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ब्राज़ीली लेखक दुइलियू गोम्स की कहानी ‘केला’

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आज पोर्तगीज भाषा की एक कहानी पढ़िए जिसे लिखा है ब्राज़ील के युवा लेखक दुइलियू गोम्स ने। अनुवाद किया है प्रोफ़ेसर गरिमा श्रीवास्तव ने-

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आदमी ने हाथ के इशारे से टैक्सी को रोका– ‘बस स्टैंड चलो’

बात करते-करते वह टैक्सी की पिछली सीट पर पीठ टिकाकर आराम से बैठ गयाl रंग मटमैला, थोड़ा मोटा; साथ में था एक सूटकेस जिसे उसने अपनी गोद में रख लियाl शाम को सात बजे की धुंधली रोशनी में दूसरी कई गाड़ियों की भीड़ में टैक्सी ने चलना शुरू कियाl दिन गर्म था, ड्राइवर ने दाहिने हाथ से अपने माथे का पसीना पोंछकर रेडियो चला दिया– रुम्बा गाने के हज़ारों ड्रम की आवाज़ों से टैक्सी फट पड़ने को हुईl

रेडियो की आवाज़ कुछ कम करते ही ड्राइवर एक शब्द सुन पाया – ‘केला।’

आदमी टैक्सी की पिछली सीट पर बैठा शायद कुछ कह रहा है – “सच में यदि मुझे कुछ पसंद है तो वह है केलाl”

ड्राइवर ने अपने सामने के शीशे में देखा – उस आदमी के मुख-गह्वर में आधा केला एकबार में ही ग़ायबl वह देख पाया टैक्सी की खिड़की से पैसेंजर द्वारा केले का छिलका फेंक देनाl रेडियो की आवाज़ ड्राइवर ने और कम कर दी क्योंकि उसे लगा कि पैसेंजर और भी कुछ कह कह रहा है– “मैं दिनभर में पचास केले खा जाता हूँl”

उसके बाद चुप हो गयाl

इसी निस्तब्धता में एक और केले के छीले जाने की आवाज़ आती रहीl

आवाज़ दबी हुई थी, जैसे जल्दबाज़ी थी; ठीक वैसे ही जैसे एक कोई मुट्टल्ला चूहा मखमल पर दौड़ लगा रहा होl

उन सज्जन ने कहा– “केले के उत्पादन से हमारे देश में बड़े पैमाने पर शिल्प विकास होना चाहिए थाl

ये सारी बातें, भरमुंह में केला खाते समय कही जा रही है, इसे ड्राइवर समझ गयाl ड्राइवर का कुछ आता-जाता नहीं, उसकी गाड़ी में बैठकर पैसेंजर केला खाए या तरबूज़, जब तक वे गाड़ी को गंदा नहीं कर रहेl लेकिन उसे लगा कि एक आदमी के लिए एक दिन में 50 केले खाना असंभव हैl ड्राइवर ने हिसाब करके देखा कि ऐसे तो उसका पैसेंजर सप्ताह में 350 केले खा लेगा, इसका मतलब एक महीने में जितने केले खाएगा उसकी संख्या इतनी बड़ी है कि वह अपनी साधारण हिसाब-क्षमता से गिन ही नहीं सकताl

सज्जन ने कहा – “कच्चा केला भी खाया जा सकता हैl” पैसेंजर के इस भाषण के प्रति ड्राइवर को कैसा तो आकर्षण होने लगाl

सामने के रस्ते से आँख हटाए बिना ड्राइवर ने पूछा– “कच्चे केले में  क्या मिलता है कि आपको इतना अच्छा लगता हैl”

“कच्चे…के…ले…में

सज्जन ने एक टुकड़ा केला मुँह में ठूंसकर उत्तर दियाl बात करने में जो देरी हुई उससे ड्राइवर को समझ आया कि केले का टुकड़ा बड़ा हैl

-कच्चे केले में केले के नैसर्गिक गुण हैंl केले के पकना शुरू होते ही उसकी निर्गुण अवस्था शुरू हो जाती हैl इसलिए केले के फूल पकड़ने और पकना शुरू होने के बीच का समय बहुत कम होता है लेकिन कच्चे केले के बारे में आप निश्चिंत रह सकते हैं कि छिलके के भीतर आपको पका या सड़ा केला नहीं मिलेगाl

     इसलिए आपको ऐसी कोई परेशानी नहीं होगी कि जिसे खाकर आपको नुकसान हो सकता हैl

     ड्राइवर ने चुपचाप  सारी बातें मान लींl ऐसा लगा ये सज्जन ठीक ही कह रहे हैंl फ़िर भी उनकी व्याख्या विभ्रमपूर्ण थी, जो कभी भी कच्चा केला खाने के लिए उसे प्रेरित नहीं करेगीl रेडियो पर धीमी लय में एक करुण गीत बज रहा थाl ड्राइवर टैक्सी को लाल–बत्ती पर रोकते-रोकते बोला– “आज असह्य गर्मी हैl

     ड्राइवर की बात पर ध्यान दिए बगैर पैसेंजर बोलता ही रहा– “आनेवाले दिनों में केला ही प्रमुख खाद्य  होने वाला हैl मुझे लगता है कि सच में मैं केलाहारी हूँ। इस सदी के अंत में मनुष्य की विकराल क्षुधा का समाधान यह केला ही हो सकता हैl

ड्राइवर को समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या बोले l टैक्सी फ़िर चलने लगी थी, केले को लेकर यह पागलपन ड्राइवर को अजीब लग रहा थाl कुछ ऐसा ही था कि इस अजीब से प्रसंग पर आगे बातचीत जारी नहीं रख पा रहा थाl ड्राइवर चाहता था कि वह सज्जन अब अपना कदली-वृत्तांत बंद कर देंl

ड्राइवर में  एक अजीब सी  विरक्ति पैदा हो रही थी ,फ़िर उसे लगा  के साथ ड्राइवर कि पिछली सीट पर बैठा प्राणी गंभीर भाव से चुपचाप एक केले का छिलका उतार रहा हैl यह दसवां हो सकता हैl

गर्मी में टैक्सी की  विंडस्क्रीन से प्रकाश की किरणें परावर्तित होकर आ रही थींl ड्राइवर को समझ नहीं आ रहा था कि जल के छोटे-छोटे कण टैक्सी के काँच से दीख रहे थे या उसकी आँखों की पलकों में थेl

पीछे से वह सज्जन अचानक बोल उठे– “माफ़ करना, आधे घंटे से मैं केले खाता जा रहा हूँ आपको एक बार भी नहीं पूछा”

  -एक खाकर देखेंगे क्या?

     ड्राइवर केला लेता नहीं लेकिन उन सज्जन की आवाज़ इतनी भद्र और मित्रतापूर्ण थी, जिन्हें प्रसन्न करने के लिए और इसलिए भी  कि यह अनुरोध दोहराया न जाये –

 “दे दीजिएl”

सज्जन ने एक केला उठाकर दे दियाl ड्राइवर की गर्दन के पिछले भाग  में केले का  छुअन गरम थी– जैसे उसमें प्राण होl केला देते हुए ड्राइवर कि नज़र उस व्यक्ति के हाथ पर पड़ी – वह था विशाल  रोमिल पशुवत  हाथl

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इरफ़ान मरते हैं, कलाकार इरफ़ान कभी नहीं मरते

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इरफ़ान खान के समय निधन ने सबको आहत किया है। यह छोटी सी मार्मिक टिप्पणी लेखक और राजकमल प्रकाशन समूह के संपादकीय निदेशक सत्यानंद निरुपम की पढ़िए। यह राजकमल द्वारा व्हाटसऐप पर भेजी जा रही ‘पाठ पुनर्पाठ’ ऋंखला की 12 वीं कड़ी का हिस्सा है–

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जाने वाले, तुझे सलाम!

अभिनेता इरफ़ान खान नहीं रहे! 2018 से वे हाई ग्रेड न्यूरोएंडोक्राइन कैंसर से जूझ रहे थे। जब उनकी सामान्य दिनचर्या की कुछ तस्वीरें सार्वजनिक हुई थीं, उन्हें स्वास्थ्य-लाभ करते देखकर लगा था, जैसे मृत्यु के दरवाज़े से टहल कर लौट आए हों। एक नई उम्मीद सामने थी। उनके प्रशंसक राहत और ख़ुशी से खिल उठे थे। आज सब मुरझा गए…उलटी राह अभिनेता अभिनय में स्क्रीन पर नहीं, जीवन में से लौट गया…दुनिया के दरवाज़े के पार शून्य में कहीं खो गया…उसकी आँखों में अभिनय का एक स्कूल था और कंठ में किसी अचूक तीरंदाज की-सी एकाग्रता और बेधकता! वह मौन में बोलता था और बोलने में कहे से ज्यादा कुछ चुप्पी छोड़ जाता था। लेखक को ही नहीं, किसी अभिनेता को भी सामने वाले पर भरोसा करना होता है और उसके-अपने बीच कुछ स्पेस छोड़ना होता है, यह इरफ़ान के अभिनय की बुनियादी ख़ासियत लगती है। वे दर्शक के सिर पर सवार नहीं होते, उसकी नज़रों को चौंध से नहीं भरते, उसे अवकाश और ठहराव देते हैं कि वह उनके साथ कथा-प्रवाह में गोते लगाए।

इरफ़ान ने जून, 2018 में अस्पताल से भेजे एक एक पत्र में लिखा था :

“अभी तक अपने सफ़र में मैं तेज़-मंद गति से चलता चला जा रहा था. मेरे साथ मेरी योजनाएँ, आकांक्षाएँ, सपने और मंजिलें थीं. मैं इनमें लीन बढ़ा जा रहा था कि अचानक टीसी ने पीठ पर टैप किया, ‘आप का स्टेशन आ रहा है, प्लीज उतर जाएँ।’

मेरी समझ में नहीं आया, ‘ना-ना, मेरा स्टेशन अभी नहीं आया है।’

जवाब मिला, ‘अगले किसी भी स्टॉप पर आपको उतरना होगा, आपका गन्तव्य आ गया।'”

2020 आते-आते हम सब इस चिट्ठी को लगभग भूल गए थे। याद रखना भी नहीं चाहते थे। हम तो उन्हें अभिनय की दुनिया में लौटते देखने को बेताब हो रहे थे। लेकिन..इरफ़ान ने अजय ब्रह्मात्मज से ‘चवन्नी चैप’ के लिए हुई एक अनौपचारिक बातचीत में कभी कहा था :

“मेरे साथ एक अच्छी बात रही है कि जब भी निराश और हताश हुआ हूँ तो कोई नई राह निकल पड़ती है। जिस चीज़ के लिए परेशान रहता हूँ, वह तो नहीं मिलती, कोई और चीज़ मिल जाती है। मेरी लाइफ में यह पैटर्न बन गया है। मुझे लगता है कि हर आदमी अपनी ज़िंदगी के कचरे को हटाकर देखे तो उसे एक पैटर्न दिखाई पड़ेगा। मैंने देखा है कि जब भी मैं कोई दावा करता हूँ तो वह पूरा नहीं होता। यहाँ तक कि बच्चों के साथ खेलते समय भी हार जाता हूँ।”

इरफ़ान मृत्यु से हार गए। सबको हारना होता है। वे समय से पहले हार गए। लेकिन शेष जीवन नहीं मिला तो क्या, उससे बड़ी चीज़ उन्हें हासिल है–अमरता! इरफ़ान मरते हैं, कलाकार इरफ़ान कभी नहीं मरते…वे कई-कई पीढ़ियों की आँखों में ज़िंदा रहते हैं…

सलाम!

लेखक

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केदारनाथ पाठक: हिन्दी नवजागरण दुर्ग के फाटक

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यह लेख उस शख़्सियत पर है जिसकी हिंदी सेवा को भुला दिया गया। लिखा है सुरेश कुमार ने-

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सन् 2008 की बात है कि एम.ए. में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का द्वारा लिखित ‘हिन्दी साहित्य का  इतिहास’ पढ़ते  हुए केदारनाथ पाठक का नाम सुना था. मेरे मन उसी समय इनके संबंध में जानने की इच्छा हुई लेकिन कहीं जानकारी नहीं मिली. इधर, शोधकार्य करते समय नवजागरण कालीन हिन्दी साहित्य की पत्रिकाओं की पुरानी फाइल देखते समय केदारनाथ पाठक का चित्र मिला. इसके बाद इनके संबंध में  जहां थोड़ी बहुत समाग्री मिली नोट करता गाया. यह लेख उसी समाग्री के आधार पर लिखा गया है. नवजागरण काल के इतिहास में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, राधाचरण गोस्वामी पंडित बदरीनारायण चैधरी ‘प्रेमघन’ और बाबू श्यामसुन्दर दास आदि विद्वानों ने हिन्दी साहित्य और भाषा को स्थापित करने में अमूल्य योगदान दिया है. नवजागरणकाल में हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए दो तरह के दल सक्रिय थे. इनमें एक दल  लेखकों का था जिसने  नागरी भाषा में साहित्य का सृजन कर हिन्दी भाषा के प्रति जनता की ललक पैदा की. दूसरा दल हिन्दी सेवियों का था जिन्होंने हिन्दी  को जनमानस के बीच ले जाने का काम किया.

                                                      (एक)

   केदारनाथ पाठक नवजागरण काल के महान हिन्दी सेवी थे. इन्होंने नागरी भाषा के लिए अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया था. केदारनाथ पाठक का जन्म सन् 1870 में मिर्जापुर में हुआ था. इनकी शिक्षा मिशनरी स्कूल में हुई थी. इनके पिता का नाम पीतांबर पाठक था. इनके पितामह गिरधारीलाल पाठक मेरठ से  प्रयाग में आकर बस गए थे. इसके बाद  जीविकोपार्जन के लिए काशी भी गए. काशी में कुछ दिन रहने  के बाद इनके पूर्वज मिर्जापुर में स्थाई रुप बस गए थे. केदारनाथ पाठक जब तीन साल के थे, तब इनके पिता का निधन हो गया था.  केदारनाथ पाठक का विवाह काशी के प्रतिष्ठित व्यक्ति छेदीलाल तिवारी की कन्या सरस्वती से हुआ था. गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारी के कारण पाठक जी मिर्जापुर की  जार्डिन फैक्टरी में काम करने लगे थे.  इस फैक्टरी का वातावरण इनके मन के अनुकूल न होने के कारण नौकरी छोड़ दी. इसके बाद हिन्दी के प्रतिष्ठत साहित्यकार पंडित बदरीनारायण के यहां ‘आनन्द कादंबिनी’प्रेस में काम करने लगे. जहां इनका परिचय हिन्दी के अनेक विद्वानों और  लेखकों से  हुआ. इन लेखकों की सोहबत में इनके मन में हिन्दी सेवा का बीज अंकुरित हुआ .

  यह बड़ी दिलचस्प बात है कि केदारनाथ पाठक के यहां हिन्दी की प्रसिद्ध लेखिका बंग महिला के पिता रामप्रसन्न घोष किरायेदार बनकर रहते थे. सन् 1893 में केदारनाथ पाठक  इटावा चले गए. वहां इनकी मुलाकात प्रसिद्ध लेखक गदाधर सिंह से हुई. गदाधरसिंह की सहायता से इटावा में इन्हे गंगालहर के आफिस में नौकरी मिल गई. इस दौरान देवकीनंदन खत्री का उपन्यास ‘चन्द्रकान्ता’प्रकाशित होकर धूम मचा रहा था. सन् 1894 में केदारनाथ पाठक देवकीनंदन खत्री के उपन्यास ‘चन्द्रकान्ता’ की दिवानगी में इटावा छोड़कर काशी की तरफ चल दिए.

                                                             (दो)

   सन् 1893 में नागरी-प्रचारिणी सभा की स्थापना बनारस में होती है. नागरी-प्रचारिणी सभा ने सन् 1896 में हिन्दी  भाषा को अदालतों में लागू करने का प्रस्ताव ब्रिटिश हुकूमत को भेजने पर विचार किया जाता है. नागरी-प्रचारिणी सभा के सभापतियों ने यह तय किया कि पंडित मदनमोहन मालवीय के नेतृत्व में ब्रिटिश सरकार को ‘कोर्ट-केरेक्टर नागरी मेमोरियल  भेजा जाए. इस मेमोरियल पर जनता हिन्दी समर्थकों के हस्ताक्षर चाहिए थे. इस कार्य के लिए नागरी प्रचारिणी सभा को एक उपयुक्त व्यक्ति की तलाश थी. बाबू राधाकृष्ण दास ने केदारनाथ पाठक को इस काम के लिए उपयुक्त समझा. इस कठिन कार्य को पाठक जी ने अपने हाथ लेकर ‘कोर्ट-केरेक्टर नागरी मेमोरियल’पर दस्तखत करवाने के लिए निकल पड़े. आप कल्पना कर सकते हैं कि ब्रिटिश सरकार के चलते इस मेमोरियल पर दस्तखत करवाना केदारनाथ पाठक के लिय कितना कठिन कार्य रहा होगा. केदरारनाथ पाठक ‘हंस’ प 1931 में प्रकाशित अपने आत्मकथ्य मे लिखते हैं : ‘‘सन् 1896 में  काशी नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से, एक  प्रार्थना-पत्र पश्चिमो त्तर प्रदेश (वर्तमान में संयुक्तप्रांत)की सरकार के पास, इस आशय से भेजने के  लिए कि – हम लोग सरकार से देवनागरी जारी करने की प्रार्थना करते है. एक डेपुटेशन, प्रजा का हस्ताक्षर करने के लिए, वर्ष तक इस प्रान्त  भर में पर्यटन करता रहा.” इस मेमोरियल पर हस्ताक्षर करवाने  जब पाठक जी कानपुर पहुंचे तो इनकी मुलाकात हिन्दी के प्रसिद्ध सेवक और मर्चेन्ट प्रेस के मालिक बाबू सीताराम से हुई. सन 1885 में बाबू सीताराम ने  ‘भारतोदय’नामक एक  दैनिक पत्र निकाला था. इधर, राधाकृष्ण दास भारतेन्दु की स्मृति में एक पत्र निकालना चाह रहे थे. वे काफी प्रयास के बाद पत्र नहीं निकाल सके. तब ‘भारतोदय’के संपादक बाबू सीताराम ने राधाकृष्ण दास को एक पत्र. लिखा था. पाठक जी इस पत्र का उल्लेख ‘हंस में प्रकाशित अपने आत्मकथ्य में करते हैं. वह पत्र इस प्रकार है,-

                                                      21 अप्रैल 1885

प्रिय मित्र,

कुछ देखा –सुनाभारतोदय का जन्म जन्माष्टमी ही को है. यह नित्यमेव प्रकाश करेगा,केवल रविवार को नहीं . लो बसलेखनी को सुधारोंकागज को उठाओ. लेखों की मरामारी से नागरी की इस क्यारी में तुम भी न्यारी ही कर लो. यह चार यारों राधाकृष्ण,चरण,प्रताप और राम कीचारयारी है. इसे बांटो अपने मान के गट्टे खोलो. लिखोकहा तक लिखोगे. प्रिय यदि आज्ञा होतो इस निसहाय हिन्दू को ही प्रथम भारतोदय में ही प्रकाशित कर डाले.

आपका अभिन्न

सीताराम

इस पत्र में चरण-राधाचरण गोस्वामी ,प्रताप- पडित प्रतापनरायण मिश्र और राम- सीताराम है. यह पत्र इस बात की गवाही देता है कि उस दौर में हिन्दी के लिए लेखक कितने समर्पित थे.

  केदारनाथ पाठक ब्रिटिश सरकार के जुल्मों की परवाह किए बगैर कानपुर, लखनऊ, बलिया, गाजीपुर, गोरखपुर, इटावा, अलींगढ़, मेरठ, हरदोई, देहरादून, फैजाबाद आदि  इलाकों से मेमोरियल हस्ताक्षर प्राप्त कर नागरी प्रचारिणी के सभापतियों को सौंप दिया. बाबू श्यामसुन्दर दास अपनी आत्मकथा  ‘आत्मकहानी (1941 ) में केदारनाथ पाठक के योगदान के सम्बन्ध में लिखा है : ‘‘इस स्थान पर मैं पंडित केदारनाथ पाठक की सेवा का संक्षेप में उल्लेख करना चाहता हूं ये हिन्दी के बड़े पुराने भक्तों और सेवकों में थे. इन्होंने सभा के पुस्तकालय का कार्य अनेक वर्षो तक बड़ी लगन से किया है. ये सच्चे हृदय से सभा की शुभकामना करते थे. नागरी के आंदोलन के समय इन्होंने अनेक नगरों में घूमकर मेमोरियल पर सर्वसाधारण जनता के हस्ताक्षर प्राप्त किए थे और इस कार्य में उन्हें पुलिस की हिरासत में रहना पड़ा था. पाठक जी का परिचय बहुत से लेखकों से था. यदि वे अपने संस्मरण लिख जाते तो बड़े मनोरंजक होते.

  केदारनाथ पाठक ने नागरी प्रचारिणी सभा की बड़ी सेवा की थी. वे इसके प्रचार-प्रसार के लिए देश के भिन्न-भिन्न प्रांतों में जाकर नागरी प्रचारिणी सभा के कार्य के बारे में लोगों को बताते और हिन्दी पढ़ने के लिए लगातार लोगों को उत्साहित करते थे. केदारनाथ पाठक सभा का प्रचार करने के लिए जब बिहार पहुंचे वहां अयोध्यासिंह उपाध्याय के गुरु सुमेर सिंह इनकी हिन्दी सेवा से काफी प्रभावित हुए . शिवनंदन सहाय और गोपीकृष्ण को नागरी प्रचारिणी सभा का महत्व बताकर, केदारनाथ पाठक बांकीपुर  के प्रसिद्ध विद्वान काशीप्रसाद जायसवाल को हिन्दी साहित्य की सेवा करने के लिए  प्रेरित किया. केदारनाथ पाठक जी के कहने पर बाद में काशीप्रसाद जायसवाल नागरी प्रचारिणी सभा के सभापति भी बने.

                                                                  (तीन)

  नागरी प्रचारिणी सभा में जितनी महत्वपूर्ण घटनाए घटी केदारनाथ पाठक उन के गवाह रहें. इस महत्वपूर्ण घटना में ‘हिन्दी शब्दसागर शब्दकोश का निर्माण भी शामिल था. बाबू श्यामसुन्दर दास कोश के प्रधान संपादक चाहते थे, कोश-कार्य उनकी देखरेख में शीघ्र पूरा किया जा सके, इसलिए बाबू साहब कोश कार्यालय को काशी से कश्मीर ले जाने का विचार किया. जब बाबू श्यामसुंदर दास ने  कोश कार्यालय को काशी से कश्मीर ले जाने की बात की तो नागरी प्रचारिणी के कार्यकर्ताओं के बीच अनबन हो गई . सभा के कुछ लोग चाहते थे कि कोश-कार्य कश्मीर में ना होकर सभा में ही किया जाए लेकिन बाबू श्यामसुंदर दस  इसके लिए राजी न हुये. इस बात को लेकर दोनों पक्षों में झगड़ा हुआ. सभा के कुछ  लोग श्यामसुन्दर दास के विरोध में चले गए और केदारनाथ पाठक पर भी आरोप लगे.  केदारनाथ पाठक यह  निश्चय किया कि बाबू श्यामसुन्दर दास ही नागरी प्रचारिणी की आत्मा हैं. केदारनाथ पाठक ने श्यामसुन्दर दास के पक्ष में माहौल बनाने का काम किया,और उन पर लगे आक्षेपों का अपनी ओर से खण्ड़न किया. इनकी मेहनत रंगलाई और कोश नागरी प्रचारिणी सभा से ही प्रकाशित हुआ. यदि केदारनाथ पाठक जी ने पहल न की होती तो शायद यह ऐतिहासिक शब्दकोश नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित नहीं होता. क्योंकि श्यामसुन्दर दास का विरोधी खेमा इस शब्दकोश को स्वतंत्र रुप से प्रकाशित करने का विचार बना चुका था.

                                                                   (चार)

   केदारनाथ पाठक का महावीरप्रसाद द्विवेदी से घनिष्ठ सम्बन्ध था. इनकी, महावीरप्रसाद द्विवेदी से जुड़ने की कहानी बड़ी दिलचस्प है. सन् 1892 की बात है कि कोई लड़का महावीरप्रसाद द्विवेदी की पुस्तक  ‘देवी स्तुति शतक’ कहीं से ले आया . केदारनाथ पाठक ने यह पुस्तक उस लड़के से दो आने में खरीद ली. इस पुस्तक को पढ़कर केदारनाथ़ पाठक द्विवेदी जी से काफी प्रभावित हुए. केदारनाथ पाठक बताते हैं कि महावीरप्रसाद द्विवेदी वेक्टेश्वर और हिन्दी के एक मात्र दैनिक समाचार ‘हिन्दुस्थान’ में अवधवासी सीताराम द्वारा अनूदित कालीदास के ‘मेघदूत’ और ‘ऋतुसंहार’ पर लेखमाला के रुप में समालोचना प्रारम्भ किया था. इसको लेकर तत्कालीन हिन्दी जगत में काफी चर्चा छिड़ गई थी. इसके बाद द्विवेदी जी ने सीताराम की लिखित पुस्तक ‘शिक्षावली’ को संशोधित कर पुस्तक के रुप में छपाकर ब्रिटिश सरकार के पास भेज दी. इसके बाद सीताराम के पुत्र कौशल किशोर को मेघदूत और कुमारसंभव की आलोचना असहनीय लगी. इन्होंने कलकता से निकलने वाले ‘भारत मित्र’ में  दिवेदी के खिलाफ आलोचना छपवाई. इस आलोचना का उद्देश्य यह था कि द्विवेदी जी की त्रुटियां गिनाई जाए. इसके बाद महावीरप्रसाद द्विवेदी ने ‘कुमारसंभव’का अनुवाद करके नागरी प्रचारिणी सभा को प्रकाशित करने के लिए भेज दिया.

 सन् 1900 में महावीरप्रसाद दिवेदी  ने नागरी प्रचारिणी पत्रिका में ‘नैषध चिरित्र’ शीर्षक से एक लेख लिखा जिसको लेकर ‘सुदर्शन’के संपादक माधवप्रसाद मिश्र ने आलोचना की. ‘सरस्वती’ पत्रिका की संपादक समिति के टूटने के बाद इन्डियन प्रेस के मालिक चिंतामाणी घोष ने बीस रुपये मासिक वेतन पर बाबू श्यामसुन्दर दास को सरस्वती का संपादक नियुक्त कर दिया. इसी बीच द्विवेदी जी का ‘सरस्वती’ में ‘नायिका भेद’ लेख प्रकाशित हुआ जिसको लेकर हिन्दी जगत में काफी चर्चा हुई. सन 1903 में इन्डियन प्रेस के मालिक चिंतामाणि घोष ने महावीरप्रसाद द्विवेदी को ‘सरस्वती’ के संपादन कार्य के लिए राजी कर लिया. महावीरप्रसाद द्विवेदी 1903 में सरस्वती पत्रिका के संपादक बन गए. कुछ दिन निकालने के बाद ‘सरस्वती’लगातार घाटे में जा रहा थी. इसके चलते चिंतामणि घोष ने ‘सरस्वती’पत्रिका को बन्द करने का मन बना लिया था. केदारनाथ पाठक को जब यह बात पता चली तो उन्होंने विभिन्न प्रांतों में घूम-घूम कर सरस्वती का प्रचार-प्रसार कर हजारों पाठकों को पत्रिका से जोड़कर ग्राहक बनाया. कल्पना कीजिए यदि पाठक जी ने प्रचार-प्रसार नहीं किया होता तो शायद सरस्वती पत्रिका बंद हो जाती.

   केदारनाथ पाठक नागरी प्रचारिणी सभा के जन्मकाल से ही जुड़ गए थे. इसलिए सभा के प्रति उनका असीम लगाव और अनुराग था. वे किसी भी हाल में नागरी प्रचारिणी सभा की आलोचना बर्दाश्त नहीं करते थे. नागरी प्रचारिणी सभा की आलोचना करने वाले लोगों को मुंहतोड़ जवाब दिया करते थे.

महावीरप्रसाद द्विवेदी ने सन् 1904 के सरस्वती में  सन् 1901 की नागरी प्रचारिणी पुस्तक खोज की रिपोर्ट की कड़ी निंदा छाप दी. केदारनाथ पाठक ‘सरस्वती’ पत्रिका में छपे इस लेख को पढ़कर महावीरप्रसाद द्विवेदी जी से काफी नाराज हुए. महावीर प्रसाद द्विवेदी उस समय जूही, कानपुर में नौकरी करते थे. केदारनाथ पाठक ने एक डण्डा उठाकर महावीरप्रसाद द्विवेदी जी को सबक सीखाने के लिए कानपुर की ओर चल दिए. श्रीसांवरलाल नागर ने इस घटना को ‘हंस (1934) में प्रकाशित लेख  में इस तरह दर्ज किया हैं ‘‘पाठक जी बीजावर (बुदेलखण्ड )में खोज का काम कर थे. लेख पढकर आग बबूला हो गये. डण्ड़ा उठाया  और जूही (कानपुरजा पहुंचे.  रामराम जय श्री कृष्णद्विवेदी जी को देखते ही बोले– सभा के कार्यो की इतनी कड़ी समालोचना का हम किस प्रकार उत्तर दें.– द्विवेदी जी महाराज ने परख लिया . बोले – देवताठहर जाओं,अभी आता हूं. भीतर गयेएक हाथ में गिलासजिसपर एक सुन्दर रिकाबी में मिठाई रखी थी और दूसरे हाथ में पानी का लोटा लिए हुए बाहर आयेलाकर पाठक जी के सामने रख दिया और एक मोटा डण्ड़ा भी सामने ला रखा.मुस्कुराते हुए द्विवेदी जी बोले– सुदूर प्रवास से थके –मांदे  रहे होपहले हाथ मुंह धोकर जलपान करके सबल हो जाओंतब यह लाठी और यह मेरा मस्तक है. इस सद्व्यवहार ने पाठक जी का कण्ठ रुद्ध कर दिया गंगाजमुना की धारा नेत्रों से बहने लगी|” यह प्रंसग किसी भी साहित्यिक पाठक को झकझोर कर रख देता है. इस व्यवहार के बाद पाठक जी द्विवेदी जी के कायल हो गए थे.

‘सरस्वती में नागरी प्रचारिणी की तीखी आलोचना छपने के बाद द्विवेदी जी का सभा में जाना बंद हो गया था. महावीरप्रसाद द्विवेदी और बाबू श्यामसुन्दर दास दो ध्रुव पर खडे थे. महावीरप्रसाद द्विवेदी काशी आते थे लेकिन नागरी प्रचारिणी सभा में कदम नहीं रखते थे. इसी समय हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन काशी में होना तय हुआ. इस अवसर पर सम्मेलन के सभापति पंडित मदनमोहन मालवीय जी ने महावीरप्रसाद द्विवेदी से आग्रह किया कि सम्मेलन में जरुर आएं. महावीरप्रसाद द्विवेदी  काशी आएं लेकिन सम्मेलन में सामिल नहीं हुए. जब द्विवेदी जी काशी आते थे तो केदारनाथ  पाठक को पूर्व ही सूचित कर दिया करते थे. केदारनाथ पाठक सभा से छुट्टी लेकर कंम्पनी बाग में दोनों विद्वान साहित्य पर घंटों चर्चा किया करते थे.

                                                        (पाँच)

   केदारनाथ पाठक हिन्दी क्षेत्र के सर्वजानिक निर्माता थे. इन्होंने हिदी क्षेत्र में कई बड़े लेखक पैदा किए. यह बात जानकर अश्चर्य होगा कि बंग महिला को हिन्दी की लेखिका बनाने में केदारनाथ पाठक का अमूल्य योगदान है. यह बात पहले ही बता चुका हूँ कि बंग महिला के पिता रामप्रसन्न घोष केदारनाथ पाठक के यहां किराएदार बनकर रहते थे. बंग महिला के पिता रामप्रसन्न घोष मिर्जापुर में जार्डिन कम्पनी में काम करते थे. इन्होंने अपने प्रभाव के चलते केदारनाथ पाठक को जार्डिन कम्पनी में सहकारी हाजिरीनवीस के पद पर तैनात करवा दिया था.  सन् 1882 में बंग महिला का जन्म मिर्जापुर के जिस मकान में हुआ था-वह मकान केदारनाथ पाठक का ही था. शुरुआत के दिनों में जब बंग महिला कोई लेख लिखती तो पाठक  जी काफी सहायता करते थे. सन् 1909 में बंग महिला के पिता की मृत्यु हो गई थी. पिता की मृत्यु के बाद केदारनाथ पाठक ने बंग महिला के अभिवावक की भूमिका निभाई. आचार्य रामचंद्र शुक्ल को बंग महिला से मिलवाने वाले केदारनाथ पाठक ही थे. नागरी प्रचारिणी सभा से बंग महिला की किताब ‘कुसुम संग्रह आचार्य रामचंद्र शुक्ल के संपादन में सन् 1911 में प्रकाशित हुई थी, इसके पीछे पाठक जी का ही प्रयास था. इस किताब की भूमिका में केदारनाथ  पाठक जी के योगदान के संबन्ध में लिखा हैं-‘‘हम पंडित केदारनाथ पाठक को  भी धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकते है, जिनके असीम अनुग्रह से हमें प्रस्तुत पुस्तक  पनः प्रकाशनार्थ प्राप्त हुई है.” केदारनाथ पाठक को कम से कम इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि वे हिन्दी के क्षेत्र में एक लेखिका को लेकर आए.

  हिन्दी साहित्य के इतिहास में आचार्य रामचंद्र शुक्ल जितने  केदारनाथ पाठक के आभारी हैं, उतना शायद किसी लेखक के नहीं होंगे. आचार्य शुक्ल जी ने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’में आधुनिक काल  लिखते समय अधिकांश सामग्री केदारनाथ पाठक से प्राप्त की  थी.  रामचन्द्र शुक्ल ने राधाकृष्ण दास की जो जीवनी लिखी है उसकी भी समाग्री केदारनाथ पाठक ने ही उपलब्ध कराई थी.  आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को बदरीनरायण चौधरी और बाबू श्यामसुन्दर दास से मिलवाने वाले केदार नाथ पाठक ही थे. बाबू श्यामसुन्दर दास ने अपनी आत्मकथा ‘आत्मकहानी’ में लिखा हैं : ‘‘चन्द्रावती अथवा नासिकेतोपाख्यान-सदल मिश्र द्वारा लिखित जब कल्कते में मै एशियाट सुसाइटी की हस्त लिखित पुस्तकों की नोटिस कर रहा था तब  इस पुस्तक की प्राति वहां मिली थी. वहां से मैने इसे मंगनी में मगाया. यह मेरे पास रखी हुई थी कि  एक दिन  केदारनाथ पाठक पंडित रामचंद्र शुक्ल को मेरे पास मिलाने लाए. उन्होंने कहा शुक्ल जी से कुछ काम लीजिए. उस समय शुक्ल जी लंडन मिशन स्कूल में ड्रांइग मास्टर थे. मैंने उन्हें चन्द्रावाली की हस्तलिखित प्रति देकर कहा कि इसकी शुद्धतापूर्वक  साफ -साफ नकल कर लाए. असल में प्रति के बीच का एक पन्ना गायब था. इसको इन्होंने वैसा ही छोड़ दिया. मैने इसकी पूर्ति संस्कृत ग्रन्थ से की और यह अंश छाया प्रति के कोष्ठकों में दिया गया. इस ग्रन्थ से पहले पहल मेरा परिचय पंडित रामचंद्र शुक्ल से हुआ.” आचार्य शुक्ल को मिरजापुर से काशी लाने में केदारनाथ पाठक का  अंहम योगदान था. रामचन्द्र वर्मा ने ‘हिन्दी साहित्य कोश’ में  लिखते हैं- ‘‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को मिर्जापुर से काशी लाने और नागरीप्रचारिणी सभा से संबद्ध कराने में ये प्रमुख कारण थे.” आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और केदारनाथ पाठक के बीच घनिष्ठ संबन्ध था.  बैजनाथ सिंह द्वारा संपादित किताब ‘दिवेदी युग के साहित्यकारों के कुछ पत्र’ आखिरी अध्याय में आचार्य शुक्ल के द्वारा केदारनाथ पाठक को लिखे गए पत्र संकलित है.  इन पत्रों को से अंदाजा लगाया जा सकता है कि दोनों विद्वान एक दूसरे के सुख-दुख के साथी थे.  आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का नवम्बर, 1905 में  केदारनाथ पाठक को लिखा गया पत्र का यह हिस्सा देखिए-

‘प्रियवर मुझे स्वप्न में यह विश्वास नहीं हो सकता  कि आप ऐसे सुहृद् और स्नेही मित्र मेरे निकट आने में उन कंटकों की परवाह करेंगा. वे उन कंटकों का मर्दन करेंगे, उन्हे पददलित करेंगे. आपको मेरे ऊपर रुष्ट न होना चाहिए,दया करनी चाहिए. मेरी दशा की ओर ध्यान देना चाहिए. चारों ओर बवंडर    चल रहा है.

                                                          आपका

किकर्तव्यविमूढ़ रामचन्द्र शुक्ल’

  केदारनाथ पाठक की प्रसिद्धि का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें हिन्दी साहित्य का  ‘जीवित विश्व कोश’ कहा जाता था. श्री जगन्नाथ चतुर्वेदी केदारनाथ पाठक को ‘हिन्दी साहित्य- दुर्ग के फाटक’ कहते थे. किशोरीलाल जी के शब्दों में  यह हिन्दी साहित्य के ‘आधार स्तम्भ’ के रुप में जाने जाते थे. लाला भगवानदीन इनको हिन्दी साहित्य का ‘पेट्रियाकर्’ मानते थे.  रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ की भूमिका में यह बात बड़ी ईमानदारी के साथ स्वीकार की है कि ‘आधुनिक काल’ लिखते समय हमारे पुराने मित्र केदारनाथ पाठक ही काम आएं हैं. पर आज तक इन्हें धन्यवाद किसी बात के लिए नहीं दिया है, और ना ही देने की हिम्मत कर सकता हूँ . ‘धन्यवाद’ को वे ‘आजकल की एक बदमाशी समझते हैं.’ केदारनाथ पाठक हिन्दी के अद्भुत विद्वान और महान हिन्दी सेवी थे. उन्होंने हिन्दी भाषा के प्रति लोगों को जागरुक किया. नवजागरणकाल की तमाम घटनाओं के गवाह रहे. नागरी प्रचारिणी पुस्तकालय के अध्यक्ष भी रहे. जब सभा पर कोई विपत्ति आई केदारनाथ पाठक जी ढाल बनकर खडे रहे. वे एक गंभीर शोधार्थी भी थे. इन्होंने कई दुर्लभ हिन्दी पुस्तकों की खोज भी की थी . अपनी पढ़ाकू प्रवत्ति से न जाने कितने साहित्यिक चारों के चेहरे को बेनकाब किया था. हिन्दी का कोई ऐसा लेखक नहीं रहा होगा जिसने किताब लिखते समय पाठक जी से मदद न ली हो.  श्री सांवलजी नागर ने ‘ हंस’ (1934) में इनके योगदान पर उचित टिप्पणी की है-

      ‘‘वास्तव में पाठक जी साहित्योद्यान के अद्भुत माली हैं. न जाने कितने ही वृक्ष  इन्होंने पाल-पोसकर तैयार किये हैं. न जाने कितनी ही साहित्यिक चोरियाँ बरामद कर गन्दी डालियों को साहित्य-उपवन से पृथक किया है. कीड़े और कांटों से बाग की रक्षा करने में इन्होंने अपना जीवन समर्पण कर दिया है; परन्तु यह हिन्दी-साहित्य के लिए अत्यन्त लज्जा और शोक की बात है कि ऐसे चतुर माली की इस जर्जर अवस्था में हम ठीक-ठाक रक्षा का उपाय नहीं कर सकते. वे कौड़ी- कौड़ी को आजकर मोहताज रहें, पर मुखापेक्षी रहें, कभी -कभी निराहार रह जाएँ और उनकी सहायता से लिखे गये ग्रंन्थों से लेखक  धन कमावे, मौज करें; पर उनकी अवस्था का कुछ भी ख्याल न करे यह महान कंलक है.’’

 श्री सांवलजी नागर के लेख से पता चलता है कि इस महान हिन्दी सेवी के अंतिम  जीवन बड़ी कठिनाई से गुजरा होगा. विडंबना यह कि ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ पढ़ने और पढाने वाले विद्वानों ने इस महान हिन्दी सेवी की कभी खोज खबर नहीं ली. आखिर, यह कौन था जिसको आचार्य रामचन्द्र शुक्ल भी  ‘धन्यवाद’देने की हिम्मत  नहीं जुटा पा रहे थे.

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                                              मो.08009824098

Suresh Kumar
Department of Hindi
University of lucknow

lucknow-226007

The post केदारनाथ पाठक: हिन्दी नवजागरण दुर्ग के फाटक appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

इरफान अभी यात्रा के बीच थे

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महान अभिनेता इरफ़ान के असमय निधन ने सबको उदास कर दिया है। यह श्रद्धांजलि लिखी है जाने माने युवा पत्रकार-लेखक अरविंद दास ने- मॉडरेटर

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इरफान अभी यात्रा के बीच थे. उन्हें एक लंबी दूरी तय करनी थी. हिंदी सिनेमा को उनसे काफी उम्मीदें थी. हिंदी जगत की बोली-बानी, हाव-भाव, किस्से-कहानी पर पिछले दो दशकों में बॉलीवुड में जोर बढ़ा है. उदारीकरण  के दौर में विकसित इस देशज चेतना के वे प्रतिनिधि कलाकार थे. उनकी अदाकारी में एक सम्मोहन था, जिसे देखने-परखने वालों ने  उनके एनएसडी के दिनों में ही नोट किया था. पुराने दौर के लोग  ‘लाल घास पर नीले घोड़े’ (1987-88) नाटक में उनके अभिनय को याद करते हैं.

वे एनएसडी के अस्तबल से निकले ऐसे घोड़े थे, जिसकी आँखों में बड़े परदे के सपने थे. पर बहावलपुर हाउस (एनएसडी) से बॉलीवुड और हॉलीवुड की उनकी यात्रा काफी लंबी और संघर्षपूर्ण थी. छोटा परदा (टेलीविजन) एक पड़ाव था. वर्ष 2004 में विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘मकबूल’ में एनएसडी के अग्रजों- नसीरुद्दीन  शाह, ओम पुरी, पंकज कपूर और समकालीन पीयूष मिश्रा के साथ ‘मकबूल’ के किरदार को उन्होंने जिस सहज अंदाज में जिया वह हिंदी सिनेमा के प्रेमियों के बीच उन्हें मकबूलियत दी. फिल्म मक़बूल (2004) ही थी जिसे  मैंने बड़े परदे पर ‘चाणक्य’ सिनेमा हॉल में दो बार देखा था. फिल्म देखने के बाद मैंने जनसत्ता अखबार के लिए एक टिप्पणी लिखी- ‘खेंचे है मुझे कुफ्र’. इसमें बॉलीवुड में थिएटर की पृष्ठभूमि से आए कलाकारों की दुखद स्थिति और बेकद्री का जिक्र था. इरफान खुद इस बेकद्री को झेल चुके थे.

हालांकि इससे पहले एनएसडी के दिनों के मित्र और निर्देशक तिग्मांशु धूलिया की कैंपस राजनीति को केंद्र रख कर बनी ‘हासिल (2003)’ फिल्म  ने उन्हें पहचान दिला दी थी. कहने को वे मीरा नायर की बहुचर्चित ‘सलाम बॉम्बे’ (1988) और तपन सिन्हा की पुरस्कृत फिल्म ‘एक डॉक्टर की मौत’ (1990)  में दिखे थे, पर उन्हें नोटिस नहीं किया गया. बाद में मीरा नायर की ‘नेमसेक’ ने जहाँ उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया वहीं तिग्मांशु धूलिया की ‘पान सिंह तोमर’ (2012) ने राष्ट्रीय पुरस्कार दिलवाया.

मैं फिर से उनकी कम चर्चित फिल्म ‘क़रीब क़रीब सिंगल’ (2017) देख रहा था, जिसमें उनके साथ मलयालम फिल्मों की काबिल अभिनेत्री पार्वती थिरूवोथु है. इस फिल्म में उन्हें जितना स्क्रीन टाइम मिला है उतना उन्हें पूरे कैरियर में दो-एक फिल्मों में ही मिल पाया. क्राफ्ट पर एक अभिनेता की पकड़ के लिए यह फिल्म देखी जानी चाहिए. उनकी हँसी, आँखों की भाव-भंगिमा, संवाद अदायगी का अंदाज उन्हें आम दर्शकों के करीब ले आता है. यही कारण है कि उनके असमय गुजरने का दुख किसी आत्मीय के गुजरने का दुख है.

इस फिल्म में प्रेम के फलसफे को उन्होंने जिस खूबसूरती और खिलंदड़ापन के साथ जिया है वह हमारे समय के करीब है. इरफान का किरदार कहता हुआ प्रतीत होता है- प्रेम में हैं तो अच्छा , प्रेम को खो चुके हैं तो फिर से नए प्रेम की तलाश में रहिए…एक और जिंदगी आपका इंतज़ार कर रही है.

मैंने नसीरुद्दीन शाह, पंकज कपूर, पीयूष मिश्रा आदि को मंच पर नजदीक से देखा-सुना है. पर इरफान को कभी नहीं देखा. मुझे उनसे रश्क है जो उनके करीब थे. मैं कभी उनसे बात नहीं कर पाया. मुझे दुख है कि मैं कभी मिल भी नहीं सका.

‘करीब करीब सिंगल’ फिल्म में जब वे अपनी तीसरी प्रेमिका से मिलने जाते हैं  तो उसे नृत्य में मग्न पाते है. एक झरोखे से वे उसे देखते हैं और उसके लिए काग़ज़ पर एक नोट छोड़ जाते हैं- ‘तेरी उड़ान को मेरा सलाम.’ सलाम इरफान!

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सत्यजित राय की जयंती पर उनकी फ़िल्म ‘पोस्टमास्टर’की याद

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आज महान फ़िल्मकार सत्यजित राय की जयंती है। आज से उनकी जन्म शताब्दी वर्ष का आरम्भ हो रहा है। उनकी फ़िल्म ‘पोस्टमास्टर’ के बहाने उनको याद किया है विजय शर्मा जी ने- मॉडरेटर

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आज महान फ़िल्म निर्देशक सत्यजित राय का जन्मदिन है। आज से उनकी जन्म शताब्दी भी प्रारंभ हो रही है। सत्यजित राय ने छोटी-बड़ी करीब तीन दर्जन फ़िल्में बनाई। उनकी पहली फ़िल्म ‘पथेर पांचाली’ ने भारतीय सिनेमा को विश्व सिनेमा की श्रेणी में ला खड़ा किया। उन्होंने कई डॉक्यूमेंट्री भी बनाई और खुद उन पर कई डॉक्यूमेंट्री बनी हैं। राय ने साहित्याधारित कई फ़िल्में बनाई। वे रवींद्रनाथ के शांतिनेकेतन में शिक्षित हुए और इस काल को अपना एक सर्वोत्तम काल मानते हैं। उन्होंने गुरुदेव के साहित्य पर फ़िल्में बनाईं। निर्देशक सत्यजित राय ने रवींद्रनाथ की तीन कहानियों पर उनकी जन्म शताब्दी पर फ़िल्म बना कर कविगुरु को श्रद्धांजलि दी। फ़िल्म का नाम है ‘तीन कन्या’। कन्या का अर्थ लड़की, स्त्री और बेटी होता है। इंग्लिश में इसे ‘थ्री डॉटर’ कहा गया है।

ये तीन फ़िल्में हैं, ‘पोस्ट मास्टर’, ‘मणिहारा’ तथा ‘समाप्ति। ‘पोस्ट मास्टर’ और ‘समाप्ति’ आपको किसी अन्य लोक में ले जाती हैं। ‘मणिहारा’ अन्य मिजाज की कहानी और फ़िल्म है। मेरी समझ से बाहर है, राय ने इसे इस त्रयी में क्यों समाहित किया। देश के बाहर अंतरराष्ट्रीय दर्शकों के लिए दो फ़िल्में ‘पोस्टमास्टर’ और ‘समाप्ति’ ही रिलीज हुई और उन्हें ‘दुई कन्या’ या ‘टू डॉटर’ ही कहा गया है। पहली फ़िल्म में शहर कलकत्ता से युवा पोस्टमास्टर नंदलाल (अनिल चैटर्जी) छोटे-से गाँव उलापुर आता है। एक बालिका रतन (चंदना बैनर्जी) उसका काम करने – खाना बनाने, कपड़े धोने और घर-बरतन साफ़ करने के लिए है। आज चाइल्ड लेबर की बात होती है लेकिन कुछ समय पहले तक ऐसी बातें आम थीं, आज भी घरों में लड़कियों को सारा काम करते देखा जा सकता है। रतन अनाथ है, पिछला पोस्टमास्टर उसे डाँटता-मारता था। गाँव का एक पगला आदमी पोस्टमास्टर के लिए भयभीत करने वाला व्यक्ति है, मगर रतन उसे सहज भाव से लेती है और उसे हानि रहित मानती है। समय के साथ धीरे-धीरे पोस्टमास्टर और रतन में एक बड़ा प्यारा संबंध विकसित होता है, वह उसे अपनी छोटी बहन मान कर बड़े भाई की तरह अक्षर ज्ञान कराता है। इसी बीच नंद को मलेरिया हो जाता है इस कठिन समय में रतन उसकी जी-जान से दिन-रात सेवा करती है।

उसकी सेवा और लगन देख कर किसी भी उम्र की स्त्री को माँ की संज्ञा देना उचित लगता है। बंगाल में लड़की को माँ पुकारने का रिवाज भी है। इसे देखते हुए उसी काल के एक अन्य महान रचनाकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के लेखन का स्मरण हो आता है। और लो! बाद में जब मैंने रवींद्रनाथ की 1891 में लिखी यह कहानी पढ़ी तो आप भी टैगोर की पंक्तियाँ देखिए, ‘बालिका रतन अब बालिका न रही। उसी क्षण उसने जननी का स्थान ले लिया। वैद्य बुला लाई, वक्त पर दवा की टिकिया खिला दी, रात भर सिरहाने जागती बैठी रही, खुद ही जा कर पथ्य बना लाई, और सौ-सौ बार पूछती रही, ‘क्यों दादा, कुछ आराम पड़ता है?’ (काबुलीवाला तथा अन्य कहानियाँ, अनु. : प्रबोध कुमार मजुमदार, हिन्द पाकेट बुक्स) टैगोर मात्र दो पात्र और सामान्य ग्रामीण परिवेश में विलक्षण सृष्टि करते हैं। साधारण को असाधारण बना देते हैं। सत्यजित राय फ़िल्म में एक कदम और आगे जाते हैं, जब पोस्टमास्टर कुनैन की गोली खाने से इंकार करता है क्योंकि यह उसे कडुवी लगती है तो रतन स्वयं एक गोली उठा कर बिना पानी के चबा-चबा कर खा कर दिखाती है। लगता है, माँ अपने छोटे से बच्चे को बहला-फ़ुसला कर दवा खिला रही है। ऐसी मार्मिक कहानी है यह और ऐसी ही मार्मिक फ़िल्म है। अनाथ को सहारा मिलता है, घर से दूर रहते पोस्टमास्टर को छोटी बहन।

लेकिन स्वस्थ होने पर पोस्टमास्टर गाँव छोड़ने का निश्चय करता है तबादले के खारिज हो जाने पर वह नौकरी छोड़ कर जाना तय करता है। नए पोस्टमास्टर को चार्ज दे कर चलने की तैयारी करता है। रतन पर क्या गुजर रही है जिस दृष्टि से वह पोस्टमास्टर को देखती है शायद पहली बार उसे रतन का अपने प्रति प्यार समझ में आता है। लेकिन वह चला जाता है। जाते-जाते वह रतन को कुछ रकम देना चाहता है जिसे वह नहीं लेती है। फ़िल्म यहीं समाप्त हो जाती है लेकिन टैगोर लिखते हैं, ‘पथिक के उदास हृदय में इस सत्य का उदय हो रहा था, ‘जीवन में ऐसी बिछडने कितनी ही और आएँगी, कितनी ही मौतें आती रहेगी, इसलिए लौटने से क्या फ़ायदा? दुनिया में कौन किसका है?’

‘किंतु रतन के मन में किसी सत्य का उदय नहीं हुआ।…उसके मन में क्षीण आशा जाग रही थी शायद दादा लौट आवें।…’ टैगोर कुछ शब्दों में बता देते हैं, पढ़ा-लिखा शहरी व्यक्ति अपनी हर बात, हर काम का औचित्य खोज लेता है। मगर ग्रामीण, सरल हृदय बालिका इन तर्कों, इन प्रपंचों को नहीं जानती है। फ़िल्म नंद के मन की कचोट को दिखाती है और यह कचोट दर्शक के मन की कचोट बन जाती है। फ़िल्म उस समय के बंगाल को साकार करती है। सेट्स, ड्रेस, भाषा, संवाद, अभिनय सब मिल कर फ़िल्म को सजीव बनाते हैं। टैगोर अपनी कहानी में अंत की ओर दार्शनिक हो जाते हैं, फ़िल्म मार्मिकता पर समाप्त होती है।

पोस्टमास्टर की भूमिका करने वाले अनिल चैटर्जी को निरंतर चिंता रहती थी कि कोई उनके काम को तो देखेगा ही नहीं क्योंकि रतन ने इतना अच्छा कार्य किया था। फ़िल्म का अंतिम दृश्य बहुत मार्मिक बन पड़ा है। करीब-करीब शब्दहीन यह दृश्य दोनों के संबंध की पराकाष्ठा है। यह दृश्य कथानक और मार्मिकता की दृष्टि से महत्वपूर्ण है साथ ही कैमरा कार्य तथा एडीटिंग का भी नायाब नमूना है। सोने पर सोहागा है पूर्वी बंगाल के दो शरणार्थियों द्वारा बजाया गया संगीत वाद्य। रतन पानी भर कर ला रही है, नया पोस्टमास्टर और पुराना पोस्टमास्टर आते-जाते एक-दूसरे को क्रॉस करते हैं। नंद नाव की ओर जा रहा है। एक ओर आते-जाते लोगों से बेखबर पगला उकडूँ बैठा हुआ है। रतन रो रही है, लेकिन उसका आत्मसम्मान नंद के दिए पैसे लेने से इंकार कर देता है, वह आहत है। वह तो उन्हें देखने के लिए रुकती भी नहीं है। कुछ दूर जा कर वह हाथ के बोझ को बदलने के लिए पानी जमीन पर रखती है तब जाते पोस्टमास्टर को देखती है। वह ओझल हो जाती है मगर नंद को उसकी आवाज सुनाई देती है, ‘मैं तुम्हारे लिए पानी ले आई हूँ।’ असल में वह नए पोस्टमास्टर को कह रही है। तब जा कर नंद की भावनाएँ उमड़ पड़ती हैं, वह अपनी हथेली पर रखे सिक्कों को देखता है और उसे उनकी व्यर्थता का भान होता है। वह उन्हें जेब में रख कर धीरे-धीरे आगे बढ़ जाता है, रतन, पगले और गाँव को पीछे छोड़ता हुआ। हृदय के एकाकीपन के विषय में इससे अधिक और क्या कहा जा सकता है, और कैसे दिखाया जा सकता है?

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० डॉ विजय शर्मा, 326, न्यू सीताराम डेरा, एग्रीको, जमशेदपुर – 831009

      Mo. 8789001919, 9430381718

      Email: vijshain@gmail.com

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पंकज मित्र की कहानी ‘मंगरा मॉल’

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पंकज मित्र हिंदी के वरिष्ठ लेखक हैं और निस्संदेह अपनी तरह के अकेले कथाकार हैं। समाज की विद्रुपताओं पर व्यंग्य की शैली में कथा लिखने का उनका कौशल उनको एक अलग पहचान देता है। यह उनकी एक अप्रकाशित कहानी है। आप भी पढ़िए- मॉडरेटर

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शहर के किनारे जब मंगरा मॉल खुला तो शहर चौंका था। कुछ बातें बड़ी गजीब (गजब-अजीब) थी इस मॉल के बारे में। पहली बात इसका नाम- कहाँ शहरों के बीच स्मार्टफोन की प्रतियोगिता हो रही थी- स्मार्ट नामों वाले मॉल हर शहर में खुल रहे थे- ये मार्टए वो मार्ट, ये बाजार वो बाजारए वहां किसी मंगरा-बुधुआ के नाम से मॉल हो तो अजीब तो लगेगा ही। दूसरी जो गजब बात थी वह मॉल के एस्कलेटर के ठीक पास एक आदमकद चट्टाननुमा चीज जो पहली नजर में किसी पत्थरगडी का पत्थर लगता था पर बहुत ध्यान से देखें तो एक मांदर बजाता आदमी सा दिखता मतलब आभास देता था। इससे भी गजब यह कि उपरी हिस्से में चार-छः छेद बने थे जो कान-आँख-मुँह-नाक का आभास देते थे उसमें से किसी छेद में अगर कुछ ठूँस दें तो यह पत्थर कुछ-न-कुछ प्रतिक्रिया जरूर देता था। मसलन मुँह माने जानेवाले छेद में किसी ने टूथब्रश डाला तो नाक वाले छेद से टूथपेस्ट की झाग निकलती थी। किसी मनचले ने एक बार सिक्योरिटी की नजर बचाकर जलती सिगरेट ठूँस दी थी तो नाक वाले छेद से भकाभक धुँआ निकले लगा था और फायर अलार्म की घनघनाहट से पूरा मॉल गूँज उठा था। छोटे-छोटे  बच्चों की शैतानियों का वह पत्थर बिल्कुल बुरा नहीं मानता। उसकी हाथनुमा चीज पर चढ़कर बच्चे जब उन छेदों में उँगली डालते तब भी नहीं। लेकिन एक शोहदेनुमा युवक ने जब उसके कानवाले छेद में मुँह सटाकर कुछ कहा था तो पत्थर उसके ऊपर ही गिरने लगा था। कई लोगों, सिक्योरिटी वालों ने बड़ी मुश्किल से संभाला था वरना युवक तो दब ही गया होता। बाद में पूछने पर कि उसने ऐसा क्या कह दिया था उसने तो डरी-घबराई आवाज में बताया था- गंदी सी गाली दी थी उसने। देरा रात जब माॅल बंद होता था तो शटर गिराने से पहले गार्ड्स या कोई सेल्सगर्ल पत्थर के सामने खाने की कोई चीज रख देते थे जो सुबह गायब मिलती थी। जिस रात ऐसा करना भूल गए तो समझो शामत आ जाती थी। काफी सामान बिखरा पड़ा होता थां तरह-तरह के पैकेट्स, कपड़े- काफी मेहनत से फिर जगह पर जमाना पड़ता था सबको। वैसे नाइट गार्ड तो यह भी कहता था कि रात को मांदर बजने की आवाज भी आती थी बंद शटर के अंदर से। लेकिन लोग इसे नाईट गार्ड वीरू भगत के संध्याकालीन टॉनिक का असर मानते थे। मॉल का स्टाफ जब खिल्ली उड़ाता वीरू भगत की तो वीरू काफी तैश में आकर रहता – तुमलोग देखा नहीं है न मंगरा को, हम देखा है। सारा बात हम जानता है। तुमलोग आज का लड़का-लड़की! कहाँ से जानने सकेगा। – फिर थोड़ा लड़खड़ाता-सा-पत्थर के सामने जाकर कहता – दादा! जोहार! रात को जो तुम अधरतिया अंगनई झूमर का ताल बजाया, झूमा दिया-एकदम! – हाय रे हाय! हाय रे हा! झिंझरी काटल मांदर गुईयाँ ……… गाता हुआ वीरू भगत निकल जाता डेरे की ओर। उस वक्त माॅल की सफाई चल रही होती। चारों तरफ वैक्यूम क्लीनर की घर्र-घर्र, डंडे वाले पोंछा की सपासप चल रहीं होती। सामान सजाया जा रहा होता। पुतलों के कपड़े बदले जा रहे होते। उनकी जगह भी बदली जा रही होती – मतलब कस्टमर आये जो उसे सबकुछ नया, चमकीला ओर दिव्य आलोक से जगमगाता लगना चाहिए न। धूल-माटी का कहीं एक कण भी न रह जाये जबकि वीरू भगत कहता है कि पहले तो यहाँ धूल ही धूल उड़ती थी।

– मंगर दादा को तो माटी से एतना परेम था…. अभी भी देखते नहीं हो केतना भी झाडू़-पोंछा मारो, मंगर दादा मतलब उ पत्थर के पास थोड़ा सा माटी हमेशा झरल रहता है। रहता है कि नहीं?- वीरू भगत की इस बात पर से सहमत होना ही पड़ता है विरसी को क्योंकि वहां पर वही तो रोज पोंछा लगाती है। मगर नये लड़के-लड़कियाँ इस बात पर खी-खी कर हँसते हैं।

– चलो! बैक टू वर्क।! – मैनेजर हल्की झिड़की देता है। भगत! जाओ घर जाओ। – और तुम बबीता! क्या मुँह चला रही हो अभी तक? आज बंपर सेल डे है और तुम लोग तैयार नहीं हो अब तक। एसी चलाओ सब ओर रूम फ्रेशनर स्पे्र करो। गाॅट इटघ् फास्ट।

– यस सर!  – सबकी समवेत ध्वनि।

– आज बाॅस का भी विजिट होगा। बी केयरफुल।

– यस सर! – फिर समवेत ध्वनि।

– ‘‘हुँह! बॉस!’’ – साइकिल पर चड़ता हुआ वीरू भगत बुदबुदाया था। सोमरा भगत का बेटा-जॉन! गाँव  में जो पाँच परिवार क्रिस्तान बन गए थे उसी में एक – मंगर-दादा के ही किलि का आदमी पर – मंगर को ही ….. ठीक ही कहता है टाँगी में बेंट लकड़ी  का नहीं हो तो गाछ कटेगा कैसे? वहीं जॉन अब बाॅस है उसका भी। जोहार का जवाब तक नहीं देता। एकाधबार कोशिश की थी वीरू भगत ने सामने पड़ने की। तनख्वाह बढ़वाने के लिए बात करने की – सोचा गाँव का लड़का है तो बात रखेगा। लेकिन हुआ क्या? गार्ड डयूटी से हटकर नाईट गार्ड में पहुँच गया कि कभी जॉन  माॅल में आए भी तो उसका सामना न हो कभी भी। सामने पड़ते ही उस दिन का दृश्य घूम जाता है जब गले में मांदर लटकाये मंगर दादा पहुँचा था जॉन  के सामने हिसाब-किताब करने। झक्क सफेद कलफ किया हुआ कुत्र्ता-पाजामा, पैरो में सफेद स्पोर्ट्स शू और गले में मोटी सोने की चेन पहने जॉन  बैठा था नए बने बैठके में। उसी की धजावाले चार-पाँच दोस्तों के साथ। इसमें विसनाथ बाबू को भी पहचाना था मंगर ने। विसनाथ बाबू ने भी पहचान लिया था उसे-

– अरे! मांदर सम्राट! – विसनाथ बाबू चहके थे।

जॉन का चेहरा गंभीर हो गया था मगर बाकी सभी ही-ही-ठी-ठी करने लगे थे विसनाथ बाबू की बात पर।

– काहे आये हैं? – जॉन ने गरजकर पूछा।

– जॉन  बेटा! उ हम अपना बेटा के बारे मे पूछने …..

– आपका बेटा कहाँ है हम क्या जाने – कहीं पड़ल होगा – पी – खाके

– नहीं बाबू! तुम तो जानते हो पीता-खाता नहीं

– मोटा पैसा मिला था तो आदमी का नीयत बदलते केतना देर लगता है।

– लेकिन सब बोलता हूँ कि वहीं पर जो हमरे जमीन पर माॅल न क्या बना है वहीं दिखा था- उसके बादे से गायब है – बेटा।

     फफक कर रो पड़े थे मंगर दादा।

– तुमलोग को कुछ मालूम है तो बता दो, हमरा और कौन है?

– मतलब हमलोग गायब कर दिये है तुमरा बेटा को? – इसबार विसनाथ बाबू गरजे थे – तो जाओ – थाना पुलिस कर दो।

– निकलिये-निकलिये यहाँ से जाइये – कहकर जॉन  ने जो धक्का दिया तो गिर पड़े थे मंगर दादा। ठेहुने छिल गये थे। चुपचाप उठे, मांदर को संभाला और धीरे-धीरे बजाते हुए निकल गए। अखड़ा पर पहुँचे मतलब अखड़ा तो अब था नहीं एक उजाड़ सी जगह थी। वहाँ पहुँचकर जोर-जोर से मांदर बजाने लगे – धातिंग दा-धातिंग दा/धातिंग-धिंग धतिंग धिंग/अखिट किड़ तांग/अखिट किड़ तांग/तिरी ता धातिंग/तांग किड़ तांग।

मंगर दादा का यह रूप वीरू भगत सहित सभी ने पहली बार देखा था। चेहरा लाल भभूका, आँखों से झर-झर बहती आँसू की धार ओर मांदर की आवाज में एक रोषपूर्ण रूलाई – सचमुच अद्भुत हाथ चलता था मांदर पर मंगर दादा का। सरहुल हो या करम, झूमर हो या खेमटा – अखड़ा में बस रंग जमा देते थे मंगर दादा। तब भौजी भी थी – जगर. मगर रूप – कमर में हाथ डालके एक झुंड – हाय रे हाय, हाय रे हाय/झिंझरी काटल मांदर गुईयाँ के तोरा लानय सिरा सिंदूर, नयना भी काजर गुईयाँ।

और साथ में मांदर पर चलती मंगर दादा भी उल्लासमय उंगलियाँ – धितांग धातिंग/दा धातिंग दा दा धातिंग/धातिंग अखिट तांग।

ऐसी ही एक लास्यमयी रात में विसनाथ बाबू को लेकर आया था जॉन  अखड़ा। पर सबकी भौहें तनी थी थोड़ी। लेकिन इतना मिठबोलिया थे विसनाथ बाबू कि … फटाक से उपाधि दे डाली मंगर दादा को – ‘‘आप तो मांदर सम्राट है। जॉन ! हमारे यहाँ तो इतना तरह का विभागीय प्रोग्राम होता रहता है, बड़ा-बड़ा स्टेट लेवल का। काहे नहीं लाते हो भाई इनको? एतना हुनर है तो पूरे राज्य के आदमी को जानना भी तो चाहिए।’’ ले भी गया था जॉन । मंत्रीजी के हाथ से शाल ओढ़ाया। पुरस्कार राशि भी दी गई। मंगर दादा गद्गद्। भौजी के हाथ का बना हड़िया पिलवाया वीरू भगत को और साथी-संगाती लोग को।

– एक बात तो मानना पड़ेगा। हमलोग के समाज का एक आदमी तो है जिसका बड़ा-बड़ा मंत्री-संत्री के साथ उठना-बैठना है।

– हाँ! मंगर दादा का एतना मान परतिष्ठा बढ़ाया। अखबार में फोटो छापी हुआ। सुनते है टी0भी0 पर भी दिया।

     मगर भौजी को बहुत पसंद नहीं आया – शाल-उल ओढ़ के, उ भी जेठ मे कैसा तो बकलोल लग रहे थे आप!

– अरे तो का करते गोमकाइन। एतना बड़ा मंत्री-संत्री ओढ़ा रहा है तो हम मना कर देते।

– और नहीं तो का। जेठ में कंबल ओढ़ा देगा तो ओढ़ लेंगे?

– तुम तो और अलबते बात करती हो। कचिया भी तो भेटाया।

– उहे तो एगो अच्छा काम हुआ। एगो शर्ट पैंट सिला देगे रमेश को। एक्के गो में कालेज जाता है रोज।

– अरे, तो अबकी राहर बेचेंगे न । न सुनते है बड़ी महँगा बिक रहा है अभी।

     मंगर दादा की पूछ बढ़ गई थी। बार-बार शहर जाना पड़ता। आज विदेश का कोई मेहमान आ रहा है। जॉन बुलाने आ जाता। सात गो लड़की लोग लाल पाड़ का साड़ी पहन के, खोपा में फूल खोंस के, कमर में हाथ डाल स्वागत में, साथ में, माथा में मुरेठा  बाँध के धोती पहने मांदर की थाप देते हुए मंगर दादा। उनकी ऊब को भाँप लिया जॉन  ने।

– काका! कचिया भेटायेगा। विसनाथ बाबू का प्रोग्राम है।

– इसमें मन उबिया जाता है बाबू, मन लायक गाना-बजाना कहाँ होता है?

– होगा काका होगा! बस विसनाथ बाबू का किरपा बना रहे तो सब होगा।

     ‘किरपा’ की बात तो मंगर दादा को तब पता चली जब लड़कियाँ आपस में सुन-गुन कर रही थी।

– देख न हमलोग को बस पचास रूपिया।

– सब पैसा तो इ जॉन  खा जाता है। पी0आर0डी0 तो बीस हजार दिया था। आफिस में है न उ तिर्की, वही बताया हमको।

– ठीकेदार तो खइबे न करेगा रे। चल अब।

     मंगर दादा हाथ में पकड़े दो सौ रूपये को देख रहे थे। हर हफ्ते-दस दिन में वही स्वागत गान और मांदर की एकरस थाप और हाथ में पकड़े दो सौ रूपये। मात्र दो सौ के सम्राट! न मन भरे न तन!

– अरे जॉन ! सुन बाबू! दोसर किसी को बोला लेना हम नहीं जाने सकेंगे – मंगर दादा ने कन्नी कटाने की सोची- ‘‘रमेश भी बोल रहा था कि उसके कालेज के साथी उसे चिढ़ाते भी हैं ।’’

– अरे काका! विसनाथ बाबू नाराज हो जायेंगे। अभी संस्कृति विभाग से एक टीम जर्मनी जानेवाला है- विदेश! आपका नाम विसनाथ बाबू डलवाये हैं उसमें और ऐसा समय में आप?

– का करेंगे बाबू हम विदेश-उदेश जाके। अरे गाँव घर में गा-बजा लेते है शौक-मौज के लिए।

– काका! हमलोग के समाज का एक आदमी विदेश मांदर बजाने जायेगा तो हमलोग का भी तो इज्जत प्रतिष्ठा बढ़ेगा कि नहीं – हमलोग के गाँव का भी नाम होगा।

– गाँव अब रहा कहां बाबू, अब तो शहरे हो गया. वीरू भगत को याद आया कि कितनी तेजी से उसके और मंगर दादा के गाँव को शहर निगलता जा रहा था। जैसे टी0वी0 पर देखा था मॉल में ही कि ज्वालामुखी से निकलता आग का लावा कैसे तेजी से आगे बढ़ता जा रहा था और उसमें सबकुछ गायब होता जा रहा था।

– अरे हाँ ! काका अच्छा याद आया! जमीन के बारे में कुछ सोचे है।

– क्या?- अकबकाकर मुँह देखने लगे मंगरा दादा।

– देखिए शहर तो अब इधरे बढ़ रहा है। बल्कि बढ़ चुका है। पचीस हजार डिसमिल बिकने लगा जमीन। विसनाथ बाबू बोल रहे थे कि परर्टनरशिप में एगो माॅल बन जाये तो मजा आ जाये। आपका जमीन तो रोड साइड में है न वहीं

– का बन जायेगा? मॉल? – इ का होता है बाबू?

– दोकान होता है बहुत सारा। एक ही छत के नीचे सबकुछ बिकता है अनाज, कपड़ा, जूता, सिंगार-पटार सब – जमीन के बारे में सोचिए।

– सोच तो रहे है बाबू! खेत बेच के दोकान बना देगा सब तो बेचे वाला अनाज कहाँ होगा? दोकान में?

– बड़ा काईयां है मंगर काका – सोचा जॉन ने। विसनाथ बाबू पैसवा लगायेंगे। बहुत दूनंबरी कमाते है, लेकिन जॉन को तो पार्टनरशिप में रखना ही पड़ेगा उनको। जय सीएनटी बाबा की! उसके बिना तो एक कदम नहीं चल पायेंगे विसनाथ बाबू। 75-25 का शेयर कह रहे थे। 30 तक दबायेगा, कम से कम कोशिश तो जरूर करेगा। लेकिन मंगर काका माने तब न। अब तो इ रमेश भी जवान हो गया है। बातचीत से लक्षण ठीक नहीं लगता इसका भी। कुछ गिफ्ट-उफ्ट देना पड़ेगा कभी-कभार। काकी को भी टटोलगा। लेकिन टटोलने से पहले ही – भादो के अंधरिया पक्ष में जब घर के पिछवाड़े की बगीची से हरी मिर्च लाने गई क्योंकि मंगर काका बिना हरी मिर्च के खाना ही नहीं खा पाते थे तो लाल मिट्टी का काल यानि करैत पर पैर  पड़ गया और तब तक बाप-बेटे कुछ समझ पाते या कुछ कर पाते तो – यहाँ तक कि झमाझम बरसात में मंगर दादा और रमेश ने करीब आठ किलोमीटर दूर शहर में अस्पताल में भौजी को कंधे पर लादकर ले जाने की भी कोशिश की। जॉन  ने अपने बोलेरो से पहुँचाया भी मगर देर हो चुकी थी तब तक….. बहुत देर…

इसके बाद बहुत दिनों तक माँदर टाँग दिया मगर दादा ने। जॉन  आता था बीच-बीच में बाप बेटे की खबर लेने – उसने उम्मीद नहीं छोड़ी थी। जब भी आता दोनों के लिए कुछ न कुछ ले आता – मंगर दादा के लिए चश्मा, छाता, टूथब्रश-पेस्ट, तो रमेश के लिए जींस की पैंट, टी-शर्ट, डियोडोरेंट। आग्रह भी करता उनका इस्तेमाल करने की, पर बाप-बेटे थे कि सारी चीजें वैसी ही रखी रहती थी। रमेश ने मंगर दादा को संभाल लिया था। दोनों कुछ पका-खा लेते। रमेश प्रतियोगिता परीक्षाएँ दे रहा था। खेती तो क्या होती-चैबीसों घंटे तो आस-पास धूल-मिट्टी-सीमेंट-रेत उड़ती रहती। जॉन  ने अपनी जमीन पर अपार्टमेंट बनवाना शुरू कर दिया था। देखा-देखी कई मकान-दुकानें उग आयी थी। ठीक से देखे तो मगर दादा की जमीन तीन तरफ से मकानों-दुकानों से घिर चुकी थी- सामने की तरफ सड़क थी ही।

     उसी सड़क पर एक दिन डंपर, जेसीबी मशीने आकर लगी और साथ में पुलिस भी थी। जब तक मंगर दादा कुछ समझाते जेसीबी ने उनका मकान ढहाना शुरू कर दिया। पुलिसवालों ने  जो भी छोटा-मोटा सामान था फेंकना शुरू कर दिया। रमेश दूसरे शहर गया था कोई परीक्षा देने। विसनाथ बाबू चुपचाप खड़े देख रहे थे। जॉन  बता रहा था सबको कि मंगर काका ने ये जमीन उसे बेच दी है लेकिन दखल-दिहानी होने नहीं दे रहे हैं सो पुलिस बुलानी पड़ी। पक्का रजिस्ट्री के कागजात भी दिखा रहा था जिसमें मंगर काका के उंगलियों की छापी भी थी। थोड़ी देर तक दौड़-दौड़ कर विरोध भी किया। गालियाँ बकी लेकिन फिर निढाल होकर माँदर को गले लगाकर सड़क किनारे ही सो गये।

दूसरे दिन रमेश आया तो उसने देखा मंगर दादा उसी तरह पत्थर की मूरत बने मांदर को दोनों हाथों से पकड़े बैठे हैं। न खाना-पानीए न कपड़े-लत्ते की चिंता, रमेश ने झिंझोड़ा – बाबा! बाबा!. तब होश लौटा। रमेश को देखकर भभाकर रोने लगे-सब कुछ खत्म हो गया बेटा! सबकुछ खतम!

– सबकुछ खतम कैसे होगा? देश में कानून है कि नहीं?

देश में कानून था और काफी सख्त कानून थाए तभी तो कानून ने अपनी ताकत दिखाते हुए रमेश और उसके दो साथियों को कानून-व्यवस्था तोड़ने के जुर्म में एक-सप्ताह के लिए बंद कर दिया। किसी दयालु न्यायाधीश ने उनकी कच्ची उम्र देखते हुए जमानत दे दी तो वे फिर बनते हुए माॅल के सामने धरना-प्रदर्शन पर बैठ गए। साथ में पत्थर हो गए मंगर दादा भी रहते जो यांत्रिक  अंदाज में मांदर पर थाप देते रहते। पुलिस की निगरानी में माॅल तेजी से खड़ा हो रहा था। माॅल के नाम को लेकर बिसनाथ बाबू और जॉन  जो अब माननीय होने की तैयारी में था – दोनों के बीच यक्ष और युधिष्ठिर संवाद हुआ –

बिसनाथ बाबू – सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?

जॉन  – पिछड़ा कहे जाने वाले राज्य में रोज नए-नए माॅल खुलना और खरीदारों की अपार भीड़।

विसनाथ बाबू – कहाँ से आये इतने खरीदार?

जॉन  – शहर के अस्सी प्रतिशत मॉल हमारे समाज के लोगों के कारण चलते हैं। वही हैं, खरीदार।

बिसनाथ बाबू – लोग तो कहते हैं कि आप लोगों की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं फिर?

जॉन  – कौन कहता है? कुछ प्रतिशत जिनके परिवारों में कई लोग नौकरी करते हैं वे सब खरीदार हैं।

बिसनाथ बाबू – और ज्यादा प्रतिशत

जॉन  – उनसे हमारा कोई लेना-देना नहीं।

बिसनाथ बाबू- आप मंगरा माॅल नाम पर क्यों जोर दे रहे हैं। ये नाम थोड़ा डाउन मार्केट नही लग रहा।

जॉन  – नहीं! अस्मिता की राजनीति, अस्मिता के गर्व को समझिये। हमारे समाज के लोग असल खरीदार है तो उनको अपनापन महसूस होगा ऐसे नाम से।

     विसनाथ बाबू चित्त हो गये। जॉन  अब 60-40 का पार्टनर था। हर तीसरे-चौथे रमेश को पुलिस ले जाती पर वह भी ढीठ की तरह फिर धरने पर बैठ जाता ठीक मंगरा माॅल के सामने। लाल नियोन  साइन दूर से झिलमिलाता था श्मंगरा माॅल – ए न्यू डेस्टिनेशन।श् और एक दिन जब मॉल के सामने रमेश लोगों को जोर-जोर से भाषण के अंदाज़ में बता रहा था। आपलोग जानते है कौन है मंगरा? ये जो मेरे साथ खड़े है मांदर लेकर। एक समय में माँदर सम्राट – यही है मंगरा और ये जमीन हमारी ही थी जिसे हड़प लिया गया।

भीड़ जुटने लगी थी हुल्लड़बाजो की और धक्कामुक्की होने लगी। पुलिस ने लाठी चार्ज कर दिया और लाठी लग गई मंगरा दादा के सिर पर। वहीं पर तो था वीरू भगत एछाप लिया मंगरा दादा को उपर से एलेकिन इसी हबड़-दबड़ में कौन लोग रमेश को ले गए वह देख नहीं पाया। कुछ लोग कहते है कि पुलिस ले गयी कुछ कहते है कि वो कोई और थे। पर तभी से उसका कुछ पता नहीं चल रहा है। जॉन  मंडली में जब पता करने गए थे मंगर दादा एतब का हाल आपको पता ही है।

मंगर दादा तभी से घंटों मांदर लेकर खड़े रहते हैं। बीच-बीच मे एकाध थाप देते भी हैं माॅल के शीशे के विशालकार्य  एंटेंªस के सामने। गार्ड आकर हटा देते है लेकिन फिर थोड़ी देर में वापस। किसी ने खैनी खिला दी खा लिया। किसी ने कभी केला दे दिया, कभी ब्रेड की स्लाइस, कभी कोई सिगरेट भी पिला देता। पत्थर की मूरत की तरह यांत्रिक भाव से बजाते है मांदर। देखने वाले कहते है कि अब तो शायद मांदर से आवाज भी नहीं निकलती सिर्फ हाथ भर हिलता है या शायद वह भी नहीं। चेहरा भी भूलने लगे हैं लोग उनका। मंगरा मॉल में भीड़ भी खूब होती है – जानू! सचमुच इनोवेटिव नाम है न? मंगरा मॉल! पता नहीं उस पत्थर की मूरत को मंगरा माॅल ने आगे बढ़ कर अपने अंदर ले लिया है या मूरत ही खुद बढ़कर माॅल के अंदर खड़ी हो गई है किसी ने देखा नहीं…

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संपर्क: मो०न०.9470956032

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औपन्यासिक कल्पना और यथार्थ: सुजाता

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समकालीन लेखिकाओं में सुजाता जाना पहचाना नाम है। पिछले साल उनका एक उपन्यास भी प्रकाशित हुआ था ‘एक बटा दो’। उनका यह लेख औपन्यासिक कल्पना और यथार्थ पर है, जिसे उन्होंने नेमिचंद जैन जन्मशती पर साहित्य अकादेमी में आयोजित कार्यक्रम में पढ़ा था। सरस शैली में लिखा गया एक गम्भीर निबंध है। आप भी पढ़ सकते हैं- मॉडरेटर

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I

जब भी साहित्य के संदर्भ में कल्पना और यथार्थ की बाइनरी में बात होती है मुझे एम ए हिंदी के विद्यार्थी जैसा महसूस होता है जिसे उत्तर लिखते हुए यक़ीन करना होता है कि उपन्यास रचने के लिए लेखक कल्पना और यथार्थ का इस्तेमाल करता है। सच यह है कि औपन्यासिक कल्पना और यथार्थ कोई अलग चीज़ है ही नहीं। ऐसी कोई कल्पना नहीं हो सकती जिसकी जड़ें यथार्थ में न हों और ऐसा कोई यथार्थ उपन्यास में नहीं आ सकता जिसे जिसकी ‘प्रोसेसिंग’ न हुई हो। कल्पना के बिना यह प्रोसेसिंग कभी नहीं हो सकती।  मुझे अपने ही उपन्यास पर बात करनी हो तो शायद मैं कभी व्याख्या नहीं कर पाऊँ कि कहाँ-कहाँ यथार्थ है और कहाँ-कहाँ कल्पना। इस पात्र की प्रेरणा आपको कहाँ मिली या आपने क्यों और किसके लिए यह उपन्यास लिखा – जैसे बार-बार के सवालों से तंग आकर कोई कथाकार झूठ भी बोल सकती है, जैसे मैं कहना चाहूंगी कि मेरा दिमाग खराब था,  यह झूठ भी झूठ नहीं होगा क्योंकि वाकई दिमाग में खराबी तो पैदा हुई थी।

तो उपन्यासकार की यह विवशता ही समझिए कि कल्पना के बिना उसका काम नहीं चलता। सोचिए, एक ऐतिहासिक उपन्यास यथार्थ की अनेक परतें क्या कभी कल्पना के बिना उघाड़ सकता है? यशपाल का ‘दिव्या’ जिस काल खण्ड की बात करता है उसपर महज़ रिसर्च पेपर सुनने से तो पाठक की आत्मा तृप्त नहीं होगी ! इतिहास का कोई पुनर्पाठ, पुनर्रचना क्या कल्पना के बिना उपन्यास में सम्भव है? छोड़िए ऐतिहासिक उपन्यास को, सोचकर देखिए, संस्मरण तक बिना कल्पना के नहीं लिखे जा सकते। स्मृति की पुनर्रचना में एक व्यक्ति हमेशा कल्पनाशीलता से काम ले रहा होता है। संस्मरण ही क्यों, जब आत्मकथाएँ भी कल्पना के बिना नहीं लिखी जा सकती या कहूँ पत्रकारिता तक इस क्षेत्र में लोहा ले रही है तो साहित्य से तो मैं कहती हूँ उपन्यास का यथार्थ बिना कल्पना के आ सकेगा यह कल्पना करना भी अन्याय है हुज़ूर ! एक काम की बात बताती हूँ जो बेहद प्रासंगिक भी है।

अपने एक साक्षात्कार में मार्खेज़ से पूछा गया कि पत्रकारिता और उपन्यास में क्या फ़र्क़ है तो वे बोले- कुछ नहीं, इतना कि सिर्फ़ एक तथ्य जो झूठ है पूरे पत्रकारिता के काम को पक्षपातपूर्ण बना देता है और सिर्फ़ एक तथ्य जो सच है उपन्यास को न्यायसंगत।

इस बात को उद्धृत करना मुझे ज़रूरी लगा। हालांकि कितना भी कल्पना का सहारा ले पत्रकारिता से उपन्यास को कोई खतरा नहीं।

  तो वापस अपनी बात पर आते हुए, आखिर रात की जंगल सफारी पर निकलते हुए या बड़ा इमामबाड़ा घूमते हुए एक प्रशिक्षित लेकिन हद दर्जे का गप्पबाज और नाटकीय गाइड साथ न हो तो क्या मज़ा। रात के डरावने जंगल या एक विशाल संरचना की तरह उस ठस्स पड़े यथार्थ का मैं क्या करूँ!

अपने ज़ाती अनुभव से कहूँ तो लेखक को स्वयम को अभिव्यक्त करने की एक भयानक, अव्याख्येय किस्म की बैचैनी होती है। एक बच्ची उछल कर कहती है देखो उस पेड़ पर एक घोंसला है और कितने नन्हे, अभी अँडे से निकले पक्षी के बच्चे हैं और माँ उनकी चोंच में चोंच डालकर केंचुआ खुला रही है, उसकी दोस्त को नहीं दिखता जब तक कि वह उसे कंधे से पकड़ कर अपनी तर्जनी की सीध में देखने के लिए नहीं कहती। सम्भव है तब तक माँ पक्षी वहाँ से उड़ चुकी हो।

कभी कोई यथार्थ सिर्फ उसे दिखता है भूत की तरह  दिखता है, ज़्यादा सताता है, भूत-वूत नहीं होते, वहम होते हैं, लेकिन वह डरती है और तमाम तरीकों से कोशिश करती है कि कह सके। चिल्ला सके। या कभी अंधेरी रात में किसी हत्या को देख लेने जैसा हो सकता है जिसमें लेखक को लगे कि वह खुद भी हत्यारी व्यवस्था या मरने वाले का ही हिस्सा है, वह चिल्ला कर सबको बताना चाहे लेकिन इस भय से कि इतने कोरे यथार्थ पर और इस पीड़ा पर कोई भी क्यों यकीन करेगा जबकि नज़रें घुमाने पर सब घरों की बत्तियाँ उसने जलती पाईं और इस मुगालते से बाहर निकली कि वह अकेली इसकी चश्मदीद गवाह है !

इसकी वजह कभी समझ नहीं सकती न समझा सकती हूँ कि अपना उपन्यास लिखते हुए मुझे हमेशा रात क्यों दिखती थी और ऐसा क्यों होता था कि सब कुछ देखा-सुना-भोगा-अनभोगा आधी रात बीतते हुए आँख बंद करने पर चलचित्र सा क्यों आ जाता था ! बाहर एक यथार्थ है, राजनीति है, एक विराट आख्यान है दुनिया का और उपन्यास उन सबको देखने वाली लेखक की दिमाग़ी खराबी !

क्योंकि यथार्थ इकहरा नहीं होता और लेखक खुद उसमें पहले से उलझा हुआ होता है, खुद को ‘सॉर्ट आउट’ करने में लगभग असक्षम और उसमें यह लालच पैदा होता है कि वह दूसरों को भी इसमें फुसला के शामिल कर ले,  वह कल्पना का सहारा लेकर उपन्यास के यथार्थ को निर्मित करता है ताकि जो पाठक को सिर्फ एक भवन लगता था अब तक वह बड़ा इमाम-बाड़ा लग सके और वह भूल-भुलैया की गलियों में खोने के लिए आतुर हो जाए, वह बावड़ी की रचना देखकर विस्मित हो और तमाम रोमांच, उत्साह, भय, विस्मय, अपने अदना से अस्तित्व के बोध,अपने वर्तमान और अस्मिता के सवालों और खोने-पा लेने की आशंकाओं से गुज़ारते हुए, एक भरे-पूरे अनुभव के साथ बाहर के दरवाज़े तक ले आए।

मैं सोचती हूँ कि एक उपन्यासकार करती क्या है? सोचिए, आप मेरी पड़ोसन की कहानी क्यों सुनना चाहेंगे? उसकी दिनचर्या, उसके सुख-दुख और उसके इतिहास-वर्तमान से जो नाता मेरा है वह आपका नहीं हो सकता। जब तक कि वह पात्र आपको अपनी सी न लगे और उससे आपका राब्ता बढता चला जाए आप उसकी सच्ची या झूठी किसी कहानी में दिलचस्पी नहीं लेंगे। यानी उस पात्र को ‘बिलीवेबल/ विश्वसनीय ’होना होगा। इसके लिए उपन्यासकार पात्र अपने ही जीवन और आस-पास से उठाती है लेकिन वह यह ध्यान रखती है कि पात्र पाठक को अपने कितना भी क़रीब लगे और भले वह बार-बार उसमें अपना ही अक्स देखे, लेकिन लगातार वह उसकी पहुँच से बाहर रहे। पाठक उस पात्र या उसकी कहानी से जितना राब्ता महसूस करके पीछे भागे उतना ही वह उसकी पकड़ से बाहर बना रहे। यह भी कह सकते हैं कि उपन्यासकार इस तरह धीरे-धीरे पाठक को झूठ (या कहिए कल्पना) को स्वीकारने के लिए तैयार करती है।

यह झूठ यथार्थ विरोधी या विलोम नहीं होता। बल्कि कहना चाहिए उपन्यास का अपना एक यथार्थ होता है जिसे रचनाकार उसी तरह से नहीं गढता जैसा समाज में है और फिर भी वह बाहर के यथार्थ को समझने के लिए एक दृष्टि देता है। स्त्रीवाद पर किताब लिखना और एक स्त्रीवादी उपन्यास लिखना अलग चीज़ें हैं।

लेखक एक पोज़ीशन लेता है ताकि चीज़ें वैसी ही दिखा सके जैसी उसे खुद को दिखती हैं या जैसे उसके सामने ‘अपीयर’ होती हैं। उपन्यास लिखते हुए  उसे बड़ी चालाकी से काम करना होता है। वह उस सच तक जाना चाह्ता है जो पाठक के भी मन के अंधेरे कोनों में दुबका बैठा होता है। अपने पात्र को उन अंधेरे कोनों तक उपन्यासकार ले जाता है तो पाठक के लिए भी वह भयावह यात्रा से रोमांच में तब्दील हो जाता है। वर्ना ऐसे कैसे सम्भव है कि असल जीवन में वैवाहिक रिश्तों में तथाकथित अनैतिकता पर अकुँठ बात किया जाना बर्दाश्त न करने पर भी  ‘मित्रो मरजानी’ की सम्वेदना पाठक के दिल को छू जाती है!

“काहे का डर, जिस बड़े दरबारवाले का दरबार लगा होगा, वह इंसाफ़ी क्या मर्द-जना न होगा? ”

जो उपन्यास पढने चली है वह मित्रो को आँख मटका कर यह कहते सुनती है तो जैसे अपने देखे जीवन में मर्दवादी खोखली मर्यादा और आचरण के नियमों के दृष्टांत आंखों के सामने घूम जाते हैं। नसों से लेकर नालियों तक में बहती पितृसत्ता से वह जीवन में भले न टक्कर ले, उस वक़्त लेकिन आँख नचाकर , अंगूठा दिखाकर मन की करने वाली मित्रो उसके लिए अविश्वसनीय और निंदनीय नहीं रह जाती।

इस चालाकी में भाषा उसका भरपूर साथ देती है। उपन्यास पर कोई बंधन नहीं है। उसमें कविता का आना-जाना अक्सर लगा रहता है। भारतीय समाज में एक निम्न वर्गीय दमपत्ति की ज़िंदगी की तमाम सच्चाइयों के बीच रोमांस और रोमांच, विस्मय और आनंद के लिए कोई स्पेस होता होगा यह कल्पना करना जैसे ही आपको असम्भव लगेगा ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ आपको विस्मित कर देगा।  टट्टी के ताले की चिंता से लेकर हाथी पर सवार होकर विश्वविद्यालय जाना और तमाम घर-दुआर के काम निपटा कर रघुवर प्रसाद और सोनसी का खिड़की के पार कूद जाना झूठ लगते हुए भी सुहाने लगते हैं कि नहीं ! “दोनो जागे थे और सब कुछ नींद में झूम रहा था। तालाब नींद में तालाब था । आकाश नींद का आकाश” गद्य और कविता की भाषा के बीच बनी दीवार में भी जैसे एक खिड़की खुल जाती है। भाषा की इस सामर्थ्य पर हालांकि नई वाली हिंदी सवाल चिपका रही है।

एक रचनाकार के नज़रिए से इस तरह की कल्पनाओं और झूठों के बारे में शायद ही कभी ठीक-ठीक बताया जा सकता हो। बहुत सम्भव है कि किसी एक पात्र को गढने में उसने अपने जीवन में देखे परिचित-अपरिचित दस-बीस पात्रों की विशेषताओं को मिला दिया हो। एक घटना जो पाठक और आलोचक को सुचिंतित लगे उसका आइडिया यूँ ही उसे मिला हो। हारूकी मुराकामी अपने साक्षात्कार में मैजिक रियलिज़्म के बारे में कहते हैं –

 “I like Gabriel Garcia Marqez very much, but I don’t think he thought of what he wrote was magic realism. It was just his realism. My style is like my eyeglasses: through those lenses , the world makes sense to me.”

अपने उपन्यास ‘काफ्का ऑन शोर’ के बारे में मुराकामी बताते हैं कि कैसे आसमान से बारिश में मछलियाँ  गिरने की बात उन्हें यूँ ही सूझी। उन्हें बस इतना लगा था कि आसमान से कुछ गिरना चाहिए। क्या? एकदम से सूझा मछलियाँ। वे कहते हैं मैं विश्लेषण और प्रतीकात्मकता खोजना बुद्धिजीवियों पर छोड़ता हूँ। मुझे अगर एकदम से मछलियाँ सूझा तो हो सकता है उसका एक गहरे सामूहिक अवचेतन से कुछ लेना-देना हो और कोई भी आम व्यक्ति शायद ऐसे ही सोचता। इस तरह एक ‘सीक्रेट मीटिंग प्लेस’ बनती है जो उनके और पाठक के बीच ।

जब तक कि पाठक हाथ थामे रहना चाहे , उपन्यासकार उसे कहीं भी ले जा सकता है। यानी, जब तक पाठक यक़ीन करने को तैयार है मैं उपन्यास में कुछ भी ला सकती हूँ। यह खेल और चालाकी लगता हुआ भी आसान नहीं है। एक उपन्यास अपनी समाप्ति पर लेखक को खालीपन से भर सकता है। सच की तलाश में निकलना आसान नहीं। अपने विशाल कलेवर और रचना-प्रक्रिया में उपन्यास जैसी छूट एक लेखक को देता है या कहिए जब कथा और पात्र स्वतंत्र होकर लेखक को बनाने लगते हैं तो यह खुशी-खुशी अपने हाथों अपनी कब्र खोदने जैसा लगता है। यह सुख कोई अन्य विधा नहीं दे सकती। यह ऐसा ही है कि आप जी-जान लगाकर पहाड़ की चोटी तक चढाई करें और फिर छलांग लगा दें। अभिव्यक्ति की छटपटाहट और  पाठक को यूँ कहीं भी साथ लिए चलने की लत कम बुरी नहीं है। उसके लिए पहाड़ी से कूदना भी मंज़ूर !

मृत्यु अगर सबसे बड़ा सच है तो उपन्यास मृत्यु की लालसा !

II

औपन्यासिक यथार्थ या कहें सच अक्सर निर्मित किया गया लग सकता है। पहले ही कह चुकी हूँ, सच और झूठ का घालमेल करके लेखक उपन्यास और उसके पात्रों को विश्वसनीय बनाता है और चालाकी से काम करता है। लेकिन यह चालाकी कितनी क़ामयाब है यह सिर्फ पाठक की नज़र में विश्वसनीय बनने से तय नहीं होगी। अपनी आत्मकथा में भीष्म साहनी ‘तमस ’ की रचना-प्रक्रिया पर बात करते हुए लिखते हैं‌  – “ उपन्यास के आरम्भ में सूअर मारने का प्रसंग काल्पनिक है। उपन्यास की सच्चाई के मानदण्ड इस बात पर निर्भर नहीं  होते कि अमुक  घटना वास्तव में घटी थी  या नहीं,  बल्कि  इस बात पर कि जीवन  के समूचे यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में  वह घटना विश्वसनीय बन पाई है कि नहीं” हम देखते हैं कि विभाजन के आख्यान  में ‘तमस’ अंतत: मनुष्यता के पक्ष में खड़ा होता है। मानवता का यह महाआख्यान ही अंतत: सब तय करता है।

आलोचना में, चलते-चलते कुछ वाक्य बड़े ‘क्लीशे’ वाक्य हो जाते हैं। जैसे, जटिल यथार्थ होना। पिछले 50-60 वर्षों  से हिंदी उपन्यासों में आ रहा यथार्थ जटिल ही है। औपन्यासिक कल्पना और यथार्थ के लिए मेरे हिसाब से ‘सच’ एक बेहतर शब्द है। ऐसा सच जो कई कोणों से देखा जा सकता है(इसमें कई कोण झूठ, कल्पना, अयथार्थ भी लग सकते हैं),जो अक्सर खण्डित है और जिसे अक्सर एक मेटानेरेटिव होने के लिए छोटी छोटी कहानियों या सचों से गुज़रना होता है। उदाहरण तो बहुत से हो सकते हैं लेकिन यहाँ मैं एक खास उदाहरण देती हूँ। जैसे, स्त्री की दुनिया का सच जो मैं हार गई, यही सच है, अकेली, रजनीगंधा या मजबूरी जैसी कहानियों में मन्नू भंडारी के यहाँ फैला पड़ा है, वहीं संघनित और तार्किक होकर स्त्री के सच का एक महाआख्यान ‘कठगुलाब’ में है। असिता,मारियान, नर्मदा और असीमा का सच।  एक दूसरे को काटता, सम्पूर्ण करता। विपिन मजूमदार का सच , वह  पुरुष जो इस स्त्री-सच में कभी हिस्सा है और कभी दर्शक, न हीरो है न विलेन । बलात्कार से लेकर कोख के सवाल, परम्परावादी एक आम श्रमिक औरत नर्मदा, अपने फेमिनिस्ट होने की खुद ही पड़ताल करती हुई असीमा जिसे मर्दों से नफरत है, मारियान, जो देख रही है कि प्रतिभावान पति से डिक्टेशन लेकर उसे तरतीब देना और टाइप करना ही पढी-लिखी साथी औरत का कर्तव्य है। अकादमिक काम के लिए श्रेय की वह अधिकारी नहीं। मौलिक कैसे सोच सकती है वह? आखिर स्त्री है।

हर आत्म-चेतस स्त्री आँख की किरकिरी है और समाज का यह सम्पूर्ण स्त्री-विरोधी ढाँचा स्त्रीवाद के उस महाआख्यान को तैयार करता है जो स्त्री के ऐतिहासिक यौनिक दमन की बात करता है और आत्मालोचन के एकाध सवाल भी छोड़ता है । लेकिन बहुत कुछ इस महाआख्यान में से भी छूटना लाज़िम था जिसे आने वाले उपन्यासों को , स्त्री-लेखन को उठाना था। यानी, जो अलग-अलग किस्म की पितृसत्ताओं से बनता सच है,जहाँ जेण्डर और क्लास और जाति का सवाल एक साथ आता है यानी लोकल नैरेटिव की बात करना। एक सम्पूर्ण स्त्री-सच को गढने के लिए स्त्री-लेखन को उन सबकी बात करनी होगी जो अभी तक स्त्रीवाद के मेटानैरेटिव से बाहर छूट गए। हिंदी में शहरी और पढी-लिखी नौकरीपेशा औरत के बरक्स ग्रामीण स्त्री के सच ऐसे ही छूटे हुए हिस्से थे। चाक या झूला नट या  मैत्रेयी पुष्पा के बाकी उपन्यासों में ये लोकल आख्यान जगह पाते हैं। ब्लैक फेमिनिस्म या दलित स्त्रीवाद भी यही छूटा हुआ हिस्सा है।

हम बार-बार कहते हैं सच की कई परतें हैं। जब मैं खण्ड-खण्ड सच और बहुपरतीय सच के ज़रिए एक महाआख्यान बनने की बात करती हूँ तो बात उस राजनीति की भी करनी चाहिए जिसमें लेखक के  चुनाव एक पॉपुलर सच के पक्ष में जाते हैं । कोई एक महाआख्यान यथार्थ को देखने-समझने के नज़रिए को इस कदर प्रभावित कर सकता है कि लेखक पक्षपाती दिखाई दे। जैसे , विस्थापन का जो आख्यान ‘राष्ट्रवाद’  के महाआख्यान के साथ तैयार होता है वह मनुष्यता के ‘सच’ के लिए घातक हो सकता है। एक उदाहरण कश्मीर को लेकर हिंदी में लिखे उपन्यास हो सकते हैं जिन्हें पढकर सच को पाना लगभग असम्भव है। अगर आप कश्मीर गए हों और वहाँ बहुत से लोगों से बात की हो तो इसे समझ सकते हैं। हिंदी में कश्मीर पर बहुत कम लिखा गया और यह ऐसा इलाक़ा था जिसका सच जानने की जितनी उत्कट इच्छा थी उतना ही ईमानदार साधनों का अभाव। क्षमा कौल का ‘दर्दपुर’ कश्मीरी पण्डितों के दर्द तो बयान करता है लेकिन उसके बरक्स कश्मीरी मुसलमान का दर्द गौण है जबकि कश्मीर को जानने-समझने वाले समझ सकते हैं कि कश्मीर का अगर कोई सम्पूर्ण सच बन सकता है तो इन दोनो दर्दों के पुलों से गुज़र कर ही बन सकता है। आप कश्मीरी इतिहास और वर्तमान से परिचित हैं तो मनीषा कुलश्रेष्ठ का ‘शिगाफ़’ भी निराश करता है। वह टूरिस्ट के नज़रिए से लिखा गया उपन्यास है। ऐसे ही मीरा कांत का ‘एक कोई था कहीं नहीं सा’ भी इकहरी पक्षधरताओं का उपन्यास है। एक ही कल खण्ड में होने वाले रोटी आंदोलन को वह कथावस्तु बनाता है लेकिन मुसलमानों के आंदोलन पर कोई बात नहीं करता।

ऐसे में, जब लेखक अपने सुविधाजनक यथार्थ का चुनाव करने लगे तो यथार्थ वस्तुत: कितना जटिल और राजनीतिक होगा यह समझा जा सकता है। शायद इतना जटिल और इतना राजनीतिक कि ‘सच्ची घटनाओं पर आधारित’ कहकर किसी भी झूठ को सुपाच्य बनाया का सकता है और सच इतना नाटकीय हो कि झूठ ही लगने लगे। ऐसे सत्यातीत समय में लिखना कभी कभी हायपररियल हो जाना,  जीवन की असल इमेज के साथ उसकी विरोधाभासी छवि का मिल जाना भी सम्भव है। हालाँकि हयवदन गिरीश कार्नाड का नाटक है और हम उपन्यासों पर बात करा रहे हैं ,फिर भी मैं उस देवी के मदिर का प्रसंग उद्धृत करना चाहूंगी जो वीरान पड़ा रहता है और जहाँ दोनो नायकों के सर एक-दूसरे के धड़ पर चिपका दिए जाते हैं सो भी उस स्त्री द्वारा जो एक को पति के रूप में वरती है और दूसरे को मन ही मन चाहती है। नाटक में देवी के लिए एक वाक्य आता है- वह जो मांगो उसे पूरा करती थी। अब उसपर लोगों ने विश्वास करना बंद कर दिया।

कह सकते हैं कि अपनी सारी तकनीकों के ज़रिए लेखक उपन्यास में एक मेटानैरेटिव को गढता है तो समाज में मौजूद मुख्य मेटानैरेटिव्स से टकराता भी है। राष्ट्रवाद का महाआख्यान इस समय देश का मुख्य महाआख्यान है। पुरुषोत्तम अग्रवाल के उपन्यास ‘नाकोहस’ इस नज़र से भी देखना होगा। नेशनल कमीशन फॉर हर्ट सेंटीमेण्ट्स,  एक ‘आहत भावना आयोग’ गठित हो गया है। इधर आपने कोई होश की बात की पढे-लिखों वाली और उधर किसी की भावनाएँ  आहत हुईं। अब चलिए जेल। फिज़ूल और गढे गए सचों की ऐसी अंतहीन बरसात है दर्शक पर कि मानो एक टीवी है जो प्लग उखाड़ देने पर भी बंद नहीं होता और घर से निकलने पर भी व्यक्ति के साथ लगा-लगा चलता है। सामूहिक विवेक का दिनोदिन ह्रास होते चले जाने के पीछे चौबीसों घण्टे सूचनाओं की बमबारी, सूचना और प्रसार माध्यमों का सत्ता की चाटुकारिता में पगला जाना एक बड़ी वजह है।  हो सकता है सोचने-समझने वाला व्यक्ति ऐसे ही झल्लाकर टीवी बंद करने उठता हो और बढते-बढते सूचनाओं का अतिरेक उसे अपनी ज़द में ऐसे ले लेता हो कि वह चाहकर भी घड़ी-घड़ी मोबाइल पर नज़र डाले बिना न रह सकता हो।

सच को तलाशने की बेचैनी में उपन्यासकार राष्ट्रवाद और जातीय पहचानों,साम्प्रदायिकता और मानवता, पितृसत्ता और स्त्रीवाद जैसे कई महाख्यानों  की टकराहट से गुज़रता है। वह जो भी कह पाता है उसके लिए उसकी भाषा और रचनात्मकता ही साथ देती है।

और अंत में समेटते हुए जल्दी-जल्दी कुछ बातें। राजनीति से प्रेरित होकर आज जब रोज़ नए सत्य गढे जा रहे हैं ऐसे में सच को कहने के झूठे तरीके उपन्यासकार के शायद सबसे ज़्यादा काम के हैं। आज उसका यथार्थ वास्तव में जटिल है क्योंकि अपनी पक्षधरताओं में वह ठीक-ठीक मनुष्यता को ही वरण करता रह सके यह सबसे बड़ी चुनौती है। वह कितना भी झूठ और कल्पना ले आए “व्हाट्सेप यूनिवर्सिटी”  से पाया यथार्थ उसका यथार्थ नहीं हो सकता। वह कल्पना का नाम लेकर ज़िम्मेदारी से भाग नहीं सकता जबकि उसके कंधों पर बहुतों का सच कहने की ज़िम्मेदारी हो, उनका भी, जो असल में उसे अपना शत्रु समझते हों। स्त्रीवादियों के लिए भी आज फिक्शन लिखना बहुत ज़रूरी है। यह लोकमंगल की साधनावस्था कहलाएगी। उपन्यासकार के पास पहले से बना बनाया कोई सच नहीं हो सकता। वह आख्यान कहते हुए भी दरअसल एक शोधार्थी है जिसे कोई भी रेफेरेंस न देने की छूट है ! आगे कभी बात कहने का फिर मौक़ा मिला तो शायद इससे बेहतर तरीके से कह पाऊंगी।

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सुजाता

Chokherbali78@gmail.com

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गुजराती भाष की लेखिका कुंदनिका कापड़िया की कहानी ‘अवकाश’

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कुंदनिका कापड़िया गुजराती की प्रसिद्ध लेखिका थीं। अभी पिछले हफ़्ते ही उनका निधन हो गया। उनकी एक कहानी का अनुवाद प्रस्तुत है। अनुवाद किया है प्रतिमा दवे शास्त्री ने- मॉडरेटर

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चिट्ठी लिखकर उसने टेबल पर रखी और घर की चाबी, किताब व पर्स लेकर निकल ही रही थी कि टेलीफोन की घंटी बजी । अपूर्व का फोन था- “हैलो पूर्वी, कैसी हो? आज का दिन अच्छा गुजरा न! सुनो,  छह बजे के करीब पहुँचूँगा , साथ में तीन  मित्र होंगे, वहीं खाना खाएंगे”

पूर्वी ने कोई उत्तर नहीं दिया। धीरे से फोन रख दिया। उसे बहुत गुस्सा आया। कितने समय बाद, महीनों व सालों बाद, शायद शादी के बाद पहली बार ऐसा मौका  आया था कि  उसने अपने लिए अपना कार्यक्रम खुद बनाया था। एक सादा सा, छोटा सा कार्यक्रम सिर्फ अपने लिए अपनी घर गृहस्थी से अलग सिर्फ खुद से बातें करने के लिए…

और अब, आज शाम चार पाँच मेहमान घर में खाने पर आ रहे हैं। अभी तक तो कोई ऐसी बात नहीं थी। घर में इसके लिए ज़रूरी साग-सब्जी और अन्य चीज़ें भी तो नहीं हैं। इतने लोगों को अच्छी तरह खिलाने पिलाने के लिए तो बाज़ार से भी बहुत कुछ लाना पड़ेगा।

हालांकि उसे भी अच्छा लगता था जब लोग कहते कि पूर्वी के घर अचानक चाहे जितने मेहमान पहुँच जाएं, वह कभी परेशान नहीं होती। जरा सी देर में ही वह इतना स्वादिष्ट खाना बनाती है कि पूछो मत, ग़ज़ब की सूझ बूझ और होशियारी है उसमें।

इसीलिए अपूर्व बिना कोई सूचना दिए अपने मित्रों को अक्सर खाने पर ले आता। उसे पूरा भरोसा रहता कि  व्यवस्था हो ही जाएगी और अच्छे से होगी, मेहमान पूर्वी के आतिथ्य का बखान करते, “घर चलाने की कुशलता तो कोई पूर्वी से सीखे”।

ऐसा नहीं था कि पूर्वी केवल रसोई ही अच्छी तरह से संभालती थी। अपने विद्वान प्रोफेसर पति का सारा पत्र व्यवहार, उनके लेखों का वर्गीकरण, उनके भाषणों की नकल, विभिन्न अखबारों में प्रकाशित लेखों की  कतरनें काटकर  उन्हें विषय-वार जमाती , हस्तलिखित प्रतियों  की प्रेस कॉपी तैयार करती। यह सब वह इतनी दक्षता से करती कि अपूर्व बड़े गर्व से  कहता, “ पूर्वी तो मेरी कार्यकारी मंत्री है, इसके बिना मैं अपना कार्य सुचारु रूप से कर ही नहीं सकता”।

फोन की घंटी फिर बजी, अपूर्व की आवाज़ थी, “पूर्वी फोन क्या कट गया था या कोई और बात थी? मुझे लगा तुम वापस फोन करोगी। इसलिए मैं राह ही देख रहा था”।

पूर्वी ने केवल हुंकारा  भरा।

अपूर्व कुछ फिक्र से बोला, “ तबीयत तो ठीक है ना, आवाज़ क्यों ढीली लग रही है?”

उत्तर में पूर्वी केवल हंसी।

अपूर्व को अब जरा तसल्ली हुई, “हाँ, अब हुई न बात, तुम्हारी हंसी सुनकर जी को चैन आया। हाँ, अब सुनो, ठीक छ बजे हम लोग आ जाएंगे। जल्दी आता, पर सब साथ में हैं इसलिए थोड़ी देर  हो जाएगी। सब खाना वहीं खाएंगे, ठीक है न!”

उत्तर में पूर्वी ने जरा हँसकर  कहा, “ठीक है” और फोन रख दिया। वह घर की दहलीज़  पर आ खड़ी हो गई।  एक पाँव अंदर और एक बाहर। अंदर रहने का मन नहीं और बाहर जाने का सुयोग नहीं। एक नज़र उसने घर पर डाली। कितनी सजावट, कितनी सारी चीज़ें, और इन  चीज़ों से घर के कोने कटरों में  कितना गहन अंधकार ! इस गहराते अंधेरे की  अतल गहराइयों में खो जाने से पहले ही इससे बाहर निकल जाऊँ, पर निकलूँ कैसे?

दिन प्रतिदिन इन कोनों में अंधेरा और गाढ़ा होता जा रहा है। ऐसा लगता है जैसे इन सब चीज़ों में से एक रिक्तता लंबा हाथ पसारकर उसे डसने आ रही है। लेकिन यह बात उसने आज तक किसी से कही भी नहीं। एक तो उसे कभी  इतनी फुरसत ही नहीं मिलती। घर में कितना काम रहता है। सभी चीज़ों को संभालने -सजाने , साफ सुथरे ढंग से रखने में कितनी मेहनत लगती है। उसे मुश्किल ना हो इसलिए पतिदेव ने कितने साधन जुटाएं  हैं- बिजली का मिक्सर, बिजली का चूल्हा,  टेप-रिकॉर्डर, रिकार्ड- प्लेयर, वाशिंग- मशीन, वैक्यूम- क्लीनर, कपड़ों पर खुद ब खुद पानी छिड़कने वाली प्रेस, फलों का रस निकालने वाली मशीन आदि न जाने कितनी चीज़ें घर में हैं।

इन सभी चीज़ों की साज संभाल, उन पर धूल न चढ़े, उनकी मशीन न खराब हो जाए, इस सबका ध्यान रखने में ही उसका सारा समय बीत जाता। नए- नए रेकॉर्ड्स आते तो उन्हें विषयवार छाँटती। टेप किया संगीत, अपूर्व के भाषण, उसकी चर्चाएं,  सभी पर लेबल लगाती, तारीख डालकर सभी कुछ व्यवस्थित रखती। सभी चीजों का इस्तेमाल संभालकर होना चाहिए, नहीं तो वे खराब हो जाती हैं। एक बार फलों का रस निकालने वाली मशीन का काफी समय तक इस्तेमाल नहीं हुआ, वह भूल ही गई थी। बाद में अंदर की जाली चिपक गई, किसी भी तरह से निकल ही नहीं रही थी। सारे उपाय करके वह थक गई, पर सब बेकार। उस दिन अपूर्व बेहद नाराज़ हुआ, “चीज़ें ठीक स्थिति में रहें, इसके लिए ध्यान देना चाहिए। ये चीज़ें हमारे उपयोग के लिए हैं, अगर इनका उपयोग ना हुआ तो ये हमें ही खा जाएंगी।”

फिर उसे सुधरवाने के लिए भी पूर्वी को ही जाना पड़ा। अपूर्व को तो हमेशा की तरह बहुत काम था। फिर पूर्वी कौन पुराने ज़माने की डरपोक और व्यक्तित्वहीन स्त्री थी? वह बैंक जा सकती थी, इंकम टैक्स रिटर्न भर सकती थी, इत्यादि इत्यादि।  इसलिए वह बैंक जाती, रिटर्न भरती। अपूर्व को शेयर खरीदने का विचित्र शौक अपने पिता से विरासत में मिला था।पर, शेयर बाज़ार  के उतार चढ़ाव को समझने की ज़िम्मेदारी पूर्वी पर ही आ पड़ी। अपूर्व कहता, “तुम तो पढ़ी लिखी हो, अब से तुम ही मुझे गाइड करना कि कौन सा शेयर खरीदना है और कौन सा बेचना है, मुझे तो जरा सी भी फुरसत  नहीं मिलती है। एक बार पूर्वी ने चिढ़ कर कहा भी था, “अगर समय नहीं मिलता तो  शेयर का धंधा मत करो, दूसरे काम क्या घटिया हैं?”

लेकिन अपूर्व को इस सबमें बड़ा रस मिलता। पैसों के लिए नहीं, पैसों की उसे आवश्यकता नहीं थी। शेयरों को खरीदना, बेचना, उनके मूल्य का अनुमान लगाना, इसमें उसे बड़ा मज़ा आता था। पर, इसके लिए  प्रारम्भिक सारा काम पूर्वी को ही करना पड़ता। अपूर्व बड़े अभिमान से कहता, “पूर्वी तो मेरी सेक्रेटरी है।“

एक बार एक पार्टी में  बहुत सारे मेहमान थे। अपूर्व के विदेश में रहने वाले  दो तीन मित्र पहली बार घर आए थे। अपूर्व ने पूर्वी का परिचय करवाया, “ मेरी सेक्रेटरी”, फिर जरा रुककर कहा, “और मेरी पत्नी भी”। पहले तो वे लोग  हंसें फिर पूर्वी का अभिवादन किया और उसकी प्रशंसा की। पर, उनके हास्य में अटकी गूढ़ता पूर्वी की समझ में न आई। उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगा। सेक्रेटरी होने में भला कौन से गौरव की बात थी!

उसके बाद दिन रात जब भी वह अकेली होती, खुद से प्रश्न करती –‘जीवन में क्या मुझे किसी की सेक्रेटरी ही बनना था? अपने बारे में मेरी कल्पना क्या केवल एक अच्छी मेहमानवाज़ और स्वादिष्ट रसोइए की थी? क्या मैं दूसरों के साधनों को अच्छी तरह चलाने वाली कुशल कारीगर मात्र हूँ? मैं क्या हूँ और मेरा लक्ष्य आखिर है क्या? मेरे सपनों में किसके फूल खिलते हैं? मेरे जीवन की सार्थकता किसमें है? मुझे कहाँ मिलेगी, किसमें  मिलेगी?

फिर तो जैसे- जैसे वह विचार करती गई, वैसे- वैसे उसके दिमाग की खिड़कियां खुलती चली गईं। घर और पति का काम और सुख सुविधा के इन साधनों की साज संभाल में ही उसका सारा जीवन बीता जा रहा था। क्या यही उसके जीवन का उद्देश्य है? क्या इसके परे उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है? इस सीमा के बाहर कोई अन्य संसार है भी या नहीं? इस संसार का प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में अद्वितीय है, ऐसा अपूर्व कई  बार अपनी चर्चाओं में कहता था।  तो उसकी अपनी अद्वितीयता किसमें है? सेक्रेटरी की शिक्षा ग्रहण  किया हुआ कोई भी व्यक्ति फ़ाइलों का वर्गीकरण कर सकता है, डाटा तैयार कर सकता है। इन सभी साधनों की अच्छी तरह साज संभाल तो कोई सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति भी कर सकता है। इच्छा न होने पर भी ‘प्लग’ लगाकर, बटन दबाकर रिकॉर्डिड संगीत कोई भी सुन सकता है। भूख न होने पर भी मशीन को  घर्र- घर्र चलकर गाजर का रस निकालकर पी सकता है, उसके गुण और पौष्टिकता  का बखान कर सकता है। रुचिकर न लगे तो भी बिजली के ओवन में ‘मैक्सिकन रेटबिट’ या ‘चीज़ एण्ड पटेटो फ्राई’ बना सकता है। क्या सिर्फ इसलिए इन सभी साधनों का उपयोग होना चाहिए, इन्हें साफ़ रखना चाहिए क्योंकि अगर इनका उपयोग न हुआ तो ये पड़े- पड़े बेकार हो जाएंगे?

दिमाग की खिड़की खुलने से एक के बाद एक विचार आने लगे और उनका प्रकाश उसे चौंधियाने लगा। इस घर में उसका अपना स्थान क्या है? आखिर उसका काम क्या है? और यदि कुछ है भी तो उसका स्थान उसके अपने जीवन में सर्वोपरि है क्या? उसके  जीवन की चरम सिद्धि क्या है? यह घर आखिर है किसका, खुद उसका, अपूर्व का  या फिर इन चीजों का? यह संगीत  क्या स्वयं के आनंद के लिए है या कि टेप-रेकॉर्डर बिगड़ न जाए इसलिए है? संगीत उसे बहुत पसंद था, पर वह यह तो नहीं था, तो फिर क्या.. ?

बहुत दिनों पहले उसकी एक सखी उससे मिलने आई थी। उसका घर दो बस स्टापों के बीचोंबीच था। सहज ही पूर्वी ने उससे पूछा, “घर जाने के लिए तू पहले स्टॉप पर उतरकर थोड़ा आगे जाती है या फिर दूसरे स्टॉप पर उतरकर पीछे जाती है?”

सखी ने उत्तर दिया,” दूसरे पर उतरकर पीछे जाती हूँ। पता है क्यों?”

“क्यों?”

“दूसरा स्टॉप समंदर के सामने है।“सखी ने सलज्ज मुस्कान के साथ ऐसे कहा मानो किसी गुप्त प्रेम की बात कर रही हो।

पहले से खुली खिड़की में से एक दूसरा विचार उभरा और पत्थर बनकर ठिठक गया। यहीं पर ही तो कहीं उसके प्रश्न का उत्तर नहीं था।

बस उसी  दिन से वह उससे मिलने जाने की योजना बना रही थी- सखी से नहीं, समंदर से मिलने की। एक अच्छी सी पुस्तक साथ ले जाने का विचार था। हाय, कितने ही समय से कोई अच्छी सी किताब पूरी पढ़ने का योग ही नहीं बैठ रहा था। अखबारों के सामयिक और रवि- वारीय अंक पढ़ने में ही पूर्वी का सारा समय निकल जाता था और यह पढ़ना ऐसा था जैसे  जानकारियों के असंख्य टुकड़ों को पढ़ना  और फिर फ़ौरन ही उन्हें भूल जाना। मित्रों की बैठक में अधिकार पूर्वक चर्चा कर सके , ऐसा कुछ पढ़े तो शायद ज़माना गुज़र गया।

पढ़कर उसमें गहरे डूबकर विचार करने के लिए, मनुष्य के इतिहास को, बदलते समाज की स्थितियों को समझने, मानव  मन की अनंत गहराइयों में छिपे तथ्यों को जानने और उनमें अंतर्निहित सिद्धांतों की खोज करने के लिए एक ज्वलंत चिंतन प्रक्रिया का सृजन करना पड़ता है। अंतःस्वरूप की खोज करने वाली चाबी खोजनी पड़ती है। और ऐसा कुछ तो उसने लंबे समय से पढ़ा ही नहीं था। बहुत दिनों पहले, शायद महीनों या सालों पहले शादी के बाद अपूर्व सैकड़ों पुस्तकें पढ़ता था और वह  उसकी सेक्रेटरी के रूप में काम करती, और वह उसके लिए लाइब्रेरी जाकर किताबें लाती।

और अपूर्व उसके लिए क्या करता?

अपूर्व क्या किसी दिन उसके लिए सेक्रेटरी बन सकता है? उसके लिए पूर्वी ने सैकड़ों काम किए हैं, क्या वह उसके लिए एक भी काम कर सकता है?

इसीलिए आज उसने तय  कर लिया है कि ‘सेकेण्डरी रोल’ वाली निरर्थक भूमिका में से तुच्छ कार्यों के इस महत्वहीन दायरे में से उसे निकलना है, दरिया पर जाना है, किसी शांत कोने में चुपचाप बैठना है, ‘इनफ इज़ इनफ’ पढ़ना है। सर्दी की सहज ही थरथराती नरम दोपहर की सुनहरी, गुनगुनी धूप में बैठना है। अवकाश सिर्फ अवकाश का अनुभव करना है। मन में सन्नाटा खींचकर समुद्र को महसूस करना है। उसके सामने आलथी पालथी मारकर बैठना है। अपने भीतर खो चुके अवकाश को ढूँढना है। सागर की असीम विशालता में से एक ‘सुर’  खोजकर लाना है। अवकाश का संगीत सुनना है। अपने ही अंतर्मन में छिपे नाद को सुनना है। फोन कि घंटी फिर बजी। अपूर्व ही होगा। वह मन ही मन हंसी। उसने चाबी और पर्स उठाया। ‘समुद्र किनारे जा रही हूँ’, लिखकर  चिट टेबल पर इस तरह रखी ताकि वह अच्छी तरह से  नजर आए.. और फिर वह पुस्तक हाथ में लेकर सीढ़ियाँ उतर गई।

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                                           —-

अनुवाद: प्रतिमा दवे शास्त्री

 कुंदनिका  कापड़िया:  (1927-2020),गुजराती की प्रसिद्ध लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता, जिनका निधन 30 अप्रेल 2020 को हुआ.

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      कोरोना के समय में ताइवान : एक मेधावी चिंतक, मुस्तैद रक्षक

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देवेश पथ सारिया ताइवान के एक विश्वविद्यालय में शोध छात्र हैं। वे हिंदी में कविताएँ लिखते हैं और सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं। उनका यह लेख ताइवान में कोरोनाकाल के अनुभवों को लेकर है। बहुत विस्तार से उन्होंने बताया है कि किस तरह ताइवान ने कोरोना महामरी का मुक़ाबला किया और उस संकट से उबर पाई- मॉडरेटर

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यदि मनुष्य पर यह विषाणु निष्प्रभावी होता तो इसके छोटे से आकार के बारे में जानकर कोई उत्साही सोशल मीडिआ पर लिख देता, ‘व्हाट क्यूट वाइटैलिटी दिस अर्थ हैज़’। पर अब जब यह आँखों से ना दिखने वाला विषाणु मनुष्य की नाक में दम किये हुए है, दुनिया की अर्थव्यवस्था ठप्प पड़ गयी है, महाशक्ति कहे जाने वाले देश त्रस्त हैं तो लगता है कि यह वायरस ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ के फैज़ल की तरह मनुष्य से प्रकृति पर किये ज़ुल्मों का बदला लेने आया है। वैसे ट्रॉलिंग के इस दौर में इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि कोई उपद्रवी आत्मा मोबाइल की स्क्रीन पर अब भी इसे क्यूट कह चुकी हो। आलम यह है कि 2020 का साल एक चौथाई बीत चुका है, लाखों लोग जो साल के शुरू में नववर्ष के स्वागत गीत गा रहे थे, इस फ़ानी दुनिया से कूच कर गए हैं। जाना तो सबको है, जाना कोई नहीं चाहता। कोई किसी महामारी से जाए, यह कोई भी नहीं चाहता। वे भी नहीं जो दिन रात मृत्यु की शाश्वतता पर दर्शन पेलते है। हम उस बुरे दौर में हैं, जहां यह जानते हुए भी हम इससे पार पा लेंगे, अभी यह बीमारी ही शाश्वत लग रही है।

शुरुआत में जब यह महामारी सिर्फ चीन की सीमाओं के भीतर थी, बाक़ी दुनिया के लोग मनोविज्ञान की उस खुशफहमी में जी रहे थे कि दुर्घटना सिर्फ दूसरों के साथ होती है। प्रकट में नहीं पर कुछ लोग मन-ही-मन सोचते थे कि अपने राम मज़े में हैं, थोड़ी प्रार्थना कर देंगे ताकि मानव कहते रह सकें ख़ुद को और चैन से सोयेंगे। पर जैसे-जैसे यह रोग चीन के बाहर पैर पसारने लगा, एक झुरझुरी सी दुनिया भर में शुरू हुई। प्रार्थना में शामिल लोगों का दायरा बढ़ने लगा। दुनिया के देशों में अलग-अलग रहा मनोविज्ञान की खुशफहमी से बाहर निकलने का वक़्त। मौतों के बढ़ते आंकड़े, घुटने टेकते बड़े देशों के नाम और वैक्सीन ना होने जैसी बातों ने झुरझुरी को बदहवासी में तब्दील किया। सावधानी बरतने के क़दम शुरू हुए। पेंच यह रहा कि जिस देश ने जितनी जल्दी और जितने सटीक क़दम उठाये, वह उतना ही महफूज़ रह पाया। अब कौनसा तरीक़ा सटीक था, इसकी विवेचना परिणाम से ही संभव है।

यदि निकटतम कोस्टल दूरी देखें तो ताइवान चीन से दो सौ किलोमीटर से भी कम दूरी पर स्थित है। लाखों ताइवानी चीन में काम करते हैं। ताइवान ने बहुत आरम्भ में ही चीन में ऐसी किसी महामारी की आशंका को भांप लिया था पर तब किसी ने ताइवान की बात पर कुछ ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। ताइवान किसी मेधावी चिंतक की तरह अकेले मुस्तैद तैयारी में जुट चुका था। इस तैयारी के सूत्र ताइवान में 2003 में सार्स की बीमारी में अपने कुछ लोगों को गंवाकर हासिल किये थे। एक अच्छा देश इसलिए अच्छा देश होता है क्योंकि वह अपने हर नागरिक की जान और सुरक्षा की चिंता करता है। और सिर्फ नागरिकों की ही नहीं, वरन उन लोगों की भी जो अपना घर-वतन छोड़कर उस देश में काम कर कर रहे होते हैं। ताइवान में कोरोनावायरस का प्रवेश वुहान में काम करने वाली एक महिला के साथ 21 जनवरी 2020 को हो गया था। मेधावी चिंतक का तैयारियां आजमाने का समय आया। दुनिया भर के हालात के बरक़्स ताइवान की परिस्थितियों की समीक्षा की जाये तो यह ‘सेकंड वेव ऑफ़ कोरोना पॉजिटिव केसेज़’ को भी गच्चा देकर सुरक्षित बना रहा है। जी हाँ, वही लहर जिसकी चपेट में शुरुआत में सुरक्षित माना गया सिंगापुर भी आ गया। ताइवान राहुल द्रविड़ की तरह क्रीज़ पर टिका हुआ है।

कभी ताइवान के बारे में कोई भी ख़बर टीवी पर आती है तो मेरी बहन अचानक फोन कर देती है। कभी ये ख़बरें भूकंप की होती हैं, कभी समुद्री तूफ़ान (टायफून) की। ताइवान चारों ओर समुद्र से घिरा है तो टायफून आ जाते हैं कभी-कभी यहां। जब वे आते हैं, उससे पहले उनके आने की चेतावनी आती है। हर टायफून का नाम बड़ा रोचक होता है जैसे बैलू, नेपार्टक, मिताग, हाइतांग । फिर सैटेलाइट से प्राप्त चित्रों का अपडेट देखते रहो कि इतने बड़े समुद्र में टायफून इस द्वीपीय देश से गुज़रेगा या रास्ते में दिशा बदल लेगा या बस दूर से छूकर गुज़र जाएगा। टायफून तो फिर भी कम दस्तक देते हैं, भूकंप आये दिन हमारा मेहमान बनता है। भूगर्भ वैज्ञानिकों के मुताबिक़ ताइवान सीस्मिक एक्टिव जोन में आता है । कभी आप बैठे हो और अचानक पाते हो कि आप झूम उठे हो। ओह, आपने तो शराब भी नहीं पी है। दरअसल, धरती हिल रही है। एक बार ऐसा हुआ कि मैं टैक्सी में सवार था और ट्रैफिक की वजह से टैक्सी एक ओवरब्रिज पर रुकी हुई थी। ज़मीन से ऊपर लटके हुए ही अचानक टैक्सी हिलने लगी। सामने काफी दूरी पर समुद्र था जो दूर से भी नज़र आ रहा था। ऐसा लगा कि मैं किसी फिसल-पट्टी पर हूँ और धरती मुझे धकेल कर समुद्र में गिरा देगी। मेरा पुराना कमरा ग्यारहवीं मंज़िल पर था, छोटा सा कमरा था तो वहाँ कमरे की चीज़ों का हिलना ज़्यादा महसूस होता था। तब डर भी ज़्यादा लगता था कि इतनी ऊपर से लिफ्ट लेकर नीचे पहुँचने तक तो मैं रास्ते में ही मर जाऊँगा। कभी-कभी कमरे की बड़ी सी मेज़ के नीचे चुप जाता था। मेरे अब वाले कमरे में मैं तीसरी मंज़िल पर रहता हूँ (भारत के हिसाब से दूसरी मंज़िल, क्योंकि भारत में पहले फ्लोर को ग्राउंड फ्लोर कहते हैं जबकि यहां उसे पहला ही मानते हैं )। यह कमरा बड़ा है और पता नहीं क्यों इसमें भूकंप महसूस बहुत कम होता है। जब कोई ज़्यादा ही तीव्रता वाला भूकंप आया हो, जिसकी ख़बर भारत में मेरी बहन तक पहुँची हो, तभी वह मुझे भी इत्तला करता है। टीवी पर नहीं, सच में। मेरा कमरा हिलाकर। किसी नवागत भारतीय की तरह अब मेरी कपकंपी नहीं छूट जाती। अब यहां के लोगों की तरह मुझे भी भूकंप के झटकों की आदत हो गयी है, ‘मेरो नैहर छूटो जाये’।

जनवरी में एक दिन अचानक मेरी बहन का फ़ोन आया। उसने टीवी पर ताइवान में कोरोनावायरस के पहुंचने की बात सुन ली थी और वह फ़िक्रमंद थी। मैंने उसे आश्वस्त किया कि मैं अपना ध्यान रखूंगा। फिर धीरे-धीरे सारे भारतीय रिश्तेदार  मम्मी को फ़ोन करके पूछते कि लड़का ठीक तो है ना। उनमें वे रिश्तेदार भी थे जिनसे मुझे ऐसी कोई उम्म्मीद नहीं थी। तय किया कि अगली बार कुछ पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर मिलूंगा उनसे।

ऐसा भी नहीं कि सभी भारतीयों से मुझे मिठास ही मिली हो। इस महामारी ने लोगों की मानवीयता की सच्चाई को साफ़ किया। मैं अपना मित्रता का दायरा बहुत बड़ा नहीं रखता। मैं सोशल मीडिआ पर भी उतने ही मित्र रखना पसंद करता हूँ जितने निभा सकूं। इस बीच फेसबुक पर बहुत फ्रेंड रिक्वेस्ट आ रही थीं। इसलिए मैंने फेसबुक पर अपना मैंडरिन भाषा वाला नाम लिख दिया। ताइवान में रेसिडेंट वीसा के लिये एक स्थानीय नाम रखना होता है ताकि यहां के किसी भी दफ़्तर में काम करने वाले अंग्रेज़ी ना जानने वाले कर्मचारी भी आसानी से आपका ऑफिशियल काम कर सकें। वरना विदेशियों के अजीब नाम उनके लिए बोलना बड़ा मुश्किल हो जाएगा। एक दिन मेरे एक तथाकथित नये फेसबुक मित्र के पोस्ट पर मैंने कोई टिप्पणी की। उस पर जवाब देते हुए एक कोचिंग में हिंदी पढ़ाने वाले किसी महाशय ने मेरे मैंडरिन नाम को देखकर मुझे ही कोरोना की बीमारी कह डाला। एक भाषाविद का दूसरी भाषा के प्रति यह व्यवहार, ऐसा नस्लवाद। मेरे आपत्ति जताने पर वे नस्लवाद को नक्सलवाद समझ बैठे। मैंने उन बच्चों की सलामती की ख़ैर माँगी जो उनसे पढ़ते होंगे। एक दिन मैं अपने स्कूल के दोस्त के साथ वीडियो कॉल पर था, तभी उसके साथ जो दूसरा लड़का बैठा था, उसने फूहड़ता से हँसते हुए पूछा, “और कितना मरगा तेरा ताइवान में ?” । मानो यह कोई सर्कस है जहां करतब की कुशलता मरने वालों की संख्या से आंकी जाएगी। आपके ही जैसा कोई दूसरा इंसान अस्पताल में सांस लेने की भीख मांगता हुआ दम तोड़ रहा है और आपके लिये यह हंसकर चटखारे लेने की बात है। ज़ुकाम में नाक बंद हो जाने पर भी मुंह से सांस लेने का विकल्प खुला होता है। कोरोना, न्युमोनिआ, अस्थमा या दूसरी सांस की बीमारियों में बात इससे भी कहीं पेचीदा हो जाती है। स्वस्थ, सुखी आदमी सांस को ‘फॉर ग्रांटेड’ लेता है क्योंकि वह हर तीन से पांच सैकंड में अपने आप आ जाती है। ‘फॉर ग्रांटेड’ लेने की प्रवृत्ति मनुष्य की प्रकृति और वृक्षों के साथ भी रही है, जिनकी वजह से ऑक्सीजन बनती है। महामारी का अनुभव आदमी की इन्हीं आदतों को बदल पाये, शायद। अच्छा पूरी तरह ना सही, कुछ फीसद?

अफवाहों का बाज़ार इस बीच सूरज जितना गर्म हुआ है। जब से भारत में कोरोनावायरस पहुंचा है, मैं ‘दि लल्लनटॉप’ पर सौरभ द्विवेदी का कार्यक्रम देखता हूँ। बाक़ी समाचार चैनलों के हंगामे के बनिस्पत सौरभ द्विवेदी मुझे तर्कसंगत लगते हैं। हर रोज़ उनके कार्यक्रम में कोरोनावायरस से जुड़ी किसी अफ़वाह का ज़िक्र भी होता है। भारतीय आदमी भारत से बाहर भी कुछ संस्कार ले आता है, अच्छे-बुरे दोनों। अफ़वाह वाला भी। जब कोरोनावायरस के ताइवान पहुंचने की पुष्टि हुई, उस दिन मेरी ही तरह ताइवान में शोधरत एक भारतीय मित्र का एक दिन फोन आया। उसने बताया कि ये कोरोना मुआ अपने ही शहर में आया है, मरीज़ भी उसी अस्पताल में भर्ती है जहां मैं हर महीने एसिड रिफ्लक्स की दवा लेने जाता था। यह दीगर बात है कि इंटरनेट पर बहुत ढूंढने पर भी मुझे ऐसी कोई लिंक नहीं मिली।

हर चीनी वर्ष किसी जानवर का वर्ष होता है। इसी मान्यता के अनुसार साल 2020 चूहे का वर्ष है। चीनी साल की दस्तक के साथ ही दुनिया के कुछ देशों में छुट्टियाँ हो जाती हैं। ताइवान में भी। लोग अपनों से जाकर मिलते हैं। मंदिर जाते हैं । लगभग सारा बाज़ार बंद रहता है। टैक्सियां या तो चलती नहीं हैं या महंगी होती हैं। कुछ कन्वीनिएंस स्टोर जैसे सेवन-इलेवन और फैमिली मार्ट ज़रूर खुले होते हैं। ताइवान में हर जगह ये कन्वीनिएंस स्टोर होते हैं । एक सर्वे के मुताबिक़ यहां के लोगों में सेवन-इलेवन ज़्यादा पॉपुलर है, पर मेरे मन के क़रीब फैमिली मार्ट है। मुझे हरी-सफ़ेद धारियों वाला फैमिली मार्ट का लोगो भाता है और मेरे दोनों कमरों के पास भी यही रहा है। मेरी यूनिवर्सिटी की छुट्टियां 23 जनवरी से शुरू हो गयी थीं। मैंने छुट्टियों से पहले ही लगभग सब ज़रूरी समान और सब्ज़ियां कमरे में स्टॉक कर ली थीं। अब तक हर साल इन छुट्टियों में मैं भारत जाता रहा हूँ। इस बार तबियत की वजह से मैंने यहीं रहने का निर्णय लिया। जब छुट्टियां गिनकर मिलती हों तो बेहतर है उन्हें बेहतर सेहत के दिनों में घर बिताया जाये। वरना बीमार आदमी को घर, परिवार कुछ नहीं सुहाता। बड़े-बुज़ुर्ग सही कह गये हैं, “पहला सुख निरोगी काया” ।

पृथ्वी पर महामारियों का इतिहास खंगालें तो पता चलता है कि चूहे से फैलने वाला प्लेग एक बड़ा विलेन रहा है। अलग-अलग सदियों में वापस आ-आकर तबाही फैलाता रहा । यह कोरोनावायरस भी उस साल में फैल रहा है जो चूहे का चीनी वर्ष है। यह बात पढ़कर कहीं लोगों को अगली अफ़वाह का मसाला ना मिल जाये। पता चला कि लॉक डाउन ख़त्म होते ही सारा काम छोड़कर लोग चूहे मारने पर पिल पड़े। जिस तरह की बातें इस बीच फैली हैं, उसे देखते हुए यह महज मज़ाक नहीं लग रहा। तो दोस्तों, इस बार चूहा निर्दोष है। चूहे का काम हमारी लापरवाही कर रही है। चूहा खाद्य श्रंखला की एक कड़ी है, जो वह हमेशा से रहता आया है।

चीनी नववर्ष की छुट्टियां बीतते, मेरे कमरे में सामन का स्टॉक भी कुछ बीतने लगा था। बाज़ार खुलते ही मैं सुबह-सुबह निकल लिया । वहाँ मार्ट में प्रवेश करते ही एक कविता दिमाग़ में कौंधी। कितने समय से मुझसे दूर भाग रही थी कविता और अब आयी थी जब मैं जल्दी-जल्दी सामान लेकर लौट जाना चाहता था। उसे रूठकर छिटकने थोड़ी ना देता। मैंने अपनी शॉपिंग कार्ट को मार्ट के सुनसान से कपड़ों वाले सेक्शन में रखा और कविता लिखने लगा। वह कविता पेश-ए-ख़िदमत है :

कोरोनावायरस फैला रहा है अपने अदृश्य पांव

और आदमी, आदमी को संदेह की दृष्टि से देखता है

इन दिनों दुनिया के इस हिस्से में

चीनी नववर्ष की शुरुआत थी

छुट्टियां थीं

लोग यात्राएं कर रहे थे

रिश्तेदारों से मिलने जा रहे थे

देवताओं और पूर्वजों के लिए भेंट

अर्पित कर रहे थे

मंदिरों की चिमनियों में जलाकर

इक्का-दुक्का दुकानों को छोड़कर

बंद था सारा बाज़ार

इसी बीच जोर पकड़ा

कोरोनावायरस के फैलने की सरगर्मी ने

और अचानक कोरोना वायरस की वजह से

सब जल्दी-जल्दी जानने लगे रोकथाम के उपाय

पहला उपाय था

मास्क लगाकर बाहर निकलना

जितनी दुकानें खुली थीं

और जो खुलती जा रही हैं

चीनी नववर्ष की छुट्टियां खत्म होने के बाद

सब जगह से खत्म हो चुके हैं फेस मास्क

जैसे कि हर इंसान एक चलता फिरता चाकू है

आदमी, कोरोनावायरस का संदेहास्पद वाहक

जो सांस छोड़ेगा और धंसा देगा चाकू

चूंकि हवा आदमी को छूकर गुज़रती है

संदेहास्पद है हवा भी

क्या पता कब कोई छींक कर गुज़रा हो वहां से

और अभी तक मौजूद हों छींक की छींटें

संदेह मिटाने के तमाम संदेशों के बावजूद

अफवाहों वाले वीडियो ज्यादा कारगर साबित हुए हैं

इन अफवाहों से अछूता नहीं है मेरा अपना देश

मेरे मित्रों, रिश्तेदारों की चिंताएं मुझसे बड़ी हैं

मैं धोता हूं बार-बार साबुन से‌ हाथ

कमरे में रखी चीजों पर भी शक़ होता है

कि कहीं से उड़कर वायरस चिपक कर आ बैठा हो

हर चीज़ छूने के बाद

कुछ भी खाने से पहले

बार-बार धोता हूं हाथ

और फिर संदेह से देखता हूं हैंडवॉश की बोतल को भी

एक हाथ को संदेह है दूसरे हाथ पर

एक रेस्त्रां में देखा

कि लोग मुंह पर मास्क लगाए खाना खा रहे हैं

सिर्फ मुंह में चॉपस्टिक डालने के समय

होठों से मास्क सरका देते हुए

मुझे फिक्र होती है

उन लोगों की जो पब्लिक सर्विस में है

बसों के ड्राइवर

सेवन इलेवन पर काम करने वाले लड़के-लड़कियां

जो पूरे दिन अनजान लोगों के संपर्क में आते हैं

अनजान लोग जो चीनी नववर्ष की छुट्टियां बिताकर

ना जाने कहां-कहां से आए हों

जाने कौन सी बीमारियां साथ ले आए हों

पब्लिक सर्विस में लगे ये लोग

जिनके कमरे में मेरी तरह घुग्घु बनकर बैठ जाने से

ठप्प पड़ जाएगा यह शहर, यह देश

मुझे फ़िक्र है अस्पतालों के डॉक्टरों और नर्सों की

जो ‘चाकू की धार’ को सहलाकर दुरुस्त कर रहे हैं

चीनी नववर्ष के दौरान दुकानें बंद रहने से

खत्म हो गया है कमरे का बहुत सा सामान

इसे खरीदने मुझे वापस जाना था मार्ट

और मैं सुबह-सुबह ही निकल जाता हूं

ताकि बचा जा सके भीड़ से

जितनी कम भीड़, उतने कम खुले चाकू

उतना कम वायरस का खतरा

पर मार्ट पहुंचकर देखता हूं

मेरी ही तरह बहुत से सयाने लोगों की भीड़

सुबह-सुबह ही चली आई है मार्ट

मार्ट के दरवाजे पर खड़े गार्ड को देखता हूं

और अंदाज़ा लगाता हूं उसके काम की कठिनता का

यह भी कि साल भर की सबसे बड़ी छुट्टियों के बाद

काम पर वापस लौटकर

वह भी इस खतरे के बीच

कैसा लग रहा होगा उसे

मैं उसके लिए कुछ नहीं कर सकता

इसलिए मैं मास्क लगाए हुए ही उसकी तरफ देख मुस्कुराता हूं

मास्क के पीछे छुपी मेरी मुस्कुराहट की मंशा

पहचान जाता है वह

और बदले में अपने मास्क के पीछे से मुस्कुराता है

माना कि कोरोनावायरस मुख्य खबर है

पर इस देश में चूहे का नववर्ष भी तो है

इसलिए ‘शिन्निन क्वायलो*’ मेरे दोस्तों

हम जल्द वापसी करेंगे

संदेह से भरोसे की ओर

हम सिर्फ मनुष्य होंगे

खुले चाकू नहीं

*मेंड्रिन भाषा में नववर्ष की शुभकामनाएं देने हेतु प्रयुक्त अभिवादन

जब ताइवान से बाहर गए हुए लोग छुट्टियां बीतने के बाद लौटने लगे तो उनके कोरोना संक्रमण ले आने का ख़तरा मंडराने लगा । कोई पहले से संक्रमित ना भी रहा हो तो भी विमान में या जहां से उड़ान ली हो, वहाँ से भी संक्रमण हो सकता था। ताइवान ने अपनी तैयारियों की योजना में इन सब बातों का ध्यान रखा था। ताइवान में प्रवेश से पहले ही यात्रियों की मेडिकल जानकारी ले ली गयी। थर्मल स्क्रीनिंग इत्यादि की गयी। जो विदेशी ताइवान में काम करते हैं या कुछ अन्य महत्वपूर्ण कामों से ताइवान आ रहे हों, उन्हें ज़रूरी सावधानी बरतने को कहा गया। इनके अतिरिक्त किसी भी विदेशी का प्रवेश ताइवान ने मार्च में बंद कर दिया थ। मेरी एक मित्र ज्योति घर से लौटते हुए हॉन्गकॉन्ग अवाई अड्डे से ट्रांज़िट उड़ान लेकर आयी थी। उसने भी ज़रूरी एहतियात बरती।

स्कूल और यूनिवर्सिटी की छुट्टियां आगे बढ़ा दी गयीं। इस दौरान मैं भी अपने कमरे से ही काम करता रहा। अच्छी बात यह है कि यहां लॉक डाउन नहीं किया गया। यहां की सरकार ने शुरूआत से ही इस तरह योजना बनायी थी कि ऐसी नौबत ना आये। आम जनता से भी सरकार को पूरा सहयोग मिला। जगह-जगह माथे का तापमान जांचने के इंतज़ाम किये गए। मेरी यूनिवर्सिटी जब स्टूडेंट्स के लिए खुल गयी तो वहाँ भी यूनिवर्सिटी में भीतर जाने के हर रास्ते पर छोटे टैंट जैसे बनाये गए । वहां बैठे यूनिवर्सिटी स्टाफ के सदस्य गेट पर ही सबका तापमान नापते और कमीज़ पर एक स्टिकर चिपकाने को देते। जिसका मतलब था कि अमुक बन्दे की तापमान सुरक्षा जांच हो चुकी है और वह आज के लिए स्वस्थ घोषित किया गया है। हर दिन अलग रंग और चिन्ह वाला स्टिकर। ऐसा भी नहीं कि हर किसी को स्टिकर मिला हो। इस शुरुआती दर्ज़े की स्क्रीनिंग से ही सैकड़ों छात्रों को यूनिवर्सिटी के भीतर घुसने से रोक दिया गया। यूनिवर्सिटी के इन टैंटों से ले जाकर कई व्यक्तियों को हॉस्पिटल में आइसोलेशन में रखा गया और कइयों को होम आइसोलेशन में रखा गया। यूनिवर्सिटी जैसी जांच की फुर्ती यहां हर जगह है। मार्ट हो या रेस्त्रां।

कभी-कभी ये चैक-पॉइंट मुझे फ़ौज जैसे लगते हैं। लगता है कि दुनिया एक युद्ध में है और आगे की पंक्ति में इस वायरस का सामना कर रहे ये कर्मनिष्ठ व्यक्ति हमारे योद्धा हैं।

जब कोरोनावायरस की वजह से दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से भारतीयों को वापस ले जाया जाने लगा तो यहां कार्यरत कुछ भारतीय सोचने लगे कि कहीं यहां भी हालात इतने न बिगड़ जाएँ कि हमें भी ले जाने के लिए भारत से विशेष वाहन बुलाना पड़े। पर ना तो बात इतनी बिगड़ी और ना ही ताइवान ने किसी से पल्ला झाड़ा। इस वजह से भी इस देश पर प्यार आता है। कई बार यूनिवर्सिटी ने हम सबकी ट्रैवल और मेडिकल हिस्ट्री की जानकारी माँगी। पूछा गया कि आने वाले दिनों में भी कहीं ताइवान से बाहर जाने का इरादा तो नहीं। यह भी हिदायत दी गयी कि ताइवान में भी कुछ भीड़ भरी जगहों पर जाने से परहेज करें। बाक़ायदा ऐसी सब जगहों की सूची हमें भेजी गयी। हमारी यूनिवर्सिटी में काम करने वाले एक फ्रेंच पोस्टडॉक को अपने किसी यूरोपीय दोस्त से कोरोनावायरस संक्रमण हो गया था। तुरंत ही उसका इलाज शुरू हुआ और वह जिनके सीधे संपर्क में आया था, उन सबकी जांच हुई। सबको क्वारंटाइन किया गया। उसके संपर्क में आये छात्र जिन कक्षाओं में गए थे, वहाँ के सैकड़ों विद्यार्थियों को ऑनलाइन क्लास अटैंड करने को बोला गया।

ताइवान की सरकार ने मास्क के निर्यात पर रोक लगाकर भारी संख्या में मास्क का उत्पादन शुरू किया। हेल्थ इंश्योरेंस कार्ड दिखाकर एक तय संख्या में फार्मेसी से मास्क लिए जा सकते हैं, जिनका दाम बहुत वाजिब रखा गया है। मैंडरिन भाषा में ऐसी मोबाइल एप भी है जो गूगल मैप पर दर्शा देती है कि शहर में किस दुकान पर कितने मास्क बचे हैं।

जनसंख्या और ग़रीबी ने हम भारतीयों में असुरक्षा भर दी है। हमारे दिमाग़ में बचपन से एक सपना रोपा जाता है, बाक़ी लोगों से बेहतर बनने का। गोया कि एक दौड़ है जिसमें आपकी श्रेष्ठता दूसरों को रौंदकर या पछाड़कर ही प्रमाणित होगी। अमूमन भारतीय परिवारों में स्टेटस सिंबल मानी जाने वाली नौकरियां पाने की ललक रहती है। बच्चों को भी इसी के लिए तैयार किया जाता है कि कलेक्टर, अफसर या डॉक्टर बनना है । कुछ मां-बाप जन सेवा जैसी भावना के चलते बच्चों को डॉक्टर बनाना चाहते होंगे और कुछ इस स्टेटस सिम्बल वाली बात की वजह से । हम भारतीय बच्चे भी अफ़लातून। हममें से कुछ समझते थे कि डॉक्टर मास्क इसलिए लगाते हैं ताकि ऑपरेशन करते हुए बदबू ना आये। हमारे छोटे कस्बे के कुछ बच्चे बचपन से ही छंटे हुए बदमाश थे। वे कहते कि डॉक्टर को उल्टी भी आ सकती है, भाई सामने इंसान का शरीर खुला हुआ पड़ा है। मास्क रोक लेगा उबकाई को। ऐसे ही बच्चों के लिए “बीज” शब्द ईजाद किया है मेरे कस्बे के बड़े लोगों ने। बहरहाल, अब शायद मास्क के उपयोग की सही कहानी हर गाँव-कस्बे तक पहुँच गयी होगी।

इंसान जब पहली बार मास्क लगाता है तो उसके भीतर एक डर होता है कि सांस कैसे आएगी। मास्क के भीतर की ही सांस को बार-बार खींचते रहो। फिर मास्क लगा लेने पर मन में गूंजता है- “माइक टैस्टिंग, वन, टू, थ्री.. आ रही है सांस, बराबर!” इसी क्रम में अगली बारी आती है मास्क वाली सेल्फी खींचकर फेसबुक पर डालने की। इस बार मन में यह चल रहा होता है,  “आज पिताजी का अधूरा सपना आधा-अधूरा पूरा किया, डॉक्टर जैसा दिखने का”। वैसे बचपन में भी मेरी डॉक्टर बनने की कोई इच्छा नहीं थी। मैं हमेशा उस जगह फंसने से बचता हूँ, जहां ज़्यादा कम्पटीशन हो। ग्यारहवीं में स्कूल के सब लड़के जिस लड़की के पीछे थे, मैंने उस तरफ़ नज़र ही नहीं डाली। एक दूसरी लड़की को मन-ही-मन पसंद किया। शायद कविता एक अपवाद है जहां इतने सारे कवि मौजूद होने के बावजूद मैं सहज महसूस करता हूँ। कविता मेरे दर्शन की ज़ुबान है। मेरी रुममेट। मेरी कविता मेरी है, उसमें कोई हिस्सेदारी नहीं। बचपन में मेरे तीन लक्ष्य थे – पहला तारों को समझना, जो मैं जान पा रहा हूँ , दूसरा दार्शनिक बनना जिसे थोड़ा बहुत साहित्य पढ़-लिख कर पूरा कर रहा हूँ और तीसरा पुरातत्ववेत्ता बनना। यह तीसरा सपना पूरा नहीं हो पाया। पर कभी-कभी यह मुझ पर तारी हो जाता है। कभी कोई अजीब सा पत्थर देखता हूँ तो उसे किसी सभ्यता का अंश समझकर या उसके जीवाश्म होने का संदेह करके आसपास वालों से उसके बारे में जानकारी मांग लेता हूँ। वे मुझे झक्की समझकर पल्ला झाड़ लेते हैं। ख़ैर। मैं इस अधूरे सपने को पूरा करवाने की कोशिश भविष्य में होने वाली किसी औलाद से नहीं करने वाला हूँ। मेरे हिस्से का झक्कीपन मैं ख़ुद जी लूँ, वे अपनी कोई अलग सनक चुनें।

ताइवान में लॉक डाउन बेशक़ ना रहा हो, पर रहे हम सब सींखचों में बंद ही हैं। अपने ही भीतर के भय से आक्रांत। शरीर में कमज़ोरी सी होती, तो लगता कि बुखार तो नहीं, कोरोना ना हो। सब्ज़ी के छौंक से भी खांसी आ जाती, तो लगता कि कोरोना तो नहीं हो जाएगा। मुझे पिछले कुछ महीनों से एसिड रिफ्लक्स बीमारी की वजह से बीच-बीच में सांस लेने की दिक्कत होती रही है। यह जानते हुए भी इन दिनों सांस लेने में दिक्कत होती तो लगता कि यह भी कोरोना का लक्षण तो नहीं। मानो कोरोना घोड़े पर सवार होकर आया एक काउबॉय है जिसने अपनी बंदूक से बाक़ी सब बीमारियों को गोली मार दी हो, अब भय का सारा साम्राज्य अकेले उसी का है।

शहर में जगह-जगह तापमान मापा जा रहा था, तो लगा कि कहीं किसी दिन बाहर निकला और शरीर का ताप ज़्यादा हुआ तो सीधा ही हॉस्पिटल तड़ीपार ना कर दिया जाऊं। एक थर्मामीटर खरीद लाया, लगभग साढ़े चार सौ रूपये का। भौतिक शास्त्र का वह पाठ धूल की परतें हटाकर सामने आया जो स्वस्थ व्यक्ति के शरीर का तापमान बताता था। अब जैसे ही कमज़ोरी लगती, या माथा गर्म लगता, तुरंत थर्मामीटर निकल आता। मेरा सस्ता थर्मामीटर जो तापमान दिखाता है, यूनिवर्सिटी के महंगे ऑटोमेटिक थर्मामीटर में उससे लगभग 0.8 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान कम आता था, यानी अब घर में तापमान मापने पर इस त्रुटि का करेक्शन भी लगाना था। हम फिजिक्स के विद्यार्थियों को बताया जाता है कि बिना मात्रक के कोई चीज़ आलू, सेब कुछ भी मानी जा सकती है, इसलिए तापमान में सेंटीग्रेड, केल्विन या फॉरेनहाइट लगाना बहुत ज़रूरी है।

एक दिन ज़ुकाम की शुरुआत सी लगी तो एक ईएनटी विशेषज्ञ को दिखाने गया, बहुत डरते-डरते। उन्होंने मेरी ट्रैवल हिस्ट्री पूछी, ताप देखा, बाक़ी लक्षणों की जांच की। ग़नीमत कि बस ज़ुकाम ही था। डॉक्टर ने बहुत हैवी दवा दे दी, एक दिन में बीस गोलियां लेनी थीं। गोली लेने के बाद मैं शराबी की तरह झूम-झूमकर चल रहा था। शराब पीने का अनुभव है नहीं तो नशेबाज़ जैसा महसूस अब हो रहा था। एक रात झूमने के बाद अगली सुबह से मैंने गोलियों की मात्रा घटा दी और गोलियों की गर्मी झेलने के लिए दूध भी पीने लगा। मुझे दूध कुछ ज़्यादा पसंद नहीं वरना।

पासपोर्ट की वैधता दस साल होती है। मेरे भारतीय पासपोर्ट की मियाद मई 2020 में ख़त्म हो रही थी। ताइवान की तरफ से मिलने वाला एआरसी कार्ड (रेजिडेंट वीसा) भी मुझे इसी तारीख तक के लिए इशू किया गया। पासपोर्ट नया बनवाने के लिए ताइवान की राजधानी ताइपे जाना होता, जिसमें बस से डेढ़ घंटा लगता है। बस यानी पब्लिक ट्रांसपोर्ट जिसे खतरे की घंटी के तौर पर देखा जा रहा था, संदेह व्याप्त उन दिनों में। पूरी फरवरी मैं डरता रहा, टालता रहा। वैसे मेरे डर की और भी वजहें थीं। मेरा ट्रैक रिकॉर्ड देखकर सब मेरी अकादमिक उपलब्धियां देखते हैं और मेरी कमज़ोरियाँ ढँक जाती हैं। एक कमज़ोरी तो यही है मेरी कि मुझे फॉर्म भरने से एक डर सा लगता है और दूसरी यह कि परफेक्शन तक ना पहुँच पाने का डर हमेशा मुझे किसी काम को शुरू करने से रोकता रहता है। कोरोना के डर के साथ-साथ मेरे ये सब फोबिआ भी थे तो सारा इलज़ाम उस (मासूम तो कतई नहीं) वायरस के माथे कैसे मढ़ दूँ ? आख़िरकार मार्च में ताइपे गया। बस में घुसने से पहले भी तापमान मापा गया। ताइपे के वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर की इंटरनेशनल ट्रेड बिल्डिंग में इंडिया-ताइपे एसोसिएशन का दफ्तर है। वहाँ घुसने से पहले भी ताप लिया गया और हाथों को अल्कोहल से सैनिटाइज़ किया गया। पासपोर्ट अप्लाई करने का काम बड़ी आसानी से हो गया और बताया गया कि एक महीने के भीतर नया पासपोर्ट मिल जाएगा। सारा दिन मेरे पास बच गया था। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के बाहर कितने सारे देशों के झंडे लहरा रहे थे। इन्हीं के बीच जब अपने तिरंगे को लहराता देखा तो कुछ देर बस देखता रहा। आँखें हल्की सी भीग गयीं, देश की याद आ गयी। जब भी ताइपे जाता हूँ, कोशिश करता हूँ कि कहीं घूम लूँ, किसी नये भारतीय रेस्त्रां में चक्कर मार आऊं। अब डायटिंग पर हूँ तो ऐसा कोई प्लान नहीं था। घूमने का भी नहीं क्योंकि भीड़ वाली जगह कम-से-कम जाना था। वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर के नजदीक ही ताइपे 101 (वन ओ वन) झांकती नज़र आ रही थी। वह लगभग पूरे ताइपे से नज़र आती है पर अभी बहुत क़रीब थी। यह बिल्डिंग कभी दुनिया की सबसे ऊंची इमारत थी। जिस देश में इतने भूकंप आते हों वहाँ इतनी ऊंची इमारत बनाना ताइवान की तकनीकी श्रेष्ठता की कहानी बयान करता है। धरती के कांपने की स्थिति में इस बिल्डिंग को यथावत रखने के लिए कुशल यांत्रिकी का प्रयोग किया गया है। ताइपे 101 के भीतर जाकर मैं वहाँ चला गया जहां दुनिया भर की अलग-अलग पाक संस्कृति के रेस्त्रां थे और वहाँ लगी कुर्सियों पर बैठकर घर से बनाकर लाई खिचड़ी खाई। ताइपे 101 ताइवान के सबसे बड़े पर्यटक आकर्षणों में से है। इसके ऊपरी तलों में जहां तक जाने की अनुमति है, वहाँ मैं टिकट लेकर तीन बार गया हूँ। पूरा शहर दीखता है वहाँ से। ताइपे 101 के बाहर आधुनिक शहरी आकर्षण है। यहीं है मॉडर्न आर्ट की एक धातु प्रतिमा, जो सतह पर स्प्रिंग जैसी दिखती है। दरअसल वह एक गर्भवती महिला को दर्शाती है। कभी-कभी मुझे लगता है कि वह गर्भवती पृथ्वी है। कुछ लोग बहती सड़क के सामने ध्यान सा लगाते रहते हैं। कैसे रह पाते हैं इतने शांत? पांच-दस लोगों का समूह होता है वह। कुछ रंग-बिरंगी कांच की दीवारें भी हैं, जहां एक बार मैंने एक बुरक़े वाली औरत की तस्वीर ली थी। मलेशिया या इंडोनेशिया की पर्यटक रही होगी वह। वह पिछले साल की बात थी। फिलहाल तो ये दीवारें सूनी थीं। LOVE लिखा हुआ एक लाल साइन जिसमें O के झरोखे से झांकते लोग तस्वीरें खिंचवाते थे। अपने प्यार के पुख़्ता होने का इज़हार करते थे। फिलहाल प्रेमी घरों में बंद थे। मुझसे यह सूना हाल नहीं देखा गया और मैंने सोचा कि अब मुझे भी अपने शहर लौटना चाहिए। ताइपे 101 के एमआरटी स्टेशन (यहां मेट्रो को एमआरटी कहते हैं) से मैंने ताइपे मेन स्टेशन के लिए एमआरटी पकड़ी। मेन स्टेशन बहुत बड़ा है और तमाम यातायात के माध्यमों के साथ वहाँ बस स्टैंड भी है। पैदल बहुत चलना पड़ता है, स्टेशन के भीतर ही भीतर। कभी पीक आवर्स में ताइपे 101 स्टेशन से चढ़कर मेट्रो में बैठने की जगह मिलना मुश्किल होता था। पर अब पसरकर बैठा था मैं। चाहता तो दो सीट घेरकर भी बैठ सकता था। लोग एक-दूसरे की बगल में बैठने से बच रहे थे। मैंने बस पकड़ी और वापस आ गया, ताइपे से शिनचू शहर। घर आते ही कपडे बदल लिए और यात्रा के वस्त्रों को धुलने में डाल दिया। यह सावधानी रखनी थी ना।

मार्च तक यहां बसे भारतीय ताइवान की व्यवस्थों पर भरोसा कर थोड़ी तसल्ली में आ चुके थे। इसी बीच जब कोरोनावायरस भारत पहुंच गया तो अब फ़िक्र करने की बारी हमारी थी। अब तक मैं ज़्यादा समाचार पढ़ने से बच रहा था पर अब आये दिन व्हाट्सप्प या फेसबुक पर कुछ पढ़ने को मिल जाता। डराने वाली बातें ही ज़्यादा। अपने से ज़्यादा चिंता घर वालों की होती है। कभी लगता कि मेरे घर-परिवार में किसी को डायबिटीज़ भी है, किसी को रक्तचाप की बीमारी और वे संक्रमण का आसान शिकार हो सकते हैं। अब तक जो हिदायतें घरवालों से मुझे मिल रही थीं, अब वही मैं उन्हें दे रहा था – मास्क लगाने की, बाहर ना निकलने की। वे लोग जो कहते आये थे कि भारत क्यों नहीं चला आया, अब वही कहते थे कि अच्छा है, नहीं आया। यह सब सिर्फ भारत ही तक नहीं था। 2009 से मेरी एक मित्र है। जब मेरी दोस्त बनी, तब वह 11वीं में पढ़ती थी और यदि कोरोनावायरस ना आया होता तो जुलाई में उसकी शादी होनी थी। मैं कभी-कभी पाश की पंक्तियाँ उधार लेकर उससे मज़ाक में कहता हूँ, “मैंने तुम्हें पलकों में पालकर जवान किया”। उसका मंगेतर अमेरिका में काम करता है जो अब शायद जुलाई में शादी करने ना आ पाये। उस लड़के को कोरोना का संक्रमण हो गया था। मेरी दोस्त अब हर रोज़ लड़के के टाइम जोन में जागती, दूर से उसका ध्यान रखती और जब थक जाती तो मुझे फोन करती। लड़के का कोई हैल्थ टैस्ट होने पर रिपोर्ट की प्रतीक्षा करते हुए हम दोनों लड़के के लिए दुआ करते। अब लड़का कोरोना मुक्त हो गया है। इस बात की प्रसन्नता है ।

इस दौरान घुमक्कड़ी पर रोक लग गयी। मैं रोज़ पैदल चलने जाता रहा पर उन्हीं चुनिंदा रास्तों पर। ताइपे गया था तो वह भी काम से। भीड़ वाली जगह जाने से पूरा परहेज किया। इस बीच एक दिन मेरे दोस्तों शाश्वत और ज्योति ने कहा कि कहीं घूमने चलते हैं। मैंने थोड़ी हिचक के साथ हामी भरी। साथ ही इस बात से भी आगाह किया कि किसी भीड़ वाली जगह नहीं जाना है। मैं यहां पैदल या साइकिल पर चलता हूँ। उन लोगों के पास स्कूटर हैं जिनके पीछे टंगकर शहर से बाहर घूमने जाना था। हम पहाड़ी रास्तों से होते हुए निकले, यहां पहाड़ के बीचोंबीच इतना वीरान नहीं है। रास्ते में ताइवान के ग्राम्य जीवन के भी दर्शन हुए। कहीं किसी खेत में सफ़ेद-पीली तितलियों का झुंड उड़ता जाता था। लोगों के घर के बाहर चेन से बंधे कुत्ते थे, कहीं लकड़ियों का गट्ठर रखा था। चूल्हा जलता हुआ तो नहीं दिखा पर छुएं की गंध अवश्य आती थी। बुद्ध की बड़ी सी प्रतिमा वाला एक भवन हमारा मुख्य गंतव्य था। वह अभी बंद था। पहले लगा कि अभी द्वार खुलने का समय नहीं हुआ होगा पर भीतर जो वीरानगी थी, उससे साफ़ था कि यह जगह आजकल बंद है। ज्योति ने बताया कि भीतर बुद्ध की अलग-अलग मुद्राओं में प्रतिमाएं हैं। कुछ कार्यक्रम भी वहाँ आये दिन होता रहता है। यह सुनकर कि वहां कुछ आर्ट पीस भी हैं, मैंने निश्चय किया कि कभी भविष्य में दोबारा आऊंगा। हमारी तरह जो और लोग घूमने आ गए थे, वो बुद्ध के द्वार से मुरझाये हुए लौट रहे थे। चालीस साल के आसपास उम्र की एक औरत अपनी किशोरवय बेटी के साथ संतरे का एकदम ताज़ा रस बेच रही थी। तीन बोतल सौ ताइवान डॉलर की। इतना शुद्ध संतरे का रस मैंने कभी नहीं पिया। मैंने खाली बोतल उन्हें ही लौटा दीं ताकि वे दोबारा उपयोग सकें। मैंने सोचा कि वह लड़की स्कूल जाती होगी या नहीं। पर जब बोतल वापस लेते समय उसने मुझे अंग्रेज़ी में जवाब दिया तो मैं थोड़ा आश्वस्त हुआ कि पढ़ती होगी वह। आज रविवार को माँ के साथ आ गयी होगी। उस समय उसके चेहरे पर वही चमक थी जो हमारे गाँव के बच्चों को परदेसी से हेलो बोलने पर होती है। हम किसी को वह चमक दे पा रहे थे। वहाँ आसपास ही एक सस्पेंशन ब्रिज भी था। ब्रिज के नीचे बड़ी सी झील थी। चुपचाप सी प्रकृति । जो इक्का-दुक्का लोग ब्रिज पर घूमने आये थे, उनमें से एक ने मुझसे उसके परिवार की एक तस्वीर लेने का आग्रह किया। दोस्तों के सामने झूठ-मूठ इतराने का मौक़ा मिल गया कि देखो इन्हें भी हममें से ठीक-ठाक फोटोग्राफर मैं ही लगा होऊंगा। जहां स्कूटर पार्क किया था वहाँ आम के पेड़ थे, जिनमें लगी कैरियों को पक्षियों से बचने के लिए कपडे से ढँक दिया गया था। और कुछ अमरुद के पेड़ थे, जिनमें बस बड़े-बड़े पत्ते थे, कोई अमरूद नहीं। कुल मिलाकर हम बिना कहीं घूमे वापस आ गए। घूमने का सबका उद्देश्य अलग होता है। इस यात्रा से हासिल आनंद मेरे लिए पर्याप्त था।

कोरोनावायरस को ताइवान पहुंचे तीन महीने से ऊपर हो चुके हैं। 2.3 करोड़ की आबादी वाले ताइवान में अप्रेल महीने के अंत तक महज 429 कोरोना पॉजिटिव केसेज मिले हैं और छह मौत हुई हैं। जनजीवन को अस्त-व्यस्त किए बिना ताइवान ने बड़ी सूझबूझ से आपदा प्रबंधन किया है। मेरा एक भारतीय दोस्त ताइवान से इतना प्रभावित है कि वह यहां किसी कम्पनी में नौकरी पाना चाहता है। सारा जीवन यहीं बिताना चाहता है। उसकी पृष्ठभूमि इंजीनियरिंग की है। तकनीकी से अपनी अर्थव्यवस्था चमकाने वाले ताइवान में उसे नौकरी मिलने की सम्भावना मेरी तुलना में कहीं अधिक है।

~ देवेश पथ सारिया

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ज़ेहन रोशन हो तो बाहर के अँधेरे उतना नहीं डराते

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गीताश्री के उपन्यास ‘वाया मीडिया’ एक अछूते विषय पर लिखा गया है। इसको पढ़ने वाले इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। यह उनके किताब की एक खास समीक्षा है क्योंकि इसे लिखा है वंदना राग ने। वंदना जी मेरी प्रिय लेखिकाओं में हैं और इस साल उनका एक बहुत प्यारा उपन्यास आया है, ‘बिसात पर जुगनू’। आप इस समीक्षा को पढ़िए। कितनी तन्मयता से लिखी गई है- मॉडरेटर

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अनुराधा, अनुपमा,रंजना और शालिनी महज़ लड़कियों के नाम नहीं हैं जो गीताश्री के नए उपन्यास वाया मीडिया में आकार पातीं हैं । बल्कि ये तो उन जांबाजों के नाम हैं जिन्होंने नब्बे के दशक में एक ऐसे महकमे में आमद दर्ज़ की जिसे पितृसत्तात्मक गुरूर के साथ ‘मेल बैस्टियन’ उर्फ़ पुरुषों का क़िला कहा जाता रहा था। एक ऐसा क़िला जिसमें से नित नए अंदाज़ में रोज़ सुबह कागज़ पर अंकित अक्षर, अपने घरों में चाय सुड़कते लोगों के बीच पहुँच देश और दुनिया की ख़बरें  बांचा करते  थे। यह अखबारों का करिश्माई किला था और पुरुषों से अंटा पड़ा था। यह अपने अंग्रेज़ी कलेवर में गिनती की अभिजात्य स्त्रियों के लिए कुछ सुलभ सा था लेकिन गोबर पट्टी की दुनिया अभी भी उसे ग्लासनोस्त और पेरिस्त्रोयका के साथ स्वीकार करने के लिए तैयार  नहीं हुई थी, जिसका ऐलान पूरी दुनिया में रूस ने अपने ख़त्म हो जाने के हुनकर के साथ किया था। इसके साथ ही साम्राज्यवाद के नए चलन, ओपन मार्किट इकॉनमी और साम्प्रदायिकतावाद ‘खुला खेल फ़रुक्खाबादी’ की तर्ज़ पर पहले विश्व में और उसके फ़ौरन बाद हैपनिंग ट्रेंड की तरह भारत में पसर गया था। ऐसे में भारत की संस्कारी स्त्रियों के सामने दो तरह की चुनौतियाँ दांत निपोरे उपस्थित हो गयीं थी; विश्व के नए प्रचलनों के साथ अलायन्स करते हुए पितृसत्ता का मुकाबला करना और देश के आज़ाद होने के बाद संविधान द्वारा वैधानिक मान्यता प्राप्त आज़ाद स्त्री के प्रोटोटाइप की छवि को नए तरह से तराश आगे ले जाना।

महानगर में रहने वाली स्त्रियों ने यह चुनौती तो स्वीकारी ही, भारत के कस्बों और छोटे शहरों में रहने वाली स्त्रियों ने भी इस बाबत सपनों को उड़ान देना शुरू कर दिया।

वाया मीडिया उपन्यास की नायिका अनु का जीवन यूँ ही शुरू होता है, “ चलो अनु डिअर …अब बाँध लो अपना बिस्तर ..छोड़ो भूतों के पाँव ,छोड़ो हॉरर फिल्मों सरीखे स्टेशनों की टिमटिमाती रोशनियां ,छोड़ो नाले-नहर का पानी…खेत खलिहान..चमगादड़ो और बंदरों की टोलियाँ..छोड़ो सब चलो , अब वहाँ चलो जहाँ  सपनों का उन्मुक्त, खुला और निरभ्र आकाश इंतज़ार में है।”

 सबके लिए एक निरभ्र और उन्मुक्त आकाश का वादा सरकार की खुली नीतियों ने कर दिया था.देश खुल गया था और समाज भी अपनी परंपरागत नेहरूवियन कल्याणकारी झिझक छोड़ अपने लिए / व्यक्तिगत सम्पूर्णता के लिए संघर्ष करने को उन्मत्त हो चुका था। चारों ओर नाम, यश और पैसों का सुनहरा जाल बुना जा चुका था, जिसमें से पार पाके ही नयी आइडेंटिटी गढ़ी जा सकती थी और नये भारत की नींव रखी जा सकती थी।

गोबर पट्टी में अख़बारों  का मेला उतर आया  था और अचानक से पुरुषों के बजाय स्त्रियों को अखबारों  के दफ्तर में नियुक्त किया जाने लगा गया था। उपन्यास इसको ठीक से रेखांकित करता है कि कैसे योग्यता के मानदंडों में बिंदास होना, युवा होना और कुछ हद तक कामुक होना उत्तम माना गया और इस तरह की स्त्रियों या इस तरह की महत्वकांक्षी  स्त्रियों के लिए अखबारों में रोज़गार के नए दरवाजे धड़ल्ले से खुल गए। ऐसा नहीं था कि इस बीच प्रतिभा का सर्वथा अनादर हुआ, लेकिन प्रतिभाशाली स्त्रियों पर भी ऐसी ही बदिशें लागू की गयीं और सर्विवाल ऑफ़ द फिट्टेस्ट के सिद्धांत पर स्त्रियों से कहा गया कि वे अपने को (डम्ब डाउन कर लें ) कमअक्ली से सजा लें /आक्रामक हो जाएँ या चित्रपट की नायिकाओं  का रूप अख्तियार कर लें। और जो नहीं कर पायें वे यह जगत छोड़ कर कुछ सीधा –सादा, अहानिकर सा पेशा अपना लें अथवा शादी कर लें।

अब क्या करें जो अनुराधा, अनुपमा,रंजना और शालिनी अपने –अपने तेवरों और साहसिकों की  फितरत संग, अखबारों की इस चौंकाती, चुंधियाती दुनिया में इस दशक में प्रवेश करती हैं? वे नवोन्मेष की चमकती बिजलियाँ हैं। वे छोटे शहरों से आयीं हों या दिल्ली की आबोहवा में पली हों उनके अन्दर महत्वकांक्षा की आग जलती है- जो स्त्री की असल मुक्ति के लिए ज़रूरी है।

 लेकिन अफ़सोस यह थियरी में है। असल में तो –भारत  में स्त्री मुक्ति के प्रश्न और आयाम  अधिक पेचीदे हैं। यहाँ जाति-धर्म और वर्ग की पेचीदगियां से लड़ने के बाद ही स्त्री अपनी पहचान की नींव रखती है। इतनी परतें हैं हमारी सामाजिक संरचना कि उतारते –उतारते कई बार स्त्रियों की ज़िन्दगी हलाक हो जाती है ।

उपन्यास यही बात अपनी नायिकाओं के माध्यम से हमें बार –बार बतलाता है। उपन्यास की  पृष्ठभूमि हमें बार-बार चेताती है और आगाह करती है-कि बाजारवाद के छल की शिकार स्त्रियाँ सबसे अधिक होती हैं,फिर वे किसी पेशे में हों कितनी भी प्रतिभाशाली क्यों न हो जाएँ!

 “कुर्सी पर बैठे संपादक नाम के प्राणी ने चश्मा उतारा और उसे घूरा ।मानो पूछ रहा हो कि यहाँ क्या खरीदने या क्या बेचने आई हो?”

प्रतिभा /इच्छा /आकांक्षा को रेड्युस करने की यह प्रवृत्ति –“ आज तुम्हें कब्रिस्तान पर एक स्टोरी करनी है । रात में कब्रिस्तान कैसा दीखता है?……..अँधेरा ..वहाँ का माहौल कैसी फंतासी बुनते हैं। हैडिंग होगी- एक रात कब्रिस्तान,” कदाचित पहले भी रही होगी। लेकिन नब्बे के दशक में नवउदारवाद ने उसे एक पुख्ता सी  व्यापकता प्रदान कर दी। एक निस्सीम सी वैधता।

  पितृसत्तात्मक आत्मविश्वास के अतिरेक से स्त्रियों को बारहा कमतर जताया जाने लगा। भारत में सामंतवादी मूल्यों से पलायन का रास्ता ढूंढती स्त्रियाँ कस्बों से बड़े शहरों में कैरियर बनाने आयीं तो उन्हें पता भी नहीं चला था कि वे कितनी सारी शातिर संरचनात्मक कुटिलताओं की शिकार होने वाली हैं।

जब अनुराधा हरियाणा के गाँवों में भ्रूण हत्या की स्टोरी कवर करने जाती है तो उसे अंडरकवर ही जाना पड़ता है। उनकी सच्चाई उजागर करती रिपोर्टर वह हो नहीं सकती है। गाँव की स्त्रियाँ अपने गम साझा करने से घबराती हैं। पितृसत्ता का आतंक इतना गहरा है कि वे दबे- छिपे ढंग से ही अपने मन की बात कहती हैं, “हम भी अपने मायकेवालों को मना करते हैं ,ईहाँ लड़की न देवो। देखें कैसे करते लड़कों का ब्याह।” ज़ाहिर है इनकी कोख़ लड़कियों से ख़ाली की गयी है। इस दौर के बाद हरियाणा के कई गाँवों में लड़कियां नहीं रहीं और बिहार और उड़ीसा से ग़रीब लड़कियों को खरीद कर लाना पड़ा था वंश बढाने के लिए। अनुराधा कहती है-दुखों की गठरी अपनी पीठ पर लादे औरतों को देखकर मन भर जाता था।

यह उदासी हरियाणा के गाँव से दिल्ली शहर आकर ख़त्म नहीं हो जाती बल्कि अपने अलग कलेवर में नासूर की तरह टीसती रहती है हर दम। अखबार की दुनिया में एक हवस से भरी दौड़ है जो हवस की दौड़ से अधिक बेदम करने वाली है। खबरों के लिए एक दूसरे का इस्तेमाल, खबर छिपाने के लिए करीबी दोस्त से भी दगा आम बात है, बस अनुराधा को ये बातें खास समझ में नहीं आती और वह हर बार दंग रह जाती है- शालिनी की बात हो, “शालीनी समरेश की करीबी थी…कास्ट फैक्टर की बड़ी भूमिका थी” या अनुपमा की छातियों की बात हो जिसे पुरुष सहकर्मी ‘मेरा भारत महान’ के नाम से रेफेर करते थे!

लड़कियाँ काबिल अखबारनवीसों से ज़्यादा,हास-परिहास, दफ्तरों में बीसवीं सदी की ऐतिहासिक खानापूर्ति ड्राइव या सिर्फ दिल बहलाने के साधन के रूप में देखी गयीं उस दौर में। उनको युद्ध राजनीति और सामाजिक मुद्दों से दूर रख फीचर और कला संस्कृति की बीट पर रखा जाता था। “ लड़कियों की अपर स्टोरी ख़ाली होती है…राजनैतिक चेतना नहीं होती…वे विश्लेषण नहीं कर सकतीं .. वे तो  .’खाना पकाओ-फुलवारी लगाओ…टाइप रंग- बिरंगे पेज बनायें और शाम को घर जाएँ..।” पुरुष सहकर्मी और संपादक अक्सर फ़तवा पारित करते रहते। ‘अनुपमा यह सुन-सुनकर पक चुकी थी। उसी के सामने उसकी प्रतिभा को, शालिनी की प्रतिभा को ख़ारिज किया जा रहा था।’

कॉस्मेटिक ढंग की सतही ‘तथाकथित’ स्वतंत्रता प्राप्त करना भी लम्बे समय तक कारगर साबित नहीं होता। यह बहुत बाद में समझ में आता लड़कियों को। जैसे ही सिगरेट, शराब और बदन दिखाऊ कपड़ों की नवीनता बीत जाती संपादक और पुरुष सहकर्मी बोर हो जाते और नयी रिपोर्टर्स तलाशने लगते।  अख़बारों के इक्कीसवीं सदी के अश्लील बाज़ारीकरण के उन्नत दौर की  यह मुकम्मल शुरुआत थी, जिसका विस्फोटक रूप 21वीं सदी में आज हमारे सामने पूरी मक्कारी से उजागर है। उसकी पूर्वपीठिका का दलदल अख़बारों के  दफ्तर में तभी से जमा होने लगा था।

एक मार्मिक प्रसंग का ज़िक्र है-“इसका मतलब संपादक की पहले से कोई दिलचस्पी नहीं।किसानों की आत्महत्याएं और उनकी दूसरी समस्याएं उनके लिए कोई मायने नहीं रखती। उनके लिए तो…पर्यटन विशेषांक ..ज्यादा ज़रूरी था..बिकाऊ माल…।”

“विदर्भ के किसानों की समस्या पर सिर्फ दो पेज की रिपोर्ट!” उसने अनमने भाव से जवाब दिया था।

कायदे से भारतीय समाज स्त्रियों को हक की बात क्यों और कितनी  करनी है, कभी भूले से भी नहीं सिखाता है। उस वक़्त तो और भी नहीं सिखाता था। स्त्रियों को खुद  ही तलाशने थे अपने हथियार और अपने रास्ते। वाया मीडिया के बहाने गीताश्री उन रास्तों का ज़िक्र करती चलती हैं, जो उनकी नायिकाएं अख्तियार करतीं हैं और आने वाली अख़बारनवीस स्त्री पीढ़ियों के लिए थोड़ी बहुत राहें आसान कर जातीं हैं।

 गीताश्री उन्हें हारकर लौट जाने को नहीं कहतीं। वह उन्हें इसी दलदल में कमल की तरह खिलने को प्रेरित करती है। उत्प्रेरक के रूप में कोमल दिल कवि प्रशांत और कभी साथ न छोड़ने वाले मधुकर जैसे पुरुष साथी तो सरे राह मिलते ही हैं, उनके साथ- साथ ख़ासी लड़ाई लड़ने के बाद बहनापे के सुख का असल मतलब समझती,समझाती हुई अख़बारनवीस दोस्त लड़कियां भी मिलती हैं। वे आपस में चर्चा करतीं हैं-“ स्त्रियों की एकता पैट्रिआर्की को किसी भी कीमत पर पसंद नहीं … न परिवारों में ना वर्कप्लेस में। हमारी दुनिया पूरी तरह मेल डोमिनेटिंग है। कंट्रोल्ड बाई मेल्स,रन बाई मेल्स,गवर्नड बाई मेल्स,….मजदूरों में वैसे भी एकता किसे और क्यों बर्दाश्त  हो?” यह चिंतन का वक़्त था और शायद ‘कमिंग आउट ऑफ़ द क्लोसेट’ का भी। यानि अपनी सेक्सुअल अस्मिता के आत्मस्वीकार वाली हिम्मत समाज में  शायद तभी आई और लड़कियों ने भी लड़कों की तरह अपने समलैंगिक संबंधों को स्वीकारा और उनकी बाबत स्त्रियों के समूह में बातें साझा करने लगीं।

स्त्रियों ने इस चुनौती भरे दौर में भी अपनी ज़िद को मद्धिम नहीं होने दिया। उन्होंने अपना संघर्ष जारी रखा और पुरुषों के तथाकथित आधिकारिक क्षेत्रों में ज़ोरदार दखल किया। उपन्यास में एक जगह बरखा दत्त का ज़िक्र भी है जो करगिल युद्ध में एक योद्धा की तरह डटी रही और सभी लड़कियों को प्रेरित करती रही।

गीताश्री की नायिकायें हतोत्साहित होती हैं यदा-कदा लेकिन फिर भी भी हारती नहीं। “ ज़ेहन रोशन हो तो बाहर के अँधेरे उतना नहीं डराते।”

उपन्यास स्त्री अखबारनवीसों की वस्तुस्थिति को बयां करता चलता है जैसे उस समय और उस क्षेत्र की यह इनसाइडर की आँखों से देखी जाने वाली एक रिपोर्ट हो। यह इस उपन्यास की सच्चाई और अच्छाई भी है और उसकी कुछ हद तक सीमा भी। उपन्यास इस दौर के गंभीर मुद्दों को -बाबरी मस्जिद का गिराया जाना, करगिल युद्ध के राजनैतिक पहलू और उदारीकरण के आयामों में गहरे उतरकर जूझता नहीं है। यह उस दौर की हिंदी पट्टी की स्त्री  अख़बारनवीसों की लाचारी को दिखलाता है। इस बाबत उपन्यास में अनेक संकेत मौजूद हैं। लेकिन फिर भी पाठक की उम्मीद कायम रहती है और वह नायिकाओं को लेखिका की तरह पर्याप्त सहेजता है और उन्हें बेनिफिट ऑफ़ डाउट देता चलता है। नायिकाएं अंततः पितृ सत्ता की विक्टिम ही बनी रहती हैं। यह आज खीज पैदा करता है लेकिन यही उस समय की सच्चाई की तरह  नश्तर बन चुभता है।

अंत में उपन्यास की नायिकाओं के नाम से सम्बद्ध एक बात भी कहनी ज़रूरी लग रही  है- नायिकाओं के नामों का लगभग एक जैसा होना पाठक को विभ्रम में डाल देता है- वह अनुराधा की कहानी पढ़ रहा है या अनुपमा की। इसे बहुत ध्यान देकर पढ़ना होता है।

गीताश्री की भाषा में चिरपरिचित  रवानगी है और कथ्य का निर्वाह भी निहायत गतिशील ढंग से कर लेतीं हैं। यह सुखद बात है!

यह पता चला है कि इस उपन्यास की आगे की दो कड़ियाँ अभी लिखी जाने वाली हैं। जिनकी हमें प्रतीक्षा है। कुछ नए जांबाजों से मुलाकात की इच्छा है। जिस तरह उनकी नायिका अनुपमा जीवन के सबसे सुन्दर बसंत की राह देखती है हम भी उनकी अगली कृति की राह उसी शिद्दत से देख रहे हैं।

वंदना राग

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उपन्यास वाणी प्रकाशन से प्रकाशित है। 

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विश्व साहित्य की प्रसिद्ध नायिकाएँ

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वरिष्ठ लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ का यह लेख विश्व साहित्य की प्रसिद्ध नायिकाओं को लेकर है। आप भी पढ़िए बहुत रोचक है-

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कोई भी कला स्त्री की उपस्थिति के बिना अपूर्ण है चाहे वह अमूर्त हो कि विशुद्ध या जादुई यथार्थ! साहित्य अधूरा है, नायिकाओं के बिना। नायिकाएं, एकरेखीय जीवन जिएं और उसी धरातल पर खड़ी हों, जहां हर स्त्री खड़ी है तो फिर कहानी कैसे बने? यूं तो हर जीवन अपने भीतर किसी महीन स्तर पर कोई न कोई कहानी कहता चलता है. जब वह एक विचलन बन गाथा में फूटता है, काग़ज़ पर उतरता है और परोक्षतः या अपरोक्षतः, पक्ष में या विपक्ष में खड़े हो जनमानस से साधारणीकृत होता है तो वह क्लासिक का दर्जा पा जाता है। कथा साहित्य में स्त्री का चित्रण विश्व में सत्रहवीं और अठारहवीं सदी से ही मुखर होने लगा था. यहाँ हम तारीख और इतिहास में जाए बिना, स्मृति में अटके रहने वाले, यदा – कदा याद आ दुख देने वाले, प्रेरणा और शक्ति देने वाले प्रसिद्ध स्त्री पात्रों को फिर रेखांकित करते हैं. हो सकता है कुछ मुझसे छूट भी जाएँ.

जब विश्व – सहित्य में प्रसिद्ध स्त्री – पात्रों की बात होती है तो तुरंत जो नायिकाएं मेरे  मस्तिष्क में आती हैं वे हैं  – मॉल फ्लांडर्स, आन्ना कारेनिना, लिलि बर्ट, जेन आयर, हेस्टर प्रेने, एलिज़ाबेथ बेनेट, सेली, सूला, सोफीज़ वर्ल्ड की ‘सोफी’, कैथरीन अर्नशॉ, फरमीना…. और दिमाग़ को आज़ाद छोड़ दें तो किशोरावस्था के पन्ने खुल जाते हैं, हंचबैक औफ नॉत्रदाम की एज़माराल्दा, जिप्सी गर्ल आ जाती है. फिर अरेबियन नाईट्स की शहरज़ाद…..एक हजार एक रातों की तिलस्माती कहानियाँ सुनाती हुई. स्कारलेट ओ हारा….गोन विद द विंड के साथ… चोरी से पढ़े गए उपन्यासों में नॉटी मगर मासूम लॉलिटा,  लेडी चैटर्ली,  मादाम बावेरी वगैरह….टैगोर की चोखेर बाली, शरतचन्द्र की चरित्रहीन की नायिका सावित्री, जैनेन्द्र की मृणाल, फणीश्वर नाथ रेणु की लछमी के साड़ी – दुशालों के साथ – साथ ही अपने सरसराते गाउन और कोर्सेट. और ट्यूनिक और स्लेक्स पहने आ खड़ी होती हैं. किताबों के पन्नों में सोई कितनी महानायिकाओं का एक पूरा संसार हमारे आगे खुल जाता है.

विश्व साहित्य में पिछ्ली सदी में मशहूर हुए क्लासिक्स का समय वह समय था जब स्त्रियों के लिए समय बेहद कठिन था, उस कठिन समय ने ही हमें न जाने कितनी विद्रोहिणी और बेहतरीन नायिकाएँ दी हैं. बहुत पहले कहीं पढ़ा था मैंने, और फिर यह एक स्थायी यकीन बन गया कि त्रुटिहीन होने पर कला, कला नहीं होती. सौंदर्य , सौंदर्य नहीं होता और जीवन तो कतई त्रुटिहीन हो नहीं सकता. छूटी हुई त्रुटि ही किसी सुन्दर कृति को सुन्दर बनाती है. सम्पूर्ण त्रुटिहीन सौंदर्य विकर्षित करता है. इसलिए हमेशा विश्व साहित्य के उपन्यासों में आदर्श पात्रों और एकरेखीय जीवन जीने वाले पात्रों ने कभी नहीं मोहा. कहानी बनने के लिए विचलन तो चाहिए. संसार के ज़्यादातर महान उपन्यासों को महान बनाने के पीछे कहीं न कहीं एक अनूठा, अलग स्त्री पात्र रहा है, जो कि स्मृतियों में बना रहा है. इन उपन्यासों के स्त्री पात्रों की चारित्रिक विकास की यात्रा पर गौर करें तो, तत्कालीन समय, समाज, परिवेश तथा पारिवारिक जीवन मूल्य तथा समाज की बनावट – बुनावट इन पात्रों की जीवन परिस्थितियों के नेपथ्य में ज़रूर होते हैं, जिनसे वे एक मोड़ पर आकर विचलन करते हैं.

आन्ना कारेनिना निस:न्देह संसार के उन्हीं महानतम उपन्यासों में से एक है. यह समाज और उसके नैतिक मापदण्डों के सापेक्ष प्रेम तथा मानव की मूल प्रवृत्तियों, महीन मनोसंसार की हलचल पर लिखा गया उपन्यास है. उन्नीसवीं शती के मास्को और पीटर्सबर्ग के उच्चवर्ग के परिवेश में घुटती आन्ना के विवाहेत्तर प्रेम की क्लासिक गाथा तथा मानव की आंतरिक प्रवत्तियों का एक बेहद समृद्ध और जटिल ‘मास्टरपीस’ है आन्ना कारेनिना. कहाँ आन्ना रूसी समाज के ऊँचे तबके की प्रभावशाली महिला होती है, कहाँ वह व्रोंस्की के साथ असुरक्षित मानसिकता में, बेटे के लिए तरसती, तिरस्कृत, उदास और अकेली छूट जाती है. जिस रास्ते पर कोई न चला उस पर चलने की ज़िद में सुख से ज्य़ादा पीड़ा ही हाथ आई. वह काउंट व्रोंस्की के प्रेम में भी आशंका ढूँढ लेती है. आन्ना का प्रेम भी खीँचतान में बदलने लगता है, और परम – प्रेम की एक स्त्री के मन में बनी तस्वीर धुँधलाने लगती है. यह बहुत व्यापक सत्य है प्रेम का जो टॉलस्टॉय आन्ना के माध्यम से रचा है. प्रेम की इस परिणति को कौन सा काल या परिवेश अपने में बाँध सका है? यही ‘परम प्रेम’ के अस्थायी छिलके में लिपटा स्त्री – पुरुष के प्राकृतिक आकर्षण युक्त खिंचाव, सम्बन्ध स्थापन, प्रजनन के बाद का ‘परम सत्य’ है. यही वजह है कि विश्व साहित्य की नायिकाओं में आन्ना ने सबसे बड़ा मुकाम हासिल किया है.

इसी तरह एक आन्ना कारेनिना के मुकाबले कम चर्चित ‘द फॉर्च्यून एण्ड मिसफॉर्च्यून ऑफ फेमस मॉल फ्लान्दर्स ’ की मॉल फ्लांदर्स है. जिसे डेनियल डेफॉ ने ‘आन्ना कारेनिना’ से बहुत पहले 1721 में लंदन के परिवेश में रचा था. 1722 में छ्पे इस उपन्यास नायिका मॉल फ्लान्दर्स एक चोर है, पाँच बार विवाहित एक असफल पत्नी है, एक वेश्या है और बहुत कुछ है. वर्जीनिया वुल्फ के अनुसार इस 18 वीं सदी की आज़ाद ख्याल इस स्त्री चरित्र के कारण यह उपन्यास निर्विवाद रूप से महान है. एक जेल में जन्मी मॉल की जीवन यात्रा एक किशोरी वेश्या से शुरु होकर, पांच बार विवाह फिर चोरी और ठगी से लेकर एक अमीर स्त्री बनने तक की है, जो इस कथा में बुनी गई है. मॉल की जीवन के प्रति ललक और किसी के अधीन न रहने की जिद और जीवन की छल कपट भरी भूलभुलैया में वह यहाँ तक पहुँचती है. इस पूरे उपन्यास में गझिन जीवन के साथ लगातार एक जीने और आगे बढ़ने…बढ़ते चले जाने की ललक झलकती है, जो मॉल फ्लान्दर्स को तमाम स्त्री पात्रों से अलग करती है. वह भारी विषमताओं के बाद भी आन्ना की तरह के किसी विषाद में नहीं घिरती, पांच शादियाँ करती है…ठगी भी…सफल व्यवसायी भी बनती है…अंतत: समाज में प्रतिष्ठित जगह बना ही ले जाती है.

हम शेक्सपियर की नायिकाओं की बात करें तो बिएत्रिस अपने निशान छोड़ती है…स्मृति में. ‘मच अडू अबाउट नथिंग’ की नायिका बिएत्रिस को शेक्सपियर ने बेहतरीन संवाद दिए, बिएत्रिस शेक्सपियर के स्त्री पात्रों में सबसे मजबूत है. बिएत्रिस एक अमीर गवर्नर की भतीजी है. वह गवर्नर की शांत सौम्य बेटी के उलट गुस्सैल, हमेशा कटाक्षपूर्ण और तेजतर्रार है. वह अपने मंगेतर को अपने लायक न पाकर हमेशा उसका मज़ाक बनाती है और योग्य पुरुष न मिलने तक शादी नहीं करना चाहती है. इसी तरह, 1905 में लिखे गए  उपन्यास ‘हाउस ऑफ मिर्थ’ की नायिका लिलि बर्ट भी महत्वाकांक्षा, प्रेम, बदनामी, पीड़ा और मृत्यु के लिए प्रसिद्ध हुई जिसे ‘एडिथ वार्टन’ ने अमरीका के परिवेश में रचा, मगर यहाँ स्त्री को दोफाड़ करता केवल प्रेम नहीं था, ऎश्वर्यमय जीवन की अदम्य लालसा भी थी. लिली बर्ट एक सुंदर सादादिल युवती है, जो अमीर होने के लिए, अमीर व्यक्ति के प्रेम प्रस्ताव पाने के लिए बहुत से अच्छे मध्यमवर्गीय प्रस्ताव ठुकरा देती है. और बाद में एक झूठे चक्रव्यूह में फंस कर बदनामी सहती है और एक बदनाम अमीर स्त्री की असिस्टेंट बन कर उसे रहना पड़ता है. अंत वही आत्मघात ! अमेरिका की तत्कालीन एरिस्टोक्रेटिक दुनिया के झूठ और छ्ल पर लिखा गया यह उपन्यास बहुत सराहा गया.

फ्रांस के उपन्यासकार गुस्ताव फ्लाबेयर की प्रसिद्ध कृति ‘मादाम बॉवेरी’ को 1856 में अपने प्रकाशन के बाद अधार्मिकता और अनैतिकता के आरोप झेलने पड़े थे। सिर्फ इस‍लिए क्योंकि उन्होंने अपनी नायिका एम्मा बॉवेरी को विवाहेतर प्रेम और यौन-संबंधों में लिप्त दिखाने का साहस किया था। लेकिन आज इस कृति को एक ‘क्लासिक’ के रूप में देखा जाता है। इसकी नायिका मादाम बावेरी न सिर्फ आपने युग का एक प्रतिनिधि चरित्र बन गई है, बल्कि वह एक स्त्री के अंतरंग का एक ऐसा प्रतीक भी बन गई है, जो सारी दुनिया के साहित्य में नए-नए रूपों में बार-बार रचा गया। एम्मा गहरे कहीं रूमानी थी, और ‘एबसॉल्यूट लव’ की तलाश ने उसे बार बार भटकाया. वह सपनों और फंतासियों में जीते रहना और खुद को खूब सारा प्रेम करवाते रहना चाहती थी. एक ग्रामीण इलाके के डॉक्टर से शादी कर, एक बेटी की माँ बन कर भी वह अधूरा महसूस करती थी. इस अधूरेपन ने उसे बदनामी और भारी कर्ज़ से डुबो दिया. अंतत: उसकी दर्दनाक मृत्यु के साथ उपन्यास का त्रासद अंत हुआ.

‘जेन आयर’ को ब्रोंते बहनों में सबसे साहसी ‘शार्लोट ब्रोंते’ ने बहुत ही कम उम्र में रचा था, वह भी किसी छ्दम नाम से. जाहिर है वह विक्टोरियन काल में जीवन के समानांतर कुछ विद्रोही रचना चाहती थी. अनाथ जेन आयर,  उसकी बालसखि हेलेन बर्न्स और नायक रोचेस्टर को कोई भूल नहीं सकता. जेन आयर गवर्नेस के तौर पर एक अमीर घर में नौकरी करती है, और अपनी आज़ादी में विश्वास करती है. जैसे तमाम विषमताओं के बावजूद अपने मूल्यों और जीवन में विश्वास रखने वाली जेन का चरित्र विश्वसाहित्य में हमेशा अविस्मरणीय रहने वाला है. वैसे ही प्राईड एण्ड प्रेजुडिस ( जेन आस्टिन) की एलिज़ाबेथ बेनेट का चरित्र हमिशा याद आता है. जो एक अपनी समृद्धि लगभग खो चुके जंमींदार परिवार की पाँच बेटियों में से दूसरे नंबर की है. जहाँ उसके परिवार वाले चाहते हैं कि वह परिवार की आर्थिक अवस्था को ख्याल में रख एक अमीरज़ादे से विवाह करे मगर वह प्रेम के लिए विवाह करना चाहती है. एलिज़ा न केवल ब्रिटिश साहित्य की लाड़ली रही है, बल्कि विश्वसाहित्य में उसे खूब सराहना मिली. उसके चरित्र को कई फिल्मों में एडॉप्ट किया गया. वह बुद्धिमति, जीवंत लड़की है, जो तत्कालीन समाज के व्यवहार और पाखंड पर अपने व्यंग्य करती रहती है. वह सुंदर लड़की है और अंतत: मि. डॉर्सी को वह हासिल कर लेती है. एलिज़ाबेथ ऎसी लड़की है जो अपने समय के चलन से विद्रोह नहीं करती बल्कि उसका इस्तेमाल अपनी सोच के अनुसार अपने लक्ष्यों के लिए करना बखूबी जानती है.

दो नायिकाएँ अपने अनूठेपन में विश्व साहित्य में एकदम ही अलग खड़ी मिलती हैं, उनमें से एक ‘हेस्टर प्राईन’ अमरीकी लेखक नैथेनियल हॉथॉर्न ( द स्कारलेट लेटर) की रची वह नायिका है…जिसके चलते चर्च के आदेश के तहत स्वयं चरित्रहीनता का प्रतीक अक्षर…स्कारलेट ए उसके ऑरा और पवित्रता का पर्याय बन जाता है. वह एक पादरी की कामुकता का शिकार है, वह अविवाहित माँ है. जिसे चर्च से निष्कासन का आदेश मिलता है और कहा जाता है कि या तो वह अपनी अवैध बच्ची के पिता का नाम बताए या फिर वह अपने सीने पर एडल्ट्री का प्रतीकाक्षर ‘ए’ लगा कर गाँव से बाहर रहे. वह पादरी का नाम नहीं बताती, बच्ची को लेकर चली जाती है और अपने गाउन पर बहुत सुंदर लाल धागों से कलात्मक ‘ए’ काढ़ लेती है. जो अपनी धज के कारण उसकी अबोध बेटी को बहुत प्यारा लगता. खामोश हेस्टर प्राईन का चरित्र मेरी किशोरावस्था से फेवरेट है….दूसरा फेवरेट चरित्र है, विक्टर ह्यूगो के उपन्यास ‘ हंच बैक ऑफ नॉत्रदाम’ …की एज्माराल्दा…उसकी जिप्सी स्कर्ट…उसका डांस और उसकी ढफली और बकरी! उसे प्रेम करने वाले तीन प्रेमी, एक पादरी, एक कैप्टन और नॉत्रदाम का कुबड़ा….उसके लिए तय सज़ा ए मौत और उसका कैप्टन फीबस से अंधा प्रेम. अंतत: नॉत्रदाम के कुबड़े दैत्य का उसके प्रति अनन्य प्रेम और मृत्यु!

बचपन की तरफ मुड़ने पर सबसे पहले ‘अरेबियन नाईट्स’ की शहरज़ाद याद आती है – जो स्मृतियों में सितारा बन टंक जाने वाला स्त्री चरित्र है…जो एक हज़ार एक रातों में हज़ार कहानियों का गुलदस्ता देता है. जब सुंदरी शहरज़ाद की शादी एक ऎसे सुलतान से हो जाती है जो हर रात एक सुंदर युवती से धोखे से विवाह कर सुबह उसका गला कटवा देता है, शहरज़ाद को जब पता चलता है तो वह सुलतान को प्यार से बहला कर कहानी सुनाना शुरु करती है…हर कहानी में से नई कहानी निकल आती है…वह उसे एक हज़ार दिन तक कहानियाँ सुनाती है…एक हज़ारवें एक दिन सुलतान को उससे प्रेम हो जाता है.

लॉलिटा भी बचपन में पढ़ी थी, हिन्द पॉकेट बुक्स के संशोधित – संक्षिप्त संस्करण में लॉलिटा को यानि डोलोरस हेज़ को कुछ जाना, कुछ नहीं, फिर मूल संस्करण पढ़ा तो आँखें फैल गई. कमाल की है यह ‘एपोनिमस निम्फेट’! अरे! यह कोई वैज्ञानिक टर्म नहीं. एपोनिमस शब्द उस नायिका के बारे में इस्तेमाल किया जाता है जिसके नाम पर कथा, काव्य, उपन्यास या फिल्म हो. निम्फेट आकर्षक किशोरी! मुझे लॉलिटा उपन्यास ने, मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और नॉबकॉव की भाषा, प्रस्तुति ने बहुत मोहा…यह एक सफल उपन्यास रहा मगर लॉलिटा एक असफल जीवन ही रही, जिस पर मुझे दया ही आई, दुख ही हुआ. कितना ही वह किशोरावस्था में अपने चरित्र में चार्म, सिडक्शन ले आई हो? मिला तो उसे हम्बर्ट द्वारा यौन शोषण ही. सोलह साल की उम्र में गर्भ और गरीबी! खैर…मगर वह छाप तो छोड़ती ही है. लेकिन हर बार मन कहता रहता है, हम्बर्ट न आया होता और हम्बर्ट की कुंठा न आई होती डोलोरस के जीवन में तो कुछ हमउम्र प्रेमी और उत्सुकताजन्य दैहिक स्पर्शों के बावजूद वह सहज जीवन जीती. वह लगभग अगवा की गई थी! उसे मां की मृत्यु तक का पता न था.

लेडी चैटरलीज़ लवर भी उस ज़माने में चरम उत्सुकता जगाने वाली किताब हुआ करती थी, मगर परिपक्व होकर पढ़ने में ‘कोनी’ को अलग तरह से जाना. नियति और उसके खेल…फिर स्त्री का ड्राईविंग सीट पर आ बैठना. विवाह से पहली कोनी एक सुरुचिपूर्ण, पढ़ीलिखी, अमीर परिवार की युवती है उसका विवाह माईंस के मालिक क्लिफोर्ड चैटरली से उसका विवाह हो जाता है. त्रासदी क्लिफोर्ड को व्हीलचेयर पर ले आती है. सब कुछ होते हुए भी वैवाहिक सुख और संतान से वंचित लेडी चैटरली को क्लिफोर्ड बातों बातों में छूट देता है विवाहेतर संबंध की जिसे टालते हुए भी कोनी….अपने जंगल के गार्ड ऑलिवर के आकर्षण में बिंध जाती है. यहाँ कोई विलेन नहीं है…परिस्थितियाँ हैं बस. और बहाव है. लेडी चैटरली एक मजबूत चरित्र होते हुए भी देह के अधीन है, देह के राग और विरागों का आपसी द्वन्द्व भी है. अंत्त: वह ऑलिवर के पास आकर जीवन को निकटता से देखती है और संघर्ष में सुख पाती है.

इसके विपरीत  ‘वुदरिंग हाईट्स’ की कैथरीन अर्नशॉ अपने पिता द्वारा लाए एक अनाथ लड़के हैथक्लिफ़ में अपनी किशोरावस्था से ही जबरदस्त आकर्षण देखने लगती है. लेकिन सामाजिक हैसियत के चलते वह एडगर लिंटन से विवाह कर लेती है, जिसे वह बाँका, अमीर विवाह लायक समझती है. मगर हैथक्लिफ के प्रेम में पागल वह स्वयं को हैथक्लिफ का ही दूसरा हिस्सा समझती है, और अपने दुर्व्यवहार से अपने आस – पास के सभी लोगों का जीवन दूभर कर्ने लगती है. कैथरीन के माता – पिता की मृत्यु के बाद हैथक्लिफ की स्थिति बहुत अपमानजनक हो जाती है, वह न नौकर रह पाता है न घर का सदस्य और वह एक बद्ले की भावना से भर जाता है…फिर कथा शुरु होती एक भरेपूरे परिवार के विनाश की…लिंटन परिवार भी इस चपेटे में आ जाता है. कैथरीन के बहाने एमिली ब्रोंते ने एक स्त्री के अंतर्जगत और मनोवैज्ञानिक बीहड़ को उस ज़माने में खोलने का प्रयास किया और यह उपन्यास क्लासिक का दर्जा पा गया. अंतर्मुखी, युवा एमिली ने कमाल का चरित्र रचा है.

कहना न होगा कि हममें से ज़्यादातर लोगों ने ‘गॉन विथ द विंड’ पहले देखी होगी, फिर पढ़ी होगी. पहले ‘स्कारलेट ओ’ हारा के रूप में हम ‘विवियन ली ‘ को कैसे भूल सकते हैं। उस कठिन समय में वह अपनी बहन के प्रेमी एशली से प्रेम निवेदन करती है, मगर अस्वीकृत होता है उसका प्रेम. उसे प्रेम करने वाले क्लार्क गेबल को वह हमेशा फ्लर्ट समझती है. उसके बार बार मुसीबतों में साथ देने के बावजूद  वह दो बार ऎसे लड़कों से शादी करती है जिनसे वह कभी प्रेम नहीं करती थी उनमें से एक के मर जाने पर वह हल्की सी राहत महसूस करती है.। उसकी दूसरी शादी भी सफल नहीं होती और उससे प्रेम प्रदर्शित करने वाला, साथ देने वाला पुरुष क्लार्क गेबल भी अंतत: उसे छोड़ कर निकल जाता है, वह जीवन भर किशोरावस्था के एशली – प्रेम के भँवर में घूमती हुई असमंजस में ही रह जाती है. मगर संघर्ष से कभी मुँह नहीं मोड़ती स्कारलेट ऑ हारा. युद्ध, आग, पलायन और अकाल…जिसमें भूखे तक मरने की नौबत तक आ जाती है. फिर भी जीवन संघर्ष में अंतत: विजेता होकर भी वह प्रेम में नितांत अकेले पड़ जाती है.

एक अनाम औरत का ख़त के शीर्षक से स्टीफन स्वाइग की ‘लेटर फ्रॉम एन अननोन वुमन’ को पढ़ा था और इस उपन्यास की उस अस्थिर अज्ञात नायिका ने भी बहुत प्रभावित किया था. हरमन हेस ने भी कमाल की नायिकाएँ विश्व साहित्य को दीं चाहे वह स्टेपान वुल्फ की हरमीने और मारिया हों, जो नायक की खोए से अस्तित्व को एक चेतना देती हैं या सिद्धार्थ की कमला हो. एक गणिका जो सिद्धार्थ की खोज को एक नया आयाम देती है.

पिछ्ले दशक मॆं जिन पात्रों से परिचय हुआ वे अलग ही थे. किसी क्लासिक से कम नहीं. मुझे एलिस वॉकर की नायिकाएँ काफी जीवन के करीब लगती हैं. ‘द कलर परपल’ की सैली कमाल की स्त्री है. सैली बचपन ही से घरेलू यौन शोषण की शिकार है अपने ही सौतेले पिता द्वारा जो कि उसे मारता और बलात्कार भी करता रहा है, साथ में नौकरानियों की तरह व्यवहार करता रहा है. जब उसका विवाह होता है तो पति भी उतना ही क्रूर निकलता है. सैली के बदरंग जीवन का एकमात्र खुशरंग कोई है तो वह है नैटी, उसकी बहन. नैटी को वह पालती पोसती है और यौन शोषण से बचाती है. फिर एक दिन नैटी कहीं बाहर भेज दी जाती है. उसके पास बस उसके पत्रों का सहारा रहता है. धीरे धीरे वह ताकत जुटा कर अपने गाँव में अपनी जगह बना लेती है. एक बार उसे पता चलता है कि उसका पति नैटी के पत्रों को और नैटी को उससे दूर कर रहा है तो वह… भीतरी ताकत जुटा कर पति को तुरंत छोड़ देती है, और नैटी को बुला लेती है. पूरे उपन्यास में एक मजलूम, शोषित लड़की सैली के मजबूत होते जाने की गाथा है. सैली का चरित्र प्रेरणास्पद है.

टोनी मॉरिसन ने भी दबे – कुचले वर्ग से निकल कर आए, घरेलू यौन शोषणों से उबरे और सीधे खड़े हुए मजबूत स्त्री पात्र विश्व साहित्य को दिए हैं. उनमें से एक है ‘सूला’ . हालांकि ‘बिलव्ड’  की सेथी उनका रचा क्लासिक स्त्री पात्र है मगर विद्रोहिणी सूला तो जीवन से दो – दो हाथ करती है. पूरा कस्बा, पूरा समाज उसके खिलाफ है मगर फिर भी. सूला – सूला है, जिसके नाम ही से उपन्यास का टाईटल है. सूला जिस समाज में पली उस समाज के हर पुराने रिवाज़ को धता बता कर वह कॉलेज पढ़ने जाती है. वह चाहती तो बहुपत्नी प्रथा वाले समाज में किसी की पत्नी बन सकती थी. मगर वह अपने समाज और छोटे कस्बे से बाहर जाकर, बड़े शहर में वह दस साल बिताती है, कभी पुरुषों को ठेंगे पर रखती है…कभी फयदा उठाती है. जबकि उसकी मित्र नेल अपने कस्बे में रह कर वही करती है जो समाज उस समय की लड़कियों से उम्मीद करता है. जब सूला वापस लौटती है वह समाज उसे अपना दुश्मन और दुष्ट आत्मा की तरह अस्वीकार करता है. वह अपनी लड़ाई लड़ती है…चाहे फिर उसकी कीमत जीवन देकर उसे चुकानी पड़ती है.

एक ओर ‘लव इन द टाईम ऑफ कॉलेरा’ की अधेड़ नायिका ने मार्खेज़ के जादुई संसार में अपनी एक यथार्थपरक उपस्थिति बना ली और ‘फरमीना’ लोकप्रिय हो गई, अपनी अधेड़ावस्था में अपने पुराने प्रेम को पूरे पैशन के साथ जीने के साहस के साथ. दूसरी ओर, हारुकी मुराकामी ने ‘नार्वेज़ियन वुड्स’ की दो परस्पर विरोधी मिजाज़ की मगर पूरक लड़कियों  नाओके और मिडोरी से परिचित करवाया, एक ओर नाओके बचपन के प्रेमी की मृत्यु के बाद आहत, कोमल और शांत है, वहीं बहन की आत्महत्या को आंखों से देखने के बाद मिडोरी चंचल और जीवन के प्रति आसक्त युवती है! इन्हें  फिलहाल भले ही हम विश्व साहित्य में स्थान दें कि न दें मगर मुराकामी की नायिकाएं आधुनिकतम सदी की नायिकाएं हैं।

‘आयन रेंड’ अपने स्वप्निल आवेग में एक बिलकुल अलग तरह का किशोर संसार रचती हैं. सोफी’ज़ वर्ल्ड के बाद उनका उपन्यास ‘ एटलस श्रग्ड’ आया और उसकी नायिका डेग्नी टैगार्ट ने प्रसिद्धि पा ली. डैग्नी एक जीनियस लड़की है, जिसे  को बचपन से पता होता है कि वह अपने पिता की रेलरोड कंपनी संभालेगी, और वह एक कमाल की दक्षता से उसे संभालती है जबकि उसके भाई की वजह से ‘टेगार्ट ट्रांसकॉटिनेंटल कंपनी’ मुसीबत में आ जाती है, तब डेग्नी तमाम मुसीबतों, षड्य़ंत्रों के बीच से उस कंपनी को बचा ले जाती है. डेग्नी एक ऎसा मजबूत चरित्र है कि जिसके पैरेलल भारतीय साहित्य में कोई चरित्र रचा जाना बहुत दूर की बात लगती है. उसके जीवन के तीन शब्द…उम्मीद, चुनौती और नियंत्रण उसे दूर तक ले जाते हैं.

विश्व साहित्य की नायिकाएँ जो हमारे जहन में बच रह जाती हैं, उनमें हर एक में कुछ तो खास होता ही है, चाहे उनमें से कुछ सच में बहुत साहसी थीं, कुछ विवश और कुछ महत्वाकांक्षा की मारी, तो कुछ प्रेम में बर्बाद तो कुछ प्रेम में जीवन पा गई.  इन नायिकाओं से फिर – फिर रू – ब – रू होने पर यह सत्य निरंतर मंथन में से निकला कि सभ्रांत महिलाओं की अपेक्षा संघर्षरत स्त्रियों ने जीवन के संग्राम में हमेशा विजय पाई. संघर्ष किया, घर से निकलीं बजाय मृत्यु वरण करने के. जब सभ्रांत स्त्रियाँ रुसवाई से ही टूट कर बिखर गईं वहीं जन्म के साथ तमाम किस्म के भेदों और यौन शोषण को झेलती स्त्रियाँ जीती रहीं और मिसाल बनीं.

माया एंजलू कहीं तल्ख होकर लिखती भी हैं – “ जहाँ तक कि मैं जानती हूँ, गोरी सभ्रांत स्त्रियाँ उपन्यासों के अलावा कहीं अकेली नहीं दिखीं. गोरे पुरुष उन्हें प्रेम करते रहे, काले पुरुष उनकी कामना और काली स्त्रियाँ उनके घरों के काम करती रहीं. “

विश्व साहित्य पढ़ते हुए लगता है कि विक्टोरियन काल और उसके बाद के एरिस्टोक्रेटिक काल में आदमियों के पास स्त्रियों से जुड़े तीन ही काम थे, उनसे प्रेम करना, उन्हें दुख देना, खुद् दुख सहना और उन्हें विश्वप्रसिद्ध कृति में बदल देना.

वैसे सच तो यह है कि मजबूत स्त्री पात्र पढ़ते हुए कहीं जीवन से जोड़ते हैं, प्राणॉं में नया जीवन संचरित करते हैं. ‘आर्टिस्ट अगेंस्ट ऑड’ की धारणा को प्रबल करते हैं. इसलिए आज के विखण्डन के समय में मजबूत स्त्री पात्रों की आवश्यकता है साहित्य को.

एक प्रसिद्ध लेखक जॉस वेडन की पंक्तियाँ-  लोग पूछते हैं आप मजबूत स्त्री ही पात्र क्यों रचते हैं? मैं कहता हूँ, क्योंकि अब भी आप तो अब भी ये सवाल पूछते हैं!

पुन:श्च – विश्वसाहित्य में ऎसी कितनी ही नायिकाएं हैं जो देश – द्वीप – उपमहाद्वीप, महाद्वीप की सीमाएं लांघ हमारे देश में चर्चित हुईं, अपने सकारात्मक – नकारात्मक पहलुओं के बावजूद सराही गईं।

मनीषा कुलश्रेष्ठ

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युवा शायर #26 मुस्तहसन जामी की ग़ज़लें

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युवा शायर सीरीज में आज पेश है मोहम्मद मुस्तहसन जामी की ग़ज़लें। जामी, पाकिस्तानी शायरी में एक उभरती हुई आवाज़ हैं। वो आवाज़, जो अपने आप में धूप की नर्मी और बर्फ़ की गर्मी एक साथ समेटे हुए है। वो आवाज़, जो ख़्वाब देखना तो चाहती है मगर जिसे ताबीर की जल्दबाज़ी नहीं है। फ़िलहाल उनकी कुछ ग़ज़लें पढ़िए और लुत्फ़-अंदोज़ होइए – त्रिपुरारि

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ग़ज़ल-

रूखी-सूखी खा सकते थे
तेरा साथ निभा सकते थे

काट के जड़ इक-दूजे की हम
कितने फूल उगा सकते थे

हम तलवार उठा नहीं पाए
हम आवाज़ उठा सकते थे

ग़ुर्बत का एहसान था हम पर
इक थाली में खा सकते थे

तुम ता’बीर ख़ुदा से माँगो
हम बस ख़्वाब दिखा सकते थे

हम को रोना आ जाता तो
हम भी शोर मचा सकते थे

ख़्वाबों ने जो आग लगाई
उस को अश्क बुझा सकते थे

ग़ज़ल-2

रंग-ओ-सिफ़ात-ए-यार में दिल ढल नहीं रहा
शो’लों की ज़द में फूल है और जल नहीं रहा

वो धूप है कि पेड़ भी जलने पे आ गया
वो भूक है कि शाख़ पे अब फल नहीं रहा

ले आओ मेरी आँख की लौ के क़रीब उसे
तुम से बुझा चराग़ अगर जल नहीं रहा

हम लोग अब ज़मान-ओ-ज़माना से दूर हैं
या’नी यहाँ पे वक़्त भी अब चल नहीं रहा

तू ने कभी आँखों से बहाए नहीं आँसू
तू ने कभी दरियाओं को बहता नहीं देखा

फिर यूँ है कि सूरज को नहीं जानता वो शख़्स
जिस ने मिरे आँगन का अँधेरा नहीं देखा

करते हैं बहुत बात ये वीरानी-ए-दिल की
उन लोगों ने शायद मिरा हुलिया नहीं देखा

गो गर्दिश-ए-दौराँ में हैं दिन-रात मगर याँ
है ऐसी सियाही कि सवेरा नहीं देखा

उस शख़्स को आया नहीं मिलने का सलीक़ा
उस शख़्स ने इस साल भी मेला नहीं देखा

ग़ज़ल-3

खेत ऐसे सैराब नहीं होते भाई
अश्कों के सैलाब नहीं होते भाई

हम जैसों की नींद थकावट होती है
हम जैसों के ख़्वाब नहीं होते भाई

ज़िंदा लोग ही डूब सकेंगे आँखों में
मरे हुए ग़र्क़ाब नहीं होते भाई

अब सूरज की सारी दुनिया दुश्मन है
अब चेहरे महताब नहीं होते भाई

इन झीलों में परियाँ रोज़ उतरती हैं
आँखों में तालाब नहीं होते भाई

सोचें हैं जो दौड़ दौड़ के थकती हैं
थके हुए आ’साब नहीं होते भाई

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  समाज और कविता दोनों जेंडर न्यूट्रल हों

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स्त्रीवादी आलोचक रेखा सेठी की दो किताबें हाल में आई हैं ‘स्त्री कविता: पक्ष और परिप्रेक्ष्य’ तथा ‘स्त्री कविता: पहचान और द्वन्द्व’। जिनमें हिंदी की कवयित्रियों की चर्चा है और उनकी रचनाओं की आलोचना भी। यह एक शोधपरक दस्तावेज़ी काम है। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इन किताबों की समीक्षा की है कविता भाटिया ने, जो दिल्ली विश्विद्यालय के मिरांडा हाउस कॉलेज में हिंदी पढ़ाती हैं-

==================

स्त्री कविता यथार्थ व जीवन के सहज अनुभवों को अपनी कविता का विषय बनाती है। पितृसत्ता के अंतर्विरोधों और विसंगतियों के प्रति विद्रोहात्मक प्रतिक्रिया का स्वर उनकी कविता में सुना जा सकता है। साहित्य में स्त्री विमर्श व स्त्री की स्वाधीनता से जुड़े प्रश्न, उसकी चिन्ताएँ,  उसके स्वप्न महत्वपूर्ण विषय है। यह सच है स्त्री मुक्ति का प्रश्न, उसकी इच्छाएँ, पीड़ा व व्यथा एक भिन्न संसार रचती है।  इसी क्रम में प्राचीन काल से लेकर अब तक स्त्री कविता ने जागरण से लेकर स्त्री सशक्तिकरण की एक लंबी यात्रा तय की है। वह  केवल वस्तुस्थिति का नकार भर न होकर अपनी क्षमताओं को पहचानने , उसे विकसित करने और अपने को पुनः गढ़ने – यानि अपने स्व को फैलाकर पूरी सृष्टि को अपने में समेटने की कोशिश है। समकालीन हिंदी काव्य जगत में कवयित्रियाॅं स्त्री मन और अपने भाव जगत से जुड़ी अनुभूतियों को व्यक्त कर अपने साहित्यिक वितान का विस्तार कर रही हैं।

    समकालीन हिंदी कविता और जेण्डर की अवधारणा पर गहरी पकड़ रखने वाली सुप्रसिद्ध आलोचक रेखा सेठी ने अपने स्त्री विषयक शोधपरक अध्ययन- स्त्री कविता: पक्ष और परिप्रेक्ष्य तथा स्त्री कविता: पहचान और द्वन्द्व में स्त्री कवयित्रियों द्वारा अपनी रचनाओं में व्यक्त की गयी मनुष्य विरोधी स्थितियों, उनके भीतरी अंतद्र्वन्दों और उनकी छटपटाहट को चीन्हते हुए स्त्री को दमित बनाए रखने वाले जिम्मेदार कारकों की पड़ताल कर स्त्री के असंतोष एवं आक्रोश को बखूबी व्यक्त किया है। स्त्री कविता पर यह महत्वपूर्ण कार्य स्त्री के बैचेन मन के प्रश्नों का समाधान ढूॅंढने की छटपटाहट तथा आवश्यक जागरूकता उत्पन्न करने में सक्रिय भूमिका निभाता है। इस शोधपरक अध्ययन के आगे की कड़ी में तीसरी पुस्तक -स्त्री कविता: संवयन प्रस्तावित है। सामाजिक व्यवस्था के कू्रर शोषणतंत्र ने सबसे अधिक स्त्री और दलित को मुख्यधारा से हटा हाशिए पर धकेलने की कोशिश की है। इनमें भी सबसे जटिल व संशिलष्ट स्थिति स्त्री की है। ऐसे में शोषणकारी सामाजिक व्यवस्था के विविध रूप , स्त्री की अनसुनी आवाज और उसकी पीड़ा और इन सबसे ऊपर उसका विद्रोह – इन सब दृष्टियों से स्त्री कविता विशेष अध्ययन की मांग करती है।

   ये आलोचनात्मक कृतियाँ प्रमुख स्त्री स्वरों को सामने लाती है जिनके माध्यम से लेखिका ने चिंतन की  एक नयी भूमि तैयार की है। यह शोधपरक अध्ययन दृष्टि स्त्री कविता के इतिहास व विभिन आंदोलनों का दस्तावेज भी है। ‘ स्त्री कविता: पहचान और द्वन्द्व ’  पुस्तक की लंबी भूमिका में अपने इस महत् कार्य को सामने लाने के बारे में लेखिका स्त्री कविता और उसकी पहचान के सवाल को अपने मन के द्वंद्व से जोड़ती है। यहाँ प्रश्न यह है कि क्या स्त्री कविता की रचना अपनी छिपी आकांक्षाओं और स्त्री विमर्श को सामने लाने के लिए ही करती है ? या स्त्री कविता को हमेशा इसी सीमित और तयशुदा एकांगी दृष्टिकोण से देखे जाने की पूर्व परम्परा को ही हम ढो रहे है। जबकि दिलोदिमाग की संकीर्णता के ढांचे को तोड़कर देखें तो स्पष्ट होता है कि प्रारंभ से लेकर अब तक की स्त्री कविता में परस्पर जुड़े हुए कई सरोकार है।

प्रारंभिक स्त्री कवयित्रियों में रामकुमारी देवी हो या प्रतापकुॅंवरि बाई, तोरन देवी शुक्ल ‘लली ’ अथवा सुभद्रा कुमारी चैहान इन सबने लैंगिक ध्रुवीकरण को तोड़ते हुए अपनी कविताओं में स्त्री के समान अधिकारों की मांग के साथ मातृभूमि की वंदना, देशानुराग, कृषक व मजदूर वर्ग के प्रति संवेदनशील दृष्टिकोण भी प्रस्तुत किया। वहाॅं केवल घुटती हुई, आॅंसू बहाती स्त्री नहीं है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था से मुक्ति की आकांक्षा के साथ उनकी रचनाओं में परिवार, समाज, राष्ट्र की चिंताएॅं भी गहरे रूप में मौजूद है। हिंदी कविता के आरंभिक व मध्यकाल को याद करें तो पाते है कि पुरुष सत्ता के कुहासे में स्त्री रचनाशीलता सामने ही नहीं आ सकी तभी तो पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था के शोषक रूप को बेनकाब करती, स्त्री स्वतंत्रता को बाधित करती सामाजिक व धार्मिक संस्थाओं को चुनौती देती ‘एक अज्ञात हिंदू महिला’ की क्रांतिकारी दस्तावेज रचना ‘ सीमान्तनी उपदेश ’ समाज के पुरुष ठेकेदारों द्वारा दबा ली गयी अथवा अलक्षित कर दी गयी थी।

प्रसिद्ध समाजशास्त्री सिल्विया वाल्बे मानती है कि पितृसत्ता सामाजिक संरचना की ऐसी व्यवस्था है जिसमें पुरुष महिला पर अपना प्रभुत्व जमाता है, उसका दमन करता है और उसका शोषण करता है। वह लिंग असमानता का मूल कारण इसी ‘ पैट्रियाकी ’ को मानती है। रेडिकल नारीवादी विचारक केट मिलेट ‘सेक्सुअल पाॅलिटिक्स ’ तथा शुल्मिथ फायरस्टोन ‘ द डायलेक्टिक आॅफ सेक्स ’ गर्दा लर्नर ‘ द क्रिएशन आॅफ पैट्रियार्की ’ में पितृसत्ता को केंद्रीय संरचना सिद्ध करती है और स्त्री की दोयम स्थिति को व्यवस्थागत मानती है।

 इससे इंकार नहीं कि स्त्री कविता में अपने ‘ स्वत्व ’ को पाने की कोशिश है तो स्वप्नों का मुक्त वातायन भी। यहाॅं पितृसत्ता की जकड़न से मुक्ति का उत्सव रचती स्त्री भी है जो ‘ स्त्री केवल स्त्री नहीं, मनुष्य भी है ’-की घोषणा करती दिखती है। लेखिका की स्थापना है कि हम स्त्री कविता कहते ही उसे लेकर बायस्ड क्यों हो जाते है ? वह मानती है कि समाज और कविता दोनों जेण्डर न्यूट्रल हो। यदि हम साहित्येतिहास को खंगाले तो पाते है कि ऐतिहासिक विकासक्रम में स्त्री की स्वायत्त पहचान बनने ही नहीं दी गयी। जीवन के अनेक क्षेत्रों मे लिंग असमानता के कारण पुरुष शक्तिशाली सर्वोपरि सत्ता बन गया और स्त्री इस शोषण की शिकार । पश्चिमी आलोचक मिल ने ‘ द सब्जेक्शन आफ विमेन ’ में स्त्री की सामाजिक स्थिति की गंभीरतापूर्वक पड़ताल करते हुए स्त्री-पुरुष के पूर्ण समानता के सिद्धांत को कायम किए जाने की वकालत की, सिद्धांत ऐसा जो न एक पक्ष को कानूनी सत्ता या सुविधा दे और न ही दूसरे को अशक्त बनाए।

  इस पुस्तक के 3 खंड है जिसके पहले भाग ‘ पाठ और संवाद ’ में 7 प्रमुख स्त्री कवयित्रियों गगन गिल, कात्यायनी, अनामिका, सविता सिंह, नीलेश रधुवंशी, निर्मला पुतुल और सुशीला टाकभौरे की एक-एक प्रमुख रचना को प्रस्तुत करते हुए लेखिका ने स्त्री कविता का आशय और उसकी पहचान, समाज के जेंडर्ड स्ट्रक्चर, स्त्री विमर्श और स्त्री कविता, स्त्री कविता में स्त्री की एक मनुष्य के तौर पर पहचाने जाने की जद्दोजहद, जेण्डर सेंसिटिव के बजाय जेण्डर न्यूट्रल समाज की जरूरत पर बल, तथा स्त्री के संश्लिष्ट अनुभव जैसे प्रासंगिक प्रश्नों को केंद्र में रखकर इन कवयित्रियों से साक्षात्कार लिए है।

इस संदर्भ में नीलेश रधुवंशी स्पष्ट कहती है कि ‘ कविता को फांकों में बदलने की जरूरत मुझे महसूस नहीं होती क्योंकि इससे हमारी दृष्टि तो विभाजित होगी ही, कविता की चुनौतियाॅं भी कमतर होगी। ’ कात्यायनी स्त्री की पहचान एक ‘ व्यक्ति ’ रूप में किए जाने की हिमायती है। वह इस बात पर भी बल देती है कि स्त्री का संधर्ष एक नागरिक की हैसियत से सभी संधर्षशील अस्मिताओं में अपना विलय कर देने में ही है। सुशीला टाकभौरे भी स्त्री कविता को केवल स्त्रीवादी नजरिए से देखे जाने का विरोध करती है। इन्हें पढ़ते हुए याद आता है जर्मेन ग्रीयर की पुस्तक  ‘ द फीमेल यूनिक ’ में इब्सन के डाॅल हाउस का नोरा-हैल्मर संवाद। जिसमें नोरा हैल्मर के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहती है कि-‘‘ मैं मानती हूॅं कि मैं सबसे पहले मनुष्य हूॅं….उतने ही जितने तुम हो, और हर सूरत में वह बनने की कोशिश तो करूंगी ही । ’’ ऐसे में  स्त्री कविता यथार्थ व जीवन के सहज अनुभवों को अपनी कविता का विषय बनाती है। यहाॅं अपने मन की गांठें खोलती स्त्री अपने तनावों से जूझती, अपने वजूद की तलाश करती दिखती है पर साथ ही यहाॅं पूरा समाज और जीवन भी समाया है। इन सातों कवयित्रियों में विचार , अनुभूति और चिंतन के स्तर पर समानता दिखती है। इस पुस्तक में संकलित साक्षात्कार तथा दूसरी पुस्तक में लेखिका द्वारा प्रस्तुत की गयी इन रचनाकारों की काव्य संवेदना, उनकी चिंतन भूमि, तथा सामाजिक यथार्थ को देखने का उनका दृष्टिबोध- दोनों को मिलाकर देखे जाने पर स्त्री कविता का एक विस्तृत फलक आकार लेता है।

 पुस्तक के दूसरे खंड ‘ कुछ और संवाद ’ शीर्षक के अंतर्गत कुछ अन्य समकालीन कवयित्रियों के स्त्री कविता की पहचान, स्त्री कविता और जेण्डर निरपेक्षता तथा स्त्री कविता-पाश्चात्य संदर्भ या भारतीय दृष्टि पर गंभीर चिवार संकलित किए गए है। जिनमें ‘ एक सामाजिक इकाई के तौर पर स्त्री की अपनी सशक्त पहचान के मुद्दे पर ’ गंभीरतापूर्वक विचार किया गया है। पुस्तक के तीसरे व अंतिम खंड ‘ स्त्री कविता और पुरुष स्वर ’ में  समकालीन हिंदी कविता के महत्वपूर्ण वरिष्ठ कवियों अशोक वाजपेयी, लीलाधर मंडलोई, मंगलेश डबराल आदि  नवोदित कवियों की रवना के साथ स्त्री कविता पर उनके सारगर्भित विचार साझा किए गए है। ये वे कवि है जिनकी काव्यदृष्टि समावेशी है , अर्थात उनकी कविताओं में स्त्री-पुरुष अलग अलग न होकर एक है।  पुरुष और स्त्री की समानता को एक मूलभूत मानवीय सिद्धांत मानते हुए  ‘ जेंडर न्यूट्रल ’ की बात सभी रचनाकारों ने स्वीकार की है। इन पुरुष रचनाकारों के स्वर ने स्त्री कविता संबंधी इस शोध अध्ययन को एक नया ठोस रूप दिया है। कवि लीलाधर मंडलोई खानों में बाॅंटकर कविता को देखने की परिपाटी से बिलकुल असहमत है तो कवि जीतेन्द्र श्रीवास्तव एक ऐसे समाज और परिवेश की कामना करते है जिसमें मूल्यांकन का आधार जाति, लिंग और धर्म न हो। युवा कवि अच्युतानंद मिश्र समय की मांग के अनुसार जेण्डर न्यूट्रल के लक्ष्य को पाने की बात करते है और मानते है कि जिसके लिए अभी संक्रमण और संघर्ष की लंबी यात्रा तय करनी शेष है।

  ‘ स्त्री कविता: पक्ष और परिप्रेक्ष्य ’ में लेखिका स्त्री कविता के स्वप्न और सरोकारों पर बात करते हुए सात स्त्री कवयित्रियों की रचनाशीलता के विस्तृत कैनवास और उनकी  चिंताओं को उकेरते हुए कहती है कि- ‘‘ सामाजिक समता के सवालों और लैंगिक दृष्टि से उसके परिवर्तनशील समीकरणों को स्त्री साहित्य में रेखांकित कर पाना इस साहित्य को पढ़ने की पहली शर्त है।’’  वह स्त्री कविता को स्त्री विमर्श के चश्में से न देखकर व्यापक धरातल पर उनका मूल्यांकन करती है। गगन गिल की कविता मानव अस्तित्व के गंभीर प्रश्नों को संबोधित है तो कात्यायनी की कविता गहरे अर्थों में राजनीतिक कविताएँ है। उनकी व्यापक दृष्टि स्त्री को केवल स्त्री न मान उसे एक स्वाधीन स्वायत्त नागरिक ही मानती है।

वह अनामिका और सविता सिंह की कविता में मानव मुक्ति का व्यापक कैनवास देख पाती है तो नीलेश की कविता सामाजिक शोषण के रूपों को उजागर करती है। निर्मला पुतुल और सुशीला टाकभौरे की कविताएँ भी व्यापक सामाजिक बिंब को दर्शाती है। इसी संदर्भ में लेखिका  कवयित्रियों द्वारा उठाए गए नवीन विषयों पर भी चर्चा करती है। फिर चाहे वह अनुपम सिंह की समलैंगिकता पर आधारित कविता हो अथवा कात्यायनी और गगन गिल की राजनीतिकपरक कविताएँ। निर्मला पुतुल जल, जंगल और जमीन के क्षय को लेकर गंभीर है। इस पुस्तक में पश्चिमी व भारतीय स्त्री संघर्ष के इतिहास के बीसवीं सदी से लेकर  वर्तमान समय तक के सभी पहलुओं को प्रस्तुत किया गया है तो स्त्री कविता का व्यापक इतिहास वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल व समकालीन स्त्री कविता के विविध आयामों से पाठकों को परिचित कराता है।

 स्त्री अस्मिता के सवालों से जूझते इस वर्तमान जटिल समय में ये आलोचनात्मक द्वय पुस्तकें निश्चित ही स्वागत योग्य है उम्मीद है इनके द्वारा स्त्री कविता के माध्यम से साहित्य व जेण्डर के संबंध को समझते हुए मूल्यांकन की एक नयी राह खुलेगी जो हमारे मानवीय अनुभवों को समृद्ध करेगी।

 

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सवाल अब भी आँखे तरेरे खड़ा है- और कितने पाकिस्तान?

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कमलेश्वर का उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ सन 2000 में प्रकाशित हुआ था। इस उपन्यास के अभी तक 18 संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और हिंदी के आलोचकों द्वारा नज़रअन्दाज़ किए गए इस उपन्यास को पाठकों का भरपूर प्यार मिला। उपन्यास में एक अदीब है जो जैसे सभ्यता समीक्षा कर रहा है। इतिहास का मंथन कर रहा है।इसी उपन्यास पर एक काव्यात्मक टिप्पणी की है यतीश कुमार ने, जो अपनी काव्यात्मक समीक्षाओं से अपनी विशिष्ट पहचान बना चुके हैं। आप भी पढ़िए- मॉडरेटर
==========
 
 
1.
समय की उल्टी दिशा में
दशकों से भटक रहा है अतीत..
और मानव-सभ्यता की तहक़ीक़ात
अभी ज़ारी है
 
सच की अदालत में
फ़ैसला होना बाक़ी है अदीब
रूहों से भी गुफ़्तगू होनी है
कितने और विस्थापनों को अभी रोकना है
 
सभ्यता बदली है, समय भी बदला है
लेकिन बदलती सभ्यता के साथ
जो नहीं बदल सका
वह अब भी इतिहास में लहू बहा रहा है
 
आने वाली सभ्यता पिछली सदी के
रक्त-बीज से जन्मती रही है
और इनके बीच
ख़ामोशी एक तवील रात है
 
सबसे बड़ा आकर्षण है ख़ामोशी
और ख़ामोश आकर्षण की दुनिया
जिन आँखों से दिखे
उन्हें ढूंढता फिर रहा हूँ …
 
2.
आँखों में समय की दूरबीन लगी है
“संजय” को बचा लेना चाहता हूँ
नज़रों के बदलते दृश्य में
आँखें अय्यार हो गई हैं
 
अबाबील की आँखों में झाँका तो
उजड़े किले, अंधे गुंबद
अधजली मशाल, सफेद आँखें
वक़्त को ताकती-झाँकती दिखीं
 
सिलाबी आँखों से देखा तो
पानी के दाग़ की तरह
वजूद की लिबास पर
सुर्ख़ छींटे नक्श से दिखे
 
निस्बत से भी देखता हूँ
तो दुनिया धुंधली
समय स्तब्ध, प्रेम निःशब्द
और मेरा देश धूल-धूसरित दीखता है
 
देखते-देखते ताजमहल के आधार में गिर पड़ा
खून से लथपथ पहली ईंट से
गुंबद की नक़्क़ाशी और आयतों तक की
उत्कीर्ण दास्तानें गूंजने लगीं
 
सुर्ख़ छींटे, खाल के आबले
फोड़ों के अँखुए
पीप से भरे पीपे
असँख्य रुण्ड .. एकस्वर कराहने लगे
 
पुतलियों की कोटर में
तहज़ीब की लौ जलती दिखी
वक़्त ने उसके टुकड़े बाज दफा किया
बस सिर कलम एक बार किया
 
3.
मोमबत्तियों की ऐसी क़ायनात दिखी
जो बुझ कर शाश्वत अंधेरा दिए जा रही थी
 
समूची धरती पर
एक जैसी अनगिन कहानियाँ दिखीं
जिनके सिरे एक-दूसरे से अछूते थे
लेकिन वे समय के साथ बस बहे जा रहे थे
 
वह कलयुग ही था
जो काले उड़ते आसमान के पर्दों के परे
झंझावत के बीच भी झांक रहा था
 
तभी कच्छ के नमकीले कछार
दलदल की गीली दीवारों से मिल कर
लहरों में बदलते दिखे
 
मौत के योगफल से
निर्धारित होता हुआ
युद्ध का फ़ैसला दिखा
 
अक्षौहिणी-चतुर्दशी विनाश के साथ दिखा
प्रश्नों से उपराम ईश्वर
 
4.
तलवार की नोक पर धर्म को देख
भकाभक कर रो पड़ा बादल
इतना कि उसकी आँखें सूज गईं
बारिश का चेहरा रेगिस्तानी हो गया
 
हज़ारों निशीथ में टहलते हुए
नक्षत्रों से दोस्ती कर ली
युगों के तल्प पर सोया
समय के शिगाफ़ से झाँका
 
 
मुग़लताओं का ज़खीरा देख लिया
यह भी देखा कि मनुष्यहन्ता का
अप्रत्याशित मौतों पर अन्वेषण का दौर
ख़त्म ही नहीं हो पा रहा.
 
इस बीच
युगों तक टहलता हुआ
लहू पर फिसलते-फिसलते
वक़्त इक्कीसवीं सदी में दाख़िल हो गया
 
तब पराशक्ति से पूछा मैंने
यह सब क्या हो रहा है ?
मौन में जवाब मिला
परशिव से पूछो
 
जब शिव के पास गया तो देखा
मेरी दस्तक से पहले
तमाम दूसरी दस्तकें वहाँ मौजूद थीं
 
5
आदमी और मनुष्य
दोनों के शाब्दिक अर्थ एक हैं
फिर क्यों इनकी आवाज़ें आपस में टकरा रही हैं
 
ये आवाज़ें ख़्वाबों के रेशों पर
शोर की किरचियाँ चला रही हैं
सबकुछ तहस-नहस हो रहा है
खेतों में बारूद और बंदूकें उग रही हैं
 
जबकि यह तो सबको पता है
कि हथियार बनेंगे तो एक दिन चलेंगे भी
 
6
आवाज़ें फ़रार हो चुकी हैं
इच्छाएँ अब बंदी नहीं हो सकतीं
 
धमनियों में रक्तकणों के साथ
आवाज़ें भी पैबस्त हो चुकी हैं
 
थके हुए लकड़बग्घे
खा-पकाकर विश्राम पर हैं
महापुरुषों का अवसान
शोकगीत के साथ हो रहा है
 
आइंस्टाइन आज भी पछता रहे हैं
गांधी अपने रास्ते पर अडिग हैं
 
पछतावे और पराजय की ग्लानि ढोते
पछता रहा है वर्तमान !
इतिहास है जो कभी भी नहीं पछताता
 
7
चलना अपनी जगह है
चल कर पहुँचना अपनी जगह
सोचना कितना आसान है
और सोचे हुए को जीना कितना मुश्किल !
 
उसने कहा बहुत ख़ूबसूरत हो तुम
तपाक से जवाब मिला
कि तक़सीम नहीं हुई होती
तो क़ायनात भी ख़ूबसूरत होती
 
उसने देश और आदेश के साथ
मुहब्बत को तक़सीम होते देखा
 
प्रेम छिपकली की पूंछ है
बिछड़ कर मरती नहीं
और ज़्यादा तड़पती है
 
पलकों की लहरें
तेजी से उठने-गिरने लगीं
होंठ तितलियों के पंख की तरह
खुलने और कांपने लगे
 
नीम की पीली पत्तियां झरने लगीं
पत्तियों का झरना अंधेरे का मौसम है
या यह अंधेरा ही है
जो पत्ती-पत्ती झर रहा है !
 
पेड़ के सारे पत्ते झर गए
बस एक ख़लिश के साथ
टँगा रह गया चाँद
 
8
यादें छोटी-बड़ी नहीं होतीं
बस घटती-बढ़ती आहटें होती हैं
 
हथेलियों पर मोती बरसे
और मोतियों के दाग़
हथेलियों पर उग आए
 
कई बरसों बाद
आंसुओं की परछाइयां दिखीं मुझे
 
आंसुओं का मर्सिया गूंज उठा …
कोख़ में सांस का भी दम घोंटा जा रहा है
सैकड़ों आंखें कफ़न की
तलब में बुझती जा रही हैं
 
बिना आग के भी पत्तियां झुलस गईं
रेहन में रख दिया गया प्रेम
 
मां बनते ही हर औरत की
शक़्ल एक जैसी हो जाती है
इच्छाओं में माँ एक संभावना है
और संभावनाएँ हमेशा ज़िंदा रहती हैं
 
9
उलझा हुआ आदमी
सबसे ज़्यादा मुस्कुराता है
उसकी मुस्कुराहट में
एक कड़वाहट घुली होती है
 
अकेले का रोना
अनगिन नदियों का समंदर होना होता है
 
वक़्त के आसपास ही
दबे पांव चलता रहता है बदवक़्त
दोनों के अदृश्य जंग में
बदलती रहती है आंसुओं की हम हिस्सेदारी
 
10
तहज़ीब अगर टूटती है
फ़िरक़ावाराना हौले से दाखिल होता है वहाँ
आदिम राग और रिश्तों में बंधने के लिए
आदम आठ-आठ आंसू रोता है !
 
जब-जब यह आवाज़ आई
“यक़ीन जानिए”तब-तब
इंसानियत का क़त्ल हुआ
और, अब इतिहास पर यक़ीन करना मुश्किल है
 
कोई मुश्किल लाइलाज़ नहीं
इंसान का दुःख एकात्म हो सकता है
लेकिन निदान देने वाला ईश्वर
तो पहले एक हो जाए !
 
11
एक आवाज़ बारहां गूंजती है
आर्य-अहंकारों से बाहर निकलो
धर्म का शरणार्थी होने से बचो
 
स्वयं का दीप बनो
मृत्यु से नहीं
उसके भय से मुक्त हो
 
निर्वाण का पुनर्जन्म नहीं होता
ज़ेहन में बुद्ध मुस्कुराते हैं …
 
सुख मन का पूरापन नहीं
उसे खाली रखना है
 
गुलदान से गोया गिर कर
फूलों की पत्तियों में लिपट गया है
उसे बीनना ही सुख है ..
 
धर्म बदल लेने से
इतिहास की जड़ें नहीं बदलती
 
दरअसल सच यही है
कि आँखें जिसकी खुल जाए
वही सूरदास है
 
12
सियासत के अलाव में
धर्म का दोगलापन
अपना जिस्म सेंक रहा है
 
वहाँ मुझे जिस्म की कब्र में
परछाइयां ज़्यादा दिखीं
सांस लेते मनुष्य कम दिखे
 
धर्म-परिवर्तन भी एक सहूलियत है
कमोबेश ठीक उसी तरह
जिस तरह जंग के दरमियान
बदल दिए जाते हैं घायल घोड़े
 
विलाप का चँदोवा और फैला
भूख और भीख को समेटे
वक़्त के हरकारे ग़ायब कर दिए गए
 
परिंदों के परवाज़ नदारत
चाँद कुम्हलाया, सूरज स्तब्ध
आसमान खाली, सीठे हुए खजूर …
 
संस्कृति की नदी सूखने लगी
उसूल आत्महत्या करने लगे
तभी बिजली कड़की, बादल गरजे
पंख उड़े और फिर बिखर गए
 
चांदी के चार पंख
धरती ने रख लिए
 
फरिश्तों के सदमे से कंपन हुआ था
उसी कंपन ने गिराए थे चार पंख
 
दारा शिकोह अब
फरिश्तों के पंख बन कर धरती पर है
 
वक़्त ने ताक़ीद की
हर सदी में दारा शिकोह के साथ-साथ
आलमगीर के पैदा होने के
दस्तूर को बदलना होगा
 
और एक स्वर हो गईं समवेत चीखें …
 
13
ग़ुलामी अगर बादशाह की हो
तब भी सिर क़लम करती है
और अगर प्रजा की हो
तो ख़ुद ही क़लम हो जाती है
 
चांदनी चौक के पीपल पर
दारा और गुरु तेग बहादुर
दोनों के सिर क़लम हुए
पर शीश नहीं झुके
 
इन हादसों के बीच
आंसुओं से पवित्र दूसरी चीज़
ढूंढने में आदम खोया रहा
 
मंदिरों की बाती
और मरघट के दिए के बीच
हम भटकते रहे
 
इन सब के बीच तिरोहित हुई आवाज़ें
सिसकियों के साथ उभरती हुई कहती हैं –
“ईश्वर के अवतरण का इंतज़ार ही
ज़िंदा रखती हैं संस्कृति और सभ्यताओं को”
 
14
नदियाँ जब ऐंठती हैं
तो गुज़रने वाले शहरों की भाषा में ऐंठन छोड़ जाती हैं
इतिहास इन्हीं भाषाओं में साँसें लेता है
 
वही इतिहास हमने जिया
जो तर्को और स्वार्थों के फावड़े से
बनाए गए पोखर भर इतिहास से लिखा गया
 
जबकि नदियों के साथ बहता रहा इतिहास
हम उस ओर गए ही नहीं ..
समय का दहकता सूरज
निगलता-सुखाता गया उन बहावों को
 
अब तलाश रहे हैं सरस्वती को चिराग़ लिए
और, यमुना मिली भी तो दामन फटा मिला
 
ताबड़तोड़ पैंतरे और बेवक़्त अंधड़ से
टपकी आज़ादी की कलाइयों पर
आज भी सिक्कड़ के दाग़ हैं..
 
कोई रबड़ नहीं मिल रही
कि उन दाग़ों के नक़्शे-पां मिटाए जा सकें
 
15.
 
1757 में कुछ चूहों ने
बिल बनाने शुरू कर दिए
छुपते-निकलते वे फैलते रहे
 
जिस दिन वे सब बाहर आए
ढहाते हुए एक साथ अपने बिलों को
पूरे सल्तनत की नींवें हिल गईं
 
साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, पूंजीवाद, बाज़ारवाद
हर एक कड़ी अपनी शक़्ल बदलती गई
और बुद्ध मुस्कुराता रहा
स्वयं से स्वतंत्र होने की बात करता रहा…
 
पूंजी की नाभिनाल से
बाज़ार का कमल खिलता रहा
तब से साम्राज्य से पूंजी
और पूंजी से बाज़ार के
चक्रवृद्धि वृत की परिधि
फैलती जा रही है
 
बाज़ार के विस्तार में
निकलता है खोजी नाविक
लिए बंदूक और धर्म प्रचारक को एक साथ
 
इनकी गंठजोड़ ही
बाज़ार में सफलता की कुंजी है
 
बाज़ार के फैलाव के साथ बदलती सभ्यता
कृत्रिम उत्सव और उल्लास के बीच
लाशों की सड़ांध पर
छिड़कती है इत्र बेशुमार
 
कपास-अनाज से ज़्यादा तस्करी है अफीम की
ज्ञान के प्यासे भिक्षुक
श्रमिक आंदोलन के बाद
भिखारी बन कर पैदा लेने लगे
 
एक समय था
आदम की परछाइयों से बातें करता था अदीब
अब आदम ख़ुद बिना परछाइयों के हैं
और ये बातें भी नहीं करते !
 
पूर्वज हमारी परछाईं हैं
इतिहास पर कलम चलाना
अपनी परछाईं को मिटाना है
 
16
1857 की कौमी एकता के बरक्स
1946 का डायरेक्ट एक्शन डे
सवाल-जवाब की तरह दर्ज़ है
 
संसार के महाभोज में
बार-बार परोसा गया है भारत
जब खाली पत्तल बचे
और नीला रंग सुर्ख हो गया
गोरे हड़बड़ाहट में भागने लगे
 
हाथ में रह गया
दीमक लगा पाकिस्तान
और लंगड़ाता हुआ हिंदुस्तान
अपने-अपने खोखलेपन में कराहता हुआ
 
सरहद के आरपार
किसानों और सिपाहियों के
मज़हब मुख़्तलिफ़ हो सकते हैं
पर मौसम और मिज़ाज नहीं.
 
 
17.
यश-अपयश का अंतर्विरोध
अब पहले सा नहीं रहा …
 
प्रमथ्यु का गिद्ध थक चुका है बेतरह
गिलगमेश बुद्ध से मिलकर ख़ुद को ढूंढ रहा है
 
अंधे अदीब को सब साफ-साफ दिखता है
कबीर पोखरण में बौद्ध वृक्ष लगा रहा है
और आदम मोक्ष की बजाए
मृत्यु के अन्वेषण में
ज़्यादा दिलचस्पी ले रहा है
 
जरायमान का फैलाव इस कदर है
कि नारा दीवारें लगा रही हैं
आज हौसलों से नहीं
इश्तेहार से लड़े जा रहे हैं युद्ध
 
युद्ध के बाहर और भीतर
पराजय और दुर्भाग्य
रेल की दो पटरियों-सी
साथ-साथ चल रही है
 
इन सभी दृश्यों के बीच
सवाल अब भी आँखे तरेरे खड़ा है
कि और कितने पाकिस्तान ???????
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यतीश कुमार

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कैलाश सत्यार्थी की तीन कविताएँ

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बहुत कम लोग जानते हैं कि नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित बाल अधिकार कार्यकर्ता श्री कैलाश सत्यार्थी कवि भी हैं। अपने मन के भावों- विचारों को शब्दों के माध्यम से वे अकसर व्यक्त करते रहते हैं। बाल शोषण के खिलाफ अपनी जन-जागरुकता यात्राओं और आंदोलन के गीत वे खुद रचते हैं। उनकी कलम समय-समय पर बच्चों से लेकर समाज के वंचित और हाशिए के लोगों के दर्द को बयां करती रहती है। बच्चों के यौन शोषण के खिलाफ करीब तीन साल पहले उन्होंने दुनिया की सबसे बड़ी जन-जागरुकता यात्रा आयोजित की थी। इस यात्रा का चर्चित थीम सांग हम निकल पड़े हैं… उन्होंने खुद लिखा था। जिसे चर्चित इंडियन ओसिन बैंड ने अपनी आवाज दी थी। बच्चों के यौन शोषण के खिलाफ उनका यह गीत यू-ट्यूब पर काफी लोकप्रिय हुआ था।

कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ही उनके अंदर का लेखक जगा और वे शब्दों का मोल समझने लगे। अखबारों में वे वैचारिक लेख से लेकर यात्रा वृत्तांत और रिपोर्ताज आदि लिखने लगे। अस्सी के दशक के शुरुआत में इंजीनियरिंग का अपना बेहतरीन करियर छोड़ कर बाल मजदूरी के खिलाफ अलख जगाने निकले श्री सत्यार्थी ने कलम और शब्द को ही अपना हथियार बनाया। बाल अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए उन्होंने संघर्ष जारी रहेगा…. और क्रांतिधर्मी नामक पत्रिका का प्रकाशन और संपादन किया।

श्री सत्‍यार्थी की लेखन शैली थोड़ी अलग है। वह प्रतीकात्‍मक और आत्‍मीय अंदाज में कविताएं लिखते हैं। उनकी कविताओं में व्‍यक्‍त आक्रोश और व्‍यंग्‍य हालात की भयावहता का पता देते हैं। श्री सत्यार्थी आशावादी हैं। लिहाजा, इन बातों के बावजूद श्री सत्‍यार्थी को भरोसा है कि यह उदास मंजर छंटेगा, क्‍योंकि सुबह का आगाज घने अंधकार के बाद ही होता है। दुनिया के इस शांति दूत का मानना है कि लोगों में करुणा का संचार कर ही मानवता को बचाया जा सकता है और खुशहाल और शांतिमय दुनिया का निर्माण किया जा सकता है। इसीलिए वे बार-बार करुणा के भूमंडलीकरण की बात करते हैं। 

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1. तब हम होली खेलेंगे
 
हर साल होली पर
उगते थे इंद्रधनुष
दिल खोल कर लुटाते थे रंग
 
 
मैं उन्हीं रंगों से सराबोर होकर
तरबतर कर डालता था तुम्हें भी
तब हम एक हो जाते थे
अपनी बाहरी और भीतरी
पहचानें भूल कर
 
 
लेकिन ऐसा नहीं हो सकेगा
इस बार
सिर्फ एक रंग में रंग डालने के
पागलपन ने
लहूलुहान कर दिया है
मेरे इंद्रधनुष को
 
अब उसके खून का लाल रंग
सूख कर काला पड़ गया है
अनाथ हो गए मेरे बेटे के
आंसुओं की तरह
जिसकी आंखों ने मुझे
भीड़ के पैरों तले
कुचल कर मरते देखा है
 
जिस्म पर नाखूनों की खरोंचें और फटे कपड़े लिए
गली से भाग, जल रहे घर में जा दुबकी
अपनी ही किताबों के दमघोंटू धुएं से
किसी तरह बच सकी
तुम्हारी बेटी के स्याह पड़ गए
चेहरे की तरह
 
आसमान में टकटकी लगा कर
देखते रहना मेरे दोस्त
फिर से बादल गरजेंगे
फिर से ठंडी फुहारें बरसेंगी
फिर इन्द्रधनुष उगेगा
वही सतरंगा इन्द्रधनुष
 
और मेरा बेटा, तुम्हारी बेटी, हमारे बच्चे
उसके रंगों से होली खेलेंगे।
 
 
2. मरेगा नहीं अभिमन्यु इस बार
 
सदमे में अचेत अस्पताल में पड़ी मेरी मां
महसूस नहीं कर सकती प्रसव पीड़ा तक
और मैं छटपटा रहा हूं दुनिया में आने के लिए
गर्भ में बैठा सुन रहा हूं भयानक कोलाहल
बाहर हर तरफ भीड़ ही भीड़ है
कहां दुबक गए हैं इंसान
शायद बचे ही नहीं
इंसानियत मरती है तभी जन्मती है भीड़
उसके जिंदा रहने पर तो समाज बनता है।
कल एक भीड़ ने हत्या कर दी थी मेरी मां के शौहर की
पोंछ डाला था उसकी मांग का सिंदूर 
 
सुना था वे झुनझुने, खिलौने, झबेले और
बुरी नजर से बचाने वाला ताबीज लेने निकले थे लेकिन लौटे नहीं
ना ही वे लौटे वे हाथ जो मां के पेट के ऊपर से ही सही
खुद को ढूंढ लेते थे मुझमें
पीठ जो घोड़ा बनने को अकुला रही थी
नहीं लौट सके मेरी हर बात सुन सकने वाले कान  
 
न जाने कहां, कब और किससे सुनी थी
मेरे पिता ने एक कहानी
किसी अभिमन्यु की कहानी
जिसे सुनाकर वे मेरी मां को या शायद मुझे
सुनाते रहते थे और भी ढेरों कहानियां
मोहब्बत की, अमन की, इंसानियत की
नहीं होती थी उसमें कोई कहानी
मजहब की, अंधभक्ति की और सियासत की
शायद वे जानते थे कि इन्हीं से भीड़ बनती है
या फिर कोई और कहानी जानते ही नहीं थे।
 
मेरी मां जल्दी ही जागेगी
मैं जल्दी ही आऊंगा दुनिया में
लेकिन इस बार भीड़ वध नहीं कर सकेगी
अभिमन्यु को अकेला घेरकर
चक्रव्यूह तोड़ेगा अभिमन्यु इस बार
 
और बाहर भी निकलेगा
क्योंकि सबसे अलग थे मेरे पिता
मां के पेट में उन्होंने मुझे
हिंदू या मुसलमान नहीं
सिर्फ और सिर्फ इंसान बनाया है
मरेगा नहीं अभिमन्यु इस बार
युद्ध जीतेगा।
 
 
3. गांव की तरफ लौट रहे प्रवासी मजदूर
 
मेरे दरवाज़े के बाहर घना पेड़ था,
फल मीठे थे
कई परिंदे उस पर गुज़र-बसर करते थे
जाने किसकी नज़र लगी
या ज़हरीली हो गईं हवाएं
 
बिन मौसम के आया पतझड़ और अचानक
बंद खिड़कियां कर, मैं घर में दुबक गया था
बाहर देखा बदहवास से भाग रहे थे सारे पक्षी
कुछ बूढ़े थे तो कुछ उड़ना सीख रहे थे
 
छोड़ घोंसला जाने का भी दर्द बहुत होता है
फिर वे तो कल के ही जन्मे चूज़े थे
जिनकी आंखें अभी बंद थीं, चोंच खुली थी
उनको चूम चिरैया कैसे भाग रही थी
उसका क्रंदन, उसकी चीखें, उसकी आहें
कौन सुनेगा कोलाहल में
 
घर में लाइट देख परिंदों ने
शायद ये सोचा होगा
यहां ज़िंदगी रहती होगी,
इंसानों का डेरा होगा
कुछ ही क्षण में खिड़की के शीशों पर,
रोशनदानों तक पर
कई परिंदे आकर चोंचें मार रहे थे
मैंने उस मां को भी देखा, फेर लिया मुंह
मुझको अपनी, अपने बच्चों की चिंता थी
 
 
मेरे घर में कई कमरे हैं उनमें एक पूजाघर भी है
भरा हुआ फ्रिज है, खाना है, पानी है
खिड़की-दरवाज़ों पर चिड़ियों की खटखट थी
भीतर टीवी पर म्यूज़िक था, फ़िल्में थीं
 
देर हो गई, कोयल-तोते,
गौरैया सब फुर्र हो गए
देर हो गई, रंग, गीत, सुर,
राग सभी कुछ फुर्र हो गए
 
ठगा-ठगा सा देख रहा हूं आसमान को
कहां गए वो जिनसे हमने सीखा उड़ना
कहां गया एहसास मुक्ति का, ऊंचाई का
और असीमित हो जाने का
 
पेड़ देखकर सोच रहा हूं
मैंने या मेरे पुरखों ने नहीं लगाया,
फिर किसने ये पेड़ उगाया?
बीज चोंच में लाया होगा उनमें से ही कोई
जिनने बोए बीज पहाड़ों की चोटी पर
दुर्गम से दुर्गम घाटी में, रेगिस्तानों, वीरानों में
जिनके कारण जंगल फैले, बादल बरसे
चलीं हवाएं, महकी धरती
 
धुंधला होकर शीशा भी अब,
दर्पण सा लगता है
देख रहा हूं उसमें अपने बौनेपन को
और पतन को
 
भाग गए जो मुझे छोड़कर
कल लौटेंगे सभी परिंदे मुझे यक़ीं है, इंतजार है
लौटेगी वह चिड़िया भी चूज़ों से मिलने
उसे मिलेंगे धींगामुश्ती करते वे सब मेरे घर में
सभी खिड़कियां, दरवाज़े सब खुले मिलेंगे
आस-पास के घर-आंगन भी
बांह पसारे खुले मिलेंगे।

 

 

 

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कलीमुद्दीन अहमदः अँगरेज़ी के प्रोफेसर, उर्दू के सबसे बड़े आलोचक

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पटना कॉलेज, पटना में अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर कलीमुद्दीन अहमद को उर्दू के बड़े आलोचकों में गिना जाता है। उनके जीवन, उनके कार्यों पर एक शोधपरक लेख लिखा है केंद्रीय विश्वविद्यालय पंजाब में हिंदी के प्रोफ़ेसर पंकज पराशर ने। आप भी पढ़िए- मॉडरेटर

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पटना कॉलेज, पटना के अँगरेजी के प्रोफेसर और उर्दू साहित्य के सबसे बड़े आलोचक प्रो कलीमुद्दीन अहमद के बारे में जब-जब सोचा किया, तो बार-बार मेरा ध्यान बिहार की ज़मीन से जुड़े अनेक संयोगों की ओर चला गया! मसलन पटना विश्वविद्यालय के हिंदी के आचार्य नलिन विलोचन शर्मा के पिता महामहोपाध्याय राम अवतार शर्मा बड़े तेजस्वी विद्वान थे. उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय परिसर में अध्यापकों पर थोपी गई पं. मदन मोहन मालवीय के ‘ड्रेस कोड’ को मानने से साफ इनकार कर दिया था और यह कहते हुए बनारस से पटना लौटने का निर्णय कर लिया कि मेरा बिहार बहुत ग़रीब है और यहाँ से अधिक बिहार को मेरी जरूरत है. सन् 1922 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से त्याग-पत्र देकर उन्होंने पटना कॉलेज ज्वाइन कर लिया. दूसरा इत्तफ़ाक देखिये कि मैथिली के सर्वाधिक लोकप्रिय लेखक और पटना विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर रहे हरिमोहन झा के पिता जनार्दन झा ‘जनसीदन’ भी अपने समय के बड़े पंडित और लेखक थे. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवदी के वे बहुत घनिष्ठ मित्र थे. तीसरा इत्तफाक देखिये, अपने समय के बड़े विद्वान और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके प्रो अमरनाथ झा के पिता महामहोपाध्याय डॉ सर गंगानाथ झा की विद्वता के तो ख़ैर क्या कहने! इसकी अगली कड़ी में पटना कॉलेज के प्रोफेसर रहे कलीमुद्दीन अहमद (15 सितंबर, 1908-22 दिसंबर, 1983) आते हैं, जिनके बारे में जब पढ़ना शुरू किया, तो ऊपर बयान किये गये तमाम इत्तफ़ाकों ने एक दफा फिर मुझे अपनी गिरफ़्त में ले लिया! विद्वता और पांडित्य के मामले में कैसे-कैसे लोग हुए! …और एक परिवार में कोई एक ही नहीं, बल्कि पूरे खानदान में जिसे भी देखिये, सब एक पर एक! जिस पटना कॉलेज में कलीमुद्दीन अहमद लेक्चरर नियुक्त हुए थे, उसी पटना कॉलेज के वे 1952 से 1957 तक प्राचार्य रहे. इसके बाद बिहार उच्च शिक्षा विभाग के निदेशक भी रहे.

प्रोफेसर कलीमुद्दीन अहमद के पिता अज़ीमुद्दीन अहमद अँगरेजी, जर्मन, अरबी, फारसी तथा उर्दू भाषा-साहित्य के बड़े विद्वान तो थे ही, इसके अलावा वे उर्दू के शायर भी थे. अज़ीमुद्दीन साहब एक नज़्म की चंद पंक्तियाँ देखें, सबा उस से ये कह जो उस तरफ़ होकर गुज़रता हो/ क़दम ओ जाने वाले रोक मेरा हाल सुनता जा/ कभी मैं भी जवाँ था मैं भी हुस्न-ओ-इल्म रखता था/ वही मैं हूँ मुझे अब देख अगर चश्म-ए-तमाशा हो.’  सन् 1909 में वे पढ़ाई के लिए जर्मनी गए थे और बिहार के वे ऐसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने विदेश जाकर पी-एच.डी. की थी. उनकी थीसिस प्रसिद्ध Gible Memorial Series में छपी थी. लगें हाथों यह भी जान लीजिए कि जर्मनी से लौटकर जब वे पटना आए, तो संयुक्त बिहार (यानी आज के बिहार-झारखंड और उड़ीसा तीनों) के सर्वाधिक प्रतिष्ठित कॉलेजों में से एक पटना कॉलेज, पटना में फारसी के लेक्चरर के रूप में ज्वाइन किया. यह जानना और भी दिलचस्प होगा कि लेक्चरर के रूप में पटना कॉलेज ज्वाइन करने वाले अज़ीमुद्दीन अहमद पहले भारतीय शिक्षक थे. इस तथ्य को जान लेने के बाद तो मेरे मन में कलीमुद्दीन अहमद के ख़ानदान के बारे में और ज़्यादा जानने की जिज्ञासा बढ़ गई. अज़ीमुद्दीन अहमद साहब को दो बेटे थे-कलीमुद्दीन अहमद और अलीमुद्दीन अहमद. कलीमुद्दीन अहमद साहब की बेगम जोहरा अहमद शादी से पहले अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अँगरेजी विभाग में प्रोफेसर थीं. हालाँकि अलीगढ़ से ही उनकी सियासत में थोड़ी-बहुत दिलचस्पी थी, लेकिन शादी के बाद जब वे पटना गई, तो हालात कुछ ऐसे बने कि सियासत में उनकी दिलचस्पी बढ़ती गई. पटना सिटी से बेगम जोहरा अहमद ने काँग्रेस पार्टी के टिकट पर तीन बार 1952, 1957 और 1962 में चुनाव लड़कर विधायक बनीं. बेगम जोहरा अहमद के वालिद भी अँगरेजी हुकूमत में कलकत्ता शहर में बड़े हाकिम थे. कलीमुद्दीन अहमद को दो बेटियाँ थी-फरीदा कलीम और जायरा कलीम। जायरा कलीम मगध महिला कॉलेज में अँगरेजी की प्रोफेसर थीं, जो अब रिटायर हो गई हैं. यहाँ कलीमुद्दीन अहमद साहब की बेटी का ज़िक्र आया, तो बताते चलें कि सन् 1863 में पटना कॉलेज की स्थापना काल से वहाँ सिर्फ़ लड़कों की पढ़ाई चल रही थी. सन् 1925 में इस कॉलेज में पहली लड़की ने दाखिला लिया, जिसका नाम था शोभना गुप्ता. शोभना ‘बिहार हेराल्ड’ के संस्थापक अनुकूल चंद्र गुप्ता की बेटी थी. यह लड़की पढ़ने में इतनी होशियार थी कि डिस्टिंक्शन के साथ उसने बी.ए.पास किया. इस तरह संयुक्त बिहार में बी.ए. पास करने वाली वह लड़की उसी पटना कॉलेज से निकली, जिसमें कलीमुद्दीन अहमद जैसे उस्ताद पढ़ाते थे. शोभना गुप्ता का विवाह सुधांशु भट्टाचार्य नामक युवक के साथ हुआ. पटना में जो भट्टाचार्या रोड है, वह इन्हीं सुधांशु भट्टाचार्य के नाम पर है.

कलीमुद्दीन अहमद के छोटे भाई अज़ीमुद्दीन अहमद भी अरबी, फारसी और अँगेरीज के अच्छे विद्वान थे. उन्होंने भी कुछ समय तक पटना विश्वविद्यालय में पढ़ाया, लेकिन बाद में वे बिहार न्यायिक सेवा में चले गए. उनके बेटे कयामुद्दीन अहमद (09 सितंबर, 1930-27 अगस्त, 1993) भी पटना विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के नामवर प्रोफेसरों में गिने जाते थे. मध्यकालीन इतिहास के जाने-माने विद्वान डॉ इम्तियाज अहमद इन्हीं कयामुद्दीन अहमद साहब के बेटे हैं. कलीमुद्दीन अहमद के दादा अब्दुल हमीद पटना शहर के बड़े नामी हकीम और अपने ज़माने के उर्दू के मशहूर शायर माने जाते थे. उनके परदादा मौलवी अहमदुल्लाह भी काफी पढ़े-लिखे इनसान थे. उनके पूरे ख़ानदान को पटना सिटी के ख़्वाजाकलाँ मोहल्ले के बेहद इज्जतदार और कुलीन परिवारों में गिना जाता था. मौलवी अहमदुल्लाह के पिता इलाहीबख़्श भी बेहद रौशनख़याल और नामवर शख़्स थे. कलीमुद्दीन अहमद साहब के परदादा मौलवी अहमदुल्लाह साहब बहुत बड़े वतनपरस्त, वहाबी आंदोलनकारी और अँगरेजों के विरोधी थे. गदर के विद्रोह में उन्होंने खुलेआम बग़ावत की थी, नतीज़तन 18 अप्रैल, 1865 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा देकर कालापानी भेज दिया गया. उसके बाद अँगरेजी हुकूमत ने सन् 1880 में उनकी पूरी जायदाद ज़ब्त करके उसे एक लाख, इक्कीस हजार, नौ सौ, अड़तालीस रुपये, चार आना और एक पाई में बेच दिया. उनकी जायदाद बेचने के बाद मिले हुए पैसे की क़ीमत का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि सन् 1880 में एक तोला सोने की कीमत थी 20 रुपये. इस हिसाब से मौलवी अहमदुल्ला की ज़ब्त की गई जायदाद से मिले रुपये से उन दिनों पाँच हजार, आठ सौ, सतहत्तर तोला सोना खरीदा जा सकता था. आज क़ीमत के हिसाब से अगर हम पाँच हजार, आठ सौ, सतहत्तर तोला सोने की क़ीमत का अंदाज़ा लगाएँ, तो वह तकरीबन छब्बीस करोड़, इकहत्तर लाख, नौ हजार, छह सौ पचास रुपये बैठता है. अँगरेज़ी हुकूमत की कुदृष्टि के कारण एक ओर मौलवी अहमदुल्लाह को आजीवन कारावास की सज़ा देकर कालापानी भेज दिया गया, जहाँ 20 नवंबर, 1881 को उनका इंतकाल हो गया. इधर उनकी जायदाद जब्त करके बेच दी गई, सो अलग.

मौलवी अहमदुल्लाह की जब्त की गई जायदाद को बेचकर अँगरेजी हुकूमत जो पैसा वसूल हुआ, उस पैसे से पचास हजार रुपये खर्च करके पटना के मंगल तालाब की सफाई और मरम्मत का काम करवाया गया. इसके अलावा पटना सिटी नगरपालिका को 33,497 रुपये दिये गये, ताकि उस स्थान पर एक बाज़ार बनवाया जा सके, जो चौकोर रूप का हो और जिसके तीन तरफ बाजार हो और चौथे तरफ आने-जाने का रास्ता हो. तीस हजार रूपये से बेगमपुर रेलवे स्टेशन से पूर्वी रेलवे के पटना घाट तक जाने वाली सड़क बनवाई गई. इतना ही नहीं, सन् 1881-82 में अहमदुल्लाह की जब्त संपत्ति को बेचकर जुटाई गई रकम से पटना कॉलेज के भवन का विस्तार किया गया, जिसमें लकड़ी की वह सीढ़ियाँ भी शामिल थीं, जो पटना कॉलेज में आज तक मौज़ूद हैं और आज भी इस्तेमाल की जा रही हैं. पटना कॉलेज की इमारतें आज जिस ज़मीन पर खड़ी हैं, वहाँ सन् 1863 से पहले बादशाही बाग़ था और उस इलाके को पटना के गवर्नर अफजल खाँ (1608-12) के नाम पर अफ़जलपुर के नाम से जाना जाता था. अज़ीम-उस-शान औरंगजेब के पोते थे. उन्होंने ही अपने नाम पर सन् 1712 में पटना का नाम अज़ीमाबाद रखा था. उस वक्त के बिहार के गवर्नर सैयद हुसैन अली खाँ की दावत पर वे अपनी सेना के साथ बाग अफ़जल खान में आकर ठहरे थे. इसी बाग अफ़जल खान के पूर्वी छोर पर एक छोटा-सा मस्ज़िद है, जहाँ 27 मार्च, 1712 में फर्रुखसियर की पहली ताज़पोशी हुई थी. इससे यह अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है कि पटना कॉलेज के बनने से पहले ही उसके आसपास इतिहास के कितने तथ्य दफ़्न हैं और इस कॉलेज के बनने के बाद भी कितने तथ्य ऐसे बने-बिगड़े जिसे तब तक जाना नहीं जा सकता, जब तक इतिहास के धूल-धूसरित पन्नों भी साफ करके पढ़ा न जाए.

तो साहिबो, इसी अहमदुल्लाह साहब के ख़ानदान में सन् 1908 में कलीमुद्दीन अहमद पैदा हुए. जिनके बाप, दादा, परदादा सबको उर्दू शायरी से गहरी मुहब्बत थी. लिहाजा इस ख़ानदान का नाम ज़बान पर आते ही उर्दू अदब और शहर अज़ीमाबाद की पूरी तहज़ीब मेरे ऊपर हावी होने लगती है! शहर अज़ीमाबाद के रग-ओ-रेशे में तवारीख़, फलसफा और अदब इस कदर पैबस्त है कि तमाम वक़्ती और सियासी जलजले आते-जाते रहे, मगर शहर अज़ीमाबाद की तख़्लीकी और तहज़ीबी बलंदी आज भी पूरे शान-ओ-शौकत से कायम है. इसकी बलंदी आगे भी कायम रहेगी-इस बात को लोग ख़ातिर-जमा रखें. मैं पुरउम्मीद हूँ कि शहर अज़ीमाबाद की जिस ज़मीन पर उर्दू अदब के बड़े तवारीख़दां, शायर और नक्काद प्रो कलीमुद्दीन अहमद पैदा हुए, उस आबा-ए-वतन अज़ीमाबाद में ज़नाब कलाम हैदरी, क़ाजी अब्दुल वदूद, गयास अहमद गद्दी, ज़किया मशहदी, मुश्ताक अहमद नूरी, शफी मशहदी, शमोएल अहमद, शहीद जमील और शौकत हयात जैसे शोअरा, अफ़सानानिगार, नाविलनिगार, नक्काद और तवारीख़दां के तख़्लीकी कारनामों से से उर्दू अदब फ़ैज़याब हो रहा है. इसी शहर के कलीम आजिज उन अज़ीम शायरों में से एक थे, जिनकी वज़ह से पूरी अदबी दुनिया में बिहार का नाम रोशन हुआ. करीब आधी सदी तक उर्दू अदब की ख़िदमत उन्होंने की.  जिस दिलकश अंदाज़ में उन्होंने ग़ज़लें लिखीं, उसे हमेशा ज़माना याद रखेगा। कलीम आजिज की ग़ज़लें दर्द की कहानियाँ हैं, दिन एक सितम, एक सितम रात करो हो/ वो दोस्त हो, दुश्मन को भी जो मात करो हो/ मेरे ही लहू पर गुज़र औकात करो हो/ मुझसे ही अमीरों की तरह बात करो हो.

कलीमुद्दीन अहमद ने उर्दू साहित्य के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ और प्रतिष्ठित समालोचक के रूप में अपनी पहचान बनाई. अँगरेजी साहित्य के विद्वान कलीमुद्दीन अहमद ने उर्दू साहित्य को जिस पैनी दृष्टि और निर्भीकता से समीक्षा की, उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती है. उनकी समीक्षा से उर्दू अदब की दुनिया में कुछ लोगों ने नाइत्तफाकी भी ज़ाहिर की और उनको विरोध का भी सामना करना पड़ा. देश और दुनिया के कई समालोचक कलम की तलवार खींचकर उनके विरोध में खड़े हो गए, लेकिन अंत में लोगों को यह मान लेना पड़ा कि कलीमुद्दीन अहमद की आलोचना ठोस सुबूत और मजबूत दलाएल (तर्कों) की बुनियाद पर खड़ी है, जिसका आप विरोध तो कर सकते हैं, नजरअंदाज किसी तईं नहीं कर सकते. शायद इसलिए इतने तवील अरसे के बाद भी कलीमुद्दीन अहमद की समालोचना को उर्दू की दुनिया में श्रेष्ठता हासिल है. वे आज भी वह उर्दू के सबसे बड़े समालोचक माने जाते हैं, क्योंकि उर्दू आलोचना को जिस अंर्तबोध और निर्भीक तेवर से उन्होंने परिचित कराया, उस परंपरा की शुरुआत भी दरअस्ल उन्हीं से होती है. मौलाना अल्ताफ हुसैन ‘हाली’ के बाद उर्दू के जिन आलोचकों ने अपने तार्किक लेखन से उर्दू विशिष्ट स्थान प्राप्त किया, उनमें कलीमुद्दीन अहमद का नाम सब से ऊपर है. उर्दू साहित्य में अपनी शुरुआत से ही ग़ज़ल चर्चा का एक विषय बनी रही हैं. एक तरफ तो ग़ज़ल इतनी मधुर हैं कि वह लोगों के दिलों के नाज़ुक तारों को छेड़ देती हैं, तो दूसरी ओर वही ग़ज़ल कुछ लोगों में कुछ ऐसी भावनाएँ पैदा करती हैं कि जनाब कलीमुद्दीन अहमद साहब इसे ‘नंगे-शायरी’ यानी बेहूदी शायरी कहते हैं.  ‘उर्दू –शायरी पर एक नज़र’ में उन्होंने लिखा है, ‘हाँ, यदि कुछ कमी (उर्दू –शायरी) है भी तो संसार-निरीक्षण की. उनकी आँखे दिल की ओर देखती हैं, वे सदा दिली जज्बात वो भावों की सैर में निमग्न रहती हैं. यह तो नहीं कहा जा सकता कि वे संसार की बहुरंगी से नितान्त अनभिज्ञ हैं; किन्तु इतनी बात अवश्य है कि इस बहुरंगी की ओर उनका ध्यान नहीं है.’

कलीमुद्दीन अहमद की चर्चित और संपादित किताबें हैं- उर्दू शायरी पर एक नजर, उर्दू तन्कीद पर एक नजर, अमली तन्कीद, अपनी तलाश में, उर्दू जबान और फन-ए-दास्तानगोई, तहलील-ए-नफसी और अदबी तन्कीद, अदबी तन्कीद के उसूल, मेरी तन्कीद एक बाजदीद, इकबाल एक मुतालेआ, कदीम मगरिबी तन्कीद, मीर अनीस, फरहंग-ए-अदबी इस्तेलाहात-ए-उर्दू, आईडोल्स, अंग्रेजी-उर्दू जामेअ लुगत। इनके अतिरिक्त विभिन्न अदबी तजकिरों के परिशुद्ध प्रकाशन, पत्रिका मआसिर के संपादन सहित दीवान-ए-जोशिश और कुल्लियात-ए-शाद का संकलन और अन्य संपादित साहित्य. अँगरेजी में वर्ष 1953 में प्रकाशित उनकी मशहूर किताब है, ‘Psychoanalysis and literary criticism’. उर्दू अदब में अतुलनीय योगदान के लिए उन्हें सन् 1973 में गालिब अवॉर्ड, 1974 में तरक्की उर्दू बोर्ड के अंग्रेजी-उर्दू शब्दकोश के मुख्य संपादक, 1980 में एजाज-ए-मीर, जुलाई 1980 से सितंबर 1982 तक बिहार उर्दू अकादमी के उपाध्यक्ष, 1981 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया.

कलीमुद्दीन अहमद के बारे में सोचते हुए आज न जाने क्यों बार-बार पटना कॉलेज का अतीत आँखों में झिलमिलाने लगता है और वर्तमान के गर्दो-गुबार से आँखें बंद-सी हो जाती हैं!

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पंकज पराशर

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विनय कुमार की लॉकडाउन पाती

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लॉकडाउन के इस काल में हम सब कहीं न कहीं फँसे हुए हैं। ऐसे ही हाल में जाने माने मनोचिकित्सक, लेखक-कवि विनय कुमार ने काल पटना में अपने घर में अकेले ही अपने विवाह की 42 वीं वर्षगाँठ मनाई। उनको बधाई के साथ उनकी यह कायवात्मक पाती पढ़िए- मॉडरेटर

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इन दिनों घर में अकेला हूँ। बेटी मेडिकल कॉलेज में मरीज़ों की सेवा में और पत्नी न्यू जर्सी,अमेरिका मे बेटे के पास ।कल अरसे बाद उसके नाम कोई पाती लिखी। उसे भेजी तो बोली – सबको पढ़ा दो। सो, अपना या ख़त दरबार ए आम में-
 
 
पाती
 
लोगों के फ़ोन बहुत आ रहे
पूछते हैं – कैसा हूँ
यह जानकर सहानुभूति चचकारते हैं
कि में अपने घर में निपट अकेला हूँ
 
परेशान हो जाता हूँ कई बार
तो पैर बहलाते हैं
चलो छत पर
पंछी आ रहे होंगे
 
जवाब देते हैं दो हाथ
और दस उँगलियाँ
सारी की सारी इंद्रियाँ
 
आँखें कहती हैं –
मेरे पास सूर्य
और चंद्रमा दोनों की रोशनी है
 
कान कहते हैं
मेरे पास बेगम अख़्तर की आवाज़ है
लता और किशोर और जगजीत की भी
 
नासिकाएँ यक़ीन दिलाती हैं
कि उनके पास फूलों की ही नहीं
पहली बारिश में भीगती सूखी मिट्टी की साँस भी है
 
जीभ कहती है – बोलो क्या चाहिए
इतना लंबा मेन्यू है मेरे पास
पढ़ते – पढ़ते नींद आ जाएगी
और हथेली दोस्तों के नाम गिनाने लग जाती है !
 
ख़ुद को बहलाने की भी एक हद होती है
पेड़ों और फूलों और पंछियों के चेहरे याद हो गए हैं
 
मोहल्लों के कुत्तों को
उनकी आवाज़ से पहचानने लग गया हूँ
समझने लगा हूँ कि सारे कौए इसी मुहल्ले के नहीं
कुछ राजेंद्रनगर और बाइपास के पार से भी आते हैं
और वे अपनी गोष्ठियों में कोरोना के ख़िलाफ़
कविता नहीं पढ़ते
 
इस विवश एकांत से अधिक कौन जानता है
कि हज़ारों मील दूर
बच्चों को गोद में लिए एक मचान पर बैठी हो तुम
मृत्यु की ख़बरें बाढ़ के पानी की तरह बढ़ रही हैं
 
किसी मार खाए बच्चे की तरह
परदे की ओट से झाँकते हैं वे दिन
जब दूरियों की पैमाइश घंटों में होती थी
 
मील अपनी लम्बाई लिए वापस आ गए हैं
 
रोटी हम दोनों के पास है तकिए भी
लेकिन नींद
खिड़की के शीशों पर
ओस की तरह टपकती है
शीशे धुंधले हो जाते हैं और सो जाते हैं
आँखें जागती हैं
मगर शीशों के पार कुछ भी दिखाई नहीं देता
तुम्हारा डर समझाता है
खिड़कियाँ मत खोलो
मूँद लो आँखें और सोने की कोशिश करो
और तभी अशुभ आवाज़ों वाली गाड़ियाँ
पत्रहीन वृक्षों की ठूँठ नींद को चीरती गुज़र जाती हैं
 
अच्छी चीज़ें बूँद-बूँद बह रही हैं उधर
जिधर जाना मना है
 
उत्तरी अमेरिका एक महादेश है
कई महानताएँ बसती हैं वहाँ
सोने के पर्वत रखने की गगनचुंबी तिजोरियाँ
और बर्फ़ के विस्तार के नीचे सोने का नगर
वे हथियार जो सब कुछ ख़त्म कर सकते हैं
 
सबको मार सकने की ताक़त जिसके पास
तीन-चार फ़ीट गहरे गड्ढे खोद रहा है
 
गलियाँ यहाँ भी सूनी हैं
मगर बुलेवार्ड का सूनापन अंतरिक्ष जैसा लगता है
ठीक कहती हो तुम
यह झोपड़ी और महल के गिरने का फ़र्क़ है
 
जो भी ही संयम का मचान कभी नहीं गिरता प्रिये
कह देना बच्चों से
कि पुरखों की यह बात अमरदीप है
जिसकी रोशनी में
पृथ्वी के सबसे पुराने नागरिकों में से एक -भारत – ने सहस्राब्दियाँ पार की हैं
 
यहाँ का समाचार अच्छा है
हवा साफ़ है आसमान नीला
कल बारिश हुई थी
मैं बालकनी में बेंत की कुर्सी पर देर तक बैठा
लगा, रामगिरि पर बैठा हूँ
 
पंछियों का दाना-पानी बदस्तूर जारी है
कुत्तों की रोटियाँ भी
 
पड़ोसी की गायों का रंभाना अच्छा लग रहा इन दिनों
उनके लम्बे और छोटे आलाप
ऋगवेद के गायत्री छंद की याद दिलाते हैं
 
मुहल्ले का कोई समाचार नहीं मिला है
यानी ठीक ही होगा सब
अपना मुहल्ला तो पहले भी शरीफ़ों का था
अब तो सामाजिक दूरी को
क़ानून का दर्जा ही मिल गया है
 
सुरक्षा सबसे बड़ा सरोकार है
भला आदमी वह जो दो मीटर दूर से मिले
संदेह को स्वभाव में बसाने को कोशिश जारी है
 
मुल्क का क्या कहें
पहुँचती ही होंगी ख़बरें तमाम
मलाई की परत पतली हो गयी है
पराठे रोटियों में बदल गए हैं
कल की तमाम उड़ानें रद्द हैं
अचानक लगे ब्रेक के बावजूद
पहिए घूम रहे हैं
जगह-जगह जलते टायर की गंध है
 
बजती थालियों, जलते दीयों और बरसते फूलों के बीच
बहुत चूल्हे ठंडे हो गए हैं
राजाओं को कहाँ रहता ध्यान
कि पैरों और हाथों के बीच पेट भी होता है
 
जो ठीक से षडरस नहीं जान पाए
क्या जान पाते कि वाइ-रस क्या बला है
जिनके पास ताले ही नहीं
कैसे समझ पाते कि क्या होती तालाबंदी
बहकावे सिखावे और बहलावे के वोटर
क्या बूझ पाते कि ‘सर्वजन सुखाय’ बोलती
सियासत के मन में क्या है
 
बाँसों से घिरे हैं रास्ते
भूख के बाड़े में बँधे हैं करोड़ों पेट
 
मज़दूरी की शान
कारख़ानों और इमारतों की उदासी में दफ़्न हो गयी है
 
सूबों और तहसीलों की सरहदों पर
भय है भूख है भीख है
नहीं है तो भरोसा
 
नेह के नमक के लिए दौड़ रहे लाखों पैर
क़ानून की लाठियों
घृणा की ठोकरों और मौत के मोड़ों के बावजूद
 
बापू ने गमछे को मास्क बना लिया है
 
 
मन बहुत उदास है बहोत
वजह क्या बताऊँ
ग़म ए जानां और ग़म दौरां एक हो गए हैं
 
चलो चाय पीते हैं
 
मेरे हाथों में शाम की चाय है
और तुम्हारे हाथों में सुबह की
मेरी दार्जिलिंग तुम्हारी असम
मेरी फीकी तुम्हारी शीरीं
चलो आज चुस्कियाँ टकराते हैं –
और चीयर्स की किताब में नया क़ायदा जोड़ते हैं
 
और चुस्कियाँ भी वो नहीं
जो तहज़ीब की अटारी पर
बैठी चिड़िया की तरह चुपचाप बोले
खुलकर पीते हैं आज अपनी दादियों की तरह
और चाय के सुड़कने की आवाज़
उन केबल्स में बहने देते हैं
जो मृत्यु भय से सहमे महासागरों
और महादेशों के हृदय से गुज़रते हैं !
 
जब तुम कॉल करती हो तो कहता हूँ –
रुको, अभी लगाता हूँ
दरअसल मैं उन तकियों को हटाने लग जाता हूँ
जिनका बिस्तर पर होना
शब ए फ़िराक़ की शिद्दत का सबूत है
 
जब तुम कॉल करती हो तो कहता हूँ –
रुको, अभी लगाता हूँ
और मैं उन किताबों को हटाने लग जाता हूँ
जो फ़सीलों की तरह मुझे घेरे रहती हैं
क्योंकि जानती हो तुम
कि ये मेरे “पारा-पारा हुआ पैराहन ए जान “
के पेपरवेट हैं
 
इन्हें हटाकर तुझे बताना चाहता हूँ
कि मैंने आँधियों को बाएँ पैर के अँगूठे से दबा रखा है
 
पृथ्वी घूम रही है मगर हम नहीं घूम सकते
हवाओं की आवाजाही जारी है
मगर हम महदूद
क्या आवास और क्या प्रवास
पंछियों की चोंचें
एक दूसरे को नेह के दाने खिला रही हैं
और हम पाबंदी ए रोज़ा के ग़ुलाम
 
एक वाइरस मौत और मज़हब का रिश्ता तय कर रहा है!
 
१०
तुम्हारे मंदिर में हड़ताल है
रूठे हैं सारे विग्रह
एक जैसे फूलों और फलों के प्रसाद से ऊब गए हैं वे
 
सपने में आते हैं अक्सर और कहते हैं
कि यार गोंद के लड्डू और काजू कतली खाए
महीनों हो गए
 
सोचता हूँ, उज्जैन में काल भैरव का क्या हाल होगा
कैसे तैरता होगा मछली-मछली मन
सूखी हुई दूबों पे ओस के बिखराव में
 
आस्तिकता कानों में फुसफुसाती है –
शराब की दुकानें उन्हीं की मर्ज़ी से खुली हैं!
 
११
तुम जब गयी थी परदेस
आम की फुनगियाँ सूनी थीं
दिखाया था न तुम्हें कि कैसे मँजरा गयी थी
अपनी आम्रपाली
पिछवाड़े का बीजू भी पीला हो गया था
अब दोनों ही अपनी पीली आभा खो चुके हैं
और नन्हीं-मुन्नी अमियों के हरापन से भरे हैं
 
कभी-कभी कहते हैं वे कूदती गिलहरियों से –
समय तो काल है
मत देखो उसे
ऋतुएँ बाहर नहीं रगों में बहती हैं
रुको कुछ दिन, लौटेंगे फिर से मंजरियो के रंग
आर्द्रा की खीर में टपकेगा मेरा प्यार
स्वाद और सुगंध की दावत होगी ज़रूर होगी !
 
१२
कुछ ही कमरे खुले हैं घर के
बाक़ी बंद हैं
ताले सिर्फ़ सरकार के पास ही नहीं
गृहिणियों के पास भी होते हैं
और वह जब घर में नहीं हो
तो चाबियाँ दौलत हो जाती है
 
ख़ुशी होगी जानकर तुम्हें
कि मैं इन चाबियों की झंकार
पाज़ेब की तरह सुनता हूँ
और उन्हें दिल की तिजोरी में बंद रखता हूँ!
 
१३
लिखना बंद नहीं हुआ है
सच तो यही कि बहुत लिखने लगा हूँ
होड़-सी लगी है
कि सन्नाटा जीतता है या छंद
ख़ालीपन की ख़बरें जीतती हैं
या फ़सलों से भरे खेतों और
बच्चों के शोर से भरे आँगनों के गीत
सूना आसमान जीतता है
या चूमे हुए होंठ सा खिला चाँद !
 
१४
अपने मेडिकल कॉलेज में
मरीज़ों के आँसू पोंछती बेटी थोड़ी बड़ी हो गयी है
समझदार भी
 
याद है न खिचड़ी की तरफ़ देखती तक नहीं थी
अब खाती भी है और बनाती भी
 
छोटी कविताएँ लिखकर चल देनेवाली छुटकी
हज़ारों शब्द लिखकर भी नहीं ऊबती
 
हाय रे भागती हुई दुनिया
तू जो ठहर गयी है तो बच्चे
अपने भीतर लौटने लगे हैं !
 
१५
तुम जहाँ हो वह जेल नहीं घर है
हमारे टूँसे हैं वहाँ
हमारे होने का अर्थ
हमारी शाखाएँ हैं वहाँ
जिसके साये में सरहद की खाट नहीं
मनुष्यता की जाजिम है
 
पुकारना तो चाहता हूँ तुम्हें उस तकिए की तरह
जिसके गिलाफ़ कई महीनों से रजनीगंधा बालों के इंतज़ार में धुलते-धुलते फीके पड़ गए हैं
मगर जब देखता हूँ
कि गुन्नू के होठों से तुम्हारी
और तुम्हारे होंठों से गुन्नू की हँसी झर रही
तो इस जादू के आलोक में ठिठक जाता है
मेरी आवाज़ से उठता तुम्हारा नाम
जिसे उचारते-उचारते
मैं तोता से हंस में बदल गया हूँ!
 
: विनय कुमार

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युवा शायर #27 महेंद्र कुमार ‘सानी’की ग़ज़लें

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युवा शायर सीरीज में आज पेश है महेंद्र कुमार ‘सानी’ की ग़ज़लें। पढ़िए और लुत्फ़-अंदोज़ होइए – त्रिपुरारि

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ग़ज़ल-

काम कुछ भी नहीं था करने को
हम को भेजा गया है मरने को..

तुम जो सिमटे हुए से रहते हो
यानी बेताब हो बिखरने को..

आइना देखते नहीं अपना
और आ जाते हैं सँवरने को..

जिस को दरिया में मौज आने लागे
वो कहाँ चाहे पार उतरने को..

हम ने भी इश्क़ यूँ क़ुबूल किया
एक इल्ज़ाम सर पे धरने को..

न वो इज़्ने-सफ़र ही देता है
न मुझे कहता है ठहरने को

मेरी सोचों में शेर की बाबत
शक्ल सी है कोई उभरने को

ग़ज़ल-2

किसकी मौजूदगी है कमरे में
इक नयी रौशनी है कमरे में..

इस क़दर ख़ामुशी है कमरे में
एक आवाज़ सी है कमरे में..

कोई गोशा नहीं मिरी ख़ातिर
क्या मिरी ज़िन्दगी है कमरे में..

रंग दी हैं लहू से दीवारें
आ कि तेरी कमी है कमरे में..

कोई रस्ता नहीं रिहाई का
वो अजब गुम रही है कमरे में..

तू नहीं है तो तेरी यादों की
धुन्द फैली हुई है कमरे में..

देखिये, और देखिये ख़ुद को
एक खिड़की खुली है कमरे में.

एक बाहर की ज़िंदगी है मिरी
और इक ज़िन्दगी है कमरे में..

ग़ज़ल-3

नींद में इक गुफा बना रहा हूँ
ख़्वाब का रास्ता बना रहा हूँ..

ये जो कोशिश है उस से मिलने की
ख़ुद से इक राब्ता बना रहा हूँ..

मैं जो मन्ज़र में अब कहीं भी नहीं
ख़ुद को इक हाशिया बना रहा हूँ..

टूटे फूटे से अपने लफ़्ज़ों से
एक प्यारी दुआ बना रहा हूँ..

शाइरी हो रही है यूँ मुझ में
ख़ामुशी को सदा बना रहा हूँ..

लफ़्ज़ का अक्स देखने के लिये
हर्फ़ को आइना बना रहा हूँ..

तेरी उरियां तनी के सदक़े मैं
ख़ुद को तेरी क़बा बना रहा हूँ..

ध्यान में हूँ मैं एक मुद्दत से
जाने क्या सिलसिला बना रहा हूँ..

सब तो पहले से ही बना हुआ है
मैं किसे और क्या बना रहा हूँ ?

ग़ज़ल-4

अपनी सब उम्र लगा ख़ुद को कमाते हुए हम..
और लम्हों में कमाई को गँवाते हुए हम..

इक अजब नींद के आलम में गुज़रती हुई उम्र
ख़ुद को आवाज़ पे आवाज़ लगाते हुए हम…

रोकने से भी तो रुकता नहीं दरया-ए-हयात
सो इसी धारे में अब ख़ुद को बहाते हुए हम..

आदमीययत से बहुत दूर निकल आये हैं
ज़िन्दगी तेरी रवायात निभाते हुए हम..

क़ब्र और शह्र में कुछ फ़र्क़ नहीं है ‘सानी’
बस यही, रोज़ कहीं सुब्ह को जाते हुए हम..

ग़ज़ल-5

मिरा एक शख़्स से राब्ता नहीं हो रहा
मिरा ख़ुद से कोई मुकालमा नहीं हो रहा

तुझे रौशनी से जुदा करूँ किसी शाम मैं
तुझे इतनी ताब में देखना नहीं हो रहा..

तिरी शक्ल मुझ में ज़रा नमू नहीं पा रही
मिरा आइना मिरा आइना नहीं हो रहा..

बड़ी तेज़ तेज़ मैं दौड़ता हूँ तिरी तरफ़
किसी तरह कम प’ ये फ़ासिला नहीं हो रहा..

मिरे हिज्र तूने बदन किया मुझे इस तरह
मिरी रूह से तिरा हक़ अदा नहीं हो रहा..

तिरी क़ुर्बतों में गुज़र रहे हैं हमारे दिन
हमें क्यूँ मगर तिरा तज्रिबा नहीं हो रहा..

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प्रवीण कुमार झा की कहानी ‘जामा मस्जिद सिंड्रोम’

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प्रवीण कुमार झा का लेखन कई बार हैरान कर जाता है। अनेक देशों, मेडिकल के पेशे के अनुभवों को जब वे कथा के शिल्प में ढालते हैं तो ऐसी कहानी निकल कर सामने आती है। कहानी के बारे में ज़्यादा नहीं बताऊँगा। स्वयं पढ़कर देखिए- मॉडरेटर

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गिरजाघर वाली गली के मुहाने पर एक दुकान है, जहाँ ताबूत बनते हैं। ऐसे डिज़ाइनदार ताबूत कि अभी मर कर लेटने का मन कर जाए। अव्वल तो यह कि ये एक सिख परिवार चलाता है। गोरे मरते हैं, उन्हें हिंदुस्तानी पैक कर जमीन के नीचे भेजता है। उसने कहा कि पहले पौधों की नर्सरी चलाता था। उम्र होने लगी तो ताबूत का काम उठा लिया। लेकिन लोग मरें, तब तो कमाई हो। सुना है तुर्की में धंधा बढ़िया है। ताबूत भी जमीन में लिटा कर नहीं गाड़े जाते, खड़े कर गाड़े जाते हैं कि जमीन कम लगे और आदमी मर कर भी खड़ा रह सके।

मस्तान सिंह की चार बेटियाँ और एक बीवी है। पाँचों लड़कियों में उम्र का जरा-जरा सा फर्क है। जो चारों बेटियों की माँ है, वह सबसे बड़ी है। नैचुरली! सुबह की टहल में उसी से बतियाने लगा, और एक पुरानी अधूरी बात पूरी करने लगा।

“बुड्ढा कोशिश तो पूरी करता है, पर अब होता नहीं उससे”

“वियाग्रा?”

“कहता है दिल की बीमारी है। नहीं ले सकता।”

“इंप्लांट?”

“क्या होता है वह? जैसे किडनी लगाते हैं, वैसा ही? किसी और का? कौन जवान आदमी देगा?”

“नहीं नहीं। लेना-देना नहीं। एक पंप फिट करते हैं बॉडी में। फिर इरेक्शन हो जाता है। मामूली ऑपरेशन है।”

“आप ही समझाओ कभी। मैं तो घुट रही हूँ। क्या उमर ही है मेरी?”

उसकी ज़बान पंजाबी थी, मैं मन ही मन अनुवाद कर रहा था। वह मेरी बातों का अनुवाद अपने मन में कर रही होगी। डॉक्टर हूँ तो लोग सीधे मुद्दे पर आ जाते हैं। शरमाते नहीं। जामा मस्जिद के पास जब इरविन अस्पताल में था, तब भी बुरके वाली स्त्रियाँ अस्पताल आकर मुक्त हो जाती थी। एक मनोरोग विशेषज्ञ ने इस पर पेपर ही छपवा दिया— जामा मस्जिद सिंड्रोम। बड़ी किरकिरी हुई। बच गया कि फ़तवे नहीं जारी हुए। लिखा कि घरों में बंद स्त्रियाँ अस्पताल आकर खुली हवा में साँस लेती है। कहती हैं— पेट में, हाथाँ में, पैराँ में, छाती में दर्द है। जाँच करो तो कुछ नहीं। एक दफ़े मैं फँस गया।

“अपर्णा! लुक्स लाइक जामा मस्जिद सिन्ड्रोम! तू देख ले”

“फिर तो तू ही देख। शी नीड्स अ मैन!”

“मज़ाक़ नहीं कर रहा। और भी पेशेंट्स है। वह समय जाया कर रही है बस।”

“मैं भी मज़ाक़ नहीं कर रही।”

क्या जामा मस्जिद, क्या यूरोप, क्या दक्षिण अमेरिका। जिधर देखो, बंद कमरे नजर आते हैं। गुरप्रीत ऐसे ही एक बंद कमरे में रहती है। वह खेम करण के एक बंद कमरे से नॉर्वे के एक बंद कमरे में शिफ़्ट हुई है। साल भर पहले। हट्टी-कट्टी माँसल काया, काले घने बाल, फूले ही गाल, गालों पर भर-भर कर मुहाँसे। जब भी शहर की पगडंडियों पर अपनी चोटी हिलाते, अपनी मस्तमौला चाल में चलती नजर आती है, न जाने क्यों लगता है कि अपने पति को खेतों में रोटी पहुँचाने जा रही हो। अंग्रेज़ी में ‘नेक्स्ट डोर गर्ल’ भी कहला सकती थी। पड़ोस की लड़की। गुरप्रीत पड़ोस के खेत की लड़की सी थी। नेक्स्ट फार्म गर्ल। यह बात उस दिन पक्की हो गयी जब उसे गिरजाघर के सामने चिलचिलाती धूप में बेतरतीब मर्दाना अंदाज़ में जाँघ खुजाते देखा।

“नाम सुना है खेम करण का?” उसने पूछा

“हाँ! हाँ! 1965 में अयूब ख़ान की पैटन टैंकों को वहीं उड़ाया था”

“अब ये कौन नया ख़ान आ गया?”

“पाकिस्तान के राष्ट्रपति थे। जनरल अयूब ख़ान।”

“अच्छा? होगा कोई। सुना तो हमने भी है कि ज़ंग जीती थी। पर ज्यादा नहीं मालूम।”

“तुम वहीं से हो?”

“पास के गाँव से ही। मैं तो शादी कर खेम करण आयी थी।”

“अच्छा। तुम्हारा पति खेम करण से है?”

“यह बुड्ढा नहीं। इसके पहले वाला।”

“वह भी बुड्ढा था?”

“ना ना! वह तो जवान था। हमने बड़ी मस्ती करी है। वह तो रात-रात भर सोने न दे।”

“फिर यहाँ?”

“उसे ड्रग्स की लत लग गयी। पूरे पिण्ड को ही लगी है। तीस-पैंतीस साल के जवान दो मिनट में खत्म। इरेक्शन भी नहीं होता। खा जाती है चिट्टा।”

“चिट्टा?”

“कमाल का नशा है। आपने नहीं ली?”

“तुमने ली है?”

“शादी की रात इंजेक्शन ठोक दी थी साले ने। बहोत मजा आया। फ़िल्मों में दूध-बादाम दिखाते हैं, एक बार चिट्टा लगवाओ। फिर देखो। आदमी जानवर न बन जाए तो!”

“हा हा हा! यह तो सोच के ही आदमी पागल हो जाए। नयी-नवेली दुल्हन। हाथों में मेंहदी। कलाई में चूड़ियाँ। और लगा रही है हीरोइन का इंजेक्शन!”

“क्यों? पान-सुपारी खिलाते हो? तो इसके भी मजे लो।”

“तुमने कहा, इरेक्शन ही नहीं होता।”

“आप तो सब जानते हो। दुनिया बदल जाती है। ये प्रॉब्लम तो बाद में आती है। हाथ कट गए छोरों के। नीले पड़ कर खत्म हो गए।”

“पाकिस्तान से आता है चिट्टा?”

“काबुल में उगता है। पाकिस्तान से पाइप में डाल कर भेज देते हैं। करोड़ों का खेल है।”

“तुम्हारे पास इतने पैसे थे?”

“पैसे तो सब खत्म हो गए। पता नहीं, कहाँ से लाता था। असली हीरोइन नहीं, सिंथेटिक मारता था साला। कुछ मिक्स करके।”

“और तुमने वह इंजेक्शन ले लिया?”

“शादी की रात तो जो मर्जी डाल दो। उसने कहा, मैंने ले ली। आप औरत होते तो आप भी यही करते।”

शायद ले ही लेता। अगर मैं औरत होता तो? जब गाँव का गाँव अपनी बाँहों में चिट्टा ठोक रहा हो, शादी की रात तो बनता है। यूँ भी उस रात की सुबह तो होती नहीं। दो अजनबी साथ लेटे हों, तो उनकी केमिस्ट्री बिना नशे के कहाँ मुमकिन है? नशे में अजनबियों की केमिस्ट्री ही जुदा होती है। ख़ास कर नशा जब मतिभ्रम उत्पन्न करता हो। जब हम गुलाबी रंग सुनने लगते हैं, उसकी आहों को देखने लगते हैं। नशे की मायावी दुनिया में यह सैर बिना किसी स्पीड-ब्रेकर के मुमकिन है। कोई पर्फॉर्मेंस का दबाव नहीं।

“और एक दिन तुमने उसे छोड़ दिया?”

“नशेड़ी के साथ कब तक रहती? यहाँ डील हो गयी।”

“कैसी डील?”

“बुड्ढा मेरी फ़ैमिली संभालेगा, मैं उसकी।”

“मतलब?”

“मेरे माँ-बाप, भाई-बहन की ज़िम्मेदारी। उनको पैसे भेजना। और क्या?”

“और बदले में तुम क्या करोगी?”

“घर की सफाई। खाना बनाना। और रात को बिस्तर गरम करना। जो बीवियाँ करती हैं।”

“यहाँ नहीं करती। यह नॉर्वे है।”

“सभी बुड्ढे करते तो हैं यहाँ। कोई थाइलैंड, कोई फ़िलीपींस से लेकर आता है। मैं पंजाब से आ गयी।”

“तुम्हारा क्या प्लान है?”

“मालूम नहीं। कहता है, बच्चा देगा।”

“कैसे?”

“डॉक्टर उसका कुछ निकाल कर मेरे अंदर डाल देंगे।”

“ओके। हाँ। मुमकिन है।”

“मुझे तो लगा कि कोई नौजवान लाकर देगा। बच्चा पैदा करने के लिए।”

“लेकिन, वह उसका बच्चा तो तो नहीं होगा। उस नौजवान का होगा।”

“हरामी है वह।”

“अजीब तो है, लेकिन तुमने चुना है। पैसे लूटो और ऐश करो।”

“एक पैसा मेरे हाथ में नहीं देता बुड्ढा। बेटियाँ ऐश करती है।”

“तुम भी तो काम करती हो। दुकान में बैठे देखा है।”

“थोड़ी-बहुत। उससे कुछ नहीं होता। वह तो एक कपड़ा खरीद कर नहीं देता। अपने बेटियों के पुराने कपड़े पहनाता है।”

“सरकार से शिकायत कर दो”

“और सरकार मुझे उससे मुक्त कर वापस भारत भेज दे? फिर यह डील ही क्यों की?”

यह बूढ़ों का देश है। जिधर देखो, उधर जवान-जवान बूढ़े। अमीर देशों में आदमी की उमर तो बढ़ ही जाती है। नब्बे साल का बूढ़ा अपने लिंग में इम्प्लांट लगाए घूम रहा है, और बीस-बाइस बरस की पत्नी ला रहा है। जैसे वह कोई जापानी खिलौना हो। उसने यूँ बटन दबाया, और जवान हो गया। ‘क्लैप-स्विच’ देखा है? ताली बजाने से बल्ब जल पड़ता है। हर घर के लॉन में युगल जोड़ियाँ नग्न सन-बाथ ले रही है। उनके मध्य यही कोई चालीस-पचास बरस उम्र का फासला है। धनवर्षा हो रही है और विज्ञान अपने स्वांग रच रहा है।

“चिट्टा आखिर पंजाब में आता कैसे है?”

“जैसे मैं आयी। पाइप में बैठ कर।”

“तुम पाइप में बैठ कर आयी?”

“हवाई जहाज भी तो पाइप ही है। उतरने वाले को भी नहीं पता कि वह कहाँ उतरने वाला है।”

“एक अंधेरी दुनिया से दूसरी अंधेरी दुनिया”

“और वह भी अंधेरे में”

“सच बताऊँ तो बुड्ढे के साथ खुश भी हूँ। पैसे बहुत हैं। आज नहीं तो कल, मिल ही जाएँगे।”

“वक्त भी तो है। जवान तो कोल्हू के बैल बने पड़े हैं।”

“वक्त ही वक्त है। एक दिन देखना इस दुनिया में ऐसी ही शादियाँ होगी। सुंदर-सुंदर युवतियाँ घर संभाल रही होगी।”

“और नौजवान क्या करेंगे?”

“मालूम नहीं।”

“शायद वही करेंगे। किसी बूढ़ी महिला से शादी। करते ही हैं।”

“जब बुड्ढा मेरे ऊपर होता है, मेरी तो हँसी छूट जाती है। अब तो मैं भी दो पैग मार कर लेटती हूँ।”

गुरप्रीत की बात जैसे सौ साल पीछे ले गयी। एक ‘ब्लैक ऐन्ड वाइट’ तस्वीर देख रहा हूँ। श्यामल युवतियाँ हाथों में बड़े-बड़े कड़े पहने घर के बाहर खड़ी हैं। ऊँगलियों में गांजे की चुरट फँसी है। पति उसके पिता की उम्र का है, लेकिन वे खिलखिला रही हैं। यह पहेली मुझसे सुलझ नहीं रही था। आज जाकर सुलझी। उन युवतियों की कामोत्तेजना के समक्ष एक निर्बल पौरुष सिकुड़ा पड़ा है। यह उसी विसंगति का अट्टहास है। जैसे उसकी आँखों के सामने एक मरा हुआ पुरुष खड़ा है।

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समयोत्तर स्मृतियों की यात्रा-डायरी: प्रदीपिका सारस्वत

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युवा लेखिका प्रदीपिका सारस्वत की यह यात्रा डायरी प्रस्तुत है-

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उस पगडंडीनुमा सड़क पर चलते-चलते मैं अचानक नदी की तलहटी की ओर उतर गई थी. उतनी उत्साही नदी मैंने पहले नहीं देखी थी. दो दिन से मैं उसके साथ-साथ चल रही थी. जहाँ से देखती लगता कि पानी उसमें बह नहीं रहा है, उबल रहा है. नीचे ज़मीन शायद बहुत पथरीली थी और वेग बहुत ज़्यादा. और उसकी आवाज़, मैं किसी जादू में गिरफ्तार उसे देखती रहना चाहती, सुनती रहना चाहती. पर मुझे आगे बढ़ना पड़ता. गंतव्य लेकर निकलने का यही नुक़सान होता है. पूरी यात्रा में गंतव्य ही आपको संचालित करता है, किसी कंप्यूटर के लिए बनाए प्रोग्राम की तरह. लेकिन उस समय मौक़ा मिलते ही मैं उस प्रोग्राम से नज़र बचाकर नदी के पास गई थी.

शायद इसलिए भी ऐसा कर सकी कि नदी ने कुछ गुंजाइश छोड़ दी थी ऐसा होने देने की. वरना अब तक तो वह किनारों को पकड़कर बहती रही थी. कोई रास्ता ही न था उसके करीब जा सकने का. लेकिन इस अनोखी यात्रा के दूसरे दिन, ताक्सिंग पहुँचने से करीब चार घंटे पहले यह मोड़ मिला था जहाँ नदी ने किनारे को छोड़ दिया था और मैं छूटे हुए किनारे से नए किनारे के बीच उतर कर उसके समीप जा सकती थी. मैं यह सोचने लगी थी कि मेरे उसके समीप जाने की इच्छा ने ही उसे किनारा छोड़ कर मेरे लिए जगह बनाने की प्रेरणा दी होगी.

मैं उस वक्त तुम्हारे छूटे हुए किनारे और नए किनारे के बीच कहीं तुम्हारे समीप जाने की यात्रा में थी. न-न, वह यात्रा तब शुरू ही हुई थी और दो वर्षों के अंतराल के बाद अब भी अनवरत चलती जा रही है. तब नदी के उन किनारों के बीच उसके नज़दीक जाना मुझे तुम्हारे करीब जाने जैसा लगा था. मैं वहीं एक पत्थर पर बैठ गई थी, यह सोचते हुए कि तुम कभी तो इस मोड़ से गुज़रे ही होगे, कभी तो इस नदी की पीठ को तुमने अपनी उँगलियों से सहलाया होगा. तब मैंने यह नहीं सोचा था कि तुमने उस समय नदी को कैसे देखा होगा. यह भी नहीं कि तब तुमने मेरे बारे में क्या सोचा होगा. हाँ, तब हम दोनों एक-दूसरे से नहीं मिले थे. पर तब भी, क्या भविष्य की स्मृतियाँ हममें नहीं होतीं? जिस तरह भूत की स्मृतियाँ भविष्य के अंकुर लिए होती हैं उसी तरह इन भविष्य की स्मृतियों में बीते हुए की गंध होती है.नदी उस समय मुझे एक नन्हीं पहाड़ी बच्ची जैसी लगी थी.

पिता के जाने और माँ के आने के बीच के समय में खेलती हुई. हमारी बच्ची, जिसका नाम हम सुबंसिरी रख सकते थे. यही बात वहाँ बैठे हुए मैंने तुम्हें लिख भेजी थी. यह जानते हुए भी कि जबतक अगले कुछ दिनों में मैं वापस लौटकर कम से कम दपोरिजो नहीं पहुँच जाउंगी यह संदेश तुम तक नहीं पहुँचेगा. और उसके बाद भी तुम तक इस संदेश का पहुँचना तुम्हारी स्थिति पर निर्भर करता. हम दोनों के ही मानव चिन्हित दूर-संचार की परिधि से बाहर होने के बावजूद मैंने महसूस किया था कि तुम वहीं कहीं हो. मुझसे बाहर नहीं, मेरे भीतर ही. मानव जितना विज्ञान जानता है, उससे कहीं अधिक विज्ञान वह अनुभव कर सकता है. अनुभव के नियम होने का रास्ता बहुत से शोध और प्रयोगों से होकर जाता है. ये सारे प्रयोग और शोध उस एक के अनुभव को सार्वभौमिक अनुभव बना सकते हैं. तुम मेरे व्यक्तिगत अनुभव हो, इसे सार्वभौमिक बनाने की आवश्यकता ही कहाँ है. इसलिए मैं पूरी वैज्ञानिकता के साथ तुम्हें अनुभव करती हूँ.

मैं तुम्हें बाहर नहीं देख सकती थी, बिलकुल उसी तरह जैसे मैं खुद को अपने बाहर नहीं देख सकती. जब मैं यह सोच रही थी तब आसमान पर हलके बादल घिर आए थे, और उस पगडंडीनुमा सड़क से गुज़रती एक बूढ़ी औरत ने अपनी तागीन ज़ुबान में मुझसे कहा था कि मैं वहाँ नदी के पास न बैठूँ. मुझे लगा था कि वो एक विदेशी लड़की को अपनी नदी से दूर रखना चाहती थी, जैसे किसी बाहरी आदमी को हम अपने बच्चे से दूर रखना चाहते हैं. मुझे ऐसा बिलकुल नहीं लगा था कि नदी मेरे लिए ख़तरा भी हो सकती थी, कि उसमें पानी कभी भी बढ़ सकता था और इसीलिए वो बूढ़ी तागीन औरत मुझे वहाँ से चले आने को कह रही थी.

मैं अपने भीतर चल रहे घटनाक्रम के लिए इतनी समर्पित हो जाती हूँ कि बाहर का सबकुछ मुझे उसी के सापेक्ष दीखता है. भीतर और बाहर के ये कल्चरल डिफरेंसेज कई बार इतने अधिक गहरे हो जाते हैं कि बाहर जो देखती हूँ भीतर उसका अर्थ मैं बहुत विपरीत लगा बैठती हूँ. और जब इसका आभास होता है तो मैं उलझन में पड़ जाती हूँ कि वास्तविकता आखिर है क्या, वह जो भीतर है या फिर वह जो बाहर है, या फिर दोनों में से कुछ भी वास्तविक नहीं है. या कि शायद वास्तविकता भी एक सापेक्षिक बिंब है.

जैसे तुम. तुम मेरे भीतर बहुत हो. पर बाहर दूर-दूर तक कहीं नहीं. उतने भी नहीं कि कोई बूढ़ी स्त्री आकर मुझसे कह सके कि मैं तुमसे दूर हो जाऊँ. उस समय उस वृद्धा के बुलाने के बाद मैं नदी से दूर हटकर वापस फिर रास्ते पर आ गई थी. आगे का रास्ता थोड़ा बेहतर था, इतना कि सेना की गाड़ियाँ उसपर चल सकें. तुम जब वहाँ थे तब यह रास्ता नहीं बना था. लेकिन तब भी उस रास्ते पर मैं तुम्हारे पदचिन्हों के साथ चल रही थी. उसी तरह जैसे नदी के पास से उठकर चले आते वक्त मैं नदी को अपने साथ ले कर चल पड़ी थी. हम तीनों एक साथ थे, एक आदर्श परिवार की तरह. मैं यदि बिंब खींचूँ तो ताक्सिंग की ओर जाती, हरी टीशर्ट, नीले ट्रैवल पैंट्स पहने और ज़ैतूनी रंग का बस्ता पीठ पर उठाए किसी लड़की का बिंब नहीं खींच सकुँगी. क्योंकि मैं अपने आपको बाहर से नहीं देख रही थी. मैं उसी सुखी परिवार का बिंब खींचूँगी जिसे मैं देख पा रही थी, अब भी देख रही हूँ. ऊँची, बलिष्ठ देहयष्टि वाला एक पुरुष है, जिसने तुम्हारे जैसे कपड़े पहने हैं. वैसे, जैसे तुम दफ्तर जाते समय पहनते हो. हलकी पीली धारियों वाली ऑफ व्हाइट शर्ट, काले ट्राउज़सर्स, काले चमकते जूते, तुम पर खूब फबते हैं. महिला ने लाल धोती पहनी है, हलकी पीली बुँदकियों वाली, पाँवों में चमड़े की बंद चप्पलें हैं और उस नन्हीं शरारती बच्ची ने वैसी ही लाल फ्रॉक और चप्पलें पहनी हैं, अपनी माँ जैसी. उसके सिर पर छोटी सी चोटी में पीला रिबन है.

मैं उन तीनों को अपने सामने चलते हुए देखती हूँ, सिर्फ उनका पार्श्व. मैं उनके चेहरे नहीं देख सकती. वे चलते रहते हैं. मैं रुक जाती हूँ, तब भी वे चलते रहते हैं, हमेशा मेरी दृष्टि की परिधि में. यह दृश्य मेरी कल्पना हो सकता है, यह मेरी इच्छा का प्रतिबिंबन भी हो सकता है. यह भी हो सकता है कि यह दृश्य भविष्य की कोई स्मृति हो. मेरे बाहर तुम्हारे कहीं भी होने के उन सभी वास्तविक प्रमाणों, जिन्हें एक वृद्ध स्त्री देख सकती है, के न रहने के बाद भी इस दृश्य को देखते हुए मुझमें किसी तरह की कोई आकुलता नहीं होती. यह उतना ही सहज-ग्राह्य है जितना मेरी लिखने की मेज़ के सामने की खिड़की के बाहर दिखती हरियाली और दूर क्षितिज पर धूमिल होती पहाड़ी की छाया जैसी आकृति. मैं सोच रही हूँ कि छाया जैसी आकृति को छायाकृति कहा जा सकेगा कि नहीं. मैं कहती हूँ कि यह सपना नहीं हो सकता, यह इच्छा भी नहीं हो सकती. क्योंकि सपने में या फिर इच्छाओं से घिरे होने पर मैं अपने आप को व्याकुल पाती हूँ.

तुम्हारे और उस शिशु-नदी के मेरे समीप होने की यह सहज-ग्राह्यता मेरी अनेक व्याकुलताओं का समाधान है. व्याकुलताएं भीतर उठती हैं तो उनका समाधान भी भीतर ही हो सकता है. वह पुरुष, स्त्री और उन दोनों का हाथ पकड़े झूलती हुई सी चलती वह बच्ची ताक्सिंग की ओर बढ़ रहे हैं. रास्ते के दोनों ओर झाड़ियों पर स्ट्रॉबेरी की शक्ल का लाल फल उगा है. रुक कर वे तीनों उन नन्हें फलों को चुनने लगते हैं, एक दूसरे को खिलाते हैं, आगे बढ़ जाते हैं. मैं उन्हें देख सकती हूँ, पर मैं चल नहीं रही हूँ. नदी के पास जाने के बाद, उस वृद्धा की चेतावनी को सुनने के बाद, इस आदर्श परिवार को देखने के बाद मैं अब नहीं जान पा रही हूँ कि मैं कहाँ हूँ. मैं हूँ, पर नहीं हूँ. मेरे पाँव ज़मीन की स्थिरता अनुभव नहीं करते, न ही वे हवा की गतिशीलता का ही कोई भान पाते हैं. मेरी दृष्टि इन तीनों के पार्श्व को ही देख पाती है, और उसे, जिसे ये तीनों देख रहे हैं.

मेरे ताक्सिंग जाने की कथा अब इन तीनों के ताक्सिंग जाने की कथा में परिवर्तित हो गई है. ऐसा कहाँ होता है? कहीं तो होता है, क्योंकि मैं ऐसा होते हुए अनुभव कर रही हूँ. एक लेखक लिखते हुए शायद ऐसा ही अनुभव करता है. उसकी अपनी यात्रा एक स्थान के बाद उसके पात्रों की यात्रा में बदल जाती है. आह! ताक्सिंग की उस यात्रा से लौटकर मैं उस परिवार को अपने साथ ले आई. जबकि उस समय मैं नहीं जानती थी कि मेरे लौटने के बाद तुम एक लंबी अनिश्चित यात्रा पर चले जाओगे. ऐसी यात्रा पर, जहाँ तुमसे संपर्क करने के लिए मुझे पूरी तरह अपने निजी वैज्ञानिक दूर-संचार पर निर्भर रहना होगा. उस परिवार को साथ ले आने के पीछे भी शायद वही भविष्य की किसी स्मृति की प्रेरणा होगी. कि तुम्हारी इस अनुपस्थित उपस्थिति में, मैं व्याकुल न रहूँ. पर यह स्मृति आती-जाती रहती है. स्मृति यदि सदा ही साथ रहने लगे तो वह स्मृति न रहे.

पिछले दिनों जब मैं वास्तविक-अवास्तविक के भ्रमजाल से बाहर निकलने का प्रयत्न कर रही थी, तब यही स्मृति एक बार फिर उस बच्ची को मेरे पास लेकर आई. उसी तरह जैसे बीमार से मिलने कोई आता है. तब से मैं अब स्वस्थ हो रही हूँ. वास्तविक से अवास्तविक को दूर करने की मेरी व्याकुलता अब शांत पड़ गई है. खाली समय में मैं अब इस पथरीले विस्तार में बच्ची को खेलते देखने लगी हूँ, पिता के जाने और माँ के आने के बीच के समय के उसके बेफिक्र खेल. इसे देखने के लिए तो ईश्वर को भी पृथ्वी पर आना पड़ता है. फिर तुम तो यहीं हो

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