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एक भू सुंघवा लेखक की यात्राएँ

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राकेश तिवारी के यात्रा वृत्तांत ‘पहलू में आए ओर-छोर : दो देश चिली और टर्की’ पर प्रसिद्ध लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ की टिप्पणी। पुस्तक का प्रकाशन सार्थक, राजकमल ने किया है-

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यात्रावृत्तातों की शैली में रोचक प्रयोग, मीठी व्यंजना, लोक भाषा के प्रयोग, पुरावेत्ता ( जिसे वे स्वयं भू सुंघवा कहते हैं) होने की सूझ-बूझ राकेश तिवारी जी को बाकि डायरीनुमा, बोझिल यात्रावृत्तांत लिखने वाले लेखकों से अलग करती है। जहां ‘सफर एक डोंगी में डगमग’ रोमांचक नौका यात्रा का वृत्तांत था, वहीं 2019 में प्रकाशित ‘पहलू में आए ओर-छोर : दो देश चिली और टर्की’
में इन दो देशों की अंदरूनी यात्राओं का विवरण है । सांतियागो में ‘ कनेक्टिंग वर्ल्ड हैरिटेज साइट्स एंड सिविलाइजेशन’ पर ‘ कोलंबस पूर्व अमेरिकी – एशिया संबंधों और भारतीय मंदिरों  पर उल्लेखनीय प्रेंजेंटेशन के बाद विश्व विरासत वाल परासियो और विश्व के सबसे ऊंचे रेगिस्तान ‘अताकामा-कलामा’ की यात्रा के किस्से अनूठे बन पड़े हैं। एक नये संसार की ओर खुलता वातायन है यह किताब जिसमें लेखक बेहद रोचक बनारसी हिंदी में  जब-तब कमेंट्री देते चलते हैं। मैंने अपनी पिछली रेल यात्रा में चिली वाला हिस्सा पूरा किया था।
दूसरा हिस्सा टर्की  वाला हिस्सा एक आख़िरी टुकड़ा मिठाई का समझ कर सहेजे हुई थी।  भला हो कोरोना लॉकडाउन का।
‘कुस्तुन्तुनिया’ की यात्रा के अभूतपूर्व अनुभव और विवरण। राकेश जी लेखनी में वह रवानी है, वह बनारसी मौज है कि मैं जानती थी इसमें वो होगा जो मेरी कल्पनाओं ने भी कल्पना में न सोचा होगा। टर्की और हगिया सोफिया लड़कपन से मेरी ‘विश लिस्ट’ में रहा है। वे कोई नया वितान रचेंगे यह मैं जानती थी।  यह किताब सिरहाने रखी ललचाती रही। दो दिन पहले हर वक्त नेटफ्लिक्स देखते रहने के कुटैव को त्याग किताब उठा ली। दूसरी बुरी आदत मेरी कि पसंदीदा किताब हो तो मार्कर से रंग देना, जहां हंसना/रोना/ चकित होना पड़े  स्माइली बना दिया। सो मैं किताब इस आदत के चलते किसी को उधार दे नहीं सकती। खैर….
इस किताब में बस पहली ही पंक्ति से आप भीतर उतर जाते हैं और लेखक की वैश्विक प्रसिद्धि महत्ता और विद्वता के बरक्स नितांत सरल पारदर्शी व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते।
जिसने उनकी पिछली किताब ‘ एक सफर डोंगी में डगमग’ पढ़ी होगी वे पाएँगे कि वह युवक जो ‘डोंगी’ चलाने के जुनून को कहां तक ले गया, कि दिल्ली से कलकत्ता पानी के रास्ते चल पड़ा था और आज पुरातत्व के महारथी, आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के महानिदेशक और पुरातत्व की वैश्विक सेमिनारों में प्रमुख तौर पर बुलाए जाने वाले ‘ राकेश तिवारी’ जी ने इस आयु के लंबे अंतराल में भी वह यात्रा उत्सुक खोजी युवक जाने कौनसा कौनसा लेप लगाकर बचा कर रखा है। अपने सहयात्रियों के प्रति आनंदी भाव और उनके रोचक नामकरण का सिलसिला यहां भी है। हर बाज़ार, बस्ती, नदी, नहर के प्रति वही औत्सुक्य और भाषा में वही बनारसी भाषाई कौतुक, लोक मुहावरों के रस में डूबी भाषा जो गुदगुदा जाए पाठक को।
मसलन ‘ लहुरा वीर’ बने सहयात्री।
तुर्की यात्रा जाने की भूमिका भी उतनी ही लाजवाब, रोचक है कि शुरूआत से ही उत्सुकता में डुबोती जाती है पाठक को कि लेखक जी इतनी जगह आमंत्रित हैं पदों पर आसीन होने को। तुर्की जाएंगे ? कहीं दिल्ली – प्रेसिडेंसी कॉलेज डेरा जमाने न चल दें! फिर वीज़ा को लेकर आखिरी दिन तक असमंजस कि हाय वीज़ा न मिला तो!
खैर लेखक जी टर्की पहुंचते हैं, विशेष वीज़ा के साथ। इस्तांबुल यानि पच्छम के गांधी अतातुर्क के शहर। हगिया सोफिया के शहर। वे रोचक जानकारी देते हैं टर्किश इतिहास और पिछली सदी की राजनीति की। अतातुर्क को मैं भी ‘गांधी इन वैल स्टिच्ड सूट’ की ही तरह जानती रही हूं और हगिया सोफिया को सम्यक उदाहरण — बावरी मस्जिद और रामलला की जन्मस्थली का सुचिंतित हल मानती रही थी कि यह चैप्टर बहुत पसंद आया मुझे। इस पुस्तक में एतिहासिक विवरण भी मजे कराते हुए अतीत को अलग तरह से खोलते जाते हैं। फिर चाहे वह ‘ युवा तुर्क’ और ‘ केताब’ जैसे शब्दों की यात्रा हो? या पकवानों को लेकर जानकारी।
लेखक जी, सबकी रुचियों का ख्याल रखते हैं। मेरी हैरानी की शुरुआत तब हुई जब ‘ चूड़ियाँ-बिंदियाँ -हिना’ वाला हिस्सा पढ़ा कि कैसे टर्किश लड़कियों को बॉलीवुड, भारतीय बिंदी और मेंहदी पसंद आती है। जबकि हम देसी लड़कियां तो खुद लड़कपन से तुर्की और अरैबिक मेंहदी डिज़ायनों की दीवानी रहती हैं।
इस किताब की विशेषता यह भी है, अगर आपकी रुचि में जिज्ञासा शामिल हो तो….कि  आँखों देखे हाल के चलते आप तिवारी जी के साथ सेमिनार हॉल में भी जा बैठते हैं। जिन सभ्यताओं के नाम इतिहास पढ़ते सुने थे, उन के पुरातात्विक विशेषज्ञों संग पहली पंक्ति में बैठने, बतियाने में खुद को हैरत में पाते हैं। लेखक के पास हिंदी, उर्दू, संस्कृत, ग्रीक-रोमन-मूरिश – टर्किश ऐतिहासिक शब्दावली, अंग्रेजी, संस्कृत और लोक शब्द-संपदा भर कर है । वे कई जगह अंग्रेजी शब्दों की तो हँसाने वाली आनंदी हिंदी कर देते हैं, टर्की वाले हिस्से में खासतौर से विवरणों में आई उर्दू की चाशनी गला तर करती चलती है। टर्किश पकवानों से यहां से वहां तक भरे दस्तरख़ान के बावजूद सूखी ब्रेड और छछिया भर छाछ पी जाने की शाकाहारी दिक़्क़तों पर हंसी आती रही।
यिल्दिज पार्क की अनूठी सैर से लेकर वैश्विक सेमिनार के ओपनिंग से लेकर टर्की के अन्य स्थानों में हुए सैशनों में दमसाधे बैठा रहता है पाठक । और मंच से लेखक नील, फ्रात, अनातोलिया, मेसोपोटामिया, सेल्यूकिया और मलय सभ्यताओं की बात करते हुए सिंधु घाटी के किनारे आ लगने के बाद हिंद की अस्तित्वहीनता पर सवाल करते हैं तो, पाठक दुखद हैरानी में डूब जाता है कि फिर समूचा भारत? मेरा लेखक से इत्तफ़ाक़ शामिल हो जाता है। क्या सभ्यताओं के बड़े नामों में हमारी गंगा तट पर बसी आदि सभ्यता कहीं रेखांकित नहीं?
कि हमारा देश ऐसा है कि मकई तक को लाने का श्रेय कोलम्बस को मिल जाए। तब लेखक मंच से पावरपॉइंट प्रेज़ेंटेशन के ज़रिये एक के बाद एक सबूत पेश करते है जब प्राचीन कई कालों में हमारे मंदिरों में देवी देवताओं के हाथों में मकई के भुट्टे हाथों में उकेरे गये थे।
मैं मेवाड़ी हूं, और मकई वहां मेक्सिको वालों की तरह पारम्परिक  तौर पर खाई जाती है, खूब उगाई भी जाती है। रोटी, राब, खीच, दलिया, पकोड़े, हलवा, मकई के ढोकले, कच्चे भुट्टे की दाल, बर्फी, पापड़ यानि मकई हर चीज़ में। जबकि राजस्थान के दूसरे सूबों में तो बाजरा, ज्वार चलता है। कोलम्बस के मकई लाने वाली बात पर मेरा भी शक बना रहा था और राकेश जी के तर्कों पर सांस में सांस आई।
यह किताब तुर्की को भौगोलिक, ऐतिहासिक, सामाजिक विविधताओं में खोलती है। दिल्ली की तरह मिट मिट कर बसने वाले इस्तांबुल शहर को नये ढंग से देखने की नज़र मिली। अदीयमान नगर का नामकरण मजेदार लगा। टर्की के कुर्दिश इलाकों की सैर के ज़रिये जाना कि कुर्दिशों का तुर्की राजनीति में ऐसा अहम स्थान क्यों है यह जानकारी हैरत में डाल गयी। आज भी ईराक़ , सीरिया से लगे हल्के की कुर्दिश लड़कियों का संघर्ष सिहरा जाता है।
नेमरूत के पुरावशेष अद्भुत लगे। ईस्ट टर्की की सैर और उसके ग्रीक कनेक्शन ने मेरी जानकारी में बहुत इज़ाफ़ा किया।  इस इलाके के संदर्भ में हेलेन और हेलेनिस्टिक ब्यूटी वाला प्रंसग बहुत ही रोचक लगा। मैं यहां अपनी जानकारी जोड़ दूं कि मैंने कहीं पढ़ा था कि जो हम भारतीय महिलाएं  उलटे पल्ले की, प्लीट डली साड़ी पहनती हैं, वह चंद्रगुप्त की पत्नी देवि हेलेन ही ने ईजाद की थी।
तुर्किस्तान बहुत विविध है, हम सोचते हैं उससे कहीं अधिक, बारह हज़ार साल पुराने गोबेक्ली टेपे ( टीले और स्तंभ) चकित कर गये। सालिम ऊर्फा की सैर भी आँखों देखी सी लगी पुरानी मस्ज़िदें, मीनारें, मुसाफ़िरखाने, गली कूचे…..लेखक हमें सूफ़ियों के ज़माने की कल्पना में ले जाते हैं। अब्राहम की गुफ़ा और अनजिलाह झील! के ज़िक्र के बीच सीरियाई शरणार्थियों के डेरों ने उदास कर दिया।
नफ़ीस नीले मौज़ेक तो तुर्किस्तान की शान हैं, लेखक हमें  इतिहास में गुम इस मौज़ेक के पुराने ग्रीक मौज़ेक म्यूज़ियम में ले जाते हैं। वहां मौज़ेक से बनी बहुत जीवंत जिप्सी गर्ल के फोटो को किताब में देख- सोच कर ही गूज़बम्प्स आ जाते हैं तो हक़ीक़त में कितनी खूबसूरत होगी।
तैमूर का ज़िक्र भी इस किताब में अलग ढंग से आता है। वहशी कि ग़ाज़ी! उसके कारनामे संसार को हिला गये थे। उसे पता था कि मैं इतना बड़ा आततायी रहा हूं कि एक रोज़ दुनिया मेरी कब्र खोलेगी और ….. उसकी घोषणा कब्र के पत्थर पर दर्ज़ है। क्या? यह आप स्वयं किताब में पढ़ें।
तुर्की का एक प्राचीन पुरातात्विक महत्व का सिरा ‘सिल्क रूट ‘ का एक कोना है जिसे अपनी यात्रा में लेखक छू कर आए हैं। यह संस्मरण पढ़ कर मेरे मन में पुरानी किताबों में पढ़  कर जागीं तुर्की और अरबी सरायों की फैंटसी जाग जाती है और तुर्की संगीत का ज़िक्र भर कानों में छंग / ढफ़ / झाँझ और सरोद जैसे बरबत की धुनें कानों में घोल देता है।
रास्तों के तुर्की शहतूत के दरख़्त! आह!
जब किसी आदि सभ्यता के तार दूसरी और खासतौर से अपनी सभ्यता से जुड़ें तो मन ब्रह्मांड बन जाता है और चेतना पक्षी। लेखक इसमें जिज्ञासु और माहिर दोनों हैं और किताब उनकी इन मंशाओं का ख़ज़ाना। हिट्टाइट इतिहास और इंडो आर्यन बोली, गज़ब!! पज़ारी, मुसिफिर, दुर जैसे शब्दों के सफ़र ने पाठकीय हैरत में इज़ाफ़ा किया।
लेखक की अंगोरा की सैर के बहाने अंगोरा वूल का स्त्रोत जाना। टर्की में भी गजब प्राकृतिक, सामाजिक, ऐतिहासिक विविधता है। अनातोलिया और सैंट ऑगस्टस के रोमन मंदिर  वाह ! इस्तांबुल वापसी पर हगिया सोफिया नीली मस्जिद और टर्किश पारम्परिक बाजार …..की सैर।
राकेश तिवारी जी के पास यात्रा – वृत्तांत को जीवंत बनाने वाले अनेक अनजाने, छिपे एतिहासिक संदर्भ तो हैं ही उनके पास अथाह शब्द हैं और उनको बरतने का नितान्त मौलिक ढंग जो उनके यात्रा वृत्तांतों को खास बनाता है। यात्रा-वृत्तांत लिखने वाले लेखकों में उनका नाम भविष्य में अलग से रेखांकित अवश्य होगा।

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रेणु के साहित्य से परिचित हुआ तो लगा खजाना मिल गया!

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यह फणीश्वरनाथ रेणु की जन्मशताब्दी के साल की शुरुआत है। वरिष्ठ लेखक और रेणु की परम्परा के समर्थ हस्ताक्षर शिवमूर्ति जी का लेख पढ़िए रेणु की लेखन कला पर- मॉडरेटर

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रेणु: संभवामि युगे युगे…

            रेणु के साहित्य से परिचित हुआ तो लगा खजाना मिल गया।

लिखने का कीड़ा बारह-तेरह वर्ष की उम्र में कुलबुलाने लगा था। वह दौर ‘कहानी’ ‘नई कहानियां’ ‘कहानीकार’ ‘सारिका’ ‘धर्मयुग’ जैसी पत्रिकाओं का था जिसमें छपने वाली लगभग सभी कहानियां शहरी मध्यवर्गीय जीवन की होती थीं। उस जीवन से मैं सर्वथा अपरिचित था। जिस गंवई जीवन से मैं परिचित था, उसकी कहानियां नहीं मिलती थीं। यह तो जब प्रेमचंद के साहित्य से परिचित हुआ तब जाना कि हमारी दुख और अभाव की दुनिया, खेती किसानी, गाय गोरू भी कहानी के विषय हो सकते हैं। फिर जल्दी ही रेणु से परिचित हुआ तो इस जीवन को प्रस्तुत करने की अधुनातन शैली और सलीके से भी परिचित हुआ।

            आप जितने लोगों को पढ़ते हैं उतनी तरह के लेखन कौशल से परिचित होते हैं। ‘जैक लण्डन’ को पढ़ा तो जाना कि ‘सूक्ष्म निरीक्षण’ लेखन में कैसा कमाल करता है। वे एक नवजात पिल्ले का अपने आस-पास की सर्वथा अपरिचित दुनिया को जानने समझने और उससे तादात्म्य बिठाने का ऐसा वर्णन करते हैं कि उस पिल्ले को वाणी मिल जाय तो वह खुद भी ऐसा चाक्षुष वर्णन न कर सके।

            शेक्सपियर को पढ़ा तो जाना कि संक्षिप्तता का गुण कैसे एक विस्तृत घटनाक्रम को पूरी नाटकीयता के साथ सत्तर-पचहत्तर पेज में समाहित कर सकता है। शेक्सपियर का एक संवाद बीसों साल से मन को आहलादित करता आ रहा है। ‘आथेलो’ नाटक में डेसडेमोना आथेलो के साथ गायब हो जाती है। डेसडेमोना के पिता का एक परिचित उसे यह सूचना देते हुए कहता है कि जितनी जल्दी हो सके अपनी बेटी को उस मूर के चंगुल से छुड़ा लाओ वर्ना वह बदमाश तुम्हें नाना बना कर छोड़ेगा।

            गोर्की को पढ़ा तो पता चला कि भावनाएं कैसे समर्थ शब्दों में बंधकर पारदर्शी और चमकदार हो उठती हैं। ‘वे तीन’ उपन्यास में किशोर इल्या अपनी किशोरी मित्र वेरा के साथ एकान्त में खड़ा है। गोर्की लिखते हैं- वेरा की सुन्दरता को एक-टक हक्का-बक्का खड़ा इल्या ऐसे देख रहा था जैसे शहद से भरी नाद को कोई भालू देखता है।

            ये उन लेखकों के उदाहरण हैं जिन्होंने अपने शब्द सामर्थ्य से अपने भाव संसार को ‘व्यक्त’ करके उसे उत्कर्ष तक पहुंचाया लेकिन रेणु ऐसे लेखक हैं जिनके द्वारा ‘अव्यक्त’ छोड़ा गया भाव संसार ‘व्यक्त’ से भी ज्यादा मुखर होकर पाठक को चमत्कृत करता है। रेणु के पास वह कौशल है कि वे बिन्दु मात्र प्रेम के एहसास को विस्तारित करके पाठक को समुद्र संतरण का सुख दे दें। बिन्दु को समुद्र बना दें और समुद्र की तरह पूरी जिंदगी को आप्लावित किए प्रेम को एक बिन्दु में अॅंटा दें।

            पहली कोटि का उदाहरण ‘मैला आंचल’ से- कालीचरन और मंगला के बीच आकर्षण की जो डोर है उसे कायदे से प्रेम भी कैसे कहें। वे दोनों भी दावा नहीं कर सकते कि उन्हें प्रेम हो गया है। जबान से कभी कहा भी नहीं। न एक दूसरे से न अकेले में अपने आप से। उंगली भी नहीं छुयी एक दूसरे की। कालीचरन अपने पहलवान गुरु के आदेश का पालन करते हुए सदैव औरत से पांच हाथ दूर ही रहा, एक अपवाद के अलावा, जब मंगला बीमार पड़ी। लेखक भी इस ‘राग’ को शब्द नहीं देता। ‘अव्यक्त’ छोड़ देता है। लेकिन राग अनुराग की यह कथा लम्बी यात्रा करती है और सारे पाठक जान जाते हैं कि दोनों के बीच अगाध प्रेम पैदा हो चुका है। वे पृष्ठ दर पृष्ठ इस प्रेम सागर में संतरण करते हैं और चाहते हैं कि यह यात्रा कभी खत्म न हो।

            रेणु की इस सिद्धि का दूसरा उदाहरण उनकी कहानी ‘रसप्रिया‘ है। मिरदंगिया और रमपतिया की दुखांतिकी। जब रमपतिया बारहवें वर्ष में प्रवेश कर रही थी तो दोनों के बीच आकर्षण का जादू पैदा हुआ जो आठ वर्ष तक परवान चढ़ता रहा। फिर जो बिछुड़े तो पन्द्रह वर्ष के लम्बे अन्तराल के बाद मिले। मिले भी कहाँ? मिलते-मिलते रह गये। मिलना ही नहीं चाहा। कतरा कर निकल गये। ऐसा नहीं कि उनके बीच का प्रेम समाप्त हो गया। यह तो उनकी सांसों में बसा था। पर उन्हें बोलना नहीं आता था। रेणु ने तेइस साल लम्बी इस प्रेमकथा को चन्द पंक्तियों में समाहित कर दिया।

            उक्त दोनों प्रसंग गूंगे प्रेम के आख्यान हैं। इनके पात्रों को बोलना नहीं आता। रेणु ही हैं जो इस ‘अव्यक्त’ को ‘व्यक्त’ करने की सामर्थ्य रखते हैं। संक्षिप्तता के साथ सुस्पष्टता का जो क्राफ्ट रेणु ने विकसित किया वह न रेणु के पहले किसी हिन्दी रचनाकार में मिलता है न उनके बाद के। अन्य भाषाओं के बारे में मैं नहीं जानता। इसलिए मैं कहता हूं कि रेणु जैसे रचनाकार कभी-कभी पैदा होते हैं- संभवामि युगे युगे…

            मुझे कभी-कभी दुख होता है कि रेणु यहां क्यों पैदा हुए? किसी पश्चिमी देश में पैदा होते तो उन्हें उनका पूरा प्राप्य मिलता। पूरे विश्व साहित्य में सूर्य की तरह चमकते।

शिवमूर्ति

9450178673

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काहे के भारत देश में आये कोरोनवा रे/ मार-मार के तोहके भगईहें पबलिकिया रे

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आजकल कोरोना को लेकर गीत लिखे जा रहे हैं, दीये जलाए जा रहे हैं। युवा लेखक और इलाहाबाद में प्राध्यापक सुजीत कुमार सिंह ने अपने इस लेख में 1893 में लखनऊ के मुंशी नवल किशोर प्रेस से प्रकाशित ‘महारामायण को याद कर रहे हैं, जिसमें महिलाएँ गीत गा गाकर हैज़ा को दूर भगाने की बात कर रही हैं। पढ़ने लायक़ लेख है- मॉडरेटर

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यह साल 2020 का अप्रैल माह है. आज चैत्र रामनवमी की अष्टमी है. गाँव-देहात में घर-घर ‘नौमी’ की तैयारी चल रही है. घर साफ़ किये जा रहे हैं. गोबर से घर लिपे जा रहे हैं. गेहूँ पछोरा जा रहा है और उसे धोकर सुखाया जा रहा है. माटी के चूल्हे पर आज खाना बनाना मना है. अतः खाना बाहर बनेगा.

               देहातों में यह तैयारी काफ़ी पहले से ही शुरू हो जाती है. नवरात्र आरम्भ होने से पूर्व ही  रात्रि में महिलाएँ स्थानीय देवी (सम्मे माई आदि) की प्रतिमा के आगे बैठकर देवी गीत गाती हैं. चैत्र माह अबोध बच्चों के मन में एक अदृश्य भय पैदा करता है. धुप-अगरबत्ती, फूल-बताशा, सिन्दूर-कपूर वगैरह का वातावरण. तरह-तरह के पूजा-पाठ. तरह-तरह की बातें. तरह-तरह की नसीहतें कि ‘फलाँ के घर मत जाना. उसकी माँ जादू-टोना करती है’ आदि.

                 हिन्दू घरों का संचालन पितृसत्ता के हाथ में होता है. ऐसे ही घरों में रूढ़िवादी हिन्दू औरतें सदियों से रहती चली आ रही हैं. इन घरों में इन्हें परम्परागत पूजा-पाठ, कर्म-काण्ड, व्रत-उपवास आदि मिलते हैं. और मज़ेदार बात यह कि इन घरों में सती-पतिव्रता औरतों के लिए कोई स्थान नहीं है अपितु दरवाज़े पर हाथ में लाठी लिए, मूंछों पर ताव देता हुआ एक उद्दंड क़िस्म का मर्द बैठा हुआ है. पितृसत्ता के नियामकों का मानना है कि एक सच्ची, सती, पतिव्रता, संयमशीला, गृहकार्य में दक्ष और तत्पर स्त्री ही ‘देवी’ कहलाने की अधिकारी है. यहाँ यह जानना चाहिए कि ‘पतिव्रता देवी’ की निर्मिति में उन्नीसवीं – बीसवीं सदी में लिखित स्त्री सम्बन्धी तमाम पुस्तिकाओं, पत्रिकाओं, पाठ्यपुस्तकों, गुटकों आदि का अहम योगदान रहा है. नवजागरण सुधारकाल में दो तरह के स्कूल थे, दो तरह की पाठ्यपुस्तकें थीं. लड़के गणित-विज्ञान पढ़ते थे तो लड़कियां पाकशास्त्र, सीना-पिरोना, गृहविज्ञान वगैरह. कन्या पाठशालाओं में धार्मिक शिक्षा अनिवार्य थी : गोद में ईश्वर हमें बिठा / सच्ची पुत्री हमें बना.

                 आज वाट्सप पर एक विडियो आया जिसमें एक गाँव की कुछ औरतें एक घेरे में बैठकर महावर लगे अपने दोनों पैरों को आगे कर कोरोना सम्बन्धी एक भोजपुरी गीत गा रही हैं. इस गीत में कोरोना एक काल्पनिक और अदृश्य मनुष्य के रूप में चित्रित है. इस अदृश्य मनुष्य ने उनके जीवन में भूचाल-सा ला दिया है. इन ग़रीब औरतों के बच्चे और मर्द रोजी-रोटी के लिए परदेश गए हुए हैं. कोरोना ने देश में ‘लॉकडाउन’ करा दिया है जिसके चलते इनके परिवार के कमाऊ लोग जहाँ-तहाँ फंसे हुए हैं. ससुराल और नैहर के लोग परेशान हैं. औरतें कोरोना के प्रति बहुत ही गुस्से में हैं. अपना दुःख व्यक्त करते हुए वे कोरोना से कहती हैं –

                    काहे के भारत देश में आये कोरोनवा रे !

                    मार-मार के तोहके भगईहें पबलिकिया रे

                    काहें के सबके छोड़ाए नैहर ससुरवा रे

                    गोदिया के लइका हवें देस परदेसवा में

                    हमरे लड़िकवन से ज़बर नाहीं बाटे कोरोनवा रे

                    अईसन मार मरिहें की देखबे ना भारत देसवा में

                    रोई-रोई बितावें दिनवां अऊर रतिया रे

                    काहे के दुनिया हदसावे कोरोनवा रे

                    सखिया सहेली रोवें, रोवें बाबा महतरिया रे

                    रोवें हमरे नैहर के छोटका बिरनवा रे !

                    काहें के भारत देस में …

             इस वाट्सप विडियो को देखते हुए मुझे उन्नीसवीं सदी में लिखी गई तीस पृष्ठ की एक पुस्तिका महारामायण (विशूचिका आख्यान) की याद आ गई. लखनऊ के मुंशी नवलकिशोर के छापेखाने से छपी इस पुस्तिका का तीसरा संस्करण (जुलाई 1893)  मेरे पास है. इसका प्रथम संस्करण कब निकला था – इसका ज़िक्र इस तीसरे संस्करण में नहीं है. जहाँ उल्लिखित भोजपुरी गीत में अदृश्य कोरोना को पब्लिक और पुत्रों द्वारा मारने की बात औरतें करती हैं, वहीं इस आख्यान में मंत्र द्वारा हैजे को खत्म करने की बात की गई है. महारामायण के मुखपृष्ठ पर लिखा है –

              “सर्वोपकारार्थ कर्कटीराक्षसी का आख्यान मन्त्रादि विधि सहित है जिसके पठन

               पाठन श्रवण इत्यादि से विशूचिका अर्थात् हैज़े इत्यादि का भय नहीं होता.”

यह ‘श्री पटिनी मल्ल की आज्ञानुसार भट्ट श्री कृष्ण बल्लभ पंडित महाराज की संग्रह की हुई’ है. इस महारामायण की शुरुआत यों होती है –

                                 श्रीगणेशायनम:

                                    अथ महारामायण

                                       श्लोक

                         गुरंगिरीशंगणपंगोपतिंगिरि धारिणंAA            प्रणम्यबालबोधायलिखामिसुखभाषिकम्AAAA

               भट्टश्रीयुतकृष्णबल्लभसुधीधुर्य्येणसंलिख्यतेराजश्रीजितराजराजपटिनीमल्लार्य्यवर्यज्ञयाAA

               भाषाबालविशेषबोधजननीवाशिष्ठरामायणप्रोक्तानल्पबिशूचिकाभिधमहोपाख्यानसंबंधिनीAAAA   

ब्रज भाषा में लिखित इस लघु आख्यान को वशिष्ठ मुनि भगवान् राम को सुनाते हैं. वशिष्ठ जी ब्रह्मतत्त्व की बात करते हुए कहते हैं कि ‘हे राम ! ब्रह्मतत्त्व एक ही है किन्तु अज्ञानी लोगों को यह अनेक रूप में दिखाई देता है. ब्रह्म तत्त्व की बात कर्कटी नामक राक्षसी ने भी कही है.’ आगे कर्कटी का परिचय वे देते हैं –

            “हिमाचल पर्व्वत के पिछाड़ीदेश में कर्कटी नाम राक्षसी रहै. सो वह विशूचिका की कन्या रहै. बड़ी अन्याय को करन वाली. सो एक ही नग्न रहै. महा डरपावनी रहै. कुहर को वस्त्र पहिरे. श्याम वर्ण वाकी लम्बी बाहें. जाकी विन सों मानों सूर्य्य को पकर लेगी. ऐसी दिखे. अन्धकार में फिरो करे. बड़ो शरीर जाको क्षुधाहू वाको बड़ी रहै. काहू तरे पेट भरे ही नहीं. जीभ जाकी बड़वाग्नि की सी लहलहायो करै. सो वह एक दिन बिचार करत भई जो मैं जम्बू द्वीप में जाय के अनेक मनुष्यों को निगलों तो मेरी यह भूख कछु कसिराय. जैसे समुद्र अनेक जल जंतुन को अपने पेट में धरे है और मेघ कर के मृग तृष्णा सिराय है तैसे यह मेरी भूखहू बुझे.”

                  लेकिन जम्बू द्वीप वासी तपस्या, मंत्र, औषधि, दान, देवपूजा आदि से अपनी रक्षा करते हैं. अत: इनको खाना कर्कटी के लिए आसान नहीं था. वह तय करती है कि इनको खाने के लिए मुझे तपस्या करनी चाहिए. वह कठोर तप में लीन हो जाती है. हज़ार वर्ष की तपस्या के बाद प्रसन्न होकर ब्रह्मा प्रकट होते हैं. ब्रह्मा को देख राक्षसी सोचती है : “जो मैं गुप्तरूप सूची बनके सगरे जीवन के हृदय में पैठ के सब प्राणिन को ग्रसों तब क्रम सों मेरी यह भूख घटे.’’ और वह ब्रह्मा से यही वर मांगती है कि “बिना लोहे की सूई अथवा लोहे की सूई सी होय मैं सब जीवन के हृदय में बैठों.”

                  ब्रह्मा जी कहते हैं : “ऐसी ही होयगी और तू या सृष्टि में विशूचिका होय सूक्ष्म रूप करिके सब जीवन को मारेगी. जे प्राणी दुष्ट भोजन करेंगे, दुष्ट कार्य्य करें दुष्ट रहे हैं दुष्ट देश बास करेंगे विनको तू मारेगी. वाडुकी लकीर सरीको व्याधिरूप विशूचिका होयगी. भले बुरे सब प्राणिन को मारेगी और गुणी की चिकित्सा को यह मंत्र है सो मैं कहूंहूं – ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं ऐं विष्णुशक्तयेनम:A भगवतिविष्णुशक्तेएनन्दहदह पचपचमथमथहनहन उत्सादयउत्सादयदूरे  कुरुकुरु स्वाहा विशूचिकेक्र:क्र:क्र: हिमवंतंगच्छगच्छजीवस:स:स: चंद्रमंडलगतेस्वाहाAA यह महामंत्र है. यासों बायें हाथ में न्यास करि मार्ज्जन करे फिर ध्यान करे.”

                  ब्रह्मा जी उपर्युक्त मन्त्र को जब बता रहे थे तो मन्त्र की शक्ति से कर्कटी भागने लगी थी. इस ‘क्रूर मन्त्र’ के प्रभाव से विशूचिका “मुद्गर सों पिसी जात है और रोगी मानो चन्द्ररसायन के दह में बैठो है. जरा मृत्यु सों दूर है. सब रोग व्याधि मुक्त हैं.”

                       ब्रह्मा के वर से सुई का रूप धारण कर जम्बू द्वीप को ग्रसने के लिए विशालकाय कर्कटी आगे बढ़ती है. वह दसों दिशाओं में भ्रमण करने लगती है. हाहाकार मच जाता है. अब वह आकाश में, धूल में, वस्त्र में, देह में, नदी-सरोवर में, सूखी घास में, अर्थहीन पुरुष में, अचेत जीव में अनेक रूप धारण करके रहने लगती है. यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि विशूचिका दुष्टों को पीड़ा देने में तृप्ति का अनुभव करती है. जैसे दुष्ट मनुष्य मामूली धन के लिए दूसरों को परेशान करता है, वैसे ही विशूचिका दुष्ट प्राणियों के प्राण हरने में आनंद पाती है.

                        वशिष्ठ जी राम से कहते हैं कि यह विशूचिका भी ब्रह्म की सत्ता है. उससे जो पीड़ा होती है उसे भी ब्रह्म की सत्ता ही समझना चाहिए. इतनी कथा सुनाने के बाद सूर्यास्त हो जाता है और सभा विसर्जित हो जाती है. इस महारामायण में छोटे-छोटे कुल सोलह सर्ग हैं – राक्षसी वर्णन सर्ग, विशूचिकोपाख्यान सर्ग, सूची व्यवहारवर्णन सर्ग, विशूचिका विलाप सर्ग, सूची उपाख्यान सर्ग, राक्षसी प्रश्न सर्ग आदि. यहाँ मैं विस्तार में न जाकर संक्षेप में ही कथा का सार बताना चाहूँगा.

                        चूँकि कर्कटी ने ब्रह्मा से सूक्ष्म शरीर माँगा था इसलिए पहले ही दिन मनुष्यों के मांस से वह तृप्त हो गई थी. कुछ वर्षों के बाद वह अपने लघु शरीर से असंतुष्ट होकर विलाप करने लगती है. अब वह पहले की तरह ‘पहाड़ सरीखो’ शरीर पाने के लिए सोचने लगती है ताकि वह ख़ूब रुधिर, मांस, मज्जा खा-पी सके. ‘पहाड़ सरीखो’ शरीर पाने के लिए वह पुनः तपस्या करती है. उसकी सात हज़ार वर्ष की अनवरत तपस्या से इंद्र बहुत विचलित होते हैं. वह नारद से पूछते हैं कि ब्रह्मांड में इतना उथल-पुथल क्यों है? नारद उसके अत्याचारों का वर्णन करते हैं और कहते हैं कि हे इंद्र ! अगर आप उसे वर नहीं देंगे तो वह अपनी “तपस्या के तेज़ सों जगत को जराई देगी.” तब इंद्र वायु को भेजते हैं. वायु सूची से पूछता है कि “तुम यह घनघोर तपस्या क्यों कर रही हो?” प्रश्न पूछते ही सूची के क्रोध का वायु शिकार होता है. वह भागकर इंद्र को सारी कहानी बताता है. इंद्र अन्य देवताओं के साथ ब्रह्मा के पास जाते हैं. ब्रह्मा सूची के पास जाते हैं और वर मांगने के लिए कहते हैं. लेकिन वह कोई वर नहीं मांगती. वह उनसे सुख-शांति मांगती है. लेकिन ब्रह्मा उसे वर देते हैं कि ‘तुम्हारा शरीर विशाल हो. जब तुम्हे भूख लगे तो पापियों को खाओ.’ अब वह विशाल शरीर वाली हो जाती है. छह माह बाद उसे भूख लगती है. अब वह मनुष्यों को नहीं खाना चाहती. राक्षसी प्रवृत्ति छोड़ने पर वायु प्रसन्न होकर उससे कहता है कि “तुम अब मूर्खों को उपदेश दो क्योंकि मूर्खों को उपदेश देने में बड़ा ही पुण्य है. जो मूर्ख तुम्हारी बात न समझे, तुम उसको खा जाना.” वायु की बात सुनकर वह पर्वत शिखर से उतर किरातों के देश में जाती है.

                         किरात-भीलों का राजा और उसका मंत्री रात्रि में नगर निरीक्षण के लिए निकले हुए हैं. कर्कटी उन्हें देख प्रसन्न होती है कि आज भोजन के रूप में दो मूर्ख मिले हैं. लेकिन वह विचार करती है कि अगर ये दोनों गुणी और श्रेष्ठ पुरुष निकले तो इनके भक्षण से मुझे पाप लगेगा. अब वह उनकी परीक्षा लेने के लिए सोचती है. वह अपना भयंकर रूप उन्हें दिखलाती है पर दोनों डरते नहीं हैं. कर्कटी को आश्चर्य होता है. मंत्री राजा का परिचय देते हुए कहता है कि “यह भीलों के राजा हैं. राज्य, प्रजा और नगर की रक्षा के लिए हम दोनों रात्रि भ्रमण के लिए निकले हैं. राजा का यही धर्म है कि वह दुष्टों को दण्ड दे और धर्मात्मा की रक्षा करे.” राक्षसी कहती है कि ‘अगर तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर दे दो तो मैं तुम दोनों को छोड़ दूँगी.”

                        प्रश्न है : “समुद्र जैसा वह कौन-सा वस्तु है जिसमें लाखों ब्रह्माण्ड रहते हैं? मैं कौन हूँ? तू कौन है? कौन चल और अचल है? चेतन और अचेतन कौन है? कौन सूर्य, चंद्रमा और अग्नि के बिना रहता है? सबका नाश कौन करता है? बिना आँख देखे, बिना सुने, बिना हाथ वस्तु को पकड़े कार्य करने वाला कौन है? जगत का रक्षक और नाश करने वाला कौन है?” इस तरह राक्षसी ने वेदान्त सम्बन्धी अनेक प्रश्न पूछे.

                        मंत्री ने विस्तार से राक्षसी के प्रश्नों का उत्तर दिया. उत्तर सुनकर राक्षसी अतीव प्रसन्न होती है. राजा भी उसे ब्रह्म सम्बन्धी कई बातें बताता है. राक्षसी कहती है कि तुम दोनों के उत्तर से मुझे भी बड़ा ज्ञान मिला. अगर यह ज्ञान मुझे पहले मिल गया होता तो मैं हिंसा न करती. वह राजा और मंत्री को ‘विशूचिका मंत्र’ बताती है. मंत्री और राजा भी राक्षसी की बात सुनकर प्रसन्न होते हैं. अचानक राजा कहता है कि ‘अरे देवी ! तू हमारी गुरु है. इसलिए हम विनती करते हैं कि कुछ दिन अपना यह रूप छिपाकर हमारे घर रहो.’ राक्षसी राजा से अपनी भुक्खड़ प्रवृत्ति बताती है. राजा कहता है कि इसकी चिंता मत करो. जो मेरे राज्य में छोटे बड़े चोर, पापी और अधर्मी वध के लायक होंगे, हम उसे तुम्हें सौंप देंगे. तुम आनंद से उन्हें खाना. राक्षसी एक सुन्दरी का वेश धारण कर छह रोज़ राजा के घर रहती है. उतने दिनों में राजा ने तीन हज़ार मनुष्यों को राक्षसी को खाने के लिए दिया. वह इन्हें खाकर हिमाचल पर्वत के शिखर पर विश्राम करने के लिए चली जाती है. छठें वर्ष वह फिर राजा के पास आती है. राजा इकट्ठे किये गए मनुष्यों को उसे सौंपता है. इस तरह राक्षसी का किरात-भील राज्य से मित्रता हो जाती है. भोजनोपरांत आराम करने के लिए वह पर्वत पर चली जाती है और जब भूख लगती है तब राजा के पास आ जाती है –

          “अबहूं वहां को राजा वैसे ही मारबे लायकन को पकर वा देवी के स्थान पै बलिदान करत है. वह देवी उस जगह                    कंदरादेवी मंगलादेवी नाम सों विख्यात हो रही है. वा राजा ने एक सुंदर मंदिर बनवाय वाही पर्वत की तरहटी में प्रतिष्ठा   कर देत भयो. वहां के सब प्राणी वाकी पूजा मानता करत भये.”

           इस आख्यान के अंत में वशिष्ठ मुनि भगवान् राम से कहते हैं –

           “अहो राम ऐसी वह सूची सब लोकन को मंगल की देवन वारी अनेक पापी जनन को भोजन करन वारी भिलवाड़े के सब लोकन को आनंद देत वह राक्षसी परम देवता रूप सों विराजमान हो रही है…अहो राम यह सूची को उपाख्यान हमने सम्पूर्ण तुमको सुनायो है याको जो पढ़ेगो वाको बिशूचिका की पीड़ा कबहूं न होयगी.”

                         

                                             (2)

नवजागरण काल में ही ज्वर स्तोत्र  नामक एक बारह पृष्ठ की पुस्तिका मिलती है जिसमें यह दावा किया गया है कि “रोगी के सामने पाठ करने ही से कैसा हू ज्वर हो छुट जाता है.” इसके कवर पृष्ठ पर लेखक और प्रकाशक की सूचना है : “जिसे पं. जगन्नाथ शर्म्मा राज वैद्य के लघु भ्राता ने अत्यंत शुद्ध कर धार्म्मिक यन्त्रालय प्रयाग में मुद्रित कराया.’’ पुस्तिका देखने से पता चलता है कि प्रथम संस्करण में इसकी पांच सौ प्रतियां छापी गयी थीं. इसमें सन् का उल्लेख नहीं है.

                   आयुर्वेदोक्त औषधालय प्रयाग के मैनेजर बैद्यनाथ शर्म्मा वैद्य ने ‘ज्वर’ शीर्षक से इसकी भूमिका लिखी है. वह लिखते हैं- “सब रोगों का राजा, प्राय: रोगों का साथी, शरीर को शीघ्र नष्ट भ्रष्ट करने वाला अनेक नामों से पूजित महा भयंकर रुद्र श्वास द्वारा निर्गत ऐसे ज्वर का नाम सुन कौन ऐसा बली है जिसके रोम न खड़े हो जाते हों, शरीर थर थर न कांपने लगती हो. इसी ज्वर से विमुक्ति होने के लिए पूर्व भूत वैद्य वरों ने अनेक प्रकार के क्वाथ, चूर्ण, बटी, अवलेह, तैलादि बनाया है. विज्ञान दर्शियों ने आध्यात्मिक शक्ति द्वारा ज्वराकर्षण का अनेक उपाय रचा है. तांत्रिक लोगों ने यंत्र, मंत्र, तंत्र, स्तोत्रादि अनेकश: उत्कट उत्कट यंत्र प्रकाश किये हैं और यथार्थ काम में लाने से इन सबों का प्रत्यक्ष फल देखने में भी आते हैं गो कि आज कल नवशिक्षित गण सिर्फ़ अँगरेज़ी के जानने वाले भारतीय महान् पुरुषों के रचे तंत्र मंत्रादि को तो मिथ्या और जाल समझते हैं किन्तु उसी के छाह में उछाह प्रगट करा कर्नेल आलकट के आधुनिक जालों में निस्संदेह कितने फंस चुटिया कटा बैठे हैं. सच कहा है दूर की ढोल सुहावन सबी को भली लगती है. यह नहीं समझते कि यह हमारे ही घर की विद्या है जिसे हम कई पुस्तों से भूल बैठे हैं. आज उसी को विदेशियों ने अपने अमल में ला तत् द्वारा अनेक चमत्कारी दिखा हमीं को बेवकूफ बना रहे हैं. तंत्र मंत्रादि करने से कोई भूत प्रेतादि आ के काम नहीं करते हैं. मंत्रादिकों में एक ऐसी अपूर्व शक्ति है कि जिसके द्वारा मूर्छित समस्त आभ्यंतरिक स्नायु प्रफुल्लित और हरी भरी हो जाती है जिस्से रोग स्वयं हट जाता है क्योंकि हम लोगों के माफिक हमारे प्राचीन महर्षि गण बेवकूफ नहीं थे जो लिख गए : –

         चलदलतरुसेवा  होममंत्र  स्त्रिनेत्रम  द्विजजन  गुरुपूजा कृष्णनाम्नांसहस्रंA

          मणिधृतपरिदाना न्याशिषस्तापसानां सकलमिद मरिष्ठ स्पष्ठमष्ठज्वराणांAA

पीपल बृक्ष की पूजन, हवन, महामृत्युंजय का जप, विद्वान् ब्राह्मण और गुरुओं का पूजन, विष्णुसहस्रनाम का पाठ, हीरा मोती आदि मणि तथा रत्नों का धारण, रोगानुसार तुलादि अनेक दान और सच्चे तपस्वियों की आशीर्बाद सम्पूर्ण अरिष्ठ और आठों प्रकार के ज्वर को नाश करता है, इसलिए ज्वर ग्रस्त रोगियों के कल्याणार्थ ज्वर स्तोत्र और कुछ मंत्रादि जिसे अनेक बार अजमाया है लिखते हैं.”

 छह पृष्ठों में ‘ज्वर स्तोत्र’ शीर्षक से संस्कृत में 48 मंत्र हैं जिसकी पाठ विधि इस प्रकार बतलाई गयी है – “रोगी के समीप चौका लगाय विष्णु भगवान का षोडशोपचार पूजन कर प्रसन्न मन से नव या ग्यारह बार पाठ करैं.” एक अन्य मंत्र के बारे में बताया गया है कि “पृथिवी में मृत्तिका बिछाय बानर की आकृति मूर्ति बनाय चन्दन अक्षत पुष्प धूप दीपादि षोडशोपचार पूजन कर निम्नलिखित 1000 मंत्र ज्वरार्त्त रोगी के सामने जप करै पश्चात् बिसर्जन करै वह मृत्तिका पुष्पादि किसी कूप या तालाब या नदी में फेंक दे इसी प्रकार नव या ग्यारह दिन करने से कैसाहू प्रचंड ज्वर क्यों न हो उतर जाता है रोगी को अच्छे मकान में पथ्य सहित रखना चाहिए.” मंत्र इस प्रकार है –

           ॐ ह्रां ह्रीं श्रीं सुग्रीवाय महाबलपराक्रमाय सूर्य्यपुत्राय अमिततेजसे एकाहिका द्वयाहिक त्र्याहिक चातुर्थिक महाबल भूतज्वर भयज्वर शोकज्वर क्रोधज्वर बेतालज्वराणां दहदह पचपच अवतरअवतर कलितरव महाबीर बानर ज्वराणां बंधबंध ह्रां ह्रीं ह्रूं फट् स्वाहाAA इत्यनेन ज्वरागमनसमये ज्वरस्रास्यतेAA

    उपर्युक्त पुस्तिकाओं को पढ़ने से पता चलता है कि औपनिवेशिक उत्तर प्रदेश में प्लेग, हैजा, ज्वर, चेचक, फ़्लू आदि महामारियों को राक्षस, असुर, दैत्य, चुड़ैल आदि मान लेने की परम्परा रही है. राक्षस वगैरह  होने के कारण औपनिवेशिक जनता ने यह भी मान लिया कि तंत्र-यंत्र, मंत्रोच्चारण, पूजा-पाठ आदि ही इनका इलाज़ है. इसीलिए तथाकथित नवजागरण काल को तत्कालीन लेखिकाओं (यशोदा देवी, रामेश्वरी नेहरू आदि) ने ‘अज्ञानान्धकार युग’ कहा है. अब आप मत कहियेगा कि यह आज़ाद भारत है और हम लोग इन सब बातों से काफी आगे बढ़ चुके हैं व अन्धकार से निकल चुके हैं. मुझे लगता है कि हम सब अभी भी वहीं ठहरे हुए हैं.

            हिंदी की आरंभिक कहानियों में प्लेग की चुड़ैल  नामक एक कहानी मिलती है. कहानीकार की निग़ाह में प्लेग महामारी न होकर एक चुड़ैल है. अक्टूबर 1925 के हिन्दी मनोरंजन में प्रतापनारायण श्रीवास्तव की छपी कहानी प्रतिशोध में दीना डोम का चेचक-पीड़ित लड़का इसलिए मर जाता है क्योंकि मंदिर का पंडित ‘देवी जी का नीर’ देने से मना कर देता है. प्रेमचंद की कहानी मंदिर (चाँद, मई 1927) में भी ‘देवी मनौती’ है. रामेश्वरप्रसाद श्रीवास्तव की कहानी अछूत (विशाल भारत, सितम्बर 1930) हैजे की भयावहता को दिखाता है. माधुरी (1932) में प्रकाशित पंडित तारादत्त उप्रेती की अछूत शीर्षक कहानी में सुखिया के ज्वर पीड़ित लड़के को पंडित भगतराम अपने मंत्र द्वारा ठीक करना चाहता है लेकिन वह असफ़ल होता है.

              जब मैं स्नातक का विद्यार्थी था तो ऐसा लगता था कि जनता ज्यों-ज्यों शिक्षित होती जायेगी   त्यों-त्यों अन्धविश्वास, छुआछूत, ढोंग-ढकोसले आदि खत्म होते जायेंगे. लेकिन हिन्दुस्तान में छपे इस खबर को पढ़कर आज बहुत उदास हूँ. अखबार ने मुखपृष्ठ पर कोरोना को ‘असुर’ का दर्ज़ा देते हुए जाने-माने लेखक अमीश त्रिपाठी के हवाले से लिखा है : “शक्ति की अधिष्ठात्री देवी माँ हमारी रक्षा के लिए युद्ध लड़ती हैं … जब-जब भक्तों पर संकट आता है, माँ दुर्गा हमें उबारती हैं. मौजूदा परिदृश्य में देखें तो कोरोना वायरस महिषासुर के रूप में खड़ा है.”

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एडुवर्ड हेरेन्ट की की कविताएँ

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एडुवर्ड हेरेन्ट की की कविताओं का अनुवाद किया है युवा कवयित्री अनामिका अनु ने–
=====
 
आर्मेनिया
 
१.
***
वाॅन गाॅ ने अपने कानों से मुक्ति पा ली
क्योंकि उसे इसकी जरूरत नहीं थी
वह असाधारण लोगों को पहले ही
सुन चुका था
 
अल-मैरी वास्तव में इतना ज्यादा देख सकता था
कि उसकी आँखें
अब और अधिक महत्व नहीं रखती थी
 
चाॅरेन्ट का कोई क़ब्र नहीं था
क्योंकि
वह अब तक मरा नहीं था
 
मैं लोगों का अभिवादन बायें हाथ से करता हूँ
क्योंकि
दाहिने हाथ से मैं पहले ही
प्रभु की इबादत कर चुका हूँ
 
 
2.ग्यारहवां आदेश
 
जब आप प्रेम को अपने हाथ से जाने देते हैं
तब अपनी आत्मा की कमजोरियों
के लिए ताली बजाएं
 
 
3.
मैं जानता हूँ
किसी दिन
मैं उस रहस्यपूर्ण
रात्रिभोजन से उठ जाऊँगा
अपने पिता के
क्षत विक्षत पदचिन्हों
को पहन और
अपनी छोटी सी जेब को
अपरिमित प्रेम से भर…
मैं सोचता हूँ क्या मेरे दिन
इतने अधिक असहनीय प्रकाश को माप सकेंगी
 
4.
मैं कवि हूँ
और गरीब
मैं देवपरियों की देखभाल करता हूँ
 
5.मैरी मैगडालीन
 
वापस दो वे पत्थर जो
मैंने तुम पर फेंके थें
मेरे घर में कई खाली सुराख़ हैं
 
6.
जीवन मुझे मेरे सारे विवरणों
के साथ जी रही है
मैं उसके चारों तरफ घूम रहा हूँ
जैसे ब्रश रंग में।
 
तेरे कैनवास में
जापानी सिक्कों की तरह छिद्र है
उनसे लगातार बाहर की ओर
एक-एक करके मुक्त
होता मेरा प्रेम।
उनकी विदाई
मेरे आश्चर्यजनक क्षति है।
 
मेरी बजती तालियां
पहले से और अधिक भारी हो गयी हैं
इसलिए मैंने उन्हें हाथों में संग्रहित कर रखा है
जैसे मुड़े कागज का नोट
जो अंत यानि मृत्यु के लिए रखा गया हो
 
ताकि मुखौटे का पुनर्निर्माण हो सके
उसमें भी छिद्र हो जाएगा
वैसे ही जैसे कैनवास में हैं
मैं हमेशा के लिए बजता रहूँगा
और ज़िन्दगी मुझे सारे विवरणों
के साथ जिएं जाएगी।
 
 
7.
चिड़िया पिंजरे के चारों तरफ बेचैन चहलक़दमी
कर रही है
यहां उसने आज़ादी का स्वप्न छोड़ा था
8.
 
मैंने अपनी अनुपस्थिति के
हर स्थान पर तुमसे अपनी झिझक को बो दिया है
फिर भी किसने मेरे शब्दों के सुगंध
को छलनी/तार तार कर दिया है
मुकम्मल ख़रोंचें हैं मेरे माथे के चौकस सपनों के भीतर,
अगर तुम्हारी चाह मेरे रक्त को अनुदित करने की है
तो मेरी कविताओं से जाॅब के पत्थर संकलित करो
वे तुम्हारे बेटों की अप्रत्यक्ष पीड़ाओं की रहस्यमय कोशिकाएं हैं
 
 
 
9.
आँसू की प्रभु में सबसे अधिक आस्था है
यह प्रायः उम्मीद के चर्च का दौरा करती है
 
10.
हम ने कविता खायी है
तब धुंध चुप्पी के साथ एक कप काॅफी भी थी
मृत्यु से दूर
रंगों को चूसते
और शब्दों पर लगाए टकटकी
 
11.
मैं मौन की पपनी एक एक करके
तोड़ रहा हूँ
अपनी प्रार्थनाओं की मरम्मत करने के लिए
जो शब्दों के सूक्ष्मभावान्तर से फट गयी थीं
अब ये सूक्ष्म अंतर ध्वनि से भी अधिक प्रबल…..
 
अब मैं उम्मीद के चर्च में नंगे पाँव घुसा
मेरे भविष्य के आवाजों को मेरे पदचिन्ह रंग न दे
जबकि मेरे पदचिन्ह
मेरी प्रेम वंदना है
जो कभी खत्म नहीं होगी
क्योंकि इसने खुद को कभी रंगा नहीं
और अब प्रधान रंग उभरा है
ये प्रेम अनुभूतियों की कविता हैं
कवित्व शक्तियां स्त्री में तब्दील नहीं होती
 
 
 
 
 
 
 
 

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अनघ शर्मा की कहानी ‘हिज्र के दोनों ओर खड़ा है एक पेड़ हरा’

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युवा लेखक अनघ शर्मा किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उनका कहानी संग्रह ‘धूप की मुँडेर’ राजकमल से प्रकाशित हुआ है और उसकी अच्छी चर्चा हुई है। यह उनकी नई कहानी है-

=====

1

जाने किन अनदेखे, अदृश्य बंजारों के रेवड़ धूल उड़ाते हुए उसके सामने से ऐसे गुज़रे कि आसमान में धूल का रेला देर तक ठहरा रहा। दिन भर की उमस में उसे इंतज़ार था कि शाम तक कुछ बूंद बरस जायें तो धरती की फटी एड़ियों में नमी उतर जाएगी साथ साथ उसके रूखे मन में भी। देर तक रुकी हुई धूल ने उसके खुले सर में उतर कर बालों में अपनी जगह बनानी शुरू कर दी थी। दिन मिट्टी से सना हुआ कब का पार उतरा उसे पता ही नहीं चला। मन्ना ने गर्दन घुमा के देखा दूर तक रात की छाँव अपनी सज-धज में पेड़ों की शाखों में सोने के लिए अपना घोंसला डालने लगी थी। एक थरथरी सी उसके कंधे पर से फिसल कर पैरों के पास जा गिरी। मन्ना ने दूध की बाल्टी सरकाई, गाय के घुटने से धोती का फेंटा खोल नाँद के पास ले जा कर खूंटे से बांध दिया। मन्ना ने एक नज़र उठा कर आकाश की तरफ देखा। भटकते भटकते अब जा कर भूरे बादल रुके थे। देर की थमी हुई आस पर अब जा कर दो बूंद बरसी थीं। गाय रम्भाई, कुछ बूंदें दूध की बाल्टी में जा गिरीं। मन्ना ने छप्पर से हाथ निकाल हथेलियों के चुल्लू में बरसते पानी को भरा और मुंह पर मार लिया, चेहरे पर जमी रेत की परत धीरे धीरे पिघल कर बहने लगी थी। उदास हवायें उसको सहला कर अपने-अपने ठिकाने पर लौटने लगी थीं। मन्ना का मन बार-बार पीछे उसी तरफ़ पलटने लगा था उसी रेखा पर जहाँ से एक तरफ़ वह आगे बढ़ गया था और वो पीछे लौट आई थी। घेर से लग कर ही तो था लाल कमरा। घर की चारदीवारी में घुसने से पहले घेर से लगे इसी लाल कमरे को पार करना पड़ता था। इस कमरे को हर दो तीन महीने बाद खोला जाता, इसके कच्चे फ़र्श को लीप कर इसे वापस बंद कर दिया जाता था। पहले इसे बीसू की माँ लीपती थीं और अब कई सालों से वह। इस कमरे के फ़र्श की रूखाई अब मन्ना के हथेलियों में उतर आई है। ये कमरा कभी चौका बना कभी भंडारघर तो कभी बरसातों में गैया के बंधने की जगह तक बन गया पर गिरहस्ती में जुड़ नहीं पाया। इसी कमरे में बियाह के बाद बीसू की माँ ने उसे पहली बार देखा था। घी भरा दिया जिसके ऊपर सोने की चीज़ रखी जाती है, ऐसे दिये में नयी बहू का मुँह देखा जाता था। बीसू की माँ के हाथ में दिया था जिसके मुहाने पर सोने के पतले तार से बनी नथ थी। बीसू की माँ ने उसकी छाया देखी और उसने डोकरी के चेहरे का बदलता रंग देख लिया पल भर में ही। उसका हाथ तुरंत ही उल्टे गाल पर चला गया। ठुड्डी से ले कर कान तक एक भूरा निशान था। माई कहा करती थी कि……

“लहसुनिया खिल गया है। किसी किसी के पीठ पर, कमर पर खिलता है तेरे गाल पर निकल आया है लड़की। चिंता मत कर बाजदफे हल्का पड़ जाए।”

हल्का तो क्या पड़ता उल्टे धीरे-धीरे गहरा होता गया। साथ साथ मन्ना के मन पर एक लकीर खींचता गया ठीक वैसे ही जैसे नदिया के तट पर खड़े पेड की छाया पानी पर झलक जाए बार-बार। ऐसे ही मन्ना इस निशान को हर पल आँखों के सामने देखती रही। घर भर में सब ताईयों-चाचियों की बेटियां चौदह-पन्द्रह की उमर तक ब्याह के चली गयी, बहुओं ने आ कर अपने-अपने आँगन, घेर, चौके संभाल लिए। एक वही रह गयी उमर के कांटे पर बंधी घिसटने को। उन्नीस बीतने तक माँ को लगने लगा थी कि मन्ना भी गाँव की रामदेई बुआ की तरह बिन बियाह के  अकेली रह जायेगी और फिर तीस लगते लगते उन्हीं की तरह मर-खप भी जाएगी । वो तो जाने कैसे कहाँ से बीसू का रिश्ता आ टकराया उससे। वो बेचारा भी उसी की तरह उमर लांघ रहा था तो भाग्य ने सोचा कि अगर लगंड़ी टांग खेलनी ही है तो क्यूँ न दोनों अकेले खिलाडियों को एक पाले में डाल दिया जाये।

मन्ना ने जा कर तखत पर दूध की बाल्टी रख दी। तखत के दूसरे कोने पर बीसू की माँ लेटी-लेटी बरसते पानी को पेड़ों पर गिरते हुए देख रही थी।

“आज दूध कम दिया है गैया ने।” मन्ना ने कहा।

“बारिस के मारे चढ़ा गई होगी।

“डोकरी जे बताओ रोटी क्या बनेगी। बत्ती न आनी अब और संजा को देर से बनाने पर कीरे झरेंगे।

“जो चाहे वो बना ले। मुझे तो बस दो रोटी दूध में मींड कर दे दिओ। वह वैसे ही लेटे हुए बोलीं।

मन्ना ने देखा कि बूँदें तो हल्की हुईं पर बादल और गहरा गए।

“अच्छा हुआ अबके जल्दी ही उठऊवल चूल्हा बना लिया वरना कित्ती दिक्कत होती ऐसी लौंद की बरसात में।”

बादल बरसात की रात यूँ भी जल्दी गहरा जाती है और इस घर में तो रात सालों से पसरी हुई है। सांझ से झिरझिर बरसते पानी के बाद भी अंदर कमरों में उमस थी। उजाले पाक की बरसती रातें अँधेरी हो कर भी सुहावनी लगती है। मन्ना ने लोई खोल कर तखत पर लेटी बीसू की माँ को ओढाई और ख़ुद खाट पर लेट अपनी मोटे सूत की धोती का पल्ला सर तक खींच लिया। अगल बगल लेटी इन औरतों को देख कर कोई नहीं जान सकता कि उनके मन में क्या चल रहा होगा। आँखों में कौन से सपने होंगे।

ऐसे अंधेरों में आँखों में सिवा अतीत के कुछ और आ कर अपनी जगह बना भी नहीं सकता, पैठ नहीं सकता।

2

मन्ना का मन चकरी पर बंधा कितने साल पीछे लौट गया था वह ख़ुद भी नहीं जान पाई। नींद में उसे लगा जैसे चौधरी की ठार वाले मंदिर से किसी ने आवाज़ लगाई हो। आँखों में एक नक्शा उभर कर सामने खड़ा हो गया था। ठार अपने बड़े दिनों में असल में अमरुद का बगीचा थी। जिसके कम ऊंचाई के कोई सवा सौ-डेढ़ सौ पेड़ साल भर अमरुद से लदे रहते थे। इस बगीचे में अंदर को जाने पर बेर के झुरमुटों के पास शिव का मंदिर था। एक बड़े ऊंचे चबूतरे की चारदीवारी के भीतर घिरा हुआ मंदिर। कमर- कमर की उंचाई के चांदनी के पौधे जिन पर सफ़ेद फूल खिले रहते थे उन से चिपक के घिसी ईंटों की आठ सीढियां खड़ी थीं जिन्हें फलांग कर ही मंदिर के अहाते में जाया जाता था। भीतर एक ईंटों वाला बहुत बड़ा आँगन था जिसके उल्टे हाथ पर चार कमरे बने हुए थे और आगे बढ़ने पर छत को जाने के लिए सीढियाँ। आँगन में सामने एक कुआँ था जिस पर पीली सी एक रस्सी से बंधी एक लोहे की बाल्टी रहती थी, जिसमें बाद में मोटर लगवा के पाट दिया था। उसे याद है कितनी ही बार उसने चक्के पर बंधी रस्सी को ढील दे कर कुएं से पानी निकाला था। सर्र से हवा को काटती बाल्टी कुएं में झूमती हुई जाती और छप से पानी की सतह को चूम लेती। इसी कुएं के सामने था चिकने फर्श वाला एक बड़ा कमरा जिसके बाहरी आधे हिस्से में छोटा चौकौर बरामदा निकाल रखा था और जिसकी छत में लोहे की ज़ंजीर से बंधा एक पीतल का घंटा टंगा हुआ था। इस बरामदे के बाद कमरे के बाक़ी बचे हिस्से में अँधेरे में डूबा मंदिर था जिसके चीकट फर्श में बीचोंबीच काले पत्थर का शिवलिंग था, उसके चारों ओर पार्वती, कार्तिक और गणेश की सफ़ेद पत्थर से बनी मूर्तियाँ थीं और दीवार के आलों में दूसरे देवी- देवता विराजे हुए थे। इस ठन्डे फ़र्श पर जेठ की दुपहरों में कई बार मन्ना और हेमलता यूँ ही घंटों पड़े रहते। मंदिर के पीछे एक मिट्टी से ढकी कच्ची सड़क दिखाई देती थी जिसके दोनों तरफ़ तलैया थी। इस तलैया में आधे साल जाने कौन सा पौधा खिला रहता था जिसके चौड़े पत्ते पानी को अपने अंदर छुपाये रहते थे। बाक़ी के आधे साल हरे रंग की काई जिसकी छोटी छोटी बिंदी के आकार की ढब उसका मन ललचा देती थीं। मन्ना का मन बार-बार करता की वो उस गंदे पानी में हाथ डाल काई की एक हरी बिंदी निकाल अपने माथे पर लगा ले, पर माई के डर के से चाह कर भी उसकी और हेमलता की कभी हिम्मत नहीं पड़ी की तलैया के पानी को छू भी सकें। अब तो माथा कितने सालों से ख़ाली पड़ा है।

बीसू के जाने के बाद यूँ भी उसकी नींद कम हो गयी थी पर पिछले कुछ सालों से उमर के पचासवें बसर में आ कर बची खुची नींद की जगह जाने कौन सा इंतजार बैठ गया है। अम्मा के सभी इंतज़ार बीसू के जाने के बाद काले पड़ गए थे। उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि उसके इंतज़ार का रंग कौन सा है। इंतजार का कोई साफ़ साफ़ सा रंग नहीं होता। ये मौसम की तरह नहीं कि कभी हरा, कभी धूसर। इंतज़ार की डाली हरी और पत्ता पीला होता है। पीला हो कर भी ये पत्ता टूटता नहीं है बल्कि लम्बे वक्त तक डाली से टंका रहता है। इंतज़ार की गर्दन में कठपुतलियों की तरह हमेशा दर्द बना रहता है, जिनके कंधे लगातार उठते-गिरते रहते हैं। ठीक इसी तरह इंतज़ार कभी रात को आँखों में तो दिन में हाथों में आ कर ठहर जाता है। टीस का एक झटका उसकी गर्दन में उठा और शांत हो गया। उसे ऐसा लगा कि उसकी याद में से कहीं योगेन्द्र का हाथ निकला उसे सहलाया और फिर उसी खोह में वापस चला गया। रात जाने कितनी बीती कितनी बची पता ही नहीं चल रहा था। चौके के सहारे खड़े अमरुद के पेड़ से गिरती बूंदों की आवाज़ उसके कानों से टकराती रही फिर अचानक वह आवाज़ उसकी शादी में गीत गाती हेमलता की आवाज़ में बदल गयी।

“छोरा मोहे दे तीर-कमान/ अटे पर बुलबुल बैठी है।

सास मेरी सो गई, ससुर मेरे सो गए

मेरी लग गई आँख, बलम को बुलबुल ले गई रे।

सास मेरी ढूंढे,ससुर मेरे ढूंढे।

मेरा ढूंढे ठेंगा रे, सुबह को और करुँगी रे।

छोरा मोहे दे तीर-कमान…………….।”

3

 “अटे पर बैठी बुलबुल तो कब कि उड़ गयी थी। ख़ाली कमान थामे छोरा धारासार बरसात में उसी अटरिया के नीचे खड़ा था जिस पर सालों पहले बुलबुल बैठी थी और अब जिसका पलस्तर हवा के झोंकों के संग उस लड़के के सर पर गिर रहा था। ये तीर जाने कितने सालों बाद आ कर बुलबुल को बींध गया था।” उसने सोचा।

पुरवा का एक झोंका हड्डी के भीतर तक उसकी हड्डी को झिंझोड़ गया। उसकी खुली पीठ पर जहाँ-तहाँ खटिया की निवाड के निशान पड़े हुए थे। उसने सर के नीचे से सरहाने की तरह लगाई लोई निकाली, झटक कर बदन पर डाली और उनींदी सी बडबड़ाई ……..

“ ऐ डोकरी ज़िन्दा हो की निकल लईं?”

“ अभियाल न मर रही।” बीसू की माँ ने पलट कर जवाब दिया।

दूर मंदिर से घंटियों की गूँज हवा पर बैठ वहाँ तक चली आई थी। दिन निकलने लगा था पर अँधेरा अभी भी तना हुआ था। उसने देखा की आँगन के दूसरे कोने में गीली कच्ची मिट्टी पर खड़ी गाय उसकी ओर बेचैनी से देख रही थी।

“डोकरी उठो साढ़े छ बज गए। मंदिर के पट खुल गए। गैया सारी रात खड़ी रही है, बारिश से ज़मीन गीली हो गई तो शायद बैठी ही नहीं। तुम नहा के मंदिर हो आओ तब तक में सानी लगा कर चाय चढ़ा दूंगी। आते में हनुमंतनी से बोलती आना शाम को चीका मिट्टी पहुँचा जाए। चूल्हा लिपा ही नहीं कितने दिन से।” उसने बीसू की माँ से कहा।

वह उठी सानी लगाई, चूल्हा बरामदे के कोने से बाहर खींच कर सुलगा दिया। सीले कंडों में आंच फफक के बढ़ती और धम्म से बुझ जाती। हवा में नमी के साथ अब चूल्हे के धुएँ की महक घुल गयी थी। उसे एकाएक माई के हाथ की गुड़ डली चाय याद आ गई जिसमें गुड़ के साथ साथ कंडों के धुएँ की गंध भी मिली रहती थी। मन दौड़ता हुआ वापस उसी वक़्त में लौटने को बेचैन हो गया। याद के खडंजे पर तेजी से दौड़ने पर मन के तलुए कैसे कट फट जाते हैं क्या उसे मालूम नहीं था। मालूम था, ख़ूब मालूम था कि हर बार वापसी पर कैसे जी सालता रहता है। फिर भी ललचाया हुआ जी हुन्डेली बछिया सा खूंटा उखाड़ बार बार पीछे भागता रहता और आँखों में धूल भर जाती।

“सुना लड़का थोड़ा लंगड़ा के चलता है, चाची?” हेमलता ने पूछा।

वह चाय का कटोरा हाथ में लिए बैठी रही। उडती भाप चेहरे को छू कर उसे तमतमा रही थी। वह कुछ कहती उससे पहले माई बोल बैठीं।

“तुम्हाए बहुत पेट में मरोड़ उठती हेमा। बिन बात की बात बनाये दे रहीं। कहीं लंगड़ा न है लड़का। सुबह से संजा तक फैक्ट्री में मशीन पर पेडल मार कांच गलाता है सो वाई से जरा लहक है। और ये न दिख रही तुम सब को कि हमाई मौड़ी के घर गैया, भैंसे हैं। दूध-दही, फल-फलारी सब है। ऊपर से गुजर बसर को अपना डेढ़ बीघा खेत है।

“रांड के पाँव सुहागन लागी, है जा बहना मोसी।” तुम्हारा यही हिसाब है चाची। डेढ़ टांग के आदमी के डेढ़ बिलांद खेत में काम कर कर के एक दिन ये ख़ुद भी डेढ़ टांग की हो जाएगी। हेमलता माई से बोली।

“अच्छा अब चुप करो तुम। चौक पर ले जा कर बिठाओ इसे। तेल चढ़ेगा अभी और फिर हरदी, देर मत करो।” बर्तन समेटते हुए माई ने झुंझला कर कहा।

बीता हुआ समय कैसे सालों बाद भी जगमग-जगमग करके आँखों से चल के यूँ ही गुज़र जाता है। मन्ना बैठे बैठे यही सब सोचती रहती अगर बीसू की माँ की आवाज़ उसे चेता नहीं देती।

“अरे! कंडा में गिर रही चाय।”

उसने चौंक कर चूल्हा देखा। पल्ले से पकड़ चाय का हत्ता नीचे उतारा और चिमटे से राख कुरेद उस पर दूध की हांड़ी रख दी। पेड़ से एक अमरुद चौके की टीन पर गिर हवा से सरकता हुआ उसके पैरों में आ गिरा। फल पंछियों की चोंच से कटा-फटा था।

“नासपीटे हर चीज का सत्यानास कर देते हैं।” उसने फल को कूड़े में फेंकते हुए कहा।

4

गेंदे के फूलों की लाल-पीली सी चादर ढलते दिन के उजाले में खेत में बुझती आंच की लपट सी दिख रही थी। मन्ना ने देखा एक पेड़ के सहारे पीठ टिकाये योगेंदर माली से बात कर रहा था। एक पल को उसे लगा कि पेड़ के सहारे बीसू खड़ा है जिसने मन्ना को देखा और फिर मुँह फेर लिया। कितनी साफ़ झलक थी उसकी जैसे योगेंदर में कम उमर का बीसू ही उतर आया हो मानो। वह वहीं से वापस मुड़ गयी। जाने वह उसे देख पाया या नहीं। जब से बीसू की माँ ने उसे घेर की जगह यहाँ खेत वाले कमरे में रहने भेज दिया है तब से घर उसके लिए सांय-सांय करता है। एक वक़्त की रोटी देने के बहाने वह रोज़ उससे मिलने आ जाती है। पर आज ऐसे यूँ ही बिना मिले लौट जाएगी तो क्या वह सारी रात इंतज़ार करेगा या थक हार कर सो जायेगा? उसे ख़ुद का ही प्रश्न उलझन में डाल गया।

जब वह घर में घुसी तो बीसू की माँ छोटे बरामदे में मोरी के सहारे बैठी-बैठी कपड़े धो रही थी। मन्ना ने देखा कि उसे देख कर बीसू की माँ का चेहरा तमतमा गया था।

“डोकरी छोड़ दो कपडे। सर्दी बैठ जाएगी जो जाड़े-पाले रात में कपड़े धोओगी।” मेरी तबियत सही नहीं लग रही भियाल घंटे भर में उठ कर धो दूंगी। कह कर वह आंगन से होती हुई चौके की तरफ़ चल दी।

“मिल आई?? बीसू की माँ की आवाज़ उसके कानों में छन्न से बज कर उसके मन में उतर गई।

मन्ना ने देखा बल्ब की पीली रोशनी में उनका चेहरा कितना रूखा, रंग उड़ा लग रहा था। उसने पलट कर कुछ भी नहीं कहा। इनदिनों उसने एक चुप्पी सी साध ली थी जिसे अब कुछ भी कोंच कर नहीं जाता था।

……………………………………….

जेठ की लहकती लू में सारा घर खरबूजे और ताज़े लीपने की गंध से गुंथा पड़ा था। चौके के एक कोने में बैठी माई चूल्हा कुरेद रहीं थीं और बाबू वहीं खड़े थे। बाबू के  माथे से पसीना इतना नहीं ढरक रहा था जितनी कि आँखों से बेचैनी। बाबू चौके की चौखट से लगे लगे आँगन लीपती भगवानदेई जीजी को देख रहे थे। तीन बेटियों में सबसे बड़ी भगवानदेई अपने दोनों बच्चों सहित मायके लौट आई थी। दूसरी महादेई गौने कि राह तकती अभी भी उन्हीं के चौका-बासन से जूझ रही थी। सबसे छोटी मानदेई (मन्ना) बिन बियाह के बिरानी हवा सी सांय-सांय दिन भर घर में घुमती-फिरती अपनी उमर लाँघ रही थी। उसने दूर से देखा कि बाबू ने माई से कुछ कहा और माई के चेहरे को हल्की हँसी ने ज़रा देर के लिए उजाले से भर दिया। पिछले कई साल में जब से भगवानदेई जीजी वापस आई हैं आज पहली बार माई ज़रा खुल के हँसी थीं। उसी रात माई उसे अपने हंसने का कारण बता गयीं थी।

“हिरनगाँव से एक सम्बन्ध आया है। बाबू बोल रहे तुम्हाये की परसों जा कर देख के आयेंगे लड़का। एटा वाले भाई साहब ने बताया है तो वह भी जायेंगे साथ। यहीं उसायनी में फैक्ट्री में काम करता। पर????”

“पर क्या??” उसने पूछा था।

“भाई साहब बता रहे थे तुम्हाये बाबू को कि ज़रा लहक है लड़के के एक पाँव में वैसे शक्ल- सूरत अच्छी है और घर मकान भी ठीक ही है। सब सही रहा तो देवठान पर देखा जायेगा।”

“पाँव में लहक में??” उसने पूछा था।

“मौड़ी तुम्हाए भी तो चेहरा पर दाग है।”

माई अपनी किसी औलाद पर मौका बे-मौका मार करने से चूकती नहीं थीं।

5

समय जिनकी भी गाथायें सुनता है उन्हीं के हिस्से में सबसे ज़्यादा बेईमानी करता है। पेड़ों को पानी दे कर अक्सर उन्हीं के माथे सूखा मढ़ देता है। रेगिस्तान के तपते रेत को ठंडा करता है, और ठंडे होते ही सूरज उलीच देता है। मिट्टी के देवता बनाता है और फिर उन्हें ताल-पोखर में बहा देता है। माई-बाबू ने उसे पलट कर कभी नहीं देखा। उसे पता था कि बाबू के चाहने के बाद भी माई ने कभी भी उन्हें मिलने के लिए आने नहीं दिया होगा। भगवानदेई जीजी के वापस लौटने के बाद माई कभी भी नहीं चाहती होंगी कि वह भी उनके पास वहीं लौट आये। बीसू के होते-हवाते ही वह लोग कभी नहीं झांके थे। उसके बाद तो रही सही आस भी छूट गयी थी।

“ऐ डोकरी सोच रहा हूँ कि अब काम छोड़ दूं, पैर से काम बनता नहीं अब।” बीसू ने अपनी माँ से कहा।

“घर का कैसे चलेगा?” माँ ने पूछा।

मन्ना जानती थी कि उन्हें बीसू से ऐसे पूछने में कितनी तकलीफ़ हुई होगी। उसके फैक्ट्री से लौटने के बाद डोकरी घंटों उसके सूजे हुए पैर पर गरम ईंट की सिकाई करती थीं। घर धीरे-धीरे कर्ज़ की बेड़ियों में बंधने लगा था और बीसू के कमज़ोर पैर उन्हें झटका मार तोड़ भी नहीं सकते थे।

“घर तो चलेगा ही डोकरी, खेत पर काम करूँगा अब।”

“खेत में काम करने से कित्ता वजन पड़ेगा पैर पर पता भी है।

“सब सोच रखा है मैंने, आध बंटाई पर देंगे खेत और मैं खाद-पानी देखूंगा।” वह बोला।

तवे पर रोटी पचाते-पचाते उसने बीसू को देखा। आज दो बरस की गृहस्थी में पहली बार मन्ना ने उसे मुस्काते हुए देखा था। वह जी भर देख भी नहीं पाई और मुस्कान की लकीर जाने किस आकाश में खो गयी। जीवन सम पर आने से पहले ही अपने चक्के से पलट गया। उतरते सावन की एक रात वह सब को छोड़ जाने कहाँ चला गया। तारीख़ उसके भीतर ऐसे उतर गई थी जैसे किसी ने मन पर कील रख हथोड़ा मार दिया हो। बीस अगस्त की रात जब रेल का हादसा हुआ तो डोकरी ने सब से कह दिया कि बीसू उसी में चल बसा। वह किसी से कह भी कैसे सकती थीं कि लड़का जोंन-जवान बहू को छोड़ जाने कहाँ निकल गया। उसके बाद न उसके लिए दिन हुए न रात। माई- बाबू उससे मिलने अब भी नहीं आये।

धीरे-धीरे मन्ना ने बीसू की माँ के जीवन में उसके हिस्से के ख़ाली कोने अपने हाथों में थाम लिए। मन्ना ने उस खेत की दरारों तक को सींच डाला था जिसे बीसू यूँ ही छोड़ के भाग गया था। पिछले पच्चीस सालों से वह कील की तरह जिंदगी के चक्के में लगी लगी उम्र का लोहा घिसती रही और ये पहिया कहीं घडी भर को रुकता ही नहीं। बरसा-बरस बाद अब छूटे हुए मायके से कोई आ कर उससे टकराया था।        हेमलता ने जाने कैसे उसे ढूंढ निकला था। उसकी आँखें बार बार लौट कर उसी दिन की ओर जा रही थीं, जिस दिन हेमलता उससे मिलने उसके खेत पर आई थी। सत्ताईस साल बाद देख रही थी वह उसे। चेहरा भर के गोल हो गया था और देह पर जरा लुनाई ठहर गई थी। बढ़े हुए वजन और आँखों के काले घेरों के अलावा हेमलता में कुछ भी नहीं बदला था।

हेमलता ने उसके हाथ थाम रखे थे। पीहर की बिसराई हुई गर्मी उसके हाथों में उतर रही थी। उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि इतने सालों बाद पीहर से कोई उससे मिलने आया है, वह भी हेमलता।

“पता है भगवानदेई जीजी के बेटे की फ़ौज में भर्ती हो गयी है। देवठान का बियाह भी निकला है।” हेमलता ने कहा।

“देवठान के शादी-बियाह अच्छे नहीं बैठते उस घर में अब तक नहीं समझे वह लोग।” वह बोली।

“तू अब तक नाराज़ है उन लोगों से। पीहर से कहीं मुँह मुड़ता है।”

“पीहर जैसा अब कुछ रहा कहाँ? तू अपनी बता एक दम भी सालों बाद कैसे।” मन्ना ने पूछा।

“एक मदद कर दे बहना।” हेमलता ने कहा।

“कैसी मदद?” उसने पूछा।

“अंतराम भाई साहब को जानती है न तू।”

“हाँ, जानती हूँ।”

मन्ना की यादों में दो जवान लड़कों की एक तस्वीर उभरी और धुंधली पड़ गयी।

“पिछले साल करू भाई ने गोली मार के भाईसाहब का क़त्ल कर दिया और फिर फरार हो गए। अभी कुछ दिन पहले छुपते- छुपाते अपने घर पहुंचे तो अंतराम भाईसाहब के बड़े लड़के योगेंद्र को जाने कैसे पता चल गया। तीन गोली सीने में उतार आया लड़का। अब भागा-भागा फिर रहा है। बत्तीस का है, न शादी-बियाह हुआ अभी, न घर-बार ही है कुछ। तू अपने यहाँ रख ले कुछ महीने।”

“मेरे यहाँ??”

“हाँ तेरे यहाँ रहेगा तो बचा रहेगा। मेरे यहाँ या रिस्तेदारी में कहीं और गया तो तुरंत पकड़ा जायेगा। तुझ से कोई सीधा सम्बन्ध भी नहीं उसका और सालों से तेरा घर से कोई वास्ता ही नहीं रहा।”

“मैं डोकरी से क्या कहूँगी?”

“देख लियो बहन।” हेमलता ने उसके हाथ थाम लिए।

6

“आओ डोकरी तेल मल दें तुम्हाये पैरन पर।”

“आज बड़ी चिंता हो रही तुम्हें। इतै-उतै मत घुमाओ बात को सीधे सीधे कहो।”

“मुझे लाल कमरे की चाबी दे दो। कल मेरे गाँव से एक दूर का भतीजा आएगा। कुछ दिन यहीं रुकेगा तो उसके लिए साफ़ सफ़ाई कर देंगे।”

‘पास क्या, दूर क्या मन्ना तुम्हारे मायके से पिछले पच्चीस सालों में अब तक एक भुस की बुग्गी आयी है बस यहां, इंसान कोई नहीं।” बुढ़िया ने आँचल के ठोक में बंधे गुच्छे में से चाबी निकालते हुए कहा।

“और ये भतीजा कौन हुआ?”

“हेमलता का भतीजा है। बाप मर गए थे पार साल। काम धाम का कोई हिल्ला नहीं तो हमहीं बोले थे हेमलता को चाहे तो यहाँ आ कर आध-बंटाई पर खेत देख ले। वाई के काजे आ रहा है।”

वह आया तो उसे ऐसा लगा मानो बीसू ही लौट के दरवाजे पर आ खड़ा हो। बस बाल थोड़े बड़े थे, देह थोड़ी भरी हुई और सतर थी। पर आँखें वैसी ही जगार की मारी जैसे महीनों से नींद ने उन्हें छुआ तक न हो।

“लाओ हमें कट्टा दे दो। इसे रख दें कहीं तब चल के डोकरी से मिलना। वह बोली।

मन्ना ने एक लाल अंगोछे में लिपटी थैली उसके हाथ से ली और भुस की कोठरी में जा के रख आई। वह देखता रहा कैसी औरत है जिसके रूखे चौड़े हाथ हथियार को थामते हुए पल भर भी न काँपे।

“तुम्हारे रहने के लिए घेर में बने कमरे को साफ़ कर दिया है। कमरे में सड़क की ओर जो खिड़की है उसे मत खोलना हफ़्ते आठ दिन। एक बार थोड़ा घुलमिल जाओ उसके बाद देखी जायेगी तब तक घेर वाली छोटी खिड़की ही खोलना। तांड पर दो बीजने रखे हैं ज़रूरत पड़े तो उतार लेना। चौमासे में उमस हो जाती है इस कमरे में।”

कुछ दिन के लिए आये मेहमान ने धीरे-धीरे मन्ना के हाथों से बोझ की सारी रस्सियाँ अपने हाथों में थाम लीं और धीमे से चौमासे की पहली बूँद सा उसके मन की तपती रेत में रल गया। प्रेम के बीज अंखुआने तो लगे थे पर उमर की अलग-अलग देहरियों पर ठिठक के रुक गए थे। वह आवेग में उमर की चार दीवारियों को लाँघ जाना चाहता था और वो लाँघी हुई उमर के मुहाने से वापसी को सकुचा रही थी।

“ये कितने दिन और रहेगा यहाँ?” बीसू की माँ ने पूछा था।

“जब तक रह सकता है रहने दो डोकरी। देखो खेत कितना बढ़िया हो गया। आधी-आधी क्यारियां बना कर आलू-शकरकंद कितना बढ़िया उगा लिया इसने। और गैया भी ब्यानहार है तो कितनी भागदौड़ हो जाएगी।”

“गैया, खेत, घेर बाज़ार तो पहले भी देख लेती थी तू तो अब क्या?”

“अब उमर हो रही मेरी डोकरी।”

“तो फिर उसे खेत वाले कमरे में बोल दे रहने को। रोटी-पानी यहाँ से जाता रहेगा।” बीसू की माँ ने कहा।

मन्ना का जी धक् से धड़क के रह गया। क्या डोकरी ने सब भांप लिया। इतना ढका-छुपा कैसे उघड़ गया उसे समझ ही नहीं आ रहा था।

7

“तुम चलो मेरे साथ।” वह बोला

“कहाँ?”

“वो देख लिया जायेगा। कुछ न कुछ इंतजाम तो हो ही जायेगा। रहने दो डोकरी को इस मकान और खेत के सहारे। कोई न कोई देखभाल कर ही लेगा इन चीज़ों के लिए उनकी।”

“ख़ुद तो मारे-मारे छुपे हुए फिर रहे। कल को पुलिस के हत्थे चढ़ गए तो जाने कितने सालों तक जेल में रहना पड़ेगा। और मानो ये सब भी न हो तो भी चौदह बरस छोटे हो मुझसे। सेंतालिस लग गया मुझे। कुछ सालों में बुढ़ापा भी आ ही जायेगा। तब क्या होगा मेरा?”

वह चुप रहा। क्या कहे कुछ सूझ ही नहीं रहा था उसे।

“अब जाती हूँ जा के सानी-पानी भी देखना है।” मन्ना ने खुले बाल लपेटते हुए कहा।

गैया के राम्हाने की आवाज़ उसे दूर ही से सुनाई दे गयी थी। वह घेर में पहुंची तो देखा कि डोकरी नांद में कुट्टी डाल रही थीं।

“रुको डोकरी कुट्टी मत डालो मैं सानी लगा रही हूँ अभियाल ही।”

बीसू की माँ ने उसे पैनी नज़र से ऊपर से नीचे तक देखा। जाने क्या खोज रहीं थीं वह उसमें।

“ये धोती कैसे चिर गयी तुम्हाई?”

“कहाँ?”

“घौटुन के पास।”

मन्ना ने देखा की छुटने के पास धोती एक तरफ़ से चिर गई थी।

“पार साल ली थी डोकरी ये धोती। पुरानी हो गई है। कोई खोंता लग गया होगा सो चिर गयी होगी।”

“साल भर पुरानी धोतियाँ ऐसे कहीं नहीं फटती जब तक जाँघों का ज़ोर न लगे।”

“जब जानती हो तो पूछती क्यूँ हो डोकरी।” उसने खिसिया के कहा।

“सुन मेरी तो खुली मुसलमानी है। उसके संग जाना है तो जा तेरी इच्छा पर फिर इस घेर, मकान, खेत में से धेला भी नहीं मिलेगा। कल को मेरा लड़का लौट के आया तो उसे क्या दूँगी। ये सब चाहिये तो मेरे संग रह।”

“तुम्हारे लड़के को अगर लौटना होता तो कर्ज़े में मुंह छुपा भागता ही क्यूँ। वह लौटेगा जिसके भागने से तुम्हारी उमर पटक के आधी रह गयी। और अगर होगा भी तो लौट के कैसे आएगा। तुम भूल गई डोकरी, तुम्हीं ने कहा था कि रेलगाड़ी के हादसे में मर गया बीसू। तुम्हीं ने उसकी पहचान की। तुम्हीं ने सरकार से मुआवज़ा लिया। उसी पैसे से कर्ज़ा चुकाया था तुमने। उसी पैसे से इस घेर की चारदीवारी खड़ी की थी। याद रखन ये सब डोकरी।” मन्ना जाने किस हौंक में आ के बोले जा रही थी।

“ये सब मुझे नहीं मालूम बस तू उसे जाने को बोल।”

“बोल दूँगी।” कह के मन्ना लाल कमरे में घुस गई।

…………………………………

बीसू की माँ दिन भर में उससे ये बीसियों बार पूछ कर भी नहीं थकी थीं कि

‘वह कब जा रहा है?’

‘डोकरी कल जायेगा संजा से पहले’। बीसू की माँ को जवाब दे उसने एक हाथ वापस हौद में डाल कुट्टी मिलाना शुरू कर दिया और दूसरा हाल ही ब्याई गाय के मुँह पर फेरने लगी।

‘गुड़ कब देना है गैया को?’ उसने पूछा

‘अब दे दो एक दिन हुआ बियाये, खल भी देना चालू कर दो, परसों बछिया को खूब नमक की एक रोटी भी देना और बाल्टी भर पानी, ऐसे पानी पीना सीख जायेगी जल्दी।’ बीसू की माँ खाट पर करवट बदलते हुए बोलीं।

इस करवट बीसू की माँ को उसका चेहरा साफ़ दिख रहा था। आधी उमर से ऊपर का धूप में तमतमाया, झुर्रियों वाला,गर्मी से झुलसा हुआ चेहरा जो यूँ तो मुहल्ले की किसी भी अधेड़ औरत जैसा है। फिर भी उसे इसमें क्या दिखा की वह इधर का ही हो कर रहा गया।

‘इस जेठ की एकादसी को दो घल्लियां ले अइयो मंसने को। अबके दो जोड़े दूंगी।’ बीसू की माँ ने कहा।

उसने गर्दन घुमा कर उनकी ओर देखा और वापस गैया की तरफ़ मुड़ गई।

‘अबके सावन बीसू को गए पच्चीस बरस हो जाएंगे न।’ उन्होंने उससे पूछा।

‘पच्चीस नहीं छब्बीस।’ ‘डोकरी सीधे सीधे कहो न क्या कहने का मन कर रहा, घुमा फिरा के क्यूँ कह रहीं बात को।’उसने कहा।

‘कल जब वह जाए तो उसके टीका कर दियो और हाथ पर कुछ रुपये भी रख दियो। उसका टीका लगा माथा देख लोग कम बात बनाएंगे।’ बीसू की माँ ने उससे कहा।

उसने देखा कि गाय के चाटने से उसके हाथ पर लाल दाने उभर आये हैं। ऐसे ही लाल फफोले उसके भीतर उठ पड़े हैं पर वह किसे, कैसे दिखेंगे। हठात रुक कर जेठ की लू खाई गरम हवा को सुनना अक्सर अपने मन की गूँज को सुनने के बराबर होता है। जिसमें से सिवाय ताप के कुछ और अनुभव नहीं किया जा सकता। उसने उनकी तरफ़ एक चोर नज़र से देखा और उठ कर अंदर चली गयी।

8

वह चला गया था लौट के। उदास मौसम के झरे हुए फूल की तरह मन्ना के मन  पर पीला रंग चढ़ने लगा था। उसे हेमलता से ही मालूम पड़ा कि योगेन्द्र को पुलिस ने पकड तो लिया पर हथियार न होने की वजह से कुछ साबित नहीं हो पाया, फिर भी उसे तीन साल की सज़ा सुनाई गयी है। हथियार तो अभी भी एक अंगोछे और थैली में लिपटा मन्ना की भुस की कोठरी में पड़ा है। अच्छा ही हुआ जो जाते वक़्त उसने हथियार देने से मना कर दिया था, वरना क्या का क्या हो जाता।

बरस बीतने के लिए ही बने है। दिन-दिन कर के गुज़र ही जाते हैं। अब उसका सारा समय घेर और खेत पर बीतता है। घर सोने भर या डोकरी की ज़रूरत भर ही रहती है अब। आषाड़ के गरम आकाश पर बादलों के नन्हे-नन्हे झुरमुट उग आये थे। मन्ना ने सर उठा आकाश को देखा दूध की डोलची उठाई और घर को चल दी। डोकरी बरामदे में पड़े तखत पे लेती हुई थीं।

“नैक मेरे सर में तेल मल दियो मन्ना।”उन्होंने कहा।

“ह्म्म्म, चाय के बाद मल दूँगी।”

“तुम से कही थी लौटते में थोड़ा चन्दन और कपूर लेती आना पूजा के लिए। लाईं  क्या?

“सर में मलने के लिए कपूर तो ले आई हूँ पर चन्दन नहीं मिला दुकान पर।” वह बोली।

“ अब कल पूजा में क्या करुँगी में?”

“डोकरी ईश्वर के लिलार पर तो हल्दी-रोली माल्टा ही रहता है आदमी। उंगलियाँ भर-भर के पोतता है। आड़ी-टेढ़ी, उल्टी-सीधी किसम-किसम की लकीरें खींचता ही रहता है। असल बात तो तब बने डोकरी जब आदमी को अपने माथे, अपने लिलार का पसीना पोंछने की मोहलत मिल पाये। उसकी उँगलियों को कभी चाक घुमाने का हुनर आये या ये चीका मिट्टी से अपना चूल्हा लीपने का शऊर या खेत की मिट्टी को अपने पैरों से खूंदने की ताकत पाये वरना अल्ल-बल्ल तो मरने तक बकता ही है आदमी।” उसकी तेल लगी उंगलियाँ बीसू की माँ के उलझे बालों में अटक के रह गई थीं।

बादलों के झुरमुट घने होते जा रहे थे। बीसू की माँ ने पलट के उसके हाथ थाम लिए।

“मैंने उसे बुला लिया है मन्ना।” उन्होंने कहा।

“किसे?”

“योगेन्दर को यहीं रहने के लिए, अपने पास। मेरा क्या कल रहूँ या नहीं पर तेरा ठौर-ठिकाना तो कोई बना ही रहना चाहिए। मुझे क्या पता नहीं इन सालों में कैसे बदल तू।” बीसू की माँ ने कहा।

पहली बूंद ढरक के मन्ना के सपनों के मंदिर में बैठे शिव के ऊपर गिरी, दूसरी उसके मन की रूखी ज़मीन पर और उसके बाद आषाड़ की पूरी शाम उस धारासार बरसात में डूब गयी। पानी के कोहरे में बस गली के दोनों तरफ़ खड़े दो हरे पेड़ ही लहक रहे थे। बीसू की माँ ने उसके घुटने पर सर टिका दिया। हवा में कपूर पड़े तेल की गंध महक रही थी और एक गाने की गूँज जिसे डोकरी गा रही थीं।

“छोरा मोहे दे तीर-कमान/ अटे पर बुलबुल बैठी है।

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Anagh Sharma

+968-94534056

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आश्चर्य का संगीत रचने वाला एक संगीतकार

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आज प्रख्यात सितारवादक पंडित रविशंकर की सौवीं जयंती है। युवा कवि निर्वाण योगऋत ने उनकी संगीत यात्रा के कुछ महत्वपूर्ण पड़ावों की चर्चा इस लेख में की है-

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महान सिने-मास्टर सत्यजित राय ने जब ‘पाथेर-पांचाली’ की कल्पना की थी-दृश्यों के रूप में तब कोई और भी था जिसने इस कालजयी कृति को सुरों में सोचा था। जितना जीवंत इस फ़िल्म का रंग और दृश्य है उतना ही गहरा इसका संगीत भी! ‘राॅय’ के दृश्यों की इस कल्पना को अपने सुरों के साथ ट्यून करके पंडित रविशंकर ने दु:ख और आनंद का ऐसा संगम रचा कि विश्व का संपूर्ण संगीत-जगत अचंभित रह गया। बंगाल के माटी का यह करूण उद्गार पूरे जगत के हृदय को आंदोलित कर गया।

         कहते हैं कि ‘पाथेर-पांचाली’ का यह थीम-संगीत, रविशंकर ने महज़ चौबीस घंटे में ही तैयार कर लिया था़। हुआ ऐसा था कि किसी प्रोग्राम के सिलसिले में रवि जी कलकत्ता आए थे दो दिनों के लिए। पहले दिन की सांझ सत्यजित राय ने उनके सामने इस फिल्म के थीम-संगीत को बनाने का प्रस्ताव रखा और अगले दिन की शाम तक यह श्रेष्ठतम संगीत तैयार था। जितना अद्भूत यह संगीत है उतना ही अद्भूत इसका सहज अवतरित हो जाना है। बांसुरी और सितार की यह अद्भूत जुगलबंदी, लियोनार्दो के मोनालिसा जैसी ही है जिसे जिस मनोदशा में देखो वैसी ही दिखती है। इस संगीत को भी जिस मनोभाव में हम सुनते हैं, वैसा ही सुनाई देता है।

      पंडित रविशंकर विश्व-संगीत के शिखर हैं। सीमाओं से पार-संगीत के गौरीशंकर! उनका संगीत हमें अस्तित्व का संदेश देता है। सुरों का यह शृंगार हमारी अंतरात्मा का परिष्कार कर देता है।

      विश्व-प्रसिद्ध नर्तक मास्टर उदय शंकर के छोटे भाई के रूप में जन्मा सितार का भावी शिखर पुरूष रविशंकर, उम्र के अठारवें साल तक  उदय शंकर के डांस-ग्रुप में पूरे योरोप में नाचता रहा। किसे पता था कि एक दिन यह लड़का अपने सितार के तारों पर समस्त संसार के मन को थिरकने पर मज़बूर कर देगा।

       1935 का वो साल रवि के जीवन का अहम् साल था। कह सकते हैं कि आज जिस पंडित रविशंकर को हम जानते हैं उसका जन्म तभी हुआ। मैहर के बाबा अल्लाउद्दीन ख़ान जैसी विभूति के सानिध्य में रवि इसी वर्ष गए थे। पूरा ‘मैहर-घराना’ इस बच्चे पर बरसने वाला था। बाबा जैसा गुरू और रवि जैसा शिष्य हो तो नि:संदेह, सगीत के आसमान से सुरों का स्वर्ण बरसता है।

      वर्षों तक बाबा अलाउद्दीन, रवि को तराशते रहे, निखारते रहे। डांटते रहे, दुलारते रहे। खदान से निकले सोने को गहना जो बनाना था।

     एकबार की बात है। बाबा की फटकार पर रविशंकर बहुत नाराज़ हो गए। बोरिया-बिस्तर बांधकर उनके घर से जाने लगे। गुरू-शिष्य परंपरा में शिष्यों को काफ़ी कुछ चुपचाप सहना पड़ता है। आज भी भारतीय शास्त्रीय संगीत में यह परंपरा जस की तस बची हुई है। तो रवि नाराज़ हो गए। रूठकर चले गए। जब बाबा को इसका पता चला तो उनको बहुत दु:ख हुआ। बाबा थे भी तो बहुत कोमल-हृदय! भागते हुए गए और रवि को मनाकर वापस लेकर आया। उनका गुरू बीच में नहीं आया। सच्चा गुरू सच में एक पिता ही होता है। उस दिन रवि को गुरू के रूप में एक पिता मिल गया था जिसे वे जीवन भर नहीं भूल पाए। वो जब बाबा की बात करते थे उनका संपूर्ण व्यक्तित्व श्रद्धा से झुक जाता था।सच में बाबा के बिना संगीत के इस संस्थान की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

      अलाउद्दीन ख़ान जैसे ज़ौहरी के यहां से जब यह सोना निखर कर निकला तो इसने अपनी चमक से पूरी दुनिया को रौशन कर दिया। सितार में ‘तंत्रकारी’ को माध्यम बनाकर प्रकृति के सबसे अनछुए गीतों को गाया।

     भारतीय शास्त्रीय संगीत को विश्व-पटल पर सर्वप्रथम प्रदर्शित करने का श्रेय इसी व्यक्ति को जाता है। रविशंकर विदेशों में अपना कंसर्ट बजाने से पहले कहते थे-‘किसी भी तरह के पूर्वाग्रह को भूल जाएं, खाली मन से सुनें आपको बहुत अानंद आएगा’।उनके ये शब्द भारतीय संगीत की आत्मा है़। इस संगीत  बुद्धि से समझा नहीं जा सकता बल्कि इसको हृदय के भोलेपन में उतारना होता है।

       रविशंकर ने पूरे विश्व को भारतीय संगीत से परिचित कराया-बिल्कुल उसके शुद्धतम रूप में। उन्होंने कभी इसकी शुद्धता से खिलवाड़ नहीं किया। वो इसकी आत्मा को पहचानते थे।

      रवि पूरे विश्व के चहेते हैं। पूरी दुनिया उन्हें प्यार करती थी। प्रसिद्धि का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस ‘बीटल्स’ के पीछे पूरी दुनिया पागल थी उस बैंड के जाॅर्ज हैरिसन रवि से संगीत सीखते थे। वो भारत आए। एक तरह से रवि के शागिर्द रहे। रवि ने भी उनके साथ कई रिकार्डिंग में काम किया। अल्बम बनाए साथ-साथ। पूरब और पश्चिम के संगीत को जोड़ा लेकिन कभी भी किसी पश्चिम के संगीतकार के साथ मंच साझा नहीं किया। वो शास्त्रीय संगीत के आत्मा के साथ कोई समझौता नहीं कर सकते थे।

       पूरी दुनिया में घूमते हुए वो भारतीय रागों के पुरातनता से नवीनता की स्वरमाला रचते रहे।

       ओशो रजनीश ने अपने प्रवचनों में कई बार एक घटना का जिक्र किया है कि एक बार पश्चिमी के किसी यूनिवर्सिटी में कुछ पौधों पर संगीत के प्रभाव को लेकर प्रयोग किया गया। हफ़्ते भर तक कुछ पौधों को रविशंकर का संगीत सुनाया गया और कुछ पौधों को दूर ले जाकर रोपा गया। दोनों को एक सी मिट्टी में रोपा गया था, समान खाद-पानी और सूर्य का प्रकाश दिया गया था। हफ़्ते भर बाद का परिणाम आश्चर्यचकित करने वाला था। जो पौधे रविशंकर का संगीत सुन कर बड़े हो रहे थे वो उन पौधों के मुकाबले ज्यादा स्वस्थ और विकसित थे  जो अलग रोपे गए थे। और जो पौधे संगीत सुन रहे थे उनमें एक और अजीब घटना घटी कि वो उस दिशा में थोड़ा झुके हुए थे जिधर बैठकर रविशंकर रोज़ सितार बजाते थे। यह पश्चिमी विज्ञान-जगत के लिए गहरे आश्चर्य का विषय था।

      हिंदी फ़िल्मों में भी पंडित जी ने अपनी एक अलग ही छाप छोड़ी। फ़िल्म अनुराधा का गीत-‘हाय रे वो दिन…’ कितनी गहरी संवेदनाओं से उपजा है। कितने गहरे भावों से निर्मित हुआ है यह गीत! जैसे सदियों की पीड़ा इस तीन-चार मिनट में पूरी तरह सघन हो गयी हो। रवि जी ने जितना भी फ़िल्म-संगीत रचा वो सभी अद्भूत हैं। वो फ़िल्म-संगीत के माध्यम को करीब से समझते थे। भारत का फ़िल्म-संगीत भी अपने आप में एक स्कूल है। ऐसा पूरी दुनिया में और कहीं नहीं है। रवि जी इस स्कूल के भी मास्टर थे। यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि वो इकलौते ऐसे शास्त्रीय संगीतकार थे जिसने इतना श्रेष्ठ फ़िल्म-संगीत रचा। यह आश्चर्य ही है कि अब तक कोई दूसरा शास्त्रीय संगीतकार, फ़िल्म-संगीत को ठीक से समझ भी नहीं सका। रविशंकर इसके अपवाद जैसे ही हैं। वो जितने बड़े शास्त्रीय संगीतकार थे उतने ही बड़े फ़िल्म-संगीतकार भी। दोनों कभी एक दूसरे पर हावी नहीं हुए बल्कि परस्पर एक-दूसरे का सहयोग ही करते रहे।

     आज पंडित रविशंकर को याद करते हुए लगता है कि सभी वर्जनाओं को तोड़ते हुए भी हम अपनी आत्मा को शुद्धतम रूप में बचा सकते हैं। आज संगीत  जिस तरह से अधोगामी और फूहड़ हो गया है, ऐसे समय में  क्लासिकल संगीत के लोगों को अपनी खोल से बाहर आकर इसका परिष्कार करना चाहिए। इसे संवारना चाहिए। तभी तो हमारे संगीत की आत्मा दुनिया में प्रेम के नए पुष्प रोप पाएगी।

 

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वाह उस्ताद : फनकार और सुनकार का साझा घराना

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प्रवीण कुमार झा की किताब ‘वाह उस्ताद’ की समीक्षा लिखी है डॉक्टर असित कुमार गोस्वामी ने। देश विदेश में  अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके सितार वादक और साहित्य प्रेमी डॉ असित गोस्वामी वर्तमान में बीकानेर के राजकीय कन्या महाविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. यह किताब राजपाल एंड संज से प्रकाशित है-

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डॉ० प्रवीण झा पेशे से चिकित्सक हैं. इसके अलावा सोशल मीडिया पर उनकी ख्याति  विविध विषयों पर उनके रोचक शैली में लिखे लेखों और टिप्पणियों के कारण  अधिक है. खेल, विज्ञान, यात्रा, संगीत, इतिहास जैसे विविध विषयों पर उनकी चुटीली किन्तु  शोधपरक लेखनी की गवाह उनकी विभिन्न पुस्तकें हैं. आइसलैंड और नीदरलैंड पर उनके यात्रा वृत्तान्त, चमनलाल की डायरी और  गिरमिटिया इतिहास पर उनकी    उनकी हाल ही में प्रकाशित  बहुचर्चित  खोजपरक पुस्तक कुली लाइंस उनकी बहुरंगी  लेखनी की शहादत हैं. इसी कड़ी में संगीत के गायन वादन के प्रसिद्ध घरानों पर राजपाल एंड संस द्वारा प्रकाशित उनकी ताज़ा पुस्तक “वाह उस्ताद : हिन्दुस्तानी संगीत घरानों के किस्से” अत्यंत महत्त्वपूर्ण है. मंझोले आकार में कुल 160 पृष्ठों की यह  पुस्तक छोटे पैकेट में बड़ा धमाका भी कही जा सकती है.

यह पुस्तक संगीत के एक गूढ़ विषय ”घराने” एवं “शैलियों” के बारे  में है. प्रथम दृष्टया यह विषय पाठक से संगीत की एक विशेष स्तर तक की समझ की अर्हता की मांग करता जान पड़ता है. ऐसी समझ जो दो घरानों या शैलियों की गायकी में अंतर कर सके. परन्तु इसकी किस्सों में पिरोई हुई शैली इस अर्हता को नकारती भी चलती है. पुस्तक की भूमिका में ही लेखक ने स्वयं कहा भी है –  “यह सफ़र तो बस शुरुआत है संगीत के एक पहलू को समझने की. तकनीकी बातें कम हैं, किस्से कहानियां ज्यादा हैं. हाँ, इन किस्सों के बीच अपनी समझ से कुछ बारीक़ बातें भी पिरोई हैं. लेकिन उनका अनुपात बिलकुल चिकित्सकीय ‘लो-डोज़’ है, कि कड़वी न लगे.” पुस्तक का प्रयोजन ऐसे लोगों में संगीत घरानों के विषय में जागरूकता पैदा करना है जो ‘संगीत के विशारद’ नही है, या जो संगीत के ‘फनकार नहीं, बल्कि केवल  सुनकार’ हैं.  इस लिहाज़ से यह पुस्तक अपने उद्देश्य में सफल ही कही जानी चाहिए.

पुस्तक में ग्वालियर, आगरा,  सेनिया, सेनिया मैहर, जयपुर-अतरौली, भिन्डी बाज़ार और इंदौर, इटावा, पटियाला, मेवात, रामपुर सहसवान, किराना, शाम चौरासी, डागुर , बनारस, दिल्ली और साजों के घरानों को एक-एक अध्याय में वर्णित किया गया है. इसके अतिरिक्त परिशिष्ट में रागों के गाने/बजाने के समय, बंदिशों के रचयिताओं के नाम, संगीत सम्बंधित शब्द, और सन्दर्भ ग्रंथों की सूची भी दी गयी हैं.

यह पुस्तक जितनी जानकारी देती है उतने ही प्रश्न और जिज्ञासाओं को भी उकसाती चलती है. अत्यंत संक्षिप्त ( डेढ़ पेज) के पहले अध्याय  में उन्होंने मूलभूत प्रश्न उठाया है- ”घराना क्या है?”. कम से कम तीन पीढ़ियों तक चलने पर ही  घराना कहलाए जाने की मान्य परिभाषा पर प्रश्न उठाते हुए लेखक कहते हैं कि इंदौर घराना केवल एक पीढ़ी होने के बावजूद मान्यता पा गया जबकि कई पीढ़ियों तक चलने के बावजूद भी दिल्ली घराना को घराना मानने में कई विद्वान अब भी झिझकते हैं.

“संगीत घरानों के उद्गम स्थान” को दर्शाता हुआ भारत का मानचित्र आरम्भ में दिया गया है. इस मानचित्र पर नजर डालने पर कुछ फौरी जिज्ञासाएं हुई.  घराने उत्तर में ही हुए दक्षिण में क्यों नहीं? यों दक्षिण में भी शैलियों की भिन्नता तो रही ही होगी। पर उत्तर की तरह घराना व्यवस्था नहीं बन पाई। दक्षिण में भी राज दरबार थे। पर क्या वहां दरबारी गवैये/ वादक नहीं रहे होंगे? क्या दक्षिणी संगीत मंदिरों में ही अधिक पनपा, राजदरबारों में नहीं? क्या इसलिए वहां की शैली सामूहिकता आधारित हो गई बजाय व्यक्तिगत विशेषताओं पर आधारित होने के? वहां शायद गुरूओं/ उस्तादों की वैसी महिमा/ बखान न हो जैसा उत्तर में । बल्कि वहाँ के नृत्यों में तो गुरु स्वयं प्रदर्शक कलाकार ही नहीं होते हैं, वे केवल गुरु ही होते हैं.

ग्वालियर घराने पर उचित ही बहुत  लंबा अध्याय है. इसमें ग्वालियर घराने की वंश परम्परा उनकी गायकी की विशेषताओं और और उनकी पारंपरिक बंदिशों की जानकारी रोचक किस्सों के ज़रिये होशियारी से दी गयी है. इस तथ्य का भी विवेचन इस अध्याय में किया गया है कि उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के आरम्भ में संगीत उस्तादों, राज दरबारों और सेठ साहूकारों की व्यक्तिगत महफ़िलों की जकड़ बंदी से मुक्त होना शुरू हुआ  और आम आदमी तक इसकी पहुँच  बननी शुरू हुई और संगीत को संभ्रांत समाज में हेय समझे जाने के पूर्वग्रह  भी कम होने शुरू हुए. गन्धर्व महाविद्यालय की चर्चा करते समय डॉ० झा लिखते हैं- “संगीत यह का बुलबुला जितनी तेज़ी से फैला  उतनी  ही तेज़ी से ओंधे मुंह गिरा…….आज पीछे मुड़कर देखें तो उन हज़ार विद्यार्थियों में से दस नाम ढूँढने कठिन होंगे. उनके सबसे  प्रिय विद्यार्थी  विनायक पटवर्धन भी कोर्स पूरा करने के बाद छुप-छुप कर रहमत खान और बालकृष्ण बुवा से ‘असल’ संगीत सीखने लगे.”  यहाँ प्रवीण उस बड़ी बहस की तरफ चतुराई से इशारा कर रहे प्रतीत होते हैं कि संगीत की अकादमिक शिक्षा और परम्परागत गुरु-शिष्य परम्परा में से कौनसी कारगर है? यहाँ एक उल्लेख करना ज़रूरी लगता है कि दत्तात्रेय विष्णु पलुस्कर के गुरुओं में सबसे प्रमुख रहे नारायण राव व्यास का नाम उनके गुरु के रूप में  नहीं मिला जबकि उनकी गायकी नारायण राव व्यास से ही अधिक प्रभावित है.

झा आगरा घराने के उस्ताद फैयाज़ खान के संघर्ष, फक्कड़ तबियत के किस्सों के माध्यम से घराने का ऐतिहासिक विवेचन करते हैं. किस प्रकार फैयाज़ खान साहब में धैर्य के अभाव के चलते उनके परिवार    के सदस्य उनके घराने की परम्परा को जीवित नहीं रख सके.  वर्तमान ( प्रमुखतः बीसवीं सदी) के कुछ प्रमुख कलाकार जैसे एम०  आर०  गौतम, ललित जे०  राव, विजय किचलू, रवि किचलू आदि के नाम छूट गए हैं। कुछ कलाकार जैसे के० जी०  गिंडे और सी० आर० व्यास जो ग्वालियर या किराना ( या दोनों) शैलियों के साथ साथ आगरा शैली के भी निपुण गायक रहे हैं ( बल्कि बाद के वर्षों में सी० आर०  व्यास का गायन तो आगरा के ही अधिक निकट था) इनका उल्लेख भी नहीं मिला.

तंत्री वाद्यों के  घरानों की जड़ें तानसेन से सम्बंधित होने के दावों के बारे में झा लिखते हैं –“मैं इस बात से अब इत्तेफाक नहीं रखता के सेनिया वाकई तानसेन के वंशज हैं. हर घराना अपने को तानसेन से जोड़ता रहा है.” सेनिया घराने की  तीन शाखाओं की पड़ताल करते हुए वो बंगश, शाहजहाँपुर और मैहर तीनों परम्पराओं का खाका खींचते हैं. हालाँकि शाहजहाँपुर घराने के एक महत्त्वपूर्ण कलाकार और गुरु राधिका मोहन मोइत्रा का नाम कहीं नहीं दिखा.  सेनिया मैहर घराने पर पुस्तक का सबसे लंबा अध्याय है. इस में लेखक ने मैहर शहर और अलाउद्दीन खान के घर का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया है.  इसे पढ़ते हुए डॉ प्रवीण झा के ट्रेवल राइटर की छवि भी याद आ गई जो उनकी आइसलैंड और नीदरलैंड पर पुस्तकों में दिखती है. अपनी लेखनी से वे ऐसा प्रभाव पैदा करते हैं जैसे हम अपनी आँखों के सामने रविशंकर, अली अकबर खान, अन्नपूर्णा देवी और निखिल बनर्जी को तालीम लेते, रियाज़ करते देख रहे हों.

जयपुर अतरौली घराने की की वंश परंपरा, गायकी की विशेषताओं, केसरबाई केरकर की ठसक और रूतबा इन सबको लेखक ने अपने चिर परिचित अंदाज़ में बयान किया है .

भिन्डी बाज़ार घराने की अत्यंत संक्षिप्त चर्चा के बाद उस्ताद अमीर खान की चर्चा छिड़ती है. लेखक के अनुसार उस्ताद अमीर खान को एक पूरा “म्युज़िक स्कूल” माना जा सकता है. अपनी इस मान्यता के पक्ष में वो बहुत मज़बूत तर्क भी  देते चलते हैं. साले  विलायत खान  और बहनोई अमीर खान के तनाव पूर्ण संबंधों के बावजूद  परस्पर प्रशंसक होने की घटनाओं का नाटकीय चित्रण नमिता देवीदयाल की पुस्तक Sixth string of Vilayat  Khan के आधार पर करते हैं. हाँ, उस्ताद अमीर खान की परम्परा में सिंह बन्धु का नाम नहीं होना थोड़ा अखरा.

पटियाला घराने पर भी अध्याय संक्षिप्त ही है. प्रवीण झा इस बात पर अफ़सोस ज़ाहिर करते हैं कि बड़े ग़ुलाम अली की विराट शख्सियत के दबाव कारण छोटे भाई बरक़त अली और पुत्र मुनव्वर अली खान उभर नहीं पाए और अब उनके स्वयं के खानदान  से यह घराना फिसल गया.

इसी प्रकार पुस्तक में मेवाती घराना, रामपुर सहसवान घराना, शाम चौरासी घराना बनारस घराना इत्यादि पर शोधपरक, जानकारियों को डॉ प्रवीण झा की ट्रेड मार्क  शैली में समेटा गया है.

साजों के घराने नाम से एक अध्याय है जिसमें तबला संतूर वायलिन आदि के विभिन्न घरानों की लघु  चर्चा है.  वायलिन पर चर्चा के अंतर्गत वी० जी० जोग, एन० राजम एवं  कला रामनाथ का ज़िक्र है. कहा गया है की वायलिन में गायकी अंग एन० राजम और कला रामनाथ लाए . इसमें एक नाम मैं अपनी और से और जोड़ना चाहूँगा – डी० के० दातार का.  यह बात सही है क्यों कि एन० राजम ओम्कार नाथ ठाकुर की शिष्या रहीं हैं और बरसों उनकी संगत भी की है. इसी प्रकार डी० के०  दातार डी० वी० पलुस्कर के भांजे थे और उनकी संगत करते थे और कला रामनाथ पं० जसराज की शिष्या हैं तथा उनकी संगत भी करती रही हैं. ऐसे में इन सभी के वादन में गायकी अंग ही सुनाई देना स्वाभाविक ही है.   अलाउदीन खान ( अली अकबर खान के भी ) शिष्य होने के नाते  वी० जी० जोग के वादन में शुद्ध तन्त्रकारी ही सुनाई देगा .

पुस्तक को पढ़ते हुए एक बात दिमाग में आई  कि जितने मुस्लिम उस्ताद हुए हैं उनमें से लगभग सभी (वजीर खां और अहमद अली को छोड़कर) ने अपने परिवार के अतिरिक्त जितने भी शागिर्द बनाए वह सब हिन्दू ही रहे। किसी भी घराने के बड़े (मुस्लिम) उस्ताद का एक भी उल्लेखनीय मुसलमान शागिर्द ऐसा नजर नहीं आता जो कोई क़रीबी रिश्तेदार ना हो। शायद यही कारण हो की आगरा एवं पटियाला  जो पिछली सदी के पूर्वार्ध तक मुस्लिम प्रधान घराने  थे और आज ये घराने हिन्दू कलाकारों के द्वारा ही पोषित हो रहे हैं. रामपुर सहसवान घराने में अभी भी सभी  प्रमुख कलाकार मुस्लिम ही हैं. हालाँकि  ये  सब कलाकार एक ही परिवार से जुड़े हैं. परिवार से बाहर के मुस्लिम कलाकार वहाँ भी अनुपस्थित हैं.

‘घरानों के नाम भले ही खानदानी पूर्वज धरती के आधार पर थे.’ परन्तु हर घराने के  केंद्र अन्य स्थान पर बन गए. जैसे किराना घराना कैराना में जन्मा और धारवाड़ में पनपा आगरा घराना बडौदा या मैसूर या मुंबई में, ग्वालियर घराना कोल्हापुर में इटावा और शाहजहांपुर घराना बंगाल में विकसित हुए. और मैहर घराना तो सात समुन्दर पार कैलिफोर्निया ही चला गया. इस परिदृश्य पर रोचक चर्चा अंतिम अध्याय में है. रविशंकर के भारत की सीमाओं को तोड़ कर पश्चिम से संवाद फ़िर वहीँ छा जाने और बस जाने, और अली अकबर खान की केलिफोर्निया में अली अकबर कॉलेज ऑफ़ म्युज़िक   स्थापित करने की कहानी भी इस अध्याय में है.

एक दो स्थान पर संभवतः प्रूफ के कारण रह गयी कुछ गलतियों की ओर ध्यान गया जैसे मिरज को मिराज लिखा गया है और भास्कर बुवा बखले को भास्कर बुवा गोखले लिखा गया है.

रोचक और प्रवाहपूर्ण शैली, विषय और विषय वस्तु पर मज़बूत पकड़ के कारण आप इस पुस्तक को शुरू करने के बाद अंतिम पृष्ठ से पहले छोड़ नहीं पाएंगे फ़िर आप चाहे संगीत के फनकार हैं चाहे सुनकार.

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-डॉ ० असित गोस्वामी

asitsitar@gmail.com

9414265433

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‘वोल्गा से गंगा’की सभ्यता यात्रा और दो कहानियाँ

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आज महापंडित राहुल सांकृत्यायन की जयंती है। ‘वोल्गा से गंगा’ की दो कहानियों के माध्यम से एक लेख में श्रुति कुमुद ने उनके नवजागरण संबंधी विचारों को परखने की कोशिश की है।श्रुति कुमुद विश्वभारती शांतिनिकेतन में पढ़ाती हैं और विमर्श के मुद्दों को बहुत गम्भीरता से उठाती हैं। उनका एक सुचिंतित लेख पढ़िए-

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सभ्यताएँ पुनर्जागरण या नवजागरण के दौर से गुजरती हैं। नवजागरण का नामकरण तो बहुत बाद में सम्भव हुआ लेकिन जो इसके मूलभूत तत्व हैं, उनसे लैस अनेक आंदोलन दुनिया में हुए जिन्होंने अपने तरीके से समाज और दुनिया को बदला। हिंदी समाज के दो महत्वपूर्ण नवजागरण की बात करें तो प्रथम लोकजागरण भक्तिकालीन युग का है और द्वितीय वह नवजागरण, जिसके बारे में हिंदी समाज प्रचलित मुहावरों में बात करता है, जो आजादी की लड़ाई वाले युग में आकार लिया। इस नवजागरण पर मूर्धन्य विद्वानों ने कलम चलाई है और अपने मन-मस्तिष्क पर जो कुछ भी छवि नवजागरण की बनी है, वो इन्हें पढ़ समझ कर ही बनी है। यह नवजागरण युगीन मूल्यबोधों से संचालित हुआ और इसने हिंदी भाषा तथा समाज के भीतर की अनेक जड़ताओं से लड़ाई लड़ी। बांग्ला समाज के नवजागरण के अनुकरणीय पथ से अनेक तत्व इस हिंदी नवजागरण में भी शामिल हुए। उनमें से एक जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है उसका जिक्र नामवर जी ने अपने सुचिंतित आलेख ‘हिंदी नवजागरण की समस्याएँ’ में बंकिम चंद्र के हवाले के किया है, जिसमें बंकिम यह कहते हैं: ‘कोई राष्‍ट्र अपने इतिहास में अस्तित्‍व ग्रहण करता है; इसलिए अपने इतिहास का ज्ञान ही किसी जाति का आत्‍मज्ञान है।’ यह जो इतिहासबोध और इतिहास के ज्ञान की जरुरत है यह जरुरत ही नवजागरण को राहुल सांकृत्यायन के विपुल रचना संसार से जोड़ती है। अगर राष्ट्रनिर्माण और जातीय ( मनुष्यगत) आत्मज्ञान की अभिलाषा और संघर्ष को हम प्रस्थान बिंदु मान लें तो राहुल सांकृत्यायन का साहित्यिक वैभव उस बिंदु को लेकर खींची गई लकीर है। एक और बात है कि हिंदी नवजागरण के जो शिखर हैं वो तो राहुल सांकृत्यायन की रचनाओं में लक्षित होते ही है, अपितु जो इसकी सीमाएँ हैं वो भी इनकी कहानियों से जाहिर हो जाता है।

यहाँ मैं अपनी बात राहुल सांकृत्यायन की दो कहानियों के मार्फत रखूँगी। वो दो कहानियाँ उनके प्रसिद्ध संग्रह वोल्गा से गंगा नामक किताब से हैं। पहली कहानी है, निशा, जिसका समय बकौल रचनाकार, 631 पीढ़ी पहले का है, यानी तबकी कहानी है जब मनुष्य अपने आप को जानवरों से विलगाने के सारे जतन कर रहा था। पाषाण युग की कहानी है। और यह पक्ष कहानी में उभरा है कि कैसे मनुष्य पत्थर के औजार इस्तेमाल कर ले रहा है जबकि अन्य जानवर नहीं कर पा रहे। मातृ सत्ता का समय है। यानी सबकुछ प्राकृतिक है। मनुष्य का दखल इतना भर हो पाया है कि उसने पत्थर साध लिया है। और इस पत्थर साधना से मनुष्य, भेड़ियों तथा सफेद भालुओं ( पोलर बियर ) पर भारी पड़ने लगा है। यह उस दौर की कहानी है। यह संग्रह की पहली कहानी भी है, यानी राहुल सांकृत्यायन जहाँ अपनी जड़ों की तलाश में लौटते हैं, उसका पहला छोर।

दूसरी कहानी है, सुमेर। इस कहानी का समय काल ईस्वी सन 1941 बताया है। यानी वह दौर जिसमें मनुष्य ने प्रकृति पर लगभग विजय पा लिया है। सत्ता पितृसत्ता हो चुकी है। और जैसा कि लुटेरे करते हैं, यानी विजय पाने के बाद विजित इलाकों को नष्ट करना, उसी पथ पर मनुष्य भी अग्रसर है।

इस संग्रह के दोनों छोर की कहानियों को पढ़ते हुए प्रथम दृष्टया जो बात खुलती है कि जहाँ पहली कहानी में मानव सभ्यता स्थापित करने के लिए रक्तिम संघर्ष है वहीं आखिरी कहानी में एक दूसरे के खून की प्यासी हो चुकी मानव निर्मितियों का संघर्ष है। इसी में ‘सुमेर’ जैसे इक्के दुक्के पात्र भी हैं जो वास्तविक संसार का प्रतिनिधित्व कम करते हैं, बल्कि वो लेखक की सदिच्छा का मूर्त रूप हैं।

वोल्गा से गंगा में जिस इतिहास बोध या जाति बोध की यात्रा रचित है वो इस मुकाम पर पहुँचेगा, इसकी कल्पना शायद राहुल सांकृत्यायन स्वयं में भी नहीं की होगी। जबकि उनके विचार पक्ष इतने उजले किन्तु हावी हैं कि कहानियों को पल भर के लिए वो भटकने नहीं देते। फिर भी अगर यह सभ्यता यात्रा हाथ से निकलती दिख पड़ती है तो उसके संकेत भी इसी सभ्यता में दिखते हैं।

‘निशा’ कहानी छः सौ इक्कतीस पीढ़ियों पहले की कहानी है। कहानी एंगेल्स की उस स्थापना को जैसे पारिभाषित करती है जिसमें वो ‘वानर से नर बनने में श्रम की भूमिका’ की बात करते हैं। कहानी का प्रस्थान बड़े सलीके से राहुल सांकृत्यायन मनुष्य बनाम जानवर के विचार से काढ़ते हैं। दो पहाड़ी गुफा हैं। एक के भीतर कुछ मनुष्यों का निवास है। जिसमें एक बूढ़ी औरत ‘रोजना’ और कुछ बच्चे हैं। बच्चे खेल रहे हैं। बाकी जो अधेड़ तथा युवा स्त्री-पुरुष हैं, और जिनका नेतृत्व निशा नामक महिला कर रही है, वो शिकार यात्रा पर निकले हैं। वो ‘दूसरी’ पहाड़ी गुफा तक पहुंचते हैं। इस गुफा में चार पहाड़ी भालू या सफेद भालू ( पोलर बियर ) हैं, उनमें एक भालू का बच्चा है।

ठीक इसी बिंदु से ‘वोल्गा से गंगा’ की सभ्यता यात्रा शुरु होती है।

हालाँकि परिवार शब्द और उसके अर्थ उस समय आकार नहीं लिए हुए हैं लेकिन वर्तमान की जमीन पर खड़े होकर अगर देखें तो कहेंगे कि मनुष्य का परिवार बुद्धि विवेक का प्रयोग जहाँ शुरु कर चुका है, अन्य जीव शक्तिशाली होने के बावजूद परास्त हुआ जाता है। जितने मनुष्य शिकार पर गए हैं वो घात लगाकर उन चारो भालुओं को मार देते हैं। कहानी उस समय को रचने का हर सम्भव सार्थक प्रयास करती है।

यह पढ़ते हुए हुए रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि वो कौन सी पीढी थी जो जानवरों की भांति शिकार का गर्म गर्म रक्त पीती थी, बिना पकाए मांस खाती थी, और फिर जो बच जाए उसे खींच कर गुफा तक ले आती थी। इसी क्रम में यानी मारे हुए भालुओं को गुफा तक लाने के क्रम में मनुष्यों के इस झुंड का सामना भेड़ियों के झुंड से होता है। सभ्यता यात्रा में यह संघर्ष, भेड़ियों और मनुष्यों का, शायद मनुष्यों बनाम मनुष्यों के संघर्ष के बाद सबसे लंबे समय तक चला संघर्ष है।

कहानी में भेड़ियों से हुए संघर्ष का पक्ष बड़े सजीव ढंग से वर्णित है। आप देखते हैं कि मानव समूह पहली बार रणनीति बनाता दिख रहा है। वो सभी स्त्री पुरुष इकट्ठा हो जाते हैं। संभवत: सबकी पीठ एक दूसरे से सट जाती है और वो गोलाई में खड़े हो जाते हैं। लेकिन हथियार के नाम पर उनके पास पत्थर के चाकू और कुछ लट्ठ हैं। पहले घेराव में वो एक भालू को भेड़ियों के लिए छोड़कर उन्हें चकमा देने में सफल हो जाते हैं। मानव झुंड भाग निकलता है। लेकिन यह चकमा सफल नहीं हो पाता। भालू खत्म करने के बाद भेड़ियों का झुंड फिर उन तक पहुँच जाता है और उन्हें घेर लेता है। यहाँ निर्णायक संघर्ष होता है। मनुष्य जहां कुछ भेड़िये मार गिराता है और भेड़िये भी इस मानव समूह से दो इंसानों को खींच लेने में सफल हो जाते हैं। बड़ा ही कारुणिक दृश्य है। बाकी बचे मनुष्य जानते हैं कि अगर भेड़ियों के चंगुल से अपने दो साथियों को बचाने की कोशिश करेंगे तो और न जाने कितने लोग मारे जाएंगे। इसलिए उन्हें छोड़ कर ये लोग लौट आते हैं। गुफा में उनका इतंजार हो रहा है।

बाहरी दुनिया से उस युग के मनुष्य का संघर्ष रचने के बाद कथाकार मानव समूह के भीतर के संघर्ष की तरफ रौशनी करता है। एक बार पुनः हम उसी मुश्किल से दो चार पाते हैं कि आज के समय में खड़े हो कर उस समय की संरचना को कैसे समझें? जैसा पहले मैंने बताया कि परिवार का ‘कॉन्सेप्ट’ नहीं है लेकिन वह प्रक्रिया भी न हो, प्रेम लालसा आदि की प्रक्रिया, यह तो संभव नहीं, इस क्रम में सन्ततियाँ तो हैं लेकिन इनके-उनके बीच मानवीय संवेदना के अलावा दूसरा कोई कायम रिश्ता नहीं है। इस बात को राहुल सांकृत्यायन ठहर कर समझाते हैं। प्रेम या संसर्ग के लिए भी कोई बंधन नहीं है। मसलन् समूह में जो सुदर्शन युवक ‘चौबीसा’ युवक है, जो निशा की ही संतति है, निशा खुद उसके साथ रहती है क्योंकि निशा ही उस समूह का नेतृत्व करती है, इसलिए यहाँ वो अपनी सत्ता और शक्ति का इस्तेमाल कर लेती है, जबकि ‘लेखा’ नामक युवती के लिए उस समूह के अधेड़ पुरुष रह जाते हैं।

आज की खुर्दबीन से देखें तो न जाने क्या क्या दिख जाए लेकिन हमें यह समझना होगा कि दरअसल वह वास्तव में मानव का सभ्यता की ओर बढ़ाया गया पहला कदम है, मनुष्य के पास सिवाय ‘बेसिक इंस्टिंक्ट’ के और कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। सबकुछ विकसित होना बाकी है। कहानी में एक जगह कथाकार कहता भी है कि अभी मेरा-तेरा वाद वाला युग नहीं आया था।

तो वह जो पाषाणयुगीन मनुष्य है, जो गुफाओं में रह रहा है, जिसने ‘स्वर्ण-फूल’  यानी आग को अपने अधीन नहीं लिया है, जिसके सामने प्रकाश खुलना बाकी है, उस मनुष्य तक की यात्रा कथाकार करता है, और कथाकार का अभीष्ट वही है, अपना अतीत जानना, पीढ़ियों की यात्रा जानना, समझना तथा उसे पुनःसृजित करना। यही वो बिंदु हैं जहाँ राहुल सांकृत्यायन नवजागरण के प्रमुख उद्देश्य ‘मानव इतिहास का ज्ञान या कह लीजिए, इतिहासबोध’ से मुखातिब होते हैं।

यहाँ से आगे कहानी में एक तेज घुमाव आता है, ठीक उस नदी वोल्गा की तरह जिसमें कथा पात्र डूबते हैं। कहने को तो कथाकार ने यह कह दिया है कि यह युग मेरा तेरा वाद का युग नहीं था लेकिन प्रेम की भाँति ही ईर्ष्या भी मनुष्य का मूल स्वभाव है। जब निशा देखती है कि युवती लेखा शिकार आदि में दक्ष है और वो निशा की जगह ले सकती है तो उसके भीतर असुरक्षा और डाह मिश्रित एक भाव जन्म लेता है और वह ईर्ष्या शक्ति इस कदर ताकतवर है कि निशा, ‘लेखा’ से जन्में एक बालक को बहाने से वोल्गा में बहा देती है। हालाँकि लेखा यह देखकर बालक को बचाने की खातिर वोल्गा में छलाँग लगा देती है लेकिन बालक को बचाने के उपक्रम के साथ वो निशा को भी खींच लेती है।बालक तो बच नहीं पाता और तीनों ही जल समाधिस्थ हो जाते हैं।

जिस निर्दोष युग की रचना राहुल सांकृत्यायन करना चाह रहे होंगे इस कहानी में, उसके मुकाबले यह कहानी का दारुण अंत है। आज जो विमर्शों ने नए मानदंड खड़े किए हैं, जिनमे आप किसी समूह विशेष की तारीफ तो उस पर आरोपित गुणों से कर सकते हैं लेकिन आलोचना या शिकायत आपको वैयक्तिक ही करनी होगी, समूहों को आलोचना से परे मान लिया गया है, वैसे विमर्शवादी दौर में यह काफी ‘बोल्ड’ कहानी मानी जायेगी कि ईर्ष्या जैसे दुर्गुण को कथाकार ने स्त्री समूह पर आरोपित किया है।

जिस तरीके से पाषाण युग के स्थितियों और चरित्रों की रचना राहुल करते हैं वो मानीखेज है। लगता है हम उस युग में ही उतार दिए गए हैं। चरित्रों की वस्त्र सज्जा, उनके हाव भाव, भौगोलिक परिस्थितियाँ, सब की रचना वस्तुनिष्ठता के साथ हुई है। यहाँ तक कि भाषा भी उसी अंदाज में है। कोई भी संवाद पूरे नहीं हैं। संवाद के स्थान पर शब्द भर हैं। संज्ञाएँ भर हैं। यह दर्शाता है कि भाषा भी अभी विकसित हो रही थी।

यहाँ एक खटकती हुई सी बात है जो नवजागरण की सीमाओं के तरफ इशारा करती है। मैं पहले ही स्पष्ट कर दूं कि अगर नवजागरण के संदर्भ में बात न हो रही होती तो इधर ध्यान दिलाना शायद अनुचित होता। लेकिन जो सीमाएँ नवजागरण की उजागर हुईं उनमें से एक है नवजागरण का भाषा के स्तर तक सिमट जाना। मसलन् 1840 के इर्द गिर्द जिस हिन्दू सभ्यता को ईसाई धर्म से खतरा था, वह 1880 आते न आते हिंदी बनाम उर्दू कैसे हो जाता है, यह समझना आज भी मुश्किल है।

नामवर सिंह अपने इसी आलेख में लिखते हैं: 1840 में अक्षयकुमार दत्त ने एक ब्राह्मों सभा में भाषण देते हुए कहा था : ‘हम एक विदेशी शासन के अधीन हैं, एक विदेशी भाषा में शिक्षा प्राप्‍त करते हैं, और विदेशी दमन झेल रहे हैं, जबकि ईसाई धर्म इतना प्रभावशाली हो चला है गोया वह इस देश का राष्‍ट्रीय धर्म हो। …मेरा हृदय यह सोचकर फटने लगता है कि हिंदू शब्‍द भुला दिया जाएगा और हम लोग एक विदेशी नाम से पुकारे जाएँगे।’ दूसरी तरफ शमशुर्रहमान फारुखी की किताब उर्दू का आरंभिक युग पढ़ते हुए यह ख्याल बार बार मन में बना रहता है कि यह नवजागरण आखिर किसके हित में जाकर खड़ा हुआ।

राहुल सांकृत्यायन का लेखन ऐसी किसी संकीर्णता का शिकार नहीं रहा होगा यह तय है लेकिन जिस अंदाज से क्लिष्ट हिंदी या संस्कृतनिष्ठ हिंदी का प्रयोग इस कहानी में या आगे की कहानियों में दिखता है, उससे बरबस ही यह ख्याल आ जाता है। संस्कृतनिष्ठ हिंदी के प्रयोग के लिए सबसे बड़ा डिफेंस तो इस कहानी का रचनाकाल ही है लेकिन नवजागरण के संदर्भ में पढ़ते ही भाषा का यह द्वंद सामने आ जाता है।

दूसरी कहानी या कह लें संग्रह वोल्गा से गंगा की आखिरी कहानी ‘सुमेर’ में नवजागरणीय अभ्युदय का अचूक पाठ मिलता है। बातचीत के क्रम में सुमेर, ओझा से कहता है, गाँधी के जो विचार जाति व्यवस्था बनाए रखने को लेकर है, वो दरअसल अपनी सभ्यता को अंधकार युग में खींच ले जाने की तैयारी है।

महापंडित राहुल सांकृत्यायन का यह कथन हैरत में डाल देता है। आज जिस बात को लेकर लंबे लंबे ग्रंथ लिखे जा रहे हैं, उसे वो महज एक वाक्य में इंगित कर गए हैं। इस कहानी का समय वर्ष 1941 है।

अगर निशा नामक कहानी मानव सभ्यता के सृजन के शुरुआती संघर्षों की कहानी है तो सुमेर उस सभ्यता की समीक्षा है। यह मलवे के किसी निराश मालिक का इकबालिया बयान है कि हमने इस दुनिया का क्या कर डाला! ओझा और सुमेर के संवाद और फिर सुमेर का युद्ध में तारपीडो चलाने का आत्मघाती निर्णय उस पूरी संस्कृति का ध्वंश की तरफ इशारा करती है जिसकी कोमल कल्पना कवियों या सूफियों ने की होगी। यह कहानी उस अस्वीकार्य किन्तु अपरिहार्य आगत की दास्तान है जिसमें युद्ध नियम है और वर्चस्व लक्ष्य है। यह वर्चस्व या तो हथियारों के दम पर मिलना है या सिद्धांतों के। निशा ने  जिन भेड़ियों से अपने समूह को तीन हजार वर्ष पहले बचाया था, वही भेड़िये बंदूकों और अन्य हथियारों के ट्रिगर पर अपनी उंगली रखे खड़े हैं।

दिखने में यह कहानी मानवीय सद्गुणों से ओतप्रोत और मनुष्य मात्र के सुख के लिए बेचैन युवक सुमेर की कहानी है लेकिन नवजागरण के संदर्भ में देखें तो यह कहानी की शक्ल में मानव सभ्यता पर मानव द्वारा रचे जारहे गुनाहों की चेतावनी भी है।

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पुस्तकें भी लेखकों से लुका-छिपी का खेल खेलती हैं: अशोक वाजपेयी

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अशोक वाजपेयी हिंदी के सबसे पढ़ाकू लेखक हैं। विश्व साहित्य का उनका संग्रह और ज्ञान अनुकरणीय है। इस उम्र में भी उनकी सक्रियता, उनका अध्ययन प्रेरक है। लॉकडाउन के दौर में जानकी पुल ने उनसे कुछ सवाल किए और उन्होंने जो जवाब दिए उसका पहला प्रभाव मेरे ऊपर यह पड़ा कि उनकी द्वारा गिनवाई गई किताबों को मैं नेट पर खोजने लगा। आधी रात तक दो किताबें मेरे एक मित्र ने ईपब फ़ोर्मेट में भेज दी। व्लादिमीर नोबाकोव की ब्लादिमीर नाबाकोव की गद्य-पुस्तक ‘थिंक, राइट, स्पीक’ और जूलियन बर्न्स का उपन्यास ‘दि ओनली स्टोरी’। ईपब फ़ोर्मेट फ़ोन पर किताब पढ़ने के लिए आइडियल फ़ोर्मेट है। बाक़ी किताबों की तलाश जारी है। बड़े लेखक यही करते हैं, आपको कुछ लिखने कुछ नया पढ़ने की प्रेरणा दे जाते हैं। आप अशोक जी की यह बातचीत पढ़िए- प्रभात रंजन

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1.आप आजकल क्या पढ़ रहे हैं?

अशोक जी– पढ़ने, कुछ पुस्तकों-चित्रों आदि की सफ़ाई करने, धूल झाड़ने और सुबह-शाम अपनी हाउसिंग सोसायटी में 5-6 किलोमीटर की सैर के अलावा कुछ ख़ास नहीं कर रहा हूँ. तीन सप्ताह से घर में हूँ तो हर दिन बड़ी बेचैनी, घबराहट होती है.

बहुत सारी पुस्तकें हैं, अनपढ़ी- अधपढ़ी. सो उन्हें पढ़ने की कोशिश करता रहता हूँ. सूसन सोण्टैग की विशाल जीवनी पढ़ डाली, ईराकी कवियत्री दुन्या मिखाइल, मोरक्कन कवि अब्दललतीफ़ लरबी, पुर्तगाली कवि यूजोनीओ द’ अन्द्रादे, फ़्रेंच कथाकार मार्सेल प्रूस्त की कविताओं के संग्रह आदि उलट-पुलट रहा हूँ. बीसवीं शताब्दी की कविता पर ब्रिटिश कवि जॉन बर्नसाइड की एक आलोचना पुस्तक क़िस्तों में पढ़ रहा हूँ और ऑडेन पर एक आलोचना पुस्तक भी इसी तरह. वामन हरि देशपांडे की पुस्तक ‘घरानेदार गायकी’, सुधीरचंद्र द्वारा लिखित चित्रकार भूपेन खख्खर की जीवनी भी धीरे-धीरे पढ़ रहा हूँ. उदयन वाजपेयी का उपन्यास ‘क़यास.’ पूरा पढ़ लिया, अनामिका का ‘आईनासाज़’ ख़त्म होने को है. जूलियन बर्न्स का उपन्यास ‘दि ओनली स्टोरी’ भी निकालकर पढ़ने रखा है. पीयूष दईया का संग्रह ‘त(लाश)’ पढ़ गया और रहीम पर हरीश त्रिवेदी का रोचक और कुछ नयी समझ देने वाला निबंध भी. ब्लादिमीर नाबाकोव की गद्य-पुस्तक ‘थिंक, राइट, स्पीक’ से कुछ निबंध और इंटरव्यू पढ़ गया हूँ.

2. महामारी और लॉकडाउन के इस दौर में आपको किसी किताब की याद आ रही है? 

अशोक जी– पुस्तकें तो बहुत सारी याद आती हैं. उनकी सूची इतनी लम्बी है कि दूसरों के लिए उबाऊ होगी या आत्मप्रदर्शन करने जैसी लगेगी. जैसे रिल्के की ‘दुयोनो एलिजीज़’ के मेरे पास 7-8 अंग्रेज़ी अनुवाद हैं पर वे कहाँ एक साथ पड़े हैं, जिन्हें पर पुस्तकों की क़तार-पीछे-क़तार में खोजने में मुश्किल हो रही है. पुस्तकें भी लेखकों से लुका-छिपी का खेल खेलती हैं!

3.फ़ेसबुक का उपयोग करते हुए आपको कैसा लग रहा है? 

अशोक जी– मुझे फ़ेसबुक पर कुछ ख़ास करना सिरे से नहीं आता. मैं नयी टेक्नॉलजी के इस्तेमाल और हुनर में निंदनीय रूप से पिछड़ा और अक्षम हूँ. कभी-कभी संक्षेप में कोई टिप्पणी भर करने के क़ाबिल हूँ: इसलिए फ़ेसबुक पर नहीं के बराबर हूँ.

4. क्या आप ऑनलाइन किताबें भी पढ़ पाते हैं? 

अशोक जी– क़तई नहीं. उसकी कभी ज़रूरत भी नहीं लगी. पुस्तकें अधिकतर ख़रीदकर अपने निजी संग्रह से ही पढ़ने की आदत है – मैंने पुस्तकालय में बैठकर पुस्तकें बहुत कम पढ़ी हैं.

5.कविता आच्छादित इस काल में कविता का भविष्य आपको कैसा लगता है? 

अशोक जी– भविष्यवक़्ता नहीं हूँ – इतना भर है कि मनुष्यता के ज्ञात इतिहास में कोई भी समय कविताविहीन नहीं रहा है. इस समय सारे संपर्क बहुत क्षीण- शिथिल- विफल होने के कारण शायद कविता का संक्षिप्त कलेवर कुछ अधिक प्रासंगिक लगने लगता है. हो सकता है कि इस कारण स्थितियाँ सामान्य होने पर कुछ लोगों की कविता में इस समय पैदा हुई रुचि कुछ टिकाऊ हो जाये. पर ऐसा नहीं लगता कि कविता की समशीतोष्ण जलवायु में बहुत अंतर आयेगा. वह हमारे समय में अल्पसंख्यक है सो वही रहेगी.

6.ऑनलाइन पाठकों के लिए कोई संदेश?

अशोक जी- जो भी पाठक हैं वे ध्यान-समझ-संवेदना से पढ़ते रहें यही स्वस्तिकामना की जा सकती है: यह भी कि साहित्य इन्हें इस क्रूर- भयावह समय में मनुष्य बने रहने, सारे संपर्क लगभग टूट जाने के बावजूद संपर्क-संवाद, संग-साथ, पुरा-पड़ोस में भरोसा बनाये रखने, अनेक विकृतियों के बावजूद भाषा की सहज मानवीयता और विपुलता की सम्भावना को मिलाये रखने, आदमी के हर हालात में इंसान होने की ज़िद को टिकाये रखने में मदद करता रहेगा.

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उनके दामन पर गुरुर के छींटे कभी नहीं पड़े:शांति हीरानन्द से यतीन्द्र मिश्र की बातचीत

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आज मशहूर गायिका शांति हीरानंद का निधन हो गया। वह बेगम अख़्तर की शिष्या थीं और उन्होंने बेगम अख़्तर पर एक किताब भी लिखी थी। उनको याद करते हुए उनकी एक पुरानी बातचीत पढ़िए। बातचीत प्रसिद्ध कवि-लेखक यतींद्र मिश्र ने की है, जिन्होंने बेगम अख़्तर पर एक यादगार किताब संपादित की थी ‘अख्तरी। बातचीत पढ़िए-

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यतींद्र मिश्र

आपने बेगम साहिबा पर क़िताब लिखी है- ‘बेगम अख़्तर: द स्टोरी आफ माई अम्मी!’ जिनसे लगभग दो दशकों तक आपने सीखा भी है। क्या आपको ऐसा लगता है कि बेगम अख़्तर ने बहुत सारी बातें आपसे छिपायी भी होंगी, जिनका ज़िक्र किताब में नहीं है। या इस तरह कह सकते हैं कि आपने जानकर भी उन प्रसंगों को दुनिया के सामने लाना ज़रूरी नहीं समझा?

शांति हीरानन्द

हाँ, बिल्कुल। मेरे लिए वही सच था, जो उन्होंने बताया। अब वो छिपाना चाहती थीं, तो किसी वजह से कोई बात ज़रूर रही होगी। जो वो बताना चाहती थीं, उन्होंने वह सब मुझे बताया और अपनी ज़िन्दगी के बारे में भी खुलकर बातें साझा की हैं।

जो उन्होंने मुझे नहीं बताया है, कमोबेश यह हुआ है कि फिर मुझे थोड़ा बहुत, बाद में भी कुछ पता लगा, जो उनकी ज़िन्दगी और संगीत के लिए बड़े ज़रूरी अर्थ नहीं रखता। इसलिए मैंने बहुत सारी कहानियों और सुनी-सुनायी बातों में दिलचस्पी ही नहीं ली है। जब बेगम साहिबा ख़ुद ही सामने मौजूद थीं, तो जितना उन्होंने मुझे अपनी खुशी से बता दिया है, उतना ही मैं उनके बारे में जानने का हक़ रखती हूँ।

यतीन्द्र मिश्र

एक सुन्दर प्रसंग आपने अपनी क़िताब में यह छेड़ा है कि इश्तियाक अहमद अब्बासी साहब को संगीत से बहुत प्रेम नहीं था। वे जब कोर्ट चले जाते थे, तभी बाजा वगैरह निकलता था और संगीत का रियाज़ शुरु होता था।

शांति हीरानन्द

जी हाँ! जब अब्बासी साहब कचेहरी चले जाते थे, तब हमारा बाजा निकलता था। मगर एक बात यह भी है कि अम्मी (बेगम अख़्तर) हम लोगों को बाजा नहीं बजाने देती थीं। रियाज़ के समय बाजा वे खुद पकड़ती थीं और तानपूरा, मैं लेकर बैठती थी। कभी-कभी तो चार-चार घण्टे रियाज़ होता था और जब उनका मन नहीं होता था, तो कहती थीं ‘बिट्टन (शान्ती हीरानन्द को बेगम अख़्तर प्यार से यही नाम लेकर बुलाती थीं) आज जी नहीं है। आज रियाज़ न करो। कुछ खाओ-पियो।’

आपने जो यह पूछा है कि अब्बासी साहब को संगीत पसन्द नहीं था, तो ऐसा नहीं है। वे संगीत को पसन्द करते थे, मगर पुराने किस्म के आदमी थे। बैरिस्टर थे, तो चाहते थे कि उनकी लखनऊ में इज्ज़त बनी रहे। उन्होंने अम्मी से वादा भी लिया था कि लखनऊ में कभी नहीं गायेंगी, सिवाय रेडियो के। सिर्फ़ एक दफ़ा, जब चीन से लड़ाई हुई थी तब उन्होंने एक फोरम के लिए गाया था। मुझे आज भी अच्छी तरह याद है कि उस आयोजन में सिर्फ़ महिलाएँ थीं और लखनऊ का एक भी आदमी उसके अन्दर शामिल नहीं था। सिर्फ़ साजिन्दे ही मर्द थे। एक ग़ज़ल मुझे आज भी याद है- ‘वतन पर जीना, वतन पर मर जाना’। शादी के बाद उन्होंने लखनऊ में कभी नहीं गाया है, जहाँ तक मुझे मालूम है। इसके अलावा कहीं गाया हो, तो मुझे इल्म नहीं है।

यतीन्द्र मिश्र

आप जब सीखती थीं, तो रियाज़ का क्या पैटर्न था? कितने घण्टे सिखाती थीं वे? हर दिन की तालीम कैसी होती थी?

शांति हीरानन्द

शुरु-शुरु में तो बस यही होता था कि वे कभी भी कहीं बैठकर बाजा निकालती थीं और मुझसे सरगम कहलवाती थीं- सा रे गा मा पा धा नी सा। वे पूरब की थीं और पटियाले का अन्दाज़ था उनका, जो उनके सिखाने में मेरी कला में उतरा हुआ है। बेगम साहिबा फ़ैज़ाबाद से थीं, तो फ़ैज़ाबाद का रंग भी उनमें मौजूद था। एक तरफ पंजाब अंग के खटके-मुरकियों से समृद्ध थीं, तो दूसरी ओर ठेठ देसी ढंग से ठुमरी गाती थीं, जिनमें कभी-कभी बनारस के लोक-गीतों की शैली का प्रभाव भी दिखता है। उर्दू में पारंगत थीं, तो वह अदब भी गायिकी में झलकता था। मुझे लगता है कि अम्मी ने पंजाब और अवध की गायिकी के साथ-साथ पूरबपन भी खुद की तालीम में उतारा हुआ था। इन सब चीज़ों का प्रभाव उनकी शिष्याओं में आया है।

उन्होंने मेरी तालीम राग तिलंग से शुरु की थी। थोड़ा सा तिलंग सिखाया और उसके साथ गुनकली का ख्याल शुरु किया। उनका यही तरीका था। सब चीज़ इकट्ठा शुरु कर देती थीं। जब उनका जी लगता था, तो शाम के तीन-चार बजे तक गवाती रहती थीं। और नहीं, तो कहती थीं- ‘बिट्टन! आज नहीं, कल आना।’ उस समय बिल्कुल भी रियाज़ नहीं होता था। हालाँकि मुझे तो कुछ पता ही नहीं था कि संगीत क्या होता है? गाने-बजाने का खास काम किस तरह करते हैं। मैं बिल्कुल कोरी थी, जिसकी तालीम में अम्मी ने प्यार से रंग भरा है। उनकी सोहबत में रहते हुए और उनकी खिदमत करते-करते न जाने क्या कुछ सीख गयी मैं। इसी के साथ मैंने देश भर में न जाने कितनी यात्राएँ उनके साथ की हैं। उनका फरमान आता था कि बिट्टन कल फलाँ शहर जाना है और मैं घर से सामान लेकर उनके साथ हो लेती थी।

यतीन्द्र मिश्र

आपने गुनकली की बात कही है, उसका रियाज़ किस तरह होता था?

शांति हीरानन्द

सबसे पहले राग तिलंग की ठुमरी ‘न जा बलम परदेस’ मैंने उनसे सीखा। वे तिलंग के पलटे और गुनकली का ख्याल ‘आनन्द आज भयो’ मुझे सिखा रही थीं। वो सिखाती थीं और बहुत छूट भी देती थीं कि जो जी में आए वैसे गाओ। कैसे भी गाओ, चाहे मेरे (बेगम अख़्तर) पीछे-पीछे गाओ।

मेरी समझ में कुछ नहीं आता था, कहाँ जाऊँ, कैसे करूँ? लगता था, हर तरफ से दरवाजे बन्द हैं। ऐसा लगता था कि उनसे मिलने से पहले क्यों नहीं यह सब सीखा मैंने। क्योंकि मैंने सीखा नहीं था इतना, तो इन्हीं के साथ गा-गा कर मुझे अब पता चल पाया है कि दरअसल वो क्या गाती थीं? ….और हमने उनसे तालीम में क्या सुन्दर चीजें़ सीख ली हैं। उनके जाने के बाद मैंने यह सोचना शुरु किया कि आवाज़ तो है आपके पास, मगर उसे सुन्दर और वजनदार कैसे बनाते हैं। मुझे याद आता है कि अम्मी अगर किसी राग को ध्यान में रखकर एक सोच पर कोई चीज़ ख़त्म करती थीं, तो दूसरे ही पल उसी से नयी चीज़ भी शुरु कर देती थीं। उनकी एक ख़ासियत यह भी थी कि वो जिस राग में चाहती थीं, ठुमरी बना लेती थीं। अगर उन्होंने कौशिक ध्वनि में चाहा, तो उसमें बना ली। अगर हेमन्त उन्हें भा गया, तो हेमन्त में ठुमरी गा लेती थीं। मुझे तो यहाँ तक याद है कि वे इस तरह भी गाती थीं कि अगर एक ठुमरी उन्हें पसन्द आ गयी, मसलन उसके बोल भा गये, तो वही ठुमरी वो खमाज में, भैरवी में, कल्याण में, पीलू में और न जाने किन रागों में गाने लगती थीं। उनका मिजाज ही ऐसा था। एक चीज़ जो बेगम अख़्तर को पसन्द आयी, तो दुनिया भर के रागों और तालों में उस बन्दिश को गाने-बजाने का सिलसिला फिर शुरु हो जाता था।

यतीन्द्र मिश्र

ठुमरी और ख्याल के अलावा उन्होंने और क्या सिखाया?

शांति हीरानन्द

मुझे आश्चर्य होता है यह सोचकर कि अम्मी ने हम लोगों को ख्याल और ठुमरी के अलावा ज़्यादा चीज़ें क्यों नहीं सिखाईं। जहाँ तक मुझे याद है उन्होंने कजरी बहुत ज़्यादा सिखायी है और कुछ ठुमरी व दादरे। ग़ज़ल वे ज़रूर बहुत मन से सिखाती थीं, जिसकी हम लोगों को भी लत लगी हुई थी कि अम्मी के पीछे बैठकर गाना है, तो ठीक से सीख लें और अपनी आवाज़ दुरुस्त कर लें। उन्होंने चैती, बारामासा, ब्याह के गीत, सेहरा और मुबारकबादी नहीं सिखायी। जब भी मैं कुछ कहती थी, तो हमेशा ठुमरी या कजरी सिखाने पर आ जाती थीं। होरी भी जो मैंने उनसे सीखी है, वह ठुमरी के चलन में है।

यतीन्द्र मिश्र

आपने उनके साथ ढेरों यात्राओं का ज़िक्र किया है। उनके साथ कौन-कौन से शहरों की यादें आपकी स्मृति में आज भी सुरक्षित हैं?

शांति हीरानन्द

कितने किस्से आपको सुनाऊँ? (हँसते हुए) यह तो यादों का पिटारा है, जितना खोलते जायेंगे, खुलता जायेगा। उनके साथ मैं इतनी जगहें गयी हूँ कि आज ठीक से याद करने पर मुझे याद भी न आयेगा। फिर भी जिन शहरों की स्मृतियाँ बची हुई हैं उनमें- अमृतसर, जालन्धर, श्रीनगर, जम्मू, बाॅम्बे, कलकत्ता, पटना अच्छी तरह याद हैं। मध्य प्रदेश में इन्दौर, भोपाल से लेकर वे मुझे कर्नाटक के धारवाड़ और हुगली तक ले गयी थीं। उस ज़माने में हर दिन एक रेडियो स्टेशन खुल रहे थे और हर जगह से ही उनका बुलावा आता था प्रोग्राम करने के लिए। मैं उनके साथ हर जगह गयी हूँ। वे ऐसी शानदार महिला थीं कि अगर आप संगीत, तालीम और मंच या रेडियो पर न भी हों, तो भी उनके सम्मोहन से बच पाना मुश्किल होता था। वे जहाँ कहती थीं, वैसे ही मैं चली जाती थी। मेरी मजाल नहीं थी कि मैं एक शब्द कह जाऊँ। जो अम्मी ने कहा, वो मैंने किया। जहाँ वे ले गयीं, भले ही वह बहुत छोटा शहर क्यों न हो, तीरथ मानकर उनके साथ पीछे-पीछे चली गयी।

यतीन्द्र मिश्र

बेगम अख़्तर पहली महिला उस्ताद थीं, जिन्होंने बाक़ायदा गण्डा बाँधकर सिखाना शुरु किया।

शांति हीरानन्द

जहाँ तक मुझे याद है, उन्होंने मेरा गण्डा बाँधा सन् 1957 या 58 में। एक बार मुम्बई की एक मशहूर गाने वाली बाई नीलमबाई आईं और उन्होंने अम्मी से कहा कि- ‘तुम बिना गण्डा बँधवाए सिखा रही हो।’ तब अम्मी को लगा होगा कि गण्डा बाँधते हैं। मेरा गण्डा बँधा, जिसे उनके तबलिए मुन्ने ख़ाँ साहब ने बाँधा। मुझे गुड़ और चना खिलाया गया और मुझसे यह कहा गया कि आज से तुम बेगम अख़्तर की शिष्या हो। आज मैं इन सब बातों का मतलब समझ पाती हूँ और मन गर्व से भर उठता है कि वाकई मैं कितनी खुशनसीब थी कि बेगम अख़्तर साहिबा की शिष्या होने का मुकाम हासिल हुआ। मैं उनकी शागिर्द हुई, यह गायिका होने से बड़ी बात लगती है, आज भी मुझे।

यतीन्द्र मिश्र

जहाँ तक मेरी जानकारी है, आपके साथ अंजलि बैनर्जी का भी गण्डा बन्धन हुआ था?

शांति हीरानन्द

बिल्कुल सही फरमा रहे हैं। मेरे साथ अंजलि ही नहीं, बल्कि दीप्ति का भी गण्डा बन्धन हुआ था।  अंजलि बहुत अच्छा गाती थीं पर न जाने क्यों उसने बहुत पहले गाना छोड़ दिया। अम्मी जब उसको गवाती थीं, तो मुझे जलन होती थीं कि हाय कितना अच्छा गा रही है। (हँसती हैं) बाद में मैं ख़ुद रियाज़ करती थी, तो वो सब धीरे-धीरे मेरी आवाज़ से भी निकलने लगा, अम्मी जैसा चाहती थीं। बाद में जाकर मुझे यह इल्म हुआ कि अम्मी बहुत जतन करती थीं कि मैं कुछ बेहतर गा सकूँ।

यतीन्द्र मिश्र

आप कितने सालों तक उनकी शिष्या रहीं? मतलब मैं यह जानना चाहता हूँ कि उनके साथ कितने वर्ष आपने बिताए हैं?

शांति हीरानन्द

लगभग बाईस बरस। 1952 से लेकर सन् 1974 तक। 1962 में मेरी शादी हुई थी। फिर भी मैं लगातार अम्मी के सम्पर्क में थीं और लखनऊ आना-जाना, उनसे मिलना और सीखना होता रहता था।

यतीन्द्र मिश्र

जिगर मुरादाबादी से उनकी दोस्ती के बारे में कोई ऐसी कहानी या आपके सामने का कोई संस्मरण हो, जो आप यहाँ बताना चाहें?

शांति हीरानन्द

जिगर मुरादाबादी की वो बहुत शौकीन थीं। जिगर उनको बहुत अच्छे लगते थे और उनकी शायरी भी बेगम साहिबा को कमाल की ख़ूबसूरत लगती थी। वे उनको लेकर थोड़े रुमान में भी चली जाती थीं। उन्होंने तो कभी कुछ नहीं बताया, पर ऐसा मैंने सुना है कि एक बार जिगर साहब कहीं मुशायरा पढ़ रहे थे और वहाँ बेगम अख़्तर भी पहुँच गयीं। उन्होंने सन्देशा भिजवाया कि ‘जिगर साहब हम आपसे मिलना चाहते हैं’। इस पर जिगर साहब ने यह लिखकर पर्ची लौटाई कि ‘ज़रूर मिलिए, मगर आप अगर मेरी सूरत देखेंगी, तो शायद मिलने से ही मना कर देगीं।’ इस बात का बेगम साहिबा ने कोई जवाब नहीं दिया, मगर उन्होंने जिगर से दोस्ताना-नाता जोड़ लिया। वे जब कभी भी लखनऊ आते, तो बेगम साहिबा से मिलने जाते और उनकी बेगम भी साथ में होतीं।

एक बार का वाकया है कि जिगर साहब ने एक ग़ज़ल लिखी, जिसके बोल हैं- ‘किसका ख्याल कौन सी मंजिल नज़र में है/सदियाँ गुज़र गयीं कि ज़माना सफ़र में है/इक रोशनी सी आज हर इक दस्त-ओ-दर में है/क्या मेरे साथ खुद मेरी मंज़िल सफ़र में है।’ उन्होंने बेगम साहब से इसे गाने की गुज़ारिश की। बाद में अम्मी ने जिस बेहतरी से राग दरबारी में बाँधकर इसको गाया कि जिगर साहब भी इसे सुनकर उनकी ग़ज़ल गायिकी पर अपना दिल हार बैठे। अम्मी ने ही उनकी ग़ज़ल की बड़ी नायाब धुन बाँधी थी और गाया था- ‘कोई ये कह दे गुलशन-गुलशन/लाख बलाएँ एक नशेमन’।

और खाली जिगर साहब ही नहीं, दरअसल अम्मी की कमजोरी बेहतरीन शायरी थी। हर वो शायर, जो कुछ शानदार अपने शेर से कह देता था, उन्हें पसन्द आ जाता था। वे नये से नये शायरों के कलाम को तवज्जो देती थीं और पढ़कर मुस्कुराती थीं। उनका शमीम जयपुरी साहब से भी बहुत सुन्दर रिश्ता था और वे लखनऊ के उनके घर में अकसर आते थे। इसी तरह उनकी कैफ़ी साहब से बहुत बैठती थी। दोनों ही एक-दूसरे का बेहद सम्मान करते थे। कैफ़ी साहब इनका काम पसन्द करते थे और अम्मी तो उनकी ग़ज़लों पर पूरी तरह फिदा थीं। उन्होंने कैफ़ी साहब को बहुत गाया है। एक ग़ज़ल तो ग़ज़ब की बन पड़ी है- ‘इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े’।

यतीन्द्र मिश्र

मदन मोहन और बेगम अख़्तर का दोस्ताना कला की दुनिया में कुछ मशहूर दोस्तियों की तरह रहा है। एक-दूसरे के हुनर के प्रति सम्मान और अपनेपन के भाव से भरा हुआ। आप इस रिश्ते को किस तरह देखती हैं? आपका कोई व्यक्तिगत अनुभव, जो मदन मोहन और बेगम अख़्तर प्रसंग को समझने के लिए नयी रोशनी देता हो?

शांति हीरानन्द

मदन मोहन का उनसे बहुत दोस्ताना था। वो पहले लखनऊ रेडियो में थे, तो अम्मी के यहाँ आते-जाते थे। दोनों का एक-दूसरे के प्रति बहुत प्यार था। एक बात जो मुझे बेहद पसन्द है, वो ये कि मदन मोहन साहब अम्मी की बड़ी इज्ज़त करते थे। कभी-कभी ऐसा होता था कि लखनऊ फ़ोन आता था कि ‘अख़्तर मैं आ रहा हूँ दिल्ली से’, तो कहती थीं कि ‘मैं भी आ जाती हूँ’। इस तरह होटल के कमरे में जहाँ वे ठहरते थे, गाने-बजाने की महफ़िल सजती थी। मैं, अम्मी और मदन मोहन साहब अकसर ही मिलते थे। मेरा काम बस इतना था कि मैं खाने का बन्दोबस्त करूँ, मदन मोहन के लिए बीयर लेकर आऊँ। उनकी बीयर और अम्मी की सिगरेट चलती रहती थी और संगीत पर बहुत सुन्दर बातें वे दोनों करते थे। मुझे अच्छी तरह याद है कि जब वे मस्त होकर अम्मी को कोई धुन सुनाते थे, तो वे अकसर थोड़े लाड़ और नाराजगी से कहती थीं- ‘मदन तुमने मेरी बहुत सी ग़ज़लें चोरी करके अपनी फ़िल्मों में डाल दी हैं।’ इस तरह दोनों एक-दूसरे से बतियाते थे। इस शिकवा-शिकायत में मैंने सिर्फ़ प्रेम ही देखा है। मुझे वो दिन भी याद है कि जब अम्मी का इन्तकाल हुआ, तो वे उनकी क़ब्र पे जाकर जिस तरह फूटकर रोए थे, उससे मेरा दिल दहल गया था।

मदन मोहन सीधे सहज आदमी थे और अम्मी की कलाकारी के कायल। ठीक इसी तरह अम्मी भी उनके काम से इश्क़ करती थीं। मेरे देखे मदन मोहन और बेगम अख़्तर की दोस्ती जैसा रिश्ता कम ही मिलता है। ऐसे रिश्ते को पालने के लिए भीतर से एक कलाकार मन चाहिए और दूसरे के लिए इज्ज़त और ईमानदारी। दोनों में ये ख़ूब थी, तो दोनों में पटती भी थी।

हालाँकि मदन मोहन के अलावा मैंने अम्मी की इज्ज़त करते हुए लता मंगेशकर और नरगिस को भी देखा है। नरगिस जी तो उन्हें खाला ही कहती थीं और बहुत तमीज़ से पेश आती थीं। चूँकि अम्मी ने जद्दनबाई के पीछे बैठकर भी गाया है, इसलिए वे उन्हें बहुत ज़्यादा इज्ज़त देती थीं।

यतीन्द्र मिश्र

कोई ऐसा संस्मरण आपको याद है, जब मदन मोहन जी ने कोई फ़िल्म की धुन बनायी हो आप लोगों के सामने?

शांति हीरानन्द

इतना तो याद नहीं है। मगर अम्मी को ‘भाई-भाई’ फ़िल्म का लता जी का गाया हुआ गीत ‘कदर जाने न मोरा बालम बेदर्दी’ और उसकी धुन बेहद पसन्द थी। जब भी मदन मोहन से मिलती थीं, तो इस गीत की चर्चा ज़रूर छिड़ती थी और अकसर वे इसरार करके मदन मोहन से उनकी आवाज़ में ये गीत सुनती थीं।

यतीन्द्र मिश्र

शकील बदायूँनी की मशहूर ग़ज़ल के बनने का वह कौन सा किस्सा है, जिसके लिए कहा जाता है कि उसे उन्होंने अपने सफर के दौरान ही चन्द मिनटों में बना दिया था?

शांति हीरानन्द

शकील बदायूँनी साहब एक बाक़माल शायर के रूप में विख्यात हो गये थे। हालाँकि उस समय तक फ़िल्मों के लिए उन्होंने लिखना शुरु नहीं किया था। उनकी शायरी बहुत अच्छी थी और उस ज़माने में सुनी-पढ़ी जाती थी। मुझे आज भी अच्छी तरह याद है कि बम्बई से हम दोनों ही लखनऊ लौट रहे थे। जब ट्रेन आगे बढ़ने लगी, तो शकील साहब आए और उन्होंने अम्मी से खिड़की से ही हाल-चाल लिया और अपनी ग़ज़ल को उन्हें पकड़ा दिया। अम्मी ने यह ग़ज़ल मुझे सम्हाल कर रखने के लिए दे दी। सुबह जब भोपाल स्टेशन आया और गाड़ी रुकी, तो अम्मी की नींद खुली और उन्होंने चाय मँगवायी। चाय पीते हुए उन्होंने मुझसे कहा कि ‘बिट्टन वो ग़ज़ल, जो शकील ने मुझे दी थी, निकालो।’ मेरे ग़ज़ल देने पर उन्होंने एक बार उसे पढ़ा और अपना बाजा निकलवाया और थोड़ी ही देर में उसकी धुन बनायी- ‘ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’।

यतीन्द्र मिश्र

अपने गुरु को लेकर उनके आदर का कौन सा ऐसा वाकया है, जिसे याद करके आपको तसल्ली होती है और जिसे आप यहाँ बताना पसन्द करेंगी?

शांति हीरानन्द

कितनी बातें बताऊँ आपको। अब मेरी उम्र हो चली है और ऐसे समय में आप ये सब पूछने आए हैं, जब यादें बहुत धुँधली सी पड़ गयी हैं। मैं बस इतना जानती हूँ कि मैं जो भी हूँ, वो सब बेगम अख़्तर के कारण है। उन्हीं के साथ रही, उन्हीं की तरह पहना-ओढ़ा और उन्हीं की तबीयत से गाया-बजाया। मेरे पति डा. जगन्नाथ चावला से शादी से पहले मैंने सिर्फ़ यही इतना भर पूछा था कि ‘आप मुझसे मेरी अम्मी को तो नहीं छुड़ा देंगे, क्योंकि मैं उनके बग़ैर जी नहीं सकती और गाए बग़ैर रह नहीं सकती।’ वे खुशी-खुशी मान गये थे, तभी मैंने शादी की और वाकई डाक्टर साहब ने अपना वचन जीवन-भर निभाया। एक बात जो मुझे याद आती है और अपने बचपने पर हँसी आती है, वह यह कि अम्मी ने एक बार पूछा कि ‘क्या मैं मांसाहारी हूँ?’ और मेरे मना करने पर उन्होंने मेरे मुँह में जबरन चिकन का एक टुकड़ा डाल दिया। आप विश्वास नहीं करेंगे, लेकिन खाते वक़्त उसे मैंने अम्मी के प्रसाद के रूप में लिया और बिना किसी तर्क-वितर्क के उनके साथ मांसाहारी हो गयी। जिस दिन अम्मी इस दुनिया से गयीं, उस दिन से लेकर आज तक फिर मैंने कभी मांस या अण्डे का एक टुकड़ा भी अपने मुँह में नहीं डाला।

यही दीवानगी है अपने गुरु की जो शायद आपको बचकानी लगे, मगर मैंने पूरे समर्पण के साथ हर वो चीज़ स्वीकारी, जो मेरे गुरु की मंशा थी।

यतीन्द्र मिश्र

यह जो आपका संस्मरण है, वह गुरु-शिष्य परम्परा के रिश्ते की बड़ी ख़ूबसूरत नुमाइन्दगी करता है। यह बचकाना नहीं है, बल्कि बहुत कुछ सीख देने वाला भी है। इसी लिहाजा से मैं उनके मुहर्रम के प्रसंगों को भी जानना चाहता हूँ कि कैसे उनकी हिन्दू शिष्याओं ने मुहर्रम के सोज़ को बाँटने में अपने उस्ताद की मदद की है?

शांति हीरानन्द

मुहर्रम तो बेगम अख़्तर के यहाँ पूरे एहतराम के साथ मनाया जाता था। वे मुहर्रम को लेकर बहुत संजीदा थीं। ज़री जब सजाई जाती थी, तो बस एक आदमी को ही इजाज़त थी, जो उनके लिए काम करता था। उसका नाम श्याम सुन्दर था और वो बिजली का काम करता था। उसे ही ज़री सजाने का काम दिया जाता था। चाँदी के सामान निकलते थे, सभी को साफ करके ज़री सजती थी। मुहर्रम की सातवीं तारीख से उनके यहाँ खाना बनना शुरु होता था। नानवाई आते थे, जो नान और गोश्त वगैरह बनाते थे। ज़र्दा, मीठा चावल, गोश्त पुलाव और दाल-रोटी बनती थी। आप जानकर अचरज करेंगे कि ऐसी भीड़ जमा होती थी कि क्या कहने! सारा खाना ग़रीबों को बाँट दिया जाता था। सातवीं, आठवीं, नौवीं और दसवीं तारीख़ उनके लिए बड़े महत्त्व की थी। दसवीं तारीख़ को सुबह के समय उठकर जब ताजिया जाता था, तो मर्सिया पढ़कर रो-रोकर उसे विदा करती थीं। मर्सिया की शुरुआती लाईनें मुझे आज भी याद हैं, वे गाती थीं- ‘सफ़र है कर्बला से अब हुसैन का….’

मैं यह भी कहना चाहूँगी कि अम्मी ने कभी भी फ़र्क नहीं किया हिन्दू-मुसलमान में। हम सब उनकी शिष्याएँ या उनकी ज़री सजाने वाला श्याम सुन्दर सभी से उन्होंने प्यार किया। अपना धर्म निभाते हुए भी हमें यह एहसास नहीं होने दिया कि हम उनके मजहब से नहीं आते। इसी तरह ईद में जिस तरह का प्यार लुटाना उन्होंने किया, वो आज दुर्लभ है। घर भर के गरारे-शरारे सिलने वाले दर्जियों से मेरे लिए भी पोशाक बनवाना, उन्होंने बहुत शौक से किया था। जितनी साड़ियाँ वे खरीदती थीं, वह खानदान के लोगों, दोस्तों और हम लोगों में बँट जाती थीं। मुझे कहती थीं कि ‘बिट्टन तुम्हें जो साड़ी पसन्द हो, ले लो’। ईद पर ईदी देना, सिवईंया घर भिजवाना और बहुत प्यार देना अम्मी की आदत में शुमार था। हमारे लिए दीवाली की तरह ही ईद होती थी, जिसका साल भर इन्तज़ार रहता था।

यतीन्द्र मिश्र

खाली समय में जब बेगम अख़्तर का गाने का मन नहीं होता था, तब क्या करती थीं?

शांति हीरानन्द

देखिए, उस समय तो सिर्फ़ चाय पीती थीं और घर के कामों में हाथ बँटाती थीं। (हँसते हुए) अम्मी की एक ख़ास आदत थी कि जल्दी ही वे जिस काम में पड़ी हों, उससे ऊब जाती थीं। अब जैसे जब खाली बैठी कुछ सोच रही हों, तो हम लोगों को दुलाई वगैरह सिलने को कहती थीं। मुझसे कहतीं कि- ‘लाओ बेटा मैं तुम्हे सिखाती हूँ कि दुलाई में गोटा कैसे लगाया जाता है।’ फिर कहतीं कि ‘दुलाई को खूशबूदार किस तरह करते हैं।’ बड़े मँहगे इत्रों को दुलाई में लगाते हुए उसे किस तरह गमकाते हैं, इसे करने में उन्हें मज़ा आता था। हालाँकि थोड़ी देर के लिए ही घर का काम किया, तो फिर उससे ऊब जाती थीं।

कई दफ़ा सोती थीं, तो देर तक सोती रहती थीं और फिर उठकर अचानक चाय की प्याली माँगने के साथ हम लोगों से गाना गवाती थीं। जिस दिन उनको कुछ पकाने का शौक लगे, तो फिर अल्लाह ही मालिक है, क्योंकि अम्मी इतने मन से समय लगाकर देर तक खाना बनाती थीं कि हम सब को पता होता था कि खाना तो अब शाम को ही मिलेगा। उनको यह धुन थी कि जब वे खाना बनाएँ, तो चूल्हा भी नया और बर्तन भी नया हो। इस तरह इंतजाम करने में ही दिन गुज़र जाता था।

यतीन्द्र मिश्र

यह तो कुछ दिलचस्प संस्मरण हैं, जो आप सुना रही हैं?

शांति हीरानन्द

मुझे लगता है कि उनकी दो तरह की शख़्सियतें थीं। एक ही समय में दो किरदारों में रहना। एक तो वे आज़ाद रहना चाहती थीं, तो दूसरी तरफ घर में एक शरीफ बीवी की तरह रहना पसन्द करती थीं। घर में हैं, तो कुछ खाना पका रही हैं, बच्चों को देख रही हैं, अपने नवासों की खिदमत में लगी हुई हैं। ….और अगर बाहर निकलीं, तो बिल्कुल आज़ाद ख्याल सिगरेट पीने वाली बेगम अख़्तर, जिन्हें फिर गाने-बजाने की महफिलें रास आती थीं। अकसर कहती थीं कि ‘चलो थियेटर में फ़िल्म देख आएँ।’ जब घर से दिल घबड़ाए, तो होटल या दूसरे शहर जा पहुँचती थीं और मुझे भी साथ ले लेती थीं। दूसरे शहर पहुँचते ही उन्हें घर की तलब लगती थी और मुझसे कहें- ‘बिट्टन चलो तबीयत घबरा रही है, घर चलें।’ इस पर मैं हैरान होकर कहती थी, ‘अम्मी अभी तो आए हैं, एक दो दिन रह लीजिए, तब चलते हैं।’ इस पर कहें, ‘नहीं चलो मेरा जी घबरा रहा है। घर चलते हैं।’ उनको इण्डियन एयर लाईन्स वाले भी इतना मानते थे कि जब भी उन्होंने तुरन्त जल्दबाजी में टिकट बुक करना चाहा, तो एयर लाईन्स के आॅफिसर तुरन्त उनके लिए कहीं न कहीं से टिकट का इन्तज़ाम कर देते थे।

वो मुझसे कहती थीं, बाहर जाऊँ, आज़ाद रहूँ, कुछ लोगों से मिलूँ, जो जी चाहे वो करूँ, मगर वहाँ जाकर मेरी तबीयत घबराती है और मुझे घर याद आता है। मैं आपको बताती हूँ, जो मुझे आज लगता है कि उनको कहीं चैन नहीं मिलता था।

यतीन्द्र मिश्र

उनके व्यक्तित्व को आपने बहुत सुन्दर ढंग से याद किया है। कोई ऐसी बात जो उनके शौक और पसन्द-नापसन्दगी को उजागर करती हो?

शांति हीरानन्द

उनको जहाँ तक मैं जानती हूँ, उनको सौगातें बाँटने का बहुत शौक था। जहाँ भी जाती थीं, बहुत सारी चीज़ें लाती थीं, सबके लिए। उनको ख़ूबसूरती पसन्द थी। जो चीज़ सुन्दर है, फिर वो उन्हें चाहिए होता था। एक दिलचस्प किस्सा है कि जब अफगानिस्तान गयीं, तो वहाँ से ढेर सारा झाड़ू लेकर आ गयीं। मैंने कहा- ‘अम्मी इस झाड़ू का क्या करेंगे’? इस पर बोलीं- ‘अरे! बहुत ख़ूबसूरत है, देखो तो सही कितना अच्छा है।’ मुझे वहाँ शर्म आ रही थी कि अम्मी झाडू़ लिए हुए हैं और वे मुझसे कहती जातीं- ‘तुम क्यों शर्मा रही हो? झाड़ू ही तो है।’ ….और सबको बिटिया कहकर एक झाड़ू देने लगीं। इस तरह उन्होंने पूरे मोहल्ले में अफगानिस्तान से लायी हुई झाड़ू बाँटी। और इस पर मजा यह कि बड़ी प्रसन्न होकर बाँट रही थीं, जैसे कितनी नायाब चीज़ लेकर आ गयी हों। उन्हें झाड़ू पसन्द आ गयी और ख़ूबसूरत लगी, तो फिर सबको वो सुन्दर लगेगी, ऐसी उनकी सोच थी।

यतीन्द्र मिश्र

रेकाॅर्डिंग के समय रेडियो स्टेशन या दूरदर्शन जाते हुए कभी उन्होंने कोई अतिरिक्त तैयारी या शंृगार वगैरह करती थीं?

शांति हीरानन्द

बड़ी सादा इंसान थीं। यह ज़रूर था कि उनको कपड़ों का बड़ा शौक था और घर में आलमारियाँ भरी हुई थीं। जब मैं उनको टोकती कि आप ये सब क्यों नहीं पहनतीं, तो कहती थीं ‘बहुत पहना है बिट्टन, अब मन नहीं होता’। मैंने हमेशा उनको सूती साड़ियों में ही देखा, कभी-कभी सिल्क की साड़ी भी पहन लेती थीं। कहीं प्रोग्राम है, रेकाॅर्डिंग है, तो अकसर सो रही हैं। जब गाड़ी आकर खड़ी हुई उन्हें लेने, तो सोकर उठीं। एक प्याली चाय पी, साड़ी बदली, बाल बाँधे और चल दीं। कभी-कभी जरा सी लिपस्टिक भी लगाती थीं। इससे ज़्यादा कुछ नहीं। मुझे लगता है कि जब वे जवान रही होंगी, तब उन्हें सजने-सँवरने का बहुत शौक़ रहा होगा। उनकी आलमारियों में डिब्बों और बक्सों में गहने भरे रहते थे। एक बक्से को मैंने इतनी अँगूठियों से भरा देखा, तो कहा ‘अम्मी इनमें से कुछ पहन लिया कीजिए।’ इस पर उन्होंने बोला ‘अरे बिटिया! देख लो, जो तुम्हें पसन्द आए ले लो।’ मगर मैंने कभी उनका एक जेवर भी नहीं लिया, क्योंकि मेरी मंशा ये नहीं रहती थी। मैं तो बस चाहती थीं कि अम्मी खूब सजे-सँवरे और खुश रहें। और वे थीं कि बहुत सादे ढंग से तैयार होकर कहीं भी चली जाती थीं। मेरे वास्ते जब कुछ लाती थीं, तो मैं इसरार करते हुए कहती थीं ‘अम्मी पहले आप ये पहन लें, तब मैं पहन लूँगी।’ मेरी मंशा यह रहती थी कि उनके पहन लेने से साड़ियों में उनकी ही अजब सी खुशबू आ जाती थी, जो मुझे बहुत अच्छी लगती थी। इसी तरह से मैंने हमेशा उनके तन से उतरे हुए कपड़े पहनने का सुख भोगा। वो माँ ही थीं, जिनके इर्द-गिर्द मेरा सारा जीवन बीतता था।

यतीन्द्र मिश्र

क्या कभी बेगम अख़्तर साहिबा ने आपको अपना कोई वाद्य, जेवर या संगीत से जुड़ी कोई निशानी दी है?

शांति हीरानन्द

उन्होंने मेरी शादी में अपने दो कंगन दिए थे और मुझे पहना दिए। उसे मैंने बड़े जतन से अपने पास रखा और उनके प्रसाद की तरह पहनती रही। जब मेरी बहू आयी, तो उसे मैंने वही कंगन सबसे पहले दिया और कहा कि ये बेगम अख़्तर साहिबा का आशीर्वाद है। इसे पहनना और सम्भाल कर रखना। इसे किसी को न देना क्यांेकि यह मेरी गुरु का ऐसा प्रसाद है, जो हमारे पास ही रहना चाहिए। बाक़ी कपड़ों, जरी की साड़ियों और तमाम दूसरी सौगातें तो उन्होंने बहुत दी हैं, जिन्हें मैंने उतने ही आदर से अपने पास धरोहर के रूप में सुरक्षित रखा।

यतीन्द्र मिश्र

बेगम अख़्तर साहिबा की ऐसी कौन सी ख़ास बात है, जो आपको सर्वाधिक अपील करती है?

शांति हीरानन्द

कलाकारों की इज्ज़त करना। उस्तादों के लिए अपने घर के दरवाज़े खोल देना और उनको बड़े मान-सम्मान के साथ बुलाकर इज्ज़त देना। कभी किसी कलाकार के लिए कुछ भी अप्रिय या कड़वा नहीं कहना। बहुत शरीफ थीं। वज़नदार महिला, जिनके लिए सच्चा कलाकार होना ही सबसे बड़ी बात थी। एक बार मैं और वे पूना गये और वहाँ एक साधारण सा मराठी गायक लावणी गा रहा था। वह कोई प्रचलित कलाकार या बहुत पहुँचा हुआ कलावन्त नहीं था। एक अति साधारण आदमी, जो लावणी सुना रहा है। मैंने देखा कि जब लावणी ख़त्म हुई, तो वे एकाएक खड़ी हो गयीं और उसके पैर छूने लगीं। वो घबड़ा गया और कहने लगा- ‘बेगम साहिबा आप यह क्या कर रही हैं?’ इस पर बहुत विनम्रता से बोलीं- ‘अरे तुम्हारी जुबान में जो सरस्वती हैं, उनको प्रणाम कर रही हूँ।’ इस तरह की शख़्सियत थीं बेगम अख़्तर।

वे जब भी किसी कलाकार से मिलती थीं, तो खातिर तो जो करती थीं, वो था ही। अगर वे उन लोगों के घर गयीं या वे ख़ुद अम्मी के घर आए, तो उन्हें बिना नज़राना दिए बगै़र वापस नहीं जाने देती थीं। मुझे याद है कि उन्होंने इस तरह उस्ताद बड़े गुलाम अली ख़ाँ साहब, उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब और उस्ताद अहमद जान थिरकवा को नज़राने पेश किए थे। मुझसे कहती थीं कि ‘इन गुणीजनों के पास कला है और उसकी कद्र करना हर एक इंसान का फर्ज़ है।’

मुझे एक चीज़ उनमें बहुत भाती है कि उनके अन्दर की बनावट कुछ उस तरह की थी, जिसमें गुरुर नहीं था। उनके दामन पर गुरुर के झींटे कभी नहीं पड़े। हमेशा कहती थीं- ‘बेटा यह कभी मत सोचना कि तुम बहुत अच्छा गाती हो। जिस दिन मन में यह आ जायेगा, उस दिन गाना-बजाना चला जायेगा।’ जिस ज़माने में तवायफों को इज्ज़त की निगाह से नहीं देखा जाता था, उस दौर में बेगम अख़्तर ने अपनी पूरी रवायत को इज्ज़त दिलवायी। ठुमरी, दादरा और ग़ज़ल को शास्त्रीय संगीत के बराबर लाकर खड़ा किया और बड़े-बड़े दिग्गज उस्तादों से अपनी गायिकी का लोहा मनवाया। उनके गाने के बाद से ग़ज़ल के लिए कभी किसी ने कोई छोटी बात नहीं कही। यह बेगम अख़्तर की सफलता थी।

मैंने उनकी जवानी का वो दौर भी देखा है, जब वे दिल्ली के लाल किले में एक परफार्मेंस के लिए गयीं, तो वहाँ तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू उनको देखकर आदर में खड़े हो गए और उनका अभिवादन किया। वहाँ उन्होंने बहादुर शाह जफ़र की ग़ज़लें गायी थीं। यह सन् 1960-62 का समय होगा। आप देखिए, कितनी बड़ी बात है कि प्रधानमंत्री ने उनका खड़े होकर एहतराम किया। बेगम अख़्तर के लिए और किसी भी कलाकार के लिए यह बहुत बड़ी बात है।

यतीन्द्र मिश्र

ऐसी कौन सी बात है, जो आप अपने गुरु से पूछ नहीं पाईं या माँग नहीं सकीं? जिसका मलाल आज भी आपको होता है?

शांति हीरानन्द

कोई मलाल नहीं है। अम्मी एक बार जब मुम्बई में अरविन्द पारिख भाई के यहाँ गयीं और रहीं, तो उनसे उन्होंने कहा, जिसे अरविन्द भाई ने मुझे बाद में बताया। उन्होंने उनसे कहा- ‘मेरी बेटी शान्ती हीरानन्द ने मुझसे कभी कुछ नहीं माँगा।’ यह सुनकर मेरी आँखें भीग गयीं और मुझे बड़ी राहत हुई कि मेरी उस्तानी मेरे बारे में ऐसा सोचती थीं। मुझे शण्टो, शण्टोला, बिट्टन कहती थीं और बड़े प्यार से उन्होंने मुझे सँवारा। एक बार उन्होंने एक बड़े उस्ताद का सम्मान करते हुए मुझे नसीहत दी थी, जो आज भी मुझे सीख जैसी लगती है। उन्होंने कहा था- ‘जिसका रुतबा जैसा है, उसके साथ वैसा ही निभाना चाहिए।’ यकीन मानिए, मैंने इसी पर चलने का उम्र भर काम किया है। अहमदाबाद के अपने अन्तिम कंसर्ट में उन्होंने आखिर में ‘सोवत निन्दिया जगाए हो रामा’ चैती गायी थी। उसके बाद उनकी आवाज़ हमेशा के लिए बन्द हो गयी। यह चैती मुझे आज भी बहुत विचलित करती है। मुझे लगता है कि अम्मी हमें छोड़कर क्यों चली गयीं। अच्छा ही हुआ कि उन्होंने मुझे चैती सिखाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई, नहीं तो मेरा तो न जाने कितना करम हो जाता।

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नक्शे, सरहदें, शांति,  लघु जीवन और कला की एकरूपता से सजी है ‘बिसात पर जुगनू’

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वंदना राग के उपन्यास ‘बिसात पर जुगनू’ पर यह टिप्पणी राजीव कुमार की ने लिखी है। उपन्यास राजकमल से प्रकाशित है-

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“हम सब इत्तिहाद से बने हैं। हम सबमें एक दूसरे का कोई ना कोई हिस्सा है। इंसान इस सच से रू – ब – रू हो जाए तो नक्शों में बनी सरहदों के बावजूद न कहीं जंग होगी न कोई नफ़रत और लालच की इंतेहाई दास्तान।”

नक्शे, सरहदें, शांति,  लघु जीवन और कला की एकरूपता से सजी है नई पुस्तक “बिसात पर जुगनू” और इन सूत्रों से एक महाकाव्य का औेदात्य लिए उपन्यास का कथा – संसार रचा है वंदना राग ने।

बिसात पर जुगनू इतिहास का होकर भी किसी खास कालखंड के बड़े नायकों की दास्तां नहीं है। काल अवधि जो बताई गई, उस अवधि का इतिहास नहीं, बल्कि उस दौर का जीवन है।  जीवन करीब – करीब साधारण वर्ग का प्रतिनिधित्व करनेवाले छोटे सरदारों का।  ऊंचा प्रबुद्ध और शासक वर्ग कहानी में आता तो है लेखिका उसे अपना स्नेह नहीं देती  । उसका इस्तेमाल सिर्फ कथा प्रवाह बनाए रखने और कथा के विस्तार के लिए किया जाता है। जीवन दो बड़े देशों  हिंदुस्तान और चीन के दो सुदूर और औपनिवेशिक कोलाहल से दूर शहरी जीवन में फैला है ।

 बड़े नायकों का निषेध और जुगनुओं की चमक से बड़ी कहानियों को औपनिवेशिक अंधेरे  में कह सकने की   सामर्थ्य लेखिका के प्रयास को अनायास ही बड़ा आकार दे देती है। हिंदुस्तान और चीन दोनों एक ही साम्राज्यवादी शासक ब्रिटिश सत्ता से शासित हैं। अफीम युद्ध, ताईपिंग विद्रोह, हिंदुस्तान का सिपाही विद्रोह की पृष्ठभूमि रखी गई है और मंझोले और छोटे शासकों में शामिल उनके मुलाजिमों का जीवन। यही जीवन ब्रिटिश शासन का प्रतिनिधि आम जीवन भी था। धीरे धीरे आपकी धमनियों में जागीरदार और छोटे कश्कारों का जीवन , उनके सपने, उनकी हार,  उनका अधूरा त्रासद रिश्ता छोटे वर्गों के लोगों के साथ, उतरता चला जाएगा और उपन्यास एक त्रासद युग को आपके सामने खोलता जाएगा।

महत्त्वपूर्ण स्त्री पात्र

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स्त्री पात्र इस उपन्यास की जान हैं। वे कहानी की नायिका ही नहीं, कहानी पर अपनी पकड़ कहीं कमजोर नहीं करती हैं। खदीजा बेगम का किरदार वंदना राग की नायाब शाहकार हैं जो कला, प्यार और इंतजार में चुपचाप किस्सों की बली चढ़ गईं। “खदीजा बेगम बहन के दुलार भरे स्पर्श से संभल गई और कुछ दिन और जीने की दौड़ में शामिल हो गईं। ज़िन्दगी इंतजार का ही तो सबब है। बहादुर खदीजा बेगम, शंकर लाल की हमकदम, अमर लाल की मां, सज्जन लाल की दादी, चित्रकार खदीजा बेगम, उस्ताद खदीजा बेगम। कमरे में बेतरतीबी से रखी गई मुसव्विर खाना की हर तस्वीर ने खदीजा बेगम को चुमकारा, पुचकारा, दुलारा और कहा ” हम भगोड़े मर्दों की क्या जाने ? हमारे लिए तो तुम ही मां और तुम ही बाप।”

जिस आम जीवन का प्रतिनिधित्व यह उपन्यास करता है उस आम जीवन में औरतों की सामाजिक स्थिति दोयम दर्जे की  होती है। पर वंदना राग के नारी पात्र ऐतिहासिक अवसरों के दोहन का भव्य उदाहरण पेश करते हैं।

स्त्रियों को इतिहास के उस कालखंड में उन क्षेत्रों में दखल देती हुई सिरजती हैं लेखिका जो परंपरा से पुरुषों के अधिकार क्षेत्र रहे। पेंटिंग जैसी कला में बेपर्दा स्त्री का मुसव्विर खाना में प्रवेश युग प्रवर्तक उपलब्धि है:

“इस मनःस्थिति में उसे पता भी नहीं चला कब एक नई घटना ने  इतिहास के पन्नों पर अपनी जगह बना ली थी —— उस दिन जब मुसव्विर खाना के शागिर्दों ने अपने बीच एक बेपर्दा औरत को तन्मयता से चित्र बनाते साथी शागिर्द के रूप में स्वीकार किया था। मुसव्विर खाना का यह सुनहरा दौर था। और कला बाजारों के कानों में कोई मुसाफिर चुपके से कह रहा था, यह मानीखेज सच।”

खदिजा बेगम का उस्ताद, प्रेमी और पति जो पटना कलम को ज़िंदा रखता है, उसकी अंततः अमानवीय समाप्ति की दास्तां विचित्र है। आप पूरे उपन्यास से गुजरते हुए इस स्थिति की कल्पना नहीं करते और यह भयावह घटना जिस तरह से घटती है वो आपको उस युग में सीधे लेे जाकर पटक देती है, जहां कला किस तरह औपनिवेशिक ताकत के सामने निरूपाय हो जाती है।

कैंटन में एक चीनी व्यापारी पटना में बनाए चित्रों की मांग करता है। शंकर लाल जो पटना कलम का मुख्य सचेतक और चित्रकार है, अपनी प्रेमिका और शागिर्द के जीवन – डोर से बंधी त्रासद मृत्यु की तरफ बढ़ता है। जहां अपने ही बनाए चित्रों की तस्करी का आरोप उस पर लगता है और कारागार में उसकी मौत होती है। उसका रोम रोम तक झल्ला देनेवाला पत्र उपन्यास को शीर्ष देता है। जहां युगों तक परिश्रम से संजोई कला दुखद अंत को प्राप्त होती है।

दूसरी महत्त्वपूर्ण स्त्री पात्र है परगासो दुसाधन। जंगल की कठोर ज़िन्दगी में पली, सब्जी बेचकर गुजारा करती उसकी तमाम रिश्तेदार औरतें , तलवार की धार पर मौत और ज़िन्दगी से सामना। लेखिका का दिल बसता है परगासो में। भरपूर जगह मिली है इस नायिका को पूरे कथा – वितान में । यह स्त्री पात्र गहरी छाप छोड़ती है अपनी अंत तक की निभाई गई  वतन परस्ती और प्रेम के अद्वितीय  निर्वहन में । भरोसा परगासो के लिए कई देवताओं से बड़ा ईश्वर था, जिनके गीत भगत चाचा गाता था और जिन्हें बचपन में ही दफन कर दिया था उसने। सुमेर सिंह, जागीरदार, जिसे वो तकदीर और इतिहास के जबड़े से अपने लिए छीन लेती है का भरोसा ही उसका ईश्वर है।

परगासो ने एक तरफ जंगल की लड़ाई सीखी है तो दूसरी तरफ उसने मिट्टी खोदी है, बचपन से। पौधे उगाए हैं। जीवन को पनपते देखा है। खुरदरी मिट्टी से एक एक कोमल हरे पत्ते का निकलना देखा है। वह दोनों की तासीर जानती है।

फतेह अली खान  जो नक्शा नवीश है और ‘बिसात पर जुगनू’ का सबसे महत्त्वपूर्ण पुरुष पात्र उसका पूरा जीवन और कारुणिक अंत परगासो के किरदार को सहयोग देने के लिए ही है। परगासो को पुत्र भी वही चीन से लाकर देता है, वह परगासो के पति सुमेर सिंह  के जीवन के लिए अंत तक प्रयास करता है, गढ़ी जो जागिर दारी व्यवस्था का बेहतर वर्णित मेटाफर है, की बेहतरी की दुआ करता है और परगासो को पूरे फिरंगी शोषण तंत्र जो हिंदुस्तान और चीन में फैला हुआ है के बारे में  भी बताता है। चाय और रेशम पर उनकी गिद्ध निगाहें थीं और फिरंगी नोचने में बहुत उस्ताद थे। 1870 के पत्र में फतेह अली खान  परगासो को कैंटन से लिखे पत्र में कहता है ” अब चीनी अफसरों से ज़्यादा अंग्रेजों को अपने व्यापार की बाबत मनाना पड़ता है, वरना वह जहाज से माल उतरने ही नहीं देते हैं।”

उपन्यास का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य


 चीन का एक ऐतिहासिक सत्य  अपनी त्रासदी के साथ वर्णित है। मंचू शासकों ने  अपनी बेवकूफी और बुजदिली से फिरंगियों को इस देश पर कब्ज़ा दे दिया था। समूची कौम गुलाम हुई जा रही थी। चिन का यह  विकराल ऐतिहासिक सच वहां के जीवन को खत्म कर देता है।

‘बिसात पर जुगनू’ की पृष्ठभूमि में चीन के दो अफीम युद्ध,  तायपिंग विद्रोह और  हिंदुस्तान का 1857 का गदर या सिपाही विद्रोह है। कथा इन्हीं बड़ी ऐतिहासिक घटनाओं के इर्द – गिर्द घूमती है। नायक और नायिका  और सहयोगी चरित्र के रूप में वे किरदार हैं जो इन घटनाओं में सक्रिय भाग लेनेवाले लोगों, या उन लोगों में से हैं  जिनके ऊपर इन घटनाओं का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है।

पहला अफीम युद्ध 1839 में शुरू हुआ। यह युद्ध अफीम के गैरकानूनी व्यापार के मुद्दे पर लड़ा गया । कैंटन जो कि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का मुक्त व्यापार  केन्द्र था यहां से चीनी तस्कर इसे चीन के अंदर के भूभागों और प्रांतों में पहुंचाते थे। 1833 के चार्टर एक्ट में ईस्ट इंडिया कंपनी का अफीम व्यापार करने का अधिकार छीन गया। चीन के शासक ने कैंटन से सारे अफीम के गोदामों को ज़ब्ती के आदेश दे दिए। यह आदेश भी पारित हुआ कि अफीम के व्यापार में हुए हर्जाने की भरपाई के लिए उन्हें चाय दे दिया जाय। दोनों तरफ से सैन्य अभियान करने का दवाब बढ़ता जा रहा था जिसके फलस्वरूप 1840 में युद्ध हो ही गया जिसमें ब्रिटिश समुद्री जहाजों और जंगजुओं ने विजय प्राप्त की। युद्ध की समाप्ति पर नानकिंग की संधि हुई। अंग्रेजों ने इस संधि से अपार धन संपदा मुआवजे के तौर पर पाई और ब्रिटिश राज्य की शक्ति में भारी इजाफा हुआ। द्वितीय अफीम युद्ध 1856 में लड़ा गया। इसमें भी चीनी सेना को जबरदस्त पराजय मिली। तेंतसिन की संधि (26 जून 1858 ) से चीन के सम्राट को बहुत अधिक मुआवजा देना पड़ा और अफीम का पूरा व्यापार जो वैसे भी अंग्रेजों के ही आधिपत्य में था उस वैधानिक मान्यता देनी पड़ी।

इन ऐतिहासिक घटनाओं की पृष्ठभूमि में चीन का तत्कालीन जीवन शामिल किया गया है। अफीम, मछली, नक्शा, कॉन्ट्रैक्ट लेबर,  साम्राज्यवादी शोषण की  अलोम हर्षक कहानी, बंदरगाहों का व्यापार, विद्रोह के आदर्श, सौन्दर्य और धर्म के प्रति आग्रह, स्त्रियों की स्थिति आदि चीन की कहानी को नया आयाम देते हैं। लेखिका का वर्णन सजीव है और वह बारीकियों में गई हैं। चीन के जीवन का वर्णन उपन्यास के उत्कर्ष स्थल हैं।

ताइपिंग विद्रोह चीन में 1850 से 1864 तक हुआ। इसका नेतृत्व होंगे जिंकुआन ने किया। उपन्यास की एक महत्त्वपूर्ण स्त्री पात्र होंगे कि सहयोगी और प्रेमिका के रूप में दिखाई गई है। जो अपना पुत्र चिन फतेह अली खान को सौंपती है। ताईपिंग विद्रोह किंग राजवंश के विरुद्ध था। कहते हैं इसमें दो करोड़ लोग मारे गए। बाद के कम्युनिस्ट विद्रोह और छापामार बगावतों की प्रेरणा ताईपिंग विद्रोह से ही प्राप्त हुई है। हर नागरिक को सैन्य प्रशिक्षण दिया गया था और हर ने इस हैं विद्रोह में हिस्सा लिया। विद्रोह का नायक होंगे कहा करता था कि उसने स्वप्न में देखा है कि वह इस मसीह का छोटा भाई है। हॉन्ग ने ताईपिंग नैसर्गिक साम्राज्य की नींव डाली और नानजिंग को इसकी राजधानी बनाया।सन यात सेन और में जेडोंग के लिए ताईपिंग विद्रोह के क्रांतिकारी आदर्श हैं। विश्व इतिहास में उन्नीसवीं शताब्दी के यह सबसे बड़े युद्धों में से एक है ।

1857 का सिपाही विद्रोह और उससे जुड़े जीवन संघर्षों की दास्तां इस उपन्यास का हृदय है। कुंवर सिंह का जगदीशपुर छांव देता है और चांदपुर की रियासत पूरी कहानी के केंद्र में है। पटना का कमिश्नर और नक्शा नवीसी, पटना कलम आदि संस्थाएं उपन्यास की सिर्फ पृष्ठभूमि है नहीं बनाती हैं बल्कि उपन्यास की आत्मा वहीं बसती है।

पात्रों की जद्दोजहद

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नक्शा नवीस फतेह अली खान का गढ़ी, परगासो और यू  – यान के लिए समान रूप से मानसिक आग्रह अद्वितीय ढंग से वर्णित है। हिंदुस्तान और चीन दोनों जगह  दो महत्त्वपूर्ण पात्रों के जीवन  उसका किरदार गूंथा हुआ है।

“मैं कैसे बदल दूं इबारतें? कैसे बताऊं दुनिया को की मुल्क में एक परगासो बीबी होती हैं और चीन में एक यू – यान बीबी। दोनों की ज़मीन कितनी अलहदा और फितरत कितनी एक सी। ये बहादुर औरतें जंग में कितना कुछ हर गई है, लेकिन फिर भी मुल्क की बेहतरी की चिंता करती है। मैं इनकी तरह फिक्र क्यों नहीं कर पाता हूं? मेरे लिए मुल्क के मायने वहीं  क्यों नहीं, जबकि सरहदों की जुबान मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता। क्या मैं यतीम रहा इसलिए? क्या मैं कायर हूं?”

ली – ना , जो कथा को आधुनिक संदर्भों से जोड़कर अलग मायने देती है,  पटना आर्ट कॉलेज में रखे हुए चित्रों को देखने की इजाज़त मांगते हुए वक़्त गंवाती है। समर्थ लाल, जो पटना कलम के आज के खानदानी वारिस हैं, उसे बता नहीं पा रहे थे कि इस देश में कितनी लालफीताशाही है, कितनी धांधली और चोर बाजारी। बहुत दिन गुलाम रहने से यह सब हो जाता है। एक गैरजरूरी चालाकी सबके जेहन में ऐसे समा गई है कि क्या किया जाए।

ली – ना ही वह सूत्र जोड़ पाती है जो कैंटन के संग्रहालय  में रखे चित्र और पटना के आर्ट कॉलेज में रखे पेंटिंग में संबंध स्थापित कर पाता है। दोनों जगह चित्र चिन का है जिसे फतेह अली खान ने बनाया था। ली – ना समर्थ लाल के माध्यम से इस संबंध को साबित करने में कामयाब होती है। फतेह अली खान ने एक ऐसा सूत्र दिया आनेवाली पुश्तों को , जिसने रिश्तों की कई परतों को धूप से उजाले में साफ किया। उपन्यास अपनी पूर्णाहुति कला , प्रेम और शांति में पाती है। उपन्यास की यज्ञ वेदी दो मुल्कों में फैली अनुभूतियों को हवि के रूप में ग्रहण करती है। लेखिका की साधना अपना प्राप्य फलीभूत के निकस पर पहुंचती है।

मैंने अपने बचपन के शहर की कला – शैली पटना कलम की तर्ज पर यह तस्वीर बनाई है फतेह अली खान कभी यह जीता है।  फतेह अली खान के किरदार की बनावट यतीम खाने के  जीवन से। लेखिका का अली खान के किरदार को अनूठे ढंग से साधना। यतीमखाने की बगल में ही था वह मुअज्जिज मुसव्वीर खाना  जहां फिरंगी भी तालीम पाने आते थे।

ताईपिंग विद्रोह के बाद चीनी मर्द अमेरिका  रेल बिछाने के काम में मजदूरी के लिए लेे जाए गए थे। कैंटन से फतेह अली खान लिखते हैं चारों ओर फिरंगी और फ्रांसीसी हैं। कल तक एक दूसरे को देखना नहीं चाहते थे। व्यापार में कट्टर दुश्मन बने हुए थे लेकिन आज साथ साथ हो गए हैं। पूरी तरह से। बच्चे चिन की मां तायपिग विद्रोह जो मानचू राजा के खिलाफभुआ था और जिसमें हांग लड़ा था,  उसमें यू – यान शामिल थी। उसका बच्चा वो हिंदुस्तान लाना चाहता है।

यू यान नहीं चाहती उसका बच्चा अमेरिकी मजदूर या चीन में ही अफीम पीता हुआ एक बीमार आदमी बने। वह फतेह अली खान को अपना बच्चा हिंदुस्तान ले जाने के लिए सौंपती है। वो डरती है या तो राजा के आदमी इसे मार देंगे या अंग्रेज़ इसे अफीम का आदि बना देंगे। अंदर ही अंदर संगीत सा बजता हुआ, दबा हुआ सौन्दर्य और प्यार का तिलिस्म यू – यान ने अपने बेटे चिन को अपने मौन प्रेमी को सौंपा। वो लेे जा रहे हैं हिंदुस्तान में चीन का एक टुकड़ा। उधर सुमेर सिंह का बच्चे को देख उपजा आह्लाद पूरी गढ़ी को रोशन कर रहा था। और पर्गासो बीबी का आंचल यूं ही नहीं भिंगा जाता था। बरसों से संचित ममता आंखों के रास्ते नमक बन बह रही थी।

स्मृतियां ली – ना की ताकत है। उसने अपनी इस ताकत को कम उम्र में पहचान लिया था और पृथ्वी को सहेजने की मुहिम में लग गई थी। वह कोंग्जी के देश से अाई थी, बुद्ध को प्यार करती थी और पृथ्वी को बचाने की बात करती थी।

कथा में एक जहाज “सूर्य दरबार” बार बार उद्धृत होता है जो इन छोटे छोटे जीवंत नायकों के बहिर्गमन की उम्मीद है। यह जहाज चांदपुर रियासत का है।

रुकनुद्दीन और विलियम दो पात्र हैं मुसव्विर खाना के। समलैंगिक संबंध की अभिव्यक्ति है। विलियम कला का पुजारी रुकनुद्दीन प्रेम का। संदेह की विचित्रता अजीब ढंग से वर्णित। रुकनुद्दीन मार देर है विलियम को। विलियम में उसे क्लाइव फिरंगी दिखता है जिसने सिराजुद्दौला को मार दिया था।  पलासी के युद्ध में हारकर भागते हुए सिराजुद्दौला को पूर्णिया के नवाब शौकत जंग के सैनिकों ने फिरंगियों के साथ मिलकर खींचकर तब मार दिया जब वह अपनी औरतों के साथ छुपा हुए था। रुकनुद्दीन को यह स्मृति प्रतिशोध की आवृति से परेशान करती है और वह विलियम को मार देता है। कलात्मक और अचंभित करनेवाला हादसा।

नए शिल्प का प्रयोग

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कहानी कहने का त्रिस्तरीय  नया शिल्प प्रयोग में लाया गया है। फतेह अली खान के पत्र और रोजनामचा, दूसरा कलकत्ता जर्नल और गजेटियर का तत्कालीन परिदृश्य को स्पष्ट करती हुई  खबरें और तीसरे स्तर पर हैं कथाकार का वर्णन और पात्रों की उक्तियां।   लेखिका के इन महती प्रयासों और  स्वगत कथनों के जरिए कहानी कई पुराने संदर्भों से  वर्तमान घटित को जोड़ती रहती है और किस्सागोई मजबूत होती रहती है। इस प्रविधि का प्रयोग करते हुए लेखिका ने उपन्यास के बहुत उलझे और बहुत फैले विस्तार को साधा है। काल के कई छोरों पर बहुत दूर तक फैला कथानक का कोई भी टुकड़ा अचानक आपके सामने खड़ा हो जाता है। शिल्प के इस प्रयोग  से रुचि  बाधित नहीं होती है।

“बिसात पर जुगनू ” हिंदी साहित्य के लिए सुखद घटना है जो बहुत बाद तक याद की जाती रहेगी।

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त्रिपुरारि की कहानी ‘जिगोलो’

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कुछ माह पहले युवा लेखक त्रिपुरारि का कहानी संग्रह आया है ‘नॉर्थ कैम्पस’। त्रिपुरारि की शायरी की तरह उनकी कहानियों में भी युवा जीवन की संवेदनाएँ हैं। वह आज के लेखक हैं। आज के युवा किस तरह सोचते हैं, उनकी लाइफ़ स्टाइल क्या है, उनकी कहानियों को पढ़ते हुए समझा जा सकता है। किताब का नाम नॉर्थ कैम्पस इसलिए है क्योंकि इसकी कहानियों की ज़मीन दिल्ली विश्वविद्यालय का नॉर्थ कैम्पस है। आप इसकी एक छोटी सी प्रतिनिधि कहानी पढ़िए- प्रभात रंजन

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यूनिवर्सिटी में स्टूडेंट यूनियन का चुनाव होने वाला था। एक न्यूज़ चैनल के स्टूडियो में मुख़्तलिफ़ पार्टी की हिमायत करने वाले तक़रीबन 20 स्टूडेंट्स और 4 उम्मीदवार मौजूद थे। एडमिशन के दौरान होने वाली धांधली और दूसरे मौज़ूआत पर लाइव बहस होनी थी। दबी ज़बान में एक स्टूडेंट ने कहा—

“सुना है…चुनाव लड़ने के लिए कुछ ख़ास बिस्तरों से हो कर गुज़रना पड़ता है।”

“लड़कियों के मुआमले में तो सच है… मगर लड़के?”

—दूसरे ने जवाब के साथ ही एक सवाल पूछा।

“आई डोन्ट वान्ट एनी एक्सक्यूज़ इन बिटविन दि प्रोग्राम”

फ़्लोर मैनेजर ने चीफ कैमरा मैन सहित सभी को आगाह किया। कैमरा मैन अपनी जगह तैनात हो गए। सारे स्टूडेंट्स चुप हो गए। प्रोग्राम लाइव होने से कुछ ही सेकेंड्स पहले मश‘हूर’ एंकर ने चुटकी लेते हुए कहा—

“वैसे कितनी अजीब बात है न! एक सेलिब्रिटी एंकर, एक स्टूडेंट लीडर कम ‘जि—गो—लो’ का इंटरव्यू करने वाली है।”

“हाँ, अजीब बात तो है। मैं उन ज़ानूओं का मालिक हूँ, जिनका स्वाद शहर की सबसे अमीर और ताक़तवर औरत को भी मालूम है।”

“हम्म्म…इंट्रेस्टिंग”

“…जिसकी प्यास न सिर्फ़ यूनिवर्सिटी की प्रोफ़ेसर, बल्कि औरत के हक़ का परचम लहराने वाली औरत भी रखती है।”

—एंकर मुस्काती है।

“…जिसके साथ औरत सिर्फ़ औरत होती है। …किसी भी पेशा या मज़हब से उसका कोई तअल्लुक़ नहीं रह जाता।”

“तो इस लिस्ट में एक एंकर का नाम भी होना चाहिए।”

—दिल ही दिल में ये अजीब-सी बात सोचते हुए मश‘हूर’ एंकर ने कैमरा ऑन करने का इशारा किया।

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(यह कहानी ‘नॉर्थ कैम्पस’ कहानी-संग्रह से लिया गया है। नॉर्थ कैम्पस ई-बुक पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।)

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लॉकडाउन और अज्ञेय की कहानी ‘गैंग्रीन’

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आजकल मुझे अज्ञेय की कहानी ‘गैंग्रीन’ कहानी का ध्यान आता है, जो रोज़ के नाम से भी प्रकाशित हुई है। इस कहानी को स्त्री-विमर्श के संदर्भ में पढ़ा जाता रहा है लेकिन आजकल मुझे यह कहानी दिन के ख़ालीपन, उजाड़ की कहानी लगने लगी है। आज अचानक याद आई यह कहानी तो साझा कर रहा हूँ- मॉडरेटर

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दोपहर में उस सूने आँगन में पैर रखते हुए मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो उस पर किसी शाप की छाया मँडरा रही हो, उसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य, किन्तु फिर भी बोझल और प्रकम्पमय और घना-सा फैल रहा था…

मेरी आहट सुनते ही मालती बाहर निकली। मुझे देखकर, पहचानकर उसकी मुरझायी हुई मुख-मुद्रा तनिक से मीठे विस्मय से जागी-सी और फिर पूर्ववत् हो गयी। उसने कहा, ‘‘आ जाओ!’’ और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये भीतर की ओर चली। मैं भी उसके पीछे हो लिया।

भीतर पहुँचकर मैंने पूछा, ‘वे यहाँ नहीं है?’’

‘‘अभी आये नहीं, दफ़्तर में हैं। थोड़ी देर में आ जाएँगे। कोई डेढ़-दो बजे आया करते हैं।’’

‘‘कब के गये हुए हैं?’’

‘‘सवेरे उठते ही चले जाते हैं।’’

‘‘मैं ‘हूँ’ कर पूछने को हुआ, ‘‘और तुम इतनी देर क्या करती हो?’’ पर फिर सोचा, ‘आते ही एकाएक प्रश्न ठीक नहीं हैं। मैं कमरे के चारों ओर देखने लगा।

मालती एक पंखा उठा लायी, और मुझे हवा करने लगी। मैंने आपत्ति करते हुए कहा, ‘‘नहीं, मुझे नहीं चाहिए।’’ पर वह नहीं मानी, बोली,‘‘वाह! चाहिए कैसे नहीं? इतनी धूप में तो आये हो। यहाँ तो…’’

मैंने कहा, ‘‘अच्छा, लाओ, मुझे दे दो।’’

वह शायद ‘ना’ करनेवाली थी, पर तभी दूसरे कमरे से शिशु के रोने की आवाज़ सुनकर उसने चुपचाप पंखा मुझे दे दिया और घुटनों पर हाथ टेककर एक थकी हुई ‘हुंह’ करके उठी और भीतर चली गयी।

मैं उसके जाते हुए, दुबले शरीर को देखकर सोचता रहा – यह क्या है… यह कैसी छाया-सी इस घर पर छायी हुई है…

मालती मेरी दूर के रिश्ते की बहन है, किन्तु उसे सखी कहना ही उचित है, क्योंकि हमारा परस्पर सम्बन्ध सख्य का ही रहा है। हम बचपन से इकट्ठे खेले हैं, इकट्ठे लड़े और पिटे हैं, और हमारी पढ़ाई भी बहुत-सी इकट्ठे ही हुई थी, और हमारे व्यवहार में सदा सख्य की स्वेच्छा और स्वच्छन्दता रही है, वह कभी भ्रातृत्व के या बड़े-छोटेपन के बन्धनों में नहीं घिरा…

मैं आज कोई चार वर्ष बाद उसे देखना आया हूँ। जब मैंने उसे इससे पूर्व देखा था, तब वह लड़की ही थी, अब वह विवाहिता है, एक बच्चे की माँ भी है। इससे कोई परिवर्तन उसमें आया होगा और यदि आया होगा तो क्या, यह मैंने अभी तक सोचा नहीं था, किन्तु अब उसकी पीठ की ओर देखता हुआ मैं सोच रहा था, यह कैसी छाया इस घर पर छायी हुई है… और विशेषतया मालती पर…

मालती बच्चे को लेकर लौट आयी और फिर मुझसे कुछ दूर नीचे बिछी हुई दरी पर बैठ गयी। मैंने अपनी कुरसी घुमाकर कुछ उसकी ओर उन्मुख होकर पूछा, ‘‘इसका नाम क्या है?’’

मालती ने बच्चे की ओर देखते हुए उत्तर दिया, ‘‘नाम तो कोई निश्चित नहीं किया, वैसे टिटी कहते हैं।’’

मैंने उसे बुलाया, ‘‘टिटी, टीटी, आ जा,’’ पर वह अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मेरी ओर देखता हुआ अपनी माँ से चिपट गया, और रुआँसा-सा होकर कहने लगा, ‘‘उहुं-उहुं-उहुं-ऊं…’’

मालती ने फिर उसकी ओर एक नज़र देखा, और फिर बाहर आँगन की ओर देखने लगी…

काफ़ी देर मौन रहा। थोड़ी देर तक तो वह मौन आकस्मिक ही था, जिसमें मैं प्रतीक्षा में था कि मालती कुछ पूछे, किन्तु उसके बाद एकाएक मुझे ध्यान हुआ, मालती ने कोई बात ही नहीं की… यह भी नहीं पूछा कि मैं कैसा हूँ, कैसे आया हूँ… चुप बैठी है, क्या विवाह के दो वर्ष में ही वह बीते दिन भूल गयी? या अब मुझे दूर-इस विशेष अन्तर पर-रखना चाहती है? क्योंकि वह निर्बाध स्वच्छन्दता अब तो नहीं हो सकती… पर फिर भी, ऐसा मौन, जैसा अजनबी से भी नहीं होना चाहिए…

मैंने कुछ खिन्न-सा होकर, दूसरी ओर देखते हुए कहा, ‘‘जान पड़ता है, तुम्हें मेरे आने से विशेष प्रसन्नता नहीं हुई-’’

उसने एकाएक चौंककर कहा, ‘‘हूँ?’’

यह ‘हूँ’ प्रश्न-सूचक था, किन्तु इसलिए नहीं कि मालती ने मेरी बात सुनी नहीं थी, ‘केवल विस्मय के कारण। इसलिए मैंने अपनी बात दुहरायी नहीं, चुप बैठ रहा। मालती कुछ बोली ही नहीं, तब थोड़ी देर बाद मैंने उसकी ओर देखा। वह एकटक मेरी ओर देख रही थी, किन्तु मेरे उधर उन्मुख होते ही उसने आँखें नीची कर लीं। फिर भी मैंने देखा, उन आँखों में कुछ विचित्र-सा भाव था, मानो मालती के भीतर कहीं कुछ चेष्टा कर रहा हो, किसी बीती हुई बात को याद करने की, किसी बिखरे हुए वायुमंडल को पुनः जगाकर गतिमान करने की, किसी टूटे हुए व्यवहार-तन्तु को पुनरुज्जीवित करने की, और चेष्टा में सफल न हो रहा हो… वैसे जैसे देर से प्रयोग में न लाये हुए अंग को व्यक्ति एकाएक उठाने लगे और पाये कि वह उठता ही नहीं है, चिरविस्मृति में मानो मर गया है, उतने क्षीण बल से (यद्यपि वह सारा प्राप्य बल है) उठ नहीं सकता… मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो किसी जीवित प्राणी के गले में किसी मृत जन्तु का तौक डाल दिया गया हो, वह उसे उतारकर फेंकना चाहे, पर उतार न पाये…

तभी किसी ने किवाड़ खटखटाये। मैंने मालती की ओर देखा, पर वह हिली नहीं। जब किवाड़ दूसरी बार खटखटाये गये, तब वह शिशु को अलग करके उठी और किवाड़ खोलने गयी।

वे, यानी मालती के पति आये। मैंने उन्हें पहली बार देखा था, यद्यपि फ़ोटो से उन्हें पहचानता था। परिचय हुआ। मालती खाना तैयार करने आँगन में चली गयी, और हम दोनों भीतर बैठकर बातचीत करने लगे, उनकी नौकरी के बारे में, उनके जीवन के बारे में, उस स्थान के बारे में और ऐसे अन्य विषयों के बारे में जो पहले परिचय पर उठा करते हैं, एक तरह का स्वरक्षात्मक कवच बनकर…

मालती के पति का नाम है महेश्वर। वह एक पहाड़ी गाँव में सरकारी डिस्पेन्सरी के डॉक्टर हैं, उसी हैसियत से इन क्वार्टरों में रहते हैं। प्रातःकाल सात बजे डिस्पेन्सरी चले जाते हैं और डेढ़ या दो बजे लौटते हैं, उसके बाद दोपहर-भर छुट्टी रहती है, केवल शाम को एक-दो घंटे फिर चक्कर लगाने के लिए जाते हैं, डिस्पेन्सरी के साथ के छोटे-से अस्पताल में पड़े हुए रोगियों को देखने और अन्य ज़रूरी हिदायतें करने… उनका जीवन भी बिलकुल एक निर्दिष्ट ढर्रे पर चलता है, नित्य वही काम, उसी प्रकार के मरीज, वही हिदायतें, वही नुस्खे, वही दवाइयाँ। वह स्वयं उकताये हुए हैं और इसीलिए और साथ ही इस भयंकर गरमी के कारण वह अपने फ़ुरसत के समय में भी सुस्त ही रहते हैं…

मालती हम दोनों के लिए खाना ले आयी। मैंने पूछा, ‘‘तुम नहीं खोओगी? या खा चुकीं?’’

महेश्वर बोले, कुछ हँसकर, ‘‘वह पीछे खाया करती है…’’ पति ढाई बजे खाना खाने आते हैं, इसलिए पत्नी तीन बजे तक भूखी बैठी रहेगी!

महेश्वर खाना आरम्भ करते हुए मेरी ओर देखकर बोले, ‘‘आपको तो खाने का मज़ा क्या ही आयेगा ऐसे बेवक़्त खा रहे हैं?’’

मैंने उत्तर दिया, ‘‘वाह! देर से खाने पर तो और अच्छा लगता है, भूख बढ़ी हुई होती है, पर शायद मालती बहिन को कष्ट होगा।’’

मालती टोककर बोली, ‘‘ऊँहू, मेरे लिए तो यह नयी बात नहीं है… रोज़ ही ऐसा होता है…’’

मालती बच्चे को गोद में लिये हुए थी। बच्चा रो रहा था, पर उसकी ओर कोई भी ध्यान नहीं दे रहा था।

मैंने कहा, ‘‘यह रोता क्यों है?’’

मालती बोली, ‘‘हो ही गया है चिड़चिड़ा-सा, हमेशा ही ऐसा रहता है।’’

फिर बच्चे को डाँटकर कहा, ‘‘चुपकर।’’ जिससे वह और भी रोने लगा, मालती ने भूमि पर बैठा दिया। और बोली, ‘‘अच्छा ले, रो ले।’’ और रोटी लेने आँगन की ओर चली गयी!

जब हमने भोजन समाप्त किया तब तीन बजने वाले थे। महेश्वर ने बताया कि उन्हें आज जल्दी अस्पताल जाना है, यहाँ एक-दो चिन्ताजनक केस आये हुए हैं, जिनका ऑपरेशन करना पड़ेगा… दो की शायद टाँग काटनी पड़े, गैंग्रीन हो गया है… थोड़ी ही देर में वह चले गये। मालती किवाड़ बन्द कर आयी और मेरे पास बैठने ही लगी थी कि मैंने कहा, ‘‘अब खाना तो खा लो, मैं उतनी देर टिटी से खेलता हूँ।’’

वह बोली, ‘‘खा लूँगी, मेरे खाने की कौन बात है,’’ किन्तु चली गयी। मैं टिटी को हाथ में लेकर झुलाने लगा, जिससे वह कुछ देर के लिए शान्त हो गया।

दूर…शायद अस्पताल में ही, तीन खड़के। एकाएक मैं चौंका, मैंने सुना, मालती वहीं आँगन में बैठी अपने-आप ही एक लम्बी-सी थकी हुई साँस के साथ कह रही है ‘‘तीन बज गये…’’ मानो बड़ी तपस्या के बाद कोई कार्य सम्पन्न हो गया हो…

थोड़ी ही देर में मालती फिर आ गयी, मैंने पूछा, ‘‘तुम्हारे लिए कुछ बचा भी था? सब-कुछ तो…’’

‘‘बहुत था।’’

‘‘हाँ, बहुत था, भाजी तो सारी मैं ही खा गया था, वहाँ बचा कुछ होगा नहीं, यों ही रौब तो न जमाओ कि बहुत था।’’ मैंने हँसकर कहा।

मालती मानो किसी और विषय की बात कहती हुई बोली, ‘‘यहाँ सब्ज़ी-वब्ज़ी तो कुछ होती ही नहीं, कोई आता-जाता है, तो नीचे से मँगा लेते हैं; मुझे आये पन्द्रह दिन हुए हैं, जो सब्ज़ी साथ लाये थे वही अभी बरती जा रही है…

मैंने पूछा, ‘‘नौकर कोई नहीं है?’’

‘‘कोई ठीक मिला नहीं, शायद एक-दो दिन में हो जाए।’’

‘‘बरतन भी तुम्हीं माँजती हो?’’

‘‘और कौन?’’ कहकर मालती क्षण-भर आँगन में जाकर लौट आयी।

मैंने पूछा, ‘‘कहाँ गयी थीं?’’

‘‘आज पानी ही नहीं है, बरतन कैसे मँजेंगे?’’

‘‘क्यों, पानी को क्या हुआ?’’

‘‘रोज़ ही होता है… कभी वक़्त पर तो आता नहीं, आज शाम को सात बजे आएगा, तब बरतन मँजेंगे।’’

‘‘चलो, तुम्हें सात बजे तक छुट्टी हुई,’’ कहते हुए मैं मन-ही-मन सोचने लगा, ‘अब इसे रात के ग्यारह बजे तक काम करना पड़ेगा, छुट्टी क्या खाक हुई?’

यही उसने कहा। मेरे पास कोई उत्तर नहीं था, पर मेरी सहायता टिटी ने की, एकाएक फिर रोने लगा और मालती के पास जाने की चेष्टा करने लगा। मैंने उसे दे दिया।

थोड़ी देर फिर मौन रहा, मैंने जेब से अपनी नोटबुक निकाली और पिछले दिनों के लिखे हुए नोट देखने लगा, तब मालती को याद आया कि उसने मेरे आने का कारण तो पूछा नहीं, और बोली, ‘‘यहाँ आये कैसे?’’

मैंने कहा ही तो, ‘‘अच्छा, अब याद आया? तुमसे मिलने आया था, और क्या करने?’’

‘‘तो दो-एक दिन रहोगे न?’’

‘‘नहीं, कल चला जाऊँगा, ज़रूरी जाना है।’’

मालती कुछ नहीं बोली, कुछ खिन्न सी हो गयी। मैं फिर नोटबुक की तरफ़ देखने लगा।

थोड़ी देर बाद मुझे भी ध्यान हुआ, मैं आया तो हूँ मालती से मिलने किन्तु, यहाँ वह बात करने को बैठी है और मैं पढ़ रहा हूँ, पर बात भी क्या की जाये? मुझे ऐसा लग रहा था कि इस घर पर जो छाया घिरी हुई है, वह अज्ञात रहकर भी मानो मुझे भी वश में कर रही है, मैं भी वैसा ही नीरस निर्जीव-सा हो रहा हूँ, जैसे-हाँ, जैसे यह घर, जैसे मालती…

मैंने पूछा, ‘‘तुम कुछ पढ़ती-लिखती नहीं?’’ मैं चारों और देखने लगा कि कहीं किताबें दीख पड़ें।

‘‘यहाँ!’’ कहकर मालती थोड़ा-सा हँस दी। वह हँसी कह रही थी, ‘यहाँ पढ़ने को है क्या?’

मैंने कहा, ‘‘अच्छा, मैं वापस जाकर ज़रूर कुछ पुस्तकें भेजूँगा…’’ और वार्तालाप फिर समाप्त हो गया…

थोड़ी देर बाद मालती ने फिर पूछा, ‘‘आये कैसे हो, लारी में?’’

‘‘पैदल।’’

‘‘इतनी दूर? बड़ी हिम्मत की।’’

‘‘आख़िर तुमसे मिलने आया हूँ।’’

‘‘ऐसे ही आये हो?’’

‘‘नहीं, कुली पीछे आ रहा है, सामान लेकर। मैंने सोचा, बिस्तरा ले ही चलूँ।’’

‘‘अच्छा किया, यहाँ तो बस…’’ कहकर मालती चुप रह गयी फिर बोली, ‘‘तब तुम थके होगे, लेट जाओ।’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं थका।’’

‘‘रहने भी दो, थके नहीं, भला थके हैं?’’

‘‘और तुम क्या करोगी?’’

‘‘मैं बरतन माँज रखती हूँ, पानी आएगा तो धुल जाएँगे।’’

मैंने कहा, ‘‘वाह!’’ क्योंकि और कोई बात मुझे सूझी नहीं…

थोड़ी देर में मालती उठी और चली गयी, टिटी को साथ लेकर। तब मैं भी लेट गया और छत की ओर देखने लगा… मेरे विचारों के साथ आँगन से आती हुई बरतनों के घिसने की खन-खन ध्वनि मिलकर एक विचित्र एक-स्वर उत्पन्न करने लगी, जिसके कारण मेरे अंग धीरे-धीरे ढीले पड़ने लगे, मैं ऊँघने लगा…

एकाएक वह एक-स्वर टूट गया – मौन हो गया। इससे मेरी तन्द्रा भी टूटी, मैं उस मौन में सुनने लगा…

चार खड़क रहे थे और इसी का पहला घंटा सुनकर मालती रुक गयी थी… वही तीन बजेवाली बात मैंने फिर देखी, अबकी बार उग्र रूप में। मैंने सुना, मालती एक बिलकुल अनैच्छिक, अनुभूतिहीन, नीरस, यन्त्रवत् – वह भी थके हुए यन्त्र के से स्वर में कह रही है, ‘‘चार बज गये’’, मानो इस अनैच्छिक समय को गिनने में ही उसका मशीन-तुल्य जीवन बीतता हो, वैसे ही, जैसे मोटर का स्पीडो मीटर यन्त्रवत् फ़ासला नापता जाता है, और यन्त्रवत् विश्रान्त स्वर में कहता है (किससे!) कि मैंने अपने अमित शून्यपथ का इतना अंश तय कर लिया… न जाने कब, कैसे मुझे नींद आ गयी।

तब छह कभी के बज चुके थे, जब किसी के आने की आहट से मेरी नींद खुली, और मैंने देखा कि महेश्वर लौट आये हैं और उनके साथ ही बिस्तर लिये हुए मेरा कुली। मैं मुँह धोने को पानी माँगने को ही था कि मुझे याद आया, पानी नहीं होगा। मैंने हाथों से मुँह पोंछते-पोंछते महेश्वर से पूछा, ‘‘आपने बड़ी देर की?’’

उन्होंने किंचित् ग्लानि-भरे स्वर में कहा, ‘‘हाँ, आज वह गैंग्रीन का आपरेशन करना ही पड़ा, एक कर आया हूँ, दूसरे को एम्बुलेन्स में बड़े अस्पताल भिजवा दिया है।’’

मैंने पूछा’’ गैंग्रीन कैसे हो गया।’’

‘‘एक काँटा चुभा था, उसी से हो गया, बड़े लापरवाह लोग होते हैं यहाँ के…’’

मैंने पूछा, ‘‘यहाँ आपको केस अच्छे मिल जाते हैं? आय के लिहाज से नहीं, डॉक्टरी के अभ्यास के लिए?’’

बोले, ‘‘हाँ, मिल ही जाते हैं, यही गैंग्रीन, हर दूसरे-चौथे दिन एक केस आ जाता है, नीचे बड़े अस्पतालों में भी…’’

मालती आँगन से ही सुन रही थी, अब आ गयी, ‘‘बोली, ‘‘हाँ, केस बनाते देर क्या लगती है? काँटा चुभा था, इस पर टाँग काटनी पड़े, यह भी कोई डॉक्टरी है? हर दूसरे दिन किसी की टाँग, किसी की बाँह काट आते हैं, इसी का नाम है अच्छा अभ्यास!’’

महेश्वर हँसे, बोले, ‘‘न काटें तो उसकी जान गँवाएँ?’’

‘‘हाँ, पहले तो दुनिया में काँटे ही नहीं होते होंगे? आज तक तो सुना नहीं था कि काँटों के चुभने से मर जाते हैं…’’

महेश्वर ने उत्तर नहीं दिया, मुस्करा दिये। मालती मेरी ओर देखकर बोली, ‘‘ऐसे ही होते हैं, डॉक्टर, सरकारी अस्पताल है न, क्या परवाह है! मैं तो रोज़ ही ऐसी बातें सुनती हूँ! अब कोई मर-मुर जाए तो ख़याल ही नहीं होता। पहले तो रात-रात-भर नींद नहीं आया करती थी।’’

तभी आँगन में खुले हुए नल ने कहा – टिप् टिप् टिप्-टिप्-टिप्-टिप्…

मालती ने कहा, ‘‘पानी!’’ और उठकर चली गयी। खनखनाहट से हमने जाना, बरतन धोए जाने लगे हैं…

टिटी महेश्वर की टाँगों के सहारे खड़ा मेरी ओर देख रहा था, अब एकाएक उन्हें छोड़कर मालती की ओर खिसकता हुआ चला। महेश्वर ने कहा, ‘‘उधर मत जा!’’ और उसे गोद में उठा लिया, वह मचलने और चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा।

महेश्वर बोले, ‘‘अब रो-रोकर सो जाएगा, तभी घर में चैन होगी।’’

मैंने पूछा, ‘‘आप लोग भीतर ही सोते हैं? गरमी तो बहुत होती है?’’

‘‘होने को तो मच्छर भी बहुत होते हैं, पर यह लोहे के पलंग उठाकर बाहर कौन ले जाये? अब के नीचे जाएँगे तो चारपाइयाँ ले आएँगे।’’ फिर कुछ रुककर बोले, ‘‘आज तो बाहर ही सोएँगे। आपके आने का इतना लाभ ही होगा।’’

टिटी अभी तक रोता ही जा रहा था। महेश्वर ने उसे एक पलंग पर बिठा दिया, और पलंग बाहर खींचने लगे, मैंने कहा, ‘‘मैं मदद करता हूँ’’, और दूसरी ओर से पलंग उठाकर निकलवा दिये।

अब हम तीनों… महेश्वर, टिटी और मैं, दो पलंगों पर बैठ गये और वार्तालाप के लिए उपयुक्त विषय न पाकर उस कमी को छुपाने के लिए टिटी से खेलने लगे, बाहर आकर वह कुछ चुप हो गया था, किन्तु बीच-बीच में जैसे एकाएक कोई भूला हुआ कर्त्तव्य याद करके रो उठता या, और फिर एकदम चुप हो जाता था… और कभी-कभी हम हँस पड़ते थे, या महेश्वर उसके बारे में कुछ बात कह देते थे…

मालती बरतन धो चुकी थी। जब वह उन्हें लेकर आँगन के एक ओर रसोई के छप्पर की ओर चली, तब महेश्वर ने कहा, ‘‘थोड़े-से आम लाया हूँ, वह भी धो लेना।’’

‘‘कहाँ हैं?’’

‘‘अँगीठी पर रखे हैं, काग़ज़ में लिपटे हुए।’’

मालती ने भीतर जाकर आम उठाये और अपने आँचल में डाल लिये। जिस काग़ज़ में वे लिपटे हुए थे वह किसी पुराने अखबार का टुकड़ा था। मालती चलती-चलती सन्ध्या के उस क्षण प्रकाश में उसी को पढ़ती जा रही थी… वह नल के पास जाकर खड़ी उसे पढ़ती रही, जब दोनों ओर पढ़ चुकी, तब एक लम्बी साँस लेकर उसे फेंककर आम धोने लगी।

मुझे एकाएक याद आया…बहुत दिनों की बात थी… जब हम अभी स्कूल में भरती हुए ही थे। जब हमारा सबसे बड़ा सुख, सबसे बड़ी विजय थी हाज़िरी हो चुकने के बाद चोरी से क्लास से निकल भागना और स्कूल से कुछ दूरी पर आम के बग़ीचे में पेड़ों पर चढ़कर कच्ची आमियाँ तोड़-तोड़ खाना। मुझे याद आया… कभी जब मैं भाग आता और मालती नहीं आ पाती थी तब मैं भी खिन्न-मन लौट आया करता था।

मालती कुछ नहीं पढ़ती थी, उसके माता-पिता तंग थे, एक दिन उसके पिता ने उसे एक पुस्तक लाकर दी और कहा कि इसके बीस पेज रोज़ पढ़ा करो, हफ़्ते भर बाद मैं देखूँ कि इसे समाप्त कर चुकी हो, नहीं तो मार-मार कर चमड़ी उधेड़ दूँगा। मालती ने चुपचाप किताब ले ली, पर क्या उसने पढ़ी? वह नित्य ही उसके दस पन्ने, बीस पेज, फाड़ कर फेंक देती, अपने खेल में किसी भाँति फ़र्क न पड़ने देती। जब आठवें दिन उसके पिता ने पूछा, ‘‘किताब समाप्त कर ली?’’ तो उत्तर दिया…‘‘हाँ, कर ली,’’ पिता ने कहा, ‘‘लाओ, मैं प्रश्न पूछूँगा, तो चुप खड़ी रही। पिता ने कहा, तो उद्धत स्वर में बोली, ‘‘किताब मैंने फाड़ कर फेंक दी है, मैं नहीं पढ़ूँगी।’’

उसके बाद वह बहुत पिटी, पर वह अलग बात है। इस समय मैं यही सोच रहा था कि वह उद्धत और चंचल मालती आज कितनी सीधी हो गयी है, कितनी शान्त, और एक अखबार के टुकड़े को तरसती है… यह क्या, यह…

तभी महेश्वर ने पूछा, ‘‘रोटी कब बनेगी!’’

‘‘बस, अभी बनाती हूँ।’’

पर अबकी बार जब मालती रसोई की ओर चली, तब टिटी की कर्त्तव्य-भावना बहुत विस्तीर्ण हो गयी, वह मालती की ओर हाथ बढ़ा कर रोने लगा और नहीं माना, मालती उसे भी गोद में लेकर चली गयी, रसोई में बैठ कर एक हाथ से उसे थपकने और दूसरे से कई छोटे-छोटे डिब्बे उठाकर अपने सामने रखने लगी…

और हम दोनों चुपचाप रात्रि की, और भोजन की और एक-दूसरे के कुछ कहने की, और न जाने किस-किस न्यूनता की पूर्ति की प्रतीक्षा करने लगे।

हम भोजन कर चुके थे और बिस्तरों पर लेट गये थे और टिटी सो गया था। मालती पलंग के एक ओर मोमजामा बिछाकर उसे उस पर लिटा गयी थी। वह सो गया था, पर नींद में कभी-कभी चौंक उठता था। एक बार तो उठकर बैठ भी गया था, पर तुरन्त ही लेट गया।

मैंने महेश्वर से पूछा, ‘‘आप तो थके होंगे, सो जाइये।’’

वह बोले, ‘‘थके तो आप अधिक होंगे… अठारह मील पैदल चल कर आये हैं।’’ किन्तु उनके स्वर ने मानो जोड़ दिया… थका तो मैं भी हूँ।’’

मैं चुप रहा, थोड़ी देर में किसी अपर संज्ञा ने मुझे बताया, वह ऊँघ रहे हैं।

तब लगभग साढ़े दस बजे थे, मालती भोजन कर रही थी।

मैं थोड़ी देर मालती की ओर देखता रहा, वह किसी विचार में – यद्यपि बहुत गहरे विचार में नहीं, लीन हुई धीरे-धीरे खाना खा रही थी, फिर मैं इधर-उधर खिसक कर, पर आराम से होकर, आकाश की ओर देखने लगा।

पूर्णिमा थी, आकाश अनभ्र था।

मैंने देखा-उस सरकारी क्वार्टर की दिन में अत्यन्त शुष्क और नीरस लगने वाली स्लेट की छत भी चाँदनी में चमक रही है, अत्यन्त शीतलता और स्निग्धता से छलक रही है, मानो चन्द्रिका उन पर से बहती हुई आ रही हो, झर रही हो…

मैंने देखा, पवन में चीड़ के वृक्ष… गरमी से सूख कर मटमैले हुए चीड़ के वृक्ष… धीरे-धीरे गा रहे हों… कोई राग जो कोमल है, किन्तु करुण नहीं, अशान्तिमय है, किन्तु उद्वेगमय नहीं…

मैंने देखा, प्रकाश से धुँधले नीले आकाश के तट पर जो चमगादड़ नीरव उड़ान से चक्कर काट रहे हैं, वे भी सुन्दर दीखते हैं…

मैंने देखा – दिन-भर की तपन, अशान्ति, थकान, दाह, पहाड़ों में से भाप से उठकर वातावरण में खोये जा रहे हैं, जिसे ग्रहण करने के लिए पर्वत-शिशुओं ने अपनी चीड़ वृक्षरूपी भुजाएँ आकाश की ओर बढ़ा रखी हैं…

पर यह सब मैंने ही देखा, अकेले मैंने… महेश्वर ऊँघे रहे थे और मालती उस समय भोजन से निवृत्त होकर दही जमाने के लिए मिट्टी का बरतन गरम पानी से धो रही थी, और कह रही थी…‘‘अभी छुट्टी हुई जाती है।’’ और मेरे कहने पर ही कि ‘‘ग्यारह बजने वाले हैं,’’ धीरे से सिर हिलाकर जता रही थी कि रोज़ ही इतने बज जाते हैं… मालती ने वह सब-कुछ नहीं देखा, मालती का जीवन अपनी रोज़ की नियत गति से बहा जा रहा था और एक चन्द्रमा की चन्द्रिका के लिए, एक संसार के लिए रुकने को तैयार नहीं था…

चाँदनी में शिशु कैसा लगता है इस अलस जिज्ञासा से मैंने टिटी की ओर देखा और वह एकाएक मानो किसी शैशवोचित वामता से उठा और खिसक कर पलंग से नीचे गिर पड़ा और चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगा। महेश्वर ने चौंककर कहा – ‘‘क्या हुआ?’’ मैं झपट कर उसे उठाने दौड़ा, मालती रसोई से बाहर निकल आयी, मैंने उस ‘खट्’ शब्द को याद करके धीरे से करुणा-भरे स्वर में कहा, ‘‘चोट बहुत लग गयी बेचारे के।’’

यह सब मानो एक ही क्षण में, एक ही क्रिया की गति में हो गया।

मालती ने रोते हुए शिशु को मुझसे लेने के लिए हाथ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘इसके चोटें लगती ही रहती है, रोज़ ही गिर पड़ता है।’’

एक छोटे क्षण-भर के लिए मैं स्तब्ध हो गया, फिर एकाएक मेरे मन ने, मेरे समूचे अस्तित्व ने, विद्रोह के स्वर में कहा – मेरे मन न भीतर ही, बाहर एक शब्द भी नहीं निकला – ‘‘माँ, युवती माँ, यह तुम्हारे हृदय को क्या हो गया है, जो तुम अपने एकमात्र बच्चे के गिरने पर ऐसी बात कह सकती हो – और यह अभी, जब तुम्हारा सारा जीवन तुम्हारे आगे है!’’

और, तब एकाएक मैंने जाना कि वह भावना मिथ्या नहीं है, मैंने देखा कि सचमुच उस कुटुम्ब में कोई गहरी भयंकर छाया घर कर गयी है, उनके जीवन के इस पहले ही यौवन में घुन की तरह लग गयी है, उसका इतना अभिन्न अंग हो गयी है कि वे उसे पहचानते ही नहीं, उसी की परिधि में घिरे हुए चले जा रहे हैं। इतना ही नहीं, मैंने उस छाया को देख भी लिया…

इतनी देर में, पूर्ववत् शान्ति हो गयी थी। महेश्वर फिर लेट कर ऊँघ रहे थे। टिटी मालती के लेटे हुए शरीर से चिपट कर चुप हो गया था, यद्यपि कभी एक-आध सिसकी उसके छोटे-से शरीर को हिला देती थी। मैं भी अनुभव करने लगा था कि बिस्तर अच्छा-सा लग रहा है। मालती चुपचाप ऊपर आकाश में देख रही थी, किन्तु क्या चन्द्रिका को या तारों को?

तभी ग्यारह का घंटा बजा, मैंने अपनी भारी हो रही पलकें उठा कर अकस्मात् किसी अस्पष्ट प्रतीक्षा से मालती की ओर देखा। ग्यारह के पहले घंटे की खड़कन के साथ ही मालती की छाती एकाएक फफोले की भाँति उठी और धीरे-धीरे बैठने लगी, और घंटा-ध्वनि के कम्पन के साथ ही मूक हो जानेवाली आवाज़ में उसने कहा, ‘‘ग्यारह बज गये…’’

(डलहौजी, मई 1934)

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एटरनल सनशाइन ऑफ़ द स्पॉटलेस माइंड: स्मृति वन में भटकते मन की कथा-फ़िल्म

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सुदीप्ति जब फ़िल्मों पर लिखती हैं तो वह इतना परिपूर्ण होता है कि अपने आपमें स्वतंत्र कलाकृति के समान लगता है। जैसे ‘एटरनल सनशाइन ऑफ़ द स्पॉटलेस माइंड’ पर लिखते हुए मानव जीवन में स्मृतियों के महत्व के ऊपर एक सुंदर टिप्पणी की है। इसको पढ़ने के बाद आपको फ़िल्म देखने का मन होने लगेगा। यह फ़िल्म अमेजन प्राइम पर उपलब्ध है। लेख पढ़ने के बाद आप भी देख सकते हैं-मॉडरेटर

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1.

‘तुमसे मिलने से पहले मैं सुंदर थी.’

‘सुंदर? वह तो अब भी हो.’

‘नहीं! मेरे मन की निर्मलता नष्ट हो गई और अब वह चेहरे पर भी झलक जाती है. अब नहीं हूँ. दिखती हूँ ये अलग बात है पर हूँ नहीं.’

‘तो फिर मुझसे दूर हो जाओ.’

‘उसके बाद भी खुद को कैसे बदलूंगी भला? मैं पहले वाली नहीं हो सकूंगी. भले ही तुमसे दूर हो जाऊ तब भी अपने तक वापसी कैसे?’

2.

‘हमारी त्रासदी यह है कि मैं तुमसे नफरत नहीं कर सका और तुम मुझसे प्यार.

मैं तुम्हें अपने ज़हन से निकाल देना चाहता हूँ क्योंकि जब भी मुड़ स्मृतियों की गलियों में चला जाता हूँ मेरा दुःख दुगुना हो जाता है.

मैं सच में तुम्हें भूल जाना चाहता हूँ क्योंकि पीड़ा का दुहराव आसन नहीं है. मेरी स्मृतियाँ तुमसे ज्यादा तबाह करती हैं. जैसे तुम चली गईं ठीक वैसे ही इन्हें क्यों नहीं ले गईं?’

‘क्योंकि मैं उन्हें ले ही नहीं जा सकती, वे “तुम्हारी” स्मृतियाँ हैं.’

ये अलग-अलग लोगों के दो किस्से हैं. इनका Eternal Sunshine of the Spotless Mind से कोई सीधा संबंध नहीं है, फिर भी, मेरे मन में इनका एकदम सीधा संबंध इसी फिल्म से जुड़ता हुआ दीखता है. हम अपनी स्मृतियों को हटा दें या बदल दें तब भी हम अपना होना नहीं बदल सकते. हम कौन हैं इससे तय होता है कि हम क्या करेंगे या किसे चुनेंगे.

सबसे पहले तो इस फिल्म को देखते हुए एक छोटे चरित्र पर मेरा ध्यान अटक गया. मेरी जो डॉक्टर हॉवर्ड के यहाँ रिसेप्शनिस्ट है. उसे डॉक्टर पर क्रश होता है. एक दृश्य में हम उसके उतावलेपन को और क्रश के आगे की बेबसी को देखते हैं जो देखने वाले के लिए बेहद हास्यास्पद है.फिर कुछ ही देर में इस रहस्य से दो-चार होते हैं कि यह पहली बार नहीं हो रहा है. मेरी ने पहली बार के बाद पीड़ा से बचने के लिए अपनी स्मृतियों को मिटवा लिया है और डॉक्टर ने अपने जीवन के  असुविधाजनक सवालों से बचने के लिए उसे मिटाने को प्रस्तुत करवाया. लेकिन, इससे उसकी स्मृतियाँ भर नष्ट हुईं उसकी प्रवृतियाँ, चाहतें नहीं बदलीं. स्मृति लेख मिटा कर एक ही दुख वह दुबारा सहने को बाध्य हुई. दरअसल उसके मन ने डॉक्टर को पसंद किया था. अगर मन को अपनी भावी स्मृतियों को चुनने की आज़ादी होती तो वह किसी ऐसे को क्यों पसंद करता, जो कभी उसका हो ही ना सके?

उस दृश्य में मैं चमत्कृत होती हूँ. हॉलीवुड का एक कमर्शियल सिनेमा मानव मन की इस तह तक पहुँच जाता है. हमारे आस-पास कितने लोग इस भाव से परिचित होंगे और इस बेबसी से? अपने दुख का कारण समझने के बाद भी उसके आगे घुटने टेकने की बेबसी से, अपने होने के मूल में अपने स्वभाव की अहमियत से और दोबारा ना पा सकने की कसक से? एक ही जीवन में किसी को दो बार खो देना कैसा लगता है ना? अपना समान समेट जाती मेरी की आँखों का सूनापन बताता है अगर ‘दुःख ही जीवन की कथा रही’ तब भी उसी से हम बनते हैं न?

फिल्म में अचरज भरा जोएल जब यह जान जाता है कि क्लेमेंटाइन ने उसे अपने जीवन से ही नहीं अपनी स्मृतियों से खारिज कर दिया है तब उसके गुस्से के पास एक ही उपाय बचता है. सीधा-सा उपाय है क्लेमेंटाइन को भी अपनी यादों से बेदखल करने का. इसके बाद उनकी प्रेम कहानी उसकी यादों में देखने को मिलती है. सब कुछ रिवर्स चल रहा होता है. कैसे अलग हुए पहले पता चलता है और कैसे मिले बाद में. कई बार कोई घटना बिना किसी क्रम के भी आ जाती है. जीवन का क्रम भले तय होता है पर स्मृतियों का तो नहीं. वे तो असंबद्ध होती हैं. सबसे प्यारी सबसे पहले आती है इसीलिए उसे मिटाना भी सबसे आसान होता है.

मुझे हैरत इसी बात पर होती है कि स्मृतियों को मिटवाने के क्रम में जोएल का अवचेतन मन स्टेन और पैट्रिक की बातें सुन अपनी ही स्मृति-वीथिकाओं में भटकने लगता है. ठीक उसी वक़्त वह तय करता है कि अब उसे उन्हें नहीं मिटाना है. लेकिन, अपनी उस शारीरिक हालत में वह कुछ भी नहीं कर सकता है. सारी ताकत लगा वह अपनी स्मृतियों की दुनिया के असल वक़्त में वापस जाता है और तय करता है कि उसे अपनी स्मृतियों के भीतर ही कुछ इस तरह छिपाना है जो खुद उसका दिमाग ही न ढूंढ सके. अपने भीतर क्लेमेंटाइन को या उसके लिए अपने प्यार को छिपा लेना है.

कितनी अचरज भरी बात है न? अपने भीतर ऐसी बात छुपाना कि कोई हमारा दिमाग पढ़े तो भी उसे वह बात न मिले. है ना मजेदार.

पर क्यों छुपाना भला? जोएल एक बंद किताब के मानिंद था, वह अपनी खुशियाँ, अपने भय बाँटता नहीं था परंतु इसका मतलब यह नहीं कि वह महसूस भी नहीं करता था. उसके जीवन की सबसे प्यारी याद बर्फ़ पर सोने वाली रही, तो क्या वह याद अगर दुहरायी जाए तो सबसे प्यारी नहीं रहेगी? क्लेमेंटाइन अगर खुद को डैमेज्ड कहती है और एक खुली किताब की तरह है फिर भी उसके मन की कोमलता जोएल को पहचान लेती है. उसका एक बार पहचान लेना दुहराने पर बदल जाएगा?

मन अपने मतलब की बात परख लेता है आप अपनी स्मृतियों को डिलीट बटन से दबायेंगे पर अपने-आप को किस बटन से बदलेंगे? जीवन अगर पेन्सिल से लिखी इबारत हो तो क्या रबर से मिटाकर जो दुबारा लिखा जाएगा वह पूरी इबारत बदल जाएगी? शायद नहीं! क्योंकि हम जो भाषा जानते हैं, जिन शब्दों से प्रेम करते हैं वे वही रहेंगे. जब हम वही रहेंगे तो हमारे निर्णय, प्रेम, वफादारियां और बेवफाइयां भी वैसी ही होंगी. इसका मतलब वेदना अगर नियत है तो वह मिलेगी ही. उसके चयन का अधिकार आपका नहीं है बस उसको सहने के तरीके का अनुसंधान आप कर सकते हैं.

फिल्म में सबसे मोहक है एक-एक करके स्मृतियों का इमारतों की तरह ध्वस्त होते जाना और जोएल-क्लेमेंटाइन का भागते जाना. अपनी ही आँख से अपनी कोई बात चुरा लेने की कोशिश करना ऐसा है मानो गुस्से में कोई ख़त फाड़ ना दिया जाए इसलिए उस ख़त को किसी बक्से में रख चाभी खो देना. लेकिन क्या स्मृतियाँ बचा सकती हैं स्मृतियों को? नहीं! यहाँ तो उन्हें कल्पना बचाती है. जहाँ मनुष्य का साहस और उसकी युक्तियाँ चुक जाती हैं वहाँ बचाती है उसकी कल्पना. शायद किसी भी मुश्किल में वही हमें थाम लेने वाली शक्ति है. कैसे? इसके लिए तो फिल्म देखिए. प्राइम पर मौजूद है.

वैसे तो केट मुझे हर हाल में प्रिय हैं लेकिन इसमें जिम ने बाज़ी मार ली है. उनका अभिनय जबरदस्त है. जोएल का चरित्र आसान नहीं. उसके सादे से जीवन में सारी उथल-पुथल क्लेमेंटाइन ने मचाई है. उसका जीवन उसकी स्मृतियों के बिना खोखला हो जाएगा और इस बात को समझना और फिर जो अपने वश में है उससे ज्यादा जो नहीं है उसे भी करने को लपकते जोएल के चरित्र को जिम कैरी ने जैसे निभाया है उससे भावात्मक रूप से बिखरे हुए मनुष्य के मन की अथाह खूबसूरती झलकती है.

और हाँ! हमारी स्मृतियाँ ही हमें वह बनाती हैं जो हम हैं. होना चाहते हों या नहीं वह तो बाद की बात है. संभव है कोई स्मृति हमारे लिए सबसे कड़वी हो, सबसे ज्यादा इम्तिहान लेती हुई भी लेकिन फिर भी उसे मुड़कर नष्ट कर देना इसलिए भी नहीं हो पाता क्योंकि उसमें हम खुद को पूरी ईमानदारी से और पूरे बिखराव में पाते हैं। स्मृतियाँ तो इतनी निजी होती हैं कि बिना अपने को जज किए किसी को याद किया जा सकता है और बिना उसपर दबाव बनाए, उसे जताए उसे याद कर रोया या हँसा जा सकता है। अपनी स्मृतियों में हम जो होते हैं वह प्रेम करते हैं बिना किसी लोभ के, रोष करते हैं बिना किसी हिंसा के और  वह अपने वजूद का हिस्सा होती हैं। माना कि यादों में कई खूबसूरत नहीं होंगी, कई मुकाम तक न पहुँची होंगी, कई शूल की तरह चुभेंगी तब भी उनमें अपना होना होता है। जिसे हम मन-निकाला दे देते हैं वह भी किसी कोने में मुस्कान के साथ होता है और हम पर उसके प्रति जवाबदेही नहीं होती। जो हैं और जो चले गए सब स्मृतियों के हमारे संसार में हमें रचते हैं। जो चले गए, जिन्होंने ने साथ नहीं दिया उनकी यादों को क्यों धो-पोंछना भला? हम खुद तो हैं न वहाँ भी।

लेखिका

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उषाकिरण खान की कहानी ‘नये समय पर’

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हिंदी-मैथिली की वरिष्ठ लेखिका उषाकिरण खान की नई कहानी पढ़िए। समकालीन संदर्भों में इस कहानी का कुछ मतलब समझ में आएगा-

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           यहीं वह स्थान है जहाँ पुष्पा ने जन्म लिया था, यहीं इसकी पहली किलकारी गूँजी थी। यहीं अपनी माँ की तीसरी बेटी बन उपेक्षा दंश भी झेला था। पर उपेक्षा का दंश अधिक नहीं झेलना पड़ा था और जब चार साल की थी तभी उसके पीछे अम्मा ने एक भाई को जन्म दिया। सहसा यह माता-पिता की दुलारी हो गई थी। इसको कोहनी से पीछे ढकेल देने वाले पिता ने अब गोद में उठा लिया था और बड़े गौर से देखा था। फिर इसी के साथ दूसरी दो बेटियों को भी देखा। बड़ी बेटी साँवली सलोनी थी, दूसरी पिंकी गोरी चिट्टी गुलाबी रंगत लिये, सुनहरे केशों वाली है पर यह तो फूल सी खिली बिटिया है सो पुष्पा नाम रहेगा, विचारा। झाडू-पोछा लगाने वाली अम्मा की बेटियों की स्थिति भी वैसी ही थी। पिता चिंटू राय एक जेलो साइकिल पर स्टाॅकिस्ट से सामान लाकर दुकानों को पहुँचाता तथा बड़े-बड़े सपने देखता। सपनों की डींग भी मारता। अपनी बीबी तारा को भी सपने दिखाता कि यहीं इसी टोले के दलदल का एक कोना खरीदने वाला है जिस पर घर बनायेगा घर के चार कमरे होंगे, दो अपने लिए रखेगा दो किराये पर उठा देगा। बेटियों की शादी धूमधाम से करेगा। तारा जिन घरों में काम करती वहाँ से जो खाना मिलता उसी में सब मिल बाँट कर खा लेते। घर में जब बच्चे बड़े हुए तब ही रसोई बनाने लगी। तारा का अनुमान था कि चिंटू राय के पास काफी रूपये जमा होंगे। एक मालकिन ने बड़ी बेटी नीरू को अपने पास काम के लिए रख लिया था। तारा ने पिंकी पुष्पा और मुन्ना को सरकारी स्कूल में नाम लिखा दिया। बच्चों और तारा को मालिकों के यहाँ से कपड़े मिल जाते, पढ़ने-लिखने के लिए किताबें पेंसिल और काॅपी की मदद भी मिलता। फिर भी खर्चा बढ़ गया था। चिंटू राय काम के सिलसिले में अक्सर दस-बारह दिन बाहर रहता। तारा को यह कहकर सदा भरमाये रहता कि वह अधिक रूपये कमा रहा है ताकि एक घर बना सके। तारा के देखते-देखते दलदल वाली जमीन बिक रही थी लोग छोटे-छोटे घर बना रहे थे। एक घर में वह किराये में रह रही थी। एक दिन चिंटू राय ने तारा के संचित रूपयों से जमीन खरीदने की बात कही। तारा ने इस शत्र्त पर दिया कि मकान वह बनायेगा। पिंकी और पुष्पा स्कूल जाती पर शाम को आकर अपनी अम्मा के काम में हाथ भी बँटाती। मुन्ना स्कूल के नाम पर कंचे गोली खेल कर समय गुजारता।

            देखते ही देखते पिंकी बड़ी हो गई। चौदहवें साल में वह सचमुच चौदहवीं का चाँद हो गई। बड़े घर की मालकिन ने एक दिन आहें भरकर कहा था कि ‘‘तुम यही विजातीय न होती और कामवाली दाई न होती तो…..’’ पर यह सब तारा के लिए नया नहीं था। वह अपनी अम्मा और नानी के साथ घरों में काम करती आई है, अपने रूप गुण अभाव के कारण यह सब सुनती आई है। हाँ, चिंटू राय पहला ऐसा आदमी मिला जिसने पहले इसे पटाया फिर इसकी अम्मा को पटाकर गंगा किनारे के शिव मंदिर में जाकर शादी कर ली। एक कोठरी से उठकर दूसरी किराये की कोठरी में तारा आ गई। पन्द्रह-बीस दिनों के बाद ही पुराने काम पर जाने लगी।

            पिंकी अपरूप थी। उसे देखने को सचमुच गलियों में लोग ठिठक जाते। अम्मा के साथ ही काम करने वाली करने वाली संगों के आदमी ने जमीन खरीदकर दो कमरें बना लिये थे। वह राज मिस्त्री था। संगों के चार बेटे थे। वह अब काम नहीं करती थी। अपने बच्चों को संभालती थी। संगों का बड़ा बेटा गुड्डू पिंकी को प्यार काने लगा था। सोलह साल का गुड्डू चैदह साल की पिंकी को जब तक स्कूल के रास्ते में रोक कर अपने प्यार का इजहार करता था। फिल्मों में देखे सुने डायलाॅग बोला करता था। हेयर पिन और चाॅकलेट गिफ्ट में देता था। पिंकी रोने लगती। तब गुड्डू उसे अपने से सटा कर प्यार करता तथा आँसू पोंछ देता। पिंकी को यह सब अच्छा लगता। गुड्डू ने अपनी अम्मा से कहा कि वह पिंकी से शादी करेग। अम्मा को यह प्रस्ताव अच्छा लगा। उसने तुरंत जाकर तारा से बात की। आनन-फानन में दोनों का विवाह हो गया। चिंटू राय छः माह से लापता था। तारा को बेटियों के ब्याह की चिन्ता थी। बड़ी बेटी विवाह योग्य थी लेकिन वह एक सुदृढ़ वृक्ष की छाया में थी। उन्होंने कह रखा था कि उसका विवाह वह सही समय आने पर कर देंगी। पिंकी का स्कूल छूट गया। वह घर में बड़े घर की बहू की भाँति रहती। तारा को सुख मिलता। पुष्पा अब बिल्कुल अकेली हो गई। सर झुकाकर मुहल्ले की लड़कियों के व्यंग्य बाण झेलती स्कूल जाती, माँ के हाथ भी बँटाती। दसवीं की परीक्षा सर पर होने के कारण पढ़ाई में मन लगाती। पीछे वाली भाभी के घर अम्मा अपनी शादी के पहले से काम करती थी। उनसे घरऊ आत्मीयता हो गई थी। उनके छोटे देवर इंजीनियरिंग के लिए प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे थे। बड़ी भाभी ने एक दिन पुष्पा से कहा- ‘‘तुम बबुआ से साइंस और मैथ्स क्यों नहीं पढ़ लेती? क्यों बबुआ?’’- देवर से भी पूछा- ‘‘हाँ, बताओं क्या पढ़ना है?’’ सुनील बाबू के सामने ही ये लड़की बड़ी हुई है। चड्ढी से सलवार कुरती पर आई है। पढ़ाते हुए गौर किया कि लम्बी छरहीर चुवती निकल आई है। लम्बे-लम्बे काले केश, बड़ी-बड़ी आँखें और गोल सुंदर चेहरा है। रंग खुलता हुआ गोरा हैं इसके हाथ बेहद कोमल हैं। एक दिन पोंछा लगाते वक्त टूटी काँच की चूड़ी से हाथ घायल हो गये थे। सुनील ने उसकी उंगली में बैंडेड लगाया था। हाथों की कोमलता इसको दिल में हलचल मचाने लगी थी। अनायास सुनील अपने साथ कोचिंग में पढ़ने वाली लड़कियों से पुष्पा की तुलना करने लगे। रूप गुण और शाइस्तगी में इसकी बराबरी कोई नहीं कर सकती। यह भी गौर करने लगे कि पान की दूकान के पास, मंदिर के चैतरे पर तथा सड़कों के नुक्कड़ पर शोहदों की भीड़ इस पर फंबती कसने के लिए जमा होने लगी थी। वैसे वे छोंकरे किसी को न छोड़ते। उम्रदार स्त्रियों को भी ये न बक्शते पुष्पा तो एक सुंदर किशोरी थी। पुष्पा के लिए इनके मन में मोह उपजता यह शालीन, सुन्दर लड़की यदि खाते-पीने घर की होती तो एसे सड़कों पर न चलती न उल्टे-सीधे बोल सुनती। सुनील के साथ पुष्पा एक घंटा पढ़ती, इसका मन कितना लगता यह तो पुष्पा ही जाने पर सुनील का मन पढ़ाने में बिल्कुल नहीं लगता। जब से उसकी उंगलियों में बैंडएड लगाया था तब से उसकी उंगलियों सहलाने, हाथ पकड़ने का लाइसेंस मिल गया था। पुष्पा भी हाथ नहीं खींचती एक दिन धीमे स्वर में सुनली ने कहा- ‘‘मैं तुमसे प्यार करने लगा हूँ पुष्पा।’’

            ‘‘यह सही नहीं है सर’’ -उसने कहा।

            ‘‘क्यों, तुम मुझे प्यार नहीं करती?’’

            ‘‘मेरी हैसियत नहीं है कि आपकी ओर भर नजर देख भी लूँ।’’

            ‘‘देखो पुष्पा, देख लो मेरी आँखों में तुम्हें सच्चाई का अंदाजा लग जायगा।’’ -उसका हाथ पकड़ कर छाती पर रखा।

            ‘‘सुन रही हो धड़कन? यह तुम्हारे लिए है।’’ -पुष्पा ने हौले से हाथ खींच लिया और काॅपी कलम लेकर चुपचाप चली गई। पर फिर दूसरे दिन आकर बैठ गई। अब ये भी उस नशे में घिरने लगी थी। विचारवान थी, अपनी स्थिति समझती थी पर प्यार तो परवश होता है। यह उसमें डूब गई। ये अवसर ढूँढ़ते एकान्त का। इन्हें मिल भी जाता। पुष्पा की अम्मा तथा बहनों ने उसके साज-सिंगार की बढ़ोत्तरी को सामान्य युवती का शौक समझा। परन्तु पुष्पा अब सुनील के लिए सब करती। सुनील इंजीनियरिंग की परीक्षा में पास होकर काॅलेज ज्वाइन करने की तैयारी कर रहे थे। पुष्पा का हृदय मिश्रित भाव में ऊब चूब कर रहा था। सुनील चला जायगा कैसे काटेगी समय? सुनील ने कहा कि वह इंजीनियर बनकर अपने पैरों पर खड़ा होगा और पुष्पा से शादी करेगा। पुष्पा उसके कथन से आश्वस्व थी। उसे अपने प्यार पर भड़ोसा था। जब भी इसने कहा कि- ‘‘हममें आप में कोई मेल नहीं सुनील बाबू?, न तो जाति, न हैसियत बेकार सपने न दिखायें जब तब सुनील कहता- ‘‘प्यार में यह सब नहीं देखा जाता; यह बस सच नहीं है।’’

            ‘‘पता नहीं भगवान की क्या मर्जी है।’’ -पुष्पा कहती।

            ‘‘उनकी मर्जी है तभी तो हमलोग एक-दूसरे के निकट आये?’’ -सुनील पुष्पा को निरुत्तर कर देता। पुष्पा सुनील के प्रति पूरी समर्पित हो चुकी थी। सुनील चले गये थे। पुष्पा की परीक्षा कि निर्विघ्न हुई। वह सदा सुनील की यादों में खोई रहती। सुनील अपनी भाभी को पत्र लिखता तो पुष्पा का हाल पूछता उसकी परीक्षा के बहाने। भाभी पुष्पा को बता देती। कई बार हँसी-मजाक के लहजे में कह देतीं -‘‘तुम अगर हमारी जाति की होती तो मैं तुम्हें अपनी देवरानी बनाती।’’ सुनकर पुष्पा की अम्मा तारा हँस देती- ‘‘तकदीर की खोटी है।’’

            पुष्पा लजा जाती। ऐसे ही सुख से भरी हुई पुष्पा गहरी नींद में सोई हुई थी कि किसी का हाथ अपने चेहरे पर महसूस किया। वह चैंकर उठ बैठी। सामने खिलखिलाती हुई पिंकी बैठी थी। गहरे गुलाबी रंग की सिन्थेटिक साड़ी में पिंकी बेहद खूबसूरत हो गई थी। दो बच्चे होने के बाद गदबदी भी हो गई थी।

            ‘‘ओह पिंकी तुम आई कैसे? सास ने आने दिया?’’ -पुष्पा ने आश्चर्य से पूछा।

            ‘‘सासु माँ साथ आई है। नीलम मौसी भी है।’’ -मुस्कुराई पिंकी।

            ‘‘अच्छा, बढ़िया मजमा जमा है। यह कैसे हुआ?’’ पुष्पा थी।

            ‘‘है कोई बात!’’ -पिंकी ने आँखें मटकाई।

            पिंकी की सास तथा बिरादरी की स्त्रियाँ मिलकर पुष्पा के लिए रिश्ता लाई थीं। नीलम की बहन पास के गाँव में ब्याही गई थीं। उनके पास खेत और ढोर-डंगर थे। वे खाते-पीते लोग थे। उनके परिवार की एक शाखा बहुत दिनों से बम्बई में काम करती है। एक भी बना रखा है। उन्हें में से एक लड़का किसी सेठ के यहाँ पियुन है। उसे कुछ न चाहिए। बस एक अच्छी सुंदर, सुघड़ लड़की चाहिए।

            ‘‘देखों तारा बहन, मेरी आँख शुरू से ही पुष्पा पर लगी थी। जैसे ही दीदी ने मुझे अभय के लिए लड़की खोजने कहा मैंने पुष्पा का फोटो आगे कर दिया।’’

            ‘‘ई कइसे? आप हमसे तो फोटू भी नहीं मांगी।’’

            ‘‘जरूरतें नहीं था। मेरे घर की शादी में इसका फोटू भी तो उतारा गया था वहीं दिखा दिये। ई तो अच्छे से चमकती है जैसे सितारों के बीच चंदा।’’ -सब समवेल रूप से उत्साह में भरकर हँस पड़ी। पुष्पा चकरा गई।

            ‘‘ये सब क्या है पिंकी?’’ -उसने चिढ़कर कहा।

            ‘‘क्या है? तुम्हारी शादी की बात है। तुम बच्ची नहीं हो। सत्रह साल की हो गई हो। मैट्रिक की परीक्षा दे चुकी हो।’’ -पिंकी ने कहा।

            ‘‘मैं अभी शादी नहीं करूँगी। आगे पढुँगी। तुम्हारी तरह इसी उम्र में बच्चे पर बच्चे पैदा नहीं करुँगी।’’ -रोष में थी पुष्पा।

            ‘‘सपने ऐसे ही देख जो पूरे हों। अकेली अम्मा तुम्हें कैसे सँभालेगी। हम कैसे बेसहारा हैं नहीं समझती?’’ -पिंकी ने समझाया।

            ‘‘मैं अम्मा के साथ कम करती हूँ और एक दो घर बढ़ा लूँ तो?’’

            ‘‘उससे क्या होगा? शोहदों और लफंगों से कौन बचायेगा? हमारे तो पापा ही गायब हो गये हैं, अम्मा क्या-क्या करेगी।’’

            ‘‘पर मैं शादी नहीं करना चाहती।’’ -बेबसी में रो पड़ी थी पुष्पा।

            ‘‘मत रो मेरी बहन, अच्छा रिश्ता आया है तुम दुल्हे के साथ बम्बई जाकर रहोगी। जीवन बदल जायगा।’’ -पुष्पा उसे पकड़कर रोने लगी दोनों बहने देर तक रोती रही। कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। पन्द्रह दिनों के अंदर आनन-फानन में पुष्पा की शादी अभय से हो गई। अभय सुंदर सुडौल भला लड़का था। थोड़ी बहुत पढ़ाई कर ली थी और बड़े सेठ के यहाँ पियुन की नौकरी कर रहा था। पुष्पा सुंदर सुघड़ बीबी साबित हुई। दोनों ने एक-दूसरे को कभी शिकायत का मौका न दिया।

            कुछ ही दिनों बाद सुनील छुट्टियों में घर आये। पुष्पा को खोजा तब भाभी ने उसकी शादी की खबर सुनाई।

            ‘‘क्या शादी? ऐसा कैसे हो सकता है?’’ -चैंक कर बोला सुनील।

            ‘‘क्यों नहीं हो सकता सुनील? उस तबके में ऐसे ही होता है।’’

            ‘‘पर पुष्पा कैसे कर सकत है भाभी, उसने तो मुझसे वादा किया था।’’

            ‘‘क्या? वादा किया था? माजरा क्या है?’’ -भाभी ने अचरज भरकर पूछा। पूछने को पूछ लिया लेकिन जान तो स्वयं गई। सुनील हारे हुए जुआरी की तरह बैठ गया।

            ‘‘सुनील, वह रो बहुत रही थी पर मुझे लगा शादी कर दूर चली जाने वाली है इसीलिए रो रही है। मुझसे कुछ कहना भी चाहती थी पर कह नही पाई।’’

            ‘‘मेरी गलती है भाभी मैंने जो नहीं कहा।’’ -सुनील थे।

            ‘‘तुम क्या कहते? यह कि उससे प्यार करते हो, शादी करोंगे? यह असंभव था। तुम्हारे घर के लोग तैयार न होते, तुम्हारी पढ़ाई पूरी होने में चार साल है; तब तक वह कहाँ कैसे रहती जरा सोचो!’’ -भाभी के समझाने या सुनील के न समझने से भी अब कुछ बदला नहीं जा सकता। सुनील चुप था। इंजीनियर बना, नौकरी की, पढ़ी-लिखी सजातिय लड़की से शादी हुई। एक सामान्य जीवन जी रहा है जैसे सारे लोग जीते हैं, जैसे पे्रम नाम का कोई कीडा कुलबुलाया ही न हो अन्तस में। सुनील ने अपने पिता के बनाये घर की छत पर अपना फ्लैट बना लिया था; नीचे दोनों भाइयों का परिवार था। अभी उसकी पोस्टिंग अपने ही शहर में थी। सटी हुई इमारत के कमरों में बहुत सारे किरायेदार थे। तारा भी उनमें से एक थी। तारा का बेटा कभी-कभी सुनील से दुआ सलाम करने आता। वह राज मिस्त्री हो गया था।

            अत्यन्त शांत वातावरण है इन दिनों, महामारी के कारण तालाबंदी, सामाजिक दूरी चल रही है। सुनील अपने घर पर गमलों के फूलों को निहारता हुआ बैठा है। सामने तारा के कमरे की बालकनी पर मोढे पर गाल पर हाथ रखे जो स्त्री बैठी है उसे देख धक् से रह गया क्या यह पुष्पा है? लम्बे घने काले बाल पीठ पर लहरा रहे थे। गोरा मुखडा चमक रहा था। हरे रंग की सलीके से पहली साड़ी से आवेष्ठित स्त्री पुष्पा ही तो है, फूलों की डाली नहीं एक गझिन गाछ सीबेचारी टिकट लेना चाहती है क्या करें? तभी उसकी पत्नी चाय के दो प्याले ट्रे में लेकर आई। वह निर्निमेष पुष्पा को ताक रहा था।

            ‘‘क्या देख रहे हैं? यह दाई माँ तारा की बेटी पुष्पा है।’’

            ‘‘आँ, हाँ’’ -सुनील चौंका।

            ‘‘बेचारी मुम्बई से आई थी अपनी सास को देखने; जाने का टिकट जब का था तब से लाॅकडाउन हो गया। फँस गई। बच्चे दोनों और पति वहाँ यह यहाँ।’’ -समाचार की तरह सुनील की पत्नी ने सुना दिया। सुली बैठकर चाय पीने लगे।

            ‘‘क्या इधर आई थी वो?’’ -पूछा सुनील ने।

            ‘‘भाभी के पास आई थीं, मुझसे भी बात हुई। बेचारी टिकट लेना चाहती है क्या करें?’’

            ‘‘अभी कौन सा टिकट?’’ -कहा सुनील ने।

            ‘‘आप पूछ लीजिये न, मैं नीचे जाती हूँ नाश्ता बनाने।’’ -कहकर पत्नी ने पुष्पा को आवाज दी; वह उठ खड़ी हुई।’’

            ‘‘लो पूछ लो पुष्पा कैसे तुम यह बाधा दौड़ पार करोगी।’’ -कहती कप समेटती नीचे उतर गई। अब सुनील और पुष्पा आमने-सामने थे पूरे सत्ताइस साल बाद। एक-दूसरे के आमने-सामने। एक फीट ऊँची छत पर सुनील और नीची छत पर पुष्पा बेहद निकट दोनों ने एक-दूसरे से कुछ न कहा। पुष्पा की आर्त दृष्टि सुनील से अपने छोटे से घर लौटने की जुगत पूछना चाहती थी सुनील बता पाने की स्थिति में बिल्कुल नहीं था; फासले पाटने का भार नये समय पर छोड़ दिया गया था।

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भारत का पहला दलित नेता

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क्रिस्तोफ़ जाफ़्रलो द्वारा लिखित भीमराव अम्बेडकर की जीवनी भीमराव आंबेडकर एक जीवनी का अनुवाद राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है। जिसका अनुवाद योगेन्द्र दत्त ने किया है। आज बाबासाहेब की जयंती है। इस अवसर पर पढ़िए इस पुस्तक का एक अंश- मॉडरेटर

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बाबासाहब के फिर अन्तिम दर्शन हुए उनके अन्त समय में ही। सुबह मैं हमेशा की तरह अपने काम पर निकला। अख़बारों के पहले पेज पर ही ख़बर छपी थी। धरती फटने-सा एहसास हुआ। इतना शोकाकुल हो गया, जैसे घर के किसी सदस्य की मृत्यु हुई हो। घर की चौखट पकड़कर रोने लगा। माँ को, पत्नी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि मैं इस तरह पेपर पढ़ते ही क्यों रोने लगा? घर के लोगों को बताते ही सब रोने लगे। बाहर निकलकर देखता हूँ कि लोग जत्थों में बातें कर रहे हैं। बाबासाहब का निधन दिल्ली में हुआ था। शाम तक विमान से उनका शव आनेवाला था। नौकरी लगे दो-तीन महीने ही हुए होंगे। छुट्टी मंज़ूर करवाने वेटरनरी कॉलेज गया। अज़ीर् का कारण देखते ही साहब झल्लाए। बोले, ”अरे, छुट्टी की अज़ीर् में यह कारण क्यों लिखता है? आंबेडकर राजनीतिक नेता थे और तू एक सरकारी नौकर है। कुछ प्राइवेट कारण लिख।’’ वैसे मैं स्वभाव से बड़ा शान्त। परन्तु उस दिन अज़ीर् का कारण नहीं बदला। उलटे साहब को कहा, ”साहब, वे हमारे घर के एक सदस्य ही थे। कितनी अँधेरी गुफ़ाओं से उन्होंने हमें बाहर निकाला, यह आपको क्यों मालूम होने लगा?’’ मेरी नौकरी का क्या होगा, छुट्टी मंज़ूर होगी या नहीं, इसकी चिन्ता किए बिना मैं राजगृह की ओर भागता हूँ। ज्यों बाढ़ आई हो, ठीक उसी तरह लोग राजगृह के मैदान में जमा हो रहे थे। इस दुर्घटना ने सारे महाराष्ट्र में खलबली मचा दी।

(दया पवार, अछूत, राधाकृष्ण प्रकाशन, पृष्ठ संख्या 168-169)

महाराष्ट्र के प्रसिद्ध दलित लेखक दया पवार के इस मर्मस्पर्शी संस्मरण से आंबेडकर के किसी निकट सहयोगी के जुड़ाव का एहसास हमें नहीं मिलता। पवार आंबेडकर के राजनीतिक आन्दोलन में तो सक्रिय थे मगर व्यक्तिगत रूप से उन्हें जानते नहीं थे। न ही उनका यह संस्मरण बम्बई के उस मुट्ठी भर सम्पन्न अस्पृश्य तब$के की भावनाओं को दर्शाता है जिसके बीच आंबेडकर का ज़्यादातर जीवन गुज़रा था।1 आंबेडकर के अन्तिम संस्कार में न केवल विशाल जनसमूह ने हिस्सा लिया—जैसा कि पवार इशारा कर रहे हैं—बल्कि उनके अन्तिम संस्कार के साथ पूरे भारत में शोक और सहानुभूति की एक लहर दौड़ गई थी। आंबेडकर का प्रभाव अब सिर्फ़ महाराष्ट्र की सीमाओं तक महदूद नहीं था। यह बात उत्तरी भारत में भी उनके द्वारा स्थापित राजनीतिक पार्टियों की चुनावी सफलताओं से स्पष्ट हो जाती थी। मराठी के अलावा कई भारतीय भाषाओं में भी उनकी ज़्यादातर रचनाओं के असंख्य संस्करण छप चुके थे। आंबेडकर सही मायनों में एक अखिल भारतीय शख्सियत बन चुके थे। वह निर्विवाद रूप से समूचे भारत में प्रभाव रखने वाले पहले अस्पृश्य नेता थे। ख्याति व प्रतिष्ठा के मामले में उनके निकटतम सहयोगी भी उनके आसपास नहीं पहुँचते थे।

दूर से देखने पर आंबेडकर का जीवन साधारण साधनों के सहारे अपने दम पर तरक्की के शिखरों को छूने वाले नायकों की परिकथा जैसा लगता है। भीम राव आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को इन्दौर के पास स्थित महू नामक छावनी कस्बे में हुआ था। यह कस्बा इसी नाम की रियासत की राजधानी हुआ करता था जिसको आज़ादी के बाद मध्य भारत (वर्तमान मध्य प्रदेश प्रान्त) में शामिल कर लिया गया था। इन्दौर रियासत के बहुत सारे बाशिन्दों की तरह उनका परिवार भी महाराष्ट्र से यहाँ आया था। गौरतलब है कि इस रियासत का राजवंश भी निचली जाति से ही था। उनका गाँव अम्बावाड़े मराठा रियासत की कोंकण तटीय पट्टी में पड़ता था। लिहाज़ा आंबेडकर का मूल नाम अंबावाड़ेकर भी इसी आधार पर पड़ा था (वर्ष 1900 में उनके एक ब्राह्मण अध्यापक ने उनकी कुशाग्र बुद्धि और व्यक्तिगत गुणों को देखकर उन्हें अपना नाम दे दिया था और इस तरह वह आंबेडकर कहलाने लगे)।

आंबेडकर सालों तक अस्पृश्यों के साथ होने वाले दैनिक भेदभाव से बचे रहे क्योंकि उनके पिता एक छावनी में काम करते थे जहाँ इस तरह का भेदभाव नहीं था। उनके पिता ब्रिटिश भारतीय सेना में सिपाही थे। खैर, धीरे-धीरे उन्हें भी एक अस्पृश्य व्यक्ति के रूप में जीवन की धूप-छाँव का सामना तो करना ही था। चुनांचे, बचपन में ही उन्हें इस सवाल से जूझना पड़ा कि कोई नाई उनके बाल क्यों नहीं काटना चाहता? सबसे बढ़कर, उन्हें एक ऐसे अपमानजनक अनुभव से गुज़रना पड़ा जिसने उनकी जि़ंदगी की दिशा बदल दी और जिसे वे कभी भी भुला नहीं पाए। यह घटना यों थी : एक दिन वह अपने भाई और बहन के साथ रेल में सवार होकर पिता से मिलने के लिए रवाना हुए। वे वहाँ जा रहे थे जहाँ उनके पिता काम करते थे। जब वे मंजि़ल पर पहुँचे तो स्टेशन मास्टर ने उनको पास बुलाकर कुछ पूछताछ की। जैसे ही स्टेशन मास्टर को उनकी जाति का पता चला, वह ‘पाँच कदम पीछे हट गया!’ ताँगे वाले भी उन्हें उनके पिता के गाँव तक ले जाने को तैयार नहीं होते थे। एक ताँगेवाला तैयार तो हुआ मगर उसने शर्त रखी की ताँगा बच्चों को खुद ही हाँकना होगा। कुछ दूर जाने पर ताँगेवाला नाश्ता करने के लिए एक ढाबे के सामने रुक गया। वह तो भीतर जाकर नाश्ता करने लगा मगर बच्चों को बाहर ही इन्तज़ार करना पड़ा। उन्हें पास में बह रही एक धारा के रेतीले पानी से ही अपनी प्यास बुझानी पड़ी। आंबेडकर के दिलो-ज़हन में अपने हालात का यह भीषण एहसास शायद इसलिए भी तीखा रहा होगा क्योंकि उनके पास बहुत संवेदनशील और पैना दिमाग था।

वर्ष 1907 में इन्हीं बौद्धिक गुणों की बदौलत उन्हें बम्बई स्थित एल्फिन्स्टन हाईस्कूल से मेट्रिकुलेशन का सर्टिफिकेट मिला। कुछ साल पहले उनके पिता यहीं आकर बस गए थे। इसके बाद उन्होंने वज़ीफ़ा हासिल किया, विख्यात एल्फिन्स्टन कॉलेज में दाखिला लिया और 1912 में यहीं से बी.ए. की डिग्री ली। इसके बाद उन्हें अमेरिका जाकर आगे पढ़ाई के लिए एक और छात्रवृत्ति मिली। उनसे पहले उनकी जैसी पृष्ठभूमि के किसी व्यक्ति को ऐसा अवसर नहीं मिला था। उन्होंने न्यूयॉर्क स्थिति कोलम्बिया यूनिवर्सिटी से एम.ए. की डिग्री हासिल की और फिर 1916 में वे लन्दन के लिए रवाना हो गए जहाँ उन्हें क़ानून की पढ़ाई के लिए ग्रेज़ इन में दाख़िला मिल गया था। बाद में वह लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में अपनी पढ़ाई जारी रखते रहे मगर यहाँ वे ज़्यादा समय तक नहीं रह पाए। जल्दी ही उन्हें भारत लौटना पड़ा क्योंकि उनकी छात्रवृत्ति ख़त्म हो चुकी थी।

इस तरह, 1917 में वे लन्दन से भारत आ गए। उनकी इन अकादमिक उपलब्धियों के फलस्वरूप अंग्रेज़ों का ध्यान भी उनकी ओर गया। उन्हें आंबेडकर में अस्पृश्यों का एक भावी प्रतिनिधि दिखाई पड़ रहा था। 1919 में मताधिकार प्रदान करने के लिए योग्यता कसौटी में संशोधन करने के लिए साउथबॅरो कमेटी बनाई गई थी ताकि और ज़्यादा भारतीयों को विभिन्न प्रान्तों की असेम्बली में चुनाव के लिए मतदान का अधिकार मिल सके। इस कमेटी ने जिन लोगों से सलाह माँगी उनमें आंबेडकर भी एक थे। यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण क्षण था क्योंकि 1919 में ही ब्रिटिश भारत की प्रान्तीय असेम्बलियों और सरकारों को पहले से ज़्यादा अधिकार व सत्ता देने वाले सुधार शुरू किए गए थे। इसके बाद ही भारतीय मंत्रियों (लेजिस्लेटिव काउंसिल के प्रति उत्तरदायी) को भी सरकार में शामिल किया जाने लगा था। आंबेडकर ने अस्पृश्यों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल और आरक्षित सीटों की व्यवस्था की माँग उठाई थी।

साल 1920 में उन्होंने शिवाजी के वंशज, कोल्हापुर के महाराजा शाहू महाराज की आर्थिक सहायता से मूक नायक नामक एक नया जरनल शुरू किया। मगर, जब शाहू महाराज ने आंबेडकर को एक बार फिर इंग्लैंड जाने और पढ़ाई जारी रखने के लिए वज़ीफ़े की पेशकश की तो उन्होंने फ़ौरन यह प्रस्ताव मंज़ूर कर लिया। क्रमश:, 1921 में उन्होंने मास्टर ऑफ़ साइंस की डिग्री हासिल की और अगले साल

‘दि प्रॉब्लम ऑफ़ दि रुपी’ (रुपये की समस्या) शीर्षक के तहत अपना शोध पत्र प्रस्तुत किया।

इसके बाद वह भारत लौटे और उन्होंने बम्बई में वकालत की दुनिया में अपने पैर जमाने की कोशिश की। अछूत होने के कारण उनके लिए ग्राहक जुटाना बहुत मुश्किल था। दिल में गहरी कड़वाहट के साथ उन्होंने संकल्प लिया कि वह अपना जीवन जाति व्यवस्था के उन्मूलन के अभियान में समर्पित कर देंगे। तत्पश्चात, जुलाई 1924 में उन्होंने बहिष्कृत हितकारिणी सभा का गठन किया और 1928 तक इसका नेतृत्व भी सँभाला। इससे पिछले साल उन्हें अंग्रेज़ सरकार ने बॉम्बे प्रेजि़डेंसी की लेजिस्लेटिव काउंसिल में मनोनीत किया था। काउंसिल में रहते हुए आंबेडकर ने अस्पृश्यों को कुंओं से पानी निकालने (यही आगे चलकर 1927 में कोंकण तट पर महाड़ में होने वाली उनकी पहली विशाल गोलबन्दी का लक्ष्य बनने वाला था) और मन्दिरों में प्रवेश का क़ानूनी अधिकार दिलाने के लिए हर सम्भव प्रयास किया। मन्दिर प्रवेश के सवाल पर आंबेडकर ने जो आन्दोलन शुरू किया वह 1935 तक रह-रह कर चलता रहा।

तीस का दशक आंबेडकर के लिए दलगत राजनीति में नए प्रयोगों का दौर रहा। उन्होंने अंग्रेज़ों से माँग की कि अस्पृश्यों को पृथक निर्वाचक मंडल का अधिकार दिया जाए। अगर उनकी यह माँग मान ली जाती तो अस्पृश्य निश्चित रूप से एक मज़बूत राजनीतिक शक्ति में रूपान्तरित हो सकते थे। अंग्रेज़ सरकार ने भी कम्युनल अवॉर्ड के सिलसिले में हुई चर्चाओं के दौरान उनके तर्कों पर आंशिक सहमति दे दी थी जिसकी घोषणा भी सरकार की ओर से 24 अगस्त, 1932 को की गई थी। मगर, चूँकि गांधीजी को भय था कि अस्पृश्यों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की व्यवस्था हिन्दू एकता को क्षीण कर देगी इसलिए वे तत्काल ही पूना स्थित यरवदा जेल में अनशन पर बैठ गए थे। फलस्वरूप, आंबेडकर को पृथक निर्वाचन मंडल की अपनी माँग छोड़नी पड़ी और 24 सितम्बर, 1932 को पूना पैक्ट पर दस्तख़त भी करने पड़े। इस घटनाक्रम से आंबेडकर को गहरा धक्का लगा था। हालाँकि बाद में सदाशयता का भाव दिखाते हुए गांधी ने इस बात को माना था कि अस्पृश्यों को बड़ी संख्या में आरक्षित सीटें मिलनी चाहिए।

1936 में आंबेडकर ने अपनी पहली राजनीतिक पार्टी—इंडिपेंडेट लेबर पार्टी (आईपीएल)—का गठन किया। यह फ़ैसला 1937 में होने वाले चुनावों के मद्देनजर लिया गया था। 1937 के चुनाव गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया ऐक्ट, 1935 के प्रावधानों के तहत कराए गए थे। यह क़ानून प्रान्तीय सरकारों और असेम्बलियों को 1919 के सुधारों से कहीं ज़्यादा शक्तियाँ व अधिकार देता था। आईएलपी ने केवल बॉम्बे प्रेजि़डेंसी और मध्य प्रान्त में ही अपने उम्मीदवार मैदान में उतारे और यहाँ पार्टी को कुछ सफलता भी मिली। पार्टी के 9 अन्य सदस्यों के साथ-साथ आंबेडकर भी निर्वाचित घोषित हुए।

दूसरे विश्व युद्ध ने भारतीय राजनीति में बदलावों की गति और तेज कर दी थी। ब्रिटेन ने कांग्रेस की सलाह और सहमति के बिना भारत को भी विश्व युद्ध में घसीट लिया था। लिहाज़ा, कांग्रेस के प्रतिनिधियों ने उन आठों प्रान्तीय सरकारों से इस्तीफ़ा दे दिया जिनका नेतृत्व उनके हाथ में था। बाक़ी भारतीयों को युद्ध प्रयासों के पक्ष में करने के लिए अंग्रेज़ों ने मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा और आईएलपी जैसी छोटी राजनीतिक पार्टियों के नेताओं को अपनी और खींचना शुरू किया। इस क्रम में आंबेडकर 1941 में डिफ़ेंस एडवाइज़री कमेटी के सदस्य बने और 1942 में उन्हें श्रम मंत्री नियुक्त किया गया।

मंत्री के रूप में अपनी गतिविधियों के साथ-साथ वह अपनी पार्टी की रणनीति को भी तराशते रहे और 1942 में उन्होंने शेड्यूल्ड कास्ट्स फ़ेडरेशन (एससीएफ) के नाम से एक नए संगठन का गठन किया। ‘शेड्यूल्ड कास्ट्स’ (अनुसूचित जतियाँ) उन अस्पृश्य जातियों का समूह था जिनको सरकार द्वारा अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल किया गया था। शिक्षा व्यवस्था और सरकारी नौकरियों में इन जातियों को आरक्षण देने के लिए सरकार ने यह सूची तैयार की थी। सभी मजदूरों में अपना राजनीतिक जनाधार फैलाने का प्रयास करने के बाद आंबेडकर अपनी कोशिशों को सिर्फ़ अस्पृश्यों के बीच ही सीमित करते गए। कांग्रेस की विराट राजनीतिक ता$कत के सामने एससीएफ का कोई मेल नहीं बैठता था। लिहाज़ा मार्च 1946 में एससीएफ को प्रांतीय असेम्बलियों के चुनावों में भारी पराजय का सामना करना पड़ा। और तो और, ख़ुद आंबेडकर भी अपनी सीट नहीं जीत पाए।

बहरहाल, इस नाकामयाबी के बावजूद अस्पृश्यों के सबसे महत्त्वपूर्ण प्रतिनिधि के रूप में उनका राजनीतिक उभार जारी रहा। 3 अगस्त, 1947 को जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें अपनी सरकार में विधि मंत्री नियुक्त किया और तीन सप्ताह बाद 29 अगस्त को उन्हें संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिए बनाई गई ड्राफ्टिंग कमेटी (मसविदा समिति) का अध्यक्ष बना दिया गया। 1947-50 के बीच यही उनकी सारी सरगर्मियों का केन्द्र रहा।

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‘स्व’ रहित स्वाभिमान और स्त्री-विमर्श के मूलभूत सिद्धांतो की जुगलबंदी की कहानी

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वरिष्ठ लेखिका गीताश्री का उपन्यास ‘वाया मीडिया – एक रोमिंग रिपोर्टर की डायरी’ इस साल विश्व पुस्तक मेले में आया था। कुछ महिला पत्रकारों के कामकाज पर आधारीय यह उपन्यास बहुत अलग ज़मीन का उपन्यास है। आज इसकी समीक्षा लिखी है युवा लेखिका अणुशक्ति सिंह ने- मॉडरेटर

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लफ़्ज़ों की दस्तरस में मुकम्मल नहीं हूँ  मैं

लिक्खी हुई किताब के बाहर भी सुन मुझे…

–       अहमद शनास

गीता श्री की किताब वाया मीडिया पर लिखने के लिए कोई और पंक्ति इतनी मुफ़ीद नहीं मालूम पड़ी, जितना अहमद शनास का यह शेर.

‘वाया मीडिया – एक रोमिंग रिपोर्टर की डायरी’… किस्सों की बयानगी जिसकी शुरुआत होती है नब्बे के दशक के उत्तरार्ध में, कहानी का पहला सिरा उठाती है अनुराधा – किसी पंजाबी कस्बे की बेलौस लड़की जिसे हिंदी से इश्क़ है और  पत्रकारिता जिसका जुनून है. घर आये हुए रिश्ते को ठुकरा कर वह अखबार के दफ़्तर में बेधड़क दाख़िल होती है कि उसे लिखने का सउर मालूम है, वह आत्म-विश्वास से लबरेज़ है, उसे भरोसा है कि वह जिस भी मुद्दे पर लिखेगी उसकी पूरी पड़ताल कर डालेगी. ज़िन्दगी को अपनी ठोकरों पर रखेगी लेकिन अनुराधा को नहीं मालूम है कि हर जगह पहले उसे साबित करना होगा कि वह स्त्री होने के बावजूद ‘योग्य’ है.

अनुराधा रोमिंग रिपोर्टर के तौर पर बहाल होती है और साथ ही बहाल होती है उसकी जद्दोजहद अपने आप को साबित करने की. यह साबित करना एक दिन की परीक्षा पास करने जैसा नहीं है, यहाँ तो हर रोज़ इम्तिहान हैं. हर रिपोर्ट दो दास्ताँ सुनाती है, एक जिनके क़िस्से रपट में दर्ज होते हैं दूसरा जो हमेशा ही अनकहा रह जाता है – रिपोर्टिंग करती लड़की के अपने संघर्ष, अपना डर…

वह लड़की जो बीहड़ों और सुदूर गाँवों से बिना झिझके पन्ने भर लाती थी, उसके खीझ का आलम बसता था उसके अपने आस-पास. एक शानदार रिपोर्ट पर शाबाशी की जगह हासिल होती बॉस की कामुक नज़र… वह नज़र जो संभवतः हर स्त्री का दुःख है. जिससे न किताब की लेखिका अछूती रही होंगी, न मैं.  एक मुकम्मल किताब वह होती है जो पढ़ने वाले को यह अहसास दिलवा दे कि कहीं न कहीं, यह उसकी ही कहानी है. लेखक-पाठक में मध्य इस अन्तर्निहित सम्बन्ध स्थापन में किताब लेखक को सुख के तिलिस्मी प्रभाव से तब भर देती है जब वह लेखक की सुप्त इच्छाओं को कथा के अंश के रूप में ही सही, किन्तु कार्यान्वित कर देती  है.

अनुराधा संपादक की निगाहों की ओर देखती है. अपने वक्ष को उसका लक्ष्य जानकर सिटपिटा जाती है. यहाँ वह किसी भी आम स्त्री की तरह चुप रह सकती थी लेकिन उसने अपनी नौकरी की परवाह न करते हुए अपने सम्पादक को उसकी कमज़र्फी के खरी-खोटी सुना देती है. अनुराधा की यह हिम्मत वाया मीडिया को स्त्री-विमर्श की अलग कतार में लाकर खड़ा कर देती है, उस दुनिया में जहाँ लड़कियां चुप होकर भुक्तभोगी नहीं हैं. वे पलटवार जानती हैं.

अनुराधा कुटिल पितृसत्त्ता द्वारा रचे गये कुचक्रों में उलझकर जान देने की जगह नयी उड़ान ढूँढने वाली लड़की है जो वाया शिमला दिल्ली पहुँचती है, यहीं उसकी मुलाक़ात होती है अनुपमा से. रिपोर्टिंग से लेकर डेस्क में वरिष्ठ भूमिका तक पहुंची अनुपमा की अनुभवी आँखों ने भी एक पूरी यात्रा तय की है. हर यात्रा के अपने पड़ाव हैं. हर पड़ाव की एक कहानी है. इन कहानियों के पीछे छिपे अपने-अपने दुःख और सुख हैं और साथ है अपनी शर्तों पर बेहतर करने का जज्बा.

पुरुषों से भरी हुई मीडिया की दुनिया में जहाँ स्त्रियों की संख्या पहले से ही कम है, उन हालात में अनुपमा अपने आप को सहज रखते हुए बहनापे का मंत्र इस क़दर साथ लेकर चलती है कि उसके मन में उस स्त्री के लिए भी संवेदनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं जिसने हमेशा उसके रास्ते में अवरोध ही इकट्ठा किये.

‘सिस्टरहुड अर्थात बहनापा’ स्त्री-विमर्श का मूल इस मन्त्र में है और वाया-मीडिया ने इस मन्त्र को बेहद रुचिकर शब्द दिए हैं. अनुराधा का अनुपमा के साथ खड़ा होना, अनुपमा की शालिनी से बेपरवाह दोस्ती, शालिनी का अनुपमा के लिए प्यार  – यह सब बहनापे पर गठित हुए संबंधों के शानदार मज़ामीन हैं.

चालबाज़ पुरुषों के हाथ का खिलौना बनी रंजना बार-बार अपनी साथी महिला पत्रकारों को तंग करती है. अनुपमा भी उसका शिकार रही है लेकिन जैसे ही रंजना की नौकरी जाती है, अनुपमा ग्लानी से भर जाती है. दोष न होने के बाद भी वह तब तक सुकून से नहीं बैठती है जब तक रंजना को नौकरी नहीं मिल जाती है. सुमधुर स्त्रीत्व किन्तु सजग स्त्रीत्व की कितने परतें हैं अनुपमा के क़िरदार में… साथी पत्रकार जब अनुपमा के समक्ष रंजना के चरित्र पर टिप्पणी करता है तो अनुपमा क्रोध से भर उठती है. अनुपमा से किसी और प्रतिक्रिया की उम्मीद में बैठे साथी पत्रकार हतप्रभ हो जाते हैं, अनुपमा टिप्पणी करती है, “पूरा मीडिया मेल डोमिनेटिंग है राजीव जी, स्त्रियाँ इस्तेमाल की जा रही हैं. हमें ये खेल समझ में आ गया है.’

अनुपमा के ज़रिये लेखिका ने लगभग सभी पुरुष-आच्छादित  संकायों के कथित स्त्री-विमर्श और मंशा पर उचित प्रश्न-चिह्न लगाया है. अनुपमा का पात्र-विस्तार और उसकी कथा यात्रा बरबस याद दिलाते हैं कि इतना सुगढ़ किरदार केवल अनुभव के तासीरों के सहारे गढ़ा जा सकता है.  अनुपमा और अनुराधा दोनों ही पात्र अपनी समस्त मनुष्यगत कमज़ोरियों में भी दृढ़ता का अनुपम उदाहरण हैं. वे वाया मीडिया आयी हैं कि अंकित रह सकें पाठकों के मन-मस्तिष्क पर समय की धारा के पार भी…

सुंदर, सहज भाषा में रचित उपन्यास वाया मीडिया की दूसरी विशेषता प्रिय कवि द्वय अशोक वाजपेयी और आलोक धन्वा की कविताओं के अंश का मनहर समावेशन भी है. लेखिका  ने मनःस्थितियों को दर्ज करने के लिए इन पंक्तियों का जिस ख़ूबसूरती से इस्तेमाल किया है, उसकी बस तारीफ़ ही की जा सकती है.

अंत में, वाया मीडिया ‘स्व’ रहित स्वाभिमान और स्त्री-विमर्श के मूलभूत सिद्धांतो की जुगलबंदी की वह कहानी है, जिसे पढ़ा जाना इसलिए भी ज़रूरी है कि इस तरह के उपन्यास हिंदी जगत को बार-बार नहीं मिलेंगे.

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उपन्यास वाणी प्रकाशन से प्रकाशित है। 

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काग़ज़ पर ज़िंदगी के रंग जैसा

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युवा लेखक अनघ शर्मा की डायरी के कुछ पन्ने हैं। लॉकडाउन के दौरान एक लेखक के मन में क्या कुछ उमड़ता-घुमड़ता रहता है। पढ़ने लायक़ है-

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“ये किसी डायरी के पन्ने नहीं हैं। डायरी मुझे लिखनी नहीं आती। ये चिठ्ठी भी नहीं है क्योंकि चिठ्ठी के मिजाज़ अलग हुआ करते हैं। ये कागज़ के टुकड़े पे लिखा गया कुछ ऊल-जलूल सा है… जिंदगी के रंग जैसा!!” शाहबलूत का पत्ता! इस कहानी के लिए जब ये पंक्तियाँ लिखीं थीं तब ये सोचा नहीं था की कुछ सालों बाद किसी चीज़, किसी नये टुकड़े को शुरू करने के लिए इन की तरफ़ वापस जाना होगा।  क्यूंकि ये जो लिखा जा रहा है वह किसी डायरी का हिस्सा ही नहीं है।  आज से पहले कभी डायरी जैसा कुछ लिखा नहीं और जीवन में कभी लिखा भी जाएगा उसकी आज देर रात इस वक़्त बैठ के सोचते हुए कोई गुंजाइश  नहीं लगती।  इक्कीस मार्च की शाम से तेरह अप्रैल की आधी रात के बारह बजे तक जब इसे लिख रहा हूँ तब तक;  पिछले तेईस दिन में दो ही बार घर से बाहर निकला हूँ, वह भी कुछ आधे घंटे भर के लिए।  दिनों-दिन घर में रहने में मुझे कभी कोई मुश्किल नहीं लगती पर समय के ऐसे बंधन में कि जिसमें इस तरह देर तक बंधे-बंधे रहो कि कंधे के पास गर्दन में एक अजब सा दर्द पैठ जाए, उससे ऊब होती है…

खैर वक़्त है; रो कर, गा कर कट ही जाता है… और मैं पिछले बहुत सालों से कोई लगभग तीन दशक से ज़्यादा से वक़्त को अलग-अलग चेहरों में गुज़रते देख रहा हूँ। कभी माँ के चेहरे में, बहन के चेहरे में तो कभी भाई के चेहरे में। आप समय को दूसरे के चेहरे में जगह बनाती हुई झुर्रियों में देख सकते हैं; पर अपना समय कैसे पढ़े कोई।  उस को पढ़ने के लिए बार बार मन में झांकना पड़ता है, और अपने मन की दीवार पर पड़ी धूल को झाड़ने के लिए बड़े मजबूत हाथ चाहिये जो किसी किसी के पास ही होते हैं।  तो इस लिए मुझे पता ही मैंने अपने समय को गुज़रते-बीतते कैसे देखा होगा, चेहरे पर अभी झुर्रियां दिखती नहीं और मन में मैंने झांक के कभी देखा नहीं।  मुझे पता है कि वहाँ उस दीवार पर धूल ही नहीं झाड-झंखाड़ भी होंगे, यूँ भी कुछ मन अपने भीतर नमी रखते हैं जहाँ उदासी जल्दी पनपती है।  और आने वाला समय बस अंदेशा होता है शक्ल नहीं उसे कहीं भी देखा नहीं जा सकता…

जैसे आज इस समय में बस कल का अंदेशा है, एक छाया है सब के पास जिस को देखा तो जा सकता पर उस पर हाथ नहीं धरा जा सकता।  कहीं से लौटना बहुत सारे लोगों के लिए अक्सर मुश्किल ही होता होगा; आसान होता तो लोग जाते ही क्यूँ।  और जो कहीं चले ही जाते है क्या वापस लौटने पर उस छूटे हुए समय के टुकड़े को ठीक वैसा ही पाते होंगे जैसा कि वह जाते वक़्त था।  जाने और वापस लौटने के बीच क्या हाथों को पता रहता होगा कि वह क्या समेट के ले जा रहे हैं और फिर क्या समेट के लौटेंगे।  कहीं हथेलियाँ होंगी गर्माहट लिए, कहीं ठंडी हथेलियों के दस्ताने होंगे, कहीं चिठ्ठियाँ समेटते हाथ होंगे और कहीं कुछ नहीं होगा सिवाय हवा के जिसके माथे पर बार-बार बल पड़ते होंगे और फिर मिट जाते होंगे।  नींद इधर बहुत कम आती है।  यूँ भी कई सालों से अब कम ही रह गई है नींद, इतनी कम की कुछ रातों तक लगातार जगा जा सकता है पर कोशिश कर के ज़बरदस्ती सो ही जाता हूँ; क्यूंकि लगता है कहीं मुज़फ्फ़र वारसी की बात सच ही न हो…. “सोचते-सोचते दिल डूबने लगता है मेरा/ ज़हन की तह में मुज़फ्फ़र कोई दरिया तो नहीं।” सोचने पर हर किसी को ज़हन का दरिया पार करना ही पड़ता है और फिर उसी जगह लौट कर जाना होता है जहाँ आप किसी दरवाज़े पर खड़े हो कर अपने ही आपको सब कुछ समेटते देखते हैं।  अपनी सोचूँ तो पीछे जा कर देखने पर पिता का एक सफ़ेद-काले चारखाने का कोट दीखता है जिसका काला रंग धुँधला हो कर मटमैले हरे जैसा हो गया है, एक एच.एम.टी. की हाथ घडी जिसे एक दो बार चालू करवा के बिन पहने ही रख दिया था क्यूंकि उस उमर की कलाई पर वह घड़ी बड़ी लगती थी जो अब जाने कहाँ किन चीज़ों के साथ कहाँ सहेज कर रखी हुई होगी।  कुछ अन्तर्देशीय लिफ़ाफ़े जो उनके लिखे हुए थे, जिनकी तह मुड़े-मुड़े इतनी नाज़ुक हो गयीं थीं की ज़रा ज़ोर से खोलने भर से उनके चिर जाने का डर रहे।  जिनमें से एक को शायद मैंने पढ़ा है कोई चौदह-पन्द्रह की उमर में।  उसमें क्या लिखा था याद नहीं, याद है बस कि पीले पड़ते कागज़ पे हल्की नीली सियाही के शब्द थे।  याद कैसी चीज़ है कि बाज़दफ़ा आप अपनी ही कोई चीज़ भूल जाते हैं और जाने किस-किस की लिखी किताबें याद रह जाती हैं…

आँख को जो दिख जाए वह बसा रहता है और मन जो देखे वह उतर जाता है।  अब से जो देखिये उसे बार-बार, बार-बार, बार-बार पलट पलट के देखिये, क्या पता सालों बाद बस आँख का देखा रंग ही बचा रहे।  पलट कर आज देखूं कि अगर यहाँ से लौट कर जाना पड़े क्या समेट कर ले जाऊँगा, सब किताबें शायद हाँ या नहीं, कुछ चादरें जो नए घर के लिए खरीद रखीं हैं जो बैंगनी, हरे,पेस्टल रंगों में रंगी हुई हैं और कुछ ब्लंकेटस ज़रूर जैसे भी जायें (बचपन की कुछ कम मयस्सर चीज़ों में एक थे अच्छे बिस्तर)…

यूँ भी सब के इमोशनल बैगेज, इमोशनल अटैचमेंट्स अलग-अलग होते हैं उनके लिए क्या जजमेंटल होना।  इस समय, ऐसे समय जब छूने भर ही से आने-जाने की सरहदों के पार होने का खतरा हो तो पलट कर उन लोगों की तरफ़ देख लेना चाहिये जिनका शुक्रिया कहा जा सके और मैं बार-बार माँ के चेहरे के अलावा अगर पलट के देखूंगा तो अपनी चाची और बहन की तरफ़, क्यूंकि इतने लम्बे सालों में इमोशनली ये ही तो सबसे पास रहे हैं।  यूँ भी जीवन में कुछ ही लोग, कुछ ही चीज़ें होती हैं जो आपके मन में जड़ की तरह रहते हैं और आपको ज़िन्दा रहने के लिए जिस नमी की ज़रूरत होती है उसको आपके लिए बनाये रखते हैं…

 

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विराट के लेखक की आत्मकथा के बहाने

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आज गैब्रिएल गार्सिया मार्केज़ की पुण्यतिथि है। इस अवसर पर विजय शर्मा ने उनकी आत्मकथा ‘लिविंग टु टेल द टेल’ पर लिखा है। बीस साल पहले प्रकाशित इस आत्मकथा के बाद मार्केज़ के जीवन और साहित्य पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। उनकी आधिकारिक-अनाधिकारिक जीवनियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। लेकिन इस किताब का अपना महत्व है। विजय शर्मा जी ने सही लिखा है कि इसको पढ़ने के बाद उनके समस्त साहित्य को पढ़ने की इच्छा जाग जाती है- प्रभात रंजन

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“The Caribbean taught me to look at reality in a different way,” he pronounced, “to

accept the supernatural as part of our everyday life.”

कन्नड की एक लोककथा है:

एक स्त्री एक कहानी जानती थी। वह एक गीत भी जानती थी। लेकिन कभी किसी को न तो कहानी सुनाती थी न ही गाना। उन्हें केवल अपने पास रखती थी। उसके यहाँ कैद हो कर कहानी और गीत बहुत घुटन अनुभव करते। वे छुटकारा पाना चाहते, भागना चाहते थे। एक दिन जब स्त्री सो रही थी उसका मुँह खुला हुआ था, कहानी उससे बाहर निकल भागी। वह एक जोड़ी जूतों के आकार में ढल गई और घर के बाहर जा कर बैठ गई। गीत भी निकल भागा और उसने एक कोट का रूप धारण किया और खूँटी पर टँग गया।

स्त्री का पति घर आया उसने कोट और जूते देख कर उससे पूछा, “कौन आया है?”

“कोई नहीं।”

“पर कोट और जूते किसके हैं?”

“मुझे नहीं मालूम,” उसने उत्तर दिया।

उत्तर से वह संतुष्ट नहीं था। उसे शक था। यह वार्तालाप बुरा था। यह झगड़े में परिवर्तित हो गया। पति गुस्से में आग-बबूला हो गया, उसने कम्बल उठाया और मंदिर में सोने चल गया।

औरत को पता नहीं चला कि क्या हुआ। वह अकेली लेट गई। किसके जूते और कोट है? वह बार-बार खुद से सवाल करती रही। परेशान और दु:खी उसने दीया बुझाया और सो गई।

शहर के सारे दीये बुझने के बाद मंदिर में जमा हुआ करते थे। और रात बातचीत करते हुए गुजारते थे। इस रात भी सारे दिए वहाँ पहुँचे, एक को छोड़ कर। देर से आने वाले दीये से सबने पूछा कि वह देर से क्यों आया?

“तुम इतनी देर से आज क्यों आए?”

“हमारे घर आज रात पति-पत्नी में झगड़ा हो गया,” लौ ने कहा।

“वे क्यों लड़े?”

“जब पति घर पर नहीं था तो एक कोट और एक जोड़ी जूते बरामदे और खूँटी पर। पति ने पूछा कि ये किसके हैं। पत्नी ने कहा कि उसे नहीं मालूम अत: वे झगड़े।“

“जूते और कोट कहाँ से आए?”

“घर की स्त्री एक कहानी और एक गीत जानती है हमारे। वह कभी कहानी नहीं कहती है और कभी गाती नहीं है किसी के लिए। कहानी और गीत का उसके अंदर दम घुटने लगा अत: वे बाहर आ गए और कोट तथा जूते बन गए। उन्होंने बदला लिया। औरत को पता भी नहीं है।”

कंबल के भीतर लेटे पति ने लौ की बात सुनी। उसका संदेह समाप्त हो गया। जब वह घर पहुँचा सुबह हो चुकी थी। उसने अपनी पत्नी से कहानी और गीत के बारे में पूछा। मगर वह दोनों भूल चुकी थी। “कौन-सी कहानी, कैसा गीत?” उसने कहा।

भूलने से पहले कहानी कह देनी चाहिए, गीत गा लेना चाहिए।

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जादूई यथार्थवाद का जनक कौन है इस पर बहस हो सकती है कुछ लोग मिग्युएलईन्जेल अस्टूरिअस को इसका जनक मानते हैं तो कुछ अन्य मलयालम लेखक ओ. वी. विजयन को इसका प्रणेता स्वीकार करते हैं लेकिन इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि कोलंबिया के उपन्यासकार, बीसवीं सदी के एक सबसे प्रमुख लेखक गैब्रियल  मार्केस ने जादूई यथार्थवाद को न केवल नई ऊँचाई दी वरन इसे लोकप्रिय बनाने, इसके प्रचार-प्रसार में प्रमुख भूमिका निभाई। जैसा जादूई उनका लेखन है वैसी ही एक जादूई व्यक्तित्व वाली एडिथ ग्रॉसमैन जैसी अनुवादक भी उन्हें मिली जिसने उनके काम को इंग्लिश में अनुवादित करके विश्व के कोने-कोने तक पहुँचाया। ग्रॉसमैन का काम मूल से किसी दृष्टि में कम नहीं है। वह वही आस्वाद देता है जो किसी सर्जना से प्राप्त होता है। मार्केस के लगभग सारे काम को उन्होंने अनुवादित किया है। मार्केस ने विपुल लेखन किया है और हिन्दी का पाठक उनसे और उनके काम से बखूबी परिचित है।

17 अप्रिल 2014 को उनका निधन हो गया। विश्व की तमाम भाषाओं के साथ हिन्दी में भी उन पर श्रद्धांजलि लेखों की बाढ़-सी आ गई। ‘एकांत के सौ वर्षों’ का अंत निश्चित था फ़िर भी पाठक-आलोचक गमगीन थे। खुद मैंने तीन भिन्न पत्रिकाओं के लिए उन पर अलग-अलग श्रद्धांजलि लेख लिखे, जिन्हें पाठकों ने सराहा। लेकिन सबसे अधिक प्रसन्नता हुई जब एक गुणी संपादक ने कहा कि मेरा लेख पढ़ने के बाद उनके मन में मार्केस पढने की इच्छा फ़िर से जाग्रत हुई और उन्होंने अपनी लाइब्रेरी से निकाल कर उनकी आत्मकथा दोबारा पढ़नी शुरु की। ये संपादक हैं प्रयाग शुक्ल, वे न केवल एक कुशल संपादक हैं वरन बहुत उत्तम कोटि के लेखक और अनुवादक भी हैं। साहित्य के साथ-साथ संगीत तथा विभिन्न कलाओं पर उनकी पकड़ अनूठी है। मैंने पहले मार्केस की आत्मकथा ‘लिविंग टू टेल द टेल’ लाइब्रेरी से लाकर पढ़ी थी। मगर एक बार जमशेदपुर पुस्तक मेले में मेरी एक दोस्त ने यह पुस्तक मुझे भेंट की। पुस्तक दोबारा पढ़ी और जो समझ में आया, पढ़ते समय जो उद्गार मन में आए उन्हीं में से कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत है।

वर्षों से कैंसर से जूझते गैब्रियल गार्सिया मार्केस की जिजीविषा गजब की थी। इसके साथ ही उनके पास थी गजब की जीवंतता। ऐसा मस्तमौला फ़क्कड़ व्यक्ति ही ‘लीफ़ स्ट्रोम’, ‘नो वन राइट्स टू द कर्नल’, ‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सोलिट्यूड’, ‘क्रोनिकल्स ऑफ़ ए डेथ फ़ोरटोल्ड’, ‘ऑटम ऑफ़ द पैट्रियार्क’, ‘लव इन टाइम ऑफ़ कॉलरा’ जैसी महागाथाएँ लिख सकता है। मकांडो जैसे काल्पनिक स्थान को वास्तविक से भी अधिक वास्तविक रंग दे सकता है। उनका अंतिम उपन्यास था ‘लव एंड अदर डीमन्स’। इस पर और इस पार बनी फ़िल्म पर आजकल जोरों से काम कर चल रहा है। मार्केस की कहानियों के अलावा उनका यही उपन्यास मैंने सबसे पहले पढ़ा था और चकित रह गई थी। वर्जित प्रेम और प्यार में पागल होना की बात को सिद्ध करता यह उपन्यास अपनी मार्मिकता में बेजोड़ है। इसी तरह उनकी कहानी ‘सफ़ेद बर्फ़ पर लाल खून की लकीर’ और ‘संत’ कहानी के अनुवाद के दौरान बहुत गहन और शब्दातीत अनुभव हुए। ‘संत’ एक पिता के सत्ता के गलियारों में भटकने की त्रासद कथा है। जबकि ‘सफ़ेद बर्फ़ पर लाल खून की लकीर’ मस्तमौला युवक-युवती की प्रेम में मरने-जीने की मार्मिक कहानी है। ‘पानी जैसी बहती रोशनी’ और ‘सपनों की सौदागर’ को नहीं भूल सकती हूँ। ‘पानी जैसी बहती रोशनी’ खेल-खेल में होने वाले हादसे से दहलाती है, तो ‘सपनों की सौदागर’ मार्केस के जादूई स्पर्श से साकार होती है। सुनामी का चित्रण सबसे पहले मैंने मार्केस के यहाँ ही पढ़ा-देखा बहुत बाद में टीवी, अखबारों में देखा-पढ़ा। एक बार मार्केस का चस्का लग जाए तो बस आप पढ़ते चले जाते हैं। आज तक तय नहीं कर पाई कि मुझे ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सोलिट्यूड’ और ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ में से ज्यादा अच्छा कौन लगता है। ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ उपन्यास ज्यादा अच्छा लगता है या इस पर आधारित इसी नाम की फ़िल्म।

गैब्रियल गार्षा मार्केस के साक्षात्कारों तथा उन पर लिखे छिट-पुट लेखों से उनके उपन्यास से भी अधिक रोचक जीवन की झाँकी मिलती रही थी। मगर जब 2002 में उन्होंने खुद अपना जीवन शब्दों में पिरोना शुरु किया तो उनके जीवन की धूम मच गई। एक साल के भीतर यह किताब स्पेनिश भाषा से अनूदित हो कर इंग्लिश में उपलब्ध थी। मार्केस अपनी कहानी तीन भागों में लिखने की योजना बनाए हुए थे। पाठकों को बेसब्री से बाकी के दो हिस्सों की प्रतीक्षा थी मगर कहानी सुनाने वाला ही सो गया और अब कभी उन दो हिस्सों की भरपाई नहीं हो सकेगी। उनकी जीवनियाँ तो खूब लिखी जाएँगी मगर अब और आत्मकथा न होगी।

‘लिविंग टू टेल द टेल’ को पूरी तरह से आत्मकथा की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है, यह इसके पार जाती विधा है। इसमें संस्मरण और रेखाचित्र की झलक भी मिलती है। इसमें धड़कता है उस समय का बोगोटा और अराकटाका का इतिहास और भूगोल। खुद को राजनीति न जानने वाले का दावा करने वाले युवा मार्केस तत्कालीन राजनीति का शब्दश: चित्रण करते हैं। यह जीवनी मात्र एक परिवार की कथा न रह कर पूरे देश-समाज की कथा बन जाती है। बीसवीं सदी के तीसरे और चौथे दशक का पूरा करैबियन संसार यहाँ उपस्थित है। यहाँ हुई राजनैतिक हत्या और उसके बाद चली मारकाट की दास्तान कोलंबिया के गृहयुद्ध की जीती-जागती तस्वीर प्रस्तुत करती है। मार्केस के अनुसार वे लोग स्पेन से स्वतंत्रता के साथ शुरु हुआ वही गृहयुद्ध अभी भी लड़ रहे थे। लिबरल्स और कंजरवेटिव्स के बीच की लड़ाई ने हजारों जाने ले लीं। गाबो के जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव डाला लोकप्रिय नेता जॉर्ज एलिसर गैटान की हत्या ने। लेखक के अनुसार इसी दिन 9 अप्रिल 1948 को कोलंबिया में बीसवीं सदी प्रारंभ हुई। इस दिन की आगजनी और लूटपाट में वे उपहार में प्राप्त अपना टाइपराइटर खो बैठते हैं। टाइपराइटर जिसे पहले ही दिन उन्होंने गिरवी रख दिया था। उनके दोस्त मारियो वर्गास लोसा ने भी अपना टाइपराइटर गिरवी रखा था। मगर उसके गिरवी रखने के पीछे दूसरी रोचक कथा है।

जिंदगी में प्रारंभ से दोस्तों के बीच गैबिटो और गाबो के नाम से प्रेमपूर्वक पुकारे जाते मार्केस स्त्रियों से खूब प्रभावित रहे। उनकी माँ-नानी उनके जीवन को दिशा देने में प्रमुख भूमिका निभाती रही हैं। युवा मार्केस के जीवन में उनकी प्रेमिका-पत्नी की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इस आत्मकथा का प्रारंभ भी इसी बात से होता है जब 23 साल के मार्केस को उनकी माँ अपने घर अराकटाका का पैतृक मकान बेचने के लिए अपने संग ले जाती हैं। इस यात्रा ने उनका जीवन बदल दिया। उनके बचपन की स्मृतियाँ सजीव हो उठीं, पाठक उनके परिवार, बचपन और परिवार के बाहर उनके एक विस्तृत परिवार से परिचित होता है। और देखता है कि कैसे वे लेखन की ओर शिद्दत से मुड़ गए। वे यादों की रंगीन बारात सजाते चलते हैं जिसमें भूत-प्रेत और इंद्रियातीत अनुभव हैं, साथ ही है उनके कवि-लेखक, गायक बनने की बारीक दास्तान। इस यात्रा और बाद के चित्रण में उनकी माँ एक ऐसी महिला के रूप में उभरती हैं जिसमें प्रतिउत्पन्नमतित्व, गर्व तथा विट का गजब संयोग है। माँ लुइसा अपने जमाने में इलाके की सबसे खूबसूरत युवती थीं। उनकी माँ की घ्राणशक्ति अनोखी थी और वे कहती कि ईश्वर उन्हें उनके लोगों के विषय में सब कुछ बताता रहता है। माता-पिता के प्रेम और विवाह पर मार्केस ने ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ की कथा बुनी है। वहाँ भी नायिका की घ्राण शक्ति बहुत तीव्र है। स्त्रियों की घ्राण शक्ति होती ही बड़ी तीव्र है।

इस नॉस्टाल्जिक यात्रा में वे अपने नाना को याद करते हैं जो ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सोलिट्यूड’ के कर्नल हैं। इस उपन्यास को सर्वेंटिस के डॉन खिसोटे के बराबर का सम्मान और लोकप्रियता प्राप्त है। यह उपन्यास बहुत सारी अन्य बातों के साथ-साथ स्मृति और विस्मृति का मिश्रण है। वे कहते हैं कि उनकी स्मृति बहुत कमजोर है मगर असल में मार्केस कुछ नहीं भूलते हैं। नाना ने तीन-चार साल के मार्केस को समुद्र दिखाया था और उनके मासूम प्रश्न के उत्तर में कहा था कि समुद्र के उस पार कोई तट नहीं होता है। बच्चे ने एक बड़ी सच्चाई को जाना था। यहीं ननिहाल में बचपन में उन्होंने कई स्त्रियों से कहानियाँ सुनी थी। इन कहानियों में लोक होता था, मिथ होता था, विश्वास होता था और होता था कल्पना का विपुल संसार। लेखक मार्केस यह विपुल संसार बाद में खुद रचते हैं।

इस पूरी यात्रा के दौरान माँ परेशान है क्योंकि बेटा वह भी परिवार का सबसे बड़ा बेटा लेखक बनना चाहता है। सारी दुनिया में कदाचित कोई माता-पिता अपने बच्चे को लेखक बनने देना चाहता है। माँ क्या जवाब दे उसके पिता को? अराकटाका में रविवार 6 मार्च 1927 को मार्केस को जन्म देने वाली माँ हर समय पिता-पुत्र के बीच ढ़ाल बन कर खड़ी रहती है। यात्रा की समाप्ति पर वह बेटे की नियति स्वीकार चुकी है। मगर मुश्किल है कि यह बात वह अपने पति को कैसे बताएगी-समझाएगी। ‘लिविंग टू टेल द टेल’ आत्मकथा में करीब एक सौ पन्नों के बाद वे खुद और परिवार के सामने घोषणा करते हैं कि वे एक लेखक बनने जा रहे है, कुछ और नहीं बस लेखक। इसी तरह एक दिन ओरहान पामुक ने भी तय कर लिया था कि वे केवल लेखन करेंगे। मो यान ने भी सोच लिया कि वे किस्सागो बनेंगे। वैसे मार्केस ने एक साक्षात्कार में कहा था कि मैं लेखक बनना चाहता था यह बात मैं जब पैदा हुआ तब से ही जानता था, उनकी यही बड़ी-बड़ी बातें हाँकने की अदा मुझे लुभाती है। वे कह सकते थे, मैं पैदा होने के पहले से जानता था मैं लेखक बनूँगा।

इस किताब से गैब्रियल गार्सिया मार्केस की स्मृति का कायल होना पड़ता है। वे एक-एक दिन का हिसाब सिलसिलेवार ढ़ंग से कथा में पिरोते चलते हैं। इस जीवंत कथा को शुरु करने पर पूरा किए बिना छोड़ना कठिन है, हालाँकि हिन्दी के पाठक के लिए करैबियन लोगों और स्थानों के नाम थोड़ा अटकाव पैदा करते हैं। मार्केस का जीवन संयोगों, दोस्तों के संग-साथ से दशा-दिशा प्राप्त करता है। भयंकर गरीबी के बावजूद जीवन मस्ती में कटता है। गरीबी जीवन के आड़े नहीं आती है। उनके जीवन में आए दिन त्रासदी घटती रहती है। रात-रात भर दोस्तों के साथ गाते-पीते घूमा करते मार्केस की तमाम परेशानियाँ हैं मगर वे भौतिक से ज्यादा मानसिक परेशानियाँ हैं। एक लेखक के संघर्ष की कहानियाँ हैं। उनके कई उपन्यासों और कहानियों के पीछे की सच्चाई, उसे लिखते समय उनकी मानसिक दशा को यहाँ देखा जा सकता है। कई बार उन्हें अपने लिखे पर संदेह होता मगर मित्रों का विश्वास उनके लेखक पर से कभी नहीं डिगता है। वे अपनी रचनाओं को प्रकाशन पूर्व कई मित्रों को पढ़ने के लिए दिया करते। पढ़ कर मित्र बेवाक टिप्पणी किया करते। मित्र भी ऐसे-वैसे नहीं थे अपने समय और भविष्य के महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। उन लोगों का एक गुट था जिसमें लेखक, फ़ोटोग्राफ़र और डांसर शामिल थे। इस समूह के लोग आजीवन उनके मित्र बने रहे। ज़बाला, जर्मेन वर्गास, एलवारो सेपेडा सामुडिओ, एलवारो मुटिस, प्लिनिओ मेंडोज़ा से उनका संबंध सदैव बना रहा।

शर्मीले, 1982 के नोबेल पुरस्कार से नवाजे मार्केस की पुस्तक ‘लिविंग टू टेल द टेल’ रोचकता में मार्केस के किसी उपन्यास की तुलना में उन्नीस नहीं ठहरती है। यहाँ भी उनके सारे पात्र पैशन और विचारों के गर्व से संचालित होते हैं, दोस्ती के लिए जान की बाजी लगा सकते हैं। यहाँ अनोखी बातें जिंदगी की दैनन्दिनी का हिस्सा हैं। यह पहला भाग उनके पहली बार देश छोड़ कर यूरोप (जेनेवा) जाने पर समाप्त होता है। मर्सडीज बार्चा जिसे वे तेरह वर्ष की उम्र से लुभाने का प्रयास कर रहे थे इस पुस्तक के अंत में उनके विवाह प्रस्ताव को स्वीकार कर लेती है। 23 वर्ष के मार्केस की यह कहानी उनके बचपन की यादों से प्रारंभ हो कर उनके युवा और प्रौढ़ होने तक की कथा, ‘कमिंग ऑफ़ एज’ की कथा कहती है। लेखन व्यक्ति को अमरत्व प्रदान करता है। बचपन की एक-एक चीज और व्यक्ति को देख कर स्मरण कर मार्केस लिखने को व्याकुल हो उठते हैं, वे लिखने की ऐसी तलब अनुभव करते हैं ताकि मरे नहीं। और लिख कर मार्केस सच में अमर हो गए। वे लिख कर जीवन का कर्ज उतारते हैं।

‘देयर आर नो थीव्स इन दिस टाउन’ में अपना खाका खींचते हुए वे लिखने के दौरान अपने कठोर परिश्रम और अनुशासन की बातें लिखते हैं। बिना परिश्रम और अनुशासन के लेखन संभव नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि इस संघर्ष में वे विजयी हो कर निकलते हैं। लेखकीय जीवन के पहले बीस सालों में मात्र चार किताब लिखने वाले मार्केस कहते हैं कि वे साहित्य के बारे में बात नहीं करते हैं, क्योंकि वे नहीं जानते हैं कि साहित्य क्या है। अगर वे साहित्य के बारे में नहीं जानते हैं तो भला कौन जानता है साहित्य के विषय में? जीवन में जादूगर बनने की चाहत रखने वाले मार्केस अंतत: शब्दों के जादूगर बने वैसे उनका कहना है कि अच्छा होता यदि वे एक टेररिस्ट होते। बचपन से उनकी इच्छा थी कि मित्रों द्वारा प्यार किए जाए। उनकी यह इच्छा भरपूर पूरी हुई। वे कहते हैं कि शब्द मित्र हैं, इन्हीं शब्दों ने उन्हें ढ़ेर सारे मित्र दिए। इसी ने उन्हें नोबेल तथा अन्य पुरस्कार दिए, उन्हें अमर किया। पुस्तक में समय-समय पर मित्रों के कहे कथन उधृत हैं जो दिखाते हैं कि मित्रों को मार्केस के महान लेखक होने में रत्ती भर भी शक नहीं था। मजे की बात है, ऐसा युवा संभावनाशील रचनाकार हवाई जहाज में बैठने से डरता था। वे अपने सेक्स संबंध को खुले में लाते हैं। शादीशुदा मार्टीना फ़ोन्सेका से उनका स्कूल के दिनों में ही संबंध बनता है मगर समाप्त भी हो जाता है। उनके समाज में यौन संबंध का हमारे देश जैसा निषेध नहीं है। इसीलिए वे अपने पिता के संबंधों का भी जिक्र करते हैं। उनके एक सौतेले भाई को उनकी माँ ने अपने बच्चों की तरह पाला था।

खुद मार्केस को विश्वास नहीं होता है जब एक-के-बाद-एक उनकी दो कहानियाँ प्रकाशित हो जाती हैं और मित्र उन्हें सर्वोच्च लेखक के आसन पर बैठा देते हैं। लेकिन इससे भी अधिक आश्चर्य की बात होती है जब इन कहानियों की उस समय के कोलम्बिया के सर्वाधिक प्रसिद्ध आलोचक एडुअर्डो ज़लमिआ बोर्डा नोटिस लेते हैं। बोर्डा ने ‘नई और मौलिक प्रतिभा’, ‘गार्षा मार्केस एक नया और नोटेबल लेखक जन्मा है’ जैसे शब्दों से उन्हें नवाजा। ‘इवा इज इन्साइड हर कैट’, ‘आईज ऑफ़ ए ब्लू डॉग’ उनकी शुरुआती कहानियाँ हैं। उन्होंने अपनी एक कहानी ‘वन डे आफ़्टर सटरडे’ लिख कर एक प्रतियोगिता में भेज दी और उन्हें पुरस्कार स्वरूप तीन हजार पीसोज (वहाँ की करेंसी) मिले। शब्दों में जादू होता है, यह देखना हो तो मार्केस को पढ़ना काफ़ी होगा।

बोगोटा और कार्टेजेना में प्रेस में काम करते हुए पत्रकारिता का जोखिम भरा जीवन जीते हैं मार्केस। सेंसरशिप के बावजूद कभी नाम के साथ और कभी बेनामी लेखों में सत्ता-शक्ति की बखिया उधेड़ते हैं मार्केस। पत्रकारिता करते हुए इस दौरान जो कालजयी काम उन्होंने किया, वह है कोलंबिया की नौसेना के एक जहाज के डूबने और 28 दिन बाद बच निकले व्यक्ति पर किया उनका काम। जिससे पत्रकार के रूप में उन्हें खूब प्रसिद्धि मिली। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें सत्ताधारियों का कोपभाजन भी बनना पड़ा। कई स्थानों पर भटकना पड़ा। यह लड़ाई करीब एक दशक तक चली और अखबार बंद कर दिया गया। इस जहाज का एक नाविक तूफ़ान में बह गया था काफ़ी दिनों के बाद जब वह गाँव पहुँचा तो उसके परिवारजन चर्च में उसकी आत्मा के लिए प्रार्थना कर रहे थे। असल में मार्केस ने ‘द स्टोरी ऑफ़ ए शिपरेक्ड सेलर’ में खोज निकाला था कि कोई तूफ़ान नहीं आया था। जहाज गैरकानूनी सामान ले जा रहा था और उस पर जरूरत से अधिक सामान लदा हुआ था। मगर अधिकारियों का संस्करण कुछ और था। मार्केस का संस्करण अधिकारियों को घेर रहा था, इसे वे कैसे पसंद करते। बात काफ़ी बढ़ गई और जब मार्केस यूरोप में थे तानाशाह गुस्टावो रोजस पिनिला (1953-57) की सरकार ने अखबार ही बंद कर दिया। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।

पत्रकारिता से वे शिद्दत से जुड़े थे और खुद को सदैव एक पत्रकार मानते थे। उन्होंने स्वीकार किया है कि पत्रकारिता ने उन्हें रोजमर्रा की घटनाओं-सच्चाइयों पर साहित्य रचने में मदद की है। दिन में वे रिपोर्टर का काम करते और रात को साहित्य रचते। बोगोटा, कार्टिजेना में वे पत्रकार रहे।  बोगोटा के अखबार ‘एल एस्पैक्टैडोर’ के लिए काम करने लगे। उन्होंने ‘एल यूनिवर्सल’, ‘एल हेराल्ड’ आदि कई अखबारों में काम किया। उस समय तक पत्रकारिता कॉलेज में नहीं पढ़ाई जाती थी इसे काम करते हुए सीखना होता था। मार्केस का सौभाग्य था कि उन्हें इस क्षेत्र में बड़े अच्छे गुरु मिले जो किसी तरह की रियायत नहीं देते थे।

परिवार ने उन्हें कानून पढ़ने के लिए बोगोटा भेजा था और वे अच्छे नम्बरों से पास भी होते जा रहे थे मगर उनका मन कोर्स की पढ़ाई में नहीं लगता था। इस समय वे स्पैनिश भाषा में अनुवादित सारा साहित्य भकोस रहे थे। मार्केस ने सारे जीवन जितना लिखा उससे कई गुणा अधिक पढ़ा। उस समय वे स्पेनिश साहित्य के अलावा जॉर्ज लुई बोर्गेस, डी.एच लॉरेंस, अल्डोस हक्सली, ग्राहम ग्रीन, विलियम आइरिश, कैथरीन मैन्सफ़ील्ड, काफ़्का आदि पढ़ने में डूबे हुए थे। अराकटाका और बोगोटा एक ही देश के दो स्थान हैं मगर दोनों की भौगोलिक, सामाजिक और सांस्कृतिक तथा वैचारिक संरचना बिल्कुल भिन्न है। मार्केस लिखते हैं कि अराकटाका ऊष्मा से भरपूर, परिवार और दोस्तों के प्रेम से लबरेज है जबकि बोगोटा एंडीज का एक सुदूर, विषादमय शहर है, जहाँ 16वीं शताब्दी से अनिद्रा से ग्रसित वर्षा निरंतर गिर रही है। इसी विषादपूर्ण वातावरण में उनकी बौद्धिक और भावात्मक विकास की यात्रा प्रारंभ होती है जो आजीवन चलती रहती है। जीवनानुभव, बालपन की स्मृतियाँ साहित्य की थाती बन कर खुलती-खिलती रहती हैं। वे कल्पना और वास्तविकता का ऐसा सम्मिश्रण करते हैं कि पढ़ने वाला चकित रह जाता है। ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सोलिट्यूड’ का बनाना कत्लेआम वास्तविक होते हुए भी पाठक पर जादूई प्रभाव उत्पन्न करता है। मित्र की हत्या आगे चल कर ‘क्रॉनिकल ऑफ़ ए डेथ फ़ोरटोल्ड’ में विकसित होती है। यहीं उन्हें ‘द जनरल इन हिज लेबिरिंथ’ का मसाला मिला था। इस आत्मकथा में वे एक पत्रकार और कहानीकार के रूप में दीखते हैं मगर इस दौरान हुए अनुभव उनके आगे के कई उपन्यासों का कथानक बनते हैं।

खुद गैब्रियल मार्केस, उनका जीवन और उनका लेखन लार्जर दैन लाइफ़ फ़ोर्स है, ‘लिविंग टू टेल द टेल’ उनकी आत्मकथा भी लार्जर दैन लाइफ़ फ़ोर्स है। पाठक को वे वह अनुभव कराते हैं जो उन्होंने अनुभव किया, वो दिखाते हैं जो उन्होंने बचपन और युवावस्था में देखा। इसे पढ़ने के बाद एक बार फ़िर से गैब्रियल गार्सिया मार्केस का समस्त साहित्य पढ़ने की इच्छा जाग्रत हो उठती है।

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० डॉ विजय शर्मा, 326, न्यू सीताराम डेरा, एग्रीको, जमशेदपुर – 831009

      Mo. 8789001919, 9430381718

      Email : vijshain@gmail.com

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तरुण भटनागर के उपन्यास ‘बेदावा’का एक अंश

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तरुण भटनागर के लेखन से हम सब अच्छी तरह परिचित रहे हैं। यह उनके नए उपन्यास ‘बेदावा’ का अंश है। यह उपन्यास उनके अपने लेखन में भी एक भिन्न प्रकृति का उपन्यास है। राजकमल से प्रकाशित इस उपन्यास का आप अंश पढ़िए- मॉडरेटर

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 ख़ामोशियों की बेहयाई

तो इश्क़ की पहली आहट इस सुकून के साथ आई थी कि सुधीर देख नहीं सकता।

तब पता नहीं था कि सुकून बड़ी कुत्ती चीज़ है। मालूम न था कि किन्हीं के दरमियान सुकून का होना कब गिरफ़्त में ले-ले पता नहीं चल सकता। पता चलने में वक़्त लगता है। पर तब तक कई बार आप सुकून के सामने बेझिझक कपड़े उतार देते हैं। अपर्णा को भी तब कहाँ पता था कि सुकून के दिल में तसल्ली धड़कती है, उसकी रगों में एक किस्म की बेगुनाही दौड़ती है। उसे पता न था कि सुकून की आँखों में बेशर्मी होती है, उसके दिमाग में कोई अधूरा-सा ख़याल होता है। वे दोनों बेख़बर थे कि सुकून की जबान के नीचे लजीज़ अल्फाजों का जहर होता है, उसकी साँसों में कोई तडप होती है। पता न था, पता चलने में वक़्त था कि सकन का चेहरा देखो तो नहीं लगता कि इसकी परतों के नीचे कहीं दगाबाजी भी होगी कि वह बेवकूफ़ बनाएगा, हर लेगा, अपनी मुट्ठी में दबोच लेगा सामने वाले का दिल, कुछ बहुत हसीन लड़कियों के सपने उनकी नींद से उठकर सुकून के सपनों में आ जाते हैं और उन्हें इसका इल्म भी नहीं होता…।

अपर्णा को ‘सुकून’ था कि सुधीर देख नहीं सकता। सुधीर बेफ़िक्र था कि भला कभी कोई लड़की उसे भी चाह सकती है?

अपर्णा देखने वाले से रश्क खाती थी। घूरने वाले को देखकर झेंप जाती थी। आँखों से ख़ौफ़ का ख़याल आता-जाता रहता था। सुधीर के न देख पाने से वह ख़ुश थी। मसरूर थी।

सुधीर हर चीज़ को छूकर महसूस करता था। उसे छूने में कोई झिझक न होती थी। वह छूने को ख़्वाहिशमन्द रहता। छू लेने के लिए एक बेख़ौफ़-सी आरजू होती उसके मन में। उँगलियाँ सरकाकर महसूस करना उसकी फ़ितरत थी। दुनिया उसके छूने को गुनाह न मानती थी। वह छुए न तो क्या करे भला? वह बड़ी मोहब्बत से हर चीज़ के जिस्म पर उँगलियाँ फिराता था। वह नाबीना था, उसके लम्स को बदचलनी जानने की कोई वजह न थी।

अपर्णा औरत थी। वह घूरने और टकटकी लगाने वालों से रश्क खाती थी। पर उँगलियों से डरने की कोई वजह न हुई थी अब तक। छूने में गुनाह था। बेशक। पर जो शख्स देख न पाता हो, वह छुए न तो क्या करे। वह तो छुएगा ही। क्या किया जा सकता है भला?

…इस तरह दोनों के दरमियान तसल्ली की काहिलियत थी, फुर्सत की कमीनगी थी, रंग, मोम, आवाज़ और शमा की फिसलन भरी दगाबाज़ियाँ भी…और कोई भी बाख़बर न था, कोई इरादा, कोई वजह, कोई मालुमात न थे कि ख़बरदार हो लिया जाए…

अपर्णा के मन में कहीं कोई बेकरारी थी, कोई गहराती-सी तकलीफ़, कोई इनायत…कि सुधीर देख नहीं सकता।

सुधीर को ख़ुद के न देख पाने का ख़याल ही न था। वह इतना क़ाबिल और मशगूल था कि उसे ख़याल ही न आता कि किसी के मन में उसे लेकर कोई तकलीफ़ है, कोई रहमदिली है, कोई तड़प है…।

सुधीर थोड़ा बेताब रहता पता नहीं क्या जानने तो आती है यह लड़की?

अपर्णा उसकी हर हरकत को गौर से देखती, पता नहीं कैसे यह हर काम कर पाता है? अपर्णा उसे कम से कम तकलीफ़ देना चाहती। जब चाय पीने की इच्छा होती वह किचन से चाय बनाकर ले आती। उसके घर में, उसके किचन में चाय बनाते उसे कुछ भी अटपटा न लगता। बस एक ही बात उसके जेहन में होती कि वह एक ऐसे शख्स की मदद कर रही है जो नाबीना है। जिसकी मदद करना हर किसी का फ़र्ज़ है। एक बार तो इस डर से कि कहीं वह बाथरूम में गिर न पड़े उसके नहाने का पानी तक बाल्टी में रख आई। उसे ज़रा भी ख़याल न आया कि इन सब बातों के कुछ और भी मतलब होते हैं। हद तो तब हो गई जब एक दिन जाने से पहले अपर्णा ने सुधीर के कपड़ों को दोहर कर रैक में रख दिया। उसके जाने के बाद सुधीर ने जब उन कपड़ों को पहना तो उसे उन कपड़ों में से अपर्णा की खुशबू आई।

अपर्णा को लगता कि वह एक बिना आँख वाले की मदद कर रही है। पर सुधीर की तो दुनिया ही ऐसी थी। बिना आँखों के भी बेहद खुशगवार। इस बात का अपर्णा को पता न चलना था।

अपर्णा खुलकर उठती-बैठती, ठट्ठा लगाकर ज़ोर-ज़ोर से हँसती, खुलकर चुप होती, बेझिझक सुधीर को घूरती, बेखौफ़ ताक-झाँक करती, बेझिझक डूबती ख़यालों में, बेपनाह सजती-सँवरती, लकदक मुस्कुराती, अपनी तरह से बैठती, ठीक अपने अन्दाज़ में चलती, बेतकल्लुफ-सी कभी कुर्सी पर कभी सुधीर के बिस्तर पर…उसे लगता उसे कोई देख नहीं रहा। पर उसकी कुछ आवाजें, ख़ुशबू, फुसफुसाहट, कोई खनक, कोई टिकटिकाहट…सुधीर तक पहुँच जाती। सुधीर को लगता अपर्णा को उसका साथ बहुत भाता है। अपर्णा की आवाज़ों से उसका मन खिल उठता। उसकी खनक, उसकी मुस्कुराहट की कोई महीन-सी आवाज़, उसकी चाल की बेपरवाही को बयाँ करती कोई सदा, कोई बेतकल्लुफी का अहसास… सुधीर के दिल में उतरता रहता।

‘कहते हैं इश्क़ अकेली ऐसी शै है, जिसके आने का ठीक-ठीक पता नहीं चलता…’ अपर्णा को अदीब के उसी नाटक की लाइनें अक्सर याद आती जो वह उसे अपनी भरी-पूरी तबीयत से सुनाया करता था।

वह नाटक की प्रैक्टिस कॉलेज के पार्क में करता था। अपर्णा अपनी सहेलियों के साथ उसके नाटक की प्रैक्टिस देखती। उनके एक नाटक में इश्क़ पर बहुत-सी बातें थीं। वे सब बातें अदीब ने रट रखी थीं। अदीब सीधा खड़ा होता जमीन की ओर सिर झुकाए और धीरे-धीरे अपना सिर ऊपर करता कहता—’कभी बेजान धरती की कोख से बीजों की सोहबत में अँखुआकर फूटता है इश्क’ स्टेज पर इस सीन में उसके ऊपर पड़ती रोशनी धीरे-धीरे बढ़ती जाती। उसका ऊपर उठता चेहरा आसमान की ओर तक उठ जाता, गर्दन की नसें खिंच जातीं और दायाँ हाथ छाती

पर रखा होता, वह थोड़ी ऊँची-सी आवाज़ में कहता—’इश्क्क जो कभी यकायक किसी अकस्मात् टूटते तारे की तरह से गुजरता जाता है अपनी रोशनी के गुबार के साथ आकाश के बियाबान से।’ थियेटर में उसकी एक सहेली उससे फुसफुसाकर पूछती—इस बात का क्या मतलब हुआ? वह उसे चुपचाप सुनने को कहती। एक दूसरा लड़का जिसका नाम गणपति था, दर्शकों से मुखातिब होकर ज़ोर-ज़ोर से कह रहा होता—’इश्क़ जो जहर होकर आता है उतरने छूट दर घूट, कभी पलता रहता है क़ब्र में कंकाल होती किसी लाश के साथ-साथ…।’ मंच पर डायलॉग के साथ-साथ बढ़ती आवाजें धीरे-धीरे मद्धिम पड़ती जाती हैं और मुट्ठियाँ भींच थोड़ा सिर झुका तपते चेहरे और काँपते होंठों से धीमे से लगातार बढ़ती आवाज़ में अदीब कहता जाता—’कहाँ पता चलता है कि जो झुल गया फाँसी पर वह मिट्टी की मोहब्बत में था, कितनी मुश्किल से दीखती है उस इश्क की लकीर जिसके जुनून में कोई तोड़ता है अपना दम जेल की सलाखों के पीछे’-तीन ऐक्टर पीछे चले जाते और एक लड़की जिसका नाम लावण्या था, धीरे-धीरे सामने आती, गहरी साँस भरकर कहती ‘…कि जंगलों में अपने डंक में जहर लिये बिच्छू की तरह रेंगता है इश्क्क…’ फिर बाईं ओर मुड़कर दूसरी ओर चेहरा कर कहती जाती—’इश्क, इश्क…हवा में तैरती वह भाप है जो अगर सुबह होती तो किसी पत्ते पर ओस का मोती होता’-अपर्णा की सहेली जुहेरा को यह डायलॉग बड़ा अच्छा लगता इश्क़…हवा में तैरती वह भाप है जो अगर सुबह होती तो किसी पत्ते पर ओस का मोती होता।

अदीब फिर अपने संवाद कहता। सबसे पीछे, उलटा खड़ा, पीछे लटकते काले कपड़े की ओर मुख़ातिब होकर और कोरस की तरह कुछ और ऐक्टर उसके कहे डायलॉग को दोहराते—’मुफ़लिस मुल्कों की कब्रों पर दूर के अनाम लोगों के आँसुओं की तरह फूटता रहा जो इश्क्क…भीतर पल रहे गुस्से और ज़िद के रंगों के मिलने से बना जो इश्क…इश्क्क पसीना, इश्क खून, इश्क जिस्म पर घावों की कोई मनचाही इबारत…’ स्टेज पर अँधेरा छा जाता और फिर कुछ मशालें दिखाई देतीं—’कैलेंडर की तारीखों पर लाल गोलों-सा इश्क़, इश्क…इश्क मौत का मज़ा…’-अदीब चीख़ता-सा कहता, मानो कोई नज़्म पढ़ रहा हो—’इश्क, इश्क्क मौत का मज़ा, दीवारों पर नारों-सा गुदा, हाथ की भिंचती मुट्ठी-सा कितना मदमस्त यह इश्क, इश्क…।’

अपर्णा और उसकी सहेलियाँ अदीब की रिहर्सल देखकर खुश हो जाती, खड़ी होकर ताली बजाती। अपर्णा उससे बाद में कह देती कि यह इश्क की बात उसे समझ न आई। भला यह कैसा इश्क़? वह मुस्कुराता, फिर एकदम चुप हो जाता। अपर्णा की आँखों को पल भर को देखता। फिर कहता कि वह समझाएगा उसे कि इसका क्या मतलब है। आखिर वे जवान हैं, पढ़ाकू हैं उनसे बेहतर इश्क को कौन समझ पाएगा? पर जैसे इतने के बावजूद भी उसे समझा पाना कठिन हो। उसके नाटक में बहुत कम लोग आते थे। उनका एक ग्रुप था। एक नाटक मंडली जो इस तरह के नाटक करती रहती। कॉलेज में बहुत से लोग अदीब को लेकर कुछ अजीब सी बातें बताते, कहते कि वह कोई ठीक लड़का नहीं है। पर वह उससे प्यार करती थी, उसे दूसरों की बातें ग़लत लगती… । इश्क हो तो माशूक के खिलाफ़ बातें ग़लत ही होती हैं एक बार किसी ने उससे कहा था इश्क में माशूक के ख़िलाफ़ किसी बात की कोई कैफियत नहीं होती। कोई ऐसी जगह नहीं होती जहाँ उसके ख़िलाफ़ कहे लफ़्ज रुक सकें।

अपर्णा और सुधीर देर तक साथ-साथ बैठे रहते। बातें करते। मोम पिघलाते, साँचे गढ़ते, डिजाइन की तरतीब पर बात करते, कास्ट तैयार करते, एक-दूसरे की उँगलियों पर अपनी उँगलियाँ रखे कास्ट की गीली मिट्टी को सही तरह से जमाते, मोम की धुआँ छोड़ती पतली धार को कास्ट में डालते, बूंद-बूंद टपकाते, पिघलते मोम में रंग घोलते, रोशनी और अँधेरों की दुनिया के बीच रंगों पर बात करते, किसी जम चुकी मोम का कास्ट तोड़ते, किसी मोमबत्ती के जिस्म पर अपनी उँगलियाँ फिराते…।

सुधीर अपर्णा को शान्त होकर सुनने को कुछ कहता। अपर्णा को कुछ भी सुनाई न देता। अपर्णा रोशनी के लिए खिडकी के पल्ले खोल देती। सुधीर हँस पड़ता।

गीली मिट्टी में लिथडी उन दोनों की उँगलियाँ कास्ट की सतह पर एक-दूसरे के ऊपर बेतरतीबी से फिसलतीं। कास्ट की गीली मदहोश मिट्टी में सनी उनकी उँगलियाँ इस तरह फिसलती मानो एक-दूसरे में समा जाएँगी। उँगलियों की गर्मी से कास्ट की लिपटती-फिसलती मिट्टी गुनगुनी-सी तप्त हो जाती।

अपर्णा सुधीर को गौर से देखती, बड़ी फुर्सत और तबीयत से। सुधीर को पता न चलता था कि वह देख रही है। अपर्णा जानती थी कि वह देख नहीं सकता। नाबीना है। सुधीर को पता न था कि चाहने वाला जब गौर से देखता है तब क्या होता है।

दोनों की बेपरवाहियों के अपने-अपने किस्से थे। दोनों की दुनिया के दरवाजे एक के बाद एक खुल रहे थे। कोई तनहाई बेईमान हो रही थी। ख़ामोशियों की बेहयाई खुलकर सामने आ रही थी। देखने और देख न सकने के बीच एक रास्ता था दोनों तरफ़ न मालूम कितनी दूरियों तक पसरा हुआ। वे तैर आए थे और पता नहीं था कि यह सबसे बड़ा दरिया है, बहरे-आज़म है। बहरे-आज़म को कोई पार नहीं कर पाया, जो मुकदर है वह थककर उसमें डूबना ही है।

‘तुमने मोमबत्तियाँ बनाना कैसे शुरू किया?’ ‘बहुत लम्बा किस्सा है।’ ‘बताओ…।’ ‘आज तक किसी को नहीं बताया।’ ‘क्यों?’ “उसमें कुछ ऐसा है कि बताया नहीं जा सकता।’ ‘अगर मैं वादा करूँ कि किसी को न कहँगी तो।’ ‘तब भी नहीं।’ ‘अगर मैं वादा करूँ कि न कहूँगी एकदम न कहँगी, क्या तब भी नहीं?’

‘मुझे पता है, तुम वादाखिलाफ़ी न करोगी।’

 ‘पर फिर भी नहीं।’

‘हाँ।’

‘ऐसा क्या है?’ ‘ऐसा ही है।’ ‘ऐसा कुछ नहीं होता। वादा पक्का हो तो फिर बता ही देना चाहिए।’

‘ये तो ज़िद है। न बताने की जिद।’

अपर्णा का इस तरह से कुरेदना सुधीर को अच्छा लगा। कुरेदने पर उसे ख़याल आया कि कुरेदने से घाव की पपड़ी उतरती है, पर कुरेदने से शीशा भी तो साफ़ होता है। यह ठीक है कि कुरेदकर अंगारों में दफ़न राख को उधेड़ा जा सकता है, पर कुरेदकर ही तो नाखून साफ़ किए जाते हैं नेलपॉलिश के नये रंगों के लिए…कुरेदना उकसाता है, कुरेदना कह देने का जज़्बा देता है…ऐसा उसे लगा।

‘बचपन में मेरी माँ कहती थी कि मैं अलहदा हूँ। इस दुनिया में मेरे होने के खास मतलब हैं।’

‘वो सच कहती थीं। ‘लोग सूरदास को अन्धा नहीं मान पाते, जानती हो क्यों?’ ‘नहीं पता।’

“वे शक करते हैं कि अगर वे अन्धे थे तो अपनी कविताओं में इतने जीवंत अक्स कैसे खींच पाए? कैसे लिख पाए वह सब जिसे पढ़कर लगता है कि बिना देखे नहीं लिखा जा सकता था।’

‘हाँ, ये बात तो है। मैंने सूरदास को पढ़ा है पर कभी इस तरह नहीं सोचा।’ ‘लोग अन्धों को अन्धा नहीं मान पाते हैं।’ “ऐसा तुम्हें लगता है।’

‘यक़ीनन। इसीलिए तो सूरदास की बात कही। लोग कहाँ मान पाते हैं कि वे नाबीना थे। बचपन से नाबीना। तुम फिर से पढ़ के देखो। यह लगेगा कि अगर नाबीना थे तो ऐसा कैसे लिख पाए, मानो सब कुछ देख रहे हों।’

‘बात तो सही है। ‘माँ एक बात और कहती थी। एक अजीब सी बात।’ ‘क्या?’

“वह कहती कि जिन्होंने भी दुनिया को चौंकाया वे वे लोग थे जो देख नहीं पाए, या तो पूरी तरह से नहीं देख पाए, यानी नाबीना थे या उस तरह से नहीं देख पाए जिस तरह से देखा जाता है, यानी उनका देखना ठीक-ठीक वैसा न था जिस तरह आँखों वाले देखते हैं।’

‘यह एक मुख़्तलिफ़-सी बात है।’

‘मुझे इस बात का मतलब बहुत दिनों बाद समझ आया। जब मैं बड़ा हुआ तब। पर तब माँ को गुजरे अरसा बीत चुका था। माँ अगर जिन्दा होती तो मैं माँ को बताता कि मुझे उसकी बात का मतलब समझ आ गया।’

बाहर बारिश शुरू हो गई थी। अपर्णा ने अधगीले कास्ट पर एक सूखा कपड़ा डाल दिया था। हवा में उतरती नमी थी, जिस्म में रमती एक फुरफुराती-सी ठंडक। मिट्टी की गन्ध को जज्ब किए पानी की एक अलहदा-सी खुशबू तैर रही थी।

चींटियों की एक लाइन बाथरूम की देहरी के किनारे-किनारे मुँह में अंडे दबाए सरक रही थी, ख़ुद में डूबी हुई, मगन, बेचैन और हड़बड़ाती-सी।

The post तरुण भटनागर के उपन्यास ‘बेदावा’ का एक अंश appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

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