि कब लेखक दक्षिण से सहसा दिल्ली या सहरसा पहुँच जाये। अध्यायों का क्रम भी एक आयोजना में नहीं है। सभी अध्यायों को जोड़ने वाली कड़ी मौजूद नहीं है जो कम से कम एक यात्रावृत्तांत की नितांत विशेषता है। रोचकता की दृष्टि से देखें तो पुस्तक के मध्य भाग को पढ़ना पड़ता है, जबकि आख़िरी हिस्सा कब खत्म होता है पता ही नहीं चलता और शुरुआत में रोचकता अपनी गरिमा में है। एक-दो जगह टंकण त्रुटि दिखी, कहीं-कहीं वाक्य संरचना में लेखक की आंचलिकता के भी दर्शन हुए यदि उसे व्याकरणिक लिंगविधान त्रुटि न कहें तो। क्या ही अच्छा होता जो चित्र रंगीन होते और उससे भी अधिक अच्छा होता यदि विषय अनुरूप बीच-बीच में आते।

कुल मिलाकर आलोक की यह कृति कहीं से भी उनके पहली पुस्तक होने का अंदाजा नहीं लगने देती। जिस प्रकार उन्होंने इस यात्रावृत्तांत में दर्शन, इतिहास, राजनीति, साहित्य की संगीति बिठाई है वह खासा आकर्षक है। भाषा सहज है और स्थान-स्थान के शब्दों ने उसमें अपनी जगह पायी है। आलोक ने इस यात्रावृत्तांत में कमोबेश सभी अन्य विधाओं के भी सरोकार निभाए हैं, जो उन्हें भविष्य का सम्भावनाशील साहित्यकार बनाती है।

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पल्लवी प्रसाद के उपन्यास ‘लाल’का अंश

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पल्लवी प्रसाद की कहानियां हिंदी की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं. उन्होंने फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियों के अंग्रेजी अनुवाद किये हैं. ‘लाल’ उनका दूसरा उपन्यास है और सामाजिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि को आधार बनाकर कम ही लेखिकाएं लिखती है. यह एक ऐसा ही उपन्यास लग रहा है. फिलहाल इसका एक अंश- मॉडरेटर

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गरीबों के बच्चे पहले से ही अपने खाने भर कमाने लगते हैं। न कमायें तो पेट में अन्न कहाँ से जाये? एक-एक घर में सात से ले कर दस बच्चे  पैदा होते हैं। माँ-बाप छोटे-छोटे बच्चों को संभ्रांत घरों में भेज देते हैं – अन्य के घर में नौकर बन कर पल जायेंगे, कुछ न हो तो भी जूठन पर खिले रहेंगे यह फूल! गाँव-घर में रहे तो भूख और बिमारी का ग्रास बनते देर न लगेगी। बाबू लोग के घरों में पलने वाले यह नौनिहाल सुबह से रात तक घरेलू कामों में रत रहते हैं। घर में हुयी हर गड़बड़ी का ठीकरा इनके सिर फोड़ा जाता है। सेवा के बदले गालियाँ, मार व जूते इनकी रोज की कमाई है। इनके अलावा साल में दो बार, होली व दशहरा के त्योहारों पर इन्हें कपड़े मिलते अथवा मिल जाया कर सकते हैं। साल में एक बार जब इनका अभिभावक इनसे मिलने आता है तब इनकी खुराक व रखरखाव का खर्च काट कर मालिक साल भर की मजदूरी उसके हाथ पर रखता है – पॉँच-छ: सौ रूपयों से ज्यादा नहीं!

भला हो प्रदेश सरकार का जो अन्य कानून की तरह ही, बाल-मजदूरी के खिलाफ भी कोई कदम नहीं उठाती वरना सैकड़ों बालकों के नसीब में जीवन नहीं मौत आती। हालांकि उनका यह जीवन अनवरत जिल्लत का कर्कश ऑर्केस्ट्रा संगीत है।

…उस बार बुढ़ऊ किसी तरह पैसे का जुगाड़ कर के अपने गाँव से बहुत दूर, शहर पहुँचे – उन्हें बस और ट्रेन दोनों का टिकट कटाना पड़ा। लेकिन शहर जा कर पैसा मिलेगा, वह यह बात जानते हैं इसलिये खर्च का मलाल नहीं। हर बार की तरह वह साहब की कोठी पर पहुँचे। लेकिन हरे रँग के लोहे के फाटक पर नये दरबान ने उन्हें रोक दिया। बुढ़ऊ ने देखा दरबान नया है। उन्होंने लोरिक का नाम लिया लेकिन अचरज! दरबान ने उन्हें फिर भी अंदर नहीं घुसने दिया?

“हम लोरिक के बापू हैं। उससे मिलने आये हैं। तनिक उसे बुला दीजिये न?” बुढ़ऊ गिड़गिड़ा रहा था और दरबान उसे वहाँ से भगा रहा था कि तभी अपनी सायकल पर बाजार से लौटता हुआ खानसामा वहाँ आ पहुँचा। वह बुढ़ऊ को देख कर दरबान से बोला, “अरे! यह तो बुढ़ऊ है। आने दो इसे!” इतना कह कर खानसामा अंदर चला गया। उसकी अजनबीयत ने बुढ़ऊ को दुविधा में डाल दिया। पहचान लेने के बावजूद खानसामा ने उससे सीधे मुँह न कोई बात की न ही दुआ-सलाम?

फाटक के भीतर बुढ़ऊ धूप में चुक्कु-मुक्कु बैठ कर इंतजार करने लगे। खानसामा मेमसाहब को बुला लाया। मेमसाहब अपने वजन और गर्मी से लस्त-पस्त होते हुयी बाहर चली आईं। उन्होंने बरामदे की छाँव में खड़े हो कर आलस्य से पुकारा, “केऽऽ है…?

जवाब में बुढ़ऊ हाथ जोड़ कर खड़े हो गये, मानो अपनी शिनाख़्त दे रहे हों।

“लोरिक तो भाग गया!” मेमसाहब ने ऊँची आवाज में बताया।

“आँय?…कब?” बूढ़ा यह सुन कर बुरी तरह अचकचा गया।

“कब्बे! आप पिछले बार आये थे  उसके अगले महीने ही की तो बात है  !…हम तो सोचे गाँव चला गया। घर आया नहीं क्या?”

“ना: मायजी!” बुढ़ऊ एकदम हतप्रभ हो कर बोला।

“देखिये तऽ, कितना पाजी निकला!” मेमसाहब ने खानसामा की तरफ देख कर शिकायत की। उधर चिंता के मारे बुढ़ऊ का सिर घूमने लगा।

“हम जानबे नहीं करते थे…!” बुढ़ऊ बड़बड़ाये।

“काहे? आपको चिट्ठी तो डाले थे हमलोग!” मायजी ने सख़्त आवाज़ में कहा मानो उल्टा चोर कोतवाल को डाँट रहा हो।

“हमें कोई चिट्ठी न मिली।” बुढ़ऊ बोला।

“यही न प्रॉब्लम है आप लोगों के साथ। कोई जिम्मेवारी नहीं समझते! आप आधा-अधूरा पता लिखा दिये होंगे तो क्या पहुँचेगा चिट्ठी भला? जो पता आप लिखवाते वही न हमारे पास रहता?…ऊ लड़का इतना बदमाश निकला, बताईये खा-खा कर चर्बी चढ़ गई थी यहाँ। सारा दिन चोरी-चोरी टेप पर गाना सुनता था। दूध लेने जाता तो घंटों गायब रहता। लफंगों की सोहबत हो गयी थी। कोई बरगला कर भगा ले गया होगा। यहाँ अच्छा खाता-पीता, पहनता-ओढ़ता, तो खुद को बाबू साहब समझने लगा था? उसको सुख भार हो गया था!…इ लोग का किस्मत कोई बदल सकता है? अब जहाँ होगा भूखे मर रहा होगा…” उन्होंने अनुमोदन के लिये फिर खानसामा की ओर देखा। खानसामा चुपचाप बुढ़ऊ को देख रहा था।

बुढ़ऊ पर फटकार बरस रही है। मायजी शादी-ब्याह के लाऊडस्पीकर के माफिक अनवरत बजे जा रही  हैं। वह कुछ सोचने नहीं पा रहा है। कहाँ उड़ गया उसका सुग्गा, लोरिक?

“बुढ़ऊ को खाना-वाना खिला दीजियेगा।” मेमसाहब द्वारा खानसामा को दिया गया आदेश सुन, बुढ़ऊ की तंद्रा टूटी। वह हड़बड़ा गया। उसने खाने के लिये मना कर दिया। वह इस घर का अन्न अब नहीं खा सकता। परन्तु मानव शरीर की सीमाएँ होती हैं। उसने इशारे से पानी माँगा। दरबान ने बगीचे का नल दिखा दिया। बुढ़ऊ पानी पी कर चला गया।

लेकिन वह जाये कहाँ, यह वह नहीं समझ पाया। लोरिक को भागे एक साल से ज्यादा हो गया है, जैसा कि वे लोग बताते थे। इतने दिनों बाद उसका क्या सुराग मिल पायेगा? वह गाँव भी नहीं लौटा…कहीं कुछ हो-हवा गया हो…नहीं-नहीं! गरीब का बच्चा मरता नहीं। बुढ़ऊ ने अपने साँई का भरोसा किया। कहीं मजदूरी करता होगा, पैसे बचेंगे तो गाँव लौट आयेगा। बुढ़ऊ हिम्मत कर के कदम बढ़ाते गया और पहला चौक पार कर शंकर की गुमटी पर जा पहुँचा – ‘शंकर लिट्टी चोखा सेंटर’! इस सेंटर के साथ वाली दीवार पर चूने से यह नाम अंकित किया गया है। सेंटर महज चार बम्बुओं पर बिछी फूस की छत के नीचे मजे से चलता है। दोपहर की धूप ढल रही है। गुमटी के चुल्हे पर चाय की बड़ी सी काली केतली चढ़ी हुयी है। कलेवा का वक्त है – भूँजा, मूढ़ी, फरही, सस्ते बिस्किट और मिलावट का सेव, इतना इंतजाम है ग्राहकों के वास्ते। शंकर रात की लिट्टी के लिये, गुमटी के पीछे की खुली जमीन में गोईंठा लगा रहा है।

बुढ़ऊ कुछ देर ठिठक कर देखता रहा। लेकिन जब शंकर का ध्यान उस पर नहीं गया तो वह बोला, “हम बुढ़ऊ!”

शंकर ने सिर उठा कर देखा। पहले पल दो पल उसे कुछ समझ नहीं आया। फिर अनायास उसकी स्मृति के पट खुल गये। उसने बुढ़ऊ का स्वागत किया और बैठने के लिये एक पुरानी मचिया बढ़ा दी।

बुढ़ऊ हाथों में अपना सिर दिये, अपनी ही दुनिया में खोया, बैठा रहा। शंकर इंतजार करता रहा कि वह बात की शुरुआत करेगा। वह कनखियों से बुढ़ऊ को देखता जाता। बुढ़ऊ यूं बैठा था मानो वहाँ उसके अलावा और कोई न हो।

आखिरकार अपने हाथ झाड़ते हुये शंकर ने बुढ़ऊ का सामना किया – “लोरिक गाँव लौटा?”

“ना:!”

बुढ़ऊ ने अपना मैला गमछा आँखों पर लगा लिया। उसके कँधे हिल रहे हैं। बुढ़ऊ को रोता जान, शंकर की सहानुभूति व चिंता गहरा गयी। वह ग्राहकों को चाय दे कर बुढ़ऊ के पास चला आया। जब उससे न रहा गया तो वह बोल पड़ा – “गायब होने से दो दिन पहले लोरिक आया था यहाँ…”

बुढ़ऊ ने जोर की हिचकी भरी और फटी-फटी आँखों से शंकर को देखने लगा। उसकी आँखों में वह आस थी कि पल भर के लिये पृथ्वी भी थम जाये।

एक नजर बुढ़ऊ पर डाल कर शंकर आगे बोला – “…बता रहा था कि उससे घर का टेप रिकॉर्डर खराब हो गया था। इस जुर्म के लिये भईया ने उसे बेरहमी से पीटा। दो-तीन दिन  के बुखार और दवा-दारू से उठ कर चला आ रहा था वह! फिर और दो-तीन दिन बाद साहब के नौकर उसे खोजते हुये यहां आये…तब पता चला अपना झोला ले कर कहीं गायब हो गया है वह!…बड़ी खोजाई हुई लेकिन साहब ने पुलिस में रपट नहीं लिखाई। खुद बबुआ ने उसे वह मार मारा था कि पुलिस इनसे भी तो कुछ जरूर पूछती?”

एक-दो ग्राहक यह किस्सा सुनने पास सरक आये थे। एक ने अपनी राय प्रकट की – ” अगर चोरी कर के भागा होता तो मालिक सबसे पहले थाने में खबर करते। तुरंत खोजा जाता!”

बुढ़ऊ मतिसुन्न हो कर सब सुन रहा है।

शंकर ने पूछा – ” जब लोरिक गाँव नहीं पहुँचा तो बुढ़ऊ तुम कहाँ रहे जो इतनी देर से उसकी खबर लेने पहुँचे हो?”

“हम जानबे नहीं करते थे…” बुढ़ऊ ने दुहराया।

“थाने में गुमशुदगी की रपट लिखवा दीजिये।” एक जवान लड़के ने सलाह दी।

एक प्रौढ़ ट्रक ड्राईवर ने टोका – “बेवकूफी की बात! लड़का तो क्या मिलेगा लेकिन मालिकों से पूछताछ होते ही, वे उस पर कोई बड़ी चोरी का आरोप अवश्य लगा देंगे। लो मजा! इन बड़े लोगों को नहीं जानते तुम!”

शंकर ने चाय भरा काँच का गिलास बुढ़ऊ के हाथ में जबरदस्ती पकड़ाया और एक प्लेट लिट्टी-चोखा  उसके सामने सरकाते हुये कहा – “सबर कीजिये। वह लौट आवेगा। जवान जहान लड़का है, कहीं मेहनत मजदूरी करके अपना पेट पालता होगा। भगवान से मनाईये, उसे विपदा से दूर रखे।”

“हमरे घर जन्मा इससे बड़ा विपत्त क्या होगा?” बुढ़ऊ प्लेट पर अपनी आँखें गड़ाये बोला।

अपना हाथ बढ़ाने से पहले उसने धीमे से कहा, “पैसा नहीं है।”

“आप से किसी ने माँगा? खाईये!” – शंकर ने डाँट दिया।

बुढ़ऊ खाने पर टूट पड़ा। सुबह से उसके पेट में एक दाना नहीं गया, यह साफ पता चलता है। शंकर ने आँख का ईशारा किया। वहाँ मौजूद मेहनतकश्तों की मैली जेबों से मुड़े-तुड़े नोट निकल आये। उनका एक नन्हाँ ढेर लग गया। शंकर ने रुपये गिने और अपनी तरफ से कुछ मिला कर सौ पूरे कर दिये। उसने वे नोट और सिक्के बुढ़ऊ के कुर्ते की जेब में अपने हाथ से डाल दिये और कहा – “यह गाड़ी-भाड़ा के लिये दे रहे हैं। ट्रेन में डब्लू.टी. सफर कर भी लीजियेगा लेकिन आगे बस वाला नहीं मानेगा…। यदि रूपये बच गये तो काम आयेंगे।”

डब्लू. टी. यानी ‘विदाऊट टिकट’ – इन शब्दों के मायने सबको पता है। यह अँग्रेजी शब्द नहीं, जैसे इसी मिट्टी की बोली-बानी है।

:

लोरिक तीन साल बाद गाँव लौटा। वह पहले वाला मरियल लड़का नहीं रहा। अब यदि यार खाने की शर्त बदें तो वह एक किलो गोश्त आसानी से उड़ा लेता है। कमीज व फुल-पैंट वह मामुली पहनता है लेकिन उसके पैर कभी काले चमड़े के नोकदार जूतों से खाली नहीं रहते। सोन नदी के किनारे बालू में चलते हुये यह जूते धँसते हैं और धूसरित हो उठे हैं। उसकी काली पैंट की मोहरी में रेत भर रही है। हर कदम पर मुट्ठी-भर बालू हवा में उछलता है। उसकी चाल धीमी हो गई है। वह अपने में मग्न चला जा रहा है हालाँकि उसके पास काफी सामान है। पीठ पर कवर में गिटार झूल रहा है, कँधे पर एक छोटा ढोलक लटका है और दायें हाथ में उसने स्लेटी रँग का सूटकेस उठाया हुआ है जिसमें लिट्रेचर माने पर्चे हैं, कपड़े हैं, ‘इरास्मिक’ शेविंग क्रीम है। उसने देखा, चढ़ती दोपहर की चिलचिलाती धूप में बाड़े के पास के चाँपा कल का लोहे का हत्था चमचमा रहा है। एक औरत मुँह में दतुवन लिये उस तपे हुये लोहे को चला रही है, इतने दिन चढ़े मुँह धो रही है?

वह जैसे उस औरत के करीब से गुजरने को हुया कि अनायास वह उसके पहचान में आ गई। औरत ने उसे देखा, दतुवन के रेशे थूके और फिर दतुवन चबाने लगी। उससे एकदम बेपरवाह।

लोरिक को अजीब लगा। वह जरा सा हँस कर बोला – “भौजी, हमें चिन्ही नहीं?”

औरत ने हामी में सिर हिलाया और फिर गर्दन बढ़ा कर थूका। उसने चाँपा चला कर अपना थूक बहाया, फिर कुल्ला कर के अपने चेहरे पर खूब पानी मारा। धूप में गीले, चमकते हुये चेहरे से उसने लोरिक का सामना किया – खामोश।

लोरिक ही बोला – “तुम एकदम बदल गयी हो। दूर से मैं तुम्हें पहचान न सका।” वह अपनेआप पर हँसा। कहाँ तो वह दुबली-पतली, सूखी, हँसमुख लड़की हुआ करती थी। और अब उसके शरीर का अनुपात अतिश्योक्तियों से भरा है। जहाँ भराव वहाँ अत्यधिक भराव, जहाँ कटाव वहाँ अत्यधिक कटाव।

“माल्दह आम लगती हो!…तुमने क्या मुझे मरा समझ लिया था जो पहचानने में  इतनी देर लगा दी?”

“वह मर गया।”

“कौन?” लोरिक थोड़ा हँसा, थोड़ा चौंका।

“तुम्हारा दोस्त, मेरा पति…बिनोद!”

“क्या बकती हो?”

“हाँ। उसने सोन में डूब कर जान दे दी।” औरत ने अपना हाथ लंबा कर नदी की तरफ ऊँगली से इशारा किया।

“आँय…काहे?”

“तुम बस्ती का हाल नहीं जानते? एक बित्ता घूँघट में कब तक औरत छुप सकती है? कुत्ते उसकी गँध लेते रहते हैं। आये दिन रात के अँधेरे में दबंग आँगन में कूद जाते, तमंचा दिखाते…! हमारे दाँतों में बँदूक की नली बजती और वहाँ उनका…” लोरिक ने अपनी नजरें फेर ली। उसकी दृष्टि में सोन का पानी तेजाब के मानिंद चिलचिलाने लगा।

“यह घर-घर में होता लला। लड़ो तो मुँह में बंदूक सटा कर मनमानी करता, पड़े रहो तो बँदूक हटा कर मनमानी करता। और इ सब बस्तीवाला, अपनी माँ का यार सब, दिन में हम जैसी को पापिन ठहराता और रात होते ही इनका सत्त इनकी गांड में घुस जाता। भगवान का भी सहारा नहीं था! कोई जान दे देती, किसी की जान ले ली जाती। हम? हम पहले लड़े…फिर पड़े रहा करते। देखा, बिनोद हमसे आँखें चुराता है? अब कोई आस नहीं। तो हम उन लोग को मजा देने लगे…वो मजा देते कि बाबू लोग मार सिसकारी…। सोने का बहाना बनाये घर के लोग खटिया पर करवट बदलने लगते। फिर हमारे यहाँ रात में चोर का कूदना बँद हो गया। अब उ लोग हमको पूरी इज्जत से अपने साथ लिवा ले जाते, सुबह बस्तीवालों के सामने घर छोड़ जाते। जब तुम लोग की आँखों में पानी नहीं रहा तो हम ही क्यों पर्दा करें?

ऐसे ही एक बेर भोर में बर्जे से इस पार लौट रहे थे कि पानी के किनारे बिनोद की लाश उतरा रही थी – हम ही उसे सबसे पहले देखे। रात में किसी वक्त जान दे दी थी उसने। उसे बर्दाश्त न हुआ। वह प्यार करता था न? वह जान दे सकता था, किसी की ले न सका! हमारी भी नहीं।” वह चुप हो गयी और नदी को देखने लगी।

लोरिक का कंठ सूख आया। थूक घोंटना उसे काँटे की तरह चुभा। हिम्मत कर के उसने पूछा, “यह सब…?”

लोरिक का इशारा समझ, उसने अपने लहठी भरे हाथ फैला कर देखे, गुलाबी साड़ी की चुन्नट झाड़ी तो पैर में चाँदी की पायल चमक उठी। वह तंज से मुस्कायी। फिर हाथ पीछे कर के दिखाया, “वह देखो कितने मजे का घर चुनवा दिये हैं बाबू लोग – मेरा है।”

“कितने यार पाली हो?” लोरिक ने वितृष्णा से भर कर पूछा।

“यार और यार के यार…पुलिस, नेता, अफसर, जिन्हें जब खुश करना हो। चाहो तो तुम भी आजमा सकते हो?” उसने चुनौती दी।

“ऐसी गंदी बात?…खबरदार!” लोरिक भिन्ना उठा।

“तुम शहर जाते वक्त इतने से थे, तब भी मेरे साथ गंदा मजाक करते थे। अभी-अभी तुमने मुझे माल्दह आम बताया, चखोगे नहीं?”

लोरिक आगबबूला हो कर गरजा – ” तब तुम मेरी भौजी थीं, बिनोद था। अब वह नहीं है!”

वह तमक कर बोली – “हाँ, तब तुम भी खबरदार जो हमें भौजी बुलाये। बिट्टू देवी नाम है मेरा। इलाके में रहना है तो इज्जत से नाम लेना!”

लोरिक दंग देखता रह गया। बस्ती थोड़ी दूरी पर थी। उसने पूछा, “पानी पिलाओगी?”

बिट्टू ने पास रखी कलसी उठायी और पानी भरने लगी। लोरिक सूट-केस पहले ही नीचे रख चुका था। अब उसने अपनी पीठ पर टँगा गिटार उतारा। कँधे से ढोलक छुड़ा कर जमीन पर रखा। न जाने उसके मन में क्या बात आयी, उसने जैसे स्लो मोशन में अपने पैंट की कमर से कमीज़ छुड़ायी और एक सेमि-ऑटोमेटिक पिस्तौल निकाल कर पास पड़े पत्थर पर रख दी। तेज धूप में नंगी पिस्तौल चमक उठी! बिट्टू ने कनखी से देखा। लोरिक अनजान बना रहा। उसने कमीज़ की बाँहें चढ़ायीं, बिट्टू ने पानी दिया – उसने मुँह-हाथ धोये और जी भर कर पानी पिया। उसने दुबारा एक-एक कर अपना सामान लादा, मानो पिस्तौल से वह लापरवाह हो।

“यह खिलौनवा लेते जाईये लोरिक बाबू। बिस्तर में रोज रात, इससे ज्यादे तेज और बड़ी बँदूक हमरे लात में पड़ी रहती है!” बिट्टू ने अपनी हँसी दबायी।

पिस्तौल उठा कर वह तेज कदमों से अपनी राह पर बढ़ गया। बाप रे! कितना जलील कर सकती है यह औरत? तब न इसके पति ने जान दे दी! वह ऐसी बचकानी हरकत करने ही क्यों गया इसके सामने? लोरिक ने खुद को धिक्कारा।

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यह किससे साबका पड़ा उसका? वह कितना खुश था। किस तरह वह तीन साल जिया, यह वही जानता है। उसने खुद को इस काबिल बनाया है कि सिर उठा कर अपने लोगों के बीच लौट सके। अपने बाप को अपनी शक्ल दिखा सके, उसके हाथ पर अपनी कमाई रख सके। लेकिन अब उसका सारा उत्साह उतर गया है। वह बस्ती की तरफ इस तरह कदम बढ़ा रहा है मानो कल ही वहाँ से गया था, आज लौट रहा है। उसने क्या सोच लिया था, इस दरम्यान उसके लोग अपनी युगीन जिल्लतों से छुटकारा पा चुके होंगे?

बस्ती वैसी ही थी। उसका घर वैसे ही मिला – चिकनी लाल मिट्टी से लीपा, फूस की छत वाला। उसने आवाज देना जरूरी नहीं समझा। वह अंदर चला गया। अंदर उसे कोई दिखाई नहीं दिया। तीन वर्षों में यहाँ  तिनका भर बदलाव भी न होने पाया था। यथास्थान बालू के ढेर पर सुराही टिकी थी, हमेशा की तरह बालू भीना था। हमेशा की तरह सुराही का पानी भी ठंडा होगा। पिछवाड़े, जामुन के पेड़ की छाँव  तले पालतू बत्तखें अल्मुनियम के ढबरे में मांड-भात चुग रही हैं, चूजे इस भोजन से अनमने हुये घूम रहे हैं।

बुढ़ऊ एक वाचाल मेमने को अपनी बगल में दबोचे हुये लौटा। वह उसे पड़ोसी की बगिया से ढूँढ़ कर लाया था, इससे पहले की पड़ोसी को पता चलता और वह कोई टंटा खड़ा करता। बुढ़ऊ ने बाँस की खपच्चियों से बने बाड़े में मेमने को डाला और फाटक को अच्छे से बंद किया। घर के भीतर घुसते ही उसे काठ मार गया। वहाँ एक बक्सा, नया ढोलक, कोंची (क्या चीज) तो काले-लंबे से लिहाफ में दीवार से टिका रखा था?

बुढ़ऊ चिल्लाया – “के है?…कौन घुसा है?”

“काहे हल्ला करते हो, हम हैं, लोरिक।” नंगे बदन, कमर में गमछा लपेटे, कँधे पर धुली व गीली पैंट-शर्ट-अंडरवियर लादे लोरिक बस्ती के सार्वजनिक चाँपा से लौट आया – पहले से अधिक लंबा, स्वस्थ और जवान।

उसने देखा बुढ़ऊ भावनातिरेक में सूखे पत्ते सा काँप रहा है…

लोरिक ने धुले कपड़े पास खड़ी खटिया के पाये पर लादे और लपक कर गीली बाँहों से पिता को अँकवार में भर लिया, कहीं बुढ़ऊ गिर न पड़े!

काली चमड़ी वाले चेहरे की झुर्रियों और गड्ढों में आँसुओं का सैलाब भर आया। बुढ़ऊ की घिग्घी बँध गयी। लोरिक अपनी मजबूत हथेलियों से बुढ़ऊ की छाती और कँधों पर मालिश सा करता रहा – जैसे बुढ़ऊ को अपने होने का दिलासा दिलाता रहा।

“घिस कर आधा हो गये हो, बाबा?”

“हम सोचे तुम…” बुढ़ऊ बोल न सका, उसने आसमान की ओर संकेत किया।

“तुमसे पहले नहीं जायेंगे।” लोरिक हौले से हँसा। हालाँकि जिस बात का उसने बुढ़ऊ को भरोसा दिलाया है उस पर उसे खुद कतई भरोसा नहीं।

“हम का जानते थे कि तुम आओगे! खाने को कुछ न धरा है…” बुढ़ऊ विस्मित हुआ। फिर बोला, “हम कुछ माँग कर लाते हैं…” वह उठने को हुआ।

“ठहरो। जरा शाँत बैठो। खाने को लाई है मेरे पास। पहले चूल्हा सुलगाने दो।” बाड़ पर अपने गीले कपड़े फैलाते हुये लोरिक बोला।

बुढ़ऊ खुश हो गया। बोला, “तुम चूल्हा बालो। हम एक ठो बत्तख मार कर साफ करते हैं – झोर बनायेंगे!” बूढ़ा बेटे के लौटने की खुशी में जश्न मनाना चाहता है।

“मेरा मन नहीं बाबा। अंडा से काम चल जायेगा।” लोरिक ने मना किया। बूढ़े की खुशी में कोई अंतर नहीं आया।

अंतत: जब चूल्हे में आग जल उठी तब अल्मुनियम के काली पेंदी वाले बड़े पतीले में पानी चढ़ा दिया गया। उसी में भात के लिये उसना चावल और बत्तख के पाँच अंडे उबलने के लिये डाल दिये गये। पिता, पुत्र से अपने सुख-दु:ख बताते रहा। लोरिक ने बुढ़ऊ को बताया वह गँगा-पार किसी ट्राँस्पोर्ट कम्पनी में नौकर है। बुढ़ऊ के पूछने पर कि वह क्या करता है वहाँ – उसने जवाब दिया वह हिसाब देखता है, माल चढ़वाने-उतरवाने की निगरानी करता है, उसके मालिक उसे बहुत मानते हैं और बदले में तीन हजार प्रति माह मेहनताना देते हैं। जिम्मेदारी का काम है। – इस बात से बुढ़ऊ सहमत हुआ कि यह तो बहुत जिम्मेदारी का काम है।

यह सब बताते हुये लोरिक गंभीर और सावधान हो जाता है। वह तात्तल (गर्म) भात पर उबला अंडा फोड़ कर सानता है, उसमें सूखी लाल मिर्च-प्याज-लहसुन-नमक पर सरसों तेल चूआ कर बनाया फिफोरा ऊँगलियों से मसलता है। बुढ़ऊ भी यही करता है। दोनों गपा-गप खाते हैं। आह…तृप्ति!

बुढ़ऊ प्रस्ताव देता है कि वह बेटे के लौटने की खुशी में क्यों न मेमना जिबह कर, बिरादरी को भात दे? लोरिक मना कर देता है। अच्छा, कम से कम साह हलवाई की दुकान से बुँदिया छनवा कर ही क्यों न वह दस लोगों में बाँट दे? लोरिक को यह भी नागवार है।

“शाँति से नहीं बैठ सकते? किसका बेटा तीन हजार कमाता है? लोग जलेंगे…फिर वही प्रपँच करेंगे। यह अकल भी हमीं दें तुम्हें? सुख में देह गिरा कर रहना सीखो।”

“एह्ह…बड़ा आया हमें अकल देने वाला…” बुढ़ऊ मुस्काते हुये बड़बड़ाता है। दरअसल उसे अब किसी बात की परवाह नहीं रही। आज उसने ईश्वर को उसकी तमाम ज्यादतियाँ मुआफ कर दी हैं।

लोरिक को दस दिन की छुट्टी मिली है। उसने एक महीने की छुट्टी माँगी थी। लेकिन उसके कमांडर नरेन मुंडा ने उसकी माँग खारिज कर दी। इतनी छुट्टी भी इस निर्देश के साथ मिली है कि उसे अपने क्षेत्र से रँगरूट लाने होंगे। लेकिन कैम्प से चलते वक्त जैसा सोचा था वैसा यहाँ पहुँच कर नहीं हुआ। वह यहाँ आ कर खुश नहीं। उसने बुढ़ऊ को ढोलक दिया, बुढ़ऊ ने झूम-झूम कर उस पर थाप दी। उसने मेले से खरीदा रँग-रोगन का डिब्बा दिया – मेकप का सामान! वहीं पालथी मारे, बुढ़ऊ ने अपना चेहरा पोत लिया और तरह-तरह की अभिव्यक्तियाँ दिखा कर खुश हुआ। लोरिक ने ढोलक बजाया, बुढ़ऊ लँगड़ा-लंगड़ा कर नाचा। दोनों हँसे। बुढ़ऊ की हँसी सच्ची है – किसी मासूम बच्चे सी। लोरिक बुढ़ऊ का दिल रखने के लिये हँसता है। बुढ़ऊ रँगमँच का पुराना कलाकार है, उससे जो चाहे रोल करवा लो, औरत-मर्द – सब में फिट! गाने में, नाचने में, सब में उस्ताद! लेकिन वह पुरानी बात हुयी जब बुढ़ऊ लोक-मंचों का आकर्षण हुआ करता, आस-पास के गाँव-कस्बों के लोग उसे देखने के लिये उमड़ते – चाहे धार्मिक पात्र हो अथवा रामेश्वर कश्यप द्वारा लिखित रेडियो पर प्रसारित होने वाले भोजपुरी नाटक के पात्र लोहा सिंह की नकल हो, बुढ़ऊ का कोई मुकाबला न कर पाता। वह नाम और दाम, दोनों कमाता! …वे दिन अब बीत गये हैं। उसके जीवन में साँझ हो गयी है। अपना पेट पालने के वास्ते वह नदी किनारे थोड़ी सब्जियाँ उगा लेता है, बत्तखें पाल कर उनके अंडे बेचता है, कभी बत्तख या मेमना भी।

लोरिक ने अपने बाप को गिटार बजा कर दिखाया। बुढ़ऊ प्रभावित हुआ। वह बोला, “पहले इ सब कहाँ होता था? अंग्रेजी बाजा है न?”

“हाँ, वहीं खरीदे थे। अपना मन लगाने को।” लोरिक झूठ बोल गया। वह पुराना गिटार था। ट्रेनिंग के दौरान उसके सीनियर, कॉमरेड हेम्ब्रम ने उसके बहुत माँगने पर, दया कर के अपना गिटार उसे दे दिया था। उसने उन्हीं से इसे बजाने का ढंग सीखा था तथा उनसे कुछ धुनें भी सीखी थीं – चर्च में बजने वाला संगीत भी, जिसे हेम्ब्रम ‘कॉयर’ कहा करते।

“कॉयर का ‘हिम’ सुनोगे?”

“वह क्या होता है?”

“ईशु मसीह का भक्ति संगीत।” यह कहते हुये वह गिटार पर धुन बजाने लगा। जरा सी देर बाद वह गाने भी लगा –

“हे निर्मल, हे निष्कलंक, हे…परम दयामय ज्ञानी…”

अजीब सा समाँ बँध गया है। वहाँ के पेड़-पौधों ने पहली बार गिटार की स्वर-लहरी सुनी – बुढ़ऊ ईशु को नहीं जानता, उसने पहली बार ऐसा भजन सुना – लोरिक को ईश्वर मात्र से कोई प्रयोजन नहीं है फिर भी वह निरर्थक ही यह गीत गा रहा है…। ऊपर बैठा प्रभु निष्कलंक है। वह अपने सारे कलंक मनुष्यों पर थोप कर फुर्सत से भजन सुन रहा है।

तीन दिन – तीन रातें लोरिक ने बेजा काटीं। वह खटिया पर पड़े-पड़े सोच रहा है, इसी तरह और दिन भी कट जायेंगे। ऐसे बैठे रहने से कैसे काम चलेगा? वह चाहे अपने लिये घर आया हो लेकिन उसे भेजा तो गया है रँगरूट लाने के लिये! इलाके के लोगों से उसे मिलना ही होगा। उनके बीच पर्चे बाँटने होंगे, भाषण देने होंगे, उन्हें प्रलोभन देना होगा, अपनी खुशहाली का इश्तेहार बयान करना होगा। वे टूटेंगे जैसे भूखे टूटते हैं पूड़ी-बुँदिया के पत्तल पर! –  यह सब उसे अपने लोगों के बीच गुप्त तरीके से करना होगा ताकी बाहरी-जन और पुलिस को भनक न लगने पाये।

रात के अँधेरे में सैकड़ों रोशन बिंदु तरल उड़ानें भरते हैं। सितारों की किसे गरज है जब रात जुगनुओं से जगमगाती हो? नदी की तरफ से हवा चलती है तो उमस का पर्दा हिल-डुल जाता है। हमेशा की तरह, झिंगुरों का कुछ नहीं किया जा सकता! लेकिन मच्छरों को भगाने के लिये खाट के नीचे गोईँठा की धूनी जला छोड़ी गयी है। कोई भटका जुगनु तैरते हुये, लेटे हुये लोरिक के बदन पर उतरता है और मानो तैरते हुये ही ऊपर उड़ जाता है। लोरिक की नींद भी जुगनु हो गई है।…वह कब तक चोर की तरह अपने घर में घुसा रहेगा? न जाने, जो उस दिन उससे सामना हो गया…कि किसी और का सामना करने की उसे हिम्मत नहीं पड़ रही। काश, बिनोद-बिट्टू का हश्र उसे मालूम न हुआ होता! वह साँस ले लेता। उनकी कथा नयी न थी। लेकिन वे दोनों उसके साथी हुआ करते। बिनोद की मौत और बिट्टु के जीवन से वह अछूता नहीं रह सकता।

न जाने क्यों, चिलचिलाती हुयी धूप में जलते बालू पर खड़ी, उसे ललकारती हुयी बिट्टु देवी के बारे में वह जब-जब सोचता है…उसे अपनी माँ याद आती है। एक संशय ने घर बना लिया है उसके मन में। उसे बताया गया है वह दशहरा का दिन था। बुढ़ऊ, नदी पार शहर भोजपुर में रामलीला का आखिरी मँचन कर के देर रात इस पार बस्ती में लौटे थे, लेकिन अकेले! माँ, उनकी साथी कलाकार उनके साथ घर नहीं लौट पायी। कई रोज बाद लोग कहने लगे उस रात माँ सोन में बह गयी….। जो वह आज होती तो क्या वह बिट्टु जैसी होती? न जाने बिट्टु उसे क्यों परेशान करती है? वह जहाँ से आया है, वहीं लौट जाना चाहता है – जँगलों में। उसके ठिकाने बदलते रहते हैं। यदि वहाँ से वह फिर कभी दुबारा यहाँ लौट पाया…यदि…यदिऽऽ…?…

सुबह, चूल्हे के धुँए की गँध ने लोरिक को जगा दिया। जमीन पर पेड़ से टपके हुये पके जामुन पड़े थे। उसने संभल कर खाट के नीचे अपने पाँव उतारे – बत्तख का बच्चा दबने से बच गया, चूजा घबरा कर भागा! लोरिक को हँसी आ गयी। थोड़ी देर बाद जब वह नदी की ओर जाते हुये कच्चे संकरे रास्ते पर उतर रहा था, बत्तखों के दो गंभीर जोड़े उसकी अगुवाई कर रहे थे…वह उन्हें देख मुस्कुराता रहा, चलता रहा। घास भरी ढलान पर एक दूसरे से होड़ लगाती बत्तखें पानी में प्रवेश कर गयीं। ठीक उनके पीछे-पीछे लोरिक पानी में हेल गया। कमर से कँधे तक पानी में जाते उसे देर न लगी…ताजा-दम…छप्-छप्…छप्-छप्…। तैरते हुये वह उस घाट के करीब चला गया जहाँ कुछ औरतें अपनी दिनचर्या में संलग्न दिखायी देती थीं। जैसे ही उसने उनमें बिट्टू को पहचाना वह पलट गया…और उल्टी दिशा में दूर तैरता चला गया।

लोरिक अपने साथ पाँच लड़कों की पहली खेप ले कर लौटा। इस तरह विधाता उन पाँच लोगों का भाग्य दुबारा लिखने के लिये बाध्य हुआ। उन सबके भाई-बँधु जो पीछे रह गये उन्होंने अगली बार जुड़ने का वादा किया और यह वादा भी दिया कि वे इस दरम्यान गुपचुप प्रचार कार्य बढ़ायेंगे और संगठित होंगे। घर-घर में लाल पर्चे पहुँच रहे हैं।

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लेखिका – पल्लवी प्रसाद
मो – 8221048752
ऊना, हिमाचल प्रदेश।

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अमृत रंजन की कुछ छोटी-छोटी कविताएँ

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कविता को  अभिव्यक्ति का सबसे सच्चा रूप माना जाता है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि कवि कविता के माध्यम से अपने दिल की सबसे सच्ची बातों को अभिव्यक्त करता है. अभिव्यक्ति जितनी सच्ची होती है पढने वाले को अपने दिल की आवाज लगने लगती है. बाल कवि अमृत रंजन अब किशोर कवि बन चुका है और 15 साल की उम्र में उसकी कविता कई बार दार्शनिक अभिव्यक्ति लगने लगती है. उसकी कुछ बेहद परिपक्व कविताएँ आज प्रस्तुत हैं- मॉडरेटर

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नाजायज़

उस जगह,
बहुत दूर,
जहाँ ज़मीन और आसमाँ मिले थे,
चाँद जन्मा था।
अब न ज़मीन का है,
न आसमाँ का।
दास्तां कहती है,
संसार ने गोद ले लिया।
 
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किसान

छीन रहे हैं सब आसमान को।
सबको एक हिस्सा चाहिए।
उस आसमान के हिस्से में
अपनी ज़मीन लगाएँगे।
क्या है कि ज़मीन अकेली पड़ रही है,
बूढ़ी होती जा रही है।
किसी दूर के ज्ञानी ने कहा है:
प्यार की उमर नहीं होती,
अर्थात्‌ प्यार से उमर नहीं होती है।
अगर अनगिनत दूरी पूरब की तरफ़ ताकोगे,
तो मेरे हिस्से का आसमान दिखेगा।
बहुत नीला है।
मेरी दो बीधा ज़मीन को
तो देखते ही प्यार हो जाएगा।
और फिर मेरी ज़मीन,
भरके फ़सल दिया करेगी।
 
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ख़ाली

 
सन्नाटा चुभ रहा था।
चीखें किसी चीज़ से
टकराया न करती अब।
वो सन्नाटा,
जो चीखता है।
मौत सुझाव।
इन सबका।
मौत सुझाव,
उस हवा का,
जो मेरी सांस रोकती है।
उस पानी का,
जिससे प्यास बढ़ती है।
मैं कायर नहीं हूँ।
मौत बस न जीने का बहाना है।
 
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अपवर्तन

 
रेगिस्तान में सूरज कैसे डूबता है?
क्या बालू में,
रौशनी नहीं घुटती?
 
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नामुमकिन

 
जब समय का काँच टूटेगा,
तब सारा समय अलग हो जाएगा।
वक़्त का बँटवारा,
न जाने कैसे,
मुमकिन।
 
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बेचैन

कितना और बाक़ी है?
कितनी और देर तक इन
कीड़ों को मेरे जिस्म पर
खुला छोड़ दोगे?
चुभता है।
बदन को नोचने का मन करने लगा है,
लेकिन हाथ बँधे हुए हैं। पूरे जंगल की आग को केवल मुट्ठी भर पानी से कैसे बुझाऊँ।
गिड़गिड़ा रहा हूँ,
रोक दो।
 

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अमिताभ को एंग्री यंगमैन बनाने वाले प्रकाश मेहरा

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13 जुलाई को प्रकाश मेहरा का जन्मदिन था. 70-80 के दशक के स्टार निर्देशक को लगता है लोग भूल गए हैं. नवीन शर्मा का यह लेख उनको याद करते हुए लिखा है. इसी लेख से मुझे पता चला कि वे अच्छे गीतकार थे और ‘तुम गगन के चन्द्रमा मैं धरा की धूल हूं’ गीत के लेखन से उन्होंने अपने फ़िल्मी सफ़र की शुरुआत की थी- मॉडरेटर
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हिंदी सिनेमा के सबसे चमकदार सितारे अमिताभ बच्चन ही माने जाते हैं। उन्हें मिलिनियम स्टार की भी संज्ञा दी जाती है। उनको इस मुकाम तक पहुंचाने में सबसे अधिक योगदान जिस शख्स का रहा उसे हम प्रकाश मेहरा के नाम से जानते हैं। प्रकाश मेहरा की फिल्म जंजीर से ही अमिताभ बच्चन ने हिंदी फिल्मों के आकाश में बुलंदियों की तरफ यात्रा का आगाज किया था।
प्रकाश मेहरा को ज्यादातर लोग आमतौर पर एक शानदार निर्देशक के रूप में ही जानते हैं। कम ही लोग जानते हैं कि वे एक संवेदनशील और अच्छे गीतकार भी थे। उन्होंने अपना करियर गीतकार के रूप में ही शुरू किया था। तुम गगन के चन्द्रमा मैं धरा की धूल हूं इस पहले गीत के बदले उन्हें मात्र पचास रुपये मिले थे।
उत्तर प्रदेश के बिजनौर में 13 जुलाई को पैदा होने वाले प्रकाश का जीवन संघर्षों से भरा रहा। कभी नाई की दुकान में रात बितायी तो कभी भूखे पेट फुटपाथ पर बैठे रहे। फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।     संघर्ष के दिनों में उन्होंने फिल्म डिवीजन में रोजाना पांच रुपये पर नौकरी की। इधर-उधर भटकते प्रकाश ने ढेरों संगीतकारों के आगे अपना गीत सुनने के लिए मिन्नतें करते थे। अक्सर लोग उन्हें दुत्कार दिया करते थे। कभी कोई सुनता भी तो अनमने ढंग से। एक बार संगीतकार के यहां बैठे प्रकाश का गीत भरत व्यास ने सुना और वह गीत खरीदा लिया। प्रकाश को बदले में मिले थे सिर्फ पचास रुपये। यह गीत था तुम गगन के चन्द्रमा हो मैं धरा की धूल हूं। यहीं से शुरू हुआ प्रकाश मेहरा का फिल्मी सफर।
 इसके बाद वे फिल्म निर्माण में आए। 1968 में उन्होंने शशि कपूर के साथ फिल्म हसीना मान जाएगी बनाई हिट रही थी। 1971 में संजय खान व फिरोज खान के साथ उनकी फिल्म मेला रिलीज हुई। फिर प्रकाश एक के एक फिल्म बनाते चले गए।
जंजीर ने बनाई अमिताभ-प्रकाश की कामयाबी की राह
 प्रकाश मेहरा की मुलाकात प्राण से हुई तो इन दोनों ने मिलकर जंजीर का ताना बाना बुना। वर्ष 1973 में रिलीज हुई जंजीर ने अमिताभ और प्रकाश मेहरा दोनों के लिए हिंदी फिल्मों में शानदार सफर का आगाज कर दिया। जंजीर में अमिताभ बच्चन ने एक ईमानदार पुलिस अफसर का यादगार रोल किया था। इसमें धीर-गंभीर और अपराधियों के प्रति अपना सारा गुस्सा निकालनेवाले एंग्र्री यंगमैन का जन्म हुआ। इस फिल्म की लेखक जोड़ी सलीम खान और जावेद अख्तर को ही भ्रष्टाचार के विरोध में उबले गुस्से का जनक माना जाता है। अमिताभ बच्चन, प्राण और जया भादुड़ी की इस फिल्म ने बाक्स आफिस पर भी कमाल दिखाया था।
यहीं से निर्देशक प्रकाश मेहरा और अमिताभ की जुगलबंदी शुरू हुई।  इस जोड़ी की अगली फिल्म हेराफेरी भी हिट रही। इसके बाद अमिताभ और विनोद खन्ना को लेकर खून पसीना फिल्म ने भी कमाल दिखाया।
मुकद्दर का सिंकदर से अमिताभ को बनाया बॉलीवुड का सिंकदर
जंजीर के बाद अमिताभ व प्रकाश मेहरा की जोड़ी की सबसे शानदार फिल्म आई मुकद्दर का सिंकदर थी। यह एक बेसहारा गरीब बच्चे के संघर्ष की दास्तान है। जो बड़ा होकर सही-गलत तरीके अपनाते हुए पैसेवाला बन जाता है। इस फिल्म ने अमिताभ के एंग्रीयंग मैन की इमेज को और भी पुख्ता किया। इस फिल्म के सारे गीत भी काफी लोकप्रिय हुए थे। खासकर ओ साथी ले तेरे बिना भी क्या जीना, सलामे इश्क मेरी जान जरा कबूल कर ले, टाइटल सांग और दिल तो है दिल दिल का ऐतबार क्या किजे। सलामे इस तो बिनाका गीतमाला में टॉप में रहा था।
 इस फिल्म के बाद अमिताभ बच्चन बॉलीवुड के सबसे बड़े सुपर स्टार में शुमार हो गए थे। हालत यह हो गई कि उनके टक्कर का कोई अभिनेता नहीं बचा खासकर सबसे ज्यादा मेहनताना लेने में वे सभी अभिनेताओं से काफी आगे निकल गए।
लावारिस(1981) इस जोड़ी की एक और सुपर हिट फिल्म थी। इसका गीत मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है,जो है नाम वाला वही तो बदनाम है काफी लोकप्रिय हुआ था। नमक हलाल (1982)में प्रकाश मेहरा अमिताभ बच्चन की एंग्री यंगमैन की छवि से हटकर कॉमेडी करने का मौका दिया। इसमें भी अमिताभ बच्चन ने कमाल दिखाया और फिल्म सुपरहिट हुई। इस फिल्म में भी पग घुंघरू बांध मीरा नाची थी और हम नाचे बीन घूंघरू के ..उस वर्ष का सबसे हिट गाना था।
 1984 में आई शराबी फिल्म में अमिताभ ने यादगार अभिनय किया था। इस फिल्म के गीत प्रकाश मेहरा ने ही लिखे थे जो काफी लोकप्रिय हुए थे। खासकर जहां चार यार मिल जाएं वहां रात हो गुलजार, मुझे नौ लख्खा मंगा दे  और लोग कहते हैं मैं शराबी हूं।
 1989 में आई जादूगर इस जोड़ी की सबसे बेकार फिल्म कही जा सकती है।
इनकी अन्य फिल्मों में ज्वालामुखी (1980) , मुकद्दर का फैसला (198।) , मुहब्बत के दुश्मन (1988), जादूगर (1989) , जिन्दगी एक जुआ (1992 ) चमेली की शादी आदि ।
वस्तुत: प्रकाश मेहराका सिनेमा मनोरंजन के सफल फ़ॉर्मूले का सिनेमा है । दर्शक आखिर क्या देखना पसंद करते है इस बात को प्रकाश मेहरा बखूबी समझते है । केवल अमिताभ बच्चन ही नहीं , शत्रुघ्न सिन्हा और विनोद खन्ना की प्रतिभा का भी प्रकाश मेहरा की फिल्मो में बेहतरीन उपयोग हुआ है। वह नायक को आम आदमी की संवेदनाओं से लैस तो रखते थे लेकिन उनका नायकत्व विशिष्ट होता था । और जब महान सा दिखने वाला नायक प्रतिरोधी शक्ति को हराता था तो तो दर्शक तालियाँ बजाने लगते थे। प्रकाश मेहरा कद्दावर किरदारों को तरजीह देते थे।  अमिताभ बच्चन और विनोद खन्ना बारम्बार उनकी फिल्मो के नायक इसलिए बनते रहे है। प्रकाश महरा समझते थे कि दर्शक फिल्मे महज दुखों को महसूस करने के लिए नहीं आते वरन फिल्मों की चमत्कृत कर सकने जैसी शक्ति को देखने आते है। दर्शक भावुकता के साथ-साथ साहस और पराक्रम का नाटक देखने आते हैं।
 प्रकाश मेहरा ऐसी कहानी कहने की कोशिश करते थे जो आम दर्शकों को अपनी सी लगे। शराबी का अंदर से दुखी किन्तु बाहर से हंसोड़ किरदार हो या मुक्कदर का सिकन्दर का साहसी किन्तु भीतर से टूटे दिल वाला सिंकदर या फिर लापरवाह लावारिस जिसके भीतर उपेक्षा के भाव का लावा उबलता रहता है ये सभी किरदार और अति नाटकीय प्रभाव दर्शकों के दिलो दिमाग को झकजोर कर रख देते थे। यही प्रकाश महरा के फिल्मों की सबसे बड़ी ताकत थी । एक मई 2009 को प्रकाश मेहरा का देहांत हो गया।

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हिंदी साहित्य के प्रारंभिक इतिहास : एक तुलनात्मक अध्ययन

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योगेश प्रताप शेखर दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं. प्रखर और मुखर वैचारिकता के साथ लिखते हैं. उनका यह लेख ‘तद्भव 37’ में प्रकाशित हुआ है जिसमें उन्होंने हिंदी साहित्य के आरंभिक इतिहास-लेखन के पीछे की राजनीति को टटोलने का प्रयास किया है. लेख बहुत रोचक शैली में लिखा गया है और विचारोत्तेजक भी है. आप भी पढ़िए. हिंदी साहित्य की आरंभिक राजनीति के बारे में बहुत सी जानकारियाँ हैं- मॉडरेटर

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    यह विचित्र किंतु सच है कि हिंदी साहित्य का पहला इतिहास एक फ्रांसीसी व्यक्ति गार्सा द तासी द्वारा फ्रांसीसी भाषा में लिखा गया | इस विचित्र सच की प्रक्रिया का विश्लेषण किया जाना जरूरी है | क्या इस सच का एक सिरा भारत जैसे देशों में इतिहास की अवधारणा से तो दूसरा सिरा उपनिवेशवाद से नहीं जुड़ता ? आखिर क्या वजह रही होगी कि एक व्यक्ति जो कभी भारत नहीं आया वह भारत की भाषाओं के साहित्य का इतिहास लिखे ? वह भी पेरिस में रह कर !  गार्सा द तासी ने ‘इस्त्वार द ल लितरेत्यूर ऐंदूई ऐ ऐंदूस्तानी’ किताब लिखी जो पहली बार दो भागों में क्रमश: 1839 ई. और 1847 ई. में प्रकाशित हुई | इस किताब का परिवर्धित संस्करण तीन भागों में 1871 ई. में छपा था | इस किताब पर विचार करने से पहले यूरोप खासकर अंग्रेजों की भारतीय भाषाओं और साहित्य में रुचि का जायजा लेना ठीक होगा |

     दरअसल वारेन हेस्टिंग्स(भारत में गवर्नर जनरल के रूप में 1772 ई. से 1785 ई. तक) के जमाने से भारत के अतीत के प्रति अंग्रेजों की दिलचस्पी शुरू हुई | ऐसा इसलिए था कि अंग्रेजों को यह लग रहा था कि बिना भारत को जाने यहाँ शासन करना संभव नहीं | इसी उद्देश्य ने इस पूरी परियोजना, जिसे ‘प्राच्यवाद( ORIENTALISM)’ कहा जाता है, को संचालित किया | चूँकि इस का उद्देश्य ही शासन की प्रभुता और नियंत्रण1 से जुड़ा था इसलिए इस परियोजना में उन्हीं बातों पर ध्यान दिया गया | पर ऐसा नहीं था कि यूरोप की भारत में रुचि की यह पहली स्थिति थी | आखिर कोलंबस और वास्कोडिगामा की भारत को खोजने की प्रक्रिया इस से पुरानी ही है | भारतीय भाषाओं और साहित्य में यूरोप की दिलचस्पी का इतिहास भी पुराना है | इटली के पादरी रॉबर्टो दि ऑबिलि ( Jesuit Roberto Di Obilii ) पहले यूरोपीय थे जिन्होंने संस्कृत पर अधिकार किया |2  यहाँ तक कि वे ब्राह्मणों की वेश-भूषा में भारत में रहते थे |3 ठीक इसी प्रकार फादर थॉमस स्टीवेंस( Father Thomas Stevens ) पहले अंग्रेज थे जो 1579 ई. में भारत में गोवा में आए | वे तीस साल यहाँ रहे | उन्होंने पुर्तगाली भाषा में कोंकणी का व्याकरण लिखा जो किसी भी भारतीय भाषा का किसी भी यूरोपीय जबान में लिखा पहला व्याकरण है |4  फादर पॉलिनस(Father Paulinus) 1774 ई. में भारत आए और 14 साल रहे | उन्होंने 1790 ई. और 1804 ई. में संस्कृत व्याकरण लिखे जो रोम में प्रकाशित हुए | फादर पॉलिनस ने संस्कृत के प्रसिद्ध कोश ‘अमरकोष’ का अनुवाद लैटिन में किया | इन्होंने पूरे यूरोप का ध्यान संस्कृत और भारतीय भाषाओं की तरफ खींचा |5  इन तथ्यों से स्पष्ट है कि भारतीय भाषा और साहित्य में यूरोप की रुचि बहुत पहले से चली आ रही थी |

     25 सितंबर 1783 ई. को विलियम जोन्स(1746 – 1794 ई.) नामक एक अंग्रेज कनिष्ठ न्यायाधीश( Pusine Judge Of The Supreme Court Of Judicature At Fort William In Bengal) के रूप में सालाना छह हजार पाउंड के वेतन6 पर कलकत्ता ( अब कोलकाता ) आए | विलियम जोन्स ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से पढ़े-लिखे थे | कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ही विलियम जोन्स की रुचि भारतीय और एशियाई भाषाओं में हो गई थी | विलियम जोन्स सही मायने में एक बहुभाषाविद थे | वे लगभग 28 भाषाएँ जानते थे | वे जब ‘क्रोकोडाइल(Crocodile)’  युद्ध-पोत से भारत आने की यात्रा कर रहे थे तब उन्होंने 12 जुलाई 1783 ई. को भारत आकर किए जाने वाले कामों की एक सूची बनाई | उन में एक काम एशियाई संगीत, कविता, वक्तृत्व और नैतिकता( Asiatic Music, Poetry, Rhetoric And Morality) की जानकारी एकत्र करना भी था |7 विलियम जोन्स के प्रयासों से 15 जनवरी 1784 ई. को ‘एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल’ की स्थापना हुई | सर रॉबर्ट चैंबर्स( Sir Robert Chambers) तीस सदस्यों की इस बैठक के अध्यक्ष थे | इस बैठक में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि ‘एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल’ के अध्यक्ष गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स हों | पर वारेन हेस्टिंग्स ने अपनी व्यस्तता की वजह से इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया | 5 फरवरी 1784 ई. को सदस्यों की फिर एक बैठक बुलाई गई जिस में वारेन हेस्टिंग्स की उक्त चिट्ठी पढ़ी गई और विलियम जोन्स को ‘सोसायटी’ का अध्यक्ष बनाया गया | यहाँ से बाकायदा भारत के अतीत की खोज शुरू होती है |

     विलियम जोन्स ने संस्कृत,लैटिन, ग्रीक, गॉथिक, केल्टिक और पुरानी फारसी भाषाओं को एक ही परिवार के होने की बात की | इस भाषा परिवार का नाम ‘भारोपीय भाषा परिवार’ रखा गया | इस के पीछे यह सिद्धांत काम कर रहा था कि दुनिया की सबसे महत्त्वपूर्ण नस्ल आर्यों की रही है और जिस की प्राचीनता भारत और एशिया में भी खोजी जा सकती है | विलियम जोन्स ने 2 फरवरी 1786 ई. को एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल की तीसरी वर्षगाँठ पर एक व्याख्यान कलकत्ता में दिया था | उसी व्याख्यान में उन्होंने इन भाषाओं के शब्दों की तुलना कर यह सिद्ध करने की कोशिश की थी कि ये भाषाएँ एक ही परिवार की हैं |8  हालाँकि यह भी ध्यान देने की बात है कि विलियम जोन्स के कलकत्ता आने से पहले भी भारतीय भाषाओं के साहित्य और व्याकरण का अध्ययन किया गया था | उदाहरण के लिए गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के करीबी नैथेनियल हॉलहेड(Nathaniel Halhed) ने 1778 ई. में बँगला भाषा का व्याकरण लिखा था | फ्रांसिस ग्लैडविन( Francis Gladwin) ने अंग्रेजी-फारसी शब्दकोश का निर्माण किया था जो मालदा से 1780 ई. में छपा था | ग्लैडविन एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल के संस्थापक सदस्यों में से एक थे | इन्होंने अबुल फज़ल की प्रसिद्ध किताब ‘आईन-ए-अकबरी’ का अनुवाद अंग्रेजी में दो भागों में किया था | एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल के एक दूसरे संस्थापक सदस्य चार्ल्स विलकिन्स( Charles Wilkins) ने गीता का अंग्रेजी में अनुवाद 1785 ई. में किया था | चार्ल्स विलकिन्स के दौर से ही पश्चिम ने भारत और इस की संस्कृति को महत्त्व देना शुरू किया | ओ. पी. केजरीवाल ने अपनी किताब ‘द एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल एंड द डिस्कवरी ऑफ इंडियाज पास्ट ( The Asiatic Society Of Bengal And The Discovery Of India’s Past)’  में यह बताया है कि पश्चिमी दुनिया की भारत में रुचि के तीन चरण हैं | पहला चरण जिस में बल भारत की विचित्रता और रहस्यमयता पर था | दूसरा चरण जिस में भारत को समझने में केवल कुछ निहित स्वार्थ शामिल थे | तीसरे चरण में भारत से कुछ सीखने के लिए भारत को जाना-समझा जाने लगा | इसी बीच विलियम जोन्स ने कालिदास के नाटक ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ का अपने द्वारा किए गए अनुवाद को  8 अक्टूबर 1789 ई. को प्रकाशित कराया | इस अनुवाद की समीक्षा प्रसिद्ध नारीवादी चिंतक मेरी वोल्सटनक्राफ्ट( Mary Wollstonecraft ) ने 1790 ई. में की | इस समीक्षा में उन्होंने ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ में व्याप्त सुकुमारता, सुरुचि की परिष्कृति और पवित्र नैतिकता को रेखांकित किया जिसे विलियम जोन्स हिंदू संस्कृति की प्रस्तुति में उभारना चाहते थे |9 इस ‘पवित्र नैतिकता’ को भी रेखांकित किया जाना चाहिए क्योंकि इस ने आधुनिक हिंदी साहित्य और मध्यकालीन हिंदी साहित्य के संबंध को प्रभावित किया | इसी नैतिकताबोध के कारण हिंदी के रीतिकाल का साहित्य उपेक्षित रहा |  यह सूचना भी रोचक है कि माइकल जे. फ्रैंकलिन ( Michael J. Franklin ) ने विलियम जोन्स पर लिखी अपनी किताब ‘ओरियंटलिस्ट जोन्स ( Orientalist Jones)’ में ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ के इस अनुवाद को महत्त्व देते हुए अध्याय का शीर्षक ही रखा है – यूरोप फाल्स इन लव विद शकुंतला ( Europe Falls In Love With Sakuntala) |  विलियम जोन्स ने इस से पहले फारसी का व्याकरण 1771 ई. में लिखा था जिस का फ्रांसीसी में अनुवाद गार्सा द तासी ने किया था | 1845 ई. में इस अनुवाद का दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ था |

     1798 ई. में लॉर्ड वेलेजली भारत के गवर्नर जनरल बने | उन्हें यह बात शिद्दत से महसूस हुई कि कर्मचारियों की शिक्षा, योग्यता और अनुशासन का कोई प्रबंध नहीं है | बहुत कम आयु में ही इंगलैंड से कर्मचारी भारत भेज दिए जाते थे | भारत आने पर उन्हें ऐसे देश के शासन में व्यस्त कर दिया जाता था जहाँ की भाषिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विशेषताओं से वे बिलकुल ही अपरिचित रहते थे | इसलिए अंग्रेज कर्मचारियों की शिक्षा के लिए एक कॉलेज खोलने का निर्णय लिया गया | लॉर्ड वेलेजली से पहले 1783 ई. में जॉन बौर्थविक गिलक्राइस्ट ( 1759 – 1841 ई. ) ईस्ट इंडिया कंपनी में सहायक सर्जन हो कर भारत आए |  यों तो राजनीतिक कारणों से कंपनी 1837 ई. तक फारसी का इस्तेमाल राज-काज के लिए करती रही | पर गिलक्राइस्ट को लगा कि अब देश की परिस्थिति बदल गई है और फारसी का प्रचलन घट गया है | दिल्ली के दरबार में भी फारसी का प्रयोग कम गया था और उस की जगह हिंदुस्तानी का प्रचलन हो गया था | इस कारण उन्होंने हिन्दुस्तानी सीखना शुरू कर दिया | इतना ही नहीं 4 जून 1787 ई. को उन्होंने कलकत्ते के  तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड कार्नवालिस को एक चिट्ठी लिखी | इस पत्र में उन्होंने लिखा था कि “ इन पिछले तीन वर्ष से मैं जिस ग्रंथ ( इंग्लिश—हिंदुस्तानी डिक्शनरी) की रचना करने में लगा हुआ था उस के प्रथम भाग की पांडुलिपि समाप्त हो गई है | आप की आज्ञा से अब मैं दूसरे और तीसरे भागों की रचना करना चाहता हूँ | … अपने अध्ययन की सुविधा और कार्य में सहायता मिलने की दृष्टि से मैं श्रीमान् से बनारस की जमींदारी में, और आवश्यकता हुई तो सूबा अवध में, जाने की आज्ञा चाहता हूँ | मुझे पूर्ण आशा है कि सरकार की जैसी कृपा-दृष्टि अब तक मुझ पर बनी रही है वैसी ही इस कार्य के समाप्त होने तक बनी रहेगी | इससे न केवल मुझे वरन् साधारण रूप से सब को लाभ पहुँचेगा | इस देश में इतने बड़े ग्रंथ की छपाई में व्यय अधिक होने की आशंका से आर्थिक लाभ होने की कम संभावना है | इसलिए साथ ही मैं श्रीमान् से यह प्रार्थना करने का लोभ संवरण नहीं कर सकता कि मुझे वहाँ नील की खेती करने की आज्ञा दी जाए |  वेस्टइंडीज में कुछ वर्ष रहने से मैं यह काम अच्छी तरह जानता हूँ और पूर्ण आशा है कि मैं अपना पारिश्रमिक उससे निकाल लूँगा; विशेष रूप से यदि सौभाग्यवश श्रीमान् की यह सम्मति हो कि इस देश में नील की खेती से ऑनरेबुल कंपनी को अंत में अत्यधिक लाभ पहुँचेगा | मैं मन, वचन और कर्म से वर्तमान शासन की दीर्घायु और अपने ऊपर उसकी छाया की सदैव कामना करता रहूँगा | अब मैं अत्यंत विनम्रता के साथ यह प्रार्थना करने का साहस करता हूँ और आशा करता हूँ कि श्रीमान् और बोर्ड इसे स्वीकार करेंगे |” 10  बाद में गिलक्राइस्ट ने अफीम की खेती भी करने लगे | इस से यह पता चलता है कि उपनिवेशवादी दौर में ज्ञान और संसाधनों पर किस प्रकार वर्चस्व कायम किया जा रहा था | नील और अफीम की खेती ने भारत की पारंपरिक खेती की रीढ़ ही तोड़ दी थी | गिलक्राइस्ट धीरे-धीरे अपनी परियोजना में आगे बढ़ते हुए हिंदुस्तानी को कंपनी के लिए फायदेमंद सिद्ध कर पाए |

     लॉर्ड वेलेजली ने गिलक्राइस्ट के प्रयासों की सराहना की और यह व्यवस्था की कि कर्मचारी भारत आएँ तो साल भर गिलक्राइस्ट के पास हिंदुस्तानी और फारसी सीखें | कलकत्ते के राइटर्स बिल्डिंग का एक कमरा भी इस काम के लिए गिलक्राइस्ट को दे दिया गया | लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय ने अपनी किताब ‘फोर्ट विलियम कॉलेज’ में यह बताया है कि वेलेजली ने 21 दिसंबर 1798 ई. को एक सरकारी सूचना निकाली जिस के अनुसार बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन की सफलता के लिए यह जरूरी है कि आगे उत्तरदायित्व के पदों पर वैसे ही लोग नियुक्त हों जिन्हें देश की एक या उस से अधिक भाषाएँ आती हों | इतना ही नहीं अलग-अलग जगहों पर न्याय, माल और व्यापार विभागों के लिए अलग-अलग भाषाओं का ज्ञान जरूरी समझा गया | जैसे, बंगाल, बिहार, उड़ीसा या बनारस में न्याय-विभाग के अफसरों के लिए हिंदुस्तानी और फारसी भाषाएँ, बंगाल या उड़ीसा प्रांत के मालगुजारी इकट्ठा करनेवालों कलक्टरों, या चुंगी के या व्यापार के, या नमक के एजेंटों के लिए बँगला भाषा और बनारस या बिहार प्रांत में मालगुजारी इकट्ठा करनेवालों कलक्टरों, या चुंगी के या व्यापार के, या अफीम के एजेंटों के लिए हिंदुस्तानी भाषा |11  जाहिर है कि ऐसी परिस्थिति में बड़े पैमाने पर भारतीय भाषाओं को सिखाने की व्यवस्था करनी पड़ती | इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर वेलेजली ने एक कॉलेज खोलने का निर्णय कर लिया |

     फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना 1800 ई. में हुई | इस की स्थापना में ईस्ट इंडिया कंपनी के हितों और यश के संरक्षण का भाव छुपा था | जूनियर सिविल कर्मचारियों को ब्रिटिश राज्य के सुशासन के लिए साहित्य, विज्ञान और ज्ञान की उचित शिक्षा के लिए इस कॉलेज की स्थापना हुई | इस में हिंदुस्तानी भाषा विभाग भी स्थापित किया गया जिस के अध्यक्ष गिलक्राइस्ट थे | यहाँ एक बात स्मरणीय है कि भले भारत या पूर्वी ज्ञान की जानकारी देना कॉलेज का उद्देश्य था पर कर्मचारियों और प्रोफेसरों को ईसाइयत तथा ब्रिटिश संविधान के प्रति निष्ठावान बने रहने की कसम भी खानी पड़ती थी | ईसाई धर्म, इंगलैंड के चर्च, ब्रिटिश संविधान और कॉलेज के परिनियमों के खिलाफ निजी या सामाजिक तौर पर विरोध नहीं करने की शर्त भी उक्त कसम में शामिल थी |12  इस कॉलेज से ही हिंदी और उर्दू का विवाद भी शुरू हुआ | कहीं-न-कहीं यहीं से यह बात निकली कि हिंदी हिंदुओं की भाषा है और उर्दू या हिंदुस्तानी मुसलमानों की भाषा है |13 यही कारण है कि इन दोनों भाषाओं में अलग-अलग पाठ्य-पुस्तकें तैयार कराई गईं | इन पुस्तकों के निर्माताओं को ‘मुंशी’ या ‘पंडित’ कहा गया | उदाहरण के लिए ‘भाखा मुंशी’ के रूप में लल्लूलाल की नियुक्ति हुई तो मीर अम्मन को उर्दू में किताबें तैयार करने को कहा गया | इस से पहले दो भाषाओं की बात नहीं थी |  और न ही यह था कि हिंदी हिंदुओं की भाषा है और उर्दू मुसलमानों की | यहीं से उर्दू गद्य और खड़ी बोली हिंदी गद्य की शुरुआत होती है | हिंदी और उर्दू के बीच यह भेद किस प्रकार पैदा हुआ और इस की क्या जटिलताएँ रहीं इसे पाकिस्तान के प्रोफेसर तारिक़ रहमान (Tariq Rahman) की महत्त्वपूर्ण किताब ‘फ्रॉम हिंदी टू उर्दू अ सोशल एंड पॉलिटिकल हिस्ट्री   ( From Hindi To Urdu A Social And Political History) में विस्तार से देखा जा सकता है | प्रोफेसर तारिक़ ने यह लक्षित किया है कि किस प्रकार इन दोनों भाषाओं की पहचान बनाई गई ? किस तरह से इन दोनों भाषाओं के मानक तय किए गए ? इसी से एक सांप्रदायिक राजनीति की शुरुआत भी भारत में हुई |14

     उपर्युक्त संक्षिप्त विवरण से यह स्पष्ट हो गया होगा कि गार्सा द तासी के ‘इतिहास-लेखन’ के पहले की परिस्थितियाँ क्या थीं ? इन परिस्थितियों का असर गार्सा द तासी के लेखन पर दिखता है | गार्सा द तासी ( 1794 – 1878 ई.) का पूरा नाम जाजेफ एलीदोर साजेस्स वैर्त्यू गार्सा द तासी था | गार्सा उन के पिता का और तासी उन की माँ का उपनाम था | बीस साल की उम्र में उन्होंने बोलचाल की अरबी एक मिस्रदेशीय गैबराइल और रैफलद मोनाची से सीख ली |15 बाद में फारसी और तुर्की भी पढ़ी | वे 1817 ई. में पेरिस आते हैं और प्रसिद्ध ‘प्राच्यविद’(Orientalist) सिलवेत्र द सेसी      ( Silvestre De Sacy) के निर्देशन में अरबी, फारसी और तुर्की पढ़ते हैं | 1822 ई. में पेरिस में ‘सोसायती एशियातिक’ की स्थापना भी होती है और वहीं से एक पत्रिका ‘जर्नल एशियातिक’(Journal Asiatique)  भी निकलनी शुरू होती है | तासी इस संस्था के संस्थापक सदस्य बनते हैं और फिर सहायक सचिव और पुस्तकालयाध्यक्ष भी | बहुत बाद में यानी 1876 ई. में तासी इस के अध्यक्ष (President) भी बनते हैं | 1822 ई. में ही तासी ‘कॉलेज डे फ्रांस’ में  अपने गुरु सिलवेत्र द सेसी के कार्यालय में सचिव की हैसियत से काम करने लगे | सिलवेत्र द सेसी ने उन्हें हिंदुस्तानी सीखने के लिए प्रेरित किया | हिंदुस्तानी यूरोप में उर्दू का एक दूसरा नाम था |16  तासी ने अपने गुरु की सलाह मानकर स्वाध्याय कर यह भाषा सीख ली | सिलवेत्र द सेसी हिंदुस्तानी के महत्त्व से परिचित थे इसलिए उन्होंने तासी के काम को सुचारु रूप से चलाने के लिए फ्रांसीसी सरकार को एक याचिका दी जिस में यह माँग की गई थी कि फ्रांस में हिंदुस्तानी पढ़ाने के लिए एक ‘चेयर’ की स्थापना हो | पर पी. एल. डु. चौमे ( P. L. Du. Chaume) नामक एक व्यक्ति ने इस का विरोध किया | 1828 ई. में उन्होंने एक पत्र एक पत्रिका के संपादक को लिखा | इसे उन्होंने अलग से ‘पम्फलेट ( Pamphlet)’ के रूप में भी वितरित किया था | इस में उन्होंने ‘हिंदुस्तानी’ नाम पर ही आपत्ति दर्ज की थी | उन का कहना था कि ‘हिंदुस्तानी’ का मतलब ‘हिंदुस्तान की भाषाएँ’ होता है | उन्होंने तीन प्रकार की ‘हिंदुस्तानी’ की चर्चा की | पहले को उन्होंने ‘हिंदी’, ‘उर्दू जबान’ और ‘रेख्ता’ कहा जो ‘अरबी अक्षरों’ ( Arabi Character) में लिखी जाती है | दूसरी को उन्होंने ‘हिंदवी’ कहा जो नागरी अक्षरों में लिखी जाती है और जिस में अरबी-फारसी के बदले भारतीय शब्दों का इस्तेमाल होता है | तीसरी को उन्होंने ‘मूर और मौर’ कहा जो यूरोपियों के द्वारा बंबई ( अब मुंबई ) एवं कलकत्ता (अब कोलकाता ) में अपने नौकरों को समझाने के लिए बोली जाती है | चौमे ने अत्यंत सरलीकरण करते हुए हिंदवी के साहित्य को संस्कृत साहित्य का अनुवाद और हिंदुस्तानी के साहित्य को अरबी-फारसी के साहित्य का अनुवाद बताया |17  उन्होंने भी हिंदुस्तानी को मुसलमानों की भाषा करार दिया | उन्होंने एक और तर्क प्रस्तुत किया कि ब्रिटिश लोगों ने इसे इसलिए सीखा कि उन के प्रशासनिक कर्मचारी ज्यादातर मुसलमान थे | इन सब तर्कों के बाद भी 29 मई 1828 ई. को हिंदुस्तानी का ‘चेयर’ बना और गार्सा द तासी उस के पहले पदाधिकारी नियुक्त हुए |

     1829 ई. में तासी ने Rudimens de la Langue Hindoustanie लिखा | यह हिंदुस्तानी का व्याकरण था | उनके कोर्स को काफी लोकप्रियता मिली और 1830 ई. में उन का पद स्थायी कर दिया गया | यहाँ हिंदुस्तानी का अर्थ उर्दू है क्योंकि बाद में उन्होंने हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में रुचि ली | उन का यह ‘चेयर’ भी उर्दू के लिए ही बना था | 1847 ई. में तासी ने  Rudimens de la Langue Hindouie लिखा जो हिंदी का व्याकरण था | इन सब के साथ-साथ तासी 1850 ई. से 1877 ई. तक ( बीच में 1857 ई. में विद्रोह के कारण एक साल छोड़कर ) लगातार हर साल उर्दू भाषा और साहित्य पर व्याख्यान देते रहे | इस में साल भर में उर्दू भाषा और साहित्य की हुई प्रगति का जायजा और महत्त्वपूर्ण साहित्यिकों की मृत्यु का समाचार रहता था | लगभग 100 पृष्ठों का एक भाषण होता था | यह प्राय: शोध-आलेख के रूप में लिखा होता था |

     गार्सा द तासी का ‘इतिहास’  ‘इस्त्वार द ल लितरेत्यूर ऐंदूई ऐ ऐंदूस्तानी’ ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैंड की कमिटी ऑफ ओरियंटल ट्रांसलेशंस की सहायता से प्रकाशित हुआ था | 1828 ई. में लंदन में ओरियंटल ट्रांसलेशंस फंड की स्थापना हुई थी | इसी फंड से इस किताब के प्रकाशन में सहायता मिली | इस की छपाई पेरिस के सरकारी प्रेस में हुई थी | यद्यपि इस कमिटी के नियम इस के प्रकाशन के अनुकूल नहीं थे पर सर गोर आउजले ने इन नियमों के बावजूद इसका प्रकाशन कराया |18  यही कारण है कि पेरिस में लिखे जाने के बाद भी यह ग्रंथ इंगलैंड की महारानी विक्टोरिया को समर्पित है | महारानी विक्टोरिया की खुद दिलचस्पी हिंदुस्तानी में थी | बाद में उन्होंने अपने लिए मुंशी अब्दुल करीम को भारतीय शिक्षक के रूप में नियुक्त किया था | तासी इस समर्पण में लिखते हैं  :

                                  ग्रेट ब्रिटेन की सम्राज्ञी को

देवि,

यह नितांत स्वाभाविक ही है कि मैं सम्राज्ञी से एक ऐसा ग्रंथ समर्पित करने का सम्मान प्राप्त करने की प्रार्थना करूँ जिसका संबंध भारतवर्ष, आपके राजदंड के अंतर्गत आए हुए इस विस्तृत और सुंदर देश, और जो इतना खुशहाल कभी नहीं था जितना कि वह इंगलैंड के आश्रित होने पर है, के साहित्य के एक भाग से है | यह तथ्य सर्वमान्य है; और, इसके अतिरिक्त, हिंदुस्तानी-लेखक इस बात का प्रमाण देते हैं : जिस ब्रिटिश शासन के अंतर्गत न तो लूट का भय है और न ही देशी सरकारों का अत्याचार है, उसका उनकी रचनाओं में यश-गान हुआ है |

हिन्दुस्तान के प्राचीन शासकों में, एक महिला ही थी जिसने अपने व्यक्तिगत गुणों के कारण ही संभवत: अत्यधिक ख्याति प्राप्त कर ली थी | कृपालु सम्राज्ञी की भाँति गुणों से विभूषित राजकुमारी के मंगल सिंहासनारूढ़ होने का समाचार सुनकर, देशवासियों को अपनी प्रिय सुल्ताना रज़िया का स्मरण करना पड़ा | वास्तव में, विक्टोरिया रानी में उन्होंने रज़िया का तारुण्य और उसके अलभ्य गुण फिर पाए हैं; और केवल यही बात उनका उस देश के साथ संबंध और भी दृढ़ बना सकती है जिसके उनका अधीन होना ईश्वरेच्छा थी |

     मैं हूँ, अत्यधिक आदर सहित,

     देवि,

     सम्राज्ञी,

     अत्यंत तुच्छ और अत्यंत आज्ञाकारी दास,

     पेरिस, 15 अप्रैल 1839                                                                  गार्सा द तासी19  

     तासी के इस समर्पण का विश्लेषण किया जाए तो यह पता चलता है कि वे औपनिवेशिक मानसिकता से बहुत गहराई तक प्रभावित थे | उन का यह कहना कि भारत इंगलैंड के आश्रित होने के पहले कभी उतना खुशहाल नहीं था, आज सही नहीं लगता है | एक-दो तथ्य ही पर्याप्त होंगे | अंग्रेजी राज में भारत को ज्ञान, इतिहास, शासन-व्यवस्था के पैमाने पर सदा हीन साबित करने का प्रयास होता रहा | संसाधनों पर कब्जा जमाने की कोशिशें बढ़ती गईं | देश के उद्योग और शिल्प को नष्ट किया गया | इतना ही नहीं देश को केवल खेती पर निर्भर बनाने का प्रयास किया जाने लगा | तासी के ‘इतिहास’ के प्रकाशन के एक साल बाद यानी 1840 ई. में माटगोमरी मार्टिन ने संसदीय जाँच समिति की रिपोर्ट प्रस्तुत की | इस में उन्होंने कहा था कि “ मैं यह नहीं मानता कि भारत एक कृषि प्रधान देश है | भारत जितना कृषि प्रधान देश है, उतना उद्योग प्रधान भी है, और जो उसे कृषि प्रधान देश की स्थिति तक लाना चाहते हैं, वे सभ्यता के पैमाने पर उसका स्थान नीचे लाने की कोशिश करते हैं |”20  अंग्रेजों के शासन के पहले पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी 23 प्रतिशत की थी और अंग्रेजों के जाने के बाद यह मात्र 3 प्रतिशत रह गई |21 इसी तरह यह बात भी  समझ में नहीं आती कि 1839 ई. में हिंदी या उर्दू के ऐसे कौन-से लेखक थे जो अपनी रचनाओं में ब्रिटिश शासन का गुणगान कर रहे थे | हिंदी में कालक्रम के अनुसार उस समय ‘रीतिकाल’ चल रहा था | उस के अंतिम दौर के कवि पद्माकर( 1753 – 1833 ई.) का एक छंद मिलता है जिस में ग्वालियर के राजा दौलतराव सिंधिया से ‘फिरंगियों’ को भगाने का निवेदन या कहना चाहिए ललकार है | पद्माकर लिखते हैं :

     मीनागढ़ मुंबई सुमंद करि मंदराज बंदर कों बंद करि बंदर बसावैगो |

     कहै पद्माकर कटाकै कासमीरहू को पिंजर सो घेरिकै कलिंजर छुड़ावैगो |

     बाँका नृप दौलत अलीजा महाराज कबौं साजि दल दपटि फिरंगिन दबावैगो |

     दिल्ली दहपट्टि, पटनाहू कों झपट्टि करि कबहुँक लत्ता कलकत्ता को उड़ावैगो |22

ठीक इसी प्रकार उर्दू साहित्य में भी अंग्रेजी राज की तारीफ़ में उस समय कुछ भी नहीं मिलता | तासी एक बात और कहते हैं कि भारत की गुलामी ईश्वर की इच्छा थी | इस से यह भी ध्वनित होता है कि वे भारत में प्रचलित नियतिवाद  ( जिस के अनुसार सब कुछ पहले से तय होता है | संसार में जो भी घटित होता है वह ईश्वर की इच्छा का परिणाम      है | ) का सहारा अंग्रेजी राज को मजबूत करने में ले रहे हैं |  अपने-आप को वे महारानी विक्टोरिया का अत्यंत तुच्छ एवं आज्ञाकारी दास कहते हैं | इस से उनकी राजभक्ति साफ-साफ दिखाई पड़ रही है | राजभक्ति का यह रूप गिलक्राइस्ट द्वारा लॉर्ड कार्नवालिस को लिखे पत्र, जिस की चर्चा ऊपर आई है, में भी दिखता है |  इन उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि औपनिवेशिक शासन में सत्ता को बरकरार रखने की कोशिश ज्ञान की पूरी प्रक्रिया में रही है | अतः यह कहा जा सकता है कि तासी के ‘इतिहास’ का यह समर्पण औपनिवेशिक मानसिकता से न केवल ग्रस्त है बल्कि उसे पुष्ट करने की भी कोशिश कर रहा है |

     तासी के ‘इतिहास’ में एक विचारणीय बात यह दिखती है कि उन्होंने ‘हिंदी’, ‘हिंदुई’ और ‘हिंदुस्तानी’ में अंतर किया है | प्रथम संस्करण ( 1839 ई. ) की पहली जिल्द की भूमिका में वे लिखते हैं कि “ भारत के प्राचीन साम्राज्य में जिसका विकास हुआ उसे सामान्यत: ‘भाषा’ या ‘भाखा’ और विशेषत: ‘हिंदवी’ या ‘हिंदुई’ ( हिंदुओं की भाषा – langue de Hindous23 ) के नाम से पुकारा जाता है |”24 तासी भी इसी मान्यता को मानते हैं कि हिंदुस्तानी लिखने के लिए फारसी अक्षरों का प्रयोग किया जाता है और हिंदू लोग अपने पूर्वजों की तरह देवनागरी अक्षरों का इस्तेमाल करते हैं | वे दूसरे संस्करण की पहली जिल्द की भूमिका में अपनी इस धारणा को और पुष्ट करते हैं | वे लिखते हैं कि “ यद्यपि शब्दों के चुनाव में हिंदी और उर्दू एक दूसरे से भिन्न हैं, वे वास्तव में, उचित बात तो यह है कि अपनी-अपनी वाक्य रचना-पद्धति के अंतर्गत आंशिक दृष्टि से विभिन्न तत्त्वों से निर्मित, एक ही भाषा हैं, भाषा जिसे यूरोपियनों ने सामान्य नाम ‘हिंदुस्तानी’ दिया है, जिसके अंतर्गत वे हिंदुई और हिंदी, उर्दू और दक्खिनी को शामिल करते हैं; किंतु यह नाम भारतवासियों ने स्वीकार नहीं किया, क्योंकि वे देवनागरी, या अधिकतर नागरी में लिखित हिंदू बोली को ‘हिंदी’ शब्द से, और फारसी अक्षरों में लिखित, मुसलमानी बोली को, ‘उर्दू’ नाम से अलग-अलग करना अधिक पसंद करते हैं | अब तो स्वयं यूरोपियन बड़ी खुशी से इन दो नामों का प्रयोग करते हैं |”25 इसी भूमिका में तासी आगे लिखते हैं कि “ 1831 में, लोगों के हित के लिए, विभिन्न प्रांतों की सामान्य भाषाओं को स्थान दिया, और स्वभावतः उर्दू उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम प्रांतों के लिए अपना ली गई | यह सुंदर कार्य सबको पसंद आया, और अगले तीस वर्षों तक इस व्यवस्था को पूर्ण सफलता मिली है तथा कोई शिकायत सुनने में नहीं आई; किंतु इन पिछले वर्षों में भारत में प्राचीन जातियों से संबंधित वही आंदोलन उठ खड़ा हुआ है जिसने यूरोप को आंदोलित कर रखा है, अब मुसलमानों के अधीन न होने के कारण हिंदुओं में एक प्रतिक्रिया उत्पन्न हो गई है, अपने हाथ में शक्ति न ले सकने के बाद, वे कम-से-कम मुसलमानों की दासता के समय की अरुचिकर बातें दूर कर देना और स्वयं उर्दू को ही अवरुद्ध कर देना चाहते हैं, अथवा केवल उचित रूप में रखते हुए फ़ारसी अक्षरों को जिसमें वह लिखी जाती है, जिन्हें वे मुसलमानों की छाप समझते हैं | अपनी इस प्रतिक्रियावादी अजीब बात के पक्ष में वे जो तर्क प्रस्तुत करते हैं वे बिल्कुल स्वीकार करने के योग्य नहीं हैं | बिना इस बात की ओर ध्यान दिए हुए कि जब कि हिंदी जिसे वे राष्ट्रीयता की संकीर्ण भावना से प्रेरित हो पुनर्जीवित करना चाहते हैं, अब साहित्यिक दृष्टि से लगभग लिखी ही नहीं जाती, जो हर एक गाँव में, वस्तुतः प्रदेश के लोगों की तरह, बदल जाती है, जब कि उर्दू का सुंदर काव्यात्मक रचनाओं द्वारा रूप स्थिर हो चुका है, वे कहते हैं कि देश की  (अर्थात् गाँवों की ) भाषा हिंदी है, न कि उर्दू | … स्पष्टत: यह जातिगत और धर्मगत विरोध है, यद्यपि दोनों में से कोई यह बात स्वीकार करने के लिए राजी नहीं है | यह बहुदेववाद का एकेश्वरवाद के विरुद्ध, वेदों का बाइबिल जिसके अंतर्गत मुसलमान आ जाते हैं, के विरुद्ध संघर्ष है |”26  इस लंबे उद्धरण पर ठहरकर विचार करने की जरूरत है | तासी भाषा के विवाद को पहले धर्म तक ले जाते हैं और फिर उसे नस्ल तक | साहित्यिक धरातल पर ऐसा था ही नहीं कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है और हिंदी हिंदुओं की | अगर ऐसा होता तो 1830 ई. में गुज़र गए नजीर अकबराबादी ने कृष्ण पर कविता नहीं लिखी होती | जहाँ तक लिपि की बात है तो हिंदी का बहुत सारा मध्यकालीन साहित्य नागरी लिपि के साथ-साथ फारसी लिपि में भी पाया जाता है | उदाहरण के लिए ‘रामचरितमानस’ और घनानंद की कृतियाँ | ‘बिहारी सतसई’ के बारे में भी यही बात है | इतना ही नहीं तासी के बाद इतिहास ग्रंथों में जिसकी गिनती होती है यानी ‘शिवसिंह सरोज’ के प्रथम संस्करण में किताब का नाम फारसी लिपि में भी है | साहित्य की इन परिस्थितियों में भाषा और लिपि को निर्णयात्मक रूप से हिंदू या मुसलमान घोषित करना संभव ही नहीं है | ‘फूट डालो, राज करो’ की मानसिकता इस के पीछे जिम्मेदार है | उक्त उद्धरण की अंतिम पंक्ति नस्लीय टिप्पणी के साथ-साथ यह प्रस्तावित करती है कि चूँकि मुसलमान और ईसाई एकेश्वरवाद को मानते हैं इसलिए हिंदुओं का विरोध दरअसल अपने बहुदेववाद से प्रेरित है | यह बात समझने की है कि भारत में बहुभाषिकता के साथ-साथ बहु-लिपिकता भी रही है | ऐसा नहीं होता तो दक्षिण में संस्कृत साहित्य वहाँ की स्थानीय भाषाओं की लिपियों में नहीं पाया जाता |

      तासी के ‘इतिहास’ की एक प्रमुख विशेषता यह है कि उन्होंने कवयित्रियों पर अलग से विचार किया है | इस के लिए वे अवश्य प्रशंसा के पात्र हैं | उन्होंने 1854 ई. में ‘भारत की महिला कवयित्रियाँ’ शीर्षक लेख भी लिखा था | उनकी इस सूची में कई अलक्षित कवयित्रियाँ हैं | उन्होंने कई कवयित्रियों के उपनाम यानी तखल्लुस का विवेचन किया है | इन सब के साथ उन्होंने भारत में प्रचलित लोक गायन या कविता की लोक प्रसिद्ध शैलियों की भी चर्चा की है | इस का विवेचन भी उन के ‘इतिहास’ में सुंदर बन पड़ा है |

      तासी के इस ‘इतिहास’ में काल-विभाजन पर भी विचार है | इस में भी वे यह तर्क देते हैं कि हिंदुई लेखकों का समय निश्चित नहीं है | उन्होंने कहा है कि यदि काल-क्रम वाली पद्धति अपनाई जाती तो अनेक विभाग करने पड़ते | ऐसा इसलिए कि सबसे पहले वे लेखक आते जिनका काल अच्छी तरह ज्ञात है | फिर जिनका काल संदेहास्पद है वे और अंत में जिनका अज्ञात है वे लेखक शामिल होते | इसलिए तासी हिंदू कवि, हिंदुस्तानी कवि और दक्खिन के लेखकों का काल-क्रम बनाते हैं | यह तीन प्रकार का वर्गीकरण शताब्दी के आधार पर भी है | तासी फिर लिखते हैं कि “ अब हमें इन लेखकों के वर्ग निर्धारित कर लेने चाहिए | सर्वप्रथम स्थापित होनेवाली विभिन्नता, जो अत्यंत स्वाभाविक प्रतीत होती है, उन्हें हिंदुओं और मुसलमानों में अलग-अलग करना है, तो भी ऐसा करते समय यह देखने को मिलेगा कि किसी भी मुसलमान ने हिंदुई या हिंदी बोली में नहीं लिखा, जब कि बहुत – से हिंदुओं ने चाहे उर्दू, चाहे दक्खिनी में लिखा है; साथ ही उन्होंने बहुत पहले से फारसी में लिखा था, जैसा कि सैयद अहमद ने भी उस उद्धरण में कहा है जो मैंने उनके ‘आसार उस्सानादीद’ से दिया है | किंतु जब कि मेरे द्वारा उल्लिखित तीन हजार भारतीय लेखकों में से दो हजार दो सौ से अधिक मुसलमान लेखक हैं; तो हिंदू लेखक आठ सौ हैं, और इन पिछलों में भी केवल दो सौ पचास के लगभग हैं जिन्होंने हिंदी में लिखा है |”27 आश्चर्य होता है कि अपने ‘इतिहास’ में खुद तासी ने अमीर खुसरो, जायसी, नवाज आदि अनेक लेखकों का जिक्र किया है जो मुसलमान हो कर ‘हिंदुई’ में लिखते हैं | तब उन्होंने ऊपर के उद्धरण में यह कैसे लिखा कि किसी भी मुसलमान ने हिंदुई या हिंदी बोली में नहीं लिखा ? इस से यह भी प्रमाणित होता है कि तासी की दृष्टि एकांगी थी | पर औपनिवेशिकता से प्रभावित उन की दृष्टि ने तथ्यों की प्रस्तुति में भी न्याय नहीं किया है | उन पर हावी औपनिवेशिक मानसिकता उन के ‘इतिहास’ के अनुवादक लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय पर भी शायद हावी रही कि उन्होंने केवल हिंदी के लेखकों से संबद्ध हिस्से का अनुवाद हिंदी में किया | गार्सा द तासी का यह महत्त्वपूर्ण ‘इतिहास’ आज तक हिंदी और अंग्रेजी में संपूर्ण अनुवाद की राह देख रहा है | अगर इसे केवल संग्रह ग्रंथ भी माना जाए तब भी इस में ‘साहित्य के इतिहास’ के लिए भरपूर सामग्री है |

     गार्सा द तासी के ‘इतिहास’ के बाद प्राय: शिवसिंह सेंगर की लिखी किताब ‘शिवसिंह सरोज’ की चर्चा हिंदी साहित्य के इतिहास के ग्रंथ के रूप में होती है | पर भारतेंदु हरिश्चंद्र के फुफेरे भाई बाबू राधाकृष्ण दास ने 1901 ई. में नागरीप्रचारिणी सभा, बनारस की पत्रिका ‘नागरीप्रचारिणी पत्रिका’ में एक लेख लिखा था | इस लेख में उन्होंने 1873 ई. में प्रकाशित एवं पंडित महेशदत्त शुक्ल रचित ‘भाषा काव्य-संग्रह’ की सूचना दी | इस लेख में बाबू राधाकृष्ण दास ने यह लिखा था कि “ इसमें संग्रह – कर्ता ने पहले कुछ प्राचीन कवियों की कविता संग्रह की है, फिर उन्हीं कवियों का जीवनचरित्र तथा समय आदि संक्षेप से दिया है और अंत में कठिन शब्दों का कोष दिया है | कवियों का समय – निर्णय इस ग्रंथ में जैसा किया है वैसा कहीं देखने में नहीं आता, विशेष कर अवध प्रांत के कवियों का समय – निर्णय बहुत ही निश्चय के साथ किया है | यदि इसमें दिया समय ठीक हो ( जिसके ठीक न मानने का कारण हमें नहीं दिखाई पड़ता ), तो बहुत से कवियों के समय – निर्णय का मार्ग अत्यंत परिष्कृत हो जाता है |”28  रामकुमार वर्मा ने अपनी किताब ‘हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ में महेशदत्त शुक्ल का जिक्र किया है | महेशदत्त शुक्ल की यह पुस्तक नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ से छपी थी | इस की सूचना नवलकिशोर प्रेस पर अलराइक स्टार्क ( Ulrike Stark ) के अत्यंत परिश्रमपूर्ण शोध ‘ऐन अंपायर ऑफ बुक्स द नवल किशोर प्रेस एंड द डिफ्यूजन ऑफ द प्रिंटेड वर्ल्ड इन कोलोनियल इंडिया’ ( An Empire Of Books The Naval Kishore Press And The Diffusion Of The Printed World In Colonial India) से भी मिलती है | हालाँकि इस किताब में महेशदत्त शुक्ल की उक्त किताब का प्रकाशन वर्ष 1874 ई. दिया गया    है |29 अफसोस है कि महेशदत्त शुक्ल की यह किताब अभी तक देखने में नहीं आई |

     ऊपर यह कहा जा चुका है कि गार्सा द तासी के ‘इतिहास’ के बाद ‘शिवसिंह सरोज’ को हिंदी साहित्य का इतिहास माना जाता है | इस किताब का पहला संस्करण 1878 ई. में प्रकाशित हुआ और 1883 ई. तक इस का तीसरा संस्करण छापना पड़ा | 1926 ई. में इसका सातवाँ संस्करण प्रकाशित हुआ | इस से इस किताब की लोकप्रियता का अंदाज लगाया जा सकता है | इस की भूमिका में शिवसिंह सेंगर ने लिखा है कि “ हमने सोचा कि अब कोई ग्रंथ ऐसा बनाया चाहिए जिसमें प्राचीन औ नवीन कवि लोगों के जीवन – चरित्र सहित सन् संवत् औ जाति औ निवास औ कबिताई के ग्रंथों समेत विस्तारपूर्वक होवैं | … पहिले हम सोचे हुए थे कि एक छोटी – सी संग्रह बनावैंगे पर धीरे – धीरे ऐसा भारी ग्रंथ हुवा कि १००० कवि लोगों के नाम सहित जीवन – चरित्र इकट्ठा हो गए, जिनमें ८३६ की कविता हमने इस ग्रंथ में लिखी और विस्तार के भय से केवल इतने ही कवि लोगों की कविता पर लिखने पर ग्रंथ को समाप्त कर दिया | हमको इस बात के प्रगट करने में कुछ संदेह नहीं है कि ऐसी संग्रह कोई आज तक नहीं रची गई |”30  शिवसिंह सेंगर ने अपनी किताब को ‘इतिहास’ न कहकर ‘संग्रह’ कहा है | इस से यह पता चलता है कि वे इतिहास के वर्तमान अर्थ से जरूर परिचित रहे होंगे | ‘संग्रह’ में जोर रचनाओं पर हो जाता है जबकि ‘इतिहास’ में बल काल – क्रम, काल – विभाजन और मूल्यांकन पर होता है |

     ‘शिवसिंह सरोज’ में कवियों के परिचय के साथ उन की रचनाएँ भी संकलित की गईं हैं | इस तरह के संग्रह ग्रंथों की परंपरा हिंदी में पहले से चली आ रही थी | ‘कालिदास हजारा’ (लगभग 1718 ई.) ‘राग सागरोद्भव – राग कल्पद्रुम’ ( लगभग 1843 ई. ) आदि संग्रह ग्रंथ पहले से बनते आ रहे थे | नई बात यह थी कि ‘शिवसिंह सरोज’ में कवियों के जीवन और उन की रचनाओं पर भी विचार था | शिवसिंह सेंगर के बारे में हिंदी के साहित्येतिहास ग्रंथों में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती | पर इतना अवश्य पता चलता है कि उन्न्नाव जिले के रहनेवाले थे और ‘इंस्पेक्टर पुलिस’ थे | इस पद पर रहते हुए वे निश्चय ही अंग्रेज अधिकारियों और उन की ज्ञान-परंपरा के संपर्क में आए होंगे |

     पंडित महेशदत्त शुक्ल रचित ‘भाषा काव्य-संग्रह’ या ‘शिवसिंह सरोज’, इन दोनों किताबों के ढाँचे पर विचार करने से यह पता चलता है कि अंग्रेजों या यूरोपियों के संपर्क में आने के बाद भारत में आज के अर्थ वाले इतिहास का प्रचार बढ़ा | भारत में ‘इतिहास’ का वर्तमान अर्थ कभी नहीं रहा | यों भारत में ‘इतिहास’ शब्द का प्रयोग अथर्वेद, महाभारत और संस्कृत के काव्यशास्त्रीय ग्रंथों में हुआ है | यूरोपीय अर्थ में इतिहास का जोर तथ्यों पर रहा है | पर यदि इतिहास का काम या क्षेत्र अतीत से संबंध की विवेचना है तो भारत में यह प्रस्तावित किया गया कि जीवन का मूल मूल्य है | कहने का मतलब यह कि भारत में इतिहास की तथ्यपरक अवधारणा नहीं रही बल्कि इसके स्थान पर मूल्यपरक इतिहास सदा रचा जाता रहा | इसीलिए भारत में ‘काल’ की भी अवधारणा अलग किस्म की रही है | आधुनिक इतिहास में जिस प्रकार ‘काल’ को ‘हिगराकर’ विचार किया जाता है उस तरह से भारत में करना अच्छा नहीं माना गया | इसी से जुड़ा एक रोचक प्रसंग यह है कि एक बार प्रसिद्ध शायर फ़िराक गोरखपुरी ने एक व्यक्ति को अपने पास बुलाया | उन्हें आने में देर हो गई | फ़िराक साहब चिर-परिचित अंदाज वाली अपनी झल्लाहट में बोले कि आप लोगों को समय का ध्यान ही नहीं रहता, और रहे भी कैसे, क्योंकि ‘महाकाल के उपासक को खंडकाल से क्या मतलब ?’ हिंदी के ‘पारसमणि आचार्य’ हजारीप्रसाद द्विवेदी अपनी किताब ‘हिंदी साहित्य का आदिकाल’ में भारत में प्रचलित ‘इतिहासबोध’ के बारे में लिखते हैं कि “ वस्तुतः, इस देश में इतिहास को ठीक आधुनिक अर्थ में कभी नहीं लिया गया | बराबर ही ऐतिहासिक व्यक्ति को पौराणिक या काल्पनिक कथानायक बनाने की प्रवृत्ति रही है | कुछ में दैवी शक्ति का आरोप कर पौराणिक बना दिया गया है; जैसे राम, बुद्ध, कृष्ण आदि और कुछ में काल्पनिक रोमांस का आरोप करके निजंधरी कथाओं का आश्रय बना दिया गया है; जैसे उदयन, विक्रमादित्य और हाल | जायसी के रतनसेन, और रासो के पृथ्वीराज में तथ्य और कल्पना  का — फैक्ट्स और फिक्शन का — अद्भुत योग हुआ है | कर्मफल की अनिवार्यता में,  दुर्भाग्य और सौभाग्य की अद्भुत शक्ति में और मनुष्य की अपूर्व शक्ति-भांडार होने में दृढ़ विश्वास ने इस देश के ऐतिहासिक तथ्यों को सदा काल्पनिक रंग में रँगा है | यही कारण है कि जब ऐतिहासिक व्यक्तियों का भी चरित्र लिखा जाने लगा, तब भी इतिहास का कार्य नहीं हुआ | अंत तक ये रचनाएँ काव्य ही बन सकीं, इतिहास नहीं | फिर भी, निजंधरी कथाओं से वे इस अर्थ में भिन्न थीं कि उनमें बाह्य तथ्यात्मक जगत् से कुछ-न-कुछ योग अवश्य रहता था | कभी-कभी मात्रा में कमी-बेशी तो हुआ करती थी, पर योग रहता अवश्य था |”31 इन परिस्थितियों में पंडित महेशदत्त शुक्ल रचित ‘भाषा काव्य-संग्रह’ या ‘शिवसिंह सरोज’ या दूसरे ‘काव्य-संग्रहों’ से वर्तमान अर्थ में प्रचलित ऐतिहासिकता की उम्मीद व्यर्थ है | इसीलिए नलिनविलोचन शर्मा ने अपनी किताब ‘साहित्य का इतिहास-दर्शन’ में ‘शिवसिंह सरोज’ के बारे में लिखा है कि “ जहाँ तक साहित्येतिहास के रूप में सरोज के महत्त्व का प्रश्न है, यह ग्रंथ सही अर्थ में कवि-वृत्त-संग्रह भी नहीं कहा जा सकता, साहित्यिक इतिहास तो दूर की बात है; क्योंकि कवियों के जन्म-काल आदि के संबंध में जो विवरण हैं, वे भी अत्यंत संक्षिप्त और बहुधा अनुमान पर आश्रित हैं |”32 इस से यह स्पष्ट है कि वर्तमान अर्थ इतिहास की शुरुआत भी भारत में औपनिवेशिक काल में ही होती है | इस प्रक्रिया में जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ( Jeorge Abraham Grierson ) द्वारा लिखित ‘द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान’ ( The Modern Vernacular Literature Of Hindustan) महत्त्वपूर्ण है |

     जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ( 1851 – 1941 ई.) मूलतः गणित के विद्यार्थी थे पर उन्होंने राबर्ट एटकिंसन से संस्कृत और मीर औलाद अली से हिंदुस्तानी सीखी थी | वे 1871 ई. में भारतीय सिविल सर्विस की परीक्षा पास कर 1873 ई. में भारत आए | बंगाल के जैसोर जिले में नियुक्त हुए | कुछ ही दिनों बाद उन की बदली अकाल के महकमे में हो गई और बिहार भेज दिए गए  |  वे भारत में लगभग 24 साल रहे | 1877 ई. में उन्होंने अपना पहला लेख कालिदास पर   लिखा |33 1885 ई. में ग्रियर्सन ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘बिहार पीजेंट लाइफ (Bihar Peasent Life ) लिखी | इस किताब ने उन्हें पूरे यूरोप में मशहूर कर दिया | 1886 ई. में वियना में प्राच्यवादियों का एक अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन हुआ | इस में ग्रियर्सन ने तुलसीदास के संदर्भ में मध्यकालीन साहित्य पर एक पर्चा पढ़ा | इसी सम्मलेन में यह भी विचार किया गया कि भारत में कुल कितनी भाषाएँ हैं ? अंदाजा लगभग बीस, साठ से लेकर 250 तक का था | इसी सम्मलेन में यह प्रस्ताव पास किया गया कि भारत की भाषाओं का एक सर्वेक्षण होना चाहिए | प्रस्तावकों में प्रसिद्ध प्राच्यवादी व्हूलर, मैक्समूलर, मोनियर विलियम्स और ग्रियर्सन थे |34 1898 ई. में यह सर्वेक्षण शुरू हुआ और ग्रियर्सन को इस काम के लिए शिमला में नियुक्त किया गया | 1902 ई. में वे वापस अपने वतन लौट गए | उन्होंने 1903 ई. में भारतीय सिविल सर्विस से अवकाश प्राप्त कर लिया और अपने देश में ही रहकर भाषा सर्वेक्षण का काम करते रहे | इस सर्वेक्षण को पूरा होने में लगभग तीस साल लगे और यह भारतीय भाषाओं का एकमात्र सर्वेक्षण था | इधर जी. एन. डेवी  ( G. N. Devy ) नामक प्रसिद्ध विद्वान ने 2016 – 2017 ई. में भारतीय भाषाओं का दूसरा सर्वेक्षण किया है | रामकथा पर आधिकारिक काम करनेवाले दिनेशचंद्र सेन ने ग्रियर्सन को ‘द एम्परर ऑफ लर्निंग ( The Emperor Of Learning) कहा था |

     ग्रियर्सन की किताब ‘द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान’ ( The Modern Vernacular Literature Of Hindustan) पहले ‘जर्नल ऑफ द एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल ( Journal Of The Asiatic Society Of Bengal ) में 1888 ई. में प्रकाशित हुई थी | 1889 ई. में यह पुस्तकाकार छपी |  इस किताब में लक्ष्य करनेवाली पहली बात तो यही है कि यह किसी को समर्पित नहीं है | दूसरी बात यह कि इस में बतौर आदर्श – वाक्य विख्यात लेखक गेटे की दो पंक्तियाँ रखी गईं हैं | पंक्तियाँ मूल जर्मन में हैं | इस का अच्छा विश्लेषण इरा सर्मा ( Ira Sarma ) ने हंस हार्डर ( Hans Harder ) द्वारा संपादित किताब ‘लिटरेचर एंड नेशनलिस्ट आडियोलॉजी ( Literature And Nationalist Ideology ) में संकलित अपने लेख में किया है | इन पंक्तियों का मतलब यह था कि “ जो चारण को समझता है उसे चारण की भूमि भी खोजनी होगी |” इरा सर्मा ने अपने लेख में यह स्पष्ट किया है कि गेटे ने पश्चिमी पाठक और पूर्वी लेखक के संबंध को व्याख्यायित करने के संदर्भ में उपर्युक्त पंक्तियाँ कहीं थीं |35 दरअसल ग्रियर्सन के जमाने में उस भारत को जानने की कोशिश हो रही थी जो रहस्यमयी और अज्ञात था | इस प्रक्रिया में ग्रियर्सन और उन जैसे अनेक लोगों, जिन में गेटे भी शामिल हैं, ने अपने-अपने कार्यों से यह प्रस्तावित किया था कि भारत को जानने के लिए यहाँ की संस्कृति में रमना होगा | अकारण नहीं है कि जब ग्रियर्सन 1877 ई. में दरभंगा जिले के मधुबनी के सब – डिविजनल ऑफिसर बने और वहाँ तीन साल रहे तब वे देशी पंडितों की सहायता से मैथिली का एक व्याकरण रचा | इस प्रक्रिया में अपने से मिलने आनेवाले पंडितों को ग्रियर्सन ‘एक जोड़ा धोती और दो रुपया नकद’ बतौर विदाई देते

 थे |36 विदाई में कपड़ा और कुछ पैसा देना हिंदू ब्राह्मणों का एक रिवाज रहा है | ग्रियर्सन ऐसा कर के उस रिवाज में अपनी सहमति के साथ – साथ भागीदारी भी सुनिश्चित कर रहे थे |

     ‘द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान’ ( The Modern Vernacular Literature Of Hindustan) में ग्रियर्सन ने नाम में आए ‘हिंदुस्तान’ की चौहद्दी तय करते हुए स्पष्ट करते हैं कि उन के लिए हिंदुस्तान का मतलब, राजपुताना और गंगा – जमुना की घाटी जो कोशी नदी के किनारे तक फैली है, से है | वे साफ – साफ कहते हैं कि इस में वे पंजाब और बंगाल के निचले हिस्से को शामिल नहीं कर रहे हैं |37 बतौर भाषा वे ‘मारवाड़ी’, ‘हिंदी’ और ‘बिहारी’ को इन सब की विभिन्न ‘बोलियों और उप – बोलियों’ के साथ अपने इस अध्ययन का विषय बनाते हैं | इरा सर्मा ने उपर्युक्त लेख में ठीक ही लक्ष्य किया है कि ग्रियर्सन के जमाने अर्थात् 1880 ई. के आस – आस ‘हिंदी’ का वह अर्थ नहीं लिया जाता था जो बाद में यानी हिंदुस्तान के राष्ट्रवादी दौर में लिया जाने लगा | ‘हिंदी’ से उस समय किसी क्षेत्र विशेष का भी बोध नहीं होता था | पर यहाँ विचारणीय यह है कि ग्रियर्सन ‘मारवाड़ी’, ‘हिंदी’ और ‘बिहारी’ को किन अर्थों में इस्तेमाल कर रहे हैं ? उन्होंने जिन 952 कवियों को अपनी इस किताब में जगह दी है उन में ज्यादातर अवध या ब्रज क्षेत्र के हैं | ‘हिंदी’ को ग्रियर्सन एक ‘संकर’ और यूरोपीय लोगों द्वारा आविष्कृत भाषा मानते थे | वे यह भी साफ – साफ लिखते हैं कि यह आविष्कृत भाषा ‘हिंदुओं की संपर्क – भाषा ( lingua franca of Hindus ) बन गई क्योंकि इसका अभाव था | वे हिंदी को ले कर गार्सा द तासी की यह मान्यता भी दोहराते हैं कि ‘हिंदी’ कभी भी कविता की भाषा नहीं रही |38

इन बातों से पता चलता है कि ग्रियर्सन के लिए भी ‘हिंदी’ हिंदुओं की भाषा थी | सवाल यह है कि अगर ग्रियर्सन ‘हिंदी’ का अर्थ ‘खड़ी बोली’ कर रहे हैं तो अपनी किताब में अवधी और ब्रजभाषा के लेखकों को कैसे शामिल कर रहे हैं ? ऐसा इसलिए कि ‘मारवाड़ी’ से राजस्थान की भाषाओं का बोध और ‘बिहारी’ से बिहार की भाषाओं का संकेत होता है | इतना ही नहीं उन के भाषा सर्वेक्षण के जिल्द 5 के दूसरे भाग में बिहारी और उड़िया भाषाओं को तो जिल्द 9 के भाग 1 में पश्चिमी हिंदी और पंजाबी को रखा गया है | भाषाई स्तर पर यह विसंगति तासी में भी थी और ग्रियर्सन में भी दिखाई पड़ती है | इरा सर्मा ने यह स्पष्ट किया है कि ‘वर्नाक्युलर भाषाओं’ के अध्ययन का उद्देश्य ही यह था कि शासित जनता पर नियंत्रण स्थापित किया जाए और विभिन्न राष्ट्रीयताओं को जन्म दिया जा सके |

     ग्रियर्सन ने अपनी इस किताब को ‘इतिहास’ नहीं कहा है | इस का कारण बताते हुए वे कहते हैं कि उन्होंने सारी सामग्री को पढ़ा नहीं है और न ही भाष्य के अभाव में समझ सके हैं | अत: इसे भी वे ‘सामग्री – संग्रह’ के रूप में ही मानते हैं | पर ध्यान से देखने पर यह पता चलता है कि ग्रियर्सन ने इस किताब में ‘इतिहास’ का आधुनिक अर्थ सामने रखा है और काल – विभाजन करने की कोशिश की है | लेकिन उन के काल – विभाजन में कोई एक सम्यक दृष्टि नज़र नहीं आती | कभी वे साहित्यिक धरातल पर काल का नामकरण करते हैं, जैसे रीतिकाल ( The Ars Poetica ) तो कभी राजनैतिक सत्ता के आधार पर ‘कंपनी के शासन में हिंदुस्तान ( Hindustan Under The Company )’ | फिर सोलहवीं और सत्रहवीं सदी के भारतीय साहित्य को ‘स्वर्ण युग ( Augustan Age ) कहते हैं | दूसरी तरफ वे लेखक केंद्रित ‘इतिहास’ को भी प्रस्तावित करते हैं |

     ग्रियर्सन ने जायसी और तुलसीदास को बहुत महत्त्व दिया है | उन की इस किताब में यही दो ऐसे लेखक हैं जिन पर अलग – अलग स्वतंत्र अध्याय हैं | आश्चर्य होता है कि कबीर को उन्होंने कोई महत्त्व नहीं दिया | उन के जीवन और उन के नाम पर चलने वाले ग्रंथों का उल्लेख कर छोड़ दिया है | जिन गार्सा द तासी से उन्होंने अपने लिए सामग्री लेने की बात कही है वहाँ भी कबीर के बारे में इन से अधिक बातें कहीं गई हैं | ठीक इसी प्रकार ग्रियर्सन उर्दू के शायर नजीर अकबराबादी को भी इस किताब में स्थान देते हैं | इन के अलावा किसी और उर्दू शायर का उल्लेख तक नहीं है | इन तथ्यों से यह निष्कर्ष निकालना क्या उचित होगा कि ग्रियर्सन में हिंदू संस्कार कहीं – न – कहीं प्रबल थे ? या फिर वे ऐसे मुसलमानों को बढ़ावा दे रहे थे जो हिंदू ढाँचे में फिट बैठ सकें ? ऐसा इसलिए कि नजीर को क्या इस कारण उन्होंने शामिल किया कि उन्होंने कृष्ण पर कविताएँ रची हैं ? जायसी को भी महत्त्व देने के पीछे क्या यही बात है ? तुलसीदास और ‘रामचरितमानस’ को तो वे इतना अधिक महत्त्व देते हैं कि वे लिखते हैं कि “ हिंदुस्तान की पढ़ी – लिखी या अनपढ़ जनता की नैतिकता का प्रतिमान रामचरितमानस ही है ” |39 यह वही नैतिकता है जिस का विलियम जोन्स ने ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ के अपने अनुवाद में विवेचन किया था | ग्रियर्सन का यह असर रामचंद्र शुक्ल पर भी दिखता है जब वे जायसी और तुलसीदास को अपने अध्ययन के लिए चुनते हैं | वे जायसी की इस बात के लिए तारीफ़ करते हैं कि उन्होंने हिंदू घरों में प्रचलित कहानी को अपने काव्य का विषय बनाया |  यह बात अब छुपी हुई नहीं है कि अंग्रेजों की नीति भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के भीतर ‘हिंदूपन’ और ‘मुसलमानत्व’ को बरकरार रखने की थी ताकि वे विभेद की राजनीति जारी रख सकें | तुलसीदास द्वारा प्रस्तुत आदर्श और नैतिकता की भूरि – भूरि प्रशंसा ग्रियर्सन करते हैं | यही आदर्श और नैतिकता सत्ता के पूरे स्वरुप को कायम रखती है | ग्रियर्सन को भी परिवर्तनकामी शक्तियाँ पसंद नहीं थीं इसीलिए वे ‘महारानी विक्टोरिया के शासन में  हिंदुस्तान  ( Hindustan Under The Queen )’ वाले अध्याय में लिखते हैं कि “बँगला पत्रकारिता को कलंकित करनेवाले राजद्रोही और कटुभाषी समसामयिकों की तुलना में हिंदी समाचार – पत्र नियमत: और सामान्यत: कहीं अधिक अच्छे हैं |”40

     गार्सा द तासी और जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन द्वारा प्रारंभिक ‘इतिहास’ का लेखन औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त  था | इस मानसिकता में विभेदीकरण, सांप्रदायिक राजनीति को प्रश्रय दिया गया | चूँकि बुनियाद ही गड़बड़ हो गई इसलिए हिंदी साहित्य के इतिहास के सामने कई समस्याएँ आज भी खड़ी हैं | साथ ही औपनिवेशिक इतिहास – लेखन के प्रतिकार में जो राष्ट्रवादी इतिहास – लेखन की परियोजना चली उस ने भी अलग तरह की समस्याएँ खड़ी कीं | उदाहरण के लिए अगर हिंदी साहित्य के इतिहास में मध्यकालीन हिंदी साहित्य के अंतर्गत अवधी और ब्रजभाषा के साहित्य को स्वीकार किया जाता है तो आधुनिक काल में इन का साहित्य क्यों नहीं शामिल किया जाता ? इतना ही नहीं बाकी भाषाओं जैसे बघेली, छत्तीसगढ़ी, गढ़वाली के साहित्य का उल्लेख भी हिंदी साहित्य में नहीं होता | ठीक इसी प्रकार आधुनिक हिंदी नाटक के विकास में भिखारी ठाकुर का ज़िक्र अब जा कर शुरू हुआ है | उर्दू को तो बहिष्कृत कर ही दिया गया | यह बात समझी ही नहीं गई कि हिंदी क्षेत्र नहीं बल्कि वह हिंदी – उर्दू क्षेत्र है | शब्दों और लिपियों के बदलाव से ये दो क्षेत्रों की भाषाएँ नहीं हो जातीं | भाषा की पहचान उस की क्रिया, कारक और वाक्य – संरचना से होती है | इन कसौटियों पर हिंदी – उर्दू में उस तरह का भेद नहीं है जैसा कि बताया जाता है | भारत – विभाजन में भाषा की इस राजनीति का बहुत गहरा योगदान रहा है | हजारीप्रसाद द्विवेदी ने औपनिवेशिक ज्ञान प्रक्रिया परविचार करते हुए लिखा है कि “ मौका देखकर इन्होंने दरार पर आघात किया, पहले से अलग हिंदू और मुसलमान दूर से दूरतर होते गये | मौका देखकर विदेशी राजा बन बैठे और अपूर्व अध्यवसाय और लगन के साथ दोनों जातियों को समझने की कोशिश करते गये | जितना ही उन्होंने समझा उतना ही भेद – भाव को उत्तेजित किया | आज हम प्रत्येक बात को हिंदू दृष्टिकोण और मुसलमान दृष्टिकोण से देखने के आदी हो गये हैं, मानों ऐसा कोई दृष्टिकोण ही नहीं है जिससे हिंदू और मुसलमान साथ ही देख सकें |”41

     औपनिवेशिक इतिहास – लेखन में प्रश्न केवल भाषा की अवधारणा का ही नहीं था बल्कि साहित्यिक प्रतिमान का भी था | गार्सा द तासी 1839 ई. में ‘राजभक्ति’ को वांछित समझते हैं और ग्रियर्सन जायसी, तुलसी और बिहारी को श्रेष्ठ कवि के रूप में स्थापित करते हैं | मीरा पर चर्चा करते हुए ग्रियर्सन उन की प्रेम – भावना का ही उल्लेख करते हैं उन की विद्रोह भावना का नहीं | इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि औपनिवेशिक इतिहास – लेखन ने साहित्य की दुनिया को किस तरह प्रभावित किया है ? यह प्रभाव आगे के इतिहासकारों पर भी बना रहा | उपनिवेशवाद आज भारत का अतीत है पर यह भारत के भविष्य को लगातार प्रभावित कर रहा है |

संदर्भ

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