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उर्दू का मैं पहला शायर हूँ जिसकी किताब के अपनी ही जिंदगी में इतने एडिशन छपे

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आज साहिर लुधियानवी का जन्मदिन है. उनका नाम याद आते ही मोहब्बत और मोहब्बत के अफ़साने याद आने लगते हैं. लेकिन उनसे उनके कई समकालीन बेहद जलते भी थे. तरक्कीपसंद लेखक हंसराज रहबर ने अपनी आत्मकथा ‘मेरे सात जनम’ में साहिर की खूब खबर ली है. तारीफ कर कर के खबर ली है. उसी पुस्तक से एक अंश- मॉडरेटर

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इस बीच साहिर लुधियानवी पाकिस्तान छोड़कर अचानक हिन्दुस्तान आया। उसने युसुफ जमई के सहयोग से ‘शाहराह’ नामक मासिक पत्रिका निकालनी शुरू की, जिसका दफ्तर जामा मस्जिद के पास उर्दू बाजार में स्थित था।

साहिर की मोटी लम्बी नाक चेहरे पर अलग से रखी दिखाई पड़ती थी। नाक की तरह कद भी लम्बा था। कूचा काबुल अत्तार के एक काफी बड़े मकान में वह रहने लगा। आबादी वहां मुसलमानों की थी और वह मकान भी किसी पकिस्तान चले गए मुसलमान का था। साहिर खुद, उसकी माँ और एक ममेरी बहन- मुख़्तसर सा परिवार था। उम्र तीस-पैंतीस के करीब थी, पर शादी अभी नहीं की थी और बाद में भी नहीं की। कारण शायद कुछ भी रहा हो, पर यार लोगों का कहना था कि वह शादी के काबिल ही नहीं है। चेहरे से भी पौरुष का अभाव दिखाई पड़ता था। वैसे उसने एक प्रसिद्ध कवयित्री से अपने इश्क की कहानी इधर-उधर फैला रखी थी। उद्देश्य था चर्चा का केंद्र बने रहना।

मोटी-लम्बी नाक के अलावा साहिर की एक विशेषता यह भी थी कि वह आत्मप्रचार में निपुण था। दो छोटे लेखक या यों कहिये लेखक नाम के दो व्यक्ति मुसाहिबों की तरह दायें-बाएं साथ चलते थे। उनका खर्च भी प्रायः वह खुद ही वहन करता था और वहन इसलिए  करता था क्योंकि उसे दो आदमी साथ रखने का शौक था। इसके अलावा उसे खुले हाथ से खर्च करने और खिलाने-पिलाने का भी शौक था। होटल में बैठे खा-पी रहे हैं, शराब का दौर चल रहा है। साहिर बहुत कम पीता था। एक पैग आगे रखकर बैठा रहता और धीरे धीरे सिप करता। जब दूसरे नशे में झूमने लगते तो वह अपनी मोटी लम्बी नाक ख़ास अंदाज में हिलाकर ख़ास अंदाज में कहना शुरू करता:

“ ‘तल्खियाँ’ का पांचवां एडिशन छप रहा है। उर्दू का मैं पहला शायर हूँ जिसकी किताब के अपनी ही जिंदगी में इतने एडिशन छपे।”

‘इसमें क्या शक है? साहिर, तुम इस दौर के सबसे मजबूततरीन शायर हो।” हमप्याला दोस्तों में से कोई न कोई दाद देता। हालाँकि सब जानते थे कि साहिर ने अपने इस ‘तल्खियाँ’ नाम की पुस्तक के ढाई-ढाई सौ के तीन एडिशन खुद छपवाकर इधर-उधर मुफ्त बाँट दिए थे। लेकिन ‘जिसका खाना उसी का गाना’ कहावत तो चरितार्थ करनी ही थी।

“ताजमहल नज्म का तो जवाब नहीं साहिर, उसने तुमने अमर बना दिया है।’ कोई दूसरा बात आगे बढाता और जाम उठाकर आगे कहता ‘पियो दोस्तो, साहिर की ताजमहल नज़्म के नाम पर।”

जाम एक साथ ऊपर उठते और घूँट भरने के बाद सभी समवेत स्वर में गुनगुनाते:

‘मेरी महबूब कहीं और मिलाकर मुझसे…’

साहिर का कण-कण ख़ुशी से झूम उठा। उसके लिए यही सबसे बड़ा नशा था।

दूसरी बात यह कि साहिर किसी बड़े मशहूर शायर को इसलिए अपने साथ रखता था कि उसकी बदौलत मुशायरों में और अमीर घरानों की निजी महफ़िलों में आमंत्रित होने का मौका मिलता था। इन दिनों असरारुल हक़ मजाज साहिर का मेहमान था और यह मेहमानी तब तक चली जब तक साहिर दिल्ली में रहा।

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युवा शायर विजय शर्मा की कहानी ‘लिविंग थिंग’

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आज पेश है युवा शायर विजय शर्मा की कहानी लिविंग थिंग – त्रिपुरारि

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छुट्टियों वाले दिन नींद अक्सर जल्द खुल जाया करती है..यदि छुट्टी सोमवार की हो, तो शायद और भी जल्द.. सुबह के नौ बज चुके थे और अयान अबतक अपनी बिस्तर में क़ैद था.. हालाँकि पिछले दो घंटे से वह जगा हुआ था किन्तु अब तक बिस्तर से बाहर नहीं आ सका..इस दो घंटे में उसने लेटे लेटे घर की उन जगहों को कई बार देख चुका था, जहाँ तक उसकी नज़र आसानी से जा सकती थी.. यह फ़ुर्सत की नज़र थी… आये दिन वह अपने काम में इस तरह से व्यस्त रहता कि घर का ख़याल सिर्फ़ सोने के समय या ऑफिस जाते हुए दरवाज़ा बंद करते समय आता…इस बीच उसकी दृष्टि कई बार घर की उस दीवार पर गयी, जहाँ से पिछले दिनों एक तस्वीर गिर कर टूट गयी थी.. किन्तु फ्रेम का अक्स अब भी दीवार पर महसूस किया जा सकता था…   इस दौर में या शायद किसी भी दौर में इंसान की सबसे बड़ी कमज़ोरी ये रही है कि वह चाह कर भी कहीं रुक नहीं सका है.. समय की ज़ंजीर में बंधा वह चाहे अनचाहे घिसटता हुआ आगे निकल ही जाता है.. अयान भी थक हार कर बिस्तर से निकला और वाशरूम की तरफ़ चल दिया….

वापस आकर उसने अच्छे भले कपडे पहने और आगे क्या करना है, ये न सूझ पाने पर चुप चाप बेड पर बैठ गया… इस समय उसकी दृष्टि घर के हर कोने में जा रही थी.. वह ख़ामोशी से घर के हर कोने को देख रहा था… कभी कभी ऐसा होता है कि हम अपने कमरे में बैठे- बैठे कुछ इस तरह गुम हो जाते हैं कि हमारे अस्तित्व की सच्चाई उस कमरे मे से जुडा वहम हो जाती है… शादी के पहले जब रूही अयान के इस फ्लैट में पहली बार आई थी, तो कमरे की बेतरतीबी को देखते हुए उसने कहा था कि -‘कमरा लिविंग थिंग होता है, तुम्हें पता है? यह अपने रहने वालों के साथ साथ साँस लेता है.. हमें कमरे में चीज़ें ऐसे बरतनी चाहिए कि इन चीज़ों से कमरे को घुटन न हो, क्यों कि घुटती हुई जगह पर हम नहीं रह सकते… और एक दिन इस घुटन से तंग आकर हम कमरा त्याग देते हैं?’ दो घड़ी चुप रह कर रूही ने फिर कहा -‘हम कमरे को त्याग कर भी कमरे में रह सकते हैं, ठीक उसी तरह जैसे दो लोग एक समय के बाद जाने अनजाने अपने रिश्ते को त्याग कर भी एक साथ रहते हैं, किसी जाने पहचाने अजनबी की तरह..” अयान को कहाँ इन सब बातों से सरोकार था …उसे तो बस इतना पता था कि भविष्य में रूही और वो इस फ्लैट में रहने वाले हैं, पर तस्वीर तोड़े जाने वाले दिन के बाद से अयान कुछ बदल सा गया था,.. अब अयान को रूही कम और उसकी कही गयी बातें अधिक याद रहती थीं..अयान इस समय पूरे संसार से इस तरह कट के बैठा हुआ था, कि उसे ये कमरा ही संसार लग रहा था..एक बिखरा हुआ संसार..उसे लग रहा था कि जैसे काफी दिनों के बाद ये कमरा खोला गया हो, और अभी तक कमरे की सारी चीज़ें एक ऊंघती सी नींद में सो रहीं हों, जैसे इसकी दीवारें उसे देख कर भी अनदेखा कर रही हों..उसकी दृष्टि बार बार कमरे के कोनों में जमी धूल और दीवारों में लगे जालों में फँस जा रही थीं.. हाँ पिछले छः महीने में इसने शायद ही दूसरी या तीसरी बार कमरा साफ़ किया हो.. आगे कुछ भी न सूझ पाने पर वह म्युसिक सिस्टम के पास बैठ कर गाने चलाने लगा..दो तीन गानों के बाद उसके कान से अचानक उस गाने की धुन टकराई जिससे रूही को काफ़ी चिढ़ थी..इस गाने के साथ जैसे अतीत का अधखुला दरवाज़ा एक गहरे झटके से पूरा खुल गया…एक क्षण को उसे लगा जैसे रूही आकर अभी सिस्टम की स्विच ऑफ करने वाली हो..किन्तु अगले ही क्षण सब फिर से नार्मल हो गया..नार्मल…वो तो होना ही है..दरअसल हमारे अतीत की सारी समृतियाँ हमें जड़ से विचलित नहीं कर सकतीं, हमारी अस्तित्व की निचली तहों तक सिर्फ वो स्मृतियाँ ही जा सकती हैं, जिनमे कभी हमारा स्वार्थ छिपा था..वह स्वार्थ वह इच्छा जो तब पूरी न हो सकी थीं और अब कभी पूरी नहीं होगी.. फिर भी..स्मृतियों के इन क्षणों में हमें उस व्यक्ति का हल्का से अक्स ज़रूर नज़र आ जाता है, जिनसे हमारी इच्छाएँ जुड़ी हुईं थीं.. रूही अचानक अयान की दृष्टि से गुज़र गयी थी..

वह बैठे बैठे सिस्टम के पास जमा डीवीडी खँगालने लगा..धीरे धीरे एक एक करके सारी डीवीडी निकालता गया..कुछ देर में शेल्फ़ पूरी तरह ख़ाली था….. ‘अरे आख़िर गयी कहाँ?’ उसने बुदबुदाया..उसकी बेचैनी बढ़ी और इसी बेचैनी के साथ उसका तलाशी का दायरा भी बढ़ने लगा…शेल्फ़ की तलाशी कमरे की तलाशी में बदल गयी..इस तलाशी में दो बियर कैन, तीन जोड़ी मोज़े, दो गन्दी टाई, एक रूही की गिफ्ट की गयी टी शर्ट, रूही का पॉवर ग्लास और दो रंग उतरी बालियाँ निकल आयीं…अचानक इन चीज़ों से घिरा अयान ख़ुद को अब और अधिक क़ैद महसूस कर रहा था..उसके आगे जैसे अतीत सांस लेने लगी थी, किसी लिविंग थिंग की तरह….. उसने परेशानी में एक गहरी साँस भरी और साँस छूटते ही उसके मुँह से अनायास ही निकला -‘वो दिन ही अच्छे थे यार’

कौन से दिन आख़िर कौन से दिन अच्छे हैं? शायद वे जिन्हें गुज़ारते हुए हम जिंदा बच निकले हैं.. पर वाकई वे दिन इन दोनों के लिये बहुत अच्छे थे..और सबसे अच्छे तो तब थे जब दोनों एक दूसरे को चेहरा या बहुत अधिक तो नाम से जानते थे..कॉलेज के दोस्तों के बीच इन दोनों में बात चीत बहुत कम होती थी.. शायद मतलब भर की..किसी बात हँसते हुए जब दोनों की आँखें मिलती तो अयान ये सोच कर हँसना बंद कर देता कि वह हँसते हुए अच्छा नहीं दीखता है.. उन पॉवर ग्लास के पीछे की दो बड़ी बड़ी आँखों को अयान सबसे छुपकर देखा करता, उससे भी….कभी कभी रूही भी उसके एहसास के धागे पकड़ लेती किन्तु बहुत जल्द उसपर अपने दाँत बिठाकर प्रेम के आकाश में अकेले लहराने के लिये छोड़ देती..इन दिनों दोनों पूरी तरह आज़ाद थे..अपनी अपनी ज़मीन पर मौजूद..दोनों में प्रेम की ख़ूब संभावनाएँ थीं.. गुज़रते समय के साथ दोनों में से किसी को भी यह पता नहीं चल सका कि कब दोनों ने एक साथ चलने का फ़ैसला कर लिया… अयान उन दिनों थोड़ी बहुत फोटोग्राफी किया करता था..इसी धुन में उसने रूही की कई तस्वीरें ली, रूही ने भी अयान की कुछ तस्वीरें लीं और कुछ तस्वीरें जिसमे दोनों साथ थे, उन्हें या तो उनके दोस्तों ने या कुछ अजनबियों ने इनकी आग्रह पर ली थीं..वो डीवीडी कैसेट इन्हीं पलो का सरमाया था..उनमे ये सारी तस्वीरें मौजूद थीं..पूरा कमरा छान मारने के बाद भी जब कैसेट हाथ न आया, तो वह समझ गया कि  रूही अपने बाक़ी सामानों के साथ ये कैसेट ले गयी है.. एक पल को उसे इतना ग़ुस्सा आया कि यदि इस समय रूही वो कैसेट लिए इसके सामने खड़ी होती तो, उसे एक झापड़ खींच के लगाता और उसके हाथ से वो कैसेट छीन लेता… वह सर से पैर तक परेशान था..उसने फ्रिज से पानी निकाल कर्पियावौर सोचने लगा कि आगे क्या करना है! करना क्या है …फ़ोन कर के चार बातें इतनी ज़ोर से डांटनी हैं कि उसके होश ठिकाने आ जाएँ ..मेरे कैमरे से खींची गयी तस्वीरों पर उदका हक कैसे…? अयान ने उसे फ़ोन लगाया.. फ़ोन की हर रिंग के साथ उसका क्रोध दुगुना होता जा रहा था, और अचानक,

-हैल्लो !

इससे पहले कि अयान कुछ कह पाता, उसका गला सूख चुका था, उसने फिर दो घूँट पानी पिया..

-‘हलो?’

-‘ हाँ सुनो मैं बोल रहा हूँ’ अयान का ग़ुस्सा ख़त्म हो चुका था

-‘हाँ मैंने वकील से बात की है, समय हो चुका है! अब डाइवोर्स फाइल की जा सकेगी..’

दोनों तरफ़ अचानक एक ऐसा मौन छा गया, जिसमे निहित आँसू कब के सूख चुके होते हैं ..रह जाता है तो बस सूखे आंसुओं का निशान, सूखे हुए खून की तरह..

-‘अच्छा फ़ोन रखती हूँ’ -मौन टूट गया

-‘अ.. रुको , मैं …दरअसल … वो कैसेट तुम ले गयी क्या?’

-‘ कौन सी, मैंने सिर्फ़ अपने हिस्से की चीज़ें ली हैं…बाक़ी तुम्हारी चीजें वहीँ हैं..और कोल्डप्ले वगैरह के कैसेट्स तो मैं हाथ तक नहीं लगाती थी… वहीँ पड़ीं होंगी ढूँढ लो…’

-‘नहीं मैं… मैं तस्वीरों वाली डीवीडी कैसेट की बात कर रहा हूँ’

-‘तुम्हें जल्द डाइवोर्स नोटिस मिल जायेंगे!’

फ़ोन काट दिया गया

अयान कुछ देर चुप चाप बैठा रहा… वह किसी बहाने शायद एक बार और उसकी आवाज़ सुनना चाहता था.. वह आवाज़ जिनमे गुज़रे दिनों की कई कहानियाँ मौजूद थीं..उसे एक मन तो हुआ कि वह रूही को फोन करे तथा उसे उसका चश्मा और रंग उतरी बालियाँ लौटाने की बात कहते हुए कहे कि -‘तुम्हारे हिस्से की दो चीज़ें यहीं रह गयीं है, इन्हें भी ले जाओ’ पर अगले ही पल उसे महसूस हुआ कि उसके पास अब यही दो चीज़ें बच गयी हैं, जो इस टूटे हुए रिश्ते का सरमाया है…

वह धीरे धीरे कमरा ठीक करने लगा.. शाम तक कमरा ठीक हो चुका था..अयान अब इसे रूही की लिविंग थिंग की तरह महसूस कर सकता था…

समय अपनी गति से आगे निकलता रहा… रात गयी फिर दिन गुज़रे.. वह फिर से अपनी नौकरी में मशरूफ़ हो गया.. कमरे में धूल फिर से जमने लगी.. एक शाम काम से वापिस आकर जब उसने अपने फ्लैट का दरवाज़ा खोला और लाइट जलाई तो फर्श पर उसे एक लिफाफा नज़र आया, लिफ़ाफ़े पर न कोई कोरियर टैग था और न ही कोई पता..जैसे किसी ने ख़ुद ही दरवाज़े के नीचे से लिफ़ाफ़ा इस कमरे में डाल दिया हो…लिफ़ाफ़ा हाथ में लेते ही वह समझ गया कि इसमें डीवीडी है..’ तो क्या रूही ख़ुद आई थी?’ अयान ख़ुश होते होते रह गया… फिर भी एक दबी सी उत्सुकता उसके मन में ज़रूर थी, जिसे वह ख़ुद भी नहीं समझ सकता था.. इसी दबी हुई उत्सुकता की वजह स वह सीधे अपने कमरे में गया तथा पानी पीने से अधिक आवश्यक टीवी चलाना समझा..उसने झट से लिफ़ाफ़े से कैसेट निकाली.. कैसेट  नया था, जैसे डुप्लीकेट करा के दिया गया हो.. उसने कैसेट से डीवीडी में चला कर लाइट ऑफ़ की तथा बिना मोज़े उतारे ही अपने बेड पर बैठ गया..

कुछ ही क्षणों में दोनों की पुरानी पुरानी तस्वीरें एक एक कर टीवी स्क्रीन पर मुस्कुराने लगीं..पहले अलग अलग, फिर एक साथ… कमरे में इस समय रौशनी थी तो इन मुस्कुराती हुई तस्वीरों की वजह से … इसी बीच फोन बजा..

-‘हलो’

-‘हाँ ,मैं बोल रही हूँ (एक हिचकिचाहट भरी आवाज़)

-‘ये भी कोई वक़्त था आने का, तुम्हे तो पता है कि मैं 7 बजे के बाद ही लौटता हूँ, इस वक़्त आयी होती,कम से कम इस एहसान के बदले तुम्हें चाय तो पिला देता’

-‘ मैंने चाय पीनी छोड़ दी है’

-‘अच्छा! ख़ैर .. शुक्रिया ..कि तुमने डीवीडी शेयर की.. तुम्हारा ये अहसान याद रखूँगा, और वैसे भी यादें ही तो रह जाती हैं, चीज़े और लोग कहाँ टिक पाते हैं’

-‘कुछ चीजों को संभाल कर रखनी होती है.. लोगों को भी’

-‘लोग संभाले संभलते कहाँ हैं?’

-‘लोग सँभल भी जाएँ तो रिश्ते नहीं सँभलते है न ! छोड़ो, डीवीडी कैसेट के साथ जो पेपर्स थी, उसे ग़ौर से पढ़ लेना और साइन कर के भिजवा देना..’

फोन कट गया था…

अयान एक क्षण के लिये अचंभित तो हुआ, किन्तु अलगे ही पल उसे बात समझ आ गयी.. उसने सामने पड़ा डीवीडीका लिफ़ाफ़ा उठाया और फिर से जाँचा.. हाँ , एक और पतला सा लिफ़ाफ़ है तो इसके अन्दर..उसने लिफाफा खोला..ये डाइवोर्स पेपर्स थे.. वह इसे खोल कर पढने की कोशिश करने लगा, किन्तु पढने के लिए यह रौशनी बहुत कम थी.. हालाँकि वह रूही की पसंद और ना पसंद से इतना वाकिफ़ था कि काग़ज़ पर छपे शब्दों को छू कर ये जान सकता था कि रूही ने कौन कौन सी शर्तें इस तलाक़ के लिये रखी है..टीवी स्क्रीन पर अब भी दोनों की तस्वीरें एक के बाद एक मुस्कुरा रही थी, अयान जैसे साँस रोके किसी गहरी सोच में डूब गया और इन सबके बीच कमरा किसी लिविंग थिंग की तरह उदास हो चुका था….

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पागल बनाने वाला उपन्यास है ‘पागलखाना’

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राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित ज्ञान चतुर्वेदी के उपन्यास ‘पागलखाना’ पर यशवंत कोठारी की टिप्पणी- मॉडरेटर

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राजकमल प्रकाशन ने ज्ञान चतुर्वेदी का पागलखाना छापा है। 271  पन्नों का  उपन्यास ऑनलाइन 595  रूपये (536+30+29)का पड़ा।  14 दिनों में डिलीवरी मिली। कवर पर  शेर और उसकी परछाई देख कर  ही डर लगने लगा।मगर हिम्मत कर के किताब खोल डाली।

‘नरक यात्रा’ से चले ‘पागलखाना’ तक पहुचे। बीच में ‘मरीचिका’ आई,  ‘बारामासी’ आया और ‘हम न मरब’ पर अंत में पागलखाना सबसे सुरक्षित जगह। यह रचना साहित्य है, या एक उबाऊ फंतासी यही समझने की कोशिश में लगा रहा। इस व्यंग्य उपन्यास का विषय,भाषा शिल्प,कथ्य पर  एक पाठक के रूप में अपनी प्रतिक्रिया दे रहा हूँ ,मैं कोई आलोचक-समीक्षक नहीं हूँ। गलती करता हूँ और सीखता हूँ। वर्तनी की अशुद्धियों के लिए अग्रिम क्षमा ।

नीचे इस रचना पर एक टीप है जो ऑनलाइन है-

 यह वे भी मानते हैं कि बाज़ार के बिना जीवन सम्भव नहीं है। लेकिन बाज़ार कुछ भी हो, है तो सिर्फ एक व्यवस्था ही जिसे हम अपनी सुविधा के लिए खड़ा करते हैं। लेकिन वही बाज़ार अगर हमें अपनी सुविधा और सम्पन्नता के लिए इस्तेमाल करने लगे तो? आज यही हो रहा है। बाज़ार अब समाज के किनारे बसा ग्राहक की राह देखता एक सुविधा-तंत्र-भर नहीं है। वह समाज के समानान्तर से भी आगे जाकर अब उसकी सम्प्रभुता को चुनौती देने लगा है।

ज्ञान बड़े लेखक हैं उनसे हम सब बड़ी उम्मीदें रखते हैं,उन्होंने  सनद रहे   शीर्षक से  भूमिका लिखी है जिसमे उन्होंने एकांत में कैद का जिक्र किया मगर यह परकाया प्रवेश आखिर में आत्म संतोष क्यों नहीं देता? इस रचना को रेसिपी बताते हुए इसके स्वाद की तारीफ भी की है मगर यह एक दूध की फीकी खीर बनकर रह गयी। कोढ़ में खाज वर्तनी की अशुद्धियाँ, टूटे अक्षर, पूरे के पूरे अक्षरों का गायब होना पाठक के साथ अन्याय है। व्यावसायिकता के हावी हो जाने के कारण यह उपन्यास जिसे व्यंग्य उपन्यास कहा गया है एक तथाकथित व्यंग्य उपन्यास बन कर रह गया है। अंग्रेजी शब्दों को कैसे लिखा गया है देखें- डाक्टरी, फ्रेमों,डिग्रियां,सायकेट्रिस्ट। क्लिनिक को स्त्रीलिंग माना  है। वे खुद बहुत बड़े कार्डियोलोजिस्ट है। भाषा का सौन्दर्य गायब है। एक डॉक्टर दूसरे डॉक्टर को रेफर करता रहता है, इस रचना में भी यहीं सब है। अंजनी चौहान ने खूब  मेहनत की मगर प्रभु जोशी ने भी काम किया होगा।

हाँ इस बार लोगों के लगातार विरोध के कारण गालियों की बौछार नहीं है शायद उसके लिए अगले उपन्यास तक इंतजार करना पड़ेगा जिसकी घोषणा  लेखक ने अपनी भूमिका में कर दी है। लेकिन गटर का ढक्कन खोल कर मेन होल में पांव लटका कर बैठ जाना या कूद जाना तो किसी भी समस्या का हल नहीं हो सकता। शीशे पर प्रहार कर क्या दिखाना चाहता है लेखक,हिंसा सर्वत्र वर्जयेत। चिकित्सा के देवता का तस्वीर में बोलना हेरी पोटर का कारनामा तो हो सकता है मगर एक डॉक्टर का नहीं।

यह बाज़ार की ही मजबूरी है की यह सब हो रहा है।

इस उत्तर आधुनिक काल में यथार्थवाद की जरूरत ज्यादा है,पोस्ट सत्य का ऐसा समय चल रहा है की आदमी खुद एक फंतासी हो गया है। मंत्री स्वर्ग लोक में ,कामरेड गोडसे व मरीचिका भी फंतासी के रूप में ही लिखे गए।फंतासी एक ऐसा कल्पना लोक बनाता है जो मायाजाल लगता है,जादूगरी लगती है  और  अंत में जाकर एक मकडजाल बना देता है। कभी इस तरह के लेखन का समय था मगर आज यह सब अजीब  लगता है।

लेखक ने उपन्यास को कई खण्डों में बांटा है।जैसे-वह जो बगल में सुरंग खोद रहा है ,कोई भी ताला… आदि ।ये दोनों चैप्टर पढ़ कर  ऐसा लगा जैसे ये अलग कहानियां है और इनको रेसिपी में प्रक्षेप द्रव्य के रूप में डाला गया है।एक अन्य चैप्टर – सर पर जूता पहनो तो पांव नंगे रह जाते हैं। इस में एक व्यक्ति के सपने सड़क में दफ़न हो जाते हैं डाक्टर इलाज़ करता है। एक अन्य हिस्से में पात्र कचरे के ढेर में छुप जाता हैं एक अजीब मानसिक वेदना है जो  कही भी कभी भी फूट जाती है और हाथ कुछ नहीं आता है। खाली हाथ और खाली दिमाग के सहारे इस रचना को पढने की हिम्मत जुटानी पड़ती है। पागल और बाज़ार के बीच चक्कर खाती इस रचना ने मुझे प्रभावित नहीं किया।आखिर इस खुबसूरत व ईश्वर की देन   दुनिया को पागलखाना क्यों माना जाय । पश्चिम में भी केंसर वार्ड जैसे उपन्यास लिखे गए हैं ,लेकिन वे प्रेम से पगे हैं।

भाषा,के बाद कथ्य ,रचना में कोई खास कहानी नही  है  और न ही उसे असाधारण तरीके से कहा गया है। पात्र आवारागर्दी करते हैं, लेखक के हाथ से कथानक बार बार फिसल जाता है। शाब्दिक जाल में लेखक खुद उलझ गया है।

शिल्प की दृष्टि से भी रचना अपना कोई खास प्रभाव नहीं छोडती क्योकि फंतासी  बाज़ार नहीं है। आभासी फंतासी एक मकडजाल की तरह रचना को दबा देती है,रचना उभर कर नहीं आ पाती।

सपने ,समय ,स्मृतियाँ आदि बार बार आते है मगर वे भी पागलखाना  के पात्र बन  जाते हैं। समय,स्मृतियाँ व सपने, विद्रोह नपुंसक बन के रह जाते  है।

चूँकि इसे व्यंग्य उपन्यास माना गया है, इसलिए इस में व्यंग्य के  सौंदर्यशास्त्र ,काव्य शास्त्र और व्याकरण के आधार पर भी उपन्यास कमज़ोर सिद्ध होता है। बिम्बों,प्रतीकों का  भी कोई खास  प्रयोग लेखक नहीं कर पाया,एक चैप्टर में चाँद ,चांदनी का है जिक्र है मगर ऐसी  ही उनकी एक व्यंग्य रचना भी है। बाज़ार की इस फंतासी में पाठक के लिए कोई जगह नहीं है। सपाटबयानी का जीवंत उदाहरण है यह रचना, जिसका विरोध लेखक अक्सर करते रहते हैं।

रचना में आम आदमी,किसान, मजदूर ,महिला आदि सिरे से गायब है क्या दुनिया का पूरा बाज़ार केवल उच्च वर्ग का शगल है?। पागलखाना कोई अजूबा नहीं मगर बाज़ार की शक्तियों के सामने सब बौने हो जाते हैं। ये बाज़ार ही है जो सब को दबोच रहा है। उपन्यास एक बैचेनी पैदा करता है जो स्वयं में एक बीमारी है। बिना नाक  वाले लोगों का समूह –यह एक जुमला सा लगता है क्योकि नाक पर पचासों विचार आये हैं, विचारहीनता के इस युग में  पाठक के हाथ निराशा ही लगती है। सपने ,समय और स्मृतियाँ पाठक को चोट पहुचाते हैं। रचना में साहित्य संस्कृती,कला आदि गायब है।क्या कोई बाज़ार बिना महिला के पूरा हो सकता है?

सुरंग वाले बाबा की जय हो वे सबका कल्याण करेंगे ,नाचीज़ पाठक का भी।

उपन्यास से गुजरते हुए कही कहीं पंच हैं लेकिन वे पाठक को बांधे रखने में असमर्थ हैं।फिर भी कुछ उदाहरण –

1-एक चमकीले अँधेरे से भरा हुआ पागल खाना

२-बाज़ार उन्हें चमकीली चप्पलें बेचता था।

३-भगवान बाज़ार के साथ था क्योंकि वह पागल नहीं था।

४-हर दर्पण में वे ही घुस गए हैं।

५-इस सुरंग को कोई नंगी आँखों से नहीं देख सकता।

६-…हम कुछ ऐसा करें की आदमी सोचना बंद कर दे।

७-सर पर जूता पहनो तो पांव नंगे रह जाते हैं।

८-सपनों के टुकड़े थैले से निकल कर  इधर उधर गिरने लगे।

९-क्रांति का आध्यात्मिक अंत

१०-समय ने विद्रोह कर दिया था।

अंत में लेखक को अगले उपन्यास के लिए शुभकामनाएं।

००००००००००००००

यशवंत कोठारी ८६,लक्ष्मी नगर ब्रह्मपुरी जयपुर -३०२००२

मो-९४१४४६१२०७

(प्रस्तुत विचार लेखक के अपने हैं. उनसे जानकीपुल सहमत हो यह आवश्यक नहीं है)

 

 

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बेगानों को अपना बनाने वाली किताब ‘न बैरी न कोई बेगाना’

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‘न बैरी न कोई बेगाना’– 390 पेज की यह किताब आत्मकथा है जासूसी उपन्यास धारा के सबसे प्रसिद्ध समकालीन लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक की आत्मकथा का नाम है. इसको पढ़ते हुए दुनिया के महानतम नहीं तो महान लेखकों में एक गैब्रिएल गार्सिया मार्केज की यह बात याद आती रही- जिन्दगी वह नहीं होती जिसे हम जीते हैं बल्कि वह होती है जिसे हम याद रखते हैं और जिस सलीके से हम उसे याद रखते हैं.

सुरेन्द्र मोहन पाठक हिंदी के लोकप्रिय उपन्यास धारा के सबसे लोकप्रिय समकालीन लेखक हैं. अस्स्सी के दशक के आरम्भ में अमिताभ बच्च्चन के बारे में यह कहा जाता था कि लोकप्रियता में एक से लेकर दस नंबर तक अमिताभ बच्चन हैं उनके बाद का अभिनेता ग्यारवहें नंबर पर आता था. वही हाल आजकल सुरेन्द्र मोहन पाठक का है. समकालीन हिंदी जासूसी उपन्यास लेखन के वे पर्याय बन चुके हैं. इसलिए उनकी आत्मकथा का विशेष महत्व हो जाता है.

 सुरेन्द्र मोहन पाठक को लिखते हुए 60 साल होने जा रहे हैं. दुर्भाग्य से हिंदी के लोकप्रिय धारा के लेखकों में इतनी जिंदगी भी शायद ही किसी बड़े लेखक को नसीब हुई जितना कि पाठक जी का लेखकीय जीवन रहा है. उनकी पहली कहानी का प्रकाशन 1959 में हुआ था. उन्होंने लोकप्रिय धारा का उत्कर्ष भी देखा है और उसका पतन भी. सब इस किताब में दर्ज है.

बहरहाल, उनकी आत्मकथा को पढ़ते हुए जो  बात सबसे अधिक प्रभावित करती है वह उनका संघर्ष है और उनकी वह जिद जिसने अंततः उनको एक लोकप्रिय लेखक के रूप में स्थापित किया. उस लेखक के रूप में जो आज हिंदी में लोकप्रिय लेखन का पर्याय बन चुका है. मेरे जैसे लेखकों के लिए अह किताब प्रेरक है जो यह बताती है कि कि लेखन में मुकाम बनाने के सपने को कभी नहीं छोड़ना चाहिए, असफलताओं से हार नहीं माननी चाहिए. अंततः सफलता मिल जाती है. लेखक ने अपनी आत्मकथा में अपने मित्र लेखक वेद प्रकाश काम्बोज का उदाहरण दिया है जिनको बहुत जल्दी सफलता मिल गई और वे उस सफलता को संभाल नहीं पाए. आज भी वेद प्रकाश काम्बोज उपन्यास लिख रहे हैं लेकिन उनका कोई नामलेवा नहीं है.

पाठक जी ने अपने आदर्श लेखक के रूप में कृशन चन्दर को याद किया है और इस बात पर अफ़सोस भी जताया है कि एक महान प्रतिभा का लेखक अति लेखन का शिकार हो गया और उसका वह मुकाम नहीं बन पाया जिसका वह हकदार था. जबकि राजेन्द्र सिंह बेदी ने कम लिखा और एक महान लेखक के रूप में स्थापित हुए.

‘न बैरी न कोई बेगाना’ एक तरह से लोकप्रिय साहित्य धारा का इतिहास भी है. किस तरह दशकों तक लिखकर नाम और दाम बनाने का यह दौर चलता रहा, किस तरह पैसों के लिए घोस्ट लेखन किया जाता था. खुद पाठक जी के सामने भी उस दौर में घोस्ट लेखन के प्रस्ताव आये जब वे अपने नाम से सफल लेखक नहीं बन पाए थे. लेकिन उन्होंने इस तरह के प्रस्तावों को स्वीकार नहीं किया. उनको तो अपने नाम का सिक्का चलाना था. पाठक जी ने  बड़ी ईमानदारी से, बड़ी बेबाकी से हर दौर का हर किस्सा बयान किया है- चाहे वह उनके घर परिवार का हो या लोकप्रिय साहित्य जगत का.

किताब में दो बातें खटकती हैं. एक तो यह कि यह उनकी आत्मकथा का पहला खंड है, जिसमें उनकी युवावस्था तक की ही  कहानी है. फिर इसमें वेद प्रकाश शर्मा के मार्केटिंग फ़ंडों की आलोचना नहीं आनी चाहिए थी. जब किताब में वेद प्रकाश शर्मा का जिक्र ही नहीं है तो उनकी आलोचना भी नहीं होनी चाहिए थी. यह बात कुछ खटकती है. दूसरे, ‘न बैरी न कोई बेगाना’ की भाषा उनके उपन्यासों जैसी ही है. मुझे उम्मीद थी कि पाठक जी की आत्मकथा में उनकी भाषा का कोई दूसरा रंग देखने को मिले शायद. बहरहाल, यह निजी अपेक्षाएं हैं. वैसे यह आत्मकथा ऐतिहासिक महत्व का है क्योंकि एक तरह से पहली बार किसी लोकप्रिय लेखक ने लोकप्रिय धारा के इतिहास को दर्ज करने की कोशिश की है. पाठक जी की यह आत्मकथा लुगदी साहित्य को इतिहास के पन्नों में दर्ज करने की एक सफल कोशिश है. जिसमें वे पूरी तरह सफल रहे हैं. अब इसके आने वाले दो खण्डों का इन्तजार है.

हाँ, इस किताब की कीमत 299 रुपये है जो संयोग से पाठक जी की अब तक की सबसे महंगी किताब है!

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न बैरी न कोई बेगाना; लेखक-सुरेन्द्र मोहन पाठक; प्रकाशक-  वेस्टलैंड बुक्स; मूल्य-299.

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किसान आंदोलनों के पीछे षड़यंत्र नहीं किसानों के दर्द को समझिये!

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देश में किसानों के संघर्ष बढ़ रहे हैं. हम उसको समझने के स्थान पर या तो उनके मध्यवर्गीय समाधान सुझा रहे हैं या उसके पीछे किसी बड़े राजनीतिक षड़यंत्र को देख रहे हैं. कुमारी रोहिणी का यह लेख ऐसे ही कुछ सवालों को समझने की एक कोशिश की तरह है- मॉडरेटर

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पिछले दो चार दिनों से देश का रंग लाल हो गया है. यहाँ लाल से मेरा मतलब वामपंथ वाला लाल नहीं है. लाल से मेरा मतलब है उन किसानों के खून पसीने का रंग. उनके झंडे का रंग. उनके माथे पर पहनी उनकी टोपी का रंग और हाँ सबसे जरुरी और सबसे ज्यादा उनकी कमाई का जरिया उनके खेत और उसमें उगने वाले फसलों का रंग.

जी यकीन मानिये, लाल के कई प्रकार हैं. मुंबई में किसान मार्च में निकले किसानों की टोपियों लाल रंग वह लाल नहीं है जिससे आपको डर लगता है या जो आपका प्रतिद्वंदी है. यह वह लाल है जो आपका हमारा और दुनिया भर का पेट भरता है, जीवन चलाता है.

मुझे लगता है कि किसानों के इस विद्रोह को आप राजनैतिक जामा ना ही पहनाएं तो बेहतर होगा, आपके लिए भी और इस समाज के लिए भी. बस विरोध भर कर देने के लिए आप अपने बाप दादा और कई पुश्तों के अस्तित्व का विरोध नहीं कर सकते हैं. यह अन्याय है, यह पाप है जिसे आप ना तो गंगा में नहा कर धो पाएँगे ना ही भाजपा में शामिल होकर. इसलिए चेत जाईये.

आज से ज़्यादा नहीं बस 20 साल पहले के अपने जीवन या अपने परिवार के जीवन का इतिहास पलट कर देखेंगे तो उसमें कम से कम एक इंसान या एक ऐसा रिश्तेदार जरूर होगा जिसका जीवन खेती और उससे जुड़े व्यवसाय से चलता होगा.

मैं एक किसान परिवार से हूँ, यह अलग बात है कि मेरे पिताजी ने मेरे जन्म से पहले ही खेती करनी छोड़ दी थी लेकिन गाँव में रहने वाले मेरे चाचा जी और मेरे भाई लोग आज भी खेती करते हैं. इसलिए जानती हूँ कि खेती करना और उससे घर चलाना कैसा होता है और कितना मुश्किल होता है. लेकिन खेती और किसानी का सबसे नजदीकी परिदृश्य मैंने अपने माँ के परिवार मतलब कि अपने नानी घर में देखा है. मेरी माँ का पैतृक गांव बेगूसराय जिले से 40 किमी अंदर लख्मीनिया क्षेत्र में है जहाँ से बूढी गंडक बहती है. हमलोग पटना में रहते थे और बचपन में (जब तक 8/9 साल की उम्र थी) छुट्टियों में घूमने जाने के नाम पर हम नानी के यहाँ ही जाते थे और इसके अलावा भी किसी त्यौहार या पर्व पर भी वहीँ जाना होता था. इसलिए आज भी जेहन में गांव के नाम पर नानी घर का दृश्य ही बचा है.

नानी का घर गांव से बाहर मुहाने के पास बना हुआ है. घर काफी बड़ा था लेकिन साथ ही पुराना भी था और बहुत हद तक जर्जर भी हो चुका था. उस घर की ज़र्जरता मुझे हमेशा ज़मींदारी की ज़र्जरता का एहसास दिलाती थी.

मेरी माँ अपने भाई बहनों में सबसे बड़ी है और उसके बाद मेरे मामा जी है और उनसे छोटी तीन मौसियां. मेरी माँ और मौसियों में उम्र का ठीक ठाक फैसला है, इसलिए मुझे अपनी सभी मौसियों की शादियां और शादियों की तैयारियाँ सब याद है.

खैर मुद्दे की बात पर आती हूँ. हाँ तो जैसा कि हम सब जानते ही है इस देश में बेटियों की शादियां यूँ ही माँ बाप के लिए बैतरणी नदी पार करने जैसा है. लेकिन उनकी कठिनाइयां और बढ़ जाती हैं जब आय का साधन खेती हो. मेरे नाना जी के पिता जी जमींदार थे लेकिन नाना जी को विरासत में जमींदारी नहीं किसानी मिली थी और मेरे मामाजी जो कि इकोनॉमिक्स के ग्रेजुएट हैं उन्हें तो विरासत में किसानी भी नहीं मिल पाई. मिला तो बस बंजर – उर्वर जमीनों का जत्था जिसमें फसल तो उगते हैं लेकिन रोटियां नहीं उगती. मेरे नाना और मामा जी ने अपने घर के उन तीन बेटियों की शादियां उसी जमीन को आधार बनाकर की. कभी उसे बेचकर तो कभी उसे गिरवी रखकर. जब भी किसी मौसी की शादी की बात शुरू होती उससे पहले जमीन बेचने की कवायद होती. जमीन इसलिए क्योंकि फसल बेचने से तो घर भी ठीक से नहीं चल पाता था. ऐसा नहीं था कि भुखमरी थी, बल्कि मामला यह था कि नकद नहीं हुआ करता था. वहाँ तो रोज़मर्रा के जीवन में भी किसी भी प्रकार के खरीद फरोख्त का जरिया अनाज ही था. बनिए के यहाँ से चीनी लानी हो या घर में पूजा करने आने वाले पंडित को दान देना हो, सबको उसके हिस्से में मुट्ठी भर अनाज से लेकर अनाज की बोरियां तक ही दी जाती थीं. उस स्थिति में शादी जैसे आयोजन का निबटारा बिना ज़मीन बेचे असम्भव ही होता था.

मुझे याद है नाना जी जब भी पटना आते उनके साथ आती कई छोटी – बड़ी बोरियां. अक्सर रात में या अहले सुबह वे हमारे घर पहुँचते तब हम बच्चे सो रहे होते थे. उस दौर में फोन की भी सुविधा नहीं थी कि आने वाली की खबर पहले ही मिल जाय. हमारे पड़ोस में फोन था भी लेकिन नानी के गांव में ऐसी सुविधा नहीं थी कि हम तक नाना या मामा जी के आने की खबर पहुंच सके. इसलिए नानी के यहाँ से किसी का भी आना हमारे लिए सरप्राइज ही होता था. और उससे ज्यादा मुझे सरप्राइज करती थी वे छोटी बड़ी बोरिया और झोले. जिनमें नानी जी सौगात और प्यार के रूप में ना जाने क्या क्या भेज देती थी. कई प्रकार के दाल, हल्दी, लाल मिर्च, धनिया, अजवाईन, तीसी, माढ़ा, चूड़ा, बसमतिया (बासमती) चावल और कभी कभी तो आलू और कद्दू भी होते थे. चूँकि हम और हमारे बड़े चाचा का परिवार एक साथ ही रहते थे तो नानी के यहाँ से आने वाले बोरे और झोलों को मेरी माँ के बदले बड़ी चाची जिन्हें हम अम्मा कहते हैं और जो रिश्ते में मेरे नाना के दूर की बहन भी लगती हैं वही खोलती थी. होता यह था कि जिस दिन नाना जी आते थे मैं इंतजार में रहती थी कि कब यह बोरियाँ खुलेंगी. उस दिन मेरा स्कूल जाने का भी मन नहीं करता मुझे लगता मुझसे वह मनोरम दृश्य छूट जायेगा जब मेरी अम्मा एक एक कर के बोरियां खोलेंगी और नानी का भेजा सामान निकालेंगी. इसलिए मैं सुबह से जाने अनजाने इसी कोशिश में रहती कि अम्मा मेरे स्कूल जाने से पहले ही सब बोरियां खोल दें.

किसान और अनाज और व्यापर का यही जीवन मैंने देखा है. एक तरफ़ नानी की भेजी बोरियाँ देखकर जितनी ख़ुशी होती थी वहीं दूसरी तरफ़ मुझे यह भी आश्चर्य होता कि नाना जी कैसे बसों और ट्रेनों में ये बोरियां उठाकर लाते होंगे. क्योंकि गाडी भाड़े पर करके लाने की उनकी हैसियत शायद ही रही होगी या उन्हें यह फिजूलखर्ची लगती थी. कारण वही था कि उनके पास अनाज तो बहुत था लेकिन नकद नहीं होता था और गाड़ियों पर चढ़ने के लिए नकद लगता है वहाँ किराए के बदले अनाज नहीं दिया जा सकता था.

मैंने यह भी देखा है जब इतना कुछ लेकर आने वाले मेरे मामा जी या नाना जी के पास नकद के नाम पर ज्यादा से ज्यादा हजार या दो हज़ार रूपये होते थे. उस वक़्त मैं आश्चर्य से भर जाती थी कि जब पापा यही सब सामान बाज़ार से लेकर आते हैं तब तो दूकान वालों को कितने पैसे देते हैं. लेकिन यही जब नाना जी के खेत में उगते हैं तो उनके पास पैसे क्यों नहीं होते. उसी समय मैंने यह जाना कि जो उपजाता है उसके पास ही खाने को अनाज और ईलाज कराने को पैसे नहीं होते. मेरे नाना जी के पास भी इसलिए पैसे नहीं होते थे क्योंकि या तो कभी उनकी फसल बाढ़ में डूब जाती थी या सुखाड़ का शिकार हो जाती थी या जिस साल अच्छी फसल हुई उस साल दाम नहीं अच्छे होते थे.

एक किसान की साल भर की मेहनत उसकी फसल होती है. एक किसान के जीवन को चलाने के लिए उसका राशन पानी उसकी फसल होती है. एक किसान का मासिक पगाड़ उसकी फसल होती है. आप सोचिए आप पूरे महीने काम करें और महीने के अंत में आपको आपका मालिक या बॉस बोल दे कि कंपनी के पास फण्ड नहीं है आपकी पगार के लिए या फिर यह कि हमारे सारे पैसे चोरी हो गए हम आपको आपकी तनख्वा नहीं दे सकते. या फिर कम्पनी को नुक़सान हो गया है आपकी तनख़्वाह नहीं मिल पाएगी,  और ऐसा एक बार नहीं बल्कि साल दर साल हो तब आप क्या करेंगे? आप सड़क एकजुट ही होंगे विरोध ही करेंगे. क्योंकि आप आश्वासन से थक चुके हैं. आपको अब यह समझ आ चुका है कि मालिकों द्वारा किये वादे बस भुलावे हैं सब काग़ज़ी झूठ है, मिथ्या है और उन वादों से आपके बच्चों का पेट नहीं भरेगा, आपके बच्चो को शिक्षा नहीं मिलेगी, खेत में लगातर कड़ी मेहनत के कारण आपके पैरों और घुटनों में स्थायी रूप से घर कर जाने वाले दर्द और बिवाइयों का ईलाज नहीं हो पायेगा. आपकी माँ और पत्नी का धान उबालने और कूटने से झुकी कमर को ठीक करने के लिए बेल्ट नहीं आ पायेगा, और सबसे बुनियादी जरूरत आपके घर का चूल्हा नहीं जलेगा, और अगले साल की फ़सल नहीं बोई जा सकेगी. तब आप भी हाथ में झंडे क्या मशालें और तलवार लेकर सड़क से संसद तक पहुँच जायेंगे. देश को जला देंगे, सत्ता को घुटने पर लाने की और अपने हको को पाने की हर संभव कोशिश करेंगे. उस समय आप यह नहीं देखेंगे कि आपके हाथ के झंडे का या मशाल का रंग क्या है. उस समय आपको बस यह याद रहेगा कि भूख से रोते हुए आपके बच्चों का चेहरा लाल है, दर्द से कराहती आपकी पत्नी के आंसू लाल हैं. और तब जब अपनी थेथरई पर उतर कर कोई आपको वामपंथी, क्रांतिकारी, उग्रवादी, आतंकवादी या देशद्रोही का अमलीजामा पहनायेगा तब आप भी उस जबानदराज का मुंह नोच लेंगे और उसे उसी लाल रंग के झंडे में लपेट देने का साहस कर लेंगे. इसलिए अपने अंदर के इंसान को बनाए रखिए, किसानों के साथ हो रहे अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाइए. क्योंकि अगर एक कृषिप्रधान देश में किसान ही सुरक्षित और जीवित नहीं रहेंगे तो अंत में हमें उसी चीन से धान और चावल आयात करने पड़ जाएँगे जिसकी लाइटों का आप दिवाली में विरोध करते हैं.

अंत में बात बस एक ही है कि मुंबई में सात हज़ार किसान हों या सत्तर हज़ार…उससे फर्क नहीं पड़ता है. फर्क उससे पड़ेगा कि उन किसानों में जिस तरह मुझे अपने नाना और नानी दीखते हैं आपको भी अपने रिश्तेदार दिखने लगें और आप उनकी संख्या और उनके पीछे की शक्तियों को देखने के बजाय उनका दर्द और उनकी ज़रूरत दिखेगी. तब शायद आपको यह विरोध राजनैतिक नहीं बल्कि मानवीय लगेगा.

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अपने लिए खुद का एक कमरा चाहती है स्त्री

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 वरिष्ठ लेखिका विजय शर्मा की पुस्तक ‘विश्व सिनेमा में स्त्री’ के लोकार्पण समारोह की रपट- मॉडरेटर

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लौह नगरी जमशेदपुर में 25 फरवरी की वासंती सुबह होटल मिष्टी इन के भव्य सभागार में साहित्य, कला और सिनेमा प्रेमियों ने फिल्म पर समीक्षात्मक लेखन के क्षेत्र में एक विशिष्ट अध्याय जुड़ते हुए देखा। मौका था डॉक्टर विजय शर्मा द्वारा संपादित पुस्तक “विश्व सिनेमा में स्त्री” के लोकार्पित होने का। इस अवसर पर पुस्तक चर्चा के बहाने स्त्रियों की दशा और दुनिया भर के फिल्मकारों द्वारा अपने-अपने ढंग से इसके फिल्मांकन पर भी बातें हुईं । शहर की प्रतिनिधि साहित्यिक संस्था “सृजन संवाद” द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में शिरकत करने के लिए देवघर से विख्यात आलोचक और फिल्म समीक्षक राहुल सिंह पधारे थे।

छोटे और औद्योगिक मिजाज के शहरों में मासिक गोष्ठियां साहित्य और कला के लिए माहौल बनाने का काम करती हैं। यहीं देख-सुन, लिख और मंज कर नए कलमकार बड़े साहित्यकार बनते हैं। सृजन संवाद ने भी पिछले छह-सात वर्षों में इस शहर में सृजन कर्म को संरक्षित और पल्लवित करने की दिशा में अनवरत काम किया है जिसका प्रमाण है, हर माह होने वाली साहित्यिक गोष्ठियां। यहां कहानियों, कविताओं, फिल्म और हिंदीतर, विशेषकर अंग्रेजी साहित्य पर खुलकर बात होती है। कई नवोदित रचनाकारों मसलन शेखर मल्लिक, रवि कांत मिश्र, अजय मेहताब, विश्वंभरनाथ मिश्र, प्रदीप शर्मा इत्यादि ने अपनी रचनाधर्मिता को इसी गोष्ठी में पुष्ट किया है। अभी भी दर्जनभर युवा शब्द शिल्प का अनौपचारिक प्रशिक्षण यहां से प्राप्त कर रहे हैं।

विचारधारा आधारित लेखक संघों की गतिविधियां शहर में जब क्रमशः कम होती गईं तो सृजन संवाद ने युवा रचनाकारों को सहयोग, समर्थन और मंच प्रदान किया। अपने स्वागत संबोधन में विशिष्ट शिक्षाविद, साहित्यकार व फिल्म समीक्षक डॉ विजय शर्मा ने स्पष्ट किया कि सृजन संवाद का उद्देश्य रचनाकार और रचना को समृद्ध बनाना है। इसी प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने बताया कि शंकर (संपादक – परिकथा) तथा डॉक्टर सी भास्कर राव के साथ उन्होंने इसकी परिकल्पना की थी और पिछले छह सात वर्षों में जमशेदपुर से बाहर के अनेक रचनाकारों का सहयोग तथा उपस्थिति का सम्मान सृजन संवाद को मिल चुका है जिसमें सर्व श्री अशोक कुमार पांडे, देवेंद्र कुमार देवेश, प्रयाग शुक्ल, विभूति नारायण राय, सत्यनारायण पटेल, डॉ महेश्वर, विकास कुमार झा, सेराज खान बातिश, लालित्य ललित इत्यादि प्रमुख हैं।

इस गोष्ठी में चयनित रचनाएं ही पढ़ी जाती हैं और तब उस पर विस्तार से चर्चा होती है। चर्चा सत्र में साहित्य प्रेमियों के अलावा स्थानीय कॉलेजों तथा यूनिवर्सिटी के प्राध्यापक भी शामिल रहते हैं।

अब तक सृजन संवाद की गोष्ठियों में डॉ. सी. भास्कर राव, डॉ. विजय शर्मा, शंकर, जयनंदन, कमल, अख्तर आजाद, नियाज अख्तर, अहमद बद्र, मंजर कलीम,सुषमा सिन्हा, रवि कांत मिश्र, विश्वंभर मिश्र, संध्या सिन्हा, शैलेंद्र अस्थाना, नेहा तिवारी, शेखर मल्लिक, आशुतोष झा, अजय मेहताब, आभा विश्वकर्मा, अर्पिता श्रीवास्तव,अभिषेक मिश्रा इत्यादि अनेक साहित्यकार रचना पाठ कर चुके हैं।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साहित्य और सिनेमा को समझने तथा रसास्वादन के अलावा सृजन संवाद का उद्देश्य भाषा-साहित्य अध्ययन तथा अध्यापन के लिए नई पीढ़ी तैयार करना भी है। अंग्रेजी साहित्य की विशिष्ट कृतियों पर चर्चा के जरिए सृजन संवाद के सदस्य उन मूल रूढ़ियों, विकृतियों तथा अवधारणाओं को समझने का प्रयास करते हैं जिनसे अफ्रीकी-अमेरिकी या यूरोपीय समाज निर्मित हुआ है। इस प्रकार सृजन के विविध पक्षों के साथ-साथ समाज की जानी अनजानी तमाम प्रवृतियों पर चर्चा और संवाद कायम करना भी सृजन संवाद का एक प्रमुख उद्देश्य है।

हमने पिछले वर्ष यह तय किया कि साहित्य और सिनेमा से जुड़े विषयों पर हम दो पुस्तकें प्रकाशित करेंगे। इसी की प्रथम कड़ी के रुप में यह किताब आज आप सबों के सामने आ रही है।

इसके बाद अपने संपादन में सद्यः प्रकाशित पुस्तक की कतिपय विशेषताओं की चर्चा करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि फिल्मों पर भारत में चर्चाएं होनी अब शुरू हुई हैं और इस विषय पर प्रकाशित सामग्री की बहुत कमी है। आशा है पुस्तक में लिए गए ये 25 समीक्षात्मक आलेख उक्त कमी के कुछ अंशों को पूरा करेंगे। सामान्य पाठकों और फिल्म अध्येताओं के अलावा शोधार्थियों व अकादमिक जगत के लिए भी इसमें प्रचुर सामग्री है। इसमें शामिल कई लेखक ऐसे हैं जिन्होंने पहली बार फिल्मों पर काम किया है पर उनका काम उल्लेखनीय बन पड़ा है।

दीप प्रज्ज्वलन से कार्यक्रम की औपचारिक शुरुआत हुई। लेकिन इसके पहले कि वक्ताओं को संबोधन के लिए बुलाया जाए पिछली रात अर्थात 24 फरवरी को दिवंगत हुई प्रसिद्ध बॉलीवुड अभिनेत्री श्रीदेवी की आत्मा की शांति के लिए 2 मिनट का मौन रखा गया।

पुस्तक विमोचन के उपरांत परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुए डॉक्टर नेहा तिवारी ने स्त्री मुद्दों से जुड़े विविध पक्षों को संक्षेप में सबके सामने रखा। गौरतलब है कि डॉक्टर नेहा तिवारी अंग्रेजी की प्रोफेसर हैं और स्थानीय करीम सिटी कॉलेज में मास कम्युनिकेशन विभाग की अधिष्ठाता आचार्य हैं। उनके उद्बोधन में पत्रकारिता, साहित्य और स्त्री आंदोलन का अद्भुत समागम था।

उन्होंने “स्पाइरल ऑफ साइलेंस” की चर्चा करते हुए समाज में बहुमत तथा अल्पमत की उपस्थिति पर प्रकाश डाला और यह सिद्ध किया कि जिसे हम समाज में अल्पमत या माइनॉरिटी क्लास मानते हैं, उन माइनॉरिटी क्लासेज के अंतर्गत रिलीजियस माइनॉरिटी ही नहीं आती बल्कि दलित, स्त्री और बच्चों से संबंधित विमर्श भी इसी माइनॉरिटी ग्रुप से संबंधित हैं। गौरतलब यह है कि समाज में वास्तविक परिवर्तन लाने वाले लोग इन्हीं माइनॉरिटी ग्रुप से आते हैं बहुत सालों तक या कहें तो सदियों तक समाज में स्त्री की चुप्पी, स्त्री का शील उसके पहचान के साथ इस प्रकार जुड़ चुका था कि स्त्री की मुखरता हमारे और तमाम दुनिया के समाजों में एक नई, अनोखी और बर्दाश्त  बाहर की बात थी। लेकिन अब परिस्थितियां बदल रही हैं। स्त्री की चुप्पी अब टूटने लगी है।

स्त्री को आखिर चाहिए क्या? एक स्त्री अंततोगत्वा क्या चाहती है? वर्जीनिया वूल्फ के शब्दों में कहें तो  “रूम्स ऑफ वंस ओन” यानी अपने लिए खुद का एक कमरा चाहती है स्त्री।

यहां यह बात समझनी चाहिए कि पुरुषों को  सृजनात्मक माहौल स्वतः, सहज रुप से हासिल होता है पर स्त्रियां इसे लड़ कर हासिल करती हैं।

पीकू, अनारकली ऑफ आरा तथा क्वीन जैसी फिल्मों का जिक्र करते हुए डॉ नेहा तिवारी ने कहा कि स्त्रियों की सोच और दशा में आ रहे परिवर्तनों को विश्व सिनेमा लगातार रेखांकित कर रहा है और भारत में पिछले दो दशकों से इस प्रक्रिया में बहुत तेजी आई है।

राहुल सिंह ने जमशेदपुर के सिनेमा संस्कारों की चर्चा करते हुए इम्तियाज अली, प्रियंका चोपड़ा जैसी स्थानीय फिल्मी हस्तियों को याद किया और करीम सिटी कॉलेज के मास कॉम डिपार्टमेंट के होनहार छात्रों की प्रतिभा संपन्नता पर खुशी जाहिर की। अपने वक्तव्य में किताब के अलावा फिल्म, फिल्म समीक्षा और स्त्रियों की वर्तमान दशा पर उन्होंने विस्तार से अपने विचार व्यक्त किए।

देखा जाए तो भारत में फिल्म समीक्षा उपेक्षित-सी रही है। हमारे अकादमिक संस्थानों में भी ऐसी कोई असरदार कोशिश नहीं हुई कि एक निष्ठ फिल्म समीक्षक तैयार किए जाएं। फिल्म एप्रिसिएशन की कक्षाएं भी कायदे से फिल्म समीक्षक नहीं बना सकी। इसलिए दर्शकों या सिनेमा के रसिकों ने ही फिल्म समीक्षा का जिम्मा भी उठाया हुआ है। ऐसी स्थिति में नए फिल्म समीक्षकों को प्रशिक्षित करने के उद्देश्य से राहुल सिंह ने कई महत्वपूर्ण टिप्स भी दिए। जैसे फिल्म को पहले परसीव करना चाहिए। अर्थात फिल्म का अंतर्ग्रहण होना चाहिए। अच्छी फिल्म समीक्षा पाठकों को बेचैन करती है। उन्हें पढ़ने वाला व्यक्ति फिल्म देखने के लिए प्रेरित होता है। यदि उसने पहले से ही यह फिल्म देखी हुई भी हो तो वह दोबारा देखना चाहेगा क्योंकि फिल्म समीक्षक की निगाह उन क्षेत्रों को भी कवर करती है जो दर्शकों के नजर से अक्सर छूट जाया करते हैं। अच्छी फिल्म एक गंभीर कलाकृति की तरह है जिस को बार-बार देखने पर आस्वाद की कई परतें खुलती हैं, संवेदना के कई पक्ष उभरते हैं।

भारत और पश्चिम में स्त्री की राजनीतिक चेतना के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को याद करते हुए राहुल सिंह ने स्वतंत्रता के बाद भारत में क्रमशः क्षीण होती राजनीतिक चेतना को गंभीरता से रेखांकित करते हुए कहा कि पश्चिम में हमें वर्जीनिया वुल्फ,  सीमोन द बोउवार जैसी अनेक स्त्रीवादी चिंतन मिलती हैं पर भारत में ऐसे कौन से कारण रहे हैं जिनके चलते शिक्षा और व्यक्ति स्वातंत्र्य में विकास होने के बावजूद कोई ढंग का समर्पित स्त्री चिंतक दिखाई नहीं देता। दरअसल भारत में आजादी के बाद स्त्रियों की बढ़ी हुई राजनीतिक चेतना में क्रमशः गिरावट ही दिखाई देती है। और आज वह इतना नीचे गिर चुकी है कि संसद में महिलाओं को 33% आरक्षण देने का विधेयक पिछले 15 सालों से पटल पर ही नहीं रखा जा सका है। भारत में स्त्री अधिकारों का कोई आंदोलन ही जब खड़ा नहीं हुआ तो हम फिल्मों में उसकी छवि कैसे पा सकते हैं? भारतीय फिल्मों में स्त्री वही है जो भारतीय समाज में है। इस संदर्भ में उन्होंने अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर प्रथम भाग के एक संवाद का जिक्र किया जिसमें पीयूष मिश्रा रिचा चड्ढा को उसके पति मनोज बाजपेई के चरित्र के बारे में समझाते हुए कहते हैं- ‘ तू सही है लेकिन वह मर्द है।’

आदिवासी, अल्पसंख्यक, दलित, स्त्रियों के साथ-साथ हिंदी फिल्म उद्योग बच्चों पर भी जानदार फिल्में बना रहा है। राहुल सिंह ने बच्चों को भी सबाल्टर्न समूहों के अंतर्गत रखने की वकालत करते हुए मशहूर फिल्म ‘चिल्लर पार्टी’ को बाल राजनीतिक चेतना की एक प्रखर फिल्म बताया। दूसरी तरफ “मातृभूमि-अ नेशन विद आउट वीमेन’ की चर्चा करते हुए इसे विश्व सिनेमा की स्त्री विषयक फिल्मों की सर्वश्रेष्ठ कृतियों में शुमार होने लायक फिल्म बताया।

नए समीक्षकों को अपनी राय देते हुए राहुल सिंह ने कहा कि समीक्षा में हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कम से कम शब्दों में आप कितना अधिक व्यक्त कर सकते हैं। यह कोई आवश्यक नहीं कि ज्यादा बड़ी चीजें ही बेहतर होंगी। छोटी चीजें भी ज्यादा प्रभावकारी, ज्यादा मारक, ज्यादा वेधक हो सकती हैं। इन छोटी चीजों की प्रभावात्मकता तब समझ में आएगी जब हम जानेंगे कि असल क्रांति जो स्त्री और फेमिनिज्म आधारित सिनेमा की हो रही है उसका जॉनर फीचर फिल्म नहीं शार्ट फिल्म है। यूट्यूब में इन फिल्मों की भरमार है, अनुराग कश्यप से लेकर तिग्मांशु धूलिया और कल्कि कोचलिन से लेकर राधिका आप्टे तक सभी प्रयोगधर्मी कलाकार यहाँ मौजूद हैं।
व्यावसायिकता के दबाव के कारण मुख्य धारा की फिल्मों में युवा तथा संभावनाशील निर्देशक, कलाकार अपने  हुनर, अपनी प्रयोगात्मकता और अपने सोशल-इंटेलेक्चुअल कंसर्नस नहीं दिखा पा रहे हैं। इसके लिए उन्होंने विकल्प के रूप में शार्ट फिल्मों का चुनाव किया है। इसलिए तमाम बड़े आर्टिस्ट तथा डायरेक्टर वहां मौजूद मिलेंगे। अपने संबोधन के अंत में राहुल सिंह ने उपस्थित श्रोताओं को केवल मुख्य धारा की फिल्मों तक केंद्रित न रहकर इन शॉर्ट फिल्म्स की ओर दृष्टिपात करने का इशारा भी किया क्योंकि प्रतिरोध का सिनेमा बहुलांश में यहीं रचा जा रहा है। स्त्री सहित तमाम पीड़ित वंचित समूहों की आवाज को प्रमुखता और तत्परता के साथ यहीं उठाया जा रहा है।

लगभग घंटे भर चले अपने संबोधन में राहुल सिंह ने कई बातें विस्तार से तथा अनेक उदाहरणों के साथ समझाईं जिससे उपस्थित श्रोता तथा विद्यार्थीगण सभी लाभान्वित हुए।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ साहित्यकार तथा फिल्म समीक्षक डॉ. सी. भास्कर राव ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में यह आशा प्रकट की कि सृजन संवाद आने वाले समय में अपनी गोष्ठियों तथा परिचर्चा के माध्यम से गंभीर फिल्म अध्येता तैयार करेगा। उन्होंने स्त्री की परंपरागत छवि के बरक्स आधुनिक स्त्री की कई विशिष्टताओं की तरफ इशारा किया जिनको वर्तमान भारतीय फिल्मकारों ने सफलतापूर्वक स्थापित किया है। उनके संबोधन की विशेषता यह रही कि जहां अन्य वक्ताओं ने विश्व सिनेमा के परिदृश्य पर बात की वहीं उन्होंने भारतीय, विशेषकर हिंदी और बांग्ला फिल्मों को केंद्र में रखकर अपनी बात की, जिसके वे मर्मज्ञ माने जाते हैं।

इस महत्वपूर्ण आयोजन के सूत्रधार तथा संयोजक युवा कवि अखिलेश्वर पांडेय ने कार्यक्रम का सफल संचालन किया तथा कवयित्री-संपादिका डॉ संध्या सिन्हा ने धन्यवाद ज्ञापित किया। शहर की प्रतिनिधि साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था तुलसी भवन ने इस अवसर पर लोकार्पित पुस्तक की संपादिका डॉ. विजय शर्मा को पुष्पगुच्छ व शॉल देकर सम्मानित किया।

इस महत्वपूर्ण आयोजन में डॉ आशुतोष कुमार झा, डॉ बीनू, आभा विश्वकर्मा , प्रदीप कुमार शर्मा , अभिषेक कुमार मिश्रा, अंकुर कंठ , सुशांत, तामीर शाहिद , डॉ मिथिलेश कुमार चौबे, संतोष कुमार सिंह, अजय महताब, डॉ अहमद बद्र, मंजर कलीम, अविनाश कुमार शर्मा, रश्मि चौबे, खुशी राय इत्यादि शताधिक नगरवासी उपस्थित थे।

इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए खास तौर पर रांची से प्रख्यात साहित्यकार महादेव टोप्पो तथा नई दिल्ली से सुधीर वत्स भी आए थे। नए सृजन तथा उस पर निरंतर संवाद के संकल्प के साथ यह गोष्ठी संपन्न हुई।

रिपोर्ट – डॉ आशुतोष कुमार झा
Mob – 9431372098
Email – akjha2307@gmail.com

 

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तुम्हारी देह जिस आत्मा का घर थी उसे विदा कर दिया है

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केदारनाथ सिंह को श्रद्धांजलि देते हुए यह लेख अंजलि देशपांडे ने लिखा है. अंजलि जी ने हाल में ही जगरनॉट ऐप पर एक जबरदस्त सामाजिक थ्रिलर ‘एक सपने की कीमत’ लिखा है. इससे पहले राजकमल प्रकाशन से इनका उपन्यास ‘महाभियोग’ प्रकाशित है- मॉडरेटर

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“जो कवि कविता के साथ इतना लंबा समय गुज़ार दे और लगातार लिखता रहे, कविता उसके लिए विधा नहीं रह जाती, व्यक्तित्व बन जाती है, अभिव्यक्ति नहीं रह जाती, अस्तित्व की शर्त बन जाती है। वह आती-जाती सांस जैसी हो जाती है जिसकी बेआवाज़ लय हमेशा साथ बनी रहती है।”

कैसे सुन्दर शब्द हैं.

केदारनाथ सिंह के लिए इतना ही कहना काफी था शायद. विचार और भाव के संगम पर स्थित इस श्रद्धांजलि ने मन को छू भी लिया, मस्तिष्क को उद्वेलित भी कर दिया. संघर्ष के किन पलों में भावना विचार को अंगीकार कर लेती है और कब विचार भावना की मुलायमियत से ओतप्रोत हो जाते हैं यह कोई नहीं जान सकता शायद. पर परिवर्तन की इस लय को जो पकड़ पाए वही कालजयी कवि हो है क्योंकि उसने परिवर्तन की बेआवाज़ लय सुनी है, पकड़ी है.

केदारनाथ सिंह ने जैसे देश के संक्रमण काल को आत्मसात कर लिया था, उसके तनाव को महसूस करके उसके सुर में अपने शब्द पिरोये. भोजपुरी और हिंदी के बीच के अपनत्व और दूरी को एक साथ कोई उन जैसा मूर्धन्य कवि ही माप कर असीम विस्तार दे सकता था. एक में दूसरे को खोजने की उनकी सबसे विख्यात पंक्तियाँ एक परिवर्तनशील जग में अपने अस्तित्व की बदलती पहचान पर स्व से ‘उस’ के मिलन और ऐसे में भी अपने अस्तित्व की अक्षुण्णता के बचाए रहने की कैसी अद्भुत अभिव्यक्ति है! इतनी सुन्दर कि एक नया मुहावरा बन जाए.

ऐसा कवि इतिहास को वह आयाम देता है जो सबूतों के मोहताज पेशेवर इतिहास लेखकों के लिए कठिन है. पर जो आवश्यक है. ऐसा आयाम जो इतिहास में होना ही चाहिए, मानव की मांसलता का, भविष्य की उसकी कल्पना शक्ति का. ऐसा शिखर केदारनाथ सिंह ने हासिल किया तो इसलिए कि घास उनको प्रिय थी, कि जड़ें उतनी ही नीचे थीं जितनी ऊंची उनकी कवि कल्पना की उड़ान थी. जैसा कि बुनाई का उनका गीत कहता है.

उठो

झाड़न में

मोजो में

टाट में

दरियों में दबे हुए धागो उठो

उठो कि कहीं कुछ गलत हो गया है

उठो कि इस दुनिया का सारा कपड़ा

फिर से बुनना होगा

उठो मेरे टूटे हुए धागो

और मेरे उलझे हुए धागो उठो

उठो

कि बुनने का समय हो रहा है

समय हो रहा है कवि. तुम्हारी देह जिस आत्मा का घर थी उसे विदा कर दिया है, तुम्हारी आत्मा को हम अपनी आत्मा में रचा बसा सकेंगे या नहीं यह अब हमारी जवाबदेही है.

लगता है हिंदी साहित्य फिर प्रतीक्षारत हो गया है. जाने कब, कौन आये…

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उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ हमारे संगीत की रूह और आत्मा में बसे हुए हैं

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कल उस्ताद बिस्मिल्ला खान की जयंती थी. उस्ताद बिस्मिल्ला खान दशकों तक शहनाई के पर्याय की तरह रहे. उनके ऊपर बहुत अच्छी किताब यतीन्द्र मिश्र ने लिखी है ‘सुर की बारादरी’. आज खान साहब पर यतीन्द्र मिश्र की लिखी यह छोटी सी सारगर्भित टिप्पणी- मॉडरेटर

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भारतीय शास्त्रीय संगीत में उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ एक ऐसे प्रतीकपुरुष बन गये हैं जिनको याद करना एक वैभवशाली कलासमय को इतिहास के बहाने याद करना है । उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ एक ऐसी संज्ञा का नाम है जिसको सुनते या बोलते हुए हमें अकस्मात दूसरा शब्द जो एकबारगी ज़ेहन में उभरता है वह शहनाई का है । शहनाई का मतलब बिस्मिल्ला ख़ाँ और बिस्मिल्ला ख़ाँ का मतलब साजों की कतार में सरताज़ बनी हुई मंगलध्वनि बिखेरने वाला वाद्य शहनाई।

बिस्मिल्ला ख़ाँ के साथ सिर्फ शास्त्रीय संगीत या बनारस ही आपस में घुलामिला नहीं है वरन् उनके साथ भारतीय संस्कृति की ढेरों रंगतें अपनी सबसे आभामयी उपस्थिति में दीप्त हैं । यह ख़ाँ साहब ही हैं जिनके सौभाग्य के खाते में पन्द्रह अगस्त को लालकिले पर शहनाई बजाने का मौका मिला हुआ है । एक तरफ हमारा देश आज़ाद हो रहा है और दूसरी तरफ उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ की शहनाई भारत के हर एक आम इंसान के भीतरी जज़्बातों, आज़ादी की तड़प और अपनो से बिछड़ जाने के ग़म का नग़मा सुना रही है । यह ख़ाँ साहब की एक अन्य अविस्मरणीय उपलब्धि  है कि पन्द्रह अगस्त को स्वतंत्रता दिवस की पचासवीं वर्षगाँठ पर उन्हें दूसरी बार लाल किले के दीवानेआम से शहनाई बजाने का न्यौता मिला है । उनके किरदार में दुनिया भर का फसाना,कहकहा, ढेरों दिलचस्प वाकये और लगभग आठ दशक तक दुनिया को सुरों से भिगोने का सार्थक समय नसीब हुआ है । ख़ाँ साहब को जानना एक साथ गंगा के पानी में उपासना करने और अज़ान की पुकार में स्वयं को भुला देने में शरीक होना दोनों ही है। यह अकारण नहीं है कि बाबा विश्वनाथ, बालाजी मन्दिर, मंगलागौरी का स्थान और बनारस के गंगा तट पर अस्सी बरस तक रियाज़ी रहे इस फनकार की सबसे अमर कजरी के बोल हैं- गंगा दुआरे बधईया बाजे । वे इस मायने में भी इतिहास में पूरे आदर के साथ जीवित रहेंगे कि उन्होंने अपने फ़न और कला के द्वारा भारतीय समाज में हिन्दू-मुस्लिम एकता की शानदार मिसाल कायम की थी । उनका संगीत गंगा-जमुनी तहज़ीब को सँवारता हुआ अपने शुद्ध व आत्यन्तिक रूप में इबादत का संगीत था।

उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ उस समय से हमारे संगीत की रूह और आत्मा में बसे हुए हैं- जिस जमाने में मुश्तरीबाई, बड़ी मोतीबाई, विद्याधरी, कृष्णराव शंकर पण्डित, उस्ताद बड़े गुलाम अली ख़ाँ, उस्ताद अब्दुल करीम ख़ाँ, उस्ताद फैयाज़ ख़ाँ, रसूलनबाई, उदय शंकर, अहमद जान थिरकवा और ऐसे ही न जाने कितने स्वनामधन्य महान लोगों की परम्परा मौसीकी में पूरी गरिमा के साथ निभती रही है । उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ का सबसे महान योगदान यह है कि उन्होंने शहनाई जैसे अति साधारण वाद्य को राजदरबारों, महफिलों, ड्योढ़ियों और मन्दिरों के दरवाजे पर प्रभाती सुनाने और मंगलध्वनि  के दायरे से उठाकर सीधे शास्त्रीय संगीत के प्रशस्त आँगन में स्थापित करने में रहा है । यह बिस्मिल्ला ख़ाँ ही थे जिनकी कला यात्रा में शहनाई रागदारी को अंजाम देने वाला एक जरूरी वाद्य बन गया। उन्होंने शास्त्रीयता और परम्परा का पूरा ध्यान रखते हुए अपनी शहनाई से उत्तर भारत की शास्त्रीय संगीत परम्परा से चुनकर ढेरों राग-रागिनियों को शहनाई के प्याले में उतारने का ऐतिहासिक श्रम किया है । आज हम सभी जानते हैं कि बहुत सारे राग मसलन- बागेश्री, जयजयवन्ती, कामोद, सारंग, बहार, बिहाग, केदार, भीमपलासी, यमन, भूपाली, छायानट, मालकौंस और भैरवी सभी उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ की अपनी विशुद्ध परम्परा के सिग्नेचर राग बन गये हैं । इसी के साथ ठुमरी, चैती, कजरी और दादरा के बोलों को भी उन्होंने अपनी वादन कला में पूरी ऊँचाई के साथ गरिमापूर्ण स्थान दिया है ।

उनकी जुगलबन्दियाँ फिर चाहे वह वीजी जोग के साथ हो या कि गिरिजा देवी के साथ- भारतीय शास्त्रीय संगीत की सबसे अमूल्य धरोहर समझी जाती हैं । चूँकि ख़ाँ साहब खासे मनमौजी और मिलनसार स्वभाव के व्यक्ति थे- मित्रें की बात न टालना उनका व्यक्तिगत गुण था । इसका सबसे सुन्दर अंजाम यह हुआ कि जब उन्हें वसन्त देसाई ने मुम्बई बुलाया- तब उनके कलाकार का एक सुन्दर रूप ‘गूँज उठी शहनाई’ फ़िल्म के द्वारा व्यक्त हुआ । आज शायद ही कोई संगीत प्रशंसक इस फ़िल्म के संगीत के जादू से अछूता हो । भैरवी में लता मंगेशकर द्वारा गवाया गया ‘दिल का खिलौना हाय टूट गया’ शहनाई के अपने छन्द का सबसे नायाब नमूना है । स्वयं बिस्मिल्ला ख़ाँ भी इसकी तर्ज़ को इतना पसन्द करते थे कि अपनी ढेरों कन्सर्ट में उन्होंने इसे बजाया है ।

उस्ताद जी के साथ अनगिनत ऐसे क्षण जुड़े हुए हैं- जिन पर कोई भी भारतीय गुमान कर सकता है । मसलन यह कि शिवरात्रि पर बाबा विश्वनाथ की सेहराबन्दी सबसे पहले यही फ़नकार बजाता रहा है या 1967 से अब तक भारत सरकार के प्रतिनिधि संचार माध्यमों (आकाशवाणी एवं दूरदर्शन) से प्रतिदिन सुप्रभात की मंगलध्वनि की धुन उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ की शहनाई के माध्यम से ही पूरे देश को सुनाई जाती है या यह कि ईरान में उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ के सम्मान में एक आडीटोरियम बना है- जिसका नाम है तालार मौसीकी उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ या संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार ने उस्ताद का अस्सीवाँ जन्मदिन 1965 में पूरे राजकीय सम्मान के साथ मनाया । उनके इन्तकाल के बाद भारत सरकार ने युवाओं में संगीत सम्भावना को आदर देने के लिये प्रतिवर्ष उनके नाम पर एक राष्ट्रीय पुरस्कार की स्थापना भी की है । स्वयं बिस्मिल्ला ख़ाँ के खाते में अनगिनत अवॉर्ड एवं ढेरों डीलिट की मानद उपाधियाँ दर्ज़ हैं । सिर्फ़ भारतरत्न का स्मरण करके यह देखा जा सकता है कि उनकी वादन कला को इस देश ने किस पाये का सम्मान बख़्शा है ।

उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ शताब्दी पुरुष ही नहीं संगीत और रियाज़ के ऐसे कीर्ति स्तम्भ हैं जिनको याद करके संगीत सीखने वाली पीढ़ियाँ जवान होती रहेंगी । ऐसे मौके पर जब संस्कृति उन्हें अपने आत्मीय ढंग से याद करती है उनकी कही बात को यहाँ याद करना जरूरी है जो उन्होंने भारत रत्न मिलने के बाद अपने फ़नकार के सन्दर्भ में कही थी मेरा काम अभी कच्चा है सच्चे सुर की तलाश में हूँ । परवरदिगार से इसी सुर की नेमत माँगता हूँ । यह कहना ग़ैरज़रूरी है कि ख़ाँ साहब की बात करीम परवरदिग़ार ने सुनी थी कि नहीं ।

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मूर्ति का तराशा हुआ शिल्प इसे पठनीय बनाता है

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इरा टाक ने हाल के बरसों में अपनी मेहनत से लेखन में अच्छी पहचान बनाई है. जगरनॉट बुक्स पर उनका उपन्यास ‘मूर्ति’ है. उसकी समीक्षा शिल्पा शर्मा ने की है- मॉडरेटर

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मूर्ति, मीठी का कड़वा सौदा… जगरनॉट बुक्स पर उपलब्ध इरा टाक द्वारा रचित इस उपन्यास को पढ़ते हुए आप जैसे किसी कल्पना लोक में पहुंच जाते हैं. रहस्य, रोमांच और प्रेम की दास्तां के साथ गूंथा गया यह उपन्यास आपको कहानी की नायिका मीठी और उसपर बीत रही परेशानियों के साथ-साथ कहानी में मौजूद हर एक पात्र से जोड़ता चलाता है. उपन्यास को पढ़ते हुए आप यह बातभालीभांति जान जाते हैं कि यह काल्पनिक उपन्यास है, पर इसकी फ़ैंटसी और कहानी के दिलचस्प मोड़ आपको इस उपन्यास को इसमें डूबकर पढ़ने को मजबूर कर देती है. उपन्यास की शुरुआत से हीयह जानने की चाहत बराबर बनी रहती है कि आगे क्या होगा? उपन्यास के दूसरे चैप्टर में हमारे सामाज की प्रेम को लेकर वह दोगली सोच भी सामने आती है, जब वह किसी प्रेमी जोड़े का प्रेममुक़म्मल नहीं होने देना चाहता, लेकिन उस प्रेमी जोड़े के सामाजिक और व्यावसायिक रूप से सफल होने पर उसे वही समाज सहर्ष अपना लेता है. यह उपन्यास आपको यह भी बताता चलता है कि कैसेपरिस्थितियां बदलने पर अपने ही लोग एक स्त्री के शोषण में पलभर की देर नहीं लगाते, फिर चाहे वो मानसिक हो, शारीरिक हो या आर्थिक हो… मीठी के पिता की कहानी भी बड़ी सहजता से सामनेआती है और मीठी-विलियम की अपनी प्रेम कहानी भी आपको किसी परी-कथा की तरह कल्पना लोक में विचरण करा लाती है. इरा एक काल्पनिक कहानी में पात्रों को सामयिक रखने में पूरी तरहसफल रही हैं. कहानी के बहाव ने इसकी पठनीयता बढ़ा दी है. किसी कमर्शल सस्पेंस थ्रिलर मूवी की तरह लिखे गए इस नॉवेल की कमज़ोर कड़ी है इसकी प्रूफ़ रीडिंग. कहानी के प्रवाह के बीच मात्राओं/शब्दों की ग़लतियां खटक जाती हैं. लेकिन डिजिटल माध्यम की सकारात्मकता का इस्तेमाल कर जगरनॉट बुक्स के एडिटर्स इस कमी को तुरंत दूर भी कर सकते हैं. यदि आप शिल्प में तराशी हुईअपनी समय की लगनेवाली काल्पनिक, रोमांचक प्रेम कहानियां पढ़ने में दिलचस्पी रखते हैं तो मूर्ति पढ़ने में आपको  पलभर की भी देर नहीं करनी चाहिए.

-शिल्पा शर्मा

https://www.juggernaut.in/books/eedd0fa7fb8f49dda1cadf3957f31500/preview

लेखक परिचय: 

शिल्पा शर्माः पोस्टग्रैजुएशन इले‌क्ट्रॉनिक्स में और जी 

लेखन में. पिछले 16 वर्षों से मीडिया के विभिन्न संस्थानों में कार्य का

 अनुभव. कई कहानियां व कविताएं देशभर के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में

 प्रकाशित. फ़ेमिना हिंदी का 9 वर्षों तक सम्पादन. फ़िलहाल स्वतंत्र 

लेखन व  सम्पादन. फ़ेसबुक पेज: दिल से.   संपर्क: shilpaansharmaa@gmail.com,  9967974469.

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देवदत्त पटनायक की किताब ‘राम की गाथा’का एक अंश

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रामनवमी के अवसर पर देवदत्त पटनायक की किताब ‘राम की गाथा’ का एक अंश प्रस्तुत है. पेंगुइन बुक्स-मंजुल पब्लिशिंग से प्रकाशित यह किताब ‘द बुक ऑफ़ राम’ का हिंदी अनुवाद है. अनुवाद मैंने किया है- प्रभात रंजन

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एक न्यायप्रिय नायक

रामायण हिन्दू धर्म के सबसे पवित्र ग्रंथों में एक है, जिसमें राम नामक राजकुमार की कहानी कही गयी है।

अयोध्या के राजा दशरथ की तीन रानियाँ थीं लेकिन उनकी कोई संतान नहीं थी। इसलिए उन्होंने एक यज्ञ का आयोजन किया और देवताओं का आह्वान किया, जिन्होंने उनको जादुई औषधि दी, उस औषधि को तीनों रानियों में बाँट दिया गया। समय के साथ रानियों ने चार पुत्रों को जन्म दिया। राम सबसे बड़े थे, जिनका जन्म सबसे बड़ी रानी कौशल्या से हुआ था, भरत दूसरे पुत्र थे जिनका जन्म दशरथ की प्रिय रानी कैकेयी से हुआ था तथा लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न तीसरी रानी सुमित्रा के जुड़वां बच्चे थे।

राम ने आरंभिक शिक्षा दीक्षा ऋषि वशिष्ठ की देखरेख में पूरी की। उसके बाद उनसे यह कहा गया कि वे ऋषि विश्वामित्र के आश्रम की राक्षसों से रक्षा करें। तदनुसार, वे ऋषि विश्वामित्र की देखरेख में जब तक रहे उन्होंने अनेक राक्षसों का वध किया जिसमें एक राक्षसी ताड़का भी थी। उनके कार्यों से खुश होकर विश्वामित्र ने उनको अनेक शक्तिशाली जादुई मन्त्रों की शिक्षा दी जो साधारण बाणों को अग्निबाणों में बदल देते थे।

उसके बाद विश्वामित्र राम को मिथिला लेकर गए जो विदेह राज्य की राजधानी थी। रास्ते में वे गौतम के आश्रम में गए, जिन्होंने अपनी पत्नी अहिल्या को पत्थर बन जाने का शाप दिया था। कारण यह था कि वह वफ़ादार नहीं रह गई थी। राम ने अपने पाँव उस पत्थर पर रख दिए, जो अहिल्या थी और वह तत्काल शाप से मुक्त हो गई, राम का चरित्र इतना शुद्ध था।

मिथिला में राम ने विदेहराज जनक द्वारा आयोजित किये गए स्वयंवर में हिस्सा लिया। उस नौजवान राजकुमार ने राजा की हिफ़ाजत में रखे शिव के शक्तिशाली धनुष को तोड़ दिया और अपनी ताकत के प्रदर्शन के द्वारा विवाह के लिए राजा जनक की बेटी सीता का हाथ जीत लिया। राजा जनक जब हल जोत रहे थे तो सीता धरती से प्रकट हुई थी और उसके बाद जनक ने उसका लालन-पालन अपनी बेटी के रूप में किया था।

जब राम अयोध्या लौटकर आये तो राजा दशरथ ने यह फैसला किया कि अब समय आ गया है कि राजगद्दी राम को देकर सांसारिक जीवन से संन्यास ले लिया जाए।

दुर्भाग्य से, राम के राज्याभिषेक से एक दिन पहले मंथरा नाम की दासी ने कैकेयी के दिमाग में इस राज्याभिषेक के खि़लाफ़ जहर भर दिया। उसके प्रभाव में आकर, कैकेयी ने यह मांग की कि उसके पति उसको वे दो वरदान दे दें जिसका वादा उन्होंने सालों पहले तब किया था कैकेयी ने युद्द में उनकी जान बचाई थी। उन्होंने पहला वर यह माँगा कि उनके पुत्र भरत को राजा बनाया जाए और दूसरा वर यह कि राम को चौदह साल का वनवास दिया जाए।

दशरथ वचनबद्ध थे इसलिए उन्होंने राम को बुलवाया और उनको हालात से अवगत करवाया। बिना किसी मलाल या अफ़सोस के राम ने सभी को हैरान करते हुए अपने राजसी वस्त्रों का त्याग कर दिया और सन्यासियों की तरह पेड़ों की छाल से बने वस्त्रों को पहनकर तथा केवल धनुष लेकर अयोध्या नगरी को छोड़ दिया।

विरोधों के बावजूद, राम की पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण उनके साथ जंगल के लिए चल पड़े; सीता इसलिए क्योंकि उन्होंने अपने पति का साथ छोड़ने से इनकार कर दिया और लक्ष्मण इसलिए क्योंकि वे अपने भाई का वियोग नहीं सहन कर सकते थे।

तीनों को नगर छोड़ कर जाते हुए देखकर, अपने घर पर आई इस आपदा से व्याकुल होकर दशरथ का दिल इस कदर टूट गया कि उनका देहांत हो गया।

कैकेयी के लिए निराशा की बात यह भी रही कि उनके बेटे ने इस तरह छल से हासिल की गई राजगद्दी को लेने से इनकार कर दिया। भरत ने यह फैसला किया वह नगर द्वार के बाहर नंदीग्राम में रहेगा और राम के लौट आने तक राज-प्रतिनिधि के रूप में काम करेगा। उन्होंने राजगद्दी के ऊपर इस बात की उदघोषणा के लिए कि राम निर्विवाद राजा थे राम की खडाऊं रख दी।

जंगल में राम, लक्ष्मण और सीता प्रकृति की अनिश्चितताओं का सामना साहस के साथ करते रहे। घने जंगलों एवं ऊंचे पहाड़ों पर इधर से उधर भटकते हुए वे कहीं भी एक स्थान पर लम्बे समय तक टिक कर नहीं रहे। कई बार वे गुफाओं में रहते थे और कई बार उन्होंने पत्तों और टहनियों की मदद से अपने लिए कुटिया बनाई। अकसर उनको खुद को परेशान करने वाले राक्षसों से लड़ना पड़ता था और उनका सामना अत्रि और अगस्त्य जैसे साधुओं से हो जाता था जो उनको उपहार में ज्ञान का उपदेश देते थे। इस तरह तेरह साल गुजर गए।

वनवास के चौदहवें साल में शूर्पनखा नाम की एक स्त्री ने राम को जंगल में देखा। उनकी सुन्दरता से प्रभावित होकर उसने उनसे प्रेम करने की अपनी इच्छा खुलकर जाहिर की। राम ने बड़ी विनम्रता से यह कहते हुए उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया कि उनकी पहले से ही एक पत्नी है। लक्ष्मण ने भी यह कहते हुए उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया कि जीवन में उनकी बस एक ही ख्वाहिश है भाई और भाभी की सेवा करना।

शूर्पनखा ने खुद को ठुकराए जाने के लिए सीता को जिम्मेदार माना और उसको मारने की कोशिश भी की। सीता को बचाने के लिए लक्ष्मण दौड़े। अपनी तलवार से उन्होंने शूर्पनखा की नाक काट दी और उसको वहां से भगा दिया।

शूर्पनखा असल में एक राक्षसी थी जो भागती हुई अपने भाई रावण के पास गई जो राक्षसों का राजा था और जिसके दस सिर थे। जब राक्षस राज ने अपनी बहन के घायल चेहरे को देखा तो वह गुस्से में आ गया। उसने यह शपथ ली कि वह सीता का अपहरण करके और उसको अपने विशाल हरम का हिस्सा बनाकर राम को सबक सिखाएगा।

रावण के आदेश पर रूप् बदलने वाले राक्षस मारीच ने सोने के हिरण का रूप लिया।उसने सीता को प्रभावित कर लिया और सीता ने राम से यह विनती की कि वे जाएँ और उसको पकड़ कर लायें। राम उस हिरण का पीछा करते करते जंगल में काफी अंदर चले गए। जब उसको राम का चलाया हुआ बाण लगा तो वह हिरण राम की आवाज की इतनी अच्छी तरह नक़ल करते हुए मदद के लिए चिल्लाया कि सीता ने घबराकर लक्ष्मण को यह आदेश दिया कि वह राम की रक्षा के लिए जाएँ।

जब आसपास सीता की रक्षा के लिए कोई भी नहीं था तब रावण एक साधू के वेश में आया और उसने सीता से भोजन की मांग की। सीता ने घर में जो भी था उसको वह देने के लिए अपना हाथ कुटी से बाहर निकाला, उसने इस बात का ध्यान रखा कि वह उस रेखा को पार न कर पाए जो लक्ष्मण ने कुटिया के चारों तरफ खींच दी थी। लक्ष्मण ने कहा था कि जब तक वह उस रेखा के अंदर रहेगी तब तक वह राम के संरक्षण में रहेगी और इसलिए सुरक्षित रहेगी।

साधू को जिस तरह से भोजन दिया जा रहा था उस बात के ऊपर रावण ने झूठमूठ का गुस्सा दिखाया, जिससे मजबूर होकर सीता को बाहर आना पड़ा। रावण ने तुरंत अपना असली रूप दिखाया। उसने सीता को पकड़ा और अपने उड़न खटोले में बैठकर समुद्र पार के द्वीप राज्य लंका के लिए उड़ गया।

दोनों भाई मारीच का वध करने के बाद खाली कुटिया में लौट आये। पास में ही जटायु नामक गिद्ध गिरा हुआ था जो रावण के वाहन को रोकने की कोशिश में घातक रूप से घायल हो गया था। मरने से पहले जटायु ने राम से यह बताया कि रावण सीता को लेकर दक्षिण दिशा में कहीं गया है। अपनी प्रिया के दुर्भाग्य के बारे में सुनकर राम दर्द के मारे व्याकुल हो गए।

सीता को मुक्त करवाने का निश्चय करने के बाद राम और लक्ष्मण दक्षिण की तरफ निकल पड़े। उन्होंने भयानक दंडकारण्य को पार किया, विन्ध्य पर्वत को पार करके वे अंततः वानरों की भूमि किष्किन्धा पहुंचे, वहां उनकी भेंट सुग्रीव से हुई। वह एक वानर था जिसको एक ग़लतफ़हमी के कारण उसके भाई वानरराज बालि ने राज्य से निकाल बाहर कर दिया था।

राम और सुग्रीव में एक समझौता हुआः अगर राम ने बालि को हराने में मदद की तो सुग्रीव सीता को छुडाने में मदद करेगा। राम के सुझाव देने के बाद सुग्रीव ने बालि को आमने सामने लड़ाई के लिए ललकारा। सुग्रीव और उसके बहुत ही मजबूत भाई में कोई मुकाबला नहीं था और उसने सुग्रीव को निश्चित ही मार गिराया होता अगर राम ने उन दोनों भाइयों के युद्ध के दौरान झाड़ी के पीछे से धनुष चढ़ाकर बाण चलाकर बालि को मार न गिराया होता। बालि ने मरते समय राम के ऊपर यह आरोप लगाया कि उन्होंने अनुचित किया तो जवाब में राम ने कहा कि जो जंगल के कानून के मुताबिक़ जीते हैं उनको खुद को जंगल के कानून के मुताबिक़ मर जाने भी देना चाहिए।

राजा बनने के बाद सुग्रीव ने किष्किन्धा के सभी वानरों से यह कहा कि वे सीता की खोज में हर दिशा में जाएँ। काफी खोजबीन के बाद बंदरों में सबसे मजबूत और होशियार बन्दर हनुमान को एक और गिद्ध सम्पाती से यह पता चला कि रावण का राज्य विशाल समुद्र के बीचोबीच था और वह दक्षिणी क्षितिज के भी पार तक फैला हुआ था। हनुमान ने अपना आकार बड़ा किया और समुद्र को पार कर गए, रास्तों में बहुत सारे ख़तरों को पार करते हुए वे राक्षसों के द्वीप पर पहुंच गए। वहां उन्होंने देखा कि सीता दुखियारी सी महल के बगीचे में अशोक के एक पेड़ के नीचे बैठी हुई थी, रावण के प्रणय निवेदन को उन्होंने ख़ारिज कर दिया था क्योंकि वह इस बात को लेकर पूरी तरह आश्वस्त थीं थी कि आखिरकार उनके पति आकर उनको वहां से छुड़ा लेंगे।

जैसे ही सीता वहां अकेली हुई तो हनुमान उनके पास पहुंचे, उन्होंने अपना परिचय दिया, सबूत के तौर पर उन्होंने उनको राम की अंगूठी दी और उनको इस बात का दिलासा देते हुए कहा कि राम पूरी शिद्दत से अपने रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं। सीता बहुत खुश हो गईं, उन्होंने हनुमान को आशीर्वाद दिया और उनके ठिकाने का पता चल चुका था इस बात के सबूत के तौर पर उन्होंने हनुमान को अपने जूड़े का काँटा दिया।

हनुमान ने उसके बाद खुद को रावण के रक्षकों के द्वारा पकड़ लिया जाने दिया। राम के दूत के रूप में अपना परिचय देते हुए हनुमान ने रावण से कहा कि अगर उसने सीता को जाने नहीं दिया तो उसको इसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे। रावण हँसने लगा और उसने अपने प्रहरियों से कहा कि वे हनुमान की पूंछ में आग लगा दें। जैसे ही उनकी पूंछ में आग लगाईं गई हनुमान कूद कूद कर लंका के भवनों में आग लागे लगे। उसके बाद समुद्र पार कर किष्किन्धा वापस गए और उन्होंने राम को सीता के बारे में सब कुछ बताया।

हनुमान ने बंदरों, भालुओं और गिद्धों की विशाल सेना बनाने में राम की मदद की। उसके बाद साथ मिलकर उन्होंने समुद्र पर लंका तक जाने के लिए पुल बनाया।

जब पुल का निर्माण हो रहा था तब राम को एक अप्रत्याशित पक्ष से मदद मिलीः विभीषण से, जो रावण का छोटा भाई था, जिसने तब राम के साथ शामिल होने का फैसला किया जब उसको इस वजह से लंका से निकाल दिया गया क्योंकि उसने सार्वजनिक रूप से रावण को इस बात के लिए नैतिक रूप से गलत ठहराया था कि उसने एक विवाहिता स्त्री को उसकी इच्छा के विरुद्ध अपने महल में रखा था।

आखिरकार, पुल बनकर तैयार हुआ और राम ने खुद को अपनी सेना के साथ लंका के तट पर खड़ा पाया, रावण के दुर्ग की दुर्जेय दीवारों ने जिनको सीता से अलग कर दिया था। शांतिपूर्ण समाधान के सभी प्रयासों को रावण ने ख़ारिज कर दिया क्योंकि उसको यह बात अपनी शान के खिलाफ लगती थी कि वह किसी ऐसे आदमी द्वारा दिए गए प्रस्ताव के ऊपर विचार भी करे जिसके साथ वानर सेना है। आखिरकार युद्ध की घोषणा हुई। एक तरफ राम, लक्ष्मण, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान तथा जंगल के अन्य बाशिंदे थे। दूसरी तरफ रावण अपने राक्षसों की सेना के साथ था। बन्दर पत्थरों और लाठियों से लड़ रहे थे और राक्षस हथियारों और जादू-मंतर से। युद्ध लम्बा और घमासान हुआ और दोनों ही तरफ से काफी लोग हताहत हुए।

लक्ष्मण रावण के बेटे इन्द्रजीत द्वारा चलाये गए जानलेवा बाण से घायल हो गये, और उनकी मृत्यु हो गई होती अगर हनुमान उड़ कर उत्तर की तरफ न गए होते और जादुई बूटी(संजीवनी बूटी) वाले पहाड़ के साथ लौट कर न आये होते। हनुमान ने दोनों भाइयों को मायावी महिरावण से भी बचाया था।आखिरकार, युद्ध का फैसला राम के पक्ष में रहा।इन्द्रजीत सहित रावण के अनेक बेटे युद्ध में मारे गए। यहाँ तक कि उसका भाई कुम्भकर्ण भी लड़ाई में मारा गया, जिसको लम्बी गहरी नींद से जगाकर युद्ध के लिए भेजा गया था।

आखिरकार, रावण का राम के साथ आमना-सामना हुआ। दोनों के बीच काफी देर तक द्वंद्व युद्ध हुआ जिसमें दोनों ने एक दूसरे के ऊपर काफी शक्तिशाली प्रक्षेपास्त्र छोड़े। राम को जल्दी ही समझ में आ गया रावण में अपने सिरों को बदल लेने की शक्ति थी और उसके ऊपर काबू पाने और मार पाने की राम की कोशिशें तब तक बेमानी ही रहती अगर वे उस राक्षस राजा की प्रकट तौर पर जो अजेयता थी उसको नहीं भेद पाते। तब विभीषण ने राम को यह को यह बताया कि रावण की जान उसकी नाभि में थी और इस वजह से उसका सर काटकर उसको नहीं मारा जा सकता था। राम ने तत्काल एक जानलेवा बाण चलाया जो रावण की नाभि में जाकर लगा और वह तत्काल मर गया। रावण के गिरते ही वानर खुशियाँ मनाने लगे। विजेता राम ने विभीषण को लंका का राजा घोषित कर दिया।

यह समय राम और सीता के मिलन का था। जब सीता कारागार से निकल कर राम के पास आई तो राम ने उससे कहा कि उनको दुनिया के सामने यह साबित करना होगा कि वह रावण के महल में रहते हुए एक वफादार पत्नी बनी रही। सीता वफादार न होने की बात सुनकर इतनी हैरान हुई कि वह अग्निपरीक्षा से गुजरी। सीता अपनी सतीत्व से रक्षित होने के कारण आग से अक्षत रूप में निकल आई।

अग्निपरीक्षा पूरी होने के बाद राम, लक्ष्मण और सीता रावण के उड़न खटोले पर बैठकर अपने घर अयोध्या वापस आ गए, उनके साथ हनुमान भी थे जिन्होंने राम को अपना स्वामी मान लिया था। चौदह साल का वनवास पूरा हुआ।

राम को देखकर भरत सहित अयोध्या के निवासी खुश हो गए। राम के राज्याभिषेक के बाद खूब जश्न मनाया गया जिसमें न केवल साधू-संत, देवता बल्कि बन्दर और असुर भी शामिल हुए। ख़ुशी तब और दोगुनी हो गई जब कुछ महीनों बाद सीता ने यह घोषणा की कि वह गर्भवती थी।

इस ख़ुशी के मौके के बहुत दिन नहीं हुए थे कि राम ने यह सुना कि उसकी प्रजा में रावण के महल में सीता के रहने को लेकर कानाफूसी चल रही थी; वे यह नहीं चाहते थे कि सीता जैसी एक दुश्चरित्र स्त्री उनकी रानी हो। राम का दिल टूट गया और उन्होंने लक्ष्मण को यह आदेश दिया कि वह सीता को जंगल में ले जाकर छोड़ आयें। लक्ष्मण ने हिचक के साथ इस आज्ञा का पालन किया। सीता का जिस बात के लिए परित्याग कर दिया गया जिसमें उसकी कोई गलती नहीं थी, उसके बाद सीता ने कवि-संत वाल्मीकि के आश्रम में शरण ली जहाँ उसने लव और कुश नामक दो जुड़वां बच्चों को जन्म दिया, और उनको बूते ही पाला।

अपने निजी नुक्सान के बावजूद राम ने अपने राज्य के ऊपर बड़ी मेहनत के साथ शासन किया। उनका शासन इतना अच्छा था कि बारिश भी सही समय पर होती थी और कभी किसी तरह की दुर्घटना भी नहीं हुई। सब कुछ तय समय के मुताबिक़ और लयबद्ध तरीके से होता था। हर तरफ शांति और समृद्धि थी।

सालों बाद, राम को यह सलाह दी गई कि वे अश्वमेध यज्ञ करें ताकि राम के राज्य का संसार में और विस्तार हो। राजकीय घोड़े को संसार भर में मुक्त रूप से घूमने के लिए छोड़ दिया गया; धरती पर वह जहाँ जहाँ बिना किसी चुनौती के पार कर जाता वह भूमि  राम के अधीन हो जाती। लेकिन इस महत्वकांक्षी यज्ञ को करने के लिए यह जरूरी था कि यज्ञकर्ता की कोई पत्नी हो। पत्नी सीता के जाने के बाद अयोध्या के वासियों ने राम से फिर से विवाह करने के लिए कहा। राम ने ऐसा करने से मना कर दिया। उन्होंने रानी का इसलिए परित्याग कर दिया था क्योंकि उनके राज्य के निवासियों को वह पसंद नहीं थी लेकिन उन्होंने अपनी पत्नी का परित्याग नहीं किया था।इसलिए उन्होंने सीता की एक स्वर्ण प्रतिमा बनवाई और जब वे यज्ञ कर रहे थे तो उन्होंने उस प्रतिमा को अपनी बगल में स्थापित कर ली। शाही घोड़ों को छोड़ दिया गया। उसके पीछे पीछे लक्ष्मण और हनुमान के नेतृत्व में राम की सेना भी चल रही थी। जब घोड़ा वाल्मीकि के आश्रम में घुसा तो सीता के पुत्रों ने उसको पकड़ लिया और उसको छोड़ने से मना कर दिया, इस तरह उन्होंने राम की सत्ता को चुनौती दी। उसके बाद घमासान युद्ध हुआ जिसमें दोनों बालकों ने लक्ष्मण, हनुमान और राम के सैनिकों को बिना अधिक मेहनत के हरा दिया। आखिरकार राम ने उन दोनों बालकों को लड़ने के लिए खुद चुनौती दी। अनहोनी होते होते रह गई जब सीता ने हस्तक्षेप। किया और अपने पति से अपने बेटों का परिचय करवाया।

यह साफ़ था कि सीता के बच्चों ने राम की सेना को हरा दिया क्योंकि सचाई सीता के साथ थी न कि अयोध्या राज्य के साथ जिसने उसका परित्याग कर दिया था। राम ने सीता से यह अनुनय किया कि वह एक बार फिर से अपने सतीत्व को साबित करे, इस बार उसकी प्रजा के सामने ताकि उसकी प्रतिष्ठा के ऊपर जो दाग था वह धुल जाए और वह उनके साथ रानी के रूप में अपना उचित आसन ग्रहण कर सकें।

सीता के चरित्र को लेकर जिस तरह बार बार सवाल उठाये जा रहे थे वह उससे थक चुकी थी इसलिए उसने धरती से यह विनती की कि अगर वह सच में वफादार पत्नी है तो धरती दो टुकड़ों में फट जाए। धरती तत्काल फट गई और सीता धरती में समा गई। अयोध्या के लोगों को अब वह सबूत मिल चुका था लेकिन वह राम द्वारा अपनी पत्नी सीता को खो देने की कीमत पर आई।

अपनी प्रिया के बिना धरती पर रह पाने में असमर्थ पाकर राम ने अपने नश्वर शरीर का त्याग करने का फैसला किया। अपने पूर्वजों का राजपाट अपने बच्चों को सौंपकर वे सरयू नदी में समा गए और और फिर कभी नहीं निकले।

कुछ लेखक राम को साधारण मनुष्य के रूप में देखते हैं जिन्होंने असाधारण काम किये, जीवन में सभी बाधाओं के ऊपर उन्होंने विजय हासिल की और पहले नायक बने और फिर ईश्वर। लेकिन उनके भक्तों के लिए वे धरती पर ईश्वर के सर्वाेच्च अवतार हैं अपनी मुक्ति के लिए जिनकी पूजा की जाती है।

हर साल, वसंत में राम के जन्मदिवस को रामनवमी के रूप में मनाया जाता है और पतझड़ में उनकी जीत और राज्यारोहण को दशहरा और दीवाली के रूप में मनाया जाता है। मंदिरों में वे एक एकमात्र देवता हैं जिनको राजा के रूप में प्रतिष्ठापित किया जाता है। जब मुश्किल वक्त आता है तो यह सलाह दी जाती है कि उनकी कथा को सुना जाए क्योंकि सभी विरुद्धों के सामने उनकी न्याय-निष्ठा सभी के लिए उम्मीद और शांति का संदेश देती है।

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 रैम्प पे रामजी। रिंग में कपिजी।

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नीलिमा चौहान बहुत चुटीले लहजे में गहरी बात लिख जाती हैं. चर्चित पुस्तक ‘पतनशील पत्नियों के नोट्स’ में उनकी भाषा उनकी बारीक नजर का जादू हम सब देख चुके हैं. यह उनके रचनात्मक गद्य की नई छटा है. समय की छवियाँ और उनके बयान की तुर्शी- मॉडरेटर

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 रैम्प पे रामजी । रिंग में कपिजी ।

आजकल  रजधानी के वाहनों के पिछवाड़े पर क्रुद्ध चेहरे वाले भगवान हनुमान को चिपकाने का चलन ज़ोरों पर है ।  दूसरी तरफ रामनवमी के पावन पर्व पर नए वाले चॉकलेटी राम भी मार्किट में अवतरित हुए हैं । पीठ पर धनुर्धधारण के साथ साथ पेट पर पूरे के पूरे छः पैक भी धारित करने वाले भगवान राम इस वॉल से उस वॉल इस खिड़की से उस खिड़की भिजाए चिपकाए जा रहें हैं ।
देखिए आपके देवता लोग आपकी मर्जी । अपने को क्या । पर क्या है कि धार्मिक त्यौहारों पर जब लोग पूजाकाज में लगे होते तब अपने को खुराफात की खुजली जोर से लगने लगती । तो इधर आकर बाल की खाल निकाल रहे आशा है कि आप ज्यादा तनावित न होंगे ।
 हाँ तो दोस्तो बात यह कि मन ही मन भगवान की सख्त बेपरवाही करने वाली कन्या जब बड़ी होकर बहुत कड़ी काफ़िर बनी तो उस तक के मन में दो मेन भगवानों की इस गति पर पर्याप्त पीड़ा उठी है। हैरानी भी उठी कि देश और धर्म के पर्यायकरण करने वाले उर बात बेबात आहत हो जाने वाले भक्त जनों का गुस्सा ईश- प्रदूषण की इन हिमाकत भरी घटनाओं पर नदारत ? काय कू रे ?
राम झूठ न बुलवाए तो सच कहूँ कि रामायन के राम जी के मर्यादा पुरुषोत्तम रूप की दीवानगी अपन के दिल में तब से थी जब अपन मुहल्ले और टी वी पर रामलीला के लाचार दर्शक बनाए जाते थे । काफिरी को सीने में दबाए दबाए जब अपन खजूरवत बड़े हुए तो निराला के राम पर फिदा हो गए । हनुमान जी पर मरना ठीक वैसे ही रहा जैसे उपनायक पर मरा जाता है । इस वास्ते अच्छे भले अपीलिंग भगवानों की ऐसी बेकद्री के खिलाफ आवाज़ उठाना अपना फर्ज लग रहा अपने को।
अर्रे ! इससे पहले के आप इस लोफराना अंदाज़ के चलते पोस्ट से नौ दो ग्यारह हो लें बता दूं कि फिलहाल मेरा इरादा इतने ज़हीन , मर्यादाशील , कर्मवीर ,असुर निकन्दन देवताओं की छवि में सेंध लगाकर उसमें उग्र मुलकवाद के छर्रे फिट करने  की साज़िश को जतलाने भर का है । और कुछ नहीं । कसम से ।
कहे दे रहे कि आपका आप जानें पर मेरे मन में बसे किरदार श्रीराम राजीव लोचन हैं । भवें विशाल धनुर सी तनीं बनीं । रसायन राम । नयनों से प्रिय सम्भाषण करने वाले । स्थित प्रज्ञ । स्थिर राघवेंद्र जिनको यदि हिला रहा संशय पर तब भी निष्कम्प दीप की ज्योति से  जगमग करते से ।  सजल नयनों में जगती भर के लिए जो पूरी पड़े वह स्नेहसिक्ति लिए से।  दिव्याभा से दीप्त वदन । इंदीवर निंदित  लोचन से स्मित बिखेरते हुए से । पीड़ाहर्ता । परदुखकातर । श्रम स्वेद से जड़ित यौवन । अन्याय और अंधियारे से सतत संघर्षरत ।
अजी आप अपने नए राम को गढ़ते हुए जिस पौरुष को जिमोत्कर्ष भाव से रच रहे वह तो फुसफुस राम है । मंचित मॉडल राम । कठपुतली राम एमेच्योर के मनचले मेकअप से उत्कीरित  । आत्मरति में लिप्त राम । जन जन के राम नहीं वे । ये तो  बाज़ार के
राम हैं । विज्ञापित राम । आयातित राम । खालिस रघुनायक की तरल छवि पर आरोपित उथले मस्तराम ।
वैसे अपने को कम समझ में आता कि रामसिया प्रिय बालसुलभ भोलेपन वाले  हनुमान छवि की विदाई की जा रही है या अपहरण । पर यह तो तय है कि हनुमान की नई डब्ल्यू डब्ल्यू एफ छवि जम रही है भक्तों को । “आतंक की करो मौलिक कल्पना “- के तहत जीने वालों को एक भले देवता का दरिंदगी भरा रूप खूब रुच रहा है । बल लेकिन दिशा विहीन । शक्ति लेकिन सम्वेदना विहीन  । पौरुष लेकिन मर्यादाविहीन ।
मज़ाले सुखन कहेंगे आप पर अपन को कहना पड़ेगा कि यह शफाखाना वाली ताकत का धार्मिक स्थापन है ।  बदले और भय का मानकीकरण करना है । नए हिन्दू राष्ट्र के ओल्ड इज़ गोल्ड देवता लोग के पुनरुत्थान की आड़ में की जा रही धोखेबाज़ी है । इसे एंग्री यंग मैनों का देवताकरण कहिए या देवताओं का साधारणीकरण । एक नए धर्म युद्ध के लिए देवछवियां  तैयार हो रही है और फिलहाल वह स्थापना काल में है । जिसका मकसद विधर्मियों के खात्मे वाली रघुकुल रीति स्थापित करना है । जहां अधर्म की परिभाषा का अतिव्याप्तिकरण किया जाना तय है । गाय ,प्रेम विवाह ,देशगान , शत्रु धर्म । नए मसले  नये धर्म युद्ध।   नए देवता । क्रोध बर्बरता और मदांधता से लबरेज़ देवता ।
लगता है वह वक्त आ गया है जब हमारा उग्र देशप्रेम और हमारी अंध भगवतभक्ति ”  मैं तुम में समा जाऊं तुम मुझमें समा जाओ ” की सम्भोगशील अवस्था में रत हैं ।आने वाले वक्त में राम और हनुमान अपने भक्तों की आरोपित भावना के जाल के सबसे निरिह कैदी होंगे । तुलसी के राम हनुमान  से लेकर निराला के राम हनुमान तक के रेखाचित्र हमारे जिहाद की जिद  से विरूपित हो लेंगे। एक वक्त था जब औरतों को घर और रसोईघर में घुसाया गया और देवताओं उनकी हिफाज़त निगरानी का ज़िम्मा सौंपा गया था । एक यह वक्त है जब देवता हमारे वाहनों की पीठ पर चिपक चल रहे हैं । आग्नेय नेत्रों से , तनी भृकुटी से उग्र चेतस देवता शैतान में म्यूटेट होते जा रहे।
आज सड़कों पर भक्ति बह रही कल बहेगा खून ।  क्या देख रही हूँ । देवता और शैतान पास पास आ रहे । रेखाएं ओवरलैपिंग कर रहीं । हट्ट !!  चश्मे का नम्बर बढ़ गया है लगता ।
हे राम ! हे रावण !

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सदन झा की कुछ दिलचस्प छोटी कहानियाँ

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इतिहासकार सदन झा सेंटर फ़ॉर सोशल स्टडीज़, सूरत में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं। राष्ट्रीय झंडे पर उन्होंने महत्वपूर्ण काम किया है और उनके कई शोध लेख देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं में छप चुके हैं।

सदन कभी-कभार कहानियाँ भी लिखते हैं और कुछ पत्रिकाओं में उनकी कुछ कहानियाँ पहले भी छप चुकी हैं। जानकीपुल पर हम इस बार उनकी कुछ छोटी-छोटी कहानियाँ आपके लिए लाए हैं। यह उनके द्वारा लिखी गई एक शृंखला का हिस्सा है- अमृत रंजन

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I

राजधानी

1
2033 ई. राजस्थान में राष्ट्रीय राजमार्ग से बीस किलोमीटर दक्षिण रात के सवा दो बजे उन दोनों की सांसें बहुत तेज चल रही थीं। फिर, उस एसी टेंट में सन्नाटा पसर गया। दोनों ही को गहरी नींद ने अपनी आगोश में ले लिया।

यह सौ-सवा सौ किलोमीटर का टुकड़ा जो कभी निरापद और वीरान हुआ करता था, यहां रोड और हॉरर फिल्मों की प्लॉट तलाशते हुए हिंदी सिनेमा वाले कभी आया करते थे। यह जगह पिछले पांच सालों से ऐसे अनगिनत एसी तंबूओं और उनमें निढाल हुए इंजीनियरों, प्लानरों, ऑर्किटेक्ट, ब्यूरोक्रेट और खूबसूरत मर्दाने सेफ से अटा पड़ा है।

 

2
निशा अभी-अभी तो मसूरी से निकली है और सीधे पीएमओ से उसे यहां भेज दिया गया, स्पेशल असाइनमेंट पर। निशीथ अभी-अभी तो स्विट्जरलैंड से हॉटल मैनेजमेंट का कोर्स कर लौटा और लीला ग्रुप ने अपने सेटअप की जिम्मेदारी देते हुए यहां भेज दिया। दस सालों में कितना कुछ बदल जाता है। पिछली बार, शारदापुर में छोटकी पीसिया के बहिनोइत की शादी में एक क्षण देखा था। हाय-हेलो होकर रह गया था। नंबर और ईमेल एक्सचेंज भी नहीं कर पाया। कई दफे फेसबुक पेज पर जाकर भी फ्रेंड रिक्वेस्ट नहीं भेज पाया। आखिर दूसरे तरफ से भी तो पहल हो सकती थी। पहल करने के मामले में निशी भी पुराने ख्याल की ही थी। कोल्ड फीट डेवलप कर लेती। और… उस भागम भाग माहौल में दोनों के पास यदि कुछ बचा रह गया तो महज एक जोड़ी नाम और दो जोड़ी आंखें। और आज वही नाम, वही आँखे एक दूसरे से मिल गयी। अब सब कुछ शांत।
टेंट में आईपैड पर बहुत हल्के वॉल्यूम में अमजद अली का सरोद बजता रहा। निशी की यह अजीब सी आदत जो ठहरी, जहां जाती उसके ठीक उलट संगीत ले जाती। पहाड़ों पर डेजर्ट साउंडस्केप के साथ घूमती और रेगिस्तान में कश्मीर को तलाशा करती। जल तरंग और सरोद।

3
टेंट कुछ ऊंचाई पर था। इंजीनियरों और आर्किटेक्टों से भी थोड़ा हटकर। सामने नीचे सौ-सवा सौ किलोमीटर का नजारा। नियॉन रोशनी में नहाई रात अब तनहा तो न थी। सामने जहाँ तक नजर जाती रोशनी ही रोशनी। दैत्याकार मशीन, सीमेंट, लोहे, प्रीफैब्रिकैटिड स्लैव, क्रेन, और असंख्य चीनी और बिहारी मजदूर। उधर, दूर इन मजदूरों की बस्ती से आती बिरहा की आवाज सरोद की धुन में मिल गयी थी।

4
एक सौ साल पहले कुछ ऐसा ही तो मंजर रहा होगा, जब दिल्ली की रायसीना की पहाड़ियां सज कर तैयार हुई होंगी।

समय बदला, लोग बदले, तकनीक बदली। वही दिल्ली रहने लायक न रही। हवा और पानी भला कहां जात-पांत, पैसा, ओहदा माने। पहले-पहले तो गरीब-गुरबे अस्पताल जाते मिले। नेता, अफसर और प्रोफेसर निश्चिंत सोते रहे।

पर, जब हवा ही जहरीली हो तो किसकी सुने?

फिर, मीटिंग बुलायी गई।

5
रातों-रात अफसरों को जगाया गया। सबसे कंजरवेटिव अफसरों और सबसे रैडिकल प्लानरों को सुबह पौने सात बजे तक हॉल में आ जाना था। डिफेंस, रियल स्टेट, पर्यावरण साइंटिस्ट, मिट्टी के जानकार, पानी के एक्सपर्ट, मरीन बॉयोलोजिस्ट सभी को लाने का जिम्मा अलग-अलग सौंप दिया गया था।

उद्योगपतियों और मीडिया हॉउस के पॉइंट मेन को अपने दरवाजे पर पौने पाँच बजे तैयार खड़ा रहना था जहाँ से उन्हें सबसे नजदीकी सैन्य हवाई अड्डे तक रोड से या हेलीकॉप्टर से ले जाने का प्रबंध कर दिया गया था। यहाँ तक कि ट्रैफिक कमिश्नरों को इत्तला दे दी गयी थी कि अपने महकमे के सबसे चुस्त अधिकारियों के साथ वे ऐसे खास ऐडरेसेज और हेलीपैड या एयर बेस के बीच के यातायात पर खुद निगरानी रखें। पर, किसी और से इसका जिक्र न करने की सख्त हिदायत भी साथ ही दी गयी थी। पौने सात बजने से ढ़ाई मिनट पहले उस विशालकाय मीटिंग हॉल की सभी मेज पर हर कुर्सी भर चुकी थी। सभी के सामने एक और मात्र एक सफेद कागज का टुकड़ा और एक कलम रखा था। पीरियड।

लेकिन एक ही पेज क्यों, लेटर पैड क्यों नहीं? नजरें और चेहरे खाली कुर्सी पर टिकी थी जो उस हैक्सागोनल हॉल के किसी भी कोने से साफ दिखता था। और जिस कुर्सी से उस हॉल की हर कुर्सी पर बैठे आंखो की रंगत को पहचाना जा सकता था। यह एक अदभुत मीटिंग थी। आज देश की सबसे विकट समस्या का हल ढूंढ़ना था। हवा के बारे में बातें करनी थी, जो बिगड़ चुकी थी। आज राजधानी को बदलने की योजना तय होनी थी। आज निशा, निशीथ और उनके जैसे असंख्य की जिंदगी की दिशा तय होनी थी।

आज ही के मीटिंग में रेगिस्तान की जमीन पर सरोद का बिरहा से मिलन को तय होना था। आज ही तो तय होना था कि निशीथ की पीठ पर दायें से थोड़ा हटकर नाखून की एक इबारत हमेशा के लिए रह जाएगी।
एक खुरदरे टीस की तरह…

II

पौने पांच सीढ़ियों की धूप

दिसंबर महीने की नर्म मुलायम धूप पौने पांच सीढ़ियां चढ़ उसकी देह से अठखेलियां करने की जुगत में थी। मानो इजाज़त मांग रही हो।

सामने खाली सा मैदान पसरा था और उस पार फूस के बेतरतीब छप्पर वाला बेचारा सा अकेला घर। छप्पर के पीछे आँवले की लंबी साख जिनपर इस दफे भी भरपूर आँवले फले हुए थे। सुबह मार्निंग वॉक पर जाते गाहे-बगाहे लोग-बाग पेड़ को हिला देते, चटनी और मुरब्बे का इंतजाम हो जाता।

शहर की सीमा पर रहने का यह सुख तो है ही। गौरैयों का एक जोड़ा फूस की छप्पर से तिनका-तिनका जोड़ बगल के खाली फ्लैट की बॉलकनी में अपना बसेरा बना रही थी, बोगेनबेलिया की कुछ डालें इधर से सीमा लांघ उस बॉलकनी में आराम से छतर गयी थीं। उन्हीं के पीछे घोसले की तैयारी हो रही थी। उसकी नजर लौट आयी।

धूप का एक कतरा इरा के कमर तक पहुंच चुका था। मन हुआ हल्की उंगलियों से छू ले। “अच्छा इरा, यहाँ इस तरफ तुम्हारी बाँयी कमर पर जो तिल था, वह कहाँ गया?”

फेसबुक पर से नजर हटाए बिना ही इमली की इतराहत घोलती आवाज में इरा ने जवाब दिया: “ ओह, अच्छा अभी तो यहीं था। कहीं तुम्हीं ने चुरा तो नहीं ली, मेरे कमर का तिल? अब समझ में आया कि यही फिसल कर तुम्हारे कांधे का तिल बन गया है।”

धूप का कतरा अब भी वहीं था। पर मन कहीं और ही रेंगने लगा था।

III

रीगल, दरभंगा

नजारथ (Nazareth) या नसरथ उत्तरी इस्राइल का सबसे बड़ा शहर है, जिसे इस्राइल की अरब राजधानी भी मानी जाती है। न्यू टेस्टामेंट के अनुसार इसी शहर में जीसस क्राइस्ट का बचपन गुजरा। इसे मैरी का घर और ईसा मसीह का जन्म-स्थल भी माना गया है। यह संभव है कि इन पवित्र कारणों से बाद की सदियों में नजारथ एक पवित्र टाइटल में बदल गया हो। आखिर पुरानी अरबी और कबीलाई परंपरा में स्थान और क्षेत्रीयता का नाम से सीधा रिश्ता तो बनता ही था और ईसा मसीह को जिसे आफ नजारथ के नाम से भी जाना जाता है। यह भी संभव है कि यहाँ से माइग्रेट करने वाले परिवारों ने नजारथ को एक टाइटल के रूप में अपने साथ रख लिया हो।

जॉन नजारथ एक ऐसा ही नाम है। गोवा के जॉन नजारथ के हाथों में जादू था। जो भी इनके हाथ का बना एक बार चख लेता, इनका दीवाना हो जाता। बिहार के मुख्यमंत्री सच्चिदानंद सिन्हा इस सूची में शामिल थे। जॉन इनके यहाँ प्रधान कुक हो गए। सच्चिदा बाबू के यहाँ दरभंगा महाराज का आना-जाना रहता ही होगा और वहीं डिनर टेबिल पर किसी रात महाराज ने जॉन के खाने की तारीफ भी की हो, और सच्चिदा बाबू से जॉन को दरभंगा के लिये माँग भी लिया हो। आखिर आलीशान यूरोपीयन गेस्ट हॉउस के लिए उन्हें एक योग्य कुक की तलाश भी तो थी ही। और जॉन नजारथ महाराज के साथ दरभंगा आ गए, यूरोपीयन गेस्ट हाउस।

समय गुजरा, महाराज भी गुजर गए। यूरोपीयन गेस्ट की हालत बदली और समय क्रम में अन्य धरोहरों के साथ यह गेस्ट हाउस भी यूनिवर्सिटी का हिस्सा हो गया। जो हुनरमंद थे उन्होंने बदलते समय और शहर का रुख किया। जो स्वाद महज महाराज, मुख्यमंत्री और यूरोपीय मेहमानों तक सीमित था अब शहर का हिस्सा हुआ। जॉन ने उत्तर भारत के पहले लाइसेंसी पब की शुरुआत टावर चौक से सटे लालबाग में की। यहाँ उम्दा ड्रिंक के साथ लज़ीज खाना और छोटा सा बेकरी भी रखा। जिसे जॉन और उनकी मेहनती एवं जुझारु पत्नी चलाया करते। नाम रखा ‘रीगल’। इसके चिमनी से निकलने वाली खुश्बू को फैलते देर न लगी। लोग चोरी छुपे वहाँ ड्रिंक्स लेने जाते, नव मध्य वर्ग अपने दोस्तों या नवविवाहिता के साथ बहुत हिम्मत दिखाते हुए रीगल के कटलेट्स और मुर्गा या अंडा करी का लुत्फ उठाने जाते। प्रगतिशील परिवार जो बाहर डिनर लेने की हद तक रैडिकल नहीं हो पाए थे, उन हमारे जैसे घरों में रीगल नर्म और ताजे पाँव रोटी तथा मिट्टी की हाँडियों में आने वाले अंडा करी और लज़ीज मुर्गा के लिए जाना जाता।

IV

ब्रिटिश लाइब्रेरी

देखो तुम्हारा नाम नताशा, जूलिया, जेन, लूसी, मार्ग्रेट या फिर ऐसा ही कोई ब्रिटिश नाम होना चाहिए। प्रॉपर ब्रिटिश। नहीं, मुझे गलत नहीं समझो। मुझे तुम्हारा नाम बहुत अच्छा लगता है। पर शायद मैं जो कहना चाह रहा हूँ, वह यह कि तुम्हें देख कर फिर तुम्हारा नाम जानकर दोनों से एक ही छवि नहीं बन पाती। किसी बहुत प्लेज़ेंट सरप्राइज़ सा लगता है तुम्हारा नाम सुनना। जूनी।

हम लोग उसी पुरानी जगह पर बैठे हैं। सेंट पैंक्रियास, ब्रिटिश लाइब्रेरी। मेजनाइन फ्लोर। बैंच पर। सामने चार्ल्स डिकेंस की रहस्यमय और अंधविश्वासों की दुनिया पर पिछले पखवाड़े से एक्जीविशन चल रही है। दोपहर के करीब दो या ढाई बज रहे होंगे। समय का अहसास ही कुंद सा हो गया है, जबसे जूनी से मुलाकात हुई। यहीं इसी जगह, इसी राहदरी में। इसी बैंच पर। यही एक्जीविशन को देखते हुए हम मिले थे। मिले क्या थे? हमारी बातचीत शुरू हुई थी। पहल, जाहिर सी बात है, उसी ने की थी। नहीं तो कहाँ हो पाता मुझसे बात करना! पर जब बातों का सिलसिला निकल पड़ा, तो कौन कहां रुकने वाला था। मैं तो सोचता कि मैथिल ब्राह्मण से गप्पबाजी में कौन टिक पाएगा। पर यह ब्रिटिश लड़की तो मुझे मात दे रही थी। या फिर, कह सकते हैं कि उसकी बातें सुनना, चुपचाप अपने कानों के सहारे रह जाना भाने लगा है।

खैर, उसकी प्रतिक्रिया स्वभाविक रुप से त्वरित आयी।

” ये प्रॉपर ब्रिटिश क्या होता है? मुझे नहीं लगता था कि तुम ऐसा शुद्धतावादी नजरिया रखते होगे। अभी भी मेरा वही विश्वास है तुम्हें लेकर। पर तुम मुझे ऐसे शब्दों के इस्तेमाल से चौंका देते हो। और मैं तुम्हारी तरह प्लेज़ेंटली सरप्राइज्ड नहीं हूँ। यह निराशाजनित ही है। या फिर उसके सीमांत पर कहीं। और ॊफिर, तुम तो इतिहास के हो, प्रैक्टिशनर(वो हमेशा यही कहती, शोधकर्ता या छात्र कहना उसे नहीं सुहाता; हाँ जिस दिन चुहल के मूड में होती तो प्रोफेसर कहती और इठलाकर अपनी पोनी टेल संवारने लगती।”

” देखो जूनी, मेरा दिमाग हमेशा तर्क और ज्ञान की भाषा नहीं बोलता। पता नहीं क्यों मेरे जेहन में जूनी से साउथ ईस्ट एशियन छवि या फिर स्पैनिश लैटिन अमेरिकन अहसास होता है। इसकी कोई वजह भी नहीं है। कम से कम मुझे इसका इल्म नहीं है। पर ऐसा ही है मेरे साथ। फिर लंदन और ब्रिटिश समाज के बारे में जानता भी तो कुछ नहीं।”

“हुम्म! ये जो तर्क की अपूर्णता और जेहन की भाषा की बात जो कही तुमने वह बेहद ठहरी हुई बात है। ” ओठों के किनारे पर आती हुई बहुत सुकून भरी मुस्कुराहट को संयत करते उसने बात आगे बढ़ायी। ” एक राज की बात बताती हूँ, ब्रिटिश लड़की को अपने नाम पर चर्चा लंबी करने में बेहद गुदगुदी सा अहसास होता है। शायद तुम्हें पता है। पर छोड़ो अभी। हमलोग नाम पर फिर कभी जरूर लौट कर समय गुजारेंगे। अभी जो ये तुमने बात से बात निकाल दी तर्क की दुनिया.. ज्ञान और दैनिक व्यवहार के बीच के फासले …इसका सत्य?

अपनी आँखें सामने चार्ल्स डिकेंस के रहस्यमय संसार के एक एक्जीविट पर ही टिकाये उसने कहा:” जानते हो प्रोफेसर, सत्य को कहाँ टिका पाओगे? ”

जिस अंदाज में सवाल आया यह समझना मुश्किल हो गया कि उसका अभिप्राय मेरी बातों से है या फिर चार्ल्स डिकेंस की इस रहस्यमय दुनिया से जिसकी जमीन सामने चल रही एक्जीविशन तैयार कर रही दिखती है।

” सत्य…सत्य का तर्क से सीधा कोई नाता नहीं। यह तो विज्ञान ने अपनी सहूलियत के लिये तर्क की इमारत खड़ी कर रखी है।

जिस अनुभव पर आपका विश्वास हो और जिस पर आप दूसरों को विश्वास दिला पाएं वही सत्य है।”

” तो बात दरअसल विश्वास की है।” कहते हुए उसने एक गहरा नि:श्वास छोड़ा। पतले गले में बहुत हल्की सी रेशमी हलचल सी उठी हो मानो। दाएं कान पर आ गयी लटों को उंगलियों के पोरों से समेटते हुए पीछे लेते, चली गयी जूनी।

चित्र साभार – Sitting on History, 1995, Bill Woodrow, British Library, London

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  ‘हिचकी’ : शिक्षा व्यवस्था की बेहतरीन पड़ताल

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‘हिचकी’ फिल्म की एक अच्छी समीक्षा लिखी है दिल्ली विश्वविद्यालय के कमला नेहरु कॉलेज में प्राध्यापक और लेखक मनोज मल्हार ने- मॉडरेटर

      ‘हिचकी’  ब्रैड कोहेन की पुस्तक ‘फ्रंट ऑफ़ द क्लास : हाउ टूरेट मेड मी द टीचर आई नेवर हैड’ पर आधारित और सिद्धार्थ पी. मल्होत्रा द्वारा निर्देशित बॉलीवुड फिल्म है. इस पुस्तक पर हॉलीवुड भी 2008 में ‘फ्रंट ऑफ़ द क्लास’ नाम से फिल्म बना चुका है. इसमें केंद्रीय चरित्र पुरुष था. ‘हिचकी’ के पटकथा लेखकों की टीम ने भारतीय परिस्थितियों में इसे विश्वसनीय तरीके से ढाला है. पुस्तक को फिल्म के रूप में  विकसित करने की यह प्रवृत्ति स्वागत योग्य है. यह बॉलीवुड के समृद्ध और सृजनात्मक होने की अच्छी कोशिश भी है.

     फिल्म को टूरेट सिंड्रोम से पीड़ित नैना मल्होत्रा के एक शिक्षक बनने के संघर्ष के रूप में प्रचारित किया है. रूपांतरकारों  ने नैना मल्होत्रा के चरित्र के नायकत्व को उभारने के लिए दो बड़ी समस्याओं को आपस में जोड़ा है ; एक शिक्षक के पढ़ाने और विद्यार्थियों के साथ व्यवहार  करने की शैली, और , सामजिक- आर्थिक भिन्नता की हकीकत. एक प्रतिष्ठित विद्यालय समृद्ध वर्ग से आने वालों बच्चों का विद्यालय है, जहां ‘शिक्षा का अधिकार’ के दवाब में 9 एफ सेक्शन बनाया जाता है. इनमें ऐसे बच्चे हैं जो झोपड़पट्टी में रहते हैं, साईकिल का पंक्चर ठीक करते है, सब्जी का ठेला लगते हैं , या इसी तरह के काम करते हैं. इन बच्चों को पूरे स्कूल में हिकारत और  अवांछित रूप में देखा जाता है , जो स्कूल के नाम और ख़ूबसूरती और प्रतिष्ठा पर कलंक की तरह हैं. इन ‘इकोनोमिकली वीकर सेक्शन’ के विद्यार्थियों को स्कूल की कई सारी सुविधाएं प्रयोग की इज़ाज़त नहीं.  निर्देशक ने इस पहलू को ख़ूबसूरती से दिखाया है. कैमरा स्कूल की चकाचौंध से निकल कर झोपड़पट्टी में जाता है , जहां पीने के पानी के इंतज़ार में पीपे और बर्तनों की बहुत लम्बी लाइन लगी है. जब पानी की सप्लाई शुरू होती है तो धक्कामुक्की और वहशियों की तरह दौड़ भाग का दृश्य. बस्ती में बिजली कभी भी कट जाती है . वहां की  स्त्रियों की आँखों में नैना मल्होत्रा एक उम्मीद की तरह उभरती है.

         अवसर मिलने पर नैना मल्होत्रा भिन्न अध्यापकीय पद्धति का प्रयोग करती है. वो न केवल क्लास रूम से बाहर निकल कर मैदान में पढ़ाती है , बल्कि गणित, भौतिकी आदि को विषयों को  समझाने के लिए क्लास में सभी विद्यार्थियों के पास उबले अंडे भी उछाल सकती है. उसे अपनी अध्यापकीय पद्धति पर भरोसा है और वो साथी शिक्षक से शर्त भी लगाती है और प्रिंसिपल को भरोसा भी दिलाती है. उसके पास यह विश्वास इसलिए है क्योंकि पढ़ाना उसके लिए एक काम नहीं , अपितु पैशन है. वह विद्यार्थियों के साथ सुन्दर तालमेल बनाती है , क्योंकि वो यह मानती है कि बिना अच्छे आपसी परिचय के सीखने – सिखाने की स्थिति नहीं बन सकती. नैना मल्होत्रा की दिलचस्प थ्योरी है – असफल विद्यार्थी नहीं होते, बल्कि शिक्षक होते हैं. अच्छे शिक्षक केवल एक पाठ को ही नहीं आसान बनाकर समझाते हैं, वरन एक एक्टिविस्ट की तरह होते हैं. वे सुंदर और आत्मविश्वास  से पूर्ण  व्यक्तित्व का निर्माण कर सकते हैं और विद्यार्थियों में ऊर्जा सृजित कर सकते है. रूपांतरकारों ने इस पहलू को गहराई से पकड़ा है और भाषण शैली में न दिखाकर कार्य के रूप में दिखाया है. नैना मल्होत्रा के चरित्र को इन दोनों तत्वों ने गहराई, स्वीकृति और नायकत्व  प्रदान किया है.

      टाइमिंग भी बहुत महत्वपूर्ण हैं फिल्म द्वारा प्रस्तुत इन मुद्दों पर बात करने के लिए. कॉर्पोरेट सेक्टर से निर्देशित शिक्षा क्षेत्र के नीति निर्माता अब कक्षाहीन शिक्षा के मॉडल को प्रस्तुत करने लगे हैं. मेरे ख्याल से फिल्म इस विचार की भरपूर मुखालिफत करती है. विद्यार्थी और शिक्षक के आपसी संबंधों के अलावा वातावरण भी महत्वपूर्ण है. स्कूल कॉलेज  के भवन, गलियारे, दीवारें, इतिहास के विशिष्ट व्यक्तियों की मूर्तियाँ, दीवार पर टंगे चित्र बिना कुछ कहे , निशब्द रहकर विद्यार्थियों को चुपके चुपके ही आदर्श, इतिहास,विचार बता देते हैं , और विद्यार्थी बिना प्रयत्न के ही उन्हें मानसिक रूप से ग्रहण कर लेते हैं. सरकारें जब ऑटोनोमी की शक्ल में फण्ड काटने और फीस बढाने की बात करती है, तो फिल्म का स्पष्ट पक्ष है कि समाज का कौन सा वर्ग प्रभावित होने वाला है, किसके हाथों से शिक्षा फिसल जाने वाली है.

         चूंकि यह एक मेनस्ट्रीम बॉलीवुड फिल्म है , अतः निर्देशक ने साहित्यिक तत्वों को बेहद कम कर किया है, हालांकि फिल्म एक साहित्यिक कृति पर आधारित है.  समस्याओं की गहराई और विचारधारात्मक बहस में न उलझ कर प्रस्तुतीकरण को बॉलीवुड के लटके झटके के अनुसार ही रखा है. और इसमें कोई शक नहीं कि निर्देशक अपने उद्देश्य में सफल है – मनोरंजन के साथ समस्यायों  को हलके फुल्के अंदाज़ में दर्शकों के साथ तादात्म्य स्थापित करने में. फिल्म के कुछ बिम्ब अपनी छाप छोड़ते हैं : जब 15 हथेलियाँ एक साथ ध्रुवतारे को मापने की कोशिश करते हैं , या फिर, एक साथ  10 या 12 कागज़ के जहाज़ उड़ाने भरते है. खूबसूरत दृश्य है. इन दृश्यों को देखते हुए  शिक्षण पद्धति पर बनी मशहूर फिल्म ‘डेड पोएट सोसाइटी’ के दृश्यों की याद हो आती है. सिनेमैटोग्राफर को बधाई. बाकी रानी मुखर्जी की अच्छी वापसी तो है ही. साथ ही विद्यार्थी- शिक्षक के मध्य के दिलचस्प तकरारें, समूह की मानसिकता और व्यवहार भी दर्शायी  गई है.

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                                   मनोज मल्हार

                                   कमला नेहरु कॉलेज , दिल्ली विश्वविद्यालय

                                   8826882745

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यतीन्द्र मिश्र के जन्मदिवस पर उनकी कुछ नई कविताएँ

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यतीन्द्र मिश्र निस्संदेह मेरी पीढ़ी के प्रतिनिधि लेखक हैं. हर पीढ़ी में अनेक लेखक अपने अपने तरीके से शब्दों का संसार रच रहे होते हैं, लेकिन कुछ ही लेखक होते हैं जो उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करने लगते हैं. यतीन्द्र जी ने अनेक विधाओं में अपने लेखन से ही प्रतिनिधि लेखक के रूप में अपनी पहचान बनाई है. 20 साल की उम्र में उनका पहला कविता संग्रह आया ‘यदा-कदा’. उसके दो-साल बाद कविता संग्रह आया ‘अयोध्या एवं अन्य कविताएँ’. प्रसंगवश, मेरी आरंभिक समीक्षाओं में एक समीक्षा इस कविता संग्रह की भी है. उसके बाद ‘गिरिजा’ किताब आई जिसे संगीत पर, एक मूर्धन्य गायिका पर अपने ढंग की अनूठी किताब के रूप में देखा गया. आजकल यतीन्द्र की किताब ‘लता सुर गाथा’ ने जिस तरह से लेखकों-पाठकों में अपनी व्याप्ति बनाई है वह किसी भी समकालीन लेखक के लिए ईर्ष्या और प्रेरणा दोनों का कारण हो सकती जी का जन्मदिन है. वे 40 पार कर गए हैं. यह देखकर ख़ुशी होती है अनेक विधाओं में लेखन के अलावा उन्होंने एक ऐसे वक्ता के रूप में भी अपनी पहचान बनाई है जिसे सुनना भी एक अनुभव होता है. उनके जन्मदिन पर जानकी पुल की तरफ से हम यही दुआ करते हैं कि वे इसी तरह अनेक विधाओं में बेहतरीन रचते रहें, हमारी पीढ़ी के सुयोग्य प्रतिनिधि बने रहें.

यतीन्द्र जी का पहला प्यार कविता ही है. इसलिए आज उनके जन्मदिन पर पढ़िए उनकी कुछ नई कविताएँ. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कविताओं में भी यतीन्द्र जी की आवाज सबसे अलग है, उनकी शैली सबसे अलग है, उनका मुहावरा सबसे अलग है. जानकी पुल की तरफ से एक बार पुनः जन्मदिन की शुभकामनाएं- मॉडरेटर

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किवाड़ खटखटाना

कबीर के घर का किवाड़ खटखटाओ
तो बरबस हिलता है
रहीम के दरवाजे का ताला

खुसरो की कुण्डी-साँकल भी
जतन से वैसे ही हिलाओ
जैसे धूप से भरे आँगन-चौगान
हौले से छूकर खोले जाते हैं

कभी रैदास, पलटू और दरिया के यहाँ
जाकर भी देख आना चाहिए
उनके किवाड़ों का तिलिस्म
जिनमें घर के बाहर बिखरे संसार को
अपना दुआर बना लेने का नुस्खा टँका है

नानक और पीपा और रज्जब और बुल्ले शाह
के घरों की खिड़कियों से आने वाली बयार
को जो ताला बाँधता हो
उसकी चाबी फेंक आनी चाहिए
उस असूर्यम्पश्य प्रदेश में
जहाँ से लौटना असम्भव न सही
मुश्किल ज़रूर हो

ऐसे बहुत सारे ताले, कुंडी-साँकल
और चिटकनी को छूने से
गर खुलता हो रोशनी का दरवाज़ा
तो किवाड़ खटखटाना
सभ्यता के झरोखों को हिलाने जैसा होता है….

 

पानी की आवाज़

सत्य रास्ते में पड़े पत्थर की तरह है
उसके ठोकर से खुलती हैं
तमाम सारी चीज़ें बेरौनक

उसके गहरे कुएँ में अचानक गिरने पर
उठने वाली आवाज़
सिर्फ़ पानी की आवाज़ नहीं होती

निश्छल जल का जो गूँजता है
कुएँ में स्वर
वो तरलता की शर्त पर
गहराई का सच उजागर करता है….

 

झुकना

झुककर ही हम बाँध सकते हैं जूते के फीते
उठायी जा सकती है झुककर ही
ज़मीन पर जा गिरी क़लम
छुआ जाता बुजुर्गों का पाँव भी झुककर ही
बिसरा दी जाती तमाम गलतफहमियाँ झुककर….

झुककर उदास नदी से उसका हाल पूछा जा सकता है
दूब की नोंक पर उग आयी पीड़ा भी
झुककर ही महसूस होती है….
पतझड़ से हारे हुए पत्ते
झुकने पर ही अपने दिल का पता देते हैं….

झुकना
दरअसल सभ्यता में
मानवता को शामिल करना है….

 

कविता की राह

कविता की राह कठिन है
मनुष्यता की भी

सम्प्रेषण की राह कठिन है
संवेदना की भी

शब्दों की राह कठिन है
और उनकी उजली छायाओं की भी….

फूलों के पदचाप से

नये मौसम में हर बार फूल आते हैं
अपनी अविरल गति से
मिट्टी के रंग पर
एक नया अध्याय रचने के लिए

बदलते मौसम में कई बार
ये फूल सूख जाते हैं
प्रकृति की सहज उपस्थिति में
जीवन का अभिप्राय बताते हुए

जो नहीं बदलता कभी
वो मौसम या बहार या पतझर नहीं
फूलों के पदचाप से छूटा हुआ
सुगन्ध का रास्ता होता है

जिजीविषा के फैलाव की
एक अमिट सम्भावना रचता हुआ….

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कवयित्री उज्ज्वल तिवारी की पाँच कविताएँ

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उज्जवल तिवारी पेशे से वकील हैं. जोधपुर में रहती हैं. छपने की आकांक्षा से अधिक मन की भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए कविताएँ लिखती हैं. इसलिए अभी तक उनकी कविताएँ कहीं प्रकाशित नहीं हुई हैं. पहली बार जानकी पुल पर आ रही हैं. सधी हुई और सुघड़ कविताएँ- मॉडरेटर

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।।१।।

आँख में मणिकर्णिका

ये मेरी आँखें नहीं
मणिकर्णिका घाट है

यहाँ हर दिन अपनी चिताओं पर
स्वप्न नग्न लेट जाते हैं
धूँ -धूँ कर जलते राख हो जाते हैं

अगले कुछ दिनों तक इन आँखों में
घूमती रहती हैं उनकी आत्माएं

मैं अश्रु-समुद्र में उनकी अस्थियाँ विसर्जित कर
अपने ह्रदय को शापित होने से बचा लेती हूँ

और दो घूँट गंगाजल पी लेती हूँ

।। २ ।।

मैं प्रेम कहानियों सी रोचक नहीं

मुझे भूलना बहुत आसान है
शायद तभी लोग भूल जाते हैं मुझे

या अधूरा पढ़ कर छोड़ देते हैं
बगैर उस पृष्ठ को मोड़े
जहां तक कहानी पढ़ी जा चुकी है
छोड़ देते हैं उस किताब की तरह
जहां तहां दराज़ों में

फिर याद भी नहीं करते
कि उसे कहाँ रख छोड़ा था

मैं प्रेम कहानियों सी रोचक नहीं

।। ३ ।।

सब रंग अजान में

जब देह का छुआ दाग-सा लगने लगे
जब स्वप्न के भीतर स्वप्न दिखने लगे
करवट बदलते ही रातें बीतने लगे

तुम जोर से चीखती टिटहरी की आवाज़ सुनकर
अपने कानों पे हथेली धर देना

या देर रात तक झींगुरों की आवाजों का पीछा करना
खिड़की से झरती चांद की रौशनी में
अधूरी किताब खत्म करना

चांद को छूकर गुज़रते बादलों की गिनती करना
पर तुम सोना मत
एक क्षण को भी मत सोना

वरना स्वप्न में ये स्वप्न तुम्हें घाव देंगे
देह के दाग और गहरे से भी गहरे हो जायेंगे

तुम भोर के तारे से बतिया लेना
रात काटना आसान हो जायेगा

आसमान के बदलते रंगों को ध्यान से देखते रहना
धीरे-धीरे सब रंग सुबह की अजान में घुल जायेंगे

और तुम्हारे लिये जीना आसान हो जायेगा

।। ४ ।।
मध्यान्तर में

जीवन के मध्यान्तर में हुई तुमसे मुलाकात फिर से लौटा लाती है मुझे अतीत के गलियारों में जबकि बदला कुछ भी न था : तुम लगभग वैसे ही थे और मैं भी वैसी ही, भीतर से।

पाठशाला के पहले कालांश की सी तन्मयता से
तुमने मुझे सुना-जाना। कुछ माह बीतने के बाद भी
दूसरे कालांश सी एकाग्रता बनी रही
धीरे-धीरे तीसरे और चौथे कालांश बीतने तक तुम्हारी रुचि मुझमें कम और मध्यान्तर में मिलने वाली आज़ादी और खेलों की तरफ बढ़ने लगी

मैं फिर से एक मध्यान्तर से दूसरे मध्यान्तर पर पहुंच गयी
घाणी से तेल निकालते, आँखों पे पट्टी बांधे
बैल की भांति शून्य से शून्य तक की यात्रा में रहने लगी

मूर्खों की भांति अकेले उस कक्षा में बैठी जिसमें अंतिम कालांश
के बाद छुट्टी की घंटी कभी सुनाई नहीं देती।

।। ५ ।।
गंध

कभी-कभी मुझे तुम्हारी देह से पहाड़ों पर लगी बिच्छू बूटी जैसी गंध आती है। मैंने तुम्हें कहा नहीं पर वो कसैली गंध जब मेरे नथुनों को छूती है तो पूरे मुँह का स्वाद कसैला हो जाता है।

क्या तुम कभी पहाड़ों पर अकेले गये हो?
क्या तुमने वहाँ की वनस्पतियों से
घाटी में फैली गंध को छुआ है?

(तुमने उस गंध को मफलर की तरह अपने गले से लपेटा था
या फिर उस गंध को घर लौटते समय अपनी जेबों में भर लाये थे)

मुझे ये गंध अजीब लगती है– नाक से सीधे दिमाग में घुस जाती है। कनखजूरे सी रेंगने लगती है।

तुम केंचुली-सा इस गंध को उतार कर फेंक क्यों नहीं देते
नामालूम किसी जन्म में तुम उन पहाड़ी जंगलों में
वनैले साँप की योनि में घूमते होंगे

ना जाने अमरबेल से,
किसी हरियल वृक्ष से लिपटे रहे हों बरसों
उसके पूरे सूख जाने तक

मुझे तुम्हारी देह से उस कसैली गंध को मिटा देना है। एक रोज़ मैं लोबान का धुआं तुम्हारी देह पर मल दूँगी और फिर वो गंध कभी न आयेगी

मुझ तक।

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लेखक बनने की पहली कोशिश, मनोहर श्याम जोशी और अमेरिकन सेंटर लाइब्रेरी

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आज मनोहर श्याम जोशी जी की 12 वीं पुण्यतिथि है. इस अवसर पर उनकी स्मृति को प्रणाम करते हुए उनके ऊपर  अपनी लिखी जा रही किताब का एक अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ- प्रभात रंजन

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आखिरकार उनके(मनोहर श्याम जोशी) घर बेतकल्लुफी से आने जाने का सिलसिला शुरू हो गया और इसमें बड़ी भूमिका अमेरिकन सेंटर की थी. हुआ यों कि ‘हमजाद’ उपन्यास को उत्तर आधुनिक उपन्यास लिखने के बाद और एक सरकारी पत्रिका में उसके मय मानदेय प्रकाशन के बाद मैं कुछ जोश में आ गया था. इस बात का मलाल जरूर था कि ‘हंस’, ‘इण्डिया टुडे’ या किसी अन्य मुख्यधारा की पत्रिका में उस समीक्षा का प्रकाशन नहीं हुआ लेकिन मेरे लिए यह कम संतोष की बात नहीं थी कि उस उपन्यास की पहली समीक्षा मैंने ही लिखी थी. अभी मैंने ‘उत्तर आधुनिकता और मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास’ विषय पर शोध करना अभी ठीक से शुरू ही नहीं किया और मैंने खुद को उत्तर आधुनिकता और मनोहर श्याम जोशी दोनों का विशेषज्ञ साबित कर दिया था.

मेरे अन्दर खुद को और कुछ साबित करने का जोश भी आ गया था. कहानी लिखकर मैं जल्दी से जल्दी कथाकारों की सूची में अपना नाम लिखवाना चाहता था. मैंने एक कहानी लिखनी शुरू की. अब सोचता हूँ तो लगता है कि कहानी क्या थी मैंने महज कुछ पन्ने भरे थे. कुछ प्रेम कहानी जैसी था जिसमें लड़की लड़के को बहुत पसंद करती है. दोनों को पहली बार एकांत में मिलने का मौका मिलता है. लड़का घबराहट में या अपनी मर्दानगी दिखाने के लिए सिगरेट निकालकर जला लेता है. उसके सिगरेट जलाते ही लड़की कहती है, ‘छी छी! ऐसे लड़के से मैं नहीं मिलना चाहती जो सिगरेट पीता हो. लड़का मन मसोस कर रह जाता है और अगली बार दोनों के बीच अकेले मिल पाने का अवसर नहीं आता है. लड़का छुट्टियों में अपनी बुआ के घर गया हुआ था. छुट्टियाँ ख़त्म हो जाती हैं, लड़का अपने शहर वापस आ जाता है. मिलने-बिछड़ने में सिगरेट की बाधा को लेकर मैंने कुछ ऐसा लिखने का प्रयास किया था जो अपनी नजर में मुझे उत्तर आधुनिक टाइप लग रहा था.

हाथ से लिखने का ज़माना था. कहानी को दो बार फेयर करने के बाद जब मैं निश्चिन्त हो गया तो मैंने एक दिन उनको फोन मिलाया. उनके फोन पर आते ही मैंने एक सांस में कह दिया कि मैंने कहानी लिखी है और मैं उनको दिखाना चाहता हूँ. उन्होंने उसी दिन शाम का समय दे दिया. उस दिन मैंने दिन भर शाम होने का इन्तजार किया. अपनी बड़ी सी नोटबुक में कहानी के पन्ने दबाये, नोटबुक को अपने बैग में डाला और आइएसबीटी से 601 नंबर की बस में बैठ गया.

उनके घर पहुंचा तो उन्होंने सीधे कहानी की मांग की. वे जैसे पढने के लिए तैयार बैठे थे. मन ही मन मुझे लग रहा था कि कहानी उनको पसंद आने वाली थी और मेरा नाम हिंदी के युवा लेखकों में दर्ज होने वाला था. बस उनके पढने की देर थी.

टेबल कुर्सी पर बैठकर बड़े ध्यान से उन्होंने कुछ मिनट कहानी पढ़ी. पन्नों को समेटा और मेरी तरफ बढाते हुए बोले, ‘ऐसा नायक किस काम का जिसे लड़की से पहली बार एकान्त में मिलने का मौका मिले और वह सिगरेट जलाने में समय गंवा दे. देखो, सिर्फ लिखने के लिए लिखना, छपने के लिए लिखना है तो कोई बात नहीं. हिंदी में हजारों की तादाद में रोज लड़की, फूल, चिड़िया पर कविता लिखने वाले पैदा हो रहे हैं. उसी तरह कहानियां लिखने वाले पैदा हो रहे हैं. इतनी पत्र-पत्रिकाएं निकल रही हैं बहुत से लेखक उनमें पन्ने भरने के काम आते हैं. लेकिन कुछ लेखक होते हैं जिनको प्रकाशित करके पत्रिकाएं गौरवान्वित महसूस करती हैं. अब तुम खुद सोच लो. कहानी तुम्हारे हाथ में है. चाहो तो फाड़कर फेंक दो या लिफ़ाफ़े में डालकर किसी सम्पादक को भेज दो. दोनों स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ेगा.’

मैं कुछ देर तो अवाक खड़ा रहा फिर मैंने उनके सामने ही फाड़कर उनके डस्टबिन में फेंक दिया. मेरी पहली कहानी ‘लड़का लड़की और सिगरेट’ का यह दुखांत मुझे कई बार याद आ जाता है. वैसे तो उसकी एक प्रति मेरे पास होस्टल में थी. चाहता तो प्रकाशित करवाने की कोशिश भी करता लेकिन जोशी जी कि यह बात मुझे बार बार याद आती रही कि पन्ने भरने वाला लेखक बनना है या…

अब सोचता हूँ तो कई बार लगता है कि ‘हमजाद’ की समीक्षा भी मैंने बहुत खराब लिखी थी उसे छपवाने में उन्होंने मेरी मदद भी की लेकिन मेरी कहानी के प्रति उन्होंने वैसी उदारता क्यों नहीं दिखाई?

खैर, मैंने तब उनके कहे का अनुपालन किया और उनके सामने सावधान की मुद्रा में खड़ा हो गया. फिर पूछा, ‘इस कहानी में क्या कमी थी सर? और अच्छी कहानी किस तरह से लिखी जा सकती है?’

जवाब में उन्होंने किस्सा सुनाना शुरू किया कि जब वे लखनऊ यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे और वहां के हबीबुल्ला होस्टल में रहते थे तो वे अमृतलाल नागर के यहाँ जाने लगे. नागर जी की आदत थी कि वे अपनी रचनाओं को बोलकर लिखवाते थे. उन दिनों नागर जी ‘बूँद और समुद्र’ उपन्यास लिख रहे थे उसके कुछ पन्ने उन्होंने भी लिखे.

प्रसंगवश, जोशी जी भी बोलकर लिखवाते थे. उन्होंने एक युवक को टाइपिस्ट के लिए बाकायदा नौकरी पर रखा था. शम्भुदत्त सती नामक वह व्यक्ति 90 के दशक में उनके यहाँ काम के लिए आया था. उन दिनों जोशी जी ‘हमराही’ धारावाहिक लिख रहे थे. तब से लेकर उनकी लिखी आखिरी फिल्म ‘हे राम’ तक वही उनके लिए टाइप करने का काम करते रहे. जोशी जी ने अपने एक इंटरव्यू में इस बात का जिक्र भी किया है कि 1966 में जब वे साप्ताहिक हिन्दुस्तान के सम्पादक बने तब उनको बाकायदा एक टाइपिस्ट सहायक के रूप में मिला और उनके लेखन में गति आई. अन्यथा हाथ से लिखने के मामले में वे इतने काहिल थे कि हिंदी के ज्यादातर काहिल लेखकों की तरह कविताएँ ही लिखते रहे. बहरहाल, शम्भुदत्त सती जोशी जी के इतने लम्बे समय तक टाइपिस्ट रहे कि वे भी लेखक बन गए और कुमाऊनी परिवेश को लेकर उन्होंने एक नावेल भी लिखा ‘ओ इजा’, जो भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ था.

बोलकर लिखवाने की बात चल रही है तो लगे हाथ यह बताना भी मुझे जरूरी लगता है कि वह कंप्यूटर पर लिखने का ज़माना नहीं था. ज्यादातर लेखक हाथ से ही लिखा करते थे. मोहन राकेश के बारे में मैंने पढ़ा था कि 60 के दशक में वे टाइपराइटर पर लिखा करते थे और जहाँ जाते थे अपना टाइपराइटर साथ लेकर जाते थे. 90 के दशक के आखिरी वर्षों में जब मैंने अशोक वाजपेयी के साथ काम करना शुरू किया तो देखा कि वे रोज सुबह टाइपराइटर पर लिखा करते थे. उन दिनों हिंदी के बहुत कम लेखक खुद टाइपराइटर पर लिखते थे. यह टशन था उन दिनों का.

जोशी जी बोलकर लिखवाते थे और उनके समकालीन लेखक कमलेश्वर जी फिल्मों, टीवी, साहित्य हर माध्यम में बेहद सफल लेखक रहे लेकिन वे हाथ से ही लिखते थे. मुझे याद है कि वे अपनी लिखने की उँगलियों में पट्टी बांधकर लिखा करते थे. जिस दिन मैंने पहली बार उनको उंगली में पट्टी बांधकर लिखते हुए देखा तो मैं बहुत चकित हुआ और मैंने उनसे कहा कि सर आप किसी टाइपिस्ट को रखकर बोलकर क्यों नहीं लिखवाते? जोशी जी तो बोलकर ही लिखवाते हैं. डनहिल सिगरेट का धुंआ छोड़ते हुए कमलेश्वर जी ने कहा, हिंदी के लेखकों को संघर्ष बहुत करना पड़ता है. हाथ से लिखने में संघर्ष का वह भाव बना रहता है. जानते हो प्रभात, जिस दिन मैं हाथ से लिखना छोड़ दूंगा मैं लेखन ही नहीं कर पाऊँगा. हिंदी का लेखक कलम का मजदूर ही होता है उसे लेखन का राजा बनने का प्रयास नहीं करना चाहिए.

मैं उनसे बहस करने के मूड में था. मैंने कहा कि सर मनोहर श्याम जोशी जी बोलकर लिखवाते हैं. सुनकर वे कुछ संजीदा हुए और फिर बोले, देखो हर लेखक का अपना स्टाइल होता है, अपनी विचार प्रक्रिया होती है. जैसे अगर मैं बोलकर लिखवाने लगूंगा तो मेरी भाषा, मेरे संवाद सब विश्रृंखल हो जायेंगे. मैं आज भी जिस तरह से लिखता हूँ खुद मुझे ऐसा महसूस होता है जैसे मेरे सामने पन्नों पर कोई रहस्य उद्घाटित हो रहा हो. अक्षरों, शब्दों के माध्यम से यह रहस्योद्घाटन ही मेरे लिए लेखन का असल आनंद है. इसी कारण से चाहे मैं फिल्म लिखूं, सीरियल्स लिखूं या कहानी-उपन्यास लेखन मुझे आनंददायक लगता है. उसके बाद कुछ देर रुकते हुए उन्होंने कहा कहा- एक बात बताऊँ जोशी के पह्क्ले दो उपन्यास ‘कुरु कुरु स्वाहा’ और ‘कसप’ बहुत सुगठित हैं. दोनों उसने हाथ से लिखे थे. कहने के बाद वे फिर से लिखने में लग गए. खैर, मुझे ऐसा लगता है कि कमलेश्वर जी की हस्तलिपि इतनी सुन्दर थी कि हो न हो वे उसी मोह में हाथ से लिखते थे.

अब प्रसंग हाथ से लिखने बनाम टाइपिस्ट को बोलकर लिखवाने का चल रहा है तो एक और किस्सा याद आ रहा है. उन दिनों मैं महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय की पत्रिका ‘बहुवचन’ का संपादन कर रहा था. उस पत्रिका के पहले संपादक पीयूष दईया ने अचानक पत्रिका का संपादन छोड़ दिया. तब मैं विश्वविद्यालय की अंग्रेजी पत्रिका ‘हिंदी’ में सहायक संपादक था. उस समय उस विश्वविद्यालय का नाम ‘बहुवचन’ पत्रिका के प्रकाशन के कारण ही था. विश्वविद्यालय निर्माण काल से गुजर रहा था. इसलिए वहां प्रकाशन का काम ही अधिक हो रहा था. अचानक एक दिन अशोक वाजपेयी ने मुझे बुलाकर कहा कि जब तक कोई नया संपादक नहीं मिल जाता है तुम ही इसका एक अंक निकाल दो. मन ही मन मैं जानता था कि उस एक अंक के माध्यम से मुझे ऐसा प्रभाव छोड़ना था कि आगे के अंकों के संपादन का भार भी मुझे मिल जाए. उस अंक में मैंने कई नए काम किए. जिनमें एक मनोहर श्याम जोशी के धारावाहिक संस्मरण का प्रकाशन भी था.

जब अशोक जी ने मुझे बहुवचन के सम्पादन के बारे में कहा तो उसकी सूचना सबसे पहले देने जोशी जी के घर गया. वे बहुत खुश हुए. बोले, देखो अशोक काम तो बहुत अच्छा करना चाहता है लेकिन उसके आसपास भोपाल वालों का,  ऐसा जमघट है कि उनके बीच तुम संपादक बने रह जाओ यह किसी कमाल से कम नहीं होगा. लेकिन कोशिश पूरी करना. मैंने पूछा कि आप क्या देंगे, तो बोले कि अभी हाल में ही रघुवीर सहाय रचनावली का प्रकाशन हुआ है. मैं वही पढ़ रहा था. रचनावली के संपादक सुरेश शर्मा का आग्रह था कि मैं उसकी समीक्षा लिख दूँ. मैंने कहा- समीक्षा? मतलब आप यह कह रहे हैं आप मेरे संपादन में निकलने वाले पहले अंक के लिए एक किताब की समीक्षा लिखेंगे? मैं तो सोच रहा था कि आप कुछ ऐसा लिखे जो यादगार बने और मेरी नौकरी भी बच जाए. जवाब में वे फिर बोले, उसी रचनावली के बहाने कुछ लिखता हूँ. ‘रघुवीर सहाय रचनावली के बहाने स्मरण’ शीर्षक से जब उन्होंने रघुवीर सहाय पर लिखना शुरू किया तो अगले तीन अंकों तक उसका प्रकाशन हुआ. संभवतः हिंदी की वह सबसे बड़ी समीक्षा है जिसका बाद में पुस्तकाकार प्रकाशन भी हुआ. खैर, एक दिन मैं कृष्ण बलदेव वैद के यहाँ उनसे मिलने गया. प्रसंगवश, बता दूँ अपने समकालीन लेखकों में जोशी जी जिस लेखक के पढ़े लिखे होने का खौफ सबसे ज्यादा खाते थे वे वैद साहब ही थे. तो मैंने वैद साहब से पूछा कि सर जोशी जी जो रघुवीर सहाय पर लिख रहे हैं वह आपको कैसा लग रहा है? जवाब में वैद साहब ने हँसते हुए कहा- जोशी बोलकर लिखवाता है न!

बहरहाल, बात लखनऊ के दिनों की हो रही थी तो उन दिनों लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्ठियों में लखनऊ के तीन मूर्धन्य लेखक यशपाल, अमृतलाल नागर और भगवती चरण वर्मा मौजूद रहते थे. उन तीनों की मौजूदगी में उन्होंने अपनी कहानी ‘मैडिरा मैरून’ सुनाई और उस कहानी से उनकी पहचान बन गई. मैं किस्से सुनता रहा लेकिन किस्सों में मुझे यह समझ में नहीं आ रहा था कि इनमें मेरे अच्छे कथाकार बनने के क्या गुर छिपे हुए थे. शायद मेरे चेहरे पर बेरुखी के भाव या कहिये ऊब के भाव को उन्होंने लिया होगा इसलिए सारे किस्सों के अंत में उन्होंने सार के रूप में बताना शुरू किया- ‘हबीबुल्ला होस्टल में रहते हुए मैंने एक बात यह सीखी कि अच्छा लेखक बनना है तो बहुत पढना चाहिए. उन दिनों मेरा एक मित्र था सरदार त्रिलोक सिंह, वह बहुत पढ़ाकू था. दुनिया भर के लेखकों को पढता रहता था. उसने मुझे कहा कि तुम जिस तरह से बोलते हो अगर उसी तरह से लिखना शुरू कर दो लेखक बन जाओगे. इसके लिए उसने मुझे सबसे पहले अमेरिकी लेखक विलियम सारोयाँ की कहानियां पढने की सलाह दी. तो तुम्हारे लिए पहली सलाह यह है कि अमेरिकन सेंटर के पुस्तकालय के मेंबर बन जाओ. वहां एक से एक पुरानी किताबें भी मिलती हैं और समकालीन पत्र-पत्रिकाएं भी आती हैं. तुम्हारा दोनों तरह के साहित्य से अच्छा परिचय हो जायेगा.’

कहानी लिखने की दिशा में आखिर में उन्होंने पहली सलाह यह दी- देखो! दो तरह की कहानियां होती हैं. एक तो वह जो घटनाओं पर आधारित होती हैं, जिनमें लेखक वर्णनों, विस्तारों से जीवंत माहौल बना देता हैं. डिटेल्स के साथ इस तरह की कहानियां लिखना मुश्किल काम होता है. तुम्हारी कहानी को पढ़कर मुझे साफ़ लगा कि अभी इस तरह की कहानियां लिखना तुम्हारे बस का नहीं है. न तो तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई वैसी है न ही लेखक का वह धैर्य जो एक एक कहानी लिखने में महीनों-सालों का समय लगा दे सकता है. दूसरी तरह की कहानियां लिखना कुछ आसान होता है. एक किरदार उठाओ और उसके ऊपर कॉमिकल, कारुणिक रूप से लिख दो. फिर कुछ देर रूककर बोले, उदय प्रकाश को ही देख लो वह दोनों तरह की कहानियां लिखने में महारत रखता है. लेकिन उसको अधिक लोकप्रियता दूसरी तरह की कहानियां लिखने से मिलती  है, जिसमें वह अपने आसपास के लोगों का कॉमिकल खाका खींचता है. मैं यह नहीं कहता कि उस तरह की कहानियां लिखनी चाहिए लेकिन आजकल हिंदी कहानियां इस दिशा में भी बड़ी सफलता से दौड़ रही है. उसके बाद उन्होंने हँसते हुए कहा, और तो और तुम अपनी कहानी में भाषा का रंग भी नहीं जमा पाए. अगर भाषा होती तो कहता निर्मल वर्मा की तरह लिखो.

लेकिन फिलहाल तो कुछ नहीं है. कहानी चर्चा के बाद उन्होंने भाषा चर्चा शुरू कर दी. मनोहर श्याम जोशी कोई शब्द लिखने से पहले कोश जरूर देखते थे। उन्होंने मुझसे पूछा कि हिंदी लिखने के लिए किस कोश का उपयोग करते हो. मैं बगलें झाँकने लगा क्योंकि कोश के नाम पर तब मैं बस फादर कामिल बुल्के के अंग्रेजी-हिंदी कोश को ही जानता था. उसकी भी जो प्रति मेरे पास थी वह मैंने खरीदी नहीं थी बल्कि मेरे चचेरे भाइयों ने करीब दस साल उपयोग के बाद मुझे दे दी थी. हिंदी लिखने के लिए भी कोश देखते रहना चाहिए यह बात मुझे पहली बार तब पता चली जब मैं हिंदी में पीएचडी कर रहा था. मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़ाई की थी. हिंदी के कुछ मूर्धन्यों से शिक्षा पाई थी लेकिन किसी ने मुझे या किसी को भी भाषा के बारे में कोई ज्ञान नहीं दिया था. हिंदी भाषा के अलग-अलग रूपों के बारे में पहला ज्ञान मुझे हिंदी के एक ऐसे लेखक से मिला जिन्होंने ग्रेजुएशन से आगे पढ़ाई भी नहीं की और ग्रेजुएशन तक उन्होंने जिन विषयों की पढ़ाई की थी उनमें हिंदी नहीं थी.

 उन्होंने बड़ा मौलिक सवाल उस दिन मुझसे किया. तुम हिन्दी पट्टी वाले अपनी अँग्रेजी ठीक करने के लिए तो डिक्शनरी देखते हो लेकिन कभी यह नहीं सोचते कि हिन्दी भाषा को भी ठीक करने के लिए कोश देखना चाहिए। दिलचस्प बात यह है कि जोशी जी ने अपने जीवन काल में एक भी उपन्यास या रचनात्मक साहित्य ऐसा नहीं लिखा जो तथाकथित शुद्ध खड़ी बोली हिन्दी में हो। लेकिन आउटलुक, दैनिक हिंदुस्तान में उनके जो स्तम्भ प्रकाशित होते थे और उनमें अगर एक शब्द भी गलत छप जाता था तो वे संपादक से जरूर लड़ते थे। मुझे याद है कि आउटलुक में उन्होंने एक बार अपने स्तम्भ में वह लिखा जिसे उस पृष्ठ के संपादक ने वो कर दिया. बस इतनी सी बात पर उन्होंने तत्कालीन संपादक आलोक मेहता को इतनी बड़ी शिकायती चिट्ठी लिखी थी कि मैं हैरान रह गया था. भला इतनी छोटी सी बात पर भी कोई इतना नाराज हो सकता है.

भाषा को लेकर उनका मत स्पष्ट था. उनका मानना था कि साहित्यिक कृति तो लोग अपनी रुचि से पढ़ते हैं लेकिन पत्र-पत्रिकाओं को लोग भाषा सीखने के लिए पढ़ते हैं इसलिए उनको भाषा की शुद्धता के ऊपर पूरा ध्यान देना चाहिए। लेकिन जब भी भाषा की शुद्धता को ध्यान में रखकर रचनात्मक साहित्य लिखा जाता है तो वह लदधड़ साहित्य हो जाता है। उस दिन उन्होंने कई उदाहरण दिए लदधड़ साहित्य के लेखक के रूप में। वे कहते थे कि भाषा से ही तो साहित्य जीवंत हो उठता है। उदाहरणस्वरूप वे अपने पहले गुरु अमृतलाल नागर का नाम लिया। उन्होंने कहा  कि भाषा की उनको इतनी जबर्दस्त पकड़ थी कि कानपुर शहर के दो मोहल्लों के बोलचाल के फर्क को भी अपनी भाषा में दिखा देते थे। जो भाषा की भंगिमाओं को नहीं जानते वे साहित्य में भाषा की शुद्धता को लेकर अड़े रहते हैं। जबकि हिन्दी का मूल स्वभाव इसका बाँकपन है। यह कभी भी एलिट समाज की भाषा नहीं बन सकती। यह अभी भी मूल रूप से उन लोगों की भाषा है जो एक भाषा ही जानते हैं अर्थात एकभाषी हैं। मुझे याद है कि अब लखनऊ से अखिलेश के संपादन में ‘तद्भव’ नामक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ हुआ तो उसमें मनोहर श्याम जोशी जी ने धारावाहिक रूप से ‘लखनऊ मेरा लखनऊ’ संस्मरण श्रृंखला लिखना शुरू किया. ‘तद्भव’ के हर अंक में प्रूफ की गलतियाँ बहुत रहती थीं. इसको लेकर उन्होंने एक पत्र ‘तद्भव’ संपादक को लिखा जो पत्रिका में प्रकाशित भी हुआ. उस पत्र में उन्होंने अशुद्धियों को भाषा का ‘डिठौना’ कहा था, जो न हों तो भाषा को नजर लग जा सकती है. उस दिन उन्होंने कहा कि हिंदी जिस दिन पूर्ण रूप से शुद्ध भाषा हो जाएगी, अपने मूल यानी लोक से कट जाएगी और मर जाएगी!

मतलब यह कि उन्होंने मुझे कथ्य, भाषा, शैली हर लिहाज से असफल लेखक साबित किया. मैं बहुत दुखी था और मन ही मन सोच रहा था कि मेरे समकालीनों में इतने लोगों की कहानियां, कविताएँ मार-तमाम छपती रहती हैं. कई पुरस्कृत भी हो चुके थे. उनमें से किसी में उनको किसी तरह की कमी नहीं दिखाई देती थी. बस मेरे लेखन में ही दिखाई दे रही थी. मन में निराशा तो बहुत थी लेकिन यह संकल्प भी मन ही मन लिया कि एक दिन मैं इनसे भी बड़ा लेखक बनकर दिखाऊंगा. लेकिन ऊपर से जी-जी के अलावा कुछ और नहीं कह पाया.

उन्होंने अमेरिकन सेंटर लाइब्रेरी का नाम लिया था. उसी साल से उस लाइब्रेरी में की सशुल्क मेम्बरशिप शुरू हो गई थी. उससे पहले तक अमेरिकन सेंटर लाइब्रेरी की सदस्यता निशुल्क थी. वहां रीडिंग रूप में आकर कोई भी दिन भर पढ़ सकता था. हमारे कॉलेज के कई सीनियर एक जमाने में उसी लाइब्रेरी में बैठकर एसी की सुविधा में यूपीएससी की तैयारी किया करते थे. अचानक सालाना सदस्यता शुल्क 500 कर दिया गया था. जो सदस्य नहीं होते थे उनको हर दिन बैठने का शुल्क देना पड़ता था. उन्हीं दिनों विष्णु खरे ने एक कविता लिखी थी ‘लाइब्रेरी में तब्दीलियाँ’, जो अमेरिकन सेंटर में हुए इन बदलावों को लेकर ही था. बदलाव अमेरिकन सेंटर लाइब्रेरी में हो रहे थे और विरोध एक प्रगतिशील कवि ने किया था.

असल बात जो थी वह यह थी कि जोशी जी ने यह कह तो दिया था कि अमेरिकन सेंटर जाओ और वहां की किताबों से ज्ञान अर्जित करो. लेकिन मेरी मुश्किल यह थी कि सालाना 500 रुपये वाली सदस्यता कैसे हासिल करूं, सदस्य बनते समय तो कुछ राशि कॉशन मानी के रूप में भी देना पड़ता था.

इसका हल खुद उन्होंने ही निकाला. उन्होंने अपना कार्ड देते हुए कहा, ‘यह ले जाओ. खुद भी किताबें पढना और मेरे लिए भी ले आना. उस कार्ड पर एक साथ चार कार्ड इश्यु हो सकते थे. कार्ड पर लिखा हुआ था पैट्रन मेंबर. इसका मतलब यह था कि वे लाइब्रेरी के बहुत पुराने सदस्य थे. इसके एवज में उनको मांगने पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेख भी मुफ्त में डाक से घर भिजवाई जाती थी. खैर, मुझे इससे कई सुविधाएँ मिल गई. एक, मेरे 500 रुपये बच गए. दो, मुझे दिल्ली के एक बड़े पुस्तकालय में आने जाने का कार्ड मिल गया. लेकिन सबसे बड़ी सुविधा यह मिल गई कि मुझे अब जोशी जी के घर में किताब पहुंचाने और ले जाने के बहाने जब चाहूं आने जाने का अवसर हासिल हो गया. अब बार-बार फोन करके मिलने का समय लेने की जरुरत नहीं रह गई, न ही हर बार नए नए बहाने बनाने की.

बाद में जोशी जी ने जब रघुवीर सहाय पर लिखते हुए बहुवचन में यह लिखा कि अज्ञेय से जब वे काम मांगने गए तो कुछ दिनों बाद अज्ञेय जी ने उनको पत्र लिखकर यह सूचित किया कि अनुवाद का काम दिलवाने की पेशकश की तो उन्होंने घोर बेरोजगारी के उन दिनों में जब उनके पास रोज खाने के पैसे भी नहीं होते थे और वे नई दिल्ली स्टेशन के पास बैरन रोड पर बने सरकारी क्वार्टरों के बाहर लकड़ी के पार्टीशन से घेर कर बनाए गए जाफरी में रहते थे. तब उन्होंने यह कहते हुए अनुवाद का कम करने से इनकार कर दिया था क्योंकि वह अमेरिकन सेंटर का काम था और उस समय लेखकों के लिए अमेरिका का काम करना अच्छा नहीं माना जाता था. लेकिन दिलचस्प बात यह थी कि अमेरिकन सेंटर के पैट्रन मेंबर होने का मतलब ही यही था कि वह उन्हीं दिनों अमेरिकन सेंटर पुस्तकालय के सदस्य बने थे.

खैर यह किस्सा बाद में…

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मनमोहन देसाई और उनका सिनेमा

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मार्च महीने की पहली तारीख़ को मनमोहन देसाई का निधन हुआ था. आज महीने की आखिरी तारीख़ पर सैय्यद एस. तौहीद का यह लेख उनकी फिल्मों के कुछ सूत्रों की अच्छी व्याख्या करता है लेकिन सम्पूर्णता में नहीं. एक बार कमलेश्वर ने अपने एक इंटरव्यू में यह कहा था कि मनमोहन देसाई अगर अपनी फिल्मों में यह दिखाते थे कि शिर्डी के साईँ बाबा के दर्शन से आँखों की रौशनी लौट आती है तो वे इस बात में विश्वास करते थे. आम आदमियों तरह विश्वास की यही जमीन उनकी फिल्मों की ताकत थी जो हमें तर्क की जमीन पर उलजुलूल लगती रहीं. खैर, फिलहाल तौहीद का यह लेख- मॉडरेटर

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मार्च में हिंदी सिनेमा के लोकप्रिय हस्ताक्षर मनमोहन देसाई की पुण्यतिथि पड़ती है। एक ऐसा फिल्मकार जो बहुत जल्दी दुनिया छोड़ गया। फिल्मों को उन्हें अभी बहुत कुछ देना था। एक कसक सी बाक़ी रह गई कि काश कुछ बरस और जिंदा रह पाते। मनमोहन देसाई के चाहने वाले उन्हें ख़ास अंदाज़ के लिए याद करते हैं। आपकी फिल्में Signature treatment के बिना मुकम्मल नहीं थी। मनमोहन देसाई ने प्राथमिकताएं काफी पहले ही बना ली थी। जिसके उदाहरण फिल्म दर फिल्म निखर कर आये, किसी में ज्यादा तो किसी में कम। रचनात्मक कार्य को signature work बनाना उनसे सीखना चाहिए।  उनके कहानी बनाने के स्टाईल को समझने के लिए फिल्मों से गुजरना होगा। सरसरी निगाह में मनमोहन की पहली फिल्म ‘छलिया’ व सत्तर से अस्सी दशक में रिलीज हुई उनकी बडी हिट फिल्मों में बडा अंतर नज़र आता है। श्वेत-श्याम समय में बनी छलिया तीन मुख्य व दो सहायक किरदारों वाली एक त्रिकोणीय कहानी थी। फिल्मकार की बडी लोकप्रिय फिल्मों की तुलना में पहली फिल्म सीमित किरदारों की कहानी कही थी। बाद की फिल्मों में मनमोहन ने प्लाट के भीतर सहायक प्लाट फिर सहायक के साथ उसका सहयोगी प्लाट रचने का कमाल कर दिखाया। छलिया में पचास दशक की फिल्मों की आत्मा थी। इसमें कथा व कथन को सर्वाधिक महत्व मिला। फिल्म में अति नाटकीयता को जगह  नहीं मिली व हास्य प्रसंग भी हवा की झोंके की तरह इस्तेमाल हुए। फिर भी कहना होगा कि मनमोहन देसाई की पहली फिल्म में उनका हस्ताक्षर जरूर था। यह बातें उनकी बाद की लोकप्रिय फिल्मों से गुजरते हुए समझ आती है। छलिया के हृदय में विभाजन की त्रासदी व उसके साथ घटित हुए साम्प्रदायिक संघर्ष का हिस्सा है। हिन्दू युवती शांति (नूतन) विभाजन बाद खुद को पाकिस्तान में पाती है। शांति यहां एक बच्चे को जन्म देती है। लडके का नाम अनवर रखा गया व उसकी परवरिश मुसलमानों की तरह हुई। उस बालक में भी ‘अमर अकबर एंथोनी’ के अकबर समान दो धर्मों का एकाकार था। आप उसकी तुलना ‘नसीब’ के जान जानी जनार्दन से भी कर सकते हैं।  पत्नी के चरित्र पर संदेह करते हुए अनवर के पिता (रहमान) उसे अपनी संतान मानने को राजी नहीं। पत्नी पर नाजायज रिश्तों का इल्जाम लगाते हुए उसे कबूल नहीं करता। अपने घर व दुनिया में जगह नहीं देता। शांति की पीडा में हमें मां सीता का किस्सा याद आएगा। फिल्मों की कहानियों में महाग्रंथों का प्रभाव मनमोहन देसाई को हिंदी सिनेमा की परंपरा में स्थान दे गया। बेघर शांति को छलिया (राजकपूर) में दुख बांटने वाला साथी मिल जाता है। राज साहेब का यह किरदार बहुत हद तक श्री 420 के किरदार ‘राजू’ का विस्तार था।

एक दमदार सीन में साम्प्रदायिक कलह के बडे संकट को बडी बहादुरी से निकाल दिखाया था। बालक अनवर हिन्दू मित्रों की भीड का हिस्सा होकर एक गुजरते हुए पठान पर पत्थरबाजी करता है। वह उस कलह का हिस्सा बन कर अनजाने में पठान में परवरिश करने वाले को घायल कर बैठा। पठान का चेहरा देखकर अनवर को अपने कृत्य पर ग्लानि हुई…क्योंकि इसी आदमी ने उसकी परवरिश  पिता तरह की थी। यही वो इंसान था जिसे वो खुदा से बढकर तस्व्वुर करता था। घायल अकबर खान (प्राण) की हालात देखकर अनवर वहीं से साम्रदायिकता को हराम मान लेता है। इसकी गंभीरता उसके दुखमय विलाप में देखी जा सकती है। मनमोहन की फिल्मों में एक दूसरा अत्यंत भावनात्मक उदयीमान किरदार मां थी। इन कहानियों में मां हमेशा बच्चों से बिछड जाती थी। मां-बच्चे को एक दूसरे की कमी काफी टीस दिया करती थी। इस नजरिए से फिल्म कहानी का एक सुखात्मक समापन आवश्यक मालूम देता था। अनवर बचपन में अपनी मां से बिछड गया था। कहानी के बडे हिस्से में उसे अपनी बिछडी मां की कसक रही। जिस स्कूल में अनवर पढ रहा था वहां उसके असल पिता (रहमान) को संयोगवश अध्यापक दिखाया गया।  एक रिडींग क्लास के दरम्यान अध्यापक उसे मां पर आधारित पाठ पढने को बुलाते हैं। पाठ की संवेदना से गुजरते बालक अनवर टूट कर बिलख पडा…ज़ार ज़ार आंसू था। बालक की पीडा देखकर उसके अध्यापक पिता के दिल में संतान को लेकर हृदय परिवर्तन घटित हुआ । संतान के प्रति पुरानी नफरत को भुलाकर पिता उसे सहारा देने को बाध्य था। लेकिन यहां अनवर में ‘आ गले लग जा’ के राहुल का अक्स नजर आया। वो पिता के प्यार को मां को भी प्यार का हक़ देने की मांग पर ठुकरा गया। उसे खुद से ज्यादा मां का सुख प्यारा था।

मनमोहन देसाई के कुछ हीरो ‘इश्क के मारे बेचारे’ की हद तक रूमानी थे। आप ‘आ गले लग जा’ के प्रेम (शशि कपूर) या फिर ‘धर्मवीर’ के धर्म का यहां जिक्र कर सकते हैं। छलिया की रूमानियत भी बेबाक किस्म की रही। उसमें इंसानियत व वफादारी के मूल्यों के प्रति सम्मान यह रहा कि प्रेमिका की जिंदगी से चुपचाप चला जाना मंजूर था। शांति के विवाहित जीवन में वो किसी भी तरह बाधा बनना नहीं चाहता था। एक खराब पति को फिर से अपनाना शांति को मंजूर हुआ। मनमोहन देसाई की दुनिया में धर्म को आवश्यक रूप से किरदार व कहानी के साथ जोडा गया। फिर व्यक्तिवाद से अधिक परिवार को जगह मिली । बिखरे हुए परिवार का एक होना दिखाया गया…अनवर उसके पिता व मां के बिखराव का एक परिवार में एकत्र होना इस संदर्भ में जरूरी था। ऊंच-नीच व अमीर-गरीब की धुरी के बीच एक सामंजस्य का एक उदाहरण छलिया में भी देखने को मिला। पति-पत्नी दोनों सक्षम परिवारों से ताल्लुक रखते थे। शांति का होने वाला पति पहली बार ही एक लक्जरी कार में मिलने आया। बाद में बेघर हो चुकी शांति को छलिया की कुटिया में रहना पडा…वो अब पुरानी शांति नहीं थी। गरीब-बेघर स्त्रियों के बीच रहते हुए इस तरह घुल-मिल गयी कि मानो जन्म से इसी समाज की थी। देसाई की क्षमता उनकी पहली ही फिल्म से स्थापित हो चुकी थी। सुरीले गानों को बहुत दिलकश तरह फिल्माया गया। गानों में गति लाने के लिए पलों को कट कर फिर दूसरे पलों से अंडाकार जोडा गया। यह एक जादुई प्रयोग की तरह उभरकर आया था। यहां ‘ डम डम डिगा डिगा’ गाना काबिले गौर है। जिस एक शॉट में छलिया की सीढी गिर रही थी, अगले शाट मे उसे किसी के कंधों पर आराम से बैठा दिखलाया गया। यह कुछ यूं था मानो किसी चमत्कार या जादू ने उसे वहां बिठा दिया हो। एक दूसरे बिंदु पर शांति छलिया का नाश्ता के साथ इंतजार कर रही। इंतजार में पलकों का झुकना देखा जा सकता है। अगले शाट में वो सिर उठा रही…लेकिन अब इंतजार का समय बदल गया है। घर से बाहर खडी पति की वापसी के लिए प्रार्थना का शॉट काबिले गौर था। लघु रूप में ही लेकिन शांति के मौजुदा हालात व पति के साथ खुशहाल कल की ख्वाहिश के संघर्ष को जरूर दिखाया गया।

यदि  फिल्मकार मनमोहन देसाई की खूबियां पहले ही फिल्म से नजर आने लगी तो दूसरी ओर कमियां भी खेल बिगाड रही थी। हिन्दी सिनेमा की अधिकांश लोकप्रिय फिल्मों की तरह उन्होंने प्लाट से अधिक व्यक्तिगत दृश्यों को महत्त्व दिया। कहानी की प्रबलता को नजर अंदाज करके उन्होंने काफी मेहनत दृश्यों पर लगा दी। नतीजतन बढिया व्यक्तिगत दृश्यों के होते हुए कहानी में उस किस्म का मजा नही बना। इस वजह से देसाई की फिल्मों से ज्यादा उसके सीन यादगार हुए। आपको इसमें क्रम की कमी महसूस होती है। हालांकि यादगार दृश्य दर्शक को बार-बार जरूर सिनेमाघरों तक लाने में सफल थे। लेकिन कहना होगा कि पटकथा में कमियां पूरी झलक गयी। कुछ सवाल अनुत्तरित बचे रहे और फिल्म समाप्त हो चुकी थी। बाक़ी सामान्य समझ की सीमारेखा से परे खडे मिलें। आप शांति का उदाहरण लें जिसे खुद्कुशी के नाम पर पेट में पल रहे शिशु की याद नहीं रही। फिर पठान अकबर खान (प्राण) को शांति व उसके पति का मिलन कराना चाहिए था। पाकिस्तान में शांति के साथ क्या हुआ, अकबर खान ही को पता था। इस सब के बावजूद अंतिम दृश्य में अकबर खान को बैकग्राउंड तक ही सीमित रखा गया…क्योंकि शायद छलिया को यहां होना ज्यादा जरूरी था। जान पर खेलकर वो शांति को आग से बचा लेता है।  आखिर में शांति को पति का साथ मिलना लाजमी था।

मनमोहन की फिल्मों में पशुओं को कहानी का हिस्सा दिखाया जाता था। फिल्म धर्मवीर में प्रयोग हुए दोनों बाज़ एवं ‘कुली’ में पेश आए बाज़ के पास चमत्कारिक क्षमताएं थी। इस क्षमता की वजह से संकट में घिरे मालिक की सहायता में तुरंत उतर आना मुम्किन था। फिल्मकार ने पालतु जानवरों से लेकर बाघों व सांपों का भी इस्तेमाल किया। वस्तु की ध्वनि के साथ हास्य भाव बनाने का अनोखा प्रयोग भी हुआ था। आलोचकों ने उन पर टाईपकास्ट होने की कमी डाल दी। खुद को रिपीट करना अकेले मनमोहन की बात नहीं थी। महान फिल्मकार हिचकाक ने भी खुद को अनेक बार रिपीट किया। स्टीरियोटाईप खुद के साथ बहुत से नफा-नुकसान लेकर आता है। देसाई के परिप्रेक्ष्य में कह सकते हैं कि वो उनकी फनकारी का स्टाईल था। उनके काम में— Kleidoscope की खूबियां नजर आती है। बेशक उसमें सुधार या परिवर्तन की संभावनाएं भी थी। उस यंत्र में रगीन कांच टुकडों से विविध दिलकश आकारों का मायाजाल आसानी से कायम हो जाता है। कपडा बनाने वाले एक ही कपडे पर अलग-अलग डिजाईन से कपडे को आकर्षक कर देते हैं।

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‘बैड बॉय’की ‘गुड’जीवनी

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जब से जाने माने फिल्म पत्रकार-लेखक यासिर उस्मान द्वारा लिखी गई संजय दत्त की जीवनी ‘द क्रेजी अनटोल्ड स्टोरी ऑफ़ बॉलीवुडस बैड बॉय संजय दत्त’ बाजार में आई है तब से यह लगातार चर्चा और विवादों में बनी हुई है. इस किताब के ऊपर मेरी एक छोटी से टिप्पणी- प्रभात रंजन

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आजकल यासिर उस्मान की लिखी किताब की बड़ी चर्चा है. संजय दत्त की यह जीवनी एक साथ चर्चा और विवादों में है. पहले संजय दत्त ने कहा कि उन्होंने ‘द क्रेजी अनटोल्ड स्टोरी ऑफ़ बॉलीवुडस बैड बॉय संजय दत्त’ लिखने के लिए न तो प्रकाशक न ही लेखक यासिर उस्मान को इसके अधिकार दिए थे. उन्होंने एक ट्वीट में यह भी लिखा कि उनकी आधिकारिक जीवनी जल्दी ही आएगी. उन्होंने प्रकाशक जगरनॉट से यह भी कहा कि वे इसके अंशों को प्रकाशित होने से रोकें जिसे प्रकाशक ने मान लिया. उन्होंने किताब रोकने के लिए नहीं कहा. बस इसके अंशों के प्रकाशन को रोकने के लिए कहा. सब जानते हैं कि उनकी बायोपिक भी बन रही है जिसमें रणवीर कपूर ने संजय दत्त की भूमिका निभाई है.

यासिर बहुत संजीदा पत्रकार-लेखक हैं. इससे पहले वे दो जीवनियाँ लिख चुके हैं- राजेश खन्ना और रेखा की. उनकी लिखी रेखा की जीवनी पिछले साल अंग्रेजी में बेस्टसेलर सूचियों में छाई रही और निस्संदेह एक दिलचस्प जीवनी थी. किसी भी जीवनी के आधिकारिक होने का दावा नहीं था लेकिन उनको लेकर किसी तरह का विवाद नहीं हुआ.

यासिर ने हाल में ही खलीज टाइम्स को दिए गए अपने इंटरव्यू में यह कहा है कि अनाधिकारिक जीवनी लिखना अधिक मुश्किल होता है. इसके लिए आपको काफी शोध करना होता है और लिखते हुए कानूनी पहलू का भी पूरी तरह ध्यान रखना होता है. खैर, आधिकारिक अनाधिकारिक की इस बहस के बीच इस जीवनी को पढ़ते हुए संजय दत्त एक ऐसे किरदार के रूप में उभर कर आते हैं जिनको कहा भले ही बैड बॉय गया हो लेकिन वे आपके दिल में बस जाते हैं, अपनी सच्चाई, अपनी भावुकता और जीवन में एक के बाद एक घटित त्रासदियों के कारण. उन त्रासदियों से निकलकर एक सफल स्टार बनने के कारण. संजय दत्त का किरदार परदे पर हो सकता है उतना करिश्माई न लगा हो लेकिन परदे के बाहर वह एक चमत्कारिक व्यक्तित्व की तरह लगते हैं. जीवनी में लेखक केवल तथ्यों का संकलन करके उसे गुडी गुडी नहीं बनाता है बल्कि वह एक किसी व्यक्ति के किरदार को हर कों से दिखाने का काम भी करता है. इस रूप में यासिर उस्मान की लिखी यह जीवनी बहुत सफल है और रोचक भी.

लेकिन मुझे संजय दत्त की जीवनी को पढ़ते हुए सबसे अधिक जिस किरदार ने प्रभावित किया वह सुनील दत्त हैं. एक पति, एक पिता के रूप में सुनील दत्त का व्यक्तित्व बहुत प्रभावित करता है. पहले पत्नी नर्गिस को कैंसर और उसके बाद पुत्र संजय दत्त की नशामुक्ति के लिए अमेरिका में उनके इलाज करवाने के बाद जब सब कुछ पटरी पर आ रहा था कि अचानक संजय दत्त के ऊपर टाडा लगा दिया गया. यासिर ने इस जीवनी में यह बताया है कि जिस समय संजय दत्त टाडा में फंसे उस समय सुनील दत्त की मुम्बई में लोकप्रियता इतनी बढ़ गई थी कि तत्कालीन मुख्यमंत्री शरद पवार को खतरा महसूस होने लगा था. संजय के ऊपर अगर आर्म्स एक्ट लगाया गया होता तो शायद उनको इतना अधिक नहीं भुगतना पड़ा होता. लेकिन महाराष्ट्र सरकार ने उनके ऊपर टाडा लगा दिया और उनके ऊपर आतंकवादी की तरह कार्रवाई हुई, ट्रायल हुआ. यह सब जिस समय शुरू हुआ उस समय संजय अपने कैरियर के शिखर पर थे.

यह जीवनी संजय दत्त के व्यक्तित्व को सहानुभूति से देखती है और हर पढने वाले को उस व्यक्तित्व को लेकर सहानुभूति होने लगती है जो जीवन भर प्यार के लिए तरसता रहा, भागता रहा. जिसके प्रति नफरत भड़काने की जितनी भी कोशिश हुई उसके लिए लोगों में उतना ही प्यार बढ़ा.

निस्संदेह ‘बैड बॉय’ यासिर उस्मान की सबसे सुगठित, सुसंयोजित और अच्छी तरह से शोध करके लिखी गई किताब है. एक ऐसी किताब जिसे पढ़कर आप निराश नहीं होंगे. और हिंदी सिनेमा के सबसे अभिशप्त नायक के जीवन को कुछ और करीब से देख-समझ पायेंगे.

पुस्तक जगरनॉट बुक्स से प्रकाशित है.

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मनोहर श्याम जोशी की कविता ‘निर्मल के नाम’

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निर्मल वर्मा के लिए उनके समकालीन लेखक मनोहर श्याम जोशी ने यह कविता 1950 के दशक के आखिरी वर्षों में लिखी थी जब दोनों लेखक के रूप में पहचान बनाने में लगे थे. मनोहर श्याम जोशी तब ‘कूर्मांचली’ के नाम से कविताएँ लिखते थे. आज निर्मल वर्मा का जन्मदिन है. इस मौके पर विशेष- मॉडरेटर

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निर्मल के नाम
(1)

ओ बंधु मेरे!
क्या तुमने नहीं देखा
राह चलते नागरिकों के नियोन नयनों में
उनके लडखडाते क़दमों का लेखा?
नहीं, ऐसा नहीं हो सकता!
बंधु, मैं तुम्हारे माथे पर देखा है
एक सलीब चमकता.
——
दिन-दिन
क्षुब्ध क्षणों के ताने बाने से
जीवन की कालीन बिन-बिन
मैंने पीड़ा का पैटर्न पूरा किया!
जिसे देख हिया न जाने कैसा हुआ किया!
संग संग रोया किया, हंसा किया!
क्या तुमने नहीं देखा?
नहीं ऐसा हो नहीं सकता.
बंधु, मैंने तुम्हारी तर्जनी पर देखा है
एक गोबर्धन फिसलता.
क्या तुमने नहीं देखा? विद्युत् तारों पर वृद्ध गृद्ध मर जाता है.
बंद कमरे की दीवारों से चमगादड़ टकराता है.
क्या तुमने नहीं देखा?
ट्रक के पहियों के बीच झबरीली गिलहरी पिस जाती है.
काम-दिलाऊ केंद्र में एक शरणार्थी कन्या भूत बन कर आती है.
कामिनी किशोरी वृद्ध का मुखौटा धारण कर स्वयं को डराती है
भोर-वेला रेडियो पर मीरा का गान सुन मुझे न जाने क्यों
रुलाई-सी आ जाती है.

क्या तुमने नहीं देखा?
नहीं, ऐसा नहीं हो सकता.
बंधु, मैंने तन तुम्हारा तीरों की शय्या पर देखा है
जल-बिंदु तरसता
क्या तुमने नहीं देखा?
घड़ियों का धीरज अब टूट गया है!
सागरों-मीना अचानक फूट गया है!
अंजुरी का संकल्प सब सहसा सूख गया है.
दिवस ने रात्रि को हर रोज खूब सूद दिया है.
नहीं, ऐसा नहीं हो सकता.
बंधु, मैंने तुम्हारा ह्रदय काफल से गाढा रस देखा है
हौले लरजते.

(2)
क्यों लगाए तुमने मेरे चारों ओर
ये समानांतर दर्पण जिनका नहीं है छोर
ये असंख्य प्रतिबिम्ब दर्पणों से निकलकर
देंगे मुझे रौंद कुचल-कुचल कर.
ओ बचाओ
… ….

काले प्रश्नचिन्ह से इस पत्रहीन तरु पर
क्यों लटकाया चांदनी के अजगर का झूमर?
मेरी पगली आत्मा कर लेगी आत्महत्या उस पर
झूल झूल कर
ओ बचाओ!
सनसनाती आती है अतर पी हुई हवा…
क्यों दिया इस वेला मुझे नन्हा दीया?
मेरी गदोलियों का घेरा क्योंकर सीया?
लौ के चहुँ ओर क्योंकर सीया?
ओ बचाओ!
………………

मैं था तरु एक चीड़ का
क्यों चुभाया तन पर मेरे कुछ तीर-सा?
लो, ढूरकने लगा लीसा.
ओख लगाओ
या यह घाव सुखा जाओ.
आओ
थामा है हाथ जब
फूटी बोतलों के इस पथ पर
मेरे लिए भी अपनी सी चपली बनाओ.

(3)
न भूत न भविष्य
न परम्परा न अभिलाषा
मात्र एक आस्था:
घड़ी की मुख मुद्रा बदलेगी
ओ संजय तुम चुप क्यों हो गए हो?
……………
न ग्रहण न अर्पण
न प्रीतम न प्रेयसि
मात्र ह्रदय गति
तंग खिड़की तले बिछी छाया की थिरकन
ओ संजय तुम चुप क्यों हो गए?
………………

न तर्क न कल्पना
न विज्ञान न कविता
मात्र हिरोशिमा
दीवार पर कांपती मुट्ठी की अल्पना
ओ संजय तुम चुप क्यों हो गए?
न बाहू न आँख
न पौरुष न प्रीत
मात्र जैज संगीत
कैबरे नर्तकी के स्तन बेपाँख
ओ संजय तुम चुप क्यों हो गए?
………….
हर ह्रदय धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र, रणक्षेत्र
ओ संजय तुम चुप क्यों हो गए?
फिर क्या हुआ?
क्या हुआ?
ओ संजय स्वर तुम्हारे किस करुणा में खो गए?
या कि सिर छिपा बालू में सो गए

(4)
अनुवाद और रचना के बीच
कोई राह नहीं है
मृत्यु और जीवन के बीच
कोई चाह नहीं है
विद्रोह आर भक्ति के बीच
कोई दाह नहीं है
निराशा और आशा के बीच
कोई छांह नहीं है
घृणा और प्रीत के बीच
कोई आँख नहीं है
समर्पण और युद्ध के बीच
कोई बांह नहीं है
दिन-ब-दिन हाय दिन-ब-दिन रात काली पड़ती जाती है.
…………………….

आओ हम जो बीच में हैं
हम जो न फल में हैं न बीज में हैं
आओ हम जो बीच में हैं
हम जो न नाग में हैं न बीन में हैं
आओ हम जो बीच में हैं
शून्य में लटके थिरकते ढोलक से डोलें
अपनी कांपती गदोलियों में पुंसत्वहीनता का गिलगिलापन तोलें
अपनी अकुलाहट के आतुर असीम बाहुओं को खोलें
प्राणायाम की एकाग्रता पीपल-पात पलकों में पाल कर
किसी छोर के
किसी भी छोर के हो तो लें
दिन-ब-दिन हाय दिन-ब-दिन राखदानी भारती जाती है.

(5)
काली काफी की प्याली शीघ्र खाली कर देता हूँ
रेंकते रेडियो के स्वर को ज़रा नीचा कर देता हूँ
सुलगती सिगरेट राखदानी के पानी में डाल देता हूँ
माथे पर बिखरे बालों को कुछ ऊपर उठा देता हूँ
कानस पर हंसती वेश्या को खटिया तले छुपा देता हूँ
दर्शन की पुस्तक अंगड़ाती अंगीठी में जला देता हूँ
अलार्म घड़ी को ह्रदय से चिपका लेता हूँ
चलता हूँ
शायद तुम मुझे पुकार रहे हो!
अधरात गए बाहर मेरे दुआरे शायद तुम ही खड़े हो.
आता हूँ
तुम्हारे संग संग जाता हूँ
वहां जहाँ एक छोटे से तम्बू में
तुम गर्भवती रात्रि का आपरेशन करते रहे हो
क्या शिशु जनम गया?

(6)

अब है मुझे यह विश्वास
जब तक कि मैं हूँ तुम्हारे पास
अब है मुझे यह विश्वास:
भक्ति की अभिव्यक्ति ही प्रभु की उत्पत्ति है
निश्चय ही मंदिर को देवता मिलेगा!

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‘हिचकी’फिल्म पर पूनम अरोड़ा की टिप्पणी

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‘हिचकी’ फिल्म पर यह लेख लेखिका पूनम अरोड़ा(श्री) ने लिखा है.  अच्छा लगा तो साझा कर रहा हूँ- मॉडरेटर

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नैना माथुर को टुरेट सिंड्रोम है जिसे साधारण भाषा में समझा जाए तो ‘बार-बार हिचकी आना, चेहरे के हाव-भाव अलग दिखना, गले से कुछ आवाज़े आना और आँखों का झपकना जैसे लक्षण इस सिंड्रोम से पीड़ित इंसान में दिखाई देते हैं. लेकिन ये हिचकियाँ और आवाज़े नैना के जीवन का हिस्सा हैं जिसे उसने स्वीकार कर लिया है. इन हिचकियों के साथ जीवन में अपने सपने को पूरा करना उसके लिए कोई बहुत आसान नही होता. वह बार-बार अस्वीकृत कर दी जाती है. उसके गले से आनी वाली आवाज़ों के लिए उसे हमेशा और हर जगह पर लोगों के अलग मनोभावों का सामना भी करना पड़ता है.

लेकिन फिल्म केवल नैना की ही बात नहीं करती बल्कि हमारे पूरे एजुकेशन सिस्टम, अध्यापन के तरीकों, निम्न वर्ग की समस्याओं और उन समस्याओं से जूझते हुए भी अपनी संतानों के लिए सुरक्षा और शिक्षा का स्वप्न देखते रहने की और बड़ी शिद्दत से उन सपनों को पूरा होने की कामना करते अभिभावकों की बात भी करती है.

यहाँ इस बात पर प्रश्नचिन्ह है कि प्रतिभाओं को निखारा और तराशा जाता है, कभी सॉफ्ट तो कभी शार्प टूल से. ऐसे में विद्यार्थी चाहे किसी भी वर्ग से संबंध रखता हो, उसकी पारिवारिक और आर्थिक स्थिति कैसी भी हो यह मायने रखने की बात कदापि नही होनी चाहिए. लेकिन हमारे समाज में ऐसी भी मानसिकता है जहाँ निम्न वर्ग और पॉश समाज के मध्य एक दूसरे को समान रूप से अपनाना एक बड़ी समस्या है. फिल्म के कुछ दृश्य हृदय पर चोट करते हैं कि बचपन कितना कुछ सीखता है अपने अनुभव से और उससे भी ज्यादा पीड़ा की बात यह है कि ‘किस तरह से’ सीखता है.

यही एक प्रश्न है जिसके इर्द-गिर्द फिल्म की कहानी घूमती है.

नैना माथुर जो कि एक टीचर बनना चाहती है अपनी हिचकियों की वजह से बहुत से स्कूलों से रिजेक्ट होती हुई आखिरकार एक स्कूल में नौकरी पा लेती है. उसे 9F क्लास को पढ़ाना होता है जो कि स्कूल का आखिरी बैच है जिसमे स्लम एरिया के बच्चे पढ़ते हैं. ये बच्चे स्कूल के दूसरे बच्चों द्वारा कभी नही अपनाए जाते. यहाँ तक कि अध्यापकों द्वारा भी इन्हें हीन दृष्टि से देखा जाता है. ऐसे में नैना इनके लिए उम्मीद की एक लौ बनकर आती है. हालांकि वो बच्चे नैना को स्कूल से निकालने की बहुत कोशिश करते हैं क्योंकि उनके साथ अध्यापकों द्वारा कभी उचित व्यवहार नहीं किया जाता रहा है. लेकिन नैना इसे एक चुनौती की तरह लेती है. यह चुनौती केवल उन बच्चों को पढ़ाना और स्कूल में समान रूप से अपनाए जाने की नही है बल्कि नैना का एक संकल्प है कि उसे भी समाज द्वारा वैसा ही स्वीकार किया जाए जैसी वो अपनी हिचकियों के साथ है. नैना भी नही चाहती कि रेस्टोरेंट में उसके लिए उसके पिता आर्डर किया करें केवल इसलिए क्योंकि उसे आर्डर देने में अपनी हिचकियों के कारण समय लगता है और लोग उसे घूरते हैं. वह भी एक सरल समाज की कल्पना करती है जिसमे वह अपने गले की आवाज़ों को एक मीठी सतर्कता से हँस कर टाल दे. लेकिन यथार्थ कल्पनाओं से ज्यादा मनमानी करता है अपनी मनमानी की दीवारों को बहुत ऊँचा कर यह देखना चाहता है कि कौन आ सकता है इन ज़िद्दी दीवारों के पार.

इस सब के बीच में हमें अपना भी बचपन और स्कूल के दिन कई बार याद आने लगते हैं कि किस तरह जीवन की आपा-धापी में संघर्ष कितनी ही बार और कितने ही रूपों में कुकरमुत्ता की तरह उगता रहा था, तो क्या हमने हार मानी थी? नही न !

बस यही एक रोशनी है जिसे नैना अपना भरोसा खोये विद्यार्थियों को देने की कोशिश करती है.

नैना माथुर के नॉन ग्लैमरस किरदार को रानी मुखर्जी ने जिस तरह से निभाया है उसके लिए वे प्रशंसा की हकदार हैं. फिल्म में अपने इमोशन्स में शुरू से आखिर तक वे बहुत स्ट्रांग दिखी हैं. और सभी बच्चों ने अपने किरदारों के साथ पूरा न्याय किया है. यहाँ मैं मिस्टर वाडिया का भी ज़िक्र करना चाहूंगी. ये एकमात्र ऐसा पात्र है जो निश्चित रूप से अंत में आपको हैरान कर देता है.

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