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मानव कौल की किताब ‘बहुत दूर कितना दूर होता है’ की समीक्षा प्रस्तुत है। हिंद युग्म से प्रकाशित इस पुस्तक की समीक्षा की है अविनाश कुमार चंचल ने- मॉडरेटर
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अभी जब मैं यह लिखने बैठा हूं सुबह के पांच बज रहे हैं। बालकनी से होते हुए कमरे तक सुबह की ठंडी हवा पसर गयी है। नींद अब तक नहीं आयी है। कुछ पानी की मोटर चलने की आवाज है। कुछ घड़ी की टिक-टिक। अभी ‘बहुत दूर कितना दूर होता है’ को खत्म किया है।
मानव कौल की किताब। जब पिछले पचास दिन से घर में बंद रहो। कहीं आना जाना ना हो। तब एक ट्रैवलॉग पढ़ना कैसा होता है जिसमें एक अकेला आदमी बहुत दूर चला गया हो और फिर वहां के किस्से सुना रहा हो। लेकिन इन किस्सों तक वो सीधा-सीधा नहीं पहुंचता। हवाई जहाज से यूरोप उतरने से पहले वो अपने गांव चला जाता है। वहां वो किसी कुएँ की मुंडेर पर बैठा अपने दोस्त सलीम से नदी के पार, हवाई जहाज से तय की गयी दूरियों के बारे में बात कर रहा होता है जहां एक पूछता हैः बहुत दूर कितना दूर होता है?
लेखक लंदन में है। बारिश ने उसे उदास कर दिया है। इस बात से बेखबर कि कल धूप होगी और वो उदासी भी वहीं रहेगी। किताब की यात्रा लंदन से शुरू होकर यूरोप के कई शहर या यूं कहें गांव की तरफ से होते हुए किसी एक शहर स्ट्रासबॉ्रग पर खत्म होती हुई मुंबई पहुंच जाती हैं। शायद फिर से शुरू होने के लिये।
इन दिनों ट्रैवलॉग बहुत सारे लिखे जा रहे हैं। हिन्दी में यात्रा साहित्य की कमी है वाली शिकायत भी काफी पुरानी पड़ गयी। कितनी ही नयी किताबें हैं, यूरोप से लेकर अपने देश के पहाड़ और गंगा तक। हर जगह के बारे में। ऐसा लगता है इन दिनों हर कोई ‘सोलो ट्रैवल’ कर रहा है और दुनिया को अपने सफर के बारे में, जिन शहरों से गुजरे, जिन टूरिस्ट स्पॉट को देखा उसको बताने की हड़बड़ी में है।
लेकिन अपनी पूरी यात्रा में यह किताब कहीं भी शहरों के बारे में नहीं है। यूरोप के बारे में नहीं है। यात्रा के ‘टूरिस्ट डिटेल्स’ के बारे में नहीं है। बल्कि खुद लिखने वाले के बारे में है। उसका मन। इस यात्रा में मिले दोस्त। कुछ पुराने दोस्त। और उनके आसपास नत्थी जिन्दगियों के बारे में जरुर है। इन जिन्दगीयों से गुजरते हुए लेखक का सफर ‘सोलो’ कम और ‘सोलफूल’ ज्यादा लगता है। तभी कई बार वह अविश्विसनीय जान पड़ता है। ऐसा लगता है कि आप नॉन फिक्शन की सड़क पर चल रहे थे और फिर किसी ने फिक्शन की गली की तरफ हाथ खिंच लिया हो।
लेखक ट्रेन से पेरिस पहुंचने को लेकर रोमांच में है। लेकिन वह पेरिस के उस रोमांच को ज्यादा देर तक नहीं बनाये रख पाता। और अपने दोस्त बेनुआ के बारे में बात करने लगता है। ढ़ेर सारी बातें। और खुद उन बातों से निकले अपने अतीत में चला जाता है और पेरिस की बारिश में वह इमली के दो पेड़ों को याद करता है। फिर भागकर फ्रांस के एक गांव chalon-sur-saone पहुंच जाता है। जहां एक अजीब बुढ़ी और अकेली महिला के घर रुकता है, साईकिल से पूरी शहर घूमता है, नदी के किनारे टहलते हुए भोपाल की रात याद करता है। लेखक बहुत जल्दी किसी चीज से ऊबता है, और फिर प्यार में भी पड़ जाता है। मैक़ॉन शहर में घूमते हुए पहला दिन वो उखड़ जाता है लेकिन जब उस शहर से विदा होने की बात आती है तो वो उदास भी हो जाता है।
किताब में ज्यादातर संवाद हैं। कई बार पब और कैफे में या चलते हुए बाहर मिले लोगों से। तो ज्यादातर बार खुद से। कई बार लेखक बुदबुदाने लगता है। जीवन के बारे में, प्रेम, रिश्तों और अकेलेपन की उदासियों के बारे में बड़बड़ाहट जैसा कुछ। शहरों को उसके लोगों से, चायखानों के टेबल पर बैठकर देखने की कोशिश लेखक करता दिखता है।
एक समय के बाद किताब के पन्नों की तरह जगह बदलते रहते हैं, लोग भी और उनसे जुड़े किस्से भी। लेकिन कुछ एक पुल है जो सबको जोड़ कर चलती रहती है पूरी किताब में। Chamonix, Annecy, starsbourg, Geneva बस शहरों के नाम बदलते हैं। कभी इन जगहों पर घूमते हुए लेखक अपने गांव पहुंचता है कभी कश्मीर, जो काफी पहले छूट गया है।
किसी पन्ने पर लेखक खुद लिखता हैः मुझे उन लोगों पर बहुत आश्चर्य होता है जो बस यात्रा करते हैं, बिना किसी आर्टिस्टिक संवाद के।
अब ये पूरी किताब दरअसल एक संवाद ही है। पता नहीं इस किताब को लिखने के लिये यूरोप जाना जरुरी था या फिर वो दुनिया के किसी भी शहर, गांव को घूमते हुए इन सारी जीवन, दुनिया और मन के डिटेल्स को लिखा जा सकता था।
किताब से गुजरते हुए हो सकता है यूरोप का बहुत जानने को, देखने को न मिले लेकिन लेखक की निजी जिन्दगी के बारे मेें थोड़ा और समझने को मिलेगा और वो निजी जिन्दगी क्या सिर्फ किसी एक की निजी जिन्दगी नहीं या हम सबकी?
क्योंकि लेखक आखिरी के पन्नों पर लिखता है, ‘मेरा सारा निजी किस तरह उन सबके निज से मेल खाता है। हम सब कितने एक जैसे हैं। बहुत निजी भी कतई निजी नहीं है।’
सुबह हो गयी है। बॉलकनी में भोर की रौशनी है। जो कमरे तक नहीं पहुंची है। मैं अब लिखना बंद कर रहा हूं। शायद नींद की उम्मीद में। लेकिन इस किताब को बीच बीच में पलटता रहूंगा कहीं दूर पहुंचने के लिये।
वैसे बहुत दूर कितना दूर होता है?
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सुहैब अहमद फ़ारूक़ी ज़िम्मेदार पुलिस अधिकारी हैं और शायर हैं। उनका यह सफ़र 25 साल का हो चुका है। उन्होंने अपने इस सफ़र की दास्तान लिखी है, जो प्रसिद्ध लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक की भूमिका के साथ प्रस्तुत है- मॉडरेटर
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जश्न-ए-तनवीर* भला कैसे मनाऊँ बोलो,
दिल की दहलीज़ प’ बैठी है कोई शाम उदास।
( *प्रकाश का उत्सव )
ये शेर मक़बूलियत और जुदा शिनाख़्त की तरफ़ मुसलसल क़दमदराज़ शायर जनाब सुहैब अहमद फ़ारूक़ी साहब का है। शायर दिल्ली पुलिस में थानेदारी जैसी ख़ुश्क और बेहद मसरूफ मुलाज़मत में हैं, फिर भी शेर कहते हैं और क्या ख़ूब कहते हैं! कितने ही मुशायरों में शिरकत कर चुके हैं और राहत इंदौरी और वसीम बरेलवी जैसे उस्ताद शायरों से भरपूर वाहवाही हासिल कर चुके हैं। नई दिल्ली के साउथ एवेन्यू थाने की अपनी थानेदारी में इतने मसरूफ रहते हैं कि कई बार तो बावर्दी मुशायरा पढ़ते देखे जाते हैं। पेशेख़िदमत है उनकी पुलिस की मुलाजमत की सिल्वर जुबली पर उनका तजकिरा- सुरेन्द्र मोहन पाठक
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दिल्ली-पुलिस:10.05.1995 से सफ़र जारी है।
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चौथाई सदी माने 25 साल, समय-काल का एक साइज़ेबल खण्ड है। मगर अभी कल ही की बात लगती है जब, सन 1995 की मई की 10 तारीख को शिद्दत वाली गर्मी में मैंने पार्लियामेंट स्ट्रीट थाने के गोल लंबे सतूनों के पीछे डिस्ट्रिक्ट लाइन में अन्य बारह-तेरह लड़कों के साथ दिल्ली पुलिस को जॉइन किया था। इससे क़रीब 20-25 दिन पहले दिल्ली पुलिस के तब के मुख्यालय, एमएसओ बिल्डिंग, आईपी एस्टेट जिसको आमतौर पर आईटीओ पुकारा जाता है, की सबसे ऊँची मंज़िल शायद बारहवीं पर सबइंस्पेक्टरी की परीक्षा में सफल हम उम्मीदवारों के काग़ज़ात चैक किए गए थे। इतनी ऊँचाई पर बुलाने का कारण सिर्फ़ यह था कि क़रीब साढ़े तीन सौ कामयाब उम्मीदवारों को वह अपेक्षाकृत ख़ाली फ्लोर ही अकोमोडेट कर सकता था।
दिल्ली में हालांकि, ख़ाकसार 1993 में आ चुका था और नगर निगम प्राथमिक विद्यालय में सेवाएं दे भी रहा था। लेकिन क़स्बाती और ग्रामीण पृष्ठभूमि से (और फिर एनसीसी वाले भी ) आए हुए मेरे जैसे युवक का ड्रीम, यूनिफ़ॉर्म वाली सरकारी नौकरी ही था। तब पहली बार दिल्ली को इतनी ऊंचाई से देखा था। मीडियम लेवल की एक सरकारी नौकरी के पाने की ख़ुशी के एहसास के साथ-साथ महानगर में ज़ाती पहचान खो जाने का भय भी था। मैं जब दिल्ली आया था तो मेरे ज़ाती सामान में पापा का होल्डऑल, अम्मी के जहेज़ का एक आहनी संदूक़ और मीडियम साइज़ का एक सूटकेस था। ये मेरा कुल क़स्बाती असासा था। उस होल्डाल में एक जगह पैबन्द था। संदूक़ का वज़्न, उसमें महफ़ूज़ किए सामान से ज़्यादा था और मोडर्निटी एवं कंटेम्परेनेटी की मिसाल, उस सूटकेस का हाल यह था कि उसकी बाईं चिटख़नी का स्प्रिंग जज़्बए बग़ावत के सबब, बिना चाबी के बन्द नहीं होता था। वह बग़ावत पे आमादा यूँ था कि दिल्ली को आते हुए सफ़र में ट्रेन में सीट न मिलने पर सूटकेस को खड़ा कर उस पर बैठना मजबूरी था। इस निजता का वर्णन यूँ आवश्यक है कि हमें याद रहे कि जब हम इस शहर में और इस नौकरी में आए थे तब क्या थे? और अब क्या हैं? यह इज़्ज़त, यह शुहरत, यह दौलत सब इसी शहर और इस नौकरी की देन है। बस एक ख़लिश है और वह रहनी भी चाहिए। मैं अपने वतन में अपने पुरखों, अपने ख़ानवादे के हवाले से जाना जाता था बल्कि अब भी जाना जाता हूँ। मगर इस शहरे दिल्ली में अपने नाम से पहले लगे ओहदे से जाना जाता हूँ। बात भटक गई।
हज़रात जब बारहवीं मंज़िल से मैं अपने जैसे औसतन साठ किलो वाले उम्मीदवारों के साथ दिल्ली देख रहा था तो उस समय सबके नौजवानी वाले सपने थे। सरकारी नौकरी को पाने की संतुष्टि थी। समाज और देश के लिए कुछ करने का जज़्बा था। तब हमें मौखिक रूप से डिस्ट्रिक्ट और यूनिट अलॉट कर दिए गए। उस वक़्त दिल्ली पुलिस के 9 ज़िले थे। मेरे बाद आठ-नौ उम्मीदवारों को नई दिल्ली ज़िला मिला और उसके बाद एफआरआरओ, सिक्योरिटी व अन्य युनिट्स बँटी । युनिट्स वाले कुछ लड़के मायूस थे कि उनको थाने या जिलों में काम करने को नहीं मिलेगा। तभी किसी डिपार्टमेंल केंडिडेट ने शंका निवारण कर दिया और ख़ुलासा किया कि यह अलॉटमेंट सिर्फ़ तनख्वाह परपज़ के लिए है। तब जाकर आज के कई सफल एसएचओज़ के मुखारविंद पर मुस्कान आई थी। पांच दिन बाद हम सबको ट्रेनिंग की किट के संग नई दिल्ली डिस्ट्रिक्ट के महकमे के ओपन ट्रक में लादकर पीटीएस,झडौदा-कलाँ, दिल्ली-72 में आमद करा दी गयी थी।
क़रीब साढ़े तीन सौ दिल्ली पुलिस के भावी सब इंस्पेक्टरों का विराट बैच था हमारा। रात को रंगबिरंगी पोशाक पहने हमारी पहली और आख़री रोलकॉल हुई थी। अगले दिन सुबह सबको पीटी ड्रेस में बड़े ग्राउंड में डिस्ट्रिक्ट/यूनिट वाइज़ फ़ॉलइन करा दिया गया। इसके बाद हम सबको हाईट वाइज़ लाइन में लगा कर 25-25 लड़कों की प्लाटून बना दी। एक उस्ताद के पूछने पर कि पैन किसके पास है। मेरे सिर्फ़ हाथ उठाने की एलिजिबिलिटी पर तीन नम्बर प्लाटून का मुझे मुंशी बना दिया गया। बाद में भाषाई आधार पर बंटवारा होने पर प्लाटून नम्बर 7 में भी मैं ही मुंशी बरक़रार रहा।
रात की रोल कॉल के बाद ड्यूटी अफसर रूम के बाहर घर पर फ़ोन करने की लाइन लगा करती थी। एक बार एक साथी ट्रेनिंग की सख्ती से परेशान होकर घरवालों को फोन करते समय फूटफूट कर रो पड़ा था। हम सब ने उसकी कायरता पर हंसी उड़ाई थी। मगर वो कायरता नहीं सच्चाई थी। ट्रेनिंग से तो हम सब भागना चाहते थे। कुछ भाग कर चले गए थे, कुछ को घर वालों ने वापस भेज दिया था। कुछ को मुझ जैसे साथियों ने उसका बंधा होल्डाल खोलकर रुकवा लिया था।
ट्रेनिंग किसी भी यूनिफ़ॉर्म सर्विस का सबसे हसीन पीरियड होता है। होस्टल लाइफ़ से भी ज़बरदस्त। क्योंकि होस्टल लाइफ़ में घर वालों पर आर्थिक निर्भरता यहां नहीं थी। लॉ की क्लास में हम सात और आठ नम्बर प्लाटून वालों का एक सेक्शन था। इस सेक्शन में सभी को उनकी फिज़िकल अपीयरेंस और बोलचाल के आधार पर रामायण-महाभारत के किरदारों और पशु-पक्षियों के आधार पर रीक्रिसेंड किया गया था। अब सब मेच्योर हैं । न पूछिये कि किसका का क्या नाम धरा गया था?
पास आउट होकर हम सब फ़ील्ड में आए। सब ने अपने कौशल, पराक्रम और भाग्य से महकमे और दिल्ली में अपनी अपनी जगह बनाई। सन 2010 से हमारा बैच प्रोमोट होना आरम्भ हुआ जो 2014 तक जाकर पूरा हुआ। अफ़सोस है कुछ साथी हमसे जल्दी जुदा भी हो गए।
पासआउट होने के कुछ वर्षों तक गेट-टुगेदर रेगुलर तौर पर हुए। धीरे धीरे सब बिज़ी हो गए। यहाँ तक कि कुछ बैचमेटस से अब तक मुलाक़ात भी नही हो सकी। वह तो भला हो सोशल साइट्स का जिन्होंने रिश्तों को जीवित रखा हुआ है। मैंने अपनी तरफ़ #95ian #95ians के स्टाइल से हैशटैग चला रखा है। अपने सब बैचमेट्स से गुज़ारिश है कि बैच से सम्बंधित सूचना में इस हैशटैग का प्रयोग किया करें।
अंत में अपने सीनियर अधिकारियों एवं मेंटर्स का शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ। ख़ास तौर से डी कोर्स वाले थाना मंगोलपुरी के एसएचओ श्री राजेश्वर प्रसाद गौतम साहब का, जिन्होंने हमें दबाव और ज़लालत में काम कैसे करें? सिखाया। जनाब सुभाष टण्डन साहब का, जिन्होंने हमें जूनियर कलीग्स से सम्मान दिलवाया। श्री वेदप्रकाश साहब का, जिन्होंने इंडिपेंडेंट थानेदार बनाया। श्री बलबीर सिंह कुंडू साहब तो मेरे पिता तुल्य ही हैं। अंतरराष्ट्रीय पहलवान श्री कृष्ण कुमार शर्मा साहब जिन्होंने कभी मातहत होने का एहसास ही होने न दिया। एसएचओ तो नहीं रहे मगर जनाब शिवदयाल साहब मेरे हर तरह से मेंटर रहे। अभी तक हर प्रकार की समस्या में, मैं उन्हीं से सलाह लेता हूँ।
मेरी पहचान अब एक शायर और अदीब के रूप में भी स्थापित हो गई है। यह तथ्य स्वीकार करने में कि ‘इसमें भी मेरे महकमे का ही योगदान है’, मुझे कोई हिचक नहीं है। मुझ जैसे अदीब और कवि बहुत घूमते हैं हर तरफ़। यह प्रसिद्धि मुझे दिल्ली पुलिस ने ही दिलवाई है। मैं सभी साथियों का दिल्ली पुलिस में 25 वर्ष पूरा होने पर अभिनंदन करता हूँ। साथ ही यह कामना भी करता हूँ कि आप लोग स्वस्थ रहें और समाज व देश की सेवा करते रहें।
दुआओं में याद रखिएगा।
अंत में यह सूफ़ी कलाम जिसको अताउल्लाह सत्तारी और ज़िया उल हसन शाह साहबान ने लिखा है, सुनियेगा और अमल में लाइएगा।
किसी दर्दमंद के काम आ
किसी डूबते को उछाल दे
ये निगाहें मस्त की मस्तियाँ
किसी बदनसीब पे डाल दे
मुझे मस्जिदों की ख़बर नहीं
मुझे मंदिरों का पता नहीं
मेरी आजज़ी को क़ुबूल कर
मुझे और दर्दो मलाल दे
[]
सुहैब अहमद फ़ारूक़ी
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सुरेश कुमार युवा हैं, शोध छात्र हैं। इनको पढ़ते हुए, इनसे बातें करते हुए रोज़ कुछ नया सीखता हूँ। 19 वीं-20 वीं शताब्दी के साहित्य पर इनकी पकड़ से दंग रह जाता हूँ। फ़िलहाल यह लेख पढ़िए। स्त्री विमर्श पर एक नए नज़रिए के लिए लिखा गया है- मॉडरेटर
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हिन्दी साहित्य के इतिहास में सन् 1920 से लेकर 1930 तक स्त्री समस्या पर बड़ी गंभीरता से विचार किया गया था। लेखक और संपादक पत्रिकाओं में स्त्री समस्या को उठाने लगे थे। ‘माधुरी’,‘सुधा’,‘मनोरमा’ और ‘चांद’ आदि पत्रिकाओं में ‘महिला मनोरंजन, ‘वनिता विनोद’ आदि नाम से कालम लिखे जाने लगे थे। इस कालम के अंतर्गत खासकर महिलाएं लेख लिखती थी। इन कालमों के लेख देखने से पता चलता है कि अधिकतर लेख परम्परावादी ढर्रे पर लिखे जाते थे। स्त्री शिक्षा के नाम पर गृहणी और आदर्शवादी शिक्षा की पुरजोर वकालत की जाती थी। एक तरफ ऐसे लेखक थे जो स्त्रियों को धर्म और परम्परा के पल्ले से बांध कर रखना चाहते थे। वहीं दूसरी ओर ऐसे लेखक भी थे जिन्होंने अपने लेखन में स्त्रियों पर हो रहे जुल्म और अत्याचार का प्रबल विरोध किया था। एक बड़ी दिलचस्प बात यह है कि 1920 से 1930 तक हिन्दी के साहित्य के जो स्टार लेखक माने जाते हैं, उन्होंने स्त्री समस्या पर उतना ध्यान नहीं दिया जितना अपरिचित लेखकों न दिया था। इस लेख में नवजागरण काल के एक ऐसे लेखक के स्त्री चिंतन पर विचार किया जायगा, जिसने अपने लेखन स्त्री का मुद्दा बड़ी गम्भीरता और शिद्दत के साथ उठाया था।
सन् 1927 में जी. एस. पथिक की किताब ‘अबलाओं पर अत्याचार’ चांद कार्यालय, प्रयाग से प्रकाशित हुई। देखा जाए तो यह किताब स्त्री दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण है। जी.एस. पथिक की यह किताब स्त्री का प्रश्न को बड़ी बेबाकी से उठाती है। जी. एस. पथिक ने पितृसत्ता सत्ता के कोल्हू में पीसती हुई स्त्रियों की व्यथा और दुर्दशा को बड़ी मार्मिकता के साथ प्रस्तुत किया था। जी. एस. पथिक ने अपनी किताब में स्त्री स्वतत्रंता, स्त्री शिक्षा, स्त्रियों की अधोगति, स्त्रियों पर अत्याचार, बाल विवाह, विधवा विवाह आदि मुद्दों की शिनाख्त पूरी शिद्दत के साथ की थी। जी.एस पथिक का कहना था कि हमारा पुरुष समाज स्त्रियों पर शैतानों की तरह से जुल्म और अन्नाय करता है। यहां के पुरुष स्त्री को ‘लठ सिद्धान्त’ के बल पर पशुओं की तरह हांक रहे हैं। जी.एस. पथिक का सामाजिक नियंताओं से सवाल था कि आधी आबादी को तोता-मैना की तरह पिजड़े में कैद कर के क्यों रखा जा रहा है? इन्होंने स्त्रियों की समाजिक दुर्दशा की बात करते हुए यह भी पूछा था कि क्या स्त्रियां मनुष्य नहीं है जो उनके साथ पशुओं की तरह व्यहार किया जा रहा है। जी.एस. पथिक ने स्त्री स्वतंत्रा का सवाल उठाते हुए लिखा था:
‘‘हम तो यही पूछते है कि वे इस प्रकार पशुओं की तरह क्यों रखी जाती हैं। उनके जीवन के सुखोपभोग के लिए उन्हें कितनी स्वच्छंदता दी जाती है। आप कहेंगे कि उन्हें कष्ट किस बात का है? उनके खाने और पहिरने का पूरा प्रबन्ध है, उनके शयन और निवास का काफी इन्तजाम है। उन्हें किस बात की कमी है। वे इच्छा अनुसार पदार्थ पा सकती हैं और इच्छानुकूल धन और वैभव का उपयोग कर सकती हैं। ठीक है; हम मानते है कि ऐसा होता है। यद्यपि सभी कुटुम्बों में यह बाते नहीं पाई जाती है, पर हम पूछते है कि इच्छानुसार पदार्थ पाने पर भी क्या वे इच्छानुकूल जीवन व्यतीत कर सकती हैं। हम सामाजिक मर्यादा अथवा उचित रुढ़ियों की सीमा भी भंग नहीं करना चाहते। हम इन्हीं के अन्तर्गत जीवन की बाते करते हैं। क्या स्त्री जाति इस पद-मर्यादा के अन्तर्गत भी स्वतंत्र है।’’
दरअसल, सारी सुविधा होने के बावजूद, यदि स्त्री की इच्छाओं का निर्धारण पुरुष करें, तो स्त्री के लिए सुख की सामग्री का मतलब क्या रह जाता है? स्त्री के लिए इससे बड़ी दुख वाली बात क्या हो सकती है कि पुरोहितों ने उससे मनुष्य होने की गरिमा ही छीन ली है। जी.एस पथिक ने लिखा हैं: ‘‘हम स्त्रियों को मनुष्य की कोटि में कैसे गिनें? ‘‘साहित्य संगीत कलाविहीनः साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीनः’’ बस ठीक यही दशा स्त्रियों की है। पशु भी एक बार स्वाधीनता का उपभोग कर सकता है, किन्तु स्त्रियां तो जन्म से ही पराधीन मानी जाती है।” पितृसत्ता की व्यवस्था में स्त्री जीवन महज दो-तीन कदमों के भीतर सीमित होकर रह गया था। यह तथ्य परक बात हैं कि घरों में कैद स्त्रियां तमाम तरह के बंधन मेँ जीवन व्यतीत करती हैं। घरों के भीतर स्त्री पर जो अन्याय हो रहा था, उसको जी.एस. पथिक ने बड़ी शिद्दत से रेखांकित किया था:
‘‘न जाने कितने अबलाएँ पुरुषों के अत्याचारों को चुपचाप सहन करती जाती हैं। वे रात दिन चुपके-चुपके आँसू बहाया करती हैं, किन्तु उनके प्रतिकार के लिए कुछ भी नहीं करतीं। न तो घर में और न बाहर ही उन्हें अपने दुखों को खुलकर प्रकट करने की स्वाधीनता प्राप्त है। पुरुष तो भोजन के समय और शयन के समय स्त्रियों की आवश्यकता का अनुभव करता है। इसके अतिरिक्त तो स्त्री उसे भार स्वरुप जान पड़ती है। उसका निर्वाह उसके लिए महान कष्टकर हो जाता है। अवसर पड़ने पर तभी तो वे स्त्रियों को ऐसी झिड़कियाँ देते हैं कि बाई जी का दिमाग ठीक हो जाता है-उन्हें ज्ञात हो जाता है कि वे क्या चीज हैं, मनुष्य होकर भी वे किस मूक भाव से पशुओं का अनुकरण करती हैं। हाय री दुर्बलता!’’
पुरुषवादी नजरिया स्त्रियों को बच्चा पैदा करने वाली मशीन के रुप में देखता आया है। इस लेखक का स्पष्ट मत था कि स्त्री को बच्चा पैदा करने वाला यंत्र समझना पशु प्रवृति से भी घातक दृष्टि है। इनका सवाल था कि यहां स्त्रियों को पशु से भी निम्न कोटि का क्यों समझा जाता है? स्त्रियों को लेकर जो पुरुष मनोवृति की गिरावट थी उसको बड़ी शिद्दत से यह लेखक सामने लाने का काम करता है। इस महान लेखक ने लिखा था:
‘‘पुरुषों ने तो स्त्रियों को वासनापूर्ति तथा सन्तानोत्पादन की मशीन बना रखा है। वे समय देखते हैं न असमय, न शरीर देखते है न स्वास्थ्य, पशुओं की तरह-नही नहीं, पशु तो इन बातों में एक बार बड़े नियमित होते हैं; अतः पशुओं से भी हीन जीवों की तरह-वे सदा स्त्री-प्रसंग ही श्रेय समझते हैं। उनकी इस अदम्य लालसा-प्रवृति ने उनकी तो शक्ति नष्ट कर ही दी है साथ ही स्त्रियों की अपति और बढ़ा दी है। पुरुषों को न तो देश की दरिद्र अवस्था का कुछ ख्याल रहता है और न उन्हें अपनी गृह-स्थिति और शारीरिक परिस्थिति का कुछ ध्यान रहता है। वे अपने रंग में डूबे रहते हैं और उसके लिए स्त्रियों को भी घसीट कर उन्हें बरबाद कर देते हैं। यह दुर्वासना यहाँ तक बढ़ चली है किपुरुष एक स्त्री से सन्तुष्ट न होकर या तो वेश्या गमन करते हैं यह समाज में व्यभिचार का प्रचार करते हैं; और इस तरह भी स्त्रियों की घोर दुर्दशा कर देते हैं ।’’
इस लेखक ने उन शास्त्रों, स्मृतियों और वेदों की कड़ी आलोचना प्रस्तुत की जिनमें स्त्री के अधिकारों संकुचित कर दिया गया था। लेखक ने पुराण, और मनुस्मृति को स्त्रियों का कारागार बताया था। और, उन नियंताओं की बड़ी तीखी आलोचना प्रस्तुत की जिन्होंने स्त्री अधिकारों पर तलवार चलने का प्रयास किया था:
‘‘इसी से प्राचीन शास्त्रकारों ने जहां स्त्री के गुणों का गान किया है, वही उसके कार्य-क्षेत्र में सैकड़ों काँटे बो दिए हैं। हम शास्त्रों के उस अनुकूलभाव को भूलकर कृतघ्न नहीं बनना चाहते जो उन्होंने स्त्रियों के सम्मानार्थ प्रकट किया है। फिर भी हम उनकी उस कुप्रवृत्ति की निंदा किए बिना भी नहीं रहते, जो उस समय के लिए भले ही अनुकूल हो, किन्तु आज हमारी उन्नति के मार्ग में अत्यन्त बाधक है। यह तो ठीक मोण्टफोर्ड शासन-सुधारों की तरह हो गया कि एक अधिकार दिया और उसकी रोक के लिए पांच बन्धन डाल दिए। स्त्रियों को देवियाँ, पूजनीया इत्यादि समस्त विशेषणों से अलंकृत तो कर दिया, किन्तु उनके अधिकारों का भी ध्यान रखा?’’
जी.एस. पथिक ने पुरोहितों और पोथाधारियों को स्त्री दुर्दशा का जिम्मेदार माना था। लेखक का आंकलल था कि स्त्री अधिकारों पर सबसे ज्यादा आघात मनु ने किया था। जी.एस. लिखते हैं:
‘‘स्मृतियों में सर्व प्रचलित, मान्य एवं श्रेष्ठ मनुस्मृति में भी नारी-धर्म का जहाँ वर्णन किया गया है, वहां अधिकारों की छीना-झपटी की अच्छी बहार दीख पड़ती है। एक स्थान पर तो मनु महराज लिखते हैं कि स्त्रियों का सम्मान करो, उनकी पूजा करो और उन्हें प्रसन्न रखो; परन्तु दूसरे ही स्थान पर वे कुछ ऐसी बाते लिख देते हैं, पुरूषों को कुछ ऐसे अधिकार दे देते हैं जिसके कारण स्त्रियों का सम्मन शेष नहीं रह जाता, उनके प्रति वह पूज्यबुद्धि स्थिर ही नहीं रह सकती। कह नहीं सकते कि हिन्दू-लॉ का कभी यथार्थ में पालन भी किया गया है या नहीं; अन्यथा नियमों के निर्णय में ऐसी विषमता और भौंठापन तो देखने में नहीं आया।’’
यह तथ्यपरक बात है कि पतिव्रता धर्म के नाम पर स्त्रियों के साथ घोर सामाजिक अन्याय किया गया है। पितृसत्ता समाज की क्रूरता देखिये कि वह पतिव्रता धर्म के पालन के लिए स्त्रियों को जलती आग में झोंक दिया करता था। कल्पना करके देखिए कि इस कुप्रथा ने स्त्रियों को कितनी पीड़ा और यातना दी होगी। स्त्री की इस पीड़ा के सम्बन्ध में जी.एस. पथिक के यह विचार देखिए:
‘‘पुरुष-समाज जैसे-जैसे स्त्रियों को अपने हाथ में लाता गया, वैसे-वैसे उसका विश्वास भी उनमें कम होता गया। यह बिल्कुल कायदे की बात है कि जिसको हम जितना अधिक कानूनों से बांध कर रखेंगे, उतना ही उसमें अधिक विश्वास का अभाव होता जाएगा। पतिव्रत की लगाम कड़ी रखी गई। यहां तक कि पुरुष के मर जाने के बाद स्त्री को अग्नि मेँ भस्म तक कर डालने का ‘भंयकर’ विधान हुआ। क्योंकि सम्भव है, पति की मृत्यु के बाद स्त्री कदाचित् अपने पतिव्रत को न निभावे। इसी से उन्होंने निभाने न निभाने का झगड़ा ही उड़ा दिया और धर्म की रक्षा के निमित्त वे आग में जिन्दा जला दी गईं। कहिए, इससे अधिक धार्मिक अत्याचार और क्या हो सकता है ?’’
इस दौर मेँ वृद्ध-विवाह की प्रथा का विस्तार अपने चरम था। समाज में वृद्ध-विवाह के प्रचलन से बाल विधवाओं की संख्या प्रतिदिन बढ़ रही थी। वृद्ध-विवाह स्त्रियों के लिए कितना अमानवीय था। इस का खुलासा करते हुए जी.एस. पथिक ने लिखा है :
भारतीय स्त्रियों की जेल
स्रोत- चाँद, नवबंर 1930, वर्ष 9, खण्ड 1, संख्या 1
‘‘वृद्ध-विवाह के कारण स्त्रियों की जो दुर्गति हुई है वह हमारे समाज के लिए बड़ी लज्जा का विषय है। बेचारी सुकुमार कोमलांगी बालिकाओं का जीवन नष्ट कर दिया है। विधवाओं की जितनी अभिवृद्धि वृद्ध-विवाह के कारण हुई है, उतनी किसी से नहीं हुई। व्यभिचार का बाजार भी इसी से गर्म हुआ है। जहाँ पुरुषों ने स्त्रियों के प्रति पतिव्रता धर्म का कठोर बन्धन रच रखा है, वहीं उन्होंने ने अपने लिए इस बात का ध्यान नही रखा कि इस बुढापे में अब विवाह करने की आवश्यकता नहीं है। उस समय तो वे एक दो क्या, चार चार, छः छः विवाह कर डालते है और अंत में किसी दिन मुंह बाए इस संसार से चल बसते हैं। तब विचारी अबला की जो अवस्था होती है वह बड़ी ही करुणाजनक है। यदि पास में धन हुआ; सुख, चैन आराम का आयोजन हुआ तो काम-वासना जाग्रत होने में देर नहीं लगती; यदि घर दरिद्र हुआ तो रोटी के टुकड़े के लिए तरसना पड़ता है, पापी जीवन के निर्वाह के लिए न जाने क्या-क्या कुकर्म करने पड़ते है। यह सब अपराध किसका है? स्त्रियों? हरगिज नहीं। दोष सरासर पुरुषों का है। यह बेमेल विवाह का अत्याचार है? स्त्री समाज की अद्योगति विशेषतः वैवाहिक कारणों से ही हुई है। पुरुष यह नहीं सोचते कि पचास-साठ और कभी-कभी सत्तर- अस्सी वर्ष की उम्र में विवाह कर वे कोमलांगी या तरुणी बाला का जीवन नष्ट कर रहे हैं और समाज के नाम पर कलंक का टीका लगा रहे है। यह तो विवाह की ओट मेँ घोर अत्याचार है। सामाजिक पाप का यह अत्यंत भयंकर दृश्य है।’’
पुरोहित और पोथाधारी विधवा पुनर्विवाह के खिलाफ थे। इनके अनुसार विधवाओं को ब्रह्मचर्य का जीवन बीतना चाहिए। दरअसल, पुरोहित, पुजारी और कामाचारी पुरुष कभी नहीं चाहते थे कि विधवाओं का पुनर्विवाह किया जाय। इन लोगों ने विधवाओं का नरम चारा समझ लिया था। विधवाओं का यौन शोषण घर से लेकर बाहर तक हो रहा था। विधवाओं का यौन शोषण एक बड़ी समस्या के रुप में उभर चुक थी। विधवा स्त्रियों का पुनर्विवाह न होने उनको अनेकों कष्टों का सामना करना पड़ता था। इन विधवाओं का पर तरह-तरह के लांछन लगाकर उनके चरित्र पर शक किया जाता था। लेखक बाल्य विवाह जैसी स्त्री विरोधी प्रथा की तीखी आलोचना करता है। इस लेखक का कहना था कि विधवाओं की मुक्ति का उपाय केवल पुनर्विवाह है। जी.एस. पथिक ने पुरोहितों और पोथाधारियों का राक्षस संज्ञा दी थी। जी.एस. पथिक ने लिखा था: ‘‘आप ही कहें, स्त्रियों साथ पुरुषों का यह पाशविक अत्याचार नहीं है कि एक-एक और दो-दो वर्ष की बालिकाओं के विवाह कर दिए जाते हैं। और उनके विधवा होने पर सारा जीवन उन्हें क्लेश, चिन्ता और परिताप में बिताने का आदेश करते हैं। साथ ही जब ये बालिकाएं अपनी पूर्ण अवस्था को प्राप्त होती हैं उन्हें पतित करने के लिए सैकड़ों प्रलोभन दिखाए जाते हैं। फिर उनके जरा इधर-उधर होते ही कलंक और लांछन का टीका लगाकर उन्हें जाति-च्युत और समाज से बहिष्कृत कर देते हैं। हा हन्त! स्त्रियों को स्वयं ही जाल में फँसाएँ और स्वयं ही उन्हें फँस जाने का अपराधी बनाएं। यह पशु-लीला, यह राक्षसी अत्याचार भारतीय स्त्रियाँ कहां तक सहती रहेंगी।’’
नवजागरण कालीन यह लेखक स्त्री स्वतंत्रता का प्रबल पैरोकार और पक्षपाती था। यह लेखक स्त्रियों की स्वाधीनता के लिए पुरोहित, पुजारियों और चौधरियों से टकरा रहा था। इनके तंत्र और पाखंड की कठोर आलोचना करता है। विधवा विवाह का पक्षपाती यह लेखक खुलकर बाल्य विवाह की मुखा़लफत करता है। स्त्री शिक्षा की प्रबल पैरोकारी की और पितृसत्ता के मुखौटों को बेनकाब किया। नवजागरण काल का यही वही दौर था जब पुरोहितों के वचन को ईश्वर से भी अधिक माननीय समझा जाता था। ऐसे माहौल में जी.एस. पथिक ने पुरोहितों की विद्या पर सवाल ही नहीं उठाया बल्कि उन्हें स्त्रियों दुर्दशा का जिम्मेदार भी ठहराया है। विडम्बना देखिए, स्त्री मुक्ति और स्वतंत्रता की बात करने वाले इस लेखक पर हिन्दी साहित्य के विद्वानों ने नोटिस लेना तक उचित नहीं समझा।
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उर्मिला शिरीष 1980-90 के दशक की पढ़ी जाने वाली लेखिका रही हैं। मेरे मेल पर उनकी यह कहानी आई है। आप भी पढ़िए- मॉडरेटर
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दुकान पर पाँव रखने की जगह नहीं थी। शहर का पुराना बाज़ार। छोटी सँकरी सड़कें। सड़कें क्या गलियाँ कह सकते हैं। दस कदम आगे बढ़े कि एक नयी सँकरी सड़क शुरू हो जाती। पुरानी ऊँची कई मंजिला इमारतें। पुराने ज़माने की छोटी-बड़ी दुकानें इन्हीं इमारतों के नीचे जमी हैं। इनकी दरो-दीवारें बताती हैं कि पीढिय़ों से यहाँ के लोग पुश्तैनी धंधा कर रहे हैं। स्कूटर, मोटर साइकिल, ऑटो और कारों का बेरोक-टोक आना-जाना। मस्ती और बेपरवाही का आलम यह कि लोग सड़क के बीचोबीच खड़े जूस पी रहे हैं या गरमागरम कचौडिय़ाँ खा रहे हैं या ठेेले से फल सब्जी खरीद रहे हैं। ऐसी ही बेपरवाह भीड़ को चीरते हुए वह सर्राफे की उसी दुकान पर जा पहुँची, लेकिन दुकान के भीतर-बाहर का दृश्य चौंककर पड़ी… कहीं दूसरी दुकान में तो नहीं आ गयी। उसने निगाहें उठाकर बोर्ड पर लिखी इबारत पढ़ी, वही दुकान थी। बाहर जूतों और चप्पलों का ढेर लगा था। इस दुकान में जूते उतारकर ज़मीन पर बैठना पड़ता है। जाजम पर धूल-मिट्टी, पाँवों के निशान लग जाते फिर भी यह जाजम दूसरे दिन ही बदल जाती। यह दूसरा मौका था जब वह अपने जेवरात गिरवी रखने आई थी। यद्यपि सर्राफा बाज़ार में दूसरी दुकानें भी थी; पर यह उसे एक विश्वसनीय परिचित के माध्यम से मिली थी। दूसरा यहाँ बैठने वाला सेठ तथा उसके दोनों बेटे सज्जनता से बात करते थे। सेठ जो दुबला-पतला होकर भी एकदम स्वस्थ और सचेत दिखता था। उसके चेहरे पर झुँझलाहट… हँसी… आत्मीयता या विनम्रता जैसे भाव दिखाई नहीं देते थे। हाँ, उसके बेटे अलबत्ता हल्की-सी मुस्कुराहट के सार सिर हिलाकर नमस्ते कर लिया करते थे। देने वाला देने के भाव से ही अपना अव्यक्त प्रभाव सामने वाले पर डाल देता है, भले ही बदले में वह कोई वस्तु क्यों ना ले रहा हो…। यहाँ आते वक्त उसको अव्यक्त तनाव जकड़ लेता था। उसके भीतर पहचाने जाने की शर्म थी।
दुकान के करीब पहुँचते ही वह चारों तरफ देख लिया करती थी कि कहीं कोई परिचित तो नहीं देख रहा है। क्योंकि… बाहर बोर्ड पर लिखा था, ‘यहाँ जेबर गिरवी रखे जाते हैं।Ó वह जानती है कि इस दुकान पर आदमी तभी आता है जब उसके सामने कोई दूसरा विकल्प न रह जाता हो। परिचितों को बीच ‘बड़े आदमीÓ की बनी-बनाई साख को वह ध्वस्त नहीं करना चाहती थी। न जाने कितने तूफान गुज़र गए पर… कभी उसने अपनी आप बीती जगत के सामने नहीं सुनाई। इस वक्त यही अन्तिम रास्ता बचा था। इसी अन्तिम विकल्प पर चलते हुए वह यहाँ खड़ी थी। उसने साड़ी का पल्लू ढीला किया। पसीना पोंछा। तेज धूप, उमस और गर्मी के कारण उसका जी मिचला उठा था। दुकान के भीतर अपने लिए जगह तलाशती वह एक कोने में खड़ी हो गई। सामने जो लोग थे वे किसी दूसरे देश के लग रहे थे। दुबले-पतले। हड्डियों का ढाँचा मात्र। सभी के गाल पिचके हुए थे। आँखें अन्दर धँसी हुई थीं। दाँत पीले बदबूदार और टेढ़े-मेढ़े। मैली धोती। झूलता हुआ कुर्ता। किसी ने गमछा सिर पर बाँधा हुआ था तो किसी ने कंधे पर डाला हुआ था। उन सबके बाल रूखे खड़े थे जैसे सूखी घास हो। आसमान की सारी तपिश उनके चेहरों पर उतर आई थी। आँखों में ठहरा गहरा अवसाद… चिन्ता और असमर्थता उन्हें जड़वत बनाए हुए थी। वे सब खामोश थे। उनकी खामोशी के पीछे छाया निराशा का भाव था। उसने देखा आज सेठ के अतिरिक्त लड़कों को काम पर लगा रखा था। वे तेज़-तेज़ हाथों से बही-खाते उठा रख रहे थे। वह प्रतीक्षा कर रही थी कि उन तीनों में से कोई उसकी तरफ देखे तो वह बताये कि उसे भी जल्द जाना है। आधे घंटे बाद सेठ के बड़े लड़के ने उसे अन्दर आने का इशारा किया। जैसे-तैसे वह दुकान के अन्दर एक कोने में दीवार से टिककर बैठ गई। पसीने की गंध भरी थी। उनके कपड़ों से धूल, मिट्टी और पसीने की बू आ रही थी। बूढ़े जवान और प्रौढ़ किसान जो खेतों में बीज बोने के लिए पैसों की व्यवस्था करने आए थे, वे सब चुपचाप बैठे थे। वह सोचने लगी ये यहाँ क्यों आए हैं? क्या इन्हें सरकार से मिलने वाली सहायता का पता नहीं है… या सहकारी समितियों की भूमिका से ये अनभिज्ञ हैं…? उसका मन प्रतिप्रश्र कर बैठा। अगर पता भी हो तो क्या मिलने वाला है? पचास-साठ वर्षों में तमाम योजनाएँ, घोषणाएँ और व्यवस्थाएँ किसानों को कितना समृद्ध कर पाई हैं? क्या आज भी किसान सूखा और बाढ़ से नष्ट हुई फसलों के कारण आत्महत्या नहीं कर रहे हैं…? कौन ले रहा है उनकी सुधि? जो खोज-खबर लेते हैं वे या तो फैक्ट्री के लिए ज़मीन का सौदा करते हैं या बहुमंजिला इमारतों के साथ एक बड़ा बाज़ार खड़ा कर देते हैं। सेठ ने काँच की टेबल को पीछे खिसकाया ताकि बैठने की जगह निकल सके। काँच के नीचे चाँदी के सुन्दर जेरात चमक रहे थे और बाहर उसी चाँदी के पुराने जेवरातों को ढेर लगा था…। पता नहीं इनमें से कब किसने… किन खुशियों को पूरा करने के लिए इन्हें खरीदा होगा। अपनी पत्नी और बेटी की मुस्कान देखी होगी…। वही जेवर… आज बेरौनक से पड़े थे… बिकने के लिए या गिरवी रखने के लिए।
”कितना चाहिए?’ सेठ ने सामने बैठे व्यक्ति के चेहरे पर निगाहें गढ़ाकर पूछा।
”तीन हज़ार…।’
”तीन हज़ार… तीन हज़ार तो नहीं हो पाएँगे।’
”तो…ऽऽ।’
”ढाई हज़ार तक हो पाएँगे।’ सेठ ने बेलिहाज होकर कहा।
”खाद बीज लेना है… हल बखरना है। घर में भी ज़रूरत है।’ किसान बोलता जा रहा था पर सेठ को उसकी ज़रूरतों से क्या लेना-देना।
”इतना कम…’ वह बुदबुदाया।
”पच्चीस परसेंट कटता है… यह चाँदी भी मिलावटी है।’ सेठ तटस्थ होकर बोला।
”जल्दी लौटा देंगे।’ वह लगभग गिड़गिड़ाकर बोला।
”गिरवी रखने वाला हर आदमी यही कहता है।’ सेठ उसके दयनीय होते चेहरे को बिना देखे बोला।
”परके साल सूखा पड़ रहा था। बैंक वालों को भी देना था।’ वह हताश होकर बोला। उसकी आवाज़ ठीक वैसे ही डूबती जा रही थी, जैसे गहरे कुएँ में भारी बर्तन डूबता जाता है। उभरी नसों से भरे हाथों को यूँ फैलाकर वह बातें कर रहा था जैसे… सेठ को विश्वास दिलाना चाह रहा था।… या नसभरे हाथ देखकर सेठ का मन पिघल जाएगा। बगल में बैठी उसकी पत्नी सूनी-सूनी आँखों से सेठ की तरफ देखे जा रही थी। उसके जीवन भर के ‘स्त्रीधनÓ का मूल्य, मात्र तीन हज़ार रुपये भी नहीं था…। याचक का भाव उसके पति की आँखों में उतर आया था।
”बोलो क्या करना है? हमारे पास इतना टाइम नहीं है। देख रहे हो न… लोग कब से बैठे हैं?’ सेठ ने उसकी रकम नीचे रखते हुए कहा! किसान सोच में डूब गया। चिन्ता की रेखाएँ उसके माथे पर फैलती जा रही थीं। वह सेठ की दया पर था। क्या पता वह देने से मना ही न कर दे…? फिर क्या होगा? फिर क्या होगा खेत का… उसके बच्चों का… उसकी पत्नी का? भविष्य की कल्पना करके वह सिहर उठा। पिछले सालों में उसके बैल… भैंस… गाड़ी सब कुछ बिक चुका था और अब, इस बार बची-खुची रकम को बेचने की नौबत आ गई थी।
”यदि गिरवी रखते हैं तो ब्याज क्या लगेगा?’ हिम्मत करके पूछा उसने।
”अरे भाई, वही ढाई परसेंट महीने का। यहाँ सभी के लिए एक जैसा नियम है।’ सेठ झुँझला उठा।
”रेट बढ़ गए हैं सेठ जी?’ कहते-कहते उसकी आवाज़ दब गई।
”इससे अच्छा तो बेच ही दो। ब्याज-बट्टा में सब चला जाएगा।’
साथी किसान ने उसे समझाया। उसने पत्नी की तरफ देखा उसकी सहमति के लिए। वह खामोश निगाहों से रकम को देखे जा रही थी। जैसे उसकी अन्तिम आशा और ताकत वही जेवर हों।
”और क्या कुछ लाए हो?’ सेठ ने उसकी पोटली पर निगाहें गढ़ाते हुए पूछा।
”ये हैं…’ उसने टूटी-फूटी चीज़ों को सामने रखते हुए कहा।
”ये तो गिलट की है।’ सेठ ने चीज़ों को घिसकर परखने के बाद कहा।
”गिलट है…?’ अब किसान की रही सही आशा भी क्षणी होने लगी। जैसे पानी में डूबते व्यक्ति को भँवर घेर लेती है उसी तरह वह स्वयं को डूबता हुआ महसूस कर रहा था।
”पूरे तीन हज़ार दे दो सेठ जी। हमारा काम बन जाएगा। फसल पर चुकता कर देंगे। हम तो तुम्हारे पुराने ग्राहक हैं। हमारे माँ-बाप भी तुम्हारी दुकान पर आते थे। पैसा लेकर कहाँ जाएँगे।’ एक-एक शब्द को चबा-चबाकर बोल रहा था वह।
सेठ चुप रहा। उसके यहाँ इस तरह की भावुकता भरी बातों की कोई जगह न थी। और ऐसी बातों से प्रभावित होकर उसे अपना धंधा चौपट थोड़ी न करना था…।
किसान ने डबडबाई आँखों से पत्नी की तरफ देखा…। औरत ने पाँवों में पड़े लच्छों को टटोला। लच्छे मोटे-मोटे थे। सुन्दर थे। अब भी चाँदी की चमक बरकरार थी। भाई ने दिलवाये थे। पूरे गाँव की महिलाओं ने इन लच्छों की प्रशंसा की थी, तभी से वह ऊँची साड़ी पहनती थी… ताकि लच्छों की सुन्दरता और चमक दिखाई दे। उसके पाँवों की सुन्दरता बढ़ाने वाले लच्छे भविष्य के लिए, उसके परिवार को जि़न्दा रखने के लिए किसी बड़े बुजुर्ग की तरह सहारा बनने जा रहे थे। उसने चुपचाप लच्छे निकाले और आगे बढ़ा दिए। उधर सेठ लच्छों को परख रहा था। घिस रहा था और इधर दोनों धड़कते दिल से सेठ के जवाब की प्रतीक्षा कर रहे थे।
”अब भी कम पड़ रहे हैं, पर दे देते हैं।’ सेठ ने ठण्डी आवाज़ में कहा। एहसान जताना वह नहीं भूला। पति-पत्नी के मुँह से एक साथ… धन्यवाद का भाव जताते हुए शब्द निकले- ”हे राम!’
उसने देखा…
अब जल्द से जल्द बही-खाते के पन्ने पलटे जाने लगे। हिसाब-किताब लिखा जाने लगा। लकीरें खींचीं जाने लगीं। नाम-पता रकम… की संख्या… कीमत… रसीद नम्बर सब कुछ यानी उसके अतीत… वर्तमान और भविष्य उन बही-खातों में $कैद हो गए थे। बही-खातों के पन्ने कम बचे थे। जैसे-तैसे खेत सूखते जाएँगे… फसलें नष्ट होती जाएँगी, किसानों के हाथ खाली होते जाएँगे वैसे-वैसे इन बही-खातों के पन्ने भरते जाएँगे…। उन सबकी तरह वह भी अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रही थी। कब सेठ या उसके बेटे उसको बुलायें और वह अपना सामान निकाले। बैंक की किश्त भरने के लिए आज उसका अन्तिम दिन था अन्यथा दोनों (जिस बैंक में पैसा जमा कराना था और जिस बैंक से किश्त निकाली जानी थी) बैंक बाउंसिंग चार्ज लगा लेंगे और कम्पनी वाले अपनी पैनाल्टी ले लेंगे। इस सबके बावजूद भी अगला लोन मिलने में दिक्कत आएगी सो अलग। हर पल उसका तनाव बढ़ता जा रहा था।
”थोड़ा टाइम लगेगा।’ इस बार सेठ के बेटे ने नज़र उठाकर देखते हुए कहा… ”आप चाहें तो मार्केट हो आएँ।ÓÓ
इसका मतलब उसे और इन्तज़ार करना था।
लेकिन वह वहीं बैठी रही।
भीड़ धीरे-धीरे खिसकते हुए उसके करीब होती जा रही थी।
वह किसान पैसे लेकर खड़ा हुआ तो उसने तपाक से अपनी जगह बना ली। उसने तीन हज़ार रुपये बड़े जतन से कपड़े में लपेटकर जेब में रखे फिर बचा हुआ सामान दूसरी जेब में।
”चल उठ’ उसने पत्नी से कहा जो अब और अधिक उदास और सुस्त हो गयी थी। किसान अँगूठे पर लगी स्याही को रगड़-रगड़कर पोंछ रहा था जैसे स्याही न हो… कोई गंदा धब्बा लग गया हो उसके अँगूठे पर, उसके पूरे शरीर पर! उसकी घरवाली ने दोनों हथेलियाँ ज़मीन पर टिकायीं और धीरे से खड़ी हो गई। देर तक बैठे रहने से उसके पाँव सुन्न हो गए थे… पर उससे भी ज्य़ादा निर्जीवता आ गई थी लच्छे उतारने के कारण। भारी कदमों से- पर हकीकत में भार से हल्के हुए- वह बाहर निकली। उसने देखा महिला साड़ी को खिसकाकर अपने नंगे पाँवों को ढाँप रही थी। पर उसकी निगाहों से उसके पाँव छुपे नहीं। पाँव में पड़ी बिवाइयाँ गहरी और लम्बी-लम्बी थीं। सख्त सूखी एडिय़ाँ बिवाइयों के कारण दर्द भी देती होंगी। उसके चेहरे पर ढलते हुए यौवन का फीका रंग दिखाई दे रहा था।… बेवक्त… पकी उम्र ने उसकी देह में दस्तक दे दी थी। उन सबके बीच बैठी वह हरे-भरे लहलहाते खेतों के बीच ‘गाँव की गोरी’ की कल्पना कर रही थी। हँसती… खेलती… इठलाती… झूला झूलती… गाँव की सुन्दर चपल नवयौवना… उफ्! उसके मुँह से लम्बी उच्छवास निकल पड़ी। उसने पर्स टटोला। इन भूखे-नंगे ज़रूरतमंद लोगों के बीच अपनी चीज़ जाने की आशंका बार-बार मन में मन उठी थी। उसका ध्यान पुन: उस महिला की एडिय़ों में पड़ी बिवाइयों की तरफ चला गया जिन्हें वह बार-बार सहला रही थी… इस तरह कोमलता के साथ… मानो दिलासा दे रही हो। उसे लगा औरत की बिवाइयाँ चौड़ी से चौड़ी होती जा रही हैं… इतनी चौड़ी… इतनी लम्बी इतनी गहरी कि वे बिवाइयाँ खेत में बदल गईं… दरारों में फटता खेत… रूखा-सूखा वीरान खेत… जिसे न पानी मिला था न खाद… न बीज न छाया…। जिसका सौन्दर्य, सौंधापन और हरीतिमा खत्म हो गई थी। जिसमें परिन्दों का आना ठहर गया था। जिसके बीच खड़े होकर न कोई हँसता था न गाता था न सपने देखता था। फिर उसे लगा… वह खेत एक विराट जगत में बदल गया है जिसके ऊपर तमाम तरह की पार्टियाँ ढोल-नगाड़े पीट रही थीं… जिसकी छाती पर कोई त्रिशूल गढ़ रहा था तो कोई रक्तपात मचा रहा था। तो कोई बेकसूर लोगों को मार रहा था। सब तरफ बिवाइयाँ, सब तरफ दरारें… जिनसेे खून और मवाद गिर रहा था। उफ्! उसने घबराकर चारों तरफ देखा… सामने वही सब थे… और सेठ उसे आवाज़ लगा रहा था, ”बाई साहब! लाइए… आपको दो-ढाई घंटे इन्तज़ार करना पड़ा। दो-चार महीने यही हाल रहेगा।’
”एक तो ये लोग गहने भी ऐसे लाते हैं जिन्हें जाँचने-परखने में टाइम लग जाता है। फिर घंटों सोचने-विचारने में लगा देते हैं।’ सेठ अपनी परेशानी बताते हुए लकीरों पर लकीरें खींचता जा रहा था। यकायक ही आज उसे सेठ गम्भीर सहज स्वभाव वाला न लगकर लुटेरा, डाकू, कमीना, धूर्त और न जाने क्या-क्या लग रहा था… महाजनों का चतुर सोफिस्टीकेटेड वंशज। उसे लगा सेठ उसके एक-एक जेवर को यूँ ही रखता जाएगा। और एक दिन सेठ की तिजोरियों से भरा यह कमरा ऊपर तक भर जाएगा। ब्याज पर ब्याज लगाकर मूल ही वसूलता रहेगा। उसने आसपास बैठे किसानों को गौर से देखा, जो अपनी-अपनी पोटलियों को कसकर हाथों में दबाए अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे और सेठ बही-खातों के पीछे बैठा चेहरा झुकाए पैनी निगाहों से गहनों को जाँचता-परखता निश्चित-सा दिखाई दे रहा था।
दूसरे दिन की सुबह। प्रात: छ: बजे उठकर वह नियमित रूप से पेपर पढ़ती है। बरामदे में बैठना उसे अच्छा लगता है। चिडिय़ों के कलरव कभी-कभार सुनाई दे जाते हैं। पर आज उसका सिर भारी था। आँखों में भी दर्द था। फिर भी अखबार पढऩे से वह स्वयं को न रोक सकी। अखबार का प्रथम पृष्ठ पलटा ही था कि बड़े-बड़े अक्षरों में छपा था; किसानों द्वारा सामूहिक आत्महत्या। उसके दिमाग में सनसनाहट फैल गई। खबर पढ़ते हुए उसकी निगाह किसानों की तस्वीर पर टिक गई। कतार में पड़ी लाशें! यह क्या! उसने उलट-पुलटकर बार-बार उन चेहरों को देखा। आश्चर्य है कि उन सबके चेहरों में उसे कल सर्राफे में मिले किसान का चेहरा दिखाई दे रहा था… लेकिन यह तो दूसरे प्रदेश की घटना थी… इसके बावजूद आश्चर्य कि उन सबसे उनका चेहरा इतना अधिक कैसे मिल रहा था? क्या मृत्यु, दु:ख, संताप और विभीषिका देशकाल और स्थान की सीमाओं को तोड़ देती है…? उसे लगा कल जिन बिवाइयों से उसने हल्का-हल्का खून रिसता देखा था, उनसे अब रक्त की धारा फूट रही है और उस रक्त के समन्दर में सेठ और नेताओं के हज़ारों-हज़ार खून से रंगे हाथ उनकी गरदनों की तरफ बढ़ते जा रहे हैं… उसे लगा पूरा ब्रह्माण्ड घूम रहा है… धरती घूम रही है… चारों तरफ अँधेरा बढ़ता जा रहा है…।
”माँ क्या बात है…? क्यों बड़बड़ा रही हो…?’ सामने खड़ी बिटिया उसके कंधे झकझोर रही थी और वह विस्फारित नेत्रों से उसे देखे जा रही थी…।
: 093031&32118]
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कोविड-19 के काल में घरेलू हिंसा का पहलू उभरकर आ रहा है। इसके ऊपर यह विश्लेषणपरक लेख लिखा है मधु भट्ट ने। मधु भट्ट जागोरी नामक प्रसिद्ध संस्था में काम करती हैं और महिला अधिकार कार्यकर्ता हैं- मॉडरेटर
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कोविड- 19 अपने साथ एक महामारी तो लेकर आया ही लेकिन औरतों, लडकियों तथा हाशिए पर रहने वाले लोगो के लिए मौत भी लेकर आया।
लॉकडाउन एक ऐसी प्रक्रिया है जिस में लोगों को सामाजिक दूरी नही बल्कि शारिरिक दूरी बनानी है। यह प्रक्रिया अलग अलग देशो में अलग अलग दिखाई दे रही है। लॉकडाउन का मतलब है घर परिवार में कैद रहो, कहीं आओ जाओ नही पर इस का अर्थ यह नही कि आप अपना सारा बल घर की औरतों पर लगा दो। लॉकडाउन होने को कहा था न कि हुकुम चलाने या अपनी ताकत दिखाने को कही थी। यह भी सच है कि प्रशासन ने लॉकडाउन करते समय क्या औरतों के विषय में सोचा? क्या हम अपनी पितृसत्तामक समाज को यह बता पाए कि औरतें भी बराबर की हकदार हैं। सरकार या प्रशासन को नही मालूम था अपने पितृसत्तामक समाज का चेहरा। क्या नही जानते थे कि औरतें अपने घरो में कैसे जी रही हैं। क्या NCBR का डाटा सरकार के पास नही जहां घरेलू हिंसा के मामले दर्ज हैं।
सरकार ने लॉकडाउन कर दिया ओर सब को घरों में बंद कर दिया ओर ज्यादातर सेवाएँ बंद कर डाली। लेकिन सवाल ये है कि लॉकडाउन किन शर्तो पर किया गया और किन को हिंसा के मुंह में डाल दिया? सरकार ने एक लक्ष्मण रेखा खींच दी औरकहा घर में कैद हो जाओ। कैद होना का मतलब है कि सुविधाओं से वंचित हो जाना। घर के अंदर किस को सबसे पहले सुविधाओं से वंचित होना होगा? इस प्रश्न को विचारना होगा।
क्या सरकार के पास घरों के अंदर के ताने बाने की समझ है। किसी भी समाज व वहां की व्यवस्थाओं की समझ में घर की इकाई की समझ होना बहुत जरुरी है। हमारे देश में घर कैसा है? घर में संसाधन क्या है? क्या हर किसी के पास छत है? क्या औरतों के पास निर्णय लेने का हक है? क्या हमारा समाज औरत को बराबर का दर्जा देता है? क्या हमारी व्यवस्थाओं ने सोचा कि परिवार की परिभाषा हमारे देश में क्या है? क्या हमारे रिश्ते बराबरी के हैं? ऐसे कई सवाल हमारे सामने है। भविष्य की राह में इन प्रश्नों का जवाब निकालना बहुत जरुरी है।
ये तो हम ने इच्छा और बेमन से मान लिया कि हम सार्वजनिक स्थलों पर नही जाएँगे ओर सरकार ने मनवा भी लिया। हमने देखा भी कि कैसे लोग घरों के अंदर रह कर सरकार के आदेशो का पालन किया जिन्होने नही किया उन्होने उस का दंड भी लिया। घरेलू हिंसा अधिनियम कानून 2005 में आया पर क्या इसी तरह से उस का भी पालन हुआ। इस लॉकडाउन में राष्ट्रीय महिला आयोग ने जब यह रिपोर्ट किया कि इस दौरान घरेलू हिंसा के मामले ज्यादा आए तो सब का थोडा ध्यान महिलाओं की तरफ भी चला गया। घरेलू हिंसा हमारे समाज के लिए कोई नई बात नहीं है। बस इस समय फर्क यही था कि पितृसत्तामक ताक़तों को ज्यादा मौका मिला ओर उन्होंने अपने वार महिलाओं पर करना शुरु कर दिया। इस समय इन को रोकने वाला कोई था नही और इन ताक़तों ने इस बात का पूरा फायदा उठाया। कई ओर कारणों से ये ताकतें ज्यादा शाक्तिशाली हुई। जिस समाज में औरत को देवी माना जाए ओर उस से उम्मीद कि जाए कि वह मुंह ना खोले। जिस समाज में वह गाय जैसी हो जिस को पिटा जाए पर वह दर्द की शिकायत ना करें। जब इसी समाज ने उसे चुप रहने और शोषित करने वाले को शोषण के मौके दिए तो अजीब क्या है। इस तरह के लॉकडाउन में इन घटनाओं को बढना ही था।
सवाल यह है कि इस लॉकडाउन करने से पहले सरकार ये सोच पाई कि घरो में जो गैरबराबरी वाले रिश्ते हैं उन रिश्तों की आड में लॉकडाउन में क्या होगा। आम समय में वैसे भी औरतें अपनी मार की परवाह नही करती उन को लगता है कि हिंसा उनकी नीयति का हिस्सा हैं इसलिए वह हिंसा झेलती हैं। उन को बचपन से यही तो इस समाज ने सिखाया कि पहले दूसरों के लिए सोचो फिर अपने सवाल उठाओ। आम समय में भी औरतें घर के मामलों को कम बाहर ले कर आती है। एक थप्पड, गाली, घमकी, ताने आदि इन सब को मामूली बात मानती है। मामले तब दर्ज होते हैं जब सर से उपर पानी चला जाता है। जो केस लॉकडाउन में आए वह केस वो थे जिनमें साँस लेना मुश्किल था। सोचे अगर औरते हिंसा को छोटा बडा कर के या घर की इज्जत के आईने में ना देखे तो हर थाने में कितने रजिस्टर रोज के भरे जाए ओर कानून को सांस लेने का भी समय ना मिले।
इसी लॉकडाउन में घरो में औरतो को मानसिक तनाव से गुजरना पडा। आम दिनो में जो वह अपना दर्द अपनी सहेली या पडोसन से बांट लेती थी पर इस समय पर वह कहा जाए और किस को कहे अपना दर्द। अगर घर छोटा है तो कहाँ से माँ को चुपके से फोन करे और अपने हालात बताए। वैसे भी हमारे देश में कितनी औरतों के पास उनके नाम का फोन है। घरेलू हिंसा के मामले इस समय पर उन औरतों के आए जिन 29 प्रतिशत औरतों के पास इन्टरनेट की सुविधा व पहुंच है। जिन औरतों के फोन में पैसा था वही बचाव के लिए फोन कर पाई। बाकि ज्यादातर के पास फोन है, नहीं अगर है तो उस फोन में पैसा डालने को नही है। जब बच्चे भूखे हो तो कोई ओर दर्द सताता नही। खाली पेट रहना भी हिंसा है ओर इस हिंसा की जिम्मेदारी तो प्रशासन को लेनी होगी। आम समय में भी क्या हम जान पाते हैं कि सड़कों और घरों में औरत के पेट में कितना खाना गया, यह तो फिर भी संकट का समय है। अक्सर हम देखते हैं कि परिवार में पुरुष और बच्चे पहले खाना खाते हैं उसके बाद जो बच गया वह औरत के हिस्से में आता है। क्या हम समझ सकते हैं कि इस संकट के समय जब ज्यादातर के पास खाने को नही है ओर राहत के तौर पर जो मिल रहा है उसमे से औरत की थाली तक कितना भोजन पहुंच रहा है। जब घरों में पैसा कम है तो किस की ज़रूरतों को दबा दिया गया है और भविष्य में किस को प्राथमिकता मिलेगी। जब औरत की थाली में खाना ही नही तो एनिमिया ओर कुषोषण की भी शिकार है। आम समय वाली स्थिति में 53 प्रतिशत औरतों में एनिमिया पाया जाता है और प्रसव के समय पर 74 प्रतिशत के आसपास, शायद हम अब ये अंदाजा लगा सकते हैं कि लॉकडाउन के समय यह प्रतिशत कितना बढा होगा। इस लॉकडाउन में यही नजर आया कि घर जैसी महत्वपूर्ण इकाई के अंदर रहने वाली औरत इस लॉकडाउन में नदारद थी। उसके बारे में कहीं पर कुछ सोचा ही नही गया। जब यह लॉकडाउन हुआ तब प्रशासन ने महिला के मुददे को आपातकालीन सेवाओं में क्यो नही डाला। यह भी तो हो सकता था कि पुलिस विभाग में एक अलग से घरेलू हिंसा से बचाव यूनिट बनता और उस में ऐसी एन.जी.ओ. को शामिल किया जाता जो महिला हिंसा के मुददो पर काम करती हैं ओर इस समय होने वाली धटनाओं को तुरन्त से मदद पहुँचा॰ पाते। अन्य कई ऐसे उपाय थे जिन से औरतों को राहत पहुँचा पाते।
घरेलू हिंसा केवल घर अंदर होने वाली परिस्थितियों से नही उपजती है बल्कि बाहरी तत्व इसमें शामिल होते हैं। हम ये देखते हैं कि औरतें मजदूर हैं। फिर वह घर के अंदर की मजदूरी हो जिसका वेतन उन को मिलता नही वहीं दूसरी तरफ घर के बाहर की मजदूरी जिस में 81 प्रतिशत महिलाए असंगठित हिस्सों में काम रही हैं। उन सब के रोजगार चले गए। बिना वेतन वाली मजदूरी नही गई। वेतन या आय ना होने से भी घर के अंदर हिंसा बढी क्योंकि पहले जब औरत कमा कर लाती थी तो वह घर का काम तो करती थी लेकिन कहीं न कहीं बोलने का थोडा हक परिवार में ले लेती थी लेकिन जब नौकरी गई तो और सवल पैदा हुए कि अब बिन मतलब के वह घर से बाहर नही जा सकती। औरत की गतिशीलता पर अंकुश ज्यादा लगने शुरु हो गए हैं। अगर आय की भी बात करे तो हम पाते हैं कि औरतों की आय पुरुषो के मुकाबले 34 प्रतिशत कम पाई जाती है (ILO के अनुसार)
कोविड के इस समय पर भी किस को पहले बचाया जा रहा है यह भी एक देखने व समझने का पहलू है। front line worker की बात करें तो उस में भी ज्यादातर औरतें आती हैं जो निचले पायदान पर काम कर रही हैं उन के लिए कि PPE kit मौजूद नही है। front line worker का वर्गीकरण करें तो हम देख पाएँगे कि उपर वाले पायदान पर ज्यादातर पुरुष डॉक्टर मिलेंगे क्योकि इस पितृसत्तामक समाज में लड़कों को हर क्षेत्र में मौके ज्यादा मिले। उसके बाद नर्स,सफाई कर्मचारी, आशा वर्कर आदि आते हैं। डॉक्टर पूरे समय मरीज़ों के पास नही होते हैं वह एक समय पर आकर उन का निरीक्षण करते हैं ओर चले जाते हैं। पर मरीज़ों के पास लगातार नर्स,सफाई कर्मचारी, आशा वर्कर इन लोगों का काम होता है ओर इन पदों पर ज्यादातर महिलाएं होती हैं। इन औरेतों के लिए अभी तक कहां है PPE Kit। न घर में सुरक्षा दी गई न ही बाहर। तो हम ये मान लेते हैं कि समाज ओर सरकार को इन की जरुरत सिर्फ अपने फायदे तक के लिए ही है। हम सुरक्षित शहर की बात करते हैं पर हमारे एजेंडा में महिला है ही नहीं।
अगर हम आने वाले समय की बात करें तो शायद हम देख पाएँगे कि कैसे औरतों को अब घर में रहने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। जिस समाज में वैसे ही औरतों की आवाजाही पर रोक टोक है वहां पर अब कोविड के बाद उन पर और चौकसी मौजूद होगी। नौकरियां जाने का खतरा सबसे ज्यादा औरतों को झेलना पड़ेगा क्योंकि घर में अब जो भी बीमार होगा उसकी सेवा के लिए घर की औरत को ही देखा जाएगा। हमारे आँकड़े बताते हैं कि 29 प्रतिशत महिलाएँ ही इन्टरनेट का प्रयोग कर पाती हैं बाकि नही तो इसका साफ मतलब है कि work from home जैसी सुविघा पर हक 71 प्रतिशत औरतों को नहीं है। औरतों के हाथ में अब पैसा नही होगा। इसका एक मतलब यह भी है कि घर में पैसे की किल्लत के चलते महिलाओं की ज़रूरतों पर अब कम खर्च होगा। दहेज से बचने के लिए जबरदस्ती विवाह और बाल विवाह बढ़ेंगे।
कोरोना के इस भय को इतना फैलाया गया है कि हम भविष्य के बारे में सोच ही नही पा रहे हैं। ज्यादातर का ध्यान नही जा रहा कि इस दौर में औरतों और बच्चियों की हालत ओर बिगडने वाली है। इस समय इस दिशा में भी सोचने की जरुरत है कि हम अपने अघिकारो की बात करें। आज के इस दौर में हमारे रिश्ते बराबरी के कैसे बने इस और ध्यान देना होगा। पुरुषों को सोचने की जरुरत है कि लॉकडाउन सब के लिए है। वह अपनी सत्ता का दुरुपयोग न करें। यही समय है जब हम अपने बच्चों को हिंसा मुक्त वातावरण कैसे बने इसका अभ्यास कर के दिखा सकते हैं। जब पुरुष घर में बच्चो के साथ समय बिता कर, घर का काम कर, अपनी जीवन साथी के साथ प्यार हिस्सेदारी की चर्चा फैला कर ना केवल अपने बच्चो को बल्कि समाज में बराबरी का संदेश फैला सकते हैं। अपने बच्चों के हीरो बन सकते हैं।
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मधु बाला
जागोरी और स्त्री मुक्ति संगठन
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19 मई को महान लेखक रस्किन बॉन्ड 86 साल के हो जाएँगे। आज इंडियन एक्सप्रेस में उनसे बातचीत के आधार पर देवयानी ओनियल ने यह लेख लिखा है। मेरी अंतरात्मा को जगाने वाले के मित्र के अनुरोध-आदेश पर इस लेख का अनुवाद करने बैठ गया। निराशा में आशा की उम्मीद जगाने वाले इस लेखन का आनंद उठाइए और ठहरकर कुछ सोचिए- प्रभात रंजन
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घर में रहने और सामाजिक दूरी के काल में खिड़की के महत्व को लेकर संसार की विकसित हुई इस नई समझ से बहुत पहले से रस्किन बॉन्ड अपनी खिड़की के माध्यम से इस संसार को देखते रहे हैं। एक तरफ़ पहाड़, नीचे घाटी और उसके आगे सड़क, लंडौर के इवी कॉटेज की खिड़की से बहुत कुछ दिखाई देता है, यह कॉटेज पहाड़ के एक सिरे पर है जो कभी भारत में अमेरिकी मिशनरी समुदाय का मुख्यालय होता था। ‘एक माकूल खिड़की की लम्बी और अनथक तलाश। ज़िंदगी को इस तरह से भी देखा जा सकता है’, रस्किन बॉन्ड ने अपनी किताब सिंपल लिविंग(स्पिकिंग टाइगर से प्रकाशित, 2015) में लिखा है: ‘सभी तरह की खिड़कियों का बहुत महत्व होता है, केवल लेखकों के लिए ही नहीं। सुबह में सबसे पहले मेरे बिस्तर पर सूर्योदय की रोशनी आती है। उसी से जगता हूँ मैं’, उनका कहना है। अपने पिछले घर मेपलवुड लॉज में, जो जंगल के ऐन किनारे था, वह खिड़की के पास अपने एकांत में बैठकर लिखते थे। द नाइट ट्रेन ऐट देवली, टाइम स्टॉप्स ऐट शामली तथा आवर ट्रीज स्टील ग्रो इन देहरा जैसी किताबें इसी एकांत से उपजी थीं।
वैसे वहाँ उतना एकांत भी नहीं था। एक गोल-मटोल गिलहरी हाँफती हुई उनकी खिड़की के पल्ले के पास आती और उनके हाथ से चने का दाना लेकर खाती थी, रात में खिड़की के पल्ले के पास मद्धिम आवाज़ में झींगुरों की आवाज़ आती थी। ‘मैं 1963 में मसूरी आया, तब से लेकर अब तक यहाँ इतनी खामोशी कभी नहीं देखी। उस जमाने में यहाँ केवल दो टैक्सियाँ ही हुआ करती थीं। मेरे ख़याल से इस समय 600 के क़रीब टैक्सियाँ हैं। लेकिन सड़कें पूरी तरह ख़ाली हैं’, उस लेखक ने कहा, जिसका जन्म कसौली में हुआ, जो पले बढ़े जामनगर में, देहरादून, इंग्लैंड और दिल्ली होते हुए मसूरी में आकर बस गए।
अब अपने कमरे से उन्हें सड़क दिखाई देती है लेकिन रोज़मर्रा के जीवन की चहल पहल ग़ायब है। ऐसा लगता है कि चिड़ियों ने अपनी आमदरफ़्त बढ़ाकर इस कमी को दूर करने का फ़ैसला कर लिया है। ‘अहले सुबह मैं पहले से अधिक और बड़ी तादाद में चिड़ियों को देखता हूँ, इनमें से कुछ तो पहले आती भी नहीं थी। कल एक नारंगी रंग की छोटी सी चिड़िया आई थी। यह एक प्रकार की जंगली चिड़िया है, पहले यहाँ कभी नहीं आती थी। सामान्य रूप से तोते मैदानों में दिखाई पड़ते हैं लेकिन चूँकि आजकल पर्यटक नहीं आ रहे तो वे पहाड़ों पर छुट्टियाँ मनाने आ रहे हैं’, बॉन्ड कहते हैं।
जिस हिल स्टेशन पर गर्मी के मौसम में घंटों ट्रैफ़िक जाम लगा रहता था, अब वहाँ केवल स्थानीय लोग ही रह गए हैं। ‘ज़ाहिर है, मसूरी को पर्यटकों की कमी खलेगी क्योंकि यह शहर पर्यटकों के सहारे चलता रहा है। व्यवसाय करने वाले सभी लोग परेशान हैं’, वे कहते हैं। दिन खामोशी से कट रहे हैं, और बॉन्ड के कमरे के दरवाज़े पर आशीर्वाद माँगने आने वाले पर्यटक, किताब प्रेमी और यहाँ तक कि हनीमून मनाने वाले जोड़े अब नहीं आ रहे जिनके आने से जीवन भर अकेले रहने वाले लेखक को अक्सर हैरानी-परेशानी होती थी। जिस सहजता से देश के अलग अलग हिस्सों से आए अजनबी इस लेखक से बातचीत करते या बातचीत के बीच से चले जाते थे, वह कोविड-19 के भयभीत इस संसार में बदल रहा है? ‘कई तरह से यह कहा जा सकता है कि भारत एक अनौपचारिक देश है। कई देशों में, आपको ऐसा करने पर संदेह की नज़र से देखा जाएगा, जबकि यहाँ यह बहुत आम है कि अजनबियों से सफ़र के बारे में बात की जाए, शिकवे शिकायत किए जाएँ, और बातचीत में सब लोग शामिल हो जाएँ’, वह कहते हैं। वायरस के डर से लोग एक दूसरे से सावधानी बरत रहे हैं लेकिन बॉन्ड का कहना है, ‘लोग फिर वही सब करेंगे जो वे करते रहे थे। हम अपनी पुरानी आदतों की दिशा में लौट जाते हैं। भारत में परम्पराओं से बाहर निकल पाना मुश्किल होता है।‘
21 साल की उम्र से आजीविका के लिए लिखने वाला यह लेखक मंगलवार को 86 साल का होने वाला है। बॉन्ड अपने लेखन के माध्यम से हम लोगों को प्राकृतिक संसार, छोटे छोटे शहरों से लेकर गहरी निर्जनता में ले जाते रहे हैं। उनका ऐसा मानना है कि यह समय है प्रकृति के साथ अपने रिश्तों को समझने और उसको नया रूप देने का। ‘लोगों को ऐसा महसूस हो रहा है कि यह कुछ हद तक प्रकृति के साथ हमारी छेड़छाड़ का भी नतीजा है। मेरे ख़याल से टॉमस हार्डी ने यह कहा था कि ईश्वर ने एक सुंदर दुनिया का निर्माण करके हम लोगों को उसकी देखभाल के लिए सौंपा, लेकिन हम लोगों ने उसकी देखभाल अच्छी तरह नहीं की। उम्मीद करते हैं कि हम लोग इस सुंदर धरोहर की बेहतर देखभाल करेंगे’, वे कहते हैं।
शायद यह अपने आपसे जुड़ने का भी समय है। ‘शायद इस थोपे गए एकांत में लोगों को अपने आपको बेहतर तरीक़े से समझने का मौक़ा मिलेगा, हम अधिक चिंतनशील हो पाएँगे, क्योंकि हम पहले की तरह भागाभागी नहीं कर सकते, और हम लोगों को यह कोशिश करनी चाहिए कि जिंदगी को जितना आसान बनाया जा सके बनाया जाए और ख़ुश रहते हुए जटिलताओं से बचने की कोशिश करनी चाहिए। सीमित संसाधनों के साथ जीने की कोशिश करनी चाहिए और अति महत्वाकांक्षा नहीं पालनी चाहिए, यह मार्ग अगर खुशी का नहीं तो संतोष का मार्ग तो है ही। यह तो है ही कि कुछ समय तक जीवन मुश्किल हो सकता है’, बॉन्ड कहते हैं।
वह हमेशा घर में रहकर ही काम करते रहे हैं इसलिए उनकी दिनचर्या में अधिक बदलाव नहीं आया है, बल्कि वे और अधिक व्यस्त हो गए हैं। ऑल इंडिया रेडियो के लिए कहानियाँ लिख और पढ़ रहे हैं, अपने समृद्ध अनुभव के ख़ज़ाने से भूतों की कहानियाँ लिख रहे हैं, कई मज़ेदार संस्मरण और जिम कॉर्बेट के ख़ानसामे की लम्बी-लम्बी कहानियाँ। लेखक का यह वादा है कि उनकी नई किताब जल्दी ही पूरी होने वाली है। ‘लॉकडाउन के दौरान अभी तक मैंने 10 हज़ार शब्द लिख लिए हैं। यह कुछ दार्शनिक है, कुछ विचार कुछ अवलोकनपरक। फ़िलहाल उसका शीर्षक है, ‘कहाँ गए सब लोग?’ लेकिन यह कुछ निराशाजनक लग रहा है। शायद इसको बदल कर मैं नाम रखूँ ‘आगे का जीवन सुखी हो’, वह बताते हैं। यह आशावादी औषधि है, इस अनिश्चित समय में हम सब जिसका सेवन कर रहे हैं। उनकी आत्मकथा ‘लोन फ़ॉक्स डान्सिंग(2017) की अंतिम पंक्ति याद आती है, ‘मुझे भय है कि विज्ञान और राजनीति हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी। शुक्र है खिड़की के पल्ले के बाहर झींगुरों की आवाज़ अभी भी आ रही है।‘
लेख और चित्र: साभार इंडियन एक्सप्रेस
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‘जनसत्ता’ के फ़ीचर एडिटर रहे प्रमोद द्विवेदी ने अपने कथाकार रूप के प्रति उदासीनता बरती नहीं तो वे अपनी पीढ़ी के सबसे चुटीले लेखक थे। मुझे याद है आरम्भिक मुलाक़ातों में एक बार शशिभूषण द्विवेदी ने उनकी दो कहानियों की चर्चा की थी, जिनमें से एक कहानी यह थी। भाषा और किरदार को बरतने का भाव देखिए। पढ़ने का आनंद आ जाता है- मॉडरेटर
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लालकिले में घूमते-घूमते शहनाज तैयबा उस हिस्से में आ गई जहां जहांआरा बेगम यानी औरगंजेब की बहन और शाहजहां की दुलारी बेटी का कढ़ाईदार लहंगा रखा हुआ था। बदरंग हो चुका कढ़ाईदार लहंगा, जिसके आकार से शहनाज अंदाज लगा रही थी कि जवानी में जहांआरा की कमर दोहरी रही होगी, जिस्म लंबा, भरा हुआ…। वह लहंगा देखकर भूल गई कि आगे भी बढ़ना है। उसका मरद खालिद चिढ़कर बोलाः ‘अरे आगे बढ़। यहीं शाम कर देगी क्या। टैम पर निकलेंगे, तभी आठ बजे तक पिलखुआ पहुंच पाएंगे। अभी किनारी बाजार से सामान भी उठाना है।’
लेकिन शहनाज तो वाकई उस बड़े से शाही लहंगे में समा गई। उसकी कल्पनाओं में अनब्याही रह गई जहांआरा की तस्वीर घूमने लगी- बड़ी-बड़ी आंखों वाला गोल चेहरा। सिर पर मलिका वाला ताज, रंग एकदम सुर्ख। गाल पर मोटा-सा तिल। नाक छोटी, मगर चेहरे पर फबती हुई। लंबे काले बाल। नाक में बड़ी नथ और कान में लासानी चमक वाले झुमके। उसे लगा जैसे सपनों में वह जहांआरा को देखते आई है। उसे बेगम से मोहब्बत हो गई। थोड़ी देर के लिए उसे लगा कि जहांआरा की रूह उसके अंदर आ गई है और दिल्ली की नई हुकूमत को कोसते हुए कह रही है- यह लालकिला तो हमारा था। यह तख्तेताउस, ये बुलंद दरवाजे, सजी-धजी हाट और लालकिले की प्राचीर पर पहला हक हमारा है। नए दौर का कौमी परचम फहरता दिखता है तो मैं सिसकियों के साथ दौरे-मुगलिया याद करती हूं…।
वह इतना ज्यादा सोच में पड़ गई कि पीछे खड़ी एक साड़ी वाली थुलथुल औरत ने उसे धक्का देकर आगे बढ़ाया और कहाः ‘ओय बेगम साहिबा, रास्ता छेंककर क्यों खड़ी हो…।’ शहनाज को अच्छा लगा कि उसे किसी ने बेगम साहिबा कहा। हालांकि उस औरत ने उसका मुसलमानी हिजाब और सुधबिसरी हरकत देखकर ही तंज में उसे बेगम कहा था। पर शहनाज को पल भर ऐसा लगा कि सत्ररहवीं सदी की रियाया उसके पीछे चल रही है और उनमें से गुस्ताख, कनीजनुमा औरत को उसका बेगम होना रास नहीं आ रहा।
इस आवाज से थोड़ा सहमकर वह आगे बढ़ गई। लेकिन ध्यान आया कि उसका आदमी तो यहां है ही नहीं। वह घबरा गई। शादी के बाद पहली बार पिलखुआ से दिल्ली आई थी। पेट में पहले बच्चे की कुनमुनाहट शुरू हो गई थी। गनीमत थी कि अभी पेट जरा-सा भी नहीं उचका था। लेकिन घर से हिदायत मिलनी शुरू हो गई थी कि-संभल कर चलियो, भारी कुछ ना उठइयो। गरम-सरद से बच कर रहियो। बस की पीछे वाली सीट पर मत बैठियो…।
थोड़ी-सी दीनी तालीम के बाद बारहवीं तक पढ़ी होने के बावजूद वह बेपढ़ी, देहाती औरत की तरह घबराने लगी। उसने हड़बड़ा कर पर्स से मोबाइल निकाला तो वह भी गिर पड़ा। बगल में खड़ी एक गुजराती औरत ने उसे उठाकर दिया और हंसीः बच गया। उसने कुछ भी सुने बिना मोबाइल लिया और ‘शौहर मियां’ पर अंगुली दबा दी। दस बार घंटी बजने के बाद खालिद ने जब फोन उठाया तो वह बिछुड़े बच्चे की तरह आपा खोकर बरस पड़ीः ‘कां छोड़ के भाग गए…पहली बार दिल्ली आई हूं पता है ना…।’
उधर चिढ़ती हुई आवाज आईः ‘और तू कहां मर गई। मोबाइल में देख मेरी कितनी मिस काल हैं। मुझे जोर से पेशाब लगी थी, मैं इधर निकल आया। अभी इधर हूं जहां रात का शो होता है। तू कहां है? ’
खालिद झूठ बोल रहा था। उसे तलब लगी थी। वह पान मसाला खाने के लिए बाहर आया था।
शहनाज गुस्सा गईः ‘काए, तू पिलखुआ से पेशाब थामे बैठा था।’
खालिद चिढ़कर फोन पर कमीनी-कुत्ती करने लगा- ‘और तू कहां मर रही थी उस लहंगे में…।’
खालिद की मरदाना तल्खी से शहनाज के अंदर घुसी जहांआरा की रूह फना हो गई। वह डरते डरते हुए बोलीः ‘मैं तो वहां से हिली कहां, लैंगे के पास ही थी…तू ही दीदा गड़ाए पंजाबी औरतों के पीछे घसटा जा रहा था।’
इस इल्जाम पर खालिद और चिढ़ गया। उसने आगे-पीछे खड़ी औरतों की चिंता किए बिना कहाः ‘अबे सुन, ज्यादा हिनहिना मत… आगे बढ़कर मैदान के पास आ जा। मुझे किनारी बाजार वाले गुप्ता अंकल के यहां भी जाना है…।’
शहनाज की जहांआरा तबीयत को एक और झटका लगा। मन ही मन कहा- हरामी फोन पर कैसी छिछोरीगीरी कर रहा है। रात में चढ़ेगा तो कूं-कूं करता बोलेगाः शहनाज मेरी जान, मेरी मलिका, मेरे ख्वाबों की शहजादी…। तेरी जबान पर इल्ली पड़े।
खालिद की गालियों से वह हताश हो गई। वह गिन रही थी कि यहां उसके जैसी पर्दानशीं औरतें कितनी हैं। तादाद देखकर वह समझ रही थी कि यहां हिंदू मरद-औरतें और बच्चे ज्यादा हैं। एकबारगी उसका मन किया कि सारे मुसलमानी कपड़े उतार सजी हुई हिंदू लड़की की तरह घूमे। लेकिन हिम्मत ही नहीं हुई। सोचने लगी, एक बार खालिद से पूछकर देखती हूं…पर कमीना मानेगा नहीं। वैसे तो कैटरीना का फैन है, पर बीवी के लिए पूरी पर्दादारी चाहिए। जब खालिद का अच्छा मूड होता तो वह कहती भी थीः- यह बढ़िया, तुम मियां मोबाइल पर तो नंगी फोटू देखते हो, पर बीवी पूरी लुकी-मुंदी चाहिए।
खालिद को तलाशने में उसे दस मिनट लग गए। वह खार खाए कुर्सी पर अधलेटा-सा बैठा था,। बगल में उसने पान मसाला खाकर रजनीगंधा और तुलसी का पाउच फेंक रखा था। अच्छा ही हुआ मुंह भरा था, वरना उसे देखते ही दो चार गालियां और दे डालता। पर यह भी क्या कम कनकना बेगम थी। आते ही पहले पुड़िया उठाई और खुदमुख्तार टीचर की तरह बोलीः ‘ये क्या है… स्वच्छ भारत की ऐसी-तैसी करने में लग गए। क्यों मोदी का बैंड बजा रहे हो…बेचारा सफाई करे-करे मर रिया है, और तुमने ठान रखी है कि….। ’
पहले से गरमाया खालिद फिर पैजामे से बाहर हुआः ‘चल बकवास मति कर…मोदी-मोदी कर रही है…। एक दिन कोई रगड़ देगा तुझे चौड़े में…चल तुझे करावलनगर छोड़ कर आता हूं खाला के घर। अपने केजरीवाल की पत्तेचाटी करके अइयो पिलखुआ। ’ असल में कुछ दिनों से वह केजरीवील की फैन बन गई थी। उसकी बिजनौर वाली खाला का लड़का इश्तियाक केजरीवाल की पार्टी के साथ लगा रहता था और कई ईरिक्शा खरीद कर और असम से एक बांग्लादेशी औरत लाकर दिल्ली में मजे कर रहा था।
आपस में जोर-जोर से बात करते हुए दोनों अगल-बगल देखते भी जा रहे थे। उन्हें अंदाज था कि भले ही वे अपने पुरखे शाहजहां और औरंगजेब के लालकिले में खड़े हैं। पर आसपास की प्रजा नए साहिबे-आलम नरेंद्र मोदी की है। दो गूजर सरीखे कसदार लड़के उनकी बात सुनकर आपस में कुछ कहने लगे थेः भाव यही था कि मोदी ना होता तो ये स्साले लालकिले से मूतते।
इन लड़कों की बेआवाज हंसी समझते हुए खालिद ने अपनी शोख बीवी से कहाः ‘अबे, थोड़ा चुप्प भी रहा कर। आसपास देखकर बोला कर, टाइम ठीक नहीं है। ’
वह चौंककर बोलीः ‘ मैंने ऐसा क्या कह दिया।’
खालिद ने उसका मुंह बंद करते हुए कहाः ‘चल पराठे वाली गली चलकर पराठे खाते हैं, फिर गुप्ताजी के यहां से अपना सामान लेकर वापस मैट्रो से आनंद विहार आ जाएंगे।’ उसने बताया कि उसके अब्बा भी गुप्ता जी से सामान ले जाते थे। इसलिए घरेलू रिश्ता है। लाखों का माल उधारी में देते हैं। पिलखुआ, हापुड़ के सारे अपने लोग यहीं से माल उठाते हैं।
गुप्ताजी प्रख्यात सुखबासी लाल गुप्ता एंड संस के मालिक थे और उनके लहंगें, गोटे, झालर पूरे देश में जाते थे। खालिद अपनी दुकान के लिए यहीं से माल ले जाता था। पूरे पचास साल का पारिवारिक कारोबारी नाता था गुप्ताजी से।
शहनाज अपनी ससुराल में में गुप्ताजी का नाम अकसर सुनती थी। जिज्ञासावश उसने खालिद से पूछाः ‘इधर सारे हिंदू से ही आप सामान लेते हो। किनारी, गोटा, झालरें, मोती, लहंगे…। इस बिजनेस में अपने लोग कम हैं क्या।’
खालिद ने कहाः ‘अरे हां भई, यहां सारा काम बनियों के पास है। तू इतनी परेशान क्यों है। दुकानदार हिंदू, कस्टमर मुसलमान, वैसे ही जैसे पिलखुआ में हमारे सारे बड़े कस्टमर तो हिंदू ही हैं- बनिया, पंडत, ठाकुर। चल तुझे दिखाऊंगा कि गुप्ताजी के पास लहंगे लेने के लिए कलकत्ते और बगंलौर तक से लोग आते हैं। ये जहांआरा का सड़िल्ला लहंगा तो तू भूल जाएगी।’
अब इस सरस वार्तालाप से उनकी मोहब्बत जाग रही थी। खालिद गाली देने वाला इंसान लग ही नहीं रहा था। लहंगे का नाम सुनकर शहनाज का मन हुआ कि रोशनख्याल औरत की तरह लपक कर मरद का चुम्मा ले ले। पर भीड़ के आलम के बीच हिम्मत ही नहीं हुई। हां, इतना जरूर कहाः ‘बदतमीजी छोड़ दो, आप गाली देते हो तो घिन छूटती है, पर ये बातें करते हो लगता है कि यहीं चपका लूं।’
मेरठ से बीए पास मोहम्मद खालिद को शरारत सूझीः ‘अब ये सारी एनर्जी तू रात के लिए रख। अभी तेरा-मेरा कोई भरोसा नहीं…फिर भी यह जान ले कि जहांआरा से अच्छी तकदीर तेरी है। कम से कम तू शौहर का मजा तो ले रही है। वह तो ताज पहने, लहंगा पहने, तलबगार औरत की तरह मर गई। यह इल्जाम लेकर कि उसका बाप शाहजहां खुद ही उसके खाविंद का रोल निभाता रहा।’
थोड़ी देर तक जहांआराना खुमार में रही शहनाज के कलेजे पर पत्थर सा गिरा, ‘ये क्या बकवास है। कोई बेटी के साथ ऐसा करता है क्या?’
खालिद शरारत पर आमादा थाः ‘आदमी बड़े कुत्ते होते हैं, तू है किस दुनिया में। किसी मुगल शहजादी की शादी हुई क्या…घर में ही सब चलता था…।’
-‘अरे चल्ल बकवास मति कर…’
– ‘बकवास नहीं, हकीकत है मेरी जान। बादशाह शाहजहां से एक बार उनके मुहंलगे दरबारियों ने पूछा था तो उनका जबाव यही था कि जो दरख्त हमने लगाया है, उसके फल खाने का हक भी हमीं को है।’ खालिद इतिहासकार की तरह बोला।
शहनाज तारीख के इस नागवार आख्यान से मायूस हो गईः ‘पर यह सब आपको कैसे मालूम ? ’
खालिद हंसाः ‘ अरे भाई, मैं तलीमयाफ्ता सेठ हूं। मैंने बीए में हिस्ट्री पढ़ी है। बचा-खुचा इस मोबाइल और गूगल ने बता दिया है। तू तो बस वाट्सअप और यूट्यूब देखकर माथा पीटती रहती है। हिंदुओं को गरियाती रहती है। तेरी तरह मदरसे से आए भाई लोग यों ही तसल्ली कर लेते हैं कि इस मुल्क में हमने बादशाहत का मजा लिया है। अब गुलामी और जिल्लत के दिन देखने पड़ रहे हैं। मेरी कही मान, लहंगे का नशा छोड़, तुझे लखनवी चिकन का बढ़िया सलवार-सूट दिलवाते हैं, अपने आलोक खत्री साहब की दुकान से। बड़े भाई हैं अपने, सस्ते में मिल जाएगा।’
अब तक वह बुरके में कसमसा गई थी। एक जिद लेकर बोली- ‘ मुझे सलवार-सूट में ही घूमना है मार्केट में। बस में बैठते ही बुर्का पहने लूंगी, अल्ला कसम।’
इस मासूम और अहानिकर जिद पर खालिद मुस्करा पड़ाः ‘ मैंने कब रोका है। तू ही जब से खुर्जा होकर आई है, अल्ला-अल्ला ज्यादा करती है। जब देखो कहती है- मदरसे के इमाम साहब ने ये तालीम दी थी। कहते थे, बदन दिखाकर चलने वाली औरतें फाहिशा होती हैं। उन्हें दोजख देखना पड़ता है। उनकी औलादें दीन से भटक जाती हैं। ’
शहनाज समझ गई कि खालिद ने उसकी राह आसान कर दी है। वहीं एक खंबे की आड़ लेकर उसने बुरका उतारा और बैग में घुसेड़ दिया।
सामने एक नई ताजातरीन शहनाज थी। अंदर की खुशबू ने हवा को भी निहाल कर दिया। जो कन्नौजी इत्र कैद था, वह बाहर आ गया। काजल के घेरे से सजी आंख पूरी तरह दिखी तो लगा मृगनयनी की उपमा ऐसी ही नहीं बनी होगी। वली दक्खनी ने शायद ऐसे ही नैन देखकर लिखा होगाः जादू हैं तेरे नैन ग़ज़ाला से कहूंगा..
इस नई शहनाज को देखकर खालिद बहक गयाः ‘ क्या बात है, मेरी कैटरीना मिक्स करीना? ’
दुबली-पतली, 20 साल की शहनाज को मैरून-सलवार सूट में देखकर वह पहली बार दिल से बोलाः ‘जानेमन, पिलखुआ की जहांआरा तो तुम लग रही हो। बस अपनी नाक के इस छेद में नथ और डाल ले।’
लखनऊ की शिया लड़कियों की तरह फक्क गोरी शहनाज की नाक बचपन में गांव के दुर्गा सुनार ने छेदी थी। पर नाक में कुछ पहनना अच्छा नहीं लगता था। अम्मी जान हमेशा कहतीं कि बिना कील-नथ के औरतों का मुंह चूतर जैसा लगता है। पर उसने नाक की कील बचपन में ही उतार कर फेंक दी थी। आज पहली बार खालिद ने कहा तो उसका मन हुआ कि चांदनी चौक से एक नथ और नग जड़ी कील ले ली जाए।
अब वह दिल्ली के इस तारीखी इलाके में हसीन खत्री लड़की की तरह घूम रही थी। खालिद उसे छेड़ता जा रहा थाः ‘सुनो, जानू, मेरी जहांआरा माथे पर कहो तो एक लाल बिंदिया लगा दूं।’
‘अरे नहीं यार मरवाओगे क्या…’ शहनाज ने ऐसे घबराकर कहा, जैसे माथे पर बिंदी लगते ही इस्लाम खतरे में पड़ जाएगा।
-‘अच्छा नजर वाला टीका लगा देते हैं।‘
-‘अरे छोड़ो भी…’
-‘अच्छा एक सेल्फी लेते हैं।’
-‘नहीं-नहीं, राज फाश हो जाएगा..’
-‘कोई चोरी तो कर नहीं रहे…’
-‘हिजाब पहन कर मैट्रो में सेल्फी लेंगे।’ मजाक में बोली शहनाज
फिर दोनों हंस पड़े।
चांदनी चौक में खालिद पहली बार अपनी हसीन बीवी के साथ घूम रहा था। अपने अंदर की किस्सागोई जगाते हुए उसने शहनाज को बतायाः ‘तेरी जहांआरा बेगम के प्यारे भाई दारा शुकोह को इस सड़क पर गरम मौसम में खजहे हाथी पर बैठाकर घुमाया था आलमगीर औरंगजेब ने।… और हां एक बात और जान ले, जिस चांदनी चौक में तू आज घूम रही है वह भी जहांआरा की देन है।’
लेकिन शहनाज अब इस इतिहास को सुनना नहीं चाहती थी। झल्लाकर उसने कहा कि अरे छोड़ो पुरानी बातें, ये बताओ टिक्की कहा अच्छी मिलेगी। पेट में सारंगी बज रही है।
–‘ये ल्यो, मैं कहता हूं तो पुरानी बातें…खुद ही जहांआरा के लहंगे के पीछे पड़ गई हो।’
शहनाज खामोश थी। इसके बाद दोनों पराठे वाली गली की तरफ चले गए। अब तक गुप्ताजी तीन बार फोन कर चुके थे कि ‘ खालिद मियां तुम्हारे लिए हल्दीराम से खाने-पीने का सामान मंगाया है। अरे भाई, पहली बार अपनी बीवी यानी हमारी बहूरानी के साथ आ रहे हो।’
खालिद ने पराठे का आर्डर कैंसिल करते हुए कहाः ‘पंडिज्जी जरूरी काम आ गया है, फिर आता हूं।’
शहनाज अनमने भाव से उठी। पराठे की खुशबू ने उसकी जबान को तर कर दिया था।
तेज कदमों से वे दोनों गुप्ता जी दुकान की ओर बढ़ गए। खालिद ने जाते ही भूमिका बनाईः ‘चाचा जी, जल्दी सामान पैक करवा दो। शाम होते-होते घर पहुंचना है। ’
गुप्ताजीः ‘कौन से घर।’
खालिदः ‘पिलखुआ।’
गुप्ताजीः ‘अमां मियां पहली बार बहू को लेकर आए हो, और सिर पर पांव रखकर भाग रहे हो। हद कर दी।’
शहनाज कौतूहल से दुकान में टंगे लहंगों और शेरवानी को देख रही थी। चमकीले किनारे-गोटे देखकर उसकी आंखें चमक रही थी।
गद्दी के पास ही खानपान सज गया। गुप्ता जी ने पान से भूरी हो चुकी पूरी खीसें दिखाते हुए कहाः ‘हमारे यहां यही सब मिलेगा, कहो तो दरीबा से कुछ और मंगवाऊं…। बहू रानी जो कहेंगी, वही आएगा।’
खालिद अभिभूत था। खासतौर पर अपनी जहांआरा बेगम की आवभगत से। उसे इसकी उम्मीद ही नहीं थी। इसी बहाने शहनाज की मुगलिया खुमारी भी धीरे-धीरे उतर रही थी।
फिलहाल शहनाज इतनी भूखी थी कि उसने तय कर लिया था कि पूरा पेट भरने के बाद ही कुछ बोलेगी। खाते-खाते वह शीशे में कैद एक नायाब लहंगे की तरफ भी देख लेती थी।
गुप्ता जी का घर ऊपर था। दुकान नीचे। बगल में एक घर लेकर गोदाम बना रखा था। शहनाज की जिज्ञासा ताड़ते हुए वे बता रहे थेः ‘रंगीले बादशाह और बहादुर शाह जफर तक इस दुकान की मशहूरी रही। शहजादियों-बेगमों के लहंगे-घाघरे इसी दुकान के कारीगर बनाते थे। जार्ज पंचम का जब दरबार लगा तो उनके साथ आई फिरंगी औरतें यहां से सामान ले गईं और आज भी सर जान वाल्टर नामक अंग्रेज हाकिम की भेजी चिट्ठी हमारे पास है।’
उन्होंने दीवार पर लगी एक फोटो भी दिखाई जिसमें राजकुमारी अमृतकौर, विजयलक्ष्मी पंडित उनकी दुकान के बाहर खड़ी हैं। सारे दुकानदार हाथ जोड़े उनके सामने खड़े हैं।
दुकान क्या, यह भी एक तारीख का पन्ना था। शहनाज ने उत्सुकता से पूछाः ‘वह जहांआरा का लहंगा कहां बना होगा।’
इस सवाल पर गुप्ताजी हंसेः ‘बेटा, शाहजहां के दौर में तो सारे कारीगर आगरे से आए थे। लालकिले में उनकी रिहायश का बंदोबस्त था। शहजादियों-बेगमों का अपना बाजार था। तब हमारे पुरखे फर्रूखाबाद से आए होंगे। अब बक्सों में पुराने कागज देखें तो पता चलेगा कि हम कब आए थे। पर इतना बताते हैं कि हमारे पूर्वज लाला गजानन प्रसाद वैश्य ने मुगल कोतवाल अदावत अली को भी उधार दिया था।’
शहनाज को इन बातों में रस तो आ रहा था, पर आत्मा लालकिले के उस लहंगे पर अटकी थी।
खालिद ने उसके हसीन खयालों पर पर कंकड़ी फेंकीः ‘चल जहांआरा की खालाजान, पिलखुआ वाली बस पकड़नी है।’
सेठजी ने फौरन उसका सामान पैक किया। खालिद ने तीन चेक काटे। यानी तीन किश्तों में।
इतने में गुप्ताजी का नौकर यासीन ऊपर से एक और पैकेट ले आया। मालिक के कान के पास जाकर बोलाः माई साहिबा ने दिया है, दरद के मारे उठके आ नहीं पा रही हैं।
खालिद समझ रहा था कि ये सेठ जी नेग-सेग वाली कुछ खानदानी कारगुजारी करने जा रहे हैं।
समझते हुए भी उसने बहाना कियाः ‘चाचा, मैट्रो में जाना है। फिर बस पकड़नी है। इतना सामान कहां ले जा पाएंगे।’
इस बार गुप्ता जी ने दिलदार मगर कड़क ताऊ की तरह डपटते हुए कहाः ‘अमां, एक पैकेट से कौन बोझा बढ़ रहा है। यह लहंगा है बहूरानी के लिए। जहांआरा वाले जैसा तो नहीं, पर हमारे पिताजी बताते थे कि बहादुर शाह जफर की बेगमों के लिए लहंगे यहां से भी जाते थे। यह लहंगा खासतौर पर जीनत महल के लिए बना था। मगर गदर की मारामारी और कटाछान में सारा हिसाब बिगड़ गया। काफी पैसा दरबार में फंस गया। ये लहंगे पहनने वाले लोग ही नहीं रहे…।’
शहनाज तो जैसे सचमुच गदर में खो गई। जीनत महल का नाम भी उसने सुना था। जहांआरा नहीं, तो जीनत ही सही। उसका मन तो किया कि यहीं एक बार जी भरके इस लहंगे को देख ले। पर हिम्मत ही नहीं हुई।
इससे पहले कि खालिद बकबकाता, सेठ सुखबासी लाल गुप्ता ने फरमान सुना दियाः ‘बेगम जीनत महल के लहंगे को लेकर दिल्ली मैट्रो से जाना सख्त मना है। इस नायाब निशानी को लेकर हमारी इनोवा जाएगी पिलखुआ तक।’
खालिद सब समझ रहा था। शहनाज के खुशनुमा चेहरे को देख मुस्कराए जा रहा था। गाड़ी में सामान रखते हुए बोलाः ‘तेरे तो मजे हो गए पिलखुआ की जहांआरा।’
और शहनाज उस लहंगे वाले पैकेट को सीने से लगाए शर्माए जा रही थी। सचमुच नई दुल्हनिया की तरह।
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सुरेश कुमार हिंदी के नवजागरणकालीन साहित्य से जुड़े अछूते विषयों, भूले हुए लेखक-लेखिकाओं पर लिखते रहे हैं। आज स्त्री विमर्श की एक ऐसी लेखिका पर उन्होंने लिखा है जो महादेवी वर्मा की समकालीन थीं। लेकिन उनकी चर्चा कम ही सुनाई दी। इस लेख में प्रियंवदा देवी नामक उस लेखिका की अत्यंत साहसिक और महत्वपूर्ण किताब ‘विधवा की आत्मकथा’ का विश्लेषण सुरेश कुमार ने प्रस्तुत किया है- मॉडरेटर
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बीसवीं सदी के दूसरे और तीसरे दशक में हिन्दी साहित्य में बाल विवाह, विधवा विवाह, बेमेल विवाह, भ्रूणहत्या, व्यभिचार और स्त्री शिक्षा का मुद्दा प्रमुखता से उभरा था। जहां इस दशक में एक ओर पुरुष लेखक स्त्री समस्या पर विचार कर रहे थे वहीं दूसरी ओर स्त्रियां खुद स्त्री वैचारिकी की मुकम्मल जम़ीन तैयार कर रही थीं। हिन्दी आलोचकों ने इस दशक के पुरुष लेखकों के स्त्री कलम का नोटिस तो लिया लेकिन लेखिकाओं का लेखन इनकी दृष्टि से ओझल हो गया है। हिंदी साहित्य में स्त्री लेखन के सूत्र महादेवी वर्मा की आभा के इर्दगिर्द खोजे जाते हैं। जबकि बीसवीं सदी के शुरुआती दशक में रामेश्वरी नेहरू( संपादक ‘स्त्री दर्पण’), श्रीमती उमा देवी नेहरू, विद्याधरी जौहरी, मनोरमा देवी, विमला देवी पंजीकर, कुमारी सत्यवती, ललिता पाठक(मशहूर लेखक श्रीधर पाठक की बेटी) श्रीमती सीतादेवी (संपादक ‘महिला सुधार’)] श्रीमती तेजरानी दीक्षित, श्रीमती चंद्रादेवी लखनपाल एम॰ ए॰ और न जाने ही कितनी लेखिकाएं ‘स्त्री मुद्दा’ बड़ी बेबाकी से उठा रही थी। यह बड़ी दिलचस्प बात है कि सन् 1935 में जब महादेवी वर्मा ‘ऋंखला की कड़ियाँ’ ‘चाँद’ पत्रिका में किस्तवार ‘अपनी बात’ के अंतर्गत लिख रही थीं, उससे पांच साल पहले सन् 1930 में श्रीमती प्रियंवदा ने ‘विधवा की आत्मकथा’ नामक किताब लिखकर पुरुषवादी तंत्र के मुखौटे को बेनकाब कर दिया था। पता नहीं हिन्दी के आलोचकों को सचतेन और आत्मनिर्भर स्त्रियों का लेखन क्यों रास नहीं आता है? इस लेखक में श्रीमती प्रिम्यवदा देवी की किताब ‘विधवा की आत्मकथा’ पर विचार किया जायेगा।
श्रीमती प्रियंवदा देवी हिन्दी नवजागरणकाल की बड़ी महत्वपूर्ण लेखिका थीं। एक ऐसी लेखिका जिन्होंने बीसवी सदी के पुरुष लेखकों से जुदा स्त्री विमर्श की जमीन तैयार की थी। सन् 1930 में प्रियंवदा देवी द्वारा लिखित एक अदभुद किताब ‘विधवा की आत्मकथा’ प्रकाशित हुई। इस किताब में श्रीमती प्रियंवदा ने विधवा विवाह, बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह और व्यभिचार की समस्या को बड़ी शिद्दत से उठाया था। इस लेखिका ने धर्म गुरुओं, मंहतों और पितृसत्ता के पोषकों की बड़ी तीखी आलोचना प्रस्तुत की है। प्रियंवदा देवी का कहना था कि पुरोहित और धर्मध्वजा वाहक स्त्रियों को पूजने का प्रवचन सुबह-शाम बड़े जोर-शोर से देते हैं लेकिन हकीकत यह है कि पुरोहित और पुजारी स्त्रियों को पतित करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते है। यह दिलचस्प बात है कि जहां एक ओर पुरोहित स्त्रियों को ‘देवी’ का तमगा प्रदान करते हैं, वहीं दूसरी ओर स्त्रियों की स्वाधीनता पर पहरा भी बिठा देते हैं। और, यही पुरोहित और पोथाधारी स्त्रियों के अधिकारों पर तोप और तलवार चलाकार उसे मनुष्य होने की गरिमा से वंचित भी कर देते है। श्रीमती प्रियंवदा देवी लिखती हैं:
‘‘आज अपनी दुःख-दर्द भरी आत्मकथा आप लोगों को सुनाऊँ और दिखा दूँ कि जिस जाति के शास्त्रकार डंके की चोट पर बता रहे हैं, कि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवताः’ उसी जाति में, उसी शास्त्र वचन को मानने वाले समाज में, आज नारी-जाति की क्या अवस्था हो रही है और आज नारी-जाति किस तरह पद-पद-पर अपमानित और लांछित हो रही है। ऐं! नारी को रत्न कहा है-हाय हिन्दू समाज! क्या इस रत्न का यों ही आदर होता? क्या रत्न इसी तरह पैरों से ठुकराया जाता है?”
प्रियंवदा अपनी आपबीती में बताती हैं कि उनका विवाह माता-पिता ने एक वृद्ध आदमी से करवा दिया था। प्रियंवदा देवी ने विवाह के लिए बड़ा ही दिलचस्प शब्द ‘जीवन बीमा’ प्रयोग करती है। प्रियंवदा अपने पति के सम्बन्ध में लिखती बताती है : ‘‘हिंदू धर्म के अनुसार वर का नाम लेना मना है, पर क्या करूं, इस समय लाचारी, अतएव कहना ही पड़ता है जिन महोदय के साथ मेरा जीवन बीमा हो रहा था,उनका नाम श्री अमरनाथ था। आपकी उम्र इस समय लगभग चासील वर्ष की थी।’’ किताब में यह जानकारी दी गई है कि अमरनाथ की यह दूसरा विवाह था। प्रियंवदा देवी का जिस व्यक्ति से जीवन बीमा अर्थात विवाह हुआ था। वही व्यक्ति कुछ दिन बाद विधवा बनाकर स्वर्ग सिधार गया था। भारतीय समाज में विधवा विवाह का प्रचलन न होने से विधवाओं को अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता है। प्रिम्यवंदा देवी ने ऐसे पुरोहित और पोथाधारियों के चरित्र को उघाड़ कर रख दिया है जो नैतिकता की आड़ में स्त्रियों का यौन शोषण कर उन्हें पतित कर डालते थे। यह बात तथ्यपरक है कि विधवा स्त्रियों को पुरुष समाज बड़ी ललचाई दृष्टि से देखता था। पुरोहितों से लेकर सगे-सम्बन्धी तक ने विधवा स्त्रियों का अपना नर्म चारा समझ लिया था। अचंभित कर देने वाली बात यह है कि पुरुषों की कामलीला के लिए स्त्रियों को ही जिम्मेदार माना जाता था। बीसवी सदीं के महान संपादक रामरिख सिंह सहगल ने ‘चाँद’ अप्रैल 1923 के संपादकीय में पुरुषवादी मानसिकता के संबंध में लिखा है:
‘‘हम तो यहां तक कहेंगे कि भारतवर्ष में स्त्री-जाति के सम्मान करने की प्रथा और मर्यादा का, साधारण जनता में तो अभाव है ही मगर दुःख के साथ कहना पड़ता है कि अगर किसी सड़क से कोई भी महिला निकल जाए या किसी सभा में कोई स्त्री जाकर बैठे तो उस सड़क और सभा के शायद ही दो चार भले मानुस ऐसे होंगे जो उसकी तरफ व्यर्थ टकटकी लगाने की गुस्ताखी न करें। इन प्रांतों में पुरुषों को स्त्रियों का सड़क पर चलना, सभा समाजों में भाग लेना आदि काम कुछ ऐसे अनोखे मालूम होते हैं कि टकटकी बन्ध जाना कुछ स्वाभविक सा हो गया है। अगर किसी मुहल्ले में किसी स्थान पर विधवाएं एकत्रित की जाए और आस-पास के आदमियों को मालूम हो जाए कि अमुक स्थान पर प्रत्येक दिन स्त्रियां या विधवाएं एकत्रित होंगी तो, खेद के साथ कहना पड़ता है, कि बुरे आदमी ही नहीं, बल्कि ऐसे भी दो चार आदमी जो सज्जन कहलाते हैं आसपास टहलते हुए नजर आवेंगे। तफसील में न जाकर निर्भीकता के साथ हम कह देना चाहते हैं कि स्त्रियों के प्रति सम्मान,सचरित्रता और पवित्रता दिखाने में हमारा पुरुष समाज इतना कमजोर है कि स्त्रियों के उपकार और विधवाओं के उद्धार के लिए, ऐसे आदमी भी जो इनकी दुर्दशाओं का अनुभव करते हैं इस डर से कोई कदम नहीं बढ़ा सकते कि कहीं पुरुष समाज की निन्दनीय अपवित्र प्रेरणाएं असहाय विधवाओं को कुमार्ग और दुष्चरित्रता के अधिकतर यातनापूर्ण और लज्जाजनक गढे़ में न डाल दे, परदा तोड़ने का सुधार, स्त्री शिक्षा का काम, विधवा सहायता की स्कीम अर्थात स्त्री जाति के उपकार की जितनी भी बाते हैं सभी पुरुष समाज की इस निन्दनीय नीचता और नैतिक दुर्बलता के कारण या तो आरम्भ ही नहीं होती और अगर आरम्भ हुईं भी तो थोड़े दिनों में ही अपमान जनक असफलता को प्राप्त हो जाती हैं।’’
हकीकत यह थी की विधवा आश्रम में रहने वाली स्त्रियों के साथ यौन शोषण आम बात हो गई थी। इन आश्रमों में रहने वाली स्त्रियां कामी पुरुषों की दुष्टता से कभी-कभार गर्भवती भी हो जाया करती थी जिनके भ्रूण कभी नाले में और कभी गलियों में पाए जाते थे। चांद पत्रिका में तमाम स्त्रियों की चिठ्ठी-पत्री छपी जिनमें मंहतों की पोल खोली गई थी। चांद नवम्बर 1929 ‘कलकत्ते का सामाजिक जीवन’ शीर्षक से एक लेख प्रकाशित हुआ। इस लेख में स्पष्ट तौर पर बताया गया कि मंहत और पुजारी स्त्रियों के साथ पापाचार में लिप्त है। इस लेख में लिखा गया :
‘‘ इसके अलावा मन्दिरों में लुच्चे पुजारियों तथा अन्य कर्मचारियों द्वारा बहका कर, फुसला कर मन्दिर के अंधेरे कमरों में भगतिनों पर कभी-कभी जो बलात्कार होते हैं, सो अलग। मन्दिरों में अंधेरा काफी रहता है। बेचारी स्त्रियों घूँघट के कारण कहीं ठोकर खाकर रास्ते में गिर भी पड़ती है। मन्दिर के दरवाजे से लेकर मूर्ति तक पहुँचने के रास्ते में छेड़छाड़ का अवसर मिल जाता है। और दर्शन करके रात को जब भी भीड़ लौटती है तो मनचले स्त्रियों को छेड़ते जाते हैं, और प्रायः एकाध महीने में उनका प्रयास पूरा हो जाता है!’’
प्रिम्यवदा बताती हैं कि विधवा स्त्रियों के लिए ससुराल काल कोठरी और मायका कैदखाना था। लेखिका सवाल उठाती है कि यह पुरुष समाज विधवा स्त्री को कुदृष्टि से क्यों देखता है? और, उन्हें बात-बात पर प्रताड़ित कर व्यभिचारणी और कुल्टा के विशेषणों से नवाज कर उनके सीने को छलनी करता रहता है। इस बात से सब परिचित हैं कि पुरुषों ने स्त्रियों को लांछित करने के लिए तरह-तरह के उटपटांग मुहावारे गढ़े हैं। यह लेखिका स्त्री विरोधी मुहावरों का प्रबल विरोध करती हैं। इस लेखिका कहना था कि इन मुहावरों का घोषित लक्ष्य स्त्रियों का कमतर आंकना हैं। प्रियवंदा देवी ने लिखा था:
‘‘लोग कहते हैं नारी नरक की राह बताने वाली है। इस तरह न जाने कितनी तरह के वाक्य नारी जाति को-दबा रखने के लिए गढ़ लिए गये हैं। पराधीन, बहुत दिनों से दुर्दशा और आक्रमणग्रस्त हिन्दू जाति की नारियां ये वाक्य सुनते-सुनते अभ्यस्त हो गई हैं। उन्होंने अपने को वास्तव में दोषी और पराधीन समझ लिया है। यह सब क्यों हुआ है-पुरुषों ने सदा से नारी जाति को दबाकर रखना चाहा है, पुरुषों की स्वार्थपरिता का यह भी एक ज्वलन्त उदाहरण है।’’
यह लेखिका ऐसे लोगों की कड़ी आलोचना और निंदा करती की है जो स्त्रियों को ‘कुल्टा’ की संज्ञा देते हैं। इस लेखिका का कहना था कि स्त्रियों पर कोई लांछन लगाने से पहले पुरुषों को अपने भीतर झांक कर देखना चाहिए कि वे खुद कितने पावन और सद्चरित्र हैं। यह महान लेखिका दो टूक शब्दों में कहती हैं कि यह पुरुष समाज खुद तो जानवरों की तरह गली-गली में जूठन चाटता फिरता और दोष उसे केवल स्त्रियों में दिखाई देता है। इस लेखिका ने पुरुषों के ‘सदाचार के तावीज़’ के एक एक मूंगे की कलई खोलकर रख दी थी। नैतिकतवादी होने का दंभ भरने वाले इस पुरुष समाज का वास्तविक रुप कैसा था? प्रियंवदा के इन शब्दों से अंदाजा लगाया जा सकता है:
‘‘पर सारा पाप क्या स्त्रियों में ही घुसा रहता है? किसी स्त्री पर थोड़ा भी अपवाद सुनते ही आप लोग निकाल बाहर करते है और स्वयं इस तरह गली का जूठन चाटा करते हैं- क्या इससे आपके समाज में दोष नहीं फैलता?’’
प्रियंवदा देवी का आकलन था कि यहां औरतों पर ‘आठ पहर और चौसठ घड़ी’ पुरोहित और सन्यासी सामाजिक अन्याय ढाया करते हैं। लेखिका ने यह भी बताया कि स्त्रियों की दुर्दशा और कुदशा का जिम्मेदार यह पतित पावन पुरुषवादी तंत्र है। लेखिका ने इस किताब में हिंदू विधवाओं के अलक्षित दुख और कष्ट का चित्रण बड़ी शिद्दत के साथ किया। लेखिका बताती है कि पुरोहित और पोथाधारियों ने स्त्रियों का वजूद ही नष्ट कर दिया है। यहां पुरोहित और चौधरियों ने स्त्रियों पर न जाने कैसे-कैसे प्रतिबन्ध लगा रखे हैं। यहां तक विधवा स्त्रियां अपनी इच्छा से वस्त्र भी नहीं ग्रहण कर सकती हैं। वे परिवार के विवाह आदि अवसर में शामिल नहीं हो सकती हैं। क्योंकि यह समाज शुभ अवसर पर विधवाओं का शामिल होना प्रलय के तौर पर देखता था। लेखिका ने सवाल उठाया है कि शास्त्रों की सारी मर्यादा केवल स्त्री पर क्यों लागू होती है ? शास्त्रों के नियंताओं ने पुरुषों के लिए मर्यादाएं क्यों नहीं बनाई? एक विधुर पुरुष तो बड़े शान से शुभ अवसरों में शामिल हो सकता है लेकिन विधवा स्त्री क्यों नहीं? लेखिका लिखती है:
‘‘हाँ, मैं विधवा थी- मेरे लिए ये सभी बातें शास्त्रविरूद्ध थीं। विधवा होंने से ही रंगीन साड़ी तक पहनने का अधिकार चला जाता है। विधवा होने से मानो मन भी सफेद हो जाता है। मन बदले या न बदले अथवा मन की वासनाएं, अभाव के कारण और ही प्रबल हो उठें, तृप्त न होने के कारण और भी धधक उठें, पर मन मारकर रहना ही पड़ता है- यही शास्त्र का वचन है- यही हिंदू धर्म की मर्यादा। पर यही मर्यादा उन पुरुषों पर लागू नहीं होती है, जो एक के मरते ही दूसरा विवाह कर लेते हैं, जो थोड़े दिन भी धीरज नहीं धर सकते जो स्त्रियों में ‘सोलह गुणा काम’ का डंका पीटते पहने पर भी स्वयं एक स्त्री के मरते ही तुरन्त तृप्ति का साधन ढूँढ़ने लगते हैं। शायद परमात्मा ने स्त्री-पुरुष की रचना ही दूसरे ढंग से की हो!’’
आखिर समाज में स्त्री विरोधी माहौल कौन तैयार करता है? स्त्री के अधिकारों पर कुल्हाड़ी कौन चलाता है? और, विधवाओं को पुनर्विवाह करने से कौन रोकता है। लेखिका बताती है कि इन सबके पीछे तथाकथित पुरोहितगण और शास्त्रों के नियंता जिम्मेदार हैं। एक तरह से वेद और पुराण स्त्रियों के लिए जेलखाना में रहने का आग्रह करते हैं। इन्ही संहिताओं के आधार पर स्त्रियों का चरित्र का निर्धारण किया जाता था। यदि कोई स्त्री खासकर विधवा स्त्री इनकी आज्ञाओं को उलघंन करती तो उसके चरित्र पर ऊंगली उठाकर उसे लांछित और अपमानित किया जाता था। यह लेखिका कहती है कि यहां पुरुषों का वश नहीं चलता नहीं तो ये लोग स्त्रियों के ‘नाक’ और ‘कान’ भी कटवा लेते। प्रियंवदा देवी ने स्त्री जीवन की खौलती सच्चाई को प्रस्तुत करते हुए लिखा है:
‘‘पुरुष जाति ने नारीजाति- खासकर विधवाओं पर कितना अविश्वास किया है, इसका सबसे ज्वलंत प्रमाण है, विधवाओं का वेश- श्रृंगारहीन अवस्था में रखना। सच तो यह है कि उनका वश न चला; नहीं तो शायद नाक कान काटने की अनुमति मिल जाती।’’
यह नवजागरणकालीन लेखिका स्त्रियों को पतित बनाने का जिम्मेदार पुरुष प्रधान मानसिकता को मानती है। यह बड़ी बात है जिस दौर में स्त्रियों को अपने पति का नाम तक नहीं ले सकती थी, ऐसे माहौल में यह लेखिका पुरुषवाद मानसिकता से टकरा रही थी। उन्हे स्त्री की दुर्दशा का जिम्मेदार बता रही थी। लेखिका उन विद्वानों और नियंताओं की बड़ी तीखी आलोचना करती है जिनको स्त्रियों में सोलह गुना अधिक ‘काम-भावना’ दिखाई देती है। लेखिका कहना था कि ऐसे लोग नारी जाति के प्रबल शत्रु हैं जो स्त्रियों को ‘काम की पुतली’ समझते हैं। इस लेखिका का कहना था कि पुरोहितों और शास्त्रों की व्यवस्था ने पुरुषों के लिए कोई दंड़ निर्धारित क्यों नहीं किया? शास्त्रों ने पुरुषों को हद से ज्यादा छूट देकर उन्हें अधिक उद्दंड बना दिया है। लेखिका लिखती है:
‘‘नारी जाति काम की पुतली नहीं है – नारीजाति मर्यादा और संयम सहज में नहीं त्यागती, उसे नष्ट करता है विधवा होने के बाद ही उसका ऊसर जीवन, और घरवाले उसे हीन-दासी समझकर दुर्दशापूर्ण व्यवहार, वे पुरुष नारी जाति के बड़े सबसे बड़े शत्रु हैं, जो नारियों में सोलह गुणा काम बताते हैं; पर हैं स्वयं काम के पुतले-स्वार्थों के सरोवर! और धर्माचार्यों ने तो उन्हें और भी उद्दंड कर रखा है, जिन्होंने सारी दंड-व्यवस्था का प्रयोग स्त्री जाति पर ही कर दिया।’’
यह लेखिका बताती है कि यह पुरुष समाज बड़ा षड़यंत्रकारी होता है। स्त्रियों के साथ कदम-कदम पर फरेब देकर छलता रहता है। लेकिन शास्त्रवादी व्यवस्था में इनके छल-प्रपंच को लेकर कोई दंड़ विधान नहीं है। इन पुरुषों के पापाचार को देखकर पुरोहित गण न जाने कहां छुप जाते हैं। यह पितृसत्तावादी स्त्रियों के संबन्ध में मिथ्या सूचना पर भी स्त्री को दूध की मक्खी की तरह समाज से निकाल फेंकने का फरमान सुना देते है। विडम्बना देखिए कि पुरुष अपने सिर पर व्यभिचार की पगड़ी बांध कर समाज में कहीं भी स्वच्छंद घूम सकता है। पुरुष समाज के इस चरित्र की झांकी प्रस्तुत करते हुए प्रिम्यवदा देवी लिखती है:
‘‘विधवा या अबला स्त्री ही क्यों, जब कभी प्रलोभनों का फंदा हेर-फेरकर कोई पुरुष किसी स्त्री को फँसा ले जाता है, तो अपराध उस स्त्री का ही माना जाता है और वह पुरुष कुछ दिनों तक उसके साथ पापवासना चरितार्थ कर जब घर लौटता है, तो सारा अपराध उस स्त्री पर लादकर स्वच्छंद घूमता है। समाज उस पुरुष को कोई दंड़ नही देता और वह अबला दूध की मक्खी की तरह समाज से निकाल कर बाहर कर दी जाती है।’’
प्रियंवदा देवी की किताब ‘विधवा की आत्मकथा’ नवजागरण काल का एक ऐसा आईना है जिसमें पुरुष समाज की करतूतों और षड़यंत्र का बड़े स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। पश्चिमोत्तर प्रांत से लेकर कलकत्ता की स्त्रियों के आलक्षित जीवन पर यह किताब प्रकाश डालती है। यह कोई छोटी बात नहीं थी कि जब चारों ओर पुरुषों का साम्रज्य व्याप्त हो लेखिका ने स्त्री अधिकार और स्वतंत्रता का सवाल उठाने का सहास दिखाया था। प्रिम्यवदा देवी का लेखन पितृसत्तावादी समाज के सीने पर चुभने वाली उस कील की तरह है जिस पर स्त्री अधिकारों की दावेदारी टिकी हुई है। बीसवीं सदी के तीसरे दशक में लिखी गई यह किताब निश्चित ही पितृसत्तावादी समाज को आईना दिखती है और पुरुषतंत्र की बखिया उधेड़ कर रख देती है।
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(सुरेश कुमार नवजागरणकालीन साहित्य के गहन अध्यता हैं। इलाहाबाद में रहते हैं। उनसे 8009824098 पर संपर्क किया जा सकता है)
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सुमेर सिंह राठौड़ पक्के न्यू एज राइटर हैं। न्यू एज राइटर से मेरा मतलब यह नहीं है कि जो कैम्पस पर लिखे, प्रेम पर लिखे बल्कि वह जो अलग अलग माध्यमों को समझे, उनकी सम्भावनाओं-सीमाओं को समझते हुए उनका बेहतरीन उपयोग करे। आप अगर सुमेर जी के चित्रों को देखेंगे तो उनकी हर चित्र में एक कहानी होती है, उनके फ़ेसबुक स्टेटस में भी कुछ नयापन होता है और जब वे गद्य या पद्य में लिखते हैं तो उसकी अलग छटा होती है। कहने का मतलब है कि प्रत्येक माध्यम में उनकी अभिव्यक्ति का रूप अलग होता है। आज उनकी लॉकडाउन डायरी पढ़िए-मॉडरेटर
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ऐसा लगा कि अब हम इसी जीवन के आदी हो जाएंगे। लेकिन अब कोफ़्त होने लगी है। इन दिनों से निकलने को जी करता है। कितनी भली चीज़ें यादों की शक्ल में ज़ेहन में उभरने लगी हैं। वे सब जगहें, व सब लोग, वे सब बातें जिन्हें आगे बढ़ते-बढ़ते किनारे लगाते गए अब फिर से खींचने लगी हैं। अब वे दिन भी याद आने लगे हैं जो खरोंचों की तरह आए थे और फिर एक दिन सूखकर बिना पता चले ही गायब हो गए थे।
कितने दिन बीत गए। दिन क्या अब तो महीने बीत गए हैं। लिखे हुए को फिर से लिखने बैठा हूँ। आज भी देर से छत पर बैठा आसमान देख रहा हूँ। आसमान वैसे ही भरा हुआ है लेकिन अब वैसी शांति नहीं है। खूब आवाज़ें हैं। जीवन के चलते रहने की आवाज़ें। अब इस जगह पर बैठकर छलावा नहीं हो रहा कि मैं अपने रेगिस्तान में बैठा हूँ। रेगिस्तान याद बनकर उभर रहा है। इन दिनों का रेगिस्तान का जीवन मुझे खींच रहा है। गर्म दिनों के सुख याद आ रहे हैं।
यहाँ तो इन दिनों सारे मौसम इसी एक घर में सिमटे हुए हैं। कमरे में ठंड है। छत पर गर्मी है। और कूलर के आगे सो जाओ तो बूँदें बरसने लगती हैं। साठ से ज्यादा बीत चुके हैं बाहर की दुनिया को देखे हुए। जिस बाहर की दुनिया से बचकर भागते रहे अब वह बहुत याद आने लगी है। बाहर की दुनिया से भागने का सुख भी बाहर की दुनिया में रहते हुए ही मिलता है। कितनी चीज़ें ऐसी जिन्हें अब लगभग भूल ही चुके हैं हम। अंतिम बार घर का ताला कब लगाया था यह भी याद नहीं। अब जब हम अपनी रोजमर्रा की ज़िंदगी की ओर फिर से लौटने के लिए घरों से बाहर निकल रहे हैं तब घर का ताला लगाने के लिए बहुत देर तक हमें अपनी-अपनी चाबियाँ खोज रहे होंगे। बाहर निकलकर कहीं पहुँचने के लिए हमें सिर्फ अपने घरों और गाड़ियों की चाबियाँ ही नहीं बसों के पास, मेट्रो के कार्ड और भी ऐसी तमाम जरूरी चीज़ें खोज रहे होंगे जिन्हें भूलने लगे हैं हम। शायद ये सब ऐसी चीज़ें जिन्हें किसी भी क़ीमत पर छोड़ नहीं सकते हैं हम।
अपनी दुनिया जो हमसे बार-बार छूट जाती है उस दुनिया के पास होने का सुख मौत के दुख पर बहुत भारी पड़ता है। घर से लगातार फोन आते रहे कि अपने घर लौट आना चाहिए मुझे। पर मैंने खुद को रोके रखा। अब भी खुद को रोके हुए हूँ ना जाने क्यूँ। इन दिनों कई-कई बार खुद को कोसता हूँ अपने फैसलों के लिए। पर आसपास को देखते हुए लगता है कि सिर्फ अपने बारे में सोचकर फैसले नहीं लेने चाहिए। हमारी भावुकताओं का खामियाजा जाने कितनी ज़िंदगियों को उठाना पड़ जाए। मैं खुद को इसलिए भी रोके रह पाया क्योंकि एक घर के अंदर रहने के लिए तमाम सुविधाएँ मौजूद हैं मेरे पास। इन दिनों हम सबको जिनके पास सुविधाएँ हैं उन्हें सबसे ज्यादा जो चीज़ कचोट रही है वो ये सुविधाएँ ही हैं। जिन्हें भोगते हुए कभी कोई तस्वीर याद आ जाती तो कभी कोई फोन कॉल। तस्वीरें सड़कों और पटरियों पर बिखरी उन तलाशों की जिसके लिए लोग घर छोड़कर हज़ारों किलोमीटर दूर गए थे। तस्वीरें हज़ारों किलोमीटर पैदल, रिक्शा चलाकर, ट्रकों में छिपकर जो लोग अपने घरों को निकल पड़े हैं उनकी। फोन कॉल्स उन लोगों के बारे में जो कहीं फंसे रह गए बिना किसी बुनियादी सुविधा के।
कोरोना और लॉकडाउन के दिनों का यह मौसम गाँव में गर्म दिनों का मौसम है। लोग फसलों से निभर चुके हैं। इस मौसम में गाँव से पहले तस्वीरें आई खेतों से। कोई कटती फसलों की तो कोई निकलते अनाज की। यह दीवाली बाद की पूरी मेहनत के, ठिठुरती रातों के रतजगों के फलने की तस्वीरे थीं। इन दिनों में जब अचानक से आसमान बादलों से भरने लगता था तब माथे पर उभरती लकीरें उन्हें किसी भी भय से अंदर बैठे रहने के लिए नहीं रोक पाती। जीवन जीने के जतन मौत के डर से कितने ज्यादा जरूरी हैं। इन दिनों सूखे मौसम के सुख भरे हैं तस्वीरों में। जाळों के पेड़ पीलूओं से भरे हैं। खेजड़ियाँ सांगरियों से और कैर के झाड़ियों में झूल रहे हैं लदे हुए कैर। पगडंडियों की सुबहें पीलूओं से बरतन भरकर लौट रही हैं। बरामदों की दोपहरें कैर और सांगरियाँ चूंटते हुए ऊँघ रही हैं। इन दिनों की साँसें गर्म हवा के झोंकों को ठंडा करने के जतन कर रही हैं।
इस बीच इन लम्बी दूरियों के दिनों हम सब कितने पास आ गए हैं। कितने ऐसे लोग जो हमारी निजी दुनियाओं से खो गए थे अचानक से लौटने लगे हैं। यह वक़्त शायद दोस्तियों, रिश्तों को एक नये सिरे से समझने की कोशिश करने का भी है। ये पिछले कुछ महीने दिनोंदिन कैसे भारी होते चले गए हैं। शाम के धुंधलके में अपने होने के सुखों से कोसों दूर जानी-पहचानी अनजान जगहों पर आसमान निहारते हुए आने वाले दिनों के बारे में सोचते हुए अचानक फूट पड़ते हैं हम और धीरे-धीरे रात के अंधेरे में छिपाने लगते हैं खुद को। एक अजीब सा खालीपन और डर हावी होने लग जाता है। कभी दूर अपने गाँव पैदल लौटते लोगों की तस्वीर देखकर घर की याद आ जाने पर। कभी जिम्मेदारों की तमाम लापरवाहियों को भुलाकर उनके द्वारा बुने जा रोशनियों, आवाज़ों और झूठ के जाल में फंसते लोगों की मुर्खताओं पर। कभी इन तमाम मौकों पर जहाँ बोलना जरूरी होता है खुद को अपनों के ही सामने खड़ा पा कर।
पर तमाम अंधेरों के बाद, तमाम सूखे के बाद भी रेगिस्तान के इन दिनों के मौसम की तरह हरेपन की उम्मीद तमाम पतझड़ों से उबर जाने का सुख देती है। कि इस मौसम में भी जीवन खिलेगा। किसी बरामदे से आयेगा ठंडी हवा का झोंका और सुखा जायेगा पसीने से तरबतर माथा। कि एक दिन यह बीमारी भी बीत जायेगी। इसका डर भी बीत जायेगा। हमारे थमे हुए पाँव फिर से चलने लगेंगे। चलते हुए पाँवों के छाले भी मिट जायेंगे। अपनों को कँधों पर उठाये लोगों का रोना भी चहक में बदलेगा। कि हम अपनी-अपनी दुनियाओं में बिना किसी डर के हँसते हुए लौटेंगे। कि जीवन हर बार की तरह फिर से अपने ढर्रे पर लौटेगा।
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सुहैब अहमद फ़ारूक़ी पुलिस अधिकारी हैं, शायर हैं। वेब सीरिज़ पाताललोक पर उनकी कहानी पढ़िए। मुझे पाताललोक देखने की सलाह उन्होंने ही दी थी। अब समझ में आया क्यों दी थी। दिलचस्प है- प्रभात रंजन
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तनहाई का शोर है यूं घर आँगन में
कैसे कोई बोले कैसे बात करे
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—‘ख़ुदा का खौफ़ खा मुन्ना! दोज़ख में जाएगा!’ अम्मी की फटकार वाली आवाज़ आई बाहर से, ‘रमज़ान चल रहे हैं। टीवी बंद कर दे!’
‘चित्रहार’ का पहला गाना अभी आधा ही हुआ था कि मुन्ना यानि ख़ाकसार ने, बाहर वाले कमरे के दरवाज़े पर खड़ी रोज़ेदार और पवित्रता की प्रतिमूर्ति बनी बड़ी बहन को घूरते हुए, टीवी की अर्धघुटी आवाज़ को पूरा घोटते हुए वॉल्यूम के स्विच से टीवी को ऑफ कर दिया। तब टीवी की आवाज़ कंट्रोल करने और खुलने-बन्द करने के फंक्शन वाला बटन एक ही होता था। सन इक्यासी में रोज़े मानसून में आए थे। हम स्योहारा सेट हो चुके थे। बड़ी बहन वैसे तो नमाज़ की पाबंद शुरू से ही हैं। मगर रमज़ान में वह पूरी तरह धर्मपरायणता और पवित्रता का आदर्श रूप हो जाती थीं। मुझसे छोटे दोनों भाई बहन तो उनकी फ़ायर-रेंज से बाहर थे मगर मुझ पर और मुझसे बड़े भाई पर उनकी तबलीग़ प्रतिशतता के सौंवे अंक तक आज़माई जाती थी। जब हम दोनों डाइरेक्ट एक्शन से उनके क़ाबू में नहीं आते थे तब वह छद्म युद्ध का सहारा लेती थीं। इस प्रकार के युद्ध के मारक हथियार लाँछन व चुग़ली है।उनकी दृष्टि में हमारे धार्मिक उत्थान के लिए ये हथियार नितांत आवश्यक थे। हालांकि चुग़ली इस्लाम में ख़ुद बड़ा गुनाह है और इसकी उपमा मुर्दा भाई के गोश्त खाने से दी गई है। मगर धर्म-सुधारक का स्वभाव ‘गरल धारण’ वाला हो जाता है जो विधर्मी को सहीह मार्ग पर लाने के लिए ‘मुर्दा भाई के गोश्त खाने’ जैसे नाक़ाबिले कुबूल कृत्य को भी सद्भावना के साथ बर्दाश्त किया जा सकता था। हम दोनों भाइयों के रोज़े की शुचिता, नमाज़ की पाबन्दगी और क़ुरआन शरीफ़ की तिलावत की रिपोर्टिंग उन्हीं के ज़रिये अल्लाह मियां को तो पता नहीं पहुँचती थी या नहीं मगर, अम्मी तक ज़रूर हर घंटे के अंतराल पर पहुंचाई जाती थी।
मंज़र कशी कुछ ऐसे की वाइज़ ने हश्र की
मस्जिद को हम भी खौफ़ के मारे चले गए
उन दिनों मैं ‘साप्ताहिकी’ मे बतलाए हफ्ते भर के प्रोग्राम पूरी बारीकी से ऐसे नोट करता था कि जैसे कोई रिसर्च स्कॉलर अपना जर्नल लिखता है। वह बात अलग कि बिजली चाहे पूरे हफ्ते में कुल मिला कर घंटो के हिसाब से, ठोस रूप में, सिर्फ एक दिन के बराबर ही आए। उन दिनों रमज़ान के फज़ल से बिजली आ रही थी और चित्रहार का वक़्त भी हो चला था। अफ़तार और नमाज़ से फ़ारिग होकर अम्मी बाहर आराम फ़रमा रही थी। बड़ी बहन किचन में व्यस्त थी। रमज़ान में मुसलमान घरों में उन दिनों टीवी शैतान की तरह बंद कर दिया जाता था। फ़र्क़ यह था कि शैतान अल्लाह-मियां के हुक्म से क़ैद होता था और टीवी/रेडियो बुज़ुर्गाने दीन के फ़रमान से। तो आदमी के काम में कुछ गुंजाइश निकल ही आती है तो पापा तीसरे रोज़े ही से सिर्फ़ खबरें सुनने के लिए वे भी बीबीसी पर, रेडियो आधे घंटे के लिए खोलते। फिर हफ़्ते भर में ही हालाते हाज़रा पर मबनी ‘सैरबीन’ रेडियो-प्रोग्राम का प्रचार व प्रसार एक घंटे तक हो जाता। कुछ दिनों बाद ‘समाचार’ दूरदर्शन पर सचित्र हो जाते। तब यह समझ लिया जाता था कि समाचार देखने से इतना गुनाह नहीं होता था जितना कि गाने और पूरी फिलिम देखने से । उस दिन शैतान ने ज़्यादा ज़ोर मारा और कुछ मेहनत साप्ताहिकी लिखने की भी वसूलनी थी। लेकिन भला हो ज्येष्ठ सहोदरा का कि उन्होने हमें गुनाह से बचाकर अपने ख़ुद के नेकियों के खाते को मालामाल कर लिया था।
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मेरे खयाल में ज्ञात इस्लामिक इतिहास में यह पहला रमज़ान होगा कि जब मस्जिदों के साथ-साथ नमाज़ी भी अपने घरों में बन्द थे। मेरे इस शे’र, जो अब मेरी पहचान है, की सार्थकता ही नहीं रही:-
तमाम रात दरे मैकदा खुला रखना
सुना है कोई तहज्जुद गुज़ार आएगा
पहली बार महसूस हो रहा था कि धार्मिक और आध्यात्मिक सफ़ाई के इस वार्षिकोत्सव में मेरा जैसा मुसलमान भी नियमबद्ध रोज़ा-नमाज़ कर लेता था, उसको अब पता ही नहीं चल रहा था कि ‘जुमा’ कब है और तरावीह का वक़्त कब। कहने का मतलब है साम्यवाद के इस महामारी-काल में जुमा का पवित्र दिन भी हफ्ते के बाक़ी साधारण दिनों से अलग नहीं रह पाया। मुझ जैसे नमाज़ी भी कम से कम जुम्मे को मस्जिद का रुख़ देख ही लेते थे। मेरे ख़याल में यह आपदा काल ख़ुदा की फटकार है। साथ ही चिंतन और मनन का समय भी है।
पिछले साल जनवरी के पहले हफ्ते में अपने एक बेचमेट बल्लू भाई का फ़ोन आया कि उनके हवाले से एक लड़के का फोन आएगा जो कि फिल्मों में अभी शुरुआत कर रहा है, उसको उर्दू के कुछ टिप्स देने हैं। बल्लू का काग़ज़ाती नाम Balram Singh Baniwal है जो सूबाए देहली के पित्थोपुरा उर्फ पीतमपुरा गाँव के मुक़ामी बाशिंदे हैं। दिल्ली की इसी मुक़ामियत व चौधराहट के सिलसिले में पैरामिलिट्री की असिस्टेंट कमांडेंट की गैज़ेटेड नौकरी छोडकर दिल्ली पुलिस में थानेदारी में भर्ती हो गए थे। ख़ैर मेरी उनसे क़ुरबत पढ़ने पढ़ाने की निस्बत से रही है क्यूंकि पुलिस की ख़ुश्क और मसरूफ़ नौकरी में पढ़ने-लिखने का मतलब सिर्फ शिकायत-रपट-मज़रूब-मुल्ज़िम-ज़िमनी-चालान ही है। उसी दिन शाम को एक फोन आया, नाम कुछ अलग सा था मगर बलराम के हवाले से ही था। रात को आठ के बाद आने का वक़्त दे दिया।
भाई साहब का नाम Ishwak Singh है। आए। बिलकुल पब्लिक स्कूल के किसी फ़र्स्ट बेंचर की पर्सनेलिटी थी। इशवाक ने बताया कि वह ‘वीरे दी वेडिंग’ में सोनम कपूर के मंगेतर का रोल कर चुके हैं। रिफरेंस बलराम का था। बेयक़ीनी का मामला ही नहीं था। उनका नाम सुनना तो छोडिये मैंने वीरे दी वेडिंग का नाम भी जनरल नॉलेज के तौर पर ही सुन रखा था। इशवाक ने बताया कि वह एक वेब-सीरीज़ में दिल्ली-पुलिस के सब-इंस्पेक्टर का रोल कर रहे है जो कि मुसलमान है। खैर दो सिटिंग में इशवाक साहब को वांछित सभी जानकारी दे दी गयी जो कि उनके किरदार से सम्बंधित थी। बीच में फोन पर बात होती रही उनसे। अक्तूबर 2019 में वह थाना साउथ एवेन्यु भी आए । संजोग से Kashf साहिबा और बिटिया भी आई हुई थीं ।
इस रमज़ान में ‘पाताल-लोक’ रिलीज़ हुई। मनोरंजन के सामूहिक स्थल जैसे सिनेमा-हाल, मॉल इत्यादि ख़ुदा के वबाई फरमान के चलते बंद थे। मुशायरों में न शामिल होने की कसक फेसबुक लाइव से निकाली जा रही थी। लेकिन ‘दोज़ख-रसीद’ होने का बचपने वाला डर इस सीरीज़ को देखने से रोक रहा था। लेकिन ‘सैर-बीन’ और समाचार की तरह फेसबुक और दूसरी सोशल साइट्स से शैतान छोटे गुनाहों के लिए बरग़ला ही लेता था। तो हज़रात तीन दिनों में ड्यू इबादतों और दीगर मज़हबी फ़राइज़ के बीच ‘पाताल-लोक’ देख ही ली। कोई और मुआमला होता तो शायद न भी देखता मगर पर्सनल दो चीजें ‘दिल्ली-पुलिस’ और सब-इंस्पेक्टर इमरान अंसारी इसमें थीं और अब अपने ऊपर बड़ी बहन की अनुशासनात्मक छड़ी भी नहीं थी। तो थोड़े गुनाह का रिस्क उठा ही लिया।
पहले तीन एपिसोड तक तो मैं इस सीरीज़ को उपरोक्त वर्णित दोनों निजी बाध्यताओं की वजह से देखता रहा।
कुछ ख़ास न था। लेकिन चारों में से एक मात्र मुल्ज़िमा ‘चीनी’ का लिंग-परिवर्तन (दर्शकों की दृष्टि में) इस सीरीज़ में टर्निंग-पॉइंट था। फिर तो अंत तक सीरीज़ में धमाके ही होते रहे। पाताललोक_में_कीड़े_रहते_हैं इसका अनुभव एक पुलिस वाला भली भांति कर सकता है। क़ुरआन में मानव योनि को अशरफ़ुल-मख्लूक़ात अर्थात प्रकृति की सर्वोत्तम कृति कहा गया है लेकिन आप दिल्ली के किसी रेल्वे स्टेशन, ****पुरियों, कोठों और कच्ची कॉलोनियों के पाइपों के बीच में ‘कुछ दिन तो गुजारिए’ को अनुभव करें। तो क़सम से आपके सभ्य जीवन के तत्वों का ज्ञान अपनी मीमांसाओं के साथ उड़न-छू हो जाएगा और त्वरण के सारे कीर्तिमानों को तोड़ते हुए अपने घर-समाज पहुँच कर अपनी दोस्त-भाई-माँ-बहनो-बेटियों को आदर देने लगोगे।
सीरीज़ के अंत तक मैं न चाहते हुए भी ख़ुद को हाथीराम से रिलेट होने न रोक सका। खैर यह तो फिलिम ठहरी। फिल्म भी तो साहित्य का एक रूप है और साहित्य तो समाज का ही दर्पण है। एक सफल पुलिसवाला फेमिली फ्रंट पर असफल रहता है। कुछ हद तक ठीक बात है । हाँ अगर आपको पारिवारिक सपोर्ट है तो दोनों जगह सामंजस्य बैठा सकते हैं। बाप-औलाद के परस्पर सम्बन्ध वाले सीन में मैंने असहजता महसूस की। वाकई पुलिस की नौकरी में आपके बच्चों से मात्र कूटनीतिक संबंध ही बन पाते हैं। आह!
जर्नलिज़्म, कारपोरेट-राजनीति, डीसीपी-साहब, अपराध-राजनीति, सीबीआई वगैरह पर टिप्पणी मेरे स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है। हाँ इतना ज़रूर कहना है कि मनोरंजन की किसी भी विधा की तरह वेबसीरीज़ का अनंतिम उद्देश्य भी धनोपार्जन ही है। भाइयों यदि ऐसा नहीं दिखाया जाएगा तो आदर्श और ईमानदारी की बातें तो आपको धर्मशास्त्र भी बता सकते हैं। चाहे तो उनको घर की सबसे ऊंची अलमारी से उठा कर पढ़ लेना।
मैं जवानी में इशवाक सिंह जैसा खूबसूरत तो नहीं रहा। मतलब खूबसूरत तो शायद अब भी नहीं। हाँ सीरीज़ में दिखाई गई नौकरी के प्रोस एन्ड कोन्स वाली हालत कमोबेश झेली है। कुछ दोस्तों को यह सीरीज़ जातीय और धार्मिक आधार पर प्रेज्यूडिस लग सकती है। लेकिन इसको आप मात्र धार्मिक-अल्पसंख्यता और जातीय कमज़ोरी का मामला नहीं समझे। धर्म-जाति की लड़ाई से अधिक यह विचारों की संख्यात्मकता का द्वंद्व है। जो गिनती में कम है उनको अस्तित्व के लिए संघर्ष करना ही पड़ता है। रही बात विद्वेष, पक्षपात, भेदभाव की तो इसका उदाहरण आपको हर समय-काल, स्थान में मिल जाएगा।इतिहास के कालक्रम की निकटता के लिहाज़ से कर्बला की लाल मिट्टी देख सकते हैं और स्थानीय निकटता के समीप देखना हो तो कुरुक्षेत्र देख लीजिये। यह डार्विनवाद है अर्थात ‘It is not the strongest species that survive, nor the most intelligent, but the ones most responsive to change.’ यदि ऐसा न होता तो इस वेबसीरीज़ के चारों मुल्जिमान कथित रूप से सवर्ण, दलित, अल्पसंख्यक और स्त्रेणगुण धर्मी न होते।
पाताललोक की भाषा वगैरह पर टिप्पणी से पहले यह सोचें कि हम लोग अपने रोज़मर्रा में क्या भाषा इस्तेमाल करते हैं। यह कम से कम 18+ के प्रमाणन में तो है। गाली और अश्लीलता बच्चा सबसे पहले अपने परिवार से सीखता है। ढकोसला छोड़ कर आइए आँखें मूँद कर अंतरदृष्टि से देखें तो आप पाएंगे आपने अपनी पहली गाली अपने बाप से या चचा से सीखी होगी। हर संघर्ष आदिम हैं। आदम का बच्चा हर परिस्थिति में लड़ने का बहाना ढूंढ ही लेता है। इस वेबसीरीज़ में दर्शाये गए कुछ सींस व बोले गए कुछ शब्दों विशेषकर एक ‘अंग-विशेष’ को लेकर बोले गए शब्द से मेरे जैसे नाम वालों को ऐतराज़ होगा। मैं फिर कहता हूँ, अपने भीतर देखें। आपके यहाँ भी आपस में ‘खटमल-मच्छर’ का इस्तेमाल खूब होता है। मनोरंजन को मनोरंजन की नज़र से देखिये जनाब। यही सहिष्णुता है।
मुझे संतोष है कि सब इंस्पेक्टर इमरान अंसारी ने मेरे द्वारा कराये गए डी कोर्स को खूब अच्छी तरह अपनी रेगुलर सर्विस में निभाया है। जो ज़िम्मेदारी आपको समाज और आपके मैंटर ने दी उसको, उपलब्ध रिसोर्सेज़ के साथ बिना शिकायत के कैसे निभाया जाता है एसआई अंसारी से सीखें। दुआ करता हूँ कि अगले सीज़न में यह आईपीएस बनें और इनको AGMU Cadre अलॉट हो ।
इस वेबसीरीज़ की मेरी खोज अभिषेक बनर्जी हैं। मिरज़ापुर में उनका किरदार बाहुबली-पुत्र की छाया में दब गया था। पातालोक में इस ‘त्यागी’ की भाव-भंगिमा बोलती है, डॉयलाग नहीं। ‘लंगड़ा’ के बाद भारतीय फिल्मों के त्यागी इतिहास में हथोड़ा त्यागी संभवतः दूसरा नाम है जो स्वर्णिम रूप में लिखा जाएगा।
उपसंहार: ज्ञात मानवीय इतिहास में पहला महायुद्ध महाभारत का है। वैसे तो हर युद्ध धर्म और अधर्म का है। प्रथम पक्ष अपने को धर्म का ध्व्जवाहक मानता है और अचरज होता है कि ऐसा ही दूसरा पक्ष भी सोचता है। लेकिन फैसला तो निष्पक्ष अर्थात सेकुलर ईश्वर ही करेगा। महाभारत की अंतिम कथा सुनाता हूँ। सुनी तो होगी ही। स्वर्ग के द्वार पर इन्द्र्देव आतुरता से धर्मराज युधिष्ठिर का इंतज़ार कर रहे हैं।ज्येष्ठतम-पाण्डव अपने पीछे असमान नेह (द्रौपदी), बौद्धिक अहंकार (सहदेव), आत्ममुग्धता(नकुल), अति आत्मश्रेष्ठता (अर्जुन) व अतृप्ता (भीम) को को छोड़ कर यहाँ पहुंचे हैं। वह सदेह स्वर्गलोक में जाने के लिए विशेषाधिकृत हैं। परंतु, कुत्ता साथ है।
—‘कुत्ता मेरे साथ ही जाएगा!’
—‘ यह संभव नहीं है। सबको स्वर्ग नहीं मिल सकता। कुत्ता बूढ़ा व मरियल है और धेले का नहीं है।’
धर्मराज अचल हैं ।
‘जो उनके साथ पूरे रास्ते भर वफ़ादार रहा उसको अब कैसे छोड़ा जा सकता है। स्वर्ग के मिलने का सुख अपने प्यारे ‘साथी’ को खोने के दुख के मुक़ाबले कुछ नहीं है।’
‘ इसमें मेरे भाइयों और पत्नी वाली कोई भी कमी नहीं है जिसके कारण इसको छोड़ा जा सके। अगर यह स्वर्ग में प्रवेश के योग्य नहीं है तो मैं भी नहीं।’ वह अपने तर्क इन्द्र्देव को बताकर स्वर्गप्रवेश की संभाव्यता को नकारते हुए पलट कर चलने लगते हैं ।
बाक़ी आपको पता ही है। मेरा मक़सद आपको यह याद दिलाना है आपके साथ आपका धर्म ही जाएगा। नेह, बुद्धि, सुंदरता, मुग्धता, बल आदि सभी गुण इस नश्वर संसार में छोड़ने पड़ेंगे। संसार की तुच्छ से तुच्छ चीज़ ईश्वर की बनाई हुई है। यह आपका और मेरा वहम है कि आप मुझसे और मैं आपसे बड़ा और बलशाली हूँ । इस कोरोना वाइरस को ही देखिये। देख भी कहाँ पा रहे हैं? अब सब बलशालियों ने भी कह दिया है न कि इसके साथ ही जीना पड़ेगा। अतः सबका सम्मान कीजिए। सिंबयोसिस भी यही है।
वीडियो में दिखाए गए कुत्ते इंडिया गेट राजपथ के निवासी हैं । अफ़तार के बाद आजकल मैं इनके साथ वॉक करता हूँ। कह सकते हैं जुम्मा-जुम्मा आठ दिन की यारी है। मगर यारी तो है। चलिये छोड़िए। नया शे’र सुनिए जो इशवाक सिंह द्वारा निभाए गए किरदार सब-इंस्पेक्टर इमरान अंसारी की सहिष्णुता को नज़्र करता हूँ :-
तनहाई का शोर है यूं घर आँगन में
कैसे कोई बोले कैसे बात करे
दुआओं में याद रखिएगा ।
Moral of the discussion: When a dog loves man, he is a good man. — When a man loves dog, he is good man. Commando One-Eyed बोले तो काना कमांडो of patallok
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लॉकडाउन डायरी आज भेजी है ब्रिटेन से प्रज्ञा मिश्रा ने। मृत्यु और दुनिया भर की क़ब्रों को लेकर लिखा गया यह गद्य इस समय की भयावहता को तो दिखाने वाला है ही भौतिकता की निस्सारता का पाठ भी है- मॉडरेटर।
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कोरोना वायरस के फैलने का जो सबसे बड़ा और गहरा असर है वह है गिनती करते रहना कि आज कितनी जानें गयीं और यह गिनती दिन ब दिन बढ़ती ही जा रही है, अखबारों को एक्स्ट्रा पन्ने छापने पड़ रहे हैं कि आखिर इन खत्म हो चुकी ज़िन्दगियों को एक विदाई दे सकें, इस दौर में जहाँ कोई भी रीति रिवाज कायम नहीं रखा जा सकता ऐसे में इन लोगों को किस तरह से सम्मान और प्यार के साथ विदाई दी जाए यह सवाल सबके सामने है। टीवी और रेडियो पर भी अलग प्रोग्राम आ रहे हैं जहाँ लोग अपने घरों से ही अपनी यादें बाँट सकते हैं। जब हम न्यू यॉर्क में mass burial देखते हैं तो उन लोगों की तकलीफ का अंदाज़ा लगाना नामुमकिन हो जाता है जिनका कोई अपना यहाँ दफ़न होगा।
प्राग शहर में यहूदियों का कब्रिस्तान है, यह शायद दुनिया का सबसे ज्यादा भरापूरा कब्रिस्तान है जहाँ कहा जाता है कि एक लाख से भी ज्यादा लोग दफन हैं। इस कब्रिस्तान में पंद्रहवीं सदी की भी कब्रें हैं और कहा जाता है करीब १२ सतहों में लोग दफन हैं, और इतने बरसों बाद भी वहां आज भी १२ हजार कब्र पर लगे हुए पत्थर मौजूद हैं। वहां उन कब्रों के बीच चलते हुए एक अजीब सा एहसास होता है , ऐसी शान्ति जो किसी बुरे होने की आशंका के सच हो जाने के बाद मिलती है। क्योंकि तब वो सब हो चुका है जिससे आप डर रहे थे, जो नहीं होना चाहिए था वो भी हो चुका है, यह जानते ही जो कुछ पल को दिमाग सुन्न सा हो जाता है, ऐसा ही कुछ एहसास होता है। उन लोगों की यातनाओं की कहानी रेडियो पर आपके कान में बज रही होती है और आप यह १३१० की कब्र है और इनकी कहानी यह है यह सुनते हुए वहां. खो जाते हैं।
वैसे तो दुनिया में खूबसूरत कब्रिस्तान या ग्रेवयार्ड की लिस्ट बहुत लम्बी है लेकिन मास्को शहर में जो रईसों या नामचीन लोगों का कब्रिस्तान है उसकी बात ही कुछ अलग है, वहां न सिर्फ बड़े बड़े मकबरे बल्कि मूर्तियां और आर्ट पीस भी देखने को मिल जाते हैं। यह ऐसी जगह है जहाँ दफन होने के लिए इंसान को कुछ न कुछ हासिल करना होता है। यहाँ गोगोल, और चेखव की कब्रें ढूंढने के लिए बड़ी मेहनत लगी क्योंकि रूसी भाषा बोली अलग ढंग से जाती और उसकी लिखावट बिलकुल ही अलग है और इंग्लिश में पूछो या हिंदी में वहां सबका मतलब एक सा ही था। लेकिन यह देख कर अच्छा भी लगा कि इन कब्रों को इतने बरसों बाद भी यूँ सम्मान के साथ सहेजा गया है।
यहीं घूमते हुए कुछ लोग मिले जिनके पास एक लोकल दोस्त था, और उन्हीं ने हमें बोरिस येल्तसिन की कब्र भी दिखाई जो एक sculpture का रूप लिए हुए है।
बचपन में नानी के घर जाते समय रास्ते में श्मशान घाट पड़ता था और सभी बड़ों की तरह हम भी वहां से सर झुका कर ही निकलते थे, उसके नजदीक जाने के बारे में तो कभी सोचा ही नहीं। लेकिन यूके में चर्च के आँगन में इन कब्रों को देख कर कभी डर नहीं लगा, और यह जानकर आश्चर्य भी हुआ कि इन्हीं चर्च में शादियाँ भी होती हैं, यहीं आखिरी संस्कार भी होता है और यहीं बच्चों का baptism यानी नामकरण संस्कार भी। कहने का मतलब है ज़िन्दगी का कोई भी पड़ाव हो चर्च उसका हिस्सा बना ही रहता है।
खैर बात तो हम कर रहे थे कब्रों की और उनके बीच मिलने वाले सुकून की। ज्यादातर कब्रगाह सुकून देने वाली जगह होते हैं, लंदन जैसे भीड़ भाड़ वाले शहर में highgate cemetery और एब्ने पार्क cemetery इसका बेहतरीन उदाहरण हैं। यहाँ शहर के बीचोबीच ऐसा खामोशी भरा जंगल सा इलाका है कि आपको जापान के माउंट फूजी के सी ऑफ़ ट्रीज या aokigahara जंगल याद आने लगे।
इंसान की फितरत ही है कि मौत से यूँ दूरी बना कर रखी जाती है जैसे इसकी बात ही नहीं करेंगे तो यह होगा ही नहीं। और यही वजह है कि कितने ही लोग हैं जिन्होंने इस pandemic महामारी से पहले मौत को नजदीक से देखा भी नहीं था। आज कल हम सिर्फ अपनी बेहतरी और टेक्नोलॉजी की मदद से अमरत्व हासिल करने की होड़ में हैं। लेकिन इस महामारी ने यह बता दिया है कि हम प्रकृति के सामने सिर्फ एक और जीवित जंतु हैं।
अब जब कि यह जाहिर सी बात है कि यह वायरस न तो इतनी जल्दी हमारे बीच से उठ कर कहीं जाने वाला है और न ही इसकी वजह से मरने वालों की गिनती अचानक से रुक जायेगी, हाँ इन आंकड़ों में कमी आयी है और धीरे धीरे यह नंबर कम से कम होते जाएंगे लेकिन उसे हासिल करने में तो सभी लगे ही हुए हैं। लेकिन शायद यही वक़्त है कि जब हम मौत को नज़र चुरा कर नहीं नज़र मिला कर देखें। क्योंकि हम तब ही यह मान पाएंगे कि प्रकृति के नियम की वजह से ही इंसान अभी तक बरक़रार है।
मुझे पार्क में लगी बेंच पर मैसेज पढ़ना अच्छा लगता है “जीन और जॉन 1930 से 2012, क्योंकि उन्हें बैठना बहुत पसंद था”, “मेरी बीवी ग्रेस के लिए 2000, जिसकी वजह से मुझे भी यहाँ आना पड़ता था”, “हमें इस धरती पर रहना बहुत अच्छा लगा पर इससे ज्यादा रुक नहीं सकते” क्योंकि यही तो ज़िन्दगी है जो यहाँ नहीं होने के बावजूद भी किसी न किसी तरीके से बरक़रार है। जैसा ग़ालिब ने कहा “मौत का एक दिन मुअय्यन है नींद क्यों रात भर नहीं आती” …बहुत मुमकिन है जब तक यह महामारी ख़त्म हो दुनिया के ज्यादातर लोग ऐसे होंगे जिन्होंने किसी न किसी अपने को खोया होगा। लेकिन यही एक सबब भी है लोगों को बेहतरी से याद करने का और आज को जीने का। क्योंकि भले ही उनकी ज़िन्दगी खत्म हो गयी है लेकिन की यादें लम्बे समय तक हमारी ज़िन्दगी को खाद पानी देती रहेंगी।
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लेखिका संपर्क:pragya1717@gmail.com
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बहुत कम लेखक होते हैं जो अनेक विधाओं में लिखते हुए भी प्रत्येक विधा की विशिष्टता को बनाए रख सकते हैं। उनकी ताज़गी बरकरार रखते हुए। लॉकडाउन काल में प्रवीण कुमार झा का कथाकार रूप भी निखार कर आया है। यह उनकी एक नई कहानी है- मॉडरेटर।
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“नील! आपका पूरा नाम क्या है?”
“नील आर्मस्ट्रॉंग”
“मज़ाक मत करिए! तमिल नाम?”
“यही नाम है। मेरी पैदाइश उस दिन हुई जिस दिन आदमी चाँद पर पहुँचा। तो माँ–बाप ने यही नाम रख दिया।”
“आप ईसाई हैं?”
“नहीं। हिन्दू हूँ। तुम्हारी तरह।”
“फिर तो यह नाम और भी अटपटा लगा रहा है। नील आर्मस्ट्रॉंग?”, मैं हँसने वाला था, मगर झेंप गया।
“क्यों? तमिल–प्रदेश कभी घूमने जाओ। स्तालिन, हिटलर, केनेडी, लेनिन, रूज़वेल्ट सब मिल जाएँगे।”
“हाँ! लेकिन वह तो भारत में। आप तो श्रीलंका से हैं।”
“हम एक ही हैं। सभी तमिल! क्या भारत, क्या लंका”, इस बार नील कुछ अकड़ गया था। तमिल गौरव की अकड़।
नील की आवाज यूँ भी भारी–भरकम थी। अस्सी के दशक के फ़िल्मी खलनायकों की तरह। हू–ब–हू मोगाम्बो जैसी। बाल सुनहरे घुँघराले। बुलंद काया। यह था एक श्याम–वर्णी तमिल हिन्दू नील आर्मस्ट्रॉन्ग, जो कभी चाँद पर नहीं पहुँचा।
चाँद पर भले न पहुँचा, नॉर्वे तो पहुँच गया। हज़ारों श्रीलंकाई तमिलों के साथ वह भी एक दिन आ गया। यह बात तीस साल पुरानी है, लेकिन यूँ लगता है कि जैसे वह कल ही आया हो। वह और उसके जैसे तमाम प्रवासी, जो शायद कल ही आए। दूसरों को क्या, उन्हें भी लगता है कि वे कल ही आए। वे जब–जब किसी गोरे से मिलते हैं, तो वे पूछते हैं— तुम कब आए? तीस साल बाद भी वह आदमी एलियन नजर आता है। वे भी झेंप कर कहते हैं— मैं तो कल ही आया, आप कैसे मिलते? परसों तो वे कहीं दूर जाफना के एक बस्ती में थे। श्रीलंका में।
नील की पत्नी है जया। वह भी चाँद पर नहीं गयी। वह नील के साथ ही जाफना से नॉर्वे आयी। कितना आसान है न हज़ारों मील दूर दूसरों के देश में आकर यूँ बस जाना? और फिर कभी लौट कर अपनी मिट्टी पर न जाना? नील और जया अगर चाहें तो भी वहाँ नहीं लौट सकते। मैंने कयास लगाया कि उन पर खून करने का इल्जाम है। फिर खयाल आया कि जरूरी नहीं। शायद मामूली जेब काटने का इल्जाम हो। लेकिन जेब काटने की इतनी बड़ी सजा? शायद ये ठग होंगे। हिंदुस्तानी ठग जो तमिल–प्रदेश चले गए। इनके पूर्वज देवी चौधरानी के जमाने के ठग होंगे, जो दक्खिन भागते–भागते लंका पहुँच गए। और फिर ये उत्तर भागते–भागते नॉर्वे पहुँच कर ही रुके। लेकिन, लंका का ठग, जेबकतरा या खूनी आखिर तीस साल से इस देश में कुछ कर क्यों नहीं रहा? क्या उसकी अपराध–विद्या एक दिन विस्मृत हो गयी? मैं रुचिवश शोध करने लगा, और शोध करते–करते कल्पना की उड़ान लेने लगा। उस दिन आकाश में रंग–बिरंगी ऑरोरा बोरियैलिस भी दिख रही थी, जो प्रकृति की कल्पना ही तो है।
नील स्कूली बच्चों को तैराकी सिखाता है, तो जया किंडरगार्टन उम्र के बच्चे सँभालती है। इनका हृदय–परिवर्तन नहीं, मेटामॉर्फोसिस ही हो गया। ये अपने इतिहास को उन्हीं जंगलों में दफना कर आ गए, जिनमें राजीव गांधी ने सेना भेजी थी। शांति–सेना। नील ऑर्मस्ट्रॉन्ग वहीं झुरमुटों में छुप कर किसी बाघ की तरह भारतीय फौजियों पर टूट पड़ता। जया लिट्टे की आत्मघाती दस्ते में थी, और नील कमांडर हुआ करता।
स्विमिंग–पूल में छात्रों को ‘फास्टर! फास्टर!’ कहते हुए नील अक्सर अपने कमांडर रूप में लौट आता है। उसकी छवि किसी छलावरणी वस्त्र में, हाथों में राइफ़ल लिए नजर आने लगती है। शहर के लोगों का कहना है कि तीस साल में ऐसा प्रशिक्षक न हुआ, जिसके छात्र तैराकी में मेडल पर मेडल जीत रहे हैं। तैराकी ही क्या, मार्शल–आर्ट में भी नील का मुकाबला नहीं। कैसे होगी? जिसने थोप्पीगल्ला के घने जंगलों और कंदराओं में गुरिल्ला–युद्ध लड़ते अपना यौवन बिताया हो, उससे शहर के ललबबुए भला क्या लोहा लेंगे?
उन दिनों शांति–प्रिय देश नॉर्वे अपनी नाक श्रीलंका में घुसेड़ कर वहाँ अशांति ला रही थी। ऐसा पुरबिये कहते हैं। पुरबिये यानी तीसरी दुनिया के लोग। लोग कहते हैं लिट्टे के सरगना प्रभाकरण ओस्लो निवास पर रहते, और यहीं से लंका आते–जाते रहते। नॉर्वे के लोगों ने इन कमांडरों को दत्तक–पुत्र बना लिया था। थ्रिल मिलता होगा कि हमारे घर भी एक राइफलधारी गुरिल्ला रहता है, जो लंका के जंगलों में फौजी मारता है। स्पाइडरमैन की तरह एक साधारण स्कूली खेल–प्रशिक्षक कैसे भेष बदल कर ख़ूँख़ार बन जाता होगा! तमिल राष्ट्रवाद का झंडा लिए, भारत और लंका के फौजियों के छक्के छुड़ाता होगा! जिस देश में शांति होती है, उन्हें अशांति की तलब तो होती ही है।
नील और जया का आखिरी प्रोजेक्ट एक भारतीय राजनेता की हत्या था। वह निपटा कर ही वे नॉर्वे आए।
जाफना जंगल, अक्तूबर, 1990
“भारत में वी. पी. सिंह की सरकार गिर रही है”
“तो क्या हुआ?”
“राजीव गांधी फिर से लौटेगा”
“मुझे तो नहीं लगता”
“रिपोर्ट पक्की है। वहाँ यही चलता है। कांग्रेस छोड़ कर कोई टिकता नहीं उधर।”
“क्या प्लान है?”
“राजीव गांधी आया तो फिर से ज़रूर फौज भेजेगा।”
“देख लेंगे। लगता है पिछली बार की दुर्गति भूले नहीं”
“दुर्गति? दुर्गति हुई हमारे अपने तमिल भाइयों की।”
“तो मारना है?”
“हाँ! और कोई रास्ता नहीं।”
“ठीक है! उसके प्रधानमंत्री बनते ही करते हैं।”
“नहीं। फिर मुश्किल होगी। सेक्योरिटी बढ़ जाएगी। सुब्रह्मण्यम और मुथुराज को बुलाया है। वे लोग कोऑर्डिनेट कर लेंगे।”
“मुत्थु? वह तो एक चिड़िया न मार सके।”
“उसको मद्रास का काम संभालना है बस। नील और शिवरासन संभालेंगे बाकी।”
“मतलब स्नाइपर शूट?”
“नहीं! जया! तुम तैयार हो?”
“हाँ! कभी भी। मैं एबॉर्ट कर लूँगी।”
“तुम प्रेग्नेंट कब हो गयी? खैर, तुम बैक–अप में रहो।”
“मेरी दो बहनें हैं। मैं मोटिवेट कर सकता हूँ। कुछ लिट्रेचर चाहिए।”, शिवरासन ने कहा
“ठीक है। वह सुब्रह्मण्यम दे देगा।”
उस मीटिंग के अगले साल उनकी यूनिट नॉर्वे आकर अंडरग्राउंड हो गयी। शरणार्थी पासपोर्ट पर। वही लोग जो किसी की हत्या की योजना बना रहे थे, अब भय के ग्राउंड पर शरणार्थी बन गए थे। इन्होंने यह सिद्ध किया कि उन्हें अपनी सरकार से जान का खतरा है। नोबेल बाँटने वाले दयालु नॉर्वे ने उन पर दया कर अपनी नागरिकता दे दी। उसी टोली में नील और जया भी आ गए। हँसी–खुशी जीने लगे। लंका में तमिल अब भी मरते रहे। बौद्ध देश में अशांति दशकों तक बनी रही। कभी पोप आए, तो ईसाईयों के घर जले। कभी भारतीय नेता ने कुछ कहा तो चार तमिल के घर जल गए। इन जलते घरों की तस्वीरें ‘लिट्रेचर’ में तब्दील होती गयी। उन्हें पढ़–पढ़ कर नित नए शिवरासन जन्म लेते रहे। सब के सब मारे गए। दो–चार नील और जया जैसे लोग बच गए, जो प्रथम दुनिया के गोरे–गोरे बच्चों को तैरना सिखा रहे हैं।
कुछ साल पहले अफ़वाह उड़ी कि लिट्टे का एक कमांडर अब भी जिंदा है। वह स्कैंडिनेविया में बैठ नयी फौज तैयार कर रहा है। उसे सरकारी मदद भी मिल रही है। यहीं शहर में हथियारों की बड़ी फैक्ट्री है। उनके खरीददार तीसरी दुनिया में बैठे हैं। यहाँ से हथियार ले जाकर वहाँ अपनी अस्मिता के लिए लड़ रहे हैं। कुर्द–अस्मिता, कबीलाई अस्मिता, कश्मीरी–अस्मिता, तमिल–अस्मिता। अपनी जमीन, अपनी संस्कृति के लिए। लड़े जा रहे हैं।
नील जब पैदा हुआ था, तो आदमी चाँद पर पहुँचा था। उसके बाद ग्यारह लोग चाँद पर पहुँचे। गुरुत्वाकर्षण की कमी में चाँद पर उछल–उछल कर लौट आए। उनके नाम लिए बच्चे न जाने कहाँ होंगे। यहीं कहीं होंगे। धरती पर। किसी पेड़ पर। किसी तालाब में। कहीं जमीन पर नग्न लोट रहे होंगे। वे लोग जो चाँद पर नहीं जा सके, बच्चों को चाँद पर जाना सिखा रहे हैं।
जया एक पत्रकार को कह रही हैं, “मेरा पति अब कोई कमांडर नहीं। यह अफ़वाह ग़लत है।”
नॉर्वे के मंत्री एरिक सोल्हैम ने भी इस बात की पुष्टि की है कि यहाँ अब कोई ‘स्लीपर–सेल’ नहीं। ट्रेन में यह अखबार पढ़ते जा रहा हूँ, जिसमें यह खबर छपी है। इस ट्रेन में हर तीसरा व्यक्ति क्राइम–थ्रिलर पढ़ रहा है। कभी–कभार उद्घोषिका के स्वर सुनाई देते हैं, अन्यथा शांति है।
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युवा शोधकर्ता सुरेश कुमार के कई लेख हम पढ़ चुके हैं। इस बार उन्होंने इस लेख में अनेक उदाहरणों के साथ यह बताया है कि आधुनिक हिंदी साहित्य के आधार स्तम्भ माने जाने वाले लेखक भी अपनी किताबों के प्रचार-प्रसार के ऊपर कितना ध्यान देते थे, चाहे भारतेंदु हरिश्चंद्र रहे हों या प्रेमचंद। लेख पढ़िए- मॉडरेटर
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इस में कोई दो राय नहीं है कि किताबें हमारे जीवन और विचारों की जमा-पूंजी होती हैं। किताबों की यात्रा जितनी लंबी होगी उतना ही हमारे विचारों का फैलाव होगा। यह सही बात है कि किताबों के द्वारा ही हमारा साहित्य और विचार सैकड़ों मील की दूरी तय करता है। यदि किताबों का प्रचार-प्रसार नहीं होगा तो जाहिर सी बात है कि एक लेखक के विचार दूर तक नहीं जा पाएँगे। इधर, हिन्दी नवजागरणकालीन पत्रिकाओं को खंगालते समय एक बड़ी दिलचस्प बात पर मेरा ध्यान गया। मैंने देखा कि 19वीं और बीसवीं सदी के लेखक अपनी किताबों का प्रचार-प्रसार बड़े ही तन-मन और बड़ी लगन से किया करते थे। नवजागरणकालीन लेखक किताबों के प्रचार-प्रसार के लिए जितना सजग दिखाई देते हैं, उतना आज के लेखक नहीं है।
नवजागरणकाल में किताबों के प्रचार का साधन पत्र-पत्रिकाएं हुआ करती थीं। यह बड़ी दिलचस्प बात है कि 19वीं सदी के महत्वपूर्ण लेखक राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द की किताबों के विज्ञापन ‘हरिश्चन्द्र पत्रिका’ में छपे थे। कोई यह भी कह सकता है कि राजा शिवप्रसाद नवजागरणकाल के बड़े लेखक थे, उन्हें अपनी किताब का विज्ञापन करने की क्या आवश्यकता थी? राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द इस बात को भलिभांति जानते होंगे कि जो किताब उन्होंने इतनी मेहनत और परिश्रम से लिखी हैं, यदि वह पाठकों तक नहीं पहुंचेगी तो उनके परिश्रम का अर्थ क्या रह जायगा। ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ जनवरी 1874 में भारतेन्दु ने श्री सर राजा राधाकान्त देव की पुस्तक ‘शब्द कल्पद्रुम’ और शिवप्रसाद सितारे हिन्द की ‘हिन्दी गुटका’ का विज्ञापन अपनी टिप्पणी के साथ छापा था। राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द की किताब का विज्ञापन इस प्रकार है :
‘‘हमारे गुरुवर श्री बाबू शिवप्रसाद सी.एस. आई. अपने हिन्दी गुटके की पुस्तक फिर से छापते हैं हिन्दी कविता का संग्रह और बढाया जायगा मैं भाषा के रसिकों से निवेदन करता हूं कि प्रसिद्ध कवियों की स्वाभाविक उत्तम कविता छाटकर जो लोग भजैंगे वह हम लोग बड़े हर्ष पूर्वक उस गुटके में छापैंगे जो लोग कुछ कविता भेजैं उनको उचित है कि कवि का नाम लिखैं और यह भी लिखैं किस गुण के कारण वह कविता उत्तम समझी गई है।
हरिश्चन्द्र’’
सर राजा राधाकान्त देव की पुस्तक शब्द कल्पद्रुम का विज्ञापन ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ में इस प्रकार छपा गया था:
‘‘बंगला और देवनागरी दोनो अक्षरों में अलग बलग छपैगा छ महीने तक 20 फर्मा(80 पृष्ठ का एक खंड) प्रति मास में मिलैगा और पचास खंड में सम्पूर्ण होने की संभावना है मूल्य प्रत्येक खंड का 1)रुपया है जिन लोगों की लेने की इच्छा हो वह कलकत्ते की शोभा बाजार में कुमार श्री उपेन्द्र कृष्ण बहादुर को या मुझे लिखौं।। हरिश्चन्द्र’’
भारतेन्दु ने किताबों के प्रचार-प्रसार के लिए ‘हरिश्चनद्र मैगजीन’ में अच्छी शुरुआत की थी। भारतेन्दु के मन यह बात कहीं-न कहीं जरुर रही होगी कि किताबों का प्रचार-प्रसार नहीं होगा तो पाठक नई किताबों से कैसे परिचित होंगे। भारतेन्दु ने भी अपनी किताबों और पत्रिकाओं के विज्ञापन ‘हरिश्चन्दचन्द्रिका’ में छापे थे। भारतेन्दु यह भी जानते थे कि किताब के प्रकाशित होने के बाद एक लेखक की जिम्मेदारी क्या होती है? एक लेखक तौर पर भारतेन्दु किताबों की परवरिश करना जानते थे। भारतेन्दु पाठकों की जानकारी के लिए अपनी किताबों का विज्ञापन ‘हरिश्चन्दचन्द्रिका’ में छापते थे। इसी पत्रिका में उन्होंने ‘कविवचन’ का विज्ञापन भी प्रकाशित किया था। ‘श्रीहरिश्चन्दचन्द्रिका’ अक्टूबर 1874 के अंक में भारतेन्दु की किताब ‘उत्तरार्द्ध भक्तमाल’ का विज्ञापन छपा था। इस किताब का विज्ञापन कई अंकों तक छपता रहा। भारतेन्दु ने इस किताब के विज्ञापन देते समय इस बात का ध्यान रखा था कि विज्ञापन की भाषा ऐसी हो कि सर्वसाधारण को समझ में आ जाए। प्रमाण के तौर पर विज्ञापन की भाषा का नमूना प्रस्तुत है:
भक्तमाल बनने के काल से जो जो महात्मा भक्त हुये हैं वे हैं उनके चरित्र ‘‘उत्तरार्द्ध भक्तमाल’’ के नाम से उसी छंद में संगृहीत होते हैं जिन महाशय को भक्तों के चरित्र ज्ञात हों वे कृपापूर्वक बनारस में श्री बाबू हरिश्चन्द्र को लिखैं।।
श्रीहरिश्चन्द्रचन्द्रिका के अक्टूबर 1874 के अंक में छपे ‘कविवचन’ पत्रिका के विज्ञापन की भाषा देखिए कि कितनी सरल और सहज है–‘‘यह एक पाक्षिक पत्र हिन्दी साधुभाषा का अनेक विषयों से पूर्ण अतिउत्तम छपता है मूल्य केवल 6)वार्षिक है जिनको लेना हो हम लोगों को पूर्वोक्त पत्र के मैनेजर को लिखैं। हरिश्चन्द्र और ब्रदर’’
नवजागरणकालीन दौर में किताबों के प्रचार और प्रसार के लिए दो तरह के साधन थे। पहला पत्र-पत्रिकाओं में विज्ञापन द्वारा पाठकों को यह सूचना दी जाती थी कि अमुक लेखक की अमुक किताब प्रकाशित हुई है। दूसरा तरीका यह था कि किताब के अंतिम पृष्ठ पर प्रकाशक की ओर से लेखक की प्रकाशित किताबों की सूची दी जाती है। और, इस बात का आग्रह किया जाता था कि अमुक किताब इस पते पर मिलती है। नवजागरणकालीन लेखक और प्रकाशक दोनों ही किताबों के प्रचार-प्रसार पर जोर देते थे। 19वीं सदी के आठवें दशक की प्रसिद्ध पत्रिका ‘ब्राह्मण’ 15 जुलाई हरिश्चन्द्र संवत-7 अंक में मैनेजर, ‘खड़ग विलास’ प्रेस की ओर से भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की बावन पुस्तकों की सूची देकर विज्ञापन छपवाया गया था। इस विज्ञापन में इस बात का जिक्र किया गया था कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र कृत पुस्तकें बिक्री के लिए तैयार हैं।
बीसवी सदी में हिन्दी लेखकों ने किताबों के प्रचार-प्रसार पर खूब जोर दिया था। इस सदी का बड़े से बडा लेखक अपनी किताबों के प्रचार-प्रसार के लिए संजीदा दिखाई देता है। बीसवीं सदी के दूसरे और तीसरे दशक में हिन्दी साहित्य में कई बड़ी पत्रिकाओं का जन्म हो चुका था। बीसवीं सदी के पहले और दूसरे दशक में जिन पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ उनके अधिकांश संपादक हिन्दी के नामी लेखक हुआ करते थे। इस दौर में किताबों के विज्ञापन पत्र-पत्रिकाओं में बड़े जोर-शोर छापे गए थे। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी से लेकर प्रेमचंद की किताबों के विज्ञापन ‘सरस्वती’, ‘गृहलक्ष्मी’, ‘चांद’,‘माधुरी’, ‘सुधा-,‘हंस’ और ‘त्यागभूमि’ में छपे थे।
बीसवीं सदी में किताबों के विज्ञापन की भाषा बड़ी चुटीली और आकर्षित करने वाली हुआ करती थी। लेखकों को पता था कि यदि विज्ञापन का असर पाठक पर डालना है सर्वसाधारण को आकर्षित करने वाली भाषा गढ़नी होगी। बीसवी सदी के प्रसिद्ध लेखक मुंशी प्रेमचंद की किताबों के विज्ञापन ‘हंस’ तथा अन्य पत्रिकाओं में खूब छपते थे। हंस फरवरी 1933 में मुंशी प्रेमचंद के ‘कर्मभूमि’ उपन्यास के विज्ञापन की भाषा को देखिए :
‘‘यह उपन्यास अभी इसी माह में प्रकाशित हुआ है और हाथों-हाथ बिक रहा है। ‘गबन’ में एक गृहस्थ घटना को लेकर ‘श्री प्रेमचंद’ जी ने अनोखा और सुंदर चित्रण किया था। और इसमें राजनीतिक और सामाजिक दुनिया की ऐसी ह्दयस्पर्शी घटनाओं को अंकित किया है,कि आप पढ़ते पढ़ते अपने को भूल जायँगे। यह तो निश्चय है, कि बिना समाप्त किये आपको कल न होगी। इससे अधिक व्यर्थ है। दाम सिर्फ 3)पृष्ठ संख्या 554 सुन्दर छपाई बढ़िया कागज़, सुनहरी जिल्द।’’
‘गबन’ उपन्यास के विज्ञापन की भाषा तो और मारक तथा चुटीली थी। ‘गबन’ के विज्ञापन को पढ़ने के बाद निश्चित तौर पर पाठक बुक स्टोर की ओर भागता होगा। हंस जुलाई 1933 के अंक से ‘गबन’ का यह विज्ञापन आपके समक्ष प्रस्तुत है :
‘‘औपन्यासिक सम्राट् श्रीप्रेमचंदजी की अनोखी मौलिक और सबसे नई कृति ‘ग़बन’ की प्रशंसा में हिन्दी,गुजराती, मराठी तथा भारत की सभी प्रान्तीय भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं में कालम-के-कालम रंगे गये हैं। सभी ने इसकी मुक्त कंठ से सराहना की है। इसके प्रकाशित होते ही गुजराती तथा और भी एकाध भाषाओं में अनुवाद शुरु हो गये हैं। इसका कारण जानते हैं आप? यह उपन्यास इतना कौतुहल वर्धक, समाज की अनेक समस्याओं से उलझा हुआ, तथा घटना परिपूर्ण है कि पढ़ने वाला अपने को भूल जाता है।
अभी अभी हिन्दी के श्रेष्ठ दैनिक ‘आज’ ने अपनी समालोचना में इसे प्रेमचंद के उपन्यास में इसे सर्वश्रेष्ठ रचना स्वीकार किया है, तथा सुप्रसिद्ध पत्र ‘विशाल भारत’ इसे हिन्दी उपन्यास-साहित्य में इसे सर्वश्रेष्ठ रचना माना है। अतः सभी उपन्यास प्रेमियों को इसकी एक प्रति शीघ्र मंगाकर पढ़ना चाहिए।’’
हिंदी नवजागरणकाल की कोई भी पत्रिका उठा के देख लीजिए, उसमें किताबों के सैकड़ों विज्ञापन मिल जायंगे। इस दौर के लेखकों में आपसी मतभेद भले ही कितना भयंकर रहा हो लेकिन किताबों के प्रचार-प्रसार में एक दूसरे का बड़ा सहयोग करते थे। यह बड़ी दिलचस्प बात है कि पांडेय बेचैन शर्मा उग्र की किताबों के विज्ञापन पंडित बनारसीदासजी चतुर्वेदी ने ‘विशाल भारत’ में छापे थे। हिन्दी के आलोचक और विद्वान इस बात से भालि-भांति परिचित हैं कि बनारसीदासजी चतुर्वेदी ने श्री उग्र के साहित्य के विरुद्ध घासलेटी आंदोलन छेड़ रखा था। उन्होंने जिन किताबों के विरुद्ध आंदोलन चला रखा था, उन्हीं किताबों का विज्ञापन भी अपने पत्र ‘विशाल भारत’ में छापा था।
‘चांद’ पत्रिका में हिन्दी साहित्य के बड़े-बड़े लेखकों की किताबों के कलर विज्ञापन पूरे पृष्ठ पर छपते थे। विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक से लेकर जे.पी. श्रीवास्तव की किताबों के विज्ञापन छापे गए। चूंकि रामरख सिंह सहगल खुद प्रकाशक और संपादक थे। वे इस बात से बाखूबी परचित थे कि प्रचार-प्रसार से किताबों की बिक्री पर क्या प्रभाव पड़ता है।
मैं देखता हूं जब युवा लेखक अपनी किताबों का प्रचार-प्रसार सोशलमीडिया के माध्यम से करते हैं तो हिन्दी के एकाध लेखक उन पर आत्मप्रचार का दोष मढ़ने से नहीं चूकते हैं। ऐसे लेखकों का तर्क होता कि एक लेखक को आत्म प्रचार करने से बचना चाहिए। आप सोचिए कि यदि प्रेमचंद जैसे बड़े लेखक ने इनकी तरह सोचा होता कि मैं हिंदी का बड़ा लेखक हूं, इस नाते मुझे किताबों के प्रचार की क्या जरुरत है? कितने ही पाठक उनकी किताबों का पढ़ने से वंचित रह जाते। आज सोशलमीड़िया और इंटरनेट का दौर है। इस बात को आज भले ही स्वीकार करने में थोड़ी हिचक महसूस हो लेकिन सच बात यह कि सोशल मीडिया और इंटरनेट हमारे जीवन शैली का अहम हिस्सा बन चुका है। यदि कोई लेखक इस प्लेटफार्म से अपनी किताबों की सूचना पाठकों तक पहुंचता है तो उसे आत्म प्रचार से जोड़कर पता नहीं क्यों देखा जाता है। यदि कोई लेखक डिजिटिल माध्यम से किताबों के प्रचार पर जोर देता है तो इसमें बुरा क्या है? हिन्दी साहित्य के लेखकों इस बात को संजीदा होकर समझना होगा कि आज का पाठक सारी सूचनाओं को इन्टरनेट के माध्यम से पा लेना चाहता है। यदि उसको कोई सामग्री इंटरनेट पर नहीं उपलब्ध मिलती तो वह उसके लिए अतिरिक्त प्रयास तब तक नहीं करता, जब तक वह उसके लिए बहुत जरुरी न बन जाए। यदि पाठक के हित का ख्याल रख आज का युवा लेखक अपने प्रचार का माध्यम बदल रहा तो इसमें आत्म प्रचार जैसी तो कोई बात नहीं। आज का युवा लेखक अपनी किताब को लेकर संजीदा हैं और, अधिक से अधिक पाठक तक अपनी किताब या बात पहुंचना चाहता है, यह तो इन्टरनेट की दुनिया के विभिन्न प्लेटफार्म का सदुपयोग करना ही कहा जायगा चाहिए। बीसवीं सदी के लेखक अपनी किताब के प्रचार के बारे में संजीदा होकर सोचते थे। आज की तरह उन्होंने किताबों के प्रचार-प्रसार को आत्मप्रचार से जोड़कर बिल्कुल नहीं देखा था। आप सोचिए बीसवीं सदी के लेखकों जमाने में यदि सोशल मीडिया जैसा सहज और सुलभ साधन मौजूद होता तो वे निश्चित ही इस प्लेटफार्म का उपयोग करते।
(सुरेश कुमार नवजागरणकालीन साहित्य के गहन अध्येता हैं। इलाहाबाद में रहते हैं। उनसे 8009824098 पर संपर्क किया जा सकता है)
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पिछले दिनों प्रकाशन जगत की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘ऑल अबाउट बुक पब्लिशिंग’ मैंने अंग्रेज़ी के एक प्रमुख प्रकाशन के प्रतिनिधि का इंटरव्यू पढ़ा था, जिसमें उनका कहना था कि लॉकडाउन के दौरान उनके प्रकाशन की किताबों की बिक्री में केवल 3 प्रतिशत की कमी आई है क्योंकि अंग्रेज़ी में ईबुक की जड़ें बहुत गहरी हैं। ख़ैर, मैं हिंदी के बड़े-वरिष्ठ प्रकाशकों-विशेषज्ञों की प्रतिक्रिया जानने को उत्सुक था तो मुझे राजकमल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अशोक महेश्वरी का यह लेख पढ़ने को मिला। इस लेख में उन्होंने ईबुक, ऑडियो बुक के साथ साथ वाट्सएप बुक की बात की है। इस लेख से पता चला कि वाट्सएप बुक की मुहिम से अभी तक 25 हज़ार से अधिक लोग जुड़ चुके हैं और इससे जुड़ने वाले लोगों में अलग-अलग उम्र के लोग हैं। मैं बहुत दिनों से ख़ुद स्वयं लोगों को फ़ोन में किताबें पढ़ने की सलाह देता रहा हूँ, किंडल नहीं किंडल के ऐप पर पढ़ने की। लेकिन हिंदी के सबसे प्रतिष्ठित प्रकाशक जब ऐसी बात करते हैं तो इससे उनका विजन समझ में आता है और बहुत हद तक किताबों के भविष्य के प्रति दूरदर्शिता भी, बदलावों की समझ और उनका आकलन भी। उनके लिखने का यह मतलब यह कदापि नहीं है कि प्रिंट किताबों का स्थान ईबुक या ऑडियो बुक ले लेंगे, बल्कि पाठकों के सामने विकल्प होंगे, वह सुविधा के हिसाब से अपने विकल्प का चयन करेगा। अशोक जी ने अपने इस लेख में ऑडियो बुक की संभावनाओं के बारे में भी बात की है। लगे हाथ मैं यह भी बताता चलूँ कि भारत में अंग्रेज़ी में ऑडियो बुक को वैसी संभावना के रूप में नहीं देखा जा रहा जैसा कि हिंदी में। शायद इसका एक कारण हिन्दी में वाचिक परंपरा की मौजूदगी भी है। ख़ैर, आप श्री अशोक महेश्वरी का यह लेख पढ़िए। यह एक बड़े अख़बार में कुछ समय पहले छपा था। अख़बार का नाम लेख के नीचे दिया गया है। इस लेख को इस समझ के साथ पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि यह हिंदी के एक ‘वेटरन इनसाइडर’ का लिखा लेख है जो हिंदी की परम्परा और भविष्य की संभावनाओं दोनों बहुत अच्छी तरह समझते हैं। इस लेख पर आपकी प्रतिक्रियाओं का स्वागत है- मॉडरेटर
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पढ़ना हमेशा आनन्द का विषय रहा है। विद्यार्थी जीवन में यह विवशता होती है पर उस समय भी मजबूरी में पढ़ने वाले और आनन्द लेकर पढ़ने वाले छात्रों में अन्तर स्पष्ट देखा जा सकता है। पढ़ना टाइमपास भी है और हमारी जानकारियों को बढ़ाने वाला भी है। हमें उचित अनुचित का बोध कराने वाला, हमें दिशा दिखाने वाला, हमारा विकास करने वाला भी पढ़ना ही है। पढ़ना आनन्द भी है और विकास भी। बहुत से अन्य कामों से भी हमें आनन्द मिलता है पर ज्यादातर वह थोड़ी देर के लिए होता है या फिर केवल अपने लिए। पढ़ने से मिलने वाला सुख स्थायी सुख है, बाहरी भी आन्तरिक भी।
कुछ भी अच्छा पढ़ने से जो तृप्ति मिलती है उसे शब्दों में कह पाना मुश्किल होता है। विकास की बात भी कुछ ऐसी ही है। हम अपने पैतृक प्राप्य से, मित्रों के सहयोग से, धन से, श्रम से अपना, अपने व्यवसाय का, परिवार का विकास करते हैं पर इसमें पढ़ने का छौंक लग जाये तब! तब इसकी बात कुछ अलग होगी, यह निश्चित ही सुखकर स्थायी और हितकारी विकास होगा, सबको आनन्द देने वाला।
पढ़ा कुछ भी जा सकता है। लेख, टिप्पणी, इन्टरव्यू, गूगल और नेट पर उपलब्ध सामग्री, अखबार, पत्रिका और भी बहुत-सी चीजें, जो हमारे आसपास सहज उपलब्ध हैं। अब तो समाचार पत्र, पत्रिकाएँ न जाने क्या-क्या हमारी हथेली पर, हमारी उंगलियों की छुअन पर, हमारे मोबाइल में ही मिल जाते हैं। बहुत आसानी से हम जो चाहें सो पढ़ सकते हैं। इस सब कुछ में किताब की बात एकदम अलग है। किताब हाथ में लेने का सुख, उसे देखने का सुख, उसकी गंध और न जाने क्या-क्या सब एक साथ हमें मिलता है। पढ़ते-पढ़ते छाती पर किताब रखकर सो जाने का आनन्द तो अलग ही है, जैसे कोई किसी शिशु के साथ खेलते-खेलते आनन्द विभोर होकर सो गया हो।
यह अकेला समय है। हम परिवार के साथ अकेले हैं। सोसाइटी (घरों का संकुल) में, मोहल्ले में, गली में अकेले हैं। कस्बा, शहर, जिला, राज्य भी अकेला है। यहाँ तक कि देश भी अकेला है इस समय। हमारी दुनिया ‘ग्लोबल विलेज’ बन गई थी, ‘विश्व गाँव’। पर इस कोरोना काल में पूरी दुनिया एक गाँव बनने के बजाय गाँव ही अकेला हो गया है। सबको अपनी लड़ाई अकेले लड़नी है। न धन काम आ रहा है न सम्बन्ध।
कोई स्त्री गर्भवती है, बुखार आता है तो डॉक्टर जो आपका परिचित फैमिली डॉक्टर है, देखने से इनकार कर देता है, स्त्री चाहे पाँच माह के गर्भ से हो और गर्भपात ही क्यों न हो जाये। मृत्यु होने पर चार कन्धे नहीं मिलते। बीमार होने पर चक्कर लगाते रहिए न राहत मिलेगी न सलाह। जो राहत दे रहे हैं, इलाज कर रहे हैं, हमारी मदद कर रहे हैं, डॉक्टर और पुलिस; हमारा सन्देह उनपर भी है। यदि वे हमारी सोसाइटी में रहते हैं तो हम उन्हें वहाँ घुसने नहीं देना चाहते। पड़ोसी-अड़ोसी सब पर सन्देह और दूरी।
गाँव चारदीवारी में बन्द है, अकेला। शहरों को चारों तरफ से बन्द कर दिया गया है। राज्यों ने अपनी सीमाएँ सील कर दी हैं, कहीं तो आने-जाने की सड़कें ही आधिकारिक तौर पर तोड़ दी गयी हैं। देशों की सरहदें तो पहले से ही बन्द होती रही हैं। अब उन तक उड़कर बैठकर-चलकर पहुँचने के सारे रास्ते भी बन्द कर दिए गये हैं। मजदूरों, फैक्टरियों में काम करने वाले, घरों में काम करने वाली आयाएँ सब बन्द हैं। जिनके बिना जिन्दगी न चलने की बात होती थी वे सब दूर हैं, हमें उनकी परवाह नहीं, उनसे दुश्मनों सी दूरी हमने बना ली है। आ न जाये, छू न जाये, देख न लें, आँख के रास्ते भी कोरोना आ जायेगा। ऐसे में किसी मृत मित्र को लेकर कोई उसके गाँव घर जाए, यह असम्भव लगता है। यदि कोई जाता है तो वह जरूर पढ़ने-लिखने वाला या पढ़ने लिखने वालों जैसी समझ रखने वाला बहुश्रुत ही होगा, ऐसी संवेदनशीलता पढ़े हुए ज्ञान या सुने हुए ज्ञान को पचाकर जीवन व्यवहार में उतारने से ही आती है। मुझे तो यही लगता है।
समाज की पढ़ाई से दूरी बनी तभी तो ऐसी विपदायें निरन्तरता बनाए हुई हैं। यह तो गजब है, कोरोना, कुछ भी करो ना। न इसकी कोई दवाई है न इलाज, आयुर्वेद काढ़ा बता रहा है, होम्योपैथी ड्राप दे रही है, ऐलोपैथी कोशिश कर रही है। विश्वास किसी को नहीं कि यह इसका उपचार है ही।
ऐसे समय में हमारे बच्चे ही हमें बचाए, जियाए हुए हैं। जो बच्चों के साथ हैं वे अकेलेपन के अहसास से बचे हैं। या फिर वे जो शिशु की तरह छाती पर किताब रखकर पढ़ते हुए सो सकते हैं। पिछले डेढ़ महीने किताब भी तो आप तक नहीं पहुँच सकती थी। पढ़ने वालों ने इसका भी रास्ता निकाल ही लिया।
लॉकडाउन (घरबन्दी) और सोशल डिस्टैंसिंग (शारीरिक दूरी) के इस समय में किताब के बदलते रूपों ने समाज को बचाया है और समाज ने इन्हें अपनाया है। ई-बुक की माँग बढ़ी है। आँखें मोबाइल और कम्प्यूटर-लैपटॉप पर पढ़ने की अभ्यस्त हुई हैं। हम कम्प्यूटर टेबल पर सिर रखकर पढ़ते-पढ़ते सोने लगे हैं। मैं नहीं जानता कि इसे माँ की गोद में सिर रखकर सोना कहना ठीक है या नहीं। ऑडियो बुक का चलन भी इधर बहुत बढ़ा है। घर में खाना बनाते, बर्तन साफ करते, पोछा-सफाई करते हम किताबें सुनने लगे हैं। पहले यह ज्यादातर गाड़ी चलाते हुए ही हो पाता था, आजकल तो गाड़ी चलाना ही बन्द है। घर में काम करते हुए हम किताबें सुन रहे हैं।
एक नई तरह की किताब का जन्म भी इस समय में हुआ है–वाट्सएप बुक। वाट्सएप पर पढ़ी जाने वाली किताब। ये किताबें वाट्सएप के लिए बनी हैं और उसी पर उपलब्ध हैं। इस मुश्किल समय में पढ़ने का आनन्द लेने वालों की मदद के लिए। ऐसे लोग बहुत ज्यादा हैं जो कम्प्यूटर का इस्तेमाल नहीं करते। यदि कर लें भी तो उस पर पढ़ नहीं सकते। उसे खोलने बन्द करने में उन्हें बहुत उलझन लगती है। उनके लिए ई-बुक और ऑडियो बुक प्राप्त करना और उसे पढ़ना सुनना कठिन था।
मोबाइल सभी के पास होता है, स्मार्ट फोन। सन्देश-चित्र-वीडियो के लिए वाट्सएप का इस्तेमाल भी सभी करते हैं। इनके लिए वाट्सएप बुक विशेष रूप से बनाई गयी। कह सकते हैं कि कोरोना काल की यह नई खोज है। ई-बुक और ऑडियो बुक जहाँ छपी किताब की ही प्रतिकृति हैं वहीं वाट्सएप बुक एकदम नई किताब है। यह पढ़ने का भरपूर आनन्द देती है। कई किताब, कई लेखक, कई विधायें एक साथ। वह भी निशुल्क। इसे बेचा तो जा ही नहीं सकता। कोई बन्धन इसपर लगना सम्भव नहीं। सबको सुलभ हो इसीलिए इसे बनाया गया। कॉपीराइट देखकर, रॉयल्टी का नुकसान बचाते हुए इन्हें तैयार किया जा रहा है। ये विशेष किताबें हैं जो पढ़ने का सुख देती हैं, अलग-अलग किताबों की जानकारी देती हैं, लेखक के प्रति रचना के माध्यम से कौतुक पैदा करती हैं, जानने की जिज्ञासा बढ़ाती हैं। आपकी रुचि पढ़ने में बढ़े साहित्य की किसी भी विधा को आप पसन्द करें, समयानुकूल रचनाएँ मिलें, नियमित मिलें; पढ़ने का आनन्द आपमें विस्तार पाए यही इन किताबों का उद्देश्य है।
फेसबुक के नाम में तो बुक है पर यह कोई ‘बुक’ है नहीं। अभी इस पर किताब के बारे में, किताब से, किताब के लिए बहुत कुछ हो रहा है। लाइब भी और लिखकर भी। उम्मीद रखनी चाहिए कि ‘फेस बुक’ भी कभी बनेगी। कहने वाले कहते हैं कि आपका फेस पूरी बुक है, चेहरा पढ़ा जा सकता है और इसे पढ़कर भूत, भविष्य, वर्तमान सब जाना जा सकता है।
इस अकेले समय में पाठकों ने किताब की पूछ बहुत बढ़ा दी है। ई-बुक की बिक्री पहले की तुलना में कई गुना हो गई है। ऑडियो बुक भी बहुत ज्यादा पसन्द की जा रही है। घरों, अलमारियों में इन्तजार करती किताबों की धूल साफ हो गई है। उन्होंने छाती पर बैठकर शिशु सा प्यार पाया है। इस नए जन्मे शिशु-सी वाट्सएप बुक का तो कहना ही क्या, जन्मते ही दस हजार से ज्यादा लोगों ने इसे प्यार दिया। कुछ ही दिन में रोज बीस से पच्चीस हजार लोग इसे पढ़ रहे हैं।
हमारे यहाँ किसी भी नई वस्तु को ‘नई नवेली’ कहने का चलन है पर मुझे किताब के लिए शिशु की उपमा ज्यादा सटीक लगती है। उससे सभी प्यार करते हैं। उसे सब अपने अपने ढंग से पुचकार सकते हैं, सहला सकते हैं, गोद में, छाती पर सवार कर सकते हैं। बात कर सकते हैं और इसका आनन्द अलग-अलग अपने-अपने तरीके से पा सकते हैं। शिशु बालक भी हो सकता है बालिका भी। उसकी अपनी धुन होती है, अलग आवाज, अपनी भाषा। दुनिया के सब नवजात शिशुओं की आवाज-बोली एक सी होती है। सभी उसे अपनी भाषा-बोली मानते हैं। अपनी मातृभाषा मानते हैं। अपने आपको उसमें देखते हैं। अपनी शक्ल अपनी अक्ल सब उसमें ढूँढ़ते हैं और पा भी जाते हैं। नई नवेली में इतना सब कहाँ।
किताब के लिए कोई वर्ग भेद नहीं है, अमीर-गरीब, अगड़ा-पिछड़ा, छोटा-बड़ा, स्त्री-पुरुष सब बराबर हैं। शिशु तेजी से अपना विकास करता है, शारीरिक भी और मानसिक भी। किताब उससे भी ज्यादा तेजी से पढ़ने वाले को चौतरफा आगे बढ़ाती है। किताब सबकी है, सबके लिए। किसी के भी पास जा सकती है, कहीं से भी आ सकती है। बिना किसी भेदभाव के, शिशुओं की तरह।
—अशोक महेश्वरी
9 मई, 2020
(यह लेख नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हो चुका है)
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पं जश करण गोस्वामी एक मूर्घन्य सितार वादक थे. राजस्थान संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार एवं एम0 पी0 बिरला फाउंडेशन कला सम्मान जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित पं गोस्वामी ने संगीत की प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता श्री गोविन्द लाल गोस्वामी से ली. तत्पश्चात सितार वादन का गहन प्रशिक्षण आपने प्रसिद्ध सरोद वादक उस्ताद अली अकबर ख़ाँ साहब से ली. उनके आज उनकी जयंती है। उस कला साधक को याद करते हुए यह लेख लिखा है श्री अमित गोस्वामी ने। राजस्थान संगीत नाटक अकादमी युवा पुरस्कार से सम्मानित सिद्धहस्त सरोद वादक अमित गोस्वामी ने संगीत की शिक्षा अपने पिता पं0 जश करण गोस्वामी से ली. आकाशवाणी, दूरदर्शन में लगभग 30 सालों से प्रसारित होने के अतिरिक्त देश के कई प्रतिष्ठित समारोहों में शिरकत कर चुके हैं. संगीत के अलावा अमित साहित्य में भी गहरी रुचि रखते हैं और उर्दू में ग़ज़लें और नज्म़ें भी लिखते रहते हैं. बक़ौल अमित –‘मौसीक़ी मेरी माँ है, और शायरी महबूबा’-
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आँखों में आँसू छलक रहे हैं, और ज़हन में क़ैफ़ी आज़मी का शेर गूँज रहा है..
उस वक़्त क्या था रूह पे सदमा, न पूछिए
याद आ रहा है उनसे बिछड़ना, न पूछिए
ऐसे किसी शख़्स के बारे में औपचारिक रूप से कुछ कहना या लिखना बहुत मुश्किल है, जिससे आपके रिश्तों में औपचारिकता के लिए कोई जगह ही नहीं रही हो. पिताजी, पं0 जश करण गोस्वामी, जिन्हें हम पापाजी और लोग गुरूजी कहते थे, से हमारा ऐसा ही अनौपचारिक रिश्ता था. आम तौर पर पिता-पुत्र के रिश्तों में दोनों ही और से एक अनकही और ज़्यादातर ग़ैर ज़रूरी औपचारिकता देखने को मिलती है. हम दोनों भाइयों के साथ उनका रिश्ता केवल पिता-पुत्र का ही नहीं था. वे हमारे गुरु होने के साथ ही एक बेहद सहृदय दोस्त भी थे. बहुधा कई लोगों ने इस बात की और इशारा भी किया है, कि हम बाप-बेटे नहीं ‘भायले’ ज़्यादा लगते हैं. कई बार लगता है कि एक बाप और दोस्त होने के कारण ही एक गुरु के रूप में वे उतने कठोर नहीं हो सके, जितने अमूमन उस्ताद हुआ करते हैं.
उनके बारे में लिखना अगर मुश्किल है, तो क्या ज़रूरी है की कुछ लिखा ही जाए? उनके संगीत, खाने-पीने के शौक़, उनके व्यक्तित्व और चलते-फिरते बीकानेर-एन्साइक्लोपीडिया होने के बारे में हम में से ज़्यादातर लोग जानते हैं. उनकी क़िस्सागोई, बात-बात पर लतीफ़े और हर सन्दर्भ पर शेर सुनाने का उनका अंदाज़ और कमाल की याद्दाश्त को सभी याद करते हैं. फिर उनके बारे में ऐसा क्या है, जो लोग नहीं जानते?
उनकी यादों के औराक़ उलटते-पलटते उनकी शख़्सियत का एक पहलू बार-बार सामने आता है—उनकी बेफिक्री. “हो रहेगा कुछ न कुछ, घबराएँ क्या?” वाला ग़ालिबी अंदाज़ आखिर तक उनके साथ रहा. इसी बेफिक्री के चलते उन्होंने अपने कुछ महत्त्वपूर्ण और दुर्लभ दास्तावेज़ और फ़ोटोज़ संभाल कर रखने का वैसा जतन नहीं किया, जैसा कि आम तौर पर लोग करते हैं. ऐसे एक दुर्लभ फोटो के खो जाने का ज़िक्र उन्होंने एक बार किया था, जिसमें उस्ताद अली अकबर ख़ान उस्ताद विलायत ख़ान, पंडित निखिल बनर्जी, पंडित रवि शंकर के साथ वे स्वयं भी थे. लेकिन यह बेफिक्री उन्होंने केवल अपने लिए रख छोड़ी थी, वरना वे एक बेहद ज़िम्मेदार पति, पिता, गुरु और सबसे अहम् एक बेहद ज़िम्मेदार और सजग संगीतकार थे.
संगीत के क्षेत्र में घुसपैठ कर गए बाज़ारवाद पर वे चिंतित रहते थे. अंतिम समय तक रियाज़ के मामले वे हम दोनों से कहीं आगे थे. बड़े दिलचस्प अंदाज़ में वे कहते थे कि “तुम्हारी पीढ़ी ज़रुरत से ज़्यादा प्रोफेशनल हो गई है, और तुम रियाज़ भी इसीलिए नहीं करते, कि तुम्हें बिना पारिश्रमिक बजाने की आदत नहीं रह गई है.” उन्होंने कभी रियाज़ को लेकर समझौता नहीं किया और अंतिम बीमारी के लिए जयपुर जाने से ठीक पहले तक भी वे घंटों रियाज़ करते रहे.
लम्बी बीमारी किसी को भी अन्दर से तोड़ सकती है. फिर उनकी बीमारी ने तो शरीर को अन्दर-बाहर से पूरी तरह झकझोर दिया था. फिर भी उनकी भीतरी ताक़त अंतिम समय तक पेट के जानलेवा कैंसर का कड़ा प्रतिरोध करती रही. छः महीने के अंतराल में हम में से किसी ने भी उनके अन्दर कोई झुँझलाहट नहीं देखी. जयपुर के ‘संतोकबा दुर्लभजी अस्पताल’ के सर्जरी विभाग के सभी मरीज़ों में सबसे गंभीर अवस्था में होने के बावजूद वे सबसे शांत और संयमित मरीज़ थे.
पूरी बीमारी के दौरान वे सिर्फ एक बार व्यथित दिखाई दिए थे. पहले ऑपरेशन के बाद उन्हें एक छोटी सी जाँच के लिए दोबारा ऑपरेशन थियेटर ले जाया गया. जाँच के दौरान पता चला कि कुछ जटिलता के चलते एक बड़ा ऑपरेशन और करना पड़ेगा. सर्जन ने हमारी स्वीकृति लेते हुए और स्तब्ध कर देने वाली सूचना देते हुए बताया कि ऑपरेशन टाला नहीं जा सकता है, और इसमें उनके बचने की संभावना केवल पंद्रह से बीस प्रतिशत ही है. इस दूसरे ऑपरेशन से उबार जाने के बाद जब उन्हें इस बारे में बताया गया तो बोले—“जब मेरे बेटों को बताया गया होगा कि इस ऑपरेशन में मेरा बच पाना मुश्किल है, तो उन पर क्या बीती होगी!!” – और पहली बार उनकी आँखों में आँसू छलक आए.
अस्पताल में गंभीर अवस्था में भी उनकी क़िस्सागोई और लब-ओ-लहजा उनके साथ था. ऑपरेशन के बाद सीने का घाव कई दिनों तक खुला रहने पर उन्होंने कहा –
शक हो गया है सीना, ख़ुशा लज़्ज़त-ए-फ़राग़
तकलीफ़-ए-पर्दादारी-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर गई
(ख़ुशकिस्मती है और इसमें भी मुक्त हो जाने का आनंद है, कि मेरा सीना फट गया है, अब जिगर के ज़ख़्म को छुपाए रखने की तकलीफ़ नहीं रही)
इसी तरह बेहद कमजोरी और ख़ून की कमी के दौरान जाँच के लिए ख़ून निकालने की नाकाम कोशिश करती हुई नर्स को देखकर उन्होंने कहा
मेरे फ़िग़ार बदन में लहू ही कितना है?
चिराग़ हो कोई रौशन, न कोई जाम भरे
दूसरे और तीसरे ऑपरेशन के बीच कुछ दिन की छुट्टी के बाद जब वे फिर अस्पताल पहुँचे, तो डॉक्टर ने कहा –“आइये गोस्वामीजी! आप फिर आ गए?” वे फ़ौरन बोले—
शायद मुझे निकाल के पछता रहे हैं आप
महफ़िल में इस ख़याल से फिर आ गया हूँ मैं
उनके आसपास के लोगों को ये एहसास हो गया था, कि वे अब ज़्यादा दिन नहीं रहेंगे. इससे उनके जाने का ग़म हमारे लिए और ज़्यादा कष्टदायक हो गया था. लेकिन इस अंदेशे की वजह से हम उनकी कुछ महत्त्वपूर्ण रिकॉर्डिंग्स कर सके. ऐसी ही एक रिकॉर्डिंग में उनके भतीजे सुधीर तैलंग ने उनसे पूछा है कि जीवन के इस पड़ाव में अब आपकी क्या इच्छा है? हलकी सी साँस लेकर वे कहता हैं-“जब दिन भर में बमुश्किल आधी रोटी ही मिला करती थी, तब भी कभी पूरी की इच्छा नहीं की, आज भगवान् का दिया सब कुछ है. अब क्या इच्छा करूँ?”
अस्पताल में उनका हाल-चाल जानने के लिए हर रोज़ बीसियों फोन आते थे. एक दिन मेरे मोबाइल पर उनके मित्र वरिष्ठ साहित्यकार लक्ष्मी नारायण रंगा जी का फोन आया. मैं उन्हें फोन देकर थोड़ी दूर बैठे रेजिडेंट डॉक्टर से बात करने लगा. मैंने देखा बात करते वक़्त उनकी आँखों में आँसू छलके हुए हैं. न जाने क्यों? पर मैंने उस दिन उनसे इसकी वजह नहीं पूछी.
उनकी मृत्यु के बाद उनकी स्मृति में हुए एक कार्यक्रम में रंगा जी ने बताया “अस्पताल में मैंने उनसे बात की तो कहने लगे कि मैं कभी कभी ईश्वर से शिकायत करता था, कि जो मुझे मिलना चाहिए था, वो नहीं मिला….. पर अब मुझे कोई शिकायत नहीं है.. उसने मुझे दो बेटे ऐसे दिए हैं, जिन पर मुझे नाज़ है”
कानों में अब तक रंगा जी के शब्द गूँज रहे हैं…. और आँखों में अब तक आँसू छलक रहे हैं.
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अमित गोस्वामी
7 ब 35, पवनपुरी,
साउथ एक्सटेंशन
बीकानेर
फोन 9414324405
7014601647
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दुष्यंत कुमार वरिष्ठ कथाकार कमलेश्वर के अभिन्न मित्र थे।दुष्यंत के नहीं रहने के बाद कमलेश्वर ने अपनी बिटिया ममता का रिश्ता दुष्यंत के बेटे आलोक त्यागी से किया। इस संस्मरण में दुष्यंत को उनके अभिन्न मित्र कमलेश्वर से बातचीत करके याद करते हैं। कमलेश्वर से संगीता की बातचीत पर आधारित यह संस्मरण पहली बार लिटरेट वर्ल्ड में अप्रैल 2003 में छपा था-अमृत रंजन
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फक्कड़, जीवंत, शरारती, खिलंदर, अक्खड़, लतीफ़ेबाज़, प्रतिभा सम्पन्न… क्या ये सभी शब्द आपस में जुड़कर भी दुष्यंत के व्यक्तित्व का पूरा परिचय बन पाते हैं। या कि मुमकिन नहीं है दुष्यंत को कुछ शब्दों में लपेट पाना।उन्हें सिर्फ महसूस किया जा सकता है वरिष्ठ कथाकार कमलेश्वर के बताए प्रसंगों द्वारा, उन्हें समझने की कोशिश की जा सकती है। इस संस्मरण में कमलेश्वर दुष्यंत को याद करते हुए कई बार उस दौर में चले जाते हैं जब इलाहाबाद में उनकी तिकड़ी यानी कमलेश्वर, दुष्यंत एवं मार्कण्डेय अपने शरारतों से तत्कालीन साहित्य की दुनिया में धमाचौकड़ी मचाए हुए थे। उन घटनाओं को कमलेश्वर कुछ ऐसे दोहरा रहे थे जैसे वे अभी–अभी घटी हो। इस दरम्यान वे जोर से ठहाके लगाना चाह रहे थे पर वे उन ठहाकों को भीतर ही भरसक दबा ले रहे थे जो उनके उम्र के फासले या कहें कि युवा और प्रौढ़ होने के फर्क को बता रहा था।
दुष्यंत हमारे सहपाठी थे, क्लासफ़ेलो, और हमने 1954 में एम. ए. पास किया। दुष्यंत… वैसे तो वे बिजनौर के रहने वाले थे। वो खड़ी बोली का इलाका था। दुष्यंत शुरू में कविताएँ लिखते थे। एक तरह से कहना चाहिए कि गीत भी लिखते थे। जब वे गीत लिखते थे तब उन्होंने अपने नाम के साथ एक उपनाम ‘परदेशी’ लगाया था। वे दुष्यंत कुमार ‘परदेशी’ लिखने लगे थे और जब दुष्यंत ने गंभीर तरीके से लोकवादी कविताएँ लिखनी शुरू कि तब उन्होंने अपने नाम से ‘परदेशी’ उपनाम हटा दिया। और उस दौर से भी दुष्यंत ने बहुत अच्छी कविताएँ लिखी जिनको खूब सराहा गया। और उनका पहला संग्रह ‘सूर्य का स्वागत’ था। उसके बाद उन्होंने काव्य नाटक ‘एक कंठ विषपायी’ लिखी। दो उपन्यास लिखे और उसके साथ साथ तमाम कविताएँ लिखी जो कि बड़े ही चाव से पढ़ी जाती थी और साहित्य में जिनपर विचार विमर्श होता था। उसके बाद दुष्यंत मध्य प्रदेश चले गए थे। वे मध्य प्रदेश में सरकारी नौकर थे। जिस समय आपातकाल, इमरजेंसी घोषित हुई उस वक़्त दुष्यंत बहुत ज्यादा बेचैन और व्याकुल हुए उन स्थितियों से– राजनीतिक रूप से भी सोच के स्तर पर उसके साथ-साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर, जो कि हमारा संवैधानिक अधिकार था। तब दुष्यंत ने ग़ज़लें लिखीं। मैं समझता हूँ कि हिंदी में ग़ज़लों की परंपरा थी नहीं हालाँकि भारतेन्दु जी ने भी ग़ज़लें लिखी हैं, एकाध ग़ज़ल हरिऔध जी ने भी लिखी। उसके बाद ख़ासतौर से शमशेर बहादुर ने ग़ज़लें लिखीं। लेकिन तब तक ग़ज़ल की कोई पुष्ट या प्रगाढ़ परम्परा नहीं थी। कुछ ग़ज़लें उस समय की जो बहुत अच्छी मानी गई थी बलवीर सिंह रंग ने लिखी थी। उसके बाद एकाएक दुष्यंत का दौर आया। इसने एकाएक ऐसा जिसे कहना चाहिए कि एक झंझावात पैदा किया रचना के क्षेत्र में और अभिव्यक्ति के क्षेत्र में तो इसमें हिंदी कविता की परिपाटी जो बनी–बनाई चली आ रही थी उसको तोड़ दी छंदबद्ध ग़ज़लों में। सबसे बड़ी बात यह कि ‘साये में धूप’ इनका ग़ज़ल संग्रह आया। इससे पहले इसे मुझे छापने का अवसर मिला ‘सारिका’ में। सम्पादकीय पृष्ठों पर मैंने छापी। ‘धर्मयुग’ में छपी, भारती जी ने छापी। जिसे कहना चाहिए कि एक तूफान इस देश में आया और लोगों को पता चला कि आपातकाल या एमरजेंसी की कितनी कड़ी मुश्किलें थीं। और ये सब दुष्यंत कुमार ने एक सरकारी अफसर रहते हुए किया। जिसके लिए उन्हें काफी सरकारी तकलीफ़ उठानी पड़ी। सरकार की तरफ से परेशान किया गया । उन्हें धमकाया भी गया। डर दिखाया गया कि उन्हें नौकरी से निकाल देंगे। लेकिन दुष्यंत ने अपना लिखना नहीं रोका। मुझे लगता है दुष्यंत कुमार का स्थान निश्चित रूप से भारतीय ग़ज़ल जिसे आप हिन्दुस्तानी ग़ज़ल कहेंगे उसमें सर्वोपरि है। जो काम फ़ैज़ पाकिस्तान में नहीं कर सके ग़ज़लों से जिसे हो जाना चाहिए। हालाँकि फ़ैज़ ने बड़ी ख़ूबसूरत ग़ज़लें लिखी है। आज़ादी की, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की, मनुष्य के साहस की, मानवता की। वो काम इस देश में दुष्यंत ने कर दिखाया। उसकी ग़ज़लों ने। एक बार मुझे लोकसभा के जो सेक्रेटरी जनरल थे, उन्होंने बताया कि जितनी बार और जितनी तरह से दुष्यंत के ग़ज़लों की लाइन को कोट किया गया, उतना कोई कवि आजतक कोट नहीं हुआ। तो ये एक बड़ी बात है।
बाद में दुष्यंत में साथ मेरी रिश्तेदारी भी हुई। मेरी एक ही बिटिया है उसकी शादी दुष्यंत के बड़े बेटे से हुई। लेकिन ये रिश्तेदारी बाद की बात है। ये दुष्यंत के नहीं रहने के बाद की बात है। मैंने ऐसा किया ये सोच के कि मेरी अपनी लड़की जिसका नाम ममता है, प्यार से जिसे हम मानु बुलाते हैं, उसको एक ऐसा सांस्कारिक घर मिले, जहाँ माहौल एैसा ही मिले जिसमें वो पली-बढ़ी है और वह सुखी रहे।
दुष्यंत के साथ बहुत मजे की कई घटनाएँ हैं मेरे जेहन में। दुष्यंत बहुत ही फक्कड़, बहुत उन्मुक्त और बहुत सुसंस्कृत व्यक्ति था। लेकिन एक गांव का अक्खड़पन भी उसमें था। एक दफ़ा वो नौकरी के लिए दिल्ली आए थे। ये शायद सन् 1957–58 की बात है क्योंकि 1959 में दूरदर्शन में आया था। पहली नौकरी थी, दूरदर्शन से शुरू हुआ था। तो उससे पहले दुष्यंत दिल्ली आए थे । एक घटना यही है कि वो चाहते थे कि… वहाँ मैथिलीशरण गुप्त शायद नार्थ एवेन्यू में रहते थे… तो दुष्यंत उनसे कुछ रिकमेंडेशन चाहते थे ताकि रेडियो में उन्हें नौकरी मिल सके। तब यहाँ उस समय फटफट चला करते थे। सेकेंड वर्ल्ड वार की मोटरसाइकिलों से बने हुए। आजकल तो फटफट दूसरी सेवा हो गई है तब ये खुले होते थे। मोटरसाइकिल पर चार सीट का फटफट होता था। अब ये बंद होते हैं। गाड़ी की तरह से। तो उसमें दुष्यंत कुमार बैठे नार्थ एवेन्यू कहकर। बारह आने पैसे तय हुए वहाँ जाने के। तो दुष्यंत अपनी डिग्रियाँ-विग्रियां सब लिए हुए, सूट पहने हुए जा रहे थे, अपना जरा प्रभाव डालने के लिए। मैथिलीशरण गुप्त उस समय राज्य सभा में थे। उनके कहने से या अगर उनका सर्टिफ़िकेट मिल जाएगा तो सुविधा होगी। फटफट वाले ने नार्थ एवेन्यू के बजाय दुष्यंत को पार्लियामेंट के पास छोड़ दिया। दुष्यंत ने आठ आने पैसे दिए। तो फटफट वाला बिगड़ गया, ‘बारह आने दीजिए साहब।’ तो दुष्यंत ने कहा ‘बारह आने क्यूँ दूँ?’ वो कहने लगा ‘पार्लियामेंट का सेशन चल रहा है। इसलिए फटफट को आगे नहीं ले जा सकता।’ तो कहने लगे कि हमारा तो तय हुआ था। दुष्यंत जी कहा कि नहीं तुमने मुझे वहाँ तक नहीं पहुंचाया तो मैं आठ ही आने दूँगा। वो बिगड़ गया, ये चलने लगे। उसने शायद इनको रोका–वोका होगा तो दुष्यंत जी ने अपने सूट की बांहे ऊपर खींची, डिग्रियाँ जो थीं वो पॉकेट में लगाई और कहा कि क्या तू मुझे पढ़ा-लिखा शरीफ़ आदमी समझता है? तू मुझसे ज़बरदस्ती पैसे ले लेगा?’
उसी तरह से मुझे कुंभ का (इलाहबाद) याद है। इलाहाबाद में जब मैं पढ़ता था, तो हम तीनों मार्कण्डेय और दुष्यन्त अपनी साइकिलों पर जाते थे। एक बार वहाँ गए। घूमते-घूमते भूख लगने लगी। पैसे नहीं थे। दुष्यंत के पास शायद कुछ होंगे। लेकिन खैर हमलोग काफी भीड़-भाड़ वाली मिठाई व पूरी–कचौरियों की दुकान में घुस गए। और खा-पी लिया। इस सहारे से, कि शायद दुष्यंत के पास होगा। दुष्यन्त यह सोचकर कि शायद मार्कण्डेय के पास होगा। मार्कण्डेय ये सोच कर कि कमलेश्वर के पास होगा, खा भी लिया, हाथ धोने के लिए उठे। वहाँ लगी रहती थी टंकी। तो ये हुआ कि वो बता गया यार इतने हुए पैसे। मैंने पूछा भैया कितने हो गए। हो गए परेशान। पैसे तो थे ही नहीं। तो जो गल्ले पर बैठता है हलवाई, वो लेता है पैसे, कैश। कई लोग थे भीड़-भाड़ में जो पैसे दे रहे थे, ले रहे थे। दुष्यन्त कुमार था बोला तुम और मार्कण्डेय उधर जाओ, सड़क पार करके। हम वहाँ सड़क पार करके देखते रहे कि ये करते क्या हैं? दूर से देखा हमसे बहुत दूरी नहीं होगी, 10 फीट की दूरी। देखा कि दुष्यंत जी भीड़ में जो लोग थे, उनके पीछे से अपना हाथ आगे–आगे ले जाते थे, खाली हाथ, ऐसे–ऐसे कुछ करते थे। दो–तीन बार ऐसा किया। फिर जब मौका मिला तो उसने पूछा हलवाई से कि साहब पैसे दीजिए। कहने लगा कि आपको दिया न पैसे, आपसे कब से माँग रहा हूँ, वापस कीजिए पैसे। तो हलवाई ने पूछा कि क्या मतलब हुआ? उन्होंने कहा कि आपको दस का नोट दिया मैंने। उसके गल्ले में तो बहुत से दस दस के नोट पड़े हुए थे। आपको दस दिया, नौ रूपया हुआ है, एक रुपया वापस कीजिए। तो एक रुपया वापस लेकर आ गए। तो इस तरह की हरकतें होती रहती थीं। बहुत होती थीं। बड़े मज़े की हरकतें। और भी बहुत हैं संस्मरण इस तरह के।
दुष्यंत जी ने जब यहाँ नौकरी की। वे यहाँ आकाशवाणी दिल्ली में नियुक्त हुए तो वो यहाँ नहीं रहते थे, वो मेरठ में रहते थे। आजकल तो खैर बहुत भीड़ हो गई है। तब इतनी भीड़ नहीं थी। इसलिए वहाँ से उनके पिताजी ने उनको दिए थे 1200–1500 रुपए कि मोटर साइकिल ले लो। अच्छे ज़मींदार घर का था दुष्यंत का। बजाए मोटरसाइकिल लेने के उन्होंने कुछ ख़र्चा-वर्चा कर लिया। बाद में पैसा बचा तो उन्होंने एक सेकिंड हैंड मोटरसाइकिल ख़रीद ली। वो भी किस्तों पर ख़रीद ली। शायद 700–800 रुपये की होगी। जब मैं मिलने गया दुष्यंत से, जब में दिल्ली आया, तो ये मुझसे से ठीक मिले ही नहीं। यार हेलो, हलो…मैं मिलता हूँ अभी आया…यह कहकर हवा हो लिए । मैंने दूरदर्शन में ज्वाइन किया था तो देखा शाम को… ये आया तो कहा कि क्या यार ये तरीका क्या है तुम मुझसे मिले क्यों नहीं ठीक से।उसने कहा देखो असल बात मैं तुम्हें बता दूँ। वो जो है न मोटरसाइकिल वाला वो मुझसे किस्त माँगने के लिए मेरे पीछे पड़ा हुआ था। मेरे पास थे ही नहीं पैसे। उसको एवाइड करने के लिए तुम्हें एवाइड करना पड़ा और मैं चला गया। मैंने कहा कि मोटरसाइकिल कहाँ है। तो कहने लगा कि ठीक है। अब कहाँ होगा… इसने छुपा दी होगी।
ऐसे कोई बेईमानी नहीं होती थी मन में। लेकिन ठीक है मौक़ा अगर आ गया…जैसा कि मैं बताता हूँ। इलाहाबाद में हमलोगों को कुछ ज़रूरत पड़ी फ़ोटो खिंचाने की। हम तीनों, हम, दुष्यंत, मार्कण्डेय गए चौक एरिया में। वहाँ एक मिठाई वाले की दुकान बड़ी अच्छी थी, बंगाली मिठाई की दुकान। ये सन् 52–53 की बात है। वहाँ पर तस्वीरें ली जानी थी। मिठाई वाले के ऊपर फ़ोटो स्टूडियो था। साइकिलें कहाँ खड़ी करें? साइकिलें बड़ी चोरी होती थीं। और हमलोग ऊपर जा रहे थे तो मिठाई वाले दुकानदार से दुष्यंत कहने लगे कि आप ऐसा करिए ये मिठाइयाँ आप एक-एक दर्जन यहाँ रखिए और साइकिलें देखते रहिएगा। हम अभी आते हैं, ऊपर जा रहे हैं ऊपर चले गए। फिर कहाँ उसको ध्यान रहता है। हमने साइकिलें निकाली और कहा कि हो गई रक्षा, अब चले चलें। तो इस तरह की हरकतें थीं।
मुझे ख़ुद याद है अच्छी तरह से मैं भोपाल गया हुआ था, दुष्यंत के पास ही ठहरा था। दुष्यंत का सरकारी मकान था। ठीक से पुताई-बुताई नहीं हो रही थी। एक रोज बहुत मुश्किल से वो ठेकेदार आया कि साहब अभी नहीं होगा। उन्होंने कहा दीवाली का मौका है, पुताई कैसे नहीं होगी। तो वह कहने लगे कि साब, नहीं हो पाएगी आप कुछ भी कर लीजिए । तो दुष्यंत बोले अच्छा ठीक है। आइए गाड़ी में बैठिए, तब उनके पास कार थी। कार में उसको बिठाया और वहाँ के गृहमंत्री का जो बंगला था, जिससे उनका कोई परिचय नहीं था, लेकर पहुँच गए। तो वो घबरा गया कि यदि इन्होंने शिकायत कर दी गृहमंत्री से तो…। अब दुष्यंत बिल्कुल नहीं जानता था गृहमंत्री को। कोई लेना-देना नहीं था। कोई दोस्ती नहीं थी। वो कहने लगा अच्छा चलिए साहब दीवाली से पहले हिसाब करते हैं। काहे के लिए मंत्री जी से कहेंगे। तो इस तरह की… जिसे कहते हैं प्रेजेंस आफ माइंड उसमें इतनी ज़बरदस्त थी जिसका कोई हिसाब नहीं। बहुत अद्भुत-अद्भुत क़िस्से हैं। एक बार गायत्री थी, मानू थी – छोटी थी, आने लगे दिल्ली। मैं ‘नई कहानियाँ’ का संपादक था और दरियागंज में बैठता था। तो कहीं से फोन किया कि शाम को ट्रेन है, मैं गायत्री और मानू को ले जा रहा हूँ इस ट्रेन से और तुम अगर आना चाहो तो तुम भी आ जाना। चाबी नीचे मकान मालिक सरदार जी के पास रख देंगे। तुम भी चले चलना। मैं स्टेशन गया देखने इन लोगों को, तो देखा एक भीड़ भरे डिब्बे में जगह नहीं थी, उससे दुष्यंत जी मानू को गोद में लिए बीड़ी पीते हुए बैठे हुए हैं। और वो बीड़ियाँ बांटती थी गोद में लिए सब को। और बीड़िया बाँटकर जगह बनवाती थी। अब मेरे घुसने के लिए जगह नहीं थी। थर्ड क्लास का ही डिब्बा था। यही क्लास था तब हमलोगों के चलने का। उसने कहा तू घुस पाए तो घुस आ, बाकी मैंने इनका हिसाब कर लिया है। खैर अब कुछ कर नहीं सकते थे, गाड़ी चली गई।
इस तरह की हरकतें। बहुत बहुत हैं, कितने क़िस्से मैं सुनाऊं। अब शैतानी भी वो बहुत करते थे। बहुत बहुत शैतान थे। हमारे साथ हिंदी में उस समय एक तुर्की का एक लड़का था मेहजी सुमेर। वो हिंदी पढ़ने आया था। थोड़ा बहुत वो बंगाल से पढ़कर आया था और एम.ए. में हमारे साथ पढ़ता था। उसे बहुत अधिक नहीं मालूम था। थोड़ा बहुत आया था वह पढ़कर। एक दिन वह गुरुदेव के पास जा रहा था। तो दुष्यंत ने उसको दिया लिखके कि तुम जा रहे हो अध्यापक के पास प्रणाम करने तो तुम यह यह बोलकर आओगे जो मैं नहीं कह सकता। कुछ वैसा था कि आप धिक्कार के योग्य हैं, मैं आपको प्रणाम करता हूँ अंग्रेजी में शब्द थे। उसने बोल दिया और गुरुवर समझ गए कि दुष्यंत जैसे शैतान लड़के ने ही उससे यह चीज़ कहलवाई है। इस तरह की हरकतें वो करते रहते थे। और एक उनकी मतलब ऐसे ही अगर उनका ध्यान चला गया तो, मतलब मज़े के लिए… ये चौक पर रहते थे, जिसमें उनकी खिड़की के सामने एक खपरैल का मकान था… छोटी सड़क के पार, उस खपरैल के मकान में कोई लड़की रहती थी, जिसको ये देखते-दाखते थे। तो ये अपनी खिड़की से एक चिट्ठी लिखते थे। उनको अच्छी उर्दू आती थी। चिट्ठी लिखकर पत्थर में बाँधकर फेंक देते थे। कभी निशाना लगा, कभी नहीं लगा। एक बार ढेला खपरैल पर गिर गया। अब वो लड़की बड़ी परेशान हो गई कि अगर घर में खबर लग गई तो क्या होगा। इनकी समझ में भी नहीं आ रहा था कि ये क्या करें? परेशान होकर मुझे वहाँ बैठाकर ये चले गए गली में टहलने। मुझे ये घटना मालूम नहीं थी कि ये क्या कर चुके हैं। खपरैल तो आप जानते हैं जरा सा कुछ करो तो टूट टाट जाती है।
बहुत ही परेशानी से… इन्होंने वहाँ पर एक था बच्चा… दुष्यंत सनकी भी था, बच्चे से कहा ऐसे करो नीचे से। बच्चे को नीचे से कहाँ दिखाई पड़ेगा। जब बच्चे से नहीं हुआ तो मैंने कहा कि चिन्ता मत करो अभी बारिश आनी है उसमें यूं ही बह जाएगा । दूसरा पत्र जो था वो ढेले में लपेटकर पहुँच गया था।
जैसे दुष्यंत एक बार अपने गाँव चले गए थे। एकाएक आए, कहने लगे – मुझे गाँव जाना है। मैंने कहा मैं क्या करूँ? कहा मुझे पैसे चाहिए हजार रुपए। मैंने कहा भाई मेरे पास कहाँ हैं? उन दिनों हम कुछ काम-वाम करने लगे थे। दुष्यंत ने पूछा काम क्या कर रहे हो आजकल। मैंने कहा कुछ खास काम नहीं है। किताब महल वहाँ एक प्रकाशन है। वो बहुत अच्छी पाठ्यक्रम की पुस्तकें छापते थे। एक बड़ी फ़ेमस अर्थशास्त्र की पुस्तक थी, वो मुझे देने वाले थे अनुवाद के लिए। श्रीनिवास अग्रवाल उसके प्रकाशक का नाम था। मैंने कहा– वो देने वाले हैं। शायद उससे कुछ काम निकलेगा तो कुछ करूँगा। उन्होंने मेरी बात सुनी और ख़ामोश रहे। शाम को घर लौटा तो वे इधर उधर लौटकर आए। वही किताब उनके हाथ में थी। दुष्यंत कहने लगे कि श्रीनिवास साहब से मैं मिल आया हूँ। मैंने कहा वो किताब कमलेश्वर के लिए आप दे दीजिए और एडवांस भी दीजिए। सो वह किताब और 500 रू एडवांस मैं ले आया हूँ। तो एडवांस तो मैंने ले लिया और ये ट्रांसलेशन करके दे दो।
एक दफ़ा, वहाँ पर एक चंद्रशेखर आजाद पार्क है, जहाँ चंद्रशेखर आजाद शहीद हुए है, वहाँ पर एक जकाती रेस्टूरेंट खोला था। हमने कहा कि आप इसका नाम जकाती रास्ते राहत रखो। तो उन्होंने रास्ते राहत कर दिया तो हम लोग वहाँ जाते थे चाय-वाय , कॉफी पीते थे। नाश्ता-वाश्ता करते थे। तो एक रोज़ हम तीनों – ये हम लोगों की तिकड़ी थी दुष्यन्त, मार्कण्डेय और मैं। तीनों वहाँ गए और नाश्ता–वाश्ता किया। और उस दिन पता नहीं क्यों, मार्कण्डेय उस जमाने में अचकन पहना करता था, लम्बाकोट जो खासतौर से मुस्लिम उलेमा लोग पहनते हैं। वो अचकन पहने था, दुष्यंत अपना कोट-वोट पहने हुए थे, मैं अपना जैकेट–वैकेट पहना हुआ था, तो वो आया, छोटी सी प्लेट जो होती है वो कपवाली, उसमें टूथपिक, सौंफ और छोटा सा बिल। उस दिन दुष्यंत ने तय कर लिया था कि आज वो पाप नहीं करेगा। आज मार्कण्डेय से पाप करवाएगा, तो मार्कण्डेय ने उसमें से सौंफ का एक दाना लिया, नफ़ासत से, फिर दुष्यन्त ने सौंफ उठाया – तो इस तरह से दो बार जब प्लेट घूम गई और बैरा खड़ा हुआ था, पैसे लेने के लिए, तो दुष्यन्त ने कहा, मार्कण्डेय की तरफ इशारा करके कि देख लिया तुमने दो बार प्लेट घूम गई।आज इनके पास पैसे नहीं हैं आज। बड़ी ट्रे लेकर आओ। वो समझा नहीं कि बड़ी काहे को मंगवा रहे हैं। उन्होंने कहा कि आज ये अपनी शेरवानी उतारके रखेंगे। इतनी छोटी से प्लेट में कैसे ले जाओगे।
एक बार की बात है। वहाँ ‘इंडियन प्रेस’ करके अंग्रेजी अखबार निकलता था। ‘भारत’ हिंदी का निकलता था तो एक परमानंद जी, बड़े ही विद्वान आदमी, उसके सम्पादक थे। तो वहाँ पर जो जनरल मैनेजर थे वो दुष्यन्त जी के कहीं से दूर के परिचित निकल आए। ये उनके पास पहुँच गए कि आप मुझे ‘भारत’ में नौकरी दिलवाइए। आप सोचिए ज़्यादा से ज़्यादा क्या कर सकते थे – सबएडीटर होते या फीचर का काम देखते। तो जनरल मैनेजर ने इनको चिट लिखकर दी कि परमानंद जी आप दुष्यंत जी को कहीं लगा दीजिए तो अच्छा रहेगा। दुष्यन्त जी चिट लेकर गए और परमानंद जी से बोले, देखिए श्रद्धेय, अब आपकी ज़रूरत, नहीं रही अब तो आपके जनरल मैनेजर ने मुझे ‘भारत’ सौंप दिया है। वो बहुत बिगड़े, बोले क्या मतलब है इसका, आप सम्पादक होने आए हैं? कहने लगे अगर सम्पादक नहीं हुए, तो उपसम्पादक हो जाएंगे। मतलब–बहुत तेज और हाज़िरजवाब शख़्स थे वो।
हाज़िरजवाब भी और बड़े मज़े करते रहते थे वो। एक दफ़ा उन्होंने रेलवे में आवदेन किया हुआ था। तो रेलवे सर्विस कमीशन वहीं था इलाहाबाद में। तो ये पता लगा कि तिलक जी, बिजनौर इलाके के ही, उसके चेयरमैन थे। मैंने बाहर खड़ा था। गर्मी के दिन थे। चिकें पड़ी हुई थीं। मैं बाहर था परेशान। थोड़ी देर में देखा– दो ही मिनट बाद इनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ी हुई और चले आ रहे हैं। तो मैंने कहा कि दुष्यंत क्या हुआ। वो कहने लगा बताओ मैं तो समझा कि वो हमारे इलाके के हैं, बिजनौर के, जानते हैं। तमाम परिचय दिए। उन्होंने कहा गेट आउट। तो कभी-कभी इस तरह की भी स्थितियाँ हो जाती हैं। मैं सोचने लगा अब मैं उसको कैसे उत्तर दूँ इसका।
तो ये सब चलता रहा था दुष्यंत जी के साथ। यानी ये कहिए बहुत ख़ुशमिजाज जिंदादिल और हाज़िरजवाब इंसान थे वो। एक बार हमलोग बस में बैठकर मालवीय नगर जा रहे थे। देवराज जी के पास, जो गीतकार थे। हम, राकेश और दुष्यंत तीनों चले जा रहे थे। मालवीय नगर तब बहुत वीरान हुआ करता था। राकेश बहुत जोर का ठहाका लगता था, तो दुष्यंत कहाँ उनसे पीछे रहने वाले हैं? तो कुछ बात मज़ाक की हुई और एक छत फाड़ ठहाका लगाया राकेश ने, कुछ और जोर से फिर दुष्यंत ने लगाया तो समझ में नहीं आया बस ड्राइवर को। एक तरफ बस वाले ने बस खड़ी कर दी। कंडक्टर ने पूछा क्या हुआ। कहने लगा इन तीनों को उतार दो। तब मैं बस ले जाऊँगा, ये पैसेंजर्स को परेशान कर रहे हैं। गलती दुष्यंत और राकेश की थी। वो लगातार ठहाके लगाते, बातें करते, ठहाके लगाते थे। यही सब चलता रहता था।
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