Quantcast
Channel: जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.
Viewing all 1522 articles
Browse latest View live

उसके जाने से यथार्थ का जादू कुछ कम हो गया!

$
0
0

आज मार्केज़ की पुण्यतिथि है। जब उनका निधन हुआ था तो हिंदी के वरिष्ठ लेखक-कवि-पत्रकार प्रियदर्शन ने उनके साहित्य का मूल्यांकन करते हुए यह लेख लिखा था। आज याद आया तो साझा कर रहा हूँ। मौक़ा मिले तो पढ़िएगा। बहुत से सूत्र मिलेंगे- मॉडरेटर

===============

एक लड़की थी- फ्राउड फ्रेरा। शायद यह उसका असली नाम नहीं था, लेकिन इसी नाम से वह पहचानी जाती थी। वह सपने देखती थी और उनकी व्याख्या करती थी। इसी के सहारे उसने अपना पूरा जीवन गुज़ारा। परिवार उसकी भविष्यवाणियों के हिसाब से अपने दिन का कामकाज तय करते, लोग उसकी चेतावनी पर मुल्क छोड़ कर चले जाते। एक दिन वह चिली के कवि पाब्लो नेरुदा से मिली। नेरुदा ने कहा कि उन्हें सपनों पर नहीं, कविता पर भरोसा है। लेकिन उसी दिन नेरुदा ने सपना देखा कि वह लड़की उनके बारे में सपना देख रही है। उस लड़की ने भी सपना देखा कि नेरुदा उसके बारे में सपना देख रहे हैं।

जब पाब्लो नेरुदा लेखक को बताते हैं कि उन्होंने यह सपना देखा है तो लेखक कहता है कि यह तो बोर्ख़ेज़ की कहानी है.। नेरुदा निराश होते हैं- क्या बोर्ख़ेज़ ने वाकई ऐसा लिखा है? लेखक कहता है, लिखा नहीं है तो लिख देगा। बरसों बाद एक दिन एक समुद्री तूफ़ान की चपेट में आकर वह लड़की मारी जाती है। एक कार की ड्राइविंग सीट पर बुरी तरह कटा-छंटा उसका शव मिलता है और पन्ना जड़ी एक सांप जैसी अंगूठी मिलती है जिसके ज़रिए लेखक उसकी पहचान सुनिश्चित कर पाता है।

यह गैब्रियल गार्सिया मार्केज़  की कहानी है-  ‘आई सेल माई ड्रीम्स’। यह कहानी उस जादू का कुछ सुराग देती है जिसका नाम मार्केज़  है। उनकी एक ही कहानी में न जाने कितने बरस और मुल्क चले आते हैं, कई पहचानें चली आती हैं, उदासी-अकेलापन, अंदेशे और उल्लास चले आते हैं, पाब्लो नेरुदा और बोर्खेज़ चले आते हैं और एक ऐसा वृत्तांत चला आता है जिस पर यह दुनिया भरोसा न करते हुए भी भरोसा करने लगती है। फिर इस वृत्तांत में इतनी सघनता और गहराई होती है कि हम उसमें डूबते चले जाते  हैं। ऐसा लगता है कि मार्केज़  हमारे भीतर का सपना देख रहे हैं और हम मार्केज़ के भीतर का सपना देख रहे हैं।

मार्केज़  का ज़िक्र अक्सर जादुई यथार्थवाद के संदर्भ में होता है जिसकी आसान व्याख्या यह कर दी जाती है कि मार्केज़  पुराने मिथकों और निजी फंतासियों को आधुनिक कथा-दृष्टि से जोड़ देते हैं और अंततः जो प्रस्तुत करते हैं, वह यथार्थ है। शायद कथा लेखन को यथार्थवाद के चौखटे में कस कर देखने का अभ्यास हमारे भीतर इतना गहरा हो गया है या फिर उसकी अपरिहार्यता पर हमारा विश्वास ऐसा अटूट हो गया है कि हम अपने एक बड़े लेखक को अयथार्थवादी मान कर चलने में संकोच करते हैं।

हालांकि यह लिखने का मतलब यह नहीं है कि मार्केज़  अयथार्थवादी थे- बस इतना है कि उनपर यथार्थवाद का- चाहे वह जादुई हो या न हो- ठप्पा लगाना ज़रूरी नहीं है। जादुई यथार्थवाद के चश्मे से अगर उन्हें देखना हो तो समझने की ज़रूरत है कि वह जादू क्या है जो मार्केज़  बुनते हैं- निश्चय ही वह सिर्फ फंतासियों का जादू नहीं है। फंतासियां या बहुत कल्पनाशील ब्योरे साहित्य में हमेशा से रहे हैं। स्पैनिश की ही परंपरा में सर्वेंटिस और बोर्खेज़ जैसे लेखक रहे हैं जिनके रचना संसार में फंतासी और कल्पनाशीलता की, मिथकों और लोककथाओं की केंद्रीय उपस्थिति रही है। इसमें संदेह नहीं कि मार्केज़  इस परंपरा से परिचित भी हैं और इसके प्रति सचेत भी- बल्कि वे पूरे लेखन में ही परंपरा का मोल समझते हैं। उनका यह कथन प्रसिद्ध है कि 10,000 साल के लेखन की परंपरा के कम से कम धुंधले परिचय के बिना उपन्यास लिखने की कल्पना नहीं की जा सकती। हालांकि यह बात कहते हुए उन्होंने तत्काल जोड़ा था, ‘मैं जिन लेखकों को पसंद करता हूं, मैंने कभी उनका अनुकरण करने की कोशिश नहीं की, उल्टे यह कोशिश की कि उनका अनुकरण न करूं।

तो सवाल है, मार्केज़  वह क्या करते हैं कि उनके छूते ही जादू और यथार्थ की, मिथक और फंतासी की, किंवदंतियों और लोक स्मृति की वे कथाएं जैसे जीवित हो उठती हैं, आंख मलने लगती हैं और अचानक हमें कुछ ऐसा दे जाती हैं जो 10,000 साल की परंपरा के बाद भी नया, अनूठा और जादुई लगता है?  वह कौन सा जादू है जिसे हम जादुई यथार्थवाद कहते हैं?

 मार्केज़ इस जादू को कई स्तरों पर संभव करते हैं। उनके कथात्मक ब्योरों में इतनी सघनता होती है, एक-एक वाक्य में इतनी अनुगूंजें होती हैं कि बेहद सामान्य दृश्य भी बिल्कुल नए अर्थों के साथ खुलने लगते हैं। उनके यहां जो संवेदनात्मक तीव्रता है, जैसे वह एक धारदार चाकू है जिससे किसी यथार्थ या अनुभव की परत दर परत चीरते हुए वे बता पाते हैं कि ख़ून यहां से बहता है, नसें यहां से फूटती हैं, दर्द ठीक यहां पर होता है। उनकी एक कहानी में एक अपदस्थ राष्ट्रपति के दर्द की थाह लेता डॉक्टर ठीक उस रग पर हाथ रख देता है जहां से निकल कर वह दर्द दूसरे हिस्सों में पहुंच रहा है, और इसके बाद वह अपने ललाट की तरफ इशारा करता हुआ बताता है, ‘हालांकि, निहायत ठेठ अर्थों में, राष्ट्रपति महोदय, सारा दर्द यहां होता है।‘

इस सघनता से, जो तीव्रता, जो स्पंदन मार्केज़  पैदा करते हैं, वह दूसरे लेखकों में दुर्लभ है। इस सघनता के अक्सर दो प्रभाव होते हैं। हर वाक्य आपको अपने साथ बांधता है और रोकता है। हर वाक्य पर ठिठक कर आप सोचते हैं। आपको तत्काल यह एहसास होता है कि आप एक बड़े लेखक के सान्निध्य में हैं। हालांकि इस तथ्य के बावजूद कि ‘हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलिट्यूड’ की दुनिया की कई भाषाओं में करोड़ों प्रतियां बिकीं और मार्केज़ की दूसरी कृतियों को भी पाठकों का व्यापक संसार मिला, मार्केज़  वैसे आसान लेखक नहीं हैं जैसे कई दूसरे लेखक रहे हैं। टॉल्स्टॉय, मार्क ट्वेन, चार्ल्स डिकेंस, ग्राहम ग्रीन या मिलान कुंदेरा या कई और लेखक पाठकों तक बड़ी सरलता से पहुंचते हैं। वर्जीनिया वुल्फ या जेम्स ज्वायस जैसे स्ट्रीम ऑफ कांशसनेस वाले लेखकों के काव्यात्मक ब्योरे भी बहुत सारे पाठकों को स्पंदित करते हैं, लेकिन मार्केज़  इन सबके अलग हैं। उनमें जैसे एक साथ सब समाहित हैं। वे बाहरी यथार्थ जगत की परिक्रमा करें या आंतरिक मनोजगत की- उनकी सतत सक्रिय सूक्ष्म आंख बिल्कुल एक-एक चीज़ का मुआयना करती है और पाठकों के सामने उसी तरह रख देती है।

लेकिन यही चीज़ मार्केज़  को दुरूह और जटिल भी बनाती है। गहरे संकेतों और अनुगूंजों से भरी उनकी कथा-प्रविधि पाठकों को लगातार जैसे एक अतिरिक्त तनाव से भरती है, उनसे सजग रहने की मांग करती है। पाठक जैसे अनुभवों के एक उलझे हुए जंगल से गुज़रता है- ध्यान भटका कि रास्ता खो गया, रचना खो गई। उनके लोकवृत्तांत भी कई बार पहेली जान पड़ते हैं। जितने लोग मार्केज़  को पढ़ना शुरू करते हैं, उससे कहीं ज़्यादा लोग अधूरा छोड़ देते हैं। यह शायद सब लेखकों के साथ होता है, लेकिन मार्केज़  के संदर्भ में दिलचस्प यह है कि कई बार उन्हें पूरा पढ़कर भी अतृप्ति बनी रह जाती है तो कई बार अधूरा पढ़कर भी एक तरह की तृप्ति का अनुभव होता है- या कम से कम एक बहुमूल्य प्राप्ति का।

इस सघनता को मार्केज़  अपनी बेहद सुचिंतित शब्द योजना से भी संभव करते हैं। ‘स्ट्रेंज पिल्ग्रिम्स’  की भूमिका में वे लिखते हैं, ‘एक उपन्यास शुरू करने में जितनी तीव्र कोशिश शामिल होती है, उतनी ही एक कहानी लिखने में भी, जहां सब कुछ पहले ही पैराग्राफ में स्पष्ट हो जाना चाहिएः प्रारूप, लहजा, शैली, लय, लंबाई, और कभी-कभी तो किसी किरदार की शख्सियत भी। इसके बाद जो है, वह लिखने का उल्लास है- सर्वाधिक अंतरंग और एकांतिक उल्लास…’।

उल्लास वह दूसरा तत्व है जो मार्केज़  के जादू को कुछ और गाढ़ा करता है। यह उल्लास उनकी कहानियों या उपन्यासों में आने वाली स्थितियों का हिस्सा नहीं होता, बल्कि उनके पूरे लेखन की बुनावट के बीच से फूटता रहता है। इस उल्लास के स्रोत कहां हैं? इस सवाल पर ठीक से विचार करें तो पाते हैं कि मार्केज़  का लेखन मनुष्य के जीवट की न ख़त्म होने वाली कहानी जैसा है। ‘हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलिट्यूड’ के कर्नल ओरिलियानो बुएंदिया या उर्सूला जैसे किरदार इस जीवट के जाने-माने दृष्टांत हैं। लेकिन अपेक्षया कम चर्चित कहानियों और किरदारों में भी यह खासियत दिखाई पड़ती है। 90 साल की उम्र के उसके नायक अपने जन्मदिन पर खुद को एक युवा तवायफ़ का तोहफा देने को तैयार रहते हैं। उनका डॉक्टर इलाके के अहंकारी मेयर के दांतों का इलाज करने से पहले इनकार करता है और मेयर की धमकी के बाद अपनी पिस्तौल इस तरह तौलता है जैसे उसे मार डालेगा। लेकिन मेयर के आते ही वह बिल्कुल सख्त पेशेवर डॉक्टर की तरह उसका इलाज कर उसे भेज देता है। ‘द सेंट’ कहानी का मार्गरिटो एक बक्से में अपनी बेटी का कभी न सड़ने वाला शव लेकर बरसों तक रोम में घूमता रहता है ताकि इस करिश्मे के लिए उसे संत की उपाधि दिला सके। इस दौरान तीन पोप गुज़र जाते हैं, हर मोड़ पर उसे निराशा हासिल होती है, लेकिन उसकी उम्मीद कुछ ऐसी है कि टूटती ही नहीं। कहानी के अंत में लेखक प्रस्तावित करता है कि अपनी बेटी के संतत्व की इस साधना में लगा यह शख्स ही अपने-आप में संत है।

यहां तक कि जिन कहानियों में मृत्यु की पदचाप है, बीमारियों की छाया है, पतन की शोकांतिका है, वहां भी मार्केज़  के किरदार अपनी मानवीय गरिमा बनाए रखते हैं। ‘वॉन वोयेज मि प्रेसिडेंट’ का अपदस्थ और लगभग कंगाली में जी रहा राष्ट्रपति पाता है कि उसके ऑपरेशन में बहुत पैसे लगने हैं। जिस अस्पताल में वह जाता है, वहां का एंबुलेंस ड्राइवर ऐसे बड़े लोगों की तलाश में रहता है जिनके मरने के बाद अंतिम संस्कार का ठेका वह ले सके और कुछ पैसे बना सके। लेकिन नौबत यह आती है कि इस कहानी में वह ड्राइवर और उसकी पत्नी राष्ट्रपति के ऑपरेशन के लिए अपने बच्चों के गुल्लक तोड़ कर पैसा जमा करते हैं। जबकि राजनीति और अपनी पुरानी पहचान से बिल्कुल विमुख हो चुका राष्ट्रपति 75 साल की उम्र में- जैसे मृत्यु के छोर पर खड़ा होकर- अपने देश में सुधार आंदोलन के नेता के रूप में अपनी वापसी चाहता है। उसकी कहानियों में धूप से बचने के लिए युद्धों की गोलियों से छिदी छतरियां लेकर वेश्याएं खड़ी मिलती हैं।

एंबुलेंस के ड्राइवर से लेकर अपदस्थ राष्ट्रपतियों तक, वेश्याओं से लेकर तानाशाहों तक, वर्तमान की धुकधुकी से लेकर इतिहास के विराट चक्र तक, सस्ते होटलों की सड़कछाप गपशप से लेकर बड़े-बड़े भवनों की महलछाप साज़िशों तक मार्केज़  के पास जैसे हर दुनिया की चाबी है, और उसकी रूह के भीतर झांकने का हुनर। यह काम, बेशक, वे किसी संत की निर्लिप्तता से नहीं करते। उनका अपना एक पक्ष है- एक लातीन अमेरिकी पक्ष जो अंततः बार-बार मिटने और पनपने वाली तानाशाहियों के विरुद्ध और न खत्म होने वाले जन प्रतिरोधों के हक़ में बनता है और जिसमें सिर्फ लातीन अमेरिका के नहीं, उस पूरी तीसरी दुनिया के सपने झिलमिलाते हैं जो पिछले कुछ सौ वर्षों में पूंजी और सत्ता के कुचक्रों द्वारा सबसे ज़्यादा रौंदी गई है। सिर्फ़ इत्तिफ़ाक नहीं है कि आड़े-तिरछे नामों वाले अजनबी समाजों और किरदारों के बावजूद मार्केज़  के कथा-संसार में हम अपनी मिट्टी की ख़ुशबू और पानी की तरलता भी पहचान पाते हैं और उस ख़ून-पसीने की गंध भी, जो दोनों परिवेशों के किरदारों में साझा है।

मार्केज़ को पढ़ते हुए ही ख़याल आता है कि समकालीन साहित्य में शुष्क यथार्थवाद का जो प्रचलित ढांचा है, वह उन्नीसवीं सदी के साम्राज्यवाद और बीसवीं सदी के महायुद्धों से त्रस्त यूरोप का दिया हुआ है, जबकि कई गैरयूरोपीय- एशियाई, लातीन अमेरिकी और अफ्रीकी समाजों से आए- लेखकों ने इस ढांचे को तोड़ा है। ओरहान पामुक ने अपने बहुत गहन-गझिन शिल्प के साथ ‘माई नेम इज़ रेड’ या ‘व्हाइट कासल’  जैसे उपन्यासों में अपनी तरह के प्रयोग किए हैं। सलमान रुश्दी के ‘मिडनाइट्स चिल्ड्रेन’ और दूसरे उपन्यासों में इस जादुई यथार्थवाद की छाया ख़ूब मिलती है। मरियो वर्गेस ल्योसा का ‘द स्टोरी टेलर’ भी एक लोक आख्यान के गर्भ से निकलता है। हारुकी मुराकामी के ‘द वाइल्ड शीप चेज़’ या दूसरे उपन्यासों में भी यह चीज़ दिखाई पड़ती है। इन सबके पीछे मार्केज़  की प्रेरणा देखना शायद ठीक नहीं होगा, लेकिन इसमें शक नहीं कि अपने समय पर मार्केज़  के प्रभाव का कुछ स्पर्श इन लेखकों पर भी रहा हो सकता है।

हिंदी साहित्य में भी पश्चिम के वैचारिक दबदबे से अऩाक्रांत रहे हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के चारों उपन्यास अपना एक वैकल्पिक ढांचा बनाते हैं जो जादुई यथार्थवाद के काफ़ी करीब मालूम होता है। उनके अलावा जिस लेखक ने यह काम सबसे ज़्यादा किया है- वे विजयदान देथा हैं जो लोककथाओं के दायरे में अपना आधुनिक यथार्थ रचते रहे हैं। यह अनायास नहीं है कि उऩका साहित्य मूलतः अपनी परंपरा की खोज करते हुए और उसे नए रूप में सिरजते हुए बना है।

वैसे यह सच है कि हमारे यहां यथार्थवाद का आतंक इतना गहरा है कि इसके बाहर जाकर लिखने वाले लोग कम रहे हैं।  मनोहर श्याम जोशी के ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ या दूसरे उपन्यासों  में अपनी तरह की दुस्साहसिकता दिखती है और विनोद कुमार शुक्ल के ‘नौकर की कमीज़’ और ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ में एक तरह की अभिनवता। उदय प्रकश के रचना संसार में भी इस घेरे से बाहर जाने के प्रमाण दिखते हैं। अपने आख़िरी उपन्यास ‘रह गईं दिशाएं उस पार’ में संजीव भी एक हद तक यह ज़मीन तोड़ते नज़र आते हैं। अलका सरावगी के उपन्सास ‘कोई बात नहीं’ का एक किरदार जीवन चांडाल कई रूपों में दिखाई पड़ता है- वे कुछ जगहों पर यथार्थवाद का अतिक्रमण करती दिखती हैं। अखिलेश के कहानी संग्रह ‘अंधेरा और अन्य कहानियां’ में भी जगह-जगह यह प्रविधि दिखाई पड़ती है।

दरअसल मार्केज़  या उनके समकालीन मूर्द्धन्यों के बहाने हम इस मूल प्रश्न पर फिर से विचार करते नज़र आते हैं कि साहित्य आख़िर करता क्या है- वह हमें बार-बार हमारी मनुष्यता लौटाता है और उस खामोश दुनिया के सुराग देता रहता है जिसे बाकी शास्त्र- इतिहास, समाजशास्त्र या राजनीतिशास्त्र अपने-अपने ढंग से अनदेखा करते रहते हैं। चार-पांच साल पहले जेरूसलम में एक पुरस्कार ग्रहण करते हुए हारुकी मुराकामी ने अपने भाषण में कहा था कि उपन्यासकार अंततः झूठ रचते हैं ताकि सच को सामने लाया जा सके- एक तरह से निपुण झूठ गढ़कर, कल्पनाओं को बिल्कुल सच की तरह प्रस्तुत कर उपन्यासकार किसी सच को बिल्कुल नई अवस्थिति में ला खड़ा कर सकता है और उस पर नई रोशनी डाल सकता है। ज़्यादातर मामलों में सच को बिल्कुल उसके वास्तविक स्वरूप में ग्रहण करना और उसे यथावत प्रस्तुत करना लगभग असंभव होता है। यही वजह है कि हम उसकी पूंछ पकड़ कर सच को उसकी गुफा से बाहर आने को ललचाते हैंउसे एक काल्पनिक पृष्ठभूमि में ला बिठाते हैं और उसे एक काल्पनिक स्वरूप में रूपांतरित कर देते हैं। हालांकि इस लक्ष्य तक पहुंचने से पहलेहमें खुद में स्पष्ट होना पड़ता है कि सच हमारे भीतर कहां है। अच्छे झूठ गढ़ने की यह एक अनिवार्य शर्त है।

कहना न होगा कि बड़ा साहित्य इस बात की भी पहचान है कि सच हमारे भीतर कहां है- मार्केज़  यह काम करते हैं और हम सबकी रोशनी बन जाते हैं। ‘लव इन द टाइम्स ऑफ कॉलरा’ के पहले ही पैरा में जेरेमिया द सेंट ऐमोर की मृत्यु का ज़िक्र करते हुए वे इसे स्मृति की यंत्रणा से निज़ात पाना बताते हैं। लेकिन मार्केज़  को रचने वाले ने अपने किरदार के लिए एक दूसरी यंत्रणा चुनी थी- यह स्मृतिविहीनता की न महूसस होने वाली यंत्रणा थी जिससे हमारा लेखक पिछले कुछ बरसों से गुज़र रहा था। उनकी मृत्यु अब स्मृति-विस्मृति सबको लील चुकी है। मार्केज़  के निधन के बाद एक अंग्रेज़ी अख़बार ने उचित ही यह शीर्षक दिया था कि यथार्थ ने अपना कुछ जादू खो दिया है।

=======

The post उसके जाने से यथार्थ का जादू कुछ कम हो गया! appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..


किताबें सुनने वालों के लिए एक अच्छी खबर

$
0
0

लॉकडाउन ने और कुछ किया हो या न किया हो एक काम यह किया है कि हिंदी में बड़े पैमाने पर सुनने वाले पाठक तैयार कर दिए हैं। ऑडियो बुक का बजार भारत में बढ़ने की सम्भावना बहुत बढ़ गई है। ऐसे में प्रसिद्ध ऑडियो बुक कम्पनी स्टोरीटेल भारतीय श्रोताओं के लिए ऑडियोबाइट्स नाम का एक अनूठा ऐप लेकर आ रही है। इस ऐप में यूज़र बिना सर्विस चार्ज या ऐड के प्रतिमाह कोई भी 10 ओरिजनल कहानियाँ सुन पाएँगे। इसके बाद ऐप पर उपलब्ध हिन्दी, अंग्रेज़ी व मराठी में सभी कहानियाँ सुनने के लिए केवल 29 रुपया प्रतिमाह का सब्सक्रिप्शन लेना होगा। एक ऐसे समय में जब सभी लोग घर पर हैं, फ्री कहानियाँ सुनाने वाला यह ऐप ऑडियोबुक्स की दुनिया से जुड़ने का एक बड़ा मौक़ा बन सकता है।

ज्ञात हो कि स्टोरीटेल एक स्वीडिश कंपनी है जिसका उद्देश्य ‘विश्व को कहानियों के माध्यम से अधिक कलात्मक और समानुभूति भरा बनाना है। इसके लिए कहानियों को कभी भी और कहीँ भी इस्तेमाल किए जाने वाले फॉर्मेट्स में उपलब्ध कराया जाता है। भारत के बाज़ार के लिए लाया गया फ्रीमियम मॉडल वाला यह ऐप इसी दिशा में एक क़दम है।

स्टोरीटेल इंडिया के कन्ट्री मैनेजर योगेश दशरथ के अनुसार, ‘भारत कहानियों का देश है, और ऑडियोबाइट्स ज्यादा से ज्यादा लोगों तक ये कहानियाँ पहुँचाने में हमारे मेन ऐप का पूरक है। जैसा कि इसका नाम बताता है, ऑडियोबाइट्स ऐप द्वारा श्रोताओं को छोटी- छोटी ओरिजिनल कहानियों से रूबरू कराया जाएगा, और ऑडियोबुक सुनने का अनुभव दिया जाएगा। स्टोरीटेल द्वारा यह ऐप सबसे पहले भारत के मार्केट में लाया जा रहा है।’

कंपनी के सी ई ओ और को- फाउँडर जोनस टेलेन्डर के अनुसार, ‘ स्टोरीटेल अधिक से अधिक लोगों तक ऑडियो माध्यम पहुँचाने का प्रयास करता रहता है, और ऑडियोबाइट्स इस कड़ी में एक बड़ा क़दम है। हमें आशा है कि छोटी- छोटी कहानियों से अनुभव लेने के बाद बहुत से लोग हमारी मेन ऐप पर आएँगे और तीन लाख से अधिक किताबों के अनलिमिटेड ऐक्सेस का लुत्फ़ उठाएँगे।’

रिलीज़ के समय ऑडियोबाइट्स पर सभी भाषाओं में सैकड़ों किताबें व सिरीज़ हैं। इसके बाद हर माह भारतीय भाषाओं में एक ओरिजिनल और हर कुछ दिनों में छोटी छोटी कहानियाँ रिलीज़ की जाएँगी, ताकि श्रोताओं को हर वक़्त नया अपडेटेड कैटॉलाग मिलता रहे।

आप इस लिंक से ऐप को डाउनलोड करके सुनना शुरू कर सकते हैं-

https://play.google.com/store/apps/details?id=com.storytel.audiobites&hl=en_IN

 अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें:

अंकिता वर्मा

+91 8879151992

ankita.verma@storytel.com

About Storytel

Storytel is Northern Europe’s leading audiobook and e-book streaming service and offers unlimited listening and reading of more than 300 000 titles on a global scale. Our vision is to make the world a more empathetic place with great stories to be shared and enjoyed by anyone, anywhere and anytime. Storytel is a digital platform provider as well as a comprehensive publishing group. The streaming business area offers subscriptions for audiobooks and e-books under the Storytel and Mofibo brands. Storytel’s publishing business area is carried out through the publishing houses Norstedts, Massolit, StorySide, Printz Publishing, People’s Press, Rabén & Sjögren, B.Wahlströms, Norstedts Kartor and Gummerus Kustannus. Ztory – a subscribed digital read-all-you-can streaming service for newspapers and magazines, is part of Storytel since January 2019. Storytel operates in 18 markets around the globe and is headquartered in Stockholm, Sweden.

https://www.storytel.com

The post किताबें सुनने वालों के लिए एक अच्छी खबर appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

ये रौशनी में कोई और रौशनी कैसी

$
0
0

‘मौजूद की निस्बत से’ महेंद्र कुमार सानी का पहला शे’री मज्मूआ है जो रेख़्ता से प्रकाशित हुआ है । इसकी भूमिका प्रसिद्ध शा’इर और सम्पादक आदिल रज़ा मंसूरी ने लिखी है। उन्होंने सानी के मुख़्तलिफ़ तख़्लीक़ी पहलुओं पर इस तरह रौशनी डाली है कि क़ारी की अपेक्षाएँ बढ़ जाती हैं । किताब का उन्वान ‘मौजूद की निस्बत से’ है और आदिल रज़ा मंसूरी कहते हैं कि ‘किताब का नाम मुसन्निफ़ की फ़िक्र का आईना होता है’, उनका ये क़ौल इस किताब पर सादिक़ उतरता है । यहाँ ये महत्त्वपूर्ण नहीं है कि सानी की निस्बत किस मौजूद से है ; वो मौजूद जो मौहूम से तश्कील हुआ है या जो दा’इमी मौजूद है। सानी को मौजूद से निस्बत है और इस निस्बत के उजाले से किताब के बेश्तर वरक़ रौशन हैं । काव्य में जीव,जगत,माया और ब्रह्म के अस्तित्व पर ख़ूब लिखा गया है । फिर ये सोचने की बात है कि फ़ल्सफ़ियाना सवालों को बहर में बाँध कर शे’र कहने की क्या ज़रूरत है ? इसका जवाब सानी की कलन्दराना रविश है और साथ ही उन सवालों को पूछने का और उनका हल ढूँढने का वसीला है । इस तरह शा’इरी उनके लिए न केवल ज़ात का इज़्हार है बल्कि उस मौजूद का तर्जुमा भी है जिससे उन्हें निस्बत है । उन्हें हयात और कायनात के असरार हैरान और परेशान करते हैं और यही हैरानी-परेशानी महेंद्र की शा’इरी का केंद्रीय भाव बन गई है । चन्द अश्आ’र देखिए-

ये रौशनी में कोई और रौशनी कैसी
कि मुझमें कौन ये मेरे सिवा चमकता है

जाने किस बहते हुए दरिया की परछाईं है दहर
कोई कश्ती भी नहीं पार उतरने के लिए

ऐसी ताज़ाकारी इस बोसीदा वरक़ पर !
मेरी शक्ल में आने से पहले कहाँ थी ख़ाक

कभी दीवार लगती है मुझे ये सारी वुसअ’त
कभी देखूँ इसी दीवार में खिड़की खुली है

सानी की ये हैरानी जिज्ञासा में भी बदलती है और वो इस हैरानी का जवाब पाने की भी भरपूर कोशिश करते हैं । उनकी शा’इरी भी इसी जवाब को हासिल करने का एक ज़रीया बन जाती है-

मुझे भी देखना है उन फ़लक ज़मीनों को
हवा-ए-शाम कभी अपने साथ ले मुझको

किस लफ़्ज़-ए-कुन से उसने तख़्लीक़ की हमारी
सौ-सौ तरह से ख़ुद को इज़्हार करके देखूँ

तमाम सौत-ओ-सदा की रियाज़त-ए-पैहम
है इसलिए कि ये दिल अपनी ख़ामुशी में आए

उसी का तर्जुमा भर मेरी शा’इरी ‘सानी’
वो एक लफ़्ज़ जो मुब्हम सा मेरे कान में है

सानी की ये हैरानी और जिज्ञासा अनुभूति की तीव्रता से मिलकर रहस्यानुभूति में बदल जाती है ।वास्तव में यही रहस्यानुभूति मौजूद से उनकी निस्बत को गहरा करती है ।मौजूद से निस्बत गहरी होने पर सानी का मुशाहिदा और बारीक होता जाता है और उन पर हस्त-ओ-बूद के असरार खुलते हैं और वो ‘जागृति की अ’जब- अ’जब मंज़िलों’ से गुज़रते हुए अपने तज्रबात को अल्फ़ाज़ देते हैं –

रौशनी के लफ़्ज़ में तहलील हो जाने से क़ब्ल
इक ख़ला पड़ता है जिसमें घूमता रहता हूँ मैं

एक नुक़्ते से उभरती है ये सारी कायनात
एक नुक़्ते पर सिमटता फैलता रहता हूँ मैं

रस्ता कोई मौजूद से आगे नहीं जाता
मैं शम्अ तिरे दूद से आगे नहीं जाता

होनी के इस ठहरेपन में आख़िर मुतहर्रिक है कौन
दरिया अपने अंदर जामिद बहते हुए किनारे,देख

इस क़दर सोचता रहता हूँ उसे
वो मिरा ध्यान हुआ जाता है

जो हो रहा है वो भी कहाँ हो रहा है देख
सब कुछ हुआ रखा है गुमाँ हो रहा है देख

आख़िरी शे’र में ‘देख’ लफ़्ज़ की ‘टोन’ विशेष प्रभाव उत्पन्न कर रही है । शा’इर ख़ुद से भी मुख़ातिब है और क़ारी से भी । यहाँ ‘देख’ लफ़्ज़ में जो यक़ीन और एतिमाद है उससे लगता है जैसे सानी को मौजूद और ना-मौजूद से जुड़े सभी सवालों के जवाब मिल गए हैं या उन्हें पहले से ही पता थे और वो हैरान होने का नाटक भर कर रहे थे । उनके ये अशआ’र इस बात की तस्दीक़ भी करते हैं-

वो मिरे सामने हो के भी मुझको को यक्सर दिखाई नहीं दे रहा
इसका मत्लब यही है कि मैं उसको अपनी रसाई नहीं दे रहा

इक ग़ुबार-ए-सदा उड़ रहा है फ़ज़ा में समा’अत की हैरान हूँ
सब समझता है दिल और कहता है कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा

प्राकृतिक उपमानों और प्रतीकों का प्रयोग सानी की शा’इरी की विशेषता है । इस संदर्भ में वे मजीद अमजद, शकेब जलाली, और वज़ीर आग़ा की परंपरा को आगे बढ़ाते नज़र आते हैं ।आज जब ज़िन्दगी की तेज़-रफ़्तारी ने आदमी को प्रकृति से दूर कर दिया है और अब जब शा’इरों के लिए प्रकृति का अर्थ दश्त-ओ-सहरा तक ही महदूद हो गया है,ऐसे में सानी प्रकृति से मकालमा करते हुए अपने सवालों के जवाब पाने की कोशिश करते हैं । गंगा का ठहरा आब,रेत की खेती,ध्यान-मग्न सब्ज़ दरख़्त,आब की गिरहें, दरिया की सुस्त लय,ज़र्द टहनी,माह और दरिया,बरहना पेड़, फूलों की बाड़ियाँ ,कोहसार से उतरते झरने,दरिया की परछाईं, ज़मीं की पस्त ग़ार, बहते हुए किनारे ,ज़रख़ेज़ मिट्टी ,शाम की सर-सर हवा आदि लफ़्ज़ियात का इस्तेमाल अर्थपूर्ण छवियाँ प्रस्तुत करता है-

वक़्तों का ये मिलाप,ये दरिया की सुस्त लय
टुक आँख फेर देख कैसा समाँ हो रहा है देख

इन ध्यान-मग्न सब्ज़ दरख़्तों के इर्द-गिर्द
ये कैसी रौशनी का निशाँ हो रहा है देख

सरसब्ज़ है ता-हद्द-ए-नज़र रेत की खेती
मौजूद के सहराओं में पानी कोई शय तू

जान जाओ अस्ल की मौजूदगी का भेद सारा
ध्यान से बहती हुई गंगा का ठहरा आब देखो

उस फूल को निहारूँ और देर तक निहारूँ
शायद इसी बहाने मैं ताज़गी को पहुँचूँ

आखिरी शे’र में फूल को निहारने का अमल और फिर देर तक निहारने का अमल बहुत मानीख़ेज़ है और वहीं ‘शायद’ लफ़्ज़ इम्कान नहीं बल्कि इस यक़ीन को समेटे हुए है कि जीवन-रस प्रकृति के सान्निध्य से ही मिलेगा ।

सानी के यहाँ ‘सफ़र’ पर भी ख़ूब शे’र मिलते हैं । उसके सफ़र में दिशाहीनता है,भ्रम है,पलायन है,बेध्यानी है,उजलत है लेकिन उसका यह सफ़र भी उसी मौजूद और ना-मौजूद की तलाश की एक कड़ी है –

अपनी तलाश में हम भटके तमाम आ’लम
अब हम जो मिल गए हैं,लगता है हम यहीं थे

पेड़ कहते थे रुक के साँस तो ले
मुझको जल्दी कहीं पहुँचना था

मैं ऐसी यात्रा पर जा रहा हूँ
जहाँ से लौटकर आना नहीं है

सफ़र आज़ाद होने के लिए है
मुझे मंज़िल का कुछ धोका नहीं है

सानी ने इश्क़,महरूमी और रायगानी जैसे पारम्परिक विषयों पर भी शे’र कहे हैं लेकिन ये अश्आ’र उनकी मौजूद से निस्बत के कारण हाशिये पर चले गए हैं –

अगर वो वस्ल का लम्हा हमें मयस्सर हो
तो सारा इश्क़ ही कार-ए-ज़ियाँ ठहरता है

किसके ख़याल ने मुझे ख़ुशबू किया कि आज
बाद-ए-सबा मुझे भी गुलों में पिरो गई

हम कार-ए-ज़िन्दगी की तरह कार-ए-आ’शिक़ी
करना तो चाहते थे मगर कर नहीं सके

मैं उसकी धूप से तो कभी का निकल चुका
दिल से मगर उस अ’क्स का साया नहीं गया

किसी लफ़्ज़-ए-कामिल को पहुँचा नहीं
सफ़र-दर-सफ़र इस्तिआ’रा था मैं

शाम के चराग़ों से रौशनी के बाग़ों से
हम कहाँ निकल आए इक उदास हैरत में

शिल्प के स्तर पर देखा जाए तो सानी ने मुख़्तलिफ़ बहरों में ग़ज़लें कही हैं जिससे उनकी खोजी प्रवृत्ति का पता मिलता है। ये और बात ये खोज कई बार उन्हें ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर भी ले जाती है लेकिन ये रास्ते भी खोज का हिस्सा ही होते हैं। सानी ने अपनी ग़ज़लों में जागृति, सृजन, धूमिल, उपाय, ध्यान, चेतन, दया, अधीन, महापुरुष जैसे संस्कृत-हिंदी शब्दों का प्रयोग भी किया है जो उनकी ग़ज़ल को नया रंग अता करता है।

दरअस्ल सानी की शा’इरी का मिज़ाज फ़ल्सफ़ियाना है, जबकि फ़लसफ़ा ख़ुद एक ख़ुश्क विषय माना जाता है, लेकिन सानी ने फ़लसफ़े को अपनी चेतना और भाव के रंग में रंग दिया है। सानी ने औरों की रुचि का ध्यान रखते हुए शे’र नहीं कहे हैं, यह उनके अंदर की आवाज़ है और सच्ची आवाज़ है, उसमें आडम्बर नहीं है। हाँ, उनकी शा’इरी क़ारी से होमवर्क और तर्बियत की डिमांड ज़रूर करती है। इसे सरसरी तौर पर नहीं पढ़ा जा सकता। बक़ौल ‘सानी’
“ठहर के देख घड़ी भर के वास्ते सानी”

ये मज्मूआ ठहराव का तक़ाज़ा करता है। मैं महेंद्र कुमार सानी को इस किताब के लिए मुबारकबाद पेश करता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि यह किताब हर उस पाठक की लाइब्रेरी का हिस्सा होगी जो अच्छी शाइरी का तज्रबा करना चाहता है।

किताब– मौजूद की निस्बत से
विधा– ग़ज़ल
शायर– महेंद्र कुमार सानी
समीक्षक– विकास शर्मा राज़
प्रकाशक– रेख़्ता बुक्स
क़ीमत– 200/-

The post ये रौशनी में कोई और रौशनी कैसी appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

युवा कवि अमित गुप्ता की कविताएँ

$
0
0
आज युवा कवि अमित गुप्ता की कविताएँ पढ़िए। हिंदी के सबसे सुदर्शन कवियों में एक अमित गुप्ता का एक कविता संग्रह ‘रात के उस पार’ प्रकाशित है। उनके कुर्ते के कलेक्शन को देख देख कर मैं प्रभावित होता रहता हूँ। उनकी छोटी छोटी कविताओं में से भी कुछ प्रभावित करती हैं। आप भी पढ़िए- मॉडरेटर
========================
 
 
उजाला
 
मुट्‌ठी भर उजाला
बिखेर दो
थोड़ा ही सही
उजाला तो है।
 
 
विधवा
 
उसके चेहरे पर वो वक़्त की झुर्रियाँ
ऐसी लगती हैं जैसे
सुहाग के लाल जोड़े पर
कोई सफ़ेद रंग के थपेड़े मार गया हो।
 
 
लहू
 
लाल रंग का लहू
ख़ुद को कोसता
बस काग़ज़ पर बसने की चाह थी
उसपे मात्र एक धब्बा बनकर रह गया।
 
 
लाल रंग
 
कोरा काग़ज़
शब्दों से वंचित
एक विधवा
लाल रंग को तरसती।
 
 
 
अछूत
 
उसकी पीठ पर ढेरों निशान थे चाबुक के
रेंगता हुआ वो कुएँ तक पहुँचा, प्यासा था बेचारा।
 
पूरे गाँव में हल्ला था
कुएँ में एक औरत की लाश बह रही है
किसी तरह रेंगता हुआ वो चमार जब अपने घर पहुँचा
तो पाया उसकी बीवी लापता थी।
 
 
मौन
 
आओ समय से आँख बचाकर
बैठ लें कुछ देर
संसार के सब झमेले भुलाकर
पथ से परे हटकर
पथिक से दूर जाकर
बैठ लें कुछ देर।
 
काव्य की आड़ में
भाषा के लिबास के सार में
बैठ लें कुछ देर।
 
सरल मन लिए जल-बिंदु सा बह जाएँ
आओ हम और तुम मौन होकर
चुपचाप कहीं बैठ जाएँ।
 
आओ समय से आँख बचाकर
बैठ लें कुछ देर
संसार के सब झमेले भुलाकर
बैठ लें कुछ देर।
 
 
सुना है लिखने लगी हो
 
सुना है लिखने लगी हो
जुमले कसने लगी हो
अपने सीने में बरसों के दफ़न मिसरों को
काग़ज़ पर दफ़नाने लगी हो
सुना है तुम भी लिखने लगी हो
कल तुम्हारी लिक्खी हुई एक नज़्म
अख़बार में पढ़ी
बहुत दिनों के बाद तुम्हारी तस्वीर देखी
हमारे घर, नहीं मेरे घर की दीवारों पर टँगी
तुम्हारी तस्वीर पुरानी हो गई है अब
उतनी ही पुरानी- जितनी कि तुम नई बन गई हो
ख़ुद के बनाए उन नए लम्हों में
और हाँ नज़्म में कुछ मिसरे
मेरी ओर इशारा कर रहे थे
अख़बार के उन काले अक्षरों में
एक-दो जुमले तो ऐसे थे
कि जैसे रूह मेरी क़ैद कर दी हो किसी ने
नफ़रत इस हद तक बढ़ जाएगी
इसका एहसास तो था मुझे
लेकिन
यह गुमान कभी न था
कि इस दुनिया के सामने
तुम मुझे मिसरे बनाकर काग़ज़ पर दफ़ना दोगी
ख़ैर अच्छा है
तुम भी लिखने लगी हो
जुमले कसने लगी हो
अपने सीने में बरसों के दफ़न मिसरों को
काग़ज़ पे दफ़नाने लगी हो
अच्छा है तुम भी लिखने लगी हो।
खोज
 
जानी-पहचानी इस नदी में
मैं अनजाने तट तलाशता फिरता हूँ
माझी मुझे ज़िद्दी कहकर
मेरा उपहास करता है
मैं फिर भी बहता चला जाता हूँ
भोर के वक़्त मंदिर की घंटी
जब अज़ान में मिल जाती है
दुनिया और उसके नियम-क़ानून
व्यर्थ नज़र आने लगते हैं
विकल्प बहुत हैं जीने के
पर विकल्प संपूर्ण नहीं
सिवाय किसी खोज के।
 
 
क़लम या मशाल
 
मेरे हाथ में क़लम है
और यह मेरी इकलौती सच्चाई है।
 
तुम्हारे हाथ में जलती हुई मशाल है
और वो तुम्हारी इकलौती सच्चाई है।
 
एक तीसरा सच यह भी है
कि तुम अपनी उस मशाल से
दुनिया को जला सकते हो
उसे ख़ाक कर सकते हो
लेकिन उसमें दुबारा ज़िंदगी नहीं फूँक सकते।
 
आख़िरी सच यह है
कि मैं अपनी क़लम से
दुनिया को जला सकता हूँ
उसे ख़ाक भी कर सकता हूँ
और साथ ही उसमें
दुबारा ज़िंदगी भी फूँक सकता हूँ।
 
 
 
दरवाज़े की घंटी
 
कहने को तो दरवाज़े की घंटी
किसी के आने का संकेत देती है
लेकिन कई बार वो
किसी के न आने का ज़िक्र भी
चुपके से कर जाती है।
 
 
कहानियाँ
 
आज बरसों बाद जब कठपेंसिल छीली
लहू जैसा कुछ ज़मीन पर बिखर-सा गया
पूरी रात लग गई फिर कहानियाँ समेटने में।
 
 
 
मधुशाला
 
चाँद अटक गया अंगूर के पेड़ पर
ढूँढ़ने निकला था वो मधुशाला।
 
साक़ी बैठा ज़मीन पर
कैसे पहुँचाए उसे वो हाल।
 
 
 
मार्च रूपी खिड़की
 
मार्च रूपी खिड़की से मेरे
जब मैं वसंत की ओर देखता हूँ
तब अक्सर सोचता हूँ
तुम्हारे लायक कोई गीत लिक्खूँ
गीत जिसमें छवि हो श्याम की
और हो विरह मीरा
 
 
सुधखोर नींद
 
कल जब चाँद ने अंगड़ाई ली
पूरी क़ायनात उजाले से रौशन हो गई।
 
अब सुधखोर नींद मेरी आँखें बंद कर यह भी छीन ले जाएगी।
 
 
 
शमशान
 
आज शमशान थोड़ी अलग लग रही है
कल तक मेरे अलावा यहाँ सारे ख़ामोश थे।
 
चलो, मौत का कुछ तो फायदा हुआ।
 

The post युवा कवि अमित गुप्ता की कविताएँ appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

मनोज कुमार पांडेय की कहानी “बिना ‘काम’के जीवन”

$
0
0

मनोज कुमार पांडेय समकालीन कथाकारों में अपने राजनीतिक स्वर के कारण अलग से पहचाने जाते हैं। उनका कहानी संग्रह ‘बदलता हुआ देश’ राजकमल प्रकाशन से इसी साल प्रकाशित हुआ है। उसी संग्रह से एक कहानी पढ़िए- मॉडरेटर

====================================

स्वर्णदेश के लोगों को ‘काम’ के बारे में बात करना बिलकुल भी पसन्द नहीं था। उनके लिए यह बहुत ही गंदी बात थी। स्वर्णदेश के लोगों का चरित्र इतना उज्ज्वल और निर्मल था कि वे गंदी चीजों से दूर ही रहते थे। यह अलग बात है कि गंदी चीजें जैसे उनकी परीक्षा लेने के लिए दिन-रात उनका पीछा करतीं। स्वर्णदेश के लोग कई बार भागते-भागते थक जाते तो गंदी चीजों के साथ चलना शुरू कर देते। इसके बावजूद वे गंदी चीजों से पूरी तरह निर्लिप्त बने रहते।

घूस लेते, झूठ बोलते, कामचोरी करते, दिन-भर तरह-तरह के फरेब रचते, बेवजह दूसरों को नुकसान पहुंचाते। अपने फायदे के लिए लोगों की हत्या तक कर देते। इसके बावजूद अपनी आत्मा पर कोई दाग नहीं लगने देते। ये सारे काम वे प्रभु की इच्छा मानकर, प्रभु का नाम जपते हुए बहुत ही निर्लिप्त भाव से करते। प्रभु से स्वर्णदेश के लोगों का सीधा संवाद था। प्रभु भी सारी चीजों से निर्लिप्त ही रहते, इसलिए प्रभु का मान-सम्मान जस का तस बना रहता बल्कि बढ़ता ही जाता।

पर एक ‘काम’ ऐसा था जिसे करते हुए लोगों से प्रभु का नाम न लिया जाता। इसलिए लोग जल्दी से जल्दी इस काम को निबटाना चाहते। चूंकि यह कुछ इस तरह का काम था कि इसके लिए दो लोगों की जरूरत होती थी। तो कई बार जब दूसरा सहयोग न देता तो वे जबरदस्ती करते। इस तरह से अनेक लोगों को जबरदस्ती की आदत पड़ गई। अब उन्हें काम में सुख ही तब मिलेगा जब वह जबरदस्ती करते। बल्कि सामनेवाला जितना विरोध करता या चीखता-चिल्लाता, उन्हें उतना ही सुख मिलता।

वे यह सब अपने सुख के लिए नहीं करते थे। देखने में भले ऐसा लगता कि सामनेवाले को कोई सबक सिखाना चाहते हों पर वे एकदम निर्लिप्त भाव से प्रभु की इच्छा मानकर अपने कर्तव्य का निर्वाह करते। और प्रभु थे कि अपने भक्तों से भी ज्यादा निर्लिप्त बने रहते। वे पीड़ा भरी चीख और उन्माद-भरी सिसकारी में कोई अन्तर न कर पाते। इसलिए यह भी पता नहीं चल पाता कि वह अपने कुछ भक्तों के दुख से दुखी हैं या दूसरे कुछ भक्तों के सुख से सुखी।

इस सबके बावजूद यह प्रभु की लीला ही थी कि ऐसे लोगों की संख्या आधी से भी कम थी जिन्हें काम में जबरदस्ती करके सुख मिलता था। आधे से ज्यादा लोगों ने तो एकदम उल्टा ही काम किया था। उन लोगों ने वह काम करना ही बन्द कर दिया। न सिर्फ काम करना बन्द कर दिया बल्कि काम के बारे में किसी भी तरह की बात तक करनी बन्द कर दी। इस तरह से स्वर्णदेश के आधे से ज्यादा लोग धीरे-धीरे भूल ही गए कि ऐसा भी कोई काम होता है जो किया जाता है।

 इससे स्वर्णदेश के प्रभु के यहाँ हाहाकार मच गया। प्रभु हालाँकि खुद भी स्वर्णदेश की समस्याओं से निर्लिप्त ही रहते थे पर इस बार तो ऐसी समस्या सामने भी खतरे में पड़ गया था। जब भक्त ही कम होते जाएँगे तो प्रभु भला किनके हृदयों में रहेंगे? प्रभु को पहली बार स्वर्णदेश के लोगों पर क्रोध आया, पर जल्दी ही वह अपने क्रोध को पी गए। यह समय क्रोध करने का नहीं था, यह धैर्य रखने का समय था।

स्वर्णदेश बना रहे, इसके लिए प्रभु ने कई स्तरों पर व्यवस्था की। पहले स्तर पर उन्होंने नींद को निशाना बनाया उन्होंने बहुतेरे लोगों को नींद में ही काम करने के लिए प्रेरित करना शुरू किया। लोग नींद में ही काम कर जाते और उन्हें पता भी न चलता। इस प्रक्रिया में दूसरे साथी की नींद जरूर उड़ जाती। जब काम के बाद एक बगल में खर्राटे ले रहा होता तो दूसरा सूनी आँखों से निर्वात में न जाने क्या खोज रहा होता!

इसमें एक और बड़ी समस्या सामने आई। चूँकि इस काम के माध्यम से प्रकृति अपने को नये-नये रूपों में रहती थी सो जाहिर है कि नींद में किये गए काम के फलस्वरूप भी नये-नये इंसानी प्रतिरूप सामने आए। स्वर्णदेश की धरती पर ले आने का काम दो इनसानों ने मिलकर या होता। पर मुश्किल यह थी कि काम के समय दूसरा नींद में होता इसलिए उसे कुछ याद ही न होता। ऐसी स्थिति में वह अपने साथी पर शक करता और स्थिति भयावह होती जाती। जबकि साथियों के लिए स्थिति पहले ही कुछ कम भयावह न होती।

प्रभु परेशान हो गए। ऐसे तो स्वर्णदेश कलहदेश बन जाएगा। तब उन्होंने काम के सन्दर्भ में दूसरा प्रयोग करने की ठानी। उन्होंने स्वर्णदेश की प्रकृति को मोहक और मादक बनाना शुरू किया। थोड़े ही दिनों में स्वर्णदेश की प्रकृति कुछ इस तरह से हो गई कि हर चीज लोगों को बस काम की ही याद दिलाती हुई प्रतीत होती। लोग जिधर जाते, उधर ही प्रकृति अपना सम्मोहन जाल पसारती नजर आती। लोग इधर-उधर भागते पर आखिर भागकर वे कहाँ जाते! दुनिया में स्वर्णदेश जैसा कोई देश भी तो हो!

लोग काम से हर हाल में बचना चाहते लेकिन वे प्रकृति द्वारा मजबूर कर दिये जाते। ऐसे में जब उनके सामने कोई और चारा न बचता तब उनकी कोशिश होती कि वह जल्दी से जल्दी इस गंदे काम से निवृत्त होकर निकल भागें। यहाँ तक कि काम के समय भी वे इस बात की पूरी कोशिश करते कि साथी की छाया तक उनके ऊपर न पड़े। इसलिए वे हर हाल में ऊपर ही रहना चाहते। ऊपर रहने का एक लाभ यह भी था कि उन्हें काम के तुरन्त बाद बगल में लुढ़क जाने या उठकर भाग जाने में आसानी होती।

इस प्रक्रिया में भी बहुत सारी मुश्किलें सामने आई। प्रभु की समझ मही नहीं आ रहा था कि स्वर्णदेश की व्यवस्था को फिर पटरी पर कैसे ले आएँ। कई तरह के प्रयोग वे करके देख चुके थे पर किसी प्रयोग का नतीजा ऐसा नहीं निकला था कि वह स्वर्ण दिशा की तरफ से निश्चिन्त होकर फिर से पहले की तरह निर्लिप्त हो सके। वे बहुत देर तक इस बारे में सोचते रहे। जब इस समस्या का कोई समाधान नहीं सूझा अचानक उन्हें क्रोध ने घेर लिया।

क्रोध में प्रभु बेकाबू हो उठे। उन्होंने श्राप दिया कि स्वर्णदेशी जो लोग मेरे द्वारा रचे गए काम की अवहेलना कर रहे हैं, वे सदा के लिए काम के सही सुख से वंचित हो जाएँ। वे तीनों लोकों में भटकते फिरें तब भी उन्हें यह सुख कभी नसीब न हो। वे जन्म-जन्मान्तर तक अतृप्ति के भवसागर में भटकें और उन्हें प्रभु के बारंबार नाम जपने का भी कोई फल न प्राप्त हो। उन्हें जीते-जी प्रेत-योनि प्राप्त हो। श्राप देने के बाद प्रभु का क्रोध समाप्त हो गया। तब उन्हें दोबारा स्वर्णदेश की चिन्ता ने घेर लिया। स्वर्णदेश की स्थिति पहले ही बहुत खराब थी। इस श्राप के बाद तो स्वर्णदेश एकदम से ही नरक में बदल जाएगा। प्रभु को अपने श्राप के लिए पछतावा हुआ, पर अब वे इस बारे में कुछ भी नहीं कर सकते थे। जल्दी ही पछतावा दुख में बदल गया। प्रभु की आँखों में स्वर्णदेश के लिए आँसू थे।

प्रभु जब इस दुख से बाहर निकले तब उन्होंने देखा कि उनके आसपास तरह-तरह के रत्नों का ढेर इकट्ठा हो गया था ये प्रभु के आँसू थे जो नीचे गिरते ही रत्नों में बदल गए थे। प्रभु यह भी जानते थे कि स्वर्णदेश के लोग इन रत्नों के पीछे किस तरह से पागल हैं। वे इन्हें चमत्कारी मानते हैं और तरह-तरह से धारण करते हैं। और तब प्रभु को यह भी याद आया कि स्वर्णदेश के लोग अपने प्रभु से भी ज्यादा चमत्कारों में भरोसा करते हैं।

‘अब स्वर्णदेश को चमत्कार ही बचाएंगे, ‘ प्रभु ने मुस्कुराते हुए सोचा। प्रभु को बहुत दिनों बाद इतनी खुशी मिली। उन्हें वह तरीका मिल गया था जो स्वर्णदेश के लोगों पर बिजली की तरह असर करनेवाला था प्रभु मुस्कुराए और मुस्कुराते हुए ही उन्होंने प्रकृति के कानों में एक मंत्र फूंका। प्रकृति प्रभु की तरफ देखकर बदमाशी से मुस्कुराई और स्वर्णदेश की तरफ उड़ चली।

इसके बाद तो स्वर्णदेश में कमाल ही हो गया। नया जीवन नई-नई तरह से और नये-नये रूपों में प्रकट होने लगा। जो काम पहले सभी लोगों को करना होता था अब उसके लिए प्रकृति ने अपने कुछ एजेट नियुक्त कर दिये थे अब यह काम किसी बाबा के आशीर्वाद से या किसी फकीर के दिये मोरपंखी से या किसी साधु की भभूत से भी हो जाता था। मजारों के आसपास बहती हुई हवा भी इस लिहाज से एकदम गारंटीवाला काम करती थी।

ऐसे में वे लोग बहुत खुश हो गए थे जिन्हें स्वर्णदेश को जीवित रखने के लिए इस तरह के काम  मजबूरी पड़ते थे। अब वे इस तरह की चीजा से पूरी तरह से निर्लिप्त रहकर कुछ दूसरे काम कर सकते थे जिनमें उनका मन लगता था। वैसे भी जब यह काम दूसरे तरीकों से बहुत ही आसानी से सम्भव था तो फिर यह सब करके अपनी आत्मा तक में दाग लगा लेने की क्या जरूरत थी?

प्रकृति इतने पर ही नहीं रुक गई थी। प्रभु का दिया हुआ वह बदमाश से कारगर हुआ कि स्वर्णदेश के लोगों की संख्या दिन दूनी रात चौगुनी की गति से बढ़ने लगी। कोई रोता और उसके आँसुओं से उसका प्रतिरूप उसने स्वर्णदेश के कोने-कोने में फूंक दिया था। यह मंत्र कुछ इस तरह प्रकट हो जाता। कोई कान साफ करता और कान से खूँट की जगह पर उसका प्रतिरूप निकलता। कोई रात में काम के बारे में कोई सपना देखता और सुबह अपना कोई प्रतिरूप अपनी बगल में पाता। यह तो कुछ भी नहीं था। कोई लड्डू खा रहा होता और लड्डू का टुकड़ा कहीं जमीन पर गिर जाता। उसे जो कोई भी कीड़ा-मकोड़ा खाता, उसकी बगल में लड्डू खाने वाले का एक नन्ह प्रतिरूप प्रकट हो जाता। लोग फूल सूंघते और फूल सूंघते समय भीतर ले गई हवा जब बाहर निकलती तो उसके साथ फूल सूँघनेवाले क नन्हा सा प्रतिरूप प्रकट हो जाता।

ऐसे ही कोई नदी में नहाना तो नदी की मछलियों के पास उसके प्रतिरूप प्रकट हो जाते। पसीने की बूंद जमीन पर गिरने अदृश्य जीवाणु द्वारा से एक नन्हा-सा प्रतिरूप प्रकट हो जाता। स्वर्ण देश के लोग परम खुश हुए। उन्होंने खुशहाली का उत्सव मनाया। नन्हे प्रतिरूप बिना रुके आते ही जा रहे थे इसलिए यह उत्सव कभी भी नहीं समाप्त हुआ।

चूँकि इनसानी प्रतिरूपों के आने का माध्यम स्वर्णदेश के को तमाम दृश्य-अदृश्य प्राणी बने थे इसलिए जितनी मिश्रित नस्लें देश में विकसित हुईं, उतनी शायद ही दुनिया के किसी कोने में सम्भव हो हों। जैसे ही अवसर आता, वह अपने सही रूप में प्रकट हो जातीं। कोई इनसान दिखता रहता और अचानक से अपने को गधा घोषित करते हुए रेंकने लगता। लोग अचानक से तिलचट्टे, केंचुआ या भेड़िये में बदल जाते। वे जोरों से डंक मारते, पर उनका डंक कहीं दिखाई न देता।

स्वर्णदेश चमत्कारों का देश था इसलिए लोगों ने इसे पूरी तरह से स्वाभाविक तरीके से लिया। वे गर्वीले लोग थे इसलिए इस बात पर गर्व से भी भर गए कि उनके प्रभु ने इनसानी नस्ल को जितनी विविधता स्वर्णदेश में दी है, उतनी दुनिया के किसी भी देश को नहीं नसीब हुई। उन्होंने मिलकर जोरों से प्रभु का जयकारा लगाया। प्रभु अपने भक्तों के इस जयकारे से प्रसन्न हुए और निर्लिप्त भाव से मुस्कुराए।

The post मनोज कुमार पांडेय की कहानी “बिना ‘काम’ के जीवन” appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

ब्रह्मन! अब मैथुनी सृष्टिकी रचना करो!

$
0
0

प्रियंका नारायण बीएचयू की शोध छात्रा हैं। किन्नर समुदाय के ऊपर उन्होंने उल्लेखनीय काम किया है। उनका यह लेख पुराणों के आधार पर भारतीय परम्परा में लैंगिकता की अवधारणा पर है। शोधपूर्ण और साहसिक। पढ़िएगा-

=================================

त्रिदेवों के आलिंगन में ‘बलात्कार’ ( पुराण आधारित )

*** भारतीय संदर्भो में देखें तो संवैधानिक रूप से धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होते हुए भी सामान्य रूप से वेदों को भारतीय दर्शन और ज्ञान परम्परा का निकष माना जाता रहा है और सामान्य लोकोक्ति परक सी पंक्ति रही है – वैदिक परम्परा यानि भारतीय ज्ञान परम्परा। आज भी कुरान शरीफ़ या हदीस को इस तरह की स्वीकृति नहीं ही मिल पाती है। हालाँकि यह एक अलग चर्चा का विषय है। कह सकते हैं कि वेद  भारतीय ज्ञान परम्परा का सूत्रात्मक रूप है और पुराण उन सूत्र व्यवहार को समझने के लिए तैयार किया गया कथात्मक रूप। इन कथाओं के माध्यम से न केवल समाज के सामने वैदिक सूत्रों और दर्शन की व्याख्या की गयी बल्कि समाज को शिक्षित करने के लिए भी इनका इस्तेमाल किया गया। जीवन के प्रत्येक पक्ष की व्याख्या करते हुए इन पुराणों में वर्तमान लैंगिक अवधारणाओं के पीछे की बारीकियों को तलाशा जा सकता है।

पुराणों की शृंखला में ब्रह्म पुराण पहला पुराण है जिसे ‘आदि पुराण’ के नाम से भी जाना जाता रहा है। इसका वाचन नैमिषारण्य में लोमहर्षण नाम के ऋषि ने किया था। द्वादश वार्षिक यज्ञ (बारह वर्षों तक चलने वाला यज्ञ ) के अवसर पर लोमहर्ष नैमिषारण्य में आते हैं और अन्य ऋषिजनों और वहाँ एकत्रित लोगों के अनुरोध पर पुराण वाचन करते हैं। यह पुराण मूलत: सृष्टि, मनु की उत्पत्ति, उनके वंश का वर्णन देवों और प्राणियों के वर्णन पर केन्द्रित है। बीच में राम और कृष्ण की कथाओं का भी वर्णन मिलता है। संभवतः सांख्य  को आधार बनाकर सृष्टि के आरम्भ की कथा दी गयी है। जो नित्य, सदसत्स्वरूप तथा कारणभूत अव्यक्त प्रकृति है , उसी को प्रधान कहते हैं। उसी से पुरुष ने इस विश्व का निर्माण किया है।…प्रकृति से महत्ततत्व , महत्ततत्व से अहंकार तथा अहंकार से सब सूक्ष्म भूत उत्पन्न हुए। भूतों के जो भेद हैं वे भी उन सूक्ष्म भूतों से ही प्रकट हुए हैं। 1. अब आगे लैंगिक उत्पत्ति की कहानी आगे बढ़ती है । इस सृष्टि की उपत्ति का भार भगवान नारायण  पर आता है। नाना प्रकार की प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से उन्होंने सबसे पहले जल का निर्माण किया  और फिर जल में ही अपनी शक्ति को अधिष्ठित किया। पुराणों में उल्लेख आता है कि भगवान नर से उत्पन्न होने के कारण ही जल का दूसरा नाम ‘नार’ पड़ा। और यही जल पूर्व काल में भगवान का ‘अयन’ था, इसलिए वे नारायण कहलाए। भगवान ने जो जल में अपनी शक्ति का आधान किया, उससे एक बहुत विशाल सुवर्णमय अंड प्रकट हुआ और इस सुवर्णमय अंड से ही स्वयंभू ब्रह्मा जी का जन्म हुआ। सुवर्ण के समान कान्तिमान ब्रह्मा ने एक वर्ष तक उस विशाल सुवर्णमयी अंडे में वास किया और फिर उसके दो टुकड़े कर दिए। एक टुकड़े से द्युलोक का निर्माण किया और दूसरे से भूलोक का। उन दोनों के बीच में आकाश रखा। जल के ऊपर तैरती हुई पृथ्वी को स्थापित किया। …और इस प्रकार दसों दिशाएं , काल, मन , वाणी, काम, क्रोध और रति की सृष्टि की। फिर  इन भावों के अनुरूप सृष्टि करने की इच्छा से ब्रह्मा जी ने सात प्रजापतियों को अपने मन से उत्पन्न किया। उनके नाम इस प्रकार है – मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलत्स्य, पुलह, क्रतु तथा वसिष्ठ। पुराणों में ये सात ब्रह्मा निश्चित किये गये हैं।2.

 हालांकि हम इन तथ्यों की जीव वैज्ञानिक व्याख्या में चाहें तो प्रवेश कर  सकते हैं लेकिन यहाँ यह विषयांतर हो जाएगा। 3.

इसके बाद ब्रह्मा जी ने रोष से रूद्र को प्रकट किया, फिर सनत्कुमार,  ग्यारह रूद्रों, उपरोक्त सप्त ऋषियों के बड़े – बड़े दिव्य वंशों को बनाया। फिर विद्युत, वज्र, मेघ, रोहित,  इन्द्रधनुष पक्षी तथा मेघों की सृष्टि की । फिर यज्ञों की सिद्धि के लिए उन्होंने ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद प्रकट किये। इसके बाद साध्य देवताओं व भूतों की उत्पत्ति का जन्म उनके विभिन्न अंगों से हुआ। इतने निर्माण के बाद भी प्रजा की वृद्धि नहीं हुई तब प्रजापति अपने शरीर के दो भाग करके आधे से पुरुष और आधे से स्त्री हो गये। पुरुष का नाम मनु हुआ। उन्हीं के नाम पर ‘मन्वन्तर’ काल माना गया है। स्त्री अयोनिजा शतरूपा थी, जो मनु को पत्नी रूप में प्राप्त हुई। उसने दस हजार वर्षों तक अत्यंत दुष्कर तपस्या करके परम तेजस्वी पुरुष को पति  रूप में प्राप्त किया। वे ही पुरुष स्वयम्भू मनु कहे गये। 4.  और आगे स्त्री पुरुष संयोग और प्रजनन प्रक्रिया चलती है हालांकि शतरूपा अयोनिजा हैं।

शिव पुराण के ‘शतरुद्र संहिता’ के अंतर्गत ‘शिवजी की अष्टमूर्तियों तथा अर्द्धनारीनररूपका सविस्तार वर्णन’ किया गया है और शिव पुराण के ही ‘कैलास संहिता’ खण्ड के अंतर्गत ‘ब्रह्माजीके द्वारा अर्द्धनारीश्वररूप की स्तुति तथा उस स्तोत्र की महिमा’ गायी गई है।

सामान्य रूप से अर्द्धनारीश्वर शिव की पूजा हिजड़ा या किन्नर समुदाय में की जाती रही है लेकिन इसके संबंध में यहाँ विस्तार से जाना उचित नहीं है। चर्चा किये गये दोनों अध्यायों में कथा एक ही है। सिर्फ़ वाचक बदल गये हैं। एक स्थान पर नन्दीश्वर कथा कह रहे हैं दूसरे स्थान पर वायुदेव। जो भी हो कथा में यह आया है कि जब ब्रह्मा की रची हुई प्रजा से सृष्टि का विस्तार नहीं हो पाता तब ब्रह्मा दु:खी और चिंताकुल हो जाते हैं और उस समय आकाशवाणी होती है – “ ब्रह्मन! अब मैथुनी सृष्टिकी रचना करो।” 5. तब ब्रह्मा शिव के लिए तप करते हैं। तपोनुष्ठान में लगे हुए ब्रह्मा के तीव्र तप से थोड़े ही समय में शिवजी प्रसन्न हो गये। तब कष्टहारी शंकर पूर्णसच्चिदानंद की कामदा मूर्ति में प्रविष्ट होकर अर्धनारीश्वर के रूप में ब्रह्मा के निकट प्रकट हो गये और ब्रह्मा की स्तुति पर “यों स्वभाव से ही मधुर तथा परम उदार वचन कहकर शिवजी ने अपने अर्धभाग से शिवादेवीको पृथक कर दिया। और यहाँ ब्रह्मा कहते हैं – “ शिवे ! तब मैंने देवता आदि समस्त प्रजाओंकी मानसिक सृष्टि की; परन्तु बारम्बार रचना करने पर भी उनकी वृद्धि नहीं हो रही है, अत: अब मैं स्त्री – पुरुष के समागमसे उत्पन्न होने वाली सृष्टि का निर्माण करके अपनी सारी प्रजाओं की वृद्धि करना चाहता हूँ। किन्तु अभी तक तुमसे अक्षय नारीकुल का प्राकट्य नहीं हुआ है , इस कारण नारीकुल की सृष्टि करना मेरी शक्ति से बाहर है।” 6.   इसके बाद शिव दक्ष की पुत्री के रूप में जन्म लेने के लिए प्रस्थान करती हैं।

पुराणों में स्त्री पुरुष की उत्पत्ति की ये मिथकीय कथाएं बार – बार आती हैं। अट्ठारह पुराणों में भारतीय मिथकों के रूपों को ही बार – बार रखकर मानवीय घटनाओं को कथात्मक रूप में कहने की कोशिश की गयी है और इनकी पृष्ठभूमि दार्शनिक रही है। यहाँ एक अन्य तथ्य की ओर भी ध्यान जाता है कि जैसे वर्तमान समाज में तृतीय लिंग की चर्चा गौण रही है या उनके आंतरिक जीवन के बारे में विशेष जानकारी नहीं मिल पाती है वैसे ही पुराणों में भी इनकी चर्चा गौण ही रही है। हल्की झलक ज़रूर मिलती है।

लेकिन दिलचस्प ये है कि जिस स्त्री पुरुष के जीवन की व्यावहारिक समानता की बात हम करते हैं उसकी विकृति के बीज यहाँ बिखरे पड़े हैं जो पिछले दो हजार वर्षों से भारतीय मानस की रचना कर रहे है और आज यह विकृति की जिस अवस्था में है कि स्त्रियों के असितत्व और उनमें ‘मस्तष्कीय जीवन’ होने के तर्क पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देता है। ‘सतीत्व’(पद्मपुराण) की अवधारणा और पुरुष की वर्चस्ववादी व अहंवादी स्थितियां पुराणों में बिखरी पड़ी है। हालांकि वहाँ कई उदाहरण ऐसे भी हैं जिनमें किसी की पत्नी ने समागम किसी और से किया हो लेकिन पति उसे वस्तु के रूप में नहीं बल्कि पूरक के रूप में ससम्मान स्वीकार करता है।

वेदव्यास द्वारा प्रणित ‘नरसिंह पुराण’ में ‘अष्टाक्षर – मन्त्र के प्रभाव से इन्द्र का स्त्रीयोनिसे उद्धार’ अध्याय पारम्परिक रूप से तो इन्द्र ( पुरुष ) की रसिकता और परस्त्री गमन ( जो अवधारणा रची गयी है जैसे स्त्री कोई संपत्ति हो, हालांकि परपुरुष शब्द भी असितत्व में है  लेकिन इसका मनोविज्ञान ठीक विपरीत है और वह भी स्त्री को नियंत्रित करने के अर्थ में ही है ), द्वेष और श्राप या प्रतिशोध की कहानी है। स्वर्ग के सुखों और अधिकार की शून्यता से उबकर इन्द्र वैराग्य के उद्देश्य से जब कैलास पर्वत पर पहुंचे तो मानसरोवर के तट पर पार्वती के युगल चरणों की पूजा करती हुई यक्षराज कुबेर की प्राणवल्लभा चित्रसेना को देखा। “ जो कामदेव के महान रथ की ध्वजा – सी जान पड़ती थी। उत्तम ‘जाम्बूनद’ नामक सुवर्णके समान उसके अंगों की दिव्य कान्ति थी। आँखें बड़ी – बड़ी और मनोहर थीं, जो कान के पास तक पहुंच गयी थीं। महीन साड़ीके भीतर से उसके मनोहर अंग इस प्रकार झलक रहे थे , मानो कुहासेके भीतर से चन्द्रलेखा दृष्टिगोचर हो रही हो। अपने हजार नेत्रों से उस देवी को इच्छानुसार निहारते ही इन्द्र का ह्रदय काम से मोहित हो गया। उस समय वे दूर के रस्ते पर स्थित अपने आश्रम पर नहीं गये और सम्पूर्ण मनोरथों को मन में लिए देवराज इन्द्र विषयाभिलाषी हो खड़े हो गये।” 7. इसके बाद मिथकीय सांचों में कहानी को इस प्रकार ढाला जाता है कि कुबेर पत्नी चित्रसेना के व्यव्हार से भारतीय ‘पातिव्रत्य’ और ‘सतीत्व’ जैसी विशिष्ट लैंगिक अवधारणाओं पर कोई प्रश्न न खड़ा हो। चित्रसेना के मन में इन्द्र के प्रति उठने वाले आकर्षण व प्रेम को कामदेव के पुष्पमय धनुषबाण और मोहन – मन्त्र का दोष बता दिया जाता है। यहाँ सीधे- सीधे प्रेम को स्वीकारोक्ति प्राप्त नहीं है। यद्यपि कामदेव के बाणों का उल्लेख प्राय: साहित्यकारों के बीच होता रहा है लेकिन यहाँ कथा निर्वाह में इसका प्रयोग इस प्रकार किया गया है कि प्रेम या सम्मोहित होना एक दोष है और वह दोष चित्रसेना का नहीं बल्कि कामदेव का है –   ‘तब कामदेवद्वारा पुष्पबाण से मोहित की हुई वह बाला अपने सम्पूर्ण अंगमें मदके उद्रेक से विह्वल हो गयी और पूजा छोड़ इन्द्रकी ओर देखकर मुस्काने लगी। भला, कामदेवके धनुष की टंकार कौन सह  सकता है।’

“सम्मोहिता   पुष्पशरेण बाला

                                                   कामेन कामं मदविह्व्लान्ग्गी ।

                                विहाय पूजां हसते सुरेशं

                                                    क : कामकोदंडरवं सहेत ।। ”३२         8.

इसके बाद इन्द्र और चित्रसेना मंदराचल की ओर प्रस्थान कर जाते हैं और साथ में जीवन बिताने लगते हैं। यह सुनकर कुबेर कुपित होते हैं। मृत्यु तक का आवाहन करते हैं  और ढाढ़स बंधाने वाले श्री राम का उदाहरण देते हैं। हालांकि इस कहानी में कुबेर अंत में चित्रसेना को प्राप्त कर अपने को धन्य – धन्य महसूस करते हैं

                           “एतस्मिन्नन्तरे दूतोकाले लंका समागत : ।

                  धनेशं कथयामास चित्रसेनासमागमम । । (११०)

                            शच्या साकं समायाता त्व कांता धनाधिप ।

                       सखीं स्वाम्तुलां प्राप्य चरितार्था बभूव सा ।। (१११)

                          धनेशोपी कृक्तार्थोभूज्गाम निज्वेश्मनि ।                     9.

 कुबेर लंका के अधिपति हैं और आर्येत्तर संस्कृति के रावण के भाई हैं, लेकिन आर्य राम और सीता का प्रश्न आज भी अनुत्तरित है। एक तरफ़ अनुरक्ति के बाद भी चित्रसेना की स्वीकृति है और दूसरी तरफ़ विराग के बाद भी सीता की आत्महत्या है। बावजूद इसके भारतीय मानस में आज भी स्त्रियों को बचपन से सीता जैसी बनने की नसीहत दी जाती है और आदर्श के रूप में उपस्थित किया जाता है। क्या सीता जैसी होना घुटन, त्याग, अपहरण और अंततः जीवन की खुशियों में ‘रामराज्य’ और अगर उसका भी निषेध कर दिया तो क्या आत्महत्या ही भारतीय स्त्रियों की नियति नहीं रही है? जीवन भर नैतिकता, मूल्य, सतीत्व, उसूलों के चक्रव्यूह को झेलना और उसी में उलझे रहना, क्या यहीं भारतीय स्त्रियों की नियति नहीं है। देश, राजनीति, समाज, अर्थ, विज्ञान के क्षेत्रो में क्या हो रहा है उससे अलग रहिए, पहले इन मिथकों से तो निपट लीजिए जो मानसिकता में गहरे धंसे हैं। और अगर आज लड़कियां इससे निकल भी रही हैं तो भारतीय पुरुष मानस में ‘गर्ल फ्रेंड’ ( जो प्रचलित अवधारणा है ) के लिए तो उपयुक्त हैं लेकिन पत्नी या घर बसाने के लिए नहीं। पत्नी के नाम पर सदियों पहले का रामायणी मानस फिर से जागृत होना शुरू हो जाता है। बदलते दौर में हो सकता है शुरूआत में स्वीकार भी हो जाएँ लेकिन जैसे ही ‘औरतों’ के खांचे में फ़िट बैठनी शुरू होती हैं सारी स्थितियों का सच सामने होता है। ऐसे में विश्वविद्यालीय और बुद्धिजीवी वर्ग की   लड़कियां थोड़ी बहुत स्वतंत्रता के भ्रम में भले जी ले क्योंकि सामने वाले को पता है कि स्वतंत्रता के नाम पर आप उनसे क्या मांगेंगी? थोड़े खुले कपड़ों की स्वतंत्रता, थोड़ी नौकरी कर लेने की स्वतंत्रता, थोड़े पुरुष मित्रों से बात कर लेने की स्वतंत्रता। लेकिन यक़ीनन आज भी दलित वर्ग की महिलाएं जो गांवों और खेतों में काम करती हैं मानसिक रूप से हमसे ज्यादा स्वतंत्र हैं। हम युवा वर्ग और बुद्धिजीवी वर्ग क्या नौकरी छोड़ व्यवसाय के बारे में सोचती हैं, क्या अकेले सफ़र के बारे में सोच पाती हैं, क्या अपनी वैचारिकी और अपने अधिकारों की खुल कर बात और उसके लिए खड़े हो पाती हैं?  नहीं सब करके भी हम एक सुविधाजनक और सुरक्षित खाँचें में फ़िट हो जाना चाहती हैं स्वतंत्रता का भ्रम पाले हुए। हमारी बातचीत और सारी बहसों का केंद्र घूम फिर कर अंत में यहीं पहुंचता है। फ़िर पुरुषों की ही आँखों या गाड़ी की चढ़ी हुई शीशों से ही हम दुनिया देखने लगती हैं और इस बार ख़ुद मर्यादाओं व गरिमा का मिथ गढ़ने लगती हैं। और यह गरिमा और मर्यादा हमारी शक्ति के अहंकार को पोषित कर रहा होता है। और सबसे अंत में भारतीय मानस फिर ठहाके लगाता है – कर  लिया विचार?  दरअसल, हमारी सारी विचारधाराएँ, आधुनिकता और स्वतंत्रता कपड़ों, बूट, गाड़ियों, लक्सजरी फानूशों की चमचमाहट में सिमट कर रह जाती है। हम मिट्टी में उतर कर काम करने की आदी नहीं हैं , कुछ भी कहिए सौन्दर्य को बनाये रखने का प्रश्न होता है। हम चेत में तब आते हैं जब कोई दुर्घटना हो जाती है और तब हमारे सामने लैंगिक भेद भाव का अक्षय प्रश्न फिर से मुंह फाड़े आ खड़ा होता है।

 आधुनिकता के आने के बाद ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो हमारी सदियों से प्रशिक्षित मानसिक संरचना और लैंगिक ढांचों का मूल्यांकन दे रही है। खैर एक बार आंकड़ों पर आयें और     देखें । स्त्रियों के लैंगिक अपमान की घटनों का प्रतिशत २५.२ %, अपहरण के मामले में १८.१ %, और बलात्कार का प्रतिशत १०.६% है। सामान्य रूप से ये हमारे समाज की  ‘दैनिक’ घटनाएँ हैं और हम लेते भी बहुत सामान्य तरीके से हैं तब तक जब तक निर्भया जैसी कोई एकदम से झकझोर देने वाली कोई घटना न घटित हो जाये। अब तो हालत ये है कि मध्य वर्गीय बुद्धिजीवी समाज इंतजार करता है कि कोई घटना घटे ताकि न्यूज़ चैनल की टी. आर. पी बढ़े, कुछ सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया देकर अपनी चर्चा बटोर सकें, कुछ कवितायें लिखी जा सके, कुछ गद्य लिखें जाएँ और फिर एक होड़ लगे कि किस – किसने प्रतिक्रिया दी, क्या प्रतिक्रिया दी, किसने नहीं दी, नहीं दी तो क्यों नहीं और दी तो किसकी पोस्ट सबसे उम्दा रही? बस मूल मुद्दा गायब हो जाता है इन सबके बीच में। नेताओं की तरह और मीडिया की तरह ख़ुद की टी. आर. पी सबसे बड़ी हो जाती है, फ़िर ‘घटना’ को पूछता कौन है , ‘दिनचर्या’ फिर शुरू हो जाती है।

लेकिन दिलचस्प यह है कि इस ‘घटना’ और ‘दिनचर्या’ की परम्परा भी आज से नहीं चली आ रही है बल्कि यह परम्परा भी “पौराणिक” है और “सांस्कृतिक” रूप से मजबूत और वीभत्स होती हुई हम तक पहुंची है। यहाँ आप सीता , द्रौपदी या अहिल्या का चर्चित उदाहरण न दें तो भी कोई बड़ी बात नहीं है । स्वर्ग के अधिपति इन्द्र के किस्से तो पुराणों में बिखरे पड़े हैं और इन विलासिता के पर्याय के अतिरिक्त शिव, ब्रह्मा और विष्णु भी पीछे नहीं हैं।

  लेकिन पुराण कर्ता भी कम चतुर नहीं थें जैसे ही ऐसी कोई घटना घटती है ख़ासकर इन्द्र को छोड़कर ( क्योंकि इन्द्र का पद ही विलासिता , सम्भोग व चारित्रिक रूप से पतनशील देव के पद का प्रतीक रहा है  ) त्रिदेवों के सन्दर्भ में वहाँ किन्तु परन्तु के साथ एक मिथकीय घटना का झीना आवरण डाल दिया जाता है ताकि उसका प्रभाव कम किया जा सके । उनकी आसक्ति और बलात्कार की घटना को जायज ठहराया जा सके। ‘मत्स्य पुराण’   जो कि आठ्रारह पुराणों में से बेहद महत्वपूर्ण है वहाँ ब्रह्मा द्वारा सृष्टि निर्माण की कथा आती   है। लगभग सभी पुराणों में ये कथाएं कुछ भिन्नताओं और कालानुसार कुछ नये तथ्यों के साथ कथाएं आगे बढ़ती ही रहती है। केवल बीच- बीच में उठने वाले देवता विशेष की भक्ति के साथ मूल पुराण देवता परिवर्तित हो जाते हैं। ( हालांकि देवताओं की शृंखला का भी अपना विस्तृत कांसेप्ट है लेकिन यहाँ विषयांतर हो जाएगा। )

मत्स्य पुराण के अनुसार ब्रह्मा ने सृष्टि की गति को आगे बढ़ने के लिए सावित्री का ध्यान कर तप आरम्भ किया। उस समय जप करते हुए उनका निष्पाप शरीर दो भागों में बंट गया और ‘शतरूपा’ का जन्म हुआ। ये शतरूपा – सरस्वती, सावित्री, गायत्री, ब्रह्माणी भी कही जाती हैं। शरीर से उत्पन्न होने के कारण ब्रह्मा ने उन्हें पुत्री के रूप में स्वीकार किया लेकिन शतरूपा का  सौन्दर्य अगाध था और इस अगाध सौन्दर्य को देखकर ब्रह्मा उस पर मुग्ध हो गएं। इसके बाद सरस्वती जब पिता की परिक्रमा करने लगीं और परिक्रमा करती हुई उनके दाहिने पार्श्व में गईं तब उनका मुख देखने की इच्छा से उनके दाएं गाल पर एक मुख उग आया। जब वे पीछे की ओर गई तब पीछे, वाम आने पर बाएं गाल पर। ऐसे ब्रह्मा अपनी कामनाओं के वशीभूत होकर चतुर्मुख हो गए।

“ चतुर्थमभवत्  पश्चाद्  वामं कामशरातुम् ।

   ततोअन्यदभवत्तस्य  कामातुरतया   तथा ।। ३८.

   उत्पतन्त्यास्तदाकारा   आलोकनकुतूहलात् ।

   सृष्ट्यर्थं  यत्  कृतं  तेन तपः परमदारुणम् ।। ३९.

  तत्  सर्वं  नाशमगमत्   स्वसुतोपगमेच्छ्या ।”          10 .

ब्रह्मा से बचने के लिए शतरूपा ऊपर की तरफ गमन कीं तब  ब्रह्मा के सर पर जटायुक्त  पांचवां मुख उभर आया। अन्य पुराणों में भी यह कथा आती है। कहा गया है कि ब्रह्मा से बचने ने के लिए अंततः सरस्वती एक के बाद एक रूप बदलने लगीं। वे हंसिनी का रूप लेती हैं तो ब्रह्मा बत्तख बन जाते हैं। वो गाय बनती है तब वे सांढ , सरस्वती चिड़िया तब ब्रह्मा बाज । इस तरह लगातार रूप बदलने के कारण सरस्वती शतरूपा कहलाई।  ब्रह्मा के  इस तरह पथभ्रष्ट होने के कारण उनके द्वारा सृष्टि के निर्माण के लिए किये गये सारे  तप का फल नष्ट हो गया और अंत में शिव ने क्रुद्ध होकर उनका पांचवां सर काट दिया  और उन्हें  नियमित पूजा से वंचित  कर दिया। यद्यपि ब्रह्मा ने पुत्रों को सृष्टि की रचना के लिए पुत्रों को  बाहर भेजकर प्रणाम करने के लिए चरणों में पड़ी शतरूपा के साथ पाणिग्रहण किया।   11 .

सरस्वती का सौन्दर्य इतना ज्यादा था कि ब्रह्मा के मन में उसे देखते रहने की इच्छा स्थिर रूप से बैठ गयी। वे बार- बार यही कहने लगे –   “ कैसा मनोहर रूप है ! कैसा सौन्दर्यशाली रूप है! … कैसा अद्भुत रूप है! कैसी अनोखी सुन्दरता है!” क्या हमें अपने पिता का यह स्वरुप स्वीकार्य हो सकता है। यद्यपि ब्रह्मा को तो शिव ने दण्डित किया लेकिन आगे विष्णु और शिव को भी हम देखें।

  जगत के पालनकर्ता और त्रिदेवों में त्रिगुणातीत माने जाने वाले विष्णु की कथा शिव पुराण में आती है। शिव पुराण के ‘रूद्रसंहिता’ , पंचम ( युद्ध) खण्ड छठा और नवां अध्याय देखिए। छठे अध्याय के शीर्षक और उपशीर्षक “दम्भ की तपस्या और विष्णु द्वारा उसे पुत्र प्राप्तिका वरदान, शंखचूड़ का जन्म, तप और उसे वर प्राप्ति, ब्रह्मा जी की आज्ञा से उसका पुष्कर में तुलसी के पास आना और उसके साथ वार्तालाप, ब्रह्मा जी का पुन: वहाँ प्रकट होकर दोनों को आशीर्वाद देना और शंखचूड़ का गान्धर्व विवाह्की विधिसे तुलसीका पाणिग्रहण करना …”

इस पौराणिक कथा को संक्षेप में समझा जा सकता है। कश्यप ऋषि और दनु का पुत्र दम्भ बहुत बलशाली और विष्णु भक्त था। पुष्कर में गहन तप करके उसने विष्णु से  देवताओं को जीत लेने वाले पुत्र की मांग की। पुत्र हुआ भी। उसका नाम शंखचूड़ था। उसने भी तपस्या की और ब्रह्मा से अजेय और देवताओं पर विजयी होने की मांग की। ब्रह्मा ने वरदान दे  दिया और साथ में यह भी कहा कि “तुम बदरीवनको जाओ। वहीं धर्मध्वजकी कन्या तुलसी सकाम भाव से तपस्या कर रही है। तुम उसके साथ विवाह कर लो।” ब्रह्मा के आदेश पर शंखचूड़ उस वन में पहुंचते हैं और तुलसी से कहते हैं  “शोभाने! जगत में जितनी पतिव्रता नारियां हैं, उनमें तुम अग्रणी हो। मेरा तो ऐसा विचार है कि जैसे मैं पापबुद्धि कामी नहीं हूँ, उसी प्रकार तुम भी कामपराधीना नहीं हो। फिर भी इस समय मैं ब्रह्मा जी की आज्ञा से तुम्हारे समीप आया हूँ और गान्धर्व विवाह की विधि से तुम्हें ग्रहण करूँगा।” तुलसी उनसे शास्त्रार्थ करती हैं , विवाह की सम्मति देने को होती हैं कि ब्रह्मा पुन : आते हैं और कहते हैं –“ शंखचूड़!  तुम इसके साथ क्या व्यर्थ में वाद – विवाद कर रहे हो? तुम गान्धर्व विवाह की विधि से इसका पाणिग्रहण करो; क्योंकि निश्चय ही तुम पुरुषरत्न हो और यह सती – साध्वी नारियों में रत्न स्वरूपा है। ऐसी दशा में निपुणका निपुणके साथ समागम गुणकारी ही होगा। 12. तब दानव शंखचूड़ ने गान्धर्व विवाह की विधिसे तुलसी का पाणिग्रहण किया।

मूल कहानी यही से शुरू होती है। युद्ध में जब सारे देवता और भद्रकाली शंखचूड़ को जीतने

में असमर्थ होते हैं तब ये विष्णु और शिव के पास मदद के लिए जाते हैं। विचार – विमर्श के

बाद शिव रणभूमि में उतरते हैं और शंखचूड़ को मारने के लिए ज्यों ही अपना त्रिशूल हाथ में लेते हैं आकाशवाणी होती है“शंकर! मेरी प्रार्थना सुनिए और इस समय त्रिशूल को मत चलाइए।… आप उस मर्यादा को सुनिए और उसे सत्य एवं सफल बनाइये। ( वह देवमर्यादा

यह है कि ) जब तक इस शंखचूड़ के हाथ में श्रीहरि का परम उग्र कवच वर्तमान रहेगा और इसकी पतिव्रता पत्नी ( तुलसी) – का सतीत्व अखंडित रहेगा, तब तक इस पर जरा और मृत्यु अपना प्रभाव नहीं दल सकेंगे। अत: जगदीश्वर शंकर! ब्रह्मा के इस वचन को सत्य कीजिये।” 13. “ फिर तो शिवजी ने इच्छा की और विष्णु वहाँ से चल पड़े।  वे तो मायावियों में भी श्रेष्ठ मायावी ठहरे।” 14. इसके बाद वे शंखचूड़ से उसका कवच ब्राह्मण  याचक के रूप में मांग लेते हैं और फिर शंखचूड़ का रूप धारण करके वे तुलसी के पास पहुंचे। वहाँ जाकर सबके आत्मा एवं तुलसीके नित्य स्वामी श्रीहरिने शंखचूड़रूप से उसके शीलका हरण कर लिया।”15. इसके बाद वे शंखचूड़ का वध करने में सफल हो जाते हैं। स्वर्ग में दुदुम्भी बजने लगती है। गान्धर्व और किन्नर गान करने लगे। अप्सराएँ नृत्य करने लगीं। सारे देवगण परमानंद को प्राप्त हुए और अपने – अपने लोक को प्रस्थान कर जाते हैं। शिव शिवलोक चले जाते हैं, विष्णु विष्णुलोक। उस समय जगतमें चारों ओर शन्ति छा जाती है और अगर कुछ शेष बचता है तो तुलसी का रूदन। वो घुटती है, क्रुद्ध होती है – “दुष्ट! मुझे शीघ्र बतला कि मायाद्वारा मेरा उपभोग करने वाला तू कौन है? तूने मेरा सतीत्व नष्ट कर दिया है।” कोसने और श्राप देने के अतिरिक्त तुलसी कर भी क्या सकती थी? कहती हैं – “ हे विष्णो! तुम्हारा मन पत्थरके सदृश कठोर है। तुममें दया का लेशमात्र भी नहीं है । मेरे पतिधर्म के भंग हो जानेसे निश्चय ही मेरे स्वामी मारे गये। चूंकि तुम पाषाण – सदृश कठोर, दयारहित और दुष्ट हो, इसलिए अब मेरे शाप से पाषाणस्वरूप ही हो आओ।”16. इसके बाद तुलसी फूट – फूट कर रोने लगती हैं फिर शिव आते हैं और बीच का रास्ता निकलते हुए विष्णु के शालिग्राम रूप से तुलसी का व्याह संपन्न करवा आते हैं। और आशीर्वाद देते हैं कि “ भद्रे! जो शालग्रामशिलाके ऊपरसे तुलसीपत्रको दूर करेगा, उसे जन्मान्तर में स्त्रिवियोग की प्राप्ति होगी तथा जो शंख को दूर करके तुलसीपत्र को हटायेगा, वह भी भार्याहीन होगा और सात जन्मोंतक रोगी बना रहेगा। जो महाज्ञानी पुरुष शालग्रामशिला, तुलसी और शंखको एकत्र रखकर उनकी रक्षा करता है, वह श्रीहरि का प्यारा होता है।” 17.

अब प्रलयंकारी शिव की कथा देखिए। देवदत्त पट्टनायक ‘शिव से शंकर तक’ ( लिंग प्रतीक का रहस्य ) में लोककथाओं का जिक्र करते हुए ‘विश्वासघात’ शीर्षक से एक कथा का जिक्र करते हैं। पार्वती शिव से निरंतर लडती थी और एक बार शिव पार्वती की कलह से तंग आकर देवदार के वन में चले गये। कथा में मोड़ कुछ इस तरह आता है कि पार्वती भी एक आदिवासी कन्या का भेष बनाकर पीछे – पीछे जा पहुंची। वहाँ शिव को पार्वती की याद  बुरी तरह आने लगी और उनकी कमी खलने लगी।  अचानक उन्होंने पाया कि एक कन्या उन्हें ताक रही है और और इस वजह से उन्हें पार्वती की याद आ रही है। “कमाना के वशीभूत होकर उन्होंने उसका पीछा किया और उसे अपने साथ सम्भोग के लिए विवश किया। कन्या हंसी, फिर रोयी, फिर उसने अपनी असली पहचान उजागर की और शिव पर विश्वासघात का आरोप लगाया।” शिव के समझाने पर भी पार्वती नहीं मानी और शांति के लिए मानसरोवर में स्नान करने का निर्णय लिया। जब किनारे आई तब पाया कि उनकी चोली चूहों ने कुतर डाली है। इसी समय एक दर्जी पास से गुजरा और रफ़ू करने के लिए तैयार हो गया अगर इस कम के पैसे मिले । लेकिन पार्वती के पास पैसे नहीं थे। उन्होंने कहा   कि मैं तो एक दरिद्र तपस्वी की पत्नी हूँ, ‘पार्वती ने कहा। ‘ इस हालत में मुझे एक आलिंगन से भुगतान कर देना,’ दर्जी ने कहा। पार्वती मन गयी। प्रणय लीला के बाद दर्जी ठठा कर  हंसा। दर्जी शिव ही थे। ‘तुम मुझसे किसी भी तरह अलग नहीं हो,’ शिव ने कहा। ‘मैं हूँ,    ‘पार्वती चिल्लायी, ‘ अपने वासना के वशीभूत होकर विश्वास तोड़ा था। मैंने दरिद्रता के कारण।’ 18.

इस कथा का निष्कर्ष और इसका विश्लेषण आप ख़ुद ही कर सकते हैं।  ब्रह्माण्ड पुराण में एक अन्य कथा आती है जो शिव के विष्णु के मोहिनी रूप पर आसक्ति की है। मोहिनी के सुर – असुरों को जीत लिए जाने के बाद शिव जब विष्णु से क्षीरसागर में मिलते हैं तब उन्हें अपना मोहिनी रूप लेने का आग्रह करते हैं। शिव की बार – बार की प्रार्थना पर विष्णु मोहिनी का रूप लेते हैं तब शिव की मनोदशा ही बदल जाती है। साक्षात् शृंगार को सामने देखकर धैर्य शिव का साथ छोड़ देता है।

“  तामिमां       कन्दुकक्रीडालोलामलोलभूषणानां ।

   दृष्ट्वा  क्षिप्रमुमां     त्यक्त्वा     सोअन्वधावदथेश्वर : ।। ७१ ।।

   उमापि  तं    समावेक्ष्य   धावंतं    चात्मन:     प्रियम्   ।

   स्वात्मानं  स्वात्मसौन्दर्यम्  निन्दन्ती    चातिविस्मिता  ।

   तस्थाववाङ्मुखी !      तूष्णीं       लज्जासूयासमन्विता  ।। ७२ ।।

गृहीत्वा कथाम्प्येनामालिलिंग मुहुर्मुहुः । उद्धयोद्धय साप्येवं धावति स्म सुदूरत: ।।७३।।

पुनः गृहीत्वा  तामीश: कामं कामवशीकृत: । आश्लिष्टम्  चातिवेगेन तद्वीर्यम् प्रच्युतं तदा ।।७४।।

तत: समुत्थितो देवो महाशास्ता महाबलः । अनेककोटिदैत्येन्द्रगर्वनिर्वापणक्षम : ।। ७५।।” – 19.

उन कंदुक क्रीड़ामाला से भूषण वाली भुवनमोहिनी को देख कर भगवान शंकर उमा को छोड़कर शीघ्रता मोहिनी के पीछे दौड़ने लगे। उमा भी इस तरह प्रिय को विष्णु पर आसक्त देखकर अपने सौन्दर्य की निन्दा करती हुई अत्यंत विस्मित हो गयीं और लज्जा और असूया से चुपचाप मुख नीचे कर खड़ी हो गयीं। भगवान शंकर ने मोहिनी को किसी प्रकार बार- बार पकड़कर आलिंगन किया, परन्तु वे उठ- उठ कर दौड़ रही थीं। अंततः शिव की वासना शांत हुई । दूसरे पुराणों में भी यह कथा आती है जहाँ यह उल्लेख है कि दक्षिण भारत के अयप्पा का जन्म शिव और मोहिनी के इसी मिलन का परिणाम था।

सबरीमाला में जो देवता स्त्रियों के लिए वर्जित हैं उनके जन्म की कथा भी हमारे सामने है।

लेकिन अब तक के विश्लेषण से भारतीय लैंगिक अवधारणा ( स्त्री व पुरुष के विशेष सन्दर्भों में ) की वर्तमान स्थति की पीछे की समझ तो विकसित होती ही है। संस्कृति का दम्भ भरने वाले हम उसके पीछे के  सुसंस्कृत छिद्रों को तो देख ही सकते हैं। क्यों जब एक निर्भया सड़क पर पड़ी होती है तो उसकी मदद हम नहीं कर पाते बल्कि उल्टे बलात्कार की घटनाएँ और उसके तरीके और भी वीभत्स होते जा रहे हैं। कभी मंदिर में कोई घटना घटती है तो प्रतिक्रियास्वरूप मस्जिद का उदाहरण भी सामने आ जाता है। दिलचस्प तो यह है कि आज भी कस्बों और गांवों की तरफ़ चले जाइये तो जिनका व्याह नहीं हो रहा होता है या जो अच्छा पति पाने की इच्छा रखती हैं वे विष्णु ( वृहस्पतिवार का व्रत ) और शिव ( सोलह सोमवार ) का व्रत करते मिल जाती हैं। शिव चर्चा तो आजकल जोरों पर है। नहीं पता जब ये स्त्रियाँ उपरोक्त स्थितयों से वाकिफ़ होंगी तो विश्वास करने लायक तर्क भी जुटा पाएंगी या नहीं। उनकी आस्था, श्रद्धा और विश्वास उनके तर्क पर भारी पड़ेंगी। विडम्बना यह है कि एक बड़ा वर्ग चाहे वह स्त्री हो या पुरुष इन तर्कों की विश्वसनीयता स्वीकार ही नहीं कर पायेगा। बात – बात पर जुमले फेंकने वाले कि ‘हमारे वेदों में ये लिखा है, हमारे पुराणों में ये लिखा है, जितना कुछ भी शुभ और मंगल है वह सब इनमें लिखा है और जितना कुछ अशुभ और अमंगल है वह सब आयातित है,’ ‘हमारी भारतीय संस्कृति जो सिर्फ़ महान है वे इस महान संस्कृति के पौराणिक काले अध्यायों को कैसे लेंगे?’ कहते हैं इस महान संस्कृति का भार चंद ‘भक्तों’ पर  है जिनका सम्मोहनकारी प्रभाव बड़े जनसमूह पर है ऐसे में जब ‘महानता’ उनकी ‘विरासत’ है तो लैंगिक अपराधों व भेद–भावों का उत्तरदायी कौन    होगा?

============

  

  1. 1. संक्षिप्त ब्रह्म पुराण, गीताप्रेस गोरखपुर, सं. २०७५, पन्द्रहवाँ पुनर्मुद्रण, पृष्ठ- ११,
  2. 2. संक्षिप्त ब्रह्म पुराण, गीताप्रेस गोरखपुर, सं. २०७५, पन्द्रहवाँ पुनर्मुद्रण, पृष्ठ- ११,
  3. 3. इसकी व्याख्या किन्नर : सेक्स और सामाजिक स्वीकार्यता पुस्तक में की गयी है जो कि अभी प्रकाशनाधीन है ।
  4. 4. संक्षिप्त ब्रह्म पुराण, गीताप्रेस गोरखपुर, सं. २०७५, पन्द्रहवाँ पुनर्मुद्रण, पृष्ठ- ११,
  5. शतरुद्र संहिता, संक्षिप्त शिव पुराण, छाछठवाँ पुनर्मुद्रण, गीताप्रेस गोरखपुर, पृष्ठ – ४४१
  6. 6. शतरुद्र संहिता, संक्षिप्त शिव पुराण,छाछठवाँ पुनर्मुद्रण, गीताप्रेस गोरखपुर, पृष्ठ – ४४२
  7. अष्टाक्षर- मन्त्र के प्रभावसे इन्द्रका स्त्रीयोनिसे उद्धार, श्रीनरसिंह पुराण, गीताप्रेस गोरखपुर, पृष्ठ – २७२
  8. 8. अष्टाक्षर- मन्त्र के प्रभावसे इन्द्रका स्त्रीयोनिसे उद्धार, श्रीनरसिंह पुराण, गीताप्रेस गोरखपुर,  पृष्ठ – २७४
  9. अष्टाक्षर- मन्त्र के प्रभावसे इन्द्रका स्त्रीयोनिसे उद्धार, श्रीनरसिंह पुराण, गीताप्रेस गोरखपुर,  पृष्ठ – २८०
  10. 10. तृतीय अध्याय, मत्स्यपुराण, गीताप्रेस गोरखपुर, सं. २०७४, तेरहवां पुनर्मुद्रण, पृष्ठ – २२
  11. श्लोक ४२- ४४, मत्स्यपुराण, गीताप्रेस गोरखपुर, सं. २०७४, तेरहवां पुनर्मुद्रण, पृष्ठ – २२
  12. ‘रूद्रसंहिता’ , पंचम ( युद्ध) खण्ड ,शिव पुराण, गीताप्रेस गोरखपुर, पृष्ठ – ३८९
  13. . ‘रूद्रसंहिता’ , पंचम ( युद्ध) खण्ड शिव पुराण, गीताप्रेस गोरखपुर, पृष्ठ -४००
  14. . ‘रूद्रसंहिता’ , पंचम ( युद्ध) खण्ड शिव पुराण, गीताप्रेस गोरखपुर, पृष्ठ -४००
  15. ‘रूद्रसंहिता’ , पंचम ( युद्ध) खण्ड शिव पुराण, गीताप्रेस गोरखपुर, पृष्ठ -४०१
  16. ‘रूद्रसंहिता’ , पंचम ( युद्ध) खण्ड शिव पुराण, गीताप्रेस गोरखपुर, पृष्ठ -४०२
  17.   ‘रूद्रसंहिता’ , पंचम ( युद्ध) खण्ड शिव पुराण, गीताप्रेस गोरखपुर, पृष्ठ – ४०३
  18. शिव से शंकर तक, देवदत्त पटनायक, अनुवाद- नीलाभ, राजपाल, पृष्ठ  – ९५ )
  19. ब्रह्माण्डमहापुरणम्, उत्तरार्धम् संपादक एवं अनुवादक – प्रो. दलवीर सिंह चौहान,द्वितीय संस्करण, पृष्ठ – १०११, चौखम्बा प्रकाशन सिरीज़, वाराणसी,

 

The post ब्रह्मन! अब मैथुनी सृष्टिकी रचना करो! appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

युवा कवयित्री अनुजीत इक़बाल की कविताएँ

$
0
0
अनुजीत इक़बाल मूलतः पंजाबी भाषी हैं। अंग्रेज़ी में लिखती हैं। क़रीब एक साल से हिंदी में भी कविताएँ लिख रही हैं। उनकी इन कविताओं को देखिए- मॉडरेटर
========================
 
प्रेम
 
हे महायोगी
जैसे बारिश की बूंदें
बादलों का वस्त्र चीरकर
पृथ्वी का स्पर्श करती हैं
वैसे ही, मैं निर्वसन होकर
अपना कलंकित अंतःकरण
तुमसे स्पर्श करवाना चाहती हूं
 
तुम्हारा तीव्र प्रेम, हर लेता है
मेरा हर चीर और आवरण
अंततः बना देता है मुझे
“दिगंबर”
 
थमा देना चाहती हूं अपनी
जवाकुसुम से अलंकृत कलाई
तुम्हारे कठोर हाथों में
और दिखाना चाहती हूं तुमको
हिमालय के उच्च शिखरों पर
प्रणयाकुल चातक का “रुदन”
 
मैं विरहिणी
एक दुष्कर लक्ष्य साधने को
प्रकटी हूं इन शैलखण्डों पर
और प्रेम में करना चाहती हूं
“प्रचंडतम पाप”
बन कर “धूमावती”
करूंगी तुम्हारे “समाधिस्थ स्वरूप” पर
तीक्ष्ण प्रहार
और होगी मेरी क्षुधा शांत
 
 
हे महायोगी, मेरा उन्मुक्त प्रेम
नशे में चूर रहता है
=======
 
धूमावती- दस महाविद्याओं में पार्वती का एक रूप, जिसने भूख लगने पर महादेव का भक्षण किया था।
========
 
 
 
महायोगी से महाप्रेमी
 
क्षमा करना कृष्ण
प्रेम प्रणय की दृश्यावली
मैं तुम्हारे रासमंडल में
कदाचित न देख पाऊंगी
 
मेरे मन मस्तिष्क में
अर्द्धजला शव हाथों में लिए
क्रंदन के उच्च
आरोह अवरोह में
तांडव करते हुए
शिव की प्रतिकृति उकेरित है
 
वो प्रेम ही क्या
जो विक्षिप्तता न ला दे
 
तुम्हारी बंसी की धुन को
सुनने से पहले सम्भवतः
मैं चयन करूंगी
प्रेमाश्रु बहाते हुए शिव के
डमरू का आतर्नाद
और विकराल विषधरों की फुफकार
 
 
मृत्यु या बिछोह पर
तुम्हीं करो
“बुद्धि” का प्राकट्य
मुझे उस “बोध” के साथ
रहने दो, जो हर मृत्यु
अपने साथ लाती है
 
शिव से सीखने दो मुझे
कैसे विरहाग्नि
महायोगी को रूपांतरित करती है
महाप्रेमी में
======
 
 
स्वयंप्रभा
 
 
निरर्थक साधनाओं में कैद होता संसार
तुमको तलाशता सुदूर तीर्थों में
और मैं लिखती हूं
तुम्हारी विस्तृत हथेली पर
वो तमाम प्रणय गीत
जो मेरा ह्रदय गाता है।
 
व्यर्थ कर्मकांडों के वशीभूत होता संसार
तुम को ढूंढता बेमतलब क्रियाओं में
और मैं निमग्न होती हूं
उस चरमबिंदु पर
जहां आसन-रत हो
प्रेम ईश्वर हो जाता है।
 
अर्थहीन आडम्बरों से आच्छादित होता संसार
तुमको देखता निर्जीव पाषाणों में
और मैं तन्मय होती हूं
हृदय के उस घाट पर
जहां हिम-द्रवित हो
गंगा का उद्गम हो जाता है।
 
मिथ्या अर्चन से सम्मोहित होता संसार
तुमको पुकारता उन्मादी कोलाहल में
और मैं मल्हार रचती हूं
अंतस के उस सभा मंडल में
जहां घनगर्जित हो
जीवन स्वयंप्रभु हो जाता है।
 
===========
 
 
 
वचन
 
हे प्रियतम
तुम्हारा अघोर रूप
किसी सर्प की भांति
मेरे हृदयक्षेत्र में
कुंडली मार बैठ गया है
और मैं वैराग्य धारण करने के पश्चात
प्रेमविह्वल हो रही हूं
 
गेरुए वस्त्र त्याग कर
कौमुदी की साड़ी ओढ़ कर
तृष्णा के ज्वर से तप्त
मैं खड़ी हूं तुम्हारे समक्ष
चंद्र की नथनी डाल कर
 
 
तुम्हारी समस्त इंद्रियां
हिमखंड की भांति स्थिरप्रज्ञ हैं
लेकिन दुस्साहस देखो मेरा
तुमसे अंकमाल होते हुए
प्रक्षालन करना चाहती हूं
तुम्हारी सघन जटाओं का
 
मोक्ष के लिए
मुझे किसी साधना की आवश्यकता नहीं
समस्त कलाओं का रसास्वादन करते हुए
मेरी कलाई पर पड़ा
तुम्हारे हाथ की पकड़ का नील
काफी होगा
मुझे मुक्ति दिलाने के लिए
 
वचन देती हूं प्रियतम
वो दिन अवश्य आएगा
===========
 
 
 
गमन और ठहराव
 
सूर्य का आकाशगंगा में
अपरिचित सा मार्ग
विचरण करता जिसके गिर्द
वो श्रोत केंद्र अज्ञात
समस्त तारागण और नक्षत्रपथ
सतत हैं गतिवान
वेगित सागर के खेल से
बोझिल नीरव चट्टान
बिन सरवर के पानी सी धरा
घूमती निरंतर बदहवास
सब कुछ है आंदोलित सा
अस्तित्व का अक्षयतूणीर परिहास
अनवरत चलते इस नृत्य में
स्थिरप्रज्ञ होने की आस
क्योंकि
घटित एक ही समय पर होता
गमन और ठहराव।
 
========
 
 
 

The post युवा कवयित्री अनुजीत इक़बाल की कविताएँ appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

निकोलाय गोगोल की कहानी ‘नाक’

$
0
0

19 वीं शताब्दी के प्रसिद्ध लेखक निकोलाय गोगोल की कहानी ‘नाक’ पढ़िए। मूल रूसी भाषा से अनुवाद किया है आ. चारुमति रामदास जी ने- मॉडरेटर

=================

25 मार्च को पीटर्सबुर्ग मे एक बड़ी अद्भुत घटना घटी. नाई इवान याकव्लेविच, जो वज़्नेसेन्स्की मोहल्ले में रहता था, उस दिन बड़ी सुबह जाग गया और ताज़ी डबलरोटी की ख़ुशबू उसे गुदगुदा गई. पलंग पर कुछ उठकर उसने देखा कि कॉफ़ी पीने की शौकीन उसकी धर्मपत्नी भट्टी से गरम-गरम डबल रोटियाँ निकाल रही है.

“प्रास्कोव्या ओसिपव्ना,” इवान याकव्लेविच ने कहा, “ मैं आज कॉफी नहीं पिऊँगा, उसके बदले प्याज़ के साथ गरम-गरम डबल रोटी खाने को दिल चाह रहा है.”

(मतलब यह, कि इवान याकव्लेविच को दोनों ही चीज़ें चाहिए थीं, मगर दोनों की एकदम माँग करना संभव नहीं था, क्योंकि प्रास्कोव्या ओसिपव्ना को ऐसे नख़रों से नफ़रत थी).

‘खाए बेवकूफ़, डबल रोटी ही खाए, मेरे लिए अच्छा ही है,’ बीबी ने सोचा, ‘उसके हिस्से की कॉफ़ी मुझे मिल जाएगी.’ उसने दन् से डबल रोटी मेज़ पर पटक दी.

इवान याकव्लेविच ने शराफ़त के तकाज़े से कमीज़ के ऊपर गाऊन पहना, खाने की मेज़ पर बैठकर डबल रोटी पर नमक छिड़का, प्याज़ के छिलके निकाले, हाथ में चाकू लिया और बड़ी अदा से डबल रोटी काटने लगा डबल रोटी को बीचों बीच दो टुकड़ों में काटकर उसने उसे ध्यान से देखा और हैरान रह गया – डबल रोटी के बीच में कोई सफ़ेद चीज़ चमक रही थी. इवान याकव्लेविच ने उँगली से छूकर देखा : “ठोस है,” वह बुदबुदाया, “ये कौन-सी चीज़ हो सकती है?”

उसने उँगलियों के चिमटे से उसे खींचकर बाहर निकाला – नाक!…इवान याकव्लेविच के हाथ ढीले पड़ गए, वह आँखें फाड़-फाड़कर टटोलता रहा : नाक, बिल्कुल नाक! और तो और, जानी-पहचानी है. इवान याकव्लेविच के चेहरे पर भय की लहर दौड़ गई. मगर यह भय उस हिकारत के मुकाबले में कुछ भी नहीं था जिससे उसकी बीबी उसे देख रही थी.

“अरे जानवर! किसकी नाक काट लाए?” वह गुस्से से चीख़ी, “…गुण्डे! शराबी! मैं ख़ुद पुलिस में तुम्हारी रिपोर्ट करूँगी, डाकू कहीं के! मैं तीन आदमियों से सुन चुकी हूँ कि तुम दाढ़ी बनाते समय इतनी लापरवाही से नाक के पास चाकू घुमाते हो कि उसे बचाना मुश्किल हो जाता है.”

मगर इवान याकव्लेविच तो जैसे पथरा गया था. वह समझ गया था कि यह नाक सुपरिंटेंडेंट कवाल्योव की है जिसकी वह हर बुधवार और इतवार को दाढ़ी बनाया करता था.

“रुको, प्रास्कोव्या ओसिपव्ना! मैं इसे रूमाल में बाँधकर कोने में रख देता हूँ, थोड़ी देर बाद ले जाऊँगा.”

“मुझे कुछ नहीं सुनना है. क्या मैं कटी हुई नाक अपने कमरे में रहने दूँगी?…जले हुए टोस्ट! पुलिस को मैं क्या जवाब दूँगी?…ओह, छिछोरे, बेवकूफ़ ठूँठ! ले जाओ इसे! फ़ौरन! जहाँ जी चाहे ले जाओ. मुझे दुबारा नज़र न आए!”

इवान याकव्लेविच को काटो तो खून नहीं. वह सोचता रहा, सोचता रहा, – समझ नहीं पाया कि क्या सोचे.

“शैतान जाने यह कैसे हो गया,” उसने आख़िरकार कान खुजाते हुए कहा, “क्या मुझे कल चढ़ गई थी या नहीं, कह नहीं सकता. मगर यह बात है बड़ी अजीब, क्योंकि डबलरोटी – भट्टी में पकने वाली चीज़ है, और नाक – बिल्कुल नहीं. कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है….”

इवान याकव्लेविच चुप हो गया. इस ख़याल से कि पुलिस वाले उसके पास निकली नाक को ढूँढ़कर उस पर इलज़ाम लगाएँगे, वह पगला गया. उसके सामने चाँदी के तारों से जड़ी लाल कॉलर और तलवार घूम गई…और वह थर-थर काँपने लगा, आख़िरकार उसने अपनी बाहर जाने वाली पोषाक और जूते पहन लिए और प्रास्कोव्या ओसिपव्ना की गालियों के बीच नाक को एक गंदे कपड़े में लपेट लिया और बाहर निकल आया.

वह उसे कहीं घुसेड़ देना चाहता था : या तो पास ही पड़े कूड़ेदान में, या फिर अनजाने में रास्ते पर गिराकर गली में मुड़ जाना चाहता था. मगर दुर्भाग्य से हर बार वह किसी परिचित से टकरा जाता, जो उससे पूछ बैठता : “कहाँ जा रहे हो?” या “इतनी सुबह किसकी हजामत बना रहे हो?”- मतलब यह, कि इवान याकव्लेविच को मौका ही नहीं मिला. एक बार तो उसने उसे गिरा ही दिया, मगर दूर से चौकीदार छड़ी से इशारा करते हुए चिल्लाया “ उठाओ! तुमने कुछ गिरा दिया है.” और इवान याकव्लेविच को नाक उठाकर जेब में छिपानी पड़ी. उसकी परेशानी इसलिए भी बढ़ती जा रही थी, क्योंकि सड़क पर लोगों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी. दुकानें भी खुलने लगी थीं.

उसने इसाकियेव्स्की पुल पर जाकर नाक को नेवा नदी में फेंक देने की सोची…क्या ऐसा हो पाएगा?…मगर माफ़ कीजिए, मैंने आपको इवान याकव्लेविच के बारे में कुछ भी नहीं बताया, जो एक सम्मानित नागरिक था.

इवान याकव्लेविच अन्य रूसी कारीगरों की ही भाँति पियक्कड़ था. और, हालाँकि वह रोज़ दूसरों की दाढ़ियाँ बनाया करता, उसकी अपनी दाढ़ी बढ़ी हुई ही थी. इवान याकव्लेविच का कोट चितकबरा था; मतलब वह काले रंग का था और उस पर कत्थई-पीले सेब बने हुए थे, कॉलर उधड़ गई थी, तीन बटनों के स्थान पर सिर्फ धागे लटक रहे थे. इवान याकव्लेविच बड़ा सनकी था, जब कभी सुपरिंटेंडेंट कवाल्योव दाढ़ी बनवाते समय उससे कहता : इवान याकव्लेविच, तुम्हारे हाथ हमेशा गंधाते रहते हैं,” तो इवान याकव्लेविच उल्टे पूछ बैठता : “गंधाने क्यों लगे?” – “मालूम नहीं, मगर गंधाते ज़रूर हैं,” सुपरिंटेंडेंट जवाब देता और इवान याकव्लेविच नसवार सूंघकर, इस अपमान के लिए उसके गाल तक, नाक के नीचे, कान के पीछे, दाढ़ी के नीचे – याने जहाँ जी चाहता, वहीं साबुन पोत देता.

तो, यह सम्मानित नागरिक अब इसाकियेव्स्की पुल पर पहुँच गया था. पहले उसने चारों ओर नज़र दौड़ाई, फिर मुँडेर पर झुका, मानो पुल के नीचे देख रहा हो, मछलियाँ काफ़ी हैं या नहीं, और उसने चुपके से नाक वाला चीथड़ा नीचे छोड़ दिया. उसे लगा मानो उसके सिर से दस मन का बोझ उतर गया हो, इवान याकव्लेविच के मुख पर मुस्कुराहट भी तैर गई. वह क्लर्कों की हजामत बनाने के लिए जाने के बदले उस इमारत की ओर बढ़ गया, जिस पर लिखा था – “स्वल्पाहार और चाय”, जिससे वह बियर का एक गिलास पी सके, मगर तभी उसने पुल के दूसरे छोर पर खड़े एक सुदर्शन, चौड़े कल्लों वाले, तिकोनी टोपी पहने, तलवार टाँगे पुलिस अफ़सर को देखा. वह मानो जम गया, तब तक पुलिस वाला उसके पास पहुँच गया और उसके बदन में उँगली चुभोते हुए बोला :

“यहाँ आओ, प्यारे!”

इवान याकव्लेविच उसके ओहदे को पहचानकर, दूर से ही टोपी उतार कर, निकट जाते हुए अदब से बोला, “ख़ुदा आपको सलामत रखे!”

“नहीं, नहीं, भाई, मुझे नहीं, बोलो, तुम वहाँ क्या कर रहे थे, पुल पर खड़े-खड़े?”

“ऐ ख़ुदा, मालिक, दाढ़ी बनाने जा रहा था, बस यह देखने के लिए रुक गया, कि मछलियाँ कितनी हैं.”

“झूठ, सफ़ेद झूठ. ऐसे नहीं चलेगा, सीधे-सीधे जवाब दो.”

“मैं आपकी हजामत हफ़्ते में दो बार, या तीन भी बार मुफ़्त में बना दूँगा,” इवान याकव्लेविच बोला.

“नहीं, प्यारे, यह बकवास है! मेरी हजामत तीन-तीन नाई बनाते हैं, और इससे उन्हें बड़ा फ़ख्र होता है. तुम तो मुझे यह बताओ, कि तुम वहाँ क्या कर रहे थे?”

इवान याकव्लेविच का मुख पीला पड़ गया…मगर इसके बाद की घटना घने कोहरे में छिप गई थी, और आगे क्या हुआ हमें बिल्कुल पता नहीं.

….

सुपरिंटेडेंट कवाल्योव उस दिन कुछ जल्दी ही उठ गया,  उठते ही उसने होठों से आवाज़ निकाली : “बर्र..” जो वह हमेशा ही नींद खुलने पर करता था, हालाँकि उसे इसका कारण ज्ञात नहीं था. कवाल्योव ने एक अँगडाई ली और उसने मेज़ पर रखा हुआ छोटा आईना उसके हाथों में देने का हुक्म दिया, वह उस मस्से को देखना चाहता था जो कल शाम को अचानक उसकी नाक पर उग आया था. मगर उसके होश फ़ाख़्ता हो गए, यह देखते ही कि नाक के स्थान पर एक चिकनी सफ़ाचट जगह है. घबरा कर उसने फ़ौरन तौलिया और गरम पानी लाने की आज्ञा दी, तौलिये से आँखें भली-भाँति पोंछकर दुबारा देखा : बिल्कुल ठीक, नाक थी ही नहीं. उसने हाथ से ख़ुद को चिकोटी काट कर देखा, कहीं नींद में तो नहीं है? पता चला कि पूरी तरह जागा हुआ ही है. सुपरिंटेंडेंट कवाल्योव उछल कर पलंग से नीचे आ गया, उसने भली प्रकार अपने आप को झटका, नाक ग़ायब… उसने तत्काल कपड़े पहने और पुलिस के बड़े अफ़सर के पास लपका.

मगर कवाल्योव के बारे में कुछ कहना आवश्यक है, जिससे पाठकों को कुछ अंदाज़ हो जाए कि यह सुपरिंटेंडेंट था किस किस्म का. जिन सुपरिंटेंडेंटों को अपनी शैक्षणिक योग्यता के बलबूते पर यह पदवी मिलती है, उनका उन सुपरिंटेंडेंटों से कोई मुकाबला नहीं किया जा सकता जो कॉकेशस में बनाए जाते हैं. यह दोनों किस्में एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं. विद्वान सुपरिंटेंडेंट…मगर रूस इतना अद्भुत देश है कि यदि किसी एक सुपरिंटेंडेंट के बारे में कुछ कहा जाए, तो सभी सुपरिंटेंडेंट, रीगा से लेकर कमचात्का तक, उसे अपने ही बारे में समझेंगे. यही हाल अन्य पदवियों और उपाधियों का भी है. कवाल्योव कॉकेशस वाला सुपरिंटेंडेंट था. वह दो साल पहले इस उपाधि से विभूषित हुआ था और इसीलिए एक मिनट भी उसके बारे में भूलता नहीं था, और तो और, स्वयम् को सम्मान एवम् वज़न देने के उद्देश्य से वह अपने आपको कभी भी सुपरिंटेंडेंट नहीं कहता, बल्कि मेजर कहता है. “सुनो, प्यारी,” वह अक्सर कमीज़ का अग्रभाग बेचने वाली बुढ़िया से सड़क पर टकराने पर कहता, “तुम मेरे घर आ जाना, मेरा फ्लैट सादोवाया रास्ते पर है, किसी से भी पूछ लेना कि मेजर कवाल्योव कहाँ रहता है? कोई भी बता देगा” ; किसी चिकनी परी से टकराने पर फुसफुसाता, “मेरी जान, मेजर कवाल्योव का फ्लैट पूछ लेना!”, इसीलिए अब हम भी इस सुपरिंटेंडेंट को मेजर ही कहेंगे.

मेजर कवाल्योव को हर रोज़ नेव्स्की एवेन्यू पर टहलने की आदत थी. उसकी कमीज़ की कॉलर हमेशा साफ़ और इस्त्री की हुई होती थी. उसके गलमुच्छे ऐसे थे जैसे पुराने ज़मींदारों के, वास्तुशिल्पियों के, सेना के डॉक्टरों के, कई पुलिस अफ़सरों के, और आमतौर से उन सभी आदमियों के होते हैं जिनके गाल भरे-भरे, गुलाबी-गुलाबी होते हैं, और जो ताश के खेल में माहिर होते हैं. ये गलमुच्छे गालों के बीचों-बीच से होकर सीधे नाक तक पहुँचते हैं. मेजर कवाल्योव कई तमग़े लटकाए रहता था, राजचिह्न वाले और ऐसे भी जिन पर खुदा रहता था बुधवार, बृहस्पतिवार, सोमवार आदि. मेजर कवाल्योव अपनी गरज़ से पीटर्सबुर्ग आया था, मौका लगे तो वह अपने पद के अनुरूप स्थान लपकना चाहता है – उपराज्यपाल का, या किसी महत्वपूर्ण विभाग में कमिश्नर का. मेजर कवाल्योव शादी के ख़िलाफ़ तो नहीं था, मगर वह शादी तभी करना चाहता था, जब दुल्हन दो हज़ार का दहेज लाए. तो अब पाठक समझ गए होंगे कि इस मेजर की क्या हालत हुई होगी जब उसने देखा कि उसकी सुंदर और पतली नाक के स्थान पर है एक फूहड़, सफ़ाचट, समतल मैदान.

दुर्भाग्य देखिए कि सड़क पर एक भी गाड़ीवान नज़र नहीं आया और उसे रूमाल में अपना चेहरा छिपाकर पैदल ही चलना पड़ा, यह दिखाते हुए कि जैसे उसकी नाक से खून बह रहा हो. ‘शायद यह मेरा भ्रम हो, वर्ना ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि नाक ही गायब हो जाए’, ऐसा सोचते हुए वह चॉकलेट, गोलियों की दुकान में इस इरादे से घुसा कि आईने में अपना चेहरा देख सके. सौभाग्य से दुकान में कोई नहीं था, नौकर छोकरे कमरे धोकर कुर्सियाँ सजा रहे थे; कुछ नौकर उनींदी आँखों से ट्रे में केक-पेस्ट्रियाँ सजाकर ला रहे थे, मेज़ों और कुर्सियों पर कॉफ़ी के धब्बे पड़े पुराने अख़बार पड़े थे. “शुक्र है ख़ुदा का, कि यहाँ कोई नहीं है”, वह बुदबुदाया, “अब आराम से देख सकूँगा.” वह दबे पैर आईने के पास पहुँचा और अपना चेहरा देखने लगा. “शैतान जाने क्या मुसीबत है,” वह थूकते हुए बड़बड़ाया – नाक की जगह पर कुछ और ही होता, यहाँ तो एकदम सफ़ाचट है…”

निराशा से होंठ काटते हुए वह दुकान से बाहर निकला और अपनी आदत के विपरीत उसने निश्चय किया कि वह न तो किसी की ओर देखेगा और न ही मुस्कुराएगा. अचानक एक घर के दरवाज़े पर वह मानो बुत बन गया, उसकी आँखों के सामने एक ऐसी घटना घटी जो समझाई नहीं जा सकती : दरवाज़े के सामने एक बन्द गाड़ी रुकी, गाड़ी के दरवाज़े खुले, चेहरा नीचा किए, वर्दी पहने एक भद्र पुरुष बाहर की ओर उछला और सीढ़ियों पर लपक लिया. कवाल्योव के भय और आश्चर्य का पारावार न रहा जब उसने देखा कि यह तो उसकी अपनी नाक थी. इस अभूतपूर्व दृश्य से उसके सामने सब कुछ घूमने लगा, अपनी काँपती हुई टाँगों पर काबू पाते हुए उसने निश्चय किया चाहे जो भी हो, वह उसके गाड़ी में वापस आने का इंतज़ार करेगा. वह यूँ थरथरा रहा था मानो तेज़ बुखार में हो. दो मिनट बाद सचमुच ही नाक वापस आई. वह सुनहरे धागों से सुशोभित विशाल, सीधी कॉलर वाली वर्दी में थी, उसने पतलून पहन रखी थी, कमर में थी तलवार. टोपी पर जड़े फुन्दे से प्रतीत होता था कि वह उच्च श्रेणी का अफ़सर है. ऐसा जान पड़ता था कि वह किसी से मिलने आया है. उसने दोनों ओर देखा और गाड़ीवान से कहा : “चलो!” और बैठकर चला गया.

बेचारा कवाल्योव पगला गया. वह नहीं जानता था कि इस विचित्र घटना के बारे में सोचे तो क्या सोचे. ऐसा कैसे हो सकता है, कि वह नाक जो कल तक उसके चेहरे पर बैठी थी, हिल-डुल नहीं सकती थी, अचानक वर्दी पहन ले! वह गाड़ी के पीछे भागा, जो सौभाग्यवश कुछ ही दूर जाकर कज़ान्स्की चर्च के सामने रुक गई थी.

वह चर्च की ओर लपका, उन निर्धन बूढ़ियों की कतार के बीच से होकर जिनके चेहरों पर पट्टियाँ बँधी थीं और आँखों के लिए सिर्फ दो झिरियाँ थीं और जिन पर वह पहले हँसा करता था. वह चर्च में घुसा. भक्तजनों की संख्या काफ़ी कम थी, वे सब प्रवेशद्वार के निकट ही खड़े थे. कवाल्योव इतना परेशान था कि उसमें प्रार्थना करने की शक्ति ही नहीं रह गई थी. वह सभी कोनों में आँखों से इस भद्रपुरुष को तलाशता रहा. आख़िरकार उसने उसे एक ओर खड़े हुए देख ही लिया. नाक ने लम्बी, ऊँची कॉलर में अपना चेहरा छुपा लिया था और बड़े श्रद्धा भाव से प्रार्थना में लीन था.

‘उसके पास कैसे जाऊँ?’ कवाल्योव सोचने लगा, ‘सभी लक्षणों से, वर्दी से, टोपी से दिखाई दे रहा है, कि वह उच्च श्रेणी का अफ़सर है. शैतान जाने, पहुँचू कैसे वहाँ!’

उसने उसके निकट जाकर खाँसना शुरू कर दिया, मगर नाक ने एक मिनट के लिए भी अपनी श्रद्धालु मुद्रा छोड़कर उसके अभिवादन पर ध्यान नहीं दिया.

“आदरणीय महोदय,” कवाल्योव ने भीतर ही भीतर साहस बटोरते हुए कहा, “आदरणीय महोदय…”

“क्या चाहिए?” नाक ने मुड़कर पूछा.

“मुझे ताज्जुब है, आदरणीय महोदय…मेरा ख़याल है, आपको अपनी जगह मालूम होनी चाहिए. अचानक मैं आपको पाता हूँ – कहाँ? – चर्च में. आप भी मानेंगे…”

“माफ़ कीजिए, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ, कि आप आख़िर कहना क्या चाहते हैं…ठीक से समझाइए.”

‘कैसे समझाऊँ?’ कवाल्योव ने सोचा और साहस बटोरकर बोला :

“बेशक, मैं…ख़ैर, मैं मेजर हूँ. मुझे नाक के बगैर चलना, आप भी मानेंगे, यह अशिष्टता है. किसी दुकानदारिन के लिए, जो वस्क्रेसेन्स्की पुल पर बैठकर संतरे बेचती है, बगैर नाक के बैठना संभव है, मगर, ग़ौर कीजिए – मेरी तरक्की…कई महिलाओं से मेरे घनिष्ठ संबंध हैं : चेख़्तारेवा उच्च अधिकारी की पत्नी और – और भी कई. आप ही इन्साफ़ कीजिए…मैं तो कुछ समझ ही नहीं पा रहा हूँ, आदरणीय महोदय. [ऐसा कहते हुए कवाल्योव ने अपने कंधे उचका दिए.] माफ़ कीजिए…अगर इस बात पर कर्तव्य और सम्मान के नियमों की तहत गौर किया जाए…तो आप ख़ुद ही समझ सकते हैं.”

“कुछ भी समझ नहीं पा रहा हूँ,” नाक ने जवाब दिया, “ठीक से समझाइए. आदरणीय महोदय, मेरा स्वतंत्र अस्तित्व है. और फिर हमारे बीच कोई निकट संबंध हो भी नहीं सकता. आपके कोट की बटनों को देखने पर ही पता चलता है, कि आपका ओहदा मुझसे अलग है.”

इतना कहकर श्रीमान नाक ने मुँह फेर लिया और प्रार्थना में लीन हो गया .

कवाल्योव उलझन में पड़ गया, वह समझ नहीं पाया कि क्या करे और क्या सोचे. इसी समय किसी महिला के वस्त्रों की मीठी-सी सरसराहट सुनाई दी : एक अधेड़ उम्र की महिला निकट आई, झालर वाली पोशाक पहने और उसके साथ थी कमर पर तंग होती पोशाक और ढीली-ढाली टोपी पहने एक कमसिन सुन्दरी. उनके पीछे-पीछे आया बड़े-बड़े कल्लों वाला और दस बारह कॉलर चिपकाए एक सेवक.

कवाल्योव उनके निकट खिसका, उसने अपनी कमीज़ की कॉलर बाहर निकाली, अपने कोट पर सुनहरी जंज़ीर में लटक रहे तमगों को ठीक किया और मुस्कुराते हुए नवयुवती पर नज़र डाली जो बसन्ती फूल की तरह हौले से झुककर सफ़ेद दस्ताने वाला अपना हाथ माथे तक ला रही थी. कवाल्योव के मुख पर मुस्कुराहट और भी गहरी हो गई जब उसने टोपी के नीचे से उसकी गोरी हड्डी और बसन्त के पहले गुलाबों की छटा वाले उसके गाल का एक भाग देखा, मगर तभी वह उछल पड़ा, मानो जल गया हो. उसे याद आ गया कि उसके चेहरे पर नाक के स्थान पर कुछ भी नहीं है, और उसकी आँखों से आँसू बहने लगे. उसने मुड़कर वर्दी वाले महानुभाव से साफ़-साफ़ कहना चाहा कि वह सिर्फ उच्च अफ़सर होने का ढोंग कर रहा है, मगर है वह झूठा और धोखेबाज़ और वह सिवाय उसकी नाक के कुछ भी नहीं है…मगर नाक वहाँ थी ही नहीं, शायद वह किसी और से मिलने चली गई थी.

अब तो कवाल्योव बुरी तरह तैश में आ गया. वह पीछे सरका और एक मिनट के लिए स्तम्भों के पास रुककर उसने ध्यान से देखा कि कहीं नाक तो दिखाई नहीं दे रही. उसे अच्छी तरह याद था कि उसके सिर पर फुँदने वाली टोपी थी और उसके कोट पर सुनहरी कढ़ाई थी, मगर उसके ओवरकोट को देख नहीं पाया था और न ही देख पाया था उसकी गाड़ी का रंग, न घोड़ों का रंग. यह भी नहीं देखा था उसने कि गाड़ी के पीछे कोई सेवक था या नहीं, फिर रास्ते पर इधर-उधर इतनी सारी गाड़ियाँ इतनी तेज़ी से जा रही थीं कि उन्हें पहचानना मुश्किल था, मगर यदि पहचान भी जाता उन्हें रोकना असंभव था. दिन बड़ा ख़ुशगवार था. धूप खिली हुई थी. नेव्स्की एवेन्यू पर लोगों की भीड़ थी, महिलाओं का रंगबिरंगा झरना-सा पूरे फुटपाथ पर बिखरा था, पलित्सेइस्की से लेकर अनीच्किन पुल तक. यह आ रहा है उसका परिचित अफ़सर, जिसे वह डिप्टी जनरल कहकर पुकारता था, ख़ासकर भीड़ में. यह है यारीगिन, बड़ा बाबू सिनेट का, गहरा दोस्त है, ताश बड़ी ख़ूबसूरती से खेलता है. यह है एक और मेजर, कॉकेशस से बनकर आया है, वह हाथ के इशारे से उसे अपने निकट बुलाता है.

“ओह, शैतान ले जाए,” कवाल्योव ने कहा और वह एक गाड़ी में बैठ गया.

“ऐ, गाड़ीवान, सीधे डिप्टी पुलिस कमिश्नर के पास ले चलो. पूरी रफ़्तार से चलो!”

…..

“क्या डिप्टी साहब हैं?” वह आँगन में प्रवेश करते हुए चीखा.

“नहीं,” संतरी ने जवाब दिया, “अभी-अभी गए हैं,”

“शाबास!”

“हाँ,” संतरी आगे बोला, “ज़्यादा देर नहीं हुई, अभी-अभी गए हैं. एक मिनट पहले आते तो आप उन्हें घर में पाते.”

चेहरे से रूमाल हटाए बिना कवाल्योव गाड़ी में बैठ गया और उड़ी-उड़ी आवाज़ में बोला, “चलो!”

“कहाँ,” गाड़ीवान ने पूछ लिया.

“सीधे चलो.”

“सीधे कैसे? यहाँ मोड़ है, दाँए या बाँए?”

इस प्रश्न ने कवाल्योव को सोचने पर मजबूर कर दिता. उसकी स्थिति को देखते हुए तो यही उचित था कि सबसे पहले पुलिस मुख्यालय में जाया जाए, इसलिए नहीं कि उसका पुलिस से संबंध था, बल्कि इसलिए कि अन्य विभागों की अपेक्षा उनकी कार्र्वाई शीघ्रता से होती थी, उस मुहल्ले के अफ़सर की सहायता से नाक के सेवास्थल की जाँच करना बेवकूफ़ी होती, क्योंकि नाक द्वारा दिए गए जवाबों से यह तो पता चल ही चुका था कि इस व्यक्ति के लिए निष्ठा, पवित्रता नामक चीज़ों का कोई अस्तित्व ही नहीं था, वह इस बारे में झूठ भी बोल सकता था, जैसे कि उसने यह झूठ बोला था कि वह उससे कभी मिला ही नहीं है. इसीलिए कवाल्योव पुलिस मुख्यालय चलने की आज्ञा देने ही वाला था कि उसके दिमाग में यह ख़याल आया कि यह धोखेबाज़, डाकू, जो पहली ही मुलाकात में इतनी बेशर्मी से पेश आया था, समय का फ़ायदा उठाकर शहर से खिसक भी सकता था, और तब उसकी तलाश जारी रहती – ख़ुदा न करे – महीनों तक. अंत में, शायद भगवान ने ही उसे प्रेरणा दी. उसने निश्चय किया कि वह अख़बार के दफ़्तर में जाएगा और सभी विशेषताओं सहित उसके बारे में इश्तेहार देगा, जिससे कि देखते ही उसे कोई भी पकड़र कवाल्योव के पास ले आए या फिर उसका ठौर-ठिकाना बता सके. तो, उसने गाड़ीवान को अख़बार के दफ़्तर में चलने की आज्ञा दी और पूरे रास्ते उसे यह कहते हुए धमकाता रहा, “जल्दी, कमीने! जल्दी, बदमाश!” – “ओह, मालिक!” गाड़ीवान अपने सिर को झटका देते-देते घोड़े की लगाम खींचते हुए जवाब देता. आख़िरकार गाड़ी रुक गई और कवाल्योव गहरी-गहरी साँस लेते हुए नन्हे-से स्वागत-कक्ष में घुसा, जहाँ सफ़ेद बालों वाला एक कर्मचारी, पुराना कोट और चश्मा पहने मेज़ के पीछे बैठा था और दाँतों में कलम दबाए हाथों से ताँबे के सिक्के गिन रहा था.

“इश्तेहार कौन लेता है?” कवाल्योव चीखा. “आह, नमस्ते!”

“मेरा नमस्कार,” बूढ़े क्लर्क ने कहा, और एक मिनट के लिए आँखें उठाकर दुबारा सामने पड़े पैसों के ढेर पर टिका दीं.

“मैं छपवाना चाहता हूँ,”

“कृपया थोड़ा ठहरिए,” क्लर्क बोला, “एक हाथ से कागज़ पर एक अंक लिखकर दूसरे हाथ की उँगलियों से उसने सामने पड़े गणक के दो दाने खिसका दिए.

झालरदार कमीज़ वाला चपरासी, जो अपने अंदाज़ से यह दिखा रहा था कि वह किसी सामन्त के घर में काम करता है, मेज़ के पास एक चिट हाथों में लिए खड़ा था. उसने अपनी मिलनसारिता दिखाना उचित समझा :

“यकीन कीजिए, साहब, कुत्ता आठ कोपेक का भी नहीं है, याने मैं उसके लिए आठ कोपेक भी नहीं देता, मगर सरदारिन साहेबा उसे बहुत चाहती हैं, प्यार करती हैं – और उसे ढूँढ़ने वाले को सौ रूबल. शिष्टाचारवश कहूँ तो, जैसे कि हम हैं और आप हैं, सब की पसन्द एक-सी तो नहीं होती, मगर इतना ही शौक है, तो अच्छी किस्म के कुत्तों के लिए पाँच सौ, हज़ार भी दे दो…मगर, अच्छा ही था कुत्ता…

क्लर्क बड़े ध्यान से इस बात को सुनते हुए अपना हिसाब भी करता जा रहा था, देखता जा रहा था कि चिट में कितने अक्षर हैं. अगल-बगल कई बूढ़ियाँ खड़ी थीं, सामन्तों और व्यापारियों के सेवक भी थे पुर्जों के साथ. एक में लिखा था, कि एक बहादुर गाड़ीवान नौकरी चाहता है, दूसरे में कम इस्तेमाल की गई, 1814 में पैरिस में खरीदी गई गाड़ी बेचना है, कोई उन्नीस साल की छोकरी नौकरी चाहती है, जो धोबन के अलावा अन्य काम भी कर सकती है, मज़बूत गाड़ी बिना किसी मरम्मत के, जवान फुर्तीला घोड़ा – भूरे धब्बों वाला, सत्रह साल का, लंदन से मँगवाया गया; गाजर और चुकन्दर के बीज, समर-कॉटेज सभी सुविधाओं सहित, घोड़ों के लिए दो अस्तबल और एक खुले मैदान सहित जिसमें बर्च के वृक्षों का वन लगाया जा सकता है, जूतों के पुराने सोल बेचने की बात थी, जिसके लिए खरीदारों को सुबह आठ बजे से तीन बजे तक आने के लिए कहा गया था. वह कमरा, जहाँ यह पूरा हुजूम था, छोटा-सा था और उसमें दम घुट रहा था, मगर मेजर कवाल्योव को कोई दुर्गन्ध महसूस नहीं हो रही थी, क्योंकि उसने रूमाल से चेहरा ढाँक रखा था, और इसलिए भी कि उसकी ‘नाक’ न जाने कहाँ घूम रही थी.

“आदरणीय महोदय, क्या मैं प्रार्थना कर सकता हूँ…यह बहुत ज़रूरी है…” आख़िर उसने बेचैनी से कह ही डाला.

 “रुको, रुको! दो रूबल तैंतालीस कोपेक. एक मिनट में. एक रूबल चौंसठ कोपेक.” सफ़ेद बालों वाला बूढ़ियों और चपरासियों की ओर पुर्जे फेंकता हुआ बोला.

“आप को क्या चाहिए?” आख़िरकार उसने कवाल्योव से पूछा.

“मैं निवेदन करता हूँ…” कवाल्योव बोला, “डाका पड़ा है या बदमाशी हुई है, मैं अभी तक समझ नहीं पाया. मैं सिर्फ इतनी विनती करता हूँ, कि यह छापिए कि उस कमीने को मेरे पास लाने वाले को भरपूर इनाम दिया जाएगा.”

“माफ़ कीजिए, आपका नाम?”

“नहीं, नाम की क्या ज़रूरत है? मैं बता नहीं सकता. मेरे कई जान-पहचान वाले हैं : चेख्तारेवा, बड़े अफ़सर की पत्नी, पेलागेया ग्रिगोरेव्ना पदतोचिना, कर्नल की पत्नी…अचानक सब को पता चल जाएगा, ख़ुदा बचाए! इतना लिखिए : सुपरिंटेंडेंट …मेजर.”

“भागने वाला आपका सेवक था?”

“कैसा सेवक? यह तो कोई बात नहीं है! गुंडागर्दीवाली बात है. भागी है…नाक…!”

“हूँ, कैसा अजीब नाम है! क्या महाशय नाक बड़ी रकम लेकर भागे हैं?”

“नाक…मतलब…आप गलत समझ रहे हैं. नाक…मेरी अपनी नाक न जाने कहाँ खो गई है. शैतान को मेरा मज़ाक करने की ख़ूब सूझी!”

“ऐसे कैसे गुम हो गई? मैं ठीक से समझ नहीं पा रहा.”

“मैं बता नहीं सकता कि कैसे : मगर ख़ास बात यह है कि इस समय वह पूरे शहर का चक्कर लगा रही है और स्वयम् को उच्च श्रेणी का अफ़सर कहती है. इसीलिए मैं आपसे ऐसा इश्तेहार छापने की दरख़्वास्त करता हूँ, कि उसे पकड़ने वाला उसे फ़ौरन मेरे पास ले आए. आप ख़ुद ही फ़ैसला कीजिए कि शरीर के इतने महत्वपूर्ण अंग के बिना मैं कैसे रह सकता हूँ? यह कोई पैर की छोटी उँगली तो नहीं है जिसे मैं जूते में छिपा लेता, और कोई जान भी न पाता कि वह नहीं है. मैं हर गुरूवार को उच्च श्रेणी के अफ़सर की पत्नी चेख्तारेवा के यहाँ जाता हूँ, पोद्तोचिना पेलागेया ग्रिगोरेव्ना, कर्नल की पत्नी भी, जिसकी बेटी बड़ी सुन्दर है, मेरी अच्छी परिचित है और अब आप ही बताइए मैं कैसे…अब तो मैं उनके पास जा ही नहीं सकता.”

क्लर्क गहरी सोच में डूब गया, उसके होंठ भिंच गए.

“नहीं, मैं अख़बारों में ऐसा इश्तेहार नहीं दे सकता,” बड़ी देर की ख़ामोशी के बाद उसने कहा.

“क्या? क्यों?”

“हाँ, हमारे अख़बार की प्रतिष्ठा धूल में मिल जाएगी. अगर हर कोई यह लिखने लगे कि उसकी नाक भाग गई है, तो…वैसे भी लोग कहते हैं कि कई अनाप-शनाप बातें और झूठी अफ़वाहें छपती हैं.”

“यह बात अनाप-शनाप कैसे हुई? यहाँ तो ऐसी कोई बात ही नहीं है.”

“ऐसा आप सोचते हैं, कि कोई बात नहीं है. मगर पिछले ही हफ़्ते ऐसा किस्सा हुआ था. ऐसे ही एक कर्मचारी आया, जैसे अभी आप आए हैं, और एक कागज़ का पुर्जा लाया, मेरे हिसाब से दो रूबल तिहत्तर कोपेक बनते हैं, और इश्तेहार यह था कि काले रंग का कुत्ता भाग गया है…आप पूछेंगे कि इसमें क्या बात थी? तो, सम्मन आ गया : कुत्ता तो सरकारी था, याद नहीं किस विभाग का था.”

“पर मैं तो कुत्ते के बारे में इश्तेहार नहीं दे रहा हूँ, बल्कि अपनी…मेरी अपनी नाक के बारे में, याने कि अपने ही बारे में कह रहा हूँ.”

“नहीं, इस तरह का इश्तेहार मैं अख़बार में नहीं डाल सकता…”

“मेरी नाक सचमुच गुम हो जाए तब भी?”

“अगर गुम हो गई है तो यह डॉक्टर का काम है. कहते हैं कि ऐसे लोग हैं, जो किसी भी तरह की नाक लगा सकते हैं. मेरा ख़याल है कि आप मज़ाकिया किस्म के आदमी हैं और मज़ाक करना आपको अच्छा लगता है.”

“ख़ुदा की कसम खाकर कहता हूँ! अगर बात यहाँ तक पहुँची है, तो मैं आपको दिखा देता हूँ…”

“मैं क्यों बेकार में परेशानी मोल लूँ,” बाबू ने नसवार सूँघते हुए कहा. “मगर यदि परेशानी वाली बात न हो तो,” उसने उत्सुकता से आगे कहा, “ तो, मैं देख सकता हूँ.”

सुपरिंटेंडेंट ने चेहरे से रूमाल हटाया.

“सचमुच बड़ी अजीब बात है,” बाबू ने कहा, “जगह बिल्कुल चिकनी है जैसे अभी-अभी पकाया हुआ पैनकेक! अविश्वसनीय रूप से समतल!”

“तो, आप अब भी बहस करेंगे? आप ख़ुद ही देख रहे हैं कि बिना छपवाए काम नहीं चलेगा, मैं आपका बहुत शुक्रगुज़ार रहूँगा, मैं बहुत ख़ुश हूँ कि इसी बहाने आपसे मुलाकात हुई…”

मेजर ने इस बार शायद कुछ चापलूसी करने की ठानी थी.

“छापना तो, बेशक, कोई बड़ी बात नहीं है,” बाबू ने जवाब दिया, “मगर मैं नहीं समझता कि इससे आपका काम बनेगा. अगर आप चाहें तो किसी ऐसे आदमी से लिखवाइए, जो बड़ी ख़ूबसूरती से लिखता हो. उसे कुदरत के इस अद्भुत करिश्मे को एक लेख के रूप में लिखकर “उत्तरी मधुमक्खी” में (उसने फिर नसवार सूँघी) नौजवानों के फ़ायदे के लिए (अब उसने नाक पोंछी) या फिर जनता के मनोरंजन के लिए छापना चाहिए.”

सुपरिंटेंडेंट बिल्कुल निराश हो गया. उसने नीचे रखे अख़बार पर नज़रें झुकाईं, जहाँ थियेटरों के कार्यक्रमों के बारे में जानकारी थी. हीरोइन का नाम पढ़कर, जो बड़ी ख़ूबसूरत थी उसका चेहरा मुस्कुराने को तैयार ही था. उसका हाथ अपनी जेब की ओर गया यह देखने के लिए कि उसमें नीला नोट है या नहीं, क्योंकि मेजरों को, कवाल्योव की राय में, कुर्सियों पर बैठना होता है…मगर, नाक के ख़याल ने सब गुड़गोबर कर दिया.

बाबू भी कवाल्योव की हालत देखकर द्रवित हो चला था, उसे कुछ सांत्वना देने के उद्देश्य से उसने सोचा कि अपनी सहानुभूति को संक्षेप में कह दिया जाए:

“मुझे, सचमुच, बेहद अफ़सोस है कि आपके साथ यह मज़ाक हुआ है. क्या आप थोड़ी नसवार सूँघना चाहेंगे? इससे सिर का दर्द दूर हो जाता है और निराशा के ख़याल छँट जाते हैं, अर्धशीशी के दर्द में भी फ़ायदा करती है.”

ऐसा कहते हुए बाबू नसवार की डिबिया, टोप पहनी हुई महिला के चित्र वाले ढक्कन को खोलकर, कवाल्योव की नाक के बिल्कुल पास ले गया.

इस बेसोची-समझी हरकत ने कवाल्योव को आपे से बाहर कर दिया.

“समझ में नहीं आ रहा है कि आप हर जगह मज़ाक कैसे कर लेते हैं,” उसने अत्यंत दुखी होते हुए कहा, “क्या आप देख नहीं सकते कि मेरे पास वह नहीं है, मैं सूंघ कैसे सकता हूँ? शैतान आपकी नसवार छीन ले. मैं तो अब उसकी ओर देख भी नहीं सकता, न सिर्फ आपकी सस्ती, सड़ी तम्बाकू की ओर, बल्कि महँगी से महँगी तम्बाकू की ओर भी नहीं.”

इतना कहकर बहुत अपमानित करते हुए वह अख़बार के दफ़्तर से निकला और थानेदार की ओर चल पड़ा जिसे शक्कर बहुत पसन्द थी. उसके घर के नन्हे-से हॉल को, जो डाइनिंग रूम भी था, शक्कर के खिलौनों से सजाया गया था, जिन्हें दोस्ती की ख़ातिर व्यापारी ले आया करते थे. इस वक्त महाराजिन थानेदार के पैरों से भारी-भरकम जूते उतार रही थी, तलवार और दूसरे शस्त्र शांतिपूर्वक कोनों में लटक रहे थे, और उसकी भारी-भरकम तिकोनी टोपी से उसका तीन साल का बेटा खेल रहा था, और वह झंझटों, टंटों भरी, गाली-गलौज वाली ज़िंदगी के पश्चात् अब जीवन की ख़ुशियों का आस्वाद लेना चाहता था.

कवाल्योव उस वक्त कमरे में घुसा जब थानेदार आलस लेते हुए उबासी के साथ कह रहा था : “अब दो घण्टों के लिए लम्बी तान दूँगा!” और इसीलिए अनुमान लगाया जा सकता है, कि सुपरिंटेंडेंट का प्रवेश सही समय पर नहीं हुआ था, और मैं कह नहीं सकता कि भेंट स्वरूप कुछ पौण्ड चाय और कुछ कपड़े लाने के बावजूद भी इस समय उसका स्वागत गर्मजोशी से हुआ या नहीं. थानेदार यूँ तो सभी कलात्मक वस्तुओं एवम् कारखानों की बनी वस्तुओं का प्रशंसक था, मगर सरकारी नोटों को प्राथमिकता देता था. “यह चीज़,” वह अक्सर कहता, “इससे अच्छी कोई और चीज़ नहीं है : खाने को माँगती नहीं, जगह भी बहुत कम घेरती है, जेब में हमेशा समा जाती है, गिरा दो तो टूटती भी नहीं है.”

थानेदार ने कवाल्योव का बड़ा रूखा स्वागत किया और फ़ब्ती कसी कि कहीं भोजन के बाद भी खोज-बीन की जा सकती है, प्रकृति ने ही यह नियम बनाया है, कि भरपेट खाने के बाद थोड़ा आराम करना चाहिए. [इससे सुपरिंटेंडेंट को पता चला कि थानेदार को प्राचीन विद्वानों की उक्तियों का ज्ञान था], और किसी भलेमानस की नाक कभी कोई नहीं काटता, और दुनिया में ढेरों मेजर ऐसे हैं जिनका कच्छा भी ढंग का नहीं होता और जो हर गन्दी जगह पर मंडराते रहते हैं.

मतलब, भँवों पर नहीं- सीधे आँखों पर! ग़ौर करना होगा कि कवाल्योव बड़ा ही संवेदनशील व्यक्ति था. वह अपने व्यक्तित्व के बारे में कही गई किसी भी भद्दी से भद्दी बात को माफ़ कर सकता था, मगर यदि कोई उसके पद या ओहदे का अपमान करे, तो वह बर्दाश्त नहीं कर सकता था. वह ऐसा भी मानता था कि थियेटर के नाटकों में हर उस चीज़ को कहने की इजाज़त होनी चाहिए, जो कैप्टेन से नीचे वाले अफ़सरों से संबंधित हो, मगर उससे ऊपर के अफ़सरों को कभी भी निशाना नहीं बनाना चाहिए. थानेदार के स्वागत से वह इतना बौखला गया कि उसने अपना सिर झटक कर, हाथ फैला कर स्वाभिमान की भावना से कहा, “ मैं मानता हूँ, कि आपके द्वारा की गई इन अपमानास्पद टिप्पणियों के पश्चात् मैं आगे कुछ भी नहीं कह सकता…” और बाहर निकल गया.

…..

वह बेसुध-सा घर आया, शाम हो चुकी थी. इन सब असफ़ल कोशिशों के बाद उसे अपना घर बड़ा दयनीय और मनहूस प्रतीत हुआ. हॉल में घुसते ही उसे सरकारी, धब्बेदार सोफ़े पर पड़ा नज़र आया सेवक इवान, जो पीठ के बल लेटा हुआ एकटक छत को घूरे जा रहा था. वह बड़ी देर तक इसी अवस्था में पड़ा रहा. सेवक की इस उदासीनता से वह तैश में आ गया, उसने अपनी टोपी से उसके माथे पर चोट करते हुए कहा : “सूअर कहीं के, हमेशा बेवकूफ़ियाँ करते रहते हो!”

इवान अपनी जगह से उछल पड़ा और फ़ौरन लपककर उसका कोट उतारने लगा.

अपने कमरे में आकर थका हुआ, दयनीय मेजर कुर्सी पर ढेर हो गया और कई बार गहरी आहें भरने के बाद बोला :

“ऐ ख़ुदा! ऐ मेरे ख़ुदा! यह दुर्भाग्य क्यों? अगर मैं बे-पैर या बे-हाथ का होता – तो वो बेहतर होता, अगर मैं बे-कान का होता! होती तो अजीब बात, मगर बर्दाश्त की जा सकती थी : मगर बे-नाक का आदमी शैतान जाने क्या होता है : पंछी- पंछी नहीं, और नागरिक – नागरिक नहीं! – बस, उठाओ और खिड़की से बाहर फेंक दो! लड़ाई में या द्वंद्व युद्ध में ही कट जाती, मेरी ही गलती से कट जाती, मगर ये तो बे-बात के ग़ायब हो गई, मुफ़्त में, एक दमड़ी भी नहीं मिली. मगर नहीं, ऐसा हो ही नहीं सकता,” वह कुछ सोचकर आगे बोला, “विश्वास नहीं होता, कि नाक खो जाए, किसी भी तरह नहीं! यह बात बिल्कुल सच है, या कहीं मुझे सपना तो नहीं आ रहा? हो सकता है, मैं गलती से पानी के बदले वोद्का पी गया, जिससे हजामत बनवाने के बाद मैं अपनी ठुड्डी साफ़ करता हूँ. इवान, बेवकूफ़ ने, शायद ली नहीं और, अवश्य ही मैंने उसे पी लिया…”

यह देखने के लिए कि वह नशे में है या नहीं मेजर ने स्वयम् को इतनी ज़ोर से चुटकी काटी कि वह ख़ुद ही चीख़ पड़ा. मगर इस दर्द ने उसे विश्वास दिला दिया कि वह वास्तविकता में ही जी रहा है और हरकत कर रहा है. वह दबे पाँव आईने के करीब आया और आँखे सिकोड़कर इस ख़याल से देखने लगा कि उसे नाक अपनी जगह पर ही मिलेगी, मगर वह फ़ौरन उछलकर पीछे हट गया और चीख़ा :

“ओssह, एकदम जोकर!”

यह बिल्कुल समझ में न आने वाली बात थी. अगर बटन खो जाता, चाँदी की चम्मच खो जाती या फिर घड़ी या ऐसी ही कोई और चीज़ खो जाती, मगर खोया भी तो क्या खोया? और अपने ही घर में!…सारे हालात पर भली भाँति नज़र डालने के बाद मेजर कवाल्योव इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि इस घटना के पीछे उच्च श्रेणी के अफ़सर की पत्नी पोद्तोचिना का हाथ है, जो चाहती थी कि कवाल्योव उसकी बेटी से शादी कर ले. वह स्वयम् भी उसकी ख़ुशामद करना पसन्द करता था, मगर अंतिम निर्णय को हमेशा टालता रहा. जब पोद्तोचिना ने उससे खुल्लम खुल्ला कह दिया कि वह अपनी बेटी का ब्याह उससे करना चाहती है तो उसने धीमे से उसकी लल्लो-चप्पो करते हुए यह कहकर टाल दिया कि अभी तो वह बहुत छोटा है, उसे कम से कम और पाँच साल नौकरी करनी है, जिससे वह ठीक बयालीस साल का हो जाए. और इसीलिए, अफ़सर की बीबी ने बदले की भावना से, उसका रूप बिगाड़ने की ठान ली, और किसी जादूगरनी को इस काम के लिए पैसे दिए, क्योंकि इस बात की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती थी कोई उसकी नाक काटकर ले गया हो : उसके कमरे में कोई आया ही नहीं था, नाई इवान याकव्लेविच ने बुधवार को हजामत बनाई थी, और पूरे बुधवार और बृहस्पतिवार को भी उसकी नाक सही-सलामत थी, यह बात उसे अच्छी तरह याद थी; अगर कोई दर्द ही महसूस होता, क्योंकि कोई ज़ख़म इतनी जल्दी तो भर नहीं सकती थी और पैनकेक की तरह चिकनी नहीं बन सकती थी. उसने अपने मस्तिष्क में योजना बनाई : क्या अफ़सर की पत्नी को अदालत में घसीटा जाए या उसके पास स्वयम् जाकर जवाब तलब किया जाए? उसके विचारों को दरवाज़ों से छनकर आती रोशनी ने भंग कर दिया, जिससे पता चल रहा था कि इवान ने हॉल में मोमबत्ती जला दी है. शीघ्र ही स्वयम् इवान भी दिखाई दिया जो मोमबत्ती को हाथ में पकड़े हुए पूरे कमरे को आलोकित कर रहा था. कवाल्योव ने झपट कर रूमाल उठा लिया और उस जगह को ढाँक दिया, जहाँ कल तक नाक थी, जिससे कि यह बेवकूफ़ आदमी अपने मालिक को ऐसी विचित्र अवस्था में देखकर चीख़ न मारे.

इवान अपने दड़बे में घुस भी न पाया था कि बाहर हॉल में एक अपरिचित आवाज़ सुनाई दी:

“क्या सुपरिंटेंडेंट कवाल्योव यहाँ रहते हैं?”

“आइए, मेजर कवाल्योव यहीं रहते हैं,” कवाल्योव ने उछलकर फ़ौरन दरवाज़ा खोल दिया.

एक सुदर्शन पुलिस वाला, कुछ काले, कुछ भूरे कल्लोंवाला, भरे-भरे गालों वाला, वही, जो इस कथा के आरंभ में इसाकियेव्स्की पुल के अंत में खड़ा था, प्रविष्ट हुआ.

“क्या आपके दुश्मनों की नाक खो गई है?”

“बिल्कुल ठीक.”

“वह मिल गई है.”

“क्या कह रहे हैं?” मेजर कवाल्योव चीख़ा. ख़ुशी के मारे उसकी ज़ुबान बन्द हो गई. उसने बड़े ध्यान से अपने सामने खड़े संतरी की ओर देखा जिसके भरे-भरे होठों और गालों पर फड़फड़ाती मोमबत्ती का प्रकाश तैर रहा था. “कैसे?”

“बड़ी अजीब बात है : उसे रास्ते पर पकड़ा गया. वह बग्घी में बैठ चुका था और रीगा जाना चाहता था. मगर पासपोर्ट पर किसी एक कर्मचारी का नाम लिखा था. आश्चर्य की बात तो यह थी कि मैं भी उसे वही व्यक्ति समझ बैठा. मगर सौभाग्य से मेरे पास चश्मा था, और उसे पहनते ही मैंने देखा कि वह तो नाक थी. खैर, मैं तो निकट की वस्तुओं को ठीक से देख नहीं पाता, याने अगर आप मेरे सामने खड़े हो जाएँ, तो मैं सिर्फ आपका चेहरा ही देख सकूँगा, आपकी नाक, दाढ़ी…कुछ भी मुझे नज़र नहीं आएगा. मेरी सास, याने मेरी बीबी की माँ भी कुछ नहीं देख सकती.”

कवाल्योव को अपने आप पर काबू नहीं रहा.

“कहाँ है वह? कहाँ है? मैं अभी चलता हूँ.”

“घबराइए नहीं! मैं जानता था कि आपको उसकी ज़रूरत है, उसे अपने साथ ही ले आया हूँ. अजीब बात यह है कि इस घटना का मुख्य अभियुक्त, दुष्ट नाई, वज़्नेसेन्स्की सडक पर रहने वाला, इस समय हवालात में है. मुझे पहले से ही उसके पियक्कड़ और चोर होने का शक था, अभी तीन दिन पहले उसने एक दुकान से बटनों का डिब्बा चुराया था. आपकी नाक ठीक वैसी है, जैसी थी.

इतना कहकर संतरी ने जेब में हाथ डाला और कागज़ में लिपटी हुई नाक बाहर निकाली.

“हाँ, वही है!” कवाल्योव चीख़ पड़ा, “बिल्कुल वही! आज आप मेरे साथ चाय पीजिए.”

“मैं इसे अपना बहुत बड़ा सम्मान समझता, मगर आज किसी भी हालत में संभव नहीं है : यहाँ से मुझे सीधे पागलखाने जाना है…सभी चीज़ों की कीमतें बहुत बढ़ गई हैं…मेरे घर में मेरी सास भी रहती है, याने मेरी बीबी की माँ, और बच्चे भी हैं, बड़े बेटे से मुझे काफ़ी उम्मीदें हैं : बड़ा होशियार बच्चा है, मगर उनके उचित भरण-पोषण के लिए मेरे पास पर्याप्त पैसे नहीं हैं…”

कवाल्योव समझ गया और मेज़ पर से लाल नोट उठाकर उसने संतरी के हाथ में थमा दिया, जो फ़ौरन गोल घूमकर दरवाज़े से बाहर निकल गया, और लगभग उसी समय कवाल्योव को सड़क पर उसकी आवाज़ सुनाई दी, जो एक भोले-भाले ग्रामीण को फ़टकार रही थी, जो अपनी ठेला गाड़ी फुटपाथ पर चढ़ा रहा था.

संतरी के जाने के बाद कवाल्योव कुछ देर गुमसुम बैठा रहा, तब कहीं जाकर वह कुछ देखने-समझने की स्थिति में आया : इस विस्मृति का कारण थी आकस्मिक प्रसन्नता. उसने ढूँढ़ी गई नाक को बड़ी सावधानी से उठाया और उसे दुबारा बड़े गौर से देखा.

“वही है, बिल्कुल वही!” मेजर कवाल्योव बड़बड़ाया.

“दाईं ओर मस्सा भी है, जो कल ही उग आया था.”

मेजर ख़ुशी से हँस पड़ा.

….

 मगर इस दुनिया में कोई भी चीज़ शाश्वत नहीं है, और इसीलिए ख़ुशी भी अगले क्षण उतनी जोशीली नहीं रहती, तीसरे क्षण वह और कमज़ोर पड़ जाती है और अन्त में मन की अवस्था में अनजाने ही घुलमिल जाती है, जैसे पानी में पत्थर गिरने से बना वृत्त, जो बाद में समतल सतह में खो जाता है. कवाल्योव सोचने लगा और इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि काम अभी ख़त्म नहीं हुआ है : नाक मिल तो गई है, मगर उसे अपनी जगह पर वापस तो बिठाना है.

‘’’और यदि न बैठे तो?

अपने आपसे किए गए इस सवाल से कवाल्योव का चेहरा पीला पड़ गया.

एक अनजान भय से वह मेज़ की ओर लपका, आईना नज़दीक लाया, जिससे नाक को टेढ़ी न बिठा दे. उसके हाथ थरथरा रहे थे. बड़ी सावधानी से उसने नाक को अपनी पहली वाली जगह पर रखा. ओह, भयानक! नाक चिपक ही नहीं रही थी. वह उसे अपने मुँह के पास लाया, अपनी साँस से उसे कुछ गर्म किया और दुबारा दोनों गालों के बीच वाली समतल जगह पर लाया, मगर नाक थी कि वहाँ रुक ही नहीं रही थी.

“ओह! मान भी जा! चढ़ जा, बेवकूफ़!” उसने नाक से कहा, मगर नाक तो मानो काठ की बन गई थी और बार-बार मेज़ पर इतनी अजीब आवाज़ के साथ गिर-गिर पड़ती थी मानो बोतल का ढक्कन हो. मेजर का चेहरा बिसूर गया. ‘क्या सचमुच वह चिपकेगी नहीं?’ उसने ख़ौफ़ से सोचा. कितनी ही बार वह उसे अपनी पहले वाली जगह पर ले गया, मगर उसकी हर कोशिश बेकार गई.

उसने इवान को डॉक्टर के पास भेजा, जो उसी बिल्डिंग की निचली मंज़िल पर रहता था. डॉक्टर बड़ा ख़ूबसूरत आदमी था – काले कल्लों वाला, तंदुरुस्त बीबी वाला; सुबह-सुबह ताज़े सेब खाता था और अपना मुँह बहुत साफ़ रखता था, हर सुबह करीब पैंतालीस मिनट तक उसे साफ़ करता था और दाँतों को भी विभिन्न प्रकार के टूथ ब्रशों से साफ़ किया करता था. डॉक्टर फ़ौरन आ गया. यह पूछने के बाद कि दुर्घटना कितनी देर पहले हुई है, उसने मेजर की ठुड्डी पकड़ कर उसका चेहरा ऊपर उठाया और अपनी बड़ी उँगली से उस स्थान पर टक-टक किया जहाँ पहले नाक हुआ करती थी. मेजर ने अपना चेहरा इतनी ज़ोर से पीछे हटाया कि उसका सिर दीवार से टकरा गया. डॉक्टर ने कहा कि कोई चिंता की बात नहीं है और उसे दीवार से कुछ दूर हटने की सलाह देकर चेहरा बाईं ओर मोड़ने को कहा. उस जगह को छूकर, जहाँ पहले नाक थी, बोला, “हूँ!” फिर सिर को दाईं ओर मोड़ने की आज्ञा दी और बोला, “हूँ!” – और अन्त में फिर से बड़ी उँगली से उस जगह चोट की जिससे मेजर ने अपना सिर इस तरह हिलाया, जैसे वह घोड़ा हिलाता है जिसके दाँत देखे जा रहे हों. इतने सारे परीक्षणों के बाद डॉक्टर बोला :

“नहीं, असंभव है! बेहतर है कि आप इसी तरह रहें, क्योंकि बात बिगड़ भी सकती है. उसे बिठाना संभव तो है, मैं ख़ुद ही उसे अभी चिपका देता, मगर मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि यह आपके लिए बुरा होगा.”

“ये अच्छी कही! नाक के बगैर मैं रहूँ कैसे?” कवाल्योव ने कहा. अभी है, उससे बदतर हालत तो नहीं हो सकती. शैतान ही जाने ये मुसीबत क्या है! ऐसी जोकरों जैसी शक्ल में मैं किसी को मुँह कैसे दिखा सकता हूँ? मेरी कई लोगों से अच्छी पहचान है. आज ही शाम को मुझे दो घरों में मिलने जाना है, कई बड़े-बड़े लोगों को मैं जानता हूँ : उच्च श्रेणी की महिला चेख्तारेवा, पोद्तोचिना – बड़े अफ़सर की बीबी…हालाँकि उसकी आज की हरकत के बाद मैं उससे कोई ताल्लुक नहीं रखना चाहता, सिर्फ पुलिस के ज़रिए ही उससे बात करूँगा. मुझ पर मेहेरबानी कीजिए,” कवाल्योव ने बड़े विनय से कहा, “क्या कोई भी उपाय नहीं है? किसी तरह लगा दीजिए, अच्छी तरह नहीं तो सिर्फ लटकती रहने दीजिए, मैं उसे हाथ से सँभाले रहूँगा. मैं नृत्य भी नहीं करूँगा, जिससे किसी भी असावधानी के क्षण में उसे नुकसान न पहुँचे. जहाँ तक आपकी मेहेरबानी का सवाल है, आपकी ‘विज़िटों’ का सवाल है, तो विश्वास रखिए कि जहाँ तक संभव होगा…”

“विश्वास कीजिए,” डॉक्टर ने हौले से, मगर दृढ़ और मीठी आवाज़ में कहा, “मैं पैसों के लालच में इलाज नहीं करता. यह मेरे पेशे और मेरे नियमों के ख़िलाफ़ है. यह सच है कि मैं ‘विज़िट’ के लिए पैसे लेता हूँ, मगर सिर्फ इसलिए कि मेरे इनकार से कोई अपमानित न हो जाए. मैं आपकी नाक ज़रूर बिठा देता, मगर यदि आप मेरे शब्दों पर विश्वास नहीं करते तो मैं आपको अपनी प्रतिष्ठा का वास्ता देता हूँ, कि यह बहुत बुरा रहेगा. प्रकृति को ही अपना काम करने दीजिए. उस जगह को ठण्डे पानी से धोते रहिए, मैं आपको यकीन दिलाता हूँ, कि बगैर नाक के भी आप उतने ही स्वस्थ्य रहेंगे जितने नाक के साथ होते. मैं आपको सलाह दूँगा कि नाक को स्प्रिट के घोल में रखकर बैंक में रख दीजिए, दो चम्मच वोद्का में गर्म सिरके का घोल ज़्यादा अच्छा रहेगा, – और तब आपको उसके पैसे भी अच्छे मिलेंगे. यदि आप उसकी हिफ़ाज़त न करना चाहें तो मैं ही उसे ख़रीद लूँगा.”

“नहीं,बिल्कुल नहीं! बेचूँगा किसी हालत में नहीं!” मेजर कवाल्योव आहत भाव से चीख़ा, “इससे त्तो अच्छा है कि वह फिर से खो जाए!”

“क्षमा कीजिए,” डॉक्टर ने झुककर कहा, “मैं तो आपकी मदद करना चाहता था…क्या किया जाए! आपने कम-से-कम यह तो देखा कि मैं कोशिश कर रहा हूँ.”

इतना कहकर डॉक्टर एहसान जताते हुए कमरे से बाहर निकल गया. कवाल्योव ने चेहरे को भी ध्यान से नहीं देखा, वह बड़े बेमन से उसके काले कोट की बाँहों से झाँकती कमीज़ की बर्फ के समान साफ़ और सफ़ेद आस्तीनों को देखता रहा.

उसने तय किया कि शिकायत करने से पहले वह अगले दिन उच्च श्रेणी के अफ़सर की पत्नी को ख़त लिखेगा, पूछेगा कि वह बिना लड़ाई-झगड़ा किए उसके नाक वापस लौटाएगी या नहीं. ख़त कुछ इस तरह का था :

“प्रिय महोदया अलेक्सान्द्रा ग्रिगोरेव्ना,

आपके अजीब व्यवहार को मैं समझ नहीं पा रहा हूँ. याद रखिए कि इस तरह की हरकत से आपको कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है और न ही आप अपनी बेटी से शादी करने के लिए मुझ पर ज़बर्दस्ती कर सकती हैं. मेरी नाक के साथ हुए नाटक को मैं भली-भाँति समझ गया हूँ, और मुझे पूरा विश्वास है, कि इस घटना के लिए सिवाय आपके कोई और ज़िम्मेदार नहीं है. उसका अपनी जगह से अचानक हट जाना, वेश बदलकर भाग जाना, कभी एक अफ़सर के रूप में और कभी अपने वास्तविक रूप में, यह सब जादू-टोने का ही नतीजा है, जिन्हें आपने या आपके आदेश पर किसी और ने किया है. मैं, अपनी ओर से, आपको आगाह करता हूँ, यदि उपरोक्त वर्णन की गई नाक आज ही अपने स्थान पर वापस नहीं आई तो मैं सुरक्षा के लिए कानून का सहारा लूँगा.

ख़ैर, सम्पूर्ण आदरभाव के साथ मैं हूँ,       

आपका विनम्र सेवक,

प्लातोन कवाल्योव.

 

प्रिय महोदय,प्लातोन कवाल्योव,

आपके पत्र ने मुझे बुरी तरह चौंका दिया. मैं कहना चाहूँगी कि मुझे आपसे ऐसी उम्मीद बिल्कुल नहीं थी, ख़ास तौर से उन इलज़ामों की जो आपने मुझ पर लगाए हैं. मैं विश्वास दिलाती हूँ, कि उस अफ़सर को, जिसका ज़िक्र आपने किया है, मैंने कभी भी अपने घर में नहीं बुलाया, न तो उसके वास्तविक रूप में और न ही बदले हुए रूप में. हाँ, मेरे घर फ़िलिप इवानविच पताच्निकोव ज़रूर तशरीफ़ लाए थे, और हालाँकि उन्होंने मेरी बेटी का हाथ माँगने की कोशिश भी की, परन्तु मैंने उसके विद्वान, आकर्षक और अच्छे चालचलन वाला होने के बावजूद उसे कोई भी आश्वासन नहीं दिया है. आप नाक के बारे में कहते हैं. अगर ऐसा कहने का आपका मतलब यह है कि मैं आपकी नाक ले रही हूँ, याने आपको इनकार कर रही हूँ, तो मुझे आश्चर्य हो रहा है, कि आप ही ऐसी बात कर रहे हैं, जबकि मेरा इरादा इससे बिल्कुल उल्टा है, और अगर आप अभी भी मेरी बेटी से विवाह का प्रस्ताव रखते हैं तो मैं फ़ौरन राज़ी हो जाऊँगी, क्योंकि मेरी तो यही इच्छा रही है, और इसी उम्मीद में मैं हमेशा आपकी सेवा में तत्पर रहूँगी.

अलेक्सान्द्रा पोद्तोचिना

“नहीं,” ख़त पढ़ने के बाद कवाल्योव बोला, “वह दोषी नहीं है. कोई अपराधी इस तरह का ख़त लिख ही नहीं सकता.” सुपरिंटेंडेंट को इस बात का पूरा अनुभव था क्योंकि कॉकेशस में उसे कई बार खोज-बीन के लिए भेजा जाता था. “तो फिर यह हुआ कैसे? सिर्फ शैतान ही समझ सकता है!” उसने आख़िरकार हाथ लटकाते हुए कहा.

इसी बीच इस अजूबे की ख़बर पूरी राजधानी में फैल चुकी थी, ज़ाहिर है, काफ़ी मिर्च-मसाले के साथ. तब सभी बुद्धिमान व्यक्ति पराकाष्ठा की सीमा तक पहुँच गए : कुछ ही दिन पहले जनता को सम्मोहन के प्रभाव ने आकर्षित किया था. फिर कन्यूशेना मार्ग पर घटित नाचती कुर्सियों की कहानी की स्मृति भी अभी ताज़ी थी, और इसीलिए हमें ज़रा भी आश्चर्य नहीं हुआ जब लोग कहने लगे कि सुपरिंटेंडेंट की नाक दिन के ठीक तीन बजे नेव्स्की एवेन्यू पर टहल रही है. हर रोज़ अनेक अजीबोग़रीब बातें सुनने को मिलतीं. कोई कहता कि नाक ‘यून्केर’ की फैशनेबुल दुकान में बैठी है – तो ‘यून्केर’ के निकट इतनी भीड़ और रेलपेल मच जाती कि पुलिस को आना पड़ता. एक सुदर्शन, कल्ले वाले व्यापारी ने, जो थियेटर के बाहर बिस्किट बेचा करता था, ख़ास तौर से ख़ूबसूरत लकड़ी की बेंचें बनवाईं, जिस पर वह हर आगन्तुक को अस्सी-अस्सी कोपेक लेकर बैठने देता था. एक कर्नल तो ख़ास तौर से घर से जल्दी निकला था और बड़ी मुश्किल से भीड़ को चीरता हुआ वहाँ पहुँचा था, मगर उसे “शो-केस” में नाक के बदले दिखाई दी साधारण ऊन की टोपी-मोज़े संभालती लड़की की तस्वीर जिसे पेड़ के पीछे छिपा, खुला जैकेट पहने, छोटी-सी दाढ़ीवाला मनचला देख रहा था. यह तस्वीर पिछले दस सालों से इसी जगह थी. वहाँ से हटते हुए उसने बड़े दुख से कहा : “इन बेवकूफ़ियों भरी झूठी अफ़वाहों से लोगों को कैसे फ़ुसलाया जा सकता है?”

तभी दूसरी अफ़वाह फ़ैलती कि मेजर कवाल्योव की नाक नेव्स्की एवेन्यू पर नहीं अपितु तव्रीचेस्की उद्यान में घूम रही है और वह वहाँ बड़ी देर से है, तब से जब से वहाँ खोज़्रेव मिर्ज़ा रहा करते थे, जिसे कुदरत के करिश्मे से बड़ा आश्चर्य हुआ था. शल्य क्रिया अकादमी के कुछ विद्यार्थी वहाँ पहुँचे. एक प्रसिद्ध, आदरणीय महिला ने पत्र लिखकर उद्यान के दरबान से विनती की कि उसके बच्चों को यह बिरला कारनामा दिखाए और समझाए.

इन सभी घटनाओं से वे मनचले बहुत ख़ुश थे जो औरतों को छेड़ा करते थे. मगर सभ्य और आदरणीय नागरिक इस सबसे बड़े नाराज़ थे. एक नागरिक ने दुखी होकर कहा कि इस जागृति और शिक्षा के युग में ऐसी बेसिरपैर की अफ़वाहें कैसे फ़ैलती हैं और उसे आश्चर्य है कि सरकार इस ओर ध्यान क्यों नहीं देती. यह महाशय बेशक उन लोगों में से थे जो हर बात की ज़िम्मेदारी सरकार पर डाल देते थे, पत्नी से हुई रोज़मर्रा की चख़चख़ की भी. इसके बाद …मगर यहाँ भी सारी घटना कोहरे में छिप गई है, और उसके बाद क्या हुआ, हमें सचमुच नहीं मालूम.

……

संसार में बड़ी अजीब घटनाएँ घटती हैं. कभी-कभी तो उनका सिर-पैर भी समझ में नहीं आता : अचानक वही नाक, जो अफ़सर बनकर घूम रही थी, और जिसने शहर में इतना हड़कम्प मचा रखा था, अपनी जगह पर याने मेजर कवाल्योव के दोनों गालों के बीच ऐसे बैठ गई जैसे कुछ हुआ ही न हो. यह हुआ सात अप्रैल को. सुबह उठते ही कवाल्योव ने यूँ ही आईने में देखा तो देखता ही रह गया : नाक! हाथ से पकड़ा – बिल्कुल नाक! “ऐ हे!” कवाल्योव बोला और ख़ुशी के मारे नंगे पैर ही पूरे कमरे में नाचने लगा, मगर अन्दर आते हुए इवान ने रंग में भंग कर दिया. उसने मुँह धोने के लिए फ़ौरन पानी लाने की आज्ञा दी और मुँह धोते-धोते दुबारा आईने में देखा : नाक! अपने चेहरे को वल्कल से मलते हुए उसने फिर से शीशे में देखा : नाक!

“देखो तो, इवान, शायद मेरी नाक पर मस्सा उग आया,” उसने कहा और सोचा : ‘अगर इवान कहे : नहीं, मालिक मस्सा तो क्या, नाक ही नहीं है!’ तो बड़ी मुसीबत हो जाएगी!’

मगर इवान ने कहा :

“नहीं तो, कोई मस्सा-वस्सा नहीं है, नाक एकदम साफ़ है.”

“ठीक है, भाड़ में जाए!” मेजर ने अपने आप से कहा और उँगलियों से उसे पकड़कर खींचा. इसी समय नाई इवान याकव्लेविच ने दरवाज़े से भीतर झाँका, मगर डरते-डरते, उस बिल्ली के अंदाज़ में जिसे अभी मछली चुराने पर पीटा गया हो.

“सामने आकर कहो : हाथ साफ़ हैं?” दूर से ही कवाल्योव चिल्लाया.

“साफ़ हैं!”

“झूठ बोलते हो!”

“ऐ ख़ुदा, साफ़ हैं, मालिक!”

“अच्छा देखो तो.”

कवाल्योव बैठ गया. इवान याकव्लेविच ने उसे कपड़े से ढाँक दिया और एक ही क्षण में ब्रश से उसकी ठोढ़ी और गाल को झाग से भर दिया.

‘ओह-हो!’ नाक की ओर देखते हुए इवान याकव्लेविच ने अपने आप से कहा, और फिर सिर को दूसरी ओर घुमाकर किनारे से उसकी ओर देखा – कमाल है! ‘…क्या कहने…’ वह बड़बड़ाता रहा और बड़ी देर तक उसे देखता रहा. आख़िर में, बड़ी सावधानी से, उसने दो उँगलियाँ उठाईं, ताकि उसे पकड़ सके. ऐसा तरीका ही था इवान याकव्लेविच का.

“देखो, देखो, देखो!” कवाल्योव चीख़ा.इवान याकव्लेविच ने हाथ नीचे गिरा लिया और ऐसे शरमाया जैसे अपनी ज़िंदगी में कभी न शरमाया था. अंत में उसने बड़ी सावधानी से दाढ़ी पर उस्तरा चलाना शुरू किया, हालाँकि बिना सूँघनेवाले अंग का सहारा लिए उसे बड़ी कठिनाई हो रही थी, मगर फिर भी अपनी बड़ी उँगली को उसके गाल और निचली ठुड्डी पर टिकाकर उसने सहजता से हजामत बना दी.

जब तैयारी पूरी हो गई तो कवाल्योव ने जल्दी से कपड़े पहने, गाड़ी ली और सीधे गोलियों वाली दुकान में पहुँचा. भीतर घुसते-घुसते वह चिल्लाया : “छोकरे, एक प्याला चॉकलेट लाओ!” और उसी समय ख़ुद आईने की ओर लपका : नाक है! वह ख़ुशी से घूमा और बड़े व्यंग्य से आँखें सिकोड़कर उन दो फ़ौजियों को देखने लगा जिनमें से एक की नाक बटन जितनी छोटी थी. उसके बाद वह उस विभाग में गया जहाँ वह उपराज्यपाल के पद के लिए कोशिश कर रहा था, और जिसके न मिलने पर कमिश्नर के पद के लिए उम्मीद लगाए था. बड़े हॉल से गुज़रते हुए उसने आईने में झाँका : नाक है. फिर वह दूसरे सुपरिंटेंडेंट मेजर के पास गया, जो बड़ा मज़ाकिया था, जिसे वह तीखे व्यंग्यबाणों के जवाब में कहता, “जाओ, मैं तुम्हें जानता हूँ, तुम गुरू हो!” रास्ते में वह सोचता रहा, ‘अगर मुझे देखते ही मेजर हँसी से लोट-पोट न हो जाए तो यह प्रमाण होगा इस बात का, कि सब कुछ अपनी जगह पर ठीक-ठाक है.” मगर सुपरिंटेंडेंट कुछ भी नहीं बोला. “अच्छा ठीक है, भाड़ में जाओ!” कवाल्योव ने अपने आप से कहा. रास्ते में वह उच्च श्रेणी के अफ़सर की पत्नी पोद्तोचिना से मिला जो अपनी बेटी के साथ थी. उसने झुककर अभिवादन किया और उन्होंने ख़ुशी की किलकारियों से उसका स्वागत किया : शायद सब ठीक है, उसमें कोई खोट नहीं है. वह बड़ी देर तक उनसे बातें करता रहा, जानबूझकर नसवार की डिबिया निकालकर उनके सामने बड़ी देर तक उसे सूँघता रहा, अपने आपसे बड़बड़ाता रहा : “तो लो, फँसाओ मुर्गी! मगर फिर भी तुम्हारी बेटी से तो शादी करूँगा ही नहीं. बस यूँही दिल बहलाने के लिए – ठीक है.” और तब से मेजर कवाल्योव यूँ घूमने लगा जैसे कि कुछ हुआ ही न था. वह हर जगह जाता, नेव्स्की एवेन्यू पर, थियेटर में, जहाँ जी चाहे. नाक भी उसके चेहरे पर यूँ बैठी रही जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो. और इसके बाद मेजर कवाल्योव को लोगों ने हमेशा हँसते हुए, मुस्कुराते हुए, सुंदर महिलाओं का पीछा करते हुए ही देखा. एक बार तो वह गोस्तिनी महल की एक दुकान से तमगोंवाला रिबन ख़रीदते हुए देखा गया, न जाने क्यों, क्योंकि वह ख़ुद तो तमगेधारी घुड़सवार था नहीं.

तो ऐसी घटना घटी हमारे विशाल राज्य की उत्तरी राजधानी में. अब, सारी बातों की ओर गौर करने से प्रतीत होता है, कि उसमें काफ़ी मात्रा में झूठ मिला हुआ था. अगर यह न भी कहें कि नाक का गायब होना और उसका अलग-अलग स्थानों पर अफ़सर के रूप में दिखाई देना एक दैवी चमत्कार था, तो कवाल्योव के अख़बार की सहायता से नाक ढूँढ़ने की कोशिश को क्या कहेंगे? मैं यह नहीं कहता कि मुझे इश्तेहार पर खर्च करना काफ़ी महँगा लगा : यह बेवकूफ़ी है, और मैं कंजूस भी नहीं हूँ. मगर वह अशिष्टता है, अच्छी बात नहीं है, उलझनवाली बात है. और फिर नाक ब्रेड में कैसे आई और इवान याकव्लेविच?…नहीं यह तो मैं समझ ही नहीं सकता, ज़रा भी नहीं समझ सकता. मगर जो बात सबसे अजीब और समझ में नहीं आने वाली है – वह ये है कि लेखक ऐसे विषयों पर लिख कैसे सकते हैं. मानता हूँ, कि यह अनबूझ पहेली है, यह तो…नहीं, नहीं, बिल्कुल नहीं समझ पा रहा. पहली बात यह कि समाज को इससे ज़रा भी फ़ायदा नहीं है, दूसरी…दूसरी बात में भी कोई फ़ायदा नहीं है. बस मैं नहीं जानता कि यह…

मगर फिर भी, इस सबके बावजूद, पहली, दूसरी, तीसरी…बात भी मानी जा सकती है…और हाँ, गोलमाल कहाँ नहीं होती?…मगर, फिर भी, जब सोचो तो लगता है कि सचमुच कुछ बात तो है. कुछ भी कहो, ऐसी घटनाएँ दुनिया में होती हैं – कम ही सही, मगर होती ज़रूर हैं.

*********

The post निकोलाय गोगोल की कहानी ‘नाक’ appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..


युवा कवि देवेश पथ सारिया की कविताएँ

$
0
0
देवेश पथ सारिया मूलतः अलवर के रहने वाले हैं और आजकल ताइवान के एक विश्वविद्यालय में शोध कर रहे हैं। उनकी कविताएँ सभी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। यह उनकी कुछ नई कविताएँ हैं जो उन्होंने पुश्किन आर्ट म्यूजियम, मॉस्को की यात्रा के बाद लिखी थी-
==============
 
(पुश्किन आर्ट म्यूजियम, मॉस्को से चार कवितायें)
 
 
1. कविता उसका भ्रम दूर करने का प्रयास है
 
पुश्किन आर्ट म्यूजियम के उस सेक्शन में
यीशु से शुरू होती थी चित्रों की श्रंखला
और धर्म और ऐतिहासिक घटनाओं के चित्रण से होते हुए
खूबसूरत इमारतों, मौसम, सड़कों और लोगों तक पंहुचती थी
सपने जैसा था वह पूरा मजमा
 
म्यूजियम के उस सैक्शन से बाहर आकर
मैं कला के नशे में था
आते-जाते सैलानियों की भीड़ में
मैंने उसे चीन्ह लिया
चीन्हा गया होगा जैसे
म्यूजियम के अंदर लगे चित्रों की नायिकाओं को
 
लाल ओवरकोट और काली टोपी पहने बैठी वह लम्बी रूसी लड़की
एक हाथ में किताब और दूसरे हाथ में कॉफी का कप लिए हुए
दृश्य कला के घर में शब्दों की साधना करती
जैसे कोई द्विमीय पेंटिंग
विमाओं का विस्तार कर जीवित हो उठी थी मेरे सामने
 
जैकेट लेने के काउंटर के पास बैठी वह लड़की
खुद को भीड़ का हिस्सा माने बैठी थी
और बदक़िस्मती से मैं पेंटर नहीं था
कि दूर कर पाता
कला से इतर कुछ भी और होने का
उसका भ्रम
 
2. मॉडर्न आर्ट
 
अब मैं आधुनिक चित्रों के बीच था
जिसमें शामिल थे
वॉन गॉफ, और पिकासो के चित्रों सहित कई अन्य अमर कृतियां
कुछ रेखाचित्र, कुछ अमूर्त बीजगणित जैसे चित्र
 
उन्नीसवीं और बीसवीं सदियों में हुए
कला आन्दोलनों के बाद
साधारण भी है कलात्मक
नहीं, ज़रूरी नहीं है सुर्खाब के पर होना
कुछ भी, कोई भी, किसी भी क्रियाकलाप के दौरान
हो सकता है मॉडर्न आर्ट
 
मसलन, कल मैंने देखा मेरे पड़ोस में
सफ़ेद कमीज़ पतलून के अंदर डाले एक तेज़क़दम आदमी
जैसे नयी-नयी नौकरी लगा
कोई युवा सुबह ऑफिस की तरफ दौड़ता है
पर वह एक अधेड़ व्यक्ति था
और वक़्त था सुबह नहीं, शाम का
 
वह आदमी आज की कला था
विचित्रों का समायोजन
 
3. न्यूड आर्ट
 
वह प्रदर्शनी मास्को कुछ ही दिन के लिए आयी थी
वियना के कलाकारों के चित्रों, रेखाचित्रों की
वरना कहाँ इतना भाग्य था
गुस्ताव क्लिम्ट और ईगोन शील की कला इन आँखों से देख पाने का
 
बाहर रखी विजिटर बुक में
उन्हीं चित्रों, रेखाचित्रों की तर्ज़ पर
कुछ रूसी लड़कियों ने
बना दिये वैसे ही नग्न रेखाचित्र
और मुझे आता देख हंस दी वे शरारती हंसी
 
मैं सोचता रहा उस हंसी के मायने
 
उस विजिटर बुक को वियना ले जाना होगा
और संभवतः वे प्यार भेज रहीं थी रूस से
दो प्रिय कलाकारों के घर
या वे महज़ खिलंदड़ युवतियां थीं
जीवन की उस उम्र में
जब शरारतें करना पैदाइशी हक़ लगता है
या वे हिस्सा थीं उस विरोध का
जो कला के इतिहास में
स्त्रियों की नग्नता के खिलाफ है
हालाँकि क्लिम्ट और शील के नग्न चित्रों में नहीं था लैंगिक भेदभाव
 
क्या देखना चाहते हैं दर्शक
वे जो महज़ कामुकता नहीं देखते एक नग्न चित्र में
वे जो कहते हैं कि यह तोड़ फेंकना है बेड़ियों को
कि सौष्ठव के सौंदर्य में है कला
 
विज़िटर बुक में मैंने लिखा
मैं कभी नहीं बन सकता चित्रकार
पर लौटूंगा किसी विशुद्ध संस्कार की ओर
परदे हटाकर, न्यूड आर्ट की तरह
 
4. छोटा रूसी कलाकार
 
 
पुश्किन आर्ट म्यूजियम के बाहर स्थित
कैफ़े में वह रूसी बच्चा
अपनी ड्राइंग बुक में कुछ ड्रॉ कर रहा था
 
उस पर नज़र पड़ते ही
बच्चों से चुहलबाज़ी करने की आदत के तहत
मैंने कोशिश की
उचककर उसकी ड्राइंग बुक में झांकने की
पर बच्चे ने हाथ से ढंक लिया अपना बनाया चित्र
 
कुछ देर बाद इधर-उधर देखने के बाद
मैंने कनखियों से फिर झाँका
पर बच्चा चाक-चौबस था
 
मेरे लिये, वह एक प्यारा बच्चा था
जिसे मैं गुदगुदी करना चाहता था
बच्चे के अनुसार, वह एक कलाकार था
ईमानदारी से अपना पहला ड्राफ्ट पूरा करता हुआ
 
बच्चे की नज़रों में, मैं था
उसकी रचना प्रकिया और तन्मयता में सेंध लगाता
एक उचक्का
===========
 
~ देवेश पथ सारिया
मेरा ताइवान का पता :
देवेश पथ सारिया
पोस्ट डाक्टरल फेलो
रूम नं 522, जनरल बिल्डिंग-2
नेशनल चिंग हुआ यूनिवर्सिटी
नं 101, सेक्शन 2, ग्वांग-फु रोड
शिन्चू, ताइवान, 30013
फ़ोन: +886978064930
ईमेल: deveshpath@gmail.com

The post युवा कवि देवेश पथ सारिया की कविताएँ appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

लेन स्टेली –  भग्न पंखों वाला देवदूत

$
0
0

अमेरिकी रॉकस्टार लेन स्टेली पर यह लेख लिखा है कवयित्री अनुराधा सिंह ने-

=========================

बहुत साल हुए पतझड़ की एक शाम किसी ने मुझे लेन स्टेली की कहानी सुनाई थी. कहानी के दौरान जब हमने बालकनी में सफ़ेद से लाल और फिर सुरमई होते आसमान को देखते हुए उनका सिग्नेचर गीत ‘वेक अप’ सुना तो लगा जैसे किसी ने दिल को मुट्ठियों में भींच लिया है.

२२ अगस्त १९६७ में जन्मे लेन थॉमस स्टेली (जन्म का नाम लेन रदरफोर्ड स्टेली) यदि आज जिंदा होते तो अपने जीवन के ५३ साल पूरे करने को होते, फिर भी उस शाम यही अहसास हुआ कि यदि उनके जीवित रहते कभी उनसे मुलाकात हुई होती तो हम उस थके- डरे एक किशोर से भावुक और सरल  इंसान  को अपने गले लगाकर हर भय से उबार लेते, उनकी विराट प्रतिभा के बरअक्स एक पराजित होते, छीजते विलक्षण जीवन को एक सुरक्षित आलिंगन में समेट लेते और अपना सबकुछ दाँव पर लगा कर भी उन्हें बचा लेते. ऐसा ही तो होता है दुर्लभ, विलक्षण कलाकारों के प्रति हमारा प्रेम. उस घड़ी हम क्या कुछ कर गुज़रना चाहते थे पर सब ख़त्म हो चुका था, मुंबई का धुएँदार आसमान फीका काला रंग ओढ़ चुका था, हमारे छलके हुए आँसू कोरों पर ही सूख गए थे और लेन स्टेली का क्लांत आर्त्तनाद बारहवीं बार तार सप्तक में चुक रहा था….वेक अप….. वेक अप.

‘९० के आरंभ में ही लेन स्टेली अपने मशहूर रॉक बैंड एलिस इन चेन्स के फ्रंटमैन यानी केन्द्रीय गायक के रूप में पहचान बना चुके थे. एलिस इन चेन्स की स्थापना उनके परम मित्र और गिटारिस्ट गायक जैरी कैन्ट्रेल ने ड्रमर सीन किनी के साथ मिलकर १९८७ में सिएटल, वाशिंगटन में की थी, जिसमें लगभग उन्हीं दिनों लेन स्टेली को मुख्य गायक के तौर पर शामिल किया गया. जल्दी ही इस बैंड ने सीएटल में उठे ‘ग्रंज आन्दोलन’ के प्रतिनिधि स्वर के तौर पर अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की. (सीएटल की रिकॉर्ड कंपनी ‘सब पॉप’ के मालिकों ने जब स्थानीय संगीत शैली के सम्मिश्रण से रचित उत्तरपश्चिमी पंक रॉक का विपणन किया तो मीडिया को इसे ‘ग्रंज’ के नाम से प्रचारित करने को प्रोत्साहित किया. ग्रंज से अभिप्राय पंक व मेटल की संकर शैली का संगीत था.) एलिस इन चेन्स बैंड की प्रमुख संगीत शैली हैवी मेटल्स है. यह लेन की विशिष्ट मुखर गायन शैली और उनके ऊँचे स्वरों के अतिरिक्त गिटारवादक/ सहगायक जैरी कैन्ट्रेल के साथ उनकी अद्भुत सामंजस्यपूर्ण प्रस्तुति के लिए भी विख्यात हुआ. आज तक यह बैंड ‘टू-वोकल’ बैंड के नाम से जाना जाता है. इसमें लेन स्टेली टेनर यानी ऊँचे स्वरों में और जेरी कैन्ट्रेल मध्यम स्वरों यानी बैरीटोन में एक साथ गाते थे. उनका यह प्रयोग ‘डुएल वोकल स्टाइल’ के रूप में खासा चर्चित हुआ. इस बैंड के अतिरिक्त स्टेली ‘स्लीज़’ जैसे ग्लैम मेटल बैंड्स तथा ‘मैड सीज़न’ और ‘क्लास ऑफ़ ’९९’ जैसे सुपरग्रुप्स के सदस्य भी थे.

बीसवीं सदी के अंत में अमरीका भर में, और खासतौर पर सिएटल में नशीली दवाओं के प्रचलन ने एक शौक, एक फैशन स्टेटमेंट और उन्मुक्त जीवन शैली की पहचान बनते- बनते एक सामाजिक महामारी का रूप धारण कर लिया था. कर्ट कोबेन सहित संगीत और कला की तमाम बड़ी हस्तियों को यह व्यसन लील गया. लेन स्टेली उन अभागे लोगों में से एक थे जो अपनी पूरी युवावस्था ही नहीं, वरन् संक्षिप्त जीवनपर्यंत इस प्राणघातक लत से जूझते रहे. अंततः अल्पायु में प्राणों से हाथ धो बैठे. पश्चिम के इन कलाकारों की यह पीढ़ी विलक्षण प्रतिभाशाली होने के साथ अभूतपूर्व रूप से दुर्भाग्यशाली थी. कर्ट कोबेन, ब्रिटनी स्पीयर्स और क्रिस कोर्नेल जैसे दसियों सितारे इस आंधी की चपेट में आकर लड़खड़ाते, ढहते गये. उनके प्रेम सम्बन्ध और निजी जीवन तो नष्टप्रायः थे ही इस हाल में संगीत की दुनिया में अपने आपको सक्रिय रख पाना भी उनके लिए किसी चुनौती से कम नहीं था. बीसवीं सदी पश्चिमी संगीत की दुनिया के दिग्गजों के लिए निजी तौर पर एक अभागी सदी कही जा सकती है .

नशीली दवाओं के दुष्प्रभाव के कारण स्टेली १९९६ के मध्य से ही सार्वजनिक जीवन की चकाचौंध से दूर हो गए, उसके बाद उन्होंने फिर कभी लाइव शो नहीं किया. २९ साल की आयु तक संगीत में उल्लेखनीय योगदान देने के साथ- साथ उन्होंने अपना अधिकांश वयस्क जीवन अवसाद और ड्रग एडिक्शन में गँवा दिया. जिसने अंततः, ५ अप्रैल साल २००२ को मात्र ३४ वर्ष की आयु में ‘स्पीडबॉल ओवरडोज़’ (कोकेन और हेरोइन जैसी नशीली दवाओं के प्राणघातक सम्मिश्रण) की शक्ल में उनकी जान ले ली.

सन् २००६ में विश्वविख्यात अमरीकी संगीत पत्रिका ‘हिट परेडर’ ने सर्वकालिक श्रेष्ठ १०० हैवी मेटल गायकों की सूची ज़ारी की, जिसमें स्टेली २७वें स्थान पर सुस्थापित हैं. इसके अतिरिक्त सन् २०१२ में वे ‘काम्प्लेक्स’ पत्रिका द्वारा ज़ारी विश्व के ५० श्रेष्ठ केन्द्रीय गायकों की सूची में ४२वें स्थान पर आते हैं. सिएटल शहर ने अपने प्रिय गायक की याद और सम्मान में २२ अगस्त २०१९ को आधिकारिक रूप से ‘लेन स्टेली दिवस’ घोषित किया.

इस पर भी आज सम्पूर्ण विश्व और सिएटल शहर, स्टेली को सिर्फ इसलिए याद नहीं करते कि वे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ गायकों में शुमार हैं या कि वे बेहद संवेदनशील और अभूतपूर्व नेतृत्व क्षमता के धनी व्यक्तित्व थे. लेन की त्रासद जीवनगाथा में जो एक बात उन्हें उनके समकालीन अधिकांश गायकों से अलग करती थी वह थी नशे की समस्या के प्रति उनकी सोच . तमाम शोधकर्ताओं ने पाया है कि जिन पश्चिमी गीतों में नशे का उल्लेख किया जाता है उनमें से केवल ४ प्रतिशत उसका हानिकारक पक्ष सामने रखते हुए दूर रहने की नसीहत देते हैं. शेष 96 प्रतिशत गीतों ने नशे की सकारात्मक व आकर्षक छवि ही गढ़ी और उस छवि का व्यापक प्रसार किया. लेन स्टेली इनसे अलग थे, रोलिंग स्टोन्स बैंड के मिक जैगर या ऑज़ी ऑज़बोंन की तरह उन्होंने नशे को अपने युवा प्रशंसकों के मध्य एक हॉट ट्रेंड की तरह महिमा मंडित नहीं किया. वे एक ज़िम्मेदार और विवेकवान इंसान थे. अपने कुछ बेहद चर्चित गीतों में जिन्हें उन्होंने खुद ही रचा और संगीतबद्ध भी किया था, वे युवाओं को लगभग चेतावनी देते हुए अपनी व्यथा कहते हैं. आरंभ में उनके जिस गीत ‘वेक अप’ का उल्लेख हुआ है, उसे उन्होंने मैड सीजन नामक सुपरग्रुप के लिए गाया था, उस गीत के बोलों से ही उनकी यातना और दुनिया के प्रति परवाह का पता लिया जा सकता है.

जागो मेरे यार

अब जाग जाओ

तुम्हारे इस प्रेम को यहीं ख़त्म होना होगा

लम्बे दस साल, पूरे दस साल, झड़ी हुई

पत्तियों को समेटने का वक्त आ गया है

यह धीमी आत्महत्या प्रस्थान का तरीका नहीं

यह नीला, मेघाच्छादित सलेटी अहसास

तुम्हारा सिरफिरापन नहीं

बस एक धुंध के शिकार हो, लड़खड़ाते

आगे बढ़ते हुए

इसे अपने जीवन का एक चरण न कहो, यह एक व्याधि है

वे दरारें और रेखाएं जहाँ तुमने हौसला हारा था

तुम्हें पढ़ना मुमकिन करती हैं, ओह

वह तमाम वक्त जब तुमने उन्हें खुद को घायल करने दिया

वह थोडा सा सुकून जो तुमने ईश्वर से माँगा, तुम गिड़गिड़ाये

वह थोडा सुकून जो तुमने ईश्वर से माँगा

जागो लड़के, जाग जाओ

  यदि लेन २०१७ तक जिंदा रहते तो पूरे ५० साल के होते. उस साल उनकी पुण्यतिथि से कुछ पहले उनकी माँ ने सिएटल टाइम्स को दिए गए अपने साक्षात्कार में लेन के आरंभिक जीवन और मृत्यु के बारे में बताया, “लेन अपनी हाईस्कूल कक्षा का सबसे चुप्पा बच्चा था. स्टेज ने उसे वह करने की छूट दी जो हममें से हर कोई कभी न कभी करना चाहता है, यानी भर ताकत चीखना.” स्टेली जब बस दो साल के थे तो एक रिद्म बैंड का हिस्सा हो गए, वह समूह में सबसे छोटे थे. ९ वर्ष की उम्र में उन्होंने एक किताब के ‘अबाउट मी’ भाग में लिखा था कि वे एक गायक बनना चाहते हैं.

उनके माता पिता का तलाक तभी हो गया था जब स्टेली मात्र ७ वर्ष के थे. जीवन में पिता के अभाव ने दूरगामी दुष्प्रभाव छोड़े. फिर भी स्टेली, १२ वर्ष की आयु में ड्रम्स बजाने लगे थे और किशोरावस्था की शुरुआत में ही कई ग्लैम बैंड्स के लिए सफलतापूर्वक यह काम किया. उस समय तक उनके ह्रदय में एक गायक बनने की लालसा और बलवती हो चुकी थी. १९८४ में यानी मात्र १७ वर्ष की आयु में वे शोरवुड हाई के छात्रों द्वारा गठित बैंड ‘स्लीज़’ का हिस्सा बन गये, जो बाद में ‘एलिस ‘एन चेन्स’ कहलाया और एक साल बाद ही टूट गया. आगे चलकर इसके कुछ पूर्व सदस्यों ने सुविख्यात बैंड एलिस इन चेन्स का गठन किया. उसके बाद की कहानी दुनिया बार- बार सुनाते थकती नहीं है.

एलिस इन चेन्स ग्रंज संगीत से सम्बद्ध एक हैवी मेटल शैली का बैंड है. अपनी स्थापना से अब तक यह बैंड छः स्टूडियो एल्बम, तीन एक्सटेंडेड प्ले रिकार्ड्स, तीन लाइव एल्बम, चार संकलन, २ डीवीडी, ४३ संगीत वीडियो और ३२ एकल ज़ारी कर चुका है. नब्बे के दशक में संगीत की सबसे सफल घटनाओं में से एक इस बैंड ने दुनिया भर में ३ करोड़ रिकॉर्ड बेचे. बिलबोर्ड चार्ट २०० में इसके दो एल्बम नंबर एक पर और छः पहले दस में रहे. उनके कई ट्रैक्स और एक्सटेंडेड प्ले लोकप्रियता सूचियों में शीर्ष पर रहे. ११ बार ग्रैमी अवार्ड के लिए अनुशंसित हुए. निर्वाना, पर्ल जैम, और साउंडगार्डन के साथ एलिस इन चेन्स ऐसा बैंड साबित हुआ जिसके जन्मस्थान होने का गौरव सिएटल को मिला. और सिएटल कभी नहीं भूल सकता …न कर्ट कोबेन को, न क्रिस कोर्नेल को, न लेन स्टेली को.

नशे की लत के साथ उनकी लड़ाई के बारे में उनकी माँ ने बताया कि, “वह अक्सर दुनिया भर में दौरे पर रहता, घर आता तो उसका इलाज शुरू हो जाता. वह पूरी तरह नशे के शिकंजे में फँस गया था . मुझे यह समझने में बहुत देर हो गयी. नशे की लत की तुलना आप कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी से कर सकते हैं. इसका इलाज हो भी जाये तो भी लौट- लौट आती है. इसलिए हमें इससे पीड़ित व्यक्ति के प्रति उदार होना चाहिए. उन पर कड़ाई करने की बजाय उसके बेहतर इलाज और इलाज सम्बन्धी शोध पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए.”

लेन २० अप्रैल २००२ की शाम अपने अपार्टमेंट में मरे पाये गए. पुलिस ने जब दरवाज़ा तोड़कर भीतर प्रवेश किया तो उन्हें गुज़रे हुए दो सप्ताह बीत चुके थे. उन्होंने लेन की माँ से आग्रह किया कि वे भीतर न जाएँ पर वे वहाँ जाकर अपने बेटे के सड़ते हुए शव के ठीक बगल में बैठी रहीं. ‘मैंने खुद से वायदा किया था कि हमेशा अपने बच्चों का साथ दूँगी, न जाने ऐसा कैसे हो गया. मैं उससे माफ़ी माँगती रही.’

स्टेली के जीवन के अंतिम वर्ष उनके खुद के लिए और उनके परिजनों व मित्रों के लिए यातनादायक थे. गिटारवर्ल्ड नामक साइट पर उनके अंतिम दिनों का का हृदयविदारक वर्णन है. लेखक डेविड डे सोला की पुस्तक ‘एलिस इन चेन्स : द अनटोल्ड स्टोरी’ के कुछ महत्वपूर्ण अंश यहाँ प्रकाशित किये गए हैं. इस किताब के लिए उन्होंने न सिर्फ बैंड के सदस्यों के साक्षात्कार लिए बल्कि बैंड से किसी भी तरह जुड़े हुए हर व्यक्ति के अनुभवों को सम्मिलित किया है.

    १९९७ की क्रिसमस पार्टी जिसमें लेन भी आमंत्रित थे को याद कर एलिस इन चेन्स से सहयोगी गायक के तौर पर जुड़े रैंडी बिरो कहते हैं, “मैंने पीछे मुड़कर देखा तो वहाँ एक सूखा- मरियल सा व्यक्ति खड़ा हुआ था, मैं पहचानने की कोशिश करता रहा. लेन कहाँ है? उसका वह हाल देखकर मुझे बड़ा धक्का लगा.

उसके बहुत से दाँत झड चुके थे. यह मृत्यु का चेहरा था, बहुत भयावह.”

कुछ देर बाद लेन ने बिरो को अपने कोंडो अपार्टमेंट में बुलाया, जो बार से कुछ ही दूर स्थित था. फिर वे बच्चों के से उत्साह और गर्व से उन्हें सब कुछ दिखाते रहे, विशेषकर वह विशालकाय टीवी जिसके सामने बैठकर वे उन दिनों नशे में धुत विडियो गेम खेलते रहते थे. बिरो जो नशा नहीं करते थे, ने सिर्फ तजुर्बे के लिए उनसे थोड़ी हेरोइन माँगी. लेन ने कहा, ‘मैं तुम्हें नशीली दवा नहीं दे सकता क्योंकि तुम नशेड़ी नहीं हो. अगर तुम्हें यह करना ही है तो कहीं और जाकर करो. मैं अपने हाथों तुम्हारा जीवन बर्बाद नहीं कर सकता.

जिस लेन का नशेड़ी पिता उसे ६ वर्ष की उम्र में छोड़कर चला गया और २२ वर्ष में सिर्फ उसकी ख्याति और समृद्धि में अपना हिस्सा बंटाने और नशे की लत में दोबारा खींचने के लिए लौटा, वह लेन अपनी दुरावस्था में भी स्वयं किसी को नशीली दवा देने से इंकार कर देता है. वह लगातार ऐसे गीत लिखता और गाता है जो उसकी दुर्दशा का चित्रण कर युवाओं को इस लत से दूर रहने की हिदायत देते हैं, वह उनका मानवाधिक नायक बनने की बजाय कहता है कि “मुझे मालूम है मैं जल्द ही मरने वाला हूँ. नशीली दवाओं के दुष्प्रभाव से मेरा लिवर खराब हो गया है, मैं लगातार उल्टियाँ करता हूँ. मेरा पैन्ट ख़राब हो जाता है .मेरी हालत बहुत ख़राब हो चुकी है.”

यह सब करने के लिए कितना साहस चाहिए. ऐसा कुरूप सत्य बोलने से एक संगीत सितारे की चमकदमक से भरपूर आकर्षक छवि को नुकसान पहुँचने का पूरा खतरा था फिर भी लेन यह सन्देश देते ही रहे. नशे की लत एक बार लग जाये, जो कुछ  बार के प्रयोग से ही लग जाती है तो उससे छूट पाना लगभग असम्भव है. अपनी तमाम जीतोड़ कोशिशों के बावज़ूद लेन भी इससे मुक्त न हो सके लेकिन वे निरंतर मानवता के प्रति एक ज़िम्मेदार मनुष्य रहे.

उनके गीत, पश्चिम के दिखावटी अभिमान, अभिजात्य से नहीं जीवन की गहनतम यातना और अँधेरे से जन्म लेते थे. अपने एक गीत ‘हेट टू फील’ में वे लिखते हैं

मैंने कसम खाई थी कि

कभी अपने पिता जैसा नहीं बनूँगा

यह कैसी विडम्बना है कि

मुझे अपने आपको इस हाल में देखना पड़ रहा है.

ये पंक्तियाँ उनके और पिता के शोचनीय संबंधों और एक अच्छा मनुष्य बने रहने की उनकी उत्कट लालसा का खुलासा करती हैं. नशे की लत का शिकार होकर उन्होंने सबसे अधिक खुद को निराश किया, क्योंकि वे एक सुखी मनुष्य सा स्वस्थ व रचनात्मक जीवन बिताना चाहते थे.

उनका एक गीत ‘डाउन इन अ होल’ उनके श्रोताओं को उनके संघर्ष और नशे के विरोध में लड़े गए, बार- बार लड़े गये इस युद्ध में उनकी पराजय से रूबरू करवाता है. इसे उनके मित्र और सहगायक जैरी कैन्ट्रेल ने लिखा और इसे गाने में भी स्टेली का साथ दिया है. इस गीत में एक गहरे गड्ढे में और अपनी कब्र में लेटे होने के बिम्ब नशे की समस्या से पीड़ित व्यक्ति के भयावह अकेलेपन, रुग्ण देह और अवसादग्रस्त मनःस्थिति को सशक्त तरीके से प्रस्तुत करते हैं. उसके हाथों में दुर्लभ फूलों जैसा जीवन व्यर्थ हो रहा है.

मैं एक गड्ढे में हूँ

इस गर्भ में मुझे धीरे से दफनाओ

मैं अपना यह हिस्सा तुम्हें सौंपता हूँ

मुझ पर रेत बरस रही है और मैं यहाँ,

इस मकबरे में

खिलते हुए दुर्लभ पुष्प लिये बैठा हूँ,

मुझे नहीं पता

कि मुझे बचाया जा सकेगा या नहीं

मेरा ह्रदय देखो, मैं इसे एक कब्र की तरह सजाता हूँ

तुम नहीं समझोगे

वे मुझसे क्या- क्या होने की उम्मीदें रखते थे

और देखो, मैं वही आदमी हूँ

जो खुद को वह सब होने नहीं देगा

गर्त में गिरा हुआ, तुच्छ, पतित

गर्त में गिरा हुआ, आत्महीन इन्सान

मैं उड़ना चाहता हूँ लेकिन मेरे पंख नकार दिए गए हैं

मैं एक गड्ढे में गिर पड़ा हूँ

उन्होंने पत्थरों को यथास्थान रख दिया है

मैंने सूरज को खा लिया है

और मेरी जुबान जलकर बेस्वाद हो गयी है

मैं अपने ही दांतों पर पदप्रहार का दोषी हूँ

अपनी भावनाओं के बारे में और नहीं बोलूँगा

बस हूँ गर्त में गिरा हुआ, तुच्छ, पतित

गर्त में गिरा हुआ, आत्मा से हारा हुआ इन्सान.

लेन को उनके जीवन की आरंभिक असावधानियों ने अनायास जिन जंज़ीरों में जकड़ दिया वे नहीं चाहते थे कि उनके युवा प्रशंसक भी

 उसी लत के शिकार होकर अपना अमूल्य जीवन और उसकी सब खुशियाँ गँवा दें .

ढूँढ़ लाया हूँ वही गीत मैं तेरे लिए : लेन का अंतिम गीत

अगस्त १९९८ में एक दिन डेव जेर्डन के पास यह फ़ोन आया कि एलिस इन चेन्स अपने नए सेट ‘म्यूजिक बैंक’ के लिए स्टेली के दो गाने रिकॉर्ड करना चाहते हैं. जेर्डन उस समय ऑफ़स्प्रिंग के नये एल्बम पर काम कर रहे थे. लेकिन एलिस इन चेन्स के साथ फिर काम कर सकने की खबर सुनकर उत्साहित हो गए. रिकॉर्डिंग स्टूडियो की बुकिंग २२ और २३ अगस्त की हो सकी. संयोगवश २२ अगस्त को लेन का जन्मदिन भी था तो केक भी आर्डर कर दिया गया. शनिवार २२ अगस्त को पूरी प्रोडक्शन और फ्रंट टीम सुबह से ही तैयार थी. जेर्डन यह काम करने के लिए पागल थे. बेस और गिटार की रिकॉर्डिंग हो गयी. गायकों ने अभ्यास कर लिया. सभी वाद्ययंत्र और गीयर सेट कर दिए गए. लेन की प्रतीक्षा अतीव उत्साह से की जाने लगी, जेर्डन समेत कुछ लोग उनसे पूरे चार साल बाद मिलने वाले थे. लेन बहुत देर में पहुंचे, रात तीन बजे. उनकी अवस्था देखकर सभी को गहरा धक्का लगा. उनकी हालत बेहद ख़राब थी. मात्र ३० की उम्र में उनके पूरे दांत गिर चुके थे. वे खाना पचा नहीं सकते थे इसलिए ८० साल के जर्जर इन्सान से दिख रहे थे. उनकी टांगें दवाओं के असर से काँप रही थीं. उनकी उस दिन की स्थिति २ साल पहले हुए उनके अंतिम लाइव शो के समय ख़राब रही स्थिति से और गिरी हुई लग रही थी. ऐसा कहते हैं कि एक साल पहले नवम्बर १९९७ में उनकी दस वर्ष की साथी, उनकी प्रेयसी, डेमरी पैरट की मृत्यु के बाद से उनकी स्थिति इतनी बिगड़ गयी थी.

बहरहाल, उस दिन लॉस एंजिलिस के उस स्टूडियो में स्टेली, जेर्डन के नये टीम मेम्बर ट्रूजिलो के साथ ड्रम्स की नई डिजिटल प्रोग्रामिंग सीखते रहे. वे उसे वीडियो गेम में जीतने की तरकीबें सिखाते रहे. नशे के पूरे असर में , अपने में गुम, आसपास से बेख़बर. उन्होंने रिकॉर्डिंग से सम्बन्धी कोई बात नहीं की. सुबह पाँच बजे जब वे इस सबके लिए राज़ी हुए तब तक दल के सदस्य बहुत थक चुके थे, उनमें से कुछ तो २० घंटे से अधिक समय से स्टूडियो में ही उनका इंतज़ार करते रहे थे. सो जेर्डन ने तय किया कि अभी छुट्टी करते हैं रिकॉर्डिंग कल की जाएगी. इस पर लेन ने कहा कि उन्हें अगले दिन उनकी बहन की शादी में सिएटल जाना है. यह सरासर झूठ था, वे सिर्फ नशे के लिए सिएटल वापस जाना चाहते थे, शेष किसी भी काम में उनकी दिलचस्पी नहीं रह गयी थी. इस बात पर जेर्डन का सब्र चुक गया और वे उखड़ गए. उन्होंने सतेली को डपट दिया. जेरी कैन्ट्रेल भी नाराज़ हो गए. सतेली चुपचाप बैठे रहे और उसी दिन सिएटल लौट गए.

 बाद में जेर्डन ने बहुत चाहा कि वे लॉस एंजिलिस में न सही स्टेली की सहूलियत देखते हुए सिएटल में ही एक स्टूडियो बुक करके उनकी रिकॉर्डिंग कर लें लेकिन स्टेली फिर जेर्डन के साथ काम करने को राज़ी ही नहीं हुए. हेरोइन और कोकेन के असर से उनका दिमाग अस्थिर रहता था, वे जल्दी नर्वस हो जाते थे, शारीरिक रूप से दुर्बल हो गए थे, फिर भी वे लेन थॉमस स्टेली थे, एलिस इन चेन्स के फ्रंटमैन, सदी के सबसे महत्वपूर्ण रॉक सितारों में से एक. और यह वे मरते दम तक रहे, मृत्यु के उपरांत भी.

कुछ समय बाद एक और प्रमुख निर्माता टोबी राइट को जैरी और स्टेली का यह प्रस्ताव मिला कि यदि वे चाहें तो जेर्डन के अधूरे प्रोजेक्ट को पूरा कर सकते हैं. टोबी ने जेरी और स्टेली की वोकल रिकॉर्डिंग और फिर उसे जेर्डन द्वारा तैयार ट्रैक से मिलाने के लिए मशहूर रॉबर्ट लैंग स्टूडियो बुक कर लिया. .

इस काम में दो परेशानियाँ थीं, पहली तो यह कि जैरी और स्टेली का लॉस एंजिलिस वाले प्रकरण के बाद से ही आपस में बोलचाल बंद था सो वे रिकॉर्डिंग के लिए अलग- अलग समय पर स्टूडियो आते थे. और आकर एक दूसरे के द्वारा की गयी रिकॉर्डिंग में बदलाव करते देते थे. लिहाज़ा, टोबी को बहुत भारी प्रो टूल्स एडिटिंग करनी पड़ती थी.

दूसरे, लेन के दांत न होने के कारण वे कुछ अक्षरों का उच्चारण नहीं कर पा रहे थे. रिकॉर्डिंग में इस कमी पर बहुत जगह ध्यान भी जाता है. लेकिन, टोबी कहते हैं कि स्टेली बहुत सरल व्यक्ति थे और उनके साथ काम करना आसान था. मुश्किल तो सिर्फ उन्हें स्टूडियो लाने, रिकॉर्डिंग के लिए बैठाने और रिकॉर्डिंग की प्रक्रिया में उनकी रूचि बनाये रखने की थी .

‘गेट बॉर्न अगेन’ और ‘डाइड’ उनके दो अंतिम गीत थे जो उन्होंने एलिस इन चेन्स के लिए १९९९ में गाये. माना जाता है कि ये दोनों गीत डेमरी पैरट की याद में लिखे और गाये गए .

मृत्यु से ठीक एक साल पहले अप्रैल २००१ में स्टेली को पता चला कि वे बाप बन गए हैं. डेमरी की मृत्यु के बाद कुछ समय के लिए उनके जीवन में आई हेलेन वूली ने एक स्वस्थ बच्ची, मार्नी रोज़ वूली को जन्म दिया है. जिसे तुरंत उनके नवविवाहित पति क्रिस्टोफ़र वूली ने गोद ले लिया और स्टेली या उनके परिवार को बच्ची के जन्म की कोई सूचना नहीं दी.

लेन ने इस प्रकरण पर लिखा, “मुझे बहुत समय से ऐसा महसूस होना बंद हो गया था जैसा आज हो रहा है. वह आदमी यानी हेलेन का पति क्या सोचता होगा? हेलेन ने इसे मुझसे छिपाया और शायद वह कभी मुझे उस बच्ची से मिलने भी न दे. मेरी अपनी संतान, मेरा बच्चा, मेरा अपना खून, मैं उसे पालना- पोसना, बड़े होते देखना चाहता हूँ. यह बहुत नाइंसाफ़ी है लेकिन मेरी वर्तमान शारीरिक अवस्था में मैं क्या कर सकता हूँ?”

खबर सुनकर जैरी लेन से मिलने आये और उन्हें टोरंटो जाकर बच्ची को देखने के लिए हिम्मत बंधाई. स्टेली दुविधा में थे. एक तरफ वे अपनी बच्ची को देखने, छूने, प्यार करने को तड़प रहे थे और दूसरी तरफ अपने जैसे नशेड़ी का नाम उसके साथ न जोड़े जाने के हेलेन के निर्णय को भी सही मान रहे थे.

जैरी के इसरार पर वे टोरंटो जाकर बच्ची को देखने को तैयार हो गए, और दोनों अगले ही दिन टोरंटो के लिए उड़ गए. आगे स्टेली लिखते हैं :

“दरवाज़ा हेलेन के पति क्रिस ने खोला, वह जैरी को वहाँ देखकर हैरान हो गया, मुझे तो पहचाना भी नहीं.

जैरी ने उसे बता दिया कि मैं उसके साथ अपनी बच्ची मार्नी से मिलने आया हूँ.

क्रिस जब तक कुछ समझता हेलेन बाहर आ गयी और उसने क्रिस को बच्ची के पास भीतर भेज दिया. जैरी का दावा और पुख्ता दलील सुनकर हेलेन आपे से बाहर हो गयी और पुलिस को बुलाने की धमकी देने लगी. इस पर जैरी ने हेलेन से कहा कि, तुम लेन को उसकी बच्ची से दूर करना चाहती हो, तुम कितनी भी कोशिश कर लो पर उसे लेन जैसा महान, स्नेही और उदार पिता नहीं दे पाओगी. हम वापस आ गए. जैरी ने मुझसे कहा कि यदि तुम्हें बच्ची चाहिये तो एडिक्शन से मुक्त हो जाओ. मैं राज़ी हो गया और टोरंटो के ही एक रिहैब में भर्ती होने को भी तैयार हो गया. लेकिन धीरे- धीरे मुझे यह समझ में आया कि मैं टोरंटो में अकेला  नहीं रह पाऊंगा. नशे से मुक्त होने पर भी ज़रूरी नहीं कि यह आदत दोबारा न लौटे, उस हाल में बच्ची का क्या होगा? कानूनी लड़ाई लड़ने लायक पैसे और ताकत मेरे पास शेष नहीं. और ऐसा करने से उस नन्ही सी जान का जीवन बहुत अस्त व्यस्त हो जायेगा. सो बच्ची को पाने का ख्याल मैंने बहुत पीछे छोड़ दिया. उसके जीवन के लिए यही ठीक था कि वह मेरे जैसे ड्रगी की परछाईं से भी दूर रहे.”

 स्टेली को अपनी मृत्यु का पूर्वभान हो गया था. उन्हें पता था कि वे अब बहुत नहीं जी सकेंगे.

बेसिस्ट माइक स्टार वे अंतिम व्यक्ति थे जिन्होंने स्टेली को जीवित देखा. मृत्यु से एक दिन पहले यानी ४ अप्रैल, २००२ को वे स्टेली  से मिले थे. दोनों में किसी बात पर बहस हो गयी और स्टार नाराज़ होकर चले आये. जब वे बाहर जा रहे थे तो स्टेली ने आर्त स्वर में चिल्लाकर कहा, “ऐसे नहीं, ऐसे तो न जाओ”.

स्टार नहीं रुके और हेरोइन व कोकेन दवाओं के सम्मिश्रण से बने ओवरडोज़ के घातक प्रभाव से स्टेली अगले ही दिन अपनी रुग्ण देह, क्षतविक्षत जीवन और नशे की अटूट कारा को तोड़ कर सदा के लिए चले गए.

बेटी के जन्म की खबर सुनकर उससे मिलने को तड़पते स्टेली ने रोते हुए जेरी से कहा था, “मैं आम आदमी सा जीवन क्यों नहीं जी सकता जिसमें एक बीवी हो, बच्चे हों और एक साधारण सी नौकरी हो?” जैरी के पास कोई जवाब नहीं था. स्टेली संगीत का ऐसा देवदूत था जो बहुत थोड़े समय के लिए इस दुनिया में आया. दुनिया ने उसे सुपरस्टार कहकर सर माथे बैठाया लेकिन वह अपने छोटे- छोटे सपनों के पीछे ही दौड़ता रहा, पिता से प्रेम की बजाय मिला छल, डेमरी पैरट के साथ जीवन बिताने की, उससे विवाह करने की अतृप्त कामना, फिर उसकी असमय मृत्यु से उपजा चिर विछोह , अपनी बच्ची को बस एक बार देख लेने की तड़प. वह इस जीवन से तृषित, अतृप्त ही चला गया. वह भग्न स्वप्नों का देवदूत- लेन स्टेली.

जो स्टेली जाता दिखे तो आज हम भी कहेंगे, ‘ऐसे नहीं जाओ, ऐसे भी कोई छोड़कर जाता है लेन थॉमस स्टेली !!”

=======================

अनुराधा सिंह कवयित्री हैं। ज्ञानपीठ से प्रकाशित उनके पहले कविता संग्रह ‘ईश्वर नहीं नींद चाहिए’ के लिए शीला सिद्धान्तकर सम्मान की घोषणा हुई है।

The post लेन स्टेली –  भग्न पंखों वाला देवदूत appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

प्रवास एक चुना हुआ निर्वासन है

$
0
0

हिंदी और अंग्रेज़ी की सुपरिचित लेखिका अनुकृति उपाध्याय ने यात्राओं, प्रवास और अपने रचनात्मकता के ऊपर यह छोटा सा लेख लिखा है-मॉडरेटर

===================

प्रवास और यात्राओं का लेखकों के मानस , उनकी रचनात्मकता और कथाभूमि पर प्रभाव जानी हुई बात है। अज्ञेय, निर्मल वर्मा, उषा प्रियंवदा के लेखन में उनके प्रवास और यात्राएँ कथानक और शैली  दोनों  में मौजूद हैं। एक अंतर्मुखी चेतना, विस्थापन का तनाव और अपरिचित से साक्षात्कार प्रवास और यात्रों की विशिष्ट देन हैं। मैं अपनी यात्राओं से नितारी  ऐसी पाँच बातें  आपके साथ बांटना चाहूँगी जिनसे मेरा अंतर्जगत समृद्ध हुआ और जिनकी छाया या प्रभाव मेरे लेखन पर है। ये पाँच की  सूची क्यों? क्योंकि मैंने बहुत वर्षों कॉर्पोरेट जगत में काम किया है और सूची बनाने की पुरानी आदत है और पांच की संख्या क्योंकि संप्रेषणविदों और मनोवैज्ञानिकों और मैनेजमेंट विशेषज्ञों ने बहुत मेहनत मशक़्क़त के बाद यह खोजा कि हम पाँच के समूहों में सोचते और याद रखते हैं।

प्रवास और यात्राओं से उपजे सभ्यता और संस्कृति के टकराव – कल्चर क्लेशेज़ – रचनात्मकता के लिए अच्छे हैं।  ये आपको झकझोरते हैं और आपकी सोच की बुनियादें हिला देते हैं, और ये बहुत अच्छा है। सब सीखा हुआ और जाना हुआ नए  सिरे से समझना होता है, अपने सारे सच फिर से जाँचने होते हैं ।  मेरा जन्म और परवरिश जयपुर में हुआ और मेरा पहला प्रवास होन्ग कोंग के वित्त केंद्र में जहाँ मैं  बहुत वर्षों रही ।  एक बहुत गुँथे  हुए और आत्मीय, पारम्परिक परिवेश से, जहाँ किताबें और लेखन, गीत-कविता , तीज-त्यौहार, परिवार-परिजन ही सब कुछ था, जहाँ धन विद्या और नियम बड़ों की आज्ञा था और स्त्री-पुरुषों के करणीय बहुत सफ़ाई  से विभाजित थे, भले ही वे बराबरी के मूल्य पर खरे न उतरें किन्तु उनमें कोई दुहेलापन नहीं था, ऐसे माहौल से मैं हॉंग कॉंग की घोर अर्थवादी व्यवस्था में पहुँची जहाँ सफलता का पैमाना वर्षांत पर मिलने वाला बोनस था, और स्त्री, पुरुष और परिवारों के सम्बन्ध एक भिन्न सांचे में ढले थे, उनमें एक तरह का खुलापन और अकुंठा तो थी लेकिन साथ ही अस्थिरता और चिंताएँ भी थीं। बहुत बाद में , जापानी सराय की कहानियाँ लिखते समय,  महानगर और बहु-सांस्कृतिक माहौल के ये पहले अनुभव मेरी कुछ कहानियों – शावरमा और छिपकली और डेथ सर्टिफिकेट में – सहज रूप से प्रकट हुए।

हॉंग कोंग का एक घटना-चित्र यहाँ बाँटना चाहूँगी जो मेरे मन में उस   के रूप में  सुरक्षित है –  सेंट्रल की लंच के समय की भीड़ भाड़ में एक चीवर धारी बौद्ध भिक्षु, हाथ में अष्टधातु  का सिंगिंग बोल लिए सड़क किनारे खड़ा है, आते-जाते ऑफिस कर्मी उसके पात्र में सिक्के डाल देते हैं और वह अपने पात्र को लकड़ी की छोटी सी मूसल से टंकार कर आशीर्वाद दे देता है और बीच बीच में चीवर में सिली जेब से मोबाइल फोन निकाल कर बतिया भी लेता है ! धर्म, अर्थ और टेक्नोलॉजी का सटीक समागम!

दूसरा बिंदु, मैंने जाना कि  प्रवास एक चुना हुआ निर्वासन है , प्रवास की व्यग्रता लेखन के लिए खाद है।  प्रवास का एक ख़ास क़िस्म का अपराधबोध होता है – जहाँ हैं वहाँ का न होने का भाव और अपने देश में लौटने पर वहाँ भी एक तरह की विच्छिन्नता, एक विचित्र परायापन, जो जाने अपने भीतर से उगता है या बाहर से ओढ़ा दिया जाता है (‘अरे, ये तो दो दिनों को आए हैं , इन्हें यहाँ का क्या पता…’)। विदेश में अपने देश को लेकर अति संवेदनशीलता महसूस होती है,  कोई भी बात आलोचना लगती है और आलोचना से मन तुरंत आहत हो जाता है। हर रिवाज़, हर  परंपरा को  निभाना, छूटे की स्मृति को संजोए रखना क्योंकि अपने देश और अपनी संस्कृति से जुड़ाव ही अपनी पहचान बनाए रखने का ज़रिए है, वही अजनबी भीड़ में खो जाने से बचा सकता है, अपने निजत्व को तिरोहित होने से सहेज सकता है।  वहीँ दूसरी ओर रोजमर्र्रा  के माहौल में घुलना मिलना भी चाहते हैं , सांसारिक पैमानों पर सफल भी होना चाहते हैं।  इस विरोधाभास और उधेड़बुन से जो द्वंद्व और बेचैनी पैदा हुई उसका मेरी रचना शक्ति और रचनाकर्म पर असर पड़ा।

तीसरा, प्रवास और यात्राओं के अपरिचय से उपजी उत्सुकता और फ़्रस्ट्रेशन दोनों रचनात्मकता के लिए अच्छे हैं।  नया  परिवेश और अनजान लोगों से मध्यम दूरी अंतर्मुखता  को तीखा करता है।  दूसरों को पूरी तरह न समझ पाना कल्पना के लिए वक़्फ़ा छोड़ता है। अपरिचय और अपरिचितों  का मेरी कहानियों में महत्त्व है, जापानी सराय का मरीन ज़ूलॉजिस्ट हो या चैरी ब्लॉसम का एकाकी शराबी या रेस्ट रूम में रोने वाली लड़की – सब दूसरी नस्लों, दूसरी संस्कृतियों के हैं लेकिन एक ही मानव संवेदना उनमें स्फुरित है।  अपने निज के अनुभव रचनात्मकता को एक सीमा तक ही ले जा सकते हैं,  उत्सुकता का कल्पना से समाधान लिखने की ज़रूरी शर्त हैं। नई जगहों पर यह उत्सुकता अधिक उद्वेलित होती है, हर दृश्य, इन्द्रियों को उद्बुद्ध करता है  –  दो लोग पार्क की बेंच पर साथ बैठे  हैं और एक दूसरे की ओर नहीं देख रहे, सामने तालाब में तिरती बत्तखों को देख रहे हैं, सहसा एक बत्तख परों की घनी फड़फड़ाहट के साथ उड़ती है, स्त्री पुरुष के हाथ से धीरे से अपना हाथ अलहदा कर लेती है और गहरी साँस लेती है।  बस, मेरी कल्पना के पक्षी की उड़ान के लिए ये दृश्य काफ़ी है।

चौथा, यात्राएँ सिर्फ़ स्थूल  स्थानों की नहीं होतीं , सिर्फ दर्शनीय जगहें देख लेना और तस्वीरें खींच लेना यात्रा नहीं है, स्थानों  को अनुभव करना,  भले ही बाहरी व्यक्ति की दूरी से ही , लेकिन जिज्ञासा और खुले मन से  लोगों और परिवेश को अनुभव करना असली यात्रा है।  जापान मेरे रचना मानचित्र में एक विशिष्ट स्थान रखता है, जापान की सौंदर्य चेतना , वहाँ के विरोध भास , जापानी व्यंजन, जापानी साहित्य – ये सब मेरी जापान  यात्राओं का हिस्सा हैं।  उएनो पार्क और इम्पीरियल गार्डन और सुमीदो नदी के किनारे देखे चैरी के फूल मेरे लिए अधूरे होते अगर मैंने हनामी मनाते परिवारों और सहकर्मियों को नहीं देखा होता, और साइकिल टूर पर ले जाने वाले गाइड या रास्ते में मिली लड़की या पंखुरियाँ चुनते बच्चों से जापानी  के कुछ शब्दों और बाक़ी इशारों में बातें न की होतीं।  जापान की टी सेरेमनी और संग्रहालय, मंदिर और ज़ेन उद्यान बेशक देखने  योग्य हैं , लेकिन मेरे लिए टोक्यो और  क्योटो के छोटे छोटे लोकल बाज़ार और रिहायशी गलियों की शांत आवाजाही भी उतनी ही दिलचस्प है।  सौ साल पुरानी मेजी shrine और उसके चारों ओर का शांत-विस्तृत वन आकर्षक है तो उसके बाहर बैठे, एनीमे के किरदारों जैसे चित्र-विचित्र कपडे पहने, बाल रंगाए किसी भविष्यत काल से आए-से किशोर दल भी  विलक्षण हैं।

पाँचवाँ, यात्राओं की एक प्राप्ति यह है कि स्थान चरित्रों का रूप ले लेते हैं।  वहां के ब्यौरे और वर्णन, सड़कें, ट्रेनें , खाना, यानी एक संस्कृति का एक निगाह में देखे जाने योग्य तमाम तामझाम, सब लेखन में उतना ही महत्त्व ले लेते हैं जितना कि कहानी के मानव-किरदार।   जापानी सराय की कहानियों में टोक्यो और होन्ग कोंग चरित्र हैं, मेरे नए हिंदी लघु उपन्यास, नीना आंटी जो राजपाल से इस वर्ष आ रहा है, में जयपुर शहर एक चरित्र है जो कहानी को आगे ले जाता है और अंग्रेज़ी में  इस साल आने वाले ुओंयास, किन्तसुगी, में जापान  के हकोने और क्योटो, सिंगापुर और बोर्नेओ किरदारों की तरह है।

नई जगहों की यात्राएं भिन्नता उजागर करती हैं और समानताएँ भी।  नएपन में जाने हुए  का आरोप,  यात्राओं में एक निरंतर अंतर्यात्रा, खोने, पाने और भूल जाने का भान मेरे लिए यात्राओं का अंग हैं और लेखन का भी।

The post प्रवास एक चुना हुआ निर्वासन है appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

सचिन देव शर्मा का यात्रावृत्तांत  ‘दी सिटी ऑफ़ डेस्टिनी’

$
0
0

सचिन देव शर्मा एक जर्मन बहुराष्ट्रीय कम्पनी में अधिकारी हैं। यात्रा करते हैं और यात्राओं पर लिखते हैं। उनका यह लेख विशाखापत्तनम यात्रा का वृत्तांत है। पढ़िएगा- मॉडरेटर

=======

विशाखापत्तनम एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही शहर को समझने की कवायद शुरू कर दी। एयरपोर्ट से होटेल पहुँचने तक शहर की कुछ झलकियों को कैमरे में कैद कर लिया। “दी सिटी ऑफ़ डेस्टिनी”, “दी सिटी ऑफ़ ज्वेल” , “दी गोवा ऑफ़ ईस्ट कोस्ट” माने विशाखापत्तनम, शायद मेरी डेस्टिनी ही मुझे यहाँ तक लाई थी। शहर इतना साफ़ और सुन्दर है कि यहीं बस जाने का मन कर गया। ये शहर धरती, पहाड़ और समुंदर की एक शानदार रिट्रीट है। सिम्हाचलम पर्वत इस शहर की प्राचीनता का गवाह है और बंगाल की खाड़ी के किनारे बने पोर्ट ने इस शहर को पहचान दी है। शहर में दाख़िल होते ही सिम्हाचलम पर्वत गर्व से अपना सीना चौड़ा कर आपका स्वागत करता है। शहर का वो बड़ा क्रासिंग जो उस पर बन रहे फ्लाईओवर के बोझ से कुछ दबा हुआ, कुछ परेशान सा दिखता है, इस उम्मीद में है कि आने वाले समय में वो फ्लाईओवर उसकी सुंदरता को बढ़ाएगा और उस पर पड़ रहे बोझ को काफी हद तक कम कर देगा, वो क्रासिंग इसलिए ही अभी सारी परेशानियां झेलने के लिए तैयार है। आगे आने वाला शहर का वो इलाका जो किसी दूसरे शहर के इलाके जैसा ही लगता है वो है मर्रिपलेम, जिस रोड पर हमारी टैक्सी दौड़ रही है दुकानों के साइनबोर्ड्स पर उस रोड का नाम लिखा है मर्रिपलेम मेन रोड, भीड़भाड़ बहुत ज़्यादा नहीं दिखती, दूसरे शहर के मुकाबले जो फर्क दिख रहा है वो ये कि दोनों तरफ की सर्विस रोड को मेन ट्रैफिक वाली सड़क से लोहे की ग्रिल लगा कर सेपरेट किया गया है।

उसके बाद कंचारपालेम इलाके से गुज़रते हैं उससे आगे जाने पर बाएं हाथ पर एक मंदिर है, अभी ठीक से याद नहीं लेकिन भगवान विष्णु या भगवान वरहा नरसिंह की बड़ी सी तस्वीर मंदिर के बाहर रोड़ पर लगी है, तब मैंने फोटो लेने की कोशिश की थी, फ़ोटो धुंधला आया, इस रोड पर दुकानें नहीं दिख रहीं थी। उसके बाद आने वाला रास्ता साफ सुथरा था, लिपे-पुते डिवाइडर, फुटपाथ और सड़क के दोनों ओर पिस्ता हरे रंग की बॉउंड्री वाल पर गहरे हरे रंग से बने पत्ते, ये बाउंड्री वाल एक कृत्रिम जंगल का आभास भी कराती है। दाएं और बाएं दोनों तरफ की बाउंड्री वाल के पीछे हरी भरी झाड़ियाँ और पेड़, उस पुरे इलाके को एक ऐसी सीनरी में बदल देते हैं जो मन को बहुत सुहाती है। दाएं बाउंड्री वाल के पीछे कुछ गुलाबी क्वार्टर भी दिख रहे हैं मानों झाड़ियों में गुलाब के कुछ फूल खिले हों। कुछ और सुन्दर चौराहे, चौराहों पर लगे बुत, सड़क के किनारे लगे वो बड़े-बड़े पेड़ जो उस सड़क को लगभग एक हरी-भरी गुफ़ा में बदल देते हैं जब ऐसे इलाकों से निकलते हुए अपने होटेल की ओर बढ़ रहे हैं तो विशाखापत्तनम आने के अपने फ़ैसले पर फूले नहीं समाता हूँ लेकिन शहर का ये मिज़ाज बदलने का नाम नहीं ले रहा, शहर शांत है लेकिन साथ ही साथ आधुनिक भी।

फिर से दोनों ओर की बाउंड्री वाल पर बनी पेन्टिंग्स जो विशाखापत्तनम की संस्कृति, इतिहास, विरासतों को कहीं ना कहीं दर्शा रही हैं उसके बाद एक लंबे फ्लाईओवर को पार कर एक सुंदर व आधुनिक इलाके में प्रवेश करते हैं जहाँ बड़े बड़े शोरूम्स हैं, ईमारते हैं, मॉल हैं, पता चलता है यह इलाका है वाल्टेयर अपलैंडस, यह नाम विशाखापत्तनम के ब्रिटिश उपनिवैशिक कनेक्शन को बहुत खूबसूरती से दर्शाता है। ब्रिटिश कॉल में यहाँ पर वाल्टेयर रेलवे डिवीज़न की नींव पड़ी थी। “वाल्टेयर”, केवल एक नाम मुझे मन ही मन उस ज़माने की तस्वीर बनाने पर विवश करता है जो शायद विशाखापत्तनम की ब्रिटिश उपनिवैशिक समय की रही होगी। तस्वीर बनाता हूँ और मिटा देता हूँ, ठीक से बन नहीं पा रही, या तो कल्पना की कमी है या फिर उसमें भरे जाने वाले रंगों की। कुछ आगे चल कर एक चौराहे पर दिखती है दिल्ली के कनॉट प्लेस जैसी एक तिकोनी इमारत। आगे चलने पर दिखते हैं बड़े-बड़े चौराहे, चौराहों के बीच बने हरी भरी घास के छोटे-छोटे पार्क, जहाँ बने हैं डायनासोर के प्रतिरूप। कुछ ही और दूर जाकर एक यू टर्न लेने के बाद हम पहुंच जाते हैं अपनी मंज़िल “द पार्क विशाखापत्तनम”।

जब इस शहर को टटोलने निकला तो पाया कि इस शहर ने अपने अंदर बहुत सी कहानियों को संजोया हुआ है फिर चाहे वो पौराणिक कथाएं हो या इतिहास के पन्नों से निकली कहानियाँ, देश की नींव में विशाखापत्तनम के योगदान के किस्से हो या स्थापत्य कला में इसके स्थान की बातें। इस शहर की प्राचीनता को समझने की कुंजी कहीं इसके नाम में ही छुपी है, राधा की प्रिय सखी, कृष्ण की मुख्य आठ गोपियाँ में से एक विशाखा देवी का वो प्राचीन मंदिर जो आज कहीं समुन्दर की गहराइयों में छुपा है, इस शहर के नाम के मूल में है लेकिन शहर की आधुनिक पहचान है इसका पोर्ट सिटी होना और पौराणिक रूप से जाना जाता है सिम्हाचलम मंदिर के लिए, नैवल बेस तो है ही।

एक ऐसा शहर जिसने अपनी ज़िम्मेदारी को बहुत बहादुरी के साथ बखूबी निभाया है, दूसरे विश्व युद्ध के दौरान विशाखापत्तनम की सामरिक भौगोलिक स्थिति के कारण ही पर्ल हारबर से लौटते हुए जापान के विमान वाहक युद्धपोत ने विशाखापत्तनम पोर्ट से लगभग बीस किलोमीटर समुन्दर के अंदर बेडा डाल विशाखापत्तनम का बर्मा से संपर्क ख़त्म करने के लिए भारतीय सेना के सामरिक ठिकानों पर गोलाबारी की और साथ ही ब्रिटेन के छह जंगी व व्यापारिक जहाज़ों को तबाह कर दिया। 1965 इंडो – पाक युद्ध की विभीषिका को भी झेला है इस शहर ने लेकिन अपने जख्मों के दर्द को ताकत बना बदला लिया अपने दर्द का 1971 इंडो – पाक युद्ध में गाज़ी नाम की उस पाकिस्तानी पनडुब्बी को अपने जाबांज़ आईएनएस राजपूत द्वारा तहस -नहस कर जिस पर वो बहुत इतराया करता था, जिसने दुस्साहस किया था हमारे आईएनएस विक्रांत पर अपनी गिद्ध दृष्टि डालने का। विशाखा म्यूजियम नाम है, राम कृष्ण बीच के सामने एक पुराने डच बंगले में बने उस अजायबघर का जहाँ पर रखे गाज़ी के अवशेष आज भी अपनी बदकिस्मती पर रो रहे हैं और पछता रहे हैं अपने दुस्साहस पर। अजायबघर में रखा वो टूटा हुआ नारियल जिसको किसी तरह से जोड़ कर संजोया गया है, गवाह है उस समय का जब आधुनिक भारत बन रहा था, जब पंडित नेहरू ने देश की स्वतंत्रता के बाद बने पहले समुद्री जहाज एस एस जल उषा का लोकार्पण किया था 1948 में। अजायबघर में रखा बॉम्ब का वो शैल चीख़-चीख़ कर बता रहा है द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान की उस बर्बरता के बारे में जिसका शिकार हुआ था विशाखापत्तनम। यह अजायबघर बताता है कलिंग-आंध्र माने ओडिशा और आंध्र के उस मिले-जुले भूभाग की संस्कृति के बारे में  जो विज़ियनगरम के पूर्व शासकों द्वारा प्रयोग किए हथियार, पेंटिंग्स , पांडुलिपियां, सिक्के, पोशाक, आभूषण तथा बर्तन के द्वारा वहाँ दर्शाए गई है।

विशाखापत्तनम आकर पता चला कि आदमी ही की तरह रिटायर हो जाते हैं युद्धपोत और विमान, 1971 के इंडो-पाक युद्ध में अरब सागर में लगातार दुश्मन पर पैनी निग़ाह बनाए रखने वाली और पानी के अंदर माइंस बिछाने का काम बखूबी करने वाली सबमरीन आईएनएस कुरसुरा रिटायर तो हो गई लेकिन फिर भी आतुर दिखती है अपना पराकर्म दिखाने के लिए पूरी आन,बान, शान के साथ समुन्दर के तट पर एक म्यूजियम बन। पानी का जहाज़ तो बहुत लोग देख पाते हैं और उस पर यात्रा भी कर पाते हैं लेकिन यदि कोई आम आदमी पनडुब्बी देखने और उसके बारे में जानने की चाहत रखता है तो 22 टॉरपेडोस या उसकी जगह 44 विस्फोटक माइंस को ले जाने की क्षमता रखने वाली देश की पाँचवी पनडुब्बी आईएनएस कुरसुरा ही किसी आम आदमी के लिए एक मात्र विकल्प है। 75 नौसैनिकों के दल को समुन्दर में अपने साथ तीन सौ मीटर तक नीचे उतर जाने की क्षमता रखने वाली यह 91 मीटर लंबी, 7. 5 मीटर चौड़ी व् 6 मीटर ड्राफ्ट वाली सबमरीन जब पूरी तरह पानी में डूब कर चलती है तब अधिकतम रफ़्तार होती है 9 नॉटिकल माइल्स मतलब लगभग 17 किलोमीटर प्रति घंटा। पनडुब्बी के अंदर बने सात कम्पार्टमेंट्स से कहीं-कहीं झुक कर गुज़रने में किसी गुफ़ा के संकरे रास्ते का आभास होता है। नौसैनिक दल के रहने, खाने-पीने और आराम करने के लिए पनडुब्बी में बने विशेष केबिन्स के साथ-साथ पनडुब्बी के अंदर जाकर उसके कम्प्लीकेटेड सिस्टम को देखना किसी सुखद आश्चर्य से कम नहीं।

समुन्दर तट के दूसरी ओर बना टीयू 142 एम एयरक्राफ्ट म्यूजियम सबमरीन म्यूजियम के साथ मिल नौसेना के इतिहास को सहेज कर रखने की एक मिली जुली कोशिश में लगा है। हवाई जहाज़ का “ब्लैक बॉक्स” ब्लैक नहीं बल्कि नारंगी रंग का होता है और “ब्लैक बॉक्स” बॉक्स नहीं बल्कि एक गोला होता है यह बात यहीं आकर पता चली।  इस जहाज़ की कहानी और कारनामें दोनों ही अपने आप में एक मिसाल है। एक रशियन एरोनॉटिकल इंजीनियर अन्द्रेई टुपोलेव के  हवाई यंत्रों से इश्क़ का नतीज़ा था यह टोही और एंटी सबमरीन लड़ाकू विमान । 1909 में यूनिवर्सिटी में पढ़ते-पढ़ते ही उन्हें एरोनॉटिक्स से प्यार हो गया और अपना गुरु बनाया प्रसिद्ध रशियन वैज्ञानिक निकोले जहुकोव्स्की को। इस जहाज़ के कारनामें ऐसे हैं कि सुनकर रोंगटे खड़े हो जाएं, इस लड़ाकू जहाज़ ने श्रीलंका में भारतीय सेना के पीस ऑपरेशन्स व 1988 में मालद्वीप में ऑपेरशन कैक्टस के दौरान मालद्वीप के तत्कालीन राष्ट्रपति गयूम की सरकार के तख्तापलट की तमाम कोशिशों को नाकाम करने में अहम भूमिका निभाई थी।

ऐसा अनोखा शहर जहाँ ईस्टर्न घाट्स की पहाड़ियाँ दूर तक फैली हैं, समुन्दर अपनी सभी हदों को पार कर लेना चाहता है, ऐसे शहर का विहंगम दृश्य देखनी की चाहत हमें कैलासगिरि ले गई। इसे चाहत कहूं या लालच, समझ नहीं आता लेकिन देखना तो था। विशाखापत्तनम में लगभग 570 फीट ऊँची कैलासगिरि हिल्स पर तक़रीबन 380 एकड़ में विकसित किया गया “कैलासगिरी पार्क” शहर को दिया गया एक नायाब तोहफ़ा है। यहाँ पर केबल कार में बैठ हवा में उड़ने का मज़ा है और ऊपर जाते-जाते शहर, सड़क और समंदर का विहंगम नज़ारा देखने का भी। पार्क में प्रवेश करते ही दर्शन होते हैं 40 फ़ीट ऊँची विशालकाय भगवान शिव व् माँ पार्वती की सफ़ेद प्रतिमा के, मानो भोले बाबा अपनी अर्धांगनी के साथ साक्षात् विराजमान हैं कैलास पर्वत पर। एक ऊँचे चबूतरे पर विशाल प्रतिमा तक पहुँचने के लिए दोनों तरफ बनी चमकदार रेलिंग वाली सीढ़ियां और दोनों सीढ़यों के बीच लगी सीढ़ीनुमा फुलवारी, यह नज़ारा किसी भी पर्यटक को विस्मित कर देना वाला है। यूँ तो लगता है कि ट्रेन का सफ़र झंझट है लेकिन पार्क के चारों ओर टॉय ट्रेन से घूमने का विकल्प अच्छा लगा। हमारे कोच का अटेंडेंट भी मज़ेदार था, मन भर कर फ़ोटो लिए थे उसने हमारे। ट्रेन में बैठ कभी संकरी झाड़ियों से गुज़रते और कभी ट्रेन से पार्क में बनी कलाकृतियों को निहारते और कभी वादियों में खो जाते।

विशाखापत्तनम के अस्तित्व को सिम्हाचलम पर्वत से अलग कर नहीं देखा जा सकता और सिम्हाचलम पर्वत की पहचान जुड़ी है सिम्हाचलम मंदिर से यानि श्री वराह लक्ष्मी नरसिम्हा मंदिर से, भगवान विष्णु के प्रमुख मंदिरों में से एक है यह और वैष्णव सम्प्रदाय की आस्था का एक प्रमुख केंद्र भी। सिम्हाचलम पर्वत पर एक हज़ार फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित है यह मंदिर। मंदिर में लगे हुए शिलालेखों से इसकी प्राचीनता के बारे में कुछ अंदाज़ा लगाया जा सकता है। चोला वंश के शासक कुलोत्तुंगा द्वारा लगाया गया सबसे पुराना शिलालेख ग्यारहवीं शताब्दी का है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान विष्णु ने अपने वराह अवतार और अपने नरसिंह अवतार में क्रमशः हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप का वध कर भक्त प्रहलाद की रक्षा की और प्रहलाद की प्रार्थना पर वराह और नरसिंह अवतार के सयुंक्त रूप में वहीं पर एक प्रतिमा के रूप में विराजमान हो गए, ऐसा भी माना जाता कि जैसे-जैसे समय बीतता गया मंदिर का क्षय होता गया और प्रतिमा धरती में विलुप्त हो गई। कालांतर में एक बार चंद्रवंशी राजा पुरुरवा उर्वशी नामक अप्सरा के साथ सिम्हाचलम में भ्रमण के लिए गए तो उर्वशी को स्वप्न में वहाँ पर धरती में भगवान की दबी हुई मूर्ति होने के बारे में ज्ञात हुआ। राजा पुरुरवा ने प्रतिमा को बाहर निकलवाया लेकिन बहुत ढूंढने के बाद भी प्रतिमा के पैर ना मिलने से वो चिंतित थे तभी किसी दैवीय आवाज़ ने उन्हें बताया कि भगवान की प्रतिमा अपने इस रूप में भी अपने भक्तों को मोक्ष प्रदान करने में सक्षम है। दैवीय शक्ति ने उर्वशी को स्वप्न में यह निर्देश दिया कि प्रतिमा को अक्षय तृतीया के अलावा हमेशा चंदन का लेप लगाकर रखा जाए। चंदन का लेप लगाकर रखने से प्रतिमा शिव लिंग की भांति दिखती है। हर अक्षय तृतीया को चंदनोत्सवम के दौरान चंदन के लेप को हटाया जाता है और केवल बारह घंटे के लिए भगवान के निजरूप के दर्शन भक्तों के लिए खोल दिए जाते हैं।

ओड़िया, चालुक्य व चोला स्थापत्य शैली में बने भगवान वराह लक्ष्मी नरसिम्हा के इस अतिविशाल मंदिर में तीन बाहरी बरामदे व पाँच गेट हैं। मंदिर एक रथ की संरचना लिए है। मंदिर के वर्गाकार गर्भगृह व् गर्भगृह के आगे के बरामदे के ऊपर पिरामिड आकर की छत है। बरामदे के आगे सोलह स्तंभों का मुखमंडपम है। मंदिर में 96 स्तंभों का एक कल्याण मंडप भी है जो विवाह आदि कार्यक्रमों के लिए प्रयोग में आता है । ऐसा विश्वास किया जाता है कि मंदिर में लगे कप्पास्थम्बम को जो भक्त शुद्ध मन से भुजाओं में भरकर कोई मुराद मांगता है तो उसकी मुराद पूरी होती है। मंदिर परिसर के पास ही प्राकृतिक झरने को  गंगाधर कहा जाता है ऐसा माना जाता है कि जो भक्त झरने में स्नान करता है उसके सब पाप धुल जाते हैं और बीमारियाँ भी ठीक हो जाती हैं। मंदिर परिसर में ही वराह पुष्करणी नामक तालाब है और ऐसा विश्वास है कि भगवान वैंकटेश्वर ने स्वयं इस तालाब में स्नान किया था।

सिम्हाचलम मंदिर में दर्शन कर ना जाने क्यों यात्रा का उद्देश्य पूरा होता मालूम पड़ रहा था, इस यात्रा ने देश, धर्म ,इतिहास, प्रकृति जैसे यात्रा के कई पहलुओं को जानने-समझने का अवसर दिया था। समुन्दर की बैचैनी को महसूस किया था मैंने इस यात्रा में और पहाड़ों की निश्चलता को भी। ऐसी यात्राएँ कम ही होती हैं जो आपकी सभी हसरतों को पूरा करती हैं, ऐसी ही थी विशाखापत्तनम की ये यात्रा। किसी ने इस शहर को ठीक ही नाम दिया है…. “दी सिटी ऑफ़ डेस्टिनी”

– सचिन देव शर्मा

The post सचिन देव शर्मा का यात्रावृत्तांत  ‘दी सिटी ऑफ़ डेस्टिनी’ appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

पीयूष दईया के कविता संग्रह ‘तलाश’पर अरूण देव की टिप्पणी

$
0
0

कवि पीयूष दईया का कविता संग्रह हाल में ही आया है ‘तलाश’, जिसे राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। वे हिंदी की कविता परम्परा में भिन्न तरीक़े से हस्तक्षेप करने वाले प्रयोगवादी कवि हैं। इस संग्रह की कविताओं पर कवि अरूण देव ने यह सुंदर टिप्पणी की है- मॉडरेटर

=============

पीयूष दईया का कविता संग्रह ‘त(लाश)’ चित्रकार और लेखक अखिलेश के रेखाचित्रों से सुसज्जित है. यह कवि और चित्रकार का संग्रह है. संग्रह नौ खंडों में विभक्त है.

पता है, त(लाश)

कोई भूमि(का) नहीं

अ(मृत)

सफ़ेद पाण्डुलिपि

कृष्ण-काग़ज़

प्याऊ

कान लपेटे कवि (ता)

नी ली नि त म्ब ना र

यामा

संग्रह का मुख्यपृष्ठ अखिलेश ने बनाया है. पहले खंड की शुरुआत भी अखिलेश के रेखांकन से होती है जिसमें देवनागरी में ‘पता है, त(लाश)’ शब्द और रेखाओं से लिखा गया है.  संग्रह में बाईस रेखांकन हैं जो कविताओं के सहमेल में निर्मित किये गए हैं. दोनों को साथ में पढ़ना-देखना शब्द और रेखाओं से युक्त आस्वाद के नये बनते परिसर में रहना है.

पीयूष की कविताएँ निराकार हैं, किसी उद्देश्य या मूर्तता की प्रत्याशा में इन्हें नहीं पढ़ना चाहिए. यह किसी पूर्वनिर्धारित मंजिल की तरफ नहीं जाती हैं. राह ही मंजिल है. यहाँ शब्द अर्थ का पीछा नहीं करते ख़ुद अर्थ रचते हैं. जन्म-मृत्यु, आकर्षण-वैराग्य के बीच कवि खड़ा है. कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर ये कविताएँ समकालीन काव्य-विवेक का विस्तार करती हैं. ये नई सदी की कविताएँ हैं. इनमें प्रयोग और प्रयोग-अति की किसी परम्परा का परिणाम त(लाश)ने की हड़बडी   अभी रहने दें.

इसका आमुख कृष्ण बलदेव वैद ने लिखा है और इसकी ‘संश्लिष्ट संवेदना’ और ‘संक्षिप्त संरचना’ को रेखांकित किया है. कवर के पृष्ठ पर अंकित अनुमोदन में मुकुंद लाठ इसे ‘सूक्ष्म’ और ‘मोहक’ पाते हैं, फ्लैप पर प्रभात त्रिपाठी इसे ‘पाठ का मुक्त अवकाश बिलकुल ही अलग और मौलिक’ समझते हैं.

(एक)

‘इस देस

अकेले आये हैं, अकेले जाना है’

इस खंड में बारह कविताएँ हैं और पांच रेखांकन. रेखांकनों में देवनागरी में शब्द भी हैं कहीं-कहीं. तलाश किसकी है वह जो अब ‘लाश’ है. जिसे शब्द गढ़ते हैं और जिससे अर्थ छूट जाता है. जहाँ जितनी ध्वनियाँ हैं उतना ही मौन. एक जुलूस है अपने पीछे अपना सन्नाटा छोड़ते हुए. अपने को खोजता हुआ कवि कहीं नहीं पहुंचता. इन बारह कविताओं में कुछ पाने की निरर्थकता को पीयूष पकड़ने की कोशिश करते हैं. ज़ाहिर है इस पकड़ने की सार्थकता इसकी असफलता में ही है. जीने और मरने की रौशनी के बीच. साथ में बे-साथ, होने की अनहोनी और लिखने की शब्द-हीनता में कहीं, ये कवितांश डोलते हैं.

‘शांत होती चिता की लपटें

एक छोटी -सी लौ में बदल

रही थीं’

(दो)

‘असीसते

जैसे फूल, रक्त में शब्द’

 भूमि और भूमिका और रीति से परे. धुंधलके में बे-आहट. कोई घर नहीं जहाँ लौटना हो. कविता की अपनी कोई रीति पीयूष जैसे कवियों के लिए हो भी नहीं सकती. आईने को तोड़ कर वह अक्स भी तोड़ देते हैं. ‘अकेला’, ‘सुंदर’, ‘स्वच्छंद’ और ‘निरपेक्ष’. वह दृश्य को खो देने वाले कवि हैं.

‘-जो मेरा प्राप्य है

चुन लूँगा-‘

(तीन)

‘(अ)मृत है हमेशा

जलता आग में’

‘अ(मृत)’ में दो कविताएँ हैं. ‘ज्योत्स्ना मिलन के लिए.’ और अखिलेश के दो रेखाचित्र भी.  अपार्थिवता को ज्ञापित ये कविताएँ शिल्प में पार्थिव हैं, मृत से अ-मृत की ओर फैलती हुई दृश्य को मूर्त करती हैं. आवाज़ और लेखनी के बीच होने की स्मृति को पीयूष विन्यस्त करते हैं. ख़त और फ़ोन, होने और न होने के बीच लेखिका का हमेशा के लिए ठहर जाना. मार्मिकता काव्य-मूल्य अभी भी है. स्थगित संवेदनाओं के इस समय में भी, जो  इन कविताओं में सघन हुआ है.

‘और(त) ति रो हि त

ले खि का’

(चार)

‘खो गया है मार्ग

कहाँ जाऊं

‘सफ़ेद पांडुलिपि’ में बाईस कविताएं हैं. ये उत्तर कविताएँ हैं. इसमें भारतीय मनुष्य का उत्तर-जीवन है. जिसे आधुनिकता ने गढ़ा और बर्बाद किया है. जिसे उपनिवेश ने रचा और हमेशा के लिए जिसमें अपना निवेश कर लिया है. इसे उत्तर होकर ही समझा, सोचा और सृजित किया जा सकता है.

इस खंड में फूल समय का रूपक है जिसे उत्तर होकर कवि खिला हुआ देखता है, उसे (फूल चुनना) चुनने से पहले पानी देता है. जहाँ-जहाँ वह निरुत्तर होता है वहां एक फूल है, प्रश्न ख़ुद अपने में फूल हैं, मानवता के सबसे सुंदर पुष्प, उत्तर तो उनकी काट छांट करता है, खिला हुआ शव पर चढ़ने  के लिये जो सभी प्रश्नों का मौन-उत्तर है, एक महा-उत्तर.

कवि शब्दों की जगह फूल को रखते हुए, जीवन और मरण की बीच आलोकित होता है. उसे कविता, अर्थ, अमरता, परम्परा से दूर ख़ाली काव्य-पोथी से प्यार है. शब्द अर्थ को स्पर्श नहीं करते. स्याही ने अर्थ को सीमित कर कितने अनुभवों को भी सीमित किया है. यह अर्थ पर शब्दों की हिंसा है. एक राष्ट्र-राज्य है. तमाम अस्मिताओं पर एक पहचान थोपता हुआ. शब्द-शब्द नहीं कालिख हैं. कवि सभ्यता की सांझ में डूबता बैरागी है.

‘जब रात में अकेले जगता रहता हूँ

सफ़ेद पांडुलिपि पढ़ते हुए.’

 (पांच)

‘गोया रोशनी के घोंसले में

बसी हो’

‘कृष्ण-काग़ज़’ में तीन कविताएँ हैं. ये कविताएँ भी शब्द और अर्थ के द्वंद्व में छाया की तरह डोलती हैं. काले पन्ने पर आप लिख नहीं सकते. न यहाँ कुछ शुरू होता है न किसी का अंत. एक सीमाहीन मुक्ति. जिसका एहसास कवि को है. वह इसमें डूबा है.

‘प्रश्न से बाहर

प्रार्थना में हूँ’

(छह)

‘संभला रह सका न संभाल सका

पाया पर खोया’

‘प्याऊ’ में छह कविताएँ हैं. यह प्यास और पानी की भी कविताएँ हैं. इनमें तरलता है. प्याऊ के साथ ‘सेवाकार’, ‘मशक’, और ‘पात्र’ भी आते हैं. यहाँ पानी कब समय बन जाता है कब जीवन और कब अर्थात पता ही नहीं चलता. प्यास ही प्याऊ खोजता है, ठीक वैसे ही जितनी बड़ी अकुलाहट होती है उतना ही बड़ा जीवन. कवि उतना ही बड़ा जितनी बड़ी सौन्दर्य की उसकी तलाश. कवि समय के पास ‘प्यासस्थ’ ठहरा हुआ है.

“पानी सारा

टप टप

 गिर पड़ा कब

पता न चला.”

(सात)

‘हर दिन नये दरवाज़े पर

दस्तक देता है

भिक्षु कोई’

 

‘कान लपेटे कवि (ता)’ में आठ कविताएँ हैं. जिसमें चार कविताएँ कवि पर हैं और चार कान पर. कवि का कान कान नहीं कवि होने से बचकर निकलता कवि है.

‘- वे अकेले हैं

दो कान-’

(आठ)

‘आओ, श्यामा

आओ, सखी’

‘नी ली नि त म्ब ना र’ में पांच कविताएँ हैं. रति और केलि की कविताएँ नहीं हैं. अकुंठ स्त्री अस्तित्व की कविताएँ हैं. विशाल, उदात्त, और स्वाधीनता के सौन्दर्य से भरपूर. रीतिगत मानस के लिए भयप्रदाता.

 

इसकी शुरुआत राग से होती है पर समापन जैसे सम्मोहक पर तांत्रिक भयातुरता से. जहाँ स्त्री का अपना तिलिस्म और रहस्य और गोपन और आकर्षण उपस्थित है. वह आदिम आज़ाद है. जादुई योगिनी. इसमें वर्तमान आता है. जली हुई औरतें. पराधीन. कवि उन्हें सखी कहता है. और आह्वान करता है कि वह बदल दें, बदला लें, नाश कर दें, कभी ने मरने के लिए. बहुत सघन और शक्तिवान कविता है. मन्त्रों जैसा असर है.

उसका दैहिक आकर्षण है पर उसे सम्मान के साथ सम्भोग के लिए कवि-पुरुष आमंत्रित करता है. सिर्फ प्यार.

‘मेरा शरीर कोई जगह नहीं

जहाँ वह रह सकती हो’

 

(नौ)

‘तुम्हारे हरेक बाल को सफ़ेद होते हुए देखना मेरा राग है

यह चाँदी-सी केशराशि से रचा पूर्णिमा का घर है.’

यामा में ग्यारह कविताएँ हैं. इनमें दाम्पत्य का सुख देखा जा सकता है पर वह बेजान और मुरझाया हुआ नहीं है. सरस साथ के सुरीले स्वरों में गृहस्थी का सुफल है.. फिर कविताएँ रात की सफेदी में चली जाती हैं. अर्थ और शब्द के बीच डोलने लगती हैं. ये कविताएँ कवि और कविता-कर्म पर भी अच्छी ख़ासी हैं.

‘जिस चलचित्र में कभी छलती नहीं

उस रूपकथा के अंतिम परिच्छेद में

हँसती हुई वह

 रोशनी का विलोम है’

=======

अरुण देव

कवि-आलोचक

समालोचन का संपादन

94126565938

devarun72@gmail.com

=======

त(लाश)

पीयूष दईया

रेखांकन – अखिलेश

राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली

संस्करण- २०१९

मूल्य-२९५ रूपये.

The post पीयूष दईया के कविता संग्रह ‘तलाश’ पर अरूण देव की टिप्पणी appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

गर फ़िरदौस बर-रू-ए-ज़मीं अस्त/ हमीं अस्त ओ हमीं अस्त ओ हमीं अस्त

$
0
0

प्रदीपिका सारस्वत के लेखन से कौन परिचित नहीं है। उन्होंने किंडल पर ईबुक के रूप में ‘गर फ़िरदौस’ किताब प्रकाशित की, जो कश्मीर की पृष्ठभूमि पर है। किताब कीअच्छी चर्चा भी हो रही है। उसका एक अंश पढ़िए, एक क़िस्सा पढ़िए- मॉडरेटर

==============================

हमज़ा नाम था उसका, तीन महीने पहले ही इधर आया था। ठीक-ठाक ट्रेनिंग के बाद भेजा गया था उसे। बाद में उसने यह भी बताया था कि वो सुल्तान आबाद से था, स्वात घाटी से। इस से पहले पेशावर के एक स्कूल में चपरासी का काम करता था। उसे पता था कि गोली लगने पर क्या करना है। उसके बस्ते में सामान था। शौक़त उसकी हिदायतों के मुताबिक़ काम करता गया और गोली ज़ख़्म से बाहर निकाल दी गई। उसे साफ करने के बाद मरहम पट्टी भी कर दी गई। शौक़त को रात वहीं रुकना पड़ा था। ज़ख़्म भरने तक हमज़ा भी वहीं रहने वाला था। सुबह शौक़त से कहा गया कि वो एक सिम कार्ड का इंतज़ाम करे। ये काम इतना भी आसान नहीं था। सिमकार्ड को आसानी से ट्रेस किया जा सकता था। लेकिन शौक़त को काम दिया गया था, सो उसे करना ही था। अब तक गाँव के जमातियों को भी खबर लग चुकी थी कि एक पाकिस्तानी मुजाहिद गाँव में ठहरा है। उन्होंने भी शौक़त को बुला भेजा। घर पर माहौल अलग ग़मगीन था। कोई आपस में बात ही नहीं कर पा रहा था। खाने पर लोग साथ बैठते ज़रूर, पर चुपचाप खाकर उठ जाते। बस बीवी ने कई बार रात को उसे कुरेदने की कोशिश की थी कि आखिर मसला क्या है। शौक़त ने हर बार टाल दिया। जमात के लोगों की उससे ख़ास बनती नहीं थी। वो अब परेशान कर रहे थे। न तो वो लोग मुजाहिद को अपनी देखभाल में ले रहे थे, और ना ही शौक़त को अपना काम करने दे रहे थे। उसे बार-बार पूछताछ के लिए बुलाया जा रहा था। उसे कई बार ये भी लगा था कि उसपर नज़र रखी जा रही है। घबराकर उसने अपनी पहचान के एक एसआइ को फ़ोन कर दिया, कहा कि वो उससे मिल कर कुछ बताना चाहता था। फ़ोन पर सब कुछ बताना ठीक नहीं होता। लेकिन एसआइ उस वक्त अपने तमाम कामों में फँसा था। उसने शौक़त की बात को तवज्जो नहीं दी। फिर एक दिन जमात वालों ने मुजाहिद के साथियों से राब्ता कर, उसे वापस पहुँचा दिया था। बात धीरे-धीरे पुरानी पड़ गई। लेकिन खत्म नहीं हुई। इसके बाद कुछ मुजाहिद बार-बार गाँव आने लगे। शौक़त से उन्होंने ठीक-ठाक पहचान कर ली थी। सर्दियों के दिनों में उनके ठहरने, खाने के इंतज़ाम से लेकर चीज़ें लाने-ले जाने, कहीं खबर पहुँचाने जैसे काम भी अब शौक़त से कराए जाने लगे थे। इस बात पर जमातियों में ग़ुस्सा था।

इस सब से बचकर एक बार शौक़त शहर में अपनी पुफी के घर रहने चला गया था। शहर मतलब श्रीनगर। उन्हीं दिनों उसे एसआइ मीर का फ़ोन आया था। उसने पूछा था कि पिछली बार वो क्या बताना चाहता था। शौक़त ने सब बता दिया। फिर उस दिन के बाद शौक़त की ज़िंदगी कभी पहले जैसी नहीं हो सकी थी। तब से कार्गो आने-जाने का जो सिलसिला शुरू हुआ था, वो अब बदस्तूर जारी था। सिर्फ कार्गो ही नहीं, उसे जाने कहाँ-कहाँ जाना पड़ता था। कभी कंगन तो कभी वारपोरा, कभी पाम्पोर, कभी अहरबल। आज भी उसे वैसा ही फ़रमान जारी हुआ था। चित्रगाम जाना था। कोई नया लड़का एक्टिव हुआ था। उसे क्लियर करने का दबाव था ऊपर से। किसी अच्छे घर का लड़का था। दो सालों में वो तमाम मुजाहिदों से मिला था। ये बात उस पर अच्छी तरह साफ हो चुकी थी कि इन सब लड़कों को हथियार और हुकूक की लड़ाई की ये दुनिया बाहर से जितनी मर्दाना लगी थी, भीतर आने के बाद उन सब की आँखों से पट्टी उतर गई थी। फिर चाहे वो घाटी के लड़के हों या फिर उस पार वाले मेहमान। इंस्पेक्टर मीर इस बारे में एकदम सही कहता है, ‘इट्स नथिंग बट अ ग्लोरिफाइड मेस…’ शुरुआती दिनों में उसने एक दो बार कोशिश भी की थी कि ये लड़के सरेंडर कर दें। पर ऐसे मौक़े, उसके अपने लिए उल्टे पड़ गए थे। सरेंडर के बारे में बात करने का मतलब था मौत को दावत देना। वो लड़के चाहें तब भी ऐसा नहीं कर सकते थे। इस ग्लोरिफाइड मेस के भीतर कुछ भी ग्लोरियस नहीं था। जब भी वो इस सबके बारे में गहराई से सोचने की कोशिश करता, उसे घबराहट होने लगती थी। उसकी आँखों के सामने हमज़ा का सफ़ेद, मुर्दा चेहरा घूम जाता। उसी ने कहा था कि कुछ लोग वक्त से पहले मर जाया करते हैं। शौक़त का वास्ता अब अक्सर ही ऐसे लोगों से पड़ने लगा था।

हमज़ा शुरुआत में उसे ऐसा नहीं लगा था। गोली लगने के बाद जितनी हिम्मत और ज़र्फ के साथ उसने अपना घाव भरने का इंतज़ार किया था, शौक़त मन ही मन उसे सलाम करता। परदेसी मुल्क में कोई आखिर क्यों अपना सबकुछ छोड़कर अपनी जान हथेली पर लिए इस तरह फिरेगा। ये सवाल उसने कई बार पूछना चाहा था पर कभी हिम्मत नहीं हुई। दो जुम्मे रहा था हमज़ा उसके यहाँ, लेकिन मज़ाल क्या कि उसके चेहरे से मुस्कुराहट कभी गई हो। उसके बाद भी वो कई बार आया था। पहले शुक्रिया कहने। फिर बाद में बस यूँ ही। हमज़ा को एक अपनापा हो गया था उसके साथ। और शौक़त को भी उसके लिए फ़िक्र होती। एक बार चिलईकलान का वक्त था। बहुत बर्फ़ पड़ी थी। हमज़ा आया हुआ था। शाम को दोनों एक टिन के डब्बे में आग जलाकर बैठे बातें कर रहे थे। सर्दी इतनी थी कि फेरन के भीतर पड़ी काँगड़ी भी काफी नहीं मालूम हो रही थी। पाँव गर्म होते तो सीना ठंडा रह जाता, और सीना गर्म होता तो पाँव बर्फ़ हो जाते। हमज़ा को न जाने क्या सूझा। उसने उठकर अपने बस्ते में से एक ट्राँज़िस्टर निकाला, पैनासोनिक की छोटी-सी, पुरानी मशीन जिसके कोने झड़े हुए थे। शौक़त को लगा था कि शायद वो अपने मुल्क को याद कर रहा था। जब उसने रेडियो के पुर्ज़े को घुमाना शुरू किया तो किसी पाकिस्तानी स्टेशन पर नहीं रोका। पर विविध भारती पर रफ़ी की आवाज़ सुनकर उसकी अंगुलियाँ थम गई थीं। “मेरा खोया हुआ रंगीन नज़ारा दे दे…” गाना खत्म होने पर उसने रेडियो बंद कर दिया और फिर अपनी कहानी सुनाने लगा था।

पेशावर में एक लड़की से मोहब्बत थी उसकी। आम सी लड़की थी, कोई बहुत ख़ूबसूरत नहीं। बस उसकी आँखों में एक कच्चा सा हरा रंग था। कपड़े पर अच्छी बूटियाँ काढ़ती थी, सिलाई भी करती। अपने स्कूल की हैड मास्टरनी और बाकी मास्टरनियों के लिए उसके घर के चक्कर करते हुए, हमज़ा पसंद कर बैठा था उसे। उस लड़की के दिल में भी सीधे-सादे हमज़े की तस्वीर उतर गई थी। तब वो गाने खूब गाता था। रफ़ी और किशोर के गाने। हमज़े के माँ-बाप थे नहीं, मगर लड़की के माँ-बाप उससे बड़े ख़ुलूस से मिलते। उसका भाई अक्सर बाहर रहता। डेरा इस्माइल खान में काम था उसका। जब उसने हमज़े को अपने साथ काम करने की दावत दी थी, तो उसे निकाह की शहनाई सुनाई देने लगी थी। यहाँ आया तो पता चला कि काम क्या था। उसे बताय गया कि वो बहुत क़िस्मत वाला था, जो उसे ऐसा सवाब का काम करने मिल रहा था। बस एक गर्मियों के लिए उस पार जाना था। वापस आकर उसके लिए यहीं नौकरी का इंतज़ाम कर दिया जाएगा, और फिर उसकी ज़िंदगी आबाद। ट्रेनिंग के दौरान जब तकरीरें होतीं कि अल्लाह के काम के लिए उन्हें कैसे चौकस रहना है, कैसे अपनी निगाह मरकज़ी मक़ाम पर रखनी है, वो बूटियाँ काढ़ने वाली का चेहरा याद करता। उसका अल्लाह वहीं, उसकी हरी आँखों में जो था। पर अब उसे डर लगने लगा था। उसे अहसास हो गया था कि वो वापस लौट नहीं पाएगा। उस मुलाक़ात के हफ़्ते भर बाद शौक़त पता चला था कि हमज़ा मारा गया। वो उसकी लाश की तसदीक़ करने खुद गया था। उस दिन वो सफ़ेद चेहरा उसकी आँखों से भीतर घुस कर उसके सीने में चिमट गया था।

आज उसे जिस लड़के के लिए बुलाया गया था, वैसे लड़के कम आते हैं इस तरफ। फ़िरदौस नाम है उसका। आइआइटी पासआउट, मोटी तनख़्वाह वाली नौकरी। उसके चेहरे में कुछ तो ऐसा था कि शौक़त को हमज़ा याद आया था। फ़िरदौस कल ही तंज़ीम में शामिल हुआ था। फिर एक वीडियो अपलोड हुआ। सवेरे तक हर ज़ुबान पर उसी की बात थी। बोलता अच्छा है। साफ, कम अल्फ़ाज़ में और सीधे, सुनने वाले की आँखों में देखते हुए। उसने अपनी कहानी सुनाई थी। कि जब मीरवाइज़ मौलवी फ़ारूख के जनाज़े पर गोलियाँ चलीं, तो कैसे उसके दादा ने एक जवान लड़के को बचाने के लिए अपनी जान ख़तरे में डाल दी थी। सीने पर गोली खाई और दुनिया से कूच कर गए। तीन साल का पोता उन्हें कई दिनों तक ढ़ूँढता रहा। उसने अपने चाचा का ज़िक्र किया। कि बाप की मौत के बाद कैसे अठारह साल का लड़का मुजाहिद बनने पाकिस्तान चला गया। और जब लौटा तो साल भर मुश्किल से जी पाया। वो अपनी दादी पर गुज़रे अज़ाब पर रोया कि दादा और चाचा की मौत के बाद वो रो-रोकर अंधी हो गई थी। उसने अपने बचपन के बारे में बताया कि कैसे उन दिनों हर तरफ से बस गोलियों की आवाज़ आती थी। ज़रा भी कहीं तेज़ आवाज़ होती और घर का हर शख़्स डर कर नीचे झुक जाया करता था। उसने बताया कि अब्बू जी ने क्यों उसे कभी घर से बाहर खेलने नहीं जाने दिया। उन्हें क्यों ये डर था कि कहीं उनका एकलौता बेटा भी बंदूक़ न उठा लाए। और जब स्कूल के बाद वो दिल्ली पहुँचा तब उसे पहली बार पता चला कि बदन पर वर्दी और हाथों में बंदूक़ लिए लोग सबके लिए आम नहीं थे। डर और मौत के ये साये सिर्फ उसके ही मुल्क के हिस्से आए थे। हर बार उसने ज़ब्त किया। पर अब नहीं होता।

“रोज़ मुर्दे की तरह जीने से एक दिन सचमुच मर जाना बेहतर है। जानता हूँ, मेरी शेल्फ़ लाइफ़ आपके बटर के डब्बे से भी कम है, यही तो कहते हैं न अखबार वाले हम जैसों के बारे में। पर मेरे आगे अब कोई रास्ता नहीं। मैंने बहुत कोशिशें कीं इस क़ैद में जीना सीखने की। पर दम घुटता है यहाँ। घर के भीतर भी, बाहर भी। बाहर गया तब भी इस घुटन ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। हर रोज़ सुबह उठते ही मुझे याद आता था कि वो आज़ाद दुनिया मेरी नहीं है। मुझे लौट कर यहीं आना होगा, जहाँ मेरी मौजी रहती है। मैं आजतक नहीं जान पाया हूँ कि वो कैसे रहती है। लौट कर आया तो एक बार फिर कोशिश की। सोचा था कि छोटी-छोटी ख़ुशियाँ मिलकर इस बड़ी सी घुटन पर पर्दा डाल देंगी। पर मुझे फिर याद दिला दिया गया कि यहाँ सिर्फ एक ही एहसास बचता है, और हमारे हिस्से बस वही आना है। डर। हम जब भी कुछ और चाहने, कुछ और ढूँढ़ने की कोशिश करेंगे तो मुँह की खाएँगे, मार दिए जाएंगे…”

कुछ भी झूठ नहीं कहा था लड़के ने। शायद इसीलिए हर कोई उसके बयान में अपना सच देख दे रहा था। शौक़त रात को सोने से पहले उसी वीडियो के बारे में सोचता रहा था। उसे डर महसूस हो रहा था। सुबह जब चित्रगाम के लिए निकला तो कई बार घर वापस लौट जाने का दिल चाहा। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था उसके साथ। पिछले दो सालों में तमाम लड़कों को मरते देखा है। वो जानता है कि उसे ज़िंदा रहना है तो लाशें देखनी ही होंगी। वो यह भी जानता है कि इसके बावजूद भी कोई ज़रूरी नहीं कि उसे जीते रहने के लिए बहुत वक्त मिल जाए। हमज़े की मौत के बाद उसने खुद को साफ लहज़े में समझा लिया था कि यहाँ का निज़ाम ऐसे ही चलना है। बेवजह सोचने का मतलब है अपने ज़हन में कमज़ोरी को दावत देना। मौत को दावत देना। चित्रगाम में उसका सोर्स है। उसे मालूम होगा कि ये नया लड़का किन लोगों के साथ है।

पहुँचा, तो मालूम हुआ आज रात कुछ लोग उसके घर आकर ठहरने वाले थे। उन से खबर लग सकती थी कि फ़िरदौस किस तरफ था। आज रात उसे भी यहीं बैठना था। घर के सामने खूब धुँआ था। सर्दियों के लिए कोयले तैयार हो रहे थे। एक बच्ची अपनी गुड़िया के लिए रंगीन काग़ज़ की फ़्रॉक बना रही थी। उसकी माँ डाँट रही थी कि ऊपर सूखने को रखी अल और मिर्चियाँ उठा लाए। भीतर से एक लड़की और आई, घर के बग़ीचे में लगे टमाटर तोड़ने। कोई 18-19 की होगी, आँखों पर चश्मा, लड़कों जैसा फेरन पहना था, सामने ज़िपर, पीछे हुडी। सर पर कोई हिजाब नहीं था। पड़ोस के घर से तुंबकनाड़ी की आवाज़ आ रही थी। किसी की सगाई ठीक हुई थी। रात को आने वाले मेहमानों के लिए बिस्तर निकलवाकर ऊपर के हॉल में रख दिए गए थे। हॉल की एक खिड़की ठीक से बंद नहीं होती, पर अभी इतनी भी सर्दी नहीं थी कि बहुत परेशानी हो। चाय पीने बैठे तो टमाटर जैसे गालों वाला एक छोटा लड़का त्सचवोरो ले आया। शौक़त को अपना बेटा बहुत याद आया। चाय की प्यालियाँ ख़ाली करते हुए लड़के की तक़रीर का ज़िक्र हुआ। दोनों ने माना कि लड़का अच्छा बोलता है। पर इसके आगे बात उतनी ही कही गई जितनी भीतर के झूठ पर बाहर के सच का पर्दा खींचे रखती। शौक़त जानता था कि सामने वाला भी वहीं फँसा हुआ था जहाँ खुद उसका ज़मीर। मगर किसका कलेजा इतना सख़्त कि कमज़ोर दिखने की ज़हमत उठाए। लकीर के इस पार खड़े लोग अब चाह कर भी उस तरफ नहीं जा सकते थे।

रात को घर की सारी बत्तियाँ बुझ जाने के बाद वो लोग आए थे। चार लड़के। चार आम लड़के जो कहीं भी, किसी भी घर से हो सकते थे। मगर अब इनके पास घर नहीं थे। ये बस मेहमान थे, खुद अपने भी घरों में। इनका सामान पहले ही लाकर हॉल के साथ बने गुसलखाने में रखा जा चुका था। नीली डेनिम और बादामी जैकेट वाला लड़का, जो शायद कमाँडर था, आते ही गुसलखाने में गया। बाहर निकला तो जीनिमाज़ माँगा। उसे निमाज़ पढ़नी थी। बाकी लड़कों को उनके बिस्तर दिखाए जा चुके थे। खाने के लिए काफी इसरार किया गया, मगर लड़कों ने माना नहीं। घर के मालिक ने खिड़की के किनारे से जीनिमाज़ उठाया तो उसके नीचे रखी किताब फ़र्श पर गिर पड़ी। लैंप की रौशनी में किताब का नाम पढ़ा तो कोने में लगे बिस्तर में घुस चुके लड़के के बुझे हुए चेहरे पर थकी हुई सी मुस्कान उतर आई। लोलिता, व्लादिमिर नाबुकोव। किताब को किसी ख़रगोश के बच्चे की तरह हाथ में उठाते हुए उसने पूछा, “किसकी है?” मकान मालिक के चेहरे पर जल्दबाज़ी थी। पर थोड़ा ठहर कर बोला, ‘बेटी है मेरी, बस किताबों में सर घुसाए रहती है।’ उसे खुद अंग्रेज़ी नहीं आती थी लेकिन अंग्रेज़ी किताबें पढ़ने वाली बेटी पर उसका गुमान उसकी आवाज़ में छलक आया था। शौक़त ने मुस्कुराने वाले का चेहरा देखा। ‘तूने तो बहुत किताबें पढ़ी होंगी, जिगरा,’ उसने बिना सोचे सवाल किया। लड़के की मुस्कुराहट उदास हो गई। ‘ओ ग़ुलाम मोहम्मदा, चल अब सोने की तैयारी कर,’ साथ के बिस्तर में दाढ़ी वाले लड़के ने अपनी पीठ सीधी करते हुए कहा। ग़ुलाम मोहम्मदा चुप लेट गया। शौक़त का अंदाज़ा ठीक था। ग़ुलाम मोहम्मदा फ़िरदौस ही था।

शौक़त देर रात तक सबके सो जाने का इंतज़ार करता रहा। अब करना बस यही था कि इंस्पेक्टर मीर को इतत्ला कर दी जाए। उसका काम पूरा। किसी ने यह साफ नहीं किया था कि मेहमान कितने दिन रुकेंगे। हो सकता है उसके पास बस आज की ही रात हो। अगर वो खबर कर दे तो कितना वक्त लगेगा। घंटे भर में सब निपट जाएगा। कैंप पास ही था, और पुलिस स्टेशन भी। पर जैसे ही उसकी उँगलियाँ अपने पुराने ढंग के छोटे से फ़ोन से टकरातीं, उसकी साँसों की रफ़्तार बढ़ जाती। उसकी आँखों में गर्म नमी उतर आती। वो कमज़ोर पड़ रहा था। गला ऐसे सूखता हुआ लग रहा था कि मौला का दमा उसके अपने फेंफड़ों में घुस गया हो। उसने उठ कर पानी पिया। ग़ौर किया तो मालूम हुआ कि सामने गली में कुछ हलचल थी। खिड़की खोलकर देखा, दो रक्षक गाड़ियाँ दिखीं। शायद किसी और ने वो कर दिया था, जो शौक़त से नहीं हुआ था। कुछ ही देर में बाहर हलचल और बढ़ गई। गाँव को कॉर्डन कर दिया गया था। उसने मकान मालिक को आवाज़ दी। वो हॉल में नहीं था। नीचे जाने के लिए गया तो मालूम हुआ हॉल का दरवाज़ा बाहर की तरफ से बंद कर दिया गया था। शौक़त सब समझ गया। अब इन लड़कों के साथ वो भी फँस चुका था। लड़कों को आवाज़ देने से पहले उसने गुसलखाने में जाकर इंस्पेक्टर मीर को फ़ोन लगाया। कोई जवाब नहीं मिला। लड़कों का सामान खुला पड़ा था। सिर्फ दो बंदूक़ें और कुछ गोलियाँ बाकी थीं। तैयारी बहुत क़ायदे से की गई थी। शौक़त ने बाहर निकलने का कोई और रास्ता ढूँढने की कोशिश की। गुसलखाने की खिड़की बहुत छोटी थी। वहाँ से निकलना मुमकिन नहीं था। बाहर निकला तो लड़के जाग चुके थे। बस फ़िरदौस सोया पड़ा था। बाहर आवाज़ें काफी बढ़ गई थीं। सबकी नज़रें और कान खुली हुई खिड़की की तरफ थे। शौक़त को देखा तो कमांडर ने उसका गला पकड़ लिया। वो अपने बच्चे और क़ुरान की क़समें खाता रहा कि ये उसका काम नहीं था। बाहर लाउडस्पीकर पर ऐलान किया जा रहा था कि पुलिस जानती है कि ये लोग कहाँ छुपे हैं। उन्हें सरेंडर के लिए हथियार छोड़कर बाहर आने को कहा जा रहा था।

हथियार उनके पास नाम के ही बचे थे। बाहर जाने के दरवाज़े पहले ही बंद किए जा चुके थे। “खुदा के वास्ते सरेंडर कर दो। ऐसे मरने में कोई सवाब नहीं मिलेगा, जिगरा,” शौक़त ने कमांडर का हाथ पकड़ते हुए कहा। उसने हाथ झटक दिया। बाकी लड़के निकल कर भागने के रास्ते ढूँढ रहे थे। कोई रास्ता नहीं था। हॉल का दरवाज़ा गोली मारकर तोड़ा गया। मगर यहाँ से गोली की आवाज़ सुनते ही बाहर से गोलियों की बरसात होने लगी। गोलियाँ इधर से भी चलाई गईं। मगर कितनी? घर में नीचे कोई नहीं था। पुलिस को इत्तला देने से पहले घर ख़ाली किया जा चुका था। लड़के पीछे की तरफ के एक कमरे में जा छुपे। दाढ़ी वाले लड़के ने अपने पर्स से माँ-बाप की तस्वीर निकाल ली। वो किसी बच्चे की तरह सुबक रहा था। दूसरा निमाज़ के लिए झुक गया। कमाँडर अब भी देख रहा था कि शायद कहीं से बचने का रास्ता निकल आए। बस फ़िरदौस बुत की तरह कमरे के बीच खड़ा था। जब कोई रास्ता नज़र नहीं आया तो कमाँडर ने अपना फ़ोन निकाल कर दाढ़ी वाले लड़के को थमा दिया, “अम्मा को सलाम कह ले।” फ़िरदौस की भी बारी आई। उसने बात करने से इन्कार कर दिया। कमाँडर ने खुद ही उसकी माँ को फ़ोन लगाया।

बाहर अब गहमा-गहमी बढ़ चुकी थी। हिम्मत जुटाकर शौक़त ने सामने का दरवाज़ा खोला और बाहर निकला। पहली गोली पेट में लगी और दूसरी माथे पर। उसे कुछ भी कहने का मौक़ा नहीं मिला। रॉकेट लॉंचर तैयार था। तीसरा आरपीजी घर की ऊपरी मंज़िल में फटा। आस-पास सो रहे परिंदे शोर करते हुए उड़ गए। हमसायों के घरों की भेड़ें और गाएँ, बाड़ों से निकलकर भागने का रास्ता ढूँढने लगीं। कुछ देर के शोर के बाद सब थम गया। बस धूल,धुँए और आग का एक बादल था जो मलबे के ढेर को घेरे हुए था। लकड़ी और ईंटों के एक ढेर के नीचे फ़िरदौस को अपनी आँखों में बड़ी तेज़ हरकत महसूस हुई। एक नुकीला पत्थर उसके सीने में भीतर तक उतर गया था। उसने देखा कि वो झील में डूबता जा रहा था। उसके बदन को बर्फ़ के हलके-हलके फाहों ने ढँक लिया था। झील का पानी गाढ़ा हो रहा था। उसकी मुट्ठी अपने पायजामे की जेब में एक काग़ज़ के टुकड़े पर तंग हुई, और फिर ढीली पड़ गई।

The post गर फ़िरदौस बर-रू-ए-ज़मीं अस्त/ हमीं अस्त ओ हमीं अस्त ओ हमीं अस्त appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

  ज़िंदगी का मज़ा माइक्रो में है

$
0
0

देवेश पथ सारिया आजकल ताइवान के एक विश्वविद्यालय में शोध कर रहे हैं। उनकी कविताएँ हम पढ़ते रहे हैं। यह उन्होंने ताइवान से वहाँ के जीवन को लेकर डायरीनुमा लिखकर भेजा है। आप भी पढ़ सकते हैं-

====================

साल 2020 का फरवरी महीना शुरू हुआ है। कुछ दिन पहले ही चीनी नववर्ष की सालाना छुट्टियां ख़त्म हुईं हैं। 2015 में ताइवान आया था।  तब यूनिवर्सिटी के पास ही मेरे प्रोफ़ेसर ने अपने पीएचडी स्टूडेंट की मदद से मेरे ताइवान पहुँचने से पहले ही मेरे लिए किराये का कमरा ढूंढ दिया था। यूनिवर्सिटी के मेन गेट के सामने वाली सड़क ग्वांगफू रोड कहलाती है। इसी से अंग्रेजी के ‘टी’ आकृति बनाती एक सड़क निकलती थी, जो कुछ दूरी के बाद दूसरी सड़क से जा मिलती थी जिसे ज्यांगोंग रोड कहते थे। सड़कों के इस जंक्शन पर बादामी रंग की ऊंची इमारतों का जाल था । इन्हीं इमारतों में से ग्यारहवें माले पर आने के बाद शुरू के ग्यारह महीने एक फ्लैट में मैं रहता था । महानगर में आप एक बड़े से जाल के एक तंतु में फंसी मकड़ी की तरह रहते हैं।

तब मैं नया-नया ही पीएचडी करके आया था और पीएचडी की एक आदत अब भी मेरे साथ थी। रात भर जगना और दिन में एक-दो बजे तक सोना। शोध का जो भी काम होता था, दोपहर बाद और रात में करता था। नया आया था तो यहां के माहौल में ढल रहा था। हमारी यूनिवर्सिटी में भारतीय विद्यार्थी भी कुछ संख्या में थे । ‌इनमें स जितने नये आये  थे, अभी हर बात में “अगर भारत होता तो…” कहकर परिस्थितियों, घटनाओं और क़ीमतों की तुलना भारत से करते थे । हर वस्तु का दाम ताइवान डॉलर से भारतीय रूपये में बदलकर देखते और वापस रख देते।  सब घर से कैलकुलेट करके निकले थे कि हर महीने कितने पैसे बचा लेंगे और यहां आकर लग रहा था कि घर से पैसे ना मंगाने पड़ जायें। एक आलू भी सोलह रूपये का मिलता था। मेरे उस पुराने कमरे से बाज़ार पास था। शहर के दोनों मुख्य सुपरमार्केट भी पास में ही थे। सब्जियों की एक मॉर्निंग मार्केट तो एकदम निकट थी, कमरे से लगभग 200 मीटर दूर। पर मैं तो आलसी और लेटलतीफ़ था। मैं जब तक उठता, सब्जी बेचने वाले सारे दुकानदार जा चुके होते। फ़िर ग्यारह महीने बाद मैंने वहां से कमरा छोड़कर यूनिवर्सिटी के साउथ गेट की तरफ कमरा ले लिया। उस कमरे को छोड़ने के कारणों पर कभी और विस्तार से लिखूंगा। नया कमरा जहां लिया, वह शहर का बाज़ार से दूर वाला हिस्सा था। मैंने अपनी मम्मी को फोन पर इस बारे में बताया तो उन्हें और आसानी से समझाने के लिए मैंने कहा, “ऐसा समझ लीजिए कि पहले मैं अपने राजगढ़ कस्बे के बस स्टैंड के पास वाली पॉश कॉलोनी में रहता था । अब मैं राजगढ़ के पिछले हिस्से की तरफ मांदरीन मोहल्ला में जा रहा हूं।” जब मैंने उन्हें बताया कि इस कमरे का किराया पहले जितना ही है तो उन्होंने कहा “बताओ, मांदरीन में रहबे के भी इतने पइसा।” अब उन्हें कैसे समझाता कि वह मांदरीन की तरह सुविधारहित मोहल्ला नहीं था। बस, मुख्य शहर और बाज़ार से यह दूसरी तरफ था। यह कमरा यूनिवर्सिटी के पास उतना ही था जितना पुराना कमरा था, पर अब आने का रास्ता ज़्यादा चढ़ाई भरा था।  अब सड़क किनारे लगे वृक्षों या अधिक जंगली से दिखने वाले  रास्तों से गुजरने के विकल्प थे। इस मोहल्ले में शहर के साइंस पार्क में काम करने वाले धनाढ्य परिवार रहते थे। आर्थिक दृष्टिकोण से यह हमारे राजगढ़ का मांदरीन मोहल्ला बिल्कुल नहीं था। यह बात मम्मी को बाद में समझ आ गयी जब वे ख़ुद ताइवान घूमने आईं ।

यह नया कमरा बड़ा था।  इसमें वे सब समस्याएँ भी नहीं थीं जो इससे पहले वाले कमरे में मुझे होती आईं थीं। 2016 के अगस्त से मैं यहीं रहता रहा । अब भी जबकि साल 2020 का पहला महीना गुज़र चुका है, यहीं रहता हूं। इसी कमरे पर आकर मैंने ताइवान के बदलते मौसम और तदनुसार आने वाले पत्तों और फूलों को ठीक से याद रखना शुरू किया।

बाओ शान रोड स्थित अपने नये कमरे से मैं सब्ज़ी और बाक़ी ग्रोसरी का सामान लेने मार्ट जाता था। एक सुपर मार्केट जहां एक ही छत  के नीचे सब कुछ मिलता था। आलसी व्यक्ति किसी काम को ना करने के सौ बहाने ढूंढ लेता है।  खाना, काम करना और सो जाना, इस नियमित दिनचर्या का ही परिणाम था कि  मेरा बीएमआई पैंतीस पार कर गया था।  बीएमआई वज़न का एक ऐसा पैमाना है जो लम्बाई और वज़न दोनों को लेकर बनाया गया है। बीएमआई का सीधा और आसान सूत्र है किलोग्राम में वज़न लेकर उसमें मीटर में अपनी ऊंचाई के वर्ग (स्क्वायर) से भाग दे दें।  इसका  18 से 25 के बीच होना सामान्य की श्रेणी में आता है ।  25 से ऊपर बीएमआई का व्यक्ति ओवरवेट और 30 से ऊपर का ओबीज़ माना जाता है । मेरा बीएमआई 35 से ऊपर जा चुका था। बढ़ा हुआ वज़न कई बीमारियां लेकर आता है जो आप एक समय तक नज़रअंदाज़ कर सकते हैं।  इस बढे हुए वज़न ने अपने असर का पैग़ाम एक दिन अचानक दिया जब सुबह की चाय के बाद कमजोरी सी लगने पर मैंने उसे लो ब्लड प्रेशर समझ लिया और उसके बाद दो गिलास नमकीन शिकंजी पी डाली। कुछ मिनट में पेट से कुछ तरंगे सी ऊपर को उठने लगीं।  मैंने सोचा कि  ब्लड प्रेशर कुछ बढ़ गया है।  दो-तीन घंटे तड़पने के बाद उबेर से टैक्सी बुक कर मैं हॉस्पिटल पहुंचा। डॉक्टर को मैंने वही बताया जो मुझे लग रहा था कि शायद ब्लड प्रेशर बढ़ गया है । जांच करने पर पाया कि ब्लड प्रेशर बहुत ज़्यादा नहीं, पर कुछ ज़्यादा था। डॉक्टर ने उसी के लिए दवा दी । अब सावधानी बरतते हुए खाना-पीना मैंने कम कर दिया। लगभग पंद्रह दिन बाद मुझे ताइवान से भारत जाना था।  दीपावली पर भारत आने के लिए पहले से फ्लाइट बुक करा राखी थी। भारत से पिछली छुट्टियां बिताकर ताइवान आये हुए मुझे आठ महीने हो गए थे।  वैसे भी दीपावली मेरा प्रिय त्यौहार रहा है, सो भारत चला आया।  भारत में भी दवाइयां लेने के बाद भी बेचैनी सी रहती थी।  ऐसा लगता था कि कुछ और समस्या है, कोई और रोग जिसके लक्षण कुछ पकड़ में नहीं आ रहे थे, ना ही कम हो रहे थे ‌। भारत में ही कुछ दिन बाद यह पता चला कि दरअसल मुझे पाचन तंत्र की बीमारी है। जयपुर के फोर्टिस अस्पताल में एंडोस्कोपी कराने से पता चला कि  मुझे एसिड रिफलक्स डिजीज है। इस बीमारी में पेट का अम्ल ऊपर एसोफैगस में चढ़ जाता है।  यह कभी-कभी श्वसन तंत्र को भी प्रभावित कर देता है। मेरे मामले में भी यह हो रहा था पर उस समय फोर्टिस में माइल्ड अस्थमा का भी अंदेशा प्रकट किया गया। दरअसल अस्थमा के स्पिरोमेट्री टैस्ट में आपकी फूँक मारने की क्षमता से लंग्स की कार्यक्षमता जांची जाती है। मैंने यह टैस्ट एंडोस्कोपी के बाद कराया और चूंकि एंडोस्कोपी के दौरान गले को सुन्न किया गया था, इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि मैं फूँक उतनी क्षमता से नहीं मार पाया और रिपोर्ट के आधार पर डॉक्टर ने माइल्ड अस्थमा भी बताया। जो भी हो सांस लेने में तकलीफ़ हो रही थी।  उस पर दीपावली के दौरान पटाखों से हुआ भारत का प्रदूषण। हमारे पड़ोस के लोग चूल्हा जलाते थे। यहां तक कि हमारे कस्बे के कुछ सफाईकर्मी  कूड़े का निस्तारण करने की जगह उसे जला देते थे। उस धुंए से जो मेरी हालत होती थी, मैं जानता हूँ या मेरा ईश्वर। कितनी योजनाएं बनाई थीं मैंने भारत की यात्रा के लिए। बहुत से फोटो लेना चाहता था अपने नए कैमरे से। महाराज भर्तृहरि की तपोस्थली जाना चाहता था, जो हमारे तहसील से अधिक दूर नहीं है। पर यहां एक-एक सांस के लिए संघर्ष करना पड़ रहा था। यही कारण है कि अब मैं उन सब बीमारों का हाल कुछ बेहतर समझ सकता हूँ जो पेट या सांस की किसी भी बीमारी से जूझ रहे हैं।

भारत से ताइवान वापस आ जाना एक राहत की बात थी।  यहां धुंआ और प्रदूषण कम था।  यहां आकर भारत से लायी दवाइयां समाप्त हो जाने के बाद डॉक्टरों को दिखाना पड़ा।   यहां मेरा हेल्थ इंशोरेंस भी था जिस वजह से दवाइयों के पैसे नहीं लगने थे। यहां के सांस के डाक्टर ने हॉस्पिटल के रिकॉर्ड में मेरा पुराना चेस्ट एक्स-रे देखकर कहा कि उन्हें लगता है कि मुझे अस्थमा नहीं है। पुनः चेस्ट एक्स-रे और स्पिरोमेट्री टैस्ट कराया गया। दोबारा कराये गए स्पिरोमेट्री टैस्ट से यह बात साफ़ हुई कि अस्थमा नहीं है। पेट के डॉक्टर ने एसिड रिफ्लक्स की पुष्टि की। अस्थमा के सारे लक्षण एसिड रिफ्लक्स की वजह से ही हो रहे थे। डॉक्टर ने सीधी हिदायत दी कि अपनी लाइफस्टाइल बदलकर ही मैं इस बीमारी को काबू कर सकता था।  पहले मैं दिन में तीन गिलास भरके चाय पीता था।  अब किसी भी तरह का कैफ़ीन पूरी तरह बंद करना था। घी मेरा सबसे प्रिय खाद्य है, वह भी बंद। मीठा बंद क्योंकि वज़न भी कम करना था।  मैं खाने में कैलोरीज गिनने लगा था।  अब उन सब्ज़ियों से प्रेम करना था, जिनसे सारी उम्र नफरत की, जैसे लौकी, तुरई, जुकीनी। दाल और बैंगन की सब्ज़ी मुझे पहले से पसंद रही है। केला और सेब भी नियमित डाइट में शामिल हुए।  अब कच्ची-पकी सब्ज़ियां बहुत खानी थीं। यह भी तय हुआ कि वज़न कम करने को कुछ व्यायाम किया जाये। एसिड रिफ्लक्स में दौड़ना या भारी व्यायाम करना उल्टा पड़ सकता है तो सबसे मुफ़ीद लगा चलना। तो बस चलने लगा।  शुरुआत एक दिन में तीन किलोमीटर से की।  उससे एक महीने में जो वज़न कम हुआ, उतने से ब्लड प्रेशर सामान्य हो गया।  जो एड़ियां चलने पर दुखने लगती थीं, उनका दर्द गायब हो गया।  जब मेहनत का फायदा दिखने लगे तो आप और प्रयास करने को प्रेरित होते हैं।  अब धीरे-धीरे एक दिन में पहले चार, फिर पांच किलोमीटर पैदल चलने लगा।  फिलहाल एक दिन में कम से कम सात किलोमीटर चलने का नियम है जो कभी कभी दस, ग्यारह, बारह किलोमीटर भी हो जाता है।  जो आदमी सामने वाली गली तक जाना बोझ समझता था, एक महीने में लगभग पौने तीन सौ किलोमीटर पैदल चलने लगा।

मोटा भी तो बहुत हो गया था मैं । साढ़े पांच फीट के आदमी का 98 किलो वजन। एक डॉक्टर ने अपनी एग्जामिनेशन रिपोर्ट में मेरे लिए ओबीज़ शब्द का प्रयोग किया तो एहसास हुआ कि अरे, भीतर से ख़ुद को चुस्त समझने वाला मैं विशेषज्ञों की नज़र में एक थुलथुला आदमी हूँ। ऊपर से स्वयं को देखने पर हम समझते हैं कि अभी हम ठीक-ठाक ही हैं। मैं ख़ुद को समझाता था कि वज़न के सारे कांटे झूठ बोल रहे हैं और शरीर में जो बढ़ चुका है वह तो डेढ़ साल पहले जो जिम की थी उसकी वजह से बढ़ी हुई मांसपेशियां हैं। मैं फोटो नहीं खिंचाता था, आईने से नज़र चुराकर निकल जाता था।  मेरे बाहर के व्यक्ति का रूप  मेरे भीतर से बहुत अलग था।  समाज भी मोटे लोगों से भेदभाव करता है। नस्लवाद, रंगभेद की तरह इस विभेद पर कोई आवाज़ भी नहीं होती।  मोटे लोगों के बारे में लोगों को यह भ्रान्ति होती है कि वे बहुत ख़ुशमिजाज़ होते हैं और इसलिए उनसे वज़न के बारे में कुछ भी मज़ाक किया जा सकता है।  जबकि वे अपमान का घूंट पीकर इसे सहन कर रहे होते हैं। मैं भी सालों से यही कर रहा था। बहुत ज्यादा पढ़े लिखे लोग भी मेरी भावनाओं की कद्र किए बिना मेरा मज़ाक उड़ाते ही थे। बहरहाल, अब वही चर्बी चलने और सही खाने से कम हो रही है। फरवरी 2020 आते-आते मेरा वजन 98 से गटकर 76 किलो हो गया है। कुछ लोग अब देखने लगे हैं मेरी तरफ। मैं भी अब शीशा देखने लगा हूँ।

ज़िंदगी का मज़ा माइक्रो में है

किसी तेज़ रफ़्तार वाहन से

दृश्यों को धता बताते हुए

सर्र से निकल जाने पर

आप अनसुनी कर देते हैं

जीवन की थाप

फुटपाथ की हर टाइल पर

सड़क किनारे की हर रोड़ी पर

कम से कम एक बार

अपना पैर रख पाने की उपलब्धि

पाते हैं पैदल चलने वाले ही

वही चीन्ह पाते हैं उस चिड़िया को

जो नशेड़ी की तरह

गोते खाकर झूमती उड़ती है

वे कोशिश कर पाते हैं

नींब की निम्बोली को उछलकर छूने की

वे चख पाते हैं झाडी वाले बेर

घास में उगे फूल देख पाते हैं

उनकी आँखें माइक्रोस्कोप बन जाती हैं

जानती हैं हर तिनके का सम्मान करने का शऊर

वे फूलों को एक बार सूंघकर

तोड़े बिना आगे बढ़ जाते हैं

अगले पथिक के लिए

रास्ते का यौवन अक्षुण्ण छोड़ते  हुए

जब आप चलने लगते हैं तो आप उन तमाम दृश्यों को भी देखते हैं जो कि आपने इससे पहले नहीं देखे थे। मैं अब अपने आसपास के पेड़ों को पहचानने लगा हूँ।  घास उगने के ठीयों को भी। यदि जंगल वाले रास्ते से यूनिवर्सिटी जाओ तो पहले पेड़ों से घिरी हुई सुनसान जगह के पास एक टीन का बना ढांचा है जो ऐसा लगता है जैसे किसी डरावनी फिल्म की लोकेशन। कुछ बड़े पेड़ों के तनों के निचले हिस्से से कोई डाली फूट पड़ी है, कुछ पेड़ों से गोंद टपकता है,  कुछ पेड़ों की छाल हमेशा गीली रहती है और कुछ पर बेलें लिपटी हुई हैं। पेड़ों से लिपटी हुईं कुछ बेलों से डालियाँ एक माला की आकृति बनाती हुई लटकी रहती हैं, मानो प्रकृति ने हार बनाया हो उस जंगल के रास्ते से गुजरने वाले का अभिवादन करने के लिए । इस अभिवादन को स्वीकार कर आगे  चलो तो सुनसान में किसी देवता का मंदिर आता है। वहां रूककर कुछ देर मनन करता हूँ। उसके बाद एक लड़की का ढांचा है जिसमें बैठने की जगह है और मेज़ पर किसी बोर्ड गेम की गोटियां रखीं हैं।  छोटी-छोटी।  चौसर या शतरंज जैसा कुछ होगा , यहां का कोई स्थानीय खेल।  बाक़ायदा उस खेल को समर्पित कुछ साइनबोर्ड भी हैं जो खेल की चाल की विभिन्न स्थितियों को दर्शाते हैं। उन छोटी-छोटी गोटियों वाली मेज़ पर किसी छुट्टी वाले दिन छोटे बच्चे बैठे रहते हैं।  पर यह देखिये कि ना कोई शरारती बच्चा और ना ही कोई उपद्रवी युवा विद्यार्थी आज तक खेल की एक भी गोटी ले गया है। ये कीड़े हमारे दिमाग़ में कुलबुलाते हैं क्योंकि हम ऐसे माहौल में बड़े हुए हैं। मेरे कस्बे के स्कूल में बच्चे केमिस्ट्री लैब में लैब असिस्टेंट की नज़र बचाकर किसी भी केमिकल की बोतल में कोई दूसरा कैमिकल मिला देते थे। मुझे नहीं पता कि रसायनों से इतना ख़तरा होने के बावजूद ऐसी हरकत वे कैसे कर लेते थे।  संभव है, उन्होंने ज़रुरत की इतनी भर जानकारी होता ली हो कि कौनसे रसायनों को सामान्य ताप पर मिलाने पर कोई विस्फोटक अभिक्रिया नहीं होगी। जब सब गड्डमड्ड हो जाता था तो सही मूलक की पहचान बड़े से बड़ा प्रोफ़ेसर न कर पाये।

कनाडा में देखे मेपल्स के पेड़ भी हमारी यूनिवर्सिटी में हैं, पर वे एक ख़ास जगह अधिक हैं।  लड़कियों के हॉस्टल के सामने से जो रास्ता जाता है, वहाँ। हॉस्टल के सामने से गुजरने वाले स्वप्निल प्रेमियों के लिये मेंपल्स के पत्ते कभी शिद्दत, कभी टूटते सपनों का प्रतीक बनते होंगे। थोड़ा आगे चलकर बायें मुड़ने पर कुछ जटाओं वाले पेड़ हैं।  ये बरगद नहीं हैं, कुछ और हैं। एक पेड़ ऐसा है जैसे बाहें फैलाए खड़ा खड़ा हो। एक पेड़ की छाल ऐसी है जैसे उसे खाज की बीमारी हो गई हो।  इस पेड़ को मैं प्यार से सहला देता हूं। पेड़ को छू लेने से थोड़ी ना किसी को छूत की बीमारी फैलती है। कुछ पेड़ों से खुजली हो सकती है, पर यदि ऐसा पेड़ होता तो इसे यूनिवर्सिटी में इतना बड़ा होने ही ना देते। यदि होता भी तो यूनिवर्सिटी के उस हिस्से में, जहां जंगल है। घर से दूसरी तरफ साइंस पार्क की ओर निकल जाओ तो एक पेड़ ऐसा है, जो ज़मीन से बहुत दूर तक समान्तर रहते हुए अचानक ऊपर उठता है। उस पेड़ पर मैं कभी-कभी बैठ जाता हूँ और बचपन का किसी पेड़ पर चढ़ जाने का सपना दोबारा पूरा कर लेता हूँ । पैदल चलने लगो तो कुछ भी दुर्गम नहीं लगता। अब मैं यूनिवर्सिटी के जंगल वाले हिस्सों में भी पैदल जाने लगा हूँ। ऐसे ही एक दिन मैंने पाया कि यूनिवर्सिटी से शहर के 18 पीक्स माउंटेन के लिए रास्ता जाता है और उस रास्ते में एक बड़ी सी झील भी है।  अगर झील के पास से जाने वाली रहस्यमयी सी लगने वाली सीढ़ियां चढ़ लो तो ऊपर एक बड़ा सा हॉल है , चारों तरफ खुला हुआ, दीवारें नहीं हैं उसमें, महज़ खम्भे हैं। इसी हॉल के पास एक स्मारक सा है और उस स्मारक के सामने से दूसरी तरफ नीचे उतरो तो सफ़ेद फूलों वाले ‘प्लम ब्लॉसम’ के पेड़ हैं।  वसंत में खिलने वाला यह सफ़ेद फूल, चेरी ब्लॉसम की अपेक्षा दुर्लभ है। इसीलिए इन वृक्षों के पास जाने की अनुमति नहीं है। वहां कुछ कुत्ते ज़रूर बैठे रहते हैं। कुत्तों का आपस का ही इलाक़े का झगड़ा रहता है।  एक दिन मैं उन फूलों की तस्वीर लेने के लिए ज़रा सा पास चला गया था, तो भौंक-भौंककर भगा दिया कुत्तों ने। वैसे इस झील से सीढ़ियों की तरफ ना जाकर दूसरी तरफ जाओ तो जंगल सा आता है, जो लगता ही नहीं कि यूनिवर्सिटी का ही हिस्सा है। यहीं जंगल में मेज़ और दो कुर्सियां रखीं हैं कि चाय पैक करके ले आओ और यहाँ बैठकर चुस्कियां लो।  ताइवान की चाय भारत से अलग है और इन एशियाई देशों में इस तरह की चाय ही पी जाती है। साबूदाने से बनने वाली बबल टी ताइवान से ही आरम्भ हुई। इस जंगल में एक जगह बटरफ्लाई गार्डन है जहां तितलियां उड़ती हैं। केलों के गुच्छे हैं वहाँ और बहुत सारे फूल। हिबिस्कस की अलग-अलग क़िस्में। लगभग चार साल तक इस स्वर्ग से मैं अनजान रहा।  वैसे स्वर्ग की बात चली है तो बताता चलूं कि इस बटरफ्लाई गार्डन पर यूनिवर्सिटी की बिना दीवार की सीमा है जिसके दूसरी ओर क़ब्रें हैं। कुछ क़ब्रें यूनिवर्सिटी के डॉरमिटरी के पास भी हैं। पर इतनी सारी क़ब्रों के बाद भी भूतों की कोई अफवाह नहीं सुनी मैंने। अपना देश होता तो कुछ रोचक क़िस्से सुनने को मिलते।  अभी तक मेरी “यदि भारत होता तो…” सोचने की आदत नहीं गयी है।

हमारी यूनिवर्सिटी में एक नहीं, कई झीलें हैं। दिन में खाने के बाद घूमने निकलता हूँ, तो कभी-कभी यूनिवर्सिटी की सबसे बड़ी झील का पूरा चक्कर लगा लेता हूं। वहाँ से थोड़ा नीचे उतरकर एक लकड़ी की बैंच के पास एक आदमी हर रोज़ आता है और खड़ा रहकर बस अपने हाथ हिलाने की एक्सरसाइज करता है।  वह हर आने-जाने वाले से नमस्कार करता है। वीक डे में भी आता है वह। पता नहीं कोई शारीरिक समस्या है क्या उसे।  पता नहीं, कुछ भी।  एक दिन उसने मुझे मेरी स्वेट शर्ट देखकर बताया था कि न्यू यॉर्क को बिग एप्पल भी कहते हैं।  मुझे नहीं पता थी यह बात।  मुझे तो यह भी नहीं पता था कि मेरी स्वेट शर्ट पर न्यूयॉर्क लिखा है।  मैं उस स्वेट शर्ट को पहनकर बस नया स्वेटर खरीदने से बच रहा था ताकि वज़न कम होने पर उस हिसाब से कपडे खरीद सकूं। पूरी सर्दियाँ मैंने एक स्वेटर, एक जैकेट और दो स्वेट शर्ट में काट दीं। जब मैं डिनर के बाद रात को घूमने आता हूं तो यदा कदा लाइब्रेरी के बाहर बड़े से प्लेटफार्म पर मॉडर्न आर्ट का एक बड़ा सा पीस रखा है, वहीं बैठ जाता हूं। लकड़ी के उस प्लेटफार्म की सीढ़ियों के दोनों तरफ पौधे हैं, जिनमें रात को स्प्रिंकलर से पानी छोड़ दिया जाता है और बौछार के कुछ छींटें जब मुझ पर या मुझसे कुछ दूर पड़ते हैं तो ठण्ड में भी अच्छा लगता है।  वैसे इसी लाइब्रेरी की छत से कुछ वर्ष पूर्व कूदकर यूनिवर्सिटी के किसी विद्यार्थी ने आत्महत्या कर ली थी। तब मैं ताइवान में ही था और हमें एक ईमेल आया था कि किसी भी तरह का अवसाद होने पर काउन्सलिंग की सुविधा उपलब्ध है। जिन्हें हम भारत में विकसित देश कहते हैं, वहाँ के निवासी भी अपने हिस्से की समस्याओं से गुज़रते हैं।  अकेलापन, अवसाद, बचपन में हुए यौन उत्पीड़न के घाव, माता-पिता के झगडे या अलगाव इन्हीं में से कुछ उदाहरण हैं। मुझे नहीं पता कि लाइब्रेरी की छत से कूदकर जिसने ख़ुद को मार डाला,  वह लड़का था या लड़की।  मुझे नहीं पता कि वह किस तरफ से कूदा था, कहाँ गिरा होगा, इसलिए मेरे लिए कल्पना की सारी संभावनाएं खुली थीं।  कभी लगता है कि कहीं वह इसी जगह ना आकर गिरा हो जहां बैठा मैं बौछारों का आनंद ले रहा हूँ। रात के ग्यारह- बारह बजे अकेले बैठा यह सोचता हूँ तो मुझे डर नहीं लगता है । मैं उसकी आत्मा की शान्ति के लिए कुछ बुदबुदाता देता हूँ।

हमारी यूनिवर्सिटी का नाम नेशनल चिंग हुआ यूनिवर्सिटी है। इसके बिलकुल बगल में एक दूसरी यूनिवर्सिटी भी है- नेशनल चाओ तुंग यूनिवर्सिटी।  प्राकृतिक और कलात्मक सुंदरता दोनों में अपनी तरह की अलग-अलग है।  किसी दिन इनमें से कोई एक मेरी ज़्यादा प्रिय हो जाती है, किसी दिन दूसरी। दोनों ही यूनिवर्सिटी का ही कैंपस बहुत बड़ा है। आलीशान।  जहां हमारी यूनिवर्सिटी में जंगल, झील, घास के मैदान, खेल के मैदान और बटरफ्लाई गार्डन बिल्डिंगों से अलग हैं वहीं चाओ तुंग यूनिवर्सिटी (जिसे मैं पड़ोसी यूनिवर्सिटी कहता हूँ) में कई जगह बिल्डिंगों के बीच में ही मॉडर्न आर्ट के पीस रखे हैं। यहां रॉक आर्ट का भी कैम्पस को सजाने में भरपूर  प्रयोग किया गया है। रॉक आर्ट यानी चट्टानों को काटकर या उनके स्वाभाविक स्वरुप में ही,  उन्हें मॉडर्न आर्ट की तरह प्रस्तुत करना।  यहां खाने के कैफ़े भी ज़्यादा सुन्दर हैं, हालाँकि मेरे मित्र बताते हैं कि स्टूडेंट डॉरमिटरी हमारी यूनिवर्सिटी की बेहतर है। चाओ तुंग यूनिवर्सिटी के रास्ते ज़्यादा उलझे हुए हैं जैसे उस एक लड़की का फ़ोन जिसमें कोई भी एप्लीकेशन कहीं भी होती है, और मेरी यूनिवर्सिटी का कैंपस बहुत सुलझी हुई प्लानिंग के साथ बना है जैसे मेरा फ़ोन होता है- अलग-अलग तरह की एप्लीकेशन अलग-अलग व्यवस्थित की गईं। मुझे वह लड़की भी पसंद रही है, और उसके फ़ोन जैसी चाओ तुंग यूनिवर्सिटी भी।

2020 का फरवरी महीना, मेरे जन्म के महीने की शुरुआत।  चेरी ब्लॉसम शुरू हो चुका है, जापान में इसे सकुरा भी कहते हैं।  और मैं घर के बाहर लगे इन फूलों को देखता हूँ।

सड़क किनारे खड़ी कारें

सिर्फ वही सुन्दर दिखती हैं इस मौसम में

जिनके शीशे में दिख रही हो

सकुरा के फूलों की छाया

और सबसे सुन्दर ब्रांड नेम होता है

बोनट पर हवा से गिर गया कोई फूल

कारों का ब्रांडनेम और क़ीमत

व्यर्थ हो जाते हैं

इन फूलों के समक्ष

एक ही रास्ते पर चलने से आप बोर हो जाते हैं तो नए रास्ते तलाशने का सबब बना। इसी सिलसिले में याद आया कि सब्ज़ियों का मॉर्निंग मार्किट भी तो शहर में है। मेरा ही दोगलापन सामने आया और अब पूंजीवाद के खिलाफ पढ़ी बातों को याद कर ख़ून खौलने लगा और तय किया कि  सब्ज़ी  सुपरमार्केट से नहीं, ज़मीन पर बैठ बेचने वालों से ही लेनी हैं। हम क्रांतिकारी भी अपनी सुविधा के हिसाब से होते हैं। बहरहाल, जैसे भी हो, स्वार्थ से वशीभूत होकर ही सही, यह एक सही क़दम था।  सब्ज़ियां लेने जाने से बचपन की वह स्मृति लौट आयी जब मैं अपने कस्बे में सब्ज़ी लेने जाता था।  यह काम मैंने दस साल की उम्र से ही शुरू कर दिया था। मेरे कस्बे की सब्ज़ी वाली माइयाँ मुझे पहचानती थीं और मैं जानता था कि किसके पास क्या अच्छा मिलेगा और कौन मोलभाव कर सकती है। किससे शाम को भागते भूत की लंगोट की तरह बचा हुआ सारा पालक दो रूपए में माँगा जा सकता है। पर सब्ज़ी मंडी ठीक से गए पंद्रह साल हो चुके थे। यहां ताइवान में सब्ज़ियों का मोलभाव नहीं कर सकते थे, भाषा भी अड़चन थी ही।  मैं तो यहां के विक्रेताओं का बताया दाम भी नहीं समझ पाता था।  एक सब्ज़ी वाली दाम बताने के लिए उतने सिक्के अपने पास से उठा कर बता देती थी जितने उसे मुझसे मांगने होते। कई बार मॉर्निंग मार्केट जाने से यह पहचान में आ गया था कि  कौन सब्ज़ी वाला/वाली कौनसी सब्ज़ियां ताज़ी रखता है और कौन सही दाम लगाता है।

छोटे बाजारों से खरीदने का अपना एक अनुभव अलग अनुभव होता है। आपको पता होता है कि आपका पैसा एक छोटे दुकानदार की जेब में पैसा जा रहा है और बेचने वाले को पता होता है कि उसकी बेची सब्ज़ी किस रसोई को महका देगी। इससे एक व्यक्तिगत रिश्ता कायम होता है। यह दीगर बात है कि ताइवान के सुपर मार्केट में भी कुछ काम करने वालों के साथ मेरे अनुभव आत्मीय रहे हैं। इस मॉर्निंग मार्केट में सब्जी बेचने वाले या तो किसान थे या किसानों से सीधा संबंध रखते थे।  वे गाड़ी में भरकर सामान लाते, ज़मीन पर रख बेचते और गाड़ी में भरकर ही बची हुई सब्ज़ियां वापस ले जाते। मैं पहचान गया था कि इस मार्केट में घुसते ही जो सबसे शुरू में लड़का बैठता है, वह सब्जियां सस्ती देता है। हमारे राजगढ़ में शुरुआती सब्ज़ी वाले हमेशा मंहगी सब्ज़ी देते थे।  और लोग भी चालाक। वे पहले बैठने वाले से बस भाव पूछकर आगे निकल जाते, यह सोचकर कि आगे और सस्ती मिलेगी। ताइवान के इस मॉर्निंग मार्किट की दो बूढ़ी औरतें हमेशा ऊंचा दाम लगाती थीं। एक दिन दो-तीन सब्जियों का ढेर रखे बेचते हुए एक 84 साल के बुज़ुर्ग भी मिले। अपनी उम्र का सर्टिफिकेट मुझे दिखा रहे थे जो मैंडरिन भाषा में था और मुझे समझ नहीं आया। लोक का यही रंग है। एक दिन ऐसी उत्साही ख़रीददार औरत मिल गई जिसने मुझे जबरदस्ती एक सब्जी खरीदने को प्रेरित किया। वह कहती थी कि यह पत्ते वाली सब्ज़ी पेट के लिए बहुत अच्छी है। उस सब्जी को खाकर मेरा एसिड रिफ्लक्स बढ़ गया था। धीरे-धीरे सब्ज़ी वाले भी मुझे पहचानने लगे हैं। मुझे मैंडरिन के जो दो-तीन शब्द आते हैं, उन्हें सुनकर वे समझ लेते हैं कि मैं उनकी भाषा जानता हूँ और आगे बात करने लगते हैं। मैं उनसे ‘म्यो मैंडरिन, म्यो चाइनीज़’ कहकर यह बता देता हूँ कि मुझे नहीं आती उनकी भाषा।  फिर वो हंसकर आपस में कुछ कहते हैं और मुझसे फ़िर भी कुछ कहना जारी रखते हैं। मैं इसका जवाब उन्हें कभी-कभी अंग्रेजी में देता हूँ। कभी लगे कि उन्हें अंग्रेजी का कुछ नहीं समझ आ रहा तो हंसकर किसी हिंदी गीत के बोल कह देता हूँ। कुछ बातूनी सब्ज़ी वाले बिना मांगे सब्ज़ियों के साथ कुछ मिर्च गिफ्ट में डाल देते हैं। मैं आजकल मिर्च खाता नहीं तो किसी मित्र को दे देता हूँ उन्हें। सब्ज़ी वालों का प्यार हैं वे मिर्च, जिन्हें लेने से मना करना मुझे सही नहीं लगता।

अगर आप यह किस्सा अभी पढ़ रहे हैं तो आपको दिक्कत नहीं होगी समझने में क्योंकि कोरोनावायरस हाल ही में घटी घटना है। बरसों बाद लोग भूल चुके होंगे कि कोविड -19 नाम की भी कोई महामारी थी। अनुभूत को ही महत्वपूर्ण मानना और बीते हुए को ऐसा समझना जैसे वह कोई किवदंती रही हो, नए ख़ून की आदत होती है । विचारों के परिपक्व होने में समय लगता है कि जैसे सब बीत गया, वैसे ही हम बीत रहे हैं। किसी गुज़रे दौर के लोगों ने भी अपने बूढ़ा हो जाने या मर जाने की इतनी सहज कल्पना नहीं की होगी जितनी होनी चाहिए। सौ-डेढ़ सौ साल उपरांत आज का एक भी मनुष्य जीवित नहीं बचेगा। कैसा लगता है यह सोचने में।

ऐसे ही एक दिन मैं सब्ज़ी लेने निकला। यह उस दिन की बात है जब कोरोनावायरस ताइवान में भी दस्तक दे चुका था।  लगातार हाथ धोये जा रहे थे। शहर की सभी दुकानों से चेहरे पर लगाने के मास्क खत्म हो चुके थे। मेरे पास जो कुछ पहले से खरीदे हुए मास्क रखे थे, मैं उन्हीं में से एक को लगाकर निकला। पहले जिस मॉर्निंग मार्केट तक मैं दो सौ मीटर चलकर भी नहीं जाता था, अब वहीं तीन किलोमीटर चलकर पहुँच जाता था।  अब मेरे लिए पैदल चलना जैसे जीवन जीने की शर्त बन चुकी थी। स्वास्थ्यगत मजबूरी थी कि वजन घटाना ही था। वह घट भी रहा था, धीरे-धीरे।

मैं उस दिन निकला था कमरे से चेहरे पर मास्क और आंखों पर चश्मा लगाकर। सलीक़ा तो था नहीं कि मास्क या चश्मा ऐसे लगाऊं कि नाक से छूटी हुई सांस मास्क से टकराकर ऊपर चढ़कर चश्मे के शीशों पर ना जम जाए। जमकर वह पानी बन जाती है।

उस दिन की सब्जी खरीदने का काम खत्म करते-करते मेरा चश्मा पूरी तरह पानी से ढँक गया था। सब्जी मंडी के बिल्कुल दूसरे छोर पर जहां सब्जियों की दुकानें लगना बंद हो जाती हैं, वहां से थोड़ी दूर फलों की दुकान है। मैं उसी तरफ जा रहा था कि मैंने रास्ते में एक नया स्टाल देखा। एक औरत कुछ सूखी सी टहनियां मेज पर रखकर बैठी थी। मैं उत्सुकतावश रुक गया। शायद वह स्थानीय धर्म में पूजा पाठ से सम्बंधित कुछ लकड़ी थी। मैंने उससे पूछा कि वह क्या है तो वह मुझे अपनी भाषा में समझाने लगी। एक बार को मुझे भ्रम हुआ कि कहीं वह मुझे लोकल तो नहीं समझ रही। वैसे भी मेरे वज़न घटा लेने से  अब मैं इतना मोटा नहीं लगता था कि यहां का आदमी होने का भ्रम ना पाला जा सके। ‌ताइवानी हमसे अपेक्षाकृत फिट दीखते हैं। मेरे मुंह पर मास्क लगा ही था। मेरी आंखें भी चश्मे की धुंध से ढकी गई थीं जिनके  आकार से मेरी पहचान हो सकती थी। और सर्दियों में मैं इतना भी बाहर नहीं निकलता कि मेरी त्वचा बहुत सांवली हो जाए। मेरा अभिप्राय सिर्फ बाहरी आवरण देखकर किसी की ज़मीन का सन्दर्भ समझने से है। मैं नस्लभेद और रंगभेद के सख़्त ख़िलाफ़ हूँ और मानता हूँ कि हर रंग, हर व्यक्ति की अपनी अलग खूबसूरती है। बहरहाल, वह स्त्री जो मेरी ज़मीन की पहचान नहीं कर पायी थी, मुझे उन लकड़ियों के बारे में अपनी भाषा में समझा रही थी और मुझे समझ नहीं आ रहा था। अंततः, उसकी दुकान पर कुछ लिखकर रखे एक बोर्ड पर मैंने अपने फोन से ‘गूगल ट्रांसलेट फ्रॉम इमेज’ ऑन करके देखना शुरू  किया। अब तक वह समझ चुकी थी कि मैं कहीं बाहर का हूँ।  यह भी उसे समझ आ गया था कि मैं कुछ खरीदने वाला नहीं। दुकानदार में यह गुर तो होता ही है कि वह सच्चे ग्राहक और यूं ही टाइमपास करने आए आदमी में अंतर कर पाए। फिर भी उसने अपनी संस्कृति का परिचय देने के लिए और समझाने के लिए कि उसके पास क्या रखा है, मुझे एक प्रिंटेड कागज दिया। हम दोनों ने बहुत सम्मान से एक दूसरे को अलविदा कहा और मैंने देखा कि उसका दिया कागज़ भी मैंडरिन भाषा में था, यानी मुझे समझ नहीं आना था।  कुछ संभावना थी कि उस औरत की नज़र घूमती हुई जाते हुए मुझ पर दोबारा पद जाए। मैं नहीं चाहता था कि यदि ऐसा होता तो उसे वह कागज़ जेब के सुपुर्द किया दिखे या इग्नोर किया हुआ लगे।  मुझे उसके आतिथ्य, उसकी संस्कृति का मान रखना था। इसलिए मैंने अपने फोन पर ‘गूगल ट्रांसलेट फ्रॉम इमेज’ ऑन करने का बहाना सा करके फिर से कागज की तरफ फ़ोन टिका दिया और पढ़ने का स्वांग करते हुए अपनी दिशा में खोने लगा।‌

=============

The post   ज़िंदगी का मज़ा माइक्रो में है appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..


युवा शायर #25 इरशाद ख़ान ‘सिकंदर’की ग़ज़लें

$
0
0

युवा शायर सीरीज में आज पेश है इरशाद ख़ान ‘सिकंदर’ की ग़ज़लें। इरशाद की शायरी में रोज़मर्रा की ज़िंदगी के हालात और हर हाल में जीने का हौसला कुछ इस तरह मुँह जोड़ के चलते हैं, जैसे अंधेरे की बाँहों में रोशनी ने अपनी बाँहें डाल दी हों। एकदम अपनी ही तरह के लहजे में ग़ज़ल कहने वाले इरशाद के दो ग़ज़ल-संग्रह आ चुके हैं। आँसूओं का तरजुमा और दूसरा इश्क़। फ़िलहाल उनकी कुछ ताज़ा ग़ज़लें पढ़िए और लुत्फ़-अंदोज़ होइए – त्रिपुरारि

===============================================================

ग़ज़ल-

आसमाँ से ज़मीं पे लाये गये
सब ख़ुदा, आदमी बनाये गये

मुझको रक्खा गया अँधेरे में
मेरे खूँ से दिये जलाये गये

एक छोटी सी बात पूछना थी
कौन आया जो हम उठाये गये

नींद, रक्खा करो हिसाब इसका
रात भर कितने ख़्वाब आये गये

शह्र भर की सुलग उठीं आँखें
रात हम दोनों जगमगाये गये

सब दुखों ने उड़ाई दावत ख़ूब
जिस्म ख़ूराक था सो खाये गये

एक दिन छा गये ज़माने पर
एक दिन हम कहीं न पाये गये

ग़ज़ल-2

आती हुई अश्कों की लड़ी देख रहा हूँ
बेताब घड़ी है सो घड़ी देख रहा हूँ

मौजूद से दो चार क़दम आगे को चलकर
दुनिया तिरे क़दमों में पड़ी देख रहा हूँ

बचपन तिरे हाथों में खिलौनों के बजाए
ये क्या कि बुढ़ापे की छड़ी देख रहा हूँ

हर सिम्त से आते हुए तूफ़ान धमाधम
इक बस्ती मगर ज़िद पे अड़ी देख रहा हूँ

चलते हुए अफ़साने से बनता हुआ मंज़र
अफ़साने की मैं अगली कड़ी देख रहा हूँ

तुम कौन हो? वो कौन थी? मैं कौन था? क्या हूँ!
दुनिया थी यहाँ कितनी बड़ी? देख रहा हूँ

कुछ मेरी तबीयत भी हुई जाती है पत्थर
उम्मीद भी शीशे में जड़ी देख रहा हूँ।

ग़ज़ल-3

देखते देखते सूख गया है एक समन्दर पिछली शब
ख़ुश्क हुए हैं मेरे आँसू अन्दर अन्दर पिछली शब

दजला तट से गंगा तट तक ख़ून में डूबा है मन्ज़र
महादेव बोलो गुज़रा है किसका लश्कर पिछली शब

घट घट राम बसे हैं तो फिर घट घट रावण भी होंगे
गाते हुए रोता जाता था कोई क़लन्दर पिछली शब

कहत कबीर सुनो भई साधो दुनिया मरघट है यानी
कबिरा को ही बाँच रहे थे मस्जिद-मन्दर पिछली शब

ख़ाली दोनों हाथ थे लेकिन भरे हुए थे नैन उसके
शायद ख़ुद से हार गया था एक सिकन्दर पिछली शब

The post युवा शायर #25 इरशाद ख़ान ‘सिकंदर’ की ग़ज़लें appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

तसनीम खान की कहानी ‘भूख—मारी की नगरी में दीवाली’

$
0
0

युवा लेखिका तसनीम खान को कहानियों के लिए अनेक पुरस्कार मिल चुके हैं, कई प्रमुख लिट्रेचर फ़ेस्टिवल में शिरकत कर चुकी हैं। समाज के हाशिए के लोगों के जीवन को वह अपनी कहानी में बारीकी से उभारती हैं। जैसे कि यह कहानी- मॉडरेटर

==================================

उस दिन शहर खूब रोशन था, खूब रोशन। इतना कि आकाश के सितारों को शर्म आ रही थी। जैसे वे चांद के सामने अपने को कमतर समझते होंगे, वैसे ही आज वो इस शहर, इस शहर ही क्यूं पूरे देश की रोशनी के सामने अपनी गर्दन सीने में घुसाए शर्म से टूटते जा रहे होंगे। तारे शर्म से भी टूटते हों, ऐसा शायद इस ब्रह्मांड में पहली बार ही हुआ हो। यह भी तो पहली बार ही हुआ होगा, जब बरसों की भूखमरी के साथ एक वैश्विक महामारी से जूझता कोई शहर, कोई कस्बा, कोई पूरा देश, महादेश रोशनी में नहा रहा हो, बजाय इसके कि एक प्राकृतिक आपदा के समय चेहरे स्याह पड़ जाए, रोशनी बेजार करने लगे, भीतर से बाहर तक के अंधेरे की सुध न हो, उन दिनों में भी कोई उत्सव होता होगा? इतनी रोशनी होती है भला?

होती है ना, देखो तो कितनी रोशनी है। इस 21वीं सदी के दूसरे दशक के अंतिम साल में शायद यह सदी की सबसे बड़ी महामारी थी। ऐसा टीवी और अखबार वाले कहते। लेकिन इस देश में तो इसस बड़ी भी महामारी पहले ही थी, जिससे हर दिन कई मरते पर यह रपट कोई टीवी या अखबार में पढ़ना नहीं चाहता, मतलब यह खबर बिकती ही न थी।

खैर, बात रोशनी की कर रहे थे, ऐसा भी नहीं कि हर कोई उत्साह में था, हर चेहरा रोशन था। कुछ अंधेरे में भी थे। कुछ नहीं बहुत सारे। वो जो अंधेरों में पैदा होते हैं, अंधेरा उनका नसीब नहीं होता, वो तो जानबूझकर अंधेरों के लिए शापित कर दिए जाते हैं। सही पढ़ा वो अंधेरे के लिए शापित होते नहीं हैं, शापित कर दिए जाते हैं।

तो हर घर की चौखट, दीवारों से लेकर बालकनियों, छतों, छतों से टंगी कंदीलों, बालकनी से झूलती झालरों तक से रोशनी फूट रही थी। इसी रोशनी से जगमगाते शहर की टोंक रोड की इस महावीर कॉलोनी के सबसे आखिर की कच्ची बस्ती भी जगमगा रही थी। झुग्गियों में कहीं लाइट नहीं थी, हां, हर घर के आगे आज दीया झिलमिला रहा था, जो बस्ती को रोशन कर रहे थे। बुझे हुए तो वैसे इन झुग्गियों के भीतर थे। सहमे, डरे।

हां, इस जगमगाती दीवाली सी रात में भी सब डरे—सहमे ही थे।

सुना था इस शहर में वायरस का फैलाव हो रहा है। जानें ले रहा है, लेकिन बस्ती के लोगों को पक्का यकीन था कि वायरस का असर उन पर नहीं हो सकता। वायरस से वे लोग नहीं मरेंगे। ऐसा वायरस जो विदेश से आया हो, वो इन झुग्गियों का रूख क्यों करेगा भला? सवाल उनका सही ही था। जिन झुग्गियों का रूख सिर्फ चुनावों के वक्त कोई—कोई करता है, वहां इस वक्त वो लोग तो क्या कोई वायरस भी नहीं आ सकता।

इन्हें तो जिस चीज से डर लगता है, वो तो बरसों से इनकी झुग्गियों के भीतर ही है। हां,  इस जगमगाहट को हर बच्चा कौतूहल से देख रहा था, वहीं मनु आज झुग्गी के भीतर ही तो था। काले चेहरे पर आंसुओं की लकीरें खुदी हुई थी जैसे। उसकी आंखें कुछ फटी हुई थीं। एक दिन पहले कोई सुबह के वक्त आधा पेट खाना खाया था। और उससे पहले भी खाने ने पेट में जाने का दो दिन का अंतराल लिया था कोई। वो अपनी फटी शर्ट से अपने कमर तक चिपक चुके पेट पर हाथ भी नहीं फिरा पा रहा था। हां, उसे नहीं पता था कि हाथ तो ओवरईटिंग टाइप कुछ करने वालों के बाहर निकले पेट पर ही फिराया जा सकता है। उसे अंडर ईटिंग को कॉन्सेप्ट पता न था।

वो रह—रहकर एक मासूम सी नजर माई पर डालता। वो खटिया से नीचे उस धूल में पैर  फैलाए बैठी, मनु को पूरे दिन से देखे जा रही थी और जैसे ही मनु उसे देखती वो अनदेखा करने की कोशिश करती। अपनी फटी धोती से  चेहरे पर जाने आंसू पौंछती कि पसीना, मनु तय नहीं कर पाता। वो मांई को अनदेखा करते देख समझ जाता और फिर कमर तक चिपके पेट के गड्ढे में उसका हाथ उतर आता।

‘ई हाथ ही से पेट भर जाता, तो कित्ता आराम मिलता। न ई मांई?’

मांई की रूह कांपने लगी। दिनभर से मनु को कुछ न दे पाने का दर्द उसके लिए लिए भी सहने जैसा नहीं था। उसे पता था कि छह साल का मनु कब तलक ही भूख सहेगा। इस एक सप्ताह में तो शरीर आधा भी नहीं रहा। अभी उसकी इतनी कोई आदत ही न पड़ी थी, कि भूखा सो सके। मांई भी तो सुबह—शाम मनु को थाली भर खाना खिलाती रही। मनु का बाप जितना लाता, उतना वो मनु के पेट भरने के उपाय में खर्च कर देती। उसे पता था खाली पेट की जलन न सोने देती है और न जीने।

वो भी तो अपने कमर तक चिपके पेट को लिए ही बड़ी हुई। पर उसे तो आदत थी। जरा भात में वो दो दिन तो निकाल ही लेती। अभी चार दिन हुआ, कोई मनु के झूठे बर्तन में एक आध दाना चिपका बचा रह जाती तो उसे जीभ पर रख ही मन भर लेती। उन दो—चार दानों का नमक भरा स्वाद जीभ पर चढ़ते ही वो पेट को भुला देना जानती थी।

कुछ ही दिन पहले तक उसकी और मनु के मुंह पर दिनभर तो नमक का स्वाद रहता। मनु का बाप इतना कमा लिया करता कि इस झुग्गी में भरपेट खाया जाता। भरपेट भी वो लोग यूं खा लेते कि दोनों ही मरद—औरत बचत में नहीं, पेट भरने में ही जीवन समझते। जो भूख सहते बड़े हुए हों, उनके लिए पेट भरना ही सब कुछ होता है, जेब भरने का तो वो सोचते भी नहीं। कुछ बचाते भी किसके लिए, गांव में मांई ही बची मनु के बाप की। बिहार के शेखपुरा के शेरपुर से कोई आठ साल पहले ही मनु का बाप भाग आया। अपनी मेहरारु को लेकर नहीं, भुखमरी से भाग कर। उसकी आंखों के सामने ही उसके बाप ने भुखमरी से दम तोड़ दिया। भूख के बीच बड़ा हुआ मनु का बाप भूख की मौत बर्दाश्त नहीं कर पाया। तब से ही वो उस गांव की उस झुग्गी छोड़ आ गया यहां जयपुर। मांई वहीं गांव में बची रही। कोई उस मांई की जीवटता ही रहती होगी कि औरत की जीवटता कहें कि भुखमरी में मरद मर गया, पर वो जीती रही। बेटे को खुद भूखी रह खिला देती।

वो ना आई यहां, हां, मील मजदूरी पक्की सी लगने लगी। हर महीने जरा पगार मिलने लगी तो उसने मनु के बाप का लगन कर बहू को भी बेटे के साथ यहां भेज दी। मां अपने भाईयों के बीच झुग्गी में मिल—बांट खाकर ही खुश थी।  साल में कोई एक बार मनु अपने मां—बाप के साथ वहां पहुंच जाता। तब जाकर उस बुढ़िया को भरपेट खाना मिला करता, लेकिन वो इसे आदत नहीं बनाती। जानती कि मनु का बाप चार दिन में लौट जाएगा, तब उसे आधा पेट ही रहना है।

जाने भुखमरी से ही कि जाने कौन बीमारी से, वो अभी 21 दिन पहले ही मर गई। और 21 दिन ही हुए मनु के बाप को गांव गए। तब से लौट नहीं सका। सब बता रहे कि मांई की तेहरवीं से पहले ही यहां तक आना बंद हो गया। कोई गाड़ी ना मिल रही। पड़ोसी के मोबाइल पर फोन आया तो भी तो मनु का बाप यही कहा, कि कोई गाड़ी—घोड़ा नहीं होता, तब तक नहीं आ सकता। हो सकता है वो किसी तरह कभी भी वहां पहुंच जाए। वो दोनों किसी तरह उसकी राह देखें।

मनु की मांई ने फिर अपनी छोटी टूटी पेटी खोली। अपनी एक धोती को उंचा—नीचा किया, झाड़ा भी, लेकिन वहां कोई बचत न झड़ी। यह तो वो भी जानती थी, कि इस पेटी में कुछ न मिलेगा।

मनु फिर कराह उठा।

‘मांई, खाने की गाड़ी न आई।’

वो पेटी छोड़, बुझते उस चेहरे को देख बिलख पड़ी। किसी तरह भर्राती आवाज को काबू किया।

‘कोई ना आया अब तलक।’

‘मांई, वो थोड़ी देर पहले जो बस्ती  में भीड़ जुटी थी, वो क्या लेने थी। क्या लेने दौड़े सब ही।’

मांई से बोला ना गया। उसने इशारा कर झुग्गी के बाहर टिमटिमाता दीया दिखाया। जो इस जगमगाते शहर में अपना एक हिस्सा दे रहा था।

‘इस टैम थोड़ी आती दीवाली। फिर दीया क्यूं कर बांटा, खाना क्यूं नहीं लाते ये लोग?’

इस बार मनु मचल गया। बेजान शरीर पर भी वो चिल्ला उठा। बेचारगी और गुस्सा उसकी बाहर निकल आई आंखों से टपक रहे थे, आंसू की लकीर खींच गई उस चेहरे पर।

मनु की मांई ने अपने दिल को हाथ से निचोड़ लिया।

‘मैं भी कहां समझी रे मनु। पर वो लोग खाना नहीं दीया ही लाए, कह गए। दीया जलाकर रखना, हम खाना लाएंगे।

ना, ना। रोना नहीं मनु, अभी आती होगी गाड़ी। वो बोलकर गए, जो दीया जलाएगा, उसे वो खाने को बांटेगे।’

मनु के आंसु की लकीर को अपनी धोती से पौंछती मांई पूरी उसकी देह से लिपट गई।

‘मांई, बायरस यहां नहीं आता तो बाबू लौट आते ना और हम भूखा ना रहते।’

‘हां रे मनु, जाने क्या मनहूस आया यह वायरस। दीया बांटने वाले भी बोले कि यह जलाने से वायरस चला जाएगा और तेरा बाबू लौट आएगा। फिर हम भरपेट खाना खाएंगे।’

‘पर मांई, ये खाने की गाड़ी ले आते लोग, हमको पूरा खाना क्यूं नहीं दिए कभी।’

‘वो नासमझ ठहरे मनु। कहते— हम बाहरी लोग हैं। पहले वे अपने लोगों का पेट भरेंगे। जैसे बाकियों को भगवान ने भूख नहीं दी हो।’

‘तो तू कहती क्यूं नाही कि हम विदेश से ना आए।’

मांई ने मन मसोस लिया। आंसू बह निकले। इन झुग्गियों के हजारों मजदूरों के लिए कुछ सौ के अंक में खाने के पैकेट कुछ पुलिस वाले लाते, जो सरकार भेजती शायद। जाने वो चेहरों से पहचान लेते कि राजस्थान के मजदूरों को देते और दूसरे राज्यों से आने वालों को नहीं।

कहते— ‘उनके पास इतने ही हैं कि अपनों का पेट भर सकें।’

मांई के मन में मनु का सवाल कौंधता रहा।

‘क्या हम इनके अपने नहीं? नहीं, नहीं बस्ती के लोग तो अलग नहीं मानते। वो पैकेट हम सबके साथ बांट लेते हैं। खुद भी तो आधा पेट भूखा ही रहते। भले ही बस्ती के सभी लोग एक—एक कोर ही खा लें, लेकिन वे बराबर ही बांटते।’

वो मन ही मन बुदबुदाई। एक बार फिर झुग्गी के बाहर तक गई झांकने। देखा बस्ती सूनी सी थी। हां, हर झुग्गी के बाहर एक—एक दीया झिलमिला रहा था। शायद हर कोई खाने के इंतजार में इनके देर तक जलते रहने की प्रार्थना करने अंदर खामोश हैं।

वो फिर मनु के पास लौट आई।

‘मांई, गाड़ी आई क्या?’

‘आती होती तो मैं तुझे अपने हाथों से खिला देती।’ उसने मनु के सिर पर हाथ फेरा। मनु ने एक नजर बाहर झिलमिला रहे दीये पर डाली। उसकी रोशनी में भी उसे अपनी भूख का कोई उपाय नजर नहीं आया। उसने आंखें मूंद ली।

कहीं दूर खूब शोर की आवाजें आने लगी अचानक। ढोल—ताशे, थालियां, पटाखे, आसमान तक पहुंचती आतिशबाजी, आसमान में कौंधती बिजलियों सी रोशनियां झुग्गी के दरवाजे से दिखने लगी।

मनु ने आंख खोल किसी टूटते तारे को देखा था। वही तारा जो असल में टूटा नहीं, मनु के सामने शर्म के मारे झुक गया।

‘मांई, बस्ती में सब भूखे होते तो खुसी मनाया करते क्या?’

मांई ने धोती का कोना मुंह में ठूंस मुंह फेर लिया। कैसे बताती उसे कि झुग्गियां पेट भर खाना खाकर ही खुश होती हैंं। ये उत्सव तो भरे पेट वालों की हैं। मनु को पता नहीं कि इस बस्ती से कुछ ही दूरी पर जो कॉलोनियां हैं, वहीं से ये खुशियों का शोर उठ रहा है। उस शोर में खाने वाली गाड़ी की आवाज सुनने की कोशिश मांई और मनु ही नहीं हर झुग्गी के भीतर के देहों पर जड़े कान कर रहे थे। पर देर तक आवाजें किसी उत्सव की ही आती रहीं।

मनु ने एक बार फिर आंख खोली।

‘मांई, कहीं बबुआ हुआ लगता। थाली तब पीटते ना।’

मांई को जवाब न सूझा, घड़े से फिर पानी पीया और मनु से पूछा,

‘पानी पी ले मनु।’

बंद आंखों में ही मनु ने हल्की सी गर्दन हिलाई। वो जाने कब सो गया। उसे सोता देख मांई ने लम्बी सांस भरी। राहत नहीं दर्द की। वो पूरी रात उसके सूते हुए चेहरे को देख, कल कहीं न कहीं से खाना जुटा लेने की कसम खा रही थी। बाहर निकलने पर भले पुलिस मारे, लेकिन वो खाना लाएगी ही। शायद कहीं दूर, कोई गाड़ी बिना भेद सभी को खाना बांटती हो। किसी कॉलोनी में भीख देने वाला ही मिल जाए। वो अपने दोनों हाथों को देखने लगी। जैसे भीख मांगने के लिए उन्हें तैयार कर रही हो।

सुबह शहर का शोर थम गया था, लेकिन बस्ती में बड़ा शोर था। खाने की गाड़ी का इंतजार भूल हर कोई भागा जा रहा था। कोई लकड़ी इकट्ठा कर रहा था, कोई आग के लिए कागज बीन लाया था। कोई रात का थोड़ा जलने से बचा दीया ढूंढ लाया था।

जिसे मनु के सिरहाने जलाया गया। मांई के रुदन का शोर इतना था कि किसी भी पटाखे, थाली, ढोल—ताशों के उत्सव का शोर कम जान पड़ता।

इसी रुदन के शोर वाली सुबह बंटे अखबारों के पहले पन्ने पर रात की रोशनियों की आठ कॉलम खबर थी। नीचे वायरस से हुई मौतों के आंकड़े थे। अंदर किसी पेज पर उन नेताजी की खबर के बीच उनकी इस बस्ती में दीए बांटते तस्वीर भी थी।

The post तसनीम खान की कहानी ‘भूख—मारी की नगरी में दीवाली’ appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

मास्टर भगवानदास की कहानी ‘प्लेग की चुड़ैल’

$
0
0

कुछ दिन पहले मैंने डेनियल डेफ़ो की किताब पढ़ी ‘ए जर्नल ऑफ़ द प्लेग ईयर’ पढ़ी। किताब 1665 में लंदन में आए प्लेग का रोज़नामचा है। आज की तरह की लॉकडाउन हो रहा था, लोग बाहर न निकलें इसके लिए प्रहरी तैनात थे। मरने वालों का अंतिम संस्कार करने वाले नहीं मिल रहे थे। दुकानें बंद थीं। छीना-झपटी की घटनाएँ बढ़ रही थीं। लेखक ने लिखा है कि इसका प्रकोप क़रीब एक साल तक रहा। मुहल्ला दर मुहल्ला आगे बढ़ता गया। उस जमाने में लंदन में क़रीब एक लाख लोग मारे गए थे। इस बीच लेखक मित्र शशिभूषण द्विवेदी ने मास्टर भगवानदास की इस कहानी का ध्यान दिलाया। कहानी 1902 में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। आप भी पढ़िए-

==============

प्लेग की चुड़ैल

गत वर्ष जब प्रयाग में प्लेग घुसा और प्रतिदिन सैकड़ों गरीब और अनेक महाजन, जमींदार, वकील, मुख्तार के घरों के प्राणी मरने लगे तो लोग घर छोडक़र भागने लगे। यहां तक कि कई डॉक्टर भी दूसरे शहरों को चले गए। एक मुहल्ले में ठाकुर विभवसिंह नामी एक जमींदार रहते थे। उन्होंने भी अपने इलाके पर जो प्रयाग से पांच मील दूरी पर था, चले जाने की इच्छा की। सिवा उनकी स्त्री और पांच वर्ष के एक बालक के और कोई संबंधी उनके घर में नहीं था। रविवार को प्रात:काल ही सब लोग इलाके पर चलने की तैयारी करने लगे। जल्दी में उनकी स्त्री ने ठंडे पानी से नहा लिया। बस नहाना था कि ज्वर चढ़ आया। हकीम साहब बुलाए गए और दवा दी गई। पर उससे कुछ लाभ न हुआ। सायंकाल को गले में एक गिलटी भी निकल आई। तब तो ठाकुर साहब और उनके नौकरों को अत्यंत व्याकुलता हुई। डॉक्टर साहब बुलाए गए। उन्होंने देखते ही कहा कि प्लेग की बीमारी है, आप लोगों को चाहिए कि यह घर छोड़ दें। यह कहकर वह चले गए। अब ठाकुर साहब बड़े असमंजस में पड़े। न तो उनसे वहां रहते ही बनता था, न छोड़ के जाते ही बनता था। वह मन में सोचने लगे, यदि यहां मेरे ठहरने से बहूजी को कुछ लाभ हो तो मैं अपनी जान भी खतरे में डालूं। परंतु इस बीमारी में दवा तो कुछ काम ही नहीं करती, फिर मैं यहां ठहरकर अपने प्राण क्यों खोऊं। यह सोच जब वह चलने के लिए खड़े होते थे तब वह बालक जिसका नाम नवलसिंह था, अपनी माता के मुंह की ओर देखकर रोने लगता था और वहां से जाने से इंकार करता था। ठाकुर साहब भी प्रेम के कारण मूक अवस्था को प्राप्त हो जाते थे और विवश होकर बैठे रहते थे। ठाकुर साहब तो बड़े सहृदय सज्जन पुरुष थे, फिर इस समय उन्होंने एेसी निष्ठुरता क्यों दिखलाई, इसका कोई कारण अवश्य था, परंतु उन्होंने उस समय उसे किसी को नहीं बतलाया। वह बार-बार यही कहते थे कि स्त्री का प्राण तो जा ही रहा है, इसके साथ मेरा भी प्राण जावे तो कुछ हानि नहीं, पर मैं चाहता हूं कि मेरा पुत्र बचा रहे। मेरा कुल तो न लुप्त हो जावे। पर वह बेचारा बालक इन बातों को क्या समझता था! वह तो मातृभक्ति के बंधन में एेसा बंधा था कि रात भर अपनी माता के पास बैठा रोता रहा।
जब प्रात:काल हुआ और ठकुराइन जी को कुछ चेत हुआ तो उन्होंने आंखों में आंसू भरकर कहा, ‘बेटा नवलसिंह! तुम शोक मत करो, तुम किसी दूसरे मकान में चले जाओ, मैं अच्छी होकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आऊंगी।’ पर वह लडक़ा न तो समझाने पर मानता था, न स्वयं एेसे स्थान पर ठहरने के परिणाम को जानता था। बहूजी तो यह कहकर अचेत हो गईं, पर बालक वहीं बैठा सिसक-सिसककर रोता रहा। थोड़ी देर बाद फिर डॉक्टर, वैद्य, हकीम आए, पर किसी की दवा ने काम न किया। होते-होते इसी तरह दोपहर हो गई थी। तीसरे पहर को बहूजी का शरीर बिल्कुल शिथिल हो गया और डॉक्टर ने मुख की चेष्टा दूर ही से देखकर कहा,‘बस, अब इनका देहांत हो गया। उठाने की फिक्र करो।’ यह सुन सब नौकर और नौकरानियां रोने लगे और पड़ोस के लोग एकत्रित हो गए। सबके मुख से यही बात सुन पड़ती थी,‘अरे क्या निर्दयी काल ने इस अबला का प्राण ले ही डाला, क्या इसकी सुंदरता, सहृदयता और अपूर्व पतिव्रत धर्म का कुछ भी असर उस पर नहीं हुआ, क्या क्रूर काल को किसी के भी सद्गुणों पर विचार नहीं होता!!’
एक पड़ोसी, जो कवि था, यह सवैया कहकर अपने शोक का प्रकाश करने लगा-
सूर को चूरि करै छिन मैं, अरु कादर को धर धूरि मिलावै।
कोविदहूं को विदारत है, अरु मूरख को रख गाल चबावै।।
रूपवती लखि मोहति नाहिं, कुरूप को काटि तूं दूर बहावै।
है कोउ औगुण वा गुण या जग निर्दय काल जो तो मन भावै।।
स्त्रियां कहने लगीं,‘हा हा, देखो वह बालक कैसा फूट-फूटकर रो रहा है! क्या इसकी एेसी दीन दशा पर भी उस निठुर काल को दया नहीं आई? इस अवस्था में कैसे बेचारा अपनी माता के वियोग की व्यथा सह सकेगा! हा! इस अभागे पर बचपन ही में एेसी विपत्ति आ पड़ी!’ ठाकुर साहब तो मूर्छित होकर गिर ही पड़े थे। नौकरों ने उनके मुंह पर गुलाबजल छिडक़ा और थोड़ी देर में वह सचेत हुए। उनकी मित्र मंडली में तो कोई महाशय उस समय वहां उपस्थित नहीं थे। उनके पड़ोसियों ने जो वहां एकत्र हो गए थे, यह सम्मति दी कि स्त्री के मृत शरीर को गंगा तट पर ले चलकर दाह-क्रिया करनी चाहिए। परंतु डॉक्टर साहब ने, जो वहां लौटकर आए थे, ने कहा कि पहले तो इस मकान को छोडक़र दूसरे में चलना चाहिए, पीछे और सब खटराग किया जाएगा। ठाकुर साहब को भी यह राय पसंद आई क्योंकि उन्होंने तो रात ही से भागने का इरादा कर रखा था, वह तो केवल उस लडक़े के अनुरोध से रुके हुए थे। क्या उस लडक़े को भी उस समय वहां से ले चलना सहज था? नहीं, वह तो अपनी मृत माता के निकट से जाना ही नहीं चाहता था। अंत में ठाकुर साहब ने उस बालक को गोद में उठा लिया और उसे गाड़ी में बिठलाकर दूसरे मकान की ओर रवाना हुए। अलबत्ता चलती बार ठाकुर साहब ने स्त्री के मृत शरीर की आेर देखकर कुछ अंग्रेजी में कहा था, जिसका एक शब्द मुझे याद है, फेयरवेल। नौकर सब ठाकुर साहब ही के साथ रवाना हो गए, परंतु उनका एक पुराना नौकर उस मकान की रक्षा के लिए वहीं रह गया। पड़ोसी लोग भी इस दुघर्टना से दुखी होकर अपने घरों को लौट गए, परंतु उनके एक पड़ोसी के हृदय पर इन बातों का एेसा असर हुआ कि वह वहीं बैठा रह गया और मन में सोचने लगा कि एेसी दशा में पड़ोसी का धर्म क्या है? इस देश का रिवाज है कि जब तक मुहल्ले में कोई मुर्दा पड़ा रहता है तब तक कोई नहाता-खाता नहीं। जब उसकी दाह-क्रिया का सब सामान ठीक हो जाता है और लोग उसको वहां से उठा ले जाते हैं, तब पड़ोसी लोग अपने-अपने दैनिक कार्यों में तत्पर होते हैं। परंतु यहां का हाल देखकर पड़ोसी बहुत विस्मित होता था और सोचता था कि यदि ठाकुर साहब भय के मारे अपने इलाके पर भाग गए तो मृतक की क्या दशा होगी। क्या इस पुण्यवती का शरीर ठेले पर लदकर जाएगा? उसने उस बुड्ढे नौकर के आगे अपनी कल्पनाओं को प्रकाशित किया। उसने कहा कि अभी ठाकुर साहब की प्रतीक्षा करनी चाहिए, देखें वे क्या आज्ञा देते हैं। वह पड़ोसी भी यही यथार्थ समझकर चुप हो गया और संसार की असारता और प्राणियों के प्रेम की निर्मूलता पर विचार करने लगा। उस समय उसे नानक जी का यह पद याद आया,‘सबै कुछ जीवत का ब्योहार’ और सूरदास का ‘कुसमय मीत काको कौन’ भी स्मरण आया। परंतु समय की प्रतिकूलता देख वह इन पदों को गा न सका। मन-ही-मन गुनगुनाता रहा। इतने ही में ठाकुर साहब के दो नौकर वापस आए और उन्होंने बूढ़े नौकर से कहा कि हम लोग पहरे पर मुकर्रर हैं और तुमको ठाकुर साहब ने बुलाया है, वह मत्तन सौदागर के मकान पर ठहरे हैं, वहीं तुम जाओ। उस बुड्ढे का नाम सत्य सिंह था।
जब वह उक्त स्थान पर पहुंचा तो उसने देखा कि ठाकुर साहब के चंद मित्र, जो वकील, महाजन और अमले थे, इक_े हुए हैं और वे सब एकमत होकर यही कह रहे हैं कि आप अपने इलाके पर चले जाइए, दाह-क्रिया के झंझट में मत पडि़ए, यह कर्म आपके नौकर कर देंगे, क्योंकि जब प्राण बचा रहेगा तो धर्म की रक्षा हो जाएगी। तब ठाकुर साहब ने इस विषय में पुरोहित जी की सम्मति पूछी, उन्होंने भी उस समय हां में हां मिलाना ही उचित समझा और कहा कि धर्मशास्त्रानुसार एेसा हो सकता है, इस समय चाहे जो दग्ध कर दे, इसके अनंतर जब सुभीता समझा जाएगा, आप एक पुतला बनाकर दग्ध-क्रिया कर दीजिएगा।
इतना सुनते ही ठाकुर साहब ने पुरोहित जी से कहा,‘यह तीस रुपये लीजिए और मेरे आठ नौकर साथ ले जाकर कृपा करके आप दग्ध-क्रिया करवा दीजिए और मुझे इलाके पर जाने की आज्ञा दीजिए।’ यह कहकर लडक़े को साथ लेकर और मित्रों से विदा होकर ठाकुर साहब इलाके पर पधारे और पुरोहित जी सत्यसिंह प्रभृति आठ नौकरों को लेकर उनके घर पर गए। सीढ़ी बनवाते और कफन इत्यादि मंगवाते सायंकाल हो गया। जब नाइन बहूजी को कफनाने लगी, उसने कहा,‘इनका शरीर तो अभी बिल्कुल ठंडा नहीं हुआ है और आंखें अधखुली-सी हैं, मुझे भय मालूम होता है।’ पुरोहित जी और नौकरों ने कहा, ‘यह तेरा भ्रम है, मुर्दे में जान कहां से आई। जल्दी लपेट ताकि गंगा तट ले चलकर इसका सतगत करें। रात होती जाती है, क्या मुर्दे के साथ हमें भी मरना है! ठाकुर साहब तो छोड़ ही भागे, अब हम लोगों को इन पचड़ों से क्या मतलब है, किसी तरह फूंक-फांककर घर चलना है। क्या इसके साथ हमें भी जलना है?’
सत्यसिंह ने कहा,‘भाई, जब नाइन एेसा कहती है, तो देख लेना चाहिए, शायद बहूजी की जान न निकली हो। ठाकुर साहब तो जल्दी से छोड़ भागे, डॉक्टर दूर ही से देखकर चला गया, एेसी दशा में अच्छी तरह जांच कर लेनी चाहिए।’
सब नौकरों ने कहा,‘सत्यसिंह, तुम तो सठिया गए हो, एेसा होना असंभव है। बस, देर न करो, ले चलो।’ यह कहकर मुर्दे को सीढ़ी पर रख कंधे पर उठा, सत्यसिंह का वचन असत्य और रामनाम सत्य कहते हुए दशाश्वमेध घाट की ओर ले चले। रास्ते में एक नौकर कहने लगा,‘सात बज गए हैं, दग्ध करते-करते तो बारह बज जाएंगे।’ दूसरे ने कहा,‘फूंकने में निस्संदेह रात बीत जाएगी।’ तीसरे ने कहा,‘यदि ठाकुर साहब कच्चा ही फेंकने को कह गए होते तो अच्छा होता।’ चौथे ने कहा,‘मैं समझता हूं कि शीतला, हैजा, प्लेग से मरे हुए मृतक को कच्चा ही बहा देना चाहिए।’ पांचवे ने कहा,‘यदि पुरोहित जी की राय हो तो एेसा ही कर दिया जाए।’ पुरोहित जी ने, जिसे रात्रि समय श्मशान जाते डर मालूम होता था, कहा,‘जब पांच पंच की एेसी राय है तो मेरी भी यही सम्मति है और विशेषकर इस कारण कि जब एक बार ठाकुर साहब को नरेनी अर्थात पुतला बनाकर जलाने का कर्म करना ही पड़ेगा तो इस समय दग्ध करना अत्यावश्यक नहीं है।’ छठे और सातवें ने कहा कि बस चलकर मुर्दे को कच्चा ही फेंक दो, ठाकुर साहब से कह दिया जाएगा कि जला दिया गया। परंतु सत्यसिंह जो यथा नाम तथा गुण बहुत सच्चा और ईमानदार नौकर था, कहने लगा,‘मैं एेसा करना उचित नहीं समझता, मालिक का कहना और मुर्दे की गति करना हमारा धर्म है। यदि आप लोग मेरा कहना न मानें तो मैं यहां से घर लौट जाता हूं, आप लोग जैसा चाहे करें और जैसा चाहे ठाकुर साहब से कहें, यदि वह मुझसे पूछेंगे तो मैं सच-सच कह दूंगा।’ यह सुनकर नौकर घबराए और कहने लगे कि भाई तीस रुपये में से, जो ठाकुर साहब ने दिए हैं, तुम सबसे अधिक हिस्सा ले लो लेकिन यह वृत्तांत ठाकुर साहब से मत कहना। सत्यसिंह ने कहा,‘मैं हरामखोर नहीं हूं। एेसा मुझसे कदापि नहीं होगा, लो मैं घर जाता हूं, तुम लोगों के जो जी में आए सो करना।’
जब यह कहकर वह बुड्ढा नौकर चला गया तो बाकी नौकर जी में बहुत डरे और पुरोहित जी से कहने लगे,‘अब क्या करना चाहिए, बुड्ढा तो सारा भेद खोल देगा और हम लोगों को मौकूफ करा देगा।’ पुरोहित जी ने कहा, ‘तुम लोग कुछ मत डरो, अच्छा हुआ कि बुड्ढा चला गया, अब चाहे जो करो, ठाकुर साहब से मैं कह दूंगा कि मुर्दा जला दिया गया। वह मेरा विश्वास बुड्ढे से अधिक करते हैं, तीस में से सात तो सीढ़ी और कफन में खर्च हुए हैं। दो-दो रुपये तुम सात आदमी ले लो, बाकी नौ रुपये मुझे नवग्रह का दान दे दो, मुर्दे को जल में डालकर राम-राम कहते हुए कुछ देर रास्ते में बिताकर कोठी पर लौट जाओ, ताकि पड़ोसी लोग समझें कि अवश्य ये लोग मुर्दे का जला आए।’ ये सुनकर वे सब प्रसन्न हुए और तेईस रुपये आपस में बांटकर मुर्दे को एेसे अवघट घाट पर ले गए जहां न कोई डोम कफन मांगने को था, न कोई महाब्राह्मण दक्षिणा मांगने को। वहां पहुंचकर उन्होंने एेसी जल्दी की कि सीढ़ी समेत मुर्दे को जल में डाल दिया और राम-राम कहते हुए कगारे पर चढ़ आए क्योंकि एक तो वहां अंधेरी रात वैसे ही भयानक मालूम होती थी, दूसरे वे लोग यह डरते थे कि कहीं सरकारी चौकीदार आकर गिरफ्तार न कर ले, क्योंकि सरकार की तरफ से कच्चा मुर्दा फेंकने की मनाही थी। निदान वे बेईमान नौकर इस तरह स्वामी आज्ञा भंग करके उस अविश्वसनीय पुरोहित के साथ घर लौटे।
अब सुनिए उस मुर्दे की क्या गति हुई। उस सीढ़ी के बांस एेसे मोटे और हल्के थे जैसे नौका के डांड और उस स्त्री का शरीर कृशित होकर एेसा हल्का हो गया था कि उसके बोझ से वह सीढ़ी पानी में नहीं डूबी और इस तरह उतराती चली गई जैसे बांसों का बेड़ा बहता हुआ चला जाता है। यदि दिन का समय होता तो किनारे पर के लोग अवश्य इस दृश्य से विस्मित होते और कौए तो कुछ खोद-खाद मचाते। परंतु रात का समय था, इससे वह शव-सहित सीढ़ी का बेड़ा धीरे-धीरे बहता हुआ त्रिवेणी पार करके प्राय: पांच मील की दूरी पर पहुंचा। परंतु यह तो कोई अचंभे की बात न थी। अत्यंत आश्चर्यजनक घटना तो यह हुई कि गंगाजल की शीतलता उस सोपान-स्थित शरीर के लिए, जिसे लोगों ने निर्जीव समझ लिया था, एेसी उपकारी हुई कि जीव का जो अंश उसमें रह गया था वह जग उठा और बहूजी को कुछ होश आया। परंतु अपने को इस अद्भुत दशा में देख वह भौंचक-सी रह गईं। उनके शरीर का यह हाल था कि प्राणांतक ज्वराग्नि तो बुझ गई थी, परंतु गले की गिलटी एेसी पीड़ा दे रही थी कि उसके कारण कभी-कभी वह अचेत-सी हो जाती थीं। परंतु जब उस सर्वशक्तिमान जगदीश्वर की कृपा होती है तो अनायास प्राणरक्षा के उपाय उपस्थित हो जाते हैं। निदान वह सीढ़ी बहते-बहते एेसी जगह आ पहुंची जहां करौंदे का एक बड़ा भारी पेड़ तट पर खड़ा था और उसकी एक घनी डाली झुककर जल में स्नान कर रही थी और अपने क्षीरमय फल-फूल गंगाजी को अर्पण कर रही थी। वह सीढ़ी जाकर डाली से टकराई और उसी में उलझकर रुक गई और उस डाली में का एक कांटा बहूजी की गिलटी में इस तरह चुभ गया जैसे फोड़े में नश्तर। गिलटी के फूटते ही पीड़ाजनक रुधिर निकल गया और बहूजी को फिर चेत हुआ। झट उन्होंने अपना मुंह फेरकर देखा तो अपने को उस हरी शाखा की शीतल छाया में एेसा स्थिर और सुखी पाया जैसे कोई श्रांतपथिक हिंडोले पर सोता हो।
सूर्योदय का समय था, जल में किनारे की तरफ कमल प्रफुल्लित थे। और तटस्थ वृक्षों पर पक्षीगण कलरव कर रहे थे। उस अपूर्व शोभा को देखकर बहूजी अपने शरीर की दशा भूल गईं और सोचने लगीं कि क्या मैं स्वर्गलोक में आ गई हूं, या केवल स्वप्न अवस्था में ही हूं, और यदि मैं मृत्युलोक में ही इस दशा को प्राप्त हुई हूं तो भी परमेश्वर मुझे इसी सुखमय अवस्था में सर्वदा रहने दे। परंतु इस संसार में सुख तो केवल क्षणिक होता है-
‘सुख की तो बौछार नहीं है, दुख का मेंह बरसता है।
यह मुर्दों का गांव रे बाबा, सुख महंगा दुख सस्ता है।।’
थोड़ी देर बाद पक्षीगण उड़ गए और लहरों के उद्वेग से कमलों की शोभा मंद हो गई। सीढ़ी का हिंडोलना भी अधिक हिलने लगा, जिससे कृशित शरीर को कष्ट होने लगा, बहूजी का जी ऊबने लगा। उनका वश क्या था, शरीर में शक्ति नहीं थी कि तैरकर किनारे पहुंचें, हालांकि चार हाथ की दूरी पर एक छोटा-सा सुंदर घाट बना हुआ था। वह मन में सोचने लगीं कि शायद मुझको मृतक समझ मेरे पति ने मुझे इस तरह बहा दिया है, परंतु उनको एेसी जल्दी नहीं करनी चाहिए थी, मेरे शरीर की जांच उन्हें भली-भांति कर लेनी चाहिए थी, भला उन्होंने मेरा त्याग किया तो किया, उनको बहुत-सी स्त्रियां मिल जाएंगी, परंतु मेरे नादान बच्चे की क्या दुर्दशा हुई होगी! अरे वह मेरे वियोग को कैसे सह सकता होगा! हा! वह कहीं रो-रो के मरता होगा! उसको मेरे सदृश्य माता कहां मिल सकती है, विमाता तो उसको और भी दुखदायिनी होगी! हे परमेश्वर! यदि मैं मृत्युलोक ही में हूं तो मुझे मेेरे बालक को शांति और मुझे एेसी शक्ति प्रदान कर कि मैं इस दशा से मुक्त होकर अपने प्राणप्रिय पुत्र से मिलूं। इतना कहते ही एक एेसी लहर आई कि कई घूंट पानी उसके मुंह में चला गया। गंगाजल पीते ही शरीर में कुछ शांति-सी आ गई और पुत्र से मिलने की उत्कंठा ने उसको एेसा उत्तेजित किया कि वह हाथों से धीरे-धीरे उस सीढ़ी रूपी नौका को खेकर किनारे पर पहुंच गईं। अब बांस की सीढ़ी छोड़ हाथ के सहारे से उस घाट की सीढिय़ों पर चढ़ गईं। परंतु श्रम से मूर्छित हो भूमि पर गिर पड़ीं। कुछ देर बाद जब होश आया तो उस स्थान की रमणीयता देखकर फिर उन्हें यही जान पड़ा कि मैं मरने के पश्चात स्वर्गलोक में आ गई हूं। गंगाजी के उज्ज्वल जल का मंद-मंद प्रवाह आकाशगंगा की शोभा दिखाता था और किनारे के स्थिर जल में फूले हुए कमल एेसे देख पड़ते थे जैसे आकाश में तारे-
दोहा: गंगा के जल गात पै दल जलजात सुहात।
जैसे गोरे देह पे नील वस्त्र दरसात।।
तट पर अंब-कदंब-अशोकादि वृक्षों की श्रेणियां दूर तक चली गई थीं और उनके उपवन की शोभा ‘जहां बसंत ऋतु रह्यौ लुभाई’ एेसी थी कि मनुष्य का चित्त देखते ही मोहित हो जाता था। कहीं करौंदे, कहीं कोरैया, इंद्रबेला आदि के वृक्ष अपने फूलों की सुगंध से स्थानों को सुवासित कर रहे थे, कहीं बेला, कहीं चमेली, केतकी, चंपा के फूलों से लदी हुई डालियां एक-दूसरे से मिली हुई यों देख पड़ती थीं जैसे पुष्पों की माला पहने हुए बालिकाएं एक से एक हाथ मिलाए खड़ी हैं। उनके बीच में ढाक के वृक्ष लाल फूलों से ढके हुए यों देख पड़ते थे जैसे संसारियों के समूह में विरक्त वनवासी खड़े हों। इधर तो इन विरक्तों के रूप ने बहूजी को अपनी वर्तमान दशा की ओर ध्यान दिलाया, उधर कोकिला की कूक ने हृदय में एेसी हूक पैदा की कि एक बार फिर बहूजी पति के वियोग की व्यथा से व्याकुल हो गईं और कहने लगीं कि इस वक्त शोक-सागर में डूबने से बेहतर यही होगा कि गंगाजी में डूब मरूं, फिर सोचा कि पहले यह तो विचार लूं कि मेरा मरना भी संभव है या नहीं। यदि मैं स्वर्गलोक के किसी भाग में आ गई हूं तो यहां मृत्यु कैसे आ सकती है, परंतु यह स्वर्गलोक नहीं जान पड़ता क्योंकि स्वर्ग में शारीरिक और मानसिक दुख नहीं होते, और मैं यहां दोनों से पीडि़त हो रही हूं। इसके अतिरिक्त मुझे क्षुधा भी मालूम होती है! बस निस्संदेह मृत्युलोक ही में इस दशा को प्राप्त हुई हूं। यदि मैं मनुष्य ही के शरीर में अब तक हूं और मरकर पिशाची नहीं हो गई हूं तो मेरा धर्म यही है कि मैं अपने अल्पवयस्क बालक को ढूंढक़र गले से लगाऊं। परंतु मैं शारीरिक शक्तिहीन अबला इस निर्जन स्थान में किसे पुकारूं, किधर जाऊं! ‘हे करुणामय जगदीश! तू ही मेरी सुध ले। यदि तूने द्रोपदी, दमयंती आदि अबलाओं की पुकार सुनी है तो मेरी भी सुन।’ यह कहकर गंगाजी की ओर मुंह फेर घाट पर बैठ गईं और जल की शोभा देखने लगीं। इतने ही में दक्षिण दिशा से एक दासी हाथ में घड़ा लिए गंगाजल भरने को आई। जब उसने पीछे से ही देखा कि कोई स्त्री कफन का कपड़ा पहने अकेली चुपचाप बैठी है उसके मन में कुछ शंका हुई। जब उसने देखा कि नीचे पानी में एक मुर्दावाली सीढ़ी भी तैर रही है तब तो उसे अधिक भय मालूम हुआ। और उसने सोचा कि अवश्य कोई मरी हुई स्त्री चुड़ैल होकर बैठी है। जब उसके पांव की आहट पाकर बहूजी ने उसकी ओर मुंह फेरा और गिड़गिड़ाकर उससे कुछ पूछने लगी तो वह उनकी खोडऱाई हुई आंखों और अधमरी स्त्री की सी चेष्टा देखकर भय से चिल्ला उठी और चुड़ैल-चुड़ैल करके वहीं घड़ा पटककर भागी। बहूजी ने गला फाड़-फाडक़र उसे बहुत पुकारा, पर वह न लौटी और अपने ग्राम में ही जाकर उसने दम लिया। जब उसकी भयभीत दशा देखकर और स्त्रियों ने उसका कारण पूछा तब उसने सब वृत्तांत कह सुनाया। परंतु वह एेसी डर गई थी कि बार-बार घाट ही की आेर देखती थी कि कहीं वह चुड़ैल पीछे-पीछे आती न हो।
उस समय ग्राम के कुछ मनुष्य खेत काटने चले गए थे और कुछ ठाकुर विभवसिंह के साथ टहलने निकल गए थे। केवल स्त्रियां और लडक़े गांव में रह गए थे। उनमें से किसी को यह साहस नहीं होता था कि घाट पर जाकर उस दासी की अपूर्व कथा की जांच करे। चुड़ैल का नाम सुनकर ही वे एेसी डर गई थीं कि अपने-अपने लडक़ों को घर में बंद करने लगीं कि कहीं चुड़ैल आकर उन्हें चबा न डाले। उस समय ठाकुर साहब का लडक़ा नवलसिंह भी अपनी मृत माता का स्मरण कर-कर नेत्रों से आंसू बहाता हुआ इधर-उधर घूम रहा था और लडक़ों के साथ खेलने की उसे इच्छा न होती थी। जब एक स्त्री ने उससे भी कहा कि भैया, तुम अपने बंगले में छिप जाओ, नहीं तो चुड़ैल आकर तुम्हें पकड़ लेगी, वह आश्चर्यचकित होकर पूछने लगा कि चुड़ैल कैसी होती है? यदि वह यहां आएगी भी तो मुझे क्यों पकड़ेगी, मैंने उसकी कोई हानि नहीं की है।
इधर यह बातें हो रही थीं, उधर बहूजी निराश होकर मन में सोचने लगीं कि यह तो निश्चय है कि मैं अभी तक मृत्युलोक में ही हूं पर क्या वास्तव में मेरा पुनर्जन्म हुआ है? क्या मैं सचमुच चुड़ैल हो गई हूं, जैसा यह स्त्री मुझे देखकर एेसा कहती हुई भागी है! इसमें अवश्य कुछ भेद है वरना मैं इन कृशित अंगों पर कफन का स्वेत वस्त्र लटकाए हुए इस अज्ञात निर्जन स्थान पर कैसे आ जाती! हे विधाता! मैंने कौन-सा पाप किया जो तूने मुझे चुड़ैल का जन्म दिया। क्या पतिव्रत धर्म का यही फल है? अब मैं इस अवस्था में अपने प्यारे पुत्र को कहां पाऊंगी। और यदि पाऊंगी तो कैसे उसे गले लगाऊंगी? वह तो मेरी डरावनी सूरत देखकर ही भागेगा। पर जो हो, मैं उसे अवश्य तलाश करूंगी, और यदि वह मुझसे सप्रेम नहीं मिलेगा तो उसको भी इसी दशा में परिवर्तित करने की चेष्टा करूंगी। यह सोचकर वह धीरे-धीरे उस ओर बढ़ी जिस ओर दासी भागी थी।
दुर्बलता के मारे सारा देह कांपता था, पर क्या करे, क्षुधा के मारे रहा नहीं जाता था, निदान खिसकते-खिसकते उपवन डाककर वह वाटिका में पहुंची जिसमें अमरूद, नारंगी, फालसा, लीची, संतरा इत्यादि के पेड़ लगे हुए थे और क्यारियों में अनेक प्रकार के अंग्रेजी और हिंदुस्तानी फूल फले हुए थे। वाटिका के दक्षिण ओर एक छोटा-सा बंगला बना हुआ था जिसको देखकर बहूजी ने मन में कहा, यह तो वैसा ही बंगला मालूम होता है जैसा मेरे इलाके पर बगीचे में बना हुआ है, क्या मैं ईश्वर की कृपा से अपनी ही वाटिका में तो नहीं आ गई हूं! अरे, यह पुष्प मंडल भी तो वैसा ही जान पड़ता है जिसमें तीन वर्ष हुए नवलजी को गोद में लेकर खिलाती थी। मैं जब यहां आई थी तो ग्राम की स्त्रियों से सुना था कि निकट ही गंगाजी का घाट है। मैंने ठाकुर साहब से वहां स्नान करने की आज्ञा मांगी थी परंतु उन्होंने नहीं दी, क्या उसी पाप का तो यह फल नहीं है कि मैं इस दशा को प्राप्त हुई हूं! परंतु उसमें मेरा क्या दोष था! स्त्री के लिए तो पति की आज्ञा का पालन करना ही परम धर्म है। यह फल मेरे किसी और जन्म के पापों का मालूम होता है।
इसी तरह मन में अनेक कल्पनाएं करती हुई बहूजी एक नारंगी के पेड़ के नीचे बैठ गईं और लटकी हुई डाल से एक नारंगी तोडक़र अपनी प्रज्वलित क्षुधाग्नि को बुझाना चाहती थीं कि इतने में नवलसिंह घूमता-घामता उसी स्थान पर आ गया, उसे देखते ही बहूजी की भूख-प्यास जाती रही। जैसे मृगी अपने खोए हुए शावक को पाकर उसकी ओर दौड़ती है। वैसे ही बहूजी झपटकर नवलसिंह से लिपट गईं और ‘बेटा, नवलजी! बेटा नवलजी’ कहकर उसका मुख चूमने लगी। उस समय नवलसिंह की अपूर्व दशा थी। कभी तो बहूजी की डरावनी सूरत देखकर भय से भागना चाहता था, कभी माता के मुख की आकृति स्मरण करके प्रेमाश्रु बहाने लगता था और भोलेपन से पूछता था कि माता, तुम मर के फिर जी उठी हो और चुड़ैल हो गई हो? हम लोग तो तुमको घर ही पर छोड़ आए थे, तुम अकेली गिरती-पड़ती यहां कैसे आ गई हो? बहूजी ने कहा,‘बेटा, मैं नहीं जानती कि मैं कैसे इस दशा को प्राप्त हुई हूं। यदि मेरा शरीर बदल गया है और मैं चुड़ैल हो गई हूं तो भी मेरा हृदय पहिले ही का सा है। और मैं तुम्हारी ही तलाश में खिसकते-खिसकते इधर आई हूं।’
इधर तो इस प्रकार प्रेमालिंगन और प्रश्नोत्तर हो रहा था, उधर ग्राम्य स्त्रियों ने दूर से ही घटना देखकर हाहाकार मचाया और कहने लगीं, ‘अरे, नवलजी को चुड़ैल ने पकड़ लिया! चलियो! दौडिय़ो! बचाइयो! अरे, यह क्या अनर्थ हुआ! हम लोग क्या जानती थीं कि वह डाइन वाटिका में आ बैठी है। नहीं तो नवलजी को क्यों उधर जाने देतीं।’ इस तरह सब दूर ही से कौआ रोर मचा रही थीं, परंतु डर के मारे कोई निकट नहीं जाती थी। इतने ही में विभवसिंह और उनके साथ जो आदमी टहलने गए थे, वापस आ गए। यह कोलाहल देखकर उनको बड़ा आश्चर्य हुआ। उस दासी के मुंह से वृत्तांत सुनकर ठाकुर साहब ने कहा,‘मुझे प्रेतयोनि में तो विश्वास नहीं है। पर ईश्वर की अद्भुत माया है। शायद सच ही हो।’ यह कहकर और झट बंगले में से तमंचा लेकर वह उसी नारंगी के पेड़ की ओर झपटे, जहां नवलसिंह को चुड़ैल पकड़े हुए थी और गांववाले भी लाठी ताने उसी आेर दौड़े। पिता को आते देखकर लडक़े ने चाहा कि अपनी माता के हाथों से अपने को छुड़ाकर और दौडक़र अपने पिता से शुभ संदेश कहे। लेकिन उसकी माता उसे नहीं छोड़ती थी। ठाकुर साहब ने दूर ही से यह हाथापाई देखकर समझा कि अवश्य चुड़ैल उसे जोर से पकड़े है। और ललकारकर कहा,‘बेटा घबराओ मत, मैं आया।’ जब पास पहुंचे तो उन्होंने चाहा कि चुड़ैल को गोली मारकर गिरा दें। पर लडक़े ने चिल्लाकर कहा,‘इन्हें मारो मत, मारो मत, माता है माता।’ ठाकुर साहब को उस घबराहट में लडक़े की बात समझ में नहीं आई और चूंकि वह पिस्तौल तान चुके थे, उन्होंने फायर कर ही दिया। आवाज होते ही बहूजी अचेत होकर भूमि पर गिर पड़ीं और लडक़ा चौंककर जमीन पर बैठ गया। ठाकुर साहब ने उसे गोद में उठा लिया और कहा,‘बेटा डरो मत, अब तुम बच गए। बताओ तो यह कौन है, क्या यह वास्तव में चुड़ैल है?’ बहूजी को अचेत देखकर अब आदमी चिल्लाकर कहने लगे, ‘चुड़ैल मर गई, चुड़ैल मर गई।’ यह सुनकर स्त्रियां भी समीप आईं और चारों ओर खड़ी हो देखने लगीं। उनमें से वह दासी बोली,‘यही दुष्टिन चुड़ैल है जो घाट पर बैठी थी और यहां आकर नवलजी को निगलना चाहती थी।’ दूसरी स्त्रियां कहने लगीं,‘हमने तो सुना था कि डायनों और चुड़ैलों के बड़े-बड़े दांत और नख होते हैं। इसके तो वैसे नहीं हैं। यह निगोड़ी किस प्रकार की चुड़ैल है!’
एक ने कहा, ‘यह डाइन की बच्ची है। बढऩे पर इसके भी दांत बड़े होते।’ इधर तो ठिठोलियां हो रही थीं कि उधर जब नवलसिंह को निश्चय हुआ कि माता गोली की चोट से मर गई तो वह शोक के मारे अचेत हो गया। अब सब लोग भयातुर होकर उसकी ओर देखने लगे। कोई कहता था कि यह पिस्तौल की आवाज से डर गया है, कोई कहता था कि इसे चुड़ैल लग गई है। निदान जब उसे होश में आया तो रो-रो कर कहने लगा,‘यह तो मेरी माता है। मैंने तो मना किया था, आपने इन्हें गोली से क्यों मारा?’ ठाकुर साहब ने कहा,‘तुम्हारी माता तो मर गई और पुरोहित जी की चि_ी कल ही रात को आ गई कि उनको गंगा के तट पर ले जाकर जला दिया, यह चुड़ैल तुम्हारी माता कैसे हो सकती है?’ लडक़े ने कहा,‘आप समीप जाकर पहचानिए तो कि यह कौन है।’ ठाकुर साहब ने निकट ध्यान देकर देख पड़ा। जब छाती पर से कपड़ा हटाकर देखा तो मुख की आकृति उनकी स्त्री ही की-सी देख पड़ी और मस्तक पर मस्सा भी वैसा ही देखा तो हृदय पर दो तिल वैसे ही देख पड़े जैसे बहूजी के थे। तब तो ठाकुर साहब बड़े ही विस्मित हुए और कहने लगे, ‘क्या आश्चर्य है! यह तो मेरी प्रिय पत्नी ही मालूम होती है।’ फिर उन्होंने लडक़े से कहा,‘बेटा, तुम सोच मत करो, मैंने इन्हें गोली नहीं मारी है। जब तुमने मना किया तो मैंने आकाश की ओर यह समझकर गोली चला दी कि यदि कोई बला होगी तो तमंचे की आवाज ही से भाग जाएगी।’ लडक़े ने कहा,‘देखिए, इनके गले में गोली का घाव है, आप कहते हैं कि मैंने गोली नहीं मारी।’ ठाकुर साहब ने कहा,‘यह तो गिलटी का घाव है। मेरी गोली तो आकाश में तारा हो गई।’ इसके अनंतर ठाकुर साहब ने सब लोगों को वहां से हटा दिया और स्वयं कुछ दूर खड़े होकर गांव की नाइन से कहा,‘तुम बहूजी के सब अंगों को अच्छी तरह से पहचानती हो, पास आकर देखो तो कि यह वही है, कोई दूसरी स्त्री तो नहीं है।’ नाइन डरते-डरते पास गई और आंखें फाड़-फाडक़र देखने लगी। इतने में बहूजी को कुछ होश आया और बहू ज्योंही उठके बैठने लगीं त्यों ही नाइन नाइन भाग खड़ी हुई। बहूूजी ने उसे पहचानकर कहा,‘अरी बदमिया, मेरा बच्चा कहां गया? नवलजी को जल्दी बुला नहीं तो मेरा प्राण जाता है। ठाकुर साहब तो मेरे प्राण के ही भूखे हैं। प्रयागजी में मुझे बीमार छोड़क़र भाग आए। जब मैं किसी तरह यहां आई तो मुझ पर गोली चलाई। न जाने मुझसे क्या अपराध हुआ है। यदि प्लेग में मरकर मैं चुड़ैल हो गई हूं तो इस प्रेत शरीर से भी मैं उनकी सेवा करने को तैयार हूं। यदि वह मेरी इस वर्तमान दशा से घृणा करते हैं तो मुझसे भी यह तिरस्कार नहीं सहा जाता। मैं जाकर गंगाजी में डूब मरूंगी। पर एक बार मेरे बच्चे को तो बुला दे, मैं उसे गले तो लगा लूं। अरे उसे छोडक़र मुझसे कैसे जिया जाएगा? हे परमेश्वर, तू यहीं मेरा प्राण ले ले।’ यह कहकर वह उच्च स्वर में रोने लगी। ठाकुर साहब से ये सच्चे प्रेम से भरे हुए वियोग के वचन सहे नहीं गए। उनका हृदय गदगद हो गया, रोमांच हो आया और आंसू गिरने लगे। झट दौडक़र उन्होंने बहूजी को उठा लिया और कहा, ‘मेरे अपराध को क्षमा करो। मैंने जानबूझकर तिरस्कार नहीं किया। यदि तुम मेरी पत्नी हो तो चाहे तुम मनुष्य देह में या प्रेत शरीर में, तुम हर अवस्था में मुझ ग्राह्य हो, यद्यपि मेरे मन का संदेह अभी गया नहीं है। इसकी निवृत्ति का प्रयत्न मैं धीरे-धीरे करता रहूंगा, परंतु तुमको अभी से मैं अपनी प्रिय पत्नी मानकर ग्रहण करता हूं। यदि तुम्हारे संसर्ग से मुझे प्लेग-पीड़ा या प्रेत-बाधा भी हो जाए तो कुछ चिंता नहीं, मैं अब किसी आपत्ति से नहीं डरूंगा।’ यह कहकर वह बहूजी को अपने हाथों का सहारा देकर लता भवन में ले गए और नवलजी को भी वहीं बुलाकर सब वृत्तांत पूछने लगे।
इतने ही में सत्यसिंह भी शहर से आ गया। जब उसने गांववालों से यह अद्भुत कथा सुनी तो वह सारा भेद समझ गया और ठाकुर साहब से जाकर कहने लगा,‘महाराज! अब अपने मन का संदेह दूर कीजिए। यह सचमुच बहूजी हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है। कल जब नाइन इनको कफनाने लगी थी तो उसने कहा था कि उनकी देह गर्म है। मैंने इसकी जांच करने के लिए कहा, पर दुष्ट नौकरों ने न करने दिया और उन्हें ले जाकर कच्चा ही गंगाजी में फेंक दिया। अच्छा हुआ, नहीं तो अब तक बहूजी जलकर राख हो गई होतीं। मुझे निश्चय है कि बहूजी की जान नहीं निकली थी और गंगाजी की कृपा से वह बहती-बहती इसी घाट पर लगीं और जी उठीं। अब अपना भाग्य सराहिए। इनको फिर से अपनाइए और बधाई बजाइए।’
इतना सुनते ही ठाकुर साहब ने फिर से क्षमा मांगी और नि:शंक होकर बहूजी को अंक से लगाया और पे्रमाश्रु बहाए। बहूजी भी प्रेम से विह्वल होकर नवलजी को गोद में लेकर बैठ गईं और उनके कंधे पर अपना सिर रखकर रोने लगीं। जब गांववालों ने यह वृत्तांत सुना तो वे आनंद से फूल उठे और बहूजी के पुनर्जन्म के उत्सव में मृदंग, मंजीरा और फाग से डफ बजाकर नाचने गाने लगे और स्त्रियां सब पान-फूल, मिठाई लेकर दौड़ीं और बहूजी को देवी मानकर उनका पूजन करने और क्षमा मांगने लगीं। बहूजी ने कहा,‘इसमें तुम लोगों का कोई दोष नहीं। यह मेरा दुर्भाग्य है जिसने एेसे दिन दिखाए। अब ईश्वर की कृपा से जैसे मेरे दिन लौटे, वैसे ही सबके लौटें।’

The post मास्टर भगवानदास की कहानी ‘प्लेग की चुड़ैल’ appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

कोरियाई उपन्यास ‘सिटी ऑफ़ ऐश एंड रेड’और महामारी

$
0
0

महामारी के काल को लेकर बहुत लिखा गया है। अलग अलग भाषाओं में लिखा गया है। आज एक कोरियाई उपन्यास ‘सिटी ऑफ़ ऐश एंड रेड’ की चर्चा। लेखक हैं हे यंग प्यून। इस उपन्यास पर लिखा है कुमारी रोहिणी ने, जो कोरियन भाषा पढ़ाती हैं

=====================

लॉकडाउन के इस दौर में पिछले दिनों आम दिनों के बनिस्पत पढ़ने लिखने का काम थोड़ा सा ज़्यादा हुआ. कई सालों के अंतराल के बाद किताबों को उलटना पलटना छोड़कर पूरी पूरी किताब को पढ़ने की कोशिश जारी है.

इस लगभग महीने भर की घरबंदी के दौरान मैंने कई किताबें पढ़ी हैं (कुछ अधूरी हैं, कुछ पूरी हुई).

इन किताबों में से एक किताब हे यंग प्यून की “City of Ash and Red”. 2010 में प्रकाशित इस उपन्यास के केंद्र में एक ऐसा व्यक्ति है जो देश/विश्व में फैले हुए संक्रमण वाली किसी बीमारी का शिकार हो जाता है. हालाँकि बीमारी की पहचान नहीं हुई है लेकिन यह चूहों से फैलने वाली बीमारी है. (संभवत: प्लेग)

इस कहानी का मुख्य पात्र एक आदमी है जिसका नाम कहानीकार ने देना ज़रूरी नहीं समझा है. पूरी किताब में वह “एक आदमी” के नाम से ही संबोधित किया गया है. वह “एक आदमी” कीटनाशक दवाओं के छिड़काव वाली किसी कम्पनी में काम करता है. वहाँ काम करते करते उसकी कम्पनी ने उसका ट्रांसफ़र किसी दूसरे देश में कर दिया है. कहानी आगे बढ़ती है और वह उस देश के हवाई अड्डे पर इमिग्रेशन की पंक्ति में खड़ा है जहाँ उसकी कम्पनी ने काम करने के लिए उसे भेजा है. वह बीमार है और शायद किसी बीमारी से भी संक्रमित है. वह “एक आदमी” Y नाम के इस देश में (यहाँ फिर से लेखिका ने देश को भी नाम देना आवश्यक नहीं समझा है) काम करने के उद्देश्य से आया है. लेकिन जब वह अपने रहने वाले अपार्टमेंट में पहुँचता है तो उसे यह एहसास होता है कि वह इमारत कूड़े के उस विशाल ढेर पर बसा हुआ एक छोटा सा द्वीप जैसा है, जहाँ एकत्रित कूड़ों को शायद सदियों से हटाया नहीं गया है. थोड़े ही समय में उसे यह एहसास हो जाता है कि उसकी कम्पनी ने उसे अपनाने से मना कर दिया है और शायद उसके लिए वहाँ किसी तरह का काम भी नहीं है. इससे पहले कि वह इस मामले में कुछ कर पाता उस पूरी इमारत को क्वॉरंटीन कर दिया जाता है, और यहाँ से उसके जीवन की स्थिति बद से बदतर होती जाती है.

लेखिका प्यून ने एक भयावह सपने की तरह इस कहानी को आगे बढ़ाया है जिसे एक बार में बिना विचलित हुए पढ़ पाना लगभग असंभव हो जाता है. इस कहानी की पटकथा किसी सर्वनाश के बाद की स्थिति पर (भविष्यसूचक) आधारित है. कहानी को पढ़ते हुए लगातार उस सर्वनाश का इंतज़ार रहता है लेकिन वह स्पष्ट रूप से कभी सामने नहीं आता है. बल्कि यह पूरी कहानी एक ऐसे आदमी के इर्दगिर्द घूमती है जो एक दफ़्तर के कर्मचारी से कूड़े के ढेर में रहने वाला आवारा बन जाता है और वास्तव में उसकी स्थिति इससे भी ख़राब और दयनीय होती जाती है.

प्यून की कहानियों को पढ़ते हुए आपको कई बार काफ़्का की कहानियों की याद आती है क्योंकि काफ़्का की कहानियों की तरह ही प्यून की कहानियों में भी कोई स्पष्ट और तय नियम नहीं होता है. हर अगली पंक्ति अनिश्चित होती है और बड़ी ही निष्ठुरता से लेखिका पाठक के अंदेशे को ग़लत साबित कर देती हैं. पढ़ते हुए आपको लगता है कि अब सबकुछ ठीक होगा और तभी कहानी और बदतर हो जाती है.

मेरे लिए इस किताब को पढ़ना आसान नहीं रहा. इसके कई कारण थे. एक तरफ़ जहाँ कहानी का मुख्य पात्र इस भयावह स्थिति का सामना कर रहा है वहीं उसके निजी जीवन की कई ऐसी बातें उभर कर सामने आती हैं जिसके कारण आपको न तो उससे किसी तरह की सहानुभूति होती है और ना ही आप उसे पसंद कर पाते हैं.

हालाँकि उस आपदा के कारण वह एक दफ़्तर के कर्मचारी से कूड़े के ढेर में चूहा मारने वाला एक इंसान बन गया था और उसने इस काम में महारत हासिल कर ली थी. लेकिन उसके निजी जीवन के कृत उसे और भी गंदा और घिनौना बनाते हैं. यहाँ जब किसी दूसरे देश में बिना किसी काम धंधे के वह एक किराए के अपार्टमेंट में बंद है वहीं उसके अपने देश में उसकी पत्नी अपने ही घर में मृत पाई जाती है. स्थितियाँ ऐसी बनती हैं कि वह “एक आदमी” ही अपनी पत्नी का हत्यारा प्रतीत होता है. परिणामवश उसे विदेश में अपने उस किराए के घर से भी हाथ धोना पड़ता है क्योंकि वह अब एक सम्भावित अपराधी हो गया है. प्यून ने इतनी सहजता से दोनों पहलुओं को कहानी में पिरोया है कि उस “एक आदमी” की कौन सी स्थिति बदतर है यह समझना मुश्किल हो जाता है. हालाँकि समकालीन कोरियाई साहित्य को पढ़ने पर यह स्पष्ट होता है कि यंग प्यून एक मात्र ऐसी कोरियाई साहित्यकार नहीं हैं जिनकी लेखनी में ही सिर्फ़ ये पहलू उभर कर आते हैं बल्कि हाल के अन्य कोरियाई कथा-साहित्य में भी ऐसा देखने को मिलता है.

इस उपन्यास को पढ़कर कहा जा सकता है यह सभी के पढ़ने के लिए नहीं लिखी गई है. निश्चित रूप से यह एक तनावपूर्ण और गम्भीर मनोवैज्ञानिक थ्रिलर है. इसे पढ़ते हुए आपको मैककार्थी के उपन्यास “द रोड” के खुलेपन के मिलने की उम्मीद भी जागती है लेकिन चूँकि प्यून की कहानियों की यह ख़ासियत है कि वह अक्सर ही भविष्यसूचक स्थितियों के साथ उछलकूद करती हैं और पूरी पटकथा को अलग मोड़ मिल जाता है और जिसे पढ़कर आप उसे अपरिहार्य मान लेते हैं और इसका अंत इस तरह से होता है कि आप मैककार्थी के उस खुलेपन से वंचित रह जाते हैं जिसकी उम्मीद आपने शुरुआत में देखी थी.

आज के इस समय में जब विश्व कोरोना की आपदा से गुज़र रहा है, यह किताब मुझे बहुत ज़्यादा प्रासंगिक लगती है.

कोरोना की वजह से विश्वभर में न जाने कितने ही लोग प्यून के उस “एक आदमी” तरह अपने जीवन की बदतर स्थिति में पहुँच रहे हैं, पहुँच चुके हैं जिनकी न तो उन्होंने कल्पना की होगी और न ही हमने. आज जब एक तरफ़ इंसान को इंसान से ख़तरा है वहीं इंसानियत पर भी ख़तरा है. इस विश्वव्यापी संकट से उबरने के क्रम में और उसके बाद भी बेरोज़गारी, ग़रीबी, अपराध आदि के आँकड़ों में इज़ाफ़ा अपरिहार्य है.

=================================

सिटी ऑफ़ एश एंड रेड मूलत: कोरियाई भाषा में “재와 빨강” के नाम से 2010 में प्रकाशित हुआ था।

अंग्रेज़ी अनुवाद: City of Ash and red (2018)

लेखक: हे यंग प्यून

अनुवादक: किम सोरा रसेल

The post कोरियाई उपन्यास ‘सिटी ऑफ़ ऐश एंड रेड’ और महामारी appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

स्त्री के सशक्त एकांत और दुरूह आरोहण की कविताएँ

$
0
0

रश्मि भारद्वाज का कविता संग्रह ‘मैंने अपनी माँ को जन्म दिया है’ जब से प्रकाशित हुआ है चर्चा में है। सेतु प्रकाशन से प्रकाशित इस संग्रह की कविताओं की एक विस्तृत समीक्षा राजीव कुमार ने लिखी है। आप भी पढ़ सकते हैं।

===============

रश्मि भारद्वाज का काव्य संग्रह “मैंने अपनी मां को जन्म दिया है”, युवा कवियत्री की सोच की गंभीरता और अभिव्यक्ति की अप्रतिम क्षमता से अचंभित करता है। कवियत्री अपने पहले ही काव्य संग्रह “एक अतिरिक्त अ” से चर्चा में आ गईं थीं और युवा लेखन के लिए पुरस्कृत भी हुईं। वर्तमान काव्य संग्रह, काव्य परिदृश्य में दस्तक नहीं, सधे हुए विराट कदमों का कम्पन है।

काव्य एक अत्यंत जटिल एवं उत्कृष्ट सृजन है जिसका स्वरूप भाषिक होता है।  कोई एक भाव  गहन चिंतन और उसकी काव्य प्रस्तुति के समय विशिष्टता पा सकता है। कोई प्रेम में है, कोई आक्रोश में , कोई विषाद में , कोई मृत्यु की जटिलता में,  समग्रता सबसे मुश्किल लक्ष्य है जो आसानी से हासिल नहीं होती। रश्मि भारद्वाज नए युग को उसकी समग्रता में, विराटता में देखती हैं। विरुद्ध विकल्पों का जो जटिल अंबार  इस नए तकनीकी युग के सामने है वह समग्र  दृष्टि बनने नहीं देता।  इन्हीं विरुद्धों के समाहार और मानवीय मूल्यों के रक्षार्थ उच्च मानकों  की स्थापना की कवियत्री हैं रश्मि भारद्वाज। उनका यही गुण अपने युग के और पूर्ववर्ती युग के कवियों में उन्हें विशिष्ट स्थान दिलाएगा।  हर कविता अपनी इकाई में विलक्षणता और संश्लिष्ट भावों की अभिव्यक्ति लिए हुए है और हर कथ्य  अपने युग का केन्द्रीय संवेदन।  जो कुछ  भी उनके काव्य में है वह स्वानुभूत सत्य से उपजा हुआ है, यह बात दीगर है कि कागद लिखे सत्य से भी कवियत्री उतना ही रू ब रू हैं। काव्य में कवि के वैयक्तिक अनुभव की  ही अभिव्यक्ति होती है रश्मि भारद्वाज में भी है, मगर वह देशकाल की सीमाओं का अतिक्रमण कर  अपने अनुभवों को सार्वभौम अनुभव बनाने में सक्षम हो जाती हैं। “मैंने अपनी मां को जन्म दिया है ” काव्य संग्रह यहीं अपने उद्देश्यों में सफल होता है।

स्त्री के सशक्त एकांत और दुरूह आरोहण की कविताएं काल निरपेक्ष हैं।  स्त्री डर, उम्मीद या किसी तसल्ली के बगैर अपने एकांत को अदम्य निष्ठा से जीना चाहती है। जीने की इस कोशिशों में खड़े हर अवरोधों से वह सवाल करती है। हर युग में स्त्री अपने सनातन प्रश्नों का जवाब मांगेगी ,  प्रश्न जो उसकी अस्मिता और दैहिक स्थितियों से जुड़े होंगे, प्रश्न जो सामाजिक अधोपतन में स्त्री की स्थिति को व्याख्यायित करने के तरीकों से जुड़े होंगे और हर युग हाशिए पर जिन  सवालों को डालने की कोशिश करेगा। इन्हीं अनेक समय की कसौटियों पर खड़ी उतरती रचनाओं से “मैंने अपनी मां को जन्म दिया है” का ताना बाना बुना हुआ है।

युग बोध

———-

“हम एक अभिशप्त पीढ़ी हैं/ हमारे पास स्वप्न हैं, नींद नहीं/ हमारे पास विकल्प है, प्रेम नहीं/ प्रतिबद्धता हमारे समय का सबसे घिस चुका शब्द है/ हम अक्सर अपनी ऊब में पाए जाते हैं” । ऊब गई अभिशप्त पीढ़ी के हिस्से में जो जीवन है, उसमें भोगा हुआ यथार्थ सपनों पर हावी है, पिछले सच जो जाती हुई पीढ़ी ने सौंपे थे एक शापित जीवन की पहेलियां बनकर रह गए। नए अध्याय जोड़ने के लिए जिस अनुभव, संघर्ष और प्रतिबद्धता की आवश्यकता है वह वर्तमान पीढ़ी के पास नहीं।

“मैं यह भी निश्चित रूप से नहीं कह सकती / कि यह शहर का शव है या हमारे सपनों का / जिसकी असह्य गंध के आदि हो चुके हैं हम” एक उजड़ा हुआ जीवन, एक मरता हुआ शहर, उम्र के सबसे सुंदर साल जो लिख दिए गए एक शहर के नाम, छोड़कर वह शहर जहां हमें होना था,  जहां जन्म लेकर बड़े हुए, जो शहर हक रखता था मेरी परिधि पर, मेरे विस्तार पर और अंततः हासिल कुछ भी नहीं। “मैं दो शहरों में खोजती हूं/ एक बीत गई उम्र/ एक ने मुझे नहीं सहेजा/ दूसरे को मैंने नहीं अपनाया / मैं दोनों की गुनहगार रही”।

प्रत्येक कविता इस संग्रह की, गहन विचारों की संश्लिष्ट अभिव्यक्ति है। विचार अपने उत्स से ही प्रसरण और विपर्यय का तत्त्व समाहित किए होते हैं। सामाजिक घात प्रतिघात से विचार  पुष्ट भी होते हैं और स्थूल विचारों का वटवृक्ष फैलता भी जाता है।  इस संग्रह की कविताएं उन्हें परिधि में लाती है, संक्षिप्त शब्दावली और प्रतीकों और बिम्ब के सहारे उसे पाठक की मानसिक दुनिया में चित्र बनाकर पेश करती है। “दिखाई देती है दूसरी ओर खामोश गुजरती हुई / घर की ओर जाती रेल/ बमुश्किल दफन हो जाती एक इच्छा/ शामिल हुआ जाता है हर रोज़ एक अनचाही यात्रा में/ अब घर ने भी बेवजह बुलाना छोड़ दिया है। ” विस्थापन और उसका दर्द नए विकास और उससे जुड़े जीवन की कहानी का सबसे त्रासद हिस्सा है, जिसे कवियत्री ने बखूबी निभाया है। इस दर्द का  कविता में इतना खामोश बयान दुर्लभ है।  विस्थापन का दर्द शोर नहीं करता यहां बल्कि रिसता है देर तक और स्त्राव का यह उत्कर्ष पाठक को भिगोता है। “जीवन के हर उल्लास पर / भारी हो जाती हैं बाधाएं/ एक मृत्यु है / जिसकी शेष रहती है प्रतीक्षा / हर रोज़ सुनाई देते हैं जिसके पदचाप।”

जो साधारणतया गद्य की विस्तृत बुनावट में अलक्षित रह जाता है, कविता यहां उसे सीधे  पाठक के मस्तिष्क में भेज देती है। इस सबके बीच रश्मि भारद्वाज की कविताएं  मानव हित की व्यापकता से रिश्ता कमजोर नहीं करती हैं। वर्तमान संग्रह ” मैंने अपनी मां को जन्म दिया है” की  रचनाएं काल और वाद की सीमाएं लांघती हैं, अपनी बुनावट में , अपने प्रतीकों में और कथ्य और जीवन के सौन्दर्य विस्तार में ।  अधिकांश कविताएं कालजयी हैं और अपने समष्टि गत दृष्टिकोण से  सुधी पाठक को विस्मय में डालती हैं।

” कई बार घर के बाहर लगी तख्ती तक/ हमारे असल चेहरे से नावाकिफ होती है। दरअसल हम आजकल कहीं नहीं रहते/ अपने ओढ़े गए खोल में भी नहीं” कविता के इस निष्कर्ष तक पहुंचते पहुंचते आप बड़े शहरों में स्वयं को खोजने लगते हैं, ‘मैं कहां रहता हूं’ के भाव के साथ। मेरी पहचान जो सरकारी रिकॉर्डों में है , जो  मेरा पता दर्ज है  तख्ती पर  एक नाम भी लिखकर वह तो एक छलावा है, मेरे होने की मुकम्मल जानकारी है ही नहीं। अभी तो मैं रास्ते से उतरा ही नहीं,  नागरीय सुरंग बहुत दूर तक अंधेरी है, मैं भटक ही रहा।

 

स्त्री चिंतन

————-

“उन्होंने मिट्टी की दीवारों पर साथ उकेरे अपने स्वप्न/ और उनमें अपनी दमित इच्छाओं का रंग भरा ।”  संग्रह की आधी आबादी को मुखातिब कविताओं के केंद्र में महज स्त्री विमर्श नहीं, सिर्फ आधुनिक स्त्री के उद्गाम साहस का चित्रण नहीं, उसके संशय और असुरक्षित घर की आवृति भी है और पलटकर लड़ने के नए तरीकों से वार करने का मनोयोग भी। सब कुछ चाहिए इस स्त्री को आंख भर की नींद, उम्र भर के सपने, थोड़ी सी आंच और एक मजबूत गर्म हथेली जिसे थाम कर दुखों को पिघलता महसूस किया जा सके। स्त्री का विश्व की  वर्तमान व्यवस्था से विद्रोह रचनात्मक सौन्दर्य लिए हुए है, किसी ध्वंस की कामना नहीं। स्त्री विमर्श के प्रभावोत्पादक स्वरूप का आख्यान है सम्पूर्ण संग्रह।

स्त्री की  पितृसत्तात्मक व्यवस्था  प्रदत्त एक शाश्वत विचारधारा कि भारतीय परंपरा में स्त्री जीवन ही अभिशप्त होता है और देह जिसका महत्त्वपूर्ण शिरा है , विषमता से भरे इस  रूढ़ दर्शन की प्रस्तावना मात्र से ही कविता प्रतिकार करती हुई हर जगह खड़ी हो जाती है। मानव इतिहास में आधुनिक युग ने पहली बार स्त्री को अपनी जगह, अपना एकांत और अपना भाग्य चुनने की जगह दी है । वह इस चुनाव की शक्ति से शाश्वत भय को समाप्त कर सकती है। ‘एक स्त्री का आत्म संवाद ‘ कविता में स्त्री अपने भय को जीती हुई किस तरह अनावृत करती है समाज का पाखंड : ” मेरा भय था कि पुरुष की छत्र छाया से वंचित/ हर स्त्री चरित्रहीन ही कहलाती है/ मैं एक मजबूत स्त्री का आडंबर रचती/ हर दिन एक नए भय से लड़ने को अभिशप्त हूं।”  किसी एकाकी स्त्री का किसी विराट यात्रा पर जाते देखना, या शाप से अकेले लड़ना अभी भी समाज को असहज करता है।  पर स्त्री ने युद्ध विराम की घोषणा नहीं की। न ही उसने आत्म निर्वासन चुना। हर युग के शाप का जवाब देती रही हैं कविता की स्त्रियां। “पक्षपाती है ईश्वर/ जिसकी सृष्टि का सारा करतब/ सिर्फ स्त्रियों की देह से चलता है / दुनिया के समस्त महायुद्ध / हमारी देह पर लड़े गए।”

यहां स्त्री पुरुष के ज्ञान के अहंकार से वितृष्णा रखती है। वह एक स्नेही और उदार हृदय चाहती है जो जानता हो झुकना। स्त्री पुरुष में भी जीवन में सामंजस्य स्थापित कर सकने की क्षमता ढूंढ़ती है। कवि कर्म परवान चढ़ता है। विरुद्धों का दुर्लभ सामंजस्य न सिर्फ शिल्प के स्तर पर, बल्कि स्त्री की इच्छाओं के रूप में। रश्मि भारद्वाज की स्त्री यहां प्रतिशोध लेती हुई या प्रतिकार करती नहीं दिखती बल्कि परिवर्तित पुरुष की कामना करती है, उसका आवाहन करती है। “उस स्त्री का गर्वोन्नत शीश/ नत होगा सिर्फ तुम्हारे लिए/ जब उसे ज्ञात हो जाएगा/ कि उसके प्रेम में/ सीख चुके हो तुम / स्त्री होना”।

प्रतीक्षा शीर्षक से अाई हुई  एक लघु कविता जो कि मूल दीर्घ कविता समूह और उसके शीर्षक “स्त्रियां कहां रहती हैं” में रखी गई है, अपने अर्थ विस्तार में अद्वितीय है। इस संग्रह में इस लघु कविता का अन्य आनुषंगिक कविताओं के साथ गूंथा होना इसे युगों तक के लिए स्थापित करता है। ” बलात प्रेम की दीर्घ यातनाओं के मध्य भी/ शेष रही उस स्पर्श की कामना / जो उसे सदियों के अभिशाप से मुक्त करे/ जो उसे छूते हुए / उसके हृदय की ग्रंथियां भी खोल सके /  जिसके प्रेम में तरल होते हुए/ उसे पाषाण में परिवर्तित कर दिए जाने का भय नहीं हो।”  देवी अहिल्या , पत्थर, उद्धार , प्रेम और पाप का रूढ़ प्रतीक भारतीय लोक मानस में सहस्त्राब्दियों से है। सदियों के एकांत और उच्छिष्ट आत्मा का यह प्रेम, कामना और शाप आत्म निष्काषण नहीं है। अहिल्या की  यह कामना आंतरिक स्तर पर मुक्ति की है और बाह्य स्तर पर ईश्वर के हाथों इस पाप और शाप का शमन। हर युग में भिन्न भाषाओं के बड़े  विद्वान लेखकों ने इस प्रसंग की बड़ी व्याख्याएं की हैं। रश्मि भारद्वाज बहुत कम शब्दों में इस शाश्वत मिथकीय द्वंद्व को जीती हुई उसका नैसर्गिक  समाधान देती हैं। काव्य सिद्धांत की वैचारिक और प्रस्तुति संबंधी सारी कसौटियों पर यह लघु कविता उत्कृष्ट है।

स्त्री जब पुरुष के दिए संताप को अपनी मूल्यवान वस्तु बना ले,  तो यह उसके प्रतिकार का शिखर है। विनम्रता के अक्स में प्रतिशोध का शिखर। तुमने जो दर्द दिए हैं वहीं ताबीज़ है, मुझे उसका स्मरण ही किसी विपदा से निकाल लेगा, यह शक्ति देगा कि मैं तुम्हारे बिना चल सकी : “तुम्हारी दी हुई उदासी को ही/ मैंने किसी ताबीज़ सा बांध लिया है/ यह मुझे हर उस दू:स्वप्न से बचा कर रखेगा / जो तुम्हारे प्रेम ने मुझे दिए हैं”

पति की प्रेमिका के नाम कविता इस संग्रह की उत्कृष्ट कविता है।  स्त्री का संबोधन अपने प्रणय प्रतिद्वंदी के लिए अन्यत्र दुर्लभ है। शिल्प, कथ्य और कविता में  अपनी ताज़गी के कारण यह कविता कालजयी है ” तमाम समय मुझ सा नहीं होने की चेष्टा में/ मैं मौजूद रहती होऊंगी तुम्हारे अंदर/ तुम मुझसे अधिक आकर्षक/ अधिक स्नेहिल/ अधिक गुणवती होने की अघोषित चेष्टा में खुद को खोती गई। ”

दो स्त्रियों के बीच एक पुरुष के तथाकथित प्यार का होना घृणा के जिस रिश्ते को जन्म देता है, और एक दूसरे के अंत की दुआएं मांगी जाती हैं अद्भुत संप्रेषण में कविता ध्वनित करती है यहां आधुनिक शहरी जीवन के इस कलुष सत्य को। आम तौर पर कविताएं इस हिस्से में प्रवेश करने से बचती हैं जबकि इस काव्य संग्रह में इस वर्जित प्रदेश में कविताएं बेबाक बयां करती हैं  अपनी उपस्थिति। स्त्री की अस्मिता, वंचना और देह पर उठे सवाल विद्रोहिणी बनाते हैं काव्य नायिका को और तीक्ष्ण हो उठती है काव्य संवेदना।

प्रेम का रिश्ता भारतीय घर का कितना अव्यक्त होता है कवियत्री बहुत पैनी निगाह रखती हैं। भारतीय संयुक्त परिवारों में प्रेम को अपनी स्थिति प्राप्त करने के लिए पर्याप्त जगह नहीं थी। या तो वह अव्यक्त ही रहता था या  बहुत परिश्रम से कुछ अवसर बनाए जाते थे । अव्यक्त प्रेम में जीवन रचती हुई पीढ़ियों का भव्य वर्णन हुआ है यहां : “हमारे लिए प्रेम हमेशा अव्यक्त ही रहा / लेकिन हम आज भी जानते हैं यह बात मन ही मन में/ कि जो अव्यक्त है वहीं सबसे सुंदर है”। अव्यक्त की निराकारता और उसका शिव और सुंदर होना बिम्ब और प्रतिवादी शिल्प के गठन का सुंदर उदाहरण है।

“मैंने अपनी मां को जन्म दिया है” में स्त्री के सबसे प्रभावशाली मातृ स्वरूप का सायास प्रकटीकरण चलती हुई कविताओं के अचानक ही बीच में, अप्रतिम प्रभाव छोड़ता है। स्त्रियां यहां जन्म दे रही हैं हर क्षण एक नई पृथ्वी।  सृष्टि में जो भी  कुछ सुंदर है उसे स्त्रियों ने जन्म दिया है। स्त्रियों ने यहां साथ मिलकर कहकहे लगाए और भोजन में घुल आया स्वाद। एक स्त्री अपना आत्म संवाद  लिख पाती की कितनी ही बार कितनी अश्लीलता से याद कराई जाती है उसे उसकी देह। दूसरी कहती कि इस देह ने हमें सुंदर किया है। हम इसी देह से रच सकीं सृष्टि। रचने के इस धर्म ने ही हमें देवत्व दिया है। हर लिपि और भाषा में, आग प्रेम और स्मृतियों के लिए हमारी संवेदनाएं एक सी थीं। हमने पृथ्वी के हर कोने में सुंदर संसार ही रचा ।

देवता, पितर और पुरखे

——————————

पितरों पर, पुरखों पर, अनुष्ठानों के बीच शेष रह गए एकांत पर, मनुष्यता के नैसर्गिक स्वाभिमान पर जो अब तक बड़े और स्वयंभू कवियों के अघोषित एकाधिकार की भावभूमि रही है, रश्मि  भारद्वाज अपने संप्रेषण से उस किले की दीवारें तोड़ती हैं और नए प्रतिमान गढ़ती हैं । गांव की पूजा पद्धति की बाल काल की अनुभूतियों पर अंकित परछाइयां कवियत्री के साथ शहर अाई और कविताओं में निखरकर अद्वितीय स्मृतिजन्य सृजन करने में सहायक हुई। इन कविताओं का कलेवर बिल्कुल स्पष्ट और अन्यत्र दुर्लभ है। आराधना का स्मृति आलाप कविता में ध्वनि पाता है।

पुरखों की धरती पुकारती है। वहां सारे बंधन तोड़ पहुंच जाता है व्यक्ति धरती की छाती पर कान धरते ही पता चलता है धौंकनी सी चल रही हैं पश्चाताप की सांसें। पुरखे ” उस मिट्टी में जहां गिरे हैं उनके स्वेद कण / वहां की हवा में जहां घुली है उनकी देह गंध / वहां के जल में जहां विसर्जित है उनकी राख” आवाहन करते हैं लौट कर आने का। अंत तक कविता जो लय प्राप्त करती है, पुरखों की स्मृति और सम्मान का जो अप्रतिम बिम्ब विधान है वह कविता का हासिल है: “अपनी तमाम शिकायतों को भूल कर लौटना वहां / सिर को नत और होठों को मौन रखना/ जहां एक लंबे शापग्रस्त जीवन के बाद / मुक्ति की नींद तलाशते / प्रार्थनारत हैं पुरखे/ ताकि तुम भी शताब्दियों के शाप से मुक्त हो सको।”

“देवी मंदिर” शीर्षक कविता में स्त्रियों को आराध्या की पूजा करते और मन्नतें मांगते देख सीढ़ियों पर बैठी एक पागल लड़की खिलखिलाकर हंसती है “सोचती है, अच्छा है कि उसका कोई घर नहीं है/ और उसे जी पाने के लिए / किसी और के नाम की प्रार्थना नहीं करनी है ।”  पागल लड़की की हंसी कारुणिक अंत की तरफ लेे जाती है जहां सनातन पूजा पद्धति और निर्णायक रूप से बताए गए उसके परिणामों पर जबरदस्त प्रहार है।

“चंद्रिका स्थान” कविता की भावभूमि दृश्य बिम्ब विधान और कथा प्रारूप में है। गांव की देवता स्त्री, अगर यह रक्षक स्त्री न हो तो गांव सलामत न रहे और  जिसे गांव ने स्वयं गढ़ा था एक धवल मुस्कान के साथ पवित्र ईश्वर में तब्दील होने से पहले, गांव, बरगद और गरीब स्त्री को आंचल की छाया में बचाए रखती थी ” गांव का पतझड़ हर साल बहुत जल्दी हार जाता था/ देवता स्त्री थी सबकी मां/ वह मुस्कुराती और खेतों का बसंत लौट आता”। बरगद का वृक्ष पिता है, सदियों से जहां जगह पाती रही देवता स्त्री और सारे गांव के जन। विकास और शहरीकरण ने ईश्वर का रूप बदला, पूजा पद्धति बदल डाली और बदल डाला उससे जुड़ा जीवन। कविता संग्रह की श्रेष्ठ कविताओं में से है

“वह तुम ही हो पिता”  कविता में अप्रतिम रूप में हैं पिता।  बेटी पिता को इस अनन्य रूप में देख सके यह बहुत कम वर्णित होता है काव्य साहित्य में। बेटी के लिए मां ज़्यादा जगह घेरती है उसके कायनात में। ” लेकिन फिर भी मेरी धमनियों में / जो रक्त बन दौड़ता रहा/ वह तुम ही थे/ मेरे चेहरे की ज़िद में जिसे पढ़ा जाता रहा, वह तुम्हारा ही चेहरा था/ मैं इनसे कभी भाग नहीं सकी/ तुम्हारे चेहरे पर बढ़ अाई कुछ और लकीरों को याद कर / जो मेरी आंखों से बह आता है/ वह तुम ही हो पिता।”

विशिष्ट परिप्रेक्ष्य

———————

यहां रानू मंडल ध्यान मग्न गाते हुए गीत का उत्सव नहीं, जीवन का शोक मनाती है। कुछ पाकर खोना है, कुछ खोकर पाना है की अन्विति, रास्तों का लोकप्रिय गायन और उससे जुड़ा कारुणिक प्रसंग बहुत ही सुन्दर है।  शहर के चौक पर खड़े चार बौद्ध भिक्षुओं के चेहरे शहर के हर नए पाप के बाद थोड़ा और झुक जाते हैं। मूर्तियों का निर्माण मानवता को प्रतिमाओं में बदलने की साजिश है यहां। यहां पुरखे प्रार्थनारत हैं, ताकि तुम शताब्दियों के शाप से मुक्त हो सको।  यहां हाथ कांपते हैं, पुरानी चीजों को कबाड़ी के हाथ सौंपते या नष्ट करते। रूह कांपी थी कभी घर की दरकती दीवारें देखकर।

अपनी प्रेमिका मेरी एन के लिए कोहेन के संगीत की आवाज़ यू आर टू मच इन माई हार्ट आषाढ़ के दिन के रोमानी पार्श्व में समायोजित है। बादल का मेटाफर, ध्वनियां प्रेम कीं और कविता में प्रारंभ और अंत का सामंजस्य विलक्षण भाव उत्पन्न करता है। ऐसी मौन सार्थक कविताएं बिना शोर किए जगह लेती हैं संग्रह में।”वह जो आरंभ ही नहीं हुआ / कभी अंत भी नहीं होगा/ क्योंकि संसार के सभी खूबसूरत प्रारंभ / एक दुखद अंत की भविष्यवाणी साथ लिए आते हैं।”

“अभिशप्त प्रेमिकाएं” में वर्ड्सवर्थ और उसकी बहन के गहन स्नेहिल लेकिन अबूझ रिश्ते पर आधारित कविता का अंत : “वह पगडंडी उसे अब तक याद करती है / जहां उसने एक कवि को सिखाया था/ नवजन्मा दूब को रौंदे बिना / पांव धरने की कला” आप देर तक महसूस करते हैं कविता के पढ़ लेने के बहुत बाद  और सिल्विया प्लाथ के लिए में : “मृत्यु ने उसे मुक्त किया / एक दीर्घ जीवन के बाद भी / उसे ही जीते रहने को/ तुम अभिशप्त हुए” आपको नि:शब्द कर देता है। एक रेखा रेंगती है मस्तिष्क के कहीं अंदर। कोई घूमता रहता है प्रेम को खोजता हुआ आपके अंतस में कई दिनों तक।

‘नदी होना एक यातना है’  कविता अचानक नदी के रूढ़ बिम्ब गति और निष्छलता से कैसे विलग होकर पाठक को अचानक दार्शनिक बिम्ब विधान से रू ब रू करती है नदी के क्रोध और आवेग का परिमाण नापकर और यह कहते हुए कि “कितना कठिन होता है बहते रहना / एक कठिन सदी में/ एक कृतघ्न पीढ़ी के लिए”। नदी अमूमन इस तरह नहीं संजोई जाती है कविताओं में। कवियत्री नदी सूखने नहीं देती, पर्यावरणीय घिसी हुई स्थिति पर बहस लेकर नहीं आती बल्कि उसका  मानवीयकरण कर  नदी के क्रोध और आवेग जैसे संचारी भावों से पाठक को अवगत कराती हैं।

आत्मा के नए दार्शनिक स्वरूप पर नदी के तुरंत बाद आत्मा की रोशनाई कविता है। जो कुछ लिखा नहीं जा सका ” वे किसी अज्ञात ईश्वर को समर्पित/ नि:शब्द प्रार्थनाएं थीं/ जिसमें समाहित थे हमारे सारे भय, संशय और अव्यक्त प्रेम/ उनकी कोई लिपि या ध्वनियां नहीं थीं/ उन्हें आत्मा की रोशनाई से लिखा गया था”। अज्ञेय की उद्घोषणा थी  एक मौन ही है जो कोई भी कहानी कह सकता है, रश्मि भारद्वाज भी मौन को अलग अन्विती देती हैं जो भारतीय वांग्मय में वेदांत दर्शन में व्याख्यायित करने की कोशिश की गई है। कवियत्री कहती हैं ” मौन हो जाना कायरता नहीं/ शब्दों को बेहतर ढंग से बोले जाने की कवायद भर है / सच को बचाने से बेहतर लगा मुझे/ एक इंसान को बचा ले जाना।”

 

शिल्प

———

हर सहृदय काव्य से प्रभावित होता है तथा इस प्रभाव का काव्य की समीक्षा में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। यह प्रभाव काव्य के कई केन्द्रीय तत्त्वों में से एक होता है। भाव, वर्णन या शब्दों के चयन का अतिरेक कविता का काव्य सौन्दर्य नष्ट कर देता है। वक्रोक्ति और अतिशयोक्ति

कविता की भाव भूमि पर अपने गुणों को लेकर हावी हो जाते हैं। भाषा और भाव के अतिरेक का सायास निषेध है  “मैंने अपनी मां को जन्म दिया है” में । रश्मि भारद्वाज इस संग्रह में कविता के इन कमजोर पक्षों से बचती हुई चलती हैं। कोई सूत्रात्मक उद्घोषणा के बिना ही कविता अपने को स्वयं खोलती है और अपनी बात कह जाती है। प्रस्तुत विधान , अप्रस्तुत से अधिक प्रभावोत्पादक है इन कविताओं में।

कथ्य से लेकर साहित्य प्रतिष्ठित प्रतीकों और बिम्ब की प्रस्तुति और पंक्तियों का सघन संयोजन, विरोधी आवेगों की एक ही पदबंध में  निर्बाध प्रस्तुति रश्मि भारद्वाज को कविता के क्षेत्र में बिल्कुल अलग और प्रतिष्ठित करती है।

अलग अलग कविताओं में शब्द शक्तियां चमत्कारिक प्रभाव छोड़ती हैं। कविताओं में प्रयुक्त वर्णन अभिधा और लक्षणा शब्द शक्तियों का उत्कृष्ट उदारण हैं। सायाास रस  या चमत्कारिक भाषा द्वारा सौन्दर्य की निष्पति कविता या कवियत्री का उद्देश्य नहीं परन्तु कविताएं पाठ और पुनर्पाठ में अद्वितीय काव्य आनंद देती हैं और जटिल भावों को ग्राहय बनाती है।

” मेरे लिए तय थीं समझौतों की सीमा / हर अभाव के बीच भी” सघन प्रतिगामी बिंबों का समायोजन काव्य प्रस्तुति को उत्कृष्ट बनाता है। “मैंने परिधि चुनी थी/ जबकि मेरे हिस्से लिखी थी असीम पृथ्वी” परिधियों का चयन बंधन है, पृथ्वी का होना विकल्प। कविता निखर कर अाती है। ” हमारे लिए प्रेम हमेशा अव्यक्त ही रहा/ जो अव्यक्त है वहीं सबसे सुंदर है”।  विलोम का भाषिक संरचना में उत्कृष्ट प्रयोग काव्य संग्रह की विशेषता है: “वह इतनी मुक्त है/ कि उसे बांधना / उसे खो देना है/ वह इतनी बंधी हुई है / कि चाहेगी उसके हर श्वास पर/ अंकित हो तुम्हारा नाम।”

शिल्प का चुनाव कविता के कथ्य और जटिल भावों को बरक्स रखने के लिए किया गया है। द्वंद्व हमेशा विकास देता है और उसका गुंफन सात साहित्य का आनंद। “मैंने अपनी मां को जन्म दिया है” शिल्प के उपयोग में भी बेजोड़ काव्य का उदाहरण है।

 

 

The post स्त्री के सशक्त एकांत और दुरूह आरोहण की कविताएँ appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

Viewing all 1522 articles
Browse latest View live