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अनघ शर्मा की कहानी अब यहाँ से लौट कर किधर जायेंगे!

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अनघ शर्मा युवा लेखकों में अपनी अलग आवाज़ रखते हैं। भाषा, कहन, किस्सागोई सबकी अपनी शैली है उनकी। यह उनकी नई कहानी है। पढ़कर बताइएगा- मॉडरेटर

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1

पिछली सर्दियों की बर्फ़ अब पिघलने लगी थी। पहाड़ का जो टुकड़ा काट कर पार्क बनाया गया था, उसके पिछवाड़े में जमी बर्फ़ की तह अब नीली से सफ़ेद होती जा रही थी। जब कुछ ही दिनों में ये बर्फ़ बिलकुल गायब हो जायेगी तब यहाँ आ कर कितने ही बच्चे खेलेंगे, उसने सोचा। जिस बेंच पर वह बैठी है वो बेहद ठंडी है। उसे लगा अगर थोड़ी देर और बैठी रही तो सारा खून जम कर लाल बर्फ़ की सिल्ली बन जायेगा और वह अकड़ कर मर जायेगी। जीने-मरने का भेद कहाँ बचा है उसके लिए? अब जो इस देह में है वह खुद वही है या कोई और उसे मालूम नहीं। ओस से भीगी घास में कोई कीड़ा चुपचाप चलता हुआ आया और उसके टखने पर काट गया। उसने चिहुंक कर पजामा उठाया और देखा टखने पर कई सारे छोटे-छोटे दाने उभर आये थे। जाने बीटाडीन पड़ी भी है या नहीं, वह बडबडाई और उठ खड़ी हुई। चलते-चलते उसने सिगरेट सुलगाई, गहरे कश खींचे और फिर मसल कर फेंक दी। सिगरेट पीने का ये तरीका उसने कैसे सीखा याद नहीं। वह बाहर आई पर अँधेरे में उजाले की हल्की लौ अभी फूटी नहीं थी। उसने घडी देखी, सुबह के पौने छ: ही बजे थे। अभी तो कोई सवारी भी नहीं मिलेगी उसने सोचा। उसे महसूस हुआ की पैर का दर्द बढ़ने लगा है। वह पास पड़ी एक बेंच पर बैठ गयी और आँखें मूँद लीं। सुबह की हवा पुरवैया है या कुछ और उसे इसका भी भान नहीं है। कितने सालों से उसके अन्दर एक शोला लपलपाता है और वह उसे निकाल बाहर फेंक ही नहीं पा रही। वह जानती है कि अक्सर आसमान से लपकता शोला हंस कर किसी न किसी पेड़ को अपने सीने पर लेना ही पड़ता है यही सोच कर वह इस शोले को अंदर रखे हुए है।

जब एक अलसाई सी रौशनी ने उसका चेहरा घेरना शुरू किया तो उसने आँखें खोल दीं। पार्क में लोगों की आमद-ओ-रफ़्तार बढ़ गयी थी। पुराने टहलने वाले, नए दौड़ने वाले, गोद में बच्चे लटकाये घूमती माएं, नकली हँसी हँसते बूढ़े जाने कब आ कर मुस्तैदी से अपनी-अपनी जगहों पर काबिज़ हो गये थे। पार्क के एक कोने में पागल सा एक आदमी रेडियो चला कर ऊँट-पटांग सी हरकतें कर रहा था। जाने लोगों को कैसा गम होता है कि वो पागल हो जाते हैं, उसने पागल को देखा और दूसरी सिगरेट सुलगा ली। कहीं से एक आवाज़ तैरते हुए उसके पास चली आई।

“ चम्पाsssss रीsssssssss चम्पा चाय ले जा।”

उसने पलट कर ऐसे देखा मानो ये आवाज़ उसे यहीं कहीं से दी हो किसी ने। पर ऐसा कौन है अब जो उसे आवाज़ लगाए, आवाज़ वाले सब मील के पत्थर तो जाने कहाँ पलट गए। उसने देखा ज़रा दूरी पर एक लड़की उनींदी सी टहल रही थी। उसकी चाल बाकी सब से अलग थी। इस लय में कुछ ऐसा अनमनापन था जो किसी ख़ुशगवार रात के जादू टूटने पर होता है। स्थगन का वो पल जिसे आप चाह कर भी टाल नहीं सकते, जब आप जान जाते हैं कि रात बीत गयी और अब आपको उसी रोज़मर्रा के खांचे की तरफ़ वापस लौटना पड़ेगा, जहाँ मेजों पर रखी फाइलें होंगी, घनघनाते फ़ोन होंगे, एक इंतज़ार होगा, एक लम्बी उदासी होगी… और भी न जाने क्या-क्या होगा? उसके नज़दीक दायीं तरफ़ दो हमउम्र लड़के तस्वीरें खींचने में लगे थे। किसी फूल की, किसी टूटे पत्ते की, कहीं घास में फंसी ओस की, तो कभी टूटी हुई डालियों की। क्या करते होंगे ये इन तस्वीरों का? खींच कर मिटा देते होंगे या सहेज कर रख लेते होंगे। उसके मन में एक बार को ये ख्याल आया कि उठ कर जाए और उनसे पूछे की जब वो तस्वीर खींचते हैं तो पत्ते से पूछते हैं कि गिरते वक़्त डर लगता है क्या? अधखिले टूटे फूल से कभी उन्होंने कभी पूछा है कि जब शाख़ से टूट कर अलग हुए थे तो जी भर आया था या नहीं? उसने उनके हँसते हुए चेहरे देख कर सोचा कि छोड़ो किसी टूटे हुए फूल के लिए किसी चेहरे की हंसी को क्यों रोकना? जब भी चुनने का मौका मिले तो बेझिझक किसी चेहरे की हंसी चुननी चाहिए भले ही वो किसी अजनबी की क्यों न हो। उसे क्यों इन्हें देख कर किसी शाख़ से टूटे, ज़मीन पर गिरे फूल की याद आई ऐसे? उसने जानते-बूझते इस सवाल से आँख फेर ली। सिगरेट का तीसरा और आख़िरी कश खींच कर उसने बाहर की तरफ़ चलना शुरू कर दिया।

कमरा सारी रात का वैसा ही बिखरा पड़ा था जैसा वो छोड़ गयी थी। यहाँ और ऐसा था भी कौन जो उसकी अनुपस्थिति में उसके बिखराव की देखरेख करता। उसने मेज़ की दरारों को टटोल कर देखा पर दवा कहीं नहीं मिली, मगर इस उठा-पटक में उसके हाथ एक कागज़ आ गया। जाने कब का मुड़ा-तुड़ा लगभग चिंदी सा वो कागज़ पीला पड़ गया था, जिसे वह अब तक सहेज कर रखे हुए है। उसने कागज़ खोला, पढ़ा और वापस उसी दराज़ में डाल दिया।

“मैडम जी, उसे घर मत भेजिये। कह दीजिये की घर से कोई जवाब नहीं आया।”

उसे अब तक दवा नहीं मिली थी पर अब दर्द इतना नहीं था कि कोई दवा ली जाती। वो उठी और पलंग पर पसर गयी। जगह-जगह फैले सामान को समेटने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। आठ बजने को आये उसने सोचा और तकिये से मुँह ढक लिया। चाय की तलब ने ज़ोर मारना शुरू कर दिया था। खिड़की के बाहर नर्म हरे रंग वाले नाज़ुक पत्ते खिलने लगे थे। हरे में भी कितने रंग होते हैं, खुरदरा, चटकीला, कठोर, रेशमी, नरम हरा और भी जाने कितने। होली तक खिल कर ये चौड़े चटकीले पत्तों में बदल जायेंगे। बसंत की आमद कुछ और नए रंग घोल देगी पेड़ों पर, मौसम ज़रा देर खुशरंग हो जायेगा। कितना फ़र्क है खिड़की और चौखट के बाहर। चौखट के ऐन बाहर ज़ंजीरें हैं जिनके दोनों सिरे उसके पाँव पर आ कर ठहर जाते हैं। खिड़की के बाहर देखने भर से तो आज़ादी हासिल नहीं। जिस आज़ादी की तरतीब उसने बैठाई थी, उम्मीद लगाई थी, वो तो इतनी गुरेज़-पा है कि आज तक इस राह पर उसने पैर ही नहीं धरा। हवा की पेड़ों के साथ धींगा-मुश्ती मार्च के होने का पुरजोर सबूत थी। चाय की तलब ने एक बार फिर ज़ोर मारा,उसने आँखों के ऊपर बाँह धर ली मानो ऐसा करने से इस तलब से उसे छुटकारा मिल जायेगा।

2

“नाम क्या बताया तुमने? डॉक्टर ने पूछा।”

“पिछली बार भी पूछा गया था मुझसे।” उसने कहा

“पर तुमने पिछली बार भी कहाँ बताया था नाम दूसरे डॉक्टर साहब को। अब जब तक तुम यहाँ हो मैं ही तुम्हारी काउंसलर रहूंगी। वह डॉक्टर साहब ट्रांसफर हो कर चले गए यहाँ से। बताओ क्या नाम लिखूं फ़ाइल में।”

“भला नाम रखने में क्या है, डॉक्टर? मेरा नाम मारग्रेट हो सकता है, एलिज़ाबेथ हो सकता है। मज़े की बात तो ये है कि अगर एलिज़ाबेथ होता तो क्या इंग्लैंड के सब खाट-बिछौने मेरे नाम हो जाते वसीयत में। चम्पा होता तो क्या मुझ में से फूल झरते। मैरी हो सकता है। मैरी होता तो क्या मदर मैरी मान लेते मुझे आप लोग। आप जानती हैं न मदर मैरी कितनी पवित्र थीं और मैं??? किट्टी बुलाओ, कामना बुलाओ, आप जिस नाम से चाहो बुलाओ मुझे। किसी भी नाम में क्या बुराई है भई, हर नाम ख़ासा बढ़िया तो है। जो चाहें वह लिख लें अपनी तसल्ली के लिए।” वह बोली।

“तुम जानती हो पवित्रता और अपवित्रता मन के अपने बनाये भेद हैं। ऐसी कोई बेड़ी नहीं जिसे हौसला तोड़ नहीं सकता।” डॉक्टर ने बात बढ़ाने की गरज से कहा।

“ये पता है मुझे। पर हौसला किसी हाट-बाज़ार में मिलता नहीं न कि हफ़्ते के हफ़्ते जा कर ख़रीद लिया। आप जानती हैं कि मुझे कहाँ से लाया गया है?”

“हाँ जानती हूँ,  पता है मुझे कि तुम को कहाँ से रेस्क्यू किया था। देखो ये टेम्परेरी शेल्टर है। यहाँ बहुत लम्बे वक़्त तक किसी को रखा नहीं जा सकता। तुम्हें भी शिफ्ट करना ही होगा यहाँ से। घर जाने का मन बनाओ तो घर भिजवाया जा सकता है। वार्डन ने बताया कि बहुत कहने के बाद भी तुमने पुलिस को पता नहीं दिया।”

“पता दे दिया था। और जवाब क्या आना था ये भी मालूम था मुझे। अब आप जहाँ भेजना चाहो भेज दो मुझे।” उसने पलट के कहा।

“उदयपुर या नैनीताल जहाँ के भी एन.जी.ओ. में व्यवस्था बन जायेगी वहाँ भेजा जायेगा फिर तुम्हें। वार्डन कह रही थी कि तुम रात भर जागती रहती हो। कई कई बार बाहर आ कर कॉरिडोर में टहलने लगती हो। अगली बार अगर उसने ऐसा कुछ कहा तो मुझे तुम्हारी रिपोर्ट में मेंशन करना पड़ेगा। थोड़ा मैडिटेशन किया करो, प्रार्थना किया करो।”

“एक समय के बाद प्रार्थनाएं चुक जाती हैं,खत्म हो जाती हैं।” उसने कहा और जाने के लिए उठ खड़ी हुई।

“तुमने लिखना क्यों छोड़ रखा है… मैंने सुना है कि पहले तो लिखा करती थीं तुम। अच्छी हैबिट्स को कल्टीवेट किया जाता है उन्हें छोड़ते नहीं हैं। मेरा सजेशन है कि दुबारा लिखना शुरू करो। तुम नाम नहीं बताना चाहती हो तो कोई बात नहीं फिर मैं अपनी मर्ज़ी से कुमुद लिख रहीं हूँ तुम्हारा नाम; बाद में जब भी कहोगी बदल दिया जाएगा, ये अभी बस थोड़े समय के लिए है।”

डॉक्टर ने देखा कि उसकी भावहीन, ठंडी आँखों में कुछ भी नहीं उभरा। बस नींद की छाया से भारी लग रहीं थीं वह आँखें। उसने एक उदास मुस्कान छोड़ी और बाहर निकल गयी।

………………………………………………………

“मुझे बार-बार क्यों जाना पड़ता है वहाँ?” उसने लौट कर वार्डन से पूछा।

“ये स्टैण्डर्ड प्रोसेस है, प्रक्रिया है कि काउंसलर से कुछ दिनों तक मिलना पड़ेगा। अब पुराना डॉक्टर चला गया है तो तुमको इस नयी डॉक्टर के साथ शायद कुछ ज़्यादा सेशनस लेने होंगे।”

“कब तक?”

“जब तक डॉक्टर और पुलिस की टीम को ज़रूरी लगेगा। या तुम घर जाने को राज़ी हो जाओ।” वार्डन ने मेज़ पर रखी एक कॉपी उठाते हुए कहा और पढ़ना शुरू कर दिया।

“दोनों तरफ़ दरिया के

मुस्तैदी से खड़ा है साहिल हिफाज़त को …

न जुनूँ…

न माँझी…

न बादबाँ…

न कश्तियाँ ही उतरने देता है…

मुक़ाबिल किनारों पर सर पटक-पटक के दम तोड़ देता है पानी…

अजब तौर है यहाँ हिफाज़त का!!”

“ऐसी कौन सी जगह है जहाँ पानी सर नहीं पटक रहा। अपनी-अपनी मिट्टी में पानी हर जगह बंधा हुआ सर ही पटक रहा है। इन जगहों से निकल कर लोग तो वापस लौटना चाहते हैं अपने घरों में कि जैसा भी हो सर पटकने के लिए अपना घर तो है; धीरे-धीरे ही सही शायद कभी पूरी तरह ही अपना ले घर। तुम क्यों लौटना नहीं चाहतीं?”

“क्योंकि मैं घर ही से…” कहते कहते वह चुप हो गयी, जैसे कुछ याद आ गया हो। उसने घूम के वार्डन की तरफ़ देखा।

“क्या देख रही हो इतने गौर से?”

“देख रहीं हूँ कि आपके चेहरे में एक तरह कि कर्कशता है। ममता का लेश मात्र भी नहीं। उसने कहा।

“इस शेल्टर हाउस में जैसे केस आते हैं उन्हें डील करने में ये कर्कशता ही काम आती है, यहाँ अगर कोई ममता रखे तो जल्दी ही पागल हो जाये। दिमाग सही रखने के लिए दिल कड़ा करना ही पड़ता है।”

उसका मन हुआ कि वह वार्डन के गले लग कर रो ले, एक गुबार जो कहीं है उसके अन्दर उसे निकाल दे। पिछले कितने ही सालों से ऐसे ही भाव शून्य है वह।

“कल जब जाओ तो अपना लिखा हुआ ले जाना डॉक्टर पढ़ना चाहती हैं तुम्हारा लिखा।” वार्डन ने कहा।

3

उसकी नींद टूटी तो उसने खुद को पहले की तरह अकेला पाया। जाने कितना वक़्त बीता, उसने उठते हुए सोचा। उठने पर पैर दर्द से लहका तो उसने देखा की टखने पर निशान के पास सूजन आ गई थी। वह उठी और एक आले में रखी रूई और एक दूसरा मलहम उठाया तो कागज़ों के एक पुलिंदे से हाथ टकरा गया। कुछ फटे,गले,चीथड़े कागज़ एक रेशमी धागे में बंधे हुए थे। ये उसकी ही किसी कॉपी के  पन्ने थे, जिन्हें वह वहाँ से आते वक़्त फाड़ के अपने साथ ले आई थी। उसने सैकड़ों बार के पढ़े उन पन्नों को दुबारा खोल लिया। उनके के खुलने से सीलन की एक तेज़ गंध उस कमरे में घूम गई मानो उसे आगे बढ़ने से रोकने आई हो। उन पांच सात फटे हुए टुकड़ों में बस कुछ ही पन्नों की लिखाई साफ़ थी बाकी के पन्नों से अक्षर मिट गए थे। हर पन्ने पर एक अलग कहानी। जाने कैसे उसने किस चम्पा की कहानी लिखी थी। कौन थी ये चम्पा? ये मैं ही तो नहीं कहीं? मैं ही तो थी, न होती तो कौन लिख पाता।

खुली खिड़की से आती हवा पिघली हुई बर्फ़ ही ताज़ी हरी खुश्बू उसके पास ले आई; उसके मन पर पड़ी धूल कहीं हल्की सी उड़ी और फिर बैठ गयी। उसे याद आया एक बार डॉक्टर ने उसका हाथ छू कर ऐसा ही कुछ कहा था।

“तुम्हारे शरीर से कोहरे की ठंडी गंध आती है। ऐसा लगता है मानो आस-पास कहीं घिसी हुई बर्फ़ रखी हो। ये गंध कई बार मुझे अस्थिर कर जाती है कुमुद। एक बात मन में है, कभी कभी बेचैनी में लगता है कि तुमसे कह दूं, फिर सोच कर डर जाती हूँ कि तुमको जाने कैसा लगे।”

“मैं लोगों के छूने के तरीके को पहचानती हूँ डॉक्टर। मैं जहाँ से आई हूँ वहाँ सबसे जल्दी स्पर्श और दर्द की भाषा सीख ली जाती है। उसने डॉक्टर की हथेली को अपनी कलाई से सरकाते हुए कहा।

“ठीक, फिर अगले हफ़्ते रूटीन सेशन पर मिलते हैं।” डॉक्टर ने कहा।

“अब और कितने सेशन चलेंगे। आप लोग बाक़ी लड़कियों के साथ तो इतने महीनों तक चलने वाले सेशन नहीं रखते।” उसने डॉक्टर के उतरे हुए चेहरे की तरफ़ देख कर कहा।

“तुमको पुलिस की टीम ने फ़्लैश ट्रेड के दलदल से रेस्क्यू किया था। इस तरह के केसेज़ में काउंसलिंग सेशंस लम्बे चलते हैं। अब तुम जाओ अगले हफ़्ते मिलेंगे।” डॉक्टर ने ज़रा खिसिया कर कहा।

उसने पलट कर कुछ कहा नही बस चुपचाप डॉक्टर के केबिन से बाहर निकल गयी।

…………………………………

“नैनी झील में बहुत सालों पहले कई बच्चों के डूबने के बाद एक बड़ा जाल लगाया गया था; ताकि कोई गलती से उस किनारे की तरफ़ निकल जाए तो डूबे नहीं। अब वहाँ जाल नहीं है मैडम तो संभल कर जाइये उस तरफ़, देख-भाल के।”

ये एक आवाज़ कई बार उसके कानों तक आती और पलट जाती।

“क्या वो आवाज़ लगाने वाला जानता था कि वह बहुत पहले ही डूब चुकी है, उसके गले तक किसी दलदल का कीचड़ चिपक के सूख गया है, जो उसकी कोशिशों के बाद भी छूटता ही नहीं।”

खुली खिड़की की हलचल कुछ देर ठहरी रही फिर आवाज़ और उसमें कोई राब्ता न बनता देख वापस अपनी लय में लौट गई। उसने अपना सर पलंग से आधा लटका कर फ़र्श को देखा जहाँ एक दुःख उसके मन की परतों से निकल कर जमीन में सर गढ़ाये बैठा था। उस दुःख में कैसी रौशनी थी, नीले रंग से भरी हुई। उसने जाने कैसे जान लिया कि ठीक ऐसी नीली रौशनी उसके बचपन के सालों में घर की छत पर फ़रवरी की रातों में उतरती थी। उसने उठ कर खिड़की बंद कर दी तो कमरे में ज़रा देर को आई फ़रवरी की याद वापस लौट गयी। उसने झुक कर उस दुःख को उठाया और वापस मन की किसी दीवार पर टांग दिया।

4

“डॉक्टर, मुझे आजकल जाने क्यों सपने में एक किला दीखता है, चौड़ा और दूर तक फैला हुआ। हालांकि मैंने जयपुर,चित्तौडगढ़,मैसूर,बीजापुर,गोलकुंडा ऐसा कोई शहर नहीं देखा जिसमें कोई किला हो। सिवाय एक आगरा के। किला तो यहाँ भी कभी भीतर से नहीं देखा। देखा है तो इसकी बाहरी दीवार या परकोटे को। कभी इसके साये से निकलो तो ऐसा लगता है जैसे किसी सड़क पर खिंची काली परछाईं पार की हो। बड़े को,भव्य को लांघने सी कोई भावना उपजती ही नहीं अन्दर।”

“मन को हल्का रखो। हर सिचुएशन में सरंडर नहीं करना चाहिये, कभी अपने मन के साथ नेगोशिएट करो फिर देखो भावनाएं भी उपजेंगी। कैसा किला दीखता है… लाल पत्थर का? और क्या-क्या इमेजिन होता है उस किले के साथ?” डॉक्टर ने पूछा।

“जो किला मुझे दीखता है ये लाल पत्थर का नहीं है। ये अजब से सुनहरे रंग का है, जैसे रेत से लेपा गया हो, पेंट किया हो। इसकी दीवारों में से कोई गीत नहीं उठता बल्कि दुपहर की ख़ामोशी अधखुली आँखों से देखती है। जब-जब ये दुपहर अपनी आँख झपकती है मुझे किसी का पल-पल बनना और मिटना दीखता है डॉक्टर। जैसे प्यानो पर रखी ऊँगली से स्वर का निकलना और बदल जाना। कभी-कभी कोई बिना चेहरे के चला आता है मेरे पास। पर इन सब के उलट जब उसकी कहानी लिखने बैठती हूँ तो बस आस-पास बस आवाजें गूंजती हैं; बिना शक्ल, बिना बनावट की आवाजें। कभी कोई आवाज़ ऐसे सुनाई देती है मानो कहीं दूर किसी खंदक से गूँज कर उठ रही हो।”

“तुम जानती हो इस कहानी वाली लड़की को कुमुद, किस की कहानी कहती हो तुम?”

“नहीं… नहीं जानती, पर ऐसा लगता है ये बार-बार टाइम ट्रेवल करके किसी को ढूंढने आती है मेरे पास। मैं जिसकी कहानी कह रही हूँ वो कहती है कि उसने बार बार जन्म लिया है लेती रही है। वह मेरे पास बार-बार आती रही है और अब अँधेरे के एक छोटे से टुकड़े से निकल कर मेरे अंदर आ कर उसने अपनी जगह बना ली है।”

“क्या तुम उसे जानती हो कुमुद जिसे वह लड़की ढूंढ रही है?”

“नहीं, डॉक्टर।”

“मुझे ऐसा लगता है कुमुद कि ये उस ट्रॉमा का साइड एफेक्ट हो सकता जिसमें तुम कई सालों तक रहीं थीं।”

वह चुप रही उसने डॉक्टर की बात पर कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दी। उसने देखा कि डॉक्टर की मेज़ पर उसकी उसकी एक कॉपी रखी है।

“मैंने ही कहा था तुम्हारी वार्डन से कि तुम्हारी चीज़ों में से डायरी या कॉपी जो भी हो मुझे पढ़ने के लिए दे दें।” डॉक्टर ने उसकी आँखों में आये प्रश्न को देख कर कहा।

…………………………….

शाम रंग-बिरंगी रोशनी में भी बड़ी फीकी लग रही थी। डॉक्टर के कमरे में दूर कहीं किसी किनारे पर डूबते हुए सूरज की फीकी रोशनी आ कर ठहर गयी थी। डॉक्टर कितने ही सालों से लोगों की काउंसलिंग करती आ रही है पर आज तक कभी भी किसी मरीज़ के साथ ऐसा बंधन नहीं लगा, कभी किसी के साथ इस तरह का भावनात्मक बंधन नहीं हुआ जितना पिछले कुछ महीनों में इस लड़की से हो गया था। डॉक्टर ने उठ कर उसकी कॉपी खोली और पढ़ना शुरू कर दिया।

##

मेरे हाथों की तरफ़ देखो। कुछ भी नहीं है इनमें, शून्य है। दोनों रिक्त हैं। हे! कस्सपा मैं सब छोड़ कर तुम्हारे पीछे-पीछे चली आई। सब तो त्याग दिया मैंने तुम्हारी अनुगामी बनने के लिए। तुम्हारे अनुराग में कस्सपा कुछ भी बचा नहीं मेरे अन्दर। देह की सब ऊर्जा तो रात-दिन तुम्हारे पैरों के चिन्हों पर चलते-चलते खो दी मैंने।

तुम कहते हो लौट जाओ, चली जाओ। कहाँ जाऊं मैं? शताब्दी जितना लम्बा पथ चल कर आई हूँ। पीछे मेरे अपने पाँव के चिन्ह भी नहीं बचे, किसका हाथ गह कर लौटूं?

“जाना तो होगा तुम्हें।”

“क्यों? साथ ले चलो अपने।”

“मैंने सब त्याग दिया है।”

“पर मेरा क्या कस्सपा?”

“लुम्बिनी शुद्धोधन के पास चली जाओ।”

“यूँ ओस से गीले हाथ लिए जिन पर कभी कुछ टिक ही न सके अब। इन पर वचन रखो कोई।”

“मेरा अगला अध्याय वहीं होगा। सिद्धार्थ से गौतम तक की यात्रा वहीं से होगी।”

“और मैं?”

“तुम अगले जन्म में चम्पा बन कर खिलोगी। मैं वचन देता हूँ जन्म से परिनिर्वाण तक तुम्हारे फूल अपने पास रखूँगा। जाओ अब विदा रही।”

##

धूप बादलों के पेट में पलती रही…

फ़ीनिक्स सौ दफ़ा अपनी आग में जलता और पैदा हो जाता। हुमा आसमानों में गोल-गोल चक्कर काटता और फिर थक कर किसी के कन्धों पर उतर आता था। तुम जानते हो वो कंधे किसके थे? मेरे! पता है जिसके कंधे पर हुमा बैठता है उसे बादशाहत मिलती है। और मुझे क्या मिला? जन्मों की भटकन, आना-जाना और अब सिर्फ़ इंतज़ार। जल-जल कर राख हो जाना हमारे भाग में बदा है और हमारी राख से हमसा ही कोई दूसरा पैदा भी नहीं होता। समय ने हमें फ़ीनिक्स जैसी सहूलियत भी नहीं दी। ये जुलाई की कोई बादलों से घिरी शाम है। रुकी हुई मगर बरसने को तैयार। इस कमरे में जहाँ मैं हूँ वहां से आकाश साफ़ दिखाई दे रहा है, सलेटी बादलों से पटा हुआ। दूर कहीं से जमुना के बहने की आवाज़ मुझ तक आ रही है। नीचे हुमैरा अपने बच्चों की सालगिरह की तैयारी में है। दोनों में साल भर का अंतर ज़रूर है पर तारीख एक ही। इन दिनों के उदास मौसम में ये सालगिरह का मौका इस घर में थोड़ी ख़ुशी ले कर आएगा। पिछले कई सालों में जब से शाहिद गुमे मेरे और हुमैरा के बीच दरार ही है। यूँ भी कितने दिन हुए कोई ख़बर आये। अगर आई भी होगी तो इस कमरे में आने से पहले उसने कहीं बीच ही में दम तोड़ दिया होगा। इतने सालों में कहाँ-कहाँ नहीं जा कर ढूंढा उसे? जाने किस किस की चौखट पर जा कर माथा नहीं धरा, कितने ही पीर-फ़कीरों के दरवाज़ों पर सर झुकाया पर नतीजा उतना ही झूठा जैसे दिन में रात। अब तो इकहत्तर को बीते भी चार साल हुए। दिल्ली का दर ही बचा है खटखटाने को। कितना पैसा फूँक दिया मैंने इस के लिए, जाने कितना और लगेगा। पिछली बार भी मौंटी ने कुछ इंतजाम कर के दिया था। हुमैरा से कुछ मिलने की उम्मीद भी नहीं है। पहले भी टका सा जवाब दे चुकी है वो।

“अप्पी कुछ पैसे मिलेंगे?”

“क्यूँ?”

“दिल्ली जाना है।”

“दिल्ली क्या तुम्हारी कानों की लवों पर धरा है कि झट बुँदे उतार झूमर पहन लिए। पिछली बार ही कितनी जोड़-जुगत से तुम्हारा तीन हज़ार का उधार चुकाया था मैंने। इस आँगन में एक मिर्च की पौध तक नहीं और तुम रुपयों का पेड़ गढ़ा समझती हो यहाँ।”

“फिर भी।”

“फिर भी क्या चम्पा बीबी? लड़ाई में गायब लोग कभी मिले हैं भला। लड़ाई में औरत दो ही चीज़ों पर दावा करती है या तो सलामत लौटे पति पर या दरवाज़े पर आये तार पर। तीसरी किसी चीज़ पर दावे की कोई गुंजाईश नहीं। शाहिद से कोई तुम्हारा लम्बा राब्ता तो था नहीं। भूलो उसे, कहीं और घर बसाओ और मेरा पिंड छोड़ो। मौंटी के मुताल्लिक सोचो हर दूसरे दिन संदेसे भेज देता है। हर जुस्तजू कहीं पूरी होती है। तुम बादलों में फंसी धूप हो, अंदर ही अन्दर सब सुखा डालोगी।”

“पर दिल का क्या करूं?”

“दिल तुम्हार है जो चाहे करो।” कह कर हुमैरा चुप हो गई।

मैंने सालों-साल अपने दिल के तलवों पर सूती कपड़ा मला है,पर इसका ग़ुबार न कभी बैठा न ठंडा ही पड़ा। दिल बाजदफ़ा इतनी बड़ी चीज़ हो जाता है कि इसमें कई वीरान घाटियों के शांत सफ़ेद मौसम पिघलने लगते हैं, और उदासी के पेड़ हरे हो जाते हैं। दिल अपने एतराफ़ में मिट्टी का एक ढेला भर है जो ज़रा सी नमी से ही गीला हो पनप जाता है। पर मेरे सीने में जो पड़ा हुआ है वो कोयले का एक लपलपाता हुआ टुकड़ा है जो अन्दर-अन्दर सब जला रहा है।

##

पुन: की भावना बड़ी दुखदायी है, किसी भी चीज़ का बार बार घटना उसे दुर्घटना में तब्दील होने के ज़रा और पास ले आता है। जैसे बार-बार लगातार निचोड़ी हुई देह में जीवन नहीं बचा रहता। जैसे चंद्रमा रोज़-रोज़ निकल कर एक रात बिलकुल ही गुम हो जाता है। जैसे लगातार बहता झरना गर्मियों में अक्सर सूख ही जाता है। परिंदे किन किन घाटियों से उड़ान भर कर हर बरस शहर में आते हैं। हर साल इनकी गिनती कम हो जाती है। जिस रोज़ इन्हें ये रास्ता मन से याद हो जायेगा ये उकता जायेंगे और यहाँ आना छोड़ देंगे। बार-बार का ये आना-जाना खत्म हो जायेगा। साल भर का इंतज़ार किसी सूखी नदी सा, गले की चटकन सा कोने कोने में फैल जायेगा। ये परिंदे हमें बताते हैं कि यात्रा बाहर से भीतर को होनी चाहिए। जो पा लिया, जिसे जान लिया, जो घट गया उसे तुरंत ही मन में बंद कर रख छोड़ो। तस्वीर फ्रेम से बाहर आई तो ज़रूर ही धूल-मिट्टी से सन जायेगी। पर कुछ चीज़ें तुरंत ही मन के दरवाज़े से निकाल बाहर फेंक देनी चाहिये वरना धीरे-धीरे मन का रंग लाल से धूसर हो जाता है। दिन-रात के फेर में से कितने ही लोग तो मर के छूट पाते हैं, क्या इसका हिसाब किसी बही में रखा जाता है? कोई पूछता होगा समय से कि कौन बनाता है ये हिसाब? मैं कह पाऊँ तो कह दूं समय कि…

“मुझे ज़रा भी नहीं भाता तुम्हारा ये हिसाब।”

“क्या हिसाब?”

“ये भी कोई चीज़ हुई चौबीस खांचों में बाँट दो जिंदगी। पहले हिस्से को दिन बोलो और दूसरे को रात। ज़िंदगी तो दिन-रात के कोनों से कहीं बड़ी है। जिंदगी के दिन को तो बैंगनी और रात को हरा होना चाहिए। तुम्हारे दिन का रंग एक सफ़ेद तो दूजा काला। पर तुम केवल एक ही रंग देख पाये चमक का। तुमने धूप की पीली चादर के पीछे कितने स्याह, धुंधले, मटमैले अंधरे धकेल दिए। इनमें से कई का रंग तो वाकई बड़ा लाजवाब निकल सकता था। तुम किसी भी रौशनी के सामने होते ही उसके पीछे की सियाही को तुरंत भूल जाते हो। इसलिए कहते हैं याद को संभाल कर  रखिये, याद संभालिये, याददाश्त संभालिये। प्रेम और याद का इस स्याह सफ़ेद से बड़ा सीधा सम्बन्ध है। ठीक वैसे ही जैसे की ……

“जैसे की?”

“जैसे कि सुर्ख रंगों वाला प्रेम जो गहरे दाग छोड़ जाता है।”

“और शोख रंगों वाला?”

“शोख रंग तो यूँ भी उड़ ही जाते हैं।”

“तो फिर प्रेम कैसा हो ? सफ़ेद?”

“सफ़ेद रंग बहुत जल्दी गन्दा हो जाता है।”

“तो फिर कैसा हो?”

“स्याह”

“????”

“हम्म्म्म स्याह का रंग उतरने में,धूसर होने में बहुत वक़्त लगता है। स्याह की जिजीविषा बड़ी विकट होती है। बड़ा जीवट रंग होता है ये।”

“फिर भी ऐसा प्रेम तो बड़ा डरावना होगा।”

“नहीं तुम ऐसा क्यूँ मानते हो? इसे ऐसे मानो न।”

“कैसे?”

“ऐसे की जैसे हर घने काले बादल के नीचे चांदी का एक पतला बारीक तार छुपा होता है। वही तुम्हारी सिल्वर लाइन है। दूर तलक जाओ और अपनी सिल्वर लाइन को छू लो,परख लो और चमक का दरवाज़ा खोल लो अपने लिए। उथले पानी को जो चाहे पार कर ले पर किसी की चाह में गहरा समंदर पार कर के देखो।”

##

उसकी बंद आँखों में एक छत है जिसके ज़ीने के लाल पत्थर घिस-घिस कर नारंगी दिखने लगे हैं। इस घिसे-घिसाये ज़ीने की पहली सीढ़ी पर वो है और आख़िरी पर एक पुकार। कई बार वह सोचती है कि हिम्मत कर यहाँ से उठ के भाग ले। उसने कई बार चाहा कि वह किसी अँधेरी रात में या बादलों भरी किसी सुबह छत से छलांग लगा दे पर हर बार वो पुकार उसके पाँव ज़ीने की तरफ़ लौटा देती है। वह पलटी, करवट खाई, तकिये में मुँह ज़रा और गढ़ा दिया। उसने दिल की मेहराबदार जाली लगी सुरंगों में झाँक कर अन्दर देखा। बड़े-बड़े ओक बैरलों में बंद कर जैसे वाइन की उमर बढ़ाई जाती है ठीक वैसे ही कभी वहां उसके अरमान आँख बंद किये सो रहे थे। अब उन अरमानों की जगह चिंदी- चिंदी कागज़ों की कतरन पड़ी है। अब कितना मुश्किल दौर है, समय है… उसने सोचा ज़िंदगी और वो भी उसकी किसी शाख़ से टूटे पत्ते की तरह है। उसने धीरे-धीरे गर्दन ऊपर उठा ली, दिल की इन संकरी गलियों की तरफ़ देखने का कोई फायदा नहीं।

किसी ने नीचे आँगन में खड़े हो दुबारा हांक लगाईं।

“चम्पाsssss री चम्पा चाय ले जा… ओ री चम्पा… री चम्पा चाय ले जा ठंडी हो रही है…।”

वो मुंडेर से झांकती है तो कोई नहीं दीखता। कभी उसे ऐसा लगता कि उसने किसी के कानों में कुछ कहा। सुनने वाला उसकी बातें सुनता और हँसता रहता इतना की दीवारों में चटक आ जाये और उसके कान के पास आ कर कहता…

“कहाँ ओक बैरल की मैच्योर वाइन और कहाँ इस घर की चाय।”

और जब उसकी उसकी आँख खुलती तो न ही दीवारें चटकी होती और न सुनने वाला ही वहां होता।

………………………….

“ये कहानियाँ पूरी नहीं हैं। कहाँ है इनके आगे की कहानी, पूरी कहानी?” डॉक्टर ने पूछा।

“क्या ज़रूरी है किसी कहानी का पूरा होना, पूरा पढ़ना?, इतना ही सच समझ लो जितना बताया जा रहा हो। आधे-पूरे के फ़साद में क्या पड़ना। बीच धारे खड़े हो कर देखो ठीक बीचो-बीच, न इंच भर इधर न इंच भर उधर। जहाँ से दोनों किनारे बराबर दूरी पर हों।

“उससे क्या होगा कुमुद?”

“उससे ये होगा डॉक्टर कि जाने वाला जिस किनारे जाना चाहे उधर जा सकता है। उस पर किसी एक के नज़दीक होने का आरोप भी नहीं लगेगा, और वो जा उस किनारे पर खड़े किसी इंसान से बोल भी सकता है, ‘कि देखो मैंने तमाम मौके,  मार्के, आरईशें छोड़ कर तुम्हें चुना है। बिना बीच में गए चुनाव का जोखिम तो बना ही रहता है। आदमी जिस भी किनारे के नज़दीक होगा उसे छोड़ हमेशा दूसरे किनारे  के आकर्षण में फँसा रहेगा, भले से ही वो किनारा शुष्क हो, रेतीला हो, या दलदली ही क्यों न हो? ये मेरा अपना…………..।” कहते-कहते वह चुप हो गयी।

“ये तुम्हारा अपना अनुभव है, है न चम्पा??”

वह चौंकी…. चौंक कर डॉक्टर को देखा और अपने चुप के खोल में खो गयी। डॉक्टर ने आगे बढ़ कर उसकी पतली हथेली अपनी दोनों हथेलियों के बीच भर ली। उसने देखा की डॉक्टर की हथेलियों के नाखून बरसात के बाद उगने वाले गहरे हरे रंग की तरह के रंग में रंगे हुए थे। उन हथेलियों का बंधन यूँ तो बहुत कड़ा नही था पर फिर भी उसने अपना हाथ नहीं छुड़ाया। देर तक यूँ ही रहने के बाद उसने अपना हाथ खींचा और कहा…

“ये मेरा रास्ता नहीं… मेरा रास्ता कौन सा है ये भी नहीं मालूम।”

“रास्ते बनाये भी जाते हैं। एक ही जगह खड़ा कैसे रहा जा सकता है चम्पा?”

“चम्पा… मैंने आपसे पहले भी कहा था कि नामों के हेर-फेर में क्या पड़ना।”

“मैं जानती हूँ यह तुम्हारा असल नाम है और ये जितनी कहानियाँ तुमने लिखी है यह भी तुम्हारे सब-कॉन्शियस में दबी तुम्हारी ही आवाजें हैं जो वहाँ से निकलना चाहती थीं, जो चाहती थीं कि कोई तुम्हें तलाशे, तुम किसी को ढूंढो, किसी को वहाँ अपने पास पाओ जिसका साथ पा कर बाहर निकला जा सके। अब जब तुम बाहर आ गयी हो वहाँ से तो तुमको हम लोगों के साथ कोऑपरेट करना चाहिये जिस से इस ट्रॉमा से एक दम उबार पाओ। पर तुम जितना ज़्यादा चुप रहोगी उतनी ही देर होगी इस जाल को काटने में। तुम्हारी रेस्क्यू टीम ने भी कहा था कि तुमने कभी भी कोऑपरेट नहीं किया उनके साथ। अपने पास्ट से रिलेटेड कोई भी बात नहीं बताई, ऐसा कोई भी डिटेल नहीं दिया जिससे उन्हें हेल्प करने में आसानी होती। क्या कभी कोई प्यार, अफ़ेयर या कोई ऐसा रिलेशनशिप हो जो खटकता हो, सालता हो तुम्हें, जिसके बारे तुम बात करना चाहो। क्या तुम अपने किसी रिलेशनशिप की वजह से वहाँ जा पहुँची थीं?”

“यातनाओं की डिटेलिंग कैसे की जा सकती है डॉक्टर? और हम प्यार के मामले में बड़े ख़ब्ती रहे हैं। जिन्होंने प्यार दिया हमें उन्हें हमने दिल से निकाल फेंका और बाकियों ने हमें इस काबिल ही नहीं समझा की प्यार किया जाए। प्यार में सबसे जल्दी खर्च होने वाली चीज़ प्यार ही है। भला चाक़ू की उल्टी सुस्त धार से कुछ नपा-तुला सधा हुआ कट सकता है? उँगलियों में रेंगने वाला बर्निंग सेंसेशन ज़रूरी नहीं कि प्यार का असर हो, उन्स हो। ये किसी बीमारी का पैगाम भी हो सकता है। क्या आपको नहीं लगता डॉक्टर कि मैं बीमार हूँ?? वैसे मुझे ये अंदेशा ही सटीक लगता है। आपको पता है? प्यार दिमाग में ठुकी हुई कुछ उल्टी नालों की वजह से उपजी हुई गड़बड़ है… चाकू की धार सीधी और पैनी होनी चाहिए वरना सही तौर पर कुछ नहीं काटा जा सकता… हकलाहट का कोई सम्बन्ध हलक या तालू की बनावट से नहीं। ये भी दिमाग में गलत तौर से ठुकी नाल के कारण है। कंटीली चम्पा के बारे में कोई जानता है, किसी ने सुना है इसके बारे में… सिर्फ इसी पर हरे रंग के फूल खिलते हैं, ये मेरे सपनों का फूल है हरे रंग का, पर मिलता ही नहीं। उँगलियों की जलन के लिए किसी डॉक्टर की राय लेनी चाहिए, उन्स या लगाव ऐसे गर्म नहीं होते, अगर कहीं हरे फूल मिलें तो ख़रीद लेना डॉक्टर। और रही बात तो आपकी रेस्क्यू टीम को क्या कहती उनके सवालों पर… कितने महीनों तक रेप होता रहा? कहाँ-कहाँ उठाया-बिठाया गया? क्या मुझे इस्तेमाल करने वाले अंडर-ऐज थे, क्या मेरे हम-उमर थे, बड़े थे, बूढ़े थे… सिंगल क्लाइंट आता था या कई लोग??? इन बातों के जवाब दिए जाते हैं कहीं? नीचता को कहाँ तक खींचा जा सकता है आपकी टीम को ख़ूब पता है।”

बीच बात में अचानक उसने पेट के पास से कपड़ा हटा के डॉक्टर के दिखाया…

“ये निशान देखो … मुझे कोई आईडिया नहीं कितना टाइम हुआ होगा, कितने दिन चढ़े, ये भी नहीं पता था कि किस से था? बस एक शाम किसी क्वेक या दाई से ………….. आगे तो आप जानती हो ही क्या हुआ होगा? क्या होता है ऐसी जगहों पर?”

डॉक्टर ने उसे देखा, लगा कि पर्दा सरक रहा है… पर वह बात करते-करते फिर उसी चुप की ज़मीन पर उतर आई जहाँ अक्सर उसे सहज महसूस होता था।

“मुझे यहाँ से कब तक भेजा सकता है?” उसने प्रश्न किया।

“जल्दी ही… कोशिश की जा रही है। एक बार एन.जी.ओ से पता चल जाए कि तुम्हारे लिए क्या अरेंजमेंट्स होंगे उसके तुरंत बाद ही प्रोसेस शुरू कर देंगे।” डॉक्टर ने उसे जवाब दिया।

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“कुमुद

कैसी हो? सेटल डाउन हो गयीं? नई जगह कैसी लग रही है? यूँ तो ऑफिशियली हम को पता है कि वहाँ तुम्हारा कैसा अरेंजमेंट किया है। पर तुम भी अगर अपनी तरफ़ मुझे कुछ लिख कर भेजो दोगी तो मुझे फाइलिंग करने में आसानी होगी।

                                                     तुम्हारी डॉक्टर”

“प्यारी कुमुद

तुमने अभी तक किसी भी लैटर का रिप्लाय नहीं दिया। जल्दी जवाब नहीं भेजोगी तो मुझे एक जनरल सी रिपोर्ट बना कर तुम्हारी फ़ाइल के साथ अटेच करनी पड़ेगी। तुम से मुझे रिपोर्ट्स के अलावा अपनी बात का भी स्पेसिफ़िक जवाब चाहिए। जवाब के इंतज़ार में।

                                                    तुम्हारी डॉक्टर”

“डिअर कुमुद

कितनी बार मन किया कि तुम्हें चम्पा कह कर एड्रेस करूँ। कुमुद की जगह तुम्हारा असली नाम लिखूं चिठ्ठी में। कितना प्यारा नाम तो है। कितने ही लेटर्स तुमको लिखे पर तुमने किसी का जवाब नहीं दिया अभी तक। तुम्हारा मन नहीं लग रहा हो वहाँ तो मुझे कहो और यहाँ आ जाओ, मैं पर्सनल लेवल पर कुछ देख लूँगी तुम्हारे लिए। मुझे तुम्हारे जाने से बहुत ख़ाली सा लगने लगा है। तुम एक बार अगर कहो तो मैं वहाँ आ सकती हूँ। मुझे नैनीताल में सेटल होने में कोई वक़्त भी नहीं लगेगा। एक छोटा सेटअप तो खड़ा कर ही सकती हूँ मैं वहाँ हम दोनों के लिए। जवाब देना।

                                                  तुम्हारी डॉक्टर मिनी”

वह सामने पड़ी चिठ्ठियों को देखती रही। कितने महीनों से डॉक्टर उसे लगातार चिठ्ठियाँ भेज रही है एक मूक आमंत्रण के साथ। उसने उलट-पुलट के दुबारा उन चिठ्ठियों को देखा फिर सामने रखी एक कॉपी में से कागज़ फाड़ा और लिखने बैठ गयी।

“डॉक्टर,

कैसी हैं आप?

देरी से लिखने के लिए अगर माफ़ी मांगी जाती है तो इस चिठ्ठी को माफ़ी की चिठ्ठी ही समझिये। आपने बार-बार मेरे यहाँ के इंतज़ामात के बारे में पूछा पर मैंने जानबूझ कर ही नहीं बताया। सोचा कि आप जो भी लिखेंगी सही ही होगा। मुझे अच्छा लग रहा है यहाँ। एन.जी.ओ. की तरफ़ से एक फैक्ट्री में काम मिल गया है। अक्सर रात की ड्यूटी लगती है… पर अब रात में आने जाने से बहुत डर नहीं लगता। बहुत बार ऐसा होता है कि मैं वहीं से सीधे झील की तरफ़ चली जाती हूँ। ये जगह इतनी बड़ी है की कहीं से भी मुझे इसका ओर-छोर नज़र नहीं आता। जब कभी थोडा उदास होती हूँ तो उस पानी में बार-बार झाँक कर देख लेती हूँ कि कहीं से तो मुझे इसका तल नज़र आये। अब तो नहीं पर शुरू-शुरू में मैंने कई बार ईश्वर से पूछा ये कैसी जगह है? जिसका कोई तल ही नहीं। पर तब मैं शायद ये भूली हुई थी कि हर अतल की गहराई में एक तल छुपा होता है। जिसे छूने देखने के लिए मन में उतरना पड़ता है। इस यात्रा में नीचे जाने पर सुख भाप की तरह उड़ जाता है, और दुःख का दाब दुगना और कई बार तो असीमित, अपरिमित हो जाता है। अन्दर की चारों दिशाओं में एक दिशा हमेशा रूखी, रेतीली और बंजर रहती है। असल में यही दिशा मन है और इसे घेरे हुए बाकी तीनों दिशायें रेत में पानी का भरम। इन दिशाओं को कभी देखा ही नहीं, छूना तो बहुत दूर की राह है। आप मुझे जिस रास्ते पर चलने के लिए बुला रहीं हैं वह इन्हीं तीन दिशाओं में से एक है और जिस भरम पर मुझे चलना नहीं, क्योंकि ये मेरा रास्ता ही नहीं। और जो भी ऐसे किसी रास्ते पर चलना चाहता होगा, किसी गहराई के तल को छूना चाहता होगा तो उसे अपना मन ख़ाली करना होगा। जो जनता हो कि मन ख़ाली किये बिना कोई नमी उसमें टिक ही नहीं सकती। और ऐसा करना मेरे लिए मुमकिन नहीं है। आपने एक बार पूछा था कि घर चली जाओ, लोग वापस लौटना ही चाहते हैं। ख़ाली लोगों के चाहने से क्या होता है घर भी तो चाहे कि कभी कोई वापस लौट कर आये। मेरे घर ने मुझे वापस आने से मना कर दिया था, रही होगी कोई परेशानी की अपने ही बच्चे पर दरवाज़ा बंद रखना पड़ा हो। आपकी रेस्क्यू टीम की हेड को चिठ्ठी लिख कर मना कर दिया था वापस भेजने के लिए। लिख रहीं हूँ तो ये भी बता दूं आपको कि प्यार, अफ़ेयर का किसे क्या मालूम पर हाँ कभी-कभी भटक तो जाते ही हैं लोग। कुछ लोग आजादियों की चाह लिए कभी भटकते-भटकते कहीं दूर निकल जाते है तो उन्हें रेस्क्यू किया जाता है। कुछ लोग अपने अतीत से सीखते तो हैं पर रुक कर बैठ नहीं जाते, वह मौका देख के फिर दुबारा कहीं ऐसी जगह भटकने के लिए निकल पड़ते हैं जहाँ से उन्हें खींच के फिर वापस न लाया जा सके।

रही बात आपकी तो आप डॉक्टर हैं जहाँ चाहें, जिस शहर में चाहें जा कर काम करें, फ़्री हैं आप। मैं ठीक हूँ यहाँ और यूँ भी अब यहाँ से लौट कर किधर जायेंग! लौटने वाले दरवाजे तो बहुत पहले ही पीठ पर फिर गए। लिखते- लिखते देखो कितनी बातें लिख डालीं मैंने। मुझे तो शर्म आ रही है कि कभी आपका नाम जानने की कोशिश ही नहीं की। खैर फिर वही बात कहनी होगी मुझे कि नाम में क्या है? हर नाम ख़ासा बढ़िया है भई… मिनी हो या डॉक्टर, चम्पा कहो या कुमुद। एक रिक्वेस्ट है आपसे कि अब आगे से कोई चिठ्ठी-विठ्ठी न लिखिए मुझे।

                                                         चम्पा।”

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फ़िल्म गाइड की कहानी आर के नारायण की ज़ुबानी

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अभी दो दिन पहले मैंने वहीदा रहमान से बातचीत पर आधारित नसरीन मुन्नी कबीर की किताब के हवाले से गाइड फ़िल्म की चर्चा फ़ेसबुक पर की थी। उसमें यह लिखा था कि अंग्रेज़ी में बनी ‘गाइड’ की पटकथा मशहूर लेखिका पर्ल एस बक ने लिखी थी। इस बात से ‘द गाइड’ उपन्यास के लेखक आर के नारायण खिन्न थे। ख़ैर, आर के नारायण की आत्मकथा में गाइड विवाद का वह सारा प्रसंग मिल गया तो साझा कर रहा हूँ। उनकी आत्मकथा का हिंदी अनुवाद ‘मेरी जीवन गाथा’ नाम से राजपाल एंड संज प्रकाशन से प्रकाशित है- जानकी पुल

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‘दि गाइड’ को पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त हुई, जो, ख़ुश करने के बावजूद, बहुत-से-झंझटों को साथ लेकर आया और अंत में त्रासदी साबित हुआ।

सितंबर 1964 में, देवानंद ने, जो बम्बई का फ़िल्म अभिनेता और निर्माता था, न्यूयॉर्क से मुझे पत्र लिखा और यादवगिरी में आकर मुझ से मिला, कि मैं इस पर फ़िल्म बनाना चाहता हूँ।

मेरे फाटक पर हस्ताक्षर लेने वालों की छोटी सी भीड़ इकट्ठा हो गयी, और ड्रॉइंग रूम में, आवश्यक नमस्ते-नमस्ते करने के बाद उसने अपनी चेक बुक निकाली, पेन खोला, और चेक पर उसे टिकाकर ‘दि गाइड’ के फिल्माधिकार की क़ीमत बताने के लिए मेरी ओर नज़र टिका दी। लगा कि जो मैं कहूँगा, लिख देगा। इससे मैं चकित रह गया। इस अचानक लाभ से मेरी विचार-प्रक्रिया लकवा मार गयी। मैंने उसका हाथ नीचे कर दिया और फ़िल्म के चलने पर उसकी आमदनी से बहुत कम प्रतिशत रॉयल्टी के अलावा मामूली एडवांस के साथ अनुबंध स्वीकार कर लिया।

मैंने गर्व से घोषणा की, “तुम्हारी फ़िल्म के साथ उठूँगा या गिरूँगा। बेजा लाभ नहीं उठाऊँगा”।

उसने कहा, “आपके उदार सहयोग से हम ज़रूर आगे बढ़ेंगे, सारा आकाश हमारी सीमा होगा”।

जैसे-जैसे हम आगे बढ़े, यह आकाश नीचा ही होता चला गया, और जब लाभ से हिस्सा प्राप्त करने का समय आया, आप इसमें छाते से छेद कर सकते थे। अंत में मुझे बताया गया कि ‘दि गाइड फ़िल्म से कोई लाभ नहीं हुआ है’।

उन्होंने मुझे लिखा, ‘हम आपको विश्वास दिलाना चाहते हैं कि जब भी कुछ लाभ होगा, आपका हिस्सा बिना कहे आपके पास पहुँच जायेगा’।

इस बात को सात साल हो चुके हैं। फ़िल्म में उनके एक करोड़ रुपये लगने का अनुमान था, लेकिन इसका ज़्यादातर हिस्सा उन्होंने अपने ऊपर खर्च किया, मोटे-मोटे वेतन और निर्माण के समय आलीशान होटलों में रहना और शाही ढंग से खाना-पीना। कभी-कभी मुझे फ़िज़ूल-सी मीटिंगों में सलाह करने बुला लेते, या प्रेस से मिलवा देते जहां वे अपने अतिथियों को शराब पिलाकर बड़ी-बड़ी बातें करते और घोषणाएँ करते।

एक दफ़ा मुझे लॉर्ड माउंटबेटन के साथ गवर्न्मेंट हाउस में भोजन करने के लिए बम्बई बुलाया गया कि मैं उन्हें लंदन में फ़िल्म के वर्ल्ड प्रीमियर पर क्वीन एलिज़ाबेथ की उपस्थिति के लिए राज़ी करूँ। मुझे एयरपोर्ट से सीधे गवर्न्मेंट हाउस के बैंक्वेट हॉल ले जाया गया। यह विलक्षण प्रस्ताव था- जो शायद (स्व) पर्ल बक की कल्पना की उपज था, जो फ़िल्म निर्माण में देवानंद की भागीदार थीं। शाही बैंक्वेट समाप्त होने के बाद, हमारी मेजबान, जो बम्बई की गवर्नर थीं, फ़िल्म की यूनिट के लोगों को कुशलतापूर्वक अतिथियों से अलग करके हिज़ लॉर्डशिप की तरफ़ ले गयीं, जो बग़ल के एक वरांडे में बैठे हुए थे। हम अपनी पंक्तियाँ बोलने के लिए तैयार थे। लॉर्ड माउंटबेटन अचानक पूछ बैठे, “ ‘दी गाइड’ की कहानी क्या है?” पर्ल बक ने बताना शुरू किया लेकिन वह ज़्यादा नहीं बता सकीं। “एक आदमी था, राजू नाम का-वह गाइड था”।

“कैसा गाइड?” हिज़ लॉर्डशिप ने गहरी आवाज़ में पूछा।

इससे उनका विवरण रुक गया। उन्होंने मेरी तरफ़ देखकर कहा,

“नारायण, तुम बताओ”।

लेकिन मैं बोलना नहीं चाहता था। मैंने अस्सी हज़ार शब्दों में कहानी लिखी थी, अब मैं इसके झमेले में नहीं पड़ना चाहता था। प्रेस घोषणाओं में कहा गया था कि पर्ल बक ने स्क्रीन प्ले लिखा है, और कहा जा रहा था कि दो लाख डॉलर एडवांस में दिए गये हैं, और अब मैं उनकी मदद नहीं करना चाहता था। उन्होंने दयनीय भाव से मेरी तरफ देखा, और दूसरों ने भी मुझे बोलने के लिए प्रेरित किया। मैं अकड़कर बैठा रहा। पर्ल बक ने आगे कहा, “और थी रोज़ी- एक नर्तकी”।

“अच्छा”, लॉर्ड चौंके, “यह कौन है? इसके साथ क्या हुआ?”

उन्होंने रूचि लेते हुए पूछा, जिससे पर्ल बक का तार फिर टूट गया। मैं कहना चाहता हूँ कि उनकी परेशानी मुझे अच्छी लग रही थी और उन्होंने ज्यों-त्यों करके उल्टी-सीधी कहानी सुनाकर ख़त्म की। अन्य अतिथि दूर-दूर से उठकर हमारे दल में शामिल होने लगे। “बड़ी मज़ेदार है, मुझे मानना पड़ेगा,” लॉर्ड माउंटबेटन ने अंत में कहा। फिर वे अपने सहायक की ओर मुड़कर बोले, “विलियम जब हम लंदन जायें तो मुझे याद दिलाना।  पता नहीं, क्वीन के पास समय होगा या नहीं। फिर भी, मैं कर सका, तो करूँगा”। जिस आदमी ने वायसराय के रूप में 1947 में ब्रिटेन से सत्ता लेकर भारतीयों को सौंपी थी, अब ‘दि गाइड’ के प्रचार में सहायक होने जा रहा था- कितनी अजब बात थी। लेकिन इस प्रस्ताव के बारे में फिर कभी कुछ नहीं सुना गया।

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लॉकडाउन की इंग्लैंड डायरी

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प्रज्ञा मिश्रा इंग्लैंड में रहती हैं और वहाँ के लॉकडाउन अनुभवों को उन्होंने दर्ज करके भेजा है। आप भी पढ़ सकते हैं- जानकी पुल।

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पूरे तीन महीने बाद शहर के बाजार जाने का मौका मिला, यू के में इन्हें  टाउन या सिटी सेंटर कहते हैं।   दुकानें तो सभी बंद हैं, बस दवा  की दुकान और बैंक की ब्रांच खुली हुई थी, दुकान में और बैंक में एक समय में गिनती  ही लोग अंदर जा सकते हैं इसलिए लाइन बाहर थीं और लम्बी भी। आम तौर पर यू के में ऐसी कतारों में आगे पीछे वाले से बात करना तमीज और तहजीब की तरह माना जाता है, क्योंकि यह तो बदतमीजी है कि आपने देख लिया है कि आपके पास कोई खड़ा है और आपने उसे कोई तवज्जो  ही नहीं दी। लेकिन आज ऐसा कुछ नहीं हुआ क्योंकि सभी दो दो मीटर की दूरी पर खड़े थे और  यह दूरी इतनी कम भी नहीं थी कि साथ साथ इंतज़ार करने का एहसास हो।

क्या मुझे लॉक डाउन से कोई परेशानी है? बिलकुल भी नहीं। खाने पीने की सारी जरूरतें पूरी हो रही हैं। और घर में रहने की जरूरत भी नहीं है, क्योंकि जॉब भी essential वर्क की केटेगरी में आता है तो कहने का मतलब है रोज़ाना की ज़िन्दगी में कोई ख़ास फर्क नहीं है। हाँ छुट्टी के दिन घर से निकलने में थोड़ा सोचना पड़ता है। यू के में  दिन लम्बे और उजाले से भरपूर होने लगे हैं, और ऐसे में गाड़ी लेकर चल कहीं दूर निकल जाएँ गाना हर वक़्त दिमाग में बैक ग्राउंड म्यूजिक की तरह बजता रहता है। बस यही एक तकलीफ है कि छुट्टी भी आती है तो कहीं जा नहीं सकते, पर फिर उसकी भी कोई शिकायत नहीं है क्योंकि कम से कम मुझे घर से निकलने की तो इज़ाज़त है।

लेकिन फिर भी मुझे एक बात से  बहुत परेशानी है और वो है लोगों का सोशल डिस्टेंसिंग को नया नियम मान लेने की बात।  न जाने कितनी बार सुन चुके हैं कि मुमकिन है यही सोशल डिस्टेंसिंग नए तरीके से सामान्य ज़िन्दगी कहलाने लगे। कहने वाले का तो पता नहीं लेकिन हर बार इस “New Norm ” का नाम आता है और मुझे दबका सा लगता है। आखिर ऐसा कैसे हो सकता है कि हम एक दूसरे से यूँ छिटक कर ही ज़िन्दगी बिता देंगे। कोई नजदीक ही नहीं आएगा तो पता कैसे चलेगा कि “best Hug ” कौन देता है , किसके हाथ मुलायम हैं और कौन बेख़याल होकर जब यूँ ही छू देता है तो हम ख्वाब देखने लगते हैं।

ज़रा सोचिये उन लोगों के बारे में जिनसे आप बस यूँ ही राह चलते टकरा गए थे और उस मुलाकात ने ज़िन्दगी के रिश्ते बना दिए ( अब यहाँ मेरे मेहबूब तुझे मेरी  मोहब्बत की कसम गाना भी सोच सकते हैं ). जब अपना देश छोड़कर यू के को अपना घर बनाने की कोशिश करी तब इन्हीं रास्ते में मिले लोगों ने नजदीकी बढ़ायी और कुछ नाम और चेहरे जाने पहचाने हो गए… कोई यूँ ही सड़क पर चलते हुए हिंदी में बात करते मिला और परदेस में हिंदी में कौन बोल रहा है इसी बात से बातों का सिलसिला जो चला तो इस कदर आने वाले तीज त्यौहार मनाने को घर वालों की कमी पूरी हो गयी। अब भला इस सोशल डिस्टेंसिंग वाली ज़िन्दगी में कोई कैसे अपना अकेलापन मिटाएगा!!

अनजाने लोगों  ने ना जाने कितनी बार हाथ लगाकर वजन उठवाया है। अनगिनत सफर हैं जिनमें पडोसी से बात करते हुए कब जर्नी  ख़तम हो गयी पता ही नहीं चला। भारत की ट्रेन में एक ही बर्थ पर ३-४ लोगों के साथ बैठकर रास्ता नापा हो या हवाई जहाज में पड़ोस वाले  का खाना सूंघते और बतियाते एक देश से दूसरे देश पहुँच गए हों , इन सारी यादों में दूरी बनाये रखना है अगर यह ख्याल कहीं भी होता तो इतनी खूबसूरत यादें नहीं बनती।

इतना ही नहीं कई कई बार अनजाने लोगों के साथ घर भी बाँटा है और किचन में अलग अलग तरह का खाना भी साथ ही पकाया है। क्या यह कभी मुमकिन हो सकता था अगर हम दूरी नापने के फेर में पड़े रहते?? फिर तो किचन में  एक वक़्त में एक ही इंसान मौजूद होता , पेट को तो खाना मिल जाता लेकिन रूह यूँ ही खाली रह जाती।

लेकिन इन सबसे भी बड़ी  एक बात है जो बिना सोशल डिस्टेंसिंग के ही इंसान को इंसान से दूर किये है और अगर यही अगर नए तरीके का सामान्य हो गया तो बात कहाँ जाकर रुकेगी, इसका अंदाज़ा भी नहीं लगाया जा सकता। भारत में आज भी कितने ही घरों में काम करने वाली बाई के लिए अलग से बर्तन होते हैं ताकि अगर उन्हें कुछ खाने पीने को दिया जाए तो उन्हीं बर्तनों का इस्तेमाल हो, वही बाई जो आपके घर को साफ़ सुथरा रखती है, आपके बर्तन साफ़ करती है, उसी को अलग बर्तन में चाय खाना देना किस तरह का सामान्य बर्ताव है। लेकिन अगर यह सोशल डिस्टेंसिंग और किसी भी चीज़ को घर में लाने से पहले धोया जाना नया नियम है तो फिर सोचिये इन लोगों  का क्या होगा। कई बहुमंजिला बिल्डिंग ऐसी हैं जहाँ काम करने वाले अलग लिफ्ट  से आते हैं या उन्हें सीढ़ियों से ही आने की मंजूरी है। अब वहां के हालात क्या होंगे?

जब तक यह वायरस अपने चरम पर है तब ही तक यह सोशल डिस्टेंसिंग चले तो बेहतर है। वरना अगर यह आदत में आ गया तो कई कई एहसास हैं जिनसे हम महरूम रह जाएंगे, और सोचिये वो बच्चे जो इस दौर में बड़े हो रहे हैं, क्या उन्हें हम कभी बता भी पाएंगे कि हम यूँ ही राह चलते लोगों से क्यों छिटक कर खड़े हो जाते हैं? उन्हें तो राह चलते किसी  से मिलना, बात करना, गले लग जाना किसी दूसरे ग्रह की बातें लगेंगी। अहमद फ़राज़  ने लिखा है “आँख से दूर न हो दिल  से उतर जाएगा , वक़्त का क्या है गुजरता है गुजर जाएगा।” यहाँ तो आँखों  के सामने भी हैं लेकिन दूरी है। बस इसी बात की उम्मीद है कि दिलों में दूरी ना आये क्योंकि इंसानियत तो तब ही बरक़रार है जब हम उसे घर के बाहर भी देख सकें महसूस कर सकें।

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‘मुझे चाँद चाहिए’पढ़ते हुए कुछ कविताएँ

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मुझे याद है बीसवीं शताब्दी के आख़िरी वर्षों में सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास ‘मुझे चाँद चाहिए’ प्रकाशित हुआ था। नाटकों-फ़िल्मों की दुनिया के संघर्ष, संबंधों, सफलता-असफलता की कहानियों में गुँथे इस उपन्यास को लेकर तब बहुत बहस हुई थी। याद आता है सुधीश पचौरी ने इसकी समीक्षा लिखते हुए उसका शीर्षक दिया था ‘यही है राइट चॉइस’। दो दशक से अधिक हो गए। कवि यतीश कुमार ने मुझे चाँद चाहिए पढ़ा तो उसके सम्मोहन में यह कविता ऋंखला लिख दी। एक ही कृति हर दौर के लेखक-पाठक से अलग तरह से जुड़ती है, इसी में उसकी रचनात्मक सार्थकता है। आप भी पढ़िए- जानकी पुल।

मुझे चांद चाहिए
______________
 
1.
आत्मरति के अभिशाप से ग्रसित
शास्त्रों से निकले धागों में उलझी
पट्टे जैसे अनुबंध में बंधी अनागत वह
 
असंभव की आकांक्षी
रूढ़ियों के अहाते में
इच्छाशक्ति की कुशा लपेटे
आत्मसन्धान में लगी रही … लगातार
 
‘अस्वीकार’ और ‘नकार’ की प्रतिध्वनि
उसके जीवन का अपरिवर्तनीय सत्य थी
 
कटोरी में रखा पानी
झरने की फुहार बनने के लिए
आकुंठ व्यग्र थी
 
अधखुली किताब पर
सो जाने की ज़िद
पन्नों में दर्ज़ हर्फ़ों की बीहड़ में
हिरनी सी कुलांचे भरती रही
 
बजरी के रास्तों पर ऐसे चलती
गोया कोई सब्ज़ बाग़
आँखों मे लिए बौराती हो
 
करौंदे से अशोक बनने की चाह में
पहला ही कदम
नागवार नाम बदलकर कर लिया उसने
 
चांद बनने की ख़्वाहिश में
वह यशोदा से वर्षा बन गई
 
2.
यह कैसी दुनिया है
जहां घर की दीवारें परकोटे सी हैं
जिसमें पिता स्वप्नहंता हैं
और माँ सिर्फ एक तमाशबीन …
 
जिसे दरख़्त को खाद-पानी देना है
वही उसकी जड़ पर कुल्हाड़ी चलाता है
 
रुंधे स्वर में पिता कराहते रहते
और, मानते कि ईश्वर कहीं तो है
जबकि दोनों के विश्वास में
ईश्वर का चेहरा हमेशा अलग रहा
 
छल-प्रपंच से भरी इस दुनिया में
परंपरा से भिन्न सोचती स्त्री एक आखेट है
उसे इल्म तक नहीं कि हर जगह वह
ताक़तवर और चालाक शिकारियों से घिरी है
 
3.
दुनियादार पिता का आदेश
नियति पर लिखे प्राचीन-धर्मांध
फतवों की तरह
सपनों की सतहें रुखड़ा करता रहा
 
ऋतुसंहार से लेकर विषबेल तक
न जाने क्या-क्या नहीं समझा गया उसे
और वो हमेशा सोचती रहती
अवांतर में ही सुषुप्त रहेंगी इच्छाएं सारी!
 
पर जिज्ञासा उसकी सबसे बड़ी सखी थी
उसे पता था
स्वप्नहीन यथार्थ से लड़ने के लिए
सपने पालने सबसे ज़रूरी हैं
 
रह-रह कर कटती हुई
पोखर की मिट्टी सी वह
स्व-क्षय से परेशान
मूर्तरूप की ज़िद कर बैठी
 
आलोक वृत की परिधि में
पंख फैलाने की हिमाकत
आश्वस्त करता उसे बार-बार
कि अंदर का ज्वार
सोडे की बंद बोतल सा
कभी न कभी फूटेगा ज़रूर
 
4.
निष्ठुर अंधकार से भरे
लाल बजरी वाले पथ पर
आलोक का कपाट लिए
चांद को अपलक निहारती कुमुदनी
प्रतीक्षा की आवृत्तियों को ताकती रहती
 
भीतर-भीतर घुमड़ता बेचैनी का धुआं
बाहर निकलने के लिए
रोशनदान तलाशता रहता
 
उसे कहाँ ख़बर थी
कि आँखों से होकर भी
फूटते हैं हज़ार रास्ते !
और मरने के बाद भी
बारहा लौट आते हैं देखे सपने !
 
मछलियाँ उन्मुक्त तैरती हैं
अपनों ने जितनी बार उतारे उसके चोईटें
उसकी ख़्वाहिशों को उतनी ही धार मिली
 
मुक्त होने के एकल संकल्प को
गिरह में बांधे
सोच रखा था उसने
कि पीड़ा और संत्रास में पैबस्त दिनों को
एक न एक दिन
तज देना ही है
 
5.
भावनाओं के अंतर्द्वंद्व में भी
मुक्ति की चाहना लिए
दो चोटियों और जूड़ों के बीच
निर्वाक… उतावली टहलती रही
 
कोई डिठौना लगाता
तो कोई प्रोफाइल ताकता
 
फिर किसी ने उस दिन हौले से
उसके हाथों को यूँ दबाया
जैसे छुअन ही औषधि हो
और वह खिलखिला उठी
 
मित्रता दवाई पर लिपि हुई एक मिठास है
जिसमें घुल जाती है कड़वाहट भी
 
सन्निपात के भंवर से निकल
सानिध्य की साझी धार में
सर्वग्रासी पीड़ा भूल गई
 
पहली बार उसने जाना
बाँटने से दुःख भी मीठा हो जाता है
 
एक हथेली में बाहर का मौन
दूसरी हथेली में अंतर का कोलाहल …
 
दोनों हथेलियाँ जब एक-दूसरे के गले लगीं
तो थोड़ा-थोड़ा बँट गईं खुद में
 
 
6.
समय के साथ कषाय का तनाव
इस तरह फैला
कि तीली दिखाने भर से विस्फोट हो जाए
 
कमरबंद के नीचे का प्रहार
अधिक घातक होता है
बस कई बार चोट महसूसे बग़ैर
पहचाने जाने की सलाहियत होनी चाहिए
 
अपनों का दिया गया प्रहार
मन के सबसे नाजुक तंतु को भी
तोड़ के रख देता है
 
घबराहट में उसने
मौत से आंखमिचौली खेल ली
 
बहुत तड़फड़ाई लेकिन जब
नीम नींद में आँखें खोलीं
तो उसने मौत को आँखें मूंदते हुए देखा
 
एक नई अनुभूति हुई उसे
कि अपना-अपना बोझ
ख़ुद ही ढोने के लिए
हम सभी अभिशप्त हैं
 
हस्बेमामूल अब वह वही नहीं रही
पंख निकल आए थे
और वह भी उड़ने का हुनर
सीखना चाहती थी
 
7.
 
गड्डमड्ड और बेतरतीबी के पेंच में
कसाने से पहले
उड़ना सीख लिया उसने
 
सोपान पर डेग रखते ही
सीढ़ी लिफ्ट की तरह नीचे चल देती है
और भ्रम बना रहता है
कि हम ऊपर जा रहे हैं
 
समय के साथ डेग दर डेग
हृदय की शून्यता अपनी परिधि
अंश दर अंश बढ़ा रही थी
 
सतर्कता से परिधि के बाहर
कदम रखते ही
उसने चुन-चुन कर अस्त्र चलाये
 
उसे पता था
सतर्कता सबसे बेजोड़ शस्त्र है
जो आसानी से साधा नहीं जाता
 
आइसबर्ग पर बैठे कबूतर को कहाँ पता
कि कौन से पहाड़ पर बैठा है वो
समयांतर में उसे पता चला
दरअसल वो कबूतर नहीं आइसबर्ग है
 
8.
 
सिरजने की झील में डुबकी लगाना
जीवन के आभा-वृत में
अनुभव के नव स्तर पर
गोता लगाने जैसा होता है
 
कलात्मक नींद में
अंतरमनन की आंच
आलोक मंडल बन
सिर के पीछे चमकती है
 
आलोक मंडल के आभास
और यथार्थ के बीच
लगातार आवाजाही रही उसकी
 
अतीत की केंचुल उतार
वर्तमान को इतना लंबा चुंबन दिया
कि सांसों के अनगिन दरिया फूट पड़े
 
पलकें मूंदते ही चेहरे पर महसूसती
वही चिर-परिचित स्पर्श
एक गुदगुदी सी हँसी
खिल आती थी होठों पर
 
9.
 
नायिका की आँखें तरल और पारदर्शी हैं
कि नायक देख सके उसमें अपना चेहरा …
दूधिया चकाचौंध में पर्दा उठता है
और नेपथ्य में मिल जाते हैं दो एकांत
 
मन मे पहला फूल खिला
खुश्बू में इतरा उठा
गंध के प्रति हर्ष भी
 
बिना संभले
फिर एक और चुंबन…
मक्खन पर गर्म चाकू की तरह उतर गया
 
प्रेम और तृष्णा मिलकर
धनुष की प्रत्यंचा खींचते हैं
और दोहरी हो जाती है कमान …
 
कपोत की गर्दन की नसों की तरह
फड़फड़ाई वह
फिर शांत हो गई जिबह किए गए
एक परिंदे की तरह
 
10.
 
मन में भूकंप
और मस्तक में ज्वालामुखी
प्रतिध्वनियों से भरी ज़िंदगी
पर देह बिल्कुल शांत
 
रोज़ पर्दा उठता
रोज़ बढ़ती जाती उनकी परिधियाँ ..
 
लेकिन उसके मन का आलोड़न
उसके पाश में ही करार पाता
 
बेगानेपन की चुंगी
प्रगाढ़ता के दायरे में सिमटती जाती
 
स्पर्शों के बहाने
देहों की बयार बहने लगती
 
मन डुबकियाँ लगाता
और अनुभूति कामना के शिखर पर
आनापान करती
 
और एक दिन आह्लादित मन ने
उद्घोष कर दिया –
‘मैं भी एक स्त्री बन गई हूँ.’
 
11.
एक गूंज हवाओं में तैरती हुई
घर तक ख़बर बन कर पहुंचती है
प्रलय संकेत बन
वर्जनाओं और निषेधों के हवाले के साथ धमकता है
 
भाई बरजता रहा .. मेघ बरसता रहा
नीचे धरती दरकती रही … बहुत धीरे-धीरे
 
अकेलापन ऐसे कचोटता रहा
जैसे किसी आत्मीय के
दाह-संस्कार के बाद
बार-बार लौट रही हो श्मशान से
 
मन ही मन ऐसे तिलमिलाई
जैसे वह लड़की नहीं,
लगातार हांकी जाने वाली पशु हो
 
स्पष्टवादिता उसके लिए इकलौता विकल्प थी
और खुले गले से उसने कहा दिया –
‘आय एम इन लव.’
 
अपनों की कुल्हाड़ी ने
बना डाला जड़विहीन उसको ..
 
पर भूंजे की तरह नहीं फूटी वह
बल्कि कमलगट्टे की तरह ख़ुद को और कसा
 
और यूँ
वर्षा अब उन्मुक्त हो चुकी थी ….
 
12.
 
रंगमंच पर अभिनय से
ज्यादा कठिन है
रंगमंच के लिए संघर्ष
 
चप्पल घिसने का दंश
और समझौतों का अवसाद
अभिनय के समानांतर ही चलता रहता है
 
इमोशन कोई रिकॉल स्विच नहीं होता
इसको अपनाने के लिए
सबको अपनी-अपनी थ्योरी
विकसित करनी होती है
 
अतीत की अंधेरी खिड़की
बाहर की स्याही को
वर्तमान में कई बार खींच लाती है
और नुकीला मौन चुभने लगता है
 
उसे अब छीली हुई लकड़ी की गंध
भाने लगी थी
चपलता धीरे-धीरे ठिठकने लगी
और उसे चुप्पी से प्रेम होने लगा
 
13.
 
नदियाँ कभी समानांतर नहीं चलती
हर पड़ाव के बाद
सड़कें बदल लेती हैं
एक और करवट
 
यह भी जाना
कि चलना है
तो तलुओं की धूल
अलग नहीं की जा सकती
 
छप्पर की लकड़ी की पहचान
बारिश के मौसम में होती है
और उसने सड़ी लकड़ी बनने से
इनकार कर दिया
 
उसकी दुनिया में
सब कुछ तेजी से बदलता गया
सिर्फ भिंचे जबड़ों
और तनी मुट्ठियों को छोड़ कर
 
कर्तव्य और भावना के द्वंद्व-द्वार से बाहर
जब उसने कामनाओं का हाथ थामा
तो उसके होठों पर बुद्ध की मुस्कान थी
 
 
14.
 
अभाव से निकलकर
प्रभाव की चरमसीमा
कलाकार के लिए वांछित है
 
पर साथ में अनवरत क्रंदन
उसकी खुराक में होती है
 
त्वचा को ढाँचे के अनुसार
काटना सिलना
तब तक जब तक
भीतर का आलोचक संतुष्ट न हो जाये
 
पुरस्कार लंबी सीढ़ी के बीच का चबूतरा है
वहाँ थोड़ी देर ही ठहरा जाता है
यह सोचते हुए वह आगे बढ़ गई
 
नाटक की तीसरी घंटी भी
सबके इंतज़ार में रहती है
इंतजार पोशाक है
जिसे ओढ़े रहना दूर जाने की निशानी है
 
15.
 
वह नहीं जानती थी
जिनका कोई ओर-छोर नहीं होता
वैसी कामनाएं
अधूरी होने के लिए अभिशप्त होती हैं
और एक साथ दो घोड़ों की सवारी नहीं हो सकती
वल्गा तो हाथ में एक ही रहेगी ..
 
वक़्त का घोड़ा दौड़ता रहा
वह लगाम और रक़ाब तलाशती रही
 
नाराज़गी और उलझन से गुज़रते हुए
खुशी और मायूसी के बीच डोलती रही
 
सुलझाने की कुंजी बस समय के पास है
जिसका बाजू पकड़े
दौड़ती रही वह बदहवास
 
उसने उबासियों से ख़ुद पूछा
कि क्यों ज़िंदा हो तुम अब तक ?
यह जान लो तो
और कुछ जानना ज़रूरी नहीं
 
भीतर से आवाज आई
सबसे जरूरी चीज स्वाकार है
गर खो गया तो कुछ नहीं बचता
 
16.
शहर चमगादड़ों से अटा पड़ा था
दिन उजास थे
रातें उमेठियाँ लेती हुई
 
खिलंदड़पना उसकी अपनी जमापूंजी
और हास्य बोध उस शहर की जरूरत
 
हर रिश्ते का अपना गणित लिए
शहर हिसाबी था..
जबकि आंकड़ों से रिश्ता कच्चा रहा उसका
 
नियत संख्या के ऊपर के नंबर
सब बराबर थे उसकी ख़ातिर
 
नगण्य मात्राओं में
शून्य का दाख़िल होना भी उसकी परिधि बढ़ा देता
धीरे-धीरे वह अपरिमित होती जा रही थी
 
आखेट के भय से भागती हुई हिरनी
अब भूख से भरी हिंसक शेरनी बन गई
 
17.
 
चांद को छूने की हसरत
और ज़मीन से उखड़ने की शुरुआत
समानांतर प्रक्रिया है
 
इस दुर्गम, तंग, रपटीली यात्रा में
कोई रिवर्स गीयर नहीं थी
 
रास्ते तालों से भरे थे
और उसकी कामनाओं पर सांकल नहीं थी
वह डेग भरती गई
लोगबाग चाबियां पकड़ाते गयें
 
अब उसके पास ऐसा गुच्छा था
जिनमें सौ-सौ चाभियां थी
 
उधेड़बुन-संशय-अनिश्चय-अविश्वास
सब अंधेरों में पहने जाने वाले लिबास हैं
अकेलापन हमेशा इन्हें पहन
आइनों में झांकता है
इसे देख
कुटिलता मुस्कुराती है
 
इन मुस्कुराहटों में भटकती नाव को
छोटा ही सही
लेकिन एक आकाशदीप का इंतज़ार होता है
 
जिसके बिना शहर का अट्टहास
किसी भी नाव को निगल सकता है
 
 
18.
 
पारे की तरह तेज़ी से घटता-बढ़ता असंतोष
आधारशिला रोज़ खिसकने की आशंका
अनिद्रा में लिपटी दुर्दमनीय कामनाएं
और दर्पोक्ति में आकंठ डूबा शहर
 
इस शहर में ज़िंदगी को रोपना
रेगिस्तान में उत्स उगाने जैसा है
 
यहाँ अर्थ भरी मुस्कान में
अर्थ मात्रा से अधिक अनुपात में था
 
कोई मूंगफली खाए
और उसके छिलके न गिरें
ऐसा कब होता है भला
 
जबकि यहाँ छिलके ज़्यादा थे
और मूंगफलियां कम
 
इस शहर में सबके अपने-अपने कवच हैं
किसी की कसी हुई और किसी की ढीली-ढाली
समय रहते दोनों कला सीख ली उसने
 
19.
 
दीये की बाती का एक सिरा जलता देख
दूसरे को हंसी आती है
तब वह कहाँ जानता है
कि जलना तो अंततः दोनों की ही नियति है
 
रेल की पटरियों की समानांतर दूरियां
परस्पर जैसे बढ़ती हैं
वैसे ही दुर्घटना की आशंका भी बढ़ती है
 
कलाइयाँ पकडे बिना
उसे नींद नहीं आती थी
कलाइयों पर उंगलियों के
निशान पैबस्त होती रही
 
पता भी नहीं चला
निशान कब दाग़ बन गए
अब दाग़ को मिटाने का नुस्खा
ढूंढ़ रही है वह
 
चाँद का मोह
कहाँ से कहाँ तक ले आया था
 
आस्था की ओर कि भ्रमभंग की ओर
आशा में सम्मुख इस अवसाद के ..
शकुन से अपशकुन की ओर …
 
ये चाँद की उच्छृंखता
मोहक तो ज़रूर है
पर उतनी ही त्रासद भी
 
20.
 
सर्द आंधी चली
लगा किसी ने उसे
पहाड़ की चोटी से सीधे
गहरे अंधे कुएँ में धकेल दिया
 
बहुत समय तक
ज़मीन से टकराने के इंतज़ार में
निर्वात सा अहसास
संभावित टकराहट के ख़ौफ़ में तब्दील होता रहा
 
निरंतर पीछा करती स्मृतियों
और उन स्मृतियों को छूने भर से
खो भी जाने का डर था उसे
 
अक्सर डर के सच होने की संभावना
सबसे ज़्यादा होती है
 
झीना अवसाद.. गुनगुना मलाल
ठिठका सा संदेह
सब एक साथ दिखा
और काले क्षण में डूबने लगा चाँद
 
आँख बुझने से पहले
हौले से होंठ थरथराये
“मुझे चाँद चाहिए”
और वह हमेशा के लिए डूब गया
 
अपराधी वह मासूमियत है
जिसकी हत्या की जा चुकी है
असंभव की आकांक्षा विदा ले रही थी
 
उसने प्रभु से अंतिम गुहार लगाई
मुझे चाँद नहीं बेहोशी दे दो
 
तड़पती मछली अब पूरी तरह निश्चेत थी
तभी गोया कोई उम्मीद का बुलबुला
उसकी हलक में अटक गया
 
अगले ही पल
शरीर में एक जुम्बिश होती है
और उसके लब दोबारा थरथराते हैं –
“हाँ, मैं ज़िंदा हूँ
और मुझे चाँद चाहिए.”
========
यतीश कुमार

The post ‘मुझे चाँद चाहिए’ पढ़ते हुए कुछ कविताएँ appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

दिल्ली की सूफी दरगाहें और दिलों के राहत का सामान

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आजकल दिल्ली में सड़कों पर दरबदर भटकते इंसान दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में दिल्ली की सूफ़ी दरगाहों की याद आई, जहां ग़रीबों को खाना खिलाना इबादत के हिस्से की तरह रहा है। यह सूफ़ी परम्परा का हिस्सा रहा है। जब इस परम्परा की याद आई तो प्रसिद्ध इतिहासकार रज़ीउद्दीन अक़ील के इस लेख की याद आई। पढ़िएगा और इस परम्परा की खूबियों समझने और अपनाने की दिशा में सोचिएगा- जानकी पुल।

======================

दिल्ली के सूफी संतों की दरगाहों और शहर की बहुलतावादी संस्कृति के अभ्युदय में गहरा संबंध है। दरगाहों ने समाज को जोड़ने का काम किया है। वहाँ हर मजहब के गरीब-लाचार और जरूरत-मंदों के लिए मदद की दुआएँ की जाती हैं। वहाँ प्रचलित क़व्वाली की प्रथा भी कई तरह के दर्दो-गम से दिलों को राहत पहुंचाती है। इस संदर्भ में, निजामुद्दीन औलिया और उनके प्रतिभा-संपन शिष्य अमीर खुसरौ का नाम बार-बार सुनने को मिलता है। पिछले 800 सालों से, महरौली का इलाका भी कुतुब साहेब के ताल्लुक से रुहानियत का गहवारा रहा है। दक्षिण दिल्ली का एक बड़ा इलाका आज भी चिराग दिल्ली के नाम से रौशन है। वहां सूफियों के चिश्ती सिलसिले में निजामुद्दीन औलिया के अनुयायी नसीरुद्दीन चिराग ने उनके वक्त के निरंकुश शासक मोहम्मद बिन तुगलक के बेतुके फरमान को न मान कर दिल्ली को तबाही से बचाया था। सुलतान शहर के उलमा, सूफी और अशराफ तबकों के जिम्मेदार लोगों को दौलताबाद भेजकर उनके सहारे दक्कन में अपनी पैठ मजबूत करने का प्रयास कर रहा था, यह समझे बगैर कि उसका यह कदम दिल्ली की बर्बादी का सबब बन सकता था जो खुद उसकी सत्ता के लिए हानिकारक था। यह और इस तरह के कई और उदहारण दिल्ली की राजनीतिक स्थिरता और सांस्कृतिक रंगरंगी में सूफियों के अहम ऐतिहासिक रोल की अक्कासी करते हैं।

सूफी और उन जैसे दूसरे मुस्लिम बुजुर्ग खुदा के आशिक, दोस्त या वली कहलाते हैं। उनका मामला दिल का मामला है, जो उन्हें ईश्वर से जोड़ता है और इंसान और इंसान के बीच के सम्बन्ध को ठीक करता है। सूफी यह काम खूबसूरती से करते हैं और यह समझते हैं कि चूँकि हर चीज खुदा की बनाई हुई है, हर चीज में खुदा का नूर पाया जा सकता है। सूफियों के आदाबो-अखलाक उनके जीवन और सिद्धांतों में हुस्नो-जमाल की रूह फूंकते हैं, हालांकि कभी-कभी उनका गुस्सेवर तेवर जलाली रूप धारण करके उनके विरोधियों और प्रतिद्वंदियों को ध्वस्त भी कर सकता था। अमूमन सूफी लोग अपनी करिश्माई शक्ति या करामत का इस्तेमल अपने अनुयायियों और श्रद्धालुओं की भलाई के लिए करते थे, और इसीलिए श्रद्धालु उन्हें गरीबनवाज और गंजबख्श जैसे अलकाब से पुकारते रहे हैं।

13वीं शताब्दी के आरम्भ में दिल्ली सल्तनत की स्थापना से पहले ही, सूफी आध्यात्मिकता इस्लाम की एक मुख्य धारा बन चुकी थी। दर हकीकत, सूफी साहित्य का फारसी में लिखा हुआ पहला बड़ा सैद्धांतिक ग्रन्थ, कशफुल महजूब, गजनवी पंजाब की राजधानी लाहौर में शेख अली हुजविरी दाता गंजबख्श ने 11वीं शताब्दी में ही लिख डाला था। चिश्ती सूफियों में शुरू के पाँच ख्वाजा, मुईनुद्दीन चिश्ती अजमेरी, कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी (मेहरौली, देहली), फरीदुद्दीन गंज-शकर (अजोधन, पाक-पटन, पंजाब), महबूबे इलाही निजामुद्दीन औलिया (देहली) और नसीरुद्दीन चिराग-दिल्ली, सूफीमत के इतिहास में और आज भी विशेष दर्जा रखते हैं। इनके अतिरिक्त, हर दौर में और हर जगह बड़े सूफी बुजुर्ग हुए हैं जिनकी यादों की मंजूषा श्रद्धालुओं के दिलों को राहत प्रदान करती है, जिनके सहारे वह राजी खुशी जी लेते हैं। यह मान्यता भी आम है कि सूफी दरगाहों या दरवेशों और फकीरों से प्राप्त तावीज-गंडों की भी यही तासीर है। यह सब कुरानी आयात की पॉपुलर ताबीर पेश करते हैं।

सूफियों के खिलाफ उलमा का एक बड़ा इलजाम यह था कि वह न केवल पाबंदी के साथ इस्लामी प्रार्थनाओं (जैसे मसजिद की पंजवक्ता नमाज) में शामिल नहीं होते थे, बल्कि उनकी आध्यात्मिक प्रथाओं में गैर-इस्लामी योग, प्राणायाम और चिल्लए-माकूस वगैरह को खासी अहमियत दी जाती थी। यह सही है कि सूफी योग पर एक मध्यकालीन ग्रन्थ, अमृतकुण्ड, को पूरी तरह चाट गए थे। उलमा ने सबसे ज्यादा सूफियों की गीत-संगीत, महफिले समा या कव्वाली, के खिलाफ फतवे मंगवाकर हमला किया। लेकिन वह कव्वाली पर हमेशा के लिए प्रतिबन्ध नहीं लगवा सके। आज की हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत मध्यकाल के सूफियों की देन है। सूफियों ने खुदा के रसूल की दुहाई देते हुए यह सफाई पेश किया कि अच्छे स्वर में गाए जाने वाले गीत इंसान के साथ-साथ जानवरों के रुह को भी तसकीन पहुंचाते हैं। इसलिए यह लताफत और जौक का मामला है। आध्यात्मिकता से सराबोर दिलों के लिए अच्छी आवाज में पढ़ी गयी गजल काफी है। वहीं दूसरे लोग और जानवर जैसे ऊंट, हिरण और यहाँ तक कि गधे भी संगीत के यंत्रों से निकलने वाली ध्वनि और मधुर गान सुनकर महजूज होते हैं। यही हाल परिंदों का भी है। सूफियों के गम और दर्द से भरे नगमे उनमें भी हाल की कैफियत पैदा कर मद-मस्त करते हैं। तो फिर कोई अच्छा इंसान गीत-संगीत की तरफ मायल क्यों न हो?

इसके अतिरिक्त सूफियों ने भारतीय देशज भाषाओं और साहित्य (पंजाबी, उर्दू, हिंदी, इत्यादि) के अभ्युदय और विकास में भी महत्वपूर्ण रोल अदा किया है। इस तरह, सूफियों ने भाषा, साहित्य, संगीत, योग, एकेश्वरवाद और अद्वैतवाद आदि के माध्यम से लोगों को जोड़ने का काम किया। मध्यकालीन भारत की राजनीति और समाज में सूफियों की अहम मौजूदगी को समझने के लिए खुद उनके साहित्य का बहुत बड़ा जखीरा काफी है। सूफियों ने फारसी और देशी या क्षेत्रीय भाषाओं में जो साहित्य लिखा है उनमें खास तौर से महत्वपूर्ण हैं: सूफियों के मलफूजात (रुहानी वार्तालाप), उनके मकतूबात (विशेषकर अनुयायियों की तरबियत के लिए लिखे गए पत्र), रहस्यवादी ग्रंथ जो आध्यात्मिक परम्पराओं पर बौद्धिक चिंतन करते हैं, सूफियों की अकीदतमंदाना जीवनी (तजकिरा) और खुद  सूफियों द्वारा रचित रुहानी नगमें। प्रेम-प्रसंगों की पुरानी दस्तानों और लोक कहानियों को समेटते हुए सूफियों ने वृहत्त आख्यानों को लिखने की एक नई परंपरा शुरु की, जिनके कुछ रुपों ने श्रद्धा और भक्ति से ओत-प्रोत जन-मानस की भावनाओं को किसी कदर प्रभावित किया।

सूफियों के नजदीक, एक अच्छे मुसलमान को एक अच्छा इंसान होना चाहिए, और उसे लगातार अपनी आत्मा को खंगालता रहना चाहिए। हजरत निजामुद्दीन के मलफूजात, फवायद-उल-फुआद, में बयान किए गए हिकायात या उपाख्यानों से पता चलता है कि वास्तव में, सभी प्रकार के बाधाओं और वैमनस्य के बीच भी प्यार से भरे जीवन को जी लेना संभव था। क्षमा करने की प्रवृति पर जोर देते हुए चिश्ती सूफी पीर ने यह समझाया कि यदि कोई किसी के रास्ते में कांटे डालता है और दूसरा भी प्रतिशोध में ऐसा ही करता है, तो हर जगह कांटे ही कांटे फैल जाएंगे। बेहतर यही है कि नजरअंदाज करें, माफ करें और भूल जाएं। विरोधी भी अंततः अपनी हरकतों से बाज आएगा, उसके दिल में करुणा का जज्बा पैदा होगा, और कड़वाहट सहिष्णुता या सम्मानजनक उदासीनता में तब्दील हो जाएगी। यह मशवरा उन तरीकों में से एक था जिससे सूफी अपने प्रतिद्वंदियों या मुखालेफीन का दिल जीत सके थे।

त्याग या दुनिया से किनारा-कशी की जरुरत पर, दिल्ली के संरक्षक संत, महबूबे-इलाही निजामुद्दीन औलिया ने क्या खूब कहा है कि दुनिया एक छाया की तरह है; यह आपका पीछा करती है, लेकिन यदि आप इसका पीछा करना शुरू करते हैं, तो यह आपसे दूर भागती रहती है। इसलिए, सूफियों ने दुनिया से दूरी या तर्क-ए दुनिया (त्याग) का रास्ता अपनाया। हजरत निजामुद्दीन के लिए, तर्क-ए दुनिया का मतलब यह नहीं था कि लंगोटा पहनकर पूजा-पाठ में अपने आप को लिप्त करने के लिए जंगल में चला जाना चाहिए। शक्ति और प्रतिष्ठा के जाल से बचना और मानव जाति की सेवा में समर्पित हो जाना ही अपने आप में एक बड़ी और सच्ची इबादत है। वास्तव में, मानव सेवा ही सूफी परंपरा (तरीकत) में पूजा का सर्वोत्तम रूप रहा है।

इस नजरिए को आगे बढ़ाते हुए, हजरत निजामुद्दीन ने बयान किया है कि उनके आध्यात्मिक गुरु (पीर) और अग्रणी पंजाबी सूफी, शेख फरीदुद्दीन गंज-ए शकर (बाबा फरीद) को एक बार एक शिष्य ने चाकू भेंट किया था। फरीद ने उससे कहा कि छूरी काटने का काम करती है, इसलिए सुई एक बेहतर उपहार हो सकती है, क्यूंकि सुई सीने के काम आती है। लोगों के दिलों और दिमागों को जोड़ना और उन्हें ईश्वर के प्रेम में एकजुट करना सूफी रहस्यमय प्रथाओं का मुख्य उद्देश्य है; इसके विपरीत, चाकू और तलवार का इस्तेमाल हिंसा के माध्यम से लोगों को नुकसान पहुंचाने, विभाजित करने और सत्ता हथियाने के लिए किया जाता है।

लोगों को खाना खिलाने को एक आला दर्जे का पुण्य कार्य बताते हुए, हजरत निजामुद्दीन ने कहा है कि जब मेहमान या आगंतुक घर या खानकाह या जमाअत-खाने में आते हैं तब उन्हें भोजन परोसा जाना चाहिए, या अगर तुरंत सेवा करने के लिए कुछ नहीं है तब कम से कम एक गिलास पानी पेश किया जाना चाहिए। अन्यथा ऐसा प्रतीत होगा कि वह किसी मृत व्यक्ति से मिलने कब्रिस्तान गया था, जहाँ मृत व्यक्ति आगंतुक की कोई सेवा नहीं कर सकता! इसलिए, सूफियों की खानकाहों में आगंतुकों के आदाब का आदर्श तरीका था: सलाम, ताम, और कलाम। आगंतुक सलाम कहते हुए प्रवेश करेगा, उसके बैठते ही भोजन (ताम) पेश किया जाएगा, और फिर बातचीत (कलाम) का सिलसिला शुरु होगा। इस सब में, जाति और पंथ के भेद, अस्पृश्यता, या किसी तरह के प्रदूषण की भावना के लिए कोई जगह नहीं होगी। सब मनुष्यों, दोस्तों या मेहमानों से सम्मान और आदर एवं बराबरी के साथ सलूक किया जाएगा। दरवाजे और बैठक पर आए भूखे को खाना खिलाने पर विशेष रुप से जोर दिया गया है, चाहे वह बेचारा आवारा कुत्ता ही क्यों न हो। इस तरह हम समझ सकते हैं कि सूफी परम्पराओं से जुड़े आदर्शों ने उस रहस्यवादी आध्यात्मिक मत को एक लोकप्रिय सामाजिक आंदोलन का रूप दे दिया।

आज भी कि जमाना खराब है और मुसलमानों के ताल्लुक से तरह-तरह की गलत-फहमियां राजनीतिक दांव-पेच का हिस्सा हैं, दिल्ली शहर के अनगिनत दरगाहों और मजारों पर हजारों लोग जुमेरात की शाम और उर्स के मौकों पर श्रद्धा-पुर्वक मिन्नत-समाजत करते हुए देखे जा सकते हैं। उनमें सत्ताधारी लोग भी होते हैं, और बेकस-बेसहारा भी। औरत, मर्द और ट्रांस-जेंडर भी। कोई किसी की जाति नहीं पूछता, न धर्म। 14वीं शताब्दी के मध्य में ही हजरत निजामुद्दीन से जुड़े एक सूफी लेखक अमीर खुर्द ने अपनी किताब, सियर-उल-औलिया, में कह दिया था कि उनकी दरगाह की दहलीज का धूल वहां आने वाले हिन्दू, मुसलमान, ईसाई और पारसी लोगों की आंखों में सुरमे का काम करती है। श्रद्धालुओं के लिए यही हाल और दूसरी दरगाहों का भी है, जो बदलते वक्त के साथ प्रासंगिक बनी हुई हैं, क्योंकि उनकी तमाम प्रथाएं यहाँ की सामाजिक और सांस्कृतिक परम्पराओं से पूरी तरह वाबस्ता हैं। बहुलतावादी संस्कृति की यह धारा सरकारी तंत्र से जुड़े लोगों के भी काम आती है। समाज और देश को खूबसूरती से चलाने में सुफिया-ए कराम के आदर्श महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश का काम करते हैं।

चिराग़ दिल्ली

 

 

 

(रजीउद्दीन अकील दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाते हैं।)

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बेगम समरु और दिल्ली का इतिहास

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हाल में राजगोपाल सिंह वर्मा की किताब आई ‘बेगम समरु का सच’संवाद प्रकाशन से आई यह किताब तथ्यात्मक इतिहास नहीं है बल्कि औपन्यासिक शैली में लिखा गया उस युग का जीवंत कथानक है। इस पुस्तक की भूमिका प्रसिद्ध पत्रकार शम्भूनाथ शुक्ल ने लिखी है। आप भी पढ़ सकते हैं- जानकी पुल।

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इतिहास में कुछ पात्र तो जरूरत से ज्यादा स्थान पा जाते हैं, और कुछ के बारे में वह मौन साध जाता है. इतिहासकार अपनी मेरिट का हवाला देकर लोक इतिहास को खारिज कर देते हैं. नतीजा यह होता है, कि ये कम चर्चित पात्र धीरे-धीरे इतिहास से भी विलीन हो जाते हैं. इन पात्रों को खोजने और फिर उन्हें उनका उचित स्थान दिलाना निश्चय ही बहुत मुश्किल काम है. इसके लिए हमें कुछ कुछ दस्तावेज़ों और कुछ किंवदंतियों का सहारा लेना पड़ता है. इतिहास में वीरों का सम्मान नहीं, अपितु बादशाहों और माहिर षड्यंत्रकारियों को उचित सम्मान मिलता है. भारत, जहां अधिकतर इतिहास लोक में ही ज़िंदा है, वहाँ अनाम वीरों को खोजना और उनका अधिकृत इतिहास लिखना बहुत मुश्किल काम है. उनके लिए फिर वे लेखक आगे आते हैं, जो इतिहासकार नहीं हैं, लेकिन उनकी अपनी संवेदना उन्हें उनसे जोड़ती है. इसमें दो तरह के खतरे सदैव रहते हैं, एक तो अतिरंजना और दूसरे लेखक की अपनी श्रद्धा अथवा अश्रद्धा. क्योंकि अगर उस पात्र के प्रति लोक की श्रद्धा को निकाल दिया जाए, तो उसे विद्वानों के बीच पहुंचाना कठिन हो जाएगा.

ऐसा ही भूला-बिसरा एक पात्र है, दिल्ली के करीब की बेगम समरू. दिल्ली के अंदर आज भी उनकी हवेलियाँ उनका इतिहास तो बताती हैं, लेकिन उस वीर एवं बहादुर तथा तुरंत निर्णय लेने वाली महिला को हम ‘नाच-गर्ल’ या नर्तकी कह कर खारिज कर देते हैं. उस पर तवज्जो देने की फुर्सत किसी को नहीं मिलती. दिल्ली में चाँदनी चौक स्थित भगीरथ पैलेस में आज जो स्टेट बैंक की बिल्डिंग है, और जिसे पहले इंपीरियल बैंक कहा जाता था, वह बेगम समरू की ही बिल्डिंग है. कौड़ियापुल के समीप पुरानी दिल्ली स्टेशन को मुड़ते ही बाईं तरफ कोने पर जो हवेली है, वह बेगम समरू की ही मिल्कियत है. मालूम हो कि दिल्ली के कई रेजीडेंट बहादुर बेगम की मेहमान-नवाज़ी का लुत्फ उठाने इसी कोठी पर आते थे. यह भी कहा जाता है, कि लखनऊ का राज भवन भी बेगम समरू का ही गेस्ट हाउस था. बाकी मेरठ के करीब सरधना में बेगम समरू का महल और उसका बनवाया गिरिजा घर आज भी अपनी शैली में अद्वितीय है.

मार्च 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद से ही भारत, जिसे तब हिंदुस्तान कहा जाता था, के दुर्दिन शुरू हो गए थे. उनके बाद जो भी मुगल बादशाह दिल्ली के तख्त पर बैठा, वह या तो नाकारा निकला अथवा हद दर्जे का विलासी. दूसरी तरफ औरंगजेब की अति केन्द्रीकरण की नीतियों से आजिज़ आकर दक्षिण में मराठे और उत्तर में राजपूत, सिख तथा जाट किसान विद्रोही बनते जा रहे थे. इनके अंदर राज करने की लालसा भी बढ़ रही थी. उधर दिल्ली के नाकारा बादशाह, अपनी फौजें तो नियंत्रित कर नहीं पा रहे थे, इसलिए वे भाड़े के सैनिकों को भर्ती कर रहे थे और इसको उससे तथा उसको इससे लड़वा कर किसी तरह चीजों को काबू में रखने की असफल कोशिशों में जुटे थे. इन भाड़े के सैनिकों (मर्सीनरीज़) में या तो पश्चिम और मध्य एशिया से आए दुर्दांत लड़ाके थे, अथवा योरोप के व्यापारी, जो भारत में व्यापार करने एवं अपनी अद्योगिक क्रांति से उत्पन्न उत्पादों को भारत में ठेलने खातिर टहल रहे थे. ये मक्कार व्यापारी उस पूंजीवाद के वेस्टेज थे, जिनके लिए दीन, ईमान, धर्म-अधर्म सिर्फ पैसा था. दिल्ली का बादशाह इनके फेर में आ गया.

ईस्ट इंडिया कंपनी बनाकर डच, फ्रेंच और अंग्रेज़ अपनी-अपनी जुगत भिड़ाने में लगे थे. पुर्तगाल तो दो सौ साल पहले से ही अरब सागर में बंबई से कोचीन तक क़ाबिज़ था. दिल्ली के बादशाह कभी इस कंपनी पर भरोसा करते, तो कभी उस कंपनी पर. ऐसे में कई बहादुर लड़ाके और चतुर खिलाड़ी दिल्ली को अपने क़ब्ज़े में लेने को जुटे थे. कहीं सैयद बंधु थे, तो कहीं नादिरशाह तो कहीं अहमदशाह अब्दाली और उसके लोग. ऐसे ही वक़्त में एक फ्रेंच लड़ाका रेनहार्ट सोंब्रे भारत आया. सिराजुद्दौला और फिर मीर कासिम का भरोसेमंद रहकर उसने बहादुरी दिखाई. धीरे-धीरे उसकी पैठ मुगल दरबार में हो गई. मुगलों के संसर्ग में रह कर वह हिंदुस्तानी तहज़ीब और फारसी भी सीख गया, तथा हिन्दुस्तानी रुचियाँ भी. कई युद्ध में उसने बड़ी बहादुरी दिखाई. उस समय दिल्ली के तख्त पर शाहआलम द्वितीय बादशाह था, उसने सोंब्रे की बहादुरी पर खुश होकर उसे अपर दोआब में फैले सरधना से टप्पल तक की रियासत समरू को दे दी. अब उसे समरू साहब कहा जाने लगा.

चाँदनी चौक के करीब स्थित एक कोठे पर सोंब्रे की मुलाक़ात नर्तकी फ़रजाना से हुई थी. फ़रजाना भी किस्मत की मारी थी. उसका जन्म मेरठ में एक पठान पुरुष और उसकी कश्मीरी स्त्री के गर्भ से हुआ था. वह उसकी दूसरी बीवी थी. बाप की मौत के बाद सौतेले बेटे ने इन माँ-बेटी को घर से निकाल दिया. दोनों बेसहारा दिल्ली आए. यहाँ जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर माँ बेहोश हो कर गिर पड़ी. संयोग से उस समय वहाँ पर चाँदनी चौक के एक नामी कोठे की मालकिन गुलबदन बेगम मौजूद थी. वह इन माँ-बेटी को अपने कोठे पर ले आई, जहां बेटी फरजाना को विधिवत नृत्य और गायन की ट्रेनिंग दी. सन 1767 में जब फ़रजाना लगभग 16 साल की थी, सोंब्रे नाच और गाना सुनने गुलबदन के कोठे पर आया. वहाँ पर संयोग से उसके समक्ष फ़रजाना ने ही कत्थक शैली में नृत्य प्रस्तुत किया, और मीरा का एक भजन- “नहिं ऐसो जनम बारंबार!” गाया. सोंब्रे उसकी सूरत, सीरत और गले पर ऐसा मुग्ध हुआ, कि उसने फरजाना से शादी ही कर ली. यही फरजाना बेगम समरू कहलाईं, जिनके चातुर्य और कूटनैतिक कौशल का लोहा खुद मुग़ल बादशाह शाहआलम द्वितीय भी मानता था.

शादी सोंब्रे के लिए शुभ रही. उसे सन 1767 से 1772 तक भरतपुर और डीग रियासत में राजा जवाहर सिंह की सेवा में रहने का भी अवसर मिला था. यह रियासत तब उत्तर भारत में सबसे बड़ी रियासत थी. सन 1773 में उसे शाह आलम ने बुला लिया. समरू साहब ने तब बागी रोहिल्ले जाबिता खाँ को पकड़ा और सज़ा दी. मुगल बादशाह शाहआलम ने खुश होकर उसे सरधना की जागीर दी. सन 1778 में उसके अधिकार और बढ़े, तथा उसे सरधना की जागीर के साथ-साथ आगरा का सिविल और मिलिट्री गवर्नर बना दिया, लेकिन इसी वर्ष 4 मई को सोम्ब्रे उर्फ समरू साहब की मृत्यु हो गई. इसके बाद शुरू होता है फरजाना यानी बेगम समरू का इतिहास. मुगल सम्राट ने इसी साल फ़रजाना को सरधना की जागीर का नियंत्रण दे दिया. तीन साल बाद सन 1781 में फ़रजाना ने आगरा के रोमन कैथोलिक चर्च में ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया. वह अब जोहाना नोबलिस नाम से जानी जाने लगी और उसका बेटा ज़फरयाब लुई बाल्थ्ज़र रेन्हार्ट के नाम से. बेगम की उम्र अभी बहुत कम थी, मात्र तीस वर्ष और वैधव्य का जीवन. उसी समय 1787 में जार्ज थॉमस सरधना की सेना में एक बटालियन का इंचार्ज बना. बेगम की रुचि उसमें जागी, लेकिन तभी एक फ्रेंच अधिकारी ली-वासे बेगम की सेना में आया और बेगम का रुझान तेज़ी से इस फ्रेंच सैन्य-अधिकारी के साथ होने लगा. इसी समय एक ऐसी घटना हो गई, जिससे मुगल सम्राट को फरजाना की अक्लमंदी का अंदाज़ा हुआ. रूहेले सरदार गुलाम कादिर ने शाहआलम को बादशाह के तख्त से उतारने का षड्यंत्र रचा. बेगम ने यह जानकारी किसी तरह बादशाह तक पहुंचा दी. बादशाह खुश हुआ, और उसने फरजाना बेगम को ‘ज़ेब-उन-निसा’ की उपाधि से नवाजा।

साल 1788 में गोकुलगढ़ की लड़ाई में बेगम ने शाहआलम की जान बचाई. बादशाह ने इसका अहसान माना और बादशाहपुर-झरसा की कीमती ज़मीन बेगम को सौंप दी. लेकिन रूहेला सरदार गुलाम कादिर अपने कुचक्रों में लगा था. उसने किसी तरह बादशाह को बंदी बना लिया और निर्दयतापूर्वक उनकी आँखें नुचवा लीं. हरम में बेगमों के साथ वहशीपना दिखाया. उसने बिदारबख्त को दिल्ली के तख्त पर बैठा दिया, तथा मुगल सम्राट सम्राट शाहआलम के बेटों को सलीमगढ़ जेल में डाल दिया. बेगम को जैसे ही पता चला, वे टप्पल से दिल्ली आईं. मराठा सेनापति राणा खाँ को भी बादशाह की मदद के लिए भेजा गया. राणा खाँ के भय से गुलाम कादिर लाल क़िला छोड़कर भाग गया. शाहआलम द्वितीय को फिर तख्त पर बैठाया गया. गुलाम कादिर को पकड़ कर लाया गया, और उसे तथा बिदारबख्त को फांसी की सज़ा दी गई।

बेगम की फौजों के दो गोरे अधिकारी आयरिश जार्ज थॉमस और फ्रेंच ली-वासे परस्पर भिड़ गए. जार्ज थॉमस ने नाराज होकर टप्पल को स्वतंत्र घोषित कर दिया. ली-वासे ने बेगम के कान भरे. बेगम ने जार्ज को क़ैद कर लिया. ली-वासे बेगम का करीबी होता गया. चर्चा यह भी रही, कि दोनों ने शादी कर ली है. इससे फौज में नाखुशी बढ़ी. इसी बीच जार्ज थॉमस बेगम का साथ छोड़ कर मराठा जागीरदार के यहाँ पहुँच गया. वहाँ सेना में उसे अच्छी जगह मिल गई. सन 1794 में महादजी शिंदे की मृत्यु हो गई, और उधर बेगम ने ली-वासे के कहने पर अप्पा खाँड़े राव और जार्ज थॉमस के विरुद्ध अभियान छेड़ दिया. बेगम की सेना में फूट पड़ गई. बेगम ने अभियान रोक दिया, किन्तु उनकी सेना के तेवर वैसे ही रहे. बेगम और ली-वासे ने फरार होने की योजना बनाई, मगर पकड़े गए. ली-वासे ने तो ख़ुदकुशी कर ली, पर बेगम इस प्रयास में नाकाम रहीं. उन्हें बंदी बना लिया गया. जागीर भी चली गई. तब उसी जार्ज ने ही उनकी मदद की जिसे बर्बाद करने के लिए उन्होंने अप्पा के विरुद्ध अभियान चलाया था. अब जागीर भी उन्हें मिल गई और बागी नेता जफरयाब को क़ैद कर लिया गया.

बेगम महादजी को धन्यवाद देने आगरा गईं, किन्तु तब ही जार्ज थॉमस के विरुद्ध सिख, राजपूत और मराठों ने साझा अभियान शुरू किया. जार्ज को हांसी के राजा के पद से भी हटा दिया गया. जेल में ही जफरयाब की मृत्यु हो गई. और बाद में आयरलैंड की वापसी की इच्छा लिए जार्ज की भी. तब तक अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी ताकतवर हो चुकी थी. बेगम ने अंग्रेजों से दोस्ती रखी. बेगम ने लॉर्ड वेलेजली को सरधना में फौज रखने की पेशकश की, लेकिन अंग्रेज़ अफसरों को बेगम पर भरोसा नहीं था. इसी मध्य सन 1804 में सिखों ने सहारनपुर पर कब्जा कर लिया और अंग्रेज़ कलेक्टर जीडी गुथारी को क़ैद कर लिया. बेगम ने इस कलेक्टर को सिखों से छुड़वा लिया. तब 1805 में कंपनी ने बेगम की जागीर को मुक्त कर दिया. रेजीडेंट ओक्टरलोनी ने अपने खरीते में इसका उल्लेख किया है. बेगम को आधी सेना रखने की अनुमति मिली. लॉर्ड कार्नवलिस ने भी बेगम की जागीर की यथास्थिति बहाल रखी. जुलाई 1807 में बेगम ने ईस्ट इंडिया कंपनी से अनुरोध किया, कि उनकी विरासत का मसला तय कर दिया जाए. चार अगस्त को कंपनी ने उनका प्रस्ताव मंजूर कर लिया. 1808 में जफरयाब की बेटी जूलियाना के बेटे डेविड का जन्म हुआ, बेगम ने इसे अपना दत्तक पुत्र मान लिया. 1822 में सरधना का मशहूर चर्च बनवाया. लेकिन 1827 में डेविड के पिता डायस ने बेगम का तख़्ता पलटने की साजिश की, मगर मेरठ छावनी के कर्नल क्लेमेंट्स ब्राउन ने बेगम का साथ दिया. और साजिश नाकाम रही. 1831 में बेगम ने अपनी वसीयत बनवाई, और रोज़मर्रा के काम-काज डेविड को सौंपे. 1834 में बेगम ने डेविड के नाम गिफ्ट डीड लिखी. दो साल बाद 1836 में बेगम की मृत्यु हो गई।

बेगम की क्रोनोलोजी बस इतनी सी ही है. वे 1751 में पैदा हुईं, और 1836 में मर गईं. लेकिन इस 85 साल की उम्र में बेगम ने जो इतिहास रचा वह अद्वितीय है. खासकर उस दौर में जब भारत की राजनीति में कुचक्र, साजिशें, षड्यंत्र और लूटपाट आम बात थी. खुद राजा और बादशाह ही नहीं सुरक्षित था. हर कोई किसी न किसी के विरुद्ध साज़िश कर रहा था. कोई सरकार ऐसी न थी, जो स्थिर कही जा सके. यहाँ तक कि ब्रिटिशर्स भी. न उनका कलेक्टर, न कम्पनी न उनकी सेना. मगर बाज़ार की चाहत उन्हें यहाँ रोके थी. एक ऐसे काल में किसी रानी का बार-बार अपनी रियासत बचाना और सत्ता संतुलन बनाए रखना आसान नहीं था, खासकर उस रानी का, जिसका कोई इतिहास नहीं, कोई अतीत नहीं और कोई भी स्थिर भविष्य नहीं. कब वह राजमहल से निकल कर फिर कोठे पर चली जाएगी, इस बाबत भी कोई निश्चिंतता नहीं. मगर यह बेगम की बुद्धि ही थी, जिसके बूते वह कोठे से निकल कर इतनी बड़ी मलिका बनी. यकीनन बेगम समरू को इतिहास में याद रखना चाहिए, पर उस दौर के दस्तावेज़ बेगम के बारे में बहुत कुछ नहीं बताते. यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा, कि बेगम समरू का इतिहास लिखने में किसी ने रूचि नहीं दिखाई. मेडवेल और मुगलों का पतन लिखने वालों ने भी बेगम को विस्मृत कर दिया. ऐसे समय में अगर बेगम समरू का सच बताने को कोई लेखक आतुर दिखे, तो उसके प्रयास की भूरि-भूरि प्रशंसा होनी चाहिए।

यह प्रसन्नता की बात है, कि विद्वान लेखक राजगोपाल सिंह वर्मा ने बेगम समरू के सच को बताने का साहस किया. बेगम समरू के इतिहास के अनखुले पन्नों को झाँकने की हिम्मत उन्होंने दिखाई, और यकीनन उस काल को जस का तस दिखाने के लिए उन्हें बहुत मेहनत करनी पड़ी होगी. कुछ चीज़ें ऊपर से जितनी सहज और आसान दिखती हैं, वैसी होती नहीं. उनकी परतों को खोलने का दुर्गम प्रयास जब आप करते हैं, तब पता चलता है, कि अरे एक के बाद अनेक पर्दों में छिपा यह सच तो बहुत ही विचित्र है. यह सच है, कि बेगम हमारे बहुत करीब के इतिहास की हैं. उनकी हवेलियाँ, महल और चर्च सब मौजूद हैं, लेकिन इस बेगम के बारे में दस्तावेज़ नहीं हैं, खरीते नहीं हैं और इतिहासकारों की लेखनी नहीं है. कितना श्रमसाध्य है, ऐसी बेगम का इतिहास खंगालना और फिर बेगम में रूचि लेकर पढने वाले पाठकों को खोजना. लेकिन राजगोपाल जी ने बेगम के इतिहास को जिस साहित्यिक लालित्य के साथ लिखा है, वह अद्भुत है. हिंदी में ऐतिहासिक उपन्यास तो मिलते हैं, लेकिन इतिहास में साहित्य नहीं मिलता. यह पश्चिमी विधा है।

बाबू वृन्दावनलाल वर्मा और पंडित अमृतलाल नागर ने तमाम ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के उपन्यास लिखे हैं, लेकिन उनमें इतिहास कम उनकी लेखनी का कमाल ज्यादा दिखता है. यहाँ तक, कि झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई पर आधारित उपन्यास लिखते हुए भी वे बहक गए प्रतीत होते हैं. जबकि जब उन्होंने वह उपन्यास लिखा था, तब तक रानी को रू-ब-रू देखने वाले लोग भी मौजूद थे, पर उन्होंने सच्चाई को नहीं, अपनी श्रद्धा को ही अपने उपन्यास का आधार बनाया. नतीजा यह निकला, कि उनका रानी लक्ष्मीबाई पर लिखा उपन्यास महज़ एक फिक्शन साबित हुआ. उसकी ऐतिहासिकता को कोई नहीं मानता. वे अगर विष्णु भट्ट गोडसे का ‘माझा प्रवास’ ही पढ़ लेते तो भी रानी के बारे में एक अधिकृत उपन्यास लिख सकते थे. उन्हें सागर छावनी के खरीते पढने थे. लेविस और ह्यूरोज़ के बयान भी, पर ऐसा कुछ उन्होंने नहीं किया. इसी तरह पंडित अमृतलाल नागर ने भी ऐतिहासिक उपन्यासों पर अपनी कल्पना को ज्यादा ऊपर रखा है. ‘ग़दर के फूल’ में इसकी बानगी देखने को मिलती है, जबकि इनके विपरीत बांग्ला की कथा लेखिका महाश्वेता देवी अपने उपन्यास ‘झाँसी की रानी’ में रानी के साथ ज्यादा न्याय करती दिखती हैं. वे इतिहास को तथ्यों के साथ लिखती हैं, बस वह साहित्य की शैली में लिखा जाता है, ताकि पाठक खुद को भी उपन्यास से बांधे रखे।

इसके विपरीत उर्दू और अंग्रेजी में ऐतिहासिक उपन्यास अपने नायक और पाठकों से कहीं अधिक न्याय करते हैं. शम्सुर्रहमान फारुकी का ‘कई चाँद थे सरे आसमां’ है एक उपन्यास लेकिन 18वीं सदी के भारत और दिल्ली दरबार की ऐतिहासिक स्थिति को जिस तरह से उन्होंने दिखाया है, वह अद्भुत है. विलियम डेलरिम्पल के अंग्रेजी में लिखे ऐतिहासिक उपन्यासों में भी यही बात मिलती है. हालाँकि विलियम डेलरिम्पल की किताबों को उपन्यास कह देने से कुछ लोग बुरा मान सकते हैं, पर सत्य यही है. डेलरिम्पल ने लिखने में उपन्यास की ही शैली को लिया है, और यह जरूरी भी है. कोरा इतिहास इतना जटिल होता है, कि उसे सिवाय कोर्स के और कहीं कोई पढना नहीं चाहता, इसलिए हर सफल लेखक इतिहास में कुछ कल्पना का पुट डालता है, ताकि वह सिर्फ क्रोनोलाजी भर बन कर न रह जाए. राजगोपाल सिंह वर्मा ने बेगम समरू का इतिहास लिखते समय इस लालित्य और इतिहास के तारतम्य को बनाए रखा है. इस वज़ह से यह एक ललित शैली में लिखा हुआ इतिहास बन पड़ा है. इस ‘समरू के सच’ की शुरुआत ही बड़े नाटकीय अंदाज़ में होती है, जब समरू साहब चांदनी चौक में गुलबदन बेगम के कोठे में नाच देखने के लिए जाते हैं, वहीँ फरजाना से उनकी आँखें चार होती हैं. षोडशी फरजाना के बात करने और उन्हें लुभाने की शैली पर वे इतने फ़िदा होते हैं, कि अपना दिल दे बैठते हैं. फरजाना से वे विवाह करते हैं, और फिर शुरू होती है बेगम समरू की कहानी!

राजगोपाल सिंह वर्मा के साहस, धैर्य और उनके शोध को दाद देनी चाहिए, कि अत्यंत श्रम के साथ उन्होंने बेगम समरू का इतिहास लिखा है. इतिहासकारों की मेरिट से इतर वर्मा जी द्वारा लिखा यह इतिहास अपने आप में बेजोड़ है.

शंभूनाथ शुक्ल पूर्व संपादक, ‘अमर उजालाऔरजनसत्ता, वसुंधरा, गाज़ियाबाद.

 

 

 

 

 

 

 

 

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नियति का अर्थ है पैतृकता की पहचान

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   कैलाश दहिया आजीवक विचारक हैं और अपने इस लेख में उन्होंने नियति के सिद्धांत पर विचार करते हुए धर्मों में स्थापित भाग्यवाद की तार्किक आलोचना की है। एक ज्ञानवर्धक लेख पढ़ा इसलिए साझा कर रहा हूँ- जानकी पुल।

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भारतीय चिंतन जगत में ‘जन्म’ को ले कर बड़ी बहस चली है। इस में सीधे-सीधे दो पक्ष बन गए। एक वे हैं जो जन्म को ले कर कहते हैं कि यह इन के हाथ में है कि कौन कहां पैदा होगा। ये जन्म लेने को पूर्व या पीछे की घटनाओं का परिणाम मानते हैं। इस के लिए इन्होंने पुनर्जन्म की शब्दावली खड़ी की है। इस में यह अगले और पिछले जन्मों के हिसाब – किताब रखते हैं। इस के लिए ये तरह-तरह के कर्मकांड करते हैं, जिसे ये कर्मवाद, कर्मफल, कर्मविपाक आदि कहते हैं। जन्म लेने की इस पुनर्जन्म की प्रक्रिया को मानने वालों में ब्राह्मण, बौद्ध और जैन धर्मों के लोग हैं‌ इन्हें द्विज भी कहते हैं।

उधर, दूसरे वे लोग हैं जो इस तरह की किसी भी बकवास को नहीं मानते। द्विजों के पुनर्जन्म के सिद्धांत का खंडन करने वाले आजीवक हैं, जिन्हें आज की शब्दावली में दलित कहा जा रहा है। आजीवकों की स्पष्ट मान्यता है कि जन्म निश्चित है – गर्भ निश्चित है। अर्थात जिन माता-पिता के माध्यम से हम पैदा होते हैं वे निश्चित होते हैं। यानी, जन्म होना एक निश्चित प्रक्रिया है, जो नियत है। इसी नियत से ‘नियति का सिद्धांत’ सामने आता है। इस में यह भी बताना है कि जन्म के बाद का जीवन व्यक्ति के हाथ में है, जिस में वह जो चाहे कर सकता है। नियति के सिद्धांत के प्रतिपादक मक्खली गोसाल थे।

गोसाल का नियति का सिद्धांत क्या है? चूंकि, द्विज पुनर्जन्म में विश्वास की अपनी धार्मिक शब्दावली खड़ी करते हैं, तब गोसाल क्या कहते हैं? वे कहते हैं- “पुनर्जन्म नहीं होता। उनका पहला सूत्र है – नो धम्मो त्ति। उन का दूसरा सूत्र है – नो तवो त्ति। उन का तीसरा सूत्र है – नत्थि पुरिस्कारे। ऐसा कोई धर्म नहीं है जो तुम्हें मरने के बाद अमुक योनि में पैदा कर देगा;  ऐसा कोई तप नहीं है जो तुम्हें मरने के बाद अमुक योनि में पैदा कर देगा; ऐसा कोई पुरस्कार नहीं है जो तुम्हें मरने के बाद पुनर्जन्म के रूप में मिलने वाला है। तभी पुनर्जन्म को हटा कर मक्खलि गोसाल ने  ‘नियति’ का शब्द दिया है।”(१) तो, जैसा कि बताया गया है नियति जन्म की निश्चितता से है।

नियति को लेकर आजीवक विरोधियों ने भारतीय चिंतन जगत में भ्रम खड़ा कर रखा है। ये इसे भाग्य – भाग्य कह कर इस की आलोचना करते हैं। और किस की कही जाए, खुद बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर इन के झांसे में आए हुए हैं। उन्होंने नियति के बारे में लिखा है – “एक दूसरी विचार-धारा का नाम था नियतिवाद। इसके मुख्य उपदेशक का नाम था मक्खली गोसाल। उसका मत एक प्रकार का भाग्यवादी अथवा पूर्व निश्चयवादी था। उसकी शिक्षा थी कि न कोई कुछ कर सकता है और न होने से ही रोक सकता है। घटनाएं घटती हैं। कोई अपनी इच्छा से उन घटनाओं को घटा नहीं सकता है। न कोई दुःख को दूर कर सकता है और न कोई उसे घटा – बढ़ा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति को सांसारिक अनुभवों से गुजरना ही पड़ता है।”(२) इस के आगे डॉ. अंबेडकर लिखते हैं, ‘यदि गोसाल का सिद्धांत ठीक मान लिया जाए तो आदमी भाग्य का दास बन जाता है। वह अपने को उससे मुक्त नहीं कर सकता।'(३) आगे डॉ. अंबेडकर बताते हैं, ‘मक्खली गोसाल ने स्वीकार किया कि हर घटना का कारण होना चाहिए। लेकिन वह प्रचार करता था कि कारण आदमी की शक्ति से बाहर किसी ‘प्रकृति’ किसी ‘आवश्यकता’ किसी निहित नियम अथवा किसी ‘भाग्य’ में ही खोजना चाहिए।'(४) देखा जा सकता है डॉ. अंबेडकर किस प्रकार भ्रम के शिकार हो गए हैं। पूछा जाए, डॉ. अंबेडकर अपने जन्म लेने; अपने छोड़िए क्या किसी के भी जन्म लेने के बारे में कुछ बता सकते हैं? जन्म लेना ऐसी प्राकृतिक घटना है जो नियत होते हुए भी कोई इस के बारे में नहीं बता सकता।

आजीवकों का तो यहां तक कहना है विज्ञान भी इस विषय पर मौन है। जिस दिन विज्ञान किसी के पैदा होने के बारे में पहले से कोई निश्चित घोषणा कर देगा उसी पल से आजीवक अपने नियति के सिद्धांत को विज्ञान के अनुरूप ढाल लेंगे। लेकिन, अभी तो विज्ञान ही नियति के अधीन है। महान मक्खलि गोसाल के ढाई हजार साल पहले दिए गए सिद्धांत में अभी तक तो किसी तरह का कोई बदलाव नहीं आया है‌ यह ज्यों का त्यों खरा है। तब डॉ. अंबेडकर के नियति की आलोचना करने के जो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं, वे हैं :

1. डॉ. अंबेडकर को नियति का सिद्धांत समझ ही नहीं आया और भी पूर्व प्रचलित अवधारणाओं के शिकार हो गए।
2. डॉ. अंबेडकर को बुद्ध को छोड़ कर सभी की आलोचना करनी ही थी।
3. यह उन की धर्मांतरण की रणनीति थी। गोसाल की मानते ही उन्हें रैदास और कबीर को मानना पड़ता। जो शायद उन्हें स्वीकार नहीं था।
4.रैदास और कबीर की मानने से दलितों का नेतृत्व उत्तर भारत, विशेषतः चमारों  के हाथ में चला जाता। यह डॉ. अंबेडकर को स्वीकार नहीं था। वह पहले ही चमारों के सर्वमान्य नेता स्वामी अछूतानंद और बाबू मंगू राम को नकार चुके थे।
5. फिर, अगर डॉ. अंबेडकर नियति को समझ गए थे तो भी जिस तरह से तीस के दशक में वे बौद्ध होने का निर्णय ले चुके थे। वहां से उन का वापस लौटना संभव नहीं था।
इन सब कारणों के चलते डॉ. अंबेडकर ने नियति पर जो बोला है वह बेहद आपत्तिजनक है। आजीवक ऐसी किसी की भी समझ पर सवाल ही सवाल खड़े कर सकते हैं। यहां एक बात और बतानी है कि द्विजों की देखा – देखी डॉ. अंबेडकर ने गोसाल के प्रति जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया है वह सही नहीं मानी जा सकती।

बाबा साहेब डा. भीमराव अंबेडकर ने नियति को भाग्य बता कर जो लिखा है और आगे उस की जो व्याख्या की है उस पर डॉ. धर्मवीर बताते हैं – “नियतिवाद के नाम से मक्खलि गोसाल का यह कहना बिलकुल ठीक था कि अपना जन्म लेने के बारे में न कोई कुछ कर सकता है और न ही उसे होने से रोक सकता है‌। जन्म की घटना होती है- कोई स्वेच्छा से उस घटना को घटा नहीं सकता। बाबा साहेब को मक्खलि गोसाल की नियति को ले कर यहीं तक सीमित रहना चाहिए था। आगे जो उन्होंने fatalism और determinisim  (पूर्व निश्चयवाद) की शब्दावली का प्रयोग किया है, वह ठीक नहीं है। नियति को जन्म लेने की घटना से आगे बढ़ाना ही अनुचित है अन्यथा यह वृद्धि- प्राप्त दोष के तर्क से ग्रस्त हो जाती है।”(५) असल में,  द्विज पुनर्जन्म की झूठी बहस खड़ी कर रहे थे और उस के लिए कर्म- फल और कर्म- विपाक की शब्दावली गढ़ रहे थे। महान मक्खली गोसाल ने उसे नियति के द्वारा काट दिया था।

दरअसल, ‘आजीवक दर्शन की नियति पुनर्जन्म के खण्डन को ले कर अपना अर्थ ग्रहण करती है। नियति है – अर्थात पुनर्जन्म नहीं है – नियति को इसी रूप में समझा जाना है। जब भी ‘नियति’ शब्द का प्रयोग किया जाए, समझ लो, यह तब तक पूरे और सच्चे अर्थ वाला नहीं है जब तक इसे ‘पुनर्जन्म नहीं है’ न माना जाए। ‘नियति’ न कहो ‘पुनर्जन्म नहीं है’ कह दो – एक ही बात है। अंतर यही है कि आजीवक दर्शन की नियति में पूर्व कर्म, पुराकृत कर्म, पूर्वभव और पूर्वभव के पाप- पुण्य तथा उन से जुड़े पुरुषार्थ और क्रिया का कोई स्थान नहीं है।'(६)

हम पुनः आते हैं बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर की बात पर, जो कह रहे हैं, ‘उसका (मक्खलि गोसाल) मत था कि न कोई कुछ कर सकता है और न होने से रोक सकता है। घटनाएं घटती हैं। कोई अपनी इच्छा से उन घटनाओं को घटा नहीं सकता है।'(७) पूछा जाए, गोसाल क्या गलत कह रहे हैं? प्रखर आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर बताते हैं- “यह भी सही है कि मक्खलि गोसाल के अनुसार जन्म लेने की घटना का कारण होना चाहिए, लेकिन वह कारण मनुष्य के जानने की शक्ति से बाहर है। वह प्रकृति, आवश्यकता, वस्तुओं के आंतरिक नियमों या इसी तरह की अन्य चीजों का हो सकता है। तब, गोसाल सही तो कह रहे हैं कि अपने जन्म लेने के मामले में कोई आदमी क्या कर लेगा? कौन मनुष्य अपना जन्म खुद ले रहा है? कौन अपने जन्म को बदल सकता है कि वह अमुक मां-बाप के घर जन्म न ले या अमुक मां बाप के घर जन्म लेगा? अपने जन्म को बीच में रोक देगा यह जान कर कि वह अकबर के घर में जन्म नहीं ले रहा है?”(८) उधर, डॉ.अंबेडकर लिख रहे हैं – “सुमेध नाम का एक बोधिसत्व उसके (महामाया) सामने प्रकट हुआ और बोला, मैंने अपना अंतिम जन्म पृथ्वी पर धारण करने का निश्चय किया है, क्या आप मेरी माता बनना स्वीकार करोगी?”(९) अब पूछा जाए, डॉ. अंबेडकर सही हैं या मक्खलि गोसाल? निश्चित ही गोसाल सही ठहरते हैं, क्योंकि, ‘चिकित्सा विज्ञान के प्रोफेसर एस.एम. बोस ने अपनी पुस्तक ‘कैंसर’ में यही उद्धृत किया है कि you cannot choose your parents  (अर्थात) आप अपने माता-पिता का चुनाव नहीं कर सकते।'(१०)

अगली बात, जन्म के बाद का बाकी का जीवन मनुष्य के हाथ में है, तब वह क्या नहीं कर सकता? वह समुद्र की गहराइयों से लेकर यूनिवर्स में नित नई खोजों में जुटा ही है। यही नियति का विज्ञान में विकास भी है। लेकिन, जब कोई पूछ कर गर्भ में आ सकता है, तब विज्ञान की आंखें मूंद जाती हैं। विज्ञान की सारी संभावनाओं पर रोक लग जाती है। पुनर्जन्मवादियों ने इस देश के साथ ऐसा ही दुर्व्यवहार किया है, फिर चाहे वह बुद्ध हों,  ब्राह्मण हो या महावीर। पूछना यह है कि डॉ. अंबेडकर कैसे बुद्ध के बहकावे में आ गए?

बताना यही है – “आजीवकों की नियति का ब्राह्मणों, बौद्धों और जैनियों के भाग्य और उनकी मजबूरी से कोई रिश्ता नहीं है। ब्राह्मण, बौद्ध और जैन जिसे पुनर्जन्म के सिद्धांत से जोड़ कर धर्म- कर्म और कर्म- विपाक कहते हैं, आजीवकों की नियति का उससे कुछ भी लेना – देना नहीं है। आजीवकों का कर्म लौकिक है और संतान के पालन- पोषण से जुड़ा हुआ है। इसलिए, आजीवकों  को ब्राह्मणों के मोक्ष, बौद्धों के निर्वाण और जैनियों के कैवल्य की प्राप्ति की आवश्यकता नहीं है। इनकी प्राप्ति के लिए उन्हें संन्यासी, भिक्षु और मुनि बनने की भी जरूरत नहीं है।

आजीवक लोग लौकिक जगत में एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य की दासता के बंधन से काटते हैं। कोई व्यक्ति, कोई समूह, कोई वर्ग दूसरे व्यक्ति, समूह या वर्ग का दास नहीं रहेगा – यही आजीवकों की मोक्ष, निर्वाण और कैवल्य की पारलौकिकताओं के मुकाबले में लौकिक स्वतंत्रता है।… कायरता, समझौता और मजबूरी नियति से अलग चीजें हैं।”(११) ऐसे में, बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर से पूछना तो बनता ही है कि वे कैसे नियति को भाग्य से जोड़ रहे हैं?

नियति का अर्थ चूंकि जन्म से है अर्थात माता-पिता के निश्चितता से, कोई भी अपना जन्म लेना खुद निर्धारित नहीं कर सकता। जन्म- जन्मांतर के लिए ब्राह्मण, बौद्ध और जैन जो  कर्मकांड करते हैं वह झूठ और महाझूठ है। कोई अपना जन्म भला कैसे निर्धारित कर सकता है? हां, कौन किस के गर्भ से उत्पन्न होगा यह निश्चित है,  यह भी निश्चित है कि किस माता-पिता के माध्यम से पैदा होगा। इस में अगली बात जो बतानी है वह यह है, कि कोई इसे जान नहीं सकता और ना ही कोई इसे बता  सकता। फिर, इस में जो बात सामने आती है वह  है पिता की वैधानिकता। पिता वैधानिक होगा या जार?

कोई बालक जिस पिता से पैदा हुआ है, वह उस नाम और पहचान  को सारी दुनिया को बताना चाहता है। पिता भी अपनी संतान के बारे में गर्व से घोषणा करता है। यही नियति है। जार बाप की पैदाइश अपने पिता की पहचान के लिए लड़ती रहती है, फिर चाहे वह कर्ण हो या शरण कुमार या रोहित शेखर। यानी, वह ऐसे पैदा होने के खिलाफ लड़ती है। चूंकि नियति निश्चित है, उधर, जारकर्म से पैदा औलाद अपने जार बाप के खिलाफ लड़ती है यानी वह नियति नहीं है‌। अर्थात, जारकर्म से पैदाइश नियति नहीं है‌। इसीलिए जारकर्म के खिलाफ आजीवक चिंतन में महासंग्राम है। डीएनए टेस्ट की मांग इसी नियति का विस्तार है। पुनर्जन्मवादी या कर्मकांडवादी भला क्यों डीएनए टेस्ट होने देंगे? क्योंकि, ये अपने कर्मकांड से किसी का जन्म करवाते फिरते हैं। और  तो और, ये अगले-पिछले जन्मों की श्रृंखला बनाते हैं। इन्हें भला औरस या जारज संतान के पैदा होने से क्या फर्क पड़ता है। फिर, संतान के लिए तो वही लड़ता है जो नियति को मानता है, जो यह मानता है कि वैवाहिक पति- पत्नी के माध्यम से ही संतान पैदा होनी है।

देखा जाए तो नियति का मतलब ही पिता की पहचान से है। इसीलिए, अक्करमाशी अपने जार बाप को खोजता है। यह जार बाप अपनी जिम्मेदारियों से बचता फिरता है। वेश्या से उत्पन्न बच्चों का दुख क्या होता है? उन का दुख यही तो है कि वे अपने पैदा करने वाले को जानना चाहते हैं। लेकिन वेश्या किस का नाम बताए, क्योंकि, एक रात में वह कितनों के साथ सोती है यह वह खुद ही नहीं जानती। ऐसे में वेश्या से पैदा लड़के का मानसिक विकास भाडू और दलाल के रूप में होता है। जो थोड़ा ठीक- ठाक रह जाता है वह अपने बाप को ढूंढता फिरता है, ताकि उसे सबक सीखा सके।

उधर, जारिणी को पता रहता है कि उस ने किस से संतान पैदा की है। वह इस बात पर इतराती भी है कि ‘प्रकृति ने उसे ही यह जानने की शक्ति दी है कि वह बता सके गर्भ का पिता कौन है।’ लेकिन, विज्ञान प्रकृति से एकाकार होकर चलता है। विज्ञान अपने ढंग से प्रकृति को अनावृत करता है, तभी विज्ञान डीएनए की खोज में मनुष्य की मदद करता है। यानी नियति का सिद्धांत एकदम खरा है। अब जार कैसे बचेगा भला? उसे अपने जारकर्म की पैदाइश के साथ जारिणी का भी भरण – पोषण करना पड़ेगा। इस रूप में आजीवकों  का ‘जारकर्म पर तलाक’ नियति का ही विस्तार ठहरता है‌। क्योंकि, जिस ने भ्रूण को उत्पन्न किया है वही उसका पालन-पोषण करें। इस रूप में ही आगे के सारे कानूनों का निर्माण होता है, यानी नियति का सिद्धांत आजीवकों की विजय का झंडा बुलंद करता आया है। यूं समझिए,  महाशिला खंडों के संग्राम की हमारी विजय का नगाड़ा बजा हुआ है, जिसे जारकर्म समर्थकों ने महाभारत के नाम पर छुपा दिया था।

बताया जाए, महाशिला खंडों का संग्राम नियतिवादियों और पुनर्जन्मवादियों के बीच हुआ था। इस युद्ध में खुद मक्खलि गोसाल ने हिस्सा लिया था और वे रणक्षेत्र में मारे गए थे। एक तरह से यह युद्ध औरस संतान के पक्षधर और जारकर्म के समर्थकों के बीच हुआ था। आचार्य महाप्रज्ञ ने बताया है, ‘महाशिलाकंटक संग्राम में चौरासी लाख तथा रथमुसल संग्राम में छियानवें लाख- कुल मिलाकर एक करोड़ अस्सी लाख मनुष्य मारे गये।'(१२) बाद में एक  अक्करमाशी ने असली युद्ध को छुपा कर महाभारत नाम से पुराण लिख दिया। जिस में जारकर्म की परंपरा को विजयी दिखा दिया गया। इस से देश गलत दिशा में ही बढ़ना था। यह भी बताया जाए, आचार्य महाप्रज्ञ ने गोसाल का मृत्यु वर्ष 543 ईसा पूर्व तय किया है, यानी यही वह समय है जब महा शिलाखंडों का संग्राम हुआ था।

बताना यह है कि द्विज धर्मों ने अपराधियों, बलात्कारियों, जारों, वेश्याओं, हत्यारों को अपने शरणागत किया है‌। इतना ही नहीं इन्हें बचाने का ही दर्शन भी दिया है। लेकिन स्वतंत्रता के बाद से देश के कानून नियति के हिसाब से बनते जा रहे हैं। और आगे भी इसी दिशा में बढ़ने हैं। जिन में अपराधी को दंड दिया जाना है, फिर चाहे वह अंगुलिमाल हो या आम्रपाली। यह तो बिल्कुल नहीं सुना जाना कि ‘चाहे निन्यानवे अपराधी छूट जाए एक निरपराधी को सजा नहीं होनी चाहिए।’ आजीवकों का कहना है निन्यानवे अपराधियों को सजा हो। एक निरपराधी को इस चक्कर में अगर सजा हो जाती है तो वह इतनी नुकसानदायक नहीं है जितनी अभी ये निन्यानवे अपराधी छुट्टे घूम कर देश और समाज को पहुंचा रहे हैं।  जार ही हैं जो नियति से डरे – छुपे घूम रहे हैं।

यूं भी कहा जा सकता है कि नियति का सिद्धांत मानव के विकास की प्रक्रिया से जुड़ा है। जैसे राज्य और कानूनों का उदय होता है, उसी के साथ, बल्कि उस से पहले परिवार का उदय होता है। इसी में वैधानिक संतान उत्पत्ति का सिद्धांत नियति के रूप में सामने आता है। यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि गोसाल ने नियति के रूप में दुनिया को अनुपम सिद्धांत दिया है। इस संदर्भ में डॉ. धर्मवीर ज्यां पाल सार्त्र के माध्यम से बताते हैं – “यूरोप का अस्तित्ववाद भी इस सोच को लेकर आगे बढ़ता है कि कोई व्यक्ति यहूदी पैदा हुआ है या अश्वेत पैदा हुआ है या फ्रेंच पैदा हुआ है या अपंग पैदा हुआ है। इस घटना को प्रश्नों के घेरे में नहीं लिया गया है कि कोई यहूदी पैदा क्यों हुआ है, या अश्वेत पैदा क्यों हुआ है, या फ्रेंच पैदा क्यों हुआ है या अपंग पैदा क्यों हुआ है? यदि उन से ( ज्यां पाल सार्त्र) जोर देकर पूछा जाए कि इन प्रश्नों का उत्तर दिया जाए तो वह क्या उत्तर देंगे। एक बात निश्चित है कि उन में से कोई भी यह उत्तर नहीं देगा कि उस व्यक्ति के पूर्वजन्मों के कर्मफलों  के कारण उस का ऐसा जन्म हुआ है। यह उत्तर न होने की वजह से उन का दूसरा उत्तर शेष बचता है वह यही है जो भारत में आजीवकों ने पुनर्जन्मवादियों को दे रखा है – अर्थात पुनर्जन्म का खंडन करते हुए नियतिवाद का। इस दृष्टि से पूरा पाश्चात्य दर्शन नियतिवाद ठहरता है।”(१३) इसी नियतिवाद से जन्म के बाद की भेदभाव पर टिकी व्यवस्थाओं से लड़ने का रास्ता खुलता है। नियति ही नई खोजों की तरफ बढ़ जाती है।

लौकिक जीवन में नियति का विकास संघर्ष और महासंग्राम में होता है। चूंकि, किसी का पैदा होना नियति के अधीन है, ऐसे में कोई किसी व्यवस्था के चलते गुलाम या दास पैदा होता है तो नियति उसे संघर्ष और महासंग्राम करने से नहीं रोकती‌।  यह नियति का ही विकास था कि मक्खलि गोसाल रण में उतरे हैं। उन्होंने इस देश के सबसे बड़े युद्ध में भाग लिया था, जिसे महा शिलाखंडों का संग्राम नाम से जाना जाता है। यह युद्ध जारकर्म के पक्षधरों के खिलाफ था, जो  पुनर्जन्म के खोल में छुपते हैं। जैसा की बताया गया है,  वर्णवादियों ने महाभारत नाम से पुराण ही नहीं रचा बल्कि इस में ‘बीजक’ के मूल सवाल को भी छुपा दिया गया। और, जारवादी- वर्णवादियों को विजयी दिखा दिया गया। इसे यूं समझें, शरण कुमार जारकर्म की पैदाइश हैं। क्या यह इनकी नियति है, लेकिन ऐसी संतान की उत्पत्ति को वैधानिक, कानूनी या सामाजिक मान्यता नहीं मिलती। लेकिन इस में शरण कुमार का कसूर तो नहीं माना जा सकता। इस में अगली बात जो होती है वह है अपने अधिकारों के लिए संघर्ष या लड़ाई की। शरण कुमार के जो अधिकार बनते हैं वह इस के जार बाप के खिलाफ बनते हैं। जो इन्हें पैदा कर के भाग खड़ा हुआ। ऐसे में आजीवक चिंतन में नियति का विकास कानून निर्माण की दिशा में बढ़ जाता है कि ऐसी संतान के क्या अधिकार होंगे। यूं, ‘आजीवक  धर्म अच्छे और बुरे  को इसी जन्म में पुरस्कार और दण्ड के रूप में मान्यता देता है‌। इसलिए ,आजीवक धर्म का सारा जोर राज्य और कानून पर होता है। आज के संदर्भ में वह संसद और सुप्रीम कोर्ट को मान्यता देता है।'(१४) उधर पुनर्जन्मवादी ऐसे अपराध और अन्य अपराधों पर स्वर्ग – नरक का भय दिखा कर अपराधी को दंड से बचाते रहे हैं। यहां पूछा जा सकता है, बलात्कार से उत्पन्न संतान की क्या यह नियति होती है? जवाब में यही कहना है  कि बलात्कार जघन्य अपराध है और नियति अपराधों के सख्त खिलाफ है। इसलिए जारकर्म और बलात्कार से पैदा संतान को उन की नियति नहीं  माना जा सकता।

देखा जा सकता है, दुनिया का हर व्यक्ति नियति के अधीन है‌। हां, पुनर्जन्मवादी इस के दायरे से बाहर हैं। वे कर्म – कांड, कर्म – फल और कर्म – विपाक आदि ऐसी अप्राकृतिक गतिविधियों से पैदा होते रहते हैं। यहां तक कि वे पूछ कर गर्भधारण करते हैं। बताइए, डॉ. अंबेडकर जैसे तार्किक व्यक्ति पुनर्जन्मवादियों के चक्कर में आए हुए हैं। अंबेडकर पूछते हैं :
“क्या भगवान बुद्ध पुनर्जन्म में विश्वास करते थे?
उत्तर “हां” में है।”(१५)
अब ऐसे धर्म का दलित क्या करें? यहां एक बात ध्यान देने योग्य यह भी है कि पुनर्जन्म का सिद्धांत आक्रमणकारी और घुसपैठिए आर्यों के दिमाग की उपज है। जबकि नियति का सिद्धांत इस देश के मूल निवासी के दिमाग की देन है।

डॉ. अंबेडकर जानते थे कि महारो को छोड़ कर दलितों द्वारा बुद्ध पर सवाल ही सवाल खड़े किए जाने हैं। ऐसे में वह पहले ही लिख गए, ‘कोई भी ऐसी बात जिसका व्यक्ति (कायदे से यहां भिक्खु लिखा जाना चाहिए) के कल्याण से कोई संबंध नहीं, यदि भगवान बुद्ध के सिर मढ़ी जाती हैं, तो उसे ‘बुद्ध वचन’ स्वीकार नहीं किया जा सकता।'(१६) आज नवबौद्ध इसी तिकड़म में लगे हुए हैं। लेकिन खुद डॉ. अंबेडकर बुद्ध के पुनर्जन्म का समर्थन कर रहे हैं, उस का क्या करें?

नियति का विस्तार जाति में होता है। जब माता-पिता निश्चित हैं तो अगला कदम जाति की निश्चितता में होता है। माता-पिता चमार हैं तो संतान भी चमार ही होनी है। चमार की संतान ब्राह्मण या क्षत्रिय तो हो नहीं सकती, इस अर्थ में नियति व्यक्ति की पहचान बन जाती है। नियति का अर्थ ही पिता की पहचान से है। पिता की पहचान का अर्थ पिता की जाति से है। अब जो ‘जाति तोड़ो’ का नारा लगाते हैं, समझ जाइए वह नारा खोखला है। कोई भला अपने बाप की पहचान क्यों मिटाने लगा? जाति तोड़ो का नारा अगर दलित की तरह से आता है तो यह इसकी हीनता को दर्शाता है और द्विजों की तरफ से ऐसा नारा अपने जारकर्म को ढकने के लिए गढ़ा गया है। जब किसी का भी नियति के माध्यम से जाति विशेष में पैदा होना नियत है, तब उस को ले कर कैसी हीनता?

ध्यान रहे, नियति का अर्थ केवल पैदा होने को ले कर है। यह निश्चित होते हुए भी किसी के हाथ में नहीं है। चूंकि, ब्राह्मण ने जाति अर्थात नस्ल को कर्म में रूढ़ कर दिया है, जिसे ले कर लोगों को जाति को समझने में दिक्कत आती है। लेकिन, इसे खुद ब्राह्मण के उदाहरण से समझा जा सकता है। ब्राह्मण का पैदा होने पर क्या जोर? वह ब्राह्मण के रूप में ही पैदा होता है, और आज के संदर्भ में वह विभिन्न पेशों में संलग्न भी होता  है। यह अलग बात है कि इस ने जिन पेशों यानी कर्मों को नीचा घोषित किया है उन्हें यह अभी भी नहीं करता। बावजूद इस के ब्राह्मण मजदूर हो सकता है और अधिकारी भी। यह सैनिक भी हो सकता है और उच्च अधिकारी भी। लेकिन यह कुछ भी हो रहता ब्राह्मण ही है, यह किसी भी हालत में चमार नहीं हो सकता।  इधर, चमार क्या करे?

चमार को जिस कर्म से रूढ़ कर दिया गया उसे ब्राह्मण ने हीन घोषित कर दिया। अब हीनता के मारे कुछ चमार कुछ और होने को तड़पते रहते हैं। वह बाकायदा जाति तोड़ो आंदोलन चलाते हैं। कुछ चमार आरक्षण के चलते बड़े अधिकारी बन जाते हैं तो जाति छिपाते फिरते हैं। यहीं वे अपनी नियति से कट जाते हैं, और मारे जाते हैं। क्योंकि, नियति से आप बच नहीं सकते। आप की जाति तो नियति है, फिर इस के खिलाफ लड़ना अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारना है। तो, इस अर्थ में जाति तोड़ो खोखला नारा बन जाता है। इतना ही नहीं जाति तोड़ने के नाम पर प्रेम विवाह और अंतरजातीय विवाह व्यर्थ की कवायद बन जाती है।

जाति अर्थात नियति से डरे लोगों का अगला कदम धर्मांतरण की तरफ उठता है। चूंकि, ये अपनी पहचान से इतनी बुरी तरह भयभीत रहते हैं कि उस पहचान को ही छुपाना चाहते है। लेकिन, नियति से कोई कैसे बच सकता है भला? वह तो किसी के गर्भ में आने से पहले ही निश्चित है। तब गर्भ से बाहर आ कर उस से कैसे बच सकते हैं। नियति की स्वीकृति आप को दुनिया का सब से ताकतवर बनाती है और नियति की अस्वीकृति या इस से लड़ना किसी का भी मनुष्य होने से गिरना है।

पुनः बताते चलें, नियति का संबंध इस देश की बड़ी से बड़ी बहस में पुनर्जन्म के चिंतन को ध्वस्त करने से है। नियति ने पुनर्जन्मवादियों की धज्जियां उड़ाई हैं, बदले में पुनर्जन्मवादियों ने नियति को भाग्य से जोड़ने की तिकड़म रचाई है। लेकिन, बता दिया जाए, नियति का भाग्य से कुछ भी लेना देना नहीं। पुनर्जन्मवादियों ने यह कह कर अपने सिद्धांत का बचाव किया है कि फलां कर्म की वजह से उन्हें फलां जन्म मिला, फलां को फलां की वजह से फलां। इस देश की निरीह और भोली जनता को द्विजों  ने अपने पुनर्जन्मवाद के जाल में फंसा कर कहीं का नहीं छोड़ा। लेकिन, आज महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर ने इस जाल को काट डाला है। पुनर्जन्म को इसके सिद्धांतकारों अर्थात ब्राह्मण, बौद्ध और जैन तक सीमित कर दिया गया है। डॉ. साहब नियति को इस के वास्तविक और मूल अर्थ में सामने ले आए हैं।

नियति का अगला विस्तार मनुष्य की बुद्धि और कौशल में होता है। जन्म के बाद और मृत्यु के बीच कोई भी अपनी बुद्धि से कुछ भी हो सकता है। एक चमार डाक्टर भी बन सकता है और इंजीनियर भी, इस देश का प्रधानमंत्री भी हो सकता है और किसी भी पेशे का सबसे अच्छा कारीगर भी‌ अगर उस का मन देश की गंदगी साफ करने को चाहे तो वह उसे साफ करता हुआ सबसे बड़ा भंगी बन सकता है। यह बनना व्यक्ति के हाथ में है, वह चाहे तो चंड अशोक बन सकता है और अगर चाहे तो कबीर और धर्मवीर भी।

##

संदर्भ :
१,५,६,८,१०,१२,१३
महान आजीवक : कबीर, रैदास और गोसाल, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, ४६९५, २१-ए, दरियागंज, नई दिल्ली ११० ००२, प्रथम संस्करण : २०१७

२,३,४,७,१५
भगवान बुद्ध और उनका धम्म, बोधिसत्व बाबासाहेब डॉ. बी. आर. आंबेडकर, सम्यक प्रकाशन, ३२/३ पश्चिम पुरी, नई दिल्ली ११० ०६३

९,१६
बुद्ध और उनका धम्म, बोधिसत्व बाबासाहेब डॉ. बी. आर. आंबेडकर, बुद्धम पब्लिशर्स, ,२१-ए, धर्म पार्क, श्याम नगर -II,अजमेर रोड, जयपुर -३०२ ०१९ (राजस्थान)

११,१४
बालक श्यौराज : महा शिलाखंडों का संग्राम, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली- ११० ००२,  प्रथम संस्करण : २०१४

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‘रसीदी टिकट’ के बहाने अमृता को जैसा जाना मैंने!

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चित्र साभार: कोबो.कॉम

कुछ कृतियाँ ऐसी होती हैं हिन्हें पढ़ते हुए हर दौर का पाठक उससे निजी रूप से जुड़ाव महसूस करते हुए भावनाओं में बह जाता है। प्रत्येक पाठक उस रचना का अपना पाठ करता है। ऐसी ही एक कृति है अमृता प्रीतम की आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’, इसका पाठ किया है निधि अग्रवाल ने। वह पेशे से चिकित्सक हैं और हिंदी की पत्र पत्रिकाओं में नियमित रूप से लिखती रहती हैं। आप ‘रसीदी टिकट’ पर उनकी टिप्पणी पढ़िए- जानकी पुल।  

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अमृता प्रीतम अपने नाम में निहित प्रीत की तरह ही उन्हें प्रेम का पर्याय कहा जा सकता है। एक पाठक के रूप में मेरा उनसे लव-हेट रिलेशनशिप रहा है। अमृता प्रीतम की लेखनी से मेरा परिचय बहुत देर से हुआ। पिछले साल जब एक साहित्यिक ग्रुप से जुड़ी तब जिस शिद्दत से उनका जिक्र किया जाता था, उससे उन्हें पढ़ने की जिज्ञासा जरूर जाग्रत हो गई थी। उनकी पहली रचना जो मुझे पढ़ने के लिए मिली वह थी-

अम्बर की एक पाक सुराही,
बादल का एक जाम उठा कर
घूँट चांदनी पी है हमने
बात कुफ़्र की की है हमने……

अमृता की जीवनी जितनी थोड़ी बहुत जानती थी वह उनसे प्रेम न करने के लिए पर्याप्त थी लेकिन यह रचना पढ़कर मन मे एक ऐसी टीस उठी और लगा कि क्या सच ही प्यार में होना कुफ्र की बात है?

दूसरी रचना थी-
अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ कित्थों क़बरां विच्चों बोल
ते अज्ज किताब-ए-इश्क़ दा कोई अगला वरका फोल
इक रोई सी धी पंजाब दी तू लिख-लिख मारे वैन
अज्ज लक्खां धीयाँ रोंदियाँ तैनू वारिस शाह नु कैन
उठ दर्दमंदां देआ दर्देया उठ तक्क अपना पंजाब
अज्ज बेले लाशां बिछियाँ ते लहू दी भरी चनाब

(आज वारिस शाह से कहती हूं, अपनी कब्र में से बोलो इश्क की किताब का, कोई नया पृष्ठ खोलो पंजाब की एक बेटी रोयी थी, तुमने लंबी दास्तान लिखी आज लाखों बेटियां रो रहीं हैं, वारिस शाह तुमसे कह रही हैं उठ! दर्दमंदों के दोस्त, उठ देख अपना पंजाब वन लाशों से अटे पड़े हैं, चिनाब लहू से भर गया है।)

यह लिखने की जरूरत ही नहीं कि  उन्हें पढ़ कर बंटवारे का दर्द और अमानवीयता की पराकाष्ठा आंखों के सामने सजीव हो उठती है। इसके बाद उनकी कुछ कहानियां पढ़ी। उनमें से मुझे ‘जंगली बूटी’ और ‘शाह की कजरी का ही स्मरण है। अन्य कहानियों को या तो मैं पूरा पढ़ नहीं पाई या उनके पात्रों से कुछ संवाद स्थापित करने में असफल रही और इस संवादहीनता का कारण एक पाठक के रूप में मेरे दृष्टिकोण में व्यापकता का अभाव भी हो सकता है।

प्रेमचंद, शरद चंद और छायावादी कवियों के प्रति मेरा रुझान प्राय मुझे अलग तरीके के लेखन को पढ़ने में बाधक ही रहा है। इन सबके साथ फेसबुक और व्हाट्सअप पर अमृता को थोड़ा बहुत पढ़ने का अवसर मिलता रहा और  उनका जीवन परिचय भी।  एक स्त्री और वह भी शादीशुदा स्त्री जो प्रेम करती है किसी और से… और रहती है एक अन्य पुरुष के साथ! सामाजिक मान्यताओं के अनुसार चरित्र पर प्रश्नचिन्ह लगाने के लिए पर्याप्त कारण विद्यमान है। उनका जीवन बॉलीवुड की किसी मूवी की रोमांचकारी पटकथा प्रतीत होती है। निश्चित ही हमारे आस पास अगर कोई ऐसी स्त्री होती तो हम उसके जीवन में रोमांच की ही कल्पना करेंगे, उसके मन की गहराइयों तक जाने का समय और धैर्य हमारे समाज के पास नहीं है। हाँ, झूठी वेदना दिखाने वाले अवसरवादी पुरुषों का जमघट जरूर लग जाएगा।

साहित्यविदों के बीच रह कर अमृता को आप नकार नहीं सकते। तब मन हुआ क्यों ना उन्हें समझने का प्रयास किया जाए, और इसी क्रम में रसीदी टिकट पढ़ने का मन हुआ।

रसीदी टिकट के कुछ ही पन्ने थे कि यह पंक्तियां पढ़ कर मैं चौंक गई।

“यूं तो हर परछाई किसी काया की परछाई होती है। काया की मोहताज पर कई परछाइयां ऐसी भी होती है जो इस नियम के बाहर होती हैं। काया से भी स्वतंत्र मेरे पास भी एक परछाई थी। नाम से क्या होता है उसका एक नाम भी रख लिया था… राजन!”

चौंकने का कारण था कि अभी कुछ महीने पहले ही एक कहानी लिखी थी–आभास!  इस कहानी का आभास राजन का ही जुड़वां भाई प्रतीत हुआ। एक तरफ गर्व भी हुआ कि एक महान लेखिका की कल्पनाओं से मेरी कल्पना मिलती है,  वहीं दूसरी तरफ यह भी लगा कि शायद लोगों को यह विश्वास ना हो कि यह कहानी मैंने अमृता प्रीतम की जीवनी पढ़े बिना लिखी है। हालांकि सपनों के इस आभासी राजकुमार पर ना केवल अमृता और मेरा अधिकार है बल्कि सदियों से अधिकतर लड़कियां इसी को अपना हमदर्द मान आंखों में स्वर्णिम स्वप्न बसाए रहती हैं।

कुछ पन्नों बाद साहिर का अमृता के जीवन में प्रवेश होता है। आत्मकथा के अनुसार अमृता का साहिर के लिए झुकाव उन्हें पहली बार देखते ही हो गया था। साहिर ने भी शायद उसे महसूस किया होगा। इसी कारण जाने से पहले वह उन्हें एक नज़्म दे कर जाते हैं (उस नज्म का किताब में न होना खलता है)।

आगे मित्रों और रिश्तेदारों द्वारा विश्वासघात का जिक्र है। भारत और पाकिस्तान के विभाजन की त्रासदी को पढ़कर नहीं महसूस किया जा सकता उसे महसूसने के लिए सुनाने वाले की आँखों की नमी देखना बहुत जरूरी है।  ऐसे ही गायब हुए आभूषणों के संदूक और विश्वास की कहानी जब भी सुनती हूँ तब यही लगता है कि क्या लडाई केवल दो धर्म के अनुयायियों के मध्य थी? हिंदू-मुसलमान होने से पहले हर कोई केवल एक इंसान ही है।  झूठ, महत्त्वाकांक्षा और छल-कपट से भरे ऐसे ही कुछ इंसानों की असीमित इच्छाओं की परिणति था विभाजन, और विभाजन के दौरान हुई सभी अमानवीय घटनाएं!

साहिर के विषय में बात करते हुए दो या और भी अधिक स्थान पर लिखा है कि,
“साहिर की जिंदगी का एक सबसे बड़ा कांपलेक्स है कि वह सुंदर नहीं है!”

बाकी जगह पर मोहन सिंह, सत्यदेव शर्मा और अन्य कई लेखकों और रेडियो स्टेशन के उन कर्मचारियों का अमृता के लिए झुकाव का जिक्र, अमृता का जो आभा मंडल स्थापित करता है, वह सोचने पर मजबूर करता है कि साहिर के काम्प्लेक्स का कारण कही अमृता ही तो नहीं थी? एक प्रश्न भी मन में आता है कि किसी भी स्त्री या इंसान के लिए स्वयं की प्रशंसा लिखना कितना सहज रहा होगा। आत्मकथा लिखना निश्चित ही तलवार की धार पर चलने जैसा है।  इसका जवाब भी मिलता है जहां अमृता कहती हैं,

“आत्मकथा को प्राय चमकती-दमकती एकांकी सच्चाई समझा जाता है। आत्मश्लाघा का कलात्मक माध्यम पर बुनियादी सच्चाई को की अपनी आवश्यकता मानकर मैं कहना चाहूंगी कि यह यथार्थ तक पहुंचने की प्रक्रिया है।”

अमृता का साहिर की जगह बचपन में हुई सगाई को ही निर्वाह करना भी मन में प्रश्न उठाता है कि जिस लेखिका की कहानी के अधिकतर मुख्य नारी पात्र उन्मुक्त जीवन जीते हैं वह स्वयं क्या इतनी कमजोर थी या फिर वह साहिर से नहीं साहिर के रूप में एक काल्पनिक प्रेमी राजन की कल्पना से ही अधिक अभिभूत रही? साहिर को पा जाने पर क्या वह प्रेम कहानी इतनी ही रोमांचकारी रहती या एक साधारण गृहस्थ जीवन जीते प्रेम की कशिश दम तोड़ देती? और जैसा कि रचनात्मक क्षेत्रों में बहुधा देखने को मिलता है कि व्यक्ति से अधिक उसकी कला से प्रसंशकों का जुड़ाव होता जाता है। कुछ ऐसा ही प्रेम अमृता का साहिल के लेखन से भी लगता है। वह लिखती भी हैं-

“फिर अखबारें, किताबें जैसे मेरे डाकिए हो गईं और मेरी नज्में मेरे खत हो गए उसकी तरफ।”

अमृता की कहानी के पात्रों की ही तरह कहीं-कहीं पर आत्मकथा में कृत्रिमता का भी आभास होता है। कई लंबे सपनों का जिक्र और साहिर का बच्चों को लकड़हारे की कहानी सुनाना और अमृता के बेटे की शक्ल साहिर  से मिलना! अमृता प्रीतम के बाद के चित्रों में मुझे कभी-कभी इंदिरा गांधी की छवि का भी एहसास होता है लेकिन इंदिरा होना और अमृता होना उतना ही भिन्न है जैसे धरती-आकाश होना। स्वयं अमृता के ही शब्दों में,

“… दृष्टिकोण मेरा भी यही था पर इंदिरा जी के लिए जो मन की सहज अवस्था है मेरे जैसे साधारण इंसान के लिए, वह एक उस मंजिल की तरह थी जिसका रास्ता बड़ा कठिन हो।”

आगे बढ़ने पर दो बड़ी ही प्यारी पंक्तियां भावविभोर करती हैं। पहली इमरोज के लिए लिखी गयी हैं–

“राही तुम मुझे उस संध्या बेला में क्यों मिले। जिंदगी का सफर खत्म होने वाला है।  तुम्हें मिलना था तो जिंदगी की दोपहर के समय मिलते उस दोपहर का सेक तो देख लेते।”

दूसरी जो मुझे सही से स्मरण नहीं, पर कुछ इस प्रकार है–
“दर्द सबका अलग होता है लेकिन इस दर्द की आकृति प्रायः मिल जाया करती है।”

जहां एक तरफ अमृता के शब्दों और रूप के तिलिस्म में खोए कई प्रशंसक और मित्र थे, वहीं उनसे नफरत रखने वाले भी कम नहीं थे, और यह नफरत शायद अमृता का सामीप्य ना पाने की उनकी कुंठा अधिक हो। वह लिखती हैं–
“पंजाबी लेखकों के पास लिखने के लिए कोई गंभीर विषय नहीं होता। वे स्वयं ही कई अफवाह फैलाते हैं। स्वयं ही उनको अपनी मर्जी से जिधर चाहे मोडते हैं और फिर उन्हें लिख-लिख कर उनमें लज्जत लेते हैं।”

सामाजिक असहिष्णुता और विश्व व्यापक अशांति के अनेक सन्दर्भों में एक जगह वह कहती हैं —
“एक वक्त था जब  केरल में जातिवाद की भयानकता को देखकर स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि केरल भारत का पागल खाना है। आज मैं भरी आंखों से कहना चाहती हूं कि हम हर प्रांत को भारत का पागल खाना बना रहे हैं।”

और मुझे लगता है कि यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज हम उस विक्षिप्तता को पूर्णता प्राप्त कर चुके हैं। वायोत्सारोव की एक कविता के अनुवाद में वह लिखती हैं,
“कल यह जिंदगी सयानी होगी यह विश्वास मेरे मन में बैठा है और जो इस इस विश्वास को लग सके वह गोली कहीं नहीं वह गोली कहीं नहीं,”

कितने ही हिटलर आये और गए लेकिन यह सच है कि एक इस विश्वास की ढाल ही उम्मीद की आत्मा को जिंदा रखे है।

कविताओं के संदर्भ में ही अमृता एक अन्य स्थान पर वह लिखती हैं कि,
“मन में एक प्रार्थना उठ रही है काश कि दुनिया की सारी सुंदर कविताएं मिल जायें और वियतनाम की रक्षा कर सकें।”

क्रागुयेवाच शहर के निर्जन में 18 गज लंबे  और 10 गज ऊंचे दो सफेद पंखों के ( जो जर्मन फौजियों द्वारा स्कूल के बच्चों और मास्टरों के गोलियों से बींध दिए जाने की भयावह घटना के स्मारक हैं) संदर्भ में वह लिखती हैं–
“यह पत्थर के पंख उस उड़ान के स्मारक हैं जो उन 300 बच्चों की छाती में भरी हुई थी।”

म्यूनिख में जहां  हिटलर की ट्रायल हुई थी, एक जर्मन लड़की द्वारा उनसे पूछा गया कि आपका क्या ख्याल है हमारे लोगों ने यह जो कुछ किया था कभी हमें इसका फल भुगतना पड़ेगा… ? और मैं सोच रही हूं कि जो हम प्रकृति और मानवता के साथ कर रहे हैं क्या उसका खामियाजा भुगतने से हमारे बच्चे बच पाएंगे?

जातीय  समीकरणों और राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं से दूर, बहुत ही प्यारी संवेदनाओं से भरे क़िस्से इस किताब में है। रविंद्र नाथ टैगोर के बारे में वह लिखती हैं कि रविन्द्र नाथ ठाकुर ने बुडापेस्ट में एक पेड़ लगाया था और एक कविता लिखी थी,
“मैं जब इस धरती पर नहीं रहूंगा, तब भी मेरा यह वृक्ष आपके बसंत को नव पल्लव देगा और अपने रास्ते जाते सैलानियों से कहेगा कि एक कवि ने इस धरती से प्यार किया था।”

रविंद्र नाथ जी से ही जुड़ा एक और किस्सा लिखते  हुए वह कहती हैं कि अमृता ने जब एक कविता उन्हें सुनाई तो उन्होंने जो प्यार और ध्यान दिया था वह कविता के अनुरूप नहीं था…  उनके अपने व्यक्तित्व के अनुरूप था। अपने व्यक्तित्व के अनुरूप आचरण ही महान व्यक्तियों की के व्यक्तित्व को परिभाषित करता है।

और जैसे कि मैं हमेशा कहती हूं की एक कहानी का नायक दूसरी कहानी का खलनायक हो सकता है इसी संदर्भ में वह इज्जत बेग (जो समरकन्द का था और भारत में एक कुम्हारिन से प्रेम करने लगता है), का जिक्र करते हुए कहती है कि समरकन्द में एक स्त्री ने कहा- हमारे देश में तो वह बस एक अमीर सौदागर का बेटा था और कुछ नहीं प्रेमी  वह आपके देश जाकर बना सो (उस पर) गीत आपको ही लिखने थे, हम कैसे लिखते ?

“किन देशों के लोग किन देशों में जाकर गीतों का विषय बन जाते हैं और अपने व्यक्तित्व का कौन सा भाग कहां छोड़ आते हैं बड़ा मनोरंजक इतिहास है!”

एक और दिल छूती हुई पंक्ति एक विदेशी औरत पर लिखी कहानी के संदर्भ में आती है, जिसमें उस स्त्री के पात्र की कहानी में मृत्यु हो जाती है पर वर्षों बाद जब अमृता उसके देश गई और कसकर गले लगकर मिली तब उसके पहले शब्द थे,

“देखो मैं अभी भी जिंदा हूं… कहानी की मृत्यु में से गुजर कर भी जिंदा हूं!”
… और यह कितना बड़ा सच है।  प्राय: आम जिंदगी के आम पात्र कहानी के सुपर हीरोज से भी कहीं अधिक संघर्ष करते हैं और कहीं अधिक हिम्मत रखते हैं। पृथ्वी के अक्षुण्ण अस्तित्व की घोषणा करता एक किस्सा अमृता की शादी के समय का आता है, जहां उनकी मां की सहेली ने अपने हाथ की सोने की चूड़ियां उतारकर उनके पिताजी को दे दी थी क्योंकि उन्हें लगा कि ससुराल वाले शायद कुछ मांग रहे हैं। अमृता लिखती है–

“मां की सहेली ने वह चूड़ियां वापिस हाथों में पहन ली, पर ऐसा प्रतीत होता है चूड़ियां उतारने का वह एक क्षण दुनिया की अच्छाई का प्रतीक बन कर सदा के लिए ठहर गया है…।”

… और मुझे लगता है कि यह छोटे छोटे क्षण कितने बड़े सम्बल बन जाते हैं, जीवन समर में विजय पाने के लिए!

एक और बहुत प्यारा प्रसंग उनकी प्रिय सहेली उज़्बेक की कवियत्री जुल्फ़िया खान के साथ का है जहां एक पुस्तक की जिल्द पर बनी तस्वीर को देखकर अमृता कहती हैं–

“इन आँसुओं और औरत की आँखों का ना जाने, क्या रिश्ता है कोई भी मुल्क हो उनका यह रिश्ता बना ही रहता है!”

इमरोज़ के जिक्र के बिना अमृता पूरी नहीं होती, लेकिन अमृता को पढ़कर इमरोज़ यानी इंद्रजीत को समझना असंभव है। साहिल और अमृता तो कुछ ना कुछ अंश में हम सब के भीतर हैं लेकिन इमरोज शायद दुनिया में एक ही हुआ है।

अमृता का इमरोज से पहला परिचय साहिर के लिए अपने आखिरी खत को प्रकाशित कराने के लिए एक चित्रकार की तलाश में हुआ था। अमृता ने बचपन से एक कल्पना की  थी। वह उस कल्पना का मन पहचानती थी लेकिन इस कल्पना का कोई चेहरा नहीं था। वह चेहरा उन्हें कुछ हद तक साहिर में नजर आया। वह कहती हैं-
“मेरी और साहिर की दोस्ती में कभी भी लफ्ज़ हायल नहीं हुए थे यह खामोशी का हसीन रिश्ता था।”
मुझे लगता है अपने बचपन के काल्पनिक सखा और संबल रतन को सहेजते अमृता प्रेम का दूसरा नाम बन गयी  थी और उन्हें पाने के लिए खुद को मिटा बस प्रेम ही बचाना था, और यह सहजता इमरोज़ में साहिर से कहीं अधिक  प्रतीत होती हैं। अमृता  के शब्दों में–
‘इमरोज़ एक दूधिया बादल है। चलने के लिए वह सारा आसमान भी खुद है, और वह पवन भी खुद  है जो उस बादल को दिशा-मुक्त करती हैं…’

साहिर, इमरोज और अमृता के रिश्तों की सच्चाई जो भी रही हो लेकिन संसार और प्रेम के सौंदर्य में निष्ठा रखने वाले अनगिनत पाठको की तरह मैं भी इन रिश्तों की रूहानियत को जीती अमृता की आत्मकथा के हर एक शब्द पर यकीन करते हुए, दुनिया को प्रेम के नए आयाम देने के लिए उन्हें शत-शत नमन करती हूं!

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डॉक्टर निधि अग्रवाल

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बेटी सूफ़िया की निगाह में लेखक शानी

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‘काला जल’ जैसे उपन्यास के लेखक शानी के बारे में आजकल कम लिखा जाता है, सुना जाता है। हम विस्मृति के दौर में जी रहे हैं। गुलशेर ख़ाँ शानी के तीन बच्चों में शहनाज़, सूफ़िया और फ़िरोज़ हैं। सूफ़िया दिल्ली में रहते हुए 10 सालों से बीबीसी रेडियो से जुड़ी हुई रहीं। शहनाज़ भोपाल में ब्याही गई हैं जबकि फ़िरोज़ दिल्ली में ही रह रहे हैं। इस संस्मरण में हम सूफ़िया की यादों में साझी बन शानी को फिर से देखने-समझने की कोशिश करते हैं। शानी के साहित्यिक वजूद से तो सभी परिचित हैं, लेकिन एक पुत्री की निगाह में कैसे पिता थे शानी? मार्च 2003 में संगीता ने यह बातचीत की थी— लिटरेट वर्ल्ड के लिए- अमृत रंजन

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‘आइए, आप शानी जी के घर आईं हैं। यहीं रहा करते थे वे।’ दरवाज़ा खुलते ही सूफ़िया ने कहा था।थोड़ी देर इधर-उधर की बातों के बाद वे चाय लेने चली गईं। दरअसल सूफ़िया से फोन पर ही ये बात हुई थी कि लिटरेटवर्ल्ड के ‘संस्मरण’ की ख़ातिर शानी की यादों को उनके हवाले से पाठकों तक पहुँचाना है इसी संदर्भ मुझे उनसे मिलना है। और एक इतवार को शाम की चाय के साथ हमारी बातचीत तय हुई। सूफ़िया के जाते ही मैंने उस कमरे में सूफ़िया के पिता और साहित्यकार शानी को ढूँढ़ना शुरू कर दिया। लगा जैसा साथ वाले कमरें में रिकॉर्डर पर कुछ गाने-वाने चला कर बच्चे बातें कर रहे हैं। सूफ़िया की बेटियाँ होंगीं। शानी को वहाँ महसूसने और ढूँढ़ने के क्रम में एक-एक कर कई दृश्य मेरे सामने आप ही आने-जाने लगे।… जहाँ अभी मैं बैठी हूँ…कभी यहाँ शानी भी बैठते होंगे। उस छोटी सी चौकी पर सुन्दर-सुन्दर कई कुशन पड़े थे। एक कुशन उठाया, हाथों को इस पर टिका दूँ, नहीं ऐसा करना शिष्ट तरीक़ा नहीं होगा। क्या शानी को भी कुशन का सहारा लेने में… ये तो उनका अपना घर था। सामने ही डायनिंग टेबल था। यहीं वे दोस्तों के साथ कभी बैंगन में काला चना डालकर तो कभी उसमें लोबिया डालकर सब्जी खाते और खिलाते रहे होंगे। कितनी ही सजावट की छोटी-छोटी चीज़े दीवारों पर आँखें खींच ले रही थीं। क्या इन सजावटी चीज़ों से भी उनका सरोकार रहता होगा। लेकिन उसी दीवार पर साधारण किन्तु सुन्दर ढंग से बने बुक सेल्फ़ पर मुझे एक नहीं कई-कई शानी मिलते जाते हैं। ‘काला जल’ के शानी, ‘एक लड़की की डायरी’ के शानी,…शानी, शानी, शानी। अपने पूरे वजूद के साथ वहाँ मौजूद थे शानी।

गुलशेर ख़ाँ शानी अपने परिवार के साथ

और शाम की चाय के साथ सूफ़िया कई बरस पीछे चली जाती हैं एक बार फिर अपने पापा के पास और साथ गुज़ारे उन्हीं लम्हों में। ‘आज जब मैं उनसे की गयी बातचीत के क्षण याद करती हूँ या उनकी किताबें पढ़ती हूँ तो लगता है कि पापा का बस्तर से दिल्ली का सफर न सिर्फ लम्बा था बल्कि वो गर्म रेत पर नंगे पाँव चलने के समान ही था।’ शानी का ग्वालियर से लेकर दिल्ली आने तक का जो सफर था… उसमें उन्हें हज़ारों बार ये एहसास कराया गया कि तुम मुसलमान हो। तुम हिंदी में लिखते हो। तुम हिंदी के मुसलमान साहित्यकार हो। ऐसा क्यों कहा जाता था उन्हें। बार–बार अलग क्यों कर दिया जाता था। सूफ़िया कहती हैं ‘उनकी कहानियों को पढ़िए तो आपको स्पष्ट कारण मिलेगा कि शानी जी को गुस्सा क्यों आता था।’ वे आगे कहती हैं – ‘हम बच्चों का रिश्ता पापा से दिल्ली आने पर ही क़रीब हुआ। इससे पहले उनसे बातचीत तभी होती थी जब वो अच्छे मूड में होते थे।’ एक दिन ऐसे ही अच्छे मूड को देखते हुए सूफ़िया ने पूछा था–‘पापा, आपको बात-बात पर गुस्सा क्यों आता है।’ तब उन्होंने एक लम्बी साँस लेते हुए जवाब दिया था – ‘बेटे हम ऐसे होते नहीं, लोग हमें बना देते हैं।’ शानी कई बार चिढ़ भी जाते थे कि ‘मुझे अल्लाह ने क्यों जगदलपुर बस्तर में ही पैदा किया। क्यों गुलमेर ख़ाँ के यहाँ पैदा किया। मुझे दिल्ली या आगरा में ही क्यों नहीं पैदा किया राजेंद्र यादव की तरह।’ सूफ़िया कहती हैं ‘प्रतिरोध का जो सफर उन्होंने तय किया था नंगे पाँव, उसकी तपिश, उसकी तकलीफ़ तो जबान पे आएगी न संगीता। ये तो कई लोगों ने भी माना है।’ लोगों ने माना है कि वो तो नीलकंठ थे। बूँद-बूँद उनके मन में ज़हर इतना इकट्ठा हो गया था कि समय-समय पर वह निकलता रहता था। चाहे वे साहित्यिक बिरादरी में बैठे हो, किताब विमोचन का अवसर हो या कोई गोष्ठी हो।

सूफ़िया का अपने पिता से जबरदस्त डायलॉग हुआ करता था। जबकि बाहर के लोगों को ऐसा लगता था कि बहुत ग़ुस्सैल हैं शानी, तो इन लोगों का आपस में डायलॉग तो होता ही नहीं होगा। एक समय तक ऐसा था।एक तरह से बच्चे उनके क़रीब दिल्ली आने के बाद ही हो पाए।एक समय ऐसा आया था कि सूफ़िया की माँ गई हुई थीं, दादी के पास। दादी तब बीमार थीं। तक़रीबन 15–20 दिनों का यह समय बच्चों को पिता के क़रीब ले आया था। सूफ़िया बताती हैं – ‘तब मैं कॉलेज में पढ़ रही थी। इस समय पापा बिल्कुल दोस्तों की तरह व्यवहार करने लगे थे। इस बीच उनसे हर तरह की बात की। यहां तक कि सेक्स की भी।हमलोग पिक्चर देखने गए साथ में। बहुत जल्द ही वे ऑफिस से घर आ जाते थे कि – ‘तुम अकेली हो घर में।’ इस तरह छोटी-छोटी चीज़ों का भी वे बहुत ख़्याल रखते थे।’ वे आगे बताती हैं, ‘मुझे आज भी याद है भोपाल की वह शाम, जहाँ गर्मियों में हम बैठा करते थे। बहुत ही इंटिमेट शाम थी वो।अक्सर वो हमारे साथ बहुत बातें किया करते थे। बहुत सारे विषयों पर। रिश्तों पर खास तौर से बातचीत होती थी। माँ-बेटी की, बाप-बेटी के रिश्तों की, कहानियों की, जीवन-मूल्यों की बात, जिंदगी के फ़लसफ़े की बातें होती थीं, कि हमें ये नहीं मिला तो उसके लिए दुख है। लेकिन वे दर्शन नहीं बघारते थे। तरह-तरह से ज़िंदगी की कई चीज़ों को समझाते थे कि आपके मन में जो चल रहा था वो कितना ग़लत था और कितना सही।’

शानी खाने–पीने के बड़े शौकीन थे। खाने के भी, खिलाने के भी। सूफ़िया कहती हैं ‘जबसे हमने होश सँभाला, हमारे घर दावतें ही होती रहती थीं। उनको बहाना चाहिए होता था। कभी मौसम के बहाने, तो मूड ख़राब के बहाने, तो बोर हो रहे हैं, तो मिले नहीं हैं इसके बहाने, आज अखबार में ये आ गया है इसके बहाने, किसी के किताब का विमोचन हुआ है तो उसके बहाने…तो बहानों के साथ दावतों की शाम होती ही रहती थी।’ जिस तरह से शानी खाने के शौकीन थे, वैसे ही खाना पकाने का सलीका भी उनमें ख़ूब था। कहते हैं न पाक विद्या में अगर आपके पास इमेजिनेशन नहीं है तो खाना उतना अच्छा नहीं बनता है। वह एक ही ढर्रे का बनता है। शानी अपनी पत्नी से कहा करते थे ‘किसने कहा है कि बैंगन में सिर्फ आलू ही डालते हैं। इसमें तुम काले चने क्यों नहीं डाल सकती? इसमें तुम लोबिया क्यों नहीं डालती?’ शायद हर चीज पर एक्सपेरीमेंट करते रहना साहित्यकार होने के नाते उनकी आदतों में शुमार थी।

यूँ भी चीज़ों को देखने के लिए व्यक्ति के पास स्वस्थ और सुन्दर फीलिंग होनी चाहिए। इसी विषय पर इनकी एक कहानी आई थी ‘वार्ड न. – 6’। ‘जिसमें दो दोस्त थे। एक का पलंग खिड़की के पास था। वो खड़े होकर खिड़की के बाहर देखते हुए बाहर का दृश्य बयान करता रहता था कि ‘वाह, क्या ख़ूबसूरत फूल खिलें हैं, कितने खूबसूरत पेड़ हैं। बाहर के सारे प्राकृतिक वर्णन किया करता था।अचानक उस दोस्त की डेथ हो जाती है।अब जो दूसरा दोस्त है वो जला करता था कि उसे ये सब चीजें देखने को नसीब नहीं होती थी। उसके डेथ के बाद फौरन उसने उसके बेड पर कब्जा किया और जाकर खिड़की के पास खड़ा हो गया।बाहर कुछ नहीं था सिवाय दीवार के।’ सूफ़िया कहती हैं – ‘तो जिंदगी का सच पापा ने हमें ये कहानी सुनाकर बताया था कि आप चाहें तो ऐसे जी सकते हैं। ये नज़रिये की बात है।’

बचपन में सूफ़िया को शानी की एक बात बुरी लगती थी। वह मन ही मन सोचा करती थी कि – ‘मेरी सहेली के पापा उसको पढ़ाते हैं। फिर मेरे पापा मुझे क्यों नहीं पढ़ाते? ये तो बहुत बाद में पता लगा कि मेरे पापा तो राइटर हैं। वे कैसे पढ़ाएँगे? उनके पास तो समय है ही नहीं।’ उनकी कहानी ‘जगह दो रहमत के फरिश्ते आए हैं’, में सूफ़िया पात्र बनी हैं अपने नाम के साथ। उनका भाई भी है। छोटी सी घटना है। एक कुत्ता है घर में। उसे खुजली हो गई है। तब शानी कहते हैं– ‘डिजीज है, सबको हो सकती है, इसे आप बाहर छोड़ आइए।’ उस संवदेना को, उसे बाहर करने पर उन भाई-बहन का जो मन टूटा है, उसे शानी जिस तरह कहानी के रूप में रखते हैं वह अदभुत है। सूफ़िया कहती हैं– ‘उस कहानी को पढ़कर लगता है हम शायद भूल गए होते उस घटना को अगर यह कहानी नहीं होती। उस कहानी को पढ़कर आज भी मन भींग जाता है।’

सूफ़िया कहती जाती हैं – ‘क्योंकि मैं उनके तीन बच्चों में अलग थी। साहित्यिक रुचियाँ ज़्यादा थी मुझमें। मुझे अब लगता है कि पापा मुझे कुछ ज्यादा स्नेह देते थे ,हालाँकि तब तो ऐसा नहीं लगता था। तब लगता था कि सभी को बराबर ही स्नेह करते हैं। वे बड़े डिप्लोमैटिक थे। आज जब इस उम्र में पहुँची हूँ तो ऐसा लगता है कि हर माँ-बाप को अपने ही कई बच्चों में कोई एक बहुत ज्यादा प्रिय होता है। लेकिन बच्चों में हीन भावना न आने पाए कि माँ या बाप उन्हें दूसरे भाई-बहन के अपेक्षा कम प्यार क्यों करते हैं। इसलिए हर मां बाप को ये गेम खेलना पड़ता है। ऐसा ही गेम खेला पापा ने भी। वे हम तीनों को बराबरी पर लाना चाहते थे या उठाना चाहते थे। हर माँ-बाप बच्चों को आगे बढ़ता देखना चाहते हैं। इस तरह जब वे मुझसे बातें करते तो कहते ‘देखो–तुममें ये ख़ूबियाँ हैं, तुम्हारी बहन में ये ख़ूबियाँ हैं, ये करना चाहिए वो करना चाहिए।’ बहन से मिलते थे तो उससे भी ऐसा ही कहते थे। मुझे बार-बार उन्होंने प्रोत्साहित किया कि लिखना चाहिए। लिखने के लिए पढ़ना बहुत जरूरी है। कई बार मुझे ये लगता था कि उन्होंने मेरे भाई को ज्यादा लिबर्टी दे रखी है। हमलोगों को उतनी नहीं है। भाई को हमलोगों से ज्यादा आज़ादी दी गई है। बेटा है इसलिए उसे ज्यादा प्यार करते हैं। कई बार ये भी लगता था कि वाह क्या राइटर हैं। ये भिन्नता भी आप करते हैं। कई बार लगता था कि गड़बड़ कर रहे हैं पापा, हम दोनों बहनों को उतना प्यार नहीं करते थे, भाई को जितना करते थे। ऐसा बहुत बार मन में आया कि भाई को ज़्यादा किया हमें नहीं किया।’

सूफ़िया को शानी जी के साथ रहने का बहुत मौका मिला। कई बार तो सुबह–शाम, दो–दो, तीन–तीन दिन वे लोग साथ रहते थे। वे कहती हैं ‘लेकिन जब उनकी दृष्टि से उनकी जगह पर खड़े होकर देखा। तब मैं माँ भी नहीं थी, बीबी भी नहीं थी। जब मैच्योरिटी आ गई तो हमें लगा कि ये गेम सब माँ-बाप को खेलना ही पड़ता है। सब बच्चों को बराबरी से देखना पड़ता है, लेकिन कहीं-न-कहीं तो। …और शानी ने भी इस सच को माना था, लेकिन इस सच को उजागर नहीं किया था। उन्होंने कहा था… ‘ बेटी, होता है, किसी न किसी एक के लिए ऐसा महसूस होता है। और ऐसा तुम तीनों में से किसके लिए है, ये नहीं बताऊँगा।’ अगर वो आज होते तो मैं कहती कि मैं मैंटली मैच्योर हो चुकी हूँ। इस सच को बता दीजिए। वो होते तो मैं उनसे पूछती कि किसके लिए ज़्यादा है।लेकिन मेरे ख्याल से ये सच ऐसा कड़वा होता कि अच्छा ही है कि उन्होंने नहीं बताया।क्योंकि मैं ये मान के चलती हूँ कि मुझे पापा बहुत प्यार करते थे। उन्होंने हम तीनों को बराबर समय दिया। हालाँकि बहुत कम समय था उनके पास।’

किसी चीज को अभिव्यक्त करने की शानी में अद्भुत क्षमता थी। वे अपनी पत्नी पर बहुत गुस्सा करते थे कि ‘तुम मन ही मन में बात रख लेती हो। बच्चों को इसका पता कैसे चलेगा। जब तक उसे बताओगी नहीं कि तुम क्या चाहती हो या उन्हें क्या करना चाहिए।’ शानी अगर नाराज होते थे, तो वो भी ज़बरदस्त होता था। मतलब लोग थर्राने-काँपने लगें, जबकि प्यार भी इतना करते थे कि भीतर तक भिगो देते थे। सूफ़िया बताती हैं, ‘एक तरह से माँ और बाप दोनों का रोल उन्होंने अदा किया। क्योंकि हमारी माँ जो थीं, उनके पास कोई अभिव्यक्ति नहीं थी। उनका अलग ही व्यवहार था, कि खाना बना दिया, काम कर दिया वग़ैरह। समझाना–बताना, ‘माँ बताती हैं न’, ये सब काम पापा ने किया। सुनकर आपको हैरानी होगी कि जब हम जवान हो रहे थे, आज तो वक़्त बहुत आगे बढ़ गया है। लेकिन उस दौर में शायद ही कोई पिता अपनी बेटियों से जो जवान हो रही हों, उनकी भावनाओं को समझते और उसे बताते होंगे कि जिस दौर से तुम गुजर रही हो, तुम्हें ऐसा लगता होगा। ये लड़के अच्छे लगते होंगे। लेकिन तुम्हारे मन में ऐसी भावनाएँ आती होंगी। तुम्हें सही और ग़लत का फ़ैसला करना होगा।’

‘जब हम बहुत छोटे थे। मैच्योर नहीं थे तो उनके ग़ुस्से से बहुत ग़ुस्सा आता था कि माँ को कितनी बुरी तरह से डांट देते हैं। तब बहुत सारी बातें समझते ही नहीं थे। जब हम बड़े हुए तब उनकी कहानियों को पढ़ा, समझने लगे चीज़ों को। हालात भी सामने आए तो लगा कि उनका ग़ुस्सा जायज़ था। बहुत जायज़। क्योंकि कुछ लोग अभिव्यक्त करते हैं, तो कुछ लोग घुटते रहते हैं। पापा में अभिव्यक्त करने की अदभुत क्षमता थी, चाहे वो प्यार हो या ग़ुस्सा बहुत बुरी तरह से बाहर निकालते थे। फिर उतना बुरा नहीं लगा। बल्कि मुझे ख़ासतौर से बहुत ग़ुस्सा आता है जब लोग कहते हैं कि शानी जी इतने ग़ुस्सैल थे। बात-बात पर बिगड़ जाते थे। तो मैं ये कहती हूँ कि ठीक है वे बात–बात पर बिगड़ जाते थे। लेकिन आप कारण क्यूँ नहीं जानना चाहते हैं। कारण भी तो होगा।’

सूफ़िया कहती जाती हैं ‘याद आता है मुझे कि समझौता भी वे बहुत ख़ूबी से किया करते थे। लेकिन माँ हमारी बहुत शांत थी। अगर माँ ने समझौता किया पापा के साथ तो पापा ने भी काफी समझौता किया माँ के साथ।उनके जीवन में बहुत सी औरतें आईं।’ वे बहुत ईमानदारी से कहते थे कि ‘मैं चाहता तो कई औरतों से शादी कर सकता था। लेकिन जो ख़ूबियाँ तुम्हारी मां में है बर्दाश्त करने की, ज़बरदस्त हैं। वे कभी कोई डिमांड ही नहीं करती। जैसा भी वक़्त होता है वे स्थिर रहतीं हैं। ये ख़ूबियाँ दूसरी औरतों में नहीं हो सकती हैं।’

कई लोग कहते थे कि मम्मी बहुत सीधी हैं। कितना ग़ुस्सा करते हैं शानी जी। कैसे झेलती हैं वो। कोई और औरत होती तो नहीं झेल पाती। ‘ऐसा नहीं था।’

पुरूष को किस तरह टैकल करना है ये हर औरत को पता होता है। जो काम माँ का होता था पापा से, निकाल लेती थीं वो। तब पापा लेखक नहीं, पति होते थे। मुझे ऐसा नहीं लगता कि माँ ने अन्याय सहा और पिताजी ने अन्याय किया।

जब हम दिल्ली आए तो लेखक लोगों में बातें होने लगी। शानी जी की पत्नी बहुत ही शांत, कम पढ़ी लिखी हैं, वे बोलती ही नहीं हैं। माँ हमारी सिर्फ़ 11 वीं पास थीं। लोगों को लगता था कि शानी बहुत ही डोमिनेंट क़िस्म के व्यक्ति हैं। लेकिन माँ का स्वभाव ही ऐसा था कि बहुत ही कम बोलती थीं। हमलोगों को याद नहीं आता कि कभी उन्होंने डाँटा मारा हो। ये जिम्मेदारी भी पापा की ही थी, कि क्यों नहीं पढ़ रहे हो। ये जो आरोप है पापा पर कि वो बहुत डोमिनेंट क़िस्म के पति थे – तो मैं उससे उन्हें बरी करना चाहती हूँ कि ऐसा बिल्कुल नहीं था।

कई तर्कों से समझाते थे वे बातों को। क्योंकि बहुत गहराई से चीज़ों को देखते थे। तब जो उनका व्यवहार होता था भले ही उस समय हमें समझ में न आए, भले ही और लोगों को न समझ में आए। लेकिन आज जब हम इतने सालों बाद उन चीजों को दोहराते हैं, तो देखते हैं कि बहुत सारी चीजें सही हैं जो वे करते थे। उनका ग़ुस्सा सही था।

आने वाले समय की धमक वे पहले ही सुन लेते थे।उन्हें लगता था कि लड़कियों को पढ़ाना चाहिए। बहुत संघर्ष के दिनों में भी उन्होंने बच्चों की पढ़ाई जारी रखी। कॉलेज की डिग्री से उन्हें क़तई मतलब नहीं था। जिस तरह से वे चीज़ों को हमारे भीतर तक पहुँचा देते थे। इतनी सहजता से बातें समझा देते थे। चाहे वो कैरियर की बातें हो, चाहे वो जिंदगी की बातें हो, चाहे भाषा की बात हो, चाहे वो पाक कला हो, चाहे वो घर रखने का सलीक़ा हो, चाहे वो बातचीत करने का सलीक़ा हो, चाहे वो कपड़े का सलीक़ा हो, उन्होंने ही हमें बताया।

ऐसा नहीं था कि वो बैठकर हमें भाषण देते थे, कि ऐसे होना चाहिए, नहीं तो ऐसा होना चाहिए। वे आराम से अपनी बात कहते थे और हम लोग सुनकर उसे अपनाते भी थे। आज पापा होते तो मुझे बताते कि बच्चों को तुम ऐसे नहीं ऐसे कहो। आज समय ही नहीं है मेरे पास कि बच्चों को बैठकर बताओ। ये कमी बड़ी खलती है, ये जो गुण था उनमें, समय निकालकर समझाने-बताने का, पता नहीं कैसे था? और माँ–बाप की कमी तो जीवन में हमेशा ही खलती है।

आपसी बातचीत में अच्छे साहित्यकारों की बातों को कोट करते थे वे बीच-बीच में। तीन-तीन, चार-चार घंटे एक विषय पर उनकी बातें होती थीं और ऐसा नहीं था कि हमेशा गंभीर बातें ही होती थी। उनमें मज़ाक करने, अपने हाल पर अपने-आप पर हँसना, ये सब भी ज़बरदस्त था। उन्हें वो लोग भी अच्छे लगते थे जो हँसाए, मज़ाक करे। छोटे से छोटे व्यक्ति से दोस्ती कर लेते थे वे। चाहे वो माली ही क्यूँ न हो।

पतली सी झील बहती है नोएडा के आगे। वहाँ वे टहला करते थे। वहीं नाव चलाने वाले से उनकी दोस्ती हो गई थी जिनसे उनकी बातें भी हुआ करती थी। वो नाविक कैसे सोचता है? क्या करता है? ये सारी बातें भी आकर किया करते थे वे सूफ़िया से। तो ऐसा नहीं था कि वे हर वक़्त साहित्यकार ही रहते थे।

उनकी रचनाओं में ‘काला जल’ को बार–बार पढती हैं सूफ़िया। कहती हैं ‘जब भी पढ़ती हूँ उसके नए-नए आयाम मुझे मिलते हैं। बड़ी अजीब बात है कि जब मैंने बी.ए. प्रथम वर्ष में क़दम रखा था कि पापा की ‘काला जल’ मेरे कोर्स में लग गई। और हमारी मित्र कहने लगी ‘अरे ये तो समझ में नहीं आता कि क्या लिखा है?’ मैंने कहा ‘मुझे ख़ुद समझ में नहीं आता कि क्या लिखा है पापा ने?’ तब मुझे सच में बहुत सारी चीजें समझ में नहीं आती थी कि ‘सल्लो आपा को क्या हो गया।’ लेकिन पापा के ही एक अभिन्न मित्र ने मुझे समझाया कि ‘काला जल’ क्या है। लेकिन जैसे-जैसे मैच्योरिटी आती गई और मैं वक्तन–बेवक्तन उसे पढ़ती हूँ, या दूसरे लोगों के दिमाग़ से उसके बारे में सुनती हूँ। तो लगता है कि मेरे पिता ने लिखा। शानी जी अगर मेरे पिता नहीं होते तब भी वह उपन्यास मैं पसंद करती।

पापा को हार्ट अटैक 1980–81 में हुआ था। साहित्य एकेडमी का ऑफिस उन्होंने ज्वाइन किया था।गर्मियों की दोपहर थी। ऐसे ही उन्हें बेचैनी हुई वे लेट गए फिर किसी को बुलाया और मंडी हाउस से शेख सराय वाले घर पर आए। घर आने पर उन्हें उलटी आई। माँ को समझ में आ नहीं रहा था। मैं घर पर थी नहीं। फिर डाक्टर आए। डाक्टर ने उन्हें हिलाने से भी मना कर दिया। तुरंत आई.सी.यू. में ले जाया गया। 15 दिन रहे, और उसके बाद वे नहीं रहे। शानी कहा करते थे ‘मुझे ग़ालिब के शेर से ही ताकत मिलती है।’ ज़बरदस्त विल पावर था उनमें। दो घंटे के का हार्ट–अटैक वही झेल सकता है जिसमें विल पावर हो। सूफ़िया कहती हैं ‘अंतिम समय तक मैं उनके साथ थी और आज मुझे उनके साथ गुज़ारी हुई कई शामें याद आती हैं। जब मैं उदास होती हूँ क्योंकि संघर्ष तो जीवन में लगा ही रहता है तो उनकी बातें बहुत संबल देती हैं। माँ को डायबिटीज़ था। ज्यादा हो जाने पर उनकी मेमोरी लॉस हो गयी। 2001 जनवरी में वो भी गुज़र गयीं।’

बहन शहनाज़ मुझसे बड़ी हैं। बहन के लिए उन्हें थोड़ी तकलीफ़ रहती थी कि बहुत जल्दी शादी कर दी, आनन–फ़ानन में शादी कर दी। मतलब उन्हें बहुत कम समय मिला उनके साथ रहने का। उस कमी को, उस गिल्ट को वे इस तरह पूरा करते थे कि दो-दो ,तीन-तीन महीने भोपाल जाकर रहते थे। यहाँ से पत्र लिखा करते थे। आज बहन के पास पापा के लिखे पत्र हैं। मेरे पास नहीं हैं। ये तकलीफ़ लगती है। उनका लिखा मेरे नाम से एक शब्द भी नहीं हैं। उनकी बातें हैं समझाई हुई मेरे पास। कमी मुझे लगती है। एक दस्तावेज़ होता है तो उसे आप पर वक़्त बेवक़्त पलटते रहते हैं तो यादें ताज़ी होती रहती हैं। इसी तरह याददाश्त टेप तो होता नहीं है, काश कि वो होता। कुछ पत्र मेरे पास भी होता, लेकिन ये भी लगता है कि मैं पास थी उनके। तो बहुत कुछ है मेरे पास जो उनके पास नहीं है।

बड़ी बहन को उतना वक़्त, उतना प्यार नहीं दे पाए तो उसे बाद में पूरा करने को कोशिश करते थे। ख़तों के ज़रिए। सबको सब-कुछ तो ईश्वर भी नहीं दे पाता, फिर माँ–बांप तो इंसान ही होते हैं। फिर भी बहुत कुछ दिया उन्होंने।

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वैधानिक गल्प:बिग थिंग्स कम इन स्माल पैकेजेज

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चंदन पाण्डेय का उपन्यास ‘वैधानिक गल्प’ जब से प्रकाशित हुआ है इसको समकालीन और वरिष्ठ पीढ़ी के लेखकों ने काफ़ी सराहा है, इसके ऊपर लिखा है। शिल्प और कथ्य दोनों की तारीफ़ हुई है। यह टिप्पणी लिखी है जानी-मानी लेखिका वंदना राग ने- जानकी पुल।

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ब्रेकफास्ट ऐट टिफ़नीज़  (Breakfast at Tiffany’s) एक बेहद मशहूर फिल्म रही है। जब भी सुन्दरता और रोमांस की बात होती है तो उसका एक डायलॉग जो अंग्रेजी की एक बहुप्रचलित कहावत भी है याद आ जाती है, “बिग थिंग्स कम इन स्माल पैकेजेज”(Big things come in small packages) यानी बड़ी चीज़ें, बड़ी खुशियाँ छोटे कलेवर में सज कर आतीं हैं। उस फिल्म के एक भावुक दृश्य में छोटे से एक डब्बे में रखे हीरे को देख नायिका की हैरत इस कहावत समेत, सदा के लिये दिल में पैबस्त हो गयी है।

सच तो यह है कि मासूमियत बची रहती है तो हैरानगी भी बची रहती है। यही हैरानगी सवालों को जन्म देती है। और सवाल करना हर मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। कर लें दावे सरकारें इस लॉजिक के विरुद्ध। बिठा दें आईटी सेल्स इसके खिलाफ़ सुबूत इकट्ठे करने को। हो जाएँ लामबंद उठती आवाजों को दबाने के वास्ते- कुछ नहीं होने- जाने वाला। इस नहीं होने-जाने वाली परिस्थिति पर हम देर तक लम्बे दमन के रास्ते के बाद पहुँचते हैं। लेकिन पहुँचते ज़रूर हैं। जब तक भी एक आवाज़ हमारे बीच नेस्तनाबूद होने से बची रह जाती है हम पहुँचने का हौसला संजोये रखते हैं। और क्या इतिहास गवाह नहीं कि यह सब कुछ हो के गुजरा है और सभ्यताएं मरते–मरते जी उठीं हैं नयी दुनिया कायम करने को?

लेकिन यह तो पोस्ट स्क्रिप्ट है।

हमें तो बात पहले अध्याय से शुरू करनी होगी। फिलहाल तो हमें उस यात्रा पर चलना होगा जिसपर चलकर हम पोस्ट स्क्रिप्ट पर पहुंचेंगे। हमें चन्दन पाण्डेय के हालिया प्रकाशित उपन्यास ‘वैधानिक गल्प’ के छोटे कलेवर के भीतर समायी उस बड़ी यात्रा पर चलना होगा जहाँ पहुँचकर हमारी हैरानगी बेचैन कर देने वाले सवालों में तब्दील हो जाएगी। जहाँ सवाल करने के अनगिन ख़तरे होंगे लेकिन यह तय है कि उनसे मुठभेड़ करते हुए ही हम उस बड़े आकाश पर पहुँच पायेंगे जहाँ जाने की हम अदम्य इच्छा रखते हैं।

“आश्चर्य मुझे इसका भी हो रहा था कि मेरे आत्मविश्वास को क्या हुआ?मेरा लेखक होना क्या हुआ?कहाँ गया शब्दों की मितव्ययिता  पर मेरा यकीन? क्यों डर रहा हूँ? और अगर डर रहा हूँ तब वह डर शब्दों के ज़रिये फ़ैल क्यों रहा है?” उपन्यास का कथा नायक भी संयोग से लेखक है। एक आल्टरईगो की तरह कभी वह लेखक से जिरह करता है, कभी उसे डराता है, कभी उसे बेहद कमज़ोर करता है तो कभी साहस से लबरेज़। मितव्ययिता पर यकीन बना रहना चाहिए।  और यहाँ तो लेखक-नायक को जल्दी भी है। उसे दुनिया का महान लफ्फाज़ होने की विलासिता मय्यसर नहीं। वह बातों  का मायाजाल बुन कर लोगों को नहीं पटा सकता है। उसके पास समय कम है और सवाल इतने ज़्यादा और न चाहते हुए भी वह ज़िम्मेदारी के बोध से दुहरा हुआ जा रहा है।

वह कम में ज्यादा कह देना चाहता है। ज्यादा कर देना चाह रहा है। “…मैं समझ नहीं पा रहा था कि अनुसूया का सामना कैसे करूँ? ग्यारह –बारह वर्षों के बाद हम आमने –सामने होने वाले थे और मैं यह तय नहीं कर पा रहा था कि अतीत के बेताल को अपने कन्धों पर लादकर मिलना है या इन दिनों जिस मुश्किल से वह घिरी है उससे दो –चार होने आये हुए मित्र की तरह मिलना है या अभी –अभी जिस चोट और गुम-चोट से वो प्रताड़ित है उसके लिए किसी अजनबी के बतौर फ़ौरी रहत पहुंचाते हुए मिलना है।” यह लेखक–नायक का शशोपंज है और उसे पुराने प्यार की सुन्दर स्मृतियों के नाते यदि नहीं भी तो मनुष्यता के नाते अनुसूया की सहायता करनी होगी। लेखक का भी यही धर्म है; इस ज़माने में भी जब धर्म के मायने इतने बदल गए हैं तब भी लेखक का यही धर्म है।

लेखक का आल्टर ईगो थोड़ा ढुलमुल हो रहा है, डर रहा है यह कैसा देश रच दिया गया है, जहाँ इन्सान का गायब होना तो कोई मायने नहीं ही रखता है, खासतौर से यदि वह अल्पसंख्यक समुदाय से हो तो उसके गायब होने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता? और यदि कोई मुसलमान गायब हो जाए तो इस  देश के ज़्यादा लोगों को रत्ती भर भी परवाह नहीं होती। और तो और आज कल यह देश उससे जुड़ी स्मृतियों पर भी पोछारा करने का सिस्टम इजाद कर चुका है ऐसे में नोमा नाम का यह नामाकूल सा हिंदी पट्टी का कस्बा जिसकी अपने ज़िले और राज्य में भी औकात नहीं, लोगों को औकात बताने के खेल में कैसे मुब्तला है? अनुसूया जो नोमा में रहती है, जिसकी मदद को आया है लेखक-नायक, उसको औकात बता रहा है उसका शहर!

वैसे देखा जाए तो स्मृतियों पर इस तरह से सफ़ेदी पोत देने पर क्या मन की दीवारें सुत्थर हो जाती हैं? क्या बिना स्मृतियों के जीवन जीना संभव है? नहीं न? फिर यह सब किस किस्म का पाखंड है?

”कितना अच्छा होता मुलाकातें स्मृतिहीन हुआ करतीं।” बार-बार  जो कौंध रहा है….अतीत की मार इतनी भी गहरी नहीं होनी चाहिए । अजनबियत ,बतौर विचार ,महज़ मनुष्यों में हैं या कहीं और भी दिखती होगी।” आखिर अनुसूइया की आँखों में समन्दर जितना पानी किसके लिए उमड़ रहा है? कौन सी ऐसी क्षति हो गयी है? कौन खो गया है उसका इतना प्रिय? यदि किसी किस्म की स्मृतियाँ उसे इस कदर तोड़ रही हैं तो वे कौन सी हैं? लेखक-नायक की स्मृतियाँ तो ये कत्तई नहीं हैं। कायदे से आल्टर ईगो को ईर्ष्या होनी चाहिये –अनुसूइया की आँखों से बहता पानी पलकों पर बारिश के बाद अलगनी पर बूँद-बूँद टपकते पानी की तरह क्यों टपक रहा है? इसका प्रेमी/पार्टनर/पति  गायब हो गया है उसके लिए?

आख़िर कौन गायब हुआ है? सिस्टम अश्लील हंसी हँसता है। सिस्टम जिसमें सभी शामिल हैं -पुलिस महकमे के सिपाही, नेता, सेठ और आम जनता भी। वही भोली- भाली आम जनता; जिसके गुण हमारा भारतीय राजनीतिक समाज गाते नहीं थकता।

रफीक खोया है।

इन्सान नहीं है वह, मुसलमान है।

एक छोटे से गैरमामूली, आबनूसी शहर में एक इन्सान का पता नहीं चल पा रहा है और लोग बेपरवाह हैं। सड़कों पर चाय सुड़क रहे हैं और बतकही में मज़े लूट रहे हैं। नोमा की यह छटा देख आल्टर ईगो दंग है- लेकिन फिर भी अभी इतना साहस नहीं विकसित कर पाया है कि अपने सवाल सार्वजनिक मंचों मसलन-थाने और  दबंग पूँजीपतियों के सभा स्थलों पर से पूछ ले। उसे इस बात की कोफ़्त तो है ही शर्मिंदगी भी भयंकर है,”…एकांत इसलिए कि मैं आईने में झांकते हुए खुद से पूछूं ,उन सिपाहियों के सामने अपना मेरुदंड निकालकर मेरा रख देना मनुष्यता में गिना जायेगा या नहीं?”

लेखक का यकीन फिर इस कायरता के खिलाफ़ इरादा बनने लगता है। नहीं ढूंढना तो होगा ही पहले रफीक को फिर उसके बहाने गायब होते उसके साथियों को। कब तक कायरता के कम्फर्ट ज़ोन में छिपा रहेगा आदमी?

सूत्रों के रूप में रफ़ीक की डायरी के कुछ पन्ने बरामद होते हैं जिसमें एक ऐसी सुन्दर दुनिया का स्वप्न है जहाँ हर बर्बरता के खिलाफ साहस और मनुष्यता की बुलंद आवाज़ें हैं। रफ़ीक इन्हीं की बदौलत दुनिया को सुन्दर बनाना  चाहता है। ऐसी सुन्दर दुनिया जिसमें कविता-कहानी हो, नाटक हो, स्वप्न हो और अस्पृश्यता, नफरत न हो। कॉलेज में अपने छात्रों को यही सब समझाते हुए, पढ़ाते हुए वह खुद क्रूरता के धीमे–धीमे फैलते ज़हर को रोज़ कुछ अधिक झेल रहा है। उसको नज़रंदाज़ करना,उससे बातें छिपाना… सब एक सतत प्रक्रिया की तरह उसके ऐन सामने  घटित हो रहा है। वह अपनी डायरी में इसे दर्ज भी करता है,”दिक्कत है कि अक्सरहाँ का यह अपमान असहनीय होता जा रहा है लेकिन दूसरी दिक्कत यह भी कि कहूँ तो किससे?” अकेले पड़ते जाने का दुःख धीमे–धीमे इन्सान को लीलता है। रफ़ीक भी थोड़ा-थोड़ा घटता जा रहा है। घटता और घुटता, अपने में सिमटता। लेखक-नायक के लिये यह कलेजे पर चोट है।

क्या शब्दों को ठीक-ठीक बरतने वाला अभी भी नहीं  समझ पा रहा है कि रफ़ीक कौन सी शै है? रफ़ीक कहाँ चला गया है? अब आल्टर ईगो नहीं है सामने लेखक है …एक पूरी लेखक बिरादरी की आवाज़ में बोलता हुआ  “इन शब्दों के बीच पड़े-पड़े मैं भी एक शब्द खुद को प्रतीत होने लगा था।वह शब्द गुमशुदा,लापता,गायब खो जाना बिला जाना कुछ भी हो सकता था लेकिन इनमें से कुछ भी नहीं था। गुमशुदा लोगों के लिए इतने विज्ञापन दिख जाते हैं लेकिन आज से पहले यह ख्याल नहीं आया कि मनुष्य पर इन संज्ञाओं को निरुपित करना अमानवीय है….मनुष्य की गरिमा को साबुत रखने के लिए कहना चाहिए कि रफ़ीक घर नहीं लौटा…”

तलाश की जद्दोजहद,निराशा और दुःख लेखक –नायक के मन में एक अत्यंत सुर्रीअल (surreal) सच का निर्माण करती है-“…मैंने खुद को समझाया कि हो सकता है जिंदगियां छवि के सहारे चलती हों।” यह सच सिर्फ हमारे अंतर्जगत का सच नहीं हमारे बाह्म्य जगत का बड़ा सच है। यह इमेजिंग –यह  छवियाँ ही हमें अपने स्टीरियोटाइप्स में बाँध कर रखती हैं और हम उनके अस्त-व्यस्त  होने की कल्पना मात्र से भय खाते रहते हैं। हम अपने लिए नहीं अपनी छवियों के भंग हो जाने से डरते हैं। हम एक नहीं अनेक छवियों में बंधकर अपनी ज़िन्दगी काटते चले जाते हैं। इस छवि को तोड़ना ही तो बड़ा ख़तरा उठाना भी है। यहाँ आल्टर ईगो के सामने भी छवि के भंग हो जाने खतरे हैं। कोई जब भीड़ में से उससे पूछता है,” आप रफीक को ढूँढने आये हैं?”

“यह प्रश्न  ऐसा था जैसे आमंत्रित मेहमान से आने की  वजह पूछना…” तुम्हें क्या लगता है?”

“…लोग कह रहे हैं आप अपनी एक्स–गर्लफ्रेंड से मिलने आयें हैं।”

लेकिन लेखक अपने आल्टर ईगो को इस पत्थरबाज़ी की वजह से टूटने नहीं देता। वह अपने नायक को रीसरेक्ट(resurrect)  करता है, पुनर्गठित करता है, एक जुझारू नौजवान के रूप में। धीरे-धीरे मना, धीरे सब कुछ होय… धीरे धीरे ही होता रहता है इस जीवन में सब कुछ। एक छोटे से सड़े से कस्बे नोमा में। धीरे–धीरे साम्प्रदायिकता की सड़ांध फ़ैल रही है बदस्तूर। धीरे–धीरे लोग भीड़ के बीच से निर्वासित कर दिए जा रहे हैं। दुःख धीरे–धीरे कथा नायक को घेर रहा है और अनुसूया धीरे-धीरे बेहाल हो निराशा की गर्त में डूबती जा रही है। इस धीरे-धीरे में एक पुख्तगी की ठसक भी है। आबनूसी कस्बे में मन की धूप तो छलावा है ही प्रकृति भी कौन सा न्योछावर रहती है? ”सुबह की धूप उसकी बालकनी में फिसलकर गिरने की तरह पड़ी थी।”

ऐसी औचक और बेज़ार।

चूँकि खोया सिर्फ रफ़ीक नहीं है धीरे –धीरे ही पता चल रहा है कि उस छोटे से कस्बे में रफीक की दुनिया से जुड़े लोग भी एक-एक कर खोते चले जा रहे हैं। जानकी का खोना थोड़ा बहुत घटना होने का दर्ज़ा रखती है। युवा लड़की का खो जाना चटखारे लेने के लिये बढ़िया मसाला है। स्त्रियों को लेकर चन्दन हमेशा संवेदनशील रहे हैं और उसी जज़्बे से  भर उन्होंने जानकी के घर का वह दृश्य रच दिया है जो संतान के खो जाने पर एक सार्वभौमिक दृश्य का ऊँचा आकार पाता है और एक पारंपरिक समाज के घर में बेटी के  खो जाने पर भी घट जाता है। यह रुदन का दृश्य है। खोयी हुई बेटियों की माओं के रुदन का दृश्य जो लेखक–नायक के सामने जानकी के आंगन में पसर जाता है। जानकी की माँ का रुदन सभी खो गयी, भुला दी गयी, शोषण-अत्याचार और साज़िश की भेंट चढ़ गयी बेटियों के लिए रुदन प्रतीत होने लगता है। एक सामूहिक रुदन,”भूलने के विरुद्ध थी वह रुलाई।”  इस वाक्य को कह लेखक हमें पुनः ज़मीन पर पटक कर कुछ खरे सच दिल में चस्पा करने की ताकीद करता है। हमें भूल नहीं जाना है, भले ही रो कर हम उससे सम्बंधित स्मृति को बचाए रखना पड़े।

कैसे चन्दन बार-बार भूलने के विरुद्ध  उपन्यास में तर्क गढ़ते चलते हैं, यह रोंगटे खड़े कर देने वाला अनुभव बन जाता है।

उपन्यास अपने छोटे से कलेवर में इतनी सघनता से अपनी बात कम्यूनिकेट करता है कि पाठक चमत्कृत होकर रह जाता है। बेचैन भी। बहुत –बहुत बेचैन।

कई बार इस यात्रा के दौरान लेखक के आल्टर ईगो से ज़्यादा लेखक का भय उजागर होता दिखलाई पड़ता है। क्या यह सिस्टम के नाकाम हो जाने से उपजा भय है? या अपनों को न्याय नहीं दिला पाने का भय है? लेखक चाहता है कि आपके मन में यह बात उपजे कि यह अपने कौन हैं? हम निरंतर किन अपनों की बात करते रहते हैं? यह बात उपन्यास का कथा नायक भी नहीं जानता बहुत ठीक–ठीक, लेकिन जिसे हम जानते हैं पर  समझना नहीं चाहते बहुत ठीक-ठीक? चन्दन इसके लिये हमपर आक्षेप नहीं करते बल्कि इस कंसर्न को धीमे –धीमे धँसते दुःख की तरह हमारे अन्दर समो देते हैं। कई मौकों पर सिसकी कथा–नायक को नहीं आती क्योंकि वह तो जीवन के एक ख़ास मिशन पर चल पड़ा है, सिसकी उसके बदले पाठक के अन्दर घुटती है। ख़ासतौर से तब, जब इसी नक्कारा समाज के भीतर से कोई अकेला निकलकर चला आता है अपने बीच के उस “अन्य“ को बचाने जिसे भीड़ लिंच करने पर आमादा हो। शुरू से अंत तक यह उपन्यास ऐसे ही विरले किरदारों के पक्ष में खड़ा होता है। यह उपन्यास उस समाज के पक्ष में खड़ा होता है जिसे नायक–नायिका के हर इमोशन के बीच ”सामने देखो” कहकर व्याख्यायित किया गया है। उर्फ़  सामने देखो, साफ़ देखो।

दरअसल वे “अन्य”(The others) हैं। उन्हीं के खिलाफ़ अलग पृष्ठभूमि में फासिज्म की नींव रखी गयी थी बीसवीं सदी में। तर्क वही था जो कथा- नायक महसूस कर रहा है– वे जो हमसे भिन्न हैं, जो दूसरे हैं उनकी शुद्धतावादी  संस्कृति में कोई ज़रूरत नहीं। वे प्रदूषणकारी  तत्व होते हैं जिन्हें नेस्तनाबूद करना ही चाहिए। इससे सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से हम स्वच्छ और स्वस्थ हो जायेंगे। उन दूसरों को भुलाने की कवायद के ख़िलाफ़  द्वितीय विश्व युद्ध के लड़े जाने वाले अनेक कारणों में उस “अन्य” को बचाना, उसकी स्मृति को बचाना भी था। चन्दन उसके बरक्स भारतीय मध्यम वर्गीय परिप्रेक्ष्य में एक छोटी सी एकल कवायद करते हैं। उनका कथा–नायक इन आशाविहीन परिस्थितियों में कोशिश करता है। यह मनुष्यता के पक्ष में उठने वाला सबसे सुन्दरतम अकेली कोशश है। इसमें पराजय और जय की कोई मानी नहीं। गाँधी ने तो बहुत पहले ही कह दिया था– सिर्फ मंजिल तक पहुंचना ज़रूरी नहीं मंज़िल पर पहुँचने वाले रास्ते और नीयत भी ज़रूरी हैं।

मंज़िल तक पहुँचने की कवायद जारी रहती है। प्रयास जारी रखना ,लड़ाई लड़ते रहना निहायत ज़रूरी है।“…रफीक का पता लगाने के साथ …उसकी डायरी,उसके नोट्स, पटकथाएं सब सच बतला रही थीं लेकिन सबकी पहुँच के दायरे में अख़बार थे,पुलिस थी, मोर्चा था, नरमेधी महत्वकांक्षायें थीं।”

उपन्यास अंत में सबकुछ पाठकों पर छोड़ देता है। चन्दन का अल्टर ईगो, लेखक नायक आपकी ऊँगली पकड़ कर एक राह पर लिए चलता है लेकिन मंज़िल तक आपको खुद पहुंचना होगा ऐसा कहकर खुद भी कहीं चला जाता है। पहले तो कह चुकी हूँ कि सुन्दर चीज़ें छोटे कलेवर में सजती हैं फिर भी अंत में खीज से भर जाती हूँ। इतनी जल्दी क्यों राह पर छोड़ दिया अकेले भटकने को? लेखक बच नहीं सकता यह कह- भले ही वह रफ़ीक की डायरी के पन्नो की मार्फ़त कहे; -“..दर्शकों को बिठाना। मंच तुम्हारा घर है। उन्हें समझाना कि कौन सी कहानी कहने जा रहे हो? उन्हें यह बतला पाना कठिन काम होगा कि बचाने वाले भगवान होते आयें हैं।”

सचमुच भगवान का आना अभी बाकी है।

इस बेहद खूबसूरत और मानीखेज उपन्यास का भरपूर स्वागत हुआ है।

चन्दन को बहुत बधाई और अगले उपन्यास का अभी से, दिल से स्वागत। उम्मीद है उपन्यास त्रयी की अगली खेप से हम चन्दन की कुछ और ज़रूरी बातों और ज़रूरी हस्तक्षेपों से जल्द वाबस्ता होंगें।

(चंदन पाण्डेय का उपन्यास वैधानिक गल्प राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है। वंदना राग का उपन्यास भी इसी साल प्रकाशित हुआ है ‘बिसात पर जुगनू’, यह भी राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है)

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भारतेंदु युग की लेखिका मल्लिका और उनका उपन्यास ‘सौंदर्यमयी’

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चित्र साभार: भारतेंदु समग्र, सं. हेमंत शर्मा

 भारतेंदु युग की लेखिका मल्लिका को लेखिका कम भारतेंदु की प्रेमिका के रूप में अधिक दिखाया गया है। लेकिन युवा शोधार्थी सुरेश कुमार ने अपने इस लेख में मल्लिका के एक लगभग अपरिचित उपन्यास ‘सौंदर्यमयी’ के आधार पर यह दिखाया है कि बाल विवाह, विधवा विवाह जैसे ज्वलंत सवालों को लेकर मल्लिका कितनी मुखर थी। 1888 में प्रकाशित यह उपन्यास अपने समय से बहुत आगे था। इस शोधपूर्ण लेख को पढ़िए- मॉडरेटर

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 श्रीमती मल्लिका देवी उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध की हिन्दी और बांग्ला भाषा की प्रसिद्ध लेखिका थीं। पश्चिमोत्तर प्रांत में स्त्रियां बाल विवाह और विधवा विवाह और स्त्री शिक्षा का मुद्दा अपने लेखन में बड़ी शिद्दत के साथ उठा रही थीं। आखिर, एक औरत में यह हिम्मत कहां कैसे आ गई कि जिन्हें पुरुषों के सामने बोलने तक का अधिकार नहीं था वे अपने बारे कैसे लिखने लगी?  इसका बड़ा कारण औपनिवेशिक शासन का उदार रवैया था। सन् 1857 के बाद भारत का शासन महारानी विक्टोरियों के हाथों में आ गया था। भारत में महारानी विक्टोरिया के शासन को स्त्रीराज के तौर पर देखा जा रहा था। इस शासन का एक बडा असर यह हुआ कि भारत में पितृसत्ता का दायरा थोड़ा कमजोर हुआ। इस शासन में तमाम स्त्रियों को जनाना स्कूलों व विदेश में शि़क्षा प्राप्त करने का अवसर मिला। प्रमाण के तौर पर पंडिता रमाबाई, रख्माबाई और हिन्दी की प्रसिद्ध लेखिका और ‘भारत भगिनी’ पत्रिका की संपादक श्रीमती हरदेवी का नाम विशेष तौर लिया जा सकता है। महारानी विक्टोरिया के शासन को यहां की पढ़ी लिखी स्त्रियों ने अभिव्यक्ति और मुखरता के तौर पर लिया था।

पश्चिमोत्तर प्रांत के लेखकों ने महारानी विक्टोरिया के शासन को उगते हुए सूर्य के समान पर देखा था। इन लेखकों का कहना था पहली बार ऐसा हुआ कि ‘शेर और भेड़’ एक घाट पर पानी पी सकते हैं। दरअसल, विक्टोरिया शासन स्पष्ट तौर से यह घोषणा करता है कि भारतीय जनता अपने साहित्य और संस्कृति का प्रचार-प्रसार खुलकर कर सकते हैं। इसके बाद विक्टोरिया शासन ने भारतीयों का यह भी अश्वासन दिया कि उनके धर्म और काननू में हम तब हस्तक्षेप नहीं करेंगे, जब तक भारतीय विद्वानों की तरफ से पहल नहीं की जाएगी। सन् 1877 में दिल्ली दरबार के अवसर पर महारानी विक्टोरिया के शासन ने देश के तमाम विद्वानों और राजा-महाराजाओं के साथ उनकी स्त्रियों को भी आंमत्रित किया था। दिलचस्प बात यह कि पश्चिमोत्तर प्रांत से भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को भी विक्टोरिया शासन की ओर से दिल्ली दरबार में आमंत्रित किया गया था। भारतेन्दु ने इस दरबार का आंखों देखा हाल लिखकर ‘दिल्ली दरबार दर्पण’ (Delhi Assemblege Memorandum )शीर्षक से सन् 1877 में पुस्तिका के रुप में मेडिकल हाल प्रेस से छपवाया था। पश्चिमोत्तर प्रांत के लेखकों पर इस ऐताहासिक उत्सव का असर क्या पड़ा? इस पर अलग से अध्यन और शोध करने की आवश्कता है। सन् 1901 में जब महारानी विक्टोरिया का इन्तकाल हुआ तो भारत की पढ़ी लिखी लेखिकाओं ने कहा कि यह बड़े दुख और क्लेश की बात है कि भारत से स्त्रीराज उठ गया है।

दूसरी तरफ भारत के प्रमुख शिक्षाविद् और स्त्री हितैषी ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के अथक प्रयास से ब्रिटिश सरकार ने ‘विधवा विवाह अधिनियम 1856’ पारित  कर दिया। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने ‘विधवा विवाह’ नामक ग्रंथ लिखकर स्त्री समस्या पर एक अलग तरह के विमर्श की जमीन तैयार कर दी थी। इसके अलावा 19वीं शताब्दी के उतार्राध में जो महत्वपूर्ण घटना घटी वह महान सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती का पदार्पण और समस्त देश में आर्य समाज की सभाओं का कायम होना था। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर और स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपनी तर्क विद्या से पुरोहितों और पोथाधारियों को बैकफुट पर धकेलने का काम शुरु कर दिया था। पश्चिमोत्तर प्रांत में दयानंद के आंदोलन का काफी असर हुआ। दयानंद सरस्वती ने अपने चिंतन में स्त्री मुद्दा और अछूत समस्या पर बल दिया था। स्वामी दयानंद सरस्वती के आंदोलन से स्त्रियों को एक उम्मीद की झलक दिखाई दी। ‘सीमन्तनी उपदेश’ की लेखिका ने स्वामी दयानंद सरस्वती का आभार प्रकट करते हुए कहा कि अब देश में आर्य समाज की सभाएं क़ायम हो रही है उम्मीद है कि इन सभाओं में स्त्री के साथ न्याय किया जायगा।

 19वीं सदी के स्त्री चिंतन पर ब्रह्म समाज और आर्य समाज, विक्टोरिया शासन, विद्यासागर के समाज सुधार आन्दोलन की गहरी छाप दिखाई देती है। इन आन्दोलनों का असर भी मल्लिका देवी के साहित्य में देखा जा सकता है। मल्लिका देवी ने अपने कथा लेखन में बाल विवाह, बेमेल विवाह, और विधवा पुनर्विवाह का मुद्दा मुख रुप से उठाया था। मल्लिका देवी के ‘कुमुदिनी’ और ‘पूर्णप्रकाशचन्द्रप्रभा’ के उपन्यास पर नीरजा माधव ने अपने इतिहास ग्रंथ ‘हिन्दी साहित्य का ओझल नारी इतिहास’ में चर्चा की है। इस लेख में मल्लिका के उपन्यास ‘सौन्दर्यमयी’ चर्चा प्रस्तुत करुंगा।

हिन्दी नवजागरण पर शोध करते हुए मुझे मल्लिका देवी के उपन्यास ‘सौन्दर्यमयी’ की एक प्रति मिली। यह संवत हरिश्चन्द्र-3 अर्थात भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की मृत्यु के तीन वर्ष बाद सन् 1888 में ‘सौन्दर्यमयी’ उपन्यास श्री अम्बिकाचरण चट्टोपाध्याय द्वारा काशी दशाश्वमेधस्थ अमर यन्त्रालय से प्रकाशित हुआ था। मल्लिका ने यह उपन्यास पहले बांग्ला भाषा में लिखा होगा, और खुद ही इसे हिन्दी में अनूदित कर सन् 1888 में प्रकाशित करवाया होगा। इसके प्रथम कवर पृष्ठ पर सौन्दर्यमयी को एक वियोगांत श्रेणी का उपन्यास बताते हुए बंग भाषा से श्रीमती मल्लिका देवी द्वारा अनूदित लिखा है। श्रीमती मल्लिका देवी के अलावा और किसी लेखक के नाम उल्लेख नहीं है। नीरजा माधव ने अपने इतिहास ग्रंथ ‘साहित्य का ओझल नारी इतिहास’ में इस उपन्यास के संबन्ध में एक बड़ी दिलचस्प सूचना दी है कि ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’  के संवत 2058 अंक 1 में इस उपन्यास को मल्लिका देवी के नाम से प्रकाशित किया। मेरा मानना है कि इस उपन्यास को मल्लिका देवी ने पहले बंग भाषा में लिखा होगा और बाद में इन्होंने खुद इसका अनुवाद कर हिन्दी में प्रकाशित करवाया होगा। यह संभावना तब और प्रबल हो जाती है जब इसकी कथावस्तु और भाषा उनके अन्य उपन्यासों से काफी मिलती-जुलती है। यदि यह उपन्यास किसी दूसरे लेखक का होता तो उस ग्रंथाकार का उल्लेख अवश्य किया जाता। 19वीं सदी के दस्तावेज को खंगालने पर यह भय और चुनौती बनी रहती है कि वास्तविक लेखक कौन है? हिन्दी नवजागरणकाल के गहन अध्येयता और विद्वान वीरभारत तलवार ने अपनी चर्चित किताब ‘रस्साकशी उन्नीसवीं सदी का नवजागरण और पश्चिमोत्तर प्रांत में’ मल्लिका के अध्यन संबन्धी में समस्या को लेकर बड़ी महत्वपूर्ण कही है। वीरभारत तलवार लिखते हैं:

‘‘मल्लिका के साथ कठिनाई यह है कि उनकी सभी रचनाएँ प्रकाशित नहीं हुईं, अधिकतर रचनाएँ पांडुलिपि के रुप में भारतेंदु के वंशजों के पास रह गईं जिन्हे शायद नागरीप्रचारिणी सभा कभी प्रकाशित करे। दूसरी कठिनाई यह है कि कुछ-एक रचनाएँ जो छपी थीं, उनकी ठीक-ठीक पहचान कर पाना मुश्किल है कि उनमें से कौन सी-मल्लिका की हैं और कौन-सी भारतेंदु की। मल्लिका की होने पर भी उस पर से भारतेंदु की छाप को अलग करने का प्रश्न बना रहेगा।’’

मल्लिका के सृजन और साहित्य को पहचाने और भारतेंदु की छाप से अलग करने की एक कसौटी  यह भी हो सकती है कि जिन रचनाओं में बाल्यविवाह, विधवा पुनर्विवाह और बेमेल विवाह की समस्या को उठाया गया हो वह रचना मल्लिका काफी हद तक की हो सकती  है । मल्लिका देवी के जीवन के संबन्ध में प्रचलित धारणा यह है कि वे बाल विधवा थीं। इसलिए उनकी रचनाओं में बाल्यविवाह की कुरीति का विरोध दिखाई देगा। इसके साथ विधवा पुनर्विवाह की मांग की दावेदारी भी नजर आयेगी।

सौन्दर्यमयी उपन्यास में बाल्य विवाह और विधवा विवाह की समस्या को उठाया गया है। इस उपन्यास का पात्र रामदास जाति से ब्राह्मण है और उसकी एक कन्या है जिसका नाम सौंदर्य है। रामदास अपनी कन्या सौन्दर्य का बाल्य विवाह कर देता है। उपन्यास की कथा में दिखाया गया है कि सौन्दर्यमयी का विवाह जिस लड़के से होता है वह कुछ दिन बाद मर जाता हैं। अब रामदास की कन्या सौन्दर्यमयी बाल्य विधवा होकर घर पर ही बैठी है। रामदास अपनी कन्या का पुनर्विवाह करना लोकरीति के विपरीत समझते हैं। सौन्दर्य जब विधवा हुई तो उसकी अवस्था मात्र नौ वर्ष की थी। सौन्दर्य की अवस्था जैसे-जैसे बढ़ी वैसे ही उसे विधवा जीवन का अहसास यह समाज कराने लगा था। समाज ने विधवा स्त्रियों का सामाजिक उत्सव, जैसे विवाह आदि में अपशगुन के भय से शामिल होने पर प्रतिबंध लगा रखा था यदि गलती से बाल विधवा विवाह के अवसर पर पहुँच जाती तो उन्हें बड़ी हिकारत भरी दृष्टि से देखा जाता था। सौन्दर्य अपने सखी लावण्य के विवाह असर पर उसके घर गई। वहां स्त्रियां उसे बड़ी हिकारत भरी दृष्टि से देख रही थी। इस तरह के व्यवहार से सौन्दर्य का दिल बड़ा आहत हुआ। इसके बात वर के शगुन की सामग्री को छूने की रस्म आई। जब सौन्दर्य इस रस्म के लिए खड़ी हुई तो लावण्य की माँ ने उसे कहा कि सौन्दर्य तुम वर की सामग्री को मत छूना क्योंकि यह रस्म सुहागिन स्त्रियां करती हैं। लेखिका ने यह दिखाने की कोशिस की है कि यहां विधवा स्त्रियों को कदम-कदम पर सामाजिक अपमान का घूँट पीना पड़ता है। यह समाज विधवाओं स्त्रियों के साथ बड़े ही दोयम दर्जो का व्यवहार करता था। एक बार स्त्री विधवा हो जाने के बाद उसके सारे अधिकार छीन लिये जाते थे। उन्हें पशुओं से भी बदतर प्राणी समझा जाता था। उनकी इच्छाओं पर अंकुश लगा दिया जाता था। उपन्यास की कथा में कहा गया है कि उच्च घरों की स्त्रियां घोर संताप और बन्धन में जीवन व्यतीत कर रही हैं। इन विधवा स्त्रियों की रिहाई के लिए कुलीन वर्ग आगे नहीं आ रहा है।

उपन्यास की आगे की कथा में दिखाया गया है कि सौन्दर्य विधवा होने के बाद हीरालाल नमक युवक से प्रेम करने लगती है। हीरादास भी सौन्दर्य से प्रेम करता है। दोनों एक दूसरे से प्रेम करते हैं और विवाह करना चाहते है लेकिन पुरोहित के विधान पुनर्विवाह में बाधा बने हैं। सौन्दर्य हीरालाल को चाहती तो है लेकिन आत्मसमर्पण नहीं करती है। लेखिका ने लिखा है: ‘‘सौन्दर्य ने मन ही मन में हीरालाल को प्राण सौंपा था। किन्तु आत्म समर्पण नहीं किया।’’  आज से लगभग सवा सौ साल पहले लिखी गई इस पंक्ति में क्या आधुनिक स्त्री विमर्श के सूत्र नहीं मिलते हैं। सौन्दर्य यह भलीभांति समझ चुकी थी कि यह निष्ठुर समाज उसे हीरा से पुनर्विवाह करने की इजाजत नहीं देगा। सौन्दर्य अपनी अंतरिक पीड़ा को मन ही मन हीरा लाल को संबोधित कर कहती है:

 ‘‘हीरा प्राण! मेरा प्यार! टरे क्या करैं और क्या कहैं? जो विधाता की विडम्बना  से आप ही चिर दुखी है, वह दूसरे को क्या सुख देगी। जिसको विपक्षअपने लोग,- ज्यादे क्या ईश्वर भी विमुख है, वह दूसरों को कहां से सुख देगी, हम तो सोचते थे कि पिता विधवा तम से हमको ब्याह देंगे, हम जिसको चाहते है उसको पावैगें, किन्तु आशा विफल हुई हा भगवान ! हा करुणमय! तुम दयावान होकर अपनी कन्याओं की यह दुर्दशा देखते हो। नाथ एक बार भारत की ओर दृष्टि करके देखो। हमारी भाति कितनी पतिहीन युवती रोते रोत रुद्धकंठ हो रही हैं, कितनी आत्म हत्या करती हैं, कितनी दूसरे उपाय से रहित होकर कंलक की डाली सिर पर लेती हैं, असंख्य भ्रूणहत्या नित्य होती है। हे दया मय तुम्हारी दुहिताओं का आंसू तुम न पोंछोगे तो कौन पोंछेगा।’’

सौन्दर्य ने अपने कथन में विधवा स्त्री के जीवन का खौलता हुआ सच कह दिया है। यदि साहित्य की कसौटी वेदना को माना गया है तो सौन्दर्य की पीड़ा को आज के स्त्री विमर्शकार कौन सी संज्ञा देंगे।

सौन्दर्य की सखी लावण्य सौन्दर्य की दुर्दशा देखकर बड़ी चिंतित है। वह सवाल उठाती है कि आज कल लोग अपनी कन्याओं की सात-आठ साल की अवस्था में पशुओं की तरह जिधर चाहा उधर हांक दिया। विवाह तो ऐसे हो गया है जैसै गुड़िया और गुड्डों का खेल खेला जाता है। लावण्य अपनी चिंता इन शब्दों में व्यक्त करती है: ‘‘तुझको देखकर मेरी छाती फटती है। हाय! तब तेरा ब्याह न हुआ होता तो आज तै विधवा न होती। तेरा जीवन वृथा गया। स्वप्न की भांति सब हुआ। जैसे गुडिया का खेल।’’ लावण्य आगे कहती है कि ‘‘आज कल तो बंगालियों में विधवा विवाह की धूम मची है, इसी समय तेरा बाप हीरालाल के साथ  ब्याह दे तो अच्छा हो’’  लेखिका ने इस उपन्यास से कई जगह ईश्वर को भी कटघरे में खड़ा किया है। स्त्रियों को लेकर उस पर निष्ठुर होने का आरोप सौन्दर्य लगाती है। सौन्दर्य कहती है: ‘‘ हाय विधाता! तेरा कैसा चरित्र है। विधवा किया किन्तु उसके साथ ही आंकाक्षा को क्यों निवृति नहीं किया? जो यही जानता था निवृति न करैगें श्रृति दिया तो श्र्रवण शक्ति क्यों नहीं दिया। पिपासा है तो पानी क्यों नहीं।’’ लेखिका ने ईश्वर के जरिए लेकर पुरोहितों और निंयताओं से सवाल किया है। क्योंकि पुरोहितगण अपने आपको ईश्वर के समक्ष रखते थे। सौन्दय का सवाल ईश्वर और पुरोहित दोनों से कि विधवा पुनर्विवाह का मार्ग क्यों नहीं खोला जा रहा है। सौन्दर्य की सखी लावण्य भी बड़ी मुखरता से स्त्री सवालों का उठाती है। वह पुरुषवादी मानसिकता को सवालों के दायरे में खड़ा करती है। लावण्य अपने कथन में पुरुषों को स्वार्थी बताती है और कहती है कि यह पुरुष समाज एक पत्नी के होते हुए भी न जाने अपने जीवन में कितने विवाह करते हैं लेकिन यह पुरुषवादी समाज विधवा स्त्रियों को पुनर्विवाह भी नहीं करने देता है। लावण्य अपने पति से सवाल करती है: ‘‘अच्छा हम पूछते हैं, पुरुष इतने स्वार्थी क्यौं होते हैं ? पुरुष स्त्री का मारना कौन कहे, जीते ही कितना ब्याह करते है, इसमें दोष नहीं?’’ विमर्श की दृष्टि से यह कितना मारक सवाल है। लेखिका ने एक ही पंक्ति में पुरुष चरित्र का रेशा-रेशा उघाड़ कर रख दिया है।

मल्लिका देवी ने उपन्यास में दिखाया गया है कि रामदास का एक बंगाली मित्र उसे समझाता है कि अपनी बाल विधवा कन्या सौन्दर्य का पुनर्विवाह कर दो लेकिन उच्च श्रेणी की मानसिकता वाला रामदास अपनी कन्या का पुनर्विवाह करने के लिए राजी नहीं होता है। यह रामदास कहता है कि हम कोई नीच जाति के नहीं हैं जो पुर्निववाह की रीति को माने! रामदास और उसके मित्र के बीच जो संवाद हुआ। वह इस प्रकार है:

बाबू -तुम्हारी कन्याबाल्य विधवा हुई सुनकर बड़ा दुख हुआ।

रामदास – ईश्वर के कार्य में किसी का अधिकार का नहीं।

बाबू – किन्तु बन्धु ! ब्ंगालियों में प्रातः स्मरणीय विद्यासागर जी महाशय ने  जो विधवा विवाह की प्रथा चलाई है अति उत्तम कार्य किया।                                                                                                                    

रामदास -चले न तब?

बाबू -चलने से चलेगा।

रामदास – अब तक तो नहीं चला।

बाबू – क्यों नही? दो एक विवाह नित्य होता है।

रामदास मृदु हंसकर बोला, ‘‘कहाँ’’?

बाबू – क्या तुम्हें खबर नहीं रखते।

रामदास – न रखते होंगे।

बाबू – भाई क्रोध मत करों, हमारी राय में तुम्हारी कन्या को ब्याह देना उचित है।

रामदास – ऐसा करे तो समाज से जाते रहें।

बाबू – समाज क्या है? जो पांच मिलकर करें वही समाज होगा।

रामदास – सो तो ठीक है पर पहिले कौन करे?  

बाबू-जिसको आवश्यक होगा वही करेगा। तुम्हारा आवश्यक है तुम करो।

रामदास मृदु हंसकर बोला,‘‘हमें आवश्यक नहीं है’’

बाबू – क्यों?

रामदास – ब्राह्मण की कन्या की ऐसी रुचि क्यौं होंगी?

रामदास हंसकर बोला, हम लोगों के घर नहीं नीच जातियों में’’

 विधवा विवाह अधिनियम 1856 भले ही बन गया था लेकिन जमीनी स्तर पर विधवा पुनर्विवाह का विरोध जारी था। इसमे कोई दो राय नहीं है कि बंगाली समाज अन्य की अपेक्षाकृत आधुनिक था।  इतना आधुनिक होने पर दिलचस्प बात है कि जब ब्रिटिश शासन ने ‘बाल विवाह’ के रोकने का प्रयास किया तो बंगालियों की तरफ से इस प्रयास का विरोध किया गया था।  ‘हिन्दी प्रदीप’ पत्रिका जुलाई-अगस्त 1890 के अंक में एक लेख लिखा गया जिसमें बंगालियों की इसलिए भर्त्सना की गई कि बंगाली लोग बाल्य विवाह सुधार का विरोध क्यों कर रहे हैं ? हिन्दी प्रदीप में लिखा गया:

‘‘ कौन कहता है कि बंगाल के हमारे सुशिक्षित धर्मशील ऐसे मूर्ख हो जांय कि बाल्य विवाह की कुरीति मिटाने में इतना विरोध प्रकाश करेंगे- प्रथम तो यही सिद्ध करना कठिन है कि बाल्य विवाह हमारे धर्म का मूल अंश है क्योंकि हजारो लाखों विद्वान इससे सहमत है कि यह कुरीति धर्ममूलक नहीं वरन मूर्खता और अविद्या के कारण चल पड़ी है जो यही मान लिया जाय कि यह धर्म ही है तब भी हमारी गवर्नमेंट का यह न्याय नहीं है कि धर्म के बहाने आपको दूसरों पर अन्याय करने दे- क्या हमारे धर्माभिमानी लोग भूल गये कि सती होना हमारे यहाँ धर्म ही समझा जाता था कन्याओं का बध भी हमारे यहां क्षत्री लोग अपना धर्म संप्रादाय ही समझते थे तो क्यों गवर्नमेंट ने उन घोर अन्याय ओर पापों को रोका और धर्म में हस्तक्षेप की अनिष्ट शंका से न डरी यदि इस प्रकार गवर्नमेंट डरती रहे और अपना उचित काम करना छोड़ दे तो दो ही दिन में राज्य ऐसे लोगों के हाथों में आ जाए जो स्त्रियां पर यावत् प्रकार के अत्याचार करना अपना धर्म मानते है-’’

इस लेख में आगे बंगवासियों  को फटकार लगाते हुए लिखा गया कि बंगाली बंधु अपनी हठधार्मिता और बकवाद छोड़कर बाल्य विवाह की कुरीति को मिटाने में सरकार का सहयोग करें।

सन् 1888 में लिखे गए इस उपन्यास में यह भी दर्शाया गया है कि विधवा स्त्री पर तमाम तरह के लांछन लगाकर उसे समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता था। औपनिवेशिक भारत में स्त्री यौनिकता का सवाल व्यापक स्तर पर उभर के सामने आया था। विधवा स्त्रियों का यौन शोषण आम बात हो गई थी। धर्मगुरु से लेकर सगे-संबन्धी तक ने विधवाओं को अपना नरम चारा समझ लिया था। यह समाज कामी और व्यभिचारी पुरुषों की करतूतों का सारा लांछन स्त्रियों के सिर मढ़ देता था। एक स्त्री के तौर पर सौन्दर्य को इन लांछनों का सामना करना पड़ा था। कोई विधवा स्त्री कितना भी सत् जीवन व्यतीत करने की कोशिश करती लेकिन उस पर कोई न कोई अपराध सिद्ध कर उसे समाज से निष्कासित करने का फरमान सुना दिया जाता था।

सौन्दर्य इस बात से चिंतित है कि वह जिसे अपने प्राणों से अधिक चाहती है, वह पुरोहित व्यवस्था के चलते उसे पा नहीं सकती है। सौन्दय का पिता हीरालाल के साथ उसका पुनर्विवाह के लिए राजी नहीं है। सौन्दर्य यह सब सोचकर इतना दुखी होती है कि उसका स्वास्थ्य खराब होने लगा। सौन्दर्य का जब स्वास्थ्य खराब हुआ तो यह चर्चा फैल गई कि वह गर्भवती हो गई है। सौन्दर्य आपने माता-पिता को बताती है कि बीमारी के चलते मेरा पेट बिगड़ गया है, आप यकीन करें मेरे पेट में किसी का गर्भ नहीं है। लेकिन उसके माता-पिता उसकी बात पर यकीन नहीं करते है। समाज के चौधरियों और पुरोहितों के भय से सौन्दर्य को घर से बाहर निकल जाने का फारमान सुना देते है। सौन्दर्य अपने पिता से आग्रह करती है कि बिना किसी दोष के मुझे घर से मत निकालें। सौन्दर्य का यह मार्मिक कथन देखिए: ‘‘हमको मत छोड़िये इस संसार में हमारा कहीं खडे़ होने का भी स्थान नहीं है। इस निरापराधी को घोरतम् भयानक दण्ड मत दीजिए’’ उपन्यास कथा में दिखाया गया है कि यह समाज स्त्रियों को लेकर कितना शुष्क और कठोर है। विधवा स्त्रियां इच्छा रखते हुए भी पुनर्विवाह नहीं कर सकती थी। उच्च श्रेणी के हिन्दू देशाचार, पुरोहित और पांडों के बहकावे में आ कर अपनी बेटियों को उम्र भर दुख के खंदक में ढकेल देते थे। पुरोहितों और पुजारियों की पोथी और उच्च श्रेणी के हिन्दुओं की हठधर्मिता के चलते सौन्दर्य का जीवन भेंट चढ़ जाता है।

 सौन्दर्यमयी उपन्यास में स्त्री के खौलते हुए सवालों का उठाया गया है। बाल्य विवाह को एक सामाजिक बुराई के तौर पर दिखाया गया है। विधवा स्त्रियां किस तरह से अधिकार विहीन कर दी जाती थी मल्लिका ने इसकी बानगी बड़ी प्रामाणिकता के साथ पेश की है। इस उपन्यास का अंत बड़ा मार्मिक दिखाया गया है। सौन्दर्यमयी अंत की कथा में बीमार हो जाती है। सौन्दर्यमयी मृत्यु को प्राप्त होने से पहले अपने प्रेमी हीरालाल को देखना चाहती है। जब सौन्दर्य की सखी लवण्य को यह बात पता चली तो उसने रामदास से कहकर एक अखबार में इस आशय का विज्ञापन दिया कि सौन्दर्यमयी की काफी बीमार है और वह हीरालाल को देखना चाहती है। इधर, हीरालाल जब यह विज्ञापन देखता है तो शीघ्र ही वह सौन्दर्य से मिलने के लिए निकल पड़ता है। उपन्यास कथा के अंतिम अध्याय के यह संवाद देखिए:

‘‘ हे जीवन के सर्वस्वधन ! प्राणेशर हमारे मृत्यु को अब विलम्ब नहीं है। किन्तु, आज हमारा आनन्द का दिन है? आज तुम्हारा वही मुख, जो कि हमारे निद्रा क्या स्वप्न, जाग्रत क्या ध्यान, दिन रात हमारे नेत्र में हमारे प्राण मुख देखते 2 मरेंगे।’’

 सौन्दर्य का कंठरोध हुआ!  हीरालाल घबड़ाकर बोला, ‘‘सौन्दर्य’’ कुछ सिर ऊंचा कर बोली, ‘‘आं’’

उसका सिर तकिये पर गिर पड़ा। बोली,‘‘जल’’ हीरालाल ने उसके मुख में जल दिया। थोड़ी देर पीछे सौन्दर्य बोली, ‘‘इस जीवन में दुख का शेष नहीं था। ईश्वर अब दुख का शेष करेगा। हीरालाल हम तो जाते है…’’

हीरालाल तुम क्या बकती हो?

सौन्दर्य! मृदु हंसकर बोली, ‘‘क्या बकते हैं? अरे इतना दुख भोगकर भी जाने की इच्छा। होगी?’’ हीरालाल रोने लगा, सौन्दर्य बोली, ‘‘ प्यारे रोते क्यौं हो? उह!! जल।’’ हीरालाल ने जल दिया जल पीकर फिर बोली,‘‘ अन्तिम काल ह्दय खोल ईश्वर से प्रार्थना करती हूं। तुम सुख से रहो। और भी कहते हैं, हे दयामय! भगवान! हमारी भांति किसी रमणी को दुख मत देना।’’

इस कामना के साथ सौन्दर्य अपने प्राणों का त्याग कर देती है। 19वीं सदी के आठवें दशक की स्त्रियों का यह वास्तविक प्रेम और उनकी पीड़ा का चित्रण है। इन पंक्तियों को पढ़कर कोई यह भी कहता दिखाई देगा कि इसमें नई बात क्या है? इस उपन्यास की कथा में नया यह है कि जब स्त्री को पुरुष समाज में बोलने का अधिकार तक प्राप्त नहीं था, तब मल्लिका ने यह कहने का साहस दिखाया कि स्त्री दुर्दशा का मुख्य कारण पुरोहितवाद और उच्च श्रेणी के हिन्दुओें की पितृसत्ता है। यह कोई छोटी बात नहीं थी कि एक विधवा पुरोहितों और पोथाधारियों को अपनी दुर्गति का जिम्मेदार ठहरा रही थी। यह मल्लिका की वास्तविक पीड़ा थी जो उपन्यास कथा के तौर पर इस समाज को बता रही थीं। हिन्दी साहित्य में प्रचलित धारणा है कि मल्लिका भारतेंन्दु की प्रेमिका थी। मल्लिका के सृजन पक्ष पर कम प्रेमिका वाले पक्ष को ज्यादा प्रस्तुत किया जाता है। मेरा कहना है मल्लिका का साहित्य जैसे-जैसे सामने आयेगा, वैसे-वैसे इस पुरुष समाज का वास्तविक  चेहरा और चरित्र भी उजागर होता जायेगा।

(सुरेश कुमार नवजागरणकालीन साहित्य के गहन अध्यता हैं। इलाहाबाद में रहते हैं। उनसे  8009824098 पर संपर्क किया जा सकता है)

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बेवफ़ा नायिकाओं का वफ़ादार उपन्यासकार दत्त भारती

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फ़िल्म ‘प्यासा’ एक ऐसे शायर की कहानी है जो अपनी पहचान बनाने की जद्दोजहद में है। असल में, इस बात को कम ही लोग जानते हैं कि यह फ़िल्म मूल रूप से उर्दू में लिखे गए एक उपन्यास ‘चोट’ पर बनी थी, जिसके लेखक थे दत्त भारती। हालाँकि इसका क्रेडिट उनको नहीं मिला। 1970 में जब दिल्ली उच्च न्यायालय में दो जजों की खंडपीठ ने लेखक के पक्ष में यह फ़ैसला सुनाया कि फ़िल्म उनके उपन्यास पर बनी थी तो उस फ़ैसले का कोई मतलब नहीं रह गया था, ‘प्यासा’ फ़िल्म के निर्माता-निर्देशक गुरुदत्त को गुजरे कई बरस बीत चुके थे। दत्त भारती ने अदालत में जीत के बाद गीता दत्त से सादे काग़ज़ पर ऑटोग्राफ़ लेकर उनको माफ़ कर दिया।

दत्त भारती का लेखकीय जीवन उतार चढ़ाव से भरा रहा। उनके पहले उपन्यास ‘चोट’ के तीन साल में 2-2 हज़ार के दस संस्करण प्रकाशित हुए। 1949 में प्रकाशित उनके इस उपन्यास ने उनके स्कूली जीवन के सहपाठी साहिर लुधियानवी की किताब ‘तल्खियाँ’ की तरह ही धूम मचाई, लेकिन उनको वह मक़बूलियत नहीं मिल पाई जो साहिर को मिली। इसका कारण यह रहा कि उन्होंने मुंबई का रास्ता नहीं चुना बल्कि दिल्ली में रहकर लेखक के रूप में पहचान बनाने का फ़ैसला किया।

1942 में दत्त भारती ने 17 साल की उम्र में सेंट्रल ओर्डिनेंस फ़ैक्टरी में नौकरी शुरू की लेकिन उसी साल भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लेने के कारण उनको नौकरी से निकाल दिया गया। जीवन में पाने से अधिक छोड़ने की आदत के लिए जाने जाने वाले दत्त भारती ने आज़ादी के बाद स्वतंत्रता सेनानी पेंशन लेने से भी इंकार कर दिया। वे व्यापार के लिए बर्मा गए, दिल्ली वापस आकर सीपी में होटल खोला लेकिन बाद में आसफ़ अली रोड पर दफ़्तर खोलकर लेखन करने वाले लेखक बन गए। जाने माने लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक ने मुझे बताया था कि उस दौर के वे अकेले लेखक थे जो बाक़ायदा ऑफ़िस में बैठकर लेखन करते थे और इसके लिए उन्होंने आसफ़ अली रोड पर एक चेम्बर किराए पर ले रखा था।

दत्त भारती के क़िस्सों में एक क़िस्सा यह भी है दिल्ली के एक मशहूर प्रकाशक के चेम्बर से जब वे बाहर निकलते तो बाहर एक नौजवान बैठा मिलता, जब लगातार चार दिन तक यह सिलसिला चला तो दत्त भारती ने प्रकाशक के चेम्बर में वापस जाकर पूछा कि बाहर जो नौजवान बैठा रहता है वह कौन है और क्यों बैठा रहता है? प्रकाशक ने कहा कि नया लेखक है। इसने उपन्यास लिखा है। मैं इसको चार सौ दे रहा हूँ लेकिन यह सात सौ माँग रहा है। दत्त भारती ने कहा कि आपका यह व्यवसाय लेखन से ही तो चलता है। अगर आप इसको पैसे नहीं दे सकते तो आप मेरी रॉयल्टी में से काटकर इसको दे देना। ख़ैर, उस युवा लेखक का उपन्यास प्रकाशित हुआ और बाद में वह गुलशन नंदा के नाम से मशहूर हुआ। दत्त भारती के उपन्यासों की बेवफ़ा स्त्रियों के स्थान पर गुलशन नंदा ने मजबूर स्त्रियों का फ़ोर्मूला बनाया जो, रूमानी उपन्यासों का ही नहीं बल्कि हिंदी फ़िल्मों का भी बेजोड़ फ़ोर्मूला साबित हुआ। कहते हैं कि लाहौर में गुलशन नंदा जिस लड़की से प्यार करते थे वह अमीर परिवार की थी और गुलशन नंदा की ग़रीबी उनके प्यार को उनसे दूर ले गई। इस बात को लेखक के तौर पर वे कभी नहीं भूले।

ख़ैर, लेखक दत्त भारती ने हिंदी में सौ से अधिक उपन्यास लिखे और उर्दू में क़रीब 60। ‘प्यासा’ के बाद भी 1976 में विनोद खन्ना-नीतू सिंह की एक फ़िल्म आई थी ‘सेवक’, इसकी कहानी भी दत्त भारती के उपन्यास ‘तक़ाज़ा’ से उठाई गई थी। इस बार भी लेखक को मुक़दमा करना पड़ा लेकिन बाद में फ़िल्म के निर्माता ने उनके साथ आउट ऑफ़ द कोर्ट सेटलमेंट कर लिया। उनके एक उपन्यास ‘काली रातें’ पर जब एक निर्माता ने वास्तव में अधिकार लेकर फ़िल्म बनाने की शुरुआत की तो ‘साहिल से दूर’ नामक वह फ़िल्म या तो बनी नहीं या रिलीज़ नहीं हो पाई।

चलते चलते एक क़िस्सा और बीआर चोपड़ा की मशहूर फ़िल्म ‘गुमराह’ की कहानी भी बहुत हद तक दत्त भारती के उपन्यास ‘राख’ पर आधारित थी। जब एक बार अपने दोस्त साहिर लुधियानवी के कहने पर दत्त भारती बीआर चोपड़ा से मिलने गए तो उन्होंने चोपड़ा साहब से कहा कि मैं आपके ऊपर भी कहानी चुराने का मुक़दमा कर सकता था लेकिन मुक़दमा इसलिए नहीं किया क्योंकि तब मैं गुरुदत्त से फ़िल्म ‘प्यासा’ के लिए मुक़दमा लड़ रहा था और एक समय में दो मुक़दमे नहीं लड़ना चाहता था।

27 मई को इस लेखक की जयंती थी।

अब इनके उपन्यास नए सिरे से पेंगुइन हिंद पॉकेट बुक्स पेंगुइन से प्रकाशित हो रहे हैं।

(दत्त भारती के बेटे विजय भारती से बातचीत पर आधारित)

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बच्चों को न सुनाने लायक एक बालकथा:  मृणाल पाण्डे

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जानी-मानी लेखिका मृणाल पांडे पारम्परिक कथा-साँचों में आधुनिक प्रयोग करती रही हैं। इस बार उन्होंने एक पारम्परिक बाल कथा को नए बोध के साथ लिखा है और महामारी, समकालीन राजनीति पर चुभती हुई व्यंग्य कथा बन गई है। एक पाठक के तौर पर यही कह सकता हूँ कि महामारी काल में फ़िलहाल इससे अच्छी कथा नहीं पढ़ी। परम्परा कथा को साझा करने की रही है तो आपको पढ़ने के लिए साजा कर रहा हूँ- जानकी पुल।

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एक गाँव में एक गरीब विधवा बुढिया और उसका इकलौता बेटा रहते थे। बुढिया कुछ घरों में कूटना पीसना करती, बेटा खेतों में मजूरी करता था। किसी तरह चल रहा था। फिर अचानक गांव में महामारी फैल गई और लोग तिलचट्टों की तरह मरने लगे। यह देख कर बुढिया ने रातों रात घर में जितना आटा, तेल और गुड़ था उससे सात पुए बनाये। फिर एक पुराना लोटा-डोर और पुओं की थैली बेटे को दे कर उससे कहा, ‘तू रात के रात बाहर गांव कहीं चला जा। बीमारी से बच जायेगा। मेरी फिकर मत करना, मेरे तो दिन अब वैसे भी कट ही गये हैं। महामारी मिटने तक कुछ कमा धमा कर वापिस लौटा, तो फिर मिलेंगे वरना तेरा राम राखा।’

बेटा थैली लेकर पूरब की तरफ निकल गया। रात भर चलते चलते सुबह हुई तो उसने सामने एक साफ सुथरा गांव देखा। गांव के बाहर काँटों की बाड़ थी और एक तख्ती पर लिखा था, ’किरपया भित्तर ना आयें। यह महामारीमुक्त क्षेत्र है। यहाँ खुले में शौच जाना या थूकना मना है। बहुक्म ग्राम मुखिया।’

गांव बाहिर फारिग हो कर भूखा प्यासा लडका जब बाड़ के पास फिर पहुंचा तो क्या देखता है कि मुंह पर गमछा बाँधे कुछ लाठीधारी बाहर आते हैं। ऊंची आवाज़ में उनका मुखिया बोला,‘तू हो न हो, किसी महामारी वाले गांव से भाग के इधर आया है। हम अब तक महामारी से बचे हुए हैं, सो हम किसी भी बाहरिये को अपने गांव में घुसने नहीं देंगे, ये जानियो।’

लडके का मुंह लटक गया। लोटा डोर दिखा के बोला, ‘कम से कम लोटा भर पानी ही अपने कुएं से भर लेने दो भले लोगो। पल दो पल बाहर ही खा-सुस्ता कर कहीं और को निकल जाऊंगा।‘

‘नहीं’, लाठीवालों ने कहा, ‘हम अपने कुएं में तुम्हारी छूत नहीं लगने देंगे। उधर गांव से बाहर दाहिनी तरफ दस बीस कदम पर तुमको एक भुतहा कुआं दिखेगा उससे पानी वानी ले लो या डूब मरो, पर यहाँ से चलते बनो, बस।’

लड़का मुंह लटकाये चला। कुछ ही कदम चलने पर उसको एक उजाड़ इलाके में एक कुआं दिखा। उसने लोटा भर पानी खींचा और कुएं की जगत पर बैठ कर थैली में हाथ डाल कर खुद से बुदबुदाने लगा: ‘इतनी जोर की भूख लगी है, पर ये तो सात ही हैं। एक दो खाऊं कि चार पांच? कि सबको एक साथ खा जाऊं?’

अब अचानक कुएं से सात मीठी जनानी आवाज़ें आईं , ‘ऐ लड़के हमको मती खाइयो, तुम जो माँगोगे हम तुमको दे देंगी।’

लड़का चक्कर में, कि भैया ये क्या माया हैगी? पर चतुर था। अपनी घबराहट छिपा कर नरमाई से बोला, ‘अरी मैं तो बस एक भूखा प्यासा महामारी से पनाह खोजता इंसान हूं। तुम जनी हो कौन?’

देखता क्या है उसके सामने हाथ जोडे सात सतरंगी परियां एक एक कर कुंए से बाहर निकल रही हैं। उसको देख कर परियाँ पहले एक आंख से हंसीं, फिर दूसरी से रोईं। पूछने पर उनकी मुखिया लाल परी कहने लगी कि हम हम यह देख कर हंसीं कि महामारी के बीच भी कुछ इंसान बचे हुए हैं। रोईं इसलिये कि बाहर बाहर से साफ सुथरा ये गांव ज़ालिम डकैतों का बासा है। घर परिवार और खेती के हज़ार झंझटों को निबटाने को यहां के लोग बस फसल कटाई के समय आते जाते गरीब परदेसियों से जम कर बेगारी लेते हैं, और काम निबटा नहीं, कि झोली भर अनाज देकर उनको बिदा कर देते हैं। बसने नहीं देते। अमीरों को आते देखा, तो उनको बातों में बरगला कर लूट लेते हैं, फिर उनकी देही गन्नों के खेत में। इस महामारी के ज़माने में तो वे किसी परदेसी को घुसने नहीं देंगे। ये लोग खूब पैसेवाले हैं ज़रूर, और लठैती में भी अव्वल हैं, लेकिन सब अपने अपने बच्चों और अक्सर कड़वा बोलनेवाली घर की औरतों से परेशान हैं और जब तब उनको भी पीट देते हैं। हम परियाँ आज़ाद हैं। हवा हमारा घर है, अंबर हमारा बिछौना। मनभाया अच्छा पहिरती ओढती हैं, मन न हो तो किसी के हाथ नहीं आतीं। इसलिये हम किसीको फूटी आंखों नहीं भातीं। अपने सर के बहुत ऊपर उजले खुले आकाश में हमें डैने फैलाये उड़ता देख कर इस गांव के मरदुए खूब चिल्ला चिल्ला कर हमारी तरफ ताने फेंकते हैं। अभी हमसे बहुत उड़ी-उड़ी फिरती हो, पर हम भी मरद बच्चे हैं, जिस दिन नीचे उतरीं तुमको…’, फिर वे हाथ से इशारे करते हैं। घरों दालानों में चावल या जुएं बीनती, या खेतों में निराई गुड़ाई करती इनकी औरतें भी अपने मरदों को वाही तबाही बोलते सुन कर मुंह बिचका कर आपस में हमको कुटनी, मर्दखोर और जाने क्या कुछ नहीं कहने लगतीं। यहाँ तक कि इनके बच्चे भी ताली पीट कर हमको बाँझ निरबंसिया जादूगरनियाँ कह कर हमारे नीचे दूर तक भागते आते हैं।’

हरी परी ने बताया कि परियों के कुंए में छुपे रहने का राज़ ये था कि हर सौ बरसों में उनके पुराने पंख झड़ जाते और उनकी जगह नयेवाले निकल आते थे। उनके दोबारा उगने के इंतज़ार में वे इस कुएं में छुपा करती थीं। उनको पता था इधर गांव के लाठीवाले लोग भी भुतहा कुएं से डरते हैं।

यह सब सुन कर लडका हंस पडा। बोला,‘चलो जो हुआ सो हुआ। लो मेरी मां के पकाये पुए खाओ और मुझे कुछ ऐसा हुनर बताओ कि इस गाँव में बसना मिल जाये ताकि मेरी गरीबी मिटे और महामारी का असर मुझ पर ना होवे।’

लाल परी लडके से बोली, हम परियाँ हैं। हम हवा खाती हैं और प्यार पर ज़िंदा रहती हैं।तुमसे चार मीठी बातें सुन के जी जुड़ा गया। सो चलो हम तुमको यह दो जुडवां शंख देती हैं। एक करामाती शंख है जो कि मालिक को मनचाही चीज़ें देता है। दूसरा ढपोरशंख है, जो बहुत लच्छेदार बोली बोलता है, बहुत देने का शोर मचाता है पर वादे कभी पूरा नहीं करता। तुम इनके बूते गाँव में घुसने का जुगाड़ कर लो। हाँ अभी भोले हो। सो यह बता दें कि देर सबेर इस गांव के लोग तुम्हारा करामाती शंख तुमसे छीनने की कोशिश ज़रूर करेंगे। इसलिये जब कभी सोओ या बाहर जाओ, तो करामाती शंख को तो छुपा के साथ रखना। बस ढपोरशंख को बाहर रख देना ताकि चोर लें तो उसी को ले भागें। उनके वास्ते यह रही जादुई रस्सी और डंडा। इनको हुकुम देते ही वे चोर को बाँध कर उसकी अच्छे से कुटम्मस कर तुम्हारा माल तुमको वापिस दिला देंगे।पर यह रस्सी डंडा एक ही बार कारगर होंगे।काम हो गया तो गायब हो जाएगी।’ हम तो कल भोर भये उड़ जायेंगी। तुम अपना खयाल रखना।’

इतना कह कर परियाँ गायब हो गईं।

लड़के ने पहले जम कर पुए खाये, पानी पिया फिर सोच विचार कर करामाती शंख से कहा, ‘यार मुझे किसी सन्यासी का बाना दिला दे।‘ उसका कहना था कि तुरत भगवा कपड़े, रुद्राक्ष की माला, रोली और भभूति का दोना हाज़िर। अब लडके ने क्या किया? उसने सन्यासी का भेस धरा, तिलक तिरपुंड लगाया, फिर झोले में सब सामान छिपा कर, ‘अलख निरंजन बम शंकर’ कहता हुआ गांव की तरफ वापिस चला। सन्यासी को आते देख कर लाठी लहराते मुंह पर गमछा बाँधे लोग फिर बाहर आये। पर बाबा जी को देखकर ठिठके फिर मुखिया जी से पूछा कि इसे आने दें कि नहीं? स्याणे कहते हैं ‘राजा जोगी अगिन जल इनकी टेढी रीत,’ उनको उकसाओ मती। क्या पता शाप ऊप न दे दें? आखिरकार हाथ जोड़ कर मुखिया बोला, ‘बाबा हम गरीब इंसान हैं। फिर भी आपको दच्छिना में खाय भरे को चावल नून तेल तो दे देंगे। पर आप उसे बाहर ही खा पका लीजिये। महामारी के डर से हमने गाँव का रास्ता जो है सो बंद कर रखा है।’

बाबा बने लड़के ने सोचा कुछ करामात दिखानी ही होगी ताकि गाँव में ठिकाना मिल जाये। उसने झोले में हाथ डाल कर करामाती शंख निकाला और उससे कहा, ‘ला रे एक बोरी चावल और सौ सोने के सिक्के।’

तुरत फुरत सब हाज़िर! गांव वालों की आंखें फटी की फटी!

मुस्कुरा कर बाबा बोले, ‘ मुखिया जी, ये रहा तुम्हारा किराया। रमता जोगी और बारिश का पानी तुम्हारे राजा के लंबरदार की तरह लगान वसूली नहीं करने नहीं आता।दान की एवज में भी कुछ देकर ही जाता है।’

अब कहो!

मोटा असामी देख कर मुखिया जी ने तुरत पैंतरा बदला और बाबा के चरण छू कर वे सिक्के तो सीधे अपनी ‘ग्राम परवाह गुल्लक’ के हवाले किये, फिर चावल की बोरी अपने साथियों को सारे गाँव में बांटने और बाबे की जयकार के नारे लगवाने का हुकुम देकर बडे आदर से बाबा को गांव के भीतर ले चले।

गाँव की तरफ से मुखिया जी ने खुद अपने घर के एक कमरे में बाबा जी को रखा और उनको भरपेट भोजन के कराने और उनसे करामाती शंख के किस्से सुन कर वाह वाह करते हुए सब सोने चले गये। बाबा ने करामाती शंख तो झोले में छुपा दिया और ढपोरशंख को बगल में रख कर लेट गये। जैसी कि उनको उम्मीद थी, जल्द ही अंधेरे में उनको बगल की कोठरी से मुखिया और उसके बेटों की फुसफुसाहट सुनाई देने लगी। मुखिया के घरवाले उसके सोते हुए उसका वह करामाती शंख उड़ा  लेने का प्लान बना रहे थे। बाबा ने मुस्कुरा के चादर ओढ ली और ज़ोर ज़ोर से नकली खर्राटे निकालने लगे।

‘सो गया साला’ मुखिया ने बाबा को सोया जान कर कहा बेटों से कहा।’ महामारी के कारण सौदागरों का आना जाना ही नहीं बाहर गाँव जाकर  डाका डालना भी बंद है। पर हरामज़ादे राजा के कारिंदों ने फिर भी नाक में दम कर रखा है कि राजाजी की ‘स्वस्थ ग्राम योजना’ के नाम पर नया लगान दो। इसीलिये हम लोगों ने अपनी अलग ‘ग्राम परवाह गुल्लक’ बना ली है। बाबा को लूटने के बाद इसे हमलोग ठिकाने लगा देंगे। फिर महामारी के खतम होते ही जादुई शंख से भरपूर दान दहेज निकलवा कर सबसे पहले कोई भी बढिया लड़का मिले तो सबसे पहले तुम्हारी भेंगी बहन का ब्याह कर दूंगा, फिर आगे सोचेंगे। क्यों बहुरिया?’

‘राजा की सुंदर ज़िद्दी लडकी की तरह हमारी बेटी नांय है जो किसी पंडित दूल्हे के इंतज़ार में कुंआरी बैठी रहेगी।’ मुखिया की बीबी बोली। इसके कुछ देर बाद लडके बाबा के कमरे में चोर कदमों से घुसे। कुछ देर वे पास खड़े हो कर थाह लेते रहे कि बाबा सोया है कि जागता है। पर बाबा ने और ज़ोर से खर्राटे मारने चालू कर दिये तो वे उनके पास रखा ढपोरशंख लेकर चल दिये। उनका जाना था, कि बाबा जी ने करामाती रस्सी और डंडे को कहा, ‘लगा कुदक्का रस्सी डंडा, फोड़ दे इन सालों का मुंडा।’

फिर क्या था? मुखिया के सारे परिवार को रस्सी ने जा बाँधा और डंडा उनका भुरकुस बनाने लगा। ‘हाय हाय दुहाई’ मची तो बाबा बोले, ‘भला चाहते हो, तो चुपचाप मेरा शंख वापिस करो और अपनी ग्राम परवाह योजना का गुल्लक फोड कर पैसा सबको लौटा दो। वरना अभी तो मुंडा ही फोड़ा है अब राज दरबार जाके तुम सबका भांडा फोड़ देता हूं।’

मुखिया ने पगड़ी लड़के के पैर पर रखी और बेटों से कहा कि सब माल लौटा दें और गुल्लक भी फोड़ कर सबका दिया वापिस कर दें। भांडा फूट गया तो उनकी भेंगी बहन को कोई लड़का न देगा।

इस प्रकार शंख वापिस मिल गया तो अपनी रस्सी डंडा झोली समेट कर बाबा जी चलते बने। गांव के ओझल होते ही लडके ने इस बार करामाती शंख से ज्योतिषी पंडित का भेस माँगा और एक ठो बैलगाड़ी भी। दोनों हाज़िर! गाडी में बैठ कर बढिया धोती कुर्ता पहिने पगड़ी तिलक लगाये लड़का अब चला राजा के महलों को। दरबान ने लडके से परिचय पूछा तो उसने कहा हम बहुत ऊंची जात के पंडित हैं। हमारी क्वालिफिकेशन तो बस राजा साहेब और उनके दरबारी विद्वान ही समझ सकेंगे। हमको उधर ले चलो। भीतर से आज्ञा हुई कि पंडित है तो उसे भीतर भेज दिया जाये। राजदरबार में राजा सहित सब मुंह लटकाये बैठे थे तुनुक मिजाज़ राजकुमारी से शास्त्रार्थ में देश के सारे विद्वान हार चुके थे जो नये पंडित की परीक्षा लेने को राजा की गोद में बैठी हुई थी।

राजपंडित ने कहा कि पहले कुल गोत्र प्रवर बताओ। लड़का बोला वह सब तो मेरा शंख भी बता देगा। झोली से उसने ढपोरशंख को निकाल कर कहा: ‘बता दे इनको कि मैं कौन हूं।’ यह सुनना था कि उसका ढपोरशंख चालू हो गया। लड़के के संपूर्ण ज्ञान विज्ञान की मानद पदवी प्राप्त शास्त्रज्ञ होने की बाबत ऐसे ऐसे करामाती ब्योरे दिये उसने, कि राजा और राजकुमारी लहालोट। अहा, ज्ञानी हो तो ऐसा!

कुल? लड़के से पहले ढपोरशंख बोल पड़ा, ‘अहो इनका कुल तो उच्चतम पंडितों का है, जो सुदामा की तरह धन संपत्ति के लोभ से दूर रहे। माता पिता की अकाल मृत्यु के बाद इनो ही पुरखों की स्मृति में बनवाये प्याऊ में पथिकों को पानी पिलाने का काम दिया गया। इनकी बुद्धि तथा सेवाभाव से प्रभावित हो कर इनको बचपन में कुछ रमते जोगी हिमालय उठा ले गये और वहाँ केदारखंड में इनको नाना निगमागमों, शास्त्रों, मीमांसा सबकी शिक्षा दी। कुलीन तथा विनम्र होने के कारण अपने श्रीमुख से अपनी तारीफ नहीं करते हमारे श्रीमन्।’

बस फिर क्या था, शहनाइयाँ बजीं ब्याह हुआ और उसको गद्दी देकर महाराजा तथा रानी वन को चले गये। ढपोरशंख की महिमा से ही जब सब कुछ मिल गया तो लड़के ने, जो अब राजा था, अपने करामाती शंख को तो किसी ताख पर रख दिया और बस ढपोरशंख को सीने से लगा लिया। राजकाज चलाने के हज़ार टंटे। लोग बार बार फरियादी घंटा बजाने आ जाते। कहते डाकू बन कर आपके कारिंदे हमको लूट रहे हैं। कोई कहता उधर किसी दूर गाँव में खेती सूख रही है। सबको डपट कर या पुचकार कर ढपोरशंख हर बार सफाई से चुप करा देता। किसी बड़ी लड़ाई या चढाई की खबर आती तो बस ढपोरशंख से राजा कह देता, कि भरपूर प्रचार कर दुश्मनों के मुख पर कालिख मल दे! और ढपोरशंख ऐसी खूबी से यह कर देता कि दुश्मनों की हिम्मत टूट जाती और परजा उनके भेदियों को घुसने ही नहीं देती। दिन आनंद से कटने लगे। दो बेटे भी हो गये। ढपोरशंख को प्रधान खबरी और सभाप्रमुख घोषित कर दिया गया। राजा के बेटे उसको कहते ढपोरी चाचा।

पर होनी को कौन टाले? एक दिन खेलते खेलते पुराने महल जा पहुंचे राजा के बच्चों को ताख पर रखा करामाती शंख दिख गया। बच्चे तो बच्चे, बोले ये तो बिलकुल गोलमटोल ढपोरी चाचा की तरह दिखता है। फिर तुरत झगड़ पड़े कि यह वाला कौन लेगा। आख़िर दोनों भाई राजा के पास पहुंचे जो उस समय गाना वाना सुनने में लगे थे। कुछ पिनक में भी थे। उन्होंने इशारे से बच्चों को झगड़ा निपटाने ढपोरशंख के पास भेज दिया। यह किसी को पता न था कि ढपोरशंख को करामाती शंख से पुरानी जलन थी। उसने बच्चों से कहा, ये शंख बड़ा करामाती है। जो मांगोगे वह मिलेगा।’ बच्चे एक दूसरे का चेहरा ताकने लगे। राजकुंवर थे, उनको क्या कमी?’ उनको खामोश देख कर ढपोरी चाचा ने कहा, ‘तुम दोनों जिसका जितना भला या बुरा चाहो, यह कर देगा।’ यह सुनते ही शंख को हथियाने के लिये दोनो बच्चे एक साथ एक दूसरे से बोल पड़े ‘तू मर जा!’ करामाती शंख बोला तथास्तु। और दोनो राजकुंवर मर गये।

जब रानी को खबर मिली तो वह रोती बिलखती आई और उसने ढपोरशंख से पूछा कि क्या हुआ? वह बोला ‘मैं क्या करता। मैं तो राजाजी का चाकर हूं। कुंवरों ने मुझसे कहा चाचा, झगडा सलटा दें, तो मैने करामाती से कहा भैये तू ही सलटा। सारा किया धरा इस करामाती का है मेरा नहीं।’ आगबबूला रानी ने करामाती शंख का चूरा चूरा करवा कर उसको नदी में बहवा दिया फिर राजाजी को जगाया गया। राजा बिगड़ खडे हुए। पर पहला सवाल था कि बच्चे जो मर चुके थे, उनको कैसे जिलायें? राजा जी ने पूछा तो ढपोरशंख बोला मैं तो हुज़ूर, बस ढपोरशंख हूं। मुझसे जितना लंबी चौड़ी लच्छेदार बातें बुलवाना चाहो बुलवा लो। बाकी काम धाम मुझसे नहीं होगा।

करामाती शंख तो पहले ही कूट पीट कर बहाया जा चुका था, राजा ने ढपोरशंख को भी चूरा चूरा कर के नाली में बहा दिया।रोती कलपती रानी से छुटकारा पाना आसान होता है। उसको, जैसा दस्तूर था, एक कौव्वा हंकनी बना कर जंगल भेज दिया गया।उसके बाद राजा अपने गाँव पहुंचा तो पता चला कि उसके जाने के बाद महामारी में उसकी माँ तो कब की मर खप गई थी। झोपड़ी का बस खंडहर बचा था। काफी दिन तक रोता हुआ राजा पैदल पैदल उस गाँव को खोजता फिरा, जहाँ गांव के बाहर भूतहा कुआँ होता था, जिसमें सात सतरंगी परियाँ रहती थीं। लोगों ने कहा महाराज कहाँ का गांव। वह गांव तो तभी का उजाड़ हो गया जब ढपोरशंख की मदद से राज काज चल रहा था। वे डकैत सब तभी आपकी सभा में सांसद बन गये और जाते जाते अपनी ग्राम सुरक्षा निधि से मुखिया जी सारे कुएँ भी पटवा गये।

राजा हताश। पर वापिस लौटता तब तक उसके भरोसे के गाड़ीवान ने खबर दी, कि अब तक दोनों शंखों के फेंक दिये जाने से निश्शंक हो कर डकैत उसकी गद्दी हथिया चुके थे। और मुखिया जी राजा बन बैठे थे। गाड़ीवान दयालु जनी था। उसने कहा हुज़ूर भला चाहते हैं तो यहीं से जंगल को कट लें। सुनते हैं मुखिया जी ने गद्दी पर बैठते ही आपको रस्सी से बाँध कर कोडों से पीटने का हुकुम जारी कर दिया है। हम उनसे जा के कह देंगे कि आपको जंगल में शिकार करते समय बाघ उठा ले गया। एक शोकसभा भी कर देंगे।बात खतम।

इसके बाद राजा को जंगल में अकेला छोड कर सब वापिस चले गये। वह बेचारा अधपगला हो कर फिरने लगा। जहाँ कोई कुआं देखा तो उसकी मुंडेर पर झुक कर सात परियों को पुकारता, ’अरी परियो, कहाँ हो?’ परियाँ तो परियाँ मन चाहे तभी मिलती हैं, ऐसे ही किसी राजा जी  की पुकार सुन कर थोड़ी भागी आती हैं, किसी रानी की तरह। सुनते हैं कि उनको पुकारता पुकारता राजा आखिरकार एक दिन खुद भी किसी गहरे गड्ढे में गिर कर मर गया। ढपोरशंख पर बहुत भरोसा करनेवालों की यही गति होती है।

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‘श्वेत’बहुत माहौल में ‘अश्वेत’अनुभव

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मिशेल ओबामा की आत्मकथा ‘बिकमिंग’ बेहतरीन किताब है, प्रेरक भी। अल्पसंख्यक(अश्वेत) समाज में पैदा होकर भी आप संघर्ष करते हुए मुख्यधारा में अपनी जगह बना सकते हैं। शिकागो के अश्वेत समुदाय से निकलकर अमेरिका के प्रिंसटन जैसे विश्वविद्यालय में पढ़ना और बाद में राष्ट्रीय फ़लक पर अपना मुक़ाम बनाना। मैंने यह किताब अंग्रेज़ी में पढ़ी थी और सच बताऊँ तो इसलिए पढ़नी शुरू की थी क्योंकि यह अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की पत्नी की लिखी आत्मकथा थी। लेकिन किताब पढ़ते हुए बराक पीछे रह गए, मिशेल का विराट किरदार उभर कर आया। ‘अश्वेत’ होने के कारण समाज में भेदभाव के अपने अनुभवों को भी उन्होंने लिखा है। यह अंश तब का है जब वह प्रिंसटन में पढ़ने के लिए आ गई थीं। किताब का अनुवाद कुमारी रोहिणी ने लिया है और प्रकाशन पेंगुइन बुक्स इंडिया ने किया है- जानकी पुल।

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थर्ड वर्ल्ड सेंटर- जिसको हम टीडब्ल्यूसी बुलाते थे, जल्दी ही मेरे लिए घर जैसा बन गया. वहां पार्टी दी जाती थी, सब मिल जुल कर सब साथ खाना खाते थे. वहां स्वयंसेवी अध्यापक थे जो पढाई में मदद करते और वह जगह घूमने फिरने के लिए भी थी. समर प्रोग्राम के दौरान मैंने जल्दी ही कुछ दोस्त बनाए, और हम लोगों में से कई खाली समय होने पर उस सेंटर की तरफ आते थे. उनमें सुजान अलेले भी थी. सुजान लम्बी और दुबली पतली थी, उसकी भौंहें घनी थीं, और उसके बाल काले घने थे जो उसकी पीठ पर चमकते हुए लटके रहते थे. उसका जन्म नाइजीरिया में हुआ था और लालन पालन किंग्स्टन, जमैका में. जब वह किशोरावस्था में थी तो उसका परिवार रहने के लिए मेरीलैंड आ गया था. शायद इसकी वजह से लगता था कि वह किसी एक सांस्कृतिक पहचान से बंधी हुई नहीं थी. लोग सुजान की तरफ खींचे चले आते थे. ऐसा न कर पाना बहुत मुश्किल था. उसकी मुस्कान खुली हुई थी और उसकी आवाज में एक कशिश थी जो तब और मुखर हो जाती थी जब वह हल्के नशे में होती थी या थकी हुई होती थी. उसमें एक तरह की कैरेबियन मस्ती थी, हल्के फुल्के मिजाज में रहती थी जो प्रिंसटन के स्टूडियो मास में सबसे अलग कर देती थी. वह ऐसी पार्टियों में भी जाने से नहीं डरती थी जहाँ वह किसी को भी नहीं जानती थी. इसके बावजूद कि वह पहले से जानती थी लेकिन इसके बावजूद उसने मिटटी के सामान बनाना और डांस की क्लास करना जरूरी समझा क्योंकि इस बात से उसको ख़ुशी मिलती थी.

बाद में जब हम सीनियर क्लास में आ गए तो सुजान ने एक और शौक पाल लिया, उसने खानपान के एक क्लब कप एंड गाउन के लिए बिकर करना शुरू कर दिया, ‘बिकर’ शब्द प्रिंसटन में ही इस्तेमाल किया जाता था जिसका मतलब यह होता था कि जब कोई नया सद्स्य क्लब का सदस्य बनता था तो उसका सामाजिक पुनरीक्षण किया जाता था. सुजान खान-पान की उन पार्टियों से लौटकर जिस तरह की कहानियां सुनाती थी मुझे बहुत पसंद आती थीं लेकिन मेरा मन कभी नहीं करता था कि मैं भी पुनरीक्षण का यह काम करूँ. मुझे टीडब्ल्यूसी में जो अश्वेत और लैटिनो विद्यार्थी मिले थे मैं उनसे ही खुश थी, मैं प्रिंसटन के बड़े सामजिक जीवन के निचले पायदान कर खड़े होकर बहुत खुश थी. हमारा समूह छोटा था लेकिन आपस में बहुत जुड़ा हुआ था. हम पार्टियाँ देते और आधी रात तक डांस करते. खाते समय हम दस या उससे अधिक लोग एक टेबल के इर्द गिर्द जुट जाते थे और बातें करते, हँसते. हमारा डिनर उसी तरह से घंटों चलता था जब हम साउथसाइड के घर में पूरे परिवार के साथ मिलकर खाते थे.

मेरे ख़याल से प्रिंसटन के प्रशासकों को यह बात पसंद नहीं आती थी कि अश्वेत विद्यार्थी अधिकतर एक साथ चिपके रहते थे. उम्मीद यह की जाती थी कि हम सभी मिल जुलकर एक साथ सौहार्द के साथ रहेंगे, जिससे सभी विद्यार्थियों की गुणवत्ता में सुधार होगा. यह लक्ष्य हासिल करने लायक था. आदर्श तो यह था होता कि कैम्पस में कुछ उस तरह का माहौल बने जिस तरह का कॉलेज के ब्रोशर पर होता था- मुस्कुराते हुए विद्यार्थी मिले जुले समूहों में काम करते हुए. लेकिन आज भी कॉलेज कैम्पस में अश्वेत विद्यार्थियों के मुकाबले श्वेत विद्यार्थी बहुत अधिक होते हैं, मिल जुल कर रहने की जिम्मेदारी मूलतः अल्पसंख्यक विद्यार्थियों के ऊपर ही रहती है. मेरे अपने अनुभव में यह बहुत बड़ी मांग थी.

प्रिंसटन में मुझे अपने अश्वेत दोस्त चाहिए होते थे. हम एक दूसरे को राहत पहुंचाते थे और समर्थन देते. हम लोगों में से बहुत जब कॉलेज आये थे तो उनको इस बारे में पता भी नहीं था कि नुक्सान क्या क्या थे. आपको धीरे धीरे इस बात का पता चलता कि आपके साथ पढने वाले विद्यार्थियों को स्कूल स्तर पर ही ही सैट ट्यूटरिंग दी गई थी या हाई स्कूल के स्तर पर ही कॉलेज स्तर की शिक्षा दी गई थी या वे बोर्डिंग स्कूल में जा चुके थे और इस वजह से उनको उस तरह की मुश्किलें नहीं हो रही थीं जो घर से पहली बार बाहर निकलने पर होती हैं. यह उस तरह की बात थी कि आप पहली बार स्टेज पर पियानो बजाने के लिए चढ़ें और तब आपको यह समझ में आये कि आपने कुछ भी ऐसा नहीं बजाया था बल्कि जो बजाया था वह टूटी चाभी वाला एक बाजा भर था. आपकी दुनिया बदलती है, लेकिन आपको उससे उबरने और समायोजन के लिए कहा जाता है, आप से उम्मीद यह की जाती है कि आप भी उसी तरह संगीत बजाएं जिस तरह दूसरे बजा रहे हों.

जाहिर है, यह संभव है- अल्पसंख्यक और असुविधाजनक परिस्थितियों से निकले बच्चे हर बार चुनौतियों का सामना करते हैं- लेकिन इसके लिए ऊर्जा चाहिए. इसके लिए ऊर्जा चाहिए कि पूरी क्लास में आप अकेले अश्वेत हों या महज कुछ गैर श्वेत लोगों में हों जो अंदरूनी दल का सदस्य बनने की कोशिश में हों. इसके लिए कोशिश करनी पड़ती है, इसके लिए अतरिक्त आत्मविश्वास की जरूरत होती है, ताकि आप वैसे माहौल में बोल सकें और कमरे में अपनी उपस्थिति को दर्ज करवा सकें. इसी वजह से जब डिनर पर रात में मैं और मेरे दोस्त मिलते थे तो हम राहत महसूस करते थे. इसी वजह से हम बहुत देर तक साथ रहते थे और खूब खूब हँसते थे.

पायने हॉल में मेरे दो श्वेत रूममेट्स थीं और दोनों ही बहुत अच्छी थी, लेकिन मैं डोरमेट्री में इतना रहती ही नहीं थी कि गहरी दोस्ती हो सके. असल में मेरे अधिक श्वेत दोस्त थे ही नहीं. पीछे मुड़कर देखने पर समझ में आता है कि इसमें किसी और की नहीं मेरी अपनी ही गलती थी. मैं बहुत चौकस रहती थी. मैं जो जानती थी उसी पर टिकी रहती. इस बात को शब्दों में रख पाना मुश्किल होता है जब कई बार आपको सूक्ष्म रूप से यह क्रूर रूप में महसूस होता है कि आप वहां के हैं ही नहीं, आपको सूक्ष्म रूप से ऐसे संकेत मिलते रहते हैं कि कोई खतरा न उठाया जाए, अपने जैसे लोगों को खोजकर उनके बीच ही रहा जाए.

मेरी एक रूममेट कैथी कई साल बाद ख़बरों में आई, उसने शर्मिंदगी के साथ कुछ ऐसा लिखा था जिसके बारे में मुझे तब नहीं पता था जब हम साथ साथ रहते थे: उसकी माँ न्यू ओर्लायंस में अध्यापिका थीं, जब उनको यह पता चला कि उनकी बेटी को एक अश्वेत के साथ कमरा दे दिया गया है तो वह बहुत गुस्से में आ गई और वह विश्वविद्यालय के पीछे पड़ गई कि हमें अलग किया जाए. उसकी माँ ने भी इंटरव्यू दिया और इस बात की पुष्टि करते हुए कुछ और सन्दर्भ दिए. एक ऐसे परिवार में पली बढ़ी जिसमें अश्वेतों के प्रति नफरत की भाषा घर में बोली जाती थी, उनके दादा एक शेरिफ थे और वे अश्वेत लोगों को शहर के बाहर खदेड़ने की बात किया करते थे, इसलिए जब उनको पता चला कि मैं उनकी बेटी के साथ रहने वाली थी तो वह डर गई थी. मुझे बस इतना ही याद है कि यूनिवर्सिटी में पहले साल के बीच में कैथी तीन लड़कियों के कमरे से बाहर निकल कर एकल कमरे में रहने के लिए चली गई. मैं यह बात ख़ुशी ख़ुशी कह सकती हूँ कि मुझे इस बारे में कुछ नहीं पता था कि क्यों.

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किताब का लिंक- https://www.amazon.in/Becoming-%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%97-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A4%BE-%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%A8-%E0%A4%B8%E0%A5%9E%E0%A4%B0/dp/9353494850/ref=sr_1_1?crid=2TETYHHY1QGUD&dchild=1&keyword

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अलेक्सान्द्र पूश्किन की कहानी ‘डाकचौकी का चौकीदार’

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अलेक्सान्द्र पूश्किन की आज जयंती है। महज़ 38 साल की आयु में दुनिया छोड़ देने वाले इस कवि-लेखक की एक कहानी पढ़िए। अनुवाद किया है आ. चारुमति रामदास ने-

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मुंशी सरकार का,

तानाशाह डाकचौकी का

 – राजकुमार व्याज़ेम्स्की

डाकचौकी के चौकीदारों को किसने गालियाँ नहीं दी होंगी, किसका उनसे झगड़ा न हुआ होगा? किसने क्रोध में आकर उनसे शिकायत पुस्तिका न माँगी होगी, जिसमें वह अपनी व्यर्थ की शिकायत दर्ज कर सकें: बदमिजाज़ी, बदतमीज़ी और बदसुलूकी के बारे में? कौन उन्हें भूतपूर्व धूर्त मुंशी या फिर मूरोम के डाकू नहीं समझता, जो मानवता के नाम पर बदनुमा दाग़ हैं? मगर, फिर भी, आइए, उनके स्थान पर स्वयम् को रखकर, उनके बारे में तटस्थता से विचार कर, उनके साथ कुछ इन्साफ़ करें.

डाकचौकी का चौकीदार आख़िर क्या बला है? चौदहवीं श्रेणी का पीड़ित-शोषित जीव, ताड़न-उत्पीड़न से जिसकी रक्षा कभी-कभार यह सरकारी वर्गीकरण कर देता है, मगर हमेशा नहीं (अपने पाठकों के विवेक पर आधारित है मेरा यह कथन). क्या ज़िम्मेदारी है इस प्राणी की जिसे राजकुमार व्याज़ेम्स्की व्यंग्य से ‘तानाशाह’ कहता है? यह कालेपानी की सज़ा तो नहीं? न दिन में चैन, न रात में. उबाऊ सफ़र से संचित पूरे क्रोध को मुसाफ़िर इस मुंशी-चौकीदार पर उँडेल देता है. चाहे मौसम ख़राब हो, या रास्ता ऊबड़-खाबड़, कोचवान ढीठ हो या फिर घोड़े ज़िद्दी हों– दोष है सिर्फ चौकीदार का. उसके जीर्ण-शीर्ण झोंपड़े में प्रवेश करते ही मुसाफ़िर उसे यूँ देखता है, जैसे किसी शत्रु को देख रहा हो. अगर इस बिन बुलाए मेहमान से शीघ्र छुटकारा मिल जाए तो सौभाग्य समझिए, और यदि घोड़े न हों तो? …या ख़ुदा! कैसी गालियाँ, कैसी धमकियाँ सुनने को मिलती हैं. बारिश और कीचड़ में उसे आँगन में भागना पड़ता है, तूफ़ान में, भीषण बर्फीले मौसम में उसे ड्योढ़ी पर जाना पड़ता है, ताकि क्रोधित मेहमान की चीखों और घूँसों से पल भर को राहत मिले.

जनरल आता है, थरथर काँपता हुआ चौकीदार उसे अंतिम दो “त्रोयका” दे देता है, और डाकगाड़ी भी. जनरल रवाना हो जाता है, बिना धन्यवाद दिए. पाँच मिनट बाद घण्टी की आवाज़ और घुड़सवार संदेशवाहक उसके सामने मेज़ पर अपना यात्रापत्र फेंकता है…

यह सब भली भांति देखने पर हृदय उसके प्रति क्रोध के स्थान पर सहानुभूति से भर जाता है. कुछ और शब्द: पिछले बीस वर्षों से मैं रूस के चप्पे-चप्पे का सफ़र कर चुका हूँ, सभी राजमार्गों से परिचित हूँ. कोचवानों की कई पीढ़ियों को जानता हूँ. डाकचौकी का शायद ही कोई चौकीदार होगा, जिसे मैं नहीं जानता. शायद ही ऐसा कोई होगा, जिससे मेरा पाला नहीं पड़ा. यात्राओं के दौरान हुए दिलचस्प अनुभवों को शीघ्र ही प्रकाशित करना चाहता हूँ. अभी सिर्फ यही कहूँगा: डाकचौकी के चौकीदारों के वर्ग की समाज में एकदम गलत छबि बनाई गई है. ये अभिशप्त चौकीदार वास्तव में बड़े शांतिप्रिय किस्म के होते हैं, स्वभाव से सेवाभावी, मिलनसार, नम्र, धन का कोई लोभ नहीं. उनकी बातचीत से (जिसे मुसाफ़िर अनसुना कर देते हैं) कई दिलचस्प और ज्ञानवर्धक बातें पता चलती हैं. जहाँ तक मेरा सवाल है, तो मैं स्वीकार करता हूँ, कि राजकीय कार्य से जा रहे छठी श्रेणी के किसी कर्मचारी से बातें करने के स्थान पर मैं इन चौकीदारों की बातें सुनना ज़्यादा पसन्द करता हूँ.

अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि चौकीदारों की जमात में मेरे परिचित हैं. सचमुच उनमें से एक की स्मृति तो मेरे लिए बहुमूल्य है. परिस्थितिवश हम एक दूसरे के निकट आए थे और अब उसी के बारे में मैं अपने प्रिय पाठकों को बताने जा रहा हूँ.

सन् 1816 के मई के महीने में मुझे प्रदेश के एक मार्ग पर जाने का मौका मिला जो अब नष्ट हो चुका है. मैं एक छोटा अफ़सर था, किराए की गाड़ी पर चलता था और दो घोड़ों का किराया दे सकता था. इस कारण चौकीदार मुझसे शिष्टता से पेश नहीं आते, और अक्सर मुझे वह लड़कर ही मिलता था, जिसका, मेरे हिसाब से मैं हकदार था. जब मेरे लिए तैयार की गई ‘त्रोयका’ वह ऐन वक्त पर किसी बड़े अफ़सर को दे देता तो जवान और तुनकमिजाज़ होने के कारण मैं चौकीदार के कमीनेपन एवम् तंगदिली पर खीझ उठता. इस बात से भी मैं कितने ही दिनों तक समझौता न कर पाया कि गवर्नर को भोजन परोसते वक्त यह पक्षपाती, दुष्ट सेवक मुझे कुछ भी परोसे बगैर बिल्कुल मेरे सामने से ही खाद्य-पदार्थ ले जाता. आज ये सब बातें मुझे तर्कसंगत प्रतीत होती हैं. सचमुच, यदि ‘हैसियत का सम्मान करें’ के स्थान पर ‘बुद्धि का सम्मान करें’ कहावत लागू होती तो न जाने हम लोगों का क्या हाल हुआ होता? कैसे-कैसे वाद-विवाद उठ खड़े होते: तब सेवक किसे पहले भोजन परोसते? मगर, मेरी कहानी की ओर चलें.

गर्मी और उमस-भरा दिन था. स्टेशन से तकरीबन तीन मील पहले बूँदाबाँदी शुरू हुई, मगर एक ही मिनट में धुआँधार बारिश ने मुझे पूरी तरह भिगो दिया. डाकचौकी पर पहुँचते ही सबसे पहला काम था – कपड़े बदलना और दूसरा – चाय का ऑर्डर देना.

“ऐ दून्या!” चौकीदार चीखा, “समोवार रख और मलाई ले आ.” इतना सुनते ही दीवार के पीछे से लगभग चौदह साल की एक लड़की बाहर निकली और आँगन की ओर दौड़ गई. उसकी सुन्दरता को देख मैं स्तब्ध रह गया.

“क्या यह तुम्हारी बेटी है?” मैने चौकीदार से पूछ लिया.
“बेटी है,” कुछ स्वाभिमान मिश्रित गर्व से उसने उत्तर दिया. “हाँ, इतनी समझदार, इतनी चंचल है, बिल्कुल अपनी स्वर्गवासी माँ पर गई है.”

अब वह अपने रजिस्टर में मेरे सफ़रनामे की जानकारी लिखने लगा, और मैं उसकी छोटी-सी मगर साफ़-सुथरी झोंपड़ी की दीवारों पर टँगी तस्वीरें देखने लगा. तस्वीरें थीं पथभ्रष्ट पुत्र के बारे में. पहली तस्वीर में टोपी पहने एक बुज़ुर्ग उत्साहपूर्वक अपने पुत्र को बिदा करता दिखाया गया था. पुत्र बिना देर किए पिता का आशीर्वाद और रुपयों से भरी थैली लेता है. दूसरे चित्र में चटख रंगों में नौजवान आदमी के पतन का किस्सा था. वह मेज़ पर बैठा है, झूठे चापलूस मित्रों और बेशर्म औरतों से घिरा हुआ. अगली तस्वीर में निर्धन हो चुका नौजवान एक कमीज़ और तिकोनी टोपी पहने सूअर चराता और उन्हीं के बीच भोजन करता दिखाया गया था. उसके चेहरे पर गहरी पीड़ा एवम् पश्चात्ताप के लक्षण दिखाई दे रहे थे. अन्त में चित्रित थी पिता के पास उसकी वापसी. सहृदय बूढ़ा वही कोट और टोपी पहने बाँहे फैलाए उसकी ओर भाग रहा है. पथभ्रष्ट बेटा घुटनों के बल खड़ा है. पृष्ठभूमि में रसोइया मोटी-तगड़ी भेड़ को काट रहा है, तो बड़ा भाई नौकर से इस आनन्दोत्सव का कारण पूछ रहा है. हर तस्वीर के नीचे सुन्दर जर्मन कविताएँ लिखी थीं. यह सब आज भी मेरे दिमाग़ में ताज़ा है – फूलों के गमले, फूलदार परदों वाली चारपाई जैसी अन्य चीज़ों को भी मैं भूला नहीं हूँ. याद है गृहस्वामी की – लगभग पचास वर्ष का फुर्तीला, तरोताज़ा तबियत का बूढ़ा, लम्बा हरा कुर्ता पहने जिस पर फीतों से तीन मेडल लटके हुए थे.

मैं अभी अपने पुराने कोचवान का हिसाब कर ही रहा था कि समोवार लिए दून्या आ धमकी. उस जवान, शोख़ लड़की ने दूसरी ही नज़र में भाँप लिया कि उसका मुझ पर क्या प्रभाव पड़ा है. उसने अपनी बड़ी-बड़ी नीली आँखें झपकाईं. मैं उससे बातें करने लगा. वह बेझिझक मेरे प्रश्नों के उत्तर दे रही थी, जैसे कि उसने भी दुनिया देखी है. उसके पिता को मैंने शराब का प्याला पेश किया, दून्या को चाय दी और हम तीनों इस तरह बातें करने लगे मानो सदियों से एक-दूसरे को जानते हों.

घोड़े कब से तैयार थे, मगर चौकीदार एवम् उसकी बेटी से बिदा लेने का मेरा मन ही नहीं हो रहा था. आख़िरकार मैंने उनसे बिदा ली. पिता ने मेरी यात्रा शुभ होने की कामना की. बेटी मुझे गाड़ी तक छोड़ने आई. ड्योढ़ी में मैं रुका और उसका चुम्बन लेने की अनुमति माँगी. दून्या राज़ी हो गई…अनेक चुम्बन गिनवा सकता हूँ, जब से मैं यह सब करने लगा, मगर उनमें से एक भी इस चुम्बन जैसा दीर्घ, इतना प्यारा प्रभाव मुझ पर न छोड़ सका.

अनेक वर्ष बीत गए, और परिस्थितियाँ मुझे फिर उसी मार्ग पर, उन्हीं स्थानों पर ले आईं. मुझे बूढ़े चौकीदार और उसकी बेटी की याद आ गई और यह सोचकर मैं ख़ुश हुआ कि दुबारा उसे देख सकूँगा. मगर, मैंने सोचा, हो सकता है कि बूढ़े चौकीदार का तबादला हो गया हो, शायद दून्या की शादी हो गई हो. उनमें से किसी एक की मृत्यु का ख़याल भी मेरे मन में आया और मैं आशंकित होकर डाकचौकी के निकट आया.

घोड़े डाकचौकी के पास रुक गए. कमरे में घुसते ही मैं पथभ्रष्ट पुत्र की कहानी वाली तस्वीरों को पहचान गया. मेज़ और चारपाई भी पुराने स्थानों पर ही रखे थे, मगर खिड़कियों में अब फूल नहीं थे और हर चीज़ बेजान, बदरंग नज़र आ रही थी. चौकीदार मोटा कोट ओढ़े सो रहा था. मेरे आगमन ने उसे जगा दिया. वह उठकर खड़ा हो गया…यह बिल्कुल सैम्सन वीरिन ही था, मगर वह कितना बूढ़ा हो गया था! जिस वक्त वह अपने रजिस्टर में मेरा सफ़रनामा लिखने की तैयारी कर रहा था, मैं उसके सफ़ेद बालों, बढ़ी हुई दाढ़ी वाले चेहरे पर उभर आई गहरी झुर्रियों और झुकी हुई कमर की ओर देखता रहा और अचरज किए बिना न रह सका कि केवल तीन या चार वर्षों के अन्तराल ने एक हट्टे-कट्टे आदमी को किस कदर जर्जर और बूढ़ा बना दिया था.

“तुमने मुझे पहचाना?” मैंने उससे पूछा. “हम तो पुराने परिचित हैं.”

“हो सकता है,” उसने बड़ी संजीदगी से उत्तर दिया. “यह रास्ता काफ़ी बड़ा है, कितने ही मुसाफ़िर मेरे यहाँ आते-जाते रहते हैं.”

“तुम्हारी दून्या अच्छी तो है?” मैं कहता रहा. बूढ़े ने नाक-भौंह चढ़ा ली. “ख़ुदा जाने,” उसने जवाब दिया.

“शायद, शादी हो गई है उसकी.” मैंने कहा.

बूढ़े ने यूँ जताया जैसे कि उसने मेरी बात सुनी ही न हो और फुसफुसाकर मेरा सफ़रनामा पढ़ता रहा. मैंने प्रश्नों की बौछार रोककर चाय लाने की आज्ञा दी. उत्सुकता ने मुझे परेशान करना शुरू कर दिया था और मुझे उम्मीद थी कि शराब के एक दौर से मेरे पुराने परिचित की ज़ुबान खुल जाएगी.

मैं ग़लत नहीं था. बूढ़े ने पेश किए गए गिलास को लेने से इनकार नहीं किया. मैंने देखा कि ‘रम’ ने उसकी संजीदगी को भगा दिया है. दूसरा गिलास पीते-पीते वह बतियाने लगा. वह अब या तो मुझे पहचान गया था या पहचानने का नाटक कर रहा था, और उससे मुझे वह किस्सा सुनने को मिला जिसने मुझे हिलाकर रख दिया.

“तो, आप मेरी दून्या को जानते थे?” उसने शुरुआत की. “कौन नहीं जानता था उसे? आह, दून्या, दून्या! क्या बच्ची थी! जो भी आता, तारीफ़ ही करता, कोई भी दोष न निकालता. मालकिनें उसे कभी रूमाल, तो कभी कानों की बालियाँ देतीं. मालिक लोग जानबूझकर रुक जाते, जैसे दोपहर या रात का भोजन करना चाहते हों. मगर असल में सिर्फ इसलिए कि उसे ज़्यादा देर तक देख सकें. कोई मालिक कितना भी गुस्से में क्यों न हो, उसे देखते ही शान्त हो जाता, और मुझसे भी प्यार से बातें करने लगता. यकीन कीजिए, साहब, पत्रवाहक या सेना के सन्देशवाहक तो उससे आधा-आधा घण्टे तक बतियाते रहते. घर तो उसी के भरोसे था. क्या लाना है, क्या बनाना है, सभी कुछ कर लेती थी. और मैं, बूढ़ा मूरख, उसे देख-देख अघाता न था. ख़ुश होता रहता. क्या मैं अपनी दून्या को प्यार न करता था? क्या मैं उसकी देखभाल नहीं करता था? क्या उसका जीना यहाँ दूभर हो गया था? नहीं, मुसीबतों से कोई बच नहीं सकता. भाग्य का लिखा मिट नहीं सकता.”

अब उसने विस्तार से अपना दुखड़ा सुनाया: तीन साल पहले जाड़े की एक शाम को, जब चौकीदार नए रजिस्टर में लाइनें खींच रहा था और उसकी बेटी दीवार के पीछे बैठी सिलाई कर रही थी, एक त्रोयका रुकी और रोयेंदार टोपी, फ़ौजी कोट और शॉल ओढ़े एक मुसाफ़िर ने अन्दर आकर घोड़े माँगे. घोड़े थे ही नहीं. इतना सुनते ही मुसाफ़िर ने आवाज़ ऊँची कर अपना चाबुक निकाला. मगर दून्या, जो ऐसे दृश्यों की आदी थी, फ़ौरन दीवार के पीछे से भागकर आई और प्यारभरे स्वर में मुसाफ़िर से पूछने लगी कि उसे कुछ खाने को तो नहीं चाहिए. दून्या के आगमन का अपेक्षित असर पड़ा. मुसाफ़िर का गुस्सा छू मंतर हो गया. वह घोड़ों का इंतज़ार करने पर राज़ी हो गया और उसने अपने लिए भोजन लाने को कहा. गीली, रोयेंदार टोपी उतारने के बाद, शॉल हटाने के बाद और कोट उतारने के बाद प्रतीत हुआ कि मुसाफ़िर एक जवान, हट्टा-कट्टा, सुडौल, काली छोटी-छोटी मूँछों वाला घुड़सवार दस्ते का अफ़सर है. वह चौकीदार के निकट पसर कर बैठ गया और बड़ी प्रसन्नता से उससे और उसकी बेटी से बतियाने लगा. भोजन परोसा गया. इसी बीच घोड़े भी लौट आए और चौकीदार ने आज्ञा दी, कि उन्हें फ़ौरन, बिना दाना-पानी दिए, मुसाफ़िर की गाड़ी से जोत दिया जाए. मगर जब वह अन्दर आया तो उसने देखा, कि नौजवान वहीं, बेंच पर लगभग बेहोश होकर लुढ़क गया है. उसकी तबियत बिगड़ गई थी. सिर दर्द के मारे फ़टा जा रहा था. आगे जाना संभव नहीं था…क्या किया जाए. चौकीदार ने अपनी चारपाई उसे दे दी और यह तय किया गया कि यदि मरीज़ की हालत नहीं सुधरी तो अगली सुबह शहर से डॉक्टर बुलाया जाए.

दूसरे दिन अफ़सर की तबियत और बिगड़ गई. उसका नौकर घोड़े पर सवार होकर शहर से डॉक्टर बुलाने के लिए रवाना हो गया. दून्या ने सिरके में भीगे रूमाल से उसका सिर बाँध दिया और अपनी सिलाई लेकर उसकी चारपाई के पास बैठ गई. चौकीदार की उपस्थिति में मरीज़ एक भी शब्द बोले बिना सिर्फ कराह रहा था. हालाँकि वह दो कप कॉफ़ी पी गया और कराहते हुए उसने दोपहर के भोजन का आदेश भी दे दिया. दून्या उसके निकट से बिल्कुल नहीं हटी. हर पल वह कुछ पीने की माँग करता और दून्या अपने हाथ से बनाए गए नींबू के शरबत का प्याला उसे थमा देती. मरीज़ अपने होंठ गीले करता और हर बार गिलास वापस करते समय आभार प्रकट करने के लिए अपने कमज़ोर हाथों में दून्या का हाथ ले लेता. भोजन के समय तक डॉक्टर भी आ गया. उसने मरीज़ की नब्ज़ देखी. उसके साथ जर्मन में बातें कीं और रूसी में सबको बताया कि उसे सिर्फ आराम की ज़रूरत है और दो दिन बाद वह जा सकता है. अफ़सर ने डॉक्टर को फ़ीस के तौर पर पच्चीस रूबल दिए और उसे भोजन का निमन्त्रण दे डाला. डॉक्टर मान गया. दोनों ने छक कर खाया, ‘वाइन’ की पूरी बोतल खाली कर दी और अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक एक-दूसरे से बिदा ली.

एक और दिन के बाद अफ़सर बिल्कुल ठीक हो गया. वह बहुत ख़ुश था. लगातार दून्या अथवा चौकीदार के साथ मज़ाक करता, सीटी बजाता, मुसाफ़िरों से बातें करता, उनके सफ़रनामे को रजिस्टर में लिखता और उस भले चौकीदार को उससे इतना प्यार हो गया कि तीसरी सुबह जब वह बिदा लेने लगा तो चौकीदार का मन भर आया.

इतवार का दिन था, दून्या चर्च जाने की तैयारी कर रही थी. अफ़सर को गाड़ी दी गई. उसने चौकीदार से बिदा ली. वहाँ ठहराने एवम् स्वागत सत्कार के लिए उसे भरपूर इनाम दिया. दून्या से भी बिदा ली और उसे चर्च तक, जो गाँव के छोर पर था, गाड़ी में छोड़ देने की दावत दी. दून्या सोच में पड़ गई…”डरती क्यों है?” पिता ने उससे कहा, “मालिक कोई भेड़िया तो है नहीं जो तुझे खा जाएँगे. चर्च तक घूम आ.”

दून्या गाड़ी में अफ़सर की बगल में बैठ गई. नौकर उछलकर पायदान पर चढ़ गया. कोचवान ने सीटी बजाई और घोड़े चल पड़े.

बेचारा चौकीदार समझ नहीं पाया कि अपनी दून्या को अफ़सर के साथ जाने की इजाज़त उसने ख़ुद ही कैसे दे दी थी. वह कुछ देख क्यों नहीं पाया! उस समय उसकी बुद्धि को क्या हो गया था! आधा घण्टा भी नहीं बीता होगा कि उसके दिल में दर्द होने लगा. वह इतना बेचैन हो गया कि स्वयम् पर काबू न रख पाया और गिरजे की ओर चल पड़ा. गिरजे के निकट पहुँचने पर उसने देखा कि लोग अपने-अपने घरों को जा चुके हैं, मगर दून्या न तो ड्योढ़ी में दिखाई दी, न ही प्रवेश-द्वार के पास. वह शीघ्रता से चर्च में घुसा. पादरी प्रतिमा के निकट से बाहर आ रहा था, सेवक मोमबत्तियाँ बुझा रहा था. कोने में बैठी दो बूढ़ी औरतें अभी तक प्रार्थना कर रही थीं. मगर दून्या का वहाँ नामोनिशान न था. बेचारे पिता ने बड़ी कठिनाई से सेवक से दून्या के बारे में यह पूछने का फ़ैसला किया कि वह वहाँ आई थी या नहीं. उसे उत्तर मिला कि नहीं आई थी. चौकीदार अधमरा-सा होकर घर लौटा. सिर्फ एक उम्मीद बाकी थी. हो सकता है, जवानी की चंचलता में दून्या ने अगली डाकचौकी तक जाने का फ़ैसला किया हो, जहाँ उसकी धर्ममाता रहती थी. पीड़ाभरी परेशानी से वह उस त्रोयका के वापस आने का इंतज़ार करने लगा जिसमें उसने बेटी को भेजा था. कोचवान था कि लौटने का नाम ही नहीं ले रहा था. आख़िरकार शाम को वह वापस लौटा– अकेला और बदहवास, दुर्भाग्यपूर्ण सन्देश के साथ, “दून्या अफ़सर के साथ अगली डाकचौकी से आगे चली गई.”

बूढ़ा इस आघात को बर्दाश्त न कर पाया. वह फ़ौरन उसी चारपाई पर गिर पड़ा जिस पर पिछली रात नौजवान फ़रेबी सोया था. अब, सारी बातों पर गौर करने के पश्चात् चौकीदार भाँप गया कि उसकी बीमारी बनावटी थी. वह ग़रीब तेज़ बुखार में जलने लगा. उसे शहर ले जाया गया और उसके स्थान पर दूसरा चौकीदार कुछ समय के लिए नियुक्त किया गया. उस अफ़सर का इलाज करने वाले डॉक्टर ने बूढ़े चौकीदार का भी इलाज किया. उसने चौकीदार को विश्वास दिलाया कि नौजवान एकदम तन्दुरुस्त था, और वह तभी उसकी बुरी नीयत को भाँप गया था. मगर उसके चाबुक के डर से चुप रहा. या तो वह जर्मन सच बोल रहा था, या अपनी दूरदर्शिता की शेख़ी बघार रहा था. मगर उसके कथन से बेचारे मरीज़ को ज़रा भी सान्त्वना न मिली. बीमारी से कुछ सँभलते ही चौकीदार ने डाकचौकी के बड़े अफ़सर से दो माह की छुट्टी माँगी और अपने इरादों के बारे में किसी को एक भी शब्द बताए बिना पैदल ही अपनी बेटी की खोज में चल पड़ा. रजिस्टर देखकर उसने पता लगाया कि घुड़सवार दस्ते का वह अफ़सर मीन्स्की स्मोलेन्स्क से पीटरबुर्ग जा रहा था. जो कोचवान उसे ले गया था उसने बताया, कि दून्या पूरे रास्ते रोती रही थी, हालाँकि ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह अपनी इच्छा से जा रही हो.

‘ईश्वर ने चाहा तो’, चौकीदार ने सोचा, ‘मैं अपनी भटकी हुई भेड़ को वापस ले आऊँगा’. यह विचार करते-करते वह पीटर्सबुर्ग पहुँचा. इजमाइलोव्स्की मोहल्ले में अपने पुराने परिचित, सेना के रिटायर्ड अंडर ऑफिसर के यहाँ रुका और अपनी तलाश जारी रखी. शीघ्र ही उसने पता लगाया कि घुड़सवार दस्ते का वह अफ़सर पीटर्सबुर्ग में ही है, और देमुतोव सराय के निकट रहता है. चौकीदार ने उसके घर जाने का निश्चय किया. पौ फटते ही वह उसके मेहमानख़ाने में दाखिल हुआ और हुज़ूर की ख़िदमत में ये दरख़्वास्त की, कि एक बूढ़ा सिपाही उनसे मिलना चाहता है. अर्दली ने, जो कुँए के पास जूते साफ़ कर रहा था, कहा कि साहब सो रहे हैं और वे ग्यारह बजे से पहले किसी से नहीं मिलते. चौकीदार चला गया और निर्धारित समय पर वापस आया. मीन्स्की स्वयम्, लाल टोपी पहने, बाहर आया.

“क्यों भाई, क्या चाहते हो?” उसने पूछा.

बूढ़े का दिल भर आया. उसकी आँखों से आँसू बह निकले और थरथराती आवाज़ में उसने सिर्फ इतना कहा, “हुज़ूर!..मेहरबानी कीजिए!..” मीन्स्की ने फ़ौरन उसकी ओर देखा, चीख़ा, उसका हाथ पकड़कर अपने अध्ययन-कक्ष में ले आया और अपने पीछे दरवाज़ा बंद कर दिया. “हुज़ूर!…” बूढ़ा कहता गया, “गाड़ी से गिरा दाना धूल में मिल जाता है, कम-से-कम मुझे मेरी ग़रीब दून्या तो दे दीजिए! आपका दिल तो उससे भर गया होगा, उसे यूँ ही न मारिए!”

“जो हो चुका है, उसे लौटाया नहीं जा सकता,” नौजवान ने भावावेश में कहा. “मैं तुम्हारा गुनहगार हूँ और तुमसे माफ़ी माँगता हूँ, मगर ऐसा न सोचना कि मैं दून्या को छोड़ दूँगा. वह ख़ुश रहेगी, मैं वादा करता हूँ. तुम्हें उसकी ज़रूरत क्यों है? वह मुझसे प्यार करती है, वह अपने पुराने जीवन को भूल चुकी है. जो कुछ हो गया है, उसे न तो तुम भूल पाओगे और न वह भूल सकेगी.” फिर उसके हाथ की आस्तीन में कुछ घुसेड़ते हुए, उसने दरवाज़ा खोला और इससे पहले कि चौकीदार कुछ समझता, उसने अपने आप को रास्ते पर पाया.

बड़ी देर तक वह निश्चल खड़ा रहा. अन्त में उसने देखा कि उसकी आस्तीन में एक लिफ़ाफ़ा है, उसने उसे खोला और उसे दिखाई दिए पाँच-पाँच, दस-दस के कुछ मुड़े-तुड़े नोट. उसकी आँखों से फिर आँसू बह चले – अपमान के आँसू. उसने उन नोटों को ज़ोर से भींचा. उन्हें ज़मीन पर फेंका. जूतों से रौंदा और चल पड़ा.

कुछ कदम आगे जाने के बाद वह रुका. कुछ सोचने लगा…और वापस लौटा..मगर अब वहाँ नोट थे ही नहीं. शानदार कपड़े पहने एक नौजवान, उसे देखते ही, गाड़ी की ओर भागा, उछलकर गाड़ी में चढ़ गया और चिल्लाया, “चलो!” चौकीदार ने उसका पीछा नहीं किया. उसने वापस अपनी डाकचौकी पर लौटने का निश्चय कर लिया. मगर जाने से पहले कम-से-कम एक बार अपनी बेचारी दून्या को देखना चाहता था. इस उद्देश्य से दो दिनों के बाद वह फिर मीन्स्की के घर आया, मगर अर्दली ने बड़ी गंभीरता से उत्तर दिया कि मालिक किसी से नहीं मिलते और उसका गिरहबान पकड़कर, उसे मेहमानख़ाने से बाहर धकेलकर, धड़ाम् से दरवाज़ा बन्द कर दिया. चौकीदार खड़ा रहा, खड़ा रहा और वापस चला गया.

उसी शाम वह गिरजे से प्रार्थना करके लितेयनाया रास्ते पर जा रहा था. अचानक उसके सामने से एक शानदार बग्घी गुज़री और चौकीदार ने उसमें बैठे मीन्स्की को पहचान लिया. बग्घी एक तिमंज़िले भवन के प्रवेश-द्वार के ठीक सामने रुकी और अफ़सर अंदर घुस गया. चौकीदार के दिमाग़ में एक ख़ुशनुमा ख़याल तैर गया. वह वापस मुड़ा और कोचवान के निकट आकर पूछने लगा, “किसका घोड़ा है, भाई? कहीं मीन्स्की का तो नहीं?”

“ठीक पहचाना”, कोचवान ने जवाब दिया, “मगर तुम्हें इससे क्या?”

“ऐसी बात है : तुम्हारे मालिक ने मुझे यह चिट्ठी उनकी दून्या को देने के लिए कहा था, मगर मैं तो भूल ही गया कि दून्या रहती कहाँ है?”

“यहीं, दूसरी मंज़िल पर. तुम अपनी चिट्ठी बड़ी देर से लाए, भैया, अब तो वह ख़ुद ही उसके पास आए हैं.”

“कोई बात नहीं”, धड़कते दिल से चौकीदार ने कहा. “शुक्रिया, बताने के लिए. मैं अपना काम कर लूँगा.” इतना कहकर वह सीढ़ियाँ चढ़ने लगा.

दरवाज़ा बंद था. उसने घण्टी बजाई. कुछ क्षण तनावपूर्ण इंतज़ार में बीते. चाभी घुमाने की आवाज़ आई. दरवाज़ा खुला.

“अव्दोत्या सम्सानोव्ना यहाँ रहती हैं?” उसने पूछा.

“हाँ, यहीं”, जवान नौकरानी ने जवाब दिया. “तुम्हें उनकी क्या ज़रूरत है?”

चौकीदार बिना जवाब दिए हॉल में घुसा.

“नहीं, नहीं”, पीछे-पीछे नौकरानी चिल्लाई, “अव्दोत्या सम्सानोव्ना के पास मेहमान हैं.”

मगर चौकीदार बिना सुने आगे बढ़ता गया. पहले दो कमरों में अँधेरा था, तीसरे में रोशनी थी. वह खुले हुए दरवाज़े के निकट पहुँच कर रुक गया. सलीके से सजाए गए कमरे में सोच में डूबा हुआ मीन्स्की बैठा था. दून्या, आधुनिकतम ढंग से सजी सँवरी, उसकी कुर्सी के हत्थे पर यूँ बैठी थी, मानो अपने अंग्रेज़ी घोड़े पर बैठी हो. वह बड़े प्यार से मीन्स्की की ओर देखती हुई अपनी जगमगाती उँगलियों से उसके बालों से खेल रही थी. बेचारा चौकीदार! अपनी बेटी उसे कभी भी इतनी सुंदर प्रतीत नहीं हुई थी. वह ठगा सा उसकी ओर देखता रहा.

“कौन है?” उसने बिना सिर उठाए पूछा. वह ख़ामोश रहा. कोई जवाब न पाकर दून्या ने सिर उठाया…और चीख़ मारकर कालीन पर गिर पड़ी. भयभीत मीन्स्की उसे उठाने के लिए आगे बढ़ा और अचानक दरवाज़े पर बूढ़े चौकीदार को देखकर, दून्या को वहीं छोड़कर गुस्से से काँपता हुआ उसकी ओर बढ़ा.

“क्या चाहते हो तुम?” उसने दाँत पीसते हुए कहा, “हर जगह मेरा पीछा क्यों कर रहे हो, डाकू की तरह? क्या मुझे मार डालना चाहते हो? भाग जाओ!” और उसने अपने मज़बूत हाथ से बूढ़े का गिरहबान पकड़कर उसे सीढ़ियों से धकेल दिया.

बूढ़ा अपने कमरे पर आया. मित्र ने उसे अदालत में फ़रियाद करने की सलाह दी, मगर चौकीदार ने कुछ सोचकर हाथ झटक दिए और पीछे हटने की ठान ली. दो दिनों बाद वह पीटर्सबुर्ग से अपनी डाकचौकी पर वापस आया और अपनी नौकरी करने लगा.

“दो साल बीत गए,” उसने बात ख़त्म करते हुए कहा, “मैं दून्या के बगैर रह रहा हूँ, और उसकी कोई ख़बर नहीं है. ज़िन्दा है या मर गई, ख़ुदा जाने. कुछ भी हो सकता है. न तो वह ऐसी पहली लड़की है और न ही आख़िरी जिसे कि एक मुसाफ़िर फुसला कर भगा ले गया और कुछ दिनों तक अपने पास रखकर फिर छोड़ दिया. पीटर्सबुर्ग में ऐसी बेवकूफ़ नौजवान लड़कियाँ कई हैं, जो आज मखमली पोशाक में हैं, तो कल पैबन्द लगे कपड़ों में सड़क पर झाडू लगाती दिखाई देती हैं. जब मैं सोचता हूँ, कि शायद दून्या का भी यही हश्र होगा, तो अनजाने ही उसकी मृत्यु की कामना करने लगता हूँ…”

यह थी मेरे परिचित बूढ़े चौकीदार की कहानी, जिसमें कई बार उन आँसुओं ने विघ्न डाला था, जिन्हें वह अपने कुर्ते की बाँह से यूँ पोंछता था जैसे कि वह दिमित्रियेव की सुंन्दर लोककथा का नायक तेरेंतिच हो. ये आँसू उस शराब के परिणामस्वरूप भी बह रहे थे जिसके पाँच गिलास वह कहानी सुनाते-सुनाते गटक गया था. वैसे चाहे जो भी हो, इस कहानी ने मेरे दिल पर गहरा असर डाला. उससे बिदा लेने के बाद भी मैं कई दिनों तक बूढ़े चौकीदार को भूल न सका. गरीब बेचारी दून्या के बारे में सोचता रहा.

कुछ ही दिन पहले, शहर से गुज़रते हुए मुझे अपने दोस्त की याद आई. पता चला कि जिस डाकचौकी पर वह काम करता था, वह अब नहीं रही. मेरे इस सवाल का कि “क्या बूढ़ा चौकीदार ज़िन्दा है?” कोई भी सन्तोषजनक उत्तर न मिला. मैंने उस इलाके में जाने का निश्चय कर लिया और घोड़े लेकर उधर ही गाँव की ओर चल पड़ा. यह शिशिर ऋतु की बात थी. आसमान मटमैले बादलों से घिरा था. नंगे खेतों से होकर, अपने साथ लाल-पीले पत्ते बटोरती हुए ठण्डी हवा बह रही थी. मैं गाँव में सूर्यास्त के समय पहुँचा और डाकचौकी के निकट रुका. ड्योढ़ी में (जहाँ बेचारी दून्या ने कभी मेरा चुम्बन लिया था) एक मोटी औरत आई और मेरे सवालों के जवाब में बोली कि बूढ़ा चौकीदार तकरीबन साल भर पहले मर गया था और उसके घर में एक शराब बनाने वाला रहता है. और वह उसी शराब-भट्टीवाले की बीबी है. मुझे अपनी इस निरर्थक यात्रा और फिज़ूल ही खर्च किए गए सात रूबल्स पर दुख हो रहा था.

“वह कैसे मरा?” मैंने शराब-भट्टीवाले की बीबी से पूछ ही लिया.

“पी-पीकर…” वह बोली.

“उसे कहाँ दफ़नाया है?”

“बस्ती के बाहर, उसकी बीबी की बगल में.”

”क्या मुझे उसकी कब्र तक ले जा सकती हो?”

“क्यों नहीं. ऐ, वान्का! बस, खेल हो गया शुरू बिल्ली से! मालिक को कब्रिस्तान ले जा और चौकीदार की कब्र दिखा दे.”

इतना सुनते ही फटे-पुराने कपड़े पहने लाल बालोंवाला, झुकी हुई कमरवाला एक बालक मेरे पास दौड़कर आया और फ़ौरन मुझे बस्ती के बाहर ले गया.

“तुम मृतक को जानते थे?” उससे रास्ते में यूँ ही पूछ लिया था.

“कैसे नहीं जानता. उसने मुझे गुलेल बनाना सिखाया था…शराबख़ाने से लौटता और हम उसके पीछे-पीछे, चिल्लाते “दादा-दादा! अखरोट!” और वह हमें अखरोट देता. हमेशा हमारे साथ ही घूमता.”

“मुसाफ़िर उसे याद करते हैं?”

“अब तो मुसाफ़िर कम ही आते हैं. मुसाफ़िर ख़ास तौर से इस तरफ़ क्यों मुड़ेगा, और मृतकों से किसी को क्या मतलब है…गर्मियों में एक मालकिन आई थी, उसने बूढ़े चौकीदार के बारे में पूछा था और उसकी कब्र पर भी गई थी.”

“कैसी मालकिन?” मैंने उत्सुकता से पूछा.

“सुंन्दर-सी मालकिन”, बालक बोला. “छह घोड़ोंवाली गाड़ी में आई थी. तीन नन्हे-मुन्नों और आया के साथ. चेहरे पर काला नकाब डाले हुए. और जैसे ही उसे बताया कि बूढ़ा चौकीदार गुज़र चुका है, वह रो पड़ी और बच्चों से बोली, “चुपचाप बैठे रहो, मैं कब्रिस्तान हो आती हूँ.” उसे मैं ले ही जा रहा था मगर मालकिन बोली, “मुझे रास्ता मालूम है.” और उसने मुझे चान्दी का पाँच कोपेक का सिक्का दिया.”

हम कब्रिस्तान पहुँचे. सूनी जगह. कोई बाड़ नहीं. लकड़ी के सलीबों से अटी. एक भी पेड़ की छाया नहीं. ज़िंन्दगी में कभी मैंने इतना दयनीय कब्रिस्तान नहीं देखा था.

“यह है बूढ़े चौकीदार की कब्र,” रेत के एक ढेर पर चढ़कर बच्चा बोला, जिस पर ताँबे की प्रतिमा जड़ा काला सलीब खड़ा था.

“मालकिन यहाँ आई थी?” मैंने पूछा.

“आई थी”, वान्का ने जवाब दिया. “मैं उसे दूर से देख रहा था. वह यहाँ खड़ी रही बड़ी देर तक. फिर गाँव में जाकर पादरी को बुला लाई. उसे पैसे दिए और चली गई. और मुझे दिया चाँदी का सिक्का. अच्छी थी मालकिन.”

और मैंने भी बच्चे को पाँच कोपेक का एक सिक्का दिया. अब मुझे न इस यात्रा का गम था और न उन सात रूबल्स का जो दरअसल मैंने इस पर खर्च किए थे.

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बेटी रचना की निगाह में राजेंद्र यादव

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रचना यादव हिन्दी के सर्वाधिक चर्चित और विवादास्पद लेखक राजेन्द्र यादव और मशहूर कथालेखिका मन्नू भंडारी की बेटी हैं। रचना ने एडवर्टाइजिंग में मास कम्यूनिकेशन से पोस्ट ग्रेजुएशन किया है। फिर एडवर्टाइजिंग एजेंसी में नौ साल तक नौकरी की। इन्होंने अपनी डिजाइनिंग की हॉबी को पूरा किया। वह कथक डांसर हैं। रचना की दिलचस्पी साहित्य से अलग फिजिकल एक्टिविटीज में ज्यादा है। वे कहती हैं, ‘पापा की किताबें तो मैंने बहुत देर से यानी अभी कुछ दिनों पहले पढ़ी। मेरा उनसे डे टू डे डायलॉग रहा ही नहीं। इतना स्ट्रॉन्ग डेटूडे कम्यूनिकेशन नहीं था जिससे कि इमोशन का कोई एक्सप्रेशन हो पाता।

वरिष्ठ कथाकार और हंस के संपादक राजेन्द्र यादव। ज़बरदस्त ठहाके, हर नए व्यक्ति से नए उत्साह से मिलना, युवकयुवतियों में छिपे साहित्य के बीज को ढूंढना और अपने काले चश्मे से सामने बैठे व्यक्ति को उसके आरपार देख लेने की कोशिश करना। हंसके दफ्तर में कभी लाल, कभी पीले तो कभी हरे यानी युवा रंगों में रंगे बुश्शर्ट में शौक़ीन मिज़ाज यादव को हर वक़्त नौजवानों वाले उत्साह में देखा जा सकता है।

वे एकसाथ दो व्यक्तित्वों को जीते हैं। लोगों को नजर आने वाला उनका रूप हैजिंदादिल, उन्मुक्त ठहाके, हमेशा लोगों की मदद को तत्पर, रंगबिरंगे कपड़े के साथ जोश में भरे हुए मस्त राजेन्द्र यादव। गोष्ठियों में जब वे गंभीर साहित्यिक बातें करते हैं तो उनका तीसरा ही रूप उभर कर सामने आता है। तब वे अपने वजनी तर्कों से अपने व्यक्तित्व के हाथी रूप का परिचय देते लगते हैं।

जबकि उनका एक रूप कुछ ऐसा भी है जिस पर उन्होंने अपना काला चश्मा चढ़ा रखा है। जिससे वे स्वयं तो सामने वाले को देख सकते हैं पर सामने वाले को सिर्फ अंधेरा ही दिखता है। यह अंधेरा तब और रहस्यमय हो जाता है जब उनके दाहिने हाथ की बीच की उँगलियों में फंसे पाइप उनके होंठ में जा लगते हैं। और गोलगोल धुएँ के छल्ले अँधेरे से मिलकर रहस्यों को और गहरा करते हैं। उनके भीतर बैठे व्यक्ति को स्पष्ट नहीं होने देते। उसी धुंध में बड़ी आसानी से वे अपने अकेलेपन, अपनी तकलीफ़ को ढक लेते हैं। उनके भीतर क्या चलता रहता है, क्या चाहते हैं वे… क्या उनकी बेटी समझ पाती है? कैसे देखती है एक बेटी अपने इमोशनल पिता को…

अप्रैल 2003 में संगीता ने रचना से बातचीत की थी जो पहली साहित्यिक इंटरनेट साप्ताहिक लिटरेट वर्ल्ड में प्रकाशित हुई थी।

रचना के साथ राजेन्द्र यादव

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रचना कहती हैपापा एकदम फ़ोकस्ड हैं अपने राइटिंग को लेकर, बाकी सब उसके बाद आते हैं। जब मैं उनके बारे में सोचती हूँ तो मेरे दिमाग में पहला ख्याल आता है राइटर। फिर याद आता है कि अच्छा वो मेरे पापा भी हैं। इसका मतलब ये नहीं है कि मैं भूल जाती हूँ। पर इमीडिएटली जो एक छवि उभरती है, वो है राजेन्द्र यादवराइटर। राइटर, जो मेरे पापा हैं, वो बहुतफ़ोकस्ड रहे हैं अपने राइटिंग को लेकर। वे कभी कनवेंशनल फादर नहीं रहे। कनवेंशनल ब्रदर नहीं रहे। वे अपनी ही दुनिया में रहते थे जबकि मम्मी ही उनके भाई बहनों के साथ ज्यादा मतलब रखती थीं। इसका मतलब ये नहीं कि उनके अंदर फीलिंग नहीं थी उनलोगों के प्रति या मेरे लिये। पर उस फीलिंग को एक्सप्रेस उन्होंने कभी किया ही नहीं। क्योंकि उनका सारा एक्सप्रेशन राइटिंग में था। तो इस तरह वे इमोशनल लेवल पर बहुत कम्यूनिकेटिव नहीं रहे हैं हमलोगों के साथ। पापा लेखक पहले हैं, परिवार उनके लिए बाद में आता है। मम्मी के लिए परिवार पहले है, लेखन बाद में।

उनका मेरे साथ कुछ इस तरह का संबंध था। बचपन में वे खेलते बहुत थे मेरे साथ। जब मैं छोटी थी। मुझे हवा में उछालना, ताश खेलना और भी बहुत सारे खेल। एक मस्ती के लेवल पर तो उनसे बहुत जमता था। लेकिन अगर मुझे कोई बहुत इमोनशल बात करनी है तो ऐसा डायलॉग नहीं था हमारे बीच। और जब मैं स्कूल कॉलेज जाने लगी। बाहर निकलना होने लगा तब मेरा पापा के साथ वो खेलना भी खत्म हो गया। एक पन्द्रह साल की लड़की के साथ मस्ती तो नहीं करते हैं न। उस समय तक सोचने और रहने का तरीका अलग हो जाता है।

तो उस वक़्त तक काफ़ी गैप आ गया। उनसे बातचीत फंक्शनल लेबल पर रह गया और मम्मी के थ्रू रह गया। पर मुझे याद है जब स्कूल में मैं हेडगर्ल बनी थी तो स्पीच तैयार करना, डिबेट की तैयारी करनाऐसी चीज़ें मैं उनके साथ बैठकर डिस्कस किया करती थी।

हमारे घर में सिर्फ किताबें ही किताबें होती थी। सारे दिन लोग भी ऐसे ही आते थे। हर समय पढ़नेलिखने जैसा ही माहौल था। तो मुझे पढ़ने से ऐसा एंटी-रियेक्शन हुआ कि मैं बहुत पढ़ती नहीं थी। मैं लिखती नहीं हूँ। मेरा क्रिऐटिव आऊटलेट पूरी तरह अलग है।

मैं फिजिकल एक्टिविटीज में ज्यादा रूचि लेने लगी। स्पोर्ट्स में बहुत रुचि थी। अब डांस करती हूँ। इन्टीटियर्स डिंजाइजिंग और पापा की किताबें तो मैंने बहुत देर से यानी अभी कुछ दिनों पहले पढ़ी। मम्मी की तो पहले भी पढ़ी हूँ। तो पढ़नेलिखने वाली बातें पापा से डिस्कस करने का सवाल ही नहीं था। पापा मम्मी की किताब पढ़कर उस पर डिस्कस कर रहे हैं, एनालाइज कर रहे है, ऐसा कभी था ही नहीं। अब तो फिर भी उनसे मिलती हूँ तो पॉलिटिक्स पर बातें होती हैं।

स्कूल और कॉलेज में मेरी पूरी दुनिया ही दूसरी ही थी। उसके बाद एडवर्टाइजिंग में चली गई। वो तो कम्प्लीटली अलग है। तो इस तरह मेरा उनसे डेटूडे डायलॉग रहा ही नहीं। इतना स्ट्रॉन्ग डेटूडे कम्यूनिकेशन नहीं था जिससे कि इमोशन का कोई एक्सप्रेशन हो पाता।

अब चूंकि हमलोग दूरदूर रहते हैं तो एक दूसरे की परवाह ज्यादा होती है। अब कोई महत्वपूर्ण डिसीजन लेना होता है पापा को, तो वे बात करते हैं। हमारे बीच की इमोशनल बाउंडिग को वो अब रियलाइज करते हैं। जो उस समय हमने रियलाइज नहीं किया उसे अब रियलाइज कर रही हूँ कि कितना जुड़ाव है पापा को मुझसे और मुझे पापा से।

क्योंकि शुरू में वो बहुत एक्सप्रेस नहीं कर पाते थे। तब उनको अपनी किताबें, गैदरिंग… वो सब ज्यादा लगा रहता था। इसका मतलब ये नहीं था कि हमलोगों के बीच बातचीत नहीं चल रही है। नार्मल बातचीत चलती थी, घर में जैसे रहते हैं पर मैं अपने दिल की बात उनसे कह रही हूँ, इमोशनल बात कर रही हूँ, उस तरह का डायलॉग नहीं था पापा के साथ जैसा मम्मी के साथ था। मम्मी के साथ तो मैं सारे दिन उनका सिर खाती रहती थी।

क्योंकि मेरे और भाईबहन नहीं थे तो मेरे दोस्त बहुत जरूरी थे मेरे लिए। जैसे जिनके भाईबहन होते हैं वे तो घर में ही बिजी रह जाते हैं। मेरे स्कूल वाले दोस्त ही आज तक दोस्त बने हुए हैं। तो वो मेरी अलग ही दुनिया थी। जिसमें मैं इतना रम गई थी कि

पापा को गुस्सा बहुत कम आता है। आता भी है तो पता ही नहीं चलने देते थे। एकदम कंट्रोल्ड। उनका दिल बहुत बड़ा है पैसे के मामले में। मैं लोगों के घर जाती थी तो उनके पापा बैंक की फाइलें, शेयर्सकरते रहते थे। पर ये सब करते मैंने अपने पापा को कभी नहीं पाया। फाइनेंसली इतनी मजबूत हालत थी भी नहीं ज्यादातर फाइनेंसली हालात टाइट ही होते थे पर उनका दिमाग कभी पैसे पर अटकते नहीं देखा। और जो थोड़ा बहुत भी पैसा होता था तो उसे खुले दिल से खर्च करते हैं। कंजूस बिल्कुल भी नहीं हैं।

हाँ, मगर उनसे ये नहीं होगा कि मेरी एक बहन है दिल्ली में, तो फ़ोन करके उनसे पूछ लूँ। ये वो नहीं कर सकते। उनकी दो बहने यहाँ रहती हैं। तो उनसे किसी त्योहार पर ही मिल आए। फ़ोन ही कर लिया। ऐसा नहीं कर सकते हैं वे। पर दोस्तों से बहुत बनाकर रखेंगे। क्योंकि दोस्तों से बनाकर रहना किसी ड्यूटी के तहत नहीं आता है न।

कभी उनमें ये भाव आते नहीं देखा कि मैं साहब हूँ। चाहे वो चपरासी हो या कोई और सब बराबर। वैसे ही उनके साथ हँसना और बातें करेंगे। हमारे घर में जो जमादार आता था उससे लेकर, माली, दूधवाला, बिजली वाला, फ़ोन वाला, सब साहब के भक्त, दोस्त होते थे। वे सब बहुत खुश रहते थे उनसे। तो इस तरह उनमें बड़ाछोटा का भाव नहीं रहता था।

जैसे कि रहने के लिए नख़रे होते हैं न, वो नहीं है उनमें। कि मुझे ऐसा चाहिए, वैसा चाहिए। अब शायद ऑब्भियसली उम्र के साथ एडजेस्ट भी हो जाता है आदमी। कहीं भी सुला दोयहीं बैठेबैठे सो जाएँगे। कुछ भी खा लेंगे। तो ये सब बहुत स्ट्रॉन्ग प्वाइंट है उनका।

फिर बहुत फ़ोकस्ड, कमिटेड रहते हैं अपने को लेकर। इतने फ़ोकस्ड कि फिर वे किसी को उसमें स्पेस भी नहीं देते हैं। कई बार वे ऐसा करते हैं कि क्यूँकि मैं इसमें बिलीव करता हूँ तो यह ठीक है। कि इसमें किसी और का भी प्वाइंट ऑफ व्यू हो सकता है। उसको भी कंसीडर किया जा सकता है। वो उनके साथ नहीं हो सकता है।

वे कई बार इतने स्टबर्न फ़िक्स्ड हो जाते हैं अपने आइडियाज को लेकर कि वे ऑब्जेक्टिविटी खो देते हैं। अब वे सुनेंगे तो फिर चिढ़ेंगे। इतने ज्यादा वन साइडेड हो जाते हैं कि फिर दूसरे का ना तो प्वाइंट ऑफ व्यू देखेंगे, न कुछ। ये बहुत ट्रिकी है कि वो कम्यूनिकेटिव नहीं है। दरअसल ऊपर से वे सबसे बोलते रहते हैं। पर अन्दर की बात क्या है वो किसी को पता तक नहीं चलने देते हैं। बहुत ही मुश्किल से कभी किसी को अपनी बात बताते होंगे। पता नहीं किसको बताते होंगे?

अपनी तकलीफ़ कभी किसी को नहीं बताएंगे। अब किसी दोस्तवोस्त को बताते हो तो मालूम नहीं। जैसे मम्मी फ़ोन कर देंगी कि टिंकू आज मेरा पेट बहुत खराब हो रहा है, वो हो रहा है। पापा कभी नहीं बताते हैं। उनसे पूछ भी लो। कैसे हैं? जबकि उनके घुटने में दर्द रहता है। ‘…बिल्कुल फ़िट हैं।  मैं पूछती हूँ कि आपने चेकअप करा लिया। अरे करा लेंगे। फिट, एकदम फिट।कभी नहीं बताऐंगे कि कुछ हो रहा है। अगर कभी बता दिया कि थोड़ी तकलीफ़ है। मतलब वो सचमुच बहुतबहुत पेन में हैं। तब वे थोड़ा सा बोलेंगेअरे जरा सा घुटने में दर्द था।  जब वो ऐसा बोल देते हैं तो मैं समझ जाती हूँ कि वे बहुत तकलीफ़ में हैं। कभी भी अपने तकलीफ़ से वे किसी पर बर्डन नहीं बनते हैं।

एक तरह से वो ऊपर से जो दिखते हैं वो नहीं हैं। भीतर से वे कुछ और ही हैं। ऊपर से तो वे एकदम खुलकर बात करेंगे कि तुम आओ। किसी का भी दुख है तो उसे सॉल्व करेंगे। इतने सेंसिटिव हैं। दरअसल अंदर से वो इतने सेल्फ़सेंटर्ड हैं कि वो सेंसेटिव तबतक ही रहते हैं जब तक कि कोई उनकी लाइफ़ को इफ़ेक्ट नहीं कर रहा हो। किसी का दुख है तो वो दुख देखेंगे। बोलेंगे हाँहाँ बहुत दुखी है, मुझे कुछ करना चाहिए। पर कुछ करना चाहिए मतलब क्या? वो फ़ोन उठाके चार फ़ोन करके हेल्प कर देंगे। पैसे होंगे तो दे देंगे। आप उनको बोलिए कि इसको मदद करने के लिए तुमको इसी वक़्त वहाँ जाना होगा। मान लीजिए कि बरेली जाना होगा। वहाँ पर लम्बी लाइन है वहाँ बैठे रहो। वो नहीं करेंगे। हो सकता है कि वो कर भी दें पर वो उनकी लाइफ़, उनकी राइटिंग, उनकी राइटिंग का जो अपना टाइम है अगर उन्हें ऐसा लग जाए कि उन्हें अपनी राइटिंग छोड़नी पड़ेगी किसी की मदद करने के लिए तो वो नहीं करेंगे।

उनका अपना एक लाइफ़ स्टाइल हो गया है। अपना एक टाइम हो गया है। लिखनेपढ़ने का काम, वो वैसा का वैसा ही चलता रहना चाहिए। कहने का मतलब है कि सेक्रीफ़ाइस थोड़ा सा मुश्किल होता है उनके लिए। पैसे जितने बोलो। नहीं भी होंगे तो माँग के वे देंगे।

अब तो मुझे उनका पता नहीं। पहले जब मैं वहाँ रहती थी। जैसे कि उनके फ्रेंड के साथ कोई गोष्ठी हो, कोई डिसकशन है या कहीं जाने का प्रोग्राम है, किसी प्रोग्राम में जाना है। जहाँ सब राइटर वगैरह आ रहे हैं और अगर घर में ऐसी कोई प्रॉबलम आ गई जिसके कारण नहीं जा पा रहे हैं तो बोलेंगे मन्नू, तुम सँभालो। वे चले जाएँगे। उनके टाइम और उनकी लाइफ़ को किसी भी तरह प्रभावित नहीं होना चाहिए। तब तक वो सबकी मदद करने को तैयार रहेंगे। कहने का मतलब उनकी रूटीन, उनकी टाइमिंग, उनका स्पेस मैंटल, फिजीकल। उनके स्पेस को छेड़िए मत आप। मैं समझ नहीं पाती हूँ कि क्या साइकलोजी है उनकी कि बाहर के लोगों की मदद करेंगे वे, घर के लोगों कि नहीं। पर अब तो ऐसे नहीं हैं वे। अब तो काफ़ी बदल गए हैं वे। ये नहीं कि वो कॉशसली सब सोच कर करते हैं। पर घर के लोग तो घर के लोग ही हैं न। जैसे हम उनके लिए घर के हैं वो हमारे लिए भी घर के हैं। कोई एकदूसरे से ऑब्लाइज, कृतज्ञ तो नहीं महसूस करता है। क्योंकि ये तो आपकी ड्यूटी है। आप मेरे पिता हैं, ये तो आपको करना ही है।

पहले घर के लोगों के लिए, चाहे उनकी बहने हों, हमलोग हों, वे नहीं करते थे। जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते थे। पर अब वो करते हैं। मेरे चाचा आते हैं। एक चाचा के आंख में बहुत प्रॉब्लम है। बहुत तकलीफ़ हैं उन्हें। तो अब पापा चाहते हैं कि उन्हें डाक्टर के पास ले जाऊँ। उन्हें दिखाऊँ। अब वे बहुत करना चाहते हैं। पर अब सब लोग इतने तितरबितर हो गए हैं। पहले तो हम सब साथ ही रहते थे। छोटी बुआ, छोटे चाचा, मम्मी, मैं, सब लोग साथ रहते थे। घर में तो वे कभी पूछते भी नहीं थे कि तुम ठीक तो हो।

हो सकता है जब वे नहीं कर पाते थे परिवार के लिए तब उनका अपना भी तो स्ट्रगल चल रहा था। और जब मैंटल स्ट्रगल चलती रहती है तो और चीज़ों के लिए स्पेस बहुत कम रह जाती है।

अब वो बहुत सेटेल्ड हो गए हैं। बहुत कूल हो गए हैं। उतना हबड़तबड़ कि मैं ये भी कर लूँ, वो भी कर लूँ, ऐसे नहीं करते हैं। अब उनमें शांति आ गई है। अब उन्हें शायद ऐसा लगता है जो नहीं किया परिवार के लिए, उसे करें।

शुरू से मम्मी-पापा दोनों ने ही मुझे इंडिपेंडेंट होने के लिए बहुत इनकरेज किया। जैसा कि नार्मली होता है कि बच्चा अकेला होने पर बहुत प्रोटेक्टिव हो जाता है। मैं बहुत इंडिपेंडेंट हूँ जबकि मैं बहुत कम उम्र से अकेली रह रही हूँ। इंडिपेंडेंट थी कि बस में घूमो शुरू से ही। आगरा घर है पापा का। आगरा में चाचा की शादी थी और मेरी अंतिम परीक्षा थी। और उनलोगों को शादी की वजह से एक दिन पहले निकलना था। तो उन्होंने कहा कि तुम परीक्षा देकर आई। आईएसबीटी चली जाना और वहाँ से बस पकड़कर आ जाना। तो इस तरह से शुरू से मुझे बहुत इंडिपेंडेंस दी दोनों ने, जो मैं सोचती हूँ कि बहुत ही अच्छी बात थी। इसलिए मैं सब कुछ अपने आप कर लेती हूँ। तो मेरे व्यक्तित्व में दोनों का योगदान है। मम्मी का तो एकदम डायरेक्टली और पापा का मम्मी के थ्रू।

गर्मी की छुट्टियाँ जब होती थी मुझे कलकत्ता भेज दिया जाता था। मेरी मौसी के पास, दो महीने के लिए। जब छोटी थी तो मम्मी जाती थीं। जब थोड़ी बड़ी हो गई, तो बोलती थीं, तुम चली जाओ। राजधानी एक्सप्रेस तब चली थी कि सीधा हावड़ा रूकेगी, बीच में कहीं नहीं, सुपरफ़ास्ट ट्रेन, जिसके सारे दरवाजे बन्द रहते हैं। तो ऐसे ही मम्मी पता कर लेती थीं, कि कोई जा रहा है, यहाँ मुझे ट्रेन में बिठा दिया और कलकत्ता स्टेशन पर मुझे उतार लिया जाता था।

मम्मी बताती हैं कि मम्मी-पापा कलकत्ते से आए थे न? कलकत्ते में रहते थे ये लोग। वहाँ से दिल्ली शिफ्ट हो गए। तब मैं शायद तीन या सवा तीन साल की थी। यहाँ मेरा किसी स्कूल में एडमिशन नहीं हुआ था। एडमिशन चार या साढ़े चार साल में होता था। और मम्मी मिरांडा हाऊस में लेक्चरार हो गई थीं। पापा, वो तो लिखने में मगनतो मम्मी की बड़ी बहन, जिनसे मैं बहुत क्लोज़ थी, कलकत्ते में पैदा होकर मैं बहुत ज्यादा उनके घर में रहती थी।

उनको मैं मम्मी बुलाती हूँ। तो मम्मी ने सोचा वहीं कलकत्ते भेज देती हूँ इसे जब तक इसका स्कूल में एडमिशन नहीं हो जाता है। तब तक मैं सेटल-वेटल हो जाऊँ प्रोपरली। मैं इसको देखूँ, अपना कॉलेज देखूँ, सेटल करूँतो प्रॉब्लम हो रही थी उनको। इस तरह मुझे वापस कलकत्ते भेज दिया। उस समय तो पापा ने कहा हाँ, इसको भेज दो। तुम तो कॉलेज चली जाओगी। पापा तो घर में ही लिखते रहते थे। उन्होंने कहा कि मैं लिखने में व्यस्त रहता हूँ, मैं इसे नहीं देख सकता, मेरा लिखने का सारा ध्यान बँट जाता है। अभी इसको भेज दो। जिस दिन मैं गई, उस दिन सबसे ज्यादा पापा रोए। मम्मी बताती हैं कि वे इतना बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोए। पर पहले खुद ही कहते रहे कि नहीं-नहीं मैं इसको नहीं रख सकता। तो उनकी भावनाओं का एक्सप्रेशन मुझसे डायरेक्टली कभी हुआ ही नहीं। मुझे तो कभी पता ही नहीं चला कि मुझमें उनकी दिलचस्पी भी है।

अब मैं जब पीछे देखती हूँमैं कई बार मम्मी से पूछती हूँ किमैं स्कूल में हेडगर्ल बनी थीतुम्हें क्या लगता है, पापा को पता भी था कि मैं हेडगर्ल हो गई हूँ। कभी उन्होंने एक्सप्रेस किया हो, मुझे याद भी नहीं है। मुझे तो लगता था उनको पता तक नहीं है, मैं कौन सी क्लास में हूँ। क्या करती हूँ। हाँ, पर मम्मी के खिलाफ़ मैं और पापा मिलकर छोटी-छोटी साजिश करके ख़ूब मज़ा लेते थे। इसमें मेरा पापा से ख़ूब डायलॉग था। मम्मी लगी रहती थीं कि घर साफ़ रखना है। खाना ठीक टाइम पर खाना है। कपड़े जगह पर पर रखो, वगैरह। तब हमलोग हार्मलेस चीज़ें करके मम्मी को परेशान करते थे। मुझे कुत्तों का बड़ा शौक था और मम्मी को एलर्जी थी। मेरे एक बर्थ डे पर पापा कुत्ता ले आए। कहने लगे थोड़े दिनों में मम्मी ठीक हो जाएगी। ऐसे ही छोटी-छोटी बदमाशी करके हम मज़े करते थे।

पापा को ये दुख है कि वे लेखक नहीं बना सके मुझे या पढ़ने का इतना शौक पैदा करते, जितना उनको है। तो वो नहीं कर सके। उनको बहुत मन था कि मैं पढूँ। मम्मी कहती हैं कि तेरा नेचर पापा से बहुत मिलता है। मैं भी पापा की तरह ही अपने अन्दर की कोई बात उन्हें नहीं बताती हूँ, और ये सच भी है। जैसे कि मम्मी अपनी सारी बात बता जाती हैं, मैं उतनी आसानी से अपनी बात शेयर नहीं करती सबसे। अब पापा और मैं दूर हो गए हैं तो दोनों चाहते हैं कि और शेयरिंग हों और पास रहें। मेरे ख्याल से अगर मेरा और पापा का नेचर सेम है, तो पास रहने पर और शेयरिंग होती और क्लोज़नेस बढ़ता। साथ रहते हुए इस बात पर ज्यादा कभी ध्यान ही नहीं दिया।

मेरे स्कूल के पहले दिन पापा मुझे छोड़ने गए थे। तब सिर्फ चार साल की थी मैं। ये मुझे याद है। ये बात मेरे मन में एकदम इमेज सी बनी हुई है कि वो मुझे छोड़ कर जा रहे हैं। वैसे ऐसा काम वो करते नहीं थे कि बच्चे को स्कूल छोड़ने जा रहे हैं। इसलिए भी शायद यह बात मेरे मन में गहरे बैठी हुई है।

पापा अपने काम में इतना मशगूल रहते थे कि कुछ करना है, रात को कहीं जाना है तो मुझे परमिशन मम्मी के थ्रू मिलता था। कभी डायरेक्टली मुझे याद नहीं है कि मैंने पापा से पूछा हो कि हम जा सकते हैं क्या? मम्मी पूछेंगी, बताएँगे वो।

जब एकाध बार मैंने उनसे कुछ पूछा तो मुझे वे कुछ हाँ या ना — कुछ जवाब नहीं दिये थे। तो मुझे लगता था कि शायद उनका कोई ओपिनियन ही नहीं है। तब वो अपनी दुनिया में ही ज्यादा व्यस्त रहते थे। अक्षर प्रकाशन के एकदम शुरू वाले दिनों में बहुत प्रेशर थे इनपर। पैसे थे नहीं। कर्जा था। पर तब मैं अपने हिसाब से सोचती थी कि मैं कहीं जाऊँ या नहीं जाऊँ, इनसे क्या पूछना? हो सकता है कि मेरे दिमाग में ये भी रहता हो कि इनको तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। मम्मी को फ़र्क़ पड़ता है तो मैं मम्मी से पूछूँगी। तब मम्मी बताती थी कि पापा गुस्सा होंगे। तब मुझे लगता था कि मम्मी पापा का नाम यूज कर रही हैं। वो खुद मना करना चाहती हैं कि मैं नहीं जाऊँ। पर पापा का नाम बीच में ला रही हैं। बाद में मुझे महसूस हुआ कि नहीं ये राय पापा की भी है।

हमलोग सब सुबह की चाय डायनिंग टेबल पर साथ बैठकर लेते थे। फिर तैयार होकर स्कूल जाते थे। तो वो आधा-पौना घंटा और रात के खाने पर भी सब साथ बैठते थे तो उसी टाइम पर बात होती थी। अगर मम्मी चाहती थी कि मुझे पता चले कि पापा कि क्या राय है तो डायनिंग टेबल पर ही बात शुरू कर देती थी कि वो टिंकू बोल रही हैये वहाँ जाना चाहती है। तो पापा कहते थेहूँ, हूँफिर वो थोड़ा सा कुछ बोल देंगे कि नहीं पर ऐसे कैसे जाओगे? कभी जोर से चिल्लाए नहीं, कभी डाँटा नहीं। पर जब मैं बड़ी होने लगी, तो लगने लगा कि ऐसा नहीं है कि इनकी ओपिनियन नहीं है, इनकी भी ओपिनियन है।

जब मेरी शादी की बात चलने लगी। दिनेश आया था। मम्मी तो थी नहीं, पापा थे। दिनेश के लिए मम्मी ने कहा कि राजेंद्र से मिलाओ इसे। जब मेरी शादी की बात होने लगी तो मम्मी को लगने लगा कि पापा को भी कुछ रेस्पांस्बिलिटी लेनी चाहिए मेरी लाइफ़ में। मम्मी ने बोल दिया कि इसको पापा से मिलाना।

दिनेश आया घर पर। दिनेश का बैकग्राउण्ड ये था कि वो एडवर्टाइजिंग में था और फ़ोटोग्राफ़ी पढ़ने के लिए अमेरिका चला गया था। वहाँ पर वो कुछ वेटर आदि का काम करके पैसे जमा कर रहा था। पर स्कूल शुरू होना था जुलाई में फ़ोटोग्राफ़ी का, पर इसी बीच उसे पता चला कि उसके पिता की एक्सीडेंट में मृत्यु हो गई। तो वह स्कूल शुरू ही नहीं कर पाया। वह वापस आ गया। परिवार के लिए उसको लगा कि फिर जॉब करना चाहिए। तो उसने फिर से जॉब ले लिया एडवर्टाइजिंग कंपनी में। उसका मन तो नहीं था जॉब करने का, उसका मन बहुत था फ़ोटोग्राफ़ी पूरा करने का। लेकिन परिस्थितिवश वापस आते ही उसने जॉब कर लिया। तभी मेरी मुलाकात दिनेश से हुई। उसी कंपनी में उसने जॉब लिया जिसमें मैंने ट्रेनिंग के लिए ज्वाइन किया था। पर ढाई-तीन महीने में दिनेश ने छोड़ दी नौकरी, क्योंकि उसका मन ही नहीं था। उसका मन फ़ोटोग्राफ़ी में ही था। स्कूल की कोई ट्रेनिंग तो थी नहीं उसके पास, अनुभव भी नहीं था, उसके पिता जाने-माने फ़ोटोग्राफ़र थे। वे अमेरिकन दूतावास के पैनल में फ़ोटोग्राफर थे। उसके पास ऐसी फॉर्मल ट्रेनिंग थी, शौकिया कभी-कभी कर लेता था। पर उसका मन बहुत छटपटा रहा था।

जिन दिनों हमने निर्णय लिया कि हम शादी करेंगे और ये मेरे पापा से मिलने आया, पूछने आया। तब वह कुर्ता, जीन्स, कान में बालियाँ पहने था और दाढ़ी बड़ी थी इसकी। घर में पापा बैठे थे, जैसे वे पाइप लेकर बैठे रहते हैं कुर्सी पर। मैंने पहले ही पापा को बोल दिया था कि वो आएगा। वो आया। बैठते ही उसने बोल दिया कि मैं टिंकू से शादी करना चाहता हूँ। तो  ‘अच्छा क्या कर रहे हो? क्या सोचा है? नौकरी का क्या हुआ?’

वो छोड़ दी

अब क्या सोचा है?’

अभी तो सोच रहा हूँ

क्या करोगे?’

कुछ नहीं कर रहा। अभी सोच रहा हूँ मैं?’

थोड़ा बहुत बातें करने के बाद पापा अपने कमरे में। बस, तो ये इन्टरव्यू था। पापा ने दिनेश को कुछ नहीं बोला। उनको ये परेशानी नहीं थी कि देखो ये लड़का कुछ नहीं कर रहा है। मेरी बेटी को कैसे सँभालेगा। जॉब नहीं है, पैसे नहीं हैं, इस चीज़ से उनको कोई परेशानी ही नहीं हुई कि वो कुछ नहीं कर रहा है। पूछा कि क्या करोगे? तो बोला कि पता नहीं क्या करूँगा? तो ऐसे हैं पापा।

फिर बाद में मम्मी को बोलते हैं कि वो तो बहुत क्रिएटिव टाइप का लड़का है, क्रिएटिव लोग स्टेबल नहीं होते हैं। उनसे शादी नहीं करनी चाहिए। मम्मी मुँह देख रही थी उनका कि भई आप क्या हो? आप भी तो वही हो। आप क्रिएटिव हो। कहीं उनको शायद अपनी एक इमेज दिखी दिनेश में। जब वो यंग थे, जब वो कुछ नहीं कर रहे थे, जब वो सोच रहे थे कि मैं लिख के कुछ करूँगा, जब वे स्ट्रगल कर रहे थे। तब उन्हें ये थोड़े ही परवाह होती थी कि मेरा किराया कौन देगा? मैं नौकरी कर लूँ। नौकरियों को तो वे ना कर देते थे। दिनेश का भी यही हाल था। अच्छा खासा जॉब छोड़ केकि मैं सोच रहा हूँ कि अब क्या करूँगा।

कोई आगा न पीछा। कोई बंधन नहीं। अगर मैं किसी पी.ओ.-वी.ओ. को ले आती तो वे कहतेये किसको ले आई। ये कोई आदमी है। ये रोज़ सुबह नौ बजे उठकर ऑफ़िस चला जाएगा और पाँच बजे वापस आ जाएगा। ये क्या आदमी हुआ?’ तो पापा का एकदम से जो रियेक्शन हुआ दिनेश को लेकर उसे याद करके हमलोग अभी भी हँसते हैं। दूसरी तरफ से देखा जाए तो पापा ने ये नहीं बोला कि उससे शादी नहीं करोगी। नहीं तो कह ही नहीं सकते थे। नहीं करने का मतलब अपनी विश दूसरे पर इमपोज करना। वहाँ एक आइडियोलॉजिकल बात आ जाती है। क्रियेटिव लोग थोड़े से डेंजरस होते हैं। दिनेश बोलता है कि कोई और पिता होते और यदि मैं यह बोलता कि मुझे पता नहीं है कि मैं क्या करूँगा, तो वे बोलते यहाँ से तुम जाओ। पापा ही थे जो बोले कि ठीक है देखूँगा कि तुम्हारी क्रियेटिविटी का क्या करें।

मुझे याद है कि पापा शुरू से बोलते थे कि जैसे मैं बड़ी हुई मेरी शादी वे अपने एक बहुत ही क्लोज़ फ्रेंड के बेटे से करना चाहते हैं। वे बचपन में साथ पढ़े हैं आगरा में, फिर वे अमेरिका में सेटल हो गए। उनके तीन-चार लड़के हैं। छोटे लड़के के साथ मेरी बात-वात चल रही थी। वो लड़का आया भी था। मैं उस समय मास कम्यूनिकेशन में थी। पर शुरू से उन्होंने और मम्मी ने भी एक भी लड़का अपनी आँख से नहीं देखा। एक तो पापा को करना नहीं आता ये सब कि किसी के फादर को चिट्ठी लिखें कि आप आओ अपने लड़के को लेकर। उन्होंने लड़की दिखाने की बात पर हमेशा यही कहा कि मैं अपनी लड़की दिखाऊँगा नहीं। लड़की कोई कमोडिटी थोड़े ही है कि मैं लोगों को बुला-बुलाकर दिखाऊँ कि देखो मेरी लड़की। और लड़के वाले बैठे हैं और वे एकदम लड़की को स्टेयर कर रहे हैं। वो इसके भी खिलाफ़ थे कि कन्यादान नहीं करूँगा।

दिनेश के लिए पापा को ये चिंता नहीं थी कि पैसे कहाँ से आएँगे। दिलचस्प बात ये थी कि बिल्कुल अपना ही रूप देख लिया उन्होंने उसमें। कहीं वे जानते थे कि मम्मी को काफ़ी दुखी रखा है उन्होंने। सोचा होगा कि कहीं मेरी बेटी का भी यही हाल न हो जाए, क्रियेटिव आदमी से शादी करके।

मम्मी के थियरीटिकल लेवल और प्रैक्टिकल लेवल में कोई क्लेश नहीं रहा। जो सोचती हैं वे वही लिखती हैं। पापा जो सोचते हैं और जो प्रैक्टिस करते हैं, वे कई बार जो लिखते हैं, उससे अलग होता है। मुझे लगता है कि पापा बहुत कंजरवेटिव हैं। और बहुत इजली वे कंजरवेटिव रह सकते थे। मुझे लगता है कि वहाँ मम्मी का हाथ है। अगर पापा को मम्मी के अलावा किसी कंजरवेटिव औरत का साथ मिलता तो शायद वो मेरे प्रति इतना लिबरल नहीं हो पाते। वो कंजरवेटिव ही रह जाते। मेरी ये उनके प्रति फीलिंग है कि जितनी भी लिबरल बातें हुई घर में कि मुझे लड़कों से मिलना चाहिए, कोएजुकेशन में जाना चाहिए। ये सब मम्मी की ही सोच थी। पापा अगर ना करते भी होंगे तो मुझे लगता है उनके बीच काफ़ी आर्ग्युमेंट चलते होंगे। पर मम्मी का काफ़ी हाथ रहा है पापा के दिमाग को खोलने में। मुझे लगता है कि पापा इतने लिबरल नहीं थे। मम्मी के लिखने में और सोचने के तरीके में कोई फ़र्क़ नहीं है। पापा के असली सोच में और उनके रहने के तरीके में काफ़ी फ़र्क़ है। पापा व्यावहारिक तौर पर इतने खुले नहीं थे। मम्मी की वजह से बस हाँ-हाँ करते रहे। अगर न करते तो फिर वो आइडियोलॉजिकल क्लेश होता, पर सच्चाई में अगर मम्मी नहीं होती, या अगर मम्मी कंवेंशनल टाइप की होतीं तो पापा लड़ते नहीं मम्मी से। पापा की सोच उतनी खुले दिमाग की नहीं थी। वैचारिक स्तर पर थी, पर व्यक्तिगत स्तर पर नहीं थी।

अपने एक साक्षात्कार में माँ ने कहा था कि राजेन्द्र गाँव और दलित की बातें करते हैं, तो क्या उनकी तरह तकलीफ़ में रह सकते हैं? नहीं रह सकते हैं। लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता है, नहीं, पापा रह सकते हैं। वे झुग्गी, झोपड़ी में भी रह सकते हैं। जहाँ पर ये उनका स्वभाव है कि उन्हें चाहिए भी सब कुछ। उनके महँगे शौक हैं। पर अगर वो चीज़ें नहीं मिले तो ऐसा नहीं कहेंगे कि मेरे पास ये भी नहीं  है, वो भी नहीं है। अगर है तो अच्छी बात है। अगर हो सकता है तो हो जाए, अच्छा ही रहेगा पर अगर नहीं है, तो हाय तौबा नहीं है। जबकि मम्मी का नेचर ये है कि आज मैं पैसे बचाती हूँ जिससे कि कल ये हो सके। इस तरह वो पैसे सेव करके चीज़ें इकट्ठा करती थीं।

हर बार किसी भी नए आदमी से बड़े उत्साह से मिलते हैं वे। नया आदमी चाहे कुछ भी हो, उन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता है। हमलोग पहले शक्तिनगर में रहते थे। दिल्ली यूनिवर्सिटी के पास। तो साउथ एण्ड में रहने वाली लड़कियाँ एक्जाम के दिनों मेरे घर रुक जाती थीं। बचपन से पापा उनको देखते आ रहे हैं। अगर लड़कियाँ उनसे मिलने आएँगी तो पापा कहेंगेआओ मंजुला आओ। कैसी हो? क्या खाओगी? ये खिलाओ, वो खिलाओ।इसी बीच में उसे धप से मार देंगे। ख़ूब बातें करेंगे। लड़कियाँ भी अंकल-अंकल करेंगी। तो जो मेरे लड़के दोस्त थे वो कहते थे कि तेरे पापा लड़कियों से तो बहुत बातें करते हैं हमसे ऐसे कहाँ करते हैं। हो सकता है कि उनकी शुरू से एक बेटी रही है तो लड़कियों से व्यवहार करना उन्हें ज्यादा अच्छे से आता है। लेकिन बेटा नहीं होने के कारण उन्हें लड़कों से कैसे बातें की जाये, ये नहीं आता हो। तो इस बात पर सभी मज़ाक़ उड़ाते थे मेरा।

The post बेटी रचना की निगाह में राजेंद्र यादव appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

मृदुला शुक्ला की कहानी ‘सगुनी’

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कल फ़ेसबुक लाइव में प्रसिद्ध लेखिका प्रतिभा राय को सुन रहा था। उन्होंने कहा कि उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं लिखा जिसका उनको अनुभव न रहा हो। असल में यह अनुभव लेखक का ऑबजर्वेशन होता है। लेखिका मृदुला शुक्ला की कहानी ‘सगुनी’ पढ़ते हुए यह बात याद आ गई। विस्थापित मज़दूरों के जीवन से जुड़ी यह कहानी बहुत सूक्ष्म ऑबजर्वेशन में जाती है। अपने गाँव-घर छोड़ कर महानगरों में मेहनत मजूरी करने आने वालों के कितने छोटे छोटे सपने होते हैं, बिस्कुट खाने का सपना, पति-बच्चों के साथ अकेले रहने का सपना। लेकिन सब कुछ इतना आसान होता है क्या? मृदुला शुक्ला की एक कहानी जानकी पुल पर 31 जनवरी पर आई थी ‘प्रेमी के साथ फ़रार हुई औरत’, जो वायरल हो गई थी। उस कहानी का मिज़ाज अलग था इसका अलग है लेकिन कहानी कहने की कला प्रभावित करती है, कहानी भी। आप भी पढ़कर बताइएगा- जानकी पुल।

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सगुनी को बहुत थके होने पर भी नींद नहीं आ रही थी। केशव बगल में सोया था बिटिया को दोनों ने बीच में सुला रखा था।

ऐसा पहली बार हुआ है जब वे अकेले रहे हो और रात को अलग अलग अलग सोये हों। केशव जब गांव आता तो दोनों मौका देखते रहते जैसे ही मौका मिलता एक दूसरे से लिपट जाते मगर यहां जब दोनों साथ हैं तो बिटिया को बीच में सुरक्षा से सुला कर मानो दोनों उसकी पहरेदारी पर जाग रहे हों।

सामान रखने के बाद झुग्गी में एक चटाई भर की जगह बची थी। चटाई के ऊपर उसने कथरी बिछा ली फिर भी जमीन होने के कारण उसे डर लग रहा था कहीं बिटिया को कोई कीड़ा मकोड़ा न काट ले।

वह बार बार केशव के मोबाइल में टाइम देख रही थी रात केशव ने उसे कहा था कि तीन बजे तक रोटी बना कर रख ले।

यहां पर सरकार दिवाली के मौसम में चूल्हा जलना बंद करवा देती है कहती है चूल्हे के धुएँ से हवा खराब हो जाती है जिससे सांस लेने में परेशानी होती है।

सगुनी सोचने लगी,

“जाने कौन मर गया है सरकार जी का जो चूल्हा जलाना मना है हमारे गांव में तो किसी की मौत पर ही किया जाता है चूल्हा बन्द।

वह भी सरकार बंद नहीं करती इंसान खुद के रिवाज के लिए नहीं जलाता चूल्हा।”

केशव ने उसे बताया कि चूल्हा जलाने वालों से पुलिस जुर्माना वसूलती है। अब मनई मजूर अपना पेट भरें की चूल्हा जलाने का जुर्माना।

सगुनी झट से उठ कर बैठ गई मुंह धोकर तरकारी काट छौंक कर रोटी बनाने लगी वह जल्दी-जल्दी हाथ चला रही थी उसको पुलिस वाले को पैसा नहीं देना था उसके आदमी की कमाई बड़ी मेहनत की है।

सगुनी का शहर में यह दूसरा दिन था बड़ी मुश्किल से सास ने आने दिया था।

पहले जब भी केशव आने को कहता तो अम्मा हमेशा यही कहती,

“साल दो साल बीत जाने दो नहीं तो गांव देश के लोग क्या कहेंगे आज बिआह हुआ कल मेहरारू लेकर शहर चला गया।”

अम्मा जानती थी उसके शहर जाने के बाद बेटे की कमाई घर आना बंद हो जाएगी यही कारण था वह हर बार मना कर देती थी सगुनी और केशव मन मसोस कर रह जाते।

धीरे-धीरे उनके ब्याह को तीन साल हो गए थे। साल भर में बिटिया हो गई और अब तो बिटिया भी दो बरस की हो गई।

नाऊ  होने के कारण ससुराल मायके दोनों जगह जजमानी थी ठाकुर बाभन अब खुद ही खाने के लिए मर रहे थे तो परजा को कौन दे।

शादी ब्याह के दो चार महीना तो दो जून की रोटी मिल जाती थी मगर बिटिया को दूध मिलना मुश्किल हो जाता है।

जाड़े भर तो बुजुर्ग पटापट मरते उनके काम कल्याण की जजमानी से काम चल जाता था।

मगर चौमासा में जब देवता जी सो जाते शादी ब्याह न होता यह समय नाई पंडित पर बहुत भारी गुजरता था।

अब नान्ह जाति भी नही थे कि हरवाही चरवाही कर लेते। जिनके घर में कोई परदेसी कमासुत हो उनका काम तो चल जाता था तेल नमक मसाला का पैसा परदेस से आ जाता।

मगर जिसके घर बाहर की कमाई नही उनका तो भगवान ही मालिक है।

केशव हर महीना  किसी के हाथ से पैसे भिजवा देता बाबू अम्मा को दे देते। अम्मा उधार बाढ़ी का हिसाब कर थोड़ा पैसा तीज त्यौहार आफत विपत के लिए रख लेती थी।

मगर खाने का तो हर समय लाला पड़ा रहता है सगुनी को शक रहता कि गाहे-बगाहे आने वाली ननद अम्मा से सारा पैसा ले जाती हैं।

बड़ी मुश्किल से अम्मा तेल साबुन के लिए पैसे देती थीं।

दो दिन से बिटिया को खांसी आ रही थी हल्का बुखार भी था। अम्मा से बार बार कहने पर बाबू को भेज मेडिकल स्टोर से खांसी की दवाई मंगवाई बिटिया एकदम में कमजोर दिखने लगी थी खाना-पीना छोड़ दी थी।

पट्टीदारी में भैंस लगती थी सगुनी वहां से दूध मांग कर ले आई मगर दूध देखते ही बाबूजी के दूध वाली चाय की चहास लग गई।

उनके लिए चाय बनाकर भी बिटिया भर का दूध बच गया सगुनी ने बिटिया को दूध दिया और अम्मा से बिटिया के लिए थोड़े बिस्कुट मांगे।

अम्मा भी कम मिरचुक नही थीं। बड़ी मुश्किल से काँखते काँखते पांच बिस्कुट बक्से से निकाल कर दीं।

सगुनी का बहुत मन कर रहा था एक बिस्कुट खा ले। उसे बचपन से बिस्कुट बहुत पसंद था।

जब  कभी केशव आता तो खूब बिस्कुट लाता, मग़र सब अम्मा हड़प कर बैठ जाती दुइ दुइ बिस्कुट तरसा तरसा कर देती।

वह सोचती थी जब अपने केशव के साथ शहर जाएगी तो दो चार रोज तो खाली बिस्कुट ही खाकर रहेगी।

अम्मा वहीं जमीन पर बैठी थी हटने का नाम ही नहीं ले रही थी। जब बिटिया ने आखिरी बिस्कुट चाय में डुबाई तब तक बाबूजी का फोन बजा। अम्मा जोर से भागी। आधा बिस्कुट बचा था झट से सगुनी ने अपने मुंह में डाल लिया।

बिटिया चिंचिया पड़ी।

अम्मा ने उधर से पूछा।

क्या हुआ?

कुछ नहीं कहते हुए बिटिया को गोद में लेकर सगुनी ने झूला झुलाना शुरू कर दिया।

बिटिया चुप होकर दूध पीने लगी तब जाकर सगुनी की जान में जान आई।

बिस्कुट खाते पकड़े जाने पर पेटही जिभुली दरिद्र की बिटिया जैसी अनेक तानों मार कर अम्मा उसके प्राण ले लेती।

केशव जब आता तो चाहे जितना सामान लाता अम्मा बाहर ही धरा लेती और फिर तरसा तरसा के समान निकालती हैं। इस बार केशव एक कैडबरी अपने जेब में रखा था छुपा के खाए दोनों रात को। एकदम में पिघल गई थी मगर केशव के हाथ से सबसे छुप कर खाने में उसे बहुत मजा आया था।

टीवी में वह शहर देखती। नई नई चीजें सजा धजा घर देखती खाने पीने की तमाम तरह की चीज देखती वह मन मसोसकर रह जाती।

अम्मा कहती,

“बिटिया थोड़ा सा पाल दूं  तो जाओ तब तक केशव थोड़ा कमा बचाले घर गिरस्ती बना ले।”

वह कहना चाहती थी कि “कमाई तो सब यहां दे देते हैं बचाएंगे।”

क्या मगर झगड़े के डर से चुप रह जाती थी।

उसके पटीदारी की जेठानी भुवन बहू तो उसी शहर में रहती थी उसी शहर में काहे उसकी झुग्गी भी केशव के पास थी।

भुवन बहू जब गांव आती ऊंची एँड़ी की सैंडल, कढ़ाई वाली साड़ी, बांह भर फैंसी चूड़ी, हर बार नया पायल बिछुआ पहन सिंगार पटार किये ऐंठती रहती थी। वह कहती, “इनकी ज्यादा कमाई नहीं है। हम खुद चार पांच घर काम करते हैं। अपने कमाते हैं, मजे से खाते पीते हैं।”

रसोई बनाते समय, आटा सानते समय, सब्जी काटते समय, तेल मसाला डालते समय अम्मा खोपड़ी पर सवार रहती। हर चीज नाप तौल के देती। जंगल से लाई लकड़ी भी वैशाख जेठ में ज्यादा जल जाए तो चार दिन बड़बड़ाती रहती थी। खाना बनने के बाद सबसे पहले बाबू खाते जितना उनकी भूख रहती ठूंस ठूंस कर खा लेते थे।

फिर सास पतोह बैठते।

सगुनी सास की थाली में ज्यादा सब्जी नहीं नहीं करने पर भी डाल देती। आधे से ज्यादा दिन तो वह अधपेटा खाकर रह खाती है। जिस दिन सब्जी थोड़ा चटकोर बन जाये उस दिन तो उसे सब्जी देखना भी नसीब न होता।

तीज त्यौहार में अम्मा बाबू को जजमानी में पूड़ी कचौड़ी मिल जाती।

मगर वह भी आठ रोज झुरवा कर खाना सगुनी को बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था।

इस बार जाते समय केशव ने उसे पक्का वादा किया है, बरसात खत्म होते ही वह उसको ले जाएगा। बरसात शुरू होने पर आया था। एक महीना रखा। जाते वक्त उसे  छाती से चिपका कर कहा,

“चार महीना और रह ले सगुनी। फिर तो जिंदगी भर साथ ही रहना है”

 सगुनी मन की मन योजना बनाती रहती।

“अपने आदमी को ही नहीं कमाने देगी खाली। वह भी काम करेगी दोनों मिलकर कमाएंगे और ठाठ से रहेंगे।”

और पैकेट भर बिस्कुट एक साथ खाने के बारे में सोच कर खुद पर ही मुस्कुरा देती।

भुवन बहू जब आई थी तभी उसने कह दिया था, “हमारे लिए भी कामकाज देख लेना ज्यादा नहीं तो चार घर कर ही लेंगे।”

इतना पैसा एक साथ हर महीना हाथ में आने के नाम से ही उसे रोमांच हो जाता था।

दिवाली पर भुवन भुवन-बहू केशव और गांव के सारे परदेसी आए। धान का निपटान था। साल भर की जजमानी भी लेनी थी। आते ही भवन बहू ने उसे कहा,

“तुम्हारे लिए दो घर देखे हैं- एक खाना बनाने का है, दूसरा बर्तन झाड़ू का। बाकी वहां पहुंचने पर देख लेंगे। तुम्हारी बिटिया भी छोटी है जितनी हिम्मत हो करना काम की कमी नहीं।”

केशव लगातार मना करता रहता। हम अपनी रानी से काम नहीं करवाएंगे वह भी कहती दोनों जन मिलकर काम करेंगे बिटिया को पढ़ाएंगे लिखाएंगे हमारी तरह मजूर नही बनेगी बिटिया।

दिवाली पर आते ही केशव ने अम्मा बाबू से कह दिया उसे रोटी पानी की बहुत तकलीफ है। बनाए खाए या नौकरी करे। ज्यादा थके रहते हैं तो पानी पी के सो जाते हैं। आधा दिन छोला कुल्चा खाए के रहते हैं।

अम्मा तड़प उठी

“आपन मेहर ले जा काहे उपवास करा ए बाबू।”

केशव ने ना नुकुर नहीं की। पहली बार में हामी भर दी ।

“भले मारा भाय! हम रोविएं रहे।”

 बाबूजी ने पीछे से कमेंट मारा मगर केशव उसे अनसुना कर घर के भीतर चला गया।

बाबू बिल्कुल नही चाहते थे कि सगुनी जाए मगर वे आगे आकर रोकना नही चाहते थे। वे अम्मा को उकसाते रहते हैं, खुद ज्यादातर चुपचाप बने रहते। अम्मा हर जगह मोर्चा खोले रहती। जो मन में न रहे वह भी बड़बड़ाती रहती।

अम्मा बाबू ओसारे में ही बैठे रह गए।

बाबू अब भी अस्फुट स्वर में बड़बड़ा रहे थे,

“परदेस जाईके मन मेंहरी के बा, बहाना रोटी पानी के।”

“रोटी पानी चाही तो कब तक जवान लड़का अकेले रहे?

जब मेहरारू लड़िका हैं तो काहे रहे भाई कुछ

ऊंच नीच होई जाए तो रोवे जिनगी भर।”

अम्मा ने बाबू को शांत करने की कोशिश की।

बाबू उसे आग्नेय दृष्टि से घूरे जा रहे थे।

अम्मा घर मे संतुलन साधने का काम करती थी। बेटे के सामने पति का पक्ष लेती पति के सामने बेटे बहू का। बहू के सामने बेटी का पक्ष लेती और बेटी के सामने बहू का गुणगान। इस तरह अम्मा सबसे बुरी बनी रहती थी। कोई अम्मा को खुद के साथ खड़ा नही पाता मगर अम्मा की इसी खूबी पर घर खड़ा हुआ था।

बाबू के मोबाइल पर केशव ने अपने आने की खबर कर दी थी। केशव के घर पहुंचते तक शाम  हो गई थी सगुनी को अम्मा ने केशव के आने के बारे में बता रखा था। उसने पति के हिस्से का भी खाना बना लिया था।

घर में घुसते ही केशव ने सगुनी को साथ ले चलने की खबर दी।

सगुनी आह्लादित थी। उसकी दिवाली तो केशव के आने की खबर से ही मन गई थी।

बाप बेटे आंगन में खाने बैठे, “आज बेटा आया है दो रोटी ज्यादा खाबे”,

केशव के बाबू ने उत्साह से कहा।

“जैसे रोज बहुत कम खाते हैं।”

सगुनी मन ही मन भर बड़बड़ाई।

आज फिर सबके खाने के बाद उसके लिए एक ही रोटी बची। कड़ाही को पोंछ कर उसी से रोटी खा सगुनी ने खाना खत्म कर पानी पिया।

मगर आज का आधा पेट खाना उसे बिल्कुल बुरा नही लग रहा था। अब जीवन भर उसे पेट भर खाने की उम्मीद जो बंध गयी थी।

धान कट रहे थे। तीस घर की जजमानी थी। अम्मा बाबू घर घर जाकर जजमानी ले आये। इस बार धान अच्छा हुआ था। छह महीना तो चावल नहीं ही खरीदना पड़ेगा।

“अब तो दुलहिन जा रही तो साल भर चल जाएगा।”

आंगन में बैठे हुए अम्मा ने जोर से बाबू जी से कहा।

सगुनी को बहुत बुरा लगा। उसे महसूस हुआ जैसे अम्मा उसी को सुना रही।

“सबसे ढेर हमहीं खाते थे क्या?”

सगुनी ने हंस कर कहा ।

अम्मा ने शायद सुना नही या अनसुना करके बाहर चली गयी।

पाव भर धान के लावा-बताशा से लक्ष्मी पूजी, छुरछुरिया सरग बाण जलाकर मन गयी दिवाली।

वैसे तो त्योहार के चार दिन बाद बयना में चीनी की मिठाई लाई, धान का लावा बताशा पूड़ी कचौरी बहुत घर से आई थी।

परजा का त्योहार तो सबका त्योहार मन जाने के बाद राजा का बचा खुचा जूँठ कांठ खा कर ही मनता है ।

केशव और सगुनी के जाने का दिन नजदीक आ गया। सगुनी भीतर से बहुत उत्साह में थी मगर सास को वह लगातार यह जताती रहती कि उसे घर छोड़कर जाना बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा है।

अम्मा को भी उसका जाना पसंद नहीं आ रहा था, लेकिन वे बार-बार कहती

“तुम्हारे जाने का दुख नहीं मगर हमारी पोती चली जाएगी तो घर सूना हो जाएगा।”

सगुनी ने एक बार बेमन से कहा,

“रख लो अपने पास।” अम्मा ने उतने ही बेमन मना कर दिया था।

गांव से भुवन-भुवन बहु, दो लोग लोहारों के गांव से, सगुनी केशव और उनकी बिटिया- इतने लोग थे कुल जाने वाले। टिकट किसी के पास नहीं था। यात्रा पांच छह घंटे इसलिए ज्यादा चिंता की बात नही थी।

गांव आने वाले का लौटना अक्सर तय नहीं होता। अगर लौटना तय होता भी है तो दिन तारीख अनिश्चित होता है। अगर यह सब भी तय हो तो लौटने वालों की संख्या हमेशा भविष्य के गर्भ में होती है। परदेस लौटते परदेसियों के साथ अक्सर दो-चार नए लोग होते हैं।

दोपहर को निकलना था। अम्मा सवेरे से ही आंख पोछ रही थी। बार-बार बिटिया को गोद मे लेकर दुलारे जा रही थी अनमनी सी अम्मा बेकाज इधर उधर भाग रही थी।

बाबू जी ने कहा रास्ते के लिए कुछ पूड़ी-उड़ी बना लो या फिर भी तेल आटा दे दो तो बहू खुद बना ले।

अम्मा ने तीन कटोरी आटा और कड़वा तेल डालकर सगुनी को देकर बक्से में ताला बंद कर दिया।

सगुनी ने चटपट पूरी बनाई। किसी के सीधे में मिर्च का अचार आया था वह भी पूरी के साथ रख पूरी को अखबार में लपेट पॉलिथीन में रख बैग में डाल दिया।

अम्मा आलता घोल कर “गोड़ रंग लिहा” के आदेश के साथ भराई आवाज लिए बाहर चली गई।

केशव का घर गांव के किनारे पर था इसलिए सब परदेसियों का जमावड़ा केशव की दुआरे पर ही हुआ। औरतें बस दो ही थी भुवन बहू और सगुनी। खाने की गठरी भी दो लोगों के पास ही थी बाकी लोगों के चावल, गेहूं, तेल, अचार, सिरका जैसी चीजें थी।

अम्मा ने उसे भी कहा था चावल लेती जाए मगर उसने मना कर दिया जितने दिन साथ थी पेट की रोटी नहीं दी। अभी गेहूं चावल बांध रही हैं।

सब भारी मन से विदा हो रहे थे विदा कर रहे थे केशव अम्मा की तरफ देखता तो दोनों की आंख भर आती बाबू सबसे नजर चुरा रहे थे।

एक सगुनी ही थी जो उत्साह से लबालब भरी हुई थी। मगर वह अपने छलकते उत्साह को कोशिश कर दबा रही थी। उसकी आंखों में छोटे छोटे सपने थे।

दोनों टाइम अपने मन का बनाने खाने का सपना, बिना जिभुली चटनी का ताना सुने, पेट और भर मन भर बिस्कुट नमकीन खाने का सपना, केशव के साथ रोज सोने का सपना। बिटिया को पेट भर दूध पिलाने का सपना।

ऐसे सपनों की गठरी सिर पर लिए सगुनी सबके पीछे चल रहे थी।

ट्रेन रात दस बजे की थी, मगर सब घर से जल्दी निकले।

स्टेशन पर लाइन लगेगी जितनी जल्दी पहुंचेंगे उतना ही आराम से जगह पा जाएंगे। मोड़ पर टेंपो मिल गया। सब जने पास के स्टेशन के लिए चल पड़े तीन बजे तक स्टेशन पहुंच गए।

औरतों को एक जगह बिठाकर आदमी लोग पुलिस वालों के पास नंबर लगाने चले गए। पुलिस वाले ने प्रति व्यक्ति के हिसाब से सौ रुपये लिए और इनका नंबर थोड़ा पहले लगवा दिया।

नंबर की जगह सब ने अपनी एक गठरी रख दी। वहां बहुत धूप होने की वजह से स्टेशन पर गठरी और सामान की लंबी कतार बना लोग छांव में बैठ अपने सामान की निगरानी करने लगे।

पांच बजे सबको भूख लग गई। गठरी में बांधा खाना सब रात को खाना चाहते थे। एक तो उसके ताजा होने की गारंटी थी। दूसरे उसमें थोड़ी घर गांव की खुशबू भी थी।

केशव ने स्टेशन पर बिकने वाली आलू की सब्जी और पूड़ी हरी मिर्च के साथ खुद के लिए ली और सगुनी को भी लाकर दी। उसके देखते देखते ही सब सब्जी पूड़ी लेकर खाने लगे।

ऐसा उसके जीवन में पहली बार हुआ था कि केशव ने सबके सामने खुले में उसके हाथ पर कुछ रखा हो। पूड़ी खाने के बाद केशव ने लाकर उसे चाय दी।

पेट भर खाना उसके बाद चाय वह भी बिना कोई ताना सुने सगुनी के लिए यह सब सपने जैसा ही था।

अभी ट्रेन के आने में कुछ वक्त था। कुछ लोग चादर बिछा कर लेट गए। वह बैठी ही रही उसे गांव वालों के सामने लेटने में संकोच हो रहा था।

स्टेशन पर ट्रेन आती सवारी चढ़ते-उतरते और ट्रेन चली जाती। सगुनी रेलगाड़ी देख रही थी वहां की हर चीज उसके मन में कौतूहल पैदा कर रही थी। रेलगाड़ी के आने से पहले ही चाय पकौड़े वाले सजग हो प्लेटफार्म के पास खड़े हो जाते। रेलगाड़ी के आते ही उसके साथ भागते भागते चलते। जो जितनी अजीब आवाज निकाल सकता था उतनी ही अजीब आवाज में चिल्लाता।

सवारियां उतरती। उनके साथ लाल कपड़े पहने लोग थोड़ी देर साथ चलते। फिर कभी वे उनके सामान उठा लेते तो कभी दूसरी सवारी के साथ चलने लगते। केशव ने उसे बताया कि वे कुली है जो स्टेशन पर लोगों का सामान ढोते हैं।

आठ बजे से पहले सबने मिलाजुला कर खाना खा लिया। पूड़ी, अचार, सब्जी। एक आदमी के साथ रोटी भी थी। उसने कहा कि उसे पूड़ी नहीं पसंद इसलिए उसकी मां ने रोटी बनाई है।

“घर में तेल घी होगा तभी न बनेगी पूड़ी, केशव ने सगुनी के कान में कहा।

खाने के बाद के केशव ने सगुनी को समझाया, बाहर जाना हो तो यहां बाथरूम में चली जाओ और बिटिया को भी करवा लो। रेलगाड़ी में तो पैखाने में भी लोग बैठते हैं वहां जाने की जगह नहीं मिलेगी।

पैखाने में बैठने की बात सगुनी को थोड़ा अजीब लगी। उसने आंखों में अचरज भर कर केशव की तरफ देखा।

अरे! जिसके पास सौ रुपये पुलिस को देने को नही होंगे तो वह क्या करेगा पैखाने में ही बैठेगा न।

केशव सगुनी और बिटिया को लेकर उच्च श्रेणी की वेटिंग रूम में पहुंचा बाहर नीली साड़ी पहने बैठी खडूस सी औरत ने उसे भीतर जाने से पहले कहा।

टिकट चालू है न?

स्टेशन के बाथरूम में जाओ कहते हुए भीतर आने से मना कर दिया।

वहां कहां बाथरूम है?

कहते हुए केशव ने उसकी तरफ 10 का नोट बढ़ा दिया। नोट को ब्लाउज में रखते हुए उस औरत ने कहा सिर्फ लेडीज और बच्ची जाएगी, तुम यहीं रहो, उसने आवाज की खडूसता बरकरार रखते हुए कहा।

सगुनी घबराते हुए अंदर गई। एकदम झक्कास सफेद पखाना। तीन चार नल में पानी आ रहा था। सगुनी को बहुत अच्छा लगा था। इतना साफ पखाना इतना पानी उसे घर से बाहर निकल कर अच्छा लग रहा था। उसके सपने सच हो रहे थे। उसने टी वी ऐसे ही पैखाना देखा था। बस केशव का दस रुपये देना उसे अखर गया।

फ्रेश होकर सगुनी केशव और बिटिया फिर से लोगों के पास आ गए ट्रेन आने का समय हो गया था सब लोग अपनी अपनी गठरी और सामान के पास आकर खड़े हो गए।

केशव ने बिटिया और झोला ले लिया था। भुवन बहू को कहा की भाभी सगुनी को चढ़ाने में मदद कर देना। वह रेलगाड़ी में पहली बार चढ़ रही है।

भुवन बहू ने अपनी ऊंची एँड़ी  का चप्पल उतारकर बैग में रख लिया और हवाई चप्पल पहन लिया।

भुवन बहू को ट्रेन पर चढ़ाने में मदद करने का बोलने और उसे ज्यादा स्मार्ट समझने की बात पर सगुनी जल भुन गई बस कहा कुछ नहीं।

ट्रेन लग गई। डिब्बा खुलते ही दो पुलिस वाले डंडा लिए लोगों को चढ़ाने लगे। पीछे के डिब्बे में कोई पुलिस वाला नहीं था। वहां लोग खुद ही चले जा रहे थे। इतने लोग एक साथ देख कर सगुनी डर गई।

उसका नम्बर डिब्बे के नजदीक था। इसलिए उसका नंबर जल्दी आ गया। पहले वह फिर सामान और बिटिया लिए केशव चढ़े तब उसकी जान में जान आई।

सीट मिल गई थी। खिड़की के थोड़े बाद की सीट थी। उसके बाद लोग भरते गए। इतने जितना वह क्या कोई कभी नहीं सोच सकता था। एक आदमी की जगह आठ दस आदमी।

कहीं कोई जगह खाली नहीं बची थी। लोग एक दूसरे पर चढ़े हुए थे।

बाहर मौसम में हल्की ठंड थी। सगुनी ने बिटिया को दो लेयर कपड़े पहना रखे थे। भीतर गर्मी होने लगी थी। बिटिया ने जोर जोर से रोना शुरू कर दिया। केशव ने बिटिया उसकी गोद में दे दी। वह रोये ही जा रही थी। न तो सगुनी उसे हिला डुला सकती थी झूला ही सकती थी।

इस नए माहौल में वह घबरा भी गई थी। केशव ने  सामान रखने वाली रैक पर दोनों तरफ सगुनी की शॉल बांध कर झूला सा बांध दिया। आसपास के लोग पहले थोड़ा सा कुनमुनाये फिर चुप हो गए।

बिटिया भी रोते-रोते थक कर चुप हो गई। उसे नींद आ गई थी। सगुनी केशव से सटी बैठी हुई बैठी थी।

आज घर से निकलने के बाद बहुत कुछ उसके जीवन में पहली बार हुआ था।

केशव के पास इतनी देर बैठने का मौका भी उसे पहली बार मिला था।

बिटिया के सोते ही सगुनी भी लुढ़क कर सो गई थी। केशव वहां बैठा हुआ था। जरा देर को झपकी लग भी जाती तो चौंक कर बिटिया और सगुनी को देख लेता। वह अभिभावक की भूमिका में था। उसे जिम्मेदारी महसूस हो रहा था।

भोर में ही गाड़ी स्टेशन पर लग गई। गाड़ी भरना जितना मुश्किल था। खाली होना उतना आसान। ऐसे झरर से खाली हो गई जैसे सरसों के भरे बोरे से खाली हो जाती है। सारी सरसों एक छोटा सा छेद होने पर।

सगुनी भुवन बहू भुवन और केशव साथ हो लिए। बाकी साथ के लोगों को कहीं और जाना था। वह चले गए जल्दी जल्दी उतर कर यह स्टेशन से बाहर आ गए।

अभी अंधेरा बना हुआ था। जल्दी से बैटरी का रिक्शा पकड़ यह लोग घर के लिए चल पड़े।

शगुन भौचक्की सी चारों तरफ देख रही थी। हर तरफ रोशनी और ऊंचाई थी। दिवाली की झालर अभी उतरी नहीं थी। बिल्डिंगों से शहर जगमगा रहा था। वह गर्दन को जितना पीछे ले जा सकती थी ले जाती फिर भी कुछ बिल्डिंग को पूरा ना देख पाती।

उसे इतनी रोशनी और ऊंचाई से घबराहट होने लगी उसे उसने सोचा वह कैसे सो पाएगी उसे तो नींद ही नहीं आएगी इतने उजाले में। शहर वाले इतनी ऊंचाई पर कैसे चढ़ते होंगे लोग? थकते नहीं होंगे क्या?

मैं चढ़ पाऊंगी इन मकानों पर। ऐसे ही तमाम सवालों से घिरी सगुनी को जोर का झटका लगा।

रिक्शे का एक पहिया गड्ढे में चला गया था। केशव और भुवन ने उतरकर रिक्शे को धक्का देकर बाहर निकाला। रिक्शा गली में मुड़ गया।

रोशनी धीरे-धीरे कम होने लगी थी। अब रिक्शा अंधेरे की ओर बढ़ रहा था। चारों तरफ काली रंग की बरसाती से बने हुए छोटे-छोटे टेंटनुमा घर थे। इसी को शायद भुवन बहू और केशव झुग्गी कहते हैं। रिक्शा रुक गया। केशव ने सामान उठा लिया था। सगुनी और बिटिया का हाथ पकड़े केशव अंधेरे में चला जा रहा था। दोनों तरफ झुग्गियां थी। कुछ झुग्गियों के भीतर से आ रही रोशनी से रास्ता धुंधला सा दिख रहा था। मौसम में बहुत धुंध थी। सगुनी को लगा उसकी आंख जल रही थी। उसमें पानी आ रहा है उसकी सांस फूलने लगी थी।

अपने यहां तो माघ पूस में कुहरा पड़ता है। यहां अगहन से कुहरा पड़ने लगा?

सगुनी की आंखों में कौतूहल था।

ये कुहरा नही पलूशन है, केशव ने उसे बताया

सगुनी के लिए नया शब्द था।

उसे लगा कोई कुहरे का समानार्थी है जो इस मौसम में होता होगा।

अचानक सगुनी का पैर गोबर जैसी किसी चीज में चला गया। अचानक जैसे वह गहरी नींद से जाएगी हो। अब वह सतर्क होकर चलने लगी थी।

उसने सिर से पल्लू गिरा दिया था। गिराते हुए केशव की तरफ सहमति के लिए देखा। केशव के आंखों में मूक सहमति थी।

उसने साड़ी ऊपर उठाकर कमर में खोंस ली थी। अचानक केशव रुक गया था।

उनकी झुग्गी आ गयी थी। केशव ने झुग्गी में लगा जुगाड़ का दरवाजा खोला और अंदर चला गया था।

सगुनी बिटिया को लिए बाहर खड़ी रही। दरवाजा इतना नीचा और भीतर घुप्प अंधेरा उसे समझ में नहीं आ रहा था। भीतर कैसे जाए। केशव के लिए वह परिचित जगह थी, मगर सगुनी के लिए बेहद नई।

अपरिचित जगह पर धुंधलका भी अंधेरा लगता है। केशव बड़े आराम से हर काम कर रहा था सगुनी सहमी हुई खड़ी थी।

केशव ने मोबाइल की टार्च जलाकर सगुनी को दिखाया और कहा,

“भीतर आ जा यही अपनी झुग्गी है।”

सगुनी झिझकते घबराते भीतर चली गई,

“घर जाते समय बिजली काट कर गया था शाम को जोड़ लूंगा।”

अभी ऐसे ही काम चला।”

सगुनी पीछे खड़ी ही थी तभी बहू पीछे से भुवन बहू ने आवाज लगाई,

“चलो बाहर से लौट आएं। उजाला हो जाएगा पार्क में लोग बढ़ जाएंगे तो चौकीदार भी घुसने नही देगा।”

सगुनी को केशव ने बोतल में भरकर पानी दे दिया और साथ में टॉर्च भी।

शगुनी टॉर्च लेकर भुवन बहू के पीछे पीछे चलने लगी। भुवन बहू के साथ कुछ और औरतें थी। वे लोग जहां जाकर रुके वहां बड़े फूल पत्तों से भरे मैदान को चारों तरफ दीवार से घेरा हुआ था।

औरतों की बातों से शगुनी समझ गई इसे पारक कहते हैं। वे जहां खड़े थे वहां पर एक छोटा सा गेट था वहां एक आदमी खड़ा था उसने भुवन बहू को दूर से पहचान लिया,

“आ गए तुम लोग गांव से उस आदमी ने पूछा” और तुरन्त ही उसका ध्यान सगुनी पर गया,

“यह नई आई है क्या?”

उसने पूछा था।

“देवरानी है मेरी भुवन बहू ने हंसकर कहा “

“अभी रुको कोई अंदर है।”

यह कहते हुए उसने औरतों को रोक लिया पास में ही एक छोटा सा कमरा था सगुनी समझ गई कि यह शौचालय है।

“पीछे वाला दो खाली है तुम दोनों उधर चली जाओ।”

उसने भवन बहू और साथ की एक औरत से कहा यह दोनों पीछे चली गई।

वहां सगुनी अकेली बची।

शौचालय से कोई निकला तो उस आदमी ने सगुनी को भीतर जाने का इशारा किया।

सगुनी भीतर चली गयी उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। वह थोड़ी देर बैठी रही भयानक बदबू में उससे रहा नहीं जा रहा था। तभी किसी ने बाहर का दरवाजा खटखटाया।

वह डर कर बाहर आ गई। तब तक भवन बहू और दूसरी औरत भी आ चुकी थी,

“इसका हिसाब आज से लगेगा तुम लोगों का कुछ पिछला भी बाकी है, याद है न?”

उस आदमी ने पीछे से आवाज देकर कहा,

औरतें लौट पड़ी। वे उस आदमी को गरिया रही थी।

सगुनी को समझ आ गया था। वह आदमी उस जगह का रखवाला है जो इनको भीतर जाने देने के पैसे लेता है।

“क्या हमें रोज ऐसे जाना पड़ेगा?”

सगुनी ने बहुत संकोच से पूछा,

“तब क्या हमारे बाप दादा यहां पैखाना थोड़ी बनवाएं हैं।”

दूसरी औरत बेहद कटुता से बोली,

“भली समझो की हम लोग पार्क के पास रहते हैं जहां का चौकीदार थोड़े पैसे लेकर हमें यहां जाने देता है। जहां ऐसी व्यवस्था नही वह झुग्गी वाली औरतें क्या क्या जतन करती हैं कभी तुम्हे बताऊंगी।”

भुवन बहू की आवाज में समझाइश थी।

“तुम लोग जिनके घर काम करती हो उनके यहां नहीं जाती क्या?

उनके घर में तो पैखाना होगा न?”

“उनके तो एक-एक घर में तीन तीन चार चार हैं। मगर वह हमें जाने थोड़ी देती हैं

गरीब के गू में ज्यादा गन्ध होती होगी उनका तो सब महकता है न,”

साथ चलती साथी ने मालकिन को गरियाया।

“हमारा चाय का बर्तन और नाश्ते की प्लेट अलग रखते हैं तो हमें पैखाना इस्तेमाल करने देंगे हरामखोर लोग।”

भुवन की औरत ने भी उस औरत की हां में हां मिलाई।

उसे उसके झुग्गी में छोड़ते हुए भुवन बहू अपनी झुग्गी में चली गई उजाला हो गया था केशव कहीं से पानी भर के ला रहा था और पेंट के डिब्बे की बाल्टी और केन  में रख रहा था।

सगुनी नें उजाले में देखा काली पॉलिथीन से टेंट जैसे घर बना हुआ था। वहीं बगल में पत्थर रख के बर्तन मांजने का और कपड़े ओट करके नहाने का इंतजाम था।

कुछ के पास बर्नर लगा सिलेंडर था तो कुछ झुग्गियों में लकड़ी का चूल्हा दिख रहा था।

किनारे वाले घर में तो बगल में एक कोना लहसुन धनिया भी लगा दिया गया था।

वह झुग्गी के अंदर चली गई एक दरी और थोड़े बर्तन थे बिटिया को केशव चटाई पर दरी बिछाकर सुला दिया था।

अचानक केशव पीछे से आया और उसे पकड़ लिया प्यार जताते हुए बोला,

“सामान जादे नहीं है धीरे-धीरे ले लेंगे चिंता ना करो।”

“हम समान की चिंता थोड़ी न कर रहे हैं। सब हो जाएगा दोनों जने कमाएंगे ना,”

सगुनी ने केशव को आश्वस्त किया।

“मंजन कर लो हम चाय ले आते हैं।”

केशव सगुनी को कह ही रहा था की भुवन बहू लोटे में चाय बना कर ले आयी।

केशव ने चाय उड़ेल कर पीनी शुरू कर दी। भुवन बहू वहीं बैठ बिटिया को खिलाने लगी। भुवन बहू जब गांव जाती तब सगुनी की बिटिया उठा ले जाती थी। मालिश करती नहलाती पाउडर लगाती।

अम्मा बड़बड़ाती रहती। कहती थी, उसके तो कोई बाल बच्चा है नही, टोनहिन होती हैं बेऔलाद औरतें। इसीलिए भगवान उनकी गोद सूनी रखता है। किसी बहाने से जितना जल्दी हो सकता किसी को भेज बुलवा लेती थी।

सगुनी को इस तरह की बात पर यकीन नही था। उसने सोच लिया अब चाहे भुवन बहू जितना खेले बिटिया के साथ वह कभी मना नही करेगी।

भुवन बहू और सगुनी बातों में लग गए थे।

“मैं जरा बाहर से जाकर दूध और कुछ खाने का सामान लाता हूँ। बिटिया अपने पापा के घर आ गयी इसे भी तो कुछ खिलाएं पिलाएं।”

केशव ने सोई हुई बिटिया को स्नेहपूर्वक देखते हुए कहा।

वह बाहर चला गया। थोड़ी देर में दूध बिस्किट कुरमुरे और ब्रेड लेकर वापस आ गया। शायद दुकान पास ही होगी।

सगुनी चौंकी हुई थी। उसके व्यवहार में बौखलाहट साफ दिख रही थी। ट्रेन से उतरने के बाद हर पल नया सा घट रहा था। सब इतनी जल्दी जल्दी हो रहा था उसे समझ नही आ रहा था वह क्या रिएक्शन दे।

केशव ने दूध का पैकेट भुवन बहू को थमा कर गर्म कर लाने को कहा। उसने चाय के साथ ब्रेड भी खाई। केशव सगुनी को भी कई बार कहा मगर उसका कुछ खाने का मन नही था। उसके पेट मे गुड़ गुड़ हो रही थी। केशव के बहुत कहने पर सगुनी ने ठंडी हो रही चाय थोड़ी सी पी ली थी।

सगुनी ने नहाने की इच्छा व्यक्त करते हुए केशव से नहाने की जगह के बारे में पूछा। केशव ने उसे झुग्गी के अंदर रखे पत्थर पर नहाने को कहा।

साथ ही उसे नाली दिखाई कि पानी यहां से बह जाएगा। यहां लोग ऐसे ही नहाते हैं। केशव और बिटिया सो गए थे। सगुनी ने दो लोटा डाल कर नहाने की औपचारिकता पूरी की। कपड़ा धो कर बाल्टी में रख दी।

भुवन बहू दूध गर्म करके दे गई थी। सगुनी ने गिलास भर दूध बिटिया को सोते सोते पिला दिया। दूध पिलाते हुए उसे  बहुत अमीर महसूस हो रहा था। कैसे उसकी बिटिया बूंद बूद दूध को तरसती रही है। वह भी जाकर बिटिया के दूसरी तरफ लेट गयी। पिछले दिन और रात की थकान का असर था कि वह पड़ते ही सो गई। नींद खुली तो दोपहर उतर रही थी। उसके पेट में मरोड़ हो रही थी मगर पार्क के टायलेट को याद कर वह घबरा गई।

भुवन बाहर कुछ खाने के लिए जा रहा उसने मुस्कुरा कर पूछा “तुम्हारे लिए कुछ खाने को लाऊं या आज बिस्कुट खाकर रहना है। “

सगुनी ने अनमने ढंग से नकार में सिर हिलाया।

केशव दो प्लेट छोले कुलचे ले आया। बहुत कहने पर भी सगुनी कुछ खाने को तैयार नही थी।

छोले कुलचे खाकर केशव ने तृप्ति से डकार ली।

“तुम काहे कुछ नही खा रही हो?”

केशव ने पूछा ।

बस भूख नही है।

अम्मा की सुधि आ रही है क्या?

सगुनी ने हां में सिर हिलाया।

तो पहुंचा दें।

केशव ने ठिठोली की।

सगुनी कुछ नही बोली बस अनमनी सी बैठी रही।

शाम हो गयी थी हवा में धुंध बढ़ रही थी। सगुनी और उसकी बिटिया की आंखे भयानक रूप से जल रही थी। बिटिया आंख मल मल कर रो रही थी। केशव ने सब्जी आटा तेल नमक मसाला लाकर रख दिया था। मगर चूल्हा तो जला नही सकते थे। जुर्माना कौन भरेगा भला।

भाभी को फोन कर दो। मुझे शाम को भी बाहर जाना है सगुनी ने केशव को कहा।

शाम होते ही भुवन बहू आ गयी और सगुनी को लेकर पार्क चली गयी। वहां अब भी वही आदमी था। सगुनी जल्दी से अंदर चली गयी बाहर आई तो उसे बहुत हल्का महसूस हो रहा था।

भुवन बहू दूर बैठी हुई थी। जैसे ही सगुनी बाहर निकली वह आदमी अचानक से सामने आ गया।

ए सुनो! क्या नाम है तुम्हारा।

वह सगुनी से मुखातिब था मारे घबराहट के सगुनी के मुंह से बोल नही फूट रहे थे।

दोनों टाइम के डबल पैसे लगेंगे वह आदमी बोला। सगुनी कोई जवाब नही दी।

वैसे तुम चाहो तो तुम्हारे पैसे नही लगेंगे। उल्टा हम ही तुम्हे कुछ दे देंगे, कहते हुए उसने कस कर सगुनी की छाती पर चिकोटी काट ली। सगुनी के मुंह से चीख निकल गयी। वह भय और दर्द से बिलबिला गयी थी।

अंधेरे में कुछ काट लिया क्या?

उस आदमी का वाक्य प्रश्न वाचक था।

सगुनी ने लौटते हुए भुवन बहू को पूरी घटना बताई। उसे लगा था कि भुवन बहू चौंकेंगी। उसे गुस्सा आएगा। मगर वह शांत बनी रही। उसने कहा,

“औरतों के साथ यह सब चलता रहता है। सतर्कता से रहा करो। अंधेरे में अकेले न जाया करो। बाहर निकलने पर हमें बुला लेती। आदमी तो कुत्ते होते ही हैं। औरतों को उनसे अपनी लाज बचानी पड़ती है।

केशव को बताने के लिए सख्ती से मना किया। समझाया कि छोटी छोटी बातों पर आदमियों को मत उलझाना। हम यहां खाने कमाने आये है फौजदारी लड़ने नहीं।

सगुनी घर आ गयी थी। केशव ढाबे से खाना ले आया था। केशव के बहुत मनुहार पर सगुनी ने एक रोटी बेमन से खाई।

केशव उसके व्यवहार से हैरान था। गांव में इतनी उत्फुल्ल रहने वाली उसकी सगुनी इतनी बुझ कैसे गयी। केशव के बार बार कहने पर उसने बिस्कुट भी नहीं खाया।

बिटिया को खिला पिला कर सुला दिया था। केशव उसे बहुत देर तक छेड़ता रहा मगर वह अनमनी बनी रही। काफी देर मान मनुहार के बाद केशव सो गया। मगर सगुनी की आंखों में नींद कहां? वह तो बस घड़ी में तीन बजने के इंतज़ार में थी।

रोटी सेंक कर सगुनी ने दूध गर्म होने को रखा। तब तक केशव जग गया। उसने चाय बनाने को कहा। “चाय भी बना लो। आज दिन में सिलेंडर का इन्तज़ाम करेंगे। सुबह होने पर चौकीदार चूल्हा जलाने पर परेशान करेगा।

सगुनी ने खूब गाढ़े दूध वाली चाय बनाई। केशव ने उसे बिस्कुट निकालने को कहा।

सगुनी का बिस्कुट प्रेम केशव जानता था। वह चाहता था सगुनी खूब खुश रहे। खाये पिये! हंसे खिलखिलाए।

सगुनी अनमनी सी गिलास में चाय डाल कर बैठी रही।

केशव ने मनुहार कर उसके हाथ में बिस्कुट का पैकेट दिया।

बाहर से भुवन बहू की बाहर जाने के लिए पुकार आयी।

सगुनी मारे घबराहट के पसीने से नहा गयी।

बिस्कुट का पैकेट उसके हाथ से छूट कर गिर गया।

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लेखिका संपर्क-mridulashukla11@gmail.com 

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प्रेमी के साथ फ़रार हुई औरत कहानी का लिंक- https://www.jankipul.com/2020/01/a-short-story-of-mridula-shukla.html#:~:text=%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%BE%20%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2%20%E0%A4%95%E0%A5%80%20%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80%20’%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A5%80%20%E0%A4%95%E0%A5%87%20%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A5%20%E0%A4%AB%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B0%20%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%88%20%E0%A4%94%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E2%80%A6′,-Prabhat%20Ranjan%20January&text=%E0%A4%89%E0%A4%B8%20%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%9C%20%E0%A4%AD%E0%A5%80%20%E0%A4%8F%E0%A4%95%20%E0%A4%94%E0%A4%B0%E0%A4%A4,%E0%A4%95%E0%A5%87%20%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A5%20%E0%A4%AB%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B0%20%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%88%20%E0%A4%A5%E0%A5%80%20%E0%A5%A4

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’90s किड’की निगाह में बासु चटर्जी का सिनेमा

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बासु चटर्जी की फ़िल्मों को आज का युवा वर्ग किस तरह देखता है। 90 के दशक में जन्मा, पला-बढ़ा वर्ग। इसकी एक झलक इस लेख में है। लिखा है दिल्ली विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र की पढ़ाई करने वाली भूमिका सोनी ने। मूलतः राजस्थान की रहने वाली भूमिका आजकल बैंगलोर में एक बहुराष्ट्रीय बैंक में काम करती हैं। हिंदी अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में लिखती हैं। यह लेख पढ़िए-

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तब शहर में नया नया DTH का प्रचलन शुरू हुआ था। पापा ने जल्द से जल्द उसे घर में लगाने का प्लान बनाया। इसके कई कारण थे। सबसे पहला और बड़ा पैसे की बचत। कुछ चैनल फ्री थे और कुछ जो चैनल आपको पसंद हो उनको आप खरीद सकते थे। ज़ाहिर सी बात है, पापा ने सिर्फ़ फ्री वाला सब्सक्रिप्शन लिया। दूसरा कारण था पिक्चर क्वालिटी केबल टीवी से कई गुना अच्छी थी और DTH में टीवी और रेडियो दोनों चला सकते थे। तीसरा, जो मुझे बहुत खला वह था कि इसमें वे सारे फ़ैंसी चैनल नहीं आते थे जिस से बच्चों की पढ़ाई खराब हो। मैं उस समय कुछ चौथी-पाँचवीं कक्षा में थी। अफ़सोस इस बात का था कि मेरा सबसे पसंदीदा प्रोग्राम चला गया- सोन परी। ख़ैर, पूरे घर को इस नीरस टीवी की आदत हो गई, जो सिर्फ़ पापा को भाता था। ज़्यादातर चैनल न्यूज़ के थे और कुछ पुराने चैनल जो अब कोई देखता भी नहीं था उनपर सिर्फ़ पुरानी फिल्में आती थीं। जब मेरी उम्र के सारे बच्चे हॅना मोंटेना, सब्रीना- द टीनेज विच और शाकालाका बूम बूम देख रहे थे। इसी समय मेरा परिचय हुआ बासु चटर्जी की फिल्मों से। हालाँकि यह बात मुझे उस समय नहीं पता थी। छोटी सी बात, रजनीगंधा, बातों बातों में, चितचोर और भी कई पुरानी फिल्में, सब देख डाली। उस समय में इन्हे अमोल पालेकर की फिल्मों के नाम से जानती थी। थी में ‘90s किड’ पर पापा की जिद्द की वजह से में 70s में जी रही थी। देखा जाए तो अच्छा ही हुआ। हमारी पीढ़ी ने शोले, दीवार, अमर अकबर ऐंथनी तो देखी होगी (या नाम तो सुना ही होगा), लेकिन बासु चटर्जी की फिल्मों के नाम नहीं जानते होंगे। ऋषि कपूर के जाने पर जहाँ मेरे दोस्तों ने हर सोशल मीडिया प्लॅटफॉर्म पर उनके लिए श्रद्धांजलि लिखी,  उन्होंने शायद बासु चटर्जी की जाने की खबर भी ध्यान से नहीं पढ़ी होगी। अंताक्षरी में जब ‘ग’ से गाना होता है तो चाहे वो बड़ा हो या छोटा सबसे पहले जो गाना याद आता है वह चितचोर का “गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा” ही होता है। पर अफ़सोस, ज़्यादार लोगों ने यह फिल्म नहीं देखी होगी। इस से एक और बात याद आती है कि हम ऑडियेन्स को किरदार याद रहता है, उस किरदार को निभाने वाला याद रहता है पर किरदार को गढ़ने वाला नहीं। कहानी याद रहती है, पर कहानी सुनाने वाला नहीं। लेकिन यहाँ में इस लेख को नकारात्मक नहीं बनाउंगी और उन फिल्मों के बारे में बात करना चाहूँगी जो मुझे बहुत पसंद आई और शायद इसे पढ़ कर ही मेरे कुछ दोस्त उन बेहतरीन फ़िल्मों को देखें, एक अरसे बात ही सही!

व्यावसायिक सिनेमा और पैरेलल सिनेमा के बीच जो एक लंबा सफ़र है उसको बासु चटर्जी की फिल्में बखूबी पूरा करती है। बात कह भी जाती है और मन दुखी भी नहीं करतीं। उन्होंने एक सर्वोत्कृष्ट नायक दिखाने के बजाए अपनी फिल्मों में आम आदमी को अपना हीरो चुना। उसके जीवन की कश्मकश को दर्शाया। फिल्म छोटी सी बात में बिना हीरोईन के घर के चक्कर लगाए, बिना विलेन को पीटे, हीरो हीरोईन को प्रभावित कर लेता है। पूरी फिल्म में आपके चेहरे पर मुस्कान रहती है और किसी भी पात्र के खून का एक कतरा नहीं बहता। कैसे परिस्थियों से कहानी में मोड़ लाया जा सकता है, यह हम बासु चटर्जी की फिल्मों से सीखते हैं। जैसे फिल्म बातों बातों में एक माँ अपनी बेटी के लिए एक सुयोग्य जीवनसाथी ढूँढना चाहती है। उसे एक लड़का पसंद भी आता है पर कहानी में मोड़ तब आ जाता है जब उसे पता लगता है की उस लड़के की तनख़्वाह उसकी बेटी से कम है। दिलचस्प बात यह है की आगे की फिल्म में इस बात को लेकर बिना वजह का रोना धोना या ड्रामा नहीं दिखाया गया है, बल्कि हास्य से भरपूर रिश्तों की पेचीदगी दिखाई गई है। बासु चटर्जी की  ज़्यादातर फिल्मों में “कॉमेडी इन ट्रॅजिडी” की तर्ज़ पर हास्य प्रस्तुत किया गया है। फिल्म खट्टा मीठा में एक विधुर आदमी और एक विधवा औरत की जिंदगी के खट्टे मीठे पलों को दर्शाया गया है।  जब उनका एक दोस्त उनकी आपस में शादी का प्रस्ताव रखता है तो उनके जवान बच्चों का परस्पर साथ रहना घर में मुश्किल खड़ी कर देता है और इन्ही मुश्किलों के क्रमचक्र में पैदा होता है हास्य।  इस से यह भी पता चलता है की बासु चटर्जी की फिल्में वक़्त से कई ज़्यादा आगे थी। चमेली की शादी में अंतरजातीय विवाह की परेशानियाँ दिखाई गई हैं और फिल्म रजनीगंधा नायिका के दृष्टिकोण से दिखाई गई है। यह फिल्म मन्नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ पर आधारित थी। इसमें नायिका अपने जिंदगी में आए दो लड़को को लेकर असमंजस में है और पूरी फिल्म में उसकी इस दुविधा का बड़ा ही सुंदर प्रस्तुतिकरण है।  ‘कमला की मौत’ और ‘त्रियाचरित्तर’ आदमी और औरत के प्रति समाज के भेद भाव पर कटाक्ष करती है। यह दो फिल्म मैने हाल में ऑनलाइन प्लॅटफॉर्म पर देखी, तो लगा की पहले भी ऐसी फिल्में बनती थी जो समाज के दोहरेपन पर वार करती थीं। सिनेमा बहुत पहले से समाज को आईना दिखाने का काम कर रहा है और बासु चटर्जी जैसे दिग्गज निर्देशकों ने इसमें प्रमुख भूमिका निभाई है।

एक और बात है जो उनकी फिल्मों में बहुत ख़ास थी, वो है मुंबई।  उनकी ज़्यादातर फिल्मों में मुंबई उनका कैनवास रहा। वह मुंबई जिसमें आज जितनी भीड़भाड़ नहीं थी, गाड़ियों का शोर नहीं था और जब ज़्यादातर लोग बेस्ट बसों का सफ़र करते थे। मैं जब पहली बार मुंबई गई तो मरीन ड्राइव पर मैं उनकी फिल्म मंज़िल का वह सीन ढूँढ रही थी जहाँ अमिताभ बच्चन मौसमी चटर्जी का हाथ पकड़े गाना गा रहे हैं- ‘रिम झिम गिरे सावन।’ हालाँकि, मेरे आसपास लोगों का हुज़ूम था। कहाँ से आ गए इतने लोग? और लहरें भी शांत थी!  उस गाने में समंदर के उफान के बावजूद एक शीतलता थी। ऐसा जादू सिर्फ़ बासु चटर्जी ही पैदा कर सकते थे।

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लेखिका का ईमेल-sonibhumika3@gmail.com

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कथाकार कमलेश्वर : दुष्यन्त कुमार की दृष्टि से

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पहले लेखक एक दूसरे के ऊपर खुलकर लिखते थे फिर भी दोस्तियाँ क़ायम रहती थीं। प्रसिद्ध शायर दुष्यंत कुमार ने यह विश्लेषण अपने दोस्त और लेखक कमलेश्वर का किया था। कमलेश्वर की ‘समग्र कहानियाँ’ से ले रहा हूँ जो राजपाल एंड संज से प्रकाशित है-
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जिस दिन से कमलेश्वर का वंश बदला, लगभग तभी से मैं उसे देख रहा हूँ और जब तक आपकी मुलाकात इस व्यक्ति से न हुई हो तो अब जरूर मिलिए। आप पाएंगे कि वह बेहद खुशदिल, खुशमिजाज और मिलनसार आदमी है। लतीफों और चुटकुलों की फुलझड़ियों  से यह महफ़िलें गुलजार रखता है और बात को मोड़कर बात पैदा करने में उसका जवाब नहीं।
आज यह सब है पर जिस वक्त यूनिवर्सिटी में वह मेरे साथ था, बहुत ख़ामोश रहता या। हम दोनों बी. ए. में थे। यद्यपि उसमें शुरू से ही साधारण से कहीं अधिक प्रतिभा, सूझ-बूझ एवं सुरुचि थी, पर मैं केवल सज्जनता के कारण उसकी तरफ आकृष्ट हुआ था। वह बहुत सादा, सरल शांत था। वह बेहद बेरहम संघर्षों के बीच से गुजर रहा था, पर उसके चेहरे पर एक भी शिकन नहीं होती थी। मुझे भी यह पता या कि उसके पास चार जोड़े से ज्यादा कपड़े नहीं है, पर उसके कपड़ों पर एक भी धब्बा नहीं होता था। वह एक छकड़ा साइकिल पर यूनिवर्सिटी आया करता था और तलब लगने पर किसी झाड़ी के पीछे या एकान्त कोने में छुपकर  बीड़ी-सिगरेट पिया करता था। शायद हर महीने उसका नाम फीस जमा न करने वाले डिफाल्टर’ छात्रों की लिस्ट पर रहा करता था, क्योंकि जेब-खर्च नाम की कोई चीज़ उसके पास न होती थी, इसलिए फीस के रुपयों में से कुछ वह हमेशा खर्च कर लेता था और वक्त पर उसके पास पूरे पैसे नहीं होते थे। उन दिनों वह कुछ-कुछ लिखा करता था, खास तौर से एक डायरी। एक लड़की थी जिसके बारे में वह कभी-कभी बात भी किया करता था। वह लड़की भी उसे चाहती थी। तब उसकी दुनिया बहुत छोटी थी। यूनिवर्सिटी में पढ़ने आता, वहाँ से लौटकर वह एक रद्दी किस्म की पत्रिका के कार्यालय में काम करता जहाँ से उसे पचास रुपया महीना मिलता था और शाम को वह अकेला रहना पसन्द करता था। उसने अपने को कतई महदूद कर लिया था। रात को घर लौटकर वह अपने निहायत छोटे-से कमरे में बैठकर लिखा करता था।
वह कितनी तरह के काम करता था, यह भी पता नहीं चलता था उन दिनों भी खुदार इतना था कि अपनी बात किसी से नहीं करता था। मुझे वे दिन याद हैं जब वह अपने-आप में सर्वोदयी’ हो गया था (विनोबा से भी पहले)। साबुन बनाने से लेकर अपनी स्याही तक खुद बनाता था। संकोची वह इतना था कि खाना भी भरपेट नहीं खा पाता था। उसकी माँ ने ही मुझे एक बार बताया था, “कैलाश (उसका घर का नाम) इतना संकोच करता है कि दुबारा रोटी तक नहीं माँगता… मुझे जिन्दगी में हमेशा यह अफ़सोस रहेगा कि मेरे बेटे ने मुझ से ही कभी रोटी या पैसा नहीं मांगा।”
जिस जमाने में उसने लिखना शुरू किया था और जिस संघर्ष से वह निकलकर आया था, उसने कमलेश्वर को नितान्त अंतर्मुखी बना दिया था। उसके उस आदर्शवादी प्यार ने उसे बाद में चलकर और भी तोड़ दिया।
वे दिन मुझे याद हैं जब वह पजामा कुरता पहने हुए अपनी उसी छकड़ा साइकिल में मेरे पास आया था। उसकी आंखों में धूल उड़ रही थी और चेहरा एकदम उतरा हुआ था। उसे चाय पीते हुए उसने धीरे से कहा था, “अब मैं अकेला रह गया हुँ।” और मुझे मालूम है कि अपने लिखने की अड़ पर उसने अपनी ज़िंदगी की वह चीज़ ख़ुद खो दी थी जिसे वह उस वक्त सबसे ज़्यादा चाहता था। उसका एक ही तर्क था, ‘दुष्यंत, ज़िंदगी में सब हासिल नहीं होता। चुनना तो होगा ही कि मैं क्या चाहता हूँ…।’ और उसने अपने लिए साहित्य का रास्ता चुन लिया था।
उसका लड़कपन का यह चुनाव जो उस वक्त उसने भावुकता में किया था, आज सही साबित हो चुका है। क्योकि उस वक्त मुझे और ख़ासतौर से मार्कण्डेय को यह कतई उम्मीद नहीं थी कि कमलेश्वर इस इस जिन्दगी को झेल पाएगा। शायद कमलेश्वर ने भी महसूस किया हो कि सौजन्य और सादगी के दुशाले ओढ़कर व्यक्तित्व का आकर्षण भले ही बढा लिया जाए, उसका आंतरिक प्रभाव नहीं बढ़ाया जा सकता। इधर उसकी विशिष्ट प्रतिभा उसे वैशिष्ट्य प्राप्त करने के लिए उकसा रही थी। फलतः वह गम्भीरतापूर्वक कहानी लेखन की ओर उन्मुख हुआ, जहां उसे आशातीत सफलता प्राप्त हुई। उधर चूँकि सामाजिक व्यवहार के स्तर पर पैनापन और वाकचातुर्य व्यक्तित्व को दिलचस्प और अभिव्यक्ति को तेज बनाते हैं इसलिए अपनी ऐकान्तिक गाँठों को खोलकर सहज मेधा द्वारा उसने इस दिशा में भी रूचि लेना शुरू कर दिया। यदि ऐसा न होता तो कमलेश्वर  अपनी व्यक्तिवादी गुंजलक से बाहर न आ पाता। अपने घेरों को तोड़ने का काम उसने शक्ति से किया और सामाजिक, बौद्धिक और मानसिक रूढिबद्ध घेरों को तोड़ने का काम वह कहानी से लेने लगा।
वे तमाम घटनाएं, जिनमें कमलेश्वर एक निहायत पैने व्यक्ति की तरह नजर आता है, मेरे सामने लौट आई हैं…
इलाहाबाद की गरमी। कमलेश्वर और मैं तीन मील पैदल चलकर रेडियो स्टेशन पहुंचते है। काम समाप्त कर सवाल उठता है, अब क्या करें? आराम या तीन मील का पैदल मार्च जेब में पैसे भी कम है, तभी डॉ. धर्मवीर भारती रेडियो स्टेशन से निकलते हैं और अपनी मोटर की तरफ बढ़ते हुए दिखाई देते हैं (उल्लेखनीय है कि उन दिनों भारतीजी ने जो मोटर खरीदी थी, वह इलाहाबाद के साहित्यकारों के कौतुक, मनोरंजन, यहाँ तक कि ईर्ष्या का पर्याय बन गई थी)। भारती जी शालीनतावश पूछते हैं, “अरे भई, सिविल लाइन्स चल रहे हो?”
मैं लपककर मोटर तक पहुंच जाता हूँ। कमलेश्वर हाथ जोड़कर ठिठक जाता है। भारती जी उसके संकोच को हटाने की कोशिश करते हैं, “अरे, आओ भी!”
और अतिशय विनम्रता से कमलेश्वर कहता है, “वह बात यह है कि मुझे जरा जल्दी पहुँचना है.मैं रिक्शे से चलता हूँ। आप मोटर से आइए।”
एक पूरी किताब कमलेश्वर के ऐसे संस्मरणों पर लिखी जा सकती है, मगर उससे भी उसके व्यक्तित्व के साथ न्याय नहीं हो सकता। यह तो मात्र प्रासंगिक सत्य है कि अपनी विलक्षण मेघा द्वारा उसने अल्पकाल में, इच्छामात्र से, व्यंग्य विनोद की प्रकृति को आत्मसात कर लिया। मूल सत्य यह है कि उसके असल व्यक्तित्व की अन्तरधारा में न तो व्यंग्य है हास्य। वह स्वभाव से अत्यन्त संवेदनशील, भावप्रवण और गम्भीर व्यक्ति है, उसका करुणा है-सघन पूँजीभूत करुणा-जिसके कारण वह अपने व्यंग्य में भी अनुदार नहीं हो पाता, यहाँ तक कि उसकी फबती से आपको कहीं जरा भी चोट पहँची तो पहला वही होगा जो तत्काल इस बात को भाँप लेगा और अवसर मिलते ही, झिझकते हुए, आपका हाथ अपने हाथ में लेकर इस कदर प्यार से दबाएगा कि उसकी हथेलियों की ऊष्मा में (अगर आप थोड़े भी समझदार हैं तो) असल कमलेश्वर को खोज निकालने में आप भूल नहीं करेंगे।
मैंने इस असल कमलेश्वर को इसलिए भी और जल्दी खोज लिया कि वह मेरे साथ बहुत रहा है। वैसे उसकी कुछ आदतें तो बड़ी बेहूदा हैं। उनमें से एक आदत के कारण उसके साथ सड़क पर चलना मुश्किल हो जाता है-रास्ते में उसे जो भी ‘राहीजी’, ‘पीडितजी’, ‘व्यथितजी’, ‘बेकलजी’, या गुमनामीजी’ मिलेंगे, वह सबके लिए ‘एक मिनिट दुष्यन्त’ कहकर अटक जाता है। इलाहाबाद में शुरू-शुरू में जब वह खुद बहुत प्रसिद्ध नहीं हुआ था, उसके यहाँ बहुत-से साहित्यकार जमे रहते थे और यह जानते हुए भी कि साहित्य-बोध नुस्खे देकर नहीं बाँटा जा सकता, वह भरसक सबका समाधान करने की कोशिश किया करता था।
कमलेश्वर की जो सबसे बड़ी खुबी है, वह यह कि आप सौ फीसदी यह तय करके जाएँ कि उससे लड़कर लौटेंगे, पर आप लड़कर नहीं लौट सकते, क्योंकि घोर विरोधी को वह अपने व्यक्तित्व की सहजता, सौजन्य, बुद्धि और अपनी आँखों के विश्वास से पराजित कर लेता है। वह अहंकारवादी नहीं है, कुठित नहीं है, उसमें एक सहज अपनापन है। इलाहाबाद में वह प्रायः रोज रात को ग्यारह-ग्यारह बजे तक मेरे तथा अन्य दोस्तों के साथ गप्पें लड़ाया करता था। घर जाकर खाना और डाँट खाया करता था। रात को देर-देर तक लिखा करता था और सुबह फिर उसी ताजगी और उत्साह से दिनचर्या शुरू हो जाती थी। उसी चुस्ती और उल्लास से वह अपनी छकड़ा साइकिल उठाता, तीन मील उलटा चलकर मेरे पास आता, मेरे अहदीपन पर लानत भेजते हुए खुद चाय बनाता, फिर तीन मील यूनिवर्सिटी का सफर तय करता, दोपहर को सेंट जोजेफ सेमिनरी में कैथोलिक पादरियों को पढ़ाने जाता, शाम को एक खास रास्ते से गुजरकर अपनी प्रेमिका से मिलता और फिर सिविल लाइन्स में दोस्तों से आ मिलता। इस तरह रोजाना बीस-बाइस मील का चक्कर काटकर रात को घर पहुंचा तो उसके दिमाग में केवल दो बातें होती, भाई साहब की प्यार भरी डाँट और कहानी का प्लॉट ।
ये उसके भयंकर संघर्ष के दिन थे वह अपने छोटे-से कस्बे मैनपुरी से मानसिक रूप में इतना जुड़ा हुआ था कि इलाहाबाद में रहते हुए भी वह वहीं की बातें सोचा करता था। हर महीने मैनपुरी भागकर जाया करता था और तीन-चार बोरे प्लॉट लाया करता था। उसी समय उसने ‘मुरदों की दुनिया’ कहानी लिखी थी वह कहानी कमलेश्वर ही लिख सकता था, क्योंकि वह अपने कथा-क्षेत्र से संवेदन और समझदारी के स्तर पर जुड़ा हुआ या। उसके दिल में एक कसक थी-अपने छूटे हुए शहर के बाशिंदों के लिए। यही वह समय था जब वह वैचारिक द्वंद्व के बीच घिर गया। अपने टूटते हुए सामन्ती घर से तो वह निकल आया था, पर जीवन में जो आस्थाएँ खंडित हुई थीं, उनकी पुनःस्थापना और जिन्दगी से फिर से जुड़ सकने का उसका यह अन्तर्द्वन्द मैंने देखा है। मैंने देखा है कि कमलेश्वर ने कभी भी किसी ‘डॉग्मा’ से चालित होकर लिखना स्वीकार नहीं किया है। कमलेश्वर की हर कहानी उसके जीवनानुभवों में से निकली है, कमलेश्वर ने पढ़-पढ़कर उस संक्रान्ति को नहीं झेला है, बल्कि उसे स्वयं जिया है।
राजा निरबंसिया’ कहानी लिखने से पहले भी वह अंतर्द्वंद्व से पीड़ित रहा है। इसका छूटा हुआ शहर तब भी लोककथाओं के आदर्शों के मातहत जी रहा था, पर इलाहाबाद में स्थितियाँ वे नहीं थीं और वह व्यक्ति-व्यक्ति के बदले सम्बन्ध को नहीं, समय और इतिहास जीवन के सन्दर्भों से बदलते सम्बन्ध को भी देख रहा था। इसलिए उसकी हर कहानी जीवन के संदर्भों से जुड़ी हुई हैं। उसकी शायद ही कोई कहानी ऐसी हो जिसके सूत्र जिन्दगी में न हो, क्योंकि वह बहत खूबी से अन्तर्विरोयों को पकड़ता है। उसकी लगभग हर कहानी का एक वास्तविक स्थल है जहां से वह उसे उठाता है और अपने कथ्य की कल्पना अपेक्षाओं के साथ अभिव्यक्त कर देता है। मुझे बहुत सी ये घटनाएँ लोग, स्थितियां, विचार, सन्दर्भ, पात्र आदि याद है जिन्होंने उसकी सशक्त कहानियों को जन्म दिया है। कमलेश्वर इस मामले में एक बंजारा है, क्योंकि वह अनवरत यात्रा पर रहता है। वह लिखने का सरंजाम जुटाकर, धूपबत्तियाँ जलाकर, बेले या हरसिंगार के फूल सामने रखकर, चॉकलेट कुतर-कुतरकर खाते हुए नहीं लिखता। इसीलिए राजेन्द्र यादव करता है-“यार, इस आदमी में कितना स्टैमिना है। दिन-भर घूम सकता है, बैल की तरह काम कर सकता है, फिर भी चेहरे पर थकान या शिकन नहीं। जाने किस चक्की का पिसा खाता है।” और कमलेश्वर उसे या अन्य दोस्त लेखकों को संत्रस्त करने के लिए कभी-कभी ऐसे झटके दे भी दिया करता है। मन्नू मंडारी द्वारा संपादित ‘नई कहानियाँ’ के विशेषांक में उसकी कहानी प्राप्त करने के लिए जब यादव ने उसे बाकायदा घेर ही लिया तो वह कलम लेकर बैठ गया और बोला-“अच्छा, तुम शेव करो, मैं कहानी शुरू करता हूँ।” और उसने कहानी शुरू कर दी। राजेद्र यादव ने शेव, सामान सामने रखा तो वह बोला-“राजेन्द्र देख, नायिका दरवाज़े पर आ गई” यादव ने जब तक शेव का पानी गरम किया, वह बोला-“देख, अब वातावरण डाल रहा हूँ उसने वातावरण डाल दिया। यादव ने शेव समाप्त किया तो वह बोला-“अब एक स्थिति समाप्त हो गई।”
और जब तक राजेन्द्र यादव ने अपनी आदत के मुताबिक चार-पाँच ‘ऐतिहासिक पत्र’ लिखे, नहाया और कपड़े पहनकर तैयार हुआ, तब तक कमलेश्वर ने कहानी पूरी करके यादव को थमा दी, कहानी थी-‘जो लिखा नहीं जाता’। और यादव ध्वस्त होकर रह गया। लेकिन यह केवल झटका था और उसके लेखक का यह तरीका बिलकुल नहीं। वह तो तब लिखता है जब निभृत एकान्त हो और उस पर दबाव हो-वैचारिक, मानसिक या आर्थिक।
इलाहाबाद में एक दोपहर घर लौटते हए उसने एक नंगी जवान औरत को चार आदमियों के बीच घिरे और चिल्लाते देखा तो उसकी चेतना एक गहरा नैतिक दबाव अनुभव करने लगी। वह दबाव कई वर्षों तक उसकी चेतना पर छाया रहा-तब तक, जब तक कि वह ‘एक अश्लील कहानी’ लिखकर उससे उऋण न हो गया। छोटी-से-छोटी घटना भी कब और क्यों उसकी चेतना पर हावी हो जाएगी, यह कहना मुश्किल है। जब वह ऐसे दबावों में होता है तो अदेखी अनजान दिशाओं की काल्पनिक यात्रा करता है। अनुपलब्ध और अप्रस्तुत पीड़ाओं के बारे में सोचता और पीड़ित होता है। उँगलियाँ चटखाता और कसमसाता है और ऊपर से सरल दिखाई देने वाली उस स्थिति को उसकी सारी उलझनों, कुंठाओं, तकलीफों ने भरकर भोगता और लिखता है। हाँ, जब वह उनसे मुक्त होता है  तो दोस्तों की खाल उधेड़ता है। चुटकुले और लतीफ़े गढ़ता है। सिगरेट फूंकता है। नई पुरानी बदमाशियों के बारे में बात करता है। दस्तूरी चिट्ठियाँ लिखता है और घर के कामकाज में दिलचस्पी लेता है।
इस तरह एक ओर जहाँ वह अपने समय के उलझनों, विरोधाभासों और यंत्रणाओं को अपने भीतर उतारकर समझने की कोशिश करता है, वहीं उनसे निस्संग होकर उन्हें निरन्तरता में देखने की कोशिश भी जारी रखता है। दोनों स्थितियों में उसका दृष्टिकोण पराजयवादी नहीं, आस्थावादी होता है।
प्रगति में परिवर्तन का बोध निहित है और कमलेश्वर की प्रगति इसी परिवर्तन की प्रक्रिया को समझने का परिणाम है। उसकी कहानियाँ, भाषा और कथ्य समाज के बदलते हुए भिन्न-भिन्न परिवेशों की देन है उसका स्टैमिना परिवर्तन की तेज-से-तेज रफ्तार में उसका सहायक होता है, इसीलिए कमलेश्वर कभी पिछड़ता नहीं और न प्रयत्न-शिथिल होता है। जब मैनपुरी जैसे कस्बे से इलाहाबाद में पहुँचा तब भी और जब इलाहाबाद जैसे शहर से दिल्ली-सी महानगरी आकर बसा तब भी आने और बसने के बीच वह निरन्तर मानसिक रूप से अपने शिथिल परिवेश के प्रति सजग रहता है और लेखन की भूमिका बनाता रहता है।
राजा निरबसिया’ से ‘कस्बे का आदमी’ के बाद ‘नीली झील’ से लेकर ‘खोई हुई दिशाएँ तक की उसकी कहानियाँ मध्यवर्गीय जीवन की सादगी से शुरू होकर महानगर की आधुनिकतम संचेतनाओं और संश्लिष्टताओं का प्रतिनिधित्व करती है। और में कहना चाहूँगा कि यह कोई साधारण बात नहीं है कि एक कलाकार अपनी भावभूमियों पर परिश्रमपूर्वक तैयार की गई अपनी निर्मितियों को इतनी निर्ममता से तोड़कर अलग हो जाए और नए सफल प्रयोग करने लगे। कमलेश्वर चाहता तो ‘कस्बे की कहानी’ की तखती  लटकाए औरों की तरह एक स्कूल खोले बैठे होता मगर उसने कलाकार का धर्म अपनाया, मठाधीशों का नहीं, वह निरन्तर प्रयोग करता और अपने को तोड़ता, बदलता और संशोधित करता आया है।
उसके लेखन की सबसे बड़ी उपलब्धि जो मैं समझ सका हूँ, यह है कि उसका जीवन-दर्शन प्रभावारोपित नहीं, उसके अपने अनुभवों से बने व्यक्तित्व का सहज प्रोजेक्शन है। जीवन की भाँति लेखन में भी युग की परस्पर-विरोधी स्थितियों में सामंजस्य का एक नया, सही और सम्मानप्रद रास्ता खोजने की चाह उसकी आधारशिला है। इन अँधेरों, उलझावों और यंत्रणाओं में मनुष्य का वर्तमान रूप खोजने और पहचानने तवा उसे सही सन्दर्भो में प्रतिष्ठित कर पाने की तड़प ही उसकी थाती है। इससे इतर वह नितान्त अकेला और असहाय है जिससे हर पल अपने ही संस्कारों, कला-रुचियों और स्वनिर्मित प्रतिमानों से जूझना पड़ता है।
उसकी असाधारण सफलता का रहस्य है खुद अपने से टक्कर लेने की अशेष सामर्थ्य और मनोबल। रात-भर जी-जान से लड़कर वह हर सुबह उठते ही एक नई लड़ाई के लिए प्रस्तुत दीखता है। उसकी यह लड़ाई दो स्तरों पर है-खुद अपने से और अपने समय की विसंगतियों से। इस लड़ाई में वह हर हथियार इस्तेमाल करता है। इसीलिए उसके व्यक्तित्व के बाहरी रूप में विरोधाभास बहुत प्रबल है भीतर या उपचेतन की अपेक्षा उसका चेतन कहीं अधिक क्रूर और दुनियावी है। ऊपरी एक पर्त के नीचे ही वह सघन इनसान है, पर बाहर एक धूर्त पहरेदार भी बैठा हुआ है, लिहाजा उस धूर्त पहरेदार से टकराए बिना उसके इनसान से मुलाकात नहीं होती। वह धूर्त पहरेदार आपको व्यंग्यों, चुटकियों और चुस्त वाक्यों से छेद डालता है, तेज से तेज व्यक्तियों को निस्तेज कर देता है। मेरी  ख़ुशक़िस्मती यह है कि मेरी दोनों से दोस्ती है। मैं जानता हूँ कि जब वह आदर्श की ऊँची ऊँची बातें करता है तब हो सकता है कि उसका दिमाग़ घोर यथार्थवादी भूमियों की खोज में भटक रहा हो। और जब वह हाथ पैर पटककर मुझसे कोई सत्य मनवाने की कोशिश करता है तब हो सकता है कि वह अपने ही मन में किसी विरोधी सत्य को मान्यता दे रहा हो।
इसी तरह की स्थिति में वह कुछ घोषणाएँ अपनी सद्यःलिखी गई या लिखी जाने वाली कहानियों के संबंध में भी करता है, चाहे ख़ुद उन्हीं घोषणाओं पर उसे यक़ीन न हो। कुछ समय पहले दिल्ली में उसकी एक कहानी लम्बी चौड़ी भूमिका के साथ सुनने का अवसर मिला- ‘प्यारे, वो कहानी बनी है, वो कहानी बनी है कि सुनकर फ़्लैट हो जाओगे!’ और घोषणाओं के साथ कहानी सुन चुकने पर जब मैंने राय प्रकट की कि यह बहुत मामूली और लचर है, वह तत्काल सारी घोषणाएँ भूलकर पास खिसक आया और बोला- ‘यार, बात तू ठीक कह रहा है1’ और फिर बच्चों की तरह निश्छ्लता से कहानी की ख़ामियों को ख़ुद भी गिनने लगा और खुलकर एक एक प्रतीक और पंक्ति पर अपनी आलोचना सुनने और विचार विमर्श करने लगा।
दरआत अब से नहीं, बहुत पहले से उसकी यह आदत रही है कि मन में चल रहे विचार को पहले ही उद्घोषित कर देता है और तब वह उस विचार के अनुरूप क्रियान्वयन के लिए नैतिक बाध्यता अनुभव करने लगता है मगर इससे वे नुकसान भी उसे उठाने पड़ते हैं जो अपनी गोपनीयता न रखने पर और संयोगवश विचार के कार्यान्वय में त्रुटि आ जाने पर अवश्यंभावी हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में अपनी समस्त सद्भावना और ईमानदारी बावजूद समाज में झूठा बनने की नौबत आ जाती है। उसका आत्मविश्वास उसे छल लेता है, क्योंकि सोची हुई हर बात पूरी ही हो जाए, यह सम्भव नहीं होता। वह जो सोच लेता है, उसे उपलब्ध समझने लगता है।
लिखने और लिख चुकने के तत्काल बाद का समय उसके लिए बहुत नाजुक होता हैं। यों अपनी सद्यः लिखी गई कहानियों के बारे में वह चाहे कितनी घोषणाएँ करता और डींगें हाँकता फिरे, मगर रचना से जब तक उसकी संपृक्ति नहीं टूटती, वह उसके बारे आश्वस्त नहीं हो पाता। हाँ, दूसरों की रचनाओं का वह बहुत अच्छा जज है।
यद्यपि अपने लेखन के सम्बन्ध में वह डींगें भी हॉक देता है, पर उनके पीछे आत्म-प्रवंचना कम और अच्छा तथा नया लिखने की महत्त्वाकांक्षा अधिक होती है। यह भावना उसके लेखन को जीवित रखे है, अन्यथा उसके व्यक्तित्व का गठन ऐसे तत्वों से हुआ है (जिनमें शील, संकोच, विनय आदि तत्व प्रमुख है) कि उनके कारण उसे बाहरी जीवन में बहत से समझौते करने पड़ते हैं। ज्यादातर समझौते वह दूसरों की भावनाओं को ठेस न पहुँचे, इसलिए करता है और कुछ इसलिए कि समाज में अपना मुँह साफ रख सके। यह अजीब विरोधाभास है कि विचारों में निषेध और खासतौर से नैतिक-सामाजिक निषेधों के विरुद्ध होते हए भी आचरण और व्यवहार के स्तर पर वह बहुत हद तक उनकी मर्यादा का पालन करता है।
और हाँ, इन विरोधाभासों में कमलेश्वर स्वयं रहता ही नहीं, उन्हीं से वह सीखता भी है और लिखता जाता है। लेखन में असाधारण होते हुए भी वह बिलकुल साधारण-सा इनसान है-औसत से कुछ छोटा कद और साँवला रंग। नाक-नक्श तीखे और आँखों में ऐसा आकर्षण कि जिधर से देखें, बँधते चले जाइए। रेडियो और टेलीविजन में नौकरी कर चुकने के कारण उसकी ज़बान, जो पहले भी मधुर थी, अब सधकर और मीठी हो गई है। सुरुचि उसकी विशेषता है। पैसा उसके पास टिकता नहीं है। पास के पचास किसी देकर अपनी जरूरत के लिए पच्चीस रुपए के इन्तज़ाम के सिलसिले में वह परेशान-हाल घूमता हुआ मिल सकता है। वह दोस्तों की महफिलों में मिल सकता है, किसी बीमार के सिरहाने बैठा हुआ भी मिल सकता है, किसी सस्ती-सी दुकान में चाय पीता हुआ या बड़े होटल में नफासत से खाता हुआ भी मिल सकता है। वह दूसरों के दुख में दुखी, उसकी परेशानियों सुलझाता हुआ और अपने दुखों में हंसता हुआ भी मिल सकता है। घर पर मिलना चाहें तो रात दो बजे के पहले नहीं मिल सकता। नई कहानियाँ’ के दफ्तर में मिलना चाहनेवालों को तो दिन के तीन बजे के बाद भी नहीं मिल सकता था, पर मिल गया तो सच्ची आत्मीयता से मिलता था। पर खतरा सिर्फ यह है कि वह आपके भीतर छिपी हास्यप्रद विसंगतियों को फौरन ताड़ लेगा और फिर कभी मिलने पर आपके सामने ही मज़ा ले-लेकर सुनाएगा-“यार, मेरे उन दोनों आशिकों (शानी और धनंजय वर्मा) ने बहुत बोर दिया। दोनों जव मध्य प्रदेश से आए तो वहाँ की साहित्यिक स्थितियों से दुखी और चिन्तित थे….” और वह मुझे सुनाता जाएगा-“तो साहब, वे दोनों रात को तीन बजे लेटे…मुझे नींद आ रही थी, पर उनकी चिन्ता बहुत गहरी थी। धनंजय बोले-‘कमलेश्वरजी, मध्य प्रदेश में ऐसा क्या किया जाए कि साहित्यिकों का स्वास्थ्य कुछ सुधर जाए?’ उनकी बात का जवाब दे रहा था तो देखा, शानी साहब खर्राटे ले रहे हैं। जवाब खत्म हुआ तो शानी साहब नींद में ही बर्राए- ‘कमलेश्वर भाई, इधर कहानी में जो अमूर्तता आ रही है, उसके बारे में आपका क्या खयाल है?’ और लेटे-लेटे उन्होंने चश्मा चढ़ा लिया तो धनंजय करवट बदलकर सो गए। शानी की बात का जवाब समाप्त हुआ तो धनंजय हड़बड़ाकर जागे-‘कमलेश्वर जी, हिन्दी कहानी की आलोचना-पद्धति में आमूल-चूल परिवर्तन के सम्बन्ध में आप क्या सोचते हैं? और धनंजय की बात चलते-चलते शानी ने पन्द्रह मिनट की नींद ली। अपना जवाब पाकर धनंजय ने उबासी लेकर पलकें मुँदी तो शानी साहब फिर उठकर बैठ गए-‘मध्य प्रदेश में कहानी की..’, तो साहब, यह सिलसिला लगातार चलता रहा…और बाद में…।”
और कमलेश्वर यह सब सुनाता जाएगा, सुनाता जाएगा। अगर आप बुरा मान गए नो वही पहला आदमी होगा जो इसे भाँप लेगा और अवसर मिलते ही, झिझकते हुए, आपका हाथ अपने हाथ में लेकर इस प्यार से दबाएगा कि उसकी हथेलियों की ऊष्मा में आप असल कमलेश्वर को खोज निकालने में भूल नहीं करेंगे। अगर आपने भूल की तो बदकिस्मती आपकी, क्योंकि वह सचमुच बहुत खुशदिल, खुशमिजाज और सुरुचिपूर्ण व्यक्ति है। जिन्हें वह मौका नहीं मिलता, वे उसके साहित्य को पढ़कर भी वही आत्मीयता, गहराई और ईमानदारी महसूस कर सकते हैं।

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सुश्री आशकारा ख़ानम ‘कश्फ़’की ग़ज़लें

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प्रख्यात कवयित्री और शिक्षाविद् सुश्री आशकारा ख़ानम ‘कश्फ़’ दिल्ली में रहती हैं। वह उनके पति, श्री सुहैब फारूकी (दिल्ली पुलिस अधिकारी) से बहुत प्रेरित हैं, जो स्वयम हिन्दी, उर्दू के प्रसिद्ध कवि व ब्लॉगर हैं। सुश्री आशकारा ख़ानम ने अपनी काव्य यात्रा ‘कश्फ़’, जिसका अर्थ उद्घटन या प्रकटन है, के क़लमी नाम से शुरू की। उनकी कविता के प्रमुख विषय प्रेम, नारीवाद और सामाजिक कुरीतियां हैं। उन्होंने बहुत कम समय में प्रसिद्धि प्राप्त की है। अब तक, वह सौ से अधिक गज़लें कह चुकी हैं जो जल्द ही प्रकाशित होंगी। सुश्री आशकारा ख़ानम ‘कश्फ़’ की गरिमामय उपस्थिति एनसीआर के मुशायरों को अलग सा निखार देती हैं-
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ज़ख़्मे दिल ज़ख़्मे जिगर है या रब
दिल्लगी मिसले शरर है या रब
(मिस्ल-समान, शरर-चिंगारी)
 
कोई अंदेशा न डर है या रब
जो तिरी हम पे नज़र है या रब
 
मौत है आख़री मंज़िल जिसकी
ज़िंदगी ऐसी डगर है या रब
 
बाद मरने के हमें ज़िंदा रखे
क्या कोई ऐसा हुनर है या रब
 
सुर्ख़ आँखों से छलकते आँसू
सोज़े पिन्हाँ का असर है या रब
(सोज़-जुनून/जज़्बात, पिन्हा-छुपा)
 
ज़ुल्मतों से है तजल्ली की उमीद
कितना नादान बशर है या रब
(ज़ुल्मत-अंधेरा, तजल्ली-तेज, बशर-मानव)
 
ख़त्म होगा कि नहीं दौरे वबा
क्या कोई ख़ैर ख़बर है या रब
(वबा-महामारी)
 
तेरी नज़रों मे बराबर हैं सभी
न कोई ज़ेर ज़बर है या रब
(ज़ेर-नीचा, ज़बर-ऊपर)
 
पंख फैलाए हुए धूप ही धूप
कोई साया न शजर है या रब
(शजर-वृक्ष)
 
बैन करने की ज़ुरूरत क्या है
हाले दिल तुझको है या रब
 
‘कश्फ़’ क्या ख़ूब इनायत है तिरी
एक सीपी मे गुहर है या रब
(इनायत-अनुग्रह, गुहर-मोती)
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ज़िक्र करे है महफ़िल महफ़िल कश्फ़ मेरी तन्हाई का
नाम नहीं लेना है मुझको अब ऐसे हरजाई का
 
चाक गरेबाँ तन पे लपेटे पैराहन रुसवाई का
तुझसे बिछड़के हाल हुआ क्या देख तिरे शैदाई का
(चाक गरेबाँ-फटा कॉलर, पैराहन-वस्त्र, शैदाई-मुग्ध)
 
लुत्फ़ो करम जब मुझपे नहीं है उस पैके रानाई का
आज मुझे अहसास हुआ है अपनी शिकस्ता पाई का
(लुत्फ़ो करम-कृपादृष्टि, पैक-बाण, रानाई-सुंदरता
शिकस्ता-टूटना पा-पैर)
 
जब दीदार न कर पाऊँ मैं जानाँ की ज़ेबाई का
या रब मुझसे छीन ले क्या करना ऐसी बीनाई का
(दीदार-दर्शन, ज़ेबाई-सुंदरता बीनाई-दृष्टि)
 
कोना कोना ख़ुश्क पड़ा है सावन मे अंगनाई का
ख़ाक उड़ाना काम हो जैसे इस ठंडी पुरवाई का
(ख़ाक-धूल)
 
जो इंसान मज़ा चख लेता है महफ़िल आराई का
हर लम्हा डसता है उसको तब गूँगी तन्हाई का
(महफ़िल आराई-सभा सजाना)
(आज मुझे एहसास हुआ है अपनी शिकस्ता पाई का शकील बदायूँनी साहब की ग़ज़ल के मतले का मिसरा है)
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