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सुरेन्द्र नाथ उर्फ़ ‘बॉम्बे सहगल’के बारे में आप कितना जानते हैं?

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गुजरे जमाने के स्टार सुरेन्द्रनाथ उर्फ़ बॉम्बे सहगल को याद करते हुए एक अच्छा लेख सैयद एस. तौहीद का- मॉडरेटर

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किसी ने नहीं सोचा होगा कि वकालत की डिग्री रखने वाले सुरेंद्रनाथ उर्फ सुरेंद्र हिंदी सिनेमा के बड़े स्टार बनेंगे। लेकिन ऊपर वाला उनमें एक अलग मिजाज देख रहा था। अभिनय व गायकी के दम पर फिल्मों में चले आये। तीस दशक के उत्तरार्ध की फिल्म ‘दक्कन की रानी’ से शुरू हुआ करियर पचास तक बुलंद रहा। महबूब खान की ‘मनमोहन’ ने उनको शोहरत की बुलंदियों तक पहुंचाया। अनिल बिश्वास ने आपसे अनेक फिल्मों में गवा कर गायकी में पहचान बना दी। अनिल दा के साथ साथ नौशाद अली, खेमचंद प्रकाश, सचिन देव बर्मन एवं राम गांगुली सरीखा संगीतकारों ने आपसे सेवाएं लीं। ‘अनमोल घड़ी’ में आपको मल्लिका ए तरन्नुम नूरजहां के साथ ’आवाज दे कहां है’ गाने का अवसर मिला। ‘अनमोल घड़ी’ का संगीत बेहद लोकप्रिय हुआ, जिसके बाद सुरेंद्र ने बहुत सी फिल्मों में गाया। खेमचंद प्रकाश के धुनों से सजी ‘भरथरी’ ने उनको काफी शोहरत अता की। पहले स्वतंत्रता संग्राम पर बनी एक फिल्म में सुरैया के साथ गाया ‘तेरी नजर में’ भी हिट रहा। भारत भूषण अभिनीत बैजू बावरा में तानसेन की भूमिका सुरेंद्र के अदाकारी का ऊंचा मुकाम रही। यादगार ‘मुगल-ए आजम’ में भी तानसेन की भूमिका उन्‍होंने अदा की थी।

एक जमाने में जब सितारा होने के लिए गायकी होना जरूरी था। यह तीस का दशक था, जब कुंदन लाल सहगल की टक्कर में महबूब खान सुरेंद्र को लेकर आये। स्टूडियो काल की मुश्किलों चलते समकालीन होकर भी अनिल बिश्वास सहगल के लिए संगीत नहीं दे सके। चालीस के दशक में हिंदी सिनेमा का एक बड़ा तबका कलकत्ता चला गया था। सहगल भी कलकत्ता रुख कर गये। बांबे में सहगल की कमी को पूरा करने की जरूरत थी। इस कमी को सुरेंद्र ने पूरा किया। शुरुआत में किस्मत ने साथ भी दिया। महबूब खान ने कुछ बेहतरीन फिल्में दीं, जिसमें मनमोहन काबिले जिक्र थी। कहानी में उनका किरदार देवदास से काफी प्रभावित था। यहां वे मशहूर अदाकारा बीब्बो के साथ नजर आये। इन दोनों के गाये गीत ‘तुम्हीं ने मुझको प्रेम सिखाया’ ने खूब शोहरत बटोरी। संगीत था अशोक घोष का लेकिन सहायक अनिल बिश्वास को क्रेडिट मिला। यह बांबे बनाम कलकत्ता अथवा सहगल बनाम सुरेंद्र नहीं होकर बांबे में न्यू थियेटर्स कलकत्ता के सहगल का विकल्प बनाना था। बांबे की कंपनी सागर मूवीटोन से जुड़े सुरेंद्र की आवाज सहगल से बहुत मेल खाती थी, इसलिए उनको बांबे सहगल भी कहा गया।

दक्कन की रानी का हिट गीत ‘बिरहा की आग लगी मोरे मन में’ सुरेंद्र का पहला गीत था। सहगल शैली से प्रभावित यह गायन अमर गीत ‘बलम आये बसो मेरे मन में’ से प्रभावित था। लेकिन सुरेंद्र की गायकी पर सहगल का प्रभाव बहुत कम अरसे के लिए बना रहा। महबूब खान की ‘मनमोहन’ का ‘तुम्हीं ने मुझको प्रेम सिखाया’ से उनकी एक अलहदा पहचान निखर कर आयी। ताज्जुब नहीं कि सहगल की छाया से दूर सुरेंद्र ने गायकी एवं अदाकारी में मुकम्मल पहचान बनायी। बंबई में बनी जागीरदार से लेकर ग्रामोफोन सिंगर, फिर जीवन साथी एवं अलीबाबा की सफलता में सुरेंद्र का महत्वपूर्ण रोल रहा। चालीस दशक की हिट म्युजिकल्स की चर्चा उनके उल्लेख के बिना हो नहीं सकेगी। बंटवारे बाद अनमोल घड़ी एवं लाल हवेली की युगल साथी नूरजहां पाकिस्तान रुख कर गयीं। मल्लिका-ए-तरन्नुम के साथ काम करने का उन्‍हें फिर से अवसर नहीं मिला। इसके बाद उन्‍होंने सोलो गाना शुरू कर दिया, जिसमें ‘तेरी याद का दीपक’ खासा हिट हुआ। मेहबूब खान, अनिल बिश्वास, सुरेंद्र की एक सफल टीम उभर कर आयी। तकरीबन सत्तर के करीब फिल्मों में बतौर अभिनेता नजर आने वाले सुरेंद्र ने सैकड़ो गीत गाये। अनिल दा ने सबसे ज्यादा अवसर दिया। इस तरह गायन व अदाकारी दोनों में शोहरत हासिल की। कभी गायकी करने वाले सुरेंद्र बाद में चरित्र किरदारों में ढल गये। उन्‍होंने मुगले आजम से लेकर वक्त एवं एन इवनिंग इन पेरिस, फिर मिलन तथा हरियाली एवं रास्ता सरीखा फिल्मों में चरित्र किरादर निभाये।

जीवन के आखिरी वसंत में एक विज्ञापन एजेंसी की स्थापना करते हुए विज्ञापनों के निर्माण में लग गये। साहेबजादे जीत एवं कैलाश ने पिता की इस विरासत को आगे भी जारी रखा। मिले सुर मेरा तुम्हारा इनकी एक मशहूर उपलब्धि रही।

पंजाब के बटला गांव से ताल्लुक रखने वाले सुरेंद्र को महबूब खान की खोज कहना चाहिए क्योंकि वे ही उन्‍हें तलाश लाये थे। उन्‍होंने सहगल के जमाने में एक पहचान बनाने का मुश्किल काम कर दिखाया। संगीतकारों में अनिल बिश्वास ने उन्‍हें सबसे अधिक प्रोत्साहन दिया। सुरेंद्र की गायकी की मिसाल देखिए: ‘तेरा जहां आबाद… क्यूं याद आ रहे गुजरे जमाने… अब कौन मेरा… क्यूं मन ढूंढे प्रेमनदी का किनारा… भंवरा मधुबन में मत जा रे… मुझको जीने का बहाना मिल गया… काहे अकेला डोलत बादल मोहे भी संग ले जा… फिर तेरी याद का दीपक एवं दिन रात मेरे दीवाने में। अमीर बाई कर्नाटकी के साथ गाया युग्ल ‘आईने में एक चांद सी सूरत नजर आयी’ याद आता है। उनके बेहतरीन युगल गानों में… जले क्यों न परवाना एवं क्यूं उसने दिल दिया (शमशाद बेगम)… बुलबुल को मिला फूल (गीता दत्त)… प्रेम नगर की ओर चलें एवं हम और तुम यह ख़ुशी (खुर्शीद) तथा तेरी नजर में (सुरैया) हमेशा याद किये जाते हैं। मशहूर बैजू बावरा में आपको तानसेन का किरदार जरूर मिला, लेकिन एक भी गाना नसीब नहीं हुआ। एक टीवी इंटरव्यू में इस बारे में सुरेंद्र ने कहा कि उन्‍होंने स्वयं को कभी एक शास्त्रीय गायक तसव्वुर नहीं किया। मुग़ल–ए-आजम एवं बैजू बावरा में उन्‍होंने तानसेन को पंडित पालुस्कर एवं बड़े गुलाम अली खान ने आवाज दी थी। इस तरह के अनुभवों ने उनको गायकी को अलविदा कह कर केवल अभिनय को अपना लेने को कहा।

चरित्र किरदार के रूप में उन्‍होंने उस जमाने की बहुत सी सामाजिक फिल्मों में काम किया। सुरेंद्र की आवाज के दीवानों ने उन्हें फिर से सुन पाने की उम्मीद खो दी थी। लेकिन साठ के दशक की फिल्म पति–पत्नी में मन्ना दा के साथ गाना गाकर उन्‍होंने सबको चौंका दिया। लेकिन वो एक अस्त होते सूर्य की अंतिम किरण थी। इसके उपरांत जब तक सक्रिय रहे, केवल चरित्र किरादारो में नजर आये। संगीत का प्रारूप समय के साथ बदल रहा था। स्वभाव से सज्जन सुरेंद्र ने भी संगीत से मोह त्याग दिया। पचास दशक के मध्य में रिलीज गवैया के बाद उन्‍होंने गायन को खैरबाद कह दिया, जिसका गीत ‘तेरे याद का दीपक जलता है’ काफी मशहूर हुआ। आज की पीढ़ी को गुजरे जामने के बहुत से फनकारों बारे में पता नहीं। वे सुरेंद्र को नहीं जानते। यह उनका ही अल्प ज्ञान नहीं बल्कि गुजरे जमाने से एक व्यापक कटाव देखने को मिल रहा।

passion4pearl@gmail.com

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स्वाति श्वेता की कहानी ‘अपाहिज’

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स्वाति श्वेता की कहानियाँ कई पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी हैं। पेशे से अध्यापक स्वाति का एक कहानी संग्रह “कैरेक्टर सर्टिफ़िकेट” और एक कविता संग्रह “ये दिन कर्फ़्यू के” प्रकाशित है। अभी स्वाति गार्गी कॉलेज में स्थाई सहायक प्रवक्ता हैं। आज स्वाति श्वेता की कहानी अपाहिज पढ़िए। — अमृत रंजन

                                                      1

कितना कुछ यहाँ अजीब है।

सच! मेरे अन्दर और मेरे बाहर कितना कुछ अजीब है।

मैट्रो में बैठी मैं बेचैन हो उठती हूँ। यकायक एक अजीब सी खिन्नता, फिर एक अजीब सी नफ़रत और उसके बाद एक अजीब सी शान्ति मुझे घेर लेती है। सचमुच सब कुछ अजीब है।

मेरे साथ कई युवा युवतियाँ सफर कर रहे हैं। लापरवाह, बेतरतीब, कम-कपड़े, आड़े-तिरछे बाल, बोलने का लहज़ा, संबंधों का जुड़ाव सब कुछ अजीब। माँस के लोथड़े के लिए यह जो खिचाव है वह भी अजीब। रिश्ते मानो दो ईटों के बीच सीमेंट हों, जो आज बालू के कणों से सने हुए हैं। न जाने कब भरभरा कर गिर पड़ें?

हमारी नजरें न जाने क्या टटोलती रहती हैं… यहाँ-वहाँ दिखाई देते छिद्र में से? अब नहीं लगता कि हमारे समाज में ये छिद्र कम होते चले जाएंगे। ध्यान से सूंघें तो इनमें से एक अजीब सी बास आती रहती है। पर आदी हो गए हैं अब हम सब इसके। यही कारण है कि इसका होना न होना अब हर समय हमें अहसास नहीं दिलाता है।

गिरती, धँसती, रौंदती, दूसरों को मसलती पत्थराई आत्माएँ… क्या हो गया है सबको? करणीय और अकरणीय का बोध ही नहीं रहा किसी को। सर फटने को आता है। क्या था यह शहर और क्या हो गया है? हरियाली का धीरे-धीरे बंजरपन में बदलना और फिर बंजरपन का डम्पिंग ग्राउंड में, मैंने इसी शहर में देखा है।

आई.पी. स्टेशन पर मैट्रो का दरवाज़ा खुलता है और बहुत कुछ एक क्षण में फिर बदल जाता है। कुछ रंग बाहर बिखर जाते हैं, कुछ अन्दर और अन्दर कोनों में सरक जाते हैं और देखते ही देखते एक नई रंग-बिरंगी दुनियाँ मेरे आस-पास समा जाती है।

‘अरे बेटा आगे तो बढ़ो।’ अनेक रंगो को चीरती एक आवाज मेरे कानों में अटक जाती है। पर उन रंगीनियों के अपने-अपने संगीत में शायद यह आवाज़ मद्धम पड़ गई। इतने में हरे, पीले, नीले, लाल, चितकबरे, सुर्ख रंगों को चीरता एक सफेद रंग मेरे सामने खड़ा हो जाता है। सर से लेकर पाँव तक पूरा सफेद। बुरी तरह से हाँफता, वह रंग बिना किसी शिकन के आगे बढ़ता गया। मैंने ध्यान से देखा। यकायक उसके मुख पर एक छोटी सी हँसी आई मानों इन सब रंगों के बीच उलझने के बाद बाहर निकल आने की खुशी हो, अपने अस्तित्व को इनसे अलग बचाने की खुशी हो।

उसकी और मेरी आँखे एक दूसरे से टकराती हैं। होंठ एक दूसरे की भाषा में मुस्कुराते हैं। शरीर एक दूसरे शरीर की पहचान जल्द ही कर लेता है और मैं उसे अपनी सीट पर बिठा देती हूँ।

“रब खैर करे। थैंक्यू बच्चे।” साँस फूलती आवाज़ में उस महिला ने मुझसे कहा।

‘बच्चे।’ आस-पास फैले बेतरतीब रंगों के बीच में से कहीं यह शब्द उछला फिर वहीं गिर भी गया। मैंने ध्यान से देखा उस महिला को। वह सिर से पैर तक पूरी सफेद थी और मैं! पूरी काली। आज मेरे कॉलेज में धरना था- ‘प्रोटेस्ट डे’। काले कपड़े पहन कर जाना था। कुछ ही देर में कश्मीरी गेट स्टेशन आ जाता है और कई सीटें खाली हो जाती हैं। इससे पहले कि फिर से सीटें भर जाएँ मैं जल्दी से उस महिला की साथ वाली सीट पर बैठ जाती हूँ।

“नौकरी करती हो ? उस महिला ने मुझसे जानना चाहा।

“हाँ।” मैंने उत्तर में केवल इतना ही कहा।

“कहाँ ?”

“दिल्ली यूनिवर्सिटी।” मैंने फिर केवल इतना ही उत्तर दिया।

कुछ देर बाद वह अपने ऐंठे हुए घुटनों पर हाथ फेरने लगती है।

“क्या हुआ ?” मैंने जानने की इच्छा दिखाई।

“फिटे मुँह गोडियाँ दाँ जिहड़े ए दिन विखाए। बहुत तंग करके रखा है इसने। बड़ी दिक्कत होती है अब। कल डॉक्टर साहब ने बुलाया है। क्या पता कल ऑपरेशन की तारीख पक्की हो जाए” उसने लम्बी साँस छोड़ते हुए कहा।

“आपका ऑपरेशन बढ़िया ढँग से हो जाए यही कामना करती हूँ।”

“हाँ पुत्तर जी इस दुनिया में सब कुछ बढ़िया ढँग से हो जाता है अगर पैसा हो तो। बच्चे की तालीम, उसकी शादी, आपका सपनों का घर और बुढ़ापे में आराम। सब। समझी की नहीं।”

मैंने मुस्कुरा दिया।

मुझसे ज्यादा इस बात को कौन जान सकता है।

और उस एक वाक्य के साथ बीता हुआ समय आँखों के सामने घूम जाता है…

                                                   2

“अरे शर्मा जी आपने इतनी देर क्यो की ? अब तो केस और भी काम्प्लीकेटेड हो गया है। आप इस तरह लापरवाह कैसे हो सकते हैं।” डॉक्टर डे पापा से कह रहे थे।

“डॉक्टर साहब कोई एक्सरसाइज या फिर इन्जेक्शन।”

“नो।” डॉक्टर ने बीच में ही पापा की बात को काटते हुए कहा था।

“नाओ देअर इज नो अदर ऑपशन लेफ्ट वी हैव टू गो फार बोथ दी नीज़। जस्ट लुक एट द एक्स रे। आठ तारीख को मेरा अगला ऑपरेशन डे है। बुकिंग करा लीजिए।”

“डॉक्टर साहब कुल कितना खर्च आएगा।” मां के मुँह से अनायास ही निकल पड़ा।

“पाँच तो मान कर चलिए। एक आध ऊपर भी हो सकता है।” इतना कह डाक्टर डे कमरे में से निकल पड़े।

आज भी याद है मुझे उस दिन शाम साढ़े पाँच बजे तक हम सब वही थे। पापा अपने साथ साढ़े तीन लाख लेकर आए थे। इस अनजान शहर में कोई रिश्ता कोई नाता उनका न था सिवाए बड़े भइया और मेरे। मेरी नौकरी पक्की भी न थी और तन्खाह पिछले दो महीनों से मिली भी न थी। बड़े भइया की नौकरी पक्की थी और सरकारी भी। पापा वापस भुवनेश्वर जाते, पैसों का इंतजाम करते तब तक काफी देर हो जाती। जो करना था तुरन्त करना था।

पापा ने बड़े भइया से कहा था पर उन्होंने अपनी असमर्थता दिखाई।

पापा ने उन्हें कहीं से इंतज़ाम करने के लिए कहा कि एक-दो महीनों में लौटा देंगे। उन्होंने अपनी फिर असमर्थता दिखाई। पापा जानते थे कि मुझे कहना उचित नहीं क्योंकि मेरे पास तो पक्की नौकरी भी नहीं थी। और ऐसा ही हुआ। उन्होंने मुझे कुछ भी नहीं कहा। पर उनका वह मूक और विचलित चेहरा, व्हील चेअर पर बैठी माँ और उसकी आँखों में वह भाव जिससे वह हमें देख रही थी, सब कुछ कह रहा था। माँ की उम्र पिचहत्तर की हो रही थी और पापा अस्सी  पार कर चुके थे। मुझसे देखा न गया और मैं वेटिंग रूम से बाहर आ रोने लगी।”

“हे भगवान ! मैं क्या करूँ ? मुझसे अपनी माँ का दुख और पिता की विवशता देखी नहीं जाती।” मैंने सुनि को फोन लगाया।

“हाँ। बोलो।” दूसरी तरफ सुनि थी।

मैंने सारा का सारा खर्चा उसके सामने रखा। सुनि मेरी सबसे, अच्छी सहेली है। हम दोनों कई सालों से पक्की नौकरी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वह अपने पति से अलग रहती है क्योंकि उसका पति उसके लायक नहीं, शराबी है वह। और मैं ! मेरा तो पति मुझसे अलग रहता है क्योंकि शायद मैं उसके लायक नहीं…

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…बात कई साल पुरानी है। शादी को एक महीना ही हुआ था। एक दूसरे को जानने-परखने से पहले ही गोलू मेरी जिन्दगी में आ गई…।

कितना मुश्किल होता है इस बड़े से शहर में अपना और इस नन्ही सी जान की परवरिश करना। एक-एक पैसा जोड़ना। अपनी कितनी ख्वाहिशों को पैरों के नीचे दबा, हर समय, हर दिन आने वाले समय के लिए संचय करना। पापा ने बहुत समझाया कि भुवनेश्वर वापस आ जाओ। पर मैंने यहीं से एक नई शुरुआत करने की सोची।

“…अब क्या करेगी ?” सुनि के उन शब्दों ने मुझे फिर वहीं खड़ा कर दिया  जहाँ अभी कुछ क्षण पहले मैं भोक्ता थी।

“पता नहीं I’’ मै केवल इतना ही कह पाई थी I

मेरे बैंक में तो तीस हज़ार से ज्यादा अभी होंगे भी नहीं। पापा जब तक वापस जाएँगे और पैसों का बन्दोबस्त करेंगे तब तक दस-पंद्रह  दिन और बीत चुके होगें और माँ के दोनों पैर हमेशा के लिए सुन्न पड़ चुके होंगे। फिर तो ऑपरेशन भी उन्हें ठीक नहीं कर पाएगा।

नहीं। मैं माँ को अपाहिज नहीं देख सकती…

“कोई मुझे उधार नहीं दे सकता है क्या सुनि?

“कोई तुझे क्यों उधार देगा ? तेरे पास पक्की नौकरी भी तो नहीं हैं।” सुनि ने जवाब किया था।

और तब उस समय मुझे अपने से घिन्न आती है। इतनी पढ़ाई किस काम की? इस समय जब मेरे माता-पिता को मेरी सबसे ज्यादा जरूरत है तब मैं कुछ भी नहीं कर पा रही हूँ।

                                             4

…मैं राघव की पत्नी थी।

राघव ! एक  बड़ा बिजनेसमैन है। मुझे याद है जब गोलू पैदा हुई थी। राघव बहुत खुश थे। उन्हें यह खबर सुनकर ऐसी खुशी हुई थी कि क्या बताऊँ। पर जब गोलू नर्सरी से मेरे कमरे में आई तो डॉक्टर और सिस्टर का गिरा हुआ मुँह आने वाले तूफान से पहले की शान्ति लाया था। गोलू का सीधा हाथ नहीं था। उसका रंग साँवला था और ऊपर से वह लड़की थी। राघव पत्थर सा हो गया था। लड़की होना उसके लिए सदमा न था पर साँवलापन और ऊपर से सीधा हाथ ही न होना। वह मानने को तैयार न था। पर ना मानने से क्या होता है। यथार्थ का सामना तो हमें करना ही था।

गोलू को हम दोनों एक हफ्ते के बाद घर ले आए। हम सब संयुक्त परिवार में रहते थे। घर की हवा धीरे-धीरे बहुत भारी होने लगी थी। न आसानी से खींचते बनती और न ही आसानी से छोड़ते। तानों की बौछारें आने में देर न लगी। क्या-क्या न कहा था माँ ने। मेरी कोई ननद न थी। होती तो शायद माँ ऐसा नहीं करती। जेठ थे। उनकी शादी किन्ही कारणों से नहीं हुई। अक्सर माँ और मेरे जेठ मेरे माँ-पापा और भाई को ताना देते।

“अरे भाग है इसका जो राघव जैसा हीरा मिला ? मैं तो कहती हूँ कि पिछले जन्म में मोती बाँटे होंगे ? जान पहचान थी तभी तो सोचा था कि ठगे नहीं जाएँगे पर हमें क्या पता था कि जिन पर विश्वास कर रहे हैं उन्हीं का भरोसा न रहेगा ? हमें कुछ नहीं चाहिए यही तो कहा था ! पर आपकी बेटी को तो बहुत कुछ चाहिए होगा ?”

माँ भाई साहब से और भी न जाने क्या-क्या कहती रहती और दो-तीन कमरों की दीवारों को फाँद कर आवाज़ें मुझ तक पहुँचती रहती। मेरे घर से आई सभी चीज़ों का मूल्य उनकी नज़रों में शून्य था। मेरी बच्ची, नहीं, मेरी नहीं हमारी बच्ची, साढ़े चार की हृष्ट-पुष्ट पैदा हुई थी। एक हाथ नहीं था तो इसमें मेरा या उसका क्या कसूर। पर घर में बार-बार कहा जाता कि मैं अपने माँ पर गई हूँ। मेरी माँ पाँच बहनें थीं। इसलिए मेरी भी बेटी हुई और रही बात एक हाथ न होने की तो क्या पता मेरे खानदान में ऐसे अपाहिज पैदा हुए हो जिन्हें परिवार वालों ने मार दिया या वे खुद ही मर गए हों…

“नहीं, कभी नहीं, मैं अपनी गोलू को कभी नहीं मारूँगी और न ही मरने दूँगी।” और मैं गोलू को अपने दोनों हाथों में कस कर छिपा लेती।

पर कुछ ही सालों में एहसास होना शुरू हो गया कि गोलू अपाहिज है। अभी वह दो की थी पर धीरे-धीरे उसे अपनी अपाहिजता का बोध होने लगा था। मैं उसे चाह कर भी लोगों के तीखे प्रहारों से बार-बार बचा न पाती। उसकी आत्मा पर कुछ एक घाव तो मैंने भी महसूस करने शुरू कर दिए थे। पर ये वे घाव थे जो मैंने देखे थे। न जाने और कितने घाव होंगे जिसे वह हर पल सहती जा रही थी।

सच कहूँ ! मैंने पिछले नौ वर्षों में बहुत कुछ अपने जीवन में बिना है और आज तक बिनती चली जा रही हूँ। जानते हैं क्यों ? अपनी गोलू के लिए।

गोलू के पैदा होने के तीन वर्षों के बाद यह बात स्पष्ट हो चुकी थी कि गोलू और मेरी अब यहाँ कोई जरूरत न रही है। राघव भी किसी न किसी बहाने मुझसे और गोलू से दूर रहते। और एक दिन माँ ने राघव के सामने ही तलाक के कागज़ रख दिए। राघव ने एक बार भी कुछ न कहा। शायद राघव की भी सहमति थी। अब तो कुछ रहा ही नहीं। मैंने दस्तख्त कर दिए और एक सूट केस में कुछ समान और राघव की कुछ यादों को समेट निकल आई। जाते समय राघव ने मुझे तो दूर गोलू को एक बार देखा भी नही। शायद हम दोनों के कारण वह अपनी जिन्दगी जी भी नहीं पा रहा था। कितने दिन वह हम दोनों से छिपता? शायद इसीलिए तलाक का रास्ता उसे सबसे सही लगा हो।

खैर सात महीनों बाद हमारा आपसी सहमति से तलाक हो गया। लोगों ने मुझे राघव से गोलू के लिए पैसे माँगने के लिए बहुत कहा। पर मुझे यह ठीक न लगा। गोलू को राघव ने कभी अपना न माना था। हम दोनों को वह अपराधी मानता था। एक जघन्य अपराध करने की सजा थी वह तलाक। बाद में पता चला कि एक साल के बाद उसने दूसरी शादी कर ली।

आज सात साल हो चुके हैं पर उसे कोई सन्तान नहीं। इसे भगवान का न्याय या राघव का दुर्भाग्य कहूँ। पता नहीं…

…खैर मैंने भी एक साल के अन्दर-अन्दर नौकरी शुरू कर दी। कब तक भुवनेश्वर रहती। इसलिए दिल्ली में ही काम शुरू किया। एक कमरे का मकान किराए पर लिया और गोलू को स्कूल के बाद क्रेच में डाल दिया। मेरे माँ-पापा का खूब बड़ा मकान था और मुझे इस हाल में देख वह दुखी होते। माँ बार-बार कहती, “बेटा क्या रखा है यहाँ। इस शहर में हमने तुझे ब्याहा था। पर इस शहर ने तुझे कुछ भी सुख न दिया। एक कमरा तो नौकरों का होता है और ऊपर से गोलू को इसमें पालेगी ? ”

पर वह बोल कर थक चुकी थीं और अब तो शरीर से भी थक चुकी हैं। चलती-फिरती मेरी माँ व्हील चेयर पर आ गई। पिछले आठ सालों में मैंने कैसे जीवन जीया है मैं ही जानती हूँ। आगे का सोचने को कुछ नहीं। मैं अपनी बेटी को आगे कैसे पालूँगी यह भी नहीं पता।

“माँ !’ तभी एक स्पर्श मुझे पीठ पर होता है और मैं सिहर जाती हूँ।

“गोलू ! तू यहाँ ! ऊपर क्यों आ गई ? वहीं नानी के पास बैठती न बेटा !”

“माँ, मैं नानी को ऐसे देख नहीं पा रही हूँ।”

कहाँ से लाऊँ पैसे? मेरे पास तो बैंक में तीस हज़ार से ज्यादा हैं भी नहीं। कुछ क्षण हम दोनों के बीच मौन बातें करता है और फिर-

“आप मेरा ‘फिक्स डिपोज़िट’ तोड़ दो माँ।”

“क्या? ” अनायास ही मेरे मुँह से निकल पड़ा। एक बार फिर वही मौन छा जाता है। पर इस बार जब यह टूटता है तो इसकी गूँज दूर तक मेरे व्यक्तित्व में सुनाई देती है।

“माँ, क्या आप चाहेंगी कि घर में एक और अपाहिज रहे? अपाहिज होने का दर्द नानी पछत्तर साल में सह नहीं पाएगी।” इतना कह गोलू नीचे नानी के पास चली जाती है।

गोलू का यह वाक्य मेरे अन्दर न जाने क्या-क्या तोड़ता चला जाता है।

कौन कहता है कि गोलू अपाहिज है ?

मेरी गोलू अपाहिज नहीं।

अपाहिज तो कई रिश्ते हो चुके हैं जिनमें रक्त का संचार अब नहीं होता, जो केवल नाममात्र माँस के लोथड़े हैं, जो पैसों और मतलब के कारण जुड़ते हैं और पैसों और मतलब के कारण ही अपने आपको दूसरों से अलग करते हैं।

छद्म जिह्वा न जाने किस-किस चीज़ से आच्छादित हो हर बार उसी माफी की परम्परा का निर्वाह करती है। पर दूर खड़ी एक मासूम से भी वह अपनी अपाहिजता को छुपा नहीं पाती है।

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अगले दिन माँ अस्पताल में भर्ती हो जाती है। आज चार साल हो चुके हैं। मेरी नन्हीं गोलू की तरह माँ भी चहकती है। दूर-दूर तक चलती है और गोलू को बार-बार कहती है-“मुझे बहुत समय तक अब चलते जाना हो, तब तक जब तक मेरी गोलू जिन्दगी की दौड़ में दौड़ना न सीख जाए।”

और तभी ट्रेन के झटके के साथ मेरी सोच की श्रृंखला टूट जाती हैI

अब  मैं अपने उस अतीत से पुनः वर्तमान में आ गई  हूँ।

मेरे बगल की सीट खाली हो चुकी है।

राजीव चौक आ चुका है और एक बार फिर अनेक रंग डिब्बों में छा जाने के लिए आतुर हो उठते हैं।

*****

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लोकप्रिय शैली में लिखी गंभीर कहानियां

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आकांक्षा पारे बहुत जीवंत, दिलचस्प कहानियां लिखती हैं और वह बिना अधिक लोड लिए. इसीलिए कथाकारों की भीड़ में सबसे अलग दिखाई देती हैं. उनके कहानी संग्रह ‘बहत्तर धडकनें तिहत्तर अरमान’ पर एक अच्छी समीक्षा लिखी है युवा लेखक पंकज कौरव ने, जिनके लेखन का मैं खुद ही कायल रहा हूँ- प्रभात रंजन

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कितनी ही कहानियों को अनुक्रम में पीछे छोड़कर एक कहानी किताब का शीर्षक बनती है. एक संग्रह की यही नियति है. ऐसा कम ही होता है कि वह शीर्षक सही अर्थों में संग्रह में संकलित सभी कहानियों का प्रतिनिधित्व कर पाये. आकांक्षा पारे काशिव के नये कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी ‘बहत्तर धड़कने तिहत्तर अरमान’ यह काम बखूबी करती है. अच्छा है कि आकांक्षा मिर्ज़ा ग़ालिब़ की तरह ‘बहुत निकले मेरे अरमान फिर भी कम निकले’ वाली पशोपेश में नहीं दिखतीं. अरमानों की जितनी लंबी फेहरिस्त मुमकिन हुई उन्होंने पेश कर दी है.

पूरी ईमानदारी के साथ कहा जाए तो इस संग्रह का शीर्षक ही सबसे पहला आकर्षण रहा और सभी चौदह कहानियों से गुजरने के बाद यह कहा जा सकता है कि आकांक्षा पारे की कहानियां गंभीर लेखन की ऐसी कहानियां हैं जिनमें लोकप्रिय लेखन में इस्तेमाल होने वाला सारा ईंधन है. बस यूं समझ लीजिए जैसे जेट प्लेन का ईंधन मानो एक चापाकल(नलकूप) से पानी खींचने वाले डीजल इंजन में इस्तेमाल हो रहा हो. वह इंजन यथार्थ के धरातल में कहीं गहराई से ठंडा-मीठा पानी खींचकर खेतों में पहुंचाता है. कठिन जीवन के थपेड़ों से कुंभलाए पौधे वह पानी पाकर ताज़गी से भर उठते हैं. पानी से फसलों में हरियाली आ रही है. क्या हुआ जो उस ईंधन का इस्तेमाल किसी रोमांचक उड़ान में नहीं हुआ अगर देखने वाले की नज़रों में रोमांच की असली परख रही तो लहलहाती फसल देखकर भी वह खुद को रोमांचित होने से नहीं रोक पायेगा. बस आकांक्षा का लेखन भी कुछ ऐसा ही लगा. नकली रोमांच पैदा करने की कोई सायास कोशिश नहीं. सनसनी पैदा करके पढ़ने के लिए मजबूर करने वाली कहानियां नहीं निकलती हैं आकांक्षा की कलम से, बल्कि पूरी कहानी पढ़ने के बाद एक सनसनी सी पीछे छूट जाती है.

हां संग्रह की तीन शुरूआती कहानिया ज़रूर ‘प्रेडिक्टेबल’ होती हुई लगीं. ख़तरा ऐसा कि संवेदनशील पाठक मूल भावना से हटते ही कयासों में उलझ जाए और फिर एक आम पाठक अनुमान लगाए बिना मानता भी कहां है. आगे क्या होगा? लेखक इस कहानी में क्या कहना चाहता है? कहानी पढ़ना शुरू करते ही ऐसे सवाल अपने आप पीछे लग जाते हैं. संग्रह की पहली ही कहानी ‘बहत्तर धड़कनें तिहत्तर अरमान’ के साथ भी यही अनुभव रहा. अब क्योंकि पुरूष पात्र अभय शुक्ला और महिला पात्र का नाम नौरीन है इसलिए दिमाग सोचने में देर नहीं लगाता कि हो न हो यह दो अलग-अलग धर्मों से संबंध रखने वाले एक दंपति की सफल या असफल प्रेम कहानी है. लेकिन अनुमानित रेंज के बावजूद कहानी का विस्तार बांधता जाता है. अंत तक पाठक अगर अपनी संवेदनशीलता बरकरार रख पाया तो कहानी की अंतिम परिणति का कयास लगाये जाने के बावजूद वह ऐसी स्थिति में पैदा होने वाली विसंगतियों के मार्मिक चित्रण से मुग्ध हुए बिना नहीं रह पाता.

‘सखि साजन’ नये सामाजिक परिवेश में समलैंगिकता की गहन पड़ताल करती संग्रह की बेहद महत्वपूर्ण कहानी है. लेस्बियन संबंधों पर तटस्थ और वस्तुनिष्ठ रह पाना मुश्किल काम माना जा सकता है. सतही तौर पर लग सकता है कि ‘सखि साजन’ इस काम में सफल हुई है लेकिन एक मां की नज़र से अपनी बेटी के लेस्बियन संबंधों का पटाक्षेप यहां कई अर्थों में समलैंगिकता पर एकांगी दृष्टिकोण के साथ छूट जाता है. ‘कंट्रोल ए +  डिलीट’ कथ्य के मामले में लाजवाब है. एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर के उन्माद की पराकाष्ठा यहां जिस विकृत घटनाक्रम के रूप में प्रकट होती है वह चौंकाता है. सन्न कर जाता है. ‘रोबोट इंसानों की तरह बनाए जा रहे हैं और इंसान रोबोट बनता जा रहा है.’ कहानी का यह वाक्य किसी मारक की तरह संवेदनाओं को झकझोर जाता है. लेकिन साथ ही अंतिम पैराग्राफ कहानी के बेहद खूबसूरत क्राफ्ट में मखमल में टाट के पैबंद की तरह खटकता भी है. ‘तमाम गवाहों, बयानो और मुजरिम के इकबालिया बयान…’ वाला पूरा पैरा बेहद फिल्मी, गैरज़रूरी और कुछ ऐसा है मानों सदियों से धरती को अपने कंधों पर उठाये खड़े रहने वाले एटलस ने यकायक पृथ्वी को पटक दिया हो. इतनी सधी हुई कहानी को आकांक्षा अंतिम लाइन तक भी साधे रह पातीं तो सोने पे सुहागा वाली बात हो जाती. शुरूआती तीनों रचनाओं में किसी भी स्तर पर कहानी का प्रेडिक्टेबल हो जाना व्यक्तिगत तौर पर एक कमज़ोर पक्ष लगा.

‘दिल की रानी, सपनों का साहजादा’ संग्रह की सबसे ज्यादा गुदगुदाने वाली कहानी है. एक प्रेमी युगल विशाल और मंजू के प्रेम पत्रों के जरिए लिखी गई यह कहानी छोटे, मंझोले शहरों और कस्बों में परवान चढ़ने वाली मुहब्बत की अक्सर फलित होने वाली अंतिम परिणति है और इस बात की तस्दीक भी कि समाज में शाम दाम दंड भेद जैसे भी हो प्रेम हासिल करना लड़के का जन्मसिद्ध अधिकार है, वहीं लड़की का प्रेम अब भी प्रेमी की दया पर निर्भर है. हालांकि मंजू इसे अस्वीकारने का साहस करती है. ‘कठिन इश्क की आसान दास्तान’ इस संग्रह की एक सबसे ईमानदार अभिव्यक्ति लगी. इस कहानी में एक स्कूल टीचर अपनी अड़तीस वर्षीय सहकर्मी मिस पालीवाल का जिस तरह खाका खींचती है और अंत में उसके आकर्षण का केन्द्र रहा युवा शिक्षक चौहान जिस तरह अपने जीवनसाथी के चुनाव से सबको चौका जाता है वह बेहद रोचक और रोमांचक है. ‘लखि बाबुल मोरे’ इस संग्रह की बेहद मासूम और संवेदनशील कहानी है. जिसमें एक पोती अपनी दादी की बीमारी की वजह से उनके शहर आती है. उसी शहर में जिसे उसके मां-बाप भी उसके पैदा होने के बाद छोड़ गये थे, साथ ही खुद उसे भी. कुल मिलाकर यह रिश्तों की गर्माहट भरे नीड़ में वापसी की मार्मिक कथा है.

पिता से रिश्ता बयान करने वाली संग्रह की दो कहानिया ‘फूलों वाली खिड़की’ और ‘डियर पापा’ ख़ास तौर पर दिल को छू गईं. हालांकि ‘फूलों वाली खिड़की’ पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना की टोह लेती हुई प्रेम गली में चली जाती है लेकिन ‘डियर पापा’ इस मामले में कमाल की कहानी है. ज्ञानरंजन और धीरेन्द्र अस्थाना की ‘पिता’ शीर्षक वाली कहानियां पढ़ने के बाद ‘डियर पापा’ से होकर गुजरना अपने आप में  रोमांचक है. पिता को पत्र की शैली में लिखी इस कहानी को पिता पुत्र संबंधों की तीसरी पीढ़ी का शुरूआती आख्यान कहा जा सकता है.

‘रिश्ता वही, सोच नयी’ हरमीत के दंश से जली बैठी प्रभजोत की मार्मिक व्यथा है. एक बार छले जाने के बाद वह खुद को कछुए की तरह अपनी भित्ती में समेट लेती है. फिर किसी की प्यार भरी नज़र उसके अरमानों को हवा दे जाती है. उम्मीदें जाग जाती हैं लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात! ‘दुकान वाली मौसी’ बचपन की ओर लौटा ले जाने वाली कहानी है. ऐसी कहानी जहां काबुलीवाला जैसा कोई है जिसके व्यक्तित्व की कशिश बड़े होने पर भी नहीं भूलती. मध्यप्रदेश के ताल-तलैया वाले शहर के एक छोटे से मोहल्ले की कहानी है यह. जहां एक परिवार से जुड़े बच्चों ने गर्मी की छुट्टियों के यादगार दिन बिताये हैं. उन्हीं दिनों की याद हैं दुकान वाली मौसी और उनकी याद के साथ जुड़ी है एक छोटी सी मड़िया और उससे लगी एक मजार. मंगलवार को बूंदी के प्रसाद और शुक्रवार के दिन बंटने वाली रेवड़ी और शरबत के सहारे कटने वाला बचपन कैसे एक दिन कर्फ्यू में कैद हो कर रह जाता है यही इस कहानी का तानाबाना है. ‘कैंपस लव’ कॉलेज वाले प्यार की कहानी है, ट्विस्ट इतना भर है कि प्रियंका और मिताली दोनों को एक ही लड़का पसंद था. शर्तिया तौर पर यह कहानी आपको भी अपने कॉलेज के दिनों की याद दिला ही देगी.

संग्रह की अगली कहानी हर घर की कहानी है. जहां भी एक दंपति लड़ते झगड़ते दिख जायें. एक हद तक बेशुमार प्यार के बाद जब छोटी-छोटी बातों पर बहस हो, गुस्से का सारा गुबार दिल में भरे बैठे रहें और उसकी कड़वाहट रिश्ते की मिठास को काटने लग जाये, तब समझ लीजिए की आपकी कहानी में भी यह ‘मध्यांतर’ आ गया है. सीमा और पूरब की जिन्दगी के मध्यांतर की डिटेलिंग को आकांक्षा ने बेहद खूबसूरती के साथ चित्रित किया है.

विशुद्ध रूप से स्त्री विमर्श के खाने में रखी जाने वाली कुछेक कहानियां ही इस संग्रह में शामिल हैं. हालांकि स्त्री विमर्श की गूंज आकांक्षा की लगभग सभी कहानियों में महसूस कर सकते हैं लेकिन ‘रिश्ता वही, सोच नयी’ और ‘प्यार व्यार’ स्पष्ट तौर पर स्त्री के हक की वही बात करती हैं जिसे कभी दमन तो कभी स्वच्छंदता की सौगात देकर बहला दिया जाता है. अपने शादीशुदा पूर्व प्रेमी के साथ कैफ़े कॉफी डे में बैठी नायिका भी इन्हीं सवालों से दो चार हो रही है. अंत में वह जिस बेबाकी से अपना स्टैंड क्लियर करती है वह सुखद आश्चर्य की अनुभूति देता है.

और अब अंत में बात इस संग्रह की सबसे दिलकश कहानी ‘निगेहबानी’ की. अड़तालीस वर्षीय दया प्रसाद पांडे की लखटकिया नौकरी के बहाने आकांक्षा ने कार्पोरेट जैसे हो चले अखबारों के कामकाज का जो खाका खींचा है वह सीधे दिल में पैठ बना जाता है. यह अधेड़ उम्र को छू रहे और कार्पोरेट कल्चर की दौड़ में पिस रहे हज़ारों लोगों की मार्मिक दास्तान है. मेट्रो की दौड़ में शामिल होकर दफ्तर की बायोमेट्रिक मशीन में उंगली छुआकर अपनी उपस्थिति दर्ज करने वाली हजारों उंगलियां इस कहानी में खुद को महसूस करेंगी.

कुल मिलाकर आकांक्षा की कहानिया नये दौर में नये मिजाज़ की कहानियां हैं. ये कहानियां उन्हें तो ज़रूर ही पढ़नी चाहिए जिन्हें लगता है कि हिन्दी के गंभीर लेखन में विषयों की विविधता नहीं होती.

शीर्षक- बहत्तर धड़कनें तिहत्तर अरमान

विधा- कहानी

मूल्य- 125 रूपये

प्रकाशक – सामयिक प्रकाशन, दरियागंज, दिल्ली।

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ज़रूरी था कि हम दोनों तवाफ़-ए-आरज़ू करते…

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लखनऊ के रहने वाले युवा लेखक स्कन्द शुक्ल पेशे से डॉक्टर हैं। स्कन्द शुक्ल की रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके साथ ही दो उपन्यास ‘परमारथ के कारने’ और ‘अधूरी औरत’ भी छप चुकी हैं। ये सोशल मीडिया पर अनेकानेक वैज्ञानिक और स्वास्थ्य-समाज सम्बन्धी लेखों-जानकारियों के माध्यम से काफ़ी सक्रिय हैं।

इकारस कभी सूरज के बहुत करीब चला गया और उसके मोम से जुड़े पंख पिघल गए। हाल ही में हबल ने सबसे ऊँचे तारे को ढूँढ़ लिया है और नाम दे दिया इकारस। संसार फूलता जा रहा है और हमारी दृष्टि भी। इसी फूलते जा रहे ग़ुब्बारे को स्कंद का इकारस फोड़ देना चाहता है। — अमृत रंजन

ज़रूरी था कि हम दोनों तवाफ़-ए-आरज़ू करते,

मगर फिर आरज़ूओं का बिखरना भी ज़रूरी था।

वह गयी। और चूँकि वह गयी, इसलिए वह भी गया। ऐसा हो नहीं सकता कि एक जाए, तो दूसरा न जा पाए। बढ़ती दूरी में विच्छेद का अनूठा गुण ( या दुर्गुण ) है : वह दोनों की संस्तुति नहीं माँगती। एक हट चले, दूसरा अपने-आप दूर होता जाएगा।

लोग आसमानी पिण्डों-से हैं। ब्रह्माण्ड में हैं, तो ब्रह्माण्ड-से क्यों न होंगे! वे एक-दूसरे से हर पल दूर जा रहे हैं। लेकिन एक और अशुभ सत्य यह भी है कि वे पहले जितनी तीव्रता से एक-दूसरे से परे हट रहे हैं, पहले नहीं हटते थे। यह हटान तेज़ हुई है, यह दुराव रफ़्तार पकड़ गया है। उम्मीद थी कि गुरुत्व उन्हें परस्पर बाँध रखेगा। जैसे वह सेब को मिट्टी से रखता है। जैसे वह चन्द्रमा को धरती से रखता है। जैसे वह धरती को सूर्य से रखता है। लेकिन श्यामल ऊर्जा के आगे वह बहुत बौना सिद्ध हुआ।

“मैं जा रही हूँ।” जाते हुए वह गमन-घोषणा करती है।

“बावजूद इसके कि जाना हिन्दी की ही नहीं, सभी भाषाओं की सबसे खतरनाक क्रिया है?”

“जानती हूँ। कहने वाले केदार बाबा भी तो गये।”

“और ठण्डी भी। दूरी ऊष्मा में कमी लाती है।”

“प्रकाश में भी।”

“आता रहेगा तुमसे ?”

वह हाँ करती है। ऐसी हाँ जिसमें नकार अपना प्रभाव स्पष्ट दिखा रहा है।

” नहीं, तुम नहीं जा रहीं। न मैं जा रहा रहा हूँ। हम हट रहे हैं परस्पर। समय और दूरी का यह जाल फैल रहा है।” वह मद्धिम स्वर में उत्तर देता है।

वह उसे अनवरत देख रही है। उसका कहा, उस संग जिया सब-कुछ पुराना समेटते हुए। ज्यों कोई अतीत के रुपहले जाले बटोरता है। वे रेशे जो उस तक कभी पहले चले थे। दूरी फैल जाती है, समय भी। लेकिन अतीत की स्मृति-जालिकाएँ संग रह जाती हैं।

“हम सब अतीत को देखते हैं।” वह कहता था।

वह प्रश्नचिह्नों-सी पुतलियाँ फैला देती, ज्यों आलोक बटोर रही हो।

“आकाश देखो। हर ओर से ज्योति आ रही है हम तक। सारी पुरानी है। आज की तरोताज़ा नहीं। जो जितना दूर है हमसे, वह उतना पुराना प्रकाश हम तक ला रहा है।”

“और दूर तो सभी हैं। सिवाय स्वयं के।” वह कहती। “मैं भी न ?”

“तुम भी सेकेण्ड के करोड़वें हिस्से पुरानी दिखती हो, जब भी दिखती हो। प्रकाश तुम पर पड़ता है, फिर मुझ तक आता है। मेरी आँखें तुमसे आया प्रकाश देखती हैं। अब इतना होने में जितना समय लग रहा है, उतनी पुरानी तुम हो।”

“यानी वर्त्तमान केवल भुलावा-भर है?”

“वर्त्तमान केवल एक सोच है। स्वयं को लेकर उपजी सोच। बाक़ी आसपास सब कुछ पुराना है। आसमान में। धरती पर। सभी कुछ।”

वे दोनों घण्टों आसमान की कालिख़ आँखों से खुरचते। ज्यों कोयले के अम्बार में हीरे ढूँढ़ रहे हों। तरह-तरह के तारे। तरह-तरह की जगमग। तरह-तरह की आकृतियाँ।

“मनुष्य को कम-से-कम सौ तारे तो पहचानने आने ही चाहिए।” वह कहता। “ऐसा भी क्या छद्म मान कि आसमान का चित्र पढ़ न सके अनपढ़।”

“न।” वह सिर हिलाती और सितारे टिमटिम के साथ संस्तुति देते।”कम-से-कम सौ तारे मनुष्य को पहचानने लगें, कुछ ऐसा होना चाहिए।”

और वे घण्टों अपनी आँखों द्वारा तारों से बातें करते। मान के साथ नहीं, मौन के साथ। चित्र स्वयमेव स्पष्ट होता चला जाता। अपना-अपना अतीत प्रस्तुत करती ज्योतियाँ। सवा सेकेण्ड पुराना चाँद। आठ मिनट पुराना सूरज। चार सौ से कुछ अधिक प्रकाश-वर्ष पुराना ध्रुव। कोई तारा हज़ार वर्ष तो कोई लाख वर्ष पुराना। कोई करोड़, तो कोई अरब की संख्याओं से साथ प्रस्तुत। न जाने कितने ऐसे जिनका प्रकाश हम तक आज तक आ ही न सका! दूरी उनकी इतनी कि आज तक ज्योति तय न कर सकी! वह अभी रास्ते में है! वह पहुँचेगी! न जाने कब! न जाने कितनी देर में!

“जानती हो ब्रह्माण्ड फैल रहा है।” वह कहता।

“जैसे तुम्हारी कमर। ब्रह्माण्ड से कहना होगा कि डायटिंग करे और वर्जिश भी।” वह उसकी बेल्ट के ऊपर हलके से तर्जनी धँसाती।

“न। उसके फैलाव में एक ऊर्जा का हाथ है।”

” कैसी ऊर्जा? और जो सबको चिपकाने पर आतुर इस गुरुत्व से बड़ी ऊर्जा कौन सी आ गयी यह!”

“गुरुत्व की उस श्यामल ऊर्जा के आगे नहीं चलती। वह डार्क एनर्जी है। वह ब्रह्माण्ड को अवन में रखे किसी केक-सा फुला रही है। और उस पर लगी चेरियाँ-किशमिशें एक दूसरे से दूर हट रही हैं।”

” ओहो, तो इसमें भी विदेशी ताक़तों का हाथ है! ” वह हँस देती। “तब तो ब्रह्माण्ड बेचारा स्लिम-ट्रिम होने से रहा।”

उनकी बातें ब्रह्माण्ड की सरहदों की होतीं, तो टेलिस्कोप का ज़िक्र आता। वह उससे टेलिस्कोप खरीद लेने को कहती। ताकि तारों का अतीत दोनों बेहतर पढ़ सकें। कालिख में गुम वह अतीत भी देख सकें, जो नंगी आँखों से नहीं नज़र आता।

“जानते हो, सरहदें जानना बहुत ज़रूरी है आदमी के लिए।”

“क्यों ?”

“कि कहाँ तक हम हैं।”

“तो जहाँ तक देख पाते हैं, वहीं तक हम हैं तुम्हारे अनुसार ? और जहाँ से आँखें कुछ नहीं पा रही हैं और न सबसे शक्तिशाली दूरदर्शी, वहाँ हम नहीं हैं ?”

“सबसे शक्तिशाली दूरदर्शी कहाँ है? किसने बनायी?”

“आसमान में है। हबल नाम है उसका। एक वैज्ञानिक के नाम पर।”

“वैज्ञानिक ने उसे बनाया?”

“नहीं। मशीन ने उस आदमी का नाम पाया। क्योंकि वह आदमी बहुत बड़ा काम कर गया। बहुत बड़े आदमियों के नाम पर हम अपने बच्चों के नाम रखते हैं और मशीनों के भी। कहीं आगे ऐसा न हो कि बच्चों के नाम रखने की प्रथा जाती रहे और केवल मशीनों का ही नामकरण-संस्कार फले-फूले …”

“और फिर कहीं ऐसा दिन न आये जहाँ मशीनों के नाम उलटे आदमियों को रखने पड़ें। स्वेच्छा से या फिर जबरन।”

” ख़ैर। इस आदमी का नाम मशीन ने आख़िरकार पाया। आदमी आसमान की दूरी के बारे में यह बता गया कि हम-ही-हम नहीं। हमारी ही एकमात्र गैलेक्सी नहीं। आकाशगंगा से इतर भी जहाँ हैं। वहाँ।” वह आकाश की ओर लक्ष्यहीन इशारा करता।

“जानते हो, ऐसा लगता है कि दिन के आसमान की सरहदें सिकुड़ जाती हैं।”

“यह सूरज का असर है। जब सरपरस्ती मज़बूत हो, तो आदमी यह भूल जाता है कि वह कायनात में यतीम है। बारह घण्टों का पीला आश्वासन। फिर कालिमा और लोग घरों में लुक जाते हैं।”

“सभी कहाँ लुकते हैं। तुम्हारे वैज्ञानिक हबल कहाँ लुके ?”

“नहीं लुके, तभी तो उन्हें धड़कते हुए तारे दिखे। सेफीड वेरीयेबल नाम था उन तारों का। “

“धड़कते हुए तारे? तारे भी धड़कते हैं दिलों की तरह?”

“स्पन्दनशील तारों के पास रक्त नहीं है, प्रकाश है। वे आकार में घटते-बढ़ते हैं, उसकी ज्योतिर्मय आभा भी। इन तारों ने हबल की बड़ी मदद की खोज में।”

“कौन सी खोज ?”

“कि हमारी आकाशगंगा ही ब्रह्माण्ड नहीं है। उसके आगे, उसके परे भी गैलेक्सियाँ हैं। हमारा आत्मकेन्द्रीकरण जिसका चटकना कोपरनिकस के ज़माने से शुरू हुआ था, वह टूट कर एकदम बिखर गया जब हमने एण्ड्रोमीडा और उस जैसी अरबों गैलेक्सियों को खोज निकाला।”

वह उस पहले दिन को याद करती, जब वे मिले थे। वह सार्वजनिक स्थान पर झड़प थी। क्या न था उसमें बिग बैंग-सरीखा! उसे लगा वह उसे अनधिकृत छूने की चेष्टा कर रहा है और दुविधा में उसने एक चाँटा रसीद दिया था …

मगर उस विस्फोट में जितनी तर्जना थी, उससे कहीं अधिक सर्जना थी। उस घटना के फलस्वरूप उनका समय-चक्र चल पड़ा। वे एक-दूसरे के होते-होते होने लगे। ऊर्जाओं से पदार्थ जन्मे और पदार्थों के सम्मेल से नये पदार्थ। लेकिन ज्योति की जगमगाहट इतनी सरलता से कहाँ उपज लेती है ! उसके लिए सम्बन्ध में गुरुत्व ज़रूरी जो है। सो वे धूल ही रहे बड़े दिनों तक और धूल-सा ही रिश्ता निभाते रहे। आँखों में जगमगाती तो कभी उन्हीं में गड़ती। वह दिन-दिन गुम्फित होती रही और आकार वृहद् से वृहत्तर होता रहा। और फिर वह दिन शीघ्र ही आ गया, तब प्रेम किसी नाभिकीय ऊर्जा से भरपूर तारे-सा जगमगा उठा! सबको उनके प्यार का पता चल गया था! सम्बन्ध के आलोक की बधाई!

किन्तु आलोक का उत्सव आज-कल खुलकर नहीं मनाया जाता। लोग सूर्य को उस श्रद्धा से अर्घ्य नहीं देते, जैसे हज़ार साल पहले देते थे। लोग चन्द्रमा को खीर का भोग वैसे नहीं लगाते, जैसे हज़ार साल पहले लगाते थे। सूर्य और चन्द्रमा के प्रति एकनिष्ठता से समाज आगे आ गया है। कारण कि उसके हाथ में दूरदर्शी हैं। एक-से-बढ़कर एक। जो सूर्य से छिटका कर व्यक्ति को तारों का प्रकार-प्रारूप दिखाते हैं। जो चन्द्रमा से विलग उसे बेहतर और उपग्रहों पर जीवन की उम्मीद के लिए आसरा बँधाते हैं।

सो विस्फोट के बाद प्रेम का ब्रह्माण्ड-सा विस्तार हुआ और उस विस्तार में उन्होंने एक-दूसरे को भलीभाँति समझा। पहले-पहले परस्पर प्रकाश को तारों का नाम दिया। फिर और गहराई से निहारा, तो संज्ञाएँ बदलकर नीहारिका कर दी। फिर जबसे दूरदर्शीय दृष्टि का विकास किया तो जाना कि वे दोनों तो विस्तृत-विशाल आकाशगंगाएँ हैं। अपनी अलग संरचना, ढेरों तारों-विचारों और ग्रहों-संग्रहों से भरे-पूरे।

फिर जब दोनों के एक-दूसरे से इतर और झाँका-टटोला, तो उनका अजीब रहस्यों से सामना भी होने लगा। रहस्य जो आकर्षक हैं, लेकिन भयजनक भी। जीवन के अन्तिम चरम पर सब कुछ जी धधक-फफक कर लेने वाले सुपरनोवा। असीमित गुरुता वाले ब्लैकहोल जिनकी जकड़ से कोई भी ज्योति नहीं छूटती। और फिर वह भी दिखी जो दिखते-दिखते दिखी। डार्क एनर्जी। वह जो उन्हें हर पल खींच कर अलग कर रही थी। वह जो उनके इतने साथ थी कि दूरदर्शिता के कारण उन्होंने उसे सबसे अन्त में पहचाना।

दूरदृष्टि अपने साथ निकट की दृष्टिहीनता कई बार लाती है। एक तो वह यह उम्मीद जगाने का अनवरत काम करती है कि कोई और है, जो हम-सा है और हमारा हो सकता है। इसी आसरे के साथ मनुष्य पूरी उम्र मरीचियों के बीच मृग का भटकता घूमता रहता है। युग का प्रवाह ऐसा है कि व्यक्ति पृथ्वी, चन्द्रमा और सूर्य को समझने से पहले दूरदर्शिता पा जाता है। यन्त्र उसके हाथ आने से रात के आसमान की आवारगी बढ़ जाती है। नतीजन दूरगामिता अपने प्रभाव पैदा करती है और बहुत से पिण्ड उनके सम्मुख दैनन्दिन गति करने लगते हैं। नतीजन सौरमंडल की गाहे-बगाहे सैर, धूमकेतुओं से नैन-मटक्का और फिर खगोलीय यायावरी जीवन-भर।

विस्फोट से कण, कण से पदार्थ और पदार्थ से खगोलीय पिण्ड होने की ये यात्रा उन्हें फिर वहाँ ले आयी जहाँ से आज वे दूर जा रहे हैं। बल्कि वे नहीं जा रहे, उनके बीच का स्पेस फैल रहा है। स्पेस, जो आज के समय में सबको अपने लिए विस्तृत चाहिए। सो अन्तराल बढ़ता है और काल भी उसके साथ गुँथकर बढ़ता जाता है। दो लोग जो रिश्ते में पहले क़रीब थे, अब दूर, और दूर और फिर बहुत दूर जाने लगते हैं। उनके बीच का गुरुत्व भी उन्हें रोक नहीं पाता, उसका प्रयास अपर्याप्त सिद्ध होता है। काल-अन्तराल का फैलाव करती श्यामल ऊर्जा है ही कुछ ऐसी। संसार का हर आलोकित खगोलीय नाता-रिश्ता उसके कारण दूरस्थ होते-होते मिट जाना है।

“गुब्बारे पर स्थित दो बिन्दुओं-से हम दूर हट रहे हैं। इस दुराव को महसूस कर रहे हो तुम ?” वह कह रही थी।

“मुझे एक सुई चाहिए। जी करता है यह गुब्बारा फोड़ दूँ ।”

“ऐसा गज़ब करके क्या मिलेगा तुमको ?”

“बस। सुकून। जब हम संग नहीं, तो ब्रह्माण्ड क्यों हो!”

“यह तो ध्वंसक सोच है।”

“दूरी को रोकने का कोई और विकल्प भी तो नहीं।”

वह चुपचाप निस्तेज हो रही है।

“फिर मिलोगी?”

“फैलता ब्रह्माण्ड कभी सिकुड़ता है?”

“सिकुड़ भी सकता है। फिर से सब कुछ किसी बिग क्रंच में। जैसा आरम्भ हुआ था, वैसा ही अन्त।”

“और जो न सिकुड़ा कभी और फैलता ही चला गया तो।”

“तो अलविदा।”

“जाना यक़ीनन ब्रह्माण्ड की सबसे ख़ौफ़नाक क्रिया है।”

इस लेख के अन्त में कुछ बातों पर सपाट चर्चा ज़रूरी है। कारण कि इसके पात्र परस्पर वार्त्तालाप में खगोलीय घटनाओं और पिण्डों की चर्चा छेड़े हुए हैं। ‘बिग बैंग’ जिसे लगभग हर विज्ञानी और सामान्य जन जानने लगा है , वस्तुतः विस्फोट जैसी कोई घटना न थी कि काले आसमान में कोई बिन्दु-सा फटा और उसका चूरा हर कहीं बिखर गया, जिससे तारों-ग्रहों-उपग्रहों-नीहारिकाओं-आकाशगंगाओं का जन्म हुआ। दरअसल बिग बैंग केवल एक नामकरण है। यह नाम खगोलशास्त्री फ़्रेड होयल ने 1949 में दिया और यह चल निकला। ग़ौर करने वाली बात यह भी है कि होयल बिग बैंग के आलोचकों में से एक थे। लेकिन विडम्बना देखिए कि उन्हीं के दिये नाम से इस स्थापित सिद्धान्त को आज जाना जाता है।

बिग बैंग किसी समय में नहीं हुआ , न किसी स्थान में हुआ। बल्कि उसके होने के साथ ही समय और स्थान , दोनों की शुरुआत हुई। काल और अन्तराल का वह आरम्भ बिन्दु था। लेकिन फिर प्रश्न उठता है कि बिग बैंग को किसने शुरू किया और उसके पहले क्या था। इस बाबत विज्ञान में कई धारणाएँ हैं, मतभेद हैं। यह क्षेत्र अभी सैद्धान्तिक भौतिकी के अन्तर्गत आता है , जहाँ गणित की इबारतों से अतीत के उस प्रथम बिन्दु (या उससे भी पहले !) पहुँचने का हम प्रयास करते हैं।

विज्ञान से कला का पूरा तादात्म्य न हो सकता है, न होना चाहिए। दोनों अगर एकदम एक हैं, तो वे दो क्यों हैं। इसलिए विज्ञान का आलम्ब लेकर इस लेख को रचा गया है। आधी हक़ीक़त, आधे फ़साने की तरह इसे पढ़ा जाना चाहिए। पूरी हक़ीक़त की परतें रोज़ खुल रही हैं और उसके लिए एक दूसरे नित्य परिष्कृत होते लेख की आवश्यकता पड़ती रहेगी।

–स्कन्द शुक्ल

 

 

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आज राहुल सांकृत्यायन को याद करने का दिन है

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आज महापंडित राहुल सांकृत्यायन की 125 वीं जयंती है. उन्होंने 148 किताबें लिखीं, दुनिया भर में घूमते रहे, बौद्ध धर्म सम्बन्धी अनेक दुर्लभ पांडुलिपियाँ लेकर भारत आये. वे इंसान नहीं मिशन थे. आज उनके मिशन, उनके विचारों को याद करने का दिन है. प्रसिद्ध विद्वान सुधीश पचौरी का यह लेख आज के ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में आया है. साभार आपके लिए- मॉडरेटर

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यह बरस महापंडित राहुल सांकृत्यायन का 125वां जयंती वर्ष है। 1893 में आज के दिन अपने ननिहाल, ग्राम पंदहा, आजमगढ़ में उनका जन्म हुआ था। वह 70 बरस तक जिए। 148 पुस्तकें लिखीं, मार्क्सवाद तक वैचारिक यात्रा की, संस्कृत, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी, पाली, प्राकृत पर अबाध पांडित्य रहा। राष्ट्रभाषा कोश तैयार किया। तिब्बती-हिंदी कोश तैयार किया। बौद्ध धर्म संबंधी अनके दुर्लभ पांडुलिपियां खच्चरों पर लादकर लाए और श्रीलंका के विद्यालंकार में दान दी बहुत पांडुलिपियां पटना विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में रखीं। पैसे की परवाह न की। दुनिया भर घूमे और घुमक्कड़ाचार्य कहलाए। घुमक्कड़ शास्त्र जैसा नायाब ग्रंथ लिखा। कहानियां, उपन्यास लिखे। बाईसवीं सदी अगर भविष्यमूलक कहानी है, तोवोल्गा से गंगा  मानव इतिहास के छह हजार वर्षों के अतीत की कथा है। क्या करें?, भागो नहीं, दुनिया को बदलो, साम्यवाद ही क्यों?, तुम्हारी क्षय, कम्युनिस्ट क्या चाहते हैं?, रामराज्य और माक्र्सवाद  जैसी प्रसिद्ध विचारपरक पुस्तकें लिखीं, जिनको पढ़-पढ़कर न जाने कितने युवा माक्र्सवाद की ओर आकृष्ट हुए।

राहुल सांकृत्यायन ने बौद्ध धर्म के अनेक ग्रंथ न केवल मूल रूप में रक्षित किए, बल्कि त्रिपिटक  की टीका लिखकर त्रिपिटकाचार्य कहलाए। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने हिंदी साहित्य के इतिहास में इनका नाम त्रिपिटकाचार्य के रूप में बड़े आदर से लिया है। सांकृत्यायन ने सरहपा के दोहों का छायानुवाद प्रकाशित किया, जिससे हिंदी साहित्य के आदिकाल का स्वरूप बदल गया। हिंदी साहित्य का वृहद् इतिहास (भाग सोलह) का संपादन, इस्लाम धर्म की रूपरेखा, ऋग्वैदिक आर्यों के बारे में लिखा। हिमालय मानो उनका घर-आंगन बन गया। नेहरू तक उनके प्रशंसक रहे। राजनीतिक आंदोलन किए, जेल गए। कम्युनिस्ट बने, नाम कमाया, लेकिन अपने विचारों के लिए अपनी प्रिय कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़ने से भी न हिचके।

एक ऐसा आदमी, जो किसी एक जगह नहीं टिकता। नए-नए ज्ञान की भूख उसे दुनिया भर में चक्कर लगवाती है। निरंतर अस्थिरता में भी उसकी कलम एक पल नहीं रुकती। वह लेखक नहीं थे, सचमुच के लिक्खाड़ थे। रेनेसां कालीन लेखकों की तरह बहुज्ञ और कर्मठ। तब लोग उनको विश्वकोशीय प्रतिभा का धनी मानते थे। आज भी उनके जोड़ का कोई नहीं है। पुरातत्व से आधुनिकता तक के ज्ञान से संवलित मेधा, बेधड़क, दोटूक और कुशाग्र रचनाशील और उतने ही कल्पनाशील। आज अगर हिंदी क्षेत्र और बिहार में खासकर कम्युनिस्ट विचारधारा का जो कुछ प्रभाव बचा हुआ है, उसमें कहीं न कहीं सांकृत्यायन की भागो नहीं, दुनिया को बदलो  से लेकर उनकी तमाम किताबों का बहुत बड़ा हाथ है।

इतनी प्रतिभा अपने शत्रु साथ लाती है, सांकृत्यायन के भी थे। कम्युनिस्टों के सबसे अच्छे शत्रु कम्युनिस्टों में ही होते हैं, इसलिए उन्हें भी यहीं मिले। उनसे जुड़ा एक प्रसंग अक्सर छोड़ दिया जाता है, पर अब भी मौजूं है।

राहुल सांकृत्यायन बहुत पहले बिहार साहित्य सम्मेलन के लिए लिपि संबंधी सवालों को उठा चुके थे और अपनी समझ के अनुसार हिंदी के लिए नागरी की जगह रोमन लिपि की वकालत कर रक्षात्मक हो चुके थे। बाद में उन्होंने हिंदी के लिए रोमन लिपि के आग्रह को स्वयं ही निरस्त कर दिया था। हिंदी साहित्य सम्मेलन वालों ने राहुल के सकल हिंदी योगदान को देखते हुए उनको मुंबई के सम्मेलन (1947) के लिए अपना सभापति बनाना चाहा। इसके लिए राहुलजी ने अपनी स्वीकृति दे दी थी। तब वह कम्युनिस्ट पार्टी के एक आम सदस्य मात्र नहीं थे, बल्कि पार्टी नेतृत्व के बीच उनकी खासी प्रतिष्ठा थी और वह शायद प्रगतिशील लेखक संघ में भी महत्वपूर्ण थे। राहुलजी को सम्मेलन में सभापति पद से भाषण देना था, इसके लिए उन्होंने एक लंबा लेख लिखा और कायदे के अनुसार पहले पार्टी के नेताओं को उसे पढ़ने को दिया। पार्टी नेता उर्दू और इस्लाम को लेकर उनके नजरिए से सहमत न थे, इसलिए उनसे कहा गया कि वह सम्मेलन में जाएं, तो उर्दू और इस्लाम वाले हिस्सों को वहां न पढें़। राहुलजी ने कहा कि लेख तो छप चुका है, अब कुछ भी छोड़ा तो नहीं जा सकता। कम्युनिस्ट पार्टी को उनकी पोजीशन पर ऐतराज था, जो बना रहा।

इसके बाद इतिहास दो कहानी कहता है- एक कि पार्टी ने उनको गलत लाइन लेने के कारण निकाल दिया। दूसरी कहानी कहती है कि राहुुलजी ने पार्टी लाइन से असहमत होते हुए इस्तीफा दे दिया। हमें पहली कहानी सच लगती है, क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी लाइन तोड़ने वालों को कभी माफ नहीं किया करती। कहते हैं, उनको निकलवाने में तब के प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव की भूमिका भी रही।

अपने भाषण की जिन ‘आपत्तिजनक’ स्थापनाओं के कारण राहुलजी पार्टी से निकाले गए, वे क्या थीं? हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति को लेकर राहुलजी की दो स्थापनाएं थीं, जो इस प्रकार थीं- पहली यह कि ‘सारे देश की राष्ट्रभाषा और राष्ट्रलिपि हिंदी होनी चाहिए। उर्दू भाषा और लिपि के लिए अब वहां कोई स्थान नहीं है’।

दूसरी स्थापना यह थी कि इस्लाम को भारतीय बनाना चाहिए। उसका भारतीयता के प्रति विद्वेष सदियों से चला आया है। किंतु नवीन भारत में कोई भी धर्म भारतीयता को पूर्णतया स्वीकार किए बिना फल-फूल नहीं सकता। ईसाइयों, पारसियों और बौद्धों को भारतीयता से एतराज नहीं, तो फिर इस्लाम को ही क्यों? इस्लाम की आत्मरक्षा के लिए भी आवश्यक है कि वह उसी तरह से हिन्दुस्तान की सभ्यता, साहित्य, इतिहास, वेशभूषा, मनोभाव के साथ समझौता करे, जैसे उसने तुर्की, ईरान और सोवियत मध्य एशिया के प्रजातंत्रों में किया। ये दोनों उद्धरण गुणाकर मूले की पुस्तक महापंडित राहुल सांकृत्यायन में मय विवरण उपलब्ध हैं।

हो सकता है कि इन अंशों को पढ़कर कई लोग परम प्रसन्न हों, लेकिन यहां यह भी कह दिया जाए कि राहुलजी ब्राह्मणवाद और हिंदुत्ववादी विचारों के प्रति भी अपने लेखन में कोई रहम नहीं बरतते। आप सहमत हों या असहमत, वे अपने विचारों को दोटूक रखते हैं। वह आज के प्रगतिशीलों की तरह ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ रहने के चक्कर में नहीं रहते। जाहिर है, वह एक जीवंत और साहसी बुद्धिजीवी थे, जो किसी की सहमति या असहमति की परवाह किए बिना सिर्फ विचार के लिए जीते थे और उसी के लिए मरते थे। आज कौन है ऐसा, जो अपने विचार के लिए अपना नाखून तक खुरचवाए?

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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बहुत याद आएंगे जीनियस सुशील सिद्धार्थ    

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सुशील सिद्धार्थ को याद करते हुए बहुवचन के संपादक अशोक मिश्र ने बहुत अच्छा लिखा है. पढियेगा- मॉडरेटर

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सुशील सिद्धार्थ के अचानक निधन की पहली खबर मुझे कहानीकार मनोज कुमार पांडे से शनिवार 17 मार्च को सुबह साढ़े दस बजे मिली उस समय बैंक से कुछ काम निपटाकर कैंपस स्थित घर की ओर लौट रहा था । अपने प्रिय मित्र के निधन की खबर से एकाएक बहुत पीड़ा का अनुभव हुआ । सुशील की यह कोई उम्र नहीं थी जाने की लेकिन जिंदगी में जब वह प्रतिष्ठा की ओर अग्रसर थे ऐसे में मृत्यु का दबे पांव आना विधि की बिडंबना ही है । सुशील सिद्धार्थ आजीवन साहित्य, पत्रकारिता के गलियारे में ही घूमते- फिरते लिख-पढ़कर जीविकोपार्जन करते रहे थे । वे एक बेहद मेधावी व्यंग्यकार, आलोचक और संपादक थे । लेखन के शुरुआती काल में वे अवधी भाषा में कविताएं लिखते थे और `बिरवा` नाम की पत्रिका निकालते थे । उन्होंने कुछेक कहानियां भी लिखीं और उनका एक उपन्यास जो कि लिखा जा रहा था शायद पूरा नहीं हो सका ।  यह उनकी नियति थी या कि भाग्य कि उनके जैसे अव्वल दर्जे के जीनियस व्यक्ति को हिंदी की दुनिया में गोरख पांडेय, शैलेश मटियानी या फिर मुद्राराक्षस की भांति जीवन गुजारना पड़ा ।

यहां प्रश्न है कि आखिर सुशील कौन थे और जीवन में क्या बनना चाहते थे और इस समाज, व्यवस्था ने उनको क्या बनाया। जाहिर है कि ताउम्र फ्रीलांसर बनकर जीने और एक से दूसरी फिर तीसरी जगह भटकने को मजबूर कर दिया था । उनका पूरा नाम सुशील अग्निहोत्री था जिसे जातिसूचक संबोधन हटाकर वे सुशील सिद्धार्थ के नाम से ही लेखन करते मशहूर हुए । सुशील ने लखनऊ विवि से पी.एच.डी. की थी लेकिन विवि में उनकी नियुक्ति क्यों नहीं हुई यह बहुत बड़ा यक्षप्रश्न है । यह अकादमिक भ्रष्ट्राचार या लेन- देन का मामला था उस पर सुशील ने कभी चर्चा नहीं की। यहीं से उनकी जिंदगी की गाड़ी पटरी से उतर गयी जिसके बाद उनका भटकाव ताउम्र चलता ही रहा । यह कोई उनके जाने की उम्र नहीं थी। वे साहित्य के मोर्चे पर बड़ी मजबूती के साथ डटे थे। उनका जन्म 2 जुलाई 1958 को उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के एक गांव भीरां में एक हिंदी अध्यापक के परिवार में हुआ था। साहित्य की यात्रा का आरम्भ उन्होंने लखनऊ विवि के छात्र जीवन से ही कर दिया था । लखनऊ विश्वविद्यालय के अपने मित्रों के साथ मिलकर उन्होंने एक हस्तलिखित पत्रिका की भी शुरुआत की थी। यह नौवां दशक रहा होगा। कहानी, आलोचना, व्यंग्य, संपादन आदि के क्षेत्र में किए उनके अवदान को कतई भुलाया नहीं जा सकता। श्रीलाल शुक्ल संचयिता ,चित्रा मुद्गल, मैत्रेयी पुष्पा : रचना संचयन सहित लगभग दर्जन भर पुस्तकों का संपादन किया। खास बात कि उनके दोनों शुरुआती दो काव्य संग्रह अवधी कविताओं के हैं। साहित्यिक कार्यक्रमों के संचालन का उनमें जो कौशल था, उसके हम सब कायल रहे हैं। लखनऊ में आयोजित ‘कथाक्रम’ समारोह वे अकसर वे एक दो सत्रों का संचालन इस अंदाज में करते कि बहस को वैचारिक शिखर पर पहुंचा देते थे । वे तदभव और कथाक्रम के सहयोगी संपादक भी रहे । कई पत्रिकाओं में वे कॉलम लिख रहे थे। वे कुछ समय तक कमलेश्वर के साथ संवाद लेखन का काम मुंबई में करते रहे लेकिन वहां भी अधिक समय तक नहीं रह पाए । लखनऊ में रहते हुए अखबारों, आकाशवाणी, दूरदर्शन, उत्तर प्रदेश सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के कुछ फुटकर काम और विभाग की पत्रिका ‘उत्तर प्रदेश’ में कालम लिखना यही उनकी दिनचर्या थी । वे जिंदगी की दुश्वारियों का रोना नहीं रोते थे । वे समझ चुके थे अब जीवन ऐसे ही गुजारना है किस्मत में यही लिखा है सो उसका कुछ होने वाला नहीं है ।

सुशील से उनकी मौत से ठीक पांच दिन पहले 12 मार्च को चैट और मोबाइल पर बात हुई थी । वे बहुवचन के कहानी अंक के लिए एक व्यंग्य कहानी लिखना चाहते थे हालांकि वे हां करने के बाद भी संस्मरण अंक के लिए श्रीलाल शुक्ल पर नहीं लिख पाए थे । वे एक बार वर्धा आने के भी इच्छुक थे, कुछ समय मन बदलाव या घूमने के लिए । सुशीलजी ने महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में कुछ समय अतिथि शिक्षक के रूप में जनसंचार विभाग के छात्रों को पढ़ाया भी था । सुशील सिद्धार्थ से लखनऊ में एक प्रकाशनाधीन साप्ताहिक अखबार के दफ्तर में पहली मुलाकात उनके सहपाठी रामबहादुर मिश्र के माध्यम से 1990 में हुई थी, जिसके बाद यह मित्रता और बातचीत चलती ही रही । औसत कद गठीला शरीर, चेहरे पर हल्की सी दाढ़ी, हमेशा हल्की सी मुस्कान, और अपनेपन के साथ वे किसी से भी मिलते थे और यही बात दूसरों का उनसे जोड़ देती थी ।

यह वर्ष 2007 की बात है कि एक दिन इंडिया न्यूज साप्ताहिक के कार्यालय में था कि मोबाइल पर सुशीलजी ने खबर दी कि वे दिल्ली आ चुके हैं और भारतीय ज्ञानपीठ ज्वाइन कर चुके हैं उनकी आवाज में खुशी झलक रही थी। वे चाह रहे थे कि अब मुलाकात होना चाहिए अभी दिलशाद गार्डन एक मित्र के घर पर ठहरा हूं । पहली बार उनसे कवि भारतेंदु मिश्र के घर पर भेंट हुई । हम कुछ मित्र जिसमें युवा कवि कुमार अनुपम भी शामिल है प्यार से सुशील को दादा या आचार्य कहते थे जिस पर वे मुस्कुरा भर देते । इसके बाद तो मुलाकातें और फोन पर बातें यह सिलसिला अनवरत चलता, थमता ही नहीं था । वे पूर्वी दिल्ली स्थित मदर डेरी के ठीक पीछे ध्रुव अपार्टमेंट के एक छोटे से कमरे में रहकर गुजर- बसर करते और भारतीय ज्ञानपीठ की मामूली छोटी सी नौकरी जो कि उनकी प्रतिभा और ज्ञान के बिलकुल अनुकूल नहीं थी खुद को उसके सांचे में ढालने की कोशिश कर रहे थे । रवीन्द्र कालिया उनको भारतीय ज्ञानपीठ में संपादक बनाकर लाए थे लेकिन कुछ ऐसे कारण रहे कि सुशीलजी ने भारतीय ज्ञानपीठ छोड़ दिया । उनके व्यक्तित्व में एक बात जो कि सबसे बड़ी बाधक थी वह थी कि वे आज के चरण वंदना भरे युग में चापलूसी नहीं कर पाते थे या फिर दिन को दिन या रात नहीं कहते थे जिसका खामियाजा वे पूरी उम्र उठाते रहे । एक और महत्वपूर्ण बात यह भी थी कि किसी भी व्यक्ति से उनका रिश्ता बहुत दिनों तक निभता नहीं था उसके कारण चाहे जो भी हों । दिल्ली आने से पहले अधिकांश लेखक उनको कथाक्रम के कथा केंद्रित वार्षिक संवाद में संचालक की भूमिका में देखते ही थे । दिल्ली आने पर शुरुआत में उनका दायरा कुमार अनुपम, प्रांजल धर और मुझ तक सीमित था । धीरे- धीरे  दिल्ली के साहित्यिक समाज के सदस्यों चाहे वह यूके. एस. चौहान हों या दिनेश कुमार शुक्ल, प्रेम भारद्वाज, सुधीर सक्सेना, विवेक मिश्र, सतेंद्र प्रकाश सहित बहुतों से मुलाकात और दोस्ती हो रही थी । सुशीलजी  की एक खासियत थी कि एक बार उनसे जो मिल लेता उनका मुरीद हो जाता था उनका बेलौस, फक्कड़ अंदाज चेहरे पर हल्की सी मुस्कान और साहित्य की शानदार समझ लोगों को उनका मुरीद बना देती थी । उनके पास खिल खिल करती भाषा, शैली, सधा वाक्य विन्यास, विशेषण, उपमाएं, खिलंदड़ापन था । पुस्तक समीक्षा तो वे पलक झपकते लिख डालते थे । साहित्य की  विभिन्न विधाओं कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना में उनका वृहद अध्ययन था । किसी किताब का फ्लैप मैटर वे ऐसा लिखते थे कि एक शब्द इधर से उधर करने की जरूरत नहीं होती थी । उनकी लिखावट बहुत ही साफ सुथरी थी । सुशील के चुम्बकीय व्यक्तित्व ने कवि, कहानीकार, व्यंग्यकारों, आलोचकों, मीडियाकर्मियों सहित सभी को अपनी ओर आकर्षित किया और साहित्यिक समाज में उनकी प्रतिष्ठा बढ़ती ही गयी। यहां एक और बात यह हुई कि दिल्ली के बहुत सारे फेसबुकिया लेखक भी लपको अंदाज में उनके आसपास जमा हो गए । नामवर सिंह की एक कविता है कि – ‘पारदर्शी नील में सिहरते शैवाल / चांद था, हम थे, हिला दिया तुमने भर ताल’. कुछ ऐेसा ही सुशील ने कर दिखाया था ।

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि की नौकरी में आने से ठीक पहले तक वे लगातार मयूर विहार फेज तीन स्थित मेरे घर या प्रेम भारदाज के घर पर आते और एकाध दो घंटे की साहित्यिक चर्चा के बाद अपने डेरे पर लौट जाते । हफ्ता दस दिन या पंद्रह दिन बीतते- बीतते वे कहते ‘अरे यार कब मिलिहो बहुत दिन होय गा’ फिर मेरी उनसे ज्ञानपीठ के कार्यालय या उनके घर पर मुलाकात हो ही जाती । इसी समय उनकी बातचीत `हंस` पत्रिका के कार्यकारी संपादक के लिए हुई लेकिन शायद कम पैसों या राजेंद्रजी से बात न बन पाने के कारण वे ‘हंस’ नहीं जा पाए जबकि इसकी लखनऊ में घोषणा भी वे कर चुके थे । मार्च 2012 में जब मेरी नियुक्ति जब वर्धा के लिए बहुवचन के संपादक पद पर हुई तो वे मेरे दिल्ली छोड़कर वर्धा प्रस्थान को लेकर खासे असहमत थे और आदत के मुताबिक गुस्से में भरकर बोले जरिए मेरा साथ छोड़कर वहीं जाकर मरिए । उनका आशय था कि जब दिल्ली में अपना फ्लैट है और लिखने पढ़ने वाले व्यक्ति के रूप में पहचान है तो यहीं रहकर काम करो । वर्धा आने के बाद उनसे कभी- कभार दिल्ली जाने पर ही भेंट होती या फोन पर बात होती । कई बार फेसबुक चैट पर हम दोनों ही लोग बातचीत कर लेते थे । वे बहुवचन के लिए लिखने को कहते लेकिन फिर लिख न पाते कुछ ऐसा ही हो रहा था ।

दिल्ली जैसे जिसे बेदिल शहर के साहित्यिक समाज और सक्रिय समूहों के बीच उन्होंने खासी जगह बनाई । वे प्रबंधन के भी गुरू थे लेकिन छोटे-छोटे प्रबंधन करने ही आते थे वे किसी से भी बड़ा लाभ कभी नहीं ले नहीं पाए ।  एक और खासियत थी कि उन्होंने कभी किसी के सामने अपनी दुश्वारियों का रोना नहीं रोया, किसी को अपमानित नहीं किया, किसी को ठगा भी नहीं बल्कि वे खुद ही ताउम्र दूसरों की ठगी का सामना करते रहे ।

नई दिल्ली स्थित भारतीय ज्ञानपीठ में आने के बाद उनको दिल्ली के साहित्यिक समाज में पर्याप्त रूप से चीन्ह लिया गया । अखबारों में उन्होंने बड़ी संख्या में बहुत अच्छी समीक्षाएं लिखीं । नया ज्ञानोदय में कुछ समय उनका कालम ‘लिखते-पढ़ते’ खूब सराहा गया । यहां भी वे रवीन्द्र कालिया से संबंधों में खटास के चलते इस्तीफा देकर बाहर आ गए । इसके बाद वे राजकमल प्रकाशन गए लेकिन वहां भी उनकी निभी नहीं । राजकमल प्रकाशन में क्या हुआ कम ही लोग जानते हैं । एक बार फिर वे बेरोजगार थे । ऐसा नहीं कि उनकी योग्यता में कोई कमी थी बल्कि संस्थानों के मालिकों का बौनापन उन्हें झेल नहीं पाता था।  2014 में सुशीलजी ने दिल्ली छोड़ दिया और लखनऊ चले गए। कुछ ही दिन बीते थे कि वे एक बार फिर 2015  की जनवरी में किताबघर प्रकाशन की मासिक पत्रिका समकालीन साहित्य समाचार के संपादक बनकर आए । किताबघर प्रकाशन के स्वामी सत्यव्रत शर्मा ने उनको प्रतिभा के अनुकूल सम्मान दिया । लखनऊ से कथाकार शैलेन्द्र सागर के संपादन में प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका कथाक्रम के व्यंग्य कालम राग लंतरानी से उनको खासी प्रसिद्धि मिली थी । वे व्यंग्य में खुद को श्रीलाल शुक्ल को गुरू मानते थे । एक बार बातचीत में उन्होंने कहा कि व्यंग्य में उनको हरिशंकर परसाई सबसे बड़े लेखक लगते हैं । कुछ समय उन्होंने पाखी (संपादक प्रेम भारद्वाज) पत्रिका में ‘शातिरदास की डायरी’ शीर्षक से कालम लिखा चूंकि कालम काफी तल्ख हुआ करता था जिससे कई लोग नाराज हुए फिर वह बंद हो गया । अब कई पत्रिकाओं में संपादक मांगकर उनके व्यंग्य प्रकाशित कर रहे थे । ‘नारद की चिंता’ संग्रह प्रकाशित होने पर जब इंडिया न्यूज में छपी तो वे हंसे बोले –‘अशोक तुमही हमका समझ सकत हव हम दोनों एकय इलाका और छोटी जगह से आईके दिल्ली मा जगह बनायन हय।‘ कभी- कभी वे कहते ‘यार अशोक हम लोग किस्मत सेठा की कलम से लिखाय के आए हन ।‘ जीवन में बहुत सारी विफलताओं, धोखों के बावजूद वे सदैव खिलखिलाते रहते यह सुशील जैसा नीलकंठी व्यक्ति ही कर सकता था । वे मौका मिलने पर खूब हंसी मजाक करते और ठहाका लगाते । जब मैं अपना कहानी संग्रह दीनानाथ की चक्की देने दिल्ली स्थित किताबघर प्रकाशन गया था तभी उन्होंने ‘मालिश महापुराण’ की प्रति भेंट की । इसके बाद ‘मो सम कौन’ एवं ‘प्रीति न करियो कोय’ भी प्रकाशित हुए । कभी- कभार रौ में आने के बाद वे कई महान लोगों के व्यक्तित्व की कलई खोलकर रख देते । वे ज्ञान चतुर्वेदी को अपना व्यंग्य गुरु मानते थे जबकि वे लेखन के शुरुआती दौर में श्रीलाल शुक्ल के काफी करीब रहे । व्यंग्य लेखन में उन्होंने भाषा का जबर्दस्त कौशल दिखाया, घिसे-पिटे विषयों को छोड़कर मौलिक विषय और विविधता की दृष्टि से वे लगातार व्यंग्य विधा में प्रतिष्ठा हासिल कर रहे थे । अपने व्यंग्य लेखन पर भी जीवन के अंतिम समय में ध्यान दे पाए पहले दे देते तो उनकी लिखी बहुत सारी कृतियां हमारे बीच होतीं । फेसबुक पर उनके प्रशंसकों की संख्या हजारों में थी।  एक ओर यह सब चल रहा था तो दूसरी ओर उनका स्वास्थ्य अत्यधिक कार्य, महानगरीय जिंदगी के तनाव आदि उन पर भारी पड़ रहे थे । परिवार और पत्नी के लखनऊ में होने के कारण उनकी आवाजाही दिल्ली से लखनऊ लगातार चलती रहती । परिवार साथ न होने से उनका खानपान ठीक-ठाक नहीं रह गया था। हिंदी के परचूनिया प्रकाशन संस्थानों की कम पैसों की नौकरी ने उनको प्रूफ रीडर कम संपादक बनाकर खूब निचोड़ा । कामकाज से संबंधित कभी कोई बड़ा आफर न मिलने से उन्हें जैसी भी नौकरी और पैसा मिलता रहा उसको स्वीकारते रहे । हम कह सकते हैं कि एक गीत है – ‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया ।‘ वे यही करते रहे । करीब तीन साल पहले उन्हें ह्रदयरोग ने चपेटे में ले लिया और फिर एंजियोप्लास्टी भी हुई । वे स्वस्थ तो हुए लेकिन काम करने का उनका जूनून पहले से बहुत ज्यादा हो गया था जिसे वे खराब स्वास्थ्य के बावजूद करते रहे । सुशील ने अंतिम तीन-चार सालों में जितनी तेजी से लेखन और संपादन का काम किया उतना काम अधिकांश लोग दस साल में शायद ही कर पाएं । वे एक लेखक के रूप में ही जीना और मरना चाहते थे और उसे पूरी ईमानदारी और गरिमा के साथ कर दिखाया यह उनके जीवन की बहुत बड़ी सार्थकता रही लेकिन यह सब उन्होंने स्वास्थ्य की अवहेलना करके किया यह दुखद है । उनका न होना उनके परिवार, मित्रों और साहित्यिक समाज के लिए बहुत बड़ा नुकसान है । उनके जाने से सब कुछ खत्म हो गया है। अब तो जैसे बस उनकी स्मृतियां और रचा गया साहित्य ही बचा है। उनकी स्मृति को नमन करते और श्रद्धांजलि देते हुए इतना ही कहूंगा कि बहुत याद आएंगे सुशील सिद्धार्थ ।

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वर्तमान पता संपादक बहुवचन 

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, पोस्टगांधी हिल्स, वर्धा442001 (महाराष्ट्र)  ईमेलamishrafaiz@gmail.com  मोबाइल09422386554/7888048765

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राहुल तोमर की कविताएँ

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जानकी पुल के मॉडरेटर होने का असली सुख उस दिन महसूस होता है जिस कुछ दिल को खुश कर देने वाली रचनाएं पढने को मिल जाती हैं. ऐसी रचनाएं जिनमें कुछ ताजगी हो. खासकर कविता में ताजगी देगे का अहसास हुए ज़माना गुजर जाता है. ज्यादातर कवि महज लिखने के लिए लिख रहे हैं. उनके पास कुछ लिखने को है नहीं. बहरहाल, एक अनजान कवि से परिचय ईमेल ने करवाया. राहुल तोमर होटल मैनेजमेंट के ग्रेजुएट है. इनका कहना है कि साहित्य में इनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी. अचानक 2-3 साल से वे पढने भी लगे, लिखने भी लगे. कविताओं में सच में बहुत फ्रेशनेस है. मुझे ओरहान पामुक के उपन्यास ‘स्नो’ का नायक याद आया. कविताएँ उस पर उतरती थीं. कविताएँ जब तक उतरें न तो उनका मजा ही क्या. अब आप राहुल तोमर की कविताएँ पढ़िए- मॉडरेटर

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अंत में
———

और अंत में तुम्हारे होंठों के कोरों
पर फटे चिथड़ों की भांति चिपके रह
जाएंगे शब्द

तुम्हारी जीभ जब करेगी उनका स्पर्श
तो तुम्हें याद आएंगी वह तमाम बातें
जिनका गला घोंट तुम भरते रहे दिल
के भीतर मौजूद चुप्पियों का दराज़

दुनिया को विदा कहने से पूर्व
तुम बनाना चाहोगे एक ख़ुशरंग लिबास

बटोरोगे होंठों के कोरों से चिथड़े
खंगालोगे चुप्पियों का दराज़
करोगे बहुत सी कोशिशें
पर अंततः
बस बना पाओगे एक बदरंग सी चादर
जहाँ उधड़ी होगी चिथड़ों के बीच की
सिलाई
जिससे झाँकती मिलेंगी चुप्पियाँ
चुपचाप।

धूप
——

जितनी भर आ सकती थी
आ गयी
बाकी ठहरी रही किवाड़ पर
अपने भर जगह के लिए
प्रतीक्षित

उतनी भर ही चाहिए थी मुझे बाकी के लिये रुकावट थी जिसका मुझे खेद भी नहीं था

दरवाज़े की पीठ पर देती रही दस्तक
उसे पता था कि दरवाज़ा पूरा खुल सकता है

जितनी भर अंदर थी उतनी भर ही जगह थी सोफ़े पर…

उतनी ही जगह घेरती थीं तुम

उतनी भर जगह का खालीपन सालता है मुझे
जिसे भरने का प्रयत्न हर सुबह करता हूँ।

बचपन
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बचपन को याद करते वक़्त
याद आता है स्कूल
जो सन 47 से पहले
का भारत लगता था
और छुट्टी प्रतीत होती थी आज़ादी सी

याद आते हैं गणित के शिक्षक
जिनके कठोर चेहरे पर
चेचक के दाग़ ऐसे लगते थे मानो
किसी भयावय युद्ध के हमलों के निशान
मुलायम पीठ पर लटके
किताबों से ठुंसे हुए भारी भरकम झोले
याद दिलाते थे
उस दिहाड़ी मज़दूर की जो अपनी पीठ
पर ढोता है सीमेंट
की बोरियां
क़ैदियों के धारीदार कपड़ों की तरह
सफ़ेद और नीली पोशाकें
और पुलिस के डंडों की भांति
दम्भ से लहराने वाली हरी सांठें
जो हम बच्चों के जिस्म पर दर्ज़ कराती थीं
लाल और नीले रंग में अपनी उपस्थिति

बचपन के उन कोमल दिनों की स्मृति
भरी पड़ी है बस कठोर पलों से
जिनमें
” नन्ही हथेलियों का छूना आकाश
और छोटे तलवों का नापना ब्रह्माण्ड ”
जैसी कल्पनाओं का कहीं ज़िक्र
तक नहीं…

प्रतीक्षा
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उसकी पसीजी हथेली स्थिर है
उसकी उंगलियां किसी
बेआवाज़ धुन पर थिरक रही हैं

उसका निचला होंठ
दांतों के बीच नींद का स्वांग भर
जागने को विकल लेटा हुआ है

उसके कान ढूँढ़ रहे हैं असंख्य
ध्वनियों के तुमुल में कोई
पहचानी सी आहट

उसकी आंखें खोज रही हैं
बेशुमार फैले संकेतों में
कोई मनचाहा सा इशारा

उसके तलवे तलाश रहे हैं
सैंकड़ों बेमतलब वजहों में चलने का
कोई स्नेहिल सा कारण

वह बहुत शांति से साधे हुए है
अपने भीतर का कोलाहल
समेटे हुए अपना तिनका तिनका
प्रतीक्षा कर रही है किसी के आगमन पर
बिखरने की।

मज़मून
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मेरे हाथों में है खाली लिफ़ाफ़ा
मज़मून कहाँ अंतर्ध्यान हुआ नहीं पता

हम साथ रह रहे हैं
एक रिश्ता है हमारे दरमियाँ
एक आवरण है जो बाहर से
बहुत सुंदर है
इतना सुंदर कि देखने वालों के भीतर
ईर्ष्या के बीज अंकुरित हो जाएं

मैं खाली लिफ़ाफ़े को देखता हूँ
और फिर हमारे रिश्ते को

मज़मून की अनुपस्थिति के खेद अंदाज़ा केवल
लिफ़ाफ़ा खोलने वाले हाथ ही लगा सकते हैं।

 

अंततः
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प्रकाश से बनी चाबी से
हम खोलते हैं अन्धकार से घिरा दरवाज़ा
और पाते हैं स्वयं को और गहन अन्धकार में
एक नए अन्धकार घिरे हम
फिर खोजने लगते हैं एक नया दरवाज़ा
जिसके मिलते ही हम वापस दौड़ पड़ते हैं
प्रकाश की ओर
हासिल करने एक और चाबी

वर्षों की भागादौड़ी के बाद भी
अंततः बस यही जान पाते हैं

कि सारी चाबियाँ प्रकाश से बनती हैं
परंतु वे जिन दरवाज़ों को खोलती हैं
वे सब के सब अंधकार की ओर
खुलते हैं।

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ख़ला के नाम पर जितने ख़ुदा थे, मर चुके हैं

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निस्तब्ध हूँ. त्रिपुरारि की इस नज्म को पढ़कर- मॉडरेटर

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गैंग-रेप / त्रिपुरारि

ये मेरा जिस्म इक मंदिर की सूरत है
जहाँ पर रोज़ ही अब रूह का गैंग-रेप होता है
मुझे महसूस होता है—
दयार-ए-आँख में कुछ ख़्वाब जो आधे अधूरे रह गए थे
सोचते हैं अब कि नफ़रत को नई सीढ़ी बना कर के
पहुंच जाएँगे उस मन के मकानों तक
जहाँ पर रोशनी का राज चलता है
जहाँ पर ज़िंदगी
ख़ुशरंग आँचल ओढ़ती है, रक़्स करती है
जहाँ पर इक तबस्सुम
रात-दिन होंठों के आँगन में बरसता है
जहाँ पर धमनियों में
ख़ुशबुओं का कारवाँ आबाद रहता है
मगर कैसे बताऊँ मैं
कि जब भी देखता हूँ मन के उन कच्चे मकानों को
तो यूँ लगता है—
जैसे सिसकियों की खुरदुरी आवाज़
दीवारों के सीने में मुसलसल घुट रही है
दरीचों पर सितारों का कटा सिर भी लटकता है
वहीं कुछ दूर ड्योढ़ी पर
सुनहरी चाँदनी का गोश्त बिकता है
वो नन्ही साँस
जो रंगीं ख़यालों के किसी टब में नहाती थी
किसी ने घोंट डाला है गला उसका
किसी ने छील डाला मौसम-ए-दिल को
लहू पानी में घुलता जा रहा है
और अब इस बात की ज़िंदा गवाही दे रहा है
कहकशाओं में
ख़ला के नाम पर जितने ख़ुदा थे, मर चुके हैं
जो पहरेदार थे, ख़ुद की तिजारत कर चुके हैं

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आंबेडकर- विचार भी, प्रेरणाशक्ति भी

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जहाँ तक मेरी समझ है डॉ. भीमराव आम्बेडकर आधुनिक भारत के सबसे तार्किक और व्यावहारिक नेता थे. वे सच्चे अर्थों में युगपुरुष थे. वे जानते थे कि भारतीय समाज में स्वाभाविक रूप से बराबरी कभी नहीं आ सकती इसलिए संविधान के माध्यम से उन्होंने समाज के कमजोर तबकों को शक्ति दी, उनको आगे बढ़कर समाज में अपना मुकाम बनाने का ठोस अवसर दिया. यह युगांतकारी था. इसीलिए समय के साथ उनकी प्रासंगिकता बढती जा रही है. युगपुरुष के रूप में उनकी पहचान पुख्ता होती जा रही है. आज बाबासाहेब पर प्रसिद्ध दलित चिन्तक प्रोफ़ेसर बद्रीनारायण का यह सारगर्भित लेखक ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में पढ़ा. बाबा साहेब की जयंती पर ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ से साभार यह लेख- मॉडरेटर

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प्रतीकों में प्रेरणा शक्ति निहित रहती है। यह शक्ति ही प्रतीकों को प्रासंगिक बनाती है। डॉ भीमराव आंबेडकर का प्रतीक अपनी इसी शक्ति के कारण लगातार प्रासंगिक होता गया है। दलित सामाजिक समूह ने इसी शक्ति की प्रेरणा से न सिर्फ सामाजिक सत्ता से वाद-विवाद और संवाद करना सीखा है, बल्कि राजनीतिक सत्ता में अपनी भूमिका बनाने की प्रेरणा भी उन्हें इसी से मिली है। आंबेडकर के प्रतीक ने शायद उन्हें यह सिखाया है कि सामाजिक और राजनीतिक विकास की यात्रा में क्या लिया और क्या छोड़ा जा सकता है? यह भी सिखाया कि उनके आगे बढ़ने में जो सामाजिक परंपराएं बाधा खड़ी करती रही हैं, उन्हें कैसे नया रूप दिया जा सकता है?

हिंदी पट्टी का वह सामाजिक तबका, जो लोहिया के विचारों से प्रभावित था, उसमें से अनेक लोग प्रखर आंबेडकरवादी चेतना से लैस होकर निकले। उत्तर प्रदेश में इस चेतना के प्रसार का इतिहास देखें, तो राम स्वरूप वर्मा जैसे प्रखर समाजवादी बाद में चलकर आंबेडकरी चेतना से जुड़े। पेरियार ललई सिंह, जिन्होंने प्रदेश में आंबेडकरवादी विचारधारा फैलाने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, वह भी कभी लोहिया की विचारधारा से प्रभावित थे। पटेल, कुर्मी और यादव बिरादरी के अनेक सामाजिक कार्यकर्ता पिछली सदी के 60-70 के दशक में आंबेडकरवादी चेतना से प्रभावित होकर अपने-अपने सामाजिक समूहों में जागरण के काम में लगे रहे। कांशीराम जब 80 के दशक में बहुजन आंदोलन को संगठित करने लगे, तो जाटव के साथ ही उन्हें कुर्मी, पटेल समुदाय के अनेक नेताओं का समर्थन मिला।

राष्ट्रीय स्तर पर देखें, तो दलितों के वे सामाजिक समूह, जो गांव छोड़ शहरों में श्रम के लिए विस्थापित हुए और अपने गांवों से लगातार जुड़े रहे, वे आंबेडकरवादी चेतना को अपने साथ गांव तक ले आए। आगरा, कानपुर जैसे शहरों में जा बसने वाले जाटव बिरादरी के अनेक लोग अपने साथ इस चेतना का बीज अपने गांवों में भी फैलाते रहे। आंबेडकर खुद दलित समूहों से कहते थे कि वे गांवों की सामंती जकड़न से मुक्त होकर शहरों में नए पेशे और नए विचारों से जुड़ें। आंबेडकर के इसी आह्वान के बाद जाटवों ने बडे़ पैमाने पर अपने पारंपरिक पेशों से मुक्ति की छटपटाहट दिखाई। उनमें से अनेक ने पारंपरिक पेशे को छोड़कर रिक्शा चलाने, भवन निर्माण में मजदूरी के रास्ते अपनाए। कुछ ने इसी के साथ शिक्षा से जुड़े आरक्षण का लाभ लेने की शक्ति प्राप्त की।

आंबेडकर के जीवन काल में ही स्वामी अछूतानंद के आंदोलन से भी यह समुदाय जागरूक हुआ। रिपब्लिकन पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसे दलों ने भी इस सामाजिक समूह को राजनीतिक आधार दिया। धोबी, कोरी जैसी बिरादरी के अनेक लोग भी नए-नए पेशों और शहरों से जुड़े, साथ ही आंबेडकरवादी चेतना से प्रभावित हुए। ऐसे ही लोग ठीक-ठाक तादाद में शिक्षा की तरफ बढे़ और अपनी परंपरा की कुछ अच्छी बातों को लेते हुए अपने को आधुनिकता से जोड़ा। जिन्होंने आंबेडकर के प्रतीक और विचारों से अपने को जोड़ा, वे आधुनिक शिक्षा, अछूतपन से मुक्ति और सामाजिक सम्मान की चाह से अपने को लबरेज कर पाए। फिर यह क्रम आगे बढ़ा। जो अपने को आंबेडकरवादी प्रतीकों से जोड़ पाए, उन्होंने अपनी अगली पीढ़ियों को नया और बेहतर जीवन देने के लिए संघर्ष किया।

उत्तर प्रदेश में जाटव, पासी, धोबी, कोरी जैसी अनेक जातियों के लोग इस मुहिम में आगे बढ़े, वहीं बिहार में दुसाध, जाटव, पंजाब में रविदासिया, वाल्मीकि, आंध्र प्रदेश में माला-माद्गिा, महाराष्ट्र में महार, मातंग और अन्य अनेक जातियों ने अपने को आंबेडकर की प्रेरणा से जोड़ा। वैसे, दलितों में अनेक जातियां अभी भी आंबेडकर के प्रतीक और प्रेरणा से अपने को नही जोड़ पाई हैं। हिंदी पट्टी में मुसहर, बहेलिया, बॉसफोर, डोम, कालाबाज, कबूतरी जैसी अनेक जाति बिरादरी के अनेक लोग अभी भी आंबेडकर के प्रतीक से लाभ नहीं उठा पाए हैं। आधुनिक शिक्षा, सम्मान की चाह, बेहतर जीवन के लिए उनकी जद्दोजहद अभी प्रारंभिक स्तर पर ही है। उनमें से अनेक जातियां अभी भी पारंपरिक पेशे से जुड़ी हैं। दलित समूह की अनेक जातियों में पारंपरिक पेशा ही आर्थिक जीवन को चलाने के लिए उपलब्ध साधनों में से एक है। परंतु अपने पेशे को बहुमुखी बनाने की छूट, काम करने के विकल्पों की उपलब्धता, उन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से ज्यादा शक्तिवान बनाता है।

वाराणसी के पास जयापुर गांव में मुसहर जाति की एक बस्ती है- अटल नगर। अटल नगर में शबरी और शिव की मूर्ति वाला मंदिर है। मुसहर जाति के लोग अपने को शबरी का वंशज मानते हैं। उनमें से अनेक ने अभी आंबेडकर का नाम भी नहीं सुना है। हालांकि उस गांव की जाटव बस्ती में आंबेडकर की एक मूर्ति भी लगी है। जयापुर  की जाटव बस्ती में जब हम लोगों ने पूछा कि आप लोग 14 अपै्रल को, जो कि आंबेडकरजी की जयंती है, उसे कैसे मनाते हैं? उस पट्टी के वृद्ध ने बताया कि आंबेडकरजी की मूर्ति को हम लोग फूल-माला चढ़ाते हैं और शाम में हरि कीर्तन का आयोजन करते हैं। वहीं जिन दलित बस्तियों में बौद्ध चेतना का प्रभाव है, वहां बौद्ध रीति से आंबेडकर की मूर्ति के पास पूजा-पाठ और चेतना जागरण के कार्यक्रम होते हैं।

सबके अपने-अपने आंबेडकर हैं। आंबेडकर की जयंती मनाने के उनके अलग-अलग ढंग भी हैं। कहीं रात में नाटक होता है, तो कहीं ढोल-बाजे बजते हैं। सभी जगह आंबेडकर के जीवन पर आधारित जुलूस, झांकी और पुस्तक मेले जैसे आयोजन किए जाते हैं। गांवों में आंबेडकर की मूर्ति भी आपको अनेक प्रकार की मिलेगी। कही काले रंग, कहीं नीले रंग के कोट पहने आंबेडकर दिखेंगे। कहीं उन्होंने चश्मा पहन रखा है, कहीं नहीं भी पहन रखा है। लेकिन आंबेडकर चाहे जिस वेशभूषा में हों, उनके साहब हैं। उनके लिए साहब का मतलब कोई सत्ताधारी व्यक्ति नहीं, बल्कि वह ‘ज्ञानी व प्रेरणापरक व्यक्तित्व’ है, जो उनके जीवन के अंधेरे का ताला खोलने के लिए उन्हें ‘मास्टर की’ (गुरु किल्ली) देने की शक्ति रखता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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रामकुमार की कहानी ‘चेरी के पेड़’

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आज मूर्धन्य चित्रकार रामकुमार का निधन हो गया. 94 साल की भरपूर जिंदगी जीकर जाने वाले रामकुमार बहुत अच्छे कथाकार भी थे. वे हिंदी के महान लेखक निर्मल वर्मा के बड़े भाई थे. उनके अनेक समकालीन लेखक यह मानते थे कि निर्मल जी रामकुमार की परम्परा के लेखक थे. रामकुमार बाद में पेरिस चले गए और उन्होंने लेखन छोड़ दिया लेकिन उनके चित्रों की उदास रंगत वही थी जैसी निर्मल जी की कहानियों की. उनकी सम्पूर्ण कहानियां रेमाधव प्रकाशन से प्रकाशित हुई थी. लेकिन ऑनलाइन उनकी यही एक कहानी उपलब्ध हुई. उनको श्रद्धांजलि के साथ- मॉडरेटर
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फाटक पार करते ही जिस ओर सबसे पहले हमारा ध्‍यान गया, वे थे पेड़ों पर लटकते हुए अलूचों से मिलते-जुलते किसी फल के गुच्‍छे। मकान के भीतर घुसने के बदले हम उस ओर दौड़े। कई पेड़ थे जिन पर वे लटक रहे थे। परंतु उछल-उछल कर कूदने पर भी किसी के हाथ में एक भी दाना नहीं आ सका। मैं सबसे लंबा था, लेकिन मेरा हाथ भी उन्‍हें छूते-छूते रह जाता। हमारा शोर सुन कर बड़ी बहन भीतर से आईं।’यह तोड़ दीजिए, न जाने कौन-सा फल है! शायद अलूचे या आलूबुखारा या खूबानी…’ हम सब चिल्‍लाने लगे।बहन धीमी चाल से हमारी ओर आने लगीं। हमें क्रोध आया कि वे ऐसे मौके पर भाग कर क्‍यों नहीं आतीं। लेकिन भय था कि कहीं उनसे जल्‍दी आने के लिए कहें तो वे वापस न लौट जाएँ।

‘क्‍या हैं ये…।’ उन्‍होंने ऊपर पेड़ की ओर देखते हुए कहा।

‘शायद अलूचे ही हैं। तोड़ दीजिए जल्‍दी।’

‘कोई जंगली फल है शायद?’ वे बोलीं।

‘नहीं-नहीं जंगली नहीं है,’ हम चिल्‍लाए, ‘एक तोड़ कर मुझे दीजिए…’

हमारी ओर बिना ध्‍यान दिए वे ऊपर लटकते गुच्‍छों को देख रही थीं, फिर एक दाना तोड़ा और उसे घुमा-फिरा कर देखती रहीं। ‘पता नहीं क्‍या है? ऐसा फल तो कभी किसी पहाड़ पर देखा नहीं।’

हम उनके आस-पास एक दायरा बना कर खड़े हो गए थे और अब उस एक दाने को लेने के लिए छीना-झपटी करने लगे।

‘नहीं, यह खाना नहीं होगा। कौन जानता है, इसमें जहर हो! पहले माली से पूछेंगे।’ फिर मेरी ओर देख कर बोलीं, ‘सुनो, कोई नहीं तोड़ेगा इन्‍हें!’ यह कह कर वे फिर धीमी चाल से मकान की ओर चली गईं।

उनके आदेश का कोई विरोध नहीं कर सकता, यह सोच कर सब मन मसोस कर रह गए। लेकिन उस शाम सारे बाग में घूम-घूम कर हमने उन पेड़ों को गिना। दूसरे पेड़ भी थे लेकिन उनका महत्‍व नहीं के बराबर ही था। यह पहला मौका था कि किसी पहाड़ में अपने ही बाग में किसी फल के इतने पेड़ मिले हों। कभी एक-आध अलूचे, खूबानी या सेब का पेड़ मिल जाता था, या फिर करीब ही किसी दूसरे मकान में इन पेड़ों को देख कर चुपके से कभी कुछ तोड़ लेते, लेकिन इस बार अपने ही बाग में इतने पेड़… हमारे उत्‍साह की सीमा नहीं थी।

अंदर बहन ने वह दाना पिता के सामने रख कर कहा, ‘पता नहीं कौन-सा फल है? बाग में लगा है।’

पिता उसे देखते ही बोले, ‘यह तो चेरी है, अभी पकी नहीं।’

चेरी का नाम सुनते ही हमारा उत्‍साह और भी बढ़ गया। हमने आज तक चेरी का पेड़ नहीं देखा था और अब अपने ही बाग में पंद्रह-बीस चेरी के पेड़ है, जिन्‍हें तोड़ने से कोई नहीं रोकेगा, जिन पर पूर्ण रूप से हमारा अधिकार होगा।

हम उस एक विषय में इतने मग्‍न थे कि उस साल कमरों को ले कर झगड़ा नहीं हुआ। हर साल पहले दिन यह समस्‍या जब सामने आती – कौन-सा कमरा किसका होगा, तो हम आपस में झगड़ते थे, हाथापाई भी होती थी और गुस्‍से में पिता भी एक-आध को पीट देते थे। लेकिन इस बार बहन ने जहाँ जिसका सामान रख दिया, उसका विरोध किसी ने नहीं किया।

रात को बहन हमारे कमरे में आईं, मैं एक किताब में तस्‍वीरें देख रहा था।

‘सोया नहीं?’

‘नींद नहीं आई।’ मैं बोला। छोटे भाई-बहन सो गए थे।

‘मुझे भी नए घर में पहली रात को नींद नहीं आती।’

वे खिड़की के पास जा कर खड़ी हो गईं। खिड़की बंद थी लेकिन एक शीशा टूटा हुआ था जिसमें से वे बाहर झाँकने लगीं। दो महीने पूर्व जब से उनकी सगाई हुई वे बहुत चुप-चुप-सी रहने लगी थीं। अगले जाड़ों मे उनका विवाह हो जाएगा, उनके विवाह की कल्‍पना से ही हमारा उत्‍साह बढ़ जाता। लेकिन विवाह के बाद वे इस घर में नहीं रहेंगी, सोच दुख भी होता।

‘यह देखो।’ उन्‍होंने धीमे स्‍वर में कहा।

‘क्‍या है?’

‘इधर आओ?’ खिड़की के दूसरे शीशे से बाहर देखा, लेकिन अँधेरे में सामनेवाले पहाड़ के अतिरिक्‍त और कुछ दिखाई नहीं दिया।

उन्‍होंने धीरे से खिड़की की चिटखनी खोली और अपना सिर बाहर निकाल लिया।

मैंने फिर आकाश की ओर दे, मुझे भी लगा जैसे तारे बहुत नीचे उतर आए हों।

‘पहाड़ों पर तारे नजदीक दिखाई देते हैं। हम ऊँचाई पर आ जाते हैं न, इसीलिए।’

‘नहीं, यह बात नहीं है। पिछले साल मसूरी में वे इतने पास कभी दिखाई नहीं दिए, नैनीताल में…’

मुझे इस विषय में अधिक दिलचस्‍पी नहीं थी।

‘मैंने कहीं पढ़ा था कि यहाँ तारे बहुत पास दिखाई देते हैं।’ वे बोलीं।

खुली खिड़की से ठंडी हवा भीतर आ रही थी। मैं अपनी चारपाई पर आ गया और लिहाफ से अपना शरीर ढँक लिया। वे कुछ देर तक खिड़की पर झुकी रहीं, फिर अपने कमरे में चली गईं। मैं फिर तस्‍वीरें देखने लगा।

अगले दिन प्रातः उठते ही हम चेरी के पेड़ों के पास पहुँच गए। कोई किसी पेड़ के पास जा कर दूसरों को आवाज लगाता, ‘देखो, ऊपर की डाल पर चेरी कितनी पीली हो गई है।’ किस पेड़ की चेरी सबसे बड़ी हैं, किसकी छोटी इन सबकी जाँच-पड़ताल हमने तुरंत कर डाली। एक पेड़ की कुछ टहनियाँ नीचे की ओर झुकी हुई थीं, लेकिन बहुत उछलने के बावजूद हाथ उन तक नहीं पहुँचा। फिर छोटा भाई घुटनों के बल बैठा और मैं उसकी पीठ पर चढ़ कर चेरी तोड़ने लगा। केवल चार दाने ही हाथ में आए। एक-एक सबको दिया, लेकिन छोटी बहन के लिए नहीं बची। वह रोने लगी, मैंने उसे अपनी आधी चेरी देने का वायदा किया, लेकिन उसने इनकार कर दिया। वह बहन से शिकायत करेगी, यह धमकी दे कर वह रोती-रोती घर की ओर भागी।

कुछ देर बाद बहन हमारे पास आईं, ‘ये कच्‍ची चेरी क्‍यों तोड़ी? इन्‍हें खा कर क्‍या बीमार पड़ना है?’ फिर मेरी ओर देख कर बोलीं, ‘अगर किसी ने अब एक भी चेरी खाई, तो उसे कड़ी सजा मिलेगी। कच्‍चा फल तोड़ने में पाप चढ़ता है।’

वे लौट गईं। अब बहन के मना कर देने पर किसी को फिर चेरी खाने का साहस नहीं होगा। यदि छिप कर ऐसा किया भी और बहन को पता चल गया, तो उसका क्‍या परिणाम निकलेगा – इसकी कल्‍पना से ही डर लगने लगा। वे कभी किसी को पीटती नहीं थीं, अधिक क्रोध आने पर डाँटतीं भी नहीं, उनकी सजा होती थी – कसूरवार से बोलचाल बंद। यह सजा असहनीय बन जाती थी, मार-पीट और डाँट से भी अधिक, जिससे हम सब घबराते थे।

खाते समय जब साथ बैठते तो हम इसी एक विषय पर बातें करते थे।

‘अब तो गुलाबी होने लगी हैं।’

‘ऊपर की डालियों पर तो लाल हो गई हैं।’

‘अब दो हफ्तों तक तैयार हो जाएँगी, फिर जी भर कर खाना।’ पिता कहते।

बहन कहतीं, ‘इनका बस चले तो ये कच्‍ची ही खा जाएँ। इस बार तो ये घर से बाहर ही नहीं निकलते। बस, चेरी-चेरी औार कोई बात ही नहीं।’

माँ को बहन के विवाह की चिंता लगी हुई थी। जब घर का काम न रहता तो पिता के साथ वे इस विषय पर कितनी ही बातें किया करती थीं। पिता एक कापी में माँ की बतलाई हुई लिस्‍टें लिखा करते थे – क्‍या सामान मँगवाना होगा, कितना गहना बनेगा, कितनी साड़ियाँ, बारात कहाँ ठहरेगी?

इस चर्चा से बहन का चेहरा और भी गंभीर हो आता।

हर चेरी के पेड़ के तने पर मैंने चाकू की नोक से सबके नाम लिख दिए थे। पेड़ पर जिसका नाम होगा, वही उसकी चेरी तोड़ेगा और खाएगा। सब अपने-अपने पेड़ों के नीचे खड़े हो कर अपनी चेरी की प्रशंसा करते और दूसरे पेड़ों की निंदा। हर एक का दावा रहता कि उसके पेड़ों की चेरी बहुत तेजी से पक रही है।

उस दिन एक व्‍यक्ति हमारे बाग में आया और चेरी के पेड़ों के चक्‍कर लगाने लगा। हर पेड़ के पास जाता और शाखाओं को इधर-उधर हटा कर ऊपरी सिरे तक देखता, कभी एक पेड़ की चेरी तोड़ कर खाता, कभी दूसरे पेड़ की। इतना बेधड़क हो कर वह बाग में घूम रहा था जैसे यह उसी का घर हो। हम झुंड बना कर उसकी ओर देखते रहे, उसके व्‍यवहार पर क्रोध आ रहा था, परंतु उससे कुछ भी कहने का साहस हममें से किसी में नहीं था। अपना काम खत्म करके उसकी नजर हमारी ओर गई और वह मुस्‍कराने लगा जिसमें हमें उसके ऊपर के दो बड़े-बड़े पीले-से दाँत दिखाई दिए।

‘आप लोग इस बँगले मे रहते हैं?’

‘हाँ, यह हमारा मकान है।’ मैने साहस से कहा।

पिता से मिलने की इच्‍छा प्रकट करने पर हम उसे पितावाले कमरे में ले गए। हमें उसके चेहरे से घृणा हो रही थी और यह जानने का कौतूहल भी था कि वह कौन है। उसके जाने के बाद हम पिता के पास गए।

‘यह ठेकेदार था जिसने चेरी के पेड़ मकान-मालिक से खरीद लिए हैं। कल से उसका आदमी इन पेड़ों की रखवाली करेगा।’ पिता बोले।

हम में से कोई उस ठेके की बात समझा, कोई समझ नहीं सका।

‘हम तो समझ रहे थे कि ये हमारे पेड़ हैं, हमारे बाग के अंदर हैं, कोई दूसरा उन्‍हें कैसे खरीद सकता है।’ मैं बोला।

पिता हँसने लगे, ‘हमने मकान किराए पर लिया है। पेड़ों पर मकान-मालिक का ही हक रहता है।’

‘अब हम चेरी नहीं तोड़ सकते हैं?’

‘चेरी ठेकेदार की हैं, हम कैसे तोड़ सकते हैं?’

उस रात को हममें से किसी ने भी चेरी के विषय मे एक भी शब्‍द नहीं कहा। किसी ने भूले से कुछ कहा तो सबको चुप देख कर उसे अपनी गलती का तुरंत अहसास हो गया। मुझे बहुत देर तक नींद नहीं आई। खिड़की से बाहर बाग की ओर देखा, चेरी के छोटे-छोटे पेड़ भार से झुके हुए सोए जान पड़े। जिन पर कल हम अपना अधिकार समझते थे, वे अब अपने नहीं जान पड़े। मैं बहन से इस विषय में और भी कई बातें पूछना चाहता था, परंतु वे उस रात हमारे कमरे में नहीं आर्इं।

अगले दिन सुबह ठेकेदार के साथ एक बूढ़ा भी आया। वे अपने साथ रस्सियों के ढेर, टूटे हुए पुराने कनस्‍तर और बाँस की चटाइयाँ लाए। बाग के दूसरे सिरे पर चटाइयों से उन दोनों ने एक झोंपड़ी के भीतर ए‍क दरी बिछाई, एक कोने में बूढ़े ने हुक्‍का रख दिया। हम थोड़ी दूर से सब कुछ देखते रहे। दो चटाइयों को मिला कर झोंपड़ी जितनी जल्‍दी तैयार हो गई, उससे हमें बहुत आश्‍चर्य हुआ। वे दोनों कभी-कभी हमारी ओर देख कर मुस्कराने लगते लकिन हमने उनका कोई जवाब नहीं दिया। छोटे भाई ने कहा कि हमारे शत्रु हैं और हमारी ही जमीन पर अपने खेमे गाड़ रहे हैं।

कनस्‍तरों में छोटे-छोटे पत्‍थर भरे गए और रस्सियों की सहायता से उन्‍हें कुछ पेड़ों पर बाँध दिया गया। उन रस्सियों के सिरे झोंपड़ी के पास एक खूँटे में बाँध दिए गए। बूढ़ा रस्‍सी के सिरे को झटके के साथ हिलाता तो कनस्‍तर में पड़े पत्‍थर बजने लगते और एक कर्कश-सी आवाज सारे बाग में गूँज उठती। हमारा कौतूहल बढ़ता जा रहा था।

कुछ देर बाद सारा प्रबंध करके ठेकेदार चला गया। रह गया वह बूढ़ा जो झोंपड़ी के पास एक पत्‍थर पर बैठा हुक्‍का गुड़गुड़ाने लगा। ठेकेदार की अपेक्षा उस बूढ़े के चेहरे पर हमें मैत्री भाव दिखाई दिया। हम धीरे-धीरे उसके पास पहुँच गए। उसने बड़े प्‍यार से हमें अपने पास बिठाया। हमारे पूछने पर उसने बतलाया कि ये कनस्‍तर परिंदों को भगाने के लिए बाँधे गए हैं, बहुत-से परिंदे – विशेषकर बुलबुल – चेरी पर चोंचें मारते हैं जिससे वह सड़ जाती है। अगर उन्‍हें न भगाया जाए तो पेड़-के-पेड़ खत्‍म हो सकते हैं।

‘लेकिन कनस्‍तर सब चेरी के पेड़ों पर क्‍यों नहीं बाँधे गए?’

‘चार-पाँच पेड़ों के लिए एक कनस्‍तर की आवाज काफी है।’ वह बोला।

‘क्‍या तुम रात को भी यहीं सोओगे?’

‘हाँ, रात को भी डर रहता है कि कोई आदमी चेरी न तोड़ ले।’

सबसे छोटी बहन का ध्‍यान हुक्‍के की ओर था। उसने पूछा, ‘यह क्‍या है?’

हम हँस पड़े। ‘यह इनकी सिगरेट है,’ छोटा भाई बोला।

धीरे-धीरे बूढ़े की उपस्थिति से सब अभ्‍यस्‍त हो गए। रस्‍सी खींच कर कनस्‍तरों को बजाना, ‘हा-हू,हा-हू’ या सीटी बजा कर परिंदों को उड़ाना – इन सब आवाजों को सुनने की आदत पड़ गई। चेरी के भार से डालियाँ इतनी झुक गई थीं कि उछल कर आसानी से मैं दो-चार दाने तोड़ सकता था, परंतु बूढ़े की नजरें हर समय चौकन्‍नी हो कर चारों ओर घूमती रहती, इसलिए साहस नहीं होता था।

माँ दूसरे-तीसरे दिन बूढ़े को चाय का गिलास भिजवा देतीं। वह भी कभी-कभी कुछ पकी हुई चेरी तोड़ कर हमें दे देता। लेकिन पेड़ पर चढ़ कर तोड़ना, फिर खाना – जिसकी हमने शुरू में कल्‍पना की थी, वह साध मन में ही रह गई। जब कभी कोई चिड़िया रेत पर चेरी खा रही होती और बूढ़े को पता न चलता तो हमें बहुत प्रसन्‍नता होती। हमारा वश चलता तो सारे पेड़ परिंदों का खिला देते। लेकिन चिड़ियाँ चुपचाप चेरी नहीं खातीं, एक-दो दाने खा कर जब वे दूसरी डाल पर उड़तीं तो बूढ़े को पता चल जाता और वह रस्‍सी खींच कर कनस्‍तर बजा देता।

बहन दिन-भर किसी पेड़ के नीचे कुरसी बिछा कर हम में से किसी का पुलोवर बुनती रहतीं। इस साल गरमियों की छुटि्टयों में उन्‍होंने किसी किताब को हाथ तक नहीं लगाया, नहीं तो हर बार वे अपने कोर्स की कोई किताब पढ़ती रहती थीं। कुछ दिन पूर्व उनका इंटरमीडिएट का परिणाम निकला था और वे फर्स्‍ट डिवीजन में पास हुई थीं। वे और पढ़ना चाहती थीं परंतु माँ को उनके विवाह की जल्‍दी थी।

हमारे घर से थोड़ी दूर एक चश्‍मा बहता था जहाँ हम दूसरे-तीसरे दिन नहाने चले जाते थे। कभी बाजार, कभी सिनेमा, कभी पार्क-धीरे-धीरे हमारी दिनचर्या में दूसरे आकर्षण आते गए। यह शायद पहला अवसर था कि बड़ी बहन ने किसी में भाग नहीं लिया। पहाड़ों में वे हमारे बहुत करीब आ जाती थीं। रात को खाने के बाद चारपाइयों में दुबके हम उनसे कहानियाँ सुना करते थे, शाम को सबको अपने साथ घुमाने ले जाती थीं और पि‍कनिकों की तो कोई गिनती ही नहीं होती थी। इस बार वे बहुत कम घर से निकलीं और जब बाहर जातीं भी तो अकेली ही जातीं। माँ की किसी बात का असर उन पर नहीं हुआ।

एक दिन सुबह आँख खुलते ही बाहर बाग में कई लोगों की आवाजें सुनाई दीं। मैं चारपाई पर लेटा-लेटा कुछ दूर तक आश्‍चर्य से इस शोरगुल के बारे में ही सोचता रहा। खिड़की से झाँक कर बाहर देखने ही वाला था जब बहन किसी काम से कमरे में आई।

‘यह शोर कैसा है?’ मैंने पूछा।

‘वे लोग आ गए।’

‘कौन लोग?’ मैंने आश्‍चर्य से पूछा।

‘वही, ठेकेदार के आदमी, चेरी तोड़ने के लिए,’ वे बोलीं।

मैं झट से बाहर दौड़ा। पेड़ों पर टोकरियाँ लिए ठेकेदार के आदमी चढ़े हुए थे। दोनों हाथों से ऊपर-नीचे की शाखाओं से चेरी तोड़ कर टोकरियों में भरते जा रहे थे। किसी दूर की शाखा को पकड़ कर अपने पास घसीटने पर ‘चर्र-चर्र’ की आवाजें गूँजने लगतीं। सारे बाग में शोरगुल था।

हम धीरे-धीरे बाग के चक्‍कर लगाने लगे। हर पेड़ के पास कुछ देर तक खडे़ रह कर ऊपर चढ़े आदमी को देखते। लग रहा था जैसे आज हमारी पराजय का अंतिम दिन हो।

हर पेड़ के नीचे काफी चेरी गिरी हुई थीं। छोटी बहन ने लपक कर एक गुच्‍छा उठा लिया तो भाई ने उसके हाथ से छीन कर फेंक दिया, ‘जानती नहीं कि बहन ने क्‍या कहा है?’

‘कोई एक भी चेरी मुँह में नहीं रखेगा।’

झोंपड़ी के पास ठेकेदार अन्‍य चार-पाँच व्‍यक्तियों के साथ चुन-चुन कर चेरी एक पेटी में रख रहा था। उसके पास ही कई खाली पेटियाँ पड़ी थीं और दरी पर दिखाई दिया तोड़ी हुई चेरियों का ढेर। वे सब बहुत तेजी से काम कर रहे थे। हमें खड़े देख कर ठेकेदार ने एक-एक मुट्ठी चेरी हम सबको देनी चाही, लेकिन हमने इन्‍कार कर दिया।

हम लोग बाग में ही घूमते रहे। घर से कहीं बाहर जाने की इच्‍छा नहीं हुई। चेरी के पेड़ धीरे-धीरे खाली हुए जा रहे थे। उस दिन कनस्‍तर बजाने की जरूरत नहीं पड़ी। बुलबुल और दूसरे पक्षी पेड़ों के ऊपर ही चक्‍कर लगाते रहे, किसी पेड़ पर बैठने का साहस नहीं था।

‘यह देखो, उस पेड़ के नीचे क्‍या पड़ा है?’ छोटी बहन ने एक पेड़ की ओर संकेत करके कहा।

हमने उस ओर देखा, परंतु जान नहीं सके कि वह क्‍या है? पास जाने पर पेड़ के नीचे एक मरी हुई बुलबुल दिखाई दी। उसकी गर्दन पर खून जमा हुआ था। हम कुछ देर तक चुपचाप देखते रहे। मैंने उसका पाँव पकड़ कर हिलाया, लेकिन उसमें जान बाकी नहीं बची थी।

‘यह कैसे मर गई?’

‘किसी ने इसकी गर्दन पर पत्‍थर मारा है।’

‘इन्‍हीं लोगों ने मारा होगा।’

‘तभी कोई बुलबुल पेड़ पर नहीं बैठ रही।’

हमने ठेकेदार और उसके आदमियों को जी भर कर गालियाँ दीं। उन लोगों पर पहले ही बहुत क्रोध आ रहा था, अब बुलबुल की हत्‍या देख कर तो उनसे बदला लेने की भावना बहुत तीव्र हो उठी। कितनी ही योजनाएँ बनाईं, परंतु हर बार कोई कमी उसमें नजर आ जाती जिससे उसे अधूरा ही छोड़ देना पड़ता। फिर यह सोच कर कि यदि यह बुलबुल यहीं पड़ी रही तो कोई बिल्ली या कुत्ता इसे खा जाएगा, हमने पास ही एक गड्ढा खोदा और उसमें बुलबुल को लिटा कर ऊपर से मिट्टी डाल दी।

उस दिन बड़ी बहन ने बाग में पैर तक नहीं रखा। उन्‍होंने न मरी हुई बुलबुल देखी, न पेड़ों से चेरी का टूटना। उन्‍हें पेड़ों से फल तोड़ना अच्‍छा नहीं लगता।

‘फूल, पौधों और फलों में भी जान होती है। उन्‍हें तोड़ना भी उतना ही बुरा है जितना किसी जानवर को मारना।’ वे हमसे कहा करती थीं।

वे लोग शाम को बहुत देर तक चेरी तोड़ते रहे। फिर एक लारी रुकी जिसमें सब पेटियाँ लाद दी गईं और वे सब चले गए। बाग में अचानक सन्नाटा हो गया, रह गए केवल चेरी के नंगे पेड़, जिन पर एक भी चेरी दिखाई नहीं देती थी। हवा तेज थी और रह-रह कर पेड़ों की शाखाएँ हिल उठती थीं जैसे आखिरी साँसे ले रही हों। नीचे बिखरी हुई थीं अनगिनत पत्तियाँ और कुछ डालियाँ जो चेरी तोड़ते वक्‍त नीचे गिर गई थीं। शाम हमें बहुत सूनी-सूनी-सी लगी और पेड़ों से डर-सा लगने लगा।

खाते वक्‍त हम दिन भर की घटनाओं की चर्चा करते रहे, मरी हुई बुलबुल का कि़स्‍सा भी सुनाया। लेकिन बड़ी बहन ने जरा भी दिलचस्‍पी नहीं ली, उनके मुँह से एक भी शब्‍द नहीं निकला। लगा जैसे वे हमारी बातें न सुन रही हों। खाना भी उन्‍होंने बहुत कम खाया।

रात को देर तक नींद नहीं आई, न कोई किताब पढ़ने में ही मन लगा। छोटे भाई-बहन दिन भर की थकान से चारपाई पर लेटते ही सो गए। थकान से मेरा शरीर भी टूट रहा था, लेकिन बहुत कोशिश करने पर भी नींद नहीं आ सकी।

कुछ देर बाद मैं खिड़की के पास जा कर खड़ा हो गया। अचानक आकाश में बहुत-से तारे एक साथ चमक उठे। तारे यहाँ सचमुच बहुत करीब दिखाई देते हैं। क्‍यों? केवल छह हजार फुट ही तो ऊँचा यह स्‍थान है और तारे तो मीलों दूर हैं। फिर इतने पास कैसे दिखाई देते हैं? मैं सोचने लगा। तभी बाग में पेड़ों के नीचे किसी की परछाईं दिखाई दी। मुझे डर-सा लगा। लेकिन कुछ देर बाद पता लगा कि वे बहन हैं। वे अभी तक सोईं नहीं…

मैं भी दबे पाँव बाहर आया। वे चेरी के पेड़ों के नीचे टहल रही थीं, उनका आँचल नीचे तक झूल रहा था।

‘अभी तक सोए नहीं?’ बिना मेरी ओर देखे उन्‍होंने पूछा।

उनकी आवाज सुन कर मैं चौंक पड़ा। मेरा अनुमान था कि उन्‍हें मेरे बाहर आने का पता नहीं चला। मैंने धीमे स्‍वर में कहा, ‘नहीं, अभी नींद नहीं आई।’

उनके पैरों के नीचे पत्‍ते दबते तो सर्र-सर्र जैसी आवाज रात के सन्‍नाटे में गूँज जाती। हवा और तेज हो गई थी।

‘आज बहुत अँधेरा है।’ मैं बोला।

‘आजकल अँधेरी रातें हैं।’

कभी-कभी अपनी नजर ऊपर उठा कर वे किसी पेड़ को देखतीं जिसकी शाखाओं के बीच से आकाश में चमकते तारे दिखाई देते।

‘आज तारे बहुत करीब दिखाई दे रहे हैं।’ मैंने कहा।

उन्‍होंने कोई उत्‍तर नहीं दिया।

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सोचा ज़्यादा किया कम उर्फ एक गँजेड़ी का आत्मालाप

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विमल चन्द्र पाण्डेय की की लम्बी कविता. लम्बी कविता का नैरेटिव साध पाना आसान नहीं होता. स्ट्रीम ऑफ़ कन्सशनेस की तीव्रता का थामे हुए कविता के माध्यम से एक दौर की टूटन को बयान कर पाना आसान नहीं होता. बहुत दिनों बाद मैंने एक ऐसी लम्बी कविता पढ़ी जिसके आत्मालाप में अपना आत्मालाप सुनाई देता रहा. विमल जी साहित्य से लेकर सिनेमा तक निरंतर प्रयोग करते रहते हैं एक सच्चे कलाकार की तरह. यह उनकी अभिव्यक्ति का नया रूप है जो पढ़े जाने और बहस की मांग करता है- मॉडरेटर
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सोचा ज़्यादा किया कम उर्फ एक गँजेड़ी का आत्मालाप
सोचता ज़्यादा हूं करता हूं बेहद कम
जितना जीवन जीता हूं उससे अधिक जीता हूं वहम
इस तरह वहम भरे विचारों में एक मुकम्मल अलग इंसान बना हूं
जिसका पूरा व्यक्तित्व सोचते हुये बना है सिर्फ मेरी सोच में
नशा न गाँजे में है न रोच में
अपने ऊर्वर मष्तिष्क की नशीली कोशिकाओं को हम मिलाते हैं तम्बाकू में
और पीने लगते हैं
जिस क्षण अवसाद की बारात दरवाजे़ लगती है
हम पीठ फेर सहज जीवन जीने लगते हैं
जितने वादे पूरे करते हैं उनसे बहुत ज्यादा हैं वे
जिनसे हम मुकरते हैं
हमारा इरादा सीधा होता है
पर हम बातें उल्टी करते हैं
**
तीन भाइयों वाले पिता के संयुक्त परिवार में आपस में हम नहीं निभा पाये भाईचारा
उसी दौरान हमने निबंधों में कहा पूरा देश है परिवार हमारा
बातों की शर्म से निकलने में किये अकेले में कुछ गुनाह
और सोचने की कोई सजा नहीं होती वाले सूत्र से बच निकले
गुनाह सोचने की कोई सजा होती तो अब तक हम फाँसी पर लटक गये होते
जंगल में भटके राहगीर को चिलम पिला कर भूत ने कहा
हम मरे न होते तो तुम भटक गये होते
**
तुम मुझे प्रेम करती हो
तुम्हारे साथ की अंतरंग रातों में भी मैं तुम्हें देता हूं सिर्फ धोखे
तुम आधी रात को उठी तो तुम्हारे बाथरुम में फिसल कर मर जाने के बारे में सोचा
मैंने अपने ऊपर अत्याचार मुझे फौरी राहत देता है
तुम्हें सताने के खयाल से ज्यादा उन्मादी है ये
जो मेरी ज्यादा अपनी है और ज्यादा परिचित
परसों सड़क पर चाय पीने निकला
तो एक छोटी लड़की ने पूछा मुझसे
मुझे सड़क पार करा देंगे क्या अंकल
उसी वक्त मेरे सीने में एक रुका हुआ दर्द उठा
जिसे तीन रात पहले उठना था
**
दिनों को गुज़ार कर उन्हें जीने जैसी ख़ुशी से ज़्यादा है उन्हें नष्ट करने का संतोष
 इच्छाओं की चुभन भरी रातों में निर्विघ्न नींद वालों से ईर्ष्या होती है और रोष
 मेरा कोई धर्म नहीं, कोई कुल गोत्र नहीं
 मैं अपने जैसे चेहरे खोजता हूँ सड़कों पर
जो अपनी रातों के जल्लाद हों
जिनकी ड्यूटी सुबह सबके उठने से तमाम होती हो
रात भर धुंएं की नशीली गंध में डूबे हम
बिना बेचैनी रात भर सोने वालों की नींद पर कलपते हैं, रोते हैं
फिर रात भर सोने वालों के हाथ में सौंप कर पृथ्वी सुरक्षित
सुबह चैन की नींद सोते हैं
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“लगातार सेवन मृत्यु के निकट ले जाता है”
ये कहा कई आकस्मिक गंजेड़ियों ने और हमारी आखिरी चिलम चांदी कर चलते बने
हमने सन्तों से अपनी तुलना की
जो मृत्यु के निकट पहुंचने को बरसों तक
ईश्वर तक पहुंचने से कन्फ्यूज करते रहे
हमें मृत्यु से भय नहीं था
हमारी आंतरिक और सतत चीत्कार
सिर्फ अपने प्रिय चेहरों से दूर होने की थी
गांजा फुरा जाने पर सबने थोड़ी देर एक दूसरे के खाली चेहरे देखे
फिर एक उठा और दीवार के अंधेरे ताखे में हाथ डालता हुआ बोला
“ये आख़िरी पुड़िया सबसे बुरे दिनों के लिए बचा रखी थी मैंने”
सभी ख़ुश होते हैं कि अगली किश्तों की खुराक मिल गयी है
सभी अफ़सोस में हैं कि ये उनके सबसे बुरे दिन हैं
**
बहुत सारी स्त्रियाँ हैं जिनसे मैं प्रेम करना चाहता हूं
एक ही जीवन और एक ही याददाश्त होने का अफ़सोस सिर्फ इसीलिये होता है
प्रेम की भीतरी सतह में अपनी वासना भी छिपा रखी है मैंने
वो मैं अभी आपको दिखाना नहीं चाहता
मेरी वासना ही मेरा असली चेहरा है
जिन पर मेरी नैतिकताओं का नितांत पहरा है
लेकिन मैं ये भी चाहता हूँ जो औरतें मेरे पास आएं वे उसी छिपे चेहरे के लिए उत्सुक होकर आयें
मुझे सच की आड़ में झूठ का व्यवहार कभी पसंद नहीं रहा
इनकार की लंबी श्रृंखलाओं से गुजर कर
मेरी प्रेमिकाएं जब मेरे साथ में डूबीं तो उन्होंने कहा
“हमें बिगाड़ दिया तुमने”
इस बात पर मुझे ख़ुशी हुई
जब मैं विद्यार्थी था तो बिगड़ा विद्यार्थी था
कर्मचारी हुआ तो बिगड़ा कर्मचारी
अब मैं एक बिगड़ा हुआ कवि हूँ और ये समझता हूँ
जो बिगड़ते और बिगाड़ते हैं
वे ही जीवन के मधुर रसों के सम्भावित अधिकारी होते हैं
जो बिगड़े बिना बने हैं
वे किसी और के लिए उन रसों की बाल्टी अपने सिर पर ढोते हैं
**
जो आये हमारी महफिल में सब हुनरमंद थे
 वे हमें कुछ सिखाना चाहते थे
जो हुनर बाहर कोई देखने को तैयार न था
वो हमें दिखाना चाहते थे
हमने कलाओं को जीने वाले देखे
कलाओं के शिकारी भी
कलाओं के उपासक देखे
कलाओं के बलात्कारी भी
उपासक जाते हुए रिक्शे का भाड़ा हमसे ले गए
बलात्कारियों ने हमें चाय के साथ टोस्ट खिलाया
**
सारी पसंदीदा बातों के कई चक्र समाप्त होने के बाद
कभी-कभी वे बातें भी करनी पड़ती हैं जो नापसंद होती हैं
राजनीति का शिकार गंजेड़ी और समूह बचना चाहता है
राजनीति पर बात करने से
उनकी इस सावधानी में उनके पुराने और अनुभवी होने का पता चलता है
कोई अपने दुर्दिन में अपराध का भागी नहीं होना चाहता
राजनीति पर बात करना अपराध हो गया है
ये तब से हुआ है जब से अपराध पर बात कर के राजनीति करने का
हमने स्वागत किया है
**
ऐसा नहीं कि हमें रोका टोका डाँटा और दरेरा नहीं गया
ऐसा नहीं कि हमारे शुभचिंतक नहीं थे
दोस्तों ने हमें रोका और कहा कि स्वस्थ जीवन जरूरी है
देश की तरक्की के लिए, अपने परिवार के लिए
एक स्वस्थ समाज और विकसित संसार के लिए
युवा ऐसा हो जो माहौल में क्रांति ले आये
देश को फिर से सोने की चिड़िया बनाये
हम इन बातों पर विश्वास करने ही वाले थे कि वे गये
और मंदिर बनाने का दावा करने वाली पार्टी को वोट दे आये
**
हम समय से आंखें मूंदे रहना चाहते थे
हम समझ गये थे कि नक्कारखाने की रेंज
बढ़ते-बढ़ते संसद तक को पूरी तरह गिरफ्त में ले चुकी है
हम तूती होने पर विवश थे
अखबारों के पास बड़े मुद्दे थे
पत्रिकाओं में सबसे उल्लेखनीय नवरत्नों के और सरकारी विज्ञापन थे
समाचार चैनलों पर आने से बचने की कोशिश
अपने जीवन को बचाने की मुहिम थी
एक दोस्त ने एक चैनल पर कुछ सरकार विरोधी बातें कहीं डिबेट में
फिर लौटते हुए डीटीसी की एसी बस से लाजपत नगर में कुचला गया
हमने इसे दुर्घटना माना और मैगी बनने के अंतराल में
दो मिनट का मौन रखा उसके लिए
पेट भरा रहे तो भी
जब गाँजे की पिनक उठती है
भूख जमहाइयाँ लेती जाग जाती है
ये बात सरकार के बारे में नहीं कही जा रही
**
प्रेम पर ढेर सारी कविताएं थीं
जैसे भक्ति करने के लिए ढेर सारे आरती संग्रह और गाने के लिए ढेर सारे पैरोडी भजन
जहाँ एनकाउंटर हुआ सलीम शेख का
उससे कुछ दूरी पर बैठे थे पीर पराई जानने वाले वैष्णवजन
अजान के बाद एक बच्ची की लाश मिली इमाम के मकान में
सन्डे की प्रेयर के बाद एक लड़की लटकी मिली अपनी केक की दुकान में
न प्रेम था कहीं दुनिया में न कोई किसी की भक्ति में लीन था
ताक़त ही सबका स्वप्न थी पैसा ही सबका दीन था
डर समाया था कवियों चित्रकारों और लेखकों में
कोई कभी भी मारा जा सकता था
किसी को भी कॉलर पकड़ चलती गाड़ी से उतारा जा सकता था
कवि जिस धर्म में पैदा हुआ था उस पर बात करना चाहता था
 मगर इसके लिए लाइसेंस लेना पड़ता था
रचनाकारों का कुछ भी बोलना सरकार की आंखों में लगातार गड़ता था
कवि इतने डरे थे कि अपने धर्म के रखवालों की कारस्तानी लिख कर
दूसरे धर्मों की बातों से इसे बैलेंस करते थे
जो नहीं करते थे
वे इतनी बुरी मौत मरते थे
कि उनके बच्चों को उसूल और सच्चाई जैसे शब्द
जीवन भर अखरते थे
**
गांजे के नशे में किसी ने कोई मूर्खता भरी बात कही
इसका कोई आग्रह नहीं था कि बात गलत है या सही
एक ठहाका उठा और दूसरे की आवाज आयी
“इस बार का माल उच्च कोटि का है”
जिन दिनों शहर में गुणवत्तायुक्त गांजे की कमी थी
 कुछ नेता मंत्री और जनप्रतिनिधि लगातार मूर्खता और क्रूरता भरी बातें
अपने मक्कार मुँह से फेंक रहे थे फेन की तरह
सरकार जनता के गले से आवाज़ खींच रही थी
कोई उठाईगिरा झपटता हो सोने की चेन की तरह
“कोई सामान्य इंसान ऐसा कैसे बोल सकता है सोच सकता है”
जैसे सवालों में हम डूबे तो हमें अचानक पता चला
सरकार के नुमाइंदों ने जो माल पिया है वो सबसे उच्च कोटि का है
हम भी उसकी खोज कर रहे हैं
आप सरकार से अपनी समस्याएं न बताएं
सरकार की रुचि न पानी में है न प्यास में है
सरकार अच्छे माल की तलाश में है
**
कुछ साल पहले तक अपनी दिनचर्या पर कोफ्त होती थी
सिर्फ अपनी ही दुनिया में खोए रहने पर मलाल
 देश दुनिया में उठ रहे थे ज्वलंत सवाल
लेकिन हम उनकी परवाह किस तरह करते
जब दोस्तों तक में कोई न बचा था हमारा पुरसाहाल
अधिकारों और कर्तव्यों की बात करने वाला देश
धीरे-धीरे बलात्कारियों के देश में बदल रहा था
अपराधियों का समूह नव-अविष्कृत हथियार तिरंगे की ओट में चल रहा था
देश किसका है कौन असली देशभक्त है
ये बातें मरी हुई देह की तरह उठायी जा रही थीं
रक्त की शुद्धता और तलवार पर अधिकार जैसी बातों के बीच
असली बातें क्रूरता से दबायी जा रही थीं
हमारे देखते-देखते देश विकृति की प्रयोगशाला बन रहा था
हमें एक धर्म दिया गया था
जिसपे हमें गर्व करना था
हम या तो शर्म करते हुए बाहर निकल आते सड़कों पर
या फिर गर्व से कहीं मर जाते
अच्छा हुआ हम गंजेड़ी हुए
जहाँ जाते
चुपचाप एक कोने में पसर जाते
**
गंजेड़ियों की बातों को ध्यान से सुनना चाहिए
अब बिना मतलब की बातों में ही अर्थ निकलने की संभावना है
ये बात अपने नॉन-गंजेड़ी मित्रों से हंस कर कही हमने
और नशे में वहीं सो गए
हमारी बातों को गलत सन्दर्भ में लेने के आदी
मित्रों ने लगाए समाचार चैनल
और चीखते पत्रकारों की भंगिमाओं में खो गए
नींदों में हमने सपने देखे
कभी हमने लुकारा लगा दिया संसार में
सबके साथ ख़ुद भी उस आग में झुलस गये, जल गये
कभी हम भीड़ से जनता बने
एक हाथ में वोटर आईडी कार्ड और दूसरी में काग़ज़ की एक पर्ची लिये
प्राथमिक विद्यालय की तरफ़ निकल गये

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चार्ली चैपलिन की जयंती पर विशेष

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आज चार्ली चैपलिन की जयंती है. ऐसे में उनकी फिल्म ‘द किड’ को याद किया है युवा फिल्म अध्येता सैयद एस. तौहीद ने. आजकल बच्चों को लेकर जिस तरह हमारे समाज की संवेदना छीजती जा रही है वैसे में इस फिल्म को याद करना प्रासंगिक भी है- मॉडरेटर

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चार्ली चैपलिन की The Kid मानवीय रिश्तो की तपिस का बेहतरीन उदाहरण थी.फ़िल्म एक महान संदेश picture with a smile—and perhaps a tear’ से शुरू होती है.मानवीय संवेदनाओ की यह प्रस्तुति चैपलिन की यादगार
फिल्मों में से एक थी .इसे आपकी पहली फुल लेंथ फीचर फ़िल्म माना जाता है.बीस दशक की महानतम फिल्मों में शुमार यह चार्ली की यादगार पेशकश थी.आपने कामेडी व नाटकीयता का दिलचस्प मिश्रण नही देखा हो तो इसे देखना
चाहिए.आवारा बेफिकरे ट्रांप के जिम्मेदार बनने की कहानी.नाटकीयता का पहलू होने से फ़िल्म की समय सीमा बढ़ गयी थी.आपकी शार्ट फिल्में आवारा अंदाज पर ज्यादा आश्रित थी.उस निराले अंदाज़ के साथ यहां मानवीयता का संदेश भी
है.ओपनिंग संदेश विषयवस्तु का दर्पण..इस प्रयोग से बनी फिल्मों में शुरुआत से रूचि बन जाती है.यह चलन लोकप्रिय भी हुआ.फ़िल्म की थीम बयान करने का वो नायब तरीका था.चैपलिन की The Kid इसका बेहतरीन उदाहरण थी…ट्रांप की आवारा लेकिन उपयोगी दुनिया में ले जाने का सादा सच्चा स्पर्शमय जरिया.चैपलिन के हास्य व्यंग्य व तमाश कलाकारी का नमूना.वो अनुभव जिसमे हमारा प्रिय ट्रांप अपने बीते वक्त से मुलाकात कर रहा था. लावारिस मासूम में उन्हें अपना बचपन मिला था.आवरगी व तंगी के बावजूद लावारिस मिले मासूम को अपने से अलग करना गंवारा न किया.कथा में हास्य रस ट्रांप के रिपेयरिंग रोजगार से जुडा था.हर उम्र के लोगों को आहलादित करने वाला कलेवर.आर्थिक तंगी में भी खुशनुमा बेफिक्र जिंदगी गुजारने का फन दिखाती कहानी.बीस दशक के उत्तरार्ध में रिलीज यह फ़िल्म अपने जमाने में सबसे लोकप्रिय रही थी.

समय सीमा कम होने से पटकथा सीधे कहानी पर थी.मां-बाप द्वारा त्याग दिए गए लावारिस बच्चे की कहानी.बेवफा प्रेमी एवं अस्पताल से मायूस किस्मत की मारी मां Edna purviance अपने नवजात को दुनिया हवाले कर जाने को मजबूर
मां की कहानी.कोई सहारा मिल जायेगा कि उम्मीद में शिशु को खुद से अलग कर दिया.बदनामी का डर शायद उसे यह सब करने को कह गया.शायद आगे जाकर यही बच्चा किसी की आंखो का तारा बने.उसे अंदाज़ा था कि वो बच्चे को अपना नाम नहीं दे सकती..नया कल देने के लिए उसे त्याग देना ठीक लगा.उम्मीद थी कि बच्चे का कल ठीक होगा.एक कोठी सामने खड़ी गाड़ी में उसे रख चली गयी.लेकिन क़िस्मत को अलग ही गंवारा था..गाड़ी चोर उडा ले गए.यह उठाईगिरे भला किस पर तरस खाने वाले थे.बच्चे को गाडी से निकाल कूड़ेदान पर छोड निकल लिए.समाज को सताने वालों का खुशमिजाज ट्रांप से कभी तुलना नहीं करें.इत्तेफाक से वो नवजात वहां से गुजर रहे ट्रांप को दिखाई पड गया.मज़बूरी के कारण  फिलवक्त वो इस मुसीबत को अपनाना नहीं चाहता था.एक दो बार दुसरे के हवाले कर जिम्मेदारी से भागने की फ़िराक में रहा.लेकिन चाहकर भी उससे अलग नही हो प रहा था.शायद खुदा ने बच्चे की जिम्मेदारी उसे ही दे डाली थी.शिशु के पास से मिला संदेश कि जिसमे लावारिस का ख्याल रखने का अनुरोध था..ट्रांप
के निर्णय को शक्ति दी.अब वो नवजात उसका अपना था.उसे पाल कर बड़ा कर रहा था.खुदा की तरफ से मिली जिम्मेदारी को हंसकर निभाना वो खूब जानता था.पांच बरस बाद…अब वो बच्चा बड़ा होकर लिटिल ट्रांप Jack Coogan बन गया है.भूखमरी से निजात पाने के लिए बाप-बेटे ने रोजगार का एक नायाब तरीका तलाश लिया था.खिडकियों के टूटे शीशे की मरम्मत किया करते थे.जूनियर तोड़ता तो सीनियर रिपेयर करता.रहने का अंदाज़ भी निराला…एक दूसरे सीखकर..एक सीनियर दूसरा जूनियर.खाना बनाने व परोसने में जूनियर को मिली तरबियत देखें.आपका बच्चा गर आपके लिए खाना बनाकर रेडी रखे तो कमाल फील होता है.दिन भर की रोजगारी बाद जो कुछ होता खा लेना था.खाने को लेकर भावनाएं केवल पेट भर जाने की थी.बदन पर ढंग के कपडे नही फिर भी जिंदगी से मलाल नहीं.

लाइट कामेडी फ़िल्म में बातों को हिसाब से ही करुणामय नजरिए से देखा गया.नाटकीयता के साथ हास्य का मनोरंजक पुट देखें.जुनियर को मुसीबत में घिर जाने पर होशियारी से निकल जाना आता था.खिडकियों का कांच तोडकर एक से
दूसरी जगह भाग जाना देखें.बच्चे को अनाथालय ले जाने आए अधिकारीयों का प्रसंग भी देखें.ट्रांप पिता से बढ़कर था.कूड़ेदान पर फेंके हुए बच्चे का पिता बनकर उसी ने अपनाया.अब पांच बरस बाद बच्चे की खोज खबर अनाथालय ने ली थी.पुत्र को पिता से अलग करने वहां आए थे.जबरन उठाकर जूनियर को अनाथालय की गाड़ी में डाल दिया..जिगर को टुकड़े को ट्रांप अलग होने देगा? पांच बरस से सुख दुःख के साथी को यूं जाने देगा?एक घर से दुसरे घर ऊपर के रास्ते गाड़ी की पीछा करके बच्चे को अनाथालय जाने से बचा लिया.विश्व सिनेमा के बेहतरीन दृश्यों में शुमार यह देखने लायक है.अनाथालय के अधिकारी लड़के को गाड़ी में जबरन ले जा रहे…असहाय-तड़पता बच्चा गाड़ी से हांथ बाहर निकाले पिता से मदद मांग रहा.कह रहा की आपसे दूर नहीं जाना…वहां नहीं जाना.मदद में पिता गाडी का पीछा कर रहा..लिटिल मास्टर के लिए सीनियर का प्यार देखें.एक प्यारे से रिश्ते को जिन्दा रखने का जज्बा सीखें .बच्चे खातिर
किसी भी मुसीबत से भिड जाना इसे कहते हैं.चैपलीन व कुगन बीच का समन्वय सुंदर बन पड़ा .पांच बरस का लिटिल पिता की तरह कपडे पहनता था.अपने से बड़े उम्र के कपड़ो साथ चैपलीन के सांचे में ढला नजर आया था. फ़िल्म में सपनों की दुनिया अथवा dreamland प्रयोग से ट्रांप की बस्ती को स्वर्ग का जहान बनते देखना कल्पनाओ को सुकून देता है. स्वर्ग की वो बस्ती जहां कहानी के किरदार परिस्तान के बाशिंदे थे.सफेद पोशाक में यह लोग बस्ती के अमन का
इजाफा करते दिखाए गए…सब ठीक चल रहा था कि पतित आत्माएं व चरित्र परिस्तान का नुकसान करने लगे. कहानी में यह प्रसंग जूनियर व सीनियर के मिलने फिर दुनिया द्वारा छीन ले जाने की बुरी कोशिशो से जुडा था.फ़िल्म का पार्श्व संगीत का हालात व इमोशंस के हिसाब से इस्तेमाल बहुत भाता है. गाड़ी में बच्चे को रख चली जाने बाद गलती को सुधारने मां वापस आई लेकिन वो मिला नहीं.चोरी हो चुकी गाड़ी में रखा बच्चा भी बदकिस्मती से गलत जगह चल
गया.क्या होगा अब उसका?यह सोंचकर मां गश खाकर गिर पड़ी थी.उसे नहीं मालूम था की मासूम की तक़दीर में ट्रांप का प्यार लिखा है.बहरहाल कभी किस्मत से मजबूर रही वही मां पांच बरस बाद मशहूर कलाकार बन गयी थी.शो की समीक्षाएं भी लिखी जा रही थी.घर पर प्रशंसा संदेश व फूलों के गुलदस्तों का आना यही कह रहा कि अब उनकी एक पहचान है.गरीब बस्तियों में जाकर वहां के बच्चों के साथ वक्त गुजारना महिला को बहुत सुख देता था.उन बच्चों में उसे अपना खोया बच्चा नजर आता था.उसे नही मालूम कि जिस जूनियर ट्रांप को उसने खिलौना दिया वो वही बच्चा था! इस खिलोने के साथ जूनियर बहुत खुश होकर खेल में मग्न था. एक नटखट लड़का उसके हांथ से खिलौना लेकर भागा…लेकिन वो उसके पीछे गया.लडके से बहुत झगडा किया कि मेरी चीज वापस करो.इन दृश्यों को देखकर आपका मुरझाया दिल खुश होगा..मुसकुराएंगे.यह सब चलने के बीच अमीर महिला भी वहां आ गयी.इस सब झेलकर तबियत खराब हुए बच्चे को उठाकर वहीं ले आई जहां पहली बार खिलौना दिया था.उसने ट्रांप से बच्चे का इलाज कराने को
कहा.इलाज करने आए डाक्टर को घर से वही पुराना संदेश जिसमे उसकी देखरेख का अनुरोध था..हांथ लग गया. अगले दिन बच्चे की तबियत का हाल जानने अमीर महिला ट्रांप के घर पहुंची.लेकिन घर पर कोई नहीं मिला. हां इलाज कर रहा
डाक्टर जरुर रास्ते में मिला..अपना लिखा पुराना संदेश उसे डाक्टर से मिला.महिला के नजरिए से भी स्थापित हुआ की जूनियर ट्रांप उसी का खोया बच्चा था .पुलिस व अनाथालय की नजर से बचने के लिए पिता-पुत्र ने वो रात मुसाफिरखाने में गुजारी.लेकिन उनकी मुसीबतें अब भी बरकरार रही..वहां के केयरटेकर को अख़बार से मालूम हो गया कि पुलिस इस हुलिए वाले दो लोगों की तलाश कर रही..बच्चे पर भारी ईनाम भी है.आधी रात में बच्चे को उठाकर पुलिस थाने लेकर चला आया.खबर मिलने पर उसकी खोयी मां उसे अपने साथ घर ले आई.महिला ने पुलिस को ट्रांप को भी तलाशकर लाने को कहा.पुलिस उसे पकड़कर अमीर महिला के घर ले आई.वहां आकर ट्रांप को भी मालूम हो गया की जूनियर की
मां वही महिला है.बरसों बाद मां को उसकी बिछड़ी संतान मिल गयी थी.बाप बेटे को जुदा करना उसे उचित नहीं लगा…इसलिए ट्रांप को भी मेहमान बना लिया. बच्चे के सुखद भविष्य संकेत पर फ़िल्म समाप्त हुई.

The Kid की कहानी चैपलीन के निजी जीवन से प्रेरित मानी जाती है.चैपलीन की पत्नी ने बच्चे को जन्म दिया था.वो आया तो दुनिया में जरूर,लेकिन बड़ी कम हयात लेकर.परिवार ने अपने महज तीन दिन के नए मेहमान को खो दिया.इस तरह के पीड़ादायक अनुभवों को आदमी ताउम्र भुला नहीं पाता . मां ने कलेजे का टुकड़ा पल में गंवा दिया था.एक पिता के दिल पर गहरा जख्म लगा था.घटना ने पिता को ट्रांप का यह हमदर्द व जिम्मेदार किरदार रचने की प्रेरणा दी होगी.एक
लावारिस नवजात को अपनाकर आवारा निर्धन ट्रांप ने दरियादिली की एक मिसाल रखी थी.

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समय से परे अपने समाज को देखने को उम्दा कोशिश

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पिछले 25 साल के उपन्यास लेखन की सबसे बड़ी पहचान अलका सरावगी के नए उपन्यास ‘एक सच्ची झूठी गाथा’ पर सुधांशु गुप्त की यह टिप्पणी. अलका सरावगी का यह उपन्यास राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है- मॉडरेटर

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रियल और अनरियल दुनिया की एक सच्ची झूठी गाथा
सुधांशु गुप्त

उपन्यास का जन्म प्रश्न या प्रश्नों से होता है। तभी वह जीवन से जुड़ पाता है। व्यक्ति को समाज से प्रशन हो जोड़ते हैं और प्रश्न ही व्यक्ति में खुद को तलाश करने की जिज्ञासा पैदा करते हैं। प्रश्न ही हैं जो व्यक्ति की संवेदना को तीव्र करते हैं। आमतौर पर हिंदी में जो उपन्यास लिखे जाते हैं वे परिवेश पर आधारित न होकर घटनाओं पर ही आधारित होते हैं। उनमें अगर प्रश्न भी पैदा होते हैं तो वे घटनाओं या किरदारों के जरिये पैदा होते हैं। इस तरह के उपन्यासों में व्यक्ति अपनी पहचान भी बाहरी दुनिया में ही खोजता है। वह भूल जाता है कि उसे अपनी पहचान खुद करनी होती है। अलका सरावगी हिंदी की पढ़ी और पसंद की जाने वाली लेखिका हैं। कलिकथा वाया बाइपास उनका पहला उपन्यास था और इसी उपन्यास पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरुस्कार भी प्राप्त हो गया। इस उपन्यास में अलका ने वैश्विकरण के चलते सामाजिक व्यवस्था में आ रहे बदलावों को चित्रित किया था। इसी तरह जानकीदास तेजपाल मेंशन उपन्यास में लेखिका ने इस मेंशन को संयुक्त परिवार के प्रतीक के तौर पर चित्रित किया था। उन्होंने दिखाया था कि किस तरह समाज के बदलने से यह मेंशन बिखर रहा है, टूट रहा है। विस्थापन और विघटन इस उपन्यास के मूल में था। अलका सरावगी के अब तक लिखे गये उपन्यासों की कहानियां हमारे इर्द गिर्द की ही कहनियां थीं। उनके किरदार हमारे लिए अनजाने नहीं थे। हम उनसे वाकिफ थे, इसलिए उनसे खुद को कनेक्ट करना मुश्किल नहीं था। और शायद यही वजह है कि उनके पूर्व के लिखे गये सभी उपन्यासों को पाठकों ने पसंद किया। इसकी एक बड़ी वजह यह भी रही कि ये उपन्यास दीखती और बाहरी दुनिया को चित्रित कर रहे थे।
लेकिन अलका सरावगी के भीतर एक नयी दुनिया जन्म ले रही थी। वे अपने चारों तरफ एक आभासी दुनिया को निर्मित होते देख रही थीं। वे अपनी वास्तविक और आभासी दुनिया के बीच एक संवाद के लिए प्रयासरत थीं। वे कोशिश कर रही थीं कि दोनों दुनियाओं के बीच को रिश्ता कायम हो जाए। वे अपनी भीतरी सवालों के जवाब आभासी दुनिया में तलाश रही थीं। और इस तलाश में कभी कभी उन्हें लगता कि असली दुनिया आभासी दुनिया है और वे स्वयं किसी स्वप्न की तरह हैं। उनके मन में रियल और आभासी दुनिया गड्डमड्ड होने लगी थे। कभी उन्हें लगता कि आभासी दुनिया में ही वास्तविक दुनिया की समस्याओं के समाधान छिपे हैं। वे लगातार स्केपटिस्ट होती जा रही थीं। भीतर और बाहर के इस डायलेक्टिक्स को उन्होंने अपने नये उपन्यास का विषय बनाया। और उपन्यास का नाम रखा-एक सच्ची झूठी गाथा। राजकमल द्वारा प्रकाशित यह उपन्यास हिंदी उपन्यासों की बहुत सी रुढ़ियों को तोड़ता है। इसमें घटनाएं होते भी कोई घटना नहीं है। यह आपके सामने एक जादुई दुनिया के दरवाजे खोलता है। यह अनिश्चय, स्वप्न, कल्पनाशीलता और यथार्थ के बीच झूलता है और पाठकों को झुलाता है। अपने कलेवर में छोटा और शिल्प में एकांगी प्रतीत होने वाला यह उपन्यास एक बड़े फलक का उपन्यास है। उपन्यास का नाम देखकर आप सोच सकते हैं कि इसका नाम एक सच्ची झूठी गाथा क्यों रखा गया। लेखिका ने शायद इसीलिए यह नाम चुना क्योंकि वे जानती थीं कि ये सच और झूठ के बीच का संवाद है। लेकिन उनके मन में यह सवाल भी रहा होगा कि जिसे हम सच मानते हैं क्या सचमुच वही सच है, या जिसे हम झूठ (कल्पनाशीलता) कहते हैं वह असली सच है। इसलिए अलका सरावगी ने यह निर्णय पाठकों के विवेक पर छोड़ दिया है। लेकिन लेखक का वास्तविक द्वंद्व खुद से होता है। बहुत ही ग्रिपिंग शैली में लिखे गये इस उपन्यास की शुरुआत नायिका गाथा (एक लेखिका) के बागडोगरा एयरपोर्ट पहुंचने से होती है। यहां गाथा को प्रमित सान्याल से मिलना है। प्रमित सान्याल कौन है यह भी गाथा को नहीं पता। वह है या नहीं है यह भी गाथा नहीं जानती। वास्तव में प्रमित ईमेल के जरिये गाथा के संपर्क में आया है। दोनों के बीच जीवन से जुड़े अहम मसलों पर एब्स्ट्रेक्ट सी चर्चा होती है और उसके बाद दोनों एक दूसरे से मिलने का फैसला करते हैं। प्रमित सान्याल गाथा के सामने नये नये रहस्य और दर्शन के नये अध्याय खोलता जाता है। पता नहीं गाथा प्रमित को जानने के मकसद से या खुद को जानने के लिए इस असंभावित मुलाकात के लिए बागडोगरा एयरपोर्ट पहुंच जाती है। प्रमित उसे यहीं लेने आने वाला है। वह प्रमित का इंतजार करती है और उसके जेहन में वे तमाम अघटनाक्रम चलते रहते हैं जब प्रमित से उसकी बातचीत शुरू हुई थी।
अपनी पहली ही मेल में प्रमित गाथा को बताता है कि उसके पिता बंगाली और मां जर्मन थीं। अगले संवाद में प्रमित बताता है कि उनकी सभी मांएं-जर्मन, बंगाली और आदिवासी, उसे बहुत प्यार करती थीं। मेरे पिता ने मुझे मांएं वैसे ही लाकर दीं जैसे छोटी लड़कियों के पास रशियन, जर्मन, इंडियन, ट्राइबल तरह तरह की गुड़ियाएं होती हैं। प्रमित कहता है कि वह किसी एक देश का नागरिक नहीं बन सकता। यहां लेखक वर्तमान दौर के आइडेंटिटी क्राइसिस की बात कर रहा है। पहचान का यह संकट उपभोक्तावाद और पूंजीवाद की परिणति है। पूरा उपन्यास गाथा और प्रमित के बीच हुए संवादों के सहारे आगे बढ़ता है और साथ ही अपनी पहचान के लिए भटकता है। गाथा को कई बार लगता है जागृत स्वप्न और नींद-तीनों में जैसे कोई अंतर नहीं रह गया है। कहीं कहीं इन दोनों के बीच के संवाद काफ्का की याद दिलाते हैं। काफ्का एक बार अपने एक मित्र के घर गये। मित्र घर पर नहीं था और उसके पिता सो रहे थे। काफ्का के घर पहुंचने पर वह नींद से जागते हैं, लेकिन काफ्का उनसे कहता है कि वे उनके आने को किसी सपने के आने की तरह लें। प्रमित सान्याल एक दिन कहता है, हमारी शताब्दी एक आत्मघाती शताब्दी है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो देश की सुरक्षा के नाम पर खरीदे जाने वाले बम, जहाज, टैंक, विमान और बंदूकें हैं। कौन सा देश? ग्लोब पर लाइन खींच दी और देश बन गया? तुम जब मलयालम या नागा भाषा में बोला गया एक वाक्य नहीं समझतीं गाथा, तब बताओ तुम्हारा और उनका देश एक कैसे है? पागलपन और नार्मल होने के बीच की लाइन तुमने कभी देखी है? इसी तरह एक बार प्रमित मैं कहां रहता हूं सवाल के जवाब में कहता है-कभी सिलगुड़ी, कभी रायपुर, कभी बेंग्लुरु, कभी कोलकाता। सबसे अच्छा मुझे खंडहरों में रहना लगता है। एक स्थान पर प्रमित कहता है, हर मिश्रित नस्ल के बच्चे को दुनिया में अपनी जगह खोजनी पड़ती है। प्रमित के संवाद एक तरफ अपनी पहचान के संकट को आगे ले जा रहे हैं और दूसरी तरफ भारतीय राजनीति की वर्तमान समस्याओं सो रूबरू कराते हैं। दोनों के बीच संवाद आत्मीयता के स्तरों को छूने लगता है। लेकिन यह आत्मीयता एक मां बेटे की आत्मीयता लगती है। अलका सरावगी ने इस उपन्यास में अनेक रेफरेंस दिये हैं। ये रेफरेंस उनके उपन्यास को आगे बढ़ाने में मददगार होते हैं। एक बार प्रमित गाथा से पूछता है, तुमने इस्साक बशेविक सिंगर की कहानी गिंपल द फूल पढ़ी है? इस कहानी में गिंपल को सब मूर्ख बनाते हैं क्योंकि वह सब पर भरोसा कर लेता है। वह जानता है कि उसके मां बाप कब्र से निकलकर उसे नहीं खोज रहे, पर वह सोचता है कि नुकसान क्या है अगर देख ही ले कि गांव वाले सच तो नहीं कह रहे? वह अपनी पत्नी को बिस्तरे में किसी और मर्द के साथ पकड़ लेता है, पर वह उसे बाहर बकरी देखने भेज देती है और वापस आने पर कहती है कि सब उसकी कल्पना थी। यह जानते हुए भी कि सब झूठे हैं। पर वह लोगों की बात फिर भी मान लेता ह। प्रमित कहता है कि भी यही करने की कोशिश करता हूं जिससे मासूम मूर्खों, बेवकूफ बुद्धिजीवियों और प्रतिष्ठित पागलों की दुनिया में शामिल हो सकूं। गाथा प्रमित की बातों से अवाक और चकित होती रहती है। पता चलता है कि प्रमित कवि भी है और विदेशी लेखकों को उसने खूब पढ़ा है। उसकी पसंद नितांत अलग है। वह गाथा को बताता है कि एलिस इन वंडरलैंड बाइबिल कुरान और रामायाण से बेहतर पुस्तक है। यह कहानी भी स्वप्नलोक के ताने बाने के साथ बुनी गयी है। इस कहानी में एलिस एक खरगोश का पीछा करते हुए एक गड्ढे में गिर जाती है। वहां कभी कुछ खाकर वह बहुत छोटी और बहुत बड़ी होती रहती है। वह एक चाय पार्टी में जाती है, जो कभी खत्म नहीं होती, क्योंकि वहां घड़ी की सुई छह बजे पर ठहर गयी है?एलिस सपने से जागती है, लेकिन उसे यह संदेह होने लगता है कि वह खुद किसी और का सपना तो नहीं? क्या पता यह सच हो कि हम हैं ही नहीं इस दुनिया में। क्या पता हम प्रतिबिंबों के प्रतिबिंब हों? सपनों में देखे गये सपने? ये भाषा और दर्शन इस कहानी के कैनवस को विस्तार देता रहता है। एक अन्य स्थान पर प्रमित गाथा के समक्ष सेमुअल बकेट के वेटिंग फार गोदो का जिक्र करता है। बीसवीं सदी के इस सबसे प्रभावशाली माने जाने वाले नाटक दो पात्रों की कहानी है। बाद में इसमें एक काल्पनिक पात्र गोडोट भी आ जाता है। इस नाटक के बारे में अस्तित्ववादियों का विचार है कि इसमें कुछ एसे मौलिक प्रश्न हैं जिसका प्रत्येक मनुष्य से सामना होता है, अगर वे व्यक्तिपरक अस्तित्व को गंभीरता से लेते हैं। उन सवालों में मृत्यु, मानव अस्तित्व का अर्थ और उस अस्तित्व में ईश्वर का स्थान या अभाव जैसे सवाल शामिल हैं। उपन्यास में ये प्रश्न अकारण नहीं आए हैं बल्कि ये हमारे अस्तित्व से जुड़े अहम सवालों को उठाते हैं। तुम इतने दुखी क्यों रहते हो के सवाल पर प्रमित कहता है, इतने नंगे भूखे-बेसहारा लोगों के बीच सुखी रहना अश्लील नहीं है? क्या यह आज के दौर को चित्रित नहीं करता ?
एयरपोर्ट पर प्रमित सान्याल गाथा को लेने नहीं आता। गाथा नाराज होती है। तभी उसका मेल आता है कि वह उसकी नाराजगी की वजह से उसकी और अपनी जान खतरे में नहीं डाल सकता। गाथा वापस लौट आती है। कुछ दिन की नाराजगी के बाद दोनों के बीच फिर से संवाद शुरू हो जाते हैं। गाथा को पता चलता है कि प्रमित सान्याल कुछ खतरनाक लोगों के साथ काम करता है। प्रमित बताता है कि उनका एजेंडा व्यवस्था के चेहरे की क्रूर हंसी को हटाना है। तभी शेष दुनिया के चेहरों पर हंसी लाई जा सकती है। प्रमित एक बार फिर से बताता है कि मैं वह हूं जो आरमेनिया में आधा मर गया था और आधा भूटान मे मार दिया गया। गाथा प्रमित की हकीकतों को जानने के बावजूद उससे संवाद नहीं छोड़ पाती। वह प्रमित की लिखी कविताओं को पसंद करती है। एक दिन प्रमित बताता है कि उसने वीरेंद्र भट्टाचार्य का उपन्यास मृत्युंजय पढ़ा है। यह उपन्यास 1942 के स्वाधीनता आंदोलन में असम की भूमिका पर लिखी गयी उत्कृष्ट रचना मानी जाती है। इसमें विद्रोही जनता का सजीव चित्रण किया गया है। ये तमाम रेफेरेंस उपन्यास को आगे ले जाते हैं। अगर उपन्यास में एडगर एलन पो की कविता है तो वह कहीं ना कहीं पो की रहस्यात्मकता के जरिये प्रमित का ही चरित्र चित्रण करती दिखाई पड़ती है। यह भी संयोग नहीं है कि पो ने बचपन में ही अपने मांबाप को खो दिया था और खुद उनकी मृत्यु 40 साल की उम्र में हो गयी थी। पूरे उपन्यास में पहचान और स्वतंत्रता की तलाश स्पष्ट दिखाई पड़ती है। गाथा और प्रमित के बीच का आत्मालाप और संवाद ही यह दिखाता है कि गाथा उम्र में प्रमित से काफी बड़ी है और वह उसके बेटे की उम्र का ही है। यह भी लगता है कि प्रमित गाथा का ही कल्पना पुत्र है। गाथा और प्रमित की यह सच्ची झूठी गाथा रियल और अनरियल के बीच का संवाद है। और शायद ही कोई इनसान हो जिसके भीतर एक आभासी किरदार ना रहता हो। बाहर की दुनिया में रहने वाला समाज में अपनी जगह बनाए रखने के लिए पाखंड का सहारा लेता है और आभासी दुनिया में रहने वाला यथार्थ के ज्यादा करीब होता है। बेशक जीवन की तरह ही यह उपन्यास कहीं पहुंचता नहीं है लेकिन यह आपको भीतर तक झकझोरता जरूर है। आपके मन में तमाम तरह के सवाल पैदा करता है। आप इन सवालों से लगातार जूझते हैं और आंखें बंद किये रहते हैं। यह उपन्यास उन सवालों की घुमाकर आपके सामने खड़ा कर देता है। आश्चर्य की बात है कि इस तरह के वैचारिक उपन्यास में भी गज़ब की पठनीयता है। परंपरागत उपन्यासों के बीच यह उपन्यास अपनी एक अलग जगह बनाता है। प्रमित अंत में कहता भी है, गाथा, मेरा सच क्या है, यह तुम कभी नहीं जान पाओगी। मेरा सच है तो इसी ब्रह्मांड में, पर वह किसी की भी पहुंच के बाहर है। सच पूछा तो कई बार लगता है कि मेरा सच मेरी हथेलियों की रखाओं में भी नहीं लिखा। मैं उसे खुद नहीं पढ़ पाता। पीछे देखता हूं तो सिर्फ धुंध है। उसमें मैं अपने सच को रोज मिटाकर रोज नए सच लिखता हूं। यही सबसे बड़ा सच है जो मैं तुम्हें अंत में बताए दे रहा हूं।
सच स्वतंत्रता पहचान और अस्तित्व के प्रश्नों से जूझता यह उपन्यास अपने समय से आगे का उपन्यास है। यह सच्ची झूठी गाथा समय से परे अपने समाज को देखने को उम्दा कोशिश है

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पूनम अरोड़ा की कहानी ‘स्मृतियों की देह में पूर्वजों के कांपते शोकगीत’

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श्री के नाम से लिखने वाली पूनम अरोड़ा अपनी कहानियों में एक ऐसा लोक रचती हैं जो बार बार अपनी ओर खींचता है। कई कहानियाँ अपने परिवेश, अपनी भाषा के लिए भी पढ़ने का मन करता है। इस लिहाज से पूनम अपने दौर की सबसे अलग लेखिका हैं- मॉडरेटर

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“कभी-कभी बेवजह ही तुमसे बात करने को मन नहीं करता”

‘गुनाहों के देवता’ पढ़ते हुए तारा के भीतर अतीत की परछाइयों का जो अर्द्ध चित्र बन रहा था वो एक तीक्ष्ण वेग से ज़मीन पर बिखर रहा था. सारी उकताहट, ग्लानियां और दर्द की बेहिसाब नसें जिन्होंने उसे कई-कई दिन कई-कई बार नयी औरत बनाया वे थक कर तारा के पुरातन जिस्म से बाहर चले जाना चाहती थीं. जैसे कभी किसी पुराने और घने जंगल में किसी प्राचीन वृक्ष की जड़ द्वारा अपना विध्वंस कर देना.

उसने फिर दोहराया ” कभी-कभी बेवजह ही तुमसे बात करने को मन नहीं करता” और शून्य को ताकती रही. ऐसे कितनी ही दोपहरें बीत जाती थीं. अक्सर एक नीरस और सीलन भरी स्मृति उसके आस-पास घेरा बना कर चक्कर लगाती थी. उसमें डूबना तारा को अच्छा भी लगता था और बचकाना सा भी. उसने किताब बन्द की और अचानक उसे लगा कि उसके बिस्तर पर बिछी चादर मैली है. उसने दराज खोला उसमे से चादर और लिहाफ निकाले और कमरे को ताज़ा गुलाबी रंग दे दिया. उसने कुछ क्षण कमरे में चारों तरफ नज़र दौड़ाई तो पाया कि एक धुँधली परत हर अमूर्त चीज को ओढ़े हुए है और एक सन्नाटा हर कोने में अपनी जड़ जमाये, बिना अपनी उपस्थिति जताये तारा को घूर रहा है. यहाँ तक की उसकी नर्म स्मृतियों को भी.

और स्मृति, वो भी तो एक छल एक स्वांग समान होती है. इस पल यहाँ और उस पल कहीं और. उसके जीवन की नीरसता में कुछ ऐसी भी आकृतियां थीं जिनके चेहरे चांदनी में नहाये लगते थे. उन स्मृतियों में भाभू माँ थीं. बूढी, सफेद और बातों की जादूगरनी. वह उम्र से टूटा स्पर्श था और जिसकी बची हुई, चोटिल निशानियां हमेशा एक अदृश्य संदूक में उसके कमरे में पड़ी रहती थी. भाभू माँ का बनाया क्रोशिया का मेजपोश, झालर लगा हाथ पंखा, गरम मसाले और मिठाइयों के पुश्तैनी राज़ सब थे उस संदूक में. वो कहती थीं सब कुछ छूट गया था वहाँ से आते हुए. किकली, गिद्दे, परांदे, तिल्ले वाली जूतियाँ, सब के सब. और कहती हुईं रुआंसी हो जाया करती थीं. और यहाँ तक की स्मृति यात्रा में तारा खुद भी वही बच्ची बन जाती जब भाभू माँ उसे कस्बाई कहानियां सुनाया करती थी. लेकिन कितनी अजीब बात है कि घटती हुई घटनाएं घट जाने के बाद भी अपने मोह से दूर नहीं कर पाती. उन्हें इंसान की देह पर कहीं भी देखा जा सकता है.

घड़ी में ग्यारह बज रहे थे और खिड़की पर धूप अपने भ्रम की रिक्ति को भरने के लिए कभी दीवार पर रेंग रही थी तो कभी तारा की नीरस आँखों के भूरे रंग पर. वह उठी और उसने एक झटके से धूप की लुका-छिपी पर परदा गिरा दिया. लेकिन वह तो शशि से नाराज़ थी. उसकी आँखों के कॉर्निया फैल गए जब उसने यह सोचा. फिर उसे लगा शशि तो खुद एक मौन अर्थ है. जिसमे वह अपने होने के अर्थ तलाशती आ रही थी. एक रेशम की तरह है जिसका कोई भी किनारा पानी सा नीला और असीम रोशनी से आलोकित है. उसकी छाया, उसके पसीने की गंध और उसका यहाँ-वहाँ बिखरा सामान उसे हर पल उसके होने का अहसास दिलाता है. उसे याद आया एक दिन वे दोनों खान मार्केट की गलियों में हाथ पकड़ कर घूम रहे थे. वो पत्थर बिछी गलियां और उनके दोनों तरफ लगे बाज़ार शाम की आभा में सरोजिनी नायडू की  कविता ‘स्ट्रीट क्राइज़’ की तरह आवाज़ों के शोर में छोटी-छोटी कलाओं से भरे हुए लग रहे थे. उन्हें चाहे कुछ खरीदना हो या नहीं लेकिन वे उस बाज़ार में अक्सर जाया करते थे. वहां से उठने वाली आवाज़ें बड़ी पेचीदगी भरी सच्चाइयों वाली होती थी. हर चेहरे की अपनी स्थाई गहराई और हर आवाज़ का अपना घनत्व.
उस दिन पहली बार शशि ने कहा था “तारा क्या हम एक बच्चे को गोद ले लें?
तारा सहम सी गई थी. इसलिए नही कि बच्चे को गोद लेना उनके जीवन में एक अलग तरह की घटना होती. इसलिए भी नहीं कि इस सपने को देखते हुए तारा ने चार साल डॉक्टरों के पास चक्कर लगाते हुए बिता दिए. बल्कि इसलिए कि अब एक साथ दो लोग उसकी उपस्थिति को हर पल स्थाई तौर पर भरने वाले होंगे. आने वाला बच्चा और भाभू माँ.

तारा को थकान घेरने लगी. उसके शरीर में सूखी सी उदासी ने अपना अदृश्य हाथ रख लिया हो जैसे और कभी-कभी किसी बात को बिना निष्कर्ष के छोड़ देने जैसी बेचैनी उसे सताने लगी. ऐसा हो भी क्या गया अगर वो शशि से नाराज़ है तो? और क्या शशि के प्रेम ने उसकी दुनिया नहीं भरी? शशि के पास न होने पर वह उसकी ही बातों को सोचा करती थी. एक बार शशि ने कहा था “तारा तुम रूसो को ज़रूर पढ़ना. उनका एक वाक्य अपनी परिभाषा में मनुष्यता की जड़ो तक दृष्टि डालता है कि ‘मनुष्य एक बीमार जानवर है’.
सन्नाटा बहुत देर तक उसकी बच्चे सी आत्मा के हर हिस्से में था. और ये सन्नाटा उसकी देह के पोर-पोर से बिखर रहा था.
अपने सत्यापन में
अपनी नष्ट हुई वास्तविकताओं में
निर्वात
मृत

तारा पीठ के बल बिस्तर पर लेट गई और छत पर चलता हुआ पंखा जैसे समय के चक्र को फिर उसी दिशा में ले जाने लगा जहाँ भाभू माँ की स्मृतियाँ थीं. भाभू माँ ने तारा के जवान होने तक उसे भारत- पाकिस्तान के बंटवारे की कहानियां सुनाई. उसे याद है कि किस तरह भाभू माँ के मरने के बाद  हवा की तरह वो हर रात उसके कमरे में होती थी और कहानियों की धीमी गूंज से उसे फिर कभी भी ठीक से नींद नही आई. भाभू माँ ने एक बार उससे कहा था “तुझे एक बात बताती हूँ तारा. इस बात को हम सब जानते थे कि ज़रूरी नहीं कि सब के सब सही सलामत दिल्ली पहुँच जाएंगे. क्योंकि दंगो ने आग भड़का रखी थी. भूखे प्यासे बच्चे रोते हुए अपने माँ-बाप से चिपके हुए थे. उस समय मैं सत्रह साल की थी और तेरे नाना के पास केवल अपनी ज़मीनों के कागज़. जो होना था सो हुआ लेकिन इसके बाद भी ऐसा होता रहा जिसे याद करते आत्मा शिथिल हो जाती है”
लेकिन तारा जानती थी कि ये स्मृतियाँ अब कभी उसे उदासी के गर्म और तपते हुए कक्षों से बाहर नहीं आने देंगी इसलिए वो चाहती थी कि शशि और वो एक बच्ची गोद ले लें. लेकिन उन स्मृतियों में ऐसा कुछ था जिसे भूलना भी उसके वश का नहीं था. लगता था जैसे विपदाएं जब आती हैं तो ऐसी शाश्वत सांकेतिक भाषा के साथ आती हैं कि जीवन का कोई भी गलियारा सुनिश्चित होकर अपनी निजी ऋतुओं और मौसम में अपने जीवित होने के क्षण को याद नहीं रख पाता.

लेटे हुए जब बहुत देर हो गई और नींद आँखों में सिवाय सूखे सुख के कुछ नही दे रही थीं तो वह उठ खड़ी हुई और उसने खिड़की से परदा हटा दिया. दिल्ली में जून का महीना नम, उदास और यादों की सीलन से भरा होता है. मन के काल्पनिक संगीत का पीछा करने वाला महीना. वह तारा का अपना समय होता है जिसमे वो जून की आंधियों के किनारे अपने सीमान्त तलाश रही होती है. वो रोना चाहती है पर रोती नहीं. वो पीड़ा की ज़र्द धारियों को देर रात तक  कनॉट प्लेस में अपने साथ ले कर चलती रहती थी. कभी अकेले तो कभी शशि की बादलों सी चाहत के साथ. वहाँ देर रात तक बैठे रहना उन दोनों को बहुत अच्छा लगता था. उनके साथ में जीवन के कई ऊँचे-नीचे उतार चढ़ाव थे जिनका हिसाब भी नहीं रखा जा सकता.

बचपन में जब भाभू माँ उसे बालों में तेल लगाया करती थी तब अंतहीन और निश्छल लाड करते हुए उसे जीवन की सीख भी देती थी. वो कहती थी कि अपमान को बारिश समझना तारा और पुराने अपमानों को ऐसे भूलना चाहिए जैसे उन्हें सुनार ने गला दिया हो और वो एक ऐसी धातु बन गई हो जिसके बने बुँदे हम कानों में पहन सकते हो. फिर देखना तुम पर एक नयी परत चढ़ आएगी. जो छूने भर से भूर्भुरायगी नहीं. ये एक नया जीवन होगा तुम्हारा.
तारा रो पड़ी. यूँ उसे रोना भी आत्मिक सुख जैसा लगता था लेकिन वह इस दोपहर रोना नहीं चाहती थी. उसे लगा दोपहरें हमेशा यादों से भरी होती हैं. बीथोवन के संगीत की तरह जो ख़ामोशी की लय को पकडे हुए उस ऊंचाई पर ला कर खड़ा कर देती हैं जहाँ से कोई भी शब्द होंठो का सहारा लेकर नहीं कहा जा सकता. जहाँ होना इतना असली सा नहीं लगता जितना दरअसल वो होता है. यादें जो दिल्ली में हर जगह थीं उसके साथ. भाभू माँ की यादें और उनसे छूटने की पीड़ाएँ अभी तक उसकी पीली काया में जमी हुई थीं. ठीक उसी तरह दरवाज़ा रोक कर खड़ी हुईं जैसे कोई आधा हुआ काम पूरा होना चाहता है. इसे प्रतीक्षा कहें या विदा. तय करना आसान नहीं. देखा जाए तो कुछ भी सही समय पर रोक देना या शुरू करना कभी भी आसान नहीं होता.

आकाश अपनी चमक उतार चुका था जैसे हर वो चीज अपनी चमक उतार देती है जो अपनी तीव्र कल्पनाओं में कभी एक पल के लिए भी खुद को जीवित महसूस कर पाई. जिसने घने कोहरे में एक बार भी अपने बीते हुए आत्मीय जनों की हल्की सी भी परछाईं देखी हो. तारा ने खिड़की से शशि को आते देखा. उसके एक हाथ में ऑफिस का बैग था और एक हाथ में कमल के फूल. उसे ख़ुशी होती है इस बात की कि शशि को इस्कॉन टेम्पल से लौटते हुए उसके लिए कमल के फूल लाना हमेशा याद रहता है. एक छोटा सा सुख क्या मायने रखता है ये शशि अच्छी तरह से जानता था. शशि के लौटने पर बीती दोपहर का मर्म अब तारा की आँखों में से एक स्वप्न की तरह बह रहा था. जैसे कई आवाज़े एक साथ अनायास बन्द हो गईं हो. और जैसे कभी वो थीं ही नहीं.

उसे पता था कि कभी भी किसी भी छोटी सी बहस पर जब वे दोनों रात को मुँह फेर कर सोते तो उसकी सुबह ऐसे ढलान पर सबसे अकेले और सबसे रेतीले किनारों पर खड़ी होती थी. और बहुत धीमी गति से उससे पूछते हुए भाभू माँ की स्मृतियों उसमे शामिल होने लगती. मेट्रो की छोटी और रूमानी यात्राएं, विश्व पुस्तक मेले में सारा दिन बिताने की उसकी ज़िदे सब किसी मासूम चाह की तरह शशि पूरी करता था. किसी वेग की तरह महसूस होता वो दोपहर का समय अब दोहरी गति से उस कमरे से अपनी उपस्थिति को समेट रहा था. यह समय ऐसा था जिसमे जानी-पहचानी चुप्पियाँ अपनी प्रेतों के आवरण में कुकुरमुत्ते की तरह हर ओर उग आई थीं. और शशि के आने की गंध पाकर वे लोप हो जाना चाहती थीं. तारा ने एक भारीपन अपनी छातियों में महसूस किया. उसे लगा कि अपनी चाहना को कोई एक नाम देना कितना मुश्किल है. और ये भी कि प्रेम की कल्पनाएं प्रेम से कहीं ज्यादा धुली होती हैं. उनमे दूरियों की न सुनाई दी जा सकने वाली एक धुन हमेशा बजती रहती है और एक उम्मीद उन्हें कभी थकने नहीं देती.
बीच बात में हँसने से शशि उसे अक्सर रोक देता था. कहता था ऐसे हंसोगी तो सब जान जाएंगे कि हम प्यार में हैं. वो उसे लोगो से छुपाना चाहता था और मिलने पर ‘थ्री लिटिल फ्लावर्स’ कहानी हर बार एक अलग अंत के साथ सुनाता था. कहता था “कहानी में मुस्कुराया करो तारा क्योंकि कहानियों में मुस्कुराने का अर्थ है कि हक़ीक़त का कोई शीशा कभी नहीं टूटेगा”

आवाज़ें और दोपहर बीत चुकी थी तारा की आँखों में. शशि को घर आता देख उसे लगा कि अब बीतने के सुख में संवाद अपरिचित नहीं होंगे न ही कमरे के हर कोने में फैली पहेली दिल्ली की आबो हवा में उसके साथ चलेगी. तारा ने रंगों में घुलती हुई अभी-अभी आई रात के आकाश में स्मृति-आकारों को धीरे-धीरे जाते हुए देखा. सब धुँधली परछाइयां बन आकारहीन होने लगीं. और उसने जाना कि जीवन के हर रहस्य की पीड़ा अतीत की छाया में गुथी होती है.

मन अपने विराम में मुक्त था!

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बाज़ार के चंगुल में फंसे भयावह समय का कथानक ‘पागलखाना’

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ज्ञान चतुर्वेदी के उपन्यास ‘पागलखाना’ पर राहुल देव की टिप्पणी. बहुत बारीकी से उन्होंने इस उपन्यास को हमारे लिए खोला है. एक आदर्श समीक्षा का नमूना. चाहे आप सहमत हों या असहमत लेखक का लिखा प्रभावित कर जाता है- मॉडरेटर

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जब/ ममता, गाय के थनों से निकलकर/ पॉलीपैक में कैद/ और मेहंदी हथेलियों से उतरकर/ कंटीली फेंसिंग में लौट जाए/ वह समय/ जीवन से स्वाद और रंग की विदाई का ख़तरनाक समय होता है

ज्ञान चतुर्वेदी के पांचवे उपन्यास ‘पागलखाना’ को पढ़ते हुए मुझे निरंजन श्रोत्रिय की उपरोक्त काव्यपंक्तियाँ याद आती रहीं | ज्ञान जी उन बिरले लेखकों में से हैं जिन्होंने अपने आपको दोहराया नही है | उनका सम्पूर्ण लेखन नदी की तरह रहा है उन्होंने नहर बनाकर कभी अपने आपको सीमित नही किया | उम्र के इस परिपक्व पड़ाव पर भी वे हमेशा कुछ नया करने को आतुर लेखकों में से हैं | इस उपन्यास में उनका गद्यशिल्प फैंटेसी है | हिंदी व्यंग्य के औपन्यासिक प्रारूप के लिए फैंटेसी एक नया प्रयोग  है | इससे पहले आमतौर पर व्यंग्यकार कहन की सुविधा के लिए मिथकीय रूपकों का प्रयोग करते रहे हैं | वह शिल्प अब पुराना पड़ चुका है | फैंटेसी का अर्थ होता है- स्वप्नचित्र अथवा कल्पना चित्र | रचना में इसका प्रयोग करते समय इसमें यथार्थ में घटित घटनाओं को स्वप्न-चित्र बनाकर प्रस्तुत किया जाता है- ‘The genre of fantasy is an opportunity to dream of reality as we might like it to be.’ जैसे कि इस उपन्यास में भी देखें तो लोगों के सपनों, स्मृतियों का खो जाना, लोगों का नंबरों में तब्दील हो जाना, सपनों की हत्या हो जाना, घड़ी का कलाई पर यथावत बंधे रहना लेकिन उसमें से समय का गायब हो जाना, तालों में आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस का होना, सपनों का मलबा, स्मृतियों का बीमा, कथापात्रों को सबकुछ एक षड्यंत्र लगना, पूरी दुनिया का एक बड़े पागलखाने में बदल जाना और अंत में समय का बाज़ार के खिलाफ विद्रोह कर देना | ‘पागलखाना’ इस अनोखे लेकिन असरदार शिल्प में बाजारवाद के प्रतिरोध की सशक्त व्यंग्यकथा कहता है |

ज्ञान जी का यह उपन्यास उनकी पिछली कृतियों से एकदम अलग है | इसका आभास हमें उपन्यास रचने की उनकी लम्बी रचनाप्रक्रिया पढ़कर ही लग जाता है | जिसमें उन्होंने विषय चयन से लेकर उसके निर्वहन तक की तमाम बातें अपने पाठकों से शेयर की हैं | ज्ञान जी पाठक के विवेक पर भरोसा रखने वाले रचनाकार हैं यह कृति इस भरोसे को और पुख्ता करती है | ‘पागलखाना’ कोई परम्परागत शैली में लिखा गया उपन्यास नही है | इसकी थीम, पात्र और घटनाएँ आपको एक ऐसी दुनिया में ले जाती हैं जहाँ शायद ही आप जाना चाहें | अभिधा में रहते हुए भी, व्यंग्य की ज्यादा गुंजाईश न रहते हुए भी जिस तरह से उपन्यासकार बाज़ार के भयावह हो चुकी कल्पना को यथार्थ से जोड़ता है वह सराहनीय है | हिंदी साहित्य में ऐसी प्रतिभा बहुत कम लेखको में है | ‘पागलखाना’ का व्यंग्य ‘राग दरबारी’ के व्यंग्य से एकदम अलग किस्म का व्यंग्य है | ‘राग दरबारी’ में मुखर हुआ व्यंग्य बाह्य व्यंग्य है जबकि ‘पागलखाना’ में उपजा व्यंग्य अंतर्मुखी व्यंग्य है | वह बाज़ारवाद के प्रभाव की तरह आपको ऊपर से नही दिखेगा बल्कि वह पूरी रचना में नमक की तरह घुला हुआ है | उसका आस्वाद हास्य के नही बल्कि करुणा के ज्यादा पास ठहरता है | यहाँ पर लेखक ने बड़ी ही कुशलता से गंभीर व्यंग्य को कथानक में बगैर किसी अतिरिक्त दखल के समाविष्ट किया है | बाजारवाद के बढ़ते प्रभाव के खिलाफ ज्ञान जी का यह प्रयोग हर दृष्टि से सफल साबित होता दिखता है |

उपन्यास का कथासमय वह है जब जीवन पर एक दिन बाज़ार का पूरा कब्ज़ा हो जाता है | यहाँ तक कि रौशनी और धूप जैसी सर्वसुलभ प्राकृतिक चीज़ों के लिए भी पेमेंट करना पड़ता है | यहाँ कुछ भी मुफ्त नही मिलता | हर निर्णय बाज़ार के अधीन है | हर व्यक्ति उसके लिए सिर्फ एक ग्राहक है इससे अधिक कुछ नही | फिर भी कुछ लोग उसके झांसे में नही आते हैं | वे उसकी पकड़ से भागने के प्रयास करते हैं | ऐसे लोग जीवन को बाज़ार से बड़ा मानते हैं लेकिन अंततः वे बाज़ार के जाल में फंसकर समाज के लिए पागल करार दिए जाते हैं | ‘पागलखाना’ ऐसे पागल हो चुके समय में ऐसे ही कुछ ‘पागलों’ की दास्तान है |

यह उपन्यास अगर ज्ञान चतुर्वेदी के अलावा और कोई लेखक लिखता तो वह निश्चित ही जटिल होकर अपने ही बनाये जाल में उलझ गया होता | ज्ञान जी के पिछले उपन्यासों में पठनीयता एक जरूरी गुण की तरह हरदम उपस्थित रहा है ऐसे में उनके हाथ में पड़कर यह उपन्यास बहुत कुछ इन खतरों के अपने आपको बचा ले गया है | उपन्यास अपने पढ़े जाने के लिए पाठक से एक न्यूनतम बौद्धिक स्तर की अपेक्षा करता है | यह कई बैठको में धीरे-धीरे पढ़ा जाने वाला उपन्यास है | उपन्यास में एक पात्र है जिसे सपने नही आते उसे अपनी आँखों का खालीपन काटता है जिसका ज़िम्मेदार वह बाज़ार को मानता है | उसकी तरह कुछ और पात्र भी हैं जिनकी जिंदगी बाज़ार ने बर्बाद कर दी है और वे उससे बचाव के ‘पागलपन’ भरे तरीके आजमाते हैं | कोई बाज़ार से दूर अलग दुनिया की तलाश में सुरंग खोदता है तो कोई गटर के मेनहोल में जाकर रहना चाहता है | जिनकी कथा जैसे जैसे आप पढ़ते हुए आगे बढ़ते हैं आपके दिमाग के तार झनझना उठते हैं | भले ही यह सब एक विराट फंतासी है लेकिन उसकी सभी जड़ें आज के यथार्थ में निहित हैं | लेखक ने अपने चरित्रों का चुनाव बहुत सोच-समझकर किया है | वे चरित्र समाज के विभिन्न वर्गों से आते हैं | लेखक हर वर्ग की त्रासदी को रचनात्मक ढंग से रेखांकित करता है | सभी पात्रों की कथा समानान्तर चलती हुई एक सूत्र में कसावट के साथ बंधी हुई है | ऐसा लगता है मानो जिसे लिखते हुए न लेखक चैन से रहा हो और पढ़ते हुए न पाठक | पूरा उपन्यास पढ़ते हुए एक संवेदनशील मन पाठक बेचैन हो उठता है | ‘पागलखाना’ बाजारवाद का प्रतिपक्ष रचता है और हमें भयानक भविष्य के प्रति आगाह भी करता है | उपन्यास में वर्णित सभी विसंगतियां प्रवृत्तिगत हैं और सभी चरित्र सर्वनामीय हैं | इस कारण उपन्यासकार किसी सीमित जगह की कोई सीधी कहानी कहने के बजाय एक बड़े फलक की कथा कहने में समर्थ हो सका है | ‘पागलखाना’ एक उद्देश्यपरक रचना है | भाव-भाषा-शिल्प सभी कुछ नयेपन से संयुक्त रहते हुए भी नया नही है | बात सीधी सी है पर फिर भी सीधी नही है | उपन्यास शुरू करते ही आप एक ऐसी दुनिया में प्रवेश करते हैं जहाँ शायद आप पहले कभी नही गये होंगें | यहाँ आप उस पागलपन की कल्पना में नही उड़ेंगें बल्कि जमीन पर रहते हुए उस पागलपन को महसूस करेंगें | यहाँ ज्ञान चतुर्वेदी एक बहुत डरावनी बनती जा रही दुनिया के निर्माण की कहानी कहते हैं | मेरी दृष्टि में यह कृति लेखक की रचनात्मक सिद्धि का अब तक का सर्वश्रेष्ठ आयाम है |

दरअसल उपन्यासकार बाज़ार को जीवन के लिए एक हद तक ही जरुरी मानता है | उस हद को पार कर लेने के बाद बाज़ार जीवन में घुसपैठ कर क्या क्या करता है यह आज के इस उत्तरआधुनिक समय में किसी से छुपा नही है | बाज़ार मनुष्य के लिए है मनुष्य बाज़ार के लिए नहीं | बाज़ार, पूँजी और सत्ता का खतरनाक गठजोड़ मानवीय सामाजिक निर्मिती को तहस-नहसकर उसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल भर करता है | यह समय आगे और कितना विकट हो सकता है इसका पूर्वानुमान आप इस उपन्यास को पढ़कर सहज ही लगा सकते हैं |

बाज़ार मनुष्य ने बनाया है अपनी सुविधा के लिए लेकिन अब वह उसकी चेतना पर हावी होकर उसे अपने जैसा बना रहा है | धीरे-धीरे एक ऐसी व्यवस्था बनती जा रही है जिसमें मनुष्य और उसके जीवनमूल्य खो रहे हैं | हम बाज़ार के गुलाम हो रहे हैं | आज बाज़ार की पहुँच जीवन में इस कदर हो गयी है कि हम उत्तरआधुनिक चकाचौंध से सराबोर किसी कृत्रिम दुनिया में जीने लग गये हैं जबकि वह हमारी नैसर्गिक दुनिया है ही नहीं | हम इस समानान्तर छलावे से बेखबर सो रहे हैं | सपनों का न आना अब हमारे लिए चिंता की बात नही रही | जो यह चिंता कर रहे हैं उन्हें पागल घोषित किया जा रहा है | उपन्यास में लेखक एक जगह पर कहता है, एक बार सामने वाले को पागल भर मान लो तो चीज़ें आसान हो जाती हैं | तब उसके द्वारा कहा सच भी एक चुटकुला माना जा सकता है |’ इस प्रकार बाज़ार के विरोध में उठने वाली हर सार्थक आवाज़ को दबाने या फिर उसे हाशिये पर डालने की साजिशें दरपेश हैं | बाज़ार हमारे ही सपनों को हमसे छीनकर उन्हें सामान के रूप में बदलकर हमें बेचने लग गया है | सोचकर देखिये तो यह पूरे विश्व की ऐसी समस्या बन गया है जिसका वक्त रहते अगर इलाज न किया गया तो निकट भविष्य में इसके परिणाम बड़े ही खतरनाक होंगें | हम इससे जानबूझकर अनभिज्ञ हैं क्योंकि शायद हमें वह आभासी और क्षणिक दुनिया अच्छी लगने लग गयी है | हमारी हर दृष्टि पर बाज़ार का चश्मा चढ़ा हुआ है इसलिए हमें उसमें सुख नज़र आता है | जो उसके खिलाफ हैं वे बाकियों के लिए ‘पागल’ ही तो हैं | जीवन के प्रति आस्था और सपनों की उत्कंठा का यह पागलपन बाजारवाद के ढके सच को ज्ञान जी अपने इस महत्वाकांक्षी उपन्यास के जरिये हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं |

बाज़ार की आंधी में यथार्थ के बदलने की गति बड़ी तेज है | आप देखिये वह पल भर में ही बदल जाता है | कल जो सपना था वह आज हकीकत बन जाता है | अगले दिन वह हकीकत अपने स्वप्न से दो कदम आगे खड़ी मिलती है | ऐसे में उस यथार्थ को रचनात्मक साहित्य में ढाल पाना खासा दुष्कर है | लेखक को एक साथ समकालीन बने रहते हुए अपने समय से संवाद भी स्थापित करते रहना है साथ ही उसे आगे आने वाले बदलावों के दृष्टिगत भविष्यदृष्टि भी रखनी है | यह बात एक छोटी रचना में साधनी हो तो कोई खास मुश्किल नही आती लेकिन जब ऐसी चुनौती को आप उपन्यास जैसी बड़ी रचना में लेते हैं तब आपके अन्दर के लेखक की वास्तविक परख होती है | ज्ञान चतुर्वेदी का यह उपन्यास ‘राग दरबारी’ के बाद हिंदी व्यंग्य उपन्यासों की परम्परा को नई ऊँचाइयों तक ले जाने वाला साबित होगा | यहाँ से उन्होंने व्यंग्य कथासाहित्य एक नए मुहावरे का सूत्रपात किया है | मेरी राय में अपने महत्वपूर्ण विषय चयन और एकदम अलग ढंग के कथा प्रारूप के चलते इस उपन्यास की चर्चा आने वाले लम्बे समय तक रहने वाली है |

‘पागलखाना’ में लेखक सिर्फ ऐसे लोगों की कथा ही नही कहता बल्कि इनके माध्यम से ऐसी भागती-दौड़ती बाजारी व्यवस्था में बदलाव की हिमायत करता है | इसके माध्यम से वह हमें जीवन को जीवन की तरह देखने का विनम्र आग्रह करता है | उपन्यास में जगह-जगह तमाम सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक समस्याओं पर बात की गयी है | तमाम वैचारिक सूत्र कथा और कथापात्रों के माध्यम से स्वयमेव उपजते हैं इसके लिए अलग से लेखक का कोई दखल नही है | इस लिहाज से मैं इस उपन्यास को समस्यामूलक विचारपरक द्वंदात्मक व्यंग्य उपन्यास भी कहा जा सकता है |

हर जगह बाज़ार के कारिंदे घूम रहे हैं | वह किसी अदृश्य मनुष्य की तरह लोगों के पीछे लगा हुआ है | वह उजालों में भी है और अंधेरों में भी- बाज़ार की यही तो विशेषता है | वह खुद ही अँधेरे पैदा करता है और खुद ही उन अंधेरों की चिंता भी करता है |’ जब बाज़ार का कारिन्दा उससे कहता है कि उसे कुछ पागलों की चिंता नही करनी चाहिए तो बाज़ार उसे फटकारता हुआ जवाब देता है, कैसी बातें करते हो ? अरे, आज जिस रास्ते पर एक पागल जा रहा है, कल सारे लोग उस रास्ते पर चल सकते हैं | दुनिया में कितनी ही बार ऐसा हुआ है कि किसी एक पागल ने रास्ता दिखाया है और लाखों लोग उसके पीछे चल दिए हैं |…हमें पागलों की बातों को कम करके नही आंकना चाहिए |…आज एक शख्स भागने की कोशिश कर रहा है, कल सारे करेंगेंबाज़ार डूब जाएगा |…” उसे लगता है कि उसकी मार्केटिंग स्ट्रेटेजी में कहीं कोई गड़बड़ी है | इस तरह बाज़ार एक बड़े दैत्य की तरह सबकुछ निगल जाने को आतुर है | ऐसा नही है कि लेखक ने पूरे उपन्यास में केवल बाज़ार के चरित्र के नकारात्मक शेड्स ही दिखाए हैं बल्कि जीवन के प्रति दुर्दम्य जिजीविषा और सकारात्मक आस्था के साथ व्यक्ति की निजता और स्वतंत्रता की रक्षा उसकी एक भावना रही है |

सायकेट्रिक के पास ले जाने पर वह आदमी जिसके सपने गुम हो गये हैं अपने बेटे से कहता है, आदमी अपने सपनों को बेइंतहाँ प्यार करता हो तो सपनों की दुनिया और यह दुनिया आपस में मिल जाती हैं | तब आदमी एक दुनिया से दूसरी दुनिया में आसानी से आवाजाही कर सकता है | वास्तव में ये दोनों दुनिया समांतर बसी हैं और दोनों के बीच पचासों पुल भी बने हैं | हर घर में एक पुल खुलता है | घर बंद हो या खुला, इससे फर्क नही पड़ता | पुल के रास्ते अपने सपने में घुसा जा सकता है, और वहां से कहीं भी |…वे न जाने ऐसा ही क्याक्या बड़बड़ाते रहे | ऊलजलूल |”

दोनों के बीच होता संवाद और उसके मासूम से तर्क सुनकर दिल करुणा से भर उठता है | डॉक्टर के स्वांग को देखकर वह मुस्कुराता हुआ कह उठता है,

“’सपनों की आवाजें सुनने, समझने वाले कान नही हैं आपके पास, डॉक्टरआप कोशिश भी न करें | आपको कुछ भी सुनाई नही देगा | आपके कानों में बाज़ार का शोर इतना लाउड है कि वहां मेरे सपनों की सिसकियाँ आपके आले से भी आपको सुनाई नहीं देंगीं |… वे बोले |

बाज़ार का शोर ?…मेरा यह कमरा साउंडप्रूफ है जनाब | यहाँ कोई भी आवाज़ नही आ सकती |’ डॉक्टर ने गर्वमिश्रित मुस्कान के साथ कहा |

ऐसे साउंडप्रूफ कमरे बड़े खतरनाक होते हैं डॉक्टर !…इनमें, धीरेधीरे अपनी खुद की आवाज़ भी सुनाई देनी बंद हो जाती है | ध्यान रखिएगा |’ उन्होंने चेतावनी के स्वर में कहा |”

लेखक कहता भी है कि हर क्रान्तिकारी विचार शुरू के अकेलेपन में पागलपन ही तो होता है | हद तो तब होती है जब ‘सुरंग वाले अंकल’ को उनके द्वारा खोदी जा रही सुरंग के बाबत बाज़ार उन्हें एक ‘प्रोजेक्ट’ का ‘प्रपोजल’ भेज देता है | इस तरह वह बड़ा ही ‘मार्केट फ्रेंडली’ होकर उन्हें दबोचने की आखिरी कोशिश करता है | दूसरी तरफ मेनहोल को लेकर एलियन और तमाम तरह की अफवाहें वायरल हो जाती हैं | उपन्यास का अंत जितना मार्मिक है उतना ही सार्थक भी | बाज़ार कुछ ‘पागलों’ को मारने में सफल हो जाता है तो कुछ को उनके न चाहते हुए भी अपने इलाके में जबरदस्ती खीँच लाता है | जैसे कि सुरंग बाबा की क्रांति का आध्यात्मिक अंत | फिर भी उसका चरित्र कमज़ोर नही है | वह भले ही हार गया लेकिन उसे उम्मीद है कि उसकी यह लड़ाई जारी रहने वाली है | पागलों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है | डॉक्टर इस निश्चित पैटर्न के ‘पागलपन’ को समझ नही पा रहे हैं | बाज़ार इन विद्रोहियों से निपटने के लिए नित नए प्लान्स बना रहा है कि तभी समय विद्रोह कर देता है | यह देखकर बाज़ार सकते में आ जाता है | वह तो स्वयं को समय से परे समझ रहा था | उसने खुद को ईश्वर समझने की गलती कर दी थी | वह गलत साबित होता है | इस चरमबिंदु पर उपन्यास समाप्त होता है |

पश्चिमी विचारक एडुवार्डों गैलिआनो लिखता है, ‘साहित्य के लिए सबसे बड़ा काम बेहतर दुनिया की हमारी साझी समझ के खिलाफ बेधड़क और खुलेआम चल रहे सरकारीकरण और बाजारीकरण से शब्दों को बचाना है। क्योंकि आजकल आज़ादी’ मेरे देश की एक जेल का नाम है और तानाशाह सरकारों ने खुद को ‘लोकतंत्र’ घोषित कर रखा है। अब ‘प्यार’ इंसान का अपनी गाड़ी से लगाव और ‘क्रांति’ बाजार में आये किसी नए ब्रांड के धमाकेदार प्रचार के काम आ रहे हैं। अब हमें खास और महँगे ब्रांड का साबुन रगड़ने पर ‘गर्व’ और फास्टफूड खाने पर ‘खुशी’ का एहसास होता है। ‘शांत देश’ दरअसल बेनाम कब्रों की लगातार बढ़ती जाने वाली कतार है और ‘स्वस्थ’ इंसान वह है जो सबकुछ देखता है और चुप रहता है। शायद उसे नही पता कि एक दिन वह स्वयं भी इसका शिकार बनने वाला है।‘ उसके इस कथन के आलोक में कहूँ तो ‘पागलखाना’ अपने समय से आगे का उपन्यास है | यह उपन्यास बाजारवाद का बेहतरीन रचनात्मक विश्लेषण पेश करता है | अगर आप इसे समय लेकर पढ़ेंगें तो यह एक अद्भुत उपन्यास है | इस विश्वस्तरीय कृति को न सिर्फ व्यंग्य बल्कि पूरे समकालीन हिंदी कथा साहित्य की उपलब्धि कहना होगा | श्री चतुर्वेदी के इस उपन्यास को पढ़कर तयशुदा फॉर्मेट में आलोचना के अभ्यस्त हो चुके हमारे कथा आलोचक अपने तय पैमानों से बाहर झांक पायेंगें ? क्योंकि इतिहास गवाह है कि जब भी किसी रचनाकार ने बंधी बंधाई लीक तोड़ने की हिम्मत की है उसके समय के आलोचक उसका ठीक प्रकार से मूल्यांकन करने में चूके हैं | ‘पागलखाना’ उनके लिए भी कठिन चुनौती पेश करता है |

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9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध) सीतापुर उ.प्र. 261203

मो. 9454112975

rahuldev.bly@gmail.com

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सूरज बड़त्या की कहानी ‘कबीरन’

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हाल के वर्षों में दलित साहित्य में सूरज बड़त्या ने अच्छी पहचान बनाई है. आज उनकी एक कहानी आपके लिए- मॉडरेटर

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अक्सर वह सुमेघ को ट्रेन में दिखायी दे जाती थी। कभी अपने ग्रुप में तो कभी अकेली। सुमेघ उसे देख अपने पास बुला लेता या वह खुद ही चली आती। ऐसा लगता जैसे वो उसे पहचानती है। सुमेघ ने कई बार सोचा कि उसके बारे में जाने लेकिन सार्वजनिक जगह और समय की कमी ने कभी भी मौका ही नहीं दिया। वह बहुत सुन्दर थी और गाती भी गज़ब का थी। ट्रेन की फिजा में उसकी सुरीली आवाज से सुमेघ के भीतर कुछ खुदबुदाने लगता। उसकी आवाज में कितना सम्मोहन भरी गहराई थी-

          ‘‘बना के क्यूँ बिगाडा रे ऽऽऽऽऽऽऽ

          बिगाडा रे नसीबा ऽऽऽऽऽऽऽ ऊपर वाले ऽऽऽऽऽऽऽ ओ ऊपर वाले ऽऽऽऽऽऽऽ।’’

कितना दर्द होता था उसके बोल में। हालांकि वह हंसती थी, मुसकुराती थी पर दर्द का एक पूरा दरिया उसकी आॅखों के भीतर उमड़-घुमड़ रहा होता, जैसे वह दरिया थोड़ा भावुक होने पर बहने लगेगा।

कभी-कभी किसी के द्वारा भद्दा मजाक या फिकरे कसे जाने पर उसका चेहरा एक पल को रक्ताप होता तो दूसरे ही पल वह उसे संयमित कर हंस देती। गहरा व्यंग्य होता था इस हंसी में, जैसे इस हैवानी सिस्टम पर हंस रही हो।

उसका हिजड़ी (हिजड़ों में स्त्री और पुरूष हिजड़ा दोनों होते हैं) होना इस मानवता पर कलंक था। उसका व्यक्तित्व बहुत ही आकर्षित था और वह मोनालिसा सी सुन्दर दिखती। सधी हुयी नाक, नाक के दोनों गोलों के ठीक नीचे गुलाबी ओठ, नुकीली ठोढी, आॅखों में एक उदास चमक हमेशा तैरती दिखती ………। सुमेघ को उसमें अपनापा सा लगता आकर्षक, आत्मीय अपनापा।

सुमेघ को चण्डीगढ़ आये पांच साल हो आये थे। समय को उसने सज़ा की तरह काटा। नौकरी थी यूनिवर्सिटी में। पढ़ता-पढ़ाता। शाम को अक्सर निकल जाता लम्बी वीरान काली सड़कों को नापने। कभी किसी बाजार को निहारता। शहर अच्छा था, व्यवस्थित तरीके से बसाया हुआ। पर यह किसी मनु नक्शागो की क्रियश्यन नहीं थी। वर्ना ये शहर भी चार वर्णों की तरह चार हिस्सों में बँटा होता। या फिर केन्द्र और सीमान्त की वर्गीय मानसिकता से बना होता। सुना है किसी फ्रांसीसी या जर्मनी नक्शागो लकारबुजे ने इस शहर का नक्शा रचा था, डिजाइन किया था। एक चैड़ी सड़क, सड़क के साथ रिक्शा और साइकिल चलाने को अलग से छोटी लेकिन बड़ी सड़को के समानन्तर छोटी सड़कें। सड़क के दोनों किनारों पर घने पेड़, पार्क, खुले आंगन वाले घर। सरकारी कार्यालय। बाजार के लिए निर्धारित स्थल। सब कुछ व्यवस्थित। ऐसा लगता था कि जैसे शहर की व्यवस्था को लकारबुजे ने व्यवस्थित कर दिया था और शहर के लोगों के दिमाग को गुरूओं के उपदेशों ने। तभी तो भारत के अन्य शहरों की तरह जाति का गर्वीला अहंम यहां कम ही दिखता। कभी-कभी सुमेघ को लगता कि पूरी दुनियां का नक्शा किसी लकारबुजे को बनाना चाहिए था और लोगों के दिमाग में सन्त गुरूओं के विचारों की महक बसी रहती तो यह भेद भाव न रहता।

सुमेघ को हिजडों से गहरा अपनापा सा लगता था। उसे वे भी सीमान्त पर ठहराये घुमन्तु से लगते। नगर-गाँव, शहर से बेदखल किये हुए। चाहें कहीं भी हो, गौर से उनके चेहरों हाव-भाव को पढ़ने की कोशिश करता, पहचानता, ढूंढता रहता कुछ। इस दरम्यान बेचैनी का बवंडर उसके भीतर उठता। उसके दोस्त सनकी और पागल समझते थे उसे।

उसे याद है जब वह दसवीं में था स्कूल में एक लड़की आयी थी गाने के लिए। वह उसे देखता ही रह गया था।  बला कि खूबसूरत। उसने पास बैठी निहाली से कहा था- ‘‘कितनी सुन्दर लड़की है न? जैसी सुन्दर वैसी ही आवाज ………।’’

निहाली उसकी तरफ देखकर हंस पड़ी, ‘‘बेवकूफ ये लड़की नहीं है बल्कि हिजड़ी है। विश्वास नहीं हुआ था सुमेघ को। कोई हिजड़ी इतनी खूबसूरत ……..? फिर वह हिजड़ी गाते-गुनगुनाते नाचने लगी थी। उसे निहाली की बात पर विश्वास नहीं हुआ था। घर आकर अम्मा को यह बात बतायी। अम्मा सुनकर परेशान सी हो गयी। अम्मा ने सुमेघ को अपनी गोद में बिठाकर कहा था- हाँ बेटा, कुछ हिजड़े बहुत ही सुन्दर होते हैं’’ यह बताते हुए अम्मा की आँखे पनीली हो गयी थी। ‘कुछ जन्म से ही ऐसे होते हैं। और कुछ बाद में बनाये जाते हैं जोर-जबरदस्ती से।’ ‘पर माँ वो इतनी सुन्दर थी और उसकी आवाज……..।’ बोलते-बोलते सुमेघ ने देखा कि माँ की आँखों के कोनों से पानी ढुलकने लगा था। वह चुप हो गया। ‘क्या हुआ अम्मा ? ’सुमेघ ने पूछा था।’ ‘कुछ नहीं बेटा ……..। ऐसे ही’ कह अम्मा वहां से उठकर चली गयी।

कई बार सुमेघ ने उस सुन्दर हिजड़ी को अपनी बस्ती में भी समूह के साथ नाचते-गाते देखा था। कभी-कभी वह हिजड़ी उनके घर चली आती। एक बार उसने देखा कि अम्मा ने हिजड़े को अपने गले से लगा रखा है, और दोनों रो रही है। सुमेघ को पास आता देख दोनों जल्दी से अलग हो गयी। हिजड़ी ने सुमेघ को प्यार किया, सिर पर हाथ फेरा, सुमेघ को कुछ रूपये देने चाहे, उसने मना कर दिया। फिर वल चली गयी। उसने अम्मा की तरफ आँखों में उग आये सवालों को देखा। अम्मा ने टाल दिया और अपने काम में लग गयी। अब वह अक्सर उस हिजड़ी को अपने गाँव में देखता। वह भी जब उसे देखती तो उसके पास चली आती थी। उससे बात करती। लेकिन सुमेध उससे दूर भागने की कोशिश करता। सुमेघ को बस्ती और गाँव के लड़के चिढ़ाने भी लगे थे। कोई कहता- ‘तुझे पसन्द कर लिया है हिजड़ी ने, तुझे भी ये अपने में शामिल करेंगे।’ कोई कहता- ’तेरा कोई रिश्ता है क्या इस हिजड़ी से ? देख तूझे देखते ही भागकर मिलने चली आती है।……………… तुझसे प्यार हो गया है इसे।’ उसे चिढ़ होती, गुस्सा आता…………….. और डर भी लगता।

सुमेघ के बापू सफाई का काम करते थे। सुबह सोफी में जाते थे घर से और भरी शाम शराबी होकर लौटते। पता नहीं गाँव में कितनी गन्दगी थी कि रोज साफ करनी पड़ती, पर कम होने का नाम ही लेती। सुमेघ ने बापू से कई बार कहा था- ‘बापू, तू शराब न पिया कर……. मन्ने अच्छा नी लगता…….।’ पर बापू का रटा-रटाया एक ही डायलाॅग होता- ‘बेटा, सारे गाँव का मल-मूत्तर साफ करदे-करदे खुद से भी बदबू आदी है…………….। साले ऽऽऽऽ अपणा गन्दा भी हमसे साफ कराते है……….। हम ही इनका गन्द साफ करें और गन्दे भी हमही कहे जावें।’ ’बिना दारू के ये काम नहीं कर सकता मैं……..।’ यह सुनकर वह चुप हो जाता। उसे गुस्सा आता। वह चाहता था कि बापू ये काम न करे पर ?

अम्मा बापू का सपना था कि सुमेध पढ़-लिख जाए तो उन्हें इस ‘दलिद्रता’ से मुक्ति मिले। वह खूब मन लगाकर पढ़ता। ‘अम्मा बापू को इस दलिद्रता से मुक्ति दिलानी है तो पढ़ना होगा।’ वह मन लगाकर पढ़ता गया और आज चण्डीगढ़ यूनिवर्सिटी में इतिहास का प्रोफेसर हो गया था। सप्ताह के अंत में अपने गांव आता, अम्मा-बापू के पास। उसने बापू से सफाई का काम छुड़वा दिया था। वे समय से पहले ही बूढ़े हो गये थे। बापू की उम्र के कई लोगों को वह चण्डीगढ़ में और गांव में देखता, उनके चेहरों की लाली बनी हुई थी, शरीर की गठावट में बहुत फर्क नहीं आया था। चाल में जाति अहम दूर से ही उनकी पर्सनेल्टी में। पर उसके अम्मा-बापू वक्त से पहले जर्जर हो गये थे। यह केवल शरीर का जर्जर होना नहीं था, सपनों का, चाहतों का, आकांक्षाओं का और एक पूरी पीढ़ी के सुनहरे भविष्य का मर जाना था। सुमेघ को हमेशा लगता कि यह जाति व्यवस्था उनके जैसे श्रम करने वालों की हत्यारी है।

सुमेध ने नौकरी लगने के बाद अम्मा-बापू से कहा भी था कि, वे चण्डीगढ़ चलें, पर वे नहीं माने- ‘बेटा जब म्हारी सारी जिन्नगी यहां कटगी ते अब वहां जाकै कै करेंगे।’ अम्मा ने कहा था। एक दिन उसने अम्मा को बताया कि वह हिज़ड़ी जो उनकी बस्ती में आती थी, वैसी ही शक्ल की ट्रेन में दिख जाती है। उसने अम्मा के चेहरे पर परेशानी को बैठते देखा। वह सुमेघ की तरफ टकटकी लगाये देखती ही रही। ‘क्या हुआ अम्मा ?’ अम्मा कुछ नहीं बोली, पर वो वहां से उठकर चली गयी। सुमेघ जान गया था कि अम्मा की आँखें अब दरिया बनकर बहने वाली है। अम्मा कभी किसी के सामने नहीं रोती थी। जब भी वह भावुक होती उठकर चली जाती। अम्मा का गौर वर्ण का चेहरा रक्ताप हो जाता। कभी-कभी वो कल्पना करता कि उस हिजड़ी के रक्ताप और बेचैन चेहरे और अम्मा के चेहरे में क्या कोई समानता थी? उसने यह बात बापू को बतायी तो वे भी बेचैन होकर उठकर चले गये। यह कैसा अजीब-दहशत भरी जिक्र था कि सुनकर अम्मा-बापू…?

सप्ताह के अंत में वह चण्डीगढ़ से करनाल अपने घर आता। वह जिस ट्रेन से आता तो अक्सर हिजड़ो का वह समूह भी होता और उसमें वह भी शामिल होती सुन्दर, गाने वाली हिजड़ी। एक बार ट्रेन के डिब्बे में वह बैठा था, भीड़ कम थी। उसमें अकेले-दुकेले लोग ही आ जा रहे थे। वह भी उसी डिब्बे में थी और उसके गाने की आवाज़ आ रही थी। सुमेघ ने तय किया कि वह आज उससे बात करेगा………..।

‘‘क्या यह महज एक संयोग था कि उससे अक्सर सुमेघ की मुलाकात हो ही जाती। संयोग, महज संयोग तो नहीं होते, लगातार घटते संयोगों के बीच कुछ तो रिश्ता होता ही होगा।’’ सुमेघ ने सोचा। जब वह हिजड़ी उसके पास आयी तो सुमेघ ने कहा- ‘‘आपने पहचाना मुझे।’’ सुनकर वह चैंक गयी……। इतने तहज़ीब भरे शब्द उसके कान सुनने के आदी नहीं थे। उसने सुमेघ की तरफ ध्यान से देखा। उसके चेहरे पर उग आये प्रश्नों को सुमेघ पढ़ सकता था। ‘मैं वही हूँ………… आप हमारे गाँव, बस्ती और मेरे घर में आती थी।’ ‘आप शायद मुझे नहीं पहचान पा रही हो, पर मैं आपकी आवाज और शक्ल को नहीं भूला’ मैं वही……………..?’ कहकर सुमेघ चुप हो गया। उसके चेहरे पर उगे सवालों की फसल को सुमेघ ने काट डाला, पर हैरानी की नयी फसल रक्ताप गोरे चेहरेे पर लहलहाने लगी थी। ‘‘आप ? आपकी अम्मा कैसी है?’ ‘घर में सब कैसे हैं बाबूजी?’ बोलते हुए शब्द कांपने लगे थे’ और जैसे उसके साथ शब्द, फिजा और सभी वस्तुएँ घबराकर सिसकने लगी हो। वह उसके साथ वाली सीट पर बैठ गयी। अपने को नाकाम संयमित करते हुए शब्द जैसे किसी गहरे कुएँ से टकराकर लौटे हों- ‘‘आप यहां कैसे बाबूजी’’? ‘‘अरसा हुआ वह शहर छूटे’’ ‘‘हमारा वैसे भी अपना कोई तो है नहीं जिसके लिए एक जगह रूकें, ऐसे ही गाते, बजाते, नाचते जहां पेट ले जाता है चले जाते हैं’’ ‘मैं यहाँ यूनिवर्सिटी में पढ़ाता हूँ, सुमेघ ने उसके चेहरे पर निगाह टिकाये हुए कहा। ‘पढ़ाते हो …………..?’ उसकी आवाज में सुखद आश्चर्य, जैसे किसी अपने की खुशी में शरीक हुयी हो।’ फिर उसके समूह के अन्य हिजड़े भी आ गये। न चाहते हुए भी वह जाने लगी, तो सुमेघ ने उसे कुछ पैसे देने चाहे तो उसने मनाकर दिया और वह चली गयी।

घर पहुँचकर सुमेघ ने आज हुई मुलाकात और बातचीत की सूचना बापू और अम्मा दोनों को दी। दोनों के चेहरों पर उदासी और चिन्ता को सुमेघ ने स्पष्ट बैठे देखा था। ‘क्या आप लोग उसे जानते हो अम्मा?’ सुमेघ ने दोनों की तरफ देखते हुए कहा।

अम्मा ने बापू की तरफ देखा। बापू उठकर बाहर चले गये। बापू दोपहर को गये थे और शाम घिर आयी। पर बापू नहीं लौटे। अम्मा को भी चिन्ता होने लगी। अम्मा ने सुमेघ से बापू को ढूँढकर लाने को कहा। सुमेघ बापू को ढूँढने बाहर निकल ही रहा था कि उसने देखा कि बापू लड़़खड़ाते कदमों से घर में दाखिल हो रहे हैं। बापू ने खूब शराब पी रखी थी ‘‘आज मन थोड़ा भारी था बेट्टा, मैंने पी ली, तू बुरा ना मानियो,…………. फेर नहीं पीऊँगा……………….।’’ थके, घायल शब्द थे जो किसी तरह बापू मुँह से निकाल पाये थे। अम्मा की आँखों से दरिया निकल रहा था। वह दरिया जो वर्षों से रूका था आज बाँध को तोड़कर सैलाब बन गया था। सुमेघ समझ गया था कि कहीं कुछ गहरे में अटका है। उसका मन भी दुःखी हो गया। वह घर से बाहर निकल आया।

भावुक फिजा और काली रात के बाद भोर हुई थी। चाय पीकर वह अम्मा के पास बैठ गया। ‘‘बताओ अम्मा क्या बात है ? सब कुछ बताओ आज।’’ अगर अपने ही अपनों से दूराव रखें, फिर परायों का क्या ?’’ अम्मा ने सुमेघ की ओर देखा। कुछ सोचा और।

‘बेटा, बात तेरे पैदा होने से चार साल पहले की है,…………….। मुझे बच्चा हुआ था, और मैं बेहोश थी। होश आया तो, अपने पास बच्चा न देखकर मैंने पास बैठी तुम्हारी दादी की तरफ देखा। दादी के चेहरे पर उदासी और तनाव था। दादी ने कहा था- ‘…………., ‘‘अरी बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ था इसलिए।’’ पास में ही दाई बैठी थी जो मेरे सिर को सलहा रही थी। अधेड़ दाई मुँह लटकाये बैठी थी। मेरे मुँह से सिसकियां  सुन दाई मुझे समझाने लगी- ‘बेट्टा भगवान की जै मरजी। उसके आगे म्हारा क्या ? ‘हमारे निपूते करम ही ऐसे थ। उसने दिया था तै उसने अपणै धौरे बुला लिया। ’’पर मैंने तो बच्चे की किलकारी सुनी थी। भारी मन और आंसुओं से लबालब चेहरे से अम्मा ने दाई और दादी सेे कहा। ‘‘अरे नहीं तू तो बेहोश थी। तूझे क्या होश। बेहोशी में बड़बड़ा रही थी।’’ दाई ने कहा था। ‘‘पर मुझे उसका चेहरा तो दिखा देते।’’ मैं गिड़गिड़ाई थी। फिर दादी भुनभुननाते हुए बाहर चली गयी। कहकर अम्मा चुप हो गयी। सुमेघ ने अम्मा का हाथ अपने हाथ में लेकर उसके पास सरकते हुए कहा- ‘बताओ अम्मा फिर क्या हुआ?’

अम्मा ने फिर बताना शुरू किया ‘‘मैं दाई के सामने रिरियाई। बताओ मुझे, लड़की थी या लड़का?’’ ‘लड़की थी’। ‘कैसे दिखती थी?’ अम्मा ने पूछा। ‘‘चाँद सी थी एकदम, दूध जेसा रंग था तेरे जैसा?…………..। ‘अरी अंग्रेजन थी, अंग्रेजन’’ अगर जीवित रहती तो।’’ भारी मन से कहते हुए दाई भी बाहर चली गयी।

‘‘पर मेरा मन नहीं मानता था कि बच्ची मरी पैदा हुई, पहली संतान थी परिवार में, सबके सपने, खुशी, उम्मीदें उससे जुडे थे। और मैं तो माँ थी, मेरी बच्ची।, ‘‘नौ महीने पेट में सहेजा था। कैसे सहती सब।’’ ‘‘मैंने तुम्हारे बापू से पूछा, कसमें दी। कहा कि मैं मर जाऊँगी, तब जाकर उन्होंने मुझे सच बात बतायी।’’

‘‘तेरे बापू ने कहा बच्ची तो जिन्दा थी पर वह लड़की थी या लड़का पता नहीं चलता था।’’ ‘मैं तो उसे रखना चाहता था पर ते माँ (दादी) ऐसा नहीं चाहती थी।’ ‘‘मैंने कहा भी था। काई नी हम पाल लेंगे, किसी को क्या पता चलेगा……………..।’’ पर तेरी माँ इज्जत-मान की कहने लगी। दिल पर पत्थर रखकर मैंने उसे अनाथालय भेज दिया। ‘माँ तो कहती थी कि उसे मार दो, उसने दाई को मारने के लिए जहर भी दिया था, पर मैंने साफ मना कर दिया।’’ ‘‘चाँद जैसी सुन्दर थी।’’ कहकर तेरे बापू रोने लगे थे। सिसकते हुए अम्मा ने बताया। ‘‘फिर क्या हुआ अम्मा ? सुमेघ ने अम्मा को ढाँढस बँधाते हुए पूछा। ‘‘तेरे बापू ने उसका नाम कबीरन रखा था। वो उससे नियमित मिलने जाते, मैं भी जाती थी।’’ बेहद सुन्दर और प्यारी थी।’’ दसवीं तक ही पढ़ पायी थी वो’’- ‘लेकिन  अनाथआलय में ये बात छिपी न रह सकी और हिजड़ों का एक समूह उसे अपने साथ लेकर चला गया।’’ ‘‘मैंने और तेरे बापू ने बहुत कोशिश की, पर क्या करते।’’ ‘‘उसे हिजड़ों के एक समूह से दूसरे समूह में बेचा गया जिससे उसकी पहचान छुपी रहे।’’ ‘‘कैसी पहचान अम्मा?’’ सुमेघ ने बेचैनी से पूछा। ‘बेटा, म्हारी छोटी जात, जात तो जात है बेट्टा, वह चाहे इंसानों में रहे चाहें हिजड़ों में, फर्क तो पड़ता ही है।’’ ‘पर अम्मा हिजड़े भी तो इन्सान है।’’ ‘कौन मानता है बेट्टा इसे………। तू पढ़-लिख लिया इसलिए ऐसा कहता है, वरना, हम क्यों अपनी कबीरन को घर से निकालते।’’ ‘‘इससे तो अच्छा होता हम उसे मार डालते, बेचारी माँ-बाप, भाई के होते हुए दर-दर की ठोकरे तो न खाती। कहकर अम्मा जोर-जोर से रोने लगी थी।’ सुमेघ भी रूलाई को न रोक सका।’’ वह उठकर कमरे में निकल गया और इस क्रूर समाज पर ?

‘‘मैं अपनी बहन, कबीरन को वापिस घर लाऊँगा’’, सुमेघ ने मन ही मन तय किया। वह वापिस यूनिवर्सिटी पहुँचा, पर पढ़ाने में उसका मन न रमता। उसने कई बार हिजड़ों के समूहों में कबीरन को तलाशने की कोशिश की पर वह कहीं नहीं मिली। वह उसे हर ट्रेन में भी तलाशता। पर वह न दिखती।

लगातार दो साल तक वह उसे ढूँढता रहा। एक दिन सप्ताह के अंत में वह ट्रेन में घर आने के लिए बैठा। सुमेघ चैंक पड़ा था। उसे सुखद अनुभूति हुई जब उसने वही सुरीली आवाज सुनी। ‘बना के क्यूँ बिगाड़ा रे………………. बिगाड़ा रे नसीबा………………ऽऽऽऽ ऊपर वाले ऽऽऽ ओ ऊपर वाले……………………………..।

वह अपने को रोक नहीं पाया और तेजी से उठकर आती आवाज की दिशा में चल पड़ा। वह कबीरन ही थी। वह कबीरन के सामने पहुँचा। कबीरन उसे अपने पास खड़ा देख, गाते-गाते रूक गयी। डिब्बे में बैठे लोग भी उसकी तरफ देखने लगे। ‘मुझे तुमसे बात करनी है दीदी’। सुमेघ ने फिलिंग्स को संयमित करते हुए कहा था। ’दीदी’ सुनकर डिब्बे में बैठे लोग आश्चर्य और बेहुदेपन से सुमेघ की तरफ देखने लगे। ‘कबीरन ने भी भावुक होकर सुमेघ को देखा।’

‘‘आप अपनी सीट पर चलिये बाबूजी मैं अभी आती हूँ’’। ‘पर तुम अभी मेरे साथ चलो दीदी।’’ क्यों भाई साहब जरा गाना तो सुना लेने दो फिर ले जाना।’’ ठहाका लगाते हुए भौंड़ेपन से, कहीं से आवाज आयी। ‘संयम रखते हुए सुमेघ अपनी सीट पर जाकर बैठ गया। तब तक उसके समूह के अन्य हिजड़े भी उसके पास पहुँच गये थे। वे भी बेशर्म लोगों का मनोरंजन करने लगे। कुछ देर बाद कबीरन सुमेघ के पास आकर बोली- ‘‘कहिये बाबूजी, क्या बात है ?’’ ‘घर में सब ठीक तो है ?’’ ‘दीदी मुझे तुमसे अकेले में बात करनी है, अम्मा ने मुझे सब कुछ बता दिया है।’’ भावुक बेचैनी और आसुँओं को किसी तरह जज्ब़ करते हुए सुमेघ ने कहा था। पर मुझे नहीं मिलना आपसे बाबूजी। और वैसे भी हमलोगों के पास बेकार और पीछे छूट गये रिश्ते निभाने की फुर्सत नहीं है, कहते हुए कबीरन थोड़ी तल्ख हो गयी थी।’’ ‘‘फुर्सत नहीं है या अब मिलने की हसरत नहीं है बची दीदी।’’ गिड़गिड़ाया था वह। सुमेघ ने पुनः कहा- ‘ये मेरा फोन नं0 है दीदी, अगर तुम्हें लगे और फुर्सत मिले तो फोन कर लेना……..। मैं तुम्हें घर वापिस ले जाने आया हूँ दीदी।’’ कहा था सुमेघ ने। ट्रेन के डिब्बे का यह एक अलग ही दृश्य था। समूह के अन्य हिजड़ों ने भी यह सब सुना, देखा। वे सुबकती-सिसकती कबीरन को अपने साथ लेकर चले गये। उसे एहसास हुआ- ‘‘समय ने रिश्ते के दरिया को सुखा दिया है। उसके सामने केवल मरूस्थल है।’’

अम्मा-बापू के पास जाने का सुमेघ का मन न हुआ। भारी मन से वह यूनिवर्सिटी में मिले क्वार्टर पर लौट आया। शाम को खाना बनाने आयी राधा से भी उसने कुछ नहीं बनवाया। दूध पीकर वह सोने की कोशिश करने लगा। उसका मन दुःखी और बेचैन था। ‘कितने खराब और बेहुदे समाज में रहते हैं हम। जात-पांत में तो यह बैर ही है पर एक हिजड़े को भी वह अपने में शामिल नहीं कर पाया। उसे अम्मा-बापू पर गुस्सा भी आता और उनकी मजबूरी पर रहम। सवेरे उठा। सिर भारी था। उसका कहीं जाने को मन नहीं था। फिर से कबीरन से मिलने की इच्छा होने लगी। वह उसकी बहन है। उसे भी तो इस अमानवीय समाज में मुक्त होना होगा। उसकी बहन जैसी न जाने कितनी कबीरन ? यहां सभी सीमान्त वाले जाति-धर्म-पितृसत्ता में कैद हैं। पर हिजड़े समुदाय के लिए ऐसी हैवानियत और बेदखली किस वैचारिक सत्ता की बदौलत है? इनकी आवाज, अस्मिता, गरिमा को लेकर कहीं कोई आन्दोलन नहीं? अपनापा नहीं? न ये आदमी हैं न औरत। पर हैं तो इंसान ही। जीते-जागते इंसान। इनकी विशेष अस्मिता की बात तो हमें ही करनी होगी,। ये तो दलितों में भी दलित। अछूतो में भी अछूत, अनाथों के अनाथ है’’। उसकी बेचैनी बढ़ रही थी। फोन की घन्टी ने उसे विचारों की यातना से बाहर निकाला था। ‘बाबूजी मैं कबीरन बोल रहीे हूँ। आप मिलना चाहते थे न, बताओ कहां मिलोगे ?’’ आवाज सुनकर घबड़ा गया था सुमेघ। ‘दीदी’। शब्द बेसब्री से बेसाख्ता बाहर निकल आये थे। ‘दीदी यहीं चली आओ न यूनिवर्सिटी में। उसने जल्दी से अपना क्वार्टर का पता कबीरन को बताया।’’

‘मैं तो वहां आ जाऊगी बाबूजी, पर आपको लोग क्या कहेंगे ? एक हिजड़े को घर में बुलायेंगे।’’ जिसे अम्मा-बापू घर में नहीं रख पाये उसे आप घर में ?’’ नहीं दीदी आप घर पर ही आ जाओ। कहकर रो ही पड़ा था सुमेघ।

कबीरन के फोन के बाद सुमेघ कभी कमरे में तो कभी बाहर गली में टहलता रहा। उसके मन में कई तरह के विचार एक साथ आते और चले जाते। भावनाओं का बवण्डर उठता और। उसे कहीं पर पढ़ी कबीर की पंक्ति याद हो आयी- ‘‘अवधू भूलै को घर लावै। सो नर हमको भावै।’’ पर क्या ऐसा हो पाएगा? सोचा था उसने। ‘समाज क्या कहेगा। अम्मा-बापू उसे रख पायेंगे…….।’’ और रिश्तेदार, समाज?’’ उसने झटके से सवालों को रौंद डाला। ‘नहीं…….। वह मेरी दीदी है…………..। बिछड़ी हुई, बेदखल की हुई। मैं रखूँगा उसे।’ उसने तड़पकर निर्णय लिया।’

गली में टहलते हुए उसने दूर से ही कबीरन को देख लिया था। लम्बा कद, गौर वर्ण। कितनी सुन्दर दिख रही थी दीदी। पास आने पर उसे लगा जैसे धूप कबीरन की आँखों में उतर आयी हो। चेहरे पर कैसा तेज था। चाल में अल्हड़ता लिए आत्मविश्वास….। ‘‘क्या मीरा बाई ऐसी ही रही होगी ?’’ सोचा था सुमेघ ने। उसने देखा कि आज कबीरन ने एकदम अलग सलीके का लिबास पहना था, अगर किसी को न बताया जाये कि वह, ..?

‘‘नमस्ते दीदी।’’ कहा था सुमेघ ने। ‘नमस्ते बाबूजी। बिना अपनापन के विनम्र तल्खी से कबीरन ने उतर दिया। दोनों के बीच चुप्पी पसर गयी। सुमेघ बिना बोले उसके साथ-साथ चलते हुए अपने कवार्टर तक पहुँचा। ‘‘पानी पीओगी दीदी ?’’ कबीरन कुछ नहीं बोली। आँख उठाकर सुमेघ को देखा था। कबीरन की आँखों में गहरा तेज था। अनेको सवाल थे। उनका सामना सुमेघ नहीं कर पाया और पानी लेने किचन में चला गया। कबीरन ने घर में इधर-उधर देखा। किताबें, दीवारों पर कुछ तस्वीरें। चार कुर्सियाँ। सुमेघ के अकेले रहने का अहसास करा रही थीं। सुमेघ वापिस ड्राइंगरूम में आया। उसने पानी का गिलास कबीरन की ओर बढ़ा दिया। ‘आपने अभी तक शादी नहीं की बाबूजी ?’’ ‘‘नहीं दीदी। नहीं की’’ बेचैनी से बोला। दीदी, आप मुझे बाबूजी मत कहो, मैं तुम्हारा छोटा भाई हूँ।’’ तुम मुझे सुमेघ कह लो न। प्लीज दीदी।’’ रो ही पड़ा था सुमेघ और उठकर दूसरे कमरे में चला गया। थोड़ी देर बाद लौटा था, अब वह संयमित था। ‘हाँ दीदी, तुम बताओ अपने बारे में कुछ। मैं तो तुम्हारे बारे में बिलकुल भी नहीं जानता था।’’ ‘‘वो तो बहुत दिनों बाद मैंने ही जबरदस्ती अम्मा-बापू से पूछ लिया था’’ ‘‘पता है दीदी, अम्मा-बापू तुम्हें बहुत मिस करते हैं। उस दिन जब मैंने तुम्हारे बारे में पूछा तो बापू ने बहुत दिनों बाद बहुत शराब पी और खूब रोय थे।’’ बताते हुए सुमेघ की आँखें फिर से भर आयी थी। फिर से दोनों के बीच खामोशी आकर बैठ गयी। खामोशी को सुमेघ के शब्दों ने ही हटाया था। ‘चाय पीओगी दीदी।’ हाँ, पी लूँगी, पर तुम्हें परेशानी न हो तो मैं बना लूँ। ’’कबीरन ‘बाबूजी’ और और ‘आप’ से ‘तुम’ पर उतर आयी। सुमेघ को अपनापा लगा था। चाय बनाकर कबीरन ड्राइंगरूम में आ बैठी। ‘अच्छा दीदी तुम बताओ अब। बापू ने बताया था कि तुम दसवीं तक पढ़ी थी। बहुत ही इंटिलिजेंट भी थी पढ़ने में ?’’ कई सारी बातें एक साथ सुमेध ने बाहर को उड़ेली थी।

‘मेरे पास बताने को कुछ भी तो नहीं बाबूजी।’ ‘अब हमारा परिवार, रिश्ते-नाते, सब यही समुदाय तो है।’ ‘हम यहीं अपनी पूरी जिन्दगी जी लेते हैं।’ ‘भाई-बहन, पति-पत्नी, माँ-बाप सब यहीं होते हैं।’ ‘पर मैं पूरे विश्वास से कह सकती हूँ कि तुम्हारी दुनियां से अच्छी होती हैं हमारी दुनिया। किसी को धोखा नहीं देते, दुत्कारते नहीं है।’ ‘‘हम मेहनत करते हैं, गाते-बजाते हैं, उसके बदले कुछ लेते हैं।’’ ‘हमारा समाज………….. तुम्हारी बेरहम दुनियां से अलग है बाबूजी।’’ कहते-कहते तल्ख होती गयी थी कबीरन।

सुमेघ एकटक कबीरन को देखता रहा था। ‘‘मेरा क्या कसूर था जो बापू ने मुझे घर निकाला दिया ? आज मैं दर-दर की ठोकरें खा रही हूँ तो क्यूँ?’’ ‘‘परिवार को देाषी मानूँ ? समाज का ? किसे ? ‘‘पता है बाबूजी, हम हिजड़ों में भी स्त्री और पुरूष हिजड़े होते हैं।’’ ‘‘मैं तो औरत हिजड़ा हूँ जब अनाथालय में थी तो वहाँ तुम्हारी दुनियां के पुरूष ने ही मुझसे पहली बार बलात्कार किया था। पर मैं किसे बताती कि मेरे साथ। कौन विश्वास करता कि हिजड़े के साथ बलात्कार हुआ।’’ ‘‘कहीं किसी कानून में लिखा है कि हिजड़े के साथ बलात्कार की क्या सजा है ? तुम्हारा समाज न तो हमें स़्त्री मानता है और न ही पुरूष।’’ ‘‘तुम मुझे इस बलात्कारी दुनियां में वापिस ले जाना चाहते हो।’’ पर क्यूँ ?

सुमेघ सन्न रह गया था सुनकर। उसे कबीरन बहुत ही ज्ञानी लगी थी। वह नाचते-गाते, घूमते-फिरते जैसे ज्ञान पा रही हो। कबीर सा अनुभव जन्य ज्ञान। उस अनुभव को पीकर वह सच में कबीरन बन गयी हो। पर थी तो अनाथों की अनाथ ही।

‘हम तो सीमान्त वाले हैं बाबूजी। कभी न कभी तो तुम लोगों के बनायें इन किलों और मठों को ढहा ही देंगे। उसका चेहरा गहरा रक्ताप होता गया और लहज़ा तल्ख़। ‘‘अब तुम जान ही गये हो। ‘‘तुम मेरे अपने हो और अपनों से लड़ना जोखिम भरा एडवेंचर होता है।’’ पर हमें यह हमेशा याद रखना चाहिए- ‘‘डिग्निटी इज मोर इंपोर्टेंट।’’ ‘‘और हमारी तो अस्मिता भी नहीं है कोई।’’ ‘‘तुम्हारी दुनियां, समाज, परिवार और घर में मैं किस हैसियत से जाऊँगी।’’ थोड़ा रूककर कबीरन बोली- ‘‘मैं तुम्हारे साथ नहीं चल सकती।’’ ‘‘मैं ही तुम्हारे समाज में क्यूँ आऊँ ? तुम क्यूँ नहीं आते हमें मुक्त कराने हमारे समाज में ? कितनी कबीरन यहां घर से, समाज से बेदखल होकर ठोंकरे खा रहीं है। कहते-कहते पहली बार भावुक होकर रोयी थी कबीरन। ‘‘दीदी प्लीज। लौट आओ न घर।’’ भावुकता में ही कबीरन कहती गयी। नहीं भैया, मेरा वापिस लौटना तो न होगा। पर मैं तुमसे कुछ माँगती हूँ। अगर तुम चाहते हो कि कभी-भी कोई कबीरन घर से बेदखल न हो तो समाज की मानसिकता को बदलने का प्रयास करो।’’ हम भी इंसान हैं, सांसे हैं, सपने हैं। हम तुम जैसे औरत या आदमी नहीं है तो क्या हुआ ? तुम्हारी दुनियां हमें सामान्य नहीं मानती। जबकि तुम लोग सामान्य नहीं। ज़ेहनी बीमार हो। कभी जात में, कभी धर्म में, कभी औरत-मर्द में भेदभाव किये रहते हो। बीमार समाज है तुम्हारा। इसकी बीमारी दूर करने की कोशिश करो। बस हमारे जैसा इंसानों सा बर्ताव करो। हमेशा याद रखना सुमेघ ‘‘डिग्निटी इज मोर इंपोर्टेंट।’’ और हमें तो पहले अपनी-अपनी आइडेंन्टीटी ही बनानी है, इंसानी पहचान………….।’’ कहते-कहते कबीरन उठी और दरवाजा खोलकर लम्बी काली सड़क पर चलती गयी। सुमेघ ने उसे पीछे से पुकारने की कोशिश की, पर उसकी आवाज भीतर ही घुट गयी और कानों में शब्द गुँजने लगे। ’’डिग्निटी इज मोर इंपोर्टेंट।’’

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‘बौद्धिक स्लीपर सेल‘, जो पूरा परिदृश्य बदल दे

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पुष्प रंजन ईयू-एशिया न्यूज़ के नई दिल्ली संपादक हैं और हिंदी के उन चुनिन्दा पत्रकारों में हैं जिनकी अंतरराष्ट्रीय विषयों पर पकड़ प्रभावित करती है. मेरे जैसे हिंदी वालों के लिए बहुत ज्ञानवर्धक होती है. उनका यह लेख ‘देशबंधु’ में प्रकाशित हुआ था. वहीं से साभार- प्रभात रंजन

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 देश कठुआ में बच्ची के बलात्कार कांड से आहत, उत्तेजित और व्यथित था। इसके साथ उन्नाव में नाबालिग से बलात्कार और पीड़िता के पिता की हत्या को लेकर आग में घी का काम कर रहा था। लगातार बच्चियों से दुष्कर्म व हत्या की ख़बरों ने टीवी से लेकर सोशल मीडिया तक भक्तों की बोलती बंद कर दी थी। इस व्यूह को एक झटके में बिखेर देने का काम सिर्फ लंदन के एक शो ने कर दिखाया। उससे पहले पूरे देश को इतनी भर जानकारी थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नार्डिक देशों के सम्मेलन में स्टॉकहोम जाएंगे, फिर ब्रिटेन में आहूत कॉमनवेल्थ सम्मेलन में भाग लेंगे और जर्मनी होते हुए भारत पधार जाएंगे। लंदन में पीएम मोदी का कोई मेगा शो होगा, लोग जानते तक नहीं थे।

ऐसे शो स्वतःस्फूर्त तैयार नहीं होते, जिसके लिए प्रसून जोशी अपनी कविताओं के साथ मंच पर मॉडरेशन के लिए उपस्थित हो जाएं। हॉल की बुकिंग और टिकटों को बेचने की प्रक्रिया, कोरियोग्राफी-म्यूज़िक-लाइट आदि की तैयारी में हफ्ता तो लगता है। 2400 सीटों की संख्या वाले सेंट्रल हॉल वेस्टमिंस्टर की बुकिंग का खर्चा है 15 लाख रूपये। मेगा शो के आयोजन में, और राॅक स्टार की तरह पीएम मोदी को प्रस्तुत करने में कई करोड़ रूपये किसने ख़र्च किये? इन सवालों पर चुप्पी है। सोचिए, विदेशी मंच पर प्रधानमंत्री मोदी की ग़रीबी को प्रस्तुत करने में कितने करोड़ स्वाहा हो जाते हैं?

ऐसे मेगा मंच से सवाल वही, जो मोदी मन भाये। भारत में बलात्कार, हिंसा, राजनीतिक उत्पीड़न की घटनाओं से जुड़े प्रश्नों से भारतीय मीडिया का बड़ा हिस्सा आंख मूंद ले। उन पोस्टरों, प्रदर्शनों को टीवी पर न दिखाये, तो यही संदेश जाता है कि सब कुछ प्रायोजित है। सेंट्रल हॉल वेस्टमिंस्टर में सवाल पूछने वाले प्रवासियों का प्रवेश निषेध हो, उनके कैंसिल किये टिकट के बारे में लंदन स्थित भारतीय उच्चायोग यह कहे कि आयोजक ही बताएंगे। तब लगता है, भारतीय राजनीति का रिमोट कंट्रोल अदृश्य हाथों में है।

ये कौन लोग हैं, करोड़ों खर्च करने वाले? बिल्कुल अदृश्य से। एक समर्पित योद्धा की तरह। पब्लिक ओपिनियन को एक झटके में परिवर्तित करने वाले। आग भारत में लगी होती है, अग्निशमन लंदन से होता है। ’मोदी-मोदी’……‘भारत माता की जय’ के गगनभेदी नारे से सारा कुछ ढँक जाता है। लंदन में सिर्फ़ पच्चीस सौ खाये-पीये, अधाये लोग इंडिया में करोड़ों परेशानहाल देसी लोगों की आवाज़ को एक झटके में दबा जाते हैं। करिश्मा ही तो है। इवेंट मैनेजरों और कारपोरेट का करिश्मा! सितंबर 2014 में न्यूयार्क के मेडिसन स्क्वायर गार्डन में 22 हज़ार लोगों का हुजूम इकट्ठा करने के पीछे ऐसी ही ताक़तें थीं।

2017 में प्रवासी भारतीयों के बारे में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में जानकारी दी गई कि विदेश रहने वाले भारतीयों की संख्या 17 मिलीयन है। हर साल प्रवासी भारतीयों की संख्या में दस लाख का इजाफा होता गया है। 2010 से ‘एनआरआई-पीआईओ‘ की आबादी में 17. 2 प्रतिशत की दर से बढ़त हो रही है। ये कहने को प्रवासी हैं, मगर इनमें खेमे बंटे हुए हैं। एक, भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान का समर्थक और दूसरा विरोधी। कुछ ऐसे भी जो इस खेमेबाज़ी से दूर अपने काम और परिवार से सरोकार रखने वाले। इंडियन डायसपोरा में यह खेमेबाज़ी मई 2014 के बाद से व्यापक रूप से दिखी है।

जो लोग दुनियाभर में डायसपोरा को मॉनिटर करते हैं, उन्हें भी इस नये ट्रेंड पर हैरानी है। ‘डीआरसी, डीमैक‘ में शोधरत लोगों की प्रतिक्रिया थी, ‘चीनी डायसपोरा की संख्या 50 मिलीयन है, भारत से तीन गुना ज़्यादा। मगर कभी चीनी शासन प्रमुख न तो मेगा शो करते, न रॉक स्टार की तरह प्रवासी चीनियों को संबोधित करते हैं।‘ अनिवासी चीनियों की व्यस्तता अपनी संस्कृति को शेष दुनिया से परिचित कराने, पर्यटन को आगे बढ़ाने, व्यापार करने में रहती है। 3.16 ट्रिलियन डॉलर के फॉरेन एक्सचेंज रिजर्व में पांच करोड़ प्रवासी चीनियों का बहुत बड़ा योगदान है। इसके बरक्स भारत का फॉरेन एक्सचेंज रिजर्व कितना है? 424.361 अरब डॉलर। ये आंकड़े 31 मार्च 2018 तक के हैं।

विदेशों में बसे भारतीय, अखाड़े के रूप में इस्तेमाल किये जाएंगे, इसकी शुरूआत किसने की होगी? मत सोचिये कि पीएम मोदी ने शुरूआत की है। पूर्व कूटनीतिक के.सी. सिंह बताते हैं, ‘9 जनवरी 1915 को महात्मा गांघी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौट आये। उस घटना को स्मृति में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने हर साल प्रवासी भारतीयों के किसी प्रमुख सदस्य को सम्मानित करने का निर्णय लिया। यह भी तय हुआ कि प्रवासी भारतीयों को पदम सम्मान दिया जाए। इसके लिए धनघोर लाॅबी होने लगी। 2002 में मैं यूएई में राजदूत था, मुझसे कहा गया, प्रवासी पुरस्कार के लिए मैं एक नाम भेज दूं। मैने ऐसा किया नहीं। इस आशंका से कि लोग यह न कहें कि मैंने पक्षपात किया। या फिर जो इस सम्मान का पात्र था, वह वंचित रह गया।’

एंबेसडर के.सी. सिंह अब अवकाश प्राप्त हैं। उनकी यह टिप्पणी भारतीय दूतावासों की दुविधा, और अप्रवासी संगठनों के बीच प्रतिस्पर्धा के बारे में बहुत कुछ बता जाती है। भारतीय विदेश सेवा में मेरे कुछ ऐसे सहपाठी हैं, जो बतौर राजदूत कई देशों में हैं। आज की तारीख में उनकी मुश्किल यह है कि उन्हें ऐसे लोगों की सुननी पड़ती है, जो उन देशों में प्रवासी संगठनों के नेता हैं, और प्रधानमंत्री की छवि व हिंदूवादी राजनीतिक माहौल को बनाये रखने के लिए जोड़-तोड़ करते रहते हैं। इन डिप्लोमेट्स की दिक्कत यह है कि ऐसी प्रशासनिक पीड़ा को वे सार्वजनिक नहीं कर सकते। तो क्या हमारे कूटनीतिक मिशन ऐसे काम में लग गये, जो उनके रोज़मर्रा का हिस्सा नहीं था?

हमें यहां रहकर लगता है कि विदेश में रहने वाले सारे भारतीय एक है। कनाडा-अमेरिका की सिख राजनीति को अपवाद मानें, तो 2002 से पहले यह स्थिति थी। आज की ज़मीनी हक़ीकत यह है कि वहां भी धर्म, समुदाय, प्रांतवाद के आधार पर एनआरआई-पीआईओ देश में मौजूदा नेतृत्व के प्रति अपनी निष्ठा बदलने लगे हैं। यह दिलचस्प है कि इंडियन डायसपोरा में गुजरातियों की संख्या 33 फीसदी है। सबसे अधिक गुजराती ब्रिटेन में हैं। साढ़े-छह लाख के आसपास, दूसरे नंबर पर अमेरिका है, जहां पांच लाख से अधिक गुजराती रहते हैं। ये दो ऐसे लोकेशंस हैं, जहां से पूरे यूरोप और उत्तर अमेरिका में भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान के लिए माहौल बनाया जाता है।

प्रधानमंत्री मोदी ने इस ऊर्जा को पहचाना है, और इन्हें वक्त ज़रूरत के हिसाब से ब्रह्मास्त्र के रूप में इस्तेमाल करने लगे। प्रवासी गुजरातियों के दूसरे गढ़ केन्या, कनाडा, ओमान, यूएई, आॅस्ट्रेलिया, पुर्तगाल हैं। देश की कुल आबादी का क़रीब सवा प्रतिशत विदेश में हो, और उसका 33 फीसदी हिस्सा गुजराती समुदाय का हो, तो वह उनके पराक्रम को गायेगा ही। अटल बिहारी वाजपेयी कुनबापरस्ती वाले कारणों से रॉक स्टार के रूप में अवतरित नहीं हो पाये थे। यों ‘शाइनिंग इंडिया’ उन्हीं की देन है, मगर उसका फलक उतना व्यापक नहीं हुआ कि अटल जी विश्व नेता घोषित हो जाते।

एक आम गुजराती अपने में पीएम मोदी का जो अक्स देखता है, कभी डॉ. मनमोहन सिंह के वास्ते कनाडा से अमेरिका में बैठे सिख एनआरआई देखा करते थे। जुलाई 2006 में अमेरिका से जो भारत की न्यूक्लियर डील हुई, उसमें उस इलाके में मज़बूत सिख लाॅबी की बड़ी भूमिका रही थी। कनाडा में भारतीय प्रवासियों में सिखों की संख्या 34 फीसदी है, और हिंदू 27 प्रतिशत हैं। इसी हवाले से प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने तंज़ करते हुए कहा था,‘ हमारे कैबिनेट में जितने सिख हैं, मोदी मंत्रिमंडल में भी नहीं होंगे। क्रमशः ब्रिटेन और अमेरिका ने अपने मंत्रिपरिषद में सिखों को शामिल किया है।‘ यह बात तो हंसी-मज़ाक की थी। मगर, प्रवासियों के बीच समुदाय की राजनीति का साइड इफेक्ट यह हुआ कि कनाडा में सिख बनाम हिंदू की राजनीति आरंभ हुई। यह ठीक है कि इसका फायदा भारतीय जनता पार्टी ने उठाया, मगर बाक़ी भारतवंशियों की आवाज़ नक्कारखाने में तूती बनकर रह गई।

संघ के लोग मानते हैं कि यूके से उत्तर अमेरिका तक उसके चालीस लाख समर्थक एक बड़ी ताक़त हैं। भारत में सोशल मीडिया 2014 के बाद जाग्रत हुई है, उससे डेढ दशक पहले यूके से उत्तर अमेरिका तक हिंदू चेतना इंटरनेट के ज़रिये सुलगाई जा चुकी थी। उस लहलहाती फसल को आज प्रधानमंत्री मोदी व्यापक रूप से काट रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज की तारीख़ में ग्लोबल है। ‘हिंदू स्वयंसेवक संघ‘ (एचएसएस) नाम से 39 देशों में उसकी जड़ें फैली हुई हैं। मार्च 2015 की बात है। न्यूयार्क के कोर्ट में ‘आरएसएस’ को आतंकी संगठन घोषित करने का एक मुकदमा ‘सिख फाॅर जस्टिस’ नामक संगठन ने दायर कर रखा था। अदालती सुनवाई में ओबामा प्रशासन की ओर से कहा गया, ‘फिलहाल हमें ऐसा कुछ नज़र नहीं आता कि इन्हें आतंकी मान लें। अमेरिकी प्रशासन को निष्कर्ष देने के लिए समय चाहिए।’ कुछ दिन पहले एक किताब आई थी, ‘ब्रदरहुड आॅफ सैफ्रन!’ इसे लिखने वाले का नाम है वाल्टर एंडरसन, जो अमेरिका में हिंदू थिंक टैंक के चिरपरिचित चेहरों में से एक हैं। वाल्टर एंडरसन 1980 में नई दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास में तैनात थे। अब इससे अंदाज़ा लगा लीजिए कि कितना लंबा खेल हुआ होगा। कागज़ पर इसे थिंक टैंक कहेंगे। मगर, जिस तरह की सक्रियता है। सामने वाले विरोघी को धराशायी करने का जो ‘किलर स्टिंक्ट‘ है, वह स्लीपर सेल के तौर-तरीक़े को ताज़ा करता है। जिनकी संख्या होती बहुत कम है। कहीं दिखते भी नहीं। पर अचानक से संगठित होते हैं और हमला कर पूरे परिदृश्य को बदल देते हैं। क्या इस तरह के थिंक टैंक, इंवेट योजनाकारों को हम ‘बौद्धिक स्लीपर सेल’ नहीं कहें ?

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बिहार संवादी ने बिहार साहित्य में खींच दी एक दीवार

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बिहार की राजधानी पटना में संपन्न हुए ‘जागरण संवादी’ अनेक कारणों से वाद-विवाद में बना रहा. तमाम चीजों के बावजूद मैं यह कह सकता हूँ कि पहले ही साल बिहार में ‘जागरण संवादी’ ने खुद को एक ब्रांड के रूप में स्थापित कर लिया है. अगर मैथिली के प्रति आयोजकों ने अपमानजनक रवैया न अख्तियार और कार्यक्रम शुरू होने से एक दिन पहले कठुआ में बालिका के साथ हुए बलात्कार की एक असंवेदनशील रपट न छप गई होती तो यह कार्यक्रम इतना विवादित न हुआ होता. लेकिन मुझे लगता है कि संवादी को विवादी बनाना भी ‘दैनिक जागरण’ की रणनीति का एक हिस्सा थी. चलिए अब संवादी की एक विस्तृत रपट युवा लेखक सुशील कुमार भारद्वाज के शब्दों में- प्रभात रंजन

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पटना के तारामंडल सभागार में दैनिक जागरण के अभियान ‘हिंदी हैं हम’ के तहत आयोजित दो दिवसीय कार्यक्रम ‘बिहार संवादी’ अगले साल फिर मिलने के वादे के साथ समाप्त हो गया. जैसे तीन साल पहले 27-29 अप्रैल 2015 को इसी सभागार में अखिल भारतीय कथा समारोह भूकंप के झटकों के बीच संपन्न हुआ था वैसे ही ‘बिहार संवादी’ भी अनिश्चितताओं और बहिष्कार के हंगामें के बीच सफलतापूर्वक संपन्न हो गया. कथा–समारोह जहां माँ-बेटी, पति-पत्नी और पत्नी-पति के आरोपों से घिरी रही तो ‘बिहार संवादी’ मैथिली को बोली कहे जाने के आरोपों के बीच.

जब कार्यक्रम अपने नियत तिथि के करीब थी उसी समय ‘मैथिली’ को बोली कहे जाने से नाराज ‘विभूति आनंद’ ने खुद को कार्यक्रम से अलग होने की घोषणा कर दी. जबकि इन्हीं दिनों दैनिक जागरण के सहयोग से ही आयोजित कार्यक्रम ‘आखर’ में भोजपुरी वालों ने घोषणा कर दी कि- “चुनाव का मौसम है और ऐसी तैयारी करें कि यदि भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं किया गया तो भोजपुरी समाज वोट नहीं देंगें.” इसी कार्यक्रम में मैथिली संस्कृति, भाषा और सिनेमा की तुलना भोजपुरी से की गई. जबकि पिछले दिनों ही उषाकिरण खान और विभूति आनंद समेत कई दिग्गज मैथिलीप्रेमी साहित्यकारों ने “मैथिली” को बिहार की राजभाषा का दर्जा दिलाने की मुहिम छेड़ी थी. और कहीं-न-कहीं संकेत मिल गया था कि श्रेष्ठता की लड़ाई कहीं-न-कहीं शुरू हो गई है. क्योंकि कुछ भोजपुरिया लोग अपनी भाषा को चांद और मंगल तक पहुंची भाषा बताने लगे. वे भोजपुरी को बोली के रूप में मानने से भी कतराने लगे.

इसी बीच कठुआ प्रसंग की एक खबर ने अखबार को विवादों में घसीट लिया. जिसकी वजह से विरोधियों को एक बेहतरीन मौका मिल गया. जहां एक ओर मैथिली अस्मिता के नाम पर विरोध शुरू हुआ वहीं कुछ को कठुआ के मामले में अपने पक्ष में करने की कोशिश की गई. तीसरे किस्म के वे लोग थे जिन्हें मंच पर मौका नहीं मिला और कहने लगे –एक ही तरह के चेहरे हर कार्यक्रम में क्यों? दूसरे को मौका क्यों नहीं?

इन्हीं सब अनिश्चिताओं के बीच 20 अप्रैल 2018 को पटना के मौर्या होटल में सभी स्थानीय वक्ताओं को एक कार्यक्रम में बुलाया गया और अधिकांश उसमें शरीक भी हुए और देर रात वहीं जमे भी रहे. और मैथिली के लिए एक नए वक्ता को तलाश भी लिया गया. लेकिन 21 अप्रैल 2018 के सुबह नौ बजे के बाद कुछ वक्ताओं (अधिकांश कवियों) की अंतरात्मा जगने लगी और धीरे-धीरे कठुआ या मैथिली के नाम पर कार्यक्रम से अलग होने की घोषणा फेसबुक आदि से करने लगे. और एक बजे दिन तक में लगभग दस वक्ताओं ने अपने नाम की वापसी की घोषणा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से कर दी. जबकि राज की बात है कि मैथिली स्टूडेंट यूनियन के बैनर तले कुछ उग्र युवा तारामंडल के मेनगेट पर साढ़े नौ बजे से ही तैनात हो गए थे और सबको लानत भेज रहे थे. विश्वस्त सूत्र से जानकारी मिली थी कि कार्यक्रम को असफल करने की हर संभव कोशिश वे लोग करेंगें और मैथिली के प्रतिनिधि प्रो० वीरेन्द्र झा को देखते ही पिटाई करते हुए दुर्गत कर देंगें. किसी भी हाल में वे सभागार में न पहुँच सकें.

लेकिन कार्यक्रम का उद्घाटन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने किया और दैनिक जागरण बेस्टसेलर की चौथी तिमाही सूची की घोषणा की गई. और पहले सत्र, ‘साहित्य का सत्ता विमर्श’, में  रंगकर्मी अनीस अंकुर ने विधान पार्षद प्रो रामबचन राय और रेवती रमण से बातचीत शुरू की. हालांकि अनीस अंकुर ने मंच से ही विरोधी स्वर को हवा दी. दूसरे सत्र में हृदयनारायण दीक्षित और एस एन चौधरी ने ‘नया समाज और राष्ट्रवाद’ पर अपना विचार रखा. तीसरे सत्र में राणा यशवंत ने ‘बिहार: मीडिया की चुनौतियां’ पर खुलकर बोले. चौथे सत्र में ‘नए पुराने के फेर में लेखन’ पर शशिकांत मिश्र, क्षितिज रॉय, प्रवीण कुमार ने अवधेश प्रीत के विभिन्न सवालों के जबाब दिए. जबकि पांचवे सत्र में उदय शंकर से वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम ने बेहतरीन बातचीत की. छठे सत्र में अनिल विभाकर, रमेश ऋतम्भर और अरुण नारायण ने ‘जाति के जंजाल में साहित्य’ विषय पर अनंत विजय के सवालों पर अपनी राय रखी. जबकि पहले दिन का समापन राजशेखर के मजनूं के टीला से हुआ.

मैथिली समर्थक पहले दिन सुबह से कड़ी धूप में गेट के बाहर बैठे रहे और शाम चार बजे के लगभग पुलिस की पहल पर वहां से हटाए गए. जबकि दूसरे दिन क्रांतिकारी मैथिली समर्थक अपने नए और उग्र तेवर के साथ दरवाजे पर फिर से बैठ गए. जबकि राउंड टेबल टॉक में प्रो० जितेन्द्र वत्स और डॉ विनय चौधरी ‘विश्विद्यालयों में हिंदी’ के बहाने अंदरखाने में भरे सड़ांध पर बेबाक बोल रहे थे. तो ऋषिकेश सुलभ, रामधारी सिंह दिवाकर, शिवदयाल ‘बिहार की कथाभूमि’ पर अपने विचार प्रेम भारद्वाज के सवालों के जबाबों में दे रहे थे. तो माहौल को मोहब्बत के रंग में रंग दिया गीताश्री, रत्नेश्वर,गिरीन्द्रनाथ झा और भावना शेखर ने. तब तीसरे सत्र में अवधेश प्रीत, संतोष दीक्षित, अनिल विभाकर, और अनु सिंह चौधरी ने रचनात्मकता का समकाल विषय पर अपनी बात रखी.

चौथे सत्र की शुरूआत होती उससे पहले ही अधिकांश क्रांतिकारी मैथिली समर्थकों ने सभागार में अपनी जगह बना ली. और ज्योंहि अनंत विजय ने ‘बिन बोली भाषा सुन?’ विषय पर बात करने के लिए मंच पर उपस्थित प्रो० वीरेन्द्र झा, अनिरुद्ध सिन्हा, नरेन, निराला तिवारी का परिचय दे कुछ कहना शुरू किया ही कि एक मैथिल ने अपने सीट से उठकर मैथिली के सन्दर्भ में आपत्ति की और अनंतजी कुछ जबाब देते उससे पहले ही सारे मैथिल हंगामा करने लगे. कुर्सियों पर चढ़कर मुर्दाबाद-जिंदाबाद करने लगे. आयोजकों की कोई बात सुने बगैर वे मंच के करीब होते हुए मंच पर चढ़ गए और धक्कामुक्की करने लगे. मंच पर जूते-चप्पल उछलने लगे. इसी बीच कुछ लड़कों ने मिलकर वीरेन्द्र झा के मुंह में स्याही पोत दी. जिसके छींटे अन्य उपस्थित लोगों पर भी पड़े. अंत में कोतवाली थाना के सिपाही आए और हंगामा करनेवालों को दबोचकर ले गए. तब तक सभागार से सामान्य दर्शक/ श्रोता बाहर आ चुके थे.

हंगामे के बाद फिर वहीं से सत्र की शुरूआत की गई. जिसमें हर वक्ता ने तुलनात्मक रूप से मैथिली, मगही, भोजपुरी, और अंगिका को सर्वश्रेठ भाषा माना. किसी ने खुद को बोली के रूप में स्वीकार नहीं किया. और इस तीखी नोकझोंक ने सभागार के माहौल को खुशनुमा बना दिया. दर्शकों ने तालियां पिटी.

पांचवे सत्र में प्रो तरुण कुमार और आशा प्रभात ने ‘सीता के कितने मिथ’ पर अपने-अपने विचार व्यक्त किए. तो छठे सत्र में महुआ माझी, डॉ सुनीता गुप्ता और सुशील कुमार भारद्वाज ने ‘परिधि से केंद्र की दस्तक (हाशिए का साहित्य)’ विषय पर शहंशाह आलम के सवालों के यथोचित जबाब दिए. सातवें सत्र में ‘धर्म और साहित्य’ विषय पर नरेन्द्र कोहली से एसपी सिंह ने बात की. और अंतिम सत्र में विनोद अनुपम ने पंकज त्रिपाठी से ‘सिनेमा में बिहारी’ विषय पर बात की.

इस तरीके से यह दो-दिवसीय कार्यक्रम समाप्त हो गया. और दो दिन के इन सत्रों में दर्शक सभागार में जिस तरीके से जमे रहे वह पिछले कथा-समारोह में आए लोगों से कतई कम नहीं थे. हां, ये अलग बात है कि दिन की तुलना में शाम में भीड़ अधिक रही. और इस आयोजन ने कई लोगों को भावनात्मक रूप से तोड़ भी दिया. राजनीति के तर्ज पर देखें तो शायद आने वाले दिनों में साहित्य में कुछ नए समीकरण पटना की धरती पर बनते-बिगड़ते नज़र आए.

संपर्क :- sushilkumarbhardwaj8@gmail.com

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अकेलेपन और एकांत में अंतर होता है

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‘अक्टूबर’ फिल्म पर एक छोटी सी टिप्पणी सुश्री विमलेश शर्मा की- मॉडरेटर
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धुँध से उठती एक महीन धुन,शाख़ पर खिलता फूल , टूट कर बिखरता चाँद हो या फिर पत्तों की सरसराहट ; दरअसल भाषायी संस्कारों में ये सभी प्रकृति की अद्भुत लीला के प्रतीक भर हैं। इस लीला से साक्षात्कार आपको अपनी और सिर्फ़ खींच ही नहीं लेता है वरन् बिठा लेता है अपने पास और जादू ऐसा कि आप उससे मुक्त ही ना हो पाए। कुछ ऐसा जिसे देख -जी ,शिउली के फूलों की महक सा कुछ , मुरार सा बहुत कोमल कुछ,आप विस्मृति से स्मृति की उस यात्रा में अपने साथ ले आए। कुछ इतना कोमल की जिसे आपने सहजता से व्यक्त नहीं किया तो वो खंडित हो जाएगा क्योंकि वह आपको चुप कर देता है।ऐसे ही किसी सुरूर में हूँ जो रोमावली से होकर रूह तक पहुँचा है । उस आत्मा की प्रकृति के इतना अनुकूल कि वहाँ ही रमा है अब तलक।
निर्मल वर्मा कहते हैं हम प्राय: लेखक के अकेले क्षणों की चर्चा तो करते हैं, कभी पाठक के एकान्त की बात नहीं करते। अक्टूबर इसी सूक्ति का अनुसरण कर दर्शक या पाठक के उस एकान्त पर सीधे दस्तक देती है।कोमल भावों को बनावट की आवश्यकता नही होती । वे जितनी सहजता से खिलते हैं उतनी ही सहजता से झर भी जाते हैं , नि:शब्द। इस प्रक्रिया में बस कुछ शब्दों की प्रतिध्वनियाँ हैं जो स्थायी बनकर रह जाती है। यह स्थायित्व एक दु:ख का कारण तो किसी अन्य अपरिचित सुख का जन्मदाता बन जाता है।(Where is Dainn???)
अक्टूबर को देखना एक ख़ूबसूरत कविता का शब्द दर शब्द खुलना है। इसे अनुभव करना संचारी भाव से स्थायी भाव तक पहुँचने की यात्रा है जो क्षणिक नहीं गहरी चोट करती है आपके मानस पर। हमारा सच , हमारा जीवन वह क़तई नहीं जिसे हम जी रहे हैं ।इससे इतर सच वह है जो नीली चादर ओढ़ लेने पर आँख में पलता है, वह जिसका हम चयन नहीं कर पाए हैं , वह जो हमारे भीतर तो जीवित है; परन्तु जगत् की कृत्रिमता में कहीं खो गया है, यह वह है जिसे हम सुनना तो चाहते हैं पर सुन नहीं पाए हैं। इतना कच्चा कि ठीक से अभिव्यक्त नहीं हो पाया तो टूट कर बिखर जाएगा।
अब तक रजत पटल पर भव्यता देखी, क्रूरता देखी, प्रेम का अतिरेक देखा पर किसी कविता को इतनी ख़ूबसूरती से जीवित होते नहीं देखा । खिड़की पर ठिठका चाँद हो , शीत नीरवता में झरता हरसिंगार हो या फिर वे छोटी -छोटी बातें जो जीवन का ईंधन हैं, जीने के लिए ज़रूरी हैं, इतनी कलात्मक सहजता से अरसे बाद देखी है । रूई के फ़ाहे के अहसास की मानिंद यह कहानी जीवन-अजीवन के महीन फ़र्क़ को सिखाती है।
शब्द आत्मा पर दस्तक देते हैं उनकी कीमिया कुछ ऐसी है कि देह चेरी की तरह उसके साथ हो लेती है , मीरा की ही तरह। कोई शर्त, कोई बात, कोई मुहर वहाँ फिर नहीं बच पाती । प्रेम को अनुभावों की आवश्यकता भी नहीं , वह बस घट जाता है और फिर एक मिसरी सी डली सा कुछ घुलता रहता है सतत।ऐसा कुछ जो साथ रहेगा अक्टूबर में खिलने और बाद मौसम बिखरने के बाद भी।
इसे देखते हुए अनेक साहित्यिक चरित्र बुदबुद से ज़ेहन में उठते-बैठते रहे।चाहे बात चेखव की कहानियों की हो, निर्मल वर्मा की हो या अपने ही कैमरे पर चढ़ी ख़ूबसूरत फ्रेमों की, परदे पर इन्हें हूबहू बिना किसी छेड़छाड़ के आप देख पा रहे हों तो एक चौंक तो उभरती ही है ना!
सुजित सरकार ने इस फ़िल्म को इतनी ख़ूबसूरती और यथार्थ के साथ हम सिरफिरे दर्शकों तक पहुँचाया है कि इसके लिए शुक्रिया कहना औपचारिकता भर है , दरअसल बात उसके कहीं आगे ठहरती है।

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एक भुला दी गई किताब की याद

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धर्मवीर भारती के उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ को सब याद करते हैं लेकिन उनकी पहली पत्नी कांता भारती और उनके उपन्यास ‘रेत की मछली’ का नाम कितने लोगों ने सुना है? असल में यह उपन्यास टूटते-बिखरते दांपत्य को लेकर है. कहा जाता है कि आत्मकथात्मक भी है. आज उसी उपन्यास पर सपना सिंह जी ने लिखा है. यह उपन्यास राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है और अभी मैंने देखा कि अमेज़न पर उपलब्ध भी है.

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मै शायद तब बीए प्रथम वर्ष की छात्रा थी ।कोर्स के बाहर का सबकुछ पढ़ना एक बुरी आदत के तौर पर मेरे व्यक्तित्व का स्थाई हिस्सा बन चुका था ।बहुत कुछ अच्छा बुरा पढ़ने के बाद हाथ आई थी ‘गुनाहो का देवता ‘। ज्यादातर लोगों का साहित्य प्रेम इस किताब को पढ़कर अंखुआता है पर मुझे ये काफी बाद मे मिली। किताब का असर और स्वाद आकंठ मुझपर तारी ।मदहोशी के उस आलम मे नीबू पानी सी कोई फुसफुसाहट’ रेत की मछली ‘जरूर पढ़ना।

‘रेत की मछली ‘? ये क्या बला है ? ये ‘गुनाहो का देवता ‘की बात के बीच मे ‘रेत की मछली कहाँ से आ गयी।बात करने के लिए तो ‘गुनाहो का देवता’ ही काफी है ।बहुपठित, बहुचर्चित, लोकप्रिय, आलोचकों के आँख की किरकिरी फिर भी क्लासिक ।अब ऐसी किताब को छोड़ कर’ रेत की मछली  ‘की बात  करना और वो भी ‘गुनाहो का देवता का संदर्भ लेकर?
फिर पीछे चलते है ।’रेत की मछली ‘ जरूर पढ़ना , नहीं पता ये बात किसने मेरे कानों तक पहुँचाई पर उसी दिन से मै ‘रेत की मछली’ की तलाश मे जुट गयी थी।अपने शहर की हर लाइब्रेरी मे हर साहित्य प्रेमी के घर तलाशा।बस स्टेशनों से लेकर रेलवे के व्हीलर पर खोजा ।इलाहाबाद के ‘लोकभारती पर हर बार इलाहाबाद जाने पर गयी पर वहाँ भी आउट ऑफ स्टाॅक का जवाब  इन्तजार करता ।
जून 2010 मे इलाहाबाद एक शादी मे शामिल होने जाना पड़ा ।हर बार की तरह इस बार भी लोकभारती गयी ।आश्चर्य कि इस बार मुझे निराश नहीं लौटना पड़ा । लोकभारती ने अपनी कुछ पुरानी किताबों को पुनः प्रकाशित किया था ।उन्हीं मे ‘रेत की मछली’ भी एक थी ।किताब मेरे हाथ मे थी लगभग बाइस तेइस वर्ष के इन्तजार के बाद।वहीं कोई किसी से कह रहा था -कान्ता जी नहीं रहीं । कान्ता जी यानि कान्ता भारती! डा.धर्मवीर भारती की पूर्व पत्नी और शायद इस एकमात्र किताब की लेखिका ।
जाहिर सी बात है , वर्षो से जिस किताब को मै खोज रही थी , मिलते ही उसे आद्योपांत पढ़ा. बीस वर्ष पूर्व अगर ये किताब मिली होती तो इसका अनुभव अलग होता ।बीच के गुजरते वर्षों ने जिन्दगी और साहित्य की समझ को मेच्योर किया था ।पाठक के तौर पर भी लम्बा वक्त गुजर चुका था ।आश्चर्य बहुत कुछ पढ़ने के बावजूद (नयी कहानियाँ , कहानी , सारिका जैसी पत्रिकाएँ अपने बंद होने तक नियमित हमारे यहाँ ली जाती थी ) मैंने रेत की मछली ‘ पर लिखा हुआ कुछ भी नहीं पढ़ा ।शायद इसके प्रकाशन वर्ष के आगे पीछे इस पर कुछ लिखा गया हो पर आज के पाठक उस सबसे अनजान ही थे।
इस किताब और इसकी लेखिका पर साहित्य जगत की इतनी लम्बी चुप्पी की वजह शायद शायद ये भी हो कि लेखिका देश के एक ख्यात लेखक/संपादक की पूर्व पत्नी द्वारा अपने कड़वे दाम्पत्य पर लिखी गयी है और इसका महत्व’ भावुक भड़ास से ज्यादा नहीं समझा गया ।
साहित्य जगत मे लगभग हाशिए पर डाली जा चुकी इस कृति के लिए मेरा इतना सब करना (पहले ढूँढना फिर पढ़ना और फिर हद ये कि उसपर लिखना भी) शायद कुछ लोगों को अनावश्यक लगे पर अगर आपने 18-20 की उम्र मे गुनाहो का देवता पढ़ी हो , होश संभालने के साथ घर की बहुत जरूरी चीजों मे ‘धर्मयुग’ की आमद को शामिल पाया हो , इलाहाबाद की एक रोमानी छवि आपके ख्यालो मे भी कभी रही हो ,’आपका बंटी ‘ की भूमिका आपने पढ़ी हो ,’गालिब छूटी शराब’, और नंदन जी का ‘कहना जरूरी था ‘पढ़ा हो ।पुष्पा भारती और पद्मा सचदेव जी के स्नेह पगे आत्मीय धर्मयुगी संस्मरण, जो यदा कदा आज भी किसी न किसी पत्रिका मे विशेष आकर्षण के तौर पर छपते रहते है , आपकी नजरों से भी गुजरे हो तो ‘डा.धर्मवीर भारती जी ‘आपके लिए भी साहित्य के सूपरस्टार की हैसियत रख सकते है ।अब, सुपरस्टारो के प्रति आमजन मे कैसी जिज्ञासा या दीवानगी होती है यह कहने बताने की चीज नहीं ।बस वही आमजन मै भी थी ।
अब कुछ बाते ‘रेत की मछली की कथावस्तु के विषय मे -साहित्य के बिल्कुल नये पाठको को शायद यह एक साधारण उपन्यास लगे ।आत्मकथात्मक शैली मे लिखा गया यह उपन्यास वस्तुत: कान्ता जी की आत्मकथा ही माना गया ।’प्रेम’  ।परिवार के विरूद्ध जाकर किया गया विवाह ।जटिल और त्रारण दाम्पत्य, विवाह विच्छेद और अंत मे आजीविका के लिए दर दर की भटकन. जीवन के इन महत्वपूर्ण पडावों  पर शायद बहुत सारे पन्ने भरे जा सकते  थे, पर ये सब कुछ इस छोटी सी किताब मे समेट लिया गया है ।
प्रेमल दाम्पत्य के बीच अचानक कंटीली झाड़ सी उगी मीनल अपनी उपस्थिति से कुन्तल और शोभन का आपसी प्रेम ही नही सोखती , शोभन को कुन्तल के प्रति अतिशय निर्मम भी बना देती है।मीनल के प्रेम मे पागल शोभन का अपनी गर्भवती पत्नी के सामने उसी के बिस्तर पर सहवास करना नृशंसता की पराकाष्ठता है ।ये विवरण पढते हुए आप अपनी नसों मे कुन्तल की यातना को महसूस कर सिहर उठते है ।पाठक का गहरी वितृष्णा से भर उठना स्वाभाविक है।शोभन और मीनल का आचरण  ‘एवरी थिंग इज राइट इन लव एण्ड वार’ की युक्ति को सार्थक करता है पर जस्टीफाई नही कर पाता ।
यहाँ प्रेम अपने विध्वंस रूप मे सामने आता है ।येन केन प्रकारेण अपने काम्य को पा लेना ।छीन कर झपट कर किसी भी दूसरे की सत्ता को अस्वीकार कर, सिर्फ पा लेना ।शोभन कवि है , साहित्यकार है पर अपनी पत्नी के साथ उसकी असंवेदनशीलताउसके सामान्य मनुष्य होने पर भी संदेह जगाती है ।कोई प्रबुद्ध व्यक्ति इतना अन्यायी और हृदयहीन हो सकता है ये इस उपन्यास को पढकर जाना जा सकता है ।
‘रेत की मछली’ को पढ़ना कई अर्थो मे एक यातना से गुजरना है ।ये यातना तब और असहनीय हो जाती है जब इसे पढ़ते हुए आपके आदर्श ध्वस्त हो रहे हो ।इसमें संदेह नहीं कि ये रचना एकपक्षीय हो ।कोई भी विवाह अकारण या सिर्फ एक व्यक्ति की वजह से नहीं टूटता ।पति पत्नी दोनों का आपसी व्यवहार इसका जिम्मेदार होता है ।शोभन के व्यवहार का बारीक वर्णन है किन्तु कुन्तल की प्रतिक्रिया बिल्कुल संतुलित तटस्थ ।एक निर्विकार दृष्टा की तरह शोभन और मीनल की उच्श्रृंखलता को देखते रहना और इसे संस्कार का नाम देना समझ नहीं आता।
लेखक पत्नीयों ने जब भी अपने महान पतियो के संदर्भ मे कुछ लिखा है , साहित्य जगत मे उसे हाथों हाथ लिया गया है पर कान्ता जी की ये रचना शायद इसी कारण वश अंडर स्टीमेट की गयी ।बिना किसी पूर्वाग्रह के अगर इस रचना को पढ़ा जाये तो भी ये एक सम्पूर्ण रचना है ।आश्चर्य, इतनी महत्वपूर्ण रचना साहित्य जगत मे इस कदर उपेक्षित रही और रचनाकार चुपचाप दुनिया से कूच कर गया ।बिल्कुल वैसे ही जैसे कुन्तल चली गयी शोभन और मीनल के जीवन से ।
इस उपन्यास को पढ़ने के बाद जाने क्यों जब भी किसी ने कहा मैंने ‘गुनाहो का देवता ‘ पढ़ी है  ।मैंने पलट कर जरूर कहा , अच्छा ! ‘रेत की मछली ‘ भी पढ डालो।

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सपना सिंह
‘अनहद’  , 10/1467 ,
अरूण नगर, रीवा (म.प्र.)
486001
मोबाइल-9425833407

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