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‘बेचैन बंदर’के बहाने कुछ बातें विज्ञान, धर्म और दर्शन को लेकर

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आम तौर पर विज्ञान को लेकर आम पाठकों के लिए कम किताबें लिखी जाती हैं. लिखी जाती हैं तो आम पाठकों तक उनकी सूचना पहुँच नहीं पाती हैं. फेसबुक पर भी बहुत लोग यह काम कर रहे हैं. ऐसी ही एक किताब ‘बेचैन बन्दर’ पर यह टिप्पणी लिखी है राकेश सिंह जी ने. वे पेशे से ओर्थोपेडीक डॉक्टर हैं, लेकिन पढ़ते हुए लगता है कि ज्ञान, विज्ञान, दर्शन के गहरे अध्येता रहे हैं. आप यह टिप्पणी पढ़िए और मौका मिले तो बाद में किताब भी- मॉडरेटर

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फेसबुक पर कुछ अच्छी बातें भी होती हैं। उनमें से एक हैं श्री विजय सिंह ठकुराय, जिनके विज्ञान आधारित हिंदी पोस्ट इतने रुचिकर एवम ज्ञानवर्धक होते हैं कि बस पूछिये मत। सर्च कीजिये और खुद परख लीजिये!

तो मित्रों और पाठकों के उत्साहित करने पर उन्होंने एक विज्ञान की पुस्तक लिखी और प्रकाशित की- बेचैन बंदर. विषय-वस्तु हैं ब्रह्मांड, पदार्थ, जीवन का उद्भव व विकास। कहना न होगा कि पुस्तक अमेज़न पर आई और मैंने मंगा ली। तीन दिनों में पढ़ भी ली।

मैंने समीक्षा लिखने का वादा किया था और यह है वह. रिव्यु लिखना थोड़ा मुश्किल काम है क्योंकि मैं पेशेवर नहीं हूँ। तारीफ करने बैठूं तो अन्त न हो। इसलिए तारीफ के अतिरेक से बचूंगा।

शुरुआत पुस्तक के कलेवर से। में सोच के बैठा था पॉकेट बुक टाइप होगी।  बच्चों के टेक्स्टबुक साइज की निकली तो सुखद आश्चर्य हुआ। कागज और छपाई ठीकठाक है। आवरण भी। बाइंडिंग भी।

पढ़ने बैठा तो खंड 1 थोड़ा भारी लगा. बीच बीच में ब्रेक लेना पड़ता था सूचनाओं को प्रोसेस कर के जमाने के लिए, ओवर-हीटेड ब्रेन सर्किट्स को ठंढा करने के लिये । गो मैं जीवविज्ञान प्रवाह से हूँ, फिर भी भौतिक विज्ञान और रसायन शास्त्र मेरे लिए अजनबी नहीं हैं। चिकित्सा विज्ञानी होने के बावजूद भी मेरी रुचि विज्ञान के हर क्षेत्र में है। तो, खंड 1 बेहद रुचिकर और आसान है , पर इसे समय देना पड़ा । यह खंड ब्रह्मांड (universe) के बारे में है- उत्पत्ति , प्रसार, बिग बैंग, ब्लैक होल, आकाशगंगा वगैरह। आज तक की उपलब्ध तमाम जानकारियों का सारांश।

इसके बाद के खंड तो सर्र-सर्र करके कब खत्म हो गए पता ही नहीं चला। आखिरी पृष्ठ के बाद यूँ महसूस हो रहा था जैसे बेहद लज़ीज नाश्ता ख़त्म हो गया, न भूख मिटी, न मन भरा।

खैर, पेज 23 —- 2 up +1 down quarks=proton

1down + 2 up quarks = nutron ने उलझाया ।

खंड 2 यानी विकास (Evolution)

कुल सात छोटे छोटे अध्यायों में डार्विन के विकासवाद की  रुचिकर विवेचना है।

बेहद रुचिकर , ब्रेन सर्किट्स बिल्कुल गर्म नहीं हुए। हो सकता है मेरे जीवविज्ञान प्रवाह के कारण। पर मुझे लगता है ये खंड मानविकी  वालों के लिए भी मुश्किल नहीं।

चैप्टर 1 नेचुरल सिलेक्शन …..प्राकृतिक चयन …….इसे survival of the fittest के नाम से भी जाना जाता है, और यह प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता से नियत होता है। चैप्टर 2 म्युटेशन ——- क्या, कैसे और क्यों बिल्कुल ठीक। मेरी समझ में, इसमें आयोनाइज़िंग रेडिएशन, वायरस एवम स्ट्रॉन्ग केमिकल्स की भूमिका का समावेश होना चाहिए था। चैप्टर 3 में बताने की कोशिश है कि विकास के क्रम में अलग अलग जीव जंतु व उनकी प्रजातियां कैसे बनीं । चैप्टर 4  इस क्रमिक विकास के कुछ प्रमाणों की चर्चा है। एम्ब्रायोलॉजी का पॉइंट और 4 अरब वर्षों का इतिहास बिल्कुल सटीक है- यह मुझे दशावतार की याद दिलाने से कभी नहीं चूकता।

चैप्टर 5 is icing on cake —I totally vouch for it . We are very very good , very complex , but not the best specimen , not without fault . एक चिकित्सक होने के नाते मैं इनसे प्रतिदिन रूबरू होता हूँ ।

चैप्टर 6—— वानर से कब हम मानव हो गए?  कम से कम प्राइमेट्स में सारी वर्तमान प्रजातियां समानांतर रूप से विकसित हुई और हो रही हैं। Bonobo की कमी खली ।

चैप्टर 7 मीनिंग ऑफ लाइफ- जीवन का उद्देश्य ——प्रकृति ने सिर्फ एक उद्देश्य नियत किया है—- जीवन को आगे बढ़ाना । Propagation-Continuation of life. Either through preservation of community, or preservation of self OR even at the cost of destruction of self. इसके आगे की सारी बातें हम इसलिए कर पाते हैं क्योंकि विकास के क्रम में हमारे मस्तिष्क ने एक, बल्कि दो वर्चुअल आइडेंटिटीज बना लीं जिन्हें हम दिमाग और मन के नाम से जानते हैं।

खंड 3 पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति के बारे में बताता है । चार अध्यायों में बंटा यह खंड लाजवाब है । RNA, DNA, राइबोसोम, प्रोटीन, SEMIPERMEABLE मेम्ब्रेन, PROKARYOTE, EUKARYOTE, inclusion of one cell in another …….chloroplast & mitochondria……गागर में सागर।

Montmorillonite से मुझे Archeans की याद आ गई जब पहली बार उन्हें खोजा गया था। काफी नई चीजें मैने भी सीखी ।

चैप्टर 4 एक जटिल विषय को सरल बनाने की अच्छी चेष्टा है।

खंड 4 विज्ञान के विकास की बात करता है ।पहला अध्याय है विज्ञान का प्रारंभ- शीर्षक होना चाहिये था आधुनिक विज्ञान का प्रारंभ। जब आदि-मानव ने पहला पत्थर का औजार बनाया, तब वह भी विज्ञान था। और आग को न भूलें, और ये भी कि आदि-मानव ने जल-स्रोतों (water bodies) के साथ क्या और कैसा तादात्म्य बनाया ये हम बिल्कुल नहीं जानते, पर ये जरूर जानते हैं कि उसने दरियाओं को सर किया। उसमें भी कुछ विज्ञान रहा होगा।

दूसरा अध्याय है विज्ञान-विकास/इतिहास के मील के पत्थर,  और कुछ बेहद रोचक प्रसंग यहां उद्धरित हैं जो मुझे बहुत पसंद आये ।

तीसरा अध्याय  क्वांटम भौतिकी  और चौथा अध्याय स्ट्रींग सिद्धांत- आधुनिक भौतिकी का सबसे चर्चित और आज की तारीख का आखिरी पड़ाव. कठिन विषय है लेकिन लेखक का प्रयास इसे सरल बनाने का रहा है, काफी हद तक सफल भी है। मूलतः इसमें पदार्थ के इलेक्ट्रान प्रोटोन नेत्रों से भी कुछ सूक्ष्मतर कणों/ऊर्जा-दोलनों से बने होने के सिद्धान्त को समझाया गया है। यदि आपको सर्न हैड्रन कोलाइडर जरा भी सुना सुना सा लगता है तो आप इन अध्यायों का आनंद उठा पाएंगे।

अध्याय 5 और 6 समानांतर आयाम की चर्चा करते हैं – कल्पना करने में ही मुश्किल होती है. एक सामान्य मष्तिष्क-क्षमता वाले मानव के लिए तो बहुत ही मुश्किल। एक राज की बात बताता हूँ …..हम डॉक्टर लोग पढ़ाई की शुरुआत में मुर्दा इसलिए चीरते हैं ताकि हम हर अंग को देख सकें और उनका एक त्रिआयामी चित्र अपने दिमाग में बिठा सकें। वरना, किताबों से तो सिर्फ दो- आयामी तस्वीर बन पाती है । पर 9 आयामों की कल्पना- बाप रे बाप !!!

खंड 5 के बारे में अंत में लिखूंगा।

खंड 6

मानव अस्तित्व संकट में है।

बिना शक!

सवाल यह है कि इस बारे में कितने लोग सोचते हैं?

पांचो विषयों पर बेहतरीन जानकारी दी गयी है, संक्षिप्त, सरस, सरल। ओजोन परत में छिद्र, ग्लोबल वार्मिंग, परमाणु बम युद्ध के परिणाम …….ये मानव निर्मित खतरे हैं। तो खतरे ब्रह्मांड से भी आ सकते हैं- उल्का , धूमकेतु , एस्टेरॉयड, और हमारे छोड़े गए उपग्रह भी।

और आखिरी खंड है सारांश ।

बहुत पहले एक किताब पढ़ी थी the naked ape- पूर्णतः जीवविज्ञान । इसमें भी मानव- उद्भव व विकास की ही बातें थीं । सटीक है शीर्षक the restless ape। पर सवाल यह  है कि कितने apes रेस्टलेस, क्यूरियस हैं? मेरी समझ में काफी कम। एक बहुत ही नगण्य अल्पसंख्यक। जबकि फ्लेवर ऑफ द लास्ट टू सेंचुरीज डेमोक्रेसी ( = MOBOCRAZY )है।

अब खंड 5  पर आता हूँ। विज्ञान बनाम भगवान।

इस पर बहस करके आप और मैं जीत नहीं सकते। अध्याय  बिल्कुल सरल, और सही, तर्कपूर्ण हैं। पर यहां मुकद्दमा न्यूटन बनाम मैक्स प्लान्क नहीं है। जब आस्था का प्रश्न आता है तो अच्छे भले जिज्ञासु भी जिज्ञासा भूल जाते हैं।

कभी पढ़ा था कि प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार के बाद से सबसे ज्यादा छपाई धार्मिक साहित्य की हुई है न कि वैज्ञानिक साहित्य की। आप एक विद्वतापूर्ण लेख लिखकर किसी आस्थावान को वैज्ञानिक नहीं बना सकते। और आज के समय में पक्ष-विपक्ष के तर्क सिर्फ न्यायालय (?) और विद्यालयों की वाद-विवाद प्रतियोगिता तक सीमित रह गए हैं। आज कल अर्थपूर्ण बहस-मुबाहिसे की जगह हिंसा और मुद्रा-हस्तांतरण ने ले ली है।

एक मुद्दा उठाया गया था धर्म के अनादर का। तो भैया, मुझे तो ये अनादर कहीं दिखा नहीं । किसी भी धर्म विशेष का। वैसे मैं ताली ठोक के कहता हूँ कि मैं विज्ञान में विश्वास करता हूँ और मेरा ये वक्तव्य ही अपने आप में सभी धर्मों का अनादर है। परंतु इस पुस्तक में, इस सामान्य धर्म विरोधी भावना के अतिरिक्त किसी धर्म विशेष या किसी धार्मिक-ऐतिहासिक व्यक्ति विशेष के बारे में कोई अपमानजनक उल्लेख नहीं दिखा। मुझे सोचना पड़ा कि ये आपत्तिकार पुस्तक को पढ़ के बोल रहे थे, या अफवाह फैला रहे थे?

अध्याय 1 बताता है कि मानव जाति ने विभिन्न भगवान और देवता कैसे रचे । ( बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ , हमने संतोषी मां को गढ़ दिया ,  साईं बाबा को देवता बना दिया और यह फिल्मी सितारों के मंदिर बनाने से सर्वथा भिन्न परिघटना है ) । अध्याय 2 वर्तमान-भूत -भविष्य बताने वाले ज्योतिष की पड़ताल करता है।

इस खंड में Behavioural science से जुड़ा एक मुद्दा है hallucination ….(अध्याय 3)……. और मुद्दे भी जुड़ने चाहिए …… Illusion , delusion , mass illusion , mass delusion , mass hysteria , mob psychology/mentality . गूगल का जमाना है, इनके बारे में पढ़िए और स्वयं चिंतन मनन  कीजिये।

Hallucinogenic drugs जैसे कि गांजा, भांग। इनसे मिलती जुलती कई चीजें अलग अलग देशों में, प्राचीन एवं वर्तमान सभ्यताओं में  उपयोग की जाती रही हैं धर्म के प्रचार प्रसार के लिए।

एक और मुद्दा है कि भगवान की परिकल्पना मनुष्य के लिए कितनी आवश्यक है ? (अध्याय 5) जवाब इन दो वक्तव्यों के बीच कहीं है ……डूबते को तिनके का सहारा (मेरा) और ……religion is opium for masses (Marx) . साथ ही इस बात को ध्यान में रखें कि बात जनमानस की हो रही है , intelligent brilliant geniuses की नहीं ।और जीनियस का दिमाग भी ज्यादातर एक दिशा में ही काम करता है । द विंची बहुत कम पैदा होते हैं।

बुद्धि की सीमा है,

इसलिए अनजाने का डर है,

इसलिए भगवान और आस्था हैं,

इसलिए धर्म हैं,

इसलिए धर्म के ठेकेदार हैं।

आगे कुछ कहने की आवश्यकता शेष नहीं।

विज्ञान, धर्म एवं दर्शन

सिर्फ इतना कहूंगा कि

सारे दर्शन सत्य की खोज में एक कदम हैं

विज्ञान एक दर्शन है

धर्म दर्शन नहीं है, न हो सकते हैं।

(अध्याय 4 का सार, मेरी तरफ से )

{एक दु:ख की बात ये है कि दर्शन शब्द सुना सभी ने है, परिचय बहुत कम लोगों का है }

अंत में,  33 अध्यायों की इस पुस्तक को कम से कम 33 दिनों में पढ़ें। अपने मनोमष्तिस्क की सीमा का आदर करें । विषय दुरूह है, और लेखक ने सरस बनाने की पूरी चेष्टा की गई है। फिर भी द्रुत-पठन में ओवरडोज़ और मदरबोर्ड के फायर हो जाने का खतरा है। आवश्यकतानुसार pleasure-break लें।

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मशहूर डिज़ाइनर और रंगनिर्देशक बंसी कौल से व्योमेश शुक्ल की बातचीत

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आजकल बेस्टसेलर की चर्चा बहुत है. अच्छी बात है लेकिन इस बीच हिंदी में जो बेस्ट हो रहा है हमें उसको भी नहीं भूलना चाहिए. नजरअंदाज़ नहीं करना चाहिए. कोई भी भाषा अपनी विविधता से समृद्ध होती है. आज जाने माने रंगकर्मी बंसी कौल से व्योमेश शुक्ल की बातचीत. व्योमेश ने बड़ी मेहनत से पिछले कुछ वर्षों में हिंदी की कुछ विराट कविताओं को मंचित करके एक नया रंग मुहावरा बनाया है. यह बातचीत भी बेहद ज्ञानवर्धक और रोचक दोनों है. पहले ‘रंगप्रसंग’ में इसके कुछ अंश प्रकाशित हैं. यहाँ एक अलग रूप में पढ़िए- मॉडरेटर

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कलाएँ समवेत प्रतिफल हैं

(मशहूर डिज़ाइनर और रंगनिर्देशक बंसी कौल से व्योमेश शुक्ल की बातचीत)

एक

हमलोग अक्सर मनुष्यों के बारे में बात करते हैं. अलग-अलग व्यक्तित्वों के बारे में. अब यह एक रिवाज़ है. संस्थाओं के बारे में बात नहीं होती. एक विचार के रूप में संस्था – इस पर बात करने का सही मौक़ा आ गया है. व्यक्तिपरक होने का अब कोई मतलब नहीं है. साहित्य के विमर्श में यह चलता है क्योंकि लेखक अंततः एक व्यक्ति ही होता है. लेकिन प्रदर्शनकारी कलाएँ एक समवेत प्रतिफल हैं. यहाँ समूह पहले है.

दो

हमें संस्था के विचार को प्रोजेक्ट और प्रमोट करना होगा. मिसाल के लिए बनारस के दो सौ प्रमुख लोगों की सूची बना लीजिए. उनमें से एक-एक के बारे में अलग-अलग विचार करना शुरू कर दीजिये. प्रेमचंद या प्रसाद  – वह यहाँ कब रहे, कहाँ रहे, कैसे रहे और क्यों रहे आदि. यह एक तरह से उनकी जीवनी लिखना हुआ. ऐसी ज़्यादातर बातें सबको पता भी हो गई हैं. लेकिन उनके यहाँ रहने से बनारस पर क्या असर हुआ और एक संस्थान के रूप में बनारस ने उनकी रचनात्मकता पर क्या असर डाला, इसकी जाँच असल बात है. हिंदू धर्मचेतना का सबसे बड़ा और जीता-जागता संस्थान है बनारस. लाखों लोग यहाँ आते हैं. इस नुक्ते पर लेकिन बात नहीं हो पाती.

तीन

संस्थानों पर बात करना बहुत अर्जेंट हो उठा है, क्योंकि, अगर ये बचेंगे, तभी व्यक्ति भी बचेगा, हमलोग भी बचेंगे. अगर संस्था ख़त्म होगी तो आपकी व्यक्तिमत्ता का भी कोई मोल न रह जायेगा. राजनीति भी एक ऐसा संस्थान है जो ख़त्म हो रहा है. इसलिए वहाँ व्यक्ति तो उभर-उभरकर आ रहे हैं, कोई पार्टी या समूह नहीं दिखाई दे रहा है. आपातकाल में इस संस्थान का ख़ात्मा श्रीमती गाँधी ने किया. वह सिलसिला चलता जा रहा है और अब आपातकाल लगाने की भी कोई ज़रूरत न रही. अब एक पूरा समाज ही अपने संस्थानों को ख़त्म करने पर उतर आया है. यह आत्मविनाश का दृश्य है. हम यही कर रहे हैं.

चार

बनारस के ही एक उदाहरण को समझें : अंदाज़न, कम से कम दस हज़ार नावें होंगी. दस हज़ार नावें तो दस हज़ार मल्लाह. एक-एक नाव पर कम से कम बीस-बीस लोगों का परिवार पल रहा होगा. इस आँकड़े का एक मतलब यह है कि एक संस्थान के रूप में बनारस ने एक बड़ी अर्थव्यवस्था की भी रचना की है. हम हमेशा पारंपरिक तरीकों से सोचते हैं. अर्थव्यवस्था को सोचते हुए हम उद्योगों की बात करते हैं, विदेश व्यापार या कृषि की बात करते हैं. यह भी तो एक अर्थव्यवस्था है, जिसकी रचना बनारस नाम के एक धार्मिक संस्थान ने की है. धार्मिक संस्थान अनोखी इकॉनमी संभव करता है. वैसा कोई और नहीं कर सकता. चाहे फूलवाला हो, भिखारी हो या रोटी बाँटने वाला हो. वह भक्त भी – जिसे लगता है कि उसने बहुत पाप किये हैं, अपने पापबोध से मुक्त होने के लिए बहुत दान करता है. भारत एक विचित्र बड़ी अर्थव्यवस्था है, जहाँ पापबोध भी उसका हिस्सा है. इस पर बात करने की ज़रूरत है.

पाँच

अगर एक निर्देशक बनारस या कोलकाता में रहकर नाटक कर रहा है तो क्यों कर रहा है और क्यों उसका थिएटर विशेष है ? हमारे थिएटर का इनदिनों जो अजीब बेड़ा गर्क हुआ है, उसका भी हल ऐसे सोचने में दिख सकता है. पहले थिएटर अपने-अपने शहर की नुमाइंदगी करता था. नौटंकी यूपी की होती थी, भवाई गुजरात की होती थी. लेकिन समकालीन रंगकर्म ने अपनी यह विशेषता खो कैसे दी ? थिएटर का स्थानीय वैशिष्ट्य, उसकी अस्मिता कहाँ गई ? थिएटर को अस्मिता से जोड़ना ज़रूरी है. यह क्यों नहीं हो रहा है. आइये इसे समझने की कोशिश करें. नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा समेत देश में नाटक सिखाने वाले अनेक संस्थान हैं. लेकिन नाटक का संस्थान, भौतिकी या रसायन विज्ञान का संस्थान नहीं होता. फिजिक्स का फ़ॉर्मूला जो बनारस में होगा, वही दिल्ली में और यूरोप में भी वही होगा. लेकिन बनारस का ड्रामा स्कूल इलाहाबाद के ड्रामा स्कूल से अलग होगा. भोपाल के नाट्य विद्यालय को दिल्ली के नाट्य विद्यालय से अलग होना होगा. उसे अलग बनाना चाहिए. उस शहर का चरित्र भी विद्यालय में रिफ्लेक्ट होना चाहिये. लेकिन हम ऐसा नहीं कर रहे हैं. हम एक मानक संस्थान की फोटोकॉपी की तर्ज पर दूसरे संस्थान बनाते चले जा रहे हैं. यह विचित्र मानकीकरण है. कलाओं के लिए यह आत्मघात है. क्योंकि फिर एक दिन ऐसा होगा कि यह पहले से तय हो जायेगा कि इस देश के सब मनुष्यों के चेहरे एक जैसे हों. सभी स्त्रियों की लम्बाई एक बराबर हो. इससे बचना होगा. हमारे देश के स्वभाव में यह नहीं है. हमारी प्रकृति वैविध्यमयी है. हम विभिन्नताओं को सहेज नहीं पा रहे हैं. उलटे, एक जैसे संस्थान खोले जा रहे हैं.

मार्केट इकॉनमी यही चाहती है. यह इकॉनमी चाहती है कि सबलोग एक ही टेस्ट की चपाती खायें. वह दस टेस्ट की चपाती नहीं देगी आपको. एक ही आटे की चपाती खानी है हमें. ऐसा इसलिए क्योंकि उसे एकसाथ, एक ही समय में, एक ही टेस्ट की एक करोड़ चपातियाँ बेचनी हैं. अभी हर मोहल्ले की चपाती का अलग स्वाद है. आने वाले दिनों में अगर यही हाल रहा तो ये सारे स्वाद सब मिटकर एक हो जाने वाले हैं.

छह

क्या कला में भी यही होने वाला है ? सबसे अखीर तक, वैविध्य कला में ही बचा रह सकता है. लेकिन यह भी सच है कि कला की भी अपनी समकालीनता होती है और उसे भी बदलते जाना है. आज बनारस में वही थिएटर नहीं होगा जो सौ साल पहले होता था. वह आजकल के संदर्भों से जुड़ेगा. नदी, घाट और गलियों के आज के हालात से जुड़ेगा. गंगा भी तो सौ साल पहले की गंगा नहीं हैं. यह वही गंगा नहीं हैं, जिसका वर्णन वेदों आदि में है.

सात

कुलमिलाकर यह जान लीजिए कि किसी कला विद्यालय में संस्थान की बजाय व्यक्तित्वों को प्रोजेक्ट करने से हमें कोई लाभ नहीं मिलने वाला है.

आठ

हम प्रायः बाद में रोने लगते हैं कि अरे, हमने तो कुछ डॉक्यूमेंटेशन ही नहीं किया. जबकि अभी सही वक़्त है यह काम करने का. आज़ादी के बाद के संस्थानों को ही लें. लिटिल बैले ट्रूप है. उसपर तो एक मोनोग्राफ़ तैयार कर लो. हो सकता है लिटिल बैले ट्रूप दो-चार बरस में बंद हो जाय. पिछले साठ सालों से लगातार जीवित और सक्रिय देश का अकेला प्रोडक्शन है लिटिल बैले ट्रूप का रामायण. अगर यही नाटक लंदन का होता और पचास साल ज़िन्दा रहा होता तो उसका उत्सव मानाने के लिए वहाँ की पूरी सरकार लग गई होती. वे इस बात को बाज़ार में ले जाते, बेशक़, बेचने के लिए. वे इसे विज्ञापनों की दुनिया में ले जाते. वे इसे हेरिटेज में ले जाते. उसपर किताबें लिखते. बनारस जैसी पुरानी सभ्यता में कई सौ बरस से चल रही रामलीलाओं को जाने दें, यह काम तो आज़ादी के बाद का है और अपेक्षाकृत सरल है. यह कोई क्यों नहीं कर रहा है ? संगीत नाटक अकादेमी को, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय को यह काम करना चाहिए. ऐसी बहुत सी चीज़ें करने लायक़ हैं.

नौ

समारोहों को ही लें. उज्जैन का कालिदास समारोह. वह कालिदास अकादमी बनने के पहले से होता आ रहा है. पंडित सूर्यनारायण व्यास ने उसे शुरू किया था. इतने बरसों में उसमें क्या-क्या हुआ ? क्या यह दस्तावेज़ी महत्व की चीज़ नहीं है ? उस समारोह को डॉक्यूमेंट करने का एक मतलब उसे मुमकिन करने वाले समूहों, लोगों और शक्तियों का डॉक्यूमेंटेशन भी है. रूद्रसेन गुप्ता का समारोह ‘नांदिकर’ पिछले लगभग चालीस सालों से हो रहा है. यह ज़रूरी नहीं कि डॉक्यूमेंटेशन आप उस उत्सव का ही गुणगान करते रहें. उसकी ऑडीएंस पर बात हो, शामिल नाटकों पर बात हो, निर्देशकों पर चर्चा हो. रुद्र कहाँ-कहाँ से उसकी फंडिंग करवाते हैं, इस पर बात हो. जब आप फंडिंग पर बात करेंगे तो आप थिएटर की इकॉनमी को भी समझ रहे होंगे. ऐसे ट्रेंड्स को जाने बग़ैर, आख़िर आप कैसे सीखेंगे कि ‘थिएटर इकोनॉमिक्स’ क्या बला है ? मैं कैसा थिएटर करता हूँ, नटों को लेता हूँ कि नहीं, इस तरह की बातें बहुत हो गईं. अब संस्थानों पर, उनके कामकाज पर बात करने का समय आ गया है.

दस

यहाँ तक कि ख़ुद राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय पर अब तक कोई किताब नहीं है. एनएसडी के उतार-चढ़ाव के बारे में लिखो. डरकर मत लिखो और पूर्वग्रह के साथ मत लिखो कि वामन का काम अच्छा था, या कीर्ति का या बजाज का; क्योंकि हर आदमी अपने समय में बढ़िया ही करने की कोशिश करता है, अपनी परिस्थितियों का सामना अपने ढंग से करता है. बदला लेने के लिए नहीं लिखना होगा.

ग्यारह

अब बनारस की नागरी प्रचारिणी सभा है. नई पीढ़ी को सिर्फ़ इतना पता है कि वह एक बंद पड़ा संस्थान है. उसे यह तक नहीं पता कि एक ज़माने में यह बहुत फलता-फूलता संस्थान था. दरअसल हम नई पीढ़ी के साथ ज़्यादती कर रहे हैं. हम उसे ‘सभा’ जैसे महान संस्थानों के उत्थान और पतन का इतिहास नहीं बता पा रहे हैं. उसके क्षय के कारणों की मिलजुलकर जाँच नहीं कर पा रहे हैं. हमलोग नई पीढ़ी को साहित्य और रंगमंच में ले आना तो चाहते हैं, लेकिन उसे कुछ बतलाना नहीं चाहते. सच तो यह है कि अपना इतिहास हमें ही ढंग से नहीं पता है. हम कैसे बतायेंगे, जब सभा के बारे में कोई कायदे का शोध या कोई अच्छी किताब हो तब तो.

बारह

अतीत के संस्थानों पर शोध और प्रकाशन का काम हमारे जीवित संस्थानों का है. कोई इंसान किस तरह का थिएटर कर रहा है, इसपर बहुत बात हुई. अब संस्थानों का पुनर्पाठ हो.

तेरह

हो सकता है, आने वाले दिनों में सरकार के पास भी कोई डॉक्यूमेंट हो. आप देख लें, हजारों प्रोजेक्ट्स सरकार के पास जमा होते हैं. उन सारे प्रपोज़ल्स में ज़रूर ऐसे कुछ ब्रिलिएंट प्रपोज़ल होंगे जिन पर हमारा ध्यान न गया हो. क्यों नहीं दो युवा रिसर्चर्स को इन प्रपोज़ल्स पर एक रिपोर्ट तैयार करने का काम दिया जाता. उन प्रस्तावों से यह अंदाज़ लगाया जा सकता है कि हमारा देश कला के क्षेत्र में कैसे स्वप्न देख रहा है ? अन्यथा वे दस्तावेज़ सब कूड़ा मान लिए जाते हैं. लेकिन अगर आप इन फाइलों को फेंक रहे हैं तो आप विचारों को फेंक रहे हैं. मैं फिर से कह रहा हूँ, हमें अपने काम करने की शैली के बारे में बार-बार सोचने और दिशा बदलने की ज़रूरत है.

चौदह

ड्रामा स्कूल में हमारा छात्र जीवन बहुत शानदार मान लिया गया. यह भी एक मिथ है. हमारा देश मिथ बनाने में महारथी है. हमारे यहाँ यही एक चीज़ है जो सनातन है और लगातार बदलती भी रहती है. हम मिथ को वर्तमान भी करते रहते हैं. हर बैच अपने में अद्वितीय होता है. यह समय की बात है, उस दौर में देश के पाँच –दस शहरों में एक नए क़िस्म का शहरी रंगमंच बन रहा था. पाँच-छह नाटककार अचानक चर्चा में आ गये और पाँचेक निर्देशक भी. यह संयोग से कुछ ही अधिक रहा होगा. हमें महत्त्व मिला. हम घूम रहे थे. हमारा घूमना एक मिथ बन गया. लेकिन और लोगों ने भी तो घूमकर नाटक किये.

पंद्रह

इनदिनों मुझे अपना बचपन ज़्यादा याद आता है, क्योंकि बचपन का अनुभव हमारे सबकांशस में चला जाता है. वही अनुभव बड़े हो जाने पर ज़्यादातर रचनाओं का पदार्थ बनता है. मैंने उन अनुभवों को कभी सोचा नहीं था. आज वही अनुभव हमारी क्रिएटिविटी का सबसे बड़ा औज़ार हैं. मैं अपने नाटकों और डिज़ाइन आदि को देखकर कई बार यह याद कर पाता हूँ कि यह चीज़ तो मेरे बचपन से यहाँ आ गई है. मनुष्य की कला, मेरे ख़याल से, उसके दिमाग़ का नहीं, उसके इर्दगिर्द का, उसके परिवेश का कारनामा है. मैं पहाड़ों से आया था. पहाड़ों पर चढ़ने और उतरने के दृश्य अपने आप में एक परफॉरमेंस हैं और हमेशा मुझे प्रभावित करते हैं. मशहूर चित्रकार रामकुमार की सृजनयात्रा में बनारस वैसा ही एक पड़ाव है. उन्होंने बनारस को आत्मसात किया और उसे अभिव्यक्त किया. कलाकार का अतीत उसका कच्चा माल है. उसे बेकार मानना भूल है. हर अनुभव की एक इमेज होती है और कभी न कभी वह अपनी अभिव्यक्ति का रूप पा लेती है. रचना बहुत कुछ उस बीमारी की तरह है जो आपके भीतर छिपी रहती है और सही समय आने पर सामने आती है. हम सबके अपने-अपने पूर्वग्रह होते हैं, अपनी ज़िदें. स्मृति की भी ऐसी ही विडंबनाएँ होती हैं. लेकिन कला का जादू इस बात में है कि अतीत का ट्रैजिक सच अभिव्यक्ति के समय उदार होकर दूसरों के आनंद की वजह बन जाता है. इसीलिए हमारी परंपरा में विध्वंस को ही निर्माण का आरंभ माना गया है, जैसे शिव का तांडव.

सोलह

कई लोग अतीत को ध्यान से देखते नहीं, इसलिए उन्हें एक सपाट नैरेटिव वहाँ दिखता है. वे ग़रीबी आदि का महिमामंडन करते हुए इधर-उधर घूमते हैं. जबकि मैं अगर ग़रीब था, तो बहुत सुखी भी था. मैं श्रीनगर में पैदा हुआ. बचपन वहीँ बीता. मैंने तरह-तरह के काम किये. वाल राइटिंग की, साइनबोर्ड लिखे. आज मुझे वह सब याद करके बहुत मज़ा आता है. वह सब मेरे लिए बहुत फ़ायदे का साबित हुआ. हो सकता है कुछ लोगों का अतीत उनके काम न आता हो.

सत्रह

हिंदी के आधुनिक शहरी रंगमंच की मुख्य बाधा है कि इसके विकास के मूल में नाटककार खड़ा है – भारतेंदु से मोहन राकेश तक. इसके समीक्षक आदि भी, ज़ाहिर है, साहित्य की दुनिया से आये. इसके कारण शब्द का वर्चस्व इस पर शुरू से रहा आया. शब्द के हल्ले में हम यह भूल गए कि परफॉर्मिंग आर्ट सिर्फ शब्द नहीं है. उसकी अनेकानेक भाषाएँ हैं. यहाँ ध्वनि भी एक भाषा है, संगीत भी एक भाषा है, मुद्राओं की भी एक भाषा होती है. रंगमंच भाषाओँ का समूहन है. लेकिन हमें पढाया यह गया है कि भाषा माने शब्द. एकेडमिक्स में अब भी यही चल रहा है. इसकी वजह से डायलॉग हमारे पूरे काम पर हावी हो गया. यह भी कमाल देखिये कि अपवाद छोड़ दें तो पिछले पचीस-तीस साल का हरेक नाटककार गद्यकार है. अगर कवि नाटककार होते तो शायद हिंदी रंगमंच एक अलग चीज़ होता. कवियों का थिएटर एक रूपकात्मक और छविमान थिएटर है. मिसाल के लिए, संस्कृत को देखें. दूसरी ओर, गद्य का थिएटर एक सपाट थिएटर होगा ही. आख़िर हर गद्यकार निर्मल वर्मा नहीं होता. लेकिन सरासर अभिधा को बरतने वाला गद्य का यही नाटककार एक दिन अचानक थिएटर का ब्राह्मण हो गया और हमसब हो गए शूद्र. कम से कम वह ऐसा समझने लगा. वह साक्षर और शिक्षित हो गया और फ्लोर पर काम करने वाला निरक्षर. हमने भी प्रायः यही मान लिया. इससे एक बड़ी फाँक बन गई – नाटक लिखने वालों और नाटक करने वालों के बीच. मेरा ख़याल है कि नाटककार ने ख़ुद को छोड़कर पूरे दृश्य को हिकारत की नज़र से देखा. एक तरह के पढ़ेलिखेपन की सर्वोच्चता बन गई और बाक़ी लोग हीनभावना का शिकार होते रहे. इस विडंबना ने हमारे कामकाज को, हमारे थिएटर को, कुछ हद तक, उसकी बुनियादी ताक़त से दूर करके एक किताबी थिएटर तैयार किया.

अट्ठारह

यह शिकायत बार-बार उठती रहती है कि अभिनेता अनपढ़ है. अरे भाई, वह क्या पढ़े ? आप ही बता दें. अगर उसने बलिया-निवासी फलाँ सिंह की कविता नहीं पढ़ी तो वह अनपढ़ हो गया ? यह कहाँ का विवेक है ? ऐसे निर्बल आरोपों के दम पर उसके कुछ और पढ़ते होने की संभावना का वध किया जाता रहा है. मुमकिन है कि वह प्रेमचंद की कहानी न पढ़े, लेकिन हो सकता है वह अखबार पढता हो, हो सकता है वह जीवन पढता हो, हो सकता है वह कुछ और पढता हो. पढ़ेलिखेपन की अपनी मनमानी कसौटी को अभिनेता पर आयद करना कहाँ की समझदारी है ?

उन्नीस

बहरहाल, इसके दबाव में एक तथाकथित साहित्यिक थिएटर जन्मा. कहानी का रंगमंचनुमा. ठीक है. वह भी एक चीज़ है. लेकिन दूसरी चीज़ों की उपेक्षा मत करो. मैं शब्द का मुरीद हूँ, लेकिन थिएटर में निरे शब्द की सत्ता का हामी न हूँ, न हो सकता हूँ. उसी साहित्यिक, शब्दप्रधान थिएटर के दबदबे में हमलोगों के काम को उछलकूद का रंगकर्म मान लिया गया. ठीक है, लेकिन मेरी उछलकूद कोई बात भी कहती है. दिक्कत है कि इस भाषा को पढ़ने की हमारी, यानी लोगों की आदत नहीं है. ये एप्रोप्रिएशन के तौरतरीक़े हैं. मुझे लगता है कि कबीर के साथ यही हुआ. उनकी बढ़ती लोकप्रियता के असर में साहित्य वालों ने उन्हें अपनाया. अन्यथा कबीर साहित्य की चीज़ थे नहीं.

कुलमिलाकर हमारा थिएटर शहरी साक्षरता से निकली हुई चीज़ बन गया.

इक्कीस

पढ़ते समय मुझे कुछ नहीं पता था कि आगे मेरा क्या होगा ? अब लगता है कि औरों को पता था. वे पढ़कर निकले और सीधे अपने गंतव्य की ओर चल पड़े. हम जिस बैकग्राउंड से आये थे, हमें तो यह तक नहीं पता था कि अगर हम पैदा हुए तो क्यों पैदा हुए ? अब हिन्दुस्तानी मध्यवर्ग यह तय करता है कि उसका बच्चा बड़ा होकर क्या करेगा. संपन्नतर मध्यवर्ग प्रोग्राम्ड बच्चे पैदा करने लगा है. एक सुनियोजित प्रोग्रामिंग के ज़रिये उसकी तर्बियत, उसका माहौल सब तैयार किया जाता है. तब कहीं जाकर वह डॉक्टर या इंजीनियर बनता है. हमारे माँ-बाप तो अपनी ही ज़िंदगियों से जूझ रहे थे. आज तक, राजनीति के नैरेटिव में जिस युवा शक्ति की बात होती रहती है, क्या उसे पता है कि वह क्या करेगा या क्या कर रहा है ? नहीं. ऐसे मुट्ठी भर लोग हैं, जिनके पास योजना है. वह प्रभुवर्ग है.

बाईस

हमलोग अलग-अलग जगहों से आये थे और हमारे पास कोई एक्सपोज़र नहीं था. किसी के पास नहीं था. तब एक्सपोज़र के औज़ार भी अब जितने नहीं थे. अब गूगल मैप से पलभर में आपको पता लग जाता है कि दिल्ली में मंडी हाउस कहाँ पर है. हमें नहीं पता था. हमने आकर जाना कि मंडी हाउस क्या बला है. हमारा युग अपेक्षाकृत भोला कहा जा सकता है. यह कोई तुलना नहीं है. हर दौर की अपनी शक्ति और सीमा होती है.

तेईस

मेरा मानना है कि अल्काज़ी साहब ने ड्रामा स्कूल को एक थिएटर ग्रुप की तरह चलाया, एक राष्ट्रीय संस्थान की तरह नहीं. वही एले थे, जो प्ले करते थे. एक-डेढ़ बजे तक क्लासेज़ होती थीं. फिर तीनों क्लासेज़ को मिलकर एक बड़ा प्रोडक्शन होता था. मुझे लगता है कि यह किसी दूसरे थिएटर ग्रुप जैसा था, जिसमें कुछ ब्रिलिएंट और आत्मसजग लोग थे और थोड़ी-बहुत पढाई भी होती थी – जिसकी फंडिंग भारत सरकार कर देती थी. न जाने क्यों, उस दौर के अन्य अध्यापकों पर बात नहीं होती. हर आदमी उन्हीं पर बात क्यों करना चाहता है. अल्काज़ी साहब मेरे टीचर थे, लेकिन नेमिजी भी थे. पांचाल साहब, दासगुप्ताजी, घोष साहब, शीला भाटियाजी, महापात्राजी. मेरे लिए सब मेरे गुरु हैं और सबका बराबर ऋण है मुझपर. दुस्संयोग से, मैं एक्टर था नहीं, तो बाक़ी अल्काज़ी साहब के मुक़ाबले दुसरे अध्यापकों से ही मैंने ज़्यादा सीखा. अल्काज़ी साहब के चहेते लोग एक्टर हैं. बेशक़ वह बढ़िया अध्यापक थे. लेकिन मैं तो यही मानता हूँ कि वह मेरे डायरेक्टर थे. स्टूडेंट मैं बाक़ी टीचर्स का था.

चौबीस

मैं फिर संस्थानों वाली बहस पर लौटूंगा. एक संस्थान को एक व्यक्ति अकेले नहीं चलाता, उसे इंसानों का एक समूह चला रहा होता है. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय भी इसका अपवाद नहीं था. वह अच्छे नाटक करना चाहते थे, इसलिए उनका पूरा रुझान अभिनेताओं की तैयारी की ओर रहता था. रीता कोठारी म्यूजिक पढ़ाती थीं. कोई उनका नाम नहीं याद करता. यह वैसा ही है कि जब तक हमारे साथ काम करो, कहो कि बंसी जी हमारे गुरु हैं. एनएसडी में दाख़िले के बाद अपना गुरु बदल लो. पास होते ही अल्काज़ी साहब अभिनेताओं को रंगमंडल में रख लेते थे. लेकिन हमारे जैसे लोग – जो अभिनेता नहीं थे, कहाँ गए ? हम तो निकलते ही घूमने लगे. तो अभिनेताओं का स्वर्ग था. अगर बाहर जाकर हमने अपनी निजी क्षमताओं की अभिव्यक्ति न की होती तो यह तय है कि इस स्वर्ग ने हमें भुला दिया होता. पूरे सम्मान के साथ, लेकिन, यह तो कहना ही होगा कि कुछ मूर्धन्यों का भारतीय रंगमंच में योगदान इतना-भर है कि वह ड्रामा स्कूल से निकले तो रेपर्टरी में आये और वहाँ से निकले तो फिर ड्रामा स्कूल पहुँच गए. वे प्रतिभाशाली लोग थे, लेकिन उनके बरक्स जो घुन-घूमकर काम कर रहे थे, उनका क्या ? वैसे लोगों की सबसे ज़्यादा मदद नेमिजी ने की. उनका संज्ञान लिया. उनके कामकाज, उनके संघर्ष और प्रयोगों को नटरंग के पन्नों और अपनी समीक्षाओं में जगह दी. नेमिजी की नज़र सबलोगों पर थी और दूर तक जाती थी. नदी के रूपक का इस्तेमाल करूँ तो नाव पर बैठे लोगों को अल्काज़ी साहब देख रहे थे और पानी में तैर रहे लोगों को नेमिजी. नाव पर बैठे लोग सबको दीखते हैं, पानी में देखने के लिए गहरे जाना होता है. वह सबकुछ को आलोचना के दायरे में लाये. एकेडमिक कॉन्ट्रिब्यूशन तो नेमिजी का ही है. गोवर्धन पांचाल की पूरी किताब है कुतम्बलम पर – उस कलारूप का पहला डॉक्यूमेंटेशन.

पचीस

अंततः, अल्काज़ी साहब का दौर एक मिथक ही है. दिक्कत हममें है. हम एक व्यक्ति चुनते हैं, उसकी परिक्रमा करने लगते हैं और संस्थान का विचार पीछे छूट जाता है. इतिहास का विश्लेषण करते हुए किसी युग-विशेष को ज़रुरत से ज़्यादा तवज्जो देने से विचित्र समस्याएँ सामने आने लगती हैं. अल्काज़ी के दौर के बाद ब्रिलिएंट लोगों का, निर्देशकों का पूरा समूह खड़ा है. सत्तर के दशक से कहीं ज़्यादा काम आज होता है. एक-एक शहर में बीस-बीस समूह हैं. अच्छे-बुरे को छोड़ दें तो कई गुना ज़्यादा वैविध्य है. इसका हिसाब कब होगा ?

छब्बीस

आकलन एकांगी न हो. एक निर्देशक को या एक अभिनेता को उसकी एक ही प्रस्तुति से याद न किया जाय. हम उसे बंदी न बना लें. नए लोगों में अपार संभावनाएँ हैं – संजय उपाध्याय, कन्हैया, भोपाल में फ़रीद – और भी लोग हैं. लंबी सूची है. बंगाल, तमिलनाडु और केरल के लोग.

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अनुकृति उपाध्याय की कहानी ‘जानकी और चमगादड़’

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अनुकृति उपाध्याय एक प्रतिष्ठित वित्त संस्थान में काम करती हैं. हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लिखती हैं.  यह कहानी बड़ी संवेदनशील लगी. बेहद अच्छी और अलग तरह के विषय पर लिखी गई. आप भी पढ़कर राय दीजियेगा- मॉडरेटर

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पीपल का वह वृक्ष उस रिहायशी इमारत के विस्तृत प्रांगण के पूर्व में स्थित था. उसकी धूप से पकी भूरी शाखाएँ चौड़े गिर्दाब में फैली थीं. उसके विषद तने पर, जहाँ से छाल कुछ–कुछ छिल गई थी, हल्के सलेटी धब्बे थे. नाजुक पीताभ डंडियों से लटकी गहरी, हरी पत्तियों की नुकीली चोंचें सदा लरजती, झूलती रहती थीं. उसके कद और फैलाव के सामने कंपाउंड के अन्य सभी वृक्ष ओछे लगते थे. हर सुबह उगते सूर्य की किरणें उस पर जिस गलबहियों की – सी नर्मी से पड़ती थीं उससे साफ़ ज़ाहिर था वह सूर्य का पुराचीन सखा था और तब से धरती का वह कोना अगोरे खड़ा हो जब सूर्य एक जवान सितारा था. और जिस कदर वह हरा–भरा  और छतनार था, उससे पता चलता था कि उसने कभी किसी तरह का प्रतिबन्ध जाना ही नहीं था.

हालाँकि पीपल मनुष्य की स्मृति से अधिक पुराना था, इस रिहायशी कॉम्प्लेक्स से जुड़ी उसकी कहानी सब जानते थे, मैनेजर से लेकर अदने माली तक. वह कहानी कुछ यों थी– पिचहत्तर-अस्सी वर्षों पहले, कुछ विलायती कंपनियों के कुछ देशी–विदेशी नियंताओं ने नगर की भीड़-भाड़ से अलग और आम जन की पहुँच से कतराए घर बनाने का निर्णय किया. ये घर इतनी खूबी से बने होने चाहिए थे कि उनकी सहूलियतों में वे बंबई के देशीपन का दुःख भूल जाएँ. चुनाँचे इस महत्वपूर्ण काम के लिए उन्होंने बहुत से पाउंड देकर लंदन से एक युवा वास्तुकार बुलाया. वह वास्तुकार बंबई के उजले आकाश और अरब सागर वाले सौन्दर्य पर मोहित हो गया लेकिन युवा होने के बावजूद वह अनुभवहीन नहीं था. देशी–विदेशी साहबों पर उसने यह ज़ाहिर नहीं होने दिया और जब वे बंबई की गर्मी या भीड़ की शिकायत करते तो वह सिर हिलाना ना भूलता. उसने कोलाबा से लेकर नेपियन–सी रोड तक के सारे इलाके देख डाले. कहीं पर समुद्र की नमकीन हवा की झार तीखी थी तो कहीं बच्चों और कुत्तों और नौकरों की जमातों के लिए सुविधा नहीं थी. घूमते-फिरते वह सागर तट से सभ्य दूरी बनाए, शाइस्ता गोलाई में उभरी, शहर के ऊपर उठी मलाबार हिल पहुँचा. बस यह जगह उसे ठीक जँची और उसने पहाड़ी का एक हिस्सा, जहाँ से सागर का नज़ारा दिखता था, चुन लिया. ज़मीन के मालिक की वह टुकड़ा बेचने की इच्छा नहीं थी, वह एक छोटा-मोटा राजा था और निकट ही एक विशाल हवेली में रहता था. लेकिन उसकी इच्छा अनिच्छा से कहाँ अंतर पड़ता था? झटपट फ़रमान भेज दिया गया और मलाबार हिल के उस सुरम्य कोने के साथ वही हुआ जो बाक़ी हिन्दुस्तान के साथ हुआ था – उसे औने पौने दामों में साहबों के लिए हथिया लिया गया.

वास्तुकार भूमि के निरीक्षण और नाप-जोख में जुट गया. पूर्व में खड़े महाकाय पीपल को उसने देखा, तो देखता रह गया. वह आस-पास के वट, ताड़ और नाग केसर के वृक्षों का पुरखा दिखता था. वह देर तक उसके तने के चिकनेपन को अँगुलियों से छूता रहा, उसकी नीली छाँव में पड़े हरे – सुनहरी धूप-धब्बों को देखता रहा. उस पर पीपल का श्याम-हरित जादू गहरा चला, यह पेड़ नहीं काटा जाएगा, उसने अपनी डायरी में लिखा. यह इसी प्रकार पूर्वाभिमुख, प्राचीन यतिवत सुर्यवंदना में हरिताभ बाँहें बढ़ाता रहेगा. वहीं पीपल के नीचे बैठ कर उस युवा वास्तुकार ने बिल्डिंग का ख़ाका बनाया. संयोजना में पीपल को अहम् स्थान दिया गया. वह अपनी निगरानी में पहाड़ी के सपाट किए कोने पर इमारतों का निर्माण करवाने लगा.  इस नीयत से कि पूर्वी छोर पर स्थित पीपल पर आँच न आए, एक दूसरे से एक सुसंस्कृत दूरी बनाए हुए पाँच छः मंजिली इमारतें, एक कतार के बजाए अर्ध चंद्र में बनाई गईं. हर मंजिल पर एक बड़ा हवादार फ्लैट, साहब लोगों और नौकरों ले लिए अलहदा सीढ़ियाँ, गाड़ी – घोड़ों के लिए गैराज. पीपल को उचित पृष्ठभूमि देने के लिए वास्तुशिल्पी ने एक उपवन की संकल्पना की. निर्माण सम्पूर्ण होने पर अंग्रेज़ वास्तुशिल्पी अपने देश लौट गया. वास्तुशिल्पी के कला -कौशल की  निशानी के तौर पर उसके बनाए पीपल के स्कैच बिल्डिगों में अब भी जगह-जगह लटके हैं और भारतीय और विदेशी फूलों से संपन्न, हरी मखमली घास से सजे बाग़ के एक छोर पर अब भी विशालकाय हरे गुलदस्ते सा पीपल अपना अधिपत्य जमाए है.

इसी पीपल की शाखा –प्रशाखाएँ जानकी की खिड़की तक फैली हैं, उसके पत्तों से छनी धूप से कमरा हरियाया रहता है, शाम पड़े सुघड़ छायाएँ दीवारों पर अंकती-मिटती रहती हैं. चाचा ने पीपल के इस निकट संसर्ग पर शुरू में ही आपत्ति उठाई थी. “इस पेड़ की डालियों ने तमाम खिड़की को ढँक रखा है, कीड़े – पतंगे आएँगे घर में इससे और बंबई के मानसून में जो थोड़ी बहुत धूप दर्शन देती है, उसे ये पेड़ हजम कर जाएगा. कमरे में सीलन रहेगी. इसकी छँटाई होनी चाहिए.”

 “आप कैसे बॉटनिस्ट हैं, चाचा? आपसे इसकी हरियाली देखी नहीं जा रही? ऐसा सुंदर, मर्मर – भरा परदा लगाया है. इसने मेरी खिड़की पर और आप इस पर ‘वायलेंस’ करना चाहते हैं?” जानकी ने पीपल की और से पैरवी की.

चाचा चिढ़ गए. “अव्वल तो मैं बॉटनिस्ट नहीं हूँ. फिज़िसिस्ट हूँ, इतने सालों में किसी कुंद -जेहन को भी यह पता चल जाता. दूसरे इस पीपल को किसी के तरफ़दारी की ज़रुरत नहीं है, घोर अवसरवादी पेड़ है, फ़िग फ़ैमिली की सबसे कड़ियल और अड़ियल संतान. जहाँ जड़ जमा ले, भूकंप छोड़ किसी और तरह न निकले.”

“देखिए आपको पेड़ों के बारे में इतना मालूम है, बॉटनिस्ट आप कैसे नहीं?! और अगर ये महानुभाव दूसरे के सिर पर पैर रख कर इतने बड़े हुए हैं तो उसमें बुराई क्या? आपने ही तो ‘सरवॉयवल ऑफ़ फिटेस्ट’ के बारे में पढ़ाया था मुझे.”

चाचा ने बोर्ड कि परीक्षाओं के लिए जानकी को साइंस पढ़ाई थी, दफ्तर से छुट्टी लेकर. जानकी की दिलचस्पी विज्ञान में कम ही थी, वह  ध्यान नहीं देती थी, बार-बार  पढ़ाया हुआ पाठ भूल जाती थी और चाचा एक हताश निश्चय के साथ जुटे रहते थे. जब दसवीं की परीक्षा के बाद जानकी ने अकाउंटिंग लेने का निश्चय किया तब जा कर चाचा ने आशा छोड़ी. “तुम बनियागीरी पढ़ती हो, साइंस का जिक्र ना ही करो. इस पीपल के मच्छर-मक्खियों और सीलन के जब बीमार पड़ जाओगी तब इवोल्यूशन की सारी थ्योरी उलटी पड़ जाएगी. तुम सुपीरियर स्पीशी की हो, तुम्हारे स्वास्थ्य के लिए इस पीपल को कटवाना पड़ेगा.”

“हम कहाँ से सुपीरियर हो गए. लाख वर्षों से ही तो यहाँ हैं जबकि ये पीपल महाशय कल्पों से डटे हैं.”

“फालतू की बहस है ये. भाई” चाचा जानकी के पिता की और मुख़ातिब हुए “आपको बिल्डिंग की मैनेजमेंट कमिटी में पेड़ों की छँटाई की बात उठानी चाहिए. मैंने तो आपको पहले ही इतने पुराने कॉम्प्लेक्स में घर लेने से मन किया था, इतने नए डिवेलपमेंट्स हैं…”

“बिल्कुल मत उठाइएगा कटाई वगैरह की बात, पापा” जानकी ने गुहार लगाई “ये पेड़ और पुराना गार्डन ही इस जगह को इतना स्पेशल बनाते हैं…”

बहस वाकई व्यर्थ साबित हुई. बिल्डिंग के प्रबंधन नियम वही अंग्रेज़ वास्तुशिल्पी लिख गया था. उनमें बिल्डिंग के कंपाउंड में लगे पेड़ों की छँटाई पर कड़े प्रतिबंध लगाए गए थे. पीपल का विशेष उल्लेख था – पूर्वी छोर पर लगा प्राचीन फ़ाइकस रिलीजिओसा संरक्षित वृक्षों की श्रेणी में है. म्युनिस्पैलिटी व नगर की नैचुरल हैरिटेज कमिटी को उसके विषय में जानकारी दी गई है तथा मानसून की अनिवार्य छँटाई से लिखित में छूट ली गई है, केवल गिरने वाली डालियों को ही काटने की अनुमति है, हरी डालियों को किसी प्रकार कि हानि पहुँचाने पर जुर्माना. जानकी यह सुन कर हँस पड़ी.

जानकी अपने परिवार के साथ इन्हीं गर्मियों में कलकत्ता से बंबई आई थी. उसके पिता एक बड़ी कंपनी में ऊँचे पद पर थे. हैड ऑफिस की नियुक्ति पर बंबई आए थे. पदोन्नति की आशा थी, जिम्मेदारी का ओहदा था, अक्सर देर से आते थे. अच्छा था कि चाचा पहले से बंबई में थे, शादी वगैरह उन्होंने की नहीं थी, शामें और सप्ताहांत जानकी के घर ही बिताते थे. “भैया से बड़ा सहाय है” मम्मी कहतीं “बंबई घर जैसा लगने लगा है दो ही महीनों में” “आपको ही लगता होगा” जानकी कहती, उसकी सहेलियाँ कलकत्ते में ही छूट गयी थीं, “चार मौसम वाले कलकत्ता के बाद ढाई मौसम वाला बंबई.” ये मुहावरा उसने पापा से सीखा था, वे कहते “बंबई में सिर्फ गर्मी और बारिश, यही मौसम होते हैं. और जैसी-तैसी बमुश्किल सर्दियाँ, ढाई मौसम !” लेकिन वस्तुतः चाचा का सहारा था.शाम को जानकी के साथ बात-चीत, नोंक-झोंक कर लेते और घर में कुछ रौनक हो जाती. उनके आने के कारण मम्मी भी रोज कुछ न कुछ नया पकवातीं. जानकी कॉलेज की प्रवेश-परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी, सारा दिन घर में खिड़कियाँ, दरवाजे बंद कर, बैठने में उसे घुटन लगती थी. ऐसे में पीपल की साँवली छाँह का ठंडक-भरा वादा आकर्षक था. शाम को वह पीपल के नीचे जा बैठती. पीपल-तले तिपतिया, छोटी नरसल और दूसरी जंगली घासों का मोटा कालीन ठंडा और मुलायम था. वह तने की टेक लगा कर पढ़ती रहती. एक रोज़ घर में काम करने वाली सुनीता ने देखा तो    शिकायत की. “जानकी बाबा पीपल के नीचे बैठीं थी. कुंवारी लड़की हैं, पीपल पर जिन्न-भूत रहते हैं. साँझ पड़े मत बैठने दो…”

खाने की मेज़ पर मम्मी ने बात उठाई, “सुनीता को डर है जानकी पर पीपल का भूत सवार हो जायेगा.”
चाचा सलाद की प्लेट से चुन-चुन कर टमाटर के टुकड़े खा रहे थे. बोले “उस डर के लिए देर हो चुकी है. पीपल का भूत इस पर पहले दिन से सवार है.”

“ ‘हाउ सैल्फिश’ चाचा. कुछ टमाटर मेरे लिए भी छोड़िए ! और मुझ पर नहीं आप पर सवार है पीपल का भूत – इसे छँटवा दो, खिड़की से हटवा दो, बीमारी का घर है ! खुद आ कर देखिए क्या हवा चलती है उस पेड़ के नीचे. और कहीं पत्ती भी नहीं हिलती लेकिन पीपल के पात हमेशा डोलते रहते हैं.”

“तुम्हें कौन कॉलिज में दाखिला देगा? जाहिलों की सी बातें करती हो. पीपल के ‘ड्रिप लीव्स’ होती हैं, पत्तियों का जुड़ाव डंडियों से ऐसा लचकीला होता है कि बिना हवा के भी हिलती हैं.”

“अच्छा ये पीपल पर बहस नहीं है.”   मम्मी ने नौकर को चाचा और पापा की थालियों में रोटी परोसने का इंगित किया, “बात इतनी है कि शाम को गीली घास-मिट्टी पर बैठी रहोगी तो कपड़ों में दाग लगेंगे और तुम्हें जुकाम लगेगा.”

“मम्मी उसकी जड़ में इतनी मखमली घास और ‘मौसेज’ हैं, आपका भी बैठने का मन हो जाए !”  मम्मी और चाचा एकबारगी साथ आपत्ति कर उठे. चुपचाप खाना खाते पापा ने चम्मच बिना आवाज दाल की कटोरी में रख दी. “कल से घास में मत बैठना, जानकी, ‘फोल्डिंग चेयर’ ले जाना.”

“आप से उस जंगल-नुमा पेड़ के नीचे बैठने दे रहे हैं ?”  चाचा ने चुनौती दी.

“क्यों नहीं? तुम्हें पीपल के जिन्न भूत पर विश्वास है ?”

चाचा सिटपिटा कर चुप हो गए.

मई का महीना था और उमस नाम पूछ रही थी. एक शाम जानकी पीपल के नीचे बैठी पढ़ रही थी. “तुम अपने सिंहासन पर डटी हो ?” चाचा सीधे दफ्तर से चले आ रहे थे. उनके हाथ में लंच-बैग था और कंधे पर एक बस्ता-नुमा थैला.

“चाचा, ‘यू लुक सो क्यूट’ ! कॉलिज के लड़के दिखते हैं आप. आपकी उम्र क्या है?”

“जो इस पीपल की है. इतने अँधेरे में आँखें फोड़ रही हो?”

“बस घर जाने ही वाली थी मगर यहाँ इतनी शांति है कि मन नहीं हो रहा आप ध्यान से सुनें तो इसकी जड़ों से तने और तने से डालियों में खिंचते बूँद-बूँद रस की आवाज़ सुन सकते हैं.”

“वो जमीन में पानी ‘सीप’ होने की आवाज़ है.” चाचा ने पीपल के नीचे की काई को जूते से दबा कर देखा. “बहुत नमी है, चिकनी मिट्टी है यहाँ, पानी ‘ड्रेन’ नहीं होता. मच्छर नहीं हैं यहाँ?” उन्होंने जानकी के बिना बाँहों के कुर्ते पर उचटी नज़र डाली.

“मच्छरों को इस पीपल के जिन्न खा गए हैं. लेकिन देखिए, इस पर ये क्या आ रहा है?”  जानकी ने पीपल की डालियों पर जड़े फलों की ओर इशारा किया. “पीपल पर फल आते हैं, नहीं जानती थी. पहले ये हरे थे अब लाल हो गए हैं.”

“फाइकस के फ़िग्स हैं, अंजीर जैसे, लेकिन हमारे लिए अखाद्य, बेहद कसैले.”  चाचा ने बाँह बढ़ाकर एक गठियल, घुंडीनुमा फल तोड़ लिया. “दरअसल ये सिर्फ फल नहीं है, इस पीपल के फूल भी हैं. जैसे तुम्हारी मम्मी छोटी-बड़ी चीजों को एक-में-एक सहेजती हैं, वैसे ही ‘नेचर’ ने फूल, फल, बीज सब इस छोटे फ़िग में सफ़ाई से सहेज दिए हैं. ‘वेरी इकनोमिकल’.” चाचा ने अँगुलियों से दबा कर फल को तोड़ दिया. उसके भीतर का पीलापन लिए गुलाबी गूदा और राई के दानों से छोटे-छोटे बीज बिखर गए. “अभी कच्चे हैं, थोड़े दिनों में पकेंगे तो चिड़ियाएँ खाएँगी.”

चाचा की भविष्यवाणी ठीक सिद्ध हुई. फल पकने लगे और पीपल चिड़ियाओं के लिए सदाव्रत बन गया. सुनहरे, कजरारी आँखों वाले पीलक, माथे पर लाल टीका चमकाए बसंथा, चोटीदार बुलबुले और तरह-तरह की छोटी मुनियाएँ उस पर दिन भर शोर मचाने लगीं. शाम को पीपल-तले की धरती अधखाए फलों से पटी होती जो जानकी के पैरों के नीचे दब कर करारी आवाज़ के साथ टूट जाते. इन्हीं दिनों जब पीपल से एक अपरिचित रसीली गंध उड़ रही थी, एक शाम चमगादड़ आए. गोधूलि के नील-गुलाबी गगन में वे दल-के-दल उड़ते आए. जानकी पीपल-तले ही थी. उसने झटपट किताबें समेटी और एक ओर हट कर देखने लगी. दूसरी छोटी चिड़ियों की तरह वे चमगादड़ पर नहीं मार रहे थे, ना ही चीलों की तरह तिर रहे थे, अपने कमानीदार परों को उठाते-गिराते वे आकाश में चप्पू-सा चला रहे थे. वे सभी आकारों के थे – कार्बन की कतरनों से नन्हें और बड़ी पतंगों से लहीम-शहीम. एक-एक कर वे पीपल पर उतरने लगे. जानकी घर लौट पड़ी.

              पापा कई दिनों से दफ्तर के काम से शहर से बाहर थे. उस शाम ही लौटे थे और चाचा के साथ लिविंग रूम में चाय पी रहे थे. “भाई, आपके  कारण आज जल्दी आ गई है वरना अँधेरा हो जाता है और ये वहाँ मच्छरों का भोजन बनी बैठी होती है.” चाचा ने कहा.

जानकी ने पापा के हाथ में थमा चाय का कप लिया और चुस्की लेकर मुँह बनाया, “आज भी फीकी है. चाचा, ज़रा अपनी चाय दीजिए ना.”

“रसोई में जाने का कष्ट कीजिए ना.”

“क्या चाचा.” जानकी ने प्लेट से अंजीर की तराश उठाई, “‘बाइ द वे’ पीपल पर आज चमगादड़ आए हैं. बाप रे बाप, कितने सारे ! कैलकटा में भी थे, लेकिन इतने एक साथ कभी नहीं देखे. सुनीता दी कहती है चमगादड़ खून चूस लेते हैं, कान काट लेते हैं..”

“वाह, वाह, बहुत अच्छे! सारे ज्ञान का स्रोत सुनीता है तुम्हारे. ऐसी बुद्धि लेकर क्या करोगी? ‘सच नॉनसेंस’.”

“तो काटते नहीं हैं चमगादड़?”

“परेशान करने पर तो गिलहरी, चूहे भी काट लेते हैं लेकिन चिमगादड़ मनुष्यों को नुकसान नहीं पहुँचाते बल्कि खेती ख़राब करने वाले चूहों वगैरह को खा लेते हैं. यहाँ जो चिमगादड़ दिखते हैं वे इंडियन फ़्लाइंग फ़ॉक्स हैं, मैगा काएरोप्टैरा ‘सब ऑर्डर’ के. जैसा कि तुम जानती हो, या कम से कम मेरी पढ़ाने की मेहनत के बाद तुम्हें जानना चाहिए, ये मैगा काएरोप्टैरा फ्रूट बैट्स हैं, फलाहारी, बिल्कुल साधु-संतों की तरह.” “काएरोप्टैरा” पापा ने दोहराया, “माने पाँख – हाथ, बहुत खूब.” पापा को शौकिया तौर पर भाषाएँ सीखने कि लत थी. हवाई जहाज़ में, गाड़ी में, गुसलखाने में जहाँ वक्त मिलता, पढ़ते रहते.

“बिल्कुल. चिमगादड़ मैमल्स हैं. हमारी तरह, उनके पर चमड़े की झिल्ली हैं जो उनके हाथों की अँगुलियों के बीच तनी है. ग़ज़ब जीव हैं ये ‘बैट्स’. फ़्लाइंग फ़ॉक्स की दृष्टि तो ठीक-ठाक है लेकिन ज्यादातर की आँखें कमजोर होती हैं, ध्वनि के सहारे रास्ते की अड़चनें जान लेते हैं.”

“लेकिन चमगादड़ तो बोलते नहीं बस अमावास की रात को बोलते हैं.”

चाचा ने गहरी साँस ली. “ये भी सुनीता ने बताया होगा. आज सुनना कैसा शोर मचाते हैं. रास्ता ढूंढने के लिए अलबत्ता अल्ट्रा-सोनिक ध्वनि का प्रयोग करते हैं जिसका ‘पिच’ इतना ऊँचा होता है कि मनुष्य के कान उसे सुन नहीं सकते.”

“लेकिन…”

“देखो जानकी, एक शाम में मैं इससे ज्यादा घनीभूत विज्ञान का अज्ञान नहीं झेल सकता. लो, तुम मेरी चाय पी लो.” जानकी ने हँसते हुए चाचा के हाथ से कप ले लिया.

उस रात जानकी खिड़की के पास खड़ी पीपल की डालियों पर चमगादड़ो की अफ़रा-तफ़री देखती रही. पेड़ की फुनगी से लेकर डालियों तक वे कागज़ी कंदीलों से लटके थे और नट-बाजीगरों की सी चटुल गरिमा से शाखाओं पर यहाँ-वहाँ आ-जा रहे थे. एक ने जानकी का ध्यान विशेष रूप से खींचा. वह एक बड़ा भारी चमगादड़ था और जानकी की खिड़की के सबसे निकट वाली डाली पर लटका था. यद्यपि खिड़की के पास की डालियाँ फलों से लदी थीं, उन पर उसके अतिरिक्त कोई और चमगादड़ नहीं था. जानकी खिड़की पर और झुक कर उसे गौर से देखने लगी. वह डाली पर धीरे-धीरे एक सिरे से दूसरे सिरे तक तफ़रीह कर रहा था. जानकी के देखते-देखते उसने पंजा बढ़ा एक पका फल तोड़ा और फल को पंजे में थामे-थामे झूलता सा घूमा. जानकी ने देखा कि उसका मुंह वाकई कुछ-कुछ लोमड़ी-सा था – नर्म, नुकीली थूथन, चमड़े की पत्तियों से कान और काले मनकों सी आँखें. उसके गले के गिर्द लाल-सुनहरी रोयों का रंगीन मफ़लर-सा था. जानकी ने होंठ गोल कर हल्की सी सीटी बजाई. चमगादड़ डाली पर सरका और बिल्कुल सिरे पर आ रहा, इतना निकट कि यदि जानकी हाथ बढ़ाती तो उसे छू लेती. उभरी, चमकीली आँखें जानकी की ओर लगाए, वह पंजे में थमा फल खाने लगा. अपने नुकीले दाँतों से उसने फल को छेद डाला और उसका रस और नर्म गूदा चूस गया. फिर एक नर्तक की अदा से उसने अपने चौड़े पर फैलाए, पीपल पर घिरा अँधियारा जैसे और गहरा हो गया. चमगादड़ की अनावृत्त देह जानकी को एक बड़े चूहे-सी लगी, उसके हल्के पीताभ अधोभाग में उसका गहरे रंग का लिंग उभरा हुआ साफ़ दिखाई दे रहा था. जानकी ने भौहें उठाई और खिड़की से हट गई.

सुबह के सात ही बजे थे परंतु धूप पीपल की डालियों में घुस-पैठ कर रही थी और ललमुँहा सूरज आकाश में ऊँचा उठ गया था. सूर्य को अर्घ्य देने खिड़की पर आई जानकी चाँदी की लुटिया से जल-धार गिराने और सविता देवता वाला मंत्र बुदबुदाने लगी. निकट की डाली पर हलचल हुई. वही रात वाला चमगादड़ था, फिर से डाली के छोर पर आ गया था. अपने पर उसने दुशाले की तरह कस कर अपने गिर्द लपेटे हुए थे और उसकी गर्दन पर के रोएँ धूप में चिलक रहे थे. पीपल पर दिन की चिरैयों की गहमा-गहमी होने लगी थी और वह अकेला ही चमगादड़ रह गया था. जानकी ने गीली अँगुलियों में अटकी पानी की बूँदें चमगादड़ की ओर छिटक दीं. “लो तुम भी अर्घ्य लो, मुझे तुम्हारी वंदना का कोई मंत्र नहीं आता, चमगादड़ों के राजा, लेकिन ये कैसा है – तुम्हारे पंखों में रात बसती है और कंठ पर उषा…”

“हाय राम ! जानकी बाबा, तुम अकेले किससे बातें कर रही हो?”

“इस चमगादड़ से. ये रात भर मेरी खिड़की के पास लटका रहा. इसके सब साथी कहीं चले गए हैं लेकिन ये यहीं है.” सुनीता के माथे पर आड़े-सीधे बल पड़ गए और उसने झपट कर खिड़की बंद कर दी. चमगादड़ एक बड़ी पोटली सा वहीं लटका रहा.

उस शाम पीपल-तले बैठी जानकी की गोद में एक फल आ गिरा, चिकना ललौंहा, कड़ा. उसने सिर उठाया. चमगादड़ ठीक उसके ऊपर की डाल पर झूल रहा था. वह मुस्कुराई “सलाम. फल के लिए शुक्रिया. आप दिन भर से यहीं हैं?” चमगादड़ धीरे-धीरे झूलता रहा. जानकी ने किताबें बटोरीं. “लीजिए आपकी प्रजा आ रही है, मैं चलती हूँ.” आकाश में घिरती गहराती गोधूलि में चमगादड़ों के दल प्रकट हो गए थे और पीपल की ओर आ रहे थे. डाली पर लटके चमगादड़ ने एक चुभती चीत्कार की और डैने खोल पीपल के ऊपर मंडराने लगा, आने वाले चमगादड़ों का रास्ता छेंकता. जानकी उसके हवाई पैंतरे देखने लगी. ज्यों ही चमगादड़ किसी डाल पर उतरने की कोशिश करते, पीपल वाला चमगादड़ टेर लगाता, एक आड़ी रेखा में उड़ता और आगंतुकों का रास्ता कटता. कुछ मिनट यह कशमकश चलती रही. अंत को आने वाले चमगादड़ मुड़ गए और रात वाला चमगादड़ पर झुलाता पीपल की गहरी छाँव में गुम हो गया.

“सुना तुम सुबह चमगादड़ से बतिया रही थी.” चाचा ने मम्मी के हाथ कैरी के पने का गिलास लिया. “तुम्हारी साइंस-टीचर अभी अभी बता रही थी.” ट्रे लेकर खड़ी सुनीता रसोई में हो गई. “ऐसी बास आ रही थी उस कनकटे से.” जाते-जाते वह छौंकन लगाती गई.

“कहाँ की बास?” जानकी ने अपनी किताबें मेज़ पर धर दीं. “वो ‘बैट’ एकदम ‘स्पैशल’ है. अभी अभी उसने चमगादड़ों के ग्रुप को भगा दिया. शायद वही इस पीपल का देव है. गार्डियन ऑफ़ डी पीपल ट्री.”

“ ‘रबिश’. अब तुम अपनी गुरु से भी आगे निकल गई हो. फ़्लाइंग फ़ॉक्स ‘ग्रिगेरियस’ होते हैं, बेहद सामजिक, बड़ी कॉलोनीज़ में इकट्ठे रहते हैं.” किताबें एक ओर सरका कर चाचा ने खाली गिलास मेज़ पर रख दिया. “और चमगादड़ों का ‘ग्रुप’ नही कहा जाता ‘कैंप’ कहा जाता है – ‘ए कैंप ऑफ़ बैट्स’. फ़्लाइंग फ़ॉक्स अकेले नहीं रहते.”

“ये वाला रहता है. बिल्कुल अकेला सारी रात मेरी खिड़की के पास झूलता रहा. ‘आय स्वैर’ चाचा, मुझे देख रहा था और आज शाम तो उसने मुझे एक फ़िग दिया.” पापा और मम्मी खाने की मेज़ पर आ चुके थे. “तुम्हारा ‘इमैजिनेशन’ कमाल है ! ठीक है, वह पीपल का देव है और तुम्हें प्रसाद दे रहा था.” चाचा ने पापा की बगल वाली कुर्सी खींची.

“कल्पना नहीं सच. ‘ही लाइक्स मी, आय थिंक’.” जानकी भौहें नचा कर हँसी.

“जानकी, बेवकूफों सी बातें मत करो. ‘बैट्स’ घरेलू जानवर नहीं हैं. ‘रेबीज़’ के सबसे बड़े ‘कैरियर्स’ हैं ये. खिड़की बंद रखा करो अपनी.” चाचा के तल्ख़ स्वर पर जानकी का मुँह बन गया.

“मैंने एक बार चमगादड़ के बच्चे पकड़े हैं.” पापा कौर निगल कर बोले. “तुम्हें याद है?” उन्होंने चाचा की ओर देखा. चाचा ने गुब्बारे सी फूली रोटी में छेद कर भाप निकाल दी.

“कब पापा?”

“बचपन में. चमगादड़ ने बिजली के मीटर बॉक्स में घोंसला बनाया था. बार बार फ्यूज़ उड़ जाता था. माली ने निकाला था घोंसला. तुम्हारे चाचा और मैं छोटे-छोटे बच्चों को हथेली में लेकर मैया को दिखाने ले गए थे.”

 “भाई मुझे ये सब याद नहीं. ‘एनी वे’, उनसे दूर रहना अच्छा है. ‘दे आर नॉट सेफ़’.”

“ओहो ! उस दिन ‘हार्मलैस’ कह रहे थे और आज ‘नॉट सेफ़’ !” जानकी ने जड़ा, “पापा कैसे दिखते थे चमगादड़ के बच्चे? छूने में कैसे थे?”

“चूहों जैसे दिखते थे और काग़ज़ जैसे रूखे-सूखे थे.” चाचा चिढ़ कर बोले, “माली बेवकूफ़ था, मैया ने लताड़ लगाई थी उसे.”

“लीजिए, अब सब याद आ गया !” जानकी की हँसी से कमरा लहर गया.

चमगादड़ ने चाचा के ज्ञान को झुठला दिया. वह पीपल के पेड़ पर दिन-रात अकेला रहता, किसी और पक्षी या दूसरे चमगादड़ के आने पर कोहराम मचा देता. पेड़ का फल खाने का साहस सिर्फ़ उद्धत मैनाएँ या तोतों का झुंड ही कभी-कभी कर पाते. जैसे ही जानकी की कुर्सी पीपल के नीचे लगती, वह निकट की किसी शाखा पर आ लटकता. कभी वह नट-सा डैने फैलाए घूमता, कभी गर्दन तिरछी कर जानकी को देखता. जानकी उसके करतबों का वर्णन खाने की मेज़ पर अक्सर करती और चाचा का मुँह फूल जाता. जून माह की शुरुआत थी. नमी के मारे हवा भारी थी और पेड़-पत्ते, चिड़िया-कुत्ते, मनुष्य सभी निढाल थे. जानकी तीन दिनों से मम्मी के साथ शाम को बाज़ार जा रही थी. घर के लिए परदे लेने थे और मम्मी को अकेले रंग और डिज़ाइन चुनने में परेशानी होती थी. “अब आज नहीं,” जानकी ने चौथे रोज़ कहा, “एग्ज़ाम पास है, आज मैं पढूँगी. और कपडे की दूकानें और हाँ जी- हाँ जी करते सैल्समैन नहीं झेल सकती. वैसे भी जो मैं पसंद करती हूँ, आपको जँचता नहीं.”

“तुम कैसे घर बसाओगी? इतनी जल्दी ऊब जाती हो.”

“चुनने में आपके जितना वक्त नहीं लगाऊँगी.”

“भई हमको चुनने के मौक़े कम ही मिलते थे. खैर, वो नीला और ग्रे कपड़ा जो कल देखा, वो अच्छा था. कतरने तो लेकर आए थे, एक बार तुम्हारे पापा और चाचा को भी दिखा लेता हैं.”

“हाँ, अड़ोसियों -पड़ोसियों  को भी दिखा लीजिए, अपनी पसंद का तो आपको भरोसा नहीं.” जानकी सीढ़ियाँ उतर गई. पीपल के नीचे अभी कुछ ठंडक थी. वह कुर्सी पर पीठ टिका कर बैठ गई. डालियों में सर-सराहट हुई. वह पढ़ते-पढ़ते मुस्कुराई. “कुछ दिन मैं नहीं आई तो आज आप देर से आए !” जब सरसराहट रुकी नहीं तो उसने आँखें उठाईं. चमगादड़ डाली के बजाय पीपल के तने से चिपटा धीरे-धीरे नीचे उतर रहा था. देखते-ही-देखते वह बिल्कुल धरती पर आ रहा. अपने बघनखे से अंगूठों को पीपल की उभरी जड़ों में अटका वह इंच-इंच सरकने लगा. जानकी के निकट पहुँच उसने बहुत आयास से एक पर बढ़ाया और जानकी का पैर सहलाने लगा. उसकी काली मनकों सी आँखों में सूर्यास्त के सुनहरी रंग प्रतिबिंबित थे, उसके लाल-सुनहरी रोएँ जाने किस बयार में लरज रहे थे. जानकी निश्चल बैठी रही और चमगादड़ ने अपनी समूची देह जानकी के पैरों पर टिका दी. जानकी धीरे से झुकी, हाथ बढ़ाया और चमगादड़ के गले पर के रंगीन रोयों को नरमी से छुआ. चमगादड़ ने हल्की चीत्कार की और उसके खुले मुख से आश्चर्यजनक रूप से लंबी जीभ निकल आई. वह जानकी का पैर चाटने लगा, उसकी जीभ जानकी के पंजे से ऐड़ी तक दुलारने लगी, टखने की उभरी हड्डी और हड्डी के नीचे के गद्दे को सहलाने लगी. साँझ फूल कर बुझ गई और घरों में बत्तियाँ जलने लगीं. “जानकी बाबा…” सुनीता जानकी को बुलाने नीचे आई और जानकी के पैरों पर पड़े चमगादड़ को देख कर चीख पड़ी. वह उल्टे पैरों दौड़ी. जानकी हड़बड़ा कर उठी, चमगादड़ उसके पैरों से फिसल कर धरती पर गिर गया. घर की सीढ़ियों को चढ़ते हुए जानकी के कानों में चमगादड़ की कुरलाहट गूँज रही थी.

“भाभी वो राक्षस चमगादड़… वो जानकी बाबा को काट रहा है… जल्दी चलो.” सुनीता हाँफ रही थी. जानकी घर में दाख़िल हुई.

“सुनीता दी ऐसा कुछ नहीं है. मम्मी वो चमगादड़… वो काट नहीं रहा था… वो.”

“इतना बड़ा था, ताड़ के पत्ते जितना ! कोयले से काला. जानकी बाबा के पैर पर…”

“जाओ फर्स्ट एड बॉक्स ले आओ.” मम्मी हड़बड़ाईं, “और गर्म पानी. जल्दी.” मम्मी ने उसको हाथ पकड़ कर कुर्सी पर बैठाया.

“मम्मी, प्लीज़ मुझे कुछ नहीं हुआ.” जानकी ने चप्पलों से पैर निकाले, “देख लीजिए.” चिकनी गुलाबी त्वचा पर कोई दाग़ नहीं था.

“लेकिन इतनी देर उस पेड़ के नीचे बैठने का क्या तुक ? और चमगादड़ कि क्या कह रही है सुनीता ?” “कुछ भी नहीं मम्मी…”

“कुछ कैसे नहीं ? ऐसा राक्षसी मुँह उसका, भाभी, पूरा फाड़ रखा था. अगर मैं चिल्लाती नहीं तो जानकी बाबा को खा जाता.”

चाचा भीतर पापा की ‘एयर-गन’ साफ़ कर रहे थे. हाथ में लिए-लिए ही बाहर आए. “क्या हुआ ?”

“होगा क्या, काला जादू है पीपल वाला. जानकी बाबा हिल भी नहीं रही थी, साब. मैं कितनी चिल्लाई.”

“तुम अब भी चिल्ला रही हो. जानकी क्या हुआ ?”

“चाचा, वो पीपल वाला चमगादड़ आज नींचे उतर आया….”

“नीचे माने ज़मीन पर ? कुछ बैट्स जमीन पर रहते हैं, लेकिन फ़्लाइंग फ़ॉक्स नहीं. ये नीचे कैसे आया ?” “चाचा वो बेचारा बिल्कुल अकेला है. मुझे देख कर आ गया. बस इतना ही…”

“बेवकूफी की बात मत करो, जानकी. बैट्स जंगली जानवर हैं, तुम्हे पहले भी कहा है.” चाचा का स्वर ऊँचा हो गया. पापा घर में घुसे.

“क्या बात ? आवाज़ें बाहर तक आ रही हैं”

“ ‘द बैट अटैक्ड’ जानकी, बिल्कुल हमला ही कर दिया उस पर आज.”

“नहीं, पापा हमला नहीं. वो ‘लोनली’ है…”

“ ‘रियली’ भाई इसे सरेशाम वहाँ पीपल के नीचे नहीं बैठना चाहिए. एक तो ‘अनहैल्दी’ जगह है और अब वहाँ ये पागल चमगादड़ है.”

“फिर मैं शाम को घर में बंद रहूँ एयर कंडीशनर की भन-भन में ? बाहर ऐसी भाप उठ रही है कि लगता है “सॉना” में आ गए हैं, बस उस पीपल के नीचे ही कुछ ठंडक है. और मुझे वो चमगादड़ अच्छा लगता है, ‘ही`ज़ हैंडसम’.”

“कैसी बेतुकी बात करती हो. पंजे देखे हैं उसके? और उसके दाँत ? जंगली कुत्तों जैसे नुकीले होते हैं.”

पापा ने भौंहें उठाई. “ये इतनी बहस का विषय है ? जानकी समझदार है. अगर पीपल गीला-सीला और रक्त-पिपासु जीवों से भरा है तो वह आरामदेह नहीं हो सकता और अगर जानकी को आरामदेह लगता है तो इतना बुरा नहीं हो सकता.” वे कपड़े बदलने चले गए.

मौसम में नमीं बढ़ती ही गई. साँस लेना दूभर हो गया. धरती से वाष्प-सी उठने और आकाश राख के रंग का हो गया. जानकी बारीक़ मलमल के कुरते में भी पसीने से तरबतर पीपल-तले बैठी थी. चमगादड़ निकट की एक डाल पर झूल रहा था. “आज तो गर्मी बरदाश्त के बाहर है.” उसने पसीने से माथे, गालों पर चिपकी बालों की लटें झटकीं, “घर जल्दी जाऊँगी.” चमगादड़ धीरे-धीरे डोला और सहसा उसने डाली पर से अपनी पकड़ छोड़ दी. एक पत्थर सा वह जानकी की गोद में आ गिरा, उसके पर जानकी की जाँघों पर फैल गए और नुकीले पंजे जानकी के कुर्ते की रेशमी कढ़ाई में उलझ गए. जानकी का शरीर कंटकित हो गया, गले के गढ्ढे में एक नस फड़कने लगी पर वह होंठ पर होंठ कसे मुट्ठियाँ भीचे, बैठी रही. चमगादड़ ने सर उठाया. उसकी धीमी टेरों से जानकी के कान गुंजारने लगे. फिर जैसे वह जानकी की गोद में आ पड़ा था, वैसे ही अचानक उसने अपने पर फड़काए. जानकी को धक्का देता उड़ा और उसके माथे की ओर झपटा. उसके चमड़े के परों की रगड़ से जानकी के गाल छिल गए. जानकी कुर्सी से लुढ़क गई. उसकी चीख निकल गई. चमगादड़ आधी उड़ान में पलटा, उसके चौड़े डैने पीपल की टहनियों से उलझ कर छिद गए. वह तीखी आवाज़ में चिल्लाता जानकी से कुछ दूरी पर गिर पड़ा और छटपटाने लगा. जानकी को उसके पंजे में कसा तिकोना विषैला सिर और खुला जबड़ा दिखाई पड़ा. साँप की लंबी हल्की भूरी देह कशा सी लहरा रही थी. जानकी की चीखों और चमगादड़ के शोर सुन घरों की खिड़कियाँ खुल गईं. “जानकी जानकी” मम्मी की पुकार गूँजी. पापा और चाचा धड़धड़ाते हुए आए. चाचा ने धरती पर लोटते चमगादड़ को देखा और हाथ में थमी एयरगन उसकी ओर घुमा दी. क्षण भर में जानकी के पैरों के पास की धरती गोलियों से बिध गई. चपटे, नन्हें डमरुओं-से छर्रे चमगादड़ के कोमल सीने और पेट में घुस गए, उसके चमकदार रोएँ लहू से काले पड़ गए. वह पीड़ा से चिचियाता तड़पने लगा किंतु साँप पर उसकी पकड़ ढीली नहीं हुई. “अरे साँप…” चाचा चौंके. उन्होंने एयरगन के कुंदे से साँप का सर कुचल दिया. “ये वाइन स्नैक… बेहद जहरीला… पेड़ों में रहता है. जानकी, जानकी, तुम ठीक हो ?” पापा की बाँहों में जकड़ी जानकी के आँसू झर रहे थे, भरे गले से वह गालियाँ दे रही थी और प्यार के शब्द पुकार रही थी. चमगादड़ की छटपटाहट थम गई थी.

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लिटरेरी एजेंट और हिंदी का प्रकाशन जगत

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सदन झा इतिहासकार हैं. सेंटर फॉर सोशल स्टडीज, सूरत में एसोसियेट प्रोफ़ेसर हैं. उनका यह लेख हिंदी के ‘पब्लिक स्फेयर’ की व्यावहारिकताओं और आदर्शों के द्वंद्व की अच्छी पड़ताल करता है और कुछ जरूरी सवाल भी उठाता है. एक बहसतलब लेख- मॉडरेटर

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चंद रोज पहले मैंने अपने फेसबुक वाल पर एक सवाल पूछा: हिंदी में लिटरेरी एजेंट क्यों नहीं हुआ करते?

यह सवाल एक व्यक्तिगत कठिनाई से उपजा था और कुछेक शुभेक्षु आत्मीय जनों ने व्यक्तिगत तौर पर इस मामले में दिलचस्पी ली. पर सवाल जस का तस बना रहा. शायद सवाल ही लद्धड़ है. शायद प्रश्न का पूछ जाना ही यह आभास देता है कि प्रश्नकर्ता को हिंदी साहित्य जगत का क ख ग भी नहीं मालूम है. मानो इसलिए बच्चों जैसा सबाल पूछ रहा है. शायद इस सवाल को बार बार पूछा गया हो और हिंदी साहित्य और प्रकाशन से ताल्लुक रखने वालों के लिए यह एक बासी पर चुका मुद्दा हो. या फिर, यह भी हो सकता है कि यह सवाल पश्चिमी प्रकाशन और उसके बाजार की हकीकत से उपजा हो, एक आयातित सरोकार और इसीलिए इस और विशेष तबज्जो देना नैतिक रूप से ठीक नहीं.

लिटरेरी एजेंट…हूँ!

लाहौल विला कूवत! तौबा तौबा! अब ये दिन भी देखने को रह गए. अपने ही शब्दों को बेचना शेष रह गया हो जैसे. यदि बेचने की जद्दोजहद नहीं तो फिर एजेंट ही क्यों?

अरे सुनती हो, ज़रा छुट्टन आये तो मुंशी जी के यहाँ भेजना इत्तिला दे आवे कि हमने कुछ हर्फ़ कागज़ पर उतारे हैं. किसी से भिजवाकर ले जावें और अपने छापेखाने से इनकी किताब तैयार करवायें.

मेरा ऐसा लिखना अतिशयोक्ति लगे आपको. हिंदी प्रकाशन का इतिहास भी इस तरह के अतिशयोक्ति की इजाजत नहीं देता. छापे का इतिहास तो यही दिखाता है कि लेखक और प्रकाशक के समीकरण में पलड़ा सदैब प्रकाशक की ही तरफ झुका रहता आया है. पर, अभी उस तरफ नहीं जाना हो पायेगा.

बात, लेकिन जो भी हो, लिटरेरी एजेंट के सवाल को नकारने के पीछे अन्य बहुतेरी मंशाओं के साथ कुछ इस तरह की हेकड़ी भी दिलो दिमाग के एक कोने में चुपचाप बसी हुई है ही.

खैर, इस लिटरेरी एजेंट वाले प्रश्न में मेरा दिमाग घूम फिर कर एजेंट शब्द पर ही टिक जाता है. हमें एजेंट नामधारी से कोफ़्त हुआ करता है. जितना संभव हो ट्रेवल एजेंट के पास गए बगैर ही काम चलाने की कोशिश होती है.

अच्छा जी, वो जो आपका स्टूडेंट था कश्मीर से, उससे जरुर कह देना कि हवाई अड्डे पर ही आ जाए और फिर सुबह से रात तक साथ ही रहे. कोई हम बार बार कश्मीर तो जाते नहीं. हाँ, इन ट्रेवल एजेंसियों के चक्कर में मुझे नहीं पड़ना. जाने कहाँ वीराने में फंसा भाग खड़े हों. गुप्ताजी का किस्सा याद है न? बेचारे कैसे फंसे थे, ई ट्रेवल एजेंटो के चक्कर में.

एजेंट मतलब मध्यस्थ. इतिहासकारों के बीच सामंतवाद को लेकर चाहे जितनी बहस क्यों न हो, इस बात में कोई दो राय नहीं है कि सामन्तवादी पदानुक्रम हमारे दिलो दिमाग पर आज तक उसी तरह का भय पैदा करता है जिस तरह कभी यह हमारे सोच को अपनी चंगुल में जकड़े हुए था. ईश्वर से संवाद के लिए पुरोहित की अनिवार्यता ने ब्राह्मणों को जिस तरह विलेन बना दिया वह तो जग जाहिर ही है. मध्यस्थता की जड़ें कुछ इतनी गहरी जमी रही कि जब भक्ति का प्रादुर्भाव हुआ और उसकी महिमा बढ़ी तब पुरोहितों, कर्मकांडों और पंडों का प्रभाव भले ही कम हो गया हो लेकिन बगैर गुरु के मध्यस्थता के न तो ईश्वर ही मिल सकते थे और न ही रंगरेज के, उस्ताद के रंगरेजी ही.

मध्यस्थों से पीछा कहाँ छुटना. पहले द्वारपाल और दरबारियों को, अमीर उमराओं की सरपरस्ती दरकार थी, प्रजातंत्र के आने के बाद लीडरानों की. आखिर हम रिप्रेजेंटेटिव डेमोक्रेसी ही तो है. कोई डायरेक्ट डेमोक्रेसी तो है नहीं हमारी. प्रतिनिधियों से जब हम हर तरफ आक्रांत हैं, जब वे प्रतिनिधि के नाम पर हम पर शासन करने लगते हैं, जब वे जो जन सेवक कहते नहीं अघाते लेकिन लाल किला गिरवी रखने से भी जिन्हें गुरेज नहीं तो ऐसे में एक और मध्यस्थ. एक और एजेंट वह भी साहित्य में?

न बाबा न! कम से कम जो क्षेत्र बचा है अब तक इन एजेंटों से उन्हें तो वैसे ही रहने दो.

लिटरेरी एजेंट के नाम पर नाक मुँह सिकोड़ने का हमारा यह रवैया शायद घुमावदार तर्क लगे आपको. डिस्टॉर्टेड एवं डिसप्लेसड. भ्रामक!

सीधा और सरल तर्क है कि हिदी प्रकाशन जगत अभी इतना प्रोफेशनल नहीं हुआ है. कुल मिलकर बाजार इतनी परिपक्व नहीं हुआ है. इसी तर्क का दूसरा पहलू यह होगा कि हमारे साहित्यिक बाजार के रिश्ते नाते इतने व्यक्तिवादी और एलियनेटेड नहीं हुए है कि लिटरेरी एजेंट जैसी संस्था को जन्म दे सके और उसको सस्टेन तथा उसका परिमार्जन कर सकें.

यहाँ जो बात, जो तर्क साहित्य के बाजार के लिए लागू होगा कुछ कुछ वही गति अन्य बाजार या अर्थव्यवस्था के दूसरे पहलुओं के बारे में भी उपयुक्त होगा. क्योंकि, यहाँ हम साहित्य के विषयवस्तु या कंटेंट से मुखातिब नहीं है बल्कि प्रकाशन की अर्थवय्वस्था के अवयवों के बीच के रिश्तेदारी ( आपसी संवंधों तथा उनके बनने) की बात कर रहे हैं जहां किताब एक उत्पाद हो जाता है. जिसका उत्पादन होता है, जिसका सर्कुलेशन और जिसकी खरीद विक्री हुआ करती है. तो ऐसे में जब हम एक बाजार और उसकी अर्थव्यवस्था के खांचे में रह कर बातचीत कर रहे हैं तो जाहिर सी बात है कि मध्यस्थता की अनिवार्यता और किसी मध्यस्थ की उपस्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता है. बाजार के इतिहास को जानने वाले आपको बतायेंगे कि अत्यंत प्रिमिटिव बाजार (जैसे पास्टोरल या ग्रामीण इलाकों में लगने बाले छोटे हात या फिर लन्दन जैसे शहरों में भी लगने बाले साप्ताहिक किसान बाजार जहां किसान और शिल्पकार [कुम्हार आदि] सीधे सीधे अपने उत्पादों को बाजार में स्वयं ही ग्राहकों [उपभोक्ताओं] के हाथों बेचते हैं को छोड़कर हर तरह के बाजार में मध्यस्थ हुआ ही करते हैं. तो फिर सवाल यह उठता है कि हिंदी के प्रकाशन के बाजार में या फिर बृहत्तर तौर पर कहें तो भारतीय प्रकाशन जगत में किस तरह के मध्यस्थ कार्यरत हैं और उनका स्वरुप क्या है? यह सवाल हमें महज मध्यस्थों की भूमिका या इस बाजार के अंदरूनी पदानुक्रम की समझ पैदा करने तक ही सीमित नहीं रखती हैं बल्कि इस सवाल के सहारे हम सम्पूर्ण बाजार के स्वरुप की और फिर बाजार के सहारे पूरी अर्थव्यवस्था तथा पूंजी के स्वरुप और गतिकी तक पहुँच सकते हैं.

खैर, यह बड़े और गहरे सरोकार हैं. इसके तार उस विमर्श की तरफ भी ले जाते हैं जो अर्थव्यवस्था और उसके बाजार को औपचारिक/व्यस्थित और अनौपचारिक या अवस्थित खांचों में बांटकर देखा करते हैं. हमें इस तरह के खांचो से परे जा कर देखना होगा. साहित्य के बाजार को लेकर जो लेखन पिछले डेढ़ दो दशकों में हो रहे हैं और हिंदी के प्रकाशन के इतिहासों को लेकर भी जिस तरह की उम्दा लेखनी सामने आई हैं, दुर्भाग्य से वहाँ भी इस तरह के प्रश्न नहीं उभारे जा रहे हैं.किताब का इतिहास और प्रकाशन का इतिहास सर्कुलेशन या तकनीकी आदि को लेकर जितना सजग दिखता है उतना ही लापरवाह यह विमर्श विकसित हो रहे इस साहित्य के बाजार और इसके अवयवों के आर्थिक संवंधों और आमूल स्वरुप को लेकर भी नजर आता है. इसलिए न तो हम यहाँ इस उत्पादन में लगे पूंजी की विशिष्टता को ही ठीक से समझ पाए हैं न ही इस पूंजी और इसके बाजार के विभिन्न घटकों के आपसी रिश्तों को ही विस्तार से व्याख्यायित कर पाए हैं. तो ऐसे में अभी यदि हम अपना ध्यान एजेंटों या मध्यस्थों तक ही रखें तो जाहिर सी उत्सुकता होगी कि हिंदी प्रकाशन में आज की तारीख में किस तरह के मध्यस्थ कार्यरत हैं और उनका क्या स्वरुप है?

एक स्तर पर यह सवाल कुछ ऐसा है कि हम सबके पास तैयार उत्तर हैं. मध्यस्थों की बात जैसे ही आती है तुरत ही हमारे जेहन में तथाकथित मठाधीशों की छवि उभरने लगती है. यह उस विमर्श या फिर कहें तो उस साहित्यिक पर्यावरण एवं उसकी संस्कृति की देन हैं जो हमारे दिमाग में छवियाँ गढ़ती रही है. ऐसी छवियाँ जिन्हें हम बहुत सुलभता से अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए और अपनी बेचैनियों के कारण के रूप में स्वीकार कर सकें. इससे सामान्य जीवन की राजनीतियों और उलझनों को पचा जाने में कुछ हद तक आसानी सी हो जाती है. ये छवियाँ कहानियों के रूप में साहित्य जगत में तैरती रहती हैं. पार्टियों के प्लेटों से लेकर, समीक्षक और पत्रकारों तक यह साहित्य के प्रति हमारी समझ को तय करती हैं. इससे बाजार भी अछूता तो नहीं ही रहता है. मसलन, एक बड़े प्रकाशक के (लेकिन हिंदी साहित्य से बाहर के), बारे में पता चला कि वे कभी सर्वपल्ली राधाकृष्णन के बेहद करीबी हुआ करते थे और राधाकृष्णन ने ही उन्हें संस्कृत और इंडोलोजी के क्षेत्र में प्रकाशन खोलने की सलाह दी थी. यह जिक्र कुछ अटपटा लग सकता है पर यह अकेला उदाहरण नहीं है जहां कोई परिबार किसी व्यक्तिगत परिचयों के कारण प्रकाशन में पूँजी निवेश करता पाया गया हो. आज भी हिंदी प्रकाशन जगत में पूंजी पारिवारिक संरचना द्वारा ही कमोबेश संचारित हुआ करती है. साहित्य आकादमी जैसे संस्थानात्मक संरचना विरले ही दीखते हैं.यही हाल पत्रकारिता जगत का भी है, जिसके बारे में समय समय पर किस्से कहानियाँ सतह पर आते हैं. तो ऐसी परिस्थिति में क्या राधाकृष्णन जैसी हस्तियों को मध्यस्थ माना जाय? मुझे विशवास है कि आपके जेहन में भी उत्तर इतना सरल नहीं रह जाएगा. आइये एक बार फिर से हम साहित्य जगत की प्रचलित कहानियों की तरफ,किम्वदंतियों की तरफ रुख करते हैं.

मुझे याद है कि जब मैं नब्बे और इस सदी के पहले दशक में दिल्ली में रहा करता था तो हिंदी जगत की कुछेक अफवाहें यूँ ही कानो में पड़ते रहते. अज्ञेय और रामविलास शर्मा जैसे लोग तब तक गुजर चुके थे. तीन नामों की इन दशकों में तूती बोला करती. तीनों के प्रभाव क्षेत्र भी इन अफवाहों में साफ़ साफ़ विभाजित हुआ करते.जहां एक तरफ राजेंद्र यादव हंस के सम्पादक हुआ करते थे. नामवर सिंह जवाहर लाल नेहरु विश्विद्यालय में प्राध्यापक थे और अशोक वाजपेयी सरकारी संस्थानों में कार्यरत थे. सरकारी संस्था, विश्वविद्यालय और प्रकाशन तीन ध्रुवों के बीच हिंदी साहित्य की राजनीति कई अर्थों में परिभाषित हुई जाती थी उन दिनों. कम से कम अफवाहों से तो लगता कि साहित्य का समूचा जगत ही दिल्ली के ही इन तीन मठों के बीच संकुचित हो. यह संभव भी है इन व्यक्तियों का प्रकाशन जगत पर महत्वपूर्ण प्रभाव रहा हो. लेकिन यदि आप इस प्रभाव की खुदाई करने जाएँ तो शायद ही कोई मुक्कम्मल व्याख्या तक पहुँच पायें. तो क्या इन हस्तियों के प्रभाव को महज अफवाहों तक ही सीमित रख उसके प्रभाव को सिरे से नकार दिया जाय. या फिर उसे साहित्य के खेमेबंदी के उदाहरण के तौर पर देखा जाय. लेकिन, ऐसा करने पर न तो हम साहित्य और पूंजी के बीच के अंतर्संवंधो तक ही पहुँच पाएंगे और न ही बाजार की ही कोई नयी समझ पैदा कर पायेंगे. हाँ इससे यह तो पता चलता ही है कि बाजार के मध्यस्थ का स्वरूप किस तरह का हुआ करता है.

यहाँ बहुत संभव है कि राधाकृष्णन से लेकर नामवर सिंह तक के प्रभाव को पूंजी के सामाजिक सरोकार के रूप में ही देखा जाय. पूंजी के सार्वभौमिक इतिहास में यह माना जाता रहा है कि पूंजीवाद के विकास के लिए यह एक आवश्यक शर्त है कि पूंजी अपने को इन सामाजिक सरोकार से मुक्त करे. इस फ्रेम में एक जगह का पूंजीवाद (जैसे कि भारत का पूंजीवाद) दूसरे जगह के पूंजीवाद ( जैसे कि अमरीका या योरप के पूंजीवाद ) से गुणात्मक स्तर पर नहीं महज ऐतिहासिकता में ही भिन्न होता है. तो जो पूंजी का स्वरुप आज के भारत में यहाँ दिखता है वही कभी अमरीका या योरप का इतिहास हुआ करता था. जो आज की अमरीका या योरप है वही भविष्य का हिन्दुस्तान होगा. इस फ्रेम में समूचे दुनिया का समाज एक ही समय केन्द्रित रेखा पर स्थित मन जाता है कोई आगे तो कोई पीछे.

इस युनिवर्सल फ्रेम के बरक्स उत्तर औपनिवेशिक विद्वानों ने दलील दी है कि पूंजीवाद को कोई एक सार्वभौमिक इतिहास और गतिकी नहीं हुआ करती. औपनिवेशिक विविधताओं को रेखांकित करते हुए, इस विचार पद्धति में पूंजीवाद का कोई एक स्वरुप नहीं माना गया है. अर्थात भिन्न सामजिक और ऐतिहासिक परिस्थितयों में पूंजी ने भिन्न भिन्न स्वरुप अख्तियार किये जिनकी एक दूसरे से तुलना नहीं की जा सकती. सरल शब्दों में कहें तो भारतीय पूंजीवाद की विशिष्टताओं को अविकसित, विकासशील जैसे विशेषणों के साथ लगाकर अमरीका या योरप से तुलना करना जायज नहीं होगा.

इस परिमार्जित दलील के साथ यदि हम अपने सवाल की तरफ लौटते हैं तो राधाकृष्णन से लेकर नामवर सिंह तक के प्रभावों को न तो मध्यस्थता और न ही लिटरेरी एजेंट के पूर्व इतिहास की तरह माना जाएगा. इससे अधिक महत्व यह कि पूंजीवाद को देखने का यह उत्तर औपनिवेशिक नजरिया यह ताकीद भी करता है कि लिटरेरी एजेंट का होना या न होना प्रकाशन जगत के विकसित या पिछड़े होने का कोई इंडेक्स नहीं माना जाय.

लिटरेरी एजेंट की अनुपस्थिति, इंटरनेट पर साहित्यिक गतिविधियों के प्रसार और कुछ बहुराष्ट्रीय प्रकाशकों का हिंदी जगत में प्रवेश आदि ने हालिया वर्षों में सम्पादक और सम्पादकीय संस्था की अहमियत और जिम्मेदारियों को नए तरह से परिभाषित किया है. गौरतलब हो कि सम्पादक और प्रकाशन जगत में इसकी भूमिका और अहमियत के सम्बन्ध में हिंदी के साहित्य इतिहास में कम ही लिखा गया गया है. जो कुछ थोड़े बहुत लेखन हैं भी वह ख़ास संपादकों के व्यक्तित्व और उनकी व्यक्तिगत राजनीति उनके विचारधारा से ही मुखातिव मिलते हैं. इस संस्था के सम्बन्ध में इसकी गतिकी के बारे में, इसकी भूमिका तथा इसकी चुनौतियों के सम्बन्ध में अक्सर ही व्यापक चर्चा का अभाव ही मिलता है. यह अभाव खटकता भी है. संभव है कि संपादकों के आत्मकथ्यात्मक लेखनियों और टिप्पणियों से इस अभाव की भरपाई हो सके.

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एक संत के सफल कारोबारी बनने की कहानी

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प्रियंका पाठक-नारायण की गॉडमैन टू टायकून: द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ बाबा रामदेव . इस किताब पर रोक लगाने के लिए केस हुआ. कड़कड़डूमा अदालत द्वारा किताब पर से रोक हटाए जाने के बाद जगरनॉट बुक्स इस किताब को अपने ऐप पर निशुल्क लेकर आया है. पिछले साल यह रोक दिल्ली की एक अदालत द्वारा एकतरफा तौर पर तब लगाई गई थी, जब बाबा रामदेव ने अदालत में किताब को चुनौती दी थी. पढ़िए संत से सफल कारोबारी: बाबा रामदेव की अनकही कहानी.

 

                                                  सफल कारोबारी

हरिद्वार, 2016

कम ऊंचा मंच, एक ऊंचे रोशनदान से छनकर आती धूप, वह पेट के बल सपाट लेटता है, अपने खुरदुरे चेहरे को हथेलियों से सहारा देता है, भीड़ की तरफ देखता है और मुस्कुराता है. एक हज़ार लोग उसकी योगिक मुद्रा का अनुसरण करते हैं और जवाब में खुलकर हंसते हैं.

इस चुस्त, भगवा वस्त्र पहने व्यक्ति की दर्शकों पर पकड़ के बारे में कभी कोई संदेह नहीं रहा था. उसने लाखों लोगों को मंत्रमुग्ध किया है, दिन-प्रतिदिन, एक दशक से भी लंबे समय से. किसी भी अच्छे कलाकार की तरह बाबा रामदेव को पता है कि सारा कमाल लगातार विस्मित करते रहने का है.

हरियाणा के सैद अलीपुर गांव में निचली जाति के एक गरीब किसान के अल्पशिक्षित पुत्र रामदेव के बचपन का नाम राम किशन यादव था. रामदेव ने प्रसिद्धि और समृद्धि तक की अपनी यात्रा 1980 के दशक में उत्तरार्द्ध में अपने परिवार के भरण-पोषण में मदद के लिए संघर्ष करते हे आरंभ की थी. तीन दशक बाद, उनकी कंपनी ‘तेज़ बिक्री वाली उपभोक्ता सामग्री’ (फास्ट मूविंग कंज़्यूमर गुड्स या एफएमसीजी) के क्षेत्र में सबसे तेज़ वृद्धि वाली कंपनी है, जिसमें करीब 20 हज़ार लोग नौकरी करते हैं.

पतंजलि आयुर्वेद की कमाई 2010-11 के अंत के 317 करोड़ रुपये के मुकाबले 2015-16 में पंद्रह गुना बढ़कर विस्मित करने वाले स्तर 5,000 करोड़ रुपये तक पहुंच गई. रामदेव ने घोषणा की थी कि 2016-17 के अंत तक यह आंकड़ा दोगुना हो जाएगा. यही हुआ- मई 2017 में यह आंकड़ा स्तब्धकारी स्तर 10,000 करोड़ रुपये पर था. इस अद्भुत उपलब्धि की घोषणा करते हुए रामदेव ने कंपनी के अगले साहसिक लक्ष्य की भी घोषणा की: मई 2018 तक 20,000 करोड़ रुपये का राजस्व.

एसोचैम-टेकसाई की 2017 की एक रिसर्च रिपोर्ट में इस वृद्धि को परिप्रेक्ष्य में रखा गया है: पतंजलि ‘भारतीय एफएमसीजी मार्केट में सर्वाधिक उथल-पुथल करने वाली ताकत’ है. एक ओर जहां पतंजलि सालाना 100 प्रतिशत से भी ऊंची दर से वृद्धि कर रही है, ‘आईटीसी, डाबर, हिंदुस्तान यूनिलीवर, कोलगेट-पामोलिव तथा प्रोक्टर एंड गैंबल जैसी इसकी समकक्ष कंपनियों को दहाई के आंकड़े से भी कम की वृद्धि दर हासिल करने में संघर्ष करना पड़ा है’.

डॉलर अरबपतियों की रैंकिंग वाली हुरुन रिच लिस्ट में सितंबर 2016 में बाबा रामदेव के निकटतम सहयोगी आचार्य बालकृष्ण को 26वां सर्वाधिक धनवान भारतीय बताया गया. उनकी निजी संपत्ति 25,600 करोड़ रुपये (3.8 अरब डॉलर) रुपये बताई गई. वह पतंजलि आयुर्वेद के 94 प्रतिशत हिस्से के स्वामी हैं. बाबा रामदेव जैसे स्वामियों के लिए, जिन्होंने संन्यास ले लिया है और जो धन और प्रसिद्धि जैसी सांसारिक चीज़ों के त्याग के प्रतीक स्वरूप भगवा वस्त्र धारण करते हैं, संन्यासियों की परंपरा के तहत कंपनियों का स्वामित्व हासिल करने पर रोक है.

जब आप रामदेव से पहली बार मिलते हैं तो जो पहली बात ध्यान खींचती है, वह है उनके लहराते बाल और दाढ़ी, बीच-बीच में सफेद के छींटे के साथ. वह हमेशा भगवा धोती पहनते हैं और बदन के ऊपरी हिस्से को ढंकने के लिए भी बिना सिले भगवा कपड़े का एक टुकड़ा, शॉल की तरह. रामदेव की त्वचा दमकती है और वह अच्छे स्वास्थ्य का प्रतीक मालूम होते हैं. वह हमेशा खुश दिखते हैं और लगातार मुस्कुराते रहते हैं.

लेकिन रामदेव को मात्र एक भगवाधारी संन्यासी समझने की भूल नहीं करें, पतंजलि आयुर्वेद के पूर्व सीईओ और पतंजलि फूड पार्क के 2011 से 2014 तक अध्यक्ष रहे एस. के. पात्रा आगाह करते हैं. हालांकि ऐसा माना जाता है कि अपना बिज़नेस साम्राज्य फैलाने में रामदेव को मौजूदा सरकार का समर्थन और प्रोत्साहन मिला हुआ है, लेकिन यह भी सच है कि उनका आर्थिक एजेंडा नरेंद्र मोदी सरकार के आर्थिक एजेंडे से मेल नहीं खाता है. जहां एक ओर प्रधानमंत्री अपने ‘मेक इन इंडिया’ अभियान में अंतरराष्ट्रीय दिलचस्पी बढ़ाने और विदेशी निवेशकों को भारत में विनिर्माण के लिए पूंजी लगाने के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से दुनिया के करीब 30 देशों का चक्कर काट चुके है. अगस्त 2016 में बाबा रामदेव ने पतंजलि की छत्रछाया में एक और ब्रांड ‘आस्था’ की शुरुआत की जो 8,000 करोड़ रुपये के गृह उपासना सेक्टर में प्रतियोगिता करेगा. शुभकार्ट डॉटकॉम के ज़रिए बिकने वाले आस्था ब्रांड के 18 श्रेणियों में सैकड़ों उत्पाद हैं- देसी परिधान, घर में पूजी जानेवाली मूर्तियां, वास्तु और फेंगशुई उत्पाद, शालिग्राम और रुद्राक्ष से लेकर देश भर के प्रमुख मंदिरों के ताज़ा प्रसाद तक.

बाबा रामदेव कौन हैं? वह कहां से आए? टेलीविज़न पर अपने शरीर को तोड़मरोड़ कर योगिक मुद्राएं प्रस्तुत करते-करते इस व्यक्ति ने कैसे सबसे तेज़ गति से बढ़ने वाली एफएमसीजी कंपनियों में से एक बना डाली? क्या उनके उत्पाद उतने अच्छे हैं जितना वह दावा करते हैं? क्या वे दूरदृष्टि वाले हैं? क्या वे धोखेबाज़ हैं? उनमें इतनी ऊर्जा कहां से आती है?

(प्रियंका पाठक-नारायण की पुस्तक संत से सफल कारोबारी: बाबा रामदेव की अनकही कहानी से यह अंश पुस्तक के प्रकाशक जगरनॉट बुक्स की अनुमति से प्रकाशित).

 

 

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ग़ालिब की फ़ारसी कविताओं में बनारस

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रजा पुस्तकमाला हिंदी में एक जरूरी हस्तक्षेप की तरह लगता है. कुछ बेस्ट किताबों को प्रकाशित करवाने की दिशा में एक आवश्यक पहल. आज मैं ध्यान दिलाना चाहता हूँ मिर्ज़ा ग़ालिब की बनारस केन्द्रित कविताओं की किताब ‘चिराग-ए-दैर’ की तरफ. मेरे जैसे पाठकों को भी यह तो पता था कि ग़ालिब बनारस गए थे लेकिन उन्होंने फ़ारसी में बनारस पर कविताएँ भी लिखीं थी. यह रज़ा पुस्तकमाला श्रृंखला के तहत राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस किताब से ही पता चला. अनुवाद किया है उर्दू के विद्वान लेखक सादिक साहब ने. उसी किताब से बानगी के लिए कुछ कविताएँ. किताब की भूमिका से पता चला कि बनारस पर किसी विदेशी भाषा में लिखी पहली-पहली कविताएँ हैं- मॉडरेटर

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जहानाबाद गर नबुबद अलम नीस्त
जहानाबाद बादा जाय कम नीस्त

हिंदी अनुवाद-

यदि देहली नहीं
तो न सही
कुछ गम नहीं

यहाँ सारा जहां
आबाद है
मेरे लिए
इसमें
जगह की
क्या कमी है?
========

नबाशद कहत बहर-ए-आशयाने
सर-ए-शाख-ए-गुले दर गुलसिताने

 

हिंदी अनुवाद

वतन से दूर
इस गुलशन में भी
मेरे लिए फूलों की शाखों की
कहीं कोई कमी है?

जहाँ चाहूँ
बना लूँगा
मैं अपना आशियाना

मुझे भी
मिल ही जाएगा
कोई अच्छा ठिकाना.

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अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और असगर वजाहत का उपन्यास ‘कैसी आगी लगाई’

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अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बीच असगर वजाहत के उपन्यास ‘कैसी आगी लगाई’ की याद आई. इसका परिवेश एएमयू ही है. राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस उपन्यास का एक अंश, जो संयोग से किसी ज़माने में हुए ऐसे ही सामाजिक तनाव को लेकर है- मॉडरेटर
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ये नई बात है। आमतौर पर सायरन सुबह पौने आठ बजे बजता है। क्लास आठ बजे से शुरू होते हैं। लेकिन आज कोई साढ़े दस बजे सायरन बजने लगा। और बजने भी इस तरह लगा जैसे करुण आवाज में कोई दैत्य रो रहा हो। सायरन की आवाज सुनकर जो जहाँ था वहाँ से निकलकर भाग रहा था। पता नहीं, कहाँ ? मैंने किसी से पूछा कि ये क्या है और सब किधर जा रहे हैं तो जवाब मिला था जल्दी करो, ये इमरजेन्सी का सायरन है, सब लोग एस.एस. हॉल की तरफ जा रहे हैं। और ज्यादा पूछने का मौका नहीं था क्योंकि बताने वाला भी बहुत जल्दी में था। वह शायद कोई सीनियर लड़का था जिसे यूनीवर्सिटी के क़ायदे-कानून पता थे। मैं तो पिछले ही साल आया था।

एस.एस हॉल में अन्दर जानेवाला लोहे का बड़ा फाटक बन्द था और छोटीवाली खिड़की खुली थी। सब उसी खिड़की से अन्दर जा रहे थे। फाटक के बाहर प्राक्टर और कुछ सीनियर प्रोफेसर खड़े थे, वे सबसे जल्दी अन्दर जाने के लिए कह रहे थे। मुझे पता न था कि अन्दर क्या हो रहा है या होगा ? लेकिन मैं भी अन्दर घुस गया। अन्दर जाकर पता चला कि लगभग पूरी यूनिवर्सिटी के लड़के यहाँ मौजूद हैं। मुझे अहमद जल्दी ही मिल गया। वह लॉन में कुछ लड़कों के साथ बैठा था। मुझे देखकर वह मेरे पास आ गया।
‘‘ये क्या है यार ?’’ मैंने उससे पूछा।
‘‘पता नहीं, लोग कह रहे हैं कि यूनिवर्सिटी पर हमला होनेवाला है ?’’
‘‘हमला ? कैसा हमला।’’
‘‘शहर से हिन्दू गुंडों का एक बड़ा गिरोह आ रहा है।’’

‘‘ये तुम्हें किसने बताया ?’’
‘‘सब यही बातें कर रहे हैं।’’
उन दिनों शहर में हिन्दू-मुस्लिम फसाद की फिजा़ बनी हुई थी। दो दिन पहले चाकू मारकर किसी हिन्दू की हत्या कर दी गई थी। उसके बाद मुसलमानों की कुछ दुकानें लुटी थीं। शहर के एक इलाके में कर्फ्यू लगा दिया गया था और शहर यूनीवर्सिटी के लड़कों के लिए ‘आउट ऑफ बाउंड’ हो गया था। प्राक्टर का ऐसा नोटिस मैंने देखा था।
फिर अचानक कुछ लड़के छत तक पहुँच गए और ये खबर तेज़ी से फैल गई कि शमशाद मार्केट के ऊपर से धुआँ उठ रहा है। शमशाद मार्केट जल रही है और लूटी जा रही है, ये सुनते ही डर, खौफ़ और ‘न जाने क्या हो’ वाली भावना एकदम गुस्से में बदल गई थी। लड़के बड़े फाटक को खोलने पर जोर दे रहे थे। फाटक के बाहर दूसरी तरफ वाइस चांसलर, प्राक्टर और दूसरे लोग उन्हें समझा रहे थे कि फाटक क्यों नहीं खोला जा सकता। ज़ाहिर है कि अगर कई हज़ार लड़के गुस्से में बाहर निकलते तो उन्हें कौन क्या करने से रोक सकता था ? यह भी नहीं तय था कि बाहर निकलने पर वे सिर्फ़ शमशाद मार्केट तक ही जाएँगे और आगे नहीं बढ़ेंगे।

‘अथारटीज़’ और लड़कों में बातचीत लड़कों की तरफ से इतनी गर्म हो गई थी कि वे वाइस चांसलर को मोटी-मोटी गालियाँ देने लगे। वाइस चांसलर किसी भी कीमत पर फाटक खुलवाने के लिए तैयार नहीं थे। दूसरी तरफ शमशाद मार्केट के ऊपर से उठने वाला धुआँ एक काला विशाल बादल जैसा बन गया और छत पर जाए बगै़र ही नज़र आने लगा।
कुछ ही देर में पता चला कि लड़कों ने एक कमरे की खिड़की की सलाखें तोड़ डाली हैं और बाहर जाने का रास्ता बन गया है। ये खबर फैलते ही लड़के उस तरफ झटके। मैं और अहमद भी आगे। कमरे के अन्दर की खिड़की से कूद-कूदकर लड़के बाहर निकल रहे थे। हम लोग भी बाहर आ गए। सब शमशाद मार्केट की तरफ भाग रहे थे। अचानक हमें रास्ते में जूलॉजी के लेक्चरर मिले। वे हमें पढ़ाते थे। हम दोनों को देखकर चीखे-खाली हाथ मत जाओ।’ फिर उन्होंने पता नहीं कहाँ से मच्छरदानी का एक बाँस हमें पकड़ा दिया जिसे तोड़कर हमने दो कर लिए। एक टुकड़ा मैंने ले लिया और एक अहमद ने झपट लिया।

शमशाद मार्केट में खालू का होटल धुआँधार जल रहा था। खालू सामने खड़ा था। हमें देखकर बोला-‘तुम लोग अब आए हो। देखो, सारे बर्तन तोड़ गए। कुर्सियाँ बेंचे अन्दर डालकर आग लगा दी। मैं तो कसम से बर्बाद हो गया।’ खालू के होटल के बाद ‘नगीना रेस्टोरेंट’ भी जल रहा था।

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प्रवीण कुमार और रेणु स्कूल की मिस हीराबाई 

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‘तीसरी कसम’, हिरामन, हीराबाई पर इतना लिखा जा चुका है कि लगता है अब नया क्या पढना? इसीलिए कोई नया लेख इसके ऊपर देखता हूँ तो पढने का मन ही नहीं करता. लेकिन फिर भी इस विषय पर अच्छा लिखा जा रहा है और कई बार ऐसा लिखा जा रहा है जो अपने आपको पढवा ही लेता है. ‘छबीला रंगबाज का शहर’ कहानी संग्रह से चर्चा में आये लेखक प्रवीण कुमार का यह लेख कल पढ़ा तो लगा कि इसको साझा किया जाना चाहिए. आप भी पढियेगा तो यही मन करेगा. प्रवीण कुमार से आग्रह है कभी ऐसे किरदारों पर भी लिखें जिनके ऊपर कम लिखा गया है. फिलहाल यह लेख पढ़िए- मॉडरेटर

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‘गोदान’ के बारे में कहा जाता है कि इसकी कथा जितनी ‘होरी’ की है उतनी ही ‘धनिया’ की भी है | क्या यही बात ‘तीसरी कसम’ के बारे में कही जा सकती है ? होरी और धनिया को जोड़ने वाली स्थिति दांपत्य है लेकिन कथा में दांपत्य के बंधन से अधिक उनके जीवन-संघर्ष ने दोनों की देह को एक प्राण में तब्दील कर दिया है, अतः वह एक जोड़े की भी संघर्ष कथा है , क्रौंच मर जाता है और क्रौंची छटपटा रही है ; फिर …मा निषाद प्रतिष्ठाम् ! क्या इसी तरह की छटपटाहट को ‘तीसरी कसम’ में हम देख पाते हैं ? क्या हिरामन-हीराबाई जोड़े हैं ? दोनों ही कथाओं में भिन्नता है मगर क्या जोड़ा बिछड़ने का कारण दोनों ही जगहों पर सामाजिक संरचना छिपे हुए हैं और वह भी एक ही तरह की संरचना में? प्रेमचंद के यहाँ पात्रों की विवशता की कारक-शक्तियां साफ़ साफ़ दिखाई देती हैं –पुरोहित से लेकर रायसाहब तक ,पर रेणु के यहाँ कम से कम इस कहानी में वे शक्तियां साफ़-साफ़ नहीं दिखतीं ,केवल उनका स्याह असर दिखाई देता है | वाकई ? क्या इस कहानी के बारे में दावा किया जा सकता है कि हिरामन और हीराबाई को जोड़ने वाली भाव-स्थिति ‘प्रेम’ ही है ?

रेणु ने रचना के प्रचलित मानदंड ही नहीं बदले बल्कि आलोचना के प्रचलित मानदंडों को अपनी रचनाधर्मिता से दरका दिया है | उनकी रचना के भीतर से गुजरने के लिए आलोचना के प्रचलित औज़ार किसी लायक नहीं बचते! कहानीकार प्रेमचंद से अलग लीक वाले रेणु इसलिए भी अलग हैं कि वे सपाट की जगह ‘विभावन व्यापर’ के लेखक हैं | उनके यहाँ कहानी ख़त्म होने के आसपास है और ‘छि-ई-ई-छक्क ! गाड़ी हिली | हिरामन ने अपने दाहिने पैर के अंगूठे को बाएं पैर की एड़ी से कुचल लिया | कलेजे की धड़कन ठीक हो गई …हीराबाई हाथ की बैंगनी साफी से चेहरा पोंछती है! साफी हिलाकर इशारा करती है – अब जाओ |’ बीस साल से लगातार गाड़ीवानी करने वाले चालीससाले कुंवारे हिरामन का कलेजा ,पहली बार उस देह के टप्पर-गाड़ी में बैठने से साथ ही जो धड़कना शुरू होता है वह अंततः अंगूठे को कचरने के बाद भी थमने का नाम नहीं लेता | हिन्दी कहानी में अपनी धडकनों को रोकने का इतना मार्मिक प्रयास शायद ही किसी पात्र ने किया हो ! लेकिन ये हीराबाई को क्या हो गया है ? ‘आसिन-कातिक’ में चेहरे पर पसीना ? पसीना या कुछ और ? इसी ‘कुछ’ में रेणु हैं ,उनके अनुभव हैं और कलम की धार है |

कथा में एक सुबोध है तो दूसरा अबोध | हिरामन अबोध न होता तो अबतक भला कुंवारा रहता ! वह जिस आबोहवा में पला-बढ़ा है वहां नाच है , नौटंकी है , ‘पुतरिया’ शब्द से वह परचित है पर है इस दुनिया से कोसों दूर | एहसाह तो उसे सबकुछ का है पर एहसास जगे नहीं थे अबतक | उसके एहसास पहली बार संबोधनों से जगते हैं –भैया ,मीता , मेरा हिरामन, उस्ताद ,गुरूजी से |हिरामन के लिए भी हीराबाई के लिए सच्चे और कल्पित कई संबोधन हैं- कंपनी की औरत ,पश्चिम की औरत , परी, डाक्डरनी , चंपा का फूल , कुंवारी लड़की , विदागी ,भगवती ,लाल होंठ पर गोरस का परस जैसे पहाड़ी तोता – पर पूरी कथा में हिरामन ने सीधे सीधे हीराबाई को कभी भी किसी नाम से संबोधित नहीं किया है | बस एक संबोधन है जिससे हीराबाई को वह पूरी कहानी में बचाता फिरता है ,वह है ‘पुतरिया’| यह संबोधन समाज का है उसका नहीं | हीराबाई सबकुछ हो सकती है पर ‘पुतरिया’ नहीं | इस शब्द की धार से वह मेले में लगातार छिल-छिल जाता है ‘…आज वह हीराबाई से मिलकर कहेगा ,नौटंकी-कंपनी रहने से बहुत बदनाम करते हैं लोग| सरकस कंपनी में क्यों नहीं काम करतीं?..”|

कहानी में एक दूसरा संबोधन भी है जिससे वह हिराबाई को नहीं बल्कि ख़ुद को बचाता फिरता है – ‘मालकिन’ | टप्पर-गाड़ी जब फारबिसगंज पहुच जाती है तब ‘ लालमोहर ने कहा “इनाम बकसीस दे रही है मालकिन, ले लो हिरामन!” हिरामन ने कटकर लालमोहर की ओर देखा …बोलने का जरा भी ढ़ंग नहीं है इस लालमोहरा को |’ कहानी के इसी प्रसंग में हिरामन अपने एहसास को पकड़ लेता है | सारे संबोधनों के अर्थ कम से कम उसके मन में इसी जगह खुल जाते हैं अतः मालिक-मालकिन वाले सम्बन्ध त्याज्य ही नहीं अस्वीकार्य हैं | यही है चालीस की दहलीज पर खड़े एक काले-कलूटे कुंवारे गाड़ीवान के पीठ पर उठती गुदगुदी का राज ! पर हीराबाई क्या ‘पूरक’ है ? वह तो बस एक एहसास जगा कर चली जाती है ‘ गाड़ी ने सिटी दी| हिरामन को लगा , उसके अन्दर से कोई आवाज निकलकर सिटी के साथ ऊपर की ओर चली गई –कू-उ-उ ! इस्स!’

तो फिर ‘महुआ घटवारिन’ की कथा का क्या करें ? ‘महुवा घटवारिन को सौदागर ने खरीद जो लिया है ,गुरूजी !’ इसका मतलब हुआ कि ‘महुवा घटवारिन’ की कथा और हिरामन-हीराबाई की कथा एक ही है ? दोनों ही जगहों पर प्यासे प्रेमी हैं पर उनकी तथाकथित प्रेमिकाएं ? – एक न थकने वाली जल की मछली है तो दूसरी कंपनी की औरत | महुआ भी मजबूर थी और हीराबाई भी | पर एक सौदागर की नाव से बहती धारा में छलांग लगा देती है लेकिन दूसरी बहती रेल में बैठी रहती है | यदि नाव और रेल इतिहास की प्रतीकात्मक गति है तो महुआ और हीराबाई के अलग-अलग फैसले किस्से और यथार्थ का फ़र्क बताते हैं | फिर ‘बैंगनी साफी से चेहरा’ पोंछने में किसी बड़ी विवशता की कोई बड़ी सूचना है ? ध्यान रहे कि दोनों ही कथा के प्रेमी ‘चाहत’के शिकार हैं ,बस यही एकता है दो कथाओं में | लेकिन इतने भर से ये दोनों कथाएं एक दूसरे की पूरक नहीं बन जातीं |आंचलिकता की पहचान इससे भी है कि एक जैसी लगने वाली कथा और किस्से प्रसंग में क्रमबद्धता और एकतानता की जगह क्रमभंग और बहुतानता होती है | बहुतानता का आशय किसी अन्य घटना या कथा का मुख्य कथा से आत्यंतिक स्तर पर जुड़ाव के नहीं होने से है | अलग अलग कथाएं अपने एकान्तिक भाव में विशिष्ठ हैं पर उसका दूसरी कथा से स्वतंत्र और गैर-सम्बंधित रिश्ता हो सकता है, आंचलिक साहित्य में इन अन्य कथाओं का ‘ओवरलोड’ होता है | हालाँकि इस कथा को आंचलिकता के ठेठ रूपक के रूप में नहीं बल्कि एक स्वतंत्र कथा के रूप में देखने का आग्रह ज्यादा होना चाहिए |महुआ-घटवारिन की कथा लेखक और हिरामन का एक अस्त्र है ,पाठक और हीराबाई को सम्मोहित करने के लिए , आंचलिकता गद्द्य में कविता है ;उसका एक लक्ष्य भावविभोर करना भी होता है| इसी बहाने कई तरह का दर्द पसरा हुआ है ,कथा में ,किस्सों में , गीत में , यथार्थ में , जीवन में , भूत में और शायद भविष्य में भी ||लेखक और हिरामन मिले हुए हैं और उनकी पैदा की हुई भावुकता के अनंत विस्तार में सब कुछ बहा जा रहा है , अब तक |

हिरामन और हीराबाई का अंतर यहाँ वर्गीय नहीं जितना भावावेग और भाव-प्रबंधन का है | यह अंतर अनुभव का भी है , आंचलिक-गंवई ‘मन’ और शहराती ‘मन’ का है | हिरामन की भीतरी पीड़ा में , अबूझ स्थिति में जो खीज है , उसमें सहज आंचलिकता-बोध का उभार है | हीराबाई कोई विदेशी नहीं पर ‘पश्चिम’ की हीराबाई किसी दूसरे अंचल या सांस्कृतिक भूमि की बोधक भी है ,वह आती है और हिरामन का सबकुछ दांव पर लग जाता है | बाहरी जीवन-स्थितियां या हिरामन के अंचल से बाहर की विकसित जीवन-स्थितियां उस अंचल के लिए, गंवई हिरामन के लिए अग्राह्य हैं ,इसलिए भी ‘तीसरी कसम’है | पर मामला केवल इतना ही नहीं है, यह ‘मारे गए गुलफ़ाम’ का भी मामला है; गुलफ़ाम शब्द उभय-लिंगी विशेषण है ,यह फूलों जैसी देह के लिए नजाकत से भरा संबोधन है ,जितना मर्द के लिए उतना ही औरत के लिए | पर गुलफ़ाम संज्ञा भी तो है ! शहर का प्रेमी कलेज़े की धड़कने तेज होने पर अपने दाहिने पैर के अंगूठे को बाएं पैर की एड़ी से शायद ही कुचले ! हिरामन जिस ‘पीर’ से गुजर रहा है उसे संभालना उसके बूते से बाहर है | भावना की चरम अवस्था है धडकनों का तेज होना और ‘बैंगनी साफे’ से चेहरे का पोछा जाना भाव-प्रबंधन है | हीराबाई ईमानदार है , अच्छी है पर अनुभवी है और भाव-कुशल भी | हिरामन अपनी नाराजगी से उसे अबतक जाता चुका है कि उसे हीराबाई पसंद है, उसके प्यार का एहसास उस नाराजगी से भांप लेती है , हिरामन के कलेजे से रेल की सिटी के साथ उठ रही हूक हीराबाई साफ साफ सुन रही है | सो हूक में एक ने अंगूठा कुचला तो दूसरे ने भाव-प्रबंधन कर लिया | हिरामन वह आदमी है जो अपने बूते के बाहर की चीजों से दूर रहता है | जो चीज उसे खटकती है वह चीज उसके बूते का नहीं| वह अपनी टप्पर-गाड़ी में सर्कस का बाघ तो लाद सकता है पर स्मगलिंग का सामान और बांस नहीं ,इसलिए उसने पहले ही दो कसमें खा लीं थी | पर यह तीसरी कसम ? यह इसलिए भी कि इस अनुभूति को , इस पीर को संभालना उसके बूते का नहीं | वह अंचल का है किसी शहर का नहीं ,उसे भाव-प्रबंधन नहीं आता| एक कभी न ख़त्म होनेवाली अनुभूति ,लगातार खटकनेवाली अनुभूति | हीराबाई के दिए रुपय-पैसे से जो गरम चादर आएगा उससे हिरामन के भीतर की ठिठुरन कम नहीं होने वाली | क्या इसी घटना को कहानी में ‘त्रासदी’ मानकर आगे बढ़ा जा सकता है ? यहाँ कहानी में ‘त्रासदी’ तो है पर यह तबतक एक अधूरी त्रासदी है जब तक एक और विडंबना को इससे न जोड़ा जाय जो कथा में बहुत पीछे छूट गई है | |

यह विडंबना राग का रूप धरे हुए है ,इसलिए उसकी पहचान थोड़ी मुश्किल है “ लाली लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनिया… आह दुल्हनिया, तेगछिया गाँव के बच्चों को याद रखना | लौटती बेर गुड़ का लड्डू लेते अइयो | लाख बरिस तेरा दूल्हा जिए !..कितने दिनों का हौसला पूरा हुआ है हिरामन का !ऐसे कितने सपने देखे हैं उसने !..”| पर हीराबाई इस प्रसंग में गायब है | इस प्रसंग के ठीक पहले वह जो मुस्कुराती हुई गाँव निहारती है ,यहाँ नहीं है | इस प्रसंग के बाद कथा में वह फिर उपस्थिति होती है –मुस्कुराते हुए| और अब महुआ-घटवारिन की कथा है ; कथा ख़त्म होते होते हिरामन भावुक हो जाता है “ उसने हीराबाई से अपनी गीली आँखें चुराने की कोशिश की| किन्तु हीराबाई तो उसके मन में बैठी न जाने कब से सब-कुछ देख रही थी”| आख़िर वह देख क्या रही है ? दोनों चरित्रों का ‘कंस्ट्रक्शन’ यहाँ अलग अलग है | इन दोनों घटनाओं से पाठक और हिरामन दोनों ही हुलसित होते हैं , पर हीराबाई ? वह “तकिये पर केहुनी गड़ाकर ,गीत में मगन एकटक उसकी ओर देख रही थी” पर अगली ही पंक्ति आती है “खोयी हुई सूरत कितनी भोली लगती है !” जीवन की वास्तविक त्रासदी ‘राग’ की अनुपस्थिति से नहीं उभरती बल्कि जीवन की ओर बार-बार बढ़े आ रहे ‘राग’ की अवहेलना और अवहेलना की वजहों की पहचान से उभरती है | ‘खोयी हुई सूरत’ राग से सामना होने पर भी उससे तटस्थ है | वह किस अनंत में किस अ-संभव का तलाश रही है ; किसी और प्रेम का या किसी के दुल्हन होने से अ-तटस्थ या तटस्थ ? हीराबाई के अनुभूति-बोध में ‘प्रेम’ है पर उसका सगुण रूप हिरामन नहीं , संभवतः कहीं कोई सगुण है ही नहीं ,यह उसकी त्रासदी है ; एक का दूल्हा होना नसीब नहीं ,दूसरे का दुल्हन होना नसीब नहीं , किसी की भी दुल्हन नहीं |बस एक क्षणिक अनुभूति है ,कम से कम हिरामन और पाठक के लिए , हीराबाई के लिए नहीं | यहाँ जिस भारतीय समाज का सच है उसमें कम समर्थवान की त्रासदी तो है ही समर्थवान की भी त्रासदी है |टप्पर-गाड़ी से लेकर रेलगाड़ी तक दोनों ही नए भावों के अजायबघर में आवाजाही कर रहे हैं ,हीराबाई के लिए हिरामन मिता है ,गुरूजी है ,उस्ताद है और ‘मेरा हिरामन’ है | इस सम्बन्ध में गहरी मानवीय गंध है पर मानवीय कह देने भर से वह ‘प्रेम’ का पर्याय नहीं बन जाता | राग से , एहसास से तटस्थता हीराबाई के भीतरी विवशता का सूचक है | त्रासदी यह भी है कि दोनों मजबूर हैं , दोनों में प्यास है ,पर एक पानी है एक बर्फ़ , एक का चरित्र तरल है एक का ठोस ; एक रागधर्मी है तो दूसरा दुनियादार| पानी कही और है , प्यास कही और | हिरामन की विडंबना यह है कि अंगूठा कुचलने के बाद भी उसे उन्ही राहों से गाड़ीवानी करते हुए बार बार गुजरना होगा जो कभी हीराबाई की वजह से जादुई हो गईं थी | हीराबाई को भी हिरामन जैसा ‘सच्चा’ नहीं मिलने वाला | पर सच्चा किसी का ‘प्रेमी’ हो जाए यह जरूरी नहीं , यही नियतिजन्य प्रश्न है , कहानी इसलिए भी यहाँ आकर बड़ी हो जाती है | ‘बैंगनी साफी’ से पुछता हुआ चेहरा एक औरत की इकहरी विवशता नहीं ,बल्कि दुहरी विशशता की सूचना है जो जान गई है हीरा का ‘मन’ पर उसके उस एहसाह का वह कुछ नहीं कर सकती | इसलिए यह कथा दोनों की है , अविवाहित जोड़े की कथा ; उनको आपस में जोड़ने वाली चीज उनकी अपनी-अपनी त्रासदी है ,एक ही समय में घटित होने वाली दो त्रासदियाँ | हिरामन के अनुरागी ‘मन’ और हीराबाई के हिलते हुए तटस्थ ‘मन’ में कथा-विश्लेषण की अनंत संभावनाएं छोड़ दीं हैं रेणु ने , यही उनकी ताकत है | ताकत यह भी है कि अलग अलग दो चरित्र हमें ‘जोड़े’ दिखने लगते हैं ,यह जानते हुए भी कि दोनों के नामों में केवल छोटी ‘इ’ और बड़ी ‘ई’ का ही भेद नहीं है ,यहाँ और भी बहुत ‘कुछ’ है |

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पत्रकारों की सुरक्षा की चिंता किसे है?

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ईयू-एशिया न्यूज़ के नई दिल्ली संपादक पुष्प रंजन जी को पढना बहुत ज्ञानवर्धक होता है. हिंदी अखबारों में ऐसे लेख कम ही पढने को मिलते हैं. पत्रकारों की सुरक्षा का सवाल आज कितने अख़बार और पत्रकार उठा रहे हैं? इस लेख में कई देशों के आंकड़े हैं और उन आंकड़ों से दिल दहल जाता है. ‘दैनिक ट्रिब्यून’ से साभार- मॉडरेटर

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एक वक्त था, जब अफग़ानिस्तान में ढूंढे से पत्रकार नहीं मिलते थे। 9/11 के बाद खबरों को हासिल करने की होड़ बढ़ गई थी। खुसूसन नाटो फोर्स के अफग़ानिस्तान में जाने की वजह से यूरोपीय मीडिया के लिए इस इलाक़े से ख़बरें निकालने को लेकर ज़बरदस्त प्रतिस्पर्धा का दौर था। जर्मनी में डायचेवेले के वास्ते हमलोग चमन में बैठे पत्रकारों से हिंदी में ख़बरें बुलवा लेते, तो लगता कि बड़ी उपलब्धि हासिल हो गई। सत्रह साल में सूरते हाल पूरी तरह बदल गया। आज अफग़ानिस्तान में कम से कम 70 रेडियो स्टेशन हैं, 30 से ज़्यादा टीवी प्रोग्राम अकेले राजधानी काबुल से प्रसारित होते हैं, और प्रिंट मीडिया के लिए 500 पब्लिकेशंस रजिस्टर्ड हैं। मगर, इसका मतलब यह नहीं हुआ कि अफग़ानिस्तान में पत्रकार महफूज़ हैं। सोमवार को काम के दौरान कम से कम दस पत्रकारों की हत्या हुई है। नौ क़ाबुल में, और एक खोस्त में।

मकसद क्या हो सकता है? पत्रकार डरें, और दहशत के बूते जो लोग सियासत कर रहे हैं, उनके मुताबिक रिपोर्टिंग करें? पहले यह डर तालिबान का था, अब आइसिस ने दहशतगर्दी की कमान संभाल ली है। आइसिस ने ही इस कांड की ज़िम्मेदारी ली है, जिससे लगता है कि ये दहशतगर्द विश्व मीडिया को बताना चाह रहे हों कि सीरिया से शिफ्ट कर हम अफग़ानिस्तान में पैर जमा चुके। ‘कन्फिलिक्ट ज़ोन’ में रिपोर्टिंग करते समय यह हिदायत होती है कि ब्लास्ट जहां हो, जबतक सुरक्षा क्लिरेंस न मिले, पत्रकार विस्फोट वाली जगह से खु़द को दूर रखें। इराक में रिपोर्टिंग के दौरान हमें ऐसे निर्देशों का पालन करना होता था। लेकिन अति उत्साह और ब्रेकिंग स्टोरी देने की होड़ में पत्रकार ऐसे निर्देशों की परवाह नहीं करते, ऐसा बाज़ दफा हम देखते हैं।

मगर, काबुल कांड एक नये क़िस्म का आतंकी हमला है, जहां पहले विस्फोट का ज़ायज़ा लेने पहुंचे नौ पत्रकार दूसरे विस्फोट के शिकार होते हैं। ‘शास दराक’ कहा जाने वाला काबुल का अतिसुरक्षित इलाक़ा ‘ग्रीन ज़ोन‘ बताया जाता है, जहां अमेरिकी दूतावास और नाटो का क्षेत्रीय मुख्यालय है। जिस आत्मधाती ने विस्फोट किया वह प्रेस फोटोग्राफर के वेश में वहां पहुंचा और पहले वाले विस्फोट में घायलों को उठा रहे सहायताकर्मियों और वहां पहुंचे पत्रकारों के बीच उसने ख़ुद को उड़ा लिया। ऐसा भी हो सकता है, यह किसी ने सोचा न था।

अफग़ान फेडरेशन आॅफ जर्नलिस्ट ने सवाल उठाया कि ग्रीन ज़ोन कहे जाने वाले इस इलाके़ में पत्रकार के वेश में मानवबम घुसा कैसे? यह सुरक्षा लापरवाही का नमूना है, जिसकी जांच अफग़ान पत्रकार संगठन ने संयुक्त राष्ट्र से कराने की मांग की है। हमलावर कैमरा लेकर पत्रकार बनने की एक्टिंग करते हुए वहां प्रवेश करता है, और खुद को उड़ा देता है। तालिबान के समय अफगानिस्तान में कितने पत्रकार मरे, उन आंकड़ों पर हम नहीं जा रहे। मगर, 2016 से आइसिस और तालिबाल दहशतगर्दों के हमलों में अबतक 34 पत्रकार मारे गये हैं।

एएफपी के चीफ फोटोग्राफर शाह माराई काबुल में मारे गये नौ पत्रकारों में से एक थे। युद्ध जैसे हालात वाले इलाके में एक पत्रकार किस मनःस्थिति से गुज़रता है, यह कुछ हफ्ते पहले माराई के ब्लाॅग को पढ़ने से समझ में आ जाता है। उसने अपने ब्लाॅग में लिखा था, ‘हर सुबह जब मैं दफ्तर जाता हूं, और हर शाम जब मैं घर लौटता हूं, यही सोचता हूं किसी कार में विस्फोट हो जाएगा, या फिर भीड़ में कोई आत्मघाती ख़ुद को उड़ा देगा। ‘ और आखि़रकार फोटो पत्रकार माराई उसी क्रूर कल्पना के शिकार हो गये।

भारत में न तो आइसिस का राज चल रहा है, न तालिबान का फिर भी मई 2014 से अबतक अफग़ानिस्तान के मुकाबले आधे पत्रकार मारे जाते हैं, तो सिस्टम पर सवाल तो उठता है। क्या इसे महज इत्तेफाक कहें कि बिहार के भोजपुर में मोटरसाइकिल से जा रहे पत्रकार नवीन निश्चल उसके साथी विजय सिंह को एसयूवी से कुचलकर मार दिया जाता है, और ठीक उसी तरीके से मध्यप्रदेश के भिंड में टीवी पत्रकार संदीप शर्मा की जान एक ट्रक से कुचलकर ली जाती है। यह आर्गेनाइज्ड क्राइम का एक हिस्सा है, जिसका मकसद मीडिया को डराकर रखना है। भारत में स्थिति दिन ब दिन बदतर होती जा रही है। मीडिया वाचडाॅग द हूट ने जानकारी दी कि 2017 में 46 पत्रकारों पर जानलेवा हमले किये गये। मगर, इन ख़बरों का शासन पर कोई असर नहीं दिखता। हम सिर्फ 180 देशों के विश्व प्रेस सूचकांक को हर वर्ष देखकर संतोष कर लेते हैं कि 2017 में भारत 136वें स्थान पर है, और तुर्की 157वें नंबर पर है।

इस समय इसपर बहस होनी चाहिए कि बदली हुई बहुकोणीय परिस्थितियों में मीडियाकर्मी किस भूमिका में रहे? एक तरफ आतंकी हैं, तो दूसरी ओर राजनीतिक माफिया। भ्रष्टाचार ने पहले से पैर पसार रखा है। सोशल मीडिया द्वारा पत्रकारों पर निजी हमले, सही को ग़लत और ग़लत को सही का द्वंद्व अलग से जारी है। सरकार को जो पसंद वो सही, शेष फेक न्यूज़। ऐसे दौर में निष्पक्ष पत्रकारिता कितनी चुनौतीपूर्ण, नौकरी खाने वाली और जानलेवा है? इसपर केंद्रित बहस नहीं हो पा रही है। कई बार हमें अपने हमपेशेवर से अधिक ख़तरा महसूस होता है, जिसे सत्ता प्रतिष्ठान ने अपने तरीक़े से आरती उतारो का कार्यक्रम में लगा रखा है। जो संस्थाएं मीडिया की निगरानी के लिए बनायीं गई, वो भी बिना दांत की हो चली हैं।

चरमराती सुरक्षा व्यवस्था सिर्फ़ अफग़ानिस्तान तक सीमित नहीं है, उसका विस्तार भारत तक है, जहां सबसे सस्ता नून, खून, और क़ानून है। प्रेस पर हमलों की चर्चा होती है, तो हम यह मान कर चलते हैं कि विकसित देशों में पत्रकार सम्मानित और सुरक्षित हैं। यकीन मानिये, ऐसा है नहीं। ‘रिपोटर्स विदाउट बार्डर‘ ने जानकारी दी कि जर्मनी जैसा देश 15वें स्थान पर है, और माल्टा 65वें स्थान पर। जुलाई 2017 में जी-20 शिखर बैठक के दौरान हेम्बर्ग में पत्रकारों पर 16 हिंसक हमले हुए। ‘फेक जनलिस्ट’ का जुमला ट्रंप ने ही शुरू किया था। ट्रंप के कार्यकाल में पत्रकारों पर गुंडई बढ़ी, और अमेरिका इस सूचकांक में 45वें स्थान पर है। तुर्की तो पत्रकारों के लिए सबसे बड़ी जेल है। जनवरी 2018 तक 245 पत्रकार वहां की जेलों में कै़द हैं, और 140 के विरूद्ध गिरफ्तारी के वारंट हैं। तुर्की के बाद चीन और मिस्र हैं, जहां बात-बात पर पत्रकारों को जेल भेज देने और उनके दमन का दस्तूर है। ये तीनों ऐसे कुख्यात देश हैं, जहां से रिपोर्टिंग सबसे बड़ी चुनौती है। ऐसे हालात कहीं भारत में न हो जाए, इसका डर बना रहता है!

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अंग्रेजी कवि संजीब कुमार बैश्य की कविताएँ हिंदी अनुवाद में

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संजीब कुमार बैश्य दिल्ली विश्वविद्यालय के जाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज(सांध्य) में अंग्रेजी के प्राध्यापक है. असम के रहने वाले संजीब पूर्वोत्तर कला संस्कृति के गहरे ज्ञाता हैं. हाल में इन्होने कुछ छोटी छोटी कविताएँ लिखी हैं, जिनकी सराहना अनेक हलकों में हुई है. फिलहाल बानगी के तौर पर उनकी तीन कविताओं का अनुवाद. अनुवाद मैंने किया है- प्रभात रंजन 

शब्द

शब्द उनके ह्रदय से चिपक गए हैं
उनके खाली पेट सड़क पर विद्रोह करते हैं
उनके फटे कपड़े बनाते हैं दृश्य
उनकी आवाजों में संगीत है नीरस धरती का
वे अव्यवस्था की धुन पर नाचते हैं

 

परिभाषा

मैं नहीं चाहता कि तुम मुझे परिभाषित करो
तुम जो मुझे एक संख्या की तरह लेते हो,
अपनी मर्जी से जोड़ते हो, घटा देते हो,
तुम्हें ईर्ष्या है मेरी मुस्कान से,
तुम्हें तोहफे में मुस्कराहट मिलेगी.
तुम जो मुझे खलनायक बताते हो
और हँसते हो मेरे ऊपर
जल्दी ही सब हँसेंगे तुम्हारे ऊपर
तुम जो मुझे हिन्दू, इस्लाम, सिख धर्म या मुझे इसाई के रूप में देखते हो,
तुम जो मेरे नैन नक्श को घूरते हो,
तुम जो मुझे परिभाषित करते हो भारतीय, विदेशी, या एक पूर्वोत्तर नागरिक के रूप में
(ओह! तुम तो वहां के लगते ही नहीं हो)
इल्तिजा है मुझे परिभाषित करना छोड़ दो!
मुझे जीने की आजादी दो,
मुझे सोचने की आजादी दो,
मुझे सांस लेने की आजादी दो…

 

बोलती चुप्पी

चुप्पी एक मजबूत शब्द है
इसमें गूंजती हैं अनसुनी आवाजें किसी चुप्पा विद्रोही की
वह अपने समय का इन्तजार करता है;
और चुप्पी बोलती है.

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मिथिला से रवीन्द्रनाथ टैगोर के आत्मीय रिश्ते थे

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आज रवीन्द्रनाथ टैगोर की जयंती थी. उनके जीवन-लेखन से जुड़े अनेक पहलुओं की चर्चा होती है, उनपर शोध होते रहे हैं. एक अछूते पहलू को लेकर जाने माने गीतकार डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र ने यह लेख लिखा है. बिहार के मिथिला प्रान्त से उनके कैसे रिश्ते थे? एक रोचक और शोधपूर्ण लेख- जानकी पुल.

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विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर सामान्यतः महात्मा गांधी के प्रति अत्यंत समादर भाव रखते थे, मगर जब १९३४ में मिथिलांचल में ऐतिहासिक भूकम्प आया और गांधी ने अपने पत्र ‘हरिजन’ में इसके लिए मिथिला के छुआछूत यानी सामाजिक आचार- व्यवहार को दोषी करार दिया, तब रवीन्द्रनाथ ने गांधी के इस अनर्गल प्रलाप का कड़ा प्रतिवाद किया था। उन्होने मैथिल समाज  की वर्ण-व्यवस्था, कर्मकांड,नैष्ठिक आचरण, देवोपासना और गृहस्थाश्रम में आध्यात्मिक व्यवहार के समावेश की तर्कपूर्ण व्याख्या की थी और आर्थिक दृष्टि से विपन्न मिथिलांचल की भौतिक दशा सुधारने के कई उपाय बताये थे, जिन पर आज तक कार्रवाई होना बाकी है। मिथिला और बंगाल भौगोलिक दृष्टि से एक सिवान के साझेदार तो हैं ही, खान-पान, वेश-भूषा, रहन-सहन, भाषा-लिपि और साहित्य-संस्कृति में भी सहोदर भाई जैसा सरोकार रखते हैं। यहाँ तक कि मिथिलांचल के प्रमुख जनपद दरभंगा की उत्पत्ति भी संस्कृत शब्द ‘द्वारबंग’ यानी ‘बंगाल का प्रवेशद्वार’ मानी जाती है। बंगाल के मनीषी भी धर्म-विषयक प्रश्नों पर मिथिला के आचार-व्यवहार को ही प्रमाण मानते रहे हैं– धर्मस्य तत्वं विज्ञेयात्‌ मिथिला व्यवहारतः। इसलिए मिथिला के सामाजिक आचरण की निंदा कवीन्द्र रवीन्द्र को असह्य लगी।

मगध साम्राज्य में राजधर्म का उच्च आसन पाकर पगलाये बौद्धों के बौद्धिक अत्याचार को रोकने के लिए मिथिला के विद्वानों ने जिस तर्क-प्रधान न्याय दर्शन की पौध लगायी, उसका विस्तार बंगाल के नवद्वीप में ही हुआ। मिथिला और बंगाल के मनीषियों ने उस समय आगे बढ़कर बौद्धों के कुतर्कों को न काटा होता,तो आज सनातन धर्म का कोई नामलेवा न रहता। बंगाल के  प्रतिभाशाली छात्र न जाने कब से संस्कृत विद्या का अध्ययन करने मिथिला आते थे। छात्रों के विद्या-अर्जन को शास्त्रार्थ के माध्यम से मापने के लिए दरभंगा नगर के पास सौराठ स्थान पर वैशाख मास में विशाल सभा लगती थी, जिसमें मिथिला और बंगाल के हजारों गुरु-शिष्य एकत्र होते थे। उनके बीच कई दिनों तक विभिन्न विषयों पर शास्त्रार्थ होता था और महत्वपूर्ण निर्णय किये जाते थे। भारतीय वाड.मय में मनीषियों की ऐसी ही सभा में धर्म और दर्शन सम्बन्धी निर्णय किये जाते थे, जिनके संकलन को ‘संहिता’ नाम दिया गया। सौराठ की यह विद्वत्सभा एक विशाल बरगद पेड़ के नीचे लगती थी। मान्यता है कि जिस दिन सौराठ सभा में विद्वानों की संख्या एक लाख से ज्यादा हो जाती थी, उस दिन वह बूढ़ा पेड़ मुरझा जाता था। इस सौराठ का सम्बंध गुजरात के सौराष्ट्र से भी है। मिथिलांचल के नगर दरभंगा, भागलपुर, मुजफ़्फ़रपुर, मुंगेर, सहरसा, पूर्णिया से बंगाली समाज का इतना तादात्म्य था कि इन्हे वे अपना ही नगर मानते थे। बंगालियों का प्रिय स्थान देवघर यद्यपि मिथिला की सीमा-रेखा से बाहर है, मगर सांस्कृतिक दृष्टि से वह विशुद्ध मिथिला है।

डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र

मिथिला-नरेश के राज-पंडित विद्यापति ठाकुर ने बंगाल के महाकवि जयदेव की अमर रचना ‘गीतगोविन्द’ के पदों के शब्द-लालित्य और छन्द-योजना का अनुसरण करते हुए पहली बार लोकभाषा (देसिल बयना) में पदों की रचना की,जिसकी भाषा पुरानी मैथिली थी। आधुनिक काल में विकसित पूर्वी भारत की लोकभाषा बंगला, उड़िया,असमिया और नेपाली का प्रस्थान-बिन्दु यही प्राचीन मैथिली है, जिसे ब्रजबोली के नाम से भी जाना जाता है। आज की इन सभी सुविकसित भाषाओं के आदिकवि के रूप में महाकवि विद्यापति ही प्रतिष्ठित रहे हैं, जिन्हे परवर्ती काल में लोग ‘अभिनव जयदेव’ नाम से भी पुकारने लगे थे। सम्पूर्ण पूर्वोत्तर भारत में वैष्णव भक्तों ने सर्वसाधारण के बीच भगवान श्रीकृष्ण की सरस लीलाओं को विद्यापति के सुमधुर पदों के माध्यम से ही पहली बार प्रचारित किया। रवीन्द्रनाथ भी बचपन में जिन पदों को सुनकर या गाकर अभिभूत हुए थे, वे विद्यापति के पद ही थे।वैसे तो रवीन्द्रनाथ के कोई विधिवत्‌ गुरु नहीं थे,लेकिन यदि पराशक्ति के रूप में वे किसी गुरु को मानते थे,तो वे विद्यापति ही थे। उन्होने  परमहंस योगानंद के साथ साक्षात्कार में यह स्वीकार किया कि बाल्यावस्था से मैं जिस कवि से अत्यन्त प्रभावित रहा,वे विद्यापति थे। उनके प्रारम्भिक गीत ‘विद्यापति पदावली’ के तर्ज पर ‘भानुसिंहेर पदावली’ नाम से प्रकाशित हुए थे। इसकी भाषा और विद्यापति की भाषा में इतना साम्य है कि देवघर के आसपास के तमाम लोग रवीन्द्र नाथ के अनेक पदों को भी विद्यापति का पद मानकर ही गाते थे। इस प्रकार बंगाल के जयदेव से जिस गीत-परम्परा को मिथिला के विद्यापति ने ग्रहण किया और उसे राजपथ से उतारकर लोकपथ दिया, उसे विस्तृत विश्वपथ देने के लिए विद्यापति ने बंगाल के ही अपने योग्यतम उत्तराधिकारी रवीन्द्रनाथ ठाकुर को सौंप दिया।

विद्यापति के राधा-कृष्ण विषयक  पदों को सुनकर जैसे चैतन्य महाप्रभु भाव-विह्वल हो जाते थे,कुछ उसी तरह रवीन्द्रनाथ भी परवर्ती काल में भाव-विह्वल  हो जाया करते थे। शान्तिनिकेतन में गुरुदेव कभी-कभी हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान हजारी प्रसाद द्विवेदी को पास बैठाकर उनसे विद्यापति के पद गाने का आग्रह करते थे। और जब वे ‘सखि हे हमर दुखक नहि ओर’ गाते थे,तो उनके साथ तन्मय होकर गुरुदेव भी गाने लगते थे।

इसके इतर भी रवीन्द्रनाथ के मिथिला से आत्मीय सम्बंध थे। सभी जानते हैं कि उनका परिवार ब्राह्म समाज का अनुगामी हो गया था,जिसके कारण बंगाल का सनातनी समाज इस जमींदार घराने को हेय दृष्टि से देखता था।उन दिनों ब्राह्म समाजी लोग नाटकों में हास-परिहास के प्रिय विषय होते थे। ब्राह्म परिवार और सनातन परिवार के बीच विवाह निषिद्ध हो गया था।दरभंगा-मुजफ़्फ़रपुर-भागलपुर-देवघर उन दिनो बंगाली बुद्धिजीवियों का गढ़ था। १७ जुलाई,१९०१ को मुजफ़्फ़रपुर की ‘बंगला साहित्य गोष्ठी’ द्वारा रवीन्द्रनाथ के सम्मान में एक साहित्यिक समारोह हुआ था,जिसमें हस्तलिखित अभिनंदनपत्र भेंट कर उन्हें सम्मानित किया गया था। यह उनके जीवन का पहला सर्वजनिक सम्मान था। इसी मुजफ़्फ़रपुर के छोटी कल्याणी मुहल्ले के निवासी बैरिस्टर शरत कुमार चक्रवर्ती के साथ, सन्‌ १९०१ में रवीन्द्रनाथ ने अपनी प्राण से भी प्यारी ज्येष्ठा पुत्री माधुरीलता का विवाह किया था। वह इंट्रेंस पास थी। तब तक मिथिलांचल का कोई पिता अपनी बेटी को इंट्रेंस तक शिक्षा नहीं दिला पाया था।रवीन्द्रनाथ ने मिथिला को इंट्रेंस पास बहू देकर उसे स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में अग्रसर होने के लिए प्रेरित किया था। पुत्री माधुरीलता से मिलने रवीन्द्रनाथ कई बार मुजफ़्फ़रपुर आये थे। स्वाभाविक है कि उनके आने पर इस नगर में साहित्यिक क्रिया-कलाप तेज हो जाया करता था।यहाँ वे अपने मित्रों और सम्बंधियों के साथ आसपास के इलाकों में बग्घी से घूमने भी जाया करते थे। मुजफ़्फ़रपुर के सरैया,अखाड़ाघाट,आदि स्थानों पर वे अक्सर जाया करते थे, इसकी स्मृति तो स्थानीय लोगों को है,मगर यहाँ आकर वे वैशाली नहीं गये हों या दरभंगा-मधुबनी जाकर मैथिल संस्कृति का रसपान न किया हो,ऐसा हो नहीं सकता।

ब्राह्म समाजी होते हुए ठाकुर परिवार का मैथिल कर्मकाण्ड में नैसर्गिक आस्था थी।रवीन्द्रनाथ के पिता देवेन्द्रनाथ और माता शारदा देवी नैष्ठिक ब्राह्मण थे। पूजा के फूल-पत्र तोड़ने के लिए उन्होने जो सेवक नियुक्त किया था,वह मैथिल ब्राह्मण ही था। इसी प्रकार,रवि बाबू का बॉडीगार्ड भी धोती-कुर्ताधारी छहफुट्टा मैथिल ब्राह्मण ही था।शांति निकेतन में कभी-कभी मनो-विनोद के लिए रविबाबू उसे जमीन पर बैठाकर भर पेट रसगुल्ला खिलाया करते थे।वह जितना चौका-छक्का मारता था,रविबाबू उतने ही गदगद होते।उन्होने उसका नाम ‘रोसोगुल्ला पंडित’ रख दिया था। उनके निधन के बाद उसे विश्वभारती विश्वविद्यालय में चतुर्थ श्रेणी कार्मिक के रूप में नियुक्त कर लिया गया था।

जब ‘जन-गण-मन’ विवाद उठा, तो इसी दरभंगा के सी.एम. कॉलेज के अंग्रेजी विभाग के प्रवक्ता प्रो. पाल ने सप्रमाण यह सिद्ध किया था कि १९११ में जार्ज पंचम के आगमन से पहले ही यह गीत ब्राह्म समाज मंदिर के स्थापना दिवस पर गाया गया था।बाद में २८ दिसम्बर,१९११ को सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की पत्रिका ‘द बंगाली’ में यह प्रकाशित हुआ था। दरभंगा के पीताम्बर बनर्जी आदि से रवि बाबू का निकट सम्पर्क था। यह अलग बात है कि स्वराज्य आन्दोलन मे रवि बाबू की प्रशांत भूमिका को नजरअंदाज करते हुए तन्त्र-प्रधान मिथिला के बुद्धिजीवियों ने विप्लवी नेताजी सुभाष चन्द्र के वाममार्ग को भारी समर्थन दिया। इसी प्रकार रवीन्द्रनाथ के प्रभाव से ब्राह्मसमाज को अपनाने वाले भी बहुत कम हुए। मुजफ़्फ़रपुर के एक शिव प्रताप शाही को ब्राह्म समाजी बनने पर समाज से बहिष्कृत कर दिया गया था।

भागलपुर में गंगा के किनारे बनैली राज द्वारा निर्मित टिलहा कोठी में भी रवीन्द्रनाथ ने प्रारम्भिक जीवन का कुछ अंश बिताया था। कहा जाता है कि ‘गीतांजलि’ के कई गीत उन्होने इसी टिलहा कोठी में रहकर लिखे थे।मुंगेर किले में रवीन्द्रनाथ कभी आकर रहे थे,इसका साक्ष्य इस किले में स्थित ‘रवीन्द्र सदन’ है। मुंगेर में ही १९०७ में उनके पुत्र शमीन्द्रनाथ का असामयिक निधन हो गया था,जिसका पार्थिव शरीर वहीं गंगा के तट पर अग्नि को समर्पित किया गया था।

रवीन्द्रनाथ भले ही मानवतावाद के प्रबल पक्षधर हों,मगर उनका भावप्रवण साहित्यकार अपनी जमीन से गहरा जुड़ा हुआ था। उनकी राष्ट्रियता भारतीय ऋषि-मुनियों की उदार राष्ट्रियता थी।इसीलिए उन्होने विश्वभारती का आदर्शवाक्य ‘यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्‌’ रखा था।अपनी धरती, अपने समाज, अपनी मातृभाषा और अपनी सांस्कृतिक विरासत को वे सर्वोपरि स्थान देते थे। यही जीवन-दर्शन उन्होने अपने समय के बड़े शायर अल्लामा इकबाल को भी समझाया था। उन्हें उर्दू-फारसी के बजाय पंजाबी में लिखने का आग्रह किया था, मगर इकबाल को लगा कि उर्दू में लिखकर वे अपनी शायरी को ईरान तक पहुँचा सकते हैं, जबकि पंजाबी में लिखकर वे घर की देहरी भी नहीं लाँघ सकेंगे।जब रवीन्द्रनाथ की बंगला में मूलतः लिखी ‘गीतांजलि’ पर नोबेल पुरस्कार मिला,तो इकबाल के प्रशंसकों ने इकबाल को भी नोबेल देने का दावा किया,मगर नोबेल समिति के अधिकारियों ने उनमें विचारों की निरन्तरता का अभाव देखा और अपनी सांस्कृतिक विरासत के प्रति वह लगाव नहीं देखा,जो किसी कवि को महाकवि बनाता है। यह तब स्पष्ट हो गया, जब अमृतसर में बैसाखी के दिन हुए जलियाँवाला बाग कांड के प्रतिरोध में बंगाल के रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने ब्रिटिश शासन की दी हुई ‘सर’ उपाधि लौटा दी, मगर सियालकोट,पंजाब के जन्मे मुहम्मद इकबाल ने अपनी ‘सर’ उपाधि को सीने से चिपकाये रखा। इसलिए रवीन्द्रनाथ जब सोनार बांग्ला गीत गाते हैं,तो उनके शब्द-स्वर में केवल बंगाल ही नहीं,सम्पूर्ण भारत की शस्य-श्यामला धरती गाती है।

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स्त्री विमर्श की नई बयानी की कहानी ‘लेडिज सर्किल’

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हिंदी के स्त्रीवादी लेखन से एक पाठक के रूप में मेरी एक शिकायत है कि अब यह बहुत प्रेडिक्टेबल हो गई हैं. लिफाफा देखते ही मजमून समझ में आने लगता है. ऐसे में गीताश्री की कहानी ‘लेडिज सर्किल’ चौंकाती है. शुरू में मुझे लगा था कि इसमें भी वही शोषण, क्रांति, रोना-धोना होगा. लेकिन कहानी पढ़ते पढ़ते एक नए अनुभव से साक्षात्कार हुआ. इसी नाम से यह संग्रह ‘राजपाल एंड संज’ प्रकाशन से आया है. पहले कहानी पढ़िए. अच्छी लगे तो संग्रह लीजिये- मॉडरेटर

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उनकी पलकों पर अब भी नींद का बसेरा था। रतजगा उनकी आंखों से झांक रहा था। रात उनकी पलको से कभी जाती ही नहीं। मुझे हमेशा लगता कि एक मिनट की शांति मिले तो ये आंखें कहीं भी सो लें। कहीं भी दीवार के सहारे ओठंग जाएं, पल भर ही सही, एक नींद मार लें। देर रात सोना और तड़के जगना इस घर का रिवाज तो पहले से ही थी लेकिन ये सुबह कुछ अलग-सी थी।

मर्दविहीन घर में बीती रात भर धूमगज्जर मचा था। रिश्ते के भतीजे की बारात विदा करने के बाद सारी औरतें, घुटने तक साड़ी उठा कर आंगन में पसर गईं थीं। आंचल कहीं, पैर कहीं, सिर कहीं । बड़की भाभी अपने भारी वक्षों को खटिया में धंसा कर खिलखिला रही थीं। घुल्टनवा की पत्नी उनका पैर पकड़ कर नीचे बैठ गई थी। धीरे धीरे उनके पैरो को मसाज दे रही थी। आंगन की ही नइकी चाची फिराक में थीं कि घुल्टनवा बहू बड़की भाभी से मुक्त होकर उनका कमर दबा दे। मन हो रहा था कि किसी को कहे, कमर पर खड़ा हो जाए और पैरो से ही दबा दे। कोई मिल नहीं रहा था। बच्चे भी बाराती में चले गए थे। इन सबका रात को धमाल करने से पहले का विश्राम था। खाना बनाने का तनाव खत्म था। बाहर हलवाई पिछले चार दिन से सबका खाना बना रहा था। औरतें सिर्फ गाना गा रही थीं, हर रस्म में साड़ियां बदल रही थीं या हंसी ठिठोली करती घूम रही थीं। बारात को विदा करने के बाद सबने आंगन में खटिया पकड़ ली या कोई जमीन पर बिछी चटाई पर फैल गईं। आंगन पूरा औरतों के हवाले था। कोई परदेदारी नहीं। बुजुर्ग औरतें दालान पर जम गईं थीं, वहां भी सन्नाटा था। बाहर उनकी गप गोष्ठियां शुरु हो गई थीं और अंदर आंगन में भाभियों, ननदों की छेड़छाड़, गप सड़ाका।

मैं सालो बाद इस तरह का विचित्र नजारा देख रही थी। बड़ी तमन्ना थी कि गांव-कस्बे की टिपिकल शादी में शरीक होना ही है। मां और बाबूजी के नहीं रहने पर गांव घर दोनों, सालो पहले छूट चुका था। सब अपने परिवारो में रम चुके थे। मैं इस दुनिया से बहुत दूर जा चुकी थी। जैसे ही अपने आंगन में शादी की खबर मिली, न्योता पहुंचा, मुझसे रहा नहीं गया। बड़े भतीजे के शादी में मौका ही नहीं मिला।

बड़की भाभी ने फोन पर रोते रोते बताया था कि कैसे भतीजा एक दिन अचानक एक लड़की को दुल्हन के वेश में लेकर घर पहुंचा और बोला – “इसको अपना लें, ये आपकी बहू है। इसके घरवाले मान नहीं रहे थे, सो ऐसा करना पड़ा।“ भैया भाभी के सामने कोई चारा नहीं था। सो वे बहुत कम उम्र में सास ससुर बन गए। भाभी तो एक गीत का दस बार अभ्यास करके बैठी थी कि बहू आएगी तो सुर में गाएंगी-

“दुल्हिन धीरे धीरे चलिअउ ससुर गलिया…

दुल्हिन सासु से बोलिअउ, मधुर बोलिया…”

मौका ही नहीं मिला, अपनी मधुर गायकी का प्रदर्शन करने का। गीत कंठ में ही गूंजता रह गया। दुल्हिन धड़ल्ले से बेटे के साथ घर में प्रवेश कर गई। ये तो अच्छा हुआ कि बिना गाना गाए भी दुल्हिन की मधुर बोलिया निकली। एक अरमान पूरा हुआ। जिन अरमानों पर पानी फिरा था, उस पानी में यदाकदा छप छप करती रहतीं। मगर दुल्हिन से रार न ठानती थी। जो आई सो मायके लौट कर न गई। रात दिन का संग साथ था। निभा रहे थे दोनों।

आंगन में उनकी दुल्हिन भी सिर से आंचल उतारे चैन से बैठी हुई थी। बड़की भाभी ने आदेश जारी किया- “सबलोग आराम कर लो…दस बजे सब लोग वेश बदल के तैयार रहना, डोमकच के लिए निकलेंगे गांव में। तब तक गांव का बचा खुचा मरद सब सुत जाएगा, जादा मरद तो बाहरे मिलेगा, ओसारा में सोया हुआ, खेला कर देना है…”

सारी स्त्रियां ठहाके लगा रही थीं। सबको रात के संभावित खेला के बारे में सोच कर हंसी आ रही थी। डोमकच का खेला देर रात तक चलता है। पूरे गांव-टोले-मोहल्ले में, पुरुष वेश या बहुरुपिया बनी हुई औरतें, बाहर सोए हुए, जागे हुए मर्दों को सताती हैं। उनसे कुछ नेग वसूल कर ही जान छोड़ती है। इस स्वांग में बड़े, छोटे, बहू सास, ससुर का लिहाज खत्म होता है। देर रात तक गांव में स्त्रियों का आतंक मचता रहा। बाराती में जो मर्द न जा पाए, वे पछताते रहे। जेब भी कटी और मजाक के पात्र भी बने। टोला, मोहल्ला का चक्कर लगा कर जब आंगन में पहुंची तो वहां देर तक आपस में विश्वस्तरीय गालियों, अश्लील मजाको, गाली गीतों से एक दूसरे को नवाजती रहीं। सबसे ज्यादा गाली सुनने वालो में मैं थी। एकमात्र शहरी ननद, जो सिंगल थी। दुल्हिन लिहाज भूल गई कि फुआ जी हैं…बहुरुपिया बन कर, नाचती हुई मुझे गाली सुना रही थी-

“हाजीपुर के गलिया, उताल चल गे ननदी

देख लेतौ सोनरा भतार

भागलपुर बजरिया में मत जो गे ननदी

देख लेतौ रेसमी भतार…”

सब एक दूसरे को गाली सुना कर, सुन कर निहाल थीं, मानो आकाश से आशीर्वचन झर रहे हों। उनके उन्मुक्त ठहाके गगनभेदी थे। घर-आंगन-खेत तक गूंज रहे थे। मुझे लाज आती और मैं कान बंद कर लेती।

“उफ्फ…हद होती है बेशर्मी की। सबकुछ खोल कर रख दोगे क्या।..गीत गाओ…सप्रसंग वर्णन तो बंद करो…”

कोई माने तब ना। पूरे कूंए में भांग पड़ गई थी। किसी को नींद कहां। उत्तेजना, उल्लास और सिसकारियों से कोना कोना भर गया था। मर्द का वेश धरी हुई औरतें, दूसरी औरतों को मर्दो की.तरह छेड़ रही थीं, दैहिक छेड़छाड़ भी चल रही थी। मुझ तक आतीं तो मैं उठ कर भाग जाती। नकली मूंछे लगाए, हाथ में पतली लाठी ठकठकाती हुई सबकी साड़ियां उठा देतीं। मैं सख्त थी, मगर लाठियां बेजान कहां मानेगी। पूरे आंगन में भागमभागी, दौड़ा दौड़ी…छेड़छाड़…अश्लील गालियां…और सेक्सी किस्से…किसने किसका क्या देखा, किसने कैसे चुंबन लिया, कौन पेटीकोट में निकल कर बाथरुम भागा…

मेरे लिए यह सब अदभुत नजारा था। मैं किसी और ग्रह पर थी, जहां परदे में जीने वाली ये सारी औरतें एलियन थीं। जिनके सामने अपनी लाज बचाना मुश्किल था। बूढ़ी औरतों को नहीं छोड़ रही थीं तो मुझे क्या बक्खशती। भोर तक ड्रामा चलता रहा। जब जैतपुर वाली चाची बोलीं कि “ उधर सेन्नुर पड़ गया होगा…चलो, खत्म करो ये सब। सुबह जल्दी तैयारी में भी लगना है…” तब जाकर यह उत्पात बंद हुआ।

उल्लास की थकान भी कम नहीं होती। सुबह किसी की पलकें ना खुले, तो किसी की आंखे लाल। किसी की सूजी हुई आंखें, तो कोई पानी के छींटे मार मार कर हलकान। मैं उन सबकी अपेक्षा देर से जगी थी, भाभी अगर गुनगुनाती नहीं तो नींद न खुलती- “उठिए हे गिरिराज कुमारी…बन में पंछी बोलत है…।“ अलसाती हुई मैं भी उनकी जमात में शामिल हो गई।

पास पड़ोस और आंगन की सारी स्त्रियां मिट्टी के बड़े से चूल्हे के पास घेरा बना कर बैठने की तैयारी कर रही थीं।

मैंने पटोरी वाली भाभी को छेड़ा- “रात का नशा अभी…आंख से गया नहीं…”

“अरे क्या नशा बउआ…भैया तो गए बाराती, नशा केकरा संग…?”

“क्या भाभी, खाली नशा वहीं होता है क्या ?“ मैंने एक आंख दबाई।

“और क्या…हमारा नशा तो वही है छोटी ननदी…” पिपरा वाली भाभी छमक के बोल पड़ी। ब्लाउज से बीड़ी निकाली और कोने में खिसक गईं। बीड़ी की गंध उनकी स्थायी देह गंध थी। मैंने गौर किया, दुल्हिन भी पीछे पीछे दबे पांव उनके साथ लग लग गई। ओ…तो ये सांठगांठ चल रही है। मेरा मन हुआ- एक सुट्टा मार लूं लेकिन याद आया कि सिगरेट के एक कश में ही तेज खांसी उठ जाती है। मैंने पीछे से अपने वाक्य उछाल दिए…

“आप लोग शुरु हो गए सुबह सुबह…और कुछ सूझता ही नहीं आप लोगो को…गजब है…कोई बात हो, घुमा फिरा के वहीं ले आती हैं…सारी कामुक और नशेबाज औरतें इसी घर में…”

मैं हंस रही थी, नकली ढंग से माथा ठोकते हुए।

थोड़ी ही देर में चूल्हे के आसपास सारी औरतें जमा हो चुकी थीं। फरवरी महीने का उतरता हुआ जाड़ा था, फिर भी आग भली लग रही थी।

शाम तक बारात वापस आने वाली थी, उसके पहले दलपूरी और गुड़ की खीर बन जाए ताकि दुल्हन के आने के बाद टोले मोहल्ले में बैयना बंटाए। बड़की भाभी ने चने के दाल उबालने रख दिए और कुछ औरतें आटा गूंधने लगीं। सब अलग अलग कामो में। मैंने दाल भरने का काम ले लिया, ताकि बीच बीच में मुंह में दाल के भरवां मसाले डालती रहूं। दिल्ली में कई बार बनाने की कोशिश की, ऐसा स्वाद कभी नहीं मिला। मंडली मग्न थी, बड़ा कड़ाह में तेल खौल रहा था। पूड़ियां बनाई जाने लगी थी। केले के पत्ते एक तरफ रखा था और बड़ी बड़ी कठौतियां भीं जिनमें पूरियां बाद में रखी जातीं। पहले केला के पत्ते पर, ताकि तेल सूख जाए। उनींदी आंखों से मंडली ने काम शुरु किया।

बूढ़ी औरतें बार बार झांक जाती। दरवाजे पर चिलम भर कर गुड़गुड़ाती हुई बड़की चाची बार बार आवाज लगातीं- “गीत गाओ न रे सब…चुपचाप कहीं बयना बनता है का…मुंह में दही जमा ली हो का तुम सभ…”

“पिपरावाली भाभी चैला को चूल्हे में भीतर तक ठूंसती हुई ठहाके लगाईं – आग अइसे लहकता है, देख लो तुम लोग…”

“आयं दीदी…आप आग अइसे लहकाती हैं का ?” बड़की भाभी ने आंख मारी।

थोड़ी दूर पर आटा गूंध रही नईकी चाची बोलीं- जैतपुर वाली तो अइसे ही लहकाती हैं…हम देखे हैं…

“अच्छा…सब एक साथ बोल पड़ी..कब देखीं ? हमें भी तो बताइए…”

“सुनिए…हम लहकाते नहीं हैं…बूझीं…हमको संकेत मिल जाता है, त का जरुरत है लहकाने का। लहकाए पीपरा वाली जो छुपती फिरती हैं।“

सारी अब पीपरा वाली के पीछे पड़ गईं –  “क्या दीदी, हो जाए। बता ही दीजिए…”

“अरे क्या बताएं…इनके तो माथे पर ही सवार रहता है।“

“जब बाहर से आते हैं, कहेंगे खाना लेकर आओ, हम कहते हैं- बाहर आकर खा लीजिए, तो कहेंगे, खाना अंदर ही ले आओ, थक गए हैं, हम जैसे ही खाना लेकर अंदर जाते हैं, खाना छोड़ कर बिछौवना पर खींच लेते हैं। अब हम समझ गए हैं…जब भी बाहर से आते हैं, हम पूछ लेते हैं-“

“ऐ जी…खाना खाओगे कि पहिले करोगे…”

जोरदार ठहाका लगा। किसी के हाथ से लोई छूटी, किसी के हाथ से दाल भरवां। नईकी चाची हंसके हंसते वहीं लोट गईं। मेरा पेट पकड़ के बुरा हाल…

उनका सुनाने का तरीका इतनी नाटकीय था कि मुझे लगा- कहीं मंच पर कोई प्रस्तुति चल रही हो।

“मेरा हो गया, अब आप लोग अपना सुनाओ…खाली हमारा ही खिस्सा नहीं सुनना है…दो पसेरी आटा का पूरी बनना है, बहुत समय लगेगा, सब खोलो अपना कच्चा चिट्ठा…हो जाए…”

बाहर से बुढिया फुआ की आवाज आई- “खाली तुम लोग ठी ठी करोगी कि झूमर भी गाओगी?”

“लाफिंग गैस सूंघ ली है औरत सब…”

मेरे इतना कहते ही फिर ठहाका लगा। मैं मोढ़े पर ठाठ से बैठी गपशप का आनंद ले रही थी। इतनी खुली बातचीत मैंने कहीं नहीं सुनी थी। पीपरा वाली की बात सुनने के बाद अचानक सबके होठ फड़फड़ाने लगे…लेकिन सब पहले दूसरे को सुनना चाहती थीं। जैतपुर वाली भाभी लडा रही थीं। पीपरा वाली ने उनका संकोच तोड़ा- “बता दो बता दो…बाराती से आने के बाद बारात की सारी खुमारी कैसे उतारेगा, बता दो…।“

“भाभी….”

गीले हाथ पीपरा वाली के गाल पर सटा दिए जैतपुर वाली ने। पड़ोसन शीला भाभी की तरफ घूम कर पीपरा वाली बोली-

“तुम्हारे भी तो बारात से लौटेंगे, काहे नही बताती हो कि कल तुम्हारे ओसारे पर चादर जरुर सूखेगा…”

“हो हो हो हो…” दीवारे हिल गई घर की। बाहर खांसी उठी।

झूमर नहीं गाना है तो ननद को दो चार गाली ही सुना दो…दुल्हिन के आने के बाद तो गाना बजाना बंद न होगा जी, गा लो, भाई…

फुआ का दबाव बढ़ गया था।

“ईहां एतना बढ़िया खिस्सा कहानी चल रहा है, फुआ को गीत की पड़ी है। दो चार गीत गा दो, फिर गपशप चलेगा…”

मैंने सबको समझाया।

बड़की भाभी जो देर से सिर्फ हंस रही थीं- उन्होने गाली गीत शुरु किया-

“पनिया भरन हम न जइबे हे चाची

ग्वारा के बेटा मरद देलक छाती…”

गीत शुरु होते ही दूर आंगन बुहार रही जोखन बहू झाड़ू छोड़ कर उठी और उनके पास आकर ठुमकने लगी। मुझे अचानक ध्यान आया। दौड़ती हुई कमरे में जाकर पर्स से मोबाइल उठा कर लाई और गीत और नाच का वीडियो बनाने लगी। रात को इतना अंधेरा था मोहल्ले में कि वीडियो सही नहीं आया था। दुल्हिन उठी, वह भी नाचने के मूड में थी। मुझे झकझोरा कि मैं भी साथ दूं। लेकिन मैं वीडियो बनाना चाहती थी। मैं इनके उल्लास अपने साथ हमेशा के लिए कैद करके ले जाना चाहती थी ताकि अपनी तन्हाई में सुन कर उसे गीतिल शोर से भर सकूं। बहुत रस था इनकी बातों में। पति के साथ अपने सेक्सुअल संबंधों पर कितना कुल कर बोल रही हैं। एक दूसरे की खिंचाई भी कर रही हैं। एक दूसरे का भेद भी जानती हैं।

एक गीत जैसे ही खत्म हुआ, शीला भाभी दुल्हिन के पीछे पड़ गई।

तनि नईकी दुल्हिन का भी सुन लो…नया लड़का सब कइसे…

बड़की भाभी ने हस्तक्षेप किया- अरे, बच्चे को तो छोड़ दो, थोड़ा तो पतोहू को लिहाज करो…

जैतपुर वाली चीखी- अच्छा, अपनी बहू का बचाव कर रही हो, बेटे के बारे में सुनने में शरम आ रही है, अभी तो आपकी कहानी भी सुनेंगे…बारी आने दीजिए, पहिले अपनी बहू का सुन लीजिए…

नाच की मस्ती में डूबी हुई बहू ने सास के प्रतिवाद पर ध्यान दिया ही नहीं- हमारे ई, जब गरम गरम अंडा लेकर आते हैं, तब हम समझ जाते हैं कि आज ई अंडा फोड़बे करेंगे…

जिस अदा से ये बात कही गई थी, मैं तो मोढ़े से नीचे लुढ़क कर हंस रही थी। पीपरा वाली सूखा आटा उड़ा उड़ा कर हंस रही थीं। बड़की भाभी खिसियानी हंसी हंसते हुए बोली- “ई बेशरम सब…बेटा पूतोह को भी न छोड़ेगी…ई दुल्हिन को देखो…बेचारा बेटा, उसको उसीना हुआ अंडा पसंद है, बाहर से लौटते हुए ले आता है, इसका दूसरा ही मतलब निकालती है….हद है भाई…”

मुझे तो अपने भतीजे की शक्ल याद आ गई- हाथ में उबला हुआ अंडा लेकर कैसे प्रणय निवेदन करता होगा…

हंसते हंसते मुझे लगा कि अब मैं उबले हुए अंडे को दुनिया के किसी भी कोने में देखूंगी तो सहज नहीं रह पाऊंगी।

बड़की भाभी ने दुल्हिन को किसी और काम में लगा दिया। वह वहां से जाना नहीं चाहती थी, मन मार कर वहां से उठ कर गई। देवता घर सजाने के काम में लगा दिया। उसके बाद बड़ी भाभी मुखातिब हुई। पूरी छानने का काम उनके हाथ में आ गया था। पीपरा वाली टांग फैला कर भरवां मसाला बनाने लगीं थीं। जोखन बहू को और चइला ( जलावन) लाने के लिए आवाज लगाई नईकी चाची ने।

“हम न सुनाएंगे किस्सा, कोनो नया बात है का…कितना मजा आ रहा है सबको…चिरई के जान जाए, लइका के खिलौना. तुम लोग बहुत खुश हो रही हो..रोज रोज के काम से ऊबती नहीं हो का। रोज एक ही काम…हमारी उम्र हुई, हमको अब मुक्ति चाहिए…”

चूल्हे से आग की लपट बाहर तक आ रही थी। बड़की भाभी ने पानी का हल्का छींटा मारा। बाहर तक लपटें आना बंद हुईं।

मेरे अलावा उनकी बात का किसी पर असर नहीं पड़ा। सब एक दूसरे की खिंचाई में लगी थीं। बीच बीच में गाली गीत की दो लाइन गा लेतीं। पहली बार पिपरा वाली भाभी का नाम लेकर जैतपुर वाली ने गाली गाई….”निशी, इम के चलइछअ, छिम के चलइछअ गाड़ी में…।“ तब मुझे पता चला कि इनका नाम निशी है। कितना सुंदर नाम। कभी किसी ने पुकारा नहीं था। मैंने पुकारा- “निशी भाभी…”

वे हंसी…”अब क्या पुकारती हो छोटकी ननदिया…गाली सुनने का मन है क्या…गाऊं…?”

मैंने हाथ जोड़ लिए.

वे पूरी बेलने में लग गईं।

बड़की भाभी का चेहरा चूल्हे के ताप से भभक रहा था। बीच बीच में आग मंद पड़ जाती तो फूकना उठा कर फूकने लगतीं। फिर हांफ जाती। आग के लहकते ही चेहरा दमक उठता। आग और स्त्री का चेहरा कभी कभी परस्पर जुड़े लगते हैं। आग लहकेगी तो चेहरा दमकेगा। मैं उठ के बड़की भाभी के पास बैठ गई।

“लाइए..मैं पूरी छानती हूं…आप डालते जाइए…” मेरे आग्रह के वाबजूद भाभी ने मुझे काम नहीं दिया। निर्विकार भाव से करती रहीं, मानों अपनी डयूटी निभाता हो कोई।

जैतपुर वाली धीरे धीरे कोई गीत गा रही थीं। बाकी भी सुर मिला रही थीं। बड़की भाभी ने धीरे से मेरे कान के पास कहा- “आप अकेली कैसे रह पाईं बउआ ? एकांत तो दुश्मन होता है औरत का।“

मन हुआ अपना रेडीमेड जवाब सुना दूं जो अक्सर मैं ऐसा सवाल पूछने वालों को बौखला कर देती हूं…”मुझे जिसको अपनी देह नहीं छूने देना था, उसे तलाक दे दी। जिसके साथ सोने का मन था, वह मिला नहीं।“

मगर मैं भाभी से ये सब नहीं कह पाई। उनके चेहरे पर मेरे लिए मिले जुले भाव उभर रहे थे जिन्हें मैं पकड़ नहीं पा रही थी।

“आपकी जिंदगी बहुत अच्छी है बउआ… “

“हां, मैं उन औरतों से बेहतर हूं जो एक पति का लेबल माथे पर लगा कर छत्तीस के साथ सोती हैं।“

“आप उन औरतों से भी बेहतर हैं जो एक ही आदमी का आतंक सारा जीवन झेलती हैं…”

भाभी मुस्कुराईं।

जैतपुर वाली आंख मारते हुए बीच में बोल पड़ी- “घी और आग साथ साथ रहेंगे तो पिघलना घी को ही पड़ेगा ना। बड़ी दीदी का घी ज्यादा ही पिघल पिघल कर बह रहा है…, पानी का छींटा मारने से क्या होगा… “

मुझे घी और आग वाली बात पर हंसी आ गई।

“अब मुझे बहुत शर्म आती है। इच्छा भी नहीं होती। बहू घर में आ गई है। उनको शर्म तो आती नहीं, बहू के सामने से भी खींच ले जाते हैं…हम लाज से मरे जा रहे हैं…”

मैं अकबका गई। बातचीत ने कोई और मोड़ ले लिया था।

भाभी ऐसी बातें शेयर करेंगी, सोच भी नहीं सकती थी। वे मेरी जिंदगी जानती थी कि कितनी पुरुषविहीन है। मैं बर्फघर में रहती हूं जिसे मैंने चुना है। जिंदगी के चालीस साल निकल गए, मेरी ख्वाहिशों के सुरंग से। यहां आ कर थोड़ी गरमाई लौटी थी जीवन में। लेकिन बड़की भाभी क्या कह रही हैं। मेरा माथा घूम गया। अभी तो सबकुछ इतनी हसीन चल रहा था। सबके पास अपने अपने रति के किस्से थे। गोपन कुछ नहीं रहा।

भाभी ने पूरियां केले के पत्ते पर फेंका और कच्ची पूरियां डालीं कड़ाही में।

“तेल खत्म होने तक पूरियां तली जाती रहेंगी…मन कर रहा, तेल ही फेंक दूं…न रहेगा तेल न तलने का झंझट…”

मैं चुप थी। उनके चेहरे की तरफ देख रही थी।

“आप मेरा एक काम करेंगी बउआ…?”

मेरी आंखों के सवाल भयातुर हो उठे।

“दिल्ली जाएंगी न, तब नामर्दी की दवा हमको भेज दीजिएगा। यहां हम इंतजाम नहीं कर पाएंगे। आपका भैया अभी ही हर दवाई को संदेह से देखते हैं, मुझे ऐसी दवा भिजवाइए जिसे खाने में मिला कर दे दूं…बहुत गिज्जन हो गया, मेरी देह को अब आराम चाहिए…।“

मैं झटके से उठ खड़ी हुई। बड़की भाभी अभी भी पूरियां तलने में ऊबाऊ ढंग से लगी हुई थीं। जैतपुर वाली ने मेरा दामन पकड़ा- “थोड़ा ज्यादा ही भिजवाइएगा…हम सब बांट लेंगे, सबके काम आ जाएगा…”

थोड़ी देर सन्नाटे के बाद जैतपुर वाली ने गीत शुरु किया…फिर उसमें सबकी आवाजें मिल गईं थीं…बाहर से खांसी का कोरस बंद हो गया था।

“सब रे पुरुष लोगे

एके लेखा खोटे रामा

बुढ़ियों में हरिया के नित ही

खसोटे रामा…

देहरि के भीतरी कलपते बितउली रामा

धरती से भारी तन

मनवा के चोटे रामा…”

…..

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माइक्रोसोफ्ट के सीईओ की किताब ‘हिट रिफ्रेश’का एक अंश

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पिछले साल एक ऐसी किताब का अनुवाद किया जिससे बहुत कुछ सीखा. वह किताब है माइक्रोसोफ्ट कंपनी के भारतीय सीईओ सत्य नडेला की ‘हिट रिफ्रेश’. हार्पर कॉलिंस से प्रकाशित यह किताब यह बताती है कि किस प्रकार आर्टिफिशियल इन्तेलिजेन्स, मशीन लर्निंग, रोबोटिक्स आदि तकनीकों के माध्यम से आने वाले चार-पांच सालों में मनुष्य का जीवन इस हद तक बदल जायेगा जिसकी दस साल पहले तक लोगों ने कल्पना भी नहीं की होगी. भाषा के स्तर पर भी इस किताब का अनुवाद चुनौती रही कि किस तरह से तकनीक की भाषा को हिंदी एक आम पाठकों के लिए सहज बनाया जा सके. उसी किताब का एक अंश- प्रभात रंजन

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मुझे शुरू से शुरू करने दीजिए – मेरी अपनी कहानी। मेरा मतलब है, किस प्रकार का सी.ई.ओ. इस तरह का अस्तित्व से जुड़ा सवाल पूछता है कि, मैं इस जगह पर हूँ ही क्यों? संस्कृति, विचार और संवेदना जैसे विचार मेरे लिए इतने मायने क्यों रखते हैं? अच्छा, मेरे पिता एक सिविल सेवक थे और जिनका झुकाव मार्क्सवाद की तरफ था और मेरी माँ संस्कृत की एक विदुषी थी। हालाँकि मैंने अपने पिता से बहुत कुछ सीखा, बौद्धिक उत्सुकता तथा इतिहास के प्रति प्रेम, लेकिन मैं हमेशा माँ का बेटा ही रहा। वह मेरी खुशी, मेरे आत्मविश्वास और मैं बिना किसी अफसोस के जीवन जीता रहूँ इसकी वह बेहद शिद्दत के साथ परवाह करती थी। वह घर में और अपनी कॉलेज की कक्षाओं में बेहद मेहनत करती थीं, जहां वह प्राचीन भाषा, साहित्य और भारत का दर्शन पढ़ाती थीं और उन्होने खुशी से भरे एक घर का निर्माण किया।

इसीलिए मेरी शुरुआती यादें माँ से जुड़ी हुई हैं। वह जिस तरह से अपने पेशे में बने रहने और अपने विवाह को पटरी पर बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रही थीं वह मेरी जिंदगी की निरंतर और स्थिर ताकत रही हैं, और मेरे पिता विराट छवि वाले थे। वे अपने समय में करीब करीब अमरीका जा चुके थे, बहुत दूर एक ऐसी जगह जहां अवसर थे, उनको अर्थशास्त्र में पीएचडी करने के लिए फुलब्राइट स्कालरशिप मिली थी। लेकिन ये सारी योजनाएँ अचानक धरी की धरी रह गईं जब उनका चयन भारतीय प्रशासनिक सेवा में हो गया। वह 1960 के दशक के आरंभिक वर्षों की बात है जब जवाहरलाल नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री थे। गांधी के ऐतिहासिक आंदोलन के बाद जिसके कारण भारत को ग्रेट ब्रिटेन से आजादी हासिल हुई तब उनको यह पद हासिल हुआ था। उस दशक में सिविल सेवा का हिस्सा बनना तथा नए देश के जन्म में हिस्सा लेना एक सच्चे सपने का सच हो जाना था। आईएएस की सेवा पुरानी राज व्यवस्था की निशानी थी। 1947 में अंग्रेजों के जाने के बाद शासन के लिए इसका उपयोग किया जाता था। प्रत्येक वर्ष केवल सौ युवा पेशेवरों का चुनाव भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए होता था और इसलिए मेरे पिता बेहद कम उम्र में एक जिले का प्रशासन चलाते थे जहां की आबादी लाखों में थी। मेरे पूरे बचपन के दौरान उनकी पोस्टिंग भारत के आन्ध्र प्रदेश राज्य के अलग-अलग जिलों में हुई। मुझे एक जगह से दूसरी जगह जाना याद है, 1960 एवं 1970 के दशक के आरंभिक वर्षों में मैं पुराने औपनिवेशिक बंगलों में बड़ा हुआ, जहाँ मेरे पास बहुत सारा समय और स्थान होता था, और वह एक ऐसा देश था जो रूपांतरित हो रहा था, बदल रहा था।

मेरी माँ ने पूरी कोशिश से इन सारी बाधाओं के बीच अपना अध्यापन पेशा बनाए रखा, मुझे पालती रहीं और एक प्यारी पत्नी बनी रहीं। जब मैं करीब छः साल का था तो मेरी पांच महीने की बहन का देहांत हो गया। इसका मेरे परिवार के ऊपर बहुत प्रभाव पड़ा। उसके बाद माँ को काम करना छोड़ देना पड़ा। मुझे लगता है कि मेरी बहन की मृत्यु अंतिम तिनका थी। उसको खोने के बाद, जब मेरे पिता दूर दूर जगहों पर काम पर होते थे साथ में मुझे पालना और अपने पेशे को बनाए रखने के लिए काम करते रहना उनके लिए बहुत अधिक था। उन्होंने इसके बारे में मुझसे कभी शिकायत नहीं की, लेकिन मैं उनकी कहानी के बारे में कई बार सोचता हूँ, खासकर आजकल तकनीकी जगत में विविधता को लेकर जिस तरह की चर्चा चल रही है उसके सन्दर्भ में। किसी की भी तरह वह यह चाहती थीं, और यह सब पाने की हकदार थी। लेकिन उसके कामकाज के जगह की जैसी संस्कृति थी, उस समय भारतीय समाज की जिस तरह की मान्यताएं थीं, इस वजह से वह इसको संभव नहीं कर पाई कि अपने पारिवारिक जीवन तथा पेशेवर जुनून के बीच संतुलन बनाए रख सकें।

आईएएस पिता के बच्चों के बीच एक तरह की चूहा दौड़ रहती थी। कुछ आईएएस पिताओं के लिए उस बेहद पकाऊ प्रवेश परीक्षा को पास करने का मतलब होता था कि उनकी जिंदगी जैसे बन-संवर गई हो। वह उनकी अंतिम परीक्षा होती थी। लेकिन मेरे पापा का यह मानना था कि आईएएस की परीक्षा पास करने का मतलब यही होता था कि कुछ अन्य महत्वपूर्ण परीक्षाओं में हिस्सा लेने की योग्यता मिल जाती थी। वे जिंदगी भर सीखने वाले इंसान के सबसे अच्छे उदाहरण थे। लेकिन उस समय मेरे अधिकतर दोस्तों के पिताओं से एकदम अलग थे, जिनके बेहद उपलब्धि हासिल करने वाले माँ पिताओं का उनके ऊपर हासिल करने का बेहद दबाव रहता था, मुझे इस तरह के किसी दबाव का सामना नहीं करना पड़ा। मेरी माँ शेर की माँ के बिलकुल विपरीत थीं। उन्होंने इस बात के अलावा मेरे ऊपर किसी बात का दबाव नहीं डाला कि मैं खुश रहूँ।

यह मेरे लिए एकदम सही था। जब मैंने बच्चा था तो मैंने किसी भी चीज की अधिक परवाह नहीं की सिवाय क्रिकेट के खेल के। एक समय था जब मेरे पिता अपने बेडरूम में कार्लमार्क्स का पोस्टर लगाते थे; जिसके जवाब में मेरी माँ लक्ष्मी का पोस्टर लगाती थी, जो सुख समृद्धि की भारतीय देवी हैं। उनके सन्देश एक दूसरे के विपरीत थे लेकिन स्पष्ट थे – मेरे पिता चाहते थे कि मैं बौद्धिक बनूँ जबकि मेरी माँ चाहती थी कि मैं खुश रहूँ न कि किसी विचार का गुलाम बन जाऊं। मेरी प्रतिक्रिया? मैं सचमुच में एक ही पोस्टर लगाना चाहता था मेरे बेहद प्रिय क्रिकेट खिलाड़ी, हैदराबादी, महान एम. एल. जयसिम्हा की जो अपने मासूम रूप तथा शालीन शैली के कारण मैदान के अंदर और बाहर प्रसिद्ध थे।

पीछे मुड़कर देखता हूँ तो पाता हूँ कि मैं दोनों से प्रभावित हुआ। मेरे पिता का यह उत्साह कि मैं बौद्धिक कार्य करूँ और मेरी माँ का यह सपना कि मेरा जीवन संतुलित हो। और यहाँ तक कि आज भी क्रिकेट मेरा जुनून बना हुआ है। भारत से अधिक क्रिकेट को लेकर जुनून कहीं नहीं है, जबकि इस खेल का आविष्कार इंग्लैंड में हुआ था। मैं हैदराबाद में अपने स्कूल के लिए क्रिकेट खेलता था और अच्छा खेलता था, हैदराबाद वह जगह था जहाँ क्रिकेट खेलने की पुरानी परम्परा थी और उसके लिए उत्साह भी था। मैं ऑफ स्पिन बॉलर था जो बेस बॉल के खेल में पिचर जैसा होता है, जो तेज घुमाव वाले गेंद फेंकता है। दुनिया भर में क्रिकेट के ढाई अरब फैन हैं जबकि बेस बॉल के फैन्स की संख्या मुश्किल से पचास करोड़ है। दोनों बहुत सुन्दर खेल हैं और दोनों के फैन्स बेहद जुनूनी और इसकी गरिमा उत्साह तथा मुकाबले की जटिलताओं को लेकर काफी साहित्य लिखा गया है। जोसेफ ओ नील ने अपने उपन्यास नीदरलैंड में इस खेल की सुन्दरता का वर्णन किया है जिसमें ग्यारह खिलाड़ी एक साथ बैट्समैन की तरफ बढ़ रहे होते हैं और फिर बार बार अपनी जगह पर लौट आते हैं, “एक दोहराव या सांस लेते फेफड़ों की धुन, मानो वह मैदान अपने खास आगंतुकों के माध्यम से सांस ले रहा हो।” जब मैं सी. ई. ओ. के रूप में यह सोचता हूँ कि सफल होने के लिए हमें किस प्रकार की संस्कृति की आवश्यकता है तो मैं क्रिकेट टीम के इस रूपक के बारे में सोचता हूँ।

मैंने भारत के कई हिस्सों में स्कूल की पढाई की – श्रीकाकुलम, तिरुपति, मसूरी, दिल्ली और हैदराबाद। सबकी मेरे ऊपर छाप पड़ी और वह मेरे साथ बनी रही। उदाहरण के लिए मसूरी जो हिमालय की घाटी में अवस्थित एक उत्तर भारतीय शहर है जो करीब छह हज़ार फीट की उंचाई पर स्थित है। मैं जब भी बेलव्यू में अपने घर से रेने पहाड़ को देखता हूँ तो मुझे हमेशा अपने बचपन के पहाड़ याद आते हैं – नंदादेवी और बन्दरपूँछ। मैंने आरंभिक शिक्षा जीसस और मेरी कॉन्वेंट में पूरी की। यह भारत में लड़कियों का सबसे पुराना स्कूल है लेकिन वहां छोटी कक्षाओं में लड़के पढ़ सकते हैं। पंद्रह साल की उम्र में आते आते हमने अलग अलग शहरों में जाना बंद कर दिया और मैं हैदराबाद पब्लिक स्कूल में पढने लगा, जहाँ देश भर के विद्यार्थी पढ़ते थे। मैं अलग अलग जाने–रहने का शुक्रगुजार हूँ क्योंकि उनकी वजह से मुझे नई अवस्था के अनुकूल खुद को ढालने में मदद मिली – लेकिन हैदराबाद जाना मेरे लिए सचमुच रूपाकार देने वाला रहा। 1970 के दशक में हैदराबाद आज की तरह महानगर नहीं था जहाँ अडसठ लाख लोग रहते थे। मैं सच में अरब सागर में मुम्बई से पश्चिम के दुनिया के बारे में ना तो जानता था ना ही मुझे उसकी परवाह थी, लेकिन हैदराबाद पब्लिक स्कूल के बोर्डिंग स्कूल में पढना, मेरे जीवन की सबसे बड़ी घटना थी।

हैदराबाद पब्लिक स्कूल में मेरे हाउस का नाम नालंदा था या जिसे नीले रंग का हाउस भी कहते थे, उसका नाम प्राचीन बौद्ध विश्विद्यालय के नाम पर रखा गया था। सम्पूर्ण स्कूल बहुसांस्कृतिक था – मुस्लिम, हिन्दू, सिख, ईसाई सभी साथ साथ रहते और पढ़ते थे। उस स्कूल में संभ्रांत परिवारों के बच्चों के अलावा आदिवासी बच्चे भी पढ़ते थे जो राज्य के अंदरूनी जिलों से स्कालरशिप पर वहां पढने के लिए आते थे। हैदराबाद पब्लिक स्कूल में मुख्यमंत्री का बेटा भी पढता था और बॉलीवुड के फ़िल्मी सितारों के बच्चे भी। मैं जिस डौरमैट्री में रहता था उसमें भारत की आर्थिक अवस्था के सभी आर्थिक स्थितियों वाले परिवारों के बच्चे रहते थे। वह बहुत शानदार ढंग से समानता की भावना पैदा करने वाली ताकत थी – समय का वह पल याद रखने लायक है।

उसके पूर्व विद्यार्थियों की सूची इसकी सफलता के बारे में बयान करती है। शांतनु नारायण, सी ई ओ अडोबे; अजय सिंग बंगा, सी ई ओ मास्टर कार्ड; सैयद बी अली के वी एम् नेटवर्क्स के प्रमुख; प्रेम वत्स, टोरंटो में फेअर फैक्स फाइनेंसियल होल्डिंग के संस्थापक; संसद सदस्य, एथलीट, शिक्षाविद, और लेखक – सभी उस छोटे अलग तरह के स्कूल से निकलकर आये। मैं पढने में बहुत अच्छा नहीं था और न ही उस स्कूल को पढ़ाई के लिए जाना जाता था। अगर आप फिजिक्स पढना चाहते थे तो आप फिजिक्स पढ़ते थे। अगर आपको ऐसा लगता था कि विज्ञान की पढाई तो बेहद उबाऊ थी और आप इतिहास पढ़ना चाहते थे तो आप इतिहास पढने लग जाते थे। वहां किसी खास रास्ते को अपनाने के लिए अभिभावकों की तरफ से दबाव भी नहीं रहता था।

मेरे एच.पी.एस. में पढाई के कुछ साल बाद पापा संयुक्त राष्ट्र में काम करने बैंकाक गए। उनको मेरा लापरवाही भरा रवैया पसंद नहीं था। उन्होंने कहा, “मैं तुमको यहाँ से निकालने वाला हूँ और तुमको ग्यारहवी और बारहवीं की पढाई बैंकाक के किसी अंतर्राष्ट्रीय स्कूल में करनी चाहिए”, मैंने साफ़ मना कर दिया और इस तरह मैं हैदराबाद में ही फंसा रहा। सभी सोचते थे, “तुम पागल तो नहीं हो गए हो, तुमने ऐसा क्यों किया?” लेकिन मैं किसी भी तरह से छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ। उस समय क्रिकेट मेरे जीवन का बड़ा हिस्सा था। उस स्कूल में पढाई ने मुझे मेरी जिंदगी के कुछ सबसे यादगार अवसर दिए, और ढेर सारा आत्मविश्वास।

बारहवीं कक्षा तक आते आते अगर आपने मेरे सपनों के बारे में पूछा होता तो वह एक छोटे से कॉलेज में पढाई करने, हैदराबाद के लिए क्रिकेट खेलने और अंतत: किसी बैंक में काम करना था, बस यही था। इंजीनियर बनकर पश्चिम जाने का ख़याल मुझे कभी नहीं आया। मेरी माँ मेरी इन योजनाओं से बेहद खुश थी। “यह बहुत अच्छा है मेरे बेटे” लेकिन मेरे पापा ने इस मुद्दे पर सचमुच मेरे ऊपर दबाव डाला। उन्होंने कहा, “देखो तुम्हें हैदराबाद से बाहर जाना ही होगा। नहीं तो तुम अपने आप को बर्बाद कर लोगे।” उस समय यह अच्छी सलाह थी क्योंकि उस समय यह भविष्यवाणी कोई नहीं कर सकता था कि हैदराबाद आज की तरह तकनीकी का बहुत बड़ा केंद्र बन जाएगा। अपने दोस्तों के दायरे से निकलना मेरे लिए बहुत मुश्किल था, लेकिन पापा सही थे। अपने सपनों को लेकर मैं कस्बाई हो रहा था। मुझे किसी नजरिये की जरूरत थी। क्रिकेट मेरा जुनून था लेकिन उसके बाद कंप्यूटर का स्थान था। जब मैं पंद्रह साल का था तो मेरे पिता बैंकॉक से मेरे लिए सिनक्लेयर zx(जेडएक्स) स्पेकट्रम कम्प्यूटर किट लेकर आए। उसका जेड 80 सीपीयू सत्तर के दशक के मध्य में एक इंजीनियर द्वारा विकसित किया गया था जिसने इंटेल की नौकरी छोड़ दी थी, जहां वह 80-80 माइक्रो प्रॉसेसर पर काम करता था। विडम्बना की बात यह थी कि इसी माइक्रोचिप का उपयोग करते हुए बिल गेट्स और पॉल एलेन ने माइक्रोसॉफ़्ट बेसिक का पहला संस्करण तैयार किया था। जेड80 ने मुझे सॉफ्टवेयर, इंजीनियरिंग, और यहाँ तक कि इस विचार के ऊपर भी सोचने के लिए प्रेरित किया कि निजी कम्प्यूटिंग तकनीक का जनतंत्रीकरण किया जा सकता था। भारत जैसे देश का एक बच्चा अगर प्रोग्रामिंग करना सीख सकता था तो कोई भी सीख सकता था।

मैं आईआईटी की प्रवेश परीक्षा में असफल हो गया जो उस समय भारत के मध्यवर्ग में बड़े हो रहे बच्चों के लिए सबसे पवित्र मृगतृष्णा थी। मेरे पिता ने ऐसी कोई प्रवेश परीक्षा नहीं दी थी जिसमे वे पास ना हुए हों, इसलिए वे इस बात से जितना चिढ़े नहीं थे उतने हैरान थे। लेकिन सौभाग्य से मेरे पास इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दो और मौके थे। मेरा नाम बिड़ला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालजी मेसरा में मेकेनिकल इंजीनियरिंग में आ गया तथा मनिपाल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालजी में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में आ गया। मैंने यह सोचकर मनिपाल का चुनाव किया कि इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग करने से मैं कम्प्यूटर और सॉफ्टवेयर के और करीब आ सकता था और सौभाग्य से मेरा वह अनुमान सही निकला। अकादमिक रूप से इसने मुझे उस रास्ते पर डाल दिया जो मुझे सिलिकन घाटी और अंतत: माइक्रोसॉफ़्ट लेकर जाने वाला था। कॉलेज के दौरान मेरे जो दोस्त बने वे उद्यमशील थे तथा महत्वाकांक्षी भी। मैंने उनमे से कई लोगों से सीखा। असल में सालों बाद मैंने स्निवेल, कैलिफोर्निया में मनिपाल के अपने आठ साथियों के साथ घर किराये पर लिया और वहाँ उसी तरह से रहने लगे जिस तरह से कॉलेज में डोरमेट्री में रहते थे। खेलकूद के लिहाज से हालाँकि मनिपाल मेरे इच्छा के अनुकूल नहीं था। क्रिकेट खेलना मेरा सबसे बड़ा जुनून नहीं रह गया। मैंने अपने कॉलेज टीम के लिए एक मैच खेला और अपने दस्ताने उतार दिये। मेरे जीवन में कम्प्यूटर ने क्रिकेट का स्थान ले लिया और मेरी जिंदगी में वह पहले नंबर पर आ गया। मनिपाल में मैंने माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक्स में प्रशिक्षण हासिल किया – सर्किट को एक करने और कम्प्यूटर बनाने के आरंभिक सिद्धान्त का।

इलैक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में डिग्री हासिल करने के बाद मैं क्या करने वाला था इसको लेकर कोई खास योजना मेरे पास नहीं थी। मेरी माँ के जीवनदर्शन के बारे में काफी कुछ कहा गया है जिसने मुझे अपने भविष्य तथा अवसरों के बारे में सोचने के लिए प्रेरित किया। उनका हमेशा यह मानना था कि अपने मन की करो, और अपनी रफ्तार से करो। रफ्तार तब आती है जब आप अपने पसंद का काम करते हैं। जब तक आपको उसमे आनंद आता है तब तक दिमाग लगाकर अच्छी तरह से करना चाहिए तथा उसके पीछे कोई ईमानदार उद्देश्य होना चाहिए। जीवन आपको कभी असफल नहीं होने देगा। इसके कारण मैं हमेशा अपने जीवन में बेहतर स्थिति में रहा। ग्रेजुएशन पूरी करने के बाद मेरे पास एक मौका था मुम्बई में एक प्रतिष्ठित औद्योगिक संस्थान में पढने का। मैंने अमेरिका के कुछ कॉलेज में भी आवेदन किया था। उन दिनों अमेरिका जाने का स्टूडेंट्स वीजा एक तरह से जुए की तरह होता था, और स्पष्ट रूप से कहूं तो मुझे यह उम्मीद थी कि मुझे नहीं मिलेगा। मैं कभी भारत छोड़ कर नहीं जाना चाहता था। लेकिन भाग्य से मुझे वीजा मिल गया और एक बार फिर मेरे पास कई विकल्प थे- भारत में रहकर औद्योगिक इंजीनियरिंग में स्नातकोत्तर की पढ़ाई की जाये या मिल्वाउकी में यूनिवर्सिटी ऑफ़ विस्कॉन्सिन जाकर इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में स्नातकोत्तर की शिक्षा अर्जित की जाए। हैदराबाद पब्लिक स्कूल का एक बेहद प्रिय दोस्त यूनिवर्सिटी ऑफ़ विस्कॉन्सिन में कंप्यूटर साइंस की पढ़ाई कर रहा था, और इस तरह से मेरा फैसला हो गया। मैंने विस्कॉन्सिन में कंप्यूटर साइंस में स्नातकोत्तर की पढ़ाई के लिए दाखिला ले लिया। और मुझे ख़ुशी है कि मैंने किया क्योंकि वह छोटा सा विभाग था जहाँ प्रोफ़ेसर अपने विद्यार्थियों को समय देते थे। मैं खास तौर पर विभाग के अध्यक्ष डॉ. वैरवान और स्नातकोत्तर में अपने परामर्शदाता प्रोफ़ेसर होसैनी का आभारी हूँ जिन्होंने मेरे अन्दर इस बात के लिए आत्मविश्वास पैदा किया कि जो आसान था मैं उस रास्ते पर न जाऊं, बल्कि कंप्यूटर साइंस की सबसे मुश्किल समस्या से उलझूं।

अगर कोई मुझसे यह कहता कि मैं एक नक़्शे में यह दिखाऊँ कि मिल्वाउकी कहाँ है तो मैं नहीं दिखा सकता था। लेकिन अपने 21 वें जन्मदिन के दिन 1988 में मैंने नई दिल्ली से शिकागो के ओ हारा हवाई अड्डे के लिए उड़ान भरी। वहां से एक दोस्त ने मुझे गाड़ी से कैम्पस छोड़ दिया। जो मुझे याद है वहां शान्ति थी। सब कुछ शांत था। मिल्वाउकी बहुत शानदार जगह थी, जहाँ कुछ न बदला हो। मैंने सोचा कि भगवान् यह जगह धरती पर स्वर्ग है। गर्मियों के दिन थे। वह बहुत सुन्दर था, और अमेरिका में मेरे जीवन की बस शुरुआत हो रही थी।

गर्मियां सर्दी में बदल गई और विस्कॉन्सिन की सर्दी देखने लायक होती है, खासकर अगर आप दक्षिण भारत के रहने वाले हों। उन दिनों मैं सिगरेट पीता था और सिगरेट पीने वालों को बाहर खड़ा होना पड़ता था। दुनिया के अलग अलग हिस्सों से हमारे जैसे अनेक लोग थे। भारतीय विद्यार्थी ठण्ड को सहन नहीं कर सकते थे इसलिए उन्होंने सिगरेट पीना छोड़ दिया। उसके बाद मेरे चीनी दोस्तों ने छोड़ दिया। लेकिन रूस के लोगों के ऊपर उस कडाके की ठण्ड का कोई सर नहीं पड़ा, और वे बाहर जाकर सिगरेट पीते रहे।

निश्चित रूप से किसी भी बच्चे की तरह मुझे भी घर की याद सताने लगी, लेकिन अमेरिका इस अधिक आवाभगत वाला नहीं हो सकता था। मुझे नहीं लगता है कि मेरी कहानी कहीं और भी संभव हो सकती थी, और आज मुझे खुद को अमेरिकी नागरिक कहते हुए गर्व का अनुभव होता है। पीछे मुड़कर देखने पर, हालाँकि, मेरी कहानी योजनाबद्ध ढंग की लग सकती है। भारतीय सिविल सेवक का बेटा मेहनत करके पढता है, इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करता है, अमेरिका चला जाता है, और तकनीक की दुनिया में अपना मुकाम बनाता है। लेकिन यह इतना आसान नहीं था। रूढ़ि के मुताबिक़ मैं पढने में उतना कुछ ख़ास नहीं था। मैंने भारत के संभ्रांत आईआईटी से पढ़ाई नहीं की थी, जो नाम सिलिकन घाटी के निर्माण के साथ एकरूप हो चुका है। केवल अमेरिका में ही मेरे जैसे व्यक्ति को खुद को साबित करने का मौका मिल सकता है बजाय उसको इस आधार पर एक ख़ास तरह की पहचान से जोड़ दिया जाये कि उसने पढ़ाई कहाँ से की है। मेरे ख़याल से यह पहले के आप्रवासियों के लिए सच था और नई पीढ़ी के आप्रवासियों के लिए भी।

अनेक और लोगों की तरह मेरे लिए यह बहुत किस्मत की बात थी कि अनेक आंदोलनों के मिले जुले नतीजों का मुझे लाभ मिला: ब्रिटिश शासन से भारत की आजादी, अमेरिका के नागरिक अधिकार आन्दोलन, जिसके कारण अमेरिका के आव्रजन के नियम में बदलाव हुआ और वैश्विक स्तर पर तकनीकी में आई तेजी का। भारत की आजादी के कारण मेरे जैसे भारतीय नागरिकों के लिए शिक्षा में बड़े पैमाने पर निवेश किया गया। अमेरिका में 1965 के आव्रजन और प्रकृतिकरण अधिनियम से मूल देश कोटा को ख़त्म कर दिया गया और कुशल कामगारों के लिए अमेरिका में आना और योगदान करना आसान हो गया। इससे पहले, हर साल केवल सौ भारतीयों को आप्रवास की अनुमति दी जाती थी। आव्रजन अधिनियम की 50 वीं वर्षगाँठ के मौके पर ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ के लिए लिखते हुए इतिहासकार टेड विडमर ने इस बात की तरफ ध्यान दिलाया कि इस अधिनियम के कारण करीब पांच करोड़ नब्बे लाख लोग अमेरिका आये। लेकिन ऐसा नहीं था कि इस प्रवाह के ऊपर बाधा नहीं थी। इस अधिनियम में उनके लिए प्राथमिकता थी जिनको तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त था तथा उनको जिनके परिवार के सदस्य पहले से ही अमेरिका में थे। अनजाने में मैं उनके इस महान उपहार का प्राप्तकर्ता था। इन आंदोलनों ने मुझे इसके योग्य बनाया कि सॉफ्टवेयर के कौशल के साथ मैं 1990 के दशक के तकनीकी उत्कर्ष से पहले पहुँच गया।

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किताब का लिंक- /www.amazon.in/Hit-Refresh-Microsoft-Talaash-Bhavishya/dp/935277096X/ref=sr_1_1?ie=UTF8&qid=1525830506&sr=8-1&keywords=hit+refresh+satya+nadella+book+hindi

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मुल्क तो बंटा, लोग भी बंट गये। वो एक लोग थे। अब दो लोग हो गये। 

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गुलजार साहब ने उर्दू में एक उपन्यास लिखा. पहले वह अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ ‘टू’ नाम से. कुछ महीने बाद हिंदी में ‘दो लोग’ नाम से प्रकाशित हुआ. उर्दू में अभी तक प्रकाशित हुआ है या नहीं, पता नहीं. इसे पढ़ते हुए एक किस्सा याद आ गया. एक बड़े लेखक(जो उस समय युवा थे) ने एक उपन्यास लिखा और एक दूसरे बड़े लेखक के पास दिखाने के लिए गए. उस उपन्यास का नाम लेखक ने ‘दो’ रखा था. बड़े लेखक ने उपन्यास के पन्नों को उलटा-पुलटा और लेखक को वापस देते हुए कहा- उपन्यास तो अच्छा है, बस इसका नाम थोड़ा बड़ा है. इसका नाम ‘एक’ कर लो. बहरहाल, गुलजार साहब के उपन्यास ‘दो लोग’ की एक सम्यक समीक्षा पढ़िए. लिखा है कवयित्री स्मिता सिन्हा ने- मॉडरेटर
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” कैम्बलपुर जैसे खाली हो चुका था । सहमे सहमे मास्टर करम सिंह कमरे में दाखिल हुए तो एकदम सांस रुक गयी। बिस्तर पर बीवी आँखें खोले मरी पड़ी थी… मुंह से नीले थूथे की झाग बहते बहते तकिये पर सूख गयी थी। दिल मसोस कर वहीं बैठ गये। न पास गये। न छुआ उसे। न उसकी आँखें बंद कीं। अजीब सा एक चैन आ गया। दास्तान पूरी हो गयी …। “

        हाँ, दास्तान पूरी हो गयी। दास्तान ऐसी जिसने जिंदा आंखों को क़ब्रों में तब्दील कर दिया। दास्तान ऐसी जिसने दोस्तों को दुश्मन और दिलों को पत्थर बना दिया। दास्तान ऐसी जिसकी छटपटाहट और खौफ़ को हम जीते आ रहे हैं गुलज़ार , मंटो या कि भीष्म साहनी के कथन व पुनर्कथन में।
          1946 की सर्दियां थीं। विभाजन की ख़बर फैलने के बाद रात के अंधेरे में ‘ कैम्बलपुर ‘ से एक ट्रक निकलता है। इसमें वे लोग हैं जो अब तक यह समझने में लगे हैं कि कैसे एक लाइन खींच देने से इनका मुल्क बदल गया ! मुल्क तो बंटा, लोग भी बंट गये। वो एक लोग थे। अब दो लोग हो गये।
         गुलज़ार का पहला उपन्यास ” दो लोग ” इस ट्रक में बैठे इन्हीं लोगों के जीवन को रेखांकित करता है। यह लोग 1946 से लेकर कारगिल तक मिलते हैं और ढूंढ़ते रहते हैं एक जगह जिसे वे घर कह सकें। कैम्बलपुर से चलते वक्त उन्हें यह कहां पता था कि वे ताउम्र सफ़र में ही रहेंगे। ” दो लोग “विभाजन की त्रासदी के बारे में है, जिसने जाने कितनी ज़िंदगियों को हादसों में बदल दिया। त्रासदी भी ऐसी कि इधर आज़ादी की बेला आने को है और उधर ब्रिटिश नक्शानवीस विभाजित होने वाले दो देशों , भारत व पाकिस्तान की हदें उकेरने में बेहद मशगूल थे। जो एक अटूट था, वह टूटकर दो ऐसा मुल्क बना, जिनके बीच का फासला फिर कभी पाटा न जा सका। करोड़ों लोग बेघरबार हुए। एक अनुमान के मुताबिक़ विभाजन की खूनी वहशियत ने क़रीब दो करोड़ जाने लील लीं।
          कुछ तारीखें कभी ख़त्म नहीं होतीं। वे हमारा हाथ थामे सदियों तक लगातार चलती रहती हैं, अपने बेशुमार ज़ख्मों के साथ। ” दो लोग ” ऐसी ही काली तारीखों का एक कोलाज़ है। मेरे लिये इस किताब को पढ़ना चारों ओर बिखरी हुई नफ़रत और दरिंदगी के तमाम रूपकों के बीच से होकर गुज़रना था। और यही वजह थी कि जब मैं अंदर तक भर जाती तो वहीं उसी जगह, उसी वक्त किताब को पढ़ना बंद कर देती। मुश्किल था मेरे लिये एक लगातार इसके किरदारों का सामना करना। मैं रुकती, ठहरती, देर तक शांत, बिल्कुल चुपचाप बैठी रहती और धीमे धीमे कुछ उतरता रहता मेरे भीतर, कहीं गहरे तक। हर बीतते पन्ने के साथ एक टीस, एक छ्टपटाहट, एक बेबसी और बस एक ही सवाल … क्या बंटवारा इतना ज़रूरी था ? ?
       लगता कभी कि यहीं मेरे बिल्कुल क़रीब मोनी अपने बेटे को टकटकी लगाये देखते हुए कह रही है, “सोनी देख – इसकी शकल उसी पर गयी है। बिल्कुल वही नहीं लगता जो रोज हमारे साथ बलात्कार किया करता था ? “
” पागल है तू …हट यहाँ से। “और सोनी लौकी को उठाकर बाहर ले गयी।
और फिर एक दिन कुएं में लौकी की लाश मिली।
“मोनी तुझे मालूम है तूने क्या किया है? “
” हाँ ! कैम्बलपुर में उसने इतने हिन्दू मारे थे। मैने एक छोटा सा मुसलमान मार दिया तो क्या हुआ ? ? “
      और फिर एकदम से अवाक हो जाती,  जब दिखता मुनिरका की तरफ़ एक सिख को घसीटता हुआ हुजूम। बिजली के खम्भे से बांधता हुआ। उसके गले में टायर डालकर आग लगाता हुआ हुजूम। और अब हर तरफ़ गाढ़ा काला उठता हुआ धुंआ। डिफेंस कॉलोनी तक गूंजता हुआ शोर। और और ……फिर एक सन्नाटा। ओह ! तो क्या दिल्ली हमेशा से ही पागल थी।
   मास्टर फ़ज़लदीन कहा करते,” लाखों मगरूर तवारीख के पांव तले पिस गये। जिनके ज़ख्म भरने में दहाईयां गुज़र गयीं। सदियाँ मुन्तज़िर थी। “
       यह सब वक्ती सच्चाई की बानगी है। इसमें कहीं कुछ गल्प नहीं। इतिहास ने लोगों के दिल और दिमाग पर ऐसे नासूर दिये जिन्हें शब्दों में बयाँ करना नामुमकिन है। लेकिन यह गुलज़ार साहब के लेखन की सबसे बड़ी ख़ासियत है कि वे हमारे दिलों से होकर अपने सफ़्हों के लिये रास्ता बनाना बख़ूबी जानते हैं। हालांकि “दो लोग ” के नॉवेल या नॉवेला होने पर लोगों ने कई सवाल भी उठाये। लेकिन इसकी भूमिका को पढक़र यह स्पष्ट हो जाता है कि शब्दों की संख्या के आधार पर किसी रचना को श्रेणी विशेष में बांटना उचित नहीं। ख़ासकर “दो लोग” जो एक उपन्यास के सभी जरूरी मानकों पर खरी उतरती हो। एक पटकथा का फ़ैलाव, शब्दों की सघनता और किरदारों की बुनावट जो इस किताब में देखने को मिलती है, वह गैर मामूली है। अपने किरदारों के कहन, कथन, उनकी ठसक और बोली,  हर एक बात में गुलज़ार लाज़वाब बन पड़े हैं।
      गुलज़ार कहते हैं, ” इस किताब को लिखने के पीछे मेरा मकसद सिर्फ़ इतना था कि जो मेरे अंदर इतना कुछ जमा है, उसे इसके बाद ना लिखना पड़े। इसके बाद मैं पार्टीशन भूल जाऊं। दफ़न कर दूँ इस बात को कहीं न कहीं, क्योंकि यह इतिहास हो चुका है। “
         खैर! एक ऐसा किरदार जो बँटवारे से होता हुआ कारगिल तक पहुंचा। फौजी, चलता रहा लगातार। बेशुमार दिन। बेशुमार रातें। घूमते -घूमते पचास साल कश्मीर की पगडंडियों पर गुज़ार दिये। उसके भी दो हिस्से हो गये। उफ़्फ़! ये बँटवारे थमते ही नहीं। उसे अब तक पता ही नहीं वो किस तरफ़ है ?
उपन्यास हार्पर कॉलिन्स से प्रकाशित है 

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सियासत की धुन पर मोहब्बत का फ़साना ‘हसीनाबाद’

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गीताश्री के पहले उपन्यास ‘हसीनाबाद’ ने इस साल पाठकों-समीक्षकों-आलोचकों का ध्यान अच्छी तरह खींचा. इस उपन्यास की यह समीक्षा युवा लेखक पंकज कौरव ने लिखी है. इधर उनकी कई समीक्षाओं ने मुझे प्रभावित किया. उनमें एक यह भी है- मॉडरेटर

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हसीनाबाद के आबाद होने की दास्तान में ही कहीं इस उपन्यास का असली मर्म भी छिपा है. हडप्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई में मिले सभ्यता के अवशेषों से अलग हसीनाबाद की पड़ताल में जो कुछ भी सामने आता है वह विचलित करता है. एक जगह को बसाने में नैसर्गिक रूप से आबोदाना की चाह, सामाजिक सहभागिता और सुरक्षा की भावना ही बलवती रहती रही है जबकि हसीनाबाद बसावट के नैसर्गिक नियमों के विपरीत सामाजिक विनिमय की ऐसी दास्तान है जहां स्त्री देह के बदले सिर्फ़ जीवित रहने भर का ईंधन मुहैया है. हसीनाबाद की ये स्त्रियां बीवियां नहीं हैं, वैश्याएं भी नहीं हैं बस थोड़ी बहुत प्रेमिकाएं हैं, वह भी रूप-यौवन की चमक कायम रहने तक. हसीनाबाद की बुनावट को समझने में आलोक धन्वा की कविता की ये पंक्तियां काफी मददगार साबित हुईं – तुम/ जो पत्नियों को अलग रखते हो/ वेश्याओं से/ और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो/ पत्नियों से…”

लेकिन समाज का मर्दवादी ढ़ांचा प्रेमिकाओं को पत्नियों अलग रखने की कुत्सित सोच में किस हद तक जा सकता है वह यथार्थ इस उपन्यास से बखूबी प्रकट हुआ है. सामंती सोच से उपजा यह हसीनाबाद न तो चतुर्भुज स्थान है, न कोई चकला घर. तवायफों के कोठों से अलग यह सिर्फ एक ऐसी बस्ती है जो वहां खुद आकर रमने वालों से नहीं बसी बल्कि कुछ रसूखदार वहां शाम होते ही आकर रम सकें महज इसीलिए वह बस्ती बसायी गई है. इस आधारभूत सच को समझे बगैर उपन्यास की नायिका गोलमी और उसकी मां के सपनों की उड़ान को समझना संभव ही नहीं. जहां तक बात है गोलमी के सपनों की उन्मुक्त उड़ान की है तो उन सपनों की विशिष्टता खुद गोलमी के एक संवाद और उपन्यास में उसकी बार बार सुनाई देने वाली गूंज से स्पष्ट हो जाती है- ‘गोलमी सपने देखती नहीं बल्कि बनुती है बाबू.’

जितनी खूबसूरती से गोलमी ने सपने बुने हैं उतनी ही खूबसूरती के साथ गीताश्री ने अपने इस पहले ही उपन्यास में अगनित दृश्य बुने हैं. पढ़ते हुए आंखों के सामने दृश्य पर दृश्य बनते चले जाते हैं. दृश्यों को मूर्त रूप देने वाले किसी कुशल निर्देशक की तरह गीताश्री एक के बाद एक मार्मिक दृष्टांत रचती चली जाती हैं. लेकिन दृश्य बुनने की यही कला गीताश्री के हसीनाबाद में अगर सबसे मजबूत पक्ष है तो इन्हीं दृश्यों के संयोजन में एक कमज़ोर कड़ी छूट गई हैं. दरअसल एक फिल्म की तरह एक मार्मिक कथा के अनंत विस्तार में दृश्यों के संयोजन में बिखराव की संभावना छूट ही जाती है और फिर एक उपन्यास और फिल्म के बुनियादी स्वरूप में माध्यम का एक बड़ा अंतर तो है ही. वहीं समानता यह है कि रचने वाले को अपना बुना हर एक दृश्य सबसे जरूरी और उसके बिना कथा अधूरी लगने लग जाती है. बस यहीं से शुरू होता है उपन्यास का एकमात्र संकट, एक फिल्म की तरह शुरूआत में ही अलग-अलग देश, काल और परिस्थितियां निर्मित होने से कहानी से जुड़ने में अड़चन सी पैदा हुई. खुलकर कहा जाए तो उपन्यास की शुरूआत में ही रामबालक सिंह और गोलमी की मुलाकात जिज्ञासा जगाने के साथ ही गोलमी की राजनीतिक उड़ान का पुख्ता इशारा भी दे जाती है. इससे कहानी में काफी आगे आने वाली एक कड़ी एक तरह से शुरूआत में ही उघड़कर सामने आ जाती है. हालांकि इसके उलट उन परिस्थितियों से अवगत कराये बिना पाठक के लिए कथा में उतरना भी उपयुक्त नहीं है. क्योंकि अगर शिल्पगत विशेषताओं को छोड़ दिया जाए तो हर कहानी दो लाइन की ही होती है. हसीनाबाद की कहानी भी दो लाइन में कही जा सकती थी – ‘गोलमी नायिका है. वह ठाकुर सजावल सिंह की रखैल सुंदरी की बेटी है. गोलमी को बड़ा होते देख सुंदरी की चिंता बढ़ती जाती है कि कहीं गोलमी भी किशोर-वय होने तक हसीनाबाद के उसी दलदल में न उतार दी जाए, जहां फंसकर सुंदरी खुदको बेबस पा रही है, सो बस एक रात हसीनाबाद में आई कीर्तन मंडली के साथ सुंदरी अपनी गोलमी चिरइया को लेकर सगुन महतो के साथ फुर्र हो जाती है. हसीनाबाद पीछे छूट जाता है और साथ ही गोलमी का भाई रमेश भी पीछे छूट जाता है. सुंदरी के सपनों की डोर कहानी को आगे बढ़ाती है, जो अपनी बेटी गोलमी को पढ़ा लिखा कर अच्छी नौकरी तक पहुंचाकर आत्मनिर्भर बनना चाहती है लेकिन सुंदरी के सपनों को ताक पर रख गोलमी एक लोक-नर्तकी बनने का सपना देखते हुए राजनीति तक की यात्रा पर निकल पड़ती है…’

यानी जिज्ञासा जगाने के कहानी के उत्तरार्ध से शुरूआत में लाए गए उन दो पन्नों को छोड़ दिया जाये तो कहानी की रवानी पानी की तरह है. जो अपना रास्ता खुद ढूंढती चली जाती है. कोई अतिरंजना नहीं, यहां तक कि गोलमी का राजनीति के मैदान में उतरने का निर्णय भी उतना ही सहज है जितना कि इस स्थिति में किसी के भी लिए हो सकता है, कैसे? वह आप थोड़ा आगे बढ़ने पर खुद जान जाएंगे.

दरअसल हसीनाबाद की इस यात्रा में कई कई परतें हैं. गोलमी के सपनों के समानांतर चली सुंदरी की कथा भी कम मार्मिक नहीं. फर्क सिर्फ इतना है कि सुंदरी लोक परंपरा की वाहक होते हुए भी सीमित है वहीं गोलमी अपनी सीमाओं को सपनों से भी बड़ा विस्तार देती है. राजनीति उसका सपना कभी नहीं रहा, लेकिन राजनीति उतने ही सहज प्रलोभनों के साथ उसके जीवन में घुसपैठ करती है जितना कि वास्तविकता के धरातल पर आज का युवा सचमुच राजनीति से जुड़ने के लाभ से अभिभूत है. दरअसल अधिकांश युवाओं के लिए राजनीति का मतलब राजनैतिक विचारधारा से किसी तरह के जुड़ाव से इतर सत्ता से लाभ मात्र रह गया है. इस उपन्यास की एक अन्य प्रमुख पात्र रज्जो जो गोलमी की बाल-सखी भी है उसे इस प्रवृत्ति का प्रतीक माना जा सकता है. गोलमी की शुरू की हुई ऑस्केस्ट्रा को शुरूआती सफलता के बाद शासन-प्रशासन के प्रचार अभियान और विज्ञापनों से जोड़कर लाभ दिलाने का गणित भी रज्जो का ही सैट किया हुआ है जो कालांतर में गोलमी को पूरी तरह राजनीति के मैदान में उतरने के द्वार पर ला खड़ा करता है. किसी को हसीनाबाद में नायिका का यह राजनैतिक दखल गैर जरूरी लग सकता है पर इसके बिना इस उपन्यास की महत्ता शायद पूर्ण नहीं होती. क्योंकि गांधीवादी और लोहियावादी राजनैतिक प्रभाव वाला यह देश वर्तमान में जिन राजनैतिक परिस्थितियों से होकर गुज़र रहा है वहां राजनीति से जुड़ने वाले बहुसंख्यक युवाओं के पास सामाजिक क्रांति की कोई ठोस विचारधारा नज़र नहीं आती. रज्जो और उसका भाई खेंचरू राजनीति में उसी अवसरवादिता के नमूने बनकर उभरते हैं, किसी तरह की राजनैतिक विचारधारा से सरोकार न होने के बावजूद दोनों का सफल रजनीति में टिके रह पाना काफी कुछ कहता है. तो क्या अब राजनीति से जुड़ने का मतलब सिर्फ सत्ता और सत्ता से लाभ हासिल करना भर रह गया है? दरअसल बहुसंख्यक युवाओं का यही असमंजस और द्वंद्व इस उपन्यास में बखूबी लक्षित हुआ है जो उन्हें वैचारिक परिपक्वता और सामाजिक प्रतिबद्धता की समुचित तैयारी के बगैर राजनीति के मैदान में तो ले आता है लेकिन आसानी से टिकने नहीं देता, ऐसे में टिक वही पाते हैं जो तिकड़मबाज़ होते हैं. वैसे एक ओर जहां दुविधा में फंसकर गलत राह पकड़ने वाले रज्जो और खेंचरू जैसे राजनीति में नवागंतुक हैं तो राजनीति के पुरोधा भी यहां सुलझे हुए नज़र नहीं आते. गोलमी की प्रतिभा को पहचानने वाले रामबालक सिंह और उनके धुर विरोधी रामखिलावन सिंह के मामले में भी राजनीति की उठापटक का यह द्वंद्व बना रहता है.

खैर सियासत की बिसात पर बुने जाने के बावजूद हसीनाबाद की दास्तान असल में सिर्फ मुहब्बत का ही फसाना है. गोलमी की मुहब्बत है लोक-धुनों पर नाचना और उसके बचपन का दोस्त अढ़ाई सौ की मुहब्बत तो खुद गोलमी है. गोलमी के लिए वह बगैर किसी प्रणय निवेदन ‘तीसरी कसम’ के हीरामन की तरह सदा उपलब्ध है. उसकी सिर्फ एक आस है – गोलमी का प्यार. इलाके के प्रेम विशेषज्ञ भोला भाई ने प्यार में सफलता की सौ फीसदी गारंटी के दावे के साथ उसकी चाहत को और भी दृढ़ कर दिया है. हुआ यूं कि भोला भाई से अढ़ाई सौ ने जब गोलमी का दिल जीतने की तरकीब पूछी तो उन्होंने गहन चिंतन के बाद बताया – ‘तुम उसका सपना पूरा करो.’ बदले में अढ़ाई सौ संकोच के साथ बोला – ‘वो सपने देखती नहीं बुनती है भाई’ इस पर भोला भाई के अनुभव का निचोड़ था – ‘तो तुम उसका धागा बन जाओ मेरे भाई.’

बस उसी प्रेम के धागे, उसी डोर से बुना होने की वजह से हसीनाबाद अपनी तमाम कुरूपताओं के बावजूद बेहद हसीन है. इस तानेबाने में लोक-संस्कृति ने सबसे चटख रंग छोड़ा है. बिहार की लोक संस्कृति में गूंजने वाले लोकगीत मानों यहां एक ज़रूरी आर्काइव पा गए हों. घुंघरूओं की छनछन जैसे अपनी पीठ पर लदे सारे पूर्वाग्रह झटक रही हो. भले घर की लड़की को नचनिया न बनने देने की तमाम वर्जनाओं के बावजूद नृत्य खूब फला फूला है. कला की वाहक कौन रहीं? उन्हें इसके बदले क्या हासिल हुआ? वह बात अब यहां पीछे छूट गई है. सवाल सिर्फ यही रह गया है कि कला तो आखिर कला है न? और वह कला न तो सामंतों की सेवा में व्यर्थ होगी और न ही सत्ता के ठेकेदारों के प्रचार अभियानों में. उस कला को संस्कृति विभागों के लुभावने आकर्षण भी अब कैद नहीं कर पाएंगे. वह कला अब किसी आंचलिकता में भी कैद नहीं होगी. पूरी दुनिया में कला के चाहने वाले हैं. मंत्रीपद को धता बताकर अपने लोक में वापसी करने वाली गोलमी आखिर यही विश्वास तो जगाती है. इस बात का विश्वास कि पारंपरिक शादियों और तीज-त्यौहारों के भरोसे लुप्तप्राय हो रही लोक-संस्कृति की निशानियां सहेजी जा सकती हैं. गोलमी ने ऐसा किया है और गीताश्री ने अपनी नायिका को ऐसा करने दिया है तो यह मामूली बात नहीं. कुलमिलाकर हसीनाबाद की यह पड़ताल गीताश्री के लेखक कर्म का बोनस है बाकी यह उपन्यास तो पठनीय है ही.

पुस्तक – हसीनाबाद

विधा – उपन्यास

प्रकाशक – वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली.

मूल्य – 250 रुपये

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सबसे बड़ा जोखिम है मान लेना कि थोड़ी से हँसी की क़ीमत हैं

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आज कुछ कविताएँ अनुकृति उपाध्याय की. अनुकृति एक अंतरराष्ट्रीय वित्त कम्पनी में काम करती हैं. मुंबई-सिंगापुर में रहती हैं. हिंदी में कहानियां और कविताएँ लिखती हैं. इनकी एक कहानी जानकी पुल पर आ चुकी है- जानकी और चमगादड़. जिसको कहने के अलग अंदाज के कारण काफी सराहा गया था. इनकी कविताओं का स्वर भी बहुत अलग, कहने का अपना अलग अंदाज है और प्रचलित धार से अलग बहने का साहस. कविता में लय और तुक को जरूरी मानने वाली अनुकृति किसी वैचारिक लोड से भरकर कविता नहीं लिखतीं लेकिन फिर भी उनकी वैचारिकता मुखर है. हिंदी के इस कविता समय में अभी कुछ कविताएँ ऐसी पढने को मिल जाती हैं कि कहना पड़ता है- बड़ी ताजगी है- मॉडरेटर

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कविता – एक वक्तव्य

कविता में है
कथा-कहानी,
नई पुरानी
मेले-ठेले,
भीड़ अकेले
मन भी हैं कविता में।
कविता में है
चूल्हा-चक्की,
धान और मक्की
खेत-गाम हों,
पुण्य-धाम हों
सब ही हैं कविता में।
कविता में हैं
जादू-टोने,
बादल-छौने
काग और पिक,
घड़ी की टिक-टिक
सब फबते कविता में।
कविता में हों
नारे-फिकरे,
नए तज़िकरे
भाषणबाज़ी,
चुप नाराज़ी
क्यों न हों कविता में?
कविता में
रहने दो किन्तु
कुछ लय बंधु
छंद-बंध कुछ,
रंग-गंध कुछ
बसने दो कविता में।
कविता में
बहने दो धारे,
मन के पारे
धूप-चाँदनी,
तनिक रागिनी
सजने दो कविता में।

 

आप पुराना लिखती हैं

कहा आपने –
यह कविता कुछ पुरानी है
यह क्या?
लय है और लालित्य भी इसमें?
डूबी हुई-सी लगती है
अपने ही रस में,
आप भी मानेंगी,
यह शैली घिसी, पुरानी है।
जब इसे पढ़ते हैं
तो नहीं पड़ते हैं
कनपटी पर हथौड़े से
न ही गड़ते हैं
शब्द इसके रोड़े से
ये रंग, ये माधुरी…
ये सब…ज़रा पुरानी है।

जी, ठीक ही कहते हैं आप
शब्दों के शालिग्राम
जाने कब से घिसे हैं
वेदना की, प्यार की
कसौटी पर कसे हैं
गद्य का घोड़ा नहीं
यह कविता है, मीन है,
ठीक पहचाना आपने
यह प्राचीन है।

लेकिन यह तो बताएँ
ऋतुओं को क्या कहेंगे आप,
नईं या पुरानी?
लहरें, धरती, भाषा,
मन की कहानी?
चिर से चलीं ये
नई हैं या पुरानी?

चलिए, बहुत हुआ,
बात यह रहने दें
कवि हूँ, बिसात क्या,
आप ही कहें।
यह तो संवाद है
विवाद क़तई नहीं।

तो क्या कहते हैं?
अनुमति देते हैं कि
यहीं इति करें ?
मैं अपनी तरह कहूँ,
और अपनी तरह कहें?

स्त्री होना ही मेरी सियासत है

आप कहते हैं
सियासत से बचो
कविता लिखो, गीत लिखो
माँ पर, बहन पर,
आँगन पर, सेहन पर
बादल झड़ी, धूप कड़ी
वग़ैरह वग़ैरह पर
निधियाँ कितनी है
घर-बार में, मौसम और त्यौहार में
समेटो, बटोरो
लेकिन ध्यान रखो
कि शब्द तुम्हारे
कोमल हों और भाव मुग्ध
उनकी दृष्टि सदा कुछ झुकी हो
और उनके होंठों पर
एक नितांत सुसंस्कृत मुस्कान रुकी हो।

देखो
हिन्दू, मुसलमान,
दलित, पहलवान
न्याय, अन्याय,
यानि दुनिया के व्यवसाय
इन सब पर कुछ मत कहो
तुमको चुप रहना सिखाया है, सो रहो
कुछ नई बात नहीं,
सदियों से सहा है,
अब भी सहो।

तो सुनिए,
मैं स्त्री हूँ,
मेरी देह पर
चिर से युद्धों के नक़्शे बने हैं
मेरे गर्भाशय में
जबरन विभाजन पले हैं
मेरे होंठ, बाज़ू,
छातियाँ, योनि
जांघें, कूल्हे
गालियाँ हैं, नारे हैं
स्वर्गिक सुख हैं
नरक के द्वारे हैं
लेकिन जो कुछ भी हों
मेरे नहीं हैं।

मेरे मन की धरती
चाहे उर्वर हो या परती
किसी और की सम्पत्ति है
मैं झगड़ों का झुरमुट हूँ
और फ़साद की जड़
मैं ज़र हूँ, ज़मीन हूँ, गाय हूँ
प्याली में भरी चाय हूँ
दवा हूँ, दारू हूँ,
घरेलू हूँ, बाज़ारू हूँ
पायदान हूँ, चारपाई हूँ
सुनिए, मैं अब भरपाई हूँ।

मैं स्त्री हूँ
मेरा देखना, चलना,
चुप्पी और बोलना
यहाँ तक कि मेरा होना भर भी
सदा से किसी और की हिरासत है।
मैं स्त्री हूँ
अब स्त्री होना ही मेरी सियासत है।

 

लोकतंत्र और हम

एक ने कहा – दाढ़ी-टोपी को घटाना है
दूसरे ने जनेऊ की प्रदर्शनी लगाई
तीसरे ने पुरानी ईंटों को पूजा
चौथे ने पांचवे को नीच कहा
पाँचवे ने अर्थ का अनर्थ किया
छठे ने कहा – किसान मर रहे हैं
सातवें ने कहा – हम दुनिया का सबसे बड़ा पुतला बना रहे हैं
आठवाँ हँसा
नवाँ रोया
दसवें ने बच्चे को गोद में ले भाषण किया
ग्यारहवें ने कहा – रानी असली थी
बारहवें ने कहा – रानी नक़ली थी
तेरहवें ने बीच बचाव किया – क्या अंतर पड़ता है कि रानी असली थी या नक़ली, भावनाएँ असली हैं

इस बीच
चुपचाप और डंके की चोट पर
रिश्वतें ली दी जाती रहीं
सौदे पर सौदे होते रहे
संसद ठप्प रही
अमीर न्यायलयों में झूठी हल्फ़ें उठाते रहे
ग़रीब न्यायालयों तक पहुँच नहीं पाए
प्रेमी को लाठियों से पीट-पीट कर मार डाला गया
प्रेमिका पर पिता और भाइयों ने बलात्कार कर डाला
एक मरे हुए किसान ने फिर आत्महत्या कर ली
हादिया नाम की लड़की को अपने पति से मिलने की अनुमति नहीं मिली
अफ्राज़ुल नाम के मनुष्य को शंभूलाल नाम के मनुष्य ने मार दिया
फिर हमने अख़बार रद्दी में फेंका
कॉफ़ी का आख़िरी घूँट लिया
और एक प्रेम-गीत सुनते सुनते काम में जुट गए

 

सन्तोषी आदमी की कथा

मेरे दादा
अक़्सर सुनाते थे कहानी
एक सन्तोषी आदमी की।

सन्तोषी आदमी राजा को सलाम करता था
और उसकी लीक पर चलता था।
एक बार राजा ने जलवा दिए उसके खेत
सन्तोषी आदमी ने हाथ जोड़ कहा –
अहा, क्या ख़ूब किया!
अगले बरस और भी उर्वर होगी धरती
और धान इफ़रात से होगा!

फिर राजा ने उठवा लीं उसकी गाएँ
सन्तोषी आदमी मुस्कुराया –
राजा ने अच्छा किया
बन्धन कटा
सानी-चारे का झंझट मिटा!

एक रोज़ राजा ने फुड़वा दी उसकी आँख
सन्तोषी आदमी खिलखिलाया –
धन्य हो, मुझे बचा लिया!
अब कुछ भी बुरा देख नहीं पाऊँगा!

फिर राजा ने उसके कानों में
डलवा दिया पिघला सीसा
सन्तोषी आदमी ने सिर नवाया –
ठीक ही है,
अब से बस राजा के मन की बात सुनूँगा।

अंत में राजा ने उसकी जीभ ही खिंचवा ली।

सन्तोषी आदमी अब भी राजा को सलाम करता है
और उसकी लीक पर चलता है
उसके लुटे-पिटे कटे-फटे चेहरे पर
अब भी सन्तोष पुता है

हमें ख़बर आई है

हमें ख़बर आई है
कि ना हँसने के दिन आप मुस्कराईं हैं
और इस तरह आपने
चार और लोगों की हिम्मत बढ़ाई है।
आपने सोचे हैं नारे
देखिए, लगाए भले न हों, सोचे अवश्य हैं,
उनसे हमें द्रोह की अनुगूँज आई है।
अभी अभी जब गिरा वह बूढ़ा,
हमने पाए आपकी आँखों में आँसू।
आप इसलिए रोईं
कि उस पर लाठी हमने चलाई है।
विश्वस्त सूत्रों से हमने यह भी जाना है
कि आपने मौसमों में हरा रंग चुना है
और साँझों में केसरिया।
चुनाँचे
जान लीजिए, आप आ गई हैं कठिनाई में
कहिए, क्या कहती हैं अपनी सफ़ाई में?

जनतंत्र दिवस पर

हम हैं तोता बंदर टट्टू
नाच रहे जो बिन डोरी के
ऐसे लट्टू।

हम हैं कंकर पत्थर अनगढ़
डाल जहाँ दो
वहीं गए गड़।

आग नहीं हैं, फूल नहीं हैं
हवा नहीं हैं, धूल नहीं हैं,
हम हैं काई।
मौसम ने जिस जगह जमाई,
वहीं रह गए,
जो भी बीता, सभी सह गए।

हम हैं मक्खी
झक्की, बक्की
कहा जो सबने, भनभुनाए
भवें चढ़ाए, काम में जुते
हम हैं लद्धड़ बैल सरीखे
कल ना सीखे, आज न सीखे
कभी ना सीखे…

सबसे बड़ा जोखिम 

सबसे बड़ा जोखिम है मान लेना
कि थोड़ी से हँसी की क़ीमत हैं
बहुत से आँसू
कि सुख पाने के लिए
बुरा नहीं है दुःख देना
और अपने होने के लिए ज़रूरी है
औरों का न होना
कि सच के न होने का प्रमाण है
बार बार झूठ का बोला जाना
ताक़तवर होने का नुस्ख़ा है
किसी को सताना
चतुरता का लक्षण है
हाँ में हाँ मिलाना
बचे रहने का एकमात्र रास्ता है
मुर्दा होने का ढोंग करना
शांति के लिए आवश्यक है लड़ना
जीने के लिए
स्वीकार कर लेना चाहिए
लगातार मरना
और
क्योंकि ऐसा ही होता रहा है
इसलिए
ग़लत नहीं है ऐसा ही होने देना
देना पाना

एक चुटकी निकटता के लिए
मैंने दी एक मुठ्ठी निजता,
एक बूँद राग के लिए
समुद्र भर अनुराग,
लौ भर उष्मा के लिए
मैंने होम दिया अजस्र नेह
और सुई की नोक भर सुख के लिए
उठा लिए पीर के ब्रह्मांड

 

अनुकृति की कहानी ‘जानकी और चमगादड़’ का लिंक- https://www.jankipul.com/2018/04/a-short-story-by-anukriti.html

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अंकिता जैन की कहानी ‘अपनी मोहब्बत’

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अंकिता जैन ‘ऐसी वैसी औरत’ किताब की लेखिका हैं. समकालीन परिदृश्य पर बेहद सक्रिय हैं और निरंतर कुछ नया करने में लगी रहती हैं. यह उनकी नई कहानी है- मॉडरेटर
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खिड़की में बैठी एक लड़की। नज़रों से सौ कदम की दूरी पर खड़ा एक पेड़। उसके पीछे से झाँकता एक मकान जिस पर लिखा है, “अपना घर”। खिड़की से पेड़ के बीच है उसके गार्डन में लगे कुछ गुलाब। लाल, पीले, सफेद और गुलाबी। फिर है सीशम का पेड़। फिर एक सफेद दीवार जो इतनी ऊँची है कि बैठे रहो तो उसके पार से दूसरी तरफ चलती सड़क की आवाज़ें गार्डन में कूदते-फांदते गुज़रती हैं, और यदि खड़े रहो तो उसी सड़क पर चलते लोगों के सर और गाड़ियों की छतें एक दूसरे में विलीन होती दिखती हैं। वो अक्सर घर के काम निपटा इस खिड़की में आकर बैठ जाती है। इन आवाज़ों, गाड़ियों की छतों और गुज़रते हुए लोगों के सरों को देखते हुए निशाना साधती है उस मकान पर जिसमें जाने के हिम्मत वो कई महीनों से जुटा रही है। उसे वहां जाना है, लेकिन क्यों? क्या कहेगी? ये सवाल उसके वहां जाने के मंसूबों पर पानी फेर देते हैं। उसे यह अपराधबोध है कि उसने ख़ुद ही उस घर के रास्ते अपने लिए बंद किए थे। ख़ुद ही छोड़ा था उस घर को। अपने घर को। जब वह घर बन रहा था और “सुख” ने पूछा था, बताओ क्या नाम रखें इसका। तो मकान की मुंडेर पर कारीगरों द्वारा काटी जा रही पलस्तर से बनती चौखानों वाली डिज़ाइन को देखते हुए उसने बिना समय गंवाए बोला था, “अपना घर”। इसका कोई नाम मत दो ना। कोई नाम देकर इसे “किसी का घर” मत बनाओ। इसे “अपना घर” ही रहने दो। सुख ने भी उतनी ही फुर्ती से बिना समय गंवाए कारीगर को बोल दिया था, लिखा जाएगा “अपना घर”।
दो अलग-अलग मकानों में पैदा हुए, पले-बढ़े “सुख” और “संतुष्टि” कहाँ जानते थे कि बचपन से उनके बीच पनपा ये गहरा प्रेम बड़े होते-होते पड़ोसन “लालसा” की काली नज़र की भेंट चढ़ जाएगा। “लालसा” को सुख बहुत पसंद था। वो उससे विवाह करना चाहती थी। गर्मियों की शाम में जब अक्सर सुख अपने घर की छत पर खड़ा होकर संतुष्टि की मुंडेर को फांद उसके घर में कूदने के मंसूबे बना रहा होता तो मौका परस्त लालसा झट से एक कंकड़ उठा सुख को मारती। फिर उसकी बनियान में से झाँकती बाजुओं पर मोहित हो, उससे कहती,
“कहाँ गर्मी में पसीना बहाते हो सुख, घर आ जाया करो, नया स्मार्ट कूलर आया है घर में। तुम्हें ऐसी पसंद नहीं ना, इसलिए मैंने पापा से कहकर यह स्मार्ट कूलर मंगवाया है, और मनोरंजन के लिए कुछ नई फिल्मों की सीडी भी लाई हूँ।”
सुख बड़ी ही बुरी नज़र से उसे घूरता जैसे गली के किसी कुत्ते को डपट रहा हो, लेकिन लालसा के रोज़ के एडवांस लालचों ने एक दिन सुख को फांस ही लिया। सुख चाहता था कि वो हमेशा युहीं फलता फूलता रहे, उसके बाजू उतने ही मजबूत रहें जितने अभी हैं। उनमें हमेशा वैसी ही मछलियाँ बनी रहें। वो इसके लिए मेहनत भी करना चाहता था। करता भी था। लेकिन जब उसके संगी-साथी “आकर्षण”, “लोभ”, “चाहत”, और “नए दौर” को उसने कुछ ही महीनों में पतली हड्डी से गबरू पहलवान होते देखा तो उसके मन में भी इच्छा हुई कि आख़िर यह चमत्कार हो कैसे रहा है। जो शरीर उसने बचपन से मेहनत कर-करके पसीना बहा-बहा कर बनाया वो इन लोगों को कुछ ही महीनों में मिल गया। ये सब भी सुख अनदेखा कर लेता, लेकिन जब उसने देखा कि ये सब मिलकर अपनी नई छवि का जादू मोहल्ले की अप्सरा मानी जाने वाली “संतुष्टि” पर चलाने की कोशिश कर रहे हैं तो उससे रहा न गया। संतुष्टि को खोने के डर से उसने “लालसा” से एक दिन छत पर इसका राज़ पूछा। लालसा ने एडवांस हुई सारी जानकारी उसे बता दी, और यह भी कि उसे जिम-विम जाने की ज़रूरत नहीं, उसके घर पर ही सारी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। सुख का परिवार आर्थिक रूप से उतना मजबूत नहीं था कि महंगे जिम की फीस भर पाता इसलिए उसने लालसा का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
बस… फिर क्या था। संतुष्टि को पाने की चाहत में सुख बाबू लालसा के जाल में ऐसे उलझे-ऐसे उलझे कि उन्हें पता ही नहीं चला कब लालसा ने उन्हें अपने फेर में फांस लिया। नई-नई तकनीकि, बॉडी बिल्डिंग के नए-नए तरीके, इंटरनेट का जाल, यह सब जब सुख ने देखा तो उसे अपने पिता का रोज़ सुबह अख़बार से मजग मारी करना, रात खाना खाते वक़्त माँ की समझाइशों का देना, भाई “समझदार” का जीवन ज्ञान देना और बहिन “तपस्या” का सफलता के नए-नए सूत्र बताना बहुत उबाऊ लगने लगा। उसे अब घर में बैठकर सबके साथ समय बिताने से ज़्यादा लालसा के साथ इंटरनेट पर समय बिताना ज़्यादा रोमांचक लगने लगा। बाक़ी सब तो ठीक उसे अब संतुष्टि के लिए घंटो छत पर खड़े हो उसका इंतज़ार करना भी बोरिंग लगने लगा। लालसा ने उसे समझाया कि “संतुष्टि उससे प्यार करती होती तो अब तक उसे इतना ना सताती। सुख आख़िर मांगता ही क्या है? संतुष्टि के साथ कुछ मोहब्बत भरे लम्हे। अब बचपन की मोहब्बत में इतना तो मांगा ही जा सकता है। लेकिन संतुष्टि पुराने खयालात की थी। सुख से मोहब्बत करती थी मगर कभी इज़हार नहीं किया, हाथ पकड़ने से ज़्यादा गले लगाने तक कि इज़ाज़त सुख को नहीं दे पाई। वो चाहती थी कि सुख कुछ बन जाए फिर फॉर्मल तरीके से उसके पिता से उसका हाथ मांगने आए।
मगर लालसा ने संतुष्टि की इस बात को नमक-मिर्च लगाकर सुख के सामने पेश किया, कि “इतना भी क्या भाव खाना, भई सुख तो मोहल्ले के सबसे हैंडसम लड़का है। कितनी सुंदर जोड़ी बनती सुख और संतुष्टि की, लेकिन संतुष्टि के तो भाव ही नहीं उतरते। उसे सुख को परेशान करना पसंद है। बस इसलिए वो सुख को इतना इंतज़ार कराती है”
पहले पहल तो सुख को लालसा की इन सब बातों पर यकीन नहीं हुआ। फिर जब लालसा ने दिखाया कि देखो कैसे संतुष्टि, “लोभ”, “चाहत” और “नए दौर” की प्रोफइल पिक्स पर लाइक्स फेंकती है तो सुख को बड़ा दर्द हुआ। उसे लगा कि एक वो है जो संतुष्टि के पीछे पागल है और एक संतुष्टि है जो उसे भाव तक नहीं देती। सुख भूल गया था कि संतुष्टि तो इंटरनेट इस्तेमाल ही नहीं करती। उसे यह सब पसंद ही नहीं। लालसा ने ही फ़र्ज़ी प्रोफाइल उसके नाम से बनाई थी सुख को जलाने और अपने कब्जे में करने के लिए। और अफसोस की लालसा उसमें कामयाब भी हो गई। जब बुरा वक़्त आता है तो सुख को अपनी साजिशों की चपेट में ले ही लेता है।
सुख और संतुष्टि की प्रेम कहानी में लालसा के आने के बाद वहां कोई उम्मीद नहीं बची जब सुख की शादी का कार्ड एक दिन लालसा के नाम के साथ संतुष्टि के घर पहुँचा। बहुत रोई वो। लेकिन अब इन आँसुओं का क्या फायदा था। उसे तकलीफ़ हो रही थी कि क्यों वो सुख को समझाने नहीं गई। क्यों उसने सुख से बात करने की कोशिश नहीं की। क्या करती वो, उसे कभी यह सिखाया ही नहीं गया था कि उसे सुख के पास भी जाना पड़ सकता है, उसे तो हमेशा यह सिखाया गया था कि सुख ही उसके पास आएगा।
सुख चला गया। संतुष्टि भी कुछ ही दिन अकेली रही, फिर उसके माता-पिता ने उसके लिए एक अच्छा सा वर ढूंढकर उसकी भी शादी करदी। “समझ” यूँ तो संतुष्टि को बहुत ख़ुश रखता है, लेकिन वो सुख नहीं है इसका मलाल ही अक्सर संतुष्टि को उसके घर की उस खिड़की तक ले आता है जहाँ से सुख का वो घर दिखता है, जिस पर लिखा है “अपना घर”। अब दोनों आमने-सामने ही रहते हैं, लेकिन मिलते ही नज़रें चुरा लिया करते हैं।

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राजकिशोर का लेख ‘मरने की उम्र’

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जबसे होश संभाला राजकिशोर जी को पढता रहा. सबसे पहले उस जमाने की सबसे ‘टेस्टी’ पत्रिका ‘रविवार’ में और जैसे जैसे उम्र बढती गई उनको हर कहीं पढता रहा. मुजफ्फरपुर से दिल्ली तक मैंने एक से एक लिक्खाड़ लेखकों को करीब से जाना लेकिन राजकिशोर जी जैसा पुख्ता वैचारिक लिक्खाड़ दूसरा नहीं देखा. वे अपने अखबारी लेखों में भी दिलचस्प रचनात्मक प्रयोग करते थे और उसकी प्रशंसा करने पर  कवियों की तरहआह्लादित हो जाते थे. भाषा का वैसा सुघड़ कौशल मैंने बहुत कम लेखकों में देखा. उनसे बहुत कुछ सीखा. सबसे अधिक लेखक की शान के साथ जीना सीखा. जानकी पुल परिवार की तरफ से उनको सादर नमन. उनका एक लेख ध्यान आया- ‘मरने की उम्र’. मैं जब आखिरी बार अस्पताल में उनको देखकर आया था तो उनकी जिजीविषा को लेकर इतना आश्वस्त था कि मुझे लगा दो-तीन दिन में अवश्य ठीक हो जायेंगे. मुझे क्या पता था कि बड़े से बड़ा अनुशासित लेखक भी एक दिन सारे अनुशासन तोड़ देता है- मॉडरेटर

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क्या मरने की भी कोई उम्र हो सकती है? यह तो हजारों साल से पता है कि कोई भी आदमी अमर नहीं है। जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु भी होगी। अमर वही है जो अजन्मा है। क्या निखिल ब्रह्मांड में कुछ ऐसा है जिसका जन्म नहीं हुआ था? क्या स्वयं ब्रह्मांड के बारे में यह प्रश्न किया जा सकता है? सदियों से वैज्ञानिक बिरादरी इस प्रश्न से जूझ रही है। कोई भी दो उत्तर एक-दूसरे से मेल नहीं खाते। हो सकता है, कभी वह एक उत्तर मिल जाए जो सब की जिज्ञासाओं को शांत कर दे। ज्यादा संभावना इसकी है कि रहस्य रहस्य ही रह जाए। कोई चींटी पहाड़ पर किताब कैसे लिख सकती है?

इतना तो खैर हमने पता लगा ही लिया है कि किस जीव की कुल उम्र कितनी होती है। मसलन चूहा कितने दिन जीवित रहेगा, शेर जन्म होने के कितने दिन बाद मरेगा, मादा हाथी अधिक दिन तक जिएगी या नर हाथी…। चूँकि आदमी भी जीव-जंतुओं के इस संयुक्त परिवार का सदस्य है, इसलिए उसके भी जिंदा रहने की अवधि आँक ली गई है। जहाँ एकदम सही संख्या का पता नहीं लगाया जा सकता, वहाँ औसत से काम चलाया जाता है। दिलचस्प बात यह है कि वन्य, सामुद्रिक या गगन विहारी प्राणियों पर यह औसत खरा उतरता है, क्योंकि एक जैसी परिस्थितियों में जीनेवाले ऐसे दो प्राणियों की जीवन प्रत्याशा में दस-पंद्रह प्रतिशत से ज्यादा फर्क नहीं हो सकता। इसका कारण, मेरे खयाल से, यह है कि उनकी दुनिया में सरकार, रिजर्व बैंक, शेअर बाजार, कारखाने और अस्पताल नहीं हैं। जहाँ ये संस्थाएँ हैं, वहाँ हर आदमी के मरने की उम्र अलग-अलग हो जाती है और उनमें टीले से ले कर पहाड़ तक का अंतर हो सकता है – खासकर तीसरी दुनिया में, जिसका सदस्य होने से हमारे शासक आजकल शोर मचाने की हद तक इनकार करते हैं। कोई कौवा अपने को कौवा न माने, तो क्या वह कौवा नहीं रह जाएगा?

पिछले साल भारतीय स्त्रियों की जीवन प्रत्याशा 67.7 वर्ष और भारतीय पुरुषों की जीवन प्रत्याशा 64.6 वर्ष थी। लेकिन ये संख्याएँ वास्तविक नहीं, औसत हैं। स्पष्टतः झारखंड या छत्तीसगढ़ के किसी आदिवासी के मरने की औसत उम्र वह नहीं हो सकती, जो मंत्रियों, अफसरों और उद्योगपतियों की होती है। बेशक सभी भारतीयों की जीवन प्रत्याशा हर साल बढ़ रही है, फिर भी घोड़े और गधे की औसत प्रति किलोमीटर रफ्तार में जो बुनियादी अंतर है, वह सिमट नहीं रहा है। इसका कारण वही है, जिसकी ओर इशारा किया जा चुका है – भारत में सरकार, रिजर्व बैंक, शेअर बाजार, कारखाने, अस्पताल, यूपीएससी, सौ रुपए से ज्यादा मूल्य के नोटों की बेशुमार संख्या का होना। अगर इन संस्थाओं को खत्म कर दिया जाए, तो सभी भारतीयों के मरने की उम्र लगभग बराबर हो जाएगी, हालाँकि वह आज की तुलना में बहुत कम होगी।

मेरी समस्या कुछ और है। यह समस्या पशुओं की मौत के बारे में सोचने से पैदा हुई है। मेरा अनुमान यह है कि उनकी मौत बहुत दर्दनाक होती होगी। हृदय आघात से तो वे मरते नहीं होंगे कि कुछ क्षणों में ही किस्सा खत्म। उन्हें मरने में काफी समय लगता होगा। अत्यंत कमजोर हो जाने के बाद वे निढाल हो जाते होंगे, उसके बाद न कुछ खाने को मिलता होगा न पीने को। सिर्फ ऑक्सीजन के बल पर कितने दिन बचा जा सकता है? गनीमत यह है कि उन्हें यह पता नहीं होगा कि उनके साथ हो क्या रहा है। आदमी जानता है कि मौत का मतलब क्या है। इसलिए वह हर हाल में इससे दूर रहना चाहता है, चाहे उसका जीना कितना भी कष्टपूर्ण और निरर्थक हो जाए। जीने का एक क्षण भी सौ मृत्युओं पर भारी पड़ता है।

आदमियों का बुढ़ापा न पशुओं के बुढ़ापे की तरह कातर होता है न उसकी मृत्यु। यह जरूर है कि कोई भी आदमी मृत्यु की तैयारी नहीं करता। सभी मृत्यु को प्राप्त होते हैं, कोई मृत्यु को प्राप्त नहीं करता। स्वयं कर्ता बन कर इस परंपरा को क्या हम तोड़ सकते हैं? हम कब मरेंगे, इसका फैसला प्रकृति से छीन कर क्या हम अपनी मुट्ठी में रख सकते हैं? तब मरने की उम्र वह होगी जब हमें लगे कि अब जीने का कोई मतलब नहीं रह गया है। यह एहसास डिप्रेशन में भी हो सकती है। इसका इलाज होना चाहिए। लेकिन कोई आदमी होशो-हवास में तय कर सकता है कि अब जीना निरर्थक है। जैसा विनोबा भावे ने किया था। जब उन्हें अपना शरीर भार लगने लगा, तो उन्होंने मृत्यु का वरण कर लिया। बहुत पहले सार्त्र का यह वाक्य पढ़ा था कि मनुष्य और पशु में फर्क यही है कि मनुष्य आत्महत्या कर सकता है, पशु नहीं कर सकता।

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कलाकार का मन कवि-मन होता है

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जाने-माने शिल्पकार-चित्रकार सीरज सक्सेना हिंदी के अच्छे, संवेदनशील लेखक भी हैं. उनके लेखों का संग्रह ‘आकाश एक ताल है’ वाग्देवी प्रकाशन से प्रकाशित हो रहा है. इसकी भूमिका प्रसिद्ध पत्रकार, लेखक ओम थानवी ने लिखी है. प्रस्तुत है ओमजी की भूमिका- मॉडरेटर
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कलाकार का मन कवि-मन होता है। कैनवस पर रेखाओं और रंगों के बीच कलाकार वह जगह रचता है, जो — टीएस एलियट के अनुसार — कवि शब्दों के बीच गढ़ता है।  ज़रूरी नहीं कि हर कलाकार शब्दों की दुनिया में भी जा उतरता हो। मगर फिर भी बहुत-से कलाकारों ने, अपने कलाकर्म के समांतर, शब्दों के संसार में अपनी अभिव्यक्ति को टटोला है। कविता, कथा से लेकर पत्र-लेखन तक में वे अभिव्यक्तियाँ चर्चित हुई हैं, सराही गई हैं। उन कलाकार लेखकों की पाँत में सीरज सक्सेना को बैठा देखकर मुझे निजी स्तर पर भी बहुत ख़ुशी होती है।
निजी स्तर पर इसलिए कि जब जनसत्ता का सम्पादन करता था, सीरज के अनेक लेख, टिप्पणियाँ और संस्मरण और यात्रा-वृतांत प्रकाशित करने का सौभाग्य मिला। ज़्यादातर उन्हीं आलेखों का संकलन यह पुस्तक है और शायद इसी हवाले से लेखक ने मुझे इनकी भूमिका लिखने का ज़िम्मा सौंपा। कहना न होगा, यह भी मेरे लिए उस सौभाग्य का ही हिस्सा है।
सीरज मूलतः चित्रकार हैं या शिल्पकार, मैं ठीक से तय नहीं कर पाता हूँ। शायद वे अपने आप को पहले चित्रकार मानते हों। मैंने उनके चित्र देखे हैं और उन्हें तल्लीनता में मिट्टी और अन्य सामग्री में आकार गढ़ते हुए भी देखा है। मिट्टी में मानो वे सम्वाद करते हैं। गांधी स्मारक निधि में उकेरे गए उनके शिल्प ने बहुत ख्याति अर्जित की है। अनेक वे शिल्प विदेशों में भी स्थापित कर आए हैं। चित्रकला से लेकर मृत्तिका-शिल्प और वस्त्रों में रूपाकर के हाल के झुकाव को देखते हुए एक बात साफ़ अनुभव की जा सकती है कि उनके कलाकर्म में एक गांधीमार्गी सादगी है। वे अमूर्त के चितेरे हैं, लेकिन उनके रूपाकर हवाई नहीं हैं, निपट ज़मीनी हैं। रंग भी, मिट्टी भी यानी साधन और कल्पना भी।
शायद ज़मीन से जुड़ाव ही उन्हें अभिव्यक्ति के और रास्ते खोजने को प्रेरित करता है। उनके लेख और संस्मरण समसामयिक विसंगतियों के गिर्द घूमते नज़र आते हैं। वे सोचने वाले कलाकार हैं। अथक यायावर भी हैं। गली-मुहल्लों से लेकर दूर-देस की ख़ाक छानना उनका अनूठा शग़ल है। मन जैसे किसी आदिवासी का मन है। पेड़, जंगल और चिड़िया की तरह पवित्र और अकेला। शहर में अपने आपको अजनबी पाते हैं। इसलिए दिल्ली जैसे महानगर में भी अपने पास एक साइकिल रखते हैं। दूसरी साइकिल बड़े होते बेटे को दिला दी है। और दोनों, राजधानी की सड़कों को पाटते हुए, ग़ाज़ियाबाद की अपनी बस्ती से राजघाट का तक रास्ता अक्सर दो पहियों पर नाप आते हैं।
इस पुस्तक के आलेख मुख्यतः जगहों पर केंद्रित हैं या लोगों पर। कई दफ़ा आप अनुभव करेंगे कि कैसे जगहें चेहरों में तब्दील हो जाती हैं। वे खजुराहो जाते हैं और वहाँ की मूर्तियों के सामने अपने रेखांकन करते हैं, “रहस्य की तरह, चेहराविहीन”। और हमारे सामने खजुराहो का रहस्यलोक खुलता चला जाता है। इसी तरह केवलादेव का घना (अभयारण्य), पेरियार के जंगल, कंदरिया महादेव, भेड़ाघाट, रायगढ़, धर्मजयगढ़, कोलकाता, ताइवान, मयोर्का (स्पेन), ब्रोसवाव (पोलैंड), दुनब (सर्बिया) आदि की यायावरी हमें एक कलाकार की आँख से जगहों को देखने ही नहीं, छूने का अहसास देती है।
ख़ास बात यह कि दूर-दिसावर अपनी अंतरंगता में भटकते हुए उनसे अपनी ज़मीन कहीं नहीं छूटती। स्पेन में जुआन मीरो की रेखाएँ देखते वक़्त बरबस भीमबेटका की याद उमड़ आती है।  आदिवासी परिवेश की छटा में उन्हें अमूर्त कलाकार अंबादास की रंगत मिल जाती है। काठमांडो के देवालय में शिवत्व और मृत्यु के दर्शन के बीच अनुभव करते हैं कि “अवसाद (कैसे) आत्मविश्वास भी देता है”। मंदिरों की ही नहीं, नदियों की दुर्दशा उन्हें मथती है: “गंगा उलटी बह रही है और नर्मदा भी। … नदी को कभी इतना उदास नहीं देखा था।” नदियों के साथ झील, जंगल, बाघ, अभयारण्य, हवा, पानी — अपने पर्यावरण के व्यापक सरोकार उनमें मौजूद हैं।
अनेक कलाकारों के काम पर सीरज की टिप्पणियाँ कला के बारे में उनकी समझ और नज़रिए को साफ़ करती हैं। वे हुसेन, रामकुमार, रज़ा या सूज़ा जैसे महान कलाकारों पर ही नहीं ठहरते, जनगण सिंह श्याम से लेकर हमक़दम युवा कलाकारों की भी बात करते हैं। मौजूदा दौर में कला जगत की मुश्किलें बताते हैं। कला से सरोकार रखने वाला कोई भी इस बात से चिंतित होगा कि कलाकारों की संख्या तो हमारे यहाँ बढ़ी है, पर कला-रसिकों की बहुत घट गई है। बड़े कलाकारों की नक़ली कृतियाँ धड़ल्ले से बन और बिक रही हैं। कुछ स्थापित कलाकार नए कलाकारों से अपने कैनवस रंगवाते हैं, ख़ुद उन चित्रों में अंतिम-स्पर्श भर का काम करते हैं।
कलाकारों का अपनी दुनिया की हलचल पर मौन दर्शक-सा बने रहना उन्हें हैरान करता करता है और हमें भी। मक़बूल फ़िदा हुसेन को जिस तरह अपने ही देश में सांप्रदायिक लोगों द्वारा अपमानित और आहत किया गया, तथाकथित प्रगतिशील सरकार की बेरुख़ी के चलते उन्हें निर्वासन भोगना पड़ा वह यक़ीनन स्वाधीन तंत्र का काला अध्याय है। कलाकारों का चुप रहकर अपने में सिमट बैठना ऐसे हादसों को बढ़ावा देता है और कला जगत पर मँडराते ख़तरों में इज़ाफ़ा करता है।
इन लेखों का दायरा जब-तब आपको कला से काफ़ी दूर भी निकलता दीखेगा। सुखद आश्चर्य होता है जब कलाकार में हाट-बाज़ार की फ़िक्र नज़र आए, वह अचार के स्वाद की चर्चा करे, चिट्ठियों के संसार में आता-जाता रहे, बात-बात उसे मुक्तिबोध, अज्ञेय, त्रिलोचन, हरिशंकर परसाई, जितेंद्र कुमार, अशोक वाजपेयी आदि की रचनाएँ ख़याल आएँ। और तो और, पतंगों पर एक निराला लेख है जिसमें चरखी, माँझे और पतंग की उड़ान के साथ “हवा के पुरुषार्थ और आकाश की विराटता” का बोध ले आते हैं।
कहना न होगा, सीरज कलाकार न होते तो लेखक होते। लेकिन इस किताब के साथ लेखक वे हो गए। कलाकार तो हैं ही।

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आपने ‘श्योरली, यू आर जोकिंग मिस्टर फ़ाइनमैन’ पढ़ी है?

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यह साल फिजिक्स के लिए नोबेल पुरस्कार विजेता रिचर्ड फ़िलिप्स फ़ाइनमैन की जन्म शताब्दी का साल है. उनके ऊपर एक रोचक लेख लिखा है जानी मानी लेखिका विजय शर्मा ने- मॉडरेटर

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 फ़िलिप्स फ़ाइनमैन से मेरा परिचय मेरे एक प्रिंसीपल फ़ादर हेस ने कराया था। फ़ाइनमैन से पहले मैं फ़ादर हेस के विषय में दो शब्द कहना चाहूँगी। कैथोलिक फ़ादर हेस यूँ तो फ़िजिक्स के विद्यार्थी रहे थे लेकिन उनकी रूचि साहित्य में भरपूर थी। ऑफ़ीसियल संबंध के अलावा यह भी हमारी मित्रता का एक प्रमुख कारण था। वे इंग्लिश साहित्य के जानकार थे लेकिन नई-नई प्रकाशित अमेरिकी किताबें खूब पढ़ते थे और दूसरों को उनसे परिचित कराते। टी ब्रेक में हमारी बातचीत का विषय दुनिया भर की तमाम बातें हुआ करती थीं। फ़ोटोग्राफ़ी के शौकीन फ़ादर हेस ने कॉलेज में वीडियोग्राफ़ी के सारे उपकरण एकत्र कर रखे थे। वहीं मैंने वीडियोग्राफ़ी करनी सीखी। उन्होंने मुझे पहले-पहल डिजिटल म्युजिक सुनाया और उन्हीं से मैंने फ़िल्म एप्रीशिएसन का कोर्स किया। उन्होंने ही करीब-करीब जबरदस्ती कम्प्यूटर सिखाया। हालाँकि उस समय मेहनत से सीखी गई बेसिक लैंग्वेज और प्रोग्रामिंग की आज जरूरत नहीं पड़ती है। कॉलेज में वे एंथ्रोपॉलॉजी पढ़ाते थे, मुझे भी इस विषय का चस्का लगा। उन्होंने मुझे इंग्लिश बोलने के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित किया। इंटरव्यू बोर्ड में उनके साथ बैठना एक बड़ा सुखदायी अनुभव हुआ करता था। वे उम्मीदवार को सदा रलैक्स अनुभव कराते और यदि उसे किसी प्रश्न का उत्तर न ज्ञात होता तो उत्तर बता कर भेजते। अपने ज्ञान का रुआब न झाड़ते जैसा कि अक्सर इंटरव्यू बोर्ड में बैठे लोग करते हैं।

लेकिन फ़ादर हेस को यह देख-जान कर कभी-कभी बड़ी कोफ़्त होती थी कि फ़िजिक्स में एमएससी, पीएच डी किए हुए लोग भी फ़ाइनमैन का नाम नहीं जानते हैं, उन्होंने उसका नाम नहीं सुना है। रिचर्ड फ़िलिप्स फ़ाइनमैन, जिसकी इस साल शताब्दी है, और जिसको १९६५ का फ़िजिक्स का नोबेल पुरस्कार मिला था। मूल रूप से बेलारूस (जी हाँ, वही बेलारूस जिसकी पत्रकार स्वेतलाना ऐलेक्सीविच को २०१५ का नोबेल पुरस्कार मिला है) के निवासी, लुथिनियन धर्म मानने वाली यहूदी गृहिणी लूसी फ़िलिप्स तथा इसी धर्म के सेल्स मैनेजर मेल्विल ऑर्थर फ़ाइनमैन के यहाँ ११ मई २९१८ को न्यू यॉर्क में जन्मे फ़ाइनमैन ने क्वान्टम मैकेनिक्स के ‘पाथ इंटग्रल फ़ोर्मूलेशन’, ‘थ्योरी ऑफ़ क्वान्टम एलैक्ट्रोडायनमिक्स’, और ‘फ़िजिक्स ऑफ़ द सुपरफ़्ल्यूडिटी ऑफ़ सुपरकूल्ड लिक्विड हिलियम’ साथ ही ‘पार्टिकल फ़िजिक्स’ के लिए जाना जाता है। उन्हें फ़िजिक्स के दो अन्य विद्वानों के साथ-साथ १९६५ में क्वान्टम एलैक्ट्रोडायनमिक्स के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था। कैफ़ेटेरिया में एक व्यक्ति को प्लेट हवा में उछालते देख कर उन्होंने फ़िजिक्स के एक सिद्धांत कर काम करना प्रारंभ किया और इसी पर उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला। अपने समय में उन्हें दुनिया के दस फ़िजिसिस्ट में गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त था। उनकी ख्याति (मेरे अनुसार कुख्याति) द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान एटम बम का विकास करने के लिए भी है। अफ़सोस उन्हें कभी इस बात को ले कर अफ़सोस करते न देखा गया। ‘चैलेंजर’ यान दुर्घटना की सुनवाई के बोर्ड में वे भी  शामिल थे और इतना ही नहीं उन्होंने उस यान की गलतियाँ भी गिनाईं। वे अपने लेक्चर तथा किताबों के कारण जनसाधारण में प्रसिद्ध हैं।

मैं थोड़ा-बहुत फ़िजिक्स पढ़ने के बावजूद फ़िजिक्स नहीं जानती हूँ। मेरे फ़िजिक्स नहीं जानने का काफ़ी श्रेय हमारी शिक्षा व्यवस्था और शिक्षकॊं को जाता है। लेकिन मैंने फ़ाइनमैन की आत्मकथा को खूब इन्जॉय किया है। उनकी दो आत्मकथात्मक किताबें, ‘श्योरली यू आर जोकिंग मिस्टर फ़ाइनमैन’ तथा ‘व्हाट डू यू केयर व्हाट अदर पीपुल थिंक? : फ़र्दर एडवेंचर्स ऑफ़ ए क्यूरियस करेक्टर’ पाठकों के बीच खूब लोकप्रिय रही हैं। वे अपनी किताबों के द्वारा फ़िजिक्स को आम जनता के बीच लोकप्रिय बनाना चाहते थे। उन्होंने अपने इन आत्मकथात्मक साहित्य के अलावा बहुत और किताबें लिखीं, आज उन पर भी ढ़ेरों किताबें उपलब्ध हैं। इस जीनियस ने जीवन में कई तरह का नशा किया और दिमाग नष्ट न हो जाए इसलिए खुद ही उन्हें छोड़ भी दिया। ब्राज़ील में पढ़ाते समय उन्हें यह देख कर आश्चर्य होता था कि छात्र रट कर पाठ याद करते हैं। परीक्षा में अच्छे नंबर लाने के बावजूद छात्र विषय को जानते-समझते नहीं हैं। क्लास में कभी प्रश्न भी नहीं पूछते हैं। यदि कोई छात्र प्रश्न पूछता तो उसके साथी उसका मजाक उड़ाते। छात्र फ़ाइनमैन से कहते, वे क्यों इतना विस्तार से समझा कर अपना और उनका समय नष्ट कर रहे हैं। वे भी देख रहे थे कि जो वे पढ़-पढ़ा रहे हैं वह तो विज्ञान है ही नहीं। इसीलिए ब्राज़ील में शिक्षण करते समय शिक्षण विधि तथा पाठ्य पुस्तकों के सुधार का प्रयास भी फ़ाइनमैन ने किया। यह सब पढ़ कर मेरी आँखों के सामने हमारे अपने देश की शिक्षा और शिक्षण की तस्वीर घूँम जाती है। फ़ाइनमैन ने बहुत से छात्रों को पीएच डी करने में भी सहायता दी।

व्यक्ति जब तक प्रश्न पूछता है उसका विकास होता है। बचपन से प्रश्न पूछने में उत्सुक फ़ाइनमैन को उनके पिता ने सदैव प्रश्न पूछने के लिए प्रोत्साहित किया। जीनियस बचपन में विचित्र व्यवहार करते हैं। जीनियस फ़ाइनमैन ने तीन वर्ष की उम्र तक एक शब्द न बोला था। सोचा जा सकता है उनके आसपास के लोग कितने परेशान रहे होंगे और उन लोगों की प्रतिक्रिया क्या हुआ करती होगी। इस शरारती बच्चे ने स्कूल में रहते हुए घर के लिए चोर पकड़ने का एलार्म सिस्टम बना लिया था। रिचर्ड फ़िलिप्स के माता-पिता धार्मिक प्रवृति के न थे और स्वयं उन्होंने खुद को नास्तिक घोषित कर दिया था। बहुत साल बाद जब उन्होंने पहली बार यहदी धार्मिक पुस्तक ताल्मुद देखी तो वह उन्हें एक वंडरफ़ुल किताब लगी। रिचर्ड से पाँच साल छोटा भाई हेनरी फ़िलिप्स कुछ सप्ताह बाद ही चल बसा। अपने से नौ साल छोटी बहन जुआन को उन्होंने पढ़ने के लिए खूब प्रोत्साहित किया और आगे चल कर वह एस्ट्रोफ़िजिसिस्ट बनी। बच्चा फ़ाइनमैन स्कूल से अधिक ज्ञान स्वाध्याय से प्राप्त करता था। उन्हें खूब स्कॉलरशिप मिलें। स्कूल में रहते हुए ही उन्हें न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी का मैथ्स चैम्पियनशिप प्राप्त हुआ। और प्रिंस्टन में जब उन्हें स्कॉलार्शिप मिली तो उसकी एक शर्त थी कि वे शादी नहीं कर सकते हैं। भला युवा ऐसी कोई शर्त कब मानता है। वे अपनी प्रेमिका एर्लिन से बराबर मिलते रहे। उन्हे मालूम था कि वह टीबी से ग्रसित है और मात्र दो साल जीवित रहने की आशा थी। फ़िर भी पीएच डी मिलते ही वे उससे शादी करने का इरादा रखते थे। उस समय यह एक लाइलाज बीमारी थी। फ़ाइनमैन तथा एर्लिन ने दो अजनबियों की उपस्थिति में २९ जून १९४२ को सिटी ऑफ़िस में शादी की दोनों के परिवार विवाह में अनुपस्थित थे।

शादी के बाद एर्लिन अस्पताल चली गई जहाँ उसके मिलने वे सप्तांत में जाते रहे। बाद में वे उसे न्यू मैक्सिको के सेनीटोरियम में ले गए। यहाँ भी अपने काम के बाद अपने दोस्त की कार उधार माँग कर वे उसे देखने जाते रहे। द्वितीय विश्व युद्ध काल होने के कारण वे अपनी बीमार पत्नी को जो भी खत लिखते उनको सेंसर किया जाता था, खोल कर पढ़ा जाता। इसलिए वे सेंसरशिप के बहुत खिलाफ़ थे। पत्नी को लिखे पत्रों से ज्ञात होता है कि वे उसे बहुअत प्रेम करते थे। १६ जून १९४५ को एर्लिन की मृत्यु हो गई। इसे पढ़ते हुए मुझे बार-बार हरिवंश राय बच्चन और उनकी पहली पत्नी की याद आती रही। हरिवंश राय बच्चन ने पत्नी की मृत्यु के बाद काव्य रचा। फ़ाइनमैन साहित्यकार नहीं थे उन्होंने अपनी पत्नी के नाम एक पत्र लिखा। १९४६ में पिता की मृत्यु के पश्चात फ़ाइनमैन अवसादग्रस्त हो गए। इसी अवस्था में उन्होंने अपने गहन प्रेम तथा दिल टूटने की भावनाओं को अभिव्यक्त करते हुए एर्लिन के नाम एक पत्र लिखा। पत्र लिख कर उन्होंने उसे सील कर दिया और निर्देश दिया कि उसे उनकी मृत्यु के बाद ही खोला जाए। उन्होंने यह भी लिखा, ‘इसे पोस्ट न करने के लिए कृपया मुझे माफ़ करो, लेकिन मैं तुम्हारा पता नहीं जानता हूँ।’ इसी के साथ यह पत्र समाप्त होता है। अपनी पत्नी से बेइंतहाँ मोहब्बत करने वाले फ़ाइनमैन वेश्याओं को बुलाते थे, छात्राओं के साथ सोते थे और अपने दोस्तों की पत्नियों को भी हमबिस्तर करते थे। उन्हें आश्चर्य था कि लड़कियाँ उनकी ओर क्यों आकर्षित हो जाती हैं। वैसे यह अनहोनी बात नहीं है। जीनियस का अपना आकर्षण होता है। ऐसा नहीं था कि केवल वे लड़कियों का फ़ायदा उठाते थे। लड़कियाँ भी उनका लाभ लेती थीं। कई तो झूठी गर्भावस्था का हवाला देती और कुछ ब्लैकमेल करने से भी न चूकीं।

फ़ाइनमैन फ़िजिक्स में जितना डूबी हुए थे, राजनीति में भी उनकी पैठ थी। और वे राजनीति का शिकार भी हुए, उन पर कम्युनिस्ट होने का आरोप भी लगा। बाद में, १९५२ में उन्होंने मेरी लुइस बेल से शादी की। वह सदा फ़ाइनमैन के भयंकर गुस्से से काँपती रही और उनका झगड़ा बराबर चलता रहा। झगड़े का एक कारण उनका विपरीत राजनीतिक विचारधार भी थी। भयंकर क्रूरता के आधार पर १९५८ में दोनों का तलाक हो गया। बीच में कई अन्य संबंधों के बाद १९६० में उन्होंने ग्वेनथ हॉवर्थ से शादी की। जिससे उनका एक बेटा कार्ल पैदा हुआ और उन लोगों ने एक लड़की मिशेल गोद ली।

फ़ाइनमैन फ़िजिक्स, अपने लेक्चर, अपनी किताबों के लिए तो जाने जाते हैं, इसके साथ ही वे अपनी चोखी टिप्पणियों के लिए भी खूब जाने जाते हैं। उनकी आत्मकथा ‘श्योरली, तू आर जोकिंग मिस्टर फ़ाइनमैन’ बेस्टसेलर साबित हुई। किताब पर कई लोगों को आपत्ति भी थी। फ़ाइनमैन अपनी विचित्र आदतों के लिए भी जाने जाते हैं। वे अपने दाँत साफ़ नहीं करते थे और दूसरों को भी इसकी सलाह देते थे। लेकिन अमेरिका ने अपने इस विशिष्ट नागरिक के सम्मान में डाक टिकट जारी किए। टिकट पर फ़ाइनमैन के फ़ोटो के साथ ही उनके आठ डायग्राम भी मुद्रित हैं। उनके नाम पर फ़ेरमीलैब में कम्प्यूटर बिल्डिंग है। वे काफ़ी समय से, सत्तर के दशक से ही बीमार थे। उनके पेट से फ़ुटबॉल के आकार का ट्यूमर निकाला गया था। १५ फ़रवरी १९८८ को पेट के कैंसर तथा किडनी फ़ेलैयर से उनकी मृत्यु हुई। उस समय उनके पास उनकी पत्नी ग्वेनथ, बहन जोआन और उनकी कजिन फ़्रांसेस लेवाइन थी। उन्हें विश्वास था कि वे अपनी सुनाई कहानियों के द्वारा जीवित रहेंगे जो वास्तव में सत्य साबित हो रहा है। मरते समय उनके शब्द थे, ‘मैं दो बार मरने से नफ़रत करूँगा। यह इतना अधिक बोरिंग है।’ फ़ाइनमैन से प्रेरित बिल गेट्स ने २०१६ में उन पर एक लेख लिखा, जिसका शीर्षक है, ‘द बेस्ट टीचर आई नेवर हैड’। इसमें उन्होंने टीचर के रूप में फ़ाइनमैन की प्रतिभा का वर्णन किया है।

उनकी आत्मकथा ‘श्योरली यू आर जोकिंग मिस्टर फ़ाइनमैन’ पढ़ते हुए एक नटखट व्यक्ति की छवि उभरती है। एक-से-एक शरारत करते रहना उनका शगल था। विश्वास नहीं होता है को जो व्यक्ति आइंसटीन और बोर से साथ मिल कर एटम फ़िजिक्स पर गंभीर कार्य कर रहा था वही जूआखोरी पर भी आसानी से अपने विचार रखता है। जो न्यूक्लियर साइंस के रहस्य को भेद रहा है वही तस्वीरें भी बनाता है। न केवल तस्वीरें बनाता है, प्रदर्शनी में उन्हें बेचता भी है। सच में हर मेधाशाली व्यक्ति सनकी होता है। इस किताब को पढ़ कर उनकी उच्च बुद्धि, गुस्से और असीम जिज्ञासा का पता चलता है। वे जानना चाहते थे क्या वे अपने कुत्ते और अपने पद चिह्नों को कुत्ते की तरह सूँघ कर जान सकते हैं, और इसके लिए वे चौपाए की तरह जमीन सूँघते फ़िरते। अगर और मुसीबतों का अंदेशा न होता तो शायद वे नोबेल पुरस्कार भी ग्रहण नहीं करते, कई विज्ञान संस्थानों को तो उन्होंने ठेंगा दिखा ही दिया था।। कितनों की हिम्मत होती है नासा के इंजीनरों की गलती निकाल पाने की? किताब पढ़ कर लगता है, वे सच में मजाक कर रहे हैं। असल में जब वे मजाक कर रहे होते हैं, वे बहुत गंभीर बात कह रहे होते हैं।

फ़ाइनमैन एक अच्छे किस्सागो हैं। क्या कोई नोबेल प्राप्त व्यक्ति, फ़िजिक्स का प्रोफ़ेसर झूठमूठ को अगड़म-बगड़म बोल कर विदेशी भाषा बोलने का अभिनय कर सकता है? फ़ाइनमैन यह किया करते थे। मिमिक्री में उनका जवाब नहीं था। वे ड्रम बजाने में कुशल थे। अपने ड्रम बजाने वाले साथी राल्फ़ लिघटन को बोल कर ही उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखवाई है, वह उनका सह-लेखक है। वे ड्रम बजाना जानते थे, म्युजिक सुनते-बजाते थे लेकिन उन्हें अफ़सोस था कि वे म्युजिक पढ़ नहीं सकते थे। क्या चाहते तो वे यह नहीं कर सकते थे? उनके जैसे जीनियस के लिए यह कठिन न होता। वे सदा तरह-तरह की अनोखी बातें सीखने के लिए तत्पर रहते थे। लेकिन जिंदगी ऐसी ही होती है, आदमी चाह कर भी सब कुछ नहीं कर पाता है। जीवन के बहुत सारे, छोटे-छोटे लेकिन महत्वपूर्ण गुर हम उनसे, उनकी किताब से सीख सकते हैं। निर्णय लेने में दिमाग की बहुत शक्ति खर्च होती है और वे अपनी दिमागी शक्ति महत्वपूर्ण कामों के लिए बचा कर रखना चाहते थे अत: कई महत्वहीन बातों के लिए उन्होंने निर्णय लेना जानबूझ कर छोड़ दिया। एक उदाहरण काफ़ी होगा, ‘कौन-सी आइसक्रीम खाई जाए?’ इस बात पर उन्होंने दिमाग खपाना छोड़ दिया और हर बार मजे से केवल चॉकलेट आइसक्रीम खाने लगे। इसी तरह उन्होंने तय कर लिया कि वे ‘कैलटेक’ संस्थान नहीं छोड़ेंगे, बहुत आकर्षक प्रस्ताव मिलने पर भी उन्होंने इस पर दोबारा न सोचा। एक और बहुत महत्वपूर्ण निर्णय उन्होंने लिए और उस पर अमल किया। उन्होंने तय किया की दूसरों की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए नहीं जीएँगे।

अपनी सफ़लता का उन्हें भान था लेकिन अपनी असफ़लता भी वे स्वीकारते हैं। उनमें कई कमियाँ थीं और इसे वे अपनी किताब में बताते हैं। वे स्वीकारते हैं कि उन्होंने ‘क्वांटम थियोरी हॉफ़-एडवाँस, हाफ़-रिटार्डेड पोटेंशियल’ पर बरसों काम किया लेकिन इसे वे न सुलझा सके। उन्हें यह बताने में कोई शर्म न थी कि वे बार से लड़कियाँ ले आते थे। किताब पढ़ने पर लगता है हम कोई कार्टून केरीकेचर पढ़ रहे हैं। बड़ी-से-बड़ी बात वे चुटकियों में कह डालते हैं। चुटकी बजाते उन्होंने लॉस एलामोस की गुप्त अलमारी खोल डाली, जहाँ एटम बम से संबंधित जानकारी रखी हुई थी। इसका जिक्र वे बड़े मजे में करते हैं। अंतरविषयी सेमीनार को वे ‘रोशे टेस्ट’ से भी बुरा मानते थे। वे अनुमान लगाने में खूब कुशल थे और कई बार अनुमान से ही कई समस्याओं को हल कर डालते थे। उन्हें मालूम था कि समस्या हल करने के लिए धैर्य की आवश्यकता होती है, साथ ही विभिन्न तरीके भी आजमाने होते हैं। ताला खोलने में उन्हें महारत हासिल थी। गैब्रियल गार्षा मार्केस कहते थे अच्छा होता कि वे साहित्यकार न हो कर आतंकवादी बनते, फ़ाइनमैन यदि फ़िजिसिस्ट न बनते तो शायद चोर बनते। लेकिन सुरक्षित लैब की गुप्त अलमारी खोल कर उन्होंने सुरक्षा, कर्मचारियों से बातों को छिपाने और सेंसरशिप की पोल खोल दी। लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब वे फ़िजिक्स से चिढ़ गए और उन्हें आश्चर्य होता कि भला वे कैसे फ़िजिक्स का मजा लेते थे। वे इसका मजा लेते थे क्योंकि वे इससे खेलते थे।

ब्राज़ीलियन साम्बा बैंड में ड्रम बजाने वाले, जापानी भाषा सीखने का प्रयास करने वाले इस व्यक्ति की आदत वहाँ पहुँच जाने की थी जहाँ उसे होना नहीं चाहिए था। इतना ही नहीं वहाँ पहुँच कर वे मुँह बंद नहीं रखते, जो काम हो रहा होता उसमें पूरी रूचि लेते और उत्सुकता दिखाते। उन्हें स्वप्न विश्लेषण में भी खासी रूचि थी और काया पार जाने को भी वे अनुभव करना चाहते थे। गणित उनका एक प्रिय विषय था और वे चींटियों की चाल में भी रूचि रखते थे इसके लिए उन्होंने घंटों चीटियों का अध्ययन किया। वे जानना चाहते थे क्या चींटियों को ज्यामिती की समझ है। जाहिर है चींटियों का यह अध्ययन वे टेबल-कुर्सी पर बैठ कर नहीं करते थे। इसके लिए जमीन पर वे घंटों बैठे या लेटे रहते थे। वे वास्तव में चीजों को जानना चाहते थे। मौज के लिए उन्होंने फ़िलॉसफ़ी और बॉयोलॉजी भी पढ़ी। सामाजिक तौर-तरीकों की वे बहुत चिंता नहीं करते थे और इसी तरह के एक वाकये से उन्हें अपनी इस किताब का शीर्षक मिला। सम्मानित प्रिंसटन शिक्षा संस्थान के डीन की पत्नी ने एक बार उनसे पूछा, वे अपनी चाय नींबू के साथ लेंगे अथवा क्रीम के साथ। फ़ाइनमैन का तत्काल उत्तर था, दोनों के साथ। इस पर डीन की पत्नी ने हँसते हुए कहा, ‘श्योरली यू आर जोकिंग मिस्टर फ़ाइनमैन।’ उसकी हँसी से उन्हें मालूम हुआ कि उन्होंने कोई सामाजिक गलती कर दी है।

उनकी अन्य किताबें भी बहुत महत्व की हैं, खासकर फ़िजिक्स पर उनके लेक्चर। मैं जरूर कहूँगी कि अगर आपने ‘श्योरली, यू आर जोकिंग मिस्टर फ़ाइनमैन’ नहीं पढ़ी है तो अगली फ़ुरसत में अवश्य पढ़ लें।

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डॉ विजय शर्मा, 326, न्यू सीताराम डेरा, एग्रीको, जमशेदपुर – 831009

Mo. 8789001919, 9430381718  Email : vijshain@gmail.com

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